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बुधवार, 4 अप्रैल 2018

या देवी सा सारदा -3

अमेरिका के सेंट् लुईस वेदान्त सोसाइटी के अध्यक्ष परमपूज्य स्वामी चेतनानन्द जी महाराज लिखते हैं - 'आत्म-तत्व' का निरूपण करने के लिये वेदान्तशास्त्रों में जिस प्रकार- श्रुति, युक्ति और स्वसंवेद्य तथा परसंवेद्य अनुभूति आदि विभिन्न प्रणालियों का सहारा लिया जाता है।  [अर्थात " इस  संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है और जहाँ तक हमारी बुद्धि अनुमान कर सकती है, उन सबका (3H) का मूल स्रोत्र एक मात्र ‘परब्रह्म’ (हृदय) ही है।" इस रहस्य को समझाने के लिए जिस प्रकार वेदान्त शास्त्रों में -  'श्रुति,युक्ति और अनुभूति' आदि प्रणालियों का सहारा लिया जाता है।] उसी प्रकार- 'या देवी' अर्थात  'जो माँ जगदम्बा हैं', 'सा सारदा'- वे सारदा सरस्वती हैं!" इस उच्चतर सत्य का निरूपण,अथवा माँ सारदा के देवीत्व का निर्धारण करने के लिये भी, (अर्थात माँ जगदम्बा ही श्रीमाँ सारदा के रूप में अवतरित हुई हैं-का निर्धारण  करने के लिये भी) हमलोग यहाँ भगवान श्रीरामकृष्णदेव उक्तियों  का, माँ के द्वारा स्वयं अपने मुख से उच्चारित स्वरुप को प्रकाशित करने वाले कथनों का, तथा विभिन्न सन्यासियों और भक्तों के दर्शन एवं अनुभवों का संक्षेप में उल्लेख करेंगे। अब ..... ... गतांक से आगे,
९. या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता : 
क्षान्ति कहते हैं -क्षमा, तितिक्षा और सहिष्णुता को। सामर्थ्य रहते हुए भी अपराधी (offender) का अहित या नुकसान करने (Harm) की अनिच्छा को क्षमा, तितिक्षा या सहिष्णुता कहते हैं! देवी जगतजननी हैं। वे साक्षात् क्षमा की मूर्ति हैं। उन्होंने अनादिकाल से इसी क्षमामयी मूर्ति के रूप में जीव-जगत को अपने हृदय में धारण कर रखा है। माँ की इस क्षमामूर्ति के प्रकट होने पर, ( अंतर्निहित क्षमाशक्ति को अभिव्यक्त करने में समर्थ होने पर) ही मनुष्य को सच्ची शान्ति प्राप्त हो सकती है। 
माँ सारदा देवी की अद्भुत महिमामय (Awesome) क्षमाशक्ति का स्मरण करते हुए बलराम बसू उनको 'क्षमारूपा तपस्वनी' कहते थे।  सारदानन्द जी ने कहा था, 'हमलोगों को तो देखते हो, पान में थोड़ा चूना कम-बेसी हो जाये तो हमलोग तुरन्त क्रोधित हो उठते हैं। किन्तु माँ को देखो -उनके भाइयों ने उनको कितना सताया, फिर भी वे जितना शांतचित्त (composed) पहले थीं, अब भी हैं। ' 
" एक दिन क्रोध में आकर राधू ने पास की टोकरी से एक बड़ा बैंगन उठा श्रीमाँ की पीठ पर दे मारा। धमाके के साथ ही श्रीमाँ की पीठ लाल हो फूल उठी। उन्होंने ठाकुर की ओर देखते हुए दोनों हाथों को जोड़ कर कहा - "ठाकुर,उसका अपराध न गिनना, वह अबोध (निर्विवेक,imprudent) है। " फिर अपने पैर की धूल उसके सिर में लगाकर कहा, " राधी, जानती है, इस शरीर को ठाकुर ने कभी जरा सा कड़ा शब्द भी नहीं कहा, और तू इतना कष्ट देती है ! तू क्या समझेगी कि मेरा स्थान कहाँ है ? तुम सबको लेकर मैं यहाँ पड़ी हूँ, इसलिए भला क्या समझती है, बता तो ? " तब राधू रो पड़ी। माँ कहती गयीं -" राधू, यदि मैं रूठ जाऊँ, तो त्रिभुवन में भी तुझे आश्रय नहीं मिलेगा।" (श्रीमाँ सारदा देवी -३७३ ) 
माँ कहती थीं -" पृथ्वी के जैसी सहनशक्ति रहनी चाहिये। धरतीमाता कितना सहती हैं ! उसपर कितने विध्वंशात्मक कार्य, उत्पीड़न होते हैं, किन्तु वे सबकुछ सहन करती रहती हैं। वैसी ही सहनशक्ति मनुष्यों में भी रहनी चाहिए। "(श्री मायेर पदप्रान्ते-३९५ )[क्षान्ति तुल्यं तपो नास्ति सन्तोषान्न सुखं परम् । क्षमा जैसा अन्य तप नहि, संतोष जैसा अन्य सुख नहि।] 
[जयरामबाटी में रहते समय 'विधि के विधान से' उनका पारिवारिक उत्तरदायित्व उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। श्रीभगवान रामकृष्ण देव श्रीमाँ के सदा उर्ध्वगामी मन को व्यावहारिक जगत में बाँध रख अपने युगधर्म -'सत्ययुग स्थापित करने के कार्य' को सुसम्पादित करने के लिए उनके चारों ओर विचित्र 'प्रेम-बन्धनों' का निर्माण कर रहे थे। उनमें 'राधू' सबसे मजबूत कड़ी थी।" (श्रीमाँ सारदा देवी -२३८)
"देखो,श्रीकृष्ण ने ग्वाल-बालों के साथ कितना खेल, हास-परिहास किया, घूमे फिरे, उनकी जूठन खायी, किन्तु क्या वे लोग यह जान सके कि श्रीकृष्ण कौन (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता)  थे ? (श्रीमाँ सारदा देवी २४३)
गिरीशचन्द्र घोष कहते थे -" भगवान ठीक हमलोगों की तरह मनुष्य होकर जन्म लेते हैं- इस बात पर विश्वास कर लेना मनुष्य के लिये अत्यन्त कठिन है। तुम लोग कभी सोच सकते हो कि तुम्हारे सामने अनपढ़ ग्रामीण महिला (ग्राम्यबाला) के रूप में साक्षात् माँ जगदम्बा ही खड़ी हैं ? तुम सब क्या कभी कल्पना भी कर सकते हो कि महामाई एक साधारण नारी की तरह घर-बार और सारे काम-काज सँभाल रही है ? पर वे ही जगतजननी महामाया, महाशक्ति हैं। समस्त जीवों की मुक्ति के लिये तथा मातृत्व का आदर्श स्थापित करने के लिये (अपने जीवन को ही उदाहरण स्वरूप गढ़कर पाषाण बन चुके मनुष्यों के हृदय को 'मातृ-हृदय' तक विकसित करने के आदर्श को स्थापित करने के लिये) आविर्भूत हुई हैं। " (श्रीमाँ सारदा देवी 
२७५)
गिरीश ने माँ को पहले गुरु-पत्नी और फिर माता तथा देवी भगवती के रूप में ग्रहण किया था। वे अपने हृदय में माँ जगदम्बा के प्रति संतान की नाइ निःसंकोच व्यवहार करने की शक्ति भी पाते थे। माँ की गाड़ी विष्णुपुर से हावड़ा साढ़े तीन घंटे लेट पहुँची। बहुत गर्मी पड़ रही थी। माँ को बागबाजार के निवास पर ले जाया गया। ऐसे समय पसीने से तर, बदन पर एक साधारण कुरता पहने गिरीश बाबू भी माँ का दर्शन करने वहाँ पहुँचे। यह सुनकर गोलाप-माँ बोलीं -" बलिहारी जाऊँ घोषजी की इस अपूर्व भक्ति पर। माँ अभी जलती-झुलसती आयीं, कहाँ जरा सुस्तायेंगी कि यहाँ भी आ गए उन्हें तंग करने ? " किन्तु गिरीश बाबू उनकी बातों को अनसुनी करते हुए सीधे ऊपर चले और स्वामी ब्रह्मानन्द जी एवं स्वामी प्रेमानन्द (बाबूराम) को भी पुकार कर कहा, " चलो,चलो महाराज, बाबूराम माँ को देख आयें। " 
गोलाप-माँ फिर से डांटने फटकारने शुरू कीं तो गिरीश बाबू सेविका की ओर देखकर बोले -" चिड़चिड़ी औरत कहती क्या है ?-माँ को तंग करने आये हैं ! कहाँ इतने दिनों बाद लड़कों को देखकर माँ के प्राण जुड़ायेंगे, सो नहीं; ये चली हैं बड़ा मातृस्नेह सिखाने !" वे ऊपर चले गए, और माँ ने भी सादर ग्रहण कर उनलोगों को आशीर्वाद दिया। तब तक गोलाप-माँ भी आ पहुंची। उन्होंने आँखों में आँसू भरकर शिकायत की, " आखिर गिरीश बाबू ने मुझे ऐसा कहा !" श्रीमाँ उनकी ओर देखकर बोलीं, " तुमसे मैंने कितनी बार कहा है न कि मेरे बच्चों के सम्बन्ध में मतामत प्रकाश करने मत जाना ?" गिरीश बाबू जीतकर सगर्व नीचे उतर आये। " (श्रीमाँ सारदा देवी -२७७-७८)
जब एक बार गिरीश घोष हैजे से शय्याशायी थे -माँ उनको साक्षात् जगदम्बा के रूप में दर्शन दी थीं और प्रसाद खिलाकर ठीक कर दिया था। तुम वही माँ हो या नहीं ? स्वयं उनके मुख से सुनना चाहा -" तुम कैसी माँ हो ?" माँ ने तत्क्षण उत्तर दिया, " मैं सच्ची माँ हूँ। गुरुपत्नी नहीं, मुँहबोली माँ नहीं, कहने की माँ नहीं, सत्य जननी हूँ। " 
वर्तमान काल में जो लोग (मानवजाति के भावी नेता, वुड बी लीडर्स, भावी लोकशिक्षक लोग) युग-परिवर्तन के लिये (श्रीरामकृष्ण के जन्मतिथि से सत्ययुग स्थापन के कार्य में कूद पड़ने के लिए) अवतीर्ण हुए हैं , उनके चरित्रों में जिस प्रकार वैराग्य का चरम उत्कर्ष था, उसी प्रकार उनमें सबों का कल्याण करने की शुभेच्छा भी थी। किन्तु उनके चरित्र में तितिक्षा, क्षमा और सहिष्णुता (क्षान्ति) आदि गुण पर्वत-कन्दराओं में प्रकट नहीं हुए थे, बल्कि उनके चरित्र में उन गुणों का विकास नगरों के कोलाहलपूर्ण वातावरण के बीच रहते हुए ही हुआ था। 
हमलोग देख सकते हैं कि, त्याग के मूर्त विग्रह होते हुए भी श्रीरामकृष्ण ने अपनी माँ की सेवा नहीं त्याग दी, भतीजे अक्षय की मृत्यु पर अश्रुपात किया, समीप आयी हुई बीमार सहधर्मिणी को अपने कमरे में रखकर इलाज और सेवा की व्यवस्था की, लीडरशिप ट्रेनिंग देकर श्रीमाँ को अपना उत्तराधिकारिणी (रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में सत्ययुग स्थापन की भावी लीडर) बनाया, तथा जीवमात्र के कल्याण के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। 
स्वामी विवेकानन्द ने सर्वत्यागी होने पर भी जननी,जन्मभूमि और गुरु की सेवा तथा मानवमात्र के कल्याण के लिए अपने हृदय का अंतिम रक्त-बिन्दु तक न्योछावर कर दिया। श्रीमाँ के पारिवारिक जीवन पर चर्चा करते समय भी - पहले उनकी अनासक्ति (वैराग्य) की ओर ही दृष्टि पड़ती है। ..... 
दिसम्बर १९१८ के अन्त में एक दिन श्रीमाँ जयरामबाटी के सदर दरवाजे के चबूतरे पर बैठी थीं; साधु-ब्रह्मचारी बैठक के बरामदे में थे। सामने काली मामा और वरदा मामा के खलिहान से धान आ रहा था। अपने खलिहान को काली मामा ने ऐसे घेर लिया था कि रास्ता कुछ संकरा हो गया था, जिससे वरदा मामा के धान के बोरों के लाने में असुविधा हो रही थी। इसी से दोनों भाइयों में कहा-सुनी होते-होते जब मारपीट की नौबत आई, तब श्रीमाँ चुप न रह सकीं। उनके पास पहुँचकर वे कभी एक भाई को कहतीं-"दोष तो तेरा ही है। " और कभी दूसरे भाई का हाथ पकड़ कर खींचने लगती। 
उम्र में वे उनसे बहुत बड़ी थीं। गोद में लेकर दोनों को उन्होंने पाला-पोसा था। इसलिए बड़ी बहन की मध्यस्तता से हाथपाईं तो बच गई, पर झगड़ा बन्द न हुआ। ऐसी अवस्था में माँ भी उन्हें छोड़कर नहीं जा सकती थीं। इतने में संन्यासी लोग वहाँ आ पहुँचे। उनको आते देख दोनों भाई गरजते हुए अपने-अपने घर चले गये; इधर श्रीमाँ भी क्रोध से अपने घर के बरामदे में जा पैर लटकाकर बैठ गयी। परन्तु पलभर में उनका क्रोध जाने कहाँ चला गया। जब उन्होंने साक्षीभाव से इस सम्पूर्ण लीलविलास में अपने और भाइयों आचरण (भूमिका) पर मनःसंयोग किया, तो -"क्रीड़ाभूमि के समान इस संसार के स्वार्थ-संघर्ष के पीछे जो शाश्वत शान्ति विराजमान है, वह (अपना स्वरुप) उनके सामने आ जाने से; वे मुस्कुराकर कहने लगीं -" महामाया की कैसी माया है !! यह अनन्त संसार पड़ा हुआ है; ये वस्तुयें भी यहीं पड़ी रह जायेंगी -क्या लोग इतना भी नहीं समझते ? " इतना कहकर वे हँसते-हँसते लोटपोट हो गयीं , वह हँसी रोके नहीं रूकती थी।" (श्रीमाँ -गृहिणी -३८०) 
गृहस्थ लोगों के लिए अपने परिवार का पालन-पोषण तथा उनकी सुख-समृद्धि का वर्धन करना एक प्रधान कर्तव्य है; किन्तु निरपेक्ष द्रष्टा (ब्रह्मवेत्ता,पैगम्बर, नेता, लोकशिक्षक, वुड बी लीडर्स) को इस प्रकार की चेष्टायें कई बार घोर-स्वार्थपरता से सम्मोहित (हिप्नोटाइज्ड) मनुष्यों द्वारा की गयी क्रियाऐं ही प्रतीत होती हैं। तो भी 'ब्रह्मविद मनुष्य' (पैगम्बर, नेता या लोकशिक्षक) दुर्बलचित्त मनुष्यों (मिथ्या अहं से भ्रमित व्यक्तियों) को बाधा देने में हाथ नहीं बढ़ाते; बल्कि भरसक उनका अभाव निर्लिप्त भाव से मिटाने की सदा चेष्टा करते हैं। श्रीमाँ के जीवन में ऐसे दृष्टान्त बहुत हैं। " (श्रीमाँ -३८२ अन्न-चिन्ता चमत्कारा -३८३ ) 
लीडरशिप " यदि आचार्य (आध्यात्मिक नेता, लोक-शिक्षक) के प्रति श्रद्धा-भक्ति  का भाव न हो, तो भला विद्या के प्रति श्रद्धा ही क्यों कर आएगी ? " (श्रीमाँ पेज-४९४) इसीलिये  श्रीमाँ साधु-ब्रह्मचारियों में ( या महामण्डल कर्मियों में) अटूट भ्रातृ-भाव देखना चाहती थीं। [उसके लिये महामण्डल संगठन के किसी इकाई के अध्यक्ष को पहले 'विवेकानन्द-सत्यान्वेषी भगिनी निवेदिता वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' के अटूट मातृभाव में (नेतृत्व-प्रशिक्षण में ) प्रशिक्षित करना आवश्यक होगा।]
कोआलपाड़ा आश्रम के तात्कालीन अध्यक्ष अपने सहकर्मी ब्रह्मचारियों से केवल कार्य की ही आशा रखते थे, उसके बदले में उनका स्नेह -यत्न नहीं करते थे। उनके लिए आश्रम में खाने का भी सुप्रबन्ध नहीं था। .... अध्यक्ष अपनी भूल सुधारने के बजाय उल्टे श्रीमाँ के पास शिकायत लेकर पहुँचे। ... माँ बोलीं -" अरे यह क्या ? हमलोगों का प्रेम ही तो असल है; प्रेम से ही तो ठाकुर का परिवार गढ़ उठा है। और मैं माँ हूँ, मेरे सामने बच्चों के खाने-पीने पर आपत्ति की बात भला तुमने चलाई कैसे ?
 ... किसी इकाई के अध्यक्ष के कर्तापन के अभिमान को देखकर उन्होंने असन्तोष प्रकट करते हुए कहा था, " अरे यह क्या? इतने दाँव-पेंच के साथ हुक्म करने पर भला यह 'बी ऐंड मेक' रूपी चरित्र-निर्माण आंदोलन चलेगा कैसे ? सभी तुम्हारे छात्र ही क्यों न हों ? अपने बेटे को ही यदि अधिक डाँटा जाय, तो वह भी एक दिन अलग हो जाता है। 
जो भी युवा महामण्डल के इस मनुष्य -निर्माण कारी आंदोलन या 'विवेकानन्द-सत्यान्वेषी भगिनी निवेदिता वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' के अटूट मातृभाव में लोकशिक्षक का चपरास प्राप्त करने के लिये महामण्डल के नेतृत्व-प्रशिक्षण आंदोलन से जुड़े हैं, वे मेरे बच्चे हैं, ठाकुर के पास आये हैं! वे जहाँ भी जायेंगे ठाकुर वहीँ उनकी देखभाल करेंगे।... इसलिये " सबको आपस में हिल-मिलकर रहना चाहिये। ठाकुर कहते थे -'श,ष, स। ' सब सहते जाओ -वे (भगवान श्रीरामकृष्ण) इस आंदोलन के पीछे हैं ! हमेशा संघबद्ध होकर कार्य करते रहो। " (श्रीमाँ सारदा देवी -४११)
 श्रीमाँ का (पूज्य नवनी दा का) विश्वास था कि संघ (महामण्डल) के माध्यम से श्रीरामकृष्ण अपनी नयी भावधारा 'BE AND MAKE' का प्रचार अवश्य करेंगे ! किसी मठाध्यक्ष ने (महामण्डल इकाई के पी० आर० ? ने ) उनसे एक दिन दुःखित होकर कहा कि देशवासियों के मन का प्रवाह इतना बहिर्मुखी और कामिनी-कांचन में आसक्त हो गया है कि 'चरित्रवान मनुष्य बनो और बनाओ' आंदलोन का कार्य आशानुरूप ढंग से आगे नहीं बढ़ पा रहा है, क्योंकि वे इस नए मनुष्य -निर्माण आंदोलन का काम बिगाड़ना ही जानते हैं, बनाने में मदद नहीं करते। श्रीमाँ ने आश्वासन देते हुए कहा -" बेटा, ठाकुर कहा करते थे 'मलय पवन के स्पर्श से सभी सारवान पेड़ चन्दन हो जाते हैं। ' मलय-पवन बह चुका है, (महामण्डल आन्दोलन ने भी सत्यान्वेषी सिस्टर निवेदिता के मार्गदर्शन को समझ लिया है !) अब सब चन्दन हो जायेंगे, केवल बाँस और केले को छोड़कर।" (पेज-४१४/ )"देखो उस देश से अनेक अंग्रेज भक्त आयेंगे; तुम लोग अंग्रेजी में क्लास लेना सीख लो !" ४१५ पेज/ 
पगली मामी से नलिनी दीदी का साँप-नेवले का सम्बन्ध था। पर दोनों श्रीमाँ की गृहस्थी में रहती थीं, और दोनों को मनाकर चलना श्रीमाँ ने अपना कर्तव्य समझ लिया था। वे कहा करती थीं, " चाहे कुछ भी करो, पर सभी को साथ लेकर थोड़ा स्नेहपूर्वक उनका परामर्श सुनना चाहिये। कुछ ढील देकर दूर से सभी बातों पर दृष्टि रखनी चाहिए, जिससे ज्यादा बिगड़ भी न जाये। " (पेज-३९४ )] 
१०. या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता: 
जाति से तात्पर्य है -जन्म, उत्पत्ति, ब्रह्मसत्ता; गोत्र या मनुष्यत्व इत्यादि। देवी नित्य होकर भी बहुत से पदार्थों में व्याप्त है, यही उनकी जातिमूर्ति है। यद्यपि जब तक सृष्टि है,जीव-जगत है जाति-भेद रहेगा, तथापि देश-काल-अवस्था में अन्तर के आधार पर विभिन्न जातियों का रूपांतरण -होता रहता है।
 "श्रीमाँ को भक्तों का जूठा (Leftovers-बचा हुए खाना) साफ करते देख एक दिन नलिनी ने कहा था -"अरी मैया ! (मागो)  छत्तीस जात का जूठन उठाती है!" यह सुनकर माँ ने कहा, " सभी तो मेरे बच्चे हैं, छत्तीस कहाँ ? जो सब को अपनी संतान के समान देखती हैं, उनके पास सांसारिक (carnal या शारीरिक) जाति-पाँति का भेद कैसे रह सकता है ? उनके (सर्वव्यापी विराट मातृहृदय में विकसित ब्रह्मवेत्ता ,नेताओं या लोकशिक्षकों के) प्रेम-स्नेह के बाढ़ से सारी ऊँच-नीच भूमि डूबकर एक-सी हो जाती है। "(श्रीमाँ सारदा देवी पेज-४४३ )
दुर्गापूजा के समय श्रीमाँ द्वारा स्वजनों के लिये नये कपड़े खरीदने की आज्ञा सुनकर ईशानन्द ने कहा था-" माँ, महीन कपड़े तो सब विलायती होंगे, क्या विदेशी कपड़े लाना उचित होगा ?" माँ ने हँसकर कहा, "बेटे, वे लोग (विलायत के बुनकर) भी तो मेरे ही बच्चे हैं। मुझे सबको लेकर (वेदान्ती दृष्टि-बसुधैव कुटुंबकम की दृष्टि से) घर-बार करना पड़ता है। क्या मैं जिद्दी (एकपक्षीय) हो सकती हूँ ? " 
(परन्तु उदारता और अत्याचार का प्रतिवाद -ये भिन्न वस्तुएं हैं। सिन्धुबालाओं के प्रति अंग्रेज-पुलिस के अत्याचार को सुनकर शान्तप्रकृति माँ भी गरज उठी थीं। .... क्या वहाँ कोई माई का लाल नहीं था कि दो थप्पड़ लगाकर उन दो स्त्रियों को छुड़ा ले आता ? " क्रन्तिकारी देवेन बाबू की बहन और स्त्री दोनों का नाम सिन्धुबाला था। (श्रीमाँ सारदा देवी-दृष्टिकोण -३२२ /मातृसानिध्ये-५६) 
[भक्त-जननी : श्रीमाँ का असीम प्रेम, अपार स्नेह आगंतुक के जाति-वर्ण, दोषगुण, सांसारिक अवस्था आदि के द्वारा नियंत्रित नहीं होता था। जो उनके पास आ जाता, उसके दोष, दुर्बलता आदि को जानते हुए भी वे उसको स्नेह देतीं, औषधि, पथ्य आदि से उसकी मदद करतीं, और उसके शोक-दुःख में हार्दिक सहानुभूति दिखाती; साथ ही दूसरों को भी वैसा करने का उपदेश देतीं। उनके इस सच्चे मातृत्व के प्रभाव से दुश्चरित्रों के हृदय में भी परिवर्तन आ जाता था, डाकू भी भक्त हो जाता था। जयरामबाटी के पास ही शिरोमणिपुर गाँव में बहुत से रेशम के कीड़े पालने वाले बुनकर मुसलमान लोग रहा करते थे। पर विदेशी रेशम की होड़ में उनका रोजगार चौपट हो गया और विवश हो उनलोगों ने चोरी-डकैती शुरू की। आस-पास के गाँव वाले भयभीत होकर उन्हें 'तूंतवाले डकैत' कहने लगे। उन्होंने वहां के कई मुसलमानों को साधु-निवास बनाने के कार्य में लगाया था।]
अमजद नामक एक तूंतवाले मुसलमान ने माँ के घर की दीवार बनाई थी। एक दिन माँ ने उसे अपने बरामदे में खाने को दिया। नलिनी दीदी आँगन में खड़ी हो दूर से फेंक-फेंक कर परोस रही थीं। माँ यह देख कह उठीं , "वैसे देने से क्या कोई खाकर सन्तुष्ट हो सकता है ? यदि तू नहीं सकती है, तो मैं देती हूँ। " खाना समाप्त होने पर माँ ने जूठी जगह को स्वयं लीप-पोंछ दिया। उन्हें वैसा करते देख नलिनी दीदी -" ओ बुआ, तुम्हारी जात गयी," इत्यादि कहकर बड़ी आपत्ति करने लगीं। तब माँ ने उन्हें धमकाया,"जिस प्रकार शरत (स्वामी सारदानन्द जी) मेरा लड़का है, उसी प्रकार यह अमजद भी।" (श्रीमाँ सारदा देवी-४६०) 
इसी घटना के बाद श्रीमाँ जयरामबाटी में बीमार पड़ी थीं। बहुत लोग उन्हें आकर देख जाते थे। सेवक ब्रह्मचारी ने एक दिन देखा कि फ़टे कपड़े पहने, एक साँवला,दुबला उदास चेहरे का आदमी लाठी के सहारे बिना किसी हिचकिचाहट के भीतर जाकर चटाई के ऊपर से ही उचक कर झाँक रहा था। अचानक माँ की दृष्टि जब उस ओर पड़ी, तब उन्होंने प्रेम से धीमी आवाज में पुकारा -"कौन -बेटा अमजद हो क्या ? आओ। ' अमजद आनन्द से बरामदे में उठा और श्रीमाँ से बातें करने लगा। माँ-बेटे में सुख-दुख की बातें होते देख सेवक-ब्रह्मचारी अपने काम पर चले गए।
 ... तीसरे पहर अमजद जब घर लौट रहा था, तब ब्रह्मचारी ने देखा कि वह बड़ा प्रसन्न है, और उसका रूप बदल गया है! उसने बदन पर तेल मलकर स्नान किया है, भरपेट भोजन किया है और पान चबाते-चबाते जा रहा है। उसके हाथ में एक शीशी बैद का तेल तथा पोटली में कई चीजें थीं। पीछे श्रीमाँ ने ब्रह्मचारी को बतलाया, "गरम दवा पीकर अमजद का सिर गरम हो गया है; रात को नींद नहीं आती। बहुत दिन से घर में एक शीशी नारायण तेल रखा था, वह उसे दे दिया। यह तेल बड़ा गुणकारी है, लगाने से दिमाग ठंढा हो जाता है। " 
अमजद बड़ी जल्दी चंगा हो गया। कोई आवश्यकता पड़ने पर उसे खबर भेजते ही, वह माँ के घर आकर बड़ी ईमानदारी के साथ सब काम कर जाता था। .... अमजद को श्रीमाँ का स्नेह मिलने पर भी उसने चोरी-डकैती नहीं छोड़ी थी। ... अमजद के प्रभाव से जयरामबाटी में डकैती नहीं होती थी। एक बार जेल से छूटकर जब अमजद घर आया, तब देखा कि घिया लगी हुई है। झट से एक टोकरी घिया ले वह श्रीमाँ के पास जयरामबाटी पहुँचा। माँ ने कहा," बहुत दिन से मैं सोच रही थी कि तुम आते क्यों नहीं हो? इतने दिन कहाँ थे ? अमजद ने कहा कि गाय चोरी करने में पकड़ा गया था, इसलिए नहीं आ सका। श्रीमाँ ने उसकी बात को अनसुना करते हुए कहा, "ओहो , तभी तो सोच रही थी कि अमजद आता क्यों नहीं है। " वे जब अन्तिम बीमारी के समय कलकत्ते में थीं , तब एकदिन पत्र आया कि अमजद डकैती करने के कारण फरार था और कुछ दिन बाद ही पकड़ा गया है। यह सुनकर माँ ने कहा, " ओ, बेटा देखा ! मैं जानती थी कि वह डकैती करना जानता है।" सुना जाता है कि श्रीमाँ के देहत्याग के बाद अमजद को डकैती करते समय तलवार से चोट लगी थी। वही जख्म बाद को बढ़कर घाव हो गया, और उससे उसकी मृत्यु हुई। पेज-४६०-४६३/ ] 
[जैसी मति वैसी गति: सापेक्षिक सत्य को ही परमसत्य समझने वाले भ्रमित मनुष्यों को भ्रममुक्त करके उच्चतर सत्य में ऊपर उठाने का काम करने के लिए, या आध्यात्मिक दृष्टि से शक्ति-सामर्थ्य में अपने से निम्न स्तर के मनुष्यों को ऊपर उठाने के लिये -या 'शिव ज्ञान से जीव सेवा' करने के लिए मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं (लोकशिक्षकों) का अवतरण होता रहता है। 
किन्तु राजनितिक नेता या जाति-धर्म में बाँट कर राज करने वाले पॉलिटिशियन्सब्राह्मणेत्तर जातियों -सम्प्रदायों को अगड़े-पिछड़े में बाँटने वाले नेता केवल यही देखते हैं कि,' मुझसे इतर-जाति धर्म के लोग बड़े मन-बढ़ू हो गए हैं !' किन्तु , प्रवृत्ति-मार्गी या गृहस्थ युवाओं को भी कच्चा मैं या मिथ्या अहं को दास मैं बनाने का उपाय सिखलाने के लिए 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' या 'विवेकानन्द-सत्यान्वेषी भगिनी निवेदिता वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में 'मनःसंयोग,विवेक-दर्शन का अभ्यास, विवेक-प्रयोग, चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया का प्रशिक्षण देने में समर्थ मातृहृदय -आध्यात्मिक नेता (आचार्य) बनने और बनाने का 'युवा प्रशिक्षण शिविर' महामण्डल के सिवा और कौन संगठन चलाता है?)     
"स्त्री के निकट रहने पर भी जिसके त्याग,वैराग्य, विवेक-विज्ञान सदैव अक्षुण्ण बने रहें, वही ठीक ठीक ब्रह्म में प्रतिष्ठित हुआ है। स्त्री और पुरुष दोनों को ही जो समभाव से -'आत्मा' के रूप में देखता है और उसके अनुरूप व्यवहार करता है, उसी को वास्तविक ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई है। स्त्री-पुरुष के बीच भेद रखनेवाले व्यक्ति साधक भले ही हों, किन्तु ब्रह्मज्ञान से बहुत दूर हैं। " (श्रीमाँ पेज -४६/ लीलाप्रसंग-साधकभाव-अध्याय १७)     
"उनके विश्वव्यापी विराट मातृत्व के 'अहं' बोध द्वारा उत्पन्न स्नेह से कोई भी जीव वंचित नहीं होता था। रासबिहारी महाराज ने एक दिन श्रीमाँ से पूछा, " तुम क्या सबकी माँ हो ?" माँ ने उत्तर दिया,"हाँ।" फिर प्रश्न हुआ, "इन जीव-जन्तुओं की भी ?" माँ ने कहा, "हाँ, उन सबकी भी। " -पेज/४४८/ माँ होकर वे सन्तान को लौटा ही कैसे सकती थीं ? इसके आलावा वे किसी का दोष नहीं देख सकती थीं। .... "आप लोगों की इतनी संगति और सेवा करने पर भी 'अमुक' के मन में इतनी बुराई क्यों है ? बेटा , मैं अब किसी का दोष देख या सुन नहीं सकती। प्रारब्ध-कर्म जिसका जैसा है, वैसा फल वह पायेगा ही। हाँ, जहाँ फाल घुसने वाला था, वहाँ सुई तो जायेगी ही। पेज-४५५ /  
"आदमी कोई भी निर्दोष नहीं है, यह जानकर श्रीमाँ सभी सभी सन्तानों को समान रूप से ग्रहण करतीं थीं! बृन्दावन में बांकेबिहारी के दर्शन कर माँ ने उनसे प्रार्थना की थी , 'तुम्हारा रूप टेढ़ा है,पर मन सीधा -मेरे मन के घुमाव को सीधा कर दो। ' लोग केवल दोष ही देखते हैं, गुण देखनेवाले कितने हैं ? गुण ही देखना चाहिये। " (श्रीमाँ ४५६ पेज)
 वास्तव में उनकी बातचीत और व्यवहार में एक ऐसा सहज, सरस भाव था (मातृहृदय का प्रेम -स्नेह था) कि आये व्यक्ति को वे पलक भर में अपना लेती थीं! वे प्रत्येक सन्तान की रूचि से शीध्र परिचित हो उसके अनुरूप व्यवहार करतीं। (श्रीमाँ -४५३ पेज).... सबने यही जाना कि माँ उससे आंतरिक स्नेह करती हैं ! ४५४/ इसमें संसार-सुलभ आत्मीयता और आन्तरिकता रहने पर भी माया का बन्धन या आकर्षण न था। उसमें जैसी रुलाई और हँसी थी, वैसी ही विक्षेप-विहीन शान्ति भी थी। -४४५ पेज/ वे संन्यासियों को उनके नाम से नहीं पुकारती थीं। इसका कारण पूछने पर उन्होंने बताया था, " मैं माँ हूँ न, संन्यास-नाम से पुकारते मुझे कष्ट होता है। " किसी संन्यासी ने पूछा -"आप हम लोगों को किस तरह देखती हैं?" माँ ने जबाव दिया," नारायण के रूप में। " फिर प्रश्न हुआ,"हम सब आपकी संतान हैं। नारायण-भाव से देखने पर तो संतान-भाव से देखना नहीं होता है ?" इसके उत्तर में माँ ने कहा,"नारायण के रूप में भी देखती हूँ, सन्तान के रूप में भी। " पेज-४४६/
 ब्राह्मणेत्तर जाति के मनुष्यों को ब्राह्मण बनाने का कार्य करने में समर्थ ब्रह्मवेत्ता मनुष्य, लोकशिक्षक, पैगम्बर या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने का युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित होता रहता है!
अहंता -ममता / 'मैं '- पृथक 'अहं'-बोध,बंदर है / और मेरा -तेरा बंदर की पूँछ है/कपि के ममता पूँछ पर सुन्दर काण्ड/ मेरा -पराया का भेद नहीं रखना ही माँ का व्यावहारिक वेदान्त हैं ! मेरी जाति-तेरी जाति की भेदबुद्धि (माया-शक्ति) ही मनुष्य को शरीर में बांध देती (हिप्नोटाइज्ड कर देती है-भेंड़ बना देती) है] 
[हिंदू धर्मशास्त्रों में जातियों को नहीं, वर्णों को मान्यता दी गयी है। वर्णव्यवस्था में पुरोहित तथा अध्यापक वर्ग ब्राह्मण, शासक तथा सैनिक वर्ग राजन्य या क्षत्रिय, उत्पादक वर्ग वैश्य और शिल्पी एवं सेवक वर्ग शूद्रवर्ण हैं। वर्णों में अंतर्विवाह का निषेध नहीं था। परंतु हिंदू समाज में जातियों का मौलिक महत्व है और ये वर्णो से भिन्न हैं।
जातिव्यवस्था में अंतर्जातीय विवाह सर्वथा निषिद्ध है। सजातीय विवाह जातिप्रथा की रीढ़ माना जाता है।श्रमविभाजनगत आनुवंशिक समूह भारतीय ग्राम की कृषिकेंद्रित व्यवस्था की विशेषता रही है। जातिविशेष की एक विशिष्ट आर्थिक तथा सामाजिक मर्यादा होती है जो उसके सदस्यों को, जो जन्मना होते हैं, परंपरा से प्राप्त होती है। यह जातीय मर्यादा जीवन पर्यंत बनी रहती है और जातीय धंधा छोड़कर दूसरा धंधा अपनाने से तथा आमदनी के उतार चढ़ाव से उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उच्च हिंदू जातियों में गोत्रीय विभाजन भी विद्यमान हैं। गोत्रों की उपायोगिता मात्र इतनी ही है कि वे किसी जाति के बहिविवाही समूह बनाते हैं। और एक गोत्र के व्यक्ति एक ही पूर्वज के वंशज समझे जाते हैं।  विवाह में ऊँची पंक्तिवाले नीची पंक्तिवालों की लड़की ले सकते हैं किंतु अपनी लड़की उन्हें नहीं देते। 
वास्तव में जाति मनुष्यों के अंतर्विवाही समूह या समूहों का योग है जिसका एक सामान्य नाम होता है, जिसकी सदस्यता अर्जित न होकर जन्मना प्राप्त होती है। जिसके सदस्य समान या मिलते जुलते पैतृक धंधे या धंधा करते हैं और जिसकी विभिन्न शाखाएँ समाज के अन्य समूहों की अपेक्षा एक दूसरे से अधिक निकटता का अनुभव करती हैं। हिंदू धर्मं के अनुयायी जब जब इस्लाम या सिख धर्म स्वीकार करते हें तो वहाँ भी अपने जातीय समूहों को बहुत कुछ सुरक्षित रखते हैं और इस प्रकार भारत में सिखों या मुसलमानों की में एक पृथक्‌-पृथक जाति बन जाती है।]
११. या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता : 
न करने योग्य कार्य (अशोभनीय कार्यों) से दूर रहने को लज्जा (लाज, शर्म या हया) कहते हैं। लज्जा  का पर्यायवाची शब्द है 'ह्नी', व्रीड़ा, विनयशीलता। देवी (माँ जगदम्बा) मनुष्य के हृदय में लज्जामूर्ति बनकर अपने स्वरूप को प्रकट करती हैं, इसलिये उसके संतान कई बार निन्दित कर्म करने दूर रहते हैं। यदि  मनुष्यों के हृदय में देवी के इस लज्जामूर्ति की थोड़ी भी अभिव्यक्ति नहीं होती, तो यह जगत पशु साम्राज्य में परिणत हो गया होता। देवी (जगतजननी माँ सारदा देवी)  अपनी क्षमामूर्ति में एक ओर जहाँ मनुष्य को स्वेच्छाचारी होने का अवसर देती हैं, वहीँ अपनी लज्जामूर्ति में प्रकट होकर अनुशानहीनता को नियंत्रित (restrained) करने की शिक्षा देती हैं। 
[ यक्ष-प्रश्न में युधिष्ठिर से यक्ष पूछता है - तप का लक्षण क्या है ? दम किसको कहते हैं ? क्षमा किसे कहते हैं ? लज्जा किसे कहते हैं ? "तपः किं लक्षणं प्रोक्त्तं को दमश्र्च प्रकीर्तितः। क्षमा च का परा प्रोक्त्ता का च ह्निः परिकीर्तिता।। महाभारत २.२२.१।।" युधिष्ठिर उत्तर देते हैं - "अपने (वर्णाश्रम-चरित्र) धर्म में स्थित रहना ही तप है।अपने चित्त को विषयों में जाने से रोकना ही दम है। सर्दी - गर्मी अर्थात् तेजी तुर्षा इत्यादि को सहन करना ही क्षमा कहलाता है। जो कार्य नहीं करने योग्य है , उन्हें न करना ही लज्जा है।  ह्रीर्हता बाधते धर्मम्। नष्ट हुई लज्जा धर्म को अर्थात चरित्र को नष्ट करती है। स्कूल में शिक्षक पूछते हैं -"तुम में चरित्र या संस्कार नाम की कोई चीज है कि नहीं ? स्त्रीसहज लज्जाशीलता (Female coyness) को व्रीड़ा कहते हैं। 
माँ सारदा अत्यन्त लज्जाशीला थीं, घूँघट में रहती थीं। अधिकतर समय में वे अपने को लज्जा के आवरण से ढँक कर रखती थीं। बातचीत के क्रम में एक दिन माँ ने कहा था -" ठाकुर के सामने कीर्तनिया लोगों का नकल करते हुए,लक्ष्मी गाते गाते नृत्य करने लगती और वैसा ही अंग-विन्यास (posture) बनाकर दिखाती थी। ठाकुर ने मुझसे कहा था,' देखो, उस प्रकार से, तुम भी उसके ताल में ताल मिलाने के लिये अपनी लज्जा मत छोड़ना। ' 
एक बार जयरामबाटी में राधू, माक़ू, नलिनी आदि लड़कियाँ खेल-कूद में लाज-हया की चिंता भूलकर खूब चिल्ला रही थीं। माँ ने पूछा , " तुम लोग क्या कर रही हो ? तुम लोगों में थोड़ा भी लाज शर्म नहीं है ? लड़कियों के लिए जरूरत से ज्यादा उछलकूद करना ठीक नहीं है। लड़कियों को बहुत सँभलकर चलना पड़ता है, इज्जत का ध्यान रखकर चलना पड़ता है। " तब उनलोगों में से किसी ने प्रश्न किया, " क्यों बुआजी, ठाकुर ने तो कहा है -'लज्जा,घृणा, भय, तीन थाकते नए।' श्रीमाँ ने तुरंत उत्तर दिया, " नहीं,नहीं वे सब बातें उन लोगों के लिये हैं, जो ईश्वरप्रेम में पागल हो चुके हैं। मैं कहती हूँ -" खास तौर से स्त्रियों के लिये तो -लज्जा, घृणा, भय रखते ही होय, जिसको है भय उसीका होगा जय।" (आमी बलछि -" बिशेष करे मेयेमानुष्येर-  लज्जा,घृणा, भय तीन थाकते हय। जार आछे भय तार हय जय।")
'लज्जा ही नारी का भूषण है।' लज्जा से नारी के सतीत्व की रक्षा होती है। घृणा -पापी मनुष्य से घृणा नहीं, किन्तु पापकर्म से घृणा, गंदे कार्यों से घृणा करना चाहिए। उसी प्रकार भय - साँप का, बाघ का, या मरने का भय नहीं करना चाहिए। किन्तु मानमर्दन (derogation) का भय, बदनामी (obloquy) का भय, कलंकित (disgrace) होने का भय। इन तीनों के द्वारा स्त्रियाँ अपने जीवन को सूरक्षित रख सकती हैं। 
[" श्रीरामकृष्णदेव की भतीजी लक्ष्मी दीदी स्वभाव से वैष्णवी (चैतन्यमहाप्रभु-सम्प्रदाय) थीं। कभी कभी घर में मधुर कण्ठ से मनोहर कीर्तन गाया करती थीं। उसे सुनने के लिए लोग एकत्र हो जाते। लज्जाशीला श्रीमाँ को यह पसन्द न था। उन्हें स्मरण था कि जिस समय लक्ष्मी दीदी श्रीरामकृष्ण के सम्मुख कीर्तनियों का अनुकरण कर अभिनय करती हुई कीर्तन गातीं, उस समय श्रीरामकृष्ण प्रसन्न होने के साथ साथ श्रीमाँ को सावधान करते हुए कह देते -" देखो, लक्ष्मी का वही भाव है, पर तुम उसका अनुकरण कर लज्जा-शर्म का त्याग मत करना। " पेज-१९४/पतिगृह में/ श्रीमाँ अपने देवीत्व (यथार्थ स्वरूप) के बारे में सचेत थीं; तो भी समझ रही थीं कि दैव-निर्देश से उस प्रतिकूल अवस्था में ही रहकर उन्हें लोकशिक्षक की भूमिका निभानी होगी। पेज-२०५ / राधू के पैरों से पायल उतरवा दिया -४२८ संन्यासी की पीठ से आँचल भिड़ाती जाती हो ? ४२९/]  
१२.या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता:
 शान्ति का का तात्पर्य है -शम, उपशम, निवृत्ति, सभी प्रकार दुखों से छुटकारा, कामक्रोध आदि षडरिपुओं का विध्वंश, दुर्भाग्य का शमन, मोक्ष-(देहाध्यास से विसम्मोहित हो जाना, भेंड़त्व से डीहिप्नोटाइज्ड हो जाना)कैवल्य, निर्वाण। 
विषयभोगों में मनुष्य को कभी शान्ति प्राप्त नहीं होती। उससे केवल उनकी भोगेच्छा (या तृष्णा) और अधिक भड़क जाती है। बच्चा जैसे माता के गोद में शान्ति पाता है, उसी प्रकार मातृत्व प्राप्त कर लेने से (अपने हृदय को मातृ-हृदय में विकसित कर लेने से) मनुष्य वास्तविक शान्ति (Real peace) का अधिकारी बन जाता है। 
शान्ति बाहर से प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है, यह तो मनुष्य के हृदय-गुहा में शान्ति रूप से वास करनेवाली माँ जगज्जननी हैं; जिनको प्रकट करने के लिए का हमें अपने अन्तस्थ परमात्मा के सर्वव्यापी विराट मातृ-हृदय से एकरूप होना पड़ेगा। [नाग महाशय ने कहा था -'बाप से माँ अधिक दयालु हैं, बाप से माँ अधिक दयालु हैं। "पेज-२१९ भक्तों के साथ /]
शान्तिरूपिणी माँ सारदा देवी की आत्मकथा है, " रात तीन बजे उठकर मेरे इस (उत्तर के) तरफ के बरामदे बैठ कर जप तो करो, देखती हूँ कि मन में शान्ति कैसे नहीं आती है ? सो तो करेगी नहीं, केवल अशान्ति अशान्ति बोलेगी- तुम्हें किस बात की अशान्ति ! बेटी, मैं तो अशान्ति कैसी होती है-यह भी नहीं जानती थी। "(श्रीश्री मायेर कथा-१-१४४/)  
माँ एकदिन श्री 'म' की स्त्री (धर्मपत्नी) श्रीमती निकुंज देवी से बोलीं, " इस संसार में सुख-दुःख, अच्छा-बुरा तो लगा ही रहता है, जिसका जब समय होता है, ठीक चला आता है, भोग भी करवा लेता है। इच्छाशक्ति को बलवती बनाना पड़ता है, और मन को ईश्वर (माँ जगदम्बा) में रखना पड़ता है। हर समय केवल अशान्ति अशान्ति बोलते नहीं रहना चाहिये। " (श्रीश्री मायेर पदप्रान्ते-२-४३१) 
इस जगत में आनन्द और शान्ति किसी बाजार से खरीदकर प्राप्त नहीं किया जाता है। जगत से विदा लेने के पहले माँ सारदा ने समस्त मानवता के प्रति अपना अंतिम उपदेश (ग्रामीण भाषा में वेदान्त का सार) देती हुई कहती हैं - " यदि शान्ति चाउ , माँ कारो दोष देखो ना। दोष देखबे निजेर। जगत के आपनार करे निते शेखो। केउ पर नय, माँ , जगत तोमार। " -अर्थात " यदि शान्ति चाहती हो, बेटी, तो किसी का दोष मत देखना। दोष केवल अपना ही देखना। संसार को अपना बनाना सीखो। कोई पराया नहीं, बेटी, संसार तुम्हारा है !" (श्रीमाँ सारदा देवी /पेज-६२१/) 
१३. या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता:
श्रद्धा का अर्थ है आस्तिक्य बुद्धि, विश्वास (conviction) माँ जगदम्बा के अस्तित्व पर पूर्ण विश्वास! गीता १७/३ में भगवान कहते हैं - "श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।" - यह पुरुष अर्थात् संसारी जीव श्रद्धामय है। क्योंकि जो जिस श्रद्धावाला है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा (स्वयं को अविनाशी आत्मा या नश्वर शरीर मानने वाला ?) वैसा ही उसका स्वरूप होता है। जिस जीव की जैसी श्रद्धा है, वह स्वयं भी वही है। अर्थात् 'श्रः सत्यम धीयते इति श्रद्धा'-जो दृढ़ विश्वास निरंतर सत्य को धारण किये रहता हो, वह है श्रद्धा। गुरु और वेदान्त (के चार महावाक्यों) पर विश्वास को ही श्रद्धा कहते हैं। 'श्रद्धावान लभते ज्ञानं।' 
[श्रद्धा वह है जिसके द्वारा हमें भगवान की प्राप्ति होती है— यया वस्तु उपलभ्यते। श्रद्धा वह है जिसके द्वारा हम सत् को धारण करने में समर्थ होते हैं- सत् धारयते यया इति श्रद्धा। श्रद्धा वह है जिसके कारण हम अपनी जीवन पद्धति, अपने कार्य कलाप निर्धारित करते हैं यानि हम वैसे होते हैं जैसी हमारी श्रद्धा होती है— योय: श्रद्धा स एव स। शास्त्रीय जटिलताओं से बचते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल भक्ति को परिभाषित करते हैं-. “श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।"
श्रत् माने आस्तिकता अर्थात् जिस (2Hको)  को तुम देख नहीं रहे हो, वह भी है। जिसका अर्थ है- 'आस्तिक्य बुद्धि।' 'सत्य धीयते यस्याम्' अर्थात् जिसमें सत्य प्रतिष्ठित है। छान्दोग्योपनिषद् 7/19 सत् को परोक्ष बनाने के लिए श्रत् कर दिया। रेफ जो उसमें मिलाया है, वह सत् को परोक्ष करने के लिए। परोक्ष में श्रद्धा होती है।  
माँ सारदा श्रद्धा की मूर्त रूप थीं। उन्होंने अपने जीवन से दिखा दिया है कि श्रद्धा किस प्रकार की जाती है।एक दिन किसी व्यक्ति ने झाड़ू देने के बाद झाड़ू को एक तरफ फेंक दिया। यह देखकर माँ बोलीं-" ओह, यह क्या करती हो? तुम्हारा काम हो गया , और तुमने उसे इतनी अश्रद्धा से फेंक दिया ? झाड़ू देते समय जैसे झाड़ू को हाथ से पकड़ कर धीरे धीरे झाड़ू देना पड़ता है, रखते समय भी उसको आस्ते से रखना चाहिए। छोटी चीज समझकर क्या क्या उसको असम्मान दिखाना उचित है ? 'जाके राखो, सेई राखे'- जिसको रखोगी वही रखेगा। फिर तो उसकी आवश्यकता होगी। इसके आलावा इस परिवार का वह झाड़ू भी तो एक अंग है। उस दृष्टि से भी तो उसका एक सम्मान है ! जिसको जितना सम्मान मिलना चहिये, उतना सम्मान उसको देना पड़ता है। झाड़ू को भी आदर के साथ रखना चाहिये। साधारण कार्यों को भी श्रद्धापूर्वक करना चाहिये। " माँ का यह उपदेश अविस्मरणीय है। 
[एक दिन जयरामबाटी में घर के कामों में नियुक्त एक स्त्री ने झाड़ू लगाने के बाद झाड़ू को एक ओर फेंक दिया, तो माँ ने कहा कि झाड़ू को भी सम्मान देना चाहिये, साधारण कार्य को भी श्रद्धापूर्वक करना चाहिये; छोटी चीज समझकर उसकी अवहेलना करना ठीक नहीं। " मानवी-५८१/] 
१४. या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता: 
कान्ति का अर्थ है -शोभा, सौन्दर्य, चमक, दीप्ती, प्रभा। श्रीदुर्गासप्तशती १/८१ में कहा गया है - "सौम्या सौम्य तरा शेष सौमेभ्यस्वती सुंदरी" -देवी भवानी देवताओं के प्रति सौम्य और असुरों के प्रति उससे अधिक रुद्रा हैं, और जगत में जितने भी सुन्दर वस्तुएं हैं उन सबसे अधिक सुन्दरी हैं।
गीता १०/४१ में श्रीभगवान कहते हैं - यत् यत् विभूतिमत् सत्त्वम् श्रीमत् ऊर्जितम् एव  वा तत् तत्  एव अवगच्छ त्वम् मम तेजोंऽशसंभवम् (a manifestation of a part of My splendour.)  संसार में जो जो भी व्यक्ति विभूतिमान् -- विभूतियुक्त हैं तथा श्रीमान् और ऊर्जित ( शक्तिमान् ) अर्थात् श्री -- लक्ष्मी से युक्त और उत्साह से युक्त हैं उन-उन को तुम मेरी शक्ति के अंश से (तेज-माँ जगदम्बा के अंश से)  ही उत्पन्न हुई जानो।
समस्त वस्तुओं और समस्त प्राणियों में माँ जगदम्बा ही कान्ति रूप में व्यक्त (manifested) हैं ! कोई प्राणी चाहे कितना भी कुरूप (ugly) या दिव्यांग (malformed-अष्टावक्र) क्यों न हो, प्रत्येक के भीतर कान्ति का कुछ न कुछ विकास रहता ही है। फूलों में ऐसा टुस-टुस लाल रंग कहाँ से आता है कि वे मुस्कुराने लगती हैं ? कमल के खिलने में, चन्द्रमा में, बच्चों की मुस्कान में, कामिनी के मनमोहक चेहरे में, यहाँ तक कि वृक्ष की लताओं में, पर्वतों, कन्दराओं में, नदियों-तालतलैयों में,और ग्रह-नक्षत्रों में सर्वत्र इन्हीं माँ जगदम्बा की कान्तिमूर्ति को अभिव्यक्त होती हुई देखी जा सकती है।
श्रीमाँ के शिष्य स्वामी सारदानन्दजी माँ सारदा देवी की कान्ति का वर्णन इन शब्दों में करते हैं - "कई लोगों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि माँ की हथेली रक्ताभ (लाल रंग की) थी। उनकी कृपा से और किसी किसी के सौभाग्य से माँ के चरणकमलों का दर्शन प्राप्त हुआ था ; माँ का पैर का तलुआ भी बिल्कुल टेरकोटा (Terracotta) या पकी हुई मिट्टी की तरह लाल था।  सिर के बाल घने, रेशम के धागे के समान पतले तथा कोमल, लम्बे, काले, चमकदार और सामने के तरफ थोड़े घुँघराले थे। सुगढ़ चेहरे पर बिल्कुल  तिल के फूल जैसी लम्बी सुगढ़ नासिका थी। उनके उज्ज्वल नेत्रों की प्रशान्त स्थिर कृपादृष्टि, प्रत्येक मनुष्य के हृदय को करुणा से सिंचित कर देती थी। प्रशस्त चमकीला ललाट था -श्रीमाँ के प्रसन्न मुखड़े को देखते ही मनुष्यों का चित्त शान्त हो जाता था। श्याम-गौर रंग पहले उज्ज्वल था बाद में उम्र के अंत में थोड़ा म्लान हो गया था। लम्बी आकृति थी, दोनों करकमल भी अपेक्षाकृत लम्बे थे, श्रीमाँ थोड़ा बायीं ओर झुक कर धीरे धीरे चलती थीं। बाद में घुटनों में गठिया हो गया था।" (श्रीश्रीमायेर स्मृतिकथा -८७) 
काशी में एक बार गोलाप-माँ को भव्य और व्यस्क देख, किसी महिला ने उनको ही श्रीमाँ समझकर प्रणाम किया, तथा बातचीत करने को प्रस्तुत हुई। गोलाप-माँ इसे भाँप गयीं , उन्होंने श्रीमाँ की ओर संकेत करके कहा -" वे रहीं माँ जी - श्रीमाँ वे हैं !" माँ के प्रशान्त चेहरे से आकृष्ट न हो महिला ने सोचा कि शायद गोलाप-माँ (माँ दुर्गा की सखी जया ?) विनोद कर रही हैं। पर गोलाप-माँ के फिर से कहने पर महिला को बाध्य होकर प्रणाम करने जाना पड़ा। तब श्रीमाँ ने भी जरा विनोद के लिए हँसकर कहा -"नहीं,नहीं -वे ही माँ जी हैं !" 
अब तो महिला चकराई। (उच्चतर सत्य का निर्णय ?) सत्य के निर्णय का कोई उपाय भी नहीं था। अन्त में वह पहले के ही समान गोलाप-माँ को ही माताजी समझ उनकी ओर बढ़ी। इस बार गोलाप-माँ ने उसे डाँट कर कहा, " तुममें क्या थोड़ी भी विवेक-प्रयोग क्षमता नहीं है ? (उच्चतर सत्य और सापेक्षिक सत्य, या शाश्वत-नश्वर में विवेक करने की क्षमता नहीं है ?) देखती नहीं -मनुष्य का मुख है या देवता का ? मनुष्य का चेहरा क्या कभी वैसा (श्रीमाँ के जैसा-'कान्तियुक्त') हो सकता है ?" 
सचमुच माँ की सरल तथा प्रसन्न दृष्टि में एक ऐसी विशेषता थी, जो सात्विक-बुद्धिवालों को अपने आप अपनी असाधारणता का परिचय दे देती थी ! (विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से जिनका विवेक-स्रोत उद्घाटित हो चुका हो -विवेकी व्यक्ति को अपने आप  खुदके ब्रह्मवेत्ता नेता,लोक-शिक्षक होने का परिचय दे देती थी !) किन्तु जिनका मन अभी तक केवल संसारिक-भोगों में ही लिपटा हो (आत्मश्रद्धा के अभाव में कामिनी-कांचन में ही लिपटा हो), अलौकिक वस्तुओं की (उच्चतर सत्य की) जिन्होंने ने कभी धारणा ही न की हो, वे भला इसे कैसे देख सकते ? (श्रीमाँ सारदा देवी -३३८  
[ न हम कुछ हँस के सीखे हैं, न हम कुछ रो के सीखे हैं- जो कुछ थोड़ा सा (विवेक-प्रयोग) सीखे हैं; 'किसी के' (पूज्य नवनीदा के) हो के सीखे हैं!!] 
१५. या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता : 
 लक्ष्मी का अर्थ है -श्री, सम्पत्ति, सम्पदा, वित्त, अभ्युदय, समृद्धि,सौभाग्य, शोभा, प्राण। मनुष्य के शरीर में जितने समय तक प्राण रहता है, वह उतने ही समय तक लक्ष्मी और श्री से युक्त रह पाता है। माँ जगदम्बा ही प्राण-रूपिणी लक्ष्मी हैं। 
ठाकुरदेव के शरीर में रहते समय ही किसी भक्त महिला की आलोचना को सुनकर जब माँ ने अपने शरीर से समस्त आभूषणों को उतार देना चाहा, तब गौरी माँ बोलीं - " तुम तो बैकुण्ठ की लक्ष्मी हो, तुम्हें क्या ऐसा वेश धारण करना चाहिये?" फिर ठाकुरदेव के शरीर त्याग कर चले जाने के बाद लोगों की आलोचना से बचने के लिए माँ ने अपने गहनों को उतार देने की चेष्टा की तब गौरी माँ ने कहा - " ठाकुर (ब्रह्म) तो सर्वदा विद्यमान हैं,और तुम स्वयं लक्ष्मी हो। तुम यदि सधवा का वेश त्याग दोगी तो जगत का अकल्याण होगा।" (शतरूपे सारदा -१३४)
 [सन्ध्या के समय श्रीमाँ अपने शरीर से सारे आभूषण एक-एक कर निकालने लगीं। जब सोने के कंकण भी निकालने चलीं, तब श्रीरामकृष्ण ने गले की बीमारी के पूर्व के रूप में प्रकट होकर उनका हाथ पकड़ लिया और कहा , " क्या मैं मर गया हूँ जो तुम स्त्रियों के सौभाग्यचिन्ह हाथों से निकाल रही हो ? श्रीमाँ ने फिर कंकण नहीं उतारा। श्रीरामकृष्ण (शक्तिमान) के नित्यलीला का विराम नहीं है, और चिर-सधवा श्रीमाँ (शक्तिमान की शक्ति) का भी उनसे यथार्थतः वियोग नहीं है।  (चिर सधवा -१७४) ]
जयरामबाटी में श्रीमाँ सारदा देवी को साधारण महिला की तरह रोटी बेलते देखकर किसी भक्त के मन में आया कि सीताराम या राधाकृष्ण जैसे अभिन्न हैं, वैसे ही श्रीरामकृष्ण और माँ भी हैं; पर सामने उनका मानवोचित व्यवहार ही दीखता है ? मन के द्वन्द्व को मिटाने के लिए उन्होंने कहा -" तब तुम्हें जो साधारण स्त्रियों की भाँति रोटी बेलता देख रहा हूँ , आखिर यह सब क्या है ? माया या और कुछ ? माँ ने कहा -" हाँ, माया ही तो है ! माया यदि न होती, तो मेरी ऐसी दशा क्यों ? मैं तो बैकुण्ठ में नारायण के बगल में लक्ष्मी होकर  रहती। लेकिन बात यह है कि भगवान नरलीला पसन्द करते हैं !" (श्रीमाँ सारदा देवी -मानवी-५५९)
१६.या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता : 
वृत्ति का अर्थ है -स्वाभाविक कर्म, आजीविका, पेशा, व्यवसाय। आमतौर से वृत्ति शब्द का अर्थ आजीविका या चित्तवृत्ति है। श्रीमाँ लड़कियों को शिक्षा के साथ साथ कढ़ाई-बुनाई का प्रशिक्षण देने को भी प्रोत्साहित करती थीं। [वृत्ति : instinct : सहज प्रवृत्ति, मूल प्रवृत्ति, अन्तःप्रेरणा, सहजवृत्ति, स्वाभाविक बुद्धि। यह तो सर्वविदित है कि जीवन निर्वाह के लिए धन नितान्त आवश्यक है।धन की प्राप्ति किसी न किसी वृत्ति के द्वारा ही संभव है।वह वृत्ति नौकरी ; व्यवसाय आदि किसी भी रूप मे हो सकती है।आजकल तो वृत्ति प्राप्ति की भारी समस्या है।प्रत्येक नौ जवान वृत्ति की खोज मे दर बदर की ठोकरें खा रहा है।फिर भी वृत्ति की प्राप्ति नहीं हो पाती है।ऐसी स्थिति मे प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह जगदम्बा दुर्गा जी की उपासना करे ; जिससे उन्हें वृत्ति की प्राप्ति आसानी से हो सके।]
एक भक्त-स्त्री अपनी पाँच कन्याओं के अविवाहित रहने के कारण घोर दुश्चिंता में पड़ी थी। यह सुन श्रीमाँ ने कहा -"ब्याह नहीं कर सकती, तो इतनी चिंता क्यों करती हो ? निवेदिता के स्कूल में भर्ती करा दो, पढ़ना-लिखना सीख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी, और सुख से रहेंगी । " सुई आदि के शिल्प-कार्य को वे स्वयं जानती थीं और अपने प्रयोजन के अनेक काम स्वयं ही कर लेती थीं। कोई यदि उनके पास कार्पेट का आसन, देवताओं के चित्र, मन्दिर आदि तैयार कर के ले आता, तो उसकी बहुत प्रशंसा करती थीं। सभी विषयों में श्रीमाँ की गुणग्राहिता सचमुच एक अनुकरणीय वस्तु थी। " (श्रीमाँ सारदा देवी - मानवी ५७३ )
एक बार किसी भक्त ने माँ को पत्र में लिखा कि नौकरी के क्षेत्र में उसे कभी कभी झूठ बोलना पड़ता है, इसलिए मैं नौकरी छोड़ देना चाहता हूँ, और यह भी लिखा कि उसके भरणपोषण के लिए नौकरी के सिवा कोई दूसरा उपाय भी नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिये वह तय नहीं कर पा रहा है -अतः माँ से मार्गदर्शन चाहता है। माँ ने थोड़ा सोचविचार कर सेवक से कहा, " उसको लिख दो कि नौकरी नहीं छोड़नी है। " सेवक को वैसा लिखने में थोड़ा आनाकानी करते देखकर माँ बोली -" आज उसको थोड़ा झूठ बोलने में भी डर लग रहा है, किन्तु नौकरी छोड़ देने के बाद जब धन का अभाव हो जायेगा, तब उसको चोरी डकैती करने में भी डर नहीं लगेगा। " माँ की दूरदृष्टि और अपने सन्तानों की रक्षा करने के आग्रह को देखकर सेवक आश्चर्यचकित हो गया। (श्रीश्रीमायेर स्मृतिकथा -९६)
$$$१७.या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता: 
स्मृति (memory) का साधारण अर्थ है स्मरणशक्ति,अनुभूत विषयों का स्मरण, याददाश्त, यादगार। किसी वस्तु को देखकर सर्वप्रथम जो भाव या विचार सहज-प्रवृत्ति के रूप में मन में प्रकाशित होती है, बाद में वही विचार चित्त पर एक गहरा छाप छोड़ देती है, या संस्कार बनकर चित्त में संचित हो जाती है। यही संचित भाव जब पुनः चित्त के सतह पर बुलबुले के रूप में उठ आती है, तो उसको स्मृति कहते हैं।
छान्दोग्य उपनिषद (७.२६.२) में कहा गया है -'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति:।। स्मृतिलब्धे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:।।' ‘यहां सत्व का अर्थ है अन्तःकरण। आहार शुद्ध होने से चित्त की शुद्धि होती है,  चित्त की शुद्धि से अपने आत्मस्वरूप की अविचल स्मृति प्राप्त होती है।  स्मृति-लाभ या -आत्मस्वरूप की स्मृति निश्चल रहने, या चित्त की अविचलता (poise) प्राप्त होने से ,मनुष्य के चित्त की सब गाँठें खुल जाती हैं, उसे समस्त बन्धनों से छुटकारा मिल जाता है।[स्त्री -पुरुष के देहाध्यास मिथ्या 'अहं' द्वारा जनित भ्रम से मोक्ष मिल जाता है ! और अर्जुन (गीता -१८/७३ में)  बोल पड़ता है - 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा .... करिष्ये वचनं तव।'  'हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह (मैं 'सिंह-शिशु' नहीं 'भेंड़-शिशु' होने का भ्रम)  नष्ट हो गया है और स्मृति (अपने अविनाशी सच्चिदानन्द स्वरुप की स्मृति) प्राप्त हो गई है। मैं सन्देह रहित होकर स्थित हूँ। (अर्थात डीहिप्नोटाइज्ड होकर-मैं मरण-धर्मा शरीर नहीं अविनाशी आत्मा में स्थित हूँ; अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।' 

[किन्तु यहाँ 'स्मृति' शब्द का प्रयोग  'मेमोरी' या यादगार के अर्थों में नहीं हो रहा, क्योंकि वैसी 'मेमोरी ' (स्मृति) तो कंप्यूटर में भी होती है, उसके लिए मनुष्य  होना जरूरी नहीं है।  यहाँ बड़ा अलग अर्थ है स्मृति का। 'स्मृति' शब्द से यहाँ देखि-सुनि घटनाओं या पढ़े-सुने विषयों की रटन्त-विद्या या याददाश्त-शक्ति  का सवाल नहीं है।  ब्रह्मवेत्ता मनुष्य को ऐसी स्मृति उपलब्ध हो जाती है—जो अपरिवर्तनशील है, अविचल, चंचलता से रहित है या निश्चल है, अडिग है। सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति:'। अपनी अन्तर्निहित दिव्यता (ब्रह्मत्व) या आत्मस्वरुप के स्मरण का नाम स्मृति है। 

भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाने का सूत्र है - " स्मृतिलब्धे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:" इसी सम्यक् स्मृति को मध्ययुग के संतों ने—कबीर ने, दादू ने, रैदास ने, शेख फरीद ने—'सुरति' कहा है।  और जिसको अपनी सुरति आ गयी, जिसको अपना स्मरण आ गया, उसकी सारी ग्रंथिया टूट जाती हैं। जिसको अपना स्मरण आ गया, उसकी ये सारी ग्रंथियां मिट जाती हैं। फिर उससे ऊपर कुछ भी नहीं है—न धन है, न पद है, न प्रतिष्ठा है। जिसको अपना स्मरण आ गया, उसे तो परमपद मिल गया, परमधन मिल गया। उस परमपद और परमधन का नाम -भ्रममुक्त हो जाना या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाना ही मोक्ष है। 
और आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण से सम्पूर्ण मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, ब्रह्मवेत्ता, या लोक-शिक्षक बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने का 'चपरास-प्राप्त' गुरु विवेकानन्द ने 'मातृहीन सिंह-शावक' की कथा सुनाकर, सम्पूर्ण विश्व में  इसी 'सम्यक-स्मृति या सुरति की दुंदुभी -BE AND MAKE' बजा दी है! तथा ठाकुर -माँ के आशीर्वाद एवं स्वामी जी के प्रेरणा से  'स्वामी विवेकानन्द -सत्यअन्वेषिका भगिनी निवेदिता भक्ति-वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में प्रशिक्षित एवं चपरास प्राप्त आचार्य पूज्य नवनीदा द्वारा स्थापित महामण्डल, युवाओं को आत्मश्रद्धा और विवेक-प्रयोग द्वारा 3H निर्माण का प्रशिक्षण देकर उनकी खोई हुई श्रद्धा, सुरति या सम्यक-स्मृति लौटा देने का कार्य विगत ५० वर्षों से करता चला आ रहा है !
 महामण्डल द्वारा आयोजित 'स्वामी विवेकानन्द -सत्यअन्वेषिका भगिनी निवेदिता' भक्ति-वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन'  में प्रशिक्षित और 'चपरास प्राप्त लोकशिक्षकों का कार्य'  है - कुछ वुड बी लीडर्स  या भावी लोक-शिक्षकों को स्वामी विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत पद्धति -'BE AND MAKE ' में  प्रशिक्षण देकर उनके आत्मस्वरूप की सम्यक-स्मृति या सुरति को वापस लौटा देना। और इसी प्रकार  भ्रममुक्त मनुष्य या डीहिप्नोटाइज्ड मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति का प्रचार-प्रसार करना।  ताकि भारत की वर्तमान युवा पीढ़ी भी, भावी युवा पीढ़ी को  उनके 'खुद' से उनका परिचय करवा देने में सक्षम नेता बनने और बनाने वाले आंदोलन को अनंत काल तक जारी रख सकें! महामण्डल द्वारा आयोजित युवा-प्रशिक्षण में जो कोई हृदय से जुड़ जाता है, वह 'अमृत से भीगकर-लौटता है; अर्थात -चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने में समर्थ लोकशिक्षक,नेता या आचार्य बनकर लौटता है! 

'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति:।।यहाँ 'आहार' शब्द का अर्थ केवल 'अन्न' ही नहीं समझना चाहिये, बल्कि  'सभी इंद्रियों का आहार' लेना चाहिए। जो हमारा (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य का) आत्मस्वरूप है, वह है सत्व। और जो उस पर आच्छादित होता है, वह आहार। इसमें जो हम जिह्वा से लेते हैं—भोजन, स्वाद—वह तो अति गौण है। हम जो भीतर ले जा रहे हैं, अगर यह शुद्ध है तो हमारे भीतर जो छिपा हुआ स्वरूप है; वह ढंकेगा नहीं; उघडेगा, निखरेगा, ताजा होगा, नहाएगा—सद्य:स्नात्!
मगर नासमझों के कारण गौण प्रमुख हो गया है। कुछ पागल अपना पूरा जीवन इसी चिंता में व्यतीत करते हैं—क्या खाएं, क्या न खाएं; क्या पीए, क्या न पीए ? प्याज-लहसुन का उपयोग कैम्प में नहीं होता,तो मछली कैम्प में क्यों चलता है ? 
आहार का अर्थ है, आहरण - जो भी बाहर से भीतर लिया जाए।  हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं -आँख, कान,नाक, जीभ और त्वचा, और प्रत्येक इन्द्रियों का आहार (विषय) अलग अलग होता है। ये पाँच द्वार हैं जिनके माध्यम से हम रूप-रस-गन्ध-शब्द और स्पर्श आदि बाह्य जगत के विषयों को, बाह्य-जगत को अपने भीतर आहरण करते हैं, खींचते या आमन्त्रित करते हैं। आंख से रूप,कान से ध्वनि या शब्द, नाक से गंध, जीभ से स्वाद, त्वचा या हाथ से छू कर स्पर्श— प्रत्येक इंद्रिय का अलग -अलग आहार है।अस्सी प्रतिशत आहार तो हम आंख से लेते हैं, बीस प्रतिशत शेष चार इंद्रियों से। [मेरे निजी केस में - आँख (स्वाध्याय 80 %), कान (भजन-प्रवचन-न्यूज 10 %), नाक (गन्ध -0 %), जीभ (लहसुन-प्याज 5 %), त्वचा (5 %)]  हमलोग युवा अवस्था में क्या सुनते हैं ? लोग फिल्मी गाने सुन रहे हैं, व्यर्थ की बातें सुन रहे हैं। परनिन्दा -परचर्चा करने में लगे हुए हैं। एक—दूसरे की निंदा सुन रहे हैं—झूठी। और कोई संदेह नहीं उठाता। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जिससे तुम किसी की निंदा करो और वह संदेह उठाए। किन्तु किसी की प्रशंसा करो तो हर एक व्यक्ति संदेह उठाएगा।  ] 
दुर्गाशप्तसती (४/११) में कहा गया है -"मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा। " जिनकी कृपा से समस्त शास्त्रों के सार तत्व को जाना जाता है वह मेधा शक्ति रूपिणी सरस्वती आप ही हैं। श्रीमाँ सारदा देवी अपने शिष्यों और भक्तों के मन में 'भगवान की स्मृति' (नारायण ही नर रूप में अवतरित होते हैं-की स्मृति) जाग्रत रखती थीं। बाद के दिनों में श्रीमाँ की स्मृति अनगिणत भक्तों और संन्यासियों के हृदय में अविचल रूप से स्थान बनाया है, तथा निम्नलिखित ग्रंथों के रूप में प्रकाशित हुई है - 'श्रीश्री मायेर कथा', 'मातृदर्शन', 'श्रीश्री मायेर पदप्रान्ते', 'श्रीश्री मायेर स्मृतिकथा', 'श्रीश्रीमाँ और जयरामबाटी', 'मातृसानिध्ये', 'जननी श्रीसारदा देवी।' लीलाप्रसंग को लिखते समय स्वामी सारदानन्द ने माँ की कई स्मृतियों का उल्लेख किया है।        
१८.या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता : 
'पर दुःख-हरण की इच्छा' को दया, अनुकम्पा, कृपा, करुणा   कहते हैं। प्राणियों को दुःखों में गिरा देखकर, जब उस दुःख को दूर करने की इच्छा मन में जाग्रत होती है, तो उसी देवी की दयामूर्ति कहते हैं। उस दयामूर्ति देवी के विकास को प्रत्येक जीव के हृदय में थोड़ा बहुत परिमाण में देखा जा सकता है। [वस्तुतः दयाभाव ही एक ऐसा महान् गुण है ; जो दानव और मानव मे अन्तर करता है। जिसमे दयाभाव नहीं है ; वह मानव-शरीर पाते हुए भी दानव है।]
एक दिन पगलिमामी किसी लड़के को पीने के लिये एक ग्लास पानी लेकर आयीं तो कहीं से एक बिल्ली आकर उसको जूठा कर दी। तब मामी को उस बिल्ली को भगाने के लिए चिल्लाते सुनकर माँ बोली -" पानी पीते समय किसी को बाधा नहीं देनी चाहिये,और बिल्ली ने तो ग्लास मुख लगा दिया था।" पगलिमामी ने गुस्से से कहा-" तुमको बिल्ली पर उतनी दया दिखाने की क्या जरूरत है, मनुष्य के ऊपर दया करो न।" माँ ने गंभीर होकर कहा - " मेरी दया जिसके ऊपर नहीं है, वह कितना अभागा होगा ? मेरी दया किस प्राणी के ऊपर नहीं है, यह मैं समझ नहीं सकती। " वे कहती थीं - " मैं दया करके मंत्र देती हूँ। मुझे छोड़ते ही नहीं रोते हैं, देखकर दया आती है। नहीं तो मुझे क्या लाभ ? मंत्र देने से उसके पापों को ग्रहण करना पड़ता है। फिर भी यही सोंचकर दीक्षा देती हूँ कि एक दिन इस शरीर को तो जाना ही है, किन्तु इनका कल्याण तो हो जाये!"  (श्रीमाँ सारदा देवी-५११?).... शेष अगले ब्लॉग में: 
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मंगलवार, 27 मार्च 2018

या देवी सा सारदा -2


वेदान्तशास्त्रों में आत्म-तत्व का निरूपण करने के लिये, अथवा अन्नमय कोष से आनन्दमय कोष तक की उर्ध्वमुखी यात्रा करने के लिये, अथवा इस रहस्य को समझाने के लिए कि, " इस  संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है और जहाँ तक हमारी बुद्धि अनुमान कर सकती है, उन सबका (2H) का मूल स्रोत्र एक मात्र ‘परब्रह्म’ (3rd'H-हृदय) ही है;" जिस प्रकार -  'श्रुति,युक्ति और अनुभूति' (स्वसंवेद्य तथा परसंवेद्य अनुभूति) आदि प्रणालियों का सहारा लिया जाता है।  उसी प्रकार- 
या देवी' अर्थात  'जो माँ जगदम्बा हैं;'
 'सा सारदा'- वे सारदा सरस्वती हैं!" 
इस उच्चतर सत्य का निरूपण,अथवा माँ सारदा के देवीत्व का निर्धारण [अर्थात माँ जगदम्बा ही श्रीमाँ सारदा सरस्वती के रूप में ज्ञान देने के लिए अवतरित हुई हैं-का निर्धारण]  करने के लिये भी हमलोग यहाँ भगवान श्रीरामकृष्णदेव उक्तियों  का, माँ के द्वारा स्वयं अपने मुख से उच्चारित स्वरुप को प्रकाशित करने वाले कथनों का, तथा विभिन्न सन्यासियों और भक्तों के दर्शन एवं अनुभवों का संक्षेप में उल्लेख करेंगे। 
श्रीदुर्गासप्तशती के आलोक में माँ सारदा देवी
अब हमलोग श्रीदुर्गासप्तशती के आलोक में माँ सारदा के देवी रूपों को देखने की चेष्टा करेंगे। दुर्गासप्तशती के पाँचवें अध्याय में देवताओं ने 'अहं और मम ' के प्रतीक शुम्भ-निशुम्भ का वध करने के लिए देवी भगवती विष्णुमाया की स्तुति प्रारम्भ करते हैं। ग्रंथ में इस ५ वें अध्याय के १४ से लेकर ८० श्लोकों तक देवी के २३ रूपों का वर्णन किया गया है। 
हमलोगों के देश में बच्चे-बूढ़े क्या स्त्री क्या पुरुष प्रत्येक के मुख से 'या देवी सर्वभूतेषु.....नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः' सुनने को मिलता है। प्रथम 'नमस्तस्यै' पद के द्वारा माँ के स्थूलरूप, द्वितीय पद के द्वारा सूक्ष्मरूप, तृतीय पद के द्वारा कारणरूप एवं 'नमो नमः' पद के द्वारा माँ के कारणातीत तूरीय-शक्ति की विशेषता (इन्द्रियातीत-उच्चतर सत्य की quality-स्वभाव) को प्रणाम किया जाता है। देवी को इतनी बार प्रणाम करने का उद्देश्य क्या है ? 
शास्त्रों में कहा गया गया है कि 'अहंकार' ही वास्तविक असुर (राक्षस) है। इस अहं रूपी राक्षस को मारने का एकमात्र अस्त्र है 'नमः', अर्थात 'न मम' -मेरा नहीं। यहाँ का कुछ भी मेरा नहीं है माँ, सब कुछ तुम्हारा है। इस प्रकार पृथक 'अहं'-बोध के नष्ट करने से ही माँ जगदम्बा आविर्भूत हो जाती हैं। देवताओं के इस स्तुति (प्रणाम मंत्र) के द्वारा सन्तुष्ट होकर देवताओं के समक्ष अपने वास्तविक रूप में देवी (सर्वव्यापी मातृहृदय के 'अहं'-बोध) विष्णुमाया के विराट रूप में प्रकट हो गयीं ! 
(मनःसंयोग के पाँचवे चैप्टर -'मन का स्वभाव' में कहा गया है;मदिरोन्मत, बिच्छूदंशित, महिषासुर-चण्ड-मुण्ड-शुम्भ-निशुम्भ- आदि राक्षस 'अहं'  के रूप में मन रूपी बंदर पर सवार हो जाता है।  'अहं' का भाई है 'मम' -मेरी पूँछ! श्रीरामचरित मानस का भी पांचवा अध्याय है सुन्दरकाण्ड  -'कपि के ममता पूंछ पर।')
१. या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता: 
विष्णुमाया -भगवती दुर्गा का ही एक अन्य नाम है। इनको ही योगमाया, महामाया कहा जाता है। इसी मायाशक्ति का आश्रय लेकर ईश्वर सृष्टि, स्थिति और लय करते हैं। सात्विक,राजसिक और तामसिक अंतर्जात (natural,स्वाभाविक) भेद के अनुसार विष्णुमाया त्रिगुणमयी हैं। (triplets=a set of three similar things considered as a unit) वेदान्त के मतानुसार ईश्वर मायाधीश हैं, और जीव मायाधीन है। ईश्वर माया की सहायता से लीला करते हैं, किन्तु माया उनको अभिभूत (overwhelmed या पराजित) नहीं कर सकती, जैसे साँप का विष उसके मुख में रहता है, किन्तु उससे सांप को कोई नुकसान नहीं पहुँचता। (चरित्र के गुण -'संतुलन' में नारद जी ने भी नारायण से विष्णुमाया को देखने की इच्छा प्रकट की थी ?)
माँ सारदा श्रीदुर्गासप्तशती में वर्णित वही विष्णुमाया हैं। श्रीरामकृष्ण के अन्तर्धान के बाद उन्होंने स्वयं माया को स्वीकार करके इस जगत में लीला की हैं। "माँ की भतीजी (भाई की बेटी) राधू के पिता का देहान्त हो गया था, और उसकी माँ सुरबाला देवी तब निपट पगली थीं। वे कुछ कथरी बगल में दबाकर खींचित हुई चली जा रही थीं, और राधू घसटती हुई रोते-रोते उनके पीछे-पीछे जा रही थी, और राधू घसटती हुई रोते रोते उनके पीछे पीछे जा रही थी।  
यह देखते ही श्री माँ का मन व्यथित हो उठा। उन्होंने सोंचा "ठीक तो, इसे यदि मैं न देखूँ तो कौन देखेगा ? पिता है नहीं, माँ पगली है। " दौड़ कर उन्होंने राधू को उठा लिया। ठीक इसी समय श्रीरामकृष्ण प्रकट हो कहने लगे," यही, (छोटी बच्ची राधू को दिखलाते हुए) वह लड़की है; 'इसीका अवलम्बन लेकर रहो, यह योगमाया है।' 
एक बार स्वामी विश्वेश्वरानन्द ने माँ को कहा था -'माँ, आप में अपनी भतीजी के प्रति इतनी आसक्ति क्यों है? घोर संसारी लोगों के जैसा आप भी रातदिन घोर सांसारिकों की तरह 'राधी,राधी' करती रहती हैं, और इतने भक्त लोग आते हैं, उनकी ओर इतना ध्यान नहीं देतीं। इतनी आसक्ति ! क्या यह अच्छा है ?" पहले भी इस प्रकार के प्रश्न श्रीमाँ ने अनेक बार सुने थे और धीरे से उत्तर दिया था, " हम औरत जात हैं, हम ऐसी ही हैं। " किन्तु आज उन्होंने थोड़ा आन में आकर कहा," ऐसी (मेरे जैसी) तुम कहाँ पाओगे ? मेरे बराबर एक ढूँढ़कर निकालो तो सही ! जानते हो, जो लोग सर्वदा परमार्थ -चिंतन में लगे रहते हैं, उनका मन अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध हो जाता है। वह मन जिस वस्तु को पकड़ता है, तो उसे दृढ़ता से पकड़े रहता है। इसीलिये बाहर से देखने पर आसक्ति सी दिखाई है। " (श्रीमाँ सारदा देवी -२३९)
किसी ने माँ से पूछा था -'अच्छा, क्या आपको क्या सदैव अपने स्वरुप का ज्ञान नहीं रहता ?' माँ ने कहा, "हर घड़ी कहाँ रहता है ? वैसा होने से क्या ये सब काम किये जा सकते हैं ? पर हाँ, काम-काज के बीच जब कभी इच्छा होती है, थोड़ा विचार करने से ही तुरंत आत्मस्मृति जाग्रत हो जाती है,(विवेक-जाग्रत ?) और  झट उद्दीपन होकर महामाया की सारी लीला समझ में आ जाती है। " (श्रीमाँ सारदा देवी ५५८) 
माक़ू के छोटे से लड़के 'नेड़ा' की मृत्यु से कोआलपाड़ा में श्रीमाँ को रोते-बिलखते देखकर, मैसूर के भक्त  नारायण अयंगर ने पूछा-" माँ,नेड़ा की मृत्यु से आप फिर साधारण मनुष्यों की तरह रोने क्यों लगी ?" श्रीमाँ ने उत्तर दिया, " मैं संसार में हूँ, संसार-वृक्ष के फल तो खाने ही पड़ेंगे। इसीलिए मेरा रोना-पीटना है।" "भगवद-रचित इस संसार-यंत्र की अपनी एक धारा है, जिसे प्रत्येक देहधारी को मानकर चलना पड़ता है। श्रीरामकृष्ण ने कहा था -" नरलीला में अवतार को ठीक मनुष्य की तरह आचरण करना पड़ता है, इसिलिये उन्हें पहचानना  कठिन होता है। "और भी कहा करते थे -"पंचभूत के फन्दे में पड़कर ब्रह्म भी रोता है। " श्रीमाँ/५५७/ 
श्रीमाँ के जीवन में उच्चतर सत्य के प्रति भावों का स्रोत तथा पारिवारिक कर्तव्यों के पालन की धारा दोनों एक साथ इस प्रकार सामंजस्य बनाकर चलते थे कि नवागत सामान्य व्यक्ति के लिए उन दोनों को अलग अलग अलग करना अथवा उनका अलग अपना अपना गूढ़ार्थ समझ लेना बहुत कठिन था। एक दिन काशी की कई स्त्रियों ने आकर देखा कि श्रीमाँ राधू, भूदेव आदि को लेकर बड़ी व्यस्त हैं, तथा गोलाप माँ से अपने फटे कपड़ों को जरा सी देने को कह रही हैं। वे स्त्रियाँ यहाँ भी चिर-परिचित सांसारिक व्यवहार की पुनरावृत्ति देख बोल उठीं, " माँ, मैं देखती हैं, आप भी माया में खूब लिपटी हैं। " अस्फुट स्वर में श्रीमाँ ने उत्तर दिया -"क्या करूँ, बेटी, मैं खुद ही माया जो हूँ। "यह इंगित शायद उन महिलाओं को समझ में नहीं आया। (श्रीमाँ -३३८)
२.या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते: 
देवी दुर्गा ही सभी प्राणियों में चेतना (sense, consciousness – स्वयं के और अपने आसपास के वातावरण के तत्वों का बोध होने, उन्हें समझने तथा उनकी बातों का मूल्यांकन करने की शक्ति।) - कहलाती हैं, यह 'चेतना' अन्तःकरण की ज्ञानत्मिका मनोवृत्ति है। ये माँ चैतन्यरूपिणी देवी दुर्गा ही स्थूल- शरीरों में विभिन्न नाम-रूप धारण करके विभिन्न आकृतियों में अभिव्यक्त हो रही हैं, प्राण-शक्ति इनका सूक्ष्म रूप है और कारण शरीर में अव्यक्त बीज रूप से अवस्थित रहती हैं। 
'सारदे ज्ञानदायिके' - अर्थात श्रीमाँ प्रज्ञा और विद्यारूपिणी हैं तथा ज्ञानदायिनी हैं। उन्होंने अनेकों स्त्री-पुरुषों को दीक्षा और उपदेश देकर उनके अन्तर्निहित ब्रह्म-चैतन्य (दिव्यता) को जागृत कर दिया है। शास्त्रों में कहा गया है -'ज्ञानादेव मुक्तिः' अर्थात ज्ञान से ही मोक्ष (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाना) संभव है। 
श्रीमाँ सारदा देवी ने कहा था - " कामना-वासना ही समस्त दुःखों का मूल है, बार बार जन्म-मृत्यु का कारण है, और मुक्त होने (डिहिपनोटाइज्ड हो जाने, भ्रममुक्त जाने) के मार्ग में अड़चन (obstacle) है। ... यदि कोई वासना रहित हो जाये (लस्ट और लूकर में अनासक्त हो सके), तो उसे तुरंत आत्मतत्व का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। " (লীলাপ্রসঙ্গ-१/साधक भाव /१५७) 
माँ अपने अन्तरंग भक्तों को आशीर्वाद देती थीं - 'ज्ञान चैतन्य होक!' किसी किसी सन्तानों की छाती या मस्तक को छू कर जप कर देती थीं,एक -दो भक्तों की पीठ पर हाथ से स्पर्श करके आर्शीवाद देती देती थीं -" कुण्डलिनी जागूक !"(শ্রীমা সারদা দেবী -२५४ ?)
[संसार के प्रत्येक प्राणी की सार्थकता तभी तक है ; जब तक उसमे प्राण है। प्राण-विहीन शरीर तो शव बन जाता है। प्राण विद्यमान होने के कारण ही वह प्राणी कहला घुमा करता है। शरीर मे जब तक प्राण रहता है; तभी तक उसमे चेतना रहती है। शरीर की यह चेतना उस परमाराध्या भगवती के अस्तित्व का ही द्योतक है। अतः स्पष्ट है कि वह देवी समस्त प्राणियों मे चेतना रूप मे विद्यमान है। साक्षात् माँ जगदम्बा की भक्ति, या आधुनिक युग में उनके अवतार-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण  की भक्ति के द्वारा अन्त:करण की शुद्धि से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है,जो समस्त द्वैत -'मैं' और 'तू' की ग्रन्थि (गाँठ) का विभेदन कर अद्वैत मे स्थापित कर देती हैं। सन्त तुलसी दास जी कहते हैं- 'रामचन्द्र के भजन बिनु जे चहँ पद निर्वाण । ग्यानवन्त अपि सो नर पशु बिनु पूँछ विषाण ॥' अर्थात् ज्ञानी ज्ञानमार्ग के द्वारा निर्वाणपद चाहता है अतएव वह पशु है, एवं सींग-पूँछ रहित पशु है ।]
३.या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता: 
-बुद्धि का अर्थ है प्रज्ञा, विवेक-सामर्थ्य, अन्तःकरण की निश्चयात्मिका वृत्ति का नाम ही बुद्धि है। "देवी बुद्धिरूपिणी हैं। प्रत्येक जीव में व्यष्टि-बुद्धि के रूप में देवी ही अवस्थित हैं, तथा अव्यक्त प्रकृति में बुद्धि का बीज 'महततत्व और समष्टि-बुद्धि' के रूप में अवस्थित हैं।"(সাধন সমর -৫৩)
क्योंकि माँ सरस्वती को स्कूल-कॉलेज में जाकर पढ़ाई करना शोभा नहीं देता; इसीलिये श्रीमाँ ने हमलोगों की तरह स्कूल जाकर लिखना-पढ़ना नहीं सीखा था। किन्तु वे असाधारण बुद्धिमती थीं। पानीहाटी महोत्स्व में ठाकुर के साथ नहीं जाकर उन्होंने अपनी जिस असाधारण बौद्धिक शक्ति का परिचय था, उसके विषय में ठाकुरदेव ने बाद में कहा था -" साथ न जाकर उसने (श्रीमाँ ने) अच्छा ही किया, वह बड़ी बुद्धिमती है। उसे मेरे साथ देखने से लोग कहते- 'देखो देखो,हंस-हंसी' आये हैं। " (श्रीमाँ सारदा देवी /१२९)  
[ज्येष्ठ मास की शुक्ला त्रयोदशी को श्रीचैतन्यदेव की स्मृति में वैष्णव- भक्तों द्वारा पानीहाटी में यह महोत्स्व बड़े समारोह के साथ मनाया जाता है। अंग्रेजी शिक्षा में पले-बढ़े युवकों को भक्ति की शक्ति का अनुभव करने के लिए हरिनाम की हाट और आनन्द के मेले को एकबार देखना चाहिये। उस उत्स्व में जाने के लिए माँ ने ठाकुर से एक स्त्री-भक्त के द्वारा पुछवाया था कि वे जायें या नहीं? श्रीरामकृष्ण ने उत्तर दिया, "तुम सब तो जा रही हो; यदि उसकी इच्छा हो तो चले। " बाद में माँ ने कहा था -"प्रातःकाल उन्होंने जिस ढंग से मुझे चलने के लिए कहलवाया, उसी से मैं ताड़ गयी कि उस विषय पर वे मुझे हृदय से आज्ञा नहीं दे रहे हैं। यदि उनकी हार्दिक इच्छा होती, तो वे कहते -'हाँ, जायेगी, क्यों नहीं ?' ] 
उस दिन श्रीरामकृष्ण ने श्रीमाँ की बुद्धिमत्ता का एक और उदाहरण भक्तों को दिया-" मारवाड़ी भक्त ने (लक्ष्मीनारायण ने) जब मुझे दस हजार रुपया देना चाहा, तब मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरा सिर आरे के नीचे रख दिया गया है। माँ से (श्रीकाली से) कहा, 'माँ, माँ, इतने दिनों बाद फिर से मुझे प्रलोभन दिखलाने  (भेंड़ बना देने) आयी?' उस समय उसकी (श्रीमाँ की) इच्छा जानने के लिये मैंने उसे बुलाकर कहा, 'देखो,ये इतना रुपया देना चाहते हैं। जब मैंने कहा कि मैं नहीं ले सकता, तब ये तुम्हारे नाम से देना चाहते हैं। तुम इसे स्वीकार करो न। कहो, क्या कहती हो ? यह सुनते ही उसने कहा, 'यह कैसे हो सकता है ? रुपया नहीं लिया जा सकता। यदि मैंने लिया तो वह तुम्हारे ही लेने के समान हुआ, क्योंकि यदि मैं रखूँगी तो तुम्हारी सेवा तथा अन्यान्य जरूरतों पर खर्च किये बिना न रह सकुंगी। फलतः वह तुम्हारा ही लेना होगा। लोग तुम्हारी श्रद्धा-भक्ति करते हैं तो -तुम्हारे त्याग के लिए। अतः रुपया किसी भी रूप से लिया जा सकता। उसकी वह बात सुन मैंने स्वस्ति का श्वास लिया। " (श्रीमाँ सारदा देवी/१३०) 
४. या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता: 
निद्रा -देवी निद्रारूपिणी हैं। जिस समय समस्त इन्द्रियाँ और अन्तःकरण की वृत्ति सम्यक रूप से निरुद्ध हो जाती हैं, उस समय ज्ञानमयी देवी अपने को हर प्रकार के विचारों का निरोध विषयक बोधरूप में व्यक्त होती हैं, वह देवी की निद्रामूर्ति है। निद्रा के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। सुषुप्ति (गाढ़ी नींद) की अवस्था में रखकर देवी अपने सन्तानों को इन्द्रिय-जनित क्रियाकलापों के कर्म-क्लान्ति से विश्राम देती हैं। इस निद्रारूपी देवी की कृपा से मनुष्य रोग-शोक, दुःख-संताप की यंत्रणा से अस्थायी शान्ति (Temporary peace) प्राप्त कर लेता है। 
[ पातंजल योगदर्शन समाधिपाद-१/१० के अनुसार 'अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ॥'  शब्दार्थ- अभाव की प्रतीति को आश्रय करने वाली वृत्ति ही निद्रा है। निद्रा भी एक मनोवृत्ति है, जिसका आलंबन अभावप्रत्यय अर्थात् तमोगुण है । अभाव से तात्पर्य शेष वृत्तियों का अभाव है, जिसका प्रत्यय या कारण हुआ तमोगुण । सारांश थह है कि तमोगुण की अधिकता से सब विषयों को छोड़ कर जो वृत्ति रहती है वह निद्रा है ।  नींद के अलावा हर समय मन अनेकों विषय वस्तुओं से भरा रहता है। मन में विचारों की  भारी भीड़ होती है। गाढ़ी नींद में, मन का स्वरूप और व्यापार मिट जाता है, केवल होते हैं आप (ब्रह्म?)—बिना किसी उपाधि और व्याधि के। 'मैं खुब सुख से सोया' । ऐसी स्मृति लोगों को जागने पर होती है और स्मृति उसी बात की होगी जिसका अनुभव हुआ होगा। जाग्रत, स्वप्र का अभाव जिसमें है वह निद्रा है। और समाधि क्या है? समाधि में सभी चित्त वृत्तियों का निरोध हो गया। चित्तवृत्ति निरोध में भी निद्रा जैसा सुख मिलता है।माने वहाँ अभाव के प्रत्यय को धारण करने वाली निद्रा नाम की वृत्ति भी नहीं है – वो हो गई समाधि। चित्त की निवृत्ति वाली स्थिति को संतो ने नाम दिया सत्-चित्त-आनंद। 
श्रीदुर्गासप्तशती में कहा गया है- ये महामाया ही जगतपति विष्णु की योगनिद्रा है।(तमःप्रधान शक्ति, एक ऐसी निद्रा का अनुभव, जिसमें शरीर तो पूरी तरह से विश्राम की अवस्था में होगा, पर मन पूरी तरह से जागरूक बना रहेगा। यही योगनिद्रा है।) जिसकी उच्चतर अनुभूति समाधि का सुख देती है। फिर यही शक्ति जगत के समस्त प्राणियों को सम्मोहित (हिप्नोटाइज्ड कर के 'कामिनी -कांचन' में आसक्त) कर देती हैं ! 
एक बार लाटू महाराज को ऊँघते देखकर श्रीरामकृष्ण ने पूछा, " अरे लाटू, क्या तुम यह बता सकते हो कि भगवान सोते हैं या नहीं ? " वे बोले -'हाम ने जाने ना। ' ठाकुरदेव ने कहा - " देखो, जीव-जगत में सभी प्राणी निद्रा के अधीन हैं। सभी प्राणी सो सकते हैं, किन्तु भगवान के लिए सोने का उपाय नहीं है। वे यदि सो जायें तो सबकुछ अंधकार में डूब जायेगा। महाप्रलय घटित हो जायेगा। वे सारे दिन सारा रात जाग जाग कर जीवजन्तु की सेवा करते हैं। इसीलिए जीवजन्तु निर्भय होकर सोने चले जाते हैं। " (लाटू महाराज की स्मृति कथा ९८) 
इस बार महामाया सारदा स्वयं बिना सोये ठाकुर एवं उनके संतानों की सेवा कर रही हैं। वे सतोगुण की मूर्ति हैं (अर्थात माँ सारदा मूर्तमान विवेक-सामर्थ्य हैं); और वह तमोगुण प्रधान निद्राशक्ति भी उनकी ही विभूति है, किन्तु उनको कभी मोहाच्छन्न नहीं कर सकती है। 
[विवेक, बुद्धि और वृत्ति इन्हीं तीन छोटे-छोटे शब्दों पर मनुष्य की समग्र चेतना घूमती रहती है। वृत्ति पाशविक है। वह निद्रा है। वह अचेतन का जगत है। वहां न शुभ है, न अशुभ है। कोई भेद वहां नहीं है। इसमें कोई अंतर्सघर्ष भी नहीं है। वह आंधी वासनाओं का सहज प्रवाह है।
बुद्धि मानवीय है। बुद्धि न निद्रा है, न जागरण है। वह अर्ध-मूर्छित अवस्था (हिप्नोटाइज्ड अवस्था या देहध्यास का भ्रम) है। वह वृत्ति और विवेक के बीच संक्रमण है। वह दहलीज है। उसमें एक अंश चैतन्य हो गया है। लेकिन शेष अचेतन है। इससे भेद बोध है। शुभ-अशुभ का जन्म है। वासना भी है, विचार भी है। विवेक-प्रयोग शक्ति दिव्य है। विवेक-प्रयोग पूर्ण जागृति है। वह शुद्ध चैतन्य है। वह केवल प्रकाश है। वहां भी कोई संघर्ष नहीं है। वह भी सहज है। वह शुभ का, सत का, सौंदर्य का सहज प्रवाह है।
वृत्ति भी सहज, विवेक भी सहज। वृत्ति सहज या आंधी (भँवर) के जैसी  है। वृत्ति आंधी सहजता, विवेक सजग सहजता। बुद्धि भर असहज है। पशु में डूबने का आकर्षण- प्रभु में उठने की चुनौती- उसमें दोनों एक साथ हैं! इस चुनौती से डरकर जो पशु में डूबने का प्रयास करते हैं, वे भ्रांति में (हिप्नोटाइज्ड अवस्था में) हैं। जो अंश चैतन्य हो गया है, वह अब अचेतन नहीं हो सकता है। जगत-व्यवस्था में पीछे लौटने का कोई मार्ग नहीं है। वह जो सोया है, उसे जगाना है। अशुभ नहीं, मूर्छा अर्थात भ्रम (सम्मोहित अवस्था) छोड़नी है। अंधेरे में दिया जलाना है। हृदय में से मिथ्या अहं को निकालकर वहाँ भगवान श्रीरामकृष्णदेव को स्थापित कर देना है। 
गीता ।।7.20।। विवेक सार्मथ्य (विवेक-प्रयोग शक्ति) मानव जन्म की विशेषता है और यह सर्वथा असंभव है कि विवेक के प्रखर और सजग होने पर मनुष्य को आत्मज्ञान न हो सके। परन्तु मन की बहिर्मुखी प्रवृत्तियां और विषयभोग की कामनायें उसके विवेक को आच्छादित कर देती हैं। मन के क्षुब्ध या अत्यंत चंचल रहने के कारण  बुद्धि की विवेक-प्रयोग शक्ति लुप्त हो जाती है और स्वभावत फिर मनुष्य सत्य-असत्य, शाश्वत-नश्वर का विवेक नहीं कर पाता है। 
जब मनुष्य की बुद्धि का आलोक कामना के मेघों से आवृत हो जाता है तब आसक्तियों और अवगुणों के उलूक मन के जंगल में शोर मचाने लगते हैं। मन में इच्छा के उदय मात्र से मनुष्य का पतन नहीं होता बल्कि पतन का कारण है उत्पन्न इच्छा के साथ उसका तादात्म्य। इस तादात्म्य के द्वारा मनुष्य अनजाने में अपनी इच्छाओं को बढ़ावा देकर असंख्य विक्षेपों को जन्म देता हुआ स्वयं उनका शिकार बन जाता है।
अन्न के सूक्ष्म तत्त्व का ही रूप वृत्ति (विचार) है और इसलिए वह स्वयं जड़ है। वृत्तिरूप मन आत्मा से चेतनता प्राप्त करता है और कामी व्यक्ति से सार्मथ्य। विचारों के अनुसार कर्म होता है। एक बार मनुष्य के मन में कोई कामना दृढ़ हो जाये तो वह यह विवेक खो देता है कि उस कामनापूर्ति से उसे नित्य शाश्वत सुख मिलेगा या नहीं। क्षणिक सुख की आसक्ति के कारण वह अन्यान्य देवताओं को सन्तुष्ट करने में व्यस्त रहता है।
यह धारणा कि स्वर्ग में बैठा कोई ईश्वर हमारे मन में इच्छाओं को उत्पन्न कराकर हमें पाप और पुण्य के कर्मों में प्रवृत्त करता है केवल निराशावादी निर्बल और आलसी लोगों की ही हो सकती है। बुद्धिमान साहसी और उत्साही पुरुष जानते हैं कि मनुष्य स्वयं ही अपने विचारों के अनुसार अपने वातावरण कार्यक्षेत्र आदि का निर्माण करता है। संक्षेप में एक मूढ़ पुरुष (हिप्नोटाइज्ड व्यक्ति) शाश्वत सुख की आशा में वैषयिक क्षणिक सुखों की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ता रहता है जबकि विवेकी पुरुष उसकी व्यर्थता पहचान कर पारमार्थिक सत्य के मार्ग पर अग्रसर होता है
विवेक चूड़ामणि रस - जीवनमुक्त लक्षणम्:  जिसने श्रुति प्रमाण से अपने आत्मा को जान लिया है और जो संसार बन्धन से रहित है, ऐसा पुरुष जीवन्मुक्त है । जो अपनी तात्विक बुद्धि से आत्मा और ब्रह्म तथा ब्रह्म और संसार में कोई भेद नहीं देखता, वह पुरुष जीवन्मुक्त है ।साधु पुरुषों द्वारा इस शरीर के सत्कार किये जाने पर और दुष्टजनों द्वारा पीड़ित होने पर जिसका चित्त सम भाव रहता है, वह पुरुष जीवन्मुक्त है ।ब्रह्मतत्व के जान लेने पर विद्वान् को पूर्ववत् संसार की आस्था नहीं रहती और यदि फिर भी संसारी आस्था बनी रहे तो जानना चाहिये कि उसे ब्रह्म तत्व का ज्ञान ही नहीं हुआ, वह मितथ्याचारी है ।जिस प्रकार अत्यंत कामी पुरुष की भी कामवृत्ति अपनी माता को देखकर कुंठित हो जाती है, उसी प्रकार पूर्णानंद स्वरूप ब्रह्म को जान लेने पर उस पुरुष की संसारी वृत्ति का सर्वथा लोप हो जाता है ।]
५. या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता:
क्षुधा का अर्थ है भोजन करने की इच्छा।" हमलोगों के स्थूल शरीर के रस-रक्त आदि धातु के क्षय होते रहने से जो थकावट (Exhaustion) महसूस होती है, उस थकावट को दूर करने के लिए आहार ग्रहण करने की आवश्यकता का अनुभव होता है। प्राणी आहार तभी लेता है ; जब उसे भूख लगती है। यही देवी की क्षुधा मूर्ति है। ऐसी बात नहीं है कि इस क्षुधामूर्ति की अभिव्यक्ति केवल स्थूल-शरीर या अन्नमय कोष में ही होती है, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोषों में भी यही क्षुधामूर्ति अभिव्यक्त होती हैं। प्राणमय कोष का आहार है जीवनी-शक्ति,मनोमय कोष का भोजन है उच्च विचार, विज्ञानमय कोष का आहार है ज्ञान, आनन्दमय कोष का आहार है प्रेम। " (সাধন সমর -৫৬) 
[आयुर्वेद  (23|51,52) के अनुसार पुरुष=जीव पाँच में आविष्‍ट हैं और पाँच पुरुष के अर्पित हैं | पाँच से यहां तात्पर्य्य पाँच कोश‌ हैं। हमारी आत्मा के पांच आवरण होते हैं। इनको कोश कहा जाता है। जीवात्मा उनमें रहता हुआ भी उनसे पृथ‌क् है। वे पाँच कोश निम्नलिखित हैं -1. अन्नमय कोश। 2. प्राणमय कोश।  3. मनोमय कोश।  4. विज्ञानमय कोश।  5. आनन्दमय कोश। ये सब आत्मा के आवरण हैं, आत्मा नहीं। लेकिन आत्मा की शक्ति से ही ये सभी कोश अस्तित्व में रहते हैं। 
१. अन्नमय कोष का मतलब है स्थूल शरीर। यह शरीर जो सबको चलता-फिरता हुआ, अलग-अलग बर्ताव करता हुआ दिखाई देता है, जो अन्न से पोषित होता है, हम जो भोजन करते हैं, उससे यह कोश बनता है। हमारे स्थूल शरीर में रस, रक्त, मांस, मेद , अस्थि, मज्जा, और शुक्र (सीमेन), ये सात धातुएँ हैं। नित्यप्रति स्वाभावत: विविध कार्यों में उपयोग होने से इनका क्षय भी होता रहता है, किंतु भोजन और पान के रूप में हम जो विविध पदार्थ लेते रहते हैं उनसे न केवल इस क्षति की पूर्ति होती है, वरन्‌ धातुओं की पुष्टि भी होती रहती है। भोजन का मुख्या कार्य रस - रक्त आदि धातुओं को बढ़ाकर शरीर का विकास करना , क्षतिपूर्ति करना , ज़रूरी उष्णता और बल बनाए रखना तथा शरीर की जीवनी शक्ति को स्थिर करना है। इस कोश में बदलाव हमेशा होता रहता है क्योंकि यह शरीर कभी एक जैसा नहीं रहता। जीवन में किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए इस अन्नमय कोष का स्वस्थ होना बहुत जरूरी है। इसीलिए कहा गया है 'पहला सुख निरोगी काया'। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से हम किसी में भी तभी आगे बढ़ सकते हैं, जब हमारा शरीर फिट हो।अन्नमय कोश का अर्थ है इन्द्रिय चेतना । कृमि कीटकों की चेतना इन्द्रियों की प्रेरणा के इर्द गिर्द की घूमती रहती है। शरीर ही उनका सर्वस्व होता है। उनका ‘स्व’ काया की परिधि में ही सीमित रहता है। इससे आगे की न उनकी इच्छा होती है, न विचारणा न क्रिया। इस वर्ग के प्राणियों को अन्नमय कह सकते हैं। आहार ही उनका जीवन है। पेट तथा अन्य इन्द्रियों का समाधान हो जाने पर वे संतुष्ट रहते हैं।
२.प्राणमय कोश अर्थात् जीवनी शक्ति।  निजी उत्साह से पराक्रम करने के अभ्यास को प्राण शक्ति कहते हैं।प्राणमय कोश की क्षमता जीवनी शक्ति के रूप में प्रकट होती है। संकल्प बल, साहस आदि स्थिरता और दृढ़ता बोधक गुणों में इसे जाना जा सकता है। यों जीवन तो कृमि कीटकों में भी होता है पर वे प्रकृति प्रेरणा की कठपुतली भर होते हैं। जिजीविषा के आधार पर ऐसे प्राण मनोबल का सहारा लेकर भी अभावों और कठिनाइयों से जूझते हुए प्राणी मनुष्य कहलाते हैं।  जबकि कृमि कीटक ऋतु प्रभाव जैसी प्रतिकूलताओं से प्रभावित होकर बिना संघर्ष किये प्राण त्याग देते हैं।
३. मनोमय कोश-विचार बुद्धि। मनोमय स्थिति विचारशील प्राणियों की होती है। यह और भी ऊँची स्थिति है। मननात्-मनुश्यः । मनुष्य नाम इसलिए पड़ा कि वह मनन कर सकता है। मनन अर्थात् चिन्तन। यह पशु-पक्षियों से ऊँचा स्तर है। इस पर पहुँचे हुए जीव से मनुष्य संज्ञा में गिना जाता है। कल्पना, तर्क, विवेचना, दूरदर्शिता जैसी चिन्तात्मक विशेषताओं के सहारे औचित्य-अनौचित्य का अन्तर करना संभव होता है। स्थिति के साथ तालमेल बिठाने के लिए इच्छाओं पर अंकुश रख सकना इसी आधार पर संभव होता है। 
४.विज्ञानमय कोश अचेतन सत्ता एवं भाव प्रवाह। विज्ञानमय कोश इससे भी ऊँची स्थिति है। इसे भाव-संवेदना का स्तर कह सकते हैं । दूसरों के सुख-दुख में भागीदार बनने की सहानुभूति के आधार पर इसका परिचय प्राप्त किया जा सकता है। आत्मभाव का आत्मीयता का विस्तार इसी स्थिति में होता है। अन्तःकरण विज्ञानमय कोश का ही नाम है। दयालु, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी, शालीन और परोपकार परायण व्यक्तियों का अन्तराल ही विकसित होता है। उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रियाकलाप अपनाने की महानता इसी क्षेत्र में विकसित होती है। महामानवों का यही स्तर समुन्नत रहता है।
५.आनन्दमय कोश-आत्म बोध-आत्म जागृति। आनंदमय कोश आत्मा की उस मूलभूत स्थिति की अनुभूति है जिसे आत्मा का वास्तविक स्वरूप कह सकते हैं। सामान्य जीवधारी यहाँ तक कि अधिकांश मनुष्य भी सम्मोहित अवस्था या हिप्नोटाइज्ड अवस्था में अपने आपको शरीर मात्र मानते हैं और उसी के सुख-दुःख में सफलता-असफलता अनुभव करते रहते हैं। आकांक्षाएँ विचारणाएँ एवं क्रियाएं इसी छोटे क्षेत्र तक सीमा बद्ध रहती हैं। यही भव-बंधन है। सत्,चित्, आनन्द की संवेदनाएँ ही ईश्वर प्राप्ति कहलाती है, अपना और संसार का वास्तविक संबंध और प्रयोजन समझ में बिठा देने वाला तत्त्व दर्शन हृदयंगम होने पर ब्रह्मज्ञानी की स्थिति बनती है। 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास से आनंदमय कोश जागृत होने पर जीव अपने को अविनाशी ईश्वर का अंश (माँ जगदम्बा का पुत्र), सत्य, शिव, सुन्दर, मानता है। शरीर, मन और इन्द्रियों को साधन एवं सम्पर्क परिकर को मात्र जीवनोद्देश्य के उपकरण मानता है। यह स्थिति ही आत्मज्ञान कहलाती है।  इसी को जीवन मुक्ति, देवत्व की प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन आदि नामों से पुकारते हैं। आत्म विकास (चित्त-शुद्धि या आत्म-परिष्कार) के इस उच्च स्तर पर पहुँच जाने के उपरान्त समस्त अभावों, द्वंद्वों -उद्वेगों से छुटकारा मिल जाता है। परम सन्तोष का परम आनंद का लाभ मिलने लगने की स्थिति आनंदमय कोश की जागृति कहलाती है। माँ जगदम्बा की कृपा से एक क्षण के लिए भी- यह स्थिति 'भ्रममुक्त, मोक्ष-प्राप्ति या डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था' उपलब्ध हो जाने पर, मनुष्य हर घड़ी सन्तुष्ट एवं उल्लसित पाया जाता है। जीवन मंच पर वह अपना अभिनय करता रहता है। उसकी संवेदनाएँ भक्तियोग, विचारणाएँ, ज्ञान और क्रियाएँ कर्म योग जैसी उच्च स्तरीय बन जाती हैं। ऐसे ब्रह्मवेत्ता मनुष्य अस्थि माँस के शरीर में रहते हुए भी,सर्व साधारण को - वह  एक ऋषि, तत्त्वदर्शी, देवात्मा एवं परमात्मा स्तर तक उठा हुए व्यक्ति या 'देव-मानव' जैसा प्रतीत होता है। 
प्राणी की मूल प्रवृत्तियों मे क्षुधा या भूख का महत्त्व पूर्ण स्थान है। भूख कालिका है, काली है,भूख प्रचंड शक्तिशाली है, शरीर की पुष्टि के लिए,शरीर संरक्षण एवं संवर्धन के लिए  क्षुधा बहुत आवश्यक है। यदि क्षुधा क्षीण हो जाय तो आहार ग्रहण कर पाना कठिन है। आहार लिए बिना शरीर का अस्तित्व ही संकट मे पड़ जायेगा। परन्तु माता भगवती अत्यन्त दयालु हैं। उन्हें अपनी सन्तानों की शारीरिक सुरक्षा की चिन्ता सदैव बनी रहती है। इसीलिए वे समस्त प्राणियों मे क्षुधा के रूप मे स्थित होकर उनके शरीर संरक्षण मे सहयोग करती रहती हैं।
स्वामी चेतनानन्द जी कहते हैं - " माँ जगदम्बा की 'क्षुधामूर्ति का शरण' लेने से जीव की 'भव-क्षुधा' दूर हो जाती है।" क्षुधारूपी देवी जीवों के हृदय में  निवास करती हैं। इसीलिए माँ श्री सारदा देवी इसबार हर समय अपने सन्तानों को भोजन करवाने व्यस्त रहती हैं। स्वयं खाद्य पदार्थों का जुगाड़ करती हैं, अपने हाथों से खाना पकाती हैं, साधु-भक्तों को अपने हाथों से परोसती हैं और कहती हैं -" खा लो बेटे, बेटी, खाओ। " स्वामी विरजानन्द ने लिखा है ," दोनों शाम विभिन्न प्रकार के व्यंजनों को अपने हाथों से बनाने में माँ व्यस्त रहती थीं, पानी-पीढ़ा पर बैठाकर भोजन करवाती थीं, खाने के लिए जोर देकर पत्तल पर डलवाती थीं, वैसा अमृत जैसा भोजन और जीवन में कभी खाया नहीं था। "
६. या देवी सर्वभूतेषु च्छायारूपेण संस्थिता: 
छाया (प्रतिबिम्ब) शब्द का एक अर्थ होता है- जीव, और बिम्ब हैं ब्रह्म । यही बिम्ब जब अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित होते हैं, तब उनको जीव कहा जाता है। जीव ब्रह्म की छाया (माँ महामाया की छाया ?) है। परमार्थ रूप से जीवचैतन्य (उपासक) और ब्रह्मचैतन्य (उपास्य) एक ही हैं। कठोपनिषद (१/३/१) में है, 'छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति' (इव) छाया और आतप (धूप) के सदृश। [एक उपास्य (ईश्वर )यदि स्वर्ण है तो दूसरा (उपासक) स्वर्ण के आभूषण। ] आचार्य शंकर ने छाया की व्याख्या जीवात्मा के रूप में की है। छाया की तीन अवस्थायें हैं -स्थूल, सूक्ष्म और कारण। स्थूल शरीर ही चितप्रतिबिम्ब या छाया की स्थूल मूर्ति है,सूक्ष्म शरीर में छाया की सूक्ष्म मूर्ति है और कारण शरीर में कारणमूर्ति है।  
[ द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।(मु. उ. ३ । १ । १) समष्टि के स्तर पर जो परमात्मा (गौतम बुद्ध) है वही व्यष्टि  के स्तर पर आत्मा (सिद्धार्थ गौतम) है। जीवात्मा आत्मा की उपाधि है, किन्तु  दोनों परस्पर भिन्न नहीं है, लेकिन यह जीवात्मा अपने अहंकार के भ्रम में पड़कर (हिप्नोटाइज्ड होकर) खुद को ईश्वर (अविनाशी आत्मा) से अलग सिर्फ एक काया (नश्वर शरीर) मानने लगता है— जब वह चैतन्य-स्वरूप 'ब्रह्म' अनेक देवी-देवताओं तथा लौकिक शरीरों की भिन्नता में जीवनी-शक्ति के रूप में अपने आपको अभिव्यक्त करता है, तब यह 'जीव' कहलाने लगता है। ब्रह्म की प्रेरणा से चित्र-विचित्र संसार को रचने वाली शक्ति प्रकृति कहलाती है। कहा भी है- यह विश्व ही 'ब्रह्म' है, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है-सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन॥वे ही सब कुछ हुए हैं - वे ही जीव और जगत् हुए हैं; किंतु अपने भीतर चैतन्य को जगाए बिना कोई, उस पूर्ण चैतन्य को जान नहीं सकता । तर्क तो तभी तक हैं, जब तक उन्हें कोई पा नहीं लेता । उनकी कृपा से चैतन्य-लाभ करना चाहिए । चैतन्य-लाभ करने पर समाधि होती है, कभी-कभी देह भी विस्मृत हो जाती है । कामिनी और कांचन पर आसक्ति नहीं रह जाती । ईश्वर की चर्चा के सिवाय कुछ नहीं सुहाता । विषय-वासना की चर्चा से कष्ट होता है । विचार करने पर उनके विषय में एक प्रकार का ज्ञान होता है, ध्यान करने पर दूसरे प्रकार का ; किंतु वह एक भिन्न ही ज्ञान होता है, जो तब प्राप्त होता है, जब वे स्वयं अपने आप को दिखा देते हैं । जब वे स्वयं समझा देते हैं कि अवतार इस प्रकार का होता है, जब वे अपनी मनुष्य-लीला समझा देते हैं - तब तर्क की आवश्यकता नहीं रह जाती जैसे वर्षों से अँधेरे पड़े कमरे के भीतर दियासलाई घिसने से एकाएक उजाला हो जाता है, उसी प्रकार एकाएक वे अगर उजाला दे दें, तो सब संदेह अपने आप मिट जाते हैं । तर्क करके उन्हें कौन जान सका है।
माँ सारदा ने कहा है कि वे स्वयं प्रत्येक जीव में विराजिता हैं ! एकदिन बातचीत के क्रम में अपने स्वरूप की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा था -" देखो, चाँद का प्रतिबिम्ब जब सरोवर में पड़ता है, तो उसे देख कर छोटी छोटी मछलियाँ, उसके साथ आनन्दपूर्वक बहुत उछलकूद करने लगती हैं। वे सोचती हैं, ये भी शायद हममें से ही एक है। किन्तु जब चाँद अस्त हो जाता है, तब वे मछलियाँ अपनी उसी पूर्वावस्था में आ जाती हैं। 'चाँद' या अवतार  के साथ उछलकूद करने के बाद,जब वे अचानक ही चल देते हैं तो बहुत पछतावा होता है, कि उनके साथ रहने के बाद भी हम उनको पहचान न सके! " [শ্রীশ্রীমায়ের কথা -২৩৬] और एक दिन किसी ने उनसे प्रश्न किया कि तस्वीर (छयाचित्र -फोटो) में ठाकुर हैं या नहीं ? माँ ने कहा -" छाया काया समान। छवि तो तांर छाया !" [শতরূপে সারদা -৩৬০] 
७. या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता: 

शक्ति, शक्तिमान से अभिन्न है, शक्ति और शक्तिमान अभेद् हैं। [ईश्वर शक्तिमान है तो जीव-जगत् उसकी शक्ति। परन्तु उपास्य शक्ति ही है ।] शिव और शक्ति एक साथ विद्यमान रहते हैं। शिव के बिना शक्ति गतिहीन (static) हैं, फिर शक्ति के बिना शिव निष्क्रिय हैं। श्वेताशतर उपनिषद में कहा गया है  देवात्मशक्तिं स्वगुणैः निगूढाम् (श्वेता. उ. १/३) अर्थात देवात्म-शक्तिं या दीप्तिमान् परमात्मा की आत्मभूत, अभिन्नरूप में अध्यस्त और अस्वतन्त्र (Non-independent) शक्ति (स्वगुणैः) अपने ही गुणों से (निगूढाम्) छिपि हुई है। यह अनिवर्चनीय माया शक्ति - मूल-अज्ञान/प्रकृति/ देवात्मा (परब्रह्म) की शक्ति है और यह अपने ही गुणों (सत् रजस् तमस्) से छिपी हुई है – ऐसा श्वेता० उपनिषद श्रुति कहती है। यह शक्ति जीवों के शरीर में तीन प्रकार से विकसित होती है - स्थूल शरीर और इन्द्रियों की क्रियाशक्ति के रूप में,मन की इच्छाशक्ति के रूप में, तथा बुद्धि में ज्ञानशक्ति के रूप में विकसित होती है। 

[तीन जगत्‌- (१) स्थूल (२) सूक्ष्म (३) कारण/तीन अवस्थाएं- (१) जागृत (२) स्वप्न (३) सुषुप्ति/  तीन शक्तियां- (१) क्रिया (२) ज्ञान (३) इच्छा। ये सभी जिस मूल आधार से उद्भूत हैं, उसे ही व्रह्म कहा गया। इसकी अनुभूति चतुर्थ अवस्था-तुरीय अवस्था में होती है।

अनिर्वचनीय माया या ब्रह्म की शक्ति को एक दूसरे ढंग से - वेदान्त के सर्प रज्जु से समझा जा सकता है - एक कम रोशनी वाले कमरे में रस्सी को देखकर सर्प का भ्रम हो गया और उसके कारण डर लगा। फिर किसी नें आकर रोशनी कर के दिखा दिया कि यह तो रस्सी है और भय दूर हो गया। अतः जो भय उत्पन्न हुआ वह रस्सी के 'अज्ञान' के कारण हुआ और रस्सी का 'ज्ञान' होते ही दूर हो गया। अब यह अज्ञान 'ज्ञान' से बाधित हो गया। यदि यह अज्ञान सत् होता तो कभी नष्ट नहीं हो सकता था क्योंकि सत् तो कभी नष्ट नहीं होता। यह अज्ञान असत् भी नहीं था क्योंकि यह था और उसके कारण भय भी उत्पन्न हुआ क्योंकि कोई वस्तु तो है ही नहीं वह कुछ प्रभाव नहीं डाल सकती - अतः कुछ तो था - और वह ज्ञान से नष्ट भी हो गया - इस को ही अनिर्वचनीय कहते हैं। यदि वह अज्ञान सत् होता तो कभी नष्ट नहीं होता और यदि असत् होता तो भय उत्पन्न नहीं करता और उसको नष्ट करने की आवश्यकता ही नहीं होती - अतः अनिर्वचनीय।अतः अज्ञान/माया की परिभाषा है - "जिसको परिभाषित न किया जा सके"। जैसे किसी जादूगर का जादू हमको अनुभव में आता है हम उसे अपनी आंखों से देखते हैं पर उसके बारे में कुछ कह नहीं सकते की वह कैसे हुआ - यही अनिर्वचनीय है - और सबसे बड़ा जादूगर तो ईश्वर ही है।  -यह अज्ञान तीन गुणों से युक्त है - सत्त्व रजस् और तमस्। इसलिये इसको ज्ञान विरोधी कहते हैं क्योंकि यह ज्ञान को सहन नहीं कर सकता यह ज्ञान से नष्ट हो जाता है बाधित हो जाता है।यह 'अज्ञान' है और यह ज्ञान से बाधित भी हो जाता है इसलिये यह 'भावरूप' है। यदि यह अभावरूप होता तो कोई प्रयास करने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि जो है ही नहीं उसका नाश क्या करना। अतः यह अज्ञान ज्ञान-विरोधी है और भावरूपं है अर्थात यह ‘है’ और नाशवान है। इस अज्ञान का इतना सामर्थ्य है कि यह सकल प्रपञ्च उत्पन्न कर सकता है परन्तु इतना सामर्थ्यवान नहीं है कि यह सदा विद्यमान रह सके (सत् नहीं है)।युगल- तत्व की एकता: जैसे अग्नि और अग्नि की दाहिका-शक्ति, सूर्य और सूर्य की किरणें, चन्द्रमा और चन्द्रमा की चाँदनी एवं जल और जल की शीतलता सदा एक हैं, इनमें कभी काई भेद नहीं है, उसी प्रकार शक्तिमान् और शक्ति में कोई भेद नहीं है। जैसे अग्निशक्ति-अग्नि-स्वरूप के आश्रय के बिना नहीं रहती और जैसे अग्निस्वरूप अग्निशक्ति के बिना सिद्ध ही नहीं होता, उसी प्रकार शक्ति और शक्तिमान् का एकत्व-सम्बन्ध है। वह नित्य पुरुषरूप है और नित्य ही नारी-स्वरूप। ऐसे दो होते हुए ही वे नित्य एक हैं। स्वरूपतः कभी दो होकर रह ही नहीं सकते। एक के बिना एक का अस्तित्व ही नहीं रहता। ‘सच्चिनानन्दघन’ सर्वातीत तत्व भी ‘सच्चिनानन्द-शक्ति’ का आभाव हो तो ‘शून्य’ रह जाता है। इसलिये उसका सत्-तत्व सत्-शक्ति से, चित्-तत्व चित्-शक्ति से और आनन्द तत्व आल्हादिनी-शक्ति से ही स्वरूपतः सिद्ध है। परमात्मा इन्हीं शक्तियों को संधिनी, संवित् और लाह्दिनी-शक्ति भी बतलाया गया है। अपनी जिस स्वरूपाशक्ति के द्वारा भगवान सबको सत्ता देते हैं, उस शक्ति का नाम ‘संधिनी’ है; जिसे द्वारा ज्ञान या प्रकाश दिया जाता है, वह ‘संवित्’ शक्ति है।  और स्वय नित्य अनाद्यनन्त परमानन्दस्वरूप होकर भी जिस शक्ति के द्वारा अपने आनन्दस्वरूप की जीवों को अनुभूति कराते हैं तथा स्वयं भी आत्मस्वरूप विलक्षण परमानन्द का साक्षात्कार करते हैं, उस आनन्दमयी स्वरूपशक्ति का नाम लाह्दिनीशक्ति है। 
महर्षि कपिल ने कहा कि सृष्टि पूर्व की जो अवस्था है उसमें जब प्रकृति अव्यक्तावस्था में रहती है, तब सभी गुण साम्यावस्था में रहते हैं। यह साम्यावस्था टूटती है मूल तत्व के संकल्प से, जिसका वर्णन उपनिषदों ने किया- एकोऽहं बहुस्याम - यह संकल्प ही इच्छाशक्ति है। इससे गुणों की साम्यावस्था भंग होती है तथा उस अव्यक्त प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न होता है तथा इसी के साथ सृष्टि व्यक्त होने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। उसका प्रथम विकास महत्‌ अथवा विराट्‌ बुद्धि शक्ति के रूप में होता है, यही ज्ञान शक्ति है। एक मूलभूत ज्ञान शक्ति सूक्ष्म परमाणु से लेकर संपूर्ण व्रह्माण्ड तक का नियमन कर रही है। यह विभिन्न शक्तियां, उनसे सृष्टि का चक्र गतिमान होना, फिर लोप होना, यह क्या है, तो वेदान्त कहता है- ‘कम्पनात्‌‘ अर्थात्‌ निर्माण या विध्वंस। सबमें कंपन है, स्पंदन है। बुद्ध ने सत्य के साक्षात्कार में प्रकृति की वास्तविकता का परीक्षण किया और उन्हें स्पष्ट दीखने लगा कि उनका यह यह ठोस प्रतीत होनेवाला विश्व-ब्रह्माण्ड वस्तुतः असंख्य -असंख्य परमाणुओं का, कलापों का पुंज मात्र हैं । बुद्ध को ज्ञान हो गया कि ठोस भी तरंग मात्र हैं ।सारे लोक प्रज्वलित दिखाई पडते हैं ।समस्त लोक प्रकम्पित नजर आते हैं । इसलिये बुद्ध ने कहा ---
 सम्पूर्ण जगत प्रकम्पन है- ‘सब्बोप्रज्जालितो लोको, सब्बो लोको प्रकम्पितो‘। जगत में ठोस जैसा कुछ नहीं है, केवल प्रकम्पन ही है। आदि शंकराचार्य कहते हैं- परमाणु से लेकर व्रह्मलोक तक तथा सामान्य शक्ति से लेकर प्राणशक्ति तक सब स्पन्दन है। स्वामी विवेकानंद भी कहते थे, ‘संपूर्ण जगत कम्पन है, स्पन्दन है। इतना ही है कि मन तीव्र कम्पन है तथा स्थूल या जिसे जड़ कहा जाता है, वह मंद कम्पन है।‘ व्रह्माण्ड का सृजन और लोप कम्पन का ही परिणाम है। कम्पन समुद्र की लहरों के समान है। जैसे समुद्र की सतह के ऊपर हलचल रहती है पर नीचे का आधार शांत रहता है, उसी प्रकार जगत्‌ का मूलाधार व्रह्म है, कम्पन तो ऊपरी सतह पर है।
भगवान विष्णु, भगवान शंकर, भगवान राम, भगवान श्रीकृष्ण तथा अन्यान्य बड़े-छोटे किसी की भी उपासना शक्तिरहित रूप में हो ही नहीं सकती। जो शक्ति विष्णु को विष्णु, जो शक्ति शिव को शिव, जो शक्ति, राम को राम और जो शक्ति श्रीकृष्ण को श्रीकृष्ण बनाये हुए हैं, जिनके बिना उनकी स्वरूप-सत्ता ही नहीं रहती, उन शक्तियों के बिना जब वे शक्तिमान् रूप ही नहीं रहते, तब उनकी अकेले की-‘शक्तिरहित शक्तिमान्’ की उपासना कैसे हो सकती है। शक्ति न रहने पर तो उनका स्वरूप ही नहीं रहेगा। श्री (सीता) और श्रीमान (राम) अनन्य और अविभिन्न होने पर भी लीला करने के लिए ही दो भिन्न रूप में पृथक प्रतीत होते हैं। शक्तिमान में शक्ति दो रूपों में रहती है - ‘अमूर्त’ रूप में और ‘मूर्त’ रूप में। शक्तिमान में जो शक्ति की नित्य सत्ता है, वह अमूर्त है और जो स्वरूप से सर्वथा सर्वदा सब प्रकार से अभिन्न होते हुए उस दिव्य शक्ति-सत्ता की अधिष्ठात्री रूप में भिन्न रूप से प्रकट विविध विचित्र स्वरूपभूता लीलामयी-लीलाकारिणी है, वह मूर्त है। 
शिव और शक्ति के संयोग से ही तांडव और लास्य होता है और उन्हीं से यह सृष्टि निर्मित हुई है। जब शक्ति, शक्तिमान से मिलकर एक हो जाती है, तब ही पूर्णत्व होता है। शिव 'इकार' रहित होने पर शव हो जाते हैं। शक्ति का अस्तित्व भी शिव के बिना नहीं रह पाता। शक्ति और शिव मिलकर ही ब्रह्म और ब्रह्ममई कहलाते हैं। अत: ऐसी स्थिति में शक्ति, शक्तिमान से अभिन्न है। शक्ति परमात्मा की अस्पंदस्वरूपिणी स्थिति है, वही जब स्पंदस्वरूपिणी होती है, तब ही वह जगत् का आकार धारण करनेवाली विश्वरूपिणी बनती हैं।]
श्रीमाँ ने अपने मुख से कहा है -" मैं वही चिर पुरातन आद्याशक्ति जगदम्बा हूँ, जगत पर कृपा करने के लिए आविर्भूत हुई हूँ। युगों, युगों से आती रही हूँ, फिर से आऊंगी !" (শ্রীমা সারদামনিদেবী - २९४) [पारिवारिक व्यवहार या जन-साधारण के साथ बातचीत के क्रम में श्रीमाँ का यह आत्म-परिचय एकाएक प्रकट हो जाता था। जयरामबाटी में रात को नौ बजे एक पाचिका ब्राह्मणी (she cook) ने आकर कहा, "कुत्ते से छू गयी हूँ। " जाड़े का समय था। माँ ने कहा "इतनी रात को मत नहाओ, हाथ-पैर धोकर कपड़े बदल लो।" उसने कहा "इससे कैसे होगा ?" तब माँ ने कहा, "तो गंगाजल ही छिड़क लो। " इस पर भी उसका मन न माना, यह देखकर पवित्रता-स्वरूपिणी श्री माँ ने कहा, "तो मुझे स्पर्श कर लो।" तब पाचिका ब्राह्मणी की ऑंखें खुलीं। " (श्रीमाँ सारदा देवी -५२६)]      
काशी में लक्ष्मी-निकेतन (काशी)  में निवास करते समय (जिसे बागबजार के दत्त-परिवार वालों ने हाल में बनवाया था) ब्रह्मानन्दजी रोज सबेरे टहलने को जाते थे, तब लक्ष्मीनिवास (निकेतन) में जाकर गोलाप-माँ से श्रीमाँ का कुशल-समाचार पूछ लेते थे और बाद में बालक के समान कौतुक करते थे। इसी प्रकार एक दिन जब वे आंगन में आये, तब ऊपर के बरामदे से गोलाप माँ ने कहा - " राखाल, माँ पूछती हैं कि पहले शक्ति की पूजा क्यों की जाती है ?" (विवाह के समय?) महाराज ने इस पर उत्तर दिया - " क्योंकि माँ के पास ब्रह्मज्ञान की चाभी जो है! माँ यदि कृपापूर्वक चाभी से द्वार न खोल दें, तब तक और कोई उपाय नहीं रह जाता।" (श्रीमाँ सारदादेवी -हिन्दी -३३४ /শ্রীমা সারদা দেবী -৩৪৮)
एक बार एक भक्त को जप से भी शान्ति नहीं मिल रही थी। उसने सुना था कि यदि शिष्य मंत्र न जपे तो, गुरु को क्षति पहुँचती है। उसने श्रीमाँ को मंत्र लौटा देना चाहा। किन्तु उसकी चेतना लौट आयी तब- मैंने ऐसा सोंचा भी कैसे ?.. यह सोच कर वह बहुत डर गया, और उसके मुख से निकल पड़ा, -" माँ, तो क्या मैं रसातल (नर्क Abyss) में चला जाऊँगा ? " माँ ने तुरंत दृढ़तापूर्वक संतान को अभयवाणी सुनाई," क्या, मेरे बेटे होकर तुम रसातल जाओगे ! यहाँ (महामण्डल में) जो कोई आ गया है, जो मेरे बच्चे हैं, उनकी मुक्ति हो चुकी है। विधाता में भी शक्ति नहीं है कि वह मेरे बच्चों को रसातल भेजे ! मेरे ऊपर भार देकर तुम निश्चिन्त मन से रहो। और सदा याद रखो कि तुम लोगों के पीछे एक ऐसे पुरुष हैं, जो समय आने पर तुम लोगों को उस नित्यधाम में ले जायेंगे। " (ज्ञानदायिनी 'वही'-४९२ /श्रीमाँ ने कहा था,"बेटा, गुरुगृह में जप नहीं करना चाहिये। श्रीरामकृष्ण ने गिरीश बाबू को सब अनुष्ठानों को छोड़कर आममुख्तारनामा (बकलमा) देने को कहा था। और ईसामसीह का कहना था कि जिस प्रकार बराती दूल्हे के साथ आनन्द मनाकर दिन बिताते हैं, उसी प्रकार ईसामसीह (नवनीदा) के सहगामी लोग भी वैधी-भक्ति के ऊपर अधिक जोर न देकर यदि उन्हें ही अपना समझ सकें, तो उस प्रेम के बल पर ही वे मुक्तिलाभ करेंगे। "  শ্রীমা সারদা দেবী -৫১৪)
८. या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता :
प्राणियों में जल पीने की इच्छा या विषयवासना को तृष्णा कहते हैं। जल का ही एक और नाम प्राण है। जल पीने से प्राण शीतल होते हैं। शास्त्रों में है,'आपोमयः प्राणः' (छा. उ. ६ । ५ । ४) माँ जगदम्बा केवल जल पीने की इच्छा रूपी तृष्णा ही नहीं हैं, वे जीवों के हृदय में अतृप्त वासना के रूप में विराज करती हैं। इच्छा समाप्त हो जाने से मनुष्य का जीवन प्रवाह भी नहीं रह सकता। इच्छायें दो प्रकार की होती हैं- शुभ और अशुभ। मनुष्य के मन में अशुभ इच्छाओं को उत्पन्न कर माँ उसे संसार-बंधन में बांध देती हैं, फिर शुभ वासना (सत्य को जानने की तीव्र इच्छा) देकर उसे मुक्त कर देती हैं। 
श्रीमाँ सारदा देवी के जीवनी-लेखक (biographer-स्वामी गम्भीरानन्द जी) लिखते हैं - " बालविधवा शवासना देवी को निर्जला एकादशी करते देख श्रीमाँ ने कहा था," आत्मा को कष्ट देकर क्या होगा ? मैं कहती हूँ, तू जल पी ले। " (श्रीमाँ सारदा देवी -५७०) जब सुरबाला देवी ने पतिवियोग के बाद शेष जीवन केवल हविष्यान्न खाकर बिता देने का प्रस्ताव रखा तब माँ ने कहा था - "आत्मा यदि किछू खेते चाय, आत्मा के दिते हय। ना दिले अपराध हय; से कांदे, आमाके दिले ना बले।' अर्थात आत्मा यदि कुछ खाना चाहे, तो उसे देना पड़ता है। नहीं देने से अपराध होता है; वह रोती है और कहती है -'मुझे दिया नहीं।' " (श्रीमाँ -५७०) 
[ बालविधवा क्षीरोदबाला देवी से श्रीमाँ के पास दीक्षा के लिये गयीं, तो माँ ने पूछा, " बेटी, तुम एकादशी के दिन क्या खाती हो ?" .... उनके उत्तर को सुनकर माँ ने कहा -" बेटी, तुमने बहुत कठोरता की है; मैं कहती हूँ अब मत करना। शरीर को एकदम लकड़ी बना डाला है। अगर शरीर ही नहीं रहेगा -या दुर्बल हो जायेगा, तो भजन किसके सहारे करोगी, बेटी!" ईश्वर-प्राप्ति के लिए भी देह-रक्षा पहले आवश्यक है।पेज ५६९/इच्छा-निर्णय-निश्चय का अन्तर समझें ?
श्रीमाँ सारदा देवी अधिकारी-भेद (प्रवृत्ति-निवृत्ति की पात्रता) देखकर ही वैराग्य का उपदेश देती थीं। विवाह करने या न करने के संबन्ध में अधिकारी समझ कर वे विभिन्न स्थलों में विभिन्न प्रकार के उपदेश देतीं। किसी को बोलती थीं 'निर्वासना' -या इच्छा रहित होने की प्रार्थना करो। फिर अपनी दिव्यदृष्टि से किसी जिज्ञासु (विवाह करने की इच्छा का त्याग करने को संकल्पित और निवृत्ति मार्ग पर चलने की पात्रता रखने वाले समर्थ) युवाओं से के भविष्य को देखकर कहतीं थीं -" संसारिदेर कोतो कष्ट। तोमरा हाँप छेड़े घूमिये बाँचबे। " -अर्थात ' देखो न, संसारियों को (जिन लोगों ने 'कर्मयोग' को या प्रवृत्ति-से निवृत्ति में आने के मार्ग को समझे बिना विवाह कर लिया है, उन्हें) कितना कष्ट है ! तुम लोग चैन की साँस लेकर सोओगे। " एक बार किसी भक्त ने शायद कह दिया," माँ, मैं विवाह नहीं करूँगा। "  तुरंत अन्तर्यामी श्रीमाँ ने हँसते हुए कहा - " क्यों ? संसार में सभी दो-दो हैं। देखो न, दो आँखे, दो कान, दो हाथ,दो पैर; -वैसे ही पुरुष और प्रकृति।" (संघमाता ४१९)  
[ जन्मजात त्यागी भावी नेता और 'जन्मजात गृही वुड बी लीडर्स' का जीवन के प्रति दृष्टिकोण एक जैसा नहीं सकता इस बात को माँ अच्छी तरह से जानती थीं। किन्तु श्रीमाँ का मनोभाव सबकी समझ में नहीं आता था; एक दिन नवासन की बहू ने शिकायत की स्वर में पूछा, " माँ, आपके लिये तो सभी बच्चे बराबर हैं। पर विवाह करने वालों को आप इसकी अनुमति देतीं हैं; फिर संसार त्याग करने वालों को त्याग की प्रशंसा करते हुए उपदेश देती हैं। यह कैसी बात ? आपको तो चाहिए कि (प्रवृत्ति और निवृत्ति में से) जो उत्तम पथ हो उसी पर सबको ले जायें। माँ ने कहा -" जिसकी भोग-वासना प्रबल है, मेरे रोकने पर क्या वह मानेगा ? और जिसने सुकर्म के प्रभाव से माया के इस खेल को समझ लिया है और ईश्वर को ही सार वस्तु मानता है, उसकी क्या थोड़ी सहायता न करूँ ?" वही -४२०] ...... शेष अगले ब्लॉक में .....    
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