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सोमवार, 27 दिसंबर 2021

🔆🙏 $$$ 🔆🙏 [2005 , Sarisa, R.K. Mission Camp: 1 ] स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण.

[Swami Vivekananda -Captain James Henry Sevier, Man-making and Character-building training in the Vedanta teacher-training tradition: 'Be and Make'-at 39 th All India Youth Training Camp held at Sarisa R.K. Mission Ashram , from 25 th to 30 th December, 2005. The most valuable teachings given by revered Nabani da (C-IN-C). In this Camp 1066 Campers participated from 8 states of India .At Farewell Session 43 boys spoke in 150 minutes. 26.12.2005 ; 6.15 A.M.]  

'जय सद्गुरु ईश्वर प्रापक हे, भवरोग विकार विनाशक हे ।

मन येनो रहे तब श्रीचरणे , गुरुदेव दया करो दीनजने ।।'

 ।। जय श्री गुरु महाराज ।।

" श्रीरामकृष्णाष्टकम् "

[श्रीरामकृष्णाष्टकम् - यानी भगवान श्रीरामकृष्ण की स्तुति के लिए आठ श्लोक। इस स्तोत्र की रचना स्वामी अभेदानन्द द्वारा की गयी थी, जो श्री रामकृष्ण के प्रत्यक्ष शिष्य और स्वामी विवेकानन्द के गुरुभाई थे, तथा इसका अंग्रेजी में अनुवाद स्वामी तपस्यानन्द द्वारा किया गया था।  This hymn was composed by Swami Abhedananda, a direct disciple of Sri Ramakrishna and translated by Swami Tapasyananda.)]

विश्वस्य धाता पुरुषस्त्वमाद्यो-

ऽव्यक्तेन रूपेण ततं त्वयेदम् ।

हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने

कृपाकटाक्षं कुरु देव नित्यम् ॥१॥

[हे हरि ! तुम ही लोकों का अधिपति और मूल सत्ता हो , जिसके अगोचर (imperceptible) रूप  से यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड परिव्याप्त है। हे रामकृष्ण ! तुम मुझ पर-अपने इस भक्तिहीन बालक पर, सदैव अपनी करुणाशील दृष्टि बनाये रखना !     

Thou art the Ruler of the Worlds, and the Primordial Being, by whose imperceptible form all this is pervaded. O Ramakrishna! Bestow Thy merciful glance on me, Thy faithless child.

त्वं पासि विश्वं सृजसि त्वमेव

त्वमादिदेवो विनिहंसि सर्वम् ।

हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने

कृपाकटाक्षं कुरु देव नित्यम् ॥२॥

[हे हरि ! तुम इस जगत के प्रतिपालक (protector) हो, और इसके निर्माता (creator) भी तुम ही हो; तथा इसकी मूल सत्ता होने के नाते, तुम ही इसे नष्ट करने वाले (destroyer) भी  हो। हे रामकृष्ण! तुम मुझ पर-अपने इस भक्तिहीन बालक पर, सदैव अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखना।  

Thou art the protector of the world, and also its creator, Thou the Original Being, destroyest it too. O Ramakrishna! Bestow Thy merciful glance on me, Thy faithless child.]

मायां समाश्रित्य करोषि लीलां

भक्तान् समुद्धर्तुमनन्तमूर्तिः ।

हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने

कृपाकटाक्षं कुरु देव नित्यम् ॥३॥

[हे हरि ! तुम माया का आश्रय करके लीला करते हो, भक्त के उद्धार के लिये अनेक मूर्ति (नाम-रूप) धारण करते हो । हे रामकृष्ण ! तुम अपने इस भक्तिहीन दास के प्रति सदा कृपा दृष्टि करते रहो।।

The Limitless Being that Thou art, Thou dost, in order to redeem Thy devotees, induldge in Thy play of redemption, assuming limitation by Thy power of Maya. O Ramakrishna! Bestow Thy merciful glance on me, Thy faithless child.

विधृत्यरूपं नरवत्त्वया

वै विज्ञापितो धर्म इहातिगुह्यः ।

हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने

कृपाकटाक्षं कुरु देव नित्यम् ॥४॥

[हे हरि ! तुम सामान्य मनुष्य का रूप धारण कर धरती पर अवतरित होते हो, तथा उन ईश्वरीय नियमों की घोषणा करते हो ; जिसे अज्ञानी मनुष्य रहस्यमय समझते हैं ! हे रामकृष्ण ! तुम अपने इस भक्तिहीन दास के प्रति सदा कृपा दृष्टि करते रहो।।   

Assuming a form that was in appearance human, Thou dost proclaim the sacred Law, a mystery to men in ignorance. O Ramakrishna! Bestow Thy merciful glance on me, Thy faithless child.

तपोऽथ ते त्यागमदृष्टपूर्वम्

दृष्ट्वा नमस्यन्ति कथं न विज्ञाः ।

हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने

कृपाकटाक्षं कुरु देव नित्यम् ॥५॥

[हे ठाकुरदेव !  त्याग और तपस्या (austerity-आत्मसंयम) का जैसा अभ्यास तुमने किया है , वह किसी भी देश या काल के लिए अद्वितीय है ! कोई भी ज्ञानी व्यक्ति, तुम्हारे उदाहरणात्मक जीवन को देखकर तुम्हारे समक्ष नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकता ! हे रामकृष्ण! तुम मुझ पर-अपने इस भक्तिहीन बालक पर, सदैव अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखना।   

Unparalleled anywhere, at any time, is Thy practice of austerity and renunciation; No man of wisdom can, on seeing Thy example, help bending his head to Thee in salutation. O Ramakrishna! Bestow Thy merciful glance on me, Thy faithless child.]

श्रुत्वात्र ते नाम भवन्ति भक्ता

दृष्ट्वा वयं त्वां न तु भक्तियुक्ताः ।

हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने

कृपाकटाक्षं कुरु देव नित्यम् ॥६॥

[हे प्रभु ! लोग तो तुम्हारा नाम सुनकर ही तुम्हारे प्रति निष्ठावान हो जाते हैं, लेकिन अफसोस! तुम्हारा दर्शन करते हुए भी हमारे भीतर सच्ची भक्ति विकसित नहीं हो सकी है। इसलिए  हे रामकृष्ण! तुम मुझ पर-अपने इस भक्तिहीन बालक पर, सदैव अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखना। 

Merely hearing Thy name men become devoted to Thee, but alas! Even seeing Thee we have not developed true devotion. O Ramakrishna! Bestow Thy merciful glance on me, Thy faithless child.

सत्यं विभुं शान्तमनादिरूपं

प्रसादये त्वामजमन्तशून्यम् ।

हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने

कृपाकटाक्षं कुरु देव नित्यम् ॥७॥

[हे हरि ! तुम ही परम् सत्य स्वरूप, कल्याण स्वरूप और शान्तिस्वरूप हो, अजन्मा हो तुम्हारे अस्तित्व का कोई आदि और अंत नहीं मिलता ।  हे रामकृष्ण! तुम मुझ पर-अपने इस भक्तिहीन बालक पर, सदैव अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखना। 

Thou art the true, the good, the peaceful, the unborn and Thy being is without a beginning and an end. O Ramakrishna! Bestow Thy merciful glance on me, Thy faithless child.

जानामि तत्त्वं न हि देशिकेन्द्रं

किं ते स्वरूपं किमु भावजातम् ।

हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने

कृपाकटाक्षं कुरु देव नित्यम् ॥८॥

[हे जगतगुरु (माँ काली से चपरास प्राप्त) श्री रामकृष्ण देव! तुम्हारे सत्यस्वरुप के बारे में मुझे ठीक से कुछ ज्ञात नहीं है। मैं तुम्हारे यथार्थ स्वरूप को नहीं जानता ; और न तुम्हारी असंख्य अभिव्यक्तियों के विषय में कुछ जानता हूँ ! हे रामकृष्ण ! तुम अपने इस भक्तिहीन दास के प्रति सदा कृपा दृष्टि करते रहो।।    

I know not the truth about Thee, O World-Teacher, know not Thy true form, nor about Thy numerous manifestations. O Ramakrishna! Bestow Thy merciful glance on me, Thy faithless child.

[(जो मनुष्य श्रीरामकृष्णाष्टकम्  स्तोत्र को भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, भगवान श्रीरामकृष्णदेव  उन से प्रसन्न होते हैं। उस मनुष्य के दुःख दूर हो जाते है और जीवन में सुख शांति आती है।
महामंडल पुस्तिका - " विवेक- गीत /https://vivek-jivan. blogspot.com/2012/03/ 8. html/https://kzsection.info/green/sri-ramakrishna-astakam-with-lyrics-and-meaning-rendered-by-swami- mukteshananda/ 3H2ChIabo6SsZaM.html]

🔆🙏" कर्म का रहस्य "🔆🙏 

“The Secret of Work”

[Hands.. develop hands to do good work.   ~ Vivekananda.] 

प्रसिद्ध भारतीय संन्यासी और दार्शनिक स्वामी विवेकानन्द (1863 -1902) अपने जीवन के तीसरे दशक की शुरुआत में (32 वर्ष की आयु में) 1895 के दिसंबर महीने में न्यूयॉर्क पहुँचे थे। यहाँ पहुँचकर उन्होंने 228 वेस्ट 39वीं स्ट्रीट पर एक फ्लैट किराये पर लिया था। यहीं पर 'कर्म योग' की अवधारणा तथा 'मनःसंयोग' (मानसिक एकाग्रता) के महत्व आदि विषयों पर सार्वजनिक व्याख्यानमाला का आयोजन करते हुए उन्होंने लगभग एक माह का समय व्यतीत किया था।  उन व्याख्यानों ने तात्कालीन अभूतपूर्व आकाशीय विद्युत् वैज्ञानिक और आविष्कारक निकोला टेस्ला (Nikola Tesla), तथा अग्रणी मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक विलियम जेम्स (William James), अत्यधिक आकर्षित किया और वे उनके अनुयायी बन गए। और अंततः 1896 में उस सम्पूर्ण व्याख्यानमाला को (The Yoga of Action) 'कर्म योग' नामक पुस्तक के रूप में लिखित और प्रकाशित किया गया। 

स्वामीजी की उस व्याख्यानमाला में सबसे कालातीत भाषण था “The Secret of Work” या " कर्म का रहस्य। " अपने उस भाषण में कर्म करते समय हमारे द्वारा जो भूलें हमेशा हो जाया करती हैं (कर्तापन का अहंकार चला आता है) उसके कारणों का विश्लेषण,उन्होंने अत्यन्त कुशाग्रता (poignancy-पॉनिएन्सी) के साथ किया है। "The  doing for the Being" -हमें सद्कर्म कर्म क्यों करने चाहिए? क्योंकि दूसरों के कल्याण के लिए निःस्वार्थ भाव से कार्य करते- करते हमें अपने दिव्यस्वरूप की स्मृति हो आती है, और हमें अपने अन्तर्निहित ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है। निःस्वार्थ भाव से मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार रूपी श्रम करने में हमारा जो पसीना बहता है , वही हमारी आत्मा (ह्रदय Heart) को विस्तृत होने की आकांक्षा को परिपूर्ण करता है।    

[In December of 1895, the renowned Indian Hindu monk and philosopher Swami Vivekananda (January 12, 1863–July 4, 1902), then in his early thirties, traveled to New York, rented a couple of rooms at 228 West 39th Street, where he spent a month holding a series of public lectures on the notion of karma — translated as work — and various other aspects of mental discipline. They  attracted a number of famous followers, including groundbreaking inventor Nikola Tesla and pioneering psychologist and philosopher William James, and were eventually transcribed and published as Karma Yoga: The Yoga of Action (public library) in 1896. Among the most timeless of them is one titled “The Secret of Work,” in which Vivekananda examines with ever-timely poignancy the ways in which we mistake the doing for the being and worship the perspirations of our productivity over the aspirations of our soul.]

" शुभ और अशुभ - दोनों ही प्रकार के कर्म आत्मा के लिए बन्धन स्वरुप हैं। इस सम्बन्ध में गीता का कथन है कि यदि हम अपने कर्मों में आसक्त न हों, तो हमारी आत्मा पर किसी प्रकार का बन्धन नहीं पड़ सकता। गीता का केन्द्रीय भाव यह है - 'निरन्तर कर्म करते रहो , परन्तु उसमें आसक्त मत होओ। " ३/२९ 

["Good and bad are both bondages of the soul… If we do not attach ourselves to the work we do, it will not have any binding effect on our soul… This is the one central idea in the Gita: work incessantly, but be not attached to it."]

गीता का मानव मात्र को आह्वान है कि वह केवल इन्द्रियों के विषय स्थूल देह (Hand)  और मन (Head); जो उसके व्यक्तित्व का बाह्यतम पक्ष है --के स्तर पर ही रुका न रहे। इनसे सूक्ष्मतर है 'विवेक-सम्पन्न बुद्धि' जिसका उपयोग कर उसको अपनी वास्तविक सत्ता (आत्मा या Heart)  को व्यक्त करना चाहिये।  जो मनुष्य अपनी विवेक-प्रयोग रूपी विशेष बुद्धि-क्षमता का पूर्ण उपयोग करता है वही व्यक्ति जन्म जन्मान्तरों में अर्जित वासनाओं के बन्धन से मुक्त हो जाता है। कर्मयोग की भावना से कर्म करने पर (विवेक-प्रयोग के बाद कर्म करने से ) वासनाओं का क्षय होता है, और  वासनाओं को दबा देने से ही मन में विक्षेप उठते हैं। किन्तु उचित-अनुचित निर्णय -क्षमता के अनुसार कर्म करने से वासना का क्षय हो जाता है, और क्रमशः हमारा मन स्थिर और शुद्ध होकर श्रवण-मनन- निदिध्यासन द्वारा आत्मानुभूति के योग्य बन जाता है। समस्त प्रकार के द्वन्द्वों में मन के सन्तुलन को न खोकर कुशलतापूर्वक कर्म करना ही कर्म -योग है। विवेकानन्द गीता के उपदेश - " योगः कर्मसु कौशलम् । (गीता -2.50)" के अनुसार कर्म में कुशलता की समीक्षा करके देखते हैं कि कोई भी कार्य करने के पहले हमें विवेक-प्रयोग करके [ अर्थात श्रेय-प्रेय विवेक या शाश्वत -नश्वर विवेक करके] यह देख लेना चाहिए कि हमारे कार्य के चयन से क्या हम 'मनुष्य ' बनेंगे या 'पशु ' बन जायेंगे ?


 [Vivekananda observes how our choices and actions shape who and what we become.]

"संस्कार को हमलोग अंग्रेजी में "inherent tendency" या जन्मजात प्रवृत्ति कह सकते हैं।हमारा प्रत्येक कार्य , हमारा प्रत्येक अंग-संचालन , हमारा प्रत्येक विचार हमारे चित्त (mind-stuff या मन -वस्तु ) पर इसी प्रकार का एक संस्कार (छाप) छोड़ जाता है ; और यद्यपि ये संस्कार ऊपरी दृष्टि से स्पष्ट न भी हों , तथापि ये अवचेतन रूप से अन्दर ही अन्दर कार्य करने में पर्याप्त समर्थ होते हैं। हम प्रतिमुहूर्त जो कुछ होते हैं , वह इन संस्कारों के समुदाय द्वारा ही नियमित होता है। यथार्थतः इसे ही चरित्र कहते हैं , और प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन संस्कारों की समष्टि द्वारा ही नियमित होता है। "  

["Samskâra can be translated very nearly by "inherent tendency". Every work that we do, every movement of the body, every thought that we think, leaves such an impression on the mind-stuff, and even when such impressions are not obvious on the surface, they are sufficiently strong to work beneath the surface, subconsciously. What we are every moment is determined by the sum total of these impressions on the mind… This is really what is meant by character; each man’s character is determined by the sum total of these impressions."] 

विवेकानंद हमारे  “impressions on the mind-stuff” (मन-वस्तु पर) संचित 'शुभ ' और 'अशुभ' जन्मजात-प्रवृत्तियों, संस्कारों या छापों की गहरी लकीरों की समष्टि को ही चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया से जोड़ते हुए कहते हैं - " यदि शुभ संस्कारों का प्राबल्य रहे , तो मनुष्य का चरित्र अच्छा होता है , और यदि अशुभ संस्कारों का , तो बुरा। यदि मनुष्य निरन्तर बुरे शब्द सुनता रहे, बुरे विचार सोचता रहे , बुरे कर्म करता रहे , तो उसका मन भी बुरे संस्कारों से पूर्ण हो जायेगा। और बिना उसके जाने ही वे संस्कार उसके समस्त विचारों तथा कार्यों पर अपना प्रभाव डालते रहेंगे। वास्तव में ये बुरे संस्कार निरन्तर अपना कार्य करते रहते हैं। अतएव बुरे संस्कार -सम्पन्न होने के कारण उस व्यक्ति के कार्य भी बुरे होंगे - वह एक बुरा आदमी (पशु या राक्षस जैसा) बन जायेगा - वह इससे बच नहीं सकता। इन संस्कारों की समष्टि उसमें दुष्कर्म करने की प्रबल प्रवृत्ति उत्पन्न कर देगी। वह इन संस्कारों की हाथों में एक यंत्र सा होकर रह जायेगा , वे उसे बलपूर्वक दुष्कर्म करने को बाध्य करेंगे। इसी प्रकार यदि एक मनुष्य अपने मन में सदैव पवित्र विचार और सकारात्मक सोच बनाये रखे , और सत्कार्य करता रहे , तो उसके इन संस्कारों का प्रभाव भी अच्छा (शुभ) ही होगा, तथा उसकी इच्छा न होते हुए भी वे उसे सत्कार्य करने के लिए प्रवृत्त करेंगे। जब मनुष्य इतने सत्कार्य एवं सतचिन्तन कर चुका होता है कि उसकी इच्छा न होते हुए भी वे उसमें सत्कार्य करने की एक अनिवार्य प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है , तब फिर यदि वह दुष्कर्म करना भी चाहे , तो इन सब संस्कारों की समष्टि रूप से उसका 'मन' उसे ऐसा करने से तुरन्त रोक देगा ; इतना ही नहीं , वरन उसके ये संस्कार उसे मार्ग पर से हटा देंगे। तब वह अपने सत्संस्कारों के हाथ एक कठपुतली जैसा हो जायेगा। जब ऐसी स्थिति हो जाती है , तभी उस मनुष्य का चरित्र स्थिर कहलाता हैं। " ३/ ३०  

[Vivekananda returns to the notions of “good” and “bad” as they relate to the architecture of our character through these “impressions on the mind-stuff”: " If good impressions prevail, the character becomes good; if bad, it becomes bad. If a man continuously hears bad words, thinks bad thoughts, does bad actions, his mind will be full of bad impressions; and they will influence his thought and work without his being conscious of the fact. In fact, these bad impressions are always working, and their resultant must be evil, and that man will be a bad man; he cannot help it. The sum total of these impressions in him will create the strong motive power for doing bad actions. He will be like a machine in the hands of his impressions, and they will force him to do evil. Similarly, if a man thinks good thoughts and does good works, the sum total of these impressions will be good; and they, in a similar manner, will force him to do good even in spite of himself. When a man has done so much good work and thought so many good thoughts that there is an irresistible tendency in him to do good in spite of himself and even if he wishes to do evil, his mind, as the sum total of his tendencies, will not allow him to do so; the tendencies will turn him back; he is completely under the influence of the good tendencies. When such is the case, a man’s good character is said to be established.

" जिस प्रकार कछुआ अपने सिर और पैरों को खोल के अन्दर समेट लेता है , और तब उसे चाहे हम मार ही क्यों न डालें , उसके टुकड़े -टुकड़े ही क्यों न कर डालें , पर वह अपने खोल से बाहर नहीं निकलता। इसी प्रकार जिस मनुष्य ने अपने मन एवं इन्द्रियों को वश में कर लिया है , उसका चरित्र भी सदैव स्थिर रहता है। वह अपनी आभ्यन्तरिक शक्तियों को वश में रखता है और उसकी इच्छा के विरुद्ध संसार की कोई भी वस्तु उन्हें बहिर्मुख होने के लिए विवश नहीं कर सकती। मन के ऊपर इस प्रकार सद्विचारों एवं सुसंस्कारों का निरन्तर प्रभाव पड़ते रहने से सत्कार्य करने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है और इसके फलस्वरूप हम इन्द्रियों (कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों दोनों ) को वशीभूत करने में समर्थ होते हैं। तभी हमारा चरित्र स्थिर होता है , तभी हम सत्य-लाभ के अधिकारी हो सकते हैं। ऐसा ही मनुष्य सदैव निरापद (अच्युत) रहता है ,उससे किसी भी प्रकार की बुराई नहीं हो सकती।"     

[As the tortoise tucks its feet and head inside the shell, and you may kill it and break it in pieces, and yet it will not come out, even so the character of that man who has control over his motives and organs is unchangeably established. He controls his own inner forces, and nothing can draw them out against his will. By this continuous reflex of good thoughts, good impressions moving over the surface of the mind, the tendency for doing good becomes strong, and as the result we feel able to control … the sense-organs, the nerve-centers. Thus alone will character be established, then alone a man gets to truth. Such a man is safe for ever; he cannot do any evil.] 

स्वामी विवेकानन्द चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए, 'सिंह-शावकों' (शिष्यों) को भेंड़त्व के भ्रम की (Hypnotized) सम्मोहित अवस्था से भ्रममुक्त (De-Hypnotized) 'मनुष्य' बनने के लिये,'सद्प्रवृत्तियों '(good tendencies) को अर्जित करने की अपेक्षा एक अन्य महत्वपूर्ण आवश्यकता- 'मुमुक्षुत्वं' (the desire for liberation from attachment-"भेंड़ बने रहने में आसक्ति से मुक्ति की इच्छा।") की अनिवार्यता को रेखांकित करते हैं। विवेकानन्द कहते हैं  - " मुक्ति का अर्थ है , सम्पूर्ण स्वाधीनता -शुभ और अशुभ , दोनों प्रकार के बन्धनों से छुटकारा पा जाना। लोहे की जंजीर भी एक जंजीर है , और सोने की जंजीर भी एक जंजीर ही है। यदि हमारी अँगुली में एक काँटा चुभ जाये , तो उसे निकालने के लिए हम एक दूसरा काँटा काम में लाते हैं , परन्तु जब वह निकल जाता है, तो हम दोनों को ही फेंक देते हैं। हमें फिर दूसरे काँटे को रखने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती , क्योंकि दोनों आखिर काँटे ही तो हैं। इसी प्रकार अशुभ संस्कारों का नाश शुभ संस्कारों द्वारा करना चाहिए और मन के अशुभ विचारों को शुभ विचारों द्वारा दूर करते रहना चाहिए। जब तक कि समस्त अशुभ विचार लगभग नष्ट न हो जाये अथवा पराजित न हो जाये या वशीभूत होकर मन में कहीं एक कोने में न पड़े रह जाएँ। परन्तु उसके बाद शुभ -संस्कारों पर भी विजय प्राप्त करना आवश्यक है। तभी 'जो ' आसक्त था वह अनासक्त हो जाता है। कर्म करो , अवश्य करो , पर उस कर्म अथवा विचार को अपने मन के उपर कोई गहरा प्रभाव न डालने दो। लहरें आयें और जायें , मांसपेशियों और मस्तिष्क से बड़े बड़े कार्य होते रहें , पर वे 'आत्मा ' पर [मन-वस्तु या चित्त पर ] किसी प्रकार का गहरा प्रभाव न डालने पायें।"   

[And yet, Vivekananda notes, there is an even more important requirement for character than the acquisition of “good tendencies” — the desire for liberation from attachment, freedom from clinging to the very notions of good and bad, in work and in life. He writes: Liberation means entire freedom — freedom from the bondage of good, as well as from the bondage of evil. A golden chain is as much a chain as an iron one. There is a thorn in my finger, and I use another to take the first one out; and when I have taken it out, I throw both of them aside; I have no necessity for keeping the second thorn, because both are thorns after all. So the bad tendencies are to be counteracted by the good ones, and the bad impressions on the mind should be removed by the fresh waves of good ones, until all that is evil almost disappears, or is subdued and held in control in a corner of the mind; but after that, the good tendencies have also to be conquered. Thus the “attached” becomes the “unattached”. Work, but let not the action or the thought produce a deep impression on the mind. Let the ripples come and go, let huge actions proceed from the muscles (Hand)  and the brain (Head) , but let,  them not make any deep impression on the soul (Heart -the mind stuuf)  .

थोड़ा रूक कर यह विचार करना चाहिए कि पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित होकर,  कहीं हमलोग यह न समझ बैठें कि विवेकानन्द 'कर्म को पूजा ' न मानकर आलस्य में पड़े रहने की वकालत करते होंगे।  बल्कि इसके विपरीत वे कहते थे - "हमारा सर्वोत्तम कर्म तो तब होता है , जब हम निःस्वार्थ भाव से कर्म करते हैं ! जब हम फल की आशा छोड़ कर, केवल अनुभव प्राप्त करने के लिए कर्म करते हैं। "

विवेकानन्द कविता को व्यवहारिकता के साथ जोड़ते हुए कहते हैं - " अनासक्त हो जाओ, और कार्य होते रहने दो ! मस्तिष्क के स्नायुकेन्द्र अपना कार्य करते रहें , निरन्तर कार्य करते रहो , परन्तु एक लहर को भी अपने मन पर प्रभाव मत डालने दो। संसार में इस प्रकार कार्य करो, मानो तुम एक विदेशी पथिक हो , पर्यटक हो। कर्म तो निरन्तर करते रहो , परन्तु अपने को बन्धन में मत डालो ; बन्धन भीषण है। यह संसार हमारी स्थायी निवासभूमि नहीं है ; यह तो उन सोपानों में से एक है , जिनमें से होकर हम जा रहे हैं। "    

[Be “unattached”; let things work; let brain centers work; work incessantly, but let not a ripple conquer the mind. Work as if you were a stranger in this land, a sojourner; work incessantly, but do not bind yourselves; bondage is terrible. This world is not our habitation, it is only one of the many stages through which we are passing.

विवेकानन्द कर्म में आंतरिक स्वतंत्रता की भूमिका (the role of inner freedom in work) को स्वीकार करते हुए कहते हैं: " इस शिक्षा का (गीता) समस्त सार यही है कि तुम्हें एक 'स्वामी ' की तरह काम करना चाहिए , न कि एक 'दास ' की तरह। कर्म तो निरन्तर करते रहो , परन्तु एक दास के समान मत करो। सब लोग किस प्रकार कर्म कर रहे हैं, क्या यह तुम नहीं देखते? इच्छा होने पर भी कोई आराम नहीं ले सकता ! 99 % लोग तो दासों की तरह कार्य करते रहते हैं - (तीनो ऐषणाओं से संचालित होकर) और उसका फल होता है-दुःख। ये सभी कार्य स्वार्थपूर्ण होते हैं। मुक्त भाव से कर्म करो ! प्रेम सहित कर्म करो ! 'प्रेम ' शब्द का यथार्थ अर्थ समझना बहुत कठिन है। बिना स्वाधीनता के प्रेम आ ही नहीं सकता। यदि तुम एक गुलाम खरीद लो और उसे जंजीरों में बांधकर उससे अपने लिए कर्म कराओ। तो वह कष्ट उठाकर भी कर्म करेगा अवश्य , पर उसमें किसी प्रकार का प्रेम नहीं रहेगा। इसी तरह जब हम संसार के लिए दासवत कर्म करते हैं , तो उसके प्रति हमारा प्रेम नहीं रहता और इसलिए वह सच्चा कर्म नहीं हो सकता। हम अपने नाते -रिश्तेदारों या घनिष्ट-मित्रों के लिए जो कर्म करते हैं , यहाँ तक कि अपने लिए भी जो कर्म करते हैं - यदि उसे दासवत करते हैं; तो वहाँ भी यही बात लागु होती है। "  

[The whole gist of this (Gita) teaching is that: - ' न दैन्यं न पलायनं ' (Neither Seek nor Avoid ) "You should work like a master and not as a slave; work incessantly, but do not do slave's work."..Do you not see how everybody works? Nobody can be altogether at rest; ninety-nine per cent of mankind work like slaves, and the result is misery; it is all selfish work. Work through freedom! Work through love! The word "love" is very difficult to understand; love never comes until there is freedom. There is no true love possible in the slave. If you buy a slave and tie him down in chains and make him work for you, he will work like a drudge, but there will be no love in him. So when we ourselves work for the things of the world as slaves, there can be no love in us, and our work is not true work. This is true of work done for relatives and friends, and is true of work done for our own selves. 

विवेकानन्द यह जांचने के लिए , कि क्या हम प्रेम द्वारा संचालित होकर कोई कर्म रहे हैं , या ऐषणाओं द्वारा संचालित मन के गुलाम बनकर --? हमारे समक्ष एक 'Litmus Testing Method' (लिट्मस परीक्षण-पद्धति) प्रस्तुत करते हुए कहते हैं - "Selfish work is slave's work; and here is a test." ~ स्वार्थ के लिये किया गया कार्य दास का कार्य है ; और तुम जो कार्य कर रहे हो , वह स्वार्थ के लिए है या नहीं -  इसकी पहचान यह है कि प्रेम के साथ किया हुआ प्रत्येक कार्य आनन्द दायक होता है। सच्चे प्रेम के साथ किया हुआ कोई भी कार्य ऐसा नहीं है , जिसके फलस्वरूप शान्ति और आनन्द न प्राप्त हो। 

यथार्थ सत्ता में ‘अस्ति' (existence), 'भाति'  यथार्थ ज्ञान (cognizability) और 'प्रियं' (attractiveness) यथार्थ प्रेम- ये तीनों शाश्वत रूप से परस्पर सम्बद्ध हैं। वस्तुतः ये एक ही में तीन हैं। जहाँ एक रहता है , वहाँ शेष दो भी अवश्य रहते हैं। ये उस आद्वितीय सच्चिदानन्द (ब्रह्म) के ही तीन पक्ष हैं। जब वह सत्ता सापेक्ष रूप से प्रतीत होती है , तब हम उसे विश्व के रूप में देखते हैं। वह ज्ञान भी सांसारिक वस्तु विषयक ज्ञान के रूप परिणत हो जाता है , तथा वह आनन्द मानव-ह्रदय में विद्यमान समस्त यथार्थ प्रेम की नींव हो जाता है। अतएव सच्चे प्रेम से प्रेमी अथवा प्रेम-पात्र को कभी कष्ट नहीं पहुँच सकता। उदाहरणार्थ , मान लो , एक पुरुष किसी स्त्री से प्रेम करता है। वह चाहता है कि वह स्त्री केवल उसी के पास रहे ; अन्य पुरुषों के प्रति उस स्त्री के प्रत्येक व्यवहार से उसमें ईर्ष्या का उद्रेक होता है। वह चाहता है कि वह स्त्री उसी  के पास बैठे , उसीके पास खड़ी रहे तथा उसीकी इच्छानुसार खाये-पिये, और चले -फिरे। वह स्वयं उस स्त्री का गुलाम हो गया है , और चाहता है कि वह स्त्री भी उसकी गुलाम होकर रहे। यह तो प्रेम नहीं है। यह तो गुलामी का एक प्रकार विकृत भाव है , जो ऊपर से प्रेम जैसा दिखाई देता है।   यह प्रेम नहीं हो सकता , क्योंकि यह क्लेशदायक है ; यदि वह स्त्री उस मनुष्य के इच्छानुसार न चले तो उससे उस मनुष्य को कष्ट होता है। वास्तव में  सच्चे प्रेम की प्रतिक्रिया तो दुःखप्रद होती ही नहीं। उससे तो केवल आनन्द ही होता है। और यदि उससे ऐसा न होता हो, तो समझ लेना चाहिए कि वह प्रेम नहीं है , बल्कि वह और ही कोई चीज है , जिसे हम भ्रमवश प्रेम कहते हैं। ... जब तुम (किसी व्यक्ति को या मानवमात्र को) इस प्रकार प्रेम करने में सफल हो सको कि उससे किसी भी प्रकार दुःख , ईर्ष्या अथवा स्वार्थपरता रूप कोई प्रतिक्रिया न हो ,केवल तभी तुम सम्यक रूप से 'अनासक्त होने की अवस्था'  [भेंड़त्व के भ्रम से  भ्रममुक्त होने 'De-Hypnotized'] में पहुँच सकोगे। " (३/ ३३-३४  )

[He offers a litmus test for whether you’re working out of love or out of self-enslavement:Selfish work is slave's work; and here is a test. Every act of love brings happiness; there is no act of love which does not bring peace and blessedness as its reaction. Real existence, real knowledge, and real love are eternally connected with one another, the three in one: where one of them is, the others also must be; they are the three aspects of the One without a second — the Existence — Knowledge — Bliss. When that existence becomes relative, we see it as the world; that knowledge becomes in its turn modified into the knowledge of the things of the world; and that bliss forms the foundation of all true love known to the heart of man. 

Therefore true love can never react so as to cause pain either to the lover or to the beloved. Suppose a man loves a woman; he wishes to have her all to himself and feels extremely jealous about her every movement; he wants her to sit near him, to stand near him, and to eat and move at his bidding. He is a slave to her and wishes to have her as his slave. That is not love; it is a kind of morbid affection of the slave, insinuating itself as love. It cannot be love, because it is painful; if she does not do what he wants, it brings him pain. With love there is no painful reaction; love only brings a reaction of bliss; if it does not, it is not love; it is mistaking something else for love. When you have succeeded in loving your husband, your wife, your children, the whole world, the universe, in such a manner that there is no reaction of pain or jealousy, no selfish feeling, then you are in a fit state to be unattached. (or 'De-Hypnotized'?) ]      

यद्यपि इस अनासक्ति (भ्रममुक्त अवस्था) या निःस्वार्थ प्रेम को प्राप्त होना -लभग पूरे जीवन की साधना पर निर्भर है , तथापि 'मुक्ति ' प्राप्त करने का प्रवेश द्वार भी यही है। विवेकानन्द का तर्क है -" अपने बच्चों को तुम देते हो , क्या उसके बदले में उनसे कुछ माँगते हो ? यह तो तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उनके लिए काम करो , और बस , वहीँ पर बात समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार किसी पराये व्यक्ति, किसी नगर या किसी देश के लिए तुम जो कुछ करो , उसके प्रति भी वैसा ही भाव रखो ; उनसे किसी प्रकार के प्रतिदान की आशा न रखो। यदि तुम सदैव ऐसा ही भाव रख सको कि तुम केवल दाता ही हो, जो कुछ तुम देते हो , उससे तुम किसी प्रकार के प्रतिदान की आशा नहीं रखते , तो उस कर्म से तुम्हें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं होगी। आसक्ति तभी आती है , जब हम प्रतिदान की आशा रखते हैं। " ३/३५     

 " Do you ask anything from your children in return for what you have given them? It is your duty to work for them, and there the matter ends. In whatever you do for a particular person, a city, or a state, assume the same attitude towards it as you have towards your children — expect nothing in return. If you can invariably take the position of a giver, in which everything given by you is a free offering to the world, without any thought of return, then will your work bring you no attachment. Attachment comes only where we expect a return.' 

अंत में विवेकानन्द यह तर्क देते हैं कि - किसी विशेष फल को पाने की आशा से कर्म करना स्वार्थपरता, माया है , दूसरी तरफ सार्थक कार्य करने के उद्देश्य से कार्य करना दया का कार्य है।

" यदि दासवत कार्य करने से, मन का गुलाम बनकर कर्म करने से स्वार्थपरता और आसक्ति उत्पन्न होती है , तो अपने मन का स्वामी बनकर कार्य करने से अनासक्ति से उत्पन्न आनन्द का लाभ होता है। हमलोग बहुधा मानवाधिकार और सामाजिक -न्याय की बातें किया करते हैं , परन्तु वे केवल बच्चों की बातों के समान हैं। मनुष्य के चरित्र का नियमन करने वाली दो चीजें होती हैं - बल और दया।  बल का प्रयोग करना सदैव स्वार्थपरतावश ही होता है। बहुधा सभी स्त्री-पुरुष अपनी शक्ति और सुविधा का यथासम्भव उपभोग करने का प्रयत्न करते हैं। दया दैवी सम्पत्ति है। भला मनुष्य बनने के लिए हमें दयसम्पन्न होना ही चाहिये। यहाँ तक कि न्याय और अधिकार भी दया पर ही प्रतिष्ठित होना चाहिए। कर्मफल की लालसा तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में बाधक है ; इतना ही नहीं , अंत में उससे क्लेश भी उत्पन्न होता है। ' ३/३५    

"If working like slaves results in selfishness and attachment, working as master of our own mind gives rise to the bliss of non-attachment. We often talk of right and justice, but we find that in the world right and justice are mere baby’s talk. There are two things which guide the conduct of men: might and mercy. The exercise of might is invariably the exercise of selfishness. All men and women try to make the most of whatever power or advantage they have. Mercy is heaven itself; to be good, we have all to be merciful. Even justice and right should stand on mercy. All thought of obtaining return for the work we do hinders our spiritual progress; nay, in the end it brings misery. 

[साभार : https://ww.themarginalian.org/2014/07/15/swami-vivekananda-the-secret-of-work/] 


🔆🙏एकाग्रता का रहस्य🔆🙏

" Secret of Concentration " 

एकाग्रता सभी ज्ञान का सार है; इसके बिना कुछ नहीं किया जा सकता। नब्बे प्रतिशत विचार शक्ति (विवेक-प्रयोग की शक्ति) सामान्य मनुष्य द्वारा बर्बाद कर दी जाती है।  और इसलिए वह लगातार गलतियाँ करता चला आ रहा है; प्रशिक्षित मन वाला मनुष्य कभी गलती नहीं करता।

Concentration is the essence of all Knowledge; nothing can be done without it. Ninety percent of thought force is wasted by the ordinary human being and therefore he is constantly committing blunders; the trained man or mind never makes a mistake.

विवेकानन्द कहते हैं - " यदि तुम ईसाई धर्म के मूल में जाओ , तो देखोगे कि वह प्रत्यक्ष अनुभूति पर स्थापित है। ईसा ने कहा है - " मैंने ईश्वर के दर्शन किये हैं। " (मैं और मेरे पिता एक हैं)  उनके शिष्यों ने भी कहा है, " हमने ईश्वर का अनुभव किया है। " बौद्ध धर्म भी बुद्धदेव के प्रत्यक्ष अनुभूति पर स्थापित है। हिन्दुओं के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है ; 'ऋषि' के नाम से सम्बोधित किये जाने वाले उपनिषदों के रचयिता कह गए हैं कि हमने 'कुछ (इन्द्रियातीत) सत्यों के अनुभव किये हैं।' और उन्हीं (महावाक्यों ) का वे संसार में (गुरु-शिष्य परम्परा में ) प्रचार कर गए हैं।" सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था। [दादा कहते थे मैंने ऐसा सात लोगों को देखा है , जिन्होंने ईश्वर को देखा था ! सूफी परम्परा के मुस्लिम धर्मगुरु भी गाते हैं - छाप -तिलक सब छोड़ी रे मैंने नैना मिलाई के। ]

[But if you go to the fountain-head of Christianity, you will find that it is based upon experience. Christ said he saw God; the disciples said they felt God; and so forth. Similarly, in Buddhism, it is Buddha's experience. He experienced certain truths, saw them, came in contact with them, and preached them to the world. So with the Hindus. In their books the writers, who are called Rishis, or sages, declare they experienced certain truths, and these they preach. Thus it is clear that all the religions of the world have been built upon that one universal and adamantine foundation of all our knowledge — direct experience. The teachers all saw God; they all saw their own souls, they saw their future, they saw their eternity, and what they saw they preached. 

" मनुष्य चाहता है सत्य , वह सत्य का स्वयं अनुभव करना चाहता है ; और जब वह सत्य (महावाक्यों ) की धारणा कर लेता है , सत्य का साक्षात्कार कर लेता है , ह्रदय के अन्तरतम प्रदेश में उसका अनुभव कर लेता है , वेद कहते हैं , ' तभी उसके सारे सन्देह दूर होते हैं , सारा तमोजाल छिन्न-भिन्न हो जाता है और सारी वक्रता सीधी हो जाती है। ' हे अमृत के पुत्रो , हे दिव्यधामनिवासियो,  सुनो --'मैंने अंधकार से आलोक में जाने का रास्ता पा लिया है। जो समस्त तम के पार है , उसको जानने पर ही वहां जाया जा सकता है; मुक्ति और कोई दूसरा उपाय नहीं।  " 

[Man wants truth, wants to experience truth for himself; when he has grasped it, realised it, felt it within his heart of hearts, then alone, declare the Vedas, would all doubts vanish, all darkness be scattered, and all crookedness be made straight. "Ye children of immortality, even those who live in the highest sphere, the way is found; there is a way out of all this darkness, and that is by perceiving Him who is beyond all darkness; there is no other way."

 इस सत्य को प्राप्त करने के लिए राजयोग-विद्या (मनःसंयोग-या अष्टांग योग ) विश्व-मानवता के समक्ष यथार्थ व्यावहारिक और साधनोपयोगी वैज्ञानिक प्रणाली का प्रस्ताव करती है। मैं तुम्हें सैकड़ों उपदेश दे सकता हूँ , तुम यदि साधना न करो , तो तुम कभी - ईश्वर का दर्शन प्राप्त  धार्मिक  व्यक्ति  न हो सकोगे। सभी युगों में , सभी देशों में , निष्काम , शुद्धस्वभाव , साधु- महापुरुष (अवतार आदि) इसी सत्य का प्रचार कर गए हैं। 'जगत का कल्याण' छोड़कर अन्य कोई कामना उनमें नहीं थी। उन सभी लोगों ने कहा है की इन्द्रियाँ हमें जहाँ तक सत्य का अनुभव करा सकती हैं , हमने उससे भी उच्चतर सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) की उपलब्धि कर ली है , और उसकी परीक्षा के लिए तुम्हारा भी आह्वान करते हैं। ... अतएव निर्दिष्ट साधन -प्रणाली लेकर श्रद्धापूर्वक साधना करना हमारे लिए आवश्यक है, और तब प्रकाश अवश्य आएगा। १/३९ [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा-Be and Make के अनुसार निर्दिष्टी साधन-प्रणाली में 3H's विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण निर्जन में प्राप्त करना हमारे लिए आवश्यक है , और तब प्रकाश अवश्य आएगा।]      

[The science of Râja-Yoga proposes to put before humanity a practical and scientifically worked out method of reaching this truth....  I could preach you thousands of sermons, but they would not make you religious, until you practiced the method. These are the truths of the sages of all countries, of all ages, of men pure and unselfish, who had no motive but to do good to the world. They all declare that they have found some truth higher than what the senses can bring to us, and they invite verification. So we must work faithfully using the prescribed methods, and light will come.

बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं पर मनोनिवेश करना सीखा है , अन्तर्जगत में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी। मन को अन्तर्मुखी करना , उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना , उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर , उस मन के ऊपर ही उनका प्रयोग करना , ताकि वह अपना स्वभाव समझ सके, अपने -आप को विश्लेषण करके देख सके- यह कार्य बहुत कठिन है -(मन को प्रशिक्षित किये बिना नहीं हो सकता।)

 From our childhood upwards we have been taught only to pay attention to things external, but never to things internal; hence most of us have nearly lost the faculty of observing the internal mechanism. To turn the mind as it were, inside, stop it from going outside, and then to concentrate all its powers, and throw them upon the mind itself, in order that it may know its own nature, analyse itself, is very hard work. Yet that is the only way to anything which will be a scientific approach to the subject.]

... जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं , जो स्वरूपतः नित्यपूर्ण और नित्यशुद्ध है , तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता , उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। ...मनुष्य यह समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं , तब उसे फिर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है। इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है - एकाग्रता।

[When by analysing his own mind, man comes face to face, as it were, with something which is never destroyed, something which is, by its own nature, eternally pure and perfect, he will no more be miserable, no more unhappy. All misery comes from fear, from unsatisfied desire. Man will find that he never dies, and then he will have no more fear of death. When he knows that he is perfect, he will have no more vain desires, and both these causes being absent, there will be no more misery — there will be perfect bliss, even while in this body.There is only one method by which to attain this knowledge, that which is called concentration.(१/३८-४०)Volume 1, Raja-Yoga/ INTRODUCTORY] 

1. एक विचार (महावाक्य) को लो, उसी विचार को अपना जीवन बनाओ - उसी का चिन्तन करो, उसीका स्वप्न देखो और उसीमें जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क , स्नायु , शरीर के सर्वांग उसीके विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है। और इसी उपाय से बड़े बड़े धर्म वीरों की उत्पत्ति हुई है। शेष सब तो बातें करने वाले मशीन मात्र हैं। (१/९० -प्रत्याहार और धारणा)   

" शुक्ति के समान बनो। भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बून्द किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की उपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बून्द की प्रतीक्षा करती रहती हैं। ज्यों ही एक बून्द पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं। हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फिर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि बिल्कुल हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्व के विकास के लिये प्रयत्न करना होगा। एक भाव को नया कहकर ग्रहण करके, उसकी नवीनता चली जाने पर फिर एक दूसरे नये भाव का आश्रय लेना -इस प्रकार बारम्बार करने से तो हमारी शक्ति ही इधर-उधर बिखर जायगी।

एक भाव को पकड़ो, उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव को लेकर उसी में मत्त रह सकते हैं, उन्हीं के हृदय में सत्य-तत्व का उन्मेष होता है। और जो यहाँ का कुछ, वहाँ का कुछ, इस तरह खटाई चखने के समान सब विषयों को मानो थोड़ा थोड़ा चखते जाते हैं, वे कभी कोई चीज पा सकते। कुछ देर के लिये नसों की उत्तेजना से उन्हें एक प्रकार का आनन्द भले ही मिल जाता हो, किन्तु इससे और कुछ फल नहीं होता। वे चिरकाल प्रकृति के दास बने रहेंगे, कभी अतीन्द्रिय राज्य में विचरण न कर सकेंगे। " (१/८९ )

(Take up one idea, make that one idea your life; think of it, dream of it, live on that idea. Let the brain, muscles, nerves, every part of your body, be full of that idea and just leave every other idea alone. This is the way to success and this is the way great spiritual giants are produced. Others are mere talking machines.(Volume 1, Raja-Yoga, Prtyahara and Dharna.)

Be like the pearl oyster. There is a pretty Indian fable to the effect that if it rains when the star Svâti is in the ascendant, and a drop of rain falls into an oyster, that drop becomes a pearl. The oysters know this, so they come to the surface when that star shines, and wait to catch the precious raindrop. When a drop falls into them, quickly the oysters close their shells and dive down to the bottom of the sea, there to patiently develop the drop into the pearl. We should be like that. First hear, then understand, and then, leaving all distractions, shut your minds to outside influences, and devote yourselves to developing the truth within you.

Take one thing up and do it, and see the end of it, and before you have seen the end, do not give it up. He who can become mad with an idea, he alone sees light. Those that only take a nibble here and a nibble there will never attain anything. They may titillate their nerves for a moment, but there it will end. They will be slaves in the hands of nature, and will never get beyond the senses.

2. मनुष्य और पशु में मुख्य अन्तर उनकी मन की एकाग्रता की शक्ति में है। मनुष्य और पशु में यही अन्तर है - मनुष्य में चित्त की एकाग्रता की शक्ति अपेक्षाकृत अधिक है। एकाग्रता की शक्ति में अन्तर के कारण ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से भिन्न होता है। छोटे से छोटे आदमी की तुलना ऊँचे से ऊँचे आदमी से [अवतार वरिष्ठ से] करो। अन्तर मन की एकाग्रता की मात्रा में होता है। बस यही अन्तर है। ४/१०८ 

 This is the difference between man and the animals — the man has the greater power of Concentration. The difference in their power of Concentration also constitutes the difference between man and man. Compare the lowest with the highest man. The difference is in the degree of Concentration. 

3.  मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की एकाग्रता प्राप्त करना है , तथ्यों का संकलन नहीं। यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा आरम्भ करनी हो और इसमें मेरा वश चले , तो मैं तथ्यों का अध्यन कदापि न करूँ। मैं मन की एकाग्रता और अनासक्ति का सामर्थ्य बढ़ाता और उपकरण के तैयार हो जाने पर उससे इच्छानुसार तथ्यों का संकलन करता। बच्चे में मन की एकाग्रता और अनासक्ति का सामर्थ्य एक साथ विकसित होना चाहिए। इसीको मन का सुव्यवस्थित विकास कहते हैं ! (४/१०९ : एकाग्रता और श्वास-प्रश्वास क्रिया)     

 To me the very essence of education is concentration of mind, not the collecting of facts. If I had to do my education over again, and had any voice in the matter, I would not study facts at all. I would develop the power of concentration and detachment, and then with a perfect instrument I could collect facts at will. Side by side, in the child, should be developed the power of concentration and detachment.This is the systematic development of the mind.(CONCENTRATION AND BREATHING) 

4. ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता। मन की शक्तियों को एकाग्र करने के सिवा अन्य किस तरह संसार में समस्त ज्ञान (गुरुत्वाकर्षण का नियम,E=Mc2आदि ज्ञान) उपलब्ध हुए हैं ? यदि प्रकृति के द्वार पर कैसे खटखटाना चाहिए - उस पर कैसे आघात करना चाहिए , केवल यह ज्ञात हो गया , तो बस , प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती हैं। उस आघात की शक्ति और तीव्रता एकाग्रता से आती है।  मानव-मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं। वह जितना ही एकाग्र होता है , उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है ; यही रहस्य है। (राजयोग अवतरणिका १/ ४१)   

How has all the knowledge in the world been gained but by the concentration of the powers of the mind? The world is ready to give up its secrets if we only know how to knock, how to give it the necessary blow. The strength and force of the blow come through concentration. There is no limit to the power of the human mind. The more concentrated it is, the more power is brought to bear on one point; that is the secret.

5." एक मात्र ब्रह्मचर्य का ठीक ठीक पालन कर सकने पर सभी विद्यायें क्षणभर में याद हो जाती हैं -मनुष्य श्रुतिधर , स्मृतिधर बन जाता है। ब्रह्मचर्य के अभाव से ही हमारे देश का सब कुछ नष्ट हो गया है। (६/ १८९ )

Simply by the observance of strict Bramacharya all learning can be mastered in a very short time — one has an unfailing memory of what one hears or knows but once. It is owing to this want of continence that everything is on the brink of ruin in our country.

दूसरों का कल्याण करने के लिए ह्रदय (Heart) का विकास -Heart.. develop heart to do good for others. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - 

🔆 ईश्वर को सम्पूर्ण ह्रदय से प्रेम करने से आत्मा स्वयं अच्छी तरह विकसित हो जाती है🔆 

1. ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता। ईश्वर को सम्पूर्ण ह्रदय से प्रेम करने से आत्मा, आत्मा स्वयं अच्छी तरह से विकसित हो जाती है। मनुष्य में 'आत्मा'(Heart) ही चिन्तन का मूल-तत्व (thinking principle) है, जिसका एक कार्य है 'मन' (Head) आत्मा (Soul -या Heart) केवल प्राण (Spirit) से मन (Head) तक का माध्यम (conduit-वाहक) है। सभी आत्माएं खेल रही हैं, कुछ होशपूर्वक (consciously-जागृत होकर), कुछ अनजाने में (unconsciously -बेसुध होकर)। होशपूर्वक (या चैतन्य होकर) खेलने की पद्धति को सीख लेना ही धर्म है। तुम्हारा ह्रदय (आत्मा -Heart) ही तुम्हारा गुरु है।  

The whole secret of knowledge is concentration. Soul best develops itself by loving God with all the heart. Soul is the thinking principle in man, of which mind is a function. Soul is only the conduit from Spirit to mind. All souls are playing, some consciously, some unconsciously. Religion is learning to play consciously.The Guru is your own higher Self.(THE RELIGION OF INDIA/Volume 9, Notes of Lectures and Classes. )

2. ईश्वर (आत्मा) कौन है ? 'जन्माद्यस्य यतः' --जिससे विश्व का जन्म , स्थिति और प्रलय होता हैं', वही ईश्वर है। वह 'अनन्त, शुद्ध , नित्य -मुक्त ,सर्वशक्तिमान , सर्वज्ञ , परम् कारुणिक और गुरुओं का भी गुरु है।' और सर्वोपरि -स ईशः अनिवर्चनीय प्रेमस्वरूपः ' वह ईश्वर अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूप है। ' ये सारी परिभाषायें निश्चय ही सगुण ईश्वर (Personal God-अवतार वरिष्ठ) की हैं। तो क्या ईश्वर (परम् सत्य) दो हैं ? एक सच्चिदानन्द- स्वरुप , जिसे ज्ञानी 'नेति नेति' करके प्राप्त करता है और दूसरा भक्त का वह प्रेममय भगवान (अवतार वरिष्ठ ?) नहीं, वह सच्चिदानन्द ही यह प्रेममय भगवान (श्रीरामकृष्ण) है , वह सगुण और निर्गुण , दोनों है। यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि भक्त का उपास्य सगुण ईश्वर (माँ काली या श्रीरामकृष्ण), ब्रह्म से भिन्न अथवा पृथक नहीं है। सब कुछ वही एकमेवाद्वितीय ब्रह्म है। पर हाँ , ब्रह्म का निर्गुण-निरपेक्ष स्वरुप अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण प्रेम और उपासना के योग्य नहीं। इसीलिये भक्त ब्रह्म के सापेक्ष भाव अर्थात परम नियन्ता ईश्वर (माँ काली के अवतार वरिष्ठ) को ही उपास्य के रूप में ग्रहण करता है। (ईश्वर का दार्शनिक विवेचन ४/ ९ )

                 Who is Ishvara? Janmâdyasya yatah — "From whom is the birth, continuation, and dissolution of the universe," — He is Ishvara — "the Eternal, the Pure, the Ever-Free, the Almighty, the All-Knowing, the All-Merciful, the Teacher of all teachers"; and above all, Sa Ishvarah anirvachaniya-premasvarupah — "He the Lord is, of His own nature, inexpressible Love."These certainly are the definitions of a Personal God. Are there then two Gods — the "Not this, not this," the Sat-chit-ânanda, the Existence-Knowledge-Bliss of the philosopher, and this God of Love of the Bhakta?

 No, it is the same Sat-chit-ananda who is also the God of Love, the impersonal and personal in one. It has always to be understood that the Personal God worshipped by the Bhakta is not separate or different from the Brahman. All is Brahman, the One without a second; only the Brahman, as unity or absolute, is too much of an abstraction to be loved and worshipped; so the Bhakta chooses the relative aspect of Brahman, that is, Ishvara, the Supreme Ruler. (Volume 3, Bhakti-YogaTHE PHILOSOPHY OF ISHVARA)

3." जीवन का अर्थ है - ह्रदय का विस्तार, यानि प्रेम। इसीलिए प्रेम ही जीवन है , निःस्वार्थपरता ही मृत्यु है। इहलोक और परलोक में यही बात सत्य है। जिसमें प्रेम नहीं वह तो मृतक है। ऐ बच्चो, सब के लिए तुम्हारे दिल में दर्द हो , गरीब , मूर्ख , पददलित मनुष्यों के दुःख का तुम अनुभव करो।  संवेदना से तुम्हारे ह्रदय की धड़कन रुक जाये। मस्तिष्क चकराने लगे , तुम्हें ऐसा प्रतीत हो कि कहीं हम पागल तो नहीं बन रहे हैं - फिर ईश्वर की चरणों में अपना ह्रदय खोल कर रख दो। और तब तुम अपने ह्रदय में सिंह जैसा बल का अनुभव करोगे , तभी शक्ति , सहायता और अदम्य उत्साह तुम्हें प्राप्त हो जायेगा। (19 नवम्बर 1894 को अलासिंगा आदि वीर युवाओं को लिखित पत्र )   

What is life but growth, i.e. expansion, i.e. love? Therefore all love is life, it is the only law of life; all selfishness is death, and this is true here or hereafter.Feel, my children, feel; feel for the poor, the ignorant, the downtrodden; feel till the heart stops and the brain reels and you think you will go mad — then pour the soul out at the feet of the Lord, and then will come power, help, and indomitable energy. (TO MY BRAVE BOYS'  Written to Alasinga Perumal from New York on 19th November, 1894.) 

4.हमारे देश में इस समय पुरुषार्थ और दया की आवश्यकता है।  'स ईशः अनिवर्चनीय प्रेमस्वरूपः ' -- 'ईश्वर अनिवर्वचनीय प्रेम का स्वरुप है'। परन्तु ' प्रकाश्यते क्वापि पात्रे - 'विशेष पात्रों में उसका प्रकाश होता है ' ; यह कहने के बदले , ' स प्रत्यक्ष एव सर्वेषां प्रेमरूपः ' -- अर्थात वह सब जीवों में प्रेमरूप से सतत अभिव्यक्त है ' यह कहना चाहिए। .. मूर्तिमान ईश्वर (श्रीरामकृष्ण) जो प्रेम और दया स्वरुप है , उनकी उपासना देश में होने दो। प्रभु के नाम का प्रचार करो , संसार की रग -रग में उनकी शिक्षा को भिद जाने दो। अपने दैनिक कार्य करते हुए , अन्तरात्मा में निरंतर इस मंत्र का जप करते रहो। " (स्वामी अखण्डानन्द को लिखित -10 अक्टूबर , 1897 का पत्र। )  

[In our country we at present need manhood and kindness. “स ईशः अनिर्वचनीयप्रेमस्वरूपः — The Lord is the Essence of unutterable love.” But instead of saying “प्रकाश्यते क्वापि पात्रे — He is manifest in special objects”, we should say, “स प्रत्यक्ष एव सर्वेषां प्रेमस्वरूपः — He is ever manifest as Love in all beings.....  let there be worship of the visible God of Love and Compassion in the country.This life has no other end. Preach His name, let His teachings penetrate the world to the very bone. Never forget. Repeat this Mantra in your heart of hearts unceasingly, as you go the round of your daily duties.   

3.स्वामी विवेकानन्द 19 अप्रैल ,1900 को सैन फ्रांसिस्को क्षेत्र में दिए गए भाषण 'उपासक और उपास्य ' में कहते हैं -  पक्षी केवल एक पंख से नहीं उड़ सकता। हम उस मनुष्य को देखना चाहते हैं , जिसका विकास समन्वित रूप से हुआ हो .... ह्रदय से विशाल , मन से उच्च और कर्म में महान। .... हम ऐसा मनुष्य चाहते हैं , जिसका ह्रदय संसार के दुःख-दर्दों को गंभीरता से अनुभव करे और (हम चाहते हैं) ऐसा मनुष्य, जो न केवल अनुभव कर सकता हो, वरन वस्तुओं के अर्थ का भी पता लगा सके, जो प्रकृति और बुद्धि के हृदय की गहराई में पहुंचता हो। (हम चाहते हैं) ऐसा मनुष्य , जो यहां भी न रुके, (वरन) जो (भाव और वास्तविक कार्यों के अर्थ का) पता लगाना चाहे। हम मस्तिष्क, हृदय और हाथों के ऐसे ही संघात को चाहते हैं। इस संसार में बहुत से शिक्षक हैं, पर तुम पाओगे (कि उनमें से अधिकतर) एकांगी हैं। (एक) को बद्धि का देदीप्यमान मध्याह्न सूर्य दिखाई देता है (और ) कुछ नहीं सूझता। दूसरे को प्रेम का सुंदर संगीत सुनाई देता है, और कुछ नहीं सुन पड़ता। एक काम में (डूबा हुआ) है, उसे न कुछ महसूस करने का समय है, न विचार करने का। तब हम उस महान मानव (बुद्धत्व -प्राप्त मनुष्य) को क्यों न प्राप्त करें, जो समान रूप से क्रियाशील, ज्ञानवान, प्रेमवान है? क्या यह असंभव है? निश्चय ही नहीं। यह भविष्य का मनुष्य है, इस समय ऐसे (केवल) कुछ ही हैं। ( ऐसों की संख्या उस समय बढ़ती रहेगी) जब तक कि समस्त संसार का मानवीकरण नहीं हो जाता। (वि ० साहित्य खण्ड 3/पृष्ठ 214)

" माभैः - 'डरो मत ' शाबास ! निश्चय ही तुम वीर हो।  श्रीगुरु तुम्हारे ह्रदय-सिंहासन ( heart) पर स्थित रहें और जगज्जननी तुम्हारे हाथों (hands) की मार्गदर्शिका हो !! "May the blessed Guru be enthroned in your heart, and the Divine Mother guide your hands. " (21st February, 1900.MY DEAR AKHANDANANDA) 

[A bird cannot fly with only one wing. . . .What we want is to see the man who is harmoniously developed . . . great in heart, great in mind, [great in deed] . . . . We want the man whose heart feels intensely the miseries and sorrows of the world. . . . And [we want] the man who not only can feel but can find the meaning of things, who delves deeply into the heart of nature and understanding. [We want] the man who will not even stop there, [but] who wants to work out [the feeling and meaning by actual deeds]. Such a combination of head, heart, and hand is what we want. There are many teachers in this world, but you will find [that most of them] are one-sided. [One] sees the glorious midday sun of intellect [and] sees nothing else. Another hears the beautiful music of love and can hear nothing else. Another is [immersed] in activity, and has neither time to feel nor time to think. Why not [have] the giant who is equally active, equally knowing, and equally loving? Is it impossible? Certainly not. This is the man of the future, of whom there are [only a] few at present. [The number of such will increase] until the whole world is humanised. (WORSHIPPER AND WORSHIPPED: Delivered in San Francisco area, April 9, 1900)

🔆🙏EDUCATION🔆🙏

Education is ~ assimilation of Man-making and Character-building ideas.

🔆शिक्षा का अर्थ है -मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी भावों को आत्मसात करना🔆

शिक्षा का सर्वविदित और मुख्य उद्देश्य है , एक ऐसे मनुष्य का निर्माण जिसके तीनों प्रमुख अवयव शरीर (Hand), मन (Head) और ह्रदय (Heart) का विकास, सामंजस्यपूर्ण ढंग हुआ हो।अर्थात 'शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से पूर्ण विकसित मनुष्य का निर्माण करना ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। यह व्यक्तित्व का समग्र विकास करना है। महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर में 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर,  'Be and Make ' वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में दी जाने वाली - 'शिक्षक प्रशिक्षण शिक्षा' (या लीडरशिप ट्रेनिंग) का लक्ष्य एक ऐसे 'मनुष्य' (C-IN-C नवनी दा जैसे मार्गदर्शक नेता) का निर्माण करना है , जिसका अपना चरित्र (व्यक्तित्व) समग्र रूप से विकसित हुआ हो। इस प्रकार ~ (Teacher Training Education)-'शिक्षक प्रशिक्षण शिक्षा'  का लक्ष्य 3H's- शरीर (Hand), मन (Head) और हृदय (Heart या आत्मा) का विकास करना है।

Development of an individual – physically, mentally and spiritually is well known aim of Education. The goal of teacher training education is man-making. It is the overall development of personality. Teacher training education thus aims at the development of 3H’s- Hand, Head and Heart.

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "शिक्षा का मतलब यह नहीं कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूँस दी जायें कि अन्तर्द्वन्द्व होने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर पचा सके। जिस शिक्षा से हम उसमें निहित भावों को आत्सात कर - अपने जीवन का गठन कर सकें , मनुष्य बन सकें , और चरित्र-निर्माण कर सकें वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को पचाकर तदानुसार अपना  जीवन जीवन-गठन और चरित्र-निर्माण कर सके हो , तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है , जिसने एक पूरे पुस्तकालय को कण्ठस्थ कर रखा है। (भारत का भविष्य -५ /१९५ )

“Education is not the amount of information that is put into your brain and runs riot there, undigested all your life. We must have life-building, man-making, character-developing, assimilation of ideas. If you have assimilated these ideas and made them your life and character, you have more education than a man who has got a whole library by heart”.

'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा की भारतीय अवधारणा' आत्म-साक्षात्कार में विश्वास करती है। 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' Be and Make' पद्धति में " 3H विकास के 5 अभ्यास वाली नैतिक शिक्षा " के प्रचार-प्रसार से आत्म-साक्षात्कार होना संभव है। इसलिए प्रत्येक युवा को चरित्र के उन 24 गुणों को, या नैतिक मूल्यों को विकसित करना चाहिए जो हमारे चरित्र का निर्माण करते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, "हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे चरित्र का निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो और मनुष्य  अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे।"  

[The Indian concept of Education believes in self-realization. Self-realization is possible through moral Education. So the individual should cultivate moral virtues or values which constitute character. Swami Vivekananda said, “ We need the kind of education by which character is formed, strength of mind is increased, the intellect is expanded and by which one can stand on one’s own feet.” (Swami Vivekananda, Volume 5, p.342) 

 इन चुनौतीपूर्ण समय में दुनिया के विभिन्न हिस्सों से प्राप्त ये शैक्षिक दृष्टिकोण ( novel educational approaches-3H' , और इससे संबंधित ऋग्वेद का अद्भुत दृष्टिकोण -  "आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च "। स्वामी विवेकानन्द प्रायः इस श्लोक को उद्धृत करते रहते थे और बाद में यह वाक्यांश रामकृष्ण मिशन का ध्येयवाक्य बनाया गया। यही ध्येय वाक्य हमें सामाजिक नवीनीकरण के लिए , जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा था- "अपनी मुक्ति तथा जगत के कल्याण के लिए ” शरीर , मन और ह्रदय को प्रशिक्षित करने वाली शिक्षा ग्रहण करने को अनुप्रेरित करती है

[These novel educational approaches, and related approaches from various parts of the world, show great promise and represent the kind of innovation we need for societal renewal in these challenging times, an education of the head, the heart and the hand “for one’s own liberation and for the good of the world” as Swami Vivekananda put it.] 

यह धेयवाक्य-  "आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च " मानवजीवन के एक ही साथ दो उद्देश्य निर्धारित करता है- पहला अपना मोक्ष तथा दूसरा, संसार के कल्याण के लिए कार्य करना। जिसको स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - ' पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहायता देंगे। बनो और बनाओ , यही हमारा मूल-मंत्र रहे ! ऐसा न कहो कि मनुष्य पापी है। उसे यह बताओ कि तू अक्षर-ब्रह्म है। यदि कोई शैतान भी हो, तो भी हमारा यही कर्तव्य है कि हम ब्रह्म का ही स्मरण करें , शैतान का नहीं। " (वि० सा ० खंड ९/३७९)   

" यदि किसी कमरे में अन्धकार है , तो सदा अन्धकार का अनुभव करते रहने और अन्धकार अन्धकार चिल्लाते रहने से तो वह दूर नहीं होगा , बल्कि प्रकाश को भीतर ले आओ , तब वह दूर हो जायेगा। हम यही कहें - 'हम हैं ' , 'ईश्वर हैं ' और ' हम ईश्वर हैं ! '  ~ 'चिदानन्द रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्।।' कहते हुए, निर्वाण-षटकम् गाते हुए आगे बढ़ते चलो। जड़ नहीं चैतन्य हमारा लक्ष्य है। समस्त नाम-रूप,उसी नामरूप-रहित सत्ता के अधीन हैं। श्रुति (वेदान्त के महावाक्य) इसी सनातन सत्य की शिक्षा दे रही है। प्रकाश को ले आओ , अन्धकार आप ही आप नष्ट हो जायेगा। वेदान्त -केसरी गर्जना करे - सियार अपने बिलों में छिप जायेंगे। हमें तो कर्म ही करना है , फल अपने आप होता रहेगा। अपने अन्तर्निहित ब्रह्मभाव को प्रकट करो और उसके चारों ओर सबकुछ समन्वित होकर विन्यस्त हो जायेगा। आत्मा की शक्ति का विकास करो , और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे डाल दो और जिस स्थिति की आवश्यकता है , वह आप ही आप प्राप्त हो जाएगी। वेदों में बताये हुए इन्द्र और विरोचन के उदाहरण को स्मरण रखो। दोनों को ब्रह्मत्व का बोध कराया गया था। परन्तु असुर विरोचन अपने शरीर को ही ब्रह्म मान बैठा। लेकिन इन्द्र तो देवता थे , वे समझ गए कि वास्तव में आत्मा ही ब्रह्म है। तुम इन्द्र की सन्तान हो। तुम देवताओं के वंशज हो। जड़ पदार्थ तुम्हारा ईश्वर कदापि नहीं हो सकता ; शरीर तुम्हारा ईश्वर कभी नहीं हो सकता। भारत का पुनरुत्थान होगा , पर वह जड़ की शक्ति से नहीं , वरन आत्मा की शक्ति द्वारा। ..... ऐसा मत कहो कि हम दुर्बल हैं, कमजोर हैं। आत्मा सर्वशक्ति-मान है। श्रीरामकृष्ण ( और C-IN-C नवनीदा ) के चरणों के दैवी स्पर्श से जिनका अभ्युदय हुआ है , उन मुट्ठी भर नवयुवकों की ओर देखो। उन्होंने उनके उपदेशों का प्रचार अरुणाचल प्रदेश से गुजरात तक और बिहार-झारखण्ड से विशाखापत्तनम तक कर डाला। उनकी संख्या अभी बीस है। कल उनकी संख्या दो हजार बना दो। मुझे अपने सामने एक सजीव दृश्य अवश्य दिख रहा है- कि हमारी यह प्राचीन भारत माता पुनः एक बार जाग्रत होकर अपने सिंहासन पर नवयौवन पूर्ण और पहले की अपेक्षा अधिक महिमान्वित होकर विराजी है। शान्ति और आशीर्वाद के वचनों के साथ सारे संसार में उसके नाम की घोषणा कर दो ! "            

First, let us be Gods, and then help others to be Gods. “Be and Make.” Let this be our motto. Say not man is a sinner. Tell him that he is a God. Even if there were a devil, it would be our duty to remember God always, and not the devil.

If the room is dark, the constant feeling and repeating of darkness will not take it away, but bring in the light. Let us say, “We are” and “God is” and “We are God”, “Shivoham, Shivoham”, and march on. Not matter but spirit.  Bring in the light; the darkness will vanish of itself. Let the lion of Vedanta roar; the foxes will fly to their holes. Throw the ideas broadcast, and let the result take care of itself. Manifest the divinity within you, and everything will be harmoniously arranged around it. Bring forth the power of the spirit, and pour it over the length and breadth of India; and all that is necessary will come by itself. Bring forth the power of the spirit, and pour it over the length and breadth of India; and all that is necessary will come by itself. Remember the illustration of Indra and Virochana in the Vedas; both were taught their divinity. But the Asura, Virochana, took his body for his God. Indra, being a Deva, understood that the Atman was meant. You are the children of Indra. You are the descendants of the Devas. Matter can never be your God; body can never be your God. Say not that you are weak. The spirit is omnipotent. Look at that handful of young men called into existence by the divine touch of Ramakrishna’s feet. They have preached the message from Assam to Sindh, from the Himalayas to Cape Comorin. They are now twenty. Make them two thousand tomorrow. But one vision I see dear as life before me: that the ancient Mother has awakened once more, sitting on Her throne rejuvenated, more glorious than ever. Proclaim Her to all the world with the voice of peace and benediction." (Reply to the Madras address – Swami Vivekananda) 

स्वामी विवेकानंद ने एक बार अपने शिष्य श्री शरतचंद्र चक्रवर्ती से कहा था, "मेरी आशा और विश्वास तुम्हीं लोग हो। मेरी बातों को ठीक -ठीक समझकर उसीके अनुसार काम में लग जा। उपदेश तो तुझे अनेक दिए , कम से कम एक उपदेश (Be and Make) को भी तो कार्य में परिणत कर ले। बड़ा कल्याण होगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्त्र पढ़ना और मेरी बातें सुनना सार्थक हुआ। " (६/१५०) 

[Swami Vivekananda once said to his disciple, Sri Saratchandra Chakraborty, ` My hope and faith rest in men like you. Understand my words in their true spirit, and apply yourselves to work in their light. ………. I have given you advice enough; now put at least something in practice. Let the world see that your listening to me has been a success.` (C.W. 7: 175)]

" प्रश्न तो यह है कि क्या तुम निःस्वार्थ हो ? यदि तुम हो , तो चाहे तुमने एक भी धार्मिक ग्रन्थ का अध्यन न किया हो , चाहे तुम किसी भी गिरजा या मन्दिर में नहीं गए हो , फिर भी तुम पूर्णता को प्राप्त कर लोगे। " [अनासक्ति ही पूर्ण आत्मत्याग है।३/६७ ]    

"Are you unselfish? That is the question. If you are, you will be perfect without reading a single religious book, without going into a single church or temple."[NON-ATTACHMENT IS COMPLETE SELF-ABNEGATION]

हिन्दू दार्शनिक चिंतन के सोपान : " मनुष्य एक ऐसी सत्ता है जिसका पहले तो स्थूल शरीर (Hand) है , जो अति शीघ्र नष्ट हो जाता है ,ततपश्चात उसका सूक्ष्म शरीर (मन या Head) है , जो युग -युगान्तरों तक बना रहता है और तत्पश्चात  जीव  है। वेदान्त -मत के अनुसार यह जीव (ह्रदय-Heart) ठीक वैसा ही अनन्त है , जैसा कि ईश्वर। "

 [So far we see that- ' man is a being, who has first a gross body which dissolves very quickly, then a fine body which remains through aeons, and then a Jiva. This Jiva, according to the Vedanta philosophy, is eternal, just as God is eternal. ] 

" तुम शरीर , मन या जीवात्मा (3H) के रूप में स्वप्नमय हो , तुम्हारा यथार्थ स्वरुप तो वही सत,चित और आनन्द (existence-consciousness-bliss) का है। तुम्हीं इस विश्व के ईश्वर हो। " (१/२३८)    

"As body, mind, or soul, you are a dream; you really are Being, Consciousness, Bliss (satchidananda). You are the God of this universe."(Steps Of Hindu Philosophic Thought) 

"सांसारिक धक्का ही हमें जगा देता है , वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस जगत की असम्पूर्णता के परिचायक हैं ; वे आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात मुक्ति-लाभ करने की हमारी इच्छा को जाग्रत करते हैं। (देववाणी -७/९४ )   

"Blows are what awaken us and help to break the dream. They show us the insufficiency of this world and make us long to escape, to have freedom." (Inspired Talks/July 30, 1895. /TUESDAY AFTERNOON. )

" शिक्षा का अर्थ है , उस पूर्णत्व की अभिव्यक्ति , जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। धर्म का अर्थ है , उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति , जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक का कार्य केवल रास्तों से सब रुकावट हटा देना ही है। जैसे मैं सर्वदा कहता रहता हूँ - हस्तक्षेप बन्द करो ! सब ठीक हो जायेगा। अर्थात हमारा कर्तव्य , रास्ता साफ कर देना - शेष सब भगवान ही करते हैं। --- मुझे कुछ पवित्र और नि: स्वार्थ स्त्री -पुरुष दीजिए और  मैं संसार को हिला कर रख दूंगा !"     

"Education is the manifestation of the perfection already in man. Religion is the manifestation of the Divinity already in man. -- Therefore the only duty of the teacher in both cases is to remove all obstructions from the way. Hands off! as I always say, and everything will be right. That is, our duty is to clear the way. The Lord does the rest. Give me few men and women who are pure and selfless and I shall shake the world."( Written to "Kidi" on March 3, 1894, from Chicago.) 

"जिस दिन श्री रामकृष्ण देव ने जन्म लिया है , उसी दिन से Modern India (वर्तमान भारत) तथा सत्ययुग का आविर्भाव हुआ है। और तुम उस सत्ययुग को धरातल पर उतारने में ठाकुरदेव द्वारा चुने हुए यंत्र हो , इसी विश्वास को ह्रदय में धारण कर कार्यक्षेत्र (Be and Make आंदोलन के प्रचार-प्रसार) में कूद पड़ो ! ...जिन कार्यों से हमें अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने में अधिक से अधिक सहायता मिलती हो वे अच्छे हैं , और जिनके द्वारा उसमें बाधा पहुँचती है , वे बुरे हैं। अपने अंतर्निहित ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है , कि इस विषय में दूसरों की सहायता करना। " (पत्रावली -स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित ४/३०९ )      

From the day Shri Ramakrishna was born dates the growth of modern India and of the Golden Age. And you are the agents to bring about this Golden Age. To work, with this conviction at heart! .... Every action that helps us manifest our divine nature more and more is good; every action that retards it is evil.The only way of getting our divine nature manifested is by helping others to do the same. (1895 -Letter)  

A few heart-whole, sincere, and energetic men and women can do more in a year than a mob in a century. " 

"Look upon every man, woman, and everyone as God. You cannot help anyone, you can only serve: serve the children of the Lord, serve the Lord Himself, if you have the privilege.

" संसार के धर्म प्राणहीन परिहास की वस्तु हो गए हैं। जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है , वह है चरित्र। संसार को ऐसे मनुष्य चाहिए जिनका जीवन ही निःस्वार्थ ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण हो। वह निःस्वार्थ प्रेम उनके एक एक शब्द को वज्र के समान अप्रतिरोध्य बना देगा ! " (भगिनी निवेदिता को लिखित पत्र)  

"Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. That love will make every word tell like a thunderbolt." 

🔆🙏वेदों में घोषित प्रेम का सिद्धान्त (Doctrine of love declared in the Vedas, Paper on Hinduism) : श्रीकृष्ण, जिन्हें हिन्दू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्णावतार मानते हैं, ने इस प्रेम के सिद्धान्त को घोषित करते हुए कहा है - " मनुष्य को इस संसार में कमल के पत्तों की तरह रहना चाहिए। कमल का पत्ता जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता , उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिए - उसका ह्रदय (Heart) ईश्वर में लगा रहे और उसके हाथ (Hand) कर्म करने में लगे रहें। " (१/१३)     

[He taught that " A man ought to live in this world like a lotus leaf, which grows in water but is never moistened by water; so a man ought to live in the world - his heart to God and his hands to work."]

" वेद कहते हैं कि आत्मा (अक्षरब्रह्म) दिव्य-स्वरूप है , वह केवल पंचभूतों के बन्धनों में बँध गयी है- [पंचभूते फांदे ब्रह्म पड़े कांदे] और उन बन्धनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगी। इस अवस्था का नाम मुक्ति है , जिसका अर्थ है स्वाधीनता - अपूर्णता के बन्धनों से छुटकारा [मन (Head) की गुलामी से छुटकारा], दुःख और मृत्यु के भय से छुटकारा ! 

"The Vedas teach that the soul is divine, only held in the bondage of matter; perfection will be reached when this bond will burst, and the word they use for it is, therefore, Mukti– freedom, freedom from the bonds of imperfection (in Mind or Head), freedom from death and misery." 

" और यह बन्धन केवल ईश्वर (माँ जगदम्बा के अवतार वरिष्ठ) की दया से ही टूट सकता है; और यह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती है। अतः पवित्रता (निःस्वार्थपरता) ही माँ सारदा के अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय है। उसकी दया (माँ सारदा की दया) किस प्रकार कार्य करती है ? वह पवित्र ह्रदय में अपने को प्रकाशित करता है। पवित्र (निःस्वार्थपर) और निर्मल मनुष्य इसी जीवन में ईश्वर-दर्शन (या आत्मसाक्षातकार) प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता है। ' तब और केवल तब ही (अर्थात आत्मसाक्षात्कार के बाद ही)  उसके ह्रदय की समस्त कुटिलता नष्ट हो जाती है , सारे सन्देह दूर हो जाते हैं। तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ का खिलौना नहीं रह जाता। यही हिन्दू धर्म का मूलभूत सिद्धान्त ^*है - यही हिन्दू धर्म की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा है !"

[हिन्दू धर्म का मूलभूत सिद्धान्त ^*: 

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्‌ दृष्टे परावरे ॥ 

(मुण्डक 2.2.8)     

["भिद्यते हृदयग्रन्थि  छिद्यन्ते सर्वसंशयाः  क्षीयन्ते च अस्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥]

When that Self, which is both the high & the low, is realized, the knot of the heart gets untied, all doubts become solved & all one’s actions become dissipated.]  

जब उस 'परतत्त्व' का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही 'अपरा' सत्ता एवं 'परम सत्ता' है। हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है !]   

"And this bondage can only fall off through the mercy of God, and this mercy comes on the pure. So purity is the condition of His mercy. How does that mercy act? He reveals Himself to the pure heart; the pure and the stainless see God, yea, even in this life; 'then and then only all the crookedness of the heart is made straight'. Then all doubt ceases. He is no more the freak of a terrible law of causation. This is the very centre, the very vital conception of Hinduism." 

" मेरे भाइयो ! मन में किसी मूर्ति के बिना आये , कुछ सोच सकना उतना ही असम्भव है, जितना श्वास लिए बिना जीवित रहना। साहचर्य के सिद्धान्त (Law of Association) के अनुसार   भौतिक मूर्ति पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से , मानसिक भाव-विशेष का उद्दीपन हो जाता है। बाह्य प्रतीक उसके मन को अपने ध्यान के विषय- परमेश्वर (माँ जगदम्बा ,माँ काली) में एकाग्रता से स्थिर रहने में सहायता देता है। यही कारण है कि हिन्दू लोग पवित्रता , निःस्वार्थपरता, नित्यत्व , सर्वव्यापित्व आदि आदि भावों का सम्बन्ध विभिन्न मूर्तियों और रूपों से जोड़ते हैं। हिन्दू की सारी धर्म-भावना प्रत्यक्ष अनुभूति या आत्म-साक्षात्कार में केन्द्रीभूत होती है। मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य (ब्रह्म) बनना है। मूर्तियाँ, मन्दिर , गिरजाघर या ग्रन्थ तो धर्म-जीवन की बाल्यावस्था में केवल आधार या सहायक मात्र हैं ; पर उसे उत्तरोत्तर उन्नति ही करनी चाहिए। 

[My brethren, we can no more think about anything without a mental image than we can live without breathing. By the law of association, the material image calls up the mental idea and vice versa. This is why the Hindu uses an external symbol when he worships. The Hindus have associated the idea of holiness, purity, truth, omnipresence, and such other ideas with different images and forms. The whole religion of the Hindu is centred in realisation. Man is to become divine by realising the divine. Idols or temples or churches or books are only the supports, the helps, of his spiritual childhood: but on and on he must progress.]          

“To me an Indian !is one who has got a Vedantic brain which probes deep and soars high; an Islamic body that is vibrant and valiant; a Buddhistic heart overflowing with compassion and kindness and Christian limbs of service and sacrifice.”

"जिनका सौभाग्य है , वे गर्जना करते हुए हमारे साथ निकल आएंगे और जो भाग्यहीन हैं , वे बिल्ली की तरह एक कोने में बैठकर म्याऊँ -म्याऊँ करते रहेंगे। जिसके मन में साहस और ह्रदय में प्रेम हो , वही मेरा साथी बने -मुझे और किसी की आवश्यकता नहीं है।" (पत्रावली -ब्रह्मानन्द को लिखित ४/३०६)    

“He who is fortunate enough will heroically join us, letting the worthless mew like cats from their corner. Let him who has courage in his mind and love in his heart come with me. I want none else.”

" हमें तीन वस्तुओं की आवश्यकता है ; अनुभव करने के लिए ह्रदय की , कल्पना करने के लिए मस्तिष्क की , और काम करने के लिए हाथ की। " ('भक्तियोग के पाठ' -खण्ड -३, पृष्ठ २७१)  

We need to have three things: " The heart to feel, The brain to conceive, The hand to work. "[Lessons On Bhakti-Yoga:(Volume 6, On Doing Good to the World)

"पुनर्जन्म का सिद्धान्त (Doctrine of Reincarnation): पुनर्जन्म का सिद्धान्त आत्मा की स्वतंत्रता को प्रतिपादित करता है। हमारी प्रवृत्तियाँ हमारे अतीत के संचित कर्मों के ही परिणाम स्वरुप हैं।  कोई भी बच्चा कुछ खास प्रवृत्तिओं के साथ पैदा होता है। वे कहाँ से आती हैं ? कोई भी बच्चा अनुत्कीर्ण फलक (tabula rasa) - सादे पन्ने की तरह कोरा मन लेकर पैदा नहीं होता। उसके मन रूपी पन्ने पर पहले से ही कुछ लिखा रहता है। प्रत्येक बच्चा अपने पूर्व कृत्य कर्मों से उत्पन्न सैकड़ों प्रवृत्तियों के साथ उत्पन्न होता है। इस जन्म में तो उसने उन्हें पाया नहीं। तब हम यह मानने के लिए बाध्य हो जाते हैं कि अवश्य ही वे उसके पिछले जन्म की हैं। इसके आगे हम अद्वैतावस्था की भी कल्पना करते हैं , जिसमें आराधक यह अनुभव करता है कि ' मैं और मेरे परम् पिता एक ही हैं।' वह अपनी अन्तरात्मा में अनुभव करता है कि वह स्वयं ईश्वर है , अन्तर इतना ही है कि वह ईश्वर की निम्नतर अभिव्यक्ति है। मेरे भीतर जो भी सत्य है, वह ईश्वर है, और ईश्वर के भीतर जो सत्य है, वह मैं हूँ। इस तरह ईश्वर और व्यक्ति के बीच की खाई पट जाती है। इस तरह हम देखते हैं कि ईश्वर-ज्ञान के द्वारा हम स्वर्ग के साम्राज्य को अपने अन्दर ही पा लेते हैं।" (आत्मा, ईश्वर और धर्म/ २-२२९/२३३)        

[The doctrine of reincarnation asserts the freedom of the soul. We find in regard to ourselves that our tendencies are the result of past conscious actions. A child is born with certain tendencies. Whence do they come? No child is born with a tabula rasa — with a clean, blank page — of a mind. The page has been written on previously.  Each child comes with a hundred tendencies generated by past conscious actions. It did not acquire these in this life, and we are bound to admit that it must have had them in past lives. But we do not stop there. There is the non-dualistic stage, in which man realises that the God he has been worshipping is not only the Father in heaven, and on earth, but that "I and my Father are one." He realises in his soul that he is God Himself, only a lower expression of Him. All that is real in me is He; all that is real in Him is I. The gulf between God and man is thus bridged. Thus we find how, by knowing God, we find the kingdom of heaven within us.  

Q. Do you know of anyone who remembers his previous life ?

A. I have met some who told me they did remember their previous life. They had reached a point where they could remember their former incarnations. (Volume 1/Soul, God And Religion)

"All that is real in me is God; all that is real in God is I. The gulf between God and me is thus bridged. Thus by knowing God, we find that the kingdom of heaven is within us.

हमलोगों ने कल सुना कि महामण्डल का आदर्श वाक्य -Motto है - ' Be and Make ' बनो और बनाओ ! जितने भी पशु हैं , वे जिस अवस्था में जन्म लेते हैं , उसी अवस्था में बूढ़े होकर मर जाते हैं। परन्तु मनुष्य  जिस अवस्था में जन्म लेता है , बूढ़े होने तक उसी अवस्था में रहते हुए एक दिन मर जाने को बाध्य नहीं है।  वह गुरु के पास जाकर , विद्या ग्रहण कर सकता है और मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव 3H को विकसित करने की पद्धति सीख करके, पहले से अच्छा मनुष्य, चरित्रवान या उच्च कोटि (ईश्वरकोटि) का मानव बनकर शरीर त्याग सकता है। क्या बनना है ? हमलोग वास्तव में जो हैं , वही यथार्थ मनुष्य या पूर्ण मनुष्य बनना है। जब हम मनुष्य योनि में आ ही गए हैं तो अब हमें और पशु जैसा नहीं रहना है। 

अंग्रेजी में -रॉबर्ट ब्राउनिंग की एक लम्बी कविता है -" रेगिस्तान में एक मौत " (A Death in the Desert), उस कविता में कवि कहता है -- "Progress is man's distinctive mark alone, Not  God's, and not the beast's; God is, they are, Man partly is, and wholly hopes to be." -Robert Browning

"-अर्थात प्रगति केवल मनुष्य का ही विशिष्ट पहचान है , ईश्वर का नहीं, और पशु का भी नहीं; ईश्वर (पूर्ण) हैं , वे (पशु भी पूर्णतः पशु है,उन्हें कुछ और नहीं बनना है) हैं, लेकिन मनुष्य आंशिक रूप से 'मनुष्य ' है, और पूर्ण रूप से मनुष्य [शत प्रतिशत निःस्वार्थ; hundred percent unselfish या ईश्वर-तुल्य मानव) बन जाने की आशा करता है।"

 स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " हमारे शास्त्रों में परमात्मा के दो रूप कहे गये हैं- सगुण  और निर्गुण। सगुण ईश्वर (Personal God -अवतार वरिष्ठ ) के अर्थ से वह  सर्वव्यापी है। संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कर्ता हैं। संसार के अनादि जनक तथा जननी हैं उनके साथ हमारा नित्य भेद है। और मुक्ति का अर्थ है – उनके सामीप्य और सालोक्य की प्राप्ति। सगुण ब्रह्म के ये सब विशेषण, निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में अनावश्यक और अयौक्तिक है इसलिए त्याज्य कर दिये गये हैं। वह निर्गुण और सर्वव्यापी पुरूष ज्ञानवान नहीं कहा जा सकता; क्योंकि ज्ञान मानव मन का धर्म है। इस निर्गुण पुरूष (अवैक्तिक ईश्वर -Impersonal God) के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है? सम्बन्ध यह है कि हम उससे अभिन्न हैं। वह और हम एक हैं। हर एक मनुष्य, उसी निर्गुण पुरूष का- जो सब प्राणियों का मूल कारण है- अलग-अलग प्रकाश या अभिव्यक्ति है। जब हम इस अनन्त और निर्गुण पुरूष से अपने को पृथक (अलग ) सोचते हैं तभी हमारे दुःख की उत्पत्ति होती है और इस अनिर्वचनीय निर्गुण सत्ता के साथ अभेद ज्ञान ही मुक्ति (मोक्ष -dehypnotized हो जाना ) है। संक्षेपतः हम अपने शास्त्रों में ईश्वर के इन्हीं दोनो ”भावों“ का उल्लेख देखते हैं। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि निर्गुण ब्रह्मवाद की भावना ही सब प्रकार के नीति विज्ञानोें की नींव है। जब तुम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की एकात्मकता , विश्व की एकता और जीवन के अखण्डत्व की अनुभूति कर लोगे -तब तुम समझ जाओगे कि दूसरे को प्यार करना अपने को ही प्यार करना है -दूसरों को हानि पहुँचाना अपनी ही हानि करना है। " [जफ़ना में हिन्दुओं के समक्ष स्वामीजी का भाषण - वेदान्त/खंड -5 पेज - 27-29 ] 

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु एवं देवी लक्ष्मी, क्षीरसागर में निवास करते है। इसे विष्णुलोक, वैकुंठ आदि नामों से भी जाना जाता है। पुराणों और अन्य धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक भगवान विष्णु जिस क्षीरसागर में रहते हैं वह कामधेनु गाय की पुत्री सुरभि के दूध से भरा है। वहीं पर भगवान विष्णु शेषशैया पर विश्राम करते हैं और वहीं से इस सृष्टि का संचालन करते हैं। वास्तव में यह प्रतीकात्मक स्वरूप है। अगर दार्शनिक या व्यवहारिक रूप से देखा जाए तो क्षीरसागर, शेषनाग आदि सभी सांकेतिक हैं। जिस शेषनाग पर भगवान लेटे हैं, वह मूलत: गृहस्थ जीवन का प्रतीक है। व्यक्ति संसार में सबसे ज्यादा गृहस्थी की जिम्मेदारियों से बंधा होता है। जिसमें परिवार, समाज, देश, गुरुजन और आत्मकल्याण ये पांच जिम्मेदारियां उसकी गृहस्थी से जुड़ी होती हैं। ये ही शेषनाग के पांच फन हैं। दरअसल भगवान विष्णु सृष्टि के संचालक हैं और मूलत: वे एक गृहस्थ के प्रतिनिधि हैं। इसलिए भगवान विष्णु या या उनके जितने भी अवतार हैं - श्रीराम , श्री कृष्ण या श्रीरामकृष्ण देव -सभी के सभी अवतार कर्म (अर्थात निष्काम कर्म-Work without selfish motive ) को महत्व देते हैं। वास्तव में क्षीरसागर इसी दुनिया का प्रतीकात्मक रूप है। यह दुनिया भी क्षीरसागर की तरह अथाह है और इसमें सागर के पानी जितने ही सुख-दु:ख भी हैं।

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - 'सत्य ' के दो भेद हैं - पहला, जो मनुष्य की पंचेन्द्रियों से एवं तदाश्रित (उसमें सन्निहित) अनुमान से ग्रहण किया जाये , और दूसरा, जो अतीन्द्रिय सूक्ष्म योगज शक्ति द्वारा ग्रहण किया जाये। प्रथम उपाय से संकलित ज्ञान को 'विज्ञान ' कहते हैं और दूसरे प्रकार से संकलित ज्ञान को 'वेद ' कहते हैं।  ..... यह अतीन्द्रिय शक्ति , जिस व्यक्ति (या आध्यात्मिक संगठन ?) में आविर्भूत अथवा प्रकाशित होती है, उसका नाम 'ऋषि' (C-IN-C नवनीदा)  है, और उस शक्ति के द्वारा वे जिस अलैकिक सत्य (महामण्डल शिविर) की उपलब्धि करते हैं, उसका नाम 'वेद' है। यह ऋषित्व और वेद-दृष्टि का लाभ करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। जब तक यह अवस्था प्राप्त न हो, तब तक धर्म केवल कहने की बात है। और यही मानना पड़ेगा कि धर्मराज्य की प्रथम सीढ़ी भी हमने पैर नहीं रखा है। (हिन्दू धर्म और श्री रामकृष्ण' 10 . 139) 

[Truth is of two kinds: (1) that which is cognizable by the five ordinary senses of man, and by reasonings based thereon; (2) that which is cognizable by the subtle, supersensible power of Yoga.Knowledge acquired by the first means is called science; and knowledge acquired by the second is called the Vedas.The person in whom this supersensible  power is manifested is called a Rishi, and the supersensible truths which he realises by this power are called the Vedas.This Rishihood, this power of supersensible  perception of the Vedas, is real religion. And so long as this does not develop in the life of an initiate, so long is religion a mere empty word to him, and it is to be understood that he has not taken yet the first step in religion. 'Hinduism and Sri Ramakrishna' C.W.6.181 }

 " ईश्वर ने मनुष्य को तीन विशेष वस्तुयें, दुर्लभ वस्तुयें दी हैं - [मनुष्यत्वं -मुमुक्षुत्वं और महापुरुष संश्रयः ] मनुष्य शरीर , मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा , और जो पहले से मुक्त हैं , उनसे सहायता (मार्गदर्शन) लेने की क्षमता। " अब बिना सगुण ईश्वर हुए (Personal God-व्यैक्तिक ईश्वर या अवतार वरिष्ठ को खोजे) भक्ति नहीं हो सकती। प्रेमी (lover) और प्रेमपात्र (beloved) , दोनों होने चाहिए। ईश्वर अनन्तिकृत मानव है। ऐसा होना अनिवार्य है , क्योंकि जब तक हम मनुष्य हैं , हमें मानवीकृत ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) चाहिए। हम एक सगुण ईश्वर को (Personal God-व्यैक्तिक ईश्वर,या अवतार को) और केवल उसीको देखने को बाध्य हैं ! " (भक्तियोग के पाठ ३/२६५-६६ ) 

 [ Three things are the special gifts of God to man—the human body, the desire to be free, and the blessing of help from one who is already free. Now, we cannot have devotion without a Personal God. There must be the lover and the beloved. God is an infinitised human being. It is bound to be so, for so long as we are human, we must have a humanised God, we are forced to see a Personal God and Him only. " 

" क्योंकि मैं प्रेम और ज्ञान देखता हूँ , इसलिए मैं जानता हूँ कि वह सार्वभौमिक कारण इस प्रेम और ज्ञान को प्रकट कर रहा है। जो मुझमें प्रेम उत्पन्न करता है , वह प्रेमहीन कैसे हो सकता है ? हम मानवीय गुणों से रहित सार्वभौमिक कारण की कल्पना नहीं कर सकते। ईश्वर को ब्रह्माण्ड में अपने से अलग देखना , पहले कदम के रूप में आवश्यक है।" [Because I see love and knowledge, I know the universal cause is manifesting that love and knowledge. How can that be loveless which causes love in me? We cannot think of the universal cause without human qualities. To see God as separate from ourselves in the universe is necessary as a first step. 

" हम जैसे हैं -अनन्तिकृत -उस रूप में ईश्वर को देखे बिना नहीं रह सकते, पर फिर भी वैसे ही जैसे हम स्वयं हैं। मान लो , हम ईश्वर की निरपेक्ष (अपरिवर्तनशील) परम् तत्व के रूप में कल्पना करने का प्रयत्न करें , पर ईश्वर का आनन्द लेने और उससे प्रेम करने के निमित्त हमें पुनः  सापेक्षिक अवस्था में लौटना पड़ेगा।" (३/२६६)  [We cannot help seeing God as we are—infinitised, but still as we are. Suppose we tried to conceive God as the Absolute, we should have again to come back to the relative state in order to enjoy and love. ]              

 "My own soul can subdue all." ' मेरी आत्मा सब वशीभूत (subdue) कर सकती हैं।' शरीर मन का ही स्थूलतर रूप है ,मन सूक्ष्मतर स्तरों से बना हुआ है और शरीर स्थूलतर स्तरों से , और जब मनुष्य का मन पूर्णतया उसके वश में आ जाता है , तो उसका शरीर भी उसके वश में आ जाता है। " (३/२६७ " Body is only mind in a grosser form, mind being composed of finer layers and the body being the denser layers; and when man has perfect control over his mind, he will also have control over his body. ) 

{इस कविता का मुख्य संदेश मनुष्य (एथेंस का सत्यार्थी) द्वारा परम् सत्य की खोज के दौरान उसके इद्रियगोचर सत्य की भौतिक अवधारणा [material perception-देह (Hand) और मन (Head)] तथा इन्द्रियातीत सत्य [transcendent spirit - मन और इन्द्रियों की सीमा से परे होकर भी सर्वव्यापी सत्य-आत्मा ह्रदय (Heart)] के बीच सम्पर्क (connection) से सम्बन्धित एक शिक्षा (doctrine-सिद्धान्त) प्रतीत होता है ! (जॉन 8: 31-32 तब तुम सत्य को पहचानोगे, और सत्य तुम्हें मुक्त कर देगा।”Its primary message seems to be a doctrine concerning man's pursuit of truth and the connection between material perception and the transcendent spirit.)

परम् सत्य के आविष्कारक का मुख्य संघर्ष-'faith vs. reason' श्रद्धा (आस्तिक्य बुद्धि-faith) और तर्कशक्ति (reason) के बीच सन्तुलन स्थापित करने में होता है। आमतौर से श्रद्धा और युक्ति-तर्क के बीच वादविवाद (discussion-परिचर्चा) एक विशुद्ध द्विविभाजन की मान्यता (स्ट्रिक्ट डाइकॉटमी-dichotomy -नश्वर देह-मन तथा शाश्वत आत्मा के बीच विशुद्ध द्विविभाजन की मान्यता) के अनुरूप थम जाता है। कोई व्यक्ति या तो अपनी आध्यात्मिकता से अनुप्रेरित होकर अन्तःस्फुरण (intuition) के अनुरूप प्रतिक्रिया करता है या अपनी तर्क-शक्ति, मानसिक समझ या अवधारणा के अनुरूप। स्वामी विवेकानन्द निःस्वार्थ प्रेम को ही मनुष्यजीवन का अंतिम लक्ष्य कहते थे , प्रश्न यह है कि क्या कोई व्यक्ति ईश्वरीय प्रेम (निःस्वार्थ-प्रेम) को श्रद्धा (आस्तिक्य-बुद्धि) के बल पर प्राप्त कर सकता है या तर्क-शक्ति के बल पर ? (John posits the ultimate goal for man as "love," and the question is whether one is better equipped to achieve heavenly love with faith or with reason.)

तर्क-शक्ति (reason-विचारशक्ति) और श्रद्धा (faith-आस्तिक्यबुद्धि) को एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न समझना (सख्त अलगाव-strict separation) भ्रामक है। मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव (component-घटक) हैं: शरीर, मन और आत्मा, और तीनों एक दूसरे पर अन्योन्याश्रित (interdependent)  हैं। स्वामी जी ने मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव को '3H' की संज्ञा दी थी - शरीर (body -Hand), मन (mind-Head) और आत्मा (soul -Heart).   इन तीनों  '3H' में निश्चित रूप से आत्मा  (soul -Heart) ही मनुष्य की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है, और क्षीरसागर (स्वर्ग,वैकुण्ठ या श्रीरामकृष्णलोक) के सबसे करीब है।  we are made of three faculties: body, mind, and spirit, and all three are interdependent of one another. That soul is the greatest does not mean that soul can reach truth without the physical perceptions given by the body. (While the soul is obviously the highest expression of man and closest to heaven, all three interact to lend credence to one another as a unified whole.) मनुष्य के तीनों प्रमुख अवयव एक-दूसरे के महत्व को समझने, तथा एकीकृत पूर्णत्व (unified whole) की साख को स्पष्ट करने के लिए परस्पर बातचीत करते हैं।

वह आत्मा (ब्रह्म) बृहत्तम है; लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आत्मा शरीर और मन के  द्वारा दी गई शारीरिक और मानसिक अवधारणाओं (physical perceptions भौतिक धारणाओं) के बिना ही 'परम् सत्य' तक पहुंच सकती है। प्रेम को मूर्त रूप देने में शारीरिक और मानसिक विकास या प्रगति भी आवश्यक है। हमलोग जानते हैं कि - एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का भी निवास होता है; अतः मन को उच्च विचारों से पुष्ट करने के लिये शरीर को भी पौष्टिक आहार और व्यायाम द्वारा पुष्ट बनाना होगा। फिर यह परिष्कृत मन ही जीवन-गठन करने योग्य सामग्री (पौष्टिक आहार) आत्मा तक भी पहुँचा देगा। 

शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के समक्ष आत्मा के 'रहस्य' को प्रकट करना नहीं है, बल्कि मनुष्य को पूर्णता की ओर कभी न खत्म होने वाले संघर्ष को जारी रखने में मदद करना है। मिथ्या और सत्य दोनों ही एक गहरी वास्तविकता को पाने के लिए एक ही संघर्ष का हिस्सा हैं। ईश्वर का सबसे बड़ा संदेश यह है कि हमें मूर्तमान प्रेम (Love personified-श्रीरामकृष्ण) की खोज में निरंतर संघर्ष करना चाहिए। सत्य की खोज के प्रति संघर्ष निरंतर प्रगति है, तथा सत्य की ओर 'प्रगति' (progress-आगे की ओर बढ़ाओ) करते रहना केवल मनुष्य की विशिष्ट पहचान है,उसके सजीवता का लक्षण है -constant progress towards truth is  – "man's distinctive spark alone" (man's distinctive mark alone.)  मनुष्य के लिये सत्य की ओर प्रगति करते रहना उसकी विशिष्ट पहचान अवश्य है ; लेकिन सत्य की ओर प्रगति शील रहने का तात्पर्य यह है कि हमें किसी भी चीज को (मिथ्या नाम-रूप को) सत्य के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए, बल्कि हर चीज की लगातार पुनर्व्याख्या करनी (reinterpret - उसे फिर से समझाना चाहिए- नेति से इति करना चाहिए) [The struggle towards truth is constant progress – John calls progress "man's distinctive spark alone" – towards truth, but progress requires us never to accept anything as true, but rather to constantly reinterpret everything.  God's bigger message, which is that we should constantly struggle in pursuit of love. lies and truths are both part of the same struggle to get to a deeper reality. goal is not to reveal a 'secret' to man, but rather to help man continue that never-ending struggle towards perfection. strict separation of reason and faith is fallacious.]  

मनुष्य पूर्ण का 'अंश' है , इसीलिए पूर्ण के प्रति उसमें आकर्षण होता है ; और वह 'पूर्ण' बन जाना चाहता है। मनुष्य अपने गुरु के पास जाकर श्रद्धा और विवेक-प्रयोग आदि 3H को विकसित करने के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण लेकर वह 'कामिनी -कांचन ' जैसी नश्वर वस्तुओं में अपनी आसक्ति या लालच का त्याग कर सकता है।  स्वामीजी ने इसी पूर्ण बनने को कहा 'Be' और उपाय बताया 'Make ' अर्थात तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी  मनुष्य बनने में सहायता करो। यह कार्य  Simultaneously -साथ -साथ होगा, इसलिए हमारा अभियान मंत्र है - 'चरैवेति , चरैवेति '   -यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। 

यह ठीक है कि मनुष्य जन्म के समय अपूर्ण रहता है ; परन्तु पूर्णत्व,बुद्धत्व या ईश्वरत्व उसमें जन्मजात रूप से क्रमसंकुचित रहता है ! पशु आदि योनियों में भी वही ईश्वरत्व क्रमसंकुचित रहता है , परन्तु पशु योनि में विद्या ग्रहण करने में समर्थ अन्तःकरण  विकसित नहीं होता। इसीलिये चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ , काम (अर्थात प्रवृत्ति मार्ग) से होकर मोक्ष (निवृत्ति मार्ग) तक कैसे पहुँचा जाता है ; यह सीखने  (सम्मोहित भेंडशिशु से भ्रममुक्त 'De -Hypnotized' सिंहशावक ' बनने और बनाने) की शिक्षा-पद्धति वे नहीं ग्रहण कर पाते।  इसलिये पशु जिस अवस्था में जन्म लेते हैं,उसी अवस्था में मरने को बाध्य है। 

 🔆🙏 लेकिन मनुष्य पशुओं जैसा आहार-निद्रा -मैथुन करते हुए मर जाने को बाध्य नहीं है। क्योंकि सभी मनुष्यों में वह जिसका अंश होता है, उसके प्रति (निःस्वार्थपरता के प्रति)उसमें एक स्वाभाविक आकर्षण रहता है। यह मनोवैज्ञानिक नियम है कि - "यदि आप किसी वस्तु के अंश हैं, तो आप उसके आकर्षण को महसूस करते हैं।""If you are part of a thing, you feel its attraction." शाक्त मत वालों में शक्ति (माँ तारा) की सत्ता रहती है, इसीलिए वे कुण्डलिनी शक्ति (शिवा) के प्रति आकर्षण का अनुभव करते हैं। वैष्णव मत में जो विश्वासी हैं, उनके भीतर नारायण (भगवान विष्णु)  की सत्ता है , इसीलिए वे नारायण (अवतार वरिष्ठ) के प्रति आकर्षण महसूस करते हैं। शैव-सम्प्रदाय के अनुयायियों में शिव की सत्ता रहती है, इसीलिए वे भगवान शिव के प्रति आकर्षण का अनुभव करते हैं।   🔆🙏

पशु से मनुष्य में फर्क कहाँ आता है ?  मनुष्य को एक विशेष वस्तु मिली है जिसको धर्म कहा जाता है -

आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।

 धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥ 

आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये मनुष्य और पशु में समान हैं। इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के व्यक्ति पशुतुल्य है। 

 ये धर्म क्या है ? यदि एक लाख व्यक्ति में कोई व्यक्ति भी यह समझ ले तो बहुत है। सभी लोग अपने अपने मन में सोचकर, धर्म के बारे में कोई धारणा बना लेते हैं।  और जीवन भर भ्रम में पड़ा रहकर -'धर्मावलम्बी '(Religious) और 'मतावलम्बी '(dogmatic-स्वमताभिमानी, हठधर्मी )  को पर्यायवाची शब्द मानकर दंगा-फसाद करते रहते निर्दोष लोगों का खून बहाते हैं ! महाभारत में कहा गया है - 

धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः।

यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।।

अर्थात्—‘जो धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, उसे ‘‘धर्म’’ कहते हैं। ऐसा धर्म प्रजा को धारण करता है। जिसमें प्रजा को एकसूत्रता में बाँध देने की ताकत है, वह निश्चय ही धर्म है।’ 

धर्म वह वस्तु है जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवता में रूपान्तरित कर देता है। धर्म वह वस्तु है जो हमारे मनुष्यत्व को धारण करता है। वह कौन सी वस्तु है जो हमारे मनुष्यत्व (पूर्णत्व, बुद्धत्व , ईश्वरत्व या अन्तर्निहित दिव्यता) को धारण करती है ? वह है निःस्वार्थपता ! जिसके रहने से हम मनुष्य कहलाने योग्य बनते हैं , वह है निःस्वार्थपरता। इसकी व्याख्या करते हुए नवनीदा कहा करते थे-Unselfishness tending to Zero is animality,निःस्वार्थपरता का शून्य की ओर प्रवृत्त होना पशुता है ! शून्य (0%) निःस्वार्थपरता से पूर्ण निःस्वार्थपरता (100%) की ओर प्रवृत्त होना, धर्म, अर्थ, काम (प्रवृति मार्ग) से मोक्ष (निवृत्ति मार्ग-भ्रममुक्त अवस्था) में आने का प्रयास करना ही मनुष्य बनना है। जो घोरस्वार्थी है उसी को पशु कहते हैं; - सूअर -कुत्ता आदि को देखिये -खुद खाते हैं , और अपने बच्चो को भी मार कर भगा देते हैं। जब यह घोर स्वार्थपरता, शुन्य निःस्वार्थपरता से 50 % निःस्वार्थपरता तक पहुँचती है , तो पशुमानव 'मनुष्य' कहलाने के योग्य बनता है। और जब कोई व्यक्ति 100 % निःस्वार्थपर बन जाता है तो वह बुद्ध, ईसा या स्वामी विवेकानन्द जैसा देवमानव बन जाता है ! मनुष्य योनि की विशेषता अर्थात धर्म या श्रेय-प्रेय , नित्य-अनित्य विवेक की क्षमता को जाग्रत रखकर इसे बढ़ाते जाना चाहिए। यही धर्म है।

स्वामी जी ने निःस्वार्थपरता को ही ईश्वर कहा है - “Unselfishness is God. One may live on a throne, in a golden palace, and be perfectly unselfish; and then he is in God. Another may live in a hut and wear rags, and have nothing in the world; yet if he is selfish, he is intensely merged in the world.” He again says “selfishness is the chief sin. He who tries to secure his position first say, he who says, I will eat first, I will have more money than others and I will do everything is the selfish man. Again a man who says I will be last I do not care to go to heaven; will go to hell if by doing so I can help my brother; is an unselfish man. According to Vivekananda this unselfishness is the last of religion.” 

उपर्युक्त परिभाषा से धर्म का स्पष्ट स्वरूप सामने आता है। आप इससे स्वयं ही विचार कर सकते हैं कि दंगा-फसाद के लिये धर्म को कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ? यह आजकल का एक ओछा तर्क है कि धर्म ही समस्त दोषों का कारण है। पर वस्तुतः धर्म दोषी नहीं है। दोष तो हमारा है और वह यह कि हम धर्म के निर्देशों को जीवन में नहीं उतारते। मनुष्य में स्वाभाविक ही विभाजन की प्रवृत्ति है। और धर्म इसी प्रवृत्ति पर रोक लगाता है।

तो महामण्डल का आदर्श वाक्य है - Be and Make ' क्या बनना है ? जो हम यथार्थ में हैं वही बनना है ! जब हम 'मनुष्य योनि ' में जन्म ले लिए हैं , तो अब हमें पशुओं के जैसा नहीं रहना है ; 'यथार्थ मनुष्य ' -(मानहूंश) बन जाना है ! इसी जीवन में धर्म या विवेक-प्रयोग से विवेकज-ज्ञान प्राप्त कर पूर्ण मनुष्य बन जाने के बाद यहाँ से जाना है। मरने और शरीर त्याग कर देने में क्या अंतर है ? इसको अपने अनुभव से जान लेने के बाद ही जाना है ! इस प्रकार का पूर्ण मनुष्य में विकसित हो जाने से ही मानवजाति का मंगल हो सकता है। भ्रष्टाचार , नारी-उत्पीड़न, आतंकवाद , भय -भूख आदि जितनी भी समस्याएं हैं - उन सभी का निराकरण, स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त इसी सूत्र 'Be and Make ' से सम्भव हो सकता है।         

 मैत्रेय उपनिषद में कहा गया है - "देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवल:शिवः ।"‘शरीर देवालय है तथा उसमें रहने वाला जीव ही केवल शिव-परमात्मा है।’ सभी मनुष्यों में ब्रह्म ही अन्तर्यामी होकर बैठे हैं , कण-कण में श्रीराम ही परिव्याप्त हैं। कोई वस्तु जड़ नहीं है , सबकुछ चैतन्य है। विज्ञान को E =M, का बोध लेकिन आइंस्टीन से पहले नहीं नहीं हुआ। और अन्य कट्टर मतावलम्बियों (Dogmatic believers) में भी यह बोध कि ' जीव ही शिव है ,तथा प्रत्येक धर्म उसी एक परम् सत्य तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं ' यह बोध भी श्रीरामकृष्ण के 'सर्वधर्म -समन्वय ' की साधना के बाद ही आया।

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शनिवार, 11 दिसंबर 2021

🔆🙏 $$$ 🔆🙏 परमात्मा के दो रूप -सगुण और निर्गुण (Personal God and Impersonal God ) 🔆🙏

 

 1. सत्य के दो भेद है। [ पहला सत्य वह है जो हमें पंचेन्द्रियों के माध्यम से दृष्टिगोचर होता है , तथा जो कुछ सत्य के रूप में दिखाई दे रहा है - जैसे कोई ताजा फूल, शरीर (या न्यूटन ने देखा सेव का फल पेंड से टूटकर नीचे क्यों गिरा ? ऊपर क्यों नहीं गया ?) इस प्रकार युक्ति-तर्क के माध्यम से उसमें विद्यमान जिन तथ्यों को बौद्धिक अनुमानों के द्वारा स्वीकृत और सर्वमान्य होते हैं - उस सत्य-शोधन को विज्ञान कहते हैं। और दूसरा वह इन्द्रियातीत सत्य (अविनाशी,अपरिवर्तनीय सत्य), परम् सत्य  जिसका अनुभव हमलोग माँ जगदम्बा) की कृपा से और गुरुदेव से 'मनःसंयोग का प्रशिक्षण ' लेकर सूक्ष्म योगज शक्ति" (कुण्डलिनी शक्ति) के चतुर्थ भूमि तक उठा लेने के बाद -अपने ह्रदय में अनुभव करते हैं ! योगज शक्ति द्वारा संकलित ज्ञान को वेद (महावाक्य) कहते हैं !  ]    

पहला, जो मनुष्य की पंचेन्द्रियों से एवम् तदाश्रित (उसमें उपस्थापित) अनुमान द्वारा गृहीत होते हैं, और दूसरा-जिसका इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति के द्वारा ग्रहण होता है। प्रथम उपाय के द्वारा संकलित ज्ञान को ”विज्ञान“ कहते है, तथा द्वितीय प्रकार के संकलित ज्ञान को ”वेद“ कहते हैं।

 'वेद' नामक अनादि अनन्त अलौकिक ज्ञानराशि सदा विद्यमान है। सृष्टिकर्ता स्वयं इसी की सहायता से इस जगत के सृष्टि-स्थिति-प्रलय कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। जिन पुरूषों में उस इन्द्रियातीत शक्ति का आविर्भाव हुआ है, उन्हें ऋषि कहते है; और उस शक्ति के द्वारा जिस अलौकिक सत्य की खोज उन्होंने उपलब्धि की है, उसे ”वेद“ कहते हैं। इस ऋषित्व तथा वेद दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जब तक उसका उन्मेष नहीं होता तब तक ”धर्म“ केवल कहने भर की बात है।  एवम् समझना चाहिए कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान पर भी पैर नहीं रखा है। समस्त देश-काल-पात्र में व्याप्त होने के कारण वेद का शासन, अर्थात वेद का प्रभाव किसी देश विशेष , काल विशेष अथवा पात्र विशेष तक सीमित नहीं हैं। सार्वजनिन धर्म --'Be and Make ' की व्याख्या  करने वाला एक मात्र ”वेद“ ही है। [हिन्दू धर्म और श्रीरामकृष्ण /खण्ड 10 , पेज 139 ]

2.”वेद“ का अर्थ है- ईश्वरीय ज्ञान की राशि। विद् धातु का अर्थ है-जानना। वेदान्त नामक ज्ञानराशि ऋषि नाम धारी पुरूषों के द्वारा आविष्कृत हुई है। ऋषि शब्द का अर्थ है- मन्त्रद्रष्टा। पहले ही से वर्तमान ज्ञान को उन्होंने प्रत्यक्ष किया है। वह ज्ञान तथा भाव उनके अपने विचारों का फल नहीं था। जब कभी आप सुनें कि वेदों के अमुक अंश के ऋषि अमुक है, तब यह मत सोचिए कि उन्होंने उसे लिखा या अपनी बुद्धि द्वारा बनाया है, बल्कि पहले ही से वर्तमान भाव राशि के वे द्रष्टा मात्र है – वे भाव अनादि काल से ही इस संसार में विद्यमान थे, ऋषि ने उनका आविष्कार मात्र किया। ऋषिगण आध्यात्मिक आविष्कारक थे।

 3. हमारे शास्त्रों में परमात्मा के दो रूप कहे गये हैं- सगुण और निर्गुण। सगुण ईश्वर के अर्थ से वह  सर्वव्यापी है। संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कर्ता हैं। संसार के अनादि जनक तथा जननी हैं उनके साथ हमारा नित्य भेद है। और मुक्ति का अर्थ है – उनके सामीप्य और सालोक्य की प्राप्ति। सगुण ब्रह्म के ये सब विशेषण, निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में अनावश्यक और अयौक्तिक है इसलिए त्याज्य कर दिये गये हैं। वह निर्गुण और सर्वव्यापी पुरूष ज्ञानवान नहीं कहा जा सकता; क्योंकि ज्ञान मानव मन का धर्म है। इस निर्गुण पुरूष के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है? सम्बन्ध यह है कि हम उससे अभिन्न हैं। वह और हम एक हैं। हर एक मनुष्य, उसी निर्गुण पुरूष का- जो सब प्राणियों का मूल कारण है- अलग-अलग प्रकाश या अभिव्यक्ति है। जब हम इस अनन्त और निर्गुण पुरूष से अपने को पृथक (अलग )सोचते हैं तभी हमारे दुःख की उत्पत्ति होती है और इस अनिर्वचनीय निर्गुण सत्ता के साथ अभेद ज्ञान ही मुक्ति (मोक्ष -dehypnotized हो जाना ) है। संक्षेपतः हम अपने शास्त्रों में ईश्वर के इन्हीं दोनो ”भावों“ का उल्लेख देखते हैं। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि निर्गुण ब्रह्मवाद की भावना ही सब प्रकार के नीति विज्ञानोें की नींव है। जब तुम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की एकात्मकता , विश्व की एकता और जीवन के अखण्डत्व की अनुभूति कर लोगे -तब तुम समझ जाओगे कि दूसरे को प्यार करना अपने को ही प्यार करना है -दूसरों को हानि पहुँचाना अपनी ही हानि करना है। " [जफ़ना में हिन्दुओं के समक्ष स्वामीजी का भाषण - वेदान्त/खंड -5 पेज - 27-29, (vivek -jeevan ब्लॉग /शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011/' राष्ट्रीय एकता ' और स्वामी विवेकानन्द [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना]     

 4. जैसा कि यह स्थूल शरीर, स्थूल शाक्तियों का आधार है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर, सूक्ष्म शक्तियों का आधार है जिन्हें हम ”विचार“ कहते हैं। यह विचार शक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित होती रहती है। इनमें कोई भेद नहीं हैं। केवल इतना ही है कि एक उसी वस्तु का स्थूल तथा दूसरा सूक्ष्म रूप है। इस सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर में भी कोई पार्थक्य नहीं है। सूक्ष्म शरीर भी भौतिक है, केवल इतना ही कि वह अत्यन्त सूक्ष्म जड़ वस्तु है। [सन्‌ १८९३ में शिकागो-धर्म-परिषद में यह निबंध- 'हिन्दू धर्म ' पढ़ा गया था। 

5.अद्वैत ही सर्वधर्म -समन्वय की बुनियाद है : चाहे हम उसे वेदान्त कहें या किसी और नाम से पुकारें, परन्तु सत्य तो यह है कि धर्म और विचार में अद्वैत ही अन्तिम शब्द है, और केवल उसी के दृष्टिकोण से सब धर्मो और सम्प्रदायों को प्रेम से देखा जा सकता है। हमें विश्वास है कि भविष्य के प्रबुद्व मानवी समाज का यही धर्म होंगा। 

 6.ॐ ही सृष्टि का मूल (महाकारण)  सृष्टि के पूर्व ब्रह्म शब्दात्मक बनते है, फिर ओंकारात्मक या नादात्मक होते है। तत्पश्चात पहले कल्पों के विशेष शब्द जैसे- भूः, भुवः, स्वः अथवा गो, मानव, घट, पट इत्यादि का प्रकाश उसी ओंकार से होता है। सिद्ध संकल्प ब्रह्म में क्रमशः एक-एक शब्द के होते ही उसी क्षण उन सब पदार्थो का भी प्रकाश हो जाता है और इस विचित्र जगत् का विकास हो उठता है। अब समझे न कि कैसे शब्द ही सृष्टि का मूल है। 

7. ॐ ही अपने को जगत रूप में परिणत कर लेते हैं:  यह सारा व्यक्त इन्द्रिय ग्राह्य जगत रूप है, और इसके पीछे है अनन्त अव्यक्त स्फोट। स्फोट का अर्थ- समस्त जगत की अभिव्यक्ति का कारण शब्द-ब्रह्म। समस्त नामों अर्थात भावों की नित्य समवायी उपादान स्वरूप यह नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे भगवान इस विश्व की सृष्टि करते है। यही नहीं बल्कि भगवान पहले स्फोट-रूप में परिणत हो जाते है और तत्पश्चात अपने को उससे भी स्थूल इस इन्द्रिय ग्राह्य जगत् के रूप में परिणत कर लेते है।

8. सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत (Microcosm and Macrocosm): हमारे सम्मुख दो शब्द है- सूक्ष्म  ब्रह्माण्ड और बृहत् ब्रह्माण्ड। अन्तः और बहिः। हम अनुभूति के द्वारा ही इन दोनों से सत्य लाभ करते है। आभ्यन्तर अनुभूति और बाह्य अनुभूति। आभ्यन्तर अनुभूति के द्वारा संगृहीत सत्य समूह मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म के नाम से परिचित है, और बाह्य अनुभूति सेे भौतिक विज्ञान की उत्पत्ति हुई है। अब बात यह है कि जो सम्पूर्ण सत्य है उसका इन दोनों जगत् की अनुभूति के साथ समन्वय होगा। क्षुद्र ब्रह्माण्ड, बृह्त ब्रह्माण्ड के सत्य समूह को साक्षी प्रदान करेगा, उसी प्रकार बृहत् ब्रह्माण्ड भी क्षुद्र ब्रह्माण्ड के सत्य को स्वीकार करेगा। 

9. इस बाह्य जगत को बृहद् ब्रह्माण्ड तथा अन्तः जगत को सूक्ष्म  ब्रह्माण्ड कहते है। एक मनुष्य अर्थात् कोई भी प्राणी अर्थात् क्षुद्र ब्रह्माण्ड जिस नियम से गठित है उसी नियम से विश्व ब्रह्माण्ड अर्थात् बृहद् ब्रह्माण्ड भी गठित है। जैसे- हमारा एक मन, व्यक्तिमत मन है। उसी प्रकार एक विश्वमन संयुक्त मन भी है। सम्पूर्ण जगत एक अखण्ड स्वरूप है वेदान्त उसी को ब्रह्म कहता है।

10. 3H विकास के 5 अभ्यास : पहले यह स्थूल शरीर (Hand) , उसके पश्चात् सूक्ष्म शरीर (Head) , उसके पश्चात् जीव अथवा आत्मा (Heart) यही मानव का यथार्थ स्वरूप है। मनुष्य का एक सूक्ष्म शरीर और एक स्थूल शरीर है ऐसा नही। शरीर एक ही है। तथापि सूक्ष्म आकार में वह स्थूल की अपेक्षा दीर्घकाल तक रहता है। तथा स्थूल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। सूक्ष्म शरीर भी दीर्घ काल के पश्चात विलिष्ट हो जायेगा, किन्तु जीव , ह्रदय (Heart) अयौगिक पदार्थ है इसलिए वह कभी ध्वंस प्राप्त नहीं होेगा। 

11.समस्त जगत का एकत्व- यही सर्व -श्रेष्ठ धर्ममत है। मैं अमुक (नाम -रूप धारी)  व्यक्ति विशेष हूँ - यह बहुत ही संकीर्ण भाव है। यथार्थ ”अहम्“ लिए, यह सत्य नहीं है। मैं विश्व व्यापक हूँ - इस धारणा पर प्रतिष्ठित हो जाओ, और श्रेष्ठ की उपासना सदा श्रेष्ठ रूप में करोे, कारण ईश्वर चैतन्य स्वरूप है, आत्म स्वरूप है, चैतन्य एवम् सत्य में ही उसकी उपासना करनी होगी। मानव चैतन्य स्वरूप है, और इसलिए मानव भी अनन्त है। और केवल अनन्त ही अनन्त की उपासना में समर्थ है। हम अनन्त की उपासना करेगें, वही सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना है।

12.महामण्डल का आदर्श और उद्देश्य : अतः यदि भारत को महान बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की, शक्ति संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ गयी जिसमें कहा गया है, ‘‘तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ। एक मन हो जाना ही समाज का गठन का रहस्य है बस इच्छाशक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही सारा रहस्य है।

13. जड़ प्रकृति (2H)  को वश में रखना चेतन (आत्मा -3rd H) का लक्षण है :जो कुछ प्रकृति के विरूद्व लड़ाई करता है वह चेतना है। उसमें ही चैतन्य का विकास है। यदि एक चीटीं को मारने लगो तो देखोगे कि वह भी अपनी जीवन रक्षा के लिए एक बार लड़ाई करेगी। जहाँ चेष्टा या पुरूषकार है, जहाँ संग्राम है, वहीं जीवन का चिन्ह और चैतन्य का प्रकाश है। 

14.समग्र संसार का अखण्डत्व, जिसकें ग्रहण करने के लिए संसार प्रतीक्षा कर रहा है, हमारे उपनिषदों का दूसरा भाव है। प्राचीन काल के हदबन्दी और पार्थक्य इस समय तेजी से कम होते जा रहे हैं। हमारे उपनिषदों ने ठीक ही कहा है- ”अज्ञान ही सर्व प्रकार के दुःखो का कारण है।“ सामाजिक अथवा आध्यात्मिक जीवन की हो जिस अवस्था में देखो, यह बिल्कुल सही उतरता है। अज्ञान से ही हम परस्पर घृणा करते है, अज्ञान से ही एक दुसरे को जानते नहीं और इसलिए प्यार नहीं करते। जब हम एक दुसरे को जान लेगे, प्रेम का उदय हेागा। प्रेम का उदय निश्चित है क्योंकि क्या हम सब एक नहीं हैं? इसलिए हम देखते है कि चेष्टा न करने पर भी हम सब का एकत्व भाव स्वभाव से ही आ जाता है। यहाँ तक की राजनीति और समाजनीति के क्षेत्रो में भी जो समस्यायें बीस वर्ष पहले केवल राष्ट्रीय थी, इस समय उसकी मीमांसा केवल राष्ट्रीयता के आधार पर और विशाल आकार धारण कर रही हैं। केवल अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय विधान ये ही आजकल के मूलतन्त्र स्वरूप है। 

15.सत् का कारण असत् कभी नहीं हो सकता। शून्य से किसी वस्तु का उद्भव नहीः कार्य-कारणवाद सर्वशक्तिमान है और ऐसा कोई देश-काल ज्ञात नहीं, जब इसका अस्तित्व नहीं था। यह सिद्धान्त भी उतना ही प्राचीन है, जितनी आर्य जाति। इस जाति के मन्त्र द्रष्टा कवियों ने उसका गौरव गान गया है। इसके दार्शनिकों ने उसको सूत्रबद्ध किया और उसकी वह आधारशिला बनायी, जिस पर आज का भी हिन्दू अपने जीवन का समग्र योजना स्थिर करता है।

16.शिक्षा की परिभाषा तथा मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह से ठूंस दी जाये, जो आपस में लड़ने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर हजम न कर सकें। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकंे, मनुष्य बन सके, चरित्र गठन कर सकें और विचारों का सांमजस्य कर सके, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को हजम कर तद्नुसार जीवन और चरित्र गठन कर सके तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है जिसने एक पूरी की पूरी लाइब्रेरी ही कठंस्थ कर ली है।

17.योग का शब्दिक अर्थ है- मिलन। दार्शनिक दृष्टि से इसका अर्थ परमात्मा से मिलन होता है और जो इस परमात्मा से हमें जोड़ता है, वह योग है। पूरे ब्रह्माण्ड में एक ही ब्रह्म है लेकिन जब यह अज्ञानवश देखा जाता है, तो वह अनेक दिखलाई पड़ता है। अज्ञान के फलस्वरूप हम अपने को परमात्मा से अलग समझते है। इतना ही नहीं, विविध वस्तुओं की आन्तरिक एकता को देखें बिना हम उन्हें भी भिन्न समझते है। यहीं दुःख का उदय होता है।

18.एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य के सच्चे स्वरुप को जानना। और वेदान्त का यहीं संदेश है कि यदि तुम व्यक्त ईश्वर रुप अपने भाई की उपासना नहीं कर सकते, तो तुम उस ईश्वर की उपासना कैसे करोगे जो अव्यक्त है। चाहे जिस विद्या में हो, प्रकृत सत्य में कभी परस्पर विरोध रह नहीं सकता। आभ्यन्तर सत्य समूह के साथ बाह्य सत्य समूह का समन्वय है। 

19.अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्तों को (संस्कृत के 4 महावाक्यों को) अंग्रेजी के इतने सरल शब्दों में व्याख्या करनी है कि कोई 7 साल का बच्चा भी उन्हें समझ सके !  हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएँ और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके- इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योगविद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक ऐसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके।

[साभार/https://www.jagran.com/blogs/vishwshastra/]

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षट्पद्मों में आदि-शक्ति का ध्यान ^* सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठ पर्यन्त का क्षेत्र एवं चक्र संस्थान 'शक्ति' भाग बताया है और कण्ठ से ऊपर का स्थान 'शिव' देश कहा है ।

मूलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिरथानमूदीरतम् ।

कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भव स्थानमुच्यते॥

(वराहश्रुति)

मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है । कण्ठ से ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है ।हमारे सात चक्र है जिनका नाम -मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,मणिपुर चक्र,अनाहत चक्र,विशुद्ध चक्र,आज्ञा चक्र, सहस्रदल चक्र। 

मूलाधार से सहस्रार तक की, 'काम बीज से ब्रह्म बीज तक की यात्रा' को ही महायात्रा कहते हैं । योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं । जीव, सत्ता, प्राण, शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है । प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलोक  में-ब्रह्मरन्ध्र में माना गया है । यह द्युलोक-देवलोक स्वर्गलोक है आत्मज्ञान का ब्रह्मज्ञान का सूर्य इसी लोक में निवास करता है । कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्म जी-कैलाशवासी शिव और शेषशायी विष्णु का निवास जिस मस्तिष्क मध्य केन्द्र में है-उसी नाभिक (न्यूविलस) को सहस्रार कहते हैं ।

आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं । उसका एक सिरा मस्तिष्क (सहस्रार ) का-दूसरा काम केन्द्र (मूलाधार) का स्पर्श करता है । कुण्डलिनी साधना की समस्त गतिविधियाँ प्रायः इसी क्षेत्र को परिष्कृत एवं सरल बनाने के लिए हैं । मेरुदण्ड को राजमार्ग-महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है । इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । हिन्दू धर्म के भूःभुवःस्वःतपःमहःसत्यम् यह सात लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है । इन विराम स्थलों को 'चक्र ' कहा गया है । 

चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती है, एक अवरोध के रूप में दूसरे अनुदान के रूप में महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है । अभिमन्यु उसमें फँस गया था । वेधन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था । चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं । इस अलंकारिक प्रसंग को आत्मा का सात चक्रों में फँसा होना कह सकते हैं । भौतिक आकर्षणों (कामिनी -कांचन में आसक्ति) की, भ्राँतियों की विकृतियों की चहारदीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है । इसलिए उसके वेधन का विघ्न (विधान ?) बताया गया है ।

कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत कर लेना बहुत ही जटिल प्रक्रिया है और यह एक अद्भुत और विचित्र अनुभव है जसकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत है या सात चक्र जागृत है ,वह साधारण मानव नहीं रह जाता है ,वह एक योगिक और अलोकिक व्यक्ति हो जाता है ,दुनिया के भौतिक सुखो से पर हो कर ईश्वर की साधन में लीन हो जाता है लेकिन ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ भी प्राप्त करना असंभव नहीं रहता है।

चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा जाता है कि उनके अन्तराल में दिव्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं । उन्हें ईश्वर ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता, पात्रता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले कुपात्रता अयोग्यता की स्थिति में बहुमूल्य साधन मिलने पर तो अनर्थ ही होता है । धातुओं की खदानें जमीन की ऊपरी परत पर बिखरी नहीं होती, उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरी खुदाई करनी पड़ती है । मोती प्राप्त करने के लिए लिए समुद्र में गहरे गोते लगाने पड़ते हैं । यह अवरोध इसलिए है कि साहसी एवं सुयोग्य सत्पात्रों को ही विभूतियों को वैभव मिल सके । 

गुरु परम्परा : मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों को ऐसी सिद्धियों का केन्द्र माना गया है जिनकी भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिए नितान्त आवश्यकता रहती है । इन सभी चक्रो को जागृत करने के लिए श्रद्धा और विश्वास और निरंतरता की आवश्यकता होती है। और किसी कुशल योग-गुरु के सरंक्षण में करना चाहिए ,नहीं तो अनिष्ट भी हो सकता है। गुरु के प्रति हमारा प्रेम जितना गहरा होगा उतना ही कुण्डलिनी जागरण के प्रति हमारा प्रयास अधिक होता चला जायेगा ।  

ऐसे प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थों के लिए स्त्री के साथ ही साधनारत होने का मार्ग भी ऋषियों ने खोज निकाला । मनुष्य में कार्य करने के लिए ऊर्जा व् आभा तथा ज्योति का मिश्रण ही काम में लाना पड़ता है । मनुष्य में इन तीनों तत्वों का उदगम है उसका खानपान और उसके विचार । जैसा उसका खानपान होगा वैसी उसके शरीर की ऊर्जा होगी । सात्विक जीवन सात्विक ऊर्जा तथा तामसिक भोजन तो तामसिक ऊर्जा । अतएव कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए सात्विक ऊर्जा  अति आवश्यक है । कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए उत्तम उम्र 20 वर्ष से 45 वर्ष तक मानी गई है......हरि ॐ

लेकिन प्रवृत्ति मार्ग के साधक को भी यम व् नियम का पालन 24 X 7 करनी पड़ती है तथा आसन , प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास दिन में दो बार करनी पड़ती है। प्रवृत्ति मार्ग के साधक को भी बहिरंग साधना की उतनी ही तैयारी करनी पड़ती है, जितनी निवृति मार्ग अपनाने वाले साधक को करनी पड़ती है । 

गृहस्थ बिना स्त्री के नहीं चलता है, और संन्यास स्त्री के रहते कभी नहीं चलता है । (स्वामी महेन्द्र पुरी, स्वामी तोतापुरी ,ठाकुरदेव , स्वामी विवेकानन्द , CINC नवनीदा ...  ) परन्तु जहाँ तक मनःसंयोग और भक्ति ( या 3H विकास के 5 अभ्यास) के द्वारा कुण्डलिनी जागरण साधना का प्रश्न है तो क्या गृहस्थ और क्या सन्यासी क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी सामान अधिकार रखते हैं ।

 इड़ा पिंगला के प्राण प्रवाह इसी क्षेत्र को दुहराने के लिए नियोजित किये जाते हैं । साबुन पानी में कपड़े धोये जाते हैं । झाड़ू झाड़न से कमरे की सफाई होती है । इड़ा पिंगला के माध्यम से किये जाने वाले नाड़ी शोधन प्राणायाम मेरुदण्ड का संशोधन करने के लिए है । इन दोनों ऋणात्मक और धनात्मक शक्तियों का उपयोग सृजनात्मक उद्देश्य से भी होता है । इड़ा पिंगला के माध्यम से सुषम्ना क्षेत्र में काम करने वाली प्राण विद्युत का विशिष्ट संचार क्रम प्रस्तुत करके कुण्डलिनी जागरण की साधना सम्पन्न की जाती है । 

चक्रवेधन, चक्रशोधन, चक्र परिष्कार, चक्र जागरण आदि नामों से बताये गये विवेचनों एवं विधानों में कहा गया है कि इस प्रयास से अदक्षताओं एवं विकृतियों का निराकरण होता है । जो उपयुक्त है उसकी अभिवृद्धि का पथ प्रशस्त होता है । सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन, दुष्प्रवृत्तियों के दमन में यह चक्रवेधन विधान उपयोगी एवं सहायक है |

1. मूलाधार चक्र : 

मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी-शक्ति से युक्त ‘मूल’ आधारित अथवा स्थित है। यह चक्र शरीर के अन्तर्गत गुदा और लिंग मूल के मध्य में स्थित है जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है। चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है, वह मूलाधार-चक्र कहलाता है।

मूलाधार-चक्र अग्नि वर्ण का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है। इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है। इसके अन्दर चार अक्षरों से युक्त अग्नि वर्ण की चार पंखुड़ियाँ  नियत हैं। ये पंखुड़ियाँ अक्षरों से युक्त हैं वे – स, ष, श, व । यहाँ के अभीष्ट देवता के रूप में गणेश जी नियत किए गए हैं। जो साधक साधना के माध्यम से कुण्डलिनी जागृत कर लेता है अथवा जिस साधक की स्वास-प्रस्वास रूप साधना से जागृत हो जाती है और जागृत अवस्था में उर्ध्वगति में जब तक मूलाधार में रहती है, तब तक वह साधक गणेश जी की शक्ति से युक्त व्यक्ति हो जाता है।

मंत्र : इस चक्र का स्थान मेरु दंड के सबसे निचले  स्थिति होता है, इसका मूल मंत्र " लं " है | 

व्यक्ति को पहले प्राणायाम कर के मूलाधार चक्र पर अपना ध्यान केंद्रित कर मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। धीरे धीरे चक्र जागृत होता है

लाभ: इससे लाभ यह मिलता है की व्यक्ति के जीवन में लालच नाम की चीज खत्म हो जाता है,और एक आत्मिक ज्ञान प्राप्त होता है व्यक्ति अच्छा ज्ञान प्राप्त करता है और जिंदगी में बड़ी से बड़ी जिम्मेवारी लेने की क्षमता बढ़ जाता है। हौसला मजबूत होता है शारीरिक ऊर्जा बढ़ता है |

हानि: जब साधक-सिद्ध व्यक्ति सिद्धियों के चक्कर अथवा प्रदर्शन में फँस जाता है तो उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी से अधोमुखी होकर पुनः शयन-मुद्रा में चली जाती है जिसका परिणाम यह होता है की वह सिद्ध-साधक सिद्धि का प्रदर्शन अथवा दुरुपयोग करते-करते पुनः सिद्धिहीन हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह उर्ध्वमुखी यानि सिद्ध योगी तो बन नहीं पाता, सामान्य सिद्धि से भी वंचित हो जाता है। परन्तु जो साधक सिद्धि की तरफ ध्यान न देकर निरन्तर मात्र अपनी साधना करता रहता है उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी के कारण ऊपर उठकर स्वास-प्रस्वास रूपी डोरी (रस्सी) के द्वारा मूलाधार से स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँच जाती है

2. स्वाधिष्ठान चक्र

मूलाधार चक्र से थोड़ा ऊपर और नाभि से निचे यह चक्र स्थित है। स्वाधिष्ठान-चक्र में चक्र के छः दल हैं, जो पंखुड़ियाँ कहलाती हैं। यह चक्र सूर्य वर्ण का होता है जिसकी छः पंखुड़ियाँ पर स्वर्णिम वर्ण के छः अक्षर होते हैं जैसे- य, र, य, म, भ, ब । इस चक्र के अभीष्ट देवता इन्द्र नियत हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूपी साधना में लगा रहता है, उसकी कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होने के कारण स्वाधिष्ठान में पहुँचकर विश्राम लेती है। तब इस स्थिति में वह साधक इन्द्र की सिद्धि प्राप्त कर लेता है अर्थात सिद्ध हो जाने पर सिद्ध इन्द्र के समान शरीर में इन्द्रियों के अभिमानी देवताओं पर प्रशासन करने लगता है, इतना ही नहीं प्रशासनिक नेता, मन्त्री और राजा लोग भी प्रशासनिक व्यवस्था के सुचारु एवं सुदृढ़ता हेतु आशीर्वचन हेतु आने और निर्देशन में चलने लगते हैं। साथ ही सिद्ध-पुरुष में प्रबल अहंकार रूप में अभिमानी होने लगता है जो उसके लिए बहुत ही खतरनाक होता है।

मंत्र: इसका मूल मंत्र " वं " है। यह चक्र जल तत्त्व से सम्बंधित है।

लाभ: इस चक्र के जागृत होने पर शारीरिक समस्या समाप्त हो जाती है। शरीर में कोई भी विकार जल तत्त्व के ठीक न होने से होता है , इसके जाग्रत होने से जल तत्व का पूर्ण ज्ञान होता है , शारीरिक विकार का नाश हो जाता है ,जल सीधी की प्राप्ति हो जाती है |  इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है ।

हानि: यदि साधना बन्द हो गयी तो आगे का मार्ग तो रुक ही जाएगा, वर्तमान सिद्धि भी समाप्त हो जाएगी | 

3. मणिपुर चक्र

नाभि मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अन्तर्गत मणिपूरक नामक तीसरा चक्र है, जो दस दल कमल पंखुड़ियाँ से युक्त है जिस पर स्वर्णिम वर्ण के दस अक्षर बराबर कायम रहते हैं। वे अक्षर – फ, प, न, ध, द, थ, त, ण, ढ एवं ड हैं। इस चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूप साधना में लगा रहता है उसी की कुण्डलिनी-शक्ति मणिपूरक-चक्र तक पहुँच पाती है आलसियों एवं प्रमादियों की नहीं। मणिपूरक-चक्र एक ऐसा विचित्र-चक्र होता है; जो तेज से युक्त एक ऐसी मणि है, जो शरीर के सभी अंगों-उपांगों के लिए यह एक आपूर्ति-अधिकारी के रूप में कार्य करता रहता है। यही कारण है कि यह मणिपूरक-चक्र कहलाता है। नाभि कमल पर ही ब्रह्मा का वास है। सहयोगार्थ-समान वायु - मणिपूरक-चक्र पर सभी अंगों और उपांगों की यथोचित पूर्ति का भार होता है। इसके कार्य भार को देखते हुये सहयोगार्थ समान वायु नियत की गयी, ताकि बिना किसी परेशानी और असुविधा के ही अतिसुगमता पूर्वक सर्वत्र पहुँच जाय। यही कारण है कि हर प्रकार की भोग्य वस्तु इन्ही के क्षेत्र के अन्तर्गत पहुँच जाने की व्यवस्था नियत हुई है ताकि काफी सुविधा-पूर्वक आसानी से लक्ष्य पूर्ति होती रहे। 

मणिपूरक-चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी पर ही सृष्टि का भी भार होता है अर्थात गर्भाशय स्थित शरीर रचना करना, उसकी सामग्रियों की पूर्ति तथा साथ ही उस शरीर की सारी व्यवस्था का भार जन्म तक ही इसी चक्र पर रहता है जिसकी पूर्ति ब्रह्मनाल (ब्रह्म-नाड़ी) के माध्यम से होती रहती है। जब शरीर गर्भाशय से बाहर आ जाता है तब इनकी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है।

मणिपूरक-चक्र ही शरीर का केंद्र बिन्दु होता है। यहीं से शरीर में सब तरफ नाड़ियों का जाल बिछा होता है। समस्त अंगों-उपांगों की आपूर्ति व्यवस्था भी यहीं से होती है। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।

मंत्र: यह नाभि में स्थित होता है और इसके जागृत करने का मूल मंत्र " रं " है। इस चक्र को जागृत करने के लिए बहुत ज्यादा साधना की जरूरत होती है।

लाभ: यह चक्र जागृत होते है तब व्यक्ति सर्व शक्ति संपन्न हो जाता है। प्रकृति के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है ,जीवो की उत्पत्ति कैसे हुई इसका ज्ञान होता है। यहाँ तक की यह चक्र पूर्व जन्म का ज्ञान भी देता है , भाषा का ज्ञान देता है , अग्नि तत्त्व की सिद्धि देता है।

4. अनाहत चक्र

हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही अनाहत्-चक्र है। जिन द्वादश(१२) अक्षरों की बात काही जा रही है वे – ठ, ट, ञ, झ, ज, छ, च, ड़, घ, ग, ख और क हैं। इस के अभीष्ट देवता श्री विष्णु जी हैं। अनाहत्-चक्र ही वेदान्त आदि में हृदय-गुफा भी कहलाता है, जिसमें ईश्वर स्थित ( अवतार वरिष्ठ ठाकुर देव , गुरु स्वामी तोतापुरी,..... स्वामी महेन्द्र पुरी,...स्वामी विवेकानन्द , CINC नवनीदा) रहते हैं, ऐसा वर्णन मिलता है। ईश्वर ही ब्रह्म और आत्मा भी है।

सबका एक ही - यथार्थ बात यह है कि जो कर्मकांडियों का क्षीर-सागर है, वही वेदान्तियों का हृदय गुफा है और वही ध्यान-साधना वाले साधकों का अनाहत्-चक्र है। जब कुण्डलिनी अनाहत्-चक्र में प्रवेश कर उर्ध्वमुखी रूप में विश्राम लेते हुये जब तक इस चक्र में वास करती है, तब तक साधन-रत सिद्ध-साधक श्री विष्णु जी की सिद्धि को प्राप्त कर के उसी के प्रभाव के समान प्रभावी होने लगता है।

मंत्र: इसका मूल मंत्र " यं " है। व्यक्ति को यह चक्र जागृत करने के लिए हृदय पर ध्यान केंद्रित कर के इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

लाभ: अनाहत चक्र जागृत होते ही व्यक्ति को बहुत सारी सिद्धियाँ मिलती है। व्यक्ति को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से शक्ति प्राप्त होती है , यहाँ तक की यह चक्र जागृत हो जाये तो व्यक्ति सूक्षम रूप ले सकता है और शरीर त्यागने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। आनद प्राप्त होता है। श्रद्धा प्रेम जागृत होता है।  वायु तत्त्व से सम्बंधित सिद्धियाँ प्राप्त होती है। योग शक्ति प्राप्त होती है।

5. विशुद्ध चक्र

कण्ठ स्थित चन्द्र वर्ण का षोडसाक्षर अः, अं, औ, ओ, ऐ, ए, ऊ, उ, लृ, ऋ, ई, इ, आ, अ वर्णों से युक्त षोडसदल कमल की पंखुड़ियों वाला यह चक्र विशुद्ध-चक्र है, यहाँ के अभीष्ट देवता शंकर जी हैं। कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यहाँ सोलह कलाएँ, सोलह विभूतियाँ विद्यमान है। 

जब कुण्डलिनी-शक्ति विशुद्ध-चक्र में प्रवेश कर विश्राम करने लगती है, तब उस सिद्ध-साधक के अन्दर संसार त्याग का भाव प्रबल होने लगता है और उसके स्थान पर सन्यास भाव अच्छा लगने लगता है। संसार मिथ्या, भ्रम-जाल, स्वप्नवत् आदि के रूप में लगने लगता है। उस सिद्ध व्यक्ति में शंकर जी की शक्ति आ जाती है।

मंत्र: व्यक्ति को कंठ पर अपना ध्यान एकत्रित कर " हं " मूल मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

लाभ: विशुद्ध चक्र बहुत ही महत्वपूर्ण चक्र होता है। यह जागृत होते ही व्यक्ति को वाणी की सिद्धि प्राप्त होता है। इस चक्र के जागृत होने से आयु वृद्धि होती है , संगीत विद्या की सिद्धि प्राप्त होती है , शब्द का ज्ञान होता है। व्यक्ति विद्वान होता है।  

6. आज्ञा चक्र

भू-मध्य स्थित लाल वर्ण दो अक्षरों हं, सः से युक्त दो पंखुड़ियों वाला यह चक्र ही आज्ञा-चक्र है। इसका अभीष्ट प्रधान आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति अथवा ईश्वर या नूरे-इलाही या चाँदना अथवा दिव्य-ज्योति अथवा डिवाइन लाइट अथवा भर्गो-ज्योति अथवा सहज-प्रकाश अथवा परमप्रकाश अथवा आत्म ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि अनेक नामों वाला परन्तु एक ही रूप वाला ही नियत है। यह वह चक्र है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति अथवा शब्द-शक्ति से और अप्रत्यक्ष रूप अर्थात् शब्द-शक्ति के माध्यम से शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर से भी होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा का उत्पत्ति स्रोत तो परमेश्वर होता है और गन्तव्य-स्थल आज्ञा-चक्र होता है।......हरि ॐ

शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता है । वे धाराएँ मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं । इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं । उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हैं हजारों । इसलिए हजार या हजारों का उद्बोधक 'सहस्रार' शब्द प्रयोग में लाया जाता है । सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना का यही आधार है।...... हरि ॐ

लाभ: यह चक्र जागृत होते ही अनंत सिद्धियाँ मिलती है , व्यक्ति इतना सक्षम हो जाता है कि वह अपने आप को एक स्थान से दूसरे स्थान पर सूक्षम रूप से ले जा सकता है। वह अपनी इच्छा से मोक्ष प्राप्त कर सकता यही , उसको अनंत लोक का ज्ञान होता है , वह पूर्ण होता है। वह देव तुल्य होता है।.......हरि ॐ

कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत करने के लाभ : 

कुण्डलिनी  शक्ति जागरण विधा अन्धकार को दूर करने का सशक्त माध्यम है। स्वयं  को समझने व् दूसरे को पहचानने व् घर परिवार समाज और ब्रहमांड को समझने का मार्ग है । कुण्डलिनी शक्ति जागरण चारों ओर परम शांति प्रेम और आनंद स्थापना का सच्चा मार्ग है । परमानन्द प्राप्ति के बाद क्या करना चाहिए यही बताने का ज्ञान है ।

 कुण्डलिनी शक्ति जैसे जैसे आगे बढती है व् अनेक रंग इन्द्रधनुष की तरह से देखने को मिलते हैं। कभी हम बहुत शांत होते हैं कभी संतुष्ट दिखाई देते हैं । कभी हम दूसरों पर, कभी खुद पर  हंस रहे होते हैं । कुण्डलिनी जागरण की यात्रा तरह तरह के रंगों से भरी हुई है । इस जीवन में कुछ भी एक सा तो रहता नहीं लेकिन कुण्डलिनी जागरण यात्रा को एकरस कहा गया है । इस दुनियां में जब हम कुण्डलिनी जागरण की ओर पग बढाते हैं तो मन और माया रुपी शत्रु हमारे मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न करते हैं । इसलिए अनहोनियों से न घबड़ाकर लगन व् निष्ठा पूर्वक हमें अपने मार्ग कीओर अग्रसर रहना चाहिए ।

[विशेष द्रष्टव्य : कुण्डलिनी शक्ति साधना दो प्रकार की होती है । एक प्राणायाम और योग वाली जिसमें शक्ति चालिनी मुद्रा उड्यान  बंध तथा कुम्भक प्राणायाम और ओज का महत्व प्रतिपादित किया गया है । ऐसी साधना प्रक्रिया अविवाहित विधुर अथवा सन्यासियों के लिए महत्वपूर्ण है । यह साधना उन लोगों के लिए उपयूक्त नहीं रही जो गृहस्थाश्रम में रहकर साधना करना चाहते हैं । जिस प्रकार वीर्य को उर्ध्व गति देने के लिए जहाँ सन्यासी लोग भस्त्रिका प्राणायाम का प्रयोग करते थे वहां प्रवृत्ति मार्ग के तांत्रिक दीर्घ सम्भोग का उपयोग करने लगे । इस प्रकार कुण्डलिनी साधना का दूसरा प्रकार काम मुद्राओं वाला बन गया । सम्भोग के कारण इस साधना में पुरुष व् स्त्री दोनों का बराबर का योगदान रहा । रमण एक तकनिकी प्रक्रिया है इस कारण सम्भोग साधना तांत्रिक क्रिया कहलाई । ] 

[साभार जगद्गुरु वनांचल-धर्मपीठाधीश्वर स्वामी दीनदयालाचार्यजी महाराज/ @deendayaljemaharaj1  · Public figure