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मंगलवार, 16 जनवरी 2018

बच्चों के नाटक -1 'श्रीरामकृष्ण देव की बाललीला '

लेखक का निवेदन 
 बच्चों के शरीर,मन और हृदय के सामंजस्यपूर्ण विकास के उद्देश्य से महामण्डल के केंद्रों में 'विवेक-वाहिनी' नामक बच्चों का विभाग भी कार्य करता है। जहाँ बच्चों के लिए नियमित कार्क्रम जैसे खेल-कूद, पाठचक्र आदि के अलावा बच्चों के लिये अन्य विभिन्न विशेष कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं। जिस प्रकार बच्चों को कहानियाँ सुनना अच्छा लगता है, उसी प्रकार वे नाटकों में भी भाग लेना पसन्द करते हैं। इसलिये प्रत्येक वर्ष महामण्डल के विभिन्न वार्षिक कार्यक्रमों में बच्चों को साथ लेकर नाटक आयोजित करना भी बहुत सफल हो रहा है। 
किन्तु ऐसे नाटक जो एक ओर बच्चों को आनन्द देने के साथ साथ विभिन्न शिक्षाप्रद श्रेष्ठ जीवनमूल्यों के साथ उनका और दर्शकों का परिचय भी करा सके;- बहुत कम ही दिखाई देते हैं। इसीलिये महामण्डल के विभिन्न केंद्रों के संचालक स्वयं नाटक (जे.पी.सरलिख कर इस आवश्यकता को पूर्ण करते हैं। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर इस पुस्तिका का प्रकाशन किया जा रहा है। इस पुस्तिका में 'श्रीरामकृष्णदेव की बाल्यलीला', 'स्वामी विवेकानन्द की बाल्यलीला, एवं 'सारदा-रामकृष्ण' तीन नाटक प्रकाशित किये जा रहे हैं। 
'सारदा -रामकृष्ण' नाटक में श्रीरामकृष्ण के सानिध्य में श्रीश्री माँ सारदादेवी को श्रीरामकृष्ण की लीलासंगिनी से 'जगतजननी माँ सारदा देवी' में रूपान्तरित होने की कहानी को चित्रित किया गया है। विषयवस्तु के गाम्भीर्य का निर्वहन करने के लिए नाटकीय संवादों को लम्बा नहीं किया गया है। इसके फलस्वरूप दृश्यों का विस्तार बहुत छोटा हो गया है। इसीलिए नाटक के मंचन के समय दृश्यान्तर के समय रंगमंच की बत्ती को बुझा देना होगा, किन्तु ठीक उसी के दूसरे क्षण में बाद वाले दृष्य का मंचन भी आरम्भ करना आवश्यक होगा, ताकि नाटक की गति और निरंतरता बनी रहे। नाटकों में उपकरणों साजसज्जाओं की आवश्यकता बहुत साधारण है (षोडशी पूजा के दृश्य को छोड़कर) इसलिए नाटक की निरंतरता को बनाये रखना कठिन नहीं है। 
महामण्डल के शिशुविभाग के अतिरिक्त यदि अन्य संगठन भी यदि इन नाटकों का मंचन करके कुछ लाभ उठा सकें तो इस पुस्तिका को प्रकाशित करना अधिक सार्थक होगा -
लेखक श्री तपन प्रसाद चटोपाध्याय :
२५ दिसंबर २०१७
महामण्डल पुस्तिकाओं के हिन्दी प्रकाशक का मन्तव्य : 
स्वामी विवेकानन्द के गुरु, अवतारवरिष्ठ, भगवान श्रीरामकृष्णदेव युगावतार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वे ईश्वरत्व की जीवन्त प्रतिमूर्ति थे। अपने साधनामय जीवन के द्वारा उन्होंने वेदों -उपनिषदों में वर्णित आध्यात्मिक सत्यों की प्रत्यक्ष अनुभूति की थी। उनके आत्मानुभूति संपन्न जीवन ने देश-विदेश के हजारो -लाखों लोगों के जीवन को इश्वरोन्मुखी बनाया है। 
किन्तु उनकी जीवनी को नाटक के माध्यम से प्रस्तुत करने वाले ग्रंथों की बहुत कमी है। हिन्दी भाषा में तो ऐसे ग्रन्थों का नितान्त अभाव है। इसी कमी को पूरा करने के लिये, महामण्डल के भाई श्री तपन प्रसाद चट्टोपाध्याय द्वारा लिखित तीन बंगला नाटकों का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया जा रहा है। यहाँ प्रस्तुत तीनों नाटक बच्चो के चिरत्र में ऊंच्च जीवनमूल्यों को जागृत करने तथा बड़ों के हृदय में भगवान श्री रामकृष्णदेव, माँ श्रीश्री सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द के प्रति भक्तिभाव संचारित करने की दिशा महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होंगे। 
अनुवादक : श्री विजय कुमार सिंह 
उपाध्यक्ष , अखिलभारत विवेकानन्द युवा महामण्डल,   
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श्रीरामकृष्ण देव की बाललीला  
दृश्य १
[ नेपथ्य में प्रातःकालीन संगीत के धुन के साथ पर्दा खोलने पर दिखाई देगा कि क्षुदिराम जी (ठाकुर के पिताजी) हाथों से फूल तोड़ रहे हैं: माँ शीतला एक छोटी बच्ची के वेश में उनकी सहायता कर रही हैं।]

क्षुदिराम : अच्छा माँ (बंगाल में बेटियों को माँ कहने की प्रथा है), कई दिनों से देख रहा हूँ, तुम मुझे फूल तोड़ने में सहायता करती हो; लगता है माँ तुम एकदम सुबह सुबह ही उठ जाती हो! 
माँ शीतला : मैं और क्या करूँ बोलो , तुम्हारे लिए ही तो मुझे उठना पड़ता है। 
क्षुदिराम : क्या कहती हो, मेरे लिए उठना पड़ता है ? 
माँ शीतला : हाँ,सही है - केवल तम्हारे लिए ही मुझे सुबह -सुबह उठना पड़ता है, क्योंकि तुम भी तो एकदम सुबह में फूल तोड़ने आ जाते हो !  
क्षुदिराम : अच्छी लड़की हो तुम तो, देख रहा हूँ -मेरे लिए तुम्हारे मन में बड़ी दया है ! 
माँ शीतला : हाँ ऐसा भी कह सकते हो , किन्तु मैं तो तुम्हारा भजन सुनने के उठ जाती हूँ, तुम तो बहुत मीठे स्वर में भगवान श्रीराम लला का भजन गाते हो न -'श्रीरामचन्द्र कृपालु भजमन हरणभवभयदारुणं ।', वही सुनने के लिए उठ जाती हूँ। 
[श्री रामचन्द्र कृपालु भजुमन हरण भवभय दारुणं ।
नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं ॥१॥
व्याख्या: हे मन कृपालु श्रीरामचन्द्रजी का भजन कर । वे संसार के जन्म-मरण रूपी दारुण भय को दूर करने वाले हैं । उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान हैं । मुख-हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥ 
कन्दर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुन्दरं ।
 पटपीत मानहुँ तडित रुचि शुचि नोमि जनक सुतावरं ॥२॥
॥व्याख्या: उनके सौन्दर्य की छ्टा अगणित कामदेवों से बढ़कर है । उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुन्दर वर्ण है । पीताम्बर मेघरूप शरीर मानो बिजली के समान चमक रहा है । ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२॥
 भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनं ।
रघुनन्द आनन्द कन्द कोशल चन्द दशरथ नन्दनं ॥३॥ 
व्याख्या: हे मन दीनों के बन्धु, सूर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनन्दकन्द कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चन्द्रमा के समान दशरथनन्दन श्रीराम का भजन कर ॥३॥
शिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अङ्ग विभूषणं ।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खरदूषणं ॥४॥ 
व्याख्या: जिनके मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट, कानों में कुण्डल भाल पर तिलक, और प्रत्येक अंग मे सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं । जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं । जो धनुष-बाण लिये हुए हैं, जिन्होनें संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥
इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनं ।
मम् हृदय कंज निवास कुरु कामादि खलदल गंजनं ॥५॥ 
व्याख्या: जो शिव, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं, तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे हृदय कमल में सदा निवास करें ॥५॥] 
क्षुदिराम : वाह, वाह -इतनी छोटी लड़की होकर भी भगवान श्रीरामचन्द्र जी के भजन से प्रेम करती हो ! 
(अब क्षुदिराम ऊँची डालों पर खिले फूलों को तोड़ने जायेंगे। )
माँ शीतला : ठहरो, मैं उस तरफ जाकर डाल को झुकाकर पकड़ती हूँ। 
(ड्योढ़ी के दूसरीतरफ जाकर गाँछ को झुकाकर पकड़ेगी)
क्षुदिराम : क्या तुम मेरी बेटी कात्यानी को जानती हो ? 
माँ शीतला : हाँ, मैं तो तुम्हारे घर के सभी सदस्यों को जानती हूँ। 
क्षुदिराम : किन्तु, मैं तो तुम्हें दिन के समय और कभी नहीं देखता हूँ ! 
(इसके बाद शीतला सामने चली आएगी)
माँ शीतला : मुझे कोई नहीं जानता, किन्तु मैं सबों को जानती हूँ ! 
खुदीराम : अच्छा , तू किसकी बेटी है- जरा बताओतो ?
माँ शीतला : अरे , तुम मुझे नहीं जानते हो ? -जरा मेरी ओर देखो तो सही - मैं तुम्हारी माँ शीतला हूँ !
(माँ शीतला देवीमूर्ति की मुद्रा में खड़ी हो जाएगी। )
क्षुदिराम : माँ शीतला !!! (माँ शीतला के शरीर पर बिजली का फ्लैश चमकेगा, क्षुदिराम देखेंगे) 
[रंगमंच पर बत्ती बुझ जाएगी] 
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दृष्य २ : 
  [ पूजा के कमरे में क्षुदिराम ध्यानस्थ हैं, बगल में ठाकुर जी की माँ चन्द्रादेवी बैठी हुई हैं, ...... अब ध्यानस्थ क्षुदिराम उठकर खड़े हो जायेंगे, चन्द्रदेवी पहले भगवान श्रीरघुबीर (रामचन्द्र) जी के विग्रह को फिर क्षुदिराम को प्रणाम करेंगी। ] 
क्षुदिराम : जानती हो चन्द्रा - इधर कई दिनों से माँ शीतला मुझे दर्शन दे रही हैं ! 
चन्द्रादेवी : अच्छा , ऐसी बात है क्या !? 
क्षुदिराम : मैं भी पहले नहीं जानता था, आज बातों -बातों में उन्होंने मेरे सामने अपने को प्रकट कर  दिया, और कहा, मैं तुम्हारा भजन सुनने के लिए तुम्हारे पास आती हूँ ! 
चन्द्रादेवी: तबतो शास्त्रों में जो लिखा हुआ है , वह तो बिल्कुल सत्य है ! क्या कहते हो ?
क्षुदिराम : शास्त्रों में क्या लिखा हुआ है ?
चन्द्रादेवी : यही लिखा है न -" जैसे भक्त भगवान से प्रेम करता है, उसी प्रकार भगवान भी अपने भक्त से प्रेम करते हैं।" 
क्षुदिराम : हाँ, हाँ वे बड़े भक्तवत्सल जो हैं, बड़े कृपालु जो हैं ! 
[ठाकुर के बड़े भाई रामकुमार और कात्यानी का प्रवेश, वे सब पहले पूजा घर में रखे श्रीरघुबीर की मूर्ति को फिर क्षुदिराम और चन्द्रा को प्रणाम करेंगे। ] 
क्षुदिराम : चन्द्रा, सोंच रहा था, रामकुमार का जनेऊ (यज्ञोपवीत संस्कार) करवा दूँ, जनेऊ हो जाने के बाद उसे भगवान रघुबीर की सेवा में लगवा दूँ -फिर थोड़ा तीर्थयात्रा कर आऊँ-मन में ऐसे विचार उठ रहे हैं। सेतुबन्ध रामेश्वर का दर्शन करने की बड़ी इच्छा हो रही है। 
चन्द्रादेवी : (रामकुमार से)-क्यों बेटे, तूँ भगवान रघुबीर की सेवा तो कर सकेगा न ?  
[चन्द्रा प्रसाद देगी - फिर प्रसाद की थाली कात्यायनी को दे कर......] 'जा, घर के सभी लोगों को प्रसाद दे दे। 
रामकुमार : अच्छा पिताजी, आपने इस 'रघुबीर शिला' को कहाँ से लाया था ?
क्षुदिराम : अरे, मैं उन्हें कहाँ लाया हूँ! रघुबीर तो स्वयं आ गए हैं-लगता है तूने उस घटना के विषय में नहीं सुना है। 
रामकुमार : नहीं, मुझे तो नहीं पता। [जब क्षुदिराम कहानी कहना शुरू करेंगे तो रामकुमार एक मोड़ा खींचकर उस पर बैठ जायेगा और सुनेगा।]
क्षुदिराम : " एकबार किसी काम से शिहड़ की तरफ गया था। लौटते समय कड़ी धूप में खूब थक जाने पर एक पेंड के नीचे बैठकर थोड़ा आराम करने लगा। सामने ही एक बड़ा सा मैदान था, और उसके दूसरी तरफ एक जंगल था। बैठे बैठे, कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला ! नींद के बीच ही देखता हूँ - साँवले से से दिव्य बालक के वेश में भगवान रघुबीर श्रीरामचन्द्र साक्षात् सामने खड़े हैं ! और मैदान के उस पार उगे जंगल की ओर इशारा करते हुए कह रहे हैं -'मैं यहाँ बहुत दिनों से बिना भोजन किये उपेक्षित होकर पड़ा हुआ हूँ, तुम मुझे अपने घर ले चलो-तुम्हारी सेवा ग्रहण करने की मेरी बड़ी इच्छा है। स्वप्न में ही मैंने कहा -
'प्रभो, मैं भक्तिहीन तथा अत्यन्त निर्धन हूँ क्या तुम्हारी सेवा कर पाउँगा !'
उन्होंने मुझे अभय देते हुए कहा -'डरने की कोई बात नहीं,मैं तुम्हारी किसी भूल को नहीं देखूंगा, तूँ मेरी सेवा अवश्य कर पायेगा।' यह कहकर वे जंगल की ओर चले गए। नींद टूटने पर देखता हूँ, स्वप्न में देखा हुआ जंगल-यही तो है-शरीर मानो कैसा थर थर करके कांप उठा। साहस करके उठा और जंगल के भीतर प्रविष्ट हो गया। थोड़ा आगे बढ़ते ही देखा एक बड़ा भारी विषधर साँप अपना फन फैला कर बैठा हुआ है- ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह अपने फन से किसी वस्तु पर छाया कर रहा है। मुझे देखकर सॉँप वहाँ चला गया। निकट जाकर देखता हूँ तो- एक बहुत चमकदार काले रंग की सुन्दर शालग्राम शिला है। आनन्द से भावविभोर होकर चिल्ला उठा -'जय रघुबीर' ! और शिला को उठाकर शिर से छुआया,  फिर अपने गमछे में ठीक से बांधकर अपने घर ले आया। घर पर आकर देखता हूँ कि 'रघुबीर शिला' पर जो जो लक्षण होने चाहिए थे, वे सभी उस शिला पर विद्यमान थे ! तुम यही समझना कि रघुबीर और माँ शीतला हर समय यहाँ जीवंत रूप से विराजित हैं, देखना कि उनकी सेवा में कोई त्रुटि न हो ! " 
[स्टेज पर बत्ती बुझ जाएगी]
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दृश्य
[क्षुदिराम का बैठकखाना-क्षुदिराम अपने मित्र सुखलाल गोस्वामी के साथ बातचीत कर रहे हैं। ]
सुखलाल : (पानी का ग्लास रखते हुए) देखो क्षुदिराम, मैं जितने भी लोगों के घर जाता हूँ, उनमें से तुम्हारे घर पर आने से, न जाने एक कैसा आनन्द भाव मुझमें जागृत हो जाता है,--ऐसा प्रतीत होता है, मानो तुम्हारे परिवार को भगवान ने स्वयं अपने हाँथों से गढ़ा है !! 
क्षुदिराम : हाँ,  एक प्रकार से ऐसा कह सकते हो। मेरे पिताजी के समय से ही इस घर के मालिक तो एक प्रकार से रघुबीर ही हैं। इसके अलावा 'चटर्जियों का तालाब' के निकट शिवमन्दिर के स्थापित हो जाने के बाद से ही यह पूरा क्षेत्र ही मानो एक देवस्थान में परिणत हो गया है। 
सुखलाल : तो फिर तुम्हारी जमीन-जायदाद, खेती-बाड़ी आदि की देख-रेख कौन करता है ? सुनता हूँ कि आजकल तुम तो जजमानी भी करने लगे हो।
क्षुदिराम : वास्तव में कई लोग आग्रह करते हैं, कि मैं थोड़ा अच्छे से पूजा-पाठ कर दूँ, इसीलिये शौकिया मनपसन्द कार्य समझकर कर लेता हूँ, और क्या ! इसके अलावा भाई लोग बड़े हो गए हैं, खेती-बाड़ी, हल -बैल सब वे लोग ही देखते हैं। मेरे जिम्मे का काम यदि पूछो तो बस इस परिवार का एकाध काम करता हूँ। और बताओ तुम्हारे कमारपुकुर के क्या हाल हैं ? 
सुखलाल: कामारपुकुर का हालचाल कहें तो, इतना है कि गोपेश्वरशिव का जलाभिषेक हो गया है, गीत-संगीत, लोगों की भीड़, खाना-पीना सब कुछ मिला दें तो कमारपुकुर में कई दिनों तक मेला लगा हुआ था। क्षुदिराम : किन्तु, गोपेश्वर तो शायद तुमलोगों के कुल देवता है ?  
सुखलाल : हाँ, हमलोगों के कुल देवता होने से भी, हमलोगों को इसका खर्चवर्च उतना नहीं उठाना पड़ता है। आजकल तो हमारे गाँव के जमीन्दार लाहाबाबू आदि ही यह सब अधिक करते हैं। अच्छा तुम्हारी भगिनी
(रामशिला की बेटी) भी यहीं रहती थी न, क्या नाम था उसका -उससे भेंट नहीं हुआ? 
क्षुदिराम : ओ तुम हेमांगिनी *के विषय में पूछ रहे हो ? 
 उसका तो शिहर में विवाह कर दिया हूँ। रामशिला का लड़का रामचाँद उससे बड़ा है, वह अभी मेदिनीपुर में मुख्तारी (वकालत) करता है। 
(जमींदार के गुमास्ते की आवाज सुनाई पड़ती है : क्षुदिराम हैं क्या ? )
मन्मथ गुमास्ता : ओह क्षुदिराम तो घर पर ही हैं, जमींदार बाबू आये हैं, बाहर पालकी में बैठे हैं, आपके साथ भेंट करना चाहते हैं। 
क्षुदिराम : जमींदार रामानन्द राय आये हैं - तो उनको यहीं ले आइये। 
सुखलाल - ठीक है, तो अब मैं जाता हूँ, क्या कहते हैं ? 
क्षुदिराम - ठीक है, फिर आना। [सभी प्रस्थान करते हैं। ]
(क्षुदिराम, जमींदार और गुमास्ते का पुनःप्रवेश) 
जमींदार : क्षुदिराम, तुम्हारे पिता मानिकराम चटोपाध्याय के समय से ही हमलोगों के इस देरे ग्राम में तुमलोगों के परिवार की अच्छी ख्याति रही है। इसके बीच सुन रहा हूँ , अब तुम्हारा नाम की भी बहुत अच्छी प्रतिष्ठा हो रही है। सुनता हूँ क्षेत्र के सभी लोग तुम्हारे प्रति अच्छी श्रद्धा-भक्ति रखते हैं। कई लोग तो कहते हैं कि स्वयं रघुबीर रामचन्द्र हर समय तुम्हारे साथ रहते हैं ! 
क्षुदिराम -जी, गाँव के लोग बड़े सरल हैं न, इसीलिये। 
जमींदार - नहीं नहीं क्षुदिराम-यह तुम्हारी विनम्रता है। सभी तुम्हें प्राचीन काल के ऋषियों जैसी श्रद्धा करते हैं। सुनता हूँ -तुम जब रास्ते से निकलते हो, तो प्रजा तुम्हारी चरणधूलि को मस्तक पर लगाती है। तुम जिस तालाब में स्नान करते हो, उस घाट पर तुम्हारे पहले कोई स्नान नहीं करता है। 
क्षुदिराम: ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना -यह हमारे देश में सदा से चली आ रही है। उसी परम्परा का आदर करते हुए लोग वैसा सम्मान दिखाते हैं। इसमें मेरी कोई उपलब्धि नहीं है। 
जमींदार -नहीं नहीं, क्षुदिराम -वैसा बोलने से काम नहीं चलेगा। मैंने भी कई ब्राह्मण देखे हैं। अधिकांश ब्राह्मण तो लालची और झूठे होते हैं। दरअसल मैं तुम्हारे जैसा ही एक मनुष्य चाहता हूँ, जिसकी गवाही को एकबार सुनकर ही सभी स्वीकार कर लें। और पता लगाने से , मालूम पड़ा कि अपने देरे गाँव में तुम्हीं उस प्रकार के व्यक्ति हो। .... अरे तुम भी बोलो न, हे मन्मथ (गुमास्ता) -देखता हूँ तुम्हारे मुख पर तो मानो ताला ही लग गया है। 
मन्मथ - जी न, माने जी हाँ हुजूर - आप दोनों के बीच बातचीत चल रही थी,इसलिए बीच में बोलना मैं उचित नहीं समझा। माने क्षुदिराम बाबू को जमींदार बाबू बड़े अच्छे लगे हैं, -मुझे तो यही लग रहा है। 
जमींदार - तो फिर क्षुदिराम - बात को खोलकर ही कहना ठीक रहेगा - है न ? तुम निश्चित रूप से सातबेड़े गांव के जनार्दन हलदार को पहचानते होंगे। वह नामुराद कई दिनों से मेरे पीछे लगा हुआ है। इसलिये मैंने कम्पनी की अदालत में एक मुकदमा दायर कर दिया है। मुझे यह मुकदमा हर हाल में जीतना है। मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी तरफ से एक गवाह बन जाओ। 
क्षुदिराम : मुझे आपके तरफ से गवाही देनी होगी ? महाशय क्यों मुझे इस कोर्ट-कचहरी के चक्कर में फंसाना चाह रहे हैं ! उसके बाद यह तो कोई फौजदारी मुकदमा प्रतीत हो रहा है।
जमींदार : और क्या कहें-गलती तो मेरी ही है। जिस तारीख को लेकर उसके ऊपर मुकदमा किया था, बाद में पता चला कि उस दिन वह गॉँव में था ही नहीं- न जाने कौन सी भट्ठी में गया था। अब तुम यदि अदालत में यह गवाही दे दो कि तुमने उसी तारीख को अपने आँखों से देखा था -तो फिर तुम्हारे सामने उसकी कोई भी गवाही खड़ी नहीं हो पायेगी। 
मन्मथ : तुम केवल इतना कहोगे कि -तुमने उसको उसी दिन देखा था, और उसने भी तुमको देखा था, और तुमको वह तारीख ठीक से याद भी है, क्योंकि तुम उस दिन एक यजमान के यहाँ से वापस लौट रहे थे। -कैसा रहेगा ? 
क्षुदिराम : क्षमा करेंगे-जमींदार महोदय, यह गवाही मैं न दे सकूंगा। यह आरोप भी झूठा है और गवाही भी झूठी है। जो मैंने नहीं देखा है, -उसे देखा हूँ' -ऐसी बात मैं बोल ही नहीं पाउँगा। 
जमींदार - नहीं बोल पाउँगा ? इतनी बड़ी बात तुमने मेरे मुँह पर ही कह दिया ? अच्छा! देखता हूँ -अब में कोई मनगढ़ंत आरोप लगाकर तुम्हारे नाम पर ही मुकदमा कर दूंगा। 
क्षुदिराम : जमींदार बाबू क्रोध मत करियेगा, मैं रघुबीर के आश्रित हूँ, सत्य को पकड़े रहने की चेष्टा करता हूँ, इसलिये रघुबीर का आश्रय पाया है। झूठी गवाही देने के लिये मैं रघुबीर से अलग नहीं हो सकता-आप मुझे क्षमा करें। 
जमींदार : ठीक है ! मैं भी यदि तुमको रास्ते का भिखारी न बना दिया तो -मेरा नाम रामानन्द राय नहीं ! देखता हूँ, कि रघुबीर तुम्हारी रक्षा कैसे करते हैं। याद रखना क्षुदिराम -आज रामानन्द राय तुम्हारे यहाँ से लौट रहा है, किन्तु कुछ दिनों बाद तुमको भी यह घर छोड़कर चले जाना होगा। -देख लेना ! ... चलो हे मन्मथ। (प्रस्थान)
[रंगमंच पर बत्ती बुझ जाएगी।] 

*[हेमांगिनी का जन्म देरे ग्राम में अपने ननिहाल में हुआ था , क्षुदिराम अपनी बेटी की तरह उसका पालन-पोषण कर विवाहयोग्य होने पर उनका विवाह कामारपुकुर से ढाई कोस दूर स्थित 'सिहड़' ग्राम के श्री कृष्णचन्द्र मुखोपाध्याय से किया था। जब दादा पिंडदान के लिए गया गए थे, तब प्रमोद के साथ मैं भी गया था -वहाँ जब पंडित जी ने कुल के सभी लोगों का नाम पूछा था तब दादा ने 'हेमांगिनी देवी' का नाम भी लिया था। फिर कहा था अरे अपना श्राद्ध तो मैं किया ही नहीं ? वे नवनीदा की क्या लगती थीं ?.... बासुदा से पूछना होगा !]
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दृश्य ४:
 [जमींदार ने क्षुदिराम के विरुद्ध झूठे आरोप लगाकर नालिश की एवं मुकदमा जीत लिया है, और अब उनकी सारी पैतृक संपत्ति जमीन-जायदाद को निलाम करने के लिये ढोल बजाकर सूचना दी जा रही है  ..... सुनो, सुनो, सुनो ... कल सोमवार के बाद वाले सोमवार को संध्या ४ बजे सातबेड़ा के खेल मैदान में, देरे ग्राम के क्षुदिराम चटोपाध्याय परिवार का १५० बिघा जमीन की नीलामी की जाएगी।  (दो बार मुनादी करनी होगी।)
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दृश्य ५
[क्षुदिराम का घर: क्षुदिराम, चन्द्रादेवी, रामकुमार, कात्यायनी -उदास मुद्रा में बैठे हैं।]      
कात्यायनी : पिताजी , क्या हमारा यह घर भी नीलाम हो जायेगा ?
क्षुदिराम: हाँ माँ-सब कुछ निलाम हो जायेगा। 
कात्यायनी : तब हमलोग रहेंगे कहाँ ?
क्षुदिराम : हमलोग कहाँ रहेंगे - यह तो केवल रघुबीर ही जानते हैं माँ। यदि रघुबीर की इच्छा होगी तो किसी पेंड के नीचे आश्रय लूंगा- यही सोंचकर तो झूठी गवाही न दे सका। 
रामकुमार: अच्छा, आपके तरफ से क्या अदालत में किसी ने गवाही नहीं दी ?
क्षुदिराम : कहाँ से देंगे गवाही ! भय से किसी ने मुंह नहीं खोला। रामानन्द राय के क्रोध के सामने कौन आना चाहेगा ? -मैं इसके लिये किसी को दोषी नहीं मानता। 
चन्द्रादेवी: किन्तु रघुबीर तो जानते हैं -कौन सत्य बोल रहा है और कौन झूठ !
क्षुदिराम : चन्द्रा, भगवान के न्याय को मनुष्य क्या समझ सकता है ? स्वयं रघुबीर श्रीरामचन्द्र ने अपने पिता के वचनों की रक्षा के लिये १४ वर्ष बनवास में बिताये थे। और स्वयं रामचन्द्र जिनके पति थे, उस सीतादेवी को कितना उत्पीड़न सहना पड़ा था -कहो तो, वास्तव में यह सब रघुबीर की ही परीक्षा..... है। चन्द्रा तुम चिन्ता मत करो, जो हो कुछ न कुछ उपाय अवश्य निकल आएगा। और रघुबीर यदि भूखे रहेंगे -तो हमलोगों को भी शायद भूखे रहना होगा। 
चन्द्रादेवी: मैं भी तो रातदिन यही बोल रही हूँ-रघुबीर, जमीनजायदाद जाती है, तो चली जाय, तुम्हारे रहने से ही सब कुछ रह जायेगा। 
(नैपथ्य से कामारपुकुर के मित्र सुखलाल गोस्वामी का स्वर : ऐ क्षुदिराम- भाई घर पर हो क्या ?) 
[सुखलाल का प्रवेश और चन्द्रादेवी, कात्यानी, रामकुमार का प्रस्थान] 
सुखलाल : क्षुदिराम, मैंने सब सुन लिया है, मेरे घुटनों का दर्द बहुत बढ़ गया था, इसीलिये कल आ नहीं सका। तो, अब कहाँ रहने का सोंचा है ? 
क्षुदिराम : भाइयों ने तो अपने ससुराल में स्थान बनाया है, सोच रहा हूँ मैं भी इसी प्रकार कहीं अस्थायी ठिकाना बनाने की सोंच रहा हूँ; उसके बाद जो रघुबीर की इच्छा ! 
सुखलाल : सुनो क्षुदिराम, मैंने यह तय किया है कि तुमको कामारपुकुर ले जाऊँगा। हालदारपुकुर  के दक्षिण में हमलोगों का दो कमरों वाला घर खाली पड़ा है। वह मैं तुम लोगों के लिये छोड़ देना चाहता हूँ। मैंने उस घर को ठीक-ठाक करने के लिए कुछ मजदूरों को लगा भी दिया है। उस घर से सटे जमीन का एक खाली टुकड़ा भी पड़ा हुआ है। बाद में जरुरत पड़ने पर एक कमरा और बना लिया जायेगा। दक्षिण में एक तालाब भी है, तुम्हारी शपथ तुम लोगों के रहने की व्यवस्था हो जाएगी।  
क्षुदिराम : ये दोनो कमरे तुम्हारे अपने हैं या संयुक्त परिवार की संपत्ति है ? 
सुखलाल : हाँ घर मेरा अपना है, और तालाब में ५ आना हिस्सा अपना है। पास में ही लाहाबाबू का विशाल भवन भी है। तुमलोगों को कोई कष्ट न होगा। 
क्षुदिराम : फिर इसमें आपत्ति क्या है- शिर छुपाने की जगह मिल जाये तो यजमानी करके परिवार चला लूँगा। 
सुखलाल : तुम तो जानते हो, अभी जो लाहाबाबू हैं -उनकी सम्पूर्ण जमीन एक समय में हमलोगों के गोस्वामी वंश का ही था। उनलोगों ने सारी जमीन हमलोगों के पूर्वजों से ही खरीदी थी। मैं धान के लिए उपजाऊ जमीन भी तुमलोगों के नाम से लिख दूँगा। संसारयात्रा के निर्वहन के लिए एक स्थायी प्रबंध भी रहना जरुरी है। 'लक्ष्मीजला' नामक स्थान में लगभग डेढ़ बीघा जमीन भी -जिसमें धान की खेती होती है, मेरे नाम से है। सोंचता हूँ वही जमीन तुम्हारे नाम लिख दूँगा। 
क्षुदिराम : फिर और क्या चाहिये ? रघुबीर का नाम लेकर कामारपुकुर ही चलता हूँ। तुम थोड़ा बैठो -यह शुभसमाचार चन्द्रा को देकर आता हूँ। (प्रस्थान)
 [बत्ती बुझ जाएगी] 
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दृश्य ६
[कामारपुकुर में क्षुदिराम का बरामदा : क्षुदिराम के घर में लाहाबाबू का प्रवेश ..]
लाहाबाबू : क्षुदिराम घर पर हो क्या , हे क्षुदिराम। (क्षुदिराम का प्रवेश) 
क्षुदिराम : ओ लाहाबाबू - आइये, आइये -बैठिये। चन्द्रा एक आसन लाकर दो तो। 
लाहाबाबू : अरे आसन की क्या जरूरत है -यहीं पर आराम से बैठा जा सकता है। 
क्षुदिराम : जी क्या वैसा हो सकता है -जमींदार बाबू क्या कहते हैं ! 
लाहाबाबू : हमलोग तो बस नाम के ही जमींदार हैं। और आप ठहरे कामारपुकुर के सबसे गणमान्य व्यक्ति। जो देखता हूँ कि अब गाँव के लोग दो जन पर आस्था रखते हैं - एक हैं गोपेश्वर शिव पर और दूसरा आप के ऊपर। 
क्षुदिराम : छिः छिः यह क्या कह रहे हैं , आपलोग कितने साल के बसिन्दा हैं ! 
लाहाबाबू : और अब आप यहाँ के लिए नए कैसे हो ? आपके कामारपुकुर ग्राम में रहते हुए कितने वर्ष बीत चुके हैं। (चन्द्रा का आसन लेकर प्रवेश, आसन बिछा देती है।)
क्षुदिराम : जी, लगभग २० वर्ष हो गए हैं। 
लाहाबाबू : किन्तु -चन्द्रा ; तुमको प्रसन्न ने एक बार घर आने के लिए बोला है। 
चन्द्रादेवी : ओ -क्या आज ही ?
 लाहाबाबू : आज यदि सम्भव न हो तो कल चली जाना-(चन्द्रा का प्रस्थान) और क्या रामकुमार अभी घर में नहीं है ?
क्षुदिराम : नहीं, वह किसी के यहाँ श्राद्ध कर्म कराने के लिये गया हुआ है, वापस लौटने में रात हो सकती है। 
लाहाबाबू : उसको एकबार प्रसन्न की जन्मपत्री जन्म-कुण्डली दिखलाना चाहता था। मैंने तय किया है कि दुर्गामण्डप के नजदीक प्रसन्न के नाम से एक शिव मन्दिर बनवाऊँगा। उसके लिये दिन-तारीख आदि सब कुछ रामकुमार को ही निश्चित करना होगा। 
क्षुदिराम : ठीक है, कल सुबह में उसको आपके घर भेज दूँगा।  
लाहाबाबू : फिर यही ठीक रहेगा .... अच्छा सुना था कि कात्यायनी को कोई शारीरक रोग हुआ था ?  
क्षुदिराम : हाँ, लेकिन अब बिल्कुल ठीक है, बीमार तो नहीं थी, किन्तु उसको किसी प्रेतात्मा ने पकड़ लिया था। उसके ससुराल वालों ने झाड़फूँक की व्यवस्था की थी। किन्तु उस प्रेतात्मा ने जाते-जाते -गया में  जाकर उसके नाम से पिण्ड दान करने को भी कहा  था। तभी उसकी आत्मा को शान्ति प्राप्त होगी। इसीलिए मैं थोड़ा गया जाने की बात सोंच रहा था। इसी बहाने पितृपुरुषों को पिण्डदान करने का अवसर भी मिल जायेगा। 
लाहाबाबू : इतना करना ठीक रहेगा, किन्तु जब गया जा ही रहे हो तो अपने मित्र सुखलाल का पिण्डदान भी अवश्य कर देना। लोग आपस में चर्चा कर रहे हैं कि -गुंसाईजी भूत बन गए हैं ! चाहे जो भी हो, उसीने तो तुम्हें कामारपुकुर में रहने का ठिकाना दिया था। 
क्षुदिराम : जी हाँ, सुखलाल के विषय में मैं भी सोच रहा था, किन्त्तु मुझे वैसा कुछ प्रतीत नहीं होता, -फिर भी पिण्डदान करना एक सत्कर्म है-इसीलिये गया जाऊंगा।
लाहाबाबू : मैं भी भाई इन सब ओछी बातों पर विश्वास करना नहीं चाहता। तो तुम गया कब जा रहे हो ?
क्षुदिराम : सोंच रहा हूँ कि जल्दी ही जाऊंगा, थोड़ा ठंढ का मौसम रहते ही निकलना चाहूंगा। 
[बत्ती बुझ जाएगी]
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दृश्य ७
[ अंधकार में ही मंच पर पिण्डदान का मंत्र चल रहा होगा -" आ ब्रह्मस्तम्ब पर्यन्तम देवऋषि पितृ मानवा:। तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृ मातामहादय:॥अर्थात- ब्रह्माजी से लेकर कीट पर्यन्त समस्त जगत देवता ऋषि दिव्य पितर मनुष्य पिता पितामह प्रपितामह माता मातामही प्रपितामही मातामह प्रमातामह आदि स्ब लोग तृप्त हो जायें। ॐ मधुवाताऽऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीनर्: सन्त्वोषधीः।ॐ मधु नक्तमुतोषसो, मधुमत्पाथिर्व रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता।ॐ मधुमान्नो वनस्पतिर, मधुमाँ2ऽ अस्तु सूयर्:। माध्वीगार्वो भवन्तु नः।ॐ मधु। मधु। मधु। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्।] 
बत्ती जलने पर दिखाई देगा कि क्षुदिराम सोये हुए हैं, पीछे पर्दे पर श्रीश्री गदाधर की मूर्ति प्रकट हो जाएगी, क्षुदिराम जाग कर हाथों को जोड़ लेंगे... । 
क्षुदिराम : प्रभु तुम मेरे इतने निकट हो ! 
नारायण : (आकाश वाणी) हाँ क्षुदिराम -तुमसे एक बात कहनी है, इसीलिये तुम्हारे पास आया हूँ। 
क्षुदिराम: यह तो मेरा परम् सौभाग्य है प्रभु ! 
नारायण : (आकाश-वाणी) " क्षुदिराम, तुम्हारी भक्ति और सत्यनिष्ठा को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैं अत्यंत शीघ्र ही तुम्हारा पुत्र बन कर तुम्हारे घर में जन्म लेना चाहता हूँ। 
क्षुदिराम: तुम मेरे घर में जन्म लोगे !! किन्तु प्रभु मैं तो गरीब हूँ। तुमको मैं पुत्र रूप में पा लूँगा, तो कहीं तुम्हारा अनादर तो नहीं होगा। मैं तुमको क्या खिलाऊँगा, क्या पहनाऊँगा ? नहीं ,नहीं प्रभु मैं तुम्हारी सेवा ठीक से नहीं कर पाउँगा। इतना बड़ा सौभाग्य मुझसे सहन नहीं होगा, तुम्हारी कृपा मैं धारण नहीं कर पाउँगा, तुम अपनी इच्छा वापस ले लो प्रभु। 
नारायण: (आकाश-वाणी) 'क्षुदिराम, डरने की कोई बात नहीं है,  -भगवान कभी भक्त का ऐश्वर्य नहीं देखते। -वे तो उसकी भक्ति और निष्ठा से ही तृप्त हो जाते हैं। तुम जो कुछ प्रदान करोगे, सन्तोष के साथ मैं उसे ही ग्रहण करूँगा; मेरी इच्छा को पूर्ण करने में तुम बाधक न बनो। मैं बहुत शीघ्र ही पुत्र रूप से तुम्हारे घर में अवतीर्ण होकर तुम्हारी सेवा ग्रहण करूँगा!" 
 (मूर्ति अन्तर्ध्यान , क्षुदिराम बार बार प्रणाम करेगा। )  
[बत्ती बुझ जाएगी] 
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दृश्य ८
[चन्द्रादेवी और धनी लुहारिन: शिव मन्दिर के सामने खड़ी होकर आपस में बातचीत कर रही हैं, दोपहर का अंतिम समय आने को है।] 
चन्द्रादेवी : देखो धनी, इधर कुछ दिनों से मुझे कुछ अजीब सा अनुभव हो रहा है। मन में अद्भुत विचार आते हैं। पूजा करते समय जैसे ही आँखों को मुँदती हूँ -वैसे ही देखती हूँ कितने ही देवता लोग सामने आकर घूमफिर रहे हैं। 
धनी : ओ दीदी, यह तो बड़ी अच्छी बात है। और फिर तुम्हारे जैसी ब्राह्मणी यदि देवताओं के दर्शन प्राप्त करती हों , तो उसमें आश्चर्य की क्या बात है !  
चन्द्रादेवी : नहीं रे धनी, किन्तु मुझे बड़ा डर लग रहा है। ऐसा लगता है, कि गोंसाई जी मर कर भूत हो गए हैं, और उन्होंने ही मुझे पकड़ लिया है। हो सकता है कि उनके घर तरफ से आते समय कभी शिर के बाल खुले हुए ही चली आयी थी ! 
धनी : ओ माँ,.... यह सब कैसी बातें हैं? मैं तो भाई, यह सब भूत-उत कुछ नहीं मानती हूँ। 
चन्द्रादेवी : तुम नहीं जानती हो ! तो सुनो- परसों दिन रात में केवल प्रसन्न से ही कही हूँ, और अब तुम्हें बताने जा रही हूँ। --तुम किसी से कह मत देना।
धनी : ठीक है -मैं तो किसी को नहीं बताऊँगी; किन्तु तुम्हारा स्वभाव ही है -सबको बताते फिरना। -इसीलिए तो तुमको सभी लोग 'बोलक्कड़' कहते हैं। 
चन्द्रादेवी : हाँ भाई , मेरे पेट में कोई बात पचती नहीं है। 
धनी: इसीलिये तो तुम्हें सभी बहुत पसन्द करते हैं। ब्राह्मणीबहना , तुम्हारे साथ रहने से ही मन जैसे आनन्दित हो जाता है, तुम्हारे भीतर मानो कैसा एक देवी-देवी जैसा भाव महसूस होता है।.... अच्छा तुम क्या कहने वाली थी कहो न !
चन्द्रादेवी : जानती हो, परसों रात्रि में मैंने एक अदभुत स्वप्न देखा ! मैंने देखा कोई ज्योतिर्मय देवता मेरी शय्या पर लेटे हुए हैं। पहले विचार आया शायद वे हैं। फिर सोचने लगी वे भला कैसे हो सकते हैं ? वे तो गया गए हुए हैं। उसके बाद बत्ती जलाकर देखती हूँ -एक सुन्दर पुरुष हैं। उसी पुरुष को देखते देखते नींद टूट गयी। नींद टूट जाने के बाद भी बहुत देरी तक मैं उस देवता को उसी रूप में देखती रही।सोचने लगी कोई दुष्ट व्यक्ति तो नहीं घर में घुस गया है ? उसी के कारण ऐसे स्वप्न देख रही हूँ! बिस्तर से उठकर दिया  जलाया, किन्तु वहाँ किसी को देख नहीं सकी। दरवाजे के सिटकिनी को देखा -तो भीतर से बंद ही था।.... धनी ....धनी ... शिवमन्दिर से देखो कैसी एक दिव्य ज्योति वायु की तरह हिलोरें लेती हुई बाहर आ रही है ! .... वह ज्योति तो बहुत तेजी से इधर ही रही है न !
धनी : कहाँ.....कहाँ ........ मैं तो कुछ भी नहीं देख पा रही हूँ। 
चन्द्रादेवी : कुछ भी-देख -नहीं -पाती हो ? (वह ज्योति चन्द्रादेवी के शरीर पर पड़ेगी।)
धनी : कहाँ, नहीं तो !, कुछ भी नहीं है। 
(चन्द्रादेवी धनी लुहारिन के कांधे पर सिर रखकर निढाल हो जाएगी।)
धनी : क्या हुआ ... क्या हुआ ? (ज्योति बिलुप्त हो जाएगी) 
चन्द्रादेवी : नहीं , नहीं सब ठीक है। धनी मेरा शरीर कैसा भारी भारी सा लग रहा है। 
धनी : चलो, घर चलते हैं। (धनी चन्द्रादेवी को धीरे धीरे ले जाएगी) 
(बत्ती बुझ जायेगा)
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दृश्य ९
[ गया से कामारपुकुर लौटने के बाद क्षुदिराम और चन्द्रादेवी अपने घर में हैं] 
चन्द्रादेवी : मैंने प्रसन्न और धनी को बताया था, और तुम जब लौटकर आओगे तो तुम्हें बताऊँगी -यही सोंचकर मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी। अच्छा तुम्हें क्या लगता है -? उस दिन क्या सचमुच कोई मेरे कमरे में घुस आया था ? प्रसन्न और धनी ने तो मेरी बात बिल्कुल हवा में उड़ा दिया -उल्टा डर दिखाने लगी -कि ये सब बातें किसी से बताना भी नहीं; नहीं तो गाँव लोग तुम्हारे नाम को बदनाम करने की चेष्टा करेंगे। फिर उस दिन शिवमन्दिर के सामने होश चला गया, उस दिन थोड़ा मन स्थिर होने पर धनी को सबकुछ खोलकर बता दिया। वह पहले तो आश्चर्यचकित हो गयी। उसके बाद बोली 'तुमको वायुरोग हुआ है। ' किन्तु मुझे तो इस समय भी ऐसा महसूस हो रहा है कि -वह ज्योति मेरे शरीर में प्रविष्ट हो गयी है, और जैसे गर्भवती हो गयी हूँ ! यही बात मैंने उन लोगों से भी कहा तो -वे मुझे 'मूर्ख'-'पागल' और जाने क्या क्या कहने लगीं। तबसे मैंने तय कर लिया था कि तुम्हारे सिवा यह बात मैं और किसी से नहीं कहूँगी। 
क्षुदिराम : तुम्हारा निर्णय सही है, तुमने जो तय किया है -वही करना। जो कुछ भी घटित हुआ है, उसके विषय में मेरे सिवा और किसी से मत कहना। 
चन्द्रादेवी : किसी को नहीं बताऊँगी -यह यह तो मैंने पहले तय ही कर लिया है, किन्तु तुम्हें क्या लगता है ? - ये सब ख्याल मेरे मन का फितूर है, या कोई दिव्य दर्शन है ? 
क्षुदिराम : यह सब दिमागी फितूर क्यों होने लगे - ये सब दिव्यदर्शन ही हैं। इतना ही नहीं , इसके बाद तुम्हें और भी अधिक दिव्य दर्शन मिलेंगे। गया में रहते समय उसके विषय में काफी संकेत प्राप्त किये हैं।-उसके बारे में मैं तुम्हें बाद में बताऊँगा। 
चन्द्रादेवी : यही तो, देखो न .... आज ही देखी हूँ ... दोपहर के समय में.. तब बहुत कड़ी धूप थी, -देखती हूँ 'एक देवता हंस पर बैठे हैं, -चार हाथ हैं, उनका चेहरा लाल है - देखकर सोचने लगी धूप के कारण उनका चेहरा तप कर लाल हो गया है। मैंने उससे कहा - 'अरे हंस पर बैठने वाले देव, धूप से तेरा मुँह सूख गया है, मेरे घर में कल रात का भींगा हुआ 'पैंता भात' रखा है, उसे खाकर थोड़ा सुस्ता जा।' यह सुनकर देवता थोड़ा हँसे फिर अंतर्ध्यान हो गए ! ये सब क्या था पतिदेव ? 
क्षुदिराम : ऐसा प्रतीत होता है कि तुमने ब्रह्माजी का दर्शन पाया है। जो भी हो, रघुबीर कृपा करके जो कुछ भी दिखाएंगे, तो समझना वह कल्याण के लिए ही है -इसमें अमंगल होने की कोई आशंका नहीं है। सम्पूर्ण रूप से आशंका रहित होकर रघुबीर की पूजा करो -और जैसे गाँव के लोगों की सेवा-आदि कार्य करती हो -उसी को थोड़ा और निष्ठा पूर्वक करते रहो। ऐसा सोचना कि ग्रामवासियों के माध्यम से ही रघुबीर हमलोगों की सेवा लेना चाह रहे हैं। 
चन्द्रावती : किन्तु गया में तुमने क्या संकेत पाया था -वह तो बताया ही नहीं !
क्षुदिराम : बाद में कभी बतला दूंगा। अभी केवल इतना ही कहूंगा कि श्रीश्री गदाधर ने चमत्कारिक ढंग से यह बतला दिया है कि -हमलोगों को पुनः एकबार पुत्र के चेहरे का दर्शन करना पड़ेगा। और किसी असीम सौभाग्य के फलस्वरूप तुमने इस बार 'लीला पुरुषोत्तम' को ही अपने गर्भ में धारण किया है। और उन्हीं के पुण्य स्पर्श से तुम्हें ये समस्त दिव्यदर्शन आदि विविध प्रकार की अनुभूतियाँ हो रही हैं। 
[बत्ती बुझ जाएगी]
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दृश्य १० :
[ चन्द्रादेवी झाड़ू लगा रही है, गदाधर के मित्र रूप में दो लड़के प्रवेश करते हैं....]  
 लड़का १ : चाची जी गदाई है क्या ?
चन्द्रादेवी : हाँ अपने कमरे में ही है, खेल रहा है, तुमलोग भी वहीँ जाओ मेरे बच्चों !
लड़का २ : वह आज खेलने के लिए क्यों नहीं गया ?
चन्द्रादेवी : आज उसकी तबियत थोड़ी ठीक नहीं थी, इसीलिए वह अपने कमरे में ही खेल रहा है, तुमलोग उसके कमरे में ही चले जाओ बच्चों। (बच्चों का प्रस्थान )
[एक वृद्ध महिला का प्रवेश ]
वृद्धा : चन्द्रा, तुम्हारे गदाई के लिए बर्तन में कुछ समोसे लायी थी, खाने के समय उसको दे देना। 
चन्द्रादेवी : दे दो चाची वह अभी घर पर ही है, -क्या उसको बुला दूँ ?
वृद्धा : एकबार बुलाओ तो !
चन्द्रादेवी : गदाई थोड़ा बाहर आओ तो -देखो कौन तुमसे मिलने आयी हैं ?
वृद्धा : उसके चाँद से चेहरे को देखने के लिए ही तो आती हूँ, नहीं तो क्यों आती !
(गदाई का प्रवेश) 
गदाई : ओ' -हो ! पाइन दादी ! मेरे खाने के लिए क्या लाई हो कहो ?
वृद्धा : और भला मैं क्या ला सकती हूँ कहो - कुछ भुने हुए आलू के बड़े हैं। 
गदाई : वाह बहुत अच्छा - अभीदेदो -सारे दोस्त मिलकर खायेंगे।
(गदाई कटोरा लेता है, पाइन दादी का गाल चूमता है , और अपने कमरे में चला जाता है।) 
वृद्धा : देखती हो चन्द्रा, तुम्हारे गदाई के चेहरे को एकबार देख लेने भर से ही -संसार के सारे दुःख दूर हो जाते हैं-मन आनन्द से भर उठता है-मैं क्या वैसे ही थोड़े आती हूँ !
चन्द्रादेवी : बर्तन बाद में भिजवा दूंगी चाची जी। 
वृद्धा : नहीं बेटी, मैं कल खुद ही बर्तन लेने आ जाउंगी। गदाई को एकबार देखे बिना मेरा दिन नहीं बीतेगा बेटी-इसीलिए बेटी। (प्रस्थान)
(सीतानाथ पाइन का प्रवेश)
सीतानाथ : मैंने सुना था कि तुम्हारा गदायी लक्ष्मीजला के मैदान में खेत की मेड़ पर बेहोश होकर गिर गया था ? 
चन्द्रादेवी : हाँ -कल दोपहर की बात है। भाग्यवश कई लोग नजदीक में ही थे -इसलिए होश आने में विलम्ब नहीं हुआ। 
सीतानाथ : लेकिन ऐसा हुआ कैसे ?
चन्द्रादेवी : गदाई तो कहता है, उसे कुछ नहीं हुआ था। काले काले बादलों के ऊपर से सफ़ेद हंसों का एक समूह उड़ता हुआ जा रहा था - यही देखने से उसे इतना आनन्द हुआ कि उसे अपना होश नहीं रहा। वह कहता है मैं बेहोश कहाँ हुआ -वह सब सोंचकर तुम लोग कोई चिंता मत करो। 
सीतानाथ : ठहरो, मैं थोड़ा स्वयं लड़के को देख आता हूँ। (सीतानाथ घर के भीतर जायेंगे)
(पाइन अर्थात वणिक-पल्ली  की करुक्मिणी का प्रवेश )
रुक्मिणी (सीतानाथ पाइन की पुत्री ) : चाचीजी आज गदाई हमारे घर खेलने क्यों नहीं गया ?
चन्द्रादेवी: गदाई कल दोपहर में लक्ष्मीजला के खेत की आरी पर गिर पड़ा था बेटी , इसीलिये मैंने आज उसको मैंने बाहर निकलने से मना कर दिया है।
रुक्मिणी : वह रोज हमलोगों के घर में आकर कितने प्रकार से मजे करता है, कहानियाँ सुनाता है; नाटक करके दिखाता है। आज तो वह आया ही नहीं, इसीलिये मेरे घर के सारे लोग उदास हैं। और मुझे उसका समाचार जानने के लिए भेजा है।
चन्द्रादेवी : तुम उसके कमरे में जाओ बिटिया, उसके साथ बातचीत करके देखलो। (रुक्मिणी कमरे में जाएगी )
(सीतानाथ कमरे से निकलेंगे )
सीतानाथ : देखो चन्द्रा, तुम्हारा लड़का कोई साधारण लड़का नहीं है ! तुम्हारे लड़के का हावभाव हर दृष्टि से एकदम भिन्न प्रकार का है। तुम्हारे घर में किसी महापुरुष ने जन्म ग्रहण किया है। मेरा और मधु युगी का -दोनों का इस बारे में एक ही विचार है। उसमें इतना आकर्षण है कि मानो वह हर किसीको अपनी ओर खींचे जा रहा है। इस आकर्षण की उपेक्षा कर देना -किसी के लिए सम्भव नहीं है। क्या तुम इसको इतनी आसान बात समझ  रही हो ?... ठीक है चन्द्रा मैं फिर कभी आऊंगा। (सीतानाथ का प्रस्थान) 
(बाहर से क्षुदिराम का प्रवेश)
क्षुदिराम : गदाई कहाँ है ?
चन्द्रादेवी : घर में ही है। देखो गदाई सिर्फ एक दिन घर में है-तो गाँव के सभी लोग घर पहुँचकर उसका हालचाल ले रहे हैं; -कहते हैं उसमें इतना आकर्षण है कि बिना आये रह ही नहीं सकते।
क्षुदिराम : मुझसे भी रास्ते में सभीलोग उसीके बारे में पूछ रहे थे।
चन्द्रादेवी : किन्तु उसकी स्वच्छंदता भी तो किसी प्रकार से कम नहीं हो रही है।
क्षुदिराम : किन्तु थोड़ा स्वछन्द होने से भी , समझाकर कहने से सबकुछ कहना मान लेता है; लेकिन जबरदस्ती करने से खीज उठता है। फिर किसी का भी अनिष्ट तो कभी नहीं करता है। ठीक है उसको गाँव के जमींदार
लाहा बाबुओं की पाठशाला में भेज देता हूँ। पाठशाला जाने से उसकी शरारत थोड़ी कम हो जाएगी।
चन्द्रादेवी : वह क्या पाठशाला में उतनी देर तक बैठ सकेगा ?
क्षुदिराम : पाठशाला में सब समय केवल पढाई ही तो नहीं होती है। देखता तो हूँ कि बीच बीच में वे बच्चों को खेलने -कूदने के लिए छोड़ भी देते हैं। वे बच्चे खेलकूद करते हैं -फिर बुलाने से क्लास जाकर पढ़ने बैंठ जाते हैं। उसके लिए भी यही ठीक रहेगा, नहीं तो दिनभर इसके-उसके घर जाते रहने से उसकी शरारतें भी बढ़ेंगी।
(बत्ती बुझेगी)
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दृश्य ११
[ गदाई  दरवाजे  पर बैठा चित्र बना रहा है। रामकुमार का प्रवेश ]
रामकुमार : गदाई, सुनता हूँ कि तुम बीच बीच में पाठशाला से भाग जाते हो -पंडित महाशय कह रहे थे।
गदाई : कहाँ, मैं कहीं भागता तो नहीं हूँ - मैं तो विष्णुमन्दिर में जाकर छुप जाता हूँ।
रामकुमार : अच्छा , तो तुम विष्णुमन्दिर में जाकर छिप जाते हो! किन्तु तुम विष्णुमन्दिर में छुपकर क्यों रहते हो?
गदाई : गणित सीखना मुझे अच्छा नहीं लगता -इसीलिये।
रामकुमार : ओ , इसीलिये तुम छिपे रहते हो। छुप कर रहना तुझे अच्छा लगता है- यही बात है न ?
गदाई : नहीं , मैं तो विष्णुमन्दिर के दीवाल पर चित्र बनाता रहता हूँ, मुझे चित्र बनाना अच्छा लगता है। भइया , क्या आप मुझे कलर्ड पेन्सिल खरीद दोगे ?
रामकुमार : क्यों नहीं खरीद दूँगा - किन्तु बोलो कि अब से तुम गणित भी सीखोगे !
गदाई : दादा , क्या मैं बड़ा होकर किराने की दुकान खोलूंगा - कि मुझे गणित सीखना ही पड़ेगा ? मैं तो बड़ा होकर पूजा करूँगा, या नहीं तो एक नाटक मण्डली गठित करूँगा। गणित सीखने से मुझे क्या लाभ होगा ?
रामकुमार : गदाई थोड़ा भी गणित नहीं जानने से क्या काम चलेगा  ? दुकानदार को पैसा देने के लिये भी हिसाब जानना पड़ता है। और गणित नहीं जानने से अपने नाटक-मंडली के सदस्यों का भुगतान कैसे करोगे ?
गदाई : यदि ऐसी बात है, तो थोड़ा -बहुत गणित सीख लूंगा।
रामकुमार : अब जाकर तूने 'अच्छे बच्चों ' जैसी बात कही है; ठीक है आज रात में तुमको और रामेश्वर को  'सुबाहु नाटक ' देखने ले जाऊंगा - कैसा रहेगा !
(रामकुमार स्नेहपूर्वक गदाई के टोढ़ी को हाथ से छूकर घर में प्रवेश करते हैं )
गदाई : (घर की ओर देखते हुए ) माँ , मैं थोड़ा चीनू शांखारी के घर जा रहा हूँ- उसने मुझे बुलाया है , तुरन्त लौट आऊंगा।  (गदाई का प्रस्थान)
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दृश्य १२
 [ गदाई के घर का बरामदा -सीतानाथ पाइन का प्रवेश बाद में चन्द्रादेवी कमरे से बाहर आएगी ]
सीतानाथ : चन्द्रा , घर के सभी लोग कैसे हैं ? बहुत दिनों से तुमलोगों का हालचाल नहीं ले सका था, इसीलिए सबलोग कैसे हैं देखने के लिए आ गया।
चन्द्रादेवी : बैठिये दादा , मैं भी आपलोगों के यहाँ जा नहीं पाती हूँ।
सीतानाथ : हाँ , तुम्हारा गदाई क्या थोड़ा बदल गया है ? पहले हमलोगों के घर कितना आता था, किन्तु आजकल उतना आताजाता नहीं है।
चन्द्रादेवी : उसके पिताजी का देहान्त हो जाने के बाद पाठशाला के बाद बाकी समय में मेरे ही पास रहता है। मेरी सब बात सुनता है और हरेक काम में मेरी सहायता करता है।
सीतानाथ : अच्छा, तो क्या आजकल उसका स्वभाव अकेले रहने का हो गया है ?
चन्द्रादेवी : हाँ कुछ तो वैसा है, किन्तु मेरा गदाई हँसमुँख लड़का है।  किन्तु थोड़ा गंभीर और समझदार हो गया है। सबकुछ ध्यान से देखता है, सुनता है और मानो समझ लेने की चेष्टा करता है।
सीतानाथ : अब समझा , क्योंकि गदाई को कितने ही दिन माणिक राजा के आम बगीचे में, भूति के श्मशान में, इन्हीं सब सुनसान स्थानों में अकेले अकेले घूमते हुए देखा था। असली बात क्या है -जानती हो चन्द्रा , बचपन में मातृवियोग, किशोरावस्था में पितृवियोग और जवानी में पत्नीवियोग - मनुष्य के जीवन में सर्वाधिक खालीपन महसूस करवा देता है। ... इसीलिये सोच रहा था कि गदाई के विचारों में तो कोई बदलाव नहीं आ गया ?
चन्द्रादेवी : मैं भी गदाई को पूरी तरह से समझ नहीं पाती हूँ। पूरि-यात्रा के रास्ते से जाते हुए  लाहाबाबू के अतिथि भवन में कई दिनों से साधुओं का एक समूह ठहरा हुआ है। गदाई वहाँ रोज जाता है, और साधुओं की सेवा-सुश्रुषा करता है। अच्छा, इससे कोई अनिष्ट तो नहीं होगा ?
सीतानाथ : होता हो या नहीं, किन्तु सावधान रहना ही अच्छा होगा - मानलो वे सब यदि ढोंगी साधु हुए तो ?
चन्द्रादेवी : मैंने एक दिन रामेश्वर को भेजा था। वह आकर बोला कि साधूलोग अच्छे हैं -वे लोग गदाई से प्रेम करते हैं। रामेश्वर फिर घर से कुछ जरुरी चीजें साधुओं को देने गया था। इसीलिये मैं मना नहीं करती हूँ।
सीतानाथ : किन्तु एकबार रामकुमार को  भेजना, तुम्हारे रामकुमार में लोगों को पहचानने की विशेष क्षमता है।
चन्द्रादेवी : रामकुमार के पास उतना समय कहाँ है -उसीके ऊपर तो इतने बड़े परिवार की सारी जिम्मवारी है। रामेश्वर के लिये तो अभी तक आय का कोई साधन नहीं हो सका है।
सीतानाथ : तो फिर थोड़ा लाहाबाबू को कहता हूँ, वे कह देंगे तो और किसी अनिष्ट की आशंका न रहेगी। चन्द्रा, तो अब मैं चलता हूँ, -तुम्हें फ़ुरसत मिले तो आना।
चन्द्रादेवी : ठीक है दादा फिर आइयेगा। (सीतानाथ का प्रस्थान / चन्द्रादेवी घर में चली जाएगी/ थोड़ी देर बाद गदाई का संन्यासी वेश में आगमन होगा। )
गदाई : माँ, थोड़ा बाहर आना , देखो साधुओं ने मुझे कितने सुन्दर ढंग से सजाया है !
चन्द्रादेवी : (बाहर आकर ) गदाई , यह क्या पहन लिया तूने गदाई ? क्या तुम अब संन्यासी हो जाओगे गदाई ? मैं तो तुम्हारे बिना जीवित भी न रह पाऊँगी। गदाई तूँ यदि संन्यासी बन गया तो मैं किसके सहारे रहूंगी-बोलो  ?
गदाई : माँ , यदि मेरे संन्यासी बनने से तुम्हारे मन में दुःख होता है, तो मैं तुमको वचन देता हूँ कि 'मैं जीवन में कभी संन्यासी नहीं बनूँगा। '
चन्द्रादेवी : नहीं बेटे डरती हूँ कि कहीं साधु लोग तुमको चुरा कर ले तो नहीं जायेंगे ?
गदाई : नहीं माँ, मुझे नहीं चुरायेंगे। किन्तु यदि तुमको इसका डर है, तो मैं फिर कभी इन साधुओं के पास भी नहीं जाऊँगा-माँ ।
चन्द्रादेवी : गदाई , तुम्हारे बिना मैं जीवित नहीं रह सकती रे !
गदाई : मैं भी तुमको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा माँ , सच कहता हूँ -तुम देख लेना। .
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दृश्य १३
 [गदाई के घर का बरामदा ]
रामकुमार : देखो माँ , देखता हूँ कि गदाई को पढ़ने-लिखने में उतना मन नहीं लगता है। अक्सर सुनता हूँ की दोस्तों के साथ मिलकर माणिक राजा के आम बगीचे में नाटक-यात्रा करता रहता है। कुम्हारों के मुहल्ले में जाकर मूर्ति-निर्माण करना देखता है -उसके बारे में थोड़ा सोचना जरुरी है।
चन्द्रादेवी : यही तो बात है, इधर उसको ज्ञान भी बहुत है। उस दिन लाहाबाबू कह रहे थे -उनके घर पर पंडितों की एक सभा आयोजित हुई थी, पंडितों की किसी बात पर हमलोगों के गदाई ने तर्क के साथ एक ऐसी बात कर दी कि -सारे पंडित आश्चर्यचकित रह गए थे। फिर कोई नाटक-यात्रा देखता है तो सारे संवाद उसे कंठस्थ हो जाते हैं -अक्षरशः दुहरा देता है ! फिर कहाँ कहाँ से नाटक -यात्रा की पुस्तकें लाकर लिखने के लिए बैठ जाता है।
रामकुमार : माँ, सोचता हूँ इसी समय उसका जनेऊ करवा दूँ। कमसे कम घर में रहकर रघुबीर की सेवा तो कर सकेगा। तब मैं भी आय करने के लिए अधिक समय दे सकूंगा। (उसी समय सिर पर गीली मिट्टी की टोकरी लिए गदाई का प्रवेश। )
रामकुमार : गदाई , इतनी मिट्टी का क्या करेगा ?
गदाई : कुम्हार के घर से माँगकर लाया हूँ -इससे शिव -दुर्गा बनाऊंगा !
चन्द्रादेवी : दादा कह रहे हैं कि तुम्हारा अब जनेऊ संस्कार होगा, जनेऊ होने के बाद तुम रघुबीर की पूजा कर सकोगे।
गदाई : तबतो बहुत अच्छा होगा।  किन्तु माँ एक बात है।
रामकुमार : क्या है वह बात ?
गदाई : धनी लुहारिन को मेरी भिक्षा माता बनाना होगा।
रामकुमार : इसका माने क्या हुआ - ब्राह्मण नहीं होने से कोई भिक्षा माता बन सकती है क्या ?
गदाई : बना देने से ही होगा -जानती हो माँ , धनीमौसी ने मुझसे बहुत बचपन में ही कहा था -'गदाई , क्या तुम जनेऊ धारण करते समय मुझे अपनी भिक्षामाता बनाएगा ?' मैंने उससे हाँ कहा था। उस समय तो मैं इतना कुछ जानता नहीं था।
रामकुमार : अरे मूर्ख  - वह तो तुमने कितना पहले कहा था ? धनी मौसी को अभी वह याद भी होगा ?
गदाई : धनी मॉसी को भले कुछ याद न हो, किन्तु मुझे तो याद है !
चन्द्रादेवी : वो सब मैं धनी को समझा दूंगी तुम्हें चिंता क्या है !
गदाई : नहीं माँ, ऐसा नहीं हो सकता। धनीमौसी को मैंने वचन दिया है - मैं तुमको अपनी भिक्षामाता बनाऊंगा। एकबार वचन देकर, वचन वापस लेने से धनीमौसी के बुरा न मानने से भी -मैं तो 'असत्यवादी' हो जाऊँगा !
रामकुमार : अरे तुम समझते नहीं हो, गाँव में इसको लेकर तरह तरह की बातें होंगी। तूँ तो छोटा बच्चा है ,तुझे कोई कुछ नहीं कहेगा। हमलोगों को सभी निष्ठवान ब्राह्मण के रूप में जानते है - सारे परिवार का नाम नष्ट हो जायेगा।
गदाई : धनीमौसी को यदि मैंने अपनी भिक्षामाता नहीं बनाया तो मैं 'असत्यवादी' हो जाऊँगा। ब्राह्मणो की सच्ची पहचान तो  'सत्यनिष्ठा' ही है -क्या केवल जनेऊ धारण कर लेने से ही कोई ब्राह्मण बन जाता है ?
(गदाई के बोलते समय लाहाबाबू का प्रवेश )
लाहाबाबू : गदाधर क्या कह रहा है ?
चन्द्रादेवी : गदाधर के जनेऊ संस्कार को लेकर चर्चा हो रही है। किन्तु गदाधर की जिद है कि धनीमौसी को ही भिक्षामाता बनाना होगा। बोलता है कि बचपन में ही उसने वचन दिया था।
रामकुमार : हमलोगों को भय हो रहा है -हमलोगों के कुल में ऐसी घटना कभी नहीं हुई है।
लाहाबाबू : किन्तु गदाई क्या कहता है ?
रामकुमार : गदाई कहता है -उसने धनीमौसी को वचन दिया है, वचन पूरा नहीं किया तो वह 'असत्यवादी' हो जायेगा।
लाहाबाबू : तो , आपलोग उसकी बात मान लीजिये न , मैंने तो गैर-ब्राह्मणि को भी भिक्षामाता बनते हुए देखा है। और तुम लोगों ने सत्यकाम की कहानी तो सुनी होगी ? सत्यकाम के गुरु जब सत्यकाम के 'कुल' का निर्धारण करने गए तो उन्होंने केवल उसकी 'सत्यवादिता' के आधार पर ही उसके कुल का निर्णय किया था। और फिर धनी को तो हम सभी लोग जानते हैं -ब्राह्मण कुल में जन्म न ग्रहण करसे भी धनी तो ब्राह्मणों के जैसी ही सदाचारी और धार्मिक है।
रामकुमार ; किन्तु मैं सोच रहा था कि गाँव के लोग क्या कहेंगे ?
लाहाबाबू : कौन क्या कहेगा ! जब हम सभी लोग इसके पीछे खड़े खड़े हो जायेंगे तो कोई कुछ नहीं बोलेगा।
चन्द्रादेवी : धनी तो उसकी धाई माँ (नर्समाँ भी है -नाड़ काटनेवाली) है ही -भिक्षामाता भी बन जाएगी -और क्या किया जा सकता है।
रामकुमार : क्यों रे गदाई, तबतो तूँ ही जीत गया ? -अच्छा हुआ न !
(रामकुमार का घर के भीतर जाना -और चन्द्रादेवी 'बैठिये लाहाबाबू ' कहकर भीतर चली जाएगी। )
गदाई : अच्छा चाचाजी , पाइन लोगों में दुर्गादास काका बड़े अहंकारी है न ?
लाहाबाबू : अचानक तुमने यह बात क्यों कह दी ?
गदाई : मैं जो रोज-रोज सीतानाथ चाचा के घर जाता हूँ, वे इस बात को पसंद नहीं करते हैं, लड़का होकर भी मैं उनलोगों के घर के भीतर जाकर लड़कियों के साथ  मिलताजुलता हूँ -इसीलिये वे चिढ़े रहते हैं। 
लाहाबाबू : किन्तु तुम तो सीतानाथ के घर जाते हो, दुर्गादास के घर तो नहीं जाते ? 
गदाई : एकदिन मुझे सुनाते हुए कह रहे थे -'मेरे घर में कोई लड़का भीतर घुसकर लड़कियों के साथ बातचीत नहीं कर सकता। मेरे घर में अनुशासन है, स्त्रियों के लिए कड़ी पर्दाप्रथा का पालन आवश्यक है !'
लाहाबाबू : हाँ -दुर्गादास (उदयशंकर) थोड़ा उसी प्रकार का है, उसकी नाक थोड़ी ऊँची है। 
गदाई : वास्तव में वे सोचते हैं कि -लड़कियों को घर के भीतर बन्द करके रखने से ही लड़कियाँ अच्छी रहेंगी। किन्तु अच्छी-शिक्षा और सदगुणों का अभ्यास नहीं रहे तो, क्या  'पर्दाप्रथा' के द्वारा कभी स्त्रियों को  
सुरक्षित रखा जा सकता है ? मैंने तो दुर्गादास काका को कह दिया है, मैं यदि चाहूँ तो तुमलोगों के घर के भीतर जा सकता हूँ, और घर की लड़कियों के साथ बातचीत भी कर सकता हूँ। 
लाहाबाबू : यह सुनकर उन्होंने क्या कहा ? 
गदाई : वे बोले -'ठीक है -देखता हूँ की तूँ मेरे घर में कैसे घुसता है !' मैंने भी कह दिया है -'मैं तुम्हारे घर में घुसूंगा और लड़कियों के साथ बातचीत भी करूँगा। 
लाहाबाबू : हा -हा -हा 
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १४ :
 [दुर्गादास पाइन के घर का बरामदा / सायंग काल के समय दुर्गादास हिसाब लिख रहे हैं -स्त्री के वेश में -मोटी तथा मैली साड़ी तथा चाँदी के घने पहने,जुलहिन की तरह वेश बनाकर काँख पर एक टोकनी रखकर घूँघट से मुँह ढककर  गदाई का प्रवेश।]
दुर्गादास : कौन ? के है वहां ?
गदाई : मैं जुलाहों (बुनकरों या तांत का कपड़ा बुनने वालों) की बेटी हूँ, मेरा घर बदनगंज है। 
दुर्गादास : तो इतनी दूर क्या करने आयी है ?
गदाई : जी मैं यहाँ बाजार में सूत बेचने आयी थी। 
दुर्गादास : सो तो ठीक है -पर अब क्या चाहती है ?
गदाई: ख़रीद-बिक्री करने में देर हो गयी है, यदि ठहरने की थोड़ी जगह मिल जाती तो, इसी गाँव में रात काट लेती। 
दुर्गादास : (गदाई की ओर देखते हुए) ओ, देखता हूँ - तू तो कम उम्र की लड़की है; तो फिर इतनी देरी क्यों कर दी ?
गदाई : जी , सो तो हो ही गया है ! 
दुर्गादास : अच्छा,तूने तो मुश्किल में डाल दिया - देखता हूँ क्या किया जा सकता है। (भीतर दरवाजे की तरफ देखते हुए) ओ 'पतुर की माँ, जरा एक बार बाहर आना तो -(दुर्गादास की पत्नी का प्रवेश) यह लड़की कह रही है कि बजार में आयी थी -बदनगंज इसका घर है, रात हो गयी है, देखो बेचारी के लिए रात में रहने की कुछ व्यवस्था कर दो। और सुनो थोड़ा कुछ खाने-वाने के लिए भी दे देना। ... जाओ अंदर चली जाओ .....| 
गदाई :গড় করি কর্তা বাবু आदाब? करती हूँ, मालिक बाबू (गदाई आदाब करेगा)  
दुर्गादास : ठीक है , ठीक है-और 'গড় করতে হবে না'  नहीं करना है, इधर से नहीं -उस तरफ से जा --(गदाई घूमकर इस तरफ से उलटी तरफ वाले कमरे में जायेगा, दुर्गादास बैठेगा) थोड़ी देर के बाद हाथ में लालटेन लिए नैपथ्य से रामेश्वर की आवाज सुनाई देगी -गदाई, ओ गदाई, गदाई !
गदाई : (कमरे से बाहर निकलकर) मैं यहाँ हूँ दादा, अभी आता हूँ दादा। 
दुर्गादास : अरे गदाई तूँ है -अरे !
गदाई : आपने देख लिया न, मैं आपके घर के भीतर घुस सकता हूँ, और लड़कियों से बातचीत भी कर सकता हूँ। 
दुर्गादास : लेकिन अरे लड़के .....(गदाई का प्रस्थान और दुर्गादास का हा -हा हँसना )
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य १५
[गदाई रघुबीर की पूजा करने के बाद ध्यानस्थ होकर बैठा है, माँ एकबार देखकर जाएगी, दुबारा वापस आकर ...]
चन्द्रादेवी : गदाई। ..... ओ गदाई। .. बेटा गदाई 
गदाई : ओ तुम (अर्ध निमीलित नेत्र/ गदाई धीरे धीरे उठकर खड़ा हो जायेगा)
चन्द्रादेवी : थोड़ी देर पहले तुमको एकबार देख गयी थी। 
गदाई : अच्छा समझा, वास्तव में पूजा करते समय मैं एकमन होकर रघुबीर को पुकारता हूँ न। 
चन्द्रादेवी : अच्छा गदाई , बताओ तो तुमको ये बीच बीच में क्या हो जाता है ? विशालाक्षी मंदिर जाते समय तू बेहोश हो गया था। बहुत प्रयास के बाद तुम्हें फिर से होश हुआ था। मुझे तो बड़ा डर लग रहा है- कहीं तुमको किसी बीमारी ने पकड़ तो नहीं लिया ? 
गदाई : अरे नहीं माँ ! तूँ बेकार में डर रही है; मुझे क्यों रोग होने लगा ? मैं जब विशालक्षी के भजन गाते हुए चल रहा था, तो विशालाक्षी के चिंतन में मन इतना डूब गया था कि बाहर का होश चला गया था। 
चन्द्रादेवी : ओ, किन्तु इसी के कारण सभी लोग डर गए थे.
गदाई : तुमलोग बेकार में डर रही हो, मुझे तो कुछ हुआ नहीं था। 
चन्द्रादेवी : बेटे, मैंने गोपेश्वर शिव के पास मनिता माँगा था -कहा था, बाबा गदाई की बीमारी ठीक कर दो। तब स्वप्न में गोपेश्वर ने आकर कहा था -'तुम्हारा लड़का तो ठीक है -उसे कुछ नहीं हुआ है। '
गदाई : तब फिर अब क्यों डर रही हो ? (नैपथ्य से गदाई,गदाई की आवाज / उसके तीन दोस्तों का प्रवेश)
दोस्त १ : चाची गदाई है ? 
चन्द्रादेवी : यहीं तो है, लो बच्चों तुम लोग बातें करो। (प्रस्थान)
दोस्त २ : गदाई , सुनो एक संकट सामने आ गया है !
गदाई : कैसा संकट ?
दोस्त ३-सुनो, पाइन लोगों के शिवमन्दिर में आज एक 'गीतिनाट्य' (Opera-संगीत-नाटक) होने वाला था, किन्तु जो लड़का शिव बनने वाला था, उसकी तबियत खराब हो गयी है। निर्देशक बता रहा था कि उसके पास शिव की भूमिका करने योग्य दूसरा कोई पात्र ही नहीं है। गांव या बाहर से कोई पात्र खोज लेने से ही आज गीतिनाट्य हो सकेगा -नहीं तो नहीं। 
दोस्त २ : अब अंतिम समय में ओपेरा नहीं आयोजित होगा ? सभी लोग रात्रि जागरण के लिए तैयार होकर आये है। 
गदाई : किन्तु यदि जात्रा नहीं हुआ तो सभी को वापस लौट जाना पड़ेगा - तो बाकी लोग क्या कहते हैं ?
दोस्त १ : सभी लोग चाहते हैं की तुम शिव का वेश धारण करो। 
गदाई : अरे छोड़ो - आज भला मैं शिव का वेश कैसे धर सकता हूँ ? जानते नहीं, आज शिवरात्रि है ! मुझे अभी और तीनबार शिव की पूजा करनी है। मैं पूजा को छोड़ कर नाटक करने कैसे जा सकता हूँ ?
दोस्त ३: गदाई -केवल तुम ही इस संकट से निकाल सकते हो, कोई उपाय सोचो जिससे घर-बाहर दोनों के कार्य सम्भल जाएँ !
गदाई : अरे अचानक शिव का वेश बना लेने से ही तो नहीं होगा, नाटक के संवाद को एकबार देखा तक नहीं है, नाटक कैसे करूँगा ?
दोस्त ३: अरे वह सब कुछ निर्देशक सम्भाल लेगा। बाहर से डायलॉग प्रांप्ट करेगा और भजन होगा। तुम केवल वेश बनाओगे और थोड़ा अंगसंचालन करोगे, बस उतने से ही हो जायेगा। 
दोस्त १ : अरे ये शिव का शृंगार तुम पर बहुत खिलेगा, इसीलिये सबों की इच्छा है कि तुम ही इस भूमिका को करो। 
दोस्त २ : इसके अलावे तुमको तो 'गीतिनाट्य ' का ज्ञान भी है, तुम्हारे सिवा अन्य कोई उपयुक्त ही नहीं है।दोस्त ३ : अरे , थोड़ा और सोच-विचार करके देखो। 
गदाई  : बड़े धर्मसंकट में डाल दिया -पूजा करने के बीच बीच में नाटक भी करना है ! -अच्छा चलो , वही होगा; नाटक में भी शिव का ही चिंतन चलेगा और क्या ? 
दोस्त १ : (घुटनों पर बैठकर) --तूने बचा लिया गदाई। 
दोस्त ३ : तो फिर ठीक रात के १० बजे पहुँच जाना। 
[बत्ती बुझेगी ] 
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दृश्य १६
[गीतिनाट्य के संगीत-कार्क्रम में ओजपूर्ण शब्द : आवाज रुकने पर शिव की वेशभूषा में गदाई मंच पर उपस्थित होगा, धीरे धीरे चलता हुआ, बिह्वल उर्ध्वमुखी दृष्टि, बायें हाथ में त्रिशूल है, चारो तरफ घूम घूम कर दर्शकों को दिखलायेगा, उसके बाद दाहिने हाथ को आशीर्वाद की मुद्रा में रखते हुए अविचल हो जायेगा। नृत्य का झंकार ... ]
नैपथ स्वर : १ -वाह शाबाश -शाबाश !!
२. बताओ तो शिव कौन बना है ?
३. लगता है कि गदाई है न ?
४. उसी के ऐसा नहीं लग रहा है ?
५. अरे ये तो गदाई ही है ! अरे गदाई !
६. गदाई तो बहुत शानदार दिख रहा है !
७. चलो, अब गीतिनाट्य खूब जमेगा। 
८.क्या हुआ वह एकदम खड़ा ही क्यों है ?
९. नाच कहाँ रहा है?
१०. क्या बात है कहो तो !
११.अरे पकड़ो पकड़ो। 
१२. गदाई को ऊपर उठा लो। 
१३.लगता है गिर पड़ा है। 
१४.बेहोश तो नहीं हो गया ?
१५.जल्दी जल्दी !!
१६.उसको ठीक से उठा लो.
[तीन दोस्त एवं सीतानाथ पाइन आकर गदाई को उठाकर ले जायेंगे। ]
[बत्ती बुझेगा]
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दृश्य १७
[गदाई लोगों के घर का बरामदा / लालटेन के प्रकाश में लाहाबाबू, सीतानाथ पाइन, गदाई के तीन दोस्त प्रतीक्षा में बैठे हैं। नैपथ : घर में एक ओझा गदाई को देख रहे हैं। ]   
दोस्त ३ : चाचाजी, जानते हैं-जब हमलोग आमबगान में भी नाटक करते हैं, उस समय भी गदाई बीच बीच में निस्तब्ध -हो जाया करता है। फिर थोड़ी देर बाद ठीक हो जाता है। 
दोस्त २: हमलोगों को लगता है कि वह अपने संवाद को भूल गया है -इसलिये खड़ा हो गया है। 
दोस्त ३: पकड़ने जाने पर कहता है - मुझे पकड़ना मत, नहीं पकड़ना। 
लाहाबाबू : उसको तो इस समय भी भीतर से होश है। उसको भाव (अनुभूति) होता है-समझे ? वह अभी तुरंत ठीक हो जायेगा। -तुमलोग अपने अपने घर जाओ -रात काफी हो गयी है। 
सीतानाथ : वास्तव में उसका मन बहुत पवित्र है (जे.पी.कोई खोंट नहीं है) -पवित्र मन में भगवान का भाव (आत्मानुभूति?) होता है। डरने की कोई बात नहीं है। जाओ तुमलोग अब घर जाओ, हमलोग तो यहाँ हैं ही। मित्रगण : ठीक है फिर आता हूँ चाचा जी. आता हूँ दादा जी ! (मित्रों का प्रस्थान)
[ओझा (shaman=झाड़फूंक करने वाला), रामकुमार और चन्द्रादेवी का प्रवेश]
ओझा : दिखिये, माताजी मैंने आपके लड़के में जो लक्षण देखे हैं, उससे मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूँ कि -उसके भीतर भूत -प्रेत वाली कोई बात नहीं है। जो कुछ करना था -वह सब मैंने किया है; यदि वैसी कोई बात होती तो उसी से काम हो जाता। मेरे विचार से आपका लड़का बहुत शुद्ध आत्मा है, शुद्ध हृदय से भगवान का चिंतन करने से ऐसा हो जाता है। इस लड़के में-आगे चलकर बहुत बड़ा योगी होने की सम्भावना है। बल्कि आपलोग इसकी जन्मपत्री -कुंडली आदि को किसी अच्छे ज्योतिषी से दिखवाइये।डरने की कोई बात नहीं है, -उसको पूरा होश है -देख-सुन सकता है। किन्तु भावावेश को दूर होने में एक-दो घंटे लग सकते हैं। मैं फिर आता हूँ माँ -(ओझा का प्रस्थान )
लाहाबाबू : चलिए चलते हैं, कुछ निश्चिन्त तो हो गए हैं। रात काफी बीत चुकी है, तो आज फिर हमलोग आते हैं, चन्द्रा। चलो हे सीतानाथ, अब चलता हूँ रामकुमार। 
सीतानाथ : रात में थोड़ा ध्यान रखना - मैं सुबह होते ही एकबार आऊंगा। अब आता हूँ-
(लाहाबाबू, सीतानाथ का प्रस्थान / चन्द्रादेवी लालटेन से रास्ता दिखा जाएगी -लौटेगी )
चन्द्रादेवी : क्यों रे -यहीं क्यों बैठा है ?
रामकुमार : माँ , सोंच रहा था गदाई के ठीक होते ही मैं कोलकाता जाऊंगा -परिवार तो पहले जैसा नहीं है। रामेश्वर और सर्वमंगला का ब्याह- शादी सब निपट गया है। तुम्हारी बड़ी पुतोह के देहान्त हो जाने के बाद से इस घर से मेरा मन उचाट हो गया है। तुम सभी मिलकर मेरे अक्षय को देखना, मैं कोलकाता जाकर कुछ कमाई का उपाय देखता हूँ। इस गांव के भी कुछ लोग कलकत्ते जाकर कमाई कर रहे हैं। लगता है कि सिर्फ गाँव में ही रहने से अब ७/८ लोगों का पेट भरना सम्भव नहीं होगा। रामेश्वर की कमाई भी कुछ खास नहीं है। 
चन्द्रादेवी : तूँ जिसे अच्छा समझते हो, वही करो बेटे। मैं तो औरतजात हूँ-यह सब क्या जानू ? सिर्फ इतना जानती हूँ कि रघुबीर जिस हाल में रखेंगे, उसी हाल में रहना होगा। मेरे लिये कोई चिंता मत करना, गदाई ठीक से रहा तो बाकी सबको ठीक से संभाल लुंगी बेटे। 
रामकुमार : वहाँ कुछ सम्पर्क बना है, कोलकाता के झामापुकुर में एक घर लूंगा-वहीँ रहकर २/३ घरों में पूजा करने का कार्य करूंगा, और एक टोल (संस्कृत पाठशाला) खोलूंगा। १-२साल बाद गदाई को भी वहीँ ले जाऊंगा, वह मेरे पास रहकर टोल में पढाई करेगा, और मेरी सहायता भी करेगा। 
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य १८
[झामापुकुर में रामकुमार का किराये का मकान, रामकुमार का प्रवेश -कंधे से झूलता बैग उतारते हुए -] 
रामकुमार : गदाई-कहाँ हो ? ओ गदाई !
 गदाई : (नैपथ्य से) आता हूँ दादा। .. (थोड़ी देर बाद प्रवेश)
रामकुमार : क्यों रे -क्या कर रहा था ?
गदाई : माला गूँथ रहा था। 
रामकुमार : माला बना रहा था, लेकिन तुम क्यों माला गूँथोगे ?जिसकी ठाकुर-सेवा में माला गूंथने की जिम्मेवारी है, वे लोग बनाएंगे। माला बनाना तो तुम्हारा कार्य नहीं है। 
गदाई ; दादा , कोलकाता के बाबू लोग खरीदकर रेडीमेड माला लाते हैं , उस माला को भगवान के गले में डालने के लिए मेरे हाथ नहीं उठते हैं। इसीलिये अपने पसन्द के अनुसार माला बना रहा था। फूल भी मैंने खुद तोड़े हैं -खरीदा नहीं है। 
रामकुमार - सो तो ठीक है, किन्तु इतना समय लगाओगे तो काम कैसे चलेगा? 
गदाई - दादा आप क्या कहते हैं - भगवान की पूजा के लिये समय नहीं दूंगा -ऐसा कैसे होगा ?
रामकुमार : गदाई, तुम जिनके घरों में पूजा करते हो-वे सभी लोग तुम्हारी बहुत बड़ाई करते हैं। वे कहते हैं कि आपके भाई बहुत मन लगाकर पूजा करते हैं। तुम्हारे भजन सुनकर और तुम्हारी बातें सुनकर सभी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं। तुम्हारी बड़ाई सुनकर मेरा सीना गर्व से भर उठता है, किन्तु तुमको मैं कोलकाता लाया किस लिए था -बताओतो ?
गदाई: इसीलिए कि मैं आपके काम में सहायता करूँगा। 
रामकुमार : हाँ, काम में सहायता करेगा ही, किन्तु मैं चाहता हूँ कि तुम मुझसे अच्छी तरह से लिखना-पढ़ना भी सीखले। 
गदाई : किन्तु दादा, मेरा मन तो पढ़ना-लिखना नहीं चाहता है। 
रामकुमार : अरे क्या सभी का मन पढाई-लिखाई में अपनेआप चला जाता है ? क्या तुम सोंचते हो कि मेरे टोल में जितने लड़के पढ़ने आते हैं, उन सभी का मन पढ़ाई में जाता है ? मन को वैसा ढालना पड़ता है। तुम भी अपने मन को वैसा बना सकता है। अभी क्या पहले वाला समय रह गया है! पढ़नेलिखने नहीं सीखेगा तो कमाई कैसे करेगा ? पूजा करके तुम भला कितना उपार्जन कर पाओगे ?
गदाई : नहीं दादा , मैं यह 'चावल-केला का छन्दा बाँधो' विद्या नहीं सीखना चाहता, इस दुनिया में तो सभी लोग 'रुपया-पैसा, भोग-सुख, नाम-यश यही सब पाने के चक्कर में मतवाले होकर रहना चाहते हैं।-मैं ये सब कुछ भी नहीं पाना चाहता। 
रामकुमार : तब तूँ क्या चाहता है गदाई ?
गदाई : क्या चाहता हूँ, यह तो मैं भी अभी अच्छी तरह से बता नहीं पाउँगा। केवल इतना कह सकता हूँ कि मैं इस संसार का कोई भोग-सुख नहीं पाना चाहता। मैंने तो यह देख लिया है कि ये सारे सुख नश्वर हैं -आज हैं तो कल नहीं ! मैं एक ऐसा अनन्त सुख चाहता हूँ,जिसका भोग जीवनभर करने से भी कभी समाप्त नहीं होगी - जो कभी रुकेगी नहीं। 
रामकुमार : गदाई, तूँ माँ की आँखों का तारा है, मैं तुमको माँ के पास से यहाँ ले आया हूँ, मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे मन को थोड़ा भी कष्ट हो, मुझे जो अच्छा लगा वही, तुझसे कहा। अब जो रघुबीर की इच्छा होगी वही होगा। ....जाओ जो कर रहे थे वही करो। (गदाई का प्रस्थान )
[महेश चटर्जी का प्रवेश ] 
महेश : रामकुमारदादा हैं क्या ? बस दादा एक विषय पर आपके साथ सलाह-मश्बिरा करने आया हूँ, तुमने कोलकाता की रानी रासमणि का नाम तो अवश्य सुना होगा। 
रामकुमार : रानी रासमणि -नाम तो सुना सुना सा लगता है। 
महेश : मैं जिस जानबाजार में कार्य करता हूँ, वह रानी का ही स्टेट है। उनका निवास भी जानबाजार में ही है। खूब धनी होने के साथ ही साथ बहुत भक्तिमति महिला भी दान-ध्यान भी बहुत करती हैं। वे बहुत तेजस्विनी भी हैं, इसलिये अंग्रेज लोग भी उनका आदर करते हैं। उन्होंने गंगा के किनारे लगभग ६० बीघा जमीन खरीदकर एक कालीमंदिर का निर्माण करवाया है। उसके साथ ही राधागोबिन्द मन्दिर और १२ शिव मन्दिर, बगान , नहबतखाना। .... भी बनवाया है। 
रामकुमार : वाह , तबतो एकबार मन्दिर देखने जाना चाहिये। 
महेश : देख तो आएंगे, -किन्तु मंदिर में अभी तक प्राणप्रतिष्ठा नहीं हुई है। 
रामकुमार : अच्छा। .. 
महेश : रानी के सामने एक समस्या खड़ी हो गयी है/ रामकुमार -कैसी समस्या आ गयी है ? 
महेश : वे माँ भवतारिणी को अन्नभोग चढ़ाना चाहती हैं। किन्तु वे मल्लाह जाति की हैं,इसीलिए ब्राह्मणों ने विरोध खड़ा कर दिया है। इसलिये वे बहुत निराश हो गयीं हैं। उनको अन्न भोग देने की बड़ी इच्छा है -इसीलिये रानी सभी पंडितों के साथ सम्पर्क कर रही है। मुझे अचानक आपकी याद हो आयी। सोंचा एक बार आपका मंतव्य भी जान लिया जाय। आप इस बारे में क्या उचित समझते हैं -बतलाइये। 
रामकुमार : समस्या का एक सरल समाधान तो है, किन्तु क्या तुम्हारी रानी उसके लिए सहमत होंगी ?
महेश : आप पहले अपनी राय बताइये तो सही। 
रामकुमार : देखो, रानी यदि मंदिर को किसी ब्राह्मण के नाम से 'दानपत्र' लिख दें, तो फिर अन्न भोग देने में कोई कठिनाई नहीं रह जाएगी। 
महेश : आप कह रहे हैं -यह व्यवस्था शास्त्र-सम्मत है ! तब सुनिए स्वयं रानी भी कुछ इसी तरह का समाधान चाह रही थीं। और इधर आप कह रहे हैं कि यह शास्त्र-सम्मत है ,तब तो रानी इसको ग्रहण करेंगी ही ऐसा प्रतीत होता है। 
और यदि ऐसा हुआ तो पुजारी पद ग्रहण करने के लिए वे आपको बुला भी सकती हैं, आप इस पर थोड़ा विचार कीजियेगा। तो अभी मैं चलता हूँ - आप तो समझ रहे होंगे कि यह बहुत आवश्यक कार्य है। रानी माँ ने मूर्ति बनवाकर एक संदूक में रखा था; माँ भवतारिणी ने रानी को सपने में आकर कहा है -'मैं और कितने दिन इस प्रकार बक्से में बन्द रहूंगी। ' इसीलिये रानी माँ चाहती हैं कि अगले स्नानयात्रा के शुभ दिन में ही प्राणप्रतिष्ठा हो जाये। 
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य १९:
[ शंख, घंटा, उलूध्वनि के साथ प्रकाश होगा/ दक्षिणेश्वर कालीमंदिर का गर्भ मंदिर/ मूर्ति के सामने रामकुमार शांतिजल दे रहे हैं, मथुरबाबू और रानी रासमणि प्रणाम करके उठती है। .... ] 
रासमणि : माँ भवतारिणी , आज तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो रही है। मथुर अब मंदिर का द्वार दर्शनार्थियों के लिए खोल दो। बाहर बहुत से लोग विग्रह दर्शन के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। 
मथुर : अभी तुरंत इसकी व्यवस्था करता हूँ माँ। 
रासमणि : मथुर , ब्राह्मणो के लिए नाट्यमंदिर के प्रांगण में ही प्रसाद की व्यवस्था कर देना, और तुम स्वयं खड़े होकर सारी व्यवस्था को देखना। 
मथुर : ठीक है माँ -मैं वैसा ही करूँगा।  माँ, आपने ब्राह्मणों के लिए इतनी व्यवस्था की है,  किन्तु ब्राह्मण बहुत कम संख्या में ही उपस्थित हुए हैं। बहुतों ने कहा है कि मल्लाहों द्वारा दिया गया अन्नभोग है, इसीलिए बहुत से पंडितों ने कहलवा भेजा है कि वे नहीं आएंगे। 
रासमणि : मैंने भी अनुमान कर लिया था कि -सभी ब्राह्मण तो नहीं आएंगे। किन्तु इस समय इसको लेकर दुःख प्रकट करने से तो यही अच्छा होगा, कि अभी तक जितने ब्राह्मण आ चुके हैं,पहले  उनको आदरपूर्वक प्रसाद ग्रहण करवा दिया जाय ! 
मथुर : आप बिल्कुल ठीक कह रही हैं माँ (मथुर का प्रस्थान)
रासमणि : भट्टाचार्य जी महाशय,आपको मैं अपनी कैसे कृतग्यता अर्पित करूँ -मुझे समझ में नहीं आ रहा है। 
रामकुमार : माता जी, कृतग्यता ज्ञापित करने की जिम्मेदारी तो मेरी बनती है। इतने बड़े और भव्य आयोजन का पुजारी बनने का सौभाग्य और कितने ब्राह्मणों के भाग्य में घटित होता होगा माताजी ...|
रासमणि : आप आशीर्वाद दीजिये कि इस मंदिर में माँ की पूजा में कभी कोई त्रुटि न हो। (रासमणि रामकुमार को प्रणाम करेंगी, --उठकर बोलेंगी ...)
आपको जिस किसी चीज की आवश्यकता हो, आप मेरे मंझिले दामाद मथुर से कहकर उसकी ब्यवस्था करवा लीजियेगा। 
रामकुमार : माँ , मेरा छोटा भाई भी मेरे साथ ही रहता है। हम दोनों के लिये रहने की व्यवस्था करनी होगी। 
रासमणि : यहाँ अतिथि गृह में कई कमरे हैं, तो फिर अपने परिवार से या अन्य किसी को भी रखना चाहें तो कोई कठिनाई नहीं होगी। 
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य २०
[गदाधर ने एक दिन गंगाजी से मिट्टी लाकर, अपने हाथों से नन्दीबैल, डमरू और त्रिशूलसहित शिवजी की मूर्ति का निर्माण किया है, और हृदय को साथ में लेकर गंगा के किनारे मूर्ति स्थापित करके शिव पूजा कर रहे हैं/गदाई ध्यानस्थ हैं /मथुरबाबू का प्रवेश ...] 
हृदय : (मथुरबाबू को देखकर) मामा, मंझलेबाबू आये हैं, उठिये मंझलेबाबू आये है-उठिये जल्दी उठिये। 
मथुर : (अपने आप से ) लगता है अपने भट्टाचार्य जी के भाई ये ही हैं। (आगे बढ़कर ) क्या छोटे भट्टाचार्य यहाँ मामा-भगना मिलकर शिवपूजा कर रहे हैं ? 
गदाधर : जी हाँ। 
मथुर : (मूर्ति देखकर विस्मित हो गए हैं।) ... यह मूर्ति कहाँ से मिली ?
 (गदाई चुप हैं )
हृदय : ओ मामा , बोलो न , ए मामा पूछ रहे हैं -बताओ न -जी मामा ने ही मूर्ति बनाई है। 
मथुर : मामा ने ही मूर्ति गढ़ा है ? ऐसी बात है क्या ? तबतो छोटे भट्टाचार्य जी- आप में तो, देख रहा हूँ  कई गुण हैं! 
हृदय : जी हाँ , मेरे मामा में बहुत गुण हैं-मामा इसके पहले भी कई मूर्तियाँ गढ़ चुके हैं। फिर ये मूर्ति जोड़ना भी जानते हैं। टूटी हुई मूर्ति को इस प्रकार जोड़ देंगे कि कोई समझ भी नहीं सकेगा। 
मथुर : तो क्या पूजा हो जाने के बाद यह मूर्ति मुझे दोगे ? (गदाई सम्मति में गर्दन हिलाएंगे)
हृदय : मामा कह रहे हैं कि देंगे। 
मथुर : बहुत सुन्दर मूर्ति है, जाने के लिए मुड़ते हैं। 
गदाई : इसी समय देदो न ! 
हृदय : मंझलेबाबू, मंझलेबाबू - थोड़ा ठहरिये , पूजा हो चुकी है, मामा इसी समय मूर्ति दे देंगे। 
(गदाई हृदय को मूर्ति देगा , हृदय मथुर बाबू को देगा)
मथुर : वाह, बहुत सुन्दर मूर्ति है, बाजार में खरीदने से तो ऐसी मूर्ति नहीं मिलती है। मैं इसे रानी माँ को भी दिखाऊंगा-और इसे कोठी निवास (कुठिबाड़ी ) में रखा जायेगा। कैसा रहेगा ?(मथुरबाबू का प्रस्थान)
हृदय : अच्छा मामा .... मंझलेबाबू को देखते ही तुम ऐसा क्यों करते हो ? किसी व्यक्ति को देखते ही ऐसा करते हो , मानो उसके साथ हमलोगों का भैंसुर- भभो का सम्बन्ध हो !
गदाधर : अरे तूँ नहीं जानता है, ..... मंझलेबाबू दादा से कह रहे थे कि मुझे नौकरी देना चाहते हैं, दादा के ऊपर दबाव बढ़ गया है, -कालीमंदिर की जिम्मेदारी मुझे देना चाहते हैं, पर मैं किसी बड़े आदमी की 
नौकरी नहीं करूँगा। 
हृदय : आप नौकरी क्यों नहीं करना चाहते ? पूजा करने की नौकरी तो तुमने इसके पहले भी किया है। फिर अब क्यों नहीं करना चाहते ?
गदाधर : नहीं भाई ... मैं ईश्वर के सिवाय और किसी की नौकरी करने को गुलामी समझता हूँ। 
हृदय : क्या मामा, तुम्हारी तो हर विचार उल्टा ही होता है। मैं तो भाई नौकरी करने के लिए ही यहाँ आया हूँ। मुझसे यदि पूछें तो मैं अभी हाँ कह दूंगा। 
गदाधर : तो तुम करो न, मैं क्या तुमको रोक रहा हूँ। 
(एक कर्मचारी का प्रवेश ) 
कर्मचारी : मंझलेबाबू ने छोटे भट्टाचार्य जी को मुलाकात करने को कहा है -अभी कोठीनिवास में हैं, अभी ही आने को कहा है। 
गदाधर : मुझे बुलाया है ? .... क्या बात होगी रे हृदु ? 
हृदय : जब मंझलेबाबू ने बुलाया है -तो जाना होगा। (कर्मचारी से ) तुम चलो -ये अभी ही जायेंगे। 
गदाधर : जिसका डर था... वही हुआ रे .. वे मुझे यहाँ पर रहने तथा नौकरी करने के लिए कहेंगे।  
हृदय : तुम बताओ तो कि तुम नौकरी क्यों नहीं करोगे ? यहाँ की रानी माँ , मंझलेबाबू सभी कितने भले लोग हैं, इनके यहाँ नौकरी करने से मान-मर्यादा खो नहीं जाएगी। क्या बड़े मामा की मान -मर्यादा चली गयी है ? 
गदाधर : अरे हृदु , यहाँ पुजारीपद स्वीकार करने से देवी के समस्त आभूषणों के मुझे उत्तरदायी होना पड़ेगा, यह बहुत ही झंझट की है, मुझसे यह सम्भव न होगा । 
हृदय : ओ ये बात है, तब तुमने पहले क्यों नहीं कहा ? यदि मानलो कि मैं तुम्हारी तरफ से देवी के समस्त आभूषणों का भार संभाल लूँ -तब तो तुम पूजा कर सकोगे ?
गदाधर : देवी का श्रृंगार, पूजा आदि कार्य आदि तो मैं कर लूंगा -किन्तु यदि तुमको ही नौकरी में नहीं रखा तब क्या होगा ? 
हृदय : हाँ यह एक कठिनाई है, चलो न मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ। नौकरी की बात उठेगी, तब सारी बात मंझलेबाबू को खोलकर कह दूंगा। 
गदाधर : तुम कहते हो, तो चलते हैं [बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य २१ :
[ दक्षिणेश्वर मन्दिर के भीतर भगवान श्रीरामकृष्ण माँ काली के सामने बैठकर भजन सुना रहे हैं (भजन नैपथ्य में होता है) भजन के अंत में कहते हैं -]
श्रीरामकृष्ण : माँ मैं धन,जन, भोग-सुख, कुछ भी नहीं चाहता हूँ -बस तू मुझे दर्शन दे ! यदि तुम मुझे दिखाई नहीं देगी तो मैं किसकी पूजा करूँगा माँ ? तुम्हारी मूर्ति तो पत्थर की है। मैं रोज रोज पत्थर को तो भोग निवेदित नहीं कर सकता। तुमको तो लोग चिन्मयी कहते हैं - अपने उसी रूप को मुझे दिखा दो माँ। 
माँ , तूँ क्या सोंचती है - मैं हर महीने वेतन पाउँगा , इसीलिए तुम्हारी पूजा करने की नौकरी कर रहा हूँ ?नहीं माँ, मैं तुम्हारे मंदिर का ब्राह्मण पुजारी बनकर नहीं रह सकता, -जो करने से तुमको पाया जाता है -वही विद्या मुझे सिखला दो माँ !
तुम्हारे बिना मेरी कोई गति (दवा) नहीं है माँ। बताओ तो तुमको यदि नहीं देख सका तो मैं जीवित कैसे रहूँगा माँ ? सभी लोग तो जाने क्या क्या लेकर मतवाले हो रहे हैं, मुझे वो सब थोड़ा भी अच्छा नहीं लगता है माँ ! तो मैं फिर क्या लेकर रहूँगा -मुझे तो दर्शन देना ही होगा माँ - | 
माँ -मुझे दर्शन दे। .. माँ मुझे दर्शन दे। ... दर्शन दे। .. दर्शन दे दर्शन दे। ..... दर्शन दे माँ -दर्शन दे माँ। [ कहते हुए 'लजकोपड़ लड़कीन्याका मेये' नामक अपना प्रिय गीत ' गाने लगते हैं -
কোন হিসাবে হরহৃদে
দাঁড়িয়েছ মা পদ দিয়ে!
সাধ করে জিব বাড়ায়েছ
যেন কত ন্যাকা মেয়ে।
জেনেছি জেনেছি তারা
তারা কি তোর এমনি ধারা!
তোর মা কি তোর বাপের বুকে
দাঁড়িয়েছিল এমনি করে?
 'कोन हिसाबे हर-ह्रदये दाड़ायेछो माँ पद दिये। 
    साध करे जिब् बड़ायेछो, जेनो कतो न्याका मेये।। 
      जेनेछि जेनेछि तारा , तारा कि तोर एमनि धारा ----
          तोर माँ - कि तोर बापेर बुके, दाड़ाये छीलो एमनि करे।।  
-हे माँ , किस हिसाब से तुम श्रीशिवजी के हृदय पर पैर रखकर खड़ी हो ? तुमने इच्छापूर्वक (जानबूझकर) अपनी जीभ निकाल रखी है, मानो कितनी भोली-भाली लड़की हो ! हे तारा ! मुझे यह विदित हो चुका है कि तुम्हारी रीति ही ऐसी है, तुम यह तो बतलाओ कि तुम्हारी माँ क्या इस प्रकार तुम्हारे पिताजी के वक्षस्थल पर पैर रखकर खड़ी हुई थीं ? लीलाप्रसंग १/२०१]   
(हृदय का प्रवेश )
हृदय : मामा , तुमको ये सब क्या हो रहा है ? ... कहो तो ? -तुम पूजा करने के लिए कब आये थे और अभी तक तुम्हारी पूजा समाप्त नहीं हुई है ? इधर मंदिर के खजांची बाबू आदि खिड़की से झांककर तुम्हारा सब ढंग देख लिया है , जाओ न आज तुम्हारा क्या होगा -देखना। आज तो मंझलेबाबू, रानी माँ सभी कोलकाता से आये हैं। 
श्रीरामकृष्ण : तब तो तूँ प्रसाद की थाली-वाली लेकर उनको दे आ सकते थे। तुम लोगो के चलते क्या मैं -माँ को अकेले में पुकार भी नहीं सकूंगा ? 
हृदय : माँ को पुकारने से किसी ने तुमको रोका थोड़े ही है ? -किन्तु पूजा में अनियमितता होने पर वे लोग क्यों चुप रहेंगे ?
श्रीरामकृष्ण : तभी तो रे हृदु -मुझे बड़ी व्याकुलता हो रही है। 
हृदय : हुंह -'मुझे बड़ी व्याकुलता हो रही है !' अरे ,मेरा तो सिर ही फटा जा रहा है, सभी लोग कह रहे हैं -छोटा भट्टाचार्य जी तो पूरे पागल हो गए हैं।
श्रीरामकृष्ण : अच्छा, जरा मुझे बताओतो -यहाँ कौन पागल (हिप्नोटाइज्ड) नहीं है ? कोई रुपया पैसा के पीछे दीवाना है, कोई भोग-सुख के लिए पागल है, तो कोई नाम -यश पाने के लिए पागल हो रहा है ! और हो सकता है कि मैं माँ जगदम्बा को पाने के लिए पागल हूँ। 
हृदय : तुम अपनी ये सब ज्ञान की बातों को एक किनारे रख दो, उधर छत्तर पंडितजी  (क्षेत्रठाकुर  पुजारी क्षेत्रनाथ चट्टोपाध्याय) की नौकरी चली गयी है -तुम्हें पता भी है ?
श्रीरामकृष्ण : छत्तर पंडितजी की नौकरी चली गयी है ? -क्यों रे ?
हृदय : [१८५५ में दक्षिणेश्वर मंदिर के प्रतिष्ठित होने के तीन के अंदर ही) जन्माष्टमी उत्स्व समाप्त होने के बाद जिस दिन 'नंदोत्सव' मनाया जा रहा था, उस दिन श्री राधागोविन्दजी की विशेष पूजा अर्चना के बाद जब श्री गोविन्द जी को शयन कराने ले जा रहे थे, कि सहसा वे फिसल पड़े, और श्रीमूर्ति का एक चरण टूट गया।  और भग्न मूर्ति की पूजा कैसे हो-इसी बात को लेकर बड़ा हंगामा हो रहा है।
श्रीरामकृष्ण : ओ' हो। .. लगता है इसीलिए उस दिन सभी पंडित लोग जमा हुए थे, अच्छा तब पंडितों ने क्या कहा ? 
हृदय : सुना है कि भगवान की टूटी हुई मूर्ति को गंगा नदी में विसर्जित करके, भगवान की एक नई मूर्ति लाने का निर्णय किया गया है। 
श्रीरामकृष्ण : ओह ! (स्वतः) 'यह कैसी बुद्धि है? जो स्वयं 'अखण्ड-मण्डला-कार' हैं वे क्या कभी खण्डित हो सकते है ?  
(रासमणि और मथुरबाबू का प्रवेश/ हृदय और कर्मचारी जल्दी से प्रसाद की थाली आदि ले जायेंगे)
मथुरबाबू : कहिये छोटे भट्टाचार्यजी ! पूजा-पाठ कैसा चल रहा है ?
श्रीरामकृष्ण : जी चल रहा है। (रासमणि प्रवेश करते ही माँ भवतारिणी को प्रणाम करेगी !) 
मथुरबाबू : मैंने सुना है कि तुम माँ को बहुत मन लगाकर पुकारते हो ? (मथुर भवतारिणी को प्रणाम करेगा )
रासमणि : तुम्हारे लिए भयभीत होने की कोई बात नहीं है -ठाकुर (बंगाल में ब्राह्मण को ठाकुर कहते हैं), जिसको जो बोलना है, बोलने दो-तुम जिस प्रकार सम्पूर्ण मन-प्राण देकर माँ को पुकारते हो, उसी प्रकार से पुकारोगे। मैंने मंदिर के कर्मचारियों से कह दिया है कि कोई तुमको कुछ नहीं बोलेगा। तुम्हारी पुकार से माँ
भवतारिणी शीघ्र ही प्राण प्राप्त करके जाग उठेंगी - मंदिर को स्थापित करना सार्थक हो जायेगा ! (रानी रासमणि और एक बार माँ को प्रणाम करने के बाद प्रस्थान करेगी )
मथुर : भट्टाचार्य, एक विषय में तुम्हारा मन्तव्य नहीं ले सका हूँ -वही राधागोविन्द की मूर्ति के विषय में तुम्हारी क्या सलाह है ? बाकी पंडित लोग कह रहे हैं कि पुरानी मूर्ति को गंगा में बिसर्जित करके नई मूर्ति लानी होगी ? नई मूर्ति बनाने के लिए आदेश भी दे दिया गया है। किन्तु रानी माँ ने कहा था कि इस विषय में एकबार तुम्हारा परामर्श लेना आवश्यक है। 
श्रीरामकृष्ण : सुनो -रानी माँ के दामादों में से यदि किसी दामाद के गिर पड़ने से यदि उसका पैर टूट जाता, तो क्या उसको भी त्याग करके नया दामाद ले आते - या उसके चिकित्सा की व्यवस्था करते ? मूर्ति को जोड़ कर जैसी पूजा हो रही है, उसी प्रकार करते रहना काफी है। -गंगा में क्यों फेंकना होगा ?
मथुर : बाबा ! तुमने हमलोगों की ऑंखें खोल दी, बाबा, समस्या का इतना सरल समाधान है; यह तुम्ही से जान पाया ! पंडित लोग चाहे जो कुछ भी कहें -किन्तु तुम्हारा ही विचार उत्तम है !
श्रीरामकृष्ण : भगवान को बिल्कुल 'अपना आदमी' समझना पड़ता है। एकदम अपना आदमी समझकर उनकी सेवा -पूजा करनी होती है -वैसी भावना नहीं करके ; केवल एक मूर्ति मात्र सोचने से क्या ईश्वर -भक्ति हो सकती है ! उस मूर्ति को तो मैं ही जोड़ दूँगा। 
मथुर: बाबा, आज समझ में आ गया कि -पंडित और सच्चे भक्त में बहुत अन्तर होता है! 
[बत्ती बुझेगी ]             
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दृश्य २२:पाशमुक्ति  
[ जंगली वृक्ष-लताओं का झुड़मुट है / नैपथ्य से श्रीरामकृष्ण का स्वर: : दर्शन दो माँ। ... दर्शन दो माँ। .. दर्शन दो माँ। .. दर्शन दो माँ.... थोड़ी देर बाद हृदय का प्रवेश] 
हृदय : मामा, ओ मामा-मामा, ओ मामा -मामा, ओ मामा - आग में जलने का खेल देख रहा हूँ, अपने को भी जला डाला -साथ में मुझे भी। ...... मामा ... ओ मामा, अरे यह तो मामा का ही जनेऊ है ! ओ मामा .... ठहरो, तुम्हें मजा चखाता हूँ..... ओह, इसको तो साँप-बिच्छू का भी डर नहीं है। (हृदय ढेला खोजता है, और ठाकुर को डराने के लिये झुड़मुट की तरफ २-४ ढेला फेंकता है)  
(कपड़े लोटाते-लोटाते श्रीरामकृष्ण का प्रवेश) 
हृदय : ये सब क्या हो रहा है ? ब्राह्मण का लड़का होकर भी , जनेऊ -धोती फेंक कर जंगल में घुस कर ध्यान हो रहा है -- क्या सचमुच में तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है ? 
श्रीरामकृष्ण : अरे, तुझे क्या पता है ? हमेशा 'पाशमुक्त' होकर ध्यान करना चाहिए। जन्म लेते ही मनुष्य -'देहाभिमान' के पाश में आबद्ध हो जाता है ! माँ जगदम्बा को पुकारते समय -ऐसी बात सोचनी भी नहीं चाहिए कि मैं किसी से भी बड़ा हूँ। जनेऊ-धोती -चादर ये सब मन में, ऐसा अभिमान जगाते हैं कि - 'मैं ब्राह्मण तथा सबसे सबसे श्रेष्ठ हूँ !' ...अतः यज्ञोपवित भी एक 'पाश' है और देहाभिमान जाग्रत करता है, इसलिए मैंने उन्हें उतार देता हूँ और ध्यान करने के बाद लौटते समय पुनः धारण कर लेता हूँ ! 
हृदय : मामा, तुम ये सब करते हुए घूमते हो, रात में भी सोते नहीं हो- इस प्रकार करने से तो तुम्हारा शरीर टूट जायेगा। दुर्बल हो जायेगा। 
श्रीरामकृष्ण : अरे मैंने ऐसा क्या नया कर दिया है ? ... प्राचीन युग में हमारे ऋषि-मुनियों ने कितनी कठोर तपस्या की थी -तभी तो उन्हें ईश्वर का दर्शन मिला था। लोग अपने बीबी -बच्चों के लिये घड़ा भर भर कर रोते हैं, ईश्वर के लिए कौन रोता है -जरा बताओ तो ! [जिस प्रकार प्रकाश और अंधकार दोनों एक साथ नहीं रहते, उसी प्रकार योग एवं भोग दोनों एक साथ कभी भी नहीं रह सकते।] 
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य२३:  
[गंगाजी के किनारे : श्री रामकृष्ण जमीन पर लेटे हुए हैं]         
(सिर उठाकर ) माँ, एक दिन और बीत गया-माँ आज भी तुमने दर्शन नहीं दिया ? 'माँ,मैं जो इतना पुकार रहा हूँ,क्या तू उसका कुछ भी नहीं सुन पा रही है ? ....  मैं अब और पुकार नहीं सकता, माँ तुम इतनी निष्ठुर कैसे हो गयी माँ ? माँ -माँ -माँ,..... तो क्या मैंने कोई गलत काम किया है ? इसीलिए दर्शन नहीं दे रही हो ? 
তবে আমি নাকে খত দিচ্ছি মা -এই দ্যাখ। .. এই দ্যাখ (নাক মাথা ঘঘবে) এবার দেখা দে -কোই -এবার দেখা দে - আর পারি নে মা -দেখা দে মা। ... দেখা দে মা। .. দেখা দে মা (लेटे रहेगा)
(दो कम उम्र के लड़कों का प्रवेश)
लड़का १ : इस आदमी को क्या हो गया है -कहो तो , इसको जरूर कोई रोग पकड़ा है।
लड़का २ : अरे यह एक पागल है, इसको और एकदिन देखा था -यहीं पर बैठकर कुछ बड़बड़ा रहा था। 
लड़का १ : नहीं रे --- इस आदमी को मैं पहचानता हूँ , ऐसा लगता है। यही आदमी तो कालीमंदिर में पूजा करता है। यह कालीमंदिर का पुरोहित है। 
लड़का २ : यदि यह कालीमंदिर का पुरोहित होता तो यहाँ क्यों पड़ा रहता ? 
लड़का १ : नहीं -नहीं , मैं ठीक कह रहा हूँ, चलो हम कालीमंदिर में खबर देते हैं। 
लड़का २ : क्या तुम सही में देखे हो ? तो चलो मंदिर। ... (दोनों लड़के चलने को उद्यत हैं )
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य २४ 
[दक्षिणेश्वर कालीमंदिर में श्रीरामकृष्ण ]
श्रीरामकृष्ण : दर्शन दे माँ। ... दर्शन दे माँ। ... दर्शन दे माँ। 'माँ, तूने साधक रामप्रसाद को दर्शन दिया है। .... तुमने कमलाकान्त को दर्शन दिया है। तो मुझे दर्शन क्यों नहीं दोगी ?  माँ --- तुमने कितने ही साधकों को दर्शन दिया है। मुझको दर्शन क्यों नहीं दोगी माँ ! मैं जो तुम्हें इतना पुकार रहा हूँ , तुम क्या मेरी पुकार सुन नहीं पा रही हो माँ ! .... माँ के सामने घुटने पर बैठे हुए- तुम क्या दर्शन नहीं दोगी माँ , और कितना पुकारू माँ। दर्शन दे माँ। ... (३ बार ) तो , तुम कुछ भी करने से दर्शन नहीं दोगी ? --- लो देखो, कि मैं भी क्या कर सकता हूँ। .... (छटपट करते करते सहसा उनकी दृष्टि मंदिर में रखी हुई कटार पर पड़ेगी --
कटार को पकड़ने की कोशिश जैसे ही करेंगे .... )
[झंकार ध्वनि और धुआँ -ज्योति से मंच पूर्ण हो जायेगा, काली मूर्ति अंतर्ध्यान हो जाएगी , और जीवंत काली आकर खड़ी हो जाएगी। ]
माँ काली : गदाधर तुम्हारी व्याकुलता से मैं सन्तुष्ट हूँ -तुम उठकर देखो -मैं तुम्हारे नजदीक ही हूँ !
श्रीरामकृष्ण : माँ तुम ने क्या सचमुच मुझे दर्शन दिया है ! --कहीं ये स्वप्न तो नहीं है माँ ?
माँ काली : नहीं गदाधर स्वप्न क्यों होगा -मैं सचमुच तुम्हारे सामने हूँ -अब से , जब भी तुम्हारा मन करेगा , तुम मेरा दर्शन कर सकोगे। 
श्रीरामकृष्ण : माँ , मुझको बहला तो नहीं रही है ? झूठ तो नहीं कह रही है ?
माँ काली : नहीं गदाधर झूठ क्यों बोलूंगी ? तुमको मेरे बहुत से काम करने होंगे -मैं तुम्हारे द्वारा सभी काम करवा लुंगी। अभी से तुम मेरे यंत्र बनकर जगत का कल्याण करोगे -तुम मेरा यंत्र बनोगे और मैं तुम्हारी यंत्री होउंगी। 
श्रीरामकृष्ण: ठीक है माँ वही होगा, ---अच्छा ही है , मैं यंत्र हूँ तुम यंत्री हो-जैसे चलाओगी वैसा ही चलूँगा- ठीक है न ?
[ श्रीरामकृष्ण माँ काली के पीछे खड़े होंगे , हाथ उठकर लाल प्रकाश में दोनों फ्रीज -नैपथ्य में भजन सुनाई देगा - 'आमी यंत्र तुमि यंत्री जेमन चलाओ तेमनी चली ' ...... ] 
धीरे धीरे पर्दा गिरेगा। 
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गुरुवार, 2 नवंबर 2017

महर्षि कपिल का परिणामवाद

हमारा यह स्थूल शरीर और दृष्टिगोचर विश्व-ब्रह्माण्ड अस्तित्व में कैसे आ गया ? आइये इस रहस्य को हम आधुनिक युग में में ईश्वर (ब्रह्म) के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण द्वारा भारत की प्राचीन ' गुरु-शिष्य वेदाध्यापक प्रशिक्षण परम्परा' में  प्रशिक्षित एवं आधुनिक युग में मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, लोक-शिक्षक,या 'वेदाध्यापक' (टीचर ऑफ़ वेदान्ता) स्वामी विवेकानन्द जी के शब्दों में समझने का प्रयास करते हैं। स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं -
 " भगवान कपिल ही दर्शन शास्त्र के पितामह हैं, वे व्यासदेव से भी प्राचीन हैं, इसीलिये हम उनकी बात सुनने के लिये बाध्य हैं। कपिल का 'सांख्य-दर्शन' ही विश्व का ऐसा सर्वप्रथम दर्शन है, जिसमें 'युक्ति-विचार पद्धति' से जगत् की उत्पत्ति और लय के सम्बन्ध में विचार किया गया है। विश्व के प्रत्येक तत्त्व जिज्ञाषु- वैज्ञानिक को उनके प्रति श्रद्धांजली अर्पित करनी चाहिये।" (४:२०४) " 
 " ... वयोवृद्ध और अत्यन्त पवित्र महर्षि भी इन प्रश्नों (सृष्टी-रचना के सिद्धान्त) का समाधान करने में असमर्थ हो रहे हैं; पर तभी एक ' युवक ' - उनके बीच खड़ा हो कर घोषणा करता है- ' हे अमृत के पुत्र सुनो, हे दिव्यधाम के निवासी सुनो - मुझे मार्ग मिल गया है ! जो अंधकार या अज्ञान के परे है, उसे जान लेने पर ही हम मृत्यु के परे जा सकते हैं, अन्य कोई मार्ग नहीं है। " (श्वेताशतर२/५/३-८) (वि० सा० ख० २:५८)
" कपिल का प्रधान मत है, 'परिणाम-वाद'। इस कार्य-कारण वाद या ' परिणाम- वाद ' से तात्पर्य है- 'कार्य' भी अन्य रूप में परिणत ' कारण ' मात्र ही है। जैसे ' घड़ा ' कार्य है, और ' मिट्टी ' है उसका कारण। कपिल के अनुसार अव्यक्त प्रकृति से ले कर चित्त,मन, बुद्धि, अहंकार तक कोई भी वस्तु पुरूष अर्थात भोक्ता या प्रशासक नहीं है। स्वरूपतः मन में चैतन्य नहीं है; किन्तु हम देखते हैं कि वह तर्कना करता है।अतएव उसके परे, निश्चित रूप से ऐसी कोई ' सत्ता ' होनी चाहिए, जिसका आलोक- महत्, बुद्धि, अहं-ज्ञान और अन्य परवर्ती परिणामों में व्याप्त है। इस सत्ता को कपिल ' पुरूष ' कहते हैं, वेदान्ती उसी को 'आत्मा' कहते हैं।...बुद्धि स्वतः क्रियाशील नहीं है- उसकी पृष्ठ भूमि में जो पुरूष विद्यमान हैं, उसीसे मानो उसमे कार्यशीलता आती है। " (४:२१२) 

" हमारे दो जगत हैं, बाह्य-जगत और अन्तर्जगत। यह सम्पूर्ण बाह्य-जगत्, अन्तर्जगत् या सूक्ष्मजगत् का स्थूल विकास मात्र है। विकसित होने या अभिव्यक्त होने की प्रक्रिया की सभी अवस्थाओं में सूक्ष्म को 'कारण' और स्थूल को 'कार्य' समझना होगा। इस नियम से, बाह्य-जगत् कार्य है और अन्तर्जगत् कारण। " (१:४२)
' बाह्य-जगत्'  तो तुम्हे अपने मन के अध्यन में प्रेरित करने के लिए एक उद्दीपक तथा अवसर मात्र है। सेब के गिरने ने न्यूटन को एक उद्दीपक प्रदान किया, उसने अपने मन का अध्यन किया और गुरुत्वाकर्षण का नियम मिल गया। ' (३:४)
 " एक पत्थर गिरा और हमने प्रश्न किया- इसके गिरने का कारण क्या है? हम यह निश्चित रूप से जानते हैं कि - बिना कारण कुछ कुछ भी घटित नहीं होता। मेरा अनुरोध है कि इस ' क्यों ' कि धारणा को खूब स्पष्ट रूप से समझ लो। जब हम यह प्रश्न करते हैं कि यह घटना क्यों हुई? तब यह मान लेते हैं, कि सभी घटनाओं का एक ' क्यों ' रहता ही है। अर्थात उसके घटित होने के पूर्व और कुछ अवश्य हुआ होगा, जिसने कारण का कार्य किया। इसी पूर्ववर्तिता और परवर्तिता के अनुक्रम को ही ' निमित्त ' अथवा कार्य-कारणवाद कहते हैं। " (२:८६) 
" शापेनहावर ने यह निष्कर्ष निकला कि ' इच्छा ' (Will) ही सभी चीजों का कारण है। ' होने ' की इच्छा से ही हमारी अभिव्यक्ति होती है"- किन्तु हम इससे इन्कार करते हैं। वास्तव में इच्छा और प्रेरक-नाड़ी (Motor-nerve) एक रूप है। जब हम किसी वस्तु को देखते हैं, तो इसमे इच्छा की कोई बात नहीं होती, जब इसकी संवेदनायें मस्तिष्क में स्थित दर्शन इन्द्रिय तक पहुँचती हैं- तब प्रतिक्रिया स्वरूप बुद्धि निर्णय करती है - 'यह करो ' अथवा ' यह न करो '। अहं तत्व की इस अवस्था को ही इच्छा कहते हैं। इच्छा का एक भी कण ऐसा नहीं है, जो प्रतिक्रिया का फल न हो। अतएव ' इच्छा ' के पूर्व बहुत सी वस्तुयें रहनी आवश्यक हैं। यह ' इच्छा ' अहं तत्व से निर्मित कोई प्रतिक्रिया मात्र है। और अहं तत्व का सृजन - उससे भी ऊँची वस्तु बुद्धि से होती है। और वह बुद्धि भी अविभक्त प्रकृति का परिणाम है। मनुष्य में महत्, महान् तत्व ( the  Great Principle) या बुद्धि (the Intelligence) सम्बन्धी बात को समझना बहुत आवश्यक है। " (वि० सा० ख ० ४: २०४ )
" देश-काल-निमित्त या नाम-रूप के साँचे से जब ' वह ' जो इच्छा रूप में परिणत हो जाता है, जो पहले इच्छा के रूपमें नहीं था, परन्तु बाद में देश-काल-निमित्त के साँचे में पड़ने से जो मानवीय इच्छा हो गया, वह अवश्य स्वाधीन है। और जब यह इच्छा इस वर्तमान नाम-रूप या देश-काल-निमित्त के साँचे से मुक्त हो जायगी तो ' वह ' पुनःस्वतंत्र हो जाएगा। " (३:६९) 
" अतएव ' इच्छा ' के पूर्व बहुत सी वस्तुयें जरुरी है। यह इच्छा- अहं तत्त्व से निर्मित कोई प्रतिक्रिया मात्र है। औरअहं तत्व का सृजन उससे भी ऊँची वस्तु बुद्धि से होती है। और यह बुद्धि भी अविभक्त प्रकृति का परिणाम है।"(४:२०४)
" इसे (परिणामवाद E=M को) समझना तुम्हारे लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि समस्त विश्व में कोई ऐसा दर्शन नहीं है जो कपिल का ऋणी न हो। पाइथागोरस भारत आये और उन्होंने इस दर्शन का अध्यन किया। और वही ग्रीक लोगों के दार्शनिक विचारों का समारंभ था। " (४:२०४) 
" आधुनिक विकास-वाद का सिद्धांत कहता है, हर कार्य पूर्ववर्ती कारण की आवृत्ति मात्र है। परिस्थिति या परिवेश के कारण रूप-परिवर्तन होता है। योनी-परिवर्तनों के कारण को खोजने सृष्टि से बाहर जाने की जरुरत नहीं है। कार्य में ही कारण श्रृंखला विद्यमान है। विश्व का मूल कारण, ऐसी कोई शक्ति नहीं है, या कोई सत्ता नहीं है, जो इससे अलग रह कर रिमोट से इसको चला रही है। " (२:२८२)
" क्रमविकास-वाद क्या है? उसके दो अवयव क्या हैं ? एक है प्रबल अन्तर्निहित शक्ति, जो अपने को व्यक्त करने की चेष्टा कर रही है, और दूसरा है बाहर की परिस्थितियाँ, जो उसे अवरुद्ध किए हुये है, या वह परिवेश है जो उसे व्यक्त होने नहीं देता। अतः इन परिस्थितियों से युद्ध करने केलिये यह ' शक्ति ' नये नये शरीर धारण कर रही है। एक अमीबा इस संघर्ष में एक और शरीर धारण करता है, और कुछ बाधाओं पर जय-लाभ करता है, और इस प्रकार भिन्न भिन्न शरीर धारण करते हुये अन्त में मनुष्य में परिणत हो जाता है। " (२:९१)
" प्रकृति या Nature का अधिक वैज्ञानिक नाम है- ' अव्यक्त '। जो अभिव्यक्त या प्रकट नहीं या भेदात्मक नहीं है, उससे ही सब पदार्थ उत्पन्न हुये हैं। उसीसे अणु-परमाणु, जड़-पदार्थ, शक्ति, मन, बुद्धि सब प्रसूत हुये हैं। सांख्यों ने अव्यक्त का लक्षण बताया है, त्रि-शक्तियों की (तीन शक्ति -सत्, रज, तम) साम्यावस्था। जब आकर्षण-शक्ति (Centripetal-force) अर्थात ' तमस ' और विकर्षण-शक्ति (Centrifugal-force) अर्थात ' रजस ' - जब पूरी तरह से ' सत्व ' के द्वारा संयत रहतीं हैं, अथवा पूर्ण साम्य की अवस्था में रहतीं हैं, तब सृष्टि का अस्तित्व नहीं रहता। किन्तु यह साम्यावस्था ज्योंही नष्ट होती है, उनका संतुलन भंग हो जाता है, और उनमे से एक शक्ति दूसरे से प्रबलतर हो उठती है, त्योंही गति (प्राण) का आरम्भ होता है और सृष्टि होने लगती है ।" (४:१९३)
" प्रकृति या अव्यक्त ...एक सर्वव्यापी जड़-राशिस्वरूप है। इसी अव्यक्त या प्रकृति में बाह्य-जगत् के समस्त वस्तुओं के ' कारण ' विद्यमान हैं। व्यक्त अवस्था की सूक्ष्म दशा को- ' कारण ' कहते हैं, यह उस वस्तु की अन्-अभिव्यक्त अवस्था है, जो अभिव्यक्ति को प्राप्त होती है।...कारण में प्रत्यावर्तन का नाम ही विनाश है। " (४:२०१)
 ' नाशः कारणलयः ' - नाश (मृत्यु) का अर्थ है कारण में लय हो जाना। (वि० सा० ख० २:१०१) 
" अव्यक्त (Nature) अर्थात एक अखण्ड, अविभक्त (द्रव्य या ) जड़-राशि के उस सर्वव्यापी विस्तार की कल्पना करो - जो प्रत्येक वस्तु की प्रथम अवस्था है, और यह उसी प्रकार परिवर्तित होने लगता है, जिस प्रकार दूध परिवर्तित हो कर दही बन जाता है। ब्रह्माण्ड (Cosmos) में इस Nature या अव्यक्त की प्रथम अभिव्यक्ति को सांख्य के शब्दों में-' महत्' कहा जाता है।' महत् ' तत्त्व का शाब्दिक अर्थ है, 'द अल्टीमेट सोर्स' (The Ultimate Source) ' महान आधारभूत कारण - हम इसे बुद्धि (Intelligence) कह सकते हैं। अर्थात प्रकृति में जो प्रथम परिवर्तन हुआ उससे ' बुद्धि ' की उत्पत्ति हुई। 
मैं उस ' महान आधारभूत कारण ' या महत् को अंग्रेजी में चेतना, होश,या आत्म-चेतना (Self-Consciousness) नहीं कह सकता, क्योंकि वह ग़लत होगा। चेतना तो इस ' सार्वभौम बुद्धि ' का अंशमात्र है। महत् तत्व सर्वव्यापी है, चेतन (जाग्रतअवस्था -Consciousness), अवचेतन (स्वप्नावस्था Sub-Consciousness), अचेतन (सुषुप्ति -Unconsciousness)और अतिचेतन(तुरीयावस्था Super-Consciousness) सब (मन-बुद्धि के सारे स्तर) इसके अर्न्तगत आ जाते हैं। इसीलिये इस महत् या बुद्धि के 'अल्टीमेट सोर्स' या महान आधारभूत कारण के लिए चेतना की किसी अकेली अवस्था मात्र के लिए प्रयुक्त करना पर्याप्त नहीं माना जाएगा। फ़िर यह महत् पदार्थ या ' बुद्धि ' जब (दूध से दही के समान) स्थूलतर पदार्थ (Grosser Matter) में परिवर्तित होता है, तब प्रकृति या अव्यक्त के दुसरे परिवर्तन को 'अहं-तत्व' (Egoism) कहते हैं।
फिर यह अव्यक्त (नेचर या प्रकृति) अपने तीसरे और अन्तिम परिवर्तन में स्वयं को -' सार्वभौम संवेदक इन्द्रियों' (Universal Sense-Organs) तथा 'सार्वभौम तन्मात्राओं' (Universal Fine-Particles)  के रूप में अभिव्यक्त करती है। और ये अन्तिम वस्तुएं पुनः संयुक्त हो कर इस स्थूल-' बाह्य जगत् ' में परिणत हो जातीं हैं। इस प्रकार वह सूक्ष्म ' महत् ' तत्त्व ही बाह्य ' जगत् ' के रूप में परिणत हो गया है। जड़-पदार्थों और मन में परिणामगत भेद के अतिरिक्त कोई भेद नहीं है। सूक्ष्म एवं स्थूल स्वरूप में एक ही पदार्थ है, एक ही दुसरे में बदल जाता है। ... मन (mind) और मस्तिष्क(Brain) में अन्तर नहीं है, दोनों जड़ पदार्थ हैं, मन सूक्ष्म जड़ है, मस्तिष्क स्थूल जड़ है। " (वि० सा० ख० ४: २०२)
" सत्व,रज और तम- जगत के उपादान हैं, जिनसे समग्र विश्व विकसित हुआ है। कल्प के प्रारम्भ में ये साम्यावस्था में रहते हैं। सृष्टि का आरम्भ होने पर ही ये उपादान परस्पर अनन्त प्रकार से संयुक्त हो कर इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं। इसका प्रथम विकास महत् अथवा सर्वव्यापी बुद्धि है, और उससे अंहकार की उत्पत्ति होती है। अंहकार से मन अथवा सर्वव्यापी मनस-तत्व  का उद्भव होता है। इस अहंकार से ही, मस्तिष्क में अवस्थित ज्ञान और कर्म के इन्द्रियों या स्नायू-केन्द्रों तथा तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। तन्मात्राओं को प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता, किन्तु वे जब स्थूल परमाणु बन जाते हैं, तब हम उन्हें अनुभव और इन्द्रियगोचर कर सकते हैं। बुद्धि, अंहकार और मन - इन तीन माध्यमों से कार्य करने वाला, ' चित्त ' - ही प्राण नामक शक्तियों की सृष्टि कर के उन्हें परिचालित कर रहा है। तुम्हे इस कुसंस्कार को अवश्य त्याग देना चाहिए कि प्राण केवल श्वास-प्रश्वास (Breath) है, श्वास-प्रश्वास तो प्राण का कार्य मात्र है। प्राण ही वायु पर कार्य कर रहा है, वायु प्राण के ऊपर नहीं। " (४:२११)
" प्राण का अभिप्राय है ऊर्जा (Energy)- जो सभी तरह की गति या सम्भाव्य गति, शक्ति या आकर्षण के रूपों में अपने को अभिव्यक्त करता है। "(४:१५२)
"आजकल हम जिसे जड़-पदार्थ (matter) कहते हैं, उसे प्राचीन हिंदू भूत अर्थात बाह्य तत्व कहते थे। उनके मतानुसार एक तत्व नित्य है, शेष सब इसी एक से उत्पन्न हुए हैं। इस मूल तत्व को ' आकाश ' की संज्ञा प्राप्त है। आजकल ईथर शब्द से जो भाव व्यक्त होता है, यह बहुत कुछ उसके सदृश है, यद्दपि पुर्णतः नहीं। इस मूलभूत आकाश-तत्व के साथ प्राण नाम की आद्य उर्जा भी रहती है। प्राण (Energy) और आकाश (Matter) संघटित और पुनः संघटित हो कर शेष तत्वों (वायु,अग्नि,जल,पृथ्वी) का निर्माण करते हैं। कल्पान्त में सबकुछ प्रलयगत हो कर आकाश और प्राण में लौट जाता है। " (४:१९४) 
" ब्रह्माण्ड में जो उर्जा व्याप्त है, उसका नाम है प्राण और वह इन भूतों में शक्ति के रूप में निवास करती है। प्राण के प्रयोग का महान उपकरण है मन। मन भी भौतिक पदार्थ है। मन से परे है आत्मा, जो प्राण को धारण करता है। आत्मा वह ' विशुद्ध बुद्धि ' है जिससे प्राण नियंत्रित और निर्दिष्ट होता है। मन अत्यन्त सूक्ष्म भौतिक पदार्थ है, जो प्राण को अभिव्यक्त करने का एक उपकरण है। अभिव्यक्ति के लिए  ऊर्जा या शक्ति (Energy) को भौतिक पदार्थ (Matter) की आवश्यकता होती है। " (४:९७) 
" कॉस्मिक-प्लान या ब्रह्माण्ड का विधान है-' यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे ' - जो ब्रह्माण्ड में है, वह अवश्य पिण्ड में भी होगी। (What is in The Cosmos must also be microcosmic.) उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति (Individual) को लो; उसमे निहित वह भौतिक प्रकृति (अव्यक्त) इस ' सार्वभौम-बुद्धि ' या महत् के एक लघु कण में परिवर्तित हो जाती है। फ़िर उस सार्वभौम बुद्धि का एक लघु कण ' अहं-तत्त्व ' में परिणत हो जाता है, यह ' अहं ' ही उस व्यक्ति के स्थूल एवं सूक्ष्म भौतिक शरीर का संयोजन और निर्माण करते हैं। " (४:२०३)
" मैं तुम लोगों को देख रहा हूँ। इस दर्शन-क्रिया के लिए किन किन बातों की आवश्यकता है ? पहले तो आँख --आँखें रहनी ही चाहिए। मेरी अन्य सब इन्द्रियाँ भले ही अच्छी रहें, पर यदि मेरी आँखें न हों, तो मैं तुम लोगों को न देख सकूँगा। अतएव पहले मेरी आँखें अवश्य रहनी चाहिए। दुसरे, आंखों के पीछे और कुछ रहने की आवश्यकता है, और वास्तव में वही तो दर्शन-इन्द्रिय है। यह यदि हममे न हो, तो दर्शन -क्रिया असंभव है। 
वस्तुतः आँखें इन्द्रिय नहीं हैं, वे तो दृष्टि की यंत्र मात्र हैं। यथार्थ इन्द्रिय आंखों के पीछे, हमारे मस्तिष्क में अवस्थित इसका नाड़ी-केन्द्र (Optic- nerve) है। यदि यह केन्द्र किसी प्रकार नष्ट हो जाये, तो दोनों आँखें रहते हुए भी मनुष्य कुछ देख न सकेगा।अतएव दर्शन क्रिया के लिए इस असली इन्द्रिय का अस्तित्व नितान्त आवश्यक है। हमारी अन्यान्य इन्द्रियों के बारे में भी ठीक ऐसा ही है। बाहर के कान धवनी-तरंगों को भीतर ले जाने के यन्त्र मात्र हैं, पर उस ध्वनी-तरंग को मस्तिष्क में अवस्थित उसके नाड़ी-केन्द्र या श्रवण - इन्द्रियों तक अवश्य पहुंचना चाहिए।
 पर इतने से ही श्रवण-क्रिया पूर्ण नहीं हो जाती। कभी-कभी ऐसा होता है कि पुस्तकालय में बैठ कर तुम ध्यान से कोई पुस्तक पढ़ रहे हो,घड़ी में बारह बजने का टंकार पड़ता है, पर तुम्हे वह ध्वनी सुनायी नहीं देती। क्यों ? वहाँ ध्वनी तो है, वायु-स्पन्दन, कान और केन्द्र भी वहाँ हैं और कान के मध्यम से मस्तिष्क में अवस्थित उसके नाड़ी-केन्द्र तक स्पन्दन पहुँच भी गए हैं, पर तो भी तुम उसे सुन नहीं सके। किस चीज कि- कमी थी ? इस इन्द्रिय के साथ मन का योग नहीं था। 
अतएव हम देखते हैं कि मन का रहना भी नितान्त आवश्यक है। पहले चाहिए यह बहिर्यंत्र, जो मानो विषय को वहन करके नाड़ी-केन्द्र या इन्द्रिय के निकट ले जाता है। फ़िर(स्थूल शरीर में अवस्थित) उस इन्द्रिय (Optic-nerve) के साथ (सूक्ष्म-शरीर में अवथित) मन को भी  युक्त रहना चाहिए। जब मस्तिष्क में अवस्थित इन्द्रिय से मन का योग नहीं रहता, तब कर्ण-यन्त्र और मस्तिष्क के केन्द्र पर भले ही कोई विषय आकर टकराये, पर हमें उसका अनुभव न होगा। 
मन भी केवल एक वाहक है, वह इस विषय की संवेदना को और भी आगे ले जा कर बुद्धि को ग्रहण कराता है। बुद्धि उसके सम्बन्ध में निश्चय करती है, पर इतने से ही नहीं हुआ। बुद्धि को उसे फ़िर और भी भीतर ले जाकर (स्थूल और सूक्ष्म दोनों) शरीर के राजा आत्मा के पास पहुँचाना पड़ता है। उसके पास पहुँचने पर वह आदेश देती है, ' हाँ, यह करो' या 'मत करो'। तब जिस क्रम में वह विषय संवेदना आत्मा तक गयी थी, ठीक उसी क्रम से वह बहिर्यंत्र में आती है- पहले बुद्धि में, उसके बाद मन में, फ़िर मस्तिष्क-केन्द्र में और अन्त में बहिर्यंत्र में; तभी विषय-ज्ञान की क्रिया पूरी होती है। " (२: १०९-१०)
" ये सब यंत्र आँख, कान, नाक आदि और उनका मस्तिष्क में स्थित स्नायु केन्द्र अथवा ' इन्द्रिय ' मनुष्य के स्थूल देह में अवस्थित है, पर मन और बुद्धि नहीं। मन और बुद्धि तो उसमें है, जिसे हिंदूशास्त्र - 'सूक्ष्म-शरीर' कहते हैं और इसाई शास्त्र 'आध्यात्मिक-शरीर' कहते हैं। वह इस स्थूल शरीर से अवश्य बहुत ही सूक्ष्म है, परन्तु फ़िर भी आत्मा नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार शरीर कभी सबल कभी दुर्बल होता है, उसी प्रकार मन भी कभी सबल कभी निर्बल हो जाता है। अतः मन आत्मा नहीं है, क्योंकि आत्मा कभी जीर्ण या क्षयग्रस्त नहीं होती। आत्मा इन सबके अतीत है। "(२:११०)
"जब मन किसी बाह्य-वस्तु का अध्यन करता है, तब वह उससे अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है, और स्वयं लूप्त हो जाता है। यह 'मन' आत्मा का ' दिव्य चक्षू ' है ! हमारा  मन उस  स्फटिक खंड के समान है, जो अपने निकट की वस्तुका रंग ग्रहण कर लेता है। हम लोगों ने शरीर का रंग ग्रहण कर लिया है,अर्थात शरीर के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लिया है, और भूल गये हैं कि हम क्या हैं। ....हम लोग उसी प्रकार शरीर नहीं हैं, जिस प्रकार स्फटिक ' लाल फूल ' नहीं है।... आत्मा की स्वस्थतम अवस्था - तब है जब वह 'स्व' का चिन्तन कर रही हो और अपनी गरिमा में स्थित हो।" (४:१३१)
" मनुष्य दिव्य है, यह दिव्यता ही हमारा स्वरूप है। अन्य जो कुछ है वह अध्यास मात्र है। उसके दिव्य स्वरूप का कभी भी नाश नहीं होता। यह जिस प्रकार ' परम-संत ' में है, वैसे ही ' महा-अधम ' व्यक्ति में भी है। हमे अपने इसदेव-स्वभाव का केवल आह्वान करना होगा, और वह स्वयं ही अपने को प्रकट कर देगा। चकमक पत्थर और सूखी- लकड़ी में आग रहती है, पर उस आग को बाहर निकालने के लिये घर्षण आवश्यक था। नीचे धरती पर रेंगने वाला क्षुद्र कीड़ा और स्वर्ग का श्रेष्ठतम देवता इन दोनों में ज्ञान का भेद प्रकार्गत नहीं, परिणाम गत है। " (२:१८२)
" अगर कोई व्यक्ति हत्यारा है, तो उसमे प्रतिफलक (मन-दर्पण) बुरा है, न कि आत्मा। दूसरी ओर अगर कोई साधू है तो उसमे प्रतिफलक शुद्ध है। सत्ता केवल एक ही है जो कीट से लेकर पूर्णतया विकसित मनुष्य (बुद्ध या ईशा) तक में प्रतिबिम्बित है। इस तरह सम्पूर्ण विश्व एक एकत्व, एक सत्ता है- भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक, हर दृष्टि से। इस एक सत्ता को ही हम विभिन्न रूपों में देखते हैं। " (२:११२)
" जगत को विचार कि दृष्टि से देखने पर.… प्रतीत होगा कि, इसका एक-एक आदमी एक-एक विशेष मन है। तुम एक मन हो, मैं एक मन हूँ, प्रत्येक व्यक्ति केवल एक मन है। फ़िर इसी जगत को ज्ञान कि दृष्टि से देखने पर,.... अर्थात जब आंखों पर से मोह का आवरण हट जाता है, जब मन शुद्ध और पवित्र हो जाता है, तब यही पहले के एक-एक मन उसी अखंड पूर्णस्वरूप 'पुरूष' के विभिन्न रूप प्रतीत होते हैं।" (२:३२) 
 " अहं को निकाल डालो , उसका नाश कर डालो, उसे भूल जाओ, अपने द्वारा ईश्वर को कार्य करने दो- यह उन्ही का कार्य है,उन्हें ही करने दो।...." पहले अपने (मन) को जीत लो , फ़िर सम्पूर्ण जगत तुम्हारे पैरों के नीचे आ जायगा ।" (७:२२)
." तुच्छ अहं को नष्ट कर डालो , केवल महत अहं को रहने दो। हम अभी जो कुछ हैं, वह सब अपने चिन्तन का फल है। इसलिए तुम क्या चिन्तन करते हो, इस विषय में ध्यान दो, विशेष ध्यान रखो। शब्द-वाणी तो गौण वस्तु हैं। चिन्तन ही बहुकाल स्थाई है और उसकी गति भी दूर व्यापी है। हम जो कुछ चिन्तन करते हैं, उसमे हमारे चरित्र की छाप लग जाती है."(७:२२).... 
" जितनी बार तुम कहते हो, ' तू नहीं मैं' ; उतनी बार तुम अनन्त को यहाँ ( अपने देह-मन के माध्यम से) अभिव्यक्त करने का व्यर्थ में प्रयास करते हो। इसी से संसार में प्रतिद्वंदिता, संघर्ष और अनिष्ट की उत्पत्ति होती है। पर अन्त में 'मिथ्या-मैं' का त्याग होगा, यह 'मैं' मर जायगा। इस तुच्छ पृथक अहंता को नष्ट होना ही चाहिए।" (२:१७७)
" यह जो (अमुक नाम वाले व्यक्ति) के रूप में मेरा नाम- रूपात्मक चेहरा दिख रहा है, इसके पीछे जो असीम विद्यमान है, उसी ने अपने को बहिर्जगत में व्यक्त करने के लिए जैसा रूप धारण करने कि इच्छा की थी- उसी का परिणाम है। इस (नाम-रूपात्मक)- 'मैं' को फ़िर पीछे लौट कर अपने अनन्तस्वरूप में मिल जाना होगा."(२:१७६) 
..." अहं - ही वह वज्रदृढ़ प्राचीर है, जिसने हमे बद्ध कर रखा है, और भोग वासना है लाख फन वाला सर्प , हमे उसे कुचलना ही होगा."(७:२३)..
" प्रत्येक वस्तु क्रम-परिवर्तन शील है। यह सारा विश्व ही परिवर्तन शीलता का एक पिंड है।आज के पर्वत कल समुद्र थे , और कल वहां पुनः समुद्र दिखाई देगा।  एकमात्र ईश्वर ही ऐसा है, जिसमे कभी परिवर्तन नहीं होता, हम उसके जितने समीप लौटेंगे, प्रकृति का अधिकार हम पर उतना ही कम होता जायगा,उतना ही कम परिवर्तन या विकार हम में होगा। और जब हम उस तक पहुंच जायेंगे- तो हम प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेंगे, प्रकृति के सारे व्यापार हमारे अधीन हो जायेंगे,और हम पर उनका कोई प्रभाव न पडेगा।"(३:१०६)
" हमारा यह शरीर वृद्धि और क्षय के नियमों से बद्ध है, - जिसकी जन्म और वृद्धि है, उसका क्षय भी अवश्यमेव होगा। परन्तु देहमध्यस्त आत्मा तो असीम एवं सनातन है, वह अनादी और और अनन्त है। ...काल कि गति काशाश्वत सत्ता पर कोई असर नहीं होता।....मानव-बुद्धि के लिये सर्वथा अगम्य जो 'अतीन्द्रिय-भूमि ' है, वहाँ न तो 'भूत' है न 'भविष्य'। वेदों का कथन है कि मानव कि आत्मा अमर है। "(१:२५४)
'सूक्ष्म-शरीर' क्या है ? " मन, अहं-बोध, मस्तिष्क स्नायु-केन्द्र या इन्द्रिय, और प्राण - इन सबके संयोग से ' सूक्ष्म-शरीर ' बनता है, जिसे इसाई दर्शन में मानव का आध्यात्मिक देह कहते हैं।  इस देह (सूक्ष्म शरीर या मन ) को ही उद्धार और दण्ड प्राप्त होता है, इसका ही बार- बार जन्म और पुनर्जन्म होता है। " (४:२१३)
"परन्तु मुझमे कुछ अहं था, इसीलिए उस समाधि कि अवस्था से लौट आया था." (६:९९)...
" जब मैं लड़ता हूँ , कमर कस कर लड़ता हूँ- इसके मर्म को समझता हूँ। श्री रामकृष्ण के दासानुदासों में से कोई न कोई मुझ जैसा अवश्य बनेगा, जो मुझे समझेगा। "(६:३८३)
" इस जन्म-मृत्यु की समस्या की यथार्थ मीमांसा के लिए यदि यम के द्वार पर जा कर भी सत्य का लाभ कर सको तो निर्भय ह्रदय से वहाँ जाना उचित है। भय ही मृत्यु है। भय से पर हो जाना चाहिए। अपने मोक्ष तथा परहित के निमित्त आत्मोसर्ग करने के लिए अग्रसर हो जाओ। ...दधिची के समान औरों के लिए अपना हाड-मांस दान कर दो। जो ब्रह्मज्ञ हैं, जो अन्य को भय से पार ले जाने में समर्थ हैं,वे ही यथार्थ गुरु हैं। "(६:३३)
" यह मानव आत्मा देह से देहान्तर में संक्रमित हो रही है, इस प्रवास में वह कितने ही भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त हुई है एवं होगी। आध्यात्मिक विकास के उस महान नियमानुसार वह अधिकाधिक अभिव्यक्त हो रही है। परन्तु जब वह सम्पूर्ण अभिव्यक्त हो जायेगी, तब उसमे और अधिक परिणाम न होगा। (१:२५४)
" (यदि कार्य-कारण वाद या परिणाम वाद सच है) तो हमे अपने पूर्व जन्मों का कुछ भी स्मरण क्यों नहीं है?मनः समुद्र की उपरी सतह का नाम ही चेतन अवस्था है। किन्तु उसकी गहराई में (अवचेतन मन में) संचित है, मानव के समस्त सुखात्मक और दुखात्मक अनुभव। मानव आत्मा कुछ ऐसी वस्तु पाने की इच्छा करती है, जोअचल हो, अविनाशी हो। जबकि हमारा यह शरीर और मन ही क्या, नाना रूपात्मक यह समस्त प्रकृति ही अनवरत परिवर्तनशील है। पर हमारी अन्तरात्मा की सर्वोच्च अभिलाषा (या तड़प) यही है, कि उसे कुछ ऐसा प्राप्त हो जाये, जिसका परिवर्तन नहीं होता, जो चिर(शान्ति) पूर्णता को पा चुकी हो। और यही है उस असीम के लिये मानवात्मा कि अभीप्सा ! हमारा नैतिक और मानसिक विकास (अर्थात चरित्र-निर्माण) जितना ही सूक्ष्मतर होता जायेगा, उस अपरिवर्तनशील सत्ता के प्रति हमारी अभीप्सा (व्याकुलता) भी उतनी ही दृढ़ होती जायेगी। "(१:२५५)
" हमारे ऋषि तो यह कहते हैं, कि इन्द्रियजन्य सुखों में तृप्त रहना उन कारणों में से एक है, जिसने सत्य और हमारे बीच परदा सा डाल दिया है। केवल कर्म-कांडों में रूचि, इन्द्रियों में तृप्ति तथा नाना प्रकार मतवादों ने हमारे और सत्य के बीच एक आवरण डाल रखा है।' एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ' - सत्ता केवल एक है, ऋषिगण उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं।...सत्य तो चिरकाल से ही विद्यमान था, केवल इस (नाम-रूप) के आवरण ने ही उसे ढँक रखा था। " (१:२५५) 
"हम विश्व के रहस्य को हल करने की चेष्टा करते हैं। ऐसा लगता है कि यह सब हमे अवश्य जान लेना चाहिए, हमे ऐसा कभी महसूस नहीं होता कि 'ज्ञान' कोई प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है। ....किन्तु अति बलवान इन्द्रियाँ मनुष्य की आत्मा को, 'अवशीभूत मन' - रूपी शत्रु की सहायता से बाहर की विषयों में खींच लातीं हैं। और मनुष्य ऐसे स्थान में सुख की खोज करने लगता है, जहाँ वे हैं ही नहीं, जहाँ वह उन्हें कभी पा नहीं सकता। ...हम कुछ कदम आगे जाते हैं, कि अनादी-अनन्त कालरुपी प्राचीर व्यवधान बन जाता है; जिसे हम लाँघ नहीं सकते। कुछ दूर बढ़ते ही असीम देश का व्यवधान खड़ा हो जाता है, फ़िर यह सब कार्य-कारण रूपी दीवार द्वारा सुदृढ़ रूप से सीमा-बद्ध है !...तो भी हम संघर्ष करते हैं !" (२:७४)
" इन्द्रियपरायण जीवन से अतीत होने की हमारी असमर्थता, और शारीरक विषय-भोगों के लिये उद्यम ही संसार में सभी प्रकार के आतंकों (भ्रष्टाचार) तथा दुखों का कारण है। "(४:११४)
." हमारे चारो ओर अनेक मोह रूपी जाल हैं, कुछ क्षण के लिए हमे प्रतीत होता है कि हम स्वर्गीय दिव्य ज्योति में तन्मय हो जाएंगे , परन्तु कुछ ही देर बाद कोई दृश्य या स्मृति हमारे पाशविक भाव को भड़का देती है।" (७:२४९)
" वास्तव में पाशविक भाव के उपर विजय प्राप्त कर लेने, तथा जन्म-मरण के प्रश्न को सुलझा लेने और श्रेय -प्रेय के बीच के भेद को जान लेने कि अपेक्षा और श्रेष्ठ है ही क्या ?"(७:२५०)
" स्वाधीनता ही उच्च जीवन की कसौटी है।आध्यात्मिक जीवन उस समय प्रारम्भ होता है, जिस समय तुम अपने को इन्द्रिय बन्धनों से मुक्त करलेते हो। जो इन्द्रियों के अधीन है, वही संसारी है, वही दास है। " (४:४३)
" एक अन्तर्निहित शक्ति मानो लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिये - अविराम चेष्टा कर रही है, और बाह्य परिवेश उसको दबाये रखने के लिये प्रयासरत है, बाहरी दबाव को हटा कर प्रस्फुटित हो जानेकी इस चेष्टा का नाम ही जीवन है।" (विवेकानन्द चरित-पृष्ठ १०८)
"सच पूछा जाय तो 'पूर्ण-जीवन' शब्द ही स्वविरोधात्म्क है। जीवन तो हमारे एवं प्रत्येक वाह्य वस्तु के बीच एक प्रकार का निरन्तर संघर्ष है।" (३:५९)
 " मैं जीवन से उच्चतर कोई वस्तु हूँ; जीवन सदैव दासता है। हम (और जीवन ) सदा घुल-मिल जाते हैं। "(४:१३६) 
" हम सबों में मुक्ति की भावना-स्वाधीनता की भावना हुआ करती है, उसी से यह संकेत मिलता है कि हमारे अन्तराल में, शरीर(Hand) और मन (Head) से परे भी कुछ और है। हमारी अन्तर्यामी आत्मा(Heart) स्वरूपतः स्वाधीन है और वही हममे मुक्ति की इच्छा जाग्रत करती है। " (१:२५६)
" प्रकृति हमे चारो ओर से दमित करने का प्रयास कर रही है, और आत्मा अपने को अभिव्यक्त करना चाहती है। प्रकृति कहती है - ' मैं विजयी होउंगी ' ; आत्मा कहती है- ' विजयी मुझे होना है '। प्रकृति कहती है- ठहरो, मैं तुम्हे चुप रखने के लिये थोड़ा सुख भोग दूंगी। आत्मा को थोड़ा मज़ा आता है, क्षण भरके लिये वह धोखे में पड़ जाती है, पर दुसरे ही क्षण वह फ़िर मुक्ति के लिये चीत्कार कर उठती है।" (३:१७३) 
" हम वस्तुतः वही अनन्तस्वरूप हैं- अपने उसी अनन्त स्वरूप को अभिव्यक्त कर रहे हैं। यहाँ तक तो ठीक है। पर इसका क्या मतलब कि, जब तक हम सब पूर्ण नहीं हो जाते, अनन्त क्रमशः अधिकाधिक व्यक्त होता रहेगा ? पूर्णता का अर्थ है-अनन्त , और अभिव्यक्ति का अर्थ है- ससीम। तो क्या हम असीम रूप से ससीम बन जायेंगे ? पर यह स्वविरोधी वाक्य है।  (तात्पर्य यह है कि )....हम अपने ईश्वर भाव को भूल कर, पशु जैसे हो गये थे। अब हम फ़िर उन्नत्ति के मार्ग पर चल रहे हैं, और इस बंधन से बाहर होने का प्रयत्न कर रहे हैं, हम प्राणपन से उसकी चेष्टा कर रहे हैं,....पर अन्त में एक समय आएगा, जब हम देखेंगे कि - जब तक हम इन्द्रियों के गुलाम बने हुए हैं, तब तक पूर्णता कि प्राप्ति असंभव है। तब हम अपने मूल अनन्तस्वरूप कि ओर लौटना शुरू करेंगे। यही त्याग है, यही नैतिकता है। "(२:१७५)
" यह चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फ़िर से प्राप्त कर लेने के लिये सतत् चेष्टा कर रहा है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर खींचे रहती हैं। चित्त में बाहर जाने और विषय भोगों में चिपके रहने की जो प्रवृत्ति है- उसका दमन करना होगा और उसके बहिर्मुखी प्रवाह (पर वैराग्य का फाटक लगा कर, या लालच को कम करके ) को आत्मा की ओर मोड़ देना होगा। यही योग का पहला सोपान है। "(१:११८)
" असीम शक्ति का एक स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान है, और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। और ज्यों ज्यों यह फैलता है, त्यों त्यों एक के बाद दूसरा शरीर अपर्याप्त होता जाता है, वह उनका परित्याग कर उच्चतर शरीर धारण करता है। यही है मनुष्य का धर्म, सभ्यता या प्रगति का इतिहास। वह भीमकाय ' प्रोमिथियस ' (एक यूनानी देवता जिसने olampious से चुराई हुई अग्नि मनुष्य को दिया और जिसे दंड स्वरूप जंजीरों में जकड़ दिया गया) मानो अपने को बंधन मुक्त कर रहा है। " (९:१५६)
" मेरी ही यह 'विश्वजनीन बुद्धि' - क्रमसंकुचित हुई थी, और वही क्रमशः अपने को अभिव्यक्त कर रही है, जब तक कि वह पूर्ण मानव में परिणत नहीं हो जाती। फ़िर वह अपने उत्पत्ति-स्थान में लौट जायगी , ब्रह्मलीन हो जायेगी । धर्म तत्वज्ञ इस विश्वव्यापी बुद्धि को ही ईश्वर कहते हैं।" (२:१०६)
" हमारे इस अविराम,कठोर जीवन-संग्राम का लक्ष्य है, अंत में उनके निकट पहुँच कर उनके साथ एकीभूत हो जाना। " (४:५०)
" पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बंद हैं, वह अपना यथार्थ रास्ता नहीं पा रही है, यदि कोई इस बाधा को दूर कर सके तो, उसकी स्वभाविक पूर्णता अपनी शक्ति के बल से अभिव्यक्त होगी ही। मनःसंयोग का अभ्यास और चरित्र निर्माण की साधना ही उस पूर्णता के किवाड़ को खोल देता है, जो हमारा स्वभाव है,वह दिव्यता प्रकट हो जाती है।" (१:२०६)
 " स्वयं 'व्यास देव' भी पूर्णत्व प्राप्त करने में , पूर्ण रूप से सफल न हो सके थे, परन्तु उनके पुत्र - ' शुकदेव' जन्म से ही सिद्ध थे।......जो मनुष्य ' विदेह' बन चुका है; जिस मनुष्य ने स्वयं पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, ( मन को पूरी तरह से जीत लिया है ) उसके उपर बाहर की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उसके लिए किसी भी प्रकार की दासता शेष नहीं रह जाती। उसका मन स्वतन्त्र हो जाता है- और केवल ऐसा पुरूष ही संसार में रहने के योग्य है। "(३:६६)
 " जो पूर्ण है , वह किसी के द्वारा कभी अपूर्ण कैसे हो सकता है? जो मुक्त है, वह कभी बंधन में कैसे पड़ सकता है? तुम कभी बंधन में नहीं थे। तुम पूर्ण हो, ईश्वर पूर्ण है, तुम सब पूर्ण हो, सत्ता एक ही हो सकती है, दो नहीं। पूर्ण को कभी अपूर्ण नहीं बनाया जा सकता।......तुम लक्ष्य तक पहुंच चुके हो-जो भी गन्तव्य है। मन को कदापि न सोंचने दो कि - तुम लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाये हो। हम जो कुछ सोंचते हैं, वही बन जाते हैं। यदि तुम अपने को हीन पापी सोंचते हो तो, तुम अपने को सम्मोहित कर रहे हो।...यह सब कौतुक है। " (९:१४३)
" पूर्णता का मार्ग यह है कि, स्वयं पूर्णता को प्राप्त होना ,तथा कुछ थोड़े से स्त्री-पुरुषों को पूर्णता को प्राप्त होने में सहायता करना। फिर मैं भैंस के आगे बीन बजा कर - समय, स्वास्थ्य और शक्ति का अपव्यय क्यों करूँ? "(२:३३२)
" पूर्ण ( या असंख्य) में पूर्ण का भाग दो, पूर्ण जोडो , पूर्ण से पूर्ण में गुना करो, पूर्ण ही रहेगा।" 
 ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुद्च्च्यते ।   
  पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवा वशिष्यते । । 
(संस्कृत भाषा - पूर्णांग भाषा है !) (१०:११७)
" जीवन का अर्थ ही वृद्धि अर्थात विस्तार यानि प्रेम है। इसलिए प्रेम ही जीवन है, यही जीवन का एकमात्र नियम है, और स्वार्थपरता ही मृत्यु है। परोपकार ही जीवन है, परोपकार न करना ही मृत्यु है। ...जीसमे प्रेम नहीं वह जी भी नहीं सकता। ( ३:३३३)
" एकमात्र परोपकार को ही मैं कार्य मानता हूँ, बाकि सब कुकर्म है। " (४:२९८)
" जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे सर्वभूतों कि सेवा में न्योछावर कर दिया जाये।"(४:५८)
 " तुमलोग चारो ओर फ़ैल जाओ , अर्थात जगह जगह शाखाएं स्थापित करने का प्रयत्न करो। मौका खाली न जाने पाये, मद्रासियों (हर प्रांत वालों), से मिल कर जगह जगह समिति आदि की स्थापना करनी होगी। ( हिन्दी में महामंडल पुस्तिकाओं- पत्रिकाओं ) के ग्राहक क्यों नहीं बढ़ रहे ? अपनी बहादुरी तो दिखाओ। प्रिय भाई, मुक्ति न मिली, तो न सही, दो-चार बार नर्क ही जाना पडे,तो हानि क्या है ? क्या यह बात असत्य है ?--
-'मनसी वचसी काये पुण्यपियूष पूर्णाः,त्रिभुवनम उपकारश्रेणीभिः प्रीण यन्तः । 
परगुण परमाणुंग पर्वतीकृत्य नित्यं,निजहृदि विकसंतः सन्ति सन्तः कियन्तह।।
अर्थात ऐसे साधू कितने हैं, जिनके कार्य , मन तथा वाणी पुण्यरूप अमृत से परिपूर्ण हैं, और जो विभिन्न उपकारों के द्वारा त्रिभुवन की प्रीति सम्पादन कर दूसरों के परमाणु तुल्य - अर्थात अत्यंत स्वल्प गुण को भी- पर्वत प्रमाण बढ़ा कर अपने हृदयों का विकास साधन करते हैं ? श्री परमहंस देव के प्रति श्रद्धासम्पन्न १० व्यक्ति भी जहाँ हैं, वहीं एक सभा स्थापित करो। हरी-सभा इत्यादि को धीरे धीरे स्वाहा करना होगा।
'परोपकाराय हि सतां जीवितं , परार्थ प्राग्य उत्सृजेत -' साधुओं का जीवन परोपकार के लिए ही है, प्राज्ञ व्यक्तियों को दूसरों के लिए सब कुछ न्योच्छावर कर देना चाहिए।" (४:३०७)
" बुद्धदेव की जीवनी, ' ललित-विस्तार ' के प्रसिद्द गीत में कहा गया है - बुद्ध ने मनुष्य जाती के परित्राता  या मार्गदर्शक ' नेता ' के रूप में जन्म लिया; किन्तु जब राज-प्रासाद की विलासिता में वे अपने को भूल गये, तब उनको जगाने के लिये देवदूतों ने एक गीत गाया, जिसका मर्मार्थ इस प्रकार है - ' हम एक प्रवाह में बहते चले जा रहे हैं; हम अविरत रूप से परिवर्तित हो रहे हैं- कहीं निवृत्ति नहीं है, कहीं विराम नहीं है; सारा संसार मृत्यु की ओर चला जा रहा है-सभी मरते हैं ! हमारी सभी प्रगति, व्यर्थ का आडम्बरी जीवन, हमारे समाज-सुधार ! हमारी विलासिता, हमारे ऐश्वर्य, हमारा ज्ञान - इन सबकी मृत्यु ही एक मात्र गति है ! हम क्यों इस जीवन में आसक्त हैं ? क्यों हम इसका परित्याग नहीं कर पाते ?... यह हम नहीं जानते ! और यही माया है !! " (२:४७)
" भारतीय कुशल-प्रश्न है, ' आप स्वस्थ तो हैं ? '- जिसका अर्थ है आप अपने में स्थित हैं या देह में?...ध्यान करने का तात्पर्य है- आत्मा का अपने में (या स्व में) स्थित होने के लिए यत्न करना। "
" आगे बढ़ो ! सैकड़ो युगों तक संघर्ष करने से एक चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ! सत्य के एक शब्द का भी लोप नहीं हो सकता। सत्य अविनाशी है, पुण्य अनश्वर है,पवित्रता अनश्वर है। मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोर चेले नहीं चाहोये। ... सदाचार सम्बन्धी जिनकी उच्च अभिलाषा मर चुकी है, भविष्य की उन्नति के लिए जो बिल्कुल चेष्टा नहीं करते, और भलाई करने वालों को धर दबाने में जो हमेशा तत्पर हैं- ऐसे ' मृत-जड़पिण्डों ' के भीतर क्या तुम प्राण का संचार कर सकते हो ? क्या ' तुम ' उस वैद्य की जगह ले सकते हो, जो लातें मारते हुए उदण्ड बच्चे के गले में दवाई डालने की कोशिश करता हो ? भारत को नव-विद्युत की आवशयकता है, जो राष्ट्र की धमनियों में नविन चेतना कासंचार कर सके। यह काम हमेशा धीरे धीरे हुआ है, और होगा। " ( ३:३४४)
'गुरु-शिष्य वेदाध्यापक प्रशिक्षण परम्परा' के अनुसार चपरास प्राप्त वेदाध्यापकों  या मानव-जाति के मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करने की अनिवार्यता पर स्वामी विवेकानन्द जी के विचार :
 " मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माता है !"- इस कथन का अर्थ यह नहीं कि, हमे किसी बाहरी सहायता कि आवश्यकता ही नहीं है।..जब ऐसी सहायता प्राप्त होती है तो, उसकी उन्नति वेगवती हो जाती है, और अंत में साधक पवित्र एवं सिद्ध बन जाता है। यह संजीवनी-शक्ति पुस्कों से नहीं मिल सकती। इस शक्ति कि प्राप्ति तो एक आत्मा, एक दूसरी आत्मा से ही कर सकती है, अन्य किसी से नहीं। "(वि०सा० ख० ४:२५)
" जिन्हों ने धर्म-लाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं। वे ही मनुष्य जाती के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं।" (७:२६७)
" मनुष्य को पहले चरित्रवान होना चाहिए तथा आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए और उसके बाद फल स्वयं मिल जाता है। ...अतः अपने विचारों का दूसरो में प्रचार करने के लिए जल्दी नहीं करनी चाहिए, पहले हमारे पास देने के लिए कुछ होना चाहिए। "(७:२५८)
 " प्रथम तुम स्वयं आत्मज्ञानी हो जाओ तथा संसार को कुछ देने के योग्य बन जाओ और फ़िर संसार के सम्मुख देने के लिए खडे होओ ।"(७:२६०)
" स्वयं आध्यात्मिक सत्य कि उपलब्धी करने और दूसरों में उसका संचार करने का एक मात्र उपाय है- हृदय और मन कि पवित्रता।"(४:२२)
" शिक्षा (=शीक्षा) देना केवल लेक्चर देना नहीं है, और न सिद्धांत बघारना ही शिक्षा है, इसका अर्थ है -सम्प्रेष्ण !" (७:२५८)
विद्या-गुरुमुखी: " जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है, वह गुरु (नेता ) कहलाता है। और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचारित होती है, उसे शिष्य (या भावी वेदाध्यापक या वुड बी लीडर) कहते हैं।"(४:१७).
 " सच्चे गुरु वह हैं , जिनके द्वारा हमको अपना आध्यात्मिक जन्म प्राप्त हुआ है। वे ही वह साधन हैं , जिसमे से हो कर आध्यात्मिक प्रवाह हम लोगों में प्रवाहित होता है।" (७:१००)॥ 
" एक लोकप्रिय गीत , जो मेरे गुरु देव सदा गाया करते थे, मुझे इस समय याद आ रहा है- ' दिल जिस से मिल जाता है, वह जन अपनी आंखों से व्यक्त कर देता है !   हैं ऐसे दो-एक जन , जो करते विचरण - जगत की अनजानी राहों पर.' (७:३६९)...
" गुरु वह आभामय चेहरा है, जिसे ईश्वर हम तक पहुँचने के लिए धारण करता है। जब हम एकटक उसे निहारते हैं तो, धीरे-धीरे वह चेहरा गिर जाता है और ईश्वर प्रकट हो जाते हैं।" (३:१९९)
गुरु (या नेता) का चुनाव करते समय पहले उनको जाँच कर देखो, जो वे कहते हैं स्वयं उनका जीवन उस प्रकार का है या नहीं ? कथनी और करनी में कहीं अन्तर तो नहीं है ? हर एक आदमी गुरु होना चाहता है। एक भिखारी भी चाहता है कि लाखों का चेक दान में काट कर देदे। जैसे हास्यास्पद ये भिखारी हैं, वैसे ही ये गुरु भी हैं।"(४:१९) 
 " बहुत से लोग ऐसे हैं, जो स्वयं तो बडे अज्ञानी हैं, परन्तु फ़िर भी अंहकार वश अपने को सर्वज्ञ समझते हैं; इतना ही नहीं , बल्कि दूसरो को भी अपने कन्धों पर ले जाने को तैयार रहते हैं। इस प्रकार जो स्वयं अँधा है वही अन्य अंधों का अगुवा- 'पथ प्रदर्शक' (नेता)  बन जाता है, फलतः दोनों ही गड्ढे में गिर पड़ते हैं।"

" कुछ अपवाद -स्वरूप आत्माएँ , पहले से ही मुक्त हैं, और जो संसार की भलाई के लिए, संसार को सहायता देने के लिए यहाँ जन्म लेतीं हैं। वे पहले से ही मुक्त होतीं हैं, उन्हें अपनी मुक्ति की चिंता नहीं होती, वे केवल दूसरो की सहायता करना चाहती हैं। वे तो उन अभिनेताओं के समान हैं, जिनका अपना अभिनय समाप्त हो चुका है। "(७:८)॥
"साधारण गुरुओं से श्रेष्ठ एक और श्रेणी के गुरु होते हैं, वे हैं- इस संसार में ईश्वर के अवतार। वे केवल स्पर्श से, यहाँ तक कि इच्छा मात्र से ही आध्य्मिकता प्रदान कर सकते हैं। वे गुरुओं के भी गुरु हैं। हम उनकी उपासना किए बिना रह नहीं सकते, हम उनकी उपासना करने को विवश हैं। "(४:२५) 
..."ईश्वर है पारस मणि, उसके स्पर्श से मनुष्य एक क्षण में सोना बन जाता है."(७:१३) ..." एक सच्चा गुरु शिष्य से कहेगा- जा अब और पाप न कर। और शिष्य अब पाप नहीं कर सकता।"(३:१९८) 
...वे उन प्रथम दीपों के समान हैं, जिनसे अन्य दीप जलाये जाते हैं,..उनके सम्पर्क में आने वाले मनो उनसे अपना दीप जला लेते हैं, परन्तु वह 'प्रथम दीप' अमंद ज्योति से जगमगाता रहता है।" (३:१९६)
" बौद्धों कि एक उदार प्रार्थना है- ' पृथ्वी के सभी पवित्र मनुष्यों के समक्ष (मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं के समक्ष ) मैं नतमस्तक हूँ।'... जब तुम जैसे पवित्र और आनंदित लोगों के दर्शन मिलते हैं -जिसके मस्तक पर प्रभु अपनी ऊँगली से 'यह मेरा है' स्पष्ट रूप से अंकित कर दिए होते हैं तब मुझे इस प्रार्थना के सही अर्थ का बोध होने लगता है। "(२:३३३) 
.." पैगम्बर धर्म का प्रचार करते हैं, किंतु ईसा, बुद्ध, श्री रामकृष्ण आदि के समान अवतार पुरूष धर्म प्रदान करते हैं। उनका मात्र एक स्पर्श, या एक दृष्टि-पात ही पर्याप्त होता है। इसाई धर्म में इसी को - पवित्र आत्मा की शक्ति (Power of holy ghost) को दूसरो में संचारित करना (by the lying of hands) कहते हैं। प्रभु ईसा ने अपने शिष्यों के भीतर सचमुच शक्ति का संचार किया था। इसी को गुरु-परम्परा गत शक्ति कहते हैं। यही यथार्थ 'Baptism' दीक्षा है और अनादी काल से चली आ रही है। "(७:१४)....
" श्री रामकृष्ण देव जैसे पुरुषोत्तम ने इससे पहले जगत में और कभी जन्म नहीं लिया। संसार के घोर अंधकार में अब यही महापुरुष ज्योतिस्वरूप हैं। इनकी ही ज्योति से मनुष्य संसार-समुद्र के पार चले जायेंगे।"(६:४७,४९)
" श्रीरामकृष्ण के जीवन का पूर्वार्ध धर्मोपार्जन में लगा रहा तथा उत्तरार्ध उसके वितरण में।....दूसरों के प्रति उनमे अगाध प्रेम था।" (७:२६५)......" श्री रामकृष्ण का संदेश है-' प्रथम स्वयं धार्मिक बनो और सत्य की उपलब्धी करो। उनका सिद्धांत था कि, मनुष्य को प्रथम चरित्रवान होना चाहिए तथा आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जब तुम्हारा चरित्र रूपी कमल पूरी तरह खिल जायगा ,तब देखोगे कि सारे फल तुम्हे अपने-आप प्राप्त हो रहे हैं."(७:२५८) 
" आधुनिक संसार के लिए श्री रामकृष्ण का संदेश यही है---' मतवादों,आचारों, पंथों, तथा गिरजाघरों एवं मन्दिरों की चिंता न करो। प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सार वस्तु ; अर्थात आत्म-तत्व विद्यमान है, इसकी तुलना में ये सब तुच्छ हैं, और मनुष्य के अंदर यह भाव जितना ही अधिक अभिव्यक्त होता है, वह उतना ही जगत् कल्याण के लिए सामर्थ्यवान हो जाता है। प्रथम इसी धर्म-धन का उपार्जन करो, किसी में दोष मत खोजो, क्योंकि; ' सभी मत , सभी पथ ' अच्छे हैं। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम और न सम्प्रदाय , वरन इसका अर्थ होता है-'आध्यात्मिक-अनुभूति।' जिन्हें अनुभव हुआ है, वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने धर्मलाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं, वे ही मनुष्य जाती के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं-- केवल वे ही ज्योति की शक्ति हैं।" (७:२६७)
"श्री रामकृष्ण ने अपने पूजा-पाठ का प्रचार करने का उपदेश मुझे कभी नहीं दिया। वे साधना पद्धति, ध्यान-धारणा तथा अन्य ऊँचे धर्म भावों के सम्बन्ध में जो सब उपदेश दिए हैं, उन्हें पहले अपने में अनुभव कर के, फ़िर सर्व-साधारण को उन्हें सिखाना होगा। 'मत अनंत हैं; पथ भी अनंत हैं '। सम्प्रदायों से भरे जगत में और एक नवीन सम्प्रदाय पैदा कर देने के लिए मेरा जन्म नहीं हुआ। "
" यह ख्याल रखना कि इन सारे कार्यों की देख-भाल तुमको ही करनी होगी, पर 'नेता' बन कर नहीं 'सेवक' बन कर।"(२:३९४)...
" मेरा सिद्धांत है कि प्रत्येक अपनी सहायता आप करता है। नारी या पुरूष एक दूसरे पर शासन क्यों करें ? प्रत्येक स्वतंत्र है। यदि कोई बंधन है, तो वह प्रेम का। नारियाँ स्वयं अपने भाग्य का विधान कर लेंगी, पुरुषों का स्त्रियों के भाग्य का विधान अपने हाँथ में रखना- नारियों कि अवमानना है। ....मैं ऐसी गलती के साथ प्रारम्भ नहीं करना चाहता, क्योंकि यही गलती फ़िर समय के साथ बडी होती जायगी , इतनी बडी कि अन्ततोगत्वा उसके अनुपात को सम्भालना असम्भव हो जाएगा ।अतः यदि स्त्रियों के कार्य में पुरुषों को लगाने की भूल मैंने की , तो स्त्रियाँ कभी भी मुक्त न हो सकेंगी - वह एक खानापूर्ति जैसा कार्य होगा। माँ (श्रीसारदा देवी) हमारी 'संघ-नेत्री' हैं, पर वे कभी हम पर शासन नहीं करतीं। "(१० :२०)
" स्त्रीयों में जो ईश्वरत्व वास करता है, उसे हम कभी ठग नहीं सकते।...वह सदैव ही अचूक रूप से बेईमानी तथा ढोंग को पहचान लेता है।...पश्चिम में स्त्रियों की पूजा प्रायः उनके तारुण्य तथा लावण्य के कारण होता है। किंतु पथ-प्रदर्शकों (यथार्थ नेताओं) के लिए प्रत्येक स्त्री का मुखार्विन्द , उस आनन्दमयी माँ का ही मुखार्विन्द है."(७:२५७)
" श्री रामकृष्ण माँ सारदा से कहते हैं - ' जगन्माता ने मुझे यह समझा दिया है कि, वह प्रत्येक स्त्री में निवास करती है, और इसीलिए मैं हर स्त्री को माँ रूप में देखता हूँ। यही एक दृष्टि है, जिससे मैं तुम्हे भी देख सकूंगा, परन्तु यदि तुम्हारी इच्छा मुझे संसाररूपी मायाजाल में खींचने की हो, क्योंकि मेरा तुमसे विवाह हो चुका है, तो मैं तुम्हारी सेवा में उपस्थित हूँ।' माँ बोली -' आपको सांसारिक जीवन में घसीटने कि मेरी इच्छा कदापि नहीं है, बस, इतना ही चाहती हूँ कि मैं आपके समीप रहूँ,आपकी सेवा करूं तथा आपसे शिक्षा ग्रहण करूं।' (७:२५४) 
" ह्रदय सरोवर में एक अष्टदल रक्त-वर्ण कमल है, धर्म उसका मूल देश है, ज्ञान उसकी नाल है, योगी कि अष्ट-सिद्धियाँ उस कमल के आठ दलों के समान हैं, और वैराग्य उसके अंदर की कर्णिका है। जो योगी अष्ट सिद्धियाँ आने पर भी उनको छोड़ सकते हैं, वे ही मुक्त हो सकते हैं। इसीलिए अष्ट-सिद्धियों को बाहर के आठ दलों के रूप में, तथा अंदर कि कर्णिका को 'परम वैराग्य' - अर्थात अष्ट सिद्धियाँ आने पर भी, उनके प्रति वैराग्य के रूप में वर्णन किया है। विषय की लालसा, भय और क्रोध छोड़ कर जो प्रभु के शरणागत हुए है,उन्हीं में तन्मय हो गए हैं, जिनका ह्रदय पवित्र हो गया है, वे भगवान के पास जो कुछ चाहते हैं, भगवान उसी समय उसकी पूर्ति करते हैं। अतः तुम उनसे कहो, हे प्रभु -तुम मुझे ,भक्ति दो, विवेक दो , वैराग्य दो ,ज्ञान दो। "(१:१०४)
" तमेवैकं जानथ आत्मानम् अन्या वाचो विमुंचथ "- (मुण्डक उ ० २। २। ५ ) अर्थात- उसका, केवल उसका ध्यान करो अन्य सब बातों को त्याग दो।" जो लोग केवल उन्ही की चर्चा करते हैं, वे भक्त को मित्र के समान प्रतीत होते हैं। और जो लोग अन्य विषयों की चर्चा करते हैं , वे उसको शत्रु के समान लगते हैं। उस प्रियतम का चिन्तन हृदय में सदैव बने रहने के कारण ही उसे जीवन इतना मधुर प्रतीत होता है। ...इसको 'तद अर्थप्राणसंस्थान ' कहा है। तदियता तब आती है जब, साधक श्री भगवान् के चरण-कमलों को स्पर्श कर लेता है, तब उसकी प्रकृति विशुद्ध हो जाती है, सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाती है। "(४:५५)
[ 'BE AND MAKE ' का अर्थ है , गुरु-शिष्य वेदाध्यापक प्रशिक्षण परम्परा में स्वयं एक वेदाध्यापक (पैगम्बर, नेता, लोक-शिक्षक)  बनो और दूसरों को भी वेदाध्यापक बनने में सहायता करो ! ]  ..." अंगूर कि लता पर जिस प्रकार गुच्छों में अंगूर फलते हैं, उसी प्रकार भविष्य में सैंकडो ईसाओं का आविर्भाव होगा."(७:१२)
" जिस देश में ऐसे मनुष्य जितनी अधिक संख्या में पैदा होंगे, वह देश उतनी ही उन्नत अवस्था को पहुँच जायगा।....वे चाहते थे कि तुम अपने भाई-स्वरूप समग्र मानवजाति के कल्याण के लिए सर्वस्व त्याग दो। 'universal brotherhood' पर सेमीनार नहीं करो,अपने शब्दों को सिद्ध करके दिखा दो। त्याग तथा प्रत्यक्ष अनुभूति का समय आ गया है, और इनसे ही तुम जगत के सभी धर्मों में सामंजस्य देख पाओगे।"(७:२६८) 
इस प्रकार हमलोग यह समझ सकते हैं कि सांख्य शास्त्र का उद्देश्य तत्वज्ञान के द्वारा मोक्ष प्राप्त करना या डीहिप्नोटाइज्ड होना है ! (अर्थात अपने -पराये के भ्रम से मुक्त होना है।) कपिलवस्तु, जहाँ बुद्ध पैदा हुए थे, कपिल के नाम पर बसा नगर था। इससे कम-से-कम इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि बुद्ध के पहले कपिल का नाम फैल चुका था।
निस्संदेह भगवान कपिल ही दर्शन शास्त्र के पितामह हैं ! जो हमें सृष्टि के 'देश-काल -निमित्त' टाइम-स्पेस एण्ड कॉज़ैशन में कॉज़ैशन (the act of causing something to happen) या 'अल्टीमेट सोर्स ऑफ़ क्रिएशन' सृष्टि के महान आधार भूत कारण 'महत तत्व' को सांख्य की दृष्टि से समझने में सहायता करते हैं !
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