राजयोग
[तृतीय अध्याय]
प्राण
[CHAPTER III – PRANA]
[राजयोग (तृतीय अध्याय) प्राण ]
🔆🙏आकाश ही सर्वव्यापी और सर्वानुस्यूत (all-penetrating) सत्ता है🔆🙏
बहुतों का विचार है , प्राणायाम श्वास - प्रश्वास की कोई क्रिया है । पर असल में ऐसा नहीं है । वास्तव में तो श्वास - प्रश्वास की क्रिया के साथ इसका बहुत थोड़ा सम्बन्ध है । श्वास - प्रश्वास (Breathing) उन क्रियाओं में से सिर्फ एक ही क्रिया है जिनके माध्यम से हम यथार्थ प्राणायाम की साधना के अधिकारी होते हैं । प्राणायाम का अर्थ है , प्राण का संयम (control of Prâna) । भारतीय दार्शनिकों के मतानुसार सारा जगत् दो पदार्थों से निर्मित है । उनमें से एक का नाम है आकाश । यह आकाश एक सर्वव्यापी (omnipresent), सर्वानुस्यूत (all-penetrating) सत्ता है। जिस किसी वस्तु का आकार (नाम-रूप) है, जो कोई वस्तु कुछ वस्तुओं के मिश्रण से बनी है, वह इस आकाश से ही उत्पन्न (evolved) हुई है ।
यह आकाश ही वायु में परिणत होता है ; यही फिर तरल और ठोस आकार को प्राप्त होता है । ' यह आकाश ( Akasha ) ही सूर्य (sun) का रूप धारण करता है , पृथ्वी (earth) , चन्द्रमा (moon) तारा (stars), धूमकेतु (comets) आदि में परिणत होता है । समस्त प्राणियों के शरीर (human body), पशुओं के शरीर (animal body), उद्भिद् (plants) आदि जितने भी रूप हमें देखने को मिलते हैं , जिन वस्तुओं का हम इन्द्रियों द्वारा अनुभव कर सकते हैं, यहाँ तक कि , संसार में जो कुछ वस्तु है , सभी आकाश से उत्पन्न हुई हैं । इन्द्रियों द्वारा इस आकाश की उपलब्धि करने का कोई उपाय नहीं ; यह इतना सूक्ष्म है कि साधारण अनुभूति के अतीत है । जब यह स्थूल होकर कोई आकार धारण करता है , तभी हम इसका अनुभव कर सकते हैं । सृष्टि के आदि में एकमात्र आकाश रहता है । फिर कल्प के अन्त में समस्त ठोस (solids) , तरल (liquids) और वाष्पीय (gases) पदार्थ पुनः आकाश में लीन हो जाते हैं । बाद की सृष्टि (next creation ) फिर से इसी तरह आकाश से उत्पन्न होती है ।
[राजयोग (तृतीय अध्याय) प्राण ]
🔆🙏प्राण की शक्ति से ही आकाश जगत के रूप में परिणत हो जाता है🔆🙏
किस शक्ति के प्रभाव से आकाश का जगत् के रूप में परिणाम होता है ? (By what power is this Akasha manufactured into this universe?) इस प्राण की शक्ति से। जिस तरह आकाश इस जगत् का कारणस्वरूप अनन्त , सर्वव्यापी भौतिक पदार्थ है , प्राण भी उसी तरह जगत् की उत्पत्ति की कारणस्वरूप अनन्त सर्वव्यापी विक्षेपकर शक्ति है । कल्प के आदि में और अन्त में ( At the beginning and at the end of a cycle ) सम्पूर्ण सृष्टि आकाशरूप में परिणत होती है , और जगत् की सारी शक्तियाँ प्राण में लीन हो जाती हैं । दूसरे कल्प में फिर इसी प्राण से समस्त शक्तियों का विकास होता है । यह प्राण ही गतिरूप (motion) में अभिव्यक्त हुआ है - यह प्राण ही गुरुत्वाकर्षण (gravitation) या चुम्बक शक्ति (magnetism) के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है ।
यह प्राण ही स्नायविक शक्तिप्रवाह (nerve currents) के रूप में , विचारशक्ति (thought force) के रूप में और समस्त दैहिक क्रियाओं के रूप में अभिव्यक्त हुआ है । विचारशक्ति से लेकर अति सामान्य बाह्य शक्ति तक , सब कुछ प्राण का ही विकास है । बाह्य (physical) और अन्तर्जगत् (mental) की समस्त शक्तियाँ जब अपनी मूल अवस्था में पहुँचती हैं , तब उसी को प्राण कहते हैं । " जब अस्ति और नास्ति कुछ भी न था , जब तम से तम आवृत था , तब क्या था? यह आकाश ही गतिशून्य होकर अवस्थित था । "
[ नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं, ..... तम आसीतीत्तमसा गूढमग्रेsप्रकेतं।। (ऋग्वेद - १० - १२९ /नासदीय सूक्त ) `तदानीम्' अर्थात तब प्रलयावस्था में ( असत् + न + आसीत् ) अभाव नहीं था ( नो + सत् + आसीत् ) भाव भी नहीं था अर्थात उस अवस्था में व्यक्ताव्यक्त कुछ भी प्रतीत नहीं होता था ,.. लेकिन ( अग्रे + तमः + आसीत् ) सृष्टि के पूर्व तमोवाच्य जगन्मूल कारण अवश्य था और ( तमसा) उसी तमोवाच्य मूल कारण से ( इदम् + सर्वम् ) यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत ( गूढ़म् ) आच्छादित था , अर्थात केवल कारण विद्यमान था, कार्य नहीं। ]
`तदानीम्' अर्थात तब प्रलयावस्था में [अर्थात आत्मसाक्षात्कार के समय ?] --प्राण की सभी प्रकार की बाह्य गति रुद्ध थी , परन्तु तब भी प्राण का अस्तित्व था । संसार में जितने प्रकार की शक्तियों का विकास अब हुआ है , कल्प के अन्त में वे संभावव्यता (potential ) का भाव - धारण करती हैं- अव्यक्त अवस्था में लीन होती हैं , और दूसरे कल्प के आदि में वे ही फिर से व्यक्त होकर आकाश पर कार्य करती रहती हैं । इसी आकाश से परिदृश्यमान साकार वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं , और आकाश के विविध परिणाम प्राप्त होने पर यह प्राण भी दृश्यमान नाना प्रकार की शक्तियों में परिणत होता रहता है । इस प्राण के इस यथार्थ तत्त्व को जानना और उसको संयत करने की चेष्टा करना ही प्राणायाम का प्रकृत अर्थ है ।
[राजयोग (तृतीय अध्याय) प्राण ]
🔆🙏प्राणायाम की साधना का लक्ष्य : प्रकृति को वशीभूत करना🔆🙏
इस प्राणायाम में सिद्ध होने पर हमारे लिए मानो अनन्त शक्ति (unlimited power) का द्वार खुल जाता है । मान लो , किसी व्यक्ति की समझ में यह प्राण का विषय पूरी तरह आ गया और वह उसे वश करने में भी कृतकार्य हो गया , तो फिर संसार में ऐसी कौनसी शक्ति है , जो उसके अधिकार में न आए ? उसकी आज्ञा से चन्द्र - सूर्य अपनी जगह से हिलने लगते हैं , क्षुद्रतम परमाणु (atoms) से बृहत्तम सूर्य (biggest suns ) तक सभी उसके वशीभूत हो जाते हैं , क्योंकि उसने प्राण को जीत लिया है ।
प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति प्राप्त करना ही प्राणायाम की साधना का लक्ष्य है। जब योगी सिद्ध हो जाते हैं , तब प्रकृति में ऐसी कोई वस्तु नहीं , जो उनके वश में न आ जाए । यदि वे देवताओं का आह्वान करेंगे , तो वे उनकी आज्ञा मात्र से आ उपस्थित होंगे ; यदि मृत व्यक्तियों को आने की आज्ञा देंगे , तो वे तुरन्त हाजिर हो जाएँगे । प्रकृति की सारी शक्तियाँ उनकी आज्ञा से दासी की तरह काम करने लगेंगी ।
अज्ञ जन योगी के इन कार्य - कलापों को अलौकिक (miracle ) समझते हैं । हिन्दू मन की यह एक विशेषता है कि वह सदैव अन्तिम सम्भाव्य सामान्यीकरण के लिए अनुसन्धान करता है , और बाद में विशेष पर कार्य करता है । वेदों में यह प्रश्न पूछा गया है- " कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ? ’ (मुण्डकोपनिषद -१/३) – ' ऐसी कौनसी वस्तु है , जिसका ज्ञान होने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है ? ” इस प्रकार , हमारे जितने शास्त्र हैं , जितने दर्शन हैं , सब के सब उसी के निर्णय में लगे हुए हैं , जिनके जानने से सब कुछ जाना जा सकता है ।
[तस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति। -`अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण को जानने से सब कुछ जाना जा सकता है ।] यदि कोई व्यक्ति जगत् का तत्त्व थोड़ा थोड़ा करके जानना चाहे , तो उसे अनन्त समय लग जाएगा ; क्योंकि फिर तो उसे बालू के एक एक कण तक को भी अलग अलग रूप से जानना होगा । अतः यह स्पष्ट है कि इस प्रकार सब कुछ जानना एक प्रकार से असम्भव है । तब फिर इस प्रकार के ज्ञानलाभ की सम्भावना कहाँ है ?
एक एक विषय को अलग अलग रूप से जानकर मनुष्य के लिए सर्वज्ञ होने की सम्भावना कहाँ है ? योगी कहते हैं , इन सब विशिष्ट अभिव्यक्तियों के पीछे एक सामान्य – अमूर्त तत्त्व (Absolute Existence) है । उसको पकड़ सकने या जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है । इसी प्रकार , वेदों में सम्पूर्ण जगत् को उस एक अखण्ड निरपेक्ष सत्स्वरूप में सामान्यीकृत किया गया है । जिन्होंने इस सत्स्वरूप (ब्रह्म -शक्ति अभेद) को पकड़ा है , उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को समझ लिया है । उक्त प्रणाली से ही समस्त शक्तियों को भी इस प्राण में सामान्यीकृत किया गया है । अतएव जिन्होंने प्राण को पकड़ा है , उन्होंने संसार में जितनी शारीरिक या मानसिक शक्तियाँ हैं सब को पकड़ लिया है । जिन्होंने प्राण को जीता है , उन्होंने अपने मन को ही नहीं , वरनू सब के मन को भी जीत लिया है । जिन्होंने प्राण को जीत लिया है , उन्होंने अपनी देह और दूसरी जितनी देह हैं , सब को अपने अधीन कर लिया है , क्योंकि प्राण ही सारी शक्तियों की सामान्यीकृत अभिव्यक्ति है ।
किस प्रकार इस प्राण पर विजय पायी जाए , यही प्राणायाम का एकमात्र उद्देश्य है । इस प्राणायाम के सम्बन्ध में जितनी साधनाएँ और उपदेश हैं , सब का यही एक उद्देश्य है । हर एक साधनार्थी को , उसके सब से समीप जो कुछ है , उसी से साधना शुरू करनी चाहिए - उसके निकट जो कुछ है , उस सब पर विजय पाने की चेष्टा करनी चाहिए । संसार की सारी वस्तुओं में देह हमारे सब से निकट है और मन उससे भी निकटतर है । जो प्राण संसार में सर्वत्र व्याप्त है , उसका जो अंश इस शरीर और मन में कार्यशील है , वही अंश हमारे सब से निकट है। यह जो क्षुद्र प्राणतरंग है - जो हमारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों के रूप में परिचित है, वह अनन्त प्राणसमुद्र में हमारे सब से निकटतम तरंग है ।
यदि हम उस क्षुद्र तरंग पर विजय पा लें , तभी हम समस्त प्राणसमुद्र को जीतने की आशा कर सकते हैं । जो योगी इस विषय में कृतकार्य होते हैं , वे सिद्धि पा लेते हैं , तब कोई भी शक्ति उन पर प्रभुत्व नहीं जमा सकती । वे एक प्रकार से सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ हो जाते हैं । हम सभी देशों में ऐसे सम्प्रदाय देखते हैं , जो किसी न किसी उपाय से इस प्राण पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे हैं । इसी देश में (अमेरिका में) हम मनःशक्ति से आरोग्य करनेवाले (mind - healers) , विश्वास से आरोग्य करनेवाले (faith-healers), प्रेतात्मवादी (Spiritists), ईसाईयत वैज्ञानिक ( Christian Scientists ) , सम्मोहनविद्यावित् ( hypnotists ) आदि अनेक सम्प्रदाय देखते हैं । यदि हम इन मतों का विशेष रूप से विश्लेषण करें , तो देखेंगे कि इन सब मतों की पृष्ठभूमि में - वे फिर जानें या न जानें -प्राणायाम ही है ।
उन सब मतों के मूल में एक ही बात है । वे सब एक ही शक्ति को लेकर कार्य कर रहे हैं ; पर हाँ , वे उसके सम्बन्ध में कुछ जानते नहीं । उन लोगों ने एकाएक मानो एक शक्ति का आविष्कार कर डाला है , परन्तु उस शक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में बिलकुल अज्ञ हैं । योगी जिस शक्ति का उपयोग करते हैं , ये भी बिना जाने - बूझे उसी का उपयोग कर रहे हैं । और वह प्राण की ही शक्ति है ।
यह प्राण ही समस्त प्राणियों के भीतर जीवनीशक्ति (vital force) के रूप में विद्यमान है । विचारणा (Thought ) इसकी सूक्ष्मतम और उच्चतम अभिव्यक्ति है । फिर जिसे हम साधारणतः विचारणा की आख्या देते हैं , वही प्राण की एकमात्र वृत्ति नहीं है । इसके अतिरिक्त हमारा एक निम्नतम कार्यक्षेत्र भी है , जिसे हम जन्मजात प्रवृत्ति (instinct ) अथवा ज्ञानरहित चित्तवृत्ति (unconscious thought) अथवा मन की अचेतन भूमि कहते हैं । मान लो , मुझे एक मच्छर ने काटा , तो मेरा हाथ अपने ही आप उसे मारने को उठ जाता है । उसे मारने के लिए हाथ को उठाते - गिराते मुझे कोई विशेष सोच - विचार नहीं करना पड़ता । यह भी विचारणा की एक प्रकार की अभिव्यक्ति है ।
शरीर के समस्त स्वाभाविक कार्य ( reflex actions ) इसी विचारणा के स्तर के अन्तर्गत हैं । [बाहर की किसी प्रकार की उत्तेजना से शरीर का कोई यन्त्र , समय समय पर , ज्ञान की सहायता लिये बिना अपने आप जब काम करता है , तो उस कार्य को स्वाभाविक कार्य ( reflex action ) कहते हैं । ] इससे उन्नत विचारणा का एक दूसरा स्तर भी है , जिसे सज्ञान अथवा मन की चेतन भूमि ( conscious) कहते हैं । हम युक्ति - तर्क करते हैं , विचार करते हैं , सब विषयों के पक्षापक्ष सोचते हैं , लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं । हमें मालूम है , युक्ति या विचार बिलकुल छोटीसी सीमा के द्वारा सीमित है । वह हम लोगों को कुछ ही दूर तक ले जा सकता है , इसके आगे उसका और अधिकार नहीं ।
जिस वृत्त के अन्दर वह चक्कर काटता है , वह बहुत ही सीमित , संकीर्ण है । परन्तु साथ ही हम यह भी देखते हैं कि बहुत से तथ्य बाहर से सहसा बहुत ही इस वृत्त के भीतर आ जाते हैं । पुच्छल तारा जिस प्रकार सौरजगत् के अधिकार के भीतर न होने पर भी कभी कभी उसके भीतर सहसा आ जाता है और हमें दीख पड़ता है , उसी प्रकार बहुत से तथ्य , हमारी युक्ति के अधिकार के बाहर होने पर भी , उसके भीतर आ जाते हैं ।
यह निश्चित है कि वे सब तथ्य इस सीमा के बाहर से आते हैं , पर हमारा तर्क या युक्ति इस सीमा के परे नहीं जा सकती । इस छोटी सी सीमा के भीतर उन तथ्यों के प्रवेश का कारण यदि हम खोजना चाहें , तो हमें अवश्य इस सीमा के बाहर जाना होगा । हमारे विचार , हमारी युक्तियाँ वहाँ नहीं पहुँच सकतीं । योगियों का कहना है कि यह सज्ञान या चेतन भूमि ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा नहीं है । मन इन दोनों भूमियों से भी उच्चतर भूमि पर विचरण कर सकता है । उस भूमि को हम अतिचेतन भूमि (superconsciousness) कहते हैं - वही समाधि नामक पूर्ण एकाग्र अवस्था (perfect concentration) है ।
जब मन उस अवस्था में पहुँच जाता है , तब वह युक्ति - तर्क की सीमा के परे चला जाता है और ऐसे तथ्यों का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है , जो जन्मजात प्रवृत्ति और युक्ति - तर्क द्वारा कभी प्राप्त नहीं है । शरीर की सारी सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियाँ , जो प्राण की ही विभिन्न अभिव्यक्ति मात्र हैं , यदि सही रास्ते से परिचालित हों , तो वे मन पर विशेष रूप से कार्य करती हैं , और तब मन भी पहले से उच्चतर अवस्था में अर्थात् अतिचेतन भूमि में चला जाता है और वहाँ से कार्य करता रहता है ।
इस विश्व में अस्तित्व के प्रत्येक स्तर पर एक अखण्ड वस्तुराशि दीख पड़ती है । भौतिक संसार की ओर दृष्टिपात करने पर दिखता है कि एक ही अखण्ड वस्तु मानो नाना रूपों में विराजमान है । वास्तव में , तुममें और सूर्य में कोई भेद नहीं । वैज्ञानिक (scientist) के पास जाओ , वे तुम्हें समझा देंगे कि वस्तु-वस्तु में भेद केवल काल्पनिक (fiction) है । इस मेज से वास्तव में मेरा कोई भेद नहीं । यह मेज अनन्त जड़राशि का मानो एक बिन्दु है और मैं उसी का एक दूसरा बिन्दु। प्रत्येक साकार वस्तु इस अनन्त जड़सागर में मानो एक भँवर (whirlpool) है ।
भँवर सारे समय एकरूप नहीं रहते । मान लो , किसी वेगवती नदी में लाखों भँवर हैं; प्रत्येक भँवर में प्रतिक्षण नयी जलराशि आती है , कुछ देर घूमती है और फिर दूसरी ओर चली जाती है । उसके स्थान में एक नयी जलराशि आ जाती है । यह जगत् भी इसी प्रकार सतत परिवर्तनशील एक जड़राशि मात्र है और ये सारे रूप उसके भीतर मानो छोटे छोटे भँवर हैं । कोई भूतसमष्टि किसी मनुष्यदेहरूपी भँवर में घुसती है , और वहाँ कुछ काल तक चक्कर काटने के बाद वह बदल जाती है और एक दूसरी भँवर में किसी पशुदेहरूपी भँवर में प्रवेश करती है । फिर वहाँ कुछ वर्ष तक घूमती रहने के बाद खनिज पदार्थ नामक दूसरे भँवर में चली जाती है । बस , सतत परिवर्तन होता रहता है । कोई भी वस्तु स्थिर नहीं । मेरा शरीर , तुम्हारा शरीर नामक कोई वस्तु वास्तव में नहीं है । वह केवल कहने भर की बात है । है केवल एक अखण्ड जड़राशि।
उसी के किसी बिन्दु का नाम है चन्द्र (moon) , किसी का सूर्य (sun) , किसी का मनुष्य (man) , किसी का पृथ्वी (earth) , कोई बिन्दु उद्भिद् (plant) है , तो कोई खनिज पदार्थ (mineral) । इनमें से कोई भी सदा एक भाव से नहीं रहता , सभी वस्तुओं का सतत परिवर्तन हो रहा है ; जड का एक बार संश्लेषण (concreting) होता है , फिर विश्लेषण (disintegrating) । मनोजगत् के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है। ' ईथर ' ( ether, आकाशतत्त्व ) को हम सारी जड़ वस्तुओं के प्रतिनिधि के रूप में ग्रहण कर सकते हैं । प्राण की सूक्ष्मतर स्पन्दनशील अवस्था (finer state of vibration) में इस ईथर को मन का भी प्रतिनिधिस्वरूप कहा जा सकता है । अतएव सम्पूर्ण मनोजगत् भी एक अखण्डस्वरूप है । जो अपने मन में यह अति सूक्ष्म कम्पन उत्पन्न कर सकते हैं , वे देखते हैं कि सारा जगत् सूक्ष्माति-सूक्ष्म कम्पनों की समष्टि मात्र है । किसी किसी औषधि (certain drugs-भांग ?) में हमको इस सूक्ष्म अवस्था में पहुँचा देने की शक्ति रहती है , यद्यपि उस समय हम इन्द्रियराज्य के भीतर ही रहते हैं।
तुममें से बहुतों को सर हम्फ्री डेवी (Sir Humphrey Davy) के प्रसिद्ध प्रयोग की बात याद होगी । हास्योत्पादक गैस ( Laughing Gas ) ने जब उनको अभिभूत कर लिया, तब वे भाषण देते समय स्तब्ध और निःस्पन्द होकर खड़े रहे । कुछ देर बाद जब होश आया , तो बोले , “ सारा जगत् विचारों ( ideas) की समष्टि मात्र है । " कुछ समय के लिए सारे स्थूल कम्पन ( gross vibrations ) चले गये थे और केवल सूक्ष्म कम्पन (subtle vibrations) , जिनको उन्होंने विचारराशि (ideas) कहा था , बच रहे थे । उन्होंने चारों ओर केवल सूक्ष्म कम्पन देखे थे । सम्पूर्ण जगत् उनकी आँखों में मानो एक महानू विचारसमुद्र (ocean of thought,) में परिणत हो गया था । उस महासमुद्र में वे और जगत् की प्रत्येक व्यष्टि मानो एक एक छोटा विचार भँवर (thought whirlpools) बन गयी थी । इन सत्यों को अब अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि विचारजगत् में भी अखण्ड एकत्व विद्यमान है । अन्त में जब हम आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं , तब एक अखण्ड सत्ता के अतिरिक्त और कुछ नहीं अनुभव करते । भौतिक पदार्थ के स्थूल और सूक्ष्म स्पन्दनों के परे , सब प्रकार की गतियों के परे वही एक अखण्ड सत्ता है । यहाँ तक कि इन गतियों की स्थूल अभिव्यक्तियों के भीतर भी केवल एकत्व विद्यमान है ।
आधुनिक भौतिक विज्ञान (Modern physics) ने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि शक्तिसमष्टि (sum total of the energies) सदैव समान है और यह भी सिद्ध हो चुका है कि यह शक्तिसमष्टि दो तरह से ( two forms में ) अवस्थित है - कभी स्तिमित या अव्यक्त अवस्था (potential, toned down, and calmed) में और कभी व्यक्त अवस्था ( manifested ) में वह इन नानाविध शक्तियों के रूप धारण करती है । इस प्रकार वह अनन्त काल से कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त भाव धारण करती आ रही है । इस शक्तिरूपी प्राण के संयम का नाम ही प्राणायाम है ।
मनुष्यदेह में इस प्राण की सब से स्पष्ट अभिव्यक्ति है- फेफड़े की गति (motion of the lungs) । यदि यह गति रुक जाए , तो देह की सारी क्रियाएँ तुरन्त बंद हो जाएँगी , शरीर के भीतर जो अन्यान्य शक्तियाँ कार्य कर रही थीं , वे भी शान्त भाव धारण कर लेंगी । पर ऐसे भी व्यक्ति हैं , जो अपने को इस प्रकार प्रशिक्षित कर लेते हैं कि उनके फेफड़े की गति रुक जाने पर भी उनका शरीर नहीं जाता । ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जो बिना साँस लिये कई दिनों तक जमीन के अन्दर गड़े रह सकते हैं , पर तो भी उनका देहनाश नहीं होता ।
सूक्ष्मतर शक्ति को प्राप्त करने के लिए हमें स्थूलतर शक्ति की सहायता लेनी पड़ती है। इस प्रकार क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर शक्ति में जाते हुए अन्त में हम चरम लक्ष्य पर पहुँच जाते हैं । प्राणायाम का यथार्थ अर्थ है फेफड़े की इस गति का रोध करना । इस गति के साथ श्वास का निकट सम्बन्ध है । यह गति श्वास - प्रश्वास द्वारा उत्पन्न नहीं होती, वरन् वही श्वास - प्रश्वास की गति को उत्पन्न कर रही है । यह गति ही , पम्प की भाँति , वायु को भीतर खींचती है । प्राण इस फेफड़े को चलाता है और फेफड़े की यह गति फिर वायु को खींचती है । इस तरह यह स्पष्ट है कि प्राणायाम श्वास - प्रश्वास की क्रिया नहीं है । पेशियों की जो शक्ति फेफड़े को चलाती है , उसको वश में लाना ही प्राणयाम है ।
जो शक्ति स्नायुओं के भीतर से पेशियों के पास जाती है और जो फेफड़ों का संचालन करती है , वही प्राण है । प्राणायाम की साधना में हमें उसी को वश में लाना है । जब प्राण पर विजय प्राप्त हो जाएगी , तब हम तुरन्त देखेंगे कि शरीरस्थ प्राण की अन्यान्य सभी क्रियाएँ हमारे अधिकार में धीरे धीरे आ गयी हैं । मैंने स्वयं ऐसे व्यक्ति देखे हैं , जिन्होंने अपने शरीर की सारी पेशियों को वशीभूत कर लिया है अर्थात् वे उनको इच्छानुसार चला सकते हैं । और वे ऐसा कर भी क्यों न सकेंगे ?
यदि कुछ पेशियाँ हमारी इच्छा के अनुसार चलायी जा सकती हों तो दूसरी सब पेशियों और स्नायुओं को हम इच्छानुसार क्यों न चला सकेंगे ? इसमें असम्भव क्या है ? अब हमारी इस संयमशक्ति का लोप हो गया है , और पेशियों की गति स्वयंक्रिय हो गयी है । हम इच्छानुसार कानों को नहीं हिला सकते , परन्तु हम जानते हैं कि पशुओं में यह शक्ति है । हममें यह शक्ति इसलिए नहीं है कि हम इसे काम में नहीं लाते । इसी को क्रमअवनति अथवा पूर्वावस्था की ओर पुनरावर्तन ( atavism ) कहते हैं ।
फिर , हम यह भी जानते हैं कि जिस गति ने अब अव्यक्त भाव धारण किया है , उसे हम फिर से व्यक्तावस्था में ला सकते हैं । दृढ़ अभ्यास के द्वारा शरीर की कुछ गतियाँ , जो अभी हमारी इच्छा के अधीन नहीं , फिर से पूरी तरह वश में लायी जा सकती हैं । इस प्रकार विचार करने पर दीख पड़ता है कि शरीर का प्रत्येक अंश हम पूरी तरह अपनी इच्छा के अधीन कर सकते हैं । इसमें कुछ भी असम्भव नहीं , बल्कि यह तो पूर्णतया सम्भव है । योगी प्राणायाम द्वारा इसमें कृतकार्य होते हैं ।
तुम लोगों ने पढ़ा होगा कि प्राणायाम में श्वास लेते समय सम्पूर्ण शरीर को प्राण से पूर्ण करना होता है । अंग्रेजी अनुवाद में प्राण शब्द का अर्थ किया गया है श्वास । इससे तुम्हें सहज ही सन्देह हो सकता है कि श्वास से सम्पूर्ण शरीर को कैसे पूरा किया जाए । वास्तव में यह अनुवादक का दोष है । देह के सारे अंगों को प्राण अर्थात् इस जीवनीशक्ति (vital force )द्वारा भरा जा सकता है , और जब तुम इसमें सफल होगे , तो सम्पूर्ण शरीर तुम्हारे वश में हो जाएगा ; देह की समस्त व्याधियाँ , सारे दुःख तुम्हारी इच्छा के अधीन हो जाएँगे ।
इतना ही नहीं , दूसरे के शरीर पर भी अधिकार जमाने में तुम समर्थ हो जाओगे । संसार में भला - बुरा जो कुछ है , सभी संक्रामक (infectious) है । यदि तुम्हारा शरीर किसी विशेष अवस्था में हो , तो उसकी प्रवृत्ति दूसरों में भी वही अवस्था उत्पन्न करने की होगी । यदि तुम सबल और स्वस्थकाय रहो , तो तुम्हारे समीपवर्ती व्यक्तियों में भी मानो कुछ स्वस्थ भाव , कुछ सबल भाव आएगा । और यदि तुम रुग्ण और दुर्बल रही , तो देखोगे , तुम्हारे निकटवर्ती दूसरे व्यक्ति भी मानो कुछ रुग्ण और दुर्बल हो रहे हैं । तुम्हारी देह का कम्पन मानो दूसरे के भीतर संचारित हो जाएगा ।
जब एक व्यक्ति दूसरे को रोगमुक्त (heal ) करने की चेष्टा करता है , तब उसका पहला प्रयत्न यह होता है कि उसका स्वास्थ्य दूसरे में संचारित हो जाए । यही आदिम चिकित्सा-प्रणाली (primitive sort of healing) है । ज्ञातभाव से हो या अज्ञातभाव से , एक व्यक्ति दूसरे की देह में स्वास्थ्य - संचार कर दे सकता है । यदि एक बहुत बलवान् व्यक्ति किसी दुर्बल व्यक्ति के साथ सदैव रहे , तो वह दुर्बल व्यक्ति कुछ अंशों में अवश्य सबल हो जाएगा । यह बलसंचारण-क्रिया ज्ञातभाव से हो सकती है तथा अज्ञातभाव से भी । जब यह क्रिया ज्ञातभाव (consciously) से की जाती है , तब इसका कार्य और भी शीघ्र तथा उत्तम रूप से होता है ।
[राजयोग (तृतीय अध्याय) प्राण ]
🔆🙏वह दूरी कहाँ है जिसमें विच्छेद (break) है?🔆🙏
[Where is the distance that has a break? ]
एक ओर दूसरे प्रकार की भी चिकित्साप्रणाली है , जिसमें आरोग्यकारी स्वयं बहुत स्वस्थकाय न होने पर भी दूसरे के शरीर में स्वास्थ्य का संचार कर दे सकता है । इन स्थलों में उस आरोग्यकारी व्यक्ति को कुछ परिमाण में प्राणजयी समझना चाहिए । वह कुछ समय के लिए अपने प्राण में मानो एक विशेष कम्पन उत्पन्न करके दूसरे के शरीर में उसका संचार कर देता है ।
अनेक स्थलों में यह कार्य बहुत दूर से भी साधित हुआ है । यदि सचमुच में दूरत्व का अर्थ खण्ड या विच्छेद ( break ) हो , तो दूरत्व नामक कोई चीज नहीं । ऐसा दूरत्व कहाँ है, जहाँ परस्पर कुछ भी सम्बन्ध , कुछ भी योग नहीं ? सूर्य में और तुममें क्या वास्तविक कोई विच्छेद है ? नहीं , यह तो समस्त एक अविच्छिन्न अखण्ड वस्तु है ; तुम उसके एक अंश हो और सूर्य उसका एक दूसरा अंश । नदी के एक भाग और दूसरे भाग में क्या विच्छेद है ? तो फिर शक्ति भी एक जगह से दूसरी जगह क्यों न भ्रमण कर सकेगी ? इसके विरोध में तो कोई युक्ति नहीं दी जा सकती ।
[There have been cases where this process has been carried on at a distance, but in reality there is no distance in the sense of a break. Where is the distance that has a break? Is there any break between you and the sun? It is a continuous mass of matter, the sun being one part, and you another. Is there a break between one part of a river and another? Then why cannot any force travel? There is no reason against it.]
दूर से आरोग्य करने की घटनाएँ बिलकुल सत्य हैं । इस प्राण को बहुत दूर तक संचालित किया जा सकता है । पर हाँ , इसमें धोखेबाजी बहुत है । यदि इसमें एक घटना सत्य हो , तो अन्य सैकड़ों असत्य और छलकपट के अतिरिक्त और कुछ नहीं । लोग इसे जितना सहज समझते हैं , यह उतना सहज नहीं । अधिकतर स्थलों में तो देखोगे कि आरोग्य करनेवाले चंगा करने के लिए मानवदेह की स्वाभाविक स्वस्थता की ही सहायता लेते हैं ।
[May 30, 2022 को यह अनुवाद किया गया] एक एलोपैथ (allopath) चिकित्सक आता है ,कोविड (COVID-19) के रोगियों की चिकित्सा करता है और उन्हें दवा देता है ; एक होमियोपैथ (homoeopath) चिकित्सक आता है , वह भी 'कोविड' के रोगियों को अपनी दवा देता है और शायद एलोपैथ की अपेक्षा अधिक रोगियों को चंगा कर देता है । ऐसा क्यों ? इसलिए कि वह रोगी के शरीर में किसी तरह का विपर्यय न लाकर प्रकृति को अपनी चाल से काम करने देता है (allows nature to deal with them) । और विश्वास के बल से आरोग्य करनेवाला, आस्था आरोग्यक (Faith-healer)तो और भी अधिक रोगियों को चंगा कर देता है , क्योंकि वह अपनी इच्छाशक्ति द्वारा कार्य करके विश्वास के बल से रोगी की प्रसुप्त प्राणशक्ति (dormant Prana ) को जाग्रत कर देता है ।
परन्तु विश्वास के बल से रोगों को अच्छा करनेवाले आस्था आरोग्यक (Faith-healers) को सदा एक भ्रम हुआ करता है , वे सोचते हैं कि साक्षात् विश्वास (faith) ही लोगों को रोगमुक्त करता है । वास्तव में यह नहीं कहा जा सकता कि केवल विश्वास इसका कारण है । ऐसे भी रोग हैं , जिसमें रोगी स्वयं नहीं समझ पाता कि उसके कोई रोग है । रोगी का अपनी नीरोगता पर अतीव विश्वास ही रोग का एक प्रधान लक्षण (symptom) है , और इससे आसन्न मृत्यु की सूचना होती है । इन सब स्थलों में केवल विश्वास से रोग नहीं टलता । यदि विश्वास ही रोग की जड़ काटता हो , तो वे रोगी मौत के मुँह न गये होते । वास्तव में रोग तो इस प्राण की शक्ति से ही दूर होता है । प्राणजित् पवित्रात्मा पुरुष (pure man) अपने प्राण को एक निर्दिष्ट कम्पन में ले जा सकते हैं और उसे दूसरे में संचारित करके , उसके भीतर भी उसी प्रकार का कम्पन (similar vibration) पैदा कर सकते हैं ।
तुम प्रतिदिन की घटना से यह प्रमाण ले सकते हो । मैं व्याख्यान दे रहा हूँ ।व्याख्यान देते समय मैं क्या कर रहा हूँ ? मैं अपने मन को मानो कम्पन की एक विशिष्ट स्थिति में लाता हूँ । और मैं मन को इस स्थिति में लाने में जितना ही सफल होऊँगा , तुम मेरी बात सुनकर उतने ही प्रभावित होगे । तुम लोगों को मालूम है , व्याख्यान देते देते मैं जिस दिन मस्त हो जाता हूँ , उस दिन मेरा व्याख्यान तुमको बहुत अच्छा लगता है , पर जब कभी मेरा उत्साह घट जाता है , तो तुम्हें मेरे व्याख्यान में उतना आनन्द नहीं मिलता ।
[You see that in everyday actions. I am talking to you. What am I trying to do? I am, so to say, bringing my mind to a certain state of vibration, and the more I succeed in bringing it to that state, the more you will be affected by what I say. All of you know that the day I am more enthusiastic, the more you enjoy the lecture; and when I am less enthusiastic, you feel lack of interest.]
जगत् को हिला - डुला देनेवाले तीव्र इच्छाशक्तिसम्पन्न महापुरुष अपने प्राण को कम्पन की एक उच्च स्थिति में ला सकते हैं और यह प्राण इतना महान् तथा शक्तिशाली होता है कि वह दूसरे को पल भर में लपेट लेता है , हजारों मनुष्य उनकी ओर खिंच जाते हैं और संसार के आधे लोग उनके भाव से परिचालित हो जाते हैं । जगत् के सभी महान् पैगम्बरों का प्राण पर अत्यन्त अद्भुत संयम था , जिसके बल से वे प्रबल इच्छाशक्तिसम्पन्न हो गये थे । वे अपने प्राण के भीतर अति उच्च कम्पन पैदा कर सकते थे , और उसी से उन्हें समस्त संसार पर प्रभावविस्तार करने की क्षमता प्राप्त हुई थी ।
[The gigantic will-powers of the world, the world-movers, can bring their Prana into a high state of vibration, and it is so great and powerful that it catches others in a moment, and thousands are drawn towards them, and half the world think as they do. Great prophets of the world had the most wonderful control of the Prana, which gave them tremendous will-power; they had brought their Prana to the highest state of motion, and this is what gave them power to sway the world.]
संसार में शक्ति के जितने विकास देखे जाते हैं , सभी प्राण के संयम से उत्पन्न होते हैं । मनुष्य को यह तथ्य भले ही मालूम न हो , पर और किसी तरह इसकी व्याख्या नहीं हो सकती । तुम्हारे शरीर में यह प्राणसंचालन कभी एक ओर अधिक और दूसरी ओर कम हो जाता है । इससे सन्तुलन भंग होता है ; और जब प्राण का यह सन्तुलन नष्ट होता है , तब रोग की उत्पत्ति होती है। अतिरिक्त प्राण को हटाकर , जहाँ प्राण का अभाव है , वहाँ का अभाव भर सकने से ही रोग अच्छा हो जाता है ।
शरीर के किस भाग में प्राण अधिक है और किस भाग में अल्प , इसका ज्ञान प्राप्त करना भी प्राणायाम का अंग है । इस प्राणायाम के अभ्यास से अनुभवशक्ति इतनी सूक्ष्म हो जाएगी कि मन समझ जाएगा , पैर के अँगूठे में या हाथ की अँगुली में जितना प्राण आवश्यक है , उतना वहाँ नहीं है , और मन उस प्राण के अभाव को पूरा करने में भी समर्थ हो जाएगा । इस प्रकार प्राणायाम के अनेक अंग हैं । इनको धीरे धीरे , एक के बाद एक , सीखना होगा । अतएव यह स्पष्ट है कि विभिन्न रूपों में प्रकाशित प्राण का संयम सिखाना और उसको विभिन्न प्रकार से चलाना ही राजयोग का सम्पूर्ण क्षेत्र है ।
जब कोई अपनी समस्त शक्तियों का संयम करता है , तब वह अपनी देह के भीतर के प्राण का ही संयम करता है । जब कोई ध्यान करता है , तो भी समझना चाहिए कि वह प्राण का ही संयम कर रहा है । महासागर की ओर यदि देखो , तो प्रतीत होगा कि वहाँ पर्वतकाय बड़ी बड़ी तरंगें हैं , फिर छोटी छोटी तरंगें भी हैं , और छोटे छोटे बुलबुले भी । पर इन सब के पीछे वही अनन्त महासमुद्र है । एक ओर वह छोटा बुलबुला अनन्त समुद्र से युक्त है , फिर दूसरी ओर वह बड़ी तरंग भी उसी महासमुद्र से युक्त है । इसी प्रकार , संसार में कोई महापुरुष हो सकता है , और कोई छोटे बुलबुले जैसा सामान्य व्यक्ति , परन्तु सभी उसी अनन्त महाशक्ति के समुद्र से युक्त हैं, जो सभी जीवों का जन्मसिद्ध अधिकार है । जहाँ भी जीवनीशक्ति का प्रकाश देखो , वहाँ समझना कि उसके पीछे अनन्त शक्ति का भाण्डार है ।
एक छोटी सी फफूँदी ( fungus ) है ; वह , सम्भव है , इतनी छोटी , इतनी सूक्ष्म हो कि उसे अनुवीक्षण यन्त्र द्वारा देखना पड़े ; उससे आरम्भ करो । देखोगे कि वह अनन्त शक्ति के भाण्डार से क्रमशः शक्ति संग्रह करती हुई एक अन्य रूप धारण कर रही है । कालान्तर में वह उद्भिद के रूप में परिणत होती है , वही फिर एक पशु का आकार ग्रहण करती है , फिर मनुष्य का रूप लेती हुई वही अन्त में ईश्वररूप में परिणत हो जाती है । हाँ , इतना अवश्य है कि प्राकृतिक नियम से इस व्यापार के घटते घटते लाखों साल पार हो जाते हैं । परन्तु यह समय है क्या ? वेग - साधना का वेग बढा देकर समय काफी घटाया जा सकता है ।
योगियों का कहना है कि साधारण प्रयत्न से जिस काम को अधिक समय लगता है , वही , वेग बढ़ा देने पर , बहुत थोड़े समय में सध सकता है । हो सकता है कोई मनुष्य इस संसार की अनन्त शक्तिराशि में से बहुत थोड़ी थोड़ी शक्ति लेकर चले । इस प्रकार चलने पर उसे देवजन्म प्राप्त करते , सम्भव है , एक लाख वर्ष लग जाएँ , फिर और भी ऊँची अवस्था प्राप्त करते शायद पाँच लाख वर्ष लगें । फिर पूर्ण सिद्ध होते और भी पाँच लाख वर्ष लगें । पर उन्नति का वेग बढ़ा देने पर यह समय कम हो जाता है । पर्याप्त प्रयत्न करने पर छह वर्ष या छह महीने में ही यह सिद्धिलाभ क्यों न हो सकेगा ?
युक्ति तो बताती है कि इसमें कोई निर्दिष्ट सीमाबद्ध समय नहीं है । सोचो , कोई वाष्पीय यन्त्र , निर्दिष्ट मात्रा में कोयला देने पर , प्रति घण्टा दो मील चल सकता है , तो अधिक कोयला देने पर वह और भी शीघ्र चलेगा । इसी प्रकार , यदि हम भी तीव्र वेगसम्पन्न हों , तो इसी जन्म में मुक्तिलाभ क्यों न कर सकेंगे ? हाँ , हम यह जानते अवश्य हैं कि अन्त में सभी मुक्ति पाएँगे । पर इस प्रकार युग युग तक हम प्रतीक्षा क्यों करें ? इसी क्षण , इस शरीर में ही , इस मनुष्यदेह में ही हम मुक्तिलाभ करने में समर्थ क्यों न होंगे ? हम इसी समय वह अनन्त ज्ञान , वह अनन्त शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे ?
आत्मा की उन्नति का वेग बंढ़ाकर किस प्रकार थोड़े समय में मुक्ति पायी जा सकती है , यही सारे योगशास्त्र का लक्ष्य और उद्देश्य है । जब तक सारे मनुष्य मुक्त नहीं हो जाते , तब तक प्रतीक्षा करते हुए थोड़ा थोड़ा करके अग्रसर न होकर , प्रकृति के अनन्त शक्तिभाण्डार में से शक्ति ग्रहण करने की शक्ति बढ़ाकर किस प्रकार शीघ्र मुक्तिलाभ किया जा सकता है , योगियों ने इसका उपाय खोज निकाला है । संसार के सभी पैगम्बर , साधु और सिद्ध पुरुषों ने क्या किया है ? उन्होंने एक ही जन्म में मानवजाति का सम्पूर्ण जीवन बिताया और उन सब अवस्थाओं को पार कर लिया है , जिनमें से होते हुए साधारण मानव करोड़ों जन्मों में मुक्त होता है ।
एक जन्म में ही वे अपनी मुक्ति का मार्ग तय कर लेते हैं । वे दूसरी कोई चिन्ता नहीं करते , दूसरी बात के लिए एक क्षण भी समय नहीं देते । उनका पल भर भी व्यर्थ नहीं जाता । इस प्रकार उनकी मुक्तिप्राप्ति का समय घट जाता है । एकाग्रता का अर्थ ही है , शक्तिसंचय की क्षमता को बढ़ाकर समय को घटा लेना । राजयोग इसी एकाग्रता की शक्ति को प्राप्त करने का विज्ञान है ।
इस प्राणायाम के साथ प्रेतात्म-वाद ( spiritism) का क्या सम्बन्ध है ? प्रेतात्मवाद भी प्राणायाम की ही एक अभिव्यक्ति है । यदि यह सत्य हो कि प्रेतात्मा का अस्तित्व है और उसे हम देख भर नहीं पाते , तो यह भी बहुत सम्भव है कि यहीं पर शायद लाखों आत्माएं हैं , जिन्हें हम न देख पाते हैं , न अनुभव कर पाते हैं , न छू पाते हैं । सम्भव है , हम सदा उनके शरीर के भीतर से आ - जा रहे हों । और यह भी बहुत सम्भव है कि वे भी हमें देखने या किसी प्रकार से अनुभव करने में असमर्थ हों ।
यह मानो एक वृत्त के भीतर एक और वृत्त है , एक जगत के भीतर एक और जगत् । हम पंचेन्द्रियविशिष्ट प्राणी हैं । हमारे प्राण का कम्पन एक विशेष प्रकार का है । जिनके प्राण का कम्पन हमारी तरह का है , उन्हीं को हम देख सकेंगे । परन्तु यदि कोई ऐसा प्राणी हो , जिसका प्राण अपेक्षाकृत उच्चकम्पनशील है , तो उसे हम नहीं देख पाएँगे । प्रकाश के कम्पन की तीव्रता अत्यन्त अधिक बढ़ जाने पर हम उसे नहीं देख पाते , किन्तु बहुत से प्राणियों की आँखें ऐसी शक्तियुक्त हैं कि वे उस तरह का प्रकाश देख सकती हैं । इनके विपरीत , यदि आलोक के परमाणुओं का कम्पन अत्यन्त मृदु या हल्का हो , तो भी उसे हम नहीं देख पाते , परन्तु उल्लू और बिल्ली आदि प्राणी उसे देख लेते हैं ।
हमारी दृष्टि इस प्राणकम्पन के एक विशेष प्रकार को ही देखने में समर्थ है । इसी प्रकार वायुराशि की बात लो । वायु मानो स्तर पर स्तर रची हुई है । पृथ्वी का निकटवर्ती वायु -स्तर अपने से ऊँचेवाले स्तर से अधिक घना है , और इस तरह हम जितने ऊँचे उठते जाएँगे , हमें यही दिखेगा कि वायु क्रमशः सूक्ष्म होती जा रही है । इसी प्रकार समुद्र की बात लो ; समुद्र के जितने ही गहरे प्रदेश में जाओगे , पानी का दबाव उतना ही बढ़ेगा । जो प्राणी समुद्र के नीचे रहते हैं , वे कभी ऊपर नहीं आ सकते , क्योंकि यदि वे आएँ , तो उसी समय उनका शरीर टुकड़े टुकड़े हो जाए।"
सम्पूर्ण जगत् को ईथर ( आकाशतत्त्व ) के एक समुद्र के रूप में सोचो । प्राण की शक्ति से आकाश मानो स्पन्दित हो रहा है और विभिन्न मात्रा में स्पन्दनशील स्तरों में बँटा हुआ है । तो देखोगे , जिस केन्द्र से स्पन्दन शुरू हुआ है , उससे तुम जितनी दूर जाओगे उतना ही यह स्पन्दन मृदु रूप से अनुभूत होगा ; केन्द्र के पास स्पन्दन बहुत द्रुत होता है । और भी सोचो , भिन्न भिन्न प्रकार के स्पन्दनों के अलग अलग स्तर हैं । यह सम्पूर्ण स्पन्दनक्षेत्र मानो विभिन्न स्पन्दनस्तरों में विभक्त है कई लाख मील तक एक प्रकार का स्पन्दन ; फिर कई लाख मील तक एक उच्चतर किन्तु दूसरे प्रकार का स्पन्दन , आदि आदि ।
अतः यह सम्भव है कि जो प्राण की एक विशेष अवस्था के स्तर पर वास करते हैं , वे एक दूसरे को पहचान सकेंगे , परन्तु अपने से नीचे या ऊँचे स्तरवाले जीवों को न पहचान सकेंगे । फिर भी , जैसे हम अनुवीक्षण यन्त्र और दूरबीन की सहायता से अपनी दृष्टि का क्षेत्र बढ़ा सकते हैं , उसी प्रकार योग के द्वारा मन को विभिन्न प्रकार के स्पन्दनों से युक्त करके हम दूसरे स्तर का समाचार अर्थात् वहाँ क्या हो रहा है , यह जान सकते हैं । समझो , इसी कमरे में ऐसे बहुत से प्राणी हैं , जिन्हें हम नहीं देख पाते । वे सब प्राण के एक प्रकार के स्पन्दन के फल हैं , और हम एक दूसरे प्रकार के मान लो कि वे प्राण के अधिक स्पन्दन से युक्त हैं और हम उनकी तुलना में कम स्पन्दन से । हम भी प्राणरूप मूल वस्तु से गढ़े हुए हैं , और वे भी वही हैं ।
सभी एक ही समुद्र के भिन्न भिन्न अंश मात्र हैं । विभिन्नता है केवल स्पन्दन की मात्रा में । यदि मन को मैं अधिक स्पन्दनविशिष्ट कर सका , तो मैं फिर इस स्तर पर न रहूँगा , मैं फिर तुम लोगों को न देख पाऊँगा । तुम मेरी दृष्टि से अन्तर्हित हो जाओगे और वे मेरी आँखों के सामने आ जाएँगे । तुममें से शायद बहुतों को मालूम है कि यह व्यापार सत्य है ।
🔆🙏तस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति।🔆🙏
[अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण को जानने से सब कुछ जाना जा सकता है ।]
मन को इस प्रकार स्पन्दन की उच्चतर भूमि में लाना ही योगशास्त्र में एकमात्र ' समाधि ' शब्द द्वारा अभिहित किया गया है । उच्चतर स्पन्दन की ये सब भूमियाँ , मन के सब अतिचेतन सपन्दन इस एक शब्द - समाधि- में वर्गीकृत हैं । समाधि की निम्नतर भूमियों में इन अदृश्य प्राणियों को प्रत्यक्ष किया जाता है । और समाधि की सर्वोच्च अवस्था तो वह है , जब हमें सत्यस्वरूप ब्रह्म के दर्शन होते हैं । तब हम उस उपादान को जान लेते हैं , जिससे इन सब बहुविध जीवों की उत्पत्ति हुई है , जैसे एक मृत्पिण्ड को जान लेने पर समस्त मृत्पिण्ड ज्ञात हो जाते हैं । अतः हम देखते हैं कि प्रेतात्मवाद (spiritism) में जो कुछ सत्य है , वह भी प्राणायाम में समाविष्ट है ।
इसी प्रकार , जब कभी तुम देखो कि कोई दल या सम्प्रदाय किसी रहस्यात्मक या गुप्त तत्त्व के आविष्कार की चेष्टा कर रहा है , तो समझना , वह यथार्थतः किसी परिमाण में इस राजयोग की ही साधना कर रहा है , प्राणसंयम की ही चेष्टा कर रहा है । जहाँ कहीं किसी प्रकार की असाधारण शक्ति का विकास हुआ है , वहाँ प्राण की ही शक्ति का विकास समझना चाहिए । यहाँ तक कि भौतिक विज्ञान भी प्राणायाम के अन्तर्गत किये जा सकते हैं । वाष्पीय यन्त्र को कौन संचालित करता है ? प्राण ही वाष्प के भीतर से उसको चलाता है । ये जो विद्युत् की अद्भुत क्रियाएँ दीख पड़ती हैं , ये सब प्राण को छोड़ भला और क्या हो सकती हैं ? भौतिक विज्ञान है क्या ? वह बाहरी उपायों द्वारा प्राणायाम का विज्ञान है ।
प्राण जब मानसिक शक्ति के रूप में प्रकाशित होता है , तब मानसिक उपायों द्वारा ही उसका संयम किया जा सकता है । जिस प्राणायाम में प्राण की स्थूल अभिव्यक्ति को बाह्य उपायों द्वारा जीतने की चेष्टा की जाती है , उसे भौतिक विज्ञान कहते हैं , और जिस प्राणायाम में प्राण की मानसिक अभिव्यक्तियों को मानसिक उपायों द्वारा संयत करने की चेष्टा की जाती है , उसी को राजयोग कहते हैं ।
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`मे प्राण मा विभेः '
(प्राण सूक्त : अथर्ववेद, काण्ड 2, सूक्त 15)
यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥1॥
(1) जिस प्रकार आकाश एवं पृथिवी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है, उसी प्रकार हे मेरे प्राण तुम भी भयमुक्त रहो ।
यथाहश्च रात्रीं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥2॥
(2) जिस प्रकार दिन एवं रात को भय नहीं होता और इनका नाश नहीं होता, उसी प्रकार हे मेरे प्राण तुम्हें भी भय नहीं होवे ।
यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥3॥
(3) जिस प्रकार सूर्य एवं चंद्र को भय नहीं सताता और इनका विनाश नहीं होता, उसी भांति हे मेरे प्राण तुम भी भय अनुभव न करो ।
यथा ब्रह्म च क्षत्रं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥4॥
(4) जैसे ब्रह्म एवं उसकी शक्ति को कोई भय नहीं होता और उनका विनाश नहीं होता, वैसे ही हे मेरे प्राण तुम भय से मुक्त रहो ।
यथा सत्यं चानृतं न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥5॥
(5) जैसे सत्य तथा असत्य किसी से भय नहीं खाते और इनका नाश नहीं होता, वैसे ही हे मेरे प्राण तुम्हें भी भय नहीं होना चाहिए ।
यथा भूतं च भव्यं च न बिभीतो न रिष्यतः ।
एवा मे प्राण मा विभेः ॥6॥
(6) जिस भांति भूतकाल तथा भविष्यत्काल को किसी का भय नहीं होता और जिनका विनाश नहीं होता, उसी भांति हे मेरे प्राण तुम भी भय से मुक्त रहो । (अथर्ववेद, काण्ड 2, सूक्त 15)
[ नासदीय सूक्त : - " नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं, ..... तम आसीतीत्तमसा गूढमग्रेsप्रकेतं।। ~ ऋग्वेद - १० - १२९ ) `तदानीम्' अर्थात तब प्रलयावस्था में ( असत् + न + आसीत् ) अभाव नहीं था ( नो + सत् + आसीत् ) भाव भी नहीं था अर्थात उस अवस्था में व्यक्ताव्यक्त कुछ भी प्रतीत नहीं होता था ,.. लेकिन ( अग्रे + तमः + आसीत् ) सृष्टि के पूर्व तमोवाच्य जगन्मूल कारण अवश्य था और ( तमसा) उसी तमोवाच्य मूल कारण से ( इदम् + सर्वम् ) यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत ( गूढ़म् ) आच्छादित था , अर्थात केवल कारण विद्यमान था, कार्य नहीं।]
नासदीय सूक्त :: इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। यह सृष्टि-उत्पत्ति सूक्त है , इसमें ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का वर्णन दिया गया है। नासदीय सूक्त ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 129 वां सूक्त है।
नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥
अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्/(तदानीम् ) तब प्रलयावस्थामें ( असत् + न + आसीत् ) अभाव नहीं था ( नो + सत् + आसीत्) भाव भी नहीं था, अर्थात उस अवस्था में व्यक्ताव्यक्त कुछ भी प्रतीत नहीं होता था।
रजः न आसीत्- अर्थात लोक-लोकान्तर भी न थे। " लोका रजान्स्युच्यन्ते " ( निरुक्त ४-१९ ) लोकों का नाम रज है।
व्योम नोयत् परः अवरीवः ( व्योम + नो ) आकाश भी नहीं था ( परः + यत् ) आकाश से भी पर यदि कुछ हो सकता है तो वह भी नहीं था।
कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम् ----(कुह) किस देश में ( कस्य + शर्मन् ) किस के कल्याण के लिये।
(किम + आवरीवः)--- कौन किस को आवरण करे। इस लिये आवरण भी नहीं था ( किम् ) क्या ( गहनम् ) ( गभीरम् ) गभीर ( अम्भः ) जल ( आसीत् ) था ? नहीं।
अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।
व्याख्या -- इस प्रथम ऋचा में ऋषि व्यक्त संसार के अस्तित्व का निषेध करते हैं। प्रलयावस्था में असत् या सत् कुछ प्रतीत नहीं होता था। कोई लोक वा यह दृश्यमान आकाश भी प्रतीत नहीं होते थे। अत्यन्त गभीर जलादिक भी नहीं था। जब कुछ नहीं था तो उसका आवरण भी नहीं था। यह प्रत्यक्ष है कि बीज की रक्षा के लिये आवरण हुआ करता है। इसी प्रकार गेहूँ , यव , चने आदि पदार्थों में आवरण होते हैं। जब आच्छाद्य नहीं था , तब आच्छादक का भी अभाव था।
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥
अन्वय- तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम् ( न + मृत्युः + आसीत् ) न मृत्यु थी ( न + तर्हि + अमृतम् ) न उस समय अमृत था। रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् / (न + रात्र्याः + अह्नः ) न रात्रि और दिन का ( प्रकेतः + आसीत् ) कोई चिह्न था। तब उस समय कुछ था , या नहीं ? ब्रह्म भी था,या नहीं ? इस पर कहते हैं कि- तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम्/ (अवातम्) वायुरहित (तत् + एकम् ) वह एक ब्रह्म (स्वधया) प्रकृति के साथ (आनीत्) चेतनस्वरूप विद्यमान था। तस्मात् ह अन्यत् किंचन न आस न परः / ( तस्मात् + ह् + अन्यत् ) पूर्वोक्त प्रकृति सहित ब्रह्म के अतिरिक्त (किञ्चन + न) कुछ भी नहीं था। अतः (परः) सृष्टि के पूर्व कुछ भी नहीं था | यह सिद्ध होता है।
‘अर्थ – उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।
व्याख्या -- आनीत् --- प्राणनार्थक 'अन' धातु का 'आनीत्' यह रूप है (अवातम् ) वायुरहित | बिना वायु का वह एक ब्रह्म विद्यमान था। केवल वह एक ही नहीं था , किन्तु स्वधा भी उसके साथ थी। सायण स्वधा शब्द का अर्थ माया करते हैं। क्योंकि स्व = निज सत्ता, अर्थात जो निज सत्ता को धा = धारण किये हुये विद्यमान हो , उसे स्वधा कहते हैं। "स्वं दधातीति स्वधा" जो अपने को धारण करती है , उसे स्वधा कहते हैं। जैसे परमात्मा की सत्ता बनी रहती है , तद्वत् =उसी प्रकार जड़ जगत् के मूल कारण की भी सत्ता सदा बनी रहती है। इसलिए उसको स्वधा कहते हैं।
तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥३॥
अन्वय -अग्रे तमसा गूढम् तमः आसीत्, अप्रकेतम् इदम् सर्वम् सलिलम्, (अग्रे + तमः + आसीत्) सृष्टि के पूर्व तमोवाच्य जगन्मूल कारण प्रधान था और (तमसा ) उसी तमोवाच्य प्रधान से (इदम् + सर्वम्) यह वर्तमानकालिक दृश्यमान जगत (गूढ़म् ) आच्छादित था ,अतएव वह (अप्रकेतम्) अप्रज्ञात था। पुनः ( सलिलम् + आः ) दुग्धमिश्रित जल के समान कार्य-कारण में भेदशून्य यह सब था। आः यत्आभु तुच्छेन अपिहितम आसीत् तत् एकम् तपस महिना अजायत।
पुनः ( आभु ) सर्वत्र व्यापक ( यत् ) जो जगन्मूल कारण प्रधान था , वह भी ( तुच्छ्येन ) तुच्छता के साथ अर्थात अव्यक्तावस्था के साथ (अपिहितम् + आसीत् ) आच्छादित था। (तत्) वही प्रधान (एकम्) एक होकर (तपसः + महिमा ) परमात्मा के तप के महिमा से (अजायत ) व्यक्तावस्था को प्राप्त हुआ।
अर्थ –सृष्टि के उत्पन्न होने से पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था,अज्ञात यह सम्पूर्ण जगत् सलिल=जल रूप में था। अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे यह जगत् है वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।
व्याख्या -- प्रथम ऋचा में 'सत्' और 'असत्' इन दोनों का विवरण इसलिए किया कि यह दोनों, 'मिथ्या' के बिना नहीं ज्ञात होते थे। पुनः द्वितीय ऋचा में अमृत इत्यादिकों का अभाव कथन कर उस अवस्था में भी एक परमात्मा की स्वधा के साथ विद्यमानता बतलायी गई अर्थात जगन्मूल कारण जड़ प्रकृति अव्यक्तावस्था में होने से नहीं के बराबर थी , किन्तु उसके साथ सब में चैतन्य देने वाला एक परमात्मा विद्यमान था। इत्यादि वर्णन पूर्वोक्त दोनों ऋचाओं में किया गया। अब लोगों को यह सन्देह हो कि क्या जड़ जगत का मूल कारण सर्वथैव शशविषाणदिवत् (खरहे का सींग या बाँझ का बेटा के सामान अविद्यमान था ? फिर क्या परमात्मा ने स्वयं इस जगत को अपने ही सामर्थ्य से बना लिया ? इत्यादि आशंकाओं को दूर करने के लिए आगे कहा है कि 'तम आसीत्' इत्यादि जगन्मूल कारण अवश्य था। और उसी मूल कारण से वर्तमानकालिक यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् आच्छादित था। अर्थात केवल कारण विद्यमान था , कार्य नहीं। वह कारण भी 'तुच्छयेन' अव्यक्तावस्था से ढका हुआ था , तब परमात्मा की कृपा से एक होकर इस वर्तमानकालिक रूप में परिणत हुआ। सत्त्व , रज , तम इनकी साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। उस प्रकृति के प्रधान, अव्यक्त, और अदृश्य आदिक अनेक नाम हैं। यहाँ वेद में उसी को 'तमः' शब्द से कहा है। वेदान्त में इसी का नाम अज्ञान है क्योंकि वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा को भी ढक लेता है। इस विषय का संग्रह मनु जी ने इस प्रकार किया है कि --
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्।
अप्रतर्क्यमनिर्देश्यम् प्रसुप्तमिव सर्वतः।। ( मनु - १-५ )
यह वर्तमानकालीन जगत् प्रलयावस्था में तमोमय , अप्रज्ञात , अलक्षण , अप्रतर्क्य , अनिर्देश्य और मानो सर्वत्र प्रसुप्त था। जब जीवों के कर्म फलोन्मुख होते हैं , तब परमेश्वर की सृष्टि करने की इच्छा होती है। यह ईश्वरीय सिसृक्षा ( सृष्टि करने की इच्छा) ही तप कहलाती है और उसी तप की महिमा से वह कारण रूप जड़ प्रधान मानो एक रूप होकर परिणत होने लगता है , तब उससे क्रमपूर्वक महदादि सृष्टि होती है।
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥
अन्वय - अग्रे तत् कामः समवर्तत - यत्मनसः अधिप्रथमं रेतःआसीत्,(तदग्रे) उस सृष्टि के पूर्व (कामः + समवर्त्तत) ईश्वरीय कामना थी (यत्) जो (मनसः + अधि) अन्तःकरण का (प्रथमम् + रेतः) प्रथम बीजस्वरूप (आसीत्) था। सतः बन्धुं कवयःमनीषाहृदि प्रतीष्या असति निरविन्दन/ (कवयः) बुद्धिमान ऋषि प्रभृति (मनीषा) अपनी सात्विक बुद्धि से (असति) विनश्वर (हृदि + प्रतीष्य ) हृदय में विचार ( सतः + बन्धुम् ) अविनश्वर सद्वाच्य प्रकृति के बाँधने वाले परमात्मा को ( निरविन्दन् ) पाते हैं |
अर्थ – सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम=अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी, जो परमेश्वर के मन मे सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को क्रान्तदर्शी ऋषियो ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव मे खोज डाला।
व्याख्या -- जो लोग ईश्वर को कामनारहित कहते हैं , वे वास्तव में तात्पर्य को नहीं समझते। क्योंकि 'सोsकामयत' ( तै . उप . २-६ ) = उसने कामना की , 'तदैक्षत' ( छा . उप . ६-२-१ ) = उसने ईक्षण किया इत्यादि श्रुतिवाक्यों से ब्रह्म में काम का सद्भाव प्रसिद्ध है। यदि काम न होता तो यह सृष्टि भी नहीं होती। इस हेतु जीवों के स्व-स्व कर्मानुसार फल भोगने के लिए सृष्टि करने की ईश्वर की कामना अवश्य थी। और यही कामना मानो , जगद्रचना का बीजभूत थी। उस कर्त्ता-धर्त्ता परमात्मा को कविगण अपनी बुद्धि से इसी विनश्वर हृदय में प्राप्त करते हैं। उसके अन्वेषण के लिए बाह्य जगत् में इतस्ततः दौड़ना नहीं पड़ता। सतो बन्धुम् = सत् नाम जड़ जगत् के कारण प्रकृति का है | उस कारण को परमेश्वर अपने वश में रखता है। इस हेतु वह बन्धु कहलाता है। बन्धु नाम बाँधने वाला है।
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥
अन्वय-एषाम् रश्मिःविततः तिरश्चीन अधःस्वित् आसीत्, उपरिस्वित् आसीत्रेतोधाः आसन् महिमानःआसन् स्वधाअवस्तात प्रयति पुरस्तात्।
[(एषाम्) इन सृष्ट पदार्थों के (रश्मिः) सूर्यकिरण के समान विस्तार (स्वित्) क्या ( तिरश्चीनः) तिर्यग्भाव टेढ़ा (विततः) फैला हुआ था।(स्वित् ) अथवा क्या ( अधः + आसीत् ) नीचे था अथवा ( उपरि + आसीत् ) ऊपर था , यह कुछ कहा ही नहीं जा सकता। यह सृष्ट जगत् ऊपर अथवा नीचे अथवा सीधा या टेढ़ा है , इसका निश्चय नहीं हो सकता , किन्तु ( रेतोधाः + आसन् ) जीव थे ( महिमानः + आसन् ) और उस ब्रह्म के प्रकृति के और जीवों के महत्त्व थे। ( स्वधा + अवस्तात् ) प्रकृति नीचे थी और ( प्रयतिः) ईश्वरीय प्रयत्न ( परस्तात् ) ऊपर था अर्थात उस प्रकृति के ऊपर काम करने वाला था।]
अर्थ-पूर्वोक्त मन्त्रों में नासदासीत् कामस्तदग्रे मनसारेतः में अविद्या, काम-संकल्प और सृष्टि बीज-कारण को सूर्य-किरणों के समान बहुत व्यापकता उनमें विद्यमान थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? क्या वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था? वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था इस प्रकार इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा=भोग्य पदार्थ निम्नस्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण होते हैं।
व्याख्या -- यह सृष्टि किस प्रकार स्थापित है और कहाँ तक है , इसका आदि-अन्त कहीं है अथवा नहीं , इत्यादि ज्ञान कठिन है किन्तु रेतोधा = जीवात्मा इत्यादिक हैं , थे, और रहेंगे , यह विस्पष्ट प्रतीत होता है। रेतोधा = यह जीवात्मा वाचक शब्द है। जीवात्मा का परम्परा , वंश चलाने के लिए आवश्यक है कि उसमे बीजस्वरूप वीर्य हो। अतएव 'रेतो वीर्यं दधातीति रेतोधा' अर्थात [जो] वीर्य को धारण करे उसे रेतोधा कहते हैं।
जीवात्मा का लक्षण :: अनेक लक्षणों में से जीवात्मा का एक लक्षण यह है कि जो अपने समान बीज को छोड़ जाए , उसको जीवात्मा कहते हैं। प्रत्येक जीव की यह स्वभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपने समान बीज छोड़ को छोड़ जाता है। उद्भिज्ज सृष्टि में इसकी तो बहुत ही अधिकता है किन्तु अण्डज , जरायुज और ऊष्मज जीवों में भी इसकी न्यूनता नहीं। प्रत्येक प्राणी अपने समान कम से कम एकाध अपत्य उत्पादन के लिए सचेष्ट रहता है और प्रायः सन्तान छोड़ भी जाता है। अत एव इस सृष्टि के प्रवाह का उच्छेद नहीं होता सायण भी रेतोधा शब्द का अर्थ जीवात्मा करते हैं। उनका शब्द इस प्रकार है -- "रेतसो बीजभूतस्य कर्मणो विधातारः कर्त्तारो भोक्तारश्च जीवः" -- सायण रेत शब्द का अर्थ 'बीजभूत कर्म' करते हैं। किन्तु रेत शब्द का अर्थ वीर्य भी प्रसिद्ध है। जैसे योगिगण ऊर्ध्वरेता कहलाते हैं। 'स्वधावस्तात्' = स्वधा नाम प्रकृति का है और वह अचेतन है , अत एव जीवात्मा और ईश्वर के नीचे उसे स्वभावतया ही रहना पड़ता है। इस हेतु स्वधा के नीचे रहने का वर्णन यहाँ आया है। और 'प्रयतिः परस्तात्' = प्रयति नाम प्रयत्न का है। प्रयत्न प्रकृति के ऊपर है अर्थात उसका शासक है , यह प्रत्यक्ष है।
इस जगत के उपादान और निमित्त कारण को ( कः + वेद ) कौन जानता है ?
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥
अन्वय-कः अद्धा वेद कः इह प्रवोचत् इयं विसृष्टिः कुतः कुतः आजाता, देवा अस्य विसर्जन अर्वाक् अथ कः वेद यतः आ बभूव।
( इयम् + विसृष्टिः ) यह विविध सृष्टियाँ ( कुतः + आजाता ) किस उपादान कारण से अच्छे प्रकार से उत्पन्न हुईं ? ( कुतः ) और किस निमित्त कारण से हुईं ? ( कः ) कौन विद्वान ( अद्धा ) परमार्थ रूप से ( वेद ) इन विविध सृष्टियों को जानते हैं ? ( कः ) कौन तत्त्ववित् ( इह ) इस लोक में ( प्रवोचत् ) इनकी व्याख्या हम लोगों को सुनावें ? यदि साधारण पृथिवीस्थ विद्वान इस सृष्टि की व्याख्या न कर सकें तो कदाचित सूर्यादि देव इसके तत्त्व को जानते हों तो उनसे पूछ कर निश्चय किया जाए। और इस सन्देह को मिटाने के लिए देवों की भी अज्ञता आगे कहते हैं। ( अस्य ) इस जगत के (विसर्जनेन) त्याग से अर्थात उसके ( अर्वाक् ) पश्चात ( देवाः ) देवगण उत्पन्न हुये अर्थात प्रकृति अथवा परमाणु नित्य हैं और इनके संघात से जब कार्य जगत पृथिव्यादिक बन चुके , तब अन्यान्य देवों की सृष्टि हुई। इस हेतु वे भी इसके तत्त्व को जानने में सर्वथा असमर्थ हैं। ( अथ ) तब ( कः + वेद ) कौन जानता है ( यतः + आबभूव ) जिस निमित्तोपकारण से ये सृष्टियाँ हुई।
अर्थ – कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥७॥
अन्वय- इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद।
( यतः ) जिस निमित्तकारणीभूत परमात्मा से ( इयम् + विसृष्टिः ) ये विविध सृष्टियाँ ( आबभूव ) हुआ करती हैं , वही ( यदि + वा + दधे ) यदि इसको धारण करता है तो वही धारक है। ( यदि + वा + न ) यदि वह इसका धारण नहीं करता है तो अन्य कोई इसका अध्यक्ष है। ( सः ) वह ( परमे + व्योमन् ) परम उत्कृष्ट निज महिमा में विद्यमान है ( अंग ) हे मनुष्यों ! ( वेद ) वही जानता है ( यदि + वा + न + वेद ) यदि वह नहीं जानता तो दूसरा इसको कोई नहीं जानता। इससे संसार की दुर्विज्ञेयता और दुर्द्धस्त्व इत्यादि सिद्ध किया गया है।
अर्थ – यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं ! वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।
[नासदीय सूक्त की यह व्याख्या व् पदार्थ पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ जी की पुस्तक - "त्रैतसिद्धान्तादर्श" - से है। पण्डित जी ने छठे व् सातवें मन्त्र की व्याख्या नहीं दी , केवल पदार्थ ही दिया है। त्रैतसिद्धान्त पर अधिक जानकारी के लिए जिज्ञासुजन सम्पूर्ण पुस्तक पढ़ें। ]
निर्वाण षट्कम
मनोबुद्धयहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे।
न च व्योम भूमिर्न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥1॥
---मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं,मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं, मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं, मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोश:|
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥2॥
मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं,मैं न सात धातु हूं,और न ही पांच कोश हूं, मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्सर्जन की इन्द्रियां हूं, मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव: |
न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥3॥
न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह, न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या। मैं धर्म, धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं, मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदार् न यज्ञा:|
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप:शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥4॥
मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं, मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ हूँ।
न मैं भोजन(भोगने की वस्तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूं , मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
न मे मृत्यु शंका न मे जातिभेद:पिता नैव मे नैव माता न जन्म:|
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥5॥
न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव, मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था। मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य, मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥6॥
मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं, मैं चैतन्य के रूप में सब जगह व्याप्त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं,न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं,मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।
महत्त-तत्व Mahatt-Tatv :: प्रकृति का पहला विकार (defect) या कार्य (function), पहले-पहल जब तक जगत सुषुप्तावस्था से उठा, या जागा था, तब सबसे पहले इसी महत्तत्त्व का आविर्भाव हुआ था, इसी को दार्शनिक परिभाषा में बुद्धि-तत्त्व भी कहते हैं, सात तत्वों में से सबसे अधिक सूक्ष्म तत्त्व है, यह जीवात्मा।
1-माण्डुक्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद तथा शिव स्वरोदय ग्रन्थ मानते हैं कि पंचतत्वों का विकास मन (महत-तत्व) से, मन का प्राण से और प्राण का समाधि (पराचेतना) से हुआ है। योगी आपके छोड़े हुए सांस (प्रश्वास) की लंबाई के देख कर तत्व की प्रधानता पता लगाने की बात कहते हैं। इस तत्व से आप अपने मनोकायिक (मन और तन) अवस्था का पता लगा सकते हैं। शिव स्वरोदय ग्रंथ में भगवान शिव ने कहा- ''इस संसार में प्राण ही सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा सखा है। इस जगत में प्राण से बढ़कर कोई बन्धु नहीं है। इस शरीर रूपी नगर में प्राण-वायु एक सैनिक की तरह इसकी रक्षा करता है।
यही प्राण मन व इंद्रियों को गति देने का कार्य करता है। ये प्राण बड़ा शक्तिशाली है, जब तक ये शरीर के साथ होता है, जीवन रहता है, लेकिन जैसे ही ये अपनी शक्तियों को शरीर से समेटकर शरीर का साथ छोड़ देता है, उस अवस्था को मृत्यु कहा जाता है। प्राण जन्म देने में भी उतना ही सहायक है, जितना मृत्यु में। इसकी शक्ति को देखते हुए कई बार इस प्राण को ही आत्मा समझ लिया जाता है, जबकि ये तो आत्मा का एक कोष (आवरण) है। उपनिषदों में प्राण को आत्मा की छाया कहा है।
श्वास के रूप में शरीर में प्रवेश करते समय श्वांस की लम्बाई दस अंगुल और बाहर निकलने के समय बारह अंगुल होता है। चलते-फिरते समय प्राण वायु (साँस) की लम्बाई चौबीस अंगुल, दौड़ते समय बयालीस अंगुल, मैथुन करते समय पैंसठ और सोते समय (नींद में) सौ अंगुल होती है। साँस की स्वाभाविक लम्बाई बारह अंगुल होती है, पर भोजन और वमन करते समय इसकी लम्बाई अठारह अंगुल हो जाती है।
भगवान शिव बताते हैं कि ''यदि प्राण की लम्बाई कम की जाय तो अलौकिक सिद्धियाँ मिलती हैं।यदि प्राण-वायु की लम्बाई एक अंगुल कम कर दी जाय, तो व्यक्ति निष्काम हो जाता है, दो अंगुल कम होने से आनन्द की प्राप्ति होती है और तीन अंगुल होने से कवित्व या लेखन शक्ति मिलती है। साँस की लम्बाई चार अंगुल कम होने से वाक्-सिद्धि, पाँच अंगुल कम होने से दूर-दृष्टि, छः अंगुल कम होने से आकाश में उड़ने की शक्ति और सात अंगुल कम होने से प्रचंड वेग से चलने की गति प्राप्त होती हैं। यदि श्वास की लम्बाई आठ अंगुल कम हो जाय, तो साधक को अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति होती है, नौ अंगुल कम होने पर नौ निधियाँ प्राप्त होती हैं ..... जिसकी जरूरत किसी सच्चे भक्त को नहीं हैं ! ''
श्वास की लम्बाई बारह अंगुल कम होने पर साधक अमरत्व प्राप्त कर लेता है, अर्थात् साधना के दौरान ऐसी स्थिति आती है कि श्वास की गति रुक जाने के बाद भी ; `तदानीम्' अर्थात प्रलय के समय भी) वह जीवित रह सकता है।
सृष्टि का प्रारंभिक विकास क्रम यह है कि , ईश्वर जगत् का साक्षी है जिसके सन्निधान मात्र से प्रकृति संसार की रचना में प्रवृत्त होती है। प्रकृति का पुरुष से सम्पर्क होता है तो उससे सवर्प्रथम महत्तत्त्व या महान् की उत्पत्ति होती है- महत् से अहंकार। प्रकृति से महत्, महत् से अहंकार, अहंकार से मन और इंद्रियां तथा पांच तन्मात्रा और पंच महाभूतों का जन्म हुआ। वैशेषिक दर्शन के अनुसार प्रलय की स्थिति में जब परमात्मा को सृष्टि निर्माण की इच्छा हुई, तब आकाश महाभूत के दो परमाणुओं में परस्पर आकषर्ण के द्वारा संयोग होने लगा । पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं। जब हम पृथ्वी कहते हैं तो सिर्फ हमारी पृथ्वी नहीं है। प्रकृति के इन्हीं रूपों में सत्व, रज और तम गुणों की साम्यता रहती है। प्रकृति के प्रत्येक कण में उक्त तीनों गुण होते हैं। यह साम्यवस्था भंग होती है तो महत् बनता है। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति कहते हैं।
योग चित्त वृत्ति निरोधः (1.2) -योग का अर्थ है - समाधि (अर्थात पूर्ण एकाग्रता)।
परमात्मा के 2 रूप हैं :- व्यक्त और अव्यक्त, साकार और निराकार। योगी, साधकों, तपस्वियों की दो गतियां :- कृष्ण मार्गी साधक सुख-भोग, उच्च लोकों में जाने की इच्छा रखते हैं, किन्तु शुक्ल मार्गी परमात्मा-ब्रह्म में लीन होना चाहते हैं। इन दोनों को जानकर जो व्यक्ति कृष्ण मार्ग का त्यागकर देता है और निष्काम हो कर समता हासिल कर लेता है और दृढ़प्रतिज्ञ हो जाता है कि उसे तो केवल परमात्म तत्व की उपलब्धि ही करनी है, वो मोहित-पथभ्रष्ट नहीं होता और अन्ततोगत्वा परमात्मा को प्राप्त कर ही लेता है।
तीन शक्ति :: (1). इच्छा शक्ति, (2). ज्ञान शक्ति और (3). क्रिया शक्ति।
प्राणायाम क्रियाएँ :: प्राणायाम दौरान श्वास-निश्वास सम्बन्धी तीन क्रियाएं :- (1). पूरक, (2). कुम्भक और (3). रेचक। उक्त तीन तरह की क्रियाओं को ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अन्दर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।
चार गुरु :: माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।चार प्राणी :: जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।चार अप्सरा :: उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा। चार पुरुषार्थ :: धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। चार युग :: सत युग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलियुग। अंतःकरण के चार अंग :: मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार।
SIGNIFICANCE OF 5 का महत्त्व ::
पञ्च प्राण (प्राणवायु, प्राणायाम) :: प्राणी के शरीर के भीतर पाँच प्रकार की वायु पाई जाती है। ये पाँचों ही पवन देव के पुत्र हैं और प्राणी में प्रकृति के अंश में उपस्थित रहते हैं।
प्राण वायु :: वह वायु जो मनुष्य, प्राणी, जीव के शरीर को जीवित रखती है। शरीरांतर्गत प्राण वायु की उपस्थिति तक ही जीवात्मा इसमें निवास करता है। इस वायु का मुख्य स्थान हृदय में है।इस वायु के आवागमन को अच्छी तरह, भली-भाँति समझकर जो इसे साध लेता है वह लंबे काल तक जीवित रहने का रहस्य जान लेता है। वायु शरीर के अन्तर्गत खाद्य पदार्थों-भोजन को पोषक या हानिकारक पदार्थों में तब्दील करने-बदलने की क्षमता रखती है। मल का निर्माण और निष्कासन भी इसी के माध्यम से होता है।
आयाम :: प्रथम नियंत्रण या रोकना, द्वितीय विस्तार और दिशा। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो गहरी श्वास लेता है और जब मरता है तो पूर्णत: श्वास छोड़ देता है। प्राण जिस आयाम से आते हैं, उसी आयाम में चले जाते हैं। मनुष्य जब श्वास लेता है तो भीतर जा रही हवा या वायु पाँच भागों में विभक्त हो जाती है अर्थात शरीर के भीतर पाँच जगह स्थिर और स्थित हो जाता हैं। लेकिन वह स्थिर और स्थितर रहकर भी गतिशील रहती है।
पंचक :: (1) व्यान, (2) समान, (3) अपान, (4) उदान और (5) प्राण। वायु के इस पाँच तरह से रूप बदलने के कारण ही व्यक्ति चैतन्य रहता है, स्मृतियांँ सुरक्षित रहती हैं, पाचन क्रिया सही चलती रहती है और हृदय में रक्त प्रवाह-स्पंदन होता रहता है। मन के विचार बदलने या स्थिर रहने में भी इसका योगदान रहता है। इस प्रणाली में किसी भी प्रकार का अवरोध पूरे शरीर, तंत्रिका-तंत्र को प्रभावित करता है। शरीर, मन तथा चेतना बीमारी, व्याधि, रोग और शोक से ग्रस्त हो जाते हैं। नियमित प्राणायाम मन-मस्तिष्क, चरबी-माँस, आँत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायु तंत्र और खून आदि सभी को शुद्ध और पुष्ट, स्वस्थ रखता है।ये सभी प्राण शरीर के अलग-अलग भागों को नियंत्रित करते हैं।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ :: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। पाँच कर्म :: रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच प्रकार के क्लेश :: मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं।
SIGNIFICANCE OF 6 का महत्त्व :: शरीर 6 प्रकार के विकार :: उत्पन्न होना, बदलना, सत्तावान दिखना, बढ़ना, धटना और नष्ट होना। मन में नित्य रहने वाले छः शत्रु :- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य को जो वश में कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों से ही लिप्त नहीं होता, फिर उनसे उत्पन्न होने वाले अनर्थों की बात ही क्या है।
SIGNIFICANCE OF 7 का महत्त्व :: सप्त ऋषि :: (1). केतु, (2). पुलह, (3). पुलस्त्य, (4). अत्रि, (5). अंगिरा, (6). वशिष्ट और (7). मारीचि।
SIGNIFICANCE OF 8 :: ज्ञान प्राप्ति के 8 अन्तरङ्ग साधन ::
(1). विवेक :: सत्-असत्, उचित-अनुचित, हानि-लाभ, हित-अहित को सोच-समझकर निर्णय लेना।
(2). वैराग्य :: सत्-असत् को अलग-अलग जानकर उसका त्याग करके संसार से विमुख होना।
(3). शमादि षट्सम्पत्ति :: (3.1). मन को इन्द्रियों से हटाना शम है। (3.2). इन्द्रियों को विषयों से हटाना दम है। (3.3). ईश्वर, शास्त्र पर पूज्य भाव से पूर्वक प्रत्यक्ष से भी अधिक विश्वास करना श्रद्धा है। (3.4). वृतियों को संसार से हटाना उपरति है। (3.5). सर्दी-गर्मी आदि द्वंदों को सहना उनकी उपेक्षा करना तितिक्षा है। (3.6). अन्तःकरण में शंकाओं को न रखना समाधान है।
(4). मुमुक्षता :: संसार से छूटने की इच्छा मुमुक्षता है। मुमुक्षता जाग्रत होने के बाद साधक पदार्थों और कर्मों का स्वरूप से त्यागकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाकर उसके निवास पर शास्त्रों को सुनकर तात्पर्य का निर्णय करना और उसे धारण करना श्रवण है।
(5). श्रवण :: श्रवण से संशय दूर होता है।
(6). मनन :: इससे प्रमेयगत संशय दूर होता है।
(7). निदिध्यासन :: संसार की सत्ता को मानना और परमात्मा-तत्व को न मानना विपरीत भावना कहलाती है। विपरीत भावना को हटाना निदिध्यासन है।
(8). तत्व पदार्थ संशोधन :: प्राकृत पदार्थ-मात्र से सम्बन्ध-विच्छेद होना, केवल चिन्मय-तत्व का शेष रहना, तत्व पदार्थ संशोधन है और यही तत्व साक्षात्कार है।
इन सब साधनों का तातपर्य है असाधन अर्थात असत् से सम्बन्ध का त्याग। त्याज्य वस्तु अपने लिए नहीं होती परन्तु त्याग का परिणाम अपने लिए होता है।
SIGNIFICANCE OF 9 :: नव दुर्गा :: शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धि दात्री। 9 का अंक ब्रह्म का प्रतीक और अक्षय है। इसलिए सत्ययुग का प्रारंभ अक्षय नवमी से मान जाता है। आज भी कार्तिक शुक्ल नवमी को अक्षय नवमी कहते है। माला में मनकों की सँख्या 108 है।वेदों में माया का अंक 8 एवं ब्रह्म का अंक 9 माना गया है। माया में परिवर्तन होता है, ब्रह्म में नहीं। 9 X 1 = 9/9 X 2 = 18/9 X 3 = 27/ यहाँ 18 मे 1+8 के और 27 मे 2+7 के जोडने पर मूलांक 9 ही होता है। इस प्रकार 9 के अग्रिम पहाड़े में भी स्वयं जाना जा सकता है। माया का प्रतीक 8 का पहाड़ा ::8 X 1 = 8/8 X 2 = 16, (1+6=7)./ 8 X 3 = 24, (2+4=6)./8 X 4 = 32, (3+2=5)/8 X 5 = 40, (4+0=4)/8 X 6 = 48, (4+8=12; 1+2=3)/8 X 7 = 56, (5+6=11, 1+1=2)/8 X 8 = 64, (6+4=10, 1+0=1)/ यहाँ एक ब्रह्म ही अवशिष्ट हुआ। ब्रह्म के अंक 9 में तो विकार नहीं होता-इसलिए 8 X 9 = 72, (7+2=9) यह यहाँ प्रत्यक्ष है | नवग्रह :- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु और केतु।
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