>>>Editorial content list : (सम्पादकीय विषय वस्तुओं की सूचि) :
🔱प्रत्येक भावी नेता (जीवनमुक्त योगी) को "श्री रामकृष्ण वचनामृत" क्यों पढ़ना चाहिए ? Why should every leader (Jeevanmukta Yogi) read "Vachnamrit"?
।। কেন "কথামৃত" পড়বেন ।।
আমাদের এই যুগে "কথামৃত" হলো সমস্ত শাস্ত্রের সার। তাই যারা সংসারে আছেন তারা "কথামৃত"কে আশ্রয় করুন। অন্য শাস্ত্র পড়ুন আর নাই পড়ুন, "কথামৃত" পড়ুন। সবাই পড়ুন।
এর মধ্যে আপনারা গীতা পাবেন, পুরাণ পাবেন, বাইবেল,কোরাণ, চৈতন্যচরিতামৃত পাবেন। কি নেই এতে। তাছাড়াও এর মধ্যে অনেক অদ্ভুত অদ্ভুত উক্তি আছে। কোথায় কোন ফকির কী গান গেয়েছেন। তার একটি কি দুটি লাইন রয়েছে এর মধ্যে। গান মানে প্রার্থনা। ------কত রকমের প্রার্থনা ! কত ভাষার প্রার্থনা।
শ্রীরামকৃষ্ণদেব ভগবান কে যে কতরকমভাবে ডাকতেন, আহা!কতভাবে যে ডেকে আনন্দ পেতেন। কতরকমের গান যে তিনি গাইতেন। এই সব গান কথামৃতে সঞ্চিত আছে। কত রকমের গান, কত রকমের পূজা পদ্ধতি।
শ্রীরামকৃষ্ণদেব কোন ধরাবাঁধা নিয়মের মধ্যে থাকতেন না। ঠিক কথা। ঈশ্বর আমার প্রিয়জন , আমি আমার প্রিয়জনকে আমার মতো করে ভালবাসব। তার মধ্যে আবার ধরাবাঁধা নিয়ম কেন? নিয়ম আপনারা মানতে চান মানুন; কিন্তু নিষ্প্রাণ নিয়ম মানাটা বড় কথা নয় । বড় কথা কতটা আন্তরিক ভাবে আপনি ভগবান কে ভালবাসেন। ভগবান ভালবাসা চান, আর কিছু চান না।
যারা সংসারে আছেন তাঁরা কখন এরকম ভাবনে না। আমরা বদ্ধ জীব। ছিঃ ! কোন দুঃখে বদ্ধ, কখনো বদ্ধ নন আপনারা।মুক্ত, চিরকালের জন্য মুক্ত। আর "কথামৃত " আপনাদের সেই সত্য জানিয়ে দেবে। পথ দেখিয়ে দেবে। এই গ্রন্থটির যেখানেই হাত দেন সেখানেই এমন সব কথা আছে যা অমৃত। যার তুলনা হয়না। শ্রীরামকৃষ্ণ এই যুগে এসেছিলেন মানুষকে হাতে ধরে টেনে ভগবানের কাছে পৌঁছে দিতে। ভগবান লাভের জন্যে এখন আর পথ হাতড়াতে হবে না। স্বয়ং তিনি হাত ধরে লক্ষে পৌঁছে দেবেন।
তাই বলছি ভগবানকে ডাকুন, ভালবাসুন। তাঁকে আপন করে নিন। ভয় পাবেন না। পিছিয়ে যাবেন না। এ পথ কঠিন, পারব না----একথা একেবারে ভাববেন না। তাঁকে ডাকুন, ভালবাসুন, আপনার করে নিন। মন্ত্র তন্ত্র দরকার নেই। পারলে ভালো, যদি ইচ্ছা হয়। কিন্তু সার কথা তাঁকে ভালবাসা। ভালবাসার চেয়ে বড় আর কিছু নেই। ভালবাসা যেন চুম্বক। ভক্ত ভগবানকে টানছে, আকর্ষণ করছে, আবার ভগবান ভক্তকে আকর্ষণ করছেন। ভক্ত-ভগবানের সম্পর্কে -----এ যেন চিরকালের। কথামৃতের মধ্যে দিয়ে শ্রীরামকৃষ্ণ এইভাবে আমাদের পথ দেখিয়ে দিচ্ছেন। এককথায় "কথামৃত " অতুলনীয়" এই শাস্ত্র সম্বল করে আপনারা অমৃতত্বলাভের পথে এগিয়ে চলুন-------এই আমার প্রার্থনা।
--- স্বামী লোকেশ্বরানন্দ
🔱🙏 प्रत्येक भावी नेता (शिक्षक) को "वचनामृत" क्यों पढ़ना चाहिए ?
हमारे युग में "श्रीरामकृष्ण वचनामृत " (बंगला में कथामृत) सभी शास्त्रों का सार है। अतः जो लोग गृहस्थ जीवन में हैं (अर्थात प्रवृत्ति मार्गी हैं) उन्हें अविलम्ब "श्रीरामकृष्ण वचनामृत" की शरण में आना चाहिए । अन्य शास्त्रों को पढ़ें या न पढ़ें, किन्तु "वचनामृत" हर किसी को पढ़ना चाहिए।
इसके भीतर आपलोगों को श्रीमद्भगवद गीता का दर्शन होगा , पुराण देखेंगे, बाईबिल, कुरान, चैतन्य चरितामृत भी पाएंगे। इसके भीतर, रामायण, महाभारत, वेद-उपनिषद क्या नहीं है ! इसके अतिरिक्त इसके भीतर कई अद्भुत रोचक और ज्ञानवर्धक कहानियाँ, गीत, भजन और गजल भी हैं। बंगला, हिन्दी, उर्दू , अंग्रेजी आदि विभिन्न भाषाओँ में कही कई सूफी -सन्तों के प्रसिद्द वचन और प्रार्थनायें भी इसमें आपको मिल जाएँगी।
श्रीरामकृष्णदेव ईश्वर (माँ काली) को कितने प्रकार से पुकारते थे, अहा ! भिन्न-भिन्न नामों से उन्हें पुकार कर कितना आनन्द पाते थे। कितने प्रकार के गीत गाते थे। वे सभी गीत और गजलें वचनामृत में संग्रहित हैं। कई प्रकार की पूजा-पद्धति और उनके भजन इसमें दी गयीं हैं।
श्री रामकृष्णदेव अपने उपास्य की उपासना करते समय किसी विशेष पंथ-सम्प्रदाय के विशिष्ठ कठोर नियमों में बँध कर उपासना नहीं करते थे। और यह होना भी चाहिए। अपने-अपने अनुभव से, हमलोग यह जानते हैं कि आधुनिक युग में श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ही युगावतार हैं - अर्थात माँ काली के अवतार वरिष्ठ हैं ! श्री श्री माँ सारदा ही जगतजननी माँ दुर्गा हैं ! और सम्पूर्ण मानवजाति को इस सत्य से परिचय करवाने में समर्थ, नेता-वरिष्ठ चपरास परम्परा के प्रथम C-in-C स्वामी विवेकानन्द मेरे और महामण्डल के समस्त नेताओं, भावी नेताओं के अपने बड़े भाई हैं।
[क्योकि उनके गुरु श्री रामकृष्ण देव ने एक कागज पर अपने हाथों से लिखकर उन्हें चपरास दिया था -জয় রাধে প্রেমময়ী ! নরেন শিক্ষে দেবে, যখন ঘরে-বাইরে হাঁক দিবে, জয় রাধে !"-अर्थात " जय राधे प्रेममयी ! नरेन शिक्षा देगा, जब घर और बाहर में वेदान्त केसरी बनकर सिंह-गर्जना करेगा, जय राधे !" इसीलिए विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर "C-in-C, Dy. C-in-C and C.C." परम्परा में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त नेता-वरिष्ठ नवनीदा द्वारा स्थापित 'Be and Make ' महामण्डल आन्दोलन के श्रीरामकृष्ण पताका वाहक समस्त नेताओं, भावी नेताओं तक के बड़े भाई स्वामीजी ही रहेंगे क्योंकि वे नवनीदा के बड़े भाई हैं।
स्वामीजी ने कहा था - हो सकता है -" जीर्ण वस्त्र की तरह, मैं अपने शरीर को त्याग दूँ; किन्तु मैं युवाओं को 'Be and Make ' महामण्डल आन्दोलन से जुड़ने के लिए अनुप्रेरित करता रहूँगा ! " और अपने उसी वचन को निभाते हुए स्वामी विवेकानन्द ने 12 जनवरी 1985 को मुझ जैसे अपात्र का हाथ पकड़ कर भारत की प्राचीन गुरु-परम्परा या "C-in-C, Dy. C-in-C and C.C." परम्परा में खींच लिया। और को 23 मई 1987 को मेरे गुरुदेव श्रीमद स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज से अवतार वरिष्ठ का नाम -जप और ध्यान करने की पद्धति सीखने का अवसर दिया। इतना ही नहीं स्वामी जी ने ही मुझे 25 दिसम्बर 1987 को बेलघड़िया कैम्प भेजकर 'Be and Make' आंदोलन या निःस्वार्थी मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन का लीडरशिप ट्रेनिंग का मर्म समझा दिया कि, विष्णु-सहस्रनाम के अनुसार भगवान विष्णु ही अभी महामण्डल के नेता - बासू दा, रनेन दा, बीरेन दा, प्रमोद दा, दीपक दा,...प्रमोद दा, सोमनाथ बागची, अमित दा के रूप में दिख रहे हैं।
>>> Believe in Christ, not in Churchianity! {ईसा मसीह (Jesus Christ) में विश्वास करो, चर्चों में (चर्चवाद-Churches) में नहीं! किन्तु स्मरण रहे कि अविरोध ही आदर्श है !) :
अतः महामण्डल का चपरास प्राप्त प्रत्येक नेता - ठाकुरदेव को अपने पिता, माँ सारदा को अपनी माता और स्वामी विवेकानन्द को बड़ा भाई तथा महामण्डल के संस्थापक C-IN-C नवनीदा को भी अपने बड़े भाई, माँ, बाप -के जैसा ही प्यार करेगा। क्योंकि उन्होंने ही राजयोग विज्ञान को, (समाधि या एकाग्रता का विज्ञान- अष्टांगयोग) को 'मनःसंयोग' नाम देकर 'Be and Make' आंदोलन - अर्थात ब्रह्मविद निःस्वार्थी मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन के लीडरशिप ट्रेनिंग के 5 अभ्यास में प्रशिक्षित किया। तथा यह समझाया कि - 'सोऽहं' का अनुभव तुम्हें नहीं 'आत्मा' को हुआ था , और निर्विकल्प समाधि के उस परमानन्द को छोड़ कर दुबारा शरीर में तुम अपनी इच्छा से ही आये होंगे, माँ ने तुमको जबरन नहीं भेजा है !
अतएव स्वामीजी की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना ही तुम्हारे जीवन का उद्देश्य है, फिर तुम्हें किसी "sectarian attachment " - विशेष सम्प्रदाय के पूजा -पद्धति तक ही अपने को सीमित क्यों करना चाहिए ? तुम्हें ईसा मसीह में विश्वास करना चाहिए। [अर्थात इसी जन्म में पुनर्जन्म 'born-again' की सम्भावना या समाधि से लौटने पर सिद्धार्थ गौतम से गौतम बुद्ध बन जाने की सम्भावना में श्रद्धा और विश्वास करना चाहिये, किन्तु चर्चियनिटी में नहीं। 'You should believe in Christ, not in Churchianity!'
>>>"जीव सेवा नहीं, शिवज्ञान से जीव पूजा !" Social service is not the aim of life, it is the way to become a Whole hearted Man): संसार के धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गए हैं, संसार चाहता है चरित्र ! इसीलिए महामण्डल कैम्प के सभी विभाग अध्यक्ष यदि उपास्य-उपासक भाव से सेवा न करें तो सेवा-दोष लग सकता है।
'समाज-सेवा यानि शिवज्ञान से जीव पूजा' जीवन का उद्देश्य नहीं ब्रह्मविद (पूर्णहृदय मनुष्य) बनने का उपाय है। " তার মধ্যে আবার ধরাবাঁধা নিয়ম কেন?" फिर इसके लिए केवल अन्नदान, वस्त्र-दान, भाषण-प्रतियोगिता में ही क्यों बंधा रहूँगा ? यदि आप किसी सम्प्रदाय -विशेष के नियमों का पालन करना चाहते हों तो आप करते रहिये; किन्तु निष्प्राण नियमों का पालन करना कोई बड़ी बात नहीं है।
>>>किस व्यक्ति का मनुष्य जीवन सार्थक कहा जा सकता है ? भगवान श्रीकृष्ण अपने साथियों को गाय चराते समय , वृक्ष के उदाहरण से उपदेश देते हुए कहते हैं -
एतावत जन्म-सफल्यं देहिनाम् इह देहिषु।
प्रणैर अर्थैर धिया वाचा श्रेय-आचरणम् सदा।।
[शब्दार्थ : एतावत – यहाँ तक; जन्म – जन्म का; सफल्यम् – पूर्णता; देहिनाम् – प्रत्येक जीवित प्राणी का; इह – इस संसार में; देहिषु – देहधारी लोगों के प्रति; प्रणैः – जीवन से; अरथैः – धन से; धीया – बुद्धि से; वाचा – शब्दों से; श्रेयः – शाश्वत सौभाग्य; आचारणम् – व्यवहारिक रूप से कार्य करना; सदा - सदैव ।]
अनुवाद : मेरे प्यारे मित्रों ! संसार में प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु प्रत्येक नेता का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन, धन, बुद्धि और वाणी से दूसरों के हित के लिए कल्याणकारी कार्य करे। उनके जीवन की सफलता/ सार्थकता इतने में ही है कि जहाँ तक हो सके अपने धन से, विवेक-विचार से, वाणी से और प्राणों से भी ऐसे ही कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरों की भलाई हो।॥ ३५॥
व्याख्या : (महामण्डल के) उसी नेता का, इस संसार में पुनर्जन्म या दुबारा जन्म लेना सार्थक माना जायेगा जो 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' के प्रचार-प्रसार के Be and Make ' आन्दोलन को सफल बनाने में अपने धनसम्पत्ति, बुद्धि और वाणी को ही नहीं अपने प्राणो को भी न्योछावर कर, अपने जीवन को उदाहरण बनाते हुए सदैव सर्वोत्तम आचरण (चरित्र) ही प्रस्तुत रहता है । 35॥
पश्यतैतान् महाभागान् परार्थैकान्तजीवितान् ।
वातवर्षातपहिमान् सहन्तो वारयन्ति न: ॥ ३२ ॥
‘मेरे प्यारे मित्रों! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं! इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिये ही है। ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप और पाला - सब कुछ सकते हैं, परन्तु हम लोगों की उनसे रक्षा करते हैं ।॥ ३२॥
अहो एषां वरं जन्म सर्वप्राण्युपजीवनम् ।
सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिन: ॥ ३३ ॥
मैं कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन (सार्थक हुआ है) सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियों को सहारा मिलता है, उनका जीवन-निर्वाह होता है। जैसे किसी सज्जन पुरुष के घर से कोई याचक ख़ाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षों से भी सभी को कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है।॥ ३३॥
पत्रपुष्पफलच्छायामूलवल्कलदारुभि: ।
गन्धनिर्यासभस्मास्थितोक्मै: कामान्वितन्वते ॥ ३४ ॥]
ये अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अंकुर और कोंपलों से भी लोगों की कामना पूर्ण करते हैं।॥ ३४॥
और वचनामृत भी आपको भी इसी सत्य से परिचित कर देगा। আর "কথামৃত " আপনাদের সেই সত্য জানিয়ে দেবে।"
🔱 >>>विवेकानन्द के गुरु परमहंस श्री रामकृष्ण और श्रीमाँ सारदा देवी का जीवन और सन्देश :
अधिकांश लोग अक्सर पहले स्वामी विवेकानंद से परिचित होते हैं। उनकी महानता और जीवन के प्रति दृष्टि को देखकर वे यह जानना चाहते हैं कि जब स्वामीजी इतने महान हैं तो उनके गुरुदेव निश्चित रूप से बहुत महान रहे होंगे। फिर वे रामकृष्ण परमहंस के बारे में जानने की कोशिश करते हैं।भारत के राष्ट्रीय युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द जिन्हें स्वयं अवतार-वरिष्ठ कहते थे, उन्हें हम भगवान माने या नहीं ; किन्तु पुनः पुनः समाधि में जाकर वापस शरीर में लौट आने में समर्थ एक सिद्ध राजयोगी और माँ काली के भक्त श्री रामकृष्ण परमहंस को विवेकानन्द के गुरु के रूप में हमलोग अवश्य स्वीकार कर सकते हैं।
सामाजिक व्यवस्था कायम करने वाले उन्हीं नीतियों और नियमों को श्रुति अर्थात वेद कहा जाता है। महर्षि वेद व्यास ने भी कहा है कि जहां कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहां वेद की बात मान्य होगी। वेदों के अनुसार -
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।
-ऋग्वेद (१-१६४-४३)
भावार्थ : जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता (परम् सत्य) केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं। वेद और पुराण के अनुसार ‘वह ईश्वर एक ही है’ दूसरा कोई ईश्वर नहीं है।
श्रीमत्स्य अवतार से लेकर भगवान बुद्ध तक सभी अवतारी पुरुष उस ईश्वर की शक्ति से ही ईश्वर के संदेश को पहुँचाते रहे हैं, और आगे भी अवतरित होते रहेंगे।
क्योंकि उन्होंने भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में धर्म अर्थात 'अभ्युदय और निःश्रेयस' द्वारा,'भ्रम-मुक्त' मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा-परम्परा को पुनर्प्रतिष्ठित किया है।
कोई एक परम शक्ति है, जो अपने को माँ समझती है, जिसे ईश्वर कहा जाता है। उसी ईश्वर (माँ जगदम्बा को, या उनके किसी अवतार को ही सर्वोपरि मानें (किसी भी अवतार को अवतार वरिष्ठ क्यों न कहें, किन्तु)। एकनिष्ठ बनें।
>>>" ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति ": ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है!- (मु. उ. ३ । २ । ९) इति श्रुतेः ॥ आध्यात्मिक चेतनाबोध होने पर सबसे पहले चेतनाबोध का परिवर्तन होता है। तब व्यक्ति को अनुभव होता है वह देह नहीं अथवा मन नहीं है, अपितु आत्मा है। इसके बाद चेतना का विस्तार होता है। तब हमें अनुभव होता है कि हम सर्वव्यापी परमात्मा के अंश हैं। इसके और आगे बढ़ने पर अनुभव होता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्ता है ।
शंकराचार्य ने विवेकचूड़ामणि में ऐसे सौभाग्यशाली व्यक्ति के बारे में कहा है कि -जिसकी प्रज्ञा स्थिर है, जिसका आनन्द निरवच्छिन्न है, जिसके लिए जगत् प्रपन्च (KJNRCM) विस्मृत हो गया है, वह जीव मुक्त कहलाता है। उसकी बुद्धि ब्रह्म में लगी रहती है। इस विश्व के गुण और दोषयुक्त विषयों में जो सब जगह ब्रह्म के दर्शन करता है, वह जीव मुक्त कहलाता है।
उसके शरीर को चाहें सज्जन लोग सम्मानित करें या फिर दुर्जन लोग अपमानित करें, दोनों ही स्थियों में जो समभाव से बना रहता है, वह जीव मुक्त है। जिस प्रकार नदियों के जल से समुद्र के पानी में विकृतियाँ नहीं होती है, वैसे ही दूसरों द्वारा दिए गए विषयों से उसके चित्त में कोई चंचलता नहीं पैदा होती है, वह जीव मुक्त कहलाता है।
शुभ और अशुभ सभी तरह के सांसारिक चिंतनों के प्रति उदासीन ये लोग अतिचेतनावस्था में विलीन रहते हैं। परमात्मा की कृपा से (माँ सारदा की इच्छा से ? दादा कहते थे अपनी इच्छा से ?) इनमें से कुछ सिद्ध पुरुष करुणा रूप बनकर मानव जाति के नेता, पैगम्बर, आचार्यों के रूप में संसार में लौट आते हैं।
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥
( केनोपनिषद -2.5)
[पदच्छेदः -इह चेत् अवेदीत् अथ सत्यम् अस्ति, न चेत् इह अवेदीत् महती विनष्टिः। भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्य अस्मान् लोकात् अमृता भवन्ति।
यदि व्यक्ति यहीं (इसी शरीर में- समाधि के बाद पुनर्जन्म का अनुभव ) उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो व्यक्ति काअस्तित्व (मानव शरीर धारण करना) सार्थक होता है। यदि यहीं उस ज्ञान की प्राप्ति नहीं की, तो महाविनाश है। ज्ञानीजन विविध भूत-पदार्थों में 'उस' का विवेचन कर, इस लोक से प्रयाण करके अमर हो जाते हैं। " शरीर के नष्ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।" ।।
-तैत्तिरीयोपनिषद - "ब्रह्म विचित्य विज्ञाय साक्षात्कृत्य धीराः अमृता भवन्ति ब्रह्मैव भवन्तीत्यर्थः ।
परमहंस श्रीरामकृष्ण यानी एक ऐसा संन्यासी, जो गृहस्थ था ! और एक ऐसा ज्ञानी जो विद्वान नहीं, सिर्फ दूसरी कक्षा तक पढ़ा था। परमहंस सिद्धि के शिखर तक पहुंच चुके थे और उन्होंने माँ काली का साक्षात्कार किया था, लेकिन वे पुस्तकीय ज्ञान के बजाय भक्ति पर अधिक जोर देते थे। परमहंस अंग्रेजी नहीं जानते थे और न ही उन्होंने पश्चिमी दार्शनिकों का अध्ययन किया था। वे उन दार्शनिकों को जानते भी नहीं थे, लेकिन वे मां काली को जानते थे और रोज उसका साक्षात्कार करते थे।
>>> श्री रामकृष्ण का विवाह संबंध > उन दिनों यह अफवाह फैली थी कि दक्षिणेश्वर में आध्यात्मिक साधना के कारण रामकृष्ण का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। वे मां की याद में रोना शुरू करते तो काफी देर तक रोते ही रहते। तब उनके परिजनों ने फैसला किया कि अब रामकृष्ण का विवाह कर देना चाहिए। शायद इससे उनका ध्यान गृहस्थी की ओर जाएगा। उनका विवाह हो गया, लेकिन रामकृष्ण की भक्ति-साधना में कोई बाधा नहीं आई।
सामान्यत: विवाहकर्म प्रजोत्पत्ति के लिये किया जाता है किन्तु माँ श्रीसारदा देवी और श्री रामकृष्ण का विवाह संबंध अलौकिक था। केवल ६ वर्ष की उम्र में इनका विवाह श्री रामकृष्ण से कर दिया गया था। अठारह वर्ष की उम्र में वे अपने पति रामकृष्ण से मिलने दक्षिणेश्वर पहुँची। रामकृष्ण इस समय कठिन आध्यात्मिक साधना में बारह बर्ष से ज्यादा समय व्यतीत कर चुके थे और आत्मसाक्षात्कार के सर्वोच्च स्तर को प्राप्त कर लिया था। उन्होने बड़े प्यार से सारदा देवी का स्वागत कर उन्हे सहज रूप से ग्रहण किया और गृहस्थी के साथ साथ आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने की शिक्षा भी दी। मन की सर्वोच्च शक्ति है 'धर्म अर्थात विवेकप्रयोग-शक्ति' : उससे स्पष्ट होता है कि माँ सारदा देवी ही जगत की उत्पत्ति, उसके पालन और संहार करने वाली हैं। यह सभी क्लेशों को हरती हैं एवं सभी प्रकार के कल्याणों को प्रदान करती हैं-माँ श्री सारदा देवी को श्री रामकृष्ण की प्रथम शिष्या के रूप में देखा जाता हैं। अपने ध्यान में दिए समय के अलावा वे बाकी समय रामकृष्ण और भक्तो (जिनकी संख्या बढ़ती जा रही थी ) के लिए भोजन बनाने में व्यतीत करती थीं।
रामकृष्ण अनूठे साधु थे। एक दिन रामकृष्ण देव की मन:स्थिति जानने हेतु माँ शारदा ने उनसे पूछा: 'बताईये तो मैं आपकी कौन हूँ?' रामकृष्ण ने विना विलंब उत्तर दिया कि, 'जो माँ काली मूर्ति में बिराजमान है वहीं माँ आपके रुप में मेरी सेवा कर रही हैं।' वे सारदा को ही नहीं बल्कि समस्त महिलाओं व बच्चियों में मां काली का ही दर्शन करते थे। रामकृष्ण सारदा को जगन्माता के रूप में देखते थे। श्रीरामकृष्ण परमहंस ने मां, भगवती, शक्ति के रूप में ब्रह्म की उपासना की थी। वे परमेश्वर को मां, तारा, काली आदि नामों से पुकारा करते थे। 1872 ई.के फलाहारीणी काली पूजा की रात को उन्होने सारदा की जगन्माता के रूप में पूजा की।
नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते।
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी।।
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति।
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी।।
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी।।
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी।।
1886 ई. में रामकृष्ण के देहान्त के बाद सारदा देवी कामारपुकूर मे रहने आ गयीं। प्रारंभिक वर्षों में स्वामी योगानन्द ने माँ सारदा देवी की सेवा का दायित्व लिया। स्वामी सारदानन्द ने उनके रहने के लिए कलकत्ता में उद्बोधन भवन का निर्माण करवाया। सारदा देवी का आध्यात्मिक ज्ञान बहुत उच्च कोटि का था। उनके कुछ उपदेश:-" चित्त ही सब कुछ हैं। मन को ही पवित्रता और अपवित्रता का आभास होता हैं। एक मनुष्य को पहले अपने मन को दोषी बनाना पड़ता हैं ताकि वह दूसरे मनुस्य के दोष देख सके।" "में तुम्हे एक बात बताती हु, अगर तुम्हे मन की शांति चाहिए तो दुसरो के दोष मत देखो। अपने दोष देखो। सबको अपना समझो। मेरे बच्चे कोई पराया नहीं हैं , पूरी दुनिया तुम्हारी अपनी हैं।"
पर वहाँ पर उनकी उचित व्यवस्था न हो पाने के कारण भक्तों के अत्यन्त आग्रह पर वे कामारपुकुर छोड़कर कलकत्ता आ गयीं। कलकत्ता आने के बाद सभी भक्तों के बीच संघ माता के रूप में प्रतिष्ठित होकर उन्ह़ोने सभी को माँ रूप में संरक्षण एवं अभय प्रदान किया। अनेक भक्तों को दीक्षा देकर उन्हे आध्यात्मिक मार्ग में प्रशस्त किया।
>>>As many faiths, so many paths." जितने मत उतने पथ: श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का जीवन -दर्शन किसी विशेष जाति-सम्प्रदाय, धर्म या वर्ण का नहीं है। वह शाश्वत है। तथा केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि वह समस्त मानव जाति के लिये कल्याणकारी है। अनेक धर्मों के मिलन-क्षेत्र इस भारत भूमि में श्रीरामकृष्ण का स्थान अद्वितीय है।सर्वधर्म-समन्वय ही रामकृष्ण अवतार की प्रधान देन है। सर्वधर्मसमन्वय की भावना को श्रीरामकृष्ण ने ऐसा मार्ग दिखलाया जैसा कि पहले कभी किसी ने नहीं बतलाया था। श्रीरामकृष्ण कहते हैं कि सभी धर्म मत ठीक हैं। जितने मत उतने पथ। यदि प्रयास सच्चा है तो किसी भी पथ से ईश्वर के पास पहुँचा जा सकता है। श्री ठाकुर कहते हैं -ईश्वर ही वस्तु है और सब अवस्तु ! जैसे किसी तालाब के चार घाट से सब कोई 'जल' ही लेता है, किन्तु कोई उसे पानी कहता है, कोई 'वाटर' कहता है, तो कोई एकुवा। किन्तु है वही एक शीतल जल जिसे पीकर और स्नान कर -हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी शीतलता का अनुभव करते हैं। सभी का मन तृप्त हो जाता है। नए युग के लिए श्रीरामकृष्ण का यह एक अभिनव सन्देश है।
स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्णदेव केवल हिन्दू धर्म को संस्थापित करने के लिये अवतरित नहीं हुए थे। प्रभुदयाल मिश्र, विलियम आदि ईसाई भक्तों ने श्रीरामकृष्ण को यीशु जानकर उनकी आराधना की। मुसलमान भक्त भी आये। फकीर उस्तगार, डिप्टी मैजिस्ट्रेट अब्बास अली, डॉक्टर वाजीद आदि ने उनको एक आदर्श पुरुष के रूप में जाना। सिक्ख सिपाहियों ने उन्हें आचार्य का आसन दिया। इसीप्रकार पण्डित वैषणवचरण और श्रीचैतन्य के भक्तों ने श्रीरामकृष्ण में चैतन्य का आविर्भाव देखकर उनकी स्तुति की। शैव, शाक्त, वेदान्त वेदान्त के अनुयायी सभीने उन्हें अपने अपने पथ के श्रेष्ठ साधक के रूप में स्वीकार किया था। सभी महान धर्मों के जितने भी अनुयायी उनके पास आये थे, उन सबों ने श्रीरामकृष्ण के भीतर अपने अपने भवादर्श के उज्ज्वल प्रकाश का दर्शन किया था।
सी० राजगोपालाचारी (१८७८- १९७२) स्वतन्त्र भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल ने १९४७ में कहा था -"जितने प्रकार के राजनैतिक विचार हैं, उन सबों को जान लेने और देश की वर्तमान दुर्दशा को देख लेने के बाद, मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इस देश की उन्नति तब होगी जब हम एक हिन्दू को उत्तम हिन्दू, मुसलमान और ईसाई को उत्तम मुसलमान और ईसाई बना पायेंगे। उत्तम हिन्दू, मुसलमान और ईसाई बनाने के लिये, देश को बचाने के लिये श्रीरामकृष्ण के उपदेशों पर चलना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है! और इस कार्य के लिये स्वामी प्रभानन्द लिखित " श्रीरामकृष्ण की अन्त्यलीला" ग्रंथ में लिखित काशीपुर उद्यान भवन में घटित घटनाओं पर विशेष रूप से परिचर्चा करना नितान्त आवश्यक है।
श्री रामकृष्ण परमहंस के उपदेश बिल्कुल ही गंभीर या कठिन नहीं हैं। उन्हें विद्वान से लेकर साधारण साक्षर तक, हर कोई समझ सकता है, लेकिन उनका भाव बहुत गंभीर और गहरा है। ईश्वर है या नहीं - इस पर रामकृष्ण कहा करते थे -रात में आकाश की ओर देखने से तारे दिखाई देते हैं लेकिन सुबह सूर्योदय के बाद एक भी तारा नहीं दिखता, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि आकाश में तारे ही नहीं हैं। इसलिए हे मनुष्य, अगर तुम ईश्वर (आत्मा) को नहीं देख सकते तो यह मत कहो कि ईश्वर नहीं है।
>>>काशीपुर का यह उद्यानभवन श्रीरामकृष्ण की अन्तिम लीला का स्थान था। वहाँ श्रीरामकृष्ण आठ महीने रहे। कैन्सर के कारण अन्तिम लीला व्यथापूर्ण थी। परन्तु श्रीरामकृष्ण अवतार की प्राणदायनी जीवनधारा कल्याणमयी होकर प्रतिक्षण मानव कल्याण के लिए ही प्रवाहित हुई है, वह बात यहीं पर दृष्टिगोचर हुई है। काशीपुर में ही ठाकुर श्रीरामकृष्ण के निर्मल प्रेम के बंधन में गुरु-शिष्य वेदान्त लोकशिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित वुड बी लीडर्स की एक युवा मण्डली संगठित हो गई। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसी समय श्रीरामकृष्ण उनके निर्वाचित लोकशिक्षक नरेन्द्रनाथ को सम्मुख रखकर अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर हुए थे।
परन्तु उनके गले में व्याधि होने से कुछ भक्तों में भ्रम पैदा हो गया। जिनका विश्वास कम था, वे हट गये। जो निष्ठावान थे उनका विश्वास और अधिक दृढ़ हो गया। अवतारी पुरुष की व्याधि, रोग-दुःख, सब कुछ संसार में लोकशिक्षा के लिए होती है। इसी व्याधि के समय में भावी युवा लोकशिक्षकों के निर्वाचन और रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त टीचर्स ट्रेनिंग ट्रेडिशन में उनकी शिक्षा-दीक्षा या प्रशिक्षण का कार्य आरम्भ हुआ। भावी लोकशिक्षक युवकगण श्रीरामकृष्ण की सेवा शुश्रुषा के लिए उद्यान भवन में एकत्रित हुए थे। किन्तु उनमें से अधिकांश श्रीरामकृष्ण द्वारा बताये गए मार्ग पर चलकर ब्रह्मविद या चरित्रवान मनुष्य बनना ही उनका मुख्य ध्येय बन गया। श्रीरामकृष्ण की सेवा उनकी साधना (हृदय के विकास) का अंग था।
श्रीमाता जी ने कहा था, "वे (श्रीरामकृष्ण) अपनी इच्छा से शरीर त्याग सकते थे। समाधि में अनायास ही देह त्याग देते। परन्तु वे कहते थे, ' आहा, इन सब लड़कों को एक मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध में बाँध तो दूँ ! कितने दिनों से ये लोग बातचीत करते समय कहते हैं -'नरेन बाबू आप कैसे हैं ?' दूसरा पूछता है, 'राखाल बाबू आप कैसे हैं ?' ऐसा औपचारिकता पूर्ण सम्बन्ध रहने से संघ कैसे गठित होगा ? इसीलिये इतना कष्ट होने पर भी ठाकुर ने शरीर त्याग नहीं किया था।" रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिंक्षण परम्परा में चरित्र-निर्माण आन्दोलन के प्रचार का श्रीगणेश इन्हीं दिनों हुआ था। इन्हीं दिनों इस मनुष्य-निर्माण आन्दोलन के मार्गदर्शक नेता में प्रतिष्ठित हुए अनुपम नरेन्द्रनाथ। इसी समय नरेन्द्र में स्वयं के स्वरुप को जानने की चेष्टा असीम तीव्रता से अग्रसर हुई। इसीलिये काशीपुर उद्यान भवन में गठित नवयुवक मण्डली को नरेन्द्रनाथ की महान सम्भावनाओं पूर्ण जीवन का स्प्रिंगबोर्ड (springboard -आगे बढ़ने की प्रेरणा, छलाँग मारने का तख्ता) कहा जा सकता है !
>>>भक्ति और प्रेम के शिक्षक प्रेममय श्रीरामकृष्ण: श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के अलौकिक प्रेम के कारण, नवयुवकों ने-'प्रेम के लिए ही प्रेम' किसी और उद्देश्य से नहीं; इसके मर्म (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है) को समझ लेने के कारण उस महामण्डली का प्रत्येक युवक 'प्रेममय' हो गया था। 'भगवान प्रेमस्वरूप हैं' - उन दिनों इस तथ्य को सब लोग बोधगम्य कर पाते थे।
"फिर देखता हूँ मैं ही सबकुछ हूँ "-ईश्वर की लीला को मनुष्य नहीं समझ सकता। माँ दिखा रही है (अपने शरीर को दिखाते हुए) कि इसके भीतर ऐसी शक्ति आ गयी है कि अब इसे किसी को स्पर्श भी नहीं करना पड़ेगा, तुम लोगों को स्पर्श करने के लिये कहूँगा, तुम लोग स्पर्श कर दोगे -उसीसे दूसरों को चैतन्य हो जायेगा !"[अर्थात जिसे स्पर्श करोगे वह भ्रममुक्त-dehypnotized हो जायेगा। (लीलाप्रसंग /३/२३२ )]
>>>भक्ति यानी प्रेम कोई शास्त्र नहीं है–यात्रा है ! ऊर्ध्वमुखी प्रेम। भक्ति यानी दो व्यक्तियों के बीच का प्रेम नहीं, व्यक्ति और समाष्टि के बीच का प्रेम। भक्ति यानी सर्व के साथ, विराट के प्रेम में गिर जाना। भक्ति यानी सर्व को आलिंगन करने की चेष्टा।और, भक्ति यानी सर्व को, विराट को आमंत्रण कि आ और मुझे आलिंगन कर ले ! भक्ति कोई शास्त्र नहीं है–यात्रा है।
भक्ति की शक्ति से अहंकार (देश-काल-निमित्त) का अतिक्रमण :(Transcendence of ego (=time-space-causation) by the power of devotion:
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥
स यो ह वै तत् परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित् कुले भवति।
तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति ॥
(मुण्डकोपनिषद-3, खण्ड-2, मन्त्र-8,9)
[यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रे अस्तम् गच्छ्नति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान् नामरूपात् विमुक्तः परात् परम् पुरुषम् उपैति दिव्यम्।।सः यः ह वै तत् परमम् ब्रह्म वेद ब्रह्म एव भवति अस्य कुले अब्रह्मवित् न भवति। तरति सः शोकम् पाप्मानम् तरति गुहाग्रन्थिभ्यः विमुक्तः अमृतः भवति।। स्वामी विवेकानंदजी के शब्द हैं "संस्कृत शब्दों की ध्वनिमात्र से शक्ति, बल और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है" | संस्कृत-ज्ञान से प्रभावित विलियम थियॉडोर का कहना है कि "भारत तथा संसार का उद्धार और सुरक्षा संस्कृत-ज्ञान के द्वारा ही संभव है" |]
जिस प्रकार प्रवाहित होती हुई नदियां अपने धाम, समुद्र में पहुँच जाती हैं, और अपने नाम तथा रूप को छोड़ देती हैं, उसी प्रकार विद्वान (ब्रह्मविद) नाम तथा रूप से मुक्त होकर 'परात्पर' 'परम दिव्यपुरुष' को प्राप्त हो जाता है। वस्तुतः जो (व्यक्ति-आत्मा) उस 'परम ब्रह्म' को जानता है वह स्वयं 'ब्रह्म' बन जाता है ! उसके कुल में 'ब्रह्म' को न मानने वाला पैदा नहीं होता। वह शोक से पार हो जाता है, वह पापों से तर जाता है, वह हृद्गुहा की ग्रंथियों से मुक्त होकर अमर हो जाता है।
व्याख्या : जैसे निरंतर बहती हुई नदियां समुद्र में समाहित हो विलीन हो अपने नाम और रूप का त्याग कर समुद्र के नाम को अंगीकार कर लेती है,और स्वयं समुद्र के नाम रूप को ही अपनी पहचान स्वीकार कर लेती है। वैसे ही सिद्ध ज्ञानी जन अपने शरीर में अन्तःस्थित आत्मा में परम पिता परमेश्वर का अवलोकन कर (आत्मदर्शन अर्थात आत्मा में परमात्मा सच्चिदानन्द के दर्शन कर) स्वयं को अपने नाम और रूप के साथ परमात्मा में विलीन कर लेते है। और अपने नाम रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरुषत्व (परम पुरुष परमेश्वर) को प्राप्त हो जाते है अर्थात जो मनुष्य परमात्मा के अंश रुपी जीवांश आत्मा से आत्म साक्षात्कार कर परमात्मा के दर्शन कर लेता है वह परम ब्रम्ह परमात्मा को जान लेता है तथा स्वयं भी ब्रम्ह हो जाता है वह सभी लोभ मोह और शोक से मुक्त हो जाता है वह समस्त हृदय ग्रंथियों के बंधन से विमुक्त हो पाप पुण्य के भाव से पार होकर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है ऐसा मनुष्य स्वयं के साथ साथ अपने कुल का भी उद्धार कर देता है।
4.>>> नेता (लोकशक्षक) के गुण: जीवनमुक्त शिक्षक/नेता वही है जिसे शिक्षा देनी न पड़े, जिसकी मौजूदगी शिक्षा बन जाए; गुरु वही है जिसे आदर मांगना न पड़े, जिसे आदर वैसे ही सहज उपलब्ध हो जैसे नदियां सागर की तरफ बहती हैं। जब कोई सिर्फ उपस्थिति होता है–एक आनंद- समाधि की अवस्था में –तो दूसरे भी उसकी तरफ बहने शुरू हो जाते हैं। इस बहाव में वे दूसरे ही पहल करते हैं। यह उनकी अपनी निजी चेष्टा होती है। जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है ऐसे जहां भी आनंद होता है वहां व्यक्ति बहने शुरू हो जाते हैं। न तो सागर निमंत्रण देता, न बुलाता; नदियां भागी चली जाती हैं। सागर नदियों को खींचता भी नहीं, नदियां अपनी स्वेच्छा से ही भागी चली जाती हैं। तुम दूसरे को बदलने की चेष्टा मत करना । तुम अपने स्वभाव में जीना। और अगर तुम्हारे स्वभाव में कुछ भी मूल्यवान है तो दूसरे उसकी उपस्थिति में बदलना शुरू हो जाएंगे।
तप का अर्थ है तपाना या अग्निपथ से गुजरना। जैसे भट्टी में गलाने के पश्चात ही स्वर्ण में प्रखरता आती है व् शुद्धता के उपरांत कैसे भी अकार दिया जा सकता है, इसी प्रकार अपने जीवन को विशेष आकार व् आयाम देने की सामर्थ्य तप, श्रम से ही प्राप्त होती है। तपस्वी वह है जिसने अपनी मानवीय दुर्बलताओं या कमजोरियों पर (कामिनी-कांचन में आसक्ति पर) विजय पायी हो ।
तप का अर्थ है तपाना या अग्निपथ से गुजरना। जैसे भट्टी में गलाने के पश्चात ही स्वर्ण में प्रखरता आती है व् शुद्धता के उपरांत कैसे भी अकार दिया जा सकता है, इसी प्रकार अपने जीवन को विशेष आकार व् आयाम देने की सामर्थ्य तप, श्रम से ही प्राप्त होती है। तपस्वी वह है जिसने अपनी मानवीय दुर्बलताओं या कमजोरियों पर (कामिनी-कांचन में आसक्ति पर) विजय पायी हो ।
>>>गुरु शक्ति (Master power) लीडरशिप पॉवर का संचार : " ठाकुर के भीतर दो प्रकार के भाव थे। पहला था मनुष्य भाव और दूसरा ईश्वरीय भाव। मनुष्य भाव में वे सभी के प्रति अत्यन्त सहानुभूतिपूर्ण थे। जो कोई उनके समीप आता वे उसके दुःखों को दूर करने की कोशिश करते थे। किन्तु, ऐसा करने के लिए जैसे ही वे ईश्वरीय भाव में आरूढ़ होते तो देखते कि अभी उसके दुःखों को दूर करने का समय नहीं आया है। जगन्माता की इच्छा नहीं है !"
प्राचीन ऋषियों का कहना है - समय आये बिना कुछ नहीं होता। कार्य-सिद्धि के लिये भाग्य और उद्द्यम दोनों आवश्यक हैं। मैं यथासाध्य प्रयत्न कर सकता हूँ। परन्तु भाग्य पर मेरा जोर नहीं है।
दैवे च मानुषे चैव संयुक्तं लोककारणम् ।।
देवं तु न मया शक्यं कर्म कर्तुं कथंचन ।।
महाभारत के उद्योगपर्व में कौरवों की राजसभा में शान्ति-प्रस्ताव लेकर जाने वाले थे तब अर्जुन ने कहा था -आप चाहें तो शांति स्थापित कर सकते हैं। इसपर भगवान ने कहा था - "उपजाऊ जमीन जोत कर बीज बो देने के बावजूद जबतक वर्षा न हो, पैदावार नहीं हो सकती है। सिंचाई की व्यवस्था होने से भी किसी न किसी कारण जमीन सूख सकती है।सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।। (गीता १८ /१३ -१४)
-- कर्म चाहे शास्त्रविहित हों, चाहे शास्त्रनिषिद्ध हों , चाहे शारीरिक हों? चाहे मानसिक हों, चाहे वाचिक हों, -- इन सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये पाँच हेतु कहे गये हैं। जब तक पुरुष का इन कर्मों में कर्तृत्व रहता है, तब तक कर्मसिद्धि और कर्मसंग्रह दोनों होते हैं। और जब पुरुष का इन कर्मों के होने में कर्तृत्व नहीं रहता, तब कर्मसिद्धि तो होती है, पर कर्मसंग्रह नहीं होता। प्रत्युत क्रियामात्र होती है। जैसे, संसारमात्र में परिवर्तन होता है अर्थात् नदियाँ बहती हैं, वायु चलती है, वृक्ष बढ़ते हैं, आदिआदि क्रियाएँ होती रहती है। परन्तु इन क्रियाओँ से कर्मसंग्रह नहीं होता। अर्थात् ये क्रियाएँ पाप-पुण्यजनक अथवा बन्धन-कारक नहीं होतीं। तात्पर्य यह हुआ कि कर्तृत्वाभिमान से ही कर्म-सिद्धि और कर्म-संग्रह होता है। कर्तृत्वाभिमान मिटने पर क्रियामात्र में अधिष्ठान, करण, चेष्टा और दैव -- ये चार हेतु ही होते हैं (गीता 18। 14)।
अर्जुन स्वरूप से कर्मों का त्याग करना चाहते थे अतः उनको यह समझाना था कि कर्मों का ग्रहण और त्याग -- दोनों ही कल्याण में हेतु नहीं हैं। कल्याण में हेतु तो परिवर्तनशील नाशवान् प्रकृति (अहं बोध) से अपने स्वरूप अपरिवर्तनशील अविनाशी आत्मा का सम्बन्ध-विच्छेद ही है। उस सम्बन्ध-विच्छेद की दो प्रक्रियाएँ हैं -- कर्मयोग और सांख्ययोग।
कर्मयोग में तो फल का अर्थात् ममता का त्याग मुख्य है और सांख्ययोग में अहंता का त्याग मुख्य है। परन्तु ममता के त्याग से अहंता का और अहंता के त्याग से ममता का त्याग स्वतः हो जाता है। कारण कि अहंता में भी ममता होती है जैसे -- मेरी बात रहे। मेरी बात कट न जाय -- यह मैंपन के साथ भी मेरापन है। इसलिये ममता (मेरापन) को छोड़ने से अहंता (मैंपन) छूट जाती है (टिप्पणी प0 895)। ऐसे ही पहले अहंता होती है, तब ममता होती है अर्थात् पहले मैं होता है तब मेरापन होता है। परन्तु जहाँ अहंता (मैंपन) का ही त्याग कर दिया जायगा, वहाँ ममता (मेरापन) कैसे रहेगी वह भी छूट ही जायगी।
में भी किसी भी लौकिक अथवा आध्यात्मिक कर्म को सम्पादित करने के लिए पाँच कारणों की अपेक्षा होती है। यदि मनुष्य अपने कर्मों को अनुशासित और सुनियोजित कर आन्तरिक सांस्कृतिक विकास को सम्पादित करना चाहता हो? तो उसे अत्याधिक साहस, प्रयोजन का सातत्य, आत्मविश्वास तथा बौद्धिक क्षमता, और भाग्य की आवश्यकता होती है। कर्म-सम्पादन के लिए आवश्यक पाँच कारणों का वर्णन सांख्य दर्शन में किया गया है। कृतान्त का अर्थ है कर्मों का अन्त। वेदान्त में उपदिष्ट आत्मज्ञान के होने पर अहंकार का अन्त हो जाता है और उसी के साथ उसके कर्मों की समाप्ति हो जाती है। इसलिए वेदान्त का विशेषण कृतान्त कहा गया हैं। ।।18.14।। अधिष्ठान (शरीर)/ कर्ता/ विविध करण (इन्द्रियादि)/ विविध और पृथक्पृथक् चेष्टाएं/ तथा पाँचवा हेतु दैव है।।
[कोन्नगर के सुभाष के साथ एक पानवाला आता था, वो मुझे तांत्रिक ग्रुप का आदमी लगता था, दादा के पास जाकर उन्हें पान देते और नाश्ता देते देखा तो मेरे मन आशंका हुई थी किन्तु दादा को उसमें भी कोई दोष नजर नहीं आता था ? जानिबिघा कैम्प २०१५ में जब मेराबायें हाथ में प्लास्टर था - पूज्य नवनीदा के जीवन को देखने से यही प्रेरणा प्राप्त होती है।]
श्रीरामकृष्ण परमहंस ने भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा को काशीपुर उद्यान भवन में आधुनिक युग के अनुकूल बनाकर श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन के रूप में पुनर्स्थापित किया था।
श्रीरामकृष्ण परमहंस ने भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा को काशीपुर उद्यान भवन में आधुनिक युग के अनुकूल बनाकर श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन के रूप में पुनर्स्थापित किया था।
>>>काशीपुर उद्यान भवन देह्व्याधि की रोगमुक्ति के भवन से 'भवरोग-मुक्ति' के तीर्थ स्थान में बदल गया। काशीपुर उद्यान भवन नवयुवकों के लिए प्रशिक्षण शिविर में परिणत होकर मनुष्य बनने और बनाने का साधना क्षेत्र बन गया। 3'H' विकास ५अभ्यास द्वारा चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माण करके सांसारिक व्याधि से छुटकारा पाने का युवा प्रशिक्षण शिविर में बदल गया। यदि कोई भयानक कैंसर रोग के विषय में भय की बात कहता तो वे हँस देते और कहते - "देह जाने, दुःख जाने, मन तुम आनन्द में रहो !" उन्होंने कहा, " सात साल पहले मन में बात आयी थी कि यहाँ (कैम्प में) बहुत लोग आएंगे। इतने लोग आयेंगे कि गार्ड-ड्यूटी की व्यवस्था करनी होगी। " काशीपुर उद्यान भवन में (बेलघाड़िया कैम्प में) आने के बाद से निरंजन ने श्री ठाकुर (सी० इन० सी०) के दरवाजे पर गार्ड-ड्यूटी देने की जिम्मेदारी ले ली।
१८८५ के जून-जुलाई के महीने में श्रीरामकृष्णदेव की कण्ठ-व्याधि के लक्षण आरम्भ हो गए। डाक्टरों की सलाह और भक्तों के अनुरोध से वे चिकित्सा के लिये २६ सितम्बर १८८५ में कलकत्ता आये। श्रीरामकृष्ण के कलकत्ते आने की खबर लोगों में फ़ैल गई और दल के दल लोग उनके पास आने लगे। स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी, गृहस्थ, साधक, भक्त, अभिनेता, चित्रकार, वैज्ञानिक आदि विभिन्न रूचि और स्वभाव के व्यक्ति आने लगे।
उनका द्वार हर एक के लिए खुला रहता। उन्होंने कभी किसी को लौटाया नहीं। यहाँ तक कि अभिनेत्री विनोदिनी (नटी विनोदिनी) को भी निराश नहीं किया। वह भी उनकी कृपा और आशीष पाकर धन्य हुई थी। पहले बाग बाजार में बलराम बसु के घर और बाद में श्यामपुकुर स्ट्रीट में रहने के बाद श्रीरामकृष्ण ११ दिसम्बर १८८५ को काशीपुर उद्यान-गृह में आये और १६ अगस्त १८८६ को यहीं पर उन्होंने महासमाधि द्वारा इहलीलासंवरण किया। (इस उद्यान भवन से थोड़ी ही दूर स्थित महिमा चरण चक्रवर्ती के मकान (१००, काशीपुर रोड में पूज्य नवनी दा का जन्म 15 अगस्त 1931 को) हुआ था !)
महिमाचरण सद्गुण सम्पन्न व्यक्ति थे। परन्तु उनमें लोकमान्यता प्राप्त करने की लालसा थी। यह उनकी भारी कमजोरी थी। ठाकुर महिमाचरण की अभिलाषा को समझते थे। इसलिए कभी कभी उपस्थित लोगों को दिखाते हुए कहते थे -"तुम पण्डित हो इन्हें कुछ उपदेश दो। "
महिमाचरण भी ऐसा दिखाते थे मानो ठाकुर ने ही उनका उचित मूल्यांकन किया है; फिर कभी-कभी वे ऐसा भी दिखावा करते थे, मानो वे ठाकुर के सुयोग्य प्रतिनिधि वे ही हैं।
युवकगण एक ओर अपना तन-मन-प्राण समर्पित कर श्रीरामकृष्ण की सप्रेम सेवा कर रहे थे, दूसरी ओर ब्रह्मविद मनुष्य बनने के लिए उनसे ही उत्साहित होकर आत्मस्वरूप का दर्शन करने के लिए व्याकुल थे। कहना न होगा कि असीम शक्तिसम्पन्न श्रीरामकृष्ण की इच्छा से ही - मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण कारी वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा का प्रचार प्रसार करने में समर्थ त्यागी (निवृत्ति मार्गी) और गृहस्थ (प्रवृत्ति मार्गी) दोनों प्रकार के लोकशिक्षकों के निर्माण के उद्देश्य से ही यह युवा मण्डली संगठित हुई थी। महामाया की विचित्र लीला -आज से सौ वर्ष पहले के कलकत्ता यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट होकर भी नरेन्द्र नौकरी नहीं जुटा सके, तब वकालत की पढ़ाई के लिये फ़ीस भर दिया। अपने कमरे में बैठकर पढाई कर रहे थे कि अचानक उनमें भाव का परिवर्तन हो गया। जैसे पढ़ना एक भय का विषय हो, छाती धड़कने लगी। आज के समान ऐसा कभी नहीं रोया। फिर पुस्तक को फेंक दिया और बगीचे की ओर दौड़ पड़ा। गिरीश चंद्र के भाई ने उन्हें नंगे पैर रास्ते पर जाते देखकर कारण पूछा था। इसके उत्तर में स्वामी जी ने कहा था - ' मेरा मैं मर गया है' (और दादा उसका गया श्राद्ध करना भूल गए थे?)
>>>व्याकुलता अरुणोदय का प्रतीक- मानो अब सूर्योदय होगा : श्रीरामकृष्ण साधक की व्याकुलता पर विशेष महत्व देते थे। व्याकुलता के रहने पर उनकी कृपा होती है। "ईश्वर के लिये प्राणो को छटपटाते रहने पर समझना कि अब दर्शन में देरी नहीं है। अरुणोदय के समय जब पूर्व में लाली छा जाती है, तो समझा जाता है कि अब सूर्योदय होगा। ईश्वर को व्याकुल होकर खोजने पर उनके दर्शन होते हैं, उनसे आलाप भी होता है, बातचीत होती है, जैसे मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूँ। सत्य कहता हूँ, उनके दर्शन होते हैं ! "
ज्ञानोदय की प्रेरणा से किस प्रकार व्याकुल होकर वे (नरेन्द्रनाथ) केवल एक धोती पहने हुए और नंगे पैर किसी उन्मत्त के समान कलकत्ता शहर के रास्ते पर दौड़ते हुए काशीपुर आकर अपने मार्गदर्शक नेता के चरणों में उपस्थित हुए। उसी प्रकार श्रीरामकृष्ण के अन्य नव-युवक भक्तगण धीरे धीरे ज्ञानोदय प्रयोजन की गुरुता को समझते हुए एक एक करके काशीपुर के बगीचे में आकर गुरुसेवा में नियुक्त हो गए। भोजन के लिए भी घर जाना छोड़ दिया। युवाओं के अभिभावक लोग लड़कों को घर लौटा लाने के लिये वहाँ आने लगे।
इस समय श्रीरामकृष्ण की पवित्र संगति और सानिध्य में नरेन्द्रनाथ मानो एक दूसरे ही मनुष्य बन गए थे। उन्हें देखने से ही ऐसा लगता था, मानो पिंजरे में आबद्ध सिंह कारागार को तोड़कर बाहर निकलने के असीम आग्रह से छटपटा रहा हो। घर द्वार और स्वजनों को छोड़कर प्रशिक्षण-शिविर जैसे माहौल में एक साथ रहने के कारण, एक अपूर्व आध्यात्मिक प्रेम-सम्बन्ध में एक दूसरे के साथ आबद्ध हो गए।
एवं प्रेममय (ठाकुर -नवनीदा?) के सानिध्य में ५ अभ्यास द्वारा 3'H' विकास साधन सम्बन्धी असीम उत्साह सेँ प्रेरित होकर 'उनका' [1987 प्रथम बेलघड़िया कैम्प में दादा के सानिध्य पाने के बाद से बीके,रजत,अपा,धर,जितेन, .....जानिबीघा के लड़कों का-धनेश्वर,दयानन्द,उपेन्द्र, आदिका] कोमल हृदय उस समय पारिवारिक जिम्मेदारी और कष्ट के प्रति एकदम उदासीन बना रहा। और घर परिवार की बाधाओं बेटा-बेटी शादी पढ़ाई सब माँ पर छोड़कर, धनेश्वर पण्डित गीले कपड़ों में ही कैम्प आता रहा ! किस प्रकार एक के बाद दूसरा दर्शन प्राप्त होकर तीन-चार महीने में उन्होंने निर्विकल्प समाधि सुख का प्रथम अनुभव किया। [प्रथम कैम्प में तान्त्रिक अमलानन्द का उत्पात और नवनीदा, प्रणवदा का सहारा पाकर पंचवटी में ध्यान के समय भैरव का या बुद्धावतार में मार के उत्पात का स्मरण हो आया। लिलाप्रसंग २/२२५)] गृहस्थ श्री म से कह रहे हैं - " मन में त्याग होने से ही हुआ। अगर कोई ऐसा कर सकता है, तो वह भी संन्यासी है। ... किन्तु 'लस्ट और लूकर ' की वासना में आग लगाओ -तब होगा !"
>>7जनवरी 1886 : नरेन्द्रनाथ को श्री म ने १०० रुपए दिए थे, उसीसे घर के तीन महीने का राशन जुटा था।नरेन्द्र ईश्वर दर्शन के लिए बहुत व्याकुल है। पिछले कई दिनों से वह गहरी रात के समय दक्षिणेश्वर के पंचवटी में साधन-भजन कर रहा था। साढ़े चार बजे के करीब मास्टर महाशय आ पहुँचे। वे नरेन्द्र और श्रीरामकृष्ण की बातचीत सुनने लगे। नरेन्द्र बड़े लाड़ पूर्वक श्रीरामकृष्ण से पूछ रहा था - "आज क्या करना होगा, बता दीजिये। रोज-रोज क्या करना होगा वह आप मुझे पहले बता दें। "
श्रीरामकृष्ण प्रेमपूर्ण मधुर कण्ठ से बोले, " आज 'राम' की चिन्ता करना। " नरेन्द्र -" जी, वह करूँगा। पहले बचपन में राम से बहुत प्रेम था। मैं विभोर होकर रामचरित सुनता था। " श्रीरामकृष्ण - ' अरे वही राम तो प्रत्येक वस्तु का मूल कारण हैं।' नरेन्द्र का मुखारविन्द आनन्द से खिल उठा, इस दिन से नरेन्द्र की राम-मन्त्र की साधना प्रारम्भ हो गयी। नरेन्द्र ने गृहस्थ भक्त मास्टर महाशय पूछा , "अच्छा आपने भी तो एक महीना बेलतला में बिताया था। आपको क्या प्राप्त हुआ ? " मधुर मुस्कान से मास्टर महाशय ने रामकृष्ण को दिखाकर कहा - "इन्हें प्राप्त किया।"
>>>स्वामी विवेकानन्द और स्वामी अभेदानन्द : स्वामी अभेदानन्द श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग-लीलापार्षदों में अन्यतम पार्षद थे। उनका जन्म २ अक्तूबर १८६६ को उत्तर कोलकाता के आहिरीटोला में हुआ था। उनके पुर्वाश्रम का नाम कालीप्रसाद एवं पिता का नाम रसिकलाल चन्द्र था। माता का नाम नयनतारा देवी था। बचपन में उन्होंने आहिरीटोला स्थित यदु पण्डित की पाठशाला में, तथा बाद में बंग विद्यालय एवं ओरिएंटल सेमिनरी में शिक्षा ग्रहण किया था। पढ़ने-लिखने में वे एक मेधावी छात्र थे। किन्तु बचपन से ही उनमे योगसाधना के प्रति तीव्र आकर्षण था। इसी योगसाधना के प्रति गहरे आकर्षण को लेकर १८८३ ई० वे श्रीरामकृष्ण के सानिध्य दक्षिणेश्वर आ गए थे।
ज्ञान (मोक्ष या भ्रम से मुक्ति) आसानी से नहीं होता, किन्तु अवतारी पुरुष के स्पर्श से और 'चैतन्य हो ' कहने से ही हो जायेगा। भक्तों के प्रति ठाकुर का प्रेम और करुणा वात्सल्य प्रेममयी माँ के समान था। पेज २६५/ दानवों का कमरा/ नरेन्द्रनाथ और कालीप्रसाद (जीतेन?) मानो गुरु और शिष्य हैं। नरेन्द्र उनसे चार साल बड़े थे। कालीप्रसाद छाया की भाँति सर्वदा नरेन्द्रनाथ के साथ-साथ रहता था। मैं नरेन्द्रनाथ का इतना अनुकरण करता था कि जिस सुर में वे मोहमुद्गर, कौपीनपंचक, विवेकचूड़ामणि, अष्टावक्र संहिता आदि पाठ करता था मैं भी बिल्कुल वैसा ही करता था।
८ जनवरी १८८६:अपराह्न के समय कालीप्रसाद के पिता रसिकलाल चन्द्र श्रीरामकृष्ण के कमरे में आये। वे ओरिएण्टल सेमिनरी नामक उच्च अंग्रेजी विद्यालय में अध्यापन करते हैं। श्रीरामकृष्ण बिछौने पर बैठे हैं, मास्टर महाशय भी बिछौने के पास ही बैठे थे। रसिकलाल से ठाकुर ने पूछा -'आप कैसे हैं ?' उन्होंने नीरस स्वर से कहा -'ऐसे ही हूँ। ' ठाकुर बोले -'काली को ले जाना चाहते हो, अच्छी बात है ले जाओ। ' काली से बोले -"मैं अनुमति देता हूँ, तू घर जाकर माँ से मिल आ। " उनका घर आहिरी टोला में था। शाम के समय पैदल घर पहुँचे। काली की माँ ने उन्हें रात में घर में ही रहने का अनुनय किया। किन्तु वे काशीपुर लौट आये। रसिकलाल, २१ न ० नीमू गोस्वामी लेन में रहते हैं। प्रथम पत्नी से इन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ था जिसका नाम बिहारीलाल था। बिहारीलाल घर छोड़कर चला गया है, और उसने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है। दूसरी पत्नी नयनतारा ने कालीप्रसाद को जन्म दिया। कालीप्रसाद पर उनके परिवार के लोग बड़ी आशायें रखते थे। रसिकलाल विनोदप्रिय थे। परवर्तीकाल में वे अपने पुत्रों के विषय में कहा करते थे, " मैं साला भी क्या ही धार्मिक हूँ। मेरा एक बेटा ईसाई है, एक संन्यासी बन गया है, और इस बेटे को (अपने तीसरे बेटे को दिखाकर) मुसलमान बना दूँगा।
५ फरवरी १८८६ मास्टर महाशय ने अपनी डायरी में लिखा -"Lord's Supper -Fresh Blood" उन दिनों कैंसर को लोग संक्रामक बीमारी समझते थे, इस भ्रम को मिटाने के लिये श्रीरामकृष्ण का थूक मिला हुआ पथ्य को उठाकर पी लिया। उस दिन से सब लोगों का सन्देह सदा के लिए समाप्त हो गया।
योगिन्द्र ने विवाह करने के बाद श्रीरामकृष्ण के पास जाना बिल्कुल बन्द कर दिया था। वे सोचते थे कि कामिनी-कांचन के बन्धन में बन्ध जाने के बाद गृहस्थ मनुष्य के लिये ईश्वर लाभ की आशा करना असंभव है। उनको बुलवाकर श्रीरामकृष्ण ने कहा - " विवाह किया है, इसमें डरने की क्या बात है ? यहाँ कृपा रहने पर एक लाख विवाह करने पर भी कोई हानि नहीं होगी। यदि गृहस्थी में रहकर ईश्वर लाभ करना चाहता है तो अपनी पत्नी को लेकर एक दिन यहाँ आना। उसे और तुझे वैसा ही बना दूँगा और यदि गृहस्थी का परित्याग कर ईश्वर लाभ करना चाहता है तो वैसा भी कर दूँगा। तेरे गौने के समय बहु को ले आना -ऐसा कर दूंगा कि काम भाव चला जायेगा, ऐसा कर दूंगा कि तेरा चैतन्य हो जायेगा। " लीलाप्रसंग/१५१/ वैद्य महफेज / हजरत मुहम्मद की जीवनी पढ़ रहे थे।
>>>रामकृष्ण आगमन से प्रेरित जन-समुदाय की ऊर्जस्वी गतिविधि (Dynamic activity of the Ramakrishna advent Mission): श्रीरामकृष्ण के आगमन के फलस्वरूप इस देश का पुनर्जागरण हुआ, हताश और भूले-भटके भारतवासी फिर से स्वधर्म और आत्मविश्वास को प्राप्त करने में समर्थ हुए। देश प्रगति के रास्ते आगे बढ़ा। रामकृष्ण अवतार महिमा का जो अनन्य उद्देश्य था -वह था कुछ युवाओं को "गुरु-शिष्य वेदान्तिक लोक शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा" " रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त 'Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा"में [उत्तम हिन्दू, मुसलमान और ईसाई बनने के पहले एक उत्तम मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षापद्धति- "मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा पद्धति" को सम्पूर्ण विश्व में प्रचार-प्रसार करने में सक्षम मानवजाति के Would Be Vedantic leaders (Teachers) भावी वेदान्तीक मार्गदर्शक नेताओं/लोकशिक्षकों/पैगम्बरों के रूप में जीवन-गठन प्रशिक्षक या चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षक (Life-building or Character -building Coach) में तैयार कर देना। यही रामकृष्ण आगमन महिमा का वह ऊर्जस्वी हिस्सा था (Dynamic Part of the Mission) जिस हिस्से का 'त्याग-और सेवा लीडरशिप' (Main Standard-Bearer of Renunciation and service Leadership) के सैन्य परेडों में यूनिट का मुख्य मानक-ध्वज 'श्री रामकृष्ण पताका' का संवहन करने के लिये उन्होंने निवृत्तिमार्ग के सप्तऋषियों में से एक नरेन्द्रनाथ को निर्वाचित किया था। और नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द) ने 'Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा ' में प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी भावी लोकशिक्षकों को जीवन-गठन का प्रशिक्षण प्रदान करने में समर्थ 'श्री रामकृष्ण पताका' का संवहन करने हेतु प्रथम युवा नेता (C-IN-C) के रूप में प्रेममय -लोकशिक्षक-नवनीदा (पूर्वजन्म में कैप्टन सेवियर) को निर्वाचित किया था।
ज्ञान-भक्ति-निरुपण, ज्ञान-दीपक और भक्ति की महान् महिमा:-स्वामी विवेकानन्द कहते हैं " मनुष्य किसी को अपना गुरु (या नेता /संतजन /Saints) नहीं चुनते , जो गुरु या नेता होता है, वह तो गुरुत्व (नेतृत्व) का अधिकार साथ लेकर ही जन्म ग्रहण करता है। " युवा नेता कौन है ? जो आधुनिक ईश्वर की भक्ति का प्रचार करता है - अर्थाथत आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण की भक्ति का प्रचार करता है !
>>> स्वामी विवेकानन्द द्वारा स्वामी रामकृष्णानन्द को 1895 में लिखित पत्र: मानो महामण्डल के संस्थापक प्रेममय नवनीदा द्वारा महामण्डल के भावी कर्मियों/नेताओं को अनुप्रेरित करने के लिए लिखित दिशानिर्देश प्रतीत होता है - उस पत्र में वे कहते हैं -
"प्रिय शशि,DS ..... अब मैं तुम्हें कुछ निर्देश दे रहा हूँ। ये निर्देश विशेष रूप से तुम्हारे ही लिए है। कृपया इसे प्रतिदिन पढ़ना और इसे व्यवहार में लाना ! अब (जब श्री दादा अपने भौतिक शरीर में नहीं हैं- now we want organization.) हमें संगठन की आवश्यकता है। तुम्हें ही इन थोड़े से निर्देश देने का मुख्य कारण यह है कि तुममें संगठन की शक्ति है, ईश्वर (श्री ठाकुर) ने मुझे यह दिखाया है- (कि तुम में नेता बनने और बनाने वाले सारे गुण हैं) परन्तु उसका अभी पूर्ण विकास नहीं हुआ है। ईश्वर की कृपा से वह शीघ्र ही हो जायेगा!
तुम अपना गुरुत्वाकर्षण-केन्द्र (Center of Gravity-C.G. सन्तुलन-केन्द्र) कभी नहीं खोते, यही उसका प्रमाण है; परन्तु तुम्हें प्रचण्ड (intensive-क्षात्रवीर्य) और वृहत (extensive-ब्रह्मतेज) दोनों से संपन्न होना चाहिये। नेता को 'ब्रह्मतेज-क्षात्रवीर्य' दोनों से समन्वित होना चाहिये। आत्मश्रद्धा, आस्तिक होना अर्थात अद्वैत स्वरूप ठाकुर में स्थित रहना, इधर-उधर न घूमकर एक मात्र श्रीठाकुर के कार्य सेवा-पूजा 'बनो -बनाओ' में लीन रहना, नेता की पहचान यही है।
>>>कर्म फल को नष्ट किया जा सकता है। सब शास्त्रों का कथन है कि संसार में जो त्रिताप दुःख हैं, वे स्वाभाविक नहीं हैं, इसलिये उन्हें दूर किया जा सकता है। साँख्य दुःख को चित्त का एक धर्म और रजोगुण का कार्य मानता है, आत्मा को उससे अलग रखता है । इस प्रकार की मुक्ति या अत्यंत दुःखनिवृत्ति तत्वज्ञान (विवेकज ज्ञान) द्वारा— प्रकृति और पुरुष के भेदज्ञान द्वारा—ही संभव है ।
सांख्याशास्त्र के अनुसार तीन प्रकार के दुःख (threefold misery) माने गए हैं— आध्यात्मिक, आधिभौतिक और अघिदैविक । अध्यात्मिक दुःख के अंतर्गत रोग, व्याधि आदि शारीरिक दुःख और क्रोध, लोभ आदि मानसिक दुःख हैं । आधिभौतिक दुःख वह है जो लौकिक संसार के स्थावर, जंगम प्राणियों के (पशु पक्षी साँप, मगरमच्छ, मच्छड़ आदि) द्वार पहुँचता है । आधिदैविक जो देवताओं अर्थात् प्राकृतिक शक्तियों के द्वार पहुँचता है, जेसे,—आँधी, वर्षा, बज्रपात, शीत, ताप इत्यादि । (यह बोध हो जाने से कि मैं तो अस्ति-भाति-प्रिय दास मैं या करण अहं हूँ, कर्तापन वाला अहं का भ्रम दूर हो सकता है।) वेदांत ने सुखदुःख ज्ञान को अविद्या कहा है । इसकी निवृत्ति ब्रह्माज्ञान द्वारा हो जाती है । दैहिक, दैविक और भौतिक, ये त्रिताप तो अहंकार को दुख देते हैं। त्रिशूल या त्रितापों से मेरा 'अहंकार' पीड़ित होता है। मैं 'अहंकार' नहीं हूँ, मैं तो 'साक्षी' हूँ, सवव्यापी हूँ, प्रिय हूँ। हरि ऊँ! अस्ति-भाति-प्रिय हूँ !
ऋषियों ने दुःख से छूटने के मार्ग को खोजा और, शोध का परिणाम घोषित किया, (वचनामृत) का श्रवण- मनन, निदिध्यासन से यह ज्ञान होने होता है - 'श्रृण्वन्तु विश्वेsमृतस्य पुत्रा:'-- अमृत-अंश विश्वभर के लोग सुनें -- 'वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्'- मैंने उस परमपुरुष परमात्मा को भली प्रकार जान लिया है कि श्री रामकृष्ण देव ही आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार हैं! और वे अपने यथार्थ स्वरुप में 'आदित्यवर्ण: तमसः परस्तात'-- प्रकाश-स्वरूप और तम (मृत्यु) से परे है। ( मृत्यु को अतिक्रम किया जा सकता है।) श्वेताश्वतर उपनिषद (६.१५) में कथित है- 'तमेव विदित्वा अति मृत्युमेति'- केवल उसी को जान लेने पर मृत्यु से छुटकारा मिल सकता है। 'नान्य: पन्था विद्यते अयनाय'- इसके अतिरिक्त मृत्यु के महान भय से छुटकारा पाने, और शाश्वत सुख प्राप्त करने का कोई दूसरा मार्ग नहीं है।
प्रधान दुःख जरा और मरण है जिनसे लिंगशरीर (कारणशरीर-भ्रम) की निवृत्ति के बिना चेतन या पुरुष छुटकारा नहीं पा सकता है । बुद्ध अवतार में भगवान कहते हैं, कि इस आधिभौतिक दुःख का कारण भेद-बुद्धि "Formation of Classes (Jâti)", ही है। [ वंशगत, गुण-गत या वित्तीय आधार पर, किसी भी प्राणी की हत्या करने का वर्ग-भेद (स्वर्ण-दलित) भेद बुद्धि ही है। । और जैसे कीचड़ से कीचड़ को नहीं धोया जा सकता, उसी तरह भेदभाव करके सम्पूर्ण विश्व में 'Oneness' एकात्मकता, अभेद या अपनापन को स्थापित कर पाना असम्भव है!
>> श्री कृष्ण अवतार में वे कहते हैं कि सब दुःखों का मूल अविद्या है, और निष्काम कर्म चित्त को शुद्ध करता है। परन्तु "किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: कर्म क्या है और अकर्म क्या है ?" -इसका निर्णय करने में महात्मा भी भ्रम में पड़ जाते हैं। आत्मश्रद्धा या आस्तिकता, का विकास जिस कर्म के द्वारा हमारे भीतर अध्यत्मिकता का विकास होता है, वही कर्म है। और जिस कर्म के द्वारा अनात्मभाव (materiality, मिथ्या नाम-रूप में शरीर-मन का अहंकार भाव) विकसित होता है, वही अकर्म है। अतएव कर्म, विकर्म और अकर्म का निर्णय व्यक्तिगत, देशगत और कालगत परिस्थितयों के आधार पर करना चाहिये। यज्ञ आदि कर्म प्राचीन काल में उपयोगी थे। परंतु वर्तमान काल के लिये वैसे नहीं हैं।
>>>वचनामृत अवतार से सत्ययुग का प्रारम्भ : From the date that the Ramakrishna Incarnation was born, has sprung the Satya-Yuga (Golden Age) रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि (फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, 18 फरवरी 1836 से सत्य युग का आरम्भ हुआ है ! वचनामृत अवतार में समस्त प्रकार के नास्तिक विचार 'ज्ञानरूपी तलवार' से नष्ट हो जायेंगे,और सम्पूर्ण जगत भक्ति और प्रेम से एक सूत्र में बँध जायेगा। साथ ही, इस अवतार में रजस अर्थात नाम-यश आदि की इच्छा का सर्वथा अभाव है। इसीलिए कोई व्यक्ति चाहे उन्हें अवतार के रूप में माने या न माने, किन्तु यदि वह उनके उपदेशों (ईश्वर प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है, पंचभूतेर फांदे ब्रह्म पड़े कांदे, 'मान'-हूंश, तो मानुष ! आदि) के मर्म को समझकर व्यवहार में लायेगा, तो निश्चित रूप से उसका जीवन धन्य हो जायेगा !"
>>> अवतार बरिष्ठतर से वरिष्ठतम ठाकुर हैं : आधुनिक या प्राचीन समय में जितने भी धर्म-सम्प्रदाय स्थापित हुए हैं, उनमें से कोई भी संस्थापक (राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा, मोहम्मद, नानक,कबीर ....चैतन्य) अनुचित मार्ग पर नहीं थे। उन्होंने ने अच्छा किया ;परन्तु उससे और अच्छा करना है। कल्याण-तर -तम ! इसलिये जो (झगड़ालू-ईर्ष्यालु बिहारी- बंगाली, ब्राह्मण-बनिया, शूद्र) अभी जिस स्थान पर है, उसे वहीं से ऊपर उठाना होगा; अर्थात उसके इष्ट के भाव में आघात न कर, उसे उच्चतर भाव में ले जाना होगा। इस समय की सामाजिक परिस्थिति जैसी भी है वह अच्छी है। पर उसे उत्कृष्टतर से उत्कृष्टतम बनाना होगा।
>>(S.N.S) सारदा नारी संगठन का कार्य : स्त्रियों की अवस्था को बिना सुधारे जगत के कल्याण की कोई सम्भावना नहीं है। पक्षी के लिये एक पंख से उड़ना सम्भव नहीं है। इसी कारण रामकृष्ण-अवतार में 'स्त्री-गुरु' (भैरवी ब्राह्मणी ?) को ग्रहण किया गया है, इसलिए श्री ठाकुर ने स्त्री के रूप और भाव में साधना की और सभी स्त्रियों को मातृ-भाव से माँ जगदम्बा के रूप में दर्शन करने का उपदेश दिया। इसलिए मेरा पहला प्रयत्न स्त्रियों के मठ को स्थापित करने का है। इस मठ (S.N.S) से गार्गी और मैत्रेयि और उनसे भी अधिक योग्यता रखने वाली नारियों की उत्पत्ति होगी।
>>(S.N.S) सारदा नारी संगठन का कार्य : स्त्रियों की अवस्था को बिना सुधारे जगत के कल्याण की कोई सम्भावना नहीं है। पक्षी के लिये एक पंख से उड़ना सम्भव नहीं है। इसी कारण रामकृष्ण-अवतार में 'स्त्री-गुरु' (भैरवी ब्राह्मणी ?) को ग्रहण किया गया है, इसलिए श्री ठाकुर ने स्त्री के रूप और भाव में साधना की और सभी स्त्रियों को मातृ-भाव से माँ जगदम्बा के रूप में दर्शन करने का उपदेश दिया। इसलिए मेरा पहला प्रयत्न स्त्रियों के मठ को स्थापित करने का है। इस मठ (S.N.S) से गार्गी और मैत्रेयि और उनसे भी अधिक योग्यता रखने वाली नारियों की उत्पत्ति होगी।
>>>No great work can be achieved by humbug! चालाकी से कोई महान कार्य पूरा नहीं हो सकता। हठधर्मिता, छलकपट या चालाकी से कोई महान कार्य सिद्ध नहीं हो सकता ! प्रेम, सत्यानुराग और महान वीर्य की सहायता से सभी कार्य सम्पन्न होते हैं। [ ईर्ष्यालु बंगालियों के प्रति प्यार, और उस 'खतरनाक सत्य' को जानने का जुनून जिसे देखकर एथेंस का सत्यार्थी देवकुलिश अँधा हो गया था, और जबरदस्त निर्भयता, माँ का पुत्र होने का अभिमान !] तत् कुरु पौरूषम् —इसलिये पुरुषार्थ को प्रकट करो! (Therefore, manifest your manhood.) Love, passion for truth, and tremendous energy !
>>> "सत्यमेव जयते नानृतम् — (समाधि जन्य) सत्य की जीत होती है, असत्य की नहीं;" तदा किं विवादेन — Why then fight? तब विवाद से क्या प्रयोजन ? किसी से लड़ने-झगड़ने या तर्क-वितर्क करने की आवश्यकता नहीं है। अपना संदेश दे दो [बी ऐंड मेक और 'चरैवेति चरैवेति' देदो ] तथा दूसरों को उनके भाव के साथ रहने दो। गम्भीरता के साथ शिशु-सरलता ( भोलापन, नाईवटे childlike naïveté) को मिलाओ। सभी के साथ हिलमिल कर रहो ! अहंकार के सब भाव छोड़ दो और साम्प्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। (फेसबुक-वाट्सएप) को लेकर व्यर्थ का तकरार महापाप है। किसी भी नये कार्य को आरम्भ करने से पहले श्री रामकृष्ण से प्रार्थना करो, और वे तुम्हें उत्तम मार्ग दिखायेंगे। ४/३१८
>>>प्रेममय नवनीदा महामण्डल के माध्यम से काम कर रहे हैं : नाम, यश और अधिकार की इच्छा सदा के लिये त्याग दो। जब तक मैं पृथ्वी पर हूँ, श्री रामकृष्ण मेरे माध्यम से काम कर रहे हैं ! (श्री दादा के आत्माराम की डिबिया, साक्षात् धर्मेन्द्र के घर पर है !) 'While I am on earth, Shri Ramakrishna is working through me' जब तक तुम इस पर विश्वास रखते हो, तुम्हें किसी बात का भय नहीं हो सकता। तुम क्या सोचते हो यदि हिन्दू-धर्म को महान और अन्य को छोटा कहकर उसका प्रचार करोगे तो इस देश के बहुत लोग महामण्डल की ओर आकृष्ट होंगे ? भावों की संकीर्णता को देखकर ही अन्य धर्मावलम्बी इस चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन से दूर भाग जायेंगे। जो वास्तविक चीज है वह है धर्म (अद्वैत) जिसका उपदेश श्रीरामकृष्ण ने दिया था -हिन्दू चाहे उसे हिन्दू धर्म कहें और दूसरे, अपनी इच्छानुसार किसी और नाम से पुकारें। क्या श्री रामकृष्ण केवल भारत के उद्धारक ही थे ? इस संकीर्ण भाव ने ही भारतवर्ष का नाश किया है।
>>> "शनै: पन्था: — One must make journeys slowly. भारत का कल्याण तब तक असम्भव है, जब तक यह भाव जड़ से न निकाला जायेगा। कोई भी महान विचार किसीके हृदय में स्थान नहीं पा सकता है, जब तक कि वह अपने सीमित दायरे से बाहर न निकले। समय पाकर यह प्रमाणित होगा। प्रत्येक महान कार्य धीरे धीरे होता है। यही परमात्मा की इच्छा है।
(Every great achievement is done slowly. Such is the Lord's will. ...) तुम्हें केवल धीरे धीरे आगे बढ़ना चाहिये -चरैवेति चरैवेति -करना चाहिये! "शनै: पन्था: — One must make journeys slowly." 'यात्रा धीरे धीरे करनी चाहिये ! Purity, Patience, Perseverance.... '3P' पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय-सतयुग स्थापित करने के प्रति जो लोग गम्भीर हैं , उनसे कुछ हद तक आर्थिक सहायता की प्रार्थना करो ! 'र-रि-अ-रा के-जे-एन'
वाट्सएप का दुःख अनुभव कर रहा है, क्योंकि उसका मन अभी गंगाजल के समान निर्मल नहीं हुआ है। यदि वह अपनी थोड़ी सी कुटिलता (ग्रुपिज्म) छोड़कर सीधा हो जाय तो उसका दुःख भी मिट जायेगा। "यह कभी न भूलना कि 'राखाल' (जो प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आये थे ? इसीलिये ?) श्री रामकृष्ण के प्रेम का विशेष पात्र था!
किसी बात से (त्रिताप ?) से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक 'होली ट्रायो' की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है ? यदि तुम अपनी अंतिम साँस भी ले रहे हो, तो भी न डरना ! 'सिंह की निर्भयता और पुष्प की कोमलता' के साथ काम करते रहो! इस वर्ष श्रीरामकृष्ण का (श्री दादा का) जन्मोत्स्व- 15th अगस्त 2023 पर श्री नवनीदा की हिन्दी जीवनी- 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' से पाठ होगा। / को 18th अगस्त 3 pm रिपोटिंग टाइम से 19 -20 अगस्त को कैम्प के रूप में पूरे धूम-धाम के साथ मनाओ। खाना-पीना साधारण रखो -एकत्र मिट्टी के पात्रों में प्रसाद बिना किसी भेदभाव के बाँट दो। श्री रामकृष्ण की जीवनी, वचनामृत , उपनिषद-गीता-रामायण जैसी पुस्तकों को एक साथ रखकर उनकी आरती करो।
अंग्रेजी अक्षरों में 'श्री दादा' का निमंत्रण-पत्र छपवाओ -महामण्डल के संस्थापक प्रेममय श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय का जनमोत्स्व
महाशय,
श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के ८५ वें वार्षिकोत्स्व को मनाने में सम्मिलित होने के लिये हम सहर्ष आपको आमंत्रित करते हैं। इस सुअवसर को मनाने के लिये और 'महामण्डल सिटी ऑफिस ' भवन के निर्माण के लिए धन की नितान्त आवश्यकता है। यदि आप समझते हैं, कि यह कार्य आपकी सहानुभूति के योग्य है, तो इस महान कार्य के संचालन के लिए हम कृतज्ञता पूर्वक आपका दान स्वीकार करेंगे।
आज्ञापूर्वक आपका
नाम
तारीख --------------------
श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के ८५ वें वार्षिकोत्स्व को मनाने में सम्मिलित होने के लिये हम सहर्ष आपको आमंत्रित करते हैं। इस सुअवसर को मनाने के लिये और 'महामण्डल सिटी ऑफिस ' भवन के निर्माण के लिए धन की नितान्त आवश्यकता है। यदि आप समझते हैं, कि यह कार्य आपकी सहानुभूति के योग्य है, तो इस महान कार्य के संचालन के लिए हम कृतज्ञता पूर्वक आपका दान स्वीकार करेंगे।
आज्ञापूर्वक आपका
नाम
तारीख --------------------
The Anniversary of Sri Navaniharan Mukhopadhyay
Sir,
we have great pleasure in inviting you to join us in celebrating the 85'th anniversary of 'Sri Navni da' (Bhagavan Ramakrishna Paramahamsa). For the celebration of this great occasion and for the maintenance of the 'Mahamandal City Office' funds are absolutely necessary. If you think that the cause is worthy of your sympathy, we shall be very grateful to receive your contribution to the great work.
Yours obediently,
Date ----------------Place------------------------
Sir,
we have great pleasure in inviting you to join us in celebrating the 85'th anniversary of 'Sri Navni da' (Bhagavan Ramakrishna Paramahamsa). For the celebration of this great occasion and for the maintenance of the 'Mahamandal City Office' funds are absolutely necessary. If you think that the cause is worthy of your sympathy, we shall be very grateful to receive your contribution to the great work.
Yours obediently,
Date ----------------Place------------------------
>>>प्रेममय नवनीदा और भगवान नृसिंह का सिंहाचलम मन्दिर, विशाखापत्तनम:
[The Lord Narasimha temple, on Simhachalam mountain, near Visakhapatnam."শ্রীরামকৃষ্ণ এই যুগে এসেছিলেন মানুষকে হাতে ধরে টেনে ভগবানের কাছে পৌঁছে দিতে।" का प्रमाण - प्रेममय नवनीदा ने स्वप्न में दिखाया था-भगवान नृसिंह का सिंहाचलम मन्दिर ! ]
भगवान नृसिंह- प्रह्लाद, का इस युग में श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द, (विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर) रूप में अवतरण क्यों हुआ ? भगवान श्री रामकृष्णदेव इस युग में, विवेकानन्द के माध्यम से लोगों का हाथ पकड़कर उन्हें भगवान के पास ले जाने के लिए अवतरित हुए थे। इस 'वचनामृत' पुस्तक के जिस किसी पृष्ठ को आपकी उँगलियाँ खोलेंगी, वहां लिखे ऐसे शब्द मिलेंगे, जिसकी तुलना नहीं की जा सकती, जो मुर्दा पौधों में भी अमृत के समान जान डालने हराभरा बना देने में सक्षम हैं। श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा और स्वामीजी के अवतरण के बाद उनके भक्तों को, अब ईश्वरलाभ के लिए -(अर्थात 'सोऽहं बोध' के बाद भक्त बनकर संसार या गृहस्थ जीवन में रहने के लिए) अब मार्ग की खोज में भटकने की आवश्यकता नहीं है। वे स्वयं हमारा हाथ पकड़ कर लक्ष्य तक (अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में) पहुँचा देंगे। नवनीदा संसार में इसीलिये आये थे कि गुरु विवेकानन्द मनुष्य का हाथ पकड़ कर ठाकुर देव के पास ले जाने के लिए हमेशा प्रयासरत हैं।
इंटर स्टेट कैम्प के माध्यम से भगवान नृसिंह के भक्त के प्रह्लाद जैसा, या भगवान श्रीरामकृष्ण के भक्त स्वामी विवेकानन्द जैसा चरित्र-निर्माण! नृसिंह जयंती का दिन (गुरुवार, 04 मई 2023) बहुत खास है। पुराण-कथा है, प्रह्लाद नास्तिक राजा हिरण्यकश्यप के यहां जन्म लेता है, और फिर हिरण्यकश्यप अपनी नास्तिकता सिद्ध करने के लिए प्रह्लाद को नदी में डुबोता है, पहाड़ से गिरवाता है, और अन्त में अपनी बहन होलिका से पूर्णिमा के दिन जलवाता है। और आश्चर्य तो यही है कि वह सभी जगह बच जाता है, और प्रभु के गुणगान गाता है। वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को नृसिंह जयंती का व्रत किया जाता है। आज के ही दिन भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रह्लाद को बचाने के लिए नृसिंह का सिंहावतार लिया था। ! भगवान नृसिंह का मंदिर जो विशाखापत्तनम के निकट सिम्हाचल पर्वत पर स्थापित है, उसमें भगवान नृसिंह मन्दिर में अत्यंत उग्र स्वरूप में दिखाई देते हैं लेकिन भक्तों के लिए विशेष रूप से उदार और दयावान हैं। नियम मानकर ठाकुर की पूजा करना चाहते हों, तो जरूर कीजिये किन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि आप कितनी ईमानदारी से परमेश्वर (अवतार वरिष्ठ) से प्रेम करते हैं। ईश्वर (ठाकुर-माँ -स्वामीजी) हमसे केवल प्रेम चाहते हैं, और कुछ नहीं।
क्या इसी कारण विशाखा पत्तनम जाते समय, ठीक सिम्हाचलम स्टेशन निकट आने पर स्वप्न में नवनी दा ने मुझे 'नृसिंह अवतार का निज स्वरुप दर्शन' देकर डांटते हुए कहा था, क्या (धातुः = सबकी रचना करने वाले उन परमेश्वर 'होली ट्रायो' की कृपा, अर्थात रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में लीडरशिप (ईश्वर-भक्त) ट्रेनिंग को घर-घर तक गृहस्थों या प्रवृत्ति मार्गियों तक पहुँचाने वाले महामण्डल की कृपा से १९९२ में ही निरपेक्ष सत्य का साक्षात्कार करके डीहिप्नोटाइज्ड हो जाने के बाद, अर्थात पशुमानव से देवमानव में क्रमविकसित हो जाने के बाद भी तुम पुनः 'जन्तु' की अवस्था में लौटना चाहते हो ?
...... यह पूरा निबन्ध सुबह में जब समाप्त हुआ, उसी समय मेरे मित्र और महामण्डल के भाई मुनिस्वामी का फोन आया, उसने मुझसे कहा कि मैं विशाखापत्तनम न जाकर उसके पहले 'सिम्हाचलम' स्टेशन पड़ेगा, वहीँ उतर जाऊं वो वहाँ से मुझे अपने घर ले जायेगा।
श्री वराह लक्ष्मी नरसिम्हा स्वामी मंदिर,
सिंहाचलम मंदिर
Sri Varaha Lakshmi Narasimha Swamy Temple,
Simhachalam Temple
ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम्।।
अक्षय तृतीया के दिन सिम्हाद्री अप्पन्ना का 'निजरूप-दर्शन' !
गुरु नवनी दा वह समर्थ मार्गदर्शक 'नेता' हैं, जो अपने शिष्य को ब्रह्मविद् बनने और उससे भी ऊपर भीतर में छिपे देवत्व को विकसित करने मार्ग दिखला देता है। वह भोगों की समस्त इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिये मन पर लगाम कसने अर्थात मन को एकाग्र करने की पद्धति सिखलाकर, हमें जगत के इस मायावी प्रपंच से बचाकर उस परम ‘सत्य’ की ओर ले जाता है। वैसे नेता या गुरु यह समझा देते हैं कि 'मनुष्य अपने कर्मों से महान होता है न कि उच्च कुल में जन्म लेने से। मूर्खों द्वारा अपनी प्रशंषा सुनकर खुश होने से ज्यादा अच्छा है, बुद्धिमान नेता-गुरु की डाँट सुनकर जाग जाना !' क्योंकि बिना गुरु मार्गदर्शक नेता के ब्रह्म को (निरपेक्ष-सत्य को) जान पाना, अर्थात ब्रह्मविद् मनुष्य बनना असम्भव हैं। इसीलिये भारतीय-संस्कृति में गुरु का स्थान परमेश्वर से भी ऊँचा माना गया है।
‘‘गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागू पांय
बलिहारी गुरु आपणे, गोविन्द दिओ मिलाय।’
अर्थात मेरे सामने गुरु और गोविन्द (निराकार ब्रह्म) दोनों खड़े हैं। मैं दोनों को ही पाना चाहता हूं। लेकिन मैं उस गुरु (मार्गदर्शक नेता) पर बलिहारी जाता हूँ, जिन्होंने मुझे गोविन्द से मिला दिया। क्योंकि गुरु परिवर्तनशील होने के कारण इस 'मिथ्या’ जगत और अपरिणामी ब्रह्म के बीच अन्तर को जानने और पहचानने की विवेक-दृष्टि प्रदान कर ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बना देता है।
अवतारवरिष्ठ जगतगुरु श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द निवृत्ति मार्गी वेदान्त परम्परा, (एवं 'होली ट्रायो ' माँ सारदा के परम भक्त) 'ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य से सम्पन्न वेदान्त केसरी' आचार्य नृसिंह श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय -
'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' में लीडरशिप ट्रेनिंग प्राप्त एक साधारण ३० वर्षीय भारतीय (हिन्दू) युवा 'नरेन्द्रनाथ दत्त' को मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने में समर्थ एक 'अवैतनिक लोक-शिक्षक विवेकानन्द' (जगत-गुरु विवेकानन्द) के रूप में पुनः प्रतिष्ठित होते देखकर, तुम्हारा इस प्रकार आनन्दित हो उठना !- इस बात का द्योतक है कि, पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली प्राचीन भारतीय गुरु-शिष्य परम्परा, (दशावतार-भक्त परम्परा में गुरु मुख से प्राप्त होने वाली श्रुति या तत्वमसि आदि वेदान्त महावाक्य के 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन' द्वारा ब्रह्मवेत्ता मनुष्य, 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से सम्पन्न मनुष्य, वेदान्त-केसरी श्रीनृसिंह, अवैतनिक लोक-शिक्षक, महामण्डल का नेता बनने और बनाने वाली लीडरशिप ट्रेनिंग के माध्यम से भारतवर्ष की आध्यात्मिक बुनियाद- 'ईश्वर-भक्ति और सर्वभूत दया' की शिक्षा भविष्य में और अधिकाधिक सुदृढ़ होती जाएगी।
[प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी स्त्री-पुरुषों को चरित्रवान मनुष्य, ब्रह्मवेत्ता मनुष्य या आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार श्रीरामकृष्ण- श्री माँ सारदा और विवेकानन्द के अनुयायिओं को जगतगुरु का अनुकरण, या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का अनुसरण करने की पद्धति 'BE AND MAKE ' या श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द (स्वामी ब्रह्मानन्द...) वेदान्त परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग द्वारा नेता (अवैतनिक लोक-शिक्षक या वेदान्त केसरी आचार्य नृसिंह बनो और बनाओ) निर्माण करने वाले, 'प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग' का सन्तुलित समाज, चरित्रवान, ब्रह्मवेत्ता, देशभक्त युवाओं के संगठन 'महामण्डल संगठन' की लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा के माध्यम से पूर्ववत सुदृढ़ और सबल बनी रहेगी।
किन्तु अधिकांश मनुष्यों का (स्वामी ब्रह्मानन्द ?) स्वाभाविक रुझान प्रवृत्ति-मार्ग केन्द्रापसारी कर्म (centrifugal action) की ओर, अर्थात गृहस्थ जीवन अपनाने की ओर ही होता है। इसलिये सभी युवाओं में संन्यासी या संन्यासिनी बनने की पात्रता नहीं होती। इसीलिये जो युवा गृहस्थ जीवन में जाना चाहें, उनके लिये प्राचीन 'गुरु शिष्य परम्परा' में प्रशिक्षित होकर लोकशिक्षक या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने का कोई अवसर भारत में उपलब्ध नहीं था। इसीलिये माँ जगदम्बा की इच्छा से और पवित्र त्रिमूर्ति के आशीर्वाद से १९६७ में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' को खरदह, उत्तर २४ परगना में; और १९८९ में "सारदा नारी संगठन" को बालीभारा, पश्चिम बंगाल में अविर्भूत होना ही पड़ा है।
वर्तमान युग का हिन्दू युवक सनातन धर्म के अनेक पन्थों की भूल-भुलैया में इसीलिये भटका रहता है, कि उसे अपनी अन्तर्निहित आत्मा (ब्रह्म या ईश्वर) की महिमा को अभिव्यक्त करके यथार्थ मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के गुरु-शिष्य परम्परा में 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन' के नेतृत्व-प्रशिक्षण (लीडरशिप ट्रेनिंग) में प्रशिक्षित होने का अवसर नहीं प्राप्त हो पाता। जिसके फलस्वरूप या तो वे पाश्चात्य भोगवादी सभ्यता की आँधी में बह जाते हैं, या फिर रामनवमी में डंडा -तलवार भांजने, जन्माष्टमी में दही-हांडी फोड़ने को ही धर्म समझने लगते हैं। किन्तु उत्तर-भारत के युवा दक्षिण-भारतीय आचार्यों की 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा' के प्रशिक्षण-पद्धति से अपरिचित थे, इसीलिये वे 'विश्व-विजयी विवेकानन्द' के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस को 'अवतार-वरिष्ठ' के रूप में ग्रहण नहीं कर पा रहे थे। इसीलिये 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा ' में लीडरशिप ट्रेनिंग का प्रचार-प्रसार सम्पूर्ण भारत में करने के लिये महामण्डल को अविर्भूत होना पड़ा है ! ]
परा-प्रकृति कर्तापन वाला अहंकार मानवजाति के मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द या महामण्डल द्वारा निर्देशित 3H विकास के ५ अभ्यासों द्वारा जाग्रत हो चुकी है। जो सत्य-युग को स्थापित करने के लिये 'चरैवेति चरैवेति' करके घूमते रहते हैं ! कलियुग से द्वापर में पहुँच चुके हैं ! रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा में-आधारित 'लीडरशिप ट्रेनिंग' : इसे महामण्डल के मोटो 'BE AND MAKE ' के द्वारा दर्शाया गया है। यहां मनुष्य जीवन के दुहरे उद्देश्य, व्यक्तिगत पूर्णता (ब्रह्म तेज) तथा सामाजिक कार्यक्षमता (क्षात्रवीर्य) का संकेत किया गया है। इसीलिए महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में वेदान्त केसरी बनने और बनाने - 'BE AND MAKE का प्रशिक्षण चुने हुए युवाओं को दी जाती है !
महामण्डल द्वारा आयोजित 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में 'दशावतार लीडरशिप ट्रेनिंग पद्धति' के अनुसार '५अभ्यास द्वारा 3H को क्रम-विकसित' मनुष्य जिसमें ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म का प्रत्येक भाव ही पूर्ण मात्रा में और साथ ही समभाव से विद्यमान रहे, जो अपनी उपस्थिति से ही दूसरों में 'ईश्वर-भक्ति और सर्वभूत दया' का भाव संचारित करने में सक्षम हो। ऐसे लोक-शिक्षक या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण एक प्रयोग-गत यथार्थ के रूप में आज भी उपलब्ध किया जा सकता है।
उसके बाद उस व्यक्ति (अवैतनिक लोक-शिक्षक या नेता) को अपना जीवन किस प्रकार व्यतीत करना चाहिए ? इसे स्पष्ट करते हुए महाभारत में कहा गया है -' तस्मात कल्याणं आचरेत ।' केवल किसी की हिंसा न करने या बुरी इच्छाओं को मन में न उठने देने में सक्षम बन जाने से ही जीवन सार्थक नहीं होगा, सर्वदा कल्याणकारी कार्यों " BE AND MAKE" के निष्पादन में लगे रहना होगा। इसीलिए स्वामीजी २३ जून १८९४ को मैसूर के राजा को लिखित एक पत्र में कहते हैं- " This life is short, the vanities of the world are transient, but they alone live who live for others, the rest are more dead than alive. " (cw4/363)
" यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ या पद-प्रतिष्ठा जैसे जिन वस्तुओं को पाकर मनुष्य घमंड करता है, वे सब भी क्षणभंगुर हैं. वे ही यथार्थ जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं. बाकी लोग तो जिन्दा लाश ही हैं." (२/३७१) एक बहुत प्राचीन उक्ति है -The one who is not a gentle man, how can he become a sage?
सुजनाः सुधनास्ते हि कृतन : सुखिनः तथा ।
जन्तवो ये हि जीवन्ति परस्य हितकामया ।।
- वे ही सुजन हैं, सच्चे मनुष्य हैं, वे ही यथार्थ धनवान और कीर्तिवान हैं और सब प्रकार से सुखी हैं जो दूसरों की हित कामना को लेकर ही जीवन धारण करते हैं। स्वामीजी के साँचे में ढला मनुष्य भी इसी प्रकार का एक ' सुजन ' (जो जेंटल मैन नहीं है, वह साधु कैसे बनेगा ?) [Wednesday, February 8, 2012/" विवेकानन्द और युवा आन्दोलन " (समस्त ४२ निबन्ध )]
प्राचीन भारतीय संस्कृति के अनुसार भगवान विष्णु (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) के दस अवतार माने जाते हैं: श्रीमत्स्य, कूर्म, वराह, भक्त प्रह्लाद चरित्र के आकर्षण से अनुप्रेरित नृसिंह अवतार, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, और कल्कि। प्रत्येक युग में भगवान भी जलचर से भूमि-चर (श्रीमत्स्य, कूर्म, वराह), आधे-जानवर से विकसित मानव (श्रीवराह लक्ष्मी नरसिम्हा स्वामी) के रूप में भारतवासियों को पीढ़ी दर पीढ़ी "ईश्वर-भक्ति और सर्वभूत दया " में क्रमविकसित होने का प्रशिक्षण देने के लिये भगवान विष्णु (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता या अवैतनिक लोक-शिक्षक बनकर) स्वयं अवतरित होते हैं!
पहले तीन अवतार, यानि श्रीमत्स्य, कूर्म और वराह पहले युग में - अर्थात सत्य युग या कृत युग में अवतीर्ण हुए। श्रीनृसिंह ( नर-सिंह)-भक्त प्रह्लाद, वामन, परशुराम और भगवान श्रीराम- भक्त हनुमान दूसरे यानि त्रेतायुग में अवतीर्ण होने को माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण-भक्त अर्जुन तीसरे युग अर्थात द्वापर युग में आए। फिर जगतगुरु भगवान बुद्ध- शिष्य आनन्द आये किन्तु चौथे युग कलियुग में कल्कि अवतार की तलाश जारी है।
उभयचर (amphibian) विज्ञान द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि सृष्टि का विकास अथवा जीवन का प्रारंभ जल से हुआ। प्रथम अवतार मत्स्य एक जलीय जंतु है। द्वितीय अवतार कूर्म या कच्छप जल और थल दोनों में रह सकता है केवल तृतीय अवतार वाराह या शूकर ही थल में रह सकता है। यह जीवन के जल से थल की ओर विकास की ओर संकेत करता है। चतुर्थ अवतार नरसिंह,आधा पशु है तो आधा मनुष्य, वहीं पंचम अवतार वामन भी मनुष्य के कद के बराबर नहीं ठहरता। छठा अवतार परशुराम राम से पूर्व की अवस्था कही जा सकती है। जब परशुराम की नकारात्मकता से छुटकारा मिलता है तभी राम की सकारात्मकता का उदय होता है। सातवें अवतार राम यद्यपि एक आदर्श पुरुष हैं लेकिन फिर भी आठवें अवतार कृष्ण जिन कलाओं से युक्त हैं, राम में उनका अभाव है। राम का विकास कृष्ण के रूप में होता है और कृष्ण का नौवें अवतार बुद्ध के रूप में लेकिन फिर भी मनुष्य के विकास की अनंत संभावनाओं से (अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण से) मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। कल्कि के रूप में उन्हीं अनंत संभावनाओं की तलाश निहित है।
'कृषि' समाज से 'औद्योगिक' समाज के आदमी के आधार पर मनुष्य का विचार-जगत बदलता है और इस कारण से मानवता का अंत होता है। और विघटन के बाद फिर से सृजन की शुरुआत होती है।
नील वर्ण वाराह को देख कर ब्रह्मा व मारीच आदि ऋषियों को निश्चय हो गया कि ये भगवान ही हैं। वराह के पार्श्व में खड़ी हुई भूदेवी का चित्रण वराह के उद्धारक रुप को प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है। नवनी दा वराह अवतार के विषय में भी स्वामी जी द्वारा उद्धरित कथा कहते थे- शिवजी के त्रिशूल मारने पर नारायण को आश्चर्य हुआ - अरे ये मैं ही था जो स्वयं को शूकर (वराह) समझ रहा था ? वास्तव में दादा स्वप्न में 'श्री वराह-नृसिंह स्वामी' के संयुक्त रूप में दर्शन देकर मुझसे त्रेता युग से सत्ययुग में भ्रमण करने का निर्देश दे रहे थे ?
हमलोग जानते हैं कि धरती पर जीवन की शुरूआत एक कोशिकीय जीव से हुई और वह भी जल में। जल में सबसे पहले एक कोशिकीय जीव अस्तित्व में आए और फिर बहुकोशिकीय जीव। पुराणों में वर्णित दशावतार मनुष्य की उसी विकास प्रक्रिया का प्रतीकात्मक वर्णन हैं। वास्तव में यह दशावतार मनुष्य के विकास की विभिन्न अवस्थाएं ही हैं।
इसीलिये महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में 'गीत-गोविन्दम' या 'दशावतार स्त्रोत्र ' पूज्य दादा के स्वर में बजाया जाता है !
इसीलिये महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में 'गीत-गोविन्दम' या 'दशावतार स्त्रोत्र ' पूज्य दादा के स्वर में बजाया जाता है !
'दशावतार स्त्रोत्र'
प्रलय पयोधि जले धृतवान् असि वेदम्।
विहित वहित्र चरित्रम् अखेदम्।।
केशव धृत मीन शरीर जय जगत् ईश हरे।। १।।
क्षितिः अति विपुल तरे तव तिष्ठति पृष्ठे।
धरणि धरण किण चक्र गरिष्ठे।।
केशव धृत कच्छप रूप जय जगदीश हरे || २ ||
वसति दशन शिखरे धरणी तव लग्ना।
शशिनि कलंक कल इव निमग्ना।।
केशव धृत सूकर रूप जय जगदीश हरे।। ३।।
तव कर कमल वरे नखम् अद्भुत शृंगम्।
दलित हिरण्यकशिपु तनु भृंगम्।।
केशव धृत नर हरि रूप जय जगदीश हरे || ४ ||
छलयसि विक्रमणे बलिम् अद्भुत वामन।
पद नख नीर जनित जन पावन।।
केशव धृत वामन रूप जय जगदीश हरे || ५ ||
क्षत्रिय रुधिरमये जगत् अपगत पापम्।
स्नपयसि पयसि शमित भव तापम्।।
केशव धृत भृघु पति रूप जय जगदीश हरे।। ६
वितरसि दिक्षु रणे दिक् पति कमनीयम्।
दश मुख मौलि बलिम् रमणीयम्।।
केशव धृत राम शरीर जय जगदीश हरे || ७ ||
वहसि वपुषि विशदे वसनम् जलद अभम्।
हल हति भीति मिलित यमुनआभम्।।
केशव धृत हल धर रूप जय जगदीश हरे || ८ ||
निन्दति यज्ञ विधेः अ ह ह श्रुति जातम्।
सदय हृदय दर्शित पशु घातम्।।
केशव धृत बुद्ध शरीर जय जगदीश हरे || ९ ||
म्लेच्छ निवह निधने कलयसि करवालम्।
धूम केतुम् इव किम् अपि करालम्।।
केशव धृत कल्कि शरीर जय जगदीश हरे || १० ||
विवेकानन्द का कथन है, " आधुनिक विकासवाद का सिद्धांत [डार्विन के क्रम-विकासवाद का सिद्धान्त (Darwin's Theory Of Evolution)] कहता है, प्रत्येक 'कार्य' पूर्ववर्ती 'कारण' की आवृत्ति मात्र है। परिस्थिति या परिवेश के कारण रूप-परिवर्तन होता है। योनी-परिवर्तनों के कारण को खोजने सृष्टि से बाहर जाने की जरुरत नहीं है। कार्य में ही कारण श्रृंखला विद्यमान है। विश्व का मूल कारण, ऐसी कोई शक्ति नहीं है, या कोई सत्ता नहीं है, जो इससे अलग रह कर रिमोट से इसको चला रही है। " (२:२८२)
" एक अन्तर्निहित शक्ति मानो लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिये - अविराम चेष्टा कर रही है, और बाह्य परिवेश उसको दबाये रखने के लिये प्रयासरत है, बाहरी दबाव को हटा कर प्रस्फुटित हो जानेकी इस चेष्टा का नाम ही जीवन है।" (विवेकानन्द चरित-पृष्ठ १०८)
" असीम शक्ति का एक स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान है, और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। और ज्यों ज्यों यह फैलता है, त्यों त्यों एक के बाद दूसरा शरीर अपर्याप्त होता जाता है, वहउनका परित्याग कर उच्चतर शरीर धारण करता है। यही है मनुष्य का धर्म, सभ्यता या प्रगति काइतिहास। वह भीमकाय ' प्रोमिथियस ' (एक यूनानी देवता जिसने olampious से चुराई हुई अग्नि मनुष्य को दिया और जिसे दंड स्वरूप जंजीरों में जकड़ दिया गया) मानो अपने को बंधन मुक्त कर रहाहै। " (९:१५६)
" क्रमविकास-वाद क्या है? उसके दो अवयव क्या हैं ? एक है प्रबल अन्तर्निहित शक्ति, जो अपने को व्यक्त करने की चेष्टा कर रही है, और दूसरा है बाहर की परिस्थितियाँ, जो उसे अवरुद्ध किए हुये है, या वह परिवेश है जो उसे व्यक्त होने नहीं देता। अतः इन परिस्थितियों से युद्ध करने केलिये यह ' शक्ति ' नये नये शरीर धारण कर रही है। एक अमीबा इस संघर्ष में एक और शरीर धारण करता है, और कुछ बाधाओं पर जय-लाभ करता है, और इस प्रकार भिन्न भिन्न शरीर धारण करते हुये अन्त में मनुष्य में परिणत हो जाता है। " (२:९१)
" भारतीय दर्शन और आधुनिक विज्ञान में 'आकाश' और 'प्राण' के अवयक्त अवस्था से प्रक्षिप्त होकर, व्यक्त होने और पुनः अव्यक्त रूप में लौट आने के विषय में बहुत कुछ समानता है। आधुनिक वैज्ञानिक विकासवाद के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं, और योगियों का भी यही मत है। परन्तु मेरी राय में, योगियों के द्वारा विकासवाद की व्याख्या की गयी है, वह अधिक अच्छी है।
जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात् ॥ कैवल्य पाद ४/२ ॥
अर्थात एक प्रजाति (योनि species) से दूसरी प्रजाति में परिवर्तन प्रकृति की पूरक प्रक्रिया "the infilling of nature" द्वारा होता है। मूल भाव यह है कि हमलोग एक प्रजाति से दूसरी में परिवर्तित होते रहते हैं, और मनुष्य सभी सभी प्रजातियों में सर्वश्रेष्ठ है, या मनुष्य-योनि सर्वश्रेष्ठ योनि है। पतंजलि ने ' प्रकृत्यापूरात् ' अर्थात ' प्रकृति की पूरक प्रक्रिया ' को किसानों के खेत सींचने की उपमा देकर इस प्रकार समझाया है-
निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् ॥ ४/३ ॥
क्षेत्रिकवत् - अर्थात किसान के कार्य के समान। जिस प्रकार किसान एक क्यारी से दूसरी क्यारी में पानी ले जाने के लिये उन दोनों क्यारियों के बीच की मेड़ को काट देता है, और बस पानी ' law of gravitation' या गुरुत्वाकर्षण के नियमानुसार, अपने आप खेत में बह आता है।
इसी प्रकार, सभी व्यक्तियों में पूर्णता (all progress) और शक्ति (power) पहले से ही अन्तर्निहित है। पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बन्द हैं। और वह अपना रास्ता नहीं पा रही है। यदि कोई व्यक्ति उस बाधा को [3H विकास के ५ अभ्यास (धर्म या शिक्षा) द्वारा अहंभाव को] दूर कर सके, उसकी वह स्वाभाविक पूर्णता अपनी शक्ति के बल से अभिव्यक्त होने लगेगी।"
भारतीय ऋषियों ने लोकमंगल की कामना से द्रवित होकर, स्वाभाविक मानवीय गुणों को दैवीय उच्चता से विभूषित करने के लिए, दो प्रकार के अत्यन्त वैज्ञानिक धर्मों की सार्वकालिक और सार्वभौमिक व्यवस्था दी है, जो किसी देश-काल के मनुष्यों में 'ईश्वर-भक्ति और सर्वभूत दया' का विकास करके उन्हें पशुमानव से यथार्थ मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य में रूपान्तरित कर सकता है !
सरिसा कैम्प में नवनी दा के मुख से पहली बार सुना था - हमलोग उत्तर आकाश में ध्रुव तारे के चारों ओर सप्तऋषि मण्डल में जिन मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, कर्तु, पुलस्त्य तथा वशिष्ठ-आदि ऋषियों को देखते हैं वे तो प्रवृत्ति मार्ग के गृहस्थ ऋषि ही थे; किन्तु यथार्थ शिक्षा (उपनिषदों में वर्णित मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा को) प्राप्त किया था और सत्य को जानकर ऋषि (अर्थात क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न अवैतनिक लोक-शिक्षक या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता,या ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) बनने और बनाने में समर्थ हुए थे। इतना ही नहीं सप्तऋषि मण्डल में वशिष्ठ-ऋषि अपनी धर्म पत्नी अरुंधती के साथ एक युग्म तारे के रूप में अवस्थित हैं, वशिष्ठ और अरुंधती दोनो एक दूसरे की परिक्रमा करते हैं। अर्थात गृहस्थ स्त्रियाँ भी ऋषि बन सकती हैं !
साधारणतः गृहस्थ (प्रवृत्तिमार्गी लोग) ऐसा कभी नहीं सोचते। वे 'धन-सम्पदा और वासना' (Lust and Lucre) को ही मनुष्य जीवन का एकमात्र परुषार्थ हैं। और गर्व से कहते हैं - हमलोग तो साधारण गृहस्थ हैं, कोई संन्यासी थोड़े ही हैं - हमारे लिए तो निजी स्वार्थ को पूर्ण करने वाले कर्म ही पूजा हैं। क्योंकि " हम लोग बद्ध जीव' हैं, और वासना-धनदौलत के लोभी हैं! हमलोग तो कामिनी-कांचन से अनासक्त बन ही नहीं सकते।" --छिः ! अपने को लोभी या पापी समझना ही पाप है, आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, आपको कोई भी 'लोभ' लम्बे समय तक पाप में बद्ध या कामिनी-कांचन में आसक्त नहीं रख सकता।) आप तो चिरकाल से मुक्त आत्मा हैं, इस भ्रम को झटक कर दूर फेंक दीजिये कि आप केवल जड़ शरीर और मन के गुलाम हैं। आप जड़ के दास नहीं हैं, जड़ (देह-मन) ही आपका (आत्मा का) दास है।"और "वचनामृत " आपके समक्ष इसी सत्य को उद्घाटित कर देगा। सिंह -शावक होकर भी अपने को भेंड़ समझने- (अर्थात अविनाशी आत्मा होकर भी, अपने को नश्वर-देह-मन समझकर में, में करने या मृत्यु भय से डरने) के भ्रम से आपको भ्रममुक्त होने का पथ दिखला देगा !
इसलिए ईश्वर को (माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण, को) अपना समझकर, उन्हें पुकारिये, उनसे प्रेम कीजिये। उन्हें अपना बना लीजिये। डरिये मत, पीछे मत हटिये। मन में कभी ऐसा मत सोचिये कि श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में मनुष्य बनने और बनाने का मार्ग कठिन है, मुझसे इस मार्ग पर चलना सम्भव नहीं होगा। सिर्फ उन्हें पुकारते रहिये, उनसे प्रेम कीजिये, उन्हें अपना बना लीजिये।यदि आप दीक्षा लेने के इच्छुक हैं, और जप-ध्यान कर सकते हों तब अच्छा है। मंत्र-तन्त्र सीखने की आवश्यकता भी नहीं है। लेकिन समस्त साधनाओं का सार है उनसे प्रेम करना। ठाकुर-माँ -स्वामीजी के साथ प्रेम करने से बढ़कर और कोई साधना नहीं है। अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण के प्रति प्रेम से यदि हमारा हृदय भर उठता है, तब वह मानो चुम्बक जैसा काम करने लगता है , और उन्हें अपनी ओर खींच लेता है। भक्त ठाकुरदेव को (भगवान को) अपनी ओर खींच रहा है, और उधर प्रेममय ठाकुर देव भी भक्त को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। भक्त और भगवान का यह सम्बन्ध (प्रह्लाद और नृसिंह देव-ठाकुर और माँ काली, माँ -बेटे का यह सम्बन्ध) मानो चिरकाल से चला आ रहा है।
ভালবাসা যেন চুম্বক। ভক্ত ভগবানকে টানছে, আকর্ষণ করছে, আবার ভগবান ভক্তকে আকর্ষণ করছেন। ভক্ত-ভগবানের সম্পর্কে -----এ যেন চিরকালের। प्रेममय भगवान श्री रामकृष्णदेव अपने वचनामृत के माध्यम से हमारा इस प्रकार -जगत (Time, space and causation) को transcend करके (अतिक्रमण कर के) लक्ष्य (ब्रह्म) मार्गदर्शन कर रहे हैं।এককথায় "কথামৃত " অতুলনীয়" এই শাস্ত্র সম্বল করে আপনারা অমৃতত্বলাভের পথে এগিয়ে চলুন-------এই আমার প্রার্থনা। एक शब्द में कहें तो "वचनामृत" आद्वितीय है। इसी शास्त्र को सम्बल बनाकर आप अमृततत्व प्राप्त करने के पथ पर आगे बढ़ते रहें ----यही मेरी प्रार्थना है। (ससीम नाम-रूप के मिथ्या अहं से ऊपर उठकर असीम ब्रह्मत्व प्राप्त करने के पथ पर आगे बढ़ते रहें ----यही मेरी प्रार्थना है।)
--- स्वामी लोकेश्वरानंद
>>> पुरुषार्थ -चतुष्टय का प्रथम सोपान में कहा गया धर्म क्या है ? "धर्म" एक शब्द है जिसकी व्यत्पत्ति धृ धातु से है. धृ = धारणा। इस तरह धर्म की परिभाषा हुई - धारण करने वाली क्रिया या धारण होने वाली वस्तु। धारणा की व्याख्या जो शंकराचार्य जी किये हैं - "जो पहना जा सके, ओढ़ा जा सके, उतारा भी जा सके" (इसी के समर्थन में भगवदगीता में लिखा है - "सभी धर्मों को छोड़ कर केवल मेरी शरण में आ जाओ!" ) अभी जो धर्मांतरण हो रहा है, इसी व्याख्या के आधार पर हो रहा है. धर्म को लेकर जो यह बताया गया है इसको आप परिवर्तित करने का प्रयास करके देखो - कठिन है या सुलभ! अब मध्यस्थ दर्शन से जो धर्म का अर्थ स्पष्ट होता है - "जिससे जिसका विलगीकरण न हो सके, वह उसका धर्म है." इसके सामने पूर्व में "धर्म" और "धर्म परिवर्तन" को लेकर जो परंपरा में कहा गया है - उसका कुछ मतलब नहीं रह गया. जबकि भारत को "धर्म परायण" कहा जाता है!!"नित्य-अनित्य ज्ञान के बिना मानव में स्व-धर्म निष्ठा नहीं पायी जाती है." - श्री ए नागराज।चैतन्य संसार में भ्रम और जागृति स्वरूप में क्रिया है."भ्रम" शरीर मूलक जीने को कहते हैं और "जागृति" जीवन मूलक जीने को कहते हैं। भ्रम मुक्त होने की पहचान है – अपने-पराये से मुक्ति. भ्रम मुक्ति ही “मोक्ष” है.मेरे अकेले के अनुभव संपन्न होने से जागृति नहीं हुई। आप सब जागृत होते हैं, तब परंपरा होगी। उसी के लिए तो हम बारम्बार मिलते ही हैं। अभी मैं जागृति के लिए प्रेरक हूँ। बुद्धि अर्थ को ही ग्रहण करता है, शब्द को ग्रहण नहीं करता। मानव द्वारा अपनी कल्पना से अर्थ निकाले अर्थ का जब प्रमाण होता नहीं है, तो वह बुद्धि को स्वीकार नहीं होता। बुद्धि देखने के क्रियाकलाप में शामिल तो रहता है, पर भ्रमित क्रियाकलापों को स्वीकारता नहीं है। बुद्धि शाश्वत वस्तु को ही स्वीकारता है। बुद्धि जो स्वीकारता नहीं है, इसीलिये "आत्मा का अमरत्व और शरीर का नश्वरत्व विवेक है"। जीवन के रूप में मैं अमर हूँ - यह समझ में आना। शरीर गर्भ में जैसा रहता है, बाहर वैसा नहीं रहता, और बड़े होने पर वैसा नहीं रहता, फ़िर एक दिन शरीर विरचित भी होता है - यह हमारे सामने घटित घटनाएं हैं। शरीर प्राण-कोशों से रचित एक रचना है। रचना का विरचना होता ही है। शरीर नश्वर है - यह समझ में आना। शरीर को विरचित होना ही है, तो इसका क्या किया जाए? सदुपयोग किया जाए। शरीर का सदुपयोग करने हेतु हम "व्यवहार के नियम" पर जाते हैं। शरीर के नश्वरत्व के प्रति हम पूरा आश्वस्त रहते हैं। जीवन के अमरत्व के प्रति हम पूरा आश्वस्त रहते हैं। व्यवहार के नियमो के प्रति हम पूरा आश्वस्त रहते हैं। बुद्धि की ताकत इन तीनो को समझने से है। विवेक पूर्वक जीने से हम "सुखी" होते हैं।मूल्यांकन का मतलब - सम्पूर्ण पहचान। शरीर का पहचान मन करता है। मन शरीर की पूरी हैसियत को पहचानता है। मन शरीर क्रियाओं और शरीर में होने वाली पाँच संवेदनाओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) को पहचानता है। वृत्ति मन को पहचानता है। अर्थात वृत्ति मन का मूल्यांकन करता है। मन ने संवेदनाओ को जो पहचाना उसमें सही ग़लत क्या हुआ - यह तुलन/विश्लेषण वृत्ति में होता है। वृत्ति में प्रिय-हित-लाभ के स्थान पर न्याय-धर्म-सत्य दृष्टियों के आधार पर तुलन होता है। बोध में सह-अस्तित्व की स्वीकृति रहती है। अनुभव आत्मा में होता है। अनुभव के फलस्वरूप पूरा जीवन अनुभव में तदाकार हो जाता है। फलस्वरूप अनुभव जीने में प्रमाणित होता है। अनुभव जब जीने में आता है - उसे ही "जागृति" कहा है। जागृति ही अनुभव का प्रमाण है।मूल्य हैं - परिवार में जीने के लिए। चरित्र है - समाज में जीने के लिए। नैतिकता - राज्य (व्यवस्था) में जीने के लिए है। वस्तु का मतलब है - जो अपनी वास्तविकता को प्रकाशित करे। हर मनुष्य में तदाकार-तद्रूप होने का माद्दा है। हर मनुष्य के पास कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता "अधिकार" रूप में है। कल्पनाशीलता में तदाकार-तद्रूप होने का गुण है। प्रकृति दो भाग में है - जड़ और चैतन्य। जड़ प्रकृति है - पदार्थावस्था और प्राण-अवस्था। पदार्थावस्था में खनिज होते हैं, प्राण-अवस्था में वनस्पति होते हैं। ये दोनों मिल के जड़ संसार है। इस कल्पनाशीलता और कर्म-स्वतंत्रता के रहते मनुष्य "परम-सत्य" को भी चाहता है। स्व-धर्म के अनुसार जो कर्म होता है - उसको "अभ्युदय" बताया गया था। "सह-अस्तित्व ही परम सत्य है" चित्त के पहले शब्द है। चित्त के बाद अर्थ है। अर्थ के साथ तैनात होने पर हमको तुंरत बोध होता है। बोध होने पर तत्काल चित्त में हुए साक्षात्कार की तुष्टि हो जाती है। फल-स्वरूप अनुभव हो जाता है। अनुभव के बाद हम कहीं रुकने वाले नहीं हैं। अवधारणा प्राप्त होने, साक्षात्कार होने तक ही मनुष्य का पुरुषार्थ है। अवधारणा प्राप्त होने के बाद, वस्तु का मतलब है - जो अपनी वास्तविकता को प्रकाशित करेआदर्शवाद में ज्ञान को सर्वोच्च बताया। ज्ञान क्या है? पूछा तो बताया - ब्रह्म ही ज्ञान है। ब्रह्म क्या है? -पूछा तो बताया - दृष्टा, दृश्य, दर्शन ये तीनो ब्रह्म ही हैं। कार्य, कारण, कर्ता - ये तीनो ब्रह्म ही हैं। यदि केवल ब्रह्म ही है - तो आप-हम क्यों बने हैं? किस प्रयोजन के लिए आपका नाम अलग है, मेरा नाम अलग है - सबका नाम 'ब्रह्म' ही क्यों नहीं हुआ? रहस्य से हम पार नहीं पाए। आप पार पाते हों, तो बताते रहना। आप रहस्य से पार नहीं पाओगे - यह मैं क्यों कहूं? इसीलिये अपनी बात को विकल्प रूप में प्रस्तुत किया।
धर्म केवल सबके विकास की बात नहीं करता, सर्वांगीण, विकास की बात करता है। सबका सर्वांगीण विकास। धर्म के अनुसार मानव के एकात्मिक विकास के दो अंग है – अभ्युदय तथा निःश्रेयस। यह दोनों मिलकर धर्म को परिभाषित करते है। भारतीय संस्कृति के विकास में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका है । यहाँ धर्म को विराट अर्थ में लिया गया है । हमारे पूर्वजों ने धर्म की व्याख्यायें की । इसी सातत्य में उन्होने लिखा - "यतोऽभ्युदयनिश्रेयस्सिद्धि स धर्मः ।" अर्थात जिससे सम्पूर्ण मानव जाति का[केवल हिन्दू या केवल मुसलमान का नहीं] अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और निःश्रेयस (पारलौकिक परमोन्नति) की सिद्धि होती है वही धर्म है। बिना धर्म के नियन्त्रण के अर्थ व काम पुरुषार्थ के पीछे पागल होनेवाले आसुरी वृत्ति के लोग सैंकड़ों ईच्छारुपी आशा के पाश में बन्धें काम और क्रोध में फँस जाते है। अतः अभ्युदय के लिये निःश्रेयस का आधार अनिवार्य है। "भ्रम-मुक्ति ही निःश्रेयस (=मोक्ष) है।" बाहर से विभक्त अर्थात बिखरे, असम्बद्ध दिखाई देनेवाले जगत को अविभक्त अर्थात एक अखण्ड देखना ही ज्ञान है। इस ज्ञान की अनुभूति ही निःश्रेयस है। इस मानव के तथा जगत के एकात्म स्वरुप को देखे बिना अभ्युदय की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती। डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था (राजा जनक जैसा ?) में रहते हुए समाज में 'अभ्युदय और निःश्रेयस ' दोनों का सुसमन्वित विकास करना ही धर्म या चरित्र जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवता में उन्नत कर देता है! निः श्रेयस्, हम सबको श्री की ओर ले जाने वाला। अभ्युदय और निःश्रेयस ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपने जीवन में प्रयत्न करते हैं। अभ्युदय का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति के माध्यम से अधिकाधिक विषयों के उपभोग के द्वारा सुख प्राप्त करना। यह वास्तव में सुख का आभास मात्र है क्योंकि प्रत्येक उपभोग के गर्भ में दुःख छिपा रहता है। निःश्रेयस का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष। इसमें मनुष्य आत्मस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है जो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान है। इस स्वरूपानुभूति में संसारी जीव की समाप्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है।ये दोनों लक्ष्य परस्पर विपरीत धर्मों वाले हैं। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य एक में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य में अपुनरावृत्ति। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है। आत्मानुभवी पुरुष अपने आनन्दस्वरूप का अखण्ड अनुभव करता है।यदि लक्ष्य परस्पर भिन्नभिन्न हैं तो उन दोनों की प्राप्ति के मार्ग भी भिन्नभिन्न होने चाहिए। तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।8.24।।प्रयाताः = मृताः=departed/गच्छन्ति= go/ ब्रह्म to Brahman/ ब्रह्मविदः=ब्रह्मोपासकाः= knowers of Brahman/ जनाः = ब्रह्मोपासनपरा जनाः people.मानव की प्रत्येक पीढ़ी में जीवन जीने के दो मार्ग या प्रकार होते हैं भौतिक और आध्यात्मिक। भौतिकवादियों के अनुसार मानव की आवश्यकताएं केवल भोजन वस्त्र और गृह हैं। उनके मतानुसार जीवन का परम पुरुषार्थ वैषयिक सुखोपभोग के द्वारा शरीर और मन की उत्तेजनाओं को सन्तुष्ट करना ही है। केवल इतने से ही उनको सन्तोष हो जाता है। इससे उच्चतर तथा दिव्य आदर्श के प्रति न कोई उनकी रुचि होती है और न प्रवृत्ति। परन्तु अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले विवेकीजन अपने समक्ष आकर्षक विषयों को देखकर लुब्ध नहीं हो जाते। उनकी बुद्धि अग्निशिखा के समान सदा उर्ध्वगामी होती है जो सतही जीवन में उच्च और श्रेष्ठ लक्ष्य की खोज में रमण करती है।भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये दोनों ही मार्ग सनातन हैं और अनादिकाल से इन पर चलने वाले दो भिन्न प्रवृत्तियों के लोग रहे हैं। व्यापक अर्थ की दृष्टि से इन दोनों का सम्मिलित रूप ही संसार है।कभी कभी साधना काल में मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण साधक विषयों की ओर आकर्षित होकर उनमें आसक्त हो जाता है। ऐसे क्षणों में न हमें स्वयं को धिक्कारने की आवश्यकता है और न आश्चर्य मुग्ध होने की। भगवान् स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य के मन में उच्च जीवन की महत्वाकांक्षा और निम्न जीवन के प्रति आकर्षण इन दोनों विरोधी प्रवृत्तियों में अनादि काल से कशिश चल रही है। धैर्य से काम लेने पर निम्न प्रवृत्तियों पर हम विजय प्राप्त कर सकते हैं।इन दो मार्गों तथा उनके सनातन स्वरूप को जानने का निश्चित फल क्या है? शुक्लगति और कृष्णगति इन दोनों के ज्ञान का फल यह है कि इनका ज्ञाता योगी पुरुष कभी मोहित नहीं होता है मन में उठने वाली निम्न स्तर की प्रवृत्तियों के कारण धैर्य खोकर वह कभी निराश नहीं होता।जिसने अनात्मा से तादात्म्य हटाकर मन को आत्मस्वरूप में एकाग्र करना सीखा हो वह पुरुष योगी है।संक्षेप में इस सम्पूर्ण अध्याय के माध्यम से भगवान् द्वारा अर्जुन को उपदेश दिया गया है कि उसको जगत् में कार्य करते हुए भी सदा अक्षर पुरुष के साथ अनन्य भाव से तादात्म्य स्थापित कर आत्मज्ञान में स्थिर होने का प्रयत्न करना चाहिए।साभार -https://www.gitasupersite.iitk.ac.in]hree A. Nagraj - Propounder Madhyasth Darshan (Jeevan Vidya) [ 14 Jan 1920 - 5 Mar 2016]
सनातन धर्म ‘संयुक्त परिवार’ को श्रेष्ठ शिक्षण संस्थान मानता है। धर्मशास्त्र कहते हैं कि जो घर संयुक्त परिवार का पोषक नहीं है उसकी शांति और समृद्धि सिर्फ एक भ्रम है। घर है संयुक्त परिवार से। संयुक्त परिवार से घर में खुशहाली होती है । संयुक्त परिवार की रक्षा होती है सम्मान, संयम और सहयोग से। संयुक्त परिवार से संयुक्त उर्जा का जन्म होता है। संयुक्त उर्जा दुखों को खत्म करती है। ग्रंथियों को खोलती है। संयुक्त परिवार से बढ़कर कुटुम्ब। कुटुम्ब की भावना से सब तरह का दुख मिटता है। यही पितृयज्ञ भी है। परिवार के भी नियम है।
>>>वेद है सर्वोच्च धर्मग्रंथ : वेद, स्मृति, गीता, पुराण और सूत्रों में नीति, नियम और व्यवस्था की अनेक बातों का उल्लेख मिलता है। उक्त में से किसी भी ग्रंथ में मतभेद या विरोधाभास नहीं है। जहां ऐसा प्रतीत होता है तो ऐसा कहा जाता है कि जो बातें वेदों का खंडन करती हैं, वे अमान्य हैं।मनुस्मृति में कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च है। वही कानून श्रुति अर्थात वेद है। महर्षि वेद व्यास ने भी कहा है कि जहां कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहां वेद की बात मान्य होगी। व्यवस्था हमारे स्व-अनुशासन और समाज के संगठन-अनुशासन के लिए आवश्यक है। व्यवस्था से ही मानव समाज को नैतिक बल मिलता है। जब तक व्यवस्था न थी तो मान व समाज पशुवत जीवन यापन करता था। वह ज्यादा हिंसक और व्यभिचारी था। मानव कबीलों में जीता था तब हर कबीले के अपने अलग नियम और धरम होते थे, जहाँ पर कबीला प्रमुख की मनमानी चलती थी। स्त्रियों की जिंदगी बेहाल थी। यही सब देखते हुए पूर्व में मनुओं ने फिर वैदिक ऋषियों ने मानव को नैतिक रूप से एकजुट करने के लिए ही नीति और नियमों का निर्माण किया, जिसे जानना हर हिंदू का कर्त्तव्य होना चाहिए।सनातन धर्म जीवन को सही तरीके से जीने और उसका लुत्फ उठाने तथा मोक्ष के लिए एक संपूर्ण जीवन शैली का मार्ग बताता है। कोई उस मार्ग पर चलना चाहे तो यह उसकी स्वतंत्रता है। मूलत: सनातन धर्म स्वतंत्रता का पक्षधर है। सनातन धर्म आश्रमों की व्यवस्था के अंतर्गत धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा देता है।
>>>धर्म क्या है? (वेद) धर्म ही पशु और मनुष्य में अंतर करता है। महामण्डल को बिलॉन्ग करने का तात्पर्य उन नवयुवकों से है जो 'महामण्डल ध्वज रूपी रामकृष्ण पताका' से मिलने वाली प्रेरणा, भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और सेवा ' को अपने हृदय में धारण करते हैं ! धर्म व्यक्ति और समाज दोनों में समरसता स्थापित करने वाला माध्यम है। जब तक व्यवस्था न थी तो मानव समाज पशुवत जीवन यापन करता था। वह ज्यादा हिंसक और व्यभिचारी था। मानव कबीलों में जीता था तब हर कबीले के अपने अलग नियम और धरम होते थे, जहाँ पर कबीला प्रमुख की मनमानी चलती थी। स्त्रियों की जिंदगी बेहाल थी। यही सब देखते हुए पूर्व में मनुओं ने फिर वैदिक ऋषियों ने मानव को नैतिक रूप से एकजुट करने के लिए ही नीति और नियमों का निर्माण किया, जिसे जानना हर हिंदू का कर्त्तव्य होना चाहिए। धर्म के परिभाषा आदि शंकराचार्य के अनुसार (श्रीमद्भगवद्गीता भाष्य के उपोद्घात) है, -"जगत स्थिति कारणम् , प्राणिनानाम साक्षात अभ्युदय निःश्रेयस हेतुः सः च नाम धर्म।" अर्थात जो जगत की स्थिति का कारण है, जो प्रणियों के विकास और मोक्ष का कारण है वह है धर्म। जिसे धारण करने से, संपूर्ण जगतकी स्थिति एवं व्यवस्था उत्तम रहती है, प्रत्येक प्राणिका अभ्युदय, अर्थात ऐहिक उन्नति होती है एवं पारलौकिक उन्नति, अर्थात मोक्ष प्राप्त होता है, उसे ‘धर्म’ कहते हैं । मनुष्य जिनसे दुनिया मे उन्नति करे तथा मरने पर मोक्ष पाए ऐसे नियमो का संग्रह है धर्म। दुनिया मे अपना विकास करना है तो धर्म को अपनाए। धर्म को अच्छी तरह से कैसे जाने उसके लिए भगवत गीता पढ़ें। भगवत गीता का पहला श्लोाक है- धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः मामका पाण्डवाश्चैव किम कुर्व्रत सञ्जयः ।" भगवत गीता का पहला शब्द है धर्म ,भगवत गीता का अंतिम श्लोक है -यत्रः योगेश्वर कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरो तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।' अतः भगवत गीता का अंतिम शब्द हुआ - "मम" अर्थात मेरा! यदि मेरा धर्म क्या है जानने की इच्छा हो तो भगवत गीता पढ़ें। धर्म जैसा की पहले कह चुके हैं वो नियमो का संग्रह है जो दुनिया मे विकास के लिए जरुरी है.हमारी देहरूपी रथ का रथी .... आत्मा है, और सारथी -- बुद्धि है। बुद्धि ..... कुबुद्धि और अशक्त भी हो सकती है। उसे आप पहिचान नहीं सकते क्योंकि उसकी पीठ आपकी ओर है। धर्माचरण का सर्वश्रेष्ठ कार्य यही होगा कि आप अपनी बुद्धि को सेवामुक्त कर के भगवान पार्थसारथी को अपने रथ की बागडोर सौंप दें। जहाँ भगवान पार्थसारथी आपके सारथी होंगे वहाँ जो भी होगा वह -- 'धर्म' ही होगा, 'अधर्म' कदापि नहीं। भारत में धर्म की सर्वमान्य परिभाषा -- "परहित" को ही माना गया है। .... जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो वह ही धर्म है। महाभारत में एक यक्षप्रश्न के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर कहते हैं ---"धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां" यानि धर्म का तत्व तो निविड़ अगम गुहाओं में छिपा है जिसे समझना अति दुस्तर कार्य है। प्रत्येक व्यक्ति के ह्रदय की गुफा में धर्म छिपा है। यदि कोई अपने ह्रदय को पूछे तो हृदय सदा सही उत्तर देगा। मन और बुद्धि (Head) गणना कर के स्वहित यानि अपना स्वार्थ देखेंगे पर ह्रदय (Heart) स्वहित नहीं देखेगा और सदा सही धर्मनिष्ठ उत्तर देगा। ह्रदय में साक्षात भगवान ऋषिकेष जो बैठे हैं वे ही धर्म और अधर्म का निर्णय लेंगे। जैसे मेजर नितिन गोगोई ने पत्थरबाज को जीप पर बांधना धर्म समझा था!धर्म के इस व्यवस्थागत अर्थ समझना सबसे अधिक आवश्यक है। धर्म केवल व्यक्तिगत जीवन को सुव्यवस्थित करने का ही उपाय नहीं है वास्तविकता में यह ऐसी सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने का नाम है जिसमे सबका हित हो। जिसका प्रभाव बाहयजगत में पड़ने से देश के नागरिकों का जीवन वैसा बन जाता है,जैसा युनानी विद्वान मेगास्थनीज़ को पाटलिपुत्र के गाँव में देखने को मौका मिला था। अपने आचरण को पवित्र रखना हमारा परम कर्तव्य था ,तभी तो कहा गया है कि “आचारो प्रथमो धर्मः”अर्थात धर्मारूढ़ होने के लिय आचार (चरित्र) प्रथम सोपान है। आचरण श्रेष्ट हो इसका अभ्यास बचपन से ही होना चाहिये, बचपन का अभ्यास बड़ा प्रभावशाली होता है।
तुम सोंचोगे हम तो मनुष्य हैं ही, फिर मनुष्य-बनाने की आवश्यकता क्या है ? नहीं, ऐसा सोंचना ठीक नहीं। क्योंकि 'आहार-निद्रा-भय-मैथुन' ये चार कार्य तो पशु भी कर लेता है, तो फिर पशु और मनुष्य में अन्तर कहाँ है? शास्त्रों में कहा गया है -
"आहार-निद्रा-भय-मैथुनश्च सामान्यम् एतद्पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषाम् अधिको विशेषः धर्मेण हीनः पशुभिः समानः॥"
[महाभारत शान्ति पर्व में धर्म की परिभाषा : आजका हिन्दू युवा धर्म की मनमानी व्याख्या और मनमाने नीति-नियमों के चलते खुद को एक चौराहे पर खड़ा पाता है। समझ में नहीं आता कि इधर जाऊँ या उधर। भ्रमित समाज लक्ष्यहीन हो जाता है। लक्ष्यहीन समाज में मनमाने तरीके से परम्परा का जन्म और विकास होता है, जो कि होता आया है। मनमाने मंदिर बनते हैं, मनमाने देवता जन्म लेते हैं और पूजे जाते हैं। मनमानी पूजा पद्धति,चालीसाएँ, प्रार्थनाएँ विकसित होती है। व्यक्ति पूजा का प्रचलन जोरों से पनपता है। भगवान को छोड़कर नकली संत,क थावाचक या पोंगा-पण्डितों को पूजने का प्रचलन बढ़ता है। रुद्राक्ष या ॐ को छोड़कर आज के हिन्दू युवा अपने-अपने बाबाओं के लॉकेट को गले में लटकाकर घुमते रहते हैं।उसे लटकाकर वे क्या घोषित करना चाहते हैं यह तो हम नहीं जानते। हो सकता है कि वे किसी कथित महान हस्ती से जुड़कर खुद को भी महान-बुद्धिमान घोषित करने की जुगत में हो।लोग अनेकों संप्रदाय में बँटते गए और बँटते जा रहे हैं। संत निरंकारी संप्रदाय, रामरहीम सम्प्रदाय, मानव-धर्म, ब्रह्मा-कुमारी संगठन, जय गुरुदेव, गायत्री परिवार का सहस्रकुण्डि यज्ञ, कबिर पंथ, साँई पंथ, राधास्वामी-सम्प्रदाय आदि अनेकों संगठन और सम्प्रदाय में बँटा हिंदू समाज वेद-उपनिषद की शिक्षाओं को छोड़कर भ्रम की स्थिति में नहीं है तो क्या है? संप्रदाय तो सिर्फ तीन ही थे- शैव, वैष्णव और शाक्त। फिर इतने सारे संप्रदाय कैसे और क्यूँ हो गए? प्रत्येक कथावाचक-सन्त अपना नया संप्रदाय बनाना क्यूँ चाहता है? क्या भ्रमित नहीं है आज का हिंदू? एक संत या संगठन गीता के बारे में कुछ कहता है, तो दूसरा कुछ ओर। एक राम को भगवान मानता है तो दूसरा साधारण इंसान। आज के हिन्दू युवा दशावतार को भूल कर, राम और कृष्ण को छोड़कर, शनि के शरण में रहना चाहते हैं ! और निकटस्थ शनि-मन्दिर में कडुआ तेल चढ़ाने को ही धर्म समझने लगे हैं।
हमारे अधिकांश युवा धर्म क्या है, यह नहीं जानते हैं। मन्दिर-मस्जिद जाने को ही धर्म समझते हैं।
स्वामी ने कहा है - " युहुदियों और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने फरिश्तों एवं अन्य जीवों की रचना करने के बाद, मनुष्य की सृष्टि की. अपने द्वारा सृष्ट ज्ञानलाभ के एकमात्र अधिकारी मनुष्य नामक जीव का निर्माण करने के बाद वे आनंद से पुलकित हो उठे ! उन्होंने समस्त फरिस्तों या देवदूतों को बुला कर आदेश दिया कि तुमलोग इस मनुष्य को सलाम करो, अपना सीश झुका कर इनका अभिनन्दन करो. इब्लीस को छोड़कर बाकी सभी फरिस्तों ने वैसा किया. अतेव, ईश्वर ने इब्लीस को अभिशाप दे दिया, जिससे वह शैतान बन गया. इस रूपक में यह महान सत्य नहित है कि मनुष्य ही अन्य समस्त योनियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है. " (१/५३ )
मनुष्य से इतर जितने प्राणी है वे सब पूर्ण हैं किन्तु मनुष्य अपूर्ण है, उसकी पूर्णता अन्तर्निहित है जिसे शिक्षा प्राप्त करके प्रकट करना पड़ता है। स्वामी जी कहते हैं- 'शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को व्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है।' बैल या भैंस को पूर्ण बनाने के लिये किसी शिक्षक की या स्कूल-कॉलेज जाने की आवश्यकता नहीं होती।
इसीलिये महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर में स्वामी जी की भाषा में 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण कारी प्रशिक्षण"- अर्थात भ्रममुक्त मनुष्य, नेता या लोक-शिक्षक बनने और बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। अर्थात तुमको स्वयं अपने हृदय में अवस्थित ईश्वर पर एकाग्रता का अभ्यास (प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास) करते करते, इन्द्रियातीत सत्य (आत्मा =ब्रह्म) को जानकर 'आत्मविदानन्द' या भ्रममुक्त मनुष्य बन जाना होगा।
अपरोक्षानुभूति हो जाने के बाद भी जब तुम 'अहं ब्रह्मास्मि' मुख से बोलोगे तो वे यह बता देंगे वह अनुभूति 'तुमको' (नाम-रूप वाले अहं को नहीं हुई थी !) आत्मा ही परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है ! श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा 'BE AND MAKE - में लीडरशिप ट्रेनिंग; प्राचीन भारतीय योग-परम्परा के तहत भ्रममुक्त मनुष्य या आध्यात्मिक रूप से जागृत मनुष्य (डी-हिप्नोटाइज्ड मनुष्य) बनो और बनाओ! भारत की प्राचीन योग परम्परा को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवश के रूप में इसलिये स्वीकार किया गया है, कि इस योग के द्वारा जगत के प्रत्येक मनुष्य का सर्वोच्च स्वार्थ तभी साधित हो सकता है,जब तुम ( पूज्य नवनी दा जैसे ब्रह्म-वेत्ता नेता) के मार्गदर्शन में ब्रह्म का दर्शन करके तुम एक आध्यात्मिक रूप से जागृत (भ्रम-मुक्त) मनुष्य बन जाते हो। 'यतो धर्मस्ततो जयः ' - गीता के इस श्लोक से इस बात की पुष्टि होती है कि धर्म सदैव विजयी होता है। यदि धर्म जीवन में होगा तब जाकर श्रेष्ठ कर्म को कर सकेंगे अथवा पदार्थ का यथायोग्य व्यवहार (कर्म) कर सकेंगे। काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, मद और मोह ये मानव जीवन में मनःस्थिति को दूषित करने वाले हैं। ये षड्रिपु मनुष्य की उन्नति के सर्वाधिक बाधक होते हैं इनका नाश मनुष्य धर्मरूपी अस्त्र से कर सकता है। इन विध्वंसमूलक प्रवृत्तियों को जीतना ही जितेन्द्रियता तथा शूरवीरता कहलाता है। आचार्य चाणक्य ने लिखा है-‘‘सुखस्य मूलं धर्मः धर्मस्य मूलमिन्द्रियजयः।’’ अर्थात् सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल -इन्द्रियों को संयम में रखना है। यास्क मुनि के अनुसार पशु केवल नेत्रों से देखता है- पश्यतीति पशुः। वह विचार नहीं कर सकता। ‘मनुष्यः कस्मात् मत्वा कर्माणि सीव्यति’ (३/८/२) अर्थात् मनुष्य तभी मनुष्य है जब वह किसी भी कर्म को चिन्तन तथा मनन पूर्वक करता है। मनुष्य विचारपूर्वक देखता है तथा करता है- ‘मत्वा सिव्यति कर्माणि’ ऋषि बिना नेत्रों के ही अन्तः प्रज्ञा से देखता है। यह मनन की प्रवृत्ति ही मनुष्यता की परिचायक है। अन्यथा मनुष्य भी उस पशु के समान ही है जो केवल देखता है और बिना चिन्तन मनन के विषय में प्रवृत्त हो जाता है। मनुष्य जब किसी पदार्थ को देखकर कार्य की ओर अग्रसर होता है तब चिन्तन उसको घेर लेता है, ऐसे समय में धर्म बताता है कि आपको किस दिशा में कार्य करना है, यही धर्म की आवश्यकता है।
यदि व्यक्ति के अन्दर धर्म नहीं है तो वह इनके वशीभूत होकर स्वयं तथा सामाजिक पतन का कारण बन जाता है। हमे धर्म को यथार्थ में जानकर- व्यवहार रूप में स्वयं के लिए धारण करने की आवश्यकता है। धर्म अर्थात 'विवेक-प्रयोग' समेत महामण्डल द्वारा 3H विकास के लिये निर्देशित पाँच दैनन्दिन अभ्यास। ही एकमात्र हमारा अस्त्र तथा शस्त्र है, जिसका प्रयोग कर हम इह लोक से पारलौकिक यात्रा को पूर्ण करें। हमने यास्क मुनि से सुना - ‘मत्वा सिव्यति कर्माणि’ मनुष्य वह है जो अपने कार्य को मनन पूर्वक विचार करके करे। मनन करता है इसीलिए मनुष्य है। आओं! हम सब मिलकर धर्म को धारण करें।
इन पतनोन्मुखी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए परमावश्यक होता है कि व्यक्ति विवेकशील हो और विवेकशील होने के लिए आवश्यक है अच्छे सद् चरित्रवान् मित्रों का संग करें तथा अच्छे ग्रन्थों का स्वाध्याय करें।
‘धारणाद् धर्म इत्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः’। जो किसी भी कार्य को करने में सत्य-असत्य का निर्णय कराये, चिन्तन व मनन कराये उसे धर्म कहते हैं। हम धर्म को धारण करते हैं तथा उसको व्यवहार रूप में प्रस्तुत करते हैं। धर्मशास्त्रकार घोषणा करता है- 'धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।' अर्थात् जो व्यक्ति धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है और जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसको नष्ट कर देता है।संस्कृत के नीतिकार कहते है-
धनानि भूमौ, पशवश्च गोष्ठे, नारी गृहे बान्धवाः श्मशाने।
देहश्चितायां परलोकमार्गे, धर्मानुगो गच्छति जीव एक: ।।
अर्थात् समस्त भौतिक धन भूमि में ही गड़ा रह जाता है अथवा आजकल बैंकों में या तिजोरियों में ही धरा रह जाता है और गाय आदि पशु गोशाला में ही बंधे रह जाते हैं । पत्नी घर के द्वार तक ही साथ जाती है और परिवार के भाई-बन्धु व मित्रजन श्मशान तक ही साथ देते हैं; किन्तु किसी मनुष्य का शुभाशुभ कर्म ;धर्मद्ध ही परलोक में मनुष्य का साथ देता है अर्थात् धर्म के अनुसार ही मनुष्य को परलोक में अच्छी-बुरी योनियों में जाना पड़ता है।
>>> महामण्डल का उद्देश्य -कार्यक्रम : इसीलिये महामण्डल स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में अपने देश क़े प्रत्येक युवा का आह्वान करते हुए कहना चाहता है - " उठो, जागो- स्वयं महान बनो, और दूसरों को भी महान बनने में सहायता करो !"इसी सम्मिलित प्रयास के लिये वेदों में प्रार्थना की गयी है - ‘संगच्छध्वं’ मिलकर चलो। ‘संवदध्वम्’ मिलकर बोलो। तुम्हारी मंत्रणा एक हो, विचार एक हों। किसी भी लक्ष्य के प्रति जब बहुत सारे लोग एक भावना बनाकर कार्य करते हैं तो उसी का नाम एकता है, संगठन है। " हमलोग एक बात बोलेंगे, हमलोग एक ही मार्ग का अनुसरण करेंगे, हम सभी लोग संगठित होकर रहेंगे। " किन्तु सभी लोगों को संगठित कैसे किया जा सकता है ? हम सभी एक ही बात कैसे बोल सकते हैं ?
इस विविधता पूर्ण जगत में इतनी सारी चीजें हैं (रंगरूप-जाति -भाषा-धर्म आदि चीजें हैं), इतने सारे आदर्श हैं ! अतः एक ही बात बोलना और एक ही आदर्श का अनुसरण करना, केवल तभी सम्भव हो सकता है; जब वह आदर्श ,प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की समस्त छोटी छोटी अभिलाषाओं को पूर्ण करने (अभ्युदय) के साथ साथ, उन सबसे परे (निःश्रेयस)भी हो ! इसीलिये हम सभी लोग केवल तभी संगठित हो सकते हैं, और एक बात बोल सकते हैं, जब हमारा आदर्श भी सर्वोच्च हो, (Anything lesser than the highest.) सर्वोच्च आदर्श से कमतर या छोटी कोई अन्य वस्तु प्रत्येक व्यक्ति की जरूरतों को पूर्ण नहीं कर सकती ! इस जगत में केवल एक वस्तु ऐसी है, जो प्रत्येक मनुष्य की जरूरतों को परिपूर्ण कर सकता है। और जो 'वस्तु' संसार के प्रत्येक मनुष्य की जरूरतों को पूर्ण कर सकता हो - उसी को धर्म कहते हैं !
अब लक्ष्य या उद्देश्य केवल आध्यात्मिक उन्नति का हो ऐसा नहीं। भौतिक उन्नति भी साथ में होनी चाहिए। मोक्ष प्राप्त करना,आध्यात्मिक उन्नति - पुरुषार्थ की चरम सीमा है। किन्तु किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो बिना संगठन के सफलता नहीं मिल सकती। आज संगठन की बहुत आवश्यकता है कि अच्छे लोग नेक लोग अच्छा कार्य करने के लिए एकजुट हों, जिससे समाज का, परिवार का और राष्ट्र का उद्धार हो, उन्नति हो। एकता में अद्भुत शक्ति होती है, जैसे तिनकों के पतलें रेशे जब किसी रस्सी का रूप धारण करते है। तो उससे हाथी जैसे विशालकाय जानवर को बांधा जा सकता है, लेकिन जब शक्ति संगठित होती है तभी। चाहे प्रबन्धन का क्षेत्र हो या सोफ्टवेयर का उसीको प्राधान्य मिलता है जो टीम स्पिरीट के साथ काम करने में सक्षम हो। विश्व के सभी मानव संसाधन विशेषज्ञ आज इसी गुण को प्राधान्य देते है। स्वामी विवेकानन्द अमरिका में संगठित व्यावसायिक ढंग से संचालित कार्य के चमत्कार को देखकर बड़े भावित हुए थे। उन्होंने ठान लिया था कि भारत में भी अपने मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन के प्रचार प्रसार करने वाले लोकशिक्षकों के निर्माण कार्य में भी इस संगठन कौशल को पुनर्जिवित करना है। अतः किसी नए जगह में पाठचक्र खोलना हो, शिविर आयोजन करने की तीव्र इच्छा हो, वहाँ महामण्डल लीडरशिप को ऑफिसियली सूचना देना और उनके परामर्श के अनुसार कार्य करना आवश्यक होगा।
अब लक्ष्य या उद्देश्य केवल आध्यात्मिक उन्नति का हो ऐसा नहीं। भौतिक उन्नति भी साथ में होनी चाहिए। मोक्ष प्राप्त करना,आध्यात्मिक उन्नति - पुरुषार्थ की चरम सीमा है। किन्तु किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो बिना संगठन के सफलता नहीं मिल सकती। आज संगठन की बहुत आवश्यकता है कि अच्छे लोग नेक लोग अच्छा कार्य करने के लिए एकजुट हों, जिससे समाज का, परिवार का और राष्ट्र का उद्धार हो, उन्नति हो। एकता में अद्भुत शक्ति होती है, जैसे तिनकों के पतलें रेशे जब किसी रस्सी का रूप धारण करते है। तो उससे हाथी जैसे विशालकाय जानवर को बांधा जा सकता है, लेकिन जब शक्ति संगठित होती है तभी। चाहे प्रबन्धन का क्षेत्र हो या सोफ्टवेयर का उसीको प्राधान्य मिलता है जो टीम स्पिरीट के साथ काम करने में सक्षम हो। विश्व के सभी मानव संसाधन विशेषज्ञ आज इसी गुण को प्राधान्य देते है। स्वामी विवेकानन्द अमरिका में संगठित व्यावसायिक ढंग से संचालित कार्य के चमत्कार को देखकर बड़े भावित हुए थे। उन्होंने ठान लिया था कि भारत में भी अपने मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन के प्रचार प्रसार करने वाले लोकशिक्षकों के निर्माण कार्य में भी इस संगठन कौशल को पुनर्जिवित करना है। अतः किसी नए जगह में पाठचक्र खोलना हो, शिविर आयोजन करने की तीव्र इच्छा हो, वहाँ महामण्डल लीडरशिप को ऑफिसियली सूचना देना और उनके परामर्श के अनुसार कार्य करना आवश्यक होगा।
संगठन में अद्भुत शक्ति तो है, किन्तु चरित्र-निर्माण आन्दोलन का प्रचार-प्रसार करते समय धार्मिक आवेग पर व्यावहारिक विवेक का अंकुश होना भी आवश्यक है। किसी भी कार्य में सफलता पाने के लिये समर्पण अनिवार्य है।
स्वामीजी इसे अध्यवसाय की संज्ञा देते है। “अध्यवसायी आत्मा कहती है कि मै सागर को पी जाउंगी। उस सींप की भांति जो स्वाती नक्षत्र की एक बुन्द को प्राशन करने के लिये ही लहरों के उपर आती है। एक बुन्द पा जाने के बाद सागर की अतल गहराई में जा बैठती है धैर्य के साथ जब तक उसका मोती ना बन जाये। हमारे युवाओं को ऐसे अध्यवसाय की आवश्यकता है।'' हम किसी कार्य को प्रारम्भ करने में- तो बड़ी वीरता का परिचय देते है किन्तु कुछ ही समय में सहज ही उससे विमुख हो जाते है। आज की प्रतिस्पर्धा के युग में ऐसे आरम्भ शूरों का काम नहीं है। पूर्ण समर्पण से हाथ में लिये कार्य को पूर्ण करने की लगन ही युवाओं को सफलता प्रदान कर सकती है।
>>>प्रेममय श्री नवनीदा के अन्तिम उपदेश : गाँव गाँव जाकर श्रीरामकृष्ण के उपदेश महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में वर्णित -'विवेकानन्द दर्शनम' की घोषणा करो। इससे अधिक सौभाग्य का विषय और क्या हो सकता है ? भगवान तुम्हारी जिह्वा पर विराजमान रहे। जाओ, द्वार द्वार उनका उपदेश सुनाओ। उनके विषय में कुछ भी कहने से पहले यह याद कर लेना -
१. वेद-वेदान्त तथा अन्य अवतारों ने भूतकाल में जितना कुछ किया था, श्रीरामकृष्ण ने उन सबकी साधना एक ही जीवन में कर डाली।
२. वेद-वेदान्त, अवतार या तत्त्वमसि जैसे महावाक्यों के अर्थ को कोई तब तक नहीं समझ सकता, जब तक वह उनके जीवन (श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग, और 'जीवन नदी के हर मोड़ पर') को न समझे, उनका नवनी दा जीवन ही 'अद्वैत' (BE AND MAKE) की व्याख्या है !
३. उनके जन्म की तिथि से सत्य युग आरम्भ हुआ है ! इसलिये अब सब प्रकार के भेदों का अन्त है ! और अब सब लोग चाण्डाल सहित उस दैवी प्रेम के भागी होंगे। परुष और स्त्री, धनी और दरिद्र, शिक्षित और अशिक्षित, ब्राह्मण और चाण्डाल - इन सब भेद-भावों को समूल नष्ट करने के अभियान में ही उन्होंने अपने जीवन को खपा दिया था ! वे सर्वधर्म समन्वयाचार्य थे -उनके अवतरण से हिन्दू-मुसलमान का भेद, हिन्दू और ईसाईयों का भेद -सब भूतकाल की बातें हो गयीं हैं। मान-प्रतिष्ठा के लिये (नाम-यश के लिये किसी संगठन में) जो झगड़े होते थे, वे सब दूसरे युग (कली-द्वापर-त्रेता युग में रहने वालों से) सम्बन्धित हैं। इस सत्य युग में श्रीरामकृष्ण के प्रेम की विशाल लहर ने सब को एक कर दिया है। [ दादा ने कहा था - 'वे जब ऐसा बोल रहे थे तब मानो इसे सचुमच घटित होते हुए देख रहे थे ! ']
जो कोई -पुरुष या स्त्री -श्री रामकृष्ण की उपासना (BE AND MAKE के प्रचार-प्रसार द्वारा) करेगा, वह चाहे कितना भी पतित क्यों न हो, तत्काल ही उच्चतम में परिणत हो जायेगा। एक बात और है, इस अवतार में परमात्मा का मातृभाव विशेष स्पष्ट है। वे कभी कभी स्त्रियों के समान वस्त्र पहनते थे-वे मानो हमारी जगन्माता (माँ काली) जैसे ही थे, इसलिये हमें सब स्त्रियों को उसी माँ जगदम्बा की ही मूर्तियाँ माननी चाहिये। चाहे ब्राह्मण हो या चाण्डाल, पुरुष हो या स्त्री -सबको उनकी पूजा करने का अधिकार है। जो प्रेम से उनकी पूजा करेगा , उसका सदा के लिये कल्याण हो जायेगा !" ४/३२३ [LXXV(Translated from Bengali )]
मन एक ऐसा पुल (ब्रिज़) है जिसका एक पाया बाह्य जगत में (इन्द्रियगोचर जगत में) है, तो दूसरा पाया अन्तर्निहित आत्मा में (इन्द्रियातीत ब्रह्म में) अवस्थित है। मन की सहायता से बाह्य जगत में जाया जा सकता है, और आत्मा में वापस भी लौटा जा सकता है। यह हर समय पेण्डुलम की तरह बहिर्मुखी और अन्तर्मुखी होता रहता है। और फिर अपनी इच्छानुसार मन को प्रेय विषयों से खींच कर, किसी श्रेय वस्तु पर मन को निवेशित कर देने की क्षमता भी प्राप्त कर सकेंगे।
इस विवेक-प्रयोग की शक्ति या इच्छाशक्ति को दृढ़ बनाने से यह पता चला, कि हम लोग स्वयं अपनी इच्छा और प्रयत्न के द्वारा, चित्तनदी की धारा के प्रवाह की दिशा को मोड़ सकते हैं। हमारे पास स्वस्थ शरीर के साथ प्रशिक्षित मन भी होना चाहिये अर्थात हमारे मन को अपने 'धर्म-प्रयोग और विवेक-दर्शन' करने में अवश्य समर्थ बन जाना चाहिये।
" Never say any man is hopeless, because he only represents a character, a bundle of habits, and these can be changed by new and better ones. Character is repeated habits, and repeated habits alone can reform character. " -
इस विवेक-प्रयोग की शक्ति या इच्छाशक्ति को दृढ़ बनाने से यह पता चला, कि हम लोग स्वयं अपनी इच्छा और प्रयत्न के द्वारा, चित्तनदी की धारा के प्रवाह की दिशा को मोड़ सकते हैं। हमारे पास स्वस्थ शरीर के साथ प्रशिक्षित मन भी होना चाहिये अर्थात हमारे मन को अपने 'धर्म-प्रयोग और विवेक-दर्शन' करने में अवश्य समर्थ बन जाना चाहिये।
" Never say any man is hopeless, because he only represents a character, a bundle of habits, and these can be changed by new and better ones. Character is repeated habits, and repeated habits alone can reform character. " -
इसलिये अविवेकी मन या अप्रशिक्षित मन जो संसार-प्राग्भारा है, जिसका प्रवाह बहिर्मुखी या संसारोन्मुखी है, उसमें परमाणुबम (ऐटम-बम) बना लेने की क्षमता है। [ परम + अणु। परम अर्थात सर्वोत्कृष्ट तथा अणु अर्थात सबसे छोटा अविभाज्य हिस्सा। जिसमे एक रासायनिक तत्व के गुण होते हैं। हर ठोस, तरल, गैस, और प्लाज्मा तटस्थ या आयनन परमाणुओं से बना है। परमाणु के केंद्रक (nucleus) में न्यूट्रॉन (neutron) से प्रहार किया जाता है। इस प्रहार से ही बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा प्राप्त होती है। ]
तो दूसरी ओर विवेक-प्रयोग के लिये प्रशिक्षित मन जो कैवल्य-प्राग्भारा है उसमें आत्म-साक्षात्कार कर लेने (या ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद मनुष्य या पैगम्बर मुहम्मद, भगवान बुद्ध, ईसा और स्वामी विवेकानन्द के जैसा भ्रममुक्त मनुष्य बन जाने) की सम्भावना भी है।
[ मन में सदा शुभ-संकल्प कैसे बना रहे ? : जैसे घड़ी एक जड़-यंत्र है, किन्तु बैट्री बदलदेने पर वह पर्याप्त समय तक सही दिशा में चलती रहती है। परंतु मन, जो कि जड़ है, उसको एक बार नियंत्रित करने पर भी वो बार-बार अनियंत्रित होकर हमारी एकाग्रता के अभ्यास में बाधा डालता ही रहता है, ऐसा क्यों?
मन को परिभाषित करते हुए शुक्लयजुर्वेद, ३४/ १ में कहा गया है -
किन्तु 'विवेक-प्रयोग' आदि ५ अभ्यास नहीं करने के कारण, हमारी रूचि तो अभी रसगुल्ला खाने में है, ईश्वर बनने और बनाने में हमारी रूचि नहीं है,(अर्थात भ्रममुक्त मनुष्य बनने और बनाने में,'BE AND MAKE' तथा 'चरैवेति चरैवेति ' में हमारी रूचि नहीं है), और असली गड़बड़ी भी यही है। मूर्ख मित्रों से रोज मिलते हैं, न्यूज पेपर भी रोज पढ़ते हैं। इन सब से हम परिचित हैं और इन चीजों में, कार्यों में खूब रूचि है। इसलिये वहाँ पर मन खूब लगता है।
किन्तु ईश्वर में रूचि नहीं, ईश्वर (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य या भ्रममुक्त मनुष्य बनने और बनाने) का महत्व नहीं जानते, ईश्वर के प्रति श्रद्धा कम है, इसलिये ईश्वर का विचार मन में नहीं टिकता है। तो इस विवेक-प्रयोग से पता चला, कि हमारी इच्छा से, हमारे प्रयत्न से ही मन में विचार उठते हैं। बस, तो ईश्वर के प्रति इच्छा पैदा करो, ईश्वर के प्रति रूचि बनाओ और उसको स्मरण करने का प्रयत्न करो। तो यह मन भी घड़ी की तरह ही निरंतर सही दिशा में ही चलेगा। फिर अपनी संकल्प शक्ति या दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा मन में दूसरी बात नहीं उठायेंगे, ईश्वर की बात उठायेंगे।
इसीलिये हमारे ऋषियों ने कहा है -‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः’ अर्थात् मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है। किन्तु हमारे शरीर की तरह ही मन भी तो एक जड़ वस्तु ही है। तो फिर यह जड़ ‘मन’ हमारे बंधन और ‘मोक्ष’ का कारण कैसे हो सकता है?
इस बात का अभिप्राय यह नहीं समझना चाहिये कि कोई जड़-वस्तु हमको (अर्थात चेतन आत्मा) को अपनी स्वतंत्रता से बांध लेती है। मन जड़-वस्तु होकर के भी हमें बाँध तो लेता है, पर मन हमें बाँध लेने में पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है। यदि हम बंधना चाहें, तभी यह जड़ मन हमें (मनुष्य को) बाँध सकता है। पर यदि हम नहीं बंधना चाहें, तो यह हमें नहीं बाँध सकता है।
बंधन और मोक्ष का कारण सीधा-सीधा तो जीवात्मा (अहं) की इच्छा है। जीवात्मा अगर 'मोक्ष' में जाना चाहे, अर्थात भ्रममुक्त होने की इच्छा करे, तो मन उसको मोक्ष में जाने के लिए (भ्रममुक्त अवस्था में रहने के लिए) पूरा सहयोग देगा। किन्तु जन्मजन्मान्तर की पाशविक आदतों के कारण (आहार-निद्रा-भय मैथुन की आदतों के कारण) जीवात्मा की इच्छा बंधन में ही रहने की है, जीवात्मा को मन का गुलाम बने रहने की आदत पड़ गयी है। अभी हमारा मन मोक्ष में जाना ( अर्थात सुसंस्कृत होना या भ्रममुक्त अवस्था में रहना) ही नहीं चाहता, इसीलिये मन उसको बंधन में डाल देता है। इसमें मन का कोई दोष नहीं है। मन एक जड़ वस्तु है, फिर भी वो इस नाम से कह दिया जाता है। जैसे यह कह दिया जाता है, कि मेरी तो इच्छा है उठ जाने की, पर यह रजाई मुझे नहीं छोड़ रही। जैसे वो मोटी सी बात कह दी, ऐसे ही ये मोटी सी बात है। मन आत्मा का दिव्य चक्षु है, अर्थात मन का संचालन तो आत्मा के अधीन है। आत्मा चाहेगा, तो मन से बंधन अथवा मोक्ष दोनों प्राप्त कर सकता है।
সখার প্রতি:
আঁধারে আলোক-অনুভব, দঃখে সুখ, রোগে স্বাস্থ্যভান;
প্রাণ-সাক্ষী শিশুর ক্রন্দন, হেথা সুখ ইচ্ছ মতিমান্?
জেনেছি সুখের নাহি লেশ, শরীরধারণ বিড়ম্বন;
যত উচ্চ তোমার হৃদয়, তত দুঃখ জানিহ নিশ্চয়।
হৃদিবান্ নিঃস্বার্থ প্রেমিক! এ জগতে নাহি তব স্থান;
লৌহপিণ্ড সহে যে আঘাত, মর্মর-মূরিত তা কি সয়?
হও জড়প্রায়, অতি নীচ, মুখে মধু, অন্তরে গরল-
সত্যহীন, স্বার্থপরায়ণ, তবে পাবে এ সংসারে স্থান।
শোন বলি মরমের কথা, জেনেছি জীবনে সত্য সার-
ত্যাগ-ভোগ-বুদ্ধির বিভ্রম; 'প্রেম' 'প্রেম'-এই মাত্র ধন।
জীব ব্রহ্ম, মানব ঈবর, ভূত-প্রেত-আদি দেবগণ,
পশু-পক্ষী কীট-অনুককীট-এই প্রেম হৃদয়ে সবার ।
'দেব' 'দেব'-বলো আর কেবা? কেবা বলো সবারে চালায়?
পুত্র তরে মায়ে দেয় প্রাণ, দস্যু হরে-প্রেমের প্রেরণ !!
"দাও আর ফিরে নাহি চাও থাকে যদি হৃদয়ে সম্বল।"
অনন্তের তুমি অধিকারী প্রেমসিন্ধু হৃদে বিদ্যমান,
'দাও, দাও'- যে বা ফিরে চায়, তার সিন্ধু বিন্দু হয়ে যান।
ব্রহ্ম হ'তে কীট-পরমাণু, সর্বভূতে সেই প্রেমময়,
মন প্রাণ শরীর অর্পণ কর সখে, এ সবার পায়।
বহুরূপে সম্মুখে তোমার, ছাড়ি কোথা খুঁজিছ ঈবর?
জীবে প্রেম করে যেই জন, সেই জন সেবিছে ঈশ্বর
[ ' सखा के प्रति' नामक कविता में स्वामी विवेकानन्द उसी भाव को प्रकट करते हुए कहते हैं- " जब तक हृदय की कोठरी में जहाँ हजारों सालों अंधकार भरा है, उसको अनन्त की ज्योति से प्रकाशित नहीं कर लिया जाय, मनुष्य कभी पूर्णतः निःस्वार्थी (भ्रममुक्त -ब्रह्मविद) यथार्थ मनुष्य नहीं बन सकता। जहाँ, " जन्म लेने के साथ-साथ रुदन करना ही शिशु के जीवित होने का प्रमाण" -माना जाता हो, वहाँ बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी सुख (परमसत्य, भूमानन्द) को प्राप्त करने की आशा नहीं करता। क्योंकि यह संसार 'माया' (माँ काली ?) का राज्य है, इसलिये सब कुछ विपरीत रूप से (उल्टा) देखा जाता है-जैसे दुःख (दिनाय) में सुख का अनुभव इत्यादि। यहाँ बुरी वस्तु अच्छी प्रतीत होती है। इसीलिए हमें निरंतर विवेक-प्रयोग करते रहना चाहिये, क्योंकि- " विवेकी सर्वदा मुक्तः संसारभ्रमवर्जितः ॥
किसी शायर ने कहा है -
एक सिंहासन चढि चलें, एक बंधे जंजीर।
[Under The 'Leadership Training' in Sri Ramakrishna-Vivekananda Vedanta Tradition, (Vedanta Tradition Training means Training for Spiritual Awakening or "Changing Human Consciousness !" :("Changing Human Consciousness " - 'This vision, however, is not simply given to Dante.")
भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा अर्थात " श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में आध्यात्मिक जागृति-प्रशिक्षण " को ही महामण्डल में 'लीडरशिप ट्रेनिंग' कहा जाता है। जिसके अन्तर्गत 'सेवा करो और प्रेरणा भरो -प्रशिक्षण' के माध्यम से 'वुड बी लीडर्स या भावी लोकशिक्षकों ' को अपने और इन्द्रियगोचर जगत के सच्चे स्वरूप (सच्चिदानन्द स्वरूप, परमसत्य या इन्द्रियातीत सत्य) के प्रति, मानवीय चेतना या 'होश' (Human Consciousness, मानवीय-बोध,अभिज्ञता) को बदल देने का प्रशिक्षण दिया जाता है ! किन्तु ऐसी ऋषि-दृष्टि महान इटालियन दार्शनिक, कवि, लेखक दाँते एलीगियरी (१२६५ – १३२१) को बहुत आसानी से प्राप्त नहीं हुई थी ! उसने इस आत्मसाक्षात्कार को 'आत्मविद' होने के आनन्द के अनुभव को - 'Hell and Purgatory.' या " नरक और पापशोधन यातना-भोग' की लम्बी और कठिन यात्रा से गुजरने के बाद ही प्राप्त किया था। ]
( सब कुछ श्रीरामकृष्ण देव ही बने हैं -यह पहचान लो !) किन्तु कोमल-हृदय वालों को मान-अपमान से भी ऊपर उठना अनिवार्य है। नहीं तो तुम्हें भी जड़वत, निचाधम, "मुखे मोधु- अन्तरे गरल" - ' सामने दिखने पर राम-राम, पीठ-पीछे विषवमन' करने वाला खलनायक बन जाना पड़ेगा। क्योंकि इस जगत के साधारण (भ्रमित ) लोग मिथ्या बोलने वाले, और स्वार्थी मनुष्यों को ही समाज में उच्चस्थान देते हैं ! इसीलिये श्री रामकृष्ण कहते थे - ' काटना मत लेकिन फुँफकारना जरूर ! '
सन्त तुलसीदास जी ने भी कहा है - क्रोध का अभिनय करके फुफकारना ठीक है, लेकिन क्रोधाग्नि तुम्हारे अतःकरण को जलाने न लगे, इसका ध्यान रखो। हमें तो 'मुखे मोधु -अन्तरे मोधु' रखते हुए " सकोप राम" का अभिनय करना भी सीखना होगा।
मैंने किशोरावस्था में रामधारी सिंह “दिनकर” की यह कविता -" रश्मिरथी" में पड़ी थी;
तो दूसरी ओर विवेक-प्रयोग के लिये प्रशिक्षित मन जो कैवल्य-प्राग्भारा है उसमें आत्म-साक्षात्कार कर लेने (या ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद मनुष्य या पैगम्बर मुहम्मद, भगवान बुद्ध, ईसा और स्वामी विवेकानन्द के जैसा भ्रममुक्त मनुष्य बन जाने) की सम्भावना भी है।
विवेकी सर्वदा मुक्तः संसारभ्रमवर्जितः ॥ योगशिखोपनिषद- १८ ॥
विवेकी सर्वदा संसार-भ्रम से मुक्त रहता है, और जगत को ब्रह्ममय देखता है, अतः किसी को पराया नहीं समझता। सभी को अपना समझकर -'शिव ज्ञान से जीव सेवा करता है। /मोक्ष/ भ्रममुक्त मनुष्य/जीवन-सफल। "[ मन में सदा शुभ-संकल्प कैसे बना रहे ? : जैसे घड़ी एक जड़-यंत्र है, किन्तु बैट्री बदलदेने पर वह पर्याप्त समय तक सही दिशा में चलती रहती है। परंतु मन, जो कि जड़ है, उसको एक बार नियंत्रित करने पर भी वो बार-बार अनियंत्रित होकर हमारी एकाग्रता के अभ्यास में बाधा डालता ही रहता है, ऐसा क्यों?
मन को परिभाषित करते हुए शुक्लयजुर्वेद, ३४/ १ में कहा गया है -
"यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
-आत्मा की वह दिव्य ज्योतिमय चक्षु (डिवाइन आइ ऑफ़ आत्मन) अर्थात हमारा "मन"- जो हमारे जागने की अवस्था में बहुत दूर तक चला जाता है, और हमारी निद्रावस्था में हमारे पास आकर आत्मा में विलीन हो जाता है, वह प्रकाशमान श्रोत जो हमारी इंद्रियों को प्रकाशित करता है, वैसा मेरा मन शुभ, कल्याणप्रद तथा शान्तिमय विचारों वाला होवे ।
यस्मान्न ऋते किंच न कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। (शुक्लयजुर्वेद, ३४, ३)
जिस मन की सहायता के बिना, या जिसके साथ जुड़े न रहने पर कोई भी कर्म कर पाना सम्भव नहीं, वह मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे । अर्थात हमारे मन में निरन्तर आत्मा का अवलोकन करने की इच्छा ही बनी रहनी चाहिये, क्योंकि एकमात्र यही इच्छा मोह (भ्रम) का नाश करने वाली है। किन्तु 'विवेक-प्रयोग' आदि ५ अभ्यास नहीं करने के कारण, हमारी रूचि तो अभी रसगुल्ला खाने में है, ईश्वर बनने और बनाने में हमारी रूचि नहीं है,(अर्थात भ्रममुक्त मनुष्य बनने और बनाने में,'BE AND MAKE' तथा 'चरैवेति चरैवेति ' में हमारी रूचि नहीं है), और असली गड़बड़ी भी यही है। मूर्ख मित्रों से रोज मिलते हैं, न्यूज पेपर भी रोज पढ़ते हैं। इन सब से हम परिचित हैं और इन चीजों में, कार्यों में खूब रूचि है। इसलिये वहाँ पर मन खूब लगता है।
किन्तु ईश्वर में रूचि नहीं, ईश्वर (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य या भ्रममुक्त मनुष्य बनने और बनाने) का महत्व नहीं जानते, ईश्वर के प्रति श्रद्धा कम है, इसलिये ईश्वर का विचार मन में नहीं टिकता है। तो इस विवेक-प्रयोग से पता चला, कि हमारी इच्छा से, हमारे प्रयत्न से ही मन में विचार उठते हैं। बस, तो ईश्वर के प्रति इच्छा पैदा करो, ईश्वर के प्रति रूचि बनाओ और उसको स्मरण करने का प्रयत्न करो। तो यह मन भी घड़ी की तरह ही निरंतर सही दिशा में ही चलेगा। फिर अपनी संकल्प शक्ति या दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा मन में दूसरी बात नहीं उठायेंगे, ईश्वर की बात उठायेंगे।
इसीलिये हमारे ऋषियों ने कहा है -‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः’ अर्थात् मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है। किन्तु हमारे शरीर की तरह ही मन भी तो एक जड़ वस्तु ही है। तो फिर यह जड़ ‘मन’ हमारे बंधन और ‘मोक्ष’ का कारण कैसे हो सकता है?
इस बात का अभिप्राय यह नहीं समझना चाहिये कि कोई जड़-वस्तु हमको (अर्थात चेतन आत्मा) को अपनी स्वतंत्रता से बांध लेती है। मन जड़-वस्तु होकर के भी हमें बाँध तो लेता है, पर मन हमें बाँध लेने में पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है। यदि हम बंधना चाहें, तभी यह जड़ मन हमें (मनुष्य को) बाँध सकता है। पर यदि हम नहीं बंधना चाहें, तो यह हमें नहीं बाँध सकता है।
बंधन और मोक्ष का कारण सीधा-सीधा तो जीवात्मा (अहं) की इच्छा है। जीवात्मा अगर 'मोक्ष' में जाना चाहे, अर्थात भ्रममुक्त होने की इच्छा करे, तो मन उसको मोक्ष में जाने के लिए (भ्रममुक्त अवस्था में रहने के लिए) पूरा सहयोग देगा। किन्तु जन्मजन्मान्तर की पाशविक आदतों के कारण (आहार-निद्रा-भय मैथुन की आदतों के कारण) जीवात्मा की इच्छा बंधन में ही रहने की है, जीवात्मा को मन का गुलाम बने रहने की आदत पड़ गयी है। अभी हमारा मन मोक्ष में जाना ( अर्थात सुसंस्कृत होना या भ्रममुक्त अवस्था में रहना) ही नहीं चाहता, इसीलिये मन उसको बंधन में डाल देता है। इसमें मन का कोई दोष नहीं है। मन एक जड़ वस्तु है, फिर भी वो इस नाम से कह दिया जाता है। जैसे यह कह दिया जाता है, कि मेरी तो इच्छा है उठ जाने की, पर यह रजाई मुझे नहीं छोड़ रही। जैसे वो मोटी सी बात कह दी, ऐसे ही ये मोटी सी बात है। मन आत्मा का दिव्य चक्षु है, अर्थात मन का संचालन तो आत्मा के अधीन है। आत्मा चाहेगा, तो मन से बंधन अथवा मोक्ष दोनों प्राप्त कर सकता है।
সখার প্রতি:
আঁধারে আলোক-অনুভব, দঃখে সুখ, রোগে স্বাস্থ্যভান;
প্রাণ-সাক্ষী শিশুর ক্রন্দন, হেথা সুখ ইচ্ছ মতিমান্?
জেনেছি সুখের নাহি লেশ, শরীরধারণ বিড়ম্বন;
যত উচ্চ তোমার হৃদয়, তত দুঃখ জানিহ নিশ্চয়।
হৃদিবান্ নিঃস্বার্থ প্রেমিক! এ জগতে নাহি তব স্থান;
লৌহপিণ্ড সহে যে আঘাত, মর্মর-মূরিত তা কি সয়?
হও জড়প্রায়, অতি নীচ, মুখে মধু, অন্তরে গরল-
সত্যহীন, স্বার্থপরায়ণ, তবে পাবে এ সংসারে স্থান।
শোন বলি মরমের কথা, জেনেছি জীবনে সত্য সার-
ত্যাগ-ভোগ-বুদ্ধির বিভ্রম; 'প্রেম' 'প্রেম'-এই মাত্র ধন।
জীব ব্রহ্ম, মানব ঈবর, ভূত-প্রেত-আদি দেবগণ,
পশু-পক্ষী কীট-অনুককীট-এই প্রেম হৃদয়ে সবার ।
'দেব' 'দেব'-বলো আর কেবা? কেবা বলো সবারে চালায়?
পুত্র তরে মায়ে দেয় প্রাণ, দস্যু হরে-প্রেমের প্রেরণ !!
"দাও আর ফিরে নাহি চাও থাকে যদি হৃদয়ে সম্বল।"
অনন্তের তুমি অধিকারী প্রেমসিন্ধু হৃদে বিদ্যমান,
'দাও, দাও'- যে বা ফিরে চায়, তার সিন্ধু বিন্দু হয়ে যান।
ব্রহ্ম হ'তে কীট-পরমাণু, সর্বভূতে সেই প্রেমময়,
মন প্রাণ শরীর অর্পণ কর সখে, এ সবার পায়।
বহুরূপে সম্মুখে তোমার, ছাড়ি কোথা খুঁজিছ ঈবর?
জীবে প্রেম করে যেই জন, সেই জন সেবিছে ঈশ্বর
[ ' सखा के प्रति' नामक कविता में स्वामी विवेकानन्द उसी भाव को प्रकट करते हुए कहते हैं- " जब तक हृदय की कोठरी में जहाँ हजारों सालों अंधकार भरा है, उसको अनन्त की ज्योति से प्रकाशित नहीं कर लिया जाय, मनुष्य कभी पूर्णतः निःस्वार्थी (भ्रममुक्त -ब्रह्मविद) यथार्थ मनुष्य नहीं बन सकता। जहाँ, " जन्म लेने के साथ-साथ रुदन करना ही शिशु के जीवित होने का प्रमाण" -माना जाता हो, वहाँ बुद्धिमान व्यक्ति कभी भी सुख (परमसत्य, भूमानन्द) को प्राप्त करने की आशा नहीं करता। क्योंकि यह संसार 'माया' (माँ काली ?) का राज्य है, इसलिये सब कुछ विपरीत रूप से (उल्टा) देखा जाता है-जैसे दुःख (दिनाय) में सुख का अनुभव इत्यादि। यहाँ बुरी वस्तु अच्छी प्रतीत होती है। इसीलिए हमें निरंतर विवेक-प्रयोग करते रहना चाहिये, क्योंकि- " विवेकी सर्वदा मुक्तः संसारभ्रमवर्जितः ॥
" आंधारे आलोक अनुभव, दुःखे सुख, रोगे स्वास्थ्य-भान;
प्राण-साक्षी शिशुर क्रन्दन, हेथा सुख-इच्छा मतिमान ?
(अपने हृदय में अहंकार का अँधेरा भरा हुआ है, इसीलिये अँधेरे में भी प्रकाश का अनुभव होता है, रोग में स्वास्थ्य -अर्थात हम सभी लोग मानसिक-बिभ्रम के शिकार है, या हिप्नोटाइज्ड हैं, सिंह-शावक होकर भी स्वयं को भेंड़ समझ रहे हैं, इन्द्रिय-विषयों में सुख मान रहे हैं, वे तो विष से भी खतरनाक हैं, 'अलीमृग-मीन, पतंग-गज' जरई एक ही आंच ! इस परिवर्तनशील नश्वर जगत को अविनाशी शाश्वत समझ कर इसमें सुख पाने की इच्छा करते हो मतिमान-मेधावी ?! )
जतो उच्च तोमार हृदय, तोतो दुःख जानिओ निश्चय।
हृदयवान निःस्वार्थ प्रेमिक ! येई जगते नाही तव स्थान;
किसी शायर ने कहा है -
" ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम 'अमीर';
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है!"
तुम्हारा हृदय जैसे जैसे विस्तृत होता जायेगा, 'सारे जहाँ का दर्द मेरे जिगर में है' का अनुभव अधिक दुःखी बना देगा। " आया है सो जायेगा - राजा रंक फकीर, किन्तु कुछ विभूतियाँ, 'सारे जहाँ का दर्द अपने जिगर में ' लेकर आतीं हैं। और समाज की गुत्थियों को सुलझाने में, समाज को सुंदर बनाने और संवारने में अपना सर्वस्व होम कर जाती हैं।
ऐसे विभूतिमान , प्रज्ञासम्पन्न पूज्य नवनीदा जैसे व्यक्ति अपनी उद्दात भावनाओं के कारण संस्था बन जाते हैं; और उनके चले जाने के बाद उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की यादें प्रेरणाप्रद स्मृति बन जाती हैं। उनके सुकृत्यों का दर्पण न केवल हमारा मार्गदर्शक बनता है, बल्कि आचरण को उर्ध्वगामी बनाने में हमारा संबल भी सिद्ध होता है।
महात्मा कबीर का हृदय भी अध्यात्मिक रूप से जागृत था (उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान या वेदान्त का ज्ञान) था और इसी वेदान्त-ज्ञान के द्वारा वे लोगों को आगाह करते थे :-
आया है सो जाएगा, राजा रंक फकीर।महात्मा कबीर का हृदय भी अध्यात्मिक रूप से जागृत था (उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान या वेदान्त का ज्ञान) था और इसी वेदान्त-ज्ञान के द्वारा वे लोगों को आगाह करते थे :-
एक सिंहासन चढि चलें, एक बंधे जंजीर।
अपने कर्तव्य के अनुसार हर व्यक्ति को फल मिलना निश्चित है। हर प्राणी को यहाँ से जाना है। किन्तु सन्त कबीर दास जी समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने और जन- समुदाय में सुख- शान्ति लाने के लिए केवल एक ही वस्तु को अचूक औषधि मानते हैं, और वह हैआध्यात्मिक जागृति ! वे चाहते हैं कि मानव इसका सेवन नियमित रुप से करे, वे चाहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से जागृत हो जाये। इस नाजुक परिस्थिति से केवल अध्यात्मिकता तथा नैतिकता ही हमें उबार सकती है।
लौहपिण्ड सहे जे आघात, मर्मर-मूर्ति ता कि सय ?
होओ जड़प्राय, अति नीच, मुखे मधु, अन्तरे गरल,
सत्यहीन, स्वार्थपरायन (जोदी),तोबे पाबे ये संसारे स्थान !
शोनो बोली मर्मेर कोथा, जेनेछि जीबोने सत्य-सार,
'त्याग-भोग' -बुद्धिर बिभ्रम, 'प्रेम' 'प्रेम' --येई मात्र धन !
लोहे की एक निहाई, हथौड़े की जितनी चोटें बर्दास्त कर लेती है, कोई संगमर्मर मूर्ति कभी उतनी चोटें बर्दास्त कर सकती हैं -भला ? 'शोनो बोली मर्मेर कोथा,' - सुनलो मैं अब मार्मिक बात कहता हूँ, जीवन के सच्चे सार को समझ गया हूँ ! अपने को "मैं त्यागी हूँ ' या मैं भोगी हूँ " ऐसा केवल भ्रमित-बुद्धि (हिप्नोटाइज्ड बुद्धि) ही सोचती है। अतः भ्रममुक्त होने के लिये 'प्रेम प्रेम' धन लो पहचान।
भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा अर्थात " श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में आध्यात्मिक जागृति-प्रशिक्षण " को ही महामण्डल में 'लीडरशिप ट्रेनिंग' कहा जाता है। जिसके अन्तर्गत 'सेवा करो और प्रेरणा भरो -प्रशिक्षण' के माध्यम से 'वुड बी लीडर्स या भावी लोकशिक्षकों ' को अपने और इन्द्रियगोचर जगत के सच्चे स्वरूप (सच्चिदानन्द स्वरूप, परमसत्य या इन्द्रियातीत सत्य) के प्रति, मानवीय चेतना या 'होश' (Human Consciousness, मानवीय-बोध,अभिज्ञता) को बदल देने का प्रशिक्षण दिया जाता है ! किन्तु ऐसी ऋषि-दृष्टि महान इटालियन दार्शनिक, कवि, लेखक दाँते एलीगियरी (१२६५ – १३२१) को बहुत आसानी से प्राप्त नहीं हुई थी ! उसने इस आत्मसाक्षात्कार को 'आत्मविद' होने के आनन्द के अनुभव को - 'Hell and Purgatory.' या " नरक और पापशोधन यातना-भोग' की लम्बी और कठिन यात्रा से गुजरने के बाद ही प्राप्त किया था। ]
( सब कुछ श्रीरामकृष्ण देव ही बने हैं -यह पहचान लो !) किन्तु कोमल-हृदय वालों को मान-अपमान से भी ऊपर उठना अनिवार्य है। नहीं तो तुम्हें भी जड़वत, निचाधम, "मुखे मोधु- अन्तरे गरल" - ' सामने दिखने पर राम-राम, पीठ-पीछे विषवमन' करने वाला खलनायक बन जाना पड़ेगा। क्योंकि इस जगत के साधारण (भ्रमित ) लोग मिथ्या बोलने वाले, और स्वार्थी मनुष्यों को ही समाज में उच्चस्थान देते हैं ! इसीलिये श्री रामकृष्ण कहते थे - ' काटना मत लेकिन फुँफकारना जरूर ! '
सन्त तुलसीदास जी ने भी कहा है - क्रोध का अभिनय करके फुफकारना ठीक है, लेकिन क्रोधाग्नि तुम्हारे अतःकरण को जलाने न लगे, इसका ध्यान रखो। हमें तो 'मुखे मोधु -अन्तरे मोधु' रखते हुए " सकोप राम" का अभिनय करना भी सीखना होगा।
बिनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति॥
भावार्थ:-इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। बोले राम 'सकोप तब' - तब श्री रामजी मानो क्रोधित हो जाने का अभिनय करते हुए बोले - बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥ मैंने किशोरावस्था में रामधारी सिंह “दिनकर” की यह कविता -" रश्मिरथी" में पड़ी थी;
क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो;
उसको क्या जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो ।
सच पूछो , तो शर में ही,बसती है दीप्ति विनय की;
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का, जिसमें शक्ति विजय की ।
सहनशीलता, क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है;
बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है।
और यह मेरे जीवन की पड़ी हुई सबसे सुन्दर कविता है। जैसे 'एथेंस का सत्यार्थी ' किशोरावस्था में पढ़ी हुई सबसे सुंदर कहानी मानता रहा हूँ ! अतः हमलोगों 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से सम्पन्न पूर्णतः निःस्वार्थी थंडरबोल्ट जैसा 'भ्रममुक्त ' मनुष्य बनना और बनाना चाहिये। ब्रह्म से लेकर कीट-परमाणु तक, अर्थात जड़-चेतन समस्त वस्तुओं में "वे" प्रेमस्वरूप श्रीरामकृष्ण ही विराजमान हैं, तब तुम शत्रु समझकर सर्वनाश किसका करोगे ?
भिक्षुकेर कोबे बोलो सुख ? कृपापात्र होये किबा फल ?
दाओ आर फिरे नाही चाओ, थाके जदि हृदये सम्बोल।
अनन्तेर तुमि अधिकारी, प्रेमसिन्धु हृदये विद्यमान।
'दाओ, दाओ'- जे बा फिरे चाय, तार सिन्धु बिन्दु होये जान।
ब्रह्म हते कीट-परमाणु, सर्वभूते सेई प्रेममय,
मन प्राण शरीरअर्पण करो सखे, ये सबार पाए।
बोहुरूपे सोम्मुखे तोमार, छाड़ि कोथा खुंजीछो ईश्वर ?
जीबे प्रेम कोरे जेई जन, सेइ जन सेवीछे ईश्वर।
>>>महाराज सायाजी यूनिवर्सिटी, बड़ौदा में सेमिनार का आयोजन : एक बार यादवपुर यूनिर्वर्सिटी के दर्शनशास्त्र के विभागध्यक्ष ने पूज्य नवनी दा को फोन पर कहा - " हमलोग यहाँ स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं के ऊपर एक सेमिनार का आयोजन करना चाहते हैं, मैं आपसे यह परामर्श चाहता हूँ कि इस सेमिनार में किन-किन विषयों पर चर्चा होनी चाहिये, और व्याख्यान देने के लिये किन-किन लोगों को आमंत्रित किया जाय ?" उन्होंने तत्काल ' गुरु-शिष्य परम्परा में आध्यात्मिक जागृति की प्रशिक्षण पद्धति' आदि ४-५ विषयों पर वक्ताओं को सबजेक्ट देने के लिए कहा।
पहले ही दिन २६-१२-१९८७ को मनःसंयोग की कक्षा में -जब महामण्डल के 'नेता' पूज्य नवनी दा ने प्रशिक्षण-शिविर में आये सभी युवाओं में अन्तर्निहित अपने ही जैसा भावी नेता को देखते हुए," तैत्तिरीयोपनिषद/शिक्षा वल्ली" से यह शान्तिपाठ किया था - " ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं बह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम । अवतु वक्तारम् । ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः।"
-अर्थात ‘मित्र’ देवता हमारे लिए कल्याणकारी हों, 'वरुण' देवता कल्याणकारी हों । भवतु अर्यमा ‘अर्यमा’ देवता हमारा कल्याण करें । हमारे लिए 'इन्द्र' एवं 'बृहस्पति' देवता कल्याणप्रद हों । ‘उरुक्रम’ (जिनके डग विशाल हैं ) विष्णु देवता हमारे प्रति कल्याणप्रद हों । ब्रह्म को नमन है । वायुदेव तुम्हें नमस्कार है । तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो । अतः तुम्हें ही प्रत्यक्ष तौर पर ब्रह्म कहूंगा । ऋत बोलूंगा । सत्य बोलूंगा । वह ब्रह्म मेरी रक्षा करें । वह वक्ता आचार्य की रक्षा करें । रक्षा करें मेरी । रक्षा करें वक्ता आचार्य की । त्रिविध तापों की शांति (आधिभौतिक,आधिदैविक और आध्यात्मिक) हो ।
उस दिन का वह क्षण धन्य था, मैं उस क्षण का ऋणी हूँ ! क्योंकि सामान्य मानव चेतना सिर्फ इंन्द्रिय-ग्राह्य चीजों को ही देख सकती है। उससे परे नहीं देख सकती है। आध्यात्मिक चेतनाबोध होने पर सबसे पहले चेतनाबोध का परिवर्तन होता है। तब व्यक्ति को अनुभव होता है वह देह नहीं अथवा मन नहीं है, अपितु आत्मा है। यह लिख देना या कह देना आसान है, लेकिन इसका प्रत्यक्ष अनुभव अभी मुझे भी नहीं है। खैर, इसके बाद ही चेतना का विस्तार होता है।
तब हमें प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि हम सर्वव्यापी परमात्मा के अंश हैं। इसके और आगे बढ़ने पर अनुभव होता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्ता है । हाथो से तबले का बोल निकालने के लिये ही महामण्डल के निर्देशन में प्रशिक्षण लेना ही पड़ता है! अर्थात इस को, रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में अर्थात लोक-शिक्षक बनो और बनाओ परम्परा में लीडर-शिप ट्रेनिंग' के सन्देश को चरैवेति चरैवेति करते हुए, दूसरों को बुला-बुला कर साझा करने लगोगे तब तुम लोगों के जीवन में सत्ययुग आ जायेगा !
आध्यात्मिक शक्ति = जो आध्यात्मिक शक्ति 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग' के माध्यम से प्राप्त होती है, वह बगुला भष्म करने वाली शक्ति नहीं होती। बल्कि मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता (ब्रह्मत्व) को जागृत करने और उसे अभिव्यक्त करने की शिक्षा देने में समर्थ 'वुड बी लीडर्स' - भावी लोकशिक्षक'बनने और बनाने' की शक्ति अर्थात 'भ्रममुक्त मनुष्य'- बनने और बनाने की शक्ति को ही आध्यत्मिक शक्ति कहते हैं। श्रीरामकृष्ण ने अपनी इसी आध्यात्मिक शक्ति को तेईस वर्षीय नवयुवक नरेन्द्र को सौंप दिया था (हस्तान्तरित या ट्रांसमिट) कर दिया था। क्यों ?
क्योंकि अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण के अनुरोध- "मैं जा रहा हूँ, तुम्हें भी आना पड़ेगा !" पर ही निवृत्ति मार्ग के सप्तर्षियों में से एक नरेन ने, अपने निर्विकल्प समाधि का त्याग कर धरती पर आना स्वीकार किया था। इसलिये श्रीरामकृष्ण ने नरेन को देखते ही पहचान लिया था कि भविष्य में -'नरेन शिक्षा देगा !' अर्थात नरेन स्वयं मानवजाति का मार्ग-दर्शक नेता बनेगा, और दूसरों को भी लोकशिक्षक (भ्रममुक्त मनुष्य) बनने और बनाने का प्रशिक्षण देगा !
मानवमात्र में अन्तर्निहित पूर्णत्व या ब्रह्मत्व को जागृत करा देने की जो आध्यात्मिक शक्ति 'स्पिरिचुअल पॉवर' श्री रामकृष्ण में अन्तर्निहित थी, उसी शक्ति को उन्होंने गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में नरेन् में सम्प्रेषित कर दिया था !
गोवर्धन पहाड़ को तो प्रभु ने अपनी कानी ऊँगली पर उठाया हुआ है; किन्तु हमें अपना गोप-सखा मानकर उसके नीचे लाठी से टिकाये रहने का भरोसा किया है। सम्पूर्ण मानवजाति के मार्गदर्शक नेता,अवतार वरिष्ठ प्रेमस्वरूप भगवान श्रीरामकृष्ण ने अपना प्रेम (LOVE) और भरोसा (TRUST) हम जैसे नवयुवकों पर 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' में लीडरशिप ट्रेनिंग के माध्यम से हस्तान्तरित किया है। ताकि हम लोग भी उनके उसी 'प्रेम और विश्वास' को भावी लोक-शिक्षकों को (वुड बी लीडर्स को) हस्तान्तरित कर सकें ! और संघ-बद्ध प्रयास द्वारा भ्रममुक्त मनुष्य (ब्रह्मविद मनुष्य) बनने और बनाने में समर्थ लोक-शिक्षकों या नेताओं का निर्माण करने की यह 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन वेदान्त परम्परा' में लीडरशिप ट्रेनिंग, पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे भी यूँ ही चलता रहे !
अर्थात माँ जगदम्बा के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण के प्रति आस्था रखो, तथा 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' में लीडरशिप ट्रेनिंग के द्वारा जो भविष्य में आनेवाले अनेकानेक अवतार (भ्रममुक्त मनुष्य) होंगे, उन सबके प्रति आस्था (श्रद्धा) रखो। 'no policy, it is nothing.' भाषा या जातिके नाम पर ग्रुपबाजी करने से कुछ नहीं होता।
अर्थात जो नवयुवक धर्म का वास्तविक अर्थ नहीं जानने के कारण अभी तक सम्मोहित अवस्था (पशु अवस्था) में हैं, उनके दर्द को समझो, प्रत्येक नवयुवक को गुरुमुख से वेदान्त के महावाक्यों का श्रवण-मनन-निदिध्यासन का प्रशिक्षण प्राप्त करके भ्रममुक्त मनुष्य ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने और बनाने का अवसर प्राप्त हो, इसके लिये तुम आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार श्रीरामकृष्ण से प्रार्थना करो -सहायता अवश्य मिलेगी।
एक तरफ, सम्मोहित या भ्रमित मनुष्य होने के कारण जो, उच्च-शिक्षित और धनीमानी होने के बावजूद,
अपने और दूसरों के आत्मस्वरुप को भूल जाते हैं, उन सभी मनुष्यों के दर्द का बोझ हृदय में लेकर और दूसरी तरफ इस दर्द को दूर करने में समर्थ 'BE AND MAKE' वेदान्त परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग द्वारा हजारों की संख्या में भव-वैद्य बनने और बनाने की योजना नेता बनने और बनाने का स्किम) का विचार को सिर में लेकर. सबसे पहले इस पाश्चत्य देश में सहायता माँगने आया था, किन्तु श्री रामकृष्ण की कृपा ने विश्वविजयी विवेकानन्द बना दिया ! जिसके परिणाम स्वरुप २१ जून को अन्तर्राष्ट्रीय योगदिवस मनाया जाने लगा !
श्रीरामकृष्ण देव ने जो वसीयत स्वामी विवेकानन्द को सौंपी थी, स्वामी विवेकानन्द ने वही वसीयत नवनी दा के माध्यम से महामण्डल के सभी भावी नेताओं को सौंप दिया गया है, जिसमें लिखा है - "पहले तुम स्वयं भ्रममुक्त मनुष्य या ब्रह्मविद मनुष्य बनो -फिर दूसरों को भ्रममुक्त मनुष्य बनने में सहायता करो ! जैसे गाय चराते समय भी श्रीकृष्ण विशाल बरगद के वृक्ष को देख कर, प्रेरणा देते थे-पश्येतान महाभागन। भागवत के श्लोक -'ब्रह्मावलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवा ,' 'एतावत जन्म साफल्यं ' , ' पश्य एतान महाभागान प्रार्थायै एकन जीवितान' आदि कथाएं सुनाओ।
जैसे श्री रामचन्द्र वर्ण-भेद के ऊपर थे ( the Pariah Guhaka) निषादराज को गले से लगा लिया था। भगवान बुद्ध ने जब मानवजाति के मार्गदर्शक नेता के रूप में जन्म लिया था तब वैश्या के भीतर भी उसी ब्रह्म को देखने में सक्षम थे ! श्रीरामकृष्ण अवतार का तो कहना ही क्या - गिरीश चंद्र घोष, नटी बिनोदिनी, रसिक मेहतर। जाओ तुम सब उनमें और समस्त अवतारों के प्रति आस्तिक (भ्रममुक्त) मनुष्य बनो और बनाओ'! तुम भी ऑंखें खोल कर ध्यान करो !
-अर्थात ‘मित्र’ देवता हमारे लिए कल्याणकारी हों, 'वरुण' देवता कल्याणकारी हों । भवतु अर्यमा ‘अर्यमा’ देवता हमारा कल्याण करें । हमारे लिए 'इन्द्र' एवं 'बृहस्पति' देवता कल्याणप्रद हों । ‘उरुक्रम’ (जिनके डग विशाल हैं ) विष्णु देवता हमारे प्रति कल्याणप्रद हों । ब्रह्म को नमन है । वायुदेव तुम्हें नमस्कार है । तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो । अतः तुम्हें ही प्रत्यक्ष तौर पर ब्रह्म कहूंगा । ऋत बोलूंगा । सत्य बोलूंगा । वह ब्रह्म मेरी रक्षा करें । वह वक्ता आचार्य की रक्षा करें । रक्षा करें मेरी । रक्षा करें वक्ता आचार्य की । त्रिविध तापों की शांति (आधिभौतिक,आधिदैविक और आध्यात्मिक) हो ।
उस दिन का वह क्षण धन्य था, मैं उस क्षण का ऋणी हूँ ! क्योंकि सामान्य मानव चेतना सिर्फ इंन्द्रिय-ग्राह्य चीजों को ही देख सकती है। उससे परे नहीं देख सकती है। आध्यात्मिक चेतनाबोध होने पर सबसे पहले चेतनाबोध का परिवर्तन होता है। तब व्यक्ति को अनुभव होता है वह देह नहीं अथवा मन नहीं है, अपितु आत्मा है। यह लिख देना या कह देना आसान है, लेकिन इसका प्रत्यक्ष अनुभव अभी मुझे भी नहीं है। खैर, इसके बाद ही चेतना का विस्तार होता है।
तब हमें प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि हम सर्वव्यापी परमात्मा के अंश हैं। इसके और आगे बढ़ने पर अनुभव होता है कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्ता है । हाथो से तबले का बोल निकालने के लिये ही महामण्डल के निर्देशन में प्रशिक्षण लेना ही पड़ता है! अर्थात इस को, रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में अर्थात लोक-शिक्षक बनो और बनाओ परम्परा में लीडर-शिप ट्रेनिंग' के सन्देश को चरैवेति चरैवेति करते हुए, दूसरों को बुला-बुला कर साझा करने लगोगे तब तुम लोगों के जीवन में सत्ययुग आ जायेगा !
आध्यात्मिक शक्ति = जो आध्यात्मिक शक्ति 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग' के माध्यम से प्राप्त होती है, वह बगुला भष्म करने वाली शक्ति नहीं होती। बल्कि मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता (ब्रह्मत्व) को जागृत करने और उसे अभिव्यक्त करने की शिक्षा देने में समर्थ 'वुड बी लीडर्स' - भावी लोकशिक्षक'बनने और बनाने' की शक्ति अर्थात 'भ्रममुक्त मनुष्य'- बनने और बनाने की शक्ति को ही आध्यत्मिक शक्ति कहते हैं। श्रीरामकृष्ण ने अपनी इसी आध्यात्मिक शक्ति को तेईस वर्षीय नवयुवक नरेन्द्र को सौंप दिया था (हस्तान्तरित या ट्रांसमिट) कर दिया था। क्यों ?
क्योंकि अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण के अनुरोध- "मैं जा रहा हूँ, तुम्हें भी आना पड़ेगा !" पर ही निवृत्ति मार्ग के सप्तर्षियों में से एक नरेन ने, अपने निर्विकल्प समाधि का त्याग कर धरती पर आना स्वीकार किया था। इसलिये श्रीरामकृष्ण ने नरेन को देखते ही पहचान लिया था कि भविष्य में -'नरेन शिक्षा देगा !' अर्थात नरेन स्वयं मानवजाति का मार्ग-दर्शक नेता बनेगा, और दूसरों को भी लोकशिक्षक (भ्रममुक्त मनुष्य) बनने और बनाने का प्रशिक्षण देगा !
मानवमात्र में अन्तर्निहित पूर्णत्व या ब्रह्मत्व को जागृत करा देने की जो आध्यात्मिक शक्ति 'स्पिरिचुअल पॉवर' श्री रामकृष्ण में अन्तर्निहित थी, उसी शक्ति को उन्होंने गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में नरेन् में सम्प्रेषित कर दिया था !
गोवर्धन पहाड़ को तो प्रभु ने अपनी कानी ऊँगली पर उठाया हुआ है; किन्तु हमें अपना गोप-सखा मानकर उसके नीचे लाठी से टिकाये रहने का भरोसा किया है। सम्पूर्ण मानवजाति के मार्गदर्शक नेता,अवतार वरिष्ठ प्रेमस्वरूप भगवान श्रीरामकृष्ण ने अपना प्रेम (LOVE) और भरोसा (TRUST) हम जैसे नवयुवकों पर 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' में लीडरशिप ट्रेनिंग के माध्यम से हस्तान्तरित किया है। ताकि हम लोग भी उनके उसी 'प्रेम और विश्वास' को भावी लोक-शिक्षकों को (वुड बी लीडर्स को) हस्तान्तरित कर सकें ! और संघ-बद्ध प्रयास द्वारा भ्रममुक्त मनुष्य (ब्रह्मविद मनुष्य) बनने और बनाने में समर्थ लोक-शिक्षकों या नेताओं का निर्माण करने की यह 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन वेदान्त परम्परा' में लीडरशिप ट्रेनिंग, पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे भी यूँ ही चलता रहे !
अर्थात माँ जगदम्बा के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण के प्रति आस्था रखो, तथा 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' में लीडरशिप ट्रेनिंग के द्वारा जो भविष्य में आनेवाले अनेकानेक अवतार (भ्रममुक्त मनुष्य) होंगे, उन सबके प्रति आस्था (श्रद्धा) रखो। 'no policy, it is nothing.' भाषा या जातिके नाम पर ग्रुपबाजी करने से कुछ नहीं होता।
अर्थात जो नवयुवक धर्म का वास्तविक अर्थ नहीं जानने के कारण अभी तक सम्मोहित अवस्था (पशु अवस्था) में हैं, उनके दर्द को समझो, प्रत्येक नवयुवक को गुरुमुख से वेदान्त के महावाक्यों का श्रवण-मनन-निदिध्यासन का प्रशिक्षण प्राप्त करके भ्रममुक्त मनुष्य ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने और बनाने का अवसर प्राप्त हो, इसके लिये तुम आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार श्रीरामकृष्ण से प्रार्थना करो -सहायता अवश्य मिलेगी।
एक तरफ, सम्मोहित या भ्रमित मनुष्य होने के कारण जो, उच्च-शिक्षित और धनीमानी होने के बावजूद,
अपने और दूसरों के आत्मस्वरुप को भूल जाते हैं, उन सभी मनुष्यों के दर्द का बोझ हृदय में लेकर और दूसरी तरफ इस दर्द को दूर करने में समर्थ 'BE AND MAKE' वेदान्त परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग द्वारा हजारों की संख्या में भव-वैद्य बनने और बनाने की योजना नेता बनने और बनाने का स्किम) का विचार को सिर में लेकर. सबसे पहले इस पाश्चत्य देश में सहायता माँगने आया था, किन्तु श्री रामकृष्ण की कृपा ने विश्वविजयी विवेकानन्द बना दिया ! जिसके परिणाम स्वरुप २१ जून को अन्तर्राष्ट्रीय योगदिवस मनाया जाने लगा !
श्रीरामकृष्ण देव ने जो वसीयत स्वामी विवेकानन्द को सौंपी थी, स्वामी विवेकानन्द ने वही वसीयत नवनी दा के माध्यम से महामण्डल के सभी भावी नेताओं को सौंप दिया गया है, जिसमें लिखा है - "पहले तुम स्वयं भ्रममुक्त मनुष्य या ब्रह्मविद मनुष्य बनो -फिर दूसरों को भ्रममुक्त मनुष्य बनने में सहायता करो ! जैसे गाय चराते समय भी श्रीकृष्ण विशाल बरगद के वृक्ष को देख कर, प्रेरणा देते थे-पश्येतान महाभागन। भागवत के श्लोक -'ब्रह्मावलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवा ,' 'एतावत जन्म साफल्यं ' , ' पश्य एतान महाभागान प्रार्थायै एकन जीवितान' आदि कथाएं सुनाओ।
जैसे श्री रामचन्द्र वर्ण-भेद के ऊपर थे ( the Pariah Guhaka) निषादराज को गले से लगा लिया था। भगवान बुद्ध ने जब मानवजाति के मार्गदर्शक नेता के रूप में जन्म लिया था तब वैश्या के भीतर भी उसी ब्रह्म को देखने में सक्षम थे ! श्रीरामकृष्ण अवतार का तो कहना ही क्या - गिरीश चंद्र घोष, नटी बिनोदिनी, रसिक मेहतर। जाओ तुम सब उनमें और समस्त अवतारों के प्रति आस्तिक (भ्रममुक्त) मनुष्य बनो और बनाओ'! तुम भी ऑंखें खोल कर ध्यान करो !
>>>सनातन धर्म जीवन को सही तरीके से जीने और उसका लुत्फ उठाने तथा मोक्ष के लिए एक संपूर्ण जीवन शैली का मार्ग बताता है। कोई उस मोक्ष -मार्ग (भ्रममुक्त मनुष्य बनने और बनाने के मार्ग) पर चलना चाहे तो यह उसकी स्वतंत्रता है। या कोई आजीवन अपने को शरीर मानकर भोगों में लिप्त रहना चाहे तो उसके लिये प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने की व्यवस्था भी की गयी है। मूलत: सनातन धर्म स्वतंत्रता का पक्षधर है। धर्म अर्थात आध्यात्मिक मार्ग, मोक्ष मार्ग। धर्म ही लोगों को जीवन जीने की पद्धति बताता है, अधर्म नहीं। धर्म अर्थात जो सबको धारण किए हुए हो, अस्तित्व और ईश्वर है,सभी धर्म जीवन जीने की पद्धति बताते हैं। सनातन धर्म आश्रमों की व्यवस्था के अंतर्गत धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा देता है।
कृतज्ञता का भाव सनातन धर्म का मूल मंत्र है! जिससे हमें कुछ अच्छा मिलता है उसके प्रति ह्रदय सहज ही श्रद्धा से झुक जाता है और यह कृतज्ञता उसकी पूजा के रूप में प्रकट हो जाती है! जिस समाज से व्यक्ति को सब कुछ प्राप्त होता है अगर हम उस समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को नहीं मानेगे तो यह कृतघ्नता होगी! सनातन धर्म ‘संयुक्त परिवार’ को श्रेष्ठ शिक्षण संस्थान मानता है। धर्मशास्त्र कहते हैं कि जो घर संयुक्त परिवार का पोषक नहीं है उसकी शांति और समृद्धि सिर्फ एक भ्रम है। संयुक्त परिवार से संयुक्त उर्जा का जन्म होता है। संयुक्त उर्जा दुखों को खत्म करती है। प्रार्थना = १. ईश्वर के प्रति कृतज्ञता: संध्या वंदन प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है।
गुरु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले होते हैं।आर्य सनातन वैदिक धर्मानुसार जो विद्यायुक्त ज्ञान का उपदेश कर्ता हैं वो जो वेदों का सृष्टि के आदि में ऋषियों को उपदेश कर्ता हैं और वह उन ऋषियों का भी गुरु हैं उस गुरु का नाम परमात्मा है।
धर्म व्यक्ति और समाज दोनों में समरसता स्थापित करने वाला माध्यम है। कृतज्ञता का भाव सनातन धर्म का मूल मंत्र है! यहाँ तक कि दैनिक प्रार्थना भी कृतज्ञता का एक रूप है। जिससे हमें कुछ अच्छा मिलता है उसके प्रति ह्रदय सहज ही श्रद्धा से झुक जाता है और यह कृतज्ञता उसकी पूजा के रूप में प्रकट हो जाती है! वह वृक्षों की पूजा हो या गौ माता की, चंद्रमा और सूर्या की पूजा हो या प्रकृती की! अगर यह सब सच है फिर समाज रूपी विराट पुरुष की पूजा क्यों नहीं ? जिस समाज से व्यक्ति को सब कुछ प्राप्त होता है अगर हम उस समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को नहीं मानेगे तो यह कृतघ्नता होगी! जब हम समाज के प्रति अपने कर्तव्य को निष्टता से समर्पित करेंगे तभी हमारे ह्रदय में बैठा ईश्वर विराट बनता है! यदि आप कृतज्ञता को अपनायें तो निश्चित रूप से आप अपने भीतर एक परिवर्तन को उभरते हुए पाएंगे।
धर्म अर्थात आध्यात्मिक मार्ग, मोक्ष मार्ग। धर्म ही लोगों को जीवन जीने की पद्धति बताता है, अधर्म नहीं। धर्म अर्थात जो सबको धारण किए हुए हो, अस्तित्व और ईश्वर है,सभी धर्म जीवन जीने की पद्धति बताते हैं। इन नियमों का पालन करें-
१- ईश्वर (माँ जगदम्बा) को ही सर्वोपरि मानें। एकनिष्ठ बनें। कोई एक परम शक्ति है, जो अपने को माँ समझती है, जिसे ईश्वर कहा जाता है। वेद, उपनिषद, पुराण और गीता में उस एक ईश्वर को ‘ब्रह्म’ कहा गया है। ब्रह्म शब्द बृह धातु से बना है जिसका अर्थ बढ़ना, फैलना,व्यास या विस्तृत होना। ब्रह्म परम तत्व है। वह जगत्कारण है। ब्रह्म (या आत्मा) वह तत्व है जिससे सारा विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें वह अंत में लीन हो जाता है और जिसमें वह जीवित रहता है। ॐ कार जिनका स्वरूप है, ओम जिसका नाम है उस ब्रह्म को ही ईश्वर, परमेश्वर, परमात्मा, प्रभु, सच्चिदानंद हैं।
वह परब्रह्म (ईश्वर) एकात्म भाव से और एक मन से तीव्र गति वाले हैं। वे सबके आदि (प्रारंभ) तथा सबके जानने वाले हैं। इन परमात्मा को देवगण भी नहीं जान सके। वे अन्य गतिवानों को स्वयं स्थिर रखते हुए भी अतिक्रमण करते हैं। उनकी शक्ति से ही वायु, जल वर्षण आदि क्रियाएँ होती हैं। वे चलते हैं, स्थिर भी हैं; वे दूर से दूर और निकट से निकट हैं। वे इस संपूर्ण विश्व के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्व के बाहर भी हैं।’।।४,५।।-ईशावास्योपनिषद।
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।-ऋग्वेद (१-१६४-४३)
भावार्थ : जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।" शरीर के नष्ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।" ।। २-८-१।।-तैत्तिरीयोपनिषद [इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः । भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ ५ ॥ केनोपनिषत्पदभाष्यम्द्वितीयः खण्डःमन्त्र ५/ ब्रह्म विचित्य विज्ञाय साक्षात्कृत्य धीराः अमृता भवन्ति ब्रह्मैव भवन्तीत्यर्थः । ‘स यो ह वै तत्परं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति’ (मु. उ. ३ । २ । ९) इति श्रुतेः ॥]
कृतज्ञता का भाव सनातन धर्म का मूल मंत्र है! जिससे हमें कुछ अच्छा मिलता है उसके प्रति ह्रदय सहज ही श्रद्धा से झुक जाता है और यह कृतज्ञता उसकी पूजा के रूप में प्रकट हो जाती है! जिस समाज से व्यक्ति को सब कुछ प्राप्त होता है अगर हम उस समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को नहीं मानेगे तो यह कृतघ्नता होगी! सनातन धर्म ‘संयुक्त परिवार’ को श्रेष्ठ शिक्षण संस्थान मानता है। धर्मशास्त्र कहते हैं कि जो घर संयुक्त परिवार का पोषक नहीं है उसकी शांति और समृद्धि सिर्फ एक भ्रम है। संयुक्त परिवार से संयुक्त उर्जा का जन्म होता है। संयुक्त उर्जा दुखों को खत्म करती है। प्रार्थना = १. ईश्वर के प्रति कृतज्ञता: संध्या वंदन प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है।
गुरु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले होते हैं।आर्य सनातन वैदिक धर्मानुसार जो विद्यायुक्त ज्ञान का उपदेश कर्ता हैं वो जो वेदों का सृष्टि के आदि में ऋषियों को उपदेश कर्ता हैं और वह उन ऋषियों का भी गुरु हैं उस गुरु का नाम परमात्मा है।
धर्म व्यक्ति और समाज दोनों में समरसता स्थापित करने वाला माध्यम है। कृतज्ञता का भाव सनातन धर्म का मूल मंत्र है! यहाँ तक कि दैनिक प्रार्थना भी कृतज्ञता का एक रूप है। जिससे हमें कुछ अच्छा मिलता है उसके प्रति ह्रदय सहज ही श्रद्धा से झुक जाता है और यह कृतज्ञता उसकी पूजा के रूप में प्रकट हो जाती है! वह वृक्षों की पूजा हो या गौ माता की, चंद्रमा और सूर्या की पूजा हो या प्रकृती की! अगर यह सब सच है फिर समाज रूपी विराट पुरुष की पूजा क्यों नहीं ? जिस समाज से व्यक्ति को सब कुछ प्राप्त होता है अगर हम उस समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को नहीं मानेगे तो यह कृतघ्नता होगी! जब हम समाज के प्रति अपने कर्तव्य को निष्टता से समर्पित करेंगे तभी हमारे ह्रदय में बैठा ईश्वर विराट बनता है! यदि आप कृतज्ञता को अपनायें तो निश्चित रूप से आप अपने भीतर एक परिवर्तन को उभरते हुए पाएंगे।
धर्म अर्थात आध्यात्मिक मार्ग, मोक्ष मार्ग। धर्म ही लोगों को जीवन जीने की पद्धति बताता है, अधर्म नहीं। धर्म अर्थात जो सबको धारण किए हुए हो, अस्तित्व और ईश्वर है,सभी धर्म जीवन जीने की पद्धति बताते हैं। इन नियमों का पालन करें-
१- ईश्वर (माँ जगदम्बा) को ही सर्वोपरि मानें। एकनिष्ठ बनें। कोई एक परम शक्ति है, जो अपने को माँ समझती है, जिसे ईश्वर कहा जाता है। वेद, उपनिषद, पुराण और गीता में उस एक ईश्वर को ‘ब्रह्म’ कहा गया है। ब्रह्म शब्द बृह धातु से बना है जिसका अर्थ बढ़ना, फैलना,व्यास या विस्तृत होना। ब्रह्म परम तत्व है। वह जगत्कारण है। ब्रह्म (या आत्मा) वह तत्व है जिससे सारा विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें वह अंत में लीन हो जाता है और जिसमें वह जीवित रहता है। ॐ कार जिनका स्वरूप है, ओम जिसका नाम है उस ब्रह्म को ही ईश्वर, परमेश्वर, परमात्मा, प्रभु, सच्चिदानंद हैं।
वह परब्रह्म (ईश्वर) एकात्म भाव से और एक मन से तीव्र गति वाले हैं। वे सबके आदि (प्रारंभ) तथा सबके जानने वाले हैं। इन परमात्मा को देवगण भी नहीं जान सके। वे अन्य गतिवानों को स्वयं स्थिर रखते हुए भी अतिक्रमण करते हैं। उनकी शक्ति से ही वायु, जल वर्षण आदि क्रियाएँ होती हैं। वे चलते हैं, स्थिर भी हैं; वे दूर से दूर और निकट से निकट हैं। वे इस संपूर्ण विश्व के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्व के बाहर भी हैं।’।।४,५।।-ईशावास्योपनिषद।
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।-ऋग्वेद (१-१६४-४३)
भावार्थ : जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।" शरीर के नष्ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।" ।। २-८-१।।-तैत्तिरीयोपनिषद [इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः । भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ ५ ॥ केनोपनिषत्पदभाष्यम्द्वितीयः खण्डःमन्त्र ५/ ब्रह्म विचित्य विज्ञाय साक्षात्कृत्य धीराः अमृता भवन्ति ब्रह्मैव भवन्तीत्यर्थः । ‘स यो ह वै तत्परं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति’ (मु. उ. ३ । २ । ९) इति श्रुतेः ॥]
१. ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन प्रार्थना - संध्या वंदन प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। संध्यावंदन में प्रार्थना, स्तुति या ध्यान किया जाता है वह भी प्रात: या शाम को सूर्यास्त के तुरंत बाद। पांच या सात मिनट आंख बंद कर ईश्वर या देवी देवता का ध्यान करने से व्यक्ति ईथर माध्यम से जुड़कर उक्त शक्ति से जुड़ जाता है। पांच या सात मिनट के बाद ही प्रार्थना का वक्त शुरू होता है। फिर यह आप पर निर्भर है कि कब तक आप उक्त शक्ति का ध्यान करते हैं। इस ध्यान या प्रार्थना से सांसार की सभी समस्याओं का हल मिल जाता है।
संध्या वंदन में सर्वश्रेष्ठ है प्रार्थना। प्रार्थना को वैदिक ऋषिगण स्तुति या वंदना कहते थे। कृतज्ञता से सकारात्मकता का विकास होता है। सकारात्मकता से मनोकामना की पूर्ति होती है और सभी तरह के रोग तथा शोक मिट जाते हैं।  संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। जीवन में आप जिस के लिए भी आभारी हैं उन वस्तुओं की एक सूची बनाएं। उदाहरणार्थ आप का स्वास्थ्य, घर, वस्त्र, भोजन, परिवार, अवसर या जो कुछ भी आप के लिए बहुत महत्व रखता है। आप की सूची में आप लिख सकते हैं कि हे ईश्वर मैं इस इस वस्तु के लिए आप का आभारी हूँ।
२. दूसरों के प्रति कृतज्ञता: गुरु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले होते हैं।आर्य सनातन वैदिक धर्मानुसार जो विद्यायुक्त ज्ञान का उपदेश कर्ता हैं वो जो वेदों का सृष्टि के आदि में ऋषियों को उपदेश कर्ता हैं और वह उन ऋषियों का भी गुरु हैं उस गुरु का नाम परमात्मा है।फिर भीलोक में विद्यादाता को गुरु कहा गया है । मान्यतानुसार गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार संभव हो पाता है और गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं हो पाता। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन को गुरु पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा, मुडिय़ा पूनों आदि नामों से जाना जाता है।
वस्तुत: गुरु के प्रति नतमस्तक होकर कृतज्ञता प्रकट अर्थात व्यक्त करने का दिन है गुरुपूर्णिमा। लोक मान्यतानुसार गुरु के लिए पूर्णिमा से बढक़र और कोई तिथि नहीं हो सकती। जो स्वयं में पूर्ण है, वही तो पूर्णत्व की प्राप्ति दूसरों को करा सकता है। पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति जिसके जीवन में केवल प्रकाश है, वही तो अपने शिष्यों के अंत:करण में ज्ञान रूपी चंद्र की किरणें बिखेर सकता है। इसलिए इस दिन अपने गुरुजनों के चरणों में अपनी समस्त श्रद्धा अर्पित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने की पुरातन परम्परा कायम है । गुरु कृपा असंभव को संभव बनाती है। गुरु कृपा शिष्य के हृदय में अगाध ज्ञान का संचार करती है।यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाये जाने की परिपाटी है।
दूसरों के प्रति आभारी होना भगवान के प्रति आभारी होने के समान होता है। शांति का अनुभव करने के लिए आप के आसपास रहने वाले व्यक्तियों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें। उन लोगों की सूची बनाएं जो आप के जीवन में बहुत महत्व रखते हैं, जिन व्यक्तियों ने आप के जीवन को प्रभावित किया है, जिन के कारण आप का जीवन बदल गया है। वे आप के पति अथवा पत्नी हो सकते हैं अथवा माता-पिता, शिक्षक, मित्र, साथी, यहाँ तक कि ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं जिन से आप की कभी भेंट ही ना हुई हो किंतु जिन्होंने आप को प्रेरित किया है।
अगले चालीस दिनों के लिए, प्रति दिन दूसरी सूची से कम से कम एक व्यक्ति के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें। उन्हें धन्यवाद कहने के लिए यह एक साधारण ईमेल हो सकता है, एक फोन कॉल, उन के लिए एक कप कॉफी, उन्हें आप फूल भेज सकते हैं अथवा ऐसा कुछ भी कर सकते हैं जिस से आप अपनी भावना को व्यक्त कर सकें। अटल कृतज्ञता द्वारा आप उदार, दयालु और करुणामय बन जाते हैं।
>>>ब्रम्ह और जगत (Open Eyed Meditation) : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। ध्यान का वास्तविक अर्थ है- जागरूकता, अवेयरनेस, होश, साक्षी भाव। ध्यान का अर्थ है कि ब्रह्म ही जगत बन गए हैं, शिवज्ञान से जीव सेवा। हर उस बात पर ध्यान देना जो हमारे जीवन से जुड़ी है। जब दिमाग या मन में असंख्य विचारों की भरमार होने लगती है तब जप से इस भरमार को भगाया जा सकता है। अपने किसी इष्ट का नाम या प्रभु स्मरण करना ही जप है। यही प्रार्थना भी है और यही ध्यान भी है।
२. दूसरों के प्रति कृतज्ञता: गुरु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाले होते हैं।आर्य सनातन वैदिक धर्मानुसार जो विद्यायुक्त ज्ञान का उपदेश कर्ता हैं वो जो वेदों का सृष्टि के आदि में ऋषियों को उपदेश कर्ता हैं और वह उन ऋषियों का भी गुरु हैं उस गुरु का नाम परमात्मा है।फिर भीलोक में विद्यादाता को गुरु कहा गया है । मान्यतानुसार गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार संभव हो पाता है और गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं हो पाता। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन को गुरु पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा, मुडिय़ा पूनों आदि नामों से जाना जाता है।
वस्तुत: गुरु के प्रति नतमस्तक होकर कृतज्ञता प्रकट अर्थात व्यक्त करने का दिन है गुरुपूर्णिमा। लोक मान्यतानुसार गुरु के लिए पूर्णिमा से बढक़र और कोई तिथि नहीं हो सकती। जो स्वयं में पूर्ण है, वही तो पूर्णत्व की प्राप्ति दूसरों को करा सकता है। पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति जिसके जीवन में केवल प्रकाश है, वही तो अपने शिष्यों के अंत:करण में ज्ञान रूपी चंद्र की किरणें बिखेर सकता है। इसलिए इस दिन अपने गुरुजनों के चरणों में अपनी समस्त श्रद्धा अर्पित कर अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने की पुरातन परम्परा कायम है । गुरु कृपा असंभव को संभव बनाती है। गुरु कृपा शिष्य के हृदय में अगाध ज्ञान का संचार करती है।यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में गुरू पूर्णिमा का पर्व बड़ी श्रद्धा व धूमधाम से मनाये जाने की परिपाटी है।
दूसरों के प्रति आभारी होना भगवान के प्रति आभारी होने के समान होता है। शांति का अनुभव करने के लिए आप के आसपास रहने वाले व्यक्तियों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें। उन लोगों की सूची बनाएं जो आप के जीवन में बहुत महत्व रखते हैं, जिन व्यक्तियों ने आप के जीवन को प्रभावित किया है, जिन के कारण आप का जीवन बदल गया है। वे आप के पति अथवा पत्नी हो सकते हैं अथवा माता-पिता, शिक्षक, मित्र, साथी, यहाँ तक कि ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं जिन से आप की कभी भेंट ही ना हुई हो किंतु जिन्होंने आप को प्रेरित किया है।
अगले चालीस दिनों के लिए, प्रति दिन दूसरी सूची से कम से कम एक व्यक्ति के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करें। उन्हें धन्यवाद कहने के लिए यह एक साधारण ईमेल हो सकता है, एक फोन कॉल, उन के लिए एक कप कॉफी, उन्हें आप फूल भेज सकते हैं अथवा ऐसा कुछ भी कर सकते हैं जिस से आप अपनी भावना को व्यक्त कर सकें। अटल कृतज्ञता द्वारा आप उदार, दयालु और करुणामय बन जाते हैं।
>>>ब्रम्ह और जगत (Open Eyed Meditation) : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। ध्यान का वास्तविक अर्थ है- जागरूकता, अवेयरनेस, होश, साक्षी भाव। ध्यान का अर्थ है कि ब्रह्म ही जगत बन गए हैं, शिवज्ञान से जीव सेवा। हर उस बात पर ध्यान देना जो हमारे जीवन से जुड़ी है। जब दिमाग या मन में असंख्य विचारों की भरमार होने लगती है तब जप से इस भरमार को भगाया जा सकता है। अपने किसी इष्ट का नाम या प्रभु स्मरण करना ही जप है। यही प्रार्थना भी है और यही ध्यान भी है।
धर्म के इस व्यवस्थागत अर्थ समझना सबसे अधिक आवश्यक है। धर्म केवल व्यक्तिगत जीवन को सुव्यवस्थित करने का ही उपाय नहीं है वास्तविकता में यह ऐसी सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने का नाम है जिसमे सबका हित हो। जिसका प्रभाव बाहयजगत में पड़ने से देश के नागरिकों का जीवन वैसा बन जाता है,जैसा युनानी विद्वान मेगास्थनीज़ को पाटलिपुत्र के गाँव में देखने को मौका मिला था।
अपने आचरण को पवित्र रखना हमारा परम कर्तव्य था ,तभी तो कहा गया है कि “आचारो प्रथमो धर्मः”अर्थात धर्मारूढ़ होने के लिय आचार (चरित्र) प्रथम सोपान है। आचरण श्रेष्ट हो इसका अभ्यास बचपन से ही होना चाहिये, बचपन का अभ्यास बड़ा प्रभावशाली होता है।
पाश्चात्य में धर्म की स्थापना कोई एक ऐसा व्यक्ति करता है, जो ईश्वर का कोई एकमात्र पुत्र है या कोई अंतिम पैगम्बर है। फिर अपने धर्म को किसी धर्मग्रन्थ के आधार पर परिभाषित करता है और उसी के आधार पर पनपता है, फलता-फूलता है, कि उस धर्म को मानने वाले सभी एक ही प्रकार से ईश्वर की आराधना करते हैं।
पश्चिम ने हमें समझा दिया कि धर्म का अर्थ है रिलीजन। ईसाइयत एक रिलीजन है, यानी पश्चिम के हिसाब से एक धर्म है। इस्लाम एक रिलीजन है, यानी पश्चिम के हिसाब से एक धर्म है। अगर धर्म की परिभाषा, उसका स्वरूप निर्धारण इस आधार पर होना है तो यकीनन भारत में कोई रिलीजन है ही नहीं, क्योंकि वैसा कोई धर्म भारत में है ही नहीं।
सनातन धर्म किसी व्यक्ति या पुस्तक पर आधारित नहीं है, यह ऋषियों द्वारा आविष्कृत सत्यों को गुरु-शिष्य मानव परम्परा में दिया जाने वाला चरित्रनिर्माण कारी प्रशिक्षण है। [ समाज में धर्म की स्थापना पुस्तक या अर्थात श्रावण-मनन-निदिध्यासन वेदान्त परम्परा में ५ अभ्यास का प्रशिक्षण द्वारा 3'H' विकास का प्रशिक्षण]
>>>सत्य-असत्य-मिथ्या का विवेचन, धर्म का लक्षण तथा व्यावहारिक नीति का वर्णन क्या सत्य है और क्या झूठ? तथा कौन सा कार्य सनातन धर्म के अनुकूल है? किस समय सत्य बोलना चाहिये और किस समय झूठ? भीष्मजी ने कहा- भारत! सत्य बोलना अच्छा है। सत्य से बढकर दूसरा कोई धर्म नहीं है; परंतु लोक में जिसे जानना अत्यन्त कठिन है, उसी को मैं बता रहा हूँ। जहाँ झूठ ही सत्य का काम करे (किसी प्राणी को संकट से बचावे) अथवा सत्य ही झूठ बन जाय ( किसी के जीवन को संकट में डाल दे); ऐसे अवसरों पर सत्य नहीं बोलना चाहिये। वहाँ झूठ बोलना ही उचित है।
>>>धर्मं के स्वरूप का विवेचन करना या समझना बहुत कठिन है; इसीलिये उसका प्रतिपादन करना भी दुष्कर ही है; अतः धर्मं के विषय में कोई किस प्रकार निश्चय करे? प्राणियों के अभ्युदय और कल्याण के लिये ही धर्मं का प्रवचन किया गया है; अतः जो इस उद्देश्य से युक्त हो अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस सिद्ध होते हों, वही धर्मं है, ऐसा शास्त्रवेत्ताओं का निश्चय हैं। धर्मं का नाम ’धर्मं’ इसलिये पड़ा हैं कि वह सबको धारण करता हैं-अधोगति में जाने से बचाता है और जीवन की रक्षा करता है। धर्मं ने ही सारी प्रजा को धारण कर रखा हैं; अतः जिससे धारण और पोषण सिद्ध होता हो, वही धर्मं है; ऐसा धर्मंवेत्ताओं का निश्चय हैं। प्राणियों की हिंसा न हो, इसके लिये धर्मं का उपदेश किया गया है; अतः जो अहिंसा से युक्त हो, वही धर्मं है, ऐसा धर्मांत्माओं का निश्चय हैं। राजन्! कुरूश्रेष्ठ! अहिंसा, सत्य, अक्रोध, तपस्या, दान, मन और इन्द्रियों का संयम, विशुद्ध बुद्धि, किसी के दोष न देखना, किसी से डाह और जलन न रखना तथा उत्तम शीलस्वभाव का परिचय देना-ये धर्मं है, देवाधिदेव परमेष्ठी ब्रह्माजी ने इन्हीं को सनातन धर्मं बताया है। जो मनुष्य इस सनातन धर्मं मे स्थित है, उसे ही कल्याण का दर्शन होता हैं।
युनानी विद्वान मेगेस्थेनिस सम्राट चन्द्रगुप्त के समय भारत में आया था। सबसे आश्चर्य उसे यहाँ की शांति को देखकर हुआ। कहीं कोई झगड़ा टंटा नहीं। कानूनी विवाद भी यदा कदा ही होते थे। कोई आपसी विवाद हो भी गया तो सहजता से उसका निपटारा हो जाता था। वैभवशाली स्वर्णयुग की हम बात कर रहे है। सब सम्पन्न थे, प्रसन्न थे। उसे जो पहला वादविवाद मिला वो था दो किसानों के बीच, पाटलीपुत्र, आज के पटना के पास। गाँव के सब लोग जमा थे। एक किसान ने कुछ दिन पूर्व ही अपनी खेती दूसरे को बेची थी। क्रेता ने जब जुताई प्रारम्भ की तो उसे उस जमीन में एक सोने का बरतन मिला जिसमें सोने के गहने भरे थें। वह किसान विक्रेता के पास उस सोने को ले आया और कहने लगा कि ये आपके पूर्वजों की सम्पत्ति है आप ले ले।
विक्रेता किसान उसे लेने को तैयार नहीं था। उसका तर्क था कि जब मैने भूमि का सौदा किया तो उसके साथ उसमें जो भी था वह भी क्रेता का हो गया। दोनों अपने अपने तर्कों के अनुसार उस सोने पर दूसरे का ही अधिकार बता रहे थे। विवाद सम्पत्ति को रखने का नहीं, ना रखने का था। दोनों धर्म का वास्ता दें रहे थे। धर्म के अनुसार उस सम्पत्ति पर अपना अधिकार ना होने के कारण उसे अपने घर में रखना विषवत् मान रहे थे।
बात तो न्यायालय तक भी गयी। न्यायालय ने क्रेता का अधिकार बताया किन्तु फिर भी वह किसान तैयार नहीं था उस धन को स्वीकार करने के लिये। उसका कथन था कि उसके सौदे के समय यह नियम नही था अतः धर्म को पूर्ववर्ती समय से लागू नहीं किया जा सकता। धन को राजा को सौंप दिया गया इस चेतावनी के साथ कि केवल धर्मकार्य अर्थात जनता के कल्याण के कार्य में ही इसका प्रयोग हो। यदि राजा ने भी अपने नीजी अथवा राजकार्य में इस अनधिकार धन का प्रयोग किया तो राज्य का भी अहित होगा। ऐसी धर्म की व्यवस्था इस देश में थी।
धर्म के इस व्यवस्थागत अर्थ को समझना सबसे अधिक आवश्यक है। धर्म केवल व्यक्तिगत जीवन को सुव्यवस्थित करने का ही उपाय नहीं है, वास्तविकता में यह ऐसी सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने का नाम है जिसमे सबका हित हो। विनोबा भावे ने इसे सर्वोदय का नाम दिया था। गांधी पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति के विकास को राज्य की व्यवस्था का लक्ष्य मानते थे। इसी को पंड़ित दीनदयाल उपाध्याय ने नाम दिया ‘अन्त्योदय’। (नरेन्द्र बाहुबली इसीको कहते हैं - 'सबका साथ, सबका विकास' )।
अभी की प्रचलित-शिक्षा कामोन्मादी, भोगोन्मादी, और लोभोन्मादी है। जबकि हर अभिभावक - चाहे डाकू हों, दरिद्र हों, समर्थ हों, असमर्थ हों - चाहते हैं उनके बच्चे नैतिकता पूर्ण बने, चरित्रवान बनें। आप स्वयं सोचिये – इन तीनो उन्मादों को पाते हुए क्या बच्चे नैतिक बन सकते हैं, चरित्रवान बन सकते हैं?
शिक्षा का प्रयोजन पिछली पीढी का अगली पीढी को "समझदारी" प्रवाहित करना है। विद्या को पाने का निष्ठा यदि बना रहता है तो विद्यार्थी सुखी रहता है। विद्या का मतलब है - ज्ञान, विवेक, विज्ञान से संपन्न होना। समाधि की स्थिति में शरीर का ज्ञान नहीं रहता है, देश (स्थान) का ज्ञान नहीं रहता है, और समय (काल) का ज्ञान नहीं रहता है।
गीता में समाधि के बाद क्या होता है, उसको लेकर लिखा है - "ब्रह्म भूतं प्रसन्नात्मा नशोच्यति नकान्क्ष्यती"। अर्थात - यदि ब्रह्म-ज्ञान हो जाता है, तो उस व्यक्ति में चाहत ख़त्म हो जाता है। "छिद्यन्ते हृदय ग्रंथि, भिद्यंती सर्व संशय, क्षिद्यंती सर्व कर्माणि, तस्मिन् दृष्टा परावरे।" अर्थात - ह्रदय में हमारे जो संशय रहे वे सब ख़त्म हो जाते हैं, गांठे जो रहे वे समाप्त हो जाते हैं, कर्म-बंधन समाप्त होता है। समाधि से क्या फायदा हुआ? संसार के प्रति मेरा शिकायत नहीं रहा। यह मेरे अकेले का ज्ञान नहीं है। यह मानव का ज्ञान है। मानव के पुण्य वश ही यह घटित हुआ है। इसलिए मानव को इसे अर्पित करना है।इसे सटीक विधि से एक शैक्षणिक प्रणाली के रूप में लोगों के सम्मुख रखा जाए।
ऊर्जा (Energy) वस्तु (Matter) को छोड़ नहीं सकती। वस्तु (matter) ऊर्जा (Energy) को छोड़ नहीं सकता । जड़ प्रकृति में कार्य-ऊर्जा का स्वरूप है – ध्वनि, ताप और विद्युत। इसके साथ इकाइयों में परस्पर चुम्बकीय-बल के रूप में भी कार्य-ऊर्जा है। इन चार प्रकार की ऊर्जा का ही इकाई के चारों ओर वातावरण बना रहता है। मानव के चारों ओर भी उसका वातावरण बना रहता है। आशा, विचार, इच्छा, संकल्प, और अनुभव-प्रमाण – इन पाँच प्रकार से मनुष्य में ऊर्जा-सम्पन्नता का प्रभाव रहता है।
परमाणु ऊर्जा संपन्न है, जिसके क्रिया-रूप में वह स्वचालित है। परमाणु अपने में स्वचालित है, उसको कोई “बाहरी वस्तु” चलाता नहीं है।सत्ता को हमने “साम्य ऊर्जा” नाम दिया – क्योंकि यह साम्य रूप में जड़ और चैतन्य को प्राप्त है। जड़ को ऊर्जा रूप में प्राप्त है, चैतन्य को ज्ञान रूप में प्राप्त है। ज्ञान ही चेतना है, जो चार स्वरूप में है।
अपने आचरण को पवित्र रखना हमारा परम कर्तव्य था ,तभी तो कहा गया है कि “आचारो प्रथमो धर्मः”अर्थात धर्मारूढ़ होने के लिय आचार (चरित्र) प्रथम सोपान है। आचरण श्रेष्ट हो इसका अभ्यास बचपन से ही होना चाहिये, बचपन का अभ्यास बड़ा प्रभावशाली होता है।
पाश्चात्य में धर्म की स्थापना कोई एक ऐसा व्यक्ति करता है, जो ईश्वर का कोई एकमात्र पुत्र है या कोई अंतिम पैगम्बर है। फिर अपने धर्म को किसी धर्मग्रन्थ के आधार पर परिभाषित करता है और उसी के आधार पर पनपता है, फलता-फूलता है, कि उस धर्म को मानने वाले सभी एक ही प्रकार से ईश्वर की आराधना करते हैं।
पश्चिम ने हमें समझा दिया कि धर्म का अर्थ है रिलीजन। ईसाइयत एक रिलीजन है, यानी पश्चिम के हिसाब से एक धर्म है। इस्लाम एक रिलीजन है, यानी पश्चिम के हिसाब से एक धर्म है। अगर धर्म की परिभाषा, उसका स्वरूप निर्धारण इस आधार पर होना है तो यकीनन भारत में कोई रिलीजन है ही नहीं, क्योंकि वैसा कोई धर्म भारत में है ही नहीं।
सनातन धर्म किसी व्यक्ति या पुस्तक पर आधारित नहीं है, यह ऋषियों द्वारा आविष्कृत सत्यों को गुरु-शिष्य मानव परम्परा में दिया जाने वाला चरित्रनिर्माण कारी प्रशिक्षण है। [ समाज में धर्म की स्थापना पुस्तक या अर्थात श्रावण-मनन-निदिध्यासन वेदान्त परम्परा में ५ अभ्यास का प्रशिक्षण द्वारा 3'H' विकास का प्रशिक्षण]
>>>सत्य-असत्य-मिथ्या का विवेचन, धर्म का लक्षण तथा व्यावहारिक नीति का वर्णन क्या सत्य है और क्या झूठ? तथा कौन सा कार्य सनातन धर्म के अनुकूल है? किस समय सत्य बोलना चाहिये और किस समय झूठ? भीष्मजी ने कहा- भारत! सत्य बोलना अच्छा है। सत्य से बढकर दूसरा कोई धर्म नहीं है; परंतु लोक में जिसे जानना अत्यन्त कठिन है, उसी को मैं बता रहा हूँ। जहाँ झूठ ही सत्य का काम करे (किसी प्राणी को संकट से बचावे) अथवा सत्य ही झूठ बन जाय ( किसी के जीवन को संकट में डाल दे); ऐसे अवसरों पर सत्य नहीं बोलना चाहिये। वहाँ झूठ बोलना ही उचित है।
>>>धर्मं के स्वरूप का विवेचन करना या समझना बहुत कठिन है; इसीलिये उसका प्रतिपादन करना भी दुष्कर ही है; अतः धर्मं के विषय में कोई किस प्रकार निश्चय करे? प्राणियों के अभ्युदय और कल्याण के लिये ही धर्मं का प्रवचन किया गया है; अतः जो इस उद्देश्य से युक्त हो अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस सिद्ध होते हों, वही धर्मं है, ऐसा शास्त्रवेत्ताओं का निश्चय हैं। धर्मं का नाम ’धर्मं’ इसलिये पड़ा हैं कि वह सबको धारण करता हैं-अधोगति में जाने से बचाता है और जीवन की रक्षा करता है। धर्मं ने ही सारी प्रजा को धारण कर रखा हैं; अतः जिससे धारण और पोषण सिद्ध होता हो, वही धर्मं है; ऐसा धर्मंवेत्ताओं का निश्चय हैं। प्राणियों की हिंसा न हो, इसके लिये धर्मं का उपदेश किया गया है; अतः जो अहिंसा से युक्त हो, वही धर्मं है, ऐसा धर्मांत्माओं का निश्चय हैं। राजन्! कुरूश्रेष्ठ! अहिंसा, सत्य, अक्रोध, तपस्या, दान, मन और इन्द्रियों का संयम, विशुद्ध बुद्धि, किसी के दोष न देखना, किसी से डाह और जलन न रखना तथा उत्तम शीलस्वभाव का परिचय देना-ये धर्मं है, देवाधिदेव परमेष्ठी ब्रह्माजी ने इन्हीं को सनातन धर्मं बताया है। जो मनुष्य इस सनातन धर्मं मे स्थित है, उसे ही कल्याण का दर्शन होता हैं।
युनानी विद्वान मेगेस्थेनिस सम्राट चन्द्रगुप्त के समय भारत में आया था। सबसे आश्चर्य उसे यहाँ की शांति को देखकर हुआ। कहीं कोई झगड़ा टंटा नहीं। कानूनी विवाद भी यदा कदा ही होते थे। कोई आपसी विवाद हो भी गया तो सहजता से उसका निपटारा हो जाता था। वैभवशाली स्वर्णयुग की हम बात कर रहे है। सब सम्पन्न थे, प्रसन्न थे। उसे जो पहला वादविवाद मिला वो था दो किसानों के बीच, पाटलीपुत्र, आज के पटना के पास। गाँव के सब लोग जमा थे। एक किसान ने कुछ दिन पूर्व ही अपनी खेती दूसरे को बेची थी। क्रेता ने जब जुताई प्रारम्भ की तो उसे उस जमीन में एक सोने का बरतन मिला जिसमें सोने के गहने भरे थें। वह किसान विक्रेता के पास उस सोने को ले आया और कहने लगा कि ये आपके पूर्वजों की सम्पत्ति है आप ले ले।
विक्रेता किसान उसे लेने को तैयार नहीं था। उसका तर्क था कि जब मैने भूमि का सौदा किया तो उसके साथ उसमें जो भी था वह भी क्रेता का हो गया। दोनों अपने अपने तर्कों के अनुसार उस सोने पर दूसरे का ही अधिकार बता रहे थे। विवाद सम्पत्ति को रखने का नहीं, ना रखने का था। दोनों धर्म का वास्ता दें रहे थे। धर्म के अनुसार उस सम्पत्ति पर अपना अधिकार ना होने के कारण उसे अपने घर में रखना विषवत् मान रहे थे।
बात तो न्यायालय तक भी गयी। न्यायालय ने क्रेता का अधिकार बताया किन्तु फिर भी वह किसान तैयार नहीं था उस धन को स्वीकार करने के लिये। उसका कथन था कि उसके सौदे के समय यह नियम नही था अतः धर्म को पूर्ववर्ती समय से लागू नहीं किया जा सकता। धन को राजा को सौंप दिया गया इस चेतावनी के साथ कि केवल धर्मकार्य अर्थात जनता के कल्याण के कार्य में ही इसका प्रयोग हो। यदि राजा ने भी अपने नीजी अथवा राजकार्य में इस अनधिकार धन का प्रयोग किया तो राज्य का भी अहित होगा। ऐसी धर्म की व्यवस्था इस देश में थी।
धर्म के इस व्यवस्थागत अर्थ को समझना सबसे अधिक आवश्यक है। धर्म केवल व्यक्तिगत जीवन को सुव्यवस्थित करने का ही उपाय नहीं है, वास्तविकता में यह ऐसी सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने का नाम है जिसमे सबका हित हो। विनोबा भावे ने इसे सर्वोदय का नाम दिया था। गांधी पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति के विकास को राज्य की व्यवस्था का लक्ष्य मानते थे। इसी को पंड़ित दीनदयाल उपाध्याय ने नाम दिया ‘अन्त्योदय’। (नरेन्द्र बाहुबली इसीको कहते हैं - 'सबका साथ, सबका विकास' )।
अभी की प्रचलित-शिक्षा कामोन्मादी, भोगोन्मादी, और लोभोन्मादी है। जबकि हर अभिभावक - चाहे डाकू हों, दरिद्र हों, समर्थ हों, असमर्थ हों - चाहते हैं उनके बच्चे नैतिकता पूर्ण बने, चरित्रवान बनें। आप स्वयं सोचिये – इन तीनो उन्मादों को पाते हुए क्या बच्चे नैतिक बन सकते हैं, चरित्रवान बन सकते हैं?
शिक्षा का प्रयोजन पिछली पीढी का अगली पीढी को "समझदारी" प्रवाहित करना है। विद्या को पाने का निष्ठा यदि बना रहता है तो विद्यार्थी सुखी रहता है। विद्या का मतलब है - ज्ञान, विवेक, विज्ञान से संपन्न होना। समाधि की स्थिति में शरीर का ज्ञान नहीं रहता है, देश (स्थान) का ज्ञान नहीं रहता है, और समय (काल) का ज्ञान नहीं रहता है।
गीता में समाधि के बाद क्या होता है, उसको लेकर लिखा है - "ब्रह्म भूतं प्रसन्नात्मा नशोच्यति नकान्क्ष्यती"। अर्थात - यदि ब्रह्म-ज्ञान हो जाता है, तो उस व्यक्ति में चाहत ख़त्म हो जाता है। "छिद्यन्ते हृदय ग्रंथि, भिद्यंती सर्व संशय, क्षिद्यंती सर्व कर्माणि, तस्मिन् दृष्टा परावरे।" अर्थात - ह्रदय में हमारे जो संशय रहे वे सब ख़त्म हो जाते हैं, गांठे जो रहे वे समाप्त हो जाते हैं, कर्म-बंधन समाप्त होता है। समाधि से क्या फायदा हुआ? संसार के प्रति मेरा शिकायत नहीं रहा। यह मेरे अकेले का ज्ञान नहीं है। यह मानव का ज्ञान है। मानव के पुण्य वश ही यह घटित हुआ है। इसलिए मानव को इसे अर्पित करना है।इसे सटीक विधि से एक शैक्षणिक प्रणाली के रूप में लोगों के सम्मुख रखा जाए।
ऊर्जा (Energy) वस्तु (Matter) को छोड़ नहीं सकती। वस्तु (matter) ऊर्जा (Energy) को छोड़ नहीं सकता । जड़ प्रकृति में कार्य-ऊर्जा का स्वरूप है – ध्वनि, ताप और विद्युत। इसके साथ इकाइयों में परस्पर चुम्बकीय-बल के रूप में भी कार्य-ऊर्जा है। इन चार प्रकार की ऊर्जा का ही इकाई के चारों ओर वातावरण बना रहता है। मानव के चारों ओर भी उसका वातावरण बना रहता है। आशा, विचार, इच्छा, संकल्प, और अनुभव-प्रमाण – इन पाँच प्रकार से मनुष्य में ऊर्जा-सम्पन्नता का प्रभाव रहता है।
परमाणु ऊर्जा संपन्न है, जिसके क्रिया-रूप में वह स्वचालित है। परमाणु अपने में स्वचालित है, उसको कोई “बाहरी वस्तु” चलाता नहीं है।सत्ता को हमने “साम्य ऊर्जा” नाम दिया – क्योंकि यह साम्य रूप में जड़ और चैतन्य को प्राप्त है। जड़ को ऊर्जा रूप में प्राप्त है, चैतन्य को ज्ञान रूप में प्राप्त है। ज्ञान ही चेतना है, जो चार स्वरूप में है।
उत्तर: असत्य पैदा नहीं हुआ है. अस्तित्व में कुछ भी असत्य नहीं है. सहअस्तित्व रुपी अस्तित्व में असत्य का कोई स्थान ही नहीं है. इसका मतलब, शास्त्रों में जो 'ब्रह्म सत्य - जगत मिथ्या' लिखा है - यह गलत हो गया. इसकी जगह होना चाहिए - "ब्रह्म सत्य - जगत शाश्वत'. इस तरह वेद विचार से मिली मूल स्वीकृति ही बदल गयी.
भ्रम-मुक्त मानव-निर्माण परम्परा है और भ्रमित मानव अपने ज्ञान का उपयोग परमाणु को विखंडित करने में करता है। सहअस्तित्व के प्राकृतिक स्वरूप में कोई भी प्रकटन होने के बाद उसकी "परंपरा" है. इसमें व्यतिरेक केवल भ्रमित-मानव की प्रवृत्ति और कार्य-व्यवहार से होता है. भ्रमित मानव को छोड़ कर विखंडन प्रवृत्ति किसी में नहीं है. जगत शाश्वत है - इसमें कुछ पैदा नहीं होता है, न कुछ मरता है. जगत में 'परिवर्तन' होता है और 'परिणाम' होता है - यह पता चल गया. सही तरीके से हम जो कुछ भी करते हैं, उसका प्रभाव विशाल होता है. भ्रम पूर्वक हम कुछ भी करें, उसका प्रभाव संकीर्ण होता है.
नियति का मानव को यही सन्देश है - "सुधर जाओ, नहीं तो मिट जाओ!" तीसरा कोई रास्ता नहीं है. विद्यार्थी को वही संतुष्ट कर पायेगा को अनुभव मूलक विधि से जीता हो और अध्ययन कराता हो. जब तक यह साक्षात्कार नहीं होता तब तक हम अध्ययन के क्रम में ही हैं. साक्षात्कार होने पर उसका बोध उसी क्षण होता ही है. उसका अनुभव होता है. ज्ञान रहस्य नहीं है, नित्य वर्तमान है. ज्ञान को अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित किया जाता है. सभी मानव पुण्यशील हैं, किसी को पापशील मैं मानता ही नहीं। जब जागृति की ओर मानव कदम रखता है तो श्राप, ताप और पाप तीनो समाप्त हो जाते हैं. जबकि आदर्शवाद में बताया गया है कि इन तीनों से मानव त्रस्त रहता है. इससे मुक्ति पाने के लिए महापुरुषों का शरण, ईश्वर का शरण और ज्ञान का शरण ही उपाय है.
>>> भ्रम और जागृति : अपने-पराये से मुक्ति ही भ्रम-मुक्ति है. भ्रम-मुक्ति ही मोक्ष है. भ्रम जीवचेतना की सीमा है,जागृति जीवचेतना से मुक्ति है। भ्रम में जीता हुआ मानव अपने सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाता है, इसलिए उसका जड़ ही हिला रहता है. भ्रम की सभी स्वीकृतियाँ भय और प्रलोभन के रूप में हैं. इसके अलावा भ्रम की पहुँच कुछ भी नहीं है. मानव में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता होने से उसमें भय और प्रलोभन से वशीभूत होने का भी रास्ता बना.जीव चेतना में हम कुछ भी करते हैं उसके मूल में भय और प्रलोभन ही है. नौकरी और व्यापार के मूल में भय और प्रलोभन है ही. भय और प्रलोभन को छोड़ के न नौकरी किया जा सकता है, न व्यापार! भय और प्रलोभन ही विवशता है. विवशता मानव को स्वीकार नहीं है. इसी लिए भ्रम में जीते हुए मानव का जड़ हिला रहता है. इसको वहाँ तरण-तारण कहा गया है.संसार का दृष्टा "मन" है. मन का दृष्टा "वृत्ति" है. विचार के अनुसार चयन हुआ या नहीं - इसका मूल्याँकन वृत्ति करता है. वृत्ति का दृष्टा "चित्त" है. इच्छा के अनुरूप विश्लेषण हुआ या नहीं हुआ - इसका मूल्याँकन चित्त करता है. चित्त का दृष्टा "बुद्धि" है. अनुभव प्रमाण संकल्प के अनुरूप इच्छाएं (चित्रण) हुई या नहीं - यह मूल्याँकन बुद्धि करता है. बुद्धि का दृष्टा "आत्मा" है. अनुभव के अनुरूप बुद्धि में बोध पहुँचा या नहीं - इसका दृष्टा आत्मा है. बुद्धि आत्मा में अनुभूत होता है. आत्मा सहअस्तित्व में अनुभूत होता है. आदर्शवाद ने कहा है - "ईश्वर दृष्टा, कर्ता और भोक्ता है." यहाँ सह-अस्तित्ववाद में कह रहे हैं -" ईश्वर प्रेरक है - यह भी कहना बनता नहीं है. ईश्वर कर्ता-पद में होता ही नहीं। करने वाला शरीर, आत्मा नहीं- मन है .
भ्रम-मुक्त मानव-निर्माण परम्परा है और भ्रमित मानव अपने ज्ञान का उपयोग परमाणु को विखंडित करने में करता है। सहअस्तित्व के प्राकृतिक स्वरूप में कोई भी प्रकटन होने के बाद उसकी "परंपरा" है. इसमें व्यतिरेक केवल भ्रमित-मानव की प्रवृत्ति और कार्य-व्यवहार से होता है. भ्रमित मानव को छोड़ कर विखंडन प्रवृत्ति किसी में नहीं है. जगत शाश्वत है - इसमें कुछ पैदा नहीं होता है, न कुछ मरता है. जगत में 'परिवर्तन' होता है और 'परिणाम' होता है - यह पता चल गया. सही तरीके से हम जो कुछ भी करते हैं, उसका प्रभाव विशाल होता है. भ्रम पूर्वक हम कुछ भी करें, उसका प्रभाव संकीर्ण होता है.
नियति का मानव को यही सन्देश है - "सुधर जाओ, नहीं तो मिट जाओ!" तीसरा कोई रास्ता नहीं है. विद्यार्थी को वही संतुष्ट कर पायेगा को अनुभव मूलक विधि से जीता हो और अध्ययन कराता हो. जब तक यह साक्षात्कार नहीं होता तब तक हम अध्ययन के क्रम में ही हैं. साक्षात्कार होने पर उसका बोध उसी क्षण होता ही है. उसका अनुभव होता है. ज्ञान रहस्य नहीं है, नित्य वर्तमान है. ज्ञान को अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित किया जाता है. सभी मानव पुण्यशील हैं, किसी को पापशील मैं मानता ही नहीं। जब जागृति की ओर मानव कदम रखता है तो श्राप, ताप और पाप तीनो समाप्त हो जाते हैं. जबकि आदर्शवाद में बताया गया है कि इन तीनों से मानव त्रस्त रहता है. इससे मुक्ति पाने के लिए महापुरुषों का शरण, ईश्वर का शरण और ज्ञान का शरण ही उपाय है.
>>> भ्रम और जागृति : अपने-पराये से मुक्ति ही भ्रम-मुक्ति है. भ्रम-मुक्ति ही मोक्ष है. भ्रम जीवचेतना की सीमा है,जागृति जीवचेतना से मुक्ति है। भ्रम में जीता हुआ मानव अपने सुखी होने का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाता है, इसलिए उसका जड़ ही हिला रहता है. भ्रम की सभी स्वीकृतियाँ भय और प्रलोभन के रूप में हैं. इसके अलावा भ्रम की पहुँच कुछ भी नहीं है. मानव में कल्पनाशीलता कर्म-स्वतंत्रता होने से उसमें भय और प्रलोभन से वशीभूत होने का भी रास्ता बना.जीव चेतना में हम कुछ भी करते हैं उसके मूल में भय और प्रलोभन ही है. नौकरी और व्यापार के मूल में भय और प्रलोभन है ही. भय और प्रलोभन को छोड़ के न नौकरी किया जा सकता है, न व्यापार! भय और प्रलोभन ही विवशता है. विवशता मानव को स्वीकार नहीं है. इसी लिए भ्रम में जीते हुए मानव का जड़ हिला रहता है. इसको वहाँ तरण-तारण कहा गया है.संसार का दृष्टा "मन" है. मन का दृष्टा "वृत्ति" है. विचार के अनुसार चयन हुआ या नहीं - इसका मूल्याँकन वृत्ति करता है. वृत्ति का दृष्टा "चित्त" है. इच्छा के अनुरूप विश्लेषण हुआ या नहीं हुआ - इसका मूल्याँकन चित्त करता है. चित्त का दृष्टा "बुद्धि" है. अनुभव प्रमाण संकल्प के अनुरूप इच्छाएं (चित्रण) हुई या नहीं - यह मूल्याँकन बुद्धि करता है. बुद्धि का दृष्टा "आत्मा" है. अनुभव के अनुरूप बुद्धि में बोध पहुँचा या नहीं - इसका दृष्टा आत्मा है. बुद्धि आत्मा में अनुभूत होता है. आत्मा सहअस्तित्व में अनुभूत होता है. आदर्शवाद ने कहा है - "ईश्वर दृष्टा, कर्ता और भोक्ता है." यहाँ सह-अस्तित्ववाद में कह रहे हैं -" ईश्वर प्रेरक है - यह भी कहना बनता नहीं है. ईश्वर कर्ता-पद में होता ही नहीं। करने वाला शरीर, आत्मा नहीं- मन है .
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>>>मानव-जीवन में मृत्यु की घटना: सभी को पूर्वजन्म का स्मरण क्यों नहीं होता ? " शरीर अब चलने योग्य नहीं रहा, इसलिए उसको जीवन छोड़ता है. मानव शरीर को जीवन जब छोड़ता है तो अपनी शरीर यात्रा का मूल्याँकन करता है.मैंने समाधि को देखा है. समाधि के समय जीवन शरीर को छोड़ा रहता है. समाधि होने के पहले जीवन अपनी शरीर यात्रा का मूल्याँकन कर लेता है.
>>>मानव-जीवन में मृत्यु की घटना: सभी को पूर्वजन्म का स्मरण क्यों नहीं होता ? " शरीर अब चलने योग्य नहीं रहा, इसलिए उसको जीवन छोड़ता है. मानव शरीर को जीवन जब छोड़ता है तो अपनी शरीर यात्रा का मूल्याँकन करता है.मैंने समाधि को देखा है. समाधि के समय जीवन शरीर को छोड़ा रहता है. समाधि होने के पहले जीवन अपनी शरीर यात्रा का मूल्याँकन कर लेता है.
(यदि कार्य-कारण वाद या परिणाम वाद सच है) तो हमे अपने पूर्व जन्मों का कुछ भी स्मरण क्यों नहीं है? मनः समुद्र की उपरी सतह का नाम ही चेतन अवस्था है। किन्तु उसकी गहराई में (अवचेतन मन में) संचित है, मानव के समस्त सुखात्मक और दुखात्मक अनुभव। मानव आत्मा कुछ ऐसी वस्तु पाने की इच्छा करती है, जो अचल हो, अविनाशी हो। जबकि हमारा यह शरीर और मन ही क्या, नाना रूपात्मक यह समस्त प्रकृति ही अनवरत परिवर्तनशील है। पर हमारी अन्तरात्मा की सर्वोच्च अभिलाषा (या तड़प) यही है, कि उसे कुछ ऐसा प्राप्त हो जाये, जिसका परिवर्तन नहीं होता, जो चिर(शान्ति) पूर्णता को पा चुकी हो। और यही है उस असीम के लिये मानवात्मा कि अभीप्सा ! हमारा नैतिक और मानसिक विकास (अर्थात चरित्र-निर्माण) जितना ही सूक्ष्मतर होता जायेगा, उस अपरिवर्तनशील सत्ता के प्रति हमारी अभीप्सा (व्याकुलता) भी उतनी ही दृढ़ होती जायेगी। "(१:२५५)
जिस समय सनातन-धर्म के क्षेत्र में भी ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जाती है, उस समय धर्म को फिर से नये रूप में सज्जित करके, तथा समस्त प्रकार के मनुष्यों के लिये ग्राह्य बनाकर, मानव-जाति के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है। तथा उसका प्रचार-प्रसार भी करना पड़ता है। उस समय धर्म से इस भावेश या इमोशनैलिटी रूपी अफीम के गन्ध की मिलावट से परिशोधित करने, एवम धर्म को पुनः स्थापित करने के लिये एक महान आविर्भाव अनिवार्यता बन जाती है। वह चाहे अवतार के द्वारा हो या जिस रूप में हो, एक विशिष्ट भाव (समत्व का भाव) मूर्तमान होता अवश्य है। जिस समय देश का धर्म अर्थात चरित्र अपने स्थान से च्युत हो जाता है, उस समय इसी प्रकार के एक आविर्भाव की आवश्यकता होती है।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -'जब तक सम्पूर्ण जगत यह नहीं जान लेता कि वह और ईश्वर एक है, तब तक मैं हर जगह के मनुष्यों को अनुप्रेरित करता ही रहूँगा !' अपने इसी वचन को प्रमाणित करते हुए, हम जैसे गृहस्थ या प्रवृत्ति मार्गी पुरुषों या कर्म -योगियों के लिये उनकी ही प्रेरणा से १९६७ ई० में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' नामक संगठन को आविर्भूत होना पड़ा!
जिस समय सनातन-धर्म के क्षेत्र में भी ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जाती है, उस समय धर्म को फिर से नये रूप में सज्जित करके, तथा समस्त प्रकार के मनुष्यों के लिये ग्राह्य बनाकर, मानव-जाति के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है। तथा उसका प्रचार-प्रसार भी करना पड़ता है। उस समय धर्म से इस भावेश या इमोशनैलिटी रूपी अफीम के गन्ध की मिलावट से परिशोधित करने, एवम धर्म को पुनः स्थापित करने के लिये एक महान आविर्भाव अनिवार्यता बन जाती है। वह चाहे अवतार के द्वारा हो या जिस रूप में हो, एक विशिष्ट भाव (समत्व का भाव) मूर्तमान होता अवश्य है। जिस समय देश का धर्म अर्थात चरित्र अपने स्थान से च्युत हो जाता है, उस समय इसी प्रकार के एक आविर्भाव की आवश्यकता होती है।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -'जब तक सम्पूर्ण जगत यह नहीं जान लेता कि वह और ईश्वर एक है, तब तक मैं हर जगह के मनुष्यों को अनुप्रेरित करता ही रहूँगा !' अपने इसी वचन को प्रमाणित करते हुए, हम जैसे गृहस्थ या प्रवृत्ति मार्गी पुरुषों या कर्म -योगियों के लिये उनकी ही प्रेरणा से १९६७ ई० में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' नामक संगठन को आविर्भूत होना पड़ा!
वर्तमान में कलियुग चल रहा था, किन्तु स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि (फाल्गुन शुक्ल द्वितीया,१८ फरवरी १८३६) से सत्य युग का आरम्भ हुआ है!" इसका क्या तात्पर्य है ? इसी को स्पष्ट करते हुए ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया कि जो मनुष्य 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' में (परमहंस का भक्त बनेगा, या ५ अभ्यास द्वारा 3H विकास की पद्धति को आचरण में उतारने का प्रयास करेगा) तब उस मनुष्य के विचार जगत में युग परिवर्तन होगा, और उसकी यात्रा उल्टे क्रम से प्रारम्भ होगी, या चौथे युग (कलीयुग) से प्रथम युग (कृतयुग) तक की यात्रा होगी। ऐतरेय ब्राह्मण (७.१५) में कहा गया है-
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
[ कलिः शयानः भवति, संजिहानः तु द्वापरः। उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति, कृतं संपाद्यते चरन्, चर एव इति।।] -
-- "जो मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है, जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे बढ़ता जाता है, उसका भाग्य भी आगे बढ़ता जाता है, इसीलिये-" हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! आगे बढो, आगे बढो ! "
[सोये रहने का नाम (मोहनिद्रा में, हिप्नोटाइज्ड अवस्था में, या पशुमानव की अवस्था में पड़े रहने का नाम) है कलिकाल में रहना। जब नींद टूट गयी (स्वप्न भंग हो गया,और आधुनिक युग में ब्रह्म, भगवान विष्णु या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता के अवतार श्रीरामकृष्ण या महामण्डल है, इतना समझ में आ गया) तब पर में रहना कहेंगे। जब नृसिंह ( जो मनुष्य '५ अभ्यास द्वारा 3H विकास' द्वारा) अद्वैत का सिंह या 'वेदान्त केसरी' बनने और बनाने के लिये उठ कर खड़ा हो जाता है, तब उस मनुष्य जीवन में त्रेता युग चलने लगता है। फिर जब वह चलना शुरू कर देता है, अर्थात द्वार-द्वार घूम कर 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने लगता है, या 'मनुष्य बनने और बनाने' का लीडरशिप ट्रेनिंग देने में सक्षम 'अवैतनिक लोक-शिक्षक' (महामण्डल का नेता) बन जाता है, तब उसे सत्ययुग में रहना कहते हैं। सत्ययुग का लक्ष्ण है स्वयं मुक्त होकर दूसरों को भी मुक्त करने के लिये निरन्तर आगे बढ़ते रहना -इसीलिये हे मनुष्यों, 'चर एव इति! चरैवेति-चरैवेति!'- आगे बढो,आगे बढ़ते रहो !" ]
पूज्य दादा [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [73] 'भविष्य का भारत और श्रीरामकृष्ण' में ] लिखते हैं - "ऐसा कहा जाता है कि स्वामीजी ने ऐतरेय ब्राह्मण के उपरोक्त श्रुति को स्वयं अपने जीवन में प्रयोग करके देखा था कि यहाँ कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य इत्यादि युगों की उपमा, किसी व्यक्ति की मानसिक अवस्था के तारतम्य को निर्धारित करने के उद्देश्य से ही दी गयी है। क्योंकि मनुष्य का मन हर समय एक ही अवस्था में नहीं रहता, कभी बिल्कुल सोया रहता है, कभी जाग्रत जैसा हो जाता है, या कभी उठ खड़ा होता है, और उसके बाद चलना शुरू कर देता है। "
जो लोग ऐसा कहते हैं कि मैं ठाकुर को मानता हूँ, उनका अनुयायी हूँ, किन्तु धर्म के नाम पर अभी तक दूसरे धर्मावलम्बियों से घृणा का भाव रखता हूँ, धन के आधार पर किसी मनुष्य को छोटा और किसी को बड़ा देखता हूँ, - तो इसीसे सिद्ध हो जायेगा कि वे चाहे और भले ही जो कुछ हों, किन्तु श्रीरामकृष्ण के अनुयायी तो बिल्कुल ही नहीं हैं। ऐसे कृतघ्न लोगों को अपने मुख से ठाकुर का नाम लेना शोभा नहीं देता।
सत्य-युग के आदर्श राज्य (राम-राज्य) की जो परिकल्पना है उसे तभी कार्यान्वित किया जा सकता है, जब; जो लोग स्वयं को श्री रामकृष्ण का अनुयायी (महामण्डल आन्दोलन के नेता) कहते हैं, वे अक्षरश: सही मायने में उनके उपदेश - ' BE AND MAKE ' का पालन करें। और केवल तभी भारतवर्ष तथा सम्पूर्ण विश्व को पुरुज्जिवित किया जा सकेगा। स्वामीजी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं-" एकमात्र परोपकार को ही मैं कार्य मानता हूँ, बाकि सब कुकर्म है। " (४:२९८)" जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे सर्वभूतों कि सेवा में न्योछावर कर दिया जाये।"(४:५८) " हे मेरे युवक बन्धुगण ! तुमलोग उठ खड़े हो ! काम में लग जाओ! धर्म एक बार पुनः जाग्रत होगा।" यहाँ धर्म कहने का अर्थ (हिन्दू-धर्म नहीं) वैदिक धर्म या सनातन धर्म है, जो समस्त प्राणियों में एकत्व की, अनेकता में एकता की, -' एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ती' की शिक्षा देता है; जिसका मूल मन्त्र है- "तत्त्वमसि " (Thou art that - "You are Brahman")।'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' (All this is Verily Brahman)!
नेता (सद्गुरु या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) युगों-युगों की अन्धकार-काराओं-ह्रदय को अन्तर के प्रकाश से आलोकित करने वाले प्रकाश-स्तम्भ हैं। सच्चे नेता (जगतगुरु) बड़े दु:साहसी और विपरीत धारा के तैराक होते हैं। वे बड़े मरजीवड़े होते हैं। वे मृत्यु के मुख से अमरता की मणि " सर्वग्रासी प्रेम" को जबरन निकालकर अपना शीशमुकुट बना लेते हैं। " कोई मनुष्य सच्चा नेता केवल तभी बन सकता है, जब उसके हृदय में इसी प्रेमाग्नि का एक स्फुलिंग, इस प्रेम का एक छोटा सा अंश विद्यमान हो। जिसके हृदय में मानवमात्र के लिये ऐसा ही प्रेम नहीं छलकता हो, वह किसी भी व्यक्ति के जीवन -गठन या पूर्णत्व की दिशा में अग्रसर होने में कोई मार्गदर्शन नहीं दे सकता है। भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुध्द, ईसा मसीह, हजरत मोहम्मद, भगवान वेदव्यास, आचार्य शंकर, श्रीरामकृष्ण परमहंस, माँ सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द आदि मानवजाति के मार्गदर्शक ' नेता ' इसी प्रेम की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ मात्र थे।
>>> विवेकानन्द - दर्शनम् ' (1) Friday, May 23, 2014/ '- इस आधुनिक युग में श्रीरामकृष्ण परमहंस के भीतर (प्रेममय श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के भीतर भी ] वही साम्य-भाव मूर्तमान हुआ है। गीता ५/१९ में कहा गया है -
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5.19।।
- इह एव तैः जितः सर्गः येषाम् साम्ये स्थितम् मनः / निर्दोषम् हि समम् ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः) भगवान् कहते हैं कि जिनका मन समत्व भाव में स्थित है वे ब्रह्म में ही स्थित हैं। मन (अहं की गाँठ) ही वह उपाधि है जिसमें व्यक्त चैतन्य जीव या अहंकार के रूप में प्रकट होकर स्वयं को सम्पूर्ण जगत् से भिन्न मानता है।]-अर्थात जिनका मन समत्व भाव में स्थित हो गया है, उन्होंने इस जीवित अवस्था में ही स्वर्ग को जीत लिया है, क्योंकि (समत्वभाव का नाम ही भगवान है, इसीलिये श्री ठाकुर=) ब्रह्म, पवित्र (निर्दोष) हैं और सबके लिये, समान (सम) हैं, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित कहे जाते हैं।
महामण्डल की दृष्टि में श्रीरामकृष्ण परमहंस प्रथम युवा नेता हैं, जिनके जीवन में साम्य-भाव सम्पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हुआ है ! इसी लिये वे समस्त मानव-जाति, समस्त जीवों, यहाँ तक की जड़ वस्तुओं के साथ भी अभिन्नता का साक्षात्कार करते हैं! वे ऐसे जन-नेता हैं, जो मानवमात्र को, सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करते हैं। उनके जीवन में प्रतिष्ठित वह साम्य-भाव पोलिटिकल पार्टीज के द्वारा मंच पर खड़े होकर, भाषण में कहने वाला साम्य नहीं है, अपितु उन्होंने इसे अपने आचरण में उतार कर दिखा दिया है। (देवघर का उदाहरण, दो माँझी के झगड़े का उदाहरण, दूब पर चलने से छाती लाल)
इसीलिये भगवान श्रीरामकृष्ण देव दीन-दुःखीयों के दारुण दुःख से द्रवित होकर, उनके समस्त प्रकार के दुःखों को दूर करने का उपाय बताने के लिये, या कहें तो सम्पूर्ण विश्व और भारत का कल्याण करने के उद्देश्य से, युवाओं को संगठित कर के, भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में -'BE AND MAKE ' में, अर्थात मानवजाति का भावी मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने प्रशिक्षण देने के लिए, निवृत्ति मार्ग के ऋषि स्वामी विवेकानन्द को अपने साथ लेकर अवतरित हुए थे !
इस बात को समझने के लिए हमें स्वामी विवेकानन्द के द्वारा उनके गुरुदेव के सम्बन्ध में व्यक्त किये गए उद्गारों का, विशेष रूप से अध्यन करना पड़ेगा। स्वामी जी ने कहा था, कि श्रीरामकृष्ण देव आज भी सभी लोगों को मनुष्य बनने के लिए अनुप्रेरित कर रहे हैं, किन्तु युवाओं को अधिक संख्या में आकर्षित कर रहे हैं। इस तथ्य को, महामण्डल द्वारा आयोजित 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' में आधारित चरित्र-निर्माणकारी युवा प्रशिक्षण शिविरों में प्रतिवर्ष युवाओं की बढ़ती हुई संख्या को देखकर, हमलोग भी समझ सकते हैं।
श्रीरामकृष्ण का लक्ष्य विशेष रूप से युवाओं को ही आकर्षित करना था, इसीलिये वे दक्षिणेश्वर में छत पर चढ़ कर युवाओं के पुकारते थे; स्वामी विवेकानन्द स्वयं इस बात के प्रमाण हैं। श्रीरामकृष्ण देव ने स्पष्ट रूप से यह अनुभव कर लिया था, कि मेरे अति अल्प जीवन काल में मैं जितना कर सकता था उतना कर दिया; किन्तु उसके बाद जो वास्तविक कार्य है - वह यही है कि बहुत अल्प समय के भीतर कुछ युवाओं के जीवन को इस प्रकार गठित कर देना होगा कि वे इस वेदान्त को (अफीम के नशे से मुक्त धर्म के चार महावाक्यों को) थोड़े समय में ही दावानल की तरह सारे जगत में फैला देने में समर्थ हो जाएँ। और वैसा करने के बाद उन्होंने अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया था । उसके बाद स्वामी जी ने भी उनके द्वारा सौंपे गए कार्य को पूरा कर दिखाया।
सच्चे से सच्चा धर्म भी समय के प्रवाह में, दूषित हो ही जाता है। क्योंकि समय-चक्र के घूर्णन-पथ से चलते हुए, धर्म के साथ जब अफीम के नशे की तरह -अतिशय भावुकता (অহিফেন, शराबियों जैसी भावुकता या मॉड्लिन maudlin) भी संयुक्त हो जाती है, तो वह उन्मत्त भावुकता हमारी बुद्धि को कई बार मोहग्रस्त भी कर देती है,और हम अपने कर्तव्य पथ से भटक जाते हैं। और तब उस धर्म के अनुयायियों के व्यवहार या चरित्र में धर्म का शुद्ध रूप व्यक्त होता हुआ दिखाई नहीं देता है। इसीलिये जब समय के प्रवाह में, भिन्न भिन्न नाम (ब्राण्ड) वाले धर्म, केवल अफीम की तरह का नशा उत्पन्न करने लगते हैं; उस समय धर्म को इस अतिशय भावुकता (इमोशनैलिटी) रूपी नशे की मिलावट से परिशोधित करना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि धर्म ही सत्य है, अफीम (धर्म का नशा) सत्य नहीं है ![जब मनुष्य 'लस्ट और लूकर' की अत्यधिक आसक्ति में फँस कर अपनी महिमा को भूल जाता है, दो प्रकार के धर्म 'प्रवृत्ति और निवृत्ति' को नहीं समझ पता है, और घोर-स्वार्थी मनुष्य या पशु मानव जैसा व्यवहार करने लगता है। तब उसको सही रास्ता दिखाने के लिये, या उसे पूर्ण-निःस्वार्थी मनुष्य 'बनने और बनाने' की प्रेरणा देने के लिये; प्रत्येक युग में भगवान विष्णु - मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बन कर धरती पर अवतरित होते हैं। इसीलिये विष्णु-सहस्र नाम में भगवान विष्णु का एक नाम है -नेता !
श्रीमद्भगवद्गीता ४/७-८ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
हे भरत-वंशी अर्जुन जब-जब धर्म (निःस्वार्थपरता) की हानि और अधर्म (घोर-स्वार्थपरता) की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आप को साकार रूप से प्रकट करता हूँ। साधुओं की रक्षा करने के लिये,(चरित्रवान मनुष्यों या भक्तों अच्छाई की सुरक्षा के लिए) दुष्कर्मियों का विनाश करने (?) के लिये (मानव की पशुता या घोर-स्वार्थपरता का विनाश करने के लिये), और धर्म की भली-भाँति स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ। (भगवान् तो सर्वसुहृद् हैं अतः वे तो 'जटिला-कुटिला' का भी हित चाहते हैं, वे उनकी दुष्टता (चरित्र-हीनता) का ही विनाश करते हैं। उनके द्वारा जो दुष्ट मारे जाते हैं उनको भगवान् अपने ही धाम में भेज देते हैं यह उनकी कितनी विलक्षण उदारता है।) [साभार https://www.gitasupersite.iitk.]
इसी को कहते हैं, ऐतिहासिक अनिवार्यता! भारतवासी यह जानते हैं कि इतिहास की यात्रा में, समय-चक्र के घूर्णन-पथ में इस तरह की अनिवार्यता बार-बार दृष्टिगोचर हुई है। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे " जब लकड़ी का बड़ा भारी (गुरु) कुन्दा पानी पर बहता है तब उस पर चढ़कर कितने ही लोग आगे निकल जाते हैं, उनके वजन से वह डूबता नहीं। परन्तु सड़ियल लकड़ी (खोखला गुरु) पर एक कौआ भी बैठे तो वह डूब जाती है। इसी प्रकार जिस समय अवतार-महापुरुष आते हैं उस समय उनका आश्रय ग्रहण कर कितने लोग तर जाते हैं; परन्तु सिद्ध पुरुष (केवल अपनी मुक्ति चाहने वाला? ) काफी श्रम करके किसी तरह स्वयं तरता है। सिद्ध पुरुष कैसा होता है ? --जैसे किसी जगह पर कुआँ था, पर मिट्टी से पट गया था; सिद्ध पुरुष उसे फिर खोद निकालता है। 'सिद्ध-पुरुष' मुमुक्षुजनों को ही मुक्ति दे सकते हैं परन्तु 'अवतार' प्रेम-भक्तिरहित शुष्क ह्रदय व्यक्तियों का भी उद्धार करते हैं । "
५. स्वामी विवेकानन्द ने 'सद-गृहस्थ और संन्यासी' दोनों को अपने-अपने क्षेत्र में महान माना है। किन्तु जब ईश्वर (माँ जगदम्बा) ने यह देखा कि १९३५ में लार्ड मेकाले की अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति लागु होने के बाद 'यह गुरु-शिष्य परम्परा' लुप्त होने के कागार पर है। भारत की धरती पर जन्मे ऋषि-मुनियों की सन्तानें भी, धर्म और शिक्षा के क्षेत्र में उचित मार्गदर्शन के बिना 'ईश्वर-भक्ति की शक्ति और सर्वभूत दया ' को भूल कर घोर स्वार्थी पशु जैसे 'लस्ट और लूकर' अत्यधिक आसक्त बन गए हैं।
तभी १८३६ ई ० में श्री रामकृष्णदेव निवृत्ति मार्ग के ऋषि स्वामी विवेकानन्द को अपने साथ लेकर अवतरित होते हैं। क्योंकि गृहस्थ गुरु श्रीरामकृष्ण (जो नवनीदा जैसे गृहस्थ और त्यागी एक ही आधार में थे) निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक स्वामी विवेकानन्द को सम्पूर्ण जगत को (प्रवृत्ति-निवृत्ति) सभी प्रकार के मनुष्यों को शिक्षा देने का चपरास दिया था। इसीलिये तो स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-' हो सकता है, कि मुझे अपने शरीर को जीर्ण वस्त्र की तरह त्याग देना अधिक उचित जान पड़े, किन्तु जब तक सम्पूर्ण जगत यह नहीं जान लेता कि वह और ईश्वर एक है, तब तक मैं हर जगह के मनुष्यों को अनुप्रेरित करता ही रहूँगा।"
(It may be that I shall find it good to get outside of my body -- to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God !)
>>>नवनीदा की एकमात्र अभिलाषा " जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन (महामण्डल का पाठ-चक्र एवं युवा प्रशिक्षण शिविर) कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों (ईश्वर-भक्ति और सर्वभूत दया) को सबके द्वारों तक पहुंचा दे, और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें। हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है ? यह (आत्मश्रद्धा और आत्मविश्वास ) सर्वसाधारण को जानने दो. विशेष कर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं ? और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो. रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे कोई विशेष आकर धारण कर लेंगे। परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान (श्रीरामकृष्ण) पर श्रद्धा रखो. काम शुरू कर दो. देर-सबेर मैं आ ही रहा हूँ. " धर्म को बिना हानी पहुँचाये (प्रवृत्ति या निवृत्ति की स्वाभाविक रुझान रखने वाले भूत-वैशिष्ट्य के अनुरूप) जनता की उन्नति " -इसे अपना आदर्श-वाक्य बना लो ! "
भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से आजाद करा कर, उसे फिर से उसके गौरवमय सिंहासन पर आरूढ़ करने का उपाय बतलाते हुए आगे कहते हैं - " याद रखो की राष्ट्र झोपड़ी में बसा है; परन्तु हाय! उन लोगों लिये कभी किसी ने कुछ किया नहीं। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनर्विवाह कराने में बड़े व्यस्त हैं. निश्चय ही मुझे प्रत्येक सुधार से सहानभूति है; परन्तु राष्ट्र की भावी उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पतियों की संख्या पर नहीं, बल्कि ' आम जनता की हालत ' पर निर्भर है। क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो ? उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति (पूजा और नमाज की पद्धति) को बनाये रखते हुए, क्या तुम उनकी खोयी हुई " Individuality " उन्हें वापस दे सकते हो ?
>>>Individuality and Personality [Individuality का अर्थ व्यक्तित्व या personality नहीं है, इसका अर्थ है विशेष चरित्र या आत्मश्रद्धा ! आजकल personality Development पर सेमिनार होता है. कई क्लब में पैसा लेकर इसका आयोजन करते हैं. केवल अंग्रेजी बोलने सूट -बूट पहन लेने से ही Individuality या चरित्र निर्माण नहीं होता। personality अथवा व्यक्तित्व या Appearance तो बाहर की वस्तु है, जबकि चरित्र या Individuality आन्तरिक उन्नति है, जो मन को जीत लेने से प्राप्त होता है. आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास आदि चरित्र के गुण हैं, जो मन को वशीभूत कर लेने से प्राप्त होते हैं. चरित्र-निर्माण की कोई कैप्सूल या दवा नहीं मिलती यह पहरावा या दाढ़ी-बाल का स्टाइल बदल देने से प्राप्त नहीं होता।
दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटपटावृतः ।
तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किंचिन्न भाषते ॥
मूर्ख व्यक्ति की पोल मुख खोलते ही प्रकट हो जाती है, चाहे वह कितना भी कोट-टाई लगा कर क्यों न बैठा हो ! चरित्रवान और विद्वमान मनुष्य यदि नहीं बोले तो उसकी शोभा नहीं होती, किन्तु मूर्ख व्यक्ति तभी तक शोभता है, जब तक वह चुप रहता है. कैट वाक करना या चलने का स्टाइल बदलना केवल दूरों को दिखलाने की चीज है.}तब अवतार-वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण उनको कठोपनिषद से ' उत्तिष्ठत जाग्रत ' मन्त्र और यम-नचिकेता संवाद सुना कर, मोहनिद्रा से जगाने के लिये (डीहिप्नोटाइज्ड करने के लिये) अपने साथ नरेन्द्रनाथ को लेकर आये थे। परन्तु स्वामी विवेकानन्द जिनको श्री रामकृष्ण अपने साथ लेकर आये थे, वे किन्तु निवृत्ति मार्ग के सप्तर्षियों में से एक 'नारायण ऋषि ' थे, जो श्री ठाकुर के अनुरोध पर अपनी समाधि का त्याग करके जगत के प्राणियों का कष्ट दूर करने के लिये आये थे। इसीलिये तो नरेन्द्र जब उनसे मिलने पहली बार दक्षिणेश्वर गये थे तो उनको कमरे से सटे उत्तरी बरामदे में ले आये और दोनों हाथ जोड़कर देवता की तरह सम्मान दिखाते हुए कहने लगे,' मैं जानता हूँ प्रभु! आप वही पुरातन नारायण ऋषि हैं, जीवों की दुर्गति दूर करने के लिये आप पुनः संसार में अवतीर्ण हुए हैं.!'
और उसी प्राचीन 'गुरु-शिष्य परम्परा' के वैदिक वाङ्मय- (वैदिक लिटरेचर) को आधुनिक युग के लिये उपयोगी बनाकर,'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' में कुछ चुने हुए अंग्रेजी-शिक्षा में शिक्षित युवाओं को 'लीडरशिप ट्रेनिंग ' द्वारा प्रशिक्षित करके, निवृत्ति मार्गी लोकशिक्षकों या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण (अवैतनिक लोकशिक्षकों का निर्माण) करने वाली प्राचीन प्राचीन 'गुरु-शिष्य परम्परा' को पुनर्स्थापित कर देते हैं।
और स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से सर्वप्रथम निवृत्ति मार्गी पुरुषों के लिये १८९७ में बेलुड़ में 'रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन' [Ramakrishna Math & Ramakrishna Mission , Belur Math, West Bengal, India.] की स्थापना होती है, जिसकी शाखायें आज सम्पूर्ण विश्व में फ़ैल चुकी हैं। एवं निवृत्ति मार्गी स्त्रियों के लिये १९५४ में गंगा के उस पार दक्षिणेश्वर काली मन्दिर से थोड़ा उत्तर दिशा में 'श्री सारदा मठ और रामकृष्ण सारदा मिशन' [Sri Sarada Math & Ramakrishna Sarada Mission. a little North of Dakshineswar Kali Temple. Dakshineswar, Kolkata - 700 076. India] की स्थापना होती है, जिसकी शाखायें भारत के विभिन्न राज्यों में हैं, तथा ऑस्ट्रेलिया और श्री लंका में भी हैं।
सन्त कबीर (प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने वाले सन्त) ने भी कहा था -
"तेरा सांई तुज्झ में, ज्यों पुहुपन में बास ।
कस्तुरी का मिरग ज्यों, फिर फिर ढूंढे घास ॥"
फूलों में सुगंध होती है। उनकी महक तो उनके अंदर से ही आती है। इस प्रकार हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही वास करता है। किन्तु सांई-भक्त उसे शिर्डी के मन्दिरों में ढूँढ़ते हैं, जैसे कस्तूरी की सुगन्ध के कारण की व्यर्थ खोज करने के बाद, कस्तूरी-मृग (दी मुश्क-डियर) अन्त में उसे अपने में ही पाता है। अतः हमें उस अन्तर्यामी परमात्मा की आरती एवं पूजादि भी अपनी देह के भीतर ही करनी चाहिए। हमारा सतगुरु भी हमारे भीतर ही है उसकी पूजा-अर्चना भी भीतर ही सम्भव है। इस तथ्य को, सत्य को कोई-कोई विरला व्यक्ति ही समझता है, जो जागृत है !
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।
दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥
असंस्कृतास्तु संस्कार्याः भ्रातृभिः पूर्वसंस्कृतैः।
निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिः उपजायते।
प्रवृत्तिरपि धीरस्य, निवृत्तिफलदायिनि॥
"You are all born to do it. This is to be done and we will do it." यह काम हमें करना है, और हम इसे करेंगे ही !' क्या हम महामण्डल कर्मी " Yes We Can ! We Will Do ! यह आश्वासन स्वामीजी को दे सकते हैं ? ठाकुर-माँ-स्वामीजी हम सबों को इसी श्रेणी का मनुष्य बना दे ! अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक नवनी दा (श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय) ने उसी'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' को 'BE AND MAKE- लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में रूपान्तरित कर दिया है। महामण्डल के द्वारा प्रतिवर्ष पुरुषों के लिये युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया जाता है, जिसमें महामण्डल के कुशल प्रशिक्षकों द्वारा उसी प्राचीन गीता -उपनिषद आदि वैदिक-लिटरेचर को आधुनिक युग के लिये उपयोगी बनाकर 'महामण्डल लिटरेचर' पर आधारित त्यागपूर्वक-भोग करने की चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा-पद्धति के अनुसार " ५ प्रकार के अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा 3H को विकसित कर के'- क्षात्रवीर्य और ब्रह्म तेज से सम्पन्न चरित्रवान मनुष्य, ब्रह्मविद मनुष्य, वेदान्त केसरी, मानवजाति का भावी मार्गदर्शक नेता या लोकशिक्षक 'बनने और बनाने - 'BE AND MAKE' का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस प्रकार पूज्य नवनी दा के अथक परिश्रम से प्राचीन 'गुरु-शिष्य परम्परा ' में 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन'
द्वारा 'ब्रह्मविद मनुष्य' 'वेदान्त केसरी ' - 'बनने और बनाने' वाली असाधारण प्रशिक्षण प्रणाली उसके मूल स्वरूप में, १९६७ से लेकर आज तक, यथावत् चली आ रही है।
"सारदा नारी संगठन" तथा महामण्डल के शिशु और किशोर विभाग "विवेक-वाहिनी " में भी इसी 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन' वाली गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार चरित्र-निर्माण कारी शिविर का आयोजन होता रहता है। महामण्डल या नारी संगठन द्वारा 'युवा प्रशिक्षण शिविर' का आयोजन करने में १९६७ से ही 'रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन' के वरिष्ठ संन्यासियों एवं 'श्री सारदा मठ और रामकृष्ण सारदा मिशन' की सन्यासीनियों का मार्गदर्शन एवं संरक्षण प्राप्त होता आ रहा है। वर्तमान समय में भारत के १२ राज्यों में महामण्डल के ३५० से अधिक केन्द्र चल रहे हैं, तथा 'सारदा नारी संगठन' के- १२० केन्द्र, 'विवेक-वाहिनी' के ५० केन्द्र और 'किशोर-वाहिनी' के १० केन्द्र चल रहे हैं।
अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए -'3H' का 'तन-मन-और आत्मा' तीनों की भागीदारी (सहभागिता या इन्वॉल्वमेंट) जरुरी होती है ! इन संगठनों का उद्देश्य बच्चों के 3H को विकसित करके उनकी नेतृत्व क्षमता (लीडरशिप स्किल) को विकसित करना है। इसलिये उनके विद्यालयों में आयोजित होने वाले विविध प्रयोगिताओं या कार्यक्रमों के प्रबन्धन- जिम्मेदारी (मैनेजमेन्ट-रिस्पांसबिलिटी) के कुशल निर्वहन हेतु सर्वसम्मति से प्रतिवर्ष अध्यक्ष, सचिव, सहसचिव और कमाण्डेन्ट (commandant-सेनापति या आदेशक) का चयन किया जाता है। अब बचपन से ही बच्चों की बौद्धिकता (बुद्धत्व), नेतृत्व-क्षमता और क्रियात्मक क्षमता (पौरुष) के विकास के लिये महामण्डल के निर्देशन में, में 'बाल-विवेक भारती' (वाहिनी? १२ वर्ष की उम्र तक), 'किशोर-विवेक भारती' (वाहिनी -१३ वर्ष से १९ वर्ष तक के छात्रों),'कन्या -विवेक भारती' (वाहिनी-१३-१९ की छात्राओं के लिए) आदि कार्क्रम भी चलाये जाने कि योजना है ।
'लेट दी लायन ऑफ़ अद्वैत वेदान्ता रोर,ऐंड दी फॉक्सेज विल फ्लाई टू देयर होल्स!'
इसी निबन्ध में महामण्डल का आदर्श वाक्य - 'BE AND MAKE ' भी लिखा हुआ है। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि स्वामी जी द्वारा कथित महावाक्य अत्यन्त सारगर्भित है, और यही तो महामण्डल के निष्ठावान कर्मियों का धर्म है, अर्थात कर्तव्य है! >>> मेरे सहधर्मियो ! 'मद्रास के अभिनंदन का उत्तर ' निबन्ध में इसी विषय पर विस्तार से चर्चा की गयी है। मैं पुनः उसी निबन्ध को पढ़ने लगा........ मद्रास-निवासी मित्रों, देशबंधुओ और मेरे सहधर्मियो !
>>>१.'ईश्वर-भक्ति और सर्वभूत दया'!आध्यात्मिक बुनियाद-जिस पर भारतीय संस्कृति (हिन्दू जाति) खड़ी है: -' ग्लोरी टु गॉड ऐंड चैरिटी टू ऑल बीइंग्स' -अर्थात 'ईश्वर-भक्ति और सर्वभूत दया'! [श्री ठाकुर के अनुसार-'श्रद्धा' या आस्तिकता एवं 'सर्वभूत- दया' समस्त प्राणियों पर 'दया'= आस्तिक्यबुद्धि और 'शिवज्ञान से जीव सेवा''Glory to God and Charity to all beings' 'ईश्वर-भक्ति एवं समस्त जीवों के प्रति दया'!]
२. >>क्योंकि 'विद्या' गुरुमुखी: क्योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी प्राप्त होने वाली विद्या विगत हजार वर्षों में भी निरन्तर गुरु-मुखी (श्रुति) ही बनी रही है ! हजार वर्षों की गुलामी तथा लार्ड मेकाले की पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के बावजूद हमारी 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा ' या 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन' परम्परा आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है, कोई भी विदेशी आतततायी शासक उसे लाख कोशिश करने के बावजूद कभी बिल्कुल ध्वस्त नहीं कर सका है ! हमलोग 'प्राचीन भारतीय गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा' में 'तत्वमसि' आदि महावाक्यों द्वारा प्राप्त होने वाली शिक्षा, गुरुमुख से प्राप्त होने वाली शिक्षा या श्रुति - 'आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः' -पर विश्वास करते रहे कि,जो मनुष्य किसी को पराया नहीं समझता, किसी के दोषों को नहीं देखता; " जो मनुष्य सारे प्राणियों को अपने समान देखता है, वही पण्डित है!'
>>>३.दशावतार लीडरशिप ट्रेनिंग मेथोडोलॉजी: भारतवर्ष की प्राचीन 'गुरु शिष्य वेदान्त परम्परा' या 'दशावतार -भक्त वेदान्त परम्परा' की शिक्षा-पद्धति के द्वारा भारत की आध्यात्मिक बुनियाद "ईश्वर-भक्ति और सर्वभूत दया " पीढ़ी दर पीढ़ी और अधिक दृढ़तर होती चली आ रही है। स्वामी विवेकानन्द कहते थे -"निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है !"
यह सम्पूर्ण विश्व जो अज्ञान से नाना प्रकार का प्रतीत हो रहा है, समस्त भावनाओं के दोष से रहित (अर्थात्) निर्विकल्प ब्रह्म ही है ।
Who can prevent a great man from living in the present as per his wish as he knows himself as this whole world.॥4॥
>>>३.दशावतार लीडरशिप ट्रेनिंग मेथोडोलॉजी: भारतवर्ष की प्राचीन 'गुरु शिष्य वेदान्त परम्परा' या 'दशावतार -भक्त वेदान्त परम्परा' की शिक्षा-पद्धति के द्वारा भारत की आध्यात्मिक बुनियाद "ईश्वर-भक्ति और सर्वभूत दया " पीढ़ी दर पीढ़ी और अधिक दृढ़तर होती चली आ रही है। स्वामी विवेकानन्द कहते थे -"निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है !"
[दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत ।
सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रवलोकिनी ।।
(अपरोक्ष अ. 116) दृष्टि को ज्ञानमय करके संसार को ब्रह्ममय देखे यही दृष्टि अति उत्तम है, नासिका के अग्र भाग को देखने वाली नहीं ।यदिदं सकलं विश्वं नानारूपं प्रतीतमज्ञानात् ।
तत् सर्वं ब्रह्मैव प्रत्यस्ता शेष भावना दोषम् ।।
(विवेक चूड़ामणि 229)यह सम्पूर्ण विश्व जो अज्ञान से नाना प्रकार का प्रतीत हो रहा है, समस्त भावनाओं के दोष से रहित (अर्थात्) निर्विकल्प ब्रह्म ही है ।
आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना।
यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धुं क्षमेत कः॥
(अष्टावक्र गीता/४-४ )
भावार्थ:-यह सम्पूर्ण जगत ही ब्रह्म है । आत्मा के अतिरिक्त कोई पदार्थ नहीं । यह आत्मज्ञानी विवेकी पुरुष को ही दिखता है । जिस महापुरुष ने स्वयं को ही इस समस्त जगत के रूप में जान लिया है, उसके स्वेच्छा से वर्तमान में रहने को रोकने की सामर्थ्य किसमें है। Who can prevent a great man from living in the present as per his wish as he knows himself as this whole world.॥4॥
>>>३.दशावतार लीडरशिप ट्रेनिंग मेथोडोलॉजी: भारतवर्ष की प्राचीन 'गुरु शिष्य वेदान्त परम्परा' या 'दशावतार -भक्त वेदान्त परम्परा' की शिक्षा-पद्धति के द्वारा भारत की आध्यात्मिक बुनियाद "ईश्वर-भक्ति और सर्वभूत दया " पीढ़ी दर पीढ़ी और अधिक दृढ़तर होती चली आ रही है।
>>> -"निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है !" स्वामी विवेकानन्द कहते थे " धर्म वह वस्तु है जिसके द्वारा पशु, मनुष्य में और मनुष्य, देवता में उन्नत हो जाता है ! नवनी दा ने सूत्र दिया था - " मैन इज स्टैंडिंग इन बिटविन हन्ड्रेड परसेंट अनसेल्फिशनेस ऐंड जीरो परसेंट अनसेल्फिशनेस; अन-सेल्फिश्नेस टेन्डिंग टु हंड्रेड इज गॉडलिनेस, अन-सेल्फिश्नेस टेन्डिंग टु जीरो इज ऐनीमलिटी !" अर्थात मनुष्य शत-प्रतिशत निःस्वार्थपरता एवं शून्य-प्रतिशत निःस्वार्थपरता के मध्य में खड़ा है, निःस्वार्थपरता के मध्य बिंदु से ऊपर की ओर बढ़ना ही ईश्वरत्व (भक्ति) की ओर बढ़ना है, और शून्य प्रतिशत निःस्वार्थपरता की ओर बढ़ना पशुता या पशुमानव बन जाना है। अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (दिव्यता) या पूर्णता को व्यक्त करने का अर्थ है -क्रमशः पशुता या घोर-स्वार्थपरता को त्याग करते हुए 'मनुष्य' बनना, फिर क्रमशः पूर्णतया निःस्वार्थी ईश्वर में उन्नत हो जाना। इस प्रकार निःस्वार्थी 'मनुष्य बनने और बनाने- BE AND MAKE' का प्रयास करते करते हमलोग स्वयं 'मनुष्य' (बह्मवेत्ता) बन जाते हैं !
दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत ।
सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रवलोकिनी ।।
(अपरोक्ष अ. 116) दृष्टि को ज्ञानमय करके संसार को ब्रह्ममय देखे यही दृष्टि अति उत्तम है, नासिका के अग्र भाग को देखने वाली नहीं ।
यदिदं सकलं विश्वं नानारूपं प्रतीतमज्ञानात् ।
तत् सर्वं ब्रह्मैव प्रत्यस्ता शेष भावना दोषम् ।।
(विवेक चूड़ामणि 229)
यह सम्पूर्ण विश्व जो अज्ञान से नाना प्रकार का प्रतीत हो रहा है, समस्त भावनाओं के दोष से रहित (अर्थात्) निर्विकल्प ब्रह्म ही है ।
आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना।
यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धुं क्षमेत कः॥
(अष्टावक्र गीता/४-४ )
भावार्थ:-जिस महापुरुष ने स्वयं को ही इस समस्त जगत के रूप में जान लिया है, उसके स्वेच्छा से वर्तमान में रहने को रोकने की सामर्थ्य किसमें है। Who can prevent a great man from living in the present as per his wish as he knows himself as this whole world.॥4॥यह सम्पूर्ण जगत ही ब्रह्म है । आत्मा के अतिरिक्त कोई पदार्थ नहीं । यह आत्मज्ञानी विवेकी पुरुष को ही दिखता है ।]>>>४." न मनुष्यात श्रेष्ठतरं हि किंचित।' स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का मुख्य आकर्षण केन्द्र (focal point/केन्द्रीय बिंदु) है- ' मनुष्य !' महाभारत में भी कहा गया है-" न मनुष्यात श्रेष्ठतरं हि किंचित।' -अर्थात मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, उससे बड़ा और कुछ भी नहीं है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-"मैं उस प्रभु का सेवक हूँ, जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं !" महाभारत में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से ठीक यही रहस्य उद्घाटित करते हुए कहते हैं -" नरत्वं नारायणोSसि । " किन्तु क्या इस कथन के मर्म को समझ पाना इतना आसान है ? नहीं, इस कथन के मर्म तक पहुँचना शायद इतना सरल नहीं है।
पहले हमें यह निर्णय लेना पड़ेगा कि राग-विवेकानन्द में गया जाने वाला वादी स्वर क्या मनुष्य ही है ? शायद नहीं। (भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रत्येक राग में दो स्वर महत्वपूर्ण माने गए हैं। सबसे महत्वपूर्ण स्वर को वादी स्वर कहते हैं, इसे राग का राजा स्वर भी कहते हैं। इस स्वर पर सबसे ज़्यादा ठहरा जाता है और बार बार प्रयोग किया जाता है। और उसके बाद दूसरे सबसे महत्वपूर्ण स्वर को संवादी स्वर कहते हैं। संवादी स्वर का महत्व वादी स्वर से कम होता है लेकिन यह राग की चाल को स्पष्ट करने के लिए वादी के साथ मिलकर महत्वपूर्ण योगदान करता है।) यदि कोई नौसिखिया गवैया (अप्रेन्टिस प्रशिक्षु -लीडरशिप ट्रेनी ) 'मनुष्य' को ही 'राग-विवेकानन्द' का वादी स्वर समझ कर गाने लगे तो, हो सकता है कोई अनुभवी-गवैया (dexterous-निपुण प्रशिक्षक) कहेंगे-
>>>प्रेममय नवनीदा का ' राग विवेकानन्द ' में वादी स्वर ब्रह्म (भगवान श्री रामकृष्ण) हैं, और मनुष्य है संवादी स्वर। उस स्वर में गाने से ही विवेकानन्द-संगीत का मर्म (तत्त्वमसि या दृष्टिं ज्ञानमयी ब्रह्ममयं जगत।) ठीक से समझ में आ सकेगा।
यह बात बिल्कुल सही है कि मनुष्य सर्व-श्रेष्ठ प्राणी है, उससे बड़ा और कुछ नहीं है। किन्तु इस बात को भी समझना पड़ेगा कि यह बात किस परिपेक्ष्य में कही गयी है ? इस सृष्ट जगत को "ऊर्ध्वमूल अधोशाखा" रूपी एक शाश्वत अश्वत्थ वृक्ष (पीपल का वृक्ष) के रूप में देखने की >>>'ज्ञानमयी दृष्टि' प्राप्त करने के बाद ही यह कहा जा सकता है कि इस सृष्ट जगत में मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, उस बड़ा और कुछ नहीं है! श्रीमद भागवत महापुराण (भागवत ११/९/२८ ) में भी इस बात को बहुत अच्छी तरह समझाया गया है, तथा यह भी स्पष्ट रूप से समझाया गया है कि मनुष्य को ही क्यों श्रेष्ठतम प्राणी कहा गया है ?
स्वामीजी कहते हैं- "प्रकृति के उपर विजय प्राप्त करने के लिए ही मनुष्य ने जन्म ग्रहण किया है, उसका दासत्व करने के लिए नहीं. मनुष्य को तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है, जब तक वह प्रकृति से उपर उठने के लिए संग्राम करता है. " (२/१९७) वे कहते हैं- " हमलोगों को केवल मनुष्य ही चाहिए, जितना अधिक संख्या में हो सके उतना ही अच्छा है. " प्रश्न है कैसा मनुष्य चाहिए ?
>>>प्रेममय नवनीदा का ' राग विवेकानन्द ' में वादी स्वर ब्रह्म (भगवान श्री रामकृष्ण) हैं, और मनुष्य है संवादी स्वर। उस स्वर में गाने से ही विवेकानन्द-संगीत का मर्म (तत्त्वमसि या दृष्टिं ज्ञानमयी ब्रह्ममयं जगत।) ठीक से समझ में आ सकेगा।
यह बात बिल्कुल सही है कि मनुष्य सर्व-श्रेष्ठ प्राणी है, उससे बड़ा और कुछ नहीं है। किन्तु इस बात को भी समझना पड़ेगा कि यह बात किस परिपेक्ष्य में कही गयी है ? इस सृष्ट जगत को "ऊर्ध्वमूल अधोशाखा" रूपी एक शाश्वत अश्वत्थ वृक्ष (पीपल का वृक्ष) के रूप में देखने की >>>'ज्ञानमयी दृष्टि' प्राप्त करने के बाद ही यह कहा जा सकता है कि इस सृष्ट जगत में मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, उस बड़ा और कुछ नहीं है! श्रीमद भागवत महापुराण (भागवत ११/९/२८ ) में भी इस बात को बहुत अच्छी तरह समझाया गया है, तथा यह भी स्पष्ट रूप से समझाया गया है कि मनुष्य को ही क्यों श्रेष्ठतम प्राणी कहा गया है ?
सृष्ट्वा पुराणि विविध अन्यजया आत्मशक्या,
' वृक्षान-सरीसृप-पशुन-खग-दंश-मत्स्यान ' ।
तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय;
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥
स्रष्टा ब्रह्मा ने पहले स्थावर, जंगम, पशु-पक्षी, डंक मारने वाले, जलचर-नभचर आदि कई योनियों कि रचना की, किन्तु जब वे इनमें से किसी से भी संतुष्ट नहीं हो सके, तब सबसे अंत में उन्होंने मनुष्य की सृष्टि की. अपनी इस असाधारण सृष्टि को देखकर उन्हें बहुत आनंद हुआ, क्योंकि मनुष्य का अन्तःकरण इतने उच्च कोटि का था, कि वह ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने या अपने सृष्टा को भी जान लेने में समर्थ था। स्वामीजी कहते हैं- "प्रकृति के उपर विजय प्राप्त करने के लिए ही मनुष्य ने जन्म ग्रहण किया है, उसका दासत्व करने के लिए नहीं. मनुष्य को तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है, जब तक वह प्रकृति से उपर उठने के लिए संग्राम करता है. " (२/१९७) वे कहते हैं- " हमलोगों को केवल मनुष्य ही चाहिए, जितना अधिक संख्या में हो सके उतना ही अच्छा है. " प्रश्न है कैसा मनुष्य चाहिए ?
इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए अपने सान फ्रांसिस्को में ९ अप्रैल १९०० के भाषण में स्वामीजी कहते हैं- " इस संसार में अवैतनिक लोक शिक्षक ( जन-नेता या मार्गदर्शक या गुरु ) तो बहुत से हैं, पर तुम पाओगे कि उनमें से अधिकतर एकांगी हैं। एक को बुद्धि का देदीप्यमान मध्याह्न सूर्य दिखाई देता है और कुछ नहीं सूझता. दुसरे को प्रेम का सुंदर संगीत सुनाई देता है, और कुछ नहीं सुन पड़ता. एक काम में डूबा हुआ है, उसे न कुछ महसूस करने का समय है, न विचार करने का. फिर हम उस महामानव को क्यों न प्राप्त करें, जो समान रूप से क्रियाशील, ज्ञानवान और प्रेमवान हो ? क्या यह असम्भव है ? निश्चय ही नहीं. बल्कि भविष्य में ऐसे ही मनुष्यों का निर्माण होने वाला है. वर्तमान समय में ऐसे मनुष्यों की संख्या थोड़ी ही है किन्तु निकट भविष्य में ऐसे ही पूर्ण विकसित मनुष्यों की संख्या उस समय तक बढती जाएगी जब तक कि समस्त संसार का मानवीकरण नहीं हो जाता. " (३/२१५)
" भगवान की इच्छा से यदि सब लोगों के मन में इस ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म का प्रत्येक भाव ही पूर्ण मात्रा में और साथ ही समभाव से विद्यमान रहे, तो मेरे मत से मानव का सर्वश्रेष्ठ आदर्श यही होगा. जिसके चरित्र में इन भावों में से एक या दो प्रस्फुटित हुए हैं, मैं उनको एकपक्षीय कहता हूँ...समभाव से विकास लाभ करना ही मेरे कहे हुए धर्म (या चरित्र) का आदर्श है. " (३/१५१) " भागवत में भी कहा है-
यदा न कुरूते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम् |
समदॄष्टेस्तदा पुंस: सर्वा: सुखमया दिश: ||
जो मनुष्य 'जटिल-कुटिला' (अनिन्दो, अरुणाभ में भी वही प्रेममय नवनीदा अद्वैत प्रभु) का विनाश करने के लिये, अचेतन सागर की अन्तिम गहराई तक मंथन करके देख लेता है, और उसे सबों में स्वयं के सिवा कुछ नहीं दिखता। तब वह मनुष्य अपने मन में किसी भी जीव के प्रती अमंगल भावना नही रखता, सभी की ओर सम्यक् दॄष्टीसे देखता है, ऐसे मनुष्य को सब ओर सुख ही सुख है। जब सर्वभूतों के प्रति सम-दृष्टि की सहायता से अमंगल का भाव पूरी तरह निवृत्त हो जाता है तब मनुष्य के लिए सब कुछ सुखमय हो उठता है!
हन्तात्मज्ञानस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया |
न हि संसारवाहीकैर्मूढैः सह समानता ||
अष्टावक्र गीता/४- १||
अष्टावक्र कहते हैं -स्वयं को जानने वाला बुद्धिमान (ब्रह्मविद) व्यक्ति इस संसार की परिस्थितियों को खेल की तरह लेता है, उसकी सांसारिक परिस्थितियों का बोझ (दबाव) लेने वाले मोहित व्यक्ति के साथ बिलकुल भी समानता नहीं है॥ (हंता का अर्थ है- जिसने अपने को पोंछ डाला, मिटा डाला; 'हे हंत, भोगलीला के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीरपुरुष की बराबरी संसार को सिर पर ढोनेवाले मूढ़ पुरुषों के साथ कदापि नहीं हो सकती। '
>>>>प्रेम धर्म का सार है। “आत्म-ज्ञान का उदय होने से पहले की द्वैत-बुद्धि भ्रामक है; पर जब अचेतन सागर की गहराई तक मंथन कर लेने के बाद प्रेम स्वरूप श्री ठाकुर से भिन्न कोई 'जटिला-कुटिला' दिखती ही नहीं। इस प्रकार जब हमारी बुद्धि ज्ञान से आलोकित हो जाती है, तब हम अनुभव करते है कि द्वैत तो अद्वैत से भी अधिक सुन्दर है। और द्वैत की कल्पना ही इसलिए की गई है कि पूजा (अर्थात शिव ज्ञान से सेवा ) की जा सके। कारण कि बोध से पहले का भेद अहम् के कारण होता है और बोध के बाद का (प्रेमकी वृद्धिके लिये होनेवाला) भेद अहम् का नाश होने पर होता है ।
>>>६. महामण्डल युवा आन्दोलन का वैशिष्ट्य : (ब्रह्म और जगत की व्याख्या कर जगत से ब्रह्म तक पहुँचने के मार्ग का वर्णन करने में समर्थ युवा नेतृत्व को प्रशिक्षित करना): महामण्डल श्री माँ सारदा, भगवान श्री रामकृष्ण देव एवं स्वामी विवेकानन्द के परम-भक्त 'नवनी दा' के मार्गदर्शन में- 'भक्त प्रह्लाद' जैसे तरुण लोक-शिक्षकों (भक्तों या नेताओं) का निर्माण करने वाला एक ऐसा युवा संगठन है, जो 'होली-ट्रायो' के आशीर्वाद से "ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य" से सम्पन्न मनुष्यों की श्रृंखला (वेदान्त केसरी की श्रृंखला) से निर्मित एक पुल के रूप में आविर्भूत हुआ है!
जैसे जापानी लड़कियाँ यह विश्वास करती हैं कि यदि उनकी गुड़िया को हृदय से प्रेम किया जाय तो वे एक दिन जीवित हो उठेंगी, उसी तरह महामण्डल का भी विश्वास है कि " यदि अभागे, निर्बुद्धि, पददलित, चिर-विभूक्षित, झगड़ालू और ईर्ष्यालु भारतवासियों को भी कोई हृदय से प्रेम करने लगे, तो भारत पुनः जाग्रत हो जायेगा।" इसीलिये स्वामी जी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं, " देश-भक्त बनो, जिस राष्ट्र ने अतीत में हमारे लिये इतने बड़े-बड़े काम किये हैं, उसे प्राणों से भी प्यारा समझो। तुम अनुभव करो, हृदय से अनुभव करो। क्या तुम हृदय से यह अनुभव करते हो कि देवों और ऋषियों की करोड़ों सन्तानें आज पशु तुल्य हो गयी हैं ? हृदय से अनुभव करते हो कि लाखों लोग भूखों मर रहे हैं ? क्या तुम यह सब सोचकर बेचैन हो जाते हो ? क्या इस भावना ने तुम्हारी निद्रा छीन ली है ? क्या उसने तुम्हें पागल सा बना दिया है? " ठीक उसी प्रकार महामण्डल भी हमें अपने देश और देशवासियों से प्रेम करना सिखाता है, क्योंकि महामण्डल के आदर्श स्वामी विवेकानन्द के लिये 'ईश्वर-भक्ति और सर्वभूत दया ' का अर्थ था " भारत-भक्ति और भारतवासियों की सेवा" उन्होंने अगले ५० वर्षों तक केवल भारत को ही जीवित ईश्वर मानकर उसकी पूजा अर्थात सेवा करने का उपदेश दिआ था! क्योंकि नवनी दा स्वयं भारतवर्ष से प्रेम के जीवन्त विग्रह हैं, देशवासियों के कष्ट को देखकर फूट-फूट कर रोते हैं। भारत एवं भारतवासियों के कष्ट की भावना उनके रक्त के साथ मिलकर उनकी धमनियों में बहती थी, उनके हृदय के स्पन्दन में मिल गयी थी। जाति -धर्म- भाषा के आधार पर कोई भेदभाव किये बिना - सम्पूर्ण भारतवासियों के प्रति असीम प्रेम और करुणा - यही महामण्डल आन्दोलन का वैशिष्ट्य है !
एक दिन स्वामी जी बागबाजार में बलराम बोस के मकान में अपने शिष्य शरत चन्द्र चक्रवर्ती के साथ बड़े बड़े उत्साहपूर्वक वेदों के विषय में चर्चा कर रहे थे कि - " वेद का अर्थ है, शाश्वत सत्यों का समूह ! वेदज्ञ ऋषियों ने इन अनादि सत्यों (चार महावाक्यों) को प्रत्यक्ष किया था। बिना अतीन्द्रिय दृष्टि के साधारण दृष्टि से ये सत्य प्रत्यक्ष नहीं होते। Rishi means "the seer of the truth of the Mantras", इसलिए वेद में ऋषि का अर्थ है, " मन्त्रार्थदर्शी " (तत्वमसि आदि), जनेऊधारी ब्राह्मण नहीं ? ब्राह्मणादि जातिविभाग वेदों के बाद हुआ। वेद शब्दात्मक है, ॐ वह सूक्ष्म भाव है जो क्रमशः व्यापक स्थूल रूप में अपने को व्यक्त करता है। अतः प्रलयकाल में भावी सृष्टि का सूक्ष्म बीज-समूह वेद में ही सम्पुटित रहता है। इसीलिये पुराण में पहले पहल श्री मत्स्यावतार में वेद का उद्धार दिखाई देता है। प्रथमावतार मीनावतार में भगवान ने वेद का उद्धार किया। फिर उसी वेद से क्रमशः सृष्टि का विकास होने लगा। अर्थात वेदनिहित शब्दों का आश्रय लेकर विश्व के समस्त स्थूल पदार्थ एक एक कर बनने लगे, क्योंकि शब्द या भाव (नाम) ही समस्त स्थूल पदार्थों का सूक्ष्म रूप है। पूर्व कल्पों में भी इसी प्रकार सृष्टि हुई थी, यही बात जनेऊ धारण मंत्र में -"सूर्यचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वम कल्पयत" कहा है, समझे? "
शिष्य- महाराज ठीक से नहीं समझ सका।
स्वामी जी - यहाँ तक तो समझ गए कि जगत में जितने घट हैं, उन सबके नष्ट होने पर भी 'घट' शब्द रह सकता है। फिर जिन वस्तुओं की समष्टि को जगत कहते हैं, उनके नाश होने पर भी उन पदार्थों का बोध कराने वाले शब्द क्यों नहीं रह सकते ? और उनसे फिर सृष्टि क्यों नहीं प्रकट हो सकती ?
शिष्य -परन्तु महाराज 'घट घट ' चिल्लाने से तो घट नहीं बन जाता ?
स्वामी जी -तेरे या मेरे इस प्रकार चिल्लाने से नहीं बनते, किन्तु सिद्धसंकल्प ब्रह्म में घट की स्मृति होते ही घट का प्रकाश हो जाता है ! जब साधारण साधकों की इच्छा से आज भी 'अघटन-घटित' हो जाता है, तब सिद्धसंकल्प ब्रह्म का फिर कहना ही क्या ? सिद्धसंकल्प ब्रह्म में क्रमशः एक एक शब्द होते ही उसी क्षण उन उन पदार्थों का भी प्रकाश हो जाता है और इस प्रकार इस विचित्र जगत का विकास हो जाता है। अब तो समझे न कि कैसे शब्द ही सृष्टि का मूल है ?
शिष्य - हाँ महाराज, समझ में तो आया, किन्तु ठीक धारणा नहीं हो सकी !
स्वामी जी -अरे बेटे ! प्रत्यक्ष रूप से अनुभूति होना या (आत्मसाक्षात्कार होना) क्या इतना सुगम समझा है ? 'ब्रह्मावगाही मन' एक एक करके ऐसी अवस्थाओं से गुजरता है और अंत में निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त होता है। .... अवतारतुल्य महापुरुष लोग समाधि अवस्था से जब 'मैं' और 'मेरा' के राज्य में लौट आते हैं, तब वे प्रथम ही अव्यक्त नाद का अनुभव करते हैं। फिर नाद के स्पष्ट होने पर ॐ कार का अनुभव करते हैं, ओंकार के पश्चात शब्दमय जगत का अनुभव कर अन्त में स्थूल पंचभौतिक जगत को प्रत्यक्ष देखते हैं। किन्तु साधारण कोटि के साधक लोग यदि नाद से परे पहुंचकर ब्रह्म की साक्षात् उपलब्धि कर भी लें, तो भी जिस अवस्था में स्थूल जगत का अनुभव होता है, वहाँ वे उतर नहीं सकते- ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं !
>>>"क्षीरे नीरवत् — Like water in milk"- They melt away in Brahman, -दूध में जल के समान, वे भी ब्रह्म में लीन हो जाते हैं ! श्री ठाकुर कहते थे -"जैसे नमक का पुतला सागर की गहराई नापने गया तो उसी में घुल गया ! "६/५४-५५
स्वामी जी की बातों से शिष्य को स्पष्ट प्रतीत होने लगा कि स्वामी जी स्वयं इन अवस्थाओं में से होकर समाधि-भूमि में अनेक बार गमनागमन कर चुके हैं ! यदि ऐसा न होता तो ऐसे विशद रूप से वे इन सब बातों को समझा कैसे रहे हैं ? शिष्य ने निर्वाक होकर सुना और सोचने लगा कि इन अवस्थाओं को स्वयं प्रत्यक्ष किये बिना, कोई दूसरे को ऐसी सुगमता से इन बातों को समझा नहीं सकता ! श्रीरामकृष्ण के एक गृही शिष्य गिरीश चन्द्र घोष भी वहाँ उपस्थित थे। दोनों बड़े गौर से इस विषय पर स्वामीजी की मनमोहक व्याख्या सुन रहे थे। स्वामी जी द्वारा सविस्तार बोलने के बाद ज्ञान, भक्ति और कर्म का समान महत्व समझाने के उद्देश्य से कहते हैं, " नरेन, मैं तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ; मैं जानता हूँ कि तुमने वेद-वेदान्त के दर्शन का बड़ी गहराई से अध्यन किया है, परन्तु क्या उनमें निर्धनता, भुखमरी और देश को निष्प्राण कर रही अन्य भयंकर समस्याओं का भी कोई समाधान लिखा है ? श्रीमती अमुक, जो प्रतिदिन पचास लोगों को भोजन करवाया करती थीं, वे स्वयं तीन दिनों से अनाहार का कष्ट भोग रही हैं, बदमाशों ने एक गृहणी को मार डाला है, और मेरी परिचित एक विधवा अपने सम्बन्धियों द्वारा अपनी सम्पत्ति से बेदखल कर दी गयी है ? क्या तुम्हारे वेद उसे न्याय दिला सकते हैं ? क्या तुम्हारे शास्त्र उसके कष्ट दूर करके हमें आश्वस्त कर सकते हैं कि ऐसी घटनायें दुबारा नहीं होंगी ? " गिरीश बाबू और भी उदाहरण देते हुए समाज की भयंकर दुर्दशा का चित्रण करने लगे। स्वामी जी निस्तब्ध बैठे रहे। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे और वे शीघ्रता से उठकर कमरे से बाहर चले गए। तब गिरीश बाबू ने शरत चन्द्र की ओर उन्मुख होकर कहा, " देखा तुमने ! तुम्हारे गुरु का हृदय कितना विशाल है! स्वामी जी की वेद-वेदान्त में विद्वता के कारण नहीं, बल्कि अनन्त प्रेम तथा दूसरों के दुःख दूर करने के लिये उनकी आकुलता के लिए ही मैं उनके प्रति आदर का भाव रखता हूँ। तुमने अपनी आँखों से देख लिया कि अपने देशवासियों के कष्ट की बात सुनकर वे किस प्रकार फुट-फूटकर रोने लगे ? वेद-वेदान्त नहीं मानवता के प्रति प्रेम तथा करुणा ही स्वामी जी के हृदय को अभिभूत कर देते हैं!"
पुनः स्वामी जी शिष्य से कहते हैं - " जीव-सेवा से बढ़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है। सेवाधर्म का यथार्थ अनुष्ठान (बी ऐंड मेक) करने से संसार का बंधन सुगमता से छिन्न हो जाता है -मुक्तिः करफलायते!
फिर गिरीश बाबू से बोले -" देखो जी.सी., लगता है कि यदि जगत का दुःख दूर करने के लिये मुझे सहस्रों बार जन्म लेना पड़े, तो भी मैं तैयार हूँ। इससे यदि किसी का तनिक भी दुःख दूर हो, तो वह मैं करूँगा। और ऐसा भी मन में आता है कि केवल अपनी ही मुक्ति से क्या होगा ? सबको साथ लेकर उस मार्ग पर जाना होगा ! क्या तुम कह सकते हो कि ऐसे भाव मन में क्यों उठते हैं ? गिरीश बाबू -यदि ऐसा न होता तो श्री गुरुदेव तुम्हीं को सबसे ऊँचा आधार क्यों कहते ? (महामण्डल को ही जीवसेवा का चपरास क्यों सौंपते?) भारत के कल्याण के लिए और महामण्डल आन्दोलन को सफल बनाने के लिए ऐसे ही समर्पित हृदय की आवश्यकता है।
>>> विवेकानन्द और युवा आन्दोलन "दादा ने (Wednesday, February 8, २०१२ (समस्त ४२ निबन्ध में)
कहा है, " आमोद-प्रमोद वाले सांस्कृतिक अनुष्ठानों के माध्यम से युवाओं का चरित्र-निर्माण नहीं हो सकता है. इस प्रकार के स्वार्थपर आंदोलनों से इतर ' युवा आन्दोलन ' का एक अलग वैशिष्ट्य एवं उद्देश्य होता है. अतेव तरुणों या तरुणियों के द्वारा स्थापित किसी भी संघ या समिति द्वारा संचालित कार्य को ' युवा-आन्दोलन ' की संज्ञा नहीं दी जा सकती है. इसीलिए यथार्थ युवा आन्दोलन का अपना एक पूर्व निर्धारित आदर्श, उद्देश्य एवं कार्यपद्धति अवश्य होना चाहिए.यथार्थ युवा आन्दोलन की पहचान है-' पुराने लीक पर चलना छोड़ कर नये राह की खोज करना !'
यथार्थ युवा- आन्दोलन केवल व्यक्ति या समाज को ही नहीं,बल्कि पूरी मानव-सभ्यता को ही ' जरा ' (Decrepitude) एवं ' वार्धक्य ' (उम्र के आधार पर सेवानिवृत्ति की बाध्यता ) के पंजों से छुटकारा दिलाना चाहता है तथा मनुष्य-मात्र के ' तारुण्य ' को अमरता प्रदान कर उसे अक्षुन्न बनाये रखना चाहता है. तभी तो युगों युगों से तरुणों का प्राण (हृदय का रक्त), हर प्रकार के अन्याय (नाइंसाफी) एवं अधर्म के विरुद्ध, कायरता के विरुद्ध, क्लैव्यता के विरुद्ध, अज्ञानता के विरुद्ध, तथा सभी तरह के बन्धनों के विरुद्ध संग्राम ही करता चला आ रहा है.
बहुत से लोग ऐसा मानते हैं, कि जर्मनी के कार्ल फीसर ने १८९७ ई० में इस प्रकार के युवा-आन्दोलन के जनक हैं, किन्तु यह बात सत्य नहीं है ! ( भारत में प्रह्लाद का आन्दोलन, ध्रुव का आन्दोलन भागवत में तथा नचिकेता का आन्दोलन कठोपनिषद में लीपिबद्ध है.) जब-जब मानव-सभ्यता ' जरा एवं वार्धक्य ' की व्याधि से ग्रस्त होगी, तब तब उसे ' जरा एवं वार्धक्य ' के पंजों से छुटकारा दिलाने के लिए एक अभिनव 'युवा-आन्दोलन' भी आविर्भूत होता रहेगा ! अति प्राचीन युग में हमारे पूर्वज ' राम-राज्य ' स्थापित करने का स्वप्न देखा करते थे. ग्रीस के लोग (इटली की प्रधान मंत्री रायसीना संवाद में मोदीजी के साथ मिलकर) एक ' आदर्श प्रजातंत्र ' को स्थापित करने का स्वप्न देखते थे.
विश्व के समस्त देशों के मनीषियों तथा चिंतनशील विद्वानों ने तरुणों का जयगान किया है. बर्लिन विश्व विद्यालय के प्राध्यापक पौल्सन अपनी पुस्तक ' दर्शन-भूमिका ' में कहते हैं- " धरती के वक्षस्थल पर सम्पूर्ण विश्व में जितनी बार भी क्रांतियाँ घटित हुई हैं, उतनी ही बार उसके अग्रदूत (प्रणेता) के रूप में ' महान युवक संघ ' ही आविर्भूत हुआ है.
" प्रख्यात मनीषी विनय सरकार लिखते हैं- " युगों युगों से विश्व के समस्त देशों में वहाँ के १६ से २० वर्ष के एवं २६ से ३० वर्ष के तरुणों-तरुणियों की मुट्ठियों में ही उस देश की उन्नति की चाभियाँ झनझनाया करती हैं ! " जापान के डॉ मतोदा कहते हैं- " युवाओं का ' जीवन-व्रत ' वर्तमान में तथा ' लक्ष्य ' भविष्य में टिका होता है. "
आधुनिक युग में हमलोगों ने ऐसे ही एक युवा-नेता श्रीरामकृष्ण को एक अभूतपूर्व ' युवा-संगठन ' गढ़ते हुए देखते हैं. वे दक्षिणेश्वर के काली मन्दिर में अपने कमरे की छत पर खड़े होकर युवाओं को ही अपना सबसे नजदीकी सहायक मानते हुए आह्वान करते हैं- " तुम सब कौन, कहाँ हो रे -आओ ." एवं इस तथ्य से विश्व का कोई भी वैज्ञानिक तर्कबुद्धि से सम्पन्न व्यक्ति अस्वीकार नहीं कर सकता, कि उनके उस आह्वान के प्रतिउत्तर में उनके पास- प्राण उर्जा से परिपूर्ण, ( नरेंद्र-काली प्रमुख ) कुछ युवा एकत्र हो जाते हैं, एवं उन्हीं के निर्देशन में युवाओं का वह संगठन धार्मिक कट्टरता तथा अधर्म के विरुद्ध आन्दोलन चलाकर एक अभिनव ' रामकृष्ण- साम्रज्य ' की स्थापना कर देते हैं !
>>>भगवान श्रीरामकृष्ण की अपूर्वता किसमें है ? ईश्वर के अनेक अवतार (१०,२४ अवतार और असंख्य ?) हुए हैं और स्वयं अपनी 'अपूर्वता ' में प्रत्येक अवतार वरिष्ठ हैं! इस बात को समझ जाने के बाद हमें भी " अवतार वरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः " कहना ही पड़ेगा!
संसार के सभी विचारशील पुरुषों को इस बात का निश्चय हो चुका है कि "अनेकता में एकता "- यूनिटी इन डाइवर्सिटी ही विश्व का रहस्य है ! सभी धर्म एक ही सदवस्तु को प्राप्त कराने वाले भिन्न-भिन्न मार्ग हैं, इसलिए एक को दूसरे से द्वेष नहीं करना चाहिये। बल्कि अपनी अपनी धर्म कक्षा में ही रहते हुए क्रमशः उन्नत मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य बनना चाहिये,और 'अन्य धर्म के प्रति उदासीन रहना' चाहिये। यही जो दूसरों के धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करने से मनाही थी - इसी धारणा के कारण अपने मत से भिन्न मतों के प्रति लोगों के मन में उपेक्षा का भाव उत्पन्न होता था, और आत्मीयता के अभाव में (हिन्दू-मुस्लिम) प्रेम उत्पन्न होने का कोई मार्ग नहीं था। ऐसी आत्मीयता का अनुभव कराने के लिये कोई साधन न था कि भिन्न-भिन्न धर्म वाले अपने-अपने धर्म में रहते हुए भी - चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माण कारी प्रशिक्षण कर सकते हैं; इसीलिए सभी मनुष्य एक दूसरे के सहधर्मी हैं ! क्योंकि उन सबका उद्गमस्थान एक ही है ! इसी कमी को दूर करने के लिए भगवान श्रीरामकृष्ण देव का अवतार हुआ , तथा इस शिक्षा को भारत के कोने कोने तक पहुँचा देने के लिये महामण्डल को भी आविर्भूत होना पड़ा !
श्री ठाकुर कहते थे - "जितने मत उतने पथ ", 'सभी मार्ग एक ही ईश्वर की ओर जाते हैं' , तालाब के चार घाट से सभी एक ही पानी लेते हैं, कोई जल तो कोई वाटर कहता है' -इस युगधर्म (सत्य-युग धर्म) का जो कोई भी मनुष्य अनुसरण करेगा, वह अपने ही धर्म में रहकर अन्य धर्मावलम्बियों के साथ आत्मीयता का अनुभव करेगा ! अनेकता में एकता किस प्रकार होती है ? परमसत्य क्या है ? दादा कहते थे - केवल महामण्डल आंदोलन में लगे रहने से ही - उन्हें वेदान्त के महावाक्यों की सत्यता (तत्वमसि) का उन्हें अनुभव हो जायेगा ! अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी !'
हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों के अनुसार साधना करते हुए, उनमें सिद्धि प्राप्त करने के बाद ही श्री रामकृष्ण देव 'विधि-निषेधातीत परमहंसावस्था' में प्रतिष्ठित हुए थे! इसके पश्चात् उन्होंने इस्लाम, ईसाई आदि धर्मों की लौकिक दीक्षा लेकर उनकी यथाविधि साधना (सूफ़ी संत गोविन्द राय से नमाज और अल्ला के ९९ नाम जप की दीक्षा प्राप्त) करके इस सत्य की साक्षात् उपलब्धि कर ली थी कि सभी धर्म उस एक ही आद्वितीय परमेश्वर (अल्ला,गॉड या ब्रह्म) की ओर ले जाते हैं!
यही कारण है कि विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों को नष्ट न करके, परस्पर एक दूसरे के साथ एकत्व बोध का अनुभव करना, उन्होंने अपने जीवन के द्वारा प्रत्यक्ष दिखा दिया। और यही रामकृष्ण-अवतार की अपूर्वता है! उन्होंने अपने जीवन और आचरण के द्वारा प्रत्यक्ष रूप में सभी धर्मों का समन्वय कर दिखाया है, जो बात अन्य किसी अवतार में दिखाई नहीं देती।
ईश्वरदर्शन के उपरान्त (सोऽहं बोध के उपरान्त) भक्त का अहं रखकर ही महामण्डल का नेता बना जा सकता है। श्री रामकृष्ण ने यह जानकर भी कि जो कुछ है -श्री माँ जगदम्बा ही हैं; इस बात को अपने जीवन द्वारा प्रमाणित करने के लिए उन्हें हरेक धर्म की लौकिक दीक्षा (विद्या गुरुमुखी है, गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में) लेना आवश्यक था, क्योंकि वैसा किये बिना दूसरे धर्म वाले लोग उन्हें प्रत्यक्ष अपने निजी धर्म का अनुयायी नहीं समझ सकते थे! "भिन्न भिन्न धर्मों की प्रत्यक्ष दीक्षा लेकर गुरु और उस धर्म के शास्त्रों में बताई हुई साधना करने का उन्होंने जो प्रचण्ड प्रयत्न क्यों किया था ? इस दृष्टि से विचार करने पर उस प्रश्न का समाधान भी हो जाता है।
श्री रामकृष्ण देव का नियम था कि नेता को " प्रत्येक बात में शास्त्रमर्यादा का पालन करना चाहिये।" उनका यह दृढ विश्वास था कि " यदि ईश्वर है ही, तो वे अन्य सब वस्तुओं के समान दैनन्दिन जीवन में व्यवहार्य भी होने चाहिये। सगुण सृष्टि से अतीत होने पर भी यदि इस सगुण ै सृष्टि को वे ही चलाते हैं, तो अन्य सब वस्तुओं के समान वह परमार्थ वस्तु भी प्रत्यक्ष व्यवहार्य होगी। अतएव उनका प्रत्यक्ष अनुभव क्यों न होना चाहिये? इस प्रकार की व्याकुलता उनके चित्त में उत्पन्न हुई और यही श्रीरामकृष्ण की मुमुक्षु दशा है। इसी एक व्याकुलता के कारण वे साधन-चतुष्टय सम्पन्न हो गए और उनके साधक जीवन का आरम्भ हुआ।
>>>उनकी सिद्धावस्था अनुकरण के परे है ! हम सामान्य मनुष्यों को उसके संबंध में विचार करने की आवश्यकता भी नहीं है। किन्तु उनके मुमुक्षु और साधक-भाव हमारी शिक्षा के लिये ही है; अतः उनके इन भावों से हमें क्या सीखना है, उसी ओर हमारी दृष्टि रहनी चाहिये। केवल 'ईश्वर है' ऐसा बौद्धिक समाधान न मानकर , वे व्यवहार्य कैसे हो सकते हैं, इसका विचार प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिये - और यही श्री ठाकुर के मुमुक्षुभाव की शिक्षा है।
श्रीरामकृष्ण देव ने साधना काल में कौन कौन सी साधनायें कीं इसका विस्तृत विवरण मिलता है, जबकि अन्य अवतारों के विषय में ऐसा कोई विवरण नहीं मिलता कि उनकी अन्तः शक्ति का विकास कौन कौन साधनायें करने के बाद हुआ ? ऐसा क्यों ? श्रीरामकृष्ण देव की विशेषता है कि उनके चरित्र का बहुत सा अंश ज्यों का त्यों उन्हीं के श्रीमुख से सुनने को मिल सका है, जिससे संसार को अपूर्व लाभ हुआ है।
>>>"भैरवी मुझे चैतन्यदेव का अवतार समझती थी ", " जो राम और कृष्ण के रूप में आ चुके हैं, वे ही इस बार रामकृष्ण के रूप में आये हैं !", " इस चित्र की पूजा घर घर होगी ", 'मुझपर अपना सारा भार सौंप दो-बकलमा दे दो !' आदि यह सब उन्होंने अहंकारी होकर नहीं कहा है, उनमें बालक-भाव सदा प्रबल रहता था, उसके कारण उनकी गम्भीरता दूर हो जाती थी, और प्रसंगवश उनसे बोले बिना (अपना भेद खोले बिना) नहीं रहा जाता था। अत्यन्त निरभिमानता के कारण उनके श्रीमुख से ये बातें निकल पड़ती थीं। इस तरह उनका सारा चरित्र लगभग उनके ही श्रीमुख से सहज ही प्रकट हुआ है। " अभिमानी जीव जिस प्रकार व्यवहार करते हैं, ठीक उसी प्रकार का व्यवहार स्वाभाविक रीति से करने में सक्षम होना -ही निराभिमानता की चरम सीमा है ! " इसीलिये किसी अन्य व्यक्ति या थर्ड परसन के विषय में जैसे कहा जाता है, उनके श्रीमुख से 'श्रीरामकृष्ण शरीर' के प्रति (नाम-रूप के प्रति) वैसे ही उद्गार व्यक्त होते थे !
"अवतारी पुरुष अपने जीवन से शिक्षा देने के लिये ही अवतरित होते हैं" - किन्तु बुद्ध और चैतन्य देव छोड़कर उनकी जीवन गाथाओं में यह वर्णन विस्तार पूर्वक नहीं मिलता कि साधक अवस्था में उन्हें अपनी आशा-निराशा से किस प्रकार जूझना पड़ा ? किस तरह उन्होंने अपने दोषों पर विजय प्राप्त की ? और किस तरह उन्होंने सदैव अपने ध्येय की ओर दृष्टि रखते हुए, ईश्वर (माँ जगदम्बा) पर पूर्ण विश्वास रखकर उन विघ्नों को दूर किया ? ऐसा क्यों ? उन महापुरुषों के प्रति परमेश्वर के समान भक्ति रहने के कारण उनके भक्त ऐसा सोचते हैं, कि अवतारी पुरुष को साधारण मनुष्य के समान जानने से हमारी भक्ति में हानि होगी। भक्त में सदा ऐसी भावना रहती है कि हमारे आराध्य देव सर्वांग पूर्ण हैं ! वह यह मानने को तैयार नहीं होता कि " मानव-शरीर धारण करने के कारण उनमें कभी कभी मानवोचित दुर्बलता दिखाई देना सम्भव है। वह तो माखन-चोरी, गोबरधन-पर्वत उठाने, गौ चराने में भी -उनके बाल मुख में ब्रह्माण्ड दर्शन के लिए उत्सुक रहता है। भक्त तो उनकी उस छोटीअवस्था में भी उनकी सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता, उदारता और असीम प्रेम की खोज किया करता है। इसलिए उनके साधना काल का इतिहास लिखकर उनके देव-चरित्र की असम्पूर्णता को संसार के समक्ष प्रकट न करना ही अच्छा है ! हमें ऐसे लोगों के विरुद्ध कुछ नहीं कहना चाहिये !
पर सच तो यह है कि प्रेममय श्री नवनी दा के प्रति गुरु-भक्ति परिपक्व न होने के कारण ही उनमें यह दुर्बलता रहती है। भक्ति की प्रथमावस्था में ही ईश्वर को (माँ के अनेक-नाम-रूप को) ऐश्वर्यहीन बनाकर चिंतन करना भक्त के लिये सम्भव नहीं होता। किन्तु जब उनकी भक्ति परिपक्व हो जाती है, और ईश्वर में उसका प्रेम अत्यन्त बढ़ जाता है, तब उसे दिखता है कि ऐश्वर्य की चिंता भक्ति के मार्ग में बाधक है ; तब वह ऐश्वर्य की कल्पना को दूर रखने का प्रयत्न करता है। यह बात भक्तिशास्त्र में बारम्बार बताई गयी है। श्रीकृष्ण के ईश्वरत्व का प्रमाण बारम्बार पाने के बाद भी यशोदा उसे अपना पुत्र ही समझकर उसका लालन-पालन करती थी। श्रीकृष्ण ही ईश्वर हैं, यह निश्चय हो जाने के बाद भी गोपियाँ उन्हें अपने सहचर की ही दृष्टि से देखती थी। अन्य अवतारों के संबंध में भी यही बात पायी जाती है !
(नवनी दा या महामण्डल की विशेषता 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' में सुनने को मिला उन घटनाओं से महामण्डल कर्मियों को अपूर्व लाभ हुआ है।)
(नवनी दा या महामण्डल की विशेषता 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' में सुनने को मिला उन घटनाओं से महामण्डल कर्मियों को अपूर्व लाभ हुआ है।)
तो क्या भक्त को अपने आराध्य देव के ऐश्वर्य को देखने का भाव नष्ट कर देना चाहिये ? यदि कोई श्रीरामकृष्ण के पास भगवान की अलौकिक शक्ति या ऐश्वर्य का प्रत्यक्ष दर्शन कराने का आग्रह करता तो वे बहुधा यही कहते - " अरे भाई ! इस प्रकार दर्शन की इच्छा करना ठीक नहीं है। ऐश्वर्य के दर्शन से मन में भय उत्पन्न होता है! और भोजन कराना, सजाना, लाड़प्यार करना, इस प्रकार का प्रेम या भक्ति का भाव नहीं रह पाता। "
या अधिक जिद करने पर कहते , " अरे, मेरे कहने से क्या होगा ? माँ की जैसी इच्छा होगी, वैसा ही होगा (दर्शन -श्रीवराह-नरसिंह का दर्शन?) " इतने पर भी चुप न रहकर यदि कोई कहता, "आप इच्छा करेंगे तो माँ की भी इच्छा होगी ही," तो वे कहते -" मेरी तो अत्यन्त इच्छा है कि तुम सब को सब प्रकार की अवस्था और सब प्रकार के दर्शन प्राप्त हों, पर वैसा होता कहाँ है ? और इतने पर भी उस भक्त ने यदि अपना हठ न छोड़ा, तो वे हँसकर कहते -" क्या कहूँ बाबा, माँ की जो इच्छा होगी वही होगा। " वे ऐसा कहते, पर उसके विश्वास को कभी नष्ट नहीं करते थे। उनका यह भाव उनके शिष्यों ने प्रत्यक्ष देखा है। और उन्होंने बारम्बार यह कहते भी सुना है कि " किसी का भाव कभी नष्ट नहीं करना चाहिये। "
>>>> श्रीरामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ मानकर उनकी पूजा करनी चाहिए या मार्गदर्शक नेता मानकर उनके उपदेशों के अनुसार यथार्थ मनुष्य (100 निःस्वार्थी) बनने और बनाने की चेष्टा करनी चाहिए ?
श्रीरामकृष्ण की कृपा प्राप्त करके धन्य होने के लिये हमें उनको अपने ही समान मनुष्य मानना होगा। हमारे ही समान उन्हें भी सुख-दुःख का अनुभव होता था, तभी तो उन्होंने हमारे दुःख मिटाने का प्रयत्न किया। अतः उन्हें अपने समान मानवभावापन्न मानने के अतिरिक्त हमारे लिए और दूसरा मार्ग नहीं है, और सच पूछिये तो जबतक हम सब बंधनों से मुक्त होकर परब्रह्मस्वरूप में लीन नहीं होते, तबतक हमें जगत्कारण ईश्वर और उनके अवतारों को 'मनुष्य ' ही मानना पड़ेगा। "देवो भूत्वा देवं यजेत ' यह उक्ति इसी दृष्टि से सत्य है ! यदि तुम समाधि द्वारा स्वतः निर्विकल्प अवस्था तक पहुँच सको, तभी तुम ईश्वर के यथार्थ स्वरुप को समझकर उसकी सच्ची पूजा कर सकोगे ! इस प्रकार संसार को भावी युगधर्म का सूत्रपाठ सिखाने के लिये अवतीर्ण भगवान श्री रामकृष्ण के अलौकिक जीवन और महामण्डल के अलौकिक चरित्र-निर्माणकारी लीडरशिप ट्रेनिंग पद्धति का अनुशीलन करने से हमारा जब जीवन गठित हो जायेगा, बी ऐंड मेक के प्रचार-प्रसार में लगे रहें तो निश्चय ही भारत का बड़ा कल्याण होगा।
(कुछ बात है की हस्ती, मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ; हमारा, सारे … आइये विचार करें कि वह क्या बात है कि ‘ हस्ती, मिटती नहीं हमारी ‘ . एक समृद्ध देश के रूप में भारत की प्रसिद्धि दूर दूर तक थी। भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। इन हजारों साल के दौरान हमारी समृधि और अन्य कारणों से आकर्षित होकर भारी संख्या में लोग बाहर से आते गए और यहाँ बसते गए। हमारे यहाँ किसी को मना नहीं किया गया। इसमें से ग्रीक, हून, कुशान, मंगोल, तुर्क, मुग़ल मुसलमान, पारसी प्रमुख हैं। सभी को यहाँ शरण मिली और उनका स्वागत किया गया। ये लोग अपनी सभ्यता और संस्कृति भी साथ लाये। सभी नें अपनी सभ्यता और संस्कृति के साथ साथ यहाँ की सभ्यता एवं संस्कृति को भी अपनाया और उसमें घुल मिल गए। सब के परस्पर आपसी, संपर्क ( interaction ) से एक संयुक्त मिली जुली ( composite) सभ्यता एवं संस्कृति का विकास हुआ। एक मिली जुली पहचान का विकास हुआ जिसे भारतीयता कहते हैं। इसे मुख्य धारा भी कहते हैं जो कई धाराओं का संगम है। बहुत से ऐसे भी थे जो मुख्य धारा से अलग अपनी पहचान बनाये रखना चाहते हैं और अल्पसंख्यक कहलाना पसंद करते हैं, उन्हें भी स्वीकार किया गया। उनके साथ भी कोई भेद भाव नहीं किया गया। उनकी भी इस देश के विकास में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है। एक उच्चकोटि की गंगा-जमुनी तहजीब, सास्कृतिक पहचान बनाने में सच्चे इस्लाम या सुफिज्म का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । (जो मुसलमान सुफिज्म में विश्वास नहीं करते उनमें से अधिकांश टेरेरिस्ट या पाकिस्तानी बन जाते हैं ?) विभिन्नता में एकता हमारी सबसे बड़ी ताक़त है। हमारे देश का नाम भारत है । इस देश में रहने वाले हम सब भारतीय हैं । हमारे देश में अनेक धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं । सब धर्मों के अपने- अपने सिद्धान्त हैं । किन्तु सब धर्मों का लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति तथा आत्मिक शान्ति एक है । इसे हम यों कहें कि राहें अलग- अलग हैं, किन्तु मंजिल एक है । इस कथन से यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे भारत देश में अनेकता में भी एकता है । हमारी अनेकता हमारी सबसे बड़ी ताक़त है। इस अनेकता में ही एकता का सूत्र अन्तर्निहित है। वह सूत्र है - “एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति ” (ऋग्वेद १/१६४/४६). इसमें आस्तिकता का समर्थन व प्रतिपादन है। (एक ही सच विद्वान कई तरह से बोलते हैं) में दूसरे के सत्य के प्रति सहिष्णुता नहीं समादर है। सहज,खुला स्वीकार है। स्वामी विवेकानंद विश्व बंधुत्व ही नहीं - ' एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ति ' रूपी वेदान्ती साम्यवाद में प्रतिष्ठित वैश्विक एकत्व के बेखौफ प्रवक्ता थे। उनके दिल में सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान था। उनकी नजरों में धर्म एक अलग ही मायने रखता था। उनका कहना था- 'अगर कोई यह ख्वाब देखता है कि सिर्फ उसी का धर्म बचा रह जाएगा और दूसरे सभी नष्ट हो जाएंगे, तो मैं अपने दिल की गहराइयों से उस पर तरस ही खा सकता हूं। जल्द ही सभी झंडों पर, कुछ लोगों के विरोध के बावजूद यह अंकित होगा कि लड़ाई नहीं दूसरों की सहायता, विनाश नहीं मेलजोल, वैमनस्य नहीं बल्कि सद्भाव और शांति। इसीलिए सर्वधर्म समभाव की संकल्पना यहां पर उदित हुई।
तत्त्व चिन्तन की इस धारा में स्पष्ट किया गया है कि एक ऐसा परम तत्त्व विश्व चेतना जो सबकी नियामक, ‘एकमेवाद्वितीय’ सर्वत्र परिव्याप्त है। सृष्टि के कण-कण, विश्व-ब्रह्माण्ड के प्रत्येक घटक में समाई हुए है। सम्पूर्ण विश्व उसी की अभिव्यक्ति है। इसी सत्ता को वेदान्त पूर्ण ब्रह्म कहकर सम्बोधित करता है, पर नाम के प्रति उसका कोई संकीर्ण भाव नहीं। क्योंकि परमसत्ता नाम और रूप से परे है। विभिन्न मतावलम्बी उसे भिन्न-भिन्न नामों से जानते हैं। वही ब्रह्म ईसाइयों का गॉड, मुसलमानों का अल्लाह या खुदा; यहूदियों का जेहोवा है - यह बताते हुए ही “एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति” के सूत्र को प्रतिपादित किया गया है। वह परमात्मा या ब्रह्म प्राकृत शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध से परे हैं। इन्द्रियों की पहुँच उस तक नहीं हैं। वे नित्य, अविनाशी, असीम हैं। इसी ज्ञान स्वरूप परम तत्व को जानकर मनुष्य सदा के लिए भ्रम मुक्त (जन्म मरण के बन्धन से मुक्त) हो पाता है।
भगवान श्रीरामकृष्ण ने इसी को और अधिक सरल सुस्पष्ट करते हुए बताया है कि शास्त्र की आवश्यकता तो निर्देशन भर के लिये है। परम तत्व की प्राप्ति तो व्यावहारिक जीवन में उन निर्देशों को उतारने से ही पूरी होगी। जैसे-किसी के यहाँ उसके गाँव से पत्र आए कि चार किलो मिठाई, ४ धोती, तीन लोटे लेकर आ जाय। अब उसका कार्य यह है कि बाजार जाकर इन सब चीजों को खरीदे। तत्पश्चात घर जाय और सामान पहुँचाए। तभी प्रयोजन की पूर्ति होगी। यदि वह मात्र पत्र पढ़ता रहे याद कर डाले, उस पर बहस करे तो क्या फायदा? पत्र पढ़ना है परोक्ष ज्ञान और सामान पहुँचाना अपरोक्ष ज्ञान। इस अपरोक्ष ज्ञान को पूर्णज्ञान या निरपेक्ष ज्ञान भी कहा गया है। मनीषियों का कहना है कि इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान तर्क से परे है, धर्म तो अनुभूति का नाम है।
आपसी सदभाव, समझ, राष्ट्रप्रेम, अपनत्व की भावना इत्यादि। इसी परम ज्ञान को निरपेक्ष ब्रह्म को प्राप्त कर ऋषि, मनीषी, ज्ञानी भ्रमजाल से परे होकर विश्व उद्यान में जीवनमुक्त हो विहार करते हैं और परमपिता की इस वाटिका को सुरम्य बनाने में हाथ बँटाते हैं। वेदान्त ज्ञान की यह सर्वोपरि उपलब्धि है। अथवा हम या कहें- कि हम सब भारतीय अनेक प्रकार के फूल हैं पर बाग जिसे हम भारत की संज्ञा देते हैं, वह तो एक है।)
आज महामण्डल भी अपने नेता स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में एक अखिल भारतीय युवा संगठन का गठन करने में जुटा हुआ है. यह आन्दोलन ' हमारी माँगें पूरी करो ' का नारा लगाने वाले अन्य आंदोलनों के जैसा कोई निजी-स्वार्थ पूर्ति की बुनियाद पर खड़ा आन्दोलन नहीं है. और न ही यह आन्दोलन किसी प्रकार के अधिकार-प्राप्ति का आन्दोलन ही है. यह आन्दोलन स्वयं ' मनुष्य बनने और बनाने का आन्दोलन ' है, चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन है. आज के प्रबुद्ध युवा यह समझ चुके हैं कि किसी दिशाहीन एवं बिखरे हुए छुट-पुट आंदोलनों से देश की समस्याओं का समाधान कभी नहीं होने वाला है.
अतः आज वैश्विक और सार्वभौमिक कल्याण की बुनियाद पर एक राष्ट्रव्यापी ' मनुष्यत्व उद्घाटक एवं चरित्र-निर्माणकारी ' आन्दोलन खड़ा करना होगा, जिसके उपादान हमें ' रामकृष्ण-विवेकानन्द विचार-धारा ' के अंतर्गत ही प्राप्त करने होंगे. इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- ' भारत माता कम से कम १००० युवकों का बलिदान चाहती है- मस्तिष्क वाले युवकों का पशुओं का नहीं ' (१/३३९) क्योंकि जो व्यक्ति साहसी, विश्वासी, चरित्रवान, निःस्वार्थी तथा बुद्धिमान होते हैं, वैसे ही लोग इतिहास की रचना करते हैं. तथा महामण्डल इस तथ्य को भली भाँति जान चुका है कि ' चरित्र-निर्माण ' एवं ' मनुष्यत्व-बोध की जागृति ' के भीतर ही सार्वभौमिक कल्याण की कुंजी है."
हमेशा याद रखो कि अब हम संसार की दृष्टि के सामने खड़े हैं और लोग हमारे प्रत्येक कार्य और वचन का निरीक्षण कर रहे हैं। यह स्मरण रख कर काम करो ! शत्रु को पराजित करने के लिये ढाल और तलवार की आवश्यकता होती है। इसलिये अंग्रेजी और संस्कृत का अध्यन मन लगाकर करो।
[अब श्री दादा सशरीर उपस्थित नहीं हैं, इसलिये हमारा यह संगठन, 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' इसका प्रत्येक कर्मी,तुम स्वयं को तथा 'जीतेन्द्र, रजत और अजयx २, गजानन्द, धर्मेन्द्र, शशि, ब्रह्मदेव, पिन्टू, प्रदीप गुरु,..... ' को 'विवेकानन्द दर्शनम' को अंग्रेजी-हिन्दी में प्रचारित करना - यही मर्द का काम है। शाब्बास बच्चो ! आरम्भ 'टाटा-कैम्प 'अत्यंत शानदार है, इसी तरह चलते रहो ! यदि ईर्ष्या-सर्प न आ जाय, तो कोई भय नहीं -महामण्डल के 'प्रतीक चिन्ह' की व्याख्या फ़र्राटे-दार हिन्दी या अंग्रेजी में करने के लिये प्रशिक्षित होने दो !बोलते समय अलंकारिक भाषा का प्रयोग नहीं करना है, सरल भाषा या हिंगलिश में भी बोल सकते हो !
[अब श्री दादा सशरीर उपस्थित नहीं हैं, इसलिये हमारा यह संगठन, 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' इसका प्रत्येक कर्मी,तुम स्वयं को तथा 'जीतेन्द्र, रजत और अजयx २, गजानन्द, धर्मेन्द्र, शशि, ब्रह्मदेव, पिन्टू, प्रदीप गुरु,..... ' को 'विवेकानन्द दर्शनम' को अंग्रेजी-हिन्दी में प्रचारित करना - यही मर्द का काम है। शाब्बास बच्चो ! आरम्भ 'टाटा-कैम्प 'अत्यंत शानदार है, इसी तरह चलते रहो ! यदि ईर्ष्या-सर्प न आ जाय, तो कोई भय नहीं -महामण्डल के 'प्रतीक चिन्ह' की व्याख्या फ़र्राटे-दार हिन्दी या अंग्रेजी में करने के लिये प्रशिक्षित होने दो !बोलते समय अलंकारिक भाषा का प्रयोग नहीं करना है, सरल भाषा या हिंगलिश में भी बोल सकते हो !
माभैः — वाहे गुरूजी का खालसा वाहे गुरु की फ़तेह ! सतयुग आएगा !! "मद्भक्तानाञ्च ये भक्तास्ते मे भक्ततमा मता: — जो मेरे भक्तों की सेवा करते हैं, वे मेरे सर्वोत्तम भक्त हैं!' तुम सब लोग अब कुछ गम्भीर (सयाने) हो जाओ।
अर्थात महामण्डल नेता को स्वयं इस बात पर चिंतन करना चाहिये कि नवनी दा बार बार क्यों पूछते रहते थे कि -धर्म क्या है ? वे यही बताना चाहते थे कि सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों का एक ही धर्म है -'भला होना और भलाई करना' यही धर्म का सर्वस्व है"! प्रत्येक सच्चा धर्म एक ही सत्य - "निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है" को प्रकाशित करने की मानो एक भाषा है,एक अभिव्यक्ति है और हमें हरेक से उसी की भाषा में बात करनी चाहिये। होली ट्रायो के आशीर्वाद से निर्मित महामण्डल ही वर्तमान भारत का 'अवतार वरिष्ठ-संगठन' है, इस संगठन मनुष्य -निर्माणकारी लीडरशिप ट्रेनिंग पद्धति को सम्पूर्ण भारत में फैलाये बिना (पवित्र त्रिमूर्ति के चरण-कमलों के शरण में गए बिना) भारत -कल्याण का अन्य कोई उपाय नहीं है।
'मनुष्य' बनने के लिये- 'निःस्वार्थपरता और प्रेम' के मूर्त रूप श्री रामकृष्ण के चरणकमलों की भक्ति ही एकमात्र उपाय है। तथा 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द लीडरशिप ट्रेनिंग देने में सक्षम लोक-शिक्षक (ईश्वर-भक्त,गुरु-भक्त)' बनने और बनाने के कार्य (महामण्डल के युवा आन्दोलन) में आजीवन जुड़े रहकर ही श्रीरामकृष्ण (होली ट्रायो) के चरण कमलों की भक्ति प्राप्त की जा सकती है।
'महामण्डल द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर में लीडरशिप ट्रेनिंग का उद्देश्य ऐसे लोक-शिक्षकों का निर्माण करना है, जिसके जीवन का एकमात्र व्रत हो- 'भारत के प्रत्येक युवा को भक्त- प्रह्लाद के जैसा इस महामण्डल संगठन का निष्ठावान कर्मी बनना और बनाना।" जो स्वयं भक्त प्रह्लाद (माँ सारदा भक्त श्री नवनी दा के) जैसा निःस्वार्थ मार्गदर्शक नेता हो, और भारत के प्रत्येक 'वुड बी लीडर्स' के सामने अपना मस्तक झुकाने में अहर्निश प्रयत्नशील रहता हो ! क्योंकि अकेले परमानन्द भोग करना, अकेले सत्ययुग में रहना मेरा स्वभाव ऐसा नहीं है, क्योंकि यह तो स्वार्थ साधना है। और हमने दादा से सीखा है- निःस्वार्थ परता ही ईश्वर है - 'ईश्वर बनो और बनाओ' यही हमारा आदर्श वाक्य है। इसलिये यहाँ एक भी व्यक्ति को (पंचभूतों के फन्दे में फँस कर रोते हुए ब्रह्म' को) दयनीय मनुष्य के रूप में छोड़ कर, मैं अकेला मोक्ष नहीं चाहता।
और १२ सितम्बर २०१६ को दादा ने जमशेदपुर शिविर में कहा था -'मोने कोरबे तुमि एक जन शिक्षक'!फिर मैंने उनसे अपनी असमर्थतता बताई तो धिक्कारते हुए कहा था- तुम अनासक्त क्यों नहीं बन सकते - Are you a beast ?' क्योंकि जब मनुष्य उन परम दयालु परम सुहृद परमेश्वर (अवतार वरिष्ठ - क्योंकि ठाकुर में राम और कृष्ण दोनों एक साथ हैं!) का साक्षात्कार कर के अपने अनुभव से जान लेता है कि - साक्षत्कार 'अहं' को नहीं 'आत्मा' को हुआ था - और आत्मा ही परमात्मा है! तब वह सदा के लिए सब प्रकार के दुःखों (पंच क्लेशों) से रहित होकर, पाशविक-प्रवृत्तियों (आहार-निद्रा -भय -मैथुन) से भी रहित हो जाता है। उसका चरित्र गठित हो जाता है और वह समझ लेता है कि बद्धावस्था वाला जन्तु ही मुक्तावस्था का ठाकुर है ! यह समझ लेने के बाद वह आप्त (या मुक्त) पुरुष उस परमानन्द स्वरुप 'होली ट्रायो' श्री ठाकुर-माँ-स्वामी जीकी भक्ति को प्राप्त कर लेता है ! ]
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>>>'The Divine Comedy' : दाँते इटली के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं जिनके संबंध में अंग्रेज़ कवि शेली ने कहा है कि, दाँते का काव्य उस सेतु के समान है जो काल की धारा पर बना है और प्राचीन विश्व को आधुनिक विश्व से मिलाता है। 'दि डिवाइन कॉमेडी' नामक महाकाव्य में, स्वयं अपने और जगत के प्रति मानवीय चेतना या होश (अभिज्ञता) को बदलने के लिये, उन्होंने कुछ सद्गुणों (11) को अर्जित करने और कुछ दुर्गुणों (12) को दूर करने का परामर्श दिया है।
महान दार्शनिक दाँते की रचना दि डिवाइन कॉमेडी के अनुसार वे 11 सद्गुण जिन्हें हम हर समाज पर लागू कर सकते हैं- आत्मविश्वास, पवित्रता, संयम, विनम्रता, उदारता (प्रशंसा), क्षमाशीलता, विवेक, न्याय, दयालुता, साहस, और परिश्रम।
और सात दुर्गुण जिन्हें प्रत्येक व्यक्ति-समाज के चरित्र से बाहर निकलना चाहिए वे हैं - ईर्ष्या, क्रोध,आलस्य, लालच, भोग-आसक्ति तथा कामुकता। महामण्डल द्वारा प्रकाशित पुस्तिका चरित्र के गुण और 'नेति से इति' में उनका विस्तार से वर्णन किया गया है।
किन्तु इसी प्रेम-धन (अवतार वरिष्ठ) को पहचानने में प्रत्येक मनुष्य को " नरक और पापमोचन यातना-भोग " (Hell and Purgatory) की लम्बी और कठिन यात्रा से गुजरना ही पड़ता है। दाँते ने लैटिन भाषा में ना लिखकर साधारण बोलचाल की इतालवी भाषा में अपना महाकाव्य लिखा था, यह कार्य तुलसीदास की भाषा में रामचरितमानस लिखने के समान था।
वास्तव में यह समय विश्वभर में लोकभाषा की प्रतिष्ठा के आन्दोलन का समय था। भारत में भी रामानंद, ज्ञानेश्वर, नामदेव, विद्यापति, कबीर, सूर, तुलसीदास, इत्यादि ने इसी प्रकार लोकभाषा में साहित्य रचना का आन्दोलन किया। वास्तव में दांते का यह कार्य युगपरिवर्तन का शंखनाद था।
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