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शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

🔱कारण शरीर परमेश की वह अविद्या शक्ति है जो सत्य को ढँक देती है 🔱 Session 17 | The Essence of Vivekachudamani |🔱🔱https://www.sadhanapath.in/2025/09/110.html🔱https://www.sadhanapath.in/2025/09/111.html🔱https://shlokam.org/texts/vivekachudamani-120-121/

 

परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,

 निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।

यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,

 तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥

(वेदसार शिवस्तव स्तोत्र) 

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ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥

ॐ शांति, शांति, शांतिः  

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            विगत सत्र में 'अनात्मा ' को लेकर विचार करते समय हमने देखा था कि स्थूल शरीर की तरह ही सूक्ष्म शरीर भी नश्वर है। फिर स्थूल शरीर को लेकर विचार करते समय हमने पंचकोष की दृष्टि से ऊपरी अन्नमय कोष है किन्तु उसके भीतर और काफी पीछे आनंदमय कोष पर विचार किया था। हमने देखा था कि हम जितना स्थूल शरीर के साथ अपने तादात्म्य को हटाते जाते हैं -उतना सूक्ष्म स्तर पर पहुँचते है। बाहर जो दिखाई देता है वो स्थूल है। उसके पीछे और उसके भीतर जाते ही हम सूक्ष्म स्तर पर पहुँच जाते हैं। और स्थूल की तुलना में सूक्ष्म ज्यादा व्यापक होता है। जो सूक्ष्म है , वो भीतर भी होता है , व्यापक भी होता है और ज्यादा शक्तिशाली भी होता है। ये एक सरल नियम है। क्योंकि स्थूल शरीर की सारी शक्ति सूक्ष्म से ही आती है , आप इस स्थूल शरीर के जितना भी भीतर और पीछे सूक्ष्म स्तर पर जाओगे आपका व्यक्तित्व उतना ही व्यापक और प्रभावशाली होता जायेगा। स्थूल शरीर का व्यक्तित्व एक सीमा में सीमित है, सूक्ष्म शरीर व्यापक और शक्तिशाली होता है। 

        फिर हमने देखा की सूक्ष्म शरीर किन 8 चीजों या अंगों से मिल कर बनी है-जिसे 'पुर्यष्टक' आठ अंग का पुर यानि शहर ; कहा जाता है ? सूक्ष्म शरीर के ये आठ अंग कौन-कौन हैं ?  1 -पाँच कर्मेन्द्रिय 2- पाँच ज्ञानेन्द्रिय , 3 -पाँच प्राण, 4 - पांच तन्मात्रयें, 5 - अंतःकरण चतुष्टय, 6 -अविद्या (Ignorance : अविद्या जीव को उसकी वास्तविक आत्मस्वरूप से दूर रखती है।) , 7 -काम (All types of desires: काम जीव को इन्द्रियों और विषयों की ओर खींचता है। ) , 8 -कर्म (Action:और कर्म उस कामना की पूर्ति के लिए कार्य करवाता है। यही कारण है कि जीव संसार में बंधा रहता है और पुनः–पुनः जन्म लेता है। ) । 

        प्रश्न उठता है - तो हम स्थूल शरीर M/F नहीं हैं, लेकिन तब सूक्ष्म शरीर हैं क्या ? नहीं हम यह सूक्ष्म शरीर भी नहीं हैं। लेकिन हमारा स्थूल शरीर पूर्णतः सूक्ष्म शरीर के द्वारा संचालित है। स्थूल सब समय सूक्ष्म से संचालित है। आप कह सकते हो कि सारा Programming सूक्ष्म शरीर में  होता है , और स्थूल सिर्फ एक Hardware मात्र है। Software के बिना Hardware कोई कार्य नहीं कर सकता। लेकिन आप Software या 8 अंगों वाला सूक्ष्म शरीर भी नहीं हो। क्योंकि सूक्ष्मशरीर भी बदल रहा है , परिवर्तनशील है। मन निरंतर बदल रहा है , मन के अंदर के विचार बदलते रहते हैं , कभी अच्छे , कभी बुरे विचार चलते रहते हैं। कभी मन खुश है , कभी उदास है। कभी -कभी बिना किसी कारण के मन भयभीत हो जाता है। ये सब परिवर्तन सूक्ष्म-शरीर में ही हो रहा है। स्थूल और सूक्ष्म दोनों पर एक ही चीज लागु होता कि वे -प्रतिक्षणं अन्यथा स्वभाव हैं! जो भी हम अनुभव कर रहे हैं -वो हर क्षण बदल रहा है। जैसे जादूगर नयी नयी चीजे निकालता है - मन से भी कई तरह के विचार निकलते मिटते रहते हैं। और 'दृष्ट नष्ट स्वभाव" है।  इस प्रकार सूक्ष्म शरीर केवल इन्द्रियों और प्राणों का समूह नहीं है, बल्कि वह समग्र ढांचा है जिसके द्वारा जीव संसार को जानता है, भोग करता है और कर्मों के फल भोगने हेतु नए–नए शरीर धारण करता है। जब साधक आत्मचिंतन द्वारा समझ लेता है कि यह सूक्ष्म शरीर भी नश्वर है - मिथ्या है। और आत्मा का वास्तविक स्वरूप इससे परे है, तभी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। सूक्ष्म शरीर का ज्ञान आत्म–विवेक की नींव है और यह स्पष्ट करता है कि जीव का बंधन वास्तव में देह (स्थूल शरीर) और अन्तःकरण (सूक्ष्म शरीर) के साथ तादात्म्य के कारण है, न कि आत्मा के वास्तविक स्वरूप में

      अब इस सूक्ष्म शरीर (Subtle body) के भी भीतर और पीछे एक और शरीर है , जिसको -Causal Body या कारण शरीर कहते हैं। अब यहाँ से हमलोग एक ऐसे क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं , जिसको समझना , और समझाना बहुत कठिन है। इस कारण शरीर के विषय में कहना , समझाना और समझना भी कठिन है। क्यों कठिन है ? जब हम स्थूल शरीर के बारे में चर्चा करते हैं , तो किसी व्यक्ति के स्थूल शरीर की बात करते हैं। उस नाम -रूप वाले स्थूल शरीर या व्यक्ति के पीछे आठ अंगों का एक सूक्ष्म शरीर है , जिसमें अंतःकरण भी एक अंग है या घटक है। अन्तःकरण में मन , बुद्धि , अहंकार और चित्त है। यह भी किसी खास व्यक्ति के अन्तःकरण की बात है। लकिन जैसे ही हम कारण शरीर में प्रवेश कर जाते हैं -हम सृष्टि के मूल में पहुँच जाते हैं। (8.01

       प्रत्येक व्यक्ति के भीतर जो कारण शरीर है, वही इस पूरे सृष्टि का भी कारण है। यह विषय बहुत कठिन अतः ,इसको बहुत ध्यान से सुनने और समझने की चेष्टा करनी होगी। अब हम उस चौखट पर खड़े हैं - अब हम उस दहलीज पर खड़े हैं। जहाँ से सिर्फ एककदम पीछे सत्य मिल जाता है। We are now standing on the threshold . कारण शरीर के विषय में कहना , समझना कठिन है , लेकिन यही इस सृष्टि की सबसे बड़ी सच्चाई है। यह सच्चाई बुद्धि के द्वारा नहीं समझी जा सकती है। क्योंकि बुद्धि तो पीछे छूट गयी , बुद्धि कहाँ है ? सूक्ष्म शरीर में। कारण शरीर सूक्ष्म शरीर के भी पीछे और भीतर है - इसलिए सूक्ष्म शरीर कारण शरीर को कैसे समझेगा? कारण शरीर वह चीज है जो तथाकथित तर्कसंगत और तार्किक स्तर से परे है।Causal body is something which transcends, the so called rational and logical plane . जिसके विषय में हमसब को बहुत गर्व है कि हम लोग बहुत वैज्ञानिक सोच रखते हैं -तर्कसंगत चीजों पर ही विश्वास करते हैं। जिसको हम बुद्धि का तर्कसंगत क्षेत्र समझते हैं - सत्य वस्तु उसके परे है - सत्य इन्द्रियातीत है ! सत्य को बुद्धि से नहीं समझा जा सकता , इसको बुद्धि के परे जाकर -ह्रदय से अनुभव करना पड़ता है। हम उस क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं जो मानवीय तर्क और बुद्धि से परे है। यहाँ हर चीज आपको -Paradoxical, परस्पर विरोधी मिलेगा। ये कारण शरीर बड़ा विचित्र है
        चलिए देखते हैं , शंकराचार्य जी अनुसार यह कारण शरीर क्या है ? किसी भी अन्वेषण के क्षेत्र में एक 'Critical dimension' महत्वपूर्ण आयाम आता है। जहाँ से सिर्फ एक कदम की दूरी पर हमारा लक्ष्य होता है। जैसे हमलोग अनित्य से नित्य में पहुँचने के लिए सिर्फ एक कदम का फासला है। ये सारा चर्चा शुरू हुआ था - 'नित्य-अनित्य वस्तु विवेक' से , आत्मा और अनात्मा का विवेक करते हुए , हमलोग स्थूल, सूक्ष्म शरीरों को अनात्मा समझ लेने के बाद कारण शरीर पर विचार कर रहे हैं - कि कारण शरीर भी अनात्मा है या नहीं ? तो ये अनात्मा का अंतिम छोर है - इसके बाद हम सीधे आत्मा , सत्य ये ईश्वर में पहुँच जाते हैं। इसलिए बहुत ध्यान से हम समझने का प्रयास करेंगे कि इसकी परिभाषा में शंकराचार्य जी क्या कहते हैं -ये कारण शरीर क्या है ? कहते हैं - 
अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति: 
अनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा ।
कार्यानुमेया सुधियैव माया,
 यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते ॥ ११०॥

सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो,
भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका नो ।
साङ्गाप्यनङ्गा ह्युभयात्मिका नो,
महाद्भुतानिर्वचनीयरूपा ॥ १११ ॥

अव्यक्तमेतत्त्रिगुणैर्निरुक्तं
तत्कारणं नाम शरीरमात्मनः ।
सुषुप्तिरेतस्य विभक्त्यवस्था
 प्रलीनसर्वेन्द्रियबुद्धिवृत्तिः ॥ १२२ ॥

(13:39) अभी हमलोग जो पढ़ने जा रहे हैं -उसको कारण शरीर कहते हैं। स्थूल शरीर के पीछे और भीतर सूक्ष्म शरीर है। और सूक्ष्म शरीर के पीछे और भीतर एक कारणात्मक शरीर है , जो सबका कारण है। जहाँ से सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति होती है। स्थूल और सूक्ष्म शरीर व्यक्ति का हो गया। लेकिन उसी व्यक्ति का जो कारण शरीर है , उस कारण शरीर में प्रवेश करते ही आप पूरे सृष्टि के मूल में पहुँच जाते हैं। जैसे कि एक कमरे से आप ऐसी जगह पर पहुँच जाते हो जो पूरे सृष्टि का कारण है। please understand that we are now studying the very seed of this mysterious thing called world .कृपया समझें कि हम अब इस रहस्यमयी चीज़ जिसे दुनिया कहा जाता है, के मूल बीज का अध्ययन कर रहे हैं। यह जो अत्यंत ही विस्मयकारी जगत प्रपंच हमको दिखाई दे रहा है। उसकी जो बीजावस्था है , जो हर व्यक्ति के भीतर है। कोई भी जब ध्यान में इस कारण शरीर तक पहुँचता है , तो सृष्टि के कारण में ही पहुँच जाता है। इसलिए वेदांत में ये सिद्धांत है कि हर व्यक्ति अंदर पूरा ब्रह्माण्ड समाया हुआ है। जो ब्रह्माण्ड में है वो पिण्ड में हैं। ये सिद्धांत है। सूर्य,चंद्र , पृथ्वी जितने भी गोले बाह्य जगत में दिख रहे हैं उन सबका कारण आप स्वयं हो। वेदांत प्रारम्भ से ही यही कहता है कि जीव को यह पता ही नहीं है कि उसके भीतर क्या है ? स्थूल शरीर के भीतर और पीछे सूक्ष्म शरीर में पहुंचने पर -तब भी वो व्यक्ति ही नजर आएगा। और सूक्ष्म शरीर के भीतर जैसे ही पहुँचता है , वो सीधा सृष्टि के मूल में पहुँच जाता है। उसके अंदर अनंत शक्ति है। सृष्टि की शुरुआत वहीँ से होती है। बड़ी अद्भुत बात है , हमारे अंदर क्या है ? इसकी हमें तनिक भी भनक नहीं है। यह योग (राज योग या अष्टांग योग) हमें वहाँ लेजाती है , और समझाती है कि देखो आपके अंदर क्या है ? तो जो कारणात्मक दशा है , जो बीजावस्था है। जो व्यक्ति की बीजावस्था है वही पूरी सृष्टि की बीजावस्था है। क्या है ? देखते हैं एक एक शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। हर शब्द को समझना होगा। इस बात को समझने का प्रयास करेंगे कि आपका जो कारण शरीर है वह पूरे सृष्टि का कारण है। हम सबों का कारणशरीर एक ही है। हम सभी दरवाजों से एक जगह पर आकर पहुँचते हैं। 
 जैसे पहिया होता है , साइकिल के पहिये में सारे स्पोक्स अलग -अलग हैं , लेकिन पहिये की धुरी या नाभि पर मिल जाते हैं। ये कारण शरीर ही वो नाभि है /धूरि है -जहाँ हम सभी लोग जुड़े हुए हैं। बाहर से हमसब अलग अलग लग रहे हैं , दिख रहे हैं , लेकिन हम सब का कारण शरीर एक ही है। समझ रहे हो ? हमलोग एक अद्भुत जगह पर पहुँच रहे हैं , जहाँ से सारी सृष्टि की उत्पत्ति होती है। शुरू होती है। जितना व्यक्ति स्थूल शरीर के भीतर जाता है, सूक्ष्म में जाता है ,वह सृष्टि के उस अवस्था  को प्राप्त कर लेगा जहाँ से सबकी उतपत्ति होती है। अनंतशक्ति का वो स्थान है। तो ये कारण शरीर कैसा है ?  [अनादी अविद्या परमेश्वर कि त्रिगुणात्मक अव्यक्त शक्ति (Undifferentiated) है। (सर्व निर्माण) कार्य कि वह कारण होनेसे श्रेष्ठ है। बुद्धिमान पुरुष कार्य देखकर उसका अनुमान करते है, ऐसी है यह माया ! जिसके कारण चर-अचर जगत् निर्माण होता है।]  
      " अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति:/ अनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा। कार्यानुमेया सुधिया एव माया यया जगत् सर्वम् इदं प्रसूयते।।"   
       इसको अव्यक्त कहते हैं। कारण शरीर क्या है ? अव्यक्तनाम्नी - इसको अव्यक्त कहते हैं। एक एक शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है ध्यान से सुनिए। स्थूल के पीछे सूक्ष्म , सूक्ष्म के भीतर कारण-शरीर, इसको अव्यक्त कहते हैं। अव्यक्त क्यों ? क्योंकि वो व्यक्त नहीं है। स्थूल शरीर तो हमको दिखाई दे रहा है , सूक्ष्म शरीर को हम अनुभव से जानते हैं, कि मन है। मेरा मन , मेरी बुद्धि , मेरी भावनायें , मेरी सोच -ऐसा हम कहते रहते हैं। लेकिन कारण शरीर अव्यक्त है , वो व्यक्त नहीं है। अभिव्यक्त नहीं है , प्रकट नहीं है। अप्रकट है , अदृश्य है ! 
       अव्यक्त जब व्यक्त होगा वहाँ -जो कुछ अव्यक्त से व्यक्त या प्रकट होगा, वह अनेक होगा-भिन्न भिन्न दिखेगा। Whatever is manifested , it will be differentiated.Whatever is unmanifested , it will be undifferentiated .विभेदित होगा।  जो भी अव्यक्त है, वह अभेद -एकत्व होगा।  अनेकता की अनुभूति व्यक्त दशा में होती है। बहुत्व की अनुभूति व्यक्त दशा में होती है। The feeling of multiplicity is felt in the expressed state. अव्यक्त में बहुत्व का अभाव है। In a manifested state , everything is differentiated. ये जो विश्व-प्रपंच है दिख रहा है-इसमें बहुत्व या अनेकता  दीखता है , इसमें पेंड़ है, पौधे हैं , पर्वत हैं , नदियाँ हैं , आप हैं हम हैं। यहां पर सब कुछ पृथक -पृथक दीखता है। लेकिन अव्यक्त अवस्था में सब -undifferentiated है एक-सा है, वहाँ बहुत्व हमको दिखाई नहीं देता है। 
         (20:30) एक उदाहरण से देखें पेंड़ व्यक्त कहाँ से हुआ ? बीज में से। तो बीज अव्यक्त है -और बीज जो व्यक्त दशा है , वो पेंड़ है। और पेंड़ बिल्कुल differentiated - है। उसमे तना , शाखा है , फूल है , फल है पत्ते हैं। व्यक्त अवस्था में बहुत्व आ जाता है। बीजावस्था में कोई पेड़ नहीं है। बहुत्व वहाँ व्यक्त अवस्था में है -और पर बीजावस्था में बहुत्व नहीं दीखता है। हमारा कारण शरीर , माने हमारी बीज अवस्था सम्पूर्ण सृष्टि की बीजावस्था है। तो कारण शरीर जो है , वो अव्यक्त है। 
         अब शंकराचार्यजी एक बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द  का प्रयोग कर रहे हैं - परमेशशक्तिः ! कारणशरीर एक शक्ति है। अद्भुत शक्ति की बात कह रहे हैं। लेकिन ये बहुत बड़ी सच्चाई है। ये किसकी शक्ति है ? ये परमात्मा की अपनी ही शक्ति है। अभी आप ध्यान से सुन लीजिये बाद में धीरे -धीरे यह और भी स्पष्ट होगा। ये जो कारण शरीर है -वह शक्ति है ! यह किसकी शक्ति है?  
कारण-शरीर उस सच्चिदानन्द, परब्रह्म , परमात्मा की अपनी ही शक्ति है। और ये शक्ति कैसी है? मैं शक्ति के विषय में बता रहा हूँ। जैसे अग्नि की जो उष्णता है , वह अग्नि से अलग है क्या?  
जैसे अग्नि की दाहिका शक्ति अग्नि से अभिन्न होती है। दाहिका शक्ति के बिना आप अग्नि की कल्पना नहीं कर सकते। (22.32) उसी प्रकार परमात्मा और परमात्मा की अपनी शक्ति है। ये परमेश शक्ति बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। ये जो कारण शरीर है वो शक्ति है। किसकी शक्ति है ? ये परमात्मा की अपनी ही शक्ति है। अब इसके आगे कहते कि -ये कारण शरीर -अनादि अविद्या है। अविद्या यानि अज्ञान - Ignorance, darkness ! यह ऐसी अविद्या है -जिसकी आदि यानि शुरुआत कभी हुई ही नहीं। इसकी शुरुआत का निर्णय कोई कर ही नहीं सकता। ये कब शुरू हुई ? इसका निर्णय कोई नहीं कर सकता।  लेकिन वह अविद्या या अज्ञान अनादि है -कब शुरू हुई यह हम नहीं कह सकते। इसकी शुरुआत का निर्णय कोई कर ही नहीं सकता। हम कारण शरीर को बुद्धि से समझने की कोशिश कर रहे हैं , किन्तु ये चीजें बुद्धि से परे जा रही है। इस अविद्या के आदि का निर्णय कोई नहीं कर सकता। हमारे logical framework के अंदर वो फिट नहीं होती। तो ये अनादि अविद्या है , इसके आदि का निर्णय कोई कर ही नहीं सकता।  
      और ये कारण शरीर कैसा है - त्रिगुणात्मिका है। तीन गुणों से बनी हुई है। सत्व , रजस और तमस - इन तीन गुणों से बनी है।  और यह कारण शरीर 'परा' है यानि श्रेष्ठ है। किससे श्रेष्ठ है ? कारण शरीर अपने ही कार्य से श्रेष्ठ है। Cause and Effect होता है। और कार्य की तुलना में कारण सब समय श्रेष्ठ होता है। कारण के बिना कार्य नहीं होता। Because effect cannot exist without cause .सरल फिजिक्स है। कारण शरीर को श्रेष्ठ कहा गया है- परा कहा गया है। किसकी तुलना में परा कहा गया है ? अपने ही कार्य की तुलना में वो कारण शरीर श्रेष्ठ है। अच्छा इस कारण शरीर का कार्य क्या है ? यह स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर इस कारण शरीर के कार्य है- effect है। ये कारण श्रेष्ठ है। किससे श्रेष्ठ है ? कारण शरीर अपने ही कार्य स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर से श्रेष्ठ है। 
       फिर क्या है ? कार्यानुमेया और  यह कारण शरीर अनुमेय है , इसका हम अनुमान लगा सकते हैं। कार्य को देखकर हम कारण का अनुमान लगा सकते हैं। यह  'कार्यानुमेया' है  पेंड़ को देखकर हम बीज का अनुमान लगा सकते हैं। बीज हमें दिखाई नहीं दे रहा है -पेंड़ दिखाई दे रहा है, लेकिन हम बीज का अनुमान लगा सकते हैं। पेड़ तो कार्य है , इसका कारण बीज है। कार्य को देखकर हम इसके कारण का अनुमान लगा सकते हैं। 
     कारण शरीर फिर क्या है  सुधियैव माया 'सुधिया एव माया'!, हमारे पूर्वज ऋषियों -मनीषियों ने इस कारण शरीर को ही माया कहा है ! (27.16) अब हम वेदांत के एक बहुत बड़े सिद्धान्त को समझने की चेष्टा कर रहे हैं। इस सृष्टि की सबसे बड़े सिद्धान्त - माया को हम समझने का प्रयास कर रहे हैं। इसीको सुधिया लोग - यानि ऋषिगण माया कहते हैं।  सुधिया एव माया यया जगत् सर्वम् इदं प्रसूयते। ---यया मतलब जहाँ से इस सम्पूर्ण विश्व-प्रपंच की प्रसूति होती है। जगत प्रपंच की प्रसूति इस कारणत्मक शरीर से होती है, जिसको ऋषियों ने माया कहा है। अभी केवल इतना परिभाषित किया गया कि यह कारण शरीर माया है। और हर व्यक्ति का जो कारण शरीर है , वो पूरी सृष्टि का भी कारण है। इस कारण शरीर से ही -यया जगत् सर्वम् इदं प्रसूयते। 
       प्रश्न बाद में लेंगे। अभी एक एक एक शब्द को फिर से revise कर लिया जाये। ये कारण शरीर कैसा है? - उसको अव्यक्त कहते हैं ! बीज जैसे अव्यक्त होता है , पेड़ दीखता है।  तो जैसे पेंड़ दीखता है , लेकिन बीज अव्यक्त होता है , वैसे ही कारण शरीर भी अव्यक्त है। और ये जो हमारा अव्यक्त कारण शरीर है , वह परमात्मा परमेश्वर की अपनी ही शक्ति है। सच्चिदानंद ब्रह्म की अपनी ही शक्ति है , जिसके लिए एक सुंदर शब्द का व्यवहार हुआ है - परमेश शक्तिः ! यहीं पर- परमेश शक्तिः सुंदर विशेषण में सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का रहस्य उद्घाटित हो जाता है ! तो यह कारण शक्ति अव्यक्त है , और सच्चिदानन्द पर ब्रह्म की अपनी ही शक्ति है। और वह अनादि अविद्या है। वह परमेश शक्ति ऐसी अविद्या है -अज्ञान है - जो सत्य को ढँक दे रही है! ये कारण शरीर एक ऐसी शक्ति है , जो सत्य को ढँक रही है। सत्य है , सत्य हमारे भीतर ही है , लेकिन कोई भी इस सत्य को जान नहीं पा रहा है। क्योंकि कारणात्मक माया शक्ति रूपी यह अविद्या उस सत्य को ढँक देती है। वो अज्ञान है , अविद्या है। और ये अज्ञान , अविद्या कैसी है ? वो अनादि है ! ये कब शुरू हुई इसका निर्णय कोई नहीं कर सकता। और यह अविद्या -त्रिगुणात्मिका है। ये सत्व, रजस , तमस से बना हुआ है। और यह कारण शरीर , जिसको हम माया कहते है, वह परा है। माने अपने ही कार्य से श्रेष्ठ है। कार्य की तुलना में कारण तो श्रेष्ठ होता ही है। और कार्यानुमेय है -कार्य को देखकर हम कारण का अनुमान लगा सकते हैं। पेंड़ को देखकर आप बीज का अनुमान लगा सकते हैं। मतलब इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड को देखकर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि इसके मूल में कोई तो एक शक्ति है ! देखिये अब ईश्वर के बारे में हमारी जो धारणा होती है , ईश्वर कहीं न कहीं बादलों में बैठकर इसे संचालित कर रहा होगा ? हम ईश्वर के संबंध में कल्पनायें करते रहते हैं। अब हमलोग एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे को समझने की चेष्टा कर रहे हैं। इस चाँद -सूरज को देखकर एक बच्चा भी अपनी माँ से पूछेगा - माँ इसको किसने बनाया है ? बचपन ये प्रश्न हम सबने अपनी माताओं से किया है। कोई तो है जो इन चाँद-सितारों की सृष्टि कर रहा है। तो कार्य को देखकर हमलोग ये अनुमान लगा रहे हैं कि यह जो अभिव्यक्त जगत-प्रपंच है इसके मूल में कोई तो है -जो इसकी रचना कर रहा है? कोई कारण है। इसलिए इस कारण शरीर को कार्यानुमेय कहते हैं। कार्य के द्वारा हम कारण का अनुमान लगा रहे हैं। 'सुधियैव माया' इसी कारण शरीर को महापुरुषों ने ऋषियों ने माया कहा है। ये माया कैसी है ? --यया जगत् सर्वम् इदं प्रसूयते ! जहाँ इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड की प्रसूति होती है। जैसे कोई माता अपने गर्भ से सन्तान का प्रसव करती है। देखो अभी हम उस शक्ति की बात कर रहे हैं -जहाँ से इस सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड की प्रसूति होती है। इसी शक्ति को हमलोग जगतमाता, जगत्धात्री, जगदम्बा , दुर्गा-पूजा में दुर्गा की पूजा होती है न ? हमारे देश में इस मातृशक्ति के विभिन्न रूपों की पूजा होती है। हमारे दैनंदिन जीवन में किसकी पूजा होती है ? (33:04) यह पूरे जगत को धारण करने वाली शक्ति, जगत का प्रसव करने वाली शक्ति , की बात कर रहे हैं - और वही शक्ति, आपके -आपके , और मेरे हम सबों के भीतर है। हमारा कारण शरीर ही विश्व-ब्रह्माण्ड का भी कारण है। सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड की प्रसूति वहीं से होती है , ऐसा है हमारा कारण शरीर। और इस परमेश शक्ति को ही माया कहते हैं। यह माया परमात्मा की अपनी ही शक्ति है। माया शब्द हम सबों ने सुना होगा - जगत तो माया है , हम कहते रहते हैं। बोलचाल की भाषा में हम कहते रहते हैं कि जगत तो माया है। लेकिन ये माया क्या है ? किसीको पता है ? बोलचाल की भाषा में हम बोलते रहते हैं -सब माया है। पर माया का मतलब क्या है ? किसी को पता है ? माया का अर्थ हमलोग विभिन्न प्रकार से लगाते रहते हैं। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - पूरे इतिहास में माया की सर्वश्रेष्ठ जो परिभाषा है , वह शंकराचार्यजी ने दिया है। ये वही परिभाषा है - परमेश शक्ति। इससे सुंदर परिभाषा माया की और कहीं नहीं है। The best definition of Maya was given once and for all time by this great mahapurush Sri Shankaracharya ji .Amazing definition ! माया की सर्वोत्तम परिभाषा इस महान महापुरुष श्री शंकराचार्य जी ने हमेशा के लिए दी थी। अद्भुत परिभाषा देते हैं! आप देखेंगे ये माया चीज क्या है ? ये जो कारण शरीर है , जिसको हमलोग माया कहते हैं ,  
पर यही हमारा कारण-शरीर है -ये किसी को याद नहीं रहता है। क्योंकि यह सत्य को ढँक देती है। इस माया का जो 'status' होगा वही इस जगत का भी status होगा। मैं दुबारा कहता हूँ। एक एक शब्द को ध्यान से सुनिए। कारण शरीर या माया की जो अवस्था होगी , वही इस जगत की अवस्था होगी। (34.57)  क्यों ऐसा होगा ? क्योंकि विश्वप्रपंच जो है , वह तो माया का ही कार्य है। माया कारण है , और जगत-ब्रह्माण्ड उसका कार्य है। कारणात्मक माया का जो भी स्थिति या अवस्था होगी , वही जगत की वस्तुस्थिति होगी। क्योंकि यह विश्व ब्रह्माण्ड माया के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यह माया का ही तो कार्य है। माया अगर माँ है , तो यह विश्व-ब्रह्माण्ड उसकी प्रसूति है। और हम सब उसी के अंतर्गत हैं। जितने भी मनुष्य नामक जीव है - हम सभी जीव उसी माया की सृष्टि है, माया -जाल हैं। तो माया की जो वस्तुस्थिति होगी वही इस विश्वब्रह्माण्ड की वस्तुस्थिति होगी। क्योंकि कार्य और कारण अलग नहीं हैंबीज की जो वस्तुस्थिति होगी , वही पेंड़ की भी वस्तुस्थिति होगी। क्योंकि बीज और पेंड़ अलग नहीं हैं। बीज जब अभिव्यक्त हुआ पेंड़ बन गया। या पेंड़ की जो अप्रकट अवस्था है वो बीज है। बीज प्रधान है , बीज के बिना पेंड हो नहीं सकता। तो माया की जो वस्तुस्थिति होगी वही पूरे जगत की वस्तुस्थिति होगी। पूरा विश्व ब्रह्माण्ड बुलबुलों जैसी अवस्था वाला है। माया की जो वस्तुस्थिति होगी वही इस बुलबुलों की होगी। माया की वस्तुस्थिति कैसी है -माया का स्वरूप क्या है? क्या कोई माया का वर्णन कर सकता है? इसको परिभाषित करते हुए शंकराचार्यजी कहते हैं -           
 
सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो,
भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका नो ।
साङ्गाप्यनङ्गा ह्युभयात्मिका नो,
महाद्भुतानिर्वचनीयरूपा ॥ १११ ॥

वह(माया) न सत् है, न असत् है और न ही [ सदसत् ] उभयरूप है; न भिन्न है, न अभिन्न है और  न [ भिन्नाभिन्न ] उभयरुप है; न अंगसहित है, न अंगरहित है और न [ सांगानंग ] उभयात्मिका है; किन्तु अत्यंत अद्भुत और अनिर्वचनियरूपा [ शब्दों से परे है जिसका वर्णन, जो कही न जा सके ऐसी ] है।
अव्यक्तमेतत्त्रिगुणैर्निरुक्तं
तत्कारणं नाम शरीरमात्मनः ।
सुषुप्तिरेतस्य विभक्त्यवस्था
        प्रलीनसर्वेन्द्रियबुद्धिवृत्तिः ॥ १२२ ॥

[अव्यक्तम्  एतत्  त्रिगुणै: निरुक्तम्/ तत्  कारणम् नाम शरीरम् आत्मन:/ सुषुप्ति: एतस्य विभक्त्यवस्था/ प्रलीन सर्व इन्द्रिय बुद्धि वृत्तिः। यह जो तीनों गुणों से संयुक्त बताया गया अव्यक्त हैं, वह कारण शरीर हैं। इस की एक विशेष अवस्था सुषुप्ति हैं, जिसमें सभी इंद्रियों और बुद्धि का अस्तित्व लीन हो जाता हैं।] 

    विवेकचूडामणि पुस्तक में आदि शंकराचार्य कहते हैं - ये जो कारण शरीर है , ये है; आप ऐसा नहीं कह सकते। उसका मतलब ये नहीं है क्या ? ये नहीं है , आप ऐसा भी नहीं कह सकते। सन्नापि -मतलब ये है , सचमुच ही कारणशरीर है - आप ऐसा नहीं कह सकते। इसका मतलब नहीं है ? नहीं है - आप ऐसा भी नहीं कह सकते। उभ्यात्मिका है ? है भी ,नहीं भी है - आप ऐसा भी नहीं कह सकते हो। ये माया है , ऐसा आप नहीं कह सकते, यह नहीं है -आप ऐसा भी नहीं कह सकते। तो क्या कहें ? अंतिम लाइन को पहले देखें -महा अद्भुत अनिर्वचनीयरूपा ये महा अद्भुत एक ऐसी अनुभूति है , जो अनिर्वचनीय है। उसको हम यह नहीं कह सकते कि है, यह भी नहीं कह सकते कि नहीं है। लेकिन हम अनुभव कर रहे हैं। सुन लीजिये अभी इसको। बहुत गहन चिंतन करने पर थोड़ा सा समझ आ सकेगा। ये ऋषियों की अनुभूति है - मन से सोची हुई कल्पना नहीं है। ये सम्पूर्ण सृष्टि माया का कार्य है। जगत- प्रपंच रूपी माया अद्भुत है - अनिर्वचनीय है। माने निर्वचनं। आप इसके विषय में कुछ कह ही नहीं सकते हो।  यह जो विश्व-ब्रह्माण्ड हमको दिखाई दे रहा है - इसकी वस्तुस्थिति क्या है ? शुरुआत से ही यह प्रश्न है कि क्या है यहाँ पर ? ये जो इन्द्रियगोचर बिश्व ब्रह्माण्ड हमको दिखाई दे रहा है , उसकी वस्तुस्थिति क्या है? यह बहुत बड़ा पश्न है। हम प्रथम दिन से ही कह रहे हैं - कि दो चीजें है। दो चीजें हैं - एक जो सचमुच है , और दूसरा जो होता हुआ सा दिखाई दे रहा है। One thing is that which actually real and other thing is appearing to be real. One thing is actually existing , other thing is appearing to exist . एक चीज वास्तव में विद्यमान है, दूसरी चीज ऐसी अद्भुत चीज है - जो विद्यमान सी प्रतीत होती है। (यथार्थ मनुष्य और व्यावहारिक मनुष्य?) विद्यमान सा जो लग रहा है , ऐसा जो विश्व प्रपंच है - इसीको हम माया सृष्टि कहते हैं। इसके विषय में आप नहीं कह सकते हो कि यह है। तो फिर क्या आप कहोगे कि ये नहीं है ? ऐसा भी आप नहीं कह सकते हो।  तो क्या कह सकते हो ? सिर्फ यही कह सकते है ,बड़ा अद्भुत अनिर्वचनीय है। दूसरा मुद्दा है - भिन्नपि -अभिन्नापि ? उभ्यात्मिकानो। ये माया जो है क्या भिन्न है ? किस्से भिन्न होने की बात कर रहे हैं हमलोग ? ब्रह्म से ! क्या यह माया ब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न है ? अब देखिये महापुरुषों ,  ऋषियों की अनुभूति में अंतिम सत्य क्या है? 
'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म -न द्वितीयो अस्ति कश्चिद्! ये 'अद्वैत' -यही अंतिम सत्य है।  ये जो अद्वैत आश्रम है। सभी ऋषियों की एक ही घोषणा है - ब्रह्मसत्यं जगतमिथ्या। ऋषियों की अनुभूति में वह परमसत्य क्या है ? तो ऋषियों की अनुभूति है कि - वह परम् सत्य एक ही है। तो फिर माया क्या है ? क्या ये माया ब्रह्म से भिन्न कोई द्वितीय वस्तु है ? ऐसा है क्या कि दो चीजें अस्तित्व में हैं ? एक ब्रह्म भी है , और एक माया भी है ? माया ब्रह्म से भिन्न कोई दूसरी वस्तु है क्या ? माया और ब्रह्म अभिन्न हैं -ऐसा भी नहीं कह सकते हो। क्यों नहीं कह सकते हो ? क्योंकि माया एक ऐसी चीज है -जो चली जाती है। माया क्या है ? अज्ञान है -एक पर्दा है जो सत्य को ढँक लेती है। और यह चली भी जाती है। अगर वो ब्रह्म के साथ एक रूप है , तो ब्रह्म को छोड़कर कैसे जा सकती है? तो हम माया के विषय में क्या कह सकते हैं ? महा अद्भुत अनिर्वचनीयरूपा। माया यानि ये जगत जो है -महा अद्भुत है। अनिर्वचनीय है। 
      माया क्या अंग युक्त है  ?-ये नहीं कह सकते। जो अनादि है -जिसकी शुरुआत ही नहीं हुई है -वो अंगयुक्त कैसे होगा ? लेकिन माया का जो कार्य है -वो अंगयुक्त है। जो कार्य में होगा वो कारण में भी होना चाहिए। अगर कोई पूछे कि क्या तुम्हें यह समझ में आया कि माया क्या है? अगर तुमने यह कहा कि मुझे समझ में आ गया , इसका मतलब तुम्हें समझ में नहीं आया। क्योंकि ये बुद्धि से समझने वाली बात ही नहीं है। मानव-तर्क की सीमा के परे है। परन्तु हमें बहुत गर्व है। पर इन्द्रियों के माध्यम से जो दृश्य आपको दीखता है , आप उतने को ही प्रयाप्त ज्ञान समझ लेते हो। लेकिन इन्द्रियातीत सत्य को युक्ति-तर्क की धरातल पर अनुभव नहीं किया जा सकता। परम् सत्य मनुष्य की बुद्धि के परे की स्थिति है। सत्य को जानने के लिए हमें बुद्धि के परे जाना पड़ता है। उसको हमलोग Intuition' अन्तर्ज्ञान कहते हैं , वही योग है। आपको कुछ समझ में आया क्या ? बिल्कुल समझ में नहीं  आया ? मतलब आपको कुछ समझ में आया है। क्योंकि आपको इतना तो समझ में आया है कि माया को बुद्धि से समझा  सकता। क्योंकि बुद्धि टी सूक्ष्म शरीर में है। जो पीछे छूट गयी है। पाश्चत्य सभ्यता तो अभी तक बुद्धि पर ही अटकी हुई है - मन, बुद्धि से परे का सत्य सिर्फ भारत में ही मिलेगा। 
      विवेक चूड़ामणि के प्रथम श्लोक में ही शंकराचार्यजी बता देते हैं - तम अगोचरंसर्व वेदांत सिद्धांत गोचरं- माने ऋषियों के बताये हुए मार्ग के अनुसार जब हम साधना करते है - तब हम मन वाणी के परे पहुँच जाते हैं ! ये परम् सत्य गोचर कैसे होता है ? ये मन बुद्धि से समझने वाली बात नहीं है , ये अगोचर है। तब इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति होती है। और हमलोग उसी को समझना चाहते हैं , इसीलिए कारणशरीर को समझना कठिन है। लेकिन ये आपके और मेरे भीतर का सत्य है , किन्तु बुद्धि उसको पकड़ नहीं सकती। किन्तु समस्त कार्यों का कारण वही है। 
 कुछ मुद्दा समझ लीजिये - माया की जो स्थिति होगी वही स्थिति जगत की भी होगी। माया और जगत का क्या सम्बन्ध है ? कारण और कार्य का सम्बन्ध है। माया कारण है , जगत उसका कार्य है। और हम सब भी जगत के अंतर्गत हैं। देखिये अहंकार को समर्पित किये बिना हम कभी सत्य को नहीं समझ सकते हैं। जो भी वस्तुस्थिति इस माया की होगी वही वस्तुस्थिति इस जगत की भी होगी। क्यों ? क्योंकि जगत माया का ही कार्य है। और माया एक अद्भुत सच्चाई है - जिसके विषय में हम न यह कह सकते हैं कि वो है , न ही हम ऐसे कह सकते कि वो नहीं है। (52.07)          आपको शायद पता नहीं होगा , इसी कारण शरीर या माया की बात को समझाने के लिए - स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका में माया पर तीन व्याख्यान दिए हैं। शंकराचार्य जी के माया पर दिए दो श्लोकों को समझाने के लिए स्वामीजी ने तीन प्रवचन दिए हैं। ज्ञानयोग में माया पर स्वामीजी के तीन प्रवचन हैं। इस माया को समझाना बहुत कठिन है। इसे समझाया नहीं जा सकता , फिर भी ऋषियों का कार्य ही समझाना है। जैसे शंकराचार्यजी प्रयास कर रहे हैं , वैसे ही स्वामीजी भी बुद्धि के परे की बात को समझाने का प्रयास किये हैं। ये ज्यादा स्पष्ट होगा उदाहरण के माध्यम से। 
     तो स्वामी विवेकानन्द और शंकराचार्य जी भी अपने सभी भाष्यों में इस उदाहरण का उल्लेख करते हैं। ये ऐसा उदाहरण है , जो स्वामी विवेकानन्द के जीवन में घटित हुई है। स्वामी जी के लिए ये First hand experience है प्रत्यक्ष अनुभव है। स्वामी विवेकानन्द एक ऋषि हैं , वे आप और हम जैसे साधारण अज्ञानी नहीं हैं , परम् ज्ञानी हैं -जिन्होंने सत्य को देखा है !! माया को समझाने के लिए स्वामी विवेकानंद का प्रसिद्द उदाहरण क्या था ? अपने स्वामीजी की जीवनी पढ़ी है , उनके गुरुदेव  थे श्रीरामकृष्ण परमहंस देव, जो कि एक अद्भुत महापुरुष हैं ! 1886 में उनका महा समाधि हुआ , उनके महा समाधि के पश्चात् 1893 में स्वामी विवेकानन्द अमेरिका जाते हैं। उनके महा समाधि के कुछ समय ७ वर्ष पश्चात तब स्वामी विवेकानन्द , विवेकानन्द नहीं हुए हैं। नरेन्द्रनाथ दत्त ही हैं। नरेन्द्रनाथ 1888 से पूरे भारतवर्ष का परिभ्रमण करते हैं। कलकत्ते से निकल कर पहले उत्तर भारत जाते हैं , फिर पश्चमी भारत जाते हैं। फिर दक्षिणी भारत में कन्याकुमारी वाली घटना है। वहाँ विवेकानन्द मेमोरियल रॉक है। उस समय पश्चिमी भारत में आज का जो राजस्थान है , उसको तब 1888 में राजपुताना कहते थे। स्वामीजी ये अपने जवन में घटित इस कहानी को न्यूयार्क के श्रोताओं को सुना रहे हैं; देखो  " एक बार मैं पश्चिमी भारत में हिन्द महासागर के तटवर्ती मरुस्थल में भ्रमण कर रहा था। बहुत दिनों तक निरंतर पैदल भ्रमण करता रहा।  किन्तु प्रतिदिन मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य होता था कि चारों और सुन्दर झीलें हैं -जो वृक्षों से घिरी हुई हैं और वृक्षों की जो परछाई जल में पड़ रही है-वह झिलमिल करके कम्पन भी पैदा कर रही हैं । मैं अपने मन में कहने लगा , 'कैसे अद्भुत दृश्य हैं ये ! और लोग इसे रेगिस्तान कहते हैं ! ' एक मास तक वहाँ मैं घूमता रहा और प्रतिदिन मुझे वे सुन्दर दृश्य दिखाई देते रहे।  एक दिन मुझे बड़ी प्यास लगी।  मैंने सोचा कि चलूँ, वहां सामने दिख रही एक झील पर जाकर प्यास बुझा लूँ। अतएव मैं इन सुंदर निर्मल झीलों में से एक की ओर अग्रसर हुआ। जैसे मैं आगे बढ़ा कि वह सब दृश्य न जाने कहाँ लुप्त हो गया? और तब मेरे मन में एकदम यह ज्ञान हुआ कि 'जीवन भर जिस 'मरु-मरीचिका' की बात पुस्तकों में पढ़ता रहा हूँ , यह तो वही मरीचिका है !'और उसके साथ- साथ यह ज्ञान भी हुआ कि 'पिछले मास भर से प्रतिदिन मैं इसी मरीचिका को देखता रहा था, पर कभी जान न पाया कि यह मिरीचिका है।' 
    दूसरे दिन मैंने पुनः चलना प्रारम्भ किया। फिर से वही सुंदर दृश्य दिखने लगे , पर अब साथ साथ यह ज्ञान भी रहने लगा कि यह सचमुच की झील नहीं है , यह मरीचिका है। बस , इस जगत के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है। हम प्रतिदिन , प्रतिमास , प्रतिवर्ष इस जगत रूपी मरुस्थल में भ्रमण कर रहे हैं , पर मरीचिका को मरीचिका नहीं समझ पा रहे हैं। एक दिन यह मरीचिका अदृश्य हो जाएगी।  पर वह  फिर से आ जाएगी- क्योंकि शरीर को पूर्व जन्म के कर्मों के अधीन रहना पड़ता है, अतः यह मरीचिका फिर से लौट आएगी जब तक हम कर्म से बंधे हुए हैं (प्रारब्ध कर्म भोग कर ही क्षय होता है) , तब तक जगत हमारे सम्मुख आएगा ही। M/Fनर, नारी, पशु , उद्भिद , आसक्ति , कर्तव्य -सब कुछ आएगा, पर वे पहले की भाँति हम पर प्रभाव न डाल सकेंगे। इस नवीन ज्ञान के प्रभाव से कर्म की शक्ति का नाश हो जायेगा , उसके विष के दाँत टूट जायेंगे ; जगत हमारे लिए एकदम बदल जायगा ; क्योंकि जैसे ही जगत दिखाई देगा वैसे ही उसके साथ उसका स्वरूप और सत्य तथा मरीचिका का भेद ज्ञान भी हमारे सामने प्रकाशित हो जायेगा। "
      तब यह जगत पहले का सा जगत नहीं रह जायेगा। किन्तु इसमें एक भय की आशंका है। हम देखते हैं कि प्रत्येक देश में लोग इस वेदान्त मत को अपना कर कहते हैं - " मैं धर्माधर्म से अतीत हूँ , मैं नैतिकता के किसी नियम से नहीं बँधा हूँ, अतः मेरी जो इच्छा होगी , वही करूँगा। " इस देश में आजकल देखोगे , अनेक मूर्ख कहते रहते हैं , " मैं बद्ध नहीं हूँ, मैं स्वयं ईश्वर हूँ; मेरी जो इच्छा होगी , वही करूँगा। " यह ठीक नहीं है , यद्यपि यह बात सच है कि आत्मा भौतिक , मानसिक और नैतिक, सभी प्रकार के नियमों के परे है। नियम के अंदर बंधन है और नियम के बाहर मुक्ति। ....तब कौन सी बात सत्य मानी जाय ? 'हम मुक्त हैं ' क्या यह धारणा ही भ्रमात्मक है ? एक पक्ष कहता है कि 'मैं मुक्त हूँ ' , यह धारणा भ्रमात्मक है , और दूसरा पक्ष कहता है कि 'मैं बद्ध हूँ ' - यह धारणा भ्रमात्मक है। दोनों कैसे सत्य होंगे ?  वास्तव में, मनुष्य मुक्त है ; मनुष्य परमार्थतः जो है , (जो वास्तविक मनुष्य है) -वह मुक्त के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। किन्तु ज्योंही वह माया के जगत में प्रवेश करता है (जैसे कारण शरीर की अवस्था में पहुँचता है ?), ज्यों ही नाम-रूप (M/F-स्थूल शरीर को मैं समझने लगता है ?) के भीतर पड़ जाता है , त्यों ही वह बद्ध हो जाता है। 'स्वाधीन इच्छा' कहना ही भूल है। इच्छा कभी स्वाधीन हो नहीं सकती। होगी कैसे ? जो प्रकृत मनुष्य है , वह जब बद्ध हो जाता है -(अर्थात उसके सत्यस्वरूप को कारणशरीर या माया जब ढँक लेती है ?), तभी उसकी इच्छा की उत्पत्ति होती है , उससे पहले नहीं। मनुष्य की इच्छा बद्ध है , किन्तु जो इसका आधार है (आत्मा या ब्रह्म), वह तो सदा ही मुक्त है।(वास्तविक और व्यावहारिक मनुष्य -२/३६-३७ )
[Swami Vivekananda says - "What is true then? Is this idea of freedom a delusion? One party holds that the idea of freedom is a delusion; another says that the idea of bondage is a delusion. How does this happen? Man is really free, the real man cannot but be free. It is when he comes into the world of Maya, into name and form, that he becomes bound. Free will is a misnomer. Will can never be free. How can it be? It is only when the real man has become bound that his will comes into existence, and not before. The will of man is bound, but that which is the foundation of that will is eternally free. "(THE REAL AND THE APPARENT MAN : Delivered in New York)] 
 [ लंदन में दिया गया -'माया और मुक्ति' नामक भाषण में स्वामी जी ने नारद का माया दर्शन की कहानी (२/७५) को उद्धृत किया है। स्वामी जी कहते हैं - " अपवित्रता की कोई पुरानी बात मन में उठने मत दो , अपवित्रता की कोई बात मन में न लाओ , बल्कि मन से कहते रहो - मैं तो नित्य, शुद्ध-बुद्ध , पवित्रतास्वरूप आत्मा हूँ ! हम क्षुद्र स्थूल शरीर हैं , हमारा जन्म हुआ है - हम बर्थ डे मनाते हैं। हम मरेंगे , इन्हीं विचारों से हमने अपने आप को एकदम सम्मोहित कर रखा है। इसलिए हम सर्वदा भय से काँपते रहते हैं। सिंह-शावक की कथा के अनुसार तुम सब सिंह हो -तुम आत्मा हो , शुद्ध , अनंत और पूर्ण हो। विश्व की महा शक्ति तुम्हारे भीतर है। (मनुष्य का यथार्थ /सत्य स्वरूप २/१८ एवं २/२३६) अनात्मा या अद्भुत अनिवर्चनीय कार्य-कारण रूपी दीवार द्वारा सीमा बद्ध हैं। क्योंकि शरीर को पूर्व जन्म के कर्मों के अधीन रहना पड़ता है। ऊँच , बनारस के निकट 14, अप्रैल 1992 को घटित विवेकज-ज्ञान होने के बाद पुनः  बहुत्व दिखाई देगा, पुराने ब्यॉय क्लास-मेट, गर्ल क्लासमेट , मित्र-शत्रु , अपना -पराया, सब कुछ दिखाई देगा , भेद दिखाई देगा, किन्तु वे पहले के भाँति हम पर प्रभाव नहीं डाल सकेंगे।  --लेकिन स्त्री जाति के प्रति मातृबुद्धि रखनी होगी, और भूलकर भी विपरीत लिंगी स्पर्श करने या चिपकने से बचना होगा, नहीं तो सत्य स्वरूप ढँक जायेगा और - परमेश शक्ति माँ जगदम्बा पुनः भेंड़ बना देगी।
   (59.02) जो झील स्वामी विवेकानन्द को मरुभूमि में दिखाई दिया था , उस झील के विषय में आप क्या यह कह सकते हो कि झील सचमुच है ? झील है -ऐसा क्यों नहीं कह सकते ? जब स्वामी विवेकानन्द को ज्ञान हो गया - तो झील कहाँ गया ? जायेगा कहाँ ? वह तो था ही नहीं। लेकिन ज्ञान होने से पहले आप यह कह सकते हो -कि झील नहीं है ? जब तक स्वामी विवेकानन्द को ये ज्ञान नहीं हुआ कि ये झील रूपी सुंदर दृश्य मरु-मरीचिका है -या Mirage मृगतृष्णा है। तब तक तो वो झील उनको सत्य सा ही प्रतीत हो रहा था। वो एक ऐसी वस्तु की अनुभूति है -जो सच्चाई में वहाँ नहीं है। लेकिन उसकी अनुभूति हो रही है। "Mirage is an experience of something , which is not actually existing ." मृगतृष्णा किसी ऐसे चीज की अनुभूति है, जो वास्तव में मौजूद ही नहीं है But you can't deny the experience ! तो उस मरू-मरीचिका के विषय में हम यह नहीं कह सकते कि वह है। और यह भी नहीं कह सकते कि  वो नहीं है। आप क्या कहोगे ? यही कि वह ऐसी कोई अद्भुत अनिर्वचनीय अनुभूति है , जो न होते हुए भी हमको दिखाई देती है। ये ऐसा अनुभूति है जो न होते हुए भी सब को अनुभव हो रहा है। यह उदाहरण बहुत महत्वपूर्ण है। अज्ञान में हमको M/F भेद सत्य सा प्रतीत हो रहा है। (नारद जी को 12 साल एक दम सच में बीता था ?) लेकिन ज्ञान होने के बाद भी हमको वह झील दिखाई देगी - लेकिन उस झील के बारे में उस व्यक्ति की जो भ्रान्ति थी वो चली गयी। अब वो समझ गया कि एक झील सामने दिख रहा है, किन्तु वहाँ झील तो क्या एक बूंद भी पानी नहीं है। अगर पानी नहीं है -यदि सामने झील नहीं है , तो वहाँ पर क्या विद्यमान है? ये दूसरा प्रश्न है। वहाँ मात्र रेत या बालू ही है। वहाँ झील न होने के बावजूद वहाँ जो झील की अनुभूति हो रही थी -ये माया क्या  काम है। (1:01:41) इस जगत प्रपंच की भी यही वस्तुस्थिति है। इस विश्व-प्रपंच को जिसकी हमें अनुभूति हो रही है , उसको आप नहीं कह सकते हो कि यह नहीं है। या फिर यह भी नहीं कह सकते की वह है। तो अब उसको आप क्या कहोगे ? यही कि वह एक महा अद्भुत अनिर्वचनीय है। 
      एक दूसरा उदाहरण है -रज्जु-सर्प का। अद्वैत आश्रम के 2 km की पगडण्डी पर सुबह के कम प्रकाश में घूमते समय -पेंड़ की जड़ को देखकर सर्प का भ्रम हो जाता है। घूमते समय भी अगर मन सत्य-स्वरुप से जुड़ा रहे तो - मॉर्निंग वॉक भी ध्यान बन जाता है। तुरंत मुझे लगा कि ये साँप है। सचमुच ये अनुभूति होती है। हम कुछ देख रहे हैं , और उसके प्रति हमारी धारणा तुरंत यह हो जाती है कि यह तो साँप है ! We are studying the human-responses to what we are seeing . हम इस विश्व-ब्रह्माण्ड के रूप में जो कुछ देख रहे हैं, उसके प्रति मानवीय प्रतिक्रियाओं का हम लोग अध्ययन कर रहे हैं मैंने कुछ देखा और उसके विषय में मेरी यह धारणा पहले से बनी हुई है - उस समय मैं विचार नहीं कर रहा हूँ। कि ये सर्प है या कुछ और है ? ये उदाहरण उस मगरमच्छ के समान ही है। वहाँ पानी पर कुछ तैर रहा है - उस धुंधले प्रकाश में उस व्यक्ति ने कुछ तैरता हुआ देखा। और उसके विषय में उसकी धारणा तुरंत यह हो जाती है कि ये तो लट्ठा है। यद्यपि गलत धारणा है -किन्तु धारणा है न ? इसीको अज्ञान कहते हैं। जो किसी वस्तु के सत्य स्वरूप को ढँक देती है। ये मगरमच्छ को लट्ठा समझ लेना ज्ञान है कि अज्ञान ? आप कुछ जान रहे हो , पर एकदम गलत जान रहे हो ! और जैसे ही सर्पबोध होता है - हमारे अंदर भय मिश्रित प्रतिक्रिया उतपन्न होने लगती है। फिर थोड़ा सा ध्यान देखिये - यही विवेक पूर्वक देखना हो जाता हैविवेक क्या है ? -जगत को ध्यान से देखना ! मित्र-शत्रु , अपना -पराया की दृष्टि से नहीं देखना।  अभी हम जगत को ध्यान से नहीं देख रहे हैं। पर जब हम जगत को थोड़ा सा ध्यान से देखते हैं , तो पाते हैं कि सर्प तो है ही नहीं -माँ जगदम्बा शरणागति की भक्ति समझा रही थी ! जो सर्प (Bh) दिखाई दिया , क्या आप कह सकते हैं कि वो है ? क्योंकि जब ज्ञान होता है -तब अज्ञान चला जाता है। ब्रह्ममय जगत - सियाराम मय जगत देखता है ? लेकिन जब तक यह ज्ञान नहीं हुआ - कि हम राग रूपी अदृश्य रस्सी बंधे हुए हैं - तब तक तो हम अपने को स्थूल , सूक्ष्म शरीर मात्र ही सोच रहे थे क्योंकि विपरीत लिंगी आकर्षण को प्रेम समझ रहे थे ? तो वह नहीं है , न है - वह महा अद्भुत अनिवर्चनीय अनुभूति है। प्रेम न होते हुए भी काम को प्रेम समझ लेना। आप उसको ध्यान से देखों , विवेक के प्रकाश में देखो तो मोह चला गया। जब तक विवेक प्रकाश नहीं डालते हो तबतक वो है। 
रज्जुसर्प के बाद और एक उदाहरण (1:06:44ले लीजिये - जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति का उदाहरण। हम सभी लोग सपना देखते हैं। अदिति ने कल रात में कोई तो सपना देखा होगा ? कुछ कुछ सपना बहुत ही स्पष्ट होता है -जो याद रह जाता है। कुछ सपने हम सालों -साल तक भूल नहीं पाते हैं। स्वप्न में हम सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड उसी प्रकार देखते हैं जैसा हम अभी जाग्रत में देख रहे हैं। स्वप्न चलते समय क्या किसी को पता होता है कि ये सपना है ? उस समय के लिए वही सत्य होता है। सपने में भी सबकुछ ऐसा ही होता है। पूरा विश्वब्रह्माण्ड रहता है और आप भी होते हो उसमें। पीछे शेर पड़ा है -अभिषेक भाग रहा है ? सपने अच्छे -बुरे सभी प्रकार के हो सकते हैं। आप अपने पुराने क्लासमेट से मिल रहे हैं - बहुत आनंददायक सपने भी हो सकते हैं। जो भी हो , जब तक सपना चलता है , उस समय के लिए वही परम् सत्य प्रतीत होता है। लेकिन क्या आप कह सकते हो कि स्वप्न-सृष्टि वास्तविक रूप में है ? जब हम जग जाते हैं -तो कहाँ चला गया वो पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड ? स्थूल रूप से स्वप्न में भी हम स्पर्श कर रहे थे। जगने पर कहाँ चला गया ? स्वप्न में जो जगत देख रहे थे ,उस जगत के विषय में क्या आप कह सकते हो कि वो जगत है ? क्योंकि जगने पर पूरी सृष्टि गायब हो जाती है। जब तक आप जगे नहीं हो -उस समय वो सत्य है ? जो विश्वब्रह्माण्ड स्वप्न में दिख रहा था , जग जाने के बाद उसको क्या कहोगे ? महाद्भुतं अनिर्वचनीयं ! जगने के बाद स्वप्न सृष्टि को तो हम स्वप्न मान लेते हैं , किन्तु हमको ये समझ में नहीं आता कि यहाँ बैठकर हमलोग जो व्यवहार - पाठचक्र कर रहे हैं ये भी सपना ही चल रहा है ? (1:10:43We are not understanding that this is another dream which is going on .हम यह नहीं समझ रहे हैं कि यह एक और सपना है जो -खुली आँखों में चल रहा है। ये एक ऐसी अनुभूति है - वास्तविक में नहीं है -लेकिन अनुभूति हो रही है। वही नारद का माया दर्शन ही चल रहा है ? जब तक अज्ञान है - यह जगतव्यावहार सत्य सा प्रतीत होता है , पर जब ज्ञान हो जाता है - तब 'जगत' (भेदभाव का जगत) कहाँ गया ? तब व्यक्ति कुछ और ही देखता है। जब तक आपकी नींद टूटी नहीं है , तबतक स्वप्न सत्य सा लगता है। उसी प्रकार यह जीवन-स्वप्न भी चल रहा है , जिस दिन ये स्वप्न टूटेगा- आप आश्चर्यचकित होकर सोचोगे -हम जिस जगत को -सूर्य, चंद्र , पृथ्वी को एकदम सत्य समझ रहे थे -कहाँ गया ? तो ऋषियों अनुभूति यह है कि हमको जो जगत दिख रहा है - वो माया सृष्टि है। जिसके अंदर हम सभी हैं। और ये माया एक ऐसी शक्ति है जो हमें ऐसी चीजों की अनुभूति करा देती है , जो वास्तव नहीं है। यहाँ पर सच्चाई में कुछ और ही विद्यमान है। क्या विद्यमान है ? ब्रह्म ही यहाँ पर विद्यमान है। जैसे रेगिस्तान में एक बून्द पानी नहीं है - वास्तविकता में रेत ही विद्यमान है। बिल्कुल उसी प्रकार ऋषि लोग कहते हैं - हम जिसको जगत-जगत कहते हैं , ये दीखता है ; लेकिन जैसे दीखता है ये वैसा नहीं है। ये आ रहा है - जा रहा है। हम हर रोज स्वप्न देखते हैं , एक स्वप्न खत्म होता है -दूसरा स्वप्न चलने लगता है। It is play of consciousness which is going on!'यह चेतना का खेल है जो चल रहा है। इसके मूल अधिष्ठान में परब्रह्म बैठे हुए हैं। तो पर ब्रह्म रूपी समुद्र में यह लहर समान स्वप्न-सृष्टि की उतपत्ति हो रही है -और नष्ट हो रही है। समुद्र रूपी सच्चिदानंद ब्रह्म में सम्पूर्ण सृष्टि स्वप्न तुल्य छोटा सा लहर है। लहर उठ रही है , लहर गिर रही है ,बुलबुले बन रहे हैं  बुलबुले टूट रहे हैं। स्वप्न सृष्टि भी बुलबुले की तरह टूट गया था कि नहीं ? उस प्रकार गोचर जगत भी भी नींद में कहाँ चला जाता है ? आप रहते हो लेकिन जगत अदृश्य जाता है। रोज हमारे साथ यह हो रहा है , हम सत्य को देख नहीं रहे हैं। नींद में ये पाठचक्र वाला बुलबुला टूट जायेगा , फिर स्वप्न का एक दूसरा बुलबुला प्रकट होगा। स्वप्न का जगत क्या सत्य में है ? आप नहीं कह सकते वो है। स्वप्न में कह सकते हो की वह नहीं है ? नहीं - तो क्या कहोगे ? महा अद्भुत अनिर्वचनीयं माया है। जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति, जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति, जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति ये तो हर रोज ही हो रहा है। जाग्रत एक बुलबुला है , प्रकट हुआ टूट गया। स्वप्न एक दूसरा बुलबुला है - प्रकट हुआ टूट गया। निद्रा तीसरा बुलबुला है - वह भी प्रकट हुआ टूट गया ये तीनों बुलबुले कहाँ प्रकट हो रहे हैं कहाँ अदृश्य हो रहे हैं ? ब्रह्म रूपी समुद्र में जो आप हो , आप हो , You are That ! ये तत्वमसि की परिभाषा है। आप वो ब्रह्म सच्चिदानन्द रूपी समुद्र हो जिसमें ये तीन अवस्थाएं  जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति, जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति, उठ रही हैं गिर रही हैं। एक एक अवस्था -एक एक बुलबुले के एक एक सृष्टि के समान है। You are That Infinite consciousness which is like an ocean, in which these three states , is just like a entire creation . यह जाग्रत अवस्था भी तो स्वप्न के जैसे सच्ची रही है ? तो इसमें जाग्रत सत्य है ? या स्वप्न सत्य है ? तो वेदांत में एक कहानी बताई जाती है।  (1:16:11) एक किसान था उस किसान के तीन बच्चे थे। तीन बच्चो में से एक की मृत्यु हो गयी। लेकिन किसान ज्ञानी था। वो किसान हमलोगों जैसे मूर्ख नहीं थे। ज्ञानी किसान के घर में उसके एक जवान सन्तान की मृत्यु हो गयी। कितना गंभीर दुर्घटना है। किसी भी घर में अगर एक जवान बेटा अगर मृत्युग्रस्त होता है , तो उस घर की क्या दशा हो जाती है ? तो उस किसान की अपनी पत्नी रो रही है , चिल्ला रही है। उसका जवान बेटा चला गया है , हाहाकार मचा हुआ है घर में। लेकिन किसान चुपचाप बैठा हुआ है ! तो ये देखकर उसकी पत्नी को और भी गुस्सा आ गया। पत्नी कहती है , तुम कैसे पिता हो ? तुम्हारा जवान बेटा मर गया , लेकिन तुम्हारी आँखों में एक बून्द आँसू नहीं है? बाकि घर वाले भी किसान  देखकर और नाराज हो रहे हैं। क्यों वो चुपचाप बैठा है ? किसान कहता है - मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं क्या कहूं ? कल रात स्वप्न में मैंने देखा कि मेरे 7 बेटे थे। सात बेटों में से मेरा तीन बेटा मर गया था। मुझे समझ में नहीं आ रहा है ,मेरे वो जो तीन बेटे मरे उसके लिए रोऊँ या इस एक बेटे के लिए रोऊँ ? ये एक कहानी है। प्रश्न यह है कि सत्य क्या है ? ये उद्धरण क्यों दिया ? प्रश्न है कि सत्य क्या है ? वो किसान बोल रहा है रात का स्वप्न देखा उसे सत्य क्यों नहीं मानु ? उसमें तीन संतानों की मृत्यु हो गयी। सत्य क्या है ? आज हमारे भीतर जगत को लेकर एक सत्यत्व बुद्धि है। A sense of realism-about what we are seeing ? है इसके यथार्थ होने की भावना है। जिसको हम देख रहे हैं क्या वह परम् सत्य है ? वेदांत हमें इस ओर ले जाता है। जगत हमको जैसा दिखाई दे रहा है ये वैसा नहीं है। हर रोज यही दृष्टिभ्रम हम सबके साथ हो रहा है। जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति ,जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति की अवस्था में हर रोज यही हो रहा है। हमलोग यहीं समाप्त करते हैं। कोई प्रश्न अभी नहीं पूछिए। जो सुने हैं - उसी पर चीनत्म-मनन निदिध्यासन कीजिये। जितने भी उदाहरण दिए हैं - उन सब पर आपको ध्यान करना होगा। हमलोग अपनी खोज के बहुत Critical Dimension तक पहुँच चुके हैं , अगला सोपान सत्य  पहुँचना ही बाकि है। इस चर्चा के माध्यम से हमने सत्य स्पर्श कर भी लिया है। अगर आप समझ सकते हों तो ? सत्य क्या है - हम उसके बिल्कुल कगार पर खड़े हैं। आपको सारे उदाहरण को लेकर ध्यान करना होगा। मृग तृष्णा के उदाहरण में झील सचमुच है क्या ? वो है ऐसा नहीं कह सकते , नहीं है ऐसा भी नहीं कह सकते हों। क्या आप कह सकते हो कि वह झील रेत से भिन्न है ?नहीं।  तो क्या झील रेत से अभिन्न है ? नहीं , तो आप केवल यही कह सकते हो महा अद्भुत अनिर्वचनीयम। स्वप्न के दृष्टान्त को लेलो , हर रोज हमारे साथ ऐसा हो रहा है। हमने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया है। अभी हम जाग्रत जगत में बैठे हैं। पर कुछ ही घंटों के बाद यह खत्म होने वाला है। उस वक्त कुछ और ही सत्य हो जाता है। प्रश्न उठता है कि कौन सा सत्य है ? अभी प्रश्न मत करो , अभी ध्यान करो। इस विषय पर आगे हमलोग और चर्चा करेंगे। हम जो देख रहे हैं - ये क्या है ? इस पर गहन चिंतन करना है। ये वास्तव में है क्या ? विशेष करके स्वप्न के दृष्टान्त पर ध्यान दो । किसी भी स्वप्नानुभूति को आप ले लीजिये। फिर उसका अगला प्रश्न आएगा -स्वप्न है या कुछ और ? इस स्वप्न के बारे हमने कभी सोचा ही नहीं। यह हमें एकदम सत्य सा प्रतीत हो रहा है।          

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ॐ  !! वंदे  गुरु परंपराम् !! ॐ

अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति: अनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा ।

कार्यानुमेया सुधियैव माया यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते ॥ ११०॥

[अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति:/ अनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा/ कार्यानुमेया सुधिया एव माया/ यया जगत् सर्वम् इदं प्रसूयते/ 

अर्थ:-जो अव्यक्त नाम वाली त्रिगुणात्मिका अनादि अविद्या परमेश्वर की परा शक्ति है, वही माया है; जिससे यह सारा जगत् उत्पन्न हुआ है। बुद्धिमान् जन इसके कार्य से ही इसका अनुमान करते हैं।

यह श्लोक अद्वैत वेदांत के सबसे गहन सिद्धांतों में से एक ‘माया’ का रहस्य प्रकट करता है। यहाँ कहा गया है कि माया को ‘अव्यक्त’ कहा जाता है, अर्थात् जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देती, जिसे इन्द्रियाँ नहीं पकड़ सकतीं। यह सदा अप्रकट रहती है, परन्तु इसके प्रभाव और कार्यों से जगत में विविधता और प्रपंच अनुभव होता है। इसे ‘अनाद्यविद्या’ कहा गया है, अर्थात् इसका कोई आरम्भ नहीं है। जबसे जीव और जगत का अनुभव है, तबसे यह अज्ञान भी है। यद्यपि इसका आरम्भ नहीं है, किन्तु यह शाश्वत भी नहीं है, क्योंकि ज्ञान के प्रकाश से इसका नाश हो जाता है। यही इसकी अद्भुत विशेषता है कि यह अनादि होते हुए भी अंत्य है।

माया को ‘परमेश्वर की परा शक्ति’ कहा गया है। ब्रह्म निराकार, अकर्ता और निष्क्रिय है, वह साक्षी मात्र है। परन्तु सृष्टि के विविध प्रपंच और संचालन के लिए उसकी यह शक्ति सक्रिय होती है। जैसे सूर्य केवल प्रकाश देता है, किन्तु उस प्रकाश के कारण ही मरीचिका जैसी भ्रांति दिखती है, वैसे ही ब्रह्म के सान्निध्य से माया जगत का निर्माण करती है। इसीलिए माया को ईश्वर की अधीन शक्ति कहा गया है, जो स्वतंत्र नहीं है, बल्कि ब्रह्म की उपस्थिति से ही कार्य करती है।

माया की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता है—‘त्रिगुणात्मिका’। इसका अर्थ है कि यह सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों से बनी है। यही तीन गुण सृष्टि की विविधता का मूल हैं। सत्त्व से प्रकाश, शांति और ज्ञान उत्पन्न होते हैं; रज से गति, चेष्टा, इच्छा और कर्म प्रवृत्ति आती है; और तम से अज्ञान, जड़ता और मोह उत्पन्न होता है। जब ये गुण परस्पर मिलते-जुलते हैं, तभी संसार का यह विविध रूप दिखाई देता है। वास्तव में जीव का अनुभव—सुख-दुःख, राग-द्वेष, ज्ञान-अज्ञान—सब इन्हीं गुणों की कार्यप्रणाली है।

यहाँ श्लोक कहता है कि माया ‘कार्यानुमेया’ है, अर्थात् इसे सीधे नहीं जाना जा सकता। इसे केवल इसके कार्यों से पहचाना जा सकता है। जिस प्रकार धुआँ देखकर आग का अनुमान होता है, उसी प्रकार इस जगत की उत्पत्ति और संचालन देखकर बुद्धिमान व्यक्ति माया का अनुमान करते हैं। संसार की विविधता, परिवर्तनशीलता और अनुभवों का आधार माया ही है। यदि माया न होती तो यह जगत अस्तित्व में न होता, क्योंकि ब्रह्म स्वयं निराकार और अपरिवर्तनशील है, वह किसी भी प्रकार के परिवर्तन या क्रिया में संलग्न नहीं हो सकता।

माया का स्वरूप बड़ा ही विचित्र और अगम्य है। शास्त्रों में इसे ‘अनिर्वचनीय’ कहा गया है—न यह पूर्णतः सत्य है, न ही असत्य। यदि यह पूर्णतः असत्य होती तो जगत का अनुभव कैसे होता? और यदि यह पूर्णतः सत्य होती तो ज्ञान के उदय से इसका नाश कैसे हो जाता? अतः यह न सत् है, न असत्, बल्कि ‘सदसद्विलक्षणा’ है। यही इसकी शक्ति है कि यह जीव को भ्रमित करके वास्तविक आत्मस्वरूप को ढक देती है और उसे शरीर, मन और इन्द्रियों के साथ अपनी पहचान करवा देती है।

श्लोक का सार यही है कि यह सम्पूर्ण जगत माया की उपाधि से ही उत्पन्न होता है। ब्रह्म के साक्षात् ज्ञान से माया का यह आवरण हट जाता है और तब आत्मा का नित्य, शुद्ध और मुक्त स्वरूप प्रकट होता है। बुद्धिमान जन समझते हैं कि माया के कार्य से ही उसका अनुमान किया जा सकता है, और उसका अंत केवल ब्रह्मज्ञान से ही संभव है। यही विवेकचूड़ामणि का केंद्रीय संदेश है।

!! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !! 

https://www.sadhanapath.in/2025/09/110.html

सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका भिन्नाप्यभिन्नाप्युभयात्मिका नो। 

साङ्गाप्यनङ्गाप्युभयात्मिका नो  महाद्भुतानिर्वचनीयरूपा ॥ १११ ॥

अर्थ:- वह न सत् है, न असत् है और न [ सदसत् ] उभयरूप है; न भिन्न है, न अभिन्न है और न [ भिन्नाभिन्न] उभयरूप है; न अंगसहित है, न अंगरहित है और न [ सांगानंग] उभयात्मिका ही है; किन्तु अत्यन्त अद्भुत और अनिर्वचनीय रूपा (जो कही न जा सके ऐसी) है।

यह श्लोक माया के स्वरूप का गहन विवेचन करता है और उसके अनिर्वचनीय चरित्र को प्रकट करता है। शंकराचार्य यहाँ स्पष्ट करते हैं कि माया को हम किसी भी सामान्य तर्क या दार्शनिक श्रेणी में नहीं रख सकते। यह एक ऐसी सत्ता है जो न पूरी तरह वास्तविक है, न पूरी तरह अवास्तविक और न ही इन दोनों का कोई मेल। इसी कारण उपनिषदों और अद्वैत वेदांत में इसे "अनिर्वचनीया" कहा गया है। साधारण शब्दों में माया को समझना कठिन है क्योंकि यह हमारी इंद्रियों और बुद्धि के स्तर पर अनुभव होती है, किन्तु जब हम उसे विवेक की दृष्टि से देखते हैं, तो पाते हैं कि उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है

सबसे पहले, शंकराचार्य कहते हैं कि माया न सत् है, न असत् है और न ही सत-असत् दोनों का मेल है। यदि इसे सत् माना जाए तो सत् का अर्थ है – वह जो कभी नष्ट नहीं होता, जो शाश्वत और अविनाशी है। ब्रह्म ही ऐसा तत्व है जो वास्तव में सत् है। माया तो परिवर्तनशील है, उसका कार्य है निरंतर जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय करना। अतः उसे सत् नहीं कहा जा सकता। यदि उसे असत् कहा जाए, तो असत् का अर्थ है – जिसका कोई अस्तित्व ही न हो, जैसे आकाश में सींग। किन्तु माया को हम अनुभव करते हैं, जगत की रूपरेखा और विविधता उसके कारण ही दिखती है, इसलिए उसे असत् भी नहीं कह सकते। और यदि कोई कहे कि माया सत्-असत् दोनों है, तो यह भी तर्कसम्मत नहीं होगा, क्योंकि परस्पर विरोधी धर्म एक ही वस्तु में स्थायी रूप से नहीं रह सकते। अतः माया इन तीनों में से किसी भी श्रेणी में नहीं आती।

दूसरा बिंदु यह है कि माया न भिन्न है, न अभिन्न है और न ही भिन्नाभिन्न। यदि माया को ब्रह्म से भिन्न मान लें, तो अद्वैत सिद्धांत टूट जाएगा, क्योंकि तब ब्रह्म के अतिरिक्त एक और सत्ता स्वीकार करनी पड़ेगी। यदि इसे अभिन्न मान लें, तो ब्रह्म का स्वरूप ही विकारी और परिवर्तनशील मानना पड़ेगा, जो कि शुद्ध चेतन और निर्विकार ब्रह्म के सिद्धांत के विरुद्ध है। और यदि कहें कि माया भिन्नाभिन्न है, तो यह विरोधाभास उत्पन्न करता है, क्योंकि किसी वस्तु का एक ही समय भिन्न और अभिन्न होना संभव नहीं। इस प्रकार माया इस दृष्टि से भी किसी निश्चित परिभाषा में नहीं आ सकती।

तीसरा पहलू यह है कि माया न सांग है, न अनंग है और न ही सांग-अनंग दोनों का मेल है। सांग का अर्थ है – अंगों सहित। यदि माया सांग है तो उसके निश्चित अंग-प्रत्यंग होने चाहिए, किन्तु उसका कोई ठोस या निश्चित रूप नहीं है। यदि माया को अनंग कहें तो वह ब्रह्म के समान निराकार और निर्गुण हो जाएगी, जबकि उसका कार्य है विविध रूपों में जगत को प्रकट करना। और यदि इसे सांग-अनंग दोनों कहें, तो फिर वही तर्कगत असंगति सामने आती है। इस प्रकार माया को सांग, अनंग या दोनों में से किसी भी रूप में नहीं रखा जा सकता

इन सभी अस्वीकृतियों के बाद शंकराचार्य यह निष्कर्ष निकालते हैं कि माया का स्वरूप महाद्भुत और अनिर्वचनीय है। यह न तो तर्क से समझी जा सकती है, न ही शब्दों में बाँधी जा सकती है। इसका स्वरूप अद्भुत है क्योंकि यह ब्रह्म से शक्ति प्राप्त कर जगत की रचना करती है और हमें वास्तविक जैसा अनुभव कराती है, जबकि उसका स्वयं का कोई स्वतंत्र सत्य नहीं है। जैसे स्वप्न में देखे गए दृश्य जागने पर मिथ्या सिद्ध हो जाते हैं, वैसे ही माया से उत्पन्न यह जगत भी ब्रह्म के साक्षात्कार होने पर मिथ्या सिद्ध हो जाता है।

शंकराचार्य का उद्देश्य यहाँ यह नहीं है कि साधक माया के तर्क में उलझ जाए और उसकी श्रेणीबद्ध परिभाषा खोजता रहे। उनका संदेश यह है कि माया के विषय में जितना तर्क किया जाएगा, उतना ही साधक भ्रमित होगा, क्योंकि वह कभी भी पूरी तरह किसी श्रेणी में नहीं आएगी। इसलिए उपनिषद कहते हैं कि यह "अनिर्वचनीया" है—इसे न पूरी तरह कहा जा सकता है, न ही तर्क से पकड़ जा सकता है। इसका सच्चा बोध केवल तब होता है जब साधक अपने भीतर ब्रह्म का अनुभव करता है। उस समय यह जगत, यह माया, सब कुछ स्वप्न के समान प्रतीत होने लगता है।

अतः यह श्लोक माया के बारे में साधक को यह समझाने का प्रयास करता है कि माया के स्वरूप पर अधिक विवाद या तर्क न करे, बल्कि यह स्वीकार करे कि माया एक अनिर्वचनीय शक्ति है, जो ब्रह्म के बिना कोई अस्तित्व नहीं रखती। उसका काम केवल आभासी जगत को प्रस्तुत करना है। जब तक अज्ञान है, तब तक माया वास्तविक प्रतीत होती है। लेकिन ज्ञान प्राप्त होते ही यह समझ में आता है कि न तो माया की कोई स्वतंत्र सत्ता है और न ही इस जगत की। केवल ब्रह्म ही शाश्वत सत्य है। यही विवेक की दृष्टि है जो साधक को बंधन से मुक्त कर आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाती है।

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बुधवार, 3 सितंबर 2025

* जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥⚜️️घटना - 344⚜️️मनुष्य ही परमात्मा है :श्रीराम द्वारा रावण का वध ⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #344||⚜️️⚜️️https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_87.html ⚜️️⚜️️

श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 344: दोहा -103] 

श्रीराम द्वारा रावण का वध 

        रावण ने अपनी नाभि में अमृत छिपा रखा था। उसका वध करने के लिए श्रीराम ने कालसर्पों के समान 31 वाण छोड़े। एक वाण ने उसकी नाभि का अमृत सोख लिया , तथा बाकि 30 ने उसके सिर और भुजायें काट डालीं। बिना सिर भुजाओं वाले धड़ को प्रचण्ड वेग से दौड़ते देख , श्रीराम ने एक और वाण से उस रुण्ड के दो टुकड़े कर दिए। जो जाकर मन्दोदरी के सामने आ गिरे। 

चौपाई :

* सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥

लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥1॥

भावार्थ:- एक बाण ने नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले। सिरों और भुजाओं से रहित रुण्ड (धड़) पृथ्वी पर नाचने लगा॥1॥

* धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥

गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥2॥

भावार्थ:- धड़ प्रचण्ड वेग से दौड़ता है, जिससे धरती धँसने लगी। तब प्रभु ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। मरते समय रावण बड़े घोर शब्द से गरजकर बोला- राम कहाँ हैं? मैं ललकारकर उनको युद्ध में मारूँ!॥2॥

* डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर॥

धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥3॥

भावार्थ:- रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई। समुद्र, नदियाँ, दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे। रावण धड़ के दोनों टुकड़ों को फैलाकर भालू और वानरों के समुदाय को दबाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा॥3॥

* मंदोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥

प्रबिसे सब निषंग महुँ जाई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई॥4॥

भावार्थ:- रावण की भुजाओं और सिरों को मंदोदरी के सामने रखकर रामबाण वहाँ चले, जहाँ जगदीश्वर श्री रामजी थे। सब बाण जाकर तरकस में प्रवेश कर गए। यह देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए॥4॥

* तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन॥

जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा। जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा॥5॥

भावार्थ:-रावण का तेज प्रभु के मुख में समा गया। यह देखकर शिवजी और ब्रह्माजी हर्षित हुए। ब्रह्माण्डभर में जय-जय की ध्वनि भर गई। प्रबल भुजदण्डों वाले श्री रघुवीर की जय हो॥5॥

* बरषहिं सुमन देव मुनि बृंदा। जय कृपाल जय जयति मुकुंदा॥6॥

भावार्थ:- देवता और मुनियों के समूह फूल बरसाते हैं और कहते हैं- कृपालु की जय हो, मुकुन्द की जय हो, जय हो!॥6॥

छंद :

* जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।

खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥

सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।

संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही॥1॥

भावार्थ:- हे कृपा के कंद! हे मोक्षदाता मुकुन्द! हे (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्वों के हरने वाले! हे शरणागत को सुख देने वाले प्रभो! हे दुष्ट दल को विदीर्ण करने वाले! हे कारणों के भी परम कारण! हे सदा करुणा करने वाले! हे सर्वव्यापक विभो! आपकी जय हो। देवता हर्ष में भरे हुए पुष्प बरसाते हैं, घमाघम नगाड़े बज रहे हैं। रणभूमि में श्री रामचंद्रजी के अंगों ने बहुत से कामदेवों की शोभा प्राप्त की॥1॥

* सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।

जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं॥

भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने।

जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥2॥

भावार्थ:- सिर पर जटाओं का मुकुट है, जिसके बीच में अत्यंत मनोहर पुष्प शोभा दे रहे हैं। मानो नीले पर्वत पर बिजली के समूह सहित नक्षत्र सुशो‍भित हो रहे हैं। श्री रामजी अपने भुजदण्डों से बाण और धनुष फिरा रहे हैं। शरीर पर रुधिर के कण अत्यंत सुंदर लगते हैं। मानो तमाल के वृक्ष पर बहुत सी ललमुनियाँ चिड़ियाँ अपने महान्‌ सुख में मग्न हुई निश्चल बैठी हों॥2॥

दोहा :

* कृपादृष्टि करि बृष्टि प्रभु अभय किए सुर बृंद।

भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकुंद॥103॥

भावार्थ:- प्रभु श्री रामचंद्रजी ने कृपा दृष्टि की वर्षा करके देव समूह को निर्भय कर दिया। वानर-भालू सब हर्षित हुए और सुखधाम मुकुन्द की जय हो, ऐसा पुकारने लगे॥103॥

चौपाई :

* पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥

जुबति बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आईं॥1॥

भावार्थ:- पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई दौड़ीं और उस (मंदोदरी) को उठाकर रावण के पास आईं॥1॥

* पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥

उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना॥2॥

भावार्थ:- पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गए, देह की संभाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और रोती हुई रावण के प्रताप का बखान करती हैं॥2॥

* तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी॥

सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥3॥

भावार्थ:- (वे कहती हैं-) हे नाथ! तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा काँपती रहती थी। अग्नि, चंद्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थे। शेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है!॥3॥

* बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥

भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं॥4॥

भावार्थ:-वरुण, कुबेर, इंद्र और वायु, इनमें से किसी ने भी रण में तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं किया। हे स्वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत लिया था। वही तुम आज अनाथ की तरह पड़े हो॥4॥

* जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥

राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥5॥

भावार्थ:-तुम्हारी प्रभुता जगत्‌ भर में प्रसिद्ध है। तुम्हारे पुत्रों और कुटुम्बियों के बल का हाय! वर्णन ही नहीं हो सकता। श्री रामचंद्रजी के विमुख होने से तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई कि आज कुल में कोई रोने वाला भी न रह गया॥5॥

* तव बस बिधि प्रचंड सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥

अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥6॥

भावार्थ:-हे नाथ! विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे, किन्तु हाय! अब तुम्हारे सिर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे हैं। राम विमुख के लिए ऐसा होना अनुचित भी नहीं है (अर्थात्‌ उचित ही है)॥6॥

* काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना॥7॥

भावार्थ:- हे पति! काल के पूर्ण वश में होने से तुमने (किसी का) कहना नहीं माना और चराचर के नाथ परमात्मा को मनुष्य करके जाना॥7॥

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मंगलवार, 2 सितंबर 2025

⚜️️मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥⚜️️घटना - 343⚜️️विभीषण से रावण के मरने का भेद और श्रीराम के वाण सन्धान करने का प्रसंग⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #343||⚜️️⚜️️ https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_23.html⚜️️⚜️️

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 343: दोहा -100,101,102 ]


विभीषण से रावण के मरने का भेद और श्रीराम के वाण सन्धान करने का प्रसंग 

         सवेरा होते ही रावण एक बार फिर युद्ध के लिए आ पहुँचता है, वानर भालुओं की सेना उसपर विकराल रूप धारण कर टूट पड़ती है। विभीषण को रावण के न मरने का रहस्य मालूम है, उसकी नाभि में अमृत है , विभीषण से भेद पाकर श्रीराम ने जैसे ही वाण सन्धान करना चाहा कि चारों ओर भयावह अपशकुन होने लगे। .....   
छंद :
* धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा।
अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा॥
बिचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो।
चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तन ब्याकुल कियो॥

भावार्थ:-विकट और विकराल वानर-भालू हाथों में पर्वत लिए दौड़े। वे अत्यंत क्रोध करके प्रहार करते हैं। उनके मारने से राक्षस भाग चले। बलवान्‌ वानरों ने शत्रु की सेना को विचलित करके फिर रावण को घेर लिया। चारों ओर से चपेटे मारकर और नखों से शरीर विदीर्ण कर वानरों ने उसको व्याकुल कर दिया॥
दोहा :
* देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार।
अंतरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार॥100॥

भावार्थ:-वानरों को बड़ा ही प्रबल देखकर रावण ने विचार किया और अंतर्धान होकर क्षणभर में उसने माया फैलाई॥100॥
छंद :
* जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड॥
बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥1॥

भावार्थ:-जब उसने पाखंड (माया) रचा, तब भयंकर जीव प्रकट हो गए। बेताल, भूत और पिशाच हाथों में धनुष-बाण लिए प्रकट हुए!॥1॥

* जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल॥
करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान॥2॥

भावार्थ:- योगिनियाँ एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में मनुष्य की खोपड़ी लिए ताजा खून पीकर नाचने और बहुत तरह के गीत गाने लगीं॥2॥

* धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर॥
मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान॥3॥

भावार्थ:-वे 'पक़ड़ो, मारो' आदि घोर शब्द बोल रही हैं। चारों ओर (सब दिशाओं में) यह ध्वनि भर गई। वे मुख फैलाकर खाने दौड़ती हैं। तब वानर भागने लगे॥3॥

* जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि॥
भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु॥4॥

भावार्थ:-वानर भागकर जहाँ भी जाते हैं, वहीं आग जलती देखते हैं। वानर-भालू व्याकुल हो गए। फिर रावण बालू बरसाने लगा॥4॥

* जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस॥
लछिमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत॥5॥

भावार्थ:-वानरों को जहाँ-तहाँ थकित (शिथिल) कर रावण फिर गरजा। लक्ष्मणजी और सुग्रीव सहित सभी वीर अचेत हो गए॥5॥

* हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ॥
ऐहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि॥6॥

भावार्थ:- हा राम! हा रघुनाथ पुकारते हुए श्रेष्ठ योद्धा अपने हाथ मलते (पछताते) हैं। इस प्रकार सब का बल तोड़कर रावण ने फिर दूसरी माया रची॥6॥

* प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान॥
तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ॥7॥

भावार्थ:-उसने बहुत से हनुमान्‌ प्रकट किए, जो पत्थर लिए दौड़े। उन्होंने चारों ओर दल बनाकर श्री रामचंद्रजी को जा घेरा॥7॥

* मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ॥
दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज॥8॥

भावार्थ:-वे पूँछ उठाकर कटकटाते हुए पुकारने लगे, 'मारो, पकड़ो, जाने न पावे'। उनके लंगूर (पूँछ) दसों दिशाओं में शोभा दे रहे हैं और उनके बीच में कोसलराज श्री रामजी हैं॥8॥

छंद :
* तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही।
जनु इंद्रधनुष अनेक की बर बारि तुंग तमालही॥
प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी।
रघुबीर एकहिं तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी॥1॥

भावार्थ:- उनके बीच में कोसलराज का सुंदर श्याम शरीर ऐसी शोभा पा रहा है, मानो ऊँचे तमाल वृक्ष के लिए अनेक इंद्रधनुषों की श्रेष्ठ बाढ़ (घेरा) बनाई गई हो। प्रभु को देखकर देवता हर्ष और विषादयुक्त हृदय से 'जय, जय, जय' ऐसा बोलने लगे। तब श्री रघुवीर ने क्रोध करके एक ही बाण में निमेषमात्र में रावण की सारी माया हर ली॥1॥

* माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे।
सर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे॥
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं।
सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं॥2॥

भावार्थ:- माया दूर हो जाने पर वानर-भालू हर्षित हुए और वृक्ष तथा पर्वत ले-लेकर सब लौट पड़े। श्री रामजी ने बाणों के समूह छोड़े, जिनसे रावण के हाथ और सिर फिर कट-कटकर पृथ्वी पर गिर पड़े। श्री रामजी और रावण के युद्ध का चरित्र यदि सैकड़ों शेष, सरस्वती, वेद और कवि अनेक कल्पों तक गाते रहें, तो भी उसका पार नहीं पा सकते॥2॥

दोहा :
* ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास।
जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास॥101 क॥

भावार्थ:-उसी चरित्र के कुछ गुणगण मंदबुद्धि तुलसीदास ने कहे हैं, जैसे मक्खी भी अपने पुरुषार्थ के अनुसार आकाश में उड़ती है॥101 (क)॥

* काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस।
प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस॥101 ख॥

भावार्थ:- सिर और भुजाएँ बहुत बार काटी गईं। फिर भी वीर रावण मरता नहीं। प्रभु तो खेल कर रहे हैं, परन्तु मुनि, सिद्ध और देवता उस क्लेश को देखकर (प्रभु को क्लेश पाते समझकर) व्याकुल हैं॥101 (ख)॥
चौपाई :

* काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥1॥

भावार्थ:- काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ। तब श्री रामचंद्रजी ने विभीषण की ओर देखा॥1॥

* उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा॥
सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक॥2॥

भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! जिसकी इच्छा मात्र से काल भी मर जाता है, वही प्रभु सेवक की प्रीति की परीक्षा ले रहे हैं। (विभीषणजी ने कहा-) हे सर्वज्ञ! हे चराचर के स्वामी! हे शरणागत के पालन करने वाले! हे देवता और मुनियों को सुख देने वाले! सुनिए-॥2॥

* नाभिकुंड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥
सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥3॥

भावार्थ:-इसके नाभिकुंड में अमृत का निवास है। हे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता है। विभीषण के वचन सुनते ही कृपालु श्री रघुनाथजी ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिए॥3॥

* असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना॥
बोलहिं खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू॥4॥

भावार्थ:- उस समय नाना प्रकार के अपशकुन होने लगे। बहुत से गदहे, स्यार और कुत्ते रोने लगे। जगत्‌ के दुःख (अशुभ) को सूचित करने के लिए पक्षी बोलने लगे। आकाश में जहाँ-तहाँ केतु (पुच्छल तारे) प्रकट हो गए॥4॥

* दस दिसि दाह होन अति लागा। भयउ परब बिनु रबि उपरागा॥
मंदोदरि उर कंपति भारी। प्रतिमा स्रवहिं नयन मग बारी॥5॥

भावार्थ:-दसों दिशाओं में अत्यंत दाह होने लगा (आग लगने लगी) बिना ही पर्व (योग) के सूर्यग्रहण होने लगा। मंदोदरी का हृदय बहुत काँपने लगा। मूर्तियाँ नेत्र मार्ग से जल बहाने लगीं॥5॥
छंद :
* प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही॥
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहिं जय जए।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए॥

भावार्थ:-मूर्तियाँ रोने लगीं, आकाश से वज्रपात होने लगे, अत्यंत प्रचण्ड वायु बहने लगी, पृथ्वी हिलने लगी, बादल रक्त, बाल और धूल की वर्षा करने लगे। इस प्रकार इतने अधिक अमंगल होने लगे कि उनको कौन कह सकता है? अपरिमित उत्पात देखकर आकाश में देवता व्याकुल होकर जय-जय पुकार उठे। देवताओं को भयभीत जानकर कृपालु श्री रघुनाथजी धनुष पर बाण सन्धान करने लगे।
दोहा :
* खैंचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥102॥

भावार्थ:- कानों तक धनुष को खींचकर श्री रघुनाथजी ने इकतीस बाण छोड़े। वे श्री रामचंद्रजी के बाण ऐसे चले मानो कालसर्प हों॥102॥ 
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⚜️️सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा॥⚜️️घटना - 342⚜️️ मूर्छित रावण को दूर ले जाने और अशोक वाटिका में त्रिजटा द्वारा सीता को युद्ध का वर्णन सुनाने का प्रसंग⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #342 ||⚜️️⚜️️ https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_23.html

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 342: दोहा -98,99]


          मूर्छित रावण को दूर ले जाने और अशोक वाटिका में त्रिजटा द्वारा सीता को युद्ध का वर्णन सुनाने का प्रसंग --

       युद्ध में जांबवान के पद प्रहार से मूर्छित होकर रावण धरती पर आ गिरता है। रात हो गयी देख सारथि उसे रथ में डालकर युद्ध स्थल से दूर ले जाकर उसकी मूर्छा दूर करने के उपाय करता है। भयभीत राक्षस वहां आतंकित खड़े हैं। त्रिजटा अशोक वाटिका में सीता को युद्ध की गति का विवरण सुनाती है। वाणों से कटने के बाद भी रावण के सिर और भुजायें बढ़ने की बात सुनकर सीता उदास हो जाती हैं। और माता के समान स्नेह देनेवाली त्रिजटा से पूछती हैं - कि किस प्रकार रावण का वध हो पायेगा ? त्रिजटा कहती है कि ह्रदय में वाण लगने से वो मर सकता है , किन्तु श्रीरघुनाथ उसके ह्रदय को लक्ष्य इस लिए बनाते कि वहाँ उसने तुम्हारी छवि बिठा रखी है। लेकिन बार बार उसका सिर कटने से उसका ध्यान तुम्हारे ओर से हट जायेगा ,और तब श्रीराम वहाँ वाण मारेंगे। उधर मूर्छा टूटने पर रावण युद्धभूमि से अपने को दूर पाकर सारथि पर क्रुद्ध होकर उसे धिक्कारने लगता है -

छंद :

* उर लात घात प्रचंड लागत बिकल रथ ते महि परा।

गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा॥

मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयो॥

निसि जानि स्यंदन घालि तेहि तब सूत जतनु करय भयो॥

भावार्थ:-छाती में लात का प्रचण्ड आघात लगते ही रावण व्याकुल होकर रथ से पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसने बीसों हाथों में भालुओं को पकड़ रखा था। (ऐसा जान पड़ता था) मानो रात्रि के समय भौंरे कमलों में बसे हुए हों। उसे मूर्च्छित देखकर, फिर लात मारकर ऋक्षराज जाम्बवान्‌ प्रभु के पास चले। रात्रि जानकर सारथी रावण को रथ में डालकर उसे होश में लाने का उपाय करने लगा॥

दोहा :

* मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास।

निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास॥98॥

भावार्थ:-मूर्च्छा दूर होने पर सब रीछ-वानर प्रभु के पास आए। उधर सब राक्षसों ने बहुत ही भयभीत होकर रावण को घेर लिया॥98॥ 

चौपाई :

* तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥

सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी। सीता उर भइ त्रास घनेरी॥1॥

भावार्थ:-उसी रात त्रिजटा ने सीताजी के पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनाई। शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती का संवाद सुनकर सीताजी के हृदय में बड़ा भय हुआ॥1॥

* मुख मलीन उपजी मन चिंता। त्रिजटा सन बोली तब सीता॥

होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता॥2॥

भावार्थ:- (उनका) मुख उदास हो गया, मन में चिंता उत्पन्न हो गई। तब सीताजी त्रिजटा से बोलीं- हे माता! बताती क्यों नहीं? क्या होगा? संपूर्ण विश्व को दुःख देने वाला यह किस प्रकार मरेगा?॥2॥

* रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई। बिधि बिपरीत चरित सब करई॥

मोर अभाग्य जिआवत ओही। जेहिं हौं हरि पद कमल बिछोही॥3॥

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी के बाणों से सिर कटने पर भी नहीं मरता। विधाता सारे चरित्र विपरीत (उलटे) ही कर रहा है। (सच बात तो यह है कि) मेरा दुर्भाग्य ही उसे जिला रहा है, जिसने मुझे भगवान्‌ के चरणकमलों से अलग कर दिया है॥3॥

* जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा॥

जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए॥4॥

भावार्थ:-जिसने कपट का झूठा स्वर्ण मृग बनाया था, वही दैव अब भी मुझ पर रूठा हुआ है, जिस विधाता ने मुझसे दुःसह दुःख सहन कराए और लक्ष्मण को कड़ुवे वचन कहलाए,॥4॥

* रघुपति बिरह सबिष सर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी॥

ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना। सोइ बिधि ताहि जिआव न आना॥5॥

भावार्थ:-जो श्री रघुनाथजी के विरह रूपी बड़े विषैले बाणों से तक-तककर मुझे बहुत बार मारकर, अब भी मार रहा है और ऐसे दुःख में भी जो मेरे प्राणों को रख रहा है, वही विधाता उस (रावण) को जिला रहा है, दूसरा कोई नहीं॥5॥

* बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की॥

कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरइ सुरारी॥6॥

भावार्थ:-कृपानिधान श्री रामजी की याद कर-करके जानकीजी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं। त्रिजटा ने कहा- हे राजकुमारी! सुनो, देवताओं का शत्रु रावण हृदय में बाण लगते ही मर जाएगा॥6॥

* प्रभु ताते उर हतइ न तेही। एहि के हृदयँ बसति बैदेही॥7॥

भावार्थ:- परन्तु प्रभु उसके हृदय में बाण इसलिए नहीं मारते कि इसके हृदय में जानकीजी (आप) बसती हैं॥7॥

छंद :

* एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है।

मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है॥

सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा।

अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा॥

भावार्थ:-वे यही सोचकर रह जाते हैं कि) इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हृदय में मेरा निवास है और मेरे उदर में अनेकों भुवन हैं। अतः रावण के हृदय में बाण लगते ही सब भुवनों का नाश हो जाएगा। यह वचन सुनकर सीताजी के मन में अत्यंत हर्ष और विषाद हुआ देखकर त्रिजटा ने फिर कहा- हे सुंदरी! महान्‌ संदेह का त्याग कर दो, अब सुनो, शत्रु इस प्रकार मरेगा-

दोहा :

* काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान।

तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान॥99॥

भावार्थ:-सिरों के बार-बार काटे जाने से जब वह व्याकुल हो जाएगा और उसके हृदय से तुम्हारा ध्यान छूट जाएगा, तब सुजान (अंतर्यामी) श्री रामजी रावण के हृदय में बाण मारेंगे॥99॥ 

चौपाई :

* अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥

राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥1॥

भावार्थ:-ऐसा कहकर और सीताजी को बहुत प्रकार से समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गई। श्री रामचंद्रजी के स्वभाव का स्मरण करके जानकीजी को अत्यंत विरह व्यथा उत्पन्न हुई॥1॥

* निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँति। जुग सम भई सिराति न राती॥

करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी॥2॥

भावार्थ:-वे रात्रि की और चंद्रमा की बहुत प्रकार से निंदा कर रही हैं (और कह रही हैं-) रात युग के समान बड़ी हो गई, वह बीतती ही नहीं। जानकीजी श्री रामजी के विरह में दुःखी होकर मन ही मन भारी विलाप कर रही हैं॥2॥

* जब अति भयउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥

सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा॥3॥

भावार्थ:-जब विरह के मारे हृदय में दारुण दाह हो गया, तब उनका बायाँ नेत्र और बाहु फड़क उठे। शकुन समझकर उन्होंने मन में धैर्य धारण किया कि अब कृपालु श्री रघुवीर अवश्य मिलेंगे॥3॥

* इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा।

सठ रनभूमि छड़ाइसि मोही। धिग धिग अधम मंदमति तोही॥4॥

भावार्थ:- यहाँ आधी रात को रावण (मूर्च्छा से) जागा और अपने सारथी पर रुष्ट होकर कहने लगा- अरे मूर्ख! तूने मुझे रणभूमि से अलग कर दिया। अरे अधम! अरे मंदबुद्धि! तुझे धिक्कार है, धिक्कार है!॥4॥ 

* तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भोरु भएँ रथ चढ़ि पुनि धावा॥

सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयउ घनेरा॥5॥

भावार्थ:- सारथि ने चरण पकड़कर रावण को बहुत प्रकार से समझाया। सबेरा होते ही वह रथ पर चढ़कर फिर दौड़ा। रावण का आना सुनकर वानरों की सेना में बड़ी खलबली मच गई॥5॥

*जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥6॥

भावार्थ:- वे भारी योद्धा जहाँ-तहाँ से पर्वत और वृक्ष उखाड़कर (क्रोध से) दाँत कटकटाकर दौड़े॥6॥

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🔱🔱स्थूल और सूक्ष्म शरीर नश्वर है, आत्मा अविनाशी है ! 🔱🔱 Session 16 | The Essence of Vivekachudamani |🔱🔱https://www.sadhanapath.in/2025/08/95-96.html🔱https://www.sadhanapath.in/2025/08/98.html🔱🔱https://sreegurukrupa.blogspot.com/2021/01/vivekachodamani-shlokas-91-to-110.html🔱🔱

 परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,

 निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।

यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,

 तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥

(वेदसार शिवस्तव स्तोत्र) 

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ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥

ॐ शांति, शांति, शांतिः  

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         पिछले सत्र में अनात्मा के सम्बन्ध में विचार करते समय हमने देखा, कि अपने स्थूल शरीर को ही 'मैं ' समझ लेने के कारण जीव कैसे संसार की वस्तुओं -विषय में आसक्त होकर बन्ध जाता है। स्थूल शरीर को चर्म दृष्टि से देखने पर स्त्री-पुरुष शरीर का भेद दीखता है , और सतह पर देखने जीव मोहित/भ्रमित हो जाता है , आसक्त हो जाता है , और बंध जाता है। लेकिन गहराई से देखने पर हमारी दृष्टि बदल जाती है। वेदान्त में स्थूल शरीर को गहराई से देखने का एक और प्रक्रिया है , जिसको पंचकोष विवरण कहते हैं। अभी हमलोग उसके ज्यादा विस्तार में नहीं जायेंगे। संक्षेप में स्थूल शरीर को अन्नमय कोष कहते हैं , सभी कोषों अलग -अलग विशेषता है। अन्नमय कोष के भीतर या पीछे प्राणमय कोष है। उसकी अपनी विशेषता है। प्राणमयकोष के बिल्कुल पीछे और भीतर मनोमय कोष है। मनोमय कोष के बिल्कुल पीछे और भीतर , विज्ञानमय कोष है। विज्ञानमय कोष के भी पीछे और भीतर आनन्दमय कोष है। और जो सत्य वस्तु है वह , आनन्दमय कोष के भी भीतर और पीछे है। तो देखिये ये सत्यार्थी की खोज चल रही है। कि इसमें से मैं कौन है ? आप क्या अन्नमय कोष हो ? नहीं , अन्नमय तो चला जा रहा है।ये तो सिर्फ एक बुलबुला है। हमलोग अन्नमय को सतही दृष्टि देखकर - 2mm नजर से देखकर -उसके मोह में फंसे हुए हैं। अन्य कोषों का तो हमें पता ही नहीं है। बाहरी सतह पर जो हमको स्त्री-पुरुष दिख रहा है , हमारी दृष्टि वहीं पर अटकी हुई है। विपरीत लिंग के राग में हम सब फँसे हुए हैं। हम सब भ्रमित है। अब देखिये ये जो Gender भेद है - कोई स्त्री है , तो कोई पुरुष है। ये भेद तो सिर्फ अन्नमय-कोष के स्तर पर है। अब बताइये कि 'प्राण ' स्त्रीलिंगी या पुरुषलिंगी है? (5.14

The Essence of Vivekachudamani | Session 16

       आप बताओ प्राण का कोई लिंग है ? तो जितना आप भीतर जाओगे , तो देखोगे कि जितना भी लिंगभेद है , उसका को अर्थ ही नहीं रहता। प्राणमय-कोष में जाओगे , तो लिंग कहाँ है ?मनोमय में जाओ, विज्ञानमय में जाओ ,आनंदमय में पहुँचो -तो ये भेद कहाँ है ? ये सिर्फ सतह पर है। और सारा विश्वप्रपंच -इसी सतही दृष्टि में अटकी हुई है ; फंसी हुई है। लेकिन सत्य कुछ और ही है। इसलिए वेदांत हमे बतलाता है , हमारे भीतर जो सत्यवस्तु छिपी हुई है , उसके बारे में तो हमें कुछ भी पता नहीं है। अब देखिये आधुनिक शिक्षापद्धति ये सब कुछ नहीं सिखाती है।
आज की जो शिक्षा है , वो केवल हमें अन्नमय कोष के बाहर जो दिखाई दे रहा है - उनकी दृष्टि बस वहीं तक सीमित है। 
  इस विश्वप्रपंच के कितने स्तर हैं - आधुनिक विज्ञान उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। तो आधुनिक शिक्षापद्धति को Scientific and rational कहने चाहिए क्या ? क्या इनको पता है कि इनके पीछे इनके भीतर क्या है ? हर व्यक्ति के पीछे और भीतर अनंत शक्ति छिपी हुई है। इसलिए स्वामी विवेकानन्द ये कहते थकते नहीं थे - आप कभी अपने आपको Underestimate मत करना। आपके अंदर जो अनंतशक्ति छिपी हुई है , उसकी आप कभी कल्पना भी नहीं कर सकते। - " यह कभी न सोचना कि आत्मा के लिए कुछ भी असम्भव है। ऐसा कहना ही भयानक नास्तिकता है। तुम जो कुछ सोचोगे , तुम वही हो जाओगे ; यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे , तो दुर्बल हो जाओगे , बलवान सोचोगे तो बलवान बन जाओगे। " इसलिए जितना अधिक आप योग का अभ्यास करोगे आपकी अंतर्निहित दिव्य शक्तियां उतनी अधिक अभिव्यक्त कर पाओगे। आपको समझ में आएगा कि कितनी अनंत संभावना आपके जीवन में छिपी हुई है ! हमें अभी इसकी कल्पना भी नहीं है कि हमारे जीवन में कितनी अनंत सम्भावनायें छिपी हुई हैं। जब तक हमारा ध्यान 2mm दृष्टि तक अटकी हुई है -हम दुर्बल हैं। तब तक हम दीन-हीन बनकर रह जाते हैं। सारी गुलामी इस चर्म दृष्टि से ही शुरू होती है। आप जितने भीतर देखोगे -सारी गुलामी पराधीनता खत्म हो जाती है। सारी गुलामी का खत्म होना -ये योग का वरदान है। भोग हमें क्या देती है ? गुलाम बना देती है। बिल्कुल पराधीन बना देती है। योग आपको आत्मनिर्भर बनाती है, स्वावलम्बी बनाती है। योग आपको सारी गुलामी और कमजोरियों से मुक्त कराती है - यही मोक्ष है। जबतक हम सतह पर ही अटके हैं , स्थूल शरीर की आसक्ति में ही अटके हैं , तबतक हमारी मुक्ति सम्भव नहीं है। स्थूल शरीर को ही हम अपना मैं समझकर जब तक हम अटके हुए हैं , हम तब तक मगरमच्छ को ही लट्ठा समझकर नदी पर करने की आशा कर रहे हैं। इन्द्रिय-भोगों में डूबे रहकर ये सोचते हों , कि आप सुखी हो जाओगे , तो यह असम्भव है। इन्द्रियों में एक बून्द भी सुख नहीं है। लेकिन इसको समझने में सारा जीवन खर्च हो जाता है। एक छल हमारे साथ हो रहा है। तो देखिये असली आनंदमय कोष कहाँ है ? और ये अन्नमय कोष कहाँ है ?(9.28) अन्नमय कोष में सिर्फ आनंद का आभास है , असली आनंद जो भीतर छिपा हुआ है - उसका सिर्फ एक आभास -उसकी सिर्फ एक परछाई हमको ऊपरी सतह पर दिखाई देती है। इन्द्रियों में रस का केवल आभास मात्र है , उसके छल से हम सभी धोखा खा रहे हैं। यही हमरा बंधन है हम उसी डूबना चाहते हैं। पर तृप्ति कभी होती नहीं है। और भोग करते करते ये अन्नमय कोष एकदिन बूढ़ा हो जायेगा। सुख जायेगा , मुरझा जायेगा , सिकुड़ जायेगा -गिर जायेगा। जैसे टहनी से फूल गिर जाता है , वैसे ये अन्नमय कोष भी गिर जायेगा। ये मनुष्य जीवन की कहानी है -जो स्थूल शरीर को ही मैं मानकर चलने से होती है। तो वेदांत में पंचकोश की दृष्टि में सत्य कहाँ है ? इसको समझना होगा। ये अन्नमयकोष ही मोह का आस्पद है -मोह का स्थान है। अन्नमय कोष के पीछे क्या है ? इसको हमे पता ही नहीं है , क्योंकि हम को इस विषय कभी कुछ बताया ही नहीं गया। आज वेदांत हमें बतलाता है , शास्त्र और गुरु हमें बताते हैं कि बच्चों जान लो - आप सिर्फ सतह पर ही अटके मत रहो। आपके भीतर अनंत शक्ति छिपी हुई है , आप जितना भीतर प्रवेश करोगे, उतनी व्यक्त होंगी। उस अंतर्निहित दिव्यता को प्रकट करने का साधन है-योग। योग का यही अर्थ है भीतर प्रवेश करना।  
         स्थूल शरीर की जब अन्वेषणा करते हैं , तब यह समझ में आता है कि स्थूल-शरीर ही अन्नमय कोष है। यही मोह का आस्पद है। इसी शरीर को हमारी बुद्धि ' मैं' समझती है। और फिर ये 'मेरा ' है। सारे -नाते रिश्ते इसी मेरा से शुरू हो जाते हैं। मेरी पत्नी , मेरा पति , मेरे बच्चे -सब स्थूल शरीर को ही लेकर है। एक बुलबुला- जिसका खुद अपना ठिकाना नहीं, दूसरे बुलबले से संबंध बना लेता है कि मैं इसके माध्यम से परिपूर्ण हो जाऊंगा , सुखी हो जाऊँगा - आज तक कोई सुखी हुआ है क्या ? दोनों बुलबुले उतने ही भयग्रस्त हैं , उतने ही असुरक्षित हैं। यह स्थूल शरीर मैं और मेरा रूपी मोह का आस्पद है। मनुष्य जब किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति मोहग्रस्त हो जाता है , तब वह अँधा हो जाता है। फिर कामिनी हो या कांचन उसके अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं है। पुरुष स्त्री से मोहित , स्त्री पुरुष से मोहित -मातापिता बच्चों से मोहित हो जाते हैं। वो भीतरी चीज को नहीं देख पाता , सत्य को नहीं देख पाता। हम उसमें आसक्त हो जाते हैं। राग रूपी अदृश्य रस्सी स्थूल रस्सी से भी मजबूत है। स्थूल रस्सी को आप काट सकते हो , आसक्ति रूपी रस्सी को काटना बहुत कठिन है। पाँच पशुओं का उदाहरण - मनुष्य पांचो से बंधा है है।
          (15.20) फिर हमने देखा था राग और प्रेम में अन्तर क्या है ? ये बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। राग/आसक्ति के मूल में स्वार्थ है। और प्रेम सब समय निःस्वार्थ ही होता है। प्रेम सीमाहीन है -ये कुछ व्यक्तियों तक सीमित नहीं रहती। प्रेम का शरीर के साथ , लिंग के साथ कोई सम्पर्क है ही नहीं। समाज जिस पारस्परिक आकर्षण को प्रेम समझता है , वो प्रेम है ही नहीं। ये सब अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दूसरे बुलबुले को पकड़ रहे हैं। M-F एक संबंध बनाते क्यों हैं ? अपने अपने प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए। ये प्रेम की तरह दीखता है , उसके मूल में स्वार्थ है। प्रेम का शारीरिक आकर्षण या स्वार्थ के साथ कोई संबंध है ही नहीं। प्रेम में सब समान है। आपको हमेशा विवेक पूर्वक देखना है - आसक्ति को प्रेम नहीं समझना है। वेदांत की घोषणा यह है कि आप स्थूल शरीर नहीं हो। स्थूल शरीर जन्म लेता है मरता है -लेकिन आप तो अविनाशी हो
 
न जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
       न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2.20।।
  
 यह आत्मा (शरीरी ) किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है,  शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता। शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों की उत्पत्ति होती है और उनका नाश होता है परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की उत्पत्ति होती है और न ही नाश।
     लेकिन देखिये अपने विषय में हम क्या -क्या समझकर बैठे हैं ? हमारा तो एक जन्मदिन होता है ! जिसको हमलोग बड़े धूमधाम से मनाते हैं। शरीर का जन्मदिन मनाइये , इसमें कोई हर्ज नहीं है , लकिन सच्चाई को जान लीजिये। हम तो साल भर जन्मदिन की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं -घर में खीर बनेगा , केक कटेगा।  दोस्त आएंगे। लेकिन सच्चाई ये है कि आपका कभी जन्म हुआ ही नहीं है। जन्म-मरण स्थूल शरीर होता है , थोड़ा भीतर जाओ वहाँ अमरत्व है। इससे एक नई दृष्टि प्राप्त होती है -अद्भुत साहस प्राप्त होता है। मृत्यु का भय सदा के लिए समाप्त हो जाता है। अपने स्वरूप को जान लेने से अद्भुत निर्भयता प्राप्त होती है। सारी इन्द्रिय गुलामी और कमजोरी दूर हो जाती है - जितना आप सतह पर अटके हो , उतना जन्म-मरण चलेगा। लेकिन- 'न जायते म्रियते वा कदाचि' आपका कभी नाश नहीं होगा। आप अजन्मे हो , आपका कभी जन्म हुआ ही नहीं -आप शाश्वत हो। ये भगवान कृष्ण की वाणी है -उपनिषदों की वाणी है। 
         अब स्थूल शरीर के पीछे और भीतर और एक दूसरा शरीर है , जिसको हमलोग सूक्ष्म शरीर कहते हैं। स्थूल शरीर तो हम समझते हैं कि हम पुरुष हैं या स्त्री हैं। लेकिन सूक्ष्म शरीर का भी अनुभव हम कर रहे हैं - लेकिन उसके विषय में हम बहुत कम जानते हैं। मन कैसे काम करता है - ये हम समझ ही नहीं रहे है। तो हमलोग मोह का आस्पद स्थूल शरीर के विषय में जान लिया है , पर सूक्ष्म शरीर क्या है ? अब शंकराचार्यजी पहले अन्तःकरण चतुष्टय को परिभाषित करते हैं  (23.48)
निगद्यतेऽन्तःकरणं मनोधी-रहंकृतिश्चित्तमिति स्ववृत्तिभिः ।
मनस्तु सङ्कल्पविकल्पनादिभि-बुद्धिः पदार्थाध्यवसायधर्मतः ॥ ९५ ॥
अत्राभिमानादहमित्यहङ्‌कृतिः स्वार्थानुसन्धानगुणेन चित्तम् ॥ ९६ ॥

निगद्यते अन्त:करणं मन: धी: /
अहंकृति: चित्तम् इति   स्ववृत्तिभि:/
 मन: तु संकल्पविकल्पनादिभि:/
 बुद्धि: पदार्थाध्यवसायधर्मत: /
अत्र अभिमानात् अहम् इति अहंकृति:/ 
स्वार्थानुसंधानगुणेन चित्तम्।]

अर्थ:-अपनी वृत्तियों के कारण अन्तःकरण मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार [ इन चार नामों से ] कहा जाता है। संकल्प-विकल्प के कारण मन, पदार्थ का निश्चय करने के कारण बुद्धि, 'अहम्-अहम्' (मैं-मैं) ऐसा अभिमान करने से अहंकार, और अपना इष्ट-चिन्तन के कारण यह चित्त कहलाता है।
[आदि शंकराचार्य द्वारा रचित विवेकचूडामणि के इन श्लोकों में अन्तःकरण की सूक्ष्म व्याख्या की गई है। सामान्यतः हम मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को अलग-अलग इकाइयाँ मानते हैं, परन्तु वास्तव में ये सब एक ही अन्तःकरण की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ या वृत्तियाँ हैं। जिस प्रकार एक ही जल अपने-अपने प्रयोजन के अनुसार नदी, झील, वर्षा या समुद्र कहलाता है, उसी प्रकार अन्तःकरण भी अपनी क्रियाओं के आधार पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है। यह मनुष्य की आन्तरिक शक्ति है, जो बाह्य जगत् और आत्मा के बीच सेतु का कार्य करती है। जीव के अनुभव, ज्ञान, निर्णय और अहंकार—आदि इसी के द्वारा सम्पन्न होते हैं।

मन की पहली अवस्था संकल्प-विकल्प है। जब भी कोई विषय सामने आता है, तब अन्तःकरण विचार करता है कि इसे ग्रहण करना है या त्यागना है। यह द्वन्द्वात्मक स्थिति मन की विशेषता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति को फल दिखे, तो उसका मन यह सोचता है कि इसे खाऊँ या न खाऊँ। यह हाँ-ना, उचित-अनुचित, करना-न-करना का द्वन्द्व ही मन का धर्म है। इसीलिए इसे मन कहा गया है। मन स्थायी निर्णय नहीं लेता, बल्कि केवल विचार और विकल्प प्रस्तुत करता है।

इसके बाद बुद्धि का स्थान आता है। बुद्धि वह शक्ति है, जो पदार्थ का निश्चय करती है। जो कार्य उचित है, क्या सत्य है, क्या असत्य है—यह विवेक बुद्धि का कार्य है। बुद्धि अन्तःकरण की वह अवस्था है, जो निर्णय लेकर जीव को आगे बढ़ाती है। यदि मन यह सोचता है कि फल खाऊँ या न खाऊँ, तो बुद्धि यह निर्णय करेगी कि यह फल स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है, अतः इसे खाना उचित है। इस प्रकार बुद्धि निश्चयात्मक शक्ति है, जो सत्य-असत्य, हित-अहित और वास्तविक-अवास्तविक का विवेक कराती है।

अहंकार अन्तःकरण का तीसरा रूप है। यह वह वृत्ति है, जिसमें ‘मैं’ का भाव प्रकट होता है। ‘मैं करता हूँ’, ‘मेरा है’, ‘मुझे चाहिए’—ये सब अभिमान और ‘अहम्-अहम्’ की धारणाएँ अहंकार की अभिव्यक्ति हैं। जीव का व्यक्तित्व और उसकी व्यक्तिगत पहचान अहंकार के कारण ही प्रकट होती है। अहंकार के बिना कोई भी कार्य संभव नहीं होता, क्योंकि वही ‘कर्तृत्व’ और ‘भोक्तृत्व’ का अनुभव कराता है। परन्तु जब यह अहंकार आत्मज्ञान से रहित होता है, तब यही बन्धन का कारण बनता है।

चित्त अन्तःकरण की चौथी अवस्था है। यह स्मरण और मनन का क्षेत्र है। चित्त का मुख्य धर्म है—स्मृति और मनन। मनुष्य जो भी अनुभव करता है, उसका संस्कार चित्त में संचित हो जाता है। यही चित्त समय-समय पर उन अनुभवों को स्मृति के रूप में बाहर लाता है और जीव को पुनः उसी विषय की ओर प्रवृत्त करता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी को अपने बचपन का कोई प्रसंग याद आता है, तो वह स्मरण चित्त का कार्य है। इसी प्रकार अपने इष्ट का चिन्तन, भक्ति और ध्यान भी चित्त के द्वारा ही सम्भव होते हैं।

इस प्रकार शंकराचार्य ने बताया कि मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त कोई अलग-अलग सत्ता नहीं हैं, बल्कि अन्तःकरण की ही भिन्न-भिन्न वृत्तियाँ हैं। जीव का सम्पूर्ण आन्तरिक जीवन इन्हीं चारों के आधार पर चलता है। मनुष्य का व्यवहार, निर्णय, स्मरण और व्यक्तित्व—सबका मूल यही अन्तःकरण है। अतः साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने अन्तःकरण को शुद्ध करे, मन को स्थिर बनाए, बुद्धि को सत्य के मार्ग में दृढ़ रखे, अहंकार को त्यागकर आत्मस्वरूप में स्थिर हो और चित्त को भगवद्-चिन्तन में लगाकर मुक्तिपथ की ओर अग्रसर हो। यही विवेकचूडामणि का गूढ़ संदेश है।
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प्राणापानव्यानोदानसमाना भवत्यसौ प्राणः । 
स्वयमेव वृत्तिभेदाद्विकृतिभेदात्सुवर्णसलिलादिवत् ॥ ९७ ॥

अर्थ:-अपने विकारों के कारण सुवर्ण और जल आदि के समान स्वयं प्राण ही वृत्ति भेद से प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-इन पाँच नामों वाला होता है

यहाँ आचार्य शंकराचार्य प्राण के स्वरूप और उसकी विभिन्न वृत्तियों का विवेचन कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि जिस प्रकार एक ही सुवर्ण से अनेक प्रकार के आभूषण बन जाते हैं या एक ही जल अलग-अलग परिस्थितियों में नाना रूप धारण कर लेता है, वैसे ही एक ही प्राण तत्त्व अपनी-अपनी क्रियाओं और कार्य-क्षेत्रों के कारण पाँच प्रकारों में विभाजित माना जाता है। वस्तुतः प्राण एक ही है, परंतु उसकी गतिविधियों और कार्यों के आधार पर उसे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान नाम से जाना जाता है। यह पंच-प्राण ही शरीर और मन के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और जीवन को टिकाए रखते हैं।
      ‘प्राण’ का विशेष कार्य श्वास-प्रश्वास को संचालित करना है। यह हृदय और फेफड़ों के क्षेत्र में मुख्यतः कार्य करता है और जीव के जीवन-संचालन का आधार है। यदि प्राण न हो तो जीवित रहना असंभव है। प्राण के द्वारा ही हम श्वास लेते हैं और जीवन-ऊर्जा को ग्रहण करते हैं। इसीलिए वेद और उपनिषदों में प्राण को जीवन का आधार कहा गया है।

‘अपान’ की गति नीचे की ओर मानी जाती है। यह मल, मूत्र, पसीना आदि के निष्कासन का कार्य करता है। मनुष्य के शरीर में जो भी अपशिष्ट पदार्थ हैं, उन्हें बाहर निकालने की जिम्मेदारी अपान प्राण की है। इसके कारण शरीर शुद्ध और संतुलित बना रहता है। यदि अपान का कार्य व्यवस्थित न हो तो शरीर में रोग और विषमता उत्पन्न हो जाती है।

        ‘व्यान’ प्राण की गतिविधि पूरे शरीर में फैली रहती है। यह रक्त संचार, स्नायु-संचालन तथा शरीर के प्रत्येक अंग में ऊर्जा के वितरण का कार्य करता है। व्यान के बिना शरीर में समन्वय और शक्ति का प्रवाह संभव नहीं है। यह प्राण की वह वृत्ति है जो पूरे शरीर को एक तंत्र की भाँति जीवंत और सक्रिय बनाए रखती है।

‘उदान’ का कार्य शरीर की उर्ध्वगामी क्रियाओं में है। यह बोलने, डकारने, उल्टी करने तथा अंततः शरीर त्यागने (मृत्यु के समय प्राण के बाहर निकलने) में सहायक होता है। यही कारण है कि उपनिषदों में कहा गया है कि मृत्यु के समय जीवात्मा का शरीर से प्रस्थान उदान प्राण के द्वारा होता है। यह प्राण की वृत्ति आत्मा को अगले लोक में ले जाने का माध्यम है।
‘समान’ का कार्य शरीर में आहार के पाचन और रस के समान वितरण में होता है। यह पेट की अग्नि को प्रज्वलित रखता है और आहार को रस, रक्त, मांस, मेद आदि धातुओं में परिवर्तित करता है। इसके बिना शरीर का पोषण और विकास संभव नहीं। समान प्राण ही सब कुछ संतुलित करके जीवन-ऊर्जा को स्थिर बनाए रखता है।
अतः शंकराचार्य यह स्पष्ट करते हैं कि प्राण कोई पाँच अलग-अलग सत्ता नहीं हैं, बल्कि एक ही प्राण अपनी-अपनी गतिविधियों से पाँच रूपों में प्रकट होता हैजैसे एक ही सोना कभी कंगन, कभी हार, कभी अंगूठी बन जाता है, वैसे ही एक ही प्राण शरीर में भिन्न-भिन्न कार्य करता है। 
      यह शिक्षा हमें यह समझाती है कि शरीर और जीवन की सभी क्रियाएँ प्राण पर आश्रित हैं, परंतु यह प्राण भी आत्मा से अलग नहीं है। आत्मा के बिना प्राण की कोई सत्ता नहीं, और आत्मा के साथ प्राण केवल उपाधि की भाँति जुड़ा है। इस विवेचन से साधक को यह ज्ञान होता है कि वास्तविक तत्त्व आत्मा है, प्राण नहीं प्राण तो केवल आत्मा से जुड़ी देह के संचालन का साधन मात्र है।
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वागादिपञ्च श्रवणादिपञ्च प्राणादिपञ्चाश्रमुखानि पञ्च ।
बुद्ध्याद्यविद्यापि च कामकर्मणी पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः ॥ ९८ ॥ 

[वागादिपंच श्रवणादिपंच प्राणादिपंच/ अभ्रमुखाणि पंच बुद्ध्यादि अविद्या अपि च कामकर्मणी/ पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरम् आहुः। ]  
अर्थ:-वागादि पाँच कर्मेन्द्रियाँ, श्रवणादि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, प्राणादि पाँच प्राण, आकाशादि पाँच भूत, बुद्धि आदि अन्तःकरण-चतुष्टय, अविद्या तथा काम और कर्म इसको ' पुर्यष्टकं अथवा सूक्ष्म शरीर कहते हैं। 
वेदान्त में इस शरीर को 'पुर' कहा गया है - पुर यानि शहर ! जयपुर, भरतपुर, सोनपुर, ये शरीर ही अपने आप में एक शहर है। 

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
             नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।5.13।।    
  
       जिसकी इन्द्रियाँ और मन वशमें हैं, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारों वाले शरीर रूपी पुर में सम्पूर्ण कर्मोंका विवेकपूर्वक मनसे त्याग करके निःसन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ सुखपूर्वक (अपने स्वरूपमें) स्थित रहता है। (25.33)
वेदान्त कहता है - इस स्थूल देह रूपी शहर में 9 द्वार हैं। ऊपर की तरफ 7 द्वार हैं , नीचे की तरफ 2 द्वार हैं। और जो हमारा सूक्ष्म शरीर (या अन्तःकरण) है , वो इन 9 द्वारों के माध्यम से बाहर निकल कर संसार के साथ व्यवहार कर रहा है। और ये सूक्ष्म शरीर (मन -अहंकार) संसार के साथ कैसे बंध जाता है ? अदृश्य राग (आसक्ति) रूपी रस्सी के द्वारा बंध जाती है। बहुत गहरा अवलोकन है। इस स्थूल शरीर में 9 द्वार हैं। ऊपर की तरफ 7 द्वार हैं , नीचे 2 द्वार हैं। सूक्ष्म शरीर हमारी सारी ऊर्जा इन 9 द्वारों के द्वारा बाहर जाती रहती है। आज हमारी सारी शक्ति बहिर्मुखी है - और 9 द्वारों के माध्यम से बाहर ही दौड़ रही है। योग क्या है ? मन की इन शक्तियों को बाहर जाने से रोक रही है। योग के माध्यम से क्या हो रहा है ? अनंत आंतरिक शक्तियों का संग्रह हो रहा है। इन शक्तियों का संग्रह जितना अधिक होता है , उतना अधिक बलवान होता है , शक्तिशाली होता है। जितना शक्ति का ह्रास होता है -उतने हम दुर्बल होते हैं।इसलिए भारतीय संस्कृति में ब्रह्मचर्य आश्रम का बहुत बड़ा महत्व है। और ब्रह्मचर्य के हमारे आदर्श हैं - महावीर हनुमान ! पूरा शक्ति का संग्रह होगा -हम अनंत बलशाली होंगे । हमारे पूर्वज ऋषियों ने  योग के द्वारा पाँचों इन्द्रियों में बिखरी हुई मन की शक्तियों को, पांचों विषयों में जाने से खींचकर बहुत बुद्धिमानी से - विवेकपूर्वक उसका सदुपयोग करने की एक पद्धति आविष्कृत की है -उसी को अष्टांगयोग या राजयोग कहा जाता है।  योग मतलब अष्टांग प्रत्याहार -धारणा के अभ्यास से ध्यान-समाधि द्वारा जितना शक्ति अपने दैनंदिन जीवन में व्यवहार के लिए सदुपयोग करने के लिए खर्च करना जरुरी है , उतना करके बाकि ऊर्जा को जब आप संग्रहित करने लगते हो , अपने भीतर सत्यस्वरूप के निकट जाते रहते हो तो ये प्रक्रिया है। हमारे वेदांत में स्थूल शरीर को तो एक पुर यानि शहर कहा ही गया है। (27.51) उसी तरह सूक्ष्म शरीर को भी एक पुर कहा गया है। और ये सूक्ष्म शरीर 8 चीजों से बनी है। शंकराचार्यजी का कहते हैं - 'पूरी अष्टकं सूक्ष्मशरीरं आहुः'! कौन सी आठ चीजें है ? उसमें से पहले को हम - अन्तःकरणं कहते हैं।  आठ चीजों में जो हमें शास्त्र और गुरु के द्वारा जो गिनाया जा रहा है , या बताया जा रहा है-निगद्यते  अन्त:करणं। अन्तःकरण में करण का मतलब अंग्रेजी में 'Instrument' होता है। इसको हिन्दी में औजार,निमित्त या यंत्र कहते हैं ! अस्त्र या राजमिस्त्री का करनी ? किसान का औजार क्या है ? हसिया है , कुदाल है। हमलोग Instruments से काम करते हैं - डॉक्टर्स के अपने औजार हैं , इंजीनियर्स के अपने औजार हैं। तो पूरी (शहर) में रहने वाले आत्मा के भी दो प्रकार के औजार हैं, एक बाह्य औजार हैं , दूसरा अन्तः का औजार है। बाह्यः करणं और अन्तः करणं। मन आत्मा का वह भीतरी औजार है - जिसके माध्यम से उसका ये बाह्य स्थूल शरीर काम कर रहा है। लेकिन हमको लगता है कि केवल स्थूल शरीर ही काम कर रहा है , सूक्ष्म शरीर की सहायता के बिना ये स्थूल शरीर कुछ भी नहीं कर सकता। सूक्ष्म शरीर की सहायता के बिना आप एक ऊँगली भी नहीं उठा सकते हैं। सारी शक्ति -इच्छा के रूप में कहाँ से आ रही है ? शुक्ष्म शरीर से आ रही है। आत्मा का मुख्य डायनेमो (Dynamo-बिजली उत्पादन यंत्र) ये सूक्ष्म शरीर ही है। स्थूल सिर्फ बाहर का एक मशीन है , जिसको हमारा सूक्ष्म शरीर संचालित कर रहा है। और सूक्ष्म शरीर के प्रथम घटक को हमलोग अन्तःकरणं कहते हैं। उसके चार विभिन्न कार्य हैं। मशीन एक है -लेकिन वो चार functions करती है। और उसके कार्यानुसार उसके चार विभिन्न नाम दिए गए हैं। अन्तःकरण के चार-functions के चार नाम हैं - मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार। कार्य के एक अंतःकरण को चार नाम दिया गया है। अंतःकरण का एक function है मन। और मन का कार्य क्या है ? मनः तु संकल्प विकल्पना दिभिः| अंतःकरण का जो संकल्प विकल्पात्मक कार्य है , उसको हम 'मन' - कहते हैं, मनः इत्युच्यते। संकल्प -विकल्प क्या है ? इसको हम एक उदाहरण से समझने का प्रयास करेंगे। दूर पर कुछ है - पर स्पष्ट नहीं दीखता कि गाय है , या बदंर है ? लेकिन कुछ हलचल से वहाँ दिख रहा है। अंतःकरण की जो अनिश्चयात्मक दशा है - जिसमें वो निश्चय नहीं कर पा रहा है कि ये मगरमच्छ है या लट्ठा है ? अभी तक वो निश्चय तक नहीं पहुंचा - वो सोच रहा है - कि ये बंदर है , या गाय है ? अंतःकरण के इस अनिश्चयात्मक दशा को हमलोग मन कहते हैं। अभी भी उसके मन में दुविधा वाली स्थिति है - वोसोच रहा है -कुछ तो है -पर क्या है ? निश्चय नहीं हुआ है। मन हमारे अन्तःकरण का Undetermined state अनिश्चित, अनिर्धारित दशा है। अंतःकरण जब इस निश्चय पर पहुँच जाता है कि नहीं - ये लट्ठा नहीं मगरमच्छ ही है। तब अंतःकरण की उस दशा को बुद्धि कहते है। तो बुद्धि निश्चयात्मिका होती है , मन संकल्प-विकल्पात्मक होता है। बुद्धि क्या है ?  -पदार्थ अध्यवसाय धर्मतः बुद्धि:' जब आप अध्यवसाय कर लेते हो -मतलब जब आप यह निश्चय कर लेते हो कि जो देख रहे हो वो यही है -तब उसको बुद्धि कहते हैं ( इत्युच्यते।) एक ही अंतःकरण के ये दो कार्य हैं - एक मन है और दूसरा बुद्धि है। अब अहंकार क्या है ? अत्र अभिमानात् अहम् इति अहंकृति: अभिमानात् - अध्यासात् /अहंकृति: - अहङ्कार:( इत्युच्यते)-जिसके द्वारा शरीर में अभिमान हो जाता है - उसको अहंकार कहते हैं। अहंकार अंतःकरण का वह कार्य है , जिसके द्वारा इस स्थूल शरीर के M/F साथ हमारा अभिमान जुड़ जाता है। और हम अपने इस स्थूल शरीर को ही मैं समझने लगते है। मैं , मैं अहं -अहं का भाव सबके अंदर है। इस अहं के बिना कोई व्यवहार ही सम्भव नहीं है। हमारी सारी क्रिया मैं केंद्रित है। ये मैं क्या है ? मैं अन्तकरण की वह दशा है जिसमें हमारा शरीर के साथ अभिमान हो जाता है। ये अत्यंत सूक्ष्म है , हमारे समस्त व्यवहार के मूल में है। हर समय मैं -मैं का बोध चलता रहता है , पर प्रश्न है कि यह मैं क्या है ? या मैं कौन हूँ ? यही प्रश्न है न -Who am I? क्या यह मैं स्थूल शरीर है ? क्या यह मैं सूक्ष्म शरीर है ? ये मैं क्या है ? यही तो सत्यार्थी की खोज चल रही है। किन्तु स्थूल शरीर तो बदल रहा है , प्रतिक्षण अन्यथा स्वभाव है। क्या मैं सिर्फ इस स्थूल शरीर तक ही सीमित है ? ये हमारी खोज का विषय है। अहंकार हमारे अन्तःकरण का वह कार्य है , जिसके द्वारा हम इस M/F दिखने वाले शरीर में अभिमान कर लेते हैं। इसके बाद है - चित्त ! तो मन क्या है ? बुद्धि क्या है ? अहंकार क्या है ? इतना समझ में आ गया फिर समझना है - चित्त क्या है ? (37.05स्वार्थ अनुसंधान -स्व-अर्थ अनुसंधान गुणेन चित्तम् - स्व-अर्थ अनुसंधान गुणेन चित्तम् -इत्युच्यते। सरल भाषा में कहें तो -चित्त अन्तःकरण का वह कार्य है, जिसके द्वारा अतीत में हुए कुछ घटनाओं या चीजों का हम स्मरण करते हैं - अन्तःकरण के उस कार्य को हमलोग चित्त कहते हैं। इसके पिछले सत्र में हमने क्या पढ़ा था ? इसका स्मरण हमलोग अंतःकरण के जिस function के द्वारा करते हैं , उसको चित्त कहते हैं। सूक्ष्म शरीर में रहने वाली स्मरण-शक्ति बड़ी अद्भुत शक्ति है - इसका उपयोग हमलोग बंगला भाषा का दूसरे भाषा में-हिन्दी में तुरंत अनुवाद करते समय भी करते हैं। सोच के देखिये -स्मरण शक्ति पैर में तो नहीं होती है , हाथों से भी नहीं होता। आपका हाथ-पैर स्मरण शक्ति के बिना क्या है ? आप अगर सबकुछ भूल जाओ , तो इस बीमारी को क्या कहते हैं ? Alzheimer's -भूलने की बीमारी। आपकी स्मरण शक्ति अगर चली जाये तो आपका स्थूल शरीर क्या करेगा ? स्थूल शरीर -तो केवल बाहर का ढाँचा है , असली चीज -सत्यस्वरूप तो आप जितना भीतर जाओगे , वहाँ पर है। स्मरण करने की क्षमता कहाँ है ? हमारे अन्तःकरण में है। अन्तःकरण की वह क्षमता जो अतीत हुए चीजों को स्मरण कर लेता है- यह अन्तःकरण का एक कार्य है , जिसको हमलोग चित्त कहते हैं। तो अन्तःकरण एक है - इसके चार कार्य हैं। कार्यों के अनुसार उसको चार नाम हैं। एक कार्य है - अंतःकरण की अनिश्चय की दशा जिसमें संकल्प-विकल्प करना उसको मन कहते हैं, वही अन्तःकरण जब किसी विषय के बारे में निश्चय कर लेता है , तो उसको बुद्धि कहते हैं , अन्तःकरण का तीसरा कार्य है -'अहंकृति' जिसके द्वारा वह M/F शरीर में अभिमान कर लेता है। अन्तःकरण का चतुर्थ कार्य है अतीत की बातों का स्मरण करता है -उसको चित्त कहते हैं। अन्तःकरण सूक्ष्म शरीर का एक घटक है। हमलोग जो निर्वाण षट्कम गाते हैं - उसमें यही बात है- (39.56)  निर्वाण षट्कम्  या जिसे आत्म षट्कम् भी कहा जाता है, एक अद्वैत रचना है जिसमें 6 श्लोक हैं। इसे आदिशंकराचार्य ने लिखा है और यह अद्वैत वेदांत की मूल शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। यह रचना आत्मा के नॉन-डुअलिज़्म पर आधारित है और इसे साधक की आत्म-ज्ञान की यात्रा में मदद करने के लिए माना जाता है। निर्वाण षटकम् आत्मा की वास्तविकता और ब्रह्म के साथ एकत्व की अनुभूति पर आधारित है।
निर्वाण का अर्थ “निराकार” या “शांति की अवस्था” है। यह उस स्थिति को दर्शाता है जिसमें व्यक्ति सभी बंधनों और इच्छाओं से मुक्त होता है। निर्वाण का अनुभव करने पर आत्मा शाश्वत सुख और शांति का अनुभव करती है। यह अवधारणा अद्वैत वेदांत में महत्वपूर्ण है और आत्मज्ञान की प्राप्ति की ओर ले जाती है। षट्कम का अर्थ है छह या छह से मिलकर बना हुआ। निर्वाणषट्कम् का मुख्य उद्देश्य मानव को उसके सच्चे स्वरूप से अवगत कराना है। यह जीवन के वास्तविक अर्थ को समझने में सहायता करता है और आत्मा और परमात्मा की एकता और आत्मा की अमरता का अनुभव कराता है।
आदिशंकराचार्य का जन्म लगभग 788 ईस्वी में दक्षिण भारत (केरल) के कालड़ी में हुआ था। उन्होंने चारों वेदों, भगवद्गीता और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया और अद्वैत वेदांत की स्थापना की। शंकराचार्य ने भारत में वेदांत के सिद्धांतों को पुनर्जीवित किया और विभिन्न क्षेत्रों में अद्वैत के विचारों का प्रचार किया। उन्होंने भारत के चार कोनों में चार प्रमुख मठों की स्थापना की, जो आज भी अत्यंत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं। उन्होंने ब्रह्मसूत्रों की एक विस्तृत और रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है।उनका जीवन साधना, ज्ञान और ब्रह्म की खोज में व्यतीत हुआ।

मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर् न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥

अर्थ: मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं।  मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं। मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं।  मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर् न वा पञ्चकोश:
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥

अर्थ: मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं। मैं न सात धातु हूं, और न ही पांच कोश हूं। मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्‍सर्जन की इन्द्रियां हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव:
न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥

अर्थ: न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह। न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या।  मैं धर्म, धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा: न यज्ञा:
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥

अर्थ: मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं। मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ। न मैं भोजन(भोगने की वस्‍तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदो पिता नैव मे नैव माता न जन्म
न बन्धुर् न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यो चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥

अर्थ: न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव।  मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूप विभुर्व्याप्यसर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्
सदा मे समर्थ्वम् न मुक्तिर् न बन्धः चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥
    
अर्थ: मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं। मैं चैतन्‍य के रूप में सब जगह व्‍याप्‍त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं।  न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि‍, अनंत शिव हूं।
   
       इसकी शुरुआत यहाँ से होती है, मैं मन भी नहीं हूँ, मैं बुद्धि भी नहीं हूँ , मैं अहंकार भी नहीं हूँ , मैं चित्त भी नहीं हूँ। आप इनमें से कुछ भी नहीं हो। हम लोग रोज शाम-सुबह को ध्यान करते हैं, उस समय आप इन सभी चीजों का साक्षी बन जाइये। ये सारी चीजें बस आपकी आँखों के सामने चल रही होती हैं। हम इनमें से कुछ भी नहीं हैं। तो जितना आप साक्षी भाव से इन सबका अनुभव करोगे , तो आप देखोगे। अद्भुत बदलाव आपके व्यक्तित्व में आने लगता है। 
      तो ये हुआ अन्तःकरण जो हमारे सूक्ष्मशरीर का सिर्फ एक घटक है। सूक्ष्म शरीर के बाकी घटक कौन -कौन से हैं ? वागादिपंच श्रवणादिपंच प्राणादिपंच अभ्रमुखाणि पंच बुद्ध्यादि अविद्या अपि च कामकर्मणी पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरम् आहुः। वागादि पंच - पंचकर्मेण्द्रियाणि, वाग यानि वाणी, दो हाथ , दो पैर, फिर हमारे उपस्थ (sexual organ) एक है और मल त्याग करने स्थान ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। फिर श्रवणादि-पंच ज्ञानेन्द्रियाँ है - आँख , नाक , कान, जिह्वा और स्पर्श। प्राणादि-पंच, फिर प्राण एक अद्भुत चीज है। ये सारा animation - सजीवता जो चल रहा है।ये सब प्राण के रहने से ही चल रही है। पुतलों में जो जान दिख रहा है ? ये सब प्राण के रहने से ही चल रहा है। हम बोल रहे हैं , हिलडुल करते हैं - ये सब प्राण की शक्ति है। प्राण के बिना पलक भी नहीं झपक सकता है। लेकिन हम अपने आप को स्थूल शरीर और उसके सम्बन्धों के सिवा और कुछ भी नहीं जानते हैं। हम जितना भी बाह्य विषयों में फंसे रहेंगे -कभी समझ नहीं पाएंगे कि सत्य क्या है ? इसलिए वैराग्य का इतना महत्व है। वैराग्य के बिना हम कभी भी सत्य तक पहुँच नहीं सकते हैं। जब तक हम बाहर के विषयों में- M/F क्लास मेट्स की यादों में डूबे हुए हैं -हम कभी भी सत्य तक नहीं पहुँच सकते। पंच -प्राण मने पांच प्राण नहीं है , प्राण तो एक ही है - लेकिन प्राण के पाँच कार्य हैं। जिस प्रकार अन्तःकरण (Inner Instrument)  एक ही है , उसके चार कार्य हैं ; उसी प्रकार प्राण एक ही है उसके पाँच कार्य हैं। प्राण, अपान, व्यान , उदान, समान ये उसके पांच कार्य हैं। बाह्य उपकरण और अन्तः उपकरण के माध्यम से ही हम जगत के साथ व्यवहार करते हैं। सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर के भीतर है और पीछे है , और आठ चीजों से बनी हुई है। आठ उपकरणों में एक उपकरण है - अन्तःकरण। एक ही औजार है लेकिन उसके चार कार्य हैं। उसके अनुरूप उसके चार नाम हैं। Mind, Intellect , 3rd ahnkar or I'-sense or Ego,  और चौथा है कार्य है - Memory, जिसको chitta कहते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान सबकुछ को mind ही कहता है। जब मन अंतःकरण का एक कार्य है। इस मुद्दा को ठीक से समझ लेना चाहिए। मन क्या है - अंतःकरण की अनिश्चय वाली दशा है। निर्णय पर पहुँचने को बुद्धि कहते हैं। तीसरा कार्य है अहंकृति - अहं इसके द्वारा हम अपने M/F शरीर में अभिमान कर लेते हैं। जब यह अंतःकरण विगत कार्यों का स्मरण करता है - तो चित्त कहलाता है। प्राण को अंग्रेजी में अनुवाद ही नहीं किया जा सकता। आपकी नासिका में जो साँस चल रहा है -ये भी प्राण की अभिव्यक्ति है , प्राण नहीं है। इसलिए जब आप सांसों को नियंत्रित करते हैं - तो अर्थ है आप प्राणों  नियंत्रित करते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी गति शक्ति दिखाई दे रही है , वो प्राण ही है। सूर्य-चंद्र -तारे एक दूसरे की परिक्रमा कर रहे हैं - ब्रह्माण्ड की सारी 'animation ' सजीवता या जीवन्तता जो दृष्टिगोचर हो रही है , वो सब प्राण की शक्ति से ही संचालित हो रहे हैं। इसलिए योगी कहते हैं कि यदि आप प्राण को नियंत्रित कर लेते हो तो जगत की हर वस्तु को नियंत्रित कर सकते हो। Prana is the animating force ! इस लिए स्वाँस -प्रश्वांस को आप नियमित करके प्राण को नियंत्रित कर सकते हो। उसको प्राणायाम कहते हैं। नाड़ी -शुद्धि प्राणायाम आप बिना गुरु  के भी कर सकते हो। शरीर के ऊपर भाग में जो वायु चलती है , उसको प्राण कहते हैं। नीचे के भाग में जो वायु चलती है -उसको अपान वायु कहते हैं। मृत्युकाल में एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त करने की जो क्रिया है -वह उदान वायु से होती है। इस प्रकार प्राण एक ही है , उसके पाँच कार्य के अनुसार पाँच प्राण हैं। तो पाँच कर्मेन्द्रिय , पाँच ज्ञानेन्द्रिय , पाँच प्राण और उसके बाद अभ्रमुखाणि पंच -पाँच जो तन्मात्राएँ हैं -आकाशादु भूतपंचकम्
 आकाश, वायु, अग्नि , जल और पृथ्वी। बुद्ध्यादि - का मतलब है अन्त:करणचतुष्टयम्। फिर है अविद्या , काम और कर्म। इस प्रकार इन घटकों से बना हुआ है ये सूक्ष्म शरीर। 1 -पाँच कर्मेन्द्रिय 2- पाँच ज्ञानेन्द्रिय , 3 -पाँच प्राण, 4 - पांच तन्मात्रयें, 5 - अंतःकरण चतुष्टय, 6 -अविद्या (Ignorance) , 7 -काम (All types of desires) , 8 -कर्म (Action) । इन्हीं आठ घटकों से हमारा सूक्ष्म शरीर बना हुआ है। इसीको पूरी अष्टकम सूक्ष्मशरीरम् - आहुः। तो सूक्ष्म शरीर इन्हीं आठ से बना हुआ है।       
[विवेकचूडामणि के इस श्लोक में शंकराचार्य जी सूक्ष्म शरीर का विवेचन करते हुए उसे ‘पुर्यष्टक’ नाम से संबोधित करते हैं। यह सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर के विपरीत है, जो पंचमहाभूतों से निर्मित होता है और दृष्टिगोचर है। सूक्ष्म शरीर अदृष्टिगोचर होने पर भी जीवात्मा के अनुभव और संसार-यात्रा का कारण बनता है। जब तक आत्मा का अज्ञान बना रहता है, तब तक यही सूक्ष्म शरीर जीव को जन्म–मरण के चक्र में बांधे रखता है। इसीलिए इसका स्वरूप समझना वेदांत साधना के लिए अत्यंत आवश्यक है।   

शंकराचार्य कहते हैं कि सूक्ष्म शरीर आठ अंगों से मिलकर बना है, जिन्हें ‘पुर्यष्टक’ कहा जाता है। इनमें प्रथम हैं पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ—श्रवण (कान), त्वक् (त्वचा), चक्षु (आंख), रसना (जीभ) और घ्राण (नाक)। इनका कार्य है ज्ञान प्राप्त करना अर्थात् बाहरी विषयों को ग्रहण करना। दूसरा अंग है पाँच कर्मेन्द्रियाँ—वाक् (वाणी), पाणि (हाथ), पाद (पाँव), पायु (गुदा) और उपस्थ (जननेंद्रिय)। इनका कार्य है कर्म करना, जैसे बोलना, पकड़ना, चलना, मल–विसर्जन और प्रजनन। ये दोनों इन्द्रियों के समूह सूक्ष्म शरीर के कार्यकलाप का मुख्य आधार हैं।

तीसरा है प्राण पंचक, अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। ये शरीर के भीतर जीवन–शक्ति को गतिशील रखते हैं। प्राण श्वास–प्रश्वास का, अपान नीचे की गति का, व्यान संपूर्ण शरीर में ऊर्जा वितरण का, उदान ऊपर की गति और मृत्यु के समय प्राण को बाहर ले जाने का, तथा समान भोजन पचाने और शरीर का संतुलन बनाए रखने का कार्य करता है। प्राण पंचक के बिना न तो इन्द्रियाँ कार्य कर सकती हैं और न ही शरीर जीवित रह सकता है।

चौथा अंग है पंच महाभूतों का सूक्ष्म स्वरूप। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये स्थूल रूप में दिखते हैं, परन्तु सूक्ष्म स्तर पर ही ये इन्द्रियों को विषयों का अनुभव कराते हैं। उदाहरण के लिए, कान ध्वनि को आकाश के कारण सुनता है, त्वचा स्पर्श को वायु के कारण अनुभव करती है, आंखें रूप को अग्नि के कारण देखती हैं, जीभ रस को जल के कारण चखती है और नाक गंध को पृथ्वी के कारण ग्रहण करती है। इस प्रकार इन्द्रियों और भूतों का आपसी संबंध भी सूक्ष्म शरीर की रचना में शामिल है।

पाँचवां है अन्तःकरण चतुष्टय—मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन संकल्प–विकल्प करता है, बुद्धि निर्णय लेती है, चित्त स्मरण और संस्कारों को धारण करता है और अहंकार ‘मैं–पना’ का भाव उत्पन्न करता है। यह अन्तःकरण ही जीव के अनुभव, विचार और भावनाओं का केन्द्र है। इसके बिना न तो ज्ञानेन्द्रियों के अनुभवों की व्याख्या संभव है और न ही कोई कर्म संपन्न हो सकता है।

इसके अतिरिक्त अविद्या, काम और कर्म—ये तीन भी सूक्ष्म शरीर का अंग माने गए हैं। अविद्या जीव को उसकी वास्तविक आत्मस्वरूप से दूर रखती है। काम जीव को इन्द्रियों और विषयों की ओर खींचता है और कर्म उस कामना की पूर्ति के लिए कार्य करवाता है। यही कारण है कि जीव संसार में बंधा रहता है और पुनः–पुनः जन्म लेता है। इस प्रकार सूक्ष्म शरीर केवल इन्द्रियों और प्राणों का समूह नहीं है, बल्कि वह समग्र ढांचा है जिसके द्वारा जीव संसार को जानता है, भोग करता है और कर्मों के फल भोगने हेतु नए–नए शरीर धारण करता है।

अतः शंकराचार्य जी के अनुसार, जब साधक आत्मचिंतन द्वारा समझ लेता है कि यह सूक्ष्म शरीर भी मिथ्या है और आत्मा का वास्तविक स्वरूप इससे परे है, तभी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। सूक्ष्म शरीर का ज्ञान आत्म–विवेक की नींव है और यह स्पष्ट करता है कि जीव का बंधन वास्तव में देह और अन्तःकरण के साथ तादात्म्य के कारण है, न कि आत्मा के वास्तविक स्वरूप में
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