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रविवार, 31 अगस्त 2025

⚜️️रहे बिरंचि संभु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी॥⚜️️घटना - 340⚜️️रावण के साथ विभीषण और हनुमान के युद्ध का वर्णन ⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #340 || ⚜️️⚜️️ https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_16.html⚜️️

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 340: दोहा -94,95] 


रावण के साथ विभीषण और हनुमान के युद्ध का वर्णन 

        श्रीराम की सेना के चुने हुए योद्धा बारी बारी से रावण से युद्ध कर रहे हैं। प्रस्तुत प्रसंग में रावण के साथ विभीषण और हनुमान के युद्ध का वर्णन है। रावण को विभीषण पर शक्तिवाण छोड़ते हुए देख , श्रीराम ने उन्हें पीछे हटाकर उसे अपनी छाती पर ले लिया। क्षणभर को उन्हें मूर्छित होता देख , विभीषण ने दुगने क्रोध के साथ रावण को गदा प्रहार से रावण को पृथ्वी पर गिरा दिया। उसके दसों मुखों से रक्त प्रवाहित होने लगा। दोनों भाई फिर मल्ल्युद्ध में भीड़ गए। विभीषण को थकते देख कर हनुमान बीच में आ कूदे , उन्होंने रावण के रथ , घोड़ों तथा सारथि सबका संहार कर दिया। लेकिन मायावी रावण ने तब अन्य युक्ति अपनाई , दोनों वीर पृथ्वी से आकाश तक एक दूसरे से गूँथ गए -... 

चौपाई :

* आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥

तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥1॥

भावार्थ:- अत्यंत भयानक शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है, श्री रामजी ने तुरंत ही विभीषण को पीछे कर लिया और सामने होकर वह शक्ति स्वयं सह ली॥1॥

* लागि सक्ति मुरुछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥

देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो॥2॥

भावार्थ:-शक्ति लगने से उन्हें कुछ मूर्छा हो गई। प्रभु ने तो यह लीला की, पर देवताओं को व्याकुलता हुई। प्रभु को श्रम (शारीरिक कष्ट) प्राप्त हुआ देखकर विभीषण क्रोधित हो हाथ में गदा लेकर दौड़े॥2॥

* रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे॥

सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए। एक एक के कोटिन्ह पाए॥3॥

भावार्थ:-(और बोले-) अरे अभागे! मूर्ख, नीच दुर्बुद्धि! तूने देवता, मनुष्य, मुनि, नाग सभी से विरोध किया। तूने आदर सहित शिवजी को सिर चढ़ाए। इसी से एक-एक के बदले में करोड़ों पाए॥3॥

* तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो॥

राम बिमुख सठ चहसि संपदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा॥4॥

भावार्थ:-उसी कारण से अरे दुष्ट! तू अब तक बचा है, (किन्तु) अब काल तेरे सिर पर नाच रहा है। अरे मूर्ख! तू राम विमुख होकर सम्पत्ति (सुख) चाहता है? ऐसा कहकर विभीषण ने रावण की छाती के बीचों-बीच गदा मारी॥4॥

छंद :

* उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर्‌यो।

दस बदन सोनित स्रवत पुनि संभारि धायो रिस भर्‌यो॥

द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै।

रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै॥

भावार्थ:-बीच छाती में कठोर गदा की घोर और कठिन चोट लगते ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके दसों मुखों से रुधिर बहने लगा, वह अपने को फिर संभालकर क्रोध में भरा हुआ दौड़ा। दोनों अत्यंत बलवान्‌ योद्धा भिड़ गए और मल्लयुद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध होकर मारने लगे। श्री रघुवीर के बल से गर्वित विभीषण उसको (रावण जैसे जगद्विजयी योद्धा को) पासंग के बराबर भी नहीं समझते।

दोहा :

* उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ।

सो अब भिरत काल ज्यों श्री रघुबीर प्रभाउ॥94॥

भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! विभीषण क्या कभी रावण के सामने आँख उठाकर भी देख सकता था? परन्तु अब वही काल के समान उससे भिड़ रहा है। यह श्री रघुवीर का ही प्रभाव है॥94॥

चौपाई :

* देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥

रथ तुरंग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता॥1॥

भावार्थ:- विभीषण को बहुत ही थका हुआ देखकर हनुमान्‌जी पर्वत धारण किए हुए दौड़े। उन्होंने उस पर्वत से रावण के रथ, घोड़े और सारथी का संहार कर डाला और उसके सीने पर लात मारी॥1॥

* ठाढ़ रहा अति कंपित गाता। गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता॥

पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी॥2॥

भावार्थ:- रावण खड़ा रहा, पर उसका शरीर अत्यंत काँपने लगा। विभीषण वहाँ गए, जहाँ सेवकों के रक्षक श्री रामजी थे। फिर रावण ने ललकारकर हनुमान्‌जी को मारा। वे पूँछ फैलाकर आकाश में चले गए॥2॥

* गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥

लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा॥3॥

भावार्थ:-रावण ने पूँछ पकड़ ली, हनुमान्‌जी उसको साथ लिए ऊपर उड़े। फिर लौटकर महाबलवान्‌ हनुमान्‌जी उससे भिड़ गए। दोनों समान योद्धा आकाश में लड़ते हुए एक-दूसरे को क्रोध करके मारने लगे॥3॥

* सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जलगिरि सुमेरु जनु लरहीं॥

बुधि बल निसिचर परइ न पारयो। तब मारुतसुत प्रभु संभार्‌यो॥4॥

भावार्थ:-दोनों बहुत से छल-बल करते हुए आकाश में ऐसे शोभित हो रहे हैं मानो कज्जलगिरि और सुमेरु पर्वत लड़ रहे हों। जब बुद्धि और बल से राक्षस गिराए न गिरा तब मारुति श्री हनुमान्‌जी ने प्रभु को स्मरण किया॥4॥

छंद :

* संभारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो।

महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो॥

हनुमंत संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले।

रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचण्ड भुज बल दलमले॥

भावार्थ:-श्री रघुवीर का स्मरण करके धीर हनुमान्‌जी ने ललकारकर रावण को मारा। वे दोनों पृथ्वी पर गिरते और फिर उठकर लड़ते हैं, देवताओं ने दोनों की 'जय-जय' पुकारी। हनुमान्‌जी पर संकट देखकर वानर-भालू क्रोधातुर होकर दौड़े, किन्तु रण-मद-माते रावण ने सब योद्धाओं को अपनी प्रचण्ड भुजाओं के बल से कुचल और मसल डाला।

दोहा :

* तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचंड।

कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषंड॥95॥

भावार्थ:-तब श्री रघुवीर के ललकारने पर प्रचण्ड वीर वानर दौड़े। वानरों के प्रबल दल को देखकर रावण ने माया प्रकट की॥95॥

चौपाई :

* अंतरधान भयउ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥

रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते॥1॥

भावार्थ:- क्षणभर के लिए वह अदृश्य हो गया। फिर उस दुष्ट ने अनेकों रूप प्रकट किए। श्री रघुनाथजी की सेना में जितने रीछ-वानर थे, उतने ही रावण जहाँ-तहाँ (चारों ओर) प्रकट हो गए॥1॥

* देखे कपिन्ह अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा॥

भागे बानर धरहिं न धीरा। त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा॥2॥

भावार्थ:-वानरों ने अपरिमित रावण देखे। भालू और वानर सब जहाँ-तहाँ (इधर-उधर) भाग चले। वानर धीरज नहीं धरते। हे लक्ष्मणजी! हे रघुवीर! बचाइए, बचाइए, यों पुकारते हुए वे भागे जा रहे हैं॥2॥

* दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन॥

डरे सकल सुर चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई॥3॥

भावार्थ:-दसों दिशाओं में करोड़ों रावण दौड़ते हैं और घोर, कठोर भयानक गर्जन कर रहे हैं। सब देवता डर गए और ऐसा कहते हुए भाग चले कि हे भाई! अब जय की आशा छोड़ दो!॥3॥

* सब सुर जिते एक दसकंधर। अब बहु भए तकहु गिरि कंदर॥

रहे बिरंचि संभु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी॥4॥

भावार्थ:-एक ही रावण ने सब देवताओं को जीत लिया था, अब तो बहुत से रावण हो गए हैं। इससे अब पहाड़ की गुफाओं का आश्रय लो (अर्थात्‌ उनमें छिप रहो)। वहाँ ब्रह्मा, शम्भु और ज्ञानी मुनि ही डटे रहे, जिन्होंने प्रभु की कुछ महिमा जानी थी॥4॥

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🔱🔱आसक्ति और प्रेम का विवेक: सत्यार्थी कभी शरीर-पोषणार्थी नहीं होगा ! 🔱🔱Session 15 || The Essence of Vivekachudamani | 🔱🔱https://www.sadhanapath.in/2025/08/86.html🔱🔱https://sreegurukrupa.blogspot.com/2020/10/viveka-chudamani-shlokas-81-to-90.html 🔱🔱

 परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,

 निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।

यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,

 तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥

(वेदसार शिवस्तव स्तोत्र) 

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ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥

ॐ शांति, शांति, शांतिः  

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   पिछले सत्र में हमने देखा था कि प्रेम और आसक्ति के बीच क्या अन्तर है ? प्रेम और आसक्ति का विवेक कैसे करें ? समाज में सभी लोग/अधिकांश लोग  आसक्ति को ही प्रेम समझ रहे हैं। जैसे मगरमच्छ को हम लट्ठा समझ लेते हैं। आसक्ति का अंत दुःख और पीड़ा में ही होगा। ये सब ऋषियों की स्पष्ट दृष्टि है। प्रेम की उत्पत्ति -(देह रूपीबुलबुला से नहीं)  समुद्र रूपी सच्चिदानन्द ब्रह्म दृष्टि से ही होती है। जो ब्रह्मदृष्टि में प्रतिष्ठित है , जिसका शरीर या बुलबुले के साथ कोई लेना-देना नहीं है , उस आत्मदृष्टि या ब्रह्मदृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि से) ही प्रेम उत्पन्न होता है। बुलबुला रूपी दृष्टि से सिर्फ आसक्ति - स्वयं को M/F शरीर समझने से सिर्फ आसक्ति ही उतपन्न होता है। एक शरीर दूसरे शरीर के प्रति आकृष्ट हो रहा है , यह प्रेम सा लग रहा है ; और समाज में/ सिनेमा में लोग इसीको प्रेम कहते हैं। यह प्रेम है ही नहीं , यह मोह है , यह राग है , यह आसक्ति है। ये प्रेम के समान दीखता है , लेकिन प्रेम नहीं है। प्रेम में शारीरिक आकर्षण- लैंगिक आकर्षण के लिए कोई स्थान ही नहीं है। लैङ्गिक आकर्षण को प्रेम नहीं है, प्रेम तो सच्चिदानन्द ब्रह्म से उत्पन्न होती है। जिस व्यक्ति की दृष्टि में सारे बुलबुले एक समान हैं - भीतर झाँकने पर जहाँ स्त्री-पुरुष सब समान दीखते हैं , उसकी भावनायें - feeling or concern, दो-चार व्यक्तियों तक सीमित नहीं हैं। उसके लिए कोई पराया नहीं है , वह सभी को अपना समझता है। प्रेम में सीमा नहीं होती। जो प्रेम केवल कुछ लोगों के प्रति होती है - वो प्रेम नहीं होती -आसक्ति है। हमारे भावी जीवन के लिए प्रेम और आसक्ति में विवेक होना- दोनों को स्पष्ट रूप से समझ लेना बहुत आवश्यक है। इसी विषय को लेकर हमलोग अक्सर जीवन में धोखा खा जाते हैं। हर विषय में (पाँचो में)  हम धोखा खा रहे हैं , और दुःख पा रहे हैं। इसलिए विवेक क्या है ? चूड़ामणि है ! कोई शंका ? विवेक ही मुकुट मणि है , प्रकाश के समान है , ये जब आ जाती है , फिर आप हर चीज को वो जैसा है , वैसा देखना शुरू करते हो , फिर आपको किसीके गाइडेंस की जरूरत नहीं पड़ेगी। बिना गड्ढे में गिरे जीवन नौका को आगे ले जा सकते हो। यही आत्मविश्वास के साथ जीवन जीने की कला है , या पूरे आत्मविश्वास खेल के मैदान में उतरने का कौशल है। सत्य क्या है और सत्य सा प्रतीत क्या हो रहा है ? प्रेम क्या है -और क्या प्रेम सा प्रतीत हो रहा है ? शारीरिक आसक्ति यहाँ प्रेम सा प्रतीत हो रहा है , पर वो लैङ्गिक आकर्षण है। ये स्पष्टता जब आएगी , तब आपका व्यक्तित्व बदल जायेगा। अद्भुत बदलाव होता है -उसके लिए सब समान हो जाते हैं। (6.36) पिछले सत्र में हमने यहाँ तक देखा - अब श्लोक 84 को विस्तार में देखते हैं - 

मोक्षस्य काङ्क्षा यदि वै तवास्ति,

  त्यजातिदूराद्विषयान् विषं यथा।

पीयूषवत्तोषदयाक्षमार्जव-

प्रशान्तिदान्तीर्भज नित्यमादरात् ॥ ८४ ॥

[ मोक्षस्य कांक्षा यदि वै तव अस्ति,/ त्यज अतिदूरात्  विषयान् विषं यथ‍ा/ पीयूषवत् तोष,दया, क्षमार्जव-प्रशान्ति, दान्ती: भज नित्यम् आदरात्। ] 

अर्थ:-यदि तुझे मोक्ष की इच्छा है तो विषयों को विषके समान दूर ही से त्याग दे। और सन्तोष, दया, क्षमा, सरलता, शम और दम का अमृत के समान नित्य-सबसमय, आदरात्- जोश के साथ सेवन करो।

'यदि' तुम इन सारे बंधनों से मुक्त होना चाहते हो , यहाँ 'अगर' -यदि शब्द बहुत महत्वपूर्ण है - यदि तुम बन्धनों से मुक्त होना चाहते हो ? क्योंकि बहुत से लोग तो विषयों की आसक्ति से मुक्त होना ही नहीं चाहते ? समाज में आपको क्या दीखता है ? हर बुलबुला अपने नजदीकी 4-5 बुलबुलों में डूबा हुआ है। अभी उनको उन बाहर निकलने की इच्छा अभी आयी नहीं है। लेकिन अगर आपके अंदर आ चुकी है , मोक्षस्य कांक्षा यदि वै तव अस्ति ? तो आपको ये करना होगा। दूसरे क्या करते हैं - वो अभी इसके लिए तैयार नहीं हैं। एक बुलबुला दूसरे बुलबुले में राग रूपी अदृश्य रस्सी के द्वारा हर बुलबुला दूसरे बुलबुलों से बंधे हुए हैं। एक बुलबुला दूसरे बुलबुले के साथ आसक्ति रूपी अदृश्य रस्सी में एकदम जकड़े हुए हैं -सर्वसधारण मनुष्य उससे बाहर निकलना ही नहीं चाहता। पग पग पर चोट खाता रहता है , फिरभी उसकी ऑंखें नहीं खुलती ? श्रीरामकृष्ण उदाहरण में कहते थे - रेगिस्तान में ऊँट नागफनी (बबूल) की कटीली झाड़ियों को खाता रहता है , मुहँ से खून गिरता है , फिर भी खाना नहीं छोड़ता। श्री रामकृष्ण कहते थे - संसार में डूबे लोग - कामिनी -कांचन में, एक बुलबुला जो दूसरे बुलबुले में डूबा हुआ है -उसकी भी यही दशा है। पीड़ा हो रही है , पर उसमें से बाहर होने इच्छा उसमें नहींहै। (10.29) दुःख हुआ तो सिनेमा देख लेते हैं। ये शुतुरमुर्ग वाली दशा है। यदि इस दशा से आपको बाहर निकलना हो तो आपको क्या करना है ?  -त्यज अतिदूरात्  विषयान् विषं यथ‍ा !// पहले बता दिया गया कि सारे विषय - दूर सी मारने वाले विष के समान हैं। दूसरे बुलबुलों से चिपकना नहीं।ऋषि लोग कहते हैं -हमने विषयों को नहीं भोगा भोगों ने हमें भोग लिया - 

"भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः"

तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा: ।।"

अर्थात, हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगो ने हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गए हैं; काल समाप्त नहीं हुआ, हम ही समाप्त हो गए हैं; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं। ये जान करके कि सभी विषय विष समान हैं - तो विवेक पूर्वक बुलबुलों से 8 हाथ दूर रहो , इनसे चिपको मत। यदि थोड़ा भी राग पूर्वक स्पर्श किया - तो तुमको डूबा देंगे। तो जो पाँचों विषय विष के समान हैं - इनको दूर से ही छोड़ दो। और कुछ गुण ऐसे हैं जो अमृत जैसे हैं - उनको उपार्जित करो।  यहाँ उनमें से कुछ गुणों का संकेत दे रहे हैं पीयूषवत् तोष,दया, क्षमा, आर्जव, प्रशान्ति और दान्ती; पहले तो दूसरे बुलबुलों में विषय की आसक्ति से दूर रहें - और इन गुणों को वर्धित करें। 

      अमृत तुल्य गुण हैं - सन्तोष , ये तब आएगा जब बुलबुला अपने समुद्र रूपी सत्य रूप को जान लेगा , तब वो संतुष्ट हो जायेगा। कई ऐसे गृहस्थ दम्पत्तियों को मैं जानता हूँ जो एक दम संतुष्ट सरल जीवन जीते हैं। उनको पूछिए कुछ चाहिए ? कुछ नहीं चाहिए। और कुछ लोग आर्थिक दृष्टि से सब कुछ होते हुए भी हमेशा असंतुष्ट बने रहते हैं। जो बुलबुला दूसरे बुलबुलों पर निर्भर है , वो कभी संतुष्ट नहीं होगा। श्रीरामकृष्ण हर समय सन्तुष्ट रहते थे , क्यों ? वे हर समय समुद्र के साथ एकरूप रहते थे। वो किसी भी बुलबुले से चिपकते नहीं थे। सन्तोष धन सबसे बड़ी सम्पत्ति है -

गोधन गजधन बाजिधन, और रतनधन खान।

जब आवत संतोष धन, सब धन धूरि समान॥​

दूसरा गुण है दया , इसका उल्टा है -क्रूरता। जो राग रूपी रस्सी एक बुलबुले को दूसरे बुलबुले से बाँध देता है , उसी राग रूपी सिक्के का दूसरा पहलू है द्वेष। (22.40) राग (Attachment) ही द्वेष (hatred) का रूप ले लेता है। जिस व्यक्ति के प्रति मेरा राग था -कुछ दिनों के बाद उसी व्यक्ति के प्रति मुझे द्वेष हो जाता है। छः महीने बाद ही विवाह टूट रहा है। सिर्फ शारीरिक आकर्षण के आधार पर जो संबंध बनते हैं , वे द्वेष में परिणत हो जाते हैं। जब आपको किसी के प्रति द्वेष होगा तो आप क्रूर भी हो जाओगे। इसीलिए अपराध बढ़ रहे हैं। दया के गुण को कैसे वर्धित किया जायेगा ? जब प्रेम होगा तो दया भी आएगी। जब आपके लिए कोई पराया नहीं होगा , सभी को समान रूप से देखोगे , तो सभी पर सिर्फ दया ही होगी, क्रूरता आ ही नहीं सकती । तीसरा अमृतमय गुण है - क्षमा ! इसको सहनशीलता भी कह सकते है -सभी को क्षमा कर देना। किसी को माफ़ नहीं करना - क्षमा नहीं करना , विष जैसा जहरीला स्वभाव है। जो कीसी को माफ़ नहीं करता , नुकसान उसीका होता है। उसीका मन जलता रहेगा। यदि हम किसी को बड़ी से बड़ी गलती पर भी क्षमा नहीं करेंगे तो, कभी भी अपने सत्यस्वरुप में स्थित नहीं हो पाएंगे। हाँ कामड़ाबी ना फोंस कोरबी - उसके प्रति सावधान रहना होगा। क्षमा कर दीजियेगा तो आप शांत रह पाइयेगा , जप-ध्यान कर पाइयेगा। मन में गुस्सा पकड़कर बैठे रहोगे , इसने मेरे साथ वैसा किया ? मैं छोड़ूँगा नहीं इसको ! इन्हीं भावनाओं में हम जलते रहते हैं , उसको माफ़ करो या मत करो , लेकिन आप फँसे हुए हो। आप कभी भी सत्य में प्रतिष्ठित नहीं रह पाओगे , आप जलते रहोगे। अमृतमय ऐसा गुण है क्षमा। आर्जव -सरलता , समझने के लिए श्रीरामकृष्ण जैसे महापुरुष को देखें। किसी व्यक्ति ने उनको माली समझा, पर उन्होंने  कुछ बुरा नहीं माना। हमलोग स्मार्ट दिखने की कोशिश करते हैं , हमारा लक्ष्य स्मार्ट (चालाक) बनना नहीं है - सरल बनना है। मन-मुख को एक रखना सरलता है। महात्मा लोग मनसा वाचा कर्मणा -तीनों में ही शुद्ध और पवित्र होते हैं। उनके व्यवहार में कोई दिखावा नहीं , कोई दोगलापन नहीं होता। आजकल के मातापिता अपने बच्चे को स्मार्ट बनने सिखाते हैं , माने किसी न किसी भी तरिके अपना जो काम निकलवा ले -उसको स्मार्ट समझते हैं। लेकिन जो विवेकी होता है उसको प्रैक्टिकल नहीं है - आदर्शवादी है -ऐसा कहकर उसको निम्न कोटि का मनुष्य समझते हैं। अभी हमलोगों का फोन , tv , सब स्मार्ट है , बच्चों को भी हम सरल नहीं स्मार्ट बनाना चाहते हैं। चालाकी से आप संसार की कोई चीज प्राप्त कर लोगे , लेकिन उसीमें फँसते भी चले जाओगे। आप सत्य का अविष्कार नहीं कर पाओगे, सत्य को जानना है -तो आपको सरल होना होगा।   

             मनस्य एकं वचस्य एकं कर्मण्य एकं महात्मनाम्। 

             मनस्य अन्यत वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम्।। 

महात्मा लोग - महांपुरुष अथवा महान व्यक्ति मन वचन और कर्म से एक होते हैं। महान व्यक्तियों के मन में भी पवित्र विचार होते हैं -वो वही बोलते हैं - उनके वचन सुंदर, शुद्ध और प्रेरणादायक होते हैं। और वो वैसे ही कर्म करते हैं - उनके कर्म भी सुंदर और पवित्र होते हैं जो किसी के दुःख का कारण नहीं बनते। लेकिन इस के विपरीत - दुरात्मा अर्थात बुरे एवं स्वार्थ भाव रखने वाले लोगों के मन में कुछ और होता है और वचन एवं कर्म में कुछ और। उसके बाद अमृतमय दो गुण हैं - प्रशान्ति और दान्ती ; प्रशान्ति का अर्थ है 'शम' और दान्ती का मतलब है - 'दम' ! (31.40) फिर शंकराचार्यजी कह रहे हैं -  'भज' नित्यम् आदरात्। भज -माने अपने व्यक्तित्व में इन गुणों को अर्जित करो -अर्थात इन सब अमृतमय गुणों को अपने चरित्र में वर्धित करो। नित्यम् माने सब समय, आदरात् - माने पूरे जोश के साथ इन अमृतवत गुणों को वर्धित करो। 

इस श्लोक में-  मोक्षस्य कांक्षा यदि वै तव अस्ति,/ त्यज अतिदूरात्  विषयान् विषं यथ‍ा/ पीयूषवत् तोष,दया, क्षमार्जव-प्रशान्ति, दान्ती: भज नित्यम् आदरात् शंकराचार्यजी कह रहे हैं , अगर तुम इन बंधनों से - आसक्ति रूपी अदृश्य रस्सी के बंधन से मुक्त होना चाहते हो , तो पहला चरण है - इन 5 विष-तुल्य विषयों से, बुलबुलों से  चिपको मत ! और दूसरा चरण है - जितने कुछ 24 गुण हैं या - सन्तोष, दया, क्षमा, आर्जव (सरलता) , प्रशान्ति (शम)  और दान्ती (दम) आदि चरित्र के अमृततुल्य सद्गुण हैं उनको, अपने जीवन में , अपने चरित्र में जोश के साथ वर्धित करो।इसी सुंदर व्यक्तित्व से हम मोक्ष प्राप्ति की ओर बढ़ते हैं।  

      (31 st अगस्त, 2025 : सद्गुरु राधा तव शरणं/राधा अष्टमी (Radha Ashtami 2025) का पर्व भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन सद्गुरु राधा रानी की पूजा करने से श्रीकृष्ण का आशीर्वाद मिलता है। इस साल राधा अष्टमी 31 अगस्त यानी आज के दिन मनाई जा रही है।) 

         तो आसक्ति और प्रेम का अन्तर समझने से पहले - ये सारा अध्यन शुरू हुआ था - अनात्मा क्या है ? और अनात्मा का विचार करते समय पहले हमने स्थूल शरीर को लिया; इस प्रश्न का उत्तर है - हमारा स्थूल शरीर ही सबसे बड़ा अनात्मा है। (33.29) क्योंकि यह स्थूल शरीर ही तो हमारे 'मैं और मेरा' का आस्पद है। जिसमें सभी समाज मोहित है - मैं ये बुलबुला हूँ - M/F शरीर हूँ - इसको हमने एकदम सत्य समझ लिया हैमैं एक बुलबुला या बुलबुली हूँ ! ?? यही समझकर समझकर हम राग वश हम दूसरे बुलबुलों से मोहित हो जाते हैं, रागवश हम बंध जाते हैं। सारा अध्यन स्थूल शरीर को ही लेकर चल रहा है। एक बुलबुला दूसरे से चिपक जाता है , तब बंध जाता है - जो नहीं चिपकता वो मुक्त (मोदी) हो जाता है ! इसी बात को आगे बढ़ाते हुए शंकराचार्य जी 86 वें श्लोक में कह रहे हैं -  

शरीरपोषणार्थी सन्, य आत्मानं दिदृक्षति ।

ग्राहं दारुधिया धृत्वा, नदीं तर्तुं स इच्छति ॥ ८६ ॥

[शरीरपोषणार्थी सन् य: आत्मानं दिदृक्षते स: ग्राहं दारुधिया (इति) धृत्वा नदीं तर्तुं इच्छति ।शरीरपोषणार्थी - शरीरस्य पोषणं अर्थयितुं शीलं अस्य इति/आत्मानं - स्वस्वरूपम् /दिदृक्षते - दृष्टुमिच्छति/ ग्राहं - ग्राहम्/दारुधिया - दारुधिया/धृत्वा - धृत्वा। नदीं - नदीम्/तर्तुं - तरणम् कर्तुम्/ स: - स:/ इच्छति - इच्छति

अर्थ:- जिसका चरित्र स्वयं को केवल शरीर समझकर उसीके पोषण में लगा रहकर आत्मतत्त्व को देखना चाहता है, वह मानो काष्ठ-बुद्धि से ग्राह को पकड़ कर नदी पार करना चाहता है।

          ये हमारे साथ कदम पर हो रहा है , और हमें इसके चलते कष्ट हो रहा है।  इससे बचना है तो हमें चाहिए विवेक ! हम मगरमच्छ को लट्ठा समझकर नदी पर करना चाहते हैं। इसके लिए चाहिए विवेक - मगरमच्छ को ही लट्ठा न समझे। आसक्ति को प्रेम न समझें। मूर्खता को समझदारी नहीं  समझेंतो देखिये शास्त्र और गुरु (सद्गुरु राधा) कैसे हमारी ऑंखें खोल रहे हैं। जब हमारे मन -बुद्धि में आत्मा-अनात्मा का विवेक एकदम स्पष्ट रहने लगेगा तो हम स्वयं अपनी समस्याओं का हल ढूँढ लेंगे। 

         शंकराचार्य जी कह रहे हैं , भाई एकतरफ तो आप शरीर पोषणार्थी हो ? माने - हम सब  दिनभर अपने को शरीर ही 'मैं ' (M/F) मान रहे हैं। हम सब अज्ञान में ऐसे ही हैं - जब तक विवेक नहीं जगता हम अपने को बुलबुला या बुलबुली ही समझ रहे हैं। अज्ञान में हम तो शरीर को ही 'मैं' मानकर चल रहे हैं। शरीर पोषणार्थी माने उस बुलबुला या बुलबुली भाव को पोषित करने में (खाद डालने ?) लगे हुए हैं। आपकी सारी ऊर्जा इस बुलबुले को पोषित करने में ही खर्च हो रही है। We are completely engaged in just nourishing the bubbleतो इसका परिणाम क्या होगा ? (36.44) आप इस शरीर को कितना भी पोषित कीजिये - ये बुलबुला तो टूटने ही वाला है। एक तरफ तो हम इस शरीर को पोषित करते जा रहे हैं , इसी को 'मैं ' समझ रहे हैं ? और साथ ही साथ आप आत्मा का भी दर्शन करना चाहते हो -आत्मानं दिदृक्षति ? का मतलब आप स्वयं को मिथ्या M/F शरीर समझते हुए - इस शरीर के विपरीत लिंग के  आकर्षण में आसक्त रहते हुए , आप आत्मानं दिदृक्षति ? मतलब आप सत्य को जानना चाह रहे हो ? पहली शर्त - यदि आप शरीर-पोषणार्थी हो तो आप- एथेंस का सत्यार्थी नहीं हो सकते और अगर आप सचमुच सत्यान्वेषी हो, सत्यार्थी हो तो शरीर पोषणार्थी नहीं हो सकते। और अगर आप शरीर के पोषण में ही लगे हो , तो सत्य का अविष्कार 57 साल का बूढ़ा हो जाने के बाद क्या - कभी नहीं होगा -75 का बूढ़ा हो जाने के बाद भी नहीं होगा। क्योंकि हर उम्र के बुलबुला -बुलबुली घूम रहे हैं।  क्योंकि शरीर-पोषणार्थी होना और सत्यार्थी होना दोनों परस्पर विरोधी चीजें हैं। Being a seeker of body and being a seeker of truth are two contradictory things ! मैं दुबारा कहता हूँ - अगर आप सत्यान्वेषी हो ? सत्यार्थी हो ? नरेन्द्रनाथ की तरह आप भी अगर ईश्वर को देखना चाहते हो ?  तो आप शरीर पोषण में नहीं लगे रह सकते ! और अगर आप शरीर पोषणार्थी हो तो , कभी सत्य में प्रतिष्ठित नहीं रह सकोगे। ये दोनों बिल्कुल दो विपरीत चीजें हैं। क्योंकि जो केवल शरीर-की भोग इच्छाओं को पूर्ण करने में ही लगा रहता है , वो उस व्यक्ति के समान है , जो मगरमच्छ को ही लट्ठा समझकर उसको आलिंगन करके बैठा हुआ है। वो क्या कभी नदी पार कर पायेगा ? जो शरीर के पोषण में लगा हुआ है , इन्द्रिय-भोगों में लगा हुआ है, और वह आत्मा का दर्शन करके जीवन में सुखी होना भी चाहता है ? तो गणित के हिसाब से फल क्या निकलेगा ? आप बुलबुला से चिपके हुए हो और आत्मा का दर्शन भी कर लेना चाहते हो ? सभी दुःखों से मुक्त भी होना चाहते हो ? तो आपकी यह आशा भी उसी प्रकार की आशा है , जैसे कि आप मगरमच्छ को लट्ठा समझकर , उसके पीठ पर बैठ जाते हो , और नदी पर करने की आशा करते हो ? So is this hope of yours the same kind of hope in which you consider a crocodile to be a log, sit on its back, and hope to cross the river? ये कभी सम्भव है ? क्या मगरमच्छ को लकड़ी का बोटा समझकर उसपर बैठकर नदी पार किया जा सकता है ? उसी प्रकार तुम दिन-रात सिर्फ शरीर में डूबे हुए हो , इन्द्रियों में डूबे हुए हो , और तुम समझते हो कि तुम जीवन में सुखी हो पाओगे ? असम्भव ! Very Important observation ! 

     लेकिन कुछ लोग इसका कुछ गलत अर्थ भी लगा सकते हैं। (39.14) क्या शरीर का पोषण नहीं करने का ये मतलब है कि तुमको शरीर, की उपेक्षा करना होगा, शरीर को दुर्बल बना देना होगा? नहीं इसका ये मतलब है कि शरीर को बहुत Intelligently handle करना है। शरीर का पोषणार्थी नहीं होने का मतलब है कि इन्द्रियभोगों में दिनरात डूबे नहीं रहना है। They begin to neglect the body , that is also not correct.कुछ मूढ़ लोग शरीर की उपेक्षा करने लगते हैं, यह भी सही नहीं है। मानव-शरीर एक बहुत अद्भुत मशीन है - इसको बहुत समझदारी से सदुपयोग करना है। इसका सदुपयोग क्या है ? युवाओं को पौष्टिक आहार लेना चाहिए, नियमित व्यायाम करना चाहिए। लड़के लड़कियों दोनों का शरीर स्वस्थ और सबल होना चाहिए। नायमात्मा बलहीनेन लभ्यःबलहीन लोगों को सत्य (आत्मा) का ज्ञान नहीं हो सकता। सत्य का आविष्कार कोई कमजोर व्यक्ति नहीं कर सकता। कोई बीमार व्यक्ति भी सत्य का अविष्कार नहीं कर सकता। जितना Cosmetic Industries है - वो शरीर को लेकर ही हैं। स्त्री ही नहीं पुरुष लोग भी शरीर को लेकर उतने ही मोह ग्रस्त हैं।  तो न शरीर की उपेक्षा करनी है , न इसको भोगों में डुबो कर रखना है -बिद्धिमानी से अपने स्वस्थ-सबल शरीर का सदुपयोग करना है। पुरुष लोग कितने प्रकार का कॉस्मेटिक यूज करते हैं। यदि सभी लोग अद्वैत वेदांती बन जाएँ , तो प्रसाधन उद्योग -Cosmetic - कान्तिवर्धक उद्योग ही बंद हो जायेगा। इसके पीछे यह भ्रान्ति मन में बैठी है कि हम एक बुलबुला हैं - या एक बुलबुली हैं , क्योंकि कई लोगों के नाम भी बब्लू-बब्ली होते हैं। बुलबुले को आप कितना भी सजा लीजिये - एक दिन टूटने वाला है , मुरझा जाने वाला है। सूख जायेगा , कोई रोक नहीं पाया है। पहले के जितने भी मिस्टर और मिस यूनिवर्स हैं , सब सूख कर चले भी गए हैं ! एक जमाने में जो प्रसिद्द हीरो-हीरोइन थी अब सूखकर बिखर गए हैं ? शरीर का पोषण आप कितना भी कर लीजिये - बुलबुला तो टूटने ही वाला है। बुलबुला तो टूटेगा , सूखेगा , बिखरेगा -अदृश्य हो जायेगा। जो अपनी समस्त ऊर्जा को शरीर के भरण-पोषण में ही लगा देगा , और आशा करेगा कि वो जीवन में सुखी होगा ; वो वही मूढ़ है जो मगरमच्छ के पीठ पर बैठकर, उसको लट्ठा समझकर नदी पार करने की आशा करता है - वो कभी सम्भव नहीं है। लेकिन इसको आपलोग गलत मत समझना - शरीर का अतिपोषण भी अच्छा नहीं और इसकी उपेक्षा करना भी उचित नहीं। हमारा दृष्टिकोण -संतुलित रहना चाहिए। पौष्टिक आहार कीजिये , व्यायाम कीजिये , ये आश्चर्यजनक मशीन है - इसको शुद्ध और पवित्र रखिये। मानवशरीर योग का सधन है , भोग का साधन नहीं है। महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य- 'कुमारसम्भव' में एक अनुपम बात लिखी- 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्' अर्थात् यह मानव शरीर ही धर्म (आत्मा -अनात्मा =विवेक) का पहला और उत्तम साधन है। व शरीर ही धर्म को जानने का माध्यम है। इस तन में ही हम अपनी वास्तविकता को समझ सकते हैं कि हम कौन हैं ? कहाँ से आए हैं और कहाँ जाना है? गीता में भी है -युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।6.17। ये जो संतुलित दृष्टिकोण है - आपका आहार संतुलित होना चाहिए। आपका भोजन और कर्मक्षमता संतुलित होना चाहिए। किसी बात में अति नहीं होना चाहिए। निद्रा 6 -7 घंटे की होना यथेष्ट है। 7 घंटा पर्याप्त है , 8 घंटा से अधिक ठीक नहीं है। शरीर को स्वस्थ रखिये , इसको योग के लिए तैयार कीजिये - भोग के लिए नहीं। मनुष्य शरीर अद्भुत मशीन है - -ईश्वर पाने का द्वारा है , इसको ही शंकराचार्य जी कहते है - जन्तूनां नर जन्म दुर्लभं !  (जन्तूनां नर जन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता तस्माद्वैदिक धर्ममार्ग परता बिद्वत्वमस्मात्परम् । आत्मानात्म विवेचनं स्वऽनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति-र्मुक्तिर्नोशत जन्म कोटि सुकृतेः पुण्यैर्विना लभ्यते ॥अर्थात अत्यन्त सूक्ष्म-क्षुद्र जन्तु से विकास होते-होते दुर्लभ मनुष्य जन्मलाभ होता है, फिर इसके आगे मनुष्य में भी पुरुष जन्म है। इस पुरुष जन्म में भी जिसमें विप्रता या ब्राह्मणत्य के गुण आ जाते हैं और इसके आगे भी जिसमें धर्ममार्गपरता, विद्वत्ता और सनातन वैदिक मार्ग के प्रति ज्ञान, रुचि आदि का उद्भव होता है, वह जीवन वास्तव में ही धन्य कहलाता है। दुर्लभ मानव जीवन प्राप्त करके भी जो मनुष्य (या स्त्री) आत्ममुक्ति के साधन हेतु प्रयत्न नहीं करता, उससे बड़ा आत्महन्ता और कौन हो सकता है? इसको भोग में भी नहीं डुबोना है , इसकी उपेक्षा भी नहीं करनी है। इस पंचभौतिक शरीर को  योग के लिए सदुपयोग करना हैयोग का अभ्यास करने से आपको प्रसाधन -उबटन नहीं लगाना होगा - ऐसी एक अलग प्रकार की कान्ति, तेज और चैतन्य आपके चेहरे पर दमकती रहेगी। अच्छा स्वामी विवेकानन्द कोई कॉस्मेटिक यूज करते थे क्या ? उनसे ज्यादा सुंदर कोई दूसरा मनुष्य है ? उनका व्यक्तित्व क्या कॉस्मेटिक यूज करके बना था ? चेहरे पर वो तेज , चैतन्य और कान्ति आत्मज्ञान से आता है , अपने सत्यस्वरूप को जानने से आता है। (46.57) आप किसी भी आदर्श पुरुष के चेहरे को देखिये। हनुमान जी को लीजिये। हमारे आदर्श तो महावीर हनुमान हैं।  उनका कॉस्मेटिक कैसा है ? बलवान शरीर। और अंतःकरण में किसी दूसरे बुलबुले के प्रति कोई राग है ? या अन्य किसी भोग की चीजों के प्रति कोई आसक्ति है ? हनुमान जी में यदि कोई आसक्ति है , कोई राग है - तो सिर्फ श्रीराम के प्रति है। 

विद्यावान गुणी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर॥7॥

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया॥8

क्या सुंदर उनके जीवन का दर्शन है ! इसलिए स्वामी जी कहते हैं - युवाओं के आदर्श तो महावीर हनुमान होने चाहिए। 'राम लखन सीता मन बसिया' का मतलब है - आत्मा और कुछ नहीं ! वो समुद्र हैं , वे आत्मा हैं -जो हनुमानजी के मन (हृदय) में बसे हुए हैं ! श्रीराम आत्मा ही हैं , सच्चिदानन्द ब्रह्म ही हैं , और कुछ नहीं। सारी सुंदरता और कान्ति का मूल स्रोत सच्चिदानन्द ब्रह्म ही हैं। सारी सुंदरता हृदय -आत्मा से निकलता है। कॉस्मेटिक से कोई सुंदर नहीं होता। वहाँ मत देखिये -कुछ नहीं है। योगाभ्यास ही सबसे उत्तम चीज है , हम भोग में मानवशरीर की ऊर्जा को नष्ट कर देते हैं। स्थूल शरीर का विवरण यहाँ पर समाप्त हो गया। (48.53 मिनट)

हमने चर्चा शुरू की थी - अनात्मा क्या है ? यहाँ से। और अनात्मा को समझने के लिए हमने सबसे पहले अपने स्थूल शरीर से ही शुरू किया था। और इसको समझने के लिए कि स्थूल शरीर है क्या ? हमने 2mm चमड़ी के भीतर प्रवेश किया था। तो हमारी दृष्टि बदलने लगती है ,पहले हमारी दृष्टि क्या थी ? चरम-दृष्टि या मोहित दृष्टि से देखने के बदले जब आप ब्रह्म दृष्टि से सब कुछ देखोगे -जितना भीतर जाकर देखोगे - तो सब समान हैं। ऊपर से कुछ देखकर मोहित होने के लिए कुछ है क्या ? विवेकी के लिए मोहित होने के लिए कुछ नहीं है। सब समान है। स्त्री-पुरुष का भेद सिर्फ अविवेक में या अज्ञान में दीखता है। सब एक हैं ! शरीर की दृष्टि से नहीं देखने पर मन मुक्त होता है कि नहीं ? मन एक बहुत पुराने रोग आसक्ति रोग - मोहित होने के रोग से मुक्त होने लगता है। तो हमने देखा कि ये स्थूल शरीर ही मोह का आस्पद है ! और मोहित होने से मेरी धारणा क्या है ? मैं ये पुरुष हूँ , और ये मेरी स्त्री है ! सारा सांसारिक संबन्ध इस स्थूल शरीर को लेकर ही बन जाता है। इसी से सारा जाल फैलना शुरू हो जाता है - पोता-पोती, नाती -नतनी। सबके मूल में क्या है ? राग ! प्रेम में बंधन नहीं होगा। पोता-पोती से प्रेम होगा , राग रूप अदृश्य रस्सी नहीं रहेगा, कट जायेगा। यह आसक्ति ही हमारे जन्म-मृत्यु का कारण बन जाता है। राग के द्वारा हम विषयों से कैसे बंध जाते हैं - शंकराचार्य जी उसका उदाहरण देते हैं -पाँच पशुओं का। जो कि मात्र एक विषयों में आसक्ति के कारण वे मृत्युग्रस्त हो जाते हैं। फिर मनुष्यों की बात क्या करें , जो पाँचो विषयों से आसक्त है ? ये सारे विषय इतने जहरीले हैं कि वे हमें दूर से ही मार देती हैं। ये काळा नाग के विष से भी अधिक जहरीला है। लेकिन विषय रूपी जहर सिर्फ अविवेकी को ही मारता है , विवेकी और इस राग -द्वेष का कुछ असर नहीं होता। विवेकी को कोई नहीं मार सकता , क्योंकि वो सभी विषयों को देखता है; फिर भी वो नहीं मरता। लेकिन जो अविवेकी है , वो विषयों से प्रलोभित होता है , प्रभावित होता है , विषयों से घायल होता है -किन्तु विवेकी कभी किसी के नयन वाणों से घायल नहीं होता। ऋषियों की ये बहुत गहरी दृष्टि का विश्लेषण है। अगर आप इस राग के बंधन से मुक्त होना चाहते हो तो , इन विषयों से दूर रहो। किसी भी बुलबुले से चिपको नहीं। कहीं भागना नहीं है , परिवार के बीच ही रहना है - स्त्री-पुरुष के बीच रहिये लेकिन किसी से चिपकिये नहीं। एक बुलबुला किसी भी दूसरे बुलबुले में डूबे नहीं। यदि डूबे तो ऐसे गड्ढे में गिरने के समान है , जिसका कोई तल ही नहीं है। विषयों को विवेक पूर्वक सदुपयोग करें। और कुछ अमृतवत चरित्र के गुण हैं , जिनको हमें अपने चरित्र में वर्धित करना है। कौन- कौन से अमृततुल्य गुण हैं ? सन्तोष है , दया है , क्षमा है , आर्जव है और प्रशान्ति- दान्ती हैं। यानि शम और दम को बढ़ाना चाहिए। और शरीर के पोषणार्थी न बनें। अगर किसी बुलबुले में ही अपने को डुबो दोगे तो फिर समुद्र को कैसे पाओगे ? शरीर-पोषणार्थी हो और सत्य को पाना चाहते हो ? ये कैसे सम्भव होगा ? ये वैसे ही होगा जैसे आप मगरमच्छ को लट्ठा समझकर बैठ रहे हो और नदी पार करने की आशा कर कर रहे हो। हमें सचेत कर रहे हैं कि इस मनुष्य शरीर से सुंदर मशीन अन्य कोई शरीर नहीं है। ये सबसे सुंदर मशीन है - लेकिन भोग के लिए नहीं है। यह मानव-शरीर योग के लिए है, भोग के लिए नहीं है। ये अद्भुत मानव मशीन सत्य की खोज के लिए है। इस स्थूल शरीर को स्वस्थ रखिये निरोगी रखिये, शुद्ध -पवित्र रखिये और इसका सदुपयोग कीजिये -- योग को जानने के लिए , सत्य को जानने के लिए। इसीसे एक सुंदर जीवन बनता है। सही सुख , सही तृप्ति , सही पूर्णता इस प्रकार के जीवन से आती है। भोग से कभी भी आने वाली नहीं है। पूर्णता में स्त्री-पुरुष शरीर के प्रति राग-द्वेष से ऊपर उठकर सभी को समान रूप से प्रेम करने लगोगे। एक एक ही बुलबुले से - ये सीमित बुलबुलों के प्रति आसक्ति में नहीं फंसोगे।                  

[इस श्लोक में आदि शंकराचार्यजी ने साधना मार्ग में एक अत्यंत सूक्ष्म और गंभीर बाधा की ओर संकेत किया है। यहाँ कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने जीवन का अधिकांश समय और ऊर्जा केवल शरीर के पोषण, उसकी सुविधा और सुख-साधनों की व्यवस्था में लगाता है, और साथ ही यह भी चाहता है कि उसे आत्मज्ञान प्राप्त हो, तो उसकी स्थिति अत्यंत विरोधाभासी है।             आत्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि साधक अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ट रूप से तय करे—शरीर का पोषण और देखभाल तो आवश्यक है, परंतु उसका अति-आसक्त होकर पीछा करना आत्मज्ञान के मार्ग में बड़ी रुकावट बन जाता है।

आदि शंकराचार्यजी ने इसे एक अद्भुत और प्रभावशाली उपमा से स्पष्ट किया है—ऐसा व्यक्ति मानो किसी नदी को पार करना चाहता है, लेकिन नदी पार करने के लिए नाव या तैरने का सहारा लेने के बजाय, वह ग्राह (मगरमच्छ) को पकड़कर तैरने की कोशिश करता है। यह बुद्धिहीनता का चरम है, क्योंकि मगरमच्छ नदी पार कराने के बजाय उसे पकड़कर डुबा देगा। इसी प्रकार, शरीर-आसक्ति और इन्द्रिय-सुखों में लिप्त रहकर आत्मज्ञान की आकांक्षा करना भी अंततः साधक को संसार रूपी बंधन में और गहरा डुबो देता है

         यहाँ "दारुधिया" का अर्थ है लकड़ी के टुकड़े की तरह बुद्धि, अर्थात् जड़ और विवेक-शून्य सोच। जैसे कोई मूर्ख यह न समझ पाए कि मगरमच्छ उसके जीवन के लिए खतरा है और उसे पकड़कर पार करना तो असंभव ही है, वैसे ही जो साधक यह नहीं समझ पाता कि शरीर-आसक्ति और आत्मसाक्षात्कार एक-दूसरे के विपरीत दिशा में ले जाते हैं, वह अपने ही प्रयासों से विनाश की ओर बढ़ रहा है। शरीर साधन है, साध्य नहीं; परंतु अधिकांश लोग साधन को ही साध्य मान बैठते हैं।

     आत्मज्ञान का मार्ग विवेक, वैराग्य और मन-इन्द्रियों की निग्रह-साधना पर आधारित है। यदि मन निरंतर शरीर की आवश्यकताओं और सुख-सुविधाओं की ओर खिंचता रहेगा, तो वह आत्म-विचार की गहराई में नहीं जा पाएगा। शंकराचार्यजी यहाँ यह नहीं कह रहे कि शरीर की उपेक्षा करनी चाहिए, बल्कि यह सिखा रहे हैं कि शरीर की देखभाल न्यूनतम आवश्यक स्तर तक हो, जिससे साधना बाधित न हो। परंतु यदि शरीर-सेवा ही जीवन का मुख्य लक्ष्य बन जाए, तो आत्मज्ञान का मार्ग लगभग बंद हो जाता है।

        इस उपमा का मर्म यह है कि संसार और शरीर की मोह-माया को साधना का साधन समझना सबसे बड़ी भूल है। जैसे मगरमच्छ अपनी प्रकृति के अनुसार मार ही डालेगा, वैसे ही शरीर-आसक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुसार मन को विषय-भोग की ओर ही खींचेगी। आत्मज्ञान की चाह रखने वाले के लिए यह अनिवार्य है कि वह शरीर को मात्र एक उपकरण माने, जो आत्मसाधना के लिए उपयोगी है, परंतु उसका उद्देश्य केवल उसकी सेवा करना न बन जाए।

अतः यह श्लोक साधक को चेतावनी देता है कि आत्मज्ञान के मार्ग में विवेक आवश्यक है। विवेक के बिना शरीर-आसक्ति साधक को उसी तरह डुबा देती है जैसे ग्राह नदी में पकड़ने वाले कोयदि आत्मदर्शन का लक्ष्य रखना है तो शरीर को आवश्यक सीमा तक साधन की तरह उपयोग करें, उससे मोह न रखें, और पूरी लगन से अपने चित्त को आत्मविचार और ब्रह्मज्ञान की ओर मोड़ें। यही सच्ची साधना है और यही नदी पार करने का सही मार्ग है। 

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श्री हनुमान चालीसा अर्थ सहित...

श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारि।

बरनऊं रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।

अर्थ- श्री गुरु महाराज के चरण कमलों की धूलि से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूं, जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला है।

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन-कुमार।

बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार। 

अर्थ- हे पवन कुमार! मैं आपको सुमिरन करता हूं। आप तो जानते ही हैं कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है। मुझे शारीरिक बल, सद्‍बुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और मेरे दुखों व दोषों का नाश कार दीजिए।

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहुं लोक उजागर॥1॥

अर्थ- श्री हनुमान जी! आपकी जय हो। आपका ज्ञान और गुण अथाह है। हे कपीश्वर! आपकी जय हो! तीनों लोकों, स्वर्ग लोक, भूलोक और पाताल लोक में आपकी कीर्ति है।

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राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवन सुत नामा॥2॥

अर्थ- हे पवनसुत अंजनी नंदन! आपके समान दूसरा बलवान नहीं है।

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महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी॥3॥

अर्थ- हे महावीर बजरंग बली!आप विशेष पराक्रम वाले है। आप खराब बुद्धि को दूर करते है, और अच्छी बुद्धि वालों के साथी, सहायक है।

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कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुण्डल कुंचित केसा॥4॥

अर्थ- आप सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों, कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से सुशोभित हैं।


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हाथबज्र और ध्वजा विराजे, कांधे मूंज जनेऊ साजै॥5॥

अर्थ- आपके हाथ में बज्र और ध्वजा है और कन्धे पर मूंज के जनेऊ की शोभा है।

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शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग वंदन॥6॥

अर्थ- शंकर के अवतार! हे केसरी नंदन आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर में वन्दना होती है।

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विद्यावान गुणी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर॥7॥

अर्थ- आप प्रकान्ड विद्या निधान है, गुणवान और अत्यन्त कार्य कुशल होकर श्री राम के काज करने के लिए आतुर रहते है।

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प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया॥8॥

अर्थ- आप श्री राम चरित सुनने में आनन्द रस लेते है। श्री राम, सीता और लखन आपके हृदय में बसे रहते है।

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सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रूप धरि लंक जरावा॥9॥

अर्थ- आपने अपना बहुत छोटा रूप धारण करके सीता जी को दिखलाया और भयंकर रूप करके लंका को जलाया।

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भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचन्द्र के काज संवारे॥10॥

अर्थ- आपने विकराल रूप धारण करके राक्षसों को मारा और श्री रामचन्द्र जी के उद्‍देश्यों को सफल कराया।

लाय सजीवन लखन जियाये, श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥11॥

अर्थ- आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी को जिलाया जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।

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रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥12॥

अर्थ- श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो।

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सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥13॥

अर्थ- श्री राम ने आपको यह कहकर हृदय से लगा लिया की तुम्हारा यश हजार मुख से सराहनीय है।

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सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा,  नारद, सारद सहित अहीसा॥14॥

अर्थ-  श्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन, श्री सनत्कुमार आदि मुनि ब्रह्मा आदि देवता नारद जी, सरस्वती जी, शेषनाग जी सब आपका गुण गान करते है।

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जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते॥15॥

अर्थ- यमराज, कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।

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तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा॥16॥

अर्थ- आपने सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने।

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तुम्हरो मंत्र विभीषण माना, लंकेस्वर भए सब जग जाना॥17॥

अर्थ- आपके उपदेश का विभिषण जी ने पालन किया जिससे वे लंका के राजा बने, इसको सब संसार जानता है।

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जुग सहस्त्र जोजन पर भानू, लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥18॥

अर्थ- जो सूर्य इतने योजन दूरी पर है कि उस पर पहुंचने के लिए हजार युग लगे। दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को आपने एक मीठा फल समझकर निगल लिया।

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प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि, जलधि लांघि गये अचरज नाहीं॥19॥

अर्थ- आपने श्री रामचन्द्र जी की अंगूठी मुंह में रखकर समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।

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दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥20॥

अर्थ- संसार में जितने भी कठिन से कठिन काम हो, वो आपकी कृपा से सहज हो जाते है।

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राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसा रे॥21॥

अर्थ- श्री रामचन्द्र जी के द्वार के आप रखवाले है, जिसमें आपकी आज्ञा बिना किसी को प्रवेश नहीं मिलता अर्थात् आपकी प्रसन्नता के बिना राम कृपा दुर्लभ है।

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सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू को डरना ॥22॥

अर्थ- जो भी आपकी शरण में आते है, उस सभी को आनन्द प्राप्त होता है, और जब आप रक्षक है, तो फिर किसी का डर नहीं रहता।

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आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हांक तें कांपै॥23॥

अर्थ- आपके सिवाय आपके वेग को कोई नहीं रोक सकता, आपकी गर्जना से तीनों लोक कांप जाते है।

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भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै॥24॥

अर्थ- जहां महावीर हनुमान जी का नाम सुनाया जाता है, वहां भूत, पिशाच पास भी नहीं फटक सकते।

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नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥25॥

अर्थ- वीर हनुमान जी! आपका निरंतर जप करने से सब रोग चले जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।

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संकट तें हनुमान छुड़ावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥26॥

अर्थ- हे हनुमान जी! विचार करने में, कर्म करने में और बोलने में, जिनका ध्यान आपमें रहता है, उनको सब संकटों से आप छुड़ाते है।

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सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा॥27॥

अर्थ- तपस्वी राजा श्री रामचन्द्र जी सबसे श्रेष्ठ है, उनके सब कार्यों को आपने सहज में कर दिया।

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और मनोरथ जो कोइ लावै, सोई अमित जीवन फल पावै॥28॥

अर्थ- जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करें तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।

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चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा॥29॥

अर्थ- चारो युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग में आपका यश फैला हुआ है, जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।

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साधु सन्त के तुम रखवारे, असुर निकंदन राम दुलारे॥30॥

अर्थ- हे श्री राम के दुलारे! आप सज्जनों की रक्षा करते है और दुष्टों का नाश करते है।

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अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता॥31॥

अर्थ- आपको माता श्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुआ है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां दे सकते है।

1.) अणिमा- जिससे साधक किसी को दिखाई नहीं पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ में प्रवेश कर जाता है।

2.) महिमा- जिसमें योगी अपने को बहुत बड़ा बना देता है।

3.) गरिमा- जिससे साधक अपने को चाहे जितना भारी बना लेता है।

4.) लघिमा- जिससे जितना चाहे उतना हल्का बन जाता है।

5.) प्राप्ति- जिससे इच्छित पदार्थ की प्राप्ति होती है।

6.) प्राकाम्य- जिससे इच्छा करने पर वह पृथ्वी में समा सकता है, आकाश में उड़ सकता है।

7.) ईशित्व- जिससे सब पर शासन का सामर्थ्य हो जाता है।

8.) वशित्व- जिससे दूसरों को वश में किया जाता है।

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राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥32॥

अर्थ- आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।

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तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥33॥

अर्थ- आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है और जन्म जन्मांतर के दुख दूर होते है।

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अन्त काल रघुबर पुर जाई, जहां जन्म हरि भक्त कहाई॥34॥

अर्थ- अंत समय श्री रघुनाथ जी के धाम को जाते है और यदि फिर भी जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्री राम भक्त कहलाएंगे।

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और देवता चित न धरई, हनुमत सेई सर्व सुख करई॥35॥

अर्थ- हे हनुमान जी! आपकी सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है, फिर अन्य किसी देवता की आवश्यकता नहीं रहती।

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संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥36॥

अर्थ- हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है, उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।

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जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरु देव की नाई॥37॥

अर्थ- हे स्वामी हनुमान जी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो! आप मुझ पर कृपालु श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।

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जो सत बार पाठ कर कोई, छूटहि बंदि महा सुख होई॥38॥

अर्थ- जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बंधनों से छूट जाएगा और उसे परमानन्द मिलेगा।

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जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा॥39॥

अर्थ- भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया, इसलिए वे साक्षी है, कि जो इसे पढ़ेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी

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तुलसीदास सदा हरि चेरा, कीजै नाथ हृदय मंह डेरा॥40॥

अर्थ- हे नाथ हनुमान जी! तुलसीदास सदा ही श्री राम का दास है। इसलिए आप उसके हृदय में निवास कीजिए।

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पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप। 

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सूरभूप॥

अर्थ- हे संकट मोचन पवन कुमार! आप आनंद मंगलों के स्वरूप हैं। हे देवराज! आप श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए।

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शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

⚜️️सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार॥⚜️️घटना - 339⚜️️श्रीराम और रावण के बीच भीषण युद्ध का दृश्य ⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #339 || ⚜️️⚜️️https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_71.html⚜️️⚜️️

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 339: दोहा -92,93]


श्रीराम और रावण के बीच भीषण युद्ध का दृश्य  

        श्रीराम और रावण के बीच भीषण युद्ध हो रहा है, श्रीराम के वाणों ने सर्प के समान उड़ते हुए रावण के सारथि और उसके रथ के घोड़ों का संहार कर दिया है। वो शीघ्र दूसरे रथ पर जा चढ़ा और उसने अपने अस्त्र श्रीराम के रथ में जुटे घोड़ों का हनन कर दिया। क्रुद्ध होकर श्रीराम ने उसके देशों सिरों में दश -दश वाण मारे। रक्त की धारायें बह चलीं वो दौड़कर , उनकी ओर बढ़ा। श्रीराम की वाणों से उसके सिर और बीसों भुजायें कट-कट कर गिरने लगीं , किन्तु कटने के बाद उसके सिर फिर उग आते हैं। भुजायें यथावत हो जाती हैं , ये क्रम टूटता नहीं। सारा आकाश रावण के कटे सिरों और भुजाओं से पट गया है। किन्तु वो पूर्ववत वाण संधान करता जा रहा है। अपने वाणों से उसने श्रीराम के रथ को इस प्रकार ढक दिया है ,कि वो दिखाई नहीं देता। आसमान में छाये रावण के सिरों से निरंतर चुनौती भरा उद्घोष हो रहा है - कहाँ है वानर राज सुग्रीव ? लक्ष्मण कहाँ है, और कहाँ हैं , स्वयं राम ?       

चौपाई :
* चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा॥
रथ बिभंजि हति केतु पताका। गर्जा अति अंतर बल थाका॥1॥

भावार्थ:-बाण ऐसे चले मानो पंख वाले सर्प उड़ रहे हों। उन्होंने पहले सारथी और घोड़ों को मार डाला। फिर रथ को चूर-चूर करके ध्वजा और पताकाओं को गिरा दिया। तब रावण बड़े जोर से गरजा, पर भीतर से उसका बल थक गया था॥1॥

* तुरत आन रथ चढ़ि खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँड़ेसि बिधि नाना॥
बिफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के॥2॥

भावार्थ:-तुरंत दूसरे रथ पर चढ़कर खिसियाकर उसने नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र छोड़े। उसके सब उद्योग वैसे ही निष्फल हो गए, जैसे परद्रोह में लगे हुए चित्त वाले मनुष्य के होते हैं॥2॥

* तब रावन दस सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा॥
तुरग उठाइ कोपि रघुनायक। खैंचि सरासन छाँड़े सायक॥3॥

भावार्थ:-तब रावण ने दस त्रिशूल चलाए और श्री रामजी के चारों घोड़ों को मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया। घोड़ों को उठाकर श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके धनुष खींचकर बाण छोड़े॥3॥

* रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी॥
दस दस बान भाल दस मारे। निसरि गए चले रुधिर पनारे॥4॥

भावार्थ:-रावण के सिर रूपी कमल वन में विचरण करने वाले श्री रघुवीर के बाण रूपी भ्रमरों की पंक्ति चली। श्री रामचंद्रजी ने उसके दसों सिरों में दस-दस बाण मारे, जो आर-पार हो गए और सिरों से रक्त के पनाले बह चले॥4॥

* स्रवत रुधिर धायउ बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर संधाना॥
तीस तीर रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे॥5॥

भावार्थ:-रुधिर बहते हुए ही बलवान्‌ रावण दौड़ा। प्रभु ने फिर धनुष पर बाण संधान किया। श्री रघुवीर ने तीस बाण मारे और बीसों भुजाओं समेत दसों सिर काटकर पृथ्वी पर गिरा दिए॥5॥

* काटतहीं पुनि भए नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने॥
प्रभु बहु बार बाहु सिर हए। कटत झटिति पुनि नूतन भए॥6॥

भावार्थ:- (सिर और हाथ) काटते ही फिर नए हो गए। श्री रामजी ने फिर भुजाओं और सिरों को काट गिराया। इस तरह प्रभु ने बहुत बार भुजाएँ और सिर काटे, परन्तु काटते ही वे तुरंत फिर नए हो गए॥6॥

* पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा॥
रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू॥7॥

भावार्थ:-प्रभु बार-बार उसकी भुजा और सिरों को काट रहे हैं, क्योंकि कोसलपति श्री रामजी बड़े कौतुकी हैं। आकाश में सिर और बाहु ऐसे छा गए हैं, मानो असंख्य केतु और राहु हों॥7॥

छंद :
* जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्रवत सोनित धावहीं।
रघुबीर तीर प्रचंड लागहिं भूमि गिरत न पावहीं॥
एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं।
जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुंतुद पोहहीं॥

भावार्थ:-मानो अनेकों राहु और केतु रुधिर बहाते हुए आकाश मार्ग से दौड़ रहे हों। श्री रघुवीर के प्रचण्ड बाणों के (बार-बार) लगने से वे पृथ्वी पर गिरने नहीं पाते। एक-एक बाण से समूह के समूह सिर छिदे हुए आकाश में उड़ते ऐसे शोभा दे रहे हैं मानो सूर्य की किरणें क्रोध करके जहाँ-तहाँ राहुओं को पिरो रही हों।

दोहा :
* जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि होहिं अपार।
सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार॥92॥

भावार्थ:- जैसे-जैसे प्रभु उसके सिरों को काटते हैं, वैसे ही वैसे वे अपार होते जाते हैं। जैसे विषयों का सेवन करने से काम (उन्हें भोगने की इच्छा) दिन-प्रतिदिन नया-नया बढ़ता जाता है॥92॥

चौपाई :
* दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी। बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी॥
गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी। धायउ दसहु सरासन तानी॥1॥

भावार्थ:- सिरों की बाढ़ देखकर रावण को अपना मरण भूल गया और बड़ा गहरा क्रोध हुआ। वह महान्‌ अभिमानी मूर्ख गरजा और दसों धनुषों को तानकर दौड़ा॥1॥

* समर भूमि दसकंधर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो॥
दंड एक रथ देखि न परेउ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ॥2॥

भावार्थ:-रणभूमि में रावण ने क्रोध किया और बाण बरसाकर श्री रघुनाथजी के रथ को ढँक दिया। एक दण्ड (घड़ी) तक रथ दिखलाई न पड़ा, मानो कुहरे में सूर्य छिप गया हो॥2॥

* हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा॥
सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिसि गगन महि पाटे॥3॥

भावार्थ:- जब देवताओं ने हाहाकार किया, तब प्रभु ने क्रोध करके धनुष उठाया और शत्रु के बाणों को हटाकर उन्होंने शत्रु के सिर काटे और उनसे दिशा, विदिशा, आकाश और पृथ्वी सबको पाट दिया॥3॥

* काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं॥
कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा॥4॥

भावार्थ:-काटे हुए सिर आकाश मार्ग से दौड़ते हैं और जय-जय की ध्वनि करके भय उत्पन्न करते हैं। 'लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीव कहाँ हैं? कोसलपति रघुवीर कहाँ हैं?'॥4॥

छंद :
* कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले।
संधानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले॥
सिर मालिका कर कालिका गहि बृंद बृंदन्हि बहु मिलीं।
करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ संग्राम बट पूजन चलीं॥

भावार्थ:-'राम कहाँ हैं?' यह कहकर सिरों के समूह दौड़े, उन्हें देखकर वानर भाग चले। तब धनुष सन्धान करके रघुकुलमणि श्री रामजी ने हँसकर बाणों से उन सिरों को भलीभाँति बेध डाला। हाथों में मुण्डों की मालाएँ लेकर बहुत सी कालिकाएँ झुंड की झुंड मिलकर इकट्ठी हुईं और वे रुधिर की नदी में स्नान करके चलीं। मानो संग्राम रूपी वटवृक्ष की पूजा करने जा रही हों। 

 दोहा :
* पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति प्रचंड।
चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दंड॥93॥

भावार्थ:- फिर रावण ने क्रोधित होकर प्रचण्ड शक्ति छोड़ी। वह विभीषण के सामने ऐसी चली जैसे काल (यमराज) का दण्ड हो॥93॥

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⚜️️⚜️️संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥⚜️️घटना - 338⚜️️⚜️️युद्धभूमि में रावण का मायाजाल और रथारूढ़ होकर श्रीराम का आगमन ⚜️️⚜️️ Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #338|| ⚜️️⚜️️ https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_74.html

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 338: दोहा -90,91]

 

युद्धभूमि में रावण का मायाजाल और रथारूढ़ होकर श्रीराम का आगमन -  

               रावण की आसुरी सेना का प्रायः विनाश हो चुका है , श्रीराम और रावण का युद्ध सन्निकट है , रावण अपने बंधु बांधवों खर-दूषण , विराध , बाली , आदि योद्धाओं का वध करने वाले तपस्वी को ललकार रहा है है कि वो उन जैसा नहीं है , वो जगत प्रसिद्द रावण है ; जिसका बल और पराक्रम अनंत है। हे तपस्वी आज तुम यदि युद्ध से भाग नहीं गए तो मैं अपना सारा वैर , निकाल लूँगा तुमने मेरे मेघनाद , और कुम्भकरण का भी वध किया है। आज मैं तुम्हें नहीं छोड़ूँगा। आज तुम्हारा पाला रावण से पड़ा है। श्रीराम ने उसे ललकारा कि व्यर्थ की बकवास न कर अब वो अपना पराक्रम और पौरुष दिखाए। बोले संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं , गुलाब , आम और कटहल की तरह। एक केवल फूल देते हैं , दूसरे फूल और फल दोनों देते हैं ,और तीसरे प्रकार के पुरुष केवल कटहल के समान केवल फल देते हैं। इसी प्रकार एक केवल डिंग हाँकते हैं , दूसरे कहते और करते हैं , और तीसरे केवल करते हैं - कहते नहीं। श्रीराम की इस उक्ति से क्रुद्ध होकर रावण ने वाण छोड़ना प्रारम्भ किया ; किन्तु श्रीराम के अग्निवाण से वे भस्म होते गए। रावण के एक वाण से अपने सारथि को आहत होता देख , श्रीराम ने क्रोध में आकर अपने धनुष पर टंकार की , जिसका नाद सुनकर महल में मन्दोदरी तथा अन्य रानियों के ह्रदय काँप गए , समुद्र , पर्वतों तथा पृथ्वी पर चारों ओर भय और आतंक व्याप्त हो गया --  

चौपाई :
* अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिरु नावा॥
तब लंकेस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सम्मुख धावा॥1॥

भावार्थ:- ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया और फिर रथ चलाया। तब रावण के हृदय में क्रोध छा गया और वह गरजता तथा ललकारता हुआ सामने दौड़ा॥1॥

* जीतेहु जे भट संजुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं॥
रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाकें बंदीखाना॥2॥

भावार्थ:-(उसने कहा-) अरे तपस्वी! सुनो, तुमने युद्ध में जिन योद्धाओं को जीता है, मैं उनके समान नहीं हूँ। मेरा नाम रावण है, मेरा यश सारा जगत्‌ जानता है, लोकपाल तक जिसके कैद खाने में पड़े हैं॥2॥

* खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा॥
निसिचर निकर सुभट संघारेहु। कुंभकरन घननादहि मारेहु॥3॥

भावार्थ:- तुमने खर, दूषण और विराध को मारा! बेचारे बालि का व्याध की तरह वध किया। बड़े-बड़े राक्षस योद्धाओं के समूह का संहार किया और कुंभकर्ण तथा मेघनाद को भी मारा॥3॥

* आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाही॥
आजु करउँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले॥4॥

भावार्थ:-अरे राजा! यदि तुम रण से भाग न गए तो आज मैं (वह) सारा वैर निकाल लूँगा। आज मैं तुम्हें निश्चय ही काल के हवाले कर दूँगा। तुम कठिन रावण के पाले पड़े हो॥4॥

* सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना॥
सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई॥5॥

भावार्थ:- रावण के दुर्वचन सुनकर और उसे कालवश जान कृपानिधान श्री रामजी ने हँसकर यह वचन कहा- तुम्हारी सारी प्रभुता, जैसा तुम कहते हो, बिल्कुल सच है। पर अब व्यर्थ बकवाद न करो, अपना पुरुषार्थ दिखलाओ॥5

छंद :
* जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥

भावार्थ:-व्यर्थ बकवाद करके अपने सुंदर यश का नाश न करो। क्षमा करना, तुम्हें नीति सुनाता हूँ, सुनो! संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं- पाटल (गुलाब), आम और कटहल के समान। एक (पाटल) फूल देते हैं, एक (आम) फूल और फल दोनों देते हैं एक (कटहल) में केवल फल ही लगते हैं। इसी प्रकार (पुरुषों में) एक कहते हैं (करते नहीं), दूसरे कहते और करते भी हैं और एक (तीसरे) केवल करते हैं, पर वाणी से कहते नहीं॥

दोहा :
* राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान।
बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान॥90॥

भावार्थ:-श्री रामजी के वचन सुनकर वह खूब हँसा (और बोला-) मुझे ज्ञान सिखाते हो? उस समय वैर करते तो नहीं डरे, अब प्राण प्यारे लग रहे हैं॥90॥

चौपाई :
*कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर। कुलिस समान लाग छाँड़ै सर॥॥
नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिसि गगन महि छाए॥1॥

भावार्थ:- दुर्वचन कहकर रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोड़ने लगा। अनेकों आकार के बाण दौड़े और दिशा, विदिशा तथा आकाश और पृथ्वी में, सब जगह छा गए॥1॥  

*पावक सर छाँड़ेउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा॥
छाड़िसि तीब्र सक्ति खिसिआई। बान संग प्रभु फेरि चलाई॥2॥

भावार्थ:-श्री रघुवीर ने अग्निबाण छोड़ा, (जिससे) रावण के सब बाण क्षणभर में भस्म हो गए। तब उसने खिसियाकर तीक्ष्ण शक्ति छोड़ी, (किन्तु) श्री रामचंद्रजी ने उसको बाण के साथ वापस भेज दिया॥2॥

* कोटिन्ह चक्र त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै॥
निफल होहिं रावन सर कैसें। खल के सकल मनोरथ जैसें॥3॥

भावार्थ:- वह करोड़ों चक्र और त्रिशूल चलाता है, परन्तु प्रभु उन्हें बिना ही परिश्रम काटकर हटा देते हैं। रावण के बाण किस प्रकार निष्फल होते हैं, जैसे दुष्ट मनुष्य के सब मनोरथ!॥3॥

* तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि॥
राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा॥4॥

भावार्थ:-तब उसने श्री रामजी के सारथी को सौ बाण मारे। वह श्री रामजी की जय पुकारकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। श्री रामजी ने कृपा करके सारथी को उठाया। तब प्रभु अत्यंत क्रोध को प्राप्त हुए॥4॥

छंद :
* भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे।
कोदंड धुनि अति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे॥
मंदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रसे।
चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे॥

भावार्थ:- युद्ध में शत्रु के विरुद्ध श्री रघुनाथजी क्रोधित हुए, तब तरकस में बाण कसमसाने लगे (बाहर निकलने को आतुर होने लगे)। उनके धनुष का अत्यंत प्रचण्ड शब्द (टंकार) सुनकर मनुष्यभक्षी सब राक्षस वातग्रस्त हो गए (अत्यंत भयभीत हो गए)। मंदोदरी का हृदय काँप उठा, समुद्र, कच्छप, पृथ्वी और पर्वत डर गए। दिशाओं के हाथी पृथ्वी को दाँतों से पकड़कर चिग्घाड़ने लगे। यह कौतुक देखकर देवता हँसे।

दोहा :
* तानेउ चाप श्रवन लगि छाँड़े बिसिख कराल।
राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल॥91॥

भावार्थ:- धनुष को कान तक तानकर श्री रामचंद्रजी ने भयानक बाण छोड़े। श्री रामजी के बाण समूह ऐसे चले मानो सर्प लहलहाते (लहराते) हुए जा रहे हों॥91॥

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🔱 'आसक्ति (राग-Attachment) और प्रेम (Love) का विवेक ' 🔱Session 14|| The Essence of Vivekachudamani⚜️️🔱https://www.sadhanapath.in/2025/08/84.html⚜️️🔱https://sreegurukrupa.blogspot.com/2020/10/viveka-chudamani-shlokas-81-to-90.htmll⚜️️🔱

️️🔱खेल के मैदान में तो उतरना ही है - पर पूरे आत्मविश्वास के साथ उतरिये !🔱 

       इसके पहले वाले  के सत्र में हमलोग पाँचवे प्रश्न- अनात्मा क्या है ? का उत्तर सुन रहे थे। कुछ लोग सवेरे वाले सत्र को मिस कर गए हैं , तो मैं पहले संक्षेप में दुहरा देता हूँ। अनात्मा क्या है ? जब इस प्रश्न पर विचार करते हैं , तब सबसे प्रथम हमारा अपना स्थूल शरीर ही सामने आता है। अनात्मा की सबसे स्थूल अभिव्यक्ति हमारा अपना स्थूल शरीर ही है। तो ये स्थूल शरीर क्या है ? यह सत्यार्थी के अन्वेषण का विषय है। हमने गहरी दृष्टि से विचार करने पर देखा था कि इसके भीतर क्या-क्या है -अस्थि है, मज्जा है,मेद है , पल है ,रक्त है , चर्म है; और फिर उसके विभिन्न मुख्य अंग और उपांग हैं। स्थूल शरीर का विस्तृत वर्णन करने का प्रयोजन है कि ये किस चीज से बना हुआ है ? 

      हम सतही दृष्टि से जब विपरीत लिंगी किसी शरीर को देखते हैं , तो जम इस पर मोहित हो जाते हैं। हम सतह पर देखकर के हम मोहित या Hypnotized हो जाते हैं -ये बहुत बड़ी समस्या है कि नहीं ? हमारी सारी समस्याओं का मूल है - Superficial दृष्टि -सतही से कहते हैं वो 2 mm view तक - अभी हमारी दृष्टि सिर्फ चमड़े तक ही सीमित है। थोड़ा सा हम भीतर चले जाएँ तो M/F शरीर सब समान है या नहीं ? चमड़े के पीछे कदम रखते ही सब समान हो गए या नहीं ? हम लोग Hypnotized  क्यों हैं ? हमारा जो चमड़ी देखने वाला 2 mm दृष्टि है , उसके कारण भीतर से देखने पर सब समान है। जबतक दृष्टि चर्म तक सीमित रहती है , तब तक हम सब मोहित हैं। हमको लगता है कि ये सुंदर है , ये सुंदर नहीं है। ये स्त्री है -ये पुरुष है , ये सुंदर -ये असुंदर है ; आप थोड़ा भीतर चले जाएँ तो , ये सब भेद भीतर झाँकने से चला जाता है। उस दृष्टि से देखने पर सब कुछ बदल जायेगा। खास करके युवा अवस्था में , युवावस्था से सभी लोग गुजरते हैं। उस अवस्था में ; युवा वस्था में हम सभी  सिनेमा देखकर के बड़े हुए हैं। सभीलोग बचपन से सिनेमा देखते आये हैं , सिनेमा तो मनोरंजन  में जीवन का एक अंग ही है। उसमें कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन सिनेमा के हीरो , हीरोइन का हमारे जीवन पर कितना प्रभाव हर व्यक्ति के मन पर पड़ता है! सतह पर देखकर हम उनके चेहरे से मोहित हो जाते हैं। लेकिन अब जब, इस दृष्टिकोण से  सिनेमा देखेंगे तो इस नई दृष्टि से देखेंगे। थोड़ा सा भीतर चला जाये , और अब आप पर्दे पर देखकर मूर्ख नहीं बनोगे। शरीर भीतर से तो सभी समान है , इसमें से कौन आकर्षक है -कौन नहीं है ?  हमने देखा कि शरीर पंचभौतिक है , पंचभूतों से बना हुआ है। इस शरीर और इन्द्रियों के माध्यम से हमको जो विषय दिखाई देते हैं ,वे भी उन्हीं पंचभूतों से बना हुआ है। सारा विश्व-प्रपंच पंचभौतिक है। आकाश , वायु, अग्नि , जल और पृथ्वी। फिर शंकराचार्य जी एक बड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा उठाते है - वो है आसक्ति (राग) का मुद्दा - हमारा व्यव्हार भी आसक्ति से संचालित, राग संचालित है। वहाँ विषयों में आसक्त व्यक्ति को शंकराचार्यजी मूढ़ कहते हैं - ये एषु मूढा विषयेषु बद्धा !   (6.44

आसक्ति और प्रेम का विवेक  

 मूढ़ ' यानि 'मूर्ख' कौन है ? जो मगरमच्छ को लट्ठा समझ रहा है। जो एक चीज को दूसरा समझ रहा है -वो विद्वान् तो नहीं है ? इस दृष्टिकोण अगर देखें - तो समाज में विद्वान् या समझदार लोग कितने हैं ? शास्त्र से उतन्न होने वाली अब समझदारी की परिभाषा ही बदल जाएगी। शास्त्र से उत्पन्न होने वाली यह नई दृष्टि है। मुर्ख व्यक्ति वो है जो आसक्ति के कारण विषयों में आबद्ध हो जाता है। बंधने के रस्सी की आवश्यकता होती है।  

     गाय को अगर खूँटे से बांधना ही तो रस्सी की आवश्यकता है। मनुष्य को विषयों में बांधने वाली रस्सी है राग - Attachment! और ये जो आसक्ति रूपी अदृश्य रस्सी जो है , वो अदृश्य है। ये रस्सी बहुत मजबूत है , इस रस्सी को काटना बहुत मुश्किल है। जो मूढ़ व्यक्ति व्यक्तियों और विषयों में आसक्ति की रस्सी में बंध जाता है उसका फल क्या होता है ? आयान्ति निर्यान्ति अध: ऊर्ध्वम् उच्चै: स्वकर्मदूतेन जवेन नीताः। वो आता है जाता है ,आता है जाता है,आता है जाता है, माने ? जन्म लेता है , फिर मरता है ,जन्म लेता है , फिर मरता है ,जन्म लेता है , फिर मरता है , अपने कर्मों का फल भोगते -भोगते यह क्रम चलता ही रहता है।

        यह आसक्ति- 'राग' रूपी अदृश्य रस्सी ही हमें जन्म-मृत्यु के चक्र में बांधकर रख रही है। (9.50) एक बुलबुला दूसरे बुलबले के साथ आसक्ति रूपी रस्सी से बंधा हुआ है। जब तक आसक्ति रूपी रस्सी से बंधा रहेगा जन्म-मृत्यु के चक्र से बंधा रहेगा। आचार्य शंकर आसक्ति, राग  में बंधे 5 पशुओं का उदाहरण देते हैं - कुरंग-मातंग-पतंग-मीन-भृंगा: नर: पंचभि: अंचित: किम्।। ॥७८॥ ये पाँचो पशु केवल एक विषय में आबद्ध होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। पशु जो काम खुले में करता हैं , हम सभ्य लोग कमरे में बंद करते हैं। यह व्यव्हार हमारा भी है - जब तक विवेक -जाग्रत नहीं हुआ मनुष्य भी पशु का कार्य करता है। सभ्य तरीके मनुष्य बिल्डिंग बना कर करता है। पशुओं से भी भयंकर अवस्था मनुष्य की है जो पाँचों विषयों में आसक्त है। ये विषय - कितने 'Poisonous' विषाक्त हैं ? नाग साँप का विष काटने के बाद असर करता है , पर विषयों का विष दूर से देखने पर ही आदमी को मार देता है। कृष्णसर्पविषात् अपि , विषं निहन्ति भोक्तारं द्रष्टारं चक्षुषा अपि अयम्। पहली नजर में प्रेम ? बहुत बड़ा तीर मार दिया कि मूर्खता का लक्षण है?हम क्या इतने कमजोर हैं ? दूर से देख लिया - और नींद चली गयी ? चैन चला गया ? ब्रह्म ही अविवेक के कारण कितना पराधीन - दीनहीन हो जाता है। नस काट लेता है ? (20.00)

        दूसरा उदाहरण देखिये -हनुमान , विवेकानंद , रमण महर्षि , ठाकुर देव को कोई गुलाम बना सकता है ? कामिनी -कांचन की समस्या आपके मन में घुस गयी है। आप ac कमरे में हैं - पर कामिनी -कांचन की समस्या से नींद नहीं आ रही है। सारी दुनिया काम - मतलब विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण। इससे कोई तृप्त हुआ है क्या। गुलाम जैसे बेड़ियों में बंधा रहता है - कामना और धन के लालच से हम गुलाम बने हुए हैं। इससे जो ऊपर उठ जाता है , वही मुक्त होता है। ऐसा मुक्त होना ही हमारा लक्ष्य है। एक बुलबुला दूसरे बुलबुले के प्रति जो आसक्त हो जाता है , राग रूपी रस्सी से बंध जाता है। 

        पर एक महत्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यही है कि क्या इस आकर्षण या राग को काम कहेंगे या  इसको प्रेम कहेंगे ? पर समाज में इसी को प्रेम कहा जाता है। आसक्ति रूपी बीमारी को ही प्रेम समझ लेते हैं। राग क्या है ? और प्रेम क्या है ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। What is Attachment and What is Love ? हमारे दैनंदिन जीवन में यह आसक्ति ही प्रेम के रूप में प्रतीत होता है। समाज में , फिल्मों में जो प्रेम दिखाया जाता है -वो प्रेम नहीं आसक्ति है। प्रेम क्या है ? इलू इलू क्या है ? आसक्ति को प्रेम कहता है। आसक्ति को हमने प्रेम समझ लिया है , जैसे मगरमच्छ को हमने लट्ठा समझ लिया है। जीवन भर हम एक चीज को कुछ दूसरा समझकर बंध जाते हैं। आसक्ति और प्रेम में क्या अन्तर  है ? पहले आसक्ति को समझते हैं - दो बुलबुलों के बीच में जो पारस्परिक आकर्षण है। जो बुलबुला दूसरे बुलबुले से जुड़ जाता है , वह उसके कल्याण की बहुत चिंता करता है। ये सब प्रेम की तरह दीखता है -ये प्रेम है क्या ? आसक्ति केवल निकट के चंद संबंधियों तक सीमित रहती है - जिनसे हमारा रक्त सम्बन्ध या Genetic relation रहता है। (28.53)  मेरा बच्चा , मेरी पत्नी , ये आसक्ति है। माता-पिता का प्रेम बच्चे के प्रति जो प्रेम है -वो भी आसक्ति है। मेरा बच्चा , और पराया बच्चा एक नहीं दीखता है। 

       स्वामी विवेकानन्द का प्रेम सारी मानवता के प्रति है। ये प्रेम है। सभी इलू इलू करते हैं ? प्रेम क्या है ? प्रेम का स्थूल शरीर से कुछ लेना-देना नहीं है। जब तक अपने को एक M/F शरीर मानते हो , तब तक वो दीखता है प्रेम की तरह , किन्तु वास्तव में वह आसक्ति है। (33.19) शरीर केंद्रित आकर्षण दीखता प्रेम की तरह है , पर वास्तव में आसक्ति है। इसका अंतिम परिणाम दुखद ही होता है, अंत कड़वाहट में होगा । आकर्षण छः महीना में कड़वा हो जाता है , प्रेम कभी कड़वा नहीं हो सकता।  प्रेम आत्मा से उत्पन्न है , आसक्ति शरीर से उत्पन्न होती है। देह से सम्बन्ध का प्रेम - आसक्ति है। पर जो बुलबुला अपने यथार्थ स्वरुप को जा जाता है कि - मैं बुलबुला नहीं अनंत समुद्र हूँ। इस आत्मज्ञान से जो प्रेम उत्पन्न होगा वो सभी के लिए होगा। (36.59) मैं बुलबुला नहीं समुद्र हूँ और ये सारे बुलबुले मेरे अंदर ही हैं। मेरे ही हैं। आत्मज्ञानी बुलबुले के लिए कोई पराया नहीं होगा। उसका प्रेम सीमित कुछ रक्त-सम्बन्धियों से नहीं होगा। उसका प्रेम शरीर से संबंधित -ये मेरा बच्चा है , इसलिए नहीं होगा। समाज तो लैंगिक आकर्षण को ही प्रेम समझता है - यही सबसे बड़ी मूर्खता है। प्रेम तब आएगा जब आप जानोगे मैं 'सच्चिदानन्द आत्मा हूँ ', तो सबको समान रूप से अपना समझोगे। स्वामी विवेकानंद की संवेदनाएं सम्पूर्ण मानवजाति के लिए ही रहेगी। फिल्मों वाला प्रेम- नाचगाना , उछलना -भागना ये सिर्फ मोह है , आसक्ति है। सिनेमा देखिये , पर सिनेमा देखते समय मोह में मत रहिये।  प्रेम की कोई सीमा नहीं होती आसक्ति हर समय सीमित होती है ! शारीरिक आकर्षण - या लैंगिक आकर्षण ही राग रूपी अदृश्य है जिसके कारण हम बंध जाते हैं। इस लैंगिक आकर्षण वाले बंधन से ऊपर उठना -जो देवर्षि नारद को भी बाँध लेती है ? जो पानी पीने में 12 साल बिता देते हैं , उस आसक्ति से ऊपर उठना  यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। (40.47) ये कितना प्रैक्टिकल एडवाइस है ? प्रेम जेनेटिकल नहीं होता -सीमित नहीं होता , अपने शरीर से जुड़े चार-पांच लोगों के लिए नहीं होता। स्वामी जी का अमेरिकन और यूरोप के मित्रों के प्रति प्रेम था -वो शरीर के आकर्षण से उत्पन्न प्रेम नहीं था ,आत्मा से उत्पन्न प्रेम था इसलिए उसमें शारीरिक स्वार्थपूर्ण आकर्षण की गंध भी नहीं थी , सभी के प्रति समान था। शरीर के आकर्षण से उत्पन्न होने वाला प्रेम आसक्ति है , वो कभी प्रेम नहीं हो सकता। स्वामी रंगनाथानंद जी महाराज (मठ-मिशन के 13 वें अध्यक्ष) कहते थे - (43.00) जो लोग सिर्फ शरीर केंद्रित जीवन जीते हैं -' मैं और मेरा परिवार' उतने तक ही जिनका प्रेम सीमित रहता है , बाकि दुनिया नष्ट हो जाये उनको उससे कुछ मतलब नहीं केवल हमलोग बचे रहें। सभी लोग तो 'मैं' और 'मेरा' में ही तो फंसे है ? यही तो है, घर-संसार वाली सीमित दुनिया। ऊपर से  देखने पर मैं और मेरा बड़ा प्रेम की तरह दीखता है , ये मोह है , अपने को सीमित करना है। पहले तो आपने अपने को शरीर मान लिया है ? और अपने शरीर मानकर दूसरे बुलबुलों के साथ , अपने एक प्रकार का संबंध बना लिया है -जो रक्त का संबंध है। शारीरिक संबंधियों से आप बंधे हुए हैं ? इस मोह रूपी प्रेम का अंत केवल दुःख है , अंधकार, लेकिन आत्मा से उतपन्न प्रेम प्रकाश है -क्योंकि वह असीम है। प्रेम में शारीरिक सम्बन्ध है ही नहीं। प्रेम का सेक्स और लिंग से कोई संबंध नहीं है।Love has nothing to with sex and gender .हर आदमी वासना में आसक्ति को ही प्रेम समझ लेता है - नारद का माया-दर्शन स्मरण रखने योग्य कथा है। रंगनाथ जी बहुत सुंदर ढंग से मोहग्रस्त लोगों की ईश्वर से प्रार्थना करने के ढंग का वर्णन करते थे कि वे कैसे प्रार्थना करते हैं ? O God save me and my wife, my son and his wife , we four and no more ! ये प्रेम की तरह दीखता है -पर पूरा अंधकार है। प्रेम की प्रार्थना कैसा होता है ? हे भगवान सभी सुखी रहें। ये बुद्धि आत्मा से आती है ! तो हमें ऐसे प्रेम में प्रतिष्ठित होना है , आसक्ति में नहीं। आसक्ति बंधन में डाल देती है , प्रेम आपको मुक्त कर देती है। जब अपने को समुद्र रूपी सच्चिदानंद जानोगे , तब प्रेम आएगा , जब आप अपने देह या बुलबुला समझोगे तो विपरीत लिंग के प्रति आसक्ति होगी। सब बुलबुले मेरे हैं ! समुद्र की सतह पर उठने वाले जितने बुलबुले हैं , वे किसके बुलबुले हैं ? वे समुद्र के ही बुलबुले हैं। इसलिए विवेकानंद के लिए सब मेरे हैं, क्योंकि वे वेदांती थे। यही अद्वैत वेदांत है - सब मेरे अपने हैं, कोई पराया नहीं है ; ये प्रेम है ! (46.57) इसको समझना बहुत महत्वपूर्ण है , इसको समझने से व्यक्ति में बहुत बड़ा बदलाव लाता है , इसीलिए इस पर अधिक जोर दिया जा रहा है। तो हमलोग शुरू से ही विवेक के महत्व को समझ रहे हैं - कि हमलोग एक चीज को दूसरा समझ रहे हैं , आसक्ति को प्रेम समझ रहे हैं। मगरमच्छ को लट्ठा समझ रहे हैं। इसीलिए सभी पीड़ित हैं , सभी कष्ट में हैं। अपने परिवार में ही देख लीजिये -जो पुत्रमोह में आसक्त है वो भी पीड़ित है , जिससे आसक्त है -वो भी पीड़ित है। प्रेम किसी को बांधकर नहीं रखता। हम जिससे आसक्त हो जाते हैं , हम उसको बांध के रखना चाहते हैं। आसक्ति में Sense of possessiveness, पकड़ के रखने का भाव होता है। मेरा बेटे है -मेरे हिसाब से चलेगा ? स्वामी जी कहते हैं -Liberty is first condition of growth! Love and Freedom are the same thing . स्वतंत्रता विकास की पहली शर्त है ! एवं प्रेम और मुक्ति एक ही बात है ! प्रेम और स्वतंत्रता एक ही बात है। (48.55) आसक्ति वाला प्रेम -प्रेम नहीं मोह है , हमको बांधता है। दोनों बुलबुला जानता है कि वे टूटने वाले हैं - पर एक दूसरे को पकड़कर सुरक्षित रहने की चेष्टा करते हैं। ये कैसा है ? शुतुर्मुग वाली अवस्था है -  तूफान आने पर गड्ढा खोदकर उसमें मुख छिपाकर सोचता हैं , हम बच जायेंगे। अपने को शरीर मानकर प्रेम करने वाले सभी बुलबुलों का यही स्वभाव है , ये हम सबके साथ हो रहा है। पत्नी को लगता है -मैं पति के साथ रहकर सुरक्षित हूँ , पति को लगता है -पत्नी के साथ रहकर मैं सुरक्षित हूँ। एक दिन वो पतिरुपी बुलबुला टूट जायेगा , तो वो रोयेगी या रोयेगा ? जब तक बुलबुला अपने सत्य स्वरुप को नहीं जानेगा , मैं वो अनंत समुद्र हूँ , तब तक इन समस्याओं का कोई स्थायी समाधान नहीं है। एक बुलबुला दूसरे बुलबुले के साथ सम्बन्ध बनाकर आप भयमुक्त नहीं हो सकते हो। स्थूल शरीर ही सबसे बड़ा अनात्मा है ; यही इस अध्यन का निष्कर्ष है। 

       शरीर ही अनात्मा है - यह बोध होने से शास्त्र और गुरु हमारी ऑंखें खोल रहे हैं ! हम कितने भ्रमित थे -जगत सत्य को लेकर ? इस जगत के विषय में हमने ऐसा कभी सोचा भी नहीं था। तो आगे से फिल्म में नायक-नायिका को कश्मीर में डांस करते देखकर याद रखना कि ये लैंगिक आकर्षण मोहः है -प्रेम नहीं है। फ़िल्मी गाना सुनते -देखते समय याद रखो कि ये प्रेम नहीं मूर्खता है। इस भ्रम के मूल में है - 2mm वाला दृष्टिकोण। जो व्यक्ति चमड़ी वाली दृष्टि से ऊपर उठ गया उसकी 60 % समस्या का समाधान हो गया। (52.58)  M/F के आकर्षण से हम मोहित हो गए हैं।  M/F के 2mm दृष्टि के कारण हम सम्मोहित हो गए हैं - Hypnotized हैं ? इसके भीतर जाकर देखिये तब आपका लिंगभेद नहीं रहेगा। तब जगत को देखते समय आपका दृष्टिकोण शरीर केंद्रित नहीं होगा , लिंग केंद्रित नहीं होगा।  हम स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श क्यों मानते हैं ?  उनके जीवनी को पढ़ना जरुरी क्यों है ? उनकी दृष्टि प्रेम पूर्ण थी। क्योंकि उनका दृष्टिकोण समदर्शी था -M/F की दृष्टि से वे अपने शिष्यों को या जगत को नहीं देखते थे। वे किसी भी शरीर से नहीं बंधे थे , लेकिन हम तो गुलामों की तरह - विपरीत लिंगी शरीर के आसक्ति में बेड़ियों से बंध जाते हैं। तो इस बंधन से मुक्त होना यही मनुष्य जीवन का , विवेक-दृष्टि सम्पन्न मनुष्य के जीवन का मुख्य उद्देश्य है। कि राग (Infatuation) क्या है ? प्रेम (Love) क्या है ? इन दोनों में भ्रम में नहीं पड़ना है। शरीर का प्रेम -मोह ही है, ससीम है -दुःख होगा। प्रेम -असीम है , इसमें शरीर की लैंगिक दृष्टि वाला प्रेम नहीं है। प्रेम क जन्म आत्मा से होता है , आसक्ति या राग का जन्म अपने को M/F शरीर मानने से होता है। देखिये भ्रम को तोड़ने का काम केवल गुरु और शास्त्र ही कर सकते हैं या नहीं ? (55.41) हमारे माता-पिता भी कर सकते हैं क्या ? क्योंकि वे भी इसी विषय में भ्रमित हैं। उनको लगता है कि वे प्रेम कर रहे हैं -पर वे भी, ब्लड रिलेशन के कारण पूरी तरह से आसक्त हैं। मोहित हैं। उनकी संवेदना कुछ लोगों तक सीमित हैं। 77 वां श्लोक को एक बार फिर से पढ़ लीजिये इसमें अनात्मा को लेकर विष जितना खतरनांक है , मोह के प्रति गुरु और शास्त्र हमें सावधान  कर रहे हैं।  - 

ये एषु मूढा: विषयेषु बद्धा: रागोरुपाशेन सुदुर्दमेन। 

आयान्ति निर्यान्ति अध: ऊर्ध्वम् उच्चै: स्वकर्मदूतेन जवेन नीताः। 

ये विषय इतने खतरनाक हैं कि ये दूर से देखने से हमें मर देती हैं , क्योंकि हम दूर से देखकर ही हम अदृश्य राग रूपी रस्सी से हम बंध जाते हैं। इस एक मात्र श्लोक को पकड़ लोगे तो जीवनभर कभी गलत जगह पर पैर नहीं रखोगे। ये विवेक है - स्पष्टता है- आसक्ति क्या है ? प्रेम क्या है ? आसक्ति और प्रेम का विवेक ही हमें मगरमच्छ को लट्ठा समझने से बचाता है ! हर विषय में हमने गोलमाल कर दिया है - B.'H' राग को हमने प्रेम समझ लिया ?  इन दोनों के बीच विवेक कर के देखो तब आपको समझ में आएगा कि राग क्या है -प्रेम क्या है ? तब आपको समझ में आएगा कि क्या लेना है और क्या छोड़ना है ? सच्चा प्रेम हो गया तो जीवन धन्य हो जायेगा। मैं आत्मा से उतपन्न प्रेम की बात कर रहा हूँ , विवेकानन्द वाला प्रेम ! जिसमें न लिंग का कोई स्थान है , न कोई शरीर के साथ संबंध है। शारीरिक-आकर्षण का वहाँ कोई स्थान नहीं है। लेकिन सब के प्रति समभाव ! ये शरीर क्या है ? ये शरीर ही 'मैं' और 'मेरा' का आस्पद है।  "अहं मम इति प्रथितं शरीरं, मोहास्पदं स्थूलम् इति ईर्यते बुधैः।७४। यह स्थूल शरीर ही मोह का आस्पद है। मैं -मेरा करते रहना प्रेम की तरह दीखता है , ये प्रेम नहीं है। ये सिर्फ राग है - आसक्ति है।  मैं -मेरा नाम का कोई चीज नहीं है - लेकिन हम इसी राग रूपी अदृश्य बंधन में बंधे हुए हैं।   

 के बाद अब श्लोक 84 को लेते हैं -Sticking is strictly prohibited -  

मोक्षस्य काङ्क्षा यदि वै तवास्ति,

  त्यजातिदूराद्विषयान् विषं यथा।

पीयूषवत्तोषदयाक्षमार्जव-

प्रशान्तिदान्तीर्भज नित्यमादरात् ॥ ८४ ॥


[ मोक्षस्य कांक्षा यदि वै तव अस्ति, त्यज अतिदूरात्  विषयान् विषं यथ‍ा। पीयूषवत् तोषदयाक्षमार्जव-प्रशान्तिदान्ती: भज नित्यम् आदरात्।

अर्थ:-यदि तुझे मोक्ष की इच्छा है तो विषयों को विषके समान दूर ही से त्याग दे। और सन्तोष, दया, क्षमा, सरलता, शम और दम का अमृत के समान नित्य आदरपूर्वक सेवन कर।

   (1:00:52)  आप यदि मोक्ष प्राप्त करने के इच्छुक हो, तो आपको एक चीज से दूर रहना है , एक चीज को छोड़ना है, दूसरे चीज को पकड़ना है।  तो हमको छोड़ना क्या है ? -तो आदिगुरु शंकराचार्यजी हमें पुनः सावधान करते हुए कहते हैं, यदि तुझे मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा हो तो  - त्यज अतिदूरात्  विषयान् विषं यथ‍ा। ये जितने भी इन्द्रियविषय हैं इनको दूर से ही - 'Goodbye' -अलविदा कर दो ! दूर से ही इन्द्रिय विषयों को 'राम-राम' कर दो। इन विषयों के चक्कर में पड़ो ही मत। मतलब विषय तो आएंगे ही लेकिन उसमें आसक्त न होना। आसक्ति -रहित होकर विषयों का सदुपयोग करो। विषयों को छोड़ना है -यानि कमंडल लेकर जंगल में नहीं भागना है। आसक्ति रूपी रस्सी के बंधन को काटना है। अब यदि कोई ऋषि वाल्क्य जैसा जीवन में -कात्यायनी और मैत्रयी जैसे दो पत्नियों के मोह से बंधा हो , तब उसे इस रस्सी को काटने में बहुत पापड़ बेलना पड़ता है। फंस-के निकलना बहुत कठिन है। आसक्ति के बगैर भी ऋषि याग्वल्क्य ने धन का बँटवारा और ज्ञान का बंटवारा किया। विषयों को छोड़ना मतलब कामिनी या कंचन कहीं भी चिपको मत। एक बुलबुला दूसरे बुलबुले से चिपकने के बाद भी - और भी कई बुलबुलों के साथ चिपकने का प्रयास करता है। यही तो बंधन है। एक बुलबुला या बुलबुली जो खुद टूटने वाला है , उसको लगता है कि दूसरे बुलबुलों के साथ चिपककर वह सुखी हो जायेगा / हो जाएगी ? वो सुखी होता है क्या ? वो चिपकना ही तो बंधन का कारण है। सारा जीवन वो बुलबुला ही बना रहता है -बुलबुला ही मरता है। फिर बड़ा बुलबुला बनेगा। लेकिन जब तक वो बुलबुला होकर दूसरे बुलबुले से चिपकने की आसक्ति में बंधा रहेगा वह जन्म-मृत्यु ,जन्म-मृत्यु, जन्म-मृत्यु, जन्म-मृत्यु के चक्र में बंधा ही रहेगा। घुमा-फिराकर हमारे जीवन का अपना दर्शन क्या होगा ? किसी भी नश्वर बुलबुले के साथ चिपकना मना है।  चिपकना मना है' - ऐसा ही नहीं  चिपकना सख्त मना हैSticking is strictly prohibited !! अपने पढ़ने के कमरे में इसको लिख करके रख दो -किसी भी नामरूप के BH में चिपकना सख्त मना है। कोई बुलबुली जो दूसरे बुलबुले के साथ चिपक कर सुखी होने का प्रयास कर रही है , वह प्रयास दुखद ही होगा विफल ही होगा ! गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को यही समझा रहे हैं। सबके बीच में रह , समाज के कर्तव्यों का पालन कर , अपने जीवन में कुछ करणीय लगे वो सब कर , लेकिन किसी से चिपक मत। संगं त्यक्त्वा, संगं त्यक्त्वा,संगं त्यक्त्वा -दर्जनों बार भगवान कृष्ण यही कह रहे हैं।  

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।। 

।।2.48।। हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।हे धनंजय योगमें स्थित होकर केवल ईश्वर के लिये कर्म कर। उनमें भी ईश्वर मुझ पर प्रसन्न हों। इस आशारूप आसक्तिको भी छोड़कर कर।वह कौनसा योग है जिसमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहा है यही जो सिद्धि और असिद्धिमें समत्व है इसीको योग कहते हैं।

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः।।18.9।।

हे अर्जुन ! "कर्म करना कर्तव्य है" ऐसा समझकर जो नियत कर्म आसक्ति और फल को त्यागकर किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है।। 

तो अंत में इस ब्राहमयी दृष्टि से अनासक्त होकर कर्म करने का अर्थ, जीवन का दर्शन ये होगा कि -किसी भी बुलबुले से चिपक मत , चाहे वो कितना भी प्यारा क्यों न लगता होSticking is strictly prohibited ! जो माता-पिता बन गए हैं -उनके लिए यह ज्यादा आवश्यक है। ये बहुत बड़ी सलाह है - यदि आप गलत धारणा के साथ मैदान में उतरोगे , तो मुश्किल में फंस जाओगे। मैदान में उतरना ही है -तो विवेक के साथ उतरेंगे ! तब आप पूरी समझदारी के साथ अपने जीवन को जी सकोगे। ये प्रैक्टिकल बात है। जब आप इन्द्रिय-विषय , प्रेम और आसक्ति आदि के विषय में स्पष्टता से जान लोगे तब विवेक के साथ मैदान में उतरेंगे। तमाशा घुस के देखेंगे - पर विवेक साथ देखेंगे।  मैदान में तो उतरना ही है - पर पूरे आत्मविश्वास के साथ उतरिये ! जीवन की हर समस्या को समझदारी के साथ निबटाइये।  ये जीवन की कला है। हम यहाँ पाठचक्र में जीने की कला सीख रहे हैं ! अविवेक में जब तक हैं - अपने स्थूल शरीर को ही मैं समझ रहे हैं , तो आपका जीवन एक प्रकार का होगा। पहले ही हमने देखा है - जो व्यक्ति मगरमच्छ को ही जबतक लट्ठा समझ रहा था, तबतक उसका आचरण क्या था ? उसकी ओर दौड़ रहा था , जब उसको ये पता चला कि ये लट्ठा नहीं है मगरमच्छ है - अब उसका आचरण क्या है ? अब समझदारी आ गयी -अब वो उसको समझदारी से हल करेगा। जब विवेक आ गया तो व्यक्ति हर चीज को समझदारी से हैंडल कर सकता है। ये विवेक पगपग पर हर विषय में - पांचों विषय हमने देखे न ? हर विषय में लागु होता है। हर चीज में हम एक को दूसरा समझकर बैठे है। प्रेम क्या है ? आसक्ति क्या है ? इसका विवेक हो जाना ही असली शिक्षा है , जो हमें केवल गुरु और शास्त्र से ही मिल सकता है। हमारे दैनंदिन जीवन के लिए यह अनिवार्य शिक्षा है , क्योंकि हम यहाँ आसक्ति को ही प्रेम समझकर बैठे हैं। इससे ऊपर उठना होगा।  असली प्रेम कुछ और ही है। प्रेम की कोई सीमा नहीं है प्रेम का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है। प्रेम का लिंग के साथ कुछ लेना देना नहीं है , प्रेम का स्त्री-पुरुष भाव वाली  आकृति के साथ कोई संबंध नहीं है। सब समान हैं !! उस ब्रह्ममयी दृष्टि वाले मनुष्य के लिए सब समान है। विवेक चूड़ामणि ग्रंथ के 84 वें श्लोक पर विस्तृत चर्चा हमलोग अगले सत्र में देखेंगे।      

       [विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आद्य शंकराचार्य मोक्ष प्राप्ति की आकांक्षा रखने वाले साधक को स्पष्ट और गहन मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। वे कहते हैं कि यदि वास्तव में तुम्हारे भीतर मोक्ष की तीव्र इच्छा है — वह परम सत्य की प्राप्ति, संसार बन्धन से पूर्ण मुक्ति की आकांक्षा है — तो सबसे पहले तुम्हें विषयों का, इन्द्रिय-सुखों का त्याग करना होगा। विषय, यहाँ केवल भोग-विलास की वस्तुएँ नहीं हैं, बल्कि वे समस्त आकर्षण हैं जो आत्मा को शरीर और जगत से बाँधते हैं। इन विषयों की तुलना शंकराचार्य ‘विष’ से करते हैं — जैसे विष शरीर का नाश करता है, वैसे ही विषय चित्त की शुद्धता का नाश कर आत्मज्ञान से दूर कर देते हैं। इसलिए, विषयों का दूर से ही परित्याग करना आवश्यक है; उन्हें निकट लाना भी साधक के लिए घातक हो सकता है।

विषयों का त्याग ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि त्याग के साथ-साथ जीवन में अमृत-स्वरूप सद्गुणों का समावेश भी आवश्यक है। शंकराचार्य छः ऐसे गुणों का उल्लेख करते हैं जो आत्मज्ञान की ओर ले जाने वाले हैं — संतोष, दया, क्षमा, सरलता, शम और दम। ये गुण साधक की आन्तरिक भूमि को पवित्र और उर्वर बनाते हैं, जिस पर आत्मज्ञान का बीज सहज रूप से पनपता है। संतोष वह गुण है जो बाह्य वस्तुओं की इच्छा को क्षीण करता है और अन्तःशांति प्रदान करता है। दया से हृदय में करुणा का संचार होता है, जो द्वैत की दीवारों को गिराता है। क्षमा मन में रहने वाले वैर, रोष और प्रतिशोध की वृत्तियों को समाप्त करती है और अहंकार को पिघलाती है।

सरलता या आर्जव वह गुण है जो जीवन को निष्कपट और सच्चा बनाता है। यह मन, वाणी और कर्म में एकरूपता लाता है। शम अर्थात् चित्त की स्थिरता — मन को विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर करना। दम अर्थात् इन्द्रियों का निग्रह — इन्द्रियों को विषयों की ओर भागने से रोकना और आत्मविवेक की दिशा में लगाना। ये गुण साधक के लिए केवल सैद्धान्तिक अवधारणाएँ नहीं हैं, बल्कि उन्हें प्रतिदिन के जीवन में आदरपूर्वक अपनाना होता है। जैसे कोई अमृत को नित्य पीता है, वैसे ही इन गुणों का नित्य सेवन करना आवश्यक है, क्योंकि ये ही मुक्ति के द्वार तक पहुँचने के साधन हैं।

      शंकराचार्य का यह उपदेश केवल वैराग्य की ओर नहीं ले जाता, बल्कि सकारात्मक आध्यात्मिक जीवन की रचना करता है। यह हमें बताता है कि मोक्ष केवल संन्यास या त्याग से प्राप्त नहीं होता, बल्कि एक विशुद्ध और सद्गुणों से युक्त जीवन जीने से प्राप्त होता है। जब विषयों का त्याग और सद्गुणों का अंगीकरण एक साथ होता है, तब ही चित्त निर्मल होता है और आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने लगती है। अतः इस श्लोक में मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो निर्देश दिए गए हैं, वे न केवल व्यवहारिक हैं, बल्कि साधना के प्रत्येक चरण में हमारे लिए आवश्यक भी हैं।  इसलिए चिपकना सख्त मना है

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