"What is education? Is it book-learning? No. Is it diverse knowledge? Not even that. The training by which the current and expression of will are brought under control and become fruitful is called education."... It is more blessed, in my opinion, even to go wrong, propelled by one's free will and intelligence than to be good as an automaton. Now consider, 'that education'....(Western selfish man-making education ?)> which is slowly making man a machine?
["Our Present Social Problems" Vol-4/ You and I — each are Vyashti, and society is Samashti. whether or not Vyashti should completely sacrifice their own will, their own happiness for Samashti — is a perennial problem in every society. whether or not Vyashti should completely sacrifice their own will, their own happiness for Samashti — is a perennial problem in every society. Brought up in the lap of luxury, lying on a bed of roses and never shedding a tear, who has ever become great, who has ever unfolded the Brahman within? " letter written to Shrimati Mrinalini Bose from Deoghar (Vaidyanâth), on 23rd December 1898.]
🔆🙏“The selfless man is the thunderbolt.”– Sister Nivedita
“Struggle is worship. What else does the Gita teach its people?”
– Sister Nivedita
“It is not by teaching a Bengali girl French, or the piano, but by enabling her to think about India, that we really educate her.”
– Sister Nivedita
“We must surround our children with the thought of their nation and their country. The centre of gravity must lie, for them, outside the family.”
– Sister Nivedita
“The highest art is always charged with spiritual intensity, with intellectual and emotional revelation.”
– Sister Nivedita
“All that matters is our own struggle. By that do we rise.”
– Sister Nivedita
“A man may be a fool in technical and academic knowledge and yet a sage in which he feels and desires.”
– Sister Nivedita
“Real life begins when we die to the world of the senses.”
– Sister Nivedita
“If we learn nothing else, let us learn to give, let us learn to serve, let us learn to renounce.”
– Sister Nivedita
[साभार : http://www.sisterniveditahouse.org/ Sister Nivedita Heritage Museum]
>>>नेता वरिष्ठ C-IN-C नवनी दा के अनुसार शिक्षा का अर्थ :
[रविवार 2 अक्टूबर 2016 : तिलैया महामण्डल में नवनीदा को श्रद्धांजलि सह स्मरण सभा] : एक 'सहृदय मनुष्य' परम् आध्यात्मिक शिक्षक का अनेक पर प्रभाव : (सच्चे पैगम्बर मानवजाति के एक सच्चे मार्गदर्शक नेता वरिष्ठ C-IN-C नवनीदा का Dy. C-IN-C, C.C आदि अनेक महामण्डल कर्मियों पर प्रभाव:- संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो चरित्र का महत्व तो मानते हैं, परन्तु चरित्र-निर्माण के नियमों का पालन नहीं करते। (3H विकास के 5 अभ्यासों का निष्ठां पूर्वक पालन नहीं करते।) वे कहते हैं कि, “अकेले हमारे चरित्रवान बनने से क्या होगा? मैं तो चरित्रवान बनने को तैयार हूँ परन्तु दूसरे लोग भी चरित्र की मर्यादा को अपनायें, तभी तो कुछ बात बनेगी। एक अकेले के चरित्रवान बनने या न बनने से तो संसार में कोई अन्तर पड़ेगा नहीं।” इस प्रकार के निर्बल तर्क प्रस्तुत करते हुए, वे स्वयं तो चरित्र-धन से अथवा पवित्रता के आनन्द से वंचित रहते ही हैं और दूसरों को भी हतोत्साहित करते हैं।"
उसी प्रकार हमारे बीच भी कुछ लोग ऐसे हैं, जो महामण्डल के चरित्र-निर्माण आंदोलन- 'Be and Make' के महत्व को तो मानते हैं, परन्तु स्वयं अपने दैनंदिन जीवन में ५ अभ्यासों का निष्ठापूर्वक पालन नहीं करते हैं। वे सोचते हैं, जब बड़े-बड़े क्लबों (अमेरिका से प्रभावित ) के सदस्य भी, जो उच्च पदों पर बैठे है, या धनीमानी लोग माने जाते हैं, वे भी अपनायें, तभी तो कुछ बात बनेगी। क्योंकि समाज में नाम-यश कमाने, अख़बार में अपना फोटो छपवाने वाले लोग कहाँ चरित्रवान मनुष्य बनना आवश्यक मानते हैं ?
समाज के कुछ लोग जो स्वयं 'कामुकता और कमाई ' में घोर आसक्त हैं, किन्तु एक दिन हाथ में 'झाड़ू' लेकर फोटो खिंचवा लेने से 'महान समाजसेवी क्लब के सदस्य' कहलाते हैं! तो मुझ एक अकेले व्यक्ति के चरित्रवान बनने या न बनने से तो संसार में क्या अन्तर पड़ने वाला है ? मुझे भी उसी क्लब का मेम्बर बनने से अपने बिजनेस में भी फायदा होगा और नाम-यश भी मिलेगा! इस प्रकार के कूतर्क या निर्बल तर्क प्रस्तुत करते हुए, वे स्वयं तो चरित्र-बल से अथवा
निर्भीकता और पवित्रता के आनन्द से वंचित रहते ही हैं, दूसरों को भी हतोत्साहित करते हैं। यदि हमलोग आधुनिक युग में भारत के इतिहास में झाँक कर देखे तो एक नवनी दा जैसे सहृदय मनुष्य का महत्व समूचे भारत में स्पष्ट दिखाई देता है।
आज से ५० वर्ष पहले अपने अथक परिश्रम से, समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, स्वामी विवेकानन्द के केवल एक महावाक्य - 'Be and Make' को युवाओं के अपार प्रेम और जन-समर्थन के द्वारा भारत को महान देश में रूपान्तरित करने में समर्थ, भारत के सभी युवाओं के एक सच्चे पथ-प्रदर्शक नेता वरिष्ठ (CINC) नवनीदा' बन जाते हैं। तब वे जैसा बोलते थे, जो कुछ कहते थे और करते थे, उसका प्रभाव हजारों मनुष्यों पर अभी तक पड़ रहा है, और आजीवन पड़ता रहेगा।
इस बात को हम सभी महामण्डल के सदस्यों ने अपनी आँखों से देखा,और महसूस भी किया है। आज किसी पाठशाला में जो छोटा-सा बालक अथवा किसी स्कूल का विद्यार्थी है,इसी उम्र में वह महामण्डल के चरित्र-निर्माण आंदोलन से जुड़ जाता है, और महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों का पालन पूरी कर्तव्यनिष्ठा के साथ करने लगता है।
कल वह चरित्रवान युवा हो कर किसी बड़े दफ्तर में अधीक्षक बन जाता है, (अथवा किसान, वकील, शिक्षक, डॉक्टर या इंजीनियर बन जाता है) और अनेकानेक व्यक्ति उसके अधीन, उसकी बनायी रूप-रेखा के अनुसार काम करते हैं। उसकी कर्तव्यनिष्ठता, ईमानदारी, विभिन्न गतिविधियों का, रीति-नीतियों का, विचार-विमर्श का दूसरों पर भी कुछ तो प्रभाव पड़ता ही है। इसे भी हमलोग आये दिन देखते हैं।
आज जो 12 वर्ष की कन्या है, वह ६ वर्ष के उम्र से ही अपने ग्राम में महामण्डल द्वारा संचालित 'विवेक-वाहिनी' में नियमित रूप से भाग लेती रही है। युवती बनने के बाद भी वह उसी ग्राम में संचालित 'सारदा नारी संगठन' से जुड़ कर अपना चरित्र गठन कर रही है। कल वही बड़ी होकर माता बन जाती है और जैसा उसका स्वयं का चरित्र होता है, वैसी ही रानी मदालसा वाली लोरी- 'तुम हो मेरे लाल निरंजन, अति पावन निष्पाप' अपने बच्चे को सुनाती है।और वैसा ही प्रशिक्षण वह अपने नन्हें-मुन्नों को देती है, तो हम देख सकते हैं कि, वही बच्ची जो पहले विवेक-वाहिनी के खेल-कूद में भाग लेकर अपने 3H को विकसित कर रही थी, आज चरित्र-कमल खिल जाने के बाद बड़ी होकर एक माता बनकर अपने परिवार के लिये देवी (विधात्री) का काम करती है, सबसे ज्यादा निःस्वार्थी है, इसीलिये माँ को देवी कहा जाता है।
क्योंकि वह स्वयं निःस्वार्थपरता का जीवन्त उदाहरण बन कर हमें निःस्वार्थपर मनुष्य बनने की प्रेरणा देती है। माँ ही प्रथम गुरु है जो अपने सभी बच्चों को एक समान प्रेम करती है, और सबों को मनुष्य बनने की प्रेरणा देती है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि एक C-IN-C नवनीदा जैसे नेता, पैगम्बर का प्रभाव अनेकानेक पर पड़ता है। इसीलिये पूज्य नवनी दा के जीवन को अपना आदर्श मानते हुए -----भारत के प्रत्येक युवा मन में सहृदय मनुष्य बन जाने के संकल्प भर देने सक्षम महामण्डल कर्मी बन जाना हमलोगों का जीवन-लक्ष्य होगा ! हमलोगों ने स्वामीजी से सुना है कि "शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता की अभिव्यक्ति जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है।"
दादा/महामण्डल के द्वारा प्राप्त शिक्षा/=धर्म के आलोक में > (আমরা স্বামীজীর কাছে শুনেছি, আমাদের ইচ্ছাশক্তিকে সংযতভাবে সংহতভাবে প্রকাশ করা- এমনভাবে, তা যাতে (বজ্রের মতো वह वज्र के समान) কার্যকর হয়-এটা শেখার নাম শিক্ষা।)
"Education is the manifestation of the perfection already in man." (letter Written to "Kidi" on March 3, 1894, from Chicago.) ]
मेरी समझ के अनुसार शिक्षा/धर्म का अर्थ- हमलोगों के भीतर जो सम्पूर्णता (divinity-'दैवत्व' या 100 % निःस्वार्थपरता) पहले से विद्यमान है उसे प्रकट करना। और दोनों क्षेत्र में शिक्षक का कार्य है - निःस्वार्थपरता/दिव्यता के प्रकटीकरण के मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाने ('अहं' के ढक्कन को खोल देने, या कच्चा मैं को पक्का मैं रूपांतरित करने में) छात्र/ शिष्य की सहायता करना। इसीका नाम है शिक्षा ![ इस प्रशिक्षण का नाम है तैत्तरीय उपनिषद के शीक्षा-वल्ली के अनुसार 'श' में दीर्घ 'ई' वाली, " विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर परम्परा में दिया जाने वाला -'Be and Make' गुरुगृहवास/निर्जनवास प्रशिक्षण शिविर।]
जिसमें 'Be and Make' autosuggestion formula'~अर्थात हृदयवान मनुष्य बनने और बनाने का आत्मसुझाव-सूत्र 'चरित्र-निर्माण कैसे करें -अर्थात चमत्कार जो आप कर सकते हैं' स्वपरामर्श-सूत्र प्रातः-सायं दो बार लिख-बोल कर; अपनी संकल्प शक्ति या इच्छाशक्ति (willpower) के प्रवाह को 3H के विकास पर इस प्रकार एकाग्र रखना कि वह फलप्रसू होता है ! - अर्थात स्वामी जी के अनुसार देशभक्ति की तीन शर्तों वाली कसौटी -- क्या तुम अनुभव करते हो कि ऋषियों-मुनियों की करोड़ो सन्तानें आज पशुतुल्य जीवन जी रहे हैं ? क्या तुमने उनकी श्रद्धा को वापस लौटाने का कोई उपाय खोजा है ? और यदि उपाय खोज लिए, तो उसके विरुद्ध तलवार लेकर पूरी दुनिया खड़ी हो जाये, चाहे लक्ष्मी आये या चली जाये - तुम अपने मार्ग पर अटल रहोगे ?" ... इस कसौटी पर खरा उतरकर हम स्वयं निवेदिता के वज्र जैसे पूर्ण निःस्वार्थी अप्रतिरोध्य 'देश भक्त' मनुष्य बन कर दूसरों को भी देशभक्त मनुष्य बनाने में सहायता करने सक्षम नेता, जीवनमुक्त शिक्षक जाते हों, उसे शिक्षा कहते हैं !
>>>शिक्षा का उद्देश्य - अपनी अंतर्निहित संकल्प-शक्ति या इच्छाशक्ति (willpower) को इस प्रकार संयमित और नियंत्रित तरीके से प्रकट करने की पद्धति (अष्टांगयोग, मनःसंयोग या एकाग्रता ,समाधि का अभ्यास) सीख लेना ताकि उन्हें आत्मसात कर, लालच को कम करते हुए उन्हें अपने व्यवहार (conduct) द्वारा इस प्रकार अभिव्यक्त करना कि हमलोग क्रमशः पशुत्व से मनुष्यत्व में और मनुष्य से देवता में (100 % निःस्वार्थपरता) में उन्नत होकर वज्र के समान अप्रतिरोध्य ढंग से प्रभावकारी ब्रह्मविद मनुष्य बनना और बनाना ! (जो ब्रह्मविद मनुष्य नेता / जीवनमुक्त योगी बन जाये और नेता होने में दूसरों की सहायता करें।)
स्वामी जी ने कहा था, " हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो,और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे।" ताकि हम अपने कर्तव्य के प्रति सचेत हो जायें और एक कार्यक्षम (Competent) मनुष्य बन कर, और अपने कर्तव्यों का सही ढंग से निर्वहन कर सकें। इस प्रकार गुणवान मनुष्य (worthy-मनुष्य कहलाने के लायक मनुष्य) बन जाना ही शिक्षा है।
" शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूंस दी जायें , जो आपस में लड़ने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर में हजम न कर सके। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन-निर्माण कर सकें , मनुष्य बन सकें , चरित्रगठन कर सकें और उच्च विचारों को आत्मसात कर उसकी धारणा कर सकें , वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को हजम कर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है , जिसने एक पूरी की पूरी लाइब्रेरी ही कण्ठस्थ कर ली है। "
सेवाधर्म का पालन और सेवाधर्म के पालन में दोष : "भारतमाता की जय " कहने से हमारा क्या तात्पर्य है ? राष्ट्र की शक्ति को एक रूप देने में हमारा तात्पर्य उस राष्ट्र के सभी प्रकार के कर्मक्षेत्रों की उत्पादन क्षमता से ही होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कहीं पर भी निर्माण की जो क्षमता अव्यक्त रूप में रहती है उसे व्यक्त करने के लिये आवश्यक है केवल मनुष्य का परिश्रम। इस अव्यक्त क्षमता को कहते हैं देव। इस सेवाधर्म का पालन प्रकृति में सर्वत्र होता दिखाई देता है। एक मात्र मनुष्य ही है जिसे स्वेच्छा से कर्म करने की स्वतन्त्रता दी गई है इस सार्वभौमिक सेवाधर्मयज्ञ भावना का पालन करने पर वह शुभफल प्राप्त करता है। परन्तु जिस सीमा तक अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित हुआ वह कर्म करेगा उतना ही वह दुख पायेगा क्योंकि प्रकृति के सामंजस्य में वह विरोध उत्पन्न करता है।
[স্বার্থপরতা কমাতে হবে। এবং এই স্বার্থপরতা কমানোটাই সবচেয়ে বড় শেখার জিনিস। যে শিক্ষায় আমাদের নিঃস্বার্থ করে না তা শিক্ষাই নয়। কাজেই এটা শিখতে হবে। कामिनी-कांचन में आसक्ति या लालच को कम कर लेना ही सीखने की सबसे बड़ी चीज है। इसलिए '3H' विकास के '5-अभ्यास' को सीखना ही होगा। ]
यदि हमलोग सच्ची शिक्षा प्राप्त कर सकें, तो हमलोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के ऊपर केवल उतना ही ध्यान देंगे, जितने से कि मेरा कल्याण भी हो तथा मेरे और समाज के दूसरे अन्य व्यक्तियों के बीच जो कुछ भी आदान-प्रदान हो वह दोनों पक्षों के लिये समानरूप से (win win situation में) कल्याणकारी हो। पारस्परिक श्रद्धा द्वारा प्रेरित होकर एक दूसरे की सहायता अथवा कल्याण - यही हमारा लक्ष्य होगा। ऐसा कहा जाता है कि इन दिनों अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध (या अन्तर -राज्जीय सम्बन्ध) भी इसी आदर्श की बुनियाद पर गढ़े जा रहे हैं।
गीता में भगवान ने कहा है, "परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ। (गीता 3.11)" - इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुये, ज्ञानप्राप्ति द्वारा तुम परम श्रेय (मोक्ष रूप भ्रममुक्त अवस्था) को प्राप्त होगे।
व्यक्तिगत स्वार्थ की इच्छा (willpower) द्वारा अभिप्रेरित (motivated) होकर हमलोग कभी समाज का यथोचित कल्याण नहीं कर सकते। इसलिए यदि हम जनताजनार्दन के हितों का ध्यान रखना और समस्त देशवासियों के स्वार्थ की रक्षा करना चाहते हों , तो हमें स्वयं निःस्वार्थ होना होगा। स्वार्थपरता को कम करना होगा। एवं इस स्वार्थपरता को कम कर लेना ही सीखने की सबसे बड़ी चीज है। जो शिक्षा हमें स्वार्थहीन नहीं बना सके, वह शिक्षा ही नहीं है। इसलिए इसे सीखना होगा।
🔆🙏गौतम बुद्ध जैसे उन्नत मनुष्यों का निर्माण 🔆🙏
" निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है। एक मनुष्य चाहे सोने के सिंहासन पर आसीन हो, सोने के महल में रहता हो, परन्तु यदि वह पूर्ण रूप से निःस्वार्थ है तो वह ब्रह्म में ही स्थित है। परन्तु एक दूसरा मनुष्य चाहे झोपड़ी में ही क्यों न रहता हो, चिथड़े ही क्यों न पहनता हो, सर्वथा दीनहीन ही क्यों न हो, पर यदि वह स्वार्थी है, तो हम कहेंगे वह संसार में घोर रूप से लिप्त है। " (कर्मयोग)
" धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु (घोर-स्वार्थी) मनुष्य तक , और (कम स्वार्थी) मनुष्य परमात्मा (पूर्णतः निःस्वार्थी) तक उठ सकता है !"
और इस स्वार्थ-परता को कम करने की पद्धति (महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यास द्वारा
अहंकार को आध्यात्मिक बनाने की पद्धति) को सीख लेना ही, सीखने योग्य सबसे महत्वपूर्ण विषय है। जो शिक्षा हमें निःस्वार्थी मनुष्य बनना नहीं सिखाती, वह शिक्षा ही नहीं है। क्रमशः पूर्ण निःस्वार्थपर होते होते ईश्वर के निकट पहुँच जाना -या 'द्वासुपर्णा ' का ऊपर वाला पक्षी जो खट्टे-मीठे फल नहीं खाता, केवल 'अभिचाकशीति'। अपने मन का द्रष्टा होने का प्रयास करते-करते, सिद्धार्थ गौतम से गौतम बुद्ध के जैसा बन जाना ही यथार्थ शिक्षा है।
गौतम बुद्ध जैसे उन्नत मनुष्य (ब्रह्मविद-पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य ) का निर्माण करने , बनने और बनाने के लिये, पहले 'निःस्वार्थी' मनुष्य बनना सीखना होगा। इसीलिये 'स्वार्थशून्य मनुष्य' बन जाने की शिक्षा ही यथार्थ शिक्षा है। अर्थात "विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make'-वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन- में 'निवृत्ति अस्तु महाफला' द्वारा अपने व्यष्टि अहं बोध को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट मातृहृदय के पूर्णतः निःस्वार्थी अहं बोध में रूपान्तरित करना सीखना होगा। इस शिक्षा को - कब तक सीखना होगा ? जैसा ठाकुर ने बताया है - ' जावत बाँची तावत सीखी '-अंतिम साँस बाकी है तब तक।
" नाम की आकांक्षा ही उच्च अंतःकरण की अंतिम दुर्बलता है। ' लस्ट ऐंड लूकर' का त्याग करके भी ९९ % साधु नाम-यश के मोह में आबद्ध हो जाते हैं। पढ़ा है न ? फल की कामना को छोड़ कर काम किये जाना होगा। भला बुरा तो लोग कहेंगे ही, परन्तु 'BE AND MAKE' के आदर्श को सामने रखकर हमें सिंह की तरह काम करना होगा। " (६/१९६)
" श्रीरामकृष्ण की भस्मास्थिपूर्ण मंजूषा (पेटी) को स्वामी विवेकानन्द बहुधा 'आत्माराम की मंजूषा' कहा करते थे। एक दिन उनके मन में आया, क्या वास्तव में इसमें " आत्माराम श्रीरामकृष्ण" का वास है ? परीक्षा करके देखूँगा। सोचकर मन ही मन उन्होंने प्राथना की, " हे प्रभो, यदि तुम राजधानी में उपस्थित 'अमुक' महाराजा को आज से तीन दिन के भीतर आकर्षित करके मठ में ला सको तो समझूँगा कि वास्तव में तुम यहाँ पर हो।"
" जिन्हें आत्माराम की कृपा (नवनीदा की कृपा) प्राप्त हुई है, उनकी मन-बुद्धि फिर किसी तरह संसार में (तीनों ऐषणाओं की प्रवृत्ति में) आसक्त नहीं हो सकती। कृपा की परीक्षा तो है 'लस्ट और लूकर' (नाम-यश) में अनासक्ति ! वही यदि किसी को नहीं हुई तो, उसका अर्थ यही होगा कि उसने आत्माराम की कृपा अभी तक ठीक ठीक प्राप्त नहीं की है !" (६/२२४-२३२)
>>>नवनीदा के सेंट पॉल-डी.एस.धर्मेन्द्र सिंह : "जिस प्रकार ईसा के देह त्याग के बाद ईसामसीह के शिष्य सेन्ट पॉल ने दृढ़ विश्वास के साथ नवधर्म का प्रचार किया था ! (वि०चरित)
उसी प्रकार पूर्व जन्म में स्वामी विवेकानन्द के शिष्य, प्रवृत्ति मार्ग के ऋषि कैप्टन सेवियर ही अगले जन्म में, प्रवृत्ति मार्गी युवाओं के आध्यात्मिक शिक्षक श्रीनवनीहरन मुखोपाध्याय 'नवनीदा' के रूप में जन्म ग्रहण किये । उनके देहावशिष्ट भस्म और अस्थि से पूर्ण 'ताँम्बे की कलसी' (आत्माराम की डिबिया) को सिर पर उठाकर तरुण-हृदय ने पवित्र लीला की अनेक पूण्य स्मृतियों से भरे खड़दह के भुवन-भवन से शोक के आँसू पोछते हुए, खरदह कोननगर और तिलैया ले आये हैं । 'लस्ट ऐंड लूकर' और नाम-यश " के क्रीतदास लोग क्या कहते हैं -उस पर ध्यान देने की जरूरत नहीं।
🔆🙏दादा कहते थे - बुद्धि और विवेक का अंतर क्या है, धर्म क्या है,श्रद्धा क्या है, जीवन क्या है ? और प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष करने जीवन से ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करते हुए किसी नेता का जीवन सार्थक कैसे होता है ? जानो और बताओ !
[আমরা স্বামীজীর কাছে শুনেছি, আমাদের ইচ্ছাশক্তিকে সংযতভাবে সংহতভাবে প্রকাশ করা- এমনভাবে, তা যাতে (वह वज्र के समान) কার্যকর হয়-এটা শেখার নাম শিক্ষা। -The goal of education is to learn how to express one's willpower in such a restrained and integrated manner – so that it is effective in an irresistible way. "Education is the manifestation of the perfection already in man." ( Written to "Kidi" on March 3, 1894, from Chicago.) ]
>>>व्यष्टि अहं का सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरण :
(बुद्ध जैसे ब्रह्मविद जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण करने के लिए) गुरु परम्परा में यह सीखना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि व्यष्टि अहं के संकल्प-शक्ति को अर्थात व्यष्टि अहं के Willpower या इच्छाशक्ति को माँ काली के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं या 'समष्टि अहं ' में कैसे रूपान्तरित किया जा सकता है? जानी बिगहा कैम्प में नवनीदा ने बैंक वाले झा जी को गले से लगाते हुए कहा था - " उन्नत मनुष्य या यथार्थ रूप से शिक्षित मनुष्य उसी को कहेंगे जिससे मिलने के बाद, मिलने वाले को ऐसा प्रतीत हो कि आज 'इनसे मिलकर'- मेरा जीवन धन्य हो गया है!" यदि तुम पाँच ही भावों (आत्मश्रद्धा, निर्भीकता, निःस्वार्थपरता, त्याग और आध्यत्मिकता /सेवा) को हजम (आत्मसात) कर के तदनुसार अपना जीवन और चरित्र गठित कर सके हो, तो तुमसे जो भी मिलेगा उसे वैसा ही लगेगा।
वैदिक साहित्य में इच्छा शब्द का प्रयोग प्रायः क्रिया के रूप में (इच्छति आदि) हुआ है। भावनोपनिषद २ में क्रिया-शक्ति को पीठ, ज्ञान-शक्ति को कुण्डलिनी और इच्छाशक्ति को महात्रिपुरसुन्दरी कहा गया है। इसका निहितार्य़ यह हो सकता है कि कुण्डलिनी शक्ति के जाग्रत होने पर वह इच्छाशक्ति (संकल्पशक्ति) के जाग्रत होने का आधार बनती है। महोपनिषद ४.११४ के अनुसार अपनी आत्मा (परम् सत्य या ईश्वर) के अवलोकन की इच्छा मोह का क्षय करने वाली है, जबकि इच्छामात्र अविद्या है जिसका नाश करना ही मोक्ष को प्राप्त होना है।
क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति त्रिशक्तियां हैं। कुण्डलिनी शक्ति के जाग्रत होने पर वह इच्छाशक्ति के जाग्रत होने का आधार बनती है। न्याय सिद्धान्त से यह श्लोक प्रायः उद्धृत किया जाता है :
आत्मजन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या भवेत् कृतिः।
कृतिजन्या भवेच्चेष्टा चेष्टाजन्या भवेत् क्रिया॥
नवनीदा की वाणी में -
"चरित्र है मेरे अभ्यासों का समाहार !"
एक काम को बार-बार करते रहने से अभ्यास होता है।
चिंतन से क्रिया होती है।
अभ्यास (आदत) क्रियायों से बनता है।
चेष्टा से क्रिया होती है।
चेष्टा आती है संकल्प से।
संकल्प आती है इच्छा से।
इच्छा मन से होती है।
मन को पकड़ना है !
[अर्थात`स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में मन को वश में करने की पद्धति सीखनी है। " Be and Make " या निःस्वार्थपर मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा द्वारा लालच (आसक्ति) को कम करते हुए ही छात्रों में जनताजनार्दन के प्रति प्रेम और देशभक्ति को विकसित किया जा सकता है। ]
गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यात् रुशब्दस्तन्निरोधकः।
अन्धकारनिरोधित्वात् गुरुरित्यभिधीयते॥ १६॥
(अद्वयतारका उपनिषद)
अर्थ - 'गु' शब्द का अर्थ अंधकार और 'रु' शब्द का अर्थ उस (अंधकार) को दूर करने वाला होता है। (अज्ञान के) अंधकार को रोकने के कारण ही (अंधकार को रोकने में समर्थ व्यक्ति को) गुरु कहते है।
[The syllable gu means darkness, the syllable ru, he who dispels them, Because of the power to dispel darkness, the guru is thus named. (Advayataraka Upanishad, Verse 16)]
'तारक' का शाब्दिक अर्थ तारा या "आँख की पुतली" भी है। राजयोग की भाषा में यह भौंहों के बीच और सामने वह प्रकाश है जिसकी अनुभूति गुरु-दीक्षा के बाद उनके निर्देशानुसार जप-ध्यान के दौरान होता है।
[(द्वयोपनिषद-4) (अद्वय) का अर्थ है "अद्वैत, स्वरुप की पहचान, ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का एकत्व अनुभूति ", और तारक का अर्थ है "भ्रम से मुक्त हो जाना, वह ज्ञान जो जन्म-मृत्यु के चक्र से तार देता है - उद्धार करता है। ]
[नेह नानास्ति किंचन। (कठोपनिषद-2/1/11)
(जगत में ब्रह्म के सिवाय कुछ भी नहीं है।)
मृत्यौ: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।।
(कठोपनिषद-2/1/11) https://vedavichar.com/upanishads/]
निदिध्यासनमित्येतत् पूर्णबोधस्य कारणम्।।
(शुकरहस्योपनिषद-43)
साधकको पूर्ण बोध तब हो सकता है, जब वह पहेले गुरु का उपदेश सूनें, बाद में मनन करें और उसके बाद निदिध्यासन (अनुभूति की साधना) करें।)
उल्काहस्तो यथालोके द्रव्यमालोक्य तां त्यजेत्।
ज्ञानेन ज्ञेयमालोक्य पश्र्चाज्ज्ञानं परित्यजेत्।।
(ब्रह्मविद्योपनिषद-36)
----जैसे मशाल के प्रकाश से वस्तु को देख लेने से मशाल को छोड़ दि जाती है, वैसे ही ज्ञान से ज्ञातव्य विषय की प्राप्ति हो जाने से ज्ञान का परित्याग कर दिया जाता है। (ब्रह्मविद्योपनिषद-36)
तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक् प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय।
येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्।। (मुंडकोपनिषद-1/2/13)
(उस विद्वान महात्मा को शरण को आये हुए पूरे शांतचित्त, जितेन्द्रिय शिष्य को ब्रह्मविद्या का उपदेश करना चाहिये जिससे वह शिष्य अविनाशी, नित्य परमपुरुष को जाण सके।)
प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्।।
(मुंडकोपनिषद-2/2/4)
ॐ धनुष्य है, आत्मा बाण है, ब्रह्म को लक्ष्यवेध माना गया है। उसको बाण की तरह तन्मय होकर आलस-प्रमाद रहित मनुष्य हि वेध कर सकता है। बाण को एक बार लक्ष्य पर छोड़ दिया जाता है, तो तन्मयता के कारण फिर अपने रास्ते से नही भटकता।
अष्टांग योग :
शिखा ज्ञानमयी वृत्तिर्यमाद्यष्टाँगसाधनै:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद-2/23)
यम-नियम, आसन-प्रत्याहार-धारणा आदि अष्टाँगयोग की साधना से ज्ञानमयी शिखा उत्पन्न होती है।
देहेन्द्रियेषु वैराग्यं यम इत्युच्यते बुधै:।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/28)
देह और इन्द्रियों के प्रति पूर्ण वैराग्य को प्रबुद्ध लोग यम कहते है।
The men of wisdom define Yama as the total restraint on body and organs.
(Trishikhibrahmana Upanishad-2/28).
अनुरक्ति: परे तत्त्वे सततं नियम: स्मृत:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/29)
परमात्म तत्त्व (सच्चिदानन्द-अवतार वरिष्ठ ठाकुर देव) में निरंतर सहज अनुराग रहे, उसको ही नियम कहते है।
“Niyam means spontaneous and continuous affection for Supreme Self”. (Trishikhibrahmana Upanishad-2/29).
सर्ववस्तुन्युदासीनभावमासनमुत्तमम्।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/29)
(सर्व दृश्य पदार्थों प्रति चित्तमें हंमेश सहज उदासीन भाव रहे, उसको हि श्रेष्ठ आसन कहते है।)
“Spontaneous and ever indifferent response of a person to all mundane things and beings is called the best Asana”.
(Trishikhibrahmana Upanishad-2/29).
जगत्सर्वमिदं मिथ्याप्रतीति: प्राणसंयम:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/30)
(यह जगत सब प्रकारसे मिथ्या प्रतीत होने लगे, वहि प्राणायाम है।)
“Pranayama is when this entire world is felt by you as unreal in every sense of word”)
चित्तस्यान्तर्मुखीभाव: प्रत्याहारस्तु सत्तम।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/30)
(चित्तके अंतर्मुखी भाव को ही अत्युत्तम प्रत्याहार कहा गया है।)
“The ever inwardly inclination of Subconscious Mind is called the best Pratyahaar”. (Trishikhibrahmana Upanishad-2/30).
चित्तस्य निश्चलीभावो धारणा धारणं विदु:।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/31)
(चित्तका अचल भाव धारण कर लेना हि धारणा जानी जाती है।)
“The Subconscious Mind, ever holding its original aspect of steadiness (in subjectlessness) is called Dharana”. (Trishikhibrahmana Upanishad-2/31)
सोऽहं चिन्मात्रमेवेति चिन्तनं ध्यानमुच्यते।।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/31)
(परमात्मा मैं ही हुँ, ऐसे अविरत चिन्तन को (ध्येय को) हि ध्यान कहते है।)
ध्यानस्य विस्मृति: सम्यक्समाधिरभिधीयते।
(त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद्-2/32)
(ध्यान (और ध्याता) की विस्मृति (होकर केवल ज्योतिरुप ध्येय हि बचता है तब उस स्थिति) को सम्यक् समाधि कहते है।)
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैव आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम्।। (कठोपनिषद-1/2/23) (मुंडकोपनिषद-3/2/3)
(यह परमात्मा न तो धर्मोपदेश करने से, नहीं बुद्धि से और नहीं वेदों के ज्ञान को बहुत सुनने से भी प्राप्त होनेवाला है। केवल जिसको परमात्मा ने चयनित किया है, वह हि परमात्मा को प्राप्त करने के योग्य बनता है; क्योंकि परमात्मा खुद हि उनके सामने अपने स्वरुप को प्रकट कर देते है।) (कठोपनिषद-1/2/23) (मुंडकोपनिषद-3/2/3)
(This Parmatma is neither obtainable by spiritual preaching, nor by intellect and nor by severely listening to the knowledge of Vedas. Only the one who has been selected by Parmatma, becomes capable of obtaining Parmatma; because Parmatma Himself unsheathes His own form before that person). (Katha Upanishad-1/2/23) (Mundaka Upanishad-3/2/3).
आचिनोति हि शास्त्रार्थानाचारस्थापनादपि।
स्वयम् आचरते यस्मात् तस्मात् आचार्य उच्यते।।
(द्वयोपनिषद-3)
--जो शास्त्रों का सम्यक अर्थ करता है, और जो सदाचार की केवल स्थापना ही नहीं करता बल्की स्वयम् उसका आचरण भी करता है, उसको आचार्य कहते है।
अज्ञस्यार्धप्रबुद्धस्य सर्वं ब्रह्मेति यो वदेत्।
महानरकजालेषु स तेन विनियोजित:।।
(महोपनिषद-5/105)
-जो गुरु अपरिपक्व बुद्धिवाले को और अज्ञानी को कहता है कि “यह सब ब्रह्ममय है” , ऐसा कहना उनको जैसे नरक में डालने जैसा है।
संसाराडम्बरमिदं कथमभ्युत्थितं गुरो।
कथं च प्रशममायाति।
(महोपनिषद-2/30)
--शुकदेव जी राजर्षि जनक से पूछते है की हे गुरुवर्य ! यह जगत रुपी प्रपंच का प्रगट्य कैसे हुआ और यह कैसे नाश हो जाता है?।
मनोविकल्पसंजातं तद्विकल्पपरिक्षयात् क्षीयते संसारो।
(महोपनिषद-2/34)
--मन के विकल्प में से संसारिक प्रपंच का प्रादुर्भाव होता है, और विकल्प का नाश होते ही इस प्रपंच का भी नाश हो जाता है।
भोगा इह न रोचन्ते स जीवन्मुक्त उच्यते ।
(महोपनिषद-2/42)
--जिनको यहाँ विषय-भोग (कामिनी -कांचन) में आसक्ति न होने का स्वभाव बन गया है, वह जीवनमुक्त कहलाता है। (महोपनिषद-2/42).
(Jivanmukta is one whose temperament has become to be that of not liking the lusts here) (Maha Upanishad-2/42).
जन्तव: साधुजिविता: ये पुनर्नेह जायन्ते शेषा जरठगर्दभा:।
(महोपनिषद-3/14)
--वह ही प्राणी सही अर्थ में जीवित है जो पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता, बाक़ी सब तो वृद्ध होते हुए गधे जैसे है।
भारो विवेकिन: शास्त्रं भारो ज्ञानं च रागिण:
अशांतस्य मनो भारो भारोअनात्मविदो वपु: । (महोपनिषद-3/15)
--जो विवेकी है उनको शास्त्र भाररुप है, रागी पुरुष के लिये ज्ञान भार रुप है। अशांत पुरुष के लिये मन भार रुप है ओर जिसको आत्मज्ञान नहीं हुआ उनके लिये शरीर भाररुप है।
अन्यविद्यापरिज्ञानमवश्यं नश्वरं भवेत्।
ब्रह्मविद्यापरिज्ञानं ब्रह्मप्राप्तिकरं स्थितम्।। (शुकरहस्योपनिषद-44)
(अन्य विद्याका अच्छी तरहसे प्राप्त किया हुआ ज्ञान, अवश्य नश्वर है; किंतु ब्रह्मविद्याका अच्छी तरह प्राप्त किया हुआ ज्ञान ब्रह्म प्राप्तिमें समर्थ है।)
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते। (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/8)
(उस परमात्माका कोई कार्य एवं शरीर-इन्द्रिय वग़ैरह नहीं है।)
नैव च तस्य लिंगम्। (श्वेताश्वतरोपनिषद-6/9)
(उस (परमात्मा) का कोई लिंग (स्त्री, पुरुष या नपुंसक) नहीं है।)
एको देव: सर्वभूतेषु गूढ़:सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।।(श्वेताश्वतरोपनिषद-6/11)
(सब प्राणीओं में एक ही परमात्मा गुप्त रहा हुआ है, वही वह सर्वव्यापी और सभी प्राणीओं के
अंतरात्मा है।)
जीव: शिव: शिवो जीव: स जीव: केवल: शिव:।
तुषेण बद्धो व्रिहि: स्यात्तुषाभावेन तन्डुल: । (स्कंदोपनिषद-6)
(जीव ही शिव है और शिव ही जीव है। जीव जब कैवल्य प्राप्त होता है तो शिव ही बन जाता है; जैसे भूसी से बद्ध होती है तो डांगर और अगर बिना भूसी के होती है तो चावल कहलाती है।)
देहो देवालय: प्रोक्त:।।(स्कंदोपनिषद-10)
(तत्त्वदर्शियों द्वारा) देह को हि देवालय कहा गया है।)
(स्कंदोपनिषद-10)
(The body is said to be the abode of God (by one who is seer of reality)
(Skanda Upanishad-10)
सोअकामयत। बहुस्यां प्रजायेयेति।। (तैत्तिरीयोपनिषद-2/6/1)
(उस परमात्माने अनेक रुपमें प्रगट होनेकी इच्छा की)
असद्वा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजायत । (तैत्तिरीयोपनिषद-2/7/1)
(इससे पहेले यहाँ असत् ही था, उसमेंसे सत् उत्पन्न हुआ।)
(There was in-existence, existence came out of it)
रसो वै स:।।(तैत्तिरीयोपनिषद-2/7/1)
(अवश्य वह (परमात्मा) रसरुप हि है।)(तैत्तिरीयोपनिषद-2/7/1)
(Verily (Parmatma) is no other than the delight)(Teittiriya Upanishad-2/7/1).
🔆🙏न चास्ति किंचित्कर्तव्यमस्ति चेन्न स तत्त्ववित्।।
(जाबालदर्शनोपनिषद-1/23)
-ब्रह्मज्ञानी को इस जगत में कुछ भी कर्तव्य बाक़ी नहीं है। अगर बाक़ी है तो वह ब्रह्मज्ञानी नहीं है।
शिवमात्मनि पश्यन्ति प्रतिमासु न योगिन:।
अज्ञानां भावनार्थाय प्रतिमापरिकल्पिता ।। (जाबालदर्शनोपनिषद/59)
“बुद्धिमान मनुष्य अपने आप में ईश्वर को देखते हैं, मूर्ति में नहीं। मूर्तियों की कल्पना केवल अज्ञानी लोगों की भावनाओं को आश्रय देने के लिए की जाती है।"
“Men with wisdom see God in themselves, and not in the idols. The idols are imagined just to shelter the sentiments of ignorant people”.
🔆🙏भगवत आदिपुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निर्धूतकलिर्भवति। (कलिसंतरणोपनिषद-1)
द्वापरयुग के अंतिम समय में एक बार देवर्षि नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा कि “हे भगवन पृथ्विलोक में भ्रमण करता हुआ मैं कलियुग से कैसे मुक्ति पा सकता हूँ” ?
ब्रह्माजी ने कहा: “भगवान आदिपुरुष श्रीनारायण (श्रीरामकृष्ण) के मात्र नामोच्चार से ही (मनुष्य) कलियुग के सभी दोषोंसे मूक्त हो जाता है”।
जब नारदजी ने सनतकुमारों को उपदेश के लिये कहा तो सनतकुमारों ने कहा - नामैवैतत्। ( नाम एव एतत्)--"आपने जो कुछ भी पढ़ा है वह केवल एक नाम है। (छांदोग्योपनिषद-7/1/3)
सोऽहं भगवो मन्त्रविदेवास्मि नात्मविच्छ्रुतं।
तरति शोकमात्मविदिति।। (छांदोग्योपनिषद-7/1/3)
---नारदजीने कहा- भगवन! मैं तो मंत्र विद ही हुँ। मैं आत्मज्ञानी नहीं हुं। मैंने सुना है आत्मज्ञानी (जन्म मरण के) शोक को पार कर जाता है।
मत्वैव विजानाति । (छांदोग्योपनिषद-7/18/1) --हे नारद, मनन से ही जाना जा सकता है । ---व्यक्ति जब मनन करता है तभी ( किसी वस्तु-भाव का) ज्ञान होता है ; मनन किये बिना नहीं जान सकता। अत: मनन को जानने की इच्छा करें कि भगवन, मैं मनन को जानाना चाहता हूं । किसी वस्तु की वास्तविकता व गहराई जानने हेतु उस में डुबकी लगाना आवश्यक होता है। मनन क्या है यह भी ठीक प्रकार से जानना चाहिये।----मनन, मानव का विशिष्ट गुण है इसीलिये वह मानव कहलाता है । (छांदोग्योपनिषद-7/18/1)
यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति । (छांदोग्योपनिषद-7/23/1)
(जो निरतिशय है, उस (परमात्मा होने) में सुख है, अल्प (जीव हो जाने) में सुख नहीं है।) (छांदोग्योपनिषद-7/23/1)
[There is bliss in (Being) infinite (Parmatma), bliss is not in (being) finite (Jiva).)
(Chhandogya Upanishad-7/23/1).
आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि:। सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति । स्मृतिलम्भे सवॅग्रंथीनां विप्रमोक्षस्तस्मै । (छांदोग्योपनिषद-7/26/2)
- आहार शुद्धि से अंत:करण की शुद्धि होती है , अंत:करण की शुद्ध होने से स्मृति अचल रहती है , स्मृति प्राप्त होने से सब ग्रंथीयों की निवृत्ति हो जाती है। (छांदोग्योपनिषद-7/26/2)
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्यं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।।
(ईशावास्योपनिषद-11)
---विद्या और अविद्याको दोनों को एक साथ जानों। अविद्या (भौतिक ज्ञान) द्वारा मृत्यु को पार करके, विद्या (आध्यात्मिक ज्ञान) द्वारा अमरत्व की प्राप्ति हो सकती है।
प्रत्याहार :
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु स्वभावत:।
बलादाहरणं तेषां प्रत्याहार: स उच्यते।। (जाबालदर्शनोपनिषद -7/1-3)
--विषय भोगों में स्वभाववश विचरने वाली सभी इन्द्रियों को वहाँ से बलपूर्वक पुन: खिंचने का जो प्रयास है, उसको प्रत्याहार कहा जाता है।
यत्पश्यति तु तत्सर्वं ब्रह्म पश्यन्समाहित:।
प्रत्याहारो भवेदेष ब्रह्मविद्भि: पुरोदित:।। (जाबालदर्शनोपनिषद7/1-3)मनुष्य को जो कोई दिखता है वह सब ब्रह्म ही है, इस तरह जानकर उस ब्रह्म में चित्त एकाग्र करना हि प्रत्याहार है, ऐसा ब्रह्मवेत्ता कहते है।
परांचि खानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्परांपश्यति नान्तरात्मन्।
कश्चिद्धिर: प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।। (कठोपनिषद-2/1/1)
--स्वयंभू परमात्मा ने सभी इन्द्रियों के द्वार को बहिर्मुख करके बनाये है, इसलिये (मनुष्य स्वाभाविक रुप से) बाहर ही देखता है, अंतरात्माको नहीं। अमृतत्व पाने की आकांक्षा से जीस धीर पुरुष ने अपनी इन्द्रियों को बाहर देखने से रोक लिया है, उसने ही प्रत्यगात्माको देखा है।(कठोपनिषद-2/1/1).
(Self Existent Parmatma has made the openings of sense organs outwardly, therefore (man naturally) observes outwardly only and not the inner Atmaa. A rare man having the Knowledge of Discernment, who has obstructed his sense organs from looking outwardly with a view to attaining immortality, that alone has realized Parmatma)(Katha Upanishad-2/1/1).
धारणा
मन: संकल्पकं ध्यात्वा संक्षिप्यात्मनि बुद्धिमान्।
धारयित्वा तथात्मानं धारणा परिकीर्तिता।।
(अमृतनादोपनिषद-16)
अर्थात मन को संकल्पात्मक समझकर बुद्धिमान मनुष्य मन का आत्मा में लय करके तथा (लय किये हुए मन को अपने) आत्मा में हि धारण किये रखता है (उसी क्रिया को) धारणा कहते है।)
नेह नानास्ति किंचन। (कठोपनिषद-2/1/11)
---जगतमें ब्रह्म के सिवाय कुछ भी नहीं है।
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च।। (केनोपनिषद-2/2)
शिष्य उत्तर देता है: ब्रह्म को पूर्णतया जान लिया है, ऐसा मैं मानता नहीं हुँ और ऐसा भी नहीं मानता कि नहीं जानता, क्योंकि जानता भी हुँ । हम शिष्यों में से जो उसे ‘न तो नहीं जानता हुँ और जानता ही हुँ’ इस प्रकार जानता है वही जानता है)
ध्यान -
अहमस्मीत्यभिध्यायेयातीतं विमुक्तये।। (जाबालदर्शनोपनिषद9/5)
(परमात्मा) मैं स्वयम् ही हूँ , इस तरह किया हुआ ध्यान मोक्ष प्राप्त करानेवाला है।)
यदा सर्वाणि भूतानि स्वात्मन्येव हि पश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ब्रह्म संपद्यते तदा।। (जाबालदर्शनोपनिषद10/10)
---जब (योगी) सब प्राणिओं को अपने में देखता है और अपने को सब प्राणिओं में देखता है, तब वह स्वयं ब्रह्म ही बन जाता है।
समाधि :
अहं ब्रह्मास्मीति वाक्यार्थविचार: श्रवणं भवति। एकान्तेन श्रवणार्थानुसंधानं मननं भवति।
श्रवणमनननिर्विचिकित्स्येऽर्थे वस्तुन्येकतानवत्तया चेत:स्थापनं निदिध्यासनं भवति।
ध्यातृध्याने विहाय निवातस्थितदीपवद्ध्येयैकगोचरं चित्तं समाधिर्भवति।।
(पेंगलोपनिषद-3/4)
('अहं ब्रह्मास्मि' इस महावाक्य के अर्थ पर विचार करना वह श्रवण कहलाता है। श्रवण किये हुए विषय के अर्थपर एकांत में अनुसंधान करना वह मनन कहलाता है। श्रवण और मनन द्वारा निश्चित किये हुए अर्थरुप वस्तु में एकाग्रतापूर्वक चित्त का स्थापन करना वह निदिध्यासन कहलाता है। जब चित्तवृत्ति ध्याता और ध्यानके भावको छोड़कर, वायु विहीन स्थान में रखे दीपक की ज्योत की भांती केवल ध्येय में ही स्थिर हो जाती है, तब उस अवस्था को समाधि कहा जाता है।)
समाधि: संविदुत्पत्ति: परजीवैकतां प्रति।।
(जाबालदर्शनोपनिषद10/1)
--परमात्मा और जीवात्मा एक हि है ऐसे प्रज्ञान का निरंतर रहना हि समाधि है।
आगमस्याविरोधेन ऊहनं तर्क उच्यते।
समं मन्येत यल्लब्ध्वा स समाधि प्रकीर्तित:।।
(अमृतनादोपनिषद-17)
---शास्त्रानुकुल शंका उपस्थित करना उसको तर्क कहते है। (ऐसी शंका के मद्देनजर भी) जो भी प्राप्त होता है उसमें समभाव रखना हि समाधि कहलाती है।)
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्न बिभेति कदाचन।।
(शरभोपनिषद-20)
---जहाँसे (ब्रह्मकी अनुभूतिसे) मन के साथ वाणी भी उसको न प्राप्त करके लौट आती है, उस आनंदस्वरुप ब्रह्मका जीसको बोध हुआ है, वह विद्वान कभी भयग्रस्त नहीं होता !!
जीवेश्वरौ मायिकौ विज्ञाय सर्वविशेषं नेति नेतीति विहाय यदवशिष्यते तदद्वयं ब्रह्म। (अद्वयतारकोपनिषद-3)
अर्थात जीव और ईश्वर को मायिक जानकर, जो विशेषकर है उस सबको “नेति नेति” कहते हुए उसको त्यागकर, जो शेष रहता है (श्रीरामकृष्ण परमहंस), वही अद्वय ब्रह्म (कहलाता) है।)
“After taking Jiva and Ishwara as illusive, after abdicating all that which is some or other way any special, terming it as “Not this, not this”, what remains is the Nondual Brahmn (that is the form of bliss).
प्राक्परोक्षमपि करतलामलकवद्वाक्यप्रतिबद्धापरोक्षसाक्षात्कारं प्रसूयते।
तदा जीवनमूक्तो भवति।।
(पेंगलोपनिषद-3/5)(त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद-2/158) (वज्रसूचिकोपनिषद-9)
(इस स्थिति में) पहेले जो तत्त्वमसि वग़ैरह शब्दों के अर्थ परोक्ष दिखते थे वही अब हस्तामलकवत विना अवरोध ज्ञात हो जाते है, और ब्रह्म का साक्षात्कार होता है, तब योगी जीवनमूक्त हो जाता है।)
🔆🙏आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसिन्नान्यत्किंचन मिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।
(ऐतरयोपनिषद-1/1/1)
--सृष्टि की शुरुआत में एकमात्र आत्मा ही था। इसके अलावा सचेष्ट जैसा और कुछ भी नथा। तब उस (परमात्मा) ने सोचा की मैं लोकों का सृजन करुं।
सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितियं।(छांदोग्योपनिषद-6/2/1)
---हे सोम्य प्रारंभमें एक मात्र अद्वितीय सत ही था।)
तद्वैक्षत बहुस्यां प्रजायेयेति। (छांदोग्योपनिषद-6/2/3)
----उसने संकल्प कियाकि मैं विभिन्न रुपोंमें उत्पन्न होजाउ।
एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थित:।
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचंद्रवत।। ( ब्रह्मबिंदुउपनिषद-12)
--अलग अलग प्राणि में एक हि आत्मा रहा हुआ है; एक होते हुए भी अलग अलग दिखते है, जीस तरह एक ही चंद्र अलग अलग जलपात्र में अलग अलग दिखता है, वैसे ही। ( ब्रह्मबिंदुउपनिषद-12)
(The one and alone Atmaa pervades in each individual creature; in spite of being one, sounds to be individual; as the one alone moon is seen separate in each individual water pot.) (Brahmabindu Upanishad-12)
मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्यौ: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।।
(कठोपनिषद-2/1/11)
(ब्रह्म एक ही यहाँ है), यहाँ अलग-अलग जैसा कुछभी नहीं है, (प्रगमनशील हुए) मन से ही यह तत्त्व प्राप्त करने योग्य है। जो मनुष्य यहाँ अलग-अलग सा देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को ही प्राप्त होता रहता है।(बृहदारण्यकोपनिषद-4/4/19)(कठोपनिषद-2/1/11)
[(Parmatma alone is here), there is nothing like diversity here, this has to be realized by a Mind (that is made an excellent). Whoever is understanding that there prevails diversity here, ensures from death to death for himself] (Brihdaranyaka Upanishad-4/4/19) (Katha Upanishad-2/1/11).
🔆🙏शरीर
पृथिव्यादिमहाभूतानां समवायं शरीरं। (शारीरकोपनिषद-1)
----पृथ्वि आदी पाँच महाभूतो का समुदाय ही शरीर है । )
देहाभिमानेन जीवो भवती।
(नारद परिव्राजकोपनिषद-6/3)
(जो अपने को केवल देह ही समझता है ,वह जीव बन जाता है) (नारद परिव्राजकोपनिषद-6/3)
(By creating a sense of being body, one becomes Jiva.). (Narada Parivrajika Upanishad-6/3).
शकटमिवाचेतनमिदं शरीरम्। (मैत्रायण्युपनिषद-2/3)
- यह शरीर गाड़ी (रथ) की तरह अचेतन है। (मैत्रायण्युपनिषद-2/3)
(This body is inanimate just like a cart)(Meitranya Upanishad-2/3)
आत्मेन चेतनेनेदं शरीरं चेतनवत्। (मैत्रायण्युपनिषद-2/5)
--आत्मा के चैतन्य से यह शरीर चैतन्य जीवंत जैसा दिखता है ! (मैत्रायण्युपनिषद-2/5)
(This body (sounds) animate because of the consciousness of Atmaa)
(Meitranyu Upanishad-2/5).
अन्योऽसावन्योऽहमस्मीति ये विदुस्ते पशवो न स्वभावपशवस्तमेवं ज्ञात्वा विद्वान्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।।
(नारद परिव्राजकोपनिषद-9/1) (श्वेताश्वतरोपनिषद-3/8)
( बाद नारदजीने फिरसे पूछा: ब्रह्मका स्वरुप कैसा है? ब्रह्म अलग है और मैं भी अलग हूँ, ऐसा जो मानता है वह पशु है। पशुयोनी में जन्मा वो ही पशु नहीं है। इस को ही जानकर विद्वान लोग जन्म-मृत्यु के मार्ग से मूक्त हो जाते है। इस ज्ञान के अलावा मूक्ति का कोई अन्य मार्ग नहीं है।)
जीव इति च ब्रह्मविष्ण्वीशानेन्द्रादीनां नामरुपद्वारा स्थूलोअहमिति मिथ्याध्यासवशाज्जीवः। सोऽहमेकोऽपि देहारम्भकभ्दवशाद्बहुजीव:।। (निरालंबोपनिषद-5)
(जब इस ईश्वर को ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा इन्द्र आदि नाम और रुप के कारण “मैं स्थूल हूँ” ऐसा मिथ्याध्यास हो जाता है, तब उनको जीव कहते है। चैतन्य सोऽहमके रुपमें एक ही होनेपर भी शरीरों की भिन्नता के कारण जीव अनेक विध हो जाते है।)
सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन । (निरालंबोपनिषद-9)
(यह पूरा विश्व परमात्मा ही है। परमात्मा से अलग यहाँ अन्य जैसा कुछ भी नहीं है।)(निरालंबोपनिषद-9).
(This entire universe is nothing but Parmatma, there is nothing other that is separate from Parmatma.). (Niralamba Upanishad-9).
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि। (सरस्वतीरहस्योपनिषद-66)
(देहाभिमान नष्ट होने से अपने में ही परमात्मा की अनुभूति संप्राप्त होती है।)
मयि जीवत्वमीशत्वं कल्पितं वस्तुतो न हि। इति यस्तु विजानाति स मुक्तो नात्र संशय:।। (सरस्वतीरहस्योपनिषद-68)
(मेरे में जीवत्व-इशत्व का भेद कल्पित है, वास्तवमें नहीं है। यह जो जान लेता है, वह मूक्त ही है; इसमें कोई संशय नहीं है।)
आत्मेश्वरजीवोअनात्मनां देहादीनामात्मत्वेनाभिमन्यतेसोअभिमान आत्मनो बंन्धः। तन्निवृत्तिर्मोक्ष: ।(सर्वसारोपनिषद-2)
(आत्मा ही परमात्मा है। देह (इन्द्रियों, मन) आदि अनात्ममों में जब अपने द्वारा (“यह मैं हुँ” ऐसा) अभिमान होता है, यह अभिमान ही जीव है, (यह अभिमान हि) अपना बन्धन है। उसकी निवृत्ति ही मोक्ष है।)
या तदभिमानं कारयति सा अविद्या।
सोsभिमानो यया निवर्तते सा वि़द्या। (सर्वसार-उपनिषद, 3)
आत्मा ही ईश्वर और जीवरूप है, फिर भी जो आत्मा नहीं है, ऐसे शरीर में जीव को अहंभाव हो जाता है; वही शरीर का बंधन है। इस अहंभाव का निकल जाना यही मोक्ष है। इस अहंभाव को जो उत्पन्न करती है, वह अविद्या है।औन जिस शिक्षा से यह अहंभाव निकल जाता है, वह विद्या कहलाती है।
प्रकृति
सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति:।। (सांख्यदर्शन-1/61). (प्रकृति; (तीनों गुण) सत्त्व, रजस और तमस की साम्यावस्था (बनाये रखने का तंत्र) है।) (The Nature (is a System that maintains) the equality of (Three Gunas) Sattva, Rajas, and Tamas). (Sankhyadarshan-1/61.).
लोहितशुक्लकृष्णगुणमयी गुणसाम्यानिर्वाच्या मूलप्रकृतिरासीत्। (पेंगलोपनिषद-1/3)
(जिसका वर्णन नहीं हो सक्ता है, जिसमें सत्त्व, रजस और तमस तीनों गुण की साम्यावस्था (बनाये रखने का तंत्र) है वैसी मूलप्रकृति (ब्रह्ममेंसे) उत्पन्न हुइ।) “This primordial Nature, which is beyond the description in the words, which has (a System that maintains) the equanimity of Sattva, Rajas, and Tamas Gunas; was born (from the Parmatma)”. (Pengal Upanishad-1/3).
तस्मिन्मरुशुक्तिकास्थाणुस्फटिकादौ जलरौप्यपुरुषरेखादिवल्लोहितशुक्लकृष्णगुणमयी गुणसाम्यानिर्वाच्या मूलप्रकृतिरासीत्।तत्प्रतिबिम्बितं यत्तत्साक्षिचैतन्यमासीत्।। (पेंगलोपनिषद-1/3)
(जैसे रेगिस्तान में जल, सीप में चांदी, ठूंठ में पुरुष और स्फटिक में वक्ररेखा आदि का आभास होता है, वैसे ही ( जिसमें तीनों) गुणों की साम्यावस्था (बनाये रखने का तंत्र) था वैसी निर्दोष (सत्त्व, रजस और तमस) त्रिगुणात्मक मूलप्रकृति उस (ब्रह्म) में बसी लगती थी। जो उस (ब्रह्म) में प्रतिबिम्बित था यह साक्षि चैतन्य था।(पेंगलोपनिषद-1/3)।
[The blameless (primordial Nature) possessing (Sattva, Rajas, and Tamas) three Gunas that had (a mechanism of maintaining) the equanimity of (three) Gunas, was inkling sitting down in that(Parmatma). What was reflecting in that (Parmatma), was Universal Soul.). (Pengal Upanishad-1/3).
तदेव स्थूलशरीरम्। कर्मेन्द्रियै: सह प्राणादिपंचकं प्राणमयकोश:। ज्ञानेन्द्रियै: सह मनो मनोमयकोश:। ज्ञानेन्द्रियै: सह बुद्धिर्विज्ञानमयकोश:। एतत्कोशत्रयं लिंगशरीरम्। स्वरुपाज्ञानमानन्दमयकोश:। तत् कारणशरीरम्।। (पेंगलोपनिषद-2/4)
(यही स्थूल शरीर है। कर्मेन्द्रियोंके साथ पाँच प्राण मिलकर प्राणमयकोश, ज्ञानेन्द्रियोंके साथ मन मिलकर मनोमयकोश, और ज्ञानेन्द्रियोंके साथ बुद्धि मिलकर विज्ञानमयकोश बनता है। यही तीनों कोश मिलकर लिंग शरीर बनता है। जहाँ अपनेका बोध नहीं रहता वह आनन्दमयकोश है, उसको ही कारण शरीर कहते है।)
ल्लिंगशरीरं ह्रदयग्रन्थिरित्युच्यते। (सर्वसार-उपनिषद,7)
(लिंग शरीरको ही ह्रदयग्रंथी कहते है।)
जगत्कर्तुमकर्तु वा चान्यथा कर्तुमीशते। (सरस्वतीरहस्योपनिषद-51)
(परमात्मा जगत की रचना करने न करने और उनसे अलग कुछभी करने समर्थ है)
शक्तिद्वयं हि मायाया विक्षेपावृतिरुपकम्। विक्षेपशक्तिर्लिंगादि ब्रह्माण्डान्तं जगत्सृजेत्।।
अन्तर्द्रृग्दृश्ययोर्भेदं बहिश्च ब्रह्मसर्गयो:। आवृणोत्यपरा शक्ति: सा संसारस्य कारणम्।। (सरस्वतीरहस्योपनिषद-52-53)
(विक्षेप और आवरण नामक मायाकी दो शक्तियाँ है। विक्षेप शक्ति लींग देह से ब्रह्मांड पर्यन्त जगतकी संरचना करती है। आवरण नामक अपरा शक्ति अंदरके दृष्टा-दृश्य के भेद को और बहार के परमात्मा-सृष्टि के भेद को आवृत करती है। यह आवरण शक्ति ही संसार के बंधनका कारण है।)
अस्ति भाति प्रियं रुपं नाम चेत्यंशपंचकम् ।
आद्यत्रयं ब्रह्मरुपं जगद्रूपं ततो द्वयम् । (सरस्वतीरहस्योपनिषद-58)
(अस्ति (है), भाति (लगता है), प्रिय (आनंदस्वरुप) , रुप और नाम यह (अस्तित्व के) पाँच अंश कहे गये है । पहेले तीन परमात्मरूप और पीछले दो जगतरुप कहे गये है।) (सरस्वतीरहस्योपनिषद-58)
(Being, Consciousness, Bliss, Form and Name are called to be the five components (of Existence). The first three are form of Parmatma whereas the later two are form of world). (Saraswati Rahasya Upanishad-58)
सत्कर्मपरिपाकतो बहुनां जन्मनामन्ते नृणां मोक्षेच्छा जायते। (पेंगलोपनिषद-2/17)
(बहुत जन्मोंके बाद जब सदकार्यों का फल मिलता है, तब मोक्ष की इच्छा पेदा होती है।)
🔆🙏मन
मनोबुद्धिरहंकारश्चित्तमित्यन्तःकरणचतुष्टयम् । (शारीरकोपनिषद-4)
(मन बुद्धि चित और अहंकार यह चारोंका समूह अंतःकरण कहलाता है। )
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयौ: ।
(ब्रह्मबिंदुउपनिषद-2) (मैत्रायण्युपनिषद-4/3/K)
---मन ही मनुष्य के बन्धन या मूक्ति का कारण है।
मनसो विजयान्नान्या गतिरस्ति भवार्णवे। (महोपनिषद-5/76)
--इस संसार सागर में मन पर विजय प्राप्त करने के अलावा (जीवन का) और कोई ध्येय नहीं है।)
तावदेव निरोद्धव्यं ह्रदि यावत्क्षयं गतं मनो।
एतज्ज्ञानं च मोक्षं च शेषास्तु ग्रंथ विस्तरा । (ब्रह्मबिंदूपनिषद-5)(मैत्रायण्युपनिषद-4/3/H)
- अतएव मन का ह्रदय में तब तक निरोध करना चाहिये जब तक उनका क्षय (यानि मनकी उन्मनी स्थिति) न हो जाय। (संपूर्ण शास्त्रों का सार रुप) यही ज्ञान है और यही मोक्ष है, बाक़ी सब तो ग्रंथ का अनावश्यक (बिन जरुरी) विस्तार ही है।)
यथा निरिन्धनो वह्नि: स्वयोनावुपशाम्यति,
तथा वृत्तिक्षयाच्चितं स्वयोनावुपशाम्यति।(मैत्रायण्युपनिषद-4/3/A)(मैत्रेय्युपनिषद-1/7)
जिस प्रकार लकड़ी के जल जाने पर आग अपने आप ही विलुप्त हो जाती है, उसी प्रकार चित्त की प्रवृत्ति के रुकने पर चित्त अपने आप ही विलुप्त हो जाता है।
(Just as the fire becomes extinct on its own when the wood lasts, same way the Chitta becomes extinct on its own when its tendency gets inhibited.)
स एव आत्मान्तर्बहिश्चान्तर्बहिश्च। (मैत्रायण्युपनिषद-4/5)
- यह (परमात्मा ही ) आत्मा के रुप में अंदर बाहर अंदर बाहर विद्यमान है।
राजसिक अंशो असौ ब्रह्मा तामस अंशो असौ रुद्र सात्विक अंशो असौ स एव विष्णुः । (मैत्रायण्युपनिषद-4/5)
- इस (परमात्मा) के रजोगुण अंशको ब्रह्मा, इस (परमात्मा) के तमोगुण अंशको रुद्र और इस (परमात्मा) के सत्त्वगुण अंशको विष्णु कहते है।) (मैत्राण्युपनिषद-4/5)
(The Rajas part of this (Parmatma) is known as Brahma, the Tamas part this (Parmatma) is known as Shiva and Sattva part this (Parmatma) is known as Vishnu.)
(Meitrannyyu Upanishad-4/5).
अगोचरं मनोवाचाम्। (मैत्रेय्युपनिषद-1/13)
वर्णाश्रमाचारयुता विमूढाः कर्मानुसारेण फलं लभन्ते।
वर्णादिधर्मं हि परित्यजन्तः स्वानन्दतृप्ताः पुरुषा भवन्ति ।।१७।।
(मैत्रेय्युपनिषद-1/17)
सरलार्थ:-अपने को केवल शरीर समझ कर वर्ण एवं आश्रम धर्म का पालन करने वाले अज्ञानी जन ही अपने कर्मों का फल भोगते हैं; लेकिन वर्ण आदि के धर्मों को त्यागकर आत्मा में ही स्थिर रहने वाले मनुष्य अन्तः के आनन्द से ही पूर्ण सन्तुष्ट रहते हैं।
अभेददर्शनं ज्ञानं घ्यानं निर्विषयं मनःस्नानं मनोमलत्यागः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ॥ (मैत्रेय्युपनिषद-2/2)
[(सृष्टि में ब्रह्म का) अभेदरुप दर्शन होना ही ज्ञान है। मन का विषय रहित हो जाना हि ध्यान है। मन के (मोहजनित) मल का त्याग हो जाना ही स्नान है। इन्द्रियोंका (पूरा) वश में होना ही पवित्रता है।] (मैत्रेय्युपनिषद-2/2)
[The identical perception (in Creation of Parmatma) is Knowledge. The Mind becoming devoid of subject is Meditation. The renunciation of (dualistic) filth of Mind is Bath and the (complete) restraint on the sense organs is sacredness). (Meitriya Upanishad-2/2) (Skanda Upanishad-11).
मृता मोहमयिमाता जातो बोधमय: सुत: ।
सूतकद्वयसंप्राप्तौ कथं संध्यामुपास्महे ।। (मैत्रेय्युपनिषद-2/13)
एकमेवाद्वितीयं यद्गुरोर्वाक्येन निश्चितम्।
एतदेकान्तमित्युक्तं न मठो न वनान्तरम् ॥(मैत्रेय्युपनिषद-2/15)
[(यहाँ) केवल (परमात्मा) एक ही है, बिना किसी दुसरे के। इस (भावना) को ही एकांत कहा गया है; नहीं कि मठ को या तो वन के मध्य-भाग को।] (मैत्रेय्युपनिषद-2/15)
[Parmatma alone is here, the only one without any second. This (notion) is what is called to be solitude, and not the cloister or the middle of the forest.]. (Meitreya Upanishad-2/15)
उत्तमा तत्त्वचिन्तैव मध्यमं शास्त्रचिन्तनम्।
अधमा मन्रचिन्ता च तीर्थभ्रान्त्यधमाधमा ॥ (मैत्रेय्युपनिषद-2/21)
(तत्व का चिंतन ही उत्तम है, शास्त्रों का चिंतन मध्यम है, मंत्रो का चिंतन अधम है और तिर्थो का भ्रमण तो अधम का भी अधम है।)(मैत्रेय्युपनिषद-2/21)
(The thought of (contemplation upon) Ṭaṭṭwas is the transcendental one; that of the Śhāsṭras the middling, and that of Manṭras the lowest. The delusion of pilgrimages is the lowest of the lowest)(Meitraya Upanishad-2/21).
सबाह्याभ्यन्तरं दृश्यं मा गृहाण विमुच मा । (महोपनिषद-5/172)
- जो बाहर और अंदर दृश्यमान जगत है, उसको पकड़ना भी नहीं और त्यागना भी नहीं।
स्वसंकल्पे क्षयं याते समतैवावशिष्यते। (महोपनिषद-6/3)
(अपने संकल्पोंका क्षय हो जाते ही, केवल समत्वभाव ही शेष रहता है।)(महोपनिषद-6/3)
(When all the volitions of a person are declined, what remains is Equanimity only). (Maha Upanishad-6/3).
सर्वं त्यक्त्वा येन त्यजसि तत्त्यज । (महोपनिषद-6/5-6)
--सबका त्याग करके (अंतमें) जिससे सब छोड़ते हो उनका भी त्याग कर दो।(After renunciating everything, leave that, too by which you renunciated everything.- Mahopanishad-6/5-6)