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बुधवार, 31 मई 2023

🔱🙏 त्रिभाषी : व्यावहारिक जीवन में वेदांत-1 🔱🙏 PRACTICAL VEDANTA/PART- I/स्वामी विवेकानंद (हिंदी, अंग्रेजी और बंगाली भाषा में)

व्यावहारिक जीवन में वेदान्त- 1

🔱व्यावहारिक जीवन (career या व्यवसाय में) अद्वैत दर्शन की उपयोगिता🔱

[10 नवंबर 1896 को लन्दन में दिया गया भाषण ]  

 प्रथम व्याख्यान

PRACTICAL VEDANTA

[The usefulness of Advaita philosophy 

in Practical life (in career or business.)]

PART I

(Delivered in London, 10th November 1896)

[কর্মজীবনে বেদান্ত - প্রথম প্রস্তাব)]

बहुत से लोगों ने मुझसे ' व्यावहारिक जीवन में अद्वैत-दर्शन की उपयोगिता' पर कुछ बोलने के लिए कहा है। मैं आप लोगों से पहले ही कह चुका हूँ कि सिद्धान्त बिलकुल ठीक होने पर भी उसे कार्यरूप में परिणत करना एक समस्या हो जाती है। वेदान्त के सिद्धान्तों को यदि कार्यरूप में परिणत नहीं किया जा सके तो बुद्धि-विलास के अतिरिक्त उसका और क्या मूल्य है ?  केवल यही नहीं, अपितु धार्मिक और सांसारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है उसे भी मिट जाना चाहिये ;  क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु के सम्बन्ध में उपदेश देता है- वेदान्त कहता है कि एक ही प्राण सर्वत्र विद्यमान है। वेदान्त के अनुसार धर्म के जो आदर्श हैं (त्याग और सेवा, Be and Make) उससे अपने जीवन के सभी क्षेत्रों को आच्छादित कर लेना चाहिए, इन्हें हमारे प्रत्येक विचार के भीतर प्रविष्ट होकर, हमारे समस्त कार्यों के माध्यम से अभिव्यक्त होने चाहिए।  

I have been asked to say something about the practical position of the Vedanta philosophy. As I have told you, theory is very good indeed, but how are we to carry it into practice? If it be absolutely impracticable, no theory is of any value whatever, except as intellectual gymnastics. The Vedanta, therefore, as a religion must be intensely practical. We must be able to carry it out in every part of our lives. And not only this, the fictitious differentiation between religion and the life of the world must vanish, for the Vedanta teaches onenessone life throughout. The ideal of religion according to Vedanta, must cover the whole field of life, they must enter into all our thoughts, and more and more into practice.

व्यावहारिक या 'professional' जीवन पर अद्वैत दर्शन के प्रभाव के विषय की गहराई में हमलोग धीरे -धीरे प्रविष्ट होंगे। किन्तु यह व्याख्यान भावी व्याख्यानों की उपक्रमणिका के रूप में हैं, अतः हमलोग सबसे पहले वेदान्त- सिद्धान्तों (महावाक्यों) के उद्भव और प्रचार प्रक्रिया को समझेंगे, कि ये सिद्धान्त अरण्यों और पर्वतों की गुफाओं में से निकलकर कोलाहलपूर्ण नगरों के कामकाजी जीवन में किस प्रकार कार्यान्वित हुए हैं ? इन वैदिक महावाक्यों में एक और भी विशेषता है, और वह यह कि इनमें से अधिकांश निर्जन अरण्यवास के फल स्वरूप उत्पन्न नहीं हुए। वरन, जिन व्यक्तियों को हम सब से अधिक व्यस्त (busiest ) व्यक्ति मानते हैं, वे  राजसिंहासन पर बैठनेवाले राजा लोग ही (राजा +ऋषि) इनके प्रणेता रहे हैं।

I will enter gradually on the practical side as we proceed. But this series of lectures is intended to be a basis, and so we must first apply ourselves to theories and understand how they are worked out, proceeding from forest caves to busy streets and cities; and one peculiar feature we find is that many of these thoughts have been the outcome, not of retirement into forests, but have emanated from persons whom we expect to lead the busiest lives — from ruling monarchs.

आरुणि ऋषि के पुत्र श्वेतकेतु की कथा छांदोग्य उपनिषद में है। ये ऋषि सम्भवतः वानप्रस्थी थे। श्वेतकेतु का लालन-पालन वन में ही हुआ, किन्तु वे पांचाल देश के ब्रह्मवेत्ता राजा प्रावाहण जैवलि के पास गये।  प्रावाहण जैवलि ने पूछा कि, 'क्या तुझे पिता और गुरु से शिक्षा मिली हैं।' श्वेतकेतु ने स्वीकृति में सिर हिलाया। राजा ने उनसे पूछा "मरते समय प्राणी इस लोक से किस प्रकार गमन करता है, क्या यह तुम जानते हो? - "नहीं।" "किस प्रकार यहाँ उसका पुनर्जन्म होता है, जानते हो? " - "नहीं।" 'पितृयान' और 'देवयान' के विषय में भी कुछ जानते हो?"-आदि आदि। इस प्रकार राजा ने और भी अनेक प्रश्न किये। श्वेतकेतु किसी भी प्रश्न का उत्तर न दे सके।  तब राजा ने कहा, “तुम कुछ नहीं जानते।" 

Shvetaketu was the son of Âruni, a sage, most probably a recluse. He was brought up in the forest, but he went to the city of the Panchâlas and appeared at the court of the king, Pravâhana Jaivali. The king asked him, "Do you know how beings depart hence at death?" "No, sir." "Do you know how they return hither?" "No, sir." "Do you know the way of the fathers and the way of the gods?" "No, sir." Then the king asked other questions. Shvetaketu could not answer them. So the king told him that he knew nothing. 

बालक ने लौटकर पिता से सब हाल कह सुनाया। पिता ने कहा, "मैं भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं जानता। अगर जानता तो क्या तुम्हें न सिखाता?" तब पिता-पुत्र दोनों राजा के पास गये और उनसे इस गुप्त विषय की शिक्षा देने के लिए प्रार्थना की। राजा प्रावाहण जैवलि ने कहा, "यह विद्या- यह ब्रह्मविद्या केवल क्षत्रियों और राजर्षियों तक सीमित थी,पण्डितों को इसका कभी ज्ञान न था।" जो हो इसके बारे में वे जो कुछ जानते थे, उसकी शिक्षा लोक में प्रचारार्थ हेतु इन दोनों को देने लगे।

The boy went back to his father, and the father admitted that he himself could not answer these questions. It was not that he was unwilling to answer these questions. It was not that he was unwilling to teach the boy, but he did not know these things. So he went to the king and asked to be taught these secrets. The king said that these things had been hitherto known only among kings; the priests never knew them. He, however, proceeded to teach him what he desired to know. 

इस प्रकार हम अनेक उपनिषदों में यही पाते हैं कि वेदान्तदर्शन केवल वन में ध्यान द्वारा ही नहीं जाना गया, किन्तु उसके सर्वोत्कृष्ट भिन्न भिन्न अंश सांसारिक कर्मों में विशेष व्यस्त मनीषी लोगों द्वारा ही चिन्तित तथा प्रकाशित किये गये। लाखों मनुष्यों के शासक स्वतन्त्र राजाओं की अपेक्षा अधिक कार्यव्यस्त और कौन हो सकता है? किन्तु साथ ही वे राजागण राजा होते हुए राजर्षि भी होते थे, और गम्भीर विचारशील भी होते थे। इस प्रकार अनेक दृष्टिकोणों से देखने पर यह स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि यह वेदान्त दर्शन पूर्णतः व्यावहारिक है, और इसके आलोक में - युवाओं को 'जीवन गठन' तथा 'चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी' शिक्षा दी जा सकती है। परवर्ती काल की भगवद्गीता को तो शायद आप लोगों में से बहुतों ने पढ़ा भी  होगा, यह वेदान्तदर्शन का एक सर्वोत्तम भाष्य स्वरूप है। कितने आश्चर्य की बात है कि इस उपदेश का केन्द्र है संग्राम-स्थल; जहाँ श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस दर्शन का उपदेश दिया। और गीता के प्रत्येक पृष्ठ पर जो मत उज्ज्वल रूप से प्रकाशित है, वह है तीव्र कर्मण्यता, किन्तु उसीके बीच अनन्त शान्तभाव। इसी तत्त्व को कर्मरहस्य कहा गया है और इस अवस्था को पाना ही वेदान्त का लक्ष्य है। हम साधारणतया अकर्म का अर्थ करते हैं निश्चेष्टता, पर यह हमारा आदर्श नहीं हो सकता। 

 In various Upanishads we find that this Vedanta philosophy is not the outcome of meditation in the forests only, but that the very best parts of it were thought out and expressed by brains which were busiest in the everyday affairs of life. We cannot conceive any man busier than an absolute monarch, a man who is ruling over millions of people, and yet, some of these rulers were deep thinkers. Everything goes to show that this philosophy must be very practical; and later on, when we come to the Bhagavad-Gita — most of you, perhaps, have read it, it is the best commentary we have on the Vedanta philosophy — curiously enough the scene is laid on the battlefield, where Krishna teaches this philosophy to Arjuna; and the doctrine which stands out luminously in every page of the Gita is intense activity, but in the midst of it, eternal calmness. This is the secret of work, to attain which is the goal of the Vedanta. Inactivity, as we understand it in the sense of passivity, certainly cannot be the goal. 

এইরূপে আমরা অনেক উপনিষদে এই কথা পাইতেছি যে, বেদান্ত দর্শন কেবল অরণ্যে ধ্যানলব্ধ নয়, পরন্তু ইহার সর্বোৎকৃষ্ট অংশগুলি সাংসারিক কার্যে বিশেষ ব্যস্ত ব্যক্তিদের দ্বারাই চিন্তিত ও প্রকাশিত। লক্ষ লক্ষ প্রজার শাসক সার্বভৌম রাজা অপেক্ষা অধিকতর কর্ম-ব্যস্ত মানুষ আর কল্পনা করা যায় না; কিন্তু তথাপি এই রাজারা গভীর চিন্তাশীল ছিলেন। এইরূপে নানাদিক হইতে দেখিলে ইহা স্পষ্টই অনুমিত হয় যে, এই দর্শনের আলোকে জীবনগঠন ও জীবনযাপন করা অবশ্যই সম্ভব, আর যখন আমরা পরবর্তী কালের ভগবদ‍্গীতা আলোচনা করি—আপনারা অনেকেই বোধ হয় ইহা পড়িয়াছেন, ইহা বেদান্তদর্শনের একটি সর্বোত্তম ভাষ্যস্বরূপ—তখন দেখিতে পাই, আশ্চর্যের বিষয় যুদ্ধক্ষেত্র এই উপদেশের স্থান বলিয়া নির্বাচিত হইয়াছে, সেখানেই শ্রীকৃষ্ণ অর্জুনকে এই দর্শনের উপদেশ দিতেছেন, আর গীতার প্রত্যেক পৃষ্ঠায় এই উজ্জ্বলভাবে প্রকাশিত রহিয়াছে—তীব্র কর্মশীলতা, কিন্তু তাহার মধ্যে আবার চির শান্তভাব! এই তত্ত্বকে ‘কর্মরহস্য’ বলা হইয়াছে, এই অবস্থা লাভ করাই বেদান্তের লক্ষ্য। আমরা অকর্ম বলিতে সচরাচর যাহা বুঝি অর্থাৎ নিশ্চেষ্টতা, তাহা অবশ্য আমাদের আদর্শ হইতে পারে না

यदि यही होता तो हमारे चारों ओर की दीवालें भी परमज्ञानी होतीं, वे भी तो निश्चेष्ट हैं। मिटटी के ढेले और पेड़ों के तने भी जगत् के महातपस्वी गिने जाते, क्योंकि वे भी तो निश्चेष्ट हैं। और यह भी नहीं कि किसी भी तरह कामनायुक्त होकर किये जानेवाले कार्य कर्म कहलाये जा सकते हैं। वेदान्त का आदर्श जो प्रकृत कर्म है वह अनन्त स्थिरता साथ संयुक्त है। किसी भी प्रकार की परिस्थिति में वह स्थिरता कभी नष्ट नहीं होती चित्त का वह साम्यभाव कभी भंग नहीं होता। हम लोग भी बहुत कुछ देखने-सुनने के बाद यही समझ पाये हैं कि कार्य करने के लिए इस प्रकार की मनोवृत्ति ही सब से अधिक उपयोगी होती है। 

Were it so, then the walls around us would be the most intelligent; they are inactive. Clods of earth, stumps of trees, would be the greatest sages in the world; they are inactive. Nor does inactivity become activity when it is combined with passion. Real activity, which is the goal of Vedanta, is combined with eternal calmness, the calmness which cannot be ruffled, the balance of mind which is never disturbed, whatever happens. And we all know from our experience in life that that is the best attitude for work.

তাহা যদি হইত, তবে তো আমাদের চতুষ্পার্শ্ববর্তী দেয়ালগুলিই পরমজ্ঞানী হইত, তাহারা তো নিশ্চেষ্ট। মৃত্তিকাখণ্ড, গাছের গুঁড়ি—এই গুলিই তো তাহা হইলে জগতে মহাতপস্বী বলিয়া পরিগণিত হইত, তাহারাও তো নিশ্চেষ্ট। আবার কামনাযুক্ত হইলেই যে নিশ্চেষ্টতা কর্মে পরিণত হয়, তাহাও নয়, বেদান্তের আদর্শ যে প্রকৃত কর্ম, তাহা অনন্ত স্থিরতার সহিত জড়িত—যাহাই কেন ঘটুক না, সে স্থিরতা কখন নষ্ট হইবার নয়—চিত্তের সে সমতা কখন নষ্ট হইবার নয়। আর আমরা বহুদর্শিতার দ্বারা জানিয়াছি, কার্য করিবার পক্ষে এইরূপ মনোভাবই সর্বাপেক্ষা ভাল।

लोगों ने मुझसे यह प्रश्न अनेक बार किया है कि हम कर्म करने के लिए जो एक प्रकार का आग्रह-आवेग अनुभव करते हैं, वह यदि न रहे; तो हम कार्य कैसे करेंगे? मैं भी बहुत दिन पहले यही सोचता था, किन्तु जैसे जैसे मेरी आयु बढ़ रही है, और अभिज्ञता जितनी बढ़ती जा रही है, उतना ही मैं देखता हूँ कि यह सत्य नहीं है। कार्य के भीतर आग्रह का आवेग जितना ही कम रहता है, उतना ही उसे उत्कृष्ट ढंग से पूर्ण किया जा सकता है। हम लोग जितने अधिक शान्त होते हैं उतना ही हम लोगों का आत्मकल्याण होता है और हम काम भी अधिक अच्छी तरह कर पाते हैं। जब हम लोग भावनाओं के अधीन हो जाते हैं, तब अपनी शक्ति का विशेष अपव्यय करते हैं, अपनी स्नायुसमूह को विकृत कर डालते हैं, मन को चंचल बना डालते हैं, किन्तु काम बहुत कम कर पाते हैं। हमारी जिस अंतर्निहित शक्ति को कार्यरूप में परिणत होना उचित था, वह वृथा भावुकता मात्र में रूपांतरित होकर क्षय हो जाती है।

I have been asked many times how we can work if we do not have the passion which we generally feel for work. I also thought in that way years ago, but as I am growing older, and getting more experience, I find it is not true. The less passion there is, the better we work. The calmer we are, the better for us, and the more the amount of work we can do. When we let loose our feelings, we waste so much energy, shatter our nerves, disturb our minds, and accomplish very little work. The energy which ought to have gone out as work is spent as mere feeling, which counts for nothing.

আমাকে অনেকে অনেকবার জিজ্ঞাসা করিয়াছেন, আমরা কার্যের জন্য যেমন একটা আগ্রহ বোধ করিয়া থাকি, তেমন আগ্রহ না থাকিলে কেমন করিয়া কাজ করিব? আমিও পূর্বে এইরূপ মনে করিতাম, কিন্তু যতই আমার বয়স হইতেছে, যতই আমি অভিজ্ঞতা লাভ করিতেছি, ততই দেখিতেছি, উহা সত্য নহে। কার্যের ভিতরে যত কম আগ্রহ বা কামনা থাকে, আমরা ততই সুন্দরভাবে কাজ করিতে সমর্থ হই। আমরা যতই শান্ত হই, ততই আমাদের নিজেদের মঙ্গল, ততই আমারা আরও বেশী কাজ করিতে পারি। যখন আমরা ভাববশে পরিচালিত হই, তখনই আমাদের শক্তির বিশেষ অপব্যয় হয়, আমাদের স্নায়ুমণ্ডলী বিকৃত হয়, মন চঞ্চল হইয়া উঠে, কিন্তু কার্য খুব কমই হয়, যে-শক্তি কার্যরূপে পরিণত হওয়া উচিত ছিল, তাহা শুধু হৃদয়াবেগেই পর্যবসিত হয়। 

 जब मन अत्यन्त शान्त और एकाग्र रहता है, केवल तभी हम लोगों की समस्त शक्ति सत्कार्य में व्यय होती है। यदि तुम जगत् के बड़े बड़े कार्यकुशल व्यक्तियों की जीवनी पढ़ो तो देखोगे कि वे अद्भुत शान्त प्रकृति के लोग थे। कोई भी वस्तु उनके चित्त की स्थिरता भंग नहीं कर पाती थी। इसीलिए जो व्यक्ति बहुत जल्दी क्रोध में आ जाता है, वह कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर पाता, और जो किसी प्रकार भी क्रोध नहीं करता वह सबसे अधिक काम कर सकता है।जो व्यक्ति क्रोध, घृणा आदि किसी शत्रु के वश में हो जाता है वह कभी कुछ भी व्यावहारिक नहीं कर पाता है। केवल शान्त, क्षमाशील, स्थिरचित्त व्यक्ति ही सब से अधिक काम कर पाता है।

 It is only when the mind is very calm and collected that the whole of its energy is spent in doing good work. And if you read the lives of the great workers which the world has produced, you will find that they were wonderfully calm men. Nothing, as it were, could throw them off their balance. That is why the man who becomes angry never does a great amount of work, and the man whom nothing can make angry accomplishes so much. The man who gives way to anger, or hatred, or any other passion, cannot work; he only breaks himself to pieces, and does nothing practical. It is the calm, forgiving, equable, well-balanced mind that does the greatest amount of work.

মন যখন খুব শান্ত ও স্থির থাকে, কেবল তখনই আমাদের সমুদয় শক্তিটুকু সৎকার্যে নিয়োজিত হইয়া থাকে। যদি তোমরা জগতে বড় বড় কর্মকুশল ব্যক্তির জীবনী পাঠ কর, দেখিবে তাঁহারা অদ্ভুত শান্তপ্রকৃতির লোক ছিলেন। কিছুই তাঁহাদের চিত্তের সমতা নষ্ট করিতে পারিত না। এই জন্য যে-ব্যক্তি সহজেই রাগিয়া যায়, সে বড় একটা কাজ করতে পারে না। আর যে কিছুতেই রাগে না, সে সর্বাপেক্ষা বেশী কাজ করিতে পারে। যে-ব্যক্তি ক্রোধ ঘৃণা বা কোন রিপুর বশীভূত হইয়া পড়ে, সে এ-জগতে বড় একটা কিছু করিতে পারে না, সে নিজেকে যেন খণ্ড খণ্ড করিয়া ফেলে, সে বড় একটা কাজের লোক হয় না। কেবল শান্ত ক্ষমাশীল স্থিরচিত্ত ব্যক্তিই সর্বাপেক্ষা বেশী কাজ করিয়া থাকেন।

वेदान्त (चार महावाक्य- या 'Be and Make') हमें आदर्श का उपदेश देता है, और हम यह भी जानते हैं कि आदर्श वास्तविक की अपेक्षा कहीं अधिक उच्चतर  होता है। हम लोगों के जीवन में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं। एक है आदर्श का सामंजस्य अपने वर्तमान जीवन से करना; और उसे जीवनोपयोगी बनाने के लिए आदर्श को ही अपने वर्तमान जीवन के स्तर पर खींच लाना। और दूसरी है जीवन को आदर्श के अनुरूप उच्च बनाने के लिए अपने जीवन का गठन करना। इन दोनों का भेद भलीभाँति समझ लेना चाहिए -क्योंकि , पहली प्रवृत्ति - अर्थात आदर्श को ही अपने वर्तमान जीवनस्तर पर खींच लाने की प्रवृत्ति हमारे जीवन का एक प्रमुख प्रलोभन है। मैं सोचता हूँ कि मैं कोई विशेष प्रकार का कार्य कर सकता हूँ (जल्दी से जल्दी दौलतवान बन सकता हूँ।) लेकिन शायद उसका अधिकांश ही बुरा है, और उसके पीछे वासना, क्रोध, घृणा अथवा लालच या स्वार्थपरता का आवेग ही विद्यमान है। अब मान लो किसी व्यक्ति ने (C-IN-C नवनीदा जैसे किसी जीवनमुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता ने) मुझे किसी विशेष आदर्श (स्वामी विवेकानन्द)  के अनुरूप अपना जीवन गठन करने का उपदेश दिया,सद चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का सम्बन्ध में उपदेश - 'Be and Make'  दिया । तो निश्चय ही उनका पहला उपदेश यही होगा कि 'स्वार्थपरता' तथा 'आत्मसुख' का त्याग करो। में सोचता हूँ कि यह करना तो असम्भव है। किन्तु यदि किसी ने एक ऐसे आदर्श के सम्बन्ध में उपदेश दिया जो कि मेरी स्वार्थपरता और निम्न भावों का समर्थन करे तो मैं उसी समय कह उठता हूँ, 'यह है मेरा आदर्श' और मैं उसी आदर्श का अनुसरण करने के लिए तत्पर हो जाता हूँ। इसी प्रकार 'शास्त्रीय' बात को लेकर ['Be and Make' या मनुष्य बनो और बनाओ के अर्थ को लेकर] लोग आपस में झगड़ते रहते हैं और कहते हैं कि जो मैं समझता हूँ वही शास्त्रीय है; तथा जो तुम समझते हो वह अशास्त्रीय है। 

The Vedanta preaches the ideal; and the ideal, as we know, is always far ahead of the real, of the practical, as we may call it. There are two tendencies in human nature: one to harmonize the ideal with the life, and the other to elevate the life to the ideal. It is a great thing to understand this, for the former tendency is the temptation of our lives. I think that I can only do a certain class of work. Most of it, perhaps, is bad; most of it, perhaps, has a motive power of passion behind it, anger, or greed, or selfishness. Now if any man comes to preach to me a certain ideal, the first step towards which is to give up selfishness, to give up self-enjoyment, I think that is impractical. But when a man brings an ideal which can be reconciled with my selfishness, I am glad at once and jump at it. That is the ideal for me. As the word "orthodox" has been manipulated into various forms, so has been the word "practical". "My doxy is orthodoxy; your doxy is heterodoxy."

বেদান্ত আমাদিগকে আদর্শ সম্বন্ধেই উপদেশ দিয়া থাকেন, আর আদর্শ অবশ্য বাস্তব হইতে অর্থাৎ যাহাকে আমরা কার্যকর বলিতে পারি, তাহা হইতে অনেক উচ্চে। আমাদের জীবনে দুইটি প্রবণতা দেখিতে পাওয়া যায়—একটি আমাদের আদর্শকে জীবনের উপযোগী করা, আর অপরটি এই জীবনকে আদর্শের উপযোগী করা। এই দুইটির পার্থক্য বিশেষভাবে হূদয়ঙ্গম করা উচিত, কারণ আমাদের আদর্শকে জীবনের উপযোগী করিয়া লইতে—নিজেদের মতো করিয়া লইতে—আমরা অনেক সময় প্রলুব্ধ হই। আমার ধারণা, আমি কোন এক বিশেষ ধরনের কাজ করিতে পারি; হয়তো তাহার অধিকাংশই মন্দ। অধিকাংশের পশ্চাতেই হয়তো ক্রোধ, ঘৃণা অথবা স্বার্থপরতারূপ অভিসন্ধি আছে। এখন কোন ব্যক্তি আমাকে কোন বিশেষ আদর্শ সম্বন্ধে উপদেশ দিলেন—অবশ্য তাঁহার প্রথম উপদেশ এই হইবে যে, স্বার্থপরতা—আত্মসুখ ত্যাগ কর। আমি ভাবিলাম, ইহা কার্যে পরিণত করা অসম্ভব। কিন্তু যদি কেহ এমন এক আদর্শ বিষয়ে উপদেশ দেন, যাহা আমার সমুদয় স্বার্থপরতার—সমুদয় অসাধু ভাবের সমর্থন করে, আমি অমনি বলিয়া উঠি, ইহাই আমার আদর্শ। আমি সেই আদর্শ অনুসরণ করিতে ব্যস্ত হইয়া পড়ি। যেমন ‘শাস্ত্রীয়’ ‘অশাস্ত্রীয়’ কথা লইয়া লোকে গোলযোগ করিয়া থাকে; আমি যাহা বুঝি তাহাই শাস্ত্রীয়, আর তোমার মত অশাস্ত্রীয়

'व्यवहार्य' (practical) शब्द को लेकर भी ऐसा ही अनर्थ होता रहता है। जिस बात को मैं कार्यरूप में परिणत करने योग्य समझता हूँ, जगत् में एकमात्र वही व्यवहार्य है, ऐसी मेरी धारणा होती है। उदाहरणार्थ, यदि मैं एक दूकानदार हूँ तो सोचता हूँ कि संसार में दूकानदारी ही एकमात्र व्यावहारिक कर्म है। यदि मैं चोर (भ्रष्टाचारी) हूँ तो चोरी (भ्रष्टाचार) के बारे में भी यही सोचता हूँ। आप लोग जानते ही हैं कि हम सब इस 'व्यवहार्य' शब्द का प्रयोग केवल उन्हीं कर्मों के लिए करते हैं जिनकी ओर हमारी प्रवृत्ति है, और जो हमसे किये जा सकते हैं। इसी कारण मैं तुम लोगों को यह स्पष्ट कर देनाचाहता हूँ कि यद्यपि वेदान्त पूर्ण रूप से व्यवहार्य (practical) है, तथापि साधारण अर्थ में नहीं, बल्कि आदर्श के दृष्टिकोण से।

 So with practicality. What I think is practical, is to me the only practicality in the world. If I am a shopkeeper, I think shopkeeping is the only practical pursuit in the world. If I am a thief, I think stealing is the best means of being practical; others are not practical. You see how we all use the word practical for things we like and can do. Therefore I will ask you to understand that Vedanta, though it is intensely practical, is always so in the sense of the ideal. 

কার্যকর (practical)কথাটি লইয়াও এইরূপ গোলযোগ হইয়াছে। আমি যাহাকে কাজে লাগাইবার মতো বলিয়া বোধ করি, জগতে তাহাই একমাত্র কার্যকর। যদি আমি দোকানদার হই, আমি মনে করি, দোকানদারিই একমাত্র কার্যকর ধর্ম। আমি যদি চোর হই, আমি মনে করি, চুরি করিবার উত্তম কৌশলই সর্বোত্তম কার্যকর ধর্ম। তোমরা দেখিতেছ, আমরা কেমন এই ‘কার্যকর’ শব্দটি—কেবল আমরাই বর্তমান অবস্থায় যাহা করিতে পারি, সেই বিষয়েই প্রয়োগ করিয়া থাকি। এই হেতু আমি তোমাদিগকে বুঝিতে বলি যে, যদিও বেদান্ত চূড়ান্তভাবে কার্যকর বটে, কিন্তু সাধারণ অর্থে নহে; উহা আদর্শ-হিসাবে কার্যকর।

वेदान्त का आदर्श कितना ही उच्च क्यों न हो, वह किसी असम्भव आदर्श को हमारे सामने नहीं रखता और वास्तव में यही आदर्श ठीक ठीक आदर्श है। एक शब्द में वेदान्त का उपदेश है "तत्त्वमसि' तुम्हीं वह ब्रह्म हो' और इसके समुदय उपदेश की अन्तिम परिणति यही है। अनेक प्रकार के बौद्धिक वाद-विवाद और विस्तार के पश्चात् तुम्हें इसमें यही सिद्धान्त मिलेगा कि -'मानवात्मा शुद्धस्वभाव और सर्वज्ञ है।' आत्मा के सम्बन्ध में जन्म अथवा मृत्यु की बात करना भी कोरी विडम्बना मात्र है। आत्मा का न कभी जन्म होता है न मृत्यु; मैं मरूँगा अथवा मरने में डर लगता है, यह सब केवल कुसंस्कार मात्र है। और मैं यह कर सकता हूँ, यह नहीं कर सकता, ये सब भी कुसंस्कार हैं। मैं सब कुछ कर सकता हूँ । वेदान्त सब से पहले मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास करने के लिए कहता है। 

 It does not preach an impossible ideal, however high it be, and it is high enough for an ideal. In one word, this ideal is that you are divine, "Thou art That". This is the essence of Vedanta; after all its ramifications and intellectual gymnastics, you know the human soul to be pure and omniscient, you see that such superstitions as birth and death would be entire nonsense when spoken of in connection with the soul. The soul was never born and will never die, and all these ideas that we are going to die and are afraid to die are mere superstitions. And all such ideas as that we can do this or cannot do that are superstitions. We can do everything. The Vedanta teaches men to have faith in themselves first.

ইহার আদর্শ যতই উচ্চ হউক না কেন, ইহা কোন অসম্ভব আদর্শ আমাদের আমাদের সম্মুখে স্থাপন করে না, অথচ এই আদর্শই ‘আদর্শ’ নামের উপযুক্ত। এক কথায় ইহার উপদেশ ‘তত্ত্বমসি’—’তুমিই সেই ব্রহ্ম’—ইহাই সমুদয় উপদেশের শেষ পরিণতি। নানাবিধ তর্ক বিচারের পর এই সিদ্ধান্ত পাওয়া যায় যে, মানবাত্মা শুদ্ধস্বভাব ও সর্বজ্ঞ। আত্মার সম্বন্ধে জন্ম বা মৃত্যুর কথা বলা বাতুলতা মাত্র। আত্মা কখন জন্মান নাই, কখন মরিবেন না; আর আমি মরিব বা মরিতে ভীত—এ-সব কুসংস্কার মাত্র। আমি ইহা করিতে পারি বা পারি না—ইহাও কুসংস্কার। আমি সব করিতে পারি। বেদান্ত মানুষকে প্রথমে নিজের উপর বিশ্বাস স্থাপন করিতে বলেন।

जिस प्रकार संसार का कोई कोई धर्म कहता है कि जो व्यक्ति अपने से बाहर सगुण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है, उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। अपनी आत्मा की महिमा में विश्वास न करने को ही वेदान्त में नास्तिकता कहते हैं। बहुत से लोगों के लिए यह एक भीषण विचार है, इसमें कोई सन्देह नहीं; और हममें अधिकांश व्यक्ति यही सोचते हैं कि, वेदान्त के महावाक्यों को प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता; किन्तु वेदान्त दृढ़ रूप से कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति इस सत्य को जीवन में प्रत्यक्ष कर सकता है। इसकी उपलब्धि में स्त्री -पुरुष का भेद नहीं है, बालक- बालिका का भेद नहीं है, जाति या धर्म का भेद नहीं है- और मानवमात्र ही इस सत्य की उपलब्धि कर सकते हैं।- कुछ भी इसका प्रतिबन्धक नहीं हो सकता, कारण, वेदान्त दिखा देता है कि वह सत्य पहले से ही अनुभूत है और पहले से विद्यमान भी है।

Certain religions of the world say that a man who does not believe in a Personal God outside of himself is an atheist, so Vedanta says, a man who does not believe in himself is an atheist. Not believing in the glory of our own soul is what Vedanta calls atheism. To many this is, no doubt, a terrible idea; and most of us think that this ideal can never be reached, but the Vedanta insists that it can be realized by everyone. There is neither man nor woman or child, nor difference of race or sex, nor anything that stands as a bar to the realization of the ideal, because Vedanta shows that it is realized already, it is already there.

যেমন জগতের কোন কোন ধর্ম বলে—যে-ব্যক্তি নিজ হইতে পৃথক সগুণ ঈশ্বরের অস্তিত্ব স্বীকার করে না, সে নাস্তিক; সেইরূপ বেদান্ত বলেন—যে-ব্যক্তি নিজেকে বিশ্বাস করে না, সে নাস্তিক। আত্মার মহিমায় বিশ্বাস স্থাপন না করাকেই বেদান্ত নাস্তিকতা বলে। অনেকের পক্ষে এই ধারণা বড় ভয়ানক, তাহাতে কোন সন্দেহ নাই; আর আমরা অনেকেই মনে করি, আমরা কখনই এই আদর্শে পৌঁছিতে পারিব না, কিন্তু বেদান্ত দৃঢ়ভাবে বলেন যে প্রত্যেকেই এই সত্য জীবনে প্রত্যক্ষ করিতে পারেন। এ বিষয়ে স্ত্রী-পুরুষের ভেদ নাই, বালক-বলিকার ভেদ নাই, জাতিভেদ নাই—অবালবৃদ্ধবনিতা জাতিধর্মনির্বিশেষে এই সত্য উপলব্ধি করিতে পারে—কোন কিছুই ইহাকে বাধা দিতে পারে না; কারণ বেদান্ত দেখাইয়া দেন, উহা পূর্ব হইতেই অনুভূত হইয়াছে—পূর্ব হইতেই রহিয়াছে।

हम सबों में ब्रह्माण्ड की समूची शक्ति पहले से ही अन्तर्निहित है। हम लोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकर 'अन्धकार' 'अन्धकार' कहकर चीत्कार करते हैं। हाथ हटाने पर ही तुम देखोगे कि वहाँ प्रकाश पहले से ही वर्तमान था। वर्तमान भी है।' अन्धकार कभी था ही नहीं, अपवित्रता कभी थी ही नहीं, हम लोग मूर्ख होने के कारण ही चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं। 

All the powers in the universe are already ours. It is we who have put our hands before our eyes and cry that it is dark. Know that there is no darkness around us. Take the hands away and there is the light which was from the beginning. Darkness never existed, and weakness never existed. We who are fools cry that we are weak; we who are fools cry that we are impure. 

ব্রহ্মাণ্ডের সমুদয় শক্তি পূর্ব হইতেই আমাদের রহিয়াছে। আমরা নিজেরাই নিজেদের চোখে হাত দিয়া ‘অন্ধকার, অন্ধকার বলিয়া চীৎকার করিতেছি। হাত সরাইয়া লও, দেখিবে সেখানে প্রথম হইতেই আলোক ছিল। অন্ধকার কখনই ছিল না, দুর্বলতা কখনই ছিল না, আমরা নির্বোধ বলিয়াই চীৎকার করি—’আমরা দুর্বল’; আমরা নির্বোধ বলিয়াই চীৎকার করি—’আমরা অপবিত্র’।

इस प्रकार वेदान्त, केवल यही नहीं कहता कि 'आदर्श को कार्यान्वित किया जा सकता है' बल्कि यह भी कहता है कि वह आदर्श तो हम लोगों को पहले से ही प्राप्त है !  और जिसे हम अब आदर्श कहते हैं वही हमारी प्रकृत सत्ता है- वही हम लोगों का स्वरूप है। और जो कुछ (दुर्बलता, अपवित्रता आदि) हम देखते हैं वह सम्पूर्ण मिथ्या है। जब तक तुम कहते हो, 'मैं एक क्षुद्र मर्त्य जीव हूँ ' तब तब तुम झूठ बोलते हो ; और यही बोल-बोल कर तुम मानो सम्मोहन विद्या (hypnotism) के जोर से अपने को अधम, दुर्बल, अभागा बना डालते हो।

Thus Vedanta not only insists that the ideal is practical, but that it has been so all the time; and this Ideal, this Reality, is our own nature. Everything else that you see is false, untrue. As soon as you say, "I am a little mortal being," you are saying something which is not true, you are giving the lie to yourselves, you are hypnotizing yourselves into something vile and weak and wretched.

এইরূপে বেদান্ত শুধু যে বলেন—আদর্শকে কার্যে পরিণত করিতে পারা যায়, তাহা নহে, উপরন্তু বলেন— উহা পূর্ব হইতেই আমাদের উপলব্ধ; আর যাহাকে আমরা এখন আদর্শ বলিতেছি, তাহাই বাস্তব সত্তা—তাহাই আমাদের স্বরূপ। আর যাহা কিছু দেখিতেছি, সবই মিথ্যা। যখনই তুমি বলো, ‘আমি মর্ত্য ক্ষুদ্র জীবমাত্র’, তখনই তুমি মিথ্যা বলিতেছ; তুমি যেন যাদুবলে নিজেকে অসৎ, দুর্বল দুর্ভাগা করিয়া ফেলিতেছ।

वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता, वेदान्त भ्रम या सम्मोहन-(hypnotism) स्वीकार करता है। और वेदान्त कहता है कि सब से बड़ा भ्रम है- अपने को दुर्बल, पापी, हतभाग्य कहना– यह कहना कि मुझमें कुछ भी शक्ति नहीं है, मैं यह नहीं कर सकता आदि आदि। कारण, जब तुम इस प्रकार सोचने लगते हो, तभी तुम मानो बन्धन-शृंखला में एक कड़ी और जोड़ देते हो, अपनी आत्मा पर सम्मोहन की एक पर्त और जमा देते हो। (अर्थात अपनी आत्मा को पहले से और भी अधिक मायाजाल में फँसा लेते हो।) 

The Vedanta recognizes no sin, it only recognizes error (hypnotism). And the greatest error, says the Vedanta, is to say that you are weak, that you are a sinner, a miserable creature, and that you have no power and you cannot do this and that. Every time you think in that way, you, as it were, rivet one more link in the chain that binds you down, you add one more layer of hypnotism onto your own soul. 

বেদান্ত পাপ স্বীকার করেন না, ভ্রম স্বীকার করেন। আর বেদান্ত বলেন, সর্বাপেক্ষা বিষম ভ্রম এই : নিজেকে দুর্বল, পাপী ও হতভাগ্য জীব বলা; এরূপ বলা যে, আমার কোন শক্তি নাই, আমি ইহা করিতে পারি না, আমি উহা করিতে পারি না। কারণ যখনই তুমি ঐরূপ চিন্তা কর, তখনই তুমি যেন বন্ধন-শৃঙ্খলকে আরও দৃঢ় করিতেছ, তোমার আত্মাকে পূর্ব হইতে অধিক মায়ার আবরনে আবৃত করিতেছ।

अतएव, जो कोई अपने को दुर्बल समझता है, वह भ्रान्त है; जो अपने को अपवित्र मानता है वह भ्रान्त है; वह जगत् में एक असत् चिन्तनधारा प्रवाहित करता हैं। हमें सदा यह याद रखना चाहिए कि, " वेदान्त में हमारे इस वर्तमान सम्मोहित जीवन (hypnotized life) का, हमारे द्वारा स्वीकृत मिथ्या जीवन का, जिसमें आदर्श के साथ समझौता करने वाली वृत्ति हो, का कभी अनुमोदन नहीं किया गया है। बल्कि, उसका तो परित्याग करने के लिए कहा गया है और ऐसा होने पर ही उसके पीछे जो सत्य-जीवन, शाश्वत-जीवन (true life, eternal life) सदा वर्तमान है, वह प्रकाशित होगा, व्यक्त होगा । यह नहीं कि जो मनुष्य पहले अपेक्षाकृत कम पवित्र था वह उससे भी अधिक पवित्र हो गया, किन्तु वास्तव में वह पहले से ही पूर्ण शुद्ध है उसका वही पूर्ण शुद्ध स्वभाव धीरे धीरे प्रकाशित होता है। आवरण हटता जाता है और आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता प्रकाशित होने लगती है। यह अनन्त पवित्रता, मुक्त स्वभाव, प्रेम और ऐश्वर्य, हम लोगों में पहले से ही विद्यमान है। 

Therefore, whosoever thinks he is weak is wrong, whosoever thinks he is impure is wrong, and is throwing a bad thought into the world. We must always bear in mind that in the Vedanta there is no attempt at reconciling the present life — the hypnotized life, this false life which we have assumed — with the ideal; but this false life must go, and the real-life which is always existing must manifest itself, must shine out. No man becomes purer and purer, it is a matter of greater manifestation. The veil drops away, and the native purity of the soul begins to manifest itself. Everything is ours already — infinite purity, freedom, love, and power.

অতএব যে-কেহ নিজেকে দুর্বল বলিয়া চিন্তা করে, সে ভ্রান্ত; যে কেহ নিজেকে অপবিত্র বলিয়া মনে করে,সে ভ্রান্ত ; সে জগতে একটি অসৎ চিন্তার স্রোত বিস্তার করে। আমাদের সর্বদা মনে রাখিতে হইবে : বেদান্তে আমাদের এই বর্তমান জীবনকে—এই মায়াময় মিথ্যা জীবনকে আদর্শের সহিত মিলাইবার কোন চেষ্টা নাই। কিন্তু বেদান্ত বলেন, এই মিথ্যা জীবনকে পরিত্যাগ করিতে হইবে, তাহা হইলেই ইহার অন্তরালে যে সত্যজীবন সদা বর্তমান, তাহা প্রকাশিত হইবে। মানুষ পূর্বে কিছুটা পবিত্র ছিল, আরও পবিত্র হইল—এমন নহে। কিন্তু বাস্তবিক সে পূর্ব হইতেই শুদ্ধ—তাহার সেই শুদ্ধস্বভাব একটু একটু করিয়া প্রকাশ পাইতেছে মাত্র। আবরণ চলিয়া যায় এবং আত্মার স্বাভাবিক পবিত্রতা প্রকাশিত হইতে আরম্ভ করে। এই অনন্ত পবিত্রতা, মুক্তস্বভাব, প্রেম ও ঐশ্বর্য পূর্ব হইতেই আমাদের মধ্যে বিদ্যমান।

वेदान्ती यह भी कहते हैं कि ऐसा नहीं कि यह केवल बन अथवा पहाड़ी गुफाओं में ही उपलब्ध हो सकता है, वरन् हम यह देख ही चुके हैं कि पहले जिन लोगों ने इस सत्यसमूह (महावाक्यों) का आविष्कार किया था, वे बन अथवा पहाड़ी गुफाओं में नहीं रहते थे, साथ ही वे सामान्य मनुष्य भी नहीं थे; वरन् वे लोग राजर्षि थे। अर्थात ऐसे व्यक्ति थे जो विशेष रूप से कर्मठ जीवन बिताते थे, जिन्हें सैन्य परिचालन करना पड़ता था, जिन्हें सिंहासन पर बैठकर प्रजा वर्ग का हानि लाभ देखना होता था। इसके अतिरिक्त उस समय के राजागण ही सर्वेसर्वा सर्वेसर्वा होते थे- आजकल जैसे कठपुतली नहीं। फिर भी वे लोग इन सब तत्त्वों का चिन्तन करने तथा उसको जीवन में परिणत करने और मानवजाति को शिक्षा देने का समय निकाल लेते थे। अतएव, उनकी अपेक्षा हम लोगों को इन सब तत्त्वों का अनुभव होना तो और भी सहज है, क्योंकि हमारा जीवन उन लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक कर्महीन है। हम अपेक्षाकृत सारे समय खाली ही रहते हैं, हमारे पास करने को बहुत कम रहता है , उन राजाओं की अपेक्षा हमें कम व्यस्त (busy) रहना पड़ता है; अतः हमारे लिए उस सत्य का साक्षात्कार न  कर सकना बड़ी लज्जाजनक बात है।

The Vedanta also says that not only can this be realized in the depths of forests or caves, but by men in all possible conditions of life. We have seen that the people who discovered these truths were neither living in caves nor forests, nor following the ordinary vocations of life, but men who, we have every reason to believe, led the busiest of lives, men who had to command armies, to sit on thrones, and look to the welfare of millions — and all these, in the days of absolute monarchy, and not as in these days when a king is to a great extent a mere figurehead. Yet they could find time to think out all these thoughts, to realize them, and to teach them to humanity. How much more then should it be practical for us whose lives, compared with theirs, are lives of leisure? That we cannot realize them is a shame to us, seeing that we are comparatively free all the time, having very little to do. 

বেদান্ত আরও বলেন ইহা যে শুধু বনে অথবা পর্বতগুহায় উপলব্ধি করা যাইতে পারে, তাহা নয়। আমরা পূর্বেই দেখিয়াছি, প্রথমে যাঁহারা এই-সকল সত্য আবিষ্কার করিয়াছিলেন তাঁহারা বনে অথবা পর্বতগুহায় বাস করিতেন না, অথবা তাঁহারা সাধারণ মানুষও ছিলেন না, কিন্তু—আমাদের বিশ্বাস করিবার যথেষ্ট কারণ আছে—তাঁহারা অত্যন্ত কর্মময় জীবন যাপন করিতেন। তাঁহাদিগকে সৈন্যপরিচালনা করিতে হইত, সিংহাসনে বসিয়া প্রজাবর্গের মঙ্গলামঙ্গল দেখিতে হইত। তখনকার কালে রাজারাই সর্বময় কর্তা ছিলেন, এখনকার মতো সাক্ষিগোপাল ছিলেন না; তথাপি তাঁহারা এই-সকল তত্ত্ব চিন্তা এবং সেগুলি জীবনে পরিণত করিবার এবং মানবজাতিকে শিক্ষা দিবার সময় পাইতেন। অতএব তাঁহাদের অপেক্ষা আমাদের ঐ-সকল তত্ত্ব অনুভব করা তো অনেক সহজ, কারণ তাঁহাদের সঙ্গে তুলনায় আমাদের জীবনে অনেক অবসর, সুতরাং আমাদের যখন কাজ এত কম, আমরা যখন তাঁহাদের অপেক্ষা অনেকটা স্বাধীন, তখন আমরা যে ঐ-সকল সত্য অনুভব করিতে পারি না, ইহা আমাদের পক্ষে অত্যন্ত লজ্জার বিষয়

 पुरातन सर्वेसर्वा सम्राटों के कर्मव्यस्तता (busyness) की तुलना में, हमारी कर्मव्यस्तता तो कुछ भी नहीं है। कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अवस्थित विराट  सेना के परिचालक अर्जुन की जितनी कर्मव्यस्तता रही होगी, उसकी तुलना हमारी कर्मव्यस्तता बिल्कुल नगण्य है।  तब भी इस युद्ध कोलाहल के बीच में भी, वे उच्चतम दर्शन को सुनने और उसे कार्यान्वित करने को समय पा सके- इसीलिए हमारे इस अपेक्षाकृत स्वाधीन आराममय जीवन में (comparatively free and comfortable life में ) हमें उतना अवश्य कर सकना चाहिए।

My requirements are nothing compared with those of an ancient absolute monarch. My wants are nothing compared with the demands of Arjuna on the battlefield of Kurukshetra, commanding a huge army; and yet he could find time in the midst of the din and turmoil of battle to talk the highest philosophy and to carry it into his life also. Surely we ought to be able to do as much in this life of ours — comparatively free, easy, and comfortable. 

পূর্বকালীন সর্বময় সম্রাটগণের প্রয়োজনের সহিত তুলনায় আমাদের অভাব তো কিছুই নয়। কুরুক্ষেত্রের যুদ্ধক্ষেত্রে অবস্থিত অগণিত অক্ষৌহিণী-পরিচালক অর্জুনের তুলনায় আমার প্রয়োজন কিছুই নয়, তথাপি এই যুদ্ধকোলাহলের মধ্যে তিনি উচ্চতম দর্শনের কথা শুনিবার এবং উহা কার্যে পরিণত করিবার সময় পাইলেন; সুতরাং আমাদের এই অপেক্ষাকৃত স্বচ্ছন্দ ও আরামের জীবনে ইহা পারা উচিত

हम लोग यदि विवेक-पूर्ण ढंग से समय बितायें तो हम देखेंगे कि हम जितना सोचते और समझते हैं, उससे हम लोगों में से अनेक के पास अधिक समय है। हम लोगों को जितना अवकाश है, उसमें यदि हम सचमुच चाहें तो एक नहीं पचास आदर्शों का अनुसरण कर सकते हैं, किन्तु आदर्श को हमें कभी नीचा नहीं करना चाहिए। हमारे जीवन में सब से बड़ी विपत्ति की आशंका ऐसे व्यक्तियों से है, जो मुफ्त की सलाह देने में लगे रहते हैं। वे हमारे व्यर्थ के अभावों और वासनाओं को पूरा करने के लिए अनेक प्रकार के वृथा कारण दिखाते हैं। और हम लोग भी यही सोचते हैं कि हम लोगों का इससे बड़ा और कोई आदर्श नहीं हो सकता , किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है। वेदान्त इस प्रकार की शिक्षा कभी नहीं देता। हमें अपने प्रत्यक्ष जीवन को आदर्श के साथ यथासम्भव समन्वित करना पड़ेगा, और क्रमशः अपने वर्तमान जीवन को अनन्त जीवन के साथ एकरूप करना होगा।

Most of us here have more time than we think we have if we really want to use it for good. With the amount of freedom, we have we can attain two hundred ideals in this life if we will, but we must not degrade the ideal to the actual. One of the most insinuating things comes to us in the shape of persons who apologize for our mistakes and teach us how to make special excuses for all our foolish wants and foolish desires, and we think that their ideal is the only ideal we need have. But it is not so. The Vedanta teaches no such thing. The actual should be reconciled to the ideal, the present life should be made to coincide with life eternal.

আমরা যদি বাস্তবিক সদ্ভাবে সময় কাটাইতে ইচ্ছা করি, তাহা হইলে দেখিব, আমরা যতটা ভাবি তাহা অপেক্ষা আমাদের অনেকেরই যথেষ্ট সময় আছে। আমাদের যতটা অবকাশ আছে, তাহাতে যদি আমরা বাস্তবিক ইচ্ছা করি, তবে একটা আদর্শ কেন, পঞ্চাশটি আদর্শ অনুসরণ করিতে পারি, কিন্তু আদর্শকে কখনই নীচু করা উচিত নয়। এ আমাদের জীবনের একটি প্রলোভন। অনেকে আছে—তাহারা আমাদের মিথ্যা অভাব ও বাসনাগুলির জন্য নানাপ্রকার আপত্তি দেখায় আর আমরা মনে করি, উহা হইতে উচ্চতর আদর্শ বুঝি আর নাই, কিন্তু বাস্তবিক তাহা নয়। বেদান্ত এরূপ শিক্ষা কখনই দেন না। প্রত্যক্ষ জীবনকে আদর্শের সহিত একীভূত করিতে হইবে, বর্তমান জীবনকে অনন্ত জীবনের সহিত মিলাইয়া দিতে হইবে

 कारण, तुम्हें सदा स्मरण रखना होगा कि वेदान्त का मूल सिद्धान्त यह एकत्व अथवा अखण्ड भाव है। द्वित्व कहीं नहीं है दो प्रकार का जीवन अथवा जगत् भी नहीं है। तुम लोग देखोगे कि वेद पहले स्वर्गादि के विषय में कहते हैं, किन्तु अन्त में जब वे अपने दर्शन के उच्चतम आदर्श के विषय में कहना आरम्भ करते हैं तो वे उन सब बातों को बिलकुल त्याग देते हैं।  एक मात्र जीवन है, एक मात्र जगत् है, एक मात्र सत है। सब कुछ वही एक (सच्चिदानन्द) सत्तामात्र हैं; भेद केवल परिमाण का है, प्रकार का नहीं। भिन्न भिन्न जीवन के बीच में अन्तर  प्रकारगत नहीं है। वेदान्त इस बात को बिलकुल नहीं मानता कि पशुगण मनुष्यों से सम्पूर्णतया पृथक हैं और उन्हें ईश्वर ने हमारे भोज्यरूप में बनाया है। 

For you must always remember that the one central ideal of Vedanta is this oneness. There are no two in anything, no two lives, nor even two different kinds of life for the two worlds. You will find the Vedas speaking of heavens and things like that at first; but later on, when they come to the highest ideals of their philosophy, they brush away all these things. There is but one life, one world, one existence. Everything is that One, the difference is in degree and not in kind. The difference between our lives is not in kind. The Vedanta entirely denies such ideas as that animals are separate from men, and that they were made and created by God to be used for our food.

তোমাদের সর্বদা মনে রাখিতে হইবে যে, বেদান্তের মূলকথা—এই একত্ব বা অখণ্ডভাব। দুই কোথাও নাই, দুইপ্রকার জীবন নাই, অথবা দুইটি জগৎও নাই। তোমরা দেখিবে, বেদ প্রথমতঃ স্বর্গাদির কথা বলিতেছেন, কিন্তু শেষে যখন দর্শনের উচ্চতম আদর্শের বিষয় বলিতে আরম্ভ করিয়াছেন, তখন ও-সকল কথা একেবারে পরিত্যক্ত হইয়াছে। একমাত্র জীবন আছে, একমাত্র জগৎ আছে, একমাত্র অস্তিত্ব আছে। সবই সেই একসত্তা; প্রভেদ শুধু পরিমাণগত, প্রকারগত নহে। ভিন্ন ভিন্ন জীবনের মধ্যে প্রভেদ প্রকারগত নহে। পশুগণ মনুষ্য হইতে সম্পূর্ণ পৃথক‍্ এবং ঈশ্বর তাহাদিগকে আমাদের খাদ্যরূপে ব্যবহৃত হইবার জন্য সৃষ্টি করিয়াছেন—বেদান্ত এরূপ কথা একেবারে অস্বীকার করেন।

कुछ व्यक्तियों ने वैज्ञानिक शोध के निमित्त चीड़फाड़ करने के लिए, मारे जाने वाले पशुओं की हत्या का विरोध करने के लिए, दयावश एक संस्था - 'Anti Vivisection Society' (एंटी विविसेक्शन सोसाइटी, या जीवच्छेदन निवारणी सभा) स्थापित की है। मैंने एक दिन इस सभा के एक सदस्य से पूछा, "भाई, आप भोजन के लिए पशु हत्या को सम्पूर्णतया न्यायसंगत मानते हैं, किन्तु वैज्ञानिक परीक्षा के लिए दो एक पशुओं की हत्या के इतने विरुद्ध क्यों हैं?" उसने उत्तर दिया, "जीवित की चीर-फाड़ बहुत भयानक कार्य है, किन्तु पशुगण हमारे भोजनार्थं ही बनाये गये हैं।" कैसी अजीब बात है! वास्तव में पशुगण भी तो उसी अखण्ड सत्ता के अंशरूप हैं। यदि मनुष्य का जीवन अनन्त है, तो पशु -जीवन भी उसी प्रकार है। प्रभेद केवल परिमाणगत है, प्रकारगत नहीं। विचारपूर्वक देखने पर यह अमीबा (amoeba) और मैं एक ही हूँ; अन्तर केवल पूर्णत्व की अभिव्यक्ति में परिणाम का है, और उस सर्वोच्च सत्ता की दृष्टि से देखने पर निम्नतम पशु (100% Selfish) और उच्चतम मनुष्य (बुद्ध,ईसा,श्रीरामकृष्ण) "100% Unselfishness" सभी सामान हैं। 

Some people have been kind enough to start an antivivisection society. I asked a member, "Why do you think, my friend, that it is quite lawful to kill animals for food, and not to kill one or two for scientific experiments?" He replied, "Vivisection is most horrible, but animals have been given to us for food." Oneness includes all animals. If man's life is immortal, so also is the animal's. The difference is only in degree and not in kind. The amoeba and I are the same, the difference is only in degree; and from the standpoint of the highest life, all these differences vanish. 

কতকগুলি লোক দয়াপরবশ হইয়া ‘জীবিত-ব্যবচ্ছেদ-নিবারণী সভা'(Anti-vivisection Society)স্থাপন করিয়াছেন। আমি এই সভার জনৈক সভ্যকে একবার জিজ্ঞাসা করিয়াছিলাম, ‘বন্ধু, আপনারা খাদ্যের জন্য পশুহত্যা সম্পূর্ণ ন্যায়সঙ্গত মনে করেন, অথচ বৈজ্ঞানিক পরীক্ষার জন্য দুই-একটি পশুহত্যার এত বিরোধী কেন?’ তিনি উত্তর দিলেন, ‘জীবিত-ব্যবচ্ছেদ বড় ভয়ানক ব্যাপার, কিন্তু পশুগুলি আমাদের খাদ্যের জন্য দেওয়া হইয়াছে।’ কি ভয়ানক কথা! বাস্তবিক পশুগুলিও তো সেই অখণ্ড সত্তারই অংশ। যদি মানুষের জীবন অমর হয়, পশুর জীবনও অমর। প্রভেদ কেবল পরিমাণগত, প্রকারগত নয়। আমিও যেমন, একটি ক্ষুদ্র জীবাণুও তেমন—প্রভেদ কেবল পরিমাণগত, আর সেই সর্বোচ্চ সত্তার দিক হইতে দেখিলে এ প্রভেদও দেখা যায় না।

मनुष्य एक तिनके और पौधे में बहुत अन्तर देख सकता है, किन्तु यदि तुम खूब ऊँचे चढ़कर देखो तो यह तिनका तथा एक बड़ा वृक्ष दोनों ही समान दिखेंगे। इसी प्रकार उस उच्चतम सत्ता के दृष्टिकोण से निम्नतम पशु और उच्चतम मनुष्य सभी समान हैं। और यदि तुम  एक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हो,  तो तुमको  पशुओं से लेकर उच्चतम प्राणी तक समत्व मानना पड़ेगा। जो ईश्वर अपनी मनुष्य -सन्तान के प्रति पक्षपाती है, और 'पशु' नामक अपनी सन्तान के प्रति निर्दय है, वह तो फिर दानवों से भी अधम हुआ। इस प्रकार के ईश्वर की उपासना करने की अपेक्षा मुझे सैकड़ों बार मरना भी पसन्द है। मेरा समस्त जीवन इस प्रकार के ईश्वर के विरुद्ध युद्ध में ही बीतेगा। किन्तु वास्तविक ईश्वर ऐसे नहीं हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं वे नहीं जानते कि वे दायित्व बोधहीन और हृदयहीन व्यक्ति हैं; वे क्या कह रहे हैं, यह नहीं जानते।

 A man may see a great deal of difference between the grass and a little tree, but if you mount very high, the grass and the biggest tree will appear much the same. So, from the standpoint of the highest ideal, the lowest animal and the highest man are the same. If you believe there is a God, the animals, and the highest creatures must be the same. A God who is partial to his children called men, and cruel to his children called brute beasts, is worse than a demon. I would rather die a hundred times than worship such a God. My whole life would be a fight with such a God .  But there is no difference, and those who say there is, are irresponsible, heartless people who do not know.

অবশ্য তৃণ ও একটি ক্ষুদ্র বৃক্ষের মধ্যে অনেক প্রভেদ দেখা যায়, কিন্তু যদি অতি উচ্চে আরোহণ কর, তবে ঐ তৃণ ও বৃহত্তম বৃক্ষ সমান বোধ হইবে। এইরূপ সেই উচ্চতম সত্তার দৃষ্টিতে এ-সবই সমান; আর যদি তুমি ঈশ্বরের অস্তিত্ব বিশ্বসী হও, তবে তোমাকে মানিতে হইবে, নিম্নতম পশু এবং উচ্চতম প্রাণী সমান, তাহা না হইলে প্রতিপন্ন হয়—ভগবান মহা পক্ষপতী। যে-ভগবান মনুষ্যনামক তাঁহার সন্তাগণের প্রতি এত পক্ষপাতসম্পন্ন, আর পশুনামক তাঁহার সন্তানের প্রতি এত নির্দয়, তিনি মানুষ অপেক্ষাও অধম। এরূপ ঈশ্বরের উপাসনা করা অপেক্ষা বরং আমি শত শত বার মরিতেও প্রস্তুত। আমার সমুদয় জীবন এরূপ ঈশ্বরের বিরুদ্ধে যুদ্ধে অতিবাহিত হইবে। কিন্তু বাস্তবিক ঈশ্বর তো এরূপ নহেন। যাহারা এরূপ বলে, তাহারা জানে না, তাহার কত দায়িত্বহীন—হৃদয়হীন

  यहाँ फिर 'व्यावहारिकता' (pragmatism) शब्द गलत अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वास्तविक बात यह है कि हम मीट -मुर्गा खाना चाहते हैं, इसीलिए हम (हम बिना लहसुन प्याज का भी) खाते रहते हैं। मैं स्वयं एक कट्टर शाकाहारी (staunch vegetarian) न भी होऊँ,  किन्तु मैं शाकाहार का आदर्श समझता हूँ। जब मैं मांस खाता हूँ, तब जानता हूँ कि यह ठीक नहीं है। परिस्थितिवश उसे खाने को बाध्य होने पर भी मैं यह जानता हूँ कि यह क्रूरता है। शाकाहार के आदर्श (ideal of vegetarianism) को नीचा करके, मुझे  अपनी दुर्बलता का समर्थन नहीं करना चाहिए। आदर्श यही है - मांस न खाया जाय; किसी भी प्राणी का अनिष्ट न किया जाय, क्योंकि पशुगण भी हमारे भाई हैं। यदि अपने से इतर प्राणियों के बारे में इस प्रकार से सोच सकते हो, तो तुम सब प्राणियों में भ्रातृभाव की ओर बहुत कुछ अग्रसर हो गये हो - उसके पहले विश्वबन्धुत्व की बात करना व्यर्थ है। तुम संसार में देखोगे कि इस प्रकार का उपदेश बहुत लोग पसन्द नहीं करते, क्योंकि उनसे वह वास्तव को छोड़कर आदर्श की ओर जाने के लिए कहता है। किन्तु यदि तुम एक ऐसी बात कहो जिससे उनके वर्तमान कार्य का वर्तमान आचरण का समर्थन होता हो तो वे उसे तुरन्त 'व्यावहारिक' मान लेंगे । 

Here is a case of the word practical used in the wrong sense. I myself may not be a very strict vegetarian, but I understand the ideal. When I eat meat I know it is wrong. Even if I am bound to eat it under certain circumstances, I know it is cruel. I must not drag my ideal down to the actual and apologize for my weak conduct in this way. The ideal is not to eat flesh, not to injure any being, for all animals are my brothers. If you can think of them as your brothers, you have made a little headway towards the brotherhood of all souls, not to speak of the brotherhood of man! That is child's play. You generally find that this is not very acceptable to many, because it teaches them to give up the actual and go higher up to the ideal. But if you bring out a theory that is reconciled with their present conduct, they regard it as entirely practical.

এক্ষেত্রে আবার ‘কার্যকর’ শব্দটি ভুল অর্থে ব্যবহৃত হইতেছে। বাস্তবিক কথা এই, আমরা খাইতে চাই, তাই খাইয়া থাকি। আমি নিজে একজন সম্পূর্ণ নিরামিষভোজী না হইতে পারি, কিন্তু আমি নিরামিষ-ভোজনের আদর্শটি বুঝি। যখন আমি মাংস খাই, তখন আমি জানি, আমি অন্যায় করিতেছি। ঘটনাবিশেষে আমাকে উহা খাইতে বাধ্য হইতে হইলেও আমি জানি—উহা অন্যায়। আমি আদর্শকে নামাইয়া আমার দুর্বলতার সমর্থন করিতে চেষ্টা করিব না। আদর্শ এই—মাংসভোজন না করা, কোন প্রাণীর অনিষ্ট না করা; কারণ পশুমাত্রই আমার ভাই , বিড়াল কুকুরও। যদি তাহাদিগকে এরূপ ভাবিতে পারো, তবে তুমি সর্বপ্রাণীর প্রতি ভ্রাতৃভাবের দিকে একধাপ অগ্রসর হইয়াছ—মনুষ্যজাতির প্রতি ভ্রাতৃভাবের তো কথাই নাই! উহা তো ছেলেখেলা মাত্র। তোমর সচরাচর দেখিবে, এরূপ উপদেশ অনেকের রুচিসঙ্গত হয় না—কারণ তাহাদিগকে বাস্তব ত্যাগ করিয়া আদর্শের দিকে যাইতে শিক্ষা দেওয়া হয়, কিন্তু তুমি যদি এমন কোন মতের কথা বলো, যাহাতে তাহাদের বর্তমান কার্যের —বর্তমান আচরণের সহিত খাপ খায়, তবেই তাহারা বলে ইহা কার্যকর।

मनुष्य स्वभाव में 'Comfort Zone' (आरामदायक स्थिति) में रहने की भारी प्रवृत्ति  दीख पड़ती है। हम लोग उसके आगे एक कदम भी नहीं बढ़ना चाहते। जिस प्रकार हिमालय पर बर्फ में जमे व्यक्तियों के सम्बन्ध में पढ़ा जाता है, वैसा ही मनुष्य जाति के बारे में भी कहा जा सकता है। सुना जाता है कि इस अवस्था में आदमी सोना चाहता है। यदि उसे कोई खींचकर उठाना चाहता है, तो वह कहता है, 'मुझे सोने दो-बर्फ में सोने से बड़ा आराम मिलता है!' और उसी दशा में उसकी मृत्यु हो जाती है।  हम लोगों का स्वभाव भी ऐसा ही है। सारा जीवन हमलोग भी यही किये जा रहें हैं- सिर से लेकर पैर तक समूचे बर्फ में जमते जा रहे हैं, तो भी हम लोग सोना चाहते हैं। अतएव, आदर्श अवस्था में पहुँचने के लिए सदा संघर्ष करते रहो।  यदि कोई व्यक्ति आदर्श को तुम्हारी निम्न भूमि में खींच लाये, यदि कोई तुम्हें ऐसा धर्म सिखाये जो कि उच्चतम आदर्श की शिक्षा नहीं देता, तो उसकी बात कानों में भी न पड़ने दो। मेरे लिए वह नितांत अव्यवहारिक (impractical) धर्म होगा। 

There is this strongly conservative tendency in human nature: we do not like to move one step forward. I think of mankind just as I read of persons who become frozen in the snow; all such, they say, want to go to sleep, and if you try to drag them up, they say, "Let me sleep; it is so beautiful to sleep in the snow", and they die there in that sleep. So is our nature. That is what we are doing all our life, getting frozen from the feet upwards, and yet wanting to sleep. Therefore you must struggle towards the ideal, and if a man comes who wants to bring that ideal down to your level, and teach a religion that does not carry that highest ideal, do not listen to him. To me, that is an impracticable religion.

মনুষ্য-স্বভাবে ভয়ানক রক্ষনশীল প্রবৃত্তি রহইয়াছে; আমরা সম্মুখে এক পা-ও অগ্রসর হইতে চাহি না। তুষারমগ্ন ব্যক্তিদের সম্বন্ধে যেমন পড়া যায়, মনুষ্যজাতির সম্বন্ধেও আমার সেইরূপই বোধ হয়। শুনা যায়, ঐরূপ অবস্থায় লোক ঘুমাইতে চায়। যদি তাহাদিগকে জোর করিয়া জাগাইতে চাও, তাহারা নাকি বলে, ‘আমাদের ঘুমাইতে দাও—বরফে ঘুমাইতে বড় আরাম!’ তাহাদের সেই নিদ্রাই মহানিদ্রায় পরিণত হয়। আমাদের প্রকৃতিও তেমনি। আমরাও সারাজীবন তাহাই করিতেছি—পা হইতে উপরের দিক বরফে জমিয়া যাইতেছে, তথাপি আমরা ঘুমাইতে চাহিতেছি। অতএব সর্বদাই আদর্শে পৌঁছিবার চেষ্টা করিবে; যদি কোন ব্যক্তি আদর্শকে খাটো করিয়া তোমার স্তরে নামাইয়া আনিতে চায়, যদি কেহ শিক্ষা দেয়—ধর্ম উচ্চতম আদর্শ নহে, তবে তাহার কথায় কর্ণপাত করিও না।ঐরূপ ধর্মাচরন আমার পক্ষে অসম্ভব;

 किन्तु यदि कोई मुझे ऐसा धर्म सिखाये जो कि जीवन का सर्वोच्च आदर्श दर्शाता है, तो मैं उसकी बातें सुनने के लिए प्रस्तुत हूँ। जब कभी कोई व्यक्ति भोगपरक दुर्बलताओं और निस्सार बातों की वकालत करे, तो उससे सावधान रहो।  एक तो हम अपने को इन्द्रियजाल में फँसाकर एकदम निकम्मे बन जाते हैं, उस पर भी यदि कोई आकर हमें उस प्रकार की शिक्षा दे और यदि हम उस उपदेश का अनुसरण करें तो हम कुछ भी उन्नति नहीं कर सकते। 

But if a man teaches a religion that presents the highest ideal, I am ready for him. Beware when anyone is trying to apologize for sense vanities and sense weaknesses. If anyone wants to preach that way to us, poor, sense-bound clods of earth as we have made ourselves by following that teaching, we shall never progress. 

কিন্তু যদি কেহ আসিয়া আমায় বলে, ‘ধর্মই জীবনের সর্বোচ্চ প্রয়াস’, তবে আমি তাহার কথা শুনিত প্রস্তুত আছি। এই বিষয়ে বিশেষ সাবধান হইতে হইবে। যখন কোন ব্যক্তি কোনরূপ দুর্বলতা সমর্থন করিতে চেষ্টা করে, তখন বিশেষ সাবধান হইও। আমরা একে তো ইন্দ্রিয়সমূহে আবদ্ধ হইয়া নিজদিগকে একেবারে অপদার্থ করিয়া ফেলিয়াছি, তারপর আবার যদি কেহ আসিয়া পূর্বোক্ত ভাবে শিক্ষা দিতে চায় এবং তুমি ঐ উপদেশ অনুসরণ কর, তবে কিছুমাত্র উন্নতি করিতে পারিবে না। 

मैंने ऐसी बातें बहुत देखी हैं, जगत् के सम्बन्ध में मुझे कुछ ज्ञान है, और मेरा देश ऐसा देश है जहाँ सम्प्रदाय कुकुरमुत्तों के समान बढ़ते रहते हैं। प्रतिवर्ष नये नये सम्प्रदाय जन्म लेते हैं। किन्तु मैंने यही देखा है कि - जो संप्रदाय भोगाकांक्षी मानव का सत्याकांक्षी मानव से समझौता कराने  की चेष्टा नहीं करते, वे ही उन्नति करते हैं।  और जहाँ परमोच्च आदर्श का झूठी सांसारिक वासनाओं के साथ सामंजस्य करने की– ईश्वर को मनुष्य के स्तर पर खींच लाने की मिथ्या चेष्टा रहती है, वहीं क्षय का आरम्भ हो जाता है। मनुष्य को सांसारिक दासता, इन्द्रियों की गुलामी, या पशु के स्तर पर नहीं घसीटना चाहिए, उसे ईश्वर के स्तर तक उठने में सहायता करनी चाहिए। 

I have seen many of these things, and have had some experience of the world, and my country is the land where religious sects grow like mushrooms. Every year new sects arise. But one thing I have marked  ,  that it is only those that never want to reconcile the man of flesh with the man of truth that make progress. Wherever there is this false idea of reconciling fleshly vanities with the highest ideals, of dragging down God to the level of man, there comes decay. Man should not be degraded to worldly slavery, but should be raised up to God.

আমি এরূপ অনেক দেখিয়াছি, জগৎ সম্বন্ধে কিছু অভিজ্ঞতা লাভ করিয়াছি। আমার দেশে ধর্মসম্প্রদায়গুলি ব্যাঙের ছাতার মতো বৃদ্ধি পাইয়া থাকে। প্রতিবৎসর নূতন নূতন সম্প্রদায় উৎপন্ন হইতেছে। কিন্তু একটি জিনিস বিশেষভাবে লক্ষ্য করিয়াছি, যে-সম্প্রদায়গুলি সংসার ও ধর্ম একসঙ্গে মিশাইয়া ফেলিতে চেষ্টা করে না তাহারাই উন্নতি করিয়া থাকে—আর যেখানে উচ্চতম আদর্শ সাংসারিক অনিত্য বাসনার সহিত মিলিত করার—ঈশ্বরকে মানুষের স্তরে টানিয়া আনিবার মিথ্যা চেষ্টা হইয়াছে, সেখানেই রোগ প্রবেশ করে। মানুষ যেখানে পড়িয়া আছে, সেখানে পড়িয়া থাকিলে চলিবে না—তাহাকে দেবত্বে উন্নীত করিতে হইবে

इस प्रश्न का एक और पहलू है। हमें दूसरों को घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। हम सभी उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। दुर्बलता और सबलता में केवल परिमाणगत भेद है। प्रकाश और अन्धकार में भेद है केवल परिमाणगत- पाप और पुण्य के बीच भी भेद है केवल परिमाणगत- जीवन और मृत्यु के बीच में भेद  केवल परिमाणगत, एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद केवल परिमाणगत ही है, प्रकारगत नहीं; कारण, वास्तव में सभी वस्तुएँ वही एक अखण्ड वस्तु मात्र हैं। सब वही एक है, जो अपने को विचार , जीवन, आत्मा या देह के रूप में अभिव्यक्त करता है  — और उनमें अंतर केवल परिमाण का है। अतः जो किसी कारणवश हमारे समान उन्नति नहीं कर पाये उनके प्रति घृणा करने का अधिकार हमें नहीं है। किसी की भी निन्दा मत करो।  किसी की सहायता कर सकते हो तो करो, नहीं कर सकते हो तो चुपचाप बैठे रहो, उन्हें आशीर्वाद दो, अपने रास्ते जाने दो। गाली देने अथवा निन्दा करने से कोई उन्नति नहीं होती। इस प्रकार से कभी किसी की उन्नति नहीं होती। दूसरे की निन्दा करने से केवल अपनी शक्ति का क्षय होता है। आलोचना  और निन्दा हम लोगों के वृथा शक्ति क्षय का उपाय मात्र है। क्योंकि अन्त में हम देखते हैं कि सभी लोग एक ही वस्तु देख रहे हैं , कम-बेश उसी आदर्श (निःस्वार्थता) की ओर पहुँच रहे हैं और हम लोगों में जो अंतर है , वे केवल अभिव्यक्ति के हैं

At the same time, there is another side to the question. We must not look down with contempt on others. All of us are going towards the same goal. The difference between weakness and strength is one of degree; the difference between virtue and vice is one of degree, the difference between heaven and hell is one of degree, the difference between life and death is one of degree, all differences in this world are of degree, and not of kind, because oneness is the secret of everything. All is One, which manifests Itself, either as thought, or life, or soul, or body, and the difference is only in degree. As such, we have no right to look down with contempt upon those who are not developed exactly to the same degree as we are. Condemn none; if you can stretch out a helping hand, do so. If you cannot, fold your hands, bless your brothers, and let them go their own way. Dragging down and condemning is not the way to work. Never is work accomplished in that way. We spend our energies in condemning others. Criticism and condemnation is a vain way of spending our energies, for in the long run we come to learn that all are seeing the same thing, are more or less approaching the same ideal, and that most of our differences are merely differences of expression.

এ প্রশ্নের আবার আর একটি দিক আছে। আমরা যেন অপরকে ঘৃণার চক্ষে না দেখি। আমরা সকলেই সেই লক্ষের দিকে চলিয়াছি। দুর্বলতা ও শক্তির মধ্যে প্রভেদ কেবল পরিমাণগত। আলো ও অন্ধকারের মধ্যে প্রভেদ কেবল মাত্রাগত, পাপ ও পুণ্যের মধ্যে প্রভেদ কেবল মাত্রাগত, জীবন ও মৃত্যুর মধ্যে প্রভেদ কেবল মাত্রাগত; যে-কোন বস্তুর সহিত অপর বস্তুর প্রভেদ কেবল মাত্রাগত—পরিমাণগত; প্রকারগত নয়। কারণ প্রকৃপক্ষে সবই সেই এক অখণ্ড বস্তুমাত্র। সবই এক—চিন্তারূপেই হউক, জীবনরূপেই হউক, আত্মা-রূপেই হউক, সবই এক—প্রভেদ কেবল পরিমাণের তারতম্যে, মাত্রার তারতম্যে। তাই অন্যে ঠিক আমাদের মতো উন্নতি করিতে পারে নাই বলিয়া তাহাদের ঘৃণা করা উচিত নয়। কাহারও নিন্দা করিও না, সাহায্য করিতে পারো তো কর; যদি না পারো হাত গুটাইয়া লও, সকলকে আশীর্বাদ কর, সকলকে নিজ নিজ পথে চলিতে দাও। গাল দিলে, নিন্দা করিলে কোন উন্নতি হয় না। এভাবে কখনও কাহারও উন্নতি হয় না। অন্যের নিন্দা করিলে কেবল বৃথা শক্তিক্ষয় হয়। সমালোচনা ও নিন্দা দ্বারা বৃথা শক্তিক্ষয় হয় মাত্র, আর শেষে আমরা দেখিতে পাই, অন্যে যে দিকে চলিতেছে আমরাও ঠিক সেই দিকেই চলিতেছি; আমাদের অধিকাংশ মতভেদ ভাষার বিভিন্নতামাত্র

उदाहरणार्थ 'पाप' की बात लो। मैं अभी चर्चा कर रहा था कि वेदान्त पाप को स्वीकार नहीं करता, लेकिन सम्मोहन (hypnotism) स्वीकार करता है, जिसके कारण मनुष्य भूलें करता है । दोनों वास्तव में एक ही बात हैं केवल एक सकारात्मक है, दूसरी नकारात्मक है। एक, मनुष्य को उसकी दुर्बलता दिखा देती है और दूसरी कहती है कि दुर्बलता हो सकती है, किन्तु उस ओर ध्यान मत दो, हम लोगों को उन्नति करनी है। जब मनुष्य पहले पहल जन्मा तभी उसका रोग क्या है, जान लिया गया। सभी अपना अपना रोग जानते हैं किसी दूसरे को बतलाने की आवश्यकता नहीं होती। सारे समय- हम रोगी हैं (हम भेंड़ हैं )-यही सोचते रहने से हम स्वस्थ नहीं हो सकते, उसके लिए औषध (विवेक-प्रयोग) आवश्यक है। हम लोग बाह्य जगत् के सामने भले ही कपटाचरण करें, परन्तु अपने अन्दर ही अन्दर हम अपनी दुर्बलता जानते हैं। 

Take the idea of sin. I was telling you just now the Vedantic idea of it, and the other idea is that man is a sinner. They are practically the same, only the one takes the positive and the other the negative side. One shows to man his strength and the other his weakness. There may be a weakness, says the Vedanta, but never mind, we want to grow. Disease was found out as soon as man was born. Everyone knows his disease; it requires no one to tell us what our diseases are. But thinking all the time that we are diseased will not cure us — medicine is necessary. We may forget anything outside, and we may try to become hypocrites to the external world, but in our hearts of hearts, we all know our weaknesses.

এমন কি, পাপের কথা ধর। বেদান্তের ধারণা এবং ‘মানুষ পাপী ইত্যাদি’ ধারণা—এই দুইটি ভাবই কার্যতঃ এক, তবে একটি ভুল দিকে চলিয়াছে। প্রচলিত মত নেতিভাবাপন্ন, বেদান্ত ইতিভাবাপন্ন। একমত মানুষকে তাহার দুর্বলতা দেখাইয়া দেয়, অপরে বলে—দুর্বলতা থাকিতে পারে, কিন্তু সে দিকে লক্ষ্য করিও না; আমাদিগকে উন্নতি করিতে হইবে। মানুষযখন প্রথম জন্মিয়াছে, তখনই তাহার রোগ কি জানা গিয়াছে। সকলেই জানে নিজের কি রোগ; অপর কাহাকেও তাহা বলিয়া দিতে হয় না। আমরা বহির্জগতের সমক্ষে কপট আচরণ করিতে পারি, কিন্তু অন্তরের অন্তরে আমরা আমাদের দুর্বলতা জানি।

किन्तु वेदान्त कहता है, केवल दुर्बलता स्मरण कराने से अधिक उपकार नहीं होगा– उसका उपचार करो। यह कहते रहना कि 'मैं रोगग्रस्त हूँ'– रोग की औषध या उपचार नहीं है। मनुष्य को सदैव उसकी दुर्बलता की याद कराते कहना उसकी दुर्बलता का प्रतीकार नहीं है, बल्कि उसे अपने बल का स्मरण करा देना ही उसके प्रतीकार का उपाय है। उसमें जो बल पहले से ही विद्यमान है उसका उसे स्मरण कराओ। वेदान्त मनुष्य को पापी न बतलाकर ठीक उसका विपरीत मार्ग ग्रहण करता है और कहता है, "तुम पूर्ण और शुद्धस्वरूप हो और जिसे तुम पाप कहते हो वह तुममें नहीं है।" जिसे तुम 'पाप' कहते थे वह तुम्हारी आत्माभिव्यक्ति का निम्नतम प्रकाश है; अब अपनी आत्मा को उच्चतर भाव (अहंब्रह्मास्मि)  में प्रकाशित करो। एक बात हम सब को सदैव याद रखनी चाहिए और वह यह कि हम सब कुछ कर सकते हैं। कभी 'नहीं' मत कहना, "मैं नहीं कर सकता" यह कभी न कहना, क्योंकि तुम अनन्तस्वरूप हो। तुम्हारे स्वरूप की तुलना में देश, काल (space and time) भी कुछ नहीं हैं। तुम्हारी जो इच्छा होगी वही कर सकते हो, तुम सर्वशक्तिमान हो। 

But, says the Vedanta, being reminded of weakness does not help much; gives strength, and strength does not come by thinking of weakness all the time. The remedy for weakness is not brooding over weakness, but thinking of strength. Teach men of the strength that is already within them. Instead of telling them they are sinners, the Vedanta takes the opposite position, and says, "You are pure and perfect, and what you call sin does not belong to you." Sins are very low degrees of Self-manifestation; manifest your Self in a high degree. That is the one thing to remember; all of us can do that. Never say, "No", never say, "I cannot", for you are infinite. Even time and space are nothing compared with your nature. You can do anything and everything, you are almighty.

কিন্তু বেদান্ত বলেন, কেবল দুর্বলতা স্মরণ করাইয়া দিলেই বেশী উপকার হইবে না, তাহাকে ঔষধ দাও, মানুষকে কেবল সর্বদা রোগগ্রস্ত ভাবিতে বলা রোগের ঔষধ নয়—রোগ প্রতিকারে উপায় নয়। মানুষকে সর্বদা তাহার দুর্বলতার বিষয় ভাবিতে বলা তাহার দুর্বলতার প্রতীকার নয়—তাহার শক্তির কথা স্মরণ করাইয়া দেওয়াই প্রতিকারের উপায়। তাহার মধ্যে যে-শক্তি পূর্ব হইতেই বিরাজিত, তাহার বিষয় স্মরণ করাইয়া দাও। মানুষকে পাপী না বলিয়া বেদান্ত বরং ঠিক বিপরীত পথা দেখাইয়া বলেনঃ তুমি পূর্ণ ও শুদ্ধস্বরূপ, তুমি যাহাকে পাপ বলো, তাহা তোমাতে নাই। পাপগুলি তোমার খুব নিম্নতম প্রকাশ; যদি পারো, উচ্চতরভাবে নিজেকে প্রকাশিত কর। একটি জিনিস আমাদের মনে রাখা উচিত—তাহা এই যে, আমরা সবই পারি। কখনও ‘না’ বলিও না, কখনও ‘পারি না’ বলিও না। ওরূপ কখনও হইতেই পারে না, কারণ তুমি অনন্তস্বরূপ। তোমার স্বরূপের তুলনায় দেশকালও কিছুই নয়। তোমার যাহা ইচ্ছা তাহাই করিতে পারো, তুমি সর্বশক্তিমান‍্।

अब तक जो कुछ कहा गया है, अवश्य वह केवल नीतिशास्त्र के सिद्धान्त हैं। अब  हमें सिद्धान्त की कोटि से उतरकर, जीवन की विशेष- विशेष अवस्थाओं में वेदान्त का  प्रयोग करना पड़ेगा। हमें देखना होगा कि किस प्रकार यह वेदान्त हमारे दैनिक जीवन में, नागरिक जीवन में, ग्राम्य जीवन में, राष्ट्रीय जीवन में, और प्रत्येक राष्ट्र  के घरेलू जीवन में परिणत किया जा सकता है। कारण, यदि धर्म मनुष्य को प्रत्येक अवस्था में सहायता नहीं दे सकता, तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं— फिर तो वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धान्त होकर रह जायेगा।  धर्म यदि समग्र मानवजाति का कल्याण करना चाहता है, तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह मनुष्य की सहायता उसकी प्रत्येक अवस्था में कर सकने में तत्पर और सक्षम हो - चाहे गुलामी हो या आजादी, घोर पतन हो या अत्यन्त पवित्रता, उसे सर्वत्र मानव की सहायता कर सकने में समर्थ होना चाहिये। केवल तभी वेदान्त के सिद्धान्त (चार महावाक्य ) अथवा धर्म के आदर्श - उन्हें तुम किसी भी नाम से पुकारो, लोक-कल्याण काम में आ सकेंगे। 

These are the principles of ethics, but we shall now come down lower and work out the details. We shall see how this Vedanta can be carried into our everyday life, the city life, the country life, the national life, and the home life of every nation. For, if a religion cannot help man wherever he may be, wherever he stands, it is not of much use; it will remain only a theory for the chosen few. Religion, to help mankind, must be ready and able to help him in whatever condition he is, in servitude or in freedom, in the depths of degradation or on the heights of purity; everywhere, equally, it should be able to come to his aid. The principles of Vedanta, or the ideal of religion, or whatever you may call it, will be fulfilled by its capacity for performing this great function.

অবশ্য যাহা বলা হইল তাহা নীতির মূলসূত্র মাত্র। আমাদিগকে মতবাদ হইতে নামিয়া আসিয়া জীবনের বিশেষ বিশেষ অবস্থায় ইহা প্রয়োগ করিতে হইবে। আমাদিগকে দেখিতে হিবে, কিরূপে এই বেদান্ত আমাদের প্রাত্যহিক জীবনে, নাগরিক জীবনে, গ্রাম্য জীবনে, প্রত্যেক জাতির জীবনে—প্রত্যেক জাতির গার্হস্থ্য জীবনে কার্যে পরিণত করিতে পারা যায়। কারণ, মানুষ যে-অবস্থায় আছে, সেই অবস্থায় ধর্ম যদি তাহাকে সাহায্য করিতে না পারে, তবে ধর্মের বিশেষ কোন মূল্য নাই—উহা কয়েকজন ব্যক্তির জন্য মতবাদ-রূপেই থাকিয়া যাইবে। ধর্ম দ্বারা যদি সমগ্র মানবজাতির কল্যাণ করিতে হয়, তবে ধর্মকে এমন হইতে হইবে যে, মানুষ যেখানে যে-অবস্থায় আছে, সেই খানেই উহার সাহায্য পাইতে পারে,—দাসত্বে বা পূর্ণ স্বাধীনতায়, অধঃপাতের গহ্বরে বা পবিত্রতার উচ্চশিখরে—সর্বদা সমভাবে ধর্ম যেন মানব জাতিকে সাহায্য করিতে পারে। তবেই কেবল বেদান্তের তত্ত্বগুলি অথবা ধর্মের আদর্শ অথবা উহাদের যে-নামই দাও না কেন, কাজে আসিবে।

आत्मविश्वास (आत्मश्रद्धा) का आदर्श ही मानवजाति के लिए सब से अधिक कल्याणप्रद हो सकता है। यदि इस आत्मविश्वास का और भी विस्तृत रूप से प्रचार होता और वह कार्यरूप में परिणत हो जाता, तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि जगत् में जितना दुःख कष्ट है उसका अधिकांश गायब जाता। समग्र मानवजाति के इतिहास में सभी श्रेष्ठ नर नारियों के बीच में यदि कोई भावविशेष फलीभूत हुआ है तो वह है यही आत्मविश्वास।  वे इस ज्ञान के साथ पैदा हुए थे कि वे महान बनेंगे और वे महान बने भी। मनुष्य (शराबी ?) कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न पहुँच जाये, एक समय ऐसा अवश्य आता है, जब वह इस अवस्था से बेहद आर्त होकर एक उर्ध्वगामी मोड़ लेता है, और अपने ऊपर विश्वास करना सीखता है। किन्तु हम लोगों को इसे शुरू से ही जान लेना अच्छा है।आत्मविश्वास सीखने के लिए हमें (विवेकी मनुष्य को भी ) इतना दुःख-कष्ट क्यों भोगना चाहिए ?

The ideal of faith in ourselves is of the greatest help to us. If faith in ourselves had been more extensively taught and practiced, I am sure a very large portion of the evils and miseries that we have would have vanished. Throughout the history of mankind, if any motive power has been more potent than another in the lives of all great men and women, it is that of faith in themselves. Born with the consciousness that they were to be great, they became great. Let a man go down as low as possible; there must come a time when out of sheer desperation he will take an upward curve and will learn to have faith in himself. But it is better for us that we should know it from the very first. Why should we have all these bitter experiences in order to gain faith in ourselves? 

আত্মবিশ্বাসসরূপ আদর্শই মানবজাতির সর্বাধিক কল্যাণসাধন করিতে পারে। যদি এই আত্মবিশ্বাস আরও বিস্তারিত ভাবে প্রচারিত ও কার্যে পরিণত করা হইত, আমার দৃঢ় বিশ্বাস, জগতে যত দুঃখ-কষ্ট রহিয়াছে, তাহা বেশীর ভাগ দূরীভূত হইত। সমগ্র মানবজাতির ইতিহাসে মহাপ্রাণ নরনারীদের মধ্যে যদি কোন প্রেরণা বিশেষ শক্তিসঞ্চার করিয়া থাকে, তাহা আত্মবিশ্বাস। তাঁহারা এই চেতনাসহ জন্মিয়াছিলেন যে, তাঁহারা মহৎ হইবেন, এবং তাঁহারা মহৎ হইয়াছিলেন। মানুষ যতদুর সম্ভব অবনত হউক না কেন, এমন এক সময় অবশ্য আসিবে, যখন ঐ অবস্থায় বিরক্ত হইয়াই তাহাকে উন্নতির চেষ্টা করিতে হইবে, তখন সে নিজের উপর বিশ্বাস করিতে শিখে। গোড়া হইতেই আমাদের ইহা জানিয়া রাখা ভাল। আমরা আত্মবিশ্বাস শিখিতে কেন এত ঘুরিয়া মরিব? 

मनुष्य मनुष्य के बीच जो भेद है, वह केवल आत्मविश्वास (आत्मश्रद्धा ?)  की उपस्थित तथा अभाव के कारण ही है यह थोड़ी खोज करने से ही समझ में आ सकता है। इस आत्मविश्वास के द्वारा सब कुछ हो सकता है। मैंने अपने जीवन में ही इसे देखा है और अभी भी देखता हूँ और जितनी आयु बढ़ती जा रही है उतना ही यह विश्वास दृढ़तर होता जा रहा है। जिसमें आत्मविश्वास नहीं है वही नास्तिक है। प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है। किन्तु नया धर्म कहता है, जो आत्मविश्वास नहीं रखता, अपने आप पर विश्वास नहीं करता, वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास केवल इस क्षुद्र 'मै' (व्यष्टि अहं) को लेकर नहीं है, क्योंकि वेदान्त एकत्ववाद की भी शिक्षा देता है। इस आत्मविश्वास का अर्थ है-सब के प्रति विश्वास, क्योंकि, तुम सभी प्राणीयों के साथ  एक और अभिन्न हो। आत्मप्रीति का अर्थ है सब प्राणियों से प्रेम, समस्त पशु पक्षियों से प्रेम, सब वस्तुओं से प्रेम, क्योंकि तुम सब एक हो। यही महान आत्मविश्वास (आत्मश्रद्धा) जगत को अच्छा बना सकेगा। यह मेरी ध्रुव धारणा है

We can see that all the difference between man and man is owing to the existence or non-existence of faith in himself. Faith in ourselves will do everything. I have experienced it in my own life, and am still doing so; and as I grow older that faith is becoming stronger and stronger. He is an atheist who does not believe in himself. The old religions said that he was an atheist who did not believe in God. The new religion says that he is an atheist who does not believe in himself. But it is not selfish faith because the Vedanta, again, is the doctrine of oneness. It means faith in all, because you are all. Love for yourselves means love for all, love for animals, love for everything, for you are all one. It is the great faith that will make the world better. I am sure of that. 

আমরা বুঝিতে পারি, মানুষে মানুষে প্রভেদের কারণ—তাহাদের মধ্যে এই আত্মবিশ্বাস বিশ্বাস অথবা ইহার অভাব। এই আত্মবিশ্বাসের বলে সকলই সম্ভব হইবে। আমি নিজের জীবনে ইহা দেখিয়াছি, এখনও দেখিতেছি, আর যতই আমার আমার বয়স হইতেছে, ততই এই বিশ্বাস দৃঢ় হইতে দৃঢ়তর হইতেছে। যে নিজেকে বিশ্বাস করে না, সেই নাস্তিক। প্রাচীন ধর্ম বলিত, যে ঈশ্বরে বিশ্বাস করে না, সেই নাস্তিক। নএতন ধর্ম বলিতেছে ,যে নিজেকে বিশ্বাস করে না , সেই নাস্তিক। কিন্তু এই বিশ্বাস কেবল ক্ষুদ্র ‘আমি’কে লইয়া নয়, কারণ বেদান্ত ‘একত্ববাদ’ শিক্ষা দিতেছেন। এই বিশ্বাসের অর্থ সকলের প্রতি বিশ্বাস, কারণ সকলের মধ্যেই ‘তুমি’ রহিয়াছ। আত্মপ্রীতির অর্থ সর্বভূতে প্রীতি—সকল জীব-জন্তুর প্রতি প্রীতি, সকল বস্তুর প্রতি প্রীতি। এই মহান‍্ বিশ্বাস-বলেই জগতের উন্নতি হইবে। ইহা আমার ধ্রুব ধারণা

वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है जो साहस के साथ कह सकता है, "मैं अपने सम्बन्ध में सब कुछ जानता हूँ।" क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी इस देह के भीतर कितनी ऊर्जा, कितनी शक्ति, कितने प्रकार के बल अब भी छिपे पड़े हैं ? मनुष्य के अन्दर जो जो वस्तुएँ छिपी पड़ी हैं, उन सबका ज्ञान कौन सा वैज्ञानिक प्राप्त कर सकता है? लाखों वर्षों से मनुष्य पृथ्वी पर है, किन्तु अभी तक उसकी शक्ति का अति सामान्य अंश ही प्रकाशित हुआ है। अतएव, तुम कैसे अपने को जबरदस्ती दुर्बल कहते हो? ऊपर से दिखनेवाली इस पतितावस्था के पीछे कितनी महान सम्भावना है, क्या तुम उसे जानते हो ? तुम्हारे अन्दर जो अनन्त शक्ति है, उसका थोड़ा सा अंश ही तुम जानते हो। तुम्हारे पीछे है शक्ति और आनन्द का अपार सागर।

He is the highest man who can say with truth, "I know all about myself." Do you know how much energy, how many powers, how many forces are still lurking behind that frame of yours? What scientist has known all that is in man? Millions of years have passed since man first came here, and yet but one infinitesimal part of his powers has been manifested. Therefore, you must not say that you are weak. How do you know what possibilities lie behind that degradation on the surface? You know but little of that which is within you. For behind you is the ocean of infinite power and blessedness.

তিনিই শ্রেষ্ঠ মনুষ্য, যিনি সাহস করিয়া বলিতে পারেন-আমি আমার নিজের সমন্দে সব জানি ; তোমরা কি জানো, তোমাদের এই দেহের ভিতর কত শক্তি, কত ক্ষমতা এখনই লুক্কায়িত রহিয়াছে? কোন‍্ বৈজ্ঞানিক একটি মানুষের ভিতরে যাহা আছে, তাহা সবই জানিয়াছেন? লক্ষ লক্ষ বৎসর পূর্ব হইতে মানুষ পৃথিবীতে বাস করিতেছে, কিন্তু তাহার শক্তির অতি সামান্য অংশই এ-যাবৎ প্রকাশিত হইয়াছে। অতএব তুমি নিজেকে দুর্বল বলো কি করিয়া? আপাতপ্রতীয়মান এই অবনতির পশ্চাতে কি রহিয়াছে, তাহা কি তুমি জানো? তোমার পশ্চাতে অনন্ত শক্তি ও আনন্দের সমুদ্র রহিয়াছে

“आत्मा वा अरे श्रोतव्यः"- इस आत्मा के बारे में पहले (पुस्तक से नहीं, गुरुमुख से ?) सुनना चाहिए। दिन-रात श्रवण करो कि तुम्हीं 'वह' आत्मा हो।  दिन-रात यही भाव अपने में व्याप्त किये रहो- "I am He"; यहाँ तक कि वह  तुम्हारे रक्त की प्रत्येक बूंद में और तुम्हारी नस-नस में समा जाय। सम्पूर्ण शरीर को एक आदर्श के भाव से पूर्ण कर दो --" मैं अज, अविनाशी, आनन्दमय, सर्वज्ञ, सर्वशतिमान्, नित्य ज्योतिर्मय आत्मा हूं ”–दिन-रात यही चिन्तन करते रहो; जब तक कि यह भाव तुम्हारे प्राणों में भिद नहीं जाता। इसी का ध्यान करते रहो - जब तक कि यह भाव तुम्हारे जीवन का अविभाज्य अंग नहीं बन जाता। - और इसी से तुम सभी कर्मों में सफलता प्राप्त कर लोगे। 'हृदय पूर्ण होने पर मुँह बात करता है,  हृदय पूर्ण होने पर हाथ भी काम करते है।' अतएव इस प्रकार की अवस्था में ही यथार्थ कार्य सम्पूर्ण हो सकेगा। अपने को इस आदर्श के भाव से ओतप्रोत कर डालो- जो कुछ करो, उसीका चिंतन करते रहो। 

"This Âtman is first to be heard of." Hear day and night that you are that Soul. Repeat it to yourselves day and night till it enters into your very veins, till it tingles in every drop of blood, till it is in your flesh and bone. Let the whole body be full of that one ideal, "I am the birthless, the deathless, the blissful, the omniscient, the omnipotent, ever-glorious Soul." Think on it day and night; think on it till it becomes part and parcel of your life. Meditate upon it, and out of that will come work. "Out of the fullness of the heart the mouth speaketh," and out of the fullness of the heart the hand worketh also. Action will come. Fill yourselves with the ideal; whatever you do, think well on it.

'আত্মা বা অরে শ্রোতব্যঃ’—এই আত্মার কথা প্রথমে শুনিতে হইবে। দিনরাত্রি শ্রবণ কর; তুমিই সেই আত্মা। দিনরাত্রি পুনঃ পুনঃ বলিতে থাকো, যে পর্যন্ত না ঐ ভাব তোমার প্রতি রক্তবিন্দুতে, প্রতি শিরায় ধমনীতে স্পন্দিত হয়, যে পর্যন্ত না উহা তোমার মজ্জাগত হইয়া যায়। সমুদয় দেহটিই ঐ এক আদর্শের ভাবে পূর্ণ করিয়া ফেলো; ‘আমি জন্মহীন, অবিনাশী, আনন্দময়, সর্বজ্ঞ, সর্বশক্তিমান‍্, নিত্য, জ্যোতির্ময় আত্মা’—দিবারাত্রি এই চিন্তা কর—যে পর্যন্ত না উহা তোমার প্রাণে প্রাণে গাঁথিয়া যায়। ঐ ভাব ধ্যান করিতে থাকো,—উহা হইতেই পরে কর্ম আসিবে। ‘হৃদয় পূর্ণ হইলে মুখ কথা বলে—হৃদয় পূর্ণ হইলে হাতও কাজ করিয়া থাকে।’ সুতরাং ঐরূপ অবস্থাতেই যথার্থ কার্য করিতে সক্ষম হইবে। নিজেকে ঐ আদর্শের ভাবে পূর্ণ করিয়া ফেলো—যাহা কিছু কর, পূর্বে সে সম্বন্ধে ভালভাবে চিন্তা কর।

तब इस विचार-शक्ति के प्रभाव से तुम्हारे सम्पूर्ण कर्म परिवर्तित होकर उन्नत देवभावापन्न हो जायेंगे। यदि 'जड़' शक्तिशाली है, तो 'विचार' तो सर्वशक्तिमान् है। इस विचार से अपने जीवन को प्रेरित कर डालो, स्वयं को अपनी तेजस्विता , सर्वशक्तिमत्ता और गरिमा  के भाव से पूर्ण बना लो। ईश्वरेच्छा से यदि कुसंस्कार पूर्णभाव तुम्हारे अन्दर प्रवेश न कर पाते तो अच्छा होता। ईश्वरकृपा से यदि हम लोग इस कुसंस्कार के प्रभाव तथा दुर्बलता और नीचता के भाव से परिवेष्टित न होते तो कितना अच्छा होता ! ईश्वरेच्छा से यदि मनुष्य अपेक्षाकृत सहज उपाय द्वारा उच्चतम, महत्तम (इन्द्रियातीत ?) सत्यों को  प्राप्त कर सकता तो कितना अच्छा होता! किन्तु उसे इन सब में से होकर ही जाना पड़ता है; जो लोग तुम्हारे पीछे आ रहे हैं, उनके लिए रास्ता अधिक दुर्गम न बनाओ।

 All your actions will be magnified, transformed, deified, by the very power of the thought. If matter is powerful, thought is omnipotent. Bring this thought to bear upon your life, fill yourselves with the thought of your almightiness, your majesty, and your glory. Would to God no superstitions had been put into your head! Would to God we had not been surrounded from our birth by all these superstitious influences and paralyzing ideas of our weakness and vileness! Would to God that mankind had had an easier path through which to attain to the noblest and highest truths! But man had to pass through all this; do not make the path more difficult for those who are coming after you.

তখন ঐ চিন্তাশক্তি-প্রভাবে তোমার সমুদয় কর্মই পরিবর্তিত হইয়া উন্নত দেবভাবাপন্ন হইয়া যাইবে। জড় যদি শক্তিশালী হয়, চিন্তা তবে সর্বশক্তিমান‍্। সেই চিন্তা, সেই ধ্যান লইয়া আইস , নিজেকে নিজের সর্বশক্তিমত্তা ও মহত্ত্বের ভাবে পূর্ণ করিয়া ফেলো। ঈশ্বরেচ্ছায় তোমাদের মাথায় কুসংস্কারপূর্ণ ভাবগুলি যদি মোটেই প্রবেশ না করিত! ঈশ্বরেচ্ছায় যদি আমরা এই কুসংস্কারের প্রভাব, দুর্বলতা ও নীচত্বের দ্বারা পরিবেষ্টিত না হইতাম! ঈশ্বরেচ্ছায় যদি মানুষ অপেক্ষাকৃত সহজ উপায়ে উচ্চতম মহত্তম সত্যসমূহে পৌঁছিতে পারিত! কিন্তু মানুষকে এই-সকলের মধ্য দিয়াই যাইতে হয়; যাহারা তোমার পরে আসিতেছে, তাহাদের জন্য পথ দুর্গমতর করিও না।

ये सब बातें मनुष्य को प्रायः भयानक प्रतीत होती हैं । मैं जानता हुँ, बहुत से लोग ये सब उपदेश सुनकर भयभीत हो जाते हैं, किन्तु जो व्यावहारिक स्तर पर  अभ्यास करना चाहते हैं, उनके लिए यही पहला पाठ है। अपने को अथवा दूसरे को कभी दुर्बल मत कहना है। यदि कर सको तो जगत  का कल्याण करो, पर उसका  अनिष्ट न करो। अपने हृदय के अन्दर से यह समझ लो कि तुम्हारे ये क्षुद्र क्षुद्र भाव एवं काल्पनिक पुरुषों के सामने घुटने टेककर तुम्हारा रोना या प्रार्थना करना केवल कुसंस्कार है। मुझे एक ऐसा उदाहरण बताओ जहाँ बाहर से इन प्रार्थनाओं का उत्तर मिला हो। जो भी उत्तर पाते हो वह अपने हृदय से ही। तुम लोगों में से बहुतों का विश्वास है कि भूत नहीं होते, किन्तु अन्धकार में जाते ही शरीर कछ काँप-सा जाता है। इसका कारण यह है कि बिलकुल बचपन से ही हम लोगों के सिर (Head) में यह सब भय घुसा दिया गया है

These are sometimes terrible doctrines to teach. I know people who get frightened at these ideas, but for those who want to be practical, this is the first thing to learn. Never tell yourselves or others that you are weak. Do good if you can, but do not injure the world. You know in your inmost heart that many of your limited ideas, this humbling of yourself and praying and weeping to imaginary beings are superstitions. Tell me one case where these prayers have been answered. All the answers that came were from your own hearts. You know there are no ghosts, but no sooner are you in the dark than you feel a little creepy sensation. That is so because in our childhood we have had all these fearful ideas put into our heads.

অনেক সময় এই-সকল তত্ত্ব লোকের নিকট ভয়ানক বলিয়া মনে হয়। আমি জানি, অনেকে এই-সকল উপদেশ শুনিয়া ভীত হইয়া থাকে; কিন্তু যাহারা যথার্থই এই ভাব কার্যে পরিণত করিতে চায়, তাহাদের পক্ষে ইহাই প্রথম শিক্ষা। নিজেকে অথবা অপরকে দুর্বল বলিও না। যদি পারো লোকের ভাল কর, জগতের অনিষ্ট করিও না। অন্তরের অন্তরে জানো যে, তোমাদের ক্ষুদ্র ক্ষুদ্র ভাব—নিজদিগকে কাল্পনিক ব্যক্তির সমক্ষে অবনত করিয়া রোদন করা—কুসংস্কার মাত্র। আমাকে এমন একটি উদাহরণ দেখাও, যেখানে বাহির হইতে এই প্রার্থনাগুলির উত্তর পাওয়া গিয়াছে। যাহা কিছু উত্তর আসিয়াছে, তাহা নিজের হৃদয় হইতে। তোমরা অনেকেই মনে কর, ভূত নাই, কিন্তু অন্ধকারে গা একটু ছমছম করিতে থাকে। ইহার কারণ অতি শৈশবকাল হইতেই এই-সব ভয় মাথায় ঢুকাইয়া দেওয়া হইয়াছে

 किन्तु हमें यह अभ्यास करना पड़ेगा कि,  समाज का भय, संसार के कहने-सुनने का भय, बन्धु-बान्धवों की घृणा का भय, प्रिय अन्धविश्वासों के नष्ट होने का भय से, यह सब हम दूसरों के मस्तिष्क में नहीं घुसायेंगे। इस प्रवृत्ति को जीत लो। केवल विश्वब्रह्माण्ड का  एकत्व और आत्मविश्वास के अतिरिक्त और क्या शिक्षा आवश्यक है ? शिक्षा केवल इतनी ही देनी है। हजारों साल से मनुष्य इसी लक्ष्य की प्राप्ति की चेष्टा करता आ रहा है, और अभी भी कर रहा है। अब तुम्हारी बारी है , और उस परम् सत्य को तुम जान चुके हो। क्योंकि  सब ओर से हम यही शिक्षा पाते हैं। केवल दर्शन और मनोविज्ञान ही नहीं, भौतिक विज्ञान भी उसी की घोषणा करता है। क्या ऐसा एक वैज्ञानिक दिखा सकते हो, जो जगत् के एकत्व को अस्वीकृत कर दे? आज कौन अनेक जगतों की बातें कहने का साहस कर सकता है? वह सब कुसंस्कार मात्र है।

 But do not teach these things to others through fear of society and public opinion, through fear of incurring the hatred of friends, or for fear of losing cherished superstitions. Be masters of all these. What is there to be taught more in religion than the oneness of the universe and faith in one's self? All the works of mankind for thousands of years past have been towards this one goal, and mankind is yet working it out. It is your turn now and you already know the truth. For it has been taught on all sides. Not only philosophy and psychology, but materialistic sciences have declared it. Where is the scientific man today who fears to acknowledge the truth of this oneness of the universe? Who is there who dares talk of many worlds? All these are superstitions.

সমাজের ভয়ে, লোকে কি বলিবে—এই ভয়ে, বন্ধু-বান্ধবের ঘৃণার ভয়ে, কুসংস্কার নষ্ট হইবার ভয়ে অপরকে এগুলি শিখাইবে না। এই-সকল প্রবৃত্তি জয় কর। ধর্ম বিষযে শিখাইবার আর বেশী আছে কি?—কেবল বিশ্বের একত্ব ও নিজের উপর বিশ্বাস। শিক্ষা দিবার আছে কেবল এইটুকু। লক্ষ লক্ষ বৎসর ধরিয়া মানুষ এই একত্ব অনুভব করিবার চেষ্টাই করিয়া আসিয়াছে, আর এখনও করিতেছে। আমরা জানি, তোমারও এখন ইহা শিক্ষা দিতেছ। সকল দিক হইতেই এই শিক্ষা আমরা পাইতেছি। কেবল দর্শন ও মনোবিজ্ঞান নয়, জড়বিজ্ঞানও ইহাই ঘোষণা করিতেছে। এমন বৈজ্ঞানিক কি দেখাইতে পারো, যিনি আজ জগতের একত্ব অস্বীকার করিতে পারেন? জগতের নানাত্ব প্রচার করিতে কে এখন সাহস করে? এই সবই তো কুসংস্কারমাত্র! 

 केवल एक ही प्राण, एक ही जीवन, एक ही जगत (one soul, one life, one universe) सर्वत्र विद्यमान है, और वही हम लोगों के सामने अनेकवत् प्रतीत होता है। यह अनेकता (diversity) किसी स्वप्न के सदृश है।  जिस प्रकार स्वप्न देखते समय एक के बाद दूसरा स्वप्न आता है। लेकिन स्वप्न में जो देखा जाता है वह सत्य तो नहीं है। एक स्वप्न के बाद दूसरा स्वप्न दिखायी पड़ता है- विभिन्न दृश्य तुम्हारी आँखों के सामने उद्भासित होते रहते हैं। इसी प्रकार यह  जगत् पन्द्रह आने (90 %) दुःखरूप और एक आना (10%) सुखरूप जान पड़ता है। हो सकता है कुछ दिन बाद ही यह जगत हमें पन्द्रह आने (90 %) सुखरूप प्रतीत होने लगे तब हम इसे स्वर्ग कहेंगे। 

There is only one life and one world, and this one life and one world is appearing to us as manifold. This manifoldness is like a dream. When you dream, one dream passes away and another comes. You do not live in your dreams. The dreams come one after another, scene after scene unfolds before you. So it is in this world of ninety percent misery and ten percent happiness. Perhaps after a while, it will appear as ninety percent happiness, and we shall call it heaven,

একমাত্র প্রাণ বিদ্যমান, একমাত্র জগৎ বিদ্যমান , আর তাহাই আমাদের চক্ষে ‘নানা’ রূপে প্রতিভাত হইতেছে, যেমন স্বপ্নদর্শনকালে একটি স্বপ্নের পরে আর একটি স্বপ্ন আসে। স্বপ্নে যাহা দেখ, তাহা তো সত্য নয়। একটি স্বপ্নের পর আর একটি স্বপ্ন আসে—বিভিন্ন দৃশ্য চোখের সামনে উদ্ভাসিত হইতে থাকে। এই জগৎ সম্বন্ধেও এইরূপ। এখন ইহা পনের আনা দুঃখ ও এক আনা সুখরূপে প্রতিভাত হইতেছ। হয়তো কিছুদিন পরে ইহাই পনের আনা সুখে পরিপূর্ণ মনে হইবে—তখন আমরা ইহাকে স্বর্গ বলিব। 

किन्तु सिद्धावस्था प्राप्त होने पर (पूर्णावस्था या 100 % निःस्वार्थपरता प्राप्त होने पर) सत्यान्वेषी के सामने एक ऐसी अवस्था आती है, जब यह सम्पूर्ण जगत्-प्रपंच (पृथ्वी,सूर्य, चंद्र-पूरा ब्रह्माण्ड) बहुत तेजी से घूमता हुआ) अन्तर्हित (vanish या गायब) हो जाता है - (माँ जगदम्बा की कृपा से व्युत्थान के बाद) यह जगत और अपनी आत्मा साक्षात् ब्रह्मरूप (सच्चिदानन्द-रूप) अनुभव होती है। अतएव, जगत अनेक नहीं हैं, जीवन अनेक नहीं हैं। प्रतीत होने वाला यह 'बहुत्व' उस 'एकत्व' की ही अभिव्यक्ति है है। केवल वह 'एक' (ब्रह्म-शक्ति) ही अपने को बहुरूप में-- जड़, चेतन, मन, विचार अथवा अन्य विविध नाम-रूपों व्यक्त कर रहा है। अतएव, हम लोगों का (Indian Vedantists का भारत-वासी वेदान्तियों का) प्रथम कर्तव्य है - इस ब्रह्मात्मैक्य के विषय में स्वयं को  तथा दूसरों को शिक्षा देना।

But a 'time' comes to the sage when the whole thing vanishes, and this world appears as God Himself, and his own soul as God. It is not therefore that there are many worlds, it is not that there are many lives. All this manifoldness is the manifestation of that One. That One is manifesting Himself as many, as matter, spirit, mind, thought, and everything else. It is that One, manifesting Himself as many. Therefore the first step for us to take is to teach the truth to ourselves and to others.

কিন্তু সিদ্ধ হইলে এমন এক অবস্থা আসিবে, যখন এই সমুদয় জগৎপ্রপঞ্চ আমাদের সম্মুখ হইতে অন্তর্হিত হইবে—উহা ব্রহ্মরূপে প্রতিভাত হইবে এবং আমাদের আত্মাকেও আমরা ব্রহ্ম বলিয়া অনুভব করিব। অতএব নানা জগৎ, নানা জীবন বলিয়া কিছু নাই। এই বহু সেই একেরই বিকাশমাত্র। সেই একই আপনাকে বহুরূপে প্রকাশ করিতেছেন—জড় বা চৈতন্য, মন বা চিন্তা-শক্তি অথবা অন্য কোনরূপে। সেই একই নিজেকে বহুরূপে প্রকাশিত করিতেছেন। অতএব আমাদের প্রথম সাধন—নিজেকে ও অপরকে এই তত্ত্ব শিক্ষা দেওয়া।

सम्पूर्ण विश्व इस महान् आदर्श की घोषणा - 'अनेकता में एकता, भारत की विशेषता '  से इस प्रकार प्रतिध्वनित हो कि- उसके सब कुसंस्कार दूर हो जायें। दुर्बल मनुष्यों को यही सुनाते रहो- लगातार सुनाते रहो- 'तुम शुद्धस्वरूप हो, उठो, जागृत हो जाओ। हे शक्तिमान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती। उठो, जागो इस प्रकार मोहनिद्रा में पड़े रहना तुम्हें भाता नहीं। तुम अपने को दुर्बल और दुःखी मत समझो। हे सर्वशक्तिमान्,  उठो, जाग्रत  होओ, अपना स्वरूप प्रकाशित करो। तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। 'जगत् से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो- देखो, इसका क्या व्यावहारिक फल होता है,  देखो , कैसे बिजली के प्रकाश से सभी वस्तुएं (अपने सियाराम स्वरुप में) प्रकाशित हो उठती हैं , और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है। मनुष्य जाति से यही कहते रहो- उसे उसकी शक्ति दिखा दो। ऐसा होने से ही हम अपने दैनन्दिन जीवन में व्यावहारिक वेदान्त का प्रयोग करना सीख सकेंगे। 

Let the world resound with this ideal, and let superstitions vanish. Tell it to men who are weak and persist in telling it. You are the Pure One; awake and arise O mighty one, this sleep does not become you. Awake and arise, it does not befit you. Think not that you are weak and miserable. Almighty, arise and awake, and manifest your own nature. It is not fitting that you think yourself a sinner. It is not fitting that you think yourself weak. Say that to the world, say it to yourselves, and see what a practical result comes, see how with an electric flash everything is manifested, how everything is changed. Tell that to mankind, and show them their power. Then we shall learn how to apply it in our daily lives.

পৃথিবীতে এই মহান্ আদর্শের ঘোষনা প্রতিধ্বনিত হউক—কুসংস্কারগুলি দূর হউক। দুর্বল মানুষকে শুনাইতে থাকো, ক্রমাগত শুনাইতে থাকো : তুমি শুদ্ধস্বরূপ; ওঠ, জাগো; হে মহান‍্ এই নিদ্রা তোমার সাজে না। ওঠ , এই মোহ তোমার সাজে না। তুমি নিজেকে দুর্বল ও দুঃখী মনে করিতেছ? হে সর্বশক্তিমান‍্ ওঠ, জাগো; নিজস্বরূপ প্রকাশ কর। তুমি নিজেকে পাপী বলিয়া মনে কর, তোমার পক্ষে ইহা শোভা পায় না। তুমি নিজেকে দুর্বল বলিয়া ভাবো , ইহা তোমার উপযুক্ত নয়। জগৎকে বলিতে থাকো, নিজেকে বলিতে থাকো—দেখ ইহার কি শুভফল হয়, দেখ কেমন বিদ্যুৎ-ঝলকে সকল তত্ত্ব প্রকাশিত হয়, সব কিছু পরিবর্তিত হইয়া যায়। মনুষ্যজাতিকে বলিতে থাকো—তাহাদের শক্তি দেখাইয়া দাও। তাহা হইলেই দৈনিক জীবনে ইহা অনুশীলন করিতে শিখিব।

>>विवेक-प्रयोग > जिसे हम विवेक या सदसत्-विचार कहते हैं उसका-  अपने जीवन के प्रतिक्षण में एवं प्रत्येक कार्य में उपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए, हमें सत्य की कसोटी जान लेनी चाहिए- और वह है पवित्रता तथा एकत्व का ज्ञान। हमारे जिस-जिस व्यवहार से एकत्व की प्राप्ति होती हो, वही सत्य है। प्रेम सत्य है, घृणा असत्य है, क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है।  घृणा ही एक मनुष्य को दूसरे से पृथक् करती है- अतएव, वह अनुचित और अनुपयोगी है ; यह एक विनाशिनी शक्ति है, यह पृथक  करती है- नाश करती है। 

To be able to use what we call Viveka (discrimination), to learn how in every moment of our lives, in every one of our actions, to discriminate between what is right and wrong, true and false, we shall have to know the test of truth, which is purity, oneness. Everything that makes for oneness is truth. Love is truth, and hatred is false, because hatred makes for multiplicity. It is hatred that separates man from man; therefore it is wrong and false. It is a disintegrating power; it separates and destroys.

বিবেক সম্বন্ধে আমরা পরে আলোচনা করিব। তখন শিখিব,জীবনের প্রতি মুহূর্তে, আমাদর প্রতি কার্যে কিভাবে সদসৎ বিচার করিতে হয়, কিভাবে সত্যাসত্য নির্ধারণ করিতে হয়। সত্যের পরীক্ষা কি আমাদের জানিতে হইবে—তাহা এই পবিত্রতা, একত্ব। যাহাতে একত্ব হয়, যাহাতে মিলন হয়, তাহাই সত্য। প্রেমই সত্য, কারণ উহা মিলনকারক; ঘৃণা অসত্য, কারণ উহা বহুত্বের ভাব আনে—পৃথক‍্ করে। ঘৃণায় তোমা হইতে আমাকে পৃথক‍্ করে—অতএব ইহা অন্যায় ও অসত্য, ইহা একট বিভাজনী শক্তি, ইহাতে পৃথক্ করে—বিনষ্ট করে।

प्रेम जोड़ता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है। सभी एक हो जाते हैं- माँ सन्तान के साथ एकत्व प्राप्त करती है, परिवार नगर के साथ एकत्व प्राप्त करता है, यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के साथ यह सम्पूर्ण जगत् ही  एकीभूत हो जाता है।  क्योंकि प्रेम ही सत है, प्रेम ही भगवान् है और यह सभी कुछ उसी एक प्रेम का न्यूनाधिक प्रस्फुटन है। प्रभेद केवल मात्रा के तारतम्य में है , किन्तु यह दृष्टिगोचर जगत उसी एक प्रेम का प्रकट रूप है। 

Love binds, love, makes for that oneness. You become one, the mother with the child, families with the city, and the whole world become one with the animals. For love is Existence, God Himself; and all this is the manifestation of that One Love, more or less expressed. The difference is only in degree, but it is the manifestation of that One Love throughout.

প্রেমে মিলায়, প্রেম একত্বসম্পাদক।সকলে এক হইয়া যায়—মা সন্তানের সহিত একত্ব প্রাপ্ত হন, পরিবারগুলি নগরের সহিত একত্ব প্রাপ্ত হয়। এমন কি সমুদয় ব্রহ্মাণ্ড সকল প্রাণীর সহিত এক হইয়া যায়। কারণ প্রেমই বাস্তবিক অস্তিত্ব, প্রেমই স্বয়ং ভগবান‍্, আর সবই প্রেমের বিভিন্ন বিকাশ—স্পষ্ট বা অস্পষ্টরূপে প্রকাশিত। প্রভেদ কেবল মাত্রার তারতম্যে, কিন্তু বাস্তবিক সকলই প্রেমের প্রকাশ। 

अतएव हम लोगों को कुछ करने से पहले विवेक-प्रयोग करके यह देखना चाहिए कि हम जो करने जा रहे हैं, वह कर्म अनेकत्व -विधायक हैं अथवा एकत्व-सम्पादक ?  यदि वे अनेकत्व - विधायक हैं तो उनका त्याग करना होगा।  और यदि वे एकत्व सम्पादक हैं तो उन्हें सत्कर्म समझना चाहिए। इसी प्रकार विचारों के सम्बन्ध में भी सोचना चाहिए। देखना चाहिए कि उससे अनेकत्व उत्पन्न होगा या एकत्व ? देखना चाहिए कि वव एक आत्मा को दूसरी आत्मा से मिलाकर एक महान् शक्ति उत्पन्न करते हैं या नहीं ?  यदि करते हैं , तो ऐसे विचारों  का पोषण करना चाहिए- अन्यथा उन्हें अपराध समझकर त्याग देना चाहिए। 

Therefore in all our actions we have to judge whether it is making for diversity or for oneness. If for diversity we have to give it up, but if it makes for oneness we are sure it is good. So with our thoughts; we have to decide whether they make for disintegration, multiplicity, or for oneness, binding soul to soul and bringing one influence to bear. If they do this, we will take them up, and if not, we will throw them off as criminals.

 অতএব দেখিতে হইবে, আমাদের কর্মগুলি একত্বসম্পাদক, না বহুবনিধায়ক। যদি বহুবিধায়ক হয়,তবে ঐগুলি ত্যাগ করিতে হইবে,আর যদি একত্বসম্পাদক হয় , তবে ঐগুলি সৎকর্ম বলিয়া জানিবে। চিন্তাসম্বন্ধেও এইরূপ। দেখিতে হইবে, উহা বহুত্ববিধায়ক বা একত্বসম্পাদক; দেখিতে হইবে—উহা আত্মায় আত্মায় মিলাইয়া দিয়া এক মহাশক্তি উৎপাদন করিতেছি কি-না। যদি তাহা করে, তবে ঐরূপ ভাব গ্রহণ করিতে হইবে—যদি না করে, তবে উহা পাপচিন্তা বলিয়া পরিত্যাগ করিতে হইবে।

वैदान्त का नीतिशास्त्र  (ethics) किसी अज्ञय वस्तु (unknowable object) के ऊपर आधारित नहीं है, अथवा वह किसी अज्ञेय तत्व का उपदेश नहीं करता। बल्कि उपनिषदों की भाषा में कहता है - ' जिस ईश्वर को तुम एक अज्ञात ईश्वर मानकर उपासना कर रहे थे, मैं तुम्हें उसी ईश्वर को अपनी आत्मा समझकर उपासना करने का उपदेश कर रहा हूँ। ' तुम जो कुछ जानते हो , आत्मा के द्वारा ही जानते हो।  मैं इस कुर्सी को देख रहा हूँ, किन्तु इस कुर्सी को देखने से पहले मुझे अपने स्वयं का ज्ञान होता है, उसके बाद कुर्सी का। इस आत्मा में और उसके द्वारा ही मुझे तुम्हारा ज्ञान होता है , सम्पूर्ण जगत् का ज्ञान होता है । अतएव आत्मा को अज्ञात कहना केवल प्रलाप है। 'आत्मा को हटा लेने से , सम्पूर्ण जगत् ही विलुप्त हो जाता है।' ^ (केन उपनिषद -२.४)  आत्मा  के द्वारा ही सम्पूर्ण ज्ञान होता है,  अतएव यही सबसे अधिक ज्ञात वस्तु  है। यही 'तुम' हो जिसको तुम 'मैं' कहते हो। तुम लोग यह सोचकर आश्चर्य करते हो कि मेरा 'मैं' भला तुम्हारा 'मैं' कैसे हो सकता है ?  तुम्हें आश्चर्य होता है कि यह सान्त 'मैं' किस प्रकार अनन्त असीमस्वरूप हो सकता है? किन्तु वास्तव में यही बात सत्य है।

The whole idea of ethics is that it does not depend on anything unknowable, it does not teach anything unknown, but in the language of the Upanishad, "The God whom you worship as an unknown God, the same I preach unto thee." It is through the Self that you know anything. I see the chair; but to see the chair, I have first to perceive myself and then the chair. It is in and through the Self that the chair is perceived. It is in and through the Self that you are known to me, that the whole world is known to me; and therefore to say this Self is unknown is sheer nonsense. Take off the Self and the whole universe vanishes. In and through the Self all knowledge comes. Therefore it is the best known of all. It is yourself, that which you call I. You may wonder how this I of me can be the I of you. You may wonder how this limited I can be the unlimited Infinite, but it is so.

বৈদান্তিক নীতিবিজ্ঞানের সার কথাই এই—উহা কোন অজ্ঞেয় বস্তুর উপর নির্ভর করে না, অথবা উহা অজ্ঞেয় কিছু শিখায়ও না, কিন্তু সেন্ট পল যেমন রোমকগণকে বলিয়াছিলেন তেমনি বলে, ‘যাঁহাকে তোমরা অজ্ঞেয় মনে করিয়া উপাসনা করিতেছ, আমি তাঁহার সম্বন্ধেই তোমাদিগকে শিক্ষা দিতেছি।’ আমি এই চেয়ারখানির জ্ঞান লাভ করিতেছি, কিন্তু এই চেয়ারখানিকে জানিতে হইলে প্রথমে আমার ‘আমি’র জ্ঞান হয়, তারপর চেয়ারটির জ্ঞান হয়। আত্মার ভিতর দিয়াই চেয়ারটি জ্ঞাত হয়। এই আত্মার মধ্য দিয়াই আমি তোমার জ্ঞান লাভ করি—সমুদয় জগতের জ্ঞান লাভ করি। অতএব আত্মাকে অজ্ঞাত বলা প্রলাপ মাত্র। আত্মাকে সরাইয়া লও, সমুদয় জগৎই উড়িয়া যাইবে; আত্মার ভিতর দিয়াই সমুদয় জ্ঞান আসে,১ অতএব ইহাই সর্বাপেক্ষা অধিক জ্ঞাত। ইহাই ‘তুমি’—যাহাকে তুমি ‘আমি’ বলো। তোমরা ভাবিয়া আশ্চর্য হইতে পারো যে, আমার ‘আমি’ আবার তোমার ‘আমি’ কিরূপে হইবে?তোমরা আশ্চর্য বোধ করিতে পারো,এই সান্ত ‘আমি’ কিরূপে অনন্ত অসীম হইবে? কিন্তু বাস্তবিক তাই; 

 सान्त 'मैं' (मिथ्या अहं) केवल भ्रम (illusion) मात्र है, गल्प (fiction-कल्पित कथा) मात्र है। उसी अनन्त के के ऊपर मानो एक आवरण पड़ा हुआ है, और उसका कुछ अंश इस 'मैं' रूप में प्रकाशित हो रहा है, किन्तु वास्तव में वह उसी अनन्त का अंश है। यथार्थ में असीम कभी ससीम नहीं होता 'ससीम' केवल कहने की बात है। अतएव यह आत्मा नर-नारी, बालक-बालिका, यहाँ तक कि पशु-पक्षी सभी को ज्ञात है। उसको बिना जाने हम क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकते। उस सर्वेश्वर प्रभु को बिना जाने हम लोग एक क्षण भी श्वास-प्रश्वास तक नहीं ले सकते, न गतिशील हो सकते, न अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं।  वेदान्त का ईश्वर (अपने ह्रदय में विराजमान आत्मा) सब चीजों की अपेक्षा अधिक ज्ञात है; वह कभी कल्पनाप्रसूत नहीं है। 

The limited 'I' is a mere fiction. The Infinite has been covered up, as it were, and a little of It is manifesting as the I. Limitation can never come upon the unlimited; it is a fiction. The Self is known, therefore, to every one of us — man, woman, or child — and even to animals. Without knowing Him we can neither live nor move, nor have our being; without knowing this Lord of all, we cannot breathe or live a second. The God of the Vedanta is the most known of all and is not the outcome of imagination.

সান্ত ‘আমি’ গল্পকথামাত্র। সেই অনন্তের উপর যেন একটা আবরণ পড়িয়াছে, আর উহার কতকাংশ এই ‘আমি’-রূপে প্রকাশিত হইতেছে, কিন্তু উহা বাস্তবিক সেই অনন্তের অংশ। বাস্তবিকপক্ষে অসীম কখন সসীম হন না-‘সসীম’ কথার কথা মাত্র। অতএব সেই আত্মা নর-নারী, বালক-বালিকা, এমন কি পশু-পক্ষী—সকলেরই জ্ঞাত। তাঁহাকে না জানিয়া আমরা ক্ষণকালও জীবনধারণ করিতে পারি না। সেই সর্বেশ্বর প্রভুকে না জানিয়া আমরা একটি নিশ্বাস ফেলিতে বা জীবনধারণ করিতে পারি না; আমাদের গতি শক্তি চিন্তা জীবন—সকলই তাঁহা দ্বারা পরিচালিত। বেদান্তের ঈশ্বর সর্বাধিক জ্ঞাত ,কখনও কল্পনা প্রসূত নহেন।

यदि यह, (सबों के ह्रदय में विराजमान आत्मा) प्रत्यक्ष ईश्वर नहीं है तो फिर प्रत्यक्ष ईश्वर और कौन हो सकता है? यदि यह एक व्यावहारिक ईश्वर की शिक्षा नहीं है, तो फिर किस प्रकार से तुम उसकी शिक्षा दे सकोगे ? जो ईश्वर, जो सब प्राणियों में विराजमान है, हमारी इन्द्रियों से भी अधिक सत्य है; मैं जिसे सम्मुख देख रहा हूँ, उनसे भी अधिक प्रत्यक्ष और व्यावहारिक ईश्वर कहाँ होगा?  क्योंकि, तुम्हीं वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् ईश्वर हो, और यदि यह हूँ कि तुम वह नहीं हो तो मैं झूठ बोलता हूँ। सारे समय में इसकी अनुभूति करू या न करूं, फिर भी सत्य यही है। वह एक अखण्ड वस्तुस्वरूप (सच्चिदानन्द) ही , सर्व वस्तुओं की एकता, समस्त प्राणियों का जीवन और सम्पूर्ण अस्तित्व का यथार्थ स्वरूप हैं। 

If this is not preaching a practical God, how else could you teach a practical God? Where is there a more practical God than He whom I see before me — a God omnipresent, in every being, more real than our senses? For you are He, the Omnipresent God Almighty, the Soul of your souls, and if I say you are not, I tell an untruth. I know it, whether at all times I realize it or not. He is the Oneness, the Unity of all, the Reality of all life and all existence.

প্রত্যক্ষ না হন, তবে আর প্রত্যক্ষ যদি কি? ঈশ্বর, যিনি সকল প্রাণীতে বিরাজিত,—আমাদের ইন্দ্রিয়গণ হইতেও অধিক সত্য। আমি যাঁহাকে সম্মুখে দেখিতেছি, তাঁহা হইতেও প্রত্যক্ষ ঈশ্বর আর কি দেখিতে চাও? কারণ তুমিই তিনি, সেই সর্বব্যাপী সর্বশক্তিমান‍্ ঈশ্বর; আর যদি বলি, তুমি তাহা নও, তবে আমি মিথ্যা কথা বলিতেছি। সকল সময়ে আমি ইহা উপলব্ধি করি বা না করি, তথাপি আমি ইহা জানি। তিনিই এক অখণ্ড সত্তা, সর্ববস্তুর একত্বস্বরূপ সমুদয় জীবন ও অস্তিত্বের যথার্থস্বরূপ।

वेदान्त के नीतिशास्त्र के इन सभी विचारों को और भी विस्तारित भाव से कहना पड़ेगा। अतएव थोड़ा सा धैर्य रखना आवश्यक है। पहले ही कह चुका हूँ, हम लोगों को इसकी विस्तृत आलोचना करनी पड़ेगी- और यह भी देखना होगा कि किस प्रकार यह आदर्श निम्नतर आदर्शों से क्रमशः विकसित हुआ है, और किस प्रकार इस एकत्व का आदर्श धीरे धीरे विकसित होकर क्रमशः सार्वजनीन प्रेम रूप में परिणत हो रहा है। विश्वयुद्ध के खतरों से बचने के लिए , इन सब तत्वों का अध्यन आवश्यक है। विश्व के अन्य देश (रूस -यूक्रेन) तो निम्नतम आदर्श से धीरे धीरे ऊपर उठने के इंतजार में रुके  नहीं रह सकते। किन्तु हमारे (भारत के राजर्षियों) ऊँचे सोपान पर चढ़ने का फल ही क्या, यदि हम यह सत्य बाद में आने वाली, अपनी भावी पीढ़ियों (नेताओं) को न दे सकें

These ideas of the ethics of Vedanta have to be worked out in detail, and, therefore, you must have patience. As I have told you, we want to take the subject in detail and work it up thoroughly, to see how the ideas grow from very low ideals, and how the one great Ideal of oneness has developed and become shaped into the universal love; and we ought to study these in order to avoid dangers. The world cannot find time to work it up from the lowest steps. But what is the use of our standing on higher steps if we cannot give the truth to others coming afterwards?

বেদান্তের এই-সকল ভাব পুঙ্খানুপুঙ্খরূপে কার্যে পরিণত করিতে হইবে। অতএব একটু ধৈর্য অবলম্বন করা প্রয়োজন। পূর্বেই বলিয়াছি, আমাদিগকে ইহা বিস্তারিতভাবে আলোচনা করিতে হইবে—বিশেষতঃ জীবনের প্রত্যেক ঘটনায় কিভাবে উহা কার্যে পরিণত করা যায় দেখিতে হইবে, আর ইহাও দেখিতে হইবে, কিভাবে এই আদর্শ নিম্নতর আদর্শসমূহ হইতে ক্রমশঃ বিকাশিত হইতেছে, কিভাবে এই একত্বের আদর্শ আমাদের পারিপার্শ্বিক সমুদয় ভাব হইতে ধীরে ধীরে বিকশিত হইয়া ক্রমশঃ সর্বজনীন প্রেমে পরিণত হইতেছে; সব দিক দিয়া এগুলি আলোচনা করা আমাদের অবশ্য কর্তব্য, তাহা হইলে আমরা আর বিপদে পড়িব না। কিন্তু সমগ্র জগৎ তো আর নিম্নতম আদর্শ হইতে ক্রমশঃ উচ্চে আরোহণ করিবার সময় নাও পাইতে পারে ; কিন্তু উচ্চতর সোপান- আরোহণে কি সার্থকতা—যদি পরবর্তিগণকে আমরা ঐ সত্য সহজে শিক্ষা না দিতে পারি? 

इसीलिए, इसकी आलोचना हमें विशेष रूप से विस्तार पूर्वक करनी होगी और प्रथमतः उसके बौद्धिक पक्ष को  स्पष्ट रूप से समझना आवश्यक है।  यद्यपि हम जानते हैं कि विचार का विशेष मूल्य नहीं, हृदय ही सब से अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि, हृदय के द्वारा भगवत्साक्षात्कार होता है, बुद्धि के द्वारा नहीं। बुद्धि केवल जमादार के समान रास्ता साफ कर देती है- वह गौण सहायक है, पुलिस के समान है- किन्तु समाज के सुन्दर परिचालन के लिए पुलिस सकारात्मक आवश्यकता नहीं होती। पुलिस का कार्य केवल शांति-व्यवस्था बनाये रखने के लिए उपद्रव को रोकना और अन्याय निवारण करना है। बुद्धि का कार्य भी इतना ही है। 

Therefore, it is better to study it in all its workings; and first, it is absolutely necessary to clear the intellectual portion, although we know that intellectuality is almost nothing; for it is the heart that is of the most importance. It is through the heart that the Lord is seen, and not through the intellect. The intellect is only the street cleaner, cleansing the path for us, a secondary worker, the policeman; but the policeman is not a positive necessity for the workings of society. He is only to stop disturbances, to check wrong-doing, and that is all the work required of the intellect.

অতএব বিষয়টি বিশেষরূপে তন্ন তন্ন করিয়া আলোচনা করা আবশ্যক, আর প্রথমতঃ উহার জ্ঞানভাগ—বিচারাংশ বিশেষরূপে বুঝা আবশ্যক, যদিও আমরা জানি, বিচারের বিশেষ কিছু মূল্য নাই, হৃদয়েরই প্রয়োজন বেশী। হৃদয়ের দ্বারাই ভাগবৎসাক্ষাৎকার হয়, বুদ্ধি দ্বারা নয়। বুদ্ধি কেবল ঝাড়ুদারের মতো রাস্তা পরিষ্কার করিয়া দেয়—উহা গৌণভাবে আমাদের উন্নতির সহায়ক হইতে পারে। বুদ্ধি প্রহরীর মতো, কিন্তু সমাজের সুষ্ঠু পরিচালনার জন্য প্রহরীর বেশী প্রয়োজন নাই। তাহাকে কেবল গোলমাল থামাইতে হয়, অন্যায় নিবারণ করিতে হয়। বিচারশক্তির—বুদ্ধির কার্যও ততটুকু।

जब तुम इस प्रकार की कोई बौद्धिक पुस्तक पढ़ते हो, तब उन पर अधिकार कर लेने, या आत्मसात  कर लेने पर तुम यही सोचते हो कि ' ईश्वर को धन्यवाद है , मैं उसकी बौद्धिकता से बाहर निकल आया। ' इसका कारण यह है कि बुद्धि अन्धी है, उसकी अपनी गतिशक्ति नहीं है, उसके हाथ पैर नहीं हैं। हृदय (Heart) की भावना (प्रेम) ही वास्तव में कार्य करता है, उसकी गति बिजली अथवा उससे भी अधिक वेगवान पदार्थ की अपेक्षा द्रुतगामी होती है। अब प्रश्न यह है कि क्या तुम्हारे हृदय में प्रेम की भावना है?

When you read intellectual books, you think when you have mastered them, "Bless the Lord that I am out of them", because the intellect is blind and cannot move of itself, it has neither hands nor feet. It is a feeling that works, that moves with speed infinitely superior to that of electricity or anything else. Do you feel? — that is the question.

 এইরূপ বুদ্ধি-বিচারের পুস্তক যখন পড়া হয়, তখন একবার উহা আয়ত্ত হইলে সকলেরই তো মনে হয়, ঈশ্বরেচ্ছায় ইহা হইতে বাহির হইয়া বাঁচিলাম। কারণ বিচার-শক্তি অন্ধ, ইহার নিজের গতিশক্তি নাই, হাত-পাও নাই। হৃদয়—অনুভবই বাস্তবিক কাজ করে, উহা বিদ্যৎ অথবা আরও দ্রুতগামী বস্তু অপেক্ষা দ্রুত গমন করিয়া থাকে। প্রশ্ন এই—তোমাদের হৃদয় আছে কি?

यदि तुम्हारे पास विकसित ह्रदय है, तो तुम उसके द्वारा ही ईश्वर को देखोगे। आज तुम्हारी जितनी भी भावना है,  वही प्रबल होती जायेगी- देवभावापन्न होती रहेगी। उच्चतम भूमिका में प्रतिष्ठित होगी, और अन्ततः वह हर प्राणी से प्रेम का अनुभव करेगी। प्रत्येक प्राणियों के साथ एकत्व, स्वयं में तथा प्रत्येक अन्य वस्तु में ईश्वर का अनुभव करने लगेगी। किन्तु बुद्धि (Head) चाहे कितनी विकसित हो , यह नहीं कर सकती।" विचित्र रूप से शब्दों की जोड़तोड़, शास्त्र व्याख्या की विभिन्न शैलियाँ -केवल पण्डितों के लिए हैं, हमारे लिए नहीं, आत्मा की मुक्ति के लिए नहीं।” (विवेक चूड़ामणि -५८) 

If you do, you will see the Lord: It is the feeling that you have today that will be intensified, deified, raised to the highest platform, until it feels everything, the oneness in everything, till it feels God in itself and in others. The intellect can never do that. "Different methods of speaking words, different methods of explaining the texts of books, these are for the enjoyment of the learned, not for the salvation of the soul" (Vivekachudâmani, 58).

যদি থাকে, তবে তুমি তাহা দ্বারাই ঈশ্বরকে দেখিবে। আজ যে তোমার হৃদয়ে এতটুকু অনুভব-শক্তি আছে, তাহাই প্রবল হইবে, ক্রমশঃ বাড়িতে থাকিবে—দেবভাবাপান্ন হইতে থাকিবে, যতদিন না উহা সবকিছুতে, সর্ববস্তুতে একত্ব অনুভব করিতে পারে—নিজের মধ্যে ও অপরের মধ্যে ঈশ্বরকে অনুভব করিতে পারে। বুদ্ধি তাহা পারে না। ‘বিভিন্নরূপে শব্দযোজনার কৌশল, শাস্ত্রব্যাখ্যা করিবার বিভিন্ন কৌশল কেবল পণ্ডিতদের আমোদের জন্য, মুক্তির জন্য নহে।’১

तुम लोगों में से जिन्होंने टामस-आ-केम्पिस की 'ईसा-अनुसरण' नामक पुस्तक पढ़ी है वे जानते हैं कि प्रति पृष्ठ में किस प्रकार उन्होंने इस बात पर जोर दिया है। संसार  के प्रायः हर सन्त  ने इसी पर जोर दिया है। बुद्धि भी आवश्यक है,  क्योंकि उसके बिना हम अनेक भ्रमों में पड़ जाते हैं, और भूलें करते हैं। विवेक-प्रयोग  शक्ति उसका निवारण करती है, इसके अतिरिक्त बुद्धि की नींव पर और कुछ निर्माण करने की चेष्टा न करना। वह केवल एक गौण सहायक मात्र है, वह अधिक कुछ नहीं कर पाती वास्तविक सहायता ह्रदय की भावना से, प्रेम से प्राप्त होती है। तुम क्या किसी दूसरे के लिए हृदय के अन्तस्तल से अनुभव करते हो? यदि करते हो तो तुम्हारे हृदय में एकत्व का भाव विकसित हो  रहा है। यदि तुम ऐसा नहीं करते तो तुम एक बहुत बड़े बुद्धिजीवी भले ही हो सकते हो, किन्तु तुम्हें कुछ मिलेगा नहीं केवल शुष्क बुद्धि का स्तूप बने रहोगे।  और यदि तुम हृदय से सबके प्रति प्रेम का अनुभव करते हो, तो एक पुस्तक न पढ़ सकते पर,  कोई भाषा न जानने पर भी, तुम  ठीक रास्ते पर चल  रहे हो। ईश्वर तुम्हारी सहायता करेंगे। 

Those of you who have read Thomas a Kempis know how in every page he insists on this, and almost every holy man in the world has insisted on it. Intellect is necessary, for without it we fall into crude errors and make all sorts of mistakes. Intellect checks these; but beyond that, do not try to build anything upon it. It is an inactive, secondary help; the real help is feeling, love. Do you feel for others? If you do, you are growing in oneness. If you do not feel for others, you may be the most intellectual giant ever born, but you will be nothing; you are but dry intellect, and you will remain so. And if you feel, even if you cannot read any book and do not know any language, you are in the right way. The Lord is yours.

তোমাদের মধ্যে যাহারা টমাস-আ-কেম্পিসের ‘ঈশা-অনুসরণ’ পুস্তক পাঠ করিয়াছ, তাহারাই জানো, প্রতি পৃষ্ঠায় কেমন তিনি অনুভবের উপর ঝোঁক দিতেছেন। জগতের প্রায় সকল মহাপুরুষই অনুভবের উপর জোর দিয়াছেন। বিচার আবশ্যক, বিচার না করিলে আমরা নানাপ্রকার ভ্রমে পড়ি। বিচারশক্তি ভ্রম নিবারণ করে, এতদ্ব্যতীত বিচারের ভিত্তিতে আর কিছু নির্মাণ করিবার চেষ্টা করিও না। উহা একটি নিষ্ক্রিয় গৌণ সহায়মাত্র; প্রকৃত সাহায্য অনুভবে, প্রেমে। তুমি কি অপরের জন্য প্রাণে প্রাণে অনুভব করিতেছ? যদি কর, তবে তোমার হৃদয়ে একত্বের ভাব বর্ধিত হইতেছে। যদি না কর, তবে তুমি একজন বড় বুদ্ধিজীবী হইতে পারো, কিন্তু তোমার কিছুই হইবে না—কেবল শুষ্ক বুদ্ধিবাদী হইয়াই থাকিবে। আর যদি তোমার হৃদয় থাকে, তবে একখানি বই পড়িতে না পারিলেও, কোন ভাষা না জানিলেও তুমি ঠিক পথে চলিতেছ। ঈশ্বর তোমার সহায় হইবেন।

क्या तुम्हें  विश्व के इतिहास में पैगम्बरों, (मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं) की शक्ति के स्रोत का पता नहीं चला ? यह शक्ति उन्हें कहाँ से मिली? बुद्धि से? उनमें से क्या कोई दर्शन सम्बन्धी सुन्दर पुस्तक लिख छोड़ गया है? अथवा न्याय के कूट विचार लेकर कोई पुस्तक लिख गया है? किसी ने ऐसी नहीं किया। वे केवल कुछ थोड़ीसी बातें कह गये हैं। ईसा के समान सहृदय बनो, तुम भी ईसा हो जाओगे, बुद्ध के समान सहृदय बनो, तुम भी बुद्ध बन जाओगे। ह्रदय में प्रेम भावना ही जीवन है, प्रेम की भावना  ही बल है, प्रेम की भावना ही तेज है— भावना  के बिना कितनी ही बुद्धि क्यों न लगाओ, ईश्वर प्राप्ति नहीं होगी।

Do you not know from the history of the world where the power of the prophets lay? Where was it? In the intellect? Did any of them write a fine book on philosophy, on the most intricate ratiocinations of logic? Not one of them. They only spoke a few words. Feel like Christ and you will be a Christ; feel like Buddha and you will be a Buddha. It is feeling that is the life, the strength, the vitality, without which no amount of intellectual activity can reach God.

জগতের ইতিহাসে মহাপুরুষদের শক্তির কথা কি পাঠ কর নাই? এ শক্তি তাঁহারা কোথা হইতে পাইয়াছিলেন?—বুদ্ধি হইতে? তাঁহাদের মধ্যে কেহ কি দর্শনসম্বন্ধীয় সুন্দর পুস্তক লিখিয়া গিয়াছেন? অথবা ন্যায়ের কূট বিচার লইয়া কোন গ্রন্থ লিখিয়াছেন? কেহই এরূপ করেন নাই। তাঁহারা কেবল গুটিকতক কথামাত্র বলিয়া গিয়াছেন। খ্রীষ্টের ন্যায় হৃদয়সম্পন্ন হও, তুমিও খ্রীষ্ট হইবে; বুদ্ধের ন্যায় হৃদয়বান‍্ হও, তুমিও একজন বুদ্ধ হইবে। হৃদয়ই জীবন, হৃদয়ই বল, হৃদয়ই তেজ—হৃদয় ব্যতীত যতই বুদ্ধির চালনা কর না কেন, কিছুতেই ঈশ্বরলাভ হইবে না।

बुद्धि मानो चलनशक्ति- रहित अंग प्रत्यंग के समान है। जब भावना  उसे अनुप्राणित करके गतियुक्त करती  है, तभी वह दूसरे के हृदय को स्पर्श करती है। जगत् में सदा से ऐसा ही होता आया है, अतएव यह विषय तुम्हें खूब याद रखना चाहिए। वैदान्ति नीतिशास्त्र  में यह एक सर्वाधिक व्यावहारिक बात है।  क्योंकि वेदान्त कहता है तुम सब भावी पैगम्बर हो- तुम सब को पैगम्बर  होना ही पड़ेगा। कोई शास्त्र तुम्हारे कार्यों का प्रमाण नहीं, किन्तु तुम्हीं शास्त्रों के प्रमाणस्वरूप हो। कौन ग्रन्थ सत्य की ही शिक्षा देता है, यह तुम किस प्रकार जानते हो? क्योंकि तुम स्वयं सत्यस्वरूप हो, इसीलिए तुम भी ठीक वैसा ही अनुभव करते हो।  वेदान्त यही शिक्षा देता है। जगत् के ईसा और बुद्धगणों  का प्रमाण क्या है? - यही  कि हम-तुम भी वैसा ही अनुभव करते हैं।  इसी कारण हम-तुम समझते हैं कि ये सब सत्य हैं।

Intellect is like limbs without the power of locomotion. It is only when feeling enters and gives them motion that they move and work on others. That is so all over the world, and it is a thing which you must always remember. It is one of the most practical things in Vedantic morality, for it is the teaching of the Vedanta that you are all prophets, and all must be prophets. The book is not the proof of your conduct, but you are the proof of the book. How do you know that a book teaches the truth? Because you are truth and feel it.

বুদ্ধি যেন চালনাশক্তিশূন্য অঙ্গ-প্রত্যঙ্গের ন্যায়। যখন হৃদয় তাহাকে অনুপ্রাণিত করিয়া গতিযুক্ত করে, তখনই তাহা অপরের হৃদয় স্পর্শ করিয়া থাকে। জগতে চিরকালই এরূপ হইয়া আসিয়াছে, সুতরাং এই বিষয়টি তোমাদের স্মরণ রাখা বিশেষ আবশ্যক। বৈদান্তিক নীতিতত্ত্বে ইহা একটি বিশেষ কার্যকারী শিক্ষা; কারন বেদান্ত বলেন, তোমরা সকলে মহাপুরুষ—তোমাদের সকলকেই মহাপুরুষ হইতে হইবে। কোন শাস্ত্র তোমার কার্যের প্রমাণ নহে, কিন্তু তুমিই শাস্ত্রের প্রমাণ। কোন‍্ শাস্ত্র কি সত্য বলিতেছে—তাহা কি করিয়া জানিতে পারো? তুমিও সেইরূপ অনুভব কর বলিয়া। 

 हम लोगों की पैगम्बरी आत्मा (ईश्वरीय आत्मा) ही उन लोगों की पैगम्बरी आत्मा का प्रमाण है, यहाँ तक कि तुम्हारा ईश्वरत्व ही, ईश्वर का भी प्रमाण है।यदि तम वास्तविक महापुरुष नहीं हो तो ईश्वर के सम्बन्ध में भी कोई बात सत्य नहीं। तुम यदि ईश्वर नहीं हो, तो कोई ईश्वर भी नहीं है और कभी होगा भी नहीं। वेदान्त कहता है, इसी आदर्श का अनुसरण करना चाहिए। हम लोगों में से प्रत्येक को ही पैगम्बर बनना पड़ेगा - और तुम स्वरूपतः वही हो। बस केवल अपनी अनुभूति से यह 'जान ' लो। यह कभी न सोचना कि आत्मा के लिए कुछ भी असम्भव है। ऐसा सोचना ही भयानक नास्तिकता है।  यदि पाप नामक कोई वस्तु है, तो यह कहना कि में दुर्बल हूँ, अथवा अन्य कोई दुर्बल है।

That is what the Vedanta says. What is the proof of the Christs and Buddhas of the world? That you and I feel like them. That is how you and I understand that they were true. Our prophet-soul is the proof of their prophet-soul. Your godhead is the proof of God Himself. If you are not a prophet, there never has been anything true of God. If you are not God, there never was any God, and never will be. This, says the Vedanta, is the ideal to follow. Every one of us will have to become a prophet, and you are that already. Only know it. Never think there is anything impossible for the soul. It is the greatest heresy to think so. If there is sin, this is the only sin — to say that you are weak, or others are weak.

বেদান্ত ইহাই বলেন। জগতের খ্রীষ্ট ও বুদ্ধগণের বাক্যের প্রমান কি? না, তুমি-আমিও সেইরূপ অনুভব করিয়া থাকি, তাহাতেই তুমি-আমি বুঝিতে পারি—সেগুলি সত্য। আমাদের দিব্য-আত্মা তাঁহাদের দিব্য-আত্মার প্রমাণ। এমন কি, তোমার দেবত্বই ঈশ্বরের প্রমাণ। যদি তুমি বাস্তবিক মহাপুরুষ না হও, তবে ঈশ্বর সম্বন্ধেও কোন কথা সত্য নহে। তুমি যদি ঈশ্বর না হও, তবে কোন ঈশ্বর নাই, কখন হইবেনও না। বেদান্ত বলেন, এই আদর্শ অনুসরণীয়। আমাদের প্রত্যেককেই মহাপুরুষ হইতে হবে—আর তুমি স্বরূপতঃ মহাপুরুষই আছ; কেবল উহা অবগত হও। কখনও ভাবিও না, আত্মার পক্ষে কিছু অসম্ভব। এরূপ বলা ভয়ানক নাস্তিকতা। যদি পাপ বলিয়া কিছু থাকে, তবে ‘আমি দুর্বল’ বা অন্যে দুর্বল এরূপ বলাই একমাত্র পাপ।

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"व्यवहारिक जीवन में विवेकानन्द-1 " - स्वामी विवेकानंद, 'प्रथम व्याख्यान' [Swami Vivekananda: भाषा -हिन्दी | Vedanta Chapter-1]

 विवेकानंद का वेदांत दर्शन: 

साभार - @ https://www.khabardailyupdate.com/2023/02/Vedanta-swami-vivekananda.html

" व्यावहारिक जीवन में वेदान्त " में स्वामी विवेकानन्दजी द्वारा लन्दन में 'व्यावहारिक वेदान्त' पर दिये गये चार भाषणों का संग्रह है। साधारणतः लोगों में यह धारणा प्रचलित है कि Vyavaharik Jivan Me Vedanta केवल सिद्धान्तों का ही समुच्चय है और दैनिक कर्मजीवन के पहलुओं के साथ उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है — वह केवल बुद्धिवादियों के मस्तिष्क की चहारदीवारी तक ही सीमित है, अतः व्यावहारिक जीवन में इसका कुछ भी महत्त्व नहीं है। 

परन्तु इन भाषणों द्वारा स्वामीजी ने स्पष्ट दर्शा दिया है कि किस प्रकार वेदान्त अत्यन्त व्यावहारिक है तथा वह मनुष्य को किस प्रकार अपने सर्वागीण जीवन-गठन में सहायता प्रदान करता है। इन भाषणों में स्वामीजी ने 'Vedanta' के प्रमुख सिद्धान्तों की आलोचना करते हुये उनको दैनिक जीवन में व्यवहृत करने का मार्ग स्पष्टरूपेण निर्दिष्ट कर दिया है। उन्होंने दिखला दिया है कि किस प्रकार राजा से लेकर रंक तक सभी समान रूप से जीवन के सभी क्षेत्रों में इससे लाभान्वित हो सकते हैं और इस तरह उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि वेदान्त की उपादेयता सार्वभौम है। हम आशा करते हैं, जनता इस लेख के प्रकाशन से अत्यधिक लाभान्वित होगी। तो आइये जानते है- स्वामी विवेकानंद के अनुसार वेदांत दर्शन क्या है?

व्यवहारिक जीवन में वेदांत 

[Vyavaharik Jivan Me Vedanta]

प्रथम व्याख्यान

(लंदन में, 10 नवम्बर, 1896 को दिया हुआ भाषण ) 

Vedanta Chapter-1: बहुत से लोगों ने मुझसे व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-दर्शन की उपयोगिता पर कुछ बोलने के लिए कहा है। मैं आप लोगों से पहले ही कह चुका हूँ कि सिद्धान्त बिलकुल ठीक होने पर भी उसे कार्यरूप में परिणत करना एक समस्या हो जाती है। यदि उसे कार्यरूप में परिणत नहीं किया जा सकता तो बुद्धि-विलास के अतिरिक्त उसका और कोई मूल्य नहीं। अतएव, वेदान्त यदि धर्म के स्थान पर आरूढ़ होना चाहता है तो उसे सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक बनना ही पड़ेगा। हमें अपने जीवन की सभी अवस्थाओं में उसे कार्यरूप में परिणत करना होगा। केवल यही नहीं, अपितु आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है उसे भी मिटाना पड़ेगा क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु के सम्बन्ध में उपदेश देता है- वेदान्त कहता है कि एक ही 'प्राण' सर्वत्र विद्यमान है। धर्म के सभी आदर्श जीवन के सभी अंशों के नींवरूप बनें, वे हमारी प्रत्येक चिन्ता के भीतर प्रवेश करें और कार्य में भी उन्हीं का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता रहे।

मैं क्रमश: व्यावहारिक जीवन पर वेदान्त के प्रभाव के बारे में ही कहूँगा। किन्तु ये व्याख्यान भावी व्याख्यानों की उपक्रमणिका के रूप में हैं, अतः पहले हमें वेदान्त-सिद्धान्त की आलोचना करनी होगी। हमें यह जानना है कि ये सिद्धान्त किस प्रकार पर्वतों की गुफाओं और घने जंगलों में से निकलकर कोलाहलपूर्ण नगरों के कामकाज में भी कार्यान्वित हुए हैं। इन सिद्धान्तों में एक और भी विशेषता है, और वह यह कि इनमें से अधिकांश निर्जन अरण्यवास के फल स्वरूप उत्पन्न नहीं हुए, किन्तु जिन व्यक्तियों को हम सब से अधिक कर्मण्य मानते हैं वे ही राजसिंहासन पर बैठनेवाले राज राजर्षि (राजा +ऋषि) इनके प्रणेता हैं

आरुणि ऋषि के पुत्र श्वेतकेतु की कथा छांदोग्य उपनिषद में है। ये ऋषि सम्भवतः वानप्रस्थी थे। श्वेतकेतु का लालन-पालन वन में ही हुआ, किन्तु वे पांचाल देश के राजा प्रवाहन जैवलि के पास गये। राजा ने उनसे पूछा "मरते समय प्राणी इस लोक से किस प्रकार गमन करता है, क्या यह तुम जानते हो? - "नहीं।" "किस प्रकार यहाँ उसका पुनर्जन्म होता है, जानते हो? " - "नहीं।" 'पितृयान' और 'देवयान' के विषय में भी कुछ जानते हो?"-आदि आदि। इस प्रकार राजा ने और भी अनेक प्रश्न किये। श्वेतकेतु किसी भी प्रश्न का उत्तर न दे सके।  तब राजा ने कहा, “तुम कुछ नहीं जानते।" 

बालक ने लौटकर पिता से सब हाल कह सुनाया। पिता ने कहा, "मैं भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं जानता। अगर जानता तो क्या तुम्हें न सिखाता?" तब पिता-पुत्र दोनों राजा के पास गये और उनसे इस गुप्त विषय की शिक्षा देने के लिए प्रार्थना की। राजा ने कहा, "यह विद्या- यह ब्रह्मविद्या केवल राजाओं को ही ज्ञात थी, ब्राह्मणों को इसका कभी ज्ञान न था।" जो हो इसके बारे में वे जो कुछ जानते थे इन दोनों को शिक्षा देने लगे। 

इस प्रकार हम अनेक उपनिषदों में यही पाते हैं कि वेदान्तदर्शन केवल वन में ध्यान द्वारा ही नहीं जाना गया, किन्तु उसके सर्वोत्कृष्ट भिन्न भिन्न अंश सांसारिक कर्मों में विशेष व्यस्त मनीषी लोगों द्वारा ही चिन्तित तथा प्रकाशित किये गये। लाखों मनुष्यों के शासक स्वतन्त्र राजाओं की अपेक्षा अधिक कार्यव्यस्त और कौन हो सकता है? किन्तु साथ ही वे राजागण राजा होते हुए राजर्षि भी होते थे, और गम्भीर विचारशील भी होते थे। इस प्रकार अनेक दृष्टिकोणों से देखने पर यह स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि यह वेदान्त दर्शन पूर्णतः व्यावहारिक है, और इसके आलोक में - युवाओं को 'जीवन गठन' तथा 'चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी' शिक्षा दी जा सकती है। परवर्ती काल की भगवद्गीता को तो शायद आप लोगों में से बहुतों ने पढ़ा भी  होगा, यह वेदान्तदर्शन का एक सर्वोत्तम भाष्य स्वरूप है। कितने आश्चर्य की बात है कि इस उपदेश का केन्द्र है संग्राम-स्थल; जहाँ श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस दर्शन का उपदेश दिया। और गीता के प्रत्येक पृष्ठ पर जो मत उज्ज्वल रूप से प्रकाशित है, वह है तीव्र कर्मण्यता, किन्तु उसीके बीच अनन्त शान्तभाव। इसी तत्त्व को कर्मरहस्य कहा गया है और इस अवस्था को पाना ही वेदान्त का लक्ष्य है। हम साधारणतया अकर्म का अर्थ करते हैं निश्चेष्टता, पर यह हमारा आदर्श नहीं हो सकता। 

यदि यही होता तो हमारे चारों ओर की दीवालें भी परमज्ञानी होतीं, वे भी तो निश्चेष्ट हैं। मिटटी के ढेले और पेड़ों के तने भी जगत् के महातपस्वी गिने जाते, क्योंकि वे भी तो निश्चेष्ट हैं। और यह भी नहीं कि किसी भी तरह कामनायुक्त होकर किये जानेवाले कार्य कर्म कहलाये जा सकते हैं। वेदान्त का आदर्श जो प्रकृत कर्म है वह अनन्त स्थिरता साथ संयुक्त है। किसी भी प्रकार की परिस्थिति में वह स्थिरता कभी नष्ट नहीं होती चित्त का वह साम्यभाव कभी भंग नहीं होता। हम लोग भी बहुत कुछ देखने-सुनने के बाद यही समझ पाये हैं कि कार्य करने के लिए इस प्रकार की मनोवृत्ति ही सब से अधिक उपयोगी होती है। 

लोगों ने मुझसे यह प्रश्न अनेक बार किया है कि हम कर्म करने के लिए जो एक प्रकार का आग्रह-आवेग अनुभव करते हैं, वह यदि न रहे; तो हम कार्य कैसे करेंगे? मैं भी बहुत दिन पहले यही सोचता था, किन्तु जैसे जैसे मेरी आयु बढ़ रही है, जितनी अभिज्ञता बढ़ती जा रही है, उतना ही मैं देखता हूँ कि यह सत्य नहीं है। कार्य के भीतर आग्रह का आवेग जितना ही कम रहता है, उतना ही उसे उत्कृष्ट ढंग से पूर्ण किया जा सकता है। हम लोग जितने अधिक शान्त होते हैं उतना ही हम लोगों का आत्मकल्याण होता है और हम काम भी अधिक अच्छी तरह कर पाते हैं। जब हम लोग भावनाओं के अधीन हो जाते हैं, तब अपनी शक्ति का विशेष अपव्यय करते हैं, अपनी स्नायुसमूह को विकृत कर डालते हैं, मन को चंचल बना डालते हैं, किन्तु काम बहुत कम कर पाते हैं। हमारी जिस अंतर्निहित शक्ति को कार्यरूप में परिणत होना उचित था, वह वृथा भावुकता मात्र में रूपांतरित होकर क्षय हो जाती है।

 जब मन अत्यन्त शान्त और एकाग्र रहता है, केवल तभी हम लोगों की समस्त शक्ति सत्कार्य में व्यय होती है। यदि तुम जगत् के बड़े बड़े कार्यकुशल व्यक्तियों की जीवनी पढ़ो तो देखोगे कि वे अद्भुत शान्त प्रकृति के लोग थे। कोई भी वस्तु उनके चित्त की स्थिरता भंग नहीं कर पाती थी। इसीलिए जो व्यक्ति बहुत जल्दी क्रोध में आ जाता है, वह कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर पाता, और जो किसी प्रकार भी क्रोध नहीं करता वह सबसे अधिक काम कर सकता है।जो व्यक्ति क्रोध, घृणा आदि किसी शत्रु के वश में हो जाता है वह कभी कुछ भी व्यावहारिक नहीं कर पाता है। केवल शान्त, क्षमाशील, स्थिरचित्त व्यक्ति ही सब से अधिक काम कर पाता है।

वेदान्त (चार महावाक्य- या 'Be and Make') हमें आदर्श का उपदेश देता है, और हम यह भी जानते हैं कि आदर्श वास्तविक की अपेक्षा कहीं अधिक उच्चतर  होता हैहम लोगों के जीवन में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं। एक है आदर्श का सामंजस्य अपने वर्तमान जीवन से करना; और उसे जीवनोपयोगी बनाने के लिए आदर्श को ही अपने वर्तमान जीवन के स्तर पर खींच लाना। और दूसरी है जीवन को आदर्श के अनुरूप उच्च बनाने के लिए अपने जीवन का गठन करना। इन दोनों का भेद भलीभाँति समझ लेना चाहिए -क्योंकि , पहली प्रवृत्ति - अर्थात आदर्श को ही अपने वर्तमान जीवनस्तर पर खींच लाने की प्रवृत्ति हमारे जीवन का एक प्रमुख प्रलोभन है। मैं सोचता हूँ कि मैं कोई विशेष प्रकार का कार्य कर सकता हूँ (जल्दी से जल्दी दौलतवान बन सकता हूँ।) लेकिन शायद उसका अधिकांश ही बुरा है, और उसके पीछे वासना, क्रोध, घृणा अथवा लालच या स्वार्थपरता का आवेग ही विद्यमान है। अब मान लो किसी व्यक्ति ने (C-IN-C नवनीदा जैसे किसी जीवनमुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता ने) मुझे किसी विशेष आदर्श (स्वामी विवेकानन्द)  के अनुरूप अपना जीवन गठन करने का उपदेश दिया,सद चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का सम्बन्ध में उपदेश - 'Be and Make'  दिया । तो निश्चय ही उनका पहला उपदेश यही होगा कि 'स्वार्थपरता' तथा 'आत्मसुख' का त्याग करो में सोचता हूँ कि यह करना तो असम्भव है। किन्तु यदि किसी ने एक ऐसे आदर्श के सम्बन्ध में उपदेश दिया जो कि मेरी स्वार्थपरता और निम्न भावों का समर्थन करे तो मैं उसी समय कह उठता हूँ, 'यह है मेरा आदर्श' और मैं उसी आदर्श का अनुसरण करने के लिए तत्पर हो जाता हूँ। इसी प्रकार 'शास्त्रीय' बात को लेकर ['Be and Make' या मनुष्य बनो और बनाओ के अर्थ को लेकर] लोग आपस में झगड़ते रहते हैं और कहते हैं कि जो मैं समझता हूँ वही शास्त्रीय है; तथा जो तुम समझते हो वह अशास्त्रीय है। 

'व्यवहार्य' (practical) शब्द को लेकर भी ऐसा ही अनर्थ होता रहता है। जिस बात को मैं कार्यरूप में परिणत करने योग्य समझता हूँ, जगत् में एकमात्र वही व्यवहार्य है, ऐसी मेरी धारणा होती है। उदाहरणार्थ, यदि मैं एक दूकानदार हूँ तो सोचता हूँ कि संसार में दूकानदारी ही एकमात्र व्यावहारिक कर्म है। यदि मैं चोर (भ्रष्टाचारी) हूँ तो चोरी (भ्रष्टाचार) के बारे में भी यही सोचता हूँ। आप लोग जानते ही हैं कि हम सब इस 'व्यवहार्य' शब्द का प्रयोग केवल उन्हीं कर्मों के लिए करते हैं जिनकी ओर हमारी प्रवृत्ति है, और जो हमसे किये जा सकते हैं। इसी कारण मैं तुम लोगों को यह स्पष्ट कर देनाचाहता हूँ कि यद्यपि वेदान्त पूर्ण रूप से व्यवहार्य (practical) है, तथापि साधारण अर्थ में नहीं, बल्कि आदर्श के दृष्टिकोण से

वेदान्त का आदर्श कितना ही उच्च क्यों न हो, वह किसी असम्भव आदर्श को हमारे सामने नहीं रखता और वास्तव में यही आदर्श ठीक ठीक आदर्श है। एक शब्द में वेदान्त का उपदेश है "तत्त्वमसि' तुम्हीं वह ब्रह्म हो' और इसके समुदय उपदेश की अन्तिम परिणति यही है। अनेक प्रकार के बौद्धिक वाद-विवाद और विस्तार के पश्चात् तुम्हें इसमें यही सिद्धान्त मिलेगा कि -'मानवात्मा शुद्धस्वभाव और सर्वज्ञ है।' आत्मा के सम्बन्ध में जन्म अथवा मृत्यु की बात करना भी कोरी विडम्बना मात्र है। आत्मा का न कभी जन्म होता है न मृत्यु; मैं मरूँगा अथवा मरने में डर लगता है, यह सब केवल कुसंस्कार मात्र है। और मैं यह कर सकता हूँ, यह नहीं कर सकता, ये सब भी कुसंस्कार हैं। मैं सब कुछ कर सकता हूँ । वेदान्त सब से पहले मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास करने के लिए कहता है। 

जिस प्रकार संसार का कोई कोई धर्म कहता है कि जो व्यक्ति अपने से बाहर सगुण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है, उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। अपनी आत्मा की महिमा में विश्वास न करने को ही वेदान्त में नास्तिकता कहते हैं। बहुत से लोगों के लिए यह एक भीषण विचार है, इसमें कोई सन्देह नहीं; और हममें अधिकांश व्यक्ति यही सोचते हैं कि, वेदान्त के महावाक्यों को प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकताकिन्तु वेदान्त दृढ़ रूप से कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति इस सत्य को जीवन में प्रत्यक्ष कर सकता है। इसकी उपलब्धि में स्त्री -पुरुष का भेद नहीं है, बालक- बालिका का भेद नहीं है, जाति या धर्म का भेद नहीं है- और मानवमात्र ही इस सत्य की उपलब्धि कर सकते हैं- कुछ भी इसका प्रतिबन्धक नहीं हो सकता, कारण, वेदान्त दिखा देता है कि वह सत्य पहले से ही अनुभूत है और पहले से विद्यमान भी है।

हम सबों में ब्रह्माण्ड की समूची शक्ति पहले से ही अन्तर्निहित है। हम लोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकर 'अन्धकार' 'अन्धकार' कहकर चीत्कार करते हैं। हाथ हटाने पर ही तुम देखोगे कि वहाँ प्रकाश पहले से ही वर्तमान था। वर्तमान भी है।' अन्धकार कभी था ही नहीं, अपवित्रता कभी थी ही नहीं, हम लोग मूर्ख होने के कारण ही चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं। 

इस प्रकार वेदान्त, केवल यही नहीं कहता कि 'आदर्श को कार्यान्वित किया जा सकता है' बल्कि यह भी कहता है कि वह आदर्श तो हम लोगों को पहले से ही प्राप्त है !  और जिसे हम अब आदर्श कहते हैं वही हमारी प्रकृत सत्ता है- वही हम लोगों का स्वरूप है। और जो कुछ (दुर्बलता, अपवित्रता आदि) हम देखते हैं वह सम्पूर्ण मिथ्या है। जब तक तुम कहते हो, 'मैं एक क्षुद्र मर्त्य जीव हूँ ' तब तब तुम झूठ बोलते हो ; और यही बोल-बोल कर तुम मानो सम्मोहन विद्या (hypnotism) के जोर से अपने को अधम, दुर्बल, अभागा बना डालते हो।

वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता, वेदान्त भ्रम या सम्मोहन-(hypnotism) स्वीकार करता है। और वेदान्त कहता है कि सब से बड़ा भ्रम है- अपने को दुर्बल, पापी, हतभाग्य कहना– यह कहना कि मुझमें कुछ भी शक्ति नहीं है, मैं यह नहीं कर सकता आदि आदि। कारण, जब तुम इस प्रकार सोचने लगते हो, तभी तुम मानो बन्धन-शृंखला में एक कड़ी और जोड़ देते हो, अपनी आत्मा पर सम्मोहन की एक पर्त और जमा देते हो। (अर्थात अपनी आत्मा को पहले से और भी अधिक मायाजाल में फँसा लेते हो।

अतएव, जो कोई अपने को दुर्बल समझता है, वह भ्रान्त है; जो अपने को अपवित्र मानता है वह भ्रान्त है; वह जगत् में एक असत् चिन्तनधारा प्रवाहित करता हैं। हमें सदा यह याद रखना चाहिए कि, " वेदान्त में हमारे इस वर्तमान सम्मोहित जीवन (hypnotized life) का, हमारे द्वारा स्वीकृत मिथ्या जीवन का, जिसमें आदर्श के साथ समझौता करने वाली वृत्ति हो, का कभी अनुमोदन नहीं किया गया है। बल्कि, उसका तो परित्याग करने के लिए कहा गया है और ऐसा होने पर ही उसके पीछे जो सत्य-जीवन, शाश्वत-जीवन (true life, eternal life) सदा वर्तमान है, वह प्रकाशित होगा, व्यक्त होगा । यह नहीं कि जो मनुष्य पहले अपेक्षाकृत कम पवित्र था वह उससे भी अधिक पवित्र हो गया, किन्तु वास्तव में वह पहले से ही पूर्ण शुद्ध है उसका वही पूर्ण शुद्ध स्वभाव धीरे धीरे प्रकाशित होता है। आवरण हटता जाता है और आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता प्रकाशित होने लगती है। यह अनन्त पवित्रता, मुक्त स्वभाव, प्रेम और ऐश्वर्य, हम लोगों में पहले से ही विद्यमान है। 

वेदान्ती यह भी कहते हैं कि ऐसा नहीं कि यह केवल बन अथवा पहाड़ी गुफाओं में ही उपलब्ध हो सकता है, वरन् हम यह देख ही चुके हैं कि पहले जिन लोगों ने इस सत्यसमूह (महावाक्यों) का आविष्कार किया था, वे बन अथवा पहाड़ी गुफाओं में नहीं रहते थे, साथ ही वे सामान्य मनुष्य भी नहीं थे; वरन् वे लोग राजर्षि थे। अर्थात ऐसे व्यक्ति थे जो विशेष रूप से कर्मठ जीवन बिताते थे, जिन्हें सैन्य परिचालन करना पड़ता था, जिन्हें सिंहासन पर बैठकर प्रजा वर्ग का हानि लाभ देखना होता था। इसके अतिरिक्त उस समय के राजागण ही सर्वेसर्वा सर्वेसर्वा होते थे- आजकल जैसे कठपुतली नहीं। फिर भी वे लोग इन सब तत्त्वों का चिन्तन करने तथा उसको जीवन में परिणत करने और मानवजाति को शिक्षा देने का समय निकाल लेते थे। अतएव, उनकी अपेक्षा हम लोगों को इन सब तत्त्वों का अनुभव होना तो और भी सहज है, क्योंकि हमारा जीवन उन लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक कर्महीन है। हम अपेक्षाकृत सारे समय खाली ही रहते हैं, हमारे पास करने को बहुत कम रहता है , उन राजाओं की अपेक्षा हमें कम व्यस्त (busy) रहना पड़ता है; अतः हमारे लिए उस सत्य का साक्षात्कार न  कर सकना बड़ी लज्जाजनक बात है।

 पुरातन सर्वेसर्वा सम्राटों के कर्मव्यस्तता (busyness) की तुलना में, हमारी कर्मव्यस्तता तो कुछ भी नहीं है। कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अवस्थित विराट  सेना के परिचालक अर्जुन की जितनी कर्मव्यस्तता रही होगी, उसकी तुलना हमारी कर्मव्यस्तता बिल्कुल नगण्य है।  तब भी इस युद्ध कोलाहल के बीच में भी, वे उच्चतम दर्शन को सुनने और उसे कार्यान्वित करने को समय पा सके- इसीलिए हमारे इस अपेक्षाकृत स्वाधीन आराममय जीवन में (relatively free and comfortable life में ) हमें उतना अवश्य कर सकना चाहिए। 

हम लोग यदि विवेक-पूर्ण ढंग से समय बितायें तो हम देखेंगे कि हम जितना सोचते और समझते हैं, उससे हम लोगों में से अनेक के पास अधिक समय है। हम लोगों को जितना अवकाश है, उसमें यदि हम सचमुच चाहें तो एक नहीं पचास आदर्शों का अनुसरण कर सकते हैं, किन्तु आदर्श को हमें कभी नीचा नहीं करना चाहिए। हमारे जीवन में सब से बड़ी विपत्ति की आशंका ऐसे व्यक्तियों से है, जो मुफ्त की सलाह देने में लगे रहते हैं। वे हमारे व्यर्थ के अभावों और वासनाओं को पूरा करने के लिए अनेक प्रकार के वृथा कारण दिखाते हैं। और हम लोग भी यही सोचते हैं कि हम लोगों का इससे बड़ा और कोई आदर्श नहीं हो सकता , किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है। वेदान्त इस प्रकार की शिक्षा कभी नहीं देता। हमें अपने प्रत्यक्ष जीवन को आदर्श के साथ यथासम्भव समन्वित करना पड़ेगा, और क्रमशः अपने वर्तमान जीवन को अनन्त जीवन के साथ एकरूप करना होगा।

 कारण, तुम्हें सदा स्मरण रखना होगा कि वेदान्त का मूल सिद्धान्त यह एकत्व अथवा अखण्ड भाव है। द्वित्व कहीं नहीं है दो प्रकार का जीवन अथवा जगत् भी नहीं है। तुम लोग देखोगे कि वेद पहले स्वर्गादि के विषय में कहते हैं, किन्तु अन्त में जब वे अपने दर्शन के उच्चतम आदर्श के विषय में कहना आरम्भ करते हैं तो वे उन सब बातों को बिलकुल त्याग देते हैं।  एक मात्र जीवन है, एक मात्र जगत् है, एक मात्र सत है। सब कुछ वही एक (सच्चिदानन्द) सत्तामात्र हैं; भेद केवल परिमाण का है, प्रकार का नहीं। भिन्न भिन्न जीवन के बीच में अन्तर  प्रकारगत नहीं है। वेदान्त इस बात को बिलकुल नहीं मानता कि पशुगण मनुष्यों से सम्पूर्णतया पृथक हैं और उन्हें ईश्वर ने हमारे भोज्यरूप में बनाया है। 

कुछ व्यक्तियों ने वैज्ञानिक शोध के निमित्त चीड़फाड़ करने के लिए, मारे जाने वाले पशुओं की हत्या का विरोध करने के लिए, दयावश एक संस्था - 'Anti Vivisection Society' (एंटी विविसेक्शन सोसाइटी, या जीवच्छेदन निवारणी सभा) स्थापित की है। मैंने एक दिन इस सभा के एक सदस्य से पूछा, "भाई, आप भोजन के लिए पशु हत्या को सम्पूर्णतया न्यायसंगत मानते हैं, किन्तु वैज्ञानिक परीक्षा के लिए दो एक पशुओं की हत्या के इतने विरुद्ध क्यों हैं?" उसने उत्तर दिया, "जीवित की चीरभाड़ बहुत भयानक कार्य है, किन्तु पशुगण हमारे भोजनार्थं ही बनाये गये हैं।" कैसी अजीब बात है! वास्तव में पशुगण भी तो उसी अखण्ड सत्ता के अंशरूप हैं। यदि मनुष्य का जीवन अनन्त है, तो पशु -जीवन भी उसी प्रकार है। प्रभेद केवल परिमाणगत है, प्रकारगत नहीं। विचारपूर्वक देखने पर यह अमीबा (amoeba) और मैं (ईशा) एक ही हूँ; अन्तर केवल पूर्णत्व की अभिव्यक्ति में परिणाम का है, और उस सर्वोच्च सत्ता की दृष्टि से देखने पर निम्नतम पशु (100% Selfish) और उच्चतम मनुष्य (ईश्वर, ईशा,बुद्ध,श्रीरामकृष्ण) "100% Unselfishness" सभी सामान हैं। 

मनुष्य एक तिनके और पौधे में बहुत अन्तर देख सकता है, किन्तु यदि तुम खूब ऊँचे चढ़कर देखो तो यह तिनका तथा एक बड़ा वृक्ष दोनों ही समान दिखेंगे। इसी प्रकार उस उच्चतम सत्ता के दृष्टिकोण से निम्नतम पशु और उच्चतम मनुष्य सभी समान हैं। और यदि तुम  एक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हो,  तो तुमको  पशुओं से लेकर उच्चतम प्राणी तक समत्व मानना पड़ेगा। जो ईश्वर अपनी मनुष्य -सन्तान के प्रति पक्षपाती है, और 'पशु' नामक अपनी सन्तान के प्रति निर्दय है, वह तो फिर दानवों से भी अधम हुआ। इस प्रकार के ईश्वर की उपासना करने की अपेक्षा मुझे सैकड़ों बार मरना भी पसन्द हैमेरा समस्त जीवन इस प्रकार के ईश्वर के विरुद्ध युद्ध में ही बीतेगा। किन्तु वास्तविक ईश्वर ऐसे नहीं हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं वे नहीं जानते कि वे दायित्व बोधहीन और हृदयहीन व्यक्ति हैं; वे क्या कह रहे हैं, यह नहीं जानते।

  यहाँ फिर 'व्यावहारिकता' (pragmatism) शब्द गलत अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वास्तविक बात यह है कि हम मीट -मुर्गा खाना चाहते हैं, इसीलिए हम (हम बिना लहसुन प्याज का भी) खाते रहते हैं। मैं स्वयं एक कट्टर शाकाहारी (staunch vegetarian) न भी होऊँ,  किन्तु मैं शाकाहार का आदर्श समझता हूँ। जब मैं मांस खाता हूँ, तब जानता हूँ कि यह ठीक नहीं है। परिस्थितिवश उसे खाने को बाध्य होने पर भी मैं यह जानता हूँ कि यह क्रूरता हैशाकाहार के आदर्श (ideal of vegetarianism) को नीचा करके, मुझे  अपनी दुर्बलता का समर्थन नहीं करना चाहिए। आदर्श यही है - मांस न खाया जाय; किसी भी प्राणी का अनिष्ट न किया जाय, क्योंकि पशुगण भी हमारे भाई हैं। यदि अपने से इतर प्राणियों के बारे में इस प्रकार से सोच सकते हो, तो तुम सब प्राणियों में भ्रातृभाव की ओर बहुत कुछ अग्रसर हो गये हो - उसके पहले विश्वबन्धुत्व की बात करना व्यर्थ है। तुम संसार में देखोगे कि इस प्रकार का उपदेश बहुत लोग पसन्द नहीं करते, क्योंकि उनसे वह वास्तव को छोड़कर आदर्श की ओर जाने के लिए कहता है। किन्तु यदि तुम एक ऐसी बात कहो जिससे उनके वर्तमान कार्य का वर्तमान आचरण का समर्थन होता हो तो वे उसे तुरन्त 'व्यावहारिक' मान लेंगे । 

मनुष्य स्वभाव में 'Comfort Zone' (आरामदायक स्थिति) में रहने की भारी प्रवृत्ति  दीख पड़ती है। हम लोग उसके आगे एक कदम भी नहीं बढ़ना चाहते। जिस प्रकार हिमालय पर बर्फ में जमे व्यक्तियों के सम्बन्ध में पढ़ा जाता है, वैसा ही मनुष्य जाति के बारे में भी कहा जा सकता है। सुना जाता है कि इस अवस्था में आदमी सोना चाहता है। यदि उसे कोई खींचकर उठाना चाहता है, तो वह कहता है, 'मुझे सोने दो-बर्फ में सोने से बड़ा आराम मिलता है!' और उसी दशा में उसकी मृत्यु हो जाती है।  हम लोगों का स्वभाव भी ऐसा ही है। सारा जीवन हमलोग भी यही किये जा रहें हैं- सिर से लेकर पैर तक समूचे बर्फ में जमते जा रहे हैं, तो भी हम लोग सोना चाहते हैं। अतएव, आदर्श अवस्था में पहुँचने के लिए सदा संघर्ष करते रहो।  यदि कोई व्यक्ति आदर्श को तुम्हारी निम्न भूमि में खींच लाये, यदि कोई तुम्हें ऐसा धर्म सिखाये जो कि उच्चतम आदर्श की शिक्षा नहीं देता, तो उसकी बात कानों में भी न पड़ने दो। मेरे लिए वह नितांत अव्यवहारिक (impractical) धर्म होगा। 

 किन्तु यदि कोई मुझे ऐसा धर्म सिखाये जो कि जीवन का सर्वोच्च आदर्श दर्शाता है, तो मैं उसकी बातें सुनने के लिए प्रस्तुत हूँ। जब कभी कोई व्यक्ति भोगपरक दुर्बलताओं और निस्सार बातों की वकालत करे, तो उससे सावधान रहो।  एक तो हम अपने को इन्द्रियजाल में फँसाकर एकदम निकम्मे बन जाते हैं, उस पर भी यदि कोई आकर हमें उस प्रकार की शिक्षा दे और यदि हम उस उपदेश का अनुसरण करें तो हम कुछ भी उन्नति नहीं कर सकते। 

मैंने ऐसी बातें बहुत देखी हैं, जगत् के सम्बन्ध में मुझे कुछ ज्ञान है, और मेरा देश ऐसा देश है जहाँ सम्प्रदाय एकुकुरमुत्तों के समान बढ़ते रहते हैं। प्रतिवर्ष नये नये सम्प्रदाय जन्म लेते हैं। किन्तु मैंने यही देखा है कि - जो संप्रदाय भोगाकांक्षी मानव का सत्याकांक्षी मानव से समझौता कराने  की चेष्टा नहीं करते, वे ही उन्नति करते हैं।  और जहाँ परमोच्च आदर्श का झूठी सांसारिक वासनाओं के साथ सामंजस्य करने की– ईश्वर को मनुष्य के स्तर पर खींच लाने की मिथ्या चेष्टा रहती है, वहीं क्षय का आरम्भ हो जाता है। मनुष्य को सांसारिक दासता, इन्द्रियों की गुलामी, या पशु के स्तर पर नहीं घसीटना चाहिए, उसे ईश्वर के स्तर तक उठने में सहायता करनी चाहिए। 

इस प्रश्न का एक और पहलू है। हमें दूसरों को घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। हम सभी उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। दुर्बलता और सबलता में केवल परिमाणगत भेद है। प्रकाश और अन्धकार में भेद है केवल परिमाणगत- पाप और पुण्य के बीच भी भेद है केवल परिमाणगत- जीवन और मृत्यु के बीच में भेद  केवल परिमाणगत, एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद केवल परिमाणगत ही है, प्रकारगत नहीं; कारण, वास्तव में सभी वस्तुएँ वही एक अखण्ड वस्तु मात्र हैं। सब वही एक है, जो अपने को विचार , जीवन, आत्मा या देह के रूप में अभिव्यक्त करता है  — और उनमें अंतर केवल परिमाण का है। अतः जो किसी कारणवश हमारे समान उन्नति नहीं कर पाये उनके प्रति घृणा करने का अधिकार हमें नहीं है। किसी की भी निन्दा मत करो।  किसी की सहायता कर सकते हो तो करो, नहीं कर सकते हो तो चुपचाप बैठे रहो, उन्हें आशीर्वाद दो, अपने रास्ते जाने दो। गाली देने अथवा निन्दा करने से कोई उन्नति नहीं होती। इस प्रकार से कभी किसी की उन्नति नहीं होती। दूसरे की निन्दा करने से केवल अपनी शक्ति का क्षय होता है। आलोचना  और निन्दा हम लोगों के वृथा शक्ति क्षय का उपाय मात्र है। क्योंकि अन्त में हम देखते हैं कि सभी लोग एक ही वस्तु देख रहे हैं , कम-बेश उसी आदर्श (निःस्वार्थता) की ओर पहुँच रहे हैं और हम लोगों में जो अंतर है , वे केवल अभिव्यक्ति के हैं।

उदाहरणार्थ 'पाप' की बात लो। मैं अभी चर्चा कर रहा था कि वेदान्त पाप को स्वीकार नहीं करता, लेकिन सम्मोहन (hypnotism) स्वीकार करता है, जिसके कारण मनुष्य भूलें करता है । दोनों वास्तव में एक ही बात हैं केवल एक सकारात्मक है, दूसरी नकारात्मक है। एक, मनुष्य को उसकी दुर्बलता दिखा देती है और दूसरी कहती है कि दुर्बलता हो सकती है, किन्तु उस ओर ध्यान मत दो, हम लोगों को उन्नति करनी है। जब मनुष्य पहले पहल जन्मा तभी उसका रोग क्या है, जान लिया गया। सभी अपना अपना रोग जानते हैं किसी दूसरे को बतलाने की आवश्यकता नहीं होती। सारे समय- हम रोगी हैं (हम भेंड़ हैं )-यही सोचते रहने से हम स्वस्थ नहीं हो सकते, उसके लिए औषध (विवेक-प्रयोग) आवश्यक है। हम लोग बाह्य जगत् के सामने भले ही कपटाचरण करें, परन्तु अपने अन्दर ही अन्दर हम अपनी दुर्बलता जानते हैं। 

किन्तु वेदान्त कहता है, केवल दुर्बलता स्मरण कराने से अधिक उपकार नहीं होगा– उसका उपचार करो। यह कहते रहना कि 'मैं रोगग्रस्त हूँ'– रोग की औषध या उपचार नहीं है। मनुष्य को सदैव उसकी दुर्बलता की याद कराते कहना उसकी दुर्बलता का प्रतीकार नहीं है, बल्कि उसे अपने बल का स्मरण करा देना ही उसके प्रतीकार का उपाय है। उसमें जो बल पहले से ही विद्यमान है उसका उसे स्मरण कराओ। वेदान्त मनुष्य को पापी न बतलाकर ठीक उसका विपरीत मार्ग ग्रहण करता है और कहता है, "तुम पूर्ण और शुद्धस्वरूप हो और जिसे तुम पाप कहते हो वह तुममें नहीं है।" जिसे तुम 'पाप' कहते थे वह तुम्हारी आत्माभिव्यक्ति का निम्नतम प्रकाश है; अब अपनी आत्मा को उच्चतर भाव (अहंब्रह्मास्मि)  में प्रकाशित करो। एक बात हम सब को सदैव याद रखनी चाहिए और वह यह कि हम सब कुछ कर सकते हैं। कभी 'नहीं' मत कहना, "मैं नहीं कर सकता" यह कभी न कहना, क्योंकि तुम अनन्तस्वरूप हो। तुम्हारे स्वरूप की तुलना में देश, काल (space and time) भी कुछ नहीं हैं। तुम्हारी जो इच्छा होगी वही कर सकते हो, तुम सर्वशक्तिमान हो। 

अब तक जो कुछ कहा गया है, अवश्य वह केवल नीतिशास्त्र के सिद्धान्त हैं। अब  हमें सिद्धान्त की कोटि से उतरकर, जीवन की विशेष- विशेष अवस्थाओं में वेदान्त का  प्रयोग करना पड़ेगा। हमें देखना होगा कि किस प्रकार यह वेदान्त हमारे दैनिक जीवन में, नागरिक जीवन में, ग्राम्य जीवन में, राष्ट्रीय जीवन में, और प्रत्येक राष्ट्र  के घरेलू जीवन में परिणत किया जा सकता है। कारण, यदि धर्म मनुष्य को प्रत्येक अवस्था में सहायता नहीं दे सकता, तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं— फिर तो वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धान्त होकर रह जायेगा।  धर्म यदि समग्र मानवजाति का कल्याण करना चाहता है, तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह मनुष्य की सहायता उसकी प्रत्येक अवस्था में कर सकने में तत्पर और सक्षम हो - चाहे गुलामी हो या आजादी, घोर पतन हो या अत्यन्त पवित्रता, उसे सर्वत्र मानव की सहायता कर सकने में समर्थ होना चाहिये। केवल तभी वेदान्त के सिद्धान्त (चार महावाक्य ) अथवा धर्म के आदर्श - उन्हें तुम किसी भी नाम से पुकारो, लोक-कल्याण काम में आ सकेंगे। 

आत्मविश्वास का आदर्श ही मानवजाति के लिए सब से अधिक कल्याणप्रद हो सकता है। यदि इस आत्मविश्वास का और भी विस्तृत रूप से प्रचार होता और वह कार्यरूप में परिणत हो जाता, तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि जगत् में जितना दुःख कष्ट है उसका अधिकांश गायब जाता। समग्र मानवजाति के इतिहास में सभी श्रेष्ठ नर नारियों के बीच में यदि कोई भावविशेष फलीभूत हुआ है तो वह है यही आत्मविश्वास।  वे इस ज्ञान के साथ पैदा हुए थे कि वे महान बनेंगे और वे महान बने भी। मनुष्य (शराबी ?) कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न पहुँच जाये, एक समय ऐसा अवश्य आता है, जब वह इस अवस्था से बेहद आर्त होकर एक उर्ध्वगामी मोड़ लेता है, और अपने ऊपर विश्वास करना सीखता है। किन्तु हम लोगों को इसे शुरू से ही जान लेना अच्छा है।आत्मविश्वास सीखने के लिए हमें (विवेकी मनुष्य को भी ) इतना दुःख-कष्ट क्यों भोगना चाहिए ?

मनुष्य मनुष्य के बीच जो भेद है, वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थित तथा अभाव के कारण ही है यह थोड़ी खोज करने से ही समझ में आ सकता है। इस आत्मविश्वास के द्वारा सब कुछ हो सकता है। मैंने अपने जीवन में ही इसे देखा है और अभी भी देखता हूँ और जितनी आयु बढ़ती जा रही है उतना ही यह विश्वास दृढ़तर होता जा रहा है। जिसमें आत्मविश्वास नहीं है वही नास्तिक है। प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है। किन्तु नया धर्म कहता है, जो आत्मविश्वास नहीं रखता, अपने आप पर विश्वास नहीं करता, वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास केवल इस क्षुद्र 'मै' (व्यष्टि अहं) को लेकर नहीं है, क्योंकि वेदान्त एकत्ववाद की भी शिक्षा देता है। इस आत्मविश्वास का अर्थ है-सब के प्रति विश्वास, क्योंकि, तुम सभी प्राणीयों के साथ  एक और अभिन्न हो। आत्मप्रीति का अर्थ है सब प्राणियों से प्रेम, समस्त पशु पक्षियों से प्रेम, सब वस्तुओं से प्रेम, क्योंकि तुम सब एक हो। यही महान आत्मविश्वास जगत को अच्छा बना सकेगा।  

यह मेरी ध्रुव धारणा है। वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है जो साहस के साथ कह सकता है, "मैं अपने सम्बन्ध में सब कुछ जानता हूँ।" क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी इस देह के भीतर कितनी ऊर्जा, कितनी शक्ति, कितने प्रकार के बल अब भी छिपे पड़े हैं ? मनुष्य के अन्दर जो जो वस्तुएँ छिपी पड़ी हैं, उन सबका ज्ञान कौन सा वैज्ञानिक प्राप्त कर सकता है? लाखों वर्षों से मनुष्य पृथ्वी पर है, किन्तु अभी तक उसकी शक्ति का अति सामान्य अंश ही प्रकाशित हुआ है। अतएव, तुम कैसे अपने को जबरदस्ती दुर्बल कहते हो? ऊपर से दिखनेवाली इस पतितावस्था के पीछे कितनी महान सम्भावना है, क्या तुम उसे जानते हो ? तुम्हारे अन्दर जो अनन्त शक्ति है, उसका थोड़ा सा अंश ही तुम जानते हो। तुम्हारे पीछे है शक्ति और आनन्द का अपार सागर। 

“आत्मा वा अरे श्रोतव्यः"- इस आत्मा के बारे में पहले (पुस्तक से नहीं, गुरुमुख से ?) सुनना चाहिए। दिन-रात श्रवण करो कि तुम्हीं 'वह' आत्मा हो।  दिन-रात यही भाव अपने में व्याप्त किये रहो- "I am He"; यहाँ तक कि वह  तुम्हारे रक्त की प्रत्येक बूंद में और तुम्हारी नस-नस में समा जाय। सम्पूर्ण शरीर को एक आदर्श के भाव से पूर्ण कर दो --" मैं अज, अविनाशी, आनन्दमय, सर्वज्ञ, सर्वशतिमान्, नित्य ज्योतिर्मय आत्मा हूं ”–दिन-रात यही चिन्तन करते रहो; जब तक कि यह भाव तुम्हारे प्राणों में भिद नहीं जाता। इसी का ध्यान करते रहो - जब तक कि यह भाव तुम्हारे जीवन का अविभाज्य अंग नहीं बन जाता। - और इसी से तुम सभी कर्मों में सफलता प्राप्त कर लोगे। 'हृदय पूर्ण होने पर मुँह बात करता है,  हृदय पूर्ण होने पर हाथ भी काम करते है।' अतएव इस प्रकार की अवस्था में ही यथार्थ कार्य सम्पूर्ण हो सकेगा। अपने को इस आदर्श के भाव से ओतप्रोत कर डालो- जो कुछ करो, उसीका चिंतन करते रहो। 

तब इस विचार-शक्ति के प्रभाव से तुम्हारे सम्पूर्ण कर्म परिवर्तित होकर उन्नत देवभावापन्न हो जायेंगे। यदि 'जड़' शक्तिशाली है, तो 'विचार' तो सर्वशक्तिमान् है। इस विचार से अपने जीवन को प्रेरित कर डालो, स्वयं को अपनी तेजस्विता , सर्वशक्तिमत्ता और गरिमा  के भाव से पूर्ण बना लो। ईश्वरेच्छा से यदि कुसंस्कार पूर्णभाव तुम्हारे अन्दर प्रवेश न कर पाते तो अच्छा होता। ईश्वरकृपा से यदि हम लोग इस कुसंस्कार के प्रभाव तथा दुर्बलता और नीचता के भाव से परिवेष्टित न होते तो कितना अच्छा होता ! ईश्वरेच्छा से यदि मनुष्य अपेक्षाकृत सहज उपाय द्वारा उच्चतम, महत्तम (इन्द्रियातीत ?) सत्यों को  प्राप्त कर सकता तो कितना अच्छा होता! किन्तु उसे इन सब में से होकर ही जाना पड़ता है; जो लोग तुम्हारे पीछे आ रहे हैं, उनके लिए रास्ता अधिक दुर्गम न बनाओ।

ये सब बातें मनुष्य को प्रायः भयानक प्रतीत होती हैं । मैं जानता हुँ, बहुत से लोग ये सब उपदेश सुनकर भयभीत हो जाते हैं, किन्तु जो व्यावहारिक स्तर पर  अभ्यास करना चाहते हैं, उनके लिए यही पहला पाठ है। अपने को अथवा दूसरे को कभी दुर्बल मत कहना है। यदि कर सको तो जगत  का कल्याण करो, पर उसका  अनिष्ट न करो। अपने हृदय के अन्दर से यह समझ लो कि तुम्हारे ये क्षुद्र क्षुद्र भाव एवं काल्पनिक पुरुषों के सामने घुटने टेककर तुम्हारा रोना या प्रार्थना करना केवल कुसंस्कार है। मुझे एक ऐसा उदाहरण बताओ जहाँ बाहर से इन प्रार्थनाओं का उत्तर मिला हो। जो भी उत्तर पाते हो वह अपने हृदय से ही। तुम लोगों में से बहुतों का विश्वास है कि भूत नहीं होते, किन्तु अन्धकार में जाते ही शरीर कछ काँप-सा जाता है। इसका कारण यह है कि बिलकुल बचपन से ही हम लोगों के सिर में यह सब भय घुसा दिया गया है।

 किन्तु हमें यह अभ्यास करना पड़ेगा कि,  समाज का भय, संसार के कहने-सुनने का भय, बन्धु-बान्धवों की घृणा का भय, प्रिय अन्धविश्वासों के नष्ट होने का भय से, यह सब हम दूसरों के मस्तिष्क में नहीं घुसायेंगे। इस प्रवृत्ति को जीत लो। केवल विश्वब्रह्माण्ड का  एकत्व और आत्मविश्वास के अतिरिक्त और क्या शिक्षा आवश्यक है ? शिक्षा केवल इतनी ही देनी है। हजारों साल से मनुष्य इसी लक्ष्य की प्राप्ति की चेष्टा करता आ रहा है, और अभी भी कर रहा है। अब तुम्हारी बारी है , और उस परम् सत्य को तुम जान चुके हो। क्योंकि  सब ओर से हम यही शिक्षा पाते हैं। केवल दर्शन और मनोविज्ञान ही नहीं, भौतिक विज्ञान भी उसी की घोषणा करता है। क्या ऐसा एक वैज्ञानिक दिखा सकते हो, जो जगत् के एकत्व को अस्वीकृत कर दे? आज कौन अनेक जगतों की बातें कहने का साहस कर सकता है? वह सब कुसंस्कार मात्र है।

 केवल एक ही प्राण, एक ही जीवन, एक ही जगत (one soul, one life, one universe) सर्वत्र विद्यमान है, और वही हम लोगों के सामने अनेकवत् प्रतीत होता है। यह अनेकता (diversity) किसी स्वप्न के सदृश है।  जिस प्रकार स्वप्न देखते समय एक के बाद दूसरा स्वप्न आता है। लेकिन स्वप्न में जो देखा जाता है वह सत्य तो नहीं है। एक स्वप्न के बाद दूसरा स्वप्न दिखायी पड़ता है- विभिन्न दृश्य तुम्हारी आँखों के सामने उद्भासित होते रहते हैं। इसी प्रकार यह  जगत् पन्द्रह आने (90 %) दुःखरूप और एक आना (10%) सुखरूप जान पड़ता है। हो सकता है कुछ दिन बाद ही यह जगत हमें पन्द्रह आने (90 %) सुखरूप प्रतीत होने लगे तब हम इसे स्वर्ग कहेंगे। 

किन्तु सिद्धावस्था प्राप्त होने पर (पूर्णावस्था या 100 % निःस्वार्थपरता प्राप्त होने पर) सत्यान्वेषी के सामने एक ऐसी अवस्था आती है, जब यह सम्पूर्ण जगत्-प्रपंच (पृथ्वी,सूर्य, चंद्र-पूरा ब्रह्माण्ड) बहुत तेजी से घूमता हुआ) अन्तर्हित (vanish या गायब) हो जाता है - (माँ जगदम्बा की कृपा से व्युत्थान के बाद) यह जगत और अपनी आत्मा साक्षात् ब्रह्मरूप (सच्चिदानन्द-रूप) अनुभव होती है। अतएव, जगत अनेक नहीं हैं, जीवन अनेक नहीं हैंप्रतीत होने वाला यह 'बहुत्व' उस 'एकत्व' की ही अभिव्यक्ति है है। केवल वह 'एक' (ब्रह्म-शक्ति) ही अपने को बहुरूप में-- जड़, चेतन, मन, विचार अथवा अन्य विविध नाम-रूपों व्यक्त कर रहा है। अतएव, हम लोगों का (Indian Vedantists का भारत-वासी वेदान्तियों का) प्रथम कर्तव्य है - इस ब्रह्मात्मैक्य के विषय में स्वयं को  तथा दूसरों को शिक्षा देना

सम्पूर्ण विश्व इस महान् आदर्श की घोषणा - 'अनेकता में एकता, भारत की विशेषता '  से इस प्रकार प्रतिध्वनित हो कि- उसके सब कुसंस्कार दूर हो जायें। दुर्बल मनुष्यों को यही सुनाते रहो- लगातार सुनाते रहो- 'तुम शुद्धस्वरूप हो, उठो, जागृत हो जाओ। हे शक्तिमान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती। उठो, जागो इस प्रकार मोहनिद्रा में पड़े रहना तुम्हें भाता नहीं। तुम अपने को दुर्बल और दुःखी मत समझो। हे सर्वशक्तिमान्,  उठो, जाग्रत  होओ, अपना स्वरूप प्रकाशित करो। तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। 'जगत् से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो- देखो, इसका क्या व्यावहारिक फल होता है,  देखो , कैसे बिजली के प्रकाश से सभी वस्तुएं (अपने सियाराम स्वरुप में) प्रकाशित हो उठती हैं , और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है। मनुष्य जाति से यही कहते रहो- उसे उसकी शक्ति दिखा दो। ऐसा होने से ही हम अपने दैनन्दिन जीवन में व्यावहारिक वेदान्त का प्रयोग करना सीख सकेंगे।  

>>विवेक-प्रयोग > जिसे हम विवेक या सदसत्-विचार कहते हैं उसका-  अपने जीवन के प्रतिक्षण में एवं प्रत्येक कार्य में उपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए, हमें सत्य की कसोटी जान लेनी चाहिए- और वह है पवित्रता तथा एकत्व का ज्ञान। हमारे जिस-जिस व्यवहार से एकत्व की प्राप्ति होती हो, वही सत्य है। प्रेम सत्य है, घृणा असत्य है, क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है।  घृणा ही एक मनुष्य को दूसरे से पृथक् करती है- अतएव, वह अनुचित और अनुपयोगी है ; यह एक विनाशिनी शक्ति है, यह पृथक  करती है- नाश करती है। 

प्रेम जोड़ता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है। सभी एक हो जाते हैं- माँ सन्तान के साथ एकत्व प्राप्त करती है, परिवार नगर के साथ एकत्व प्राप्त करता है, यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के साथ यह सम्पूर्ण जगत् ही  एकीभूत हो जाता है।  क्योंकि प्रेम ही सत है, प्रेम ही भगवान् है और यह सभी कुछ उसी एक प्रेम का न्यूनाधिक प्रस्फुटन है। प्रभेद केवल मात्रा के तारतम्य में है , किन्तु यह दृष्टिगोचर जगत उसी एक प्रेम का प्रकट रूप है। 

अतएव हम लोगों को कुछ करने से पहले विवेक-प्रयोग करके यह देखना चाहिए कि हम जो करने जा रहे हैं, वह कर्म अनेकत्व -विधायक हैं अथवा एकत्व-सम्पादक ?  यदि वे अनेकत्व - विधायक हैं तो उनका त्याग करना होगा।  और यदि वे एकत्व सम्पादक हैं तो उन्हें सत्कर्म समझना चाहिए। इसी प्रकार विचारों के सम्बन्ध में भी सोचना चाहिए। देखना चाहिए कि उससे अनेकत्व उत्पन्न होगा या एकत्व ? देखना चाहिए कि वव एक आत्मा को दूसरी आत्मा से मिलाकर एक महान् शक्ति उत्पन्न करते हैं या नहीं ?  यदि करते हैं , तो ऐसे विचारों  का पोषण करना चाहिए- अन्यथा उन्हें अपराध समझकर त्याग देना चाहिए। 

वैदान्त का नीतिशास्त्र  (ethics) किसी अज्ञय वस्तु (unknowable object) के ऊपर आधारित नहीं है, अथवा वह किसी अज्ञेय तत्व का उपदेश नहीं करता। बल्कि उपनिषदों की भाषा में कहता है - ' जिस ईश्वर को तुम एक अज्ञात ईश्वर मानकर उपासना कर रहे थे, मैं तुम्हें उसी ईश्वर को अपनी आत्मा समझकर उपासना करने का उपदेश कर रहा हूँ। ' तुम जो कुछ जानते हो , आत्मा के द्वारा ही जानते हो।  मैं इस कुर्सी को देख रहा हूँ, किन्तु इस कुर्सी को देखने से पहले मुझे अपने स्वयं का ज्ञान होता है, उसके बाद कुर्सी का। इस आत्मा में और उसके द्वारा ही मुझे तुम्हारा ज्ञान होता है , सम्पूर्ण जगत् का ज्ञान होता है । अतएव आत्मा को अज्ञात कहना केवल प्रलाप है। आत्मा को हटा लेने से , सम्पूर्ण जगत् ही विलुप्त हो जाता है। आत्मा  के द्वारा ही सम्पूर्ण ज्ञान होता है,  अतएव यही सबसे अधिक ज्ञात वस्तु  है। यही 'तुम' हो जिसको तुम 'मैं' कहते हो। तुम लोग यह सोचकर आश्चर्य करते हो कि मेरा 'मैं' भला तुम्हारा 'मैं' कैसे हो सकता है ?  तुम्हें आश्चर्य होता है कि यह सान्त 'मैं' किस प्रकार अनन्त असीमस्वरूप हो सकता हैकिन्तु वास्तव में यही बात सत्य है।

 सान्त 'मैं' (मिथ्या अहं) केवल भ्रम (illusion) मात्र है, गल्प (fiction-कल्पित कथा) मात्र है। उसी अनन्त के के ऊपर मानो एक आवरण पड़ा हुआ है, और उसका कुछ अंश इस 'मैं' रूप में प्रकाशित हो रहा है, किन्तु वास्तव में वह उसी अनन्त का अंश है। यथार्थ में असीम कभी ससीम नहीं होता 'ससीम' केवल कहने की बात है। अतएव यह आत्मा नर-नारी, बालक-बालिका, यहाँ तक कि पशु-पक्षी सभी को ज्ञात है। उसको बिना जाने हम क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकते। उस सर्वेश्वर प्रभु को बिना जाने हम लोग एक क्षण भी श्वास-प्रश्वास तक नहीं ले सकते, न गतिशील हो सकते, न अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं।  वेदान्त का ईश्वर (अपने ह्रदय में विराजमान आत्मा) सब चीजों की अपेक्षा अधिक ज्ञात है; वह कभी कल्पनाप्रसूत नहीं है। 

यदि यह, (सबों के ह्रदय में विराजमान आत्मा) प्रत्यक्ष ईश्वर नहीं है तो फिर प्रत्यक्ष ईश्वर और कौन हो सकता है? यदि यह एक व्यावहारिक ईश्वर की शिक्षा नहीं है, तो फिर किस प्रकार से तुम उसकी शिक्षा दे सकोगे ? जो ईश्वर, जो सब प्राणियों में विराजमान है, हमारी इन्द्रियों से भी अधिक सत्य है; मैं जिसे सम्मुख देख रहा हूँ, उनसे भी अधिक प्रत्यक्ष और व्यावहारिक ईश्वर कहाँ होगा?  क्योंकि, तुम्हीं वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् ईश्वर हो, और यदि यह हूँ कि तुम वह नहीं हो तो मैं झूठ बोलता हूँ। सारे समय में इसकी अनुभूति करू या न करूं, फिर भी सत्य यही है। वह एक अखण्ड वस्तुस्वरूप (सच्चिदानन्द) ही , सर्व वस्तुओं की एकता, समस्त प्राणियों का जीवन और सम्पूर्ण अस्तित्व का यथार्थ स्वरूप हैं। 

वेदान्त के नीतिशास्त्र के इन सभी विचारों को  और भी विस्तारित भाव से कहना पड़ेगा। अतएव थोड़ा सा धैर्य रखना आवश्यक है। पहले ही कह चुका हूँ, हम लोगों को इसकी विस्तृत आलोचना करनी पड़ेगी- और यह भी देखना होगा कि किस प्रकार यह आदर्श निम्नतर आदर्शों से क्रमशः विकसित हुआ है, और किस प्रकार इस एकत्व का आदर्श धीरे धीरे विकसित होकर क्रमशः सार्वजनीन प्रेम रूप में परिणत हो रहा है। विश्वयुद्ध के खतरों से बचने के लिए , इन सब तत्वों का अध्यन आवश्यक है। विश्व के अन्य देश (रूस -यूक्रेन) तो निम्नतम आदर्श से धीरे धीरे ऊपर उठने के इंतजार में रुके  नहीं रह सकते। किन्तु हमारे (भारत के राजर्षियों) ऊँचे सोपान पर चढ़ने का फल ही क्या, यदि हम यह सत्य बाद में आने वाली, अपनी भावी पीढ़ियों (नेताओं) को न दे सकें

इसीलिए, इसकी आलोचना हमें विशेष रूप से विस्तार पूर्वक करनी होगी और प्रथमतः उसके बौद्धिक पक्ष को  स्पष्ट रूप से समझना आवश्यक है।  यद्यपि हम जानते हैं कि विचार का विशेष मूल्य नहीं, हृदय ही सब से अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि, हृदय के द्वारा भगवत्साक्षात्कार होता है, बुद्धि के द्वारा नहीं। बुद्धि केवल जमादार के समान रास्ता साफ कर देती है- वह गौण सहायक है, पुलिस के समान है- किन्तु समाज के सुन्दर परिचालन के लिए पुलिस सकारात्मक आवश्यकता नहीं होती। पुलिस का कार्य केवल शांति-व्यवस्था बनाये रखने के लिए उपद्रव को रोकना और अन्याय निवारण करना है। बुद्धि का कार्य भी इतना ही है। 

जब तुम इस प्रकार की कोई बौद्धिक पुस्तक पढ़ते हो, तब उन पर अधिकार कर लेने, या आत्मसात  कर लेने पर तुम यही सोचते हो कि ' ईश्वर को धन्यवाद है , मैं उसकी बौद्धिकता से बाहर निकल आया। ' इसका कारण यह है कि बुद्धि अन्धी है, उसकी अपनी गतिशक्ति नहीं है, उसके हाथ पैर नहीं हैं।

हृदय (Heart) की भावना (प्रेम) ही वास्तव में कार्य करता है, उसकी गति बिजली अथवा उससे भी अधिक वेगवान पदार्थ की अपेक्षा द्रुतगामी होती है। अब प्रश्न यह है कि क्या तुम्हारे हृदय में प्रेम की भावना है? यदि है तो तुम उसके द्वारा ही ईश्वर को देखोगे। आज तुम्हारी जितनी भी भावना है,  वही प्रबल होती जायेगी- देवभावापन्न होती रहेगी। उच्चतम भूमिका में प्रतिष्ठित होगी , और अन्ततः वह हर प्राणी से प्रेम का अनुभव करेगी। प्रत्येक प्राणियों के साथ एकत्व, स्वयं में तथा प्रत्येक अन्य वस्तु में ईश्वर का अनुभव करने लगेगी। किन्तु बुद्धि (Head) चाहे कितनी विकसित हो , यह नहीं कर सकती।" विचित्र रूप से शब्दों की जोड़तोड़, शास्त्र व्याख्या की विभिन्न शैलियाँ -केवल पण्डितों के लिए हैं, हमारे लिए नहीं, आत्मा की मुक्ति के लिए नहीं।”

तुम लोगों में से जिन्होंने टामस-आ-केम्पिस की 'ईसा-अनुसरण' नामक पुस्तक पढ़ी है वे जानते हैं कि प्रति पृष्ठ में किस प्रकार उन्होंने इस बात पर जोर दिया है। संसार  के प्रायः हर सन्त  ने इसी पर जोर दिया है। बुद्धि भी आवश्यक है,  क्योंकि उसके बिना हम अनेक भ्रमों में पड़ जाते हैं, और भूलें करते हैं। विवेक-प्रयोग  शक्ति उसका निवारण करती है, इसके अतिरिक्त बुद्धि की नींव पर और कुछ निर्माण करने की चेष्टा न करना। वह केवल एक गौण सहायक मात्र है, वह अधिक कुछ नहीं कर पाती वास्तविक सहायता ह्रदय की भावना से, प्रेम से प्राप्त होती है। तुम क्या किसी दूसरे के लिए हृदय के अन्तस्तल से अनुभव करते हो? यदि करते हो तो तुम्हारे हृदय में एकत्व का भाव विकसित हो  रहा है। यदि तुम ऐसा नहीं करते तो तुम एक बहुत बड़े बुद्धिजीवी भले ही हो सकते हो, किन्तु तुम्हें कुछ मिलेगा नहीं केवल शुष्क बुद्धि का स्तूप बने रहोगे।  और यदि तुम हृदय से सबके प्रति प्रेम का अनुभव करते हो, तो एक पुस्तक न पढ़ सकते पर,  कोई भाषा न जानने पर भी, तुम  ठीक रास्ते पर चल  रहे हो। ईश्वर तुम्हारी सहायता करेंगे। 

क्या तुमने विश्व के इतिहास में पैगम्बरों, मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं की शक्ति के स्रोत का पता नहीं चला ? यह शक्ति उन्हें कहाँ से मिली? बुद्धि से? उनमें से क्या कोई दर्शन सम्बन्धी सुन्दर पुस्तक लिख छोड़ गया है? अथवा न्याय के कूट विचार लेकर कोई पुस्तक लिख गया है? किसी ने ऐसी नहीं किया। वे केवल कुछ थोड़ीसी बातें कह गये हैं। ईसा के समान सहृदय बनो, तुम भी ईसा हो जाओगे, बुद्ध के समान सहृदय बनो, तुम भी बुद्ध बन जाओगे। ह्रदय में प्रेम भावना ही जीवन है, प्रेम की भावना  ही बल है, प्रेम की भावना ही तेज है— भावना  के बिना कितनी ही बद्धि क्यों न लगाओ, ईश्वर प्राप्ति नहीं होगी।

बुद्धि मानो चलनशक्ति- शून्य अंग प्रत्यंग के समान है। जब भावना  उसे अनुप्राणित करके गतियुक्त करती  है, तभी वह दूसरे के हृदय को स्पर्श करती है। जगत् में सदा से ऐसा ही होता आया है, अतएव यह विषय तुम्हें खूब याद रखना चाहिए। वैदान्ति नीतिशास्त्र  में यह एक सर्वाधिक व्यावहारिक बात है।  क्योंकि वेदान्त कहता है तुम सब भावी पैगम्बर हो- तुम सब को पैगम्बर  होना ही पड़ेगा। कोई शास्त्र तुम्हारे कार्यों का प्रमाण नहीं, किन्तु तुम्हीं शास्त्रों के प्रमाणस्वरूप हो। कौन ग्रन्थ सत्य की ही शिक्षा देता है, यह तुम किस प्रकार जानते हो? क्योंकि तुम स्वयं सत्यस्वरूप हो, इसीलिए तुम भी ठीक वैसा ही अनुभव करते हो।  वेदान्त यही शिक्षा देता है। जगत् के ईसा और बुद्धगणों  का प्रमाण क्या है? - यही  कि हम तुम भी वैसा ही अनुभव करते हैं इसी कारण हम तुम समझते हैं कि ये सब सत्य हैं।

 हम लोगों की पैगम्बर आत्मा (ईश्वरीय आत्मा) ही उन लोगों की पैगम्बर आत्मा का प्रमाण है, यहाँ तक कि तुम्हारा ईश्वरत्व ही, ईश्वर का भी प्रमाण है।यदि तम वास्तविक महापुरुष नहीं हो तो ईश्वर के सम्बन्ध में भी कोई बात सत्य नहीं। तुम यदि ईश्वर नहीं हो, तो कोई ईश्वर भी नहीं है और कभी होगा भी नहीं। वेदान्त कहता है, इसी आदर्श का अनुसरण करना चाहिए। हम लोगों में से प्रत्येक को ही पैगम्बर बनना पड़ेगा - और तुम स्वरूपतः वही हो। बस केवल अपनी अनुभूति से यह 'जान ' लो। यह कभी न सोचना कि आत्मा के लिए कुछ भी असम्भव है। ऐसा सोचना ही भयानक नास्तिकता है।  यदि पाप नामक कोई वस्तु है, तो यह कहना कि में दुर्बल हूँ, अथवा अन्य कोई दुर्बल है।

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