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बुधवार, 23 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना - [4 A] ' स्वामीजी का धर्म '(व्यक्ति और मन),

भावावेश ( Emotionality) रूपी अफीम की मिलावट से परिशोधित धर्म!
भाव (brainchild-अपना विचार या दर्शन) अच्छा है, किन्तु भावुकता (emotionality या भावावेश) अच्छी नहीं। फिर भी हमलोगों में से कई व्यक्ति भावावेश में बह ही जाते हैं। हमलोग किसी भाव या आदर्श को गहराई से सोच-विचार करने के बाद ग्रहण नहीं करते। यह बात सही है, कि स्वामी विवेकानन्द ने धर्म का प्रचार किया था। यह बात भी सत्य है कि धर्म के साथ अफीम (অহিফেন) की गन्ध तरह संयुक्त भावुकता कई बार हमारी बुद्धि मोहग्रस्त कर देती है,और हम अपने कर्तव्य पथ से भटक जाते हैं। उसी प्रकार यह भी सत्य है कि धर्म ही सत्य है, अफीम (धर्म का नशा) सत्य नहीं है! स्वामी विवेकानन्द ने धर्म के सत्य को, अतिशय भावुकता रूपी अफीम के मिलावट से  परिशोधित करके, विशुद्ध धर्म के रूप में -'मनुष्य बनो और बनाओ ' को मानव-समाज के समक्ष प्रस्तुत किया था। 

सच्चे से सच्चा धर्म भी, चाहे जिस कारण से हो - चाहे कट्टर राष्ट्रवाद के कारण हो, सामाजिक सोच या धार्मिक नासमझी के कारण हो, या चाहे जिस कारण से हो, समय के प्रवाह में दूषित हो ही जाता है। धर्म का शुद्ध रूप उसके अनुयायियों के व्यवहार या आचरण में व्यक्त होता हुआ दिखाई नहीं देता। केवल धर्म के मामले में ही ऐसा हुआ हो----सो बात नहीं है; अन्यान्य विचारों के क्षेत्र में भी हमलोग ऐसी घटनाओं को देख पाते है,और आज भी देख रहे हैं। किन्तु जिस समय धर्म के क्षेत्र में ऐसी अवस्था होती है, उस समय धर्म को फिर से नये रूप में सज्जित करके समस्त मनुष्यों के लिये ग्राह्य बनाकर, मानव-जाति के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है, और उसका प्रचार करना पड़ता है।
स्वामीजी के इस नव-वेदान्त प्रचार 'बनो और बनाओ ' रूपी चरित्र-निर्माण आन्दोलन का केवल एक वैशिष्ट है, और वह वैशिष्ट भी भारतीय विचार-धारा के अनुरूप ही है। और वह है, कि अन्यान्य क्षेत्रों में जहाँ विचारकों ने  एक एक विषय के भाव को लेकर ही चिन्तन किया है, और अपने चिन्तन का फल समाज को प्रदान किया है। जबकि स्वामी विवेकानन्द ने मनुष्य के समग्र पहलू (overall-aspect) के ऊपर चिंतन किया है। उनके चिन्तन में मनुष्य की समग्र सत्ता (3H), एवम उसका सम्पूर्ण समाज एक विषय के रूप दिखाई देता है। जबकि अन्यान्य विचारकों में से किसी ने केवल राष्ट्र के उपर चिन्तन किया है, किसी ने समाज के उपर, किसी ने विशेष कौम पर, किसी ने विभिन्न धर्मो के उपर, किसी ने शिक्षा के उपर, किसी ने कृषि के उपर, किसी ने कला के उपर, किसी ने साहित्य के उपर, किसी ने संगीत के उपर - या इसी  प्रकार के अलग अलग कई विषयों को लेकर चिन्तन किया है। 

किन्तु स्वामी जी ने - उपरोक्त समस्त क्षेत्र या त्रिज्यायें जिस केन्द्र के साथ जुड़े हुए हैं, उसी मनुष्य के उपर चिन्तन किया है। तथा मनुष्य वास्तव में क्या है - इस पर चिंतन करते करते उन्होंने ऐसे एक धागे (निःस्वार्थपरता) का अविष्कार कर लिया। जो उपरोक्त सब विचारों के भीतर से होकर गुजर सकता है, तथा उस धागे को मनुष्य के गले में पहना दिया, और उसका नाम दिया धर्म! और कहा कि यही वह धागा है, जो मनुष्य को सभी ओर से धारण किये रखेगा-अर्थात मनुष्य को मनुष्य बनाये रखेगा। इसीलिये भिन्न भिन्न नाम (ब्राण्ड) वाले जो धर्म हैं, जो समय के प्रवाह में केवल भावावेश (emotionality) मात्र प्रदान करते हैं, या अफीम की तरह नशा उत्पन्न करते हैं। स्वामी जी का धर्म, इस तरह के विभिन्न नाम वाले धर्मों से सम्पूर्णतया अलग किस्म का है। किसी ब्रांडेड धर्म का नाम सुनने से ही जिनके मन में एक प्रकार का उन्माद (delirium) उत्पन्न हो जाता हो, वे यदि चाहें तो इसके लिये और एक नये शब्द का अविष्कार कर सकते हैं, वैसा करने से उसमें वास्तव में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।
ऐसा कहना, कि जो लोग किसी खास निर्दिष्ट नुस्खा (Prescription) के अनुसार जीवन -यापन करते हों, वे ही धार्मिक हैं, और बाकी सभी लोग अधार्मिक हैं, इस बात में कोई दम नहीं है। जो अपने जीवन को सभी पहलुओं उसके उपयुक्त केन्द्र में धारण किये रह सकते हैं, वास्तव में वे ही धार्मिक व्यक्ति हैं। मनुष्य अपने केन्द्र से उसी समय जुड़ पाता है, जब वह दूसरे मनुष्यों के साथ युक्त होता है। यह जुड़ाव या योग 
तभी साधित होता है,जब मनुष्य धर्म के उस वैश्विक- धागे को धारण कर लेता है। स्वामी जी द्वारा ' मनुष्य ' की जो परिभाषा दी गयी है, उसमें सूत्र के रूप में यही बात सन्निहित है। स्वामीजी के मतानुसार 'मनुष्य' एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि असीम है, जबकि उसका केंद्र एक स्थान में है। इस सूत्र का  निहितार्थ अत्यन्त व्यापक है। जो मनुष्य स्वामीजी के धर्म में विश्वासी होता है, उसके जीवन की परिधि विश्वव्यापी हो जाती है। 
यहीं पर विकास का मूल है। और स्वामी जी के धर्म की मूल बात- मनुष्य का ऐसा समग्र विकास ही है। इसी विकास के पथ पर अग्रसर रहते हुए,  मनुष्य अपनी क्षूद्र सत्ता, ' मैं'-बोध (अहं भाव) को खोना सीख लेता है। मनुष्य अपनी संकीर्णता, स्वार्थपरता को त्याग करता हुआ विशालता या महिमा को प्राप्त करने की तरफ आगे बढ़ता जाता है। इस प्रकार महिमा की तरफ अग्रसर होना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना है। क्योंकि स्वामीजी के मतानुसार - ' निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है ! ' यदि इसी उक्ति को धर्म कहा जाय, तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? क्या किसी लोक-नायक ने धर्म की ऐसी परिभाषा अन्य किसी भाषा में पहले कभी नहीं कहा है ? जिन्होंने ऐसा नहीं कहा मनुष्य उनको कभी जन-नेता के आसन पर प्रतिष्ठित भी नहीं करता है।
फिलोसफी, जप, तप, देवता-घर, दीपक-दानी, केले का थम, कुशी-घंटी-शंख इन सब को स्वामीजी ने व्यक्तिगत धर्म कहा है। किन्तु जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है परोपकारअपने हृदय के विश्वव्यापी परिधि के अन्तर्गत समस्त जीवों के एकत्व की उपलब्धी करना ही धर्म है। यह उपलब्धी हो जाने के बाद मनुष्य द्वारा किया गया कोई भी कर्म परोपकार होता है, और वही है धर्म। यह धर्म कायरों के लिये नहीं है, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर (डरपोक) दूसरों को मारता है, और वीर ( अर्थात सच्चा जिहादी ) अपने कच्चे ' मैं '-को (अपने तुच्छ अहं को ) मारता है। मैं साँप को मार देता हूँ, बिच्छू को मार देता हूँ, या जिस किसी को भी मैं, मेरे इस सुख-सपने के जीवन को समाप्त कर सकने वाला समझता हूँ, जो मुझे हानी पहुंचा सकता है, उस उस को मैं मार देता हूँ, क्योंकि वास्तव में मैं कायर हूँ। किन्तु जो वीर होता है, वह इस वृहत जगत (भव-सागर ) के पार जाने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर, अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे - ' मैं और मेरा ' को मारता है। 
इसीलिये धर्म कायरों के लिये नहीं वीरों के लिये है। स्वामीजी ने कहा है, ' मनुष्य में अन्तर्निहित अनन्त शक्ति का स्फुरण (या प्रस्फुटित) होना ही धर्म है।'  उस धर्म की अभिव्यक्ति - बुराई को हटाने में,कल्याण
- कार्यों को सम्पादित करने में, भूखों को अन्न-दान करने, अज्ञानियों को ज्ञान देने, अत्याचार का प्रतिरोध करने, शुद्धबुद्धि को उद्घाटित करने के प्रयास से होती है। धर्म का मुख्य कार्य ही है, मनुष्य को शक्ति प्रदान करना। स्वामीजी के मतानुसार - 'जो धर्म मनुष्य को इस संसार में सुखी नहीं बना सकता, उस धर्म के द्वारा परलोक या मरने के बाद सुख देगा का आश्वासन बिलकुल झूठी बात है।'  
यदि मनुष्य इसी लोक में सुख प्राप्त करना चाहता हो, तो वैसा सुख केवल अपने सुख-सुविधा के ऊपर ही दृष्टि को केंद्रित किये रहने से नहीं प्राप्त होगा। यथार्थ धर्म-बोध मनुष्य को, उसकी असीम परिधि तक सक्रीय जन-कल्याण करने की भूमिका-(गुरु-नेता के कार्य) में नियोजित कर देता है। यही बोध उसको अपना और दूसरों का दुःख दूर करने की शक्ति और साहस से भर देता है। यहीं से अंतःकरण में हित-अहित का ज्ञान, अन्तरात्मा की आवाज, या विवेक-प्रयोग करने की शक्ति का जागरण हो जाता है। धर्म मनुष्य को सम्पूर्ण जगत के साथ जोड़ देता है, और नीतिबोध (आत्मा की आवाज या Conscience) उस ईश्वर के साथ जुड़े हुए मनुष्य के कर्म की निति- परोपकार को निर्धारित करता है। 
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मंगलवार, 22 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [3] 'स्वामीजी का मन' (স্বামীজির ভাব)

 'मैं सुधार में नहीं, बल्कि स्वाभाविक उन्नति (Evolution या उद्विकास) में विश्वास करता हूँ।'
'अनुसरण ही यथार्थ स्मरण है'- इस बात की चर्चा करते समय हमलोगों ने देखा था कि स्वामी जी को स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हमलोग उनके मौलिक भाव (उनके मन में चिरस्थायी रूप से बने रहने वाले मनोभाव -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है)- को समझने की चेष्टा करें तथा स्वयं,भले ही वह कितने ही छोटे पैमाने पर क्यों न हो- उस मौलिक भाव का अनुसरण भी करें।
हमलोगों ने यह भी सुना था कि मनुष्य को यथार्थ 'मनुष्य' में रूपान्तरित कर देना, 'মানুষ কে ঠিক ঠিক মানুষ করে তোলা' - अर्थात मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बना देना ही स्वामी जी के मन का स्वाभाविक मनोभाव (প্রকৃত ভাব brainchild) या आदर्श था
यद्यपि मनुष्य को सच्चा 'मनुष्य बना देना' (মানুষ করে তোলা) यह " Be and Make "- मनुष्य बनने और बनाने ' का कार्य बहुत बड़ा कार्य है; तथापि बहुत छोटे पैमाने पर ही सही (छोटे से शिशु-संगठन,
युवा-संगठन या नारी-संगठन के माध्यम से बच्चों-किशोरों-युवाओं को ५ अभ्यास का प्रशिक्षण देने के लिये) स्वयं अग्रसर होकर ही उनका अनुसरण किया जा सकता है- विवेकानन्द जैसे 'गुरु-नेता' के अनुसरण करने का यही एक मात्र पथ है !  
इस विशाल जगत,विशाल समाज,असंख्य मनुष्यों की अनगिनत समस्यायें हैं और उन्हें दूर करने के लिये अनेकों मतवाद (dogma, कट्टर धर्म-सिद्धान्त) हैं,-- इन सबके सामने निर्भीकता के साथ खड़े होकर, सब कुछ को अपनी इच्छानुसार क्रमबद्ध तरीके से सजा देने (जैसे कार्ल मार्क्स की साम्यवादी व्यवस्था को सम्पूर्ण विश्व में लागु कराने के लिये) का स्वप्न देखने का भी अपना एक अलग विराटत्व (magnitude) है! तथापि इस मार्ग से जबरन (राजनैतिक सुधार या बन्दूक का भय दिखाकर) पूरे समाज को सच्चे मनुष्य में रूपान्तरित कर पाने की बहुत अधिक व्यावहारिक सम्भावना दिखाई नहीं पड़ती है।
किन्तु, यदि हममें से प्रत्येक व्यक्ति स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने की चेष्टा करें, तथा यदि हमारी वह चेष्टा दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता कर सके, तो इस विराट कार्य को बहुत छोटे पैमाने पर भी अपने हाथों में लिया जा सकता है। स्वामीजी ने कई प्रकार से इसी पथ से अग्रसर होने का परामर्श, हमलोगों को  दिया था। स्वामीजी के जीवन-संगीत की रागिनी में बार-बार दुहराया जाने वाला आलाप था- 'BE AND MAKE' योजना अर्थात " स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता करो।" भगिनी निवेदिता को ७ जुन, १८९६ को लिखे एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है -मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बता देना।" ४/४०७ (माई आइडियल इनडीड कैन बी  पुट इन्टु अ फ्यू वर्ड्स एंड दैट इज: टू प्रीच अन्टू मैनकाइंड देयर डिविनिटी, एंड हाउ टू मेक इट मैनिफेस्ट इन एव्री मूवमेंट ऑफ़ लाइफ.) 
यदि इस आदर्श का अनुसरण (एक उच्च स्तर की समाज-सेवा समझकर) किया जाय- तो जितने परिमाण में इस कार्य किया जायेगा, उसी परिमाण में समाज की मुखाकृति भी (पशुमानव से देवमानव में) परिवर्तित होती चली जाएगी। और यही है समाज में आमूल-चूल परिवर्तित लाने में समर्थ अध्यात्मिक क्रांति (Spiritual Revolution) या सम्पूर्ण क्रांति ! 
सभी प्राणियों की प्रथम चेष्टा है, अपने प्राणों की रक्षा करने की चेष्टा। सभी प्रकार के जीवों की यही जन्मजात प्रवृत्ति (Inborn tendency) होती है। किन्तु बिना किसी को अपने साथ लिये, अकेले ही प्रयत्न करते रहने से,जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता प्राप्त नहीं होती,- इसी विशेषज्ञता (expertise एक्स्पर्टीज़)  के आधार पर मनुष्यों ने अपने समाज का निर्माण किया था 
इस सत्य को स्वीकार करने के बावजूद कि -केवल अपने स्वार्थ को पूरा करे के लिये जीना कोई जीना नहीं है; ' প্রাণ রাখিতে সদাই প্রানান্ত '- अर्थात लगातार दम (साँस) रोके रहने की चेष्टा करने से दम निकल जाता है। '(केवल वही जीवित है जो दूसरों के लिए जीता है, बाकी तो मृत से भी अधम हैं। फिर भी इसी के लिये - न जाने कितने प्रयत्न किये जाते हैं। और इसीलिये मानव-समाज को पुनः अधिक उपयुक्त रूप में गढ़ने के लिये कितने ही प्रकार की परियोजनाएँ चलाई जाती हैं। और इसी कारण समय समय पर विप्लव (क्रान्ति) की आवश्यकता भी पड़ती रहती है।  
विप्लव शब्द की व्युत्पति ' प्लु ' धातु से हुई है। सम्पूर्ण समाज में किसी भाव (मौलिक विचार) को संचारित कर देना ही विप्लव की मूल बात है। किन्तु जो विचारधारा (भौतिकवाद) अपने साथ सब कुछ को (मनुष्य के चरित्र आदि को भी) को बहा कर ले जाता हो, उसको प्लावन (बाढ़) कहते हैं, विप्लव नहीं कहते। 

'अपने प्राण की रक्षा करना '- समस्त प्राणियों का पहला धर्म होने पर भी,उत्तम प्राणी का कार्य  'प्राण को विकसित करना' होता है। क्योंकि साधारण जीवों (Beasts) के क्षेत्र में जिसे अंतर्निहित प्रवृत्ति (সহজাত বৃত্তি' या Inherent Tendency) या  कहते है, मनुष्य के क्षेत्र में उसी को महत प्रवृत्ति (মহৎ প্রবৃত্তি 'Greater Tendency' महत बुद्धि-माँ) कहते हैं। (इसीलिए कहा जाता है - सर्वश्रेष्ठ योनि मनुष्य योनि है)

जीवन को पूर्ण रूप से विकसित कर लेने की सम्भावना या क्षमता (potential) एक अध्यात्मिक विषय है,तथा उस क्षमता को विकसित करने की चेष्टा ही,आध्यात्मिकता है।  इस मौलिक विचार (भाव) को समाज के सभी क्षेत्रों में संचारित कर देना ही अध्यात्मिक क्रांति (विप्लव) है। और उस (पशु मानव से देवमानव में उन्नत हो जाने की) क्षमता को भौतिकता के सैलाब में नहीं बहने देकर, उसको विकसित कर लेना ही इस आध्यात्मिक क्रांति का उद्देश्य होता है।

समाज में परिवर्तन लाने के लिये, जितनी भी चेष्टायें राजनैतिक तौर पर की जाती हैं, वे सभी एक पक्षीय होती हैं। जैसे हमलोग खादान्न उत्पादन में वृद्धि लाने के लिये कभी हरित-क्रांति करते हैं, तो दुग्ध उत्पादन में वृद्धि लाने के लिये 'श्वेत क्रांति ' की बात करते हैं, या वस्त्र, यातायात, शिक्षा,आवास-योजना आदि के लिये विप्लव करते हैं। और भी कितनी ही वस्तुओं के लिये विप्लव करते हैं। किन्तु मनुष्यों की जो सबसे अंदरूनी सत्ता है (innermost entity-आत्मा या पूर्णता है), जो सभी चीजों की नियन्ता है(controller) है- जिसके पूर्ण विकसित होने से मनुष्य सर्वशक्तिमान् बन जाता है,अपनी समस्त समस्यायों का समाधान करने में स्वयं समर्थ बन जाता है, उसी प्राणप्रद (जीवनदायी) भाव (वेदान्त के चार महावाक्यों) को सभी मनुष्यों के लिये उपलब्ध बना देने वाले आध्यात्मिक विप्लव से बचना चाहते हैं। हमलोग इस बात के उपर थोड़ा भी विचार नहीं करते कि वास्तव में यही तो है मनुष्य के विकास की क्रांति को दबाये रखना और उसके मार्ग में बाधाएँ खड़ी करना। 
इसीलिये स्वामीजी ने कहा था," गत शताब्दी में सुधार के लिये जितने भी आन्दोलन हुए हैं, उन सबका सम्बन्ध भारत के केवल उच्च वर्णों से ही रहा है, जो जनसाधारण का तिरस्कार करके स्वयं शिक्षित हुए हैं। पर यह तो सुधार नहीं कहा जा सकता। सुधार करने में हमें चीज के भीतर, उसकी जड़ तक पहुँचना होता है। इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ। आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः ऊपर उठने दो, एवं एक अखण्ड भारतीय राष्ट्र संगठित करो। " (५/१११ मेरी क्रान्तिकारी योजना)
समाज के सभी स्तर पर रहने वाले मनुष्यों के हृदय को इन्हीं विचारों से, इसी भाव से आप्लावित कर देना ही वेदान्तिक या आध्यात्मिक विप्लव है। कवि रामप्रसाद ने गाया था- ' মূল ধরে টান দেওয়ার' गान अर्थात - ' जड़ को ही पकड़ कर खीँच देने ' वाला गाना। स्वामी विवेकानन्द ने उसी जड़ को उखाड़ कर फिर से रोपना चाहा था। गुलाब के पौधे को जड़ को उखाड़ कर फिर से रोपने पर क्या होता है ? जो कुछ भी प्राचीन कचरा (garbage या मूल्यहीन वस्तु) है, जितनी भी जराजीर्ण विचार हैं, वे स्वतः गिर कर समाप्त हो जाते हैं। फिर उसी जड़ से नयी डालीयाँ, नये पत्ते, नयी कलियाँ, बड़े बड़े बसरा के गुलाब जैसे फूल आदि उगने लगते हैं।
वृक्ष के उपर पानी डालने से केवल पत्तों को ही चमकाया जा सकता है। किन्तु उसके जड़ में (मूल सत्ता में) रस का संचार बाहर से नहीं किया जा सकता है। उसके जड़ में पानी डालना पड़ता है। क्योंकि जड़ ही अपनी मिट्टी को मजबूती से पकड़े रहता है। वही मिटटी से रस को खीँच कर पौधे को जीवित रखता है, डालियों और पत्तों सहित सम्पूर्ण पौधे को बचाए रखता है। केवल जीवित ही नहीं रखता, सुदृढ़ बना देता है (Reinforces) है, उसको फूलों-फलों से सजा देता है। मनुष्य-वृक्ष के मूल को सींचने की बात कहकर स्वामीजी रुक नहीं गये थे, उन्होंने उसको पूर्ण रूप से भव्य बना लेने का मार्ग भी दिखला दिया है। उन सब बातों को हमें धीरे धीरे जानना होगा, उसके उपर गहराई से चिन्तन करना होगा, फिर उन भावों को अपने जीवन में रूपायित करने के साथ साथ सामाजिक जीवन में भी रूपायित करने का प्रयास करना होगा। 
स्वामीजी ने कहा था, 'मैं सुधार में नहीं स्वाभाविक उन्नति (growth) में विश्वास करता हूँ।' जिसमें वस्तु में जीवन होता है, जो सतेज (Spirited या जोशपूर्ण) होते हैं- वे स्वयं विकसित होकर परिवर्तित हो जाते हैं। उस मनुष्य-वृक्ष की जड़ (मूल सत्ता) में बाहर से कोई वस्तु डाल कर उसको ग्रहण नहीं करवाया जा सकता। आज का जीव-विज्ञान (Biology) भी जीव-कोशिकाओं के मूल को जानने की चेष्टा कर रहा है। उसके  'जीन' (Gene) या पित्रैक का अविष्कार करके, जीन उत्परिवर्तन (Gene Mutation) की प्रक्रिया द्वारा उसका रूप, प्रकृति और आचार-व्यवहार में परिवर्तन कराकर, उस जीवधारी की संघटित शरीर रचना (organism) में आमूल परिवर्तन लाने पर शोध कर रहा है। इसीको वैज्ञानिक पद्धति (Scientific method) कहते हैं। स्वामीजी ने वर्षों पहले समाज के ' जीन ' का अविष्कार करके उसका अभ्यास ( Practice) तथा समृद्ध करने का उपाय भी बतला दिया था। 
समाज का मूल मनुष्य है, इसीलिये यदि एक एक करके प्रत्येक मनुष्य को ही दोषरहित (faultless) या सच्चा मनुष्य (चरित्रवान) बना लिया जाय, तो एक परिवर्तित समाज सामने आ सकेगा। यदि हमलोग मनुष्य के समाज को एक पशु-समाज में परिवर्तित होते नहीं देखना चाहते हों, तो हमें इसी वक्त इस बात को समझ लेना होगा कि केवल आध्यात्मिक विप्लव ही  इस कार्य (मनुष्य को निर्दोष बनाने के कार्य) को धरातल पर उतारने में - समर्थ हो सकता है। अन्धे की तरह कम्युनिज्म या पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करने के जिस पथ से  हमलोग चल रहे हैं, उस प्रकार हमलोग इस दुर्भाग्य से कभी बच नहीं सकेंगे। आने वाली विपत्ति की गंभीरता को हमें इसी समय समझ लेना होगा। 
कोई बाघ या सिंह,  मनुष्य की अपेक्षा बहुत अधिक शक्तिशाली होता है, किन्तु उसकी शक्ति को पाशविक शक्ति कहा जाता है। उस शक्ति का अनुशीलन करने से मनुष्य की प्रगति नहीं होती। पीछे लौटना ही पड़ता है। मनुष्य की वास्तविक शक्ति है - उसका मनुष्यत्व ! स्वामीजी के इसी सन्देश को सभी मनुष्यों तक ले जाना होगा। उन्हें इस सच्चाई को समझा देना होगा, कि कोई मनुष्यत्व-सम्पन्न मनुष्य दूसरों की किसी प्रकार की हानी पहुँचाकर, निन्दा कर, या  दूसरों का सिर फोड़ कर अपना पेट भरने की चेष्टा कभी नहीं करता। वह तो दूसरों का कल्याण करने के माध्यम से, अपना कल्याण करने के मार्ग से होकर चलता जाता है। यही भाव - आदर्श भाव है। और यही स्वामीजी के मन का भाव है। [उन्होंने कहा था -" अपने में ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त करने का यही एक मात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरों की सहायता करना।"]
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सर्वोत्तम पत्र : स्वामी ब्रह्मानन्द जी को १८९५ में लिखित
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा:
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्त: ॥
नीतिशतकम् (५३/२२१)
[अर्थात ---मनसि---मन में , वचसि---वाणी में, काये---शरीर में, पुण्यपीयूषपूर्णाः---पुण्यरूप अमृत से भरे हुए, त्रिभुवनम्---तीनों लोकों को, उपकारश्रेणिभिः--उपकारों की पंक्ति से,  प्रीणयन्तः---प्रसन्न रखते हुए, नित्यम्---सदा, परगुणपरमाणून्---दूसरों के छोटे-से-छोटे गुणों को भी, पर्वतीकृत्य--पर्वत के समान बढा-चढाकर, (बडाकर), निजहृदि विकसन्तः--अपने हृदय में विकसित करते हुए , सन्तः, सज्जन व्यक्ति, (संसार में), कियन्तः सन्ति---कितने हैं ? ]
भावार्थः----मन, वाणी और शरीर में सकर्मरूपी अमृत से परिपूर्ण , तीनों लोकों का अनेक प्रकार के उपकारों से कल्याण करने वाले और दूसरों के थोड़े से भी गुणों को सर्वदा पहाड़ की तरह (बहुत बडा) मानकर अपने हृदय में प्रसन्न होने वाले सत्पुरुष (संसार में) कितने हैं, अर्थात् ऐसे सज्जन बहुत कम है, दुर्लभ हैं ।
' जिसके मन में साहस तथा हृदय में प्रेम है, वही मेरा साथी बने -मुझे और किसी की आवश्यकता नहीं है। जगन्माता की कृपा से मैं अकेला ही एक लाख के बराबर हूँ, तथा स्वयं ही बीस लाख बन जाऊँगा। मेरा भारत लौटना अभी अनिश्चित है। यहाँ पर पण्डितों का संग है, वहाँ मूर्खों का-यही स्वर्ग-नरक का भेद है। यहाँ के लोग मिलजुल कर कार्य करते हैं, और हमलोगों के समस्त कार्यों में तथाकथित वैराग्य अर्थात आलस्य और ईर्ष्या का भाव रहता है, जिसके कारण सबकुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।
' स्वल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः – समय अत्यन्त कम है और विघ्न अनेक हैं । '' परोपकाराय सतां जीवितं' ' परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत्' — 'सत्पुरुषों का जीवन (जो उसे दुबारा मिला है) परोपकार के लिए ही होता है।' 'स्थितप्रज्ञ मनुष्य को दूसरों के कल्याण के निमित्त अपना जीवन न्योछावर कर देना चाहिये।' संसार में यही एकमात्र मार्ग है ! " तुम्हारी भलाई करने में ही मेरी भी भलाई है, दूसरा कोई उपाय नहीं है, बिल्कुल नहीं है। तुम भगवान हो, मैं भगवान हूँ और सभी मनुष्य भगवान हैं। यह वही भगवान है, जो ह्यूमनिज्म या मानवता के रूप में अभिव्यक्त होकर दुनिया में सबकुछ कर रहा है, फिर क्या भगवान कहीं अन्यत्र बैठा हुआ है ? अतः कार्य -- 'BE AND MAKE' में संलग्न हो जाओ! 
'भोग करते समय ब्राह्मणेत्तर जाति का स्पर्श करने से कोई दोष नहीं होता, भोग समाप्त होते ही स्नान आवश्यक है , क्योंकि ब्राह्मणेत्तर जाति तो अपवित्र है, अन्य समय में उसे स्पर्श करने की आवश्यकता भी नहीं है। ढोंगी साधु-संन्यासी तथा ब्राह्मण दुष्टों ने देश को रसातल पहुँचाया है ! आस्तिक लोग वीर होते हैं ! जो महाशक्ति उनमें विद्यमान है, उसका विकास अवश्य होगा ! और उससे जगत आप्लावित हो जायेगा। जो लोग आस्तिक हैं, अपने-आप पर विश्वास करते हैं, वे हीरो हैं! वे अपनी जबरदस्त शक्ति को इस प्रकार प्रकट करेंगे -कि उसकी बाढ़ में सम्पूर्ण विश्व बह जायगा। 'गरीबों का उपकार करना ही दया है। ' 'मनुष्य भगवान है, नारायण है। ' 'आत्मा में स्त्री-पुरुष-नपुंसक तथा ब्राह्मण, क्षत्रियादि भेद नहीं है।
" अपने ब्रह्मस्वरूप को अभिव्यक्त करने का एकमात्र उपाय यही है, कि इस विषय में दूसरों की सहायता की जाय।" (इसी का सूत्र है -' Be and Make!')
" ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण परमहंस)  से लेकर तृण के गुच्छे तक, सब कुछ नारायण है !" धरती पर रेंगने वाले कीड़े (बीस्ट्स)  में वह शक्ति कम प्रकट है, और परमहंस जी में वह शक्ति अधिक प्रकट है-बस अंतर केवल इतना ही है !
जिन कार्यों से (५ दैनंदिन अभ्यासों के बारे में दूसरों को बताते रहने से) क्रमशः अपने ब्रह्मभाव (पवित्रता) को अभिव्यक्त करने में जीव को सहायता मिलती हो - वे अच्छे कर्म या सत्कर्म हैं, और वैसा प्रत्येक कर्म जिसे करने से उसमें बाधा पहुँचती है-बुरे कर्म हैं। " अज्ञानी, पददलित, तथा दरिद्र- इनको अपना ईश्वर समझो ! 'अस्पृश्यता '-इज अ फॉर्म ऑफ़ मेन्टल डिजीज -उससे सावधान रहना। " ह्रदय का विस्तार ही जीवन है, और उसकी संकीर्णता ही मृत्यु!" जिस ह्रदय में परायों के लिये भी प्रेम है, वहीँ ह्रदय का विस्तार हो रहा है, और जहाँ केवल अपने शरीर से जन्मे या नाते-रिश्तेदारों के प्रति स्वार्थ होगा, वही हृदय क्रमशः संकुचित होता जाता है। अतः प्रेम ही जीवन का एकमात्र विधान है ! जो प्रेम करता है, वही जीवित है; जो स्वार्थी है, वह मृतक है। अतः केवल प्रेम के लिये प्रेम -यह जीवन का वैसा ही एकमात्र विधान है, जैसा जीने के लिये श्वास लेना। निष्काम प्रेम (भक्ति), किष्काम कर्म का यही रहस्य है। श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय अवतार में ज्ञान, भक्ति, कर्म, मनःसंयोग -चारो योग ही विद्यमान हैं ! उनमें अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रेम, अनन्त कर्म तथा सभी प्राणियों के लिए अनन्त दया है ! अभी तक (१६ जनवरी) तुम्हें इसका अनुभव नहीं हुआ? -- श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् !
--आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य: ।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति
 श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।गीता २. २९।।
कोई इस शरीरी (नवनी दा)  को आश्चर्य की तरह देखता है। वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्य की तरह सुनता है,  और इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता।४/३१० 
[जैसे एक बीज नष्ट होकर अंकुर में, अंकुर नष्ट होकर पौधे में,फिर मक्के का असंख्य बीज प्राप्त होता है। विवेकानन्द का कहना है कि " मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जाता,वरन सत्य से सत्य की ओर अग्रसर होता है; निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर जाता है।" तथा "मुक्ति का सिद्धान्त यह है कि 'मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके ईश्वर होना है' गीता १०/४१ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - 'जहाँ मानव-जाति को पवित्र और उसका उन्नयन करती असामान्य पवित्रता,असामान्य शक्ति,तेरे देखने में आये,तू जान कि मैं वहाँ हूँ!'
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१. नवनी दा का अपना दर्शन था -'कोई पराया नहीं है, सभी को अपना बनाना सीखो! ' -'मैं उस प्रभु का सेवक हूँ, जिसे अज्ञानी लोग 'मनुष्य' कहते हैं' - इसीलिए उनकी शिक्षा थी-'अविरोध' ! इसीलिये नवनी दा सभी प्रकार के मनुष्यों, सभी देशों के सभी मनुष्यों को उसकी पूर्णता को अभिव्यक्त करने की दिशा में अग्रसर होने में सहायता करना चाहते थे। मैंने एक बार TV पर पार्लियामेन्ट में राष्ट्रगान होते समय 'बसपा' के एक एम्.पी द्वारा राष्ट्र-गान का वहिष्कार करते देखा था; और इस बात पर दादा के समक्ष तीव्र प्रतिवाद किया था, कुछ अन्य भाइयों ने भी स्वदेश मन्त्र के कुछ अंशों को नहीं दुहराने की बात कही थी, इसी बात पर प्यार से डाँटते हुए उन्होंने कहा था-'भूल गया ? महामण्डल आंदोलन का मूल भाव है -अविरोध!) 
२. मनुष्य का सही रूप में 'मनुष्य बन जाना' (মানুষ হয়ে ওঠা) किसे कहते हैं ? नवनी दा के मतानुसार  'यथार्थ मनुष्य'  वह है जिसे अपने सामर्थ्य में ऐसी अटूट श्रद्धा हो, इतना निर्भीक हो - कि,मैं तो शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ ! देखता हूँ -  " इस क्षण के बाद आने वाले मृत्यु के क्षण में मरता कौन है- ?"  इसका साक्षात्कार करके 'विवेकज-ज्ञान' अपरोक्ष ज्ञान द्वारा अपने यथार्थ स्वरुप (ईश्वर या ब्रह्म)  को भी जान कर जो व्यक्ति 'ब्रह्मविद' मनुष्य बन जाता है, वही यथार्थ मनुष्य है !  वे कहते थे - ' क्योंकि मनुष्य की सत्ता (पूर्णता या आत्मा ) सभी देशों और सभी युग में एक ही रहती है। इसलिए उस सत्ता (पूर्णता) की अभिव्यक्ति विभिन्न देशों या विभिन्न युगों में अलग अलग रूपों में हो सकती है। अर्थात वही सत्ता (पूर्णता) ही देश-काल -पात्र के अनुसार अपने को कभी ईसा, कभी बुद्ध, कभी मोहम्मद,नानक, कबीर, राम-कृष्ण, श्रीरामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, तो कभी नवनी दा आदि असंख्य रूपों में अपने को अभिव्यक्त करती है ! क्योंकि मानव-मात्र में ब्रह्म अव्यक्त रूप से विद्यमान है; अपने हृदय में स्थित उस ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाने अर्थात ब्रह्मविद मनुष्य बन जाने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान है। किसी भी जाति, धर्म और देश में जन्मा कोई भी व्यक्ति, चाहे वह नास्तिक ही क्यों न हो, कोई भी भाषा क्यों न बोलता हो - किसी भी पैगम्बर, अवतार या भगवान को अपना आदर्श क्यों न मानता हो; अपना चरित्र-निर्माण करके 'यथार्थ मनुष्य' - ' मैन विथ कैपीटल 'म' - या ब्राह्मण बन सकता है।
३. तथा मनुष्य को सही 'मनुष्य बना देना' (মানুষ করে তোলা) की पद्धति क्या है ? पद्धति है, ५ दैनंदिन अभ्यास- १. 'अब लौं नसानी अब न नसैहों' का संकल्प ग्रहण या प्रार्थना,२. मनःसंयोग, ३. व्यायाम, ४. स्वाध्याय, ५.विवेक-प्रयोग ! 
४. इसिलिये  वनी दा ने अपने अपने क्रमानुयायियों (Successor, उत्तराधिकारी भावी नेताओं) के सामने एक अभूतपूर्व अनुरोध (appeal) रखा था। वे कहते थे - 'गरीबों को प्रकाश दो। किन्तु धनी लोगों को और अधिक प्रकाश दो, क्योंकि वे लोग उनकी अपेक्षा अधिक गहरे अंधकार में गिरे हुए हैं। अशिक्षित लोगों को प्रकाश दो, किन्तु शिक्षित लोगों को और भी अधिक प्रकाश दो, क्योंकि वर्तमान समय में उच्च शिक्षा (ब्राह्मण होने) का अहंकार बहुत अधिक बढ़ गया है। इसीलिये, जो लोग धन या विद्या (विवेकज ज्ञान को समझकर भी ब्राह्मण होने) के अहंकार 'arrogance' में चूर हैं, वे भी कम करुणा के पात्र नहीं हैं। क्योंकि वे लोग समाज के उपेक्षित मनुष्यों (दूसरे धर्म में जन्मे मनुष्यों या  शुद्र रूपी देवताओं) की सेवा करने का अवसर पा कर भी उसका सदुपयोग नहीं करते। जो लोग गरीबों के शोषण से प्राप्त धन को खर्च करके शिक्षित हुए हैं, किन्तु पढ़-लिख लेने के बाद उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं सोचते, उनको ही स्वामीजी ने देशद्रोही के रूप में चिन्हित किया था। 
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सोमवार, 21 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [2] ' अनुसरण ही सच्चा स्मरण है '

स्वामी जी ने ऐसा क्यों कहा था - 
'अशिक्षित लोगों को प्रकाश दो, किन्तु शिक्षित लोगों को और अधिक प्रकाश दो !'   
स्वामी विवेकानन्द ( नरेन्द्रनाथ दत्त ) का जन्म एक सौ पचास वर्ष पूर्व १२ जनवरी, १८६३ ई० को  हुआ था। और ४ जुलाई १९०२ को, मात्र ३९ वर्ष की आयु में ही, मानो किसी आँधी की सदृश्य उन्होंने सपूर्ण विश्व को ही झकझोर देने के बाद उन्होंने अपने शरीर का त्याग कर दिया था। जिस समय वे जीवित थे, पहले हमने उनके विचारों का विरोध किया था, उनकी निन्दा की थी, उनके उपर झूठे आरोप लगाये थे, और उन आरोपों को बढ़ा-चढ़ा कर प्रचार करने की चेष्टा भी की थी। फिर उनको प्यार भी किया था, प्रशस्ति-पत्र दिए थे, उनके स्वागत में तोरण-द्वार सजाये थे, उनके रथ को घोड़ों से खिंचवाने के बजाय मनुष्यों से खिंचवाया था, धन्यवाद कहा था, उनके प्रति श्रद्धा दिखलाये थे, उनकी पूजा की थी।
आज, उनके चले जाने के ९५ वर्ष बाद भी हमलोग उनके आविर्भूत होने को स्मरण करके ,उनके प्रति विभिन्न प्रकार से अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करते हैं। किन्तु हमलोगों के सामाजिक जीवन में आज मानो एक ऐसा संधि-क्षण उपस्थित हुआ है जब कुछ लोग, थमक कर यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि हमलोग अभी जिस रूप में स्वामीजी की जन्मजयंती आदि मना, रहे हैं, उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त  करने का वह तरीका ठीक भी है या नहीं? लगता है शायद नहीं ! क्योंकि, तब हमलोग सोचते, उनके विचार तो बहुत अच्छे और उपयोगी प्रतीत होते हैं, किन्तु उनके संदेशों को देख-सुनकर और समझ-बुझकर आगे बढ़ना श्रेयस्कर होगा। किन्तु हम वैसा नहीं कर रहे हैं।  ९५ वर्ष पहले के दिनों में विवेकानन्द के प्रति हमलोगों ने जो विरोधिता एवं उत्साही-आवेग दोनों ही भाव प्रदर्शित किये थे, वे बहुत हद तक हमारे मन की संकीर्णता एवं जड़ता तथा अतिशय भावुकता और परिणाम थे। अभी का यह उत्साह ('विवेकानन्द रथ ' के पीछे-पीछे चलने वाला अभी का यह आवेग) भी लगभग उसी प्रकार का है। 
किसी कार्य को करने के पहले हमलोग अक्सर  खूब सोच-बिचार  करने के बाद कदम नहीं बढ़ाते हैं। किसी व्यक्ति या भाव को ग्रहण करते समय केवल,अपने तात्क्षणिक-भावना या अपनी पसन्द या नापसन्द को ही अधिक महत्व देते हैं, विवेक-विचार करके यह देखने की चेष्टा नहीं करते कि जिस आदर्श या उद्देश्य को हम ग्रहण कर रहे हैं, या वहिष्कार कर रहे हैं, उसका अपना तात्विक मूल्य (intrinsic value) कितना है ?  बिना जाने समझे ही दल बनाकर किसी की भी पूजा करना, या अपनी अज्ञानता के कारण किसी उच्च आदर्श की उपेक्षा कर देने से अधिक श्रेयस्कर है, रुककर थोड़ा सोच-विचार करना। किसी के कहने पर नहीं, स्वयं एक व्यक्ति के रूप में विवेक-विचार से निर्णय करके देखूँगा कि जिस व्यक्ति को मैं अपना आदर्श मानने जा रहा हूँ, उसके कौन -कौन से भाव (चरित्र के गुण) सचमुच अच्छे हैं, और मेरे लिए अनुकरणीय हैं ? इस प्रकार विवेक-विचार करने के बाद ही उन भावों को या तो ग्रहण करूँगा या उनका वहिष्कार कर दूँगा। 
इस प्रकार विवेक-प्रयोग करने के बाद किसी भाव का वहिष्कार करने से भी क्षति नहीं होगी। और एक बार यदि कुछ भावों को आदर्श मान कर ग्रहण कर लिया, तो पूरी आस्था के साथ उन भावों को कार्यरूप देने की चेष्टा में लग जाना होगा। क्योंकि यदि उन उच्च भावों जीवन में नहीं अपनाया गया तो, उन भावों को ग्रहण करने का कुछ अर्थ ही नहीं है। स्वामी विवेकानन्द या अन्य किसी  (नवनी दा?)के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का तब तक कोई विशेष मूल्य नहीं है, जब तक हमलोग उनके भाव (सदगुणों को) को निष्ठा के साथ ग्रहण न कर सकें,तथा उन भावों को अपने जीवन में एवं समाज में रूपायित करने की चेष्टा न करें। इन दिनों हमलोग जिस प्रकार अश्रद्धा प्रकट करने के लिए भी समारोह आयोजित करते हैं, उसी प्रकार से कई लोगों के प्रति श्रद्धा-सुमन भी चढ़ा आते हैं। 
इस प्रकार, वर्ष भर  लगातार एक के बाद एक विभिन्न महानुभावों का शत-वार्षिक समारोहों को आयोजित होता देखने से आश्चर्य भी होता है, कि इस भारतवर्ष में पहले इतने सारे एक के बाद एक स्मरण करने योग्य व्यक्ति क्या सचमुच भारत में आविर्भूत भी हुए थे ! हमलोग प्रत्येक वर्ष बहुत से  महापुरुषों की जन्म-जयन्ती मनाते हैं, या स्मरण-सभाओं का आयोजन करते हैं। किन्तु  उसके साथ साथ यदि उनके भावों को आचरण में उतारने  की चेष्टा भी करते हों, तभी यह निर्धारित होगा कि ,हमलोग  उनका स्मरण कितनी आंतरिकता के साथ करते हैं और उसका मूल्य कितना है? अतः यदि हमलोग स्वामी विवेकानन्द का स्मरण करना चाहते हो, तो कम से कम उनका अनुसरण करने की चेष्टा तो हमें करनी ही चाहिये। क्योंकि यदि (या अब नवनी दा के लिये स्मरण-सभा का आयोजन तो करना चाहते हों, किन्तु ) उनका भी अनुसरण हमलोग नहीं कर सकें, तो उनके नाम पर आयोजित होने वाली समस्त स्मारक सभायें निरर्थक हो जायेंगी। इसलिये प्रश्न उठता है कि उनका (नवनी दा का) अनुसरण किस प्रकार किया जाय ?  कहाँ और किस क्षेत्र में हम लोग उनका (नवनी दा का ) अनुसरण कर सकते हैं ? यदि हम सचमुच उनका स्मरण करना चाहते हों, तो पहले यह विचार करना पड़ेगा कि उनका  (नवनी दा का ) मूल भाव (The main idea) क्या है
हमलोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य का सही रूप में 'मनुष्य बन जाना' (মানুষ হয়ে ওঠা); या मनुष्य को सही 'मनुष्य बना देना' (মানুষ করে তোলা) --यही उनका मौलिक विचार (brainchild या अपना विचार) है। 
यदि ऐसा है, तब तो मनुष्य के जीवन के समस्त क्षेत्रों में इस विचार-धारा को रूपायित कर देना सम्भव है; और समाज के सभी स्तर पर रहने वाले मनुष्यों के बीच इस कार्य को किया जा सकता है। इस विचार का उपयोग देश-काल की सीमारेखा  के परे (स्थानिक दूरी एवं सामयिक दूरी, या टाइम ऐंड स्पेस ) भी किया जा सकता है।  क्योंकि मनुष्य की सत्ता (पूर्णता या आत्मा ) सभी देशों और सभी युग में एक ही रहती है। उस सत्ता (पूर्णता) की अभिव्यक्ति विभिन्न देशों या विभिन्न युगों में अलग अलग हो सकती है। (देश-काल -पात्र के अनुसार पूर्णता ही  अपने को ईसा, बुद्ध, मोहम्मद, नानक, कबीर, राम-कृष्ण, श्रीरामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, नवनी दा के रूप में अपने को अभिव्यक्त करती है !) इसीलिये कोई भी अवरोध, चाहे समस्त प्रकार की संकीर्णता हो, या विशिष्ट आदर्श की सीमा हो,इसे सीमित नहीं कर सकते। स्वामी जी (और नवनी दा भी) सभी देशों के सभी मनुष्यों को उसकी पूर्णता को अभिव्यक्त करने की दिशा में अग्रसर होने में सहायता करना चाहते थे
इसीलिये,जिन मनुष्यों में संभावनाओं की अभिव्यक्ति सबसे कम हो सकी है,उनकी दृष्टि विशेष रूप से उनके उपर आकृष्ट हुई थी। जो लोग मूर्ख हैं, दरिद्र हैं, जो समाज में सबसे अधिक उपेक्षित और पददलित हैं, उनके प्रति स्वामी विवेकानन्द की संवेदना (compassion) सबसे अधिक थी। किन्तु इसके बावजूद, उनहोंने अपने क्रमानुयायियों (Successor, उत्तराधिकारी भावी नेताओं) के सामने एक अभूतपूर्व अनुरोध (appeal) रखा था। उन्होंने कहा था- गरीबों को प्रकाश दो। किन्तु धनी लोगों को और अधिक प्रकाश दो, क्योंकि वे लोग उनकी अपेक्षा अधिक गहरे अंधकार में गिरे हुए हैं। अशिक्षित लोगों को प्रकाश दो, किन्तु शिक्षित लोगों को और भी अधिक प्रकाश दो, क्योंकि वर्तमान समय में उच्च शिक्षा (डॉक्टरेट की डिग्री) का अहंकार बहुत अधिक बढ़ गया है। इसीलिये, जो लोग धन या विद्या के अहंकार (arrogance) में चूर हैं, वे भी कम करुणा के पात्र नहीं हैं। क्योंकि वे लोग समाज के उपेक्षित मनुष्यों (देवताओं) की सेवा करने का अवसर पा कर भी उसका सदुपयोग नहीं करते। जो लोग गरीबों के शोषण से प्राप्त धन को खर्च करके शिक्षित हुए हैं, किन्तु पढ़-लिख लेने के बाद उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं सोचते, उनको ही स्वामीजी ने देशद्रोही के रूप में चिन्हित किया था। उन्होंने कहा था कि जब तक उनके देश का एक कुत्ता भी भूखा है, उसको रोटी देना ही मेरा धर्म है। 
इसीलिये आज यदि हम उनका अनुसरण करना चाहते हों, तो हमलोगों के लिये इस बात को ठीक तरीके से समझ लेना आवश्यक है कि स्वामी विवेकानन्द (नवनी दा) अपने सक्सेसर्स (उत्तराधिकारियों) से क्या चाहते थे ? जब उनको पहली बार देखा, तो वे कैसे लगे -(नवनी दा या स्वामीजी को देखा तो ऐसा लगा जैसे शायर का ख्वाब, जैसे मन्दिर में हो एक जलता दिया, हो!) या देखने से- वे हमें कैसे लगते हैं, उसी को लेकर बैठे रहना भावुकता का लक्ष्ण है। 
विवेकानन्द के प्रभावशाली मुखमण्डल या गेरुआ वस्त्र (या नवनी दा की पेनीट्रेटिंग दृष्टि) को देखकर, विवेक-रहित तरीके से अभिभूत न होकर, हमें यह उपलब्धी करनी होगी कि उनका गेरुआ वस्त्र (और नवनी दा के चश्मा के भीतर से भेदनकारी दृष्टि) उनके अनन्त-जीवन के संग्राम का प्रतिक है। उनको स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हमलोग उनके मौलिक भाव (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है)- को समझने की चेष्टा करें तथा स्वयं,भले ही वह कितने ही छोटे पैमाने पर क्यों न हो-  उस मौलिक भाव का अनुसरण भी करें। 
 हमलोगों ने सामाजिक दृष्टि से -व्यापक रूप में यह समाज क्या है, या प्रत्येक मनुष्य वास्तव में क्या है ; इस दृष्टि से हमने उनके मौलिक भाव को (नवनी दा के ब्रेन्चाइल्ड -अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल कोसमझने की चेष्टा ही नहीं की है। उनका अनुसरण करना तो अभी भी बड़े दूर की बात है।
 इसलिये आज स्वामीजी की १५० वीं जयन्ती  '१२ जनवरी ' के अवसर पर (और नवनी दा के आगामी ८५ वीं जयन्ती १५ अगस्त २०१७ मनाते हुए) उनको स्मरण करते समय, इन बातों को हमें भूलना नहीं चाहिये। 
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[अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक, सचिव और बाद में अध्यक्ष श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (हमलोगों के नवनी दा) ने २६ सितंबर २०१६ को कोन्नगर स्थित महामण्डल भवन में अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया, और श्रीरामकृष्ण लोक चले गये। उनका  जन्म १५ अगस्त १९३१ को श्री रामकृष्ण परमहंस के पार्षद महिमाचरण चक्रवर्ती के काशीपुर स्थित निवासस्थान में हुआ था। महिमाचरण चक्रवर्ती की पुत्री तुषारवासिनी देवी के साथ नवनी दा के पितामह शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय का विवाह हुआ था, और उन्हीं की सन्तान थे नवनीहरन के पिता डॉ. इन्दीवर मुखोपाध्याय। नवनी दा की पूजनीया माता जी का नाम था, उषारानी देवी। नवनीहरन मुखोपाध्याय के पितामह शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय तथा उनके अग्रज यतीषचन्द्र मुखोपाध्याय दोनों प्रेसिडेंसी कॉलेज के मेधावी छात्र थे, तथा श्रीरामकृष्ण के पार्षद नाटककार महाकवि गिरीशचन्द्र घोष के अंतरंग मित्र थे। नवनी दा की संक्षिप्त जीवनी बंगला और अंग्रेजी में महामण्डल द्वारा प्रकाशित हुई है, अगले अंक में उसका हिन्दी अनुवाद देने की चेष्टा करूँगा। ....... तब तक 
'Inter State Be and Make ' ग्रूप से जुड़े सभी भाइयों के लिये एक निवेदन :स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ' नामक महामण्डल पुस्तक में 'स्वामी विवेकानन्द -व्यक्ति और मन', के अन्तर्गत ९ निबन्धों को रखा गया है। पूज्य नवनी दा के शरीर त्याग देने के बाद यदि हम इस शीर्षक को ऐसे पढ़ें - 'श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय और हमारी सम्भावना ' तथा प्रथम विचार बिन्दु -'को ऐसे पढ़ें -'श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय-व्यक्ति और मन '। और उनके शरीर त्याग के बाद जो 'स्मरण सभा', उनकी जीवनी और वीडियो प्रकाशन आदि तो प्रकाशित हुए हैं; उसी क्रम में इस लेख का शीर्षक - 'नवनी दा अनुसरण ही सच्चा स्मरण है !' के आलोक में इन निबन्धों को फिर से पढ़ा जाय तो महामण्डल कर्मियों को लाभ होगा -ऐसा मेरा विचार है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए, ' स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ' के सभी ७३ लेखों को फिर से अनुवादित किया जा रहा है।] 
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शनिवार, 19 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना :[1] 'विवेकानन्द अतीत के नायक थे या भावी युग के ?'

स्वामी विवेकानन्द उद्विकास (evolution) या क्रमिक विकास में विश्वास रखते थे।
जब हमारे कुछ बुद्धिजीवी (तथाकथित) लोग स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त व्याख्यानों के कुछ शब्दों का अर्थ, सामान्य  प्रचलित धारणा के अनुसार तोड़-मड़ोड़ कर व्यक्त करते हैं, तो हमलोग अक्सर उनके कथन का गलत अर्थ समझ बैठते हैं। क्योंकि,हमलोगों ने अभी तक स्वयं 'विवेकानन्द साहित्य'  को  गहराई से पढ़ने या समझने की चेष्टा  नहीं की है, इसीलिये उनको एक महान 'Religious awe' (धार्मिक खौफ) के रूप में देखते हैं, किन्तु साथ ही साथ उनके प्रति एक आदर का भाव भी रखते हैं। परन्तु,यह आदर का भाव उनको ठीक से नहीं समझ पाने के कारण, उनके प्रति अटूट श्रद्धा में परिणत नहीं हो पाता, इसीलिये युवावस्था में तो हमलोग उनका अनुसरण करने की बात भी नहीं सोच पाते हैं।

स्वामी विवेकानन्द (१८६३-१९०२)
उनके व्याख्यानों के  कुछ  (उत्तिष्ठत -जाग्रत आदि) अबूझ-शब्दों को पहली बार सुनने के कारण हमलोग उनको भी कोई आम प्राचीन दुरूह धार्मिक प्रवक्ता समझ लेते हैं। क्योंकि, आज के हमलोग- जिस समय विवेकानन्द जी आविर्भूत हुए थे, उस समय से  बहुत आगे निकल चुके हैं- आज हमलोग चन्द्रमा की धरती पर पैर रखने का गर्व करने वाले मानव बन चुके हैं। समय के साथ साथ हमलोग भी चलते  चले जा रहे हैं। हमलोग समय के साथ कदम से कदम मिला कर चलना चाहते  हैं। क्योंकि जिनके पाँव समय के साथ मिल कर चलते हैं, उनको ही आधुनिक मनुष्य कहा जाता है, नहीं तो प्राचीन युग में जीने वाला या ' पुरातन-पन्थी ' समझ लिया जाता है।  किन्तु समय के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पाने के- दो कारण हो सकते हैं। पहला जो मनुष्य समय से पीछे रह गया है, उसके कदम समय के साथ मिलेंगे ही नहीं। दूसरा - जो लोग मानवजाति के मार्गदर्शक नेता होते हैं वे भविष्य-द्रष्टा ऋषि होते हैं, इसीलिये वे सदैव अपने कदमों को समय से आगे बढ़ा कर चलते हैं ! अतएव समय के साथ-साथ चलने वाले व्यक्तियों के कदम भी नेता के कदमों से नहीं मिल पाते हैं। और यही कारण है कि स्वामी विवेकानन्द जैसे किसी युग-नायक के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले लोग बहुत कम ही होते हैं। इसीलिये उनके जैसे नेता का तो सदैव अनुसरण ही करना पड़ता है।
 प्राचीन समय में दिये गये स्वामी जी के व्याख्यानों को, कुछ लोग वर्तमान के भौतिकवादी वातावरण में अपनी बुद्धि की तराजू पर तौल कर और तर्क-वितर्क करके उतना उपयोगी नहीं मानते। किन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि - समय के साथ जिनके शब्द नहीं मिलते, वे समय से पीछे रहने वालों के शब्द भी हो सकते हैं, और समय से आगे चलने वालों के शब्द भी हो सकते हैं। स्वामीजी के शब्द समय से आगे रहने वालों में से थे। वे तो अतीत के बिल्कुल विपरीत- भविष्य के द्रष्टा थे। इसीलिये वर्तमान की निष्क्रियता और धीमी गति को देखने लिए उन्हें पीछे मुड़ कर देखना पड़ता था । वास्तव में हमलोगों के लिये उनको समझाना अपनी ही निष्क्रियता तथा धीमी गति आदि सैंकड़ो कारणों से आमतौर पर थोड़ा
कठिन प्रतीत होता है। 
जिस युग में स्वामी विवेकानन्द आविर्भूत हुए थे, उस समय पाश्चत्य से नव आयातित आधुनिकता या भौतिकवाद के कारण मूर्ति-पूजा के प्रति अविश्वास का भाव हमारे देश को प्लावित कर रहा था, और उनके समकालीन नवशिक्षित सम्प्रदाय उसी 'विश्वास-अविश्वास 'के प्लावन में डूब-उतरा रहे थे। किन्तु उन्हीं दिनों स्वामी  विवेकानन्द ने यह भी कहा था कि  ' वे इतने नौसिखुए आधुनिक भी नहीं हैं, जो ईश्वर को तड़ित (बिजली) का 'परिणाम-विशेष' के रूप में प्रमाणित करने की चेष्टा करेंगे। ' वे तो एक ऐसे नित्य-आधुनिक व्यक्ति थे- जो अपने (विवेकज ज्ञान के द्वारा)  इन्द्रधनुष के समान विस्तृत अतीत में हुए सृष्टि-के क्षण से प्रारंभ करके,वर्तमान को भी पार करके, भविष्य तक की सृष्टि को' - केवल एकबार दृष्टिपात करके ही, स्पष्ट रूप से देख पाने में समर्थ थे।
इसीलिये वे अपने युग के तथाकथित ' नव-आधुनिक ' या **छद्म उदारवादियों के जैसा इस मन्त्र का जाप करने को तैयार नहीं थे, कि समय के प्रवाह में पुराने होकर जिन सनातन मूल्यों (वर्णाश्रम धर्म आदि) को 
'पूराण' के नाम से पुकारा जाने लगे, जायें उन्हें बिल्कुल ही त्याग देना चाहिये। क्योंकि ' वहिष्कार ' (Exclusion ) जैसे शब्द का उनकी भाषा में कोई स्थान ही नहीं है। इसीलिये उन्होंने भविष्य को और भी अधिक महान रूप से गढ़ने की साधना में,  वर्तमान के 'शिशु' को, अपने गौरव-पूर्ण अतीत से प्रेरणा प्राप्त करके, अपने पैरों पर खड़े होने तथा वीरता के साथ कदम उठाते हुए आगे बढ़ने का आह्वान किया है।
उन्होंने कामनाओं का त्याग करने को कहा है। किन्तु ऐसा कह कर उन्होंने सभी मनुष्यों को कामनाहीन,

निरुत्साही, निश्चेष्ट, बनस्पति के जैसा मनुष्य बनने के लिये नहीं कहा था। कामनाओं को त्याग करने का अर्थ है- कामनाओं का दास नहीं बनना। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के धार्मिक इतिहास का तुलनात्मक अध्यन करके यह दिखलाया है कि केवल भारत में ही धर्म, अर्थ और कामना के सानुपातिक (सुसमन्वित -well  proportioned) व्यवहार करने की पम्परा थी बल्कि मोक्ष को तो सभी मनुष्यों के लिये अनिवार्य भी नहीं माना गया था। केवल हमारे ही देश में ही 'चार वर्ण' (शूद्र,वैश्य, क्षत्रीय,ब्राह्मण) में क्रमविकास की जातिप्रथा थी, जो वंशानुगत नहीं थी। 'चार पुरुषार्थ ' के द्वारा चरित्र-निर्माण करके शुद्र को भी ब्राह्मण तक उन्नत होने का समान अवसर प्राप्त था।  
स्वामी जी ने 'धर्म' को परिभाषित करते हुए, कहीं कहीं उसे 'भोग' भी कहा है।  इहलोक में भोग तथा परलोक में भोग- सुख भोग के प्रति सभी मनुष्यों में एक स्वाभाविक लालसा रहती है। आज के भारत में उस सुख-भोग की निस्सारता को समझने के लिए पहले थोड़ा सुख-भोग करने की आवश्यकता है। इसलिए वे भारतवासियों में पहले रजोगुण की वृद्धि देखना चाहते थे। इसीलिए वे कहते थे कि -पाश्चात्य के लोग हमारी अपेक्षा धर्म का अधिक व्यवहार करते हैं।  क्योंकि हमलोगों ने अभी तक उनके समान भोग-सामग्रियों का उत्पादन और उपभोग करके उनकी व्यर्थता का अनुभव करना नहीं सीखा है; इसीलिये उन्होंने यह आक्षेप हमलोगों पर लगाया है। सुख-सुविधा का भोग किये बिना, जो कुछ भाग्य से प्राप्त हो जाय उसकी अयोक्तिक बड़ाई करने को उन्होंने पाखण्ड कहते हुए उसकी निन्दा की है। भाग्य की दुहाई देते हुए,' अंगूर खट्टे हैं ' को छिपाने के लिये दरिद्रता और अभाव में ही सम्पूर्ण जीवन बिता देने को, उन्होंने सात्विकता के आवरण में छुपी हुई महान तामसिकता कहा है
स्वामी विवेकानन्द उद्विकास (evolution) या क्रमिक विकास में विश्वास रखते थे। जिस प्रकार वे मनुष्यों को पहले रजोगुण की अभिव्यक्ति करने के माध्यम से तामसिकता को दूर हटाकर, सतोगुण (सत्व-शुद्ध-चित्त में) में लीन शान्ति का आश्रय ग्रहण करने पक्षपाती थे, ठीक उसी प्रकार वे सामाजिक जीवन के क्षेत्र में भी पहले शूद्रों की एकता, वैश्यों के आदान-प्रदान, क्षात्र-वीर्य ( क्षत्रियों की वीरता और साहस) की उपलब्धी कर लेने के बाद ही  साधना के द्वारा 'ब्रह्मतेज' को प्राप्त करने के पथ पर सबों को अग्रसर करवा देने की प्रेरणा देते थे। 
दरिद्रता, अशिक्षा, अज्ञानता के घने अंधकार को भूतकाल की गहरी खाई में फेंक कर, मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (शाश्वत महानता) को उद्घाटित करा देना ही स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित कर्म-योग का रहस्य है। वे हमलोगों को केवल इतना ही याद करवा देना चाहते थे कि " कई हजार ब्रह्मा एवं इन्द्रादि देवता भी ' बुद्धत्व-प्राप्त ' नर-देवता के चरणों में शीस झुकाते हैं तथा इस बुद्धत्व-प्राप्ति पर मानव-मात्र का अधिकार है। " इस भविष्य-द्रष्टा योद्धा-सन्यासी के समक्ष आधुनिकता की राग अलापना नवजात शिशु का क्रंदन मात्र प्रतीत होता है । इसीलिये यह प्रश्न उठता है, कि स्वामीजी अतीत युग के नायक थे या भावी युग के ? 
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खेतड़ी (राजपुताना) के महाराज 'राजा अजीत बहादुर सिंह ' द्वारा लिखित ४ मार्च १८९५ के पत्र के जवाब में स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं -- " भारतवर्ष के प्राचीन ऋषिगण इतने दूरदर्शी थे कि उनके द्वारा निर्मित सामाजिक विधानों में प्रत्येक युग के अनुसार स्वमेव परिवर्तन होता रहता है, इसीलिये विश्व को उसके वर्णाश्रम धर्म आदि की बहुमूल्यता और गहराई को समझने में अब भी सदियों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। किन्तु, उनके वंशधरों द्वारा भी इस महान उद्देश्य (वर्णाश्रम धर्म) को पूर्ण रूप से ग्रहण करने की अक्षमता ही भारत की अवनति का एकमात्र कारण है।
 प्राचीन भारत सदियों तक ब्राह्मण और क्षत्रिय अपनी इन दो प्रमुख जातियों (classes) की महत्वाकांक्षा और स्वार्थ की पूर्ति के लिये एक युद्ध-क्षेत्र बना रहा था। निर्धन और अशिक्षित जनता पर प्रभुत्व स्थापित करने की महत्वाकांक्षा इन दोनों जातियों में वर्तमान थी। किन्तु अंत में ज्ञान की जीत हुई; कर्मकाण्ड को नीचा देखना पड़ा। यह वही क्रांति थी जिसे हम बौद्ध-सुधारवाद के नाम से जानते हैं। प्राचीन भारत ने जिन दो सर्वश्रेष्ठ पुरुषों को जन्म दिया था, वे दोनों ही क्षत्रिय हैं -वे थे कृष्ण और बुद्ध। और इन दोनों ही देव-मानवों ने लिंग और जाति-भेद को न मानकर (irrespective of birth or sex.) सबके लिए ज्ञान का द्वार उन्मुक्त कर दिया था।
खेतड़ी के इस राजा ने नरेंद्र को दिया था विवेकानंद नाम
खेतड़ी के महाराज 'राजा अजीत बहादुर सिंह ' (१८६१-१९०१)     

क्षत्रियगण सदा से ही भारत के मेरुदण्ड रहे हैं, अतएव वे ही विज्ञान और स्वतन्त्रता के सनातन रक्षक हैं। देश से अन्धविश्वासों को हटा देने और पुरोहितों के अत्याचार से जनता की रक्षा के लिए वे स्वयं एक अभेद्द्य दीवार की भाँति खड़े रहे हैं। किन्तु जब उनमें से अधिकांश स्वयं घोर अज्ञानता में निमग्न हो गए,....... भारत-भूमि एकदम नीचे डूब गयी, --और इससे इसका उद्धार उस समय तक नहीं होगा, जब तक कि क्षत्रियगण स्वयं न जागेंगे तथा अपने को मुक्त कर शेष जाति के पैरों से जंजीरों को न खोल देंगे।
पुरोहित-प्रपंच (ठग-वैद्य बाबाओं की शैतानियाँ ) ही भारत की अधोगति का मूल कारण है। मनुष्य यदि दूसरे मनुष्य का - अपने भाई का शोषण करें, तो क्या वह स्वयं शोषित होने से बच सकता है ? हे राजन, स्मरण रखिये, आपके पूर्वजों द्वारा आविष्कृत सत्यों में सर्वश्रेष्ठ सत्य है - इस ब्रह्माण्ड का एकत्व। जब प्रत्येक आत्मा ब्रह्म है- तो क्या कोई व्यक्ति स्वयं का किसी प्रकार अनिष्ट किये बिना दूसरों को हानि पहुँचा सकता है?  ब्राह्मण और क्षत्रियों के ये ही अत्याचार चक्रवृद्धि ब्याज के सहित अब स्वयं उनके सिर पर पतित हुए हैं, एवं यह हजार वर्षों की पराधीनता और अवनति निश्चय ही उन्हीं के कर्मों के अनिवार्य फल का भोग है।" 
भारतवर्ष में प्रचलित सनातन धर्म " बार बार यह भारतभूमि मूर्च्छापन्न अर्थात धर्मलुप्त हुई है, और बारम्बार भारत के भगवान ने अपने आविर्भाव द्वारा इसे पुनरुज्जीवित किया है।"को स्वामी विवेकानन्द 'डाइनैमिक रिलिजन' या गत्यात्मक धर्म कहते थे। इसे स्पष्ट करने के लिये उन्होंने कहा है -   क्योंकि जब भारत के भगवान श्रीकृष्ण के रूप में आये थे, तब उन्होंने स्वयं हमें आश्वस्त करते हुए कहा था - 
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।

' जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब तब मैं पुनः धर्म की संस्थापना के लिये अवतीर्ण होता हूँ!' (ह्वेनेवर वर्चू सब्साइड्स एंड विकेडनेस्स राइजेज इट्स हेड, आइ मैनिफ़ेस्ट माइसेल्फ टु रिस्टोर दी ग्लोरी ऑफ़ रिलिजन !)
" - हे राजन, गीता का यही वाक्य इस विश्व-ब्रह्माण्ड में आध्यात्मिक ऊर्जा-प्रवाह के उत्थान और पतन के सनातन नियमों ('डाइनैमिक रिलिजन') का मूल-मंत्र है । 
भारत की जीवनी शक्ति इसी सनातन गत्यात्मक धर्म में निहित है। और जब तक हिन्दू जाति अपने पूर्वजों से प्राप्त उत्तराधिकार को नहीं भूलेगी, तब तक संसार में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं जो उसका ध्वंश कर सके। आपके एक पूर्वज ने, जिन्हें लोग ईश्वर का अवतार समझते हैं, गीता ५.१९ में कहा था-" इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। "  - जिनका मन समत्वभाव (sameness) में स्थित है उन्होंने इसी जीवन में सर्ग (सापेक्षिक सत्य या जन्मादिरूप संसार) को जीत लिया है! ईवन इन दिस लाइफ, दे हैव कोन्कर्ड रिलेटिविटी, हूज माइंड इज फिक्स्ड इन सैमनेसजब तक कोई मनुष्य इस साम्य-ज्ञान को प्राप्त नहीं करता वह कभी मुक्त नहीं हो सकता।
इग्नोरेंस (अविद्या), भेदबुद्धि एवं वासना (सापेक्ष सत्य को निरपेक्ष सत्य समझना) ये तीनों ही मानवजाति के दुःख के कारण हैं, और उनमें एक के साथ दूसरे का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। किसी को क्या अधिकार है कि वह स्वयं को अन्य मनुष्यों की अपेक्षा, यहाँ तक कि पशु से भी श्रेष्ठ समझे ? वास्तव में तो सर्वत्र एक ही वस्तु विराजमान है। -श्वे० उपनिषद (४- ३)  में  स्त्री को तो ब्रह्म का रूप ही स्वीकार किया गया है और महाशक्ति का स्तवन करते हुए कहा गया है : 
 त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी। 
त्वं जीर्णो दण्डेन वचसि त्वं जातो भवति विश्वतोमुखः॥  
 "- हे माँ महामाया ! तुम स्त्री हो, तुम पुरुष हो, तुम कुमार हो एवं तुम्हीं कुमारी हो ! तुम वृद्ध होकर लाठी के सहारे चलती हो, और तू ही उत्पन्न होकर सब ओर मुख वाली (ब्रम्हा जी) हो जाती हो !"
बहुत से लोग ऐसा सोच सकते हैं,कि हम सब तो गृहस्थ हैं, 'इस प्रकार सोचना तो केवल सन्यासी को ही शोभा देता है ? पर मेरे तो  स्त्री और बच्चे हैं ?
 यह बात ठीक है कि गृहस्थ को स्त्री-पुत्र, घर-परिवार के प्रति अनेक कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है, और वह इस साम्य-भाव में सर्वत्यागी संन्यासियों के जितना स्थित नहीं रह सकता। किन्तु, इस सबके बावजूद गृहस्थ लोगों का आदर्श भी यही होना उचित है। क्योंकि इस समत्व-भाव को प्राप्त करना मानव-मात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। पर अफ़सोस ! ('ययाति' टाइप ) लोग समझते हैं कि वैषम्य (M/F)-भोग ही समता की प्राप्ति का मार्ग है । मानो अन्याय करते करते वे न्याय के रास्ते पर आ पहुँचेंगे! परन्तु यह वैषम्य-देखना ही दैहिक, दैविक,आध्यात्मिक सर्वविध बन्धनों का मूल है।
किन्तु आजकल के तथाकथित आधुनिक (सेक्यूलर) बुद्धिजीवी लोग भारत के गौरवशाली प्राचीन सनातन मूल्यों -वर्णाश्रम धर्म के ऊपर गर्व करने वाले देशवासियों की निन्दा ही किया करते हैं।  किन्तु मेरी तो यह धारणा है कि, जब तक ब्राह्मण-क्षत्रिय या वैश्य और शूद्र आदि जातियाँ अपने गौरवशाली अतीत को भूले हुए थीं, तब तक वे संज्ञाहीन अवस्था में पड़ी रहीं, और अतीत की ओर दृष्टि जाते ही चारों ओर पुनर्जीवन के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। भविष्य को इसी अतीत के साँचे में ढालना होगा, अतीत ही भविष्य हो जायेगा।"  
आप राजपूत लोग ही प्राचीन भारत के गौरवस्वरूप रहे हैं । आप लोगों की अवनति के साथ ही जातीय अवनति आरम्भ हो गयी; और भारत का उत्थान केवल तभी हो सकता है, जब क्षत्रियों के वंशज ब्राह्मणों के वंशजों के साथ समवेत प्रयत्न में कटिबद्ध होंगे, लूटे हुए वैभव और शक्ति का बटवारा करने के लिये नहीं, वरन 'टू एनलाइटेन दी इग्नोरेन्ट'- (देहाध्यास में फंसे लोगों को डी हिप्नोटाइज्ड करने के लिये) , एवं अपने पूर्वज ऋषि-मुनियों की पवित्र निवास भूमि की खोई हुई महिमा को पुनः-प्रतिष्ठित करने के लिये। कौन कह सकता है कि यह शुभ मुहूर्त नहीं है ? फिर से कालचक्र घूमकर आ रहा है, एक बार फिर भारत से वही शक्ति-प्रवाह निःसृत हो रहा है,जो शीघ्र ही समस्त जगत को प्लावित कर देगा ! [प्लैटिनम जुबली ऑफ़ रामकृष्ण मिशन और गोल्डन जुबली ऑफ़ युवा महामण्डल एक साथ बेलुड़ मठ में आयोजित हो रहा है।] 
हे मेरे प्रिय राजन, आप उसी जाति के वंशधर हैं, जो सनातन धर्म का जीवन्त आधार-स्तम्भ स्वरूप है एवं जो सनातन धर्म के शपथ-बद्ध रक्षक और सहायक है; आप राम और कृष्ण के वंशधर हैं, क्या आप इस शक्ति-प्रवाह से बाहर रहेंगे ?  
मैं जानता हूँ, यह कभी नहीं हो सकता। यह मेरी दृढ़ धारणा है कि आपका हाथ ही सर्वप्रथम फिर से धर्म की सहायता के लिये आगे बढ़ेगा। और जब भी, हे राजा अजीत सिंह, मैं आपके बारे में सोचता हूँ, तब यह देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है कि आप में आपकी वंशगत सर्वपरिचित वैज्ञानिक योग्यता के साथ ही साथ सब मानवों के प्रति असीम प्रेमयुक्त ऐसे पवित्र चरित्र का सम्मिलन हुआ है, जिससे एक साधु भी गौरवान्वित हो सकता है! और जब ऐसे व्यक्ति ही सनातन धर्म के पुनर्गठन ( या 'बनो और बनाओ आंदोलन' का नेतृत्व करने) के इच्छुक हैं, तब मैं उसके महा गौरवशाली पुनर्निर्माण में विश्वास रखे बिना नहीं रह सकता।" [९/३५३-५८]   
" दक्षिण भारत के सारे मनुष्य आर्यों के सिवा और कोई नहीं हैं, द्रविड़ भाषा को बोलते बोलते वे भी संस्कृत भूल गए हैं, जैसे आज उत्तर भारतीय हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाओँ को बोलते बोलते संस्कृत भूलते जा रहे हैं। संस्कृत में पाण्डित्य होने से ही भारत में सम्मान मिलता है। संस्कृत भाषा का ज्ञान होने से ही कोई भी तुम्हारे विरुद्ध कुछ कहने का साहस नहीं करेगा। यही एकमात्र रहस्य है, अतः इसे जान लो और संस्कृत पढ़ो !"   "यदि तुम 'आर्य' और 'द्राविड़' , 'ब्राह्मण' और 'अब्राह्मण' जैसे तुच्छ विषयों को लेकर 'तू तू मैं मैं ' करोगे -झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढ़ाओगे -तो समझ लो कि तुम उस शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है ! 'इच्छाशक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही वह सारा रहस्य है। इसीलिये ये सब मतभेद के झगड़े बन्द हो जाने चाहिये। "            " ब्राह्मणों को जो इतना सम्मान और विशेषाधिकार दिए जाते हैं, इसका कारण यह है कि उनके पास धर्म का भण्डार है। अतः यह ब्राह्मण जाति का कर्तव्य है कि भारत की दूसरी सब जातियों के उद्धार की चेष्टा करें। यदि वे वैसा करती हैं, और जब तक वैसा करतीं हैं, तभी तक वह ब्राह्मण है, अगर वह धन के चक्कर में पड़ी रहती है तो वह ब्राह्मण नहीं है। "
"भविष्य में जो सत्ययुग आ रहा है, उसमें ब्राह्मणेत्तर सभी जातियाँ फिर ब्राह्मण रूप में परिणत हो जाएँगी! यह वही प्राचीन भूमि भारत है जहाँ से उमड़ती हुई बाढ़ की तरह धर्म तथा दार्शनिक तत्वों ने समग्र संसार को बार बार प्लावित कर दिया और यही भूमि है, जहाँ से पुनः ऐसी ही तरंग उठकर निस्तेज जातियों में शक्ति और जीवन का संचार कर देंगी। "
किन्तु स्वामी विवेकानन्द के निर्देशानुसार "निःस्वार्थ नर-नारियों का निर्माण' करेगा कौन ? ब्राह्मणेत्तर सभी जातियों को चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण देकर, ब्राह्मण (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) बनने और बनाने का कार्य करेगा कौन ? - इसी को कहते हैं ऐतिहासिक अनिवार्यता। जिस समय धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है, इसी प्रकार के एक आविर्भाव की आवश्यकता होती है। जिस समय धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है, अधर्म का सिर ऊँचा उठ जाता है, उस समय धर्म को पुनः स्थापित करने के लिये ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य से सम्पन्न,कुछ नेताओं का निर्माण करने में समर्थ - एक महान आविर्भाव अनिवार्यता बन जाती है।
 वह चाहे अवतार के द्वारा हो या जैसे भी हो, एक विशिष्ट भाव मूर्तमान होता अवश्य है! आधुनिक युग में श्री रामकृष्ण के भीतर वही भाव मूर्तमान हुआ है। 
स्वामीजी कहते हैं -" तुम (आधुनिक युग के भगवान) श्री रामकृष्ण को समझ सके, यह जानकर मुझे बड़ा हर्ष है ! कारण, तुम्हें मनुष्य जाति का श्रेष्ठ मार्गदर्शक नेता (शिक्षक) होना है। समय आने पर तुम्हें वह अधिकार प्राप्त हो जायेगा, जब तुम संसार में चारों ओर उनके पवित्र नाम का प्रचार करोगे। पहले कर्म और ठाकुर की भक्ति के द्वारा अपने को पवित्र करो। श्रीरामकृष्ण के पदप्रान्त में बैठने पर ही भारत का उत्थान हो सकता है। उनकी जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा, हिन्दू समाज के अंग में - रोम रोम में उन्हें भरना होगा। यह कौन करेगा ? हू आर टु टेक अप दी फ्लैग ऑफ़ श्री रामाकृष्णा एंड मार्च फॉर दी साल्वेशन ऑफ़ दी वर्ल्ड? श्री रामकृष्ण की पताका हाथ में लेकर संसार की मुक्ति के लिये विचरण करने वाला है कोई? अपने नाम-यश, कामिनी-कांचन भोगों में आसक्ति, यहाँ तक कि इहलोक और परलोक की सारी आशाओं का त्याग करके भी अधः-पतन के ज्वार को रोकने वाला है कोई ?"
महामण्डल की दृष्टि में श्री रामकृष्ण ही आधुनिक युग के प्रथम युवा नेता हैं, जननेता हैं,  मानवप्रेमी हैं -जो मानवमात्र को हृदय से प्रेम करते हैं। सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करते हैं। उनके जीवन में पूर्ण साम्य प्रतिष्ठित हुआ है। उन्होंने समस्त मानव जाति, समस्त जीवों तथा यहाँ तक कि जड़ वस्तुओं के साथ भी अभिन्नता का साक्षात्कार किया है। उनके जीवन में जो पूर्ण एकात्म-बोध या पूर्ण साम्य  राजनैतिक दलों के मंच पर खड़े होकर साम्यवाद पर भाषण दिये जाने वाला साम्य नहीं है, अपितु उन्होंने इसे अपने आचरण में उतारकर दिखा दिया है। उन्होंने इन्हीं जनसाधारण शोषितों -पीड़ितों के दारुण दुःख से द्रवित होकर, साधारण जनता की मुक्ति के लिये प्रयत्न किया है, उन को मुक्त करने के लिये ही भावी युवा नेताओं को संगठित करने की चेष्टा की है। श्रीरामकृष्ण अब भी युवाओं को संगठित करने की चेष्टा कर रहे हैं, सभी लोगों को अनुप्रेरित कर रहे हैं, किन्तु युवाओं को अधिक संख्या में आकर्षित कर रहे हैं। 
स्वामी जी ने अपने जीवन के उद्देश्य को अनेक स्थानों पर भिन्न भिन्न तरह से निरुपित किया है। एक स्थान पर वे कहते हैं -" मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है, मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना। और अपने में ब्रह्म भाव को अभिव्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरों की सहायता करना। तुम लोग इस काम में मेरे सहायक बनो। युवाओं को संगठित करना ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।'  किन्तु उन युवा-दलों को संगठित करने का प्रयास स्वयं करने के बाद भी वे मुट्ठीभर युवाओं को ही श्री रामकृष्ण देव के झण्डे तले एकत्रित कर सके थे।  
किन्तु उसी समय उन्होंने भविष्यवाणी करते हुए (३० नवम्बर,१८९४ को डॉ.नंजुन्दा राव को लिखित पत्र में कहा था- " बहुत थोड़े से युवा इस देहाध्यास से सम्बन्ध-विच्छेद करके साम्यभाव में स्थित मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलन में कूद पड़े हैं, उन्होंने अपने मिथ्या अहं का त्याग कर दिया है। परन्तु इनकी संख्या बहुत कम है, हम चाहते हैं कि ऐसे ही युवा कई हजार हो जायें, ऐंड दे विल कम !"  यही जो 'They will come" की भविष्यवाणी है- वैसे युवा कहाँ से आयेंगे? ऐसे युवाओं का एक जत्था रामकृष्ण मिशन के माध्यम से भी संगठित हो सकता है, किन्तु जो युवा रामकृष्ण मिशन में अपना योगदान देंगे, उनके जीवन का लक्ष्य, व्रत और आदर्श होगा,'आत्मनो मोक्षार्थम् जगद्हिताय च।' किन्तु कितने युवा ऐसे हैं, जो अभी से मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं ? और इसी कारण वैसे अधिकांश युवा जिन्हें स्वामीजी श्रीरामकृष्ण देव के झण्डे तले एकत्रित करना चाहते थे, वे तो इस रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा के बाहर ही छूट जायेंगे।
क्या स्वामी जी ने वेदान्त की अमोघ वाणी -'उठो ! जागो ! और जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये विश्राम मत लो' - सुनाकर सभी मनुष्यों को मोहनिद्रा से जग्रत करने की जिम्मेवारी भारत के युवाओं पर नहीं सौंपी है ? भारत के जुड़वां राष्ट्रीय आदर्श -'त्याग और सेवा' तथा उसका प्रतीकात्मक चिन्ह है- सिस्टर निवेदिता द्वारा निर्मित 'वज्रांकित-पताका', जिसे महामण्डल ने अपने ध्वज के रूप में ग्रहण किया है। उसी पताका के नीचे सभी जाति और धर्म के युवा, एक साथ संगठित और सम्मिलित होकर - अपनी अन्तर्निहित दिव्यता  प्रति स्वयं जाग्रत होंगे और सबों को जाग्रत करने का प्रयास करेंगे - यह प्रयास करते जाना ही महामण्डल का कार्यक्रम है ! 
स्वामी जी द्वारा सौंपे गए इसी कार्य को सर्वव्यापी बना देना ही महामण्डल आंदोलन का लक्ष्य है। क्योंकि जब तक देश में चरित्रवान, सत्य-निष्ठ और निःस्वार्थी मनुष्यों का अभाव रहेगा, तब तक कोई भी परिकल्पना यथार्थ रूप में सफल नहीं हो सकेगी। इसलिये एक सार्थक मनुष्य-निर्माणकारी आंदोलन को संचालित करना ही महामण्डल का कार्य है। ऐसे युवा-आंदोलन को प्रचण्ड वेग से देश के कोने कोने में फैला देने में समर्थ समस्त सारे उद्धरण स्वामी विवेकानन्द के जीवन और संदेशों में यथेष्ट रूप से विद्यमान हैं।  इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ही महामण्डल के आदर्श हैं, उन्हीं को अपना नेता मानकर हम इस आंदोलन को सम्पूर्ण भारत के कोने-कोने तक पहुँचा देंगे। 
किसी बड़े संघ या संगठन के द्वारा इस कार्य को सर्वत्र छोटे-छोटे ग्रामों, कस्बों और शहरों तक पहुँचा देना सम्भव नहीं है। इसीलिये महामण्डल छोटे-छोटे केन्द्रों को स्थापित करते हुए, सर्वत्र फ़ैल जाना चाहता है। इस महान कार्य को करने में हमारी भूमिका उसी छोटी सी गिलहरी के समान है, जो श्री रामचन्द्र द्वारा सेतुबंधन करते समय, अपनी छोटी सी अंजलि में बालू भर भर कर राम-सेतु के ऊपर डालती रहती थी। समान भाव रखने वाली अन्य प्रकार की बड़ी बड़ी संस्थाओं में परस्पर के बीच भावनात्मक बंधन का अभाव होता है, किन्तु महामण्डल के सभी केन्द्रों के बीच परस्पर प्रेमपूर्ण-भ्रातृत्व का एक आत्मीय बंधन रहता है, जिसके फलस्वरूप सिद्धान्त और व्यवहार के बीच समन्वय स्थापित करने का विशेष सुयोग मिलता है। जहाँ अन्य संस्थाएं विशेष रूप से युवाओं के लिये ही गठित नहीं हुई हैं, वहीं महामण्डल विशुद्ध रूप से युवाओं की ही संस्था है, जो स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा को, युवाओं की ही भाषा में उनके लिए बोधगम्य बनाकर उनके समक्ष प्रस्तुत करता है। उन्हें जीवन-गठन, मनःसंयोग, चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया आदि को इस प्रकार कही जाती हैं, जिससे उन्हें समझने में कोई कठिनाई न हो। बल्कि स्वामी जी के '3H'-विकास से सम्बंधित सारे उपदेश इतनी सरल भाषा में समझाया जाता है, कि वे उन्हें अपने दैनन्दिन जीवन में अंगीकार्य करने योग्य प्रतीत होती हैं। 
इस दृष्टि से विचार किया जाय, और एक बार इसके द्वारा आयोजित छः दिवसीय 'ऐनुअल आल इंडिया यूथ ट्रेनिंग कैम्प' में स्वयं भाग लिया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा में-लीडरशिप ट्रेनिंग' द्वारा राष्ट्र के कल्याण के लिए यथार्थ देश-प्रेमी और मानवजाति का मार्गदर्शक नेता (या लोक-शिक्षक) बनने और बनाने के कार्य को एक आंदोलन का रूप देने में, बहुत अल्प ही सही किन्तु महामण्डल की भी एक भूमिका अवश्य है। इस ओस की बूँदों जैसे अदृष्ट भूमिका द्वारा प्राप्त बीज की परिणीति जब एक दिन विराट वृक्ष के रूप में दिखाई देगी, तब निश्चित रूप से महामण्डल सभी देशवासियों का आशीर्वाद प्राप्त कर सकेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है ! 
" Let the lion of Vedanta roar; the foxes will fly to their holes. " 

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -"धीरे धीरे पाश्चात्यवासी भी यह अनुभव करने लगे हैं कि उन्हें राष्ट्र (या संयुक्त परिवार) के रूप् में बने रहने के लिएआध्यात्मिकता की आवश्यकता है। वे इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं; चाव से इसकी बाट जोह रहे हैं। उसकी पूर्ति कहाँ से होगी? वे मनुष्य कहाँ हैं, जो भारतीय महर्षियो   का उपदेश जगत् के सब देशो (पहले भारत के सभी राज्यों) में पहुँचाने के लिए तैयार हों? कहाँ हैं वे लोग, जो इसलिए सब कुछ छोड़ने को तैयार हों कि ये कल्याणकर उपदेश संसार के कोने कोने तक फैल जायँ? सत्य के प्रचार के लिए ऐसे ही वीर लोगों की आवश्यकता है। वेदान्त के महासत्यों को फैलाने के लिए ऐसे वीर कर्मियों को बाहर जाना चाहिए। उठो भारत, तुम अपनी आध्यात्मिकता द्वारा जगत् पर विजय प्राप्त करो। "
[  भारतवर्ष के चार दिशाओं के लिये, चार वेदान्त-केसरी नेताओं (बुद्ध) का निर्माण करो !  कोई भी धर्म हिन्दू, मुसलमान या किसी भी जाति में जन्मे उन युवा सिंहों के जीवन का गठन इस प्रकार हो कि वे - 'ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य' से सम्पन्न मनुष्य हों ! अर्थात स्वयं भ्रममुक्त हो जाने के बाद, वेदान्त-केसरी बनकर 'भेंड़त्व' से मुक्ति दिलाने वाला मन्त्र -'बी ऐंड मेक' का प्रचार सिंह-विक्रम की दहाड़ के साथ करें -म्याऊँ- म्याउँ; करके नहीं !    भारत के चार दिशाओं में चार वेदान्त-केसरी को दहाड़ने दो,  जिनका जीवन  ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य से सम्पन्न मानव जाति के भावी मार्गदर्शक नेता (बुद्ध के रूप में) गठित हुआ है; सारे सियार (ढोंगी परमानन्द जैसे ठग-वैद्य) अपने अपने बिलों में छिप जायेंगे!]
   " मेरी आशा, मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। मान हो या अपमान, मैंने तो इन नवयुवकों का संगठन करने के लिये जन्म लिया है। यहीं क्या प्रत्येक नगर में सैकड़ो मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार हैं। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा। वे सिंह-विक्रम से देश की यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्या का समाधान करेंगे। वे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र का विस्तार करेंगे -और इस प्रकार हम धीरे धीरे समग्र भारत में फ़ैल जायेंगे।"  

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 ' नव-आधुनिक ' या **छद्म उदारवादी' 
डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के बाद छद्म-उदारवादी मिडिया और भारत इन्टोलरेंट हो गया है पर बहस करने तथाकथित बुद्धि-जीवियों में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में जोड़े गये नये शब्द -'पोस्ट ट्रूथ' अर्थात 'उत्तर सत्य ' को लेकर बहस चल रहा है। महाभारत में युधिष्ठिर ने 'अर्ध-सत्य' कहा था, 'अश्वस्थामा हतो -नरो वा..' विगत ७० वर्षों से कुछ छद्म उदारवादी मिडिया और राजनीतिज्ञों ने मार्क्स और मैकाले की आधुनिक सोंच का सहारा लेकर भारत के गौरवशाली अतीत पर कीचड़ उछालने का काम किया है, और भ्रष्टाचार से देश लूटने में लगे रहे हैं। 
पश्चमी देशों का नकल करके राष्ट्र और समाज से अधिक महत्व व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता को दिया जाने लगा था। राष्ट्रगान के समय अपने निजी धर्म का हवाला देकर कोई खड़ा न होना चाहे तो उसे पूरी छूट थी। व्यक्ति अपने जाति और धर्म के आधार पर स्वयं को राष्ट्र और समाज से -उसके संविधान से भी अपने को बड़ा मानने लगा था। 
महान भारत बनाना है, तो क्या करना चाहिए ? दो प्रकार की सोंच दिखाई देती है - १.सच्चे मार्गदर्शक नेता की सोंच है - 'व्यक्ति का निर्माण करें, वही राष्ट्र का निर्माण करेगा ! चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करें, वे स्वयं एक महान राष्ट्र का निर्माण कर लेंगे!' २. दूसरा राजनीतिज्ञ नेता की सोंच जो हमेशा गाड़ी को घोड़े के आगे रखते हैं - "महान राष्ट्र का निर्माण करें, व्यक्ति स्वयं उसमें शामिल हो जायेगा! "