Volume 2/Jnana-Yoga/ खंड 2/ज्ञान-योग: The real and practical identity of man!/ The real and practical man/
🔱🕊 🏹 🙋वास्तविक और व्यावहारिक मनुष्य 🔱🕊 🏹 🙋
या
मनुष्य का वास्तविक और प्रतिभासिक पहचान !
(स्वामी विवेकानन्द द्वारा न्यूयॉर्क में दिया गया भाषण)
" वेदान्त दर्शन का एक विषय है - एकत्व की खोज। ' वह क्या है , जिसके जान लेने से सब कुछ सब कुछ जाना जा सकता है ? हिन्दू दार्शनिकों के मतानुसार समस्त जगत का विश्लेषण करके उसे 'आकाश ' में पर्यवसित किया जा सकता है। हम अपने चारों ओर जो कुछ देखते हैं , अनुभव करते हैं , छूते हैं , आस्वादन करते हैं, वह सब इसी आकाश की विभिन्न अभिव्यक्ति मात्र है। यह आकाश सूक्ष्म और सर्वव्यापी है। पदार्थ की तीनों अवस्थाएं - ठोस, तरल और गैस , सब प्रकार के नाम-रूप, शरीर , पृथ्वी , सूर्य , चंद्र , तारे -सब इसी आकाश से निर्मित हैं। (२/२१)
" वह कौन सी शक्ति (महामाया माँ सारदा हैं !) है जो इस आकाश पर कार्य करती है और इससे इस जगत्-प्रपंच का निर्माण करती है? आकाश के साथ-साथ एक सर्वव्यापी शक्ति रहती है। जगत में जितनी भी शक्तियाँ हैं -आकर्षण, विकर्षण या विचारशक्ति भी सभी 'प्राण ' नामक एक महाशक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसी प्राण ने आकाश पर कार्य करके इस इस जगत्प्रपंच की रचना की है। कल्पांत में सभी ठोस पदार्थ पिघल जायेंगे, और वह तरल पदार्थ वाष्पीय आकार में परिणत हो जायेगा। और वह अधिक सूक्ष्म और तेज (finer and more uniform heat vibrations एकसमान तापीय कम्पन) में परिवर्तित हो जाएगा, अंत में सब कुछ जिस आकाश से उत्पन्न हुआ था , उसीमें विलीन हो जायेगा। और आकर्षण, विकर्षण और विचार-गति आदि समस्त शक्तियाँ धीरे-धीरे मूल प्राण में परिणत हो जायँगी। " (२/२२)
" उसके बाद जबतक फिर से कल्पारम्भ नहीं होता, तब तक यह प्राण मानो निद्रित अवस्था में रहेगा। कल्पारम्भ होने पर वह जागकर पुनः नाना नाम-रूपों को प्रकाशित करेगा। और कल्पान्त में फिरसे सब का लय हो जायेगा। पर यह विश्लेषण अधूरा है। इतना तो आधुनिक भौतिक विज्ञान को भी पता है। लेकिन इसके परे की अवस्था - (इन्द्रियातीत सत्य स्वरुप तक) भौतिक विज्ञान की पहुँच नहीं है। पर इस अनुसन्धान का अन्त यहीं नहीं हो जाता है। हमने अभी तक उस वस्तु को प्राप्त नहीं किया, जिसे जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकेगा।
हमने पूरे ब्रह्मांड को दो भागों में विभाजित कर दिया है, जिन्हें पदार्थ (Matter) और ऊर्जा (Energy) कहते हैं, या जिन्हें भारत के प्राचीन दार्शनिकों ने आकाश (Akasha) और प्राण (Prana) कहा है। अगला कदम इस आकाश और प्राण को उनके मूल तत्व में ( into their origin.) पर्यवसित/ (विभाजित या रूपांतरित) करना होगा। इन्हें मन नामक उच्चतर सत्ता में पर्यवसित किया जा सकता है। मन अर्थात महत् अथवा सार्वभौमिक विचार-शक्ति से ही प्राण और आकाश दोनों की उत्पत्ति होती है। आकाश या प्राण की अपेक्षा विचार सत्ता की और अधिक सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है। विचार ही स्वयं इन दोनों में विभक्त हो जाता है। प्रारम्भ में यह सर्वब्यापी मन ही था और इसने स्वयं को व्यक्त , परिवर्तित , और विकसित करके आकाश और प्राण ये दो रूप धारण किये और इन दोनों के सम्मिश्रण से सारा जगत बना। (२/२२-२३)
>>>दर्शन-क्रिया कैसे होती है ?
' अब हम मनोविज्ञान (मनःसंयोग -psychology) पर चर्चा करेंगे। मैं आपको देख रहा हूँ। आँखें देखने के साधन नहीं हैं। वे केवल बाहरी उपकरण हैं। इस चक्षु के पीछे मस्तिष्क में यथार्थ चक्षुरन्द्रिय है। इसीप्रकार नासिका घ्राण-इन्द्रिय नहीं है , घ्राणीन्द्रिय भी उसके पीछे स्थित है। प्रत्येक इन्द्रिय के सम्बन्ध में ऐसा ही समझना चाहिए , कि बाह्य यंत्र या उपकरण इस स्थूल शरीर में अवस्थित हैं और इनके पीछे मस्तिष्क में उनकी इन्द्रिय भी मौजूद है। किन्तु उनके साथ यदि मन नहीं जुड़ा हो -तो आप घंटे की आवाज नहीं सुन पाएंगे। बाहरी यंत्र भले ही आवाज को भीतर ले जाये। मन भी इन्द्रियों के साथ जुड़ा हो फिर भी विषयानुभूति पूर्ण नहीं होगी, भीतर से भी प्रतिक्रिया होनी चाहिए। प्रतिक्रिया से ज्ञान उत्पन्न होगा। बाह्य इन्द्रियों ने मानों मेरे अन्दर संवाद -प्रवाह भेजा। मेरे मन ने उसे लेकर बुद्धि के निकट अर्पित कर दिया। बुद्धि ने निर्णय किया। परन्तु इससे भी विषयानुभूति पूर्ण नहीं हुई। एक अचल वस्तु -परदे की आवश्यकता है जिसपर चित्र डाला जा सके। वह कौन सी वस्तु है जो हर पल गतिशील वस्तु की पहचान को बनाए रखता है? वह कौन सी वस्तु है जो विभिन्न गतियों के भीतर भी प्रतिक्षण एकत्व की रक्षा किये रहती है ? और उस वस्तु को शरीर और मन की तुलना ,में अचल होना आवश्यक है। यदि पर्दा अचल न हुआ तो उस पर चित्र पड़ेगा ही नहीं। अर्थात उस वस्तु को, उस द्रष्टा को एक व्यक्ति (Individual) होना चाहिए। जिस वस्तु पर मन यह सब चित्रांकन करता है , जिस पर मन और बुद्धि द्वारा ले जाई गई संवेदनाएँ स्थापित , श्रेणीबद्ध और एकत्रीभूत होती हैं , बस उसीको मनुष्य की आत्मा कहते हैं। (२/२४)
" तो , हमने देखा है कि समष्टि मन, महत जो है वो आकाश और प्राण इन दो भागों में विभक्त है।और मन के पीछे है आत्मा ! समष्टि मन के पीछे जो आत्मा है , उसे ईश्वर (इष्टदेव) कहते है। व्यष्टि में यह मनुष्य की आत्मा मात्र है। जिस प्रकार समष्टि मन ही आकाश और प्राण के रूप परिणत हो गया है , उसी प्रकार समष्टि-आत्मा भी मन के रूप में परिणत हो गयी है। तो क्या मनुष्य का मन ही उसके शरीर का स्रष्टा है और क्या उसकी आत्मा उसके मन की स्रष्टा है? अर्थात्, मनुष्य का शरीर, मन और आत्मा - ये तीन (3H) क्या तीन विभिन्न वस्तुयें हैं , अथवा ये एक के भीतर ही तीन हैं , अथवा ये सब एक ही सत्ता की तीन विभिन्न अवस्थाएं हैं ? अबतक हमने देखा कि पहले तो यह स्थूल देह है, उसके पीछे इन्द्रियां हैं , फिर मन , उसके बाद बुद्धि और बुद्धि के पीछे आत्मा। तो पहली बात ये हुई कि आत्मा शरीर से पृथक है, तथा वह मन से भी पृथक है ! बस यहीं से धर्म जगत में मतभेद देखा जाता है। द्वैतवादी कहते हैं कि आत्मा सगुण है , अर्थात भोग, सुख-दुःख आदि सभी वास्तव में आत्मा के धर्म हैं , पर अद्वैतवादी कहते हैं कि आत्मा निर्गुण है, उसमें ये धर्म नहीं है।
यह आत्मा आकाश और प्राण से गठित न होने के कारण तथा शरीर और मन (अहंकार) से पृथक होने के कारण - निश्चित रूप से अजर , अमर, अविनाशी है !! क्यों ? मृत्यु का या शरीर-मन के नश्वर होने का क्या अर्थ है ? विघटित ( decomposed) हो जाना ; और जो वस्तु कुछ पदार्थों के संयोजन से बनती हैं , वही विघटित भी होती है। जो अन्य पदार्थों के संयोजन से उत्तपन्न नहीं हुई है , वह कभी विघटित नहीं होती। इसलिए वह अविनाशी है। इस शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा रहेगी।
वेदान्तियों के मतानुसार जब इस नश्वर शरीर का नाश हो जाता है , तब मनुष्य की इन्द्रियाँ मन में लीन हो जाती हैं , मन का प्राण में लय हो जाता है , प्राण आत्मा में प्रविष्ट हो जाता है और तब मानव की आत्मा मानो सूक्ष्म शरीर अथवा लिंगशरीर रूपी वस्त्र पहनकर चली जाती है। इस सूक्ष्म शरीर में ही मनुष्य के सारे संस्कार वास करते हैं। मनुष्य के मर जाने पर भी ये संस्कार उसके मन में विद्यमान रहते हैं - वे फिर सूक्ष्म शरीर पर कार्य करते रहते हैं। जो लोग मुक्ति की निकटतम सीढ़ी पर पहुँच गए हैं , जिनमें अपवित्रता बहुत कम रह गयी है , वे ही सूर्य किरणों के सहारे ब्रह्मलोक में जाते हैं। जो मध्यम वर्ग के लोग हैं , जो स्वर्ग जाने की इच्छा से सत्कर्म करते हैं , वे चंद्रलोक में जाकर वहाँ के स्वर्गों में वास करते हैं , और देव शरीर प्राप्त करते हैं , पर मुक्ति की प्राप्ति के लिए उन्हें पुनः मनुष्य देह धारण करनी पड़ती है। जो अत्यंत दुष्ट हैं वे राक्षस आदि निम्न-योनियों में जाने के बाद पशु शरीर में जन्म लेते हैं , और मुक्ति लाभ के लिए उन्हें फिर से मनुष्य-जन्म ग्रहण करना पड़ता है।
इस पृथ्वी को कर्मभूमि ( the sphere of Karma) कहा जाता है, अच्छा-बुरा सभी कर्म यहीं करना होता है। वेदान्त मत से मनुष्य ही जगत में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और यह कर्मभूमि पृथ्वी ही सर्वश्रेष्ठ स्थान है , क्योंकि एकमात्र यहीं पर उसके पूर्णत्व प्राप्त करने की सर्वोत्कृष्ट और सर्वाधिक सम्भावना है। देवदूत या देवता आदि को भी पूर्ण (perfect) होने के लिए मनुष्य-जन्म ग्रहण करना पड़ेगा। यह मानव-जीवन एक महान केंद्र , अद्भुत स्थिति (the wonderful poise) और अद्भुत अवसर (wonderful opportunity) है।
आत्मा, मन और शरीर , ये तीनों (3H) पृथक-पृथक वस्तुएं नहीं हैं , बल्कि वे एक ही हैं , क्योंकि इन तीनों से बना हुआ यह प्राणी वस्तुतः एक ही है। एक ही वस्तु कभी देह , कभी मन और कभी देह और मन से परे आत्मा के रूप में प्रतीत होती है। किन्तु वह एक ही समय में यह तीनों नहीं होती। जो शरीर को देखते हैं , वे मन को नहीं देख पाते ; जो मन को देखते हैं वे आत्मा को नहीं देख पाते ; और जो आत्मा को देखते हैं, उनके लिए शरीर और मन , दोनों न जाने कहाँ चले जाते हैं ! जो लोग केवल गति देखते हैं [चलचित्र फिल्म शोले देखते हैं], वे सम्पूर्ण स्थिर भाव (पर्दे) को नहीं देख पाते , और जो इस सम्पूर्ण स्थिर-भाव को (पर्दे को) देख पाते हैं, उनके लिए गति (चलचित्र की कथा महाभारत या शोले)/ न जाने कहाँ चली जाती है। रज्जु में सर्प का भ्रम हुआ। जो व्यक्ति रज्जु में सर्प देखता है , उसके लिए रज्जु न जाने कहाँ चली जाती है , और जब भ्रान्ति दूर हो जाने पर वह व्यक्ति रज्जु देखता है, तो उसके लिए फिर सर्प नहीं रह जाता। (2/30)
तो हमने देखा कि सर्वव्यापी सत्ता एक ही है, और वह 'एक' ही 'अनेक' रूपों में प्रतीत होती है। (and that one appears as manifold.) अद्वैतवादियों की भाषा में यह आत्मा ही ब्रह्म है, जो नाम-रूप की उपाधि के कारण अनेक प्रतीत हो रहा है। समुद्र की तरंगों की ओर देखो; एक भी तरंग समुद्र से पृथक नहीं है। फिर भी तरंग क्यों पृथक प्रतीत होती है ? नाम और रूप के कारण - तरंग की आकृति और उसे हमने जो 'तरंग ' नाम दिया है, बस, इन दोनों ने उसे समुद्र से पृथक किया है। नाम-रूप के नष्ट हो जाने पर वह समुद्र की समुद्र ही रह जाती है। तरंग और समुद्र के बीच भला कौन भेद कर सकता है। वास्तव में "मैं" अथवा "तूम" कुछ नहीं है- सब एक ही है। चाहे कह लो ' सभी मैं हूँ ", या कह लो -" सभी तूम हो "। यह द्वैत ज्ञान बिल्कुल मिथ्या है, और सारा जगत इसी द्वैत ज्ञान का फल है। जब विवेक का उदय होने पर [विवेकदर्शन के अभ्यास से विवेक-श्रोत के उद्घाटित होकर विवेकज ज्ञान होने पर ] मनुष्य देखता है कि दो वस्तुएं नहीं हैं , एक ही वस्तु है , तब उसे यह बोध होता है कि वह स्वयं ही यह अनंत ब्रह्माण्ड स्वरुप है। और मैं ही अपरिणामी , निर्गुण , नित्य पूर्ण (100 % नहीं 99. 9 %? निःस्वार्थपर) , नित्यानन्दमय हूँ -सच्चिदानन्द हूँ ! (२/३१)
दो प्रश्न उठते हैं - पहला क्या इसकी उपलब्धि सम्भव है ? दूसरा क्या सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) की उपलब्धि के बाद उनकी तुरंत मृत्यु हो जाती है ? ऐसे अनेक व्यक्ति संसार में इस समय जीवित हैं , जिनका अज्ञान सदा के लिए चला गया है। ...उतनी जल्दी नहीं, जितनी जल्दी हम समझते हैं।मानलो एक लकड़ी से जुड़े हुए दो पहिये साथ-साथ चल रहे हैं। अब यदि मैं एक पहिये को पकड़ कर बीच की लकड़ी को कुल्हाड़ी से काट दूँ , तो जिस पहिये को मैंने पकड़ रखा है , वह तो रुक जायेगा , पर दूसरा पहिया , जिसमें पहले का वेग कभी नष्ट नहीं हुआ है , कुछ दूर चलेगा और फिर गिर पड़ेगा। पूर्ण शुद्धस्वरुप आत्मा मानों एक पहिया है , और शरीर -मनरूप भ्रान्ति दूसरा पहिया ; ये दोनों कर्मरूपी लकड़ी द्वारा जुड़े हुए हैं। ज्ञान मानो कुल्हाड़ी है , जो जोड़नेवाली इस लकड़ी को काट देता है। .. जब तक पूर्व कर्मों का वेग बचा रहता है, पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता , तबतक शरीर और मन बने रहते हैं। यह वेग समाप्त हो जाने पर इनका भी नाश हो जाता है तब आत्मा मुक्त हो जाती है। जिन व्यक्तियों ने इस जीवन में ही इस अवस्था को प्राप्त कर लिया है , जिन्हें कम से एक मिनट के लिए भी संसार का यह साधारण दृश्य बदलकर सत्य का ज्ञान मिल गया है , उन्हें जीवन्मुक्त कहते हैं। जीवित रहते हुए यह मुक्ति प्राप्त करना ही वेदान्ती का का लक्ष्य है। " (२/३६)
" एक दिन यह मरीचिका (जगत-प्रपंच) अदृश्य हो जाएगी। पर वह फिर से आ जाएगी - शरीर को पूर्व कर्मों के अधीन रहना पड़ता है , अतः यह मरीचिका फिर से लौट आएगी। जब तक हम कर्म से बंधे हुए हैं , तबतक जगत हमारे सम्मुख आएगा ही। नर, नारी , पशु , उद्भिद, आसक्ति , कर्तव्य -सबकुछ आएगा , पर वे पहले की भाँति हम पर प्रभाव न डाल सकेंगे। इस नवीन ज्ञान के प्रभाव से कर्म की शक्ति का नाश हो जायेगा , उसके विष के दाँत टूट जायेंगे, जगत हमारे लिए एकदम बदल जायगा ; क्योंकि जैसे ही जगत दिखाई देगा , वैसे ही उसका स्वरुप और सत्य तथा मरीचिका के भेद का ज्ञान भी हमारे सामने प्रकाशित हो जायेगा। " (२/३६)
" मनुष्य परमार्थतः मुक्त ही है , किन्तु ज्योंही वह माया के जगत में आता है , ज्योंही नाम-रूप के भीतर पड़ जाता है , त्योंही वह बद्ध हो जाता है ? 'स्वाधीन इच्छा ' कहना ही भूल है। इच्छा कभी स्वाधीन हो नहीं सकती। होगी कैसे ? जो प्रकृत मनुष्य है , वह जब बद्ध हो जाता है , तभी उसकी इच्छा की उत्पत्ति होती है, उससे पहले नहीं। मनुष्य की इच्छा बद्ध है , किन्तु जो इसका आधार है , वह तो सदा ही मुक्त है। " (२/३७)
" जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, जिहोंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिए अतीत जीवन के शुभ-संस्कार , शुभ-वेग ही बचा रहता है। शरीर में वास करते हुए भी और अनवरत कर्म करते हुए भी वे केवल सत्कर्म ही करते हैं ; उनके मुख से सबके प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है। वे स्वयं एक सजीव आशीर्वाद होते हैं। यदि वह कुछ भी न बोले, तो भी उसका होना मात्र मानवता के लिए एक आशीष-स्वरूप है। ऐसा व्यक्ति अपनी उपस्थिति मात्र से घोर दुरात्मा को भी संत बना देता है। " (२/३८)
" अतएव जिन्होंने परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) को प्रत्यक्ष कर लिया है , उन्हें फिर सत्य को समझने के लिए न्याय -युक्ति , तर्क-वितर्क आदि बौद्धिक व्यायामों की आवश्यकता नहीं रह जाती। उनके लिए परम् 'सत्य जीवन का जीवन या हस्तामलकवत हो गया है। आत्मानुभूति सम्पन्न लोग निःसंकोच भाव से कह सकते है - "Here is the Self" - 'यही आत्मा है !' तुम उनके साथ कितना ही तर्क क्यों न करो , वे तुम्हारी बात पर केवल हँसेंगे। वे उन्हें बकने देंगे। उन्होंने अपने सत्यस्वरूप की अनुभूति कर लिया है , और पूर्ण हो गए।
मान लो कि तुम एक देश देखकर आये, और कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर यह तर्क करने लगे इस उस देश का कहीं अस्तित्व ही नहीं है। वह फिर कितना ही तर्क क्यों न करे , पर उसके प्रति तुम्हारा भाव यही रहेगा कि वह पागलखाने में भेज देने लायक है। इसी प्रकार, जो आत्मसाक्षात्कार कर चुके हैं , वे कहते हैं - "जगत में धर्म सम्बन्धी जो बातें सुनी जाते हैं, वे सब केवल बच्चों की सी बातें हैं। आत्मसाक्षात्कार ही धर्म का सार है। धर्म की उपलब्धि की जा सकती है। realization is the soul, the very essence of religion." Religion can be realised. क्या तुम तैयार हो? क्या तुम इसे चाहते हो? अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम्हें आत्मसाक्षात्कार मिलेगा, और तब तुम सच्चे धार्मिक होगे। जब तक तुम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं मिल जाता, तब तक तुममें और नास्तिकों में कोई अंतर नहीं है। नास्तिक तो फिर भी निष्कपट होते हैं, लेकिन जो व्यक्ति कहता है कि 'मैं धर्म में विश्वास करता हूँ ,पर कभी उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति की चेष्टा नहीं करता, वह निश्चय ही निष्कपट नहीं है। (२/३९)
>>>.दूसरा प्रश्न यह कि आत्मसाक्षात्कार के बाद क्या होता है ? [The next question is to know what comes after realisation] मान लो , मैंने जान लिया कि एकमात्र आत्मा ही विद्यमान है और वही विभिन्न रूपों में प्रकाशित हो रही है। -- यह जान लेने से जगत का क्या उपकार होगा ?
" लोगों को यह भय होता है कि जब उन्हें यह ज्ञान हो जायेगा कि सभी एक हैं , तब उनके प्रेम का स्रोत सूख जायेगा , किन्तु जो व्यक्ति अपने सुख की चिन्ता से उदासीन हो गए हैं , वे ही जगत में सर्वश्रेष्ठ कर्मी हुए हैं। मनुष्य तभी वास्तविक प्रेम कर सकता है , जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र कोई क्षुद्र मिट्टी का ढेला नहीं , किन्तु वास्तव में स्वयं भगवान हैं। स्त्री पति और अधिक प्रेम करेगी, यदि वह यह समझेगी कि स्वामी साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है। पति भी स्त्री से अधिक प्रेम करेगा , यदि वह यह जानेगा की स्त्री स्वयं ब्रह्मस्वरूप है। वे ही लोग अपने महान शत्रुओं के प्रति भी प्रेमभाव रख सकेंगे , जो जानेंगे कि ये शत्रु साक्षात् ब्रह्म स्वरुप हैं। 'Such a man becomes a world-mover for whom his little self is dead and God stands in its place. ' --- जिनका क्षुद्र अहं एकदम मर चुका है और उसके स्थान पर ईश्वर ने अधिकार जमा लिया है , वे ही लोग जगत के प्रेरक हो सकते हैं। उनके लिए समग्र विश्व दिव्यभाव में रूपांतरित हो जायेगा। ऐसे ही व्यक्ति को कहने का अधिकार है कि जगत कितना सुन्दर है।" (खंड २/४०)
" इस प्रकार की ' एकात्मकता (Oneness) तथा अंतर्निहित ब्रह्मत्व (Inherent Divinity) ' की प्रत्यक्ष उपलब्धि से -या आत्मसाक्षात्कार करने से जगत का सबसे बड़ा हित यह होगा कि अविराम विवाद, द्वन्द्व , आदि सब दूर होकर जगत में शान्ति का राज्य हो जायेगा। यदि जगत के सभी मनुष्य आज इस महान सत्य (अपने सच्चिदानन्द स्वरूप) के एक बिन्दु की भी उपलब्धि कर सकें , तो उनके लिए यह सारा जगत एक दूसरा ही रूप धारण कर लेगा और यह सब झगड़ा [रूस -यूक्रेन, इस्राईल -हमास, हिन्दू-मुस्लिम] समाप्त होकर शान्ति का राज्य [सतयुग या रामराज्य ] आ जायेगा। एक-दूसरे से ऊँचा दिखने में यह घिनौना उतावलापन ,यह स्पर्धा , जो हमें अन्य सबों को ठेलकर, धोखे से भी आगे बढ़ निकलने के लिए बाध्य करती है , इस संसार से उठ जायेगी। इसके साथ-साथ सब प्रकार की अशान्ति, घृणा , ईर्ष्या एवं सभी प्रकार का अशुभ सदा के लिए चला जायेगा। उस समय देवता लोग इस जगत में वास करेंगे। उस समय यही जगत स्वर्ग हो जायेगा। और जब जब देवता देवता से खेलेगा , देवता देवता के साथ मिलकर कार्य करेगा, देवता देवता से प्रेम करेगा ,(Be and Make का कार्य -आंदोलन करेगा), तब क्या अशुभ ठहर सकता है ? ईश्वर के प्रत्यक्ष उपलब्धि (या आत्मसाक्षात्कार) की यही एक बड़ी उपयोगिता है। तब तुम किसी भी मनुष्य को (अपने सहोदर भाई-बहन को ?) बुरा नहीं समझोगे। यही प्रथम महालाभ है। उस समय तुम अन्याय कर्म करने वाले बेचारे स्त्री-पुरुष को घृणा की दृष्टि से नहीं देखोगे। और वैश्या -वृत्ति करने को मजबूर स्त्री की ओर भी घृणा से नहीं देख सकोगे , क्योंकि वहाँ भी साक्षात् ईश्वर को ही देखोगे। तब तुममें ईर्ष्या अथवा दूसरों पर शासन करने का भाव नहीं रहेगा , तब प्रेम इतना प्रबल हो जायेगा कि मानवजाति को सत्यपथ पर चलाने के लिए फिर चाबुक मारने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी । ' (२/४१)
" उस समय चारों ओर घृणा के बीज न बोकर , ईर्ष्या और असत चिंता का प्रवाह न फैलाकर , सभी देशों के लोग सोचेंगे कि सभी 'वह ' है। जो कुछ तुम देख रहे हो या अनुभव कर रहे हो वह सब 'वही ' है ! तुम्हारे भीतर अशुभ न रहने पर तुम अशुभ किस तरह देखोगे ? तुम्हारे भीतर यदि -चोर, धोखेबाज न हो , तो तुम किस प्रकार चोर-धोकेबाज देखोगे ? साधु हो जाओ , तो असाधु भाव तुम्हारे अन्दर से एकदम चला जायेगा। इस प्रकार सारे जगत का परिवर्तन हो जायेगा। यही समाज का सबसे बड़ा लाभ है। " (२/४१)
[Instead of throwing tremendous bomb-shells of hatred into every corner, instead of projecting currents of jealousy and of evil thought, in every country, people will think that it is all He. He is all that you see and feel. How can you see evil until there is evil in you? How can you see the thief, unless he is there, sitting in the heart of your heart?
" ये सब विचार -भाव , प्राचीन काल में (उपनिषद युग में) अनेक ऋषियों के द्वारा आविष्कृत और कार्य-रूप में परिणत हुए थे। पर आचार्यों की संकीर्णता और देश की 1000 वर्षों की गुलामी आदि अनेक कारणों से ये सब भाव चारों ओर फ़ैल न सके। लेकिन जहाँ भी इन विचारों का (4 महावाक्यों का) प्रभाव पड़ा , वहीँ मनुष्य ने देवत्व प्राप्त कर लिया है। ऐसे ही एक देवस्वभाव मनुष्य (गुरुदेव और CINC ?) के स्पर्श से मेरा समस्त जीवन परिवर्तित हो गया है; आज इन सब भावों का (एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति का) जगत में प्रचार करने का समय आ गया है। इन महावाक्यों को मठों की चहार दीवारी में आबद्ध न रखकर, केवल पण्डे -पुरोहितों के पोथियों में आबद्ध न रखकर , इन भावो का प्रचार सम्पूर्ण जगत में करना होगा। जिससे ये महान विचार साधु, पापी , आबालवृद्ध-वनिता , शिक्षित , अशिक्षित सभी की साधारण सम्पत्ति हो जायें। तब ये महान विचार -अद्वैतवाद इस जगत के वातावरण को ओतप्रोत कर देंगे और हम श्वास-प्रश्वास द्वारा जो वायु ले रहे हैं , वह अपने प्रत्येक स्पन्दन के साथ कहने लगेगी - तत्त्वमसि ! तब असंख्य चन्द्रमा-और सूर्यों से परिपूर्ण यह समग्र ब्रह्माण्ड , बोलने की शक्ति से युक्त प्रत्येक प्राणी के माध्यम से एक स्वर से कह उठेगा - तत्वमसि ! " (२/४२)
Be good (and do good) , and evil will vanish for you. The whole universe will thus be changed. This is the greatest gain to society. This is the great gain to the human organism. These thoughts were thought out, worked out amongst individuals in ancient times in India. For various reasons, such as the exclusiveness of the teachers and foreign conquest, those thoughts were not allowed to spread.
Yet they are grand truths; and wherever they have been working, man has become divine. My whole life has been changed by the touch of one of these divine men, about whom I am going to speak to you next Sunday; and the time is coming when these thoughts will be cast abroad over the whole world.
Instead of living in monasteries, instead of being confined to books of philosophy to be studied only by the learned, instead of being the exclusive possession of sects and of a few of the learned, they will all be sown broadcast over the whole world, so that they may become the common property of the saint and the sinner, of men and women and children, of the learned and of the ignorant. They will then permeate the atmosphere of the world, and the very air that we breathe will say with every one of its pulsations, "Thou art That". And the whole universe with its myriads of suns and moons, through everything that speaks, with one voice will say, "Thou art That".
The Real and the Apparent Man
Everything that we see around us, feel, touch, taste, is simply a differentiated manifestation of this Akasha. It is all-pervading, fine. All that we call solids, liquids, or gases, figures, forms, or bodies, the earth, sun, moon, and stars — everything is composed of this Akasha. This Prana, acting on Akasha, is creating the whole of this universe.
" This will be the great good to the world resulting from such realisation, that instead of this world going on with all its friction and clashing, if all mankind today realise only a bit of that great truth, the aspect of the whole world will be changed, and, in place of fighting and quarrelling, there would be a reign of peace.
This will be the great good to the world resulting from such realisation, that instead of this world going on with all its friction and clashing, if all mankind today realise only a bit of that great truth, the aspect of the whole world will be changed, and, in place of fighting and quarrelling, there would be a reign of peace.
This indecent and brutal hurry which forces us to go ahead of every one else will then vanish from the world. With it will vanish all struggle, with it will vanish all hate, with it will vanish all jealousy, and all evil will vanish away for ever. Gods will live then upon this earth. This very earth will then become heaven, and what evil can there be when gods are playing with gods, when gods are working with gods, and gods are loving gods? That is the great utility of divine realization. Everything that you see in society will be changed and transfigured then. No more will you think of man as evil; and that is the first great gain.
No more will you stand up and sneeringly cast a glance at a poor man or woman who has made a mistake. No more, ladies, will you look down with contempt upon the poor woman who walks the street in the night, because you will see even there God Himself. No more will you think of jealousy and punishments. They will all vanish; and love, the great ideal of love, will be so powerful that no whip and cord will be necessary to guide mankind aright.
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