श्रीराम चरित मानस गायन
सुन्दर काण्ड
[ घटना - 298: दोहा : 54-57]
इस ब्लॉग में व्यक्त कोई भी विचार किसी व्यक्ति विशेष के दिमाग में उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है! इस ब्लॉग में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है ! ब्लॉग में वर्णित विचारों को '' एप्लाइड विवेकानन्दा इन दी नेशनल कान्टेक्स्ट" कहा जा सकता है। एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने के लिए युवाओं को 'अनुप्राणित' करना है।
श्रीराम चरित मानस गायन
सुन्दर काण्ड
[ घटना - 298: दोहा : 54-57]
श्रीराम चरित मानस
सुन्दर काण्ड
दोहा : 49-50 (क)-(ख)
श्रीराम चरित मानस
सुन्दर काण्ड
दोहा : 45-48
>>>'Episode'> घटना -295 : भगवान श्री राम से अपने शरण में लेने की विभीषण की विनती -
" हे नाथ ! मैं दशमुख रावण का भाई विभीषण हूँ। मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरी काया तामसी है, स्वाभाव से ही मैं पापी हूँ, कानों से आपका सुयश सुनकर आपकी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा कीजिये। विभीषण ये वचन कहकर श्री राम के चरणों में दण्डवत प्रणाम किया। हर्षित होकर श्रीराम ने उन्हें गले से लगा लेते हैं ; कहते हैं- हे लंकेश ! परिवारसहित अपना कुशल स्वयं सुनाइए। दिन-रात दुष्टों के साथ आपका निवास है, आप अपना धर्म भला किस प्रकार निभाते हैं ? मैं जानता हूँ कि आप नीतिकुशल हैं, अनीति से आपका कोई समबन्ध नहीं। ये वचन सुनकर विभीषण कहते हैं - हे प्रभु! नरक में रहना श्रेयस्कर है, परन्तु विधाता किसीको दुष्टों की संगति न दे। लोभ, मोह, मत्सर (ईर्ष्या -डाह) और अभिमान तभीतक ह्रदय में बसते हैं , जबतक श्री रघुनाथ का वहाँ निवास नहीं होता। ये मेरा परम सौभाग्य है कि मैंने उन चरणों में शरण प्राप्त कर ली जिनकी पूजा स्वयं ब्रह्मा तथा शिव करते हैं। श्रीराम ने विभीषण को अपनी भक्त वत्सलता से आश्वस्त कर दिया। प्रभु के वचन सुनकर विभषण का जीवन धन्य हो गया।
[राक्षस कुल में जन्मे भक्त विभीषण की विशेषता : उन्होंने हनुमान जी (ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु) के मुख से प्रभु श्रीराम के सुयश का श्रवण करके उस पर मनन , निदिध्यासन किया था।]
श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥45॥
भावार्थ:-मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥45॥
चौपाई
अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥
भावार्थ:-प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दंडवत् करते देखा तो वे अत्यंत हर्षित होकर तुरंत उठे। विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर प्रभु के मन को बहुत ही भाए। उन्होंने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया॥1॥
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥2॥
हे लंकेश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है॥2॥
खल मंडली बसहु दिनु राती।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥
' दिन-रात दुष्टों की मंडली में बसते हो। (ऐसी दशा में) हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है?
बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
-हे तात! नरक में रहना वरन् अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे।
तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मच्छर मद माना॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।
धरें चाप सायक कटि भाथा॥1॥
भावार्थ:-लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकस धारण किए हुए श्री रघुनाथजी हृदय में नहीं बसते 1॥
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज॥47॥
भावार्थ:-हे कृपा और सुख के पुंज श्री रामजी! मेरा अत्यंत असीम सौभाग्य है, जो मैंने ब्रह्मा और शिवजी के द्वारा सेवित युगल चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा॥47॥
सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥
भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काक-भुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (संपूर्ण) जड़-चेतन जगत् का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए,॥1॥
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
भावार्थ:-और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ।
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥2॥
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥
भावार्थ:-माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार, इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है॥3॥
अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥4॥
भावार्थ:-ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे किसी लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता॥4॥
दोहा
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥48॥
भावार्थ:-जो सगुण (साकार) भगवान् के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों (द्विज) के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं॥48॥
[द्विज - जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत् द्विजः (श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः नवनी दा) जन्मना जायतो शूद्रः। वेद-पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।]
================
[ V.B.-Dated:16th July, 2025]
श्री रामचरित मानस
सुन्दर काण्ड
दोहा : 42-44
' विवेकानन्द - दर्शनम् '
(Vivekananda - Darshanam)
'विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्'
(And the philosophy of pure emotion and knowledge)
( और शुद्ध भावना तथा ज्ञान का दर्शन)
(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
[In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं।]
ॐ नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोSस्तुते।।१।।
[O goddess Sarada, O goddess Durga,
I offer my obeisance to you.]
हे देवी सारदा, हे देवी दुर्गा,
मैं आपको दण्डवत प्रणाम करता हूँ।
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी।।२।।
[O Mother Sarada! You are Mahamaya, the great Maya,
the destroyer of Maya (the illusion of the lion cub).
You are the Goddess of Speech (Mata Saraswati)
and Mother Lakshmi in one form..]
हे माँ सारदा ! आप माया का (सिंह-शावक के) भ्रम रूपी पाश का नाश करने वाली
'महामाया' महान माया हैं आप एक ही आधार में,
वाक् देवी (माता सरस्वती) तथा माता लक्ष्मी हैं !
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति।।३।।
O goddess Sarada, Radha, Sita and Saraswati,
I offer my obeisance to you.
हे देवी सारदा, राधा, सीता और सरस्वती, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसारार्णवतारिणी ।।४।।
' विवेकानन्द - दर्शनम् '