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गुरुवार, 5 सितंबर 2024

स्वामी विवेकानंद और भारत का भविष्य

     पिता विश्वनाथ दत्त और माता भुवनेश्वरी देवी की छठवीं सन्तान के रूप में पौष संक्रांति 12 जनवरी 1863 को जन्म लेने वाला बालक नरेन्द्र ही आगे चलकर विश्वविख्यात विवेकानंद हुआ। इस बात को प्राय: सभी जानते हैं , परंतु उन्होंने श्रेष्ठ और महान भारत का भविष्य भी देखा था यह सभी नहीं जानते। 

उन्हाेंने अपने चिंतन प्रज्ञा में प्रश्न किया था- 'क्या भारत मर जाएगा? तब तो संसार से सारी आध्यात्मिकता का समूल नाश हो जाएगा, सारे सदाचारपूर्ण आदर्श जीवन का विनाश हो जाएगा, धर्मों के प्रति सारी मधुर सहानुभूति नष्ट हो जाएगी, सारी भावुकता का भी लोप हो जाएगा। और, उसके स्थान में कामरूपी देव और विलासितारूपी देवी राज करेगी। धन उनका पुरोहित होगा। प्रताड़ना, पाशविक बल और प्रतिद्वंद्विता, ये ही उनकी पूजा-पद्धति होगी और मानवता उनकी बलि सामग्री हो जाएगी।' ऐसी दुर्घटना कभी हो नहीं सकती। " (विवेकानंद साहित्य भाग 9, मद्रास अभिनंदन का उत्तर -पृष्ठ 377)। 

     स्वामी विवेकानंद के इस विचार-सूत्र से समझ में आता है कि समग्र मानवता के लिए भारतीय संस्कृति में व्याप्त गुरु-शिष्य परम्परा [श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में 'Be and Make ' का]  जीवित-जागृत रहना कितना जरूरी है। इसी के बल पर हजारों वर्षों से भारतीय संस्कृति - 'सम्पूर्ण अस्तित्व का एकत्व' (Oneness of whole existence) तथा मनुष्यमात्र में अन्तर्निहित दिव्यता (Inherent divinity) विश्वास करती आ रही है। भारत यदि मर जायेगा -तो सम्पूर्ण विश्व स 'सदाचारपूर्ण आदर्श', 'मधुर सहानुभूति', 'सारी भावुकता' 'साम्प्रदायिक सहानुभूति' का लोप हो जायेगा। और उसके स्थान पर वासना, धनलोलुपता, प्रताड़ना, प्रतिद्वंद्विता आदि पाशविक बलों का ही बोलबाला हो जाएगा जो मानवता को मर-मर कर जीने के लिए मजबूर कर देंगे। पर स्वामीजी ने अपनी भविष्य दृष्टि से देख लिया था कि 'ऐसी दुर्घटना कभी हो नहीं सकती'। 

     उन्होंने दृढ़ विश्वास प्रकट किया था कि 'भारत की उन्नति अवश्य होगी और साधारण तथा गरीब लोग सुखी होंगे।' स्वामीजी ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था- 'भारत का पुनरुत्थान होगा, पर वह जड़ की शक्ति से नहीं, वरन् आत्मा की शक्ति के द्वारा। यदि कोई शैतान हो, तो भी हमारा कर्तव्य यही है कि हम ब्रह्म का स्मरण करें, शैतान का नहीं। जड़ नहीं चैतन्य हमारा लक्ष्य है। ऐसा मत कहो कि हम दुर्बल हैं , कमजोर हैं। आत्मा सर्वशक्तिमान है। जड़ पदार्थ तुम्हारा ईश्वर कभी नहीं हो सकता, शरीर तुम्हारा ईश्वर कभी नहीं हो सकता।  नाम और रूप वाले सभी नामरूप हीन सत्ता के अधीन हैं। इसी सनातन सत्य की शिक्षा श्रुति दे रही है। आत्मा की शक्ति (त्याग और सेवा) का विकास करो, और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो, और जिस स्थिति की आवश्यकता है , वह आप ही प्राप्त हो जाएगी। अंतर्निहित दिव्यता यानि ब्रह्मभाव - को प्रकट करो और उसके चारों ओर सबकुछ समन्वित होकर विन्यस्त हो जायेगा। " (वही पुस्तक, भाग 9 पृ. 380)। 

" आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु पर होने से लौकिक -भौतिक उन्नति होती है, विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है , और स्वयं पर होने से मनुष्य का ईश्वर बन जाता है।  पहले हमें ईश्वर (बुद्ध) बन लेने दो। ततपश्चात दूसरों को भी ईश्वर बनने में सहायता देंगे। मनुष्य बनो और बनाओ , यही हमारा मूल मंत्र रहे।  (वही पुस्तक, भाग 9 पृ. 379 )।  

 'सुदीर्घ रजनी अब समाप्त होती हुई जान पड़ती है। महानिद्रा में निमग्न शव मानों जागृत हो रहा है... जड़ता धीरे-धीरे दूर हो रही है। अब कोई उसे रोक नहीं सकता। अब वह फिर सो भी नहीं सकती। कोई बाह्य शक्ति इस समय इसे दबा नहीं सकती क्योंकि यह असाधारण शक्ति का देश अब जागकर खड़ा हो रहा है।' (वही, भाग 5, पृ. 42, 43)। 

क्या वर्तमान भारत की दिशा और दशा स्वामी जी की भविष्यवाणी को सही साबित नहीं कर रही है? सारी खामियों और खासियतों के बावजूद विश्व बिरादरी में भारत को मिल रही अहमियत भारत के क्रमश: जागरूक व सशक्त होने का प्रमाण नहीं है? अपनी उस भविष्यवाणी की परिपूर्णता के लिए स्वामी जी ने साधन संकेत देते हुए आह्वान किया था- 'भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उावल करना है तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की, शक्ति संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ गई, जिसमें कहा गया है, 'तुम सब लोग एकमन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ।... एक मन हो जाना ही समाज संगठन का रहस्य है।' (वही, पृ. 192)।यह भी सनातन सत्य है कि 'संघे शक्ति युगे-युगे।' हर प्रकार की सफलता प्राप्ति में संगठन-शक्ति ही मुख्य आधार है।

     उस संगठन-शक्ति का स्वरूप कैसा होगा? उसे भी स्वामी जी ने स्पष्ट देख लिया था। भारत में हिन्दू-मुस्लिम दो बड़े समुदायों का साम्प्रदायिक संघर्ष सदियों से समय-समय पर होता रहा है। इससे राष्ट्रीय एकात्मता बाधित होती रही है। परंतु गत कुछ वर्षों से संघर्ष की कमी देखी जा रही है। विघ्न संतोषियों के लाख विषवमनों के बावजूद दोनों समाजों की दूरियां काफी घटी हैं, सद्भाव-नाएं बढ़ी हैं। इस दशा व दिशा को पहले ही देख लिया था स्वामी जी ने और कहा था - 'मैं अपने मानस चक्षु से भावी भारत की उस पूर्णावस्था को देखता हूं, जिसका तेजस्वी और अजेय रूप में वेदान्ती बुद्धि और इस्लामी शरीर के साथ उत्थान होगा... हमारी मातृभूमि के लिए इन दोनों विशाल मतों का सामंजस्य-हिन्दुत्व और इस्लाम-वेदान्ती बुध्दि और इस्लामी शरीर-यही एक आशा है।' (वही भाग 6, पृ. 405, 06)। 

    ऐसे साम्प्रदायिक सामंजस्यता व सामाजिक समरसता से एक नवीन भारत उठ खड़ा होगा। जिसका स्वरूप अखिल विश्व में अद्भुत, अद्वितीय, अतुलनीय और अदमनीय होगा। इसीलिए 'भावी भारत' का सपना देखने वाले देशभक्तों से सम्पूर्ण समर्पण हेतु आह्वान करते हुए कहा था- 'एक नवीन भारत निकल पड़े। निकले-निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटिया भेदकर, मछुआ, माली, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से! निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से!... अतीत के कंकाल-समूह यही है तुम्हारे सामने तुम्हारी उत्तराधिकारी भावी भारत! वे तुम्हारी रत्न पेटिकाएं, तुम्हारी मणि की अंगुठियां-फेंक दो इनके बीच, जितना शीघ्र फेंक सको, फेंक दो, और तुम हवा में विलीन हो जाओ, अदृश्य हो जाओ, सिर्फ-कान खड़े रखो। 

     तुम ज्यों ही विलीन होगे, उसी वक्त सुनोगे:- कोटिजिमूतस्मंदिनी, त्रैलोक्यकंपनकारिणी भावी भारत की उद्बोधन ध्वनि 'वाहे गुरु जी का खालसा , वाहे गुरूजी की फतह'। (वही पुस्तक, भाग 8, पृष्ठ 167-68)।'

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नारी जागरण पर स्वामी विवेकानंद कहते हैं स्त्रियों की पूजा करके ही सभी राष्ट्र बड़े बने हैं। जिस देश में स्त्रियों की पूजा नहीं होती, वह देश या राष्ट्र कभी बड़ा नहीं बन सका है और भविष्य में कभी बड़ा भी नहीं बन सकेगा। हम देख रहे हैं कि नौ देवियों लक्ष्मी और सरस्वती को मां मानकर पूजने वाले सीता जैसे आदर्श की गाथा घर-घर में गाने वाले यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता को हृदय में बसाने वाले भारत में नारी को यथोचित सम्मान प्राप्त नहीं है। हमारी मानसिकता बदल रही है किंतु उसकी गति बहुत धीमी है, यदि हम देश की तरक्की चाहते हैं तो सबसे पहले अपनी सोच को बदल कर नारी जागरण और उत्कर्ष पर चिंतन और त्वरित क्रियाशीलता दिखानी भी होगी। ग्रामीण आदिवासी स्त्रियों की वर्तमान दशा में उद्धार करना होगा, आम जनता को जगाना होगा, तभी तो भारत वर्ष का कल्याण होगा। अपनी आध्यात्मिकता और दार्शनिकता से हमें जगत को जीतना होगा। संसार में मानवता को जीवित रखने का और कोई उपाय नहीं है।

स्वामी विवेकानंद जी ने तीन भविष्यवाणी की थीं। सर्वप्रथम 1897  में उन्होंने कहा था कि भारत अकल्पनीय परिस्थितियों के बीच अगले 50 वर्षों में ही स्वाधीन हो जाएगा। जब उन्होंने यह बात कही तब कुछ लोगों ने इस पर ध्यान दिया। उस समय ऐसा होने की कोई संभावना भी नहीं दिख रही थी। अधिकांश लोग अंग्रेजों द्वारा शिक्षित होकर संतुष्ट थे। उन दिनों लोगों में शायद ही कोई राजनीतिक चेतना दिखाई पड़ती थी। उन्हें राजनीतिक स्वाधीनता की कोई धारणा नहीं थी। ऐसी पृष्ठभूमि में स्वामी विवेकानंद ने भविष्यवाणी की कि भारत अगले 50 वर्षों में स्वाधीन हो जाएगा और यह सत्य सिद्ध  हुई। विवेकानंद ने ही एक और भविष्यवाणी की थी जिसका सत्य सिद्ध होना शेष है। उन्होंने कहा था भारत एक बार फिर समृद्धि तथा शक्ति की महान ऊँचाइयों पर उठेगा और अपने समस्त प्राचीन गौरव को पीछे छोड़ जाएगा। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि भारत का विश्व गुरु बनना केवल भारत ही नहीं, अपितु विश्व के हित में है। 

स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि अतीत से ही भविष्य बनता है। अत: यथासंभव अतीत की ओर देखो और उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्ज्वल तक पहले से अधिक पहुंचाओ। हमारे पूर्वज महान थे। हम भारत के गौरवशाली अतीत का जितना ही अध्ययन करेंगे हमारा भविष्य उतना ही उज्ज्वल होगा। भारत में श्रीराम, कृष्ण, महावीर, हनुमान तथा श्रीरामकृष्ण जैसे अनेक ईष्ट और महापुरुषों के आदर्श उपस्थित हैं।

स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि धर्म को हानि पहुंचाए बिना ही जनता की उन्नति की जा सकती है। किसी को आदर्श बना लो, यदि तुम धर्म को फेंक कर राजनीति, समाजनीति अथवा अन्य किसी दूसरी नीति को जीवन शक्ति का केंद्र बनाने में सफल हो जाओ तो उसका फल यह होगा कि तुम्हारा अस्तित्व नहीं रह जाएगा। भारत में हजारों वर्षों से धार्मिक आदर्श की धारा प्रवाहित हो रही है। भारत का वायुमंडल इस धार्मिक आदर्श से शताब्दी तक पूर्ण रह कर जगमगाता रहा है। हम इसी धार्मिक आदर्श के भीतर पैदा हुए और पले हैं। यहां तक कि धर्म हमारे जन्म से ही हमारे रक्त में मिल गया है, जीवन शक्ति बन गया है। यह धर्म ही है जो हमें सिखाता है कि संसार के सारे प्राणी हमारी आत्मा के विविध रूप ही हैं। सच्चाई यह भी है कि हमारे लोगों ने धर्म को समाज में सही रूप में उपयोग भी नहीं किया है। अत: भारत में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म को अपनाने की आवश्यकता है। भारत को राजनीतिक विचारों से प्रेरित करने के पहले जरूरी है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाए। शिक्षा हमारी मूलभूत आवश्यकता है।

      राष्ट्रभक्तों की टोलियों पर स्वामी विवेकानंद ने कहा है देशभक्त बनो। जिस राष्ट्र ने अतीत में हमारे लिए इतने बड़े-बड़े काम किए हैं, उसे प्राणों से भी प्यारा समझो। क्या तुम यह अनुभव करते हो कि ज्ञान के काले बादल ने सारे भारत को ढंक लिया है। यह सोचकर क्या तुमको बेचैनी नहीं होती है। क्या इस सोच ने तुम्हारी निद्रा छीन ली है कि भारत के लोग दुखी हैं, यदि हां तो फिर तुम देशभक्त बनने की पहली सीढ़ी पार कर गए हो। यदि तुमने केवल व्यर्थ की बातों में शक्ति क्षीण करके इस दुर्दशा के निवारण हेतु कोई यथार्थ कर्तव्य पथ निश्चित किया है। यदि तुम पर्वताकार विघ्न बाधाओं को लांग कर राष्ट्र कार्य करने के लिए तैयार हो तो सारी दुनिया विरोध में खड़ी हो जाए तो भी निडरता के साथ सत्व की रक्षा के लिए खड़े रहना और संगी साथियों के छोड़ जाने पर भी अभी तुम राष्ट्रोत्थान के अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहोगे तो यह तीसरी सफलता है। इन बातों से युक्त विश्वासी युवा देशभक्तों की आज भारत को आवश्यकता है। स्वामीजी का स्वप्न था कि उन्हें 1000 तेजस्वी युवा मिल जाएं तो वह भारत को विश्व शिखर पर पहुंचा सकते हैं। मेरा विश्वास युवा पीढ़ी, नई पीढ़ी में है। मेरे कार्यकर्ता इनमें से आएंगे और वह सिंहों की भांति समस्याओं का हल निकालेंगे। ऐसे युवाओं में और किसी बात की जरूरत नहीं है। बस केवल प्रेम, सेवा, आत्मविश्वास, धैर्य और राष्ट्र के प्रति असीम श्रद्धा होनी चाहिए।

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