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बुधवार, 22 अगस्त 2018

भगवान श्रीराम के अवतार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में क्या उपदेश दिया ?

         आध्यात्मिक पूर्णता ' कुरुक्षेत्र में -अर्थात गृहस्थ जीवन में' रहकर भी प्राप्त की जा सकती है !
[ Spiritual Perfection is Within the Reach of All ]
 'अद्वैत वेदान्त' का गूढ़ सिद्धांत है - ' ईश्वर और सत्य का अभेद'; "एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति" -सत्य एक ही है ज्ञानी नाना प्रकार से कहते हैं।  जिसे चारों वेदों ने इसी महासत्य को चार प्रकार से परिभाषित किया है। महावाक्य नाम से अभिहित यह परिभाषाएं निम्न प्रकार हैं-
१. प्रज्ञानं ब्रह्म - प्रज्ञा  रूप (उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है..[ इसका संबंध ब्रह्म की चैतन्यता से है , क्योंकि इसमें ब्रह्म को सर्वव्यापी चैतन्य (संवित या Consciousness) रूप में रखा गया है।'(ऐतरेय उपनिषद - ऋगवेद) Consciousness is Brahman'... Aitareya Upnishad... Rigveda.  ekam sat vipraa bahudhaa vadanti 
२. अहम् ब्रह्मास्मि - मैं ब्रह्म हू...[(ब्रिह्दारन्यक उपनिषद - यजुर्वेद) 'I am Brahman...' Brahadaranyak Upnishad... Yajurveda.इसे ' अनुभव वाक्य ' भी कहते हैं और इसके मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है। ]
३. तत्वमसि ~ तत + त्वम + असि >वह पूर्ण ब्रह्म तू है... (छान्दोग्य उपनिषद् - सामवेद) You are That... Chhandogya Upnishad... Saamveda.इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , तुम भी ब्रह्म ही हो , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है। इसे उपदेश वाक्य भी कहा जाता है। यह 'उपदेश-वाक्य' इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही , वे दूसरों के प्रति आदर की भावना को भी पैदा करते हैं।] 
४. अयं आत्माब्रह्म ~  यह (सर्वानुभव सिद्ध अपरोक्ष) आत्मा ब्रह्म है... (मांडूक्य उपनिषद - अथर्व-वेद) This Self(Aatma) is Brahman... Maandukya Upnishad... Atharv-veda. ' अयंआत्मा  ब्रह्म ' महावाक्य के जरिए यह जताने की कोशिश हुई है कि आत्मा ही परमात्मा (ब्रह्म या माँ जगदम्बा) है। दरअसल , यह अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और परम सत्य के बड़े स्वरूप की जानकारी देता है , इसलिए इसे ' अनुसंधान -वाक्य ' भी कहा जाता है। ] 
किन्तु किसी सामान्य मनुष्य को (जिसका कॉमन सेन्स अभी तक पर्याप्त मात्रा में विकसित नहीं हुआ हो) या बच्चों को वेदान्त के उपरोक्त गूढ़ सिद्धान्तों को कहानियों के माध्यम से ही समझाया जा सकता है। अतः युवा पाठचक्र (Youth Study Circle) में विचार-विमर्श अद्वैत वेदान्त के गूढ़ सिद्धान्तों को समझने के लिये करना चाहिये, कहानी की ऐतिहासिकता को लेकर अधिक माथापच्ची  नहीं करनी चाहिये। 
प्राचीन काल में भारतवर्ष पर विचित्र वीर्य नामक एक राजा का शासन था । उनके तीन पुत्र थे जिनका नाम -धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर था। धृतराष्ट्र बड़े थे, किन्तु जन्मान्ध थे इसीलिए राज्य का उत्तराधिकार उनको न देकर पाण्डु को राज्य-सिंहासन सौंप दिया गया। धृतराष्ट्र को एक सौ लड़के थे, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा लड़का था। पांडू के पाँच पुत्र थे जिनका नाम था- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकूल और सहदेव, इनमें युधिष्ठिर सबसे बड़े थे। जब ये राजकुमार छोटे ही थे कि पांडू का देहान्त हो गया; इसीलिए, धृतराष्ट्र ने ही अपनी  देख-रेख में अपने सौ पुत्रों के साथ-साथ उनके चचेरे भाइयों की शिक्षा-दीक्षा का भी उचित प्रबंध किया, और सभी राजकुमार एक ही साथ युद्धविद्या एवं शिक्षा आदि ग्रहण करते हुए बड़े हुए। 
न्यायोचित रूप से (legally) राजकुमार युधिष्ठिर ही राजसिंहासन के उत्तराधिकारी थे, इसलिये दुर्योधन प्रारंभ से ही उन्हें मार डालने का षड्यन्त्र करता रहता था। यह सब देख-सुन कर, भविष्य में कोई बड़ी घटना न घटे, धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों और भतीजों में आधा आधा राज्य बाँट दिया। किन्तु दुर्योधन को यह आधा राज्य मंजूर नहीं था। वह पूरा राज्य ही पाना चाहता था। उसने दुर्योधन को पाँसे का एक ऐसा खेल खेलने का आमन्त्रण भेजा, जिसमें हारने वाले के भाग्य का फैसला करने का अधिकार जीतने वाले के हाथों में होगा। 
दुर्योधन ने धोखे से पाँसे का खेल जीत लिया और यह माँग रखी की द्रौपदी सहित पांचो भाइयों को १४ वर्षों तक वनवास में जाना होगा। युधिष्ठिर तो सत्यवादी थे, उन्होंने वन में जाना सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस बीच दुर्योधन के कई अत्याचारों को चुप चाप सहते हुए, वर्षों बाद जंगल से वापस लौटने पर, युधिष्ठिर जब अपना राज्य पुनः वापस लौटा देने का अनुरोध करते हैं। किन्तु दुर्योधन उनके राज्य को वापस लौटने के लिए तैयार नहीं हुआ। तब युधिष्ठिर सारी शत्रुता को समाप्त करने के उद्देश्य से एक समझौते का प्रस्ताव भेजा कि पाँच भाइयों को क्षत्रिय जनोचित भरण-पोषण के लिए केवल पाँच गाँव ही दे दिया जाय। किन्तु युधिष्ठिर उतना भी देने को तैयार नहीं हुआ। उसने स्पष्ट रूप से यह कहा कि बिना बड़े-पैमाने पर युद्ध किये वह सूई की नोक जितनी जमीन भी पाण्डवों को नहीं देगा। 
और इस प्रकार जब शान्ति से न्याय पाने का कोई उपाय नहीं बचा, तब अन्त में कुरुक्षेत्र के मैदान में  दोनों पक्ष की सेनायें युद्ध के लिए आमने -सामने आकर खड़ी हो गयीं। फिर दोनों पक्ष के राजा और सेनापति भी एक दूसरे के सामने आकर अपना अपना स्थान ग्रहण करते हैं। दोनों पक्ष की सेनायें तैयार खड़ी हैं, बस अब थोड़ी ही देर में युद्ध शुरू होने को है। युद्ध के प्रारम्भ होने से पहले, युधिष्ठिर के तीसरे भ्राता महावीर 
अर्जुन अपने सखा और सारथि बने 'भगवान श्रीराम के अवतार' श्रीकृष्ण से कहते हैं-" सखा, तुम मेरे रथ को दोनों दलों की सेना के बीच में ले चलो, मैं यह देखना चाहता हूँ कि युद्ध करने के लिए दोनों पक्ष की ओर से कौन कौन से योद्धा एकत्र हुए हैं? " 
श्रीकृष्ण उनकी इच्छा के अनुसार रथ को बीच में लाकर दोनों दलों के सेनानियों का परिचय देने लगते हैं। अर्जुन ने जब अपने अनेक सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को शत्रु पक्ष की ओर खड़े देखा तो, वह करुणा के वशीभूत हो गया,उसके हाथ-पैर निष्क्रिय हो गये। शरीर कांपने लगा, उसके हाथों से छूट कर धनुष नीचे गिर गया। उसने अश्रु-पूरित नेत्रों से कृष्ण की ओर देख कर कहा - " सखा, थोड़ा सा सांसारिक-सुख प्राप्त करने के लिये, मैं अपने सगे-संबन्धियों की युद्ध में हत्या नहीं करना चाहता। "श्रीकृष्ण सोंचने लगे, यह क्या बात हुई ? इतना सब कुछ हो जाने के बाद अन्तिम क्षणों में अर्जुन ऐसा क्यों कह रहे हैं ? क्योंकि श्रीकृष्ण जानते थे कि अर्जुन कोई कायर व्यक्ति तो हैं नहीं, वे तो एक महापराक्रमी, और साहसी धनुर्धर हैं। इसके पहले भी अनेक युद्धों में उन्होंने अपनी असीम शक्ति और साहस का परिचय दिया है। वास्तव में द्रौपदी ने वर्षों पूर्व स्वयम्बर के समय, कई धनुर्धरों को पर्तिस्पर्धा में हरा देने के बाद ही अर्जुन का वरण अपने पति के रूप में किया था। 
इसके अतिरिक्त, गंधर्व लोगो के साथ युद्ध, बिराटनगर के राजा की गौओं का हरण करने वालों के साथ युद्ध, आदि प्रत्येक युद्ध में उन्होंने अपनी असीम वीरता का परिचय दिया था। गउओं के हरण के समय तो अर्जुन अकेले ही विपक्ष के समस्त वीरों को पराजित कर के राजा बिराट की समस्त गौओं को छीन कर वापस ले आया था। इसके अतिरिक्त, द्रोणाचार्य, देवराज इन्द्र, एवं देवादिदेव महादेव ने उनको इतने सारे दिव्य अस्त्र-शस्त्र  प्रदान किये हैं, कि ईच्छा होने से ही वे क्षण भर में सम्पूर्ण शत्रु दल को कुरुक्षेत्र में एक साथ ध्वंश कर सकते हैं। अतः अर्जुन के भयभीत हो जाने की सम्भावना तो हो ही नहीं सकती।  उनके मन की शक्ति भी तो कम नहीं है, फिर क्या बात है ? वे केवल  कुछ समय के लिए करुणा के वशीभूत हो गए हैं, और केवल धार्मिक कारणों से (righteous cause) युद्ध लड़ना नहीं चाहते हैं, क्योंकि युद्ध करने उनके अपने सगे-संबन्धी ही मारे जायेंगे।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन के उत्साह को फिर से जगाने की चेष्टा की, ताकि वो रणक्षेत्र में युद्ध के लिए तत्पर हो जाये। किन्तु उस समय अर्जुन की मनोदशा ही बिल्कुल भिन्न प्रकार की थी, वह युद्धभूमि को छोड़ कर एक संन्यासी बनना ज्यादा अच्छा समझ रहा था। उसने कहा, " सखा देखो, ये द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं, दुर्योधन आदि मेरे चचेरे भाई हैं, बचपन में अपने पितामह भीष्म की पीठ और गोदी में खेलकूद करके मैं बड़ा हुआ हूँ। और येही लोग यहाँ विपक्ष की ओर से युद्ध करने आये हैं। हमलोगों के उपर इनलोगों ने चाहे जितने भी अत्याचार क्यों न किये हों, किन्तु इनकी हत्या करके, इनके खून में सने अन्न को खाकर राज्यभोग करने की अपेक्षा मैं भिक्षा माँग कर खाने को उत्तम समझता हूँ।  इस राज्य की तो बात ही क्या, इन सब को मार कर, मैं स्वर्ग का राज्य भी लेना नहीं चाहूँगा। " 
उधर श्रीकृष्ण उसे युद्ध लड़ने के लिये उत्साहित कर रहे थे, वह भारी असमंजस की स्थिति (dilemma) में फंस गया था। अंत में आन-मान छोड़कर अपने  सार्थी की परामर्श माँगने का निश्चय किया, जो उसके सौभाग्य से ' भगवान श्रीराम के अवतार और स्वयं भगवान' श्रीकृष्ण ही थे! अर्जुन ने कहा- " देखो सखा, इस क्लेशकर और नाजुक परिस्थिति में पड़ कर मेरी बुद्धि भ्रमित हो गयी है, मैं स्वयम अभी सही निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ। इस समय मेरे लिए क्या करना उचित है, और क्या न करना उचित है- मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। तुम मुझे अच्छी तरह से समझा कर बता दो इस समय मेरा कर्तव्य क्या है।"
तब श्रीकृष्ण प्रारम्भ में ही कई प्रकार से वेदों में कहे 'प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म' की चर्चा करते हुए, अर्जुन को यह बात समझा देते हैं कि अर्जुन एक क्षत्रिय राजकुमार है, और अपने राज्य तथा प्रजा की रक्षा करना ही क्षत्रिय का धर्म है।  हजारों हजार लोगों की रक्षा और पालन करने का दायित्व उसीके कन्धों पर है, इस समय राज्य की ओर से जो अन्याय हो रहा है, उसका प्रतिकार वह नहीं करेगा, तो फिर कौन करेगा ? इतना ही नहीं, इस कर्तव्य का पालन करने के लिए यदि आवश्यक हुआ तो उसे कठोरता के साथ पितामह आदि गुरुजनों के साथ भी युद्ध करना पड़ेगा। उपरी तौर पर युद्ध में किसी की हत्या करना अति गर्हित कर्म जैसा प्रतीत होता है; किन्तु किसी व्यक्ति का चाहे जो भी स्वाभाविक धर्म अर्थात कर्तव्य है, उस स्वधर्म का पालन यदि कोई व्यक्ति पूर्णतः अनासक्त होकर, निष्काम भाव से करे, तो वह आध्यात्मिक-उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर भी पहुँच सकता है। इन सब कार्यों को करने से भी मनुष्य अधर्म नहीं करता; बल्कि उचित मनोभाव लेकर इन कर्मों को करने में सक्षम होने से ही, आत्मज्ञान ( अर्थात अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान, आत्मसाक्षात्कार) प्राप्त करके मनुष्य मोक्षधर्म में उन्नत  हो जाता है, देहाध्यास के भ्रम से मुक्त हो जाता है या सदा के लिए डीहिप्नोटाइज्ड हो जाता है।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह भी समझाया कि - ' जब तुम किसी व्यक्ति [दुष्ट,आतातायी व्यक्ति (Terrorists) आदि] की हत्या कर देते हो, तो तुम उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर रहे हो ' ऐसा सोंचने का कोई ठोस आधार नहीं है; क्योंकि अद्वैत-वेदान्त के अनुसार मनुष्य की आत्मा तो अजर-अमर और अविनाशी (immortal) है। (जिसे शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि जिसे जला नहीं सकती और वायु जिसे सूखा नहीं सकता।) अतः एक शरीर के समाप्त होने के बाद आत्मा एक और शरीर धारण कर लेगी। वेदान्त के अनुसार आत्मा (Heart) , शरीर (Hand) और मन (Head) के जाल (THE NET) में बन्दी हो गयी है (स्वेच्छा से =माँ की इच्छा से ?), जिसके कारण अहंकार की भावना बढ़ जाती है। किन्तु यह अहंकार किसी बुद्धिमान व्यक्ति (विवेक-प्रयोग करने में दक्ष-मनीषी) के सूक्ष्म परीक्षण (scrutiny) या अनुसंधान का सामना नहीं कर सकता [ "Sri Krishna also told Arjuna that there was no sound basis for the idea that when you slay a man, you are ending his existence; for the soul being immortal , it will take another body. The soul, according to Vedanta , is caught in THE NET of body and mind, giving rise to a sense of ego.This ego does not withstand the scrutiny of an intelligent person."-Swami Amarananda, Stories form Vedanta.page -26] 

 थोड़ा विवेक-प्रयोग करने से ही अहंकार भाग जाता है।  श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं  कि साधारण तौर से भ्रमित अवस्था में (हिप्नोटाइज्ड अवस्था में) सभी मनुष्य ऐसा अवश्य सोचते हैं कि मैंने अमुक व्यक्ति की हत्या कर डाली है, या अमुक के हाथों मैं मारा गया हूँ;  किन्तु वास्तव में वह सत्य नहीं है। जिस प्रकार प्राकृतिक नियमों के अनुसार बाह्यप्रकृति में आँधी आती है या वर्षा होती है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य की अन्तःप्रकृति - 'मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार' आदि भी प्राकृतिक नियमों के अनुसार ही परिचालित होकर उससे सारे कर्म करवा लेते हैं। हमलोगों का व्यष्टि अहं-भाव' मैं '-बोध (अपने नाम-रूप का देहध्यास) इस 'शरीर, मन, बुद्धि,चित्त अहंकार' के जाल में फँस कर भ्रमित हो चुका है, इसीलिए सम्मोहित अवस्था में हमलोग ऐसा समझते हैं कि हमलोग स्वयं ही यह सब कर रहे हैं। 
जैसे, आसमान में जब बदली छा गयी हो और कोई बादल का टुकड़ा यदि यह सोचने लगे कि मैं तो अपनी इच्छा से इधर-उधर उड़ता रहता हूँ, और जल बरसाता हूँ, तो उसका ऐसा सोचना हमलोगों को जितना हास्यास्पद प्रतीत होगा, ब्रह्मज्ञानी लोगों को-(अर्थात जिन लोगों ने अपने क्षुद्र व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपान्तरित कर लिया है, और जिनका मन साम्यभाव में प्रतिष्ठित हो गया हो, अथवा जिन्होंने श्रीरामकृष्णदेव की 'भावमुख-अवस्था' में रहने का तात्पर्य समझ लिया है, उन लोगों को) हमलोगों द्वारा ऐसा कहना कि ' अमुक कार्य मैंने किया है ' - भी ठीक उतना ही हास्यास्पद प्रतीत होगा। श्री कृष्ण ने यह भी समझाया कि, ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेने के पहले तक जो 'वास्तविक मनुष्य' (जीव) है, वह मरता नहीं है। बल्कि, मृत्यु के समय वह सूक्ष्म शरीर (अन्तःकरण) को अपने साथ लेकर देह (मृत शरीर) से बाहर निकल जाता है। फिर वह एक नया देह धारण करके जन्म लेता है- जैसे फटा-पुराना वस्त्र फेंक कर हमलोग नया वस्त्र धारण कर लेते हैं।
इस प्रकार मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्री कृष्ण ने अर्जुन को आध्यात्मिक क्रमविकास (Spiritual Evolution) के विभिन्न मार्गों का दिग्दर्शन कराया, जिन्हें संक्षेप में योग (Yogas) कहा जाता है। श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह भी समझा दिया कि चूँकि विभिन्न मनुष्यों की विचारधारा एवं रूचि भिन्न भिन्न प्रकार की होती है, इसीलिए परम सत्य, ईश्वर (पूर्ण निःस्वार्थपरता) में पहुँचने के लिए भी विभिन्न प्रकार के योग-मार्ग उत्पन्न हुए हैं।
ये सभी मार्ग अलग अलग प्रतीत होने पर भी, सभी मार्गों का उद्देश्य और लक्ष्य एक ही है। अतः इनमें से किसी एक मार्ग का अनुशरण करके, या चारों मार्गों का अनुशरण करते हुए कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में धन्यता (blessedness, परमानन्द, मोक्ष या भ्रममुक्त अवस्था) का अनुभव कर सकता है। नाम-रूप या शरीर मन के जाल में बंदी क्षुद्र व्यष्टि अहं' कच्चा मैं '-बोध की सीमा को, क्रमशः बढ़ाते हुए, और छोटी छोटी संकीर्णताओं (लींग, जाती, भाषा, धर्म आदि के आधार पर ' मैं और मेरा ' मानने की संकीर्णता) को क्रमशः दूर हटाते हुए माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं'-बोध में (पक्का मैं) रूपान्तरित कर लेने से, ये सभी योगमार्ग अन्त अन्त में मनुष्य को वेदान्तोक्त उसी 'सर्वव्यापी चैतन्य' (प्रज्ञा ,संवित या Consciousness) में पहुंचा देते हैं। श्री कृष्ण की इन शिक्षाओं को ही भगवद गीता के नाम से जाना जाता है।
भक्तियोग (path of devotion) का पथिक यह कल्पना करता है कि परम सत्य (Highest Reality ,इन्द्रियातीत सत्य, ईश्वर या माँ जगदम्बा ने) ही 'मानव-रूप' ----(मेरे इष्टदेव या शुभ्र-पुरुष श्री रामकृष्ण परमहंसदेव का रूप) धारण किया है, इसलिये वह पूरे दिलोजान से इस 'नवमानव- रूप' से प्रेम करने लगता है।  प्रेम करना क्या है, या मातृभाव क्या है -- इस बात से कमोबेश हम सभी लोग परिचित हैं। इसीलिए इस पथ पर चलना सबों के लिए आसान है। यह जान कर कि इस जगत में सब कुछ उनकी (माँ जगदम्बा की) ईच्छा से ही हो रहा है, भक्त-हृदय प्रत्येक घटना के पीछे उनका ही मुखड़ा देखते हुए सबकुछ करता चला जाता है। (ईश्वरेच्छा से प्राप्त समस्त भूमिकाओं को आनन्दपूर्वक निभाता चला जाता है।) इसप्रकार उसकी समस्त इच्छायें और क्रियाकलाप इसी सतत वर्धमान (ever-increasing) स्नेह (affection-मातृभाव) का हिस्सा बन जाते हैं। जैसे जैसे भक्त का प्रेम गहरा होता जाता है, वह अपने इष्टदेव की भक्ति में डूबता चला जाता है, उसका अपना पुराना व्यक्तित्व क्रमशः लुप्त (disappear) होने लगता है, और अंततोगत्वा वह अपने प्रेमास्पद (beloved) में विलीन हो जाता है।  
एक दूसरा मार्ग है ज्ञानयोग - या 'तात्विक अनुसन्धान' का मार्ग (The path of Philosophical Scrutiny)। केवल कॉमन सेन्स या सामान्य ज्ञान के बल पर बहुत गहराई से चिन्तन करने के परिणाम-स्वरूप कोई भी व्यक्ति इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि शरीर,मन बुद्धि आदि जड़ इंस्ट्रूमेंट्स से वह तत्वतः नितान्त पृथक है, तथा जन्म-मृत्यु से मुक्त है। विवेक-विचार करते हुए, गहराई से चिन्तन करते करते उसे  इस बात की स्पष्ट धारणा हो जाएगी, कि वह शरीर, मन, बुद्धि आदि जड़ पदार्थों से बिलकुल भिन्न - नित्यमुक्त, शाश्वत चैतन्य सत्ता है, उसका जन्म-मृत्यू तो है ही नहीं, और वही सबों के भीतर विद्यमान है। इस प्रकार से विचार-विश्लेषण करने में जिन मनुष्यों की बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण होगी और जो 'कामिनी-कांचन' प्रति बिल्कुल अनासक्त होंगे,वे स्वाभाविक रूप से इसी मार्ग पर चलना चाहेंगे। क्योंकि जो लोग अत्यधिक  चिन्तनशील होते हैं, वे प्रेम-विरह आदि कोमल मनोवृत्तियों को मानवीय -दुर्बलता समझते हैं, इसलिए उनको इस पथ पर चलने में बड़ी आसानी होती है। और केवल सामान्य ज्ञान का प्रयोग करते रहने से ही एक दिन उनको ब्रह्मज्ञान तक प्राप्त हो जाता है।  
एक तीसरा मार्ग है राजयोग (Raja-Yoga,- the path of mind control.) या मनःसंयोग अर्थात मन को नियंत्रण में रखने का मार्ग। जो युवा विद्यार्थी जीवन में ( अर्थात ब्रह्मचर्य-आश्रम के कालखण्ड में) इच्छा मात्र  से अपने मन को बाह्य विषयों से खीँच कर, किसी प्रयोजनीय विषय पर मन को एकाग्र रख सकते हों, यह मार्ग वैसे युवाओं के लिए बहुत अनुकूल है। हमलोगों का शरीर मानों एक बर्तन है, और मनवस्तु (mind-stuff) जिससे मन बनता है उसको चित्त कहते हैं, वही चित्त मानों इस पात्र में भरा हुआ जल है। जैसे किसी शांत सरोवर में ढेला फेंकने से वह तरंगायित हो जाता है, उसी प्रकार चित्त में 5 विषयों (रूप-रस-गन्ध -शब्द और स्पर्श) का ढेला गिरता रहता है, जिससे वह तरंगायित होकर मन बन जाता है, और यह क्या है ? -वह क्या है? करता रहता है। मन का कार्य ही है प्रश्न पूछना -कानों के माध्यम से कोई ध्वनि चित्त में गयी, तो मन प्रश्न करेगा कि मैंने अभी जो शब्द सुना वह किसी पंछी की कूक थी या मोटर का हॉर्न था ? अब बुद्धि निर्णय करेगी कि यह तो कोयल की कूक ही है! जैसे ही बुद्धि निर्णय लेती है, वैसे ही अहंकार 'मैं'-बोध आ जाता है - मैं जानता हूँ कि यह कोयल की आवाज है। वास्तव में ये सब हमारे (आत्मा के) उपकरण हैं। किन्तु मन में हर समय विचार तरंगें उठती रहती हैं, इसीलिए उसमें हमलोगों का स्वरुप ठीक तरह से प्रतिबिम्बित नहीं हो पाता है। जैसे बर्तन का जल स्थिर होते ही, उसमें सूर्य के स्पष्ट प्रतिबिम्ब को देखा जा सकता है, उसी प्रकार जैसे ही हमारा चित्त जब बिल्कुल शांत और स्थिर हो जाता है, वैसे ही चित्त के भीतर सत्य स्पष्ट रूप से दिखलाई देने लगता है। 
एक और मार्ग भी है- कर्मयोग, निष्काम भाव से कर्म करने का मार्ग। अर्थात कोई व्यक्ति चाहे जो कुछ भी कर्म करता हो, उसके फल से नहीं जुड़े नहीं होने का मार्ग-अर्थात 'निवृत्ति अस्तु महाफला' को समझ लेने का मार्ग। परिणाम में सुख मिले या दुःख, चाहे ख़ुशी मिले या गम दोनों अवस्थाओं में शांत रहना, दोनों में से किसी भी परिणाम से अनासक्त रहना; तथा अपने कर्मों के परिणामों से निर्लिप्त रहना ही इस योगमार्ग का सर्वस्व है। इस योगमार्ग का साधक यह अनुभव करता है कि, यह प्रकृति ही है जो शरीर तथा मन को संचालित कर रही है। अथवा इस मार्ग का साधक भक्ति के  मनोभाव के साथ भी कर्म कर सकता है कि मैं जो कुछ भी कर्म करता हूँ वह ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने की दृष्टि से करता हूँ; और मानसिक रूप से वह अपने समस्त कर्म को ईश्वर को समर्पित करता जाता है।
अथवा बदले में किसी फल की आशा (नाम-यश या अन्य कोई भी एषणा) किये बिना वह मानवता की सेवा भी कर सकता है। कर्म करते समय कर्मयोगी ऐसा मनोभाव रखता है कि- 'मैं कर्ता नहीं हूँ, प्रकृति के गुणों के द्वारा (सत-रज-तम के द्वारा) ही सभी कार्य हो रहे हैं !'  या फिर यह मनोभाव रखता है कि, 'मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, वह  ईश्वर (ठाकुर) को प्रसन्न करने के लिए ही कर रहा हूँ, जैसी उनकी इच्छा है वे मुझसे वैसा करवा ले रहे हैं।' यदि कोई व्यक्ति ईश्वर (माँ जगदम्बा या ब्रह्म और शक्ति में) के अस्तित्व में विश्वास नहीं भी रखता हो, किन्तु अपने  लिए कुछ भी पाने की इच्छा किये बिना, पूर्णतया निःस्वार्थभाव से केवल दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करता रहे तो उसके क्षुद्र व्यष्टि अहं की सीमा भी टूट जाती है और वह आध्यात्मिक मार्ग में उन्नत हो जाता है। इस प्रकार निष्काम भाव से कर्म करते रहने से एकदिन मनुष्य के व्यष्टि अहं ' मैं '-बोध की सीमा टूट जाती है, और वह सर्वव्यापी विराट मातृहृदय के अहं बोध में या आत्मस्वरूप (अपने यथार्थ स्वरुप) में प्रतिष्ठित हो जाता है।
श्रीकृष्ण के इन उपदेशों ने अर्जुन की बुद्धि में जमे भ्रम को दूर कर दिया। वह समझ गया कि युद्ध भी यदि उचित मनोभाव के साथ (कर्मयोग के रहस्य - निवृत्ति अस्तु महाफला को समझकर) लड़ा जाय, तो वह मेरी आध्यात्मिक प्रगति के रास्ते में बाधक सिद्ध नहीं होगा।अतः प्रारब्ध (destiny-भवितव्यता या अदृष्ट) के संग्राम में (in the battle of his destiny.) उसने अपने क्षत्रियोचित कर्तव्य का दृढ़ता पूर्वक पालन करने का संकल्प किया। और बड़े उत्साह के साथ यूद्ध करने को तैयार हो गये। सिंहविक्रम के साथ उन्होंने अपने धनुष को उठा लिया, तथा प्रत्यंचा चढ़ाकर एक जोरदार टंकार दिया, जिसकी अनुगूँज से सारा रणक्षेत्र थर्रा उठा ! इनदिनों तथाकथित सेक्यूलरवादियों  और समाजसुधारकों के बीच एक लोकप्रिय आलोचना (popular criticism) है कि धर्म ने ही भारत को आज इतना दब्बू, निष्क्रिय (passive) या बदतर बना दिया है, कि सम्पूर्ण राष्ट्र ही शक्तिहीन, कर्मविमुख कायरों के जाति में परिणत हो गया है। गीता की यह कहानी उस गलत और तथ्यहीन छिद्रान्वेषण का एक उपयुक्त जवाब है। [ तथा हमारे दो-भारतरत्न  आध्यात्मिक नेता अटलजी और वैज्ञानिक होकर भी आध्यात्मिक नेता A.P.J Abdul Kalam ने पोखरण में एक के बाद एक तीन परमाणु बमों का विस्फोट करके प्रमाणित भी कर दिया है !]  
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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

['आधुनिक युग के दो अद्भुत शिक्षक' - स्वामी रंगनाथनंद के अनुसार।

['Two wonderful Teachers of the Modern Era' 
-According to Swami Ranganathananda .] 
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गीतोक्त (5/19) साम्यभाव में अवस्थित प्रथम युवा नेता -श्रीरामकृष्ण 
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "हमारे देश में सबसे अधिक आदर और सम्मान एक शिक्षक को मिलता है,तथा उनके प्रति हमारी ऐसी श्रद्धा रहती है कि शिक्षक मानो साक्षात् ईश्वर ही हैं ! जितनी श्रद्धा हमें अपने शिक्षकों  (जीवन्मुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता) के प्रति रहती है; उतनी श्रद्धा हमें अपने माता-पिता के लिए भी नहीं होती। माता-पिता हमें केवल जन्म देते हैं,किन्तु शिक्षक (नेता) हमें अपने जीवन में वेदान्त का अभ्यास सिखाकर मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। " 
[ 'but the teacher shows us the way to salvation'. अर्थात शिक्षक 'सिंह-शावक' को अपना स्वरुप पहचान कर 'भेंड़ होने के भ्रम से मुक्त', जागृत या डी-हिप्नोटाइज्ड (awakened-प्रबुद्ध) हो उठने का मार्ग दिखलाते हैं !]  
श्रीमद्भागवत पुराण में कहा गया है - 'ब्रह्मावलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवः॥ ९.२८॥ ( -सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान्सरीसृप पशून्खगदंशमत्स्यान्। तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥)  जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्प-कार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था।  तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य को बनाया जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह अपनी बुद्धि को विकसित करके अपने बनाने वाले ब्रह्म या ईश्वर को भी जान लेने में भी समर्थ था।  इसी से मिलती-जुलती कथा बाइबिल और कुरान में भी है कि मनुष्य को ब्रह्मा जी ने अपने रूप में गढ़ा , और मनुष्य को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए।  और सभी देवदूतों (फरिस्तों) को बुलवा भेजा तथा उनको आदेश दिया कि तुम सबलोग मनुष्य के सामने सिर झुकाओ-इसको नमस्कार करो ! सभी फरिस्तों ने मनुष्य के सामने अपने सिर को झुकाया, केवल एक फरिस्ता जिसका नाम इब्लीस था,उसने सर नहीं झुकाया तो उसको भगवान ने कहा -दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया।इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। निम्नतर सृष्टि, पशु-पक्षी आदि किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते।
 [ देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना, अर्थात गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों का पालन किये बिना  "निवृत्ति अस्तु महाफला की धारणा" नहीं कर सकते; अतः मुक्ति-लाभ या 'भ्रममुक्त अवस्था' भी प्राप्त नहीं कर सकते।]
 चाहे हम अपने 'स्व' (यथार्थ स्वरूप) को, 'मैं कौन हूँ ?' को गहराई से जानने की चेष्टा करें;  अथवा बाह्य प्रकृति को, दोनों अवस्थाओं में हमें उसी अनन्त-असीम (लिमिटलैस) का आह्वान सुनाई देता है। बाह्यजगत और अंतःजगत दोनों अथाह (fathomless) हैं, अतः इनकी गहराई को मापा नहीं जा सकता। इसीलिये हम उस प्रत्येक बाधा को तोड़ देना चाहते हैं, जो हमें इस मिथ्या व्यक्तित्व या नाम-रूप की सीमा में आबद्ध करना चाहती है। मानवजाति के जो मार्गदर्शक नेता अपने जीवन और उपदेशों के द्वारा इस मिथ्या व्यक्तित्व के अहं-बोध में फँसी आत्मा को.  या शरीर और मन की जाल में फँसी हुई आत्मा को सिंहविक्रम से काटकर मुक्त हो जाने का मार्ग दिखलाते हैं, उनके जीवन से हमलोगों को भी मुक्त होने की प्रेरणा प्राप्त होती है।   
आधुनिक युग के दो अद्भुत शिक्षक श्रीरामकृष्णदेव और स्वामी विवेकानन्द: आधुनिक युग में दो ऐसे आश्चर्यजनक शिक्षक हुए हैं जिन्होंने अपने जीवन से हमें यह शिक्षा दी है कि वेदान्त केवल मुख से कहने भर की बात नहीं है; इसे अपने दैनंदिन जीवन में अपनाना चाहिये; तथा स्वयं इसका अभ्यास करके उन्होंने इसे कार्यरूप देकर दिखा भी दिया है। श्रीरामकृष्ण तो धर्म क्षेत्र के एक महान वैज्ञानिक ही थे। ठीक किसी वैज्ञानिक की तरह जो अपनी प्रयोगशाला में अनुसंधान करने में व्यस्त रहता है, उन्होंने भी दक्षिणेश्वर के भवतारिणी मंदिर में १२ वर्षों तक परम् सत्य का अनुसंधान या आध्यात्मिक साधना करने के दौरान, सभी धर्मों की साधना करके यह देख लिया था कि "सभी धर्मों का मुख्य भाव यही है कि, 'मैं कुछ नहीं -तू ही सब कुछ है', जो कुछ है सो तू ही है! तथा जो कहता है -'मैं नहीं', बस उसीके हृदय को ईश्वर परिपूर्ण कर देते हैं। (हृदय से अंहकार के हटते ही माँ जगदम्बा वहाँ बैठ जाती हैं।) यह क्षुद्र अहंभाव जितना ही कम होता है,उतनी ही उसमें ईश्वर की अभिव्यक्ति होने लगती है। "७/२५५ 
अद्वैतभाव में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो जाने के लिए श्रीरामकृष्णदेवने कई प्रकार के प्रयोग किये थे; किन्तु उनमे से एक प्रयोग सबसे अद्भुत (Wonderful )था। अपने जीवन में अद्वैतवाद को प्रतिष्ठित करने के लिए वैसा 'अद्भुत -प्रयोग'  उनसे पहले के किसी भी शिक्षक, नेता, पैगम्बर या  मानवजाति के मार्गदर्शक नेता ने नहीं किया था। जबकि श्री रामकृष्ण ने अपने जीवन को ही अद्वैत वेदान्त उदाहरण बनाकर हम लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया है : 
एक दिन मध्य रात्री में श्रीरामकृष्ण उठ गए, और मंदिर के समीप रहने वाले एक चाण्डाल (sweeper caste'  वाल्मीक) के घर जाकर उसके शोचालय (latrine) को साफ कर दिए। यदि वे इस कार्य को दिन में करना चाहते तो नहीं कर पाते। क्योंकि वह चाण्डाल (वाल्मीक)उन्हें वैसा करने नहीं देता। क्योंकि अत्यंत प्राचीन काल से ही, भारत में उच्च जाति और निम्न जाति दोनों वर्ग के लोगों के दिमाग में यह विचार भर दिया गया है कि,  जिस मनुष्य का शरीर ब्राह्मण-कुल में जन्मा है, वह जन्मजात रूप से ही सर्वश्रेष्ठ जाति का है, या उच्च जाति का है।  उसी प्रकार जिन मनुष्यों का शरीर निम्न जाति के कुल में जन्मा है, वे जानते हैं कि वे निम्न जाति के हैं। और जो जन्मजात रूप से निम्न जाति के हैं, उन्हें आजीवन निम्न जाति में ही रहना होगा। दोनों वर्ग के लोगों के मन में यह विचार पूरी गहराई से घर कर चुका है। किन्तु यह प्राचीन भारतीय समाज में व्याप्त एक वंशानुगत पारम्परिक कुसंस्कार था, जिसे आधुनिक भारत या नए भारत में मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्ण ने तोड़ कर दिखा दिया है। 
वे कहा करते थे कि -" जन्म से ही प्रत्येक मनुष्य   'घृणा,लज्जा, भय, कुल,शील,मान, जाति तथा अहंकार (पंचक्लेश)' -इन अष्टपाश में आबद्ध है, यज्ञोपवीत भी 'मैं ब्राह्मण तथा सबसे श्रेष्ठ हूँ '-इस प्रकार के मिथ्या अहंकार (arrogancy) का चिन्ह होने के कारण यह भी एक पाश है,(अतः वर्णाश्रम धर्म की रक्षा करने के लिए ?) साधना करने के बाद पुनः यज्ञोपवीत को धारण कर लूँगा "  ! ईश्वर (माँ जगदम्बा ) को पुकारने के लिये इन पाशों (superimpositions) को त्यागकर, एकाग्रता के साथ उन्हें पुकारना पड़ता है। केवल स्थूल रूप से जनेऊ त्याग कर ही वे सन्तुष्ट नहीं हो गए थे। 
साम्यभाव अवस्थित रहने या 'समस्त जीवों में उपस्थित शिव' का अनुभव करने या के लिए श्रीरामकृष्णदेव अपने सिर के लम्बे बालों से उस अछूत चाण्डाल के शोचालय को धोकर स्वच्छ बना देने की साधना किया करते थे।  चाण्डाल जाति में जन्मे (मेहतर) का शौचालय  साफ़ करते समय श्रीरामकृष्ण माँ जगदम्बा से प्रार्थना भी किया करते थे," हे जगन्माता, मुझे चाण्डाल का दास बना दो और मुझे यह अनुभव कर लेने दो कि मैं उससे भी हीन हूँ। " तुम मेरे मन में छिपे इस भाव को दूर हटा दो, कि एक ब्राह्मण शरीर में जन्म लेने के कारण मैं अन्य सभी जातियों से श्रेष्ठ हूँ। तुम मुझे अपने को 'सभी का दास'- सर्वेंट ऑफ़ ऑल, मनुष्य मात्र का सेवक समझने की सद-बुद्धि दो ! यह एक अदभुत प्रार्थना है! किंतना सुंदर विचार है- नेता/शिक्षक  सभी का (अपने छात्रों -या भावी शिक्षकों का भी ?) दास होता है! जिस चाण्डाल (वाल्मीक या Sweeper) को अन्य लोग अत्यंत अपवित्र मानकर सर्वथा परित्याग करते हैं, श्रीरामकृष्ण मध्य रात्रि में जब उस चाण्डाल के शौचालय को, जब उसके घर के सभी लोग सो रहे होते, धो-पोछकर साफ कर दिया करते थे। ताकि वह चाण्डाल उन्हें शौचालय साफ़ करते हुए कहीं देख न ले। क्योंकि देख लेने से तो वह भी मना ही कर देता। 
अद्भुत शिक्षक श्रीरामकृष्ण की इस लीला का ये तो एक पहलु हुआ, दूसरा पहलु है, जिस रूढ़िवादी वंश-परम्परा में पले-बढ़े होने के कारण, भारत के सभी लोग छुआछूत (untouchability या अस्पृश्यता) को सदियों से सही मानते चले आ रहे हैं। उनके लिये यह इतना स्वाभाविक बन चुका है, कि अब वे इसके विपरीत वे कुछ सोंच ही नहीं सकते। इसीलिए युगावतार श्रीरामकृष्ण अपने जीवन द्वारा इस कुसंस्कार को मिटाकर व्यावहारिक वेदांती या सच्चा आध्यात्मिक शिक्षक बनने और बनाने के लिए अनुप्रेरित करते हैं। 
              ७० साल पहले किसी यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार ने स्वामी रंगनाथानन्द जी को भाषण में जब यह कहते सुना कि श्रीरामकृष्ण स्वयं ब्राह्मण होकर भी, १५ दिनों तक  एक अछूत मेहतर (वाल्मीक या चाण्डाल) का शौचालय साफ़ किया करते थे ! तो इतना सुनते ही उन्होंने अपने दोनों कानों को हाथ से ढँक लिये, और कहा -" रुक जाइये, रुक जाइये - ऐसी बात मुख से भी मत निकालिये।" किन्तु वक्ता ने जब कहा कि सच्चाई तो यही है कि ठाकुरदेव ने ऐसा किया था ! यदि ऐसा किया भी था तो यह बात आप दूसरों को मत बताइये। यह तो ब्राह्मण जाति के लिये बड़े अपमान की बात है ! वक्ता ने कहा जहाँ तक मैंने आध्यात्मिकता को समझा है, ऐसा करना तो किसी 'यथार्थ ब्राह्मण' के लिए सबसे बड़े गौरव की बात है ! किन्तु वे दोनों एक सामान्य तर्कसंगत धरातल पर नहीं पहुँच सके, क्योंकि बहस करते समय एक खतरे से बचकर दूसरे में पड़ने का भय था। क्योंकि आज भी समाज में एक ओर जहाँ वंश-परम्परा से चले आ रहे पुरातन-पंथी कुसंस्कार हावी हैं, वहीँ अल्ट्रा मॉडर्न आधुनिक समाजसुधारक समस्या की जड़ में गए बिना ही अपने निजी स्वार्थ या राजनितिक कारणों से अगड़ा-पिछड़ा, दलित-स्वर्ण, कहकर परस्पर विद्वेष फैलाते रहते हैं। 
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 वर्तमान युग के दूसरे महान शिक्षक स्वामी विवेकानन्द !
['गुरु-शिष्य संवाद' का एक प्रसंग द्रष्टव्य है:वर्ष-१९०२, स्थान: बेलूड़ मठ]
वेदान्त को अर्थात 'शिव ज्ञान से जीव-सेवा' को कार्यरूप देने वाले दूसरे महान शिक्षक हैं -स्वामी विवेकानन्द। उन्होंने कहा है, " मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि - जीव जीव में वे ही अधिष्ठित हैं; इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है।  'Who serves jiva serves God indeed!'
 पूर्व बंगाल से लौटने के बाद स्वामी जी मठ  में ही रहा करते हैं ...... उस समय उन्होंने मठ में कुछ गाय, हंस, कुत्ते और बकरियाँ पाल रखी थीं। एक बड़ी बकरी को 'हंसी' कहकर पुकारा करते और उसी के दूध से प्रातःकाल चाय पीते। बकरी के एक छोटे बच्चे को 'मटरू' कहकर पुकारा करते। उन्होंने प्रेम से उसके गले में घुंघरू पहना दिये थे। बकरी का वह बच्चा  प्यार पाकर स्वामी जी के पीछे पीछे घूमा करता और स्वामीजी उसके साथ पांच वर्ष के बच्चे की तरह दौड़ दौड़कर खेला करते थे। 
मठ देखने के लिये नये नये आये हुए व्यक्ति विस्मित होकर कहा करते थे, "क्या ये ही विश्व-विजयी स्वामी विवेकानन्द हैं!कुछ दिनों बाद 'मटरू' के मर जाने पर स्वामी जी ने दुःखी होकर शिष्य से कहा था -" देख, मैं जिससे भी जरा प्यार करने जाता हूँ, वही मर जाता है। (या उनलोगों का ट्रांसफर हो जाता है ?)" 
... मठ की जमीन सफाई तथा मिट्टी खोदने और बराबर करने के लिये कुछ संथाल स्त्री-पुरुष रेजी-रेजा या कुली आया करते थे। उनके साथ स्वामीजी कितना हँसते-खेलते रहते और उनके सुख-दुःख की बातें सुना करते थे। संथालों में एक व्यक्ति का नाम था 'केष्टा।' स्वामीजी केष्टा को बड़ा प्यार करते थे। बात करने के लिये आने पर केष्टा कभी कभी स्वामी जी से कहा करता था -"अरे स्वामी बाप, तू हमारे काम के समय यहाँ पर न आया कर-तेरे साथ बात करने से हमारा काम बन्द हो जाता है और बूढ़ा बाबा (स्वामी अद्वैतानन्द) आकर फटकारता है।  
यह सुनकर स्वामी जी की आँखे भर आती थीं और वे कहा करते थे , "नहीं, बूढ़ा बाबा फटकार नहीं लगायेगा, तुम अपने गाँव की दो -एक बातें मुझे और सुना।' और यह कहकर उसके पारिवारिक सुख-दुःखों की बातें छेड़ देते थे। एक दिन स्वामी जी ने केष्टा से कहा -" अरे, तुमलोग हमारे यहाँ खाना खाओगे ?" (हजारों वर्षों से अपने को निम्नजाति का हूँ विश्वास दिलाता आया) केष्टा बोला, " हम अब और तुमलोगों का छुआ नहीं खाते, ब्याह जो हो गया है। तुम्हारा छुआ 'नमक' खाने से जात जायेगी रे बाप। " स्वामी जी ने कहा, " नमक क्यों खायेगा रे? बिना नमक डालकर तरकारी पका देंगे, तब तो खायेगा न ? केष्टा उस बात पर राजी हो गया। 
इसके बाद स्वामी जी के आदेश से मठ में उन सब संथालों के लिए पूड़ी- बुंदिया, तरकारी, मिठाई,दही आदि का प्रबंध किया गया और वे उन्हें बैठकर खिलाने लगे। खाते खाते केष्टा बोला -" हाँ रे , स्वामी बाप, तुमने ऐसी चीजें कहाँ से पायी हैं -हमलोगों ने कभी ऐसा नहीं खाया।" स्वामी जी ने उन्हें तृप्ति भर भोजन कराकर कहा - " तुमलोग तो नारायण हो, आज मैंने साक्षात् नारायण को भोग दिया। " भोजन के बाद जब संथाल लोग आराम करने गए, तब स्वामी जी ने शिष्य से कहा " इन्हें देखा, मानो साक्षात् नारायण हैं -ऐसा सरल हृदय, ऐसा निष्कपट सच्चा प्रेम कभी नहीं देखा था।"
 ... हाय ! देश के लोग पेट भर भोजन भी नहीं पा रहे हैं, फिर हम किस मुँह से मालपूआ खाते हैं ?         उस देश में जब गया था तब माँ जगदम्बा से कितना कहा, " माँ ! यहाँ पर लोग फूलों की सेज पर सो रहे हैं, तरह तरह के खाद्य-पेयों का उपभोग कर रहे हैं, इन्होंने कौन सा भोग बाकी रखा है ! और हमारे देश के लोग भूखों मर रहे हैं। माँ, उनके उद्धार का कोई उपाय न होगा ?" उस धर्म महासभा में धर्म-प्रचारक के रूप में जाने का मेरा एक उद्देश्य यह भी था कि मैं इस देश के लिये अन्न का प्रबन्ध करूँ। "
" देश के लोगों को दो वक्त का भोजन भी खाने के लिए नहीं मिलता, यह देखकर कभी कभी मन में आता है कि घंटी हिलाना, शंखबजाना, शास्त्र पाठ करना सब कुछ छोड़ दूँ, और चरित्र तथा साधना के बल पर धनी लोगों को अनुप्रेरित कर धन संग्रह करके ले आऊँ और दरिद्रनारायण की सेवा में ही जीवन बिता दूँ। देश में इन गरीब-दुःखियों के कल्याण की चिन्ता करने वाला कोई भी नहीं है ! जो गरीब किसान-मजदूर हमारे राष्ट्र की रीढ़ हैं, जिनके परिश्रम से अन्न पैदा हो रहा है, जिन मेहतर-डोमों के एक दिन के लिये भी काम बन्द करने पर  शहर भर में हाहाकार मच जाता है- हाय ! हम क्यों न उनके इस महान सेवा के लिए उन्हें सम्मान दें ? उनके सुख-दुःख में उन्हें सान्त्वना दें? उनके साथ सहानुभूति रखें ? क्या देश में उनके साथ सहानुभूति रखने वाला कोई भी नहीं है रे !  
 यही देखो न -अपने स्वर्ण (ब्राह्मण) हिन्दू भाइयों की सहानुभूति न पाकर दक्षिण भारत में हजारों पैरिया (Pariahs -शूद्र वर्ण के लोग, 'ब्राह्मण' में रूपान्तरित होने अर्थात ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की पात्रता रखते हुए भी धर्मान्तरित करके ईसाई बनाये जा रहे हैं। पर ऐसा न समझना कि वे (पैरिया लोग) केवल पेट के कारण ईसाई बनते हैं; वास्तव में वे हमारे द्वारा सहानुभूति और सम्मान न दिए जाने की प्रतिक्रिया वश ईसाई या मुसलमान धर्म में धर्मान्तरित हो जाते हैं। हमलोग दिन-रात उनसे केवल यही कहते हैं कि -`Don't touch us! Don't touch us!'  "हमें मत छूना, हमें मत छूना। 'Let us open their eyes.' आओ, हम सब मिलकर इनकी ऑंखें खोल दें- मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूँ, "इनके और मेरे भीतर एक ही ब्रह्म -एक ही शक्ति विद्यमान है, केवल अभिव्यक्ति की न्यूनाधिकता है ! (the one Brahman in all, in them and in me -- one Shakti (Energy) dwells in all.) मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि - जीव जीव में वे (माँ जगदम्बा)  ही अधिष्ठित हैं; इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है। जो व्यक्ति जीव-सेवा को परोपकार के रूप में नहीं, ‘जीव में उपस्थित शिव की सेवा’ समझकर पूजा भाव से करता है, उसी ने ईश्वर को ठीक ठीक समझा है।
[भारत और विश्व के कल्याण के लिए " विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'BE AND MAKE' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में  'कर्म के रहस्य' (Secret of Work-'निवृत्ति अस्तु महाफला' में प्रशिक्षित गृहस्थ (या प्रवृत्ति मार्गी) युवाओं को अपना घर-परिवार छोड़े बिना, ऐसा ही 'शिक्षक/नेता बननेऔर बनाने' के लिए अनुप्रेरित (inspire) करना महामण्डल द्वारा आयोजित इस युवा प्रशिक्षण शिविर का मुख्य उद्देश्य है। 'BE AND MAKE ' ]
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 [मूढ़ी खाने के लिए पूर्ण महाराज, राँची आश्रम, ने भी १९८५ में ठीक ऐसा ही कहा था ?] 


























 (In our country a teacher is a most highly venerated person, he is regarded as God Himself.) 




सोमवार, 20 अगस्त 2018

महाभारत युग के आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त: दो आश्चर्यजनक शिक्षक

1. आध्यात्मिक पूर्णता स्त्री-पुरुष,गृहस्थ या संन्यासी सबों के पहुंच के भीतर है ! 
[Spiritual Perfection is Within the Reach of All]
[Two Wonderful Teachers Of Mahabharata period]
 आदर्श गृहणी  
प्राचीन भारत के ऋषि-मुनि अरण्यों में रहा करते थे। नगर से मीलों दूर, ऐसे ही किसी घने जंगल में एक तपस्वी जिनका नाम कौशिक था, वे रहा करते थे और अपना अधिकांश समय वेदों का अध्यन करने में बिताया करते थे। कौशिक एक ब्राह्मण परिवार से संबन्धित थे, किन्तु तपस्या और वेदों का अध्यन करने में सुविधा होगी यही सोंचकर, अपने माता पिता की अनुमति प्राप्त किये बिना ही, घर-परिवार छोड़ कर जंगल में एकान्त वास करते हुए हठयोगियों के जैसा कठोर जीवन बिता रहे थे। हाँ, बीच बीच में भिक्षा के लिए उनको जरुर निकट के गाँव में जाना पड़ता था। किन्तु उनका सम्बन्ध गाँव के मनुष्यों के साथ बस इतना ही था। भिक्षा लेकर वे पुनः जंगल में अवस्थित अपनी निर्जन कुटिया में लौट आते थे।
एक दिन जिस पेड़ के नीचे बैठ कर कौशिक वेद मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे, एक छोटा सा बगुला आकर उनके सिर के ऊपर लगे डाल पर आकर बैठ गया। उस छोटे से पक्षी को शायद कौशिक की महानता का पता नहीं था, क्योंकि उसका बीट ठीक कौशिक के सिर के उपर आ गिरा था। यह देख कर वे अत्यन्त क्रोध से भर उठे। यह दुष्कर्म किसने किया है, यह देखने के लिए अपनी आँखों को लाल करके बड़े क्रोध से उपर की ओर देखा। तपस्या के फलस्वरूप कौशिक में थोड़ी अलौकिक शक्ति उत्पन्न हो गयी थी। देखने के साथ ही साथ बगुला जल कर भष्म हो गया। 
तपस्या आदि करने से कई बार इस प्रकार की अलौकिक सिद्धियाँ उत्पन्न हो जाया करती हैं। किन्तु इन शक्तियों प्राप्त करने से मन में अहंकार आने की आशंका भी रहती है। तपस्या का मूल उद्देश्य तो ईश्वर प्राप्ति है, इस लक्ष्य को ही भूल जाने का भय रहता है। जो लोग अपने लक्ष्य के प्रति सदैव सतर्क रहते हैं, वे इन सब सिद्धियों या मन की शक्तियों की तरफ मुंह उठा कर भी नहीं देखते।  वे सीधा अपने लक्ष्य की ओर ही बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार उन लोगों को शिघ्र ब्रह्मज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का बोध ) प्राप्त हो जाता है।किन्तु, बगुले को भष्म हुआ देखकर कौशिक का मन अचानक प्रसन्नता से भर गया, उन्हें पहली बार यह पता चला कि उनके भीतर एक अलौकिक शक्ति का विकसित हो गयी है; उनको अपनी शक्ति पर बहुत गर्व हुआ। 
इस घटना के कुछ दिनों बाद, कौशिक अपनी निर्जन कुटिया से बाहर निकल कर भिक्षा के लिए एक सुदूरवर्ती गाँव में गए। भारतीय लोग तपस्वियों को भिक्षा देना बहुत पुण्य का कार्य समझते हैं। भिक्षा मांगते हुए कौशिक एक गृहस्थ के घर के दरवाजे पर आ पहुँचते हैं। गृहणी बे उनको थोड़ी प्रतीक्षा करने को कहा और अपने घर के भीतर चली गयी। वे भिक्षा में कुछ देने के लिए सोच ही रही थी कि उसी समय उसके पती घर में वापस लौट अये। वह रमणी एक पतिव्रता स्त्रि थी, जिस प्रकार देवता की सेवा की जाती है, उसी भाव से वे अपने पती की भी सेवा करती थीं। अपने पती को भूख से व्याकुल देख कर, उन्होंने अपना पूरा ध्यान पती की सेवा में लगा दिया। उनका हाथ-पैर धो-पोछ कर उनको पंखा झलने बैठ गयीं। थोडा शांत होने पर उनके सामने भोजन परोस कर रख दिया। अचानक उन्हें भिक्षा की प्रतीक्षा में खड़े कौशिक की याद हो आयी। रमणी थोड़ी लज्जित होकर जल्दी जल्दी भिक्षा द्रव्य लेकर कैशिक को देने के लिए बाहर निकलीं। 
तब तक कौशिक बाहर खड़े खड़े रमणी के समस्त गतिविधियों को देख रहे थे, और क्रमशः क्रोध से फूलते जा रहे थे। गृहणी के बाहर निकलते ही वे उसके उपर बरस पड़े- " मुझसे तुम 'आगे-बढ़िए' तो कह सकती थी, ' थोडा रुकिए ' कह कर भीतर गयी तो फिर इतनी देर के बाद बाहर आई हो ! इतनी देर तक मुझे खड़े रखने का मतलब क्या है ? " कौशिक को क्रोध से उत्तेजित देख कर गृहणी ने बहुत प्रकार से अनुनय-विनय करके उनको शान्त करने की चेष्टा करने लगीं। उन्होंने कहा- " देखिये मैं अपने पति को परमेश्वर के रूप में देखती हूँ, वे थके हुए वापस लौटे थे और भूख से व्याकुल थे, इसीलिए मैं उनकी थोड़ी सेवा करने में लग गयी थी, जिसके कारण आपको भिक्षा देने में थोड़ी देरी हो गयी है। कृपा करके आप मुझे क्षमा कर दीजिये। " 
साधु चिल्ला पड़े - " मेरे सामने बातें न बनाओ ! तुम साधारण गृहस्थ होकर, भला एक ब्राह्मण का इस प्रकार से अपमान कैसे कर सकती हो ! क्या तुम यह नहीं जानती कि ब्राह्मण में कितनी अलौकिक शक्ति होती है, और उसकी क्रोधदृष्टि कितनी भयानक हो सकती है ? 
रमणी ने थोड़ा हंस कर बोली जानती हूँ ब्राह्मण देवता, मैं सब जानती हूँ। इतना गुस्सा क्यों हो रहे हैं ? थोड़ा सिर को ठंढा कीजिये। मैं भी क्या कोई बगुला हूँ, जिसे आप क्रोध से देखकर भष्म कर देंगे ? इतना उत्तेजित मत होइए। अच्छा आप तो वेद मन्त्रों का पाठ भी करते हैं, फिर तो आप निश्चय ही इस बात को जानते होंगे कि क्रोध आध्यात्मिक विकास का घोर शत्रु है ! फिर भी  आपने अभी तक क्रोध पर विजय नहीं पाई है। 
उस गृहणी की बातों को सुन कर कौशिक को बहुत आश्चर्य हुआ। सारा गुस्सा जाने कहाँ चला गया पता भी नहीं चला। वे विचार करने लगे, " यह औरत भी तो कम नहीं मालूम दे रही है ! मैंने कहाँ जंगल में क्या करके आया हूँ, इसको अपने घर में बैठे बैठे ही कैसे पता चल गया ? गृहस्थ जीवन में रहकर भी यह नारी  तो आध्यात्मिक विकास में मुझसे बहुत आगे निकल चुकी है।  देखता हूँ, कि इसने कुछ मानसिक शक्तियों 
(psychic powers)को भी प्राप्त कर लिया है ! " 
किन्तु उस गृहणी को केवल मानसिक शक्तियां ही प्राप्त नहीं थीं, वह उतना ही करुणामयी भी थीं। रमणी कहने लगी , " ब्राह्मण देवता, मैं आपके जितना विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों को तो नहीं जानती, किन्तु जी-जान से अपने पातिव्रत्य-धर्म का पालन करती हूँ। अपने पति के प्रति मेरा कर्तव्य ही मेरी तपस्या है। पती को परम देवता और उनकी सेवा को ही परम धर्म जान कर मैं वही करती जा रही हूँ। इसीके कारण मैं आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर भी अग्रसर हो रही हूँ। और जहाँ तक मानसिक शक्तियों की बात है, तो उसे भी मैंने घर बैठे ही प्राप्त कर लिया है। और उसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी आपको मिल चूका है। आपने दूर घने जंगल में कहाँ क्रोध की अग्नि में बगुले को भष्म कर दिया है, घर बैठे ही मैंने उसको जान लिया है। इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वास्तव में धर्म क्या है, यह आपने अभी तक सही अर्थ नहीं जाना है। तभी तो पक्षी के भष्म हो जाने की सिद्धि प्राप्त करके आप इतने रोमांचित हो उठे हैं। मेरी बात मानिये और आप मिथिला चले जाइये। वहाँ पर ' धर्म-व्याध ' नामक एक कसाई रहते हैं। उनको धर्म का गूढ़ रहस्य ज्ञात है। वे सत्यवादी हैं, जितेन्द्रिय हैं, एवं माता-पिता के सेवा परायण हैं। आप उनके साथ मिलिए। आपको यथार्थ धर्म के सम्बन्ध में वे ही उपदेश देंगे। "
वर्णाश्रय -धर्म का पालन करने वाला 'मांस विक्रेता - धर्मव्याध'  
कौशिक ने उस रमणी के उपदेश को सुना और भिक्षा लेकर अपने जंगल की कुटिया में लौट आये। अभी तक जितने लोगों से वे मिले थे, उनमें से यह गृहणी सबसे आश्चर्यजनक प्रतीत हो रही थी। उसके उपदेशों पर कौशिक गहराई से विचार करने लगे। किन्तु एक परेशानी थी, 'धर्मव्याध' नाम से तो वह व्यक्ति ब्राह्मण प्रतीत नहीं होता ? और कोई ब्राह्मण-कुमार ज्ञान प्राप्त करने के लिए भला इस प्रकार के नाम वाले व्यक्ति के पास कैसे जा सकता है ! मिथिला जाकर एक व्याध (या कसाई जो मांस बेचकर अपनी आजीविका चलता  था) से ज्ञान प्राप्त करने के विचार से ही वे बेचैन हो उठे। 
कौशिक को अपना मन शान्त करने में थोडा वक्त लग गया। किन्तु उन्हें उस रमणी का स्मरण हो आया जोअद्भुत ज्ञानी थीं ! ऐसा प्रतीत हुआ कि उस महिला के निर्देशों का उन्हें पालन करना चाहिए। काफी सोच-विचार करने के बाद, अन्त में उन्होंने यह निर्णय लिया उन्होंने मिथिला जाना चाहिये, और वे पैदल ही मिथिला की लम्बी यात्रा पर निकल पड़े।
कौशिक ने कई छोटे छोटे राज्यों को पार किया।  रस्ते में कितने ही गाँव मिलते गये, नदियाँ मिलीं, जंगल और पहाड़ मिले, शहर मिले, हरे-भरे कितने ही मैदान मिले। वे भिक्षा माँग कर खा लेते थे, और बस आगे ही बढ़ते जा रहे थे। कई सप्ताह बीत जाने के बाद अन्त में वे राजर्षि  जनक की राजधानी मिथिला नगरी पहुँच गये।
बड़ा ही सुंदर नगर था ! सभी सड़कें साफसुथरी थीं, और नक्शे के अनुरूप बनाई गयी थीं ; सार्वजनिक तालाब के घाटों पर भी पूरी स्वछता दिख रही थी। वहाँ के महलों- घरों, उद्द्यान और स्वच्छ ताल-तलैयों को देखने से आँखे जुड़ा जाती थीं। वहां के नागरिक भी  स्वस्थ, सबल, और प्रसन्न दीखते थे। वहां की सड़कों, बाजारों, और सभी के घरों को देखने से ऐसा प्रतीत होता था, मानों वहां कोई उत्सव मनाया जा रहा हो।  सर्वत्र ही आनन्द छाया हुआ था। यह सब देख कर वे बड़े प्रसन्न हुए। पूछने पर ज्ञात हुआ कि ब्रह्मज्ञानी राजा जनक के सुशासन (Good Governance) के कारण, राजधानी मिथिला में हर समय इसी प्रकार का आनन्द और सुख-शांति छायी रहती है। 
कौशिक अपने जीवन में पहली बार ही मिथिला आये थे, यहाँ पहुंचकर उनको भी आनन्द हो रहा था। किन्तु वहाँ के रास्तों से वे बिल्कुल अनभिज्ञ थे, इसीलिए वे पूछते हुए जा रहे थे कि धर्मव्याध कहाँ मिलेंगे ? वहां के सभी लोग धर्म व्याध को पहचानते थे, उन्होंने कौशिक को सामने की एक छोटे से कसाई की दुकान की तरफ जाने का निर्देश दिया। कौशिक दुकान से थोड़ी दुरी पर खड़े हो गए, बिना जाने कि वे यहाँ किस लिए खड़े थे। किन्तु जिस किसी से पूछा कि धर्मव्याध कहाँ मिलेंगे ? तो सभी लोग सीधा उसी मांस विक्रेता की दुकान की तरफ ईशारा कर देते। कौशिक ने सोंचा कि शायद धर्मव्याध जी दुकान में मीट खरीदने गए होंगे। दुकान पर बड़ी भीड़ थी , जिससे साफ जाहिर हो रहा था कि यह किसी प्रसिद्द कसाई की दुकान है। अचानक कौशिक के मन विचार आया कि यह भारी भीड़ यहाँ इसीलिए है कि यह कसाई एक धार्मिक व्यक्ति है, हो न हो यह धार्मिक व्यक्ति वह धर्मव्याध ही है !
तब तक धर्मव्याध भी अपनी मानसिक शक्ति या आध्यात्मिक सिद्धि के बल पर यह जान चुके थे कि कौशिक मिथिला पहुँच चुके हैं और दुकान के सामने खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनको देख कर, उनका स्वागत करने के लिए झटपट उठकर खड़े हो गये, और उनके निकट आकर प्रेमपूर्वक कहा- " हे ब्राह्मण देवता, मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिये। और कृपाकरके आदेश दीजिये कि मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ। मैं जानता हूँ कि आपके पड़ोस में रहने वाली एक पतिव्रता गृहणी ने आपको इस सुदूरवर्ती नगर में भेजा है,और क्यों भेजा है,यह भी मैं जानता हूँ। " 
उनकी बातों को सुन कर कौशिक आश्चर्य-चकित हो गये, सोचने लगे- " देखता हूँ यह कसाई (चाण्डाल) भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। मांस-विक्रेता होते हुए भी इसको यौगिक शक्ति प्राप्त हो चुकी है, आध्यात्मिक विकास होने से इसकी अन्तःप्रज्ञा (Intuition faculty) इतनी सक्षम हो गयी है कि इसको भी सारी बातें ज्ञात हैं!" इतना ज्ञानी होने पर भी उस व्याध ने जब उनको ' हे ब्राह्मण देवता ' कहकर संबोधित किया, तो उनकी भद्रता और विनम्रता को देख कर मंत्रमुग्ध हो गए थे।
व्याध के अनुरोध करने पर कौशिक उसके घर जाने को भी तैयार हो गये। घर पहुँचने उनकी खातिरदारी की गयी, फिर हाथ-पैर धोकर दोनों व्यक्ति आराम से बैठ कर वार्तालाप करने लगे। कौशिक ने धर्मव्याध से कहा, " आप जो माँस बेच कर अपनी आजीविका चलाते हैं, मैं इस कार्य  को बिलकुल भी पसन्द नहीं करता। आपके जैसे धार्मिक व्यक्ति को, ऐसा नीच कर्म करके अपनी आजीविका नहीं चलानी चाहिए। वास्तव में, इस कार्य को देखने से मेरे मन में जुगुप्सा उत्पन्न होती है। " 
तब उस मांस बेचने वाले ने कहा - " यह आजीविका मेरी जाती से सम्बंधित है, मेरे पितर (forefathers) लोग भी मांस ही बेचा करते थे। यही तो मेरा वर्णाश्रय-धर्म (जाती-धर्म) है ! आप इस बात पर इतना नाराज क्यों हो रहे हैं ? मैं तो शास्त्रों के नियम के अनुसार जीवन यापन करता हूँ। माता-पिता आदि गुरुजनों की मन-प्राण से सेवा-सुश्रुषा करता हूँ। सदा सत्य बोलता हूँ, और किसी के भी प्रति अपने मन में विद्वेष नहीं रखता। अपनी आय का बड़ा हिस्सा दीन दुखियों की सेवा में अर्पित करता हूँ। अतिथि सेवा करने में कभी कोई कोताही नहीं करता। देवसेवा हो जाने बाद गुरुजनों, स्वजनों-अतिथियों, यहाँ तक कि नौकर-चाकर आदि का भोजन समाप्त हो जाने के बाद, जितना अन्न शरीर की रक्षा के लिए आवश्यक है, उतना ही ग्रहण करता हूँ। इन सबों की सेवा करना ही मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। पूरी श्रद्धा के साथ मैं अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। 
" और इन सबकी सेवा के लिए धन की आवश्यकता होती है, एवं माँस बिक्री करके धनोपार्जन करना मेरी जाति का धर्म है। तो क्या मैं कोई निषिद्ध कर्म, या शास्त्र-विरोधी कर्म कर रहा हूँ? मैं स्वयं कभी माँस नहीं खाता। स्वयम किसी प्राणी की हत्या भी नहीं करता, शिकारियों द्वारा मारे  गये पशुओं को खरीद कर उसका माँस अपनी दुकान पर बिक्री करता हूँ।"
कौशिक के मन में खेद हुआ कि उन्होंने धर्मव्याध को कम करके क्यों आंका ! वे समझ गए कि वे सचमुच एक पवित्र मनुष्य के सानिध्य मैं बैठे हैं। धर्मव्याध क्रमशः कौशिक को धर्म के गूढ़ तत्वों के बारे में, यहाँ तक कि ब्रह्मविद्या के विषय में भी विस्तार से बताने लगे। उनकी वाणी में पूरी ईमानदारी झलक रही थी। इसी प्रसंग में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था, " आत्मज्ञान (अर्थात अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) ही श्रेष्ठ ज्ञान है, सत्यता (truthfulness) ही परम पवित्र व्रत है। जो सर्वजन हितकारी हो, सबों के लिए कल्याणकर हो, वही सत्य है। सत्य ही परमानन्द (blessedness) प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है। इन्द्रिय संयम करना ही सर्वोच्च तप (तपस्या) है। तपस्या करने का इसके आलावा अन्य कोई मार्ग नहीं है। ....आत्मा (जीव) नित्य है, शरीर अनित्य है; मृत्यू के समय केवल शरीर का ही नाश होता है।" 
उनकी बातों को सुन कर धर्मव्याध के बारे में कौशिक की जो धारणा पहले थी वह बदल चुकी था। इस समय तक कौशिक धर्मव्याध के उत्तम चरित्र के विषय में आश्वस्त हो चुके थे, जिनकी वाणी कितनी प्रभावशाली थी ! उन्होंने यह भी महसूस किया कि धर्मव्याध अभी जो कुछ हैं, वह उनके पाण्डित्य के कारण नहीं हैं; किन्तु यह उनका सुंदर आचरण ही है, जिसके कारण उन्हें धर्मव्याध कहा जाता है।
 उन्होंने देखा कि उनके उपदेशों की वे जितना ही सुन रहे हैं, मन का संशय उतना ही मिटता जा रहा है; उनका हृदय ज्ञान के आलोक से उतना ही उद्भाषित हो उठा है। ब्रह्म विद्या के बारे में धर्म व्याध ने जो कुछ भी कहा, उनके मन ने उसे बिना किसी शंका के स्वीकार कर लिया। तब उनके समझ में आ गया कि धर्म व्याध को ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है। क्योंकि स्वयं दुश्चरित्र से या निषिद्ध कर्मों से निवृत्त हुए बिना, किसी दूसरे को चरित्रवान मनुष्य बनने के लिए अनुप्रेरित करना असम्भव है। किसी आदर्श को अपने जीवन में प्रतिफलित किये बिना, केवल प्रवचन देकर दूसरों को उस आदर्श के अनुरूप जीवन गठन करने के लिए अनुप्रेरित कर पाना अव्यवहारिक (Impracticable) भी है। 
भक्तिभाव (reverentially) से दोनों हाथ जोड़कर कौशिक ने धर्मव्याध से कहा, " धर्म का कोई भी तत्व आपके लिए अविदित नहीं है। आज मैंने एक ऋषि को ढूंढ़ निकाला है। आपकी बातों को सुनने से, आप किसी महर्षी की तरह प्रतीत होते हैं। मैं यह समझ सकता हूँ कि उपरी तौर से एक मांस-विक्रेता (meat -seller या बिजनेसमैन) होने की पहचान बनाये रखते हुए भी आपको पूर्णता (सिद्धि) प्राप्त हो चुकी है। इसके बाद धर्मव्याध ने कौशिक को 'कर्म का रहस्य ' (The Secret of Work) सिखलाते हुए कहा - कि " सही दृष्टिकोण - निवृत्ति अस्तु महाफला" के साथ अपने लिए निर्धारित कर्म को करना - "to do one's duty with right attitude' ही कर्म का रहस्य है।  जो किसी कर्मयोगी को ब्रह्ज्ञान में उन्नत (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड) कर देता है। इसलिए किसी को यदि सिद्धि (पूर्णता) प्राप्त करनी हो, या चरित्रवान मनुष्य बनना हो तो उसे जंगल में जाकर तपस्या करने की आवश्यकता नहीं होती। 
[चरित्र एकांत में या जंगल में जाकर पकाने की चीज नहीं है -दादा]  गृहस्थ जीवन में सगे-सम्बन्धियों, समाज या परिवार के बीच रहते हुए ही निषिद्ध कर्मों को करने से या शास्त्र-विरोधी कर्मों को करने से बचा जा सकता है। घरपरिवार में रहते हुए अनासक्त होकर किस प्रकार से रहना होता है, इन सब बातों को धर्मव्याध ने बहुत विस्तार से, कई प्रकार के उदहारण देकर कौशिक को समझा दिया।
इसके बाद सबसे अन्त में अपने माता-पिता से परिचय करवा देने के बाद कौशिक से कहा - " मैं इन्हें साक्षात् देवता (शिव-पार्वती ) के रूप में देखता हूँ और उसी रूप में बड़े प्रेम से उपासना समझ कर  इनकी सेवा करता हूँ। इतनी साधना से ही मुझे सबकुछ प्राप्त हो गया है। मैंने  अपने गृहस्थ धर्म और वर्णाश्रय -धर्म (जाति का धर्म) का पालन करके ही पूर्णता प्राप्त की है। आप भी अपने घर-परिवार में वापस लौट जाइये और वहाँ रहते हुए ही धर्म-प्राप्ति (अपने सच्चे स्वरुप को जानने ) की साधना करते रहिये। माता-पिता की अनुमति लिए बिना उनको घर में असहाय छोड़ कर, जंगल में वेद-पाठ करने के लिए चले आकर आपने अच्छा कार्य नहीं किया है। घर लौट कर पहले उनको प्रसन्न कीजिये। मैं सोचता हूँ, इसीसे आप आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर सकेंगे। "
कौशिक ने कहा- " उस पतिव्रता नारी ने जब आपको ' महाधार्मिक ' की संज्ञा दी थी; तो मैंने उनकी बातों पर शंका की थी। किन्तु अब देखता हूँ, उन्होंने ठीक ही कहा था। आपकी बातों को सुनने से मेरे मन के सारे संशय मिट चुके हैं, अब मैं ईमानदारी से आपके उपदेशों का पालन करूँगा। इतना कहकर कौशिक, धर्मव्याध से विदा लेकर अपने घर वापस लौट गए। और मांस-विक्रेता ने जो करने का उपदेश उसे दिया था ,शास्त्रोचित कर्म तथा देवता ज्ञान से अपने माता-पिता की सेवा करके वह ब्राह्मण-कुमार कौशिक भी भी ब्रह्मविद (Wise या बुद्ध) बन चुके थे !   
स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे कि ' यदि हमें अपने देव-स्वरुप की उपलब्धी करनी हो, या सभी जीवों में स्वयं को प्रत्यक्षतः अनुभव करना चाहते हों, तो 'प्रत्येक मनुष्य की सेवा ईश्वर की उपासना'  समझते हुए प्रतिपादित की जानी चाहिए। किन्तु प्रारम्भ में ही प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर के रूप में आदर देना कठिन है। यदि तुम प्रारंभ में सबों को यदि ईश्वर ज्ञान से नहीं देख सको तो, अपने परिवार के सभी लोगों को, या कम से कम परिवार के एक व्यक्ति को लेकर, उस ज्ञानमयी दृष्टि के साथ आरम्भ कर सकते हो।  मन में ऐसा दृढ निश्चय लेकर आगे बढना होगा कि उनको प्रेम करने से ईश्वर को ही प्रेम कर रहा हूँ, उनकी सेवा से ईश्वर की ही सेवा हो रही है। क्रमशः सम्पूर्ण समाज को, फिर सम्पूर्ण राष्ट्र को भी अपने परिवार के रूप में देखना चाहिए। महाभारत में दी गयी इस कहानी को स्वामी विवेकानन्द अपने पाश्चात्य देशों के अनुयायिओं को सुनाया करते थे। वे कहते थे - ' ऐसी कोई आजीविका (career या पेशा) नहीं है, जो ईश्वर प्राप्ति का मार्ग न हो। ईश्वर प्राप्ति का प्रश्न, माँ जगदम्बा को (या उनके अवतार को पहचान कर), अपने अंतिम आश्रय के रूप में उन्हें ही प्राप्त करने की आत्मा की व्याकुलता पर निर्भर करता है।   There is no career which might not be the path to God .The question of attainment depends only , in last resort, on the thirst of the soul ." 








  
  

























रविवार, 19 अगस्त 2018

वेदान्त की कहानियाँ -1 [ स्वामी विश्वाश्रयानन्द एवं स्वामी अमरानन्द द्वारा कथित]

बंगला भाषा में 'गल्पे-वेदान्त' के प्रकाशक का निवेदन 
यदि अद्वैत वेदान्त के माया (शक्ति या Energy) आदि जैसे गूढ़ सिद्धान्तों को आचार्य शंकर, श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द तथा अन्य सत्यद्रष्टा (ब्रह्मवेत्ता) मनीषियों के जीवन की अनेक घटनाओं एवं उनके द्वारा सरल भाषा में कथित कहानियों के माध्यम से समझने की चेष्टा की जाय, तो वेदान्त के कठिन से कठिन सिद्धान्त भी अत्यन्त सहज रूप से बोधगम्य हो जाते हैं।
आम पाठकों के बीच,कथा कहानियों के माध्यम से, धर्म में सन्निहित परम उदार सत्यों एवं उत्कृष्ट शिक्षाओं का पचार-प्रसार करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने भारत में बोली जाने वाली विभिन्न भाषाओँ में एक ' कहानी-पुस्तक ' लेखन प्रतियोगोता का आयोजन किया था। 1960 के दशक में भारत सरकार द्वारा मनोनीत निर्णायक मण्डली ने रामकृष्ण मठ और मिशन के वरिष्ठ सन्यासी स्वामी विश्वाश्रयानन्द द्वारा  बंगला भाषा में लिखी गयी इसी पुस्तक 'गल्पे-वेदान्त' को सर्वोत्तम पुस्तक घोषित किया था। सरकारी विज्ञप्ति में यह भी कहा गया था कि इस सर्वत्तम घोषित पुस्तक का प्रकाशन भी उनके ही द्वारा होगा। किन्तु बाद में उन्होंने किसी अपरिहार्य कारण (शायद तथाकथित क्षद्म धर्मनिरपेक्षता के कारण) से इस पुस्तक के प्रकाशन को, अनिश्चित काल तक के लिए स्थगित रखने का निर्णय लिया था। किन्तु तात्कालीन सरकार ने लेखक को स्वयं इस पुस्तक को प्रकाशित करने की अनुमति देने की कृपा अवश्य प्रदान की थी।   
वहीँ भारत सरकार की विज्ञप्ति में सर्वोत्तम निर्वाचित पुस्तक के रूप में 'गल्पे वेदान्त ' का नाम प्रकाशित हो जाने के कारण, यह पुस्तक प्रकाशित होने के पहले ही विख्यात हो चुकी थी। बहुत से बंगला भाषी वेदान्त दर्शन के जिज्ञासु व्यक्तियों में इस पुस्तक को पाने का विशेष आग्रह दिखाई दे रहा था। इसीलिए बहुत प्रकार की असुविधाओं के रहने पर भी स्वामी विवेकानन्द निर्दिष्ट सेवा-धर्म से अनुप्रेरित होकर श्रीभगवान के चरणों में इसके फल को समर्पित करते हुए यह पुस्तक प्रकाशित हो रहा है। किमधिकमिति। 
स्वामी सन्तोषानन्द ,प्रकाशक, महालया (Bangabda) 1370. 
[तदनुसार -17 Sept. 1963] 
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अंग्रेजी भाषा में गल्पे-वेदान्त के भाषान्तर के प्रकाशक का निवेदन एवं भूमिका 
मूल बंगला पुस्तक 'गल्पेवेदान्त' के आधार पर ही वर्तमान अंग्रेजी पुस्तक 'Stories From Vedanta' की रचना हुई है। इस पुस्तक का स्वामी अमरानन्द द्वारा किया हुए अंग्रेजी भाषान्तर प्रकाशित हो रहा है। किन्तु इस पुस्तक को 'गल्पे वेदान्त' का अंग्रेजी अनुवाद कहना उचित नहीं होगा, क्योंकि इस पुस्तक में दी गयी कहानियाँ मूल बंगला पुस्तक से भिन्न क्रम में रखी गयीं हैं एवं मूल कहानी में कुछ परिवर्तन एवं नये परिशिष्ट भी जोड़े गए हैं।
लेकिन अपने-आप को बौद्धिक रूप से उन्नत (intellectually advanced) समझने वाले लोगों को भी वेदान्त  के सिद्धान्तों को बहुत सावधानी के साथ समझने की चेष्टा करनी चाहिये। क्योंकि इसमें वर्णित निर्भीक और सूक्ष्म तात्त्विक-ज्ञान अपने उच्चतम स्वरुप में किसी असतर्क मनुष्य के मन में घबड़ाहट उत्पन्न कर सकते हैं, अथवा उनके सिर में चक्कर भी आ सकता है।
सभी युवा छात्र भले ही इसी समय इस पुस्तक में वर्णित कहानियों और उपाख्यानों के दूरगामी प्रभावों को  समझ सकते हों या नहीं, किन्तु यदि वे केवल उनमें निहित मूल सिद्धान्तों को भी पकड़ सकेंगे तो इतने से ही उनका धर्मिक दृष्टिकोण (religious outlook) निश्चित रूप से उदार बन जायेगा। क्योंकि इन कहानियों में वे पायेंगे कि, तार्किकता (rationality) का त्याग किये बिना भी विभिन्न धर्मों के मौलिक सुझावों (fundamental propositions) को स्वीकार करना सम्भव है।
और यदि इन्हें पढ़कर कोई थोड़ा चौंक गया या उसकी मोहनिद्रा थोड़ी भंग भंग हो गयी हो, तो वे भविष्य में वे वेदान्त का अधिक उन्नत अध्यन करने की पात्रता भी अर्जित कर सकेंगे। 
हम 'रामकृष्ण मिशन स्टूडेंट्स होम, बेलघरिया ' के ऋणी हैं, कि उन्होंने कृपापूर्वक अंग्रेजी भाषी पाठकों के कल्याण के लिए अपनी मूल पुस्तक को इस प्रकार उपयोग करने की अनुमति प्रदान की है। हमलोग श्री पीटर श्नाइडर (Peter Schneider) के भी आभारी हैं, जिन्होंने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि को तैयार करने तथा सम्पादित करने में अपना सहयोग दिया है। 
Publisher  
Kolkata 
4 November 2002
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वेदान्त परिचय 

सर आइजैक न्यूटन (Sir Isaac Newton) ने १७ वीं शताब्दी के अंतिम भाग में कुछ महान वैज्ञानिक नियमों का आविष्कार किया था। तब से लेकर आज तक हुई वैज्ञानिक प्रगति ने शिक्षित लोगों को भौतिक जगत के गुप्त रहस्यों को बिल्कुल फ्रंट सीट पर बैठकर स्पष्ट रूप से देखने की क्षमता प्रदान की है। किन्तु इसके साथ ही साथ, इनमें से कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ईश्वर (माँ जगदम्बा) और आत्मा की ओर से अपना मुख मोड़ लिया है, तथा अपनी पीठ को उनकी ओर घुमा दिया है। विशेष रूप से, आध्यात्मिक सत्यों (वेदान्त के चार महावक्यों) के प्रति ऐसी दिखावटी चिढ़ (seeming allergy) 19वीं शताब्दी के अंत और 20 वीं की शुरुआत में अधिक प्रचलित हुई थी।
क्योंकि उस अवधि में न्यूटन के सिद्धान्तों पर निर्मित वैज्ञानिक इमारत में टेक्नोलोजी (प्रौद्योगिकी) की प्रशाखायें भी विकसित हो चुकी थीं। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उस समय मोटरकार का व्यावसयिक निर्माण प्रारम्भ हो गया था, और हवाई जहाज के आविष्कार पर कार्य चल रहा था। किन्तु तभी, विज्ञान के कार्यक्षेत्र में एक दूसरा प्रतियोगी भी प्रविष्ट हो गया।
पिछली शताब्दी के पहले दशक में अल्बर्ट आइंस्टीन नाम के एक व्यक्ति ने दो शोधपत्र प्रकाशित किए, इन दोनों शोधपत्रों ने न्यूटनियन भवन की नींव को हिलाकर रख दिया। रेडिएशन (विकिरण) के विषय में उनकी अभिधारणा तथा रेडियोधर्मी पदार्थों की ओर देखने के उनके तरीके ने दूसरे वैज्ञानिकों के लिए क्वांटम भौतिकी के सिद्धान्तों पर कार्य करने के मार्ग को 20 वर्षों के भीतर ही प्रशस्त कर दिया था
तत्पश्चात अगले 20 वर्षों के भीतर, सूक्ष्माणु जगत के प्राथमिक कणों की खोज तथा प्रति-चक्रीय ब्रह्माण्ड के विचार (the idea of the anti-universe) ने वैज्ञानिकों को ब्रह्माण्ड की न्यूटोनियन व्याख्या को पूर्ण रूप से परित्याग करने के लिये विवश कर दिया। भौतिक विज्ञानियों को यह बात समझ में आ गयी कि उनके द्वारा आविष्कृत नियम (Laws) तो दिमाग के भीतर ही सृजित हुए हैं। उन्होंने यह समझना शुरू कर दिया कि चेतना (होश-consciousness) के साथ यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक परस्पर संबद्ध एवं अखण्ड वस्तु है। [ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं ]
           दूसरी तरफ दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, यूरोप और अन्य जगहों में अभूतपूर्व विपत्तियों के झटकों ने प्रेम, समानता और भाईचारे जैसे कुछ प्राचीन मूल्यों को पुनर्जीवित कर दिया। पाश्चात्य दार्शनिक एवं विद्वान क्रमशः इस विचार पर एकमत होते गए कि ये जीवन-मूल्य उस सत्यानुभूति पर आधारित हैं, जिसे उन आध्यात्मिक शिक्षकों (mystics) ने प्राप्त किया था, जो अलक्ष्य या अतीन्द्रिय चेतना (Imperceptible consciousness) तक पहुँच चुके थे। इस प्रकार भौतिक शास्त्रियों के तेज कदमों, तथा विश्वयुद्ध के घातक परिणामों दोनों एक साथ संयुक्त होकर उच्चतम मानव मनों में मानव चेतना (human consciousness) तथा इसमें अंतर्निहित संभावनाओं को जानने की जिज्ञासा को जाग्रत कर दिया।
जिसके फलस्वरूप भारतीय वेदान्त कई पाश्चात्य हृदयों पर विजय प्राप्त करना प्रारम्भ कर दिया। वास्तव में यह मानवजाति में एक नई पीढ़ी का प्रारम्भ था, यह नयी पीढ़ी विवेक-प्रयोग ऊर्जा (Energy) से युक्त थी तथा भारतीय दर्शन के सारतत्व (quintessence) 'वेदान्त' में भी गहरी रूचि रखती थी। इस नई पीढ़ी के अग्रदूत, वेदान्त के मसीहा का नाम था स्वामी विवेकानन्द ! 
स्वामी विवेकानन्द जब मुम्बई से अमेरिका के लिए रवाना हुए, उसके लगभग आधी सदी पहले ही पर्ल हार्बर (मोती बन्दरगाह) पर आक्रमण होने के कारण शक्तिशाली संयुक्त राष्ट्र पर भी धुंधलापन (gloom) छा चुका था। उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका और इंग्लैण्ड में वेदान्त का प्रचार किया, उनके शिक्षण का मुख्य विषय था, शारीरिक और मानसिक दोनों धरातल पर-सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की आध्यात्मिक एकता (spiritual oneness of the whole universe !)। स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की थी कि नैतिकता का जन्म पैगंबरों के संरक्षण में नहीं होता, नैतिकता को वास्तविक संरक्षण उस अनन्त सत्य से प्राप्त होता है जिसे वैदिक ग्रंथों में आत्मा कहा गया है। उन्होंने कहा था -"तुम और मैं केवल भाई ही नहीं हैं, जैसा कि मुक्ति के लिए मनुष्य को संघर्ष करने की प्रेरणा देने वाले साहित्य में प्रचार किया जाता है, -वास्तव में तुम और मैं बिल्कुल एक और अभिन्न हैं !" 1 /189 उन्होंने मनुष्यजाति को यह चुनौती दी कि तुम स्वयं अपने अनुशासित मन (एकाग्रता) द्वारा यह सत्यापित करके देख लो कि वेदान्ती सत्य (चार महावाक्य) अनुभवजन्य (empirical) सिद्ध होते हैं या नहीं !   
१७ वीं शताब्दी में शहजादा दारा शिकोह (बादशाह शाहजहाँ जिसने ताजमहल बनवाया था, का बड़ा बेटा) ही वह पहला व्यक्ति था जिसने कुछ उपनिषदों का अनुवाद किसी गैर-भारतीय भाषा (पर्सियन भाषा) में करवाया था। यह उसके द्वारा सम्पादित फ़ारसी भाषा में लिखे उपनिषद के संस्करणों का यूरोपीय भाषा में किया गया अनुवाद ही था, जिसके कारण यूरोप को पहली बार वेदान्त के मूल ग्रंथ उपलब्ध हो सके थे। किन्तु, जिस आंदोलन ने वेदान्त दर्शन (अर्थात आध्यात्मिकता) को पाश्चात्य जगत के गैर-हिन्दू समुदाय (non-Hindu community of the West ?) के समक्ष जीवन्त एवं प्रभावकारी (असर डालने वाले-something living and potent) व्यावहारिक वेदान्त के अनुकरणीय रूप में प्रस्तुत कर दिया था; उस वेदान्तिक आंदोलन के अग्रदूत/नेता विवेकानन्द और उनके अनुयायी ही थे !  
अतीतकाल में ऋषियों, विद्वानों और मनीषियों ने भी वेदान्त के ऊपर चर्चा की थी, किन्तु स्वामी विवेकानन्द के अवतरित होने से पहले के मानवजाति के इतिहास में, चन्द विद्वान् लोग  इसके ऊपर चर्चा किया करते थे; तथा इक्के-दुक्के अरण्यों, मठों, गुफाओं में रहने वाले संन्यासी, सूफ़ी, बाउल आदि- MYSTICS (या रहस्यवादी /वुड बी लीडर्स ?) इसे जीते थे, और कोई कोई-कोई विलक्षण व्यक्ति ही इस पर शास्त्रार्थ करने के योग्य होते थे। इसीलिए विवेकानन्द के अवतरण के पहले तक वेदान्त के सूक्ष्म सत्य (चार महावाक्यों के अपरोक्षानुभूति करने की व्यावहारिक पद्धति) सामान्य जनता के लिए दुश्प्राप्य, मायावी (elusive कभी हाथ न आने वाले) ही साबित हो रहे थे! 
अपनी शिक्षाओं के गूढ़ तत्वों को साधारण जनता को समझाने तथा उनके जीवन पर असर डालने के उद्देश्य से 'प्राचीन भारत' के ऋषि-मुनि तथा बुध्द, ईसा और रामकृष्ण जैसे अवतार (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) आदि, अक्सर मनुष्यों के दैनन्दिन जीवन में प्रयुक्त होने वाले कहावतों, किस्से-कहानियों तथा दृष्टान्तों का प्रयोग किया करते थे। वेदान्त साहित्य में या उपनिषदों में इस प्रकार के अनेकों दृष्टान्त और बोध-कथायें भरी पड़ी हैं। क्योंकि  साधारण मनुष्यों के लिए ऐसी उपमाओं या जीवंत उदाहरणों को देखे-सुने बिना,
वेदान्त के सूक्ष्म विचारों (महवाक्यों में अन्तर्निहित ब्रह्मज्ञान) की स्पष्ट अवधारणा बना पाना अत्यन्त कठिन कार्य है। उपमान (analogies-समरूपता, समवृत्तिता ) के द्वारा संकल्पनात्मक सत्यों (conceptual truths-वैचारिक धारणा) में अंतर्निहित विशेषताओं के विषय में कुछ ऐसे जगातिक-संकेत प्राप्त हो जाते हैं, जिसके कारण साधारण मनुष्य भी उन्हें आसानी से समझ पाते हैं। (analogies nudge conceptual truths into a world where ordinary people can perceive them.) 
यह बिल्कुल सत्य है कि उच्चतम वेदान्तिक अनुभूति किसी व्यक्ति द्वारा अस्तित्व या निरपेक्ष सत्य (Thing -in-itself , or the Absolute), जिसे वेदान्त में आत्मा या ब्रह्म कहा जाता है- के अपरोक्षानुभूति में समाहित है। किन्तु भारत के पवित्र ऐतिहासिक ग्रंथों (पुराण आदि) में तथा जगत के अन्य भागों में भी 
मनुष्य के अंतर्ज्ञान (अंतःप्रज्ञा) की आंतरिक शक्ति के क्रमविकास के दूसरे चरणों को भी कालक्रम के अनुसार लिपिबद्ध (chronicled ) किया गया है ! हमारे उपनिषदिक और पौराणिक कथाओं में ब्रह्मवेत्ताओं में सहजज्ञान से संबन्धीत मन की शक्ति के (intuitive faculty के) इस क्रमविकास के सभी चरणों को बड़े आश्चर्यजनक रूप से उदाहरण देकर समझाया गया है। 
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, अंतःप्रज्ञा (अथवा सहजज्ञान से संबन्धित मन की शक्ति) में क्रमविकास के ये सभी चरण आत्मा द्वारा ग्रहण किये गए वे दृष्टिकोण (viewpoints या नज़रिया) हैं, जिसे आध्यात्मिक देशान्तर -यात्रा की ऊँची उड़ान के विभिन्न चरणों में वह (आत्मा, अहं नहीं?) सुगमता से ग्रहण कर लेता  है। (according to Swami Vivekananda they are simply viewpoints taken by the soul as it soars to different stages in its spiritual flight.)
किन्तु कोई सामान्य साधक (seeker,सत्यान्वेषी, जिज्ञासु, या एथेंस का किशोर सत्यार्थी) इतनी ऊँची उड़ान लेने की हिम्मत कैसे कर सकते हैं ? ऐसा अदम्य साहस और उत्साह वे निरंतर कैसे बनाये रह सकते हैं? वेदान्त के आचार्य या आध्यात्मिक शिक्षक कहते हैं- " इस ऊँची उड़ान का प्रारम्भ , तुम्हें अपने हृदय से करना होगा, हृदय में जन्म-जन्मांतर से जमी हुई स्वार्थपरता (पशुता ) को दूर हटाते हुए, उसे क्रमशः मनुष्य और फिर पूर्णतया  निःस्वार्थी मनुष्य (ईश्वर) बन जाने का प्रयास करते रहना होगा (महामण्डल द्वारा निर्देशित-5 अभ्यास करते रहना होगा)। और तब (हृदय शुध्द हो जाने के बाद, या चित्त-शुद्धि के बाद, स्वार्थरहित हृदय बन जाने के बाद) अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा (energy) मन को इतना अनुशासित बना देने में लगा देनी चाहिए, कि वह युगों युगों से ऋषियों द्वारा वर्णित उस भव्य दृष्टि (जगत को ब्रह्ममय देखने वाली ज्ञानमयी दृष्टि) को प्राप्त करने के योग्य बन जाये !
 (and then should direct their energy towards making their minds fit for receiving the grand vision described by seers throughout the ages.)
इस पुस्तक में सुप्रसिद्ध वेदान्तिक कहानियों के साथ-साथ ऋषियों और मनीषियों के जीवन से जुड़े उन उपाख्यानों (anecdotes -लघुकथाओं) को भी समावेशित किया गया है, जो उन छात्रों के लिये विशेष लाभकारी हैं, जो पहली बार वेदान्त-दर्शन के सम्पर्क में आये हैं।
हम पूरी दृढ़ता के साथ यह विश्वास करते हैं कि यह सार्वभौमिक और तर्कसंगत दर्शन (universal and rational philosophy) प्रत्येक व्यक्ति को (प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्ग के जिज्ञासुओं को), जगत का त्याग किये बिना ही, इसका अभ्यास करने के लिए अनुप्रेरित करेगा। वे अपने घरों में, खेत-खलिहानों में, कारखानों में भी इसका अभ्यास करेंगे। और शयद वे इन उभरते हुए वेदान्त-मतावलम्बियों को अपना धन्यवाद भी ज्ञापित करेंगे, कि अब हमें वेदान्तिक युग के अरुणोदय का लम्बे समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी !  
Swami Amarananda 
Centre Vedantique 
Geneva, Switzerland 
2 October 2002 
 [स्वामी अमरानन्द, सेंटर वेदांतिक, जिनेवा, स्विट्जरलैंड, 2 अक्टूबर 2002]
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हिन्दी अनुवादक का निवेदन 
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा विगत 50 वर्षों से 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' में आयोजित 'BE AND MAKE ' लीडरशिप ट्रेनिंग के माध्यम से, ''वर्तमान भारत' में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे जिज्ञासु पाठक तैयार हो गए हैं;  जिन्हें इस प्रकार के पुस्तकों की आवश्यकता है, और जो गृहस्थ (प्रवृत्ति मार्गी) होते हुए भी ऐसी पुस्तकों को समझने की योग्यता रखते हैं।
इस पुस्तक में वर्णित अमूल्य कहानियों को हिन्दी-भाषी युवा छात्र -छात्राओं को पढ़ने-सुनने से उनके चरित्र-निर्माण में निश्चित रूप से सहायता मिलेगी, इसी विचार से इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी माँ सारदा देवी  के चरणों में समर्पित है। 
हमारा विश्वास है कि यह पुस्तक असंख्य गृहस्थ स्त्री-पुरुषों को, 'भावी आध्यात्मिक शिक्षक/वुड बी लीडर्स बनने और बनाने' में सहायक सिद्ध होगी। 
विजय कुमार सिंह, उपाध्यक्ष, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल। 

18 अगस्त 2018,
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प्रार्थना
ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्‍योतिर्गमय । 
                  मृत्‍योर्मा अमृतं गमय । ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:। - वृहदारन्यक उपनिषद।
हे परमात्मन् , मुझे असत्य से सत्य की अोर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की अोर तथा मृत्य से अमृतत्व की अोर ले चलो। 
असत राह से मुझे सत राह पर लो,
ज्ञान आलोक से मन का अँधेरा हटाओ। ....
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रुद्र - यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम् ।।
हे जगत् जननी माँ जगदम्बा हमें शक्ति दो, हमारा सर्वस्व अापकी प्रेम सुधा से भर जाने दो। तुम्हारा अाश्रय हमें सदा प्राप्त होता रहे। अापकी कृपा सदा बरसती रहे। पूरा श्लोक इस प्रकार है - 
अजात इत्येवं कश्चिद्भीरुः प्रपद्यते। 
रुद्र यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम्‌॥ (श्वेताश्वतरोपनिषद्. ४-२१॥ 
[ अन्वय - कश्चित् भीरुः अजात इति एवं प्रपद्यते। हे रुद्र यत् ते दक्षिणं मुखं तेन मां नित्यं पाहि॥ ] 

कदाचित् कोई आश्चर्यभाव से भरकर इसे, अर्थात माँ भवतारिणी को 'अजात' (अजन्मा ,Unborn) मानकर इसकी शरण में जाता है। हे रुद्र, आपका जो कल्याणकारी दक्षिणमुख है, उससे सर्वदा मेरी रक्षा कीजिये।
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प्रस्तावना (Prologue) : 
'मिमियाता हुआ सिंह शावक' 
  [The Bleating Lion Cub] 
हरेन एक गड़ेरिया लड़का (चरवाहा shepherd) था, जो प्रतिदिन अपनी भेड़ों को चराने के लिये घास के मैदान में ले जाया करता था। निकट में ही घना जंगल था, अतः उसे बहुत सतर्कता के साथ अपने भेंड़ों के झुण्ड की रखवाली करनी पड़ती थी। एक ओर वह चरवाहा लड़का तथा उसकी भेड़ें थी तो दूसरी ओर बहुत सारे जंगली पशुओं से भरा हुआ जंगल था; और दोनों के बीच एक छोटी सी नदी बहती थी। 
एक दिन नदी के दूसरे छोर पर एक सिंहनी दिखाई पड़ी। हरेन जब उसको देखा तो वह सतर्क हो गया। भेंड़ों के झुण्ड ने भी जैसे ही उस सिंहनी को देखा, सभी जान बचाकर घर की ओर दौड़ने लगीं। सिंहनी ने तुरन्त एक छलाँग लगायी, और नदी को पार करके इस तरफ आ गयी। हरेन भयभीत हो गया, कि अब तुरन्त कोई दुर्घटना जरुर होगी, वह उससे कुछ सौ फिट ही दूर थी ! किन्तु कुछ हुआ नहीं ? वह सिंहनी वास्तव में गर्भवती थी और आसन्न-प्रसवा थी। किन्तु वह बहुत भूखी थी, इसीलिये नदी को फांद तो गयी, किन्तु वहीं उसे बच्चा हो गया, और प्रसव देने के बाद वह मर गयी। इस अवस्था में छलांग लगाने में जो परिश्रम उसे करना पड़ा, उसे वह बर्दास्त न कर सकी थी
हरेन उस छोटे से सिंह शिशु को अपने घर ले आया। सिंहनी का वह बच्चा भेड़ों की झुण्ड के साथ रहते रहते उसी झुण्ड का एक सदस्य बन गया। जन्म से ही भेड़ों के झुण्ड में पलने-बढ़ने के कारण वह ' सिंह-शिशु ' भेड़ों की तरह ही घास चरना सीख लिया, और भेड़ों की ही तरह में -में करना भी सीख लिया। जब उसकी उम्र बढ़ने लगी तो वह एक छोटे सिंह के समान दिखता अवश्य था, किन्तु ठीक अपने संगी-साथी भेंड़ों की तरह ही मिमियाता था। 
कुछ दिनों तक इसी प्रकार जीवन बिताने के बाद, एक दिन दोपहर के समय हरेन एक वृक्ष की छाँव में बैठा ऊँघ रहा था। इतने में किसी दूसरे सिंह ने आकर भेड़ों के झुण्ड पर आक्रमण कर दिया। सिंह इतने आकस्मिक और अनपेक्षित ढंग से झपटा था, की सारी भेड़ें भय से में-में करते हुए भागने लगीं। हरेन जाग गया और अपनी भेंड़ों के पीछे पीछे दौड़ने लगा। किन्तु उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने यह देखा कि वह शेर किसी भेंड़ का पीछा नहीं कर रहा था , बल्कि उसने उस सिंह-शावक को अपने मुख में दबा रखा था। और उसे अपने साथ लेकर वह नदी के दूसरी ओर चला गया। 
किसी सिंह के लिए घास खाना और मिमियाना अपने आप में बहुत लज्जाजनक (disgraceful या शर्मनाक) बात है। इसीलिये वह सिंह-शावक को यह समझाने का प्रयास कर रहा था कि वे दोनों तो एक ही प्रजाति के शक्तिशाली मांसाहारी पशु हैं। " सुनो, मैं जिस प्रकार दहाड़ लगाता हूँ, तुम भी वैसे ही दहाड़ लगाओ" -ऐसा कहकर सिंह ने जोरदार गर्जना की- शेर की दहाड़ से जंगल गूँज उठा और दूरस्थ पहाड़ों से टकराकर उसकी गड़गड़ाहट प्रतिध्वनित होने लगी। किन्तु वह भयभीत शावक तो स्वयं को भेंड़ ही समझता आया था -उसको यकीन नहीं हुआ। 
अब वह सिंह उस शावक को खींचते हुए नदी के तट पर ले गया, जहाँ क स्वच्छ-निर्मल जल में दोनों अपने अपने प्रतिबिम्ब देख सकते थे।  प्रतिबिम्ब को दिखलाते हुए सिंह ने कहा," देखो मेरे बेटे, अब देखो - ये दोनों प्रतिबम्ब कितने समरूप हैं ! मैं जो हूँ,तुम भी वही हो । मेरे चेहरे से अपने चेहरे की तुलना करो।   देखो, मेरा मुख हांड़ी की तरह है, तेरा मुख भी वैसा ही है न ? मेरे गर्दन पर जैसे अयाल (mane या केसर जैसे घने बाल)वह , तुम्हारी गर्दन पर भी हैं, मूँछें भी बिल्कुल एक समान हैं - इस सबसे एक ही सत्य प्रकट होता है कि तुम भेंड़ नहीं हो ! "
शावक को अब बात समझ में आ रही थी ! इस प्रकार प्रत्यक्ष देख लेने के फलस्वरूप उसने कहा " अरे, यह तो बिल्कुल ठीक बात है, हमदोनों का चेहरा तो बिल्कुल एक जैसा है!"अब उस सिंह ने कहीं से थोड़ा मांस लाया और उसका एक टुकड़ा अपने मुख में डाला, और एक टुकड़ा शावक के मुख में डाल दिया। मांस का स्वाद चखते ही शावक निश्चित रूप यह जान गया कि, वह तो सिंहों के परिवार का सदस्य है। ख़ुशी के मारे उसने गर्जना शुरू कर दिया। फिर वह अपने नए 'अनुकरणीय आदर्श' का अनुशरण करते हुए घने जंगलों के बीच चला गया। 
हममें से अधिकांश मनुष्य स्वयं को दुर्बल और शक्तिहीन मानकर (मरणधर्मा शरीर समझकर) उसी भ्रमित (मोहग्रस्त या hypnotized) शावक की तरह व्यवहार करते हैं। अपने स्वयं के विषय में अपनी मान्यताओं में (देहाध्यास में) बदलाव लाने के लिए किसी महान ज्ञानी व्यक्ति (ब्रह्मविद **) या आध्यात्मिक शिक्षक की आवश्यकता होती है। सामान्य मनुष्यों को मनीषी लोग साहस और ब्रह्ज्ञान में प्रतिष्ठित कर सकते हैं। इसी प्रकार व्यष्टिमनुष्य (individuals) को अपने स्वरुप के प्रति जाग्रत [ भ्रममुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड)] करते जाने से सम्पूर्ण राष्ट्र को जाग्रत किया जा सकता है !   
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। तथा [प्रलयकाल मे] पूर्ण [कार्यब्रह्म]- का पूर्णत्व लेकर (अपने मे लीन करके) पूर्ण [परब्रह्म] ही बच रहता है। त्रिविध ताप की शांति हो। यहाँ 'पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते' को यों समझा जाता है कि अनन्त से अनन्त घटाने पर भी अनन्त ही शेष रहता है।  वह ईश्वर जो दिखाई नहीं देता है, वह अनंत और पूर्ण है। यह दृश्यमान जगत भी अनंत है। उस अनंत से विश्व बहिर्गत हुआ। यह अनंत विश्व उस अनंत से बहिर्गत होने पर भी अनंत ही रह गया।
हजारों की संख्या में ऐसे ब्रह्मविद** या आध्यात्मिक शिक्षकों का निर्माण करना ही महामण्डल आंदोलन का मुख्य लक्ष्य है। जिन लोगों ने अपने सच्चे स्वरुप को जान लिया है, जो लोग शरीर-मन के जाल से आत्मा को मुक्त कर चुके हैं' अथवा भ्रम-जाल को सिंह-विक्रम से फाड़ कर मुक्त हो चुके हैं, वे आध्यात्मिक शिक्षक ही हिप्नोटाइज्ड या देहाध्यास से सम्मोहित मनुष्यों को विसम्मोहित या भ्रममुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) कर सकते हैं। वे लोग दूसरों को भी आत्मज्ञान दे सकते हैं, वे उनको उनका स्वरुप दिखा दे सकते हैं। उनके संस्पर्श में आ जाने से लोगों को चैतन्य होता है।अज्ञान का जो आवरण हमारे स्वरुप को ढांक देता है, उसका शास्त्रीय नाम है माया। बाद वाले कहानियों में माया का स्वरुप पर चर्चा की गयी है। 
[That is how individuals -and whole nations-become awakened! ]
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