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शुक्रवार, 3 नवंबर 2023

🔱मूर्तिपूजक श्री रामकृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानन्द को ईश्वर का अस्तित्व कैसे सिद्ध किया?

प्रश्न >>> मूर्तिपूजक श्री रामकृष्ण परमहंस ने पाश्चात्य शिक्षा में पढ़े 18 वर्ष के युवा नरेन्द्रनाथ को ईश्वर-दर्शन कैसे करवाया ? 

ईश्वर कोई वस्तु नहीं है जिसे किसी को दिखाया जा सके, न ही ईश्वर कोई विचार है जिसे सिद्ध या असिद्ध किया जा सके; ईश्वर एक वास्तविकता है जिसे केवल सहज ज्ञान से ही अनुभव किया जा सकता है।  जिसका अर्थ है कि उसे तभी जाना जा सकता है जब ज्ञाता और ज्ञेय के बीच इंद्रियों और मन का मध्यवर्ती माध्यम शांत हो जाता है- चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है

यह कैसे होता है?

आमतौर पर व्यक्ति निरन्तर शब्दों (विचारों) के सागर में डूबा रहता है, शब्दों को आत्मसात करता है और उन्हें गढ़ता है, लेकिन कुछ मौके ऐसे भी आते हैं जब मन इस कोलाहल से दूर मौन की दुनिया में (समाधि में ) प्रवेश कर जाता है। तभी व्यक्ति के मन में गहन विचार और संवेदनशील अभिव्यक्तियाँ आती हैं जो जीवन्त कविता, दर्शन, कला, विज्ञान और ज्ञान की अन्य शाखाओं का रूप ले लेती हैं। ये मौन से जन्मे शब्द हैं। 

दुर्लभ मामलों में जब कोई आध्यात्मिक साधक खुद को तीनों ऐषणाओं की आसक्तियों (गुलामी) से मुक्त करके, महामण्डल के  "Be and Make" वेदान्त डिण्डिम C-IN-C नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा" में अपने मन को शुद्ध बनाता है, तो मन का विश्लेषण करते करते उसे एक ऐसी वस्तु का दर्शन हो जाता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं है। वह शांति की गहराई में चला जाता है जहां दुनिया, शब्दों, विचारों और यहां तक ​​​​कि अपने मन (अहं) के बारे में उसकी जागरूकता बंद हो जाती है। तभी वह ईश्वर के बारे में सच्चाइयों से (अपने सच्चिदानन्द स्वरुप से) सहज रूप से अवगत हो जाता है।

ज्ञान की इस पद्धति का "Be and Make" वेदान्त डिण्डिम C-IN-C नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा का) कभी कोई अपवाद नहीं है। हिंदू इस अवस्था को समाधि (जो कई प्रकार की होती है) कहते हैं, जबकि अन्य धर्म इसे अन्य नामों से पुकारते हैं। इस अवस्था तक ज्यादातर मौन चिंतन और ध्यान (विवेक-दर्शन का अभ्यास) के माध्यम से पहुंचा जा सकता है, लेकिन दुर्लभ मामलों में किसी ऋषिदृष्टि सम्पन्न जीवनमुक्त शिक्षक, नेता , पैगम्बर या अवतार के स्पर्श से या केवल आँख में आँख डालकर देखने मात्रसे एक योग्य (सुपात्र-निष्कपट -सत्यार्थी) शिष्य को उस अवस्था की झलक दे सकता है।

स्वामी विवेकानन्द को अतीन्द्रिय सत्य (पारलौकिक या Transcendental Truth) की कुछ अनुभूति श्री रामकृष्ण के आध्यात्मिक स्पर्श से प्राप्त हुए थे, लेकिन बाद में ये अनुभव उन्हें अपने प्रयासों से (मनःसंयोग के विधिवत अभ्यास से) प्राप्त हुए।

>>>Training of the Disciple  (शिष्य का प्रशिक्षण- शिक्षण-विधि-सोपान
Teaching-method-steps) शिव शंकर प्रलयंकर आत्मा का स्वरूप शिव है, उसका स्वभाव शंकर है, उसका प्रभाव प्रलयंकर है । सूर्य का स्वरूप प्रकाशपुंज है, प्रकाश रश्मियों को विकीर्ण करना उसका स्वभाव है, उर्जावितरण उसका प्रभाव है । आत्मा ज्ञान-स्वरूप है । प्रत्येक ज्ञान का आश्रय बनना, आत्मा का स्वभाव है । अज्ञान का क्षय, आत्मा का प्रभाव है । ......
    >>>साधन-चतुष्टय-सम्पत्ति यह ज्ञान के जिज्ञासु के लिये आहर्ता है । साधन-चयुष्टय के अंग (1) विवेक – मस्तिष्क में स्पष्ट क्षवि कि हमें क्या चाहिये और क्या नहीं चाहिये । हमें पूर्णता चाहिये और हमें अपूर्णता नहीं चाहिये ।  

(2) वैराग्य – वैराग्य तो विवेक का फल है ! पूर्णता और अपूर्णता दोनो एक दूसरे के विपरीत स्वभाव के हैं  इसलिये एक ही व्यक्ति दोनो को उन्मुख नहीं हो सकता है इसलिये, पूर्णता का जो इक्षुक होगा उसे अपूर्णता से विमुख होना होगा, इसे वैराग्य कहा गया है। फूल खिलने पर भौँरोँ को निमन्तत्रण नहीँ देना पडता । इसी प्रकार साधक ” साधनचतुष्टय ” सिद्ध हो जाने पर ज्ञान के साधन स्वयं उपस्थित हो जाते हैँ ।  ऐसी एक प्राचीन लोकोक्ति है कि – शेरनी का दूग्ध स्वर्णपात्र मेँ ही दुह कर इकट्ठा किया जा सकता है । वैराग्यहीन प्रथम तो भगवान् श्रीसाम्ब सदाशिव शंकर के स्वरूप को समझ ही नहीँ पायेगा और समझ भी गया तो राग से गिर जायेगा । दुःखानुभव से यद्यपि वितृष्णा उत्पन्न होती है , वैराग्य उत्पन्न नहीँ होता  । वैराग्य तो विवेक का फल है ।

(3) शमादि-षट-सम्पत्ति जिसमें, शम: व्यक्ति का गुण है । शम: की परिभाषा “मनोनिग्रह” है । मनोनिग्रह, मस्तिष्क का नियंत्रण है । मस्तिष्क के षट धर्म, शम:, दम:, उपरति, तितीक्षा, श्रद्धा, समाधानम् को मस्तिष्क की सम्पत्ति के रूप में धारक व्यक्ति को आत्मज्ञान के लिये उपयुक्त पात्र बताया गया है । 

(4) मुमुक्षु – “आत्मज्ञान” की प्रबल जिज्ञासा है । जिस व्यक्ति में उपरोक्त चार गुण विद्यमान हो उसे इस “आत्मज्ञान” के लिये योग्य अधिकारी कहा जायेगा । ...... क्रमश:

>>>The causal body (कारण-शरीर) : कारण-शरीर जैसा कि इसके नाम से ही विदित है, यह शरीर कारण होती है, और इस कारण के कार्य के रूप में पूर्व-वर्णित सूक्ष्म-शरीर और स्थूल-शरीर की उत्पत्ति होती है । ज्ञातव्य है कि कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है । प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है । उपरोक्त दोनो कथन एक दूसरे के पर्याय हैं । 

   प्रश्न उठता है कि यदि स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर समुदाय कार्य हैं, तो इस कार्य का कारण क्या है ? उत्तर है, पूर्व जन्मों के संचित कर्म-फलो का भोग वर्तमान स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर की उत्पत्ति का कारण होता है । इस रूप में व्यक्ति की कारण-शरीर उसके अ-व्यक्त-संचित कर्म-फलों का संचय स्थल है । 
          समष्टि स्तर पर जो कार्य माया का है, व्यष्टि स्तर पर वही कार्य इस कारण-शरीर का है । प्रत्येक जीव की शरीर में यह कारण-शरीर ही माया का स्थानीय कार्यालय होता है । माया समस्त जगत् की सृजन-सत्ता है, संचालक-सत्ता है । कारण-शरीर प्रत्येक जीव की सृजन-कर्ता-सत्ता है, संचालक-सत्ता है और जीव की लय सत्ता होती है । ज्ञातव्य है कि सृजन और लय व्यक्त-दशा और अ-व्यक्त दशा के ज्ञोतक होते है । जीव अर्थात् स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर समुदाय, जिसमें कि सूक्ष्म-शरीर असँख्य स्थूल-शरीरों का भोग करते हुये पुण्य-पाप-कर्मों को करते हुये संचित-कर्म-फल एकत्रित करती आयी है, वह समस्त संचित-कर्म-फल अव्यक्त दशा में इस कारण-शरीर में विद्यमान रहते हैं 
       इस कारण-शरीर का क्षय सृष्टि के प्रलय-काल में भी नहीं होती है । अगली सृष्टि का प्रारम्भ इन्ही पूर्व-सृष्टि की रक्षित कारण-शरीरों से सम्भव होती है । नित्य के व्यवहारिक जगत् में स्थूल-शरीर, सूक्ष्म-शरीर समुदाय के जीवन-भोग में स्थूल-शरीर और सूक्ष्म-शरीर तीन अवस्थाओं नामत: जागृत-दशा, स्वप्न-दशा, सुशुप्ति-दशा का जीवन भोग करते हैं । सुशुप्ति की दशा में समस्त इन्द्रियाँ और मस्तिष्क इसी कारण-शरीर में अव्यक्त-दशा में पर्णित होकर लय करते हैं जो कि जागृत दशा की पुनर्स्थापना पर पुन: व्यक्त-दशा अर्थात् कार्यकारी-दशा में वापस स्थापित होते हैं.........क्रमश: 
      >>>निषिद्ध-कर्म (prohibited action) व्यक्ति के जिस भी कर्म से, अगले किसी भी जीव को क्लेष की प्राप्ति होती है, वह तामसिक-निषिद्ध कर्म है । शास्त्र उपदेश, निषिद्ध कर्मों को, नहीं करने के, आदेश करते है । शास्त्रों में निषिद्ध पाप-कर्मों के करने से व्यक्ति के संचित-पुण्य क्षीण होते है । व्यक्ति पतन को उन्मुख होता है । ..... क्रमश:
       
  >>>Indescribable Sky  (अनिर्वचनीय आकाश-विवर्तवाद)  में नीलमा होती नहीं है, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति का नित्य का अनुभव है कि आकाश नीला दीखता है । जो वस्तु जिस अधिकरण में भासित हो रही है, वह उस अधिकरण में नहीं है । यह अनिर्वचनीयता है । अद्वैत-वेदान्त भासमानिता का निषेध नहीं करता है । जगत् भासित हो रहा है । परन्तु जगत् की भासमानिता आत्म-चैतन्य के अधिकरण में देखी जा रही है, जबकि आत्म-चैतन्य के अधिकरण में जगत् नहीं है । आत्मा चेतन है । जगत् जड है । चेतन में जड का होना कैसे सम्भव है । यह अनिर्वचनीयता है । अनिर्वचनीयता का अर्थ यह नहीं होता है कि वह वस्तु है नहीं अथवा उसका निर्वचन नहीं किया जा सकता है । वस्तु भासती है । उसके भासने का निर्वचन भी किया जाता है । परन्तु जिस अधिकरण में वह भास रही है, उस अधिकरण में वह नहीं है । यह अनिर्वचनीयता है । ...... क्रमश: 
>>>knowledge action desire (ज्ञान क्रिया इच्छा) :  सत्व, रज़स, तमस यह तीन उपाधियाँ हैं जिनसे माया शक्ति को व्यक्त किया जाता है । सत्व में विभू: आत्मा का वेध होता हैं तो रूपबोध सम्भव होता है । रज़स में विभू: आत्मा का वेध होता है तो कर्म का उदय होता है । तमस में विभू: आत्मा का बेध होता है तो प्रज्ञा का आच्छादक सृजित होता है । व्यक्ति का अन्त:करण पंचमहाभूतों की तन्मात्राओं के चार-बटा-पाँच भाग सात्विक अंश द्वारा निर्मित है । इसलिये ही उसमें शब्द, स्पर्ष, रूप, रस, और गंध का अनुभव ज्ञान की क्षमता होती है । उपरोक्त कथित पंचमहाभूतों की तन्मात्राओं के शेष एक बटा पाँच सात्विक अंश से पंच ज्ञानेन्द्रियाँ निर्मित हैं । इसलिये ही मोंह का सृजन ज्ञान इन्द्रियों और मन दोनों के संयुक्त भागीदारी द्वारा सृजित होते हैं । ज्ञातव्य हैं कि मन की तीन मौलिक विकृतियाँ नामत: मल, विक्षेप, अज्ञान इन्ही उपरोक्त वर्णित प्रमाद, रज़स और सत्व के आच्छादन से सृजित होती हैं । ज्ञान जिज्ञासु को उपरोक्त के निवारण के पुरुषार्थ की अपेक्षा होती है । ....... क्रमश: 

साभार :ज्ञान गंगा/  https://draft.blogger.com/profile/12342022407733611819 


🔱मूर्ति पूजा का तात्पर्य🔱 (Meaning of Idol Worship)

       आजकल मूर्तिपूजा का विरोध करने वाले 'तथाकथित सेक्यूलर लोग ' अक्सर प्रश्न उठाते है कि वेद में लिखा है कि “न तस्य प्रतिमा अस्ति” जब वेदों में मूर्ती पूजा मना है तो फिर क्यों आप लोग मूर्ती पूजा करते हो? जबकि सनातन में वेद को बहुत बड़ा स्थान दिया है तो फिर वेदों का उलंघन क्यों करते हो? वेदों का उलंघन करके क्या कोई सनातनी रह कैसे सकता है?  प्राय: निराकार उपासकों, (मूर्ति पूजा विरोधी लोगों- विशेषकर विधर्मी ) द्वारा यजुर्वेद के एक श्लोक को उद्धृत कर यह प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है की मूर्ति पूजा वेद सम्मत नहीं है:

न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। 

हिरण्यगर्भस इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान जात: इत्येष:।।’

(- यजुर्वेद 32वां अध्याय श्लोक 3)

यस्य नाम महाद्यश: ' अर्थात जिस परमात्मा (ब्रह्म) का नाम (ॐ) ही महादृश्य है - उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती;.... जिस परमात्मा की हिरण्यगर्भ, मा मा और यस्मान जात आदि मंत्रो से महिमा की गई है, उस परमात्मा (आत्मा) का कोई प्रतिमान नहीं। अग्‍नि‍ वही है, आदि‍त्‍य वही है, वायु, चंद्र और शुक्र वही है, जल, प्रजापति‍ और सर्वत्र भी वही है। वह प्रत्‍यक्ष नहीं देखा जा सकता है। उसकी कोई प्रति‍मा नहीं है। उसका नाम ही अत्‍यन्‍त महान है। वह सब दि‍शाओं को व्‍याप्‍त कर स्‍थि‍त है। मंत्र का तात्पर्य ये है की “आत्मा का कोई प्रतिमान नही होता।। ” फिर कुछ लोग इस मंत्र को मूर्ति-पूजा के विरुद्ध क्यों इस्तेमाल करते हैं जबकि इसका अर्थ “आत्मा” से संबंधित है।। 

श्रीभगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता के 12 वें अध्याय के 2 -7 श्लोकों में  साकार निराकार उपासना का रहस्य बताया था:

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥२॥

मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को (मुझ अवतार वरिष्ठ को )भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं॥२॥

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥॥३-४॥

परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥३-४॥

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।

अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥ ॥५॥

उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है॥५॥

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।

अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ ॥६॥

परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं।॥६॥

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ ॥७॥

हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं (अवतार वरिष्ठ) शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ॥७॥

श्रीभगवानके इन वचनो से निश्चित होता है कि जब तक इन्द्रियाँ पूरी तरह से वश में न आ जाय और देहाभिमान नष्ट होकर पूर्ण वैराग्य की प्राप्ति न हो जाये, तब तक निराकार की उपासना असम्भव है। इसी कारण मध्यम मनुष्य की सुविधा के लिये महर्षियों ने साकार मूर्तिपूजा की संतुति की है।
दुसरे शब्दों में जिस साधक ने ज्ञान और वैराग्य की साधना को पूर्ण कर लिया है वही सीधा निराकार परब्रह्म के पास पहुँच कर उनकी उपासना कर सकता है । किन्तु हमारे जैसे मध्यम अधिकारी व्यक्ति के लिए , अपने आदर्श की मूर्ति या चित्र को अपनी उपासना का केन्द्र या आश्रय के द्वारा ही परमात्मा की शक्ति को प्रकट करके उपासना करना ही युक्तिपूर्ण  है। मध्यम अधिकारी के मनुष्य के लिये मूर्तिपूजा को माध्यम बनाने का यही हेतु है।
           मनुस्मृति में भी कहा गया है-

अभिवादनशीलस्य नित्यं वॄद्धोपसेविन:।‬
‪चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥‬
(मनु. द्वि, अ १२१)

वृद्धों तथा पूज्य के चरणस्पर्श तथा नित्य प्रणाम सेवा करने वालों मे उनकी चार शक्ति -आयु, विद्या, यश (कीर्ति) और बल ये चारों मे सदैव वृद्धि होती है।‬

जब लौकिक गुरुओंकी (नेताओ, जीवनमुक्त शिक्षकों की)  पूजा करनेसे आयु, ज्ञान, यश, बल मिलते हैं तो जगद्गुरु परमात्मा की पूजा करनेसे ये शक्तियाँ अवश्य ही प्राप्त होंगी।  और भक्त भगवान की साकार रूप में पूजा करके आनन्दमय मोक्ष लाभ अनायास ही कर सकेंगे इसमें सन्देह नही है।
प्रश्न - मूर्ति तो पत्थर, लकड़ी, लोहे या कागज आदि की होती है। उसकी पूजासे भगवान की पूजा कैसे होगी ?
इसका उत्तर यह है कि (पहले ऑंखें मूँदकर बाद में ऑंखें खोलकर देह रूपी देवालय में भी) हम मूर्ति “की” पूजा नहीं करते है किन्तु मूर्ति “में” अन्तर्निहित दिव्य-प्राण शक्ति की पूजा करते है। हम प्रतिमा के मसाले,पत्थर, लकड़ी, धातु आदि की पूजा या स्तुति नहीं करते है, किन्तु इन तत्वों से प्रतिमा बनाकर उसमे परमात्मा की शक्ति को प्रकट कर उस दिव्य शक्ति की पूजा या स्तुति करते है ।

      मूर्तिपूजा की आलोचना करने वालों को यह ज्ञान होना चाहिए की जब तक किसी भी मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा नहीं हो जाती उसको भगवान् का रूप नहीं समझा जाता। किसी भी देवता या देवी की मूर्ति स्थापना के समय उन देवी या देवता के बीज मन्त्र का उच्चारण करके और षोडश उपचार के द्वारा परमात्मा की शक्ति का आह्वाहन उस मूर्ति में किया जाता है और प्राण प्रतिष्ठा के उपरांत ही उन देवता या देवी रुपी मूर्ति की पूजा याअर्चना की जाती है। उदाहरण के लिए आप अनेकों लक्ष्मी-गणेश मूर्तियों को आजकल (दीपावली के समय) सड़क के किनारे रखा पाएंगे परन्तु वह भगवान् नहीं है क्योंकि उनकी प्राण प्रतिष्ठा नहीं की गयी।  वे एक कलाकृति से अधिक कुछ नहीं हैं जब तक उनकी विधिवत प्राण प्रतिष्ठा ना की जाये। 
कापिल तन्त्र में लिखा है:-

गवां सर्वाङ्गर्ज क्षीरं स्रवेत् स्तनमुखाद यथा ।

तथा सर्वाग्रतो देवः प्रतिमादिषु राजते ।

जिस प्रकार गऊ माताके समस्त शरीर से उत्पन्न हुआ दूध स्तनके द्वारा निकलता हैउसी प्रकार परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति प्रतिमा में अधिष्ठान करती है। यह शक्ति आती किस विधि से है इस विषयमें लिखा है:
आभिरूप्याच विम्वस्य पूजायाध विशेषतः।

साधकस्य च विश्वासाद् देवतासन्निधिर्भवेत् ॥

प्रतिमा के ध्यानानुसार सुन्दर तथा ठीक ठीक बनने से, प्राण-प्रतिष्ठा और पूजा विशेषरूप से होने से तथा भक्तों में पूर्ण श्रद्धा विश्वास होने से प्रतिमा में दिव्यशक्ति आ जाती है।
     >>>भक्त प्रह्लाद में श्रद्धा, विश्वास और भक्ति की शक्ति इतनी तीव्र थी कि इसी से उन्होंने भगवान की दिव्य शक्ति को नृसिंहरूप से स्तभ्म के द्वारा प्रकट करा दिया था। [विशाखा पत्तनम के पहले सिंहाचलम स्टेशन में उतर कर मुनिस्वामी के घर जाना पड़ा। फिर उसी पहाड़ पर चढ़ने से पहले ट्रेन में और नीचे के मन्दिर में नवनीदा का दर्शन नृसिंहरूप से हुआ। कल 1 नवम्बर, 2023 रात-सुबह चार बजे सपना में शिवमन्दिर दिखा ?] उसी तरह भगीरथ की तपस्या में इतनी शक्ति थी, तभी उन्होंने स्वर्ग से गङ्गादेवी की दिव्य शक्ति को मृत्युलोक में आकर्षित किया था। 

     इसी प्रकार पूजा की शक्तिभक्तों के विश्वास-भक्ति रुपी शक्ति भगवान् की शक्ति को प्रतिमारूपी आधार द्वारा आकर्षित करती है। इस प्रकार ठीक ठीक आकर्षण होने पर प्रतिमा चमकने लगती है और उसमें अनेक चमत्कार भी देखनेमें आते हैं। सामवेद के ३६वें ब्राह्मण में लिखा है:-

ॐ देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्ति रुदन्ति,

 गायन्ति नृत्यन्ति स्फुटन्ति स्विद्यन्ति उन्मीलन्ति निमीलयन्ति च।

 (सामवेद षड्विंश ब्राह्मण)  

'भक्त के भावाकर्षण से देव मन्दिर (दक्षिणेश्वर का कालीमन्दिर) कम्पायमान होता है। देवप्रतिमाएँ हँसती रोती हैं, नृत्य करती हैं, किसी अङ्ग में स्फुटित हो जाती है, एवं पसीने बहाती हैं तथा नेत्र खोलती और बन्द करती है।'
  (निर्जनवास में गुरुगृहवास में-कैम्प 2022 में ) पूजा की शक्ति, भक्तों के विश्वास-भक्ति रुपी शक्ति इसी प्रकार भगवान् की शक्ति को प्रतिमारूपी आधार द्वारा आकर्षित करती है। और  ठीक ठीक आकर्षण होनेपर प्रतिमा इस प्रकार चमकने लगती है और उसमें अनेक चमत्कार भी देखनेमें आते हैं।
 भक्तराज गोस्वामी तुलसीदासजीने भी श्रीरामचरितमानसमें इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं
 - 
" विनय प्रेम बस भई भवानी खसी माल मूरति मुसुकानी ॥" 
(रा०च०मा० १।२३६५)
   
विनय, प्रेम और भाव-विह्वलता से क्या नहीं हो सकता ! प्रेम और विश्वास के अभाव में तो यह सारा जगत् ही हमारे किसी काम का नहीं। जब प्रभु (ब्रह्म) सब जगत् में  व्याप्त हैं, फिर मूर्ति में कैसे नहीं ? श्रद्धा का चश्मा चढ़ाकर देखें ! चराचर में किसी की भी उपेक्षा न करें। देवमूर्ति की तरह ही सब में प्रभु की झलक को निहारें, जो सर्वत्र फैल रही है। फिर देवमूर्ति की तो विशिष्ट महिमा और महत्त्व है, उसमें तो सदा इष्ट-भावना रखकर श्रद्धा-विश्वास पूर्वक उपासना करने से ही कल्याण है। और अथर्ववेद में भी लिखा है – 

अश्मा भवतु ते तनूः।।
(अथर्ववेद 2.13.4) ।।

(ते) तेरा (तनूः) देह (अश्मा) पत्थर के समान (भवतु) होवे। शरीर को ऐसा बनाओ कि वह पत्थर के समान दृढ हो। कोई उस पर वार-प्रहार करने का साहस न करे। 

हे भगवन! आओ इस पाषाणनिर्मित प्रतिमा में तुम अधिष्ठान करो, तुम्हारा शरीर भी इस पाषाणमयी प्रतिमा हो जाय ।अतः यह कहना की वेद मूर्ति पूजा की संतुति नहीं करते मिथ्या है।

         परन्तु सबसे प्रिय तर्क संत कबीर दास जी का दोहा है जिसे सदैव एक शस्त्र के रूप में उद्धृत किया जाता है:
पाहन पुजे तो हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।
ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।
(यदि पत्थर कि मूर्ती कि पूजा करने से भगवान् मिल जाते तो मैं पहाड़ कि पूजा कर लेता हूँ। उसकी जगह कोई घर की चक्की की पूजा कोई नहीं करता,जिसमे अन्न पीस कर लोग अपना पेट भरते हैं।)
       अंत में संत कबीरदास जी के इसी  दोहे का आश्रय ले कर कुतर्क करने वालों से यही कहेंगे की आप कंकड़, पत्थर, पहाड़, चक्की जिस किसी की चाहे पूजा करें - आपको तब तक भगवान् की प्राप्ति नहीं हो सकती जब तक आप (१) उसकी विधिपूर्वक मूर्ति बना कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा कर उसमे भगवान् की शक्ति का आह्वाहन नहीं करते और (२) आपके मन में भगवान् के प्रति पूजा, आदर, श्रद्धा और प्रेम का भाव नहीं है। कबीरदास जी ने यह भी कहा है की :
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए।
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होए ।।
 महोबा (कालिंजर क्षेत्र) के मुड़ारा गाँव से कुछ दूरीपर दो पर्वतोंके बीच घाटीमें खोहके मध्य आल्हा ऊदलके समय से पूर्वके पर्वतोंमें ही 'छठो बजरंग की मूर्ति है।1954 में एक बार वह मूर्ति भी भक्त के प्रेम से जीवंत हो उठी थी।   

 उपरोक्त प्रमाणों तथा विचारों से सिद्ध होता है कि , हम ‘बुतपरस्त‘ नही हैं, किन्तु मूर्ति में भगवान की दिव्य शक्ति को प्राण प्रतिष्ठा द्वारा आकर्षित करके उस शक्ति की पूजा करते है।  और इस प्रकार मूर्तिरूपी आधार के द्वारा परमात्मा के समीप पहुंचनेपर हमें आयु, ज्ञान, विद्या, शक्ति तथा आनन्द प्राप्त होता है और अन्त में मोक्ष मिलता है। 
ईश्वर और सनातन धर्म की निंदा छोड़ कर, भगवान से प्रेम कीजिये , उनमें अपना चित्त लगाइये, आपका कल्याण अवश्य होगा।

🔱 प्राण की उपासना🔱
 

     छान्दोग्य उपनिषद में कथा आती है कि एक बार प्राण और इन्द्रियों में झगड़ा हो गया कि श्रेष्ठ कौन है? सुलह न हो पाने के कारण इन्द्रियां और प्राण, प्रजापति के पास गए। इन्द्रियों में वाणी, आंख, नाक, कान, त्वचा सभी ने एक स्वर में कहा हम श्रेष्ठ हैं। प्राण ने भी ऐसा ही कहा! दोनों की बात सुनकर प्रजापति ने कहा कि तुम दोनों में जिसके निकल जाने पर शरीर बहुत बुरा सा दिखाई देने लगे, वही सबसे श्रेष्ठ है। इतना सुनते ही शरीर से वाणी निकल गई, जिससे शरीर गूँगा हो गया।

देखने की शक्ति निकलने से अंधा हो गया, सुनने की शक्ति निकल गई तो शरीर बहरे की तरह जीवित रहा। इस प्रकार सभी इन्द्रियों के निकलने पर भी शरीर रहा। अंत में मन भी निकल गया, जिसके जाते ही शरीर मूढ़ और बच्चे की तरह हो गया। इस प्रकार इन्द्रियां अपना प्रयोग कर चुकी थी। अब प्राण की बारी थी, जब प्राण जाने लगे तो शरीर मुर्दे की तरह होने लगा

उसी समय सभी इन्द्रियों ने एक साथ, प्राण से कहा कि हे भगवान! तुम ही हमारे स्वामी हो, तुम ही श्रेष्ठ हो, तुम शरीर से बाहर मत निकलो। असलियत में प्राण के ही सहारे इन्द्रियां व मन कार्य करते हैं। ये सब प्राण के ही अधीन है, इन पर प्राण का ही नियंत्रण है। अतः प्राण की उपासना - प्राणायाम से  करनी चाहिए।

प्राणोवा ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च।" - (छान्दोग्य) अर्थात्- प्राण ही बड़ा है। प्राण ही श्रेष्ठ है 

प्रश्नोपनिषद में प्राणतत्व का अधिक विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है-

स प्राणमसृजत। प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं,

 मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्मलोका लोकेषु च नाम च ॥

 -प्रश्नोपनिषद् 6।4

अन्वय>  सः प्राणम् असृजत। प्राणात् श्रद्धाम् खं वायुः ज्योतिः आपः पृथिवी इन्द्रियम् मनः अन्नम् अन्नात् वीर्यम् तपः मन्त्राः कर्म श्लोकाः लोकेषु च नाम च असृजत ॥

''तब उसने 'प्राण' को उत्पन्न किया, तथा 'प्राण' से श्रद्धा को, तत्पश्चात् आकाश और फिर वायु, फिर अग्नि  फिर जल फिर पृथ्वि यह पाँच तत्व बनाये। इसके उपरान्त क्रमशः  इन्द्रियाँ एवं मन तथा अन्न, फिर अन्न से वीर्य को।  तथा वीर्य से तप तः तप से मन्त्रों को, इन मन्त्रों से कर्म, कर्म से लोकों को, लोकों में नाम को रचा; 'आत्मा' से इस क्रम में समस्त पदार्थों का जन्म हुआ ( in this wise were all things born from the Spirit.) - 

     >>>प्राणायाम का अर्थ- (Meaning of pranayama): प्राणायाम शब्द, प्राण तथा आयाम दो शब्दों के जोडने से बनता है। प्राण जीवनी शक्ति है और आयाम उसका ठहराव या पड़ाव है। हमारे श्वास प्रश्वास की अनैच्छिक क्रिया निरन्तर अनवरत से चल रही है। इस अनैच्छिक क्रिया को अपने वश में करके ऐच्छिक बना लेने पर श्वास का पूरक करके कुम्भक करना और फिर इच्छानुसार रेचक करना प्राणायाम कहलाता है।

>>>नोट: यदि शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ रहना है, तो प्राणायाम का अभ्यास नियमित करना चाहिए। उपनिषद में इसको प्राणोपासना कहा है कि प्राण की उपासना करो  (किसी योग्य गुरु के सानिध्य में # नहीं तो दिमाग बिगड़ जायेगा), क्योंकि प्राण ही जीवन है 

>>>प्राण (life) और आकाश (space) की निर्मिति है ब्रह्माण्ड यानि जगत  (The universe is made up of life and space.) @@@ हृदयनारायण दीक्षित/https://www.swatantraawaz.com/headline/491.htm

अन्य आस्थाओं (मजहबों) जैसा सनातन धर्म में सृष्टि का निर्माता ईश्वर नहीं है। उपनिषदों के अनुसार यह सृष्टि ब्रह्म का प्रक्षेपण है। अर्थात ब्रह्म ही जगत के रूप में भास रहा है।

>>>नासदीय सूक्तम् : सृष्टि-उत्पत्ति सूक्तम् : 

नासदीय सूक्त ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 129 वें सूक्त है। इसका संबंध ब्रह्माण्ड विज्ञान (cosmology) और ब्रह्मांड की उत्पत्ति (origin of the universe) से है। यह सूक्त ब्रह्माण्ड के निर्माण के बारे में काफी तथ्य बताता है। अर्थात् नासदीय सूक्त में ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का सैद्धान्तिक वर्णन अत्यंत उत्कृष्ट रूप में किया गया है।

नासदासीन्नो सदासत्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।

किमापूर्वः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासिद् गहनंगभीरम् ॥ ऋ०10.129.1॥

अन्वय - तदानिम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न असित;व्योम नोयत् परः द्रिवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्।

शब्दार्थ - (तदानीम्) सृष्टि से पूर्व उस समय प्रलय जगत में (असत्-न-असीत्) शून्य नितांत अभाव न था (सत्-नो-असित्) सत्-प्रकटरूप भी कुछ न था (रजः-न-असित्) रंजात्मक कण्मय गगन- अन्तरिक्ष भी न था (परः-व्योम न-उ-यत्) विश्व का परवर्ती सीमारूप विशिष्ट रक्षक अवर्त्त-घेरा खगोल आकाश भी न था (किम्-आ-अवरिव्हः) प्रकृति के अवलोकन से भलीभाँति आवरण भी क्या हो सके? न था (कुः कास्य शर्मन्) कहाँ? न कहीं भी तथा प्रदेश था, जाति सुखनिमित्त हो (गहनं गभीरम्-अंभः किम्-असित्) गहन गहन सूक्ष्म जल भी क्या हो सकता है, जिसका अर्थ नहीं था, जिससे भोग्य वस्तु उत्पन्न हो, जिसमें सृष्टि का बीज ईश्वर छोड़े

भावार्थ: उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्=भाव तत्त्व भी नहीं था, राजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उसके परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह धारण करने वाला तत्त्व कहाँ था और जनजातीय संरक्षण में था। उस समय गहन= गहराई से प्रवेश करने योग्य क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।

सृष्टि बनने की अवधारणाएं: सृष्टि का प्रारंभ और विकास कैसे हुआ - यही विज्ञान/दर्शन की मौलिक समस्या है ! सृष्टि के पहले आखिरकार था क्या ? दिक् काल (space and time) भी था या नहीं था? क्या समय का कोई अस्तित्व है? समय कोई सत्ता है तो गुजरे समय की तरह आगे का समय क्यों नहीं दिखाई पड़ता? क्या गुजरा समय भी वस्तुत: समय न होकर हमारी स्मृतियों में संकलित घटनाओं का विवरण मात्र ही है ? दृश्य सृष्टि के परे भी क्या कोई सृष्टि है? क्या देखने की कोई सीमा है? या दृष्टिगोचर जगत (बाह्यजगत) के देखे जाने के परे अदृश्य क्षेत्रों की (अन्तर्जगत) अनुभूतियां दृष्टिगोचर जगत में देखने से भी कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण हैं ?  डारविन के अनुसार आदमी का विकास बंदर से हुआ।  मछली उससे भी प्राचीन पूर्वज है।  तो सारी मछलियां/बंदर आदमी क्यों नहीं बने? 20वीं सदी के पूर्वार्ध में ‘बिग बैंग’ सिद्धांत आया।  इसके अनुसार कोई 15 अरब वर्ष पूर्व एक महाविस्फोट हुआ। 

इस विस्फोट के पूर्व सारी ऊर्जा (energy -प्राण) , पदार्थ (matter -आकाश) अर्थात शक्ति (प्राण -life) और दिक् (स्थान-space) एक सघन बिंदु (condensed point: शिव-शक्ति पॉइंट) में केन्द्रित थे।  परमकण (परमाणु) एक दूसरे से दूर भाग रहे थे।  ऐसे परमकणों से समूचे शून्य (दिक्-space) में भरने की घटना हुई।  यानी प्रथमत: शून्य था, शून्य से विराट आया।  भौतिक विज्ञान के शोधों के हजारों वर्ष पहले ऋग्वेद (10.12.2) के ऋषियों ने भी यही आदिम सवाल उठाये, सृष्टि का प्रारंभ क्या है? किसे सत्य का पता है? कहां है अथ? देवता भी सृष्टि के बाद आए।  विज्ञान परंपरा के लिए यह भारत की क्रांतिकारी देन है कि देवता भी बाद में आए।  तब पहले क्या था? ऋग्वेद (10.12.2) के अनुसार तब न सत् था, न असत्. न मरण था, न अमरत्व।  रात्रि और दिन पृथक नहीं थे।  तब केवल ‘वह’ था।  उस आदि तत्व के तप और प्रथम आकांक्षा से सृष्टि रचना प्रारंभ हु। 

 ...  बीसवीं सदी में विज्ञान पंख लगाकर उड़ा है। आधुनिक ब्रह्माण्ड विज्ञानी (modern cosmologists)  सृष्टि रहस्यों की खोज में  संलग्न हैं।  इक्कीसवीं सदी के डेढ़ दशक के भीतर ही वैज्ञानिक ईश्वरीय कण-गाड पार्टिकल तक उड़े हैं। लेकिन विवेकानंद के व्याख्यानों का समय  (1893-1897) अलबर्ट आईंस्टीन के विशेष सापेक्षता सिद्धांत  (1905) से भी पहले का है। अद्वैत आश्रम से प्रकाशित विवेकानंद साहित्य  (खंड 5 पृष्ठ 22-23- जाफ़ना भाषण में वेदान्त)  में स्वामी जी का कथन है- “पहला प्रश्न सृष्टि का है, यह संसार, यह प्रकृति या माया अनादि और अनंत हैं, जगत् किसी एक विशेष दिन नहीं रचा गया। एक ईश्वर ने आकर इस जगत् की सृष्टि की और बाद में वह सोता रहा, यह हो ही नहीं सकता।” ऋग्वेद में ‘असत् से सत्’ प्रकट होने का उल्लेख है, लेकिन इसके पहले भी एक समय ऐसा है ‘जब न सत् था, न असत्। आकाश के पार भी जो कुछ है, वह नहीं था-नो व्योमा परे यत्। वायु भी नहीं थी-अवातं, लेकिन वह अपनी शक्ति से प्राण ले रहा था-स्वध्या आनीत। (ऋ0 10.129.2) के नासदीय सूक्त में प्रलय काल का वर्णन करते हुए उस समय समस्त स्थूल सूक्ष्म भूतों और दिनरात के चिन्ह का अभाव बतलाया गया है; एक समय वायु भी नहीं है, लेकिन प्राण हैंसृष्टि के मूल कारण स्वधा (प्राण, राधा,प्रकृति ) के अस्तित्व को उस समय भी स्वीकार किया गया है

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत् प्रकेतः।

 आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास ।२।

अन्वय - प्रकारि मृत्युः नासीत् न अमृतम्, रात्रिः अह्नः प्रकेतः नासीत् तत् अनीत अवतम्, स्वध्याय एकम् ह तस्मात् अन्यत् किंचन न अस न परः।

    शब्दार्थ -(न + मृत्युः + आसीत्) न मृत्यु थी (न + तर्हि + अमृतम्) न उस समय अमृत था (न + रात्र्याः + अह्नः) न रात्रि और दिन का (प्रकेतः + आसीत्) कोई चिह्न था।  तब उस समय कुछ था, या नहीं ? ब्रह्म भी था, या नहीं ?  इस पर कहते हैं कि (अवातम्) वायुरहित ( तत् + एकम् ) वह एक ब्रह्म (स्वधया)-  स्वशक्ति से प्रकृति के साथ (आनीत्) चेतनस्वरूप ब्रह्मतत्त्व विद्यमान था। (तस्मात्-अन्यात्) उसका भिन्न (किम्-चन्) कुछ भी (परः-न-अस) उससे अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। अतः ( परः ) सृष्टि के पूर्व कुछ भी नहीं था। यह सिद्ध होता है।

     भावार्थ:- उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्रि और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त था, क्रिया से शून्य और माया के साथ एक रूप में दर्शन हुआ था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उससे परे भी कुछ नहीं था ।।

     व्याख्या --‘जब न सत् था, न असत्। आकाश के पार भी जो कुछ है, वह नहीं था-नो व्योमा परे यत्। वायु भी नहीं थी- अवातम्, लेकिन वह अपनी शक्ति से प्राण ले रहा था-' स्वधया तदेकं '। केवल वह 'एक' -' तदेकं' ही नहीं था , किन्तु 'स्वधा' भी उसके साथ थी ~!! 'स्वधया' यह तृतीय का एकवचन है।  आनीत् --- प्राणनार्थक 'अन' धातु का 'आनीत्' प्राण या शक्ति अर्थात ब्रह्म जब निष्क्रिय था तब भी उसकी शक्ति या प्राण उसके साथ थीं ! सायण 'स्वधा' शब्द का अर्थ 'माया' करते हैं। 

                स्वधा (प्राण) की परिभाषा : वास्तव में वेदान्ताभिमत अनिर्वाच्य 'मायावाची स्वधा' शब्द यहाँ नहीं है , किन्तु यह स्वधा 'प्रकृतिवाची शब्द' है।  यदि जगत् के मूल कारण का नाम माया अभिप्रेत हो , तो नाममात्र के लिए विवाद करना व्यर्थ है। तब उस मूल कारण का नाम 'माया' यद्वा 'प्रकृति' यद्वा 'प्रधान', 'अव्यक्त', 'अज्ञान' , 'परमाणु' इत्यादि कुछ भी नाम रख लें।  इस में विवाद व्यर्थ है, किन्तु 'माया' और 'प्रकृति' या 'अव्यक्त' इत्यादि शब्द की अपेक्षा 'स्वधा' शब्द बहुत उपयुक्त है। क्योंकि स्व = निज सत्ता; जो निज सत्ता को धा = धारण किये हुये विद्यमान हो , उसे स्वधा कहते हैं | "स्वं दधातीति स्वधा" ~ जो अपने को धारण करती है , उसे स्वधा कहते हैं। 

           जैसे परमात्मा की सत्ता बनी रहती है , तद्वत् जड़ जगत् के मूल कारण की भी सत्ता सदा बनी रहती है।  इसलिए उसको स्वधा कहते हैं। 'सह युक्तेsप्रधाने ( अ. २-३-१९ ) इस सूत्रानुसार सह [ सहार्थ के योग में स्वधा ] शब्द का तृतीया के एकवचन में स्वधया रूप है।२।

ब्रह्मांड सदा रहता है, लेकिन हमेशा एक जैसा नहीं रहता। जब वह अतिसूक्ष्म स्थिति में होता है, तब अव्यक्त कहा जाता है और जब स्थूल दृश्यमान होता है तो व्यक्त। अव्यक्त ही असत् है। असत् का अर्थ शून्य नहीं है। शून्य से सृष्टि का उद्भव नहीं हो सकता। ऋग्वेद के सृष्टि सर्जन में एक समय वायु भी नहीं है, लेकिन प्राण हैं

       स्वामी विवेकानंद ने कहा है-“असत् से सत् की उत्पत्ति अभाव से भाव का उद्भव, शून्य से संसार का उदय युक्तिसंगत नहीं है, सारी प्रकृति सदा विद्यमान रहती है, केवल प्रलय के समय वह क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्म होती जाती है और अंत में एक दम अव्यक्त हो जाती है।(वही) असत् से सत् आने का अर्थ है- अतिसूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल और लगातार स्थूल होने का क्रम। आकाश सूक्ष्मतम है। वायु इसके बाद हैं, वायु का अनुभव स्पर्श से मिलता है, लेकिन वायु दिखाई नहीं पड़ती। फिर तेज पूर्ण अग्नि है। फिर जल है, फिर पृथ्वी और फिर पृथ्वी परिवार। 

        स्वामीजी ने कहा-“हमारी संस्कृति के सृष्टि शब्द का अंग्रजी में ठीक अनुवाद किया जाए तो शब्द होना चाहिए ‘प्रोजेक्शन’ (प्रक्षेपण), क्रिएशन नहीं।” सृष्टि प्राण और पदार्थ की प्रतिच्छाया है - प्रोजेक्शन मात्र। विवेकानंद ने बताया-“यह सृष्टि ब्रह्म का ही प्रक्षेपण है। यह प्रक्षेपण प्राण शक्ति के स्पंदन में होता है।” विज्ञान ने भी ब्रह्मांड को ऊर्जा (Energy)  और पदार्थ (Matter) से निर्मित माना है। विवेकानंद ने इसे प्राण और आकाश की संज्ञा दी है। प्राण की महत्ता उपनिषदों में है। प्राण ज्ञेय हैं और आराध्य भी। आकाश सूक्ष्मतम तत्व है ही।

    विवेकानंद ने प्राण (LIFE) को ऊर्जा (ENERGY) बताया था। ऊर्जा वैज्ञानिक शब्दावली है। प्राण (जीवन या life) अनुभूति से आया शब्द है। विवेकानंद ने प्राण- (जीवन ऊर्जा) को किताबों से नहीं, अनुभूति से जाना था। उन्होंने उपनिषद पढ़े थे, लेकिन उपनिषद के तत्व को अनुभूति से भी पाया था। (अर्थात गुरु-शिष्य परम्परा के प्रशिक्षण से, गुरु के निकट बैठकर भी पाया था।)  कठोपनिषद् के उद्धरण उन्होंने बहुधा दिए हैं। कठोपनिषद् (2.13) में यम नचिकेता से कहते हैं-“ रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श आदि की अनुभूति करने वाली ज्ञान शक्ति से ही इनकी क्षण भंगुरता भी समझ में आ जाती है।”

  विवेकानंद में यह बोध -  ['ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या' का बोध ] अपने चरम तक खिला था। तीनों ऐषणाओं का व्यक्तिगत भोग या सांसारिक कोई भी सुख उनके लिए क्षणभंगुर थे। उन्होंने जिस परम सत्य (वेदान्त डिण्डिम ) को अपनी अनुभूति से जाना था, उसे सम्पूर्ण विश्व को आजीवन बताते रहने का ऋषि संकल्प (चपरास) उन्होंने पूरा किया था। अनुभूति बड़ी गहन थी उनकी। 

     'ऊर्जा' वैज्ञानिक शब्दावली है। 'प्राण' (life) अनुभूति से आया शब्द है। विवेकानन्द ने प्राण-ऊर्जा (माँ काली ? ) को किताबों से नहीं, अनुभूति से जाना था।  कठोपनिषद में भी ब्रह्म और शक्ति को अभिन्न माना गया है- यहाँ यमाचार्य नचिकेता को 'अदिति-सृष्टि'  के बारे में ऋषि की अनुभूति बता रहे हैं -

या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी ।  

गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिर्व्यजायत । एतद्वै तत् ।।

(कठोपनिषद् (2.1.7) 

" जो सर्वदेवतामयी अदितिदेवी (खानेवाली शक्ति) प्राणों के साथ उत्पन्न होती है, जो प्राणियों के सहित उत्पन्न हुई है, हृदयरूपी गुहा में प्रविष्ट होकर स्थित रहती है, यह ही वह है (जिसे तुम जानना चाहते हो)। 

"वह भगवती --भगवान की अचिन्त्य महाशक्ति भगवान से सर्वथा अभिन्न हैं, ब्रह्म और उनकी शक्ति में कोई भेद नहीं है, ब्रह्म ही शक्ति के रूप में सबके ह्रदय में प्रवेश किये हुए हैं।  उपासना का अर्थ पूजा नहीं ‘उप-आसन’ है। यहां प्राणोपासना का अर्थ प्राण की आत्मीय निकटता है। विवेकानन्द ने भी प्राणोपासना की। उन्हें विश्वात्मा की अनुभूति हुई। 

अदिति-सृष्टि के बारे में ऋषि अनुभूति है ‘जो देव अदिति प्राण सहित उत्पन्न हैं, वे हृदय गुहा में हैं, हे नचिकेता यह वही हैं, जिनके संबंध में तुमने पूछा है।” 

      विवेकानंद ने प्राण (life याजीवन) को ठीक ही ऊर्जा (energy) बताया है। विज्ञान भी जगत् को ऊर्जा (energy) और पदार्थ (matter) का योग मानता है। विवेकानंद ने इसे प्राण और आकाश कहा है-“ब्रह्मांड के सभी पदार्थ उस एक प्रारंभिक पदार्थ का परिणाम हैं, जिसे आकाश कहते हैं। इसी तरह सभी बल, चाहे वह गुरूत्वाकर्षण हों, आकर्षण विकर्षण हों या जीवन हो, वे सब एक ही प्राथमिक बल (force) के परिणाम हैं, जिसे हम प्राण (energy) कहते हैं।” आकाश और प्राण की यह जोड़ी बड़ी रम्य है। प्राण ऊर्जा (Life energy) ही गतिशील होकर आकाश में सृष्टि रचती है। यहां आकाश का अर्थ ऊपर नहीं है। चक्रीय गतिशीलता (cyclical movement) के पहले सृष्टि का आदि तत्व (original element of creation) आकाश निष्क्रिय है। प्राण में स्पंदन हुआ, गतिशील हुआ, उसकी ऊर्जा के कारण ही सूक्ष्म से स्थूल का विकास हुआ। पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु, आकाश आदि अस्तित्व में आए। 

       प्रलयंकर मंत्रशक्ति  = भारतीय अनुभूति में एक निर्धारित समय के बाद यही गतिविधि उल्टी दिशा में चलती है। सृष्टि के चरम विकास के बाद प्रलय। सर्जन से विसर्जन। विवेकानंद ने कहा है पदार्थों को मूल आकार देने की प्रक्रिया शुरू होती है। तब सब कुछ सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर अपने मूल आकाश और प्राण में समाहित हो जाते हैं। सारे पदार्थ आकाश में और सारी ऊर्जा प्राण में। प्रश्न है कि अंतरिक्ष में निर्वात है ? शून्य है ? स्वामी जी ने कहा है-“क्या आपके और सूर्य के बीच कोई अंतर है? यह लगातार व्यापक पदार्थ है, इसका एक हिस्सा सूर्य है और दूसरा हिस्सा आप। क्या आप बहती नदी का एक हिस्सा दूसरे से अलग कर सकते हैं?”

       छांदोग्य उपनिषद् में प्रीतिकर कथा है-“देव और असुर संघर्षरत थे। देवों ने ‘उद्गीथ’ (ओम्) का अनुष्ठान कियानासिका में प्राण के रूप में प्रवाहित ओम् की उपासना की। असुरों ने उसे पापविद्ध कर दिया। पापविद्ध होने के कारण ही वह सुगंध और दुर्गंध दोनों को सूंघता है। देवों ने वाणी रूप प्राण की उपासना की, असुरों ने उसे भी पापविद्ध कर दिया। इसीलिए वाणी सत्य और असत्य दोनो बोलती है। देवों ने श्रोत्र (सुनने वाला प्राण) प्राण की उपासना की। असुरों ने उसे भी पापविद्ध कर दिया। सो हमें प्रिय अप्रिय दोनों को सुनता है। देवों ने मन-प्राण की उपासना की, असुरों ने फिर वही किया। मन अच्छे बुरे दोनो संकल्प करता है, तब देवों ने मुख्य प्राण की उपासना की-एवायं मुख्य प्राण स्त। असुरगण ध्वस्त हो गए।” उपनिषद् का ऋषि इतिहास बताता है-“अंगिरा ने भी मुख्य प्राण की उपासना की, इसलिए मुख्य प्राण को आंगिरस कहते हैं। बृहस्पति ने भी मुख्य प्राण की उपासना की, इसे बृहस्पति भी कहते हैं।  भारत में एक दीर्घ परंपरा है-प्राण उपासना की। 

       विवेकानंद ने भी प्राणोपासना की। उन्हें विश्वात्मा की अनुभूति (अर्थात माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं" की अनुभूति) हुई। उपासना का अर्थ पूजा नहीं ‘उप-आसन’ है। यहां प्राणोपासना का अर्थ प्राण की आत्मीय निकटता है। विवेकानंद ने अनुभूति में प्राण ऊर्जा का साक्षात्कार किया था।  ‘प्राण और आकाश’ ये दो आधारभूत तत्व हैं। स्वामीजी ने कहा है कि कुछ तो है, जो इनसे भी परे है। ये दोनों एक तीसरी सत्ता महत् चेतना -'Cosmic Mind' में समाहित हो जाते हैं। यह ‘‘कॉस्मिक माइंड ’’ आकाश और प्राण का सृजन नहीं करता, स्वयं को उसमें परिवर्तित कर लेता है।” अर्थात ‘वह’ महत चेतन प्राण आकाश से बने विश्व के प्रत्येक हिस्से में उपस्थित रहता है

 केनोपनिषद्  में शिष्य पूछता है- ' जिसकी प्रेरणा से प्राण सक्रीय हो जाता है, वह कौन है ? ऋषि का उत्तर है- 

यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥

(केनोपनिषद्-१/८)

जो प्राण के द्वारा स्पंदित-सक्रिय नहीं होता, बल्कि जिससे प्राण ही सक्रिय होता है,  वही ' तदेकं'- सर्वशक्तिमान परमेश्वर (श्री रामकृष्ण) परम सत्ता (ब्रह्म) है।” जिसकी लोग यहाँ पूजा करते हैं, वह ब्रह्म नहीं हैं। 

       प्राण का स्पंदन एक बात है, इस स्पंदन को सक्रिय करने वाला भी कोई होना चाहिए, फिर प्राण के स्पंदन से आकाश तत्व से आगे का विकास करने की प्रेरक शक्ति भी। स्वामीजी को इसकी अनुभूति थी, लेकिन वे इसकी वैज्ञानिक सिद्धि भी चाहते थे।  स्वामी जी में वेदान्त की अनुभूति थी। लेकिन 'ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या' वाली वेदान्त डिण्डिम वाली अनुभूति हस्तांतरणीय नहीं होती। इसीलिए वे वेदांत को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाने का प्रयास कर रहे थे।स्वामी जी इस संदर्भ में निकोलस टैक्सला के संपर्क में थे। टैक्सला इस संबंध में वैज्ञानिक प्रयोगों की ओर सक्रिय भी थे। स्वामीजी को गए 100 बरस से ज्यादा बीत चुके हैं। तबसे ब्रह्मांड विज्ञान ने काफी उन्नति की है। LHC  के प्रयोगों और निष्कर्षों ने सारी दुनिया को चौंकाया है, लेकिन विज्ञान की तेज रफ्तार यात्रा में प्राचीन वैदिक अनुभूति और विवेकानंद का निष्कर्ष कहीं भी काटा नहीं जा सका।

    >>>Yogi and Inventor: (योगी  स्वामी विवेकानन्द और  विद्युत चुम्बकीय वैज्ञानिक-आविष्कारक निकोला टेस्ला [Electromagnetic Scientist:  Nikola Tesla (1856-1943)]  की मित्रता। 

        विवेकानन्द को अपने गुरु श्रीरामकृष्ण देव द्वारा प्रदत्त मंत्र शक्ति (प्रलयंकर मंत्रशक्ति) की अनुभूति थी, लेकिन वे इसकी वैज्ञानिक सिद्धि भी चाहते थे। स्वामी जी इसी संदर्भ में विद्युत चुम्बकीय वैज्ञानिक 'निकोला टेस्ला' के संपर्क में भी थे। वास्तव में निकोला टेस्ला के साथ स्वामी विवेकानन्द की पहली मुलाकात सारा बर्नहर्ट [Sarah Bernhardt :(1844-1923) को कई लोग अब तक की सबसे महान अभिनेत्री मानते हैं। साठ वर्षों से भी अधिक समय तक, वह न केवल अपने मूल फ्रांस में, बल्कि पूरे विश्व में मंच पर हावी रहीं। वह पूरी तरह से व्यक्तिवादी जीवनशैली जीती थी, जिसमें पहनावा, व्यवहार और सामाजिक मेल-जोल में तड़क-भड़क और विलक्षणता झलकती थी।] द्वारा दिए गए एक पार्टी में हुई थी। श्रीमती सारा बर्नहर्ट एक नाटक में इजील (Iziel) की भूमिका निभा रही थीं, यह नाटक बुद्ध के जीवन के बारे में एक फ्रांसीसी संस्करण पर आधारित था। 

      फ्रेंच अभिनेत्री सारा बर्नहार्ट ने जब स्वामी विवेकानन्द और निकोला टेस्ला को दर्शक-दीर्घा में बैठे हुए देखा तो उन्हें याद हो आया कि स्वामीजी जिस पदार्थ और ऊर्जा (आकाश और प्राण) की बात करते हैं, टेस्ला भी उसी संबंध में वैज्ञानिक प्रयोगों में सक्रिय थे। इसीलिये उन्होंने दोनों महान हस्तियों के बीच एक बैठक की व्यवस्था करवा दी। उस बैठक में हुई बातों का उल्लेख करते हुए विवेकानन्द अपने एक मित्र ई.टी. स्टर्डी को 13 फरवरी 1896 के लिखे पत्र में कहते हैं, " मैं इस बुद्ध चरित्र पर आधारित नाटक को देखने गया था, जिसमें एक इजील नामक वैश्या वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्धदेव को पाप में प्रवृत्त करना चाहती है। जब वह उनकी गोद में बैठी है, उसी समय बुद्ध उसे संसार की असारता का उपदेश सुनाते हैं। अस्तु 'अन्त भला तो सब भला'-अन्त में वह वैश्या असफल होती है। श्रीमती बर्नहार्ट इस नाटक में वैश्या का अभिनय करती हैं। " 
        " उस बैठक में इनके अतिरिक्त श्रीमती एम.मॉरेल (एक नामी गायिका) और विद्युत वैज्ञानिक निकोला टेस्ला भी थे। श्रीमती सारा एक विदुषी महिला हैं, और उन्होंने अध्यात्म विद्या का अच्छा अनुभव किया है। श्रीमती मॉरेल की भी इस विद्या में रूचि बढ़ रही है। और श्री टेस्ला वेदान्तिक  प्राण, आकाश और कल्प के सिद्धान्त को सुनकर बिल्कुल मंत्र-मुग्ध से हो गये। उन्होंने कहा है कि " मैं गणित-शास्त्र के आधार पर यह सिद्ध कर सकता हूँ कि -" force and matter are reducible to potential energy" अर्थात जड़ (Matter आकाश) और शक्ति (Energy प्राण) दोनों अव्यक्त शक्ति (स्वधा ?) में रूपान्तरित किये जा सकते हैं। यदि वे ऐसा कर लेते हैं तो वेदान्ती ब्रह्माण्ड विज्ञान  (आनीदवातं स्वधया तदेकं) की नींव अत्यन्त दृढ़ हो जायगी 
       ...अब मेरी बुद्धि स्पष्ट प्रकाश देख पा रही है, धुँधलापन दूर हो गया है। मैं श्रोताओं के समक्ष रूखे कठोर वैज्ञानिक तर्क (M=E) को (' आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार श्री रामकृष्ण देव की - 'त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका।') रूपी भक्ति में, उत्कट कर्म रूपी सुगन्धित मसाला (' बनो और बनाओ ') डालकर और (मनःसंयोग की) रसोई में पकाकर को एक अति रुचिकर मधुर पेय (प्रशिक्षण-पद्धति) का निर्माण करना चाहता हूँ, जिसे एक शिशु भी सहज रूप में पचा सके। " 
          विवेकानन्द कहते हैं- " तुम्हें इस धारणा को इसी समय त्याग देना चाहिये कि प्राण का अर्थ श्वसन (breath) है। श्वसन क्रिया तो प्राण का एक कार्य मात्र है। यहाँ 'प्राण' शब्द से उन समस्त नाड़ी-शक्तियों (nervous forces) का बोध होता है, जो सम्पूर्ण शरीर का शासन और परिचालन करती हैं, एवं स्वयं को निरंतर गतिशील विचारों के रूप में अभिव्यक्त कर रही है। किन्तु प्राण का प्रधान और सबसे स्पष्ट रूप 'श्वसन गति' में ही दृष्टिगोचर होता है। इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि 'श्वसन गति' में प्राण ही वायु पर कार्य कर रहा है प्राण के ऊपर वायु कार्य नहीं कर रहा है। "
         दुनिया की अधिकांश आबादी ईश्वर को मानती है। आधुनिक भौतिक विज्ञान को इस धारणा को भी जांचना चाहिए। विज्ञान और दर्शन दोनों में कार्य-कारण की महत्ता है। विज्ञान को चुनौती स्वीकार करनी चाहिए कि क्या यह सृष्टि अकारण है? नहीं ! यदि यह सृष्टि सकारण है, तो उसका कारण क्या हैसृष्टि के कारण का भी कोई कारण होगा। कोई भी कारण निरपेक्ष नहीं होता। हरेक कारण का भी कोई कारण होता है। प्रश्न है कि अंतरिक्ष में निर्वात है? शून्य है? स्वामी जी ने कहा है-“क्या आपके और सूर्य के बीच कोई अंतर है? यह लगातार व्यापक पदार्थ है, इसका एक हिस्सा सूर्य है और दूसरा हिस्सा आप।" याज्ञवल्क्य से गार्गी ने यही पूछा था। अंतिम उत्तर था-ब्रह्म। ब्रह्म ही मूल कारण है। गार्गी ने जब पूछा ब्रह्म का कारण क्या है? याज्ञवल्क्य ने इसे अतिप्रश्न कहा था। पाश्चात्य विज्ञान या क्वांटम भौतिकी (Western Science or Quantum physics)  इसे अतिप्रश्न न माने। ब्रह्म के भी कारण का पता करे। कौन रोकता है ? भारत में ईश्वर या ब्रह्म की खोज (परम् सत्य की खोज)  को ईश-निंदा नहीं माना जाता है !
 
>>>गुरु-परम्परा से प्राप्त प्रलयंकर मंत्रशक्ति- (ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या का विवेकदर्शन):यह मंत्र कोई  जादू टोना, इन्द्रजाल, डायन विद्या नहीं है। मंत्र फूंका और तिल का ताड़ हो गया ! या 
 आबड़ा का डाबड़ा -गीली-गीली-गीली छू मन्त्र पढ़ा , और राई के भीतर से पहाड़ प्रकट हो गया! ' जैसी बातें बकवास हैं। गहन अनुभूति से उगे सूत्र ही मंत्र हैं। इनकी काया ध्वनि से बनी है । ध्वनि ऊर्जा है ! गुरुदेव से प्राप्त इष्ट-मंत्र की ध्वनि वह ऊर्जा है, जिसको जपने से देहाध्यास या सम्मोहन चला जाता है, और मनुष्य को अपने यथार्थ स्वरुप की अनुभूति हो जाती है।
 पाश्चात्य विज्ञान (Western Science) और पूर्वी रहस्यवाद-(Eastern Mysticism)ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या का विवेक-दर्शन करवाने में समर्थ प्रलयंकर मंत्रशक्ति) एक ही 'सत्य' के अनुसन्धान की ही विविध प्रणालियां हैं। दोनों की उपयोगिता है। दोनों से जुड़े विद्वानों को दोनों के निष्कर्षो से लाभ उठाना चाहिए। पाश्चत्य विज्ञान खड़ा है, यंत्र और तंत्र उपकरणों के बल पर - वह विज्ञान रिएक्टर (L.H.C.) में एटम को तोड़ता है। जबकि भारतीय दर्शन (वेदान्त ) ने इसके लिए तर्क-युक्ति के साथ मंत्र शक्ति का भी उपयोग किया है। 

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।

अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः॥
(ब्रह्मज्ञानावलीमाला)

ब्रह्म सत्य है, ब्रह्मांड मिथ्या है (इसे सत्य या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।) जीव ही ब्रह्म है, इससे भिन्न और कुछ भी नहीं है। वही डबलरोल तो क्या ट्रिपल रोल भी कर रहा है ! इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए। यह "वेदान्तडिण्डिमः"  वेदांत द्वारा तुरही निनाद या उच्च स्वर से घोषित किया गया है।

Brahman is real, the universe is mithya (it cannot be categorized as either real or unreal). The Jiva is Brahman itself and not different. This should be understood as the correct Sastra. This is proclaimed by Vedanta.
           >>> भवानी शक्ति साधना : आद्द्याशक्ति महामाया एवं शक्ति साधना के विषय में श्रीरामकृष्ण कहते हैं, " कोई ईश्वर की कृपा प्राप्त करना चाहे, तो उसे पहले आद्द्याशक्तिरूपिणी महामाया को प्रसन्न करना चाहिये। वे संसार को मुग्ध करके सृष्टि, स्थिति, और प्रलय कर रही हैं। उन्होंने सबको अज्ञानी बना डाला है। वे जब द्वार से हट जायेंगी, तभी जीव भीतर जा सकता है। बाहर पड़े रहने से केवल बाहरी वस्तुएं देखने को मिलती हैं, नित्य-सच्चिदानन्द पुरुष नहीं मिलते। इसिलिये पुराणों में है--  श्री दुर्गा सप्तशती में : मधुकैटभ का वध करते समय ब्रह्मादि देवता महामाया की स्तुति कर रहे है:  ब्रह्मोवाच --
 ' त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका।
 सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता॥२॥

"संसार की मूलाधार शक्ति (प्राण) ही है। उस आद्द्या शक्ति (प्राण) के भीतर विद्या और अविद्या दोनों हैं- अविद्या मोहमुग्ध करती है। अविद्या वह है जिससे कामिनी और कांचन उत्पन्न हुए हैं, वह मुग्ध करती है। और विद्या वह है जिससे भक्ति, दया, ज्ञान और प्रेम की उत्पत्ति हुई है; वह ईश्वर के मार्ग पर ले जाती है। 
      "उस अविद्या को प्रसन्न करना होगा। इसिलिये शक्ति की पूजा-पद्धति हुई।" उन्हें प्रसन्न करने के लिये नाना भावों से पूजन किया जाता है। जैसे दासी भाव, वीरभाव, सन्तानभाव। वीरभाव अर्थात रमण के द्वारा उन्हें प्रसन्न करना। " 
 " शक्ति साधना -सबसे विकट साधनायें थीं, दिल्लगी नहीं। " कन्या शक्तिस्वरूपा है। विवाह के समय तुमने नहीं देखा- वर अहमक़ की तरह पीछे बैठता है; किन्तु कन्या निःशंक रहती है।" "मैं माँ के दासी भाव से और सखी भाव से दो वर्ष तक रहा। परन्तु मेरा सन्तान भाव है। स्त्रियों के स्तनों को मातृ-स्तन समझता हूँ। 
      " लड़कियाँ शक्ति (ऊर्जा-प्राण-जीवनदायिनी) की एक एक मूर्ति हैं। पश्चिममें विवाह के समय वर के हाथ में तलवार रहता है, (राठौर परम्परा में उसके नोक पर कसैली खोसकर वर माँ विंध्यवासिनी देवी से आशीर्वाद लेने जाता है, और बहु जब घर में प्रवेश करती है , तो दोनों को  पहले कुलदेवी के शीरा-घर में सुलाया जाता है ।) शरीर के साथ यह तादात्म्य (M/F) ही अविवेक की गाँठ है, इसी गाँठ को वर-वधु दोनों मिलकर ज्ञान की तलवार से काट देते है !) बंगाल में सरौता-अर्थात उस शक्ति रूपिणी कन्या (अपराजिता-Bh) की सहायता से वर मायापाश काट सकेगा। यह वीरभाव है। मैंने वीरभाव की पुजा नहीं की। मेरा सन्तान भाव था

#-2 'मृत्युंजय -प्रलयंकर नेतृत्व सम्बन्धी अवधारणा तथा उसका जीवन्त उदाहरण : 'C-IN-C' का चपरास प्राप्त नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) नवनीदा ! 
[ "स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त डिण्डिम लीडरशिप प्रशिक्षण  परम्परा " में  प्रशिक्षित तथा  'C-IN-C' का चपरास प्राप्त नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) नवनीदा का जीवन ही महामण्डल आन्दोलन के "BE AND MAKE मृत्युंजय-प्रलयंकर नेतृत्व' सम्बन्धी अवधारणा का जीवन्त उदाहरण है। लिविंग इग्ज़ैम्पल सर्च एंड सिलेक्ट Monday, September 1, 2014' विवेकानन्द दर्शनम् सारांश ' (1-16 )]:
>>>Man Making is my mission : मनुष्य निर्माण मेरा मिशन है ! कैसा मुष्य ?   प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण देव ने मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति की शिक्षा सर्वप्रथम अपनी धर्मपत्नी श्री श्री माँ सारदा देवी को ही दी थी। जो उन दोनों पर आश्रित थे, उनकी चिन्ता माँ काली करती थीं। लीडर ट्रेनीज को वेदान्त डिण्डिम  लीडरशिप-ट्रेनिंग देने वाली वह शिक्षा-पद्धति क्या है, जिसे प्रचारित और प्रसारित करने का चपरास नरेन्द्रनाथ दत्त को अपने गुरु श्रीरामकृष्ण से प्राप्त हुआ था ? (Vedanta Dindim is the educational system that provides leadership training to leader trainees.

>>>मनुष्य बनने की शिक्षा देने वाला नेता (पैगम्बर) का अपना जीवन कैसा होगा ? श्री प्रियनाथ सिन्हा द्वारा आलिखित : विवेकानन्द साहित्य खण्ड 8, पृष्ठ-228-32/ गुरुगृहवास या निर्जनवास की प्रथा में 'निवृत्ति अस्तु महाफला ' बोध युक्त अनासक्त गृहस्थ या निवृत्ति मार्गी त्यागियों के निरीक्षण में  शिक्षाभ्यास - 'पाश्चात्य विज्ञान के साथ वेदान्तयुक्त शिक्षा -    

        स्वामीजी कहते हैं - " बाल्यावस्था से ही जाज्व्लयमान, उज्ज्वल चरित्रयुक्त किसी तपस्वी महापुरुष के सानिध्य में रहना चाहिए। ताकि उच्चतम ज्ञान (ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या) का जीवन्त उदाहरण सदा दृष्टि के समक्ष रहे। हर एक (भावी नेता-जीवनमुक्त शिक्षक) को पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करने का व्रत लेना चाहिये, तभी ह्रदय में श्रद्धा और भक्ति का उदय होगा। नहीं तो, जिसमें श्रद्धा और भक्ति नहीं, वह मिथ्या क्यों नहीं बोलेगा ? हमारे देश में अध्यापन का महान कार्य सदैव निस्पृह और त्यागी महापुरुषों ने किया है। कालान्तर में पंडितों ने ज्ञान और विद्याओं पर एकाधिपत्य कर, उन्हें पाठशालाओं की चहारदीवारी में बन्द कर दिया और इस तरह देश का अधःपतन होना शुरू हुआ। जब तक अध्यापन कार्य त्यागी पुरुषों ने किया, तब तक भारत समृद्ध बना रहा। " (८/२३२ )  
         एक पुरानी कहावत है कि एक स्वस्थ शरीर में एक स्वस्थ मन का वास होता है। वर्तमान समय में यह कहावत बिलकुल सही सिद्ध हुई है एवं इसका दूसरा पक्ष भी उतना ही सही है। कहा गया है कि किसी व्यक्ति की पहचान उसके चरित्र से होती है। वर्तमान शोध भी इस बात की ओर संकेत करते हैं कि मनःसंयोग (' यम-नियम-आसन -प्रत्याहार-धारणा ') को यदि सही विधि एवं नियमित रूप से किये जाएं तो उनसे मन एवं शरीर को स्वस्थ रखने में तो लाभ मिलता ही है, उसके साथ ही साथ ह्रदय का विकास होने से, चरित्र भी निर्मित हो जाता है। 
                 ऑंखें तो रोज खुलती हैं, किन्तु " ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या " वाली  विवेक-जागृति किसी CINC नवनीदा जैसे  मार्गदर्शक ऋषि, नेता आचार्य के सानिध्य में रहकर प्रशिक्षण लेने से प्राप्त होती है। नेता, जीवन्मुक्त शिक्षक, आचार्यो मृत्युः -  विवेकानन्द / नवनीदा का इतना ही अर्थ है कि तुम्हें पकड़ ले भेड़ों के झुंड से। तुम  बहुत नाराज होओगे। तुम गिड़गिड़ाओगे। तुम कहोगे, यह क्या करते महाराज? छोड़ो मुझे, जाने दो। मैं हिंदू हूं मैं मुसलमान हूं। मैं ईसाई हूं मुझे चर्च जाना है—रविवार का दिन ! आप कहां ले जाते हो? मुझे जाने दो। मगर एक बार तुम किसी मानवजाति के सच्चे मार्दर्शक नेता (सदगुरु) के चक्कर में पड़ गए तो वह तुम्हें बिना चित्त-सरोवर में झुकाए छोड़ेगा नहीं। और फिर मनःसंयोग का अभ्यास करते करते एक बार तुमने देख लिया कि जो सत्य-वस्तु बुद्ध में है, कृष्ण में है, मोहम्मद में है, जीसस—जरथुस्त्र में है, वही तुममें है; तो गर्जना निकल जाएगी-- ‘ अहं ब्रह्मास्मि।’ मैं ब्रह्म हूं। गरज उठेंगे पहाड़। काँप जाएंगे पहाड़।  किन्तु केवल मनःसंयोग का अभ्यास करने से ही प्रत्येक भेड़ सिंह नहीं बन सकता है, उसे पहले बुद्ध-सिंह (C-IN-C नवनीदा जैसे नेता) के सानिध्य में रहकर चित्त-सरोवर झाँककर उसमें सिंह होने का बोध जगना चाहिए।
      # सनत्कुमार विद्या या ” भूमाविद्या ” :  वेदान्त मेँ  सनत्कुमार विद्या या ” भूमाविद्या ” को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है । सनत्कुमार – सन् अर्थात् प्यार करना ।  ” सनत् ” का अर्थ ब्रह्मा भी होता है । जो ब्रह्मनिष्ठ ‘ ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ‘ के न्याय से ब्रह्मस्वरूप बन गये हैँ वे ही दूसरों को  ” ब्रह्मविद्या ” प्रदान करने  के अधिकारी माने गये हैं । केवल वाचिक ज्ञान या शास्त्रोँ का ज्ञान दूसरे मेँ निष्ठा उत्पन्न करने मेँ समर्थ नहीँ । गुरु शिष्य के हृदय मेँ प्रवेश करता है । अतः गुरु की निष्ठा का ही शिष्य में संचार होता है । अनुभवी गुरु ही शिष्य मेँ अनुभव का संचार कर सकता है । ” कुमार ” अर्थात् खेलना । जो इस विश्व मेँ शिव- शक्ति पॉइण्ट (चन्द्रमा पर भारत का चन्द्रयान) के क्रीडांगन मेँ , निरन्तर खेलता है , विलास करता है वही ” कुमार ” है । हे नारायण !, वैदिक संस्कृति मेँ सभी शिक्षा का आधार गुरु का शिष्य के प्रति प्रेम एवं करुणा तथा शिष्य का गुरु के प्रति श्रद्धा एवं शुश्रूषा ही स्वीकारा गया । गुरु शिष्य को ” सौम्य ” आदि शब्दोँ से सम्बोधित करते हैँ ।
         भगवान् सनत्कुमार इसीलिये सनत् = चिरन्तन कुमार है कि वे इस जगत रूपी माता के आंगन मेँ सदा ही पुत्र भाव से खेलते रहते हैँ । जो भी शिवशक्ति के कृपापात्र बनकर जीवन्मुक्ति के आनन्द मेँ रहते है । वे कृडा करने वाले ही शिवशक्ति पुत्र ” स्कन्द ” कहे जाते है एवँ वे ही ब्रह्मविद्या के वास्तविक उपदेशक बन सकते है । परन्तु इस प्रकार वे ही खेल सकते है जो कुमार हैँ । ” कुत्सितो मारो येन स कुमारः ” अर्थात् जिसने कामनाओँ को तिरस्कृत कर दिया वही कुमार है । जिसकी पत्नी अविद्या नहीँ है उसी को जीवन्मुक्त कुमार कहा गया है । ऐसा नित्य विज्ञानानन्द मेँ स्थित व्यक्ति ही ब्रह्मविद्या का प्रचार कर सकता है या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता (पैगम्बर) बन सकता है
       इस जगतरूपी क्रीडांगन को जिन्होँने रोने का स्थान मान कर इससे भाग कर बचने को ही साध्य मान रखा है, वे जीवनमुक्ति पाने की जीवन-युक्ति दूसरों को सिखा सकें - इस अवस्था  से अभी बहुत दूर हैँ । वेदान्त डिण्डिम ज्ञान में सम्पूर्ण विश्व को देवोँ का उपवन बना देने का अद्भुत सामर्थ्य है ” सम्पूर्णँ जगदेव नन्दनवनं ” । संसार के सभी धर्मोँ और दर्शनोँ मेँ एक मात्र वेदान्त ही विश्व को दुःखरहित-परमानन्दानुभवरूप बनाने का दावा करता है ।
आचार्य शंकर वेद के सिद्धान्त-धन्याष्टकम् में कहते हैं -

सम्पूर्ण जगदेव नन्दनवनं सर्वेऽपि कल्पद्रुमा
गाउंवारिसमस्तवारिनिवहाः पुण्याः समस्ताः क्रियाः ।
वाचः प्राकृतसंस्कृताः श्रुतिशिरो वाराणसी मेदिनी
सर्वावस्थितिरस्य वस्तु विषया दष्टे परब्रह्मणि ॥१०॥

।। धन्याष्टकम्-१० ।।
   
  जिसने परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, उसके लिये- सारा संसार नन्दनवन है, समस्त वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, सम्पूर्ण जल गङ्गाजल है, उसकी सारी क्रियाएँ पवित्र हैं, उसकी वाणी प्राकृत हो अथवा संस्कृत हो, उसके मुख से वेद का सार ही निकलता है, उसके लिये सम्पूर्ण भूमण्डल काशी (मुक्तिक्षेत्र) ही है तथा और भी उसकी जो-जो चेष्टाएँ हैं, सब परमार्थमयी ही हैं ।। १० ।।

      #दादा से मैंने पूछा था ” नारद ” शब्द का अर्थ क्या है ? नारद शिष्य भाव के प्रतीक हैं वे भगवान के पास से जगत में और जगत से ब्रह्म में जब चाहे आ -जा सकते है।  जगत मेँ आत्मा और अनात्मा मिले हुये हैँ । विवेक से उन्हेँ दो टुकडे करके खण्डित किया जाता है । तत्पश्चात् अनात्मा को ” द्यायति ” तिरस्कृत किया जाता है अतः विवेकी और वैराग्यवान् ही नारद पद वाच्य है” नर ” अर्थात् आत्मा । उससे उत्पन्न जगत भी ” नार ” कहा जाता है । उसका जो ” द्यति ” खण्डन या बाध करता है वह ” नारद ” कहा जाता है ।      
        ” नार ” अर्थात्  जो दूसरों को ज्ञान देता है वह नारद है । शिष्य (भावी नेता ) वही है जो ज्ञान प्राप्त कर के उसका विस्तार करता है, दूसरों  को भी नेता (शिष्य) बनाता । ” जो केवल अपने तक ही ज्ञान को सीमित रखना चाहता है वह वास्तविक शिष्य नहीँ है । इसलिये कठोपनिषद् मेँ प्रार्थना की गई है – ” तेजस्वि नावधीतमस्तु ” हमारा किया हुआ अध्ययन वीर्य वाला बने। जिस प्रकार वीर्यहीन-संतति कुल के लिये व्यर्थ है वैसे ही विद्या को भी समझना चाहिये ।  ” नार ” का अर्थ नरसमुह भी होता है । उनका तिरस्कार अर्थात् नरसमुह से अलग एकान्त मेँ रहने का स्वभाव जिसका है वह नारद है । 
          ## वरुण और उनके पुत्र वारुणी : वरुण जल के देवता के रूप में पूजे जाते हैं। सृष्टि के आधे से ज्यादा हिस्से पर इन्हीं का अधिकार है। पंच तत्वों में भी जल का महत्व सर्वाधिक है। प्राचीन काल से ही सिद्ध महापुरुष वरुण हुआ है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए इनकी पूजा देवता के रूप में की जाती है। प्राचीन वैदिक धर्म में वरुण देव का स्थान बहुत महत्वपूर्ण था पर वेदों से उनका रूप इतना अमूर्त है कि उसका प्राकृतिक चित्रण मुश्किल है। इंद्र को महान योद्धा के रूप में जाना जाता है तो वरुण को नैतिक शक्ति का महान पोषक माना गया है। 
      वरुण के पुत्र पुष्कर इनके दक्षिण भाग में सदा उपस्थित रहते हैं। अनावृष्टि के समय भगवान वरुण की उपासना प्राचीन काल से होती आई है। एक बार महर्षि दुर्वासा को वरुण ने भोजन के लिए बुलाया। दुर्वासा एक बार में बहुत खा लेते थे। फिर महीनों नहीं खाते। वरुण देव का पुत्र वारुणी भी वहीं बैठा था। दुर्वासा को खाते देख उसे हंसी आ गई। दुर्वासा महर्षि क्रोधी तो हैं ही, दुर्वासा ने वारुणी को शाप दे दिया, जा तू ऐसा हाथी हो जिसका पेट हाथी का और मुंह बकरी का होगा। वारुणी वैसे ही हाथी हो गया। ऐसे हाथी का पेट कैसे भरे जिसका मुख बकरी का हो। 
जैसे वरुण पुत्र – वारुणी को निरंतर दुःख का ही अनुभव करता रह ता था, क्योँकि दुर्वासा (अर्थात दुर्वासना ) के श्राप से, उसका पेट हाथी का और मुँह बकरी का हो गया था। उसके खाने वाला मुख और भरने वाला पेट दोनोँ मेँ सामञ्जस्य नहीँ था! ऐसे ही हमारी मन पर संयम रखने का अभ्यास न करने के कारण हमारी भोक्तृत्त्व शक्ति- बहुत ज्यादा है। ओर नियमित शारीरिक व्यायाम न करने के कारण कर्त्तृत्त्व शक्ति सीमित है, इसलिये हमारी इच्छायें जब पूर्ण नहीं होतीं तो हम दुःख का अनुभव करते हैँ । यह दुःख का अनुभव तब जाये जब हाथी के शरीर (पेट) और बकरी के मुख से पीछा छूटे। अंत में श्री रामेश्वर के पास मदुरै की तरफ जाकर तपस्या की तथा भगवती ने प्रसन्न होकर उसे उस योनि से मुक्त किया

      #वारुणी का दुःख और पाश्चात्य मनोविज्ञान : <इड-ईगो-सुपरइगो >   चित्त के अन्दर प्राचीन संस्कार ही मनोवैज्ञानिक ” Id ” इड है । दूसरी तरफ हमारा चेतनांश है - ' विवेक ' जो मनोविज्ञान का ” सुपरइगो ” है । वह हमारे सामने एक आदर्श मूलक व्यवस्था प्रस्तुत करता है । हमारा परिच्छिन्न अंश , जड़ांश तो साधारण सुखों के लिये हमसे – आपसे बुरे कर्म करवाता है । हमारे अन्दर चेतनांश (विवेक) बार–बार हमसे कहता है कि तुम बुरा काम कर रहे हो , ऐसा न करो । इसलिये हमारे मन – मस्तिष्क में तनाव बना रहता है
                 पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक तो यही कह कर समाप्त कर देते हैं कि इस तनाव को दूर करने का कोई ऊपाय नहीं है , तो क्या मनुष्य पैदा ही इसीलिये हुआ है कि सदा दुःखी बना रहे ? यह कैसा मनो -वैज्ञानिक आविष्कार है ? यह निराशावाद का सिद्धान्त है जो धीरे – धीरे ऋषियों की भूमि देव – भूमि भारत में भी प्रविष्ट होता चला जा रहा है ।  द्वैतवाद हमारे यहां ” सेमेटिक धर्मौँ ” से आया है । समेटिक धर्म यहुदि , ईसाई और मुसलमानी तीनों हैं । इन तीनों को आधार एक ही है , इसीलिये इनको ” सेमेटिक धर्म ” कह दिया जाता है । सेमेटिक धर्म के अनुयायी कहते हैं- प्रत्येक मनुष्य का भाग्य पूर्व निर्धारित है, मनुष्य उसमें स्वतन्त्र नहीं है।  परमेश्वर के द्वारा प्रत्येक मनुष्य का जीवन सीमित है।
      # विवेकानन्द की मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा :             
      विवेकानन्द कहते हैं - - आजकल के समाज में एक प्रवृत्ति देखी जा रही है और वह है - 'कार्य' पर अधिक जोर देना और 'विचार' की निन्दा करना। कार्य अवश्य अच्छा है, पर वह भी तो विचार या चिन्तन से उत्पन्न होता है। शक्ति की जो छोटी छोटी अभिव्यक्तियाँ, हमारी मांसपेशियों के माध्यम से व्यक्त होती हैं, उन्हीं को कार्य कहते हैं। किन्तु बिना विचार या चिन्तन के कोई कार्य नहीं हो सकता। अतः मस्तिष्क को ऊँचे ऊँचे विचारों, ऊँचे  ऊँचे आदर्शों से भर लो, और उनको दिन-रात मन के सम्मुख रखो; उन्हीं विचारों से बड़े बड़े कार्य होंगे। अपवित्रता की कोई बात मन में न लाओ, प्रत्युत मन से कहो कि मैं शुद्ध, पवित्रस्वरूप हूँ। हम क्षुद्र हैं, हमने जन्म लिया है, हम मरेंगे, इन्हीं विचारों से हमने अपने आपको एकदम सम्मोहित कर रखा है, और इसीलिये हम सर्वदा भय से काँपते रहते हैं।
                  # वेदान्त डिण्डिम होशियार!.... वे  आ रहे हैं ! (प्रेममय श्रीरामकृष्ण, विवेकानन्द,.....  CINC नवनीदा) आ रहे हैं!  जो जो उनकी सेवा के लिये --उनकी सेवा नहीं वरन उनके पुत्र दीन-दरिद्रों, पापी-तापियों, कीट-पतंगों तक की सेवा के लिये तैयार होंगे, उन्हीं के भीतर उनका आविर्भाव होगा (वे ब्रह्म को जान लेंगे ! 'ॐ ब्रह्मविदाप्नोति परम।') उनके मुख पर सरस्वती बैठेंगी, उनके हृदय में महामाया महाशक्ति आकर विराजित होंगी।
                       जो नास्तिक हैं, अविश्वासी हैं, किसी काम के नहीं हैं, ढोंगी हैं--वे अपने को उनका शिष्य क्यों कहते हैं ? पूजा के महासन्धि-मुहूर्त (this great spiritual juncture) में कमर कस कर खड़ा हो जायेगा, गाँव गाँव में, घर घर में, उनका संवाद देता फिरेगा वही मेरा भाई है --वही ठाकुर का पुत्र है। उठो, उठो, बड़े जोरों की तरंग (tidal wave) आ रही है- 'Onward! Onward!'; आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, स्त्री-पुरुष आचाण्डाल (Pariah) सब उनके निकट पवित्र हैं।
                      मैं तुमको विश्वास दिलाता हूँ कि संसार के किसी भी देश में सार्वभौमिक धर्म और विभिन्न सम्प्रदायों में भ्रातृभाव (Universal Brotherhood) के ऊपर चर्चा और बहस प्रारम्भ होने के भी बहुत पहले, इस नगर के पास, एक ऐसे अवतार रहते थे, जिनका सम्पूर्ण जीवन ही एक आदर्श 'पार्लियामेन्ट ऑफ़ रीलिजन्स ' या  सर्वधर्म समन्वय का मूर्तमान स्वरुप था। इस तरह के किसी महान आदर्श पुरुष पर हार्दिक अनुराग रखते हुए उनकी पताका के नीचे आश्रय लिये बिना न कोई राष्ट्र उठ सकता है, न बढ़ सकता है (न 'एक भारत श्रेष्ठ भारत' बन सकता है।) यदि यह राष्ट्र उठना चाहता है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूँगा कि इस ' नाम ' (श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा- विवेकानन्द- और CINC नवनीदा द्वारा स्थापित महामण्डल) के चारों ओर उत्साह के साथ एकत्र हो जाना चाहिये
                       जो जीवन मैंने अपनी आँखों से देखा है, जिसकी छाया में मैं रह चुका हूँ, जिनके चरणों में बैठकर मैंने सब सीखा है, उन श्रीरामकृष्ण का जीवन (गैर संन्यासी में CINC नवनीदा का जीवन) जैसा उज्ज्वल और महिमान्वित है, वैसा मेरे विचार में अन्य किसी अवतार या पैग़म्बर का नहीं है। यदि तुम्हार हृदय खुला है, तो तुम उनको अवश्य ग्रहण करोगे। यदि तुममें सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति है (यदि तुम सत्यार्थी हो), तो तुम उन्हें अवश्य प्राप्त करोगे। अँधा, बिल्कुल अँधा है वह, जो समय के चिन्ह नहीं देख रहा है, नहीं समझ रहा है। वर्तमान युग का अन्त होने के पहले ही तुम  लोग ठाकुर की अधिकाधिक आश्चर्यमयी लीलाएँ देख पाओगे। भारत के पुनरुत्थान के लिये इस शक्ति का आविर्भाव (महामण्डल के Be and Make प्रशिक्षण-परम्परा का आविर्भाव) बिल्कुल सही समय पर हुआ है
                     अतएव कर्तव्य की प्रेरणा से अपने राष्ट्र और धर्म की भलाई के लिये मैं यह आध्यात्मिक 'राष्ट्रीय-आदर्श' तुम्हारे सामने प्रस्तुत करता हूँ। मुझे देखकर उनकी कल्पना न करना; मैं एक बहुत ही दुर्बल माध्यम हूँ। उनके चरित्र का निर्णय मुझे देखकर न करना। वे इतने बड़े थे कि मैं या उनके शिष्यों में लोई दूसरा सैकड़ों जीवन तक चेष्टा करते रहने के बावजूद भी उनके यथार्थ स्वरुप के एक कड़ोरवें अंश के तूल्य भी न हो सकेगा। अपने कार्य के लिये वे धूलि से भी सैकड़ों और हजारों कर्मी पैदा कर सकते हैं। उनकी अधीनता में (CINC नवनीदा की अधीनता में) कार्य करने का अवसर मिलना ही हमारे परम सौभाग्य और गौरव की बात है!
                       भारत के युवाओ ! The Young, The Energetic, The Strong, The Well-Built, The Intellectual  उठो, जागो, शुभ मुहूर्त आ गया है। सब चीजें अपने आप तुम्हारे सामने खुलती जा रही हैं। हिम्मत करो और डरो मत। केवल हमारे ही शास्त्रों में ईश्वर के लिये 'अभीः ' विशेषण का प्रयोग किया गया है। और यह निर्भीकता ही है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है। हमें 'अभीः' निर्भय (ऋषि-पैग़म्बर-अवतार) बनना होगा, तभी हम अपने कार्य में सिद्धि प्राप्त करेंगे। उठो, जागो, तुम्हारी मातृभूमि को इस महाबली (कच्चा मैं या 'अहं मुक्त' युवाओं) की आवश्यकता है। इस कार्य की सिद्धि युवकों से ही हो सकेगी। प्रश्न उठता है कि युवा कैसे हों? उत्तर है- युवा साधु स्वभाव वाले- अर्थात चरित्रवान हों, अध्ययनशील (उपनिषदों को पढ़ा हुआ ) हों, आशावादी हों, दृढ़निश्चय वाले हों और बलिष्ठ हों। उन्हीं के लिये यह कार्य है, उठो--जागो, संसार तुम्हें पुकार रहा है ! "काम में लग जा कितने दिनों का है यह जीवन ? "As You Have Come Into This World, Leave Some Mark Behind!" - संसार में जब आया है, तब एक स्मृति छोड़कर जा। " 
                 स्वामीजी ने अपने आध्यात्मिक सन्देश में कहा था - " संसार के सभी धर्म एक ही सत्यस्वरूप केन्द्र की त्रिज्यायें हैं ; वे रूप हैं, जिनकी विविध मस्तिष्कों की आवश्यकता होती है। वे आगे बढ़ते हैं, नहीं तो मर जाते हैं। तो वह केंद्रीय सत्य क्या है? वह है भीतर का- ईश्वर ! प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह कितना ही पतित हो, ईश्वर की, दिव्यत्व की - अभिव्यक्ति है। दिव्यत्व पर आवरण आ जाता है, वह दृष्टि से छिप जाता है। मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके ईश्वर होना है! महान शिक्षा यह है कि सबके भीतर वही एक है। उसे गॉड, प्रेम, आत्मा, रूह, अल्लाह, जिहोवा -चाहे जो कहिये, है वही एक, जो निम्नतम जन्तु से लेकर उच्चतम मनुष्य तक, सब जीवों को प्राणवान बनाता है । " [४/२३३]
                  जिसको पाश्चात्य देश वाले Eastern Mysticism कहते हैं - वह भारत में करीब पांच हजार साल पहले से प्रचलित, विद्यार्थियों के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास (3H-हैण्ड,हेड और हर्ट विकास) की भारतीय शिक्षा-पद्धति का नाम ही अष्टांग-योग (राजयोग) है; जिसका लक्ष्य विद्यार्थियों की सोच या मानसिकता में सकारात्मक परिवर्तन लाकर चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करना है।
        योग = समाधि :  इसीलिये पतंजलि कहते हैं - ‘अब योग का अनुशासन।’ योग अनुशासन है, साधना है। यह स्वयं को रूपान्तरित करने के लिए, स्वेच्छा से अनुशासित रहने का हमारा अपना प्रयत्न है।  यह कुछ ऐसा है जिसे हमें स्वयं करना है। ‘अब योग का अनुशासन।’यदि हमारे मन ने पूरी तरह समझ लिया है कि जो कुछ तुम अब तक कर रहे थे वह बिलकुल निरर्थक था; कि वह बुरे से बुरा दुख स्‍वप्‍न था या अच्छे से अच्छा सपना था, तब अनुशासन का मार्ग हमारे सामने खुल जाता है। वह मार्ग क्या है? उसकी मूलभूत परिभाषा है—योग मन की समाप्ति है। अर्थात '‘योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है"- योग मन (अहं) की समाप्ति है।  योग शब्द का अर्थ है - ' समाधि '।  यही योग की सबसे सही परिभाषा है।
        इसीलिये महामण्डल ने युवाओं को योग से परिचित करने के उद्देश्य से बहुत सरल भाषा में मनःसंयोग नामक पुस्तिका प्रकाशित की है। इसमें प्रशिक्षार्थियों को अष्टांग योग के आठ चरणों में से केवल पाँच चरण -'यम-नियम-आसान-प्रत्याहार और धारणा' तक का ही प्रशिक्षण दिया जाता है। 'प्राणायाम' का अभ्यास गुरु के सानिध्य में रहकर नहीं करने से दिमाग बिगड़ जाने का खतरा होता है; इसलिए विवेकानन्द ने विद्यार्थियों को दी जाने वाली चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा में प्रणायाम के अभ्यास को वर्जित कर दिया है। फिर मनःसंयोग का धैर्यपूर्वक अभ्यास करने से  ध्यान और समाधी स्वतः उपलब्ध होती है, इसीलिए महामण्डल में ध्यान और समाधि का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है।
            #Yoga is the cessation of mind" -योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ १/२॥ "            'इन्सानियत का धर्म'-अर्थात मनुष्य बनने और बनाने वाले धर्म (शिक्षा पद्धति) को ही 'योग' या 'मनःसंयोग' कहते है!  महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित 'पातञ्जल - योगदर्शनम्' अथवा 'योग'  किसी धर्म या सम्प्रदाय-विशेष का शास्त्र नहीं है, इसके 195 सूत्रों में (समाधिपाद -51  सूत्र, साधनपाद -55 सूत्र, विभूतिपाद-56 सूत्र, कैवल्यपाद -33 सूत्र = कुल 195  सूत्र में कहीं हिन्दू शब्द नहीं है। योग का अर्थ है - समाधि; जहाँ पहुँचने पर, हृदय इतना विशाल हो जाता है कि कोई पराया नहीं रह जाता, सभी अपने हो जाते हैं ! वह शिक्षा-प्रणाली जो अपनी अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करके 'चरित्रवान मनुष्य' बन जाने का उपाय बतलाती है, उसी उपाय को योग कहते हैं। पातंजलसूत्र राजयोग का शास्त्र है और उस पर सर्वोच्च प्रामाणिक ग्रन्थ है। 

      संपूर्ण ब्रह्मांड में जो भी है, वह पदार्थ एवं ऊर्जा (Matter and energy) का संगम है। समस्त दृश्य एवं अदृश्य इन्ही दोनो के संयोग से घटित होता है। हम और हमारा मस्तिष्क इसके अपवाद नहीं हैं। हमारा शारीरिक स्वास्थ्य बहुत सीमा तक हमारी मानसिक स्थितियों पर निर्भर करता है। आदि शंकराचार्य कहते हैं:-

रज्जुसर्पवदात्मानं जीवं ज्ञात्वा भयं वहेत् ।

नाहं जीवः परात्मेति ज्ञातं चेन्निर्भयो भवेत् ॥

(शंकराचार्यविरचित आत्मबोधः- २७) 

जिस प्रकार रस्सी के टुकड़े को साँप समझने से भय उत्पन्न होता है, उसी प्रकार आत्मा को जीव समझने से भय उत्पन्न होता है। 'मैं जीव नहीं हूं', 'मैं ब्रह्म हूं' यह जानकर व्यक्ति निर्भय हो जाता है। 
    अर्थात् जब जीव भ्रमवश रस्सी को साँप समझता है, तब उसको भय प्रतीत होता है। परंतु जब उसे यह बोध हो जाता है कि मैं कोई मरणधर्मा मिथ्या-शरीर धारी जीव नहीं,शिव हूँ, अजर-अमर अविनाशी ' ब्रह्म हूँ ' तब वह निर्भय हो जाता है।

Just as mistaking a piece of rope for a snake creates fear, so also mistaking the atman for Jiva creates fear. Knowing that ‘I am not jiva’, ‘I am the paramatman’ one becomes fearless.

    जो शक्ति रस्सी को साँप दिखा रही थी वह भ्रम कहलाती है तथा जो शक्ति ब्रह्म को रस्सी दिखा रही है वह माया कहलाती है। जिस प्रकार भ्रम का कारण एक अज्ञान था जो सामान्य प्रकाश के आने से दूर हो गया उसी प्रकार माया का कारण अविद्या है जो उच्चतम ज्ञान के आने से समाप्त हो जाती है। इसीलिये कहा जाता है कि चर्म-चक्षुओं से देखा हुआ हमेशा सच नहीं होता।
                 हमारे चित्त में जन्म-जन्मांतर से संचित देह-चेतना के संस्कार (देहाध्यास) इतने गहरे हैं कि 'मैं आत्मा हूं' का भाव या आत्मस्वरूपता की स्मृति से बार-बार छूट जाती है। परन्तु मनुष्य को इससे घबड़ाना नहीं चाहिये - क्योंकि 'मैं आत्मा हूं' की अनुभूति में अवस्थित होने के लिए विचार मन्थन की सम्पूर्ण यात्रा, विशेष शक्ति- पवित्रता और श्रम  ('3P' Purity, Patience and Perseverance) की मांग करती है। विचारों के मन्थन का अभिप्राय है- 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास अर्थात ' यम-नियम-आसान-प्रत्याहार-धारणा' की प्रक्रिया के नियमित अभ्यास द्वारा अपने मन को देखना। अपने संकल्पों को देखना, चित्त की गहराई में पूर्व संचित अनुभवों तथा वर्तमान सूचनाओं पर आधारित विचारों को देखना,उन अनेक मान्यताओं, धारणाओं,ऐषणाओं  पर चिन्तन करना जिनके कारण मनुष्य आत्म स्वरूप को विस्मृत करके देहभाव में स्थित हो गया है
                 विचार मन्थन की प्रक्रिया= मनःसंयोग या विवेक-दर्शन की प्रक्रिया  का नियमित अभ्यास करने से मनुष्य चार प्रकार से लाभान्वित होगा। मनःसंयोग सीखने का पहला लाभ यह होगा कि मनुष्य चेतना (बुद्धि) के विस्तार अर्थात क्रम-विकास (evolution) और क्रम- संकोच (involution) की प्रक्रिया को समझ लेगा। स्वामी विवेकानन्द ने अन्यत्र कहा है - " मनुष्य में जो स्वाभाविक शक्ति है, उसको अभिव्यक्त करना ही धर्म है। असीम शक्ति का स्प्रिंग (बुद्धि) इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान है (बीज में वृक्ष के जैसा-क्रमसंकुचित), और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। ...यही है मनुष्य का,धर्म का, सभ्यता या प्रगति का-इतिहास !"
                 स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, " हृदय में सोना दबा पड़ा है। हृदय में ही ईश्वर हैं --यह समझ लेने के बाद सब कुछ छोड़कर व्याकुल हो उन्हें पुकारने की इच्छा होती है। किन्तु हृदय में क्या है ?-- इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिये पहले कुछ साधना (मनःसंयोग- विवेकदर्शन का अभ्यास) करना  आवश्यक है।" 
        " बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है - 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मंतव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि।' - इसका अर्थ यह है कि- 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! इसीलिये अरे मैत्रेयी, मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य -  'आत्मा का दर्शन' होना सर्वथा सर्वदा वांछनीय है। और उसके लिए 'पातञ्जल - योगदर्शनम्' के माध्यम से 'श्रवण, मनन, निदिध्यासन से होते हुए समाधि (स्वयं को पहचान लेने) तक की यात्रा पूर्ण करनी होती है।

      >>># स्वामी विवेकानन्द का जीवन और सन्देश
        यह कहना बहुत कठिन है कि युवक नरेन ने श्रीरामकृष्ण को अपने गुरु (मार्गदर्शक नेता) के रूप में कब स्वीकार किया था? स्वामीजी बुद्धि, शरीर और स्वभाव सभी दृष्टियों से राजसी गुणों से युक्त थे। तत्कालीन नवशिक्षित नौजवानों की भाँति वे भी यूरोपीय विचारकों के विचारों और यूरोप की उन्नति से गहराई से प्रभावित थे। वे किसी ऐसे व्यक्ति के चरणों में बैठकर शिक्षालाभ करना चाहते थे, जिसने स्वयं उस अतीन्द्रिय सत्य का साक्षात्कार कर लिया हो, उन्होंने अपने मन प्राण से यह निश्चय भी कर लिया कि इसी जीवन उस सत्य को प्राप्त करना होगा, नहीं तो इसी प्रयत्न में प्राण दे देने होंगे। अगर ऐसा न हुआ तो ऐसे अशांतिपूर्ण जीवन को रखकर लाभ ही क्या है ?  वे तो अपने जीवन को किसी उच्च जीवन से पुनरुज्जीवित करना चाहते थे, अपने विचारों को सतेज विचारों से जागृत करना चाहते थे। 
                 उनके कॉलेज के मित्र ब्रजेन्द्रनाथ शील, जो आगे चलकर अपने समय के अग्र्णी भारतीय दार्शनिक बने, ने उन्हें शैली की कविताओं, और हेगल के दर्शन तथा फ़्रांसिसी विपल्व आदि के इतिहास का अध्यन करने की सलाह दी। क्रमशः बढ़ती हुई ज्ञानपिपासा को लेकर नरेन्द्र जितना ही अग्रसर हुए, उतना ही वे समझने लगे कि परम सत्य को प्राप्त करना हो तो केवल विचार-बुद्धि की सहायता से काम नहीं चलेगा। 
      यूरोप के दार्शनिकों और विचारकों में हर्बर्ट स्पेंसर और जॉन स्टुअर्ट मिल के विचार, धर्म के विषय पर जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा लिखित तीन निबन्धों ने उन्हें अपनी माँ से प्राप्त और उनके बालमन में बैठे (श्रीरामचन्द्र के प्रति) आस्तिकता, और ब्रह्म-समाज से प्राप्त सहज आशावादी दृष्टिकोण को हिलाकर रख दिया।  इसके साथ-साथ काण्ट, शोपेनहावर आदि दार्शनिकों के विचारों में भी उनकी गहन रुचि थी। शैली का सर्वात्मवाद (Shelley's animism) , वर्डस्वर्थ की दार्शनिकता और फ्रांसीसी राज्यक्रान्ति के तीनों सिद्धान्तों- 'Liberty, Equality, and Fraternity'  स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का स्वामीजी पर गहरा प्रभाव था।   ह्यूम का संशयवाद और हर्बर्ट स्पेंसर का अज्ञेयवाद उनके मन को आलोड़ित कर दिया। अपनी पहले वाली भावनात्मक उत्साह और भोलेपन के तार तार हो जाने के बाद वे रूखे स्वाभाव के हो गए। जीवन के इस कठिन चरण में संगीत के प्रति उनके लगाव ने उनकी बहुत सहायता की। क्योंकि इसके सिवा अन्य कोई वस्तु इन्द्रियातीत सत्य को न देख पाने की विवशता से अश्रुपात करने नहीं देती थी। 
                   उनके कुछ संगीत प्रेमी मित्र ढीली नैतिकता के पोषक थे, जिसे वे पसंद नहीं करते थे। नरेन्द्र ने अपने मित्र ब्रजेन्द्र से पूछा कि क्या उसे इन्द्रियों के बंधन से मुक्त होने का कोई उपाय ज्ञात है ? किन्तु उन्होंने ने कहा कि तुम्हें केवल शुद्ध कारणता पर भरोसा रखना चाहिए और उसे आत्मा से एक समझना चाहिए, और इसीसे उसे एक अनकहे शांति की अनुभूति होगी। यह मित्र स्वयं एक प्लेटोनिक ट्रैन्सेन्डेन्टलिस्ट या अफलातुनी अतिन्द्रियतावादी (Platonic Transcendentalist - जनार्दनवा टाइप ?) था और उसे ध्यान सीखने के लिये किसी  गुरु की कृपा और मध्यस्तता प्राप्त करने की अनिवार्यता में कोई विश्वास नहीं था। उन्होंने ने देखा कि  इन्द्रिय प्रलोभन के क्षणों में मात्र  थोथे सिद्धांत द्वारा आत्मा की दिव्यता को अभिव्यक्त करने के संघर्ष में कोई सहायता नहीं मिलती। 
            उनका विवेकी मन उन्हें बार बार निर्देश दे रहा था कि उन्हें किसी ऐसे मार्गदर्शक नेता की आवश्यकता है, जो उन्हें इन्द्रिय प्रलोभनों के आकर्षण से बचाकर मन को अन्तर्मुखी रखने की विद्या सिखाने में समर्थ हो। वे किसी ऐसे व्यक्ति को साक्षात् देखना चाहते थे, जो स्वयं शांति और निश्चित्य में अवस्थित हो चूका हो। वे एक ऐसे जीवन्त नेता से साक्षात्कार करना चाहते थे, जो पूर्णत्व को प्राप्त हो चुका हो। वे ब्रह्म-समाज के नेताओं के साथ साथ अन्य सम्प्रदायों के नेताओं से भी मिले किन्तु कहीं से उन्हें सीधा उत्तर नहीं मिला।
              यह केवल श्री रामकृष्ण थे जो, एक अधिकारी व्यक्ति के रूप में उनसे बातें कहीं, और अपनी शक्ति से उनकी घायल आत्मा को शांति प्रदान कर दिया । पहले तो नरेन्द्र ने सोचा उनको शंका हुई कि शायद उन्हें ठाकुर ने हिप्नोटाइज करके शांति प्रदान किया होगा, किन्तु उनकी गलतफहमी क्रमशः दूर होती चली गई और उन्हें स्वयं सच्चिदानन्द की अनुभूति प्राप्त हुई।स्वामीजी स्वभावतः तार्किक, विवेकशील और शोधार्थी-सत्यार्थी स्वभाव के थे। वे सहज जिज्ञासु थे। युवा नरेन्द्रनाथ के व्यक्तित्व को ढालने में नाना प्रकार के तत्व या कारक कार्य कर रहे थे। उनमें सबसे प्रमुख थी, उनकी  "Inborn Spiritual Tendencies"  अर्थात जन्मजात आध्यात्मिक प्रवृत्तियाँ ही उनके व्यक्तित्व का गठन करने में सबसे प्रमुख कारण थीं, जो श्रीरामकृष्ण की पवित्र संगति के प्रभाव से स्वतः अभिव्यक्त होने लगी थीं, उन्हें देखते ही ऐसा लगता था, मानो पिंजरे में आबद्ध सिंह कारागार को तोड़कर बाहर निकलने के लिये असीम आग्रह के साथ छटपटा रहा हो! 
                     दूसरा था उनकी अपनी माता से मिले हुए संस्कार, जो स्वयं भारत की आध्यात्मिक विरासत से ओत-प्रोत थीं, जो उन्हें निरन्तर उच्च चिंतन  और उदारतापूर्ण व्यवहार करने के लिये अनुप्रेरित करता रहता था। तीसरा कारक जो उनके व्यक्तित्व को गठित करने प्रमुख भूमिका निभा रहा था, वह था  चाहे जहाँ कहीं से प्राप्त हो, परम सत्य को जानने की अटूट इच्छा और तत्कालीन हिन्दू समाज के धार्मिक विश्वासों और लोकाचारों के प्रति उनका संदेहवादी दृष्टि कोण। यह संशयी दृष्टि उन्हें अपने अंग्रेजी शिक्षित (आर्यसमाजी?) पिता से सीखा था, और पाश्चात्य संस्कृति के साथ स्वयं संपर्क में रहने के कारण उनका संदेहात्मक दृष्टिकोण और अधिक दृढ़ हो गया था। उनके भीतर विश्लेषणात्मक वैज्ञानिक पद्धति से किसी बात को परखने के प्रति एक तीव्र रुझान उत्पन्न हो गया था, इसीलिये वे ठाकुर के अनेकों आध्यात्मिक या अतीन्द्रिय अनुभवों को उसी विधि से जांचने की इच्छा रखते थे।
                  अंगेरजी के कवियों -विशेष रूप से वर्ड्सवर्थ और शेली की कविताओं ने उनकी भावनाओं में उथल-पुथल मचा दिया, और श्रीरामकृष्ण के अद्भुत ट्रांस (मुहुर्मुहुः समाधि में जाने के) रहस्य को जानने के लिये  'nervous system' -विशेष रूप से ब्रेन और स्पाइनल कॉर्ड की  कार्य-पद्धति को समझने के लिये उन्होंने वेस्टर्न मेडिसिन का एक कोर्स भी कर लिया। किन्तु यह सब जानने के बाद उनकी आंतरिक अशांति और ज्यादा गहरी हो गई। क्या यह ब्रह्माण्ड कोई बेजान, प्रेम रहित  यांत्रिक रचना मात्र है, या इसके भीतर इसे नियंत्रित करने वाले आध्यात्मिक एकत्व का कोई सिद्धान्त भी कार्यरत है ? उनकी चाह शाश्वत प्रश्नों के उत्तर जानने की ओर थी और उन प्रश्नों का संतोषजनक समाधान उन्हें किसी के पास नहीं मिल पा रहा था।  इस समाज के बुद्धिवाद, सार्वभौमवाद, समन्वयवाद, मानवतावाद तथा धर्मवाद ने उन्हें प्रभावित किया था।
              अपनेे प्रश्नों के उत्तरों की खोज में ही वे विद्यार्थी जीवन में ही ‘ब्रह्म समाज’ से जुड़ गए थे। ठाकुर के निकट आने से पहले नरेन्द्र ने 'ब्रह्म-समाज' के एक सदस्य के रूप में एकेश्वरवाद और निराकार सगुण ब्रह्म की द्वैत भाव से उपासना करने के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया था। तथा वे मनुष्य के स्वाभाविक भ्रष्टता (क्षुद्रता या नीचता natural depravity of man.) में भी विश्वास करते थे। वे 'आत्मा की दिव्यता और अस्तित्व की एकता' जैसे अद्वैत-वेदान्त के सिद्धान्तों को 'ईश -निन्दा' समझते थे। उनकी दृष्टि में - " मनुष्य ईश्वर के साथ एक और अभिन्न है " - ऐसा सोचना भी पाप प्रतीत होता था।  
       ‘ईश्वर से साक्षात्कार कैसे हो?’ इस प्रश्न का समाधान उन्हें ब्रह्म समाज के पास भी नहीं मिला था।  ब्रम्ह समाज का सदस्य होने के नाते वह मूर्तिपूजा , बहुदेववाद और रामकृष्ण जी की काली पूजा का विरोध करते थे ! यहाँ तक की वह अद्वैत वेदान्त  की विचारधारा को ईश-निन्दा और मूर्खता  के समान  मानते थे और यदा-कदा उसका मजाक बनाते थे ! यद्यपि शुरू में नरेन्द्र ने रामकृष्ण जी और उनकी विचारधारा को नहीं माना पर वह उसे पूर्णत:  नकार भी नहीं सके ! शुरू में उन्हें लगता था की रामकृष्ण जी की परम आनंद की अवस्था और अलौकिक आभास सिर्फ  कल्पना और मतिभ्रम है! यद्यपि शुरू में नरेन्द्र ने उन्हें अपना गुरु नहीं माना  और उनके विचारों का विरोध किया पर वह उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए और उनसे मिलने जाते रहे ! इसके बाद वे दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचे
                किन्तु जहाँ तक गुरु (ठाकुर) का प्रश्न है,अपने शिष्य के साथ उनका आध्यात्मिक-सम्बन्ध, दक्षिणेश्वर में हुए प्रथम भेंट में ही हो गया था, जब उन्होंने नरेन को स्पर्श किया और उसके हृदय को भीतर तक आलोड़ित कर दिया। और उसी पल से उनके भीतर अपने शिष्य के प्रति एक अटूट विश्वास और प्रबल स्नेह का भाव उत्पन्न हुआ।
              #नवीन भारत ही प्राचीन भारत की शरण में कब गया ?   नरेन्द्रनाथ जब रामकृष्ण की शरण में गए (जब मैं 1967 का सत्यार्थी 1987 में  CINC नवनीदा के शरण में गया) , तब, असल में, नवीन भारत ही प्राचीन भारत की शरण में गया था >>>किन्तु उन्होंने नरेन को स्वतंत्र रूप से विवेक-विचार करने के बाद ही किसी को अपना मार्गदर्शक नेता या गुरु के रूप में स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया। रामधारी सिंह दिनकर ने इस विशिष्ट भेंट के सम्बन्ध में लिखा है, वस्तुतः, नरेन्द्रनाथ जब रामकृष्ण की शरण में गए, तब, असल में, नवीन भारत ही प्राचीन भारत की शरण में गया था अथवा यूरोप भारत के सामने आया था। रामकृष्ण और नरेन्द्रनाथ का मिलन श्रद्धा और बुद्धि का मिलन था, उनसे कहा था, ‘‘भगवन्! मैं जानता हँू कि आप पुरातन नारायण ऋषि हैं और जीवों की दुर्गति का निवारण करने के लिए पुनः शरीर धारण करके आए हैं।’’ नरेन्द्रनाथ ने जब उनसे पूछा था कि, ‘‘श्रीमान्! क्या आपने ईश्वर का साक्षात्कार किया है?’’ तो उन्होंने कहा था, ‘‘हाँ! ईश्वर को मैं उसी प्रकार देखता हूँ जिस प्रकार तुम्हें देख रहा हूँ।’’
                   यह शुरू से ही  नरेन्द्र की प्रकृति रही थी कि वह बिना प्रमाणों  के कोई बात नहीं मानते थे , इसी तरह उन्होंने पहले रामकृष्ण जी को परखा, जिन्होंने कभी  उन्हें उनकी तार्किकता को छोड़ने के लिए नहीं कहा और उनके सभी  तर्कों  और आलोचनाओं को धर्य के साथ सुना !  ठाकुर के प्रेम और विश्वास ने प्रचण्ड युवा-जोश के ऊपर एक नियंत्रक का कार्य किया, और यही स्नेह और विश्वास जगत के प्रलोभनों से बचने का एक मजबूत ढाल बन गया। 

               नरेन् ने सिक्का रखकर टेस्ट किया। ठाकुर ने भी नरेन को टेस्ट किया जब वे उनके कमरे में गए उन्होंने उसकी उपेक्षा कर दिया, मैं आपको सुनने नहीं देखने के लिए आता हूँ, मैं आपसे प्रेम करता हूँ। ठाकुर ने नरेन को गले से लगा लिया, दूसरा होता तो आना ही बंद करदेता ? नरेन को सिद्धि देना चाहा, ' देख, साधना करते समय मुझे अष्टसिद्धियाँ मिली थीं। उनका किसी दिन कोई उपयोग नहीं हुआ, तू ले ले, भविष्य में तेरे काम आयेंगी।'इससे क्या ईश्वर लाभ होगा ? नहीं, सो तो नहीं होगा,पर इहलोक की कोई भी इच्छा उपाल अपूर्ण न रहेगी। '
     तनिक भी सोचविचार न करते हुए त्यागीश्रेष्ठ नरेन ने उत्तर दिया "तब तो महाराज, वे मुझे नहीं चाहिये। "उनका सदेव एक ही जवाब होता था की " परम सत्य को सभी दृष्टिकोण से जानने की चेष्टा करो !" पांच वर्षों तक रामकृष्ण जी के प्रशिक्षण में रहने के दोरान नरेन्द्र में यह परिवर्तन आया की अब वह एक व्याकुल, परेशान और अधीर युवक से एक परिपक्व पुरुष में बदल गए। जो ईश्वर - प्राप्ति  के लिए सब कुछ त्यागने के लिए तत्पर था! अंत में उन्होंने पूर्ण ह्रदय से रामकृष्ण जी को अपना गुरु स्वीकार कार  लिया  और उनके शिष्य बन गए !
                 विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण देव एक परिपूर्ण आध्यात्मिक शिक्षक (मानवजाति के आदर्श मार्गदर्शक नेता) थे, उन्होंने विविध स्वाभाव या रुझान रखने वाले शिष्यों के ऊपर - कभी एक ही प्रकार का अनुशासन (योग, कर्म,ज्ञान या भक्ति मार्ग) थोपने की चेष्टा नहीं की। उन्होंने इस बात पर कभी जोर नहीं दिया कि नरेन को खान-पान के बारे में सख्त नियमों का पालन करना चाहिये। और न उन्होंने इस बात पर ही जोर दिया कि उसको हिन्दू पौराणिक कथाओं में प्रचलित देवी-देवताओं की वास्तविकता पर विश्वास करना ही होगा। नरेन्द्र के दार्शनिक मन के लिये स्थूल-पूजा पद्धति की आवश्यकता नहीं थी, किन्तु वे उसके विवेक-प्रयोग, इन्द्रिय-विषयों के प्रति अनासक्ति, आत्मसंयम और नियमित रूप से मनःसंयोग का अभ्यास करने पर कड़ी दृष्टि रखते थे।    
     श्रीरामकृष्ण, दूसरे भक्तों के साथ धर्म के सम्बन्ध में रूढ़िवाद और कट्टरवादी सोच के विषय में, नरेन के द्वारा उठाये गए प्रबल तर्कों में आनन्द लेते थे, और जब वे उनके कट्टर सोच को चूर-चूर कर देते तो वे प्रसन्न हो जाते थे। लेकिन, जब नरेन् माँ काली के प्रति श्रद्धा-भक्ति दिखाने के लिये सरल-हृदय राखाल का मजाक उड़ाने लगते, जो अक्सर होता था; तब अपने गुरुभाइयों के ईश्वर के सगुण-साकार रूप में विश्वास को अस्थिर करते देखकर ठाकुर उनके प्रयासों को कभी बर्दाश्त भी नहीं करते थे।  
                   उन्होंने अपने शिष्य नरेन्द्र को धीरे-धीरे, चरणबद्ध तरिके से 'संशय से निश्चय' (from doubt to certainty ) तक पहुँचने, और चंचल मन के मनस्ताप से आत्मा के आनन्द को अपने अनुभव से जानने (निर्विकल्प समाधि में पहुँचकर) का मार्ग दिखलाया, उसे अपनी राहनुमाई या नेतृत्व प्रदान किया। हालाँकि, यह कोई आसान उपलब्धि नहीं थी।
              पहले वे कहते थे -" सृष्ट जीव अपने को स्रष्टा समझे, इससे अधिक पाप और क्या हो सकता है ? मैं ईश्वर हूँ, तुम ईश्वर हो, जन्म-मरणशील सभी पदार्थ ही ईश्वर हैं --इससे अधिक अयौक्तिक बात और क्या हो सकती है ? "जब ठाकुर ने उन्हें समझाया और चेतवानी दी कि इस प्रकार उसे भगवान की अनन्तता को सीमित करने की चेष्टा छोड़कर, भगवान से प्रार्थना करनी चाहिये कि- " हे भगवान मैं आपके स्वरूप को नहीं जानता, आप अपने सच्चे स्वरूप को मेरे सामने प्रकट कर दीजिये।" यह सुनकर नरेन्द्र मुस्कुराये बिना न रह सके।
         एक दिन वह अपने मित्र के समक्ष श्रीरामकृष्ण के अद्वैत-वेदान्त का मजाक उड़ाते हुए कह रहे थे, " क्या यह कभी सम्भव है ? लोटा ईश्वर है, कटोरा ईश्वर है और जो कुछ दिखाई पड़ रहा है तथा हम सब भी ईश्वर हैं ?" इसी विषय पर परिहास करते हुए दोनों जोर से हँस पड़े। नरेन्द्र की हँसी को सुनकर ठाकुर बालक की तरह पहनी हुई धोती को बगल में दबाये बाहर निकल आये और 'तुम लोग क्या कह रहे हो ' कहकर हँसते हुए नरेन्द्र को छूते ही समाधिस्त हो गए।
                  उस अद्भुत स्पर्श ने मानो जादू सा कर दिया और नरेन्द्र के भीतर क्षणभर में भावान्तर उपस्थित हो गया। सतम्भित से होकर वे सचमुच देखने लगे -ईश्वर (शास्वत चैतन्य ) के अतिरिक्त ब्रह्माण्ड में अन्य कुछ भी नहीं है। उसी मनोस्थिति में घर लौट आये, वहाँ भी वैसा ही -जो कुछ देखा, सभी ईश्वर हैं ऐसा प्रतीत होने लगा। खाने बैठा, देखा -अन्न, थाली, परसनेवाला और वे ईश्वर के अतिरिक्त और दूसरा कुछ नहीं है। वे दो-एक कौर खाकर स्थिर भाव से बैठ गए, माँ ने कहा -'बैठा क्यों है, खा न '- माँ के कहने से होश में आकर वे फिर खाने लगे। इसी तरह खाते-पीते-सोते-जागते तथा कॉलेज जाते समय वैसा ही दिखाई पड़ने लगा और सारा दिन न जाने कैसे उसी भाव में आच्छन्न रहना पड़ा।
        रास्ते में चल रहे थे, सामने से घोड़ा-गाड़ी आ रहा है, देखते हैं आज इस डर से कि ये अपने ऊपर आ जायेंगी, हट जाने की इच्छा नहीं होती थी। जब वह आछन्न भाव कुछ घट जाता था, तब सारा संसार स्वप्न की तरह प्रतीत होता था। हेदुआ तालाब पर टहलते हुए किनारे किनारे लोहे लोहे के घेरे की छड़ों पर सिर ठोंक कर देखता था कि वे स्वप्न की हैं या सत्य हैं ? सिर-हाथ-पैर सुन्न हो जाने से कभी कभी पक्षाघात हो जाने की आशंका होती थी। इसके कुछ दिनों बाद जब वे स्वस्थ हुए तब समझ में आया इसीको अद्वैत-वेदान्त का आभास कहा जाता है। तब यह विश्वास हो गया कि गीता-उपनिषद में इस विषय के समबन्ध में जो लिखा है, वह मिथ्या नहीं है। इसी अद्वैत-भाव की सम्पूर्ण अनुभूति उन्हें आगे चलकर काशीपुर उद्यान बाड़ी में हुई थी। 
        1885 में रामकृष्ण जी को गले का कैंसर हो गया अत:  उन्हें कलकत्ता और फिर काशीपुर ले जाया गया ! उनके अंतिम दिनों में विवेकानंद और उनके साथी शिष्यों ने रामकृष्ण जी की सेवा की ! वहां भी विवेकानंद  रामकृष्ण जी से अध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करते रहे ! कहा जाता है की काशीपुर में ही विवेकानंद को निर्विकल्प समाधी का अनुभव हुआ
       अपने अंतिम दिनों में रामकृष्ण जी ने विवेकानंद सहित अपने कुछ शिष्यों को तपस्वी के समान भगवा रंग के कपडे दिए जो रामकृष्ण जी के मठ संबंधी पहला  आदेश बना ! उन्होंने विवेकानंद से अपने साथी शिष्यों का ध्यान रखने  को कहा और उन शिष्यों से कहा कि वह विवेकानंद को अब अपना प्रमुख माने  ! विवेकानंद ने सीखा  था की मानव - सेवा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है ! कहते हैं की जब विवेकानंद ने रामकृष्ण जी के सामने अवतारवाद पर प्रश्न किया तब रामकृष्ण जी ने कहा की " जो राम था , जो कृष्ण  था वही अब इस शरीर  में रामकृष्ण  है ! " स्वामीजी ने अपने गुरुदेव से वेदान्त और उसे प्राप्त करने की विधि ‘निर्विकल्प समाधि’ की शिक्षा ग्रहण की थी। उनके गुरुदेव ने उन्हें सम्पूर्ण प्राचीन ज्ञान के रहस्य से अवगत कराया था।
       धीरे -धीरे रामकृष्ण जी की दशा ख़राब होती गयी और अंतत 16 अगस्त 1886 में श्रीरामकृष्ण परमहंस का निधन हो गया था। सन् 1886 में गुरुदेव के निर्देशानुसार 11 गुरुभाइयों ने मिलकर बरानगर के एक जीर्ण भवन में धर्मसंघ बनाया था। इसके प्रमुख स्वामीजी ही थे। संघ का नाम ‘श्रीरामकृष्ण संघ’ रखा गया था। इस संघ का उद्देश्य आध्यात्मिकता की वृद्धि और मानवता की सेवा करना था।
             स्वामीजी ने 3 अगस्त 1890 में अज्ञात गेरुआवस्त्रधारी संन्यासी के रूप में देशाटन के लिए प्रस्थान किया था। परिब्राजक के रूप में देशाटन करते हुए स्वामीजी को देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक एकता का प्रत्यक्ष परिचय मिला। यात्रा से उन्हें देश की महानता के साथ ही उसकी दुरावस्था का भी ज्ञान हुआ। उन्होंने पाया कि हमारे ऋषियों की प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा अर्जित प्रकृति के नियमों और सत्यों पर आधारित वेदान्त में समाहित सच्चे दर्शन को भुला दिए जाने के कारण देश की अवनति हुई है। 
        तब उन्हें पता चला था कि सन् 1893 में अमेरिका के शिकागो नगर में धर्म संसद (11 सितम्बर 1893 से 27 सितम्बर 1893) आयोजित होने वाली है। यह धर्म संसद कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज की 400वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में आयोजित मेला के अंग के रूप में थी। 3 वर्ष पश्चात् दिसम्बर 1892 में कन्याकुमारी पहुंचे थे। उन्होंने भारतीय भू-भाग की अंतिम चट्टान पर बैठकर तीन दिन और रात लगातार देश की अवनति के कारणों तथा उनके निराकरण के उपायों पर विचार किया था। 
     स्वामीजी ने 31 मई 1893 को मुम्बई से अमेरिका के लिए यात्रा आरम्भ की थी। श्रीलंका, सिंगापुर, हांगकांग, कैण्टन और नागासाकी होते हुए वे जुलाई के मध्य में शिकागो पहुँचे थे।स्वामीजी ने 11 सितम्बर 1893 से कोलम्बस सभागृह में आरम्भ हुई इस धर्म संसद में भारत के पक्ष को अद्वितीय रूप से प्रस्तुत किया था। उन्होंने अपने प्रथम भाषण में हिन्दू धर्म को सभी धर्मों का जनक और संसार को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता का पाठ पढ़ाने वाला धर्म बताते हुए शिवमहिम्न स्तोत्र और गीता के निम्नलिखित श्लोक उद्द्धृत किए थे-
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
(जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे मार्ग से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।)
ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
(जो कोई मेरी ओर आता है- चाहे किसी प्रकार से हो- मैं उसको प्राप्त होता हँू। लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अंत में मेरी ही ओर आते हैं।) 
स्वामीजी ने कहा था, ‘‘साम्प्रदायिकता, कट्टरता और उनकी भयानक उपज ‘धर्मोन्माद’ बहुत दिनों तक इस धरा को ग्रसित कर चुके हैं... बस उनका समय बीत गया है।... मैं आशा करता हँू कि आज प्रातः इस सम्मेलन के सम्मान में जो घण्टा बजा था वह सब प्रकार की धर्मान्धता एवं उत्पीड़न का चाहे वह तलवार का हो या लेखनी का तथा उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे लोगों के बीच द्वेषपूर्ण भावनाओं का मृत्यु-घण्टानाद सिद्ध होगा।’’ 
                 यदि कोई व्यक्ति यह समझता हो कि धार्मिक एकता का मार्ग एक धर्म की विजय और बाकी धर्मों का विनाश है तो मैं उससे निवेदन करूँगा कि बन्धु! तुम्हारी आशा पूरी नहीं होगी। क्या मैं यह चाहता हँू कि सभी ईसाई हिन्दू हो जाएँ? भगवान् करे कि ऐसा न हो। क्या मैं यह चाहता हूँ  कि सभी हिन्दू और बौद्ध ईसाई हो जाएँ? ईश्वर न करे कि ऐसा हो। ईसाई को हिन्दू या बौद्ध अथवा हिन्दू और बौद्ध को ईसाई नहीं होना है। किन्तु, इनमें से प्रत्येक का कर्तव्य है कि वह अन्य धर्मों का सार अपने भीतर पचा ले और अपनी वैयक्तिकता की, पूर्ण रूप से रक्षा करते हुए उन नियमों के अनुसार अपना विकास खोजे जो उसके अपने नियम रहे हैं।’’ उन्होंने यह भी कहा था कि, ‘‘जिस प्रकार नदी का उद्गमस्रोत एक होता है, परन्तु उससे सहस्त्रों धाराएँ फूटती हैं, उसी प्रकार सभी धर्मों का स्रोत एक ही स्थान पर है।’’
                  ‘द न्यूयार्क हेराल्ड’ ने स्वामीजी के उत्कृष्ट प्रदर्शन से प्रभावित होकर लिखा था, ‘‘धर्मों की संसद में सबसे महान् व्यक्ति विवेकानन्द हैं। उनका भाषण सुन लेने पर अनायास यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए धर्म-प्रचारक भेजने की बात कितनी मूर्खतापूर्ण है।’’विश्वमानवता के कल्याण और स्वदेशोत्थान में स्वामीजी ने अपनी समूची जीवनशक्ति का निवेश कर दिया था। वे समूची मानवता के लिए उद्घोष कर रहे थे, ‘‘धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है।’’ उनका कहना था कि, ‘‘मेरे जीवन का परम ध्येय उस ईश्वर के विरुद्ध संघर्ष करना है, जो परलोक में आनन्द देने के बहाने इस लोक में मुझे रोटियों से वंचित रखता है, जो विधवाओं के आँसू पोंछने में असमर्थ है, जो माँ-बाप से विहीन बच्चे के मुख में रोटी का टुकड़ा नहीं दे सकता।’’
                   धर्म संसद के बाद स्वामीजी लगभग साढ़े तीन वर्षों तक अमेरिका और इंग्लैण्ड में रुककर भाषणों, वार्तालापों और विवादों में भाग लेकर तथा लेख, कविताएँ और वक्तव्य प्रस्तुत कर हिन्दू धर्म के सार-‘वेदान्त के सार्वभौमिक सिद्धान्तों’ का यूरोप में प्रसार करते रहे। उन्होंने बताया कि मानवता के कल्याण के लिए, विश्व में स्थायी शांति लाने के लिए  - 'पाश्चात्य विज्ञान' (Western Science) की सहायता से  भौतिक सुख-सुविधाओं और पूर्वी रहस्यवाद (eastern mysticism) को इन्द्रजाल या जादूटोना न समझकर राजयोग को आध्यात्मिक विज्ञान समझकर दोनों का सम्यक योग आवश्यक है।
         ‘‘संसार में जितने भी मनुष्य और जीव-जन्तु हैं, सभी परमात्मा हैं, सभी परब्रह्म के रूप हैं और इनमें भी सर्व प्रथम हमें अपने देशवासियों की पूजा करनी चाहिए। आपस में ईर्ष्या-द्वेष रखने के बदले, आपस में झगड़ा और विवाद के बदले, तुम परस्पर एक-दूसरे की अर्चना करो, एक-दूसरे से प्रेम रखो। हम जानते हैं कि किन कर्मों ने हमारा सर्वनाश किया, किन्तु फिर भी हमारी आँखें नहीं खुलती।’’ स्वामीजी मनुष्य मात्र को आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर और सशक्त बनाना चाहते थे।  अपनी इसी यात्रा में स्वामीजी ने ‘Vedanta Society' की स्थापना भी की थी। वे ‘वेदान्त’ और ‘पाश्चात्य वैज्ञानिक ज्ञान’ के बीच समन्वय चाहते थे। 
            फरवरी 1896 में उन्होंने न्यूयार्क में सुप्रसिद्ध ‘वेदान्त सभा’ की स्थापना की। इंग्लैण्ड में स्वामीजी की भेंट उनकी शिष्या भगिनी निवेदिता और सुप्रसिद्ध दार्शनिक मैक्समूलर आदि से हुई थी। दिसम्बर 1896 में स्वामीजी कोलम्बो होते हुए स्वदेश के लिए चले और स्वदेश पहुँचकर जनवरी 1897 में मद्रास से अल्मोड़ (उत्तरांचल) तक की यात्रा की थी। सभी जगह उनका उत्साहपूर्वक स्वागत हुआ था।दिसम्बर 1896 में स्वामीजी कोलम्बो होते हुए स्वदेश के लिए चले और स्वदेश पहुँचकर जनवरी 1897 में मद्रास से अल्मोड़ (उत्तरांचल) तक की यात्रा की थी। सभी जगह उनका उत्साहपूर्वक स्वागत हुआ था।उन्होंने देशवासियों में आत्मगौरव का भाव जागृत करते हुए विश्वास दिलाया था कि भारतवासी श्रेष्ठ संस्कृति, इतिहास और आध्यात्मिक परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं। विश्व के सम्मुख भारत का पक्ष प्रस्तुत करते हुए उन्होंने विश्व की विभूतियों को भारत की सराहना करने के लिए स्वाभाविक रूप से प्रेरित किया था। इससे देशवासियों का आत्मविश्वास बढ़ा था।
                  स्वामीजी अमेरिका और यूरोप के लोगों के जातीय अहंकार, स्वार्थ लिप्सा, विलासिता की अंधी होड़, धार्मिक और सांस्कृतिक असहिष्णुता, गरीबों का आर्थिक शोषण, राजनैतिक चालबाजियों, हिंसा आदि की आलोचना करते थे।उन्होंने शिकागो की धर्मसभा में निर्भीकतापूर्वक कहा था, ‘‘तुम ईसाई लोग भारत की भूमि पर तुम गिरजों पर गिरजे बनवाते जा रहे हो, किन्तु तुम्हें यह ज्ञान नहीं है कि पूर्वी जगत् की आकुल आवश्यकता रोटी है, धर्म नहीं। धर्म एशियावालों के पास अब भी बहुत है। वे दूसरों से धर्म का पाठ नहीं पढ़ना चाहते। जो जाति भूख से तड़प रही है, उसके सामने धर्म परोसना, उसका अपमान है। जो जाति रोटी को तरस रही है, उसके हाथ में दर्शन और धर्म-ग्रंथ रखना, उसकी हँसी उड़ाना है।’’ 
                 उनकी दृष्टि में इसका प्रमुख कारण यूरोप के लोगों का धर्म से विमुख होते जाना था। वे चाहते थे कि इस भयानक स्थिति से बचने के लिए अमेरिका और यूरोप को आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होना चाहिए। इसके विपरीत भारत के प्रति स्वामीजी की चाह थी कि यहाँ के लोगों की आर्थिक दुरावस्था दूर हो। उन्हें दरिद्रता से मुक्ति मिले। वे चरित्र की पवित्रता को सबसे अधिक महत्त्व देते थे। उन्होंने कहा था, ‘‘मैं संन्यासी और गृहस्थ में कोई भेद नहीं करता। संन्यासी हो या गृहस्थ, जिस में भी मुझे महत्ता, हृदय की विशालता और चरित्र की पवित्रता के दर्शन होते हैं, मेरा मस्तक उसी के सामने झुक जाता है।’’
                    स्वामीजी का मानना था कि ईश्वर और जीव सहवर्ती और सापेक्षिक सत्ताएँ हैं। ब्रह्म के बिना किसी का अस्तित्व संभव नहीं है। जो कुछ भी सत्य है वह ब्रह्म ही है। ईश्वर और जगत् में वही सम्बन्ध है जो हमारी आत्मा और शरीर में है। उनकी मान्यता थी कि स्वभाव की निजता के कारण आत्मानुभूति के साधन एक ही नहीं हो सकते। स्वभाव के अनुसार योग-कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग अथवा ज्ञानयोग का चयन किया जा सकता है। योग का तात्पर्य है-लक्ष्य और उसकी प्राप्ति का साधन। सभी योग भगवान की ओर ले जाते हैं। कर्मयोग में ‘कर्म’, भक्तियोग में ‘भक्ति’, राजयोग में ‘मनःसंयम’ और ज्ञानयोग में ‘ज्ञान’ आत्मानुभूति के साधन बनते हैं। स्वामीजी के अनुसार, ‘‘जब निर्गुण ब्रह्म को हम माया के कुहरे में से देखते हैं तो वही सगुण ब्रह्म या ईश्वर कहलाता है।’’ उनका कहना था कि, ‘‘योग के विषय में यदि कोई गुप्त या रहस्यमय बात हो तो उसे छोड़ देना चाहिए। रहस्य, व्यापार मानवीय मस्तिष्क को दुर्बल बना देता है। इसने योग को, जो कभी एक उच्चतम विज्ञान था, बिल्कुल नष्ट कर दिया।’’
   >>>एकाग्रता की शिक्षा का प्रसार धर्म के प्रसार से भिन्न नहीं है, और धर्म शिक्षा का मेरुदण्ड है : शिक्षा के प्रसार को स्वामीजी उन्नति का आधार मानते थे। उनका कहना था कि, ‘‘देश उसी अनुपात में उन्नति करता है जिस अनुपात में वहाँ के जनसमूह में शिक्षा तथा बुद्धि का प्रसार होता है। भारतवर्ष की पतनावस्था का मूल कारण था कि थोड़े से व्यक्तियों ने मिलकर देश की सम्पूर्ण शिक्षा तथा बुद्धि पर एकाधिपत्य कर लिया। यदि हम पुनः अपने उत्थान और ऐश्वर्य की उपलब्धि चाहते हैं तो उस वर्ग में शिक्षा का व्यापक प्रचार एवं प्रसार करना होगा जो लम्बे समय से उपेक्षित है।’’
              स्वामीजी धर्म को शिक्षा का मेरुदण्ड कहते थे उनका मानना था कि व्यक्ति में ज्ञान का वास होता है, और शिक्षा उसको प्रकाश में लाने का कार्य करती है। (बोधगया में पीपल-वृक्ष के नीचे बुद्ध को जो ज्ञान प्राप्त हुआ ? वो क्या था ? 'ब्रह्म-सत्यं जगन्मिथ्या -विवेकजन्य वैराग्य होता है शिक्षा उसे बाहर लाने का कार्य करती है।)  शिक्षा से आत्मविश्वास आता है और आत्मविश्वास से अंतर्निहित ब्रह्मभाव जागृत होता है। शिक्षा से श्रद्धा और विश्वबंधुत्व बढ़ता है।
             शिक्षा की वास्तविक उपलब्धि के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक है। विद्यार्थी जितने एकाग्रचित्त होते हैं, उनकी विद्या ग्रहण करने की शक्ति उतनी ही अधिक होती है। एकाग्रता की विशिष्टता के अनुसार ही लोग विषय विशेष या अनेक विषयों के ज्ञाता हो जाते हैं। भारतवासियों द्वारा अंतर्जगत पर, आत्मा के अदृष्ट प्रदेश पर अपने मन को एकाग्र किए जाने से यहाँ पर योगशास्त्र का विशेष उत्थान हुआ। 
             यूरोप के लोगों ने बाह्य जगत पर मन को एकाग्र कर भौतिक उपलब्धियों में शिखरों का स्पर्श कर लिया है। विश्व का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिस के बारे में मन को एकाग्र किया जाए और उपलब्धि न प्राप्त हो। स्वामीजी मन की एकाग्रता की प्रक्रिया को शिक्षा के केन्द्र में लाना चाहते थे। उनका कहना था, ‘‘मैं तो मन की एकाग्रता को ही शिक्षा का यथार्थ सार समझता हूँ, ज्ञातव्य विषयों के संग्रह को नहीं। यदि एक बार मुझे फिर शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिले, तो मैं विषयों का अध्ययन नहीं करूँगा। मैं तो एकाग्रता को तथा मन को विषय से अलग कर लेने की शक्ति को बढ़ाऊँगा और तब साधन अथवा मंत्र की पूर्णता प्राप्त हो जाने पर इच्छानुसार विषयों का संग्रह करूँगा।’’ 
                  स्वामीजी का मानना था कि, ‘‘यदि बौद्धिक अन्वेषण के परिणामस्वरूप कोई धर्म नष्ट हो जाता है तो वह धर्म नहीं वरन् अंधविश्वास है। इस अन्वेषण के परिणामस्वरूप जो मैल है, वह तो निकल जाता है, पर जो अनिवार्य तत्त्व हैं, वे विजयी होकर शेष रह जाते हैं।’’ उनके अनुसार धर्म भी एक विज्ञान है जो नैतिक और तात्विक जगत के आंतरिक नियमों का अन्वेषण करता है। विज्ञान और धर्म में केवल पद्धति का भेद है। एक दृष्टिकोण से सभी ज्ञान धर्म हैं और दूसरी दृष्टि से सभी ज्ञान विज्ञान हैं।
                  स्वामीजी कहते थे कि बड़े काम के लिए सबसे पहली आवश्यकता हृदय अर्थात् ‘अनुभव करने की शक्ति’ की होती है। स्वामीजी का मानना था कि वेदान्त का मूलमंत्र ‘बहुतत्व में एकत्व’- 'Unity in Diversity" है। हृदय को स्वामीजी ने महाशिव का द्वार कहा है। उन्होंने कहा था, ‘‘अंतःस्फूर्ति हृदय से आती है। प्रेम असंभव को भी संभव कर देता है। यह प्रेम ही संसार के सभी रहस्यों का द्वार है, अतः हे मेरे भावी सुधारको! मेरे भावी देशभक्तो!!     क्या तुम हृदय से यह अनुभव करते हो कि देवता तथा ऋषियों की करोड़ों संतानें आज पशु-तुल्य हो गई हैं? क्या तुम हृदय से अनुभव करते हो कि आज लाखों मनुष्य भूखों मर रहे हैं और लाखों मनुष्य शताब्दियों से इसी प्रकार भूखों मरते आए हैं? क्या तुम अनुभव करते हो कि अज्ञान के काले बादल ने सम्पूर्ण भारत को ढँक लिया है? क्या तुम यह सब सोचकर भ्रमित हो जाते हो? 
          क्या इस भावना ने तुम्हारी नींद को गायब कर दिया है? क्या यह भावना तुम्हारे रक्त के साथ मिलकर तुम्हारी धमनियों में बहती है? क्या वह तुम्हारे हृदय के स्पंदन से मिल गई है? क्या उसने तुम्हें पागल-जैसा बना दिया है? और क्या इस चिंता में विभोर होकर तुम अपने नाम, यश, स्त्री, पुत्र, धन, सम्पत्ति यहाँ तक कि अपने शरीर की सुधि को भी भूल गए हो? क्या वास्तव में तुम ऐसे हो गए हो? बस, यही पहला चरण है।... आओ, हम प्रार्थना करें- ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय ’ कृपामयी योति, मार्ग दिखाओ और अंधकार में से एक किरण दिखाई देगी, कोई पथ-प्रदर्शक हाथ आगे बढ़ आएगा।’’  
      >>>शिक्षक (मानवजाति का मार्गदर्शक नेता -जीवनमुक्त शिक्षक या पैगम्बर) : स्वामीजी का मानना था कि शिक्षक (नेता -जीवनमुक्त शिक्षक या पैगम्बर)  को शास्त्रों का मर्मज्ञ, पवित्र और उज्ज्वल चरित्र वाला तथा विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास करने में सक्षम होना चाहिए। उन्हें धर्मग्रंथों के स्वत्वों का ज्ञान होना आवश्यक है। उनके मन में विद्यार्थियों के प्रति प्रबल प्रेम होना चाहिए। प्रेम से बढ़ कर आध्यात्मिक प्रभाव डालने वाला अन्य कोई तत्त्व नहीं है। स्वामीजी के अनुसार विद्यार्थियों को मन, वचन और कर्म से शुद्ध रहकर सत्य का अनुशरण और पालन करना चाहिए। उनमें ज्ञानप्राप्ति की सच्ची लगन होना चाहिए। पुरातन मान्यता है कि अंतःकरण से हम जो कुछ (ईश्वर को या परम् सत्य को जानना)  चाहते हैं, वह प्राप्त कर लेते हैं। जो हम नहीं चाहते, उसकी उपलब्धि हमें नहीं होती।
                 छात्र : स्वामीजी का मानना था कि विद्यार्थियों को शिक्षकों के प्रति आदर का भाव रखते हुए कार्य करना चाहिए। गुरु के प्रति नम्रता, विनय तथा श्रद्धा आवश्यक है। विद्यार्थी स्वयं शिक्षा ग्रहण करता है अतः शिक्षक (=नेता) के लिए आवश्यक है कि वह उचित और आवश्यक वातावरण की व्यवस्था करके पथप्रदर्शक, निरीक्षक और निर्देशक की भूमिका का निर्वाह करे। शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों को सहानुभूति एवं सद्व्यवहारपूर्वक प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। विद्यार्थियों की इच्छाओं और आवश्यकताओं को समझकर तथा उनकी जन्मजात प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर शिक्षा दी जानी चाहिए। 
                >>> स्वामीजी की दृष्टि में शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने का दायित्व युवकों पर :स्वामीजी का मानना था कि देशवासियों को शिक्षित करने का उत्तरदायित्व देश के पढ़े-लिखे, युवाओं और नौजवानों का है। उनका मानना था कि वेदान्त -परम्परा में शिक्षा प्राप्त करने पर प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन की सभी आवश्यकताओं (भौतिक और आध्यात्मिक दोनों आवश्यकताओं को )  को पूरा करने में सक्षम और निपुण होना चाहिए। स्वामजी मन की एकाग्रता के लिए ब्रह्मचर्य की साधना आवश्यक मानते थे। वे प्राचीन भारतीय गुरुकुल प्रणाली के पक्षधर थे जिस में शिक्षा को मूल्य लेकर बेचा नहीं जाता था। विद्यार्थी अपने घर से दूर गुरुगृह में निर्जन-वास करते हुए निःशुल्क शिक्षा ग्रहण  करते थे। 
                  उन्होंने कहा था कि, ‘‘भारतवर्ष के दरिद्रों तथा निम्न वर्ग के लोगों की दशा का स्मरण करके मेरा हृदय फटा जाता है। वे दिन-प्रतिदिन नीचे गिरते चले जा रहे हैं।...जब तक करोड़ों मनुष्य अज्ञानांधकार में जीवन बिता रहे हैं, तब तक मैं उस प्रत्येक मनुष्य को देशद्रोही मानता हँू, जो उनके व्यय से शिक्षित हुआ है तथा उनकी ओर थोड़ा भी ध्यान नहीं दे रहा है। हमारा महान् राष्ट्रीय पाप जनसमुदाय की अवहेलना करना है और यही हमारे अधःपतन का कारण है।
               राजनीति चाहे जितनी अधिक मात्रा में रहे, तब तक उसे कोई लाभ नहीं होगा, जब तक कि भारतवर्ष की जनता एक बार फिर सुशिक्षित न हो जाए, जब तक उसे भरपेट भोजन न मिले तथा हर तरह से उसकी सुख-सुविधा की ओर ध्यान न दिया जाए।... यदि हम फिर उन्नति चाहते हैं तो हम जनसमूह में शिक्षा का प्रचार करके ही उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। निम्न वर्ग के लोगों को अपने खोए हुए व्यक्तित्व का विकास (आत्मश्रद्धा और विवेक में प्रशिक्षित करके 3H विकास ) करने के हेतु शिक्षा देना ही उनकी एक मात्र सेवा करना है। संसार में उनके चारों ओर क्या चल रहा है, इसकी ओर उनकी आँखें खोल दो। तब वे अपनी मुक्ति का कार्य स्वयं कर लेंगे। प्रत्येक राष्ट्र, प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष को अपनी मुक्ति का कार्य स्वयं करना होगा, उनके सामने उच्च विचारों को रख दो - बस, उन्हें इतनी सहायता चाहिए और शेष सब उसके फलस्वरूप आ ही जाएगा।’’
                    स्वामीजी का मानना था कि विद्यार्थियों को विश्व के सभी महापुरुषों, अवतारों , पैगम्बरों, जीवनमुक्त शिक्षकों  और संतों के जीवन-चरित् का अध्ययन-अध्यापन करवाया जाना चाहिए। उनका कहना था कि मनुष्य धार्मिक पुस्तकें पढ़कर नहीं अपितु स्वतः प्रत्यक्ष अनुभव और उसके अनुसार आचरण करके (अपना सुन्दर जीवन गठन करके) ही व्यक्ति धार्मिक नेता /शिक्षक होने का गौरवपूर्ण पद प्राप्त कर सकता है। धार्मिक नेता -पथप्रदर्शक होने के लिए धर्म के अनुसार जीवनयापन आवश्यक है।  शिक्षा में सभी धर्मों की आवश्यक प्रवृत्तियों को समाहित किया जाना चाहिए। शिक्षित व्यक्ति का हृदय विशाल होना चाहिए। उसे संकीर्णताओं के पार आकर अपने सुख को दूसरों के सुखों में सम्मिलित करना चाहिए।
              नारी उत्थान : पुरुषों के साथ-साथ नारियों के उत्थान के प्रति स्वामीजी समान रूप से सचेत थे। इसीलिए उन्होंने कहा था कि, ‘‘वेदान्त तो यही सिखाता है कि सबमें (M/F में) एक ही आत्मा निवास करती है।... नारियाँ महाकाली की साकार प्रतिमाएँ हैं। यदि तुमने इन्हें ऊपर नहीं उठाया तो यह मत सोचो कि तुम्हारी अपनी उन्नति का कोई अन्य मार्ग है। संसार की सभी जातियाँ नारियों का सचमुच सम्मान करके ही महान् हुई हैं। जो जाति नारियों का सम्मान करना नहीं जानती, वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी, न आगे उन्नति कर सकेगी।’’ 
                  >>>युगों से संस्कृत और ब्राह्मण ही भारतीय संस्कृति का थातीदार रहा है :  स्वामीजी (कच्ची उम्र में) सह-शिक्षा के विरोधी थे। उनका मानना था कि पंद्रह वर्ष से कम उम्र की लड़कियों का विवाह नहीं किया जाना चाहिए। उनकी चाह थी कि प्रत्येक भारतवासी समुन्नत और संस्कृति तथा संस्कार से सम्पन्न हो। इसीलिए उन्होंने कहा था, ‘‘भारत के पास जो भी सांस्कृतिक कोष है, उसे जन-साधारण के अधिकार में जाने दो।’’ इस हेतु उन्होंने ब्राह्मणों की भूमिका को स्वीकार करते हुए कहा था, ‘‘युगों से ‘ब्राह्मण’ भारतीय संस्कृति का थातीदार रहा है। अब उसे इस संस्कृति को सबके पास विकीर्ण कर देना चाहिए।’’ स्वामीजी शिक्षा के माध्यम के रूप में जनसाधारण की बोलचाल की भाषा को अपनाए जाने के पक्षधर थे। उनका यह भी कहना था कि, ‘‘इसके साथ-ही-साथ संस्कृत की शिक्षा भी चलनी चाहिए क्योंकि संस्कृत-शब्दों की ध्वनि मात्र से ही हमारी जाति को प्रतिष्ठा, बल तथा शक्ति प्राप्त होती है।’’         
     संस्कृत प्रतिष्ठा की भाषा थी और उसमें ज्ञान का अथाह भण्डार सुरक्षित था इसलिए स्वामीजी का कहना था कि लोग इस भाषा में दक्षता प्राप्त करें। उन्होंने कहा था कि, ‘‘जीवनभर संस्कृत भाषा का अध्ययन करने पर भी जब मैं इसकी कोई नई पुस्तक उठाता हूँ  तब वह मुझे बिल्कुल नई-सी जान पड़ती है।’’
          >>>भारत के लिए प्रवृत्तिमार्ग -यूरोप के लिए निवृत्तिमार्ग :  स्वामीजी ने रेखांकित किया था कि यूरोप में गरीबी और पाप सहगामी माने जाते हैं, पर भारतवर्ष में ऐसा नहीं है। यहाँ के सबसे बड़े लोग गरीबी की वेशभूषा में रहते हैं। तत्कालीन आवश्यकताओं के अनुसार उन्होंने जहाँ यूरोप और अमेरिका के लोगों को निवृत्ति की शिक्षा दी, वहीं भारत के लोगों को प्रवृत्तियोन्मुखी बनाने का प्रयास किया। जमशेदजी टाटा ने स्वामीजी से प्रभावित होकर "रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस" की स्थापना की ! उन्होंने पत्र लिखकर  स्वामीजी से इसका  प्रमुख बनने का अनुरोध किया लेकिन स्वामीजी ने यह कहकर असमर्थता जताई की यह उनके आध्यात्मिक रुचि के विरुद्ध है !
                  >>> आत्मोद्धार का प्रचार -प्रसार करने के लिए राष्ट्रीय एकता अनिवार्य: स्वामीजी ने राष्ट्रीय एकता के महत्त्व को भली प्रकार से समझा था। वे चाहते थे कि देश के लोग भी इस बात को समझें और देश की एकता की दिशा में प्रयत्नशील हों। उनका मानना था कि देश की एकता के बिना (सरदार पटेल के डण्डे के बिना) उन्नति प्राप्त नहीं हो सकती। देश की एकता के सूत्र और आवश्यकता बताते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘अथर्ववेद में एक मंत्र है, जिस का अर्थ होता है कि मन से एक बनो, विचार से एक बनो। प्राचीन काल में देवताओं का मन एक हुआ, तभी से वे नैवेद्य के अधिकारी रहे हैं। मनुष्य देवताओं की अर्चना इसलिए करते हैं कि देवताओं का मन एक है। मन से एक होना समाज के अस्तित्व का सार है। किन्तु, द्रविड़ और आर्य, ब्राह्मण और अब्राह्मण, इन तुच्छ विवादों में पड़कर तुम जितना ही झगड़ते जाओगे तुम्हारी शक्ति उतनी ही क्षीण होती जाएगी, तुम्हारा संकल्प एकता से उतना ही दूर पड़ता जाएगा। स्मरण रखो कि शक्ति-संचय और संकल्प की एकता, इन्हीं पर भारत का भविष्य निर्भर करता है। जब तक महान् कार्यों के लिए तुम अपनी शक्तियों का संचय नहीं करते, जब तक एक-मन होकर तुम आत्मोद्धार के कार्य में नहीं लगते, तब तक तुम्हारा कल्याण नहीं है।’’
                   स्वामीजी ने देश की एकता की सुदृढ़ता के लिए भारतमाता की आराधना और पूजा का आवाहन किया था। सन् 1898 में लिखे अपने एक पत्र में उन्होंने यह भी लिखा था कि, ‘‘हमारी जन्मभूमि का कल्याण तो इसमें है कि उसके दो धर्म, हिन्दुत्व और इस्लाम मिलकर एक हो जाएँ। वेदान्ती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर के संयोग से जो धर्म खड़ा होगा, वही भारत की आशा है।’’
              >>>वेदान्त डिण्डिम प्रशिक्षण से दुर्बल भारत को शक्तिमान बनाओ :  शक्तिहीन हो रहे भारत को स्वामीजी शक्तिसम्पन्न देखना चाहते थे। इसकी युक्ति उन्होंने सोच ली थी। उन्होंने कहा था, ‘‘अब शक्ति प्राप्त करने का पहला उपाय उपनिषदों का आश्रय लेना तथा यह विश्वास करना है कि ‘मैं आत्मा हूँ, मुझे तलवार नहीं काट सकती, मैं सर्वशक्तिमान हूँ ।’ वेदान्त के इन सब माहन् तत्त्वों को जंगलों तथा गुफाओं से बाहर आना होगा और न्यायालयों, प्रार्थना-मंदिरों तथा गरीबों के झोपड़ों में प्रवेश करके अपना कार्य करना होगा। अब तो मछुआरों तथा विद्यार्थियों के साथ इन तत्त्वों को कार्य करना होगा। यह संदेश प्रत्येक स्त्री, पुरुष तथा बालक के लिए है। वह चाहे जो भी पेशा करे, चाहे जहाँ रहता हो। अच्छा, ये सब मछुआरे आदि उपनिषदों के सिद्धान्तों के अनुसार किस तरह कार्य कर सकते हैं? मार्ग भी बता दिया है। यदि मछुआरा सोचे कि मैं आत्मा हूँ , तो वह एक श्रेष्ठ मछुआरा होगा और यदि विद्यार्थी यह चिंतन करने लगे कि मैं आत्मा हूँ, तो वह एक श्रेष्ठ विद्यार्थी होगा।’’
                 स्वामीजी चाहते थे कि देशवासी, विशेषकर युवा उत्साही, सेवाभावी और कर्मशील बनें। उनका कहना था, ‘‘आकृति में दमकती हुई कांति, हृदय में अदम्य उत्साह, कर्म-चेष्टा की विपुलता और उद्वेलित शक्ति, ये सत्त्व की पहचान हैं। इसके विपरीत तमस का लक्षण आलस्य और शैथिल्य है, अनुचित आसक्ति और निद्रा का मोह है।’’ 
 >>>नेता का मन शंपा के फूल जैसा कोमल और वज्र जितना कठोर होगा :  वे चाहते थे कि , भारतवासी विवेकवान और साहसी बनें इसीलिए उन्होंने कहा था, ‘‘मैं भारत में लोहे की मांसपेशियां और फौलाद की नाड़ी तथा धमनी देखना चाहता हूँ,  क्योंकि इन्हीं के भीतर वह मन निवास करता है जो शंपाओं एवं वज्रों से निर्मित होता है। शक्ति, पौरुष, क्षात्र-वीर्य और ब्रह्म-तेज, इनके समन्वय से भारत की नयी मानवता का निर्माण होना चाहिए।’’
          >>>आचार्यो मृत्यु : यम -नचिकेता संवाद सुनने से मृत्यु भय समाप्त :  भय के कारकों के सान्निध्य से भय दूर होता है, इस बात को समझते हुए देशवासियों को निर्भयता की ओर ले जाने के लिए स्वामीजी ने कहा था, ‘‘मृत्यु का ध्यान करो। प्रलय को अपनी समाधि में देखो तथा महाभैरव रुद्र को अपनी पूजा से प्रसन्न करो। जो भयानक है, उसकी अर्चना से ही भय बस में आएगा।... संभव हो तो जीवन को मृत्यु की कामना करो। तलवार की धार पर अपना शरीर लगा दो और रुद्र-शिव से एकाकार हो जाओ।’’ 
              >>>कैम्प के माध्यम से शिक्षा का प्रचार: उनका कहना था, (जो इसमें बाधक बने -वैसे दुष्ट को)  ‘‘क्षमा तभी करना चाहिए जब भुजा में विजय की शक्ति विद्यमान हो।’  स्वामीजी का मानना था कि निर्धनता के कारण यदि बालक शिक्षा ग्रहण करने के लिए विद्यालय नहीं आ सकता तो शिक्षा प्रदान करने वाले को ही उसके पास पहुँचकर शिक्षा प्रदान करने का उपक्रम करना चाहिए। उन्हीं के शब्द हैं, ‘‘यदि दरिद्र बालक शिक्षा लेने नहीं आ सकता, तो शिक्षा को ही उसके पास पहुँचना  चाहिए। हमारे देश में सहस्त्रों निष्ठावान, निःस्वार्थ संन्यासी हैं, जो एक गाँव से दूसरे गाँव में धर्मोपदेश करते हुए भ्रमण करते हैं। यदि इनमें से कुछ को भौतिक विषयों के शिक्षक के रूप में भी संगठित किया जा सके तो वे एक स्थान से दूसरे स्थान को, एक द्वार से दूसरे द्वार को, न केवल धर्मोपदेश करते हुए अपितु शिक्षा-कार्य भी करते हुए जाएँगे।’’
                स्वामीजी चाहते थे कि भारतवासी विश्व से (विज्ञान) सीखें और बदले में जो भारत के पास है (वेदान्त -आध्यात्मिक ज्ञान-तत्वमसि !), उसे विश्व को दें। उन्होंने कहा था, ‘‘क्या यह अच्छा होगा कि हम सदैव पश्चिमवालों के चरणों के पास बैठकर सब-कुछ, यहाँ तक कि धर्म भी, सीखते रहें? क्या हम मात्र लेते ही रहेंगे? देना हमें कुछ भी नहीं है? पश्चिम से हम यंत्रवाद की शिक्षा ले सकते हैं। और भी कई बातें अच्छी हैं, जिन्हें पश्चिम से ग्रहण करना आवश्यक दिखता है। किन्तु, हमें उन्हें कुछ सिखाना भी है। हम उन्हें धर्म और आध्यात्मिकता की शिक्षा दे सकते हैं। विश्व-सभ्यता अभी अधूरी है। पूर्ण होने के लिए वह भारत की राह देख रही है। वह भारत की उस आध्यात्मिक सम्पत्ति की प्रतीक्षा में है जो पतन, गन्दगी और भ्रष्टाचार के होते हुए भी भारत के हृदय में जीवित और अक्षुण्ण है। इसलिए, संकीर्णता को छोड़कर हमें बाहर निकलना है। पश्चिमवालों से हमें एक विनिमय करना है। धर्म और आध्यात्मिकता के स्तर की चीजें हम उन्हें देंगे और बदले में भौतिक साधनों का दान हम सहर्ष स्वीकार करेंगे। समानता के बिना मैत्री संभव नहीं होती और समानता वहाँ आएगी कहाँ से, जहाँ एक तो बराबर गुरु बना रहना चाहता है और दूसरा उसका सनातन शिष्य?’’
        >>>रामकृष्ण मिशन का उद्देश्य और कार्यक्रम : स्वामीजी ने श्रीरामकृष्ण परमहंस के शिष्य के रूप में उनके विचारों का प्रसार करते हुए समूचे विश्व में ख्याति अर्जित की और आधुनिक भारत के प्रवक्ता के रूप में जाने गए। अपने कार्यों को सृजनात्मक व्यवस्थित रूप देने हेतु स्वामीजी ने 1 मई 1897 को कोलकाता में गुरुभाईयों और गुरुदेव के गृहस्थ अनुयायियों की एक सभा बुलाई थी। इस सभा में उन्होंने शैक्षिक, धार्मिक और लोकोपकारी कार्यों का एकीकरण करते हुए उनके संचालन के लिए एक मिशन और इस कार्य में संलग्न सेवाभावी संन्यासियों के संगठन (संन्यासी संघ) को सुदृढ़ आधार पर खड़ा करने हेतु एक मठ की स्थापना की कार्य-योजना रखी थी। 
                 सभी का समर्थन प्राप्त होने पर उसी समय ‘रामकृष्ण मठ’ और ‘रामकृष्ण मिशन’ नाम की दो संस्थाओं का गठन किया गया था। इनके संचालन के लिए गंगा के तट पर ग्राम बेलुड़ में 5 एकड़ भूमि क्रय कर इसकी नींव रखी गई थी। अमेरिका और यूरोप में प्राप्त धन को स्वामीजी ने इन संस्थाओं को सौंप दिया था।के लिए 1 मई, 1897 को स्वामीजी ने रामकृष्ण मिशन एसोसिएशन की स्थापना की और इसकी कार्यपद्धति इस प्रकार निश्चित की गई - 
(1) ऐसे कार्यकर्ताओं (पैगम्बरों) को तैयार करना और प्रशिक्षित करना, जो देश की जनता के भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए ज्ञान-विज्ञान के वाहक बन सके। 
(2) लोगों में इस प्रकार धार्मिक विचारों का प्रचार करना कि वे रामकृष्ण परमहंस के विचारानुसार सच्चे मानव (ब्रह्मविद-निर्भीक मनुष्य)  बन सकें।
(3) कलाओं और उद्योगों को प्रोत्साहित करना। 
 वास्तव में विवेकानन्दजी ने रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन नाम से दो पृथक संस्थाएं गठित कीं यद्दपि इन दोनों संस्थाओं में परस्पर नीतिगत सामंजस्य था तथापि इनके उद्देश्य भिन्न किन्तु पूरक थे। रामकृष्ण मठ समर्पित संन्यासियों की शृंखला तैयार करने के लि‍ए थी जबकि दूसरी रामकृष्ण मिशन जनसेवा की गतिविधियों के लिए थी। वर्तमान में इन दोनों संस्थाओं के विश्वभर में सैकड़ों केंद्र हैं और ये संस्थाएं शिक्षा, चिकित्सा, संस्कृति, अध्यात्म और अन्यान्य सेवा प्रकल्पों के लिए विश्वव्यापी व प्रख्यात हो चुकी हैं। 
          20 जून 1899 को स्वामीजी पुनः इग्लैण्ड, अमेरिका, फ्रांस, तुर्की, यूनान, मिश्र आदि की यात्रा पर गए थे। उनकी इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य स्वयं के द्वारा स्थापित कार्यों की प्रगति को देखना था। स्वामीजी का जीवन अपने गुरुदेव श्रीरामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं को व्यवहार में चरितार्थ करने के प्रति समर्पित रहा। 29 जनवरी 1900 को केलिफोर्निया में अपने भाषण में उन्होंने कहा भी था कि, ‘‘जो भी विचार मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ , वे मेरे गुरु के विचार हैं। उन विचारों को छोड़कर मेरे पास अन्य कोई मौलिक विचार नहीं हैं।’’
        >>>एक ही सत्य के दो पक्ष श्री रामकृष्ण (समाधि की अनुभूति)  और नरेन्द्रनाथ : (स्वामी विवेकानन्द और कैप्टन सेवियर -उसकी व्याख्या)  : श्री रामकृष्ण और विवेकानन्द एक ही जीवन के दो अंश, एक ही सत्य के दो पक्ष हैं। रामकृष्ण अनुभूति थे, विवेकानन्द उनकी व्याख्या बनकर आए। रामकृष्ण दर्शन थे, विवेकानन्द ने उनके क्रिया-पक्ष का आख्यान किया।... उन्होंने देवसरिता को रामकृष्ण के कमण्डलु से निकालकर सारे विश्व में फैला दिया। 
       >>>SV= शास्त्र, गुरु और मातृभूमि :  विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में भगिनी निवेदिता लिखती हैं," विवेकानन्द की कृतियों का संगीत--'शास्त्र, गुरु और मातृभूमि ' इन तीन स्वर-लहरियों से से निर्मित हुआ है। उनके पास देने योग्य यही निधि है।"  वे कहते थे, जिस देश में मनुष्य जाति के भीतर सर्वाधिक क्षमा, दया, पवित्रता, और शांति सर्व अपेक्षा अधिक आध्यात्मिकता और अंतर्दृष्टि का विकास हुआ है- वही मेरी मातृभूमि है यही भारतवर्ष है। यहाँ हिन्दू लोग मुसलमानों के लिये मस्जिद और ईसाइयों के लिये गिरजाघर बना देते हैं, ऐसे मनुष्य और किसी देश में नहीं हैं।
        वे मानते थे कि भारत के ज्ञान (वेदान्त विवेक) का प्रबल तरंग, भौतिवादी सभ्यता को आध्यात्मिकता से पूर्ण बना देगी। भारत एक बार फिर विश्व को आध्यात्मिक तरंग से आप्लावित करेगा। उनकी जिवनसाधना का मूलमंत्र था- समग्र मानवजाति का आध्यात्मिक रूपान्तरण। ' भारत का भविष्य ' नामक भाषण में कहते हैं, " तुम्हारे स्वदेश-वासी ही तुम्हारे प्रथम उपास्य हैं। उनकी पूजा अन्न-दान, शिक्षा-दान, और धर्म-दान के द्वारा करनी होगी। सभी को उपनिषद कि वाणी सुनानी होगी। वेदान्त का आलोक घर घर तक ले जाना होगा। नया भारत निकल पड़े, निकले हल पकड़कर किसानो के कुटियों को भेद कर, इसी नर रूपी नारायण को शिव जानकर सेवा करने का महामंत्र दिया था। सेवा करो ! और प्रेरणा भरो " यही उस सेवा को पूजा में रूपांतरित करना है।  उनमें शिक्षा के द्वारा  - निर्जनवास लीडरशिप प्रशिक्षण के द्वारा आत्मश्रद्धा जाग्रत करके विवेक-प्रयोग द्वारा मनुष्यत्व का विकास करना ही इस युग की पूजा है।
 >>>सारदा नारी संगठन और विवेकानन्द युवा महामण्डल : 
     श्री माँ को केंद्र में रखकर स्त्री लोग भी मन को वश मे करने/ एकाग्र करने की शिक्षा प्राप्त करेंगी। उनके सतीत्व और चरित्रबल जाग्रत करने के लिये कैंप करना होगा। नारी मठ की सन्यासिनियों को गाँव गाँव मे ले जाना होगा। शिक्षा पाते ही नारियां स्वयं अपनी समस्याओं का समाधान खोज लेंगी। स्त्री-पुरुष अपने को शरीर के रूप में नहीं देखकर आत्मा (विशुद्ध चेतना-pure consciousness, जो अभी M/F शरीर में रह रही है)  के रूप में पहचान लेंगे। हमें यह सोचना चाहिए कि हमलोग मनुष्य मात्र हैं। जीवन को सार्थक करने के लिये परस्पर सहायता करने के लिये ही हमारा (Bh-67) जन्म हुआ है। 
         स्त्रियाँ विद्याबुद्धि अर्जित करेंगी, किन्तु पवित्रता विसर्जन करके नहीं। नारी शिक्षा के भीतर, धर्म-शिक्षा, चरित्र-गठन और ब्रह्मचर्य मुख्य विषय होंगे। स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस शक्ति का साकार रूप माँ काली के उपासक थे। "इस भारत माता का पुनर्जागरण जनसाधारण की शिक्षा, गरीबी दूर करने शिक्षित मनुष्यों को स्वदेश-सेवा व्रत " Be and Make " से जोड़ने, और नारी समाज की उन्नति और जागरण के ऊपर। विवेकानन्द भारत माता के साथ एकाकार हो गए थे। उन्होंने देखा था कि दीन-दुखियों के झोपड़ियों में ही मानवीय हृदयवत्ता और ईश्वर-निर्भरता बची हुई है।
               >>>अमेरिका पहुँचने के बाद जब देखते हैं, कि उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं, कि गर्म कपड़ों का इंतजाम हो सके, तो उन्हें लगा इस परिस्थिति में उनकी मृत्यु भी हो सकती है। फिर तो गुरु के द्वारा सौंपा हुआ कर अधूरा ही रह जायगा, यही सोच कर दूसरी-पंक्ति के भावी गृहस्थ लोक-शिक्षकों को तैयार करने के उद्देश्य से 20 अगस्त 1893 को आलासिंगा को एक पत्र में लिखते हैं, ' मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ, परन्तु युवको ! मैं गरीबों, मूर्खों (अज्ञ या अविवेक में फंसे मनुष्यों), उत्पीड़ितों के लिये इस सहानुभूति, और प्राणपण प्रयत्न को उत्तराधिकार के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ ! जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी के मंदिर में, जो गोकुल के दीन-हीन ग्वाल-बालों के सखा थे, जो गुहक चाण्डाल को भी गले लगाने में नहीं हिचके, जिन्होंने अपने बुद्धावतार-काल में अमीरों का निमन्त्रण अस्वीकार कर एक वारांगना के भोजन का निमन्त्रण स्वीकार किया और उसे उबारा; जाओ उनके पास, जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक बलि दो, अपने समस्त जीवन की बलि दो--उन दीन हीनों और उत्पीड़ितों के लिये, जिनके लिये भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे, जो दिनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं। "
                 युवा अवस्था में नरेन्द्रनाथ भी ब्रहमसमाज के आदर्श से प्रभावित होने के कारण मूर्तिपूजा को गुड्डे-गुड़ियों का खेल समझते थे। श्रीरामकृष्ण की उदार एवं समन्वय-कारी विचारों के बावजूद उनका 'काली मन्दिर ' में जाना, और शक्ति को प्रभुत्व देना नरेन्द्र की नजरों में असंगत प्रतीत होता था। किन्तु तरुण नरेन्द्र का वह संशयी मनोभाव अधिक दिनों तक टिक नहीं सका था।  नरेन्द्र को इस प्रकार माँ को न मानना, श्रीरामकृष्ण को व्याकुल और उद्विग्न कर दिया था। क्योंकि यह जगत शक्ति का इलाका है। यहाँ शक्ति की उपेक्षा करने से कोई कार्य सूसम्पन्न नहीं हो सकता है
                >>> माँ जगदम्बा से नरेन्द्रनाथ का साक्षात्कार : नरेन्द्र की पुरुष सत्ता (मिथ्या अहं)  सगुण ब्रह्म की अवधारणा को ग्रहण करने योग्य मानने पर भी जगत-प्रसविनी महाशक्ति को ब्रह्मशक्ति के रूप में यथायोग्य सम्मान नहीं देते थे। वे समझते थे कि शक्ति कि भूमिका तो माया की है,जिसकी जाल को छिन्न-भिन्न करके सिंह-वीर्य साधक को बाहर निकल आना होता है।  किन्तु पिता की मृत्यु के बाद दरिद्रता से पीड़ित घर की अवस्था दयनीय हो गयी। अपने माँ और भाइयों का अनाहार-अर्धाहार सहन न कर पाने और इस दुःख के दूर होने का कोई उपाय न देखकर, नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण से ही प्रार्थना किए। 
              किन्तु उन्होंने स्वयं कुछ न करके नरेन्द्रनाथ को ही मंदिर में माँ के पास भेज दिया। वह घने अंधकार में डूबी अमावस्या की रात्रि थी। मूर्ति पूजा में अविश्वासी नरेन्द्रनाथ धीमे कदमों से सूरम्य मन्दिर के गर्भगृह की ओर बढ़ते जा रहे थे। वहाँ उन्होंने क्या दर्शन किया ? " माँ सचमुच चिन्मयी हैं, सचमुच प्राण-चंचला हैं, एवं अनन्त प्रेम और सौंदर्य की प्रस्रवणरूपिणी हैं।" इस जीवन्त जगदंबा के दर्शन से उनका मन-प्राण अभूतपूर्व भक्तिभाव से परिपूर्ण हो गया था।
        कोई शिशु जिस प्रकार माँ के ऊपर निर्भर रहता है, उसी प्रकार तेजस्वी विश्व-विजयी विवेकानन्द भी माँ के हाथ के यंत्र मात्र थे। श्रीरामकृष्ण के अद्वैतवादी परमहंस गुरु तोतापूरी के काली को मानने की घटना भी सबों को ज्ञात है। गहरी रात में शारीरिक कष्ट सहन न कर सकने के कारण, जब वे गंगा में अपने शरीर को विसर्जित करने गए तो, डूबने लायक पानी कहीं नहीं पाकर आश्चर्यचकित तोतापूरी के सामने माँ का सर्वव्यापीनी रूप प्रकट हो गया था। उन्होंने देखा, " माँ, माँ, जगतजननी माँ, अचिन्त्यशक्ति स्वरूपिणी माँ, जल में माँ, थल में माँ, शरीर माँ, मन माँ, यंत्रणा माँ, ज्ञान माँ, अज्ञान माँ, जीवन माँ, मृत्यु माँ, शरीर-मन-बुद्धि के परे भी माँ। और वही माँ तूरिया, निर्गुणा माँ !
                   "माँ के इस साक्षात् दर्शन का नरेन्द्रनाथ के मन पर कितना गहरी प्रतिक्रिया हुई थी, उसका संकेत बहुत बाद में हमें निवेदिता के संस्मरण में प्राप्त होता है। उन्होंने निवेदिता से कहा था, " देखो, मेरे लिये इसपर विश्वास करने के सिवा कोई उपाय नहीं है कि कहीं एक विराट शक्ति अवश्य हैं, जो स्वयं को कभी कभी नारिरूप में कल्पना करती हैं, एवं लोग उनको ही ' काली ' एवं माँ कहकर पुकारते हैं। मैंने काली को नहीं मानने के लिये छः वर्षों तक गुरु के साथ युद्ध किया था, किन्तु अंत में मानने के लिये मुझे बाध्य होना ही पड़ा। 'रामकृष्ण परमहंस ने अपनी माँ काली के सामने मुझे भेंट चढ़ा दिया था।' उसके बाद से छोटे छोटे कार्यों में भी माँ काली ही मुझे चलाती हैं। "किसी माँ के दुलारे जिद्दी लड़के के समान ही, विवेकानन्द माँ को अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिये मजबूर करते थे। कहते थे, यदि अमुक वस्तु तुम मुझे नहीं दोगी तो मैं तुमको छोड़ कर श्रीचैतन्य को भजना शुरू कर दूंगा।
              माँ के मन्दिर को कट्टर-पंथी लोगों ने उजाड़ डाला था, यह देखकर वीर पुत्र के मन में मन्दिर का पुनर्निर्माण करने की इच्छा जाग्रत हुई; इसी के साथ साथ उन्हें माँ की आवाज सुनाई दी, " यदि मलेच्छ लोगों ने मंदिर में घुसकर मेरी मूर्ति को तोड़ भी दिया तो उससे तुम्हें क्या ? तू मेरी रक्षा करता है, मैं तेरी रक्षा करती हूँ? मैं केवल संकल्प मात्र से असंख्य मंदिर और मठ स्थापित कर सकती हूँ। एक क्षण में यहाँ सात-मंजिला स्वर्ण-मंदिर निर्मित हो सकता है। " अर्थात माँ की इच्छा से ही, सभी घटनाएँ, और परिस्थितियाँ आती-जाती रहती हैं। इस अलौकिक कंठस्वर को सुनने के बाद स्वामीजी, सम्पूर्ण मातृमय (माँ पर आश्रित ) छोटे से शिशु बनकर लौट गये।

             >>>प्राण की उपासना द्वैतभाव से ही सम्भव है : " स्वामीजी की अद्वैतभावना द्वैतबोध से उपासना करने पर बाध्य हुई थी। वे भी काली- उपासना को तोतापुरी के जैसा स्वीकार नहीं कर सके थे। किन्तु घटना ने दूसरा रूप लिया था, गंगा में उतर कर नहीं, नरेन्द्र के समक्ष गर्भगृह की प्रतिमा में ही जगदम्बा का स्वरुप ? उद्घाटित हो गया था। माँ के तेजस्वी पुत्र नरेन्द्रनाथ  के भाग्य में पारिवारिक सुख नहीं लिखा था। उनके माँ-भाइयों के लिये श्रीरामकृष्ण ने मोटा भात-कपड़ा आवन्टित करते हैं। ठाकुर के आनन्द की मानो सीमा नहीं थी। घूम-फिर कर सबको एक ही बात कहते थे, " नरेन काली मेनेछे, बेश होयेछे, ना ? -अर्थात नरेन्द्रनाथ ने शक्ति की प्रभुता को स्वीकार कर लिया है, यह बड़ा अच्छा हुआ है, है न ?
                      उसके बाद सारी रात वे नए अनुभव का गाना गाते रहे थे, ' आमार माँ त्वं ही तारा ! तुमि जले तुमि स्थले, तुमि आद्यमूले गो माँ। आछो सर्वघटे अक्षपूटे साकार, आकार निराकारा ....।  उस माँ के पूजा करने बात उन्होंने बाद में लिखी है, " पूजा तार संग्राम अपार, सदा पराजय, ताहा ना डराक तोमा। चूर्ण होक स्वार्थ साध मान, हृदय महाश्मशान नाचुक तहाते श्यामा। "
          विवेकानन्द का आजीवन संग्राम ही माँ की पूजा थी। शरीर छोड़ने से कुछ ही दिन पहले अपने प्रिय सखा स्वामी सारदानन्द से विवेकानन्द ने कहा था, " अरे उस लड़की को मैं अब और नहीं देख पा रहा हूँ, लगता है बेटी ने मेरा हाथ छोड़ दिया है।" उस दिन शारदानन्द ने समझ लिया कि जगतजननी को स्वामीजी के शरीर से जो कार्य करवाना था, वह कार्य समाप्त हो चूका है।  इसी बात को स्वामीजी एक पत्र में लिखते हैं, " मेरी नौका क्रमशः उस शान्ति के तट के निकट पहुँचती जा रही है.… जय, जय माँ! अब और कोई इच्छा या महत्वाकांक्षा नहीं है। मेरी कोई इच्छा नहीं माँ का नाम ही धन्य हो।" 
             जब अन्तिम समय निकट आ गया, देहत्याग के दिन प्रातःकाल में गहरे ध्यान के बाद गुनगुना रहे थे, ' श्यामा माँ कि आमार कालो रे/ कालोरूपे दिगम्बरी हृदयपद्म करे आलो रे!' श्यामा माँ के पुत्र विवेकानन्द 28 दिसंबर 1893  को शिकागो से अपने एक प्रिय शिष्य हरिपद मित्र को लिखे थे," शाक्त --शब्द का अर्थ समझते हो ? शाक् का अर्थ मदिरा भांग नहीं है, शाक्त वे हैं जो ईश्वर को समस्त जगत में विराजित महाशक्ति के रूप में जानते हैं, एवं समस्त स्त्रियों में (Bhap) उसी महाशक्ति का विकास देखते हैं। "
                  🔱>>>🔱श्रीरामकृष्ण-शक्ति माँ सारदा ही माँ काली हैं ! स्वामीजी ने बार बार लिखित पत्रों के माध्यम से वंदना और पूजा निवेदित करके श्रीरामकृष्ण-शक्ति को अपनी महिमा में प्रतिष्ठित करवा दिया था। लिखते हैं, " माँ ठकुरानी कौन हैं, तुम लोग अभी समझ नहीं सके हो, क्रमशः जान जाओगे ! ' आगे लिखते हैं, ' माँ ठकुरानी को उनके जन्मान्तर के दास का साष्टाँग दण्डवत प्रणाम कहना, उनके आशीर्वाद से ही मेरा हर प्रकार से मंगल हो रहा है। " बाद में उन्होंने कहा था, ' उनके (माँ के विषय में ) कुछ लिखने की इच्छा होती है, किन्तु डर के मारे हिम्म्त नहीं होती!' श्रीरामकृष्ण भी मुझे छोड़ दें तो मैं नहीं डरूंगा, किन्तु माँ ठकुरानी यदि चली गयी तो सब नष्ट हो जायेगा।.… मेरे लिये माँ की कृपा पिता की कृपा से लाखों गुना अधिक महत्वपूर्ण है।      
       माँ ने उनको सिखाया था, ' आजीवन पवित्र रहना, अपने आत्म-सम्मान को कभी न खोना, दूसरों के आत्मसम्मान की रक्षा भी करना। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत, बबुआ कभी मन से हार मत मानना ! तुम जो चाहोगे कर सकते हो। मन में इतनी शक्ति है। संतोष की डाली पर मेवा फलता है। दूसरों की चीज का लालच मत करना। किसिको पहले मत मारना किन्तु कोई अकारण मारे तो कम्प्लेन करने मत आना, उसका हाथ तोड़ देना, दुबारा न मार सके ! "
                      भारत के लोक-शिक्षक या सन्यासी-गण  प्रत्येक नारी को माता की दृष्टि से देखते हैं, यहाँ तक कि एक बालिका को भी माँ कहकर पुकारते हैं। पाश्चात्य नारियों को अति-उन्मुक्त रूप में देखकर कहते हैं, " वे महिमामयी, जिन्हों ने मुझे यह शरीर दिया है, वे कहा हैं ? वे कहाँ हैं, जो मुझे अवश्यक होने पर बारबार जन्म देने के लिये तैयार हों ? मैं जन्म लूँगा, इसिलिये मेरी माँ ने कई वर्षों तक अपने शरीर, मन, आहार-पोशाक, विचार-कल्पना तक को पवित्र रखती थी। इसिलिये वे पूजनीय हैं।" मनु कहते हैं, " वही सन्तान आर्य है, जो प्रार्थना के द्वारा जन्म लेती है; बिना प्रार्थना के उत्पन्न प्रत्येक संतान मानो अधर्म से उत्पन्न सन्तान है। "
                 भारत में आमतौर से यह विश्वास किया जाता है कि किसी भक्त-संतान के जन्म होने के पीछे उसकी माँ की प्रार्थना ही कारण होती है। भुवनेश्वरी देवी  भी  जप-तप-पुजा-पाठ-उपवास सब आने वाले संतान नरेन्द्र की कल्याण के लिये करती थीं । और काशी-विश्वनाथ के आशीर्वाद से ही बिले का जन्म हुआ था। माँ की शिक्षा से ही बिले में मनुष्यत्व और सद्गुणों का विकास हुआ था। उनकी माँ उन्हें हमेशा सदकर्म करने और सत्य कथन के लिये अनुप्रेरित करती थीं।
                     29 जनवरी 1894  को जूनागढ़ के दीवान हरिदास बिहारीदास को शिकागो से लिखे पत्र में स्वामीजी कहते हैं, " यदि मैं सारे संसार में किसी से प्रेम करता हूँ तो वे मेरी माँ हैं। फिर भी मैं विश्वास करता था और अब भी करता हूँ कि यदि मैं संसार-त्याग (घर-परिवार के प्रति मोह का त्याग) नहीं करता तो जिस महान सत्य (जीवशिव-वाद) का उपदेश करने के लिये मेरे गुरुदेव श्रीरामकृष्ण परमहंस अवतीर्ण हुए थे, वह कभी प्रकाशित नहीं हो पाता।
      और वे युवक कहाँ से आते जो आधुनिक भौतिकवाद और भोग-विलास की उत्ताल तरंगों को (चरित्र-निर्माण की शिक्षा के प्रचार-प्रसार द्वारा) परकोटे की तरह रोक रहे हैं ? ऐसे राष्ट्र में जहाँ तीन मनुष्य एक साथ मिलकर पाँच मिनट के लिये भी कोई काम नहीं कर सकते,विशेषतः बंगाल में, एक ऐसे दल का निर्माण करना (विवेकानन्द युवा महामण्डल का निर्माण करना) जो कि परस्पर मत-भेद रखते हुए भी अटल-प्रेम के सूत्र में बँधे हुए हों, क्या यह आश्चर्यजनक बात नहीं है ? यह संघ क्रमशः बढ़ता रहेगा, यह अद्भुत उदारता अविरुद्ध गति से सारे भारतवर्ष में फ़ैल जायगी, और यही उदार भाव (जीवशिव-वाद) इस राष्ट्र में संजीवनी शक्ति का संचार करेगा।"
                     >>>माता के रूप में भारतीय नारी और पाश्चात्य नारी  : स्वामीजी ने भारतीय-नारी के विषय में अमेरिका में कहा था, "भारत में स्त्री-जीवन के आदर्श का आरम्भ और अन्त मातृत्व में ही होता है। प्रत्येक हिन्दू के मन में 'स्त्री' शब्द के उच्चारण से मातृत्व का स्मरण हो जाता है, और हमारे यहाँ ईश्वर को माँ कहा जाता है। पश्चिम में स्त्री पत्नी है। यहाँ की गृहस्वामिनी और शासिका पत्नी है, भारतीय घरों में गृहस्वामिनी और शासिका माता है। पाश्चात्य घरों में यदि माता हो भी, तो उसे पत्नी के अधीन रहना पड़ता है, क्योंकि घर पत्नी का है। हमारे घरों में माता का स्थान ही सर्वोपरि होता है, और पत्नी अनिवार्यतः उसके अधीन रहती है। आदर्शों की इस भिन्नता पर ध्यान देना जरुरी है। यदि आप पूछें " पत्नी के रूप में भारतीय स्त्री का क्या स्थान है ? "
                    तो भारतीय पूछ सकता है, " माता के रूप में अमेरिकन स्त्री कहाँ है ? " उस तपस्विनी एवं ओजस्विनी माता का, जिसने हमें जन्म दिया है, उसका तुमने क्या सम्मान किया है ? जिसने ९ मास तक अपने पेट में हमारा वहन किया है, जो हमारे जीवन के लिये खर-जुतिया रखती है, यदि हमारे जीवन के लिये प्राणों की भी आहुति देने की अवश्यकता हो, तो बीस बार भी देने को उद्द्त है, वह माता कहाँ है? कोई भी माता कभी अपने बच्चों को अभिशाप नहीं देती, वह सदा क्षमा ही करती है। हम स्वर्गस्थ पिता के बदले सदा 'माता' ही कहते हैं। हमारी माँ ! --यदि हमारी मृत्यु उसके पहले हो, तो हम चाहते हैं, कि मृत्यु के समय पुनः एक बार मेरा सिर उसकी गोद में हो। "( १/३१०)
                  " जो सचमुच अपनी माँ की पूजा नहीं कर सकता, वह कभी बड़ा नहीं बन सकता। " मैं अपने भीतर ज्ञान का विकास कराने के लिये अपनी माँ का चीर-ऋणी रहूँगा। " बेलुर मठ में आकार जब भुवनेश्वरी देवी 'बिलु' कहकर पुकारती तो उनकी पुकार सुनकर छोटे से ब्च्चे के समान स्वामीजी अपने माँ की चरणधूलि लेते थे। सन्यासी पुत्र की ऐसी मातृ-पूजा माँ को खुश कर देती थी। अपनी माँ के प्रति ऐसी प्रगाढ़ भक्ति ने ही स्वामी विवेकानन्द के चरित्र में नारीजाति के प्रति श्रद्धा का संचार किया था। वही भाव मातृ-साधक श्रीरामकृष्ण के दिव्य सानिध्य में और भी अधिक घनीभूत हो गया था। विवेकानन्द कहते थे, " माता-पिता हमें केवल जन्म देते हैं, परन्तु गुरु हमें मुक्ति-मार्ग दिखाते हैं। 'We are His children, we are born in the spiritual line of the teacher'  हम, जगतगुरु श्रीरामकृष्ण की सन्तानें हैं, हम लोगों ने अध्यात्मिक पद्धति चपरास प्राप्त लोक-शिक्षकों की परम्परा में जन्म लिया है। 
[NB नोट->"महापुरुषों  की जीवनियाँ (जीवनमुक्त शिक्षकों, नेताओं, पैगम्बरों, गुरुदेव सदृश अवतारों)  केवल पढने के लिए नहीं बल्कि अपने जीवन में उतारने के लिए होती हैं ! महान आत्माएं अपना जीवन इसीलिए ही बलिदान करती हैं ताकि हम जैसे लोग उनसे प्रेरणा लें !"] स्वामी विवेकानन्द का जीवन और सन्देश : अद्वैतवेदान्ती, विश्वविख्यात संन्यासी, भारत के प्रथम आध्यात्मिक राजदूत, आधुनिक भारत के चरित्रनिर्माण और मनुष्यनिर्माणकरी धार्मिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के अग्रदूत, आशावादी विचारक, सर्वशिक्षा के पक्षधर, मनुष्यजाति के महान् मार्गदर्शक नेता (सेवक), पूर्व और पश्चिम के सफल समन्वयक, श्रीरामकृष्ण परमहंस के विश्वविख्यात शिष्य, रामकृष्ण मिशन और बेलुड़ मठ के संस्थापक स्वामी विवेकानन्द का जन्म १२ जनवरी १८६३ को मकर संक्रांति के दिन  कोलकाता के कायस्थ-क्षत्रिय परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज वर्द्धमान (पश्चिम बंगाल) जिले के कालना क्षेत्र के डेरेटोना गाँव के रहने वाले थे।
        स्वामीजी का संन्यास ग्रहण करने से पहले का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कोलकाता के प्रसिद्ध वकील थे। माता भुवनेश्वरी देवी को रामायण तथा महाभारत कण्ठस्थ था। स्वामीजी पर माँ का गहरा प्रभाव पड़ा था। आरम्भिक शिक्षा उन्होंने अपनी माता से प्राप्त की। सन् 1879  में उन्होंने मेट्रोपॉलिटन विद्यालय से हाईस्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेन्सी महाविद्यालय में प्रवेश लिया। किन्तु मलेरिया बुखार के कारण उत्पन्न व्यवधान से उन्हें इस महाविद्यालय के स्थान पर जेनरल असेंबली महाविद्यालय में प्रवेश लेना पड़ा। 
       इसी महाविद्यालय से सन् 1881 में एफ.ए. (इण्टर) और सन् 1883 में बी.ए. की परीक्षा पास की। यहाँ उन्होंने संस्कृत साहित्य, अँग्रेजी साहित्य, यूरोप का इतिहास, पाश्चात्य दर्शन, विज्ञान, कला, संगीत और चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन किया। संस्कृत और अँग्रेजी भाषा पर उनका अच्छा अधिकार था। स्वामीजी को पढ़ाई के साथ-साथ कुश्ती, बाक्सिंग, दौड़, घुड़दौड़, तैरना आदि खेलों से प्रेम था और इनमें उन्होंने दक्षता प्राप्त करने का भी प्रयास किया था। उन्हें अभिनय और संगीत से भी गहरा लगाव था। 
                 ‘‘हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है जो हमें आत्मविश्वास, राष्ट्रीय आत्म-सम्मान, गरीबों को खिलाने और शिक्षित करने की योग्यता तथा अपने चारों ओर फैले दुःख-दर्द को दूर करने की क्षमता प्रदान करे।... यदि तुम ईश्वर-साक्षात्कार करना चाहते हो तो मनुष्य की सेवा करो।’’
भगिनी निवेदिता को लिखित 7 जून , 1896 का पत्र -
" एक बात जो मैं सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट देखता हूँ,वह यह कि अविद्या ही दुःख का कारण है और कुछ नहीं। संसार के धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गये हैं। जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है चरित्र!हे महान, उठो ! उठो ! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकती हो ?....  चलते चलते मुझे भेद-प्रभेद सहित सब बातें ज्ञात हो जाती हैं। मैं उपाय कभी नहीं सोचता। कार्य-संकल्प का अभ्युदय स्वतः होता है और वह निज बल से ही पुष्ट होता है। मैं केवल कहता हूँ, जागो, जागो! 

 "Religions of the World Have Become Lifeless Mockeries. What the World Wants is Character." Awake, Awake, Great Ones! The World is Burning with Misery. Can 'You' Sleep?

        >>> God alone is the Final Reality from which everything has manifested."स्वामीजी अपने भाषण - 'The Absolute and Manifestation ' हिन्दी ब्रह्म एवं जगत " वि ० सा० 2/85 में कहते  हैं, " इस जगत में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं जो पूरी तरह से बुरा (शैतान ) हो, जिसे अच्छे मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता हो; क्योंकि ब्रह्म  ही वह अंतिम सत्य हैं, जिनसे सम्पूर्ण जगत अभिव्यक्त हुआ है। नीचे दिये चित्र में (a) दी एब्सोल्यूट अर्थात ब्रह्म है और (b) दी यूनिवर्स अर्थात जगत है! 
       यहाँ पर जगत शब्द से केवल जड़-जगत ही नहीं, किन्तु सूक्ष्म तथा आध्यात्मिक जगत, स्वर्ग, नरक और वास्तव में जो कुछ भी है, सबको इसके अन्तर्गत लेना होगा। मन एक प्रकार के परिणाम का नाम है, शरीर एक दूसरे प्रकार के परिणाम का-इत्यादि, इत्यादि। इन सबको लेकर अपना यह जगत निर्मित हुआ है। यह ब्रह्म (a) दी एब्सोल्यूट, (c) टाइम-स्पेस-कॉज़ेशन देश-काल-निमित्त (कारणत्व ; कारण-कार्य संबंध) में से होकर आने से (b) जगत या दी यूनिवर्स बन गया है। यही अद्वैतवाद की मूल बात है। 
       हम देश-काल-निमित्त रूपी चश्मे से ब्रह्म को देख रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि जहाँ ब्रह्म है, वहाँ देश-काल-निमित्त नहीं है। काल वहाँ रह नहीं सकता, क्योंकि वहाँ न मन है, न विचार। देश भी वहाँ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ कोई बाह्य परिणाम नहीं है। और जहाँ सत्ता केवल एक है, वहाँ कार्य-कारणवाद भी नहीं  सकता; क्योंकि निमित्त ब्रह्म के नाम-रूप में अधःपतित होने के बाद ही होता है, उससे पहले नहीं। और हमारी इच्छा, वासना आदि जो कुछ है, वे सब उसके बाद ही आरम्भ होते हैं। " २/८५   
[ब्रुकलिन से 20 जनवरी, 1895 को श्रीमती ओलि बुल को,उनके पिता की मृत्यु के अवसर पर लिखित लिखित पत्र ' में स्वामीजी ने उन्हें धीरा माता कहकर सम्बोधित किया था।]
प्रिय धीरा माता,

             आपके पिता के जीर्ण शरीर छोड़ने से पहले ही मुझे पूर्वाभास हो गया था, किन्तु जब किसी व्यक्ति से भावी माया की प्रतिकूल लहर टकराने वाली हो तो मैं उसे पहले से ही लिख दूँ- मेरा यह नियम नहीं है। ये अवसर जीवन को मोड़ देने वाले होते हैं। और मैं जानता हूँ कि आप विचलित नहीं हुई हैं। समुद्र के सतह पर लहरें बारी बारी से उठती-गिरती रहती हैं, किन्तु द्रष्टा आत्मा को - जो ज्योति की सन्तान है, प्रत्येक लहरों के डूबने की गहराई तक, समुद्र के तल में मोती और मूंगों की परतें ही प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं।
              आना (जन्म ) और जाना (मृत्यु) केवल भ्रम है। आत्मा न आती है, न जाती है। वह किस स्थान में जायगी, जब कि सम्पूर्ण स्पेस (देश) आत्मा में ही स्थित है? प्रवेश करने और प्रस्थान करने का कौन समय होगा, जब समस्त काल आत्मा के भीतर ही है। पृथ्वी घूमती है और सूर्य के घूमने का भ्रम उत्पन्न होता है। किन्तु सूर्य नहीं घूमता। इसी प्रकार प्रकृति या माया चंचल और परिवर्तनशील है। यहाँ नाम-रूपों में निरंतर परिवर्तन होता रहता है, और इसी क्रम में एक के बाद दूसरा घूँघट उठता चला जाता है; माया इस जगत रूपी विराट पुस्तक के पन्ने पर पन्ने बदलती जाती है, जबकि साक्षी आत्मा अप्रभावित (अन्मूव्ड), और अपरिणामी (अन्चेन्ज्ड=रज्जु-सर्प न्याय) रहकर ज्ञान का पान करती है।
                   जितनी भी जीवात्माएं हो चुकी हैं या होंगी,सभी वर्तमान काल में हैं -और यदि जड़ जगत की एक उपमा की सहायता लेकर कहें, तो वे सभी दिवंगत या भावी आत्माएँ एक ही ज्यामितीय बिन्दु (जोमेट्रिकल पॉइंट) पर स्थित हैं। चूँकि आत्मा में देश का भाव नहीं रहता, इसलिये जो हमारे थे, वे हमारे हैं, सर्वदा हमारे रहेंगे और सर्वदा हमारे साथ हैं। वे सर्वदा हमारे साथ थे, और हमारे साथ रहेंगे। हम उनमें हैं, वे हममें। निम्नांकित कोषाणुओं (सेल्ज्स) के  रेखा-चित्र (डायग्राम) देखो।
        " प्रत्येक क्रमविकास के पूर्व एक क्रमसंकोच की प्रक्रिया वर्तमान रहती है। बीज वृक्ष का जनक अवश्य है, परन्तु एक और वृक्ष उस बीज का जनक है। बीज ही वह सूक्ष्म रूप है, जिससे बृहत वृक्ष निकलता है, और एक दूसरा प्रकाण्ड वृक्ष था, जो इस बीज में क्रम-संकुचित (इन्वलूशन) रूप में वर्तमान है। जीवन की निम्नतम अभिव्यक्ति - 'अमीबा' से लेकर पूर्णतम मनुष्य में उसकी सर्वोच्च अभिव्यक्ति की श्रेणी -किसी अन्य वस्तु का क्रमसंकोच अवश्य रही है। अब प्रश्न है -किस वस्तु की ? कौन सा पदार्थ क्रमसंकुचित हुआ था
                   उत्तर है -ईश्वर (God) ! Therefore, the protoplasm was the evolution of the highest intelligence' ...……वास्तव में ' क्रमसंकुचित बुद्धि' ही अपने को व्यक्त कर रही है और इसी प्रकार अपने को व्यक्त करती रहेगी, जब तक वह पूर्णतम मानव - ईसा या बुद्ध के रूप में व्यक्त नहीं हो जायगी। वैसा पूर्ण मानव, जो प्रकृति के नियमों से बाहर चला गया है, जो सबके अतीत हो गया है, जिसे इस जन्म-मृत्यु के चक्र में पुनः नहीं घूमना पड़ता, जिसे ईसाई ईसा-मानव, बौद्ध मुक्त-मानव और योगी मुक्त पुरुष कहते हैं --इस श्रृंखला का एक छोर है और वही क्रमसंकुचित होकर उसके दूसरे छोर में प्रोटोप्लाज्म के रूप में वर्तमान है
                  इस सिद्धान्त को समग्र जगत पर लागु करने से हम देखते हैं कि 'बुद्धि' ही सृष्टि की प्रभु है, कारण है। इसी सर्वव्यापी, विश्वजनीन 'बुद्धि' का नाम है ईश्वर ! धर्मतत्वज्ञ इस विश्वव्यापी बुद्धि को ही ईश्वर कहते हैं।  मुझसे अनेक बार पूछा गया है, " आप क्यों इस पुराने ईश्वर (god) शब्द का व्यवहार करते हैं ?" … क्योंकि मनुष्य की सारी आशाएं और सुख इसी एक शब्द में केन्द्रित है। अब इस शब्द को बदलना असम्भव है। इस प्रकार के शब्द पहले-पहल बड़े बड़े साधु-महात्माओं द्वारा गढ़े गये थे और वे इन शब्दों के तात्पर्य को अच्छी तरह समझते थे।  धीरे धीरे जब समाज में उन शब्दों का प्रचार होने लगा, तब अज्ञ लोग भी उन शब्दों का व्यवहार करने लगे।  इसका परिणाम यह हुआ कि शब्दों की महिमा घटने लगी।  स्मरणातीत काल से 'ईश्वर' शब्द का व्यवहार होता आया है। 
                      ... उस पुराने शब्द का ही व्यव्हार करो; मन से अंधविश्वासों को दूर कर, इस प्राचीन शब्द के अर्थ को ठीक तरह से समझकर, उसका और भी उत्तम रूप से व्यव्हार करो। उसको फिर किसी भी नाम से क्यों न पुकारो, इतना तो निश्चित है कि आदि में वही अनन्त विश्वव्यापी बुद्धि थी। वह विश्वजनीन बुद्धि क्रमसंकुचित हुई थी, और वही क्रमशः अपने को अभिव्यक्त कर रही है, जब तक कि वह पूर्ण मानव या ईसा-मानव या बुद्ध मानव में परिणत नहीं हो जाती।..... जो कुछ तुम देखते हो, सुनते हो या अनुभव करते हो, सब उसी की सृष्टि है-ठीक कहें, तो उसीका प्रक्षेप है; और भी ठीक कहें, तो सब कुछ स्वयं 'ईश्वर' ही (गॉड,अल्ला,
वाहे-गुरु) हैं ! सारांश यह कि हम उसीसे जन्म लेते हैं, उसीमें जीवित रहते हैं और उसीमें लौट  जाते हैं।  (२/१०३-१०७)

अपने 'आत्मा और विश्व' नामक भाषण (खंड ८/८१-८२) में विवेकानन्द कहते हैं - " आत्मा जन्म और मृत्यु से परे है। तुम्हारा जन्म कभी हुआ ही नहीं, और मृत्यु भी कभी नहीं होगी। जन्म और मृत्यु तो केवल शरीर के धर्म हैं। जिसे हम 'व्यष्टि' कहते हैं, वह 'समष्टि ' की ही अभिव्यक्ति मात्र है। प्रकट रूप में हम भले ही अलग अलग प्रतीत होते हों , पर यथार्थ में हैं एक ही। हम जितना ही अपने को समष्टि से अलग समझते हैं , उतना ही अधिक दुःखी होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि अद्वैत ही नीति-शास्त्र का आधार है। "
 
           >>> पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष :    स्वामी विवेकानन्द ने 1897 में ही कहा था, " पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें छात्रों के ब्रह्मज्ञान (आध्यात्मिकता) को विकसित करने का कोई उपाय नहीं सिखाया जाता है।  [अर्थात 3H का विकास करके ब्रह्म-वेत्ता मनुष्य बनने और बनाने का कोई ट्रेनिंग नहीं दिया जाता है।]  तुम देखोगे कि अगले 50 वर्षों में ही यह यूरोप, जो आज समस्त भौतिक शक्ति का लीलाक्षेत्र बन बैठा है, यदि अपने को सम्भाल नहीं लेता है, अपनी भौतिकवादी दृष्टि को बदल कर आध्यात्मिकता को ही अपने जीवन का आधार नहीं बना लेता है, तो बर्बाद हो जायेगा, धूल में मिल जायेगा। और यूरोप को यदि कोई शक्ति बचा सकती है तो वह है केवल उपनिषदों का धर्म -या वेदान्त!" और उनके इस भविष्य वाणी को सत्य सिद्ध करते हुए 50 वर्षों के भीतर ही दो विश्व-युद्ध हो गए । 
        #प्रथम विश्व युद्ध : औद्योगिक क्रांति के कारण सभी बड़े देश  अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लालच में ऐसे उपनिवेश चाहते थे जहाँ से वे कच्चा माल पा सकें तथा सभी बड़े राष्ट्र यह भी चाहते थे कि अपने देश में  मशीनों द्वारा निर्मित वस्तुओं को उनके देश में बेच सकें। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हर देश दुसरे देश पर साम्राज्य करने कि चाहत रखने लगा, इससे राष्ट्रों में अविश्वास और वैमनस्य बढ़ा और युद्ध अनिवार्य हो गया।  1914 से 1918 के मध्य मुख्यतः यूरोप में व्याप्त महायुद्ध को प्रथम विश्व युद्ध कहते हैं। करीब आधी दुनिया हिंसा की चपेट में चली गई और इस दौरान अनुमानतः एक करोड़ लोगों की जान गई और इससे दोगुने घायल हो गए। इसके अलावा बीमारियों और कुपोषण जैसी घटनाओं से भी लाखों लोग मरे। उस समय की पीढ़ी के लिए यह जीवन की दृष्टि बदल देने वाला अनुभव था। 
      # दूसरा विश्व युद्ध: 1939 से 1945 तक चलने वाला विश्व-स्तरीय युद्ध,मानव इतिहास का सबसे भयंकर युद्ध था। इसके महत्वपूर्ण घटनाक्रम में असैनिक नागरिकों का नरसंहार- के रूप में होलोकॉस्ट (Holocaust) भी शामिल था, जो समूचे यहूदी लोगों को जड़ से खत्म कर देने का सोचा-समझा और योजनाबद्ध प्रयास था। युद्ध के छह साल के दौरान नाजियों ने तकरीबन 60 लाख यहूदियों की हत्या कर दी, जिनमें 15 लाख बच्चे थे। इस युद्ध में विश्व दो भागों मे बँटा हुआ था - मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने कंधे से कन्धा मिलाकर धूरी राष्ट्रों- जर्मनी, इटली और जापान के विरूद्ध संघर्ष किया था। इस महायुद्ध में 5 से 7 करोड़ व्यक्तियों की जानें गईं क्योंकि इसमें परमाणु हथियारों का एकमात्र इस्तेमाल हुआ था। 
     ## Cold War in a Bipolar World: (दो ध्रुवीय जगत में शीतयुद्ध) : इसमें दोनों पक्षों में आमने सामने आपसी टकराहट  कभी नहीं हुई, पर ये दोनों गुट इस प्रकार का वातावरण बनाते रहे कि युद्ध का खतरा सदा सामने दिखाई पड़ता रहता था। द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होते ही, एक और ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दूसरी ओर सोवियत संघ-चीन में तीव्र मतभेद उत्पन्न होने लगा।   रूस के नेतृत्व में साम्यवादी किन्तु नास्तिक और अमेरिका के नेतृत्व में कट्टर ईसाई किन्तु पूँजीवादी (पैसा ही भगवान है- में विश्वास रखने वाले) देश दो खेमों में बँट गये।
किन्तु  Russia के पतन के साथ विश्व की 50 % जनसंख्या में व्याप्त साम्यवादी नास्तिकता समाप्त हो गई है। 
       अब बहुत शीघ्र निकट भविष्य में, [हमास -इस्राइल युद्ध और रूस-यूक्रेन युद्ध ? जो अभी चल रहा है के तुरन्त बाद ?] ब्रिटेन में भारतवंशी प्रधानमंत्री बनने के बाद, G-20 वसुधैव कुटुंबकम के बाद , अमेरिका की भौतिकवादी नास्तिकता का (पैसा ही सबसे बड़ा भगवान की मानसिकता) पतन देखने को मिलेगा और तब सम्पूर्ण विश्व भारत के नेतृत्व में वेदान्त डिण्डिम की दहाड़ (ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या) से गूँज उठेगा। 
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[ स्वामी निखिलानन्द द्वारा लिखित पुस्तक (http://ramakrishnavivekananda.info) " विवेकानन्द ए बायोग्राफ़ी" के चौथे अध्याय (शिष्य का प्रशिक्षण) " Training of the Disciple"
में बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है।
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शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2023

🔱(9) नेतृत्व में स्वतंत्रता/ Freedom in Leadership/ नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

(9) 

 नेतृत्व में स्वतंत्रता

 Freedom in Leadership

[>>>#1. स्वामी विवेकानंद -कैप्टन सेवियर यम-नचिकेता प्रशिक्षण परम्परा' अर्थात  "वेदान्त डिण्डिम लीडरशिप प्रशिक्षण परम्परा" एवं C-IN-C नवनी दा के नेतृत्व  में गठित-  "Be and Make : महामण्डल आन्दोलन"  की मूल भावना एवं उसके उद्भव का प्रामाणिक इतिहास। : The Fundamental Spirit and the Authentic History of the "Be and Make Mahamandal Movement "]  

        महामण्डल संगठन से जुड़े विभिन्न केन्द्रों में कार्यरत नेताओं के लिए केवल इस आन्दोलन की मूल भावना #1  को पकड़े रहना ही आवश्यक है। यदि हमलोग इस 'Be and Make' आन्दोलन की पृष्ठभूमि में स्थित मूल भाव को किसी प्रकार पकड़ लें तो, उससे ही शेष कार्य पूरा हो जायेगा। क्योंकि स्वामी विवेकानन्द द्वारा पूर्व-निर्धारित उद्देश्य 'भारत का कल्याण' के प्रति समर्पित किसी अखिल भारत युवा संगठन के समस्त कार्यक्रमों को इसके केन्द्रीय मुख्यालय से आदेश देकर लिखवाया नहीं जा सकता। महामण्डल की  'C-IN-C' परम्परा में प्रशिक्षित नेता का कार्य हर समय केवल आदेश देते रहना, नहीं होना चाहिए।

        इस समय देश के 12 राज्यों में महामण्डल के 300 से भी अधिक विभिन्न शाखाओं (branches) में 'Be and Make' कार्य चल रहा है। किन्तु, कहाँ और किस केन्द्र को क्या-क्या कार्यक्रम चलाना होगा वैसा कोई आदेश हमलोग यहीं से नहीं देते रहते हैं। हमलोग उन केन्द्रों द्वारा भेजे गये रिपोर्टों में केवल इसी बात पर ध्यान देते हैं कि  इनके द्वारा किये गए कार्यक्रम या योजना के क्रियान्वयन में महामण्डल आन्दोलन के मूल भावों तथा सिद्धांतों का (3H विकास के 5 अभ्यास) पालन किया गया है या नहीं ? इतना ध्यान रखना ही यथेष्ट होता है।

>>>2. 'विविधता में एकता' और 'धर्म के क्षेत्र में भी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था' कायम रखने वाली रखने वाली प्राचीन भारतीय संस्कृति के आनन्द # से हम वंचित नहीं होना चाहते। ] 

          अलग-अलग केन्द्रों द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के तौर-तरीकों में अन्तर हो सकता है और वैसा होना भी चाहिए। किसी भी लक्ष्य तक पहुँचने के अलग-अलग मार्ग हो सकते हैं- (As many faiths , so many ways : जितने मत, उतने पथ !) और  इसमें कोई बुराई भी नहीं है बल्कि वैसा होना निश्चित रूप से ही अच्छा है। यहाँ तक कि परम सत्य के साथ एकत्व की अनुभूति के लिये भी विभिन्न मार्ग होते हैं। यदि सभी केन्द्रों पर एक ही ढंग से कार्य करने की पाबन्दी लगा दी जायेगी तो विभिन्न राज्यों के युवाओं के विविध चित्त-वृत्तियों तथा विविध सांस्कृतिक पहलुओं के अनुरूप जो नई-नई प्रणालियाँ तथा नियम आविष्कृत हो सकते हैं, वे हमेशा के लिए अज्ञात और अनाविष्कृत ही रह जाएंगे। 

           ऐसी स्थिति में परम सत्य को हर दृष्टि से जानने, समझने तथा अनुभव करने के आनन्द से हमलोग वंचित ही रह जाएंगे। इसीलिये हमारे देश में विशेष रूप से धार्मिक क्षेत्र में इसी प्रजातांत्रिक प्रणाली (democratic system) को स्वीकार किया जाता है। जैसा कि हम सभी जानते हैं, वर्तमान युग में अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव ही ऐसे महान नेता हैं जिन्होंने भारत के  आध्यात्मिक प्रजातंत्र को सम्पूर्ण विश्व में पुनः स्थापित कर दिया। उनके इस धराधाम पर अवतरित होने से पूर्व तक विश्व भर में धर्म, दर्शन, तात्विक ज्ञान तथा आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में भी घोर अराजकता का ही बोल-बाला था । परन्तु श्रीरामकृष्णदेव ने समस्त धर्मों (Religions) और आध्यात्मिकता  (spirituality) के क्षेत्र में समन्वय लाकर, सम्पूर्ण विश्व के धार्मिक क्षेत्र में इस प्रजातांत्रिक प्रणाली को पुनः एक बार स्थापित कर दिया है। 

         इसीलिये महामण्डल के प्रत्येक शाखा में प्रजातांत्रिक प्रणाली के अनुसार ही समस्त कार्यक्रमों को चलाना चाहिए तथा उन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता भी दी जानी चाहिए।  केवल इसका ध्यान रखना चाहिए कि आन्दोलन अपनी मूल भावना  'Be and Make' से कभी भी विचलित न हो। [ केवल यह ध्यान रखना चाहिए कि गीता और उपनिषद (वेदान्त) की शिक्षाओं में आधारित महामण्डल के "निर्भय मनुष्य बनो और बनाओ" आन्दोलन (Mahamandal's  'Be and Make fearless Men' Movement) के माध्यम से -'भयमुक्त और प्रेममय मनुष्य' - अर्थात  'ब्रह्मविद' नेता-पैगम्बर या जीवनमुक्त शिक्षक' बनने और बनाने के मूल उद्देश्य से कभी भी विचलित न हो।]

 इस आदर्श को किसी भी मूल्य पर न तो छोड़ना चाहिए न ही हल्का करना चाहिए, न ही उसे नीचा करना चाहिए। यह सावधानी सदा बनाये रखनी चाहिए । किन्तु जहाँ तक आयोजनों का ब्यौरा विस्तार पूर्वक  देने का प्रश्न है, उनके ऊपर कोई भी दबाव नहीं डालना चाहिए । केन्द्रों को अन्य राज्यों के या विभिन्न शाखाओं के महामण्डल कार्यक्रमों में किसी भी प्रकार की कट्टरता का लबादा ओढ़ाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए

🔱>>>3. महामण्डल की प्रत्येक शाखा का नेता अनूठा होगा, किन्तु मुख्यालय के द्वारा निर्देशित वित्तीय-अनुशासन आदि के प्रति निष्ठावान होगा, तथापि मुख्यालय एवं विभिन्न राज्यों की शाखायें परस्पर कार्बन कॉपी नहीं बनेंगी। ] 

         नेतृत्व के क्षेत्र में भी इसी सिद्धान्त का पालन होना चाहिए। प्रत्येक नेता को सभी दृष्टि से एक समान या किसी एक की ही कार्बन कॉपी होने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। किसी विशेष नेता की वेशभूषा, हावभाव से समान प्रतीक चिह धारण करने की भी आवश्यकता नहीं है। यदि सभी नेता एक ही प्रकार के हो जायेंगे तो उनके द्वारा सर्वोत्तम कार्य नहीं हो पायेगा । यदि विभिन्न केन्द्रों के माध्यम से महामण्डल की योजनाओं को क्रियान्वित करने में 300 से भी अधिक नेता (PR) लगे हुए हों तथा केन्द्रीय संगठन [महामण्डल मुख्यालय ] की कार्यकारिणी समीति के कार्यों का निरीक्षण और प्रबन्धन की जिम्मेदारी भी इन्हीं के ऊपर हो;  एवं ये सभी 300 नेता प्रत्येक दृष्टि से एक-दूसरे के कार्बन कॉपी जैसे दिखते हों - तो हो सकता है कि कुछ लोग बोल पड़ें वाह ! क्या खूब ! बड़ा ही अच्छा कार्य हुआ है, सचमुच सभी के सभी मूल प्रति [CINC नवनीदा] की सच्ची प्रतिलिपि [धोती-चादर-चश्मा में अनिन्दो] जैसे ही दिखते हैं । तो हम निश्चिन्त हुए ! अब हमारा मूल आदर्श निश्चित ही अक्षुण्ण बना रहेगा। परन्तु ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है। 

     क्योंकि यदि प्रत्येक नेता अपने आप में अनूठा हो तथा सभी चरित्र के विभिन्न गुणों से समान रूप से विभूषित रहें एवं सभी नेता महामण्डल के मूल सिद्धांत से पूर्ण परिचित हों तो महामण्डल आन्दोलन जिस उद्देश्य के प्रति समर्पित हो कर कार्यरत है उसका परिणाम भी निश्चित ही उत्तम कोटि का होगा। जब एक ही उद्देश्य को धरातल पर उतारने के लिये, विविध प्रतिभासंपन्न 300 नेता महामण्डल के कार्यक्रमों तथा योजनाओं को अपने-अपने ढंग से क्रियान्वित करने में लग जायेंगे तो एक ही आदर्श कई रूपों में जनता के सामने प्रकट होगा। 

     एक ही व्यंजन भले ही वह कितना भी महंगा और स्वादिष्ट क्यों न हो सभी लोगों को संतुष्टि नहीं प्रदान कर सकता । किन्तु, इसके विपरीत यदि सस्ता व्यंजन ही हो, पर उसमें विविधता रहे तो सभी लोग अपनी-अपनी रूचि के अनुसार भोजन करके संतुष्ट हो जायेंगे। स्वयं श्रीरामकृष्णदेव भी कहा करते थे- "मिश्रीकन्द को एक ही ढंग से क्यों खाना चाहिए? मैं जानता हूँ कि सत्य केवल एक है, परन्तु मैं उसी सत्य के विभिन्न स्वादों का आनन्द पाना चाहूँगा।"

>>>4. प्रत्येक शाखा के महामण्डल के नेता में 'स्वतंत्र' रूप से और 'स्व-विवेक' से निर्णय लेने की क्षमता रहना अनिवार्य है।   

      महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों को भी इसी प्रकार मूल आदर्श से विचलित हुए बिना यदि अपने-अपने ढंग से योजनाओं के क्रियान्वयन में स्वतंत्रता दे दी जाये तो उससे कोई हानि तो नहीं ही होगी उल्टे सभी स्वयं सोच-सोच कर नये-नये सिद्धांतों का आविष्कार करने में समर्थ होंगे। महामण्डल के सभी कर्मियों को स्वयं यह निर्णय करना होगा कि हम जिस ढंग से कार्यक्रम चला रहे हैं उससे महामण्डल आन्दोलन की मूल भावना कहीं आहत या हल्की तो नहीं हो रही है ? किसी भी कीमत पर ऐसा होने देने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। प्रत्येक महामण्डल शाखा के नेता में  स्व-विवेक से ही निर्णय लेने की क्षमता रहनी चाहिए। यह एक उत्तम प्रणाली है।

    हम कभी ऐसा नहीं कहते कि यहाँ केन्द्रीय मुख्यालय में कोई ऐसा व्यक्ति बैठा है, जो अकेले सभी प्रकार के निर्णय लेता रहेगा । आपलोग अपनी-अपनी समस्याओं को उसके समक्ष रखेंगे तथा अपने-अपने सुझाव भी दे सकेंगे पर निर्णय लेने का अधिकार केवल उसके ही हाथों में रहेगा।  वह जैसा भी आदेश जारी करेगा उसे सभी मानने के लिये बाध्य होंगे। - नहीं, यह हमारी कार्य पद्धति नहीं है।

      हमारी कार्य प्रणाली इस प्रकार है- आओ हम सभी एक साथ मिल-बैठकर किसी निर्णय पर पहुँचें । प्रत्येक व्यक्ति को अपना सुझाव देने की छूट है ताकि धीरे-धीरे इस प्रणाली के द्वारा सभी नेता उचित निर्णय लेने में समर्थ हो जायें । परन्तु किसी स्थान पर महामण्डल केन्द्र को प्रारम्भ करते समय जब वहाँ के नेताओं ने अभी-अभी निर्णय लेना शुरू ही किया हो तो महामण्डल के वरिष्ठ नेता (केन्द्रीय कार्यकारिणी समीति) बिना हस्तक्षेप किये, दूर से ही दृष्टि रखेंगे कि वहाँ के युवक नेतृत्व के सार को समझकर निर्णय लेने में समर्थ हैं या नहीं। थोड़ी दूर से ही यह परखते रहना है कि किसी वरिष्ठ नेता ('R-M' da) के द्वारा लिया गया कोई गलत निर्णय (पैसा लेकर या विदेशी फंड से चंदा कम्प्यूटर ट्रेनिंग) पूरे अभियान को ही विपरीत दिशा में तो नहीं ले जायेगा। इसी प्रणाली से अच्छा नेतृत्व उभर कर सामने आ सकता है।

>>>5. दूसरों से अधिक सुविधा पाना हमारा मकसद नहीं होगा, दूसरों अधिक सेवा करना हमारा मकसद होगा। 'सिरदार तब सरदार ' -राजनितिक नेताओं से भिन्न मलाई खाने में पीछे -सिर कटाने में आगे।  

          हमें स्वयं को सच्चे नेता में परिणत करने का अभियान निरन्तर चलाते रहना होगा। यही हमारा कर्तव्य भी है। हमें यही विचार करना चाहिए कि किस प्रकार मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवाएँ दे सकता हूँ। सभी सदस्यों को किसी न किसी सेवा कार्य में अपना योगदान अवश्य देना चाहिए, किन्तु उनमें से ही कुछ लोगों को इस प्रकार अवश्य ही सोचना चाहिए कि "मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवा करूंगा। सभी लोग तो थोड़ा-बहुत सेवा कार्य करते ही हैं किन्तु, मैं उतना करके ही संतुष्ट नहीं रहूँगा। क्या मुझे भी केवल इतना करके ही संतुष्ट हो जाना चाहिए?”

     महामण्डल का सदस्य बन जाऊँ, कुछ सेवा कार्य भी करूँ, ऐसी इच्छा रखना बहुत अच्छा है परन्तु, कम से कम इन सहकर्मियों में से कुछ लोगों के मन में ऐसी भावना भी रहनी चाहिए कि मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक जिम्मेवारी स्वयं आगे बढ़ कर उठा लूंगा। जिनमें अधिक कार्य क्षमता हो, उन्हें दूसरों का मार्गदर्शन करने के लिये स्वतः आगे आना चाहिए ताकि वे दूसरों को भी अधिक कार्य करने के लिए अनुप्रेरित कर सकें। उन्हें स्वयं आगे बढ़कर इस मनुष्य निर्माणकारी आन्दोलन को भारतवर्ष के कोने-कोने में फैला देने में समर्थ अधिक संख्या में प्रशिक्षित नेताओं का निर्माण करके, इस कार्य को अधिक से अधिक व्यापक बनाने में इस प्रकार सहायता करनी चाहिए जिससे कि यह आन्दोलन आगामी 10-20 वर्षों में ही हमारी मातृभूमि को पूरी तरह आप्लावित कर दे

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व्याख्या >>> #1: महामण्डल आन्दोलन के पीछे की मूल भावना > भारत के 12 राज्यों में महामण्डल के 300 केन्द्रों को संचालित करने वाली शाखाओं के संचालकों तथा सभी आंचलिक (Zonal) मार्गदर्शन समीति एवं 'अन्तर राज्यीय मार्गदर्शन समीति' [Inter-State Monitoring Committee] के समस्त नेताओं को महामण्डल मुख्यालय (Headquarter) : 6/1 A, Justice Manmatha Mukherjee Row, Kolkata - 700009) से या किसी एक नेता 'C-IN-C' (नवनीदा) के आदेश से  निर्देशित नहीं किया जा सकता। इसीलिए  सभी केन्द्र के नेता को महामण्डल आन्दोलन के पीछे की मूल भावना (fundamental Spirit of Mahamandal) को पकडे रहना तथा इसके आविर्भूत होने का प्रामाणिक इतिहास (authentic history) से परिचित होना आवश्यक है ।

      महामण्डल पुस्तिका 'A New Youth Movement' के प्रथम अध्याय में ही इस आन्दोलन के पीछे की मूलभावना को   स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हुए कहा गया है कि यह आन्दोलन गीता और उपनिषदों की (वेदान्त डिण्डिम -ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या विवेक-प्रयोग )  प्रशिक्षण  के द्वारा स्वयं निर्भीक मनुष्य (ब्रह्मविद) बनो और दूसरों को भी निर्भीक (ब्रह्मविद) बनने में सहायता करो >  के वैज्ञानिक प्रस्ताव पर आधारित है। महामण्डल की अंग्रेजी पुस्तिका  " A NEW YOUTH MOVEMENT " में  नवनी दा लिखते हैं -  

  " कोई सामान्य व्यक्ति जैसे ही स्वामी विवेकानन्द के नाम से जुड़े किसी संगठन के विषय में सुनता है, तो उनकी कल्पना शक्ति उसे समाज के अंतिम सिरे पर स्थित पददलित और दीन-हीन मनुष्यों की सेवा के क्षेत्र में ले जाती है। और यह सही भी है कि स्वामी जी ऐसे कार्य होते हुए अवश्य देखना चाहते थे। 

      किन्तु उन्होंने इस प्रकार के कार्य को आरम्भ करने से पहले आत्मविकास कर इन कार्यों को सम्पादित करने योग्य "मनुष्य" बनने का जो निर्देश दिया है उसे हम प्रायः भूल जाते हैं। प्राथमिक शिक्षा या स्कूली शिक्षा समाप्त किये बिना ही हमलोग कॉलेज में प्रवेश लेने के लिये दौड़ पड़ते हैं। और हमारी बुद्धि हमें यहीं धोखा दे जाती है! इसीलिये गीता (2.49) में  भगवान श्रीकृष्ण हमें  में  समत्वबुद्धि की शरण लेने का उपदेश देते हैं - 

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

 बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।

 गीता (2.49)

[ दूरेण, हि, अवरं, कर्म, बुद्धियोगात्, धनञ्जय । बुद्धौ, शरणम्, अन्विच्छ, कृपणाः, फलहेतवः ॥]

 "हे अर्जुन, निःस्वार्थ भाव से किए गए कर्म की तुलना में (स्वार्थ/ऐषणाओं की इच्छा से किया गया) सकाम कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं।  स्वार्थ से प्रेरित होकर कर्म करने वाले कृपण या छोटे-मन वाले (दीन) होते हैं। क्योंकि स्वार्थ के लिए किया गया कोई भी कार्य बहुत ही हीन होता है।"  और उपनिषद के ऋषि [छान्दोग्य उपनिषद (1.1.10)] हमें विद्या की शरण में जाने की सीख देते हुए कहते हैं- 

"तेनोभौ कुरुतो यश्चैतदेवं वेद यश्च न वेद,  

नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति। 

 श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति, 

खल्वेतस्यैवाक्षरस्योपव्याख्यानं भवति॥" 

छान्दोग्य उपनिषद (1.1.10)

       अर्थात कोई ऐसा सोच सकता है कि ओम के रहस्य को जाने वाला (ब्रह्मवेत्ता) और दूसरा ओम के रहस्य को नहीं जानने वाला अगर एक ही तरह का यज्ञ- "Be and Make " करे तो उसमें दोनों को समान फल मिलेंगे। लेकिन नहीं, ऐसा नहीं है। विद्या और अविद्या दोनों भिन्न हैं, अतः (ॐ  या) ब्रह्म का ज्ञान होने से और ज्ञान नहीं होने से फल भिन्न होते हैं।  

     यदि हम  केवल विद्या की उपासना करेंगे तो जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें भोजन, वस्त्र ,आवास आदि कौन जुटायेगा? इन्हें आवश्यकतानुसार प्राप्त करने के लिये अविद्या का सहारा भी लेना पड़ता है । अर्थात  विद्या (अर्थात योगविद्या -Eastern Mysticism)  और अविद्या (Western Science- Quantum Physics ) मे सामंजस्य रखते हुए, हमे विद्या से अमृत प्राप्ति करनी चाहिए। 

  >>>(i.)  Swami Vivekananda's project "Be and Make" (स्वामी विवेकानन्द की परियोजना "Be and Make") : महामण्डल आन्दोलन की यह "Be and Make" परियोजना स्वामी विवेकानन्द द्वारा पूर्वनिर्धारित है तथा गीता और उपनिषद द्वारा निर्देशित उपरोक्त प्रस्तावों का पूर्णरूपेण अनुसरण करती है! यही कारण है कि उनके द्वारा निर्देशित समाज सेवा, अन्य सभी प्रकार की समाज सेवा से बिल्कुल भिन्न है। महामण्डल थोक भाव में विदेशों से आयातित समाज सुधार के सिद्धान्तों एवं समाजसेवी संस्थाओं की कार्य पद्धति का अनुसरण नहीं करता, बल्कि स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त योजना का ही अनुसरण करना चाहता है।   

>>>(ii.)  जानिबीघा कैम्प 2023 का आनन्द # उदाहरण के लिए पितृपक्ष श्राद्ध और 'हथिया नक्षत्र' के महत्व को हम नहीं समझ पाते यदि में गया के  विष्णुपद  गदाधर धाम मन्दिर के निकट- "यम -नचिकेता बैनर" के साथ आयोजित जानिबीघा कैम्प में  यदि सियालदह से दो ट्रेन कैंसल होने के बावजूद,  कोलकाता के त्रिभाषी स्पीकर अनूप दत्ता, प्रमोद दा, 'ब्रह्मविद धर्मेन्द्र ' के साथ  कार से कैम्प साइट नहीं पहुँचते।  लौटते समय अजय के कारबैटरी- टेस्ट  प्रकरण का अनुभव,  आनन्द सिंह फौजी के पिता बिडियो साहब की पालकी के बदले वोट मांगने के लिए कैम्प में  गया के '6time  MLA'  मिनिस्टर का protocol प्राप्त-चन्द्रवंशी प्रेम कुमार के 'आगमन' के आनन्द से भी वंचित रह जाते। ]    

>>>(iii.) महामण्डल की प्रत्येक शाखा का नेता अनूठा होगा, किन्तु मुख्यालय के द्वारा निर्देशित वित्तीय-अनुशासन आदि के प्रति निष्ठावान होगा, तथापि मुख्यालय एवं विभिन्न राज्यों की शाखायें परस्पर कार्बन कॉपी नहीं बनेंगी। ] 

>>>(iv.) प्रत्येक शाखा के महामण्डल के नेता में 'स्वतंत्र' रूप से और 'स्व-विवेक' से निर्णय लेने की क्षमता रहना अनिवार्य है।   

>>>(v.) दूसरों से अधिक सुविधा पाना हमारा मकसद नहीं होगा, दूसरों अधिक सेवा करना हमारा मकसद होगा। 'सिरदार तब सरदार ' -राजनितिक नेताओं से भिन्न मलाई खाने में पीछे -सिर कटाने में आगे।  

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व्याख्या >>> #2 1967 में स्थापित 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के उद्भव का प्रामाणिक इतिहास : "7th  Interstate Youth Training Camp- 2019" : आर.पी मोदी स्कूल,  झुमरीतिलैया (झारखण्ड) में आयोजित " सातवें अन्तर राज्जीय युवा प्रशिक्षण शिविर' के उद्घाटन सत्र में महामण्डल के तात्कालीन महासचिव (उस इन्टरस्टेट कैम्प के C-IN-C) श्री बिरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती द्वारा अंग्रेजी में प्रदत्त भाषण का हिन्दी अनुवाद : 

[N.B. '1967 में स्थापित महामण्डल आन्दोलन' के उद्भव का प्रामाणिक इतिहास विषय पर बीरेन दा द्वारा "7th इन्टरस्टेट कैम्प" में दिया गया अंग्रेजी भाषण। (यह भाषण केवल 'विवेक-अंजन के इंटरनेट संस्करण' पर ही पब्लिश हुआ था। उसका हिन्दी अनुवाद महामण्डल के मासिक पत्रिका 'विवेक -अंजन' में भी छपना चाहिए। इस पर एक बैठक अजय-रामचन्द्र जी मिश्र की उपस्थिति में आयोजित करना है।] 

      " मेरे आदरणीय और प्रिय  मित्र श्री बिजय सिंह के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ,   जिन्होंने 1987 से (उस समय झारखण्ड -बिहार एक ही राज्य था ) वास्तव में इस क्षेत्र में, तथा देश के कुछ अन्य राज्यों में महामण्डल भावधारा का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया था। और तब से लेकर अभी तक महामण्डल एवं स्वामी विवेकानन्द विचारधारा को भारत के बड़े भूभाग तक फैला देने के लिये अथक परिश्रम करते चले आ रहे हैं। मैं अन्य सभी पूर्व वक्ताओं के प्रति भी अपना आभार और धन्यवाद व्यक्त करता हूँ , जिन्होंने अपने विचारों को इतने सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया कि मुझे उनसे कुछ सीखने को मिला , और उन्होंने मेरे कार्य को भी आसान बना दिया है। 

    आमतौर से महामंडल द्वारा आयोजित युवा-प्रशिक्षण शिविर के किसी भी उद्घाटन सत्र में, हमलोग लंबे भाषण की अनुमति नहीं देते हैं। क्योंकि शिविरार्थी लोग दूर-दराज के क्षेत्रों से आये हुए हैं, इसलिये वे थोड़ी थकान महसूस करते होंगे। उन्हें शाम को बहुत हल्का टिफिन प्रदान किया गया है, इसलिये अभी वे बेकल हैं। इसलिए मुझे लगता है कि भाषण को बड़ा करना जरूरी नहीं है, अतः मैं अपने वक्तव्य को बहुत संक्षेप में रखूँगा। क्योंकि अधिकांश campers नये हैं (पहली बार आये हैं), इसलिए इस शिविर के उद्घाटनकर्ता के रूप में ही नहीं, बल्कि इस संगठन के महासचिव (General Secretary) के रूप में- महामण्डल की मूल भावना (Fundamental Spirit) और आविर्भूत होने का प्रामाणिक इतिहास (authentic history) से मैं उनका परिचय कराना चाहूँगा 

       महामंडल की स्थापना स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा को युवाओं के बीच फैला देने के उद्देश्य से, 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने के बीस साल बाद 1967 में हुई थी।  इस युवा संगठन के आविर्भूत होने का मुख्य कारण 1967 के आसपास ही उत्तरी बंगाल के एक गाँव नक्सलबाड़ी से प्रारम्भ हुआ एक 'सशस्त्र' किसान आन्दोलन (Agrarian Movement)# था। जिसकी चिंगारी आगे चलकर भारत के कुछ अन्य  पूर्वी राज्यों - उड़ीसा , छत्तीसगढ़ , बिहार तथा दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों -विशेष रूप से आन्ध्र प्रदेश तक फ़ैल गया था। (शायद इसी कारण महामण्डल के सबसे अधिक केन्द्र, पश्चिमी भारत की अपेक्षा, पूर्वी भारत के इन्हीं राज्यों में  सक्रीय भी है?)

[>>> 'नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन' # :(Naxalbari Agrarian Movement) चीन में एक कम्युनिस्ट नेता हुए नाम था- माओ त्से तुंग।  माओ ने एक बार कहा था- 'एक चिंगारी सारे जंगल में आग लगा देती है। ' माओ वही नेता थे जिन्होंने चीन में सशस्त्र क्रांति की थी। पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी जिले में एक गांव पड़ता है- नाम है- नक्सलबाड़ी। नक्सलबाड़ी गांव में भी आज से 56 साल पहले, इसी तर्ज पर 1967 में  एक ऐसा आंदोलन शुरू हुआ था, जिसके बाद पूरे  भारत में माओवाद फैल गया। इसे 'नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन' कहा जाता है। आंदोलन के तहत, आदिवासी किसानों ने हथियार उठा लिए थे।  ये वो लोग थे जो माओ की विचारधारा को मानते थे। इसलिए इन्हें माओवादी भी कहा जाता है। नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआत सन् 1967 मेंं बंगाल के गांव नक्सलबाड़ी से चारु मजूमदार, जंगल संथाल और कानू सान्याल की अगुवाई में हुई थी । यह व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की शुरुआत थी । इसमें सरकारी कर्मचारी द्वारा किए गए अन्याय पर उसकी गोली मारकर हत्या कर वह जंगल में कूदकर फरार हो गया था, और पीड़ित ग्रामीण जनों का संगठन बनना शुरू हुआ जो इस तरह के सशस्त्र संघर्ष में तब्दील हो गया। 

आजादी एक लम्बे गौरवपूर्ण संघर्ष के बाद 1947 में आजादी  हासिल की गई थी और इससे करोड़ो लोगों का सपना पूरा हुआ था। लेकिन अंग्रेजों से आजादी के बीस साल बाद भी जब भारत में भ्रष्टाचार , भुखमरी , बेरोजगारी, शोषण  में कोई कमी न होते देखकर जनसाधारण और विशेष रूप से पढ़ा-लिखा युवावर्ग अपने को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था। भारत के पुनर्निर्माण की पंचवर्षीय योजनाएँ बनाई गईं थीं , लेकिन उसमें किसानों  की समस्याओं पर कम ध्यान दिया गया। 

1967 के आम चुनाव के बाद ग्यारह राज्यों में पहली बार कांग्रेस की केन्द्रीकृत शासन को चुनौती देते हुए संविद सरकारें बनी थीं। बिहार में महामाया प्रसाद जैसे नेता भी मुख्यमंत्री बन गए थे। और कुछ  स्वार्थी राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकरयुवा -समुदाय  जल्दीबाजी या हड़बड़ी में - In a hurry - पहले अपने चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन का कार्य शुरू किये बिना ही तोड़-फोड़ के द्वारा व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। जिसके फलस्वरूप कई शिक्षित युवाओं का जीवन भी नष्ट होने के कागार पर पहुँच गया था। और उस संकट की घड़ी 1967 में में ही 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' नामक इस युवा संगठन को आविर्भूत होना पड़ा था। इसके पीछे भावना यह थी कि इस संगठन  माध्यम से स्वामी विवेकानन्द की " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी " शिक्षा को युवाओं के बीच फैला दिया जाय। ]

        जिस समय (1967 के आसपास) जब कुछ स्वार्थी राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकर युवा-समुदाय - In a hurry (जल्दीबाजी में) अपने चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन के कार्य को शुरू करने के पहले ही, तोड़-फोड़ के द्वारा व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। उस समय अनुशासित जीवन में प्रतिष्ठित एक युवा ~नवनीदा ( श्री नवनी हरण मुखोपाध्याय) महामंडल के संस्थापक सचिव  - A young man in discipline, जो कई बार यहां भी पधार चुके हैं; तथा 'रामकृष्ण मिशन परम्परा'  (Ramakrishna Mission Order) के कुछ वरिष्ठ संन्यासियों ने परस्पर चर्चा करके एक युवा संगठन स्थापित करने का निर्णय लिया। और स्वामी विवेकानन्द के 'मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माणकारी विचार-धारा को युवाओं के बीच फैला देने का एक आंदोलन प्रारम्भ किया ।  इस प्रकार वर्ष 1967 के आखरी तिमाही में आयोजित प्रथम बैठक में इस आंदोलन का सूत्रपात हुआ था। और जहाँ तक मुझे याद है वह 25 अक्टूबर,1967 की तिथि थी ।

      अद्वैत आश्रम में आयोजित पहली बैठक के चार-पाँच महीने बाद जनवरी 1968 में दूसरी बैठक आयोजित हुई। उस बैठक में आमंत्रित अन्य व्यक्तियों के साथ रामकृष्ण मिशन के कुछ बहुत ही वरिष्ठ संन्यासी, जैसे रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष स्वामी भूतेशानन्दरामकृष्ण मिशन के  महासचिव स्वामी अभयानन्द एवं सहायक महासचिव स्वामी रंगनाथानन्द ,जो आगे चलकर रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष भी बने --उपस्थित थे। बैठक में चर्चा चली कि, मनुष्य का 'ढाँचा' प्राप्त करने से ही कोई व्यक्ति " मनुष्य" नहीं बन जाता , बल्कि ~ "धर्मेण हीनाः पशुभिः सामना" - धर्म (शिक्षा) या 'चरित्र' के बिना मनुष्य भी पशुतुल्य है।  अतः उन सभी वरिष्ठ संन्यासियों ने हमें यही परामर्श दिया कि इस संगठन का उद्देश्य स्वामी विवेकानन्द की ' मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' का युवाओं के बीच प्रचार -प्रसार करना होना चाहिये, ताकि सुन्दरतर मनुष्यों के निर्माण से सुन्दरतर समाज को निर्मित किया जा सके। महामण्डल  की स्थापना के पीछे यही भावना क्रियाशील है। "

    अगला काम इस बात पर चिंतन (contemplate) करना था कि हमलोग तो स्कूल -कॉलेज खोलने वाले हैं नहीं, फिर युवाओं के बीच स्वामी जी के मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षाओं को फैला देने  उपाय क्या होना चाहिये? सम्पूर्ण भारत के युवाओं के बीच 'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त भावधारा' (अर्थात गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा- में 'Be and Make') का प्रचार-प्रसार कैसे किया जा सकता है ? उनलोगों ने यह निर्णय लिया कि, इसके लिए महामण्डल के द्वारा ही (संन्यासियों के द्वारा नहीं), समय -समय पर युवा प्रशिक्षण शिविर (Youth Training Camps) आयोजित करना चाहिये।  तथा उन शिविरों में युवाओं का आह्वान कर उन्हें 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी ' प्रशिक्षण देना चाहिये। महामण्डल स्थापित होने के संभवतः पांच महीने बाद इसका प्रथम 'अखिल भारतीय युवा प्रशिक्षण शिविर ' बंगाल के अरियादह में आयोजित किया गया था।

      स्वामी विवेकानन्द के अनुसार यथार्थ "मनुष्य" बनने के लिये युवाओं को छात्रजीवन में (किशोरावस्था में) ही उसके तीन प्रमुख अवयव - देह (Hand) , मन (Head) और हृदय (Heart) इन तीनों (3'H') को समानुपातिक रूप से विकसित करने (के 5 जरुरी अभ्यास) का प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिये। युवाओं के पास एक ऐसा मजबूत  शरीर (strong body) होना चाहिये जिसमें प्रखर-बुद्धि से युक्त मन (Sharp intellect mind) का वास हो , और उसका हृदय विशाल (expanded heart) होना चाहिये। अर्थात उन्हें आत्मकेन्द्रित जीवन (self- centred life)  नहीं बिताकर दूसरों के कल्याण के लिये जीना चाहिये।  

इस प्रशिक्षण -शिविर का प्रारम्भ सभी शिविरार्थी भाई कल प्रातःकाल 'मन की एकाग्रता' पर एक कक्षा में भाग ले कर करेंगे। स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षित मनुष्य बनने के लिये सबसे अधिक जोर इसी विषय~ ' मन को एकाग्र कैसे करें' (how to concentrate the mind) पर दिया करते थे। तत्पश्चात मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के विभिन्न विषयों पर कक्षाएं आयोजित की जाएंगी। लेकिन मनुष्य बनने के लिये केवल सैद्धान्तिक विचारों को सुनते रहना ही पर्याप्त नहीं हैं , अतः उन सद्गुणों को अपने जीवन और व्यवहार में धारण करने की व्यावहारिक पद्धति (practical method ) भी यहाँ सिखाई जायेगी। इसलिए सभी शिविरार्थी भाइयों से मैं अपील करता हूँ , तुम इस शिविर के किसी भी कक्षा को मत छोड़ना।  
         स्वामी विवेकानन्द अपने शिष्यों को (Would be Leaders या उपास्य को) 'Pearl Oyster ' (मोती वाले सीप) की  कहानी सुनाया करते थे। " शुक्ति (याने मोती वाले सीप) के समान बनो। भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बून्द किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की उपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बून्द की प्रतीक्षा करती रहती हैं। ज्यों ही एक बून्द पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।" 
      उसी प्रकार इस युवा प्रशिक्षण शिविर को भी आप मोतियों जैसे बहुमूल्य विचारों का संग्रह करने के एक दुर्लभ अवसर के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। यहाँ आप स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा रूपी मोतियों जैसी मूल्यवान विचारों को प्राप्त कर सकते हैं। ध्वजारोहण के साथ आज संध्या जब इस शिविर का उद्घाटन हुआ, विश्वास कीजिये ठीक उसी समय इस शिविर परिधि (camp periphery) के आकाश में स्वाति नक्षत्र तुंगस्थ हो चुका है, और इस शिविर की समाप्ति होने तक वहीं पर तुंगस्थ बना रहेगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप सभी शिविरार्थी भाई , स्वामी विवेकानन्द के 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी ' शिक्षाओं को ग्रहण करके अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने के लिये इस शिविर का अधिकतम लाभ उठाएंगे। "

[### The Inaugural Speech of Sri Birendra Kumar Chakraborty, General Secretary of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal delivered at the occasion of '7th Interstate Youth Training Camp- 2019' held at Jhumritelaiya, Jharkhand:-

        " Respected my beloved friend Sri Bijay Singh, who actually started spreading the ideas of Mahamandal in this area and country since 1987 and from then he has been working tirelessly covering a big part of India spreading the man-making  idea of Mahamandal and Swami Vivekananda. I also express my thanks and gratitude to all the speakers who all spoke so well that I have learned from them and they also reduced my task. 

          In the inaugural programs of Mahamandal, we do not permit any lengthy speeches. Since campers have come from different areas, They feel tired. They have been provided very light tiffin in the evening and now they are restless so I think that it is not necessary to make the speech lengthy and I would like to sum up in short.  I thought that not only as an inaugurator of the camp but as the General Secretary of this organization, I will introduce the Mahamandal to them because most of the campers are new. 
     Mahamandal was established in the year 1967, twenty years after attaining India's independence in 1947. The idea was to spread the man-making and character-building ideas of Swami Vivekananda among young men because of an Agrarian Movement #(in the year 1967) in the eastern part of India .
      Young men in around West Bengal and some other eastern states and some the south mostly in Andhra Pradesh. A young man in discipline and some senior monks of Ramakrishna Mission order and founder secretary of Mahamandal Sri Nabani Haran Mukhopadhyay who came here many times took the decision to establish an organization and started a movement to spread this man making and character building idea of Swami  Vivekananda among the young men. In this way, the work started in the later part of 1967. So far I remember that it was on the 25 of October. 
     The first meeting was held a four-five months later in January 1968. They sat together. A very senior monk, the president of Ramakrishna Mission, General Secretary Swami Abhayananda, Assistant General Secretary Swami Bhuteshananda, and a very senior monk Swami Ranganathananda who also subsequently became president of Ramakrishna Mission took part in that meeting. They all advised it will have to spread the man making ideas of Swami Vivekananda. This is the idea behind establishing Mahamandal. 
      Then the next was to contemplate what was the way? How was the idea to be spread? They decided that youth training camps should be organized periodically and in these training camps, man-making and character-building ideas will be taught. The first training camp was possibly held five months after Mahamandal started. According to Swami Vivekananda, the necessary things in order to be real men are simultaneous development of body, mind, and heart. Youth should have a strong body, intellectual mind, and an expanded heart. They should not leave self-centered life. They should lead a life for the sake of all. 
      In this camp, campers will start from tomorrow morning attending a class on the concentration of mind. Swami Vivekananda emphasized more to be educated on how to concentrate the mind. Various classes on man-making and character-building education will be held thereafter. Theoretical ideas are not enough, practical method is essential which will be also taught here. Therefore I appeal to all the campers not to miss any class of the camp. 
      Swamiji used to narrate a story of pearl oyster. Be like the pearl oyster. There is a pretty Indian fable to the effect that if it rains when the star Swati is in the ascendant, and a drop of rain falls into an oyster, that drop becomes a pearl. The oysters know this, so they come to the surface when the star shines and wait to catch the precious raindrop. When a drop falls into them, quickly the oysters close their shells and dive down to the bottom of the sea, there to patiently develop the drop into the pearl. 
       So this camp may be assumed this occasion where you can get the pearl-like valuable things to be absorbed. Believe, this evening, when the camp was inaugurated by flag hoisting, the Swati star has raised on the sky of this camp periphery and it will sustain till the end of the camp. I fervently hope, you all will take the maximum advantage of the camp to make your life better grasping the man making and character building ideas of Swami Vivekananda. "
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🔱(8) सभी गुणों को विकसित कीजिये / develop all qualities/ नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

(8)

 सभी गुणों को विकसित कीजिये  

develop all qualities 

>>> 1. 

    नेताओं के लिये आदर्श तो यही है कि उनमें केवल गुण ही गुण हों और दोष बिल्कुल ही न हो। यदि कोई व्यक्ति इस आदर्श पर खरा उतरता है तो वह व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ नेता बन सकता है । परन्तु ऐसा बन पाना कठिन है, फिर भी वैसा ही नेता बनने के प्रयास में हमें निरन्तर लगे रहना चाहिए । अब, हमलोग दूसरों का मार्गदर्शन करने योग्य नेता बनने के मर्म को समझते हैं। अतः सच्चा नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता अर्जित करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए ।

>>>2. 

      हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि मैं विशेषाधिकारों क उपभोग करने के लिये नेता नहीं बना हूँ या दूसरों से अपने को बड़ा दिखाने के लिए भी नेता नहीं बना हूँ। बल्कि, नेता बनकर दूसरों की और अधिक सेवा करने का विशेषाधिकार मिलने से जो आनन्द प्राप्त होता है उसी आनन्द को पाने के लिये हमें नेता बनना चाहिए। हम सभी लोग दूसरों की सेवा करने के लिये ही महामण्डल के साथ जुड़े हैं, किन्तु नेताओं को विविध उपायों से दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवा करने का अवसर प्राप्त होता है। यही वह विशेषाधिकार है जिसके आनन्द को प्राप्त करने के लिये हमें प्रयत्नशील रहना चाहिए । यदि नेता अपने इस उद्देश्य की स्पष्ट धारणा बनाने में सक्षम हो जायें तो वे भी सर्वश्रेष्ठ नेता बन सकते हैं।

>>>3. 

         सभी आवश्यक गुणों के साथ-साथ नेताओं में कुछ अतिरिक्त भी हो सकते हैं। जब तक किसी व्यक्ति में चरित्र के सारे आवश्यक गुण विकसित न हो जायें तबतक वह एक प्रभावशाली नेता के रूप में कभी कार्य नहीं कर सकता। यदि किसी व्यक्ति में मौलिक रूप से आवश्यक मनुष्योचित गुण जैसे चरित्रबल, आदर्श आदि को आत्मसात् करने की क्षमता, सही प्रेरणा देने की क्षमता ही न रहे तो वह कैसे दूसरों का नेतृत्व करने की कल्पना कर सकता है ? 

>>>4.  

         वह तो स्वयं को भी नेतृत्व नहीं दे सकता, और जो स्वयं को ही उचित राह नहीं दिखा सकता वह दूसरों का मार्गदर्शन कैसे कर सकता है ? परन्तु यदि ऐसे व्यक्ति को नेता बना दिया जाय तो क्या होता है ? अन्धेनैव नीयमान यथान्धाः । जब कोई अन्धा व्यक्ति अपनी अगुआई में कुछ अन्य अन्धों को राह दिखाने की चेष्टा करे तो क्या होगा ? जब मार्ग में कोई गड्ढा आ जायेगा तो सभी एक साथ उस गड्ढे में जा गिरेंगे। बहुत से क्षेत्रों में तो हमलोग भी उसी अन्धे के समान दूसरों को उपाय बताने लगते हैं। हमें स्वयं तो श्रेय प्रेय के बीच अन्तर करना नहीं आता पर हम समझते हैं कि इस संबंध में मैं भी दूसरों को शिक्षा दे सकता हूँ। ऐसा करने का दुःसाहस कभी नहीं करना चाहिए।

      इसीलिये हमलोगों में चरित्र के सभी आवश्यक गुण होने चाहिए। यदि हमने चरित्र के सभी मूलभूत गुणों को अच्छी तरह से अपना लिया है और दूसरों की अधिक सेवा करने का विशेषाधिकार पाने के लिये भी प्रयत्नशील हैं तो हमलोग भी उत्तम श्रेणी के नेता हो सकते हैं। क्योंकि नेताओं का यह दायित्व है कि जिन लोगों को अभी तक सही नेतृत्व का रहस्य नहीं ज्ञात हो सका है, उन्हें अनुप्रेरित करें ताकि वे भी सच्चे नेत बनकर दूसरों को भी इसके लिये प्रोत्साहित करने में सक्षम बनें।

>>>5. 

         परन्तु इस कार्य को मूर्तरूप देने के लिये, हमें स्वयं दूसरों की अधिक सेवा करने का विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील होना होगा। जब हम दूसरों से अधिक सेवा करेंगे तभी यह आशा कर सकते हैं कि हमें वैसा करते देख कुछ दूसरे व्यक्ति भी वैसा करने के लिये आगे बढ़ेंगे। यह कार्य तभी संभव है जब हम कुछ अतिरिक्त गुणों से भी पूर्ण बनें जिन्हें धारण करना निःसंदेह कठिन होता है। जैसे हमलोग विभिन्न विषयों के बारे में अध्ययन करके अपने सामान्य ज्ञान को दूसरों से अधिक बढ़ा सकते हैं। निश्चित रूप से हमारे अध्ययन का पहला विषय मानसिक एकाग्रत का विज्ञान ही होना चाहिए। उसी प्रकार शारीरिक दृष्टि से मजबूत बनने के लिये तथा अपने शरीर को पूर्ण स्वस्थ रखने के लिये योगासन, योग-व्यायाम तथा पौष्टिक आहार के विज्ञान पर लिखी हुई पुस्तकों का अध्ययन भी करना चाहिए। 

      साथ ही साथ उनका दैनन्दिन जीवन में उपयोग कर लाभ उठाना चाहिए । चरित्र निर्माण की वैज्ञानिक प्रणाली का अध्ययन करना चाहिए, लोगों को अन्य उपयोगी विषयों की जानकारी देकर अधिक से अधिक सेवा कैसे की जा सकती है, उन उपायों को जानने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। आम आदमी अभी जिन कठिनाईयों का सामना कर रहा है उनका आकलन करने की सही विधियों को सीखकर थोड़ी मात्रा में ही सही पर उन कठिनाईयों पर विजय पाने में उनकी सहायता करनी चाहिए। ये सभी साधारण कोटि की सेवायें हैं। इसीलिये हमें इतना करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए । 

       यदि हम अपने अन्दर उन अतिरिक्त गुणों को विकसित कर लें जिससे हमें दूसरों की अधिक सेवा करने की क्षमता और ऊर्जा प्राप्त होती है तो हम सच्चे नेता बन सकते हैं। अतिरिक्त ज्ञान पाने के लिये सभी नेताओं को अधिकाधिक विषयों का अध्ययन करना चाहिए। सामान्य ज्ञान बढ़ाने वाली पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए । विविध भाषाओं की जानकारी, महान धर्मो के विभिन्न पुराणों का अध्ययन, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विषयों की विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन करना बहुत महत्वपूर्ण है । यदि कोई व्यक्ति अच्छा नेता बनना चाहता हो तो उसे समय निकालकर इन विषयों के अतिरिक्त जितना संभव हो उपयोगी विषयों का अध्ययन करते रहना चाहिए । 

       उसको विज्ञान तथा तकनीकी से संबंधित नये-नये आविष्कारों तथा शोधपत्रों का भी अध्ययन करना चाहिए। सभी प्रकार के ज्ञान की एक अच्छी पृष्ठभूमि रखते हुए यदि कोई नेतृत्व करने के लिये आगे बढ़े तो वह प्रत्येक क्षेत्र में जैसे योजना बनाने, उसको कार्यरूप देने, दिशा-निर्देश देने आदि में अपनी विद्या का उपयोग कर सकता है। इस प्रकार अधिकाधिक जानकारी के बल पर वह अधिक प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान करने में समर्थ नेता बन सकता है। 

>>>6 . नेता के लिए अच्छा वक्ता होना भी अनिवार्य गुण है। 

       यदि कोई अच्छा नेता बनने की सारी योग्यताओं से युक्त हो, कई विषयों का ज्ञाता हो और वह दूसरों का मार्गदर्शन करे तो दूसरे लोग भी कार्य में लग सकते हैं पर कठिनाई तब सामने आती है जब उनको अच्छा बोलना नहीं आता या वे स्वयं को भली-भाँति अभिव्यक्त करने में विफल रह जाते हैं।  यदि ऐसी कमी किसी नेता में हो तो यह एक बहुत बड़ा अवगुण माना जायेगा। वैसे नेता को दूसरों के समक्ष अपने विचार को अभिव्यक्त करने की कला सीखने की अवश्य चेष्टा करनी चाहिए। 

       यह थोड़ा कठिन अवश्य है किन्तु, कोशिश करने से इस कौशल को भी सीखा जा सकता है। कुछ लोग स्वभाव से ही शर्मीले होते हैं तथा सोचते हैं कि अभ्यास नहीं रहने के कारण वे बोल नहीं सकते हैं परन्तु अपनी इस हिचकिचाहट को त्याग कर अवसर मिलते ही बोलने का अभ्यास करना चाहिए । नेताओं में केवल बोलने की ही नहीं, विभिन्न भाषाओं में लेख और निबन्ध आदि लिखने की योग्यता भी रहनी चाहिए । उनको अपने भाषण तथा लेखन कला में इतनी दक्षता अवश्य प्राप्त कर लेनी चाहिए कि जब वे अपने विचारों को दूसरों के सामने प्रकट करें तो दूसरे लोग उनकी बातों को आसानी से समझ लें

       अर्थात् प्रत्येक नेता को अपने श्रोताओं एवं पाठकों की मानसिक अवस्था का पूर्वानुमान लगाते हुए, उन्हें  उन्हीं की भाषा में समझाने की कला सीखनी चाहिए। उन्हें अपनी बातों को इस प्रकार रखना चाहिए जिससे सामने वाले व्यक्ति को उसे समझकर आत्मसात् करने में कोई कठिनाई नहीं हो। 

>>>7. नेता को स्वामी रंगनाथानन्द जी जैसा बोलने तथा लिखने दोनों विधाओं में समान रूप से निपुण होना चाहिए।  तथा श्रोता या पाठक की पाचन क्षमता को पहचान कर ही गरिष्ठ भोजन परोसना चाहिए। 

           क्योंकि किसी कमजोर पेट वाले व्यक्ति को गरिष्ठ भोजन परोस दिया जाये तो वह उसको पचा ही नहीं पायेगा । तब इससे उसको लाभ के बजाय हानि ही होने की अधिक संभावना रहेगी। जैसा कि श्रीरामकृष्णदेव और माँ सारदा अपनी संतानों से अक्सर कहा करते थे - "तुम्हें लोगों की अभिरूचि तथा पाचन शक्ति के अनुकूल ही भोजन परोसना चाहिए।" अतः प्रत्येक नेता में अपने सम्मुख उपस्थित लोगों की पाचन क्षमता को पहचान लेने की शक्ति अवश्य रहनी चाहिए। इसीलिये उनको यथासंभव सभी विषयों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए । नेता को अपनी बातों को समझाने के लिये बोलने तथा लिखने दोनों विधाओं में समान रूप से निपुण होना चाहिए तथा इन दोनों का निरन्तर अभ्यास करते रहने से ये क्षमतायें स्वतः विकसित होती जाती हैं।

        आप सभी ने 'स्वामी रंगनाथानन्दजी महाराज' का नाम अवश्य ही सुना होगा। वे अपनी भाषण तथा लेखन क्षमता के बल पर आज पूरे विश्व में जाने जाते हैं। उन्होंने कई देशों के विभिन्न विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों पर प्रबुद्ध श्रोतामण्डली के समक्ष कितने ही सारगर्भित व्याख्यान दिए हैं व्याख्यानों के क्रम में उन्होंने कई बार पूरे विश्व का भ्रमण किया था। उन्होंने बहुत से विश्वविद्यालयों में दीक्षान्त भाषण दिया था एवं वेदान्त तथा स्वामी विवेकानन्द के ऊपर विश्वप्रसिद्ध, सशक्त वक्ताओं में से एक माने जाते थे ।

      परन्तु वे स्वयं उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये कभी किसी विश्वविद्यालय में सामान्य विद्यार्थी बन कर नहीं गये थे। उनकी इच्छाशक्ति अत्यन्त प्रबल थी तथा अपने संकल्प पर अटल रहने की उनकी क्षमता अद्भुत थी, उन्होंने यह अद्भुत सामर्थ्य केवल, अध्ययन तथा श्रवण-मनन-निदिध्यासन द्वारा प्राप्त कर लिया था । वे अपने प्रवचनों द्वारा हर किसी को मंत्रमुग्ध कर देने की क्षमता रखते थे । उनका जीवन एक ऐसा आदर्श उदाहरण है, जिसका अनुसरण सभी भावी नेताओं को अवश्य करना चाहिए। यदि हमलोग भी एक सशक्त नेता बनना चाहते हैं तथा उसी श्रेणी के नेता बनना चाहते हैं, जिसकी हम अब तक चर्चा सुन रहे थे तो स्वामी रंगनाथानन्द जी महाराज के जैसा हमें भी प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न एवं दृढ़ संकल्पवान मनुष्य बनने की चेष्टा करनी चाहिए । 

>>>8. गुरुगिरि करने के लिए नहीं, स्वामीजी का दास बनकर बोलना चाहिए।   

     हमलोगों को सदैव यही ध्यान में रखकर बोलने का अभ्यास करना चाहिए कि मैं लोगों तक स्वामीजी के संदेश को पहुँचाने के लिये ही बोल रहा हूँ, अपना नाम-यश पाने की इच्छा से नहीं । पुरूषार्थ की शक्ति, पवित्रता, दूसरों की सेवा करने की शक्ति, आत्मत्याग करने की क्षमता, यहाँ तक कि दूसरों के कल्याण के लिये अपने प्राणों की भी बलि चढ़ा देने की शक्ति प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित है। स्वामी विवेकानन्द के इसी प्रकार के स्वानुभूत सत्य को जन-जन तक विशेषकर अपने युवा भाईयों तक पहुँचा देना चाहता हूँ। और केवल इसी कार्य को पूरा करने के लिये मैं भी एक कुशल वक्ता बनना चाहता हूँ ।  यदि कोई व्यक्ति इसी प्रकार की भावना से अनुप्रेरित होकर व्याख्यान देगा तो वह भी एक सशक्त वक्ता बन जायेगा तथा प्रत्येक श्रोता उसके विचारों को ध्यानपूर्वक सुनेगा, उससे प्रभावित और अनुप्रेरित होगा ।

        यदि कोई व्यक्ति धन कमाने की इच्छा से प्रेरित होकर समाचार पत्रों में स्तम्भ लिखे तो,  निश्चित ही वह पर्याप्त धन भी अर्जित कर सकता है तथा अच्छा लिख भी सकता है। इस प्रकार से कई लोग समाचार पत्रों में अक्सर अपनी लिखी हुई कोई कविता, लेख, निबंध, कथा, कहानी इत्यादि  छपवाते रहते हैं। परन्तु मैं अपने मन में इस प्रकार की इच्छा रखकर कभी भी लेखन नहीं करना चाहता हूँ, फिर भी न जाने कहाँ से और कैसे मुझमें भी लेख और निबंध आदि लिखने की प्रबल इच्छा जब-तब उठती रहती है। मैं इस प्रकार के विचारोत्तेजक लेख लिखना चाहता हूँ कि जो कोई उन्हें एक बार भी पढ़े उसके मन में भी देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा जागृत हो जाय। बस इसी इच्छा से प्रेरित होकर मैं लिखना चाहता हूँ मेरे मन में इससे वाहवाही प्राप्त करने या अन्य कोई अवार्ड प्राप्त करने या कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं है। 

       यदि कोई व्यक्ति इस भावना से विचार करता हो तो वह निश्चित ही एक सशक्त लेखक बन सकता है। अतः महामण्डल शिविर के लिए कोई अपील या विवेक-अंजन पत्रिका के लिए कोई लेख आदि लिखते समय सभी महामण्डल नेताओं को इसी तरह की भावना रखनी चाहिए । हम अपनी भाषण कला, लेखन कला तथा सीखने की कला को उन्नत करना चाहते हैं, हमलोग हर संभव उपाय से अपने को उन्नत बनाना चाहते हैं क्योंकि तभी और केवल तभी हमें दूसरों की अधिक सेवा करने का विशेषाधिकार प्राप्त हो सकेगा। सभी नेताओं के अन्दर ऐसी ही भावना रहनी चाहिए ।

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