वेदान्तशास्त्रों में आत्म-तत्व का निरूपण करने के लिये, अथवा अन्नमय कोष से आनन्दमय कोष तक की उर्ध्वमुखी यात्रा करने के लिये, अथवा इस रहस्य को समझाने के लिए कि, " इस संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है और जहाँ तक हमारी बुद्धि अनुमान कर सकती है, उन सबका (2H) का मूल स्रोत्र एक मात्र ‘परब्रह्म’ (3rd'H-हृदय) ही है;" जिस प्रकार - 'श्रुति,युक्ति और अनुभूति' (स्वसंवेद्य तथा परसंवेद्य अनुभूति) आदि प्रणालियों का सहारा लिया जाता है। उसी प्रकार-
या देवी' अर्थात 'जो माँ जगदम्बा हैं;'
'सा सारदा'- वे सारदा सरस्वती हैं!"
इस उच्चतर सत्य का निरूपण,अथवा माँ सारदा के देवीत्व का निर्धारण [अर्थात माँ जगदम्बा ही श्रीमाँ सारदा सरस्वती के रूप में ज्ञान देने के लिए अवतरित हुई हैं-का निर्धारण] करने के लिये भी हमलोग यहाँ भगवान श्रीरामकृष्णदेव उक्तियों का, माँ के द्वारा स्वयं अपने मुख से उच्चारित स्वरुप को प्रकाशित करने वाले कथनों का, तथा विभिन्न सन्यासियों और भक्तों के दर्शन एवं अनुभवों का संक्षेप में उल्लेख करेंगे।
श्रीदुर्गासप्तशती के आलोक में माँ सारदा देवी
अब हमलोग श्रीदुर्गासप्तशती के आलोक में माँ सारदा के देवी रूपों को देखने की चेष्टा करेंगे। दुर्गासप्तशती के पाँचवें अध्याय में देवताओं ने 'अहं और मम ' के प्रतीक शुम्भ-निशुम्भ का वध करने के लिए देवी भगवती विष्णुमाया की स्तुति प्रारम्भ करते हैं। ग्रंथ में इस ५ वें अध्याय के १४ से लेकर ८० श्लोकों तक देवी के २३ रूपों का वर्णन किया गया है। हमलोगों के देश में बच्चे-बूढ़े क्या स्त्री क्या पुरुष प्रत्येक के मुख से 'या देवी सर्वभूतेषु.....नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः' सुनने को मिलता है। प्रथम 'नमस्तस्यै' पद के द्वारा माँ के स्थूलरूप, द्वितीय पद के द्वारा सूक्ष्मरूप, तृतीय पद के द्वारा कारणरूप एवं 'नमो नमः' पद के द्वारा माँ के कारणातीत तूरीय-शक्ति की विशेषता (इन्द्रियातीत-उच्चतर सत्य की quality-स्वभाव) को प्रणाम किया जाता है। देवी को इतनी बार प्रणाम करने का उद्देश्य क्या है ?
शास्त्रों में कहा गया गया है कि 'अहंकार' ही वास्तविक असुर (राक्षस) है। इस अहं रूपी राक्षस को मारने का एकमात्र अस्त्र है 'नमः', अर्थात 'न मम' -मेरा नहीं। यहाँ का कुछ भी मेरा नहीं है माँ, सब कुछ तुम्हारा है। इस प्रकार पृथक 'अहं'-बोध के नष्ट करने से ही माँ जगदम्बा आविर्भूत हो जाती हैं। देवताओं के इस स्तुति (प्रणाम मंत्र) के द्वारा सन्तुष्ट होकर देवताओं के समक्ष अपने वास्तविक रूप में देवी (सर्वव्यापी मातृहृदय के 'अहं'-बोध) विष्णुमाया के विराट रूप में प्रकट हो गयीं !
(मनःसंयोग के पाँचवे चैप्टर -'मन का स्वभाव' में कहा गया है;मदिरोन्मत, बिच्छूदंशित, महिषासुर-चण्ड-मुण्ड-शुम्भ-निशुम्भ- आदि राक्षस 'अहं' के रूप में मन रूपी बंदर पर सवार हो जाता है। 'अहं' का भाई है 'मम' -मेरी पूँछ! श्रीरामचरित मानस का भी पांचवा अध्याय है सुन्दरकाण्ड -'कपि के ममता पूंछ पर।')
१. या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता:
विष्णुमाया -भगवती दुर्गा का ही एक अन्य नाम है। इनको ही योगमाया, महामाया कहा जाता है। इसी मायाशक्ति का आश्रय लेकर ईश्वर सृष्टि, स्थिति और लय करते हैं। सात्विक,राजसिक और तामसिक अंतर्जात (natural,स्वाभाविक) भेद के अनुसार विष्णुमाया त्रिगुणमयी हैं। (triplets=a set of three similar things considered as a unit) वेदान्त के मतानुसार ईश्वर मायाधीश हैं, और जीव मायाधीन है। ईश्वर माया की सहायता से लीला करते हैं, किन्तु माया उनको अभिभूत (overwhelmed या पराजित) नहीं कर सकती, जैसे साँप का विष उसके मुख में रहता है, किन्तु उससे सांप को कोई नुकसान नहीं पहुँचता। (चरित्र के गुण -'संतुलन' में नारद जी ने भी नारायण से विष्णुमाया को देखने की इच्छा प्रकट की थी ?)
माँ सारदा श्रीदुर्गासप्तशती में वर्णित वही विष्णुमाया हैं। श्रीरामकृष्ण के अन्तर्धान के बाद उन्होंने स्वयं माया को स्वीकार करके इस जगत में लीला की हैं। "माँ की भतीजी (भाई की बेटी) राधू के पिता का देहान्त हो गया था, और उसकी माँ सुरबाला देवी तब निपट पगली थीं। वे कुछ कथरी बगल में दबाकर खींचित हुई चली जा रही थीं, और राधू घसटती हुई रोते-रोते उनके पीछे-पीछे जा रही थी, और राधू घसटती हुई रोते रोते उनके पीछे पीछे जा रही थी।
यह देखते ही श्री माँ का मन व्यथित हो उठा। उन्होंने सोंचा "ठीक तो, इसे यदि मैं न देखूँ तो कौन देखेगा ? पिता है नहीं, माँ पगली है। " दौड़ कर उन्होंने राधू को उठा लिया। ठीक इसी समय श्रीरामकृष्ण प्रकट हो कहने लगे," यही, (छोटी बच्ची राधू को दिखलाते हुए) वह लड़की है; 'इसीका अवलम्बन लेकर रहो, यह योगमाया है।'
एक बार स्वामी विश्वेश्वरानन्द ने माँ को कहा था -'माँ, आप में अपनी भतीजी के प्रति इतनी आसक्ति क्यों है? घोर संसारी लोगों के जैसा आप भी रातदिन घोर सांसारिकों की तरह 'राधी,राधी' करती रहती हैं, और इतने भक्त लोग आते हैं, उनकी ओर इतना ध्यान नहीं देतीं। इतनी आसक्ति ! क्या यह अच्छा है ?" पहले भी इस प्रकार के प्रश्न श्रीमाँ ने अनेक बार सुने थे और धीरे से उत्तर दिया था, " हम औरत जात हैं, हम ऐसी ही हैं। " किन्तु आज उन्होंने थोड़ा आन में आकर कहा," ऐसी (मेरे जैसी) तुम कहाँ पाओगे ? मेरे बराबर एक ढूँढ़कर निकालो तो सही ! जानते हो, जो लोग सर्वदा परमार्थ -चिंतन में लगे रहते हैं, उनका मन अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध हो जाता है। वह मन जिस वस्तु को पकड़ता है, तो उसे दृढ़ता से पकड़े रहता है। इसीलिये बाहर से देखने पर आसक्ति सी दिखाई है। " (श्रीमाँ सारदा देवी -२३९)
किसी ने माँ से पूछा था -'अच्छा, क्या आपको क्या सदैव अपने स्वरुप का ज्ञान नहीं रहता ?' माँ ने कहा, "हर घड़ी कहाँ रहता है ? वैसा होने से क्या ये सब काम किये जा सकते हैं ? पर हाँ, काम-काज के बीच जब कभी इच्छा होती है, थोड़ा विचार करने से ही तुरंत आत्मस्मृति जाग्रत हो जाती है,(विवेक-जाग्रत ?) और झट उद्दीपन होकर महामाया की सारी लीला समझ में आ जाती है। " (श्रीमाँ सारदा देवी ५५८)
माक़ू के छोटे से लड़के 'नेड़ा' की मृत्यु से कोआलपाड़ा में श्रीमाँ को रोते-बिलखते देखकर, मैसूर के भक्त नारायण अयंगर ने पूछा-" माँ,नेड़ा की मृत्यु से आप फिर साधारण मनुष्यों की तरह रोने क्यों लगी ?" श्रीमाँ ने उत्तर दिया, " मैं संसार में हूँ, संसार-वृक्ष के फल तो खाने ही पड़ेंगे। इसीलिए मेरा रोना-पीटना है।" "भगवद-रचित इस संसार-यंत्र की अपनी एक धारा है, जिसे प्रत्येक देहधारी को मानकर चलना पड़ता है। श्रीरामकृष्ण ने कहा था -" नरलीला में अवतार को ठीक मनुष्य की तरह आचरण करना पड़ता है, इसिलिये उन्हें पहचानना कठिन होता है। "और भी कहा करते थे -"पंचभूत के फन्दे में पड़कर ब्रह्म भी रोता है। " श्रीमाँ/५५७/
श्रीमाँ के जीवन में उच्चतर सत्य के प्रति भावों का स्रोत तथा पारिवारिक कर्तव्यों के पालन की धारा दोनों एक साथ इस प्रकार सामंजस्य बनाकर चलते थे कि नवागत सामान्य व्यक्ति के लिए उन दोनों को अलग अलग अलग करना अथवा उनका अलग अपना अपना गूढ़ार्थ समझ लेना बहुत कठिन था। एक दिन काशी की कई स्त्रियों ने आकर देखा कि श्रीमाँ राधू, भूदेव आदि को लेकर बड़ी व्यस्त हैं, तथा गोलाप माँ से अपने फटे कपड़ों को जरा सी देने को कह रही हैं। वे स्त्रियाँ यहाँ भी चिर-परिचित सांसारिक व्यवहार की पुनरावृत्ति देख बोल उठीं, " माँ, मैं देखती हैं, आप भी माया में खूब लिपटी हैं। " अस्फुट स्वर में श्रीमाँ ने उत्तर दिया -"क्या करूँ, बेटी, मैं खुद ही माया जो हूँ। "यह इंगित शायद उन महिलाओं को समझ में नहीं आया। (श्रीमाँ -३३८)
२.या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते:
देवी दुर्गा ही सभी प्राणियों में चेतना (sense, consciousness – स्वयं के और अपने आसपास के वातावरण के तत्वों का बोध होने, उन्हें समझने तथा उनकी बातों का मूल्यांकन करने की शक्ति।) - कहलाती हैं, यह 'चेतना' अन्तःकरण की ज्ञानत्मिका मनोवृत्ति है। ये माँ चैतन्यरूपिणी देवी दुर्गा ही स्थूल- शरीरों में विभिन्न नाम-रूप धारण करके विभिन्न आकृतियों में अभिव्यक्त हो रही हैं, प्राण-शक्ति इनका सूक्ष्म रूप है और कारण शरीर में अव्यक्त बीज रूप से अवस्थित रहती हैं।
'सारदे ज्ञानदायिके' - अर्थात श्रीमाँ प्रज्ञा और विद्यारूपिणी हैं तथा ज्ञानदायिनी हैं। उन्होंने अनेकों स्त्री-पुरुषों को दीक्षा और उपदेश देकर उनके अन्तर्निहित ब्रह्म-चैतन्य (दिव्यता) को जागृत कर दिया है। शास्त्रों में कहा गया है -'ज्ञानादेव मुक्तिः' अर्थात ज्ञान से ही मोक्ष (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाना) संभव है।
श्रीमाँ सारदा देवी ने कहा था - " कामना-वासना ही समस्त दुःखों का मूल है, बार बार जन्म-मृत्यु का कारण है, और मुक्त होने (डिहिपनोटाइज्ड हो जाने, भ्रममुक्त जाने) के मार्ग में अड़चन (obstacle) है। ... यदि कोई वासना रहित हो जाये (लस्ट और लूकर में अनासक्त हो सके), तो उसे तुरंत आत्मतत्व का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। " (লীলাপ্রসঙ্গ-१/साधक भाव /१५७)
माँ अपने अन्तरंग भक्तों को आशीर्वाद देती थीं - 'ज्ञान चैतन्य होक!' किसी किसी सन्तानों की छाती या मस्तक को छू कर जप कर देती थीं,एक -दो भक्तों की पीठ पर हाथ से स्पर्श करके आर्शीवाद देती देती थीं -" कुण्डलिनी जागूक !"(শ্রীমা সারদা দেবী -२५४ ?)
[संसार के प्रत्येक प्राणी की सार्थकता तभी तक है ; जब तक उसमे प्राण है। प्राण-विहीन शरीर तो शव बन जाता है। प्राण विद्यमान होने के कारण ही वह प्राणी कहला घुमा करता है। शरीर मे जब तक प्राण रहता है; तभी तक उसमे चेतना रहती है। शरीर की यह चेतना उस परमाराध्या भगवती के अस्तित्व का ही द्योतक है। अतः स्पष्ट है कि वह देवी समस्त प्राणियों मे चेतना रूप मे विद्यमान है। साक्षात् माँ जगदम्बा की भक्ति, या आधुनिक युग में उनके अवतार-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण की भक्ति के द्वारा अन्त:करण की शुद्धि से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है,जो समस्त द्वैत -'मैं' और 'तू' की ग्रन्थि (गाँठ) का विभेदन कर अद्वैत मे स्थापित कर देती हैं। सन्त तुलसी दास जी कहते हैं- 'रामचन्द्र के भजन बिनु जे चहँ पद निर्वाण । ग्यानवन्त अपि सो नर पशु बिनु पूँछ विषाण ॥' अर्थात् ज्ञानी ज्ञानमार्ग के द्वारा निर्वाणपद चाहता है अतएव वह पशु है, एवं सींग-पूँछ रहित पशु है ।]
-बुद्धि का अर्थ है प्रज्ञा, विवेक-सामर्थ्य, अन्तःकरण की निश्चयात्मिका वृत्ति का नाम ही बुद्धि है। "देवी बुद्धिरूपिणी हैं। प्रत्येक जीव में व्यष्टि-बुद्धि के रूप में देवी ही अवस्थित हैं, तथा अव्यक्त प्रकृति में बुद्धि का बीज 'महततत्व और समष्टि-बुद्धि' के रूप में अवस्थित हैं।"(সাধন সমর -৫৩)
क्योंकि माँ सरस्वती को स्कूल-कॉलेज में जाकर पढ़ाई करना शोभा नहीं देता; इसीलिये श्रीमाँ ने हमलोगों की तरह स्कूल जाकर लिखना-पढ़ना नहीं सीखा था। किन्तु वे असाधारण बुद्धिमती थीं। पानीहाटी महोत्स्व में ठाकुर के साथ नहीं जाकर उन्होंने अपनी जिस असाधारण बौद्धिक शक्ति का परिचय था, उसके विषय में ठाकुरदेव ने बाद में कहा था -" साथ न जाकर उसने (श्रीमाँ ने) अच्छा ही किया, वह बड़ी बुद्धिमती है। उसे मेरे साथ देखने से लोग कहते- 'देखो देखो,हंस-हंसी' आये हैं। " (श्रीमाँ सारदा देवी /१२९)
[ज्येष्ठ मास की शुक्ला त्रयोदशी को श्रीचैतन्यदेव की स्मृति में वैष्णव- भक्तों द्वारा पानीहाटी में यह महोत्स्व बड़े समारोह के साथ मनाया जाता है। अंग्रेजी शिक्षा में पले-बढ़े युवकों को भक्ति की शक्ति का अनुभव करने के लिए हरिनाम की हाट और आनन्द के मेले को एकबार देखना चाहिये। उस उत्स्व में जाने के लिए माँ ने ठाकुर से एक स्त्री-भक्त के द्वारा पुछवाया था कि वे जायें या नहीं? श्रीरामकृष्ण ने उत्तर दिया, "तुम सब तो जा रही हो; यदि उसकी इच्छा हो तो चले। " बाद में माँ ने कहा था -"प्रातःकाल उन्होंने जिस ढंग से मुझे चलने के लिए कहलवाया, उसी से मैं ताड़ गयी कि उस विषय पर वे मुझे हृदय से आज्ञा नहीं दे रहे हैं। यदि उनकी हार्दिक इच्छा होती, तो वे कहते -'हाँ, जायेगी, क्यों नहीं ?' ]
उस दिन श्रीरामकृष्ण ने श्रीमाँ की बुद्धिमत्ता का एक और उदाहरण भक्तों को दिया-" मारवाड़ी भक्त ने (लक्ष्मीनारायण ने) जब मुझे दस हजार रुपया देना चाहा, तब मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरा सिर आरे के नीचे रख दिया गया है। माँ से (श्रीकाली से) कहा, 'माँ, माँ, इतने दिनों बाद फिर से मुझे प्रलोभन दिखलाने (भेंड़ बना देने) आयी?' उस समय उसकी (श्रीमाँ की) इच्छा जानने के लिये मैंने उसे बुलाकर कहा, 'देखो,ये इतना रुपया देना चाहते हैं। जब मैंने कहा कि मैं नहीं ले सकता, तब ये तुम्हारे नाम से देना चाहते हैं। तुम इसे स्वीकार करो न। कहो, क्या कहती हो ? यह सुनते ही उसने कहा, 'यह कैसे हो सकता है ? रुपया नहीं लिया जा सकता। यदि मैंने लिया तो वह तुम्हारे ही लेने के समान हुआ, क्योंकि यदि मैं रखूँगी तो तुम्हारी सेवा तथा अन्यान्य जरूरतों पर खर्च किये बिना न रह सकुंगी। फलतः वह तुम्हारा ही लेना होगा। लोग तुम्हारी श्रद्धा-भक्ति करते हैं तो -तुम्हारे त्याग के लिए। अतः रुपया किसी भी रूप से लिया जा सकता। उसकी वह बात सुन मैंने स्वस्ति का श्वास लिया। " (श्रीमाँ सारदा देवी/१३०)
४. या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता:
निद्रा -देवी निद्रारूपिणी हैं। जिस समय समस्त इन्द्रियाँ और अन्तःकरण की वृत्ति सम्यक रूप से निरुद्ध हो जाती हैं, उस समय ज्ञानमयी देवी अपने को हर प्रकार के विचारों का निरोध विषयक बोधरूप में व्यक्त होती हैं, वह देवी की निद्रामूर्ति है। निद्रा के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। सुषुप्ति (गाढ़ी नींद) की अवस्था में रखकर देवी अपने सन्तानों को इन्द्रिय-जनित क्रियाकलापों के कर्म-क्लान्ति से विश्राम देती हैं। इस निद्रारूपी देवी की कृपा से मनुष्य रोग-शोक, दुःख-संताप की यंत्रणा से अस्थायी शान्ति (Temporary peace) प्राप्त कर लेता है।
[ पातंजल योगदर्शन समाधिपाद-१/१० के अनुसार 'अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ॥' शब्दार्थ- अभाव की प्रतीति को आश्रय करने वाली वृत्ति ही निद्रा है। निद्रा भी एक मनोवृत्ति है, जिसका आलंबन अभावप्रत्यय अर्थात् तमोगुण है । अभाव से तात्पर्य शेष वृत्तियों का अभाव है, जिसका प्रत्यय या कारण हुआ तमोगुण । सारांश थह है कि तमोगुण की अधिकता से सब विषयों को छोड़ कर जो वृत्ति रहती है वह निद्रा है । नींद के अलावा हर समय मन अनेकों विषय वस्तुओं से भरा रहता है। मन में विचारों की भारी भीड़ होती है। गाढ़ी नींद में, मन का स्वरूप और व्यापार मिट जाता है, केवल होते हैं आप (ब्रह्म?)—बिना किसी उपाधि और व्याधि के। 'मैं खुब सुख से सोया' । ऐसी स्मृति लोगों को जागने पर होती है और स्मृति उसी बात की होगी जिसका अनुभव हुआ होगा। जाग्रत, स्वप्र का अभाव जिसमें है वह निद्रा है। और समाधि क्या है? समाधि में सभी चित्त वृत्तियों का निरोध हो गया। चित्तवृत्ति निरोध में भी निद्रा जैसा सुख मिलता है।माने वहाँ अभाव के प्रत्यय को धारण करने वाली निद्रा नाम की वृत्ति भी नहीं है – वो हो गई समाधि। चित्त की निवृत्ति वाली स्थिति को संतो ने नाम दिया सत्-चित्त-आनंद। ]
श्रीदुर्गासप्तशती में कहा गया है- ये महामाया ही जगतपति विष्णु की योगनिद्रा है।(तमःप्रधान शक्ति, एक ऐसी निद्रा का अनुभव, जिसमें शरीर तो पूरी तरह से विश्राम की अवस्था में होगा, पर मन पूरी तरह से जागरूक बना रहेगा। यही योगनिद्रा है।) जिसकी उच्चतर अनुभूति समाधि का सुख देती है। फिर यही शक्ति जगत के समस्त प्राणियों को सम्मोहित (हिप्नोटाइज्ड कर के 'कामिनी -कांचन' में आसक्त) कर देती हैं !
एक बार लाटू महाराज को ऊँघते देखकर श्रीरामकृष्ण ने पूछा, " अरे लाटू, क्या तुम यह बता सकते हो कि भगवान सोते हैं या नहीं ? " वे बोले -'हाम ने जाने ना। ' ठाकुरदेव ने कहा - " देखो, जीव-जगत में सभी प्राणी निद्रा के अधीन हैं। सभी प्राणी सो सकते हैं, किन्तु भगवान के लिए सोने का उपाय नहीं है। वे यदि सो जायें तो सबकुछ अंधकार में डूब जायेगा। महाप्रलय घटित हो जायेगा। वे सारे दिन सारा रात जाग जाग कर जीवजन्तु की सेवा करते हैं। इसीलिए जीवजन्तु निर्भय होकर सोने चले जाते हैं। " (लाटू महाराज की स्मृति कथा ९८)
इस बार महामाया सारदा स्वयं बिना सोये ठाकुर एवं उनके संतानों की सेवा कर रही हैं। वे सतोगुण की मूर्ति हैं (अर्थात माँ सारदा मूर्तमान विवेक-सामर्थ्य हैं); और वह तमोगुण प्रधान निद्राशक्ति भी उनकी ही विभूति है, किन्तु उनको कभी मोहाच्छन्न नहीं कर सकती है।
[विवेक, बुद्धि और वृत्ति इन्हीं तीन छोटे-छोटे शब्दों पर मनुष्य की समग्र चेतना घूमती रहती है। वृत्ति पाशविक है। वह निद्रा है। वह अचेतन का जगत है। वहां न शुभ है, न अशुभ है। कोई भेद वहां नहीं है। इसमें कोई अंतर्सघर्ष भी नहीं है। वह आंधी वासनाओं का सहज प्रवाह है।
बुद्धि मानवीय है। बुद्धि न निद्रा है, न जागरण है। वह अर्ध-मूर्छित अवस्था (हिप्नोटाइज्ड अवस्था या देहध्यास का भ्रम) है। वह वृत्ति और विवेक के बीच संक्रमण है। वह दहलीज है। उसमें एक अंश चैतन्य हो गया है। लेकिन शेष अचेतन है। इससे भेद बोध है। शुभ-अशुभ का जन्म है। वासना भी है, विचार भी है। विवेक-प्रयोग शक्ति दिव्य है। विवेक-प्रयोग पूर्ण जागृति है। वह शुद्ध चैतन्य है। वह केवल प्रकाश है। वहां भी कोई संघर्ष नहीं है। वह भी सहज है। वह शुभ का, सत का, सौंदर्य का सहज प्रवाह है।
वृत्ति भी सहज, विवेक भी सहज। वृत्ति सहज या आंधी (भँवर) के जैसी है। वृत्ति आंधी सहजता, विवेक सजग सहजता। बुद्धि भर असहज है। पशु में डूबने का आकर्षण- प्रभु में उठने की चुनौती- उसमें दोनों एक साथ हैं! इस चुनौती से डरकर जो पशु में डूबने का प्रयास करते हैं, वे भ्रांति में (हिप्नोटाइज्ड अवस्था में) हैं। जो अंश चैतन्य हो गया है, वह अब अचेतन नहीं हो सकता है। जगत-व्यवस्था में पीछे लौटने का कोई मार्ग नहीं है। वह जो सोया है, उसे जगाना है। अशुभ नहीं, मूर्छा अर्थात भ्रम (सम्मोहित अवस्था) छोड़नी है। अंधेरे में दिया जलाना है। हृदय में से मिथ्या अहं को निकालकर वहाँ भगवान श्रीरामकृष्णदेव को स्थापित कर देना है।
गीता ।।7.20।। विवेक सार्मथ्य (विवेक-प्रयोग शक्ति) मानव जन्म की विशेषता है और यह सर्वथा असंभव है कि विवेक के प्रखर और सजग होने पर मनुष्य को आत्मज्ञान न हो सके। परन्तु मन की बहिर्मुखी प्रवृत्तियां और विषयभोग की कामनायें उसके विवेक को आच्छादित कर देती हैं। मन के क्षुब्ध या अत्यंत चंचल रहने के कारण बुद्धि की विवेक-प्रयोग शक्ति लुप्त हो जाती है और स्वभावत फिर मनुष्य सत्य-असत्य, शाश्वत-नश्वर का विवेक नहीं कर पाता है।
जब मनुष्य की बुद्धि का आलोक कामना के मेघों से आवृत हो जाता है तब आसक्तियों और अवगुणों के उलूक मन के जंगल में शोर मचाने लगते हैं। मन में इच्छा के उदय मात्र से मनुष्य का पतन नहीं होता बल्कि पतन का कारण है उत्पन्न इच्छा के साथ उसका तादात्म्य। इस तादात्म्य के द्वारा मनुष्य अनजाने में अपनी इच्छाओं को बढ़ावा देकर असंख्य विक्षेपों को जन्म देता हुआ स्वयं उनका शिकार बन जाता है।
अन्न के सूक्ष्म तत्त्व का ही रूप वृत्ति (विचार) है और इसलिए वह स्वयं जड़ है। वृत्तिरूप मन आत्मा से चेतनता प्राप्त करता है और कामी व्यक्ति से सार्मथ्य। विचारों के अनुसार कर्म होता है। एक बार मनुष्य के मन में कोई कामना दृढ़ हो जाये तो वह यह विवेक खो देता है कि उस कामनापूर्ति से उसे नित्य शाश्वत सुख मिलेगा या नहीं। क्षणिक सुख की आसक्ति के कारण वह अन्यान्य देवताओं को सन्तुष्ट करने में व्यस्त रहता है।
यह धारणा कि स्वर्ग में बैठा कोई ईश्वर हमारे मन में इच्छाओं को उत्पन्न कराकर हमें पाप और पुण्य के कर्मों में प्रवृत्त करता है केवल निराशावादी निर्बल और आलसी लोगों की ही हो सकती है। बुद्धिमान साहसी और उत्साही पुरुष जानते हैं कि मनुष्य स्वयं ही अपने विचारों के अनुसार अपने वातावरण कार्यक्षेत्र आदि का निर्माण करता है। संक्षेप में एक मूढ़ पुरुष (हिप्नोटाइज्ड व्यक्ति) शाश्वत सुख की आशा में वैषयिक क्षणिक सुखों की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ता रहता है जबकि विवेकी पुरुष उसकी व्यर्थता पहचान कर पारमार्थिक सत्य के मार्ग पर अग्रसर होता है।
विवेक चूड़ामणि रस - जीवनमुक्त लक्षणम्: जिसने श्रुति प्रमाण से अपने आत्मा को जान लिया है और जो संसार बन्धन से रहित है, ऐसा पुरुष जीवन्मुक्त है । जो अपनी तात्विक बुद्धि से आत्मा और ब्रह्म तथा ब्रह्म और संसार में कोई भेद नहीं देखता, वह पुरुष जीवन्मुक्त है ।साधु पुरुषों द्वारा इस शरीर के सत्कार किये जाने पर और दुष्टजनों द्वारा पीड़ित होने पर जिसका चित्त सम भाव रहता है, वह पुरुष जीवन्मुक्त है ।ब्रह्मतत्व के जान लेने पर विद्वान् को पूर्ववत् संसार की आस्था नहीं रहती और यदि फिर भी संसारी आस्था बनी रहे तो जानना चाहिये कि उसे ब्रह्म तत्व का ज्ञान ही नहीं हुआ, वह मितथ्याचारी है ।जिस प्रकार अत्यंत कामी पुरुष की भी कामवृत्ति अपनी माता को देखकर कुंठित हो जाती है, उसी प्रकार पूर्णानंद स्वरूप ब्रह्म को जान लेने पर उस पुरुष की संसारी वृत्ति का सर्वथा लोप हो जाता है ।]
५. या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता:
क्षुधा का अर्थ है भोजन करने की इच्छा।" हमलोगों के स्थूल शरीर के रस-रक्त आदि धातु के क्षय होते रहने से जो थकावट (Exhaustion) महसूस होती है, उस थकावट को दूर करने के लिए आहार ग्रहण करने की आवश्यकता का अनुभव होता है। प्राणी आहार तभी लेता है ; जब उसे भूख लगती है। यही देवी की क्षुधा मूर्ति है। ऐसी बात नहीं है कि इस क्षुधामूर्ति की अभिव्यक्ति केवल स्थूल-शरीर या अन्नमय कोष में ही होती है, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोषों में भी यही क्षुधामूर्ति अभिव्यक्त होती हैं। प्राणमय कोष का आहार है जीवनी-शक्ति,मनोमय कोष का भोजन है उच्च विचार, विज्ञानमय कोष का आहार है ज्ञान, आनन्दमय कोष का आहार है प्रेम। " (সাধন সমর -৫৬)
[आयुर्वेद (23|51,52) के अनुसार पुरुष=जीव पाँच में आविष्ट हैं और पाँच पुरुष के अर्पित हैं | पाँच से यहां तात्पर्य्य पाँच कोश हैं। हमारी आत्मा के पांच आवरण होते हैं। इनको कोश कहा जाता है। जीवात्मा उनमें रहता हुआ भी उनसे पृथक् है। वे पाँच कोश निम्नलिखित हैं -1. अन्नमय कोश। 2. प्राणमय कोश। 3. मनोमय कोश। 4. विज्ञानमय कोश। 5. आनन्दमय कोश। ये सब आत्मा के आवरण हैं, आत्मा नहीं। लेकिन आत्मा की शक्ति से ही ये सभी कोश अस्तित्व में रहते हैं।
१. अन्नमय कोष का मतलब है स्थूल शरीर। यह शरीर जो सबको चलता-फिरता हुआ, अलग-अलग बर्ताव करता हुआ दिखाई देता है, जो अन्न से पोषित होता है, हम जो भोजन करते हैं, उससे यह कोश बनता है। हमारे स्थूल शरीर में रस, रक्त, मांस, मेद , अस्थि, मज्जा, और शुक्र (सीमेन), ये सात धातुएँ हैं। नित्यप्रति स्वाभावत: विविध कार्यों में उपयोग होने से इनका क्षय भी होता रहता है, किंतु भोजन और पान के रूप में हम जो विविध पदार्थ लेते रहते हैं उनसे न केवल इस क्षति की पूर्ति होती है, वरन् धातुओं की पुष्टि भी होती रहती है। भोजन का मुख्या कार्य रस - रक्त आदि धातुओं को बढ़ाकर शरीर का विकास करना , क्षतिपूर्ति करना , ज़रूरी उष्णता और बल बनाए रखना तथा शरीर की जीवनी शक्ति को स्थिर करना है। इस कोश में बदलाव हमेशा होता रहता है क्योंकि यह शरीर कभी एक जैसा नहीं रहता। जीवन में किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए इस अन्नमय कोष का स्वस्थ होना बहुत जरूरी है। इसीलिए कहा गया है 'पहला सुख निरोगी काया'। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से हम किसी में भी तभी आगे बढ़ सकते हैं, जब हमारा शरीर फिट हो।अन्नमय कोश का अर्थ है इन्द्रिय चेतना । कृमि कीटकों की चेतना इन्द्रियों की प्रेरणा के इर्द गिर्द की घूमती रहती है। शरीर ही उनका सर्वस्व होता है। उनका ‘स्व’ काया की परिधि में ही सीमित रहता है। इससे आगे की न उनकी इच्छा होती है, न विचारणा न क्रिया। इस वर्ग के प्राणियों को अन्नमय कह सकते हैं। आहार ही उनका जीवन है। पेट तथा अन्य इन्द्रियों का समाधान हो जाने पर वे संतुष्ट रहते हैं।
२.प्राणमय कोश अर्थात् जीवनी शक्ति। निजी उत्साह से पराक्रम करने के अभ्यास को प्राण शक्ति कहते हैं।प्राणमय कोश की क्षमता जीवनी शक्ति के रूप में प्रकट होती है। संकल्प बल, साहस आदि स्थिरता और दृढ़ता बोधक गुणों में इसे जाना जा सकता है। यों जीवन तो कृमि कीटकों में भी होता है पर वे प्रकृति प्रेरणा की कठपुतली भर होते हैं। जिजीविषा के आधार पर ऐसे प्राण मनोबल का सहारा लेकर भी अभावों और कठिनाइयों से जूझते हुए प्राणी मनुष्य कहलाते हैं। जबकि कृमि कीटक ऋतु प्रभाव जैसी प्रतिकूलताओं से प्रभावित होकर बिना संघर्ष किये प्राण त्याग देते हैं।
३. मनोमय कोश-विचार बुद्धि। मनोमय स्थिति विचारशील प्राणियों की होती है। यह और भी ऊँची स्थिति है। मननात्-मनुश्यः । मनुष्य नाम इसलिए पड़ा कि वह मनन कर सकता है। मनन अर्थात् चिन्तन। यह पशु-पक्षियों से ऊँचा स्तर है। इस पर पहुँचे हुए जीव से मनुष्य संज्ञा में गिना जाता है। कल्पना, तर्क, विवेचना, दूरदर्शिता जैसी चिन्तात्मक विशेषताओं के सहारे औचित्य-अनौचित्य का अन्तर करना संभव होता है। स्थिति के साथ तालमेल बिठाने के लिए इच्छाओं पर अंकुश रख सकना इसी आधार पर संभव होता है।
४.विज्ञानमय कोश अचेतन सत्ता एवं भाव प्रवाह। विज्ञानमय कोश इससे भी ऊँची स्थिति है। इसे भाव-संवेदना का स्तर कह सकते हैं । दूसरों के सुख-दुख में भागीदार बनने की सहानुभूति के आधार पर इसका परिचय प्राप्त किया जा सकता है। आत्मभाव का आत्मीयता का विस्तार इसी स्थिति में होता है। अन्तःकरण विज्ञानमय कोश का ही नाम है। दयालु, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी, शालीन और परोपकार परायण व्यक्तियों का अन्तराल ही विकसित होता है। उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रियाकलाप अपनाने की महानता इसी क्षेत्र में विकसित होती है। महामानवों का यही स्तर समुन्नत रहता है।
५.आनन्दमय कोश-आत्म बोध-आत्म जागृति। आनंदमय कोश आत्मा की उस मूलभूत स्थिति की अनुभूति है जिसे आत्मा का वास्तविक स्वरूप कह सकते हैं। सामान्य जीवधारी यहाँ तक कि अधिकांश मनुष्य भी सम्मोहित अवस्था या हिप्नोटाइज्ड अवस्था में अपने आपको शरीर मात्र मानते हैं और उसी के सुख-दुःख में सफलता-असफलता अनुभव करते रहते हैं। आकांक्षाएँ विचारणाएँ एवं क्रियाएं इसी छोटे क्षेत्र तक सीमा बद्ध रहती हैं। यही भव-बंधन है। सत्,चित्, आनन्द की संवेदनाएँ ही ईश्वर प्राप्ति कहलाती है, अपना और संसार का वास्तविक संबंध और प्रयोजन समझ में बिठा देने वाला तत्त्व दर्शन हृदयंगम होने पर ब्रह्मज्ञानी की स्थिति बनती है। 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास से आनंदमय कोश जागृत होने पर जीव अपने को अविनाशी ईश्वर का अंश (माँ जगदम्बा का पुत्र), सत्य, शिव, सुन्दर, मानता है। शरीर, मन और इन्द्रियों को साधन एवं सम्पर्क परिकर को मात्र जीवनोद्देश्य के उपकरण मानता है। यह स्थिति ही आत्मज्ञान कहलाती है। इसी को जीवन मुक्ति, देवत्व की प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन आदि नामों से पुकारते हैं। आत्म विकास (चित्त-शुद्धि या आत्म-परिष्कार) के इस उच्च स्तर पर पहुँच जाने के उपरान्त समस्त अभावों, द्वंद्वों -उद्वेगों से छुटकारा मिल जाता है। परम सन्तोष का परम आनंद का लाभ मिलने लगने की स्थिति आनंदमय कोश की जागृति कहलाती है। माँ जगदम्बा की कृपा से एक क्षण के लिए भी- यह स्थिति 'भ्रममुक्त, मोक्ष-प्राप्ति या डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था' उपलब्ध हो जाने पर, मनुष्य हर घड़ी सन्तुष्ट एवं उल्लसित पाया जाता है। जीवन मंच पर वह अपना अभिनय करता रहता है। उसकी संवेदनाएँ भक्तियोग, विचारणाएँ, ज्ञान और क्रियाएँ कर्म योग जैसी उच्च स्तरीय बन जाती हैं। ऐसे ब्रह्मवेत्ता मनुष्य अस्थि माँस के शरीर में रहते हुए भी,सर्व साधारण को - वह एक ऋषि, तत्त्वदर्शी, देवात्मा एवं परमात्मा स्तर तक उठा हुए व्यक्ति या 'देव-मानव' जैसा प्रतीत होता है।
प्राणी की मूल प्रवृत्तियों मे क्षुधा या भूख का महत्त्व पूर्ण स्थान है। भूख कालिका है, काली है,भूख प्रचंड शक्तिशाली है, शरीर की पुष्टि के लिए,शरीर संरक्षण एवं संवर्धन के लिए क्षुधा बहुत आवश्यक है। यदि क्षुधा क्षीण हो जाय तो आहार ग्रहण कर पाना कठिन है। आहार लिए बिना शरीर का अस्तित्व ही संकट मे पड़ जायेगा। परन्तु माता भगवती अत्यन्त दयालु हैं। उन्हें अपनी सन्तानों की शारीरिक सुरक्षा की चिन्ता सदैव बनी रहती है। इसीलिए वे समस्त प्राणियों मे क्षुधा के रूप मे स्थित होकर उनके शरीर संरक्षण मे सहयोग करती रहती हैं।]
स्वामी चेतनानन्द जी कहते हैं - " माँ जगदम्बा की 'क्षुधामूर्ति का शरण' लेने से जीव की 'भव-क्षुधा' दूर हो जाती है।" क्षुधारूपी देवी जीवों के हृदय में निवास करती हैं। इसीलिए माँ श्री सारदा देवी इसबार हर समय अपने सन्तानों को भोजन करवाने व्यस्त रहती हैं। स्वयं खाद्य पदार्थों का जुगाड़ करती हैं, अपने हाथों से खाना पकाती हैं, साधु-भक्तों को अपने हाथों से परोसती हैं और कहती हैं -" खा लो बेटे, बेटी, खाओ। " स्वामी विरजानन्द ने लिखा है ," दोनों शाम विभिन्न प्रकार के व्यंजनों को अपने हाथों से बनाने में माँ व्यस्त रहती थीं, पानी-पीढ़ा पर बैठाकर भोजन करवाती थीं, खाने के लिए जोर देकर पत्तल पर डलवाती थीं, वैसा अमृत जैसा भोजन और जीवन में कभी खाया नहीं था। "
६. या देवी सर्वभूतेषु च्छायारूपेण संस्थिता:
छाया (प्रतिबिम्ब) शब्द का एक अर्थ होता है- जीव, और बिम्ब हैं ब्रह्म । यही बिम्ब जब अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित होते हैं, तब उनको जीव कहा जाता है। जीव ब्रह्म की छाया (माँ महामाया की छाया ?) है। परमार्थ रूप से जीवचैतन्य (उपासक) और ब्रह्मचैतन्य (उपास्य) एक ही हैं। कठोपनिषद (१/३/१) में है, 'छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति' (इव) छाया और आतप (धूप) के सदृश। [एक उपास्य (ईश्वर )यदि स्वर्ण है तो दूसरा (उपासक) स्वर्ण के आभूषण। ] आचार्य शंकर ने छाया की व्याख्या जीवात्मा के रूप में की है। छाया की तीन अवस्थायें हैं -स्थूल, सूक्ष्म और कारण। स्थूल शरीर ही चितप्रतिबिम्ब या छाया की स्थूल मूर्ति है,सूक्ष्म शरीर में छाया की सूक्ष्म मूर्ति है और कारण शरीर में कारणमूर्ति है।
[ द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।(मु. उ. ३ । १ । १) समष्टि के स्तर पर जो परमात्मा (गौतम बुद्ध) है वही व्यष्टि के स्तर पर आत्मा (सिद्धार्थ गौतम) है। जीवात्मा आत्मा की उपाधि है, किन्तु दोनों परस्पर भिन्न नहीं है, लेकिन यह जीवात्मा अपने अहंकार के भ्रम में पड़कर (हिप्नोटाइज्ड होकर) खुद को ईश्वर (अविनाशी आत्मा) से अलग सिर्फ एक काया (नश्वर शरीर) मानने लगता है। — जब वह चैतन्य-स्वरूप 'ब्रह्म' अनेक देवी-देवताओं तथा लौकिक शरीरों की भिन्नता में जीवनी-शक्ति के रूप में अपने आपको अभिव्यक्त करता है, तब यह 'जीव' कहलाने लगता है। ब्रह्म की प्रेरणा से चित्र-विचित्र संसार को रचने वाली शक्ति प्रकृति कहलाती है। कहा भी है- यह विश्व ही 'ब्रह्म' है, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है-सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन॥वे ही सब कुछ हुए हैं - वे ही जीव और जगत् हुए हैं; किंतु अपने भीतर चैतन्य को जगाए बिना कोई, उस पूर्ण चैतन्य को जान नहीं सकता । तर्क तो तभी तक हैं, जब तक उन्हें कोई पा नहीं लेता । उनकी कृपा से चैतन्य-लाभ करना चाहिए । चैतन्य-लाभ करने पर समाधि होती है, कभी-कभी देह भी विस्मृत हो जाती है । कामिनी और कांचन पर आसक्ति नहीं रह जाती । ईश्वर की चर्चा के सिवाय कुछ नहीं सुहाता । विषय-वासना की चर्चा से कष्ट होता है । विचार करने पर उनके विषय में एक प्रकार का ज्ञान होता है, ध्यान करने पर दूसरे प्रकार का ; किंतु वह एक भिन्न ही ज्ञान होता है, जो तब प्राप्त होता है, जब वे स्वयं अपने आप को दिखा देते हैं । जब वे स्वयं समझा देते हैं कि अवतार इस प्रकार का होता है, जब वे अपनी मनुष्य-लीला समझा देते हैं - तब तर्क की आवश्यकता नहीं रह जाती । जैसे वर्षों से अँधेरे पड़े कमरे के भीतर दियासलाई घिसने से एकाएक उजाला हो जाता है, उसी प्रकार एकाएक वे अगर उजाला दे दें, तो सब संदेह अपने आप मिट जाते हैं । तर्क करके उन्हें कौन जान सका है।]
माँ सारदा ने कहा है कि वे स्वयं प्रत्येक जीव में विराजिता हैं ! एकदिन बातचीत के क्रम में अपने स्वरूप की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा था -" देखो, चाँद का प्रतिबिम्ब जब सरोवर में पड़ता है, तो उसे देख कर छोटी छोटी मछलियाँ, उसके साथ आनन्दपूर्वक बहुत उछलकूद करने लगती हैं। वे सोचती हैं, ये भी शायद हममें से ही एक है। किन्तु जब चाँद अस्त हो जाता है, तब वे मछलियाँ अपनी उसी पूर्वावस्था में आ जाती हैं। 'चाँद' या अवतार के साथ उछलकूद करने के बाद,जब वे अचानक ही चल देते हैं तो बहुत पछतावा होता है, कि उनके साथ रहने के बाद भी हम उनको पहचान न सके! " [শ্রীশ্রীমায়ের কথা -২৩৬] और एक दिन किसी ने उनसे प्रश्न किया कि तस्वीर (छयाचित्र -फोटो) में ठाकुर हैं या नहीं ? माँ ने कहा -" छाया काया समान। छवि तो तांर छाया !" [শতরূপে সারদা -৩৬০]
७. या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता:
शक्ति, शक्तिमान से अभिन्न है, शक्ति और शक्तिमान अभेद् हैं। [ईश्वर शक्तिमान है तो जीव-जगत् उसकी शक्ति। परन्तु उपास्य शक्ति ही है ।] शिव और शक्ति एक साथ विद्यमान रहते हैं। शिव के बिना शक्ति गतिहीन (static) हैं, फिर शक्ति के बिना शिव निष्क्रिय हैं। श्वेताशतर उपनिषद में कहा गया है ‘ देवात्मशक्तिं स्वगुणैः निगूढाम्’ (श्वेता. उ. १/३) अर्थात देवात्म-शक्तिं या दीप्तिमान् परमात्मा की आत्मभूत, अभिन्नरूप में अध्यस्त और अस्वतन्त्र (Non-independent) शक्ति (स्वगुणैः) अपने ही गुणों से (निगूढाम्) छिपि हुई है। यह अनिवर्चनीय माया शक्ति - मूल-अज्ञान/प्रकृति/ देवात्मा (परब्रह्म) की शक्ति है और यह अपने ही गुणों (सत् रजस् तमस्) से छिपी हुई है – ऐसा श्वेता० उपनिषद श्रुति कहती है। यह शक्ति जीवों के शरीर में तीन प्रकार से विकसित होती है - स्थूल शरीर और इन्द्रियों की क्रियाशक्ति के रूप में,मन की इच्छाशक्ति के रूप में, तथा बुद्धि में ज्ञानशक्ति के रूप में विकसित होती है।
[तीन जगत्- (१) स्थूल (२) सूक्ष्म (३) कारण/तीन अवस्थाएं- (१) जागृत (२) स्वप्न (३) सुषुप्ति/ तीन शक्तियां- (१) क्रिया (२) ज्ञान (३) इच्छा। ये सभी जिस मूल आधार से उद्भूत हैं, उसे ही व्रह्म कहा गया। इसकी अनुभूति चतुर्थ अवस्था-तुरीय अवस्था में होती है।
अनिर्वचनीय माया या ब्रह्म की शक्ति को एक दूसरे ढंग से - वेदान्त के सर्प रज्जु से समझा जा सकता है - एक कम रोशनी वाले कमरे में रस्सी को देखकर सर्प का भ्रम हो गया और उसके कारण डर लगा। फिर किसी नें आकर रोशनी कर के दिखा दिया कि यह तो रस्सी है और भय दूर हो गया। अतः जो भय उत्पन्न हुआ वह रस्सी के 'अज्ञान' के कारण हुआ और रस्सी का 'ज्ञान' होते ही दूर हो गया। अब यह अज्ञान 'ज्ञान' से बाधित हो गया। यदि यह अज्ञान सत् होता तो कभी नष्ट नहीं हो सकता था क्योंकि सत् तो कभी नष्ट नहीं होता। यह अज्ञान असत् भी नहीं था क्योंकि यह था और उसके कारण भय भी उत्पन्न हुआ क्योंकि कोई वस्तु तो है ही नहीं वह कुछ प्रभाव नहीं डाल सकती - अतः कुछ तो था - और वह ज्ञान से नष्ट भी हो गया - इस को ही अनिर्वचनीय कहते हैं। यदि वह अज्ञान सत् होता तो कभी नष्ट नहीं होता और यदि असत् होता तो भय उत्पन्न नहीं करता और उसको नष्ट करने की आवश्यकता ही नहीं होती - अतः अनिर्वचनीय।अतः अज्ञान/माया की परिभाषा है - "जिसको परिभाषित न किया जा सके"। जैसे किसी जादूगर का जादू हमको अनुभव में आता है हम उसे अपनी आंखों से देखते हैं पर उसके बारे में कुछ कह नहीं सकते की वह कैसे हुआ - यही अनिर्वचनीय है - और सबसे बड़ा जादूगर तो ईश्वर ही है। -यह अज्ञान तीन गुणों से युक्त है - सत्त्व रजस् और तमस्। इसलिये इसको ज्ञान विरोधी कहते हैं क्योंकि यह ज्ञान को सहन नहीं कर सकता यह ज्ञान से नष्ट हो जाता है बाधित हो जाता है।यह 'अज्ञान' है और यह ज्ञान से बाधित भी हो जाता है इसलिये यह 'भावरूप' है। यदि यह अभावरूप होता तो कोई प्रयास करने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि जो है ही नहीं उसका नाश क्या करना। अतः यह अज्ञान ज्ञान-विरोधी है और भावरूपं है अर्थात यह ‘है’ और नाशवान है। इस अज्ञान का इतना सामर्थ्य है कि यह सकल प्रपञ्च उत्पन्न कर सकता है परन्तु इतना सामर्थ्यवान नहीं है कि यह सदा विद्यमान रह सके (सत् नहीं है)।युगल- तत्व की एकता: जैसे अग्नि और अग्नि की दाहिका-शक्ति, सूर्य और सूर्य की किरणें, चन्द्रमा और चन्द्रमा की चाँदनी एवं जल और जल की शीतलता सदा एक हैं, इनमें कभी काई भेद नहीं है, उसी प्रकार शक्तिमान् और शक्ति में कोई भेद नहीं है। जैसे अग्निशक्ति-अग्नि-स्वरूप के आश्रय के बिना नहीं रहती और जैसे अग्निस्वरूप अग्निशक्ति के बिना सिद्ध ही नहीं होता, उसी प्रकार शक्ति और शक्तिमान् का एकत्व-सम्बन्ध है। वह नित्य पुरुषरूप है और नित्य ही नारी-स्वरूप। ऐसे दो होते हुए ही वे नित्य एक हैं। स्वरूपतः कभी दो होकर रह ही नहीं सकते। एक के बिना एक का अस्तित्व ही नहीं रहता। ‘सच्चिनानन्दघन’ सर्वातीत तत्व भी ‘सच्चिनानन्द-शक्ति’ का आभाव हो तो ‘शून्य’ रह जाता है। इसलिये उसका सत्-तत्व सत्-शक्ति से, चित्-तत्व चित्-शक्ति से और आनन्द तत्व आल्हादिनी-शक्ति से ही स्वरूपतः सिद्ध है। परमात्मा इन्हीं शक्तियों को संधिनी, संवित् और लाह्दिनी-शक्ति भी बतलाया गया है। अपनी जिस स्वरूपाशक्ति के द्वारा भगवान सबको सत्ता देते हैं, उस शक्ति का नाम ‘संधिनी’ है; जिसे द्वारा ज्ञान या प्रकाश दिया जाता है, वह ‘संवित्’ शक्ति है। और स्वय नित्य अनाद्यनन्त परमानन्दस्वरूप होकर भी जिस शक्ति के द्वारा अपने आनन्दस्वरूप की जीवों को अनुभूति कराते हैं तथा स्वयं भी आत्मस्वरूप विलक्षण परमानन्द का साक्षात्कार करते हैं, उस आनन्दमयी स्वरूपशक्ति का नाम लाह्दिनीशक्ति है।
महर्षि कपिल ने कहा कि सृष्टि पूर्व की जो अवस्था है उसमें जब प्रकृति अव्यक्तावस्था में रहती है, तब सभी गुण साम्यावस्था में रहते हैं। यह साम्यावस्था टूटती है मूल तत्व के संकल्प से, जिसका वर्णन उपनिषदों ने किया- एकोऽहं बहुस्याम - यह संकल्प ही इच्छाशक्ति है। इससे गुणों की साम्यावस्था भंग होती है तथा उस अव्यक्त प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न होता है तथा इसी के साथ सृष्टि व्यक्त होने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। उसका प्रथम विकास महत् अथवा विराट् बुद्धि शक्ति के रूप में होता है, यही ज्ञान शक्ति है। एक मूलभूत ज्ञान शक्ति सूक्ष्म परमाणु से लेकर संपूर्ण व्रह्माण्ड तक का नियमन कर रही है। यह विभिन्न शक्तियां, उनसे सृष्टि का चक्र गतिमान होना, फिर लोप होना, यह क्या है, तो वेदान्त कहता है- ‘कम्पनात्‘ अर्थात् निर्माण या विध्वंस। सबमें कंपन है, स्पंदन है। बुद्ध ने सत्य के साक्षात्कार में प्रकृति की वास्तविकता का परीक्षण किया और उन्हें स्पष्ट दीखने लगा कि उनका यह यह ठोस प्रतीत होनेवाला विश्व-ब्रह्माण्ड वस्तुतः असंख्य -असंख्य परमाणुओं का, कलापों का पुंज मात्र हैं । बुद्ध को ज्ञान हो गया कि ठोस भी तरंग मात्र हैं ।सारे लोक प्रज्वलित दिखाई पडते हैं ।समस्त लोक प्रकम्पित नजर आते हैं । इसलिये बुद्ध ने कहा ---
सम्पूर्ण जगत प्रकम्पन है- ‘सब्बोप्रज्जालितो लोको, सब्बो लोको प्रकम्पितो‘। जगत में ठोस जैसा कुछ नहीं है, केवल प्रकम्पन ही है। आदि शंकराचार्य कहते हैं- परमाणु से लेकर व्रह्मलोक तक तथा सामान्य शक्ति से लेकर प्राणशक्ति तक सब स्पन्दन है। स्वामी विवेकानंद भी कहते थे, ‘संपूर्ण जगत कम्पन है, स्पन्दन है। इतना ही है कि मन तीव्र कम्पन है तथा स्थूल या जिसे जड़ कहा जाता है, वह मंद कम्पन है।‘ व्रह्माण्ड का सृजन और लोप कम्पन का ही परिणाम है। कम्पन समुद्र की लहरों के समान है। जैसे समुद्र की सतह के ऊपर हलचल रहती है पर नीचे का आधार शांत रहता है, उसी प्रकार जगत् का मूलाधार व्रह्म है, कम्पन तो ऊपरी सतह पर है।
भगवान विष्णु, भगवान शंकर, भगवान राम, भगवान श्रीकृष्ण तथा अन्यान्य बड़े-छोटे किसी की भी उपासना शक्तिरहित रूप में हो ही नहीं सकती। जो शक्ति विष्णु को विष्णु, जो शक्ति शिव को शिव, जो शक्ति, राम को राम और जो शक्ति श्रीकृष्ण को श्रीकृष्ण बनाये हुए हैं, जिनके बिना उनकी स्वरूप-सत्ता ही नहीं रहती, उन शक्तियों के बिना जब वे शक्तिमान् रूप ही नहीं रहते, तब उनकी अकेले की-‘शक्तिरहित शक्तिमान्’ की उपासना कैसे हो सकती है। शक्ति न रहने पर तो उनका स्वरूप ही नहीं रहेगा। श्री (सीता) और श्रीमान (राम) अनन्य और अविभिन्न होने पर भी लीला करने के लिए ही दो भिन्न रूप में पृथक प्रतीत होते हैं। शक्तिमान में शक्ति दो रूपों में रहती है - ‘अमूर्त’ रूप में और ‘मूर्त’ रूप में। शक्तिमान में जो शक्ति की नित्य सत्ता है, वह अमूर्त है और जो स्वरूप से सर्वथा सर्वदा सब प्रकार से अभिन्न होते हुए उस दिव्य शक्ति-सत्ता की अधिष्ठात्री रूप में भिन्न रूप से प्रकट विविध विचित्र स्वरूपभूता लीलामयी-लीलाकारिणी है, वह मूर्त है।
शिव और शक्ति के संयोग से ही तांडव और लास्य होता है और उन्हीं से यह सृष्टि निर्मित हुई है। जब शक्ति, शक्तिमान से मिलकर एक हो जाती है, तब ही पूर्णत्व होता है। शिव 'इकार' रहित होने पर शव हो जाते हैं। शक्ति का अस्तित्व भी शिव के बिना नहीं रह पाता। शक्ति और शिव मिलकर ही ब्रह्म और ब्रह्ममई कहलाते हैं। अत: ऐसी स्थिति में शक्ति, शक्तिमान से अभिन्न है। शक्ति परमात्मा की अस्पंदस्वरूपिणी स्थिति है, वही जब स्पंदस्वरूपिणी होती है, तब ही वह जगत् का आकार धारण करनेवाली विश्वरूपिणी बनती हैं।]
श्रीमाँ ने अपने मुख से कहा है -" मैं वही चिर पुरातन आद्याशक्ति जगदम्बा हूँ, जगत पर कृपा करने के लिए आविर्भूत हुई हूँ। युगों, युगों से आती रही हूँ, फिर से आऊंगी !" (শ্রীমা সারদামনিদেবী - २९४) [पारिवारिक व्यवहार या जन-साधारण के साथ बातचीत के क्रम में श्रीमाँ का यह आत्म-परिचय एकाएक प्रकट हो जाता था। जयरामबाटी में रात को नौ बजे एक पाचिका ब्राह्मणी (she cook) ने आकर कहा, "कुत्ते से छू गयी हूँ। " जाड़े का समय था। माँ ने कहा "इतनी रात को मत नहाओ, हाथ-पैर धोकर कपड़े बदल लो।" उसने कहा "इससे कैसे होगा ?" तब माँ ने कहा, "तो गंगाजल ही छिड़क लो। " इस पर भी उसका मन न माना, यह देखकर पवित्रता-स्वरूपिणी श्री माँ ने कहा, "तो मुझे स्पर्श कर लो।" तब पाचिका ब्राह्मणी की ऑंखें खुलीं। " (श्रीमाँ सारदा देवी -५२६)]
काशी में लक्ष्मी-निकेतन (काशी) में निवास करते समय (जिसे बागबजार के दत्त-परिवार वालों ने हाल में बनवाया था) ब्रह्मानन्दजी रोज सबेरे टहलने को जाते थे, तब लक्ष्मीनिवास (निकेतन) में जाकर गोलाप-माँ से श्रीमाँ का कुशल-समाचार पूछ लेते थे और बाद में बालक के समान कौतुक करते थे। इसी प्रकार एक दिन जब वे आंगन में आये, तब ऊपर के बरामदे से गोलाप माँ ने कहा - " राखाल, माँ पूछती हैं कि पहले शक्ति की पूजा क्यों की जाती है ?" (विवाह के समय?) महाराज ने इस पर उत्तर दिया - " क्योंकि माँ के पास ब्रह्मज्ञान की चाभी जो है! माँ यदि कृपापूर्वक चाभी से द्वार न खोल दें, तब तक और कोई उपाय नहीं रह जाता।" (श्रीमाँ सारदादेवी -हिन्दी -३३४ /শ্রীমা সারদা দেবী -৩৪৮)
एक बार एक भक्त को जप से भी शान्ति नहीं मिल रही थी। उसने सुना था कि यदि शिष्य मंत्र न जपे तो, गुरु को क्षति पहुँचती है। उसने श्रीमाँ को मंत्र लौटा देना चाहा। किन्तु उसकी चेतना लौट आयी तब- मैंने ऐसा सोंचा भी कैसे ?.. यह सोच कर वह बहुत डर गया, और उसके मुख से निकल पड़ा, -" माँ, तो क्या मैं रसातल (नर्क Abyss) में चला जाऊँगा ? " माँ ने तुरंत दृढ़तापूर्वक संतान को अभयवाणी सुनाई," क्या, मेरे बेटे होकर तुम रसातल जाओगे ! यहाँ (महामण्डल में) जो कोई आ गया है, जो मेरे बच्चे हैं, उनकी मुक्ति हो चुकी है। विधाता में भी शक्ति नहीं है कि वह मेरे बच्चों को रसातल भेजे ! मेरे ऊपर भार देकर तुम निश्चिन्त मन से रहो। और सदा याद रखो कि तुम लोगों के पीछे एक ऐसे पुरुष हैं, जो समय आने पर तुम लोगों को उस नित्यधाम में ले जायेंगे। " (ज्ञानदायिनी 'वही'-४९२ /श्रीमाँ ने कहा था,"बेटा, गुरुगृह में जप नहीं करना चाहिये। श्रीरामकृष्ण ने गिरीश बाबू को सब अनुष्ठानों को छोड़कर आममुख्तारनामा (बकलमा) देने को कहा था। और ईसामसीह का कहना था कि जिस प्रकार बराती दूल्हे के साथ आनन्द मनाकर दिन बिताते हैं, उसी प्रकार ईसामसीह (नवनीदा) के सहगामी लोग भी वैधी-भक्ति के ऊपर अधिक जोर न देकर यदि उन्हें ही अपना समझ सकें, तो उस प्रेम के बल पर ही वे मुक्तिलाभ करेंगे। " শ্রীমা সারদা দেবী -৫১৪)
८. या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता :
प्राणियों में जल पीने की इच्छा या विषयवासना को तृष्णा कहते हैं। जल का ही एक और नाम प्राण है। जल पीने से प्राण शीतल होते हैं। शास्त्रों में है,'आपोमयः प्राणः' (छा. उ. ६ । ५ । ४) माँ जगदम्बा केवल जल पीने की इच्छा रूपी तृष्णा ही नहीं हैं, वे जीवों के हृदय में अतृप्त वासना के रूप में विराज करती हैं। इच्छा समाप्त हो जाने से मनुष्य का जीवन प्रवाह भी नहीं रह सकता। इच्छायें दो प्रकार की होती हैं- शुभ और अशुभ। मनुष्य के मन में अशुभ इच्छाओं को उत्पन्न कर माँ उसे संसार-बंधन में बांध देती हैं, फिर शुभ वासना (सत्य को जानने की तीव्र इच्छा) देकर उसे मुक्त कर देती हैं।
श्रीमाँ सारदा देवी के जीवनी-लेखक (biographer-स्वामी गम्भीरानन्द जी) लिखते हैं - " बालविधवा शवासना देवी को निर्जला एकादशी करते देख श्रीमाँ ने कहा था," आत्मा को कष्ट देकर क्या होगा ? मैं कहती हूँ, तू जल पी ले। " (श्रीमाँ सारदा देवी -५७०) जब सुरबाला देवी ने पतिवियोग के बाद शेष जीवन केवल हविष्यान्न खाकर बिता देने का प्रस्ताव रखा तब माँ ने कहा था - "आत्मा यदि किछू खेते चाय, आत्मा के दिते हय। ना दिले अपराध हय; से कांदे, आमाके दिले ना बले।' अर्थात आत्मा यदि कुछ खाना चाहे, तो उसे देना पड़ता है। नहीं देने से अपराध होता है; वह रोती है और कहती है -'मुझे दिया नहीं।' " (श्रीमाँ -५७०)
[ बालविधवा क्षीरोदबाला देवी से श्रीमाँ के पास दीक्षा के लिये गयीं, तो माँ ने पूछा, " बेटी, तुम एकादशी के दिन क्या खाती हो ?" .... उनके उत्तर को सुनकर माँ ने कहा -" बेटी, तुमने बहुत कठोरता की है; मैं कहती हूँ अब मत करना। शरीर को एकदम लकड़ी बना डाला है। अगर शरीर ही नहीं रहेगा -या दुर्बल हो जायेगा, तो भजन किसके सहारे करोगी, बेटी!" ईश्वर-प्राप्ति के लिए भी देह-रक्षा पहले आवश्यक है।पेज ५६९/इच्छा-निर्णय-निश्चय का अन्तर समझें ?]
श्रीमाँ सारदा देवी अधिकारी-भेद (प्रवृत्ति-निवृत्ति की पात्रता) देखकर ही वैराग्य का उपदेश देती थीं। विवाह करने या न करने के संबन्ध में अधिकारी समझ कर वे विभिन्न स्थलों में विभिन्न प्रकार के उपदेश देतीं। किसी को बोलती थीं 'निर्वासना' -या इच्छा रहित होने की प्रार्थना करो। फिर अपनी दिव्यदृष्टि से किसी जिज्ञासु (विवाह करने की इच्छा का त्याग करने को संकल्पित और निवृत्ति मार्ग पर चलने की पात्रता रखने वाले समर्थ) युवाओं से के भविष्य को देखकर कहतीं थीं -" संसारिदेर कोतो कष्ट। तोमरा हाँप छेड़े घूमिये बाँचबे। " -अर्थात ' देखो न, संसारियों को (जिन लोगों ने 'कर्मयोग' को या प्रवृत्ति-से निवृत्ति में आने के मार्ग को समझे बिना विवाह कर लिया है, उन्हें) कितना कष्ट है ! तुम लोग चैन की साँस लेकर सोओगे। " एक बार किसी भक्त ने शायद कह दिया," माँ, मैं विवाह नहीं करूँगा। " तुरंत अन्तर्यामी श्रीमाँ ने हँसते हुए कहा - " क्यों ? संसार में सभी दो-दो हैं। देखो न, दो आँखे, दो कान, दो हाथ,दो पैर; -वैसे ही पुरुष और प्रकृति।" (संघमाता ४१९)
[ जन्मजात त्यागी भावी नेता और 'जन्मजात गृही वुड बी लीडर्स' का जीवन के प्रति दृष्टिकोण एक जैसा नहीं सकता इस बात को माँ अच्छी तरह से जानती थीं। किन्तु श्रीमाँ का मनोभाव सबकी समझ में नहीं आता था; एक दिन नवासन की बहू ने शिकायत की स्वर में पूछा, " माँ, आपके लिये तो सभी बच्चे बराबर हैं। पर विवाह करने वालों को आप इसकी अनुमति देतीं हैं; फिर संसार त्याग करने वालों को त्याग की प्रशंसा करते हुए उपदेश देती हैं। यह कैसी बात ? आपको तो चाहिए कि (प्रवृत्ति और निवृत्ति में से) जो उत्तम पथ हो उसी पर सबको ले जायें। माँ ने कहा -" जिसकी भोग-वासना प्रबल है, मेरे रोकने पर क्या वह मानेगा ? और जिसने सुकर्म के प्रभाव से माया के इस खेल को समझ लिया है और ईश्वर को ही सार वस्तु मानता है, उसकी क्या थोड़ी सहायता न करूँ ?" वही -४२०] ...... शेष अगले ब्लॉक में .....
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