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सोमवार, 21 जुलाई 2025

⚜️🔱राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥⚜️🔱 घटना -298: गुप्तचरों द्वारा रावण को श्री राम की सेना की विशालता का विवरण देने का प्रसंग। ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || सुन्दर काण्ड भाग #298 ⚜️🔱

 श्रीराम चरित मानस गायन

सुन्दर काण्ड  

 [ घटना - 298:  दोहा : 54-57] 

[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #298 ||] 


[⚜️🔱 गुप्तचरों द्वारा रावण को श्री राम की सेना की विशालता का विवरण देने का प्रसंग

       रावण का दूत शुक; जिसको उसने विभीषण के पीछे-पीछे श्री राम की सेना का भेद लेने के लिए भेजा था, लौटकर रावण को वानर सेना की विशालता और बल का विवरण देता है। उसने द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, शठ और जामवन्त आदि वीरों के अतुलनीय बल की झलक देखि थी, और सहज ही परिणाम का अनुमान लगा लिया था। शुक ने रावण को वास्तविकता से परिचित कराने का भरसक प्रयत्न किया ; वे करोड़ों शूरवीर रावण को सहज ही परास्त कर देंगे, सभी वानर समुद्र को शोख लेने या पर्वतों से उसे पाट देने पर उतारू हैं। केवल राम की आज्ञा उन्हें नहीं मिल रही है। स्वयं शुक तथा अन्य गुप्तचरों की भी उन्होंने मारपीट कर दुर्गति कर दी थी। वह तो श्रीराम की सौगंध सुनकर उन्हें छोड़ दिया। शुक-संवाद को रावण हँसकर टाल देता है। किन्तु उसने जब लक्ष्मण का पत्र उसे दिया , तो रावण एक बार भय से काँप गया ...... 

दोहा 

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।

दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥54॥

भावार्थ:-द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान्‌ ये सभी बल की राशि हैं॥54॥

चौपाई 

ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥

राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥

भावार्थ:-ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता है। श्री रामजी की कृपा से उनमें अतुलनीय बल है। वे तीनों लोकों को तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं॥1॥

अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर॥

नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥

भावार्थ:-हे दशग्रीव! मैंने कानों से ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं। हे नाथ! उस सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रण में न जीत सके॥2॥

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। 

आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥

सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। 

पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥3॥

भावार्थ:-सब के सब अत्यंत क्रोध से हाथ मीजते हैं। पर श्री रघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते। हम मछलियों और साँपों सहित समुद्र को सोख लेंगे। नहीं तो बड़े-बड़े पर्वतों से उसे भरकर पूर (पाट) देंगे॥3॥

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।
 
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥

गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। 

मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥4॥

भावार्थ:-और रावण को मसलकर धूल में मिला देंगे। सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं। सब सहज ही निडर हैं, इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लंका को निगल ही जाना चाहते हैं॥4॥

दोहा 

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।

रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम॥55॥

भावार्थ:-सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिर पर प्रभु (सर्वेश्वर) श्री रामजी हैं। हे रावण! वे संग्राम में करोड़ों कालों को जीत सकते हैं॥55॥

चौपाई 

राम तेज बल बुधि बिपुलाई। 

सेष सहस सत सकहिं न गाई॥

सक सर एक सोषि सत सागर।

 तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥

भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते। वे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्रों को सोख सकते हैं, परंतु नीति निपुण श्री रामजी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई से उपाय पूछा॥1॥

तासु बचन सुनि सागर पाहीं। 

मागत पंथ कृपा मन माहीं॥

सुनत बचन बिहसा दससीसा। 

जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥2॥

भावार्थ:-उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (श्री रामजी) समुद्र से राह माँग रहे हैं, उनके मन में कृपा भी है (इसलिए वे उसे सोखते नहीं)। दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हँसा (और बोला-) जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरों को सहायक बनाया है!॥2॥

सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई॥

मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥3॥

भावार्थ:-स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके उन्होंने समुद्र से मचलना (बालहठ) ठाना है। अरे मूर्ख! झूठी बड़ाई क्या करता है? बस, मैंने शत्रु (राम) के बल और बुद्धि की थाह पा ली॥3॥

सचिव सभीत बिभीषन जाकें। 

बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥

सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। 

समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥4॥

भावार्थ:-सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥4॥

रामानुज दीन्हीं यह पाती। 

नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥

बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन।

 सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥5॥

भावार्थ:-(और कहा-) श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है। हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिए। रावण ने हँसकर उसे बाएँ हाथ से लिया और मंत्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बँचाने लगा॥5॥

दोहा 

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।

राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥56क॥

भावार्थ:-(पत्रिका में लिखा था-) अरे मूर्ख! केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट न कर। श्री रामजी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा॥56 (क)॥

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।

होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥56ख॥

भावार्थ:-या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा। अथवा रे दुष्ट! श्री रामजी के बाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पतिंगा हो जा (दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर)॥56 (ख)॥ 

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शनिवार, 19 जुलाई 2025

⚜️🔱कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध ⚜️भाग #297 ⚜️🔱 श्री रामचरित मानस गायन || ⚜️🔱'Episode'> घटना -297: रावण द्वारा भेजे गए गुप्तचरों को पहचान लेने का प्रसंग ⚜️🔱

 

श्रीराम चरित मानस गायन

सुन्दर काण्ड  

  दोहा : 51-54  


    >>>'Episode'> घटना -297: रावण द्वारा भेजे गए गुप्तचरों को पहचान लेने का प्रसंग ....... 

            विभीषण के श्री राम के शरण में जाने के साथ ही शत्रु की सेना का भेद जानने को रावण ने जो गुप्तचर भेजे थे, उनकी वास्तविकता वानरों के आगे देर तक छिपी न रह सकी। वे पकड़ लिए गए। सुग्रीव ने आदेश दिया कि उनका अंग-भंग करके उन्हें लंका भेज दिया जाये। नाक-कान काटे जाने की बात सुनकर गुप्तचर त्राहि त्राहि कर उठे और वानरों को ऐसा न करने के लिए श्रीराम की सौगन्ध दे दी। हाथ-पाँव बाँधकर जब उन्हें लक्ष्मणजी के सम्मुख लाया गया ; तो दयालु लक्ष्मण ने उन्हें बन्धन -मुक्त कराया। रावण के नाम से पत्र देकर गुप्तचरों को ये मौखिक संदेश पहुँचाने को कहा कि  सीताजी को सादर वापस लाकर,  वो राम की शरण आये, अन्यथा अपना काल आया ही समझे। लंका पहुँचकर रावण से अपनी दुर्गति और लक्ष्मण का सन्देश सुनाते हुए गुप्तचर शुक ने निवेदन किया - हे नाथ वानर-सेना का वर्णन तो सौ करोड़ मुखों से भी करना सम्भव नहीं है। जिसने लंका जलाई और आपके पुत्र अक्षय कुमार का वध किया उसका बल तो अन्य वानरों की तुलना में कुछ भी नहीं है ....
 
 दोहा 

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।

        प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह॥51॥    
  
   भावार्थ:-कपट से वानर का शरीर धारण कर उन्होंने सब लीलाएँ देखीं। वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे॥51॥

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥

रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥1॥

भावार्थ:-फिर वे प्रकट रूप में भी अत्यंत प्रेम के साथ श्री रामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे उन्हें दुराव (कपट वेश) भूल गया। सब वानरों ने जाना कि ये शत्रु के दूत हैं और वे उन सबको बाँधकर सुग्रीव के पास ले आए॥1॥

कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥

सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए॥2॥

भावार्थ:-सुग्रीव ने कहा- सब वानरों! सुनो, राक्षसों के अंग-भंग करके भेज दो। सुग्रीव के वचन सुनकर वानर दौड़े। दूतों को बाँधकर उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया॥2॥

बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना॥3॥

भावार्थ:-वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा। (तब दूतों ने पुकारकर कहा-) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है॥ 3॥

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए॥
रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥4॥

भावार्थ:-यह सुनकर लक्ष्मणजी ने सबको निकट बुलाया। उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उन्होंने राक्षसों को तुरंत ही छुड़ा दिया। (और उनसे कहा-) रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना (और कहना-) हे कुलघातक! लक्ष्मण के शब्दों (संदेसे) को बाँचो॥4॥

दोहा 

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥52॥

भावार्थ:-फिर उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हुआ) संदेश कहना कि सीताजी को देकर उनसे (श्री रामजी से) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया (समझो)॥52॥

चौपाई 

तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥

कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥

भावार्थ:-लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिए। श्री रामजी का यश कहते हुए वे लंका में आए और उन्होंने रावण के चरणों में सिर नवाए॥1॥
बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥

पुन कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥2॥

भावार्थ:-दशमुख रावण ने हँसकर बात पूछी- अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता? फिर उस विभीषण का समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यंत निकट आ गई है॥2॥

करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई॥3॥

भावार्थ:-मूर्ख ने राज्य करते हुए लंका को त्याग दिया। अभागा अब जौ का कीड़ा (घुन) बनेगा (जौ के साथ जैसे घुन भी पिस जाता है, वैसे ही नर वानरों के साथ वह भी मारा जाएगा), फिर भालु और वानरों की सेना का हाल कह, जो कठिन काल की प्रेरणा से यहाँ चली आई है॥3॥

जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥4॥

भावार्थ:-और जिनके जीवन का रक्षक कोमल चित्त वाला बेचारा समुद्र बन गया है (अर्थात्‌) उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते। फिर उन तपस्वियों की बात बता, जिनके हृदय में मेरा बड़ा डर है॥4॥

दूत का रावण को समझाना और लक्ष्मणजी का पत्र देना

दोहा 

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।

कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥53॥

भावार्थ:-उनसे तेरी भेंट हुई या वे कानों से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए? शत्रु सेना का तेज और बल बताता क्यों नहीं? तेरा चित्त बहुत ही चकित (भौंचक्का सा) हो रहा है॥53॥

चौपाई 

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥

मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥

भावार्थ:-(दूत ने कहा-) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए (मेरी बात पर विश्वास कीजिए)। जब आपका छोटा भाई श्री रामजी से जाकर मिला, तब उसके पहुँचते ही श्री रामजी ने उसको राजतिलक कर दिया॥1॥

दोहा 

रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥

श्रवन नासिका काटैं लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥2॥

भावार्थ:-हम रावण के दूत हैं, यह कानों से सुनकर वानरों ने हमें बाँधकर बहुत कष्ट दिए, यहाँ तक कि वे हमारे नाक-कान काटने लगे। श्री रामजी की शपथ दिलाने पर कहीं उन्होंने हमको छोड़ा॥2॥

पूँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई॥

नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी॥3

भावार्थ:-हे नाथ! आपने श्री रामजी की सेना पूछी, सो वह तो सौ करोड़ मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। अनेकों रंगों के भालु और वानरों की सेना है, जो भयंकर मुख वाले, विशाल शरीर वाले और भयानक हैं॥3॥

जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥

अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥4॥

भावार्थ:-जिसने नगर को जलाया और आपके पुत्र अक्षय कुमार को मारा, उसका बल तो सब वानरों में थोड़ा है। असंख्य नामों वाले बड़े ही कठोर और भयंकर योद्धा हैं। उनमें असंख्य हाथियों का बल है और वे बड़े ही विशाल हैं॥4॥
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⚜️🔱शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए। ⚜️🔱भाग #296 ⚜️🔱 श्री रामचरित मानस गायन ||

 श्रीराम चरित मानस  

सुन्दर काण्ड  

  दोहा : 49-50 (क)-(ख)  


>>>'Episode'> घटना -296 :  समुद्र पार करने के उपाय के लिये समुद्र से प्रार्थना करने की विभीषण की सलाह .... 
      
        विभीषण ने श्रीराम की पवित्र भक्ति माँगी और वो उन्हें प्राप्त हो गयी। (ठाकुर जी ने विभीषण को ह्रदय से अपना लिया !) श्री राम के वानर सेना के सामने समस्या थी समुद्र पार कैसे किया जाय ?? विभीषण का कहना है कि यद्यपि श्री राम का एक ही वाण करोड़ों समुद्रों का जल शोख सकता है, तथापि नीति कहती है कि पहले जाकर समुद्रसे प्रार्थना की जाय। वे ऐसा उपाय बतायेंगे कि रीछ और वानरों की सेना बिना किसी कठिनाई के सागर पार चली जाएगी।
   
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। 

तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥।

राम बचन सुनि बानर जूथा। 

सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥1॥

भावार्थ:-हे लंकापति! सुनो, तुम्हारे अंदर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय हो। श्री रामजी के वचन सुनकर सब वानरों के समूह कहने लगे- कृपा के समूह श्री रामजी की जय हो॥1॥

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी

 नहिं अघात श्रवनामृत जानी

पद अंबुज गहि बारहिं बारा। 

हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥2॥

भावार्थ:-प्रभु की वाणी सुनते हैं और उसे कानों के लिए अमृत जानकर विभीषणजी अघाते नहीं हैं। वे बार-बार श्री रामजी के चरण कमलों को पकड़ते हैं अपार प्रेम है, हृदय में समाता नहीं है॥2॥

सुनहु देव सचराचर स्वामी। 
प्रनतपाल उर अंतरजामी॥

उर कछु प्रथम बासना रही। 
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥3॥

भावार्थ:-(विभीषणजी ने कहा-) हे देव! हे चराचर जगत्‌ के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले! सुनिए, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना (ऐषणा) थी। वह प्रभु के चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई॥3॥

अब कृपाल निज भगति पावनी। 
देहु सदा सिव मन भावनी॥

एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
 मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥4॥

भावार्थ:-अब तो हे कृपालु! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए। 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्री रामजी ने तुरंत ही समुद्र का जल माँगा॥4॥
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। 

मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। 

सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥5॥

भावार्थ:-(और कहा-) हे सखा! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत्‌ में मेरा दर्शन अमोघ है। (वह निष्फल नहीं जाता)। ऐसा कहकर श्री रामजी ने उनको राजतिलक कर दिया आकाश से पुष्पों की अपार वृष्टि हुई॥5॥ (वह निष्फल नहीं जाता- रामजी ने मानो पहले ही लंका पर विजय प्राप्त कर लिया था !!)

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड॥49क॥

भावार्थ:-श्री रामजी ने रावण की क्रोध रूपी अग्नि में, जो अपनी (विभीषण की) श्वास (वचन) रूपी पवन से प्रचंड हो रही थी, जलते हुए विभीषण को बचा लिया और उसे अखंड राज्य दिया॥49 (क)॥

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥49ख॥

भावार्थ:-शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही संपत्ति श्री रघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचते हुए दी॥49 (ख)॥

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। 
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥

निज जन जानि ताहि अपनावा। 
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥1॥

भावार्थ:-ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरे को भजते हैं, वे बिना सींग-पूँछ के पशु हैं। अपना सेवक जानकर विभीषण को श्री रामजी ने अपना लिया। प्रभु का स्वभाव वानरकुल के मन को (बहुत) भाया॥1॥

पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
 सर्बरूप सब रहित उदासी॥

बोले बचन नीति प्रतिपालक। 
कारन मनुज दनुज कुल घालक॥2॥

भावार्थ:-फिर सब कुछ जानने वाले, सबके हृदय में बसने वाले, सर्वरूप (सब रूपों में प्रकट), सबसे रहित, उदासीन, कारण से (भक्तों पर कृपा करने के लिए) मनुष्य बने हुए तथा राक्षसों के कुल का नाश करने वाले श्री रामजी नीति की रक्षा करने वाले वचन बोले-॥2॥

(#समुद्र पार करने के लिए विचार, रावणदूत शुक का आना और लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर लौटना।) 
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥3॥

भावार्थ:-हे वीर वानरराज सुग्रीव और लंकापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए? अनेक जाति के मगर, साँप और मछलियों से भरा हुआ यह अत्यंत अथाह समुद्र पार करने में सब प्रकार से कठिन है॥3॥

 कह लंकेस सुनहु रघुनायक। 
कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥

जद्यपि तदपि नीति असि गाई। 
बिनय करिअ सागर सन जाई॥4॥

भावार्थ:-विभीषणजी ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, यद्यपि आपका एक बाण ही करोड़ों समुद्रों को सोखने वाला है (सोख सकता है), तथापि नीति ऐसी कही गई है (उचित यह होगा) कि (पहले) जाकर समुद्र से प्रार्थना की जाए॥4॥
दोहा 
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि॥50॥

भावार्थ:-हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बड़े (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देंगे। तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी॥50॥

सखा कही तुम्ह नीति उपाई। 
करिअ दैव जौं होइ सहाई।

मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
 राम बचन सुनि अति दुख पावा॥1॥

भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी। श्री रामजी के वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दुःख पाया॥1॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा। 
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥

कादर मन कहुँ एक अधारा।
 दैव दैव आलसी पुकारा॥2॥

भावार्थ:-(लक्ष्मणजी ने कहा-) हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिए। यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥2॥

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई॥3॥

भावार्थ:-यह सुनकर श्री रघुवीर हँसकर बोले- ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो। ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्र के समीप गए॥3॥

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए॥4॥

भावार्थ:-उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए। इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे॥51॥

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⚜️🔱जिन्हें द्विज के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं॥ ⚜️ भाग #295 🔱श्री रामचरित मानस गायन ||

 श्रीराम चरित मानस  

सुन्दर काण्ड  

  दोहा : 45-48 

>>>'Episode'> घटना -295 भगवान श्री राम से अपने शरण में लेने की विभीषण की विनती - 

       " हे नाथ ! मैं दशमुख रावण का भाई विभीषण हूँ। मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरी काया तामसी है, स्वाभाव से ही मैं पापी हूँ, कानों से आपका सुयश सुनकर आपकी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा कीजिये। विभीषण ये वचन कहकर श्री राम के चरणों में दण्डवत प्रणाम किया। हर्षित होकर श्रीराम ने उन्हें गले से लगा लेते हैं ; कहते हैं- हे लंकेश ! परिवारसहित अपना कुशल स्वयं सुनाइए। दिन-रात दुष्टों के साथ आपका निवास है, आप अपना धर्म भला किस प्रकार निभाते हैं ? मैं जानता हूँ कि आप नीतिकुशल हैं, अनीति से आपका कोई समबन्ध नहीं। ये वचन सुनकर विभीषण कहते हैं - हे प्रभु! नरक में रहना श्रेयस्कर है, परन्तु विधाता किसीको दुष्टों की संगति न दे। लोभ, मोह, मत्सर (ईर्ष्या -डाह) और अभिमान तभीतक ह्रदय में बसते हैं , जबतक श्री रघुनाथ का वहाँ निवास नहीं होता। ये मेरा परम सौभाग्य है कि मैंने उन चरणों में शरण प्राप्त कर ली जिनकी पूजा स्वयं ब्रह्मा तथा शिव करते हैं। श्रीराम ने विभीषण को अपनी भक्त वत्सलता से आश्वस्त कर दिया। प्रभु के वचन सुनकर विभषण का जीवन धन्य हो गया।         

[राक्षस कुल में जन्मे भक्त विभीषण की विशेषता : उन्होंने हनुमान जी (ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु) के मुख से प्रभु श्रीराम के सुयश का श्रवण करके उस पर मनन , निदिध्यासन किया था।]   

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।

त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥45॥

भावार्थ:-मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥45॥

चौपाई 

अस कहि करत दंडवत देखा।

 तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥

दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। 

भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥

भावार्थ:-प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दंडवत्‌ करते देखा तो वे अत्यंत हर्षित होकर तुरंत उठे। विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर प्रभु के मन को बहुत ही भाए। उन्होंने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया॥1॥

कहु लंकेस सहित परिवारा। 

कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥2॥

हे लंकेश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है॥2॥

खल मंडली बसहु दिनु राती। 

सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥

 ' दिन-रात दुष्टों की मंडली में बसते हो। (ऐसी दशा में) हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है? 

बरु भल बास नरक कर ताता। 

दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥

-हे तात! नरक में रहना वरन्‌ अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे।

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।

 लोभ मोह मच्छर मद माना॥

जब लगि उर न बसत रघुनाथा।

 धरें चाप सायक कटि भाथा॥1॥

      भावार्थ:-लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकस धारण किए हुए श्री रघुनाथजी हृदय में नहीं बसते 1॥

     अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।

       देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज॥47॥

भावार्थ:-हे कृपा और सुख के पुंज श्री रामजी! मेरा अत्यंत असीम सौभाग्य है, जो मैंने ब्रह्मा और शिवजी के द्वारा सेवित युगल चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा॥47॥

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। 

जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥

जौं नर होइ चराचर द्रोही। 

आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥

भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काक-भुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (संपूर्ण) जड़-चेतन जगत्‌ का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए,॥1॥

तजि मद मोह कपट छल नाना। 

करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥

भावार्थ:-और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ। 

जननी जनक बंधु सुत दारा। 

तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥2॥

सब कै ममता ताग बटोरी।

 मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥

समदरसी इच्छा कछु नाहीं।

 हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥

भावार्थ:-माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार,  इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है॥3॥

अस सज्जन मम उर बस कैसें।

 लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥

तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। 

धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥4॥

भावार्थ:-ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे किसी लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता॥4॥

दोहा 

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।

ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम48

भावार्थ:-जो सगुण (साकार) भगवान्‌ के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों (द्विज) के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं॥48॥

[द्विज - जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत् द्विजः (श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः नवनी दा) जन्मना जायतो शूद्रः। वेद-पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।] 

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⚜️🔱⚜️मम पन सरनागत भयहारी' -मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना ⚜️ भाग #294🔱 [दर्शनाभिलाषी विभीषण के भगवान श्रीराम से मिलने का प्रसंग....]⚜️🔱 श्री रामचरित मानस गायन ||

[ V.B.-Dated:16th July, 2025] 

श्री रामचरित मानस 

सुन्दर काण्ड  

दोहा : 42-44 


   >>>'Episode'> घटना -294: दर्शनाभिलाषी विभीषण के भगवान श्रीराम से मिलने का प्रसंग। ... 

          >> >> जिन चरणों का स्पर्श पाकर ऋषिपत्नी अहिल्या को मोक्ष की प्राप्ति हुई, जिन्हें जानकी तथा महादेव ने अपने ह्रदय में धारण कर रखा है; आज मुझे उन्हीं चरणों के दर्शन प्राप्त होंगे। इन्हीं विचारों में खोये- खोये विभीषण  समुद्र के  इस पार आ गये। जिधर श्रीराम की वानर सेना के शिविर लगे हुए हैं। वानर समूह ने उन्हें देखा तो शंका हुई- शत्रु का कोई खास दूत तो उनके बीच नहीं आ पहुँचा है ? विभीषण को श्रीराम के सम्मुख उपस्थित किया जाता है। 

(प्रभु श्रीराम ने सुग्रीव जी से कहा -  मित्र ! तुम क्या समझते हो -तुम्हारी क्या राय है ? वानरराज सुग्रीव ने कहा -हे महाराज ! राक्षसों की माया जानी नहीं जाती-यह छली न जाने किस कारण आया है ? इसे बाँध रखा जाये।) 

दोहा 

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।

ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ॥42॥

भावार्थ:-जिन चरणों की पादुकाओं में भरतजी ने अपना मन लगा रखा है, अहा! आज मैं उन्हीं चरणों को अभी जाकर इन नेत्रों से देखूँगा॥42॥ 

चौपाई 

ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥1॥

भावार्थ:-इस प्रकार प्रेमसहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार (जिधर श्री रामचंद्रजी की सेना थी) आ गए। वानरों ने विभीषण को आते देखा तो उन्होंने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है॥1॥

ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई॥2॥

भावार्थ:-उन्हें (पहरे पर) ठहराकर वे सुग्रीव के पास आए और उनको सब समाचार कह सुनाए। सुग्रीव ने (श्री रामजी के पास जाकर) कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, रावण का भाई (आप से) मिलने आया है॥2॥

कह प्रभु सखा बूझिए काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया॥3॥

भावार्थ:-प्रभु श्री रामजी ने कहा- हे मित्र! तुम क्या समझते हो (तुम्हारी क्या राय है)? वानरराज सुग्रीव ने कहा- हे महाराज! सुनिए, राक्षसों की माया जानी नहीं जाती। यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला (छली) न जाने किस कारण आया है॥3॥

भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥

सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥4॥

भावार्थ:-(जान पड़ता है) यह मूर्ख हमारा भेद लेने आया है, इसलिए मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इसे बाँध रखा जाए। (श्री रामजी ने कहा-) हे मित्र! तुमने नीति तो अच्छी विचारी, परंतु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना!॥4॥

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।

सरनागत बच्छल भगवाना॥5॥

भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर हनुमान्‌जी हर्षित हुए (और मन ही मन कहने लगे कि) भगवान्‌ कैसे शरणागतवत्सल (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करने वाले) हैं॥5॥

दोहा 

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।

ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥43॥

भावार्थ:-(श्री रामजी फिर बोले-) जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)॥43॥

चौपाई 

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥1॥

भावार्थ:-जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं॥1॥

पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई॥2॥

भावार्थ:-पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि वह (रावण का भाई) निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था?॥2॥

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥

भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥3॥

भावार्थ:-जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है॥3॥

जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं। रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥4॥

भावार्थ:-क्योंकि हे सखे! जगत में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदि वह भयभीत होकर मेरी शरण आया है तो मैं तो उसे प्राणों की तरह रखूँगा॥4॥

दोहा 

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले, अंगद हनू समेत॥44॥

भावार्थ:-कृपा के धाम श्री रामजी ने हँसकर कहा- दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ। तब अंगद और हनुमान्‌ सहित सुग्रीवजी 'कृपालु श्री रामजी की जय हो' कहते हुए चले॥4॥

चौपाई 
सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता॥1॥

भावार्थ:-विभीषणजी को आदर सहित आगे करके वानर फिर वहाँ चले, जहाँ करुणा की खान श्री रघुनाथजी थे। नेत्रों को आनंद का दान देने वाले (अत्यंत सुखद) दोनों भाइयों को विभीषणजी ने दूर ही से देखा॥1॥

बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥2॥

भावार्थ:-फिर शोभा के धाम श्री रामजी को देखकर वे पलक (मारना) रोककर ठिठककर (स्तब्ध होकर) एकटक देखते ही रह गए। भगवान्‌ की विशाल भुजाएँ हैं लाल कमल के समान नेत्र हैं और शरणागत के भय का नाश करने वाला साँवला शरीर है॥2॥

सिंघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता॥3॥

भावार्थ:-सिंह के से कंधे हैं, विशाल वक्षःस्थल (चौड़ी छाती) अत्यंत शोभा दे रहा है। असंख्य कामदेवों के मन को मोहित करने वाला मुख है। भगवान्‌ के स्वरूप को देखकर विभीषणजी के नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया। फिर मन में धीरज धरकर उन्होंने कोमल वचन कहे॥3॥

नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥4॥

भावार्थ:-हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूँ। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है॥4॥

दोहा 

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥45॥

भावार्थ:-मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥45॥
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शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

🔱🕊 🏹' विवेकानन्द - दर्शनम् ' अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित ) (श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय, अध्यक्ष, अखिल भारतीय विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा रचित) 🔱( 'Vivekananda - Darshanam' (Composed by Shri Navaniharan Mukhopadhyay, President, All India Vivekananda Yuva Mahamandal)

 ' विवेकानन्द - दर्शनम् '

(Vivekananda - Darshanam)

  'विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्' 

(And the philosophy of pure emotion and knowledge)

( और शुद्ध भावना तथा ज्ञान का दर्शन)

(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )

[In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.  

इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं।]     

 ॐ नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोSस्तुते।।१।।  

[O goddess Sarada, O goddess Durga,

 I offer my obeisance  to you.] 

हे देवी सारदा, हे देवी दुर्गा, 

मैं आपको दण्डवत प्रणाम करता हूँ।

वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी।।२।। 

[O Mother Sarada! You are Mahamaya, the great Maya,

 the destroyer of Maya (the illusion of the lion cub). 

You are the Goddess of Speech (Mata Saraswati)

 and Mother Lakshmi in one form..]

 

श्री श्री माँ सारदा और आप ,
 मैं ...या कोई भी ...

हे माँ सारदा ! आप माया का (सिंह-शावक के) भ्रम रूपी पाश का नाश करने वाली 

'महामाया' महान माया हैं आप एक ही आधार में,

 वाक् देवी (माता सरस्वती) तथा माता लक्ष्मी हैं !   

नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति।।३।। 

O goddess Sarada, Radha, Sita and Saraswati,

 I offer my obeisance to you.

हे देवी सारदा, राधा, सीता और सरस्वती, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसारार्णवतारिणी ।।४।। 

She gives all knowledge to her devotees 
and takes them beyond the cycle of birth and death.

वह अपने भक्तों को सारा ज्ञान (अपरा और परा दोनों) प्रदान करती हैं और उन्हें,

 संसार -सागर (जन्म और मृत्यु के चक्र) से पार ले जाती हैं।

सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी।।५।।    

May that bestower of liberation and

 devotion dwell on my tongue.

मोक्ष और भक्ति  दोनों देने में समर्थ (श्री श्री माँ सारदा देवी) 

देवी मेरी जिह्वा पर निवास करें।

सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी।। ६।।  

Sarada is the mother of the universe and the flowing river of mercy.

जगतजननी माँ सारदा ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की माता और दया की बहती नदी हैं।

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 ' विवेकानन्द - दर्शनम् '

यह जगत क्या है, क्यों है ?

(What is this world and why does it exist?)

१.

नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम्। 

एष वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते।। 

        1.' After all, this world is a series of pictures. This colorful conglomeration expresses one idea only.'
        
        १." सत्य-सा प्रतीत होते हुए भी, आखिरकार- यह चराचर जगत् सतत परिवर्तनशील छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र ही तो है। और चलचित्रों के इस सतरंगी छटा-समुच्चय के द्वारा केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है।" 

[भगिनी निवेदिता द्वारा अंग्रेजी में लिखित डायरी -" स्वामी विवेकानन्द के संस्मरण " (कलकत्ता, 8 मई, 1899) से उद्धृत अंश का हिन्दी अनुवाद।]   
 

२.

 मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्त्ता तु वर्तते। 
 
पश्यामः केवलं तद्धि नृनिर्माणं कथं भवेत्।। 

       2. 'Man is marching towards perfection. That is -- ' the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone.'
        
        २.  अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ - मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति # की ओर अग्रसर हो रहा है ! ' इस  संसार-चलचित्र रूपी धारावाहिक के माध्यम से हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को ' मानहूश ' अर्थात यथार्थ 'मनुष्य ' बनते हुए देख रहे थे !

[# 'The whole-hearted Man'- पूर्ण विस्तारित हृदय वाला मनुष्य- या (100 % पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य या देवमानव बनने की दिशा में अग्रसर हो रहा है। ]

        [I have seen Swami today. He told me how, as a child of thirteen, he came across a copy of Thomas à Kempis which contained in the preface an account of the Author's monastery and its organization. And that was the abiding fascination of the book to him. Never thinking that he would have to work out something of the sort one day. "I love Thomas à Kempis, you know, and know it almost off by heart. If only they had told what Jesus ate and drank, where he lived and slept, and how he passed the day, instead of all rushing to put down what he said! Those long lectures! Why, all that can be said in religion can be counted on a few fingers. That does not matter, it is the man that results that grows out of it. You lake a lump of mist in your hand, and gradually, gradually, it develops into a man. Salvation is nothing in itself, it is only a motive. All those things are nothing, except as motives. It is the man they form, that is everything!" And now I remember he began this by saying, "It was not the words of Shri Ramakrishna but the life he lived that was wanted, and that is yet to be written. After all, this world is a series of pictures, and man-making is the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone. Shri Ramakrishna was always weeding out and rejecting the old, he always chose the young for his disciples." --Sister Nivedita's diary, Calcutta, May 8,1899 :'Reminiscences of Swami Vivekananda.
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Jagadish Chandra Bose had said - "An avatar-doctrine could not supply India's present need of a religion all- embracing, sect-uniting, etc."-- Sister Nivedita 
[>>>>>>>साभार :https://advaitaashrama.org/pb/2017/012017.pdf]
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"The modern system of education gives no facility for the development of the knowledge of Brahman". -Swami Vivekananda
[Sharat Chandra Chakravarty IX:]  
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1.⚜️🔱यह जगत क्या है, क्यों है ? ⚜️🔱' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (1,2) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः

2.' विवेकानन्द दर्शनम् सारांश ' (1-16 ): (1,2)Blog date :Monday, September 1, 2014

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