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मंगलवार, 16 अक्तूबर 2018

'विवेकानन्द के गुरु' ~ "अवतारवरिष्ठ - भगवान श्री रामकृष्णदेव का जीवन और सन्देश "


     भारतीय लूनर कैलेण्डर के अनुसार कल फाल्गुन शुक्ल द्वितीया के दिन श्री रामकृष्ण की जन्मतिथि थी और अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार संयोगवश आज 18 फरवरी 2018 को ही उनकी जन्मतिथि है। आज हमलोग श्रीरामकृष्ण के जीवन और उपदेशों पर चर्चा करेंगे तथा उसपर मनन (contemplate) करके उसमें निहित सारतत्व को समझने का प्रयास करेंगे।
      श्री ठाकुरदेव के भक्त श्री अक्षय कुमार सेन [Akshay Kumar Sen (1858 - 1923)] को स्वामीजी ने उनकी कथा बंगला पद्य भाषा में लिखकर गाँव -गाँव में प्रचार करने का आदेश दिया था। बाँकुड़ा जिले के मैनापुर ग्राम में उनका जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम हलधर सेन और माता का नाम विधुमुखी देवी था। गहरा काला रंग, दुबला शरीर और कुरूप चेहरे के कारण स्वामी विवेकानन्द उनको मजाक में 'शांकचून्नी' (शंखचुन्नी-गोरका ?) कहकर बुलाते थे। अपने प्रारंभिक जीवन में अक्षय कुमार कोलकाता के 'जोड़ा संको' में रहने वाले टैगोर परिवार के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे इसलिए उनको 'अक्षय मास्टर ' भी कहा करते थे। पहली पत्नी की मृत्यु होने पर उन्होंने दूसरी शादी की थी। बाद में उन्होंने बसुमती अख़बार के कार्यालय में नौकरी भी की थी। अक्षय कुमार ठाकुरदेव के गृही भक्त देवेन्द्रनाथ मजूमदार के साथ ठाकुर देव के अन्य भक्त महिमाचरण चक्रवर्ती (नवनीदा के पितामही के पिता जिनके घर में दादा का जन्म हुआ था) के घर 100 नंबर काशीपुर रोड में पहली बार ठाकुरदेव का दर्शन किये थे और कल्पतरु के दिन उनकी कृपा प्राप्त करके धन्य हुए थे। उसके बाद दक्षिणेश्वर जाते रहते थे, और कई बार ठाकुर का सानिध्य प्राप्त किये थे। काशीपुर में श्री रामकृष्ण के कल्पतरु होने के दिन  अक्षय सेन भी मौजूद थे।  उस दिन ठाकुरदेव ने अक्षय कुमार को अपने पास बुलाया, उनके छाती  को स्पर्श किया और उनके कान में 'महामंत्र' दिया था । बाद में, देवेन्द्रनाथ मजूमदार की सलाह पर, स्वामी विवेकानन्द के प्रोत्साहन पाकर और सर्वोपरि माँ श्रीश्री सारदा देवी के आशीर्वाद से ठाकुरदेव की जीवनलीला पर आधारित बंगला पद्य में 'श्री श्री रामकृष्ण पुंथी' नामक ग्रन्थ रचना की थी। यह उनके जीवन की प्रमुख उल्लेखनीय कीर्ति है। उनके द्वारा लिखित एक अन्य प्रसिद्ध पुस्तक नाम 'श्री रामकृष्ण महिमा' है। इन दो पुस्तकों के लिए वे श्री रामकृष्ण भक्त मंडली में विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।  श्री श्री ठाकुर की महासमाधि के समय अक्षय भी वहाँ मौजूद थे। अक्षय कुमार के जीवन का आखिरी समय उनके गाँव में व्यतीत हुआ था। " उनके पद्य रचना में उन्होंने लिखा था -     
"सुनले रामकृष्ण-कथा, जीवन जुड़ाय एमनि मीठे।
                               
पाषाने जल झरे भाई, मरा गाछ मंजरे उठे!" 

"সুনলে রামকৃষ্ণ-কথা জীবন জুড়ায়  এমনি মিঠে । 

পাষাণে  জল ঝরে ভাই মরা গাছ মঞ্জরে ওঠে। "  

' सुनने से श्रीरामकृष्ण ~ वचनामृत; जीवन वैसे ही अनायास मधुर हो उठे ।

        पाषाण से जल का झरना फूटे, भाई जैसे मृत पेड़ में भी मंजर जग उठे ।    
   
- अर्थात अमृत जैसी मीठी श्रीरामकृष्णदेव के जीवन और वचनों का श्रवण करने मात्र से ही, मृतप्राय मनुष्य भी पुनरुज्जीवित हो जाता है। उसके पत्थल बन चुके हृदय से भी प्रेम का झरना फूट पड़ता है; मानों मृतप्राय पेड़ में भी नए मंजर निकल आये हैं।
क्योंकि श्री म ने भी श्रीरामकृष्ण वचनामृत का प्रारम्भ  'गोपीगीत' के नवम श्लोक से करते हुए लिखा था -  

" तव कथामृतं तप्त जीवनं कविभिरीडितं कल्मशापहम्। 

श्रवण मंगलं श्रीमदाततं भुविगृणन्त ये भूरिदाजनाः ॥ "  

हे प्रभो  (श्रीकृष्ण) ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है।  जैसे आपका स्वरूप, आपकी मुस्कान, वाणी, कमल जैसे हस्त और चरण सुख देने वाले है उसी तरह आपकी लीलाओं का चिंतन दर्शन व् श्रवण मंगल कारक है।  अर्थात जो आपके  विरह से पीड़ित हुये लोग हैं उनके जीवन के लिये पुनरुज्जीवित जैसी शीतलता प्रदान करने वाली हैं । कथा के माध्यम से भी शब्दरूप माधव आपके दर्शन हो जाते है, ऐसे समय जब आप हमारे समक्ष उपस्थित नही है किन्तु कथाओ के माध्यम से उपस्थित हो जाते है तो यह सब भी हमारे विरह को शांत करता है।  महात्माओं, ज्ञानियों, भक्त कवियों ने आपकी लीलाओं का गुण-गान किया है, जो सारे पाप-ताप को मिटाने वाली है । जिसके सुनने मात्र से परम-मंगल एवं परम-कल्याण हो जाता है, आपकी लीला-कथा परम-सुन्दर, परम-मधुर और कभी न समाप्त होने वाली हैं, जो आपकी लीला का गान करते हैं, वे वास्तव में मत्यु-लोक में सबसे बड़े दानी हैं ।


{ श्री रामकृष्ण  की जीवन और सन्देश में 'भावमुख अवस्था',  'ज्ञान के बाद विज्ञान' के अनुसार - दया , परोपकार आदि विषयों पर बातचीत होते होते श्रीरामकृष्णदेव भाव के आवेग में कहने  लगे   " जीव पर दया , नाम में रूचि , वैष्णवों की सेवा। और दया ? कौन किस पर दया करेगा ? (.....भारत को पुनरुज्जीवित करने  का उपाय  है )~ दया नहीं - दया नहीं , सेवा -सेवा ! 'शिव ज्ञान से जीव सेवा' !!"   आदि वचनों को मर्म को समझने के लिए 'भावी शिक्षकों/नेताओं  के लिए  हिन्दी में  'श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग'  पुस्तक पढ़ने के समय इसके साथ 'लीलाप्रसंग' नामक बंगला भाषा के वेब साईट  [http://web.eecs.umich.edu/~lahiri/LilaPrasanga]  से मिलाकर पढ़ना आवश्यक है !' }

 ईशरवुड श्रीरामकृष्ण अवतार की कथा को " The story of a Phenomenon" " एक अदभुत घटना की कहानी " कहा करते थे। इसलिये यह कहानी एक विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति की कहानी है, उनकी कहानी को हमें ध्यान पूर्वक सुनना चाहिये 'अवतार' नामक फिल्म की तरह हल्के में नहीं लेना चाहिए। हमलोग उनके जीवनी का प्रारम्भ उत्तरी कोलकाता के दक्षिणेश्वर में गंगा के किनारे अवस्थित माँ काली के मंदिर से करेंगे। श्री रामकृष्ण का जन्म कोलकाता से दूर एक छोटे से ग्राम में हुआ था। किन्तु आज उस ग्राम कमारपुकुर का नाम सुविख्यात है। 
"श्रीरामकृष्ण के जन्म के समय उनके पिताजी की आयु 62 वर्ष की थी, उनके अग्रज श्रीराम कुमार जी उनसे 32 वर्ष बड़े थे।" उनके पिता की मृत्यु कम उम्र में ही हो गयी थी,उनके पिता की मृत्यु के बाद घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी बड़े भाई रामकुमार के कंधों पर थी। अतः कुछ धन कमाने की इच्छा से वे कोलकाता आ गए थे, तब रामकृष्ण भी अपने बड़े भाई रामकुमार के काम में हाथ बटाने के लिए उनके साथ कोलकाता आ गए थे। यहाँ पहुंचकर (1850 ई ० में) रामकुमार जी ने कलकत्ते के झामापुकर मुहल्ले में एक संस्कृत पाठशाला खोली थी, जिसे उन दिनों टोल कहा जाता था। उन्होंने पाया था की रामकृष्ण अपने गाँव के स्कूल में पढ़ने पर ध्यान नहीं दे रहे थे। बड़े भाई ने सोचा कि यदि रामकृष्ण कलकत्ते आ जायेंगे तो उनको वे पढ़ाई करने में सहायता कर सकेंगे, जिससे वे भी अपने पैरों पर खड़े हो सकेंगे। 
2. रामकृष्ण नाम कैसे मिला ? इस अद्भुत महापुरुष श्रीरामकृष्ण के जीवन में घटित अन्य कई विलक्षण घटनाओं के आलावा उनका नाम रामकृष्ण कैसे पड़ा, यह रहस्य भी बड़ा आश्चर्य जनक है। क्योंकि यह नाम उन्हें किसने दिया था, यह बात हम में से कोई नहीं जानता। कुछ लोग कहते हैं कि  उनका परिवार राम का भक्त था, उनके कुलदेवता राम (रघुबीर) थे। इसलिये (पिता का नाम क्षुदिराम,.... बुआ का नाम रामशिला ?) उनके बड़े भाइयों का नाम रामकुमार, रामेश्वर आदि दिया गया था। इसलिए सम्भव है कि शायद उनके पिता ने ही उन्हें यह रामकृष्ण नाम भी दिया हो।...रामकुमार ....रामेश्वर,... रामकृष्ण, किन्तु हमलोग
जानते हैं कि बचपन में कोई उन्हें रामकृष्ण कहकर नहीं बुलाता था, बचपन में उनका नाम गदाधर चटोपाध्याय था, उनको लोग गदाई या गदाधर कहकर बुलाते थे। 
दूसरे मत के अनुसार कुछ लोग यह मानते हैं कि गुरु-शिष्य अद्वैत वेदान्त परम्परा के अनुसार संन्यास दीक्षा के बाद संन्यासी (monk) को उसके गुरु कोई नया नाम देते हैं। अतः यह  हो सकता है कि उनके वेदान्तिक गुरु तोतापुरी ने जब उनको संन्यास दीक्षा दी थी,उस समय उनको नया नाम - "रामकृष्ण पूरी" दिया हो। यद्यपि यह नाम उन्हें तोतापुरी से मिला होगा, तथापि यह भी केवल एक सम्भावना ही है। क्योंकि आज इस बात की पुष्टि करने का कोई उपाय नहीं है। जो हो, हमलोग उनको अब आगे भी रामकृष्ण ही कहना जारी रखेंगे। इसीलिये श्री रामकृष्ण के सभी अनुयायी या भक्त आगे चल कर " तोतापुरी -रामकृष्णपुरी वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित होंगे, उन्हें भी अपने को पूरी वेदान्त परम्परा (puri lineage) में प्रशिक्षित भक्त/ शिक्षक/संन्यासी/नेता मानना चाहिए।  
3.रामकृष्ण का दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में पदार्पण 198 : दक्षिणेश्वर काली मंदिर में श्रीजगदम्बा की प्राण प्रतिष्ठा रामकुमार जी द्वारा (31 मई 1855 को) की गयी थी, और  रामकुमार जी के पुजारी पद पर नियुक्त हो जाने के बाद, रामकृष्ण भी अपने बड़े भाई के साथ दक्षिणेश्वर आ गए। रामकुमार जी काली के पुजारी पद पर नियुक्त हो चुके थे, और रामकृष्ण उनकी सहायता करने आये थे। रानी रासमणि और मथुरबाबु दोनों रामकृष्ण के गुणों पर (मधुर कंठ और उत्कृष्ट मूर्तिकला) मुग्ध थे, उस समय उनकी आयु  लगभग 18 वर्ष हो गयी थी, उनका जन्म 1836 में हुआ था। वैसे तो रामकृष्ण बहुत आध्यात्मिक प्रवृत्ति के युवा थे, उनके पूजा करने में बहुत ख़ुशी होती थी, किन्तु वे तुरन्त वे कालीमंदिर के वेशकार के पद को स्वीकार नहीं करना चाह रहे थे। उनके साथ समस्या यह थी कि , और आजीवन वह समस्या रही कि वे माँ जगदम्बा के गहनों और चढ़ावे आदि की देखरेख करने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहते थे। दक्षिनेशन में माँ काली की लगभग 3 फुट ऊँची बहुत सुंदर प्रतिमा है, जो बड़े सुंदर स्वर्ण आभूषणों से जड़ी हुई हैं। किन्तु रामकृष्ण शुरू से ही रूपये पैसे, गहनों आदि की व्यवस्था करने में अनिक्षुक थे। उस समय तक उनका भांजा हृदयराम भी दक्षिणेश्वर आ गए थे, जिनकी रामकृष्ण के उत्तरवर्ती जीवन (subsequent life)में एक बहुत बड़ी भूमिका है। हृदयराम उनके भांजे थे पर एक रोचक चरित्र के व्यक्ति थे और उनसे केवल 2 वर्ष छोटे थे। वे दक्षिणेश्वर कालीमंदिर में नौकरी करने की इच्छा से वे भी अपने गाँव शिहड़ से कलकत्ता आये थे। वे भी रामकृष्ण को प्यार करते थे पर उनका प्यार बड़ा मालिकाना भाव जैसा-मेरा है,  था, किन्तु रामकृष्ण की सेवा करने में तत्पर रहता था। उसने कहा कि आप गहने -आभूषण की व्यवस्था मुझपर छोड़ दें, मुझे उन्हें संभालने में कोई परेशानी नहीं होगी, और मुझे भी यहाँ नौकरी मिल जाएगी। इस प्रकार रामकृष्ण माँ काली से परिचित हुए, वेशकार के पद पर उनकी नियुक्ति हुई, और माँ उनके लिए आजीवन भक्ति और पूजा की पात्र बन गयीं।
4. रामकृष्ण का माँ काली के पुजारी पद पर नियुक्त होना : 205: रामकुमार जी रामकृष्ण देव से 31 वर्ष बड़े थे; उनकी  मृत्यु मंदिर प्रतिष्ठा के केवल १ वर्ष बाद सम्भवतः 1856 में हो गयी। रामकृष्ण के जीवन पर उनका बहुत प्रभाव था, बचपन में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण वे रामकुमार जी को ही पितास्थनीय बड़े भाई का सम्मान देते थे। उनकी मृत्यु से मानों उन्हें दुबारा अपने पिता के मरने के दुःख की अनुभूति हुई। इस असमय मिले आघात ने उन्हें सीधा माँ काली की शरण में पहुँचा दिया। उनके बाद रमकृष्ण ही माँ काली के पुजारी नियुक्त किये गए। मंदिर के खुलने और बंद होने का समय पहले से निर्धारित रहता है, अतः जितनी देरी तक मंदिर खुला होता और जब तक रामकृष्ण जागे रहते, अपना सारा समय वे मंदिर में ही बिताते थे। वे बड़ी भक्ति से काफी देर तक माँ काली का ध्यान करते, उनसे प्रार्थना करते , बहुत देर तक उनके सामने बैठकर उन्हें निहारते रहते, कभी उनकी पूजा किया करते थे। उनका दृष्टिकोण यह देखना था कि क्या माँ जगदम्बा केवल एक पत्थल की मूर्ति है ? या सचमुच की जीवंत माँ हैं ? और क्या मैं उन्हें देख सकता हूँ ? वे कातर होकर प्रार्थना करते और रो रो कर माँ को दर्शन देने का अनुरोध करते। कहते माँ तुमने अपने भक्त रामप्रसाद को और दूसरों को दर्शन दिया था, क्या तू मुझे दर्शन नहीं देगी ?
5.अवतार (BORN LEADER) होकर भी रामकृष्ण को साधना क्यों करनी पड़ी ? यहाँ किसी व्यक्ति के मन में शंका हो सकती है, कि जिन रामकृष्ण को हमलोग अवतार -'Incarnation of God ' के रूप में पूजा करते हैं, उनको इस प्रकार आध्यात्मिक साधना करने, की क्या आवश्यकता थी ?और उन्हें ईश्वर को देखने की इच्छा क्यों थी, जबकि वे स्वयं ही ईश्वर के अवतार थे? भगवान के मनुष्य शरीर धारण कर अवतरित होने का एकमात्र उद्देश्य होता है, हमें ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बतला देना। हमारे युग और इतिहास में, सम्पूर्ण मानवजाति के कल्याण के लिए एक बार पुनः इस बात को प्रमाणित करना होता है कि धर्म और शास्त्र सत्य हैं। आध्यात्मिकता एक  वास्तविकता है। तथा ईश्वर की अनुभूति की जा सकती है। तथा ईश्वरलाभ करना या ईश्वर का दर्शन करना -ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। अपने जीवन को उदाहरण बनाकर ये बातें सम्पूर्ण मानवता को समझाने के लिए ही श्रीरामकृष्ण को ये सब साधनायें करनी पड़ीं थीं। 
क्या सचमुच उन्होंने इतनी कठिन साधना की थी, या यह सब उनकी लीला थी ? इस बात को लेकर विभाजित मत देखने को मिलते हैं। हिन्दुधर्म में परम्परागत रूप से यह माना जाता है कि- " अवतार (देव/देवी) लोगों को अपना ईश्वरत्व कभी भूलता नहीं है ! " पर एक दूसरा मत भी है। रामकृष्ण लीलाप्रसंग के लेखक स्वामी सरदानन्द जी कहते हैं, किसी व्यक्ति को अवतार के मानवीय पक्ष को अलग करके नहीं देखना चाहिए। वे जीवन में नाटक नहीं करते हैं। जब भगवान मनुष्य शरीर धारण करते हैं, तब वे मानवगुणों को धारण करते हैं। ताकि ईश्वर का दर्शन करने की आकांक्षा,ईश्वर का अनुभव करने के प्रति आग्रह, मार्ग में मन के साथ संघर्ष, निराशा, the joy the ecstasy, अनुभूति के बाद आनन्द और ख़ुशी का अनुभव जिस प्रकार हमलोग महसूस करते हैं, अवतार लोगों को भी ठीक उसी प्रकार का अनुभव पूर्ण रूप से होता है। क्योंकि यदि यह सब केवल एक नाटक होता, तो हमलोगों के लिए अवतार/नेता या वुड बी लीडर्स का साधनापक्ष उतना विश्वासप्रद (convincing)नहीं हो पाता। 
6. लीडरशिप/अवतार,तीन मित्र में बॉर्न लीडर की कहानी 141 :अवतार जीवन में साधक भाव क्यों प्रदर्शित करना आवश्यक है ? रामकृष्ण इस सम्बन्ध में स्वयं एक कहानी कहते थे -तीन मित्र कहीं घूमने जा रहे थे, रास्ते के किनारे एक बहुत ऊँची दीवाल थी, और जिसके उस पार से बड़े आनंद की ध्वनि आ रही थी, किन्तु उस पार क्या हो रहा है, यह जानने का कोई उपाय न था। उनमें से एक मित्र बहुत कष्ट से, सीढ़ी खोजकर उस दीवाल पर चढ़ा, और उधर के आनन्द को देखकर जोर से हँसा और उसी तरफ कूद गया। बाकी दो व्यक्ति जो नीचे खड़े थे चक्कर में पड़गए। फिर दूसरा भी बड़ी मुश्किल से चढ़ा देखा हंसा और उसी तरफ कूद गया। तीसरा मित्र सोचा कि ऐसा क्या चीज है, उधर क्या आश्चर्यजनक खेल चल रहा है , कि जिसे देखकर हमारे दो मित्र कूद गए? वह जब उधर के आनन्द-उत्स्व के मेले को देखा तो बड़ा खुश हुआ वह भी उनके साथ आनंद लेने को कूदना चाहा। फिर उसने सोचा कि मेरे गांव के लोग जो कठिन संघर्ष ,निराशा और दुःख-कष्ट भोग रहे हैं उन्हें छोड़ कर यदि मैं भी कूद गया तो उन्हें इस आनंद -उत्स्व का सूसमाचार (Good News) कौन देगा ? इसलिए वह उस तरफ कूद जाने के बजाय वापस लौट आया और लोगों को बुला कर रास्ता दिखाने लगा। उसी को अवतार, मानवजाति का मार्गदर्शक नेता या जगतगुरु/आध्यात्मिक शिक्षक कहा जाता है। इसीलिए श्रीरामकृष्ण को भी मनुष्यों के जैसी समस्त साधनायें करनी पड़ी थीं। 
7. जीवनीकार ईशरवुड को लज्जा-घृणा -भय क्यों त्यागना पड़ा 205 : व्यर्थ के वार्तालाप में युवा रामकृष्ण अपना एक क्षण भी नष्ट नहीं करते थे, तथा रात्रि में मन्दिर का कपाट बंद हो जाने के बाद, लोगों के संग को त्यागकर पंचवटी के निकटवर्ती जंगल में प्रविष्ट हो माँ जगदम्बा के चिंतन में अपना समय बिताया करते थे। और हृदय जो अपने मामा की भक्तिपूर्वक सेवा करता था, उसके मन में जिज्ञासा हुई कि रामकृष्ण रात को कहाँ जाते मैं इनके पीछा करके पता लगाऊंगा। इतनी रात में जंगल कौन जाता है, उसे आश्चर्य होता था। रामकृष्ण को डराने के लिए वह अँधेरे में ढेला फेंकता था। किन्तु t पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। एक दिन उसने देखा कि रामकृष्ण एक वृक्ष के नीचे वस्त्र खोलकर नग्न होकर बैठकर ध्यान कर रहे थे।  और यज्ञोपवीत जिसे ब्राह्मण कभी नहीं खोलते उसे भी खोलकर बाहर रख दिया था। उस युग के रूढ़िवादी ब्राह्मणों के लिए ऐसा आचरण बहुत बदनामी (scandals) और कलंक का कारण माना जाता था। उसने रामकृष्ण को धमकाया मामा तुम ऐसा क्यों कर रहे हो, समाज में तुम्हारी प्रतिष्ठा खत्म हो जाएगी। 
रामकृष्ण ने कहा अकेले निर्जन में ध्यान करने की यही रीती है, ईश्वर का चिंतन करने के लिए तुम्हें संसार के समस्त बंधनों की गुलामी को छोड़ देना चाहिए।  वे तीन प्रकार के बंधनों को त्यागने की बात कहते थे। बंगला भाषा में उनके उपदेश पद्यात्मक होते थे -और बड़े प्रभावकारी होते थे जिसका अंग्रेजी अनुवाद करना बहुत कठिन है। वे कहते थे -" लज्जा -घृणा -भय, तीन थकते नय !" अर्थात पाषमुक्त होकर ध्यान करना चाहिए ! लीलाप्रसंग/207 / शर्म,घृणा, तथा अपमान या बदनामी का भय-ये तीनों आध्यात्मिक जीवन जीने में या ईश्वर अनुभूति के मार्ग में विघ्न हैं। अतः इन तीनों को त्याग देना चाहिए। fear of embarrass' यदि मैं नियमित रूप से महामण्डल जाने लगूँगा तो मेरे दोस्त क्या कहेंगे? अरे अब ये पहले जैसा 'नॉट कूल एनी मोर ' या मस्त आदमी नहीं रह गया है, धर्मिक सनकी (religious nut)  बन गया है। यही मान्यता अब भी है। बहुत से लोग जो धार्मिक बनना चाहते हैं, उनमें से अधिकांश वहीँ तक बढ़ना चाहते हैं जहाँ तक उनको वैसा होना आधुनिक समाज में लोकाचार के अनुरूप (fashionable) लगता है। [ड्राइंग रूम बुद्ध का सिर या अर्जुन का रथ] 
अमेरिका के आधुनिक समाज में शायद उतना नहीं किन्तु आधुनिक पश्चिम यूरोप में धार्मिक होना बिल्कुल व्यावहारिक नहीं माना जाता है। पश्चिम के लोग उसी को व्यावहारिक समझते हैं जो यह दिखाना चाहता है कि मैं बिल्कुल भी धार्मिक व्यक्ति नहीं हूँ। समाज शुरू से ऐसा ही रहा है, हमलोग प्रभवानन्द के शिष्य क्रिश्टोफर आइशर वुड द्वारा लिखित रामकृष्ण की जीवनी को पढ़ते हैं। अंग्रेजी जगत के कई लोग उनके द्वारा लिखित जीवनी, जो बहुत उत्कृष्ट शैली (classic) की पुस्तक है, को पढ़कर ही रामकृष्ण की तरफ आकृष्ट हुए हैं। लेकिन बहुत से लोग यह नहीं जानते कि उस पुस्तक को लिखने के लिए उन्हें कितना त्याग करना पड़ा है। धार्मिक पथ का चयन करने से ईशरवुड को भी निंदा का सामना करना पड़ा था। क्योंकि मैंने यहाँ न्यूआर्क के एक प्रसिद्द अख़बार में उस पुस्तक की समीक्षा (review) को पढ़ा है। उस समीक्षा का स्वर निंदक जैसा था। समीक्षा में लिखा गया था -' पुस्तक तो अच्छी है किन्तु  क्रिश्टोफर ईशरवुड जो हमारे आधुनिक फैशनेबल गे-समाज (homosexual-समलैंगिक समाज) का एक हिस्सा था, और इन्होंने समलैंगिकता के विषय को ही मुद्दा बनाकर अपने कुछ लेखन में शामिल भी किया था, किन्तु इतना होनहार लेखक (promising author) होकर भी ऐसे एक पूर्वीपंथी अज्ञात (obscure) व्यक्ति की जीवनी क्यों लिखने गया, समीक्षक का मानना था कि वे इससे भी उत्कृष्ट लेखन कर सकते थे? इसलिए श्री रामकृष्ण का कहना था कि यदि तुम ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हो तो -लज्जा, घृणा और अपमान के भय को त्यागना पड़ेगा। [ईशरवुड (1904 -1986/जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, दक्षिणी कैलिफ़ोर्निया के वेदांत सोसायटी के प्रमुख रामकृष्ण परम्परा के संन्यासी स्वामी प्रभवानन्द के शिष्य बने। कुछ दिनों तक हॉलीवुड मठ में एक प्रशिक्षु संन्यासी (ब्रह्मचारी) बनकर रहे, किन्तु संन्यास-दीक्षा नहीं लेने का निर्णय किया। किन्तु बाद के जीवन को उन्होंने एक हिन्दू के रूप में व्यतीत किया। और आजीवन मन्दिर में साहित्य सेवा को अर्पित करते रहे। और 1965 में उन्होंने "Ramakrishna and His Disciples' नाम से उनकी जीवनी लिखी थी।] 
8. 'टाका माटी-माटी टाका' : श्रीरामकृष्ण एक बार सैद्धान्तिक रूप से जिस सत्य को समझ लेते थे वे उसे तुरन्त अपने व्यव्हार में अभिव्यक्त करते थे। हमलोग उनके विख्यात कथा 'टाका माटी-माटी टाका' को जानते हैं। वे एक हाथ में मिट्टी और चाँदी का सिक्का लेकर दोनों को एक समान बेकार है, इस सत्य को आत्मसात (imbibe) करने के लिए वे उन्हें एक समान समझकर गंगा में फेंक देते थे। कुछ लोग मानते हैं कि यह बहुत ज्यादा हो गया, ठीक है कि धन के प्रति इतना आसक्त नहीं होना चाहिए, किन्तु रुपया को नदी में फेंक देना कहाँ की बुद्धिमानी है ? किसी व्यक्ति ने हाल में मजाकिया लहजे में कहा था कि इसका रहस्य है कि रामकृष्ण जानते थे कि एक समय ऐसा आएगा जब मिट्टी या जमीन  रुपए से अधिक कीमती हो जाएगी। इसीलिए वे हमें जमीन का प्लॉट खरीदने में पैसे को लगाने का उपदेश दे रहे थे। ऐसा नहीं था पर इसप्रकार वे 'योग और भोग ' एक साथ नहीं रह सकते ,इसी आदर्श को अपने जीवन में स्थापित करने की शिक्षा देते थे। 
9. जाति अभिमान का नाश 208 'जाति का अभिमान' - ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है,शरीर तथा मन दोनों द्वारा इस प्रकार के अभिमान का इसका नाश करना चाहिए। ताकि मैं जाती के आधार पर एक मेहतर से श्रेष्ठ हूँ ऐसी मुख्तापूर्ण विचार-'मैं' ऊँची जाति का व्यक्ति हूँ' मन में भी न उठने पाए। अद्वैत सिद्धान्त को व्यवहार में लाकर अपने जीवन से दिखाने के लिए उच्च ब्राह्मणकुल में जन्मे रामकृष्ण एक मेहतर के टॉयलेट को रात में उठकर अपने जट्टा बने बालों से साफ़ कर देते थे। क्योंकि जब यह बात समझ में आ गयी हम सभी मनुष्य एक ही सत्य/ब्रह्म/ईश्वर की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ है, सम्पूर्ण मानवजाति एक है, तब वे उस सिद्धान्त को कार्यरूप में भी अभिव्यक्त करने का प्रयास करते थे।  'उच्च जाति में जन्म' लेने का गर्व आधुनिक मैनहटट्न या दिल्ली के लिए उतना माने नहीं रखता है, किन्तु 19 वीं शताब्दी के भारत में इसका प्रभाव बहुत अधिक था।  ईश्वर-प्राप्ति या भावमुख अवस्था में अवस्थित रहने के मार्ग में प्रतिकूल विषयों को केवल मन से ही त्यागकर वे निश्चिन्त नहीं होते थे, बल्कि शारीरिक तौर से भी जीवन में धारण करने का प्रयत्न करते थे। 
10. साधक अवस्था माँ काली के दर्शन के निमित्त व्याकुलता: अग्रज रामकुमार के देहान्त के बाद [211]  साधक अवस्था के समय हलोग रामकृष्ण की ईश्वर दर्शन के विषय में व्याकुलता की कहानी जानते हैं कि कैसे उन्होंने ईश्वर-प्राप्ति के लिए, मैं अपनी दिव्य माँ के दर्शन करना चाहता हूँ, इस दर्शन के लिए उन्होंने उनके वैकुण्ठ/कैलाश तक को झकझोर कर रख दिया था। श्रीजगदम्बा का दर्शन करने पर रामकृष्ण ने विशेष रूप से अपना मनःसंयोग किया था। वे रो रोकर माँ से प्रार्थना करते थे -' माँ , तूने रामप्रसाद को दर्शन दिया , तो मुझे दर्शन क्यों नहीं दोगी ?मैं धन,जन, भोगसुख कुछ भी नहीं चाहता हूँ मुझे दर्शन दे। ' माँ आज का दिन भी चला गया, सूरज डूबने को है, आज  भी तूने मुझे दर्शन नहीं दिया ? कुछ दरवान लोग सोचते ये युवा पुजारी गांव से आये हैं, इनका अग्रज मरे हैं, और माँ को देखने के लिए रो रहे हैं। किन्तु वे तो जगतजननी माँ काली का दर्शन करने के लिए रो रहे थे। वे रात-दिन माँ के ध्यान में व्याकुलता से डूबे रहते थे। लोग  गंगा किनारे युवा पुजारी श्रीरामकृष्ण को माँ के लिए इसप्रकार से रोते देखकर पहले सभी लोग हंसीमजाक/परिहास का पात्र समझने लगे, किन्तु बाद में उनकी अटूट श्रद्धा को देखकर सभी लोग उनपर श्रद्धा -सम्मान देने लगे।
11. माँ काली का प्रथम दर्शन :वे कहते थे, " एक दिन माँ का दर्शन नहीं मिलने से मेरे हृदय में इतने जोर का दर्द उठा कि जैसे भींगे अंगोछे को सुखाने के लिए बलपूर्वक निचोड़ा जाता है, उसी प्रकार कोई मेरे हृदय को पकड़ कर वैसे ही निचोड़ रहा है। व्याकुल होकर मैंने सोंचा इस जीवन से क्या लाभ यदि माँ का दर्शन ही न हुआ ? सामने माँ के मंदिर में रखी हुई तलवार को उठाने के लिए जैसे ही दौड़ा कि उसी समय सहसा मुझे माँ का अद्भुत दर्शन मिला तथा मैं बेसुध होकर गिर पड़ा। घर-द्वार-मंदिर ये सब कुछ न जाने कहाँ विलुप्त हो गए-मानों कहीं कुछ नहीं था। मुझे एक अनन्त ,असीम , चैतन्य ज्योति समुद्र दिखाई देने लगा मुझे ग्रस्त करने के लिए मुझपर आ गिरीं और अचेत होकर, बाह्य चेतना (consciousness) को खोकर मैं गिर पड़ा ..... "  किन्तु मेरे हृदय में घनीभूत आनन्द का स्रोत प्रवाहित हो रहा था, और मैंने माँ के साक्षात् ज्योति की उपलब्धि की थी।" कितना दिन बेसुध था मुझे कुछ पता नहीं।  ...उस ज्योति समुद्र के भीतर क्या उनको माँ भवतारिणी की जीवंत मूर्ति का दर्शन भी प्राप्त हुआ था ? सारदानन्दजी लिखते हैं -" हमें ऐसा प्रतीत होता है कि अवश्य प्राप्त हुआ होगा। क्योंकि हमने सुना है कि मंदिर में माँ जगदम्बा के प्रथम दर्शन के बाद जब उन्हें सामान्य चेतना हुई थी तब कातर स्वर से उन्होंने 'माँ' शब्द का उच्चारण किया था। 
12. समाधि अवस्था : रामकृष्णदेव को पहली बार यह समाधि की अवस्था जिसमें पहुंचकर व्यक्ति बाह्य जगत को पूर्णतया खो देता है, दिन में कई कई बार प्राप्त होने लगी।  जिस अवस्था को प्राप्त करने के लिए योगी (religious practitioner) जीवनभर मनःसंयोग का अभ्यास और तपस्या करते हैं, और एक बार इस अवस्था की अनुभूति पाने को लालायित रहते हैं, रामकृष्ण देव उस अवस्था की अनुभूति दिनभर में कई कई बार करते थे। बहुत वर्षों के बाद डॉक्टर महेन्द्रलाल सरकार समाधि अवस्था में  उनको मेडिकली जाँच करके देखते थे कि उनकी पुतलियाँ मृत हो चुकी हैं।  नाड़ी नहीं चल रही थी, दिल की धड़कन भी बंद थी।' no pulse, no heartbeat ' सांसे थम गयी थीं। जब महेन्द्रलाल सरकार ने जाँचा तो पाया कि मानों वे किसी मृत शरीर को देख रहे हों। किन्तु तब भी उनका चेहरा आनन्द से दमकता रहता था। अतः ईशवरानुभूति की अवस्था या समाधि की अवस्था को मूर्छित अवस्था, बेहोशी या अचेतावस्था (condition of unconsciousness) में गिर जाना,या नींद में सो जाना (falling asleep) या तन्द्रीलता कोमा में चला जाना (being comatose) नहीं समझना चाहिए। बल्कि यह ठीक उसके विपरीत अवस्था है, condition of 'intense absorption' या ध्येय वस्तु में गहन तन्मयता प्राप्त कर लेने की अवस्था है। मन जब आप गहन रूप से  ध्येय वस्तु में जब तल्लीन हो जाता है, तब आप एकाग्रचित्त या घ्यानस्थ रहते हैं और अपने आसपास के बारे में बेखबर हो जाते हैं। कल्पना कीजिये की विद्यासागर वाली इस अवस्था से भी कई कदम अधिक गहरी अवस्था। जहाँ पहुंचकर आप बिल्कुल ईश्वर में , या आध्यात्मिक जागृति (spiritual awareness) में पूर्णतः तल्लीन या समाधिस्थ हो जाते हैं। और यहाँ तक अपने शरीर की चेतना (consciousness) या होश भी पूर्णतया खो देते हैं, इस अवस्था का प्रभाव शारीरिक क्रियाओं के ऊपर भी पड़ता है। मानो शरीर बिल्कुल रुक जाता है -'निस्तब्ध' (अचल-standstill) हो जाता है। रामकृष्ण की समाधि अवस्था का वर्णन मिलता है कि शरीर चित्र के जैसा स्थिर हो जाता था। किन्तु वास्तव में वे गहन जागृति की अवस्था में रहते थे। 
समाधि में जागृति को पहचानने का तरीका था कि जब कीर्तन करते हुए समाधि में जाकर स्तब्ध खड़े हो जाते थे, उनको देखकर ऐसा लगता था कि वे जगत से बिल्कुल (oblivious) बेखबर हैं, किन्तु भजन गाते समय यदि किसी गायक की ताल कट जाती थी, या कोई गलत सुर लगा देता तो वे उसको पकड़ लेते और एक चिहुँक कर (shudderया कँपकपी के साथ) पुनः चेतनावस्था में लौट आते थे। इसका तात्पर्य यह हुआ कि समाधि अवस्था में वे पूर्णतः अभिज्ञता (awareness) की अवस्था में होते थे अचेतावस्था (unawareness) में नहीं होते थे। जैसे कोई उच्च प्रशिक्षित संगीतज्ञ अपना संगीत पेश कर रहा हो और यदि थोड़ा भी सुर गलत लग जाये तो असहज हो उठता है, 'intensely tuned awareness' जैसे कोई मोजार्ट और सामन्य गवैये का फर्क महसूस न करे तो कहना पड़ेगा कि वह संगीतज्ञ नहीं है, और उसे किसी दूसरे पेशे को अपनाना चाहिए। 
13. रामकृष्ण की अद्भुत पूजा पद्धति : इसके बाद रामकृष्ण किसी उन्मादी साधक की तरह और भी कठिन साधना में निमग्न रहने लगे। रामकृष्ण की अद्भुत अवस्था और पूजा-पद्धति को देखकर मथुर बाबू बड़े संतुष्ट थे,उन्होंने रानी रासमणि से कहा था -'माँ , हमें अद्भुत पुजारी मिला है, देवी सम्भवतः शीघ्र ही जाग्रता हो उठेंगी।' किन्तु बाकी सामन्य लोगों को यह युवा पुजारी झक्की या पागल प्रतीत होता था। पूजा करने बैठते तो 40 मिनट में पूजा समाप्त करने के बजाय समय का कोई ध्यान नहीं रहता -घंटा दो घंटा पूजा आरती ही कर रहे हैं ,लोग उनको पागल समझने लगे। फूल अपने सिर पर चढ़ा लेते और समाधि में चले जाते। देवी के भोग को मंत्र पढ़ने के बाद मूर्ति के मुख में अपने हाँथ से खिलाने लगते। कभी कहते माँ तू कहती है, पहले मैं खाऊं ? ठीक है और पवित्र प्रसाद खुद खाने लगते जिसे देखकर लोग भयभीत हो जाते। तभी कोई बिल्ली मंदिर में आ गयी , वे कहने लगे अच्छा माँ आज तूँ इस बिल्ली के रूप में भोग खाने आयी है ? वे माँ को अर्पित किया जाने वाला भोग बिल्ली को खिलाने लगते।
14 . बिल्ली में भी माँ जगदम्बा :बाद में उन्होंने कहा था कि मैंने माँ जगदम्बा को ही बिल्ली के रूप में देखा करता था। हमलोगों के पुस्तकालय में बिल्ली पर लिखी एक पुस्तक मैंने पढ़ी है। उस पुस्तक को पाश्चत्य लेखिका ने रामकृष्णदेव को समर्पित करते हुए लिखा था कि कैसे रामकृष्ण बिल्ली में भी माँ जगदम्बा को देखते थे। वे माँ की मूर्ति का हाथ पकड़ कर गाने और नाचने लगते थे। अत्यन्त स्नेह पूर्वक माँ जगदम्बा की ठोढ़ी को स्पर्श कर, प्यार,मान , परिहास अथवा हँसते हुए बेटे जैसा प्रेम पूर्ण बातें करने लगते। यह सब देखकर उनके आसपास रहने वाले लोग भी चक्कर में पड़कर आश्चर्य करने लगते। हृदय राम जो उनकी सेवा करता था, कहते हैं उनदिनों मामा की हालत देखकर (bewildered ) हक्का-बक्का रह जाता था। रात में मामाजी बिल्कुल सोते नहीं थे। जब मेरी नींद खुलती थी तब देखता वे उसी प्रकार भावाविष्ट होकर बातें कर रहे हैं, गा रहे हैं, अथवा पंचवटी में जाकर ध्यान में निमग्न है। जब वे मंदिर में पूजा कर रहे होते तो किसी अदृश्य शक्ति की उपस्थित का अनुभव होता और रोंगटे खड़े हो जाते थे। मानों मंदिर ही स्पंदित हो रहा हो।यह सब बड़ा प्रेरणा दायी लगता था। पर मुझे भय होता कि क्या मामा जी वास्तव में पागल हो गए हैं ? इतने बड़े मंदिर के पद को कहीं मामा गँवा नहीं दें ? मामा को सावधान करते वैसा करने को मना करते, हृदय को अपनी नौकरी जाने का भी खतरा भी लगा रहता था, ऐसे करते हुए समय बीतता गया। 26 मिनट] 
15.रहस्मय आसन,ध्यान के समय हिलेगा त्रिशूल भोंक दूँगा:अवतार-ii -लीलाप्रसंग-216,396 ] रामकृष्ण कहते थे - ध्यान के लिए बैठते ही शरीर तथा अंगप्रत्यंग के जोड़ों में मुझे खटखट शब्द सुनायी देता था मानों कोई उन स्थानों में ताले बन्द कर रहा है। जब तक ध्यान समाप्त नहीं हो जाता मैं अपनी इच्छा से उठ भी नहीं सकता था, आसन परिवर्तन करने की शक्ति भी नहीं होती थी। मानो कोई बलपूर्वक मुझे बैठाये रखता था। एक दिन उन्होंने अपने भीतर से एक दिव्यमूर्ति को प्रकट होते देखा जो उन्हें त्रिशूल से डराता कि -" यदि ईश्वरचिंतन के अतिरिक्त तू और कोई चिंतन करेगा, तो तेरी छाती में यह त्रिशूल भोंक दूंगा।" 397] एक बार ऐसा समय आया था कि वे अपनी पलकों को झपका भी नहीं सकते थे। दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी उँगलियों से पलकों को बंद करने की कोशिश करता था। माँ से जाकर शिकायत करते माँ मैंने तुमसे इतना प्रेम किया और तुमने ये कौन सा रोग दे दिया ? हर समय दिव्यभावावेश में उनके निःसंकोच आचरण और निर्भीक भावों को देखकर मंदिर के कर्मचारी और दरवान लोग निश्चय किये कि छोटे पुजारी या तो पागल हो गए हैं, या उनपर किसी बहुत-प्रेत का आवेश हुआ है। 
16.' कुटोबाँधा विवाहेर पात्री '/ 'तिनके से चिन्हित दुल्हन' के साथ रामकृष्ण का विवाह : जब रामकृष्ण के मंझले भाई रामेश्वर और माँ चंद्रमणि को उनकी अवस्था के विषय में अन्य लोगों से समाचार प्राप्त हुआ तो उन्होंने रामकृष्ण को अपने गाँव में वापस बुला लिया 3 *ताकि वे थोड़ा आराम कर के स्वस्थ हो जाएँ। फिर वे उनके विवाह के लिए दुल्हन ढूँढ़ने लगे। सांसारिक विषयों से उदासीन पुत्र को देखकर,भारत में माता-पिता आज भी यही सोचते हैं कि विवाह कर देने से, जब सांसारिक जिम्मेदारी कंधों पर पड़ेगी तो यह भी सांसारिक विषयों में मन लगाने लगेगा। वे उनके लिए लड़की ढूंढने लगे। सबकुछ जानकर भी रामकृष्णदेव ने इसमें कोई आपत्ति नहीं की। चारों और गाँवों में लोग भेजे गए, किन्तु इच्छानुरूप दुल्हन न मिली। उपयुक्त दुल्हन न मिलने से जब उनकी माँ और बड़े भाई अत्यन्त निराश और चिंताग्रस्त हो गए तब एक दिन भावाविष्ट होकर गदाधर ने कहा ग्राम्य बंगला में जो कहा,पहले वह सुनाऊंगा बाद में उसका हिन्दी अनुवाद बताऊँगा; उन्होंने मानों भविष्यवाणी करते हुए कहा - " अन्यत्र अनुसन्धान वृथा, जयरामबाटी ग्रामेर श्रीरामचन्द्र मुखोपध्यायेर बाटीते विवाहेर पात्री कुटोबाँधा हईया रक्खीता आछे !" --अर्थात अन्यत्र ढूँढ़ना व्यर्थ है, जयरामवाटी गाँव में श्रीरामचन्द्र मुखोपाध्याय के घर में विवाह के लिए दुल्हन 'तिनके से चिन्हित' करके (marked with a straw) कर रखी हुई है ! ["অন্যত্র অনুসন্ধান বৃথা, জয়রামবাটী গ্রামের শ্রীরামচন্দ্র মুখোপাধ্যায়ের বাটীতে বিবাহের পাত্রী কুটাবাঁধা হইয়া রক্ষিতা আছে!"http://web.eecs.umich.edu/~lahiri/LilaPrasanga/]  
कुटोबाँधा का अर्थ और तात्पर्य- कुटोबाँधा का अर्थ है 'तिनके से चिन्हित करना।' बंगाल के गरीब किसानों में परम्परा है कि जो उत्तम या विशेष सुन्दर रूप के भतिया फल, फूल या सब्जी उनके खेत या बगान में उगते हैं, उस विशेष फल उपज को केवल इर्श्वर को समर्पित करने के उद्देश्य से उस पर एक तिनका बांधकर चिन्हित करके रख छोड़ते हैं, ताकि यह याद रहे कि -'it's meant for God' यह विशेष भतिया फल केवल भगवान के लिये सुरक्षित है। और कोई अनजान व्यक्ति उसे भूल के भी उसे छूने की हिमाकत न करे। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि श्रीरामकृष्ण ने भतिया फल-फूल के लिये कथित उस कहावत का उपयोग करके कहा कि अमुक गाँव में वह दुल्हन है जिसे मेरी (अवतार वरिष्ठ की ?) होने वाली दुल्हन (विवाह पात्री) के रूप में चिन्हित करके रखा गया है ! जब घर के लोग वहाँ गए तो सचमुच उन्हें छोटी सी पाँच वर्ष की बालिका माँ सारदा के रूप में मिलीं। उन दिनों भारत में बालविवाह की प्रथा बहुत सामान्य बात थी। उस समय माँ सारदा 5 वर्ष की थीं और श्रीरामकृष्ण 23 वर्ष के थे। उन दिनों विवाह -संस्कार को लम्बी सगाई के रूप में पालन किया जाता था। बचपन में विवाह के बाद लड़की फिर अपने मायेके जाकर रहती थी। सयानी हो जाने के बाद गौना या दोंगा का रस्म होता था, तब वह ससुराल जाकर रहती थी। इस प्रकार कामारपुकुर से पश्चिम 5 km दूर जयरामवाटी गाँव के राम-मुखोपाध्याय की 5 वर्षीय एकलौती कन्या के साथ रामकृष्ण का शुभ-विवाह हो गया। 
17. बालिकाबधु के शरीर से आभूषण उतारना : भारत में आज भी विवाह के समय आमतौर से दुल्हन को सोने -चाँदी के आभूषण चढ़ाये जाने की प्रथा है। इससे संबन्धित रामकृष्ण कहानी का एक अन्य रोचक प्रसंग /घटना इस प्रकार है कि, रामकृष्ण का परिवार गरीब ब्राह्मण परिवार था। इसलिये वे लोग इस प्रचलित प्रथा के अनुसार विवाह में दुल्हन को सोने या चाँदी से बने आभूषण चढ़ाने में असमर्थ थे। किन्तु इस परम्परा का पालन तो करना ही था, इसलिये मजबूर होकर उन्हें ये आभूषण अपने गॉँव के जमीन्दार तथा परिवार के हितैषी लाहा बाबू से उधार लेने पड़े। उन गहनों को पाकर माँ सारदा जो छोटी सी बच्ची थी, बहुत खुश हो गयी और सोचने लगी मैं इसे किसीको नहीं दूंगी। जब गहना लौटाने का समय हुआ तब घर के सभी लोग यह सोंचकर दुःखी हो गए कि बालिका बधु के शरीर से उन आभूषणों को उतारने की बात कौन कहेगा ? रामकृष्ण की माँ यह सोंचकर दुःखी थीं कि उस छोटी सी बच्ची के शरीर से आभूषण को कैसे उतारा जायेगा ? किन्तु रामकृष्ण ने कहा आपलोग इसकी चिन्ता न करें, उन्होंने माँ को समझाया और  सोयी हुई माँ सारदा के शरीर से उन आभूषणों को एक-एक करके इस प्रकार कुशलता से उतार लिया कि उनको कुछ भी पता न चला। किन्तु सुबह में उस बुद्धिमती बालिका ने अपनी सास से पूछा कि 'मैंने जो आभूषण पहने थे , वे कहाँ चले गये ?' तब चन्द्रादेवी ने उनको आश्वासन देते हुए कहा कि बेटी गदाधर तेरे लिए इससे भी सुन्दर गहने बनवा देगा। 
18. मन्दिर में वैषयिक चिंतन करने पर रानी रासमणि को दण्डित करना लीला-227] :  विवाह के दो वर्ष बाद जब रामकृष्ण दक्षिणेश्वर मंदिर में पूजन करना शुरू किये तब पुनः उसी प्रकार के उन्माद ने उन्हें पकड़ लिया। उस समय की रोचक घटना है कि शाम के समय जब रामकृष्ण माँ की पूजा -आरती करने बैठे तो, पूजा देखने के लिए, रानी रासमणि जो मंदिर मंदिर की सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थीं, सम्पूर्ण जमींदारी की 
मालकिन थी उनके बगल में आकर बैठ गयीं। और रामकृष्ण माँ की पूजा कर रहे थे, पूजा करते हुए जब उन्होंने नजरें घुमाकर रानी रासमणि की ओर देखा। तब, यह कहते हुए कि तुम्हें लज्जा नहीं आती की मंदिर में बैठकर भी वही सब मुकदमा आदि दुनियादारी की बातें सोंचती हो ? और हठात उनके गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया, इस प्रकार ध्यान के समय वैषयिक चिंतन से विरत होने की शिक्षा प्रदान की । उनके अंगरक्षक, मंदिर के कर्मचारी दरवान आदि यह देखकर बड़े क्रुद्ध हुए और रामकृष्ण को पकड़ने -पीटने की चेष्टा करने लगे । किन्तु रानी रासमणि ने तुरंत उन्हें रोक लिया, और उन्हें बचाते हुए कहा - रुको , कोई बाबा (पिताजी ) को छूने की हिम्मत नहीं करेगा। रामकृष्ण यद्यपि उनसे छोटे थे फिर भी वे और उनके दामाद मथुरबाबू सम्मानपूर्वक उनको बाबा कहते थे। रानी ने कहा बाबा ने ठीक किया है। मैं मंदिर में बैठकर भी एक दायर मुकदमें (lawsuit filed) के विषय में सोच रही थी। उनके मन में उठने वाले विचारों को रामकृष्ण ने 'ह्ह्ह'... तुरंत  देख लिया, और चपत लगाते हुए कहा, भगवान के सामने बैठकर सांसारिक विषयों का चिंतन करना शर्म की बात है। इस घटना को लेकर मैं कभी कभी हैरानी से सोंचता हूँ कि हमलोगों के मनःसंयोग का अभ्यास करते समय, यदि आज भी रामकृष्ण हमलोगों के पास बैठे होते, और उस समय हमलोगों के मन में उठने वाले विचारों को देख लेते तब ???  ह्ह्ह, .....हमारे गालों पर  बायें -दाहिने चपत लगाते हुए उनके हाथ दर्द करने लगते! इस लिए चलो, यह बड़ा अच्छा है कि जब हम मनःसंयोग कर रहे होते हैं, उस समय रामकृष्ण जीवंत न होकर, केवल एक स्थिर चित्र के रूप में सामने चुपचाप होकर बैठे रहते हैं !! ... क्यों ,या अब्ब भी वे हमारे मन को देखते रहते हैं ?
19.आध्यात्मिक साधना में गुरु के मार्गदर्शन की अनिवार्यता लीला-278] : किन्तु यहाँ तक की साधना में उन्होंने किसी योग्य गुरु से कोई व्यवस्थित मार्गदर्शन (systematic guidance) प्राप्त नहीं किया था। मंदिर स्थापना के छह वर्ष बाद 1861 ई ० में रानी रासमणि का देहान्त हो गया। उनके निधन के बाद एक दिन उनके जीवन में प्रथम गुरु का आगमन हुआ। उनके कई गुरु हुए, पहली गुरु भैरवी ब्राह्मणी हुईं, फिर तोतापुरी हुए। इनके अतिरिक्त भी कई अन्य गुरु हुए थे। किन्तु मुख्य रूप से दो गुरु ही हैं, भैरवी ब्राह्मणी और तोतापुरी। उनकी प्रथम गुरु एक प्रबुद्ध स्त्री -भैरवी ब्राह्मणी बनीं जो एक घुमक्कड़ संन्यासिनी (wandering nun) थीं। उस समय तक रामकृष्ण माँ जगदम्बा का पूजन कार्य छोड़ चुके थे। क्योंकि वे तब हमेशा मंगल-आनंद में लीन रहने लगे थे। उनकी जगह हलधारी ने पूजकार्य सम्भाल लिया था। किन्तु पूजन कार्य न करते हुए भी रामकृष्ण वाटिका से फूल चुन माला बनाकर अपने हाथों से श्रीजगदम्बा को सजाया करते थे। एक दिन जब वे फूल चुन रहे थे, तब उन्होंने देखा कि एक नाव दक्षिणेश्वर मंदिर के घाट पर आकर लगी। देखा कि उस नाव से गेरुआ वस्त्र पहनी हुई,हाथों में पुस्तक लिए, लम्बे केशयुक्त भैरवीवेश धारण किये 40 वर्ष की एक सुन्दर स्त्री घाट पर उतरीं हैं। उनको देखते ही रामकृष्ण अपने कमरे में आ गए और और अपने भांजे हृदय को उन्हें-'भैरवी'(female companion of shiva) को बुला लाने को कहा। जाकर मेरे बारे में बोलो, और उनसे  मेरा नाम लेकर कहना कि मैंने बुलाया है।
 हृदय ने कहा -" वह रमणी तो अपरिचित हैं, मेरी बात वे मानेंगी क्यों ? और आपको वे कैसे जानेंगी ??" उत्तर में श्रीरामकृष्णदेव ने कहा , " समय न बर्बाद करो, बस तुम जाकर उनसे मेरा नाम कहना, वे नाम सुनते ही चली आएंगी। " जैसे ही हृदय ने उन्हें बताया कि मेरे मामा आपका दर्शन करना चाहते हैं। वे इस बुलावे को बहुत स्वाभाविक रूप से ग्रहण की और बिना कोई प्रश्न किये भैरवी उसके साथ चलने को उठ खड़ी हुई। रामकृष्ण के कमरे में प्रविष्ट होकर बोलीं ," बाबा तुम यहाँ रहते हो ! मैं तुम्हें ही बहुत दिनों से ढूंढ़ रही थी, तुम तीन व्यक्तियों से मुझे मिलना होगा, यह बात मुझे माँ काली की कृपा से पहले से ही पता हो गया था। भैरवी ब्राह्मणी को पूर्व से ही ज्ञात था कि ( she had divine kind of announcement, or premonition) कि उनके तीन शिष्य होंगे।
20.आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य ~ सिद्धि नहीं,  ईश्वर की प्राप्ति  !: खंड 2 /208]:  रामकृष्ण के साथ प्रथम भेंट में ही ब्राह्मणी ने उनसे चन्द्र और गिरिजा का उल्लेख करते हुए कहा था - " बाबा, इससे पूर्व उन दोनों से मेरी भेंट हो चुकी है; अब तक मैं तुम्हें ढूंढ़ रही थी, आज तुम मिल गए। उनलोगों से मैं तुम्हें बाद में मिलवा दूंगी। "  वे दोनों भी उच्च स्तर के आध्यात्मिक साधक (spiritual seeker ) थे किन्तु साधनमार्ग में बहुत दूर तक अग्रसर होने पर भी ईश्वरदर्शन करके सफलमनोरथ नहीं हो सके थे। उनका चरित भी रोचक है, क्योंकि दोनों को अलग अलग प्रकार की कुछ विशेष विशेष मानसिक शक्ति (psychic power) या सिद्धियाँ प्राप्त थीं। और इन्हीं सिद्धियों के चक्कर में वे योगभ्रष्ट -या मार्गभ्रष्ट होने लगे थे। बहुत से साधक आध्यात्मिक साधना करते हुए इसी प्रकार सिद्धियों के चक्कर में फंस जाते हैं। मैंने भी ऐसे संन्यासियों को हिमालय आदि अन्य स्थानों में देखा है जो बहुत कठिन सधनाएँ किया करते थे, किन्तु वे ज्ञान प्राप्त करने या ईश्वर प्राप्ति के लिए नहीं (supernatural power) अलौकिक सिद्धियों को पाने के लिए आध्यात्मिक साधना करते थे।
 21 :चन्द्र और गिरिजा : दोनों को अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त थीं। चन्द्र को 'गुटिका सिद्धि' प्राप्त हुई थी। मन्त्रपूत गुटिका अंग में धारण कर, वे साधारण लोगों की दृष्टी से अदृश्य या ओझल होकर mr. India  की तरह दुर्गम स्थानों में भी आना-जाना कर सकते थे ! वे शायद भविष्य में होने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी भी कर सकते थे। किन्तु ईश्वर-लाभ करने के पूर्व ही इस प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त करने से साधक का अहंकार बढ़ जाता है, और कामना -वासना के जाल में फँस कर उच्च लक्ष्य की ओर अग्रसर नहीं हो पाता है। क्षुद्रस्वार्थों को पूर्ण करने में लगना ही पाप है, और निःस्वार्थपर हो जाना ही पुण्य है, "मैं" के मर जाने से ही सारे झझंझट दूर हो जाते हैं। रामकृष्ण कहा करते थे - " अरे, अहंकार को ही शास्त्रों में चिज्जड़-ग्रंथि (जड़ देह-मन को मैं मानने का भ्रम) कहा गया है। चित अर्थात ज्ञानस्वरूप आत्मा और जड़ यानि देह-मन आदि के साथ तादात्म्य का भाव -'मैं देह-इन्द्रिय-मन-बुद्धि-आदि विशिष्ट जीव हूँ। -इस प्रकार के भ्रम की पक्की गाँठ! इस विषम गाँठ को काटे बिना आगे बढ़ना सम्भव नहीं है। सिद्धियाँ विष्ठा की तरह हेय हैं। उनकी ओर कभी ध्यान नहीं देना चाहिए।चन्द्र का अहंकार बहुत बढ़ गया तब कामिनी-कांचन अधिक आसक्त होकर एक निंदाजनक काण्ड (scandal) कर बैठे, सिद्धि भी चली गयी और लांछित भी होना पड़ा। गिरिजा के पास अन्य प्रकार की सिद्धि थी, वे अपनी पीठ से टॉर्च जैसी रौशनी निकाल सकते थे, जो दूर तक चली जाती थी। किन्तु उस रौशनी से केवल रात में दूसरों को मार्ग दिख सकता था पर उनके लिए कोई लाभ नहीं था। सिद्धि आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग में बाधक होती है; इसलिए रामकृष्ण के सम्पर्क में आनेपर ठाकुर ने उनकी सिद्धि या अलौकिक शक्ति को खींच लिया, तब चन्द्र और गिरिजा दोनों का मन पुनः ईश्वर की ओर अग्रसर होने लगा। श्रीरामकृष्ण के पास स्वयं इस प्रकार की सिद्धि प्राप्त करने का समय नहीं था। क्योंकि सच्चे सत्यान्वेषी को भी ये सिद्धियाँ अंतर्निहित ब्रह्मत्व (निःस्वार्थपरता ) को अभिव्यक्त करने के लक्ष्य से भटका देती हैं। 
22. सिद्धि की व्यर्थता संबंधी दो भाइयों की कहानी :वे सिद्धियों के चक्कर में फंस कर मन कैसे सच्चिदानन्द से दूर हट जाता है, इस संबंध में दो भाइयों की कहानी कहते थे। बड़ा भाई निवृत्ति मार्ग को अपना कर यौवन में ही संन्यासी बन गया और छोटा भाई विद्याध्यन किया, धार्मिक या चरित्रवान मनुष्य बनने के पश्चात् प्रवृत्ति मार्ग को अपना कर गृहस्थधर्म का पालन करने लगा। निवृत्ति मार्गी संन्यासियों के लिए नियम है कि 12 वर्ष के बाद अपनी जन्मभूमि का दर्शन करने जाया करते हैं। वह संन्यासी भी अपने सुखी-संपन्न गृहस्थ छोटे भाई के दरवाजे पर पहुँचा। बहुत दिनों बाद अपने संन्यासी भाई को देखकर छोटा भाई बहुत खुश हुआ। उसने स्वागत-सत्कार करने के बाद बड़े भाई से पूछा -" दादा, घरद्वार छोड़ कर आपने इतने वर्षों तक आध्यात्मिक साधना की है,कृपया बताइये आपने क्या प्राप्त किया है ?" बड़े भाई ने बड़े गर्व से कहा कि 'यदि तू देखना चाहता है तो मेरे साथ चल। ' वह भाई के साथ नदी के किनारे आया और -'यह देख' कहकर ही जल के ऊपर पैदल चलता हुआ दूसरे किनारे पर जा पहुँचा। और कहा देखा? तत्काल छोटे भाई ने भी मल्लाह को दो पैसे देकर नदी पार कर ली और बड़े भाई के पास पहुंचकर कहा - दादा, आपने किस बात के लिए देखा कहा था ? 12 वर्ष तक कष्ट उठाकर आपने बस इतना ही प्राप्त किया ? दो पैसे खर्च करके जिस कार्य को मैं अनायास कर सकता हूँ, आपने केवल उतना ही प्राप्त किया ? आपके इस सामर्थ्य का मूल्य केवल दो पैसा है!" छोटे भाई की इस बात को सुनकर बड़े भाई की ऑंखें खुल गयीं ,उसको चेतना हुई और फिर ईश्वर प्राप्ति की साधना उसने अपना चित्त लगा दिया। इस कहानी का moral यही है कि अलौकिक सिद्धि का कोई विशेष महत्व नहीं है, इसे प्राप्त करने से साधक को अपने लिए कुछ भी प्राप्त नहीं होता। 
23. भैरवी ब्राह्मणी तंत्रमार्ग और वैष्णवमार्ग की दीक्षा : भैरवी ब्राह्मणी ने रामकृष्ण को तंत्रमार्ग के ग्रंथों एवं भक्तिग्रन्थों के आधार पर प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया। तंत्रशास्त्र के अनुसार ईश्वरप्रेम की तीव्रता से अवतार पुरुषों के देह तथा मन में किस प्रकार के लक्षण प्रकट होते हैं, उन्हें सुनाकर भैरवी उनके संशयों को छिन्न करने लगी। मंदिर परिसर से थोड़ी दूरी पर एक घाट पर रहती तथा प्रतिदिन रामकृष्ण के साथ वार्तालाप करने अधिकांश समय व्यतीत करतीं। वे उन्हें तंत्रमार्ग के साथ साथ वैष्णवधर्म की शिक्षा भी देती थी। श्रीरामचंद्र और श्रीकृष्ण के भक्तिग्रन्थों से चर्चा करके भी अवतार होने के संबन्ध उनके संशयों को छिन्न करती थीं। भैरवी के पास राम की एक छोटी सी मूर्ति थी। एक दिन पंचवटी के जंगल में ब्राह्मणी उस मूर्ति के समक्ष भोग-प्रसाद रखकर उनका ध्यान कर रही थीं। उसी समय श्रीरामकृष्णदेव दिव्यभावावेश में आकृष्ट होकर वहां पहुंचे और ब्राह्मणी द्वारा निवेदित उन खाद्य वस्तुओं का भोजन करने लगे। जब रामकृष्ण भावाविष्ट अवस्था से सामान्य चेतना की भूमि पर लौटे तो क्षुब्ध होकर ब्राह्मणी से कहने लगे ," माँ, पता नहीं मैं आत्मविभोर होकर इस प्रकार का आचरण क्यों कर बैठता हूँ ?" भैरवी ने कहा, " बाबा, यह कार्य तुमने नहीं किया है, तुम्हारे अन्दर जो विराजमान हैं, उन्होंने किया है। मैं जान गयी हूँ तुम कौन हो और किसने ऐसा किया है। अब मेरे लिए पहले की तरह बाह्य पूजन की आवश्यकता नहीं, इतने दिनों के बाद मेरा पूजन सार्थक हुआ है।क्योंकि आज मैंने तुम्हारे भीतर विराजित भगवान राम को पहचान लिया है।" और उन्होंने अपनी दीर्घकाल से पूजित उस मूर्ति को गंगा में विसर्जित कर दिया। एक के बाद दूसरा तंत्र के उन कठिन मार्गों का प्रशिक्षण देने लगीं, जो बड़े फिसलन भरे होते हैं, जिसमें अधिकांश साधक के मार्गच्युत हो जाने की सम्भावना होती है, जिसे पूर्ण करने में वर्षों बीत जाते हैं।
24. तंत्रमार्ग से आध्यात्मिक साधना करने की दो-पद्धति: 1. Yogic Approach :[Using Will Power  I shall not indulge in this worldly pleasure,I shall focus all my energy in realizing God.That's the Yogic Approach]  एक मार्ग यह है कि जब आप ईश्वर की ओर अग्रसर होते हैं तो सांसारिक वस्तुओं (कामिनी -कांचन) का खिंचाव, इन्द्रियों का खिंचाव-स्रोत को (gravitational pull of the world, pull of the senses) को आप अपनी इच्छाशक्ति का प्रयोग करके, वहीँ रोक सकते हैं, काट दे सकते हैं। आप ऑटोसजेशन मेथड का प्रयोग करके संकल्प शक्ति को बढ़ा सकते हैं। आप यह दृढ संकल्प ले सकते हैं कि- " अबलौं नसानी अब न नसैहौं !" मैं अपनी अंतर्निहित गुरु-शक्ति अर्थात विवेक-शक्ति या इच्छाशक्ति का प्रयोग करके - सांसारिक भोग-विलास के बंधन में और नहीं फँसूँगा! मैं अपनी समस्त ऊर्जा को ईश्वर-दर्शन के लिए मन को एकाग्र रखने में (आत्मानुभूति करने में) ही नियोजित कर दूंगा !" इस पद्धति को योगमार्ग,मनःसंयोग का मार्ग या योगियों की ज्ञामनमयी दृष्टि प्राप्त करने का मार्ग कहते हैं। 
25. तान्त्रिक साधना (वशीकरण मंत्र का अर्थ) है मन के मोड़ को घुमा देना: Tantric Approach: इन्द्रिय विषयों का आकर्षण या सांसारिक भोग-सुख के प्रति मन का खिंचाव या आसक्ति बहुत गहरी और शक्तिशाली है। अतः तंत्रमार्ग के अनुसार उन्हें रोकने या काटने की कोशिश करने के बजाय, उनके आकर्षण को भगवान की ओर मोड़ देना पड़ता है।  [Pull of the senses , pleasures of the world or sense pleasure is very powerful. Instead Of trying to stop them or cut them, divert them towards God .] बाद में श्री रामकृष्णदेव अपने शिष्यों को शिक्षा देते थे कि तुम काम-वासना को दूर करने के लिए इतने चिंतित क्यों रहते हो ? यदि कमाना-वासना है , तो उन्हें ईश्वर को पाने के लिए मोड़ दो। यदि क्रोध करना है तो ईश्वर के प्रति क्रोध करो कि अभी तक तुमने दर्शन क्यों नहीं दिया ? तंत्रमार्ग और वैष्णव मार्ग से भी रामकृष्ण को शीघ्र ही ईश्वर प्राप्ति हुई। बाल्यावस्था से ही श्रीरामकृष्ण श्रुतिधर थे, उनकी धरणाशक्ति इतनी प्रबल थी कि मानसिक पूर्वसंस्कार उनके सम्मुख कभी सिर उठाकर उन्हें लक्ष्यभ्रष्ट नहीं कर पाते थे। जब एक बार उन्हें यह समझ में आ गया कि भारत (संसार ) में प्रचलित शिक्षा का उद्देश्य 'दाल-रोटी प्राप्त करना' यानि केवल अर्थोपार्जन करना है, तो फिर उन्होंने विद्याभ्यास नहीं किया। अपने को जगदम्बा की संतान समझकर जब श्रीरामकृष्णदेव ने यह सुना कि माँ भवतारिणी ही -"स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु" हैं ; उसी समय से विवाहित होने पर भी उन्होंने स्त्री-ग्रहण नहीं किया, भोगलालसामयी दृष्टि से देखकर दाम्पत्य सुख प्राप्त करने के निमित्त आगे नहीं बढ़ सके।
26 . भैरवी ब्राह्मणी के रूप-गुण को देखकर मथुरबाबू का सन्देह:ii 'বামনী'র রূপ-গুণ দেখিয়া মথুরের সন্দেহ/अष्टम अध्याय: भैरवी जैसी गुणवती थीं, उसी प्रकार उनका रूप भी असाधारण था। रूप लावण्य के साथ अकेली इधर उधर घूमते देखकर प्रारम्भ में मथुर बाबू को भी उनके चरित्र पर सन्देह होने लगा था। एक दिन परिहास करते हुए (half jokingly) उन्होंने पूछा -" भैरवी, तुम्हारा भैरव कहाँ है ?"  भैरव का अर्थ होता है शिव का पुरुष सहचर। शिव सहचर रूप से स्त्री और पुरुष, भैरव और भैरवी दोनों सत्य-अन्वेषक (spiritual seeker) ही होते हैं,और  कभी कभी एक साथ आध्यात्मिक साधना भी करते हैं। किन्तु अक्सर लोग ऐसा मानते हैं कि उनके बीच सांसारिक संबंध(worldly relationship) होता है। इस प्रकार अकस्मात प्रश्न किये जाने पर कि -"भैरवी तोमार भैरव कोथाय ?" (ভৈরবী, তোমার ভৈরব কোথায়?) उन्होंने थोड़ा भी संकुचित हुए बिना अपनी ऊँगली से मथुरबाबू को मंदिर में काली के चरणों में लेटे हुए शिव जी की और दिखा दिया। आपने माँ काली की मूर्ति में उनके चरणों में लेटे हुए महादेव को देखा होगा। किन्तु मथुर बाबू का संदेह गया नहीं था, उन्होंने कहा -"ও ভৈরব তো অচল।" " पर वे तो अचल हैं। तुम्हारे सचल भैरव कहाँ हैं ? " (but that is a immovable Bhairava) तब भैरवी ने गंभीर स्वर में यह कहकर चुप करा दिया कि -" जदि अचल के सचल करितेई ना पारिबो, तबे आर भैरवी होइयाछी केनो ? (যদি অচলকে সচল করিতেই না পারিব, তবে আর ভৈরবী হইয়াছি কেন?) यदि अचल को ही सचल न बना सकी तो फिर मैं भैरवी क्यों बनी हूँ ?जिसका अर्थ होता है मैं जड़ पाषाण मूर्ति या प्रतीकों के पीछे छिपी भावना की अनुभूति कर सकती हूँ, या मृण्मयी मूर्ति में भी चैतन्य आत्मा की अनुभूति कर सकती हूँ। (If I can not make immovable move then why I have become a Bhairavi ?  That means that I actually realize the spirit behind the images and symbols . ) 
27. पण्डित वैष्णवचरण द्वारा रामकृष्ण को एक 'अटूटसहज नेता ' अवतार स्वीकार करना:  गुरुभाव उत्तरार्ध:  इसी क्रम में भैरवी को यह अनुभूति हुई कि रामकृष्ण कोई उच्चकोटि के साधक नहीं हैं, बल्कि स्वयं ईश्वर के अवतार हैं।भैरवी ने ही इस रहस्य को सर्प्रथम आविष्कृत किया कि आधुनिक युग में श्रीरामकृष्णदेव ही ब्रह्म के अवतार हैं! ईश्वर एक बार पुनः स्वयं श्रीरामकृष्णदेव के रूप में धरती पर अवतरित हुए हैं। ईशरवुड ने अपनी पुस्तक 'Story of a Phenomenon' (अदभुतघटना की कहानी) में इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखते हैं - " मानव सभ्यता के इतिहास में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से मनुष्य रूप में अवतरित होने के लिये , भगवान किसी उपयुक्त समय का चयन करते हैं! वे राम के रूप में, कृष्ण, ईसा या कभी चैतन्य के रूप में प्रकट होते हैं! " In human history once in awhile God chooses fit to intervene appear as an incarnation!" भैरवी ने रामकृष्ण के सानिध्य में रहकर यह महसूस किया कि मानव इतिहास में वही क्षण एकबार पुनः उपस्थित हुआ है। यहाँ हमलोग विवेकानन्द की एक उक्ति का उल्लेख करेंगे -यह मानव इतिहास का कोई साधारण समय नहीं है, इतिहास का वह विशेष क्षण हमारे सामने फिर से उपस्थित है, रामकृष्ण जैसा नया मनुष्य एक बार फिर से हमारे सामने है।"  " that period of history is again before us, Such a thing is again before us.This is not an ordinary time in human history,Time of Rama , Krishna and Christ is again before us. " और सबसे पहले भैरवी ही इस चौंकाने वाले निष्कर्ष पर पहुँची, कि रामकृष्णदेव आधुनिक युग में ईश्वर के अवतार हैं।   (and bhairavi came to this stagring conclusion.) इस निष्कर्ष पर पहुँचना कोई आसान बात नहीं थी। उस समय जो लोग रामकृष्ण के विषय में बहुत ऊँची धारणा रखते थे, और उनसे बहुत प्रेम करते थे -यथा उनके भगिना हृदय, मथुरबाबू या स्वयं रानी रासमणि, वे लोग भी उनको केवल एक उच्च कोटि के साधक ही मानते थे। जबकि शेष लोगों में से अधिकांश लोग उनको (crazy) पगला/दीवाना समझते थे। उस समय किसी अद्भुत पागल व्यक्ति को भगवान समझ लेना या ईश्वर का अवतार समझ लेना कोई आसान बात नहीं थी। किन्तु भैरवी ने तय किया कि मैं इस बात को प्रमाणित करके रहूँगी कि अवतार के समस्त लक्षण रामकृष्ण में विद्यमान हैं। मथुरबाबू तथा कालीमंदिर के अन्य प्रमुख व्यवस्थापक लोग भी विश्वास नहीं कर पा रहे थे, यह अद्भुत युवा पुजारी अवतार भी हो सकता है। तब भैरवी ने मथुर बाबू से कहा , "आप देश के विख्यात शास्त्रज्ञ विद्वानों, पण्डितों को आमन्त्रित कीजिये, मैं उनके समक्ष इस बात को प्रमाणित करने के लिए तैयार हूँ, कि किसी अवतार के समस्त लक्षण रामकृष्ण में विद्यमान हैं ! " एक धर्मसभा का आयोजन करके शास्त्रार्थ द्वारा यह तय किया जायेगा कि मेरा निर्णय सही है या नहीं ? मथुरबाबू उस विद्वत सभा का पूरा खर्च उठाने या sponsor करने के लिए तैयार हो गए। 
उन दिनों कलकत्ता पूरे देश की राजधानी थी, और कलकत्ते की पण्डित-मण्डली में दो पण्डितों की बहुत ख्याति थी। उसमें भी पण्डित वैषणवचरण को उनकी ईश्वरभक्ति और विद्व्ता के कारण, विशेषकर भक्तिशास्त्र में उनके गहरे ज्ञान के कारण वैष्णव समाज के नेता माने जाते थे विशेष सम्मान प्राप्त था। रामकृष्ण को वे भी जानते थे और बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे। उनको आमंत्रित किया गया उनके साथ अन्य कई पंडितों को भी आमंत्रित किया गया। दूसरे महान विद्वान् थे बाँकुड़ा अंचल के गौरी पण्डित, जिन्हें शास्त्रार्थ सभा में आमंत्रित किया गया था। वे विभिन्न हिन्दू दर्शन मार्गों के उद्भट विद्वान् तथा विशिष्ट तांत्रिक साधक थे। वे लोग शास्त्रार्थ करने जब सभा में पधारे तह भैरवी ब्राह्मणी ने कहा हाँ मैं यह प्रमाणित करने को तैयार हूँ कि श्रीरामकृष्ण भगवान के एक अवतार हैं !आपलोग कल्पना कर सकते हैं, कलकत्ते के तत्कालीन विद्वत समाज में इस सभा के आयोजन को लेकर कितनी सनसनी या उत्तेजना रही होगी ! दूर दूर से लोग सभा में आकर उपस्थित हुए। और कोई माँ जैसे अपनी संतान [ii- 262] की रक्षा करने के लिये वीरता के साथ खड़ी रहती है, भैरवी भी रामकृष्ण के पक्ष में खड़ी थीं। शास्त्रार्थ का पहला अधिवेशन पण्डित वैष्णवचरण के साथ प्रारम्भ हुआ क्योंकि गौरीपण्डित तबतक सभास्थल पर नहीं पहुंचे थे। किसी अवतार के जितने लक्षण वैष्णव शास्त्रों में बताये गए हैं,भैरवी ने उन सब लक्षणों का वर्णन किया और श्रीरामकृष्णदेव की स्थिति/अवस्था के संबंध में भैरवी ने लोगों से जो कुछ सुना था, तथा स्वयं अपनी आँखों से जो कुछ देखा था उसके संबंध में अपना अभिमत प्रकट किया। और कहा वैष्णव शास्त्रों में अवतार संबंधी श्रीकृष्ण के जितने लक्षण गिनवाए गए हैं,उनसे मिलान करके देखें; यदि उनको पौराणिक कथा समझते हों, तो श्री चैतन्यमहाप्रभु से मिलायें -वे तो हाल में हुए थे। केवल 500 वर्ष पहले आये थे और उनके अवतार संबंधी ये ये लक्षण उनके जीवन में कहे गए हैं। और ठीक वे सभी लक्षण श्रीरामकृष्ण में आप देख सकते हैं। और वैष्णव चरण को कहा -' आपकी धारणा यदि इस संबंध में भिन्न हो तो, उसका कारण क्या है ? मुझे समझाने की कृपा करें। 
जब ये सब बहस चल रहा था तब रामकृष्ण किसी मासूम बच्चे के समान स्वयं अपने आप में निमग्न होकर आनन्द में बैठे थे।अपने बटुए से थोड़ी सौंफ या बड़ी-ईलाईची मुख में डाल कर उन लोगों की बातों को इस प्रकार निरपेक्ष भाव से सुन रहे थे, मानो ये सारी बातचीत किसी अन्य व्यक्ति के सम्बन्ध में हो रही हो ! और फिर कोई अवतार-लक्षण का प्रसंग आता तो वैष्णव चरण के कपड़ों को टानते हुए कहते -"सुनो , मेरी अवस्था भी ठीक ऐसी ही हुआ करती है !" -कहकर बीच बीच में अपनी स्थिति बतलाते रहते। वैषणवचरण ने रामकृष्ण के अवतार होने संबंधी भैरवी द्वारा प्रस्तुत समस्त प्रमणों का अपने हृदय से समर्थन किया और निर्णय सुनाया कि रामकृष्ण के समस्त लक्षण चैतन्यदेव और भावमयी श्रीराधा से मिलते हैं। वे सचमुच अवतार हैं, उन्हें 'अटूटसहज-सापेर मुखेते भेकेरे नाचाबी,साप ना गिलिबे ताय।'  '??  कहकर उनके चरणों में प्रणाम अर्पित किया। किन्तु यह सब सुनकर रामकृष्ण को कोई फर्क नहीं पड़ा। लोग जब उनको भगवान कहने लगे तो उन्होंने केवल इतना कहा - " चलो अच्छा हुआ, कम से कम अब कोई यह तो नहीं कहेगा कि मुझे रोग हो गया है !" 
28. गौरीपण्डित का मत था रामकृष्ण अवतार नहीं स्वयं ब्रह्म हैं : अब प्रश्न था कि जो दूसरे पंडित आने वाले हैं वे क्या कहते हैं ? गौरीपण्डित एक विशिष्ट तान्त्रिक साधथे जो उनकी परीक्षा लेने वाले थे, और उनको भी एक रोचक सिद्धि या अलौकिक मानसिक शक्ति प्राप्त थी।जिस किसी विचार-सभा में वे जाते थे, वहाँ प्रवेश करते समय पहलवान जैसा ताल ठोंकते हुए सभा में प्रवेश करते थे और जोर से गर्जना करते हुए नारा लगाते थे - " हा रे रे रे, निरालम्बो लम्बोदर जननी कं यामि शरणम्। " इस रणहुंकार (Slogan) के द्वारा शास्त्रार्थ शुरू होने के पहले ही, विपक्षी को भयभीत तथा सम्मोहित कर उसकी शक्ति को हर लिया करते थे। और स्वयं शास्त्रार्थ में विजयी हो जाते थे। गौरी पण्डित की इस सिद्धि की बात रामकृष्ण को ज्ञात नहीं थी। किन्तु उस दिन दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर की सभा में जब पदार्पण किया तब वहां वैष्णव चरण बैठे थे, भैरवी, रामकृष्ण और अनेक विद्वत समाज भी वहाँ बैठे हुए थे। और जैसा गौरी पंडित की आदत थी, वे वहाँ पहुँचे और ज्योंही उन्होंने " हा रे रे रे " शब्द किया, रामकृष्ण के भीतर मानों सहसा कोई जागृत हो गया, वह रामकृष्ण जो बड़े सज्जन और सौम्य प्रकृति के थे, वे उछलकर खड़े हो गये और उससे भी अधिक उच्च स्वर में उच्चारण करने लगे -'हा रे रे रे।' 
ह्ह्ह ....गौरी पंडित पुनः उससे भी उच्च स्वर में वे शब्द कहने लगे। इस पर उत्तेजित होकर रामकृष्ण उससे भी अधिक जोर से 'हा रे रे रे' कह उठे, सारा सभागृह उस गर्जन से काँप उठा। और गौरी पण्डित रामकृष्ण की अपेक्षा और अधिक उच्च स्वर से उच्चारण न कर पाने के कारण, दुःखी मन से सभागृह में प्रवेश किये , और उस दिन के बाद वे कभी इस शब्द उच्चारण दुबारा नहीं किये। उनकी वह शक्ति /सिद्धि चली गयी। फिर दूसरे दिन प्रातः शास्त्रार्थ प्रारम्भ होने के पहले रामकृष्ण कालीमंदिर में प्रणाम करने गए, बाहर निकलते समय भावाविष्ट हो गए। और वैष्णवचरण प्रणाम करने के लिए जैसे ही उनके चरणों में झुके, वे भाव-प्रेम से समाधिस्थ हो वैष्णव चरण के कन्धे पर बैठ गए। उनके चरणों के स्पर्श से वैष्णव चरण भी स्तम्भित होकर रामकृष्ण स्तुति पाठ करने लगे। बाद में वैषणवचरण अक्सर रामकृष्ण के पास आते जाते रहते थे। तथा यह विचार किये बिना कि रामकृष्ण को कौन क्या मानता है, वे खुलेआम घोषणा करते थे कि रामकृष्ण भगवान के अवतार हैं, आधुनिक युग में हमलोगों के कल्याण के लिए भगवान रामकृष्ण रूप में स्वयं अवतीर्ण हुए है ! वे कहा करते थे कि " जब नर लीला में विश्वास उत्पन्न होता है, तभी ज्ञान की पूर्णता होती है। " नर-नारी या काली और कृष्ण के सम्बन्ध में भेदबुद्धि देखकर रामकृष्ण कहते थे - यह जान लेना कि तेरे इष्टदेव (ठाकुर )ही काली, कृष्ण और गौरांग (चैतन्यमहाप्रभु) आदि सब कुछ बने हैं। 
उसके बाद जब सभा का आयोजन हुआ तब गौरी पण्डित रामकृष्ण को दिखाते हुए पहले ही बोल पड़े कि मैं वैषणवचरण से शास्त्रार्थ नहीं करूँगा, क्योंकि रामकृष्ण के आशीर्वाद से वैषणवचरण जी बलिष्ठ हो गए हैं, इसलिए मुझे पराजित होना पड़ेगा। फिर रामकृष्ण के संबंध मेरी भी धारणा वही है, जो वैषणवचरण की है। अतः ऐसी स्थित में शास्त्रार्थ करने की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा -'क्या वैष्ण्वचरण आपको सिर्फ अवतार कहता है ? मेरी तो धारणा यह है कि आप स्वयं वे ही हैं, जिनके अंश से अवतार लोग युग युग में अवतीर्ण हुआ करते हैं। '  इस प्रकार रामकृष्ण के सम्बन्ध में भैरवी के मत की पुष्टि हुई, यह प्रमाणित हो गया कि रामकृष्ण कोई उच्च साधक नहीं बल्कि अवतार हैं। 
गौरीपंडित तो और आगे बढ़ गए, वे उस सभा के बाद अपने घर वापस नहीं लौटे, वे रातदिन दक्षिणेश्वर में रामकृष्ण के साथ ही रहने लगे, रामकृष्ण से आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करने लगे। उनकी पत्नी और बच्चे पत्र लिखकर उन्हें घर लौटने का अनुरोध करने लगे। जब उन्होंने देखा कि परिवार के लोग उन्हें जबरन घर ले ही जायेंगे। तब उन्होंने रामकृष्ण को एक पत्र लिखा -'हे रामकृष्ण, मैं जा रहा हु, और अब ईश्वर लाभ करने के बाद ही वापस लौटूंगा। 'रामकृष्ण ने उनको आशीर्वाद देकर विदा किया, उसके बाद से उन्हें किसी ने नहीं देखा।गौरी पण्डित कहा करते थे 'काली तथा गौरांग पर जब एक-बुद्धि होगी तब मैं समझूंगा कि यथार्थ ज्ञान का उदय हुआ है। " इस प्रकार पहली बार श्रीरामकृष्ण को खुलेआम अवतार स्वीकार कर लिया गया। किन्तु श्री रामकृष्ण इन बातों से जरा भी प्रभावित नहीं हुए और अपनी आगे की साधना को जारी रखे।अब उन्होंने भक्ति मार्ग के विभिन्न भावों की साधना प्रारम्भ की। 
29. भक्तिमार्ग का शान्तभाव और दास्यभाव: विद्वत सभा में अवतार घोषित होने के बहुत वर्षों के बाद उनके भक्त विख्यात नाट्यकार गिरीशचंद्र घोष,वकील रामचंद्र दत्त ,ने भी कहना शुरू किया कि रामकृष्ण अवतार हैं। पर उनकी बातों से भी रामकृष्ण जरा भी प्रभावित नहीं हुए, वे अपने युवा भक्तों से बोले- 'ये नाट्यकार और वकील लोग मुझे आज अवतार घोषित कर रहे हैं, किन्तु वे भला शास्त्र -पुराण, अवतार आदि का क्या ज्ञान रखते हैं?  किन्तु तुम लोग नहीं जानते हो, वर्षों पहले वैषणवचरण और गौरीपण्डित जैसे शास्त्रज्ञ व्यक्तियों ने भी मुझे अवतार घोषित किया था। पर मैंने अवतार घोषित होने के बाद भी बिना अभिमान किये भक्तिमार्ग के विभिन्न भावों की साधना प्रारम्भ की थी।  ईश्वर की पूजा -भक्ति करने का एक मार्ग है शान्त-भाव (Peaceful Attitude/SV/3 /68) 'जब उपासना में अपने इष्टदेव के प्रति प्रबल प्रेम की उन्मत्तता नहीं रहती, तब वह उपासना शान्त भक्ति या शान्त प्रेम कहलाती है।' जैसे ज्ञानी- ऋषि लोग ईश्वर को एक दिव्य अस्तित्व (being) मानकर, ईश्वर के प्रति एक शांत दृष्टिकोण रखते हुए  उनका चिंतन-मनन,प्रार्थना,उपासना  करते हैं। इससे ऊँची अवस्था है 'दास्य'- भाव, इस अवस्था में मनुष्य अपने को ईश्वर का दास समझता है।  [you divinaize your relationship with human being and humanize your relationship with God.] विवेकानन्द वेदान्त के भक्तिमार्ग में हिन्दुओं के दास्यभाव या दृष्टिकोण की व्याख्या करते हुए कहते हैं, इसमें आप मनुष्यों के साथ अपने रिश्ते को दैविक/ईश्वरस्थानीय बनाने का प्रयास करते हैं,और भगवान के साथ अपने रिश्ते को मानवीय स्वरुप में देखने का प्रयास करते हैं। आप मेरे स्वामी हैं, मैं आपका सेवक हूँ। यह भक्तिमार्ग का एक दूसरा दृष्टिकोण है। दास्यभाव की भक्ति में तुम दूसरे मनुष्यों के साथ अपने को कैसे जोड़ कर देखोगे ? उन्हें .... उन्हें अपना भाई, पिता-पुत्र-पुत्री, पत्नी, बिजनेस कम्पपीटीटर, दोस्त-दुश्मन, घरेलू दास-दासी समझकर अपने को उनसे नहीं जोड़ोगे, नहीं सोचोगे, बल्कि यह सोचोगे कि  वे सभी भगवान/ब्रह्म ही हैं, किन्तु अलग अलग नाम-रूप में हैं। और अब भगवान श्रीरामकृष्णदेव को किस भाव से देखोगे ? भगवान/ब्रह्म  के रूप में नहीं अपने पिता, माँ , मित्र,गुरु के रूप में देखोगे। वे मेरे स्वामी या गुरु हैं मैं उनका आज्ञाकारी शिष्य/सेवक हूँ। "यह सारा विश्व उसका ही खेल है, भगवान सारे समय हमारे साथ खेल रहा है, और हम भी उनके साथ खेल रहे हैं। 
हनुमान के अनुगामी होकर ठाकुर द्वारा दास्य भाव की साधना/ i -238/: माँ काली के दर्शन मात्र से ठाकुर निश्चिन्त होकर बैठ नहीं गए थे। यह समझकर कि हनुमान ने राम के प्रति दास्य भाव भक्ति की थी, इसलिये वे अपने ऊपर हनुमान के भाव का आरोप कर श्रीराम का दर्शन प्राप्त करने की साधना में अग्रसर हुए थे। उस समय उन्हें अपने-आप समस्त कार्य हनुमान की तरह करने पड़ते थे। धोती को इस तरह कमर में लपेटते थे कि उसका एक हिस्सा पीछे पूँछ की तरह लटकता रहे। बंदर की तरह उछल-कूद करते हुए चलते थे। पेंड के ऊपर अधिकतर समय बिताया करते थे, और गंभीर स्वर से 'राम , राम ' कहकर निरंतर उनको पुकारता रहता था। फल को बिना छिले-काटे पूरा आकार में खा लेते थे। उस समय उनकी आँखें बंदर की तरह लाल और चंचल दिखती थीं। उन्हें राम का दर्शन मिला था, उन्हें श्रीसीतादेवी का भी दर्शन प्राप्त हुआ था। वे उनके समक्ष देवियों की तरह त्रिनेत्र युक्त होकर नहीं ज्योतिर्मयी मानवीय रूप में आविर्भूत हुई थीं। किन्तु उनके मुखमंडल पर प्रेम, दुःख, दिव्य करुणा और सहिष्णुता से परिपूर्ण एक अद्भुत मुस्कान थी; गंभीर भाव के साथ वैसी मुस्कुराहट देवीमूर्तियों में प्रायः देखने को नहीं मिलतीं। वे मुग्ध कर देने वाली प्रसन्न दृष्टि और सरल-सहज मुस्कान के साथ मेरी ओर आ रही थीं। ठाकुर समझ गए वे अवश्य माता सीता हैं, जैसे ही उनके चरणों में दण्डवत होना चाहे कि वे बड़ी तेजी से आकर उनके शरीर में समा गयीं। रामकृष्ण कहते थे " उनके चेहरे पर प्रसन्न दृष्टि के साथ जो स्निग्ध मुस्कान थी वह अद्भुत और मुग्ध कर देने वाली थी ! [मुझे देखकर मेरी माँ (श्रीतारा) और नवनीदा के चेहरे पर जैसी 'प्रसन्नदृष्टि के साथ मुस्कान' खिल उठती थी ?अहं भाव का नाश/विराट अहं बनने से वैसी मुस्कान मिलती है।] स्वामी सारदानन्दजी की टिप्पणी है (?किस अध्याय में ?) कि जब भगवती सीता उनके शरीर में विलीन (merged) हो गयीं, तब ठाकुर को वह मुस्कान प्राप्त हो गया! क्योंकि उनका मुस्कान आश्चर्यजनक रूप से मनमोहक था,उस मुस्कान के साथ ecstasy की अवस्था में खींची गयी उनकी एक तस्वीर आज भी उपलब्ध है ? उन्होंने सीता के मुस्कान को अपनाने का अभ्यास किया था। "रामकृष्ण का मुख्य भाव यही था, हे ईश्वर तुम मेरी माँ हो मैं तुम्हारा लाड़ला बेटा हूँ। वे ईश्वर/ब्रह्म/गुरु भैरवी को भी अपनी माँ के रूप देखते थे। " सभी उसकी सन्तान हैं, उसके अंगस्वरूप हैं, उसके रूप हैं। तब फिर हम किसीको कैसे चोट पहुँचा सकते हैं? तब मनुष्य मनुष्य के रूप में नहीं दीखता, वरन साक्षात् ईश्वर के रूप में दिख पड़ता है। भक्ति की इस प्रगाढ़ अवस्था में सभी हमारे लिए उपास्य हो जाते हैं। जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे सर्वभूतों की सेवा में न्योछावर कर दिया जाय !" SV-3 /58
30. वात्सल्य भाव: या कोई चाहे तो इस रिश्ते को उल्टा भी मान सकता है। जैसे भगवान मेरे पुत्र हैं -इसे 'वात्सल्य' प्रेम कहते हैं। "इसमें भगवान का चिंतन पिता-माता रूप से न करके संतान-रूप से करना पड़ता है। हम बच्चे से कुछ याचना नहीं करते, बच्चा तो सदा पाने वाला होता है। इसलिए भारत में बहुत से आध्यात्मिक साधक, आज भी ईश्वर को पुत्र मानकर उसकी भक्ति करते हैं। जैसे लड्डू गोपाल (बालक कृष्ण) के रूप में भक्ति करते हैं। इसीलिए भगवान बालरूप धारण करते हैं, नहीं तो उन्हें बालरूप में लीला करने की जरूरत क्या है ? जो सम्प्रदाय भगवान के अवतार में विश्वास करते हैं, उन्हीं में यह वात्सल्य भाव की उपासना स्वाभाविक रूप आती और पनपती है। "मुसलमानों के लिए भगवान को एक संतान के रूप में मानना असम्भव है, वे तो डर से इसकी कल्पना भी नहीं करना चाहेंगे। पर ईसाई और हिन्दू इसे सहज ही समझ सकते हैं। क्योंकि उनके पास मदर मेरी की गोद में शिशु जीजस ईसा और यशोदा की गोद में शिशु कृष्ण हैं। भारतीय रमणियाँ बहुधा अपने को कृष्ण की माता के रूप में सोचती हैं। पाश्चात्य देशों में ईश्वर को मातृभाव से देखकर प्रेम का प्रचार-प्रसार करना अत्यंत आवश्यक है। वातसल्य-प्रेम एक साधन साधन/प्रणाली (mode) हैं जिसके माध्यम से आप भगवान के साथ अपना संबंध जोड़ सकते हैं। यह दूसरा भाव है।
31. रामावत-पंथी साधु जटाधारी के सानिध्य में 'रामलला' की वात्सल्य भाव से उपासना 315 : श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या से आये रामावत-पंथी साधु जटाधारी का मन 'श्रीरामलला' (Rama as a child,as a baby) की छोटी सी मूर्ति की सेवा में रत रहने के फलस्वरूप भावराज्य में प्रविष्ट हो चुका था। वे भावराज्य में बालक राम को अपने साथ खेलते और सेवा लेते हुए देख सकते थे। रामलला सचमुच भोजन कर रहा है,या कोई वस्तु खाने के लिए मांग रहा है, टहलने जाना चाहता है, प्रेमपूर्वक हठ कर रहा है, इत्यादि उसे प्रत्यक्ष दिखाई देता था। गुरुभाव उत्तरार्ध -291/ उधर उनके समीप जाने पर रामकृष्ण को भी रामलला के दर्शन मिलने लगे थे। वे जबतक जटाधारी के पास रहते थे, रामलला प्रसन्नता के साथ खेलता रहता , ज्योंही मैं वहां से अपने कमरे में चला आता ,उस समय जटाधारी  को छोड़ कर वह भी मेरे साथ चल दिया करता। बाद में वह जटाधारी के पास जाने से इंकार करने लगा। इस प्रकार जटाधारी भी पहचान गए कि रामकृष्ण कौन हैं, और अपने सबसे प्रिय धन को , जिस 'रामलला' नामक बालविग्रह की सेवा करते थे,उसे उन्होंने 
रामकृष्ण को देते हुए कहा, 'रामलला मुझसे कहता है कि अब वह तुम्हारे साथ ही रहेगा।' और रामलला की वह मूर्ति रामकृष्ण के पास ही रही, 100 वर्ष पहले तक दक्षिणेश्वर मंदिर में थी; कई लोगों ने उसे देखा है। बाद में वह मूर्ति चोरी हो गयी। रामकृष्ण ने रामलला की वात्सल्य-भाव से उपासना करने के बाद जो 
अनुभव किया था, उसे वे अक्सर इस प्रकार गा कर सुनाते थे- 
" जो राम दशरथ का बेटा, वही राम घट-घट में लेटा। 
        वही राम जगत पसेरा, वही राम इन सबसे न्यारा।। " 
अर्थात जो राम दशरथ-पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए थे, वे ही प्रत्येक शरीर में जीव-आत्मा रूप से प्रकटित हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड में प्रविष्ट होकर दृष्टिगोचर जगत या सापेक्षिक सत्य या जगत के रूप में नित्य अभिव्यक्त रहने पर भी जगातिक समस्त पदार्थों से पृथक -'न्यारा' ;निरपेक्ष सत्य, इन्द्रियातीत, मायारहित निर्गुणस्वरूप में नित्य विराजमान हैं। तो उन्होंने इस वात्सल्य भाव से भी उपासना की मैं भगवान राम के बालविग्रह 'रामलला' का अभिभावक हूँ, और वे मेरे पुत्र हैं। 
32 . मधुरभाव से भगवान की उपासना यह एक अन्य प्रकार की भक्ति का दृष्टिकोण है कि 'ईश्वर मेरे प्रेमी हैं और मैं उनकी प्रेमिका हूँ।' जैसे ब्रज की गोपियाँ  श्रीराधा जी को मध्यस्थ सखी बना कर भगवान का प्रेम और दर्शन प्राप्त करने का प्रयत्न करती थीं। रामकृष्ण ने जब यह सुना कि श्रीराधा को अपनी सखी के रूप में मध्यस्थ बना लेने के बाद ही भगवान  श्रीकृष्ण के दर्शन हो सकते हैं, तब उन्होंने भी  इसी गोपी-
भाव से 'युगल-शरण' राधा-गोविन्द की उपासना की थी। श्री राधा की कृपा के बिना श्रीकृष्ण दर्शन को असम्भव जानकर, रामकृष्ण ने गोपी का रूप धारण किया और राधारानी को एक मध्यस्थ सखी के रूप में पाने के लिए की, उनकी उपासना करने लगे। उस समय वे स्त्रियों के जैसी वेशभूषा धारण करने को व्यग्र हो उठे। मथुरबाबू ने उनके लिए बनारसी साड़ी, घुंघराले लम्बे बालों का विग,और सोने के आभूषण भी बनवा दिए थे। उस समय उनके हावभाव इतना सर्वांगसंपूर्ण होता था कि स्त्रियाँ भी उन्हें देखकर नहीं पहचान पाती थीं कि वे एक पुरुष हैं। उस समय वे श्रीकृष्ण प्रेम की भूखी गोपियों के भाव में इतने तल्लीन हो गए थे कि उनका बोलचाल, उनका कार्यकलाप इतना ही नहीं उनके विचार भी स्त्रियों के समान हो गए थे।  फलतः उनको शीघ्र ही राधा रानी का दर्शन प्राप्त हुआ, कृष्ण का दर्शन प्राप्त हुआ। इस साधना के समय मथुर बाबू उनके गोपीभाव के रहस्य को समझ सके थे, पर दूसरे लोग उनको फिर से पागल मानने लग गए  थे।
33.अद्वैत वेदान्त साधना में 'पूरी-परम्परा' की विशेषता 365]मधुरभाव की साधना समाप्त होने के बाद रामकृष्ण के दूसरे मुख्य गुरु उनके जीवन में उपस्थित हुए।  वे पूरी सम्प्रदाय के नागा संन्यासी थे। ये बिल्कुल अन्य प्रकार के गुरु थे, उनका नाम था -तोतापुरी।  तोतापुरी या तो सिर्फ लंगोटी पहनते थे या पूरी तरह से नग्न होकर घूमते थे। इसलिए श्रीरामकृष्ण उनको 'naked one' नेंगटा कहते थे। क्योंकि परम्परा के अनुसार अपने गुरु को नाम से बुलाना अच्छा नहीं माना जाता है।आचार्य शंकर द्वारा स्थापित अद्वैत वेदान्त परम्परा में संन्यासियों के भारती,सरस्वती ,पूरी, गिरी , तीर्थ, पर्वत आदि  10 सम्प्रदाय होते हैं। चैतन्य नहाप्रभु के गुरु का नाम भी ईश्वर पूरी था। तोतापुरी भी उसी पूरी परम्परा से संबन्ध रखते थे, इसलिये  'तोता पुरी -रामकृष्ण पूरी  वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित सभी शिक्षक/या वुड बी लीडर अपने को अद्वैत वेदान्त के 'पूरी लिनिएज' में प्रशिक्षित संन्यासी या शिक्षक/लीडर कह सकते हैं। रामकृष्ण मठ और मिशन के एक संन्यासी (रामकृष्ण-विवेकानन्द पुरी वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित एक संन्यासी) को गंगोत्री, हिमालय में तोतापुरी जैसे किसी नागा सन्यासी ने मुलाकात हुई, तब उन्होंने पूछा महाराज आपका नाम क्या है ? उन्होंने बताया पूर्णम गिरी, दसनामी सम्प्रदाय में 'गिरी ' भी एक सम्प्रदाय है। उन्होंने पुरी-लिनिएज में प्रशिक्षित जानकर उस सन्यासी को पूछा तुम्हारा नाम क्या है ? तब उन्होंने बताया- 'स्वामी अमुक+आनन्द। ' तब गिरी सम्प्रदाय के साधु पूर्णम गिरी जी  थोड़ा नाराज होकर बोले- 'पूरी कहाँ गया ? सब्जी के साथ खा गया ?' पूरी का एक दूसरा अर्थ भी होता है, तली हुई छोटी रोटी को पूरी कहा जाता है। भारत में पूरी-जलेबी बहुत सामान्य भोजन माना जाता है।वे पूरी शब्द को लेकर खेल कर रहे थे। वास्तव में विवेकानन्द खुद भी इस शब्द को लेकर मजा लिया करते थे। विदेश यात्रा के दौरान किसी ने उनसे पूछा-संन्यासी हैं तो किस संप्रदाय से संबंध रखते हैं, पुरी या गिरी ?
Swami you are a puri or a giri ?  उन्होंने जो उत्तर दिया उसका आनन्द केवल बंगला में ही लिया जा सकता है। आप पूरी हैं या गिरी ? विवेकानन्द ने कहा -'कोनोटा ई नय, आमी कोचूरी!' कोचुरी या कचौड़ी भी एक दूसरे प्रकार की भोजन सामग्री है। उन्होंने कहा इन दोनों में से कोई नहीं -मैं एक अलग प्रकार की रोटी हूँ। किन्तु रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त भाव आंदोलन से जुड़े सभी संन्यासी/ शिक्षक/लीडर  तकनीकी रूप से पूरी हैं ! [अतः "विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर पूरी वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन" के अनुसार मेरा नाम बिजय पुरी  होना चाहिये। पर हमलोग इस शिविर के आलावा आम तौर से सबके सामने अपना पूरा नाम नहीं बोलते हैं।] 
 श्रीमद तोतापुरी जी जब दक्षिणेश्वर कालीमंदिर के घाट पर उतरे तब रामकृष्ण वहाँ सब कुछ से बेखबर होकर सामने बहती गंगा की ओर निहार रहे थे। उन्होंने रामकृष्ण को देखते ही पहचान लिया -not as Avtar, अवतार के रूप में नहीं; वे अवतार आदि बातों में विश्वास नहीं करते थे। पर उनको देखते ही पहचान गए कि यह युवक तो अद्वैत-वेदान्त का एक बहुत योग्य अधिकारी/नेता/शिक्षक है ! वे स्वयं रामकृष्ण के पास पहुँचे और पूछा -" तुम उत्तम अधिकारी प्रतीत होते हो, क्या तुम अद्वैत वेदान्त साधना करना चाहते हो, यदि तुम चाहो तो मैं तुम्हें सीखा सकता हूँ ? जटाजूटधारी लम्बे-चौड़े नग्न संन्यासी के इस प्रश्न को सुनकर रामकृष्ण ने उत्तर दिया-" मुझे क्या करना है, नहीं करना है यह सब मैं कुछ नहीं जनता, सब मेरी माँ जानती हैं, मुझे अपनी माँ पूछना होगा।" तोतापुरी बोले " तो फिर जल्दी जाओ और अपनी माँ से पूछकर बताओ, क्योंकि मैं अधिक दिनों तक यहाँ नहीं रहूँगा। " रामकृष्ण काली के मंदिर में गए और माँ से पूछा (मेरा विवाह हो चुका है,किन्तु मैं नैष्ठिक सन्यासियों जैसा पवित्र जीवन जीता हूँ, एक निवृत्ति मार्गी पुरी सम्प्रदाय के संन्यासी मुझे अद्वैत वेदांत की संन्यास दीक्षा देना चाहते हैं, मुझे क्या करना चाहिए ? 
माँ जगदम्बा ने कहा होगा -" संन्यासी और गृहस्थ दोनों मेरी सन्तान हैं। माँ की सन्तानों में एक  लड़का काला और दूसरा  लड़का गोरा हो, क्या माँ उन दोनों में भेद करती हैं ? उसी प्रकार कोई गृहस्थ बनने का अधिकारी होता है, कोई संन्यासी बनने का-तो क्या माँ उन दोनों में भेदबुद्धि रखेगी ? कोई लड़का अच्छा , तो कोई कम अच्छा होता है, तो क्या माँ भी उनमें भेदबुद्धि रखती है ? माँ की संतानें अच्छी हों, या बुरी हों ; संन्यासी हों, या गृहस्थ हों, माँ जगदम्बा अपने सभी सन्तानों से प्यार करती है, क्योंकि वे दोनों उसीकी सन्ताने हैं, इसलिए नहीं कि वे अच्छे हैं। " मैं माँ जगदम्बा की सन्तान हूँ" केवल यह बात मन में सदैव याद रहे, तो फिर कोई चाहे कितना भी बुरा क्यों न हो ,वह जरूर अच्छा बन जायेगा। माँ तो हर समय अपनी संतानों को गोद में उठाने के तत्पर ही हैं। एक छोटा शिशु अपनी छोटे हाथों से माँ को पकड़ना चाहता है, किन्तु क्या वह अपनी शक्ति से माँ को पकड़ सकता है ? पर जैसे ही वह अपने दोनों हाथों को माँ की ओर बढ़ाता है, माँ स्वयं उसको गोद में उठा लेती है। माँ जानती हैं कि वह उनको ही पाना चाहता है। उसी प्रकार माँ भी सबों को गोद में उठा लेती है। सभी संतानें माँ जगदम्बा को नहीं पकड़ पाएंगे। कोई बात नहीं,पर सभी संतानें उन्हें माँ कहकर पुकार तो सकती हैं ! उनके चरणों में झुककर उनके स्नेह को पाने की आकांक्षा तो कर सकती हैं। हम अपने दोनों हाथों को उनकी ओर बढ़ा तो सकते हैं। इतने से ही काम हो जायेगा, वे स्वयं हमलोगों को गोद उठा लेंगी। हमलोग जहाँ कहीं भी चले जाएँ, कितने भी कुमार्ग पर चले जाएँ, कोई भय नहीं ! वे हैं, यह अभयदायिनी माँ हमलोगों के पीछे हर समय विद्यमान हैं। हमलोग उस माँ जगदम्बा की संताने हैं, जिसके भय से नव ग्रह अपनी अपनी धूरि पर घूम रहे हैं, हमें क्या भय और किसका भय ?"  - स्वामी भूतेशानन्द !] अर्धबाह्य भाविष्ठ अवस्था में रामकृष्ण माँ काली के मंदिर से लौटकर बोले - "माँ ने कहा है, जाओ सीखो। तुम्हें सिखाने के लिए ही संन्यासी का यहाँ आगमन हुआ है। "
रामकृष्ण मंदिर में प्रतिष्ठित देवी को ही माँ कह रहे हैं , यह जानकर तोतापुरी मुग्ध अवश्य हुए किन्तु उसे उनका भ्रांत संस्कार ही समझे। और निवृत्तिधर्म के अधिकारी व्यक्ति को संन्यास दीक्षा ग्रहण के पहले, प्रत्येक भावी संन्यासी (वुड बी लीडर) को अपने पूर्वाश्रम के नाम और घरपरिवार का त्याग करने के लिए जो स्वयं अपना प्रेत-पिण्ड प्रदान करना अनिवार्य होता है; उसका विधिवत प्रशिक्षण देने लगे। किन्तु रामकृष्ण के संन्यास दीक्षा ग्रहण करते समय कि सबसे आनन्द-दायक घटना यह है कि वे उस समय भी एक विवाहित व्यक्ति बने रहे। यद्यपि उनका विवाह हो चुका था, फिर भी उन्होंने संन्यास दीक्षा ग्रहण की।  -" He remained a married man" माँ सारदा के साथ उनका विवाह हो चुका था। जबकि सामान्यतः विवाह और संन्यास ये दोनों साथ -साथ नहीं चल सकते, सामान्यतः ऐसा नहीं होता है। यदि कोई संन्यासी बनना चाहे तो उसे पहले अपने विवाहित सम्बन्ध को बिल्कुल त्याग देना पड़ता है, या विवाह नहीं करना अनिवार्य होता है। तभी कोई व्यक्ति संन्यास-दीक्षा लेने योग्य माना जाता है। किन्तु विश्व के बहुसंख्यक मनुष्य तो प्रवृत्तिधर्म के अधिकारी होते है, निवृत्तिधर्म या संन्यासी बनने के पात्रता तो लाख में 2 -4 व्यक्ति व्यक्तियों को ही होते हैं। [But he also had to teach majority of the people in the world that how can you be spiritual in married life also ? But Sri Ramakrishna being an Incarnation had to teach everybody. So he became a married man also .]  
किन्तु श्रीरामकृष्ण तो एक अवतार (सम्पूर्ण मानवजाति का मार्गदर्शक नेता, या जगतगुरु) थे, अतः उनके लिए सम्पूर्ण मानवजाति को, प्रवृति और निवृत्ति दोनों धर्म के अधिकारीयों को, 'Be and Make' पुरी -वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' या 'Be and Make'- Vedanta Leadership Training in Puri Tradition' में 'निवृत्ति अस्तु महफला' का प्रशिक्षण देने में समर्थ भावी लोकशिक्षकों/संन्यासी/ या  वुड बी लीडर्स का निर्माण करना अनिवार्य था। जो भावी पीढ़ी को भी यह शिक्षा दे सकें कि कैसे कोई व्यक्ति 'निवृत्ति अस्तु महाफला' के रहस्य को समझकर, कैसे कोई व्यक्ति गृहस्थ जीवन या, विवाहित जीवन में रहते हुए भी  स्वयं कैसे एक आध्यात्मिक मनुष्य बन सकता हैं,और दूसरों को भी आध्यात्मिक मनुष्य बनने में भी सहायता कर सकता हैं?   " So what is a perfect monastic life ?" अतः किसी भावी आदर्श संन्यासी या भावी गृहस्थ लोकशिक्षक/ या नेता बनने और बनाने (Be and Make) का प्रशिक्षण देने में समर्थ भावी नेता का जीवन कैसा होना चाहिए -उसका एक आदर्श साँचा जगत के सामने प्रस्तुत करना आवश्यक था। इसलिए विवाहित रहते हुए भी रामकृष्ण ने तोतापुरी से "गुरु -शिष्य अद्वैत वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" में विधिवत संन्यास दीक्षा ग्रहण किया और गदाधर चट्टोपाध्याय से संन्यासी श्रीरामकृष्ण पूरी बने।क्योंकि श्रीरामकृष्ण और माँ सारदा देवी विवाहित होकर भी पूर्णतः  पवित्र जीवन "Chaste Life" व्यतीत करते थे। उन्होंने अपने जीवन के द्वारा सामान्य विवाहित जीवन को भी आध्यात्मिक विवाह (Spiritual marriage) में रूपान्तरित करने की शिक्षा दी है। इसीलिये श्रीरामकृष्ण एक जन्मजात संन्यासी होते हुए भी, अपने जीवन से 'निवृत्ति अस्तु महाफला' का उदाहरण प्रस्तुत कर बहुसंख्यक मनुष्यों को अनुप्राणित करने के लिये, एक विवाहित व्यक्ति भी बने । इस प्रकार रामकृष्ण तोतापुरी के शिष्य बने, तोतापुरी उन्हें रातदिन अद्वैत की शिक्षा देने लगे। 
34. मूर्त से अमूर्त की यात्रा है अद्वैत वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण  371 ]: उस दिन तोतापुरी मानो अपने जीवनभर की कमाई को रामकृष्ण के हृदय में प्रविष्ट कराकर, उन्हें तत्काल अद्वैत भाव में समाधिस्थ करने के लिए कटिबद्ध हो उठे थे। वेदान्त प्रसिद्द 'नेति नेति' उपाय का अवलंबन कर श्रीरामकृष्णदेव को ब्रह्मस्वरूप में अवस्थित होने के लिए तोतापुरी प्रोत्साहित करने लगे। अपनी  वेदान्त साधना के संबंध में रामकृष्ण कहते थे  " दीक्षा प्रदान करने के बाद न्यांगटा नानाप्रकार के सिद्धान्त वाक्यों का उपदेश देने लगा। तथा उनके मन को सब प्रकार से निर्विकल्प कर आत्मचिन्तन में निमग्न हो जाने को कहा। उन्होंने कहा -'अर्ध पद्मासन में बैठकर, जगत को भूल जाओ, अपने शरीर और मन को भूल जाओ ' (seat in meditation.Forget the world , forget the body and the mind.) मुख से ऐसा बोल देना जितना आसान है, क्या ऐसा करके दिखा देना भी क्या उतना आसान हो सकता है ? परन्तु  श्रीरामकृष्ण के लिए ऐसा कर पाना बिल्कुल आसान था, क्योंकि पहले भी वे माँ काली के ध्यान में बहुत आसानी से तल्लीन हो जाया करते थे।
वे संसार के अन्य विषयों को तुरंत और आसानी से भूल सकते थे, किन्तु गुरु के जिस निर्देश का पालन करने में रामकृष्ण असमर्थ थे ,वह था माँ काली को भूल जाना।  उनके रूप को अपने मन से हटा देना।(But what he couldn't do was to forget the divine Mother.) बाद में वे कहते थे "जब मैं ध्यान करने बैठा, उस समय बहुत प्रयत्न करके भी मैं अपने मन को निर्विकल्प नहीं कर सका, यानी नाम-रूप की सीमा से मुक्त न कर सका। जैसे ही मैं उनको भूलने का प्रयत्न करता था  तत्काल ही उसमें श्रीजगदम्बा की चिरपरिचित आनन्दमयी मूर्ति प्रदीप्त तथा जाग्रत-जीवंत रूप से प्रकट होकर सब प्रकार से नाम-रूप का त्याग करना होगा इस बात ही मन से भुला देने लगी।" (Every time blissful form of divine Mother would come before me ,and there I would get stuck.) यह सारी साधना मध्य रात्री में हो रही थी, जब बारम्बार ऐसा होने लगा तब निर्विकल्प समाधि के संबन्ध में मैं प्रायः निराश हो उठा और आँखे खोलकर मैंने न्यांगटा से कहा -" मुझसे यह सम्भव नहीं है, मन को पूर्णतया निर्विकल्प कर आत्मचिंतन करने में मैं असमर्थ हूँ। " यह सुनकर न्यांगटा उत्तेजित हो उठा और तीव्र तिरस्कार भरे स्वर में बोला -यह क्यों नहीं होगा ? Why can't it be done ?  यह कहकर कुटिया के अंदर पड़े एक काँच के टुकड़े की नुकीली भाग को मेरी भौंहों के बीच बलपूर्वक गड़ाकर बोला - Concentrate Here! ' इस बिन्दु पर (आज्ञाचक्र पर) मन को केन्द्रीभूत करो!' 
तब मैं पुनः ध्यान करने बैठा , और पहले की भाँति जैसे ही श्रीजगदम्बा की मूर्ति मन में उदित हुई, वैसे ही ज्ञान को तलवार के रूप में कल्पना कर, उसके द्वारा उस मूर्ति के मैंने दो टुकड़े कर डाले। फिर मेरे मन में और कोई विकल्प न रहा ; तीव्र गति से मेरा मन समग्र नाम-रूप के राज्य की सीमा के परे चला गया और मैं समाधि में निमग्न हो गया। " यथार्थ शिक्ष, आध्यात्मिक साधना/ वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग प्रशिक्षण की पद्धति या मार्ग भी यही है-"मूर्त से अमूर्त की ओर - So from the form to the formless " When you get mantra and a God with Form/ जब तुम्हें अपने गुरु /नेता/लोकशिक्षक से एक मंत्र और एक साकार भगवान (इष्ट देवता) प्राप्त होते हैं, तब आध्यात्मिक साधना करते करते आप उस अवस्था में पहुँचते हैं जब आपको उसी साकार रूप में भगवान का दर्शन (भवराज्य में?) प्राप्त होता है। फिर उनका वही साकार रूप तुमको एक दिन निराकार की अनुभूति करवा देता है। आध्यात्मिक प्रगति का यही क्रम है।
इस प्रकार श्रीरामकृष्ण भी मूर्त से अमूर्त में या समाधि की सर्वोच्च अवस्था -निर्विकल्प समाधि की अवस्था में पहुँच गए। 
उनके समाधिस्थ होने के बाद कोई दूसरा व्यक्ति कुटिया में पहुंचकर उन्हें तकलीफ न दे पाए, यह सोचकर तोतापुरी ने कुटिया के दरवाजे पर ताला लगा दिया। और कुटिया से कुछ दूरी पर अपनी धुनि के सामने जाकर बैठ गए, और दरवाजा खोल देने के लिए रामकृष्ण के पुकारने की प्रतीक्षा करने लगे। दक्षिणेश्वर के पंचवटी में वह कुटिया आज भी है , किन्तु अब उसको स्थायी कमरे के रूप में ढाल दिया गया है। ये नागा संन्यासी हिमालय पर अक्सर धुनि रमाकर बैठे रहते हैं, क्योंकि जंगली जनवरों  एवं ठंढ से बचने में सहायता मिलती है। तोतापुरी भी धुनि के पास बैठकर रामकृष्ण के समाधि से बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगे। ... सारी रात बीत गयी, फिर दिन हुआ। फिर दिन बीतने के बाद रात हुई। इसी तरह तीन दिन बीत गए; किन्तु रामकृष्ण ने दरवाजा खोलने के लिए तोतापुरी जी को नहीं बुलाया। 
जब किवाड़ खोलकर तोतापुरी कुटिया में प्रविष्ट हुए तब उन्होंने देखा कि रामकृष्ण को वे जैसे छोड़ गए थे, ठीक उसी तरह बाह्यजगत से बिल्कुल बेखबर होकर निर्विकल्प समाधि में ध्यानस्थ होके बैठे हुए थे। शरीर में प्राण का चिन्ह तक नहीं है, किन्तु उनका मुखमण्डल प्रशांत,गंभीर और ज्योतिपूर्ण है ! निर्वात निष्कम्प प्रदीप की भाँति उनका चित्त ब्रह्म में लीन होकर अवस्थान कर रहा था। तोतापुरी जी आश्चर्यचकित होकर सोचने लगे -40 वर्षों तक कठोर साधना करने के बाद जिस वस्तु की मुझे उपलब्धि हुई है, क्या इस महापुरुष ने सचमुच एक ही दिन के अंदर उस वस्तु पर अपना अधिकार जमा लिया है ? तोतापुरी बचपन से ही आध्यात्मिक साधना करते थे, उन्हें 40 साल लगे, और उस अवस्था को इस युवक ने क्या चुटकी बजाते प्राप्त कर लिया है ? तोतापुरी समझ गए यह कोई साधारण मनुष्य नहीं हो सकता। उन्होंने शिष्य को समाधि से व्युत्थान की अवस्था में लाने के लिए जोर से ईश्वर के नाम 'हरिः ॐ ' का उच्चारण किया, रामकृष्ण पुनः सामन्य चेतना की अवस्था में लौटे। तोतापुरी ने बहुत आनन्द से उन्हें गला लगा लिया। फिर दोनों साथ-साथ अपना समय बिताने लगे। 
35. लीडर/शिक्षक को नेति से पुनः इति में आना पड़ता है:  या अमूर्त से लौटकर मूर्त को पुनः उसी का प्रकाश समझकर स्वीकार करना पड़ता है।  44 : भैरवी ब्राह्मणी अद्वैत दीक्षा के बाद भी रामकृष्ण के समीप में ही निवास कर रही थी। उन्हें तोतापुरी बिल्कुल शुष्क संन्यासी लगते थे। इसलिए वे रामकृष्ण को तोतापुरी के साथ घनिष्ठ रूप से मिलने के लिए मना करती थी। उन्होंने रामकृष्ण को कहा , " बाबा,
उसके साथ अधिक मत मिलाजुला करो, वह संन्यासी है, उनलोगों का शुष्कभाव होता है, उसके साथ घनिष्ठ सम्पर्क करोगे तुम्हारी भाव-भक्ति सब खत्म हो जाएगी। " किन्तु उनकी बातों पर कोई ध्यान दिए बिना रामकृष्ण उस समय रातदिन वेदान्त चर्चा और उपलब्धि में निमग्न रहते। उस समय कुछ दिलचस्प पर अद्भुत घटनाएं घटी थीं।232] रामकृष्ण को यह आदत थी कि संध्या के समय सूर्यास्त होने के बाद जब अंधरे में आप अपने हाथ के रोयें भी ठीक से न देख सकते हों ,उस समय सब काम छोड़कर रामकृष्ण ताली बजा बजा कर उच्च स्वर से भगवान के नाम का स्मरण करते थे। 'हरि गुरु, गुरु हरि', 'हरि प्राण हे',  ''जगत तुमि, जगत तोमाते', 'मन कृष्ण-प्राण कृष्ण - ज्ञान कृष्ण -ध्यान कृष्ण -बोध कृष्ण -बुद्धि कृष्ण' इत्यादि उच्चस्वर से बारम्बार कहा करते थे।
एक दिन पंचवटी में अपराह्न के समय रामकृष्ण के साथ बैठकर अद्वैत वेदान्त चर्चा करते हुए कह रहे थे - " एक मात्र ब्रह्म ही सत्य हैं, जगत परिवर्तनशील होने के कारण मिथ्या है। .. "brahman alone is real ,the world is an appearance. "तभी संध्या हो गयी और अचानक रामकृष्ण चर्चा बन्दकर कर दिए और ताली बजाते हुए भगवान का नाम उच्चारण करने लगे-रामराम कृष्णकृष्ण काली, काली करने लगे। यह सब देखकर  तोतापुरी अवाक् रह गए। सोचने लगे जो वेदान्त मार्ग के इतने उच्च अधिकारी हैं, एक दिन की साधना में निर्विकल्प समाधि प्राप्त कर लिए, वे पुनः एक निम्न श्रेणी के भक्त की तरह आचरण क्यों कर रहे हैं ? हँसी करते हुए कह उठे -" अरे, तू क्या रोटी ठोक रहा है ?" उत्तरी भारत में इन दिनों भी बेलन से बेल कर नहीं , हाथ से रोटी ठोक कर तन्दुर में रोटी पकाई जाती है। रामकृष्ण ताली बजाते हुए भगवान का नाम ले रहे थे। तोतापुरी पूछे क्या तुम रोटी बना रहे हो, उस प्रकार क्या कर रहे हो ? ठाकुर बोले 'वाह रे ज्ञानी,  मैं भगवान का नाम ले रहा हूँ, और आपको रोटी ठोक रहा हूँ, ऐसा लगता है ? किन्तु तोतापुरी जी रामकृष्ण को माँ जगदम्बा की भक्तिमार्ग से खींचकर  ज्ञानमार्ग में लगाना चाहते थे। बोले यह सब माया है, तुम ईश्वर की शक्ति को महामाया या काली कहकर क्यों उसकी भक्ति करना चाहते हो ? केवल ब्रह्म ही परम सत्य माया तो प्रातिभासिक या दिखावटी है, उसे भूल जाओ !(Brahman is Ultimate Reality, Maya is appearance forget it !)। 
जब वे वैसा कह रहे थे, उसी समय  मंदिर का दरवान  तमाखू पीने के लिए उनकी धुनि से लकड़ी निकाल
कर अग्नि लेने लगा। धुनि की अग्नि पवित्र मानी जाती है, उसके द्वारा तमाखू सुलगाना अशोभनीय है। यह देखकर दीर्घकाय संन्यासी तोतापुरी क्रोधित हो चिमटा उठाये और उसे भय दिखाने के लिए उठ खड़े हुए । दरवान दौड़ कर भाग गया। रामकृष्ण हँसते हुए धरती पर वाह वाह शाब्बास कहकर लोटपोट होने लगे। उनकी हंसी न रूकती देख, तोतापुरी बोले तुम को इसमें हँसी क्यों आ रही है ? क्या वह आदमी बड़ा ढीठ (insolent) नहीं था। " ठीक है, था; किन्तु अभी अभी तो आप सब कुछ क ब्रह्म कह रहे थे, कह रहे थे कि ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ माया है, और फिर उसी ब्रह्म को चिमटा से मारने जा रहे थे ? इसीलिए मैं हँस रहा हूँ कि माया का कैसा विलक्षण प्रभाव है ! "पंचभूतेर फ़ाँदे , ब्रह्म पड़े काँदे !" तोतापुरी फिर से ध्यान में बैठ गए उन्हें अनुभूति हुई कि क्रोध बहुत ही खराब वस्तु है, आज से क्रोध नहीं करूँगा। "
36. मूर्त से अमूर्त की यात्रा का मुख्य उपाय है-मनःसंयोग उनको पुनः ध्यान करते देखकर रामकृष्ण ने उनसे पूछा - "आप तो ब्रह्मज्ञ हैं, फिर आप इतना मनःसंयोग का अभ्यास/ ध्यान क्यों करते हैं ?" 222 /तोतापुरी के पास परिव्राजक साधुओं जैसा एक 'brass pot' या पीतल का कमण्डल 
था, उन्होंने पूछा यह इतना क्यों चमक रहा है ? क्योंकि मैं रोजाना इसको माँजता हूँ। यदि मैं इसको माँजना छोड़ दूँ तो यह पीतल का तो रहेगा किन्तु अपनी चमक खो देगा। उसी प्रकार तुम एक आत्मज्ञानी- ब्रह्मज्ञ महापुरुष तो हो सकते हो,  किन्तु जब तक तुम नियमित रूप से प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास प्रतिदिन दो बार, (या कमसे कम एक बार भी) नहीं करते, तो यह जगत तुम्हारे ऊपर पुनः अपना प्रभाव डाल सकता है।  तुम यदि नियमित रूप से स्वयं को आत्मानुभूति के उस जागृति (awareness) में निमग्न रखने की चेष्टा करना छोड़ दो, तो स्वयं को पुनः भेंड़ समझने का भ्रम उत्पन्न हो सकता है? इसीलिए जाग्रति की अवस्था या भ्रममुक्त अवस्था में सदैव बने रहने के लिए मन को भी पीतल के लोटे जैसा प्रतिदिन मांजना-धोना आवश्यक होता है। परन्तु श्रीरामकृष्ण ने कहा कि जब तक यह मन रूपी लोटा पीतल का है, तब तक ऐसा करना आवश्यक हो सकता है। किन्तु यदि यह लोटा सोने का हो, तो उसे रोज रोज माँजने की आवश्यकता नहीं होगी ! ऐसा कहकर वे यह बताना चाह रहे थे कि सामान्य मनुष्यों के लिए नियमित अभ्यास आवश्यक हो सकता है, किन्तु किसी अवतार के लिए वैसा करना जरुरी नहीं होता। इस प्रकार रामकृष्ण सोने के पात्र हैं, और हमलोग पीतल के इसलिए हमारे लिए प्रतिदिन मनःसंयोग का अभ्यास करना आवश्यक है। 
37.तोतापुरी  का भैरवदर्शन  224 : ब्रह्मदैत्य और साधारण मनुष्य में उभयनिष्ठ है मनःसंयोग का अभ्यास करने से भागना। एक दिन पंचवटी जंगल में विशाल बरगद के पेड़ के नीचे गहरी रात में धुनि जलाकर ध्यान में बैठने जा रहे थे,कि अचानक वृक्ष की शाखाएं हिलने लगीं, तथा एक दीर्घकाय चमकदार पुरुष वृक्ष से नीचे उतरे और तोतापुरी के पास आकर बैठ गए। उसको अपनी ही तरह पूर्णतया नग्न देखकर आश्चर्य चकित हो तोतापुरी ने पूछा तुम कौन हो ? उसने कहा मैं एक 'ब्रह्मदैत्य हूँ, देवयोनि भैरव हूँ, इस देवस्थान की रक्षा करने के निमित्त वृक्ष पर रहता हूँ। " तोतापुरी अद्वैतवादी थे -निर्भीक होकर बोले , 'बहुत अच्छी बात है ; तुम भी ब्रह्म हो मैं भी ब्रह्म हूँ। आओ बैठो मेरे साथ ब्रह्म पर ध्यान लगाओ। 'किन्तु एक देवयोनि के ब्रह्मदैत्य होकर भी मनःसंयोग करने से घबड़ा गए, हमलोग में और ब्रह्मराक्षस में यह बात कॉमन है, इसलिए हँसते हुए वे मानो वायु में विलीन हो गए। जब इस घटना को रामकृष्ण सुने तो उन्होंने कहा , "हाँ , वे यहीं रहते हैं, मझे भी कई बार उनका दर्शन मिला है। वो भविष्य की घटना बता देता था,एक बार सुना गया कि कोई इंग्लिश कम्पनी पंचवटी के सम्पूर्ण जमीन को बारूद कारखाने के लिए लेना चाह रही है। मैं बहुत चिंतित हो गया कि यहाँ निर्जन में बैठकर माँ जगदम्बा का चिंतन कैसे करूँगा ? किन्तु मथुर बाबू ने भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध कोर्ट में एक मुकदमा दायर कर दिया। एक दिन उस भैरव ने वृक्ष के ऊपर से मुझको संकेत करते हुए कहा कि कम्पनी जमीन नहीं ले सकेगी, क्योंकि इंग्लिश कम्पनी मुकदमे में उसकी हार होगी। और वास्तव में वैसा ही हुआ। " कहने का तात्पर्य है कि दक्षिणेशर  मंदिर की रक्षा करने के लिए कोई देवयोनि ब्रह्मदैत्य उस वृक्ष पर रहते थे। 
38." नेता को पहले 'फल', उसके बाद 'फूल' --लौकी -कुम्हड़े की तरह": साधारण श्रेणी के साधकों को भगवान इष्ट -प्राप्ति का वरदान 'फल' के रूप में नहीं देते, 'बीज ' के रूप में देते हैं। उसे अपनी साधना से बीज को स्वयं फल में विकसित करना पड़ता है। नित्यमुक्त ईश्वरकोटि के नेता/शिक्षक के जीवन पर चर्चा करते हुए रामकृष्ण सर्वदा इस बात को दुहराया करते थे। तात्पर्य यह कि तीन दोस्तों में वह व्यक्ति जो दीवार के उस पार अवस्थित परमसत्य को देखकर पुनः शरीर में लौट आ सकता हो, उस श्रेणी के शिक्षक को पुनः संसार में आकर किसी विषय में सिद्धि प्राप्त करने के निमित्त [कामिनी में आसक्ति का त्याग करने में सिद्ध होने के लिए] जो कुछ साधना करनी पड़ती है -bh ?? वह केवल सामान्य लोगों को यह समझाने के लिए होती है कि मनःसंयोग में फल प्राप्त करने के लिए उन्हें भी इसी प्रकार अभ्यास करना पड़ेगा। 
[अवतार और सामान्य लोकशिक्षक का अन्तर।114 फल हुआ 14 -4 -1992 को फूल हुआ 26 साल बाद श्रीदुर्गा पंचमी, शनिवार, 13 -अक्टूबर 2018 को] फल अर्थात माँ जगदम्बा के नित्य कृपा की प्राप्ति या विवेकज-ज्ञान की प्राप्ति तोतापुरी को 40 वर्ष पहले ही हो गयी थी, किन्तु व्यष्टि-अहं, मैं-बोध समाधि में नहीं जाता, आत्मा को ही विवेकज-ज्ञान होता है-अहं को नहीं, इस बात को, माँ सारदा देवी की कृपाप्राप्त  दादा जैसा कोई अवतारी पुरुष ही Leadership Training ' दे सकता है;, बिना अवतारी गुरु रामकृष्ण के तोतापुरी जैसा ब्रह्मज्ञ महापुरुष भी नहीं समझ सकते। गुरुभाव से अपने गुरु-वर्ग के साथ जगतगुरु श्रीरामकृष्णदेव का सम्बन्ध / महामण्डल के भावी नेता का अपने मार्गदर्शक नेताओं के साथ सम्बन्ध234/গুরু ভাবে নিজ গুরু গণের সহিত সম্বন্ধ]   
तोतापुरी का पंजाबी शरीर बहुत बलिष्ठ था, रोग,अजीर्ण, शारीरिक बीमारी किसे कहते हैं, वे नहीं जानते थे। [যাহা খাইতেন, তাহাই হজম হইত; যেখানেই পড়িয়া থাকিতেন, সুনিদ্রার অভাব হইত না। আর ঈশ্বর-জ্ঞানে ও দর্শনে মনের উল্লাস ও শান্তি শতমুখে অবিরামধারে মনে প্রবাহিত থাকিত। दादा कहते थे - "जो खा लेता हूँ, वह पच जाता है, जहाँ भी सोने के लिए चौकी मिल जाती है, वहीँ अच्छी नींद लेने में कोई दिक्क्त नहीं होती, और विवेक-दर्शन द्वारा उत्पन्न विवेकज ज्ञान से मन में उल्लास और शान्ति निरंतर प्रवाहित होती रहती है।" ] स्वामी तोतापुरी जी आजन्म माँ जगदम्बा के कृपापात्र थे, बलिष्ठ शरीर उन्हें बचपन से प्राप्त था ,भगवती महामाया ने अपनी अविद्यारूपिणी मोहिनी मूर्ति के फंदे में उन्हें कभी नहीं फंसाया था। इसलिए पुरुषार्थ और प्रयत्न द्वारा अग्रसर होने पर निर्विकल्प समाधि, ईश्वरदर्शन और विवेकज-ज्ञान आदि सब कुछ उन्हें माँ की कृपा द्वारा सहज में प्राप्त हो गए थे।  
किन्तु दूसरों को विवेकज-ज्ञान प्राप्ति का सुसमाचार सुनाने का सामर्थ्य-प्राप्त लोकशिक्षक/नेता बनने के पहले -व्यष्टि अहं या तुच्छ स्वार्थी 'मैं' बोध को समाप्त करने के लिए जिन ऐक्सिडेंट, मृत्युभय आदि बाधा-विघ्नों का सामना करना पड़ता है, माँ ने स्वयं अपने हाथ से हटाकर उनके लिए रास्ता छोड़ दिया था --इस बात को जब तक माँ (नवनीदा) नहीं समझा दें, कोई स्वयं कैसे समझ सकता है ? अतः अब इतने दिनों बाद स्वामी तोतापुरी को यह अति गूढ़ विषय समझाने की इच्छा जब माँ जगदम्बा को हुई !तब स्वामी तोतापुरी को अपने मन को भ्रम से पूर्णतः मुक्त करने हेतु /या अहं को भ्रम से पूर्णतः भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड करने हेतु अवसर प्राप्त हुआ। किन्तु बंगाल का उमस भरा मौसम ,humid weather, कुछ महीने के बाद उनके बलिष्ठ पंजाबी शरीर पर भी रो ने अपना अधिकार जमा लिया। उनको भयानक आंव का रोग पकड़ लिया, दिनरात पेट के दर्द से पूरी जी का मन ब्रह्मस्वरूप से विच्युत होकर शरीर में संलग्न होने लगा। उनका शरीर क्रमशः कमजोर होता चला गया। मथुर बाबू ने उनके लिए डॉक्टर का प्रबंध भी किया, पर कोई लाभ नहीं हो रहा था। 
39. माँ जगदम्बिका की कृपा सर्वोपरि है : 'पंचभूतों के फन्दे में ब्रह्म फँस चुके थे !' इस परिस्थिति में सर्वेश्वरी जगदम्बिका की कृपा के अतिरिक्त दूसरा और उपाय ही क्या था? चाहे तुम अपने मन को कितना भी समझाओ कि तुम जन्म-जरा -मृत्यु रहित निर्विकार आत्मा हो, किन्तु ज्योंही तुम्हारा शरीर थोड़ा अस्वस्थ होता है, तुम पुनः देहमन से तादात्म्य की अवस्था में चले आते हो। इसलिए यह निश्चित जानना कि ईश्वर की कृपा, भगवान श्रीरामकृष्ण की कृपा के बिना, माया द्वारा कृपापूर्वक दरवाजा छोड़े बिना  (अहंबोध लुप्त हुए बिना) किसीको आत्मज्ञान की प्राप्ति और आत्यंतिक दुःख-निवृत्ति नहीं हो सकती। दुर्गा-सप्तशती 1/57 में कहा है वे भगवती महामाया ही ज्ञानियों के मन को भी  बलपूर्वक आकृषित करके मोह में डाल देती हैं । उनके द्वारा ही ब्रम्हांड और ये  चर अचर जगत रचा गया ।और प्रसन्न होने पर वे ही मनुष्यों की मुक्ति का वरदान होती हैं।" सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये।"[सैषा  = वे ही/प्रसन्ना = प्रसन्न होने पर/वरदा = वरदान /नृणां = मनुष्यों की/भवति = होती हैं। /मुक्तये = मुक्ति का/ अर्थात माँ उमा हैमवती जब तक कृपापूर्वक मार्ग नहीं छोड़ देतीं , तब तक कुछ भी होना -"भावमुख अवस्था" में बने रहना सम्भव नहीं है।  
तोतापुरी को केवल शरीर में ही कष्ट था, पर वे अपने वशीभूत मन को इच्छामात्र से शरीर के रोगों से खींचकर समाधिमग्न कर सकते थे, उसी का प्रयास करने लगे। किन्तु एक दिन उनके पेट में बहुत भयंकर मड़ोड़ उठा। भयानक दर्द के कारण वे मन को समाधिभूमि में नहीं ले जा सके। तब वे अपने शरीर के प्रति अत्यन्त रुष्ट हो उठे। मैं तो यह अच्छीतरह जानता हूँ कि मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर नश्वर है मैं तो अजर-अमर अविनाशी आत्मा हूँ ! तो फिर इस सड़े हुए शरीर के साथ तादात्म्य करके दुःख क्यों भोगा जाय ? क्यों न इस शरीर को गंगाजी में विसर्जित कर दिया जाय ? 
पर यहाँ हमे यह याद रखना चाहिए कि-आत्महत्या को हिन्दू धर्म सहित सभी धर्मों में निंदनीय माना जाता है।  'Suicide is condemned by all religion including Hindu religion.' सिर्फ कोई ब्रह्मज्ञानी महापुरुष जो यह अच्छीतरह जानते हैं कि वे शरीर नहीं हैं, जिन्होंने आत्मानुभूति प्राप्त कर ली हो, वे यदि चाहें तो अपने शरीर को छोड़ सकते हैं। कभी कभी वे अपनी इच्छा से महासमाधि में जाकर अपने शरीर को छोड़ देते हैं। जैसे स्वामी विवेकानन्द (और दादा के पितामह ने ) ने स्वयं अपनी इच्छा से महासमाधि की तिथि को निर्धारित करके ध्यान में बैठे और अपने शरीर को त्याग दिया था। इसलिए तोतापुरी ने सोचा मैं भी अपने शरीर को आज त्याग दूंगा।
वे रात्री के समय बलपूर्वक मन को ब्रह्मचिन्तन में संलग्न रखकर गंगाजी में उतरे और क्रमशः गहरे जल में बढ़ने लगे। परन्तु आगे बढ़ते हुए पुरीजी गंगा के दूसरे किनारे पर जा पहुंचे फिर भी उन्हें कहीं डूबने लायक जल नहीं मिला। तब वे अवाक् रह गए और सोचने लगे -'यह कैसी दैवी माया है ?' तब उन्होंने सोचा रामकृष्ण ही ठीक कहते हैं -माँ महामाया सर्वशक्तिमान हैं, उनकी इच्छा के बिना कोई प्राणत्याग भी नहीं कर सकता है। माँ की अनुमति के बिना मैं मर भी नहीं सकता ? वे पुनः उसी रास्ते से चलते हुए वापस लौट आये। बाद में श्रीरामकृष्ण ने कहा था कि यह कोई उतना बड़ा चमत्कार नहीं था जितना तुम सोचते हो। क्योंकि कभी कभी ज्वारभाटा के प्रभाव से गंगाजी के जल के भीतर की तली काफी ऊपर तक उठकर एक मार्ग जैसा बना देती है। इसलिए वे बिना डूबे उस पर चले गए। आंशिक रूप से इसे माँ का चमत्कार भी कहा जा सकता है, यदि उनके पैर कहीं और पड़े होते तो वे डूब भी सकते थे। 
दूसरे दिन सुबह में तोतापुरी रामकृष्ण के साथ पहली बार माँ काली के मंदिर में गए और माँ काली के  चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। बाहर आकर उन्होंने रामकृष्ण से कहा मैं जान चुका हूँ कि तुम कौन हो; और अब मुझे जाने दो। तुम्हीं ने अब तक मुझे यहाँ रोके रखा है। दादा गाते थे 'मैं वारी बनवारी सइयां जानेको दे ! जाने को दे रे सइयां जाने को दे ! ' उन्होंने रामकृष्ण को पहचान लिया,वे समझ गए रामकृष्ण दिव्य शक्ति के अवतार हैं, वे वेदान्त के कोई सामान्य विद्यार्थी नहीं हैं। भारत के संन्यासियों में एक मुहावरा प्रसिद्द है - "रमता योगी बहता पानी।" निरंतर बहता हुआ पानी शुद्ध रहता है , कभी सड़ता नहीं है, जमा हुआ पानी सड़ जाता है। और जो सन्यासी/शिक्षक/नेता चरैवेति चरैवेति करता हुआ जगह जगह जाकर 'Be and Make' आंदोलन का प्रचार -प्रसार करता रहता है, वह शुद्ध रहता है। पर यदि वह किसी एक ही स्थान में टिक जायेगा तो वह भी वहां के लोगों में ,किसी वस्तु या व्यक्ति में आसक्त हो जायेगा। इसीलिए तोतापुरी का नियम था कि वे तीन रात से अधिक किसी एक स्थान में नहीं रुकते थे। किन्तु दक्षिणेश्वर में वे 11 महीनों तक रुक गए। अंत में वे वहाँ से लौट गए , उसके बाद किसी ने उन्हें नहीं देखा। 
40. अद्वैत वेदान्त के गुरु द्वारा अवतारी घोषित होने के बाद इस्लाम की सूफ़ी साधना: यदि हमलोग इसी प्रकार, 'एक अदभुत घटना की कहानी' , अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव  की कहानी को कहते चले जाएँ तो दो घंटे और लगेंगे, फिर भी कहानी समाप्त न होगी। किन्तु यहाँ तक की कथा में, हमलोगों ने इस बात समझने की शुरुआत (inception) कर दी है, कि जब तक विश्व का प्रत्येक मनुष्य रामकृष्ण को एक अवतार के रूप स्वयं उपलब्ध नहीं कर लेते, तब तक विश्व के महान विभूतियों द्वारा रामकृष्ण को एक अदभुत घटना 'phenomenon' के रूप में या अवतार के रूप में इसी प्रकार बार-बार पहचाना जाता रहेगा या आविष्कृत किया जाता रहेगा। उनको एक अवतार के रूप में, पहले चाहे उनके भांजे हृदयराम ने पहचान हो,  चाहे मथुरबाबू हो, भैरवी ब्राह्मणी हों, पण्डित वैषणवचरण , तांत्रिक गौरी पंडित हों, यहाँ तक कि अद्वैत वेदान्ती तोतापुरी जो अवतार के सिद्धान्त को ही नहीं मानते थे ,उन्होंने भी अन्त में यह स्वीकार कर लिया हो कि रामकृष्ण सिर्फ काली के पुजारी ही नहीं हैं, वे साक्षात् माँ काली के अवतार हैं ! तोतापुरी के बाद भी अन्य कई लोगों ने उन्हें अवतार के रूप में पहचाना था, किन्तु रामकृष्ण को इस प्रकार पुकारे जाने से भी कोई अन्तर नहीं पड़ता था। वे अब भी स्वयं को एक शिक्षार्थी ही मानते थे। अतः उन्होंने अपनी साधना जारी रखे और इस्लाम के सूफी सम्प्रदाय में दीक्षित हुए। उस समय वे काली के हिन्दू मंदिर से बाहर रहते थे ,हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा नहीं करते थे। मुस्लिम की तरह लांग खोल कर लुंगी पहनते थे। और मुसलमान की तरह अल्ला का नाम जपते थे, त्रिसन्ध्या नमाज पढ़ते थे। जिसका प्रशिक्षण उन्होंने अपने सूफी शिक्षक से प्राप्त किया था। उन्होंने ईसाई धर्म की साधना भी की थी और ईसा का दर्शन प्राप्त किया था। भारत के हिन्दू और मुसलमान एक दिन अद्वैत वेदान्त -विज्ञान को अवश्य समझेंगे, तथा अभिदृष्टि को प्राप्त कर प्रेमपूर्वक आपस में गले लगेंगे। युगावतार रामकृष्ण की इस्लामधर्म की साधना इसी बात को सिद्ध करती है। 
41.रामकृष्ण की आध्यात्मिक साधना की पराकाष्ठा (culmination )परिसमाप्ति: अद्वैत वेदान्त की सधना द्वारा ब्रह्म से एकत्व की अनुभूति प्राप्त कर लेने के बाद, श्री रामकृष्ण जड़-चेतन हर वस्तु के साथ अद्वैत का अनुभव कर सकते थे। उदाहरणार्थ -नवीन दूर्वादल,मल्लाह का झगड़ा, वृद्धघसियारा,देवघर में दरिद्रों से तादात्म्य आदि कई प्रमाण हैं। 132 : हमारा क्षुद्र व्यष्टि मन [अहं या 'मैं'-बोध].....  यह जगत मनःकल्पित वस्तु मात्र है, इस बात को एकदम भूल जाने के कारण अपने भ्रम का अनुभव [हिप्नोटाइज्ड सिंहशावक जैसे अपने को भेंड़ समझने लगता है] इस समय हमें नहीं हो रहा है। क्योंकि ऊँची दीवाल के उसपार अवस्थित / इन्द्रियातीत यथार्थ वस्तु -परमसत्य -ब्रह्म या सच्चिदानन्द वस्तु तथा अवस्था के साथ तुलना करने पर ही , विवेकज -ज्ञान की सहायता से हम भीतर तथा बाहर के भ्रम को निरंतर समझने में समर्थ हो सकते हैं। भ्रममुक्त होने के लिए अब हमें नाम-रूप,देश-काल, मन-बुद्धि, आदि सापेक्षिक जगत के अंतर्गत सभी विषयों से अतीत/परे  जो इन्द्रियातीत निरपेक्ष सत्य या ब्रह्म है, उससे परिचित होना पड़ेगा। इस परिचय को प्राप्त करने के उपाय को चार योगमार्ग द्वारा प्रयास करने को साधना  कहते हैं,परमसत्य को जानने का  प्रयास करने वाले को साधक कहते हैं। तो फिर लिंग, जाति या धर्म के नाम एक मनुष्य को वे दूसरे से भिन्न कैसे मान सकते थे ? सूफी इस्लाम धर्म की साधना में सिद्धि के बाद उन्होंने ईसाई धर्म 435 : के 'christian mysticism' ईसाई सूफीवाद /रहस्यवाद की साधना करके प्रभु ईसा का दर्शन भी प्राप्त किया था।उन्होंने ईसा को देखकर कहा था 'उनका मुखमण्डल अपूर्व शोभान्वित है तथा उनकी नाक यद्यपि थोड़ी चपटी है, फिर भी उससे उनके चेहरे की आभा-शोभा में फर्क नहीं है।' 430 :श्रीमाँ सारदा देवी को जगदम्बा का अवतार मानकर षोड्षोपचार द्वारा अभिषेक करके उनका पूजन करना श्रीराकृष्ण के साधना की पराकाष्ठा थी, यह उनकी अंतिम साधना थी। दक्षिणेश्वर में वसन्त-ज्येष्ठ महीने में की जाने वाली 'फलहारिणी काली पूजा'(spring worship of kali) के समय माँ सारदा देवी को रामकृष्ण ने अपने कमरे में बुलवाया। और माँ काली की पूजा के समस्त (paraphernalia) बाह्याचार, विधि-विधान का पालन करते हुए उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को माँ काली के रूप पूजा-अर्चना किया। और उसके बाद अब तक की गयी अपनी समस्त साधना का फल तथा जप की माला इत्यादि सब कुछ को उन्होंने माँ सारदादेवी के चरणों में विसर्जन कर दिया। यह उनकी आध्यात्मिक साधना की पराकाष्ठा/ परिसमाप्ति थी, That was the culmination of his spiritual practices! 
42.-" नित्य और लीला" दोनों सत्य हैं, दोनों को स्वीकार करो !  " अरे ,तू भाव मुखी रह !" ~ सर्वाधिक चित्ताकर्षक अवधारणा है 247 (Unique Interesting Concept): किसी समय रामकृष्ण ने भिखारियों को नारायण मानकर उनकी जूठन को ग्रहण कर लिया था। इसपर हलधारी ने रामकृष्ण से कहा था -'मैं देखूंगा कि तेरी सन्तानो का विवाह कैसे होगा ? ' "क्या मैं भी तेरी तरह जगत को मिथ्या कहूँ , और मेरे बालबच्चे भी होते रहें ?" कोठी के अंदर बैठकर जब वे रो रहे थे तब रामकृष्ण को माँ जगदम्बा की अशरीरी वाणी ने तीन बार 'भावमुख अवस्था' में रहने का निर्देश प्राप्त हुआ था।
          भावमुख अवस्था में रहना एक बड़ी ही विलक्षण अवधारणा (Interesting Concept) है। यह एक प्रकार की ( threshold line) सीमा रेखा है  है। इस चौखट के एक तरफ, सब सीमाओं के बाहर, transcendent (इन्द्रियातीत) शब्दातीत ब्रह्म हैं, जो नाम-रूप से परे हैं, देश-काल से परे हैं, जहाँ पहुँचकर यह शब्दमय विश्वब्रह्माण्ड अदृश्य हो जाता है!  जहाँ हमें अहं का कोई बोध नहीं रहता; जहां आप ब्रह्मांड के साथ एक बन जाते हैं; जहाँ पहुँचकर आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के साथ एकत्व का अनुभव करने लगते हैं ! इसके दूसरी तरफ अभिव्यक्त क्षुद्र/व्यष्टि अहं युक्त या प्रकट ब्रह्माण्ड है, बीच की सीमा रेखा में माँ जगदम्बा का सर्वव्यापी विराट अहं, या 'मैं'-बोध  [Cosmic Ego] है, जो कह रही है-'देख, मैं ही इन सबों में अभिव्यक्त हो रही हूँ !'
[on one side is the transcended Brahmn-beyond name beyond form; where the world disappears,  where we have no sens of ego.where you become one with the universe. on this side is the manifested universe, in the border line is the Cosmic Ego , Ma Jagdmba  saying that I am manifestation of all of this . ]

          किसी मानवजाति के नेता / लोकशिक्षक को अपने शेष उम्र तक किस अवस्था में अवस्थित रहते हुए लोकशिक्षण का कार्य करना पड़ता है, उस भाव को समझने का यही एकमात्र उपाय है। उन्हें रूप-अरूप के संधिस्थल -चौखट पर खड़े होकर एक ओर तो 'transcended ' को अर्थात परमसत्य, निरपेक्ष सत्य या ब्रह्म/को ही अरूपा माँ जगतजननी (Energy) के रूप में देखना पड़ता है, दूसरी ओर वे जगत को उससे ही निर्गत, निकली हुई या उत्पन्न (emanate) सन्तान [नाम-रूप matter] के रूप में भी समझना पड़ता है।
             रामकृष्ण की आध्यात्मिक साधना की परिसमाप्ति हो जाने के बाद, जो भी सत्यान्वेषक या भावी शिक्षक उनके पास प्रशिक्षण प्राप्त करने आएंगे, उनमें से बहुत से लोग उनको एक अवतार के रूप में पहचान भी लेंगे। किन्तु सम्पूर्ण विश्व के भावी शिष्यों/वुड बी लीडर्स को श्री रामकृष्णदेव की समस्त शिक्षाओं में गोल्डन थ्रेड के रूप से जो एक ही सूत्र प्रविष्ट दिखाई देगा वह है -" नित्य और लीला" दोनों सत्य हैं, दोनों को स्वीकार करो ! " The Eternal and Emanate- The divine Play"  दोनों सत्य हैं !अर्थात नित्य अपरिवर्तनशील  सत्ता (ब्रह्म) और उसी दिव्य सत्ता से निसृत यह परिवर्तनशील विश्व-ब्रह्माण्ड, उनकी शक्ति दोनों सत्य हैं। हमें दोनों को स्वीकार करके ही अपना काम करना होगा।  
           उन्होंने अपने गुरु तोतापुरी को भी यही शिक्षा दी थी, कि केवल निर्गुण निराकार ब्रह्म ही सत्य नहीं हैं, यह जगत जिस माया का खेल है, वह काली भी सत्य है। " Don't take one and dismiss the other" इसमें से किसी एक ग्रहण करके दूसरे को अस्वीकार मत करो ! वे ' ज्ञान के बाद विज्ञान' में जाने की शिक्षा देते थे, वे ज्ञान प्राप्त करने के बाद ज्ञान-अज्ञान से भी परे जाने की शिक्षा देते थे-'Knowledge and going beyond knowledge also ' की शिक्षा देते थे। जब तुम अट्टालिका के छत पर चढ़ते हो, तब पहले प्रथम तल्ले को पार करते हो, फिर दूसरे तल्ले को पार करने के बाद जब छत पर चढ़ते हो, तो देखते हो कि ईंट -बालू-सीमेंट-छर्री से छत बना हुआ है, उसीसे सीढियाँ और सम्पूर्ण अट्टालिका भी बनी हुई हैं। जब नेति नेति करते हुए जब तुम नाम-रूप से परे 'transcendent' ब्रह्म या अपरिवर्तनशील परमसत्य की अनुभूति करते हो, और तोतापुरी उसी अवस्था में रुक गए थे। 23.33मिनट ]
             किन्तु वहाँ पहुँचने के बाद भी हमलोग जब इस जगत को पुनः देखेंगे, तो पाएंगे   कि वही एक अनेक बनकर लीला कर रहा है। यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति या प्रकट रूप है। ज्ञान और विज्ञान, नित्य और लीला , जब स्वामी विवेकानन्द ने बाद में माँ जगदम्बा के काली रूप को स्वीकार कर लिया तब रामकृष्ण कितने खुश हो गए थे ? उनके खुश होने का कारण यही था कि श्रीरामकृष्णदेव  समस्त शिक्षाओं के भीतर एक ही गोल्डन थ्रेड गुजरता है, और वह है - 'शिवज्ञान से जीव सेवा।' Worship God (शिव) in the form of all living beings ' अर्थात समस्त जीवित प्राणि भी उसी ब्रह्म से निर्गत हुए हैं, अतः जीव के रूप में भी उसी ईश्वर की पूजा करो ! 
         वही ब्रह्म जिसकी उपलब्धि तुमने निर्विकल्प समाधि की थी, उसी दिव्य ब्रह्म/शक्ति से निर्गत समस्त वस्तुएं दिव्य या ब्रह्म ही हैं ! साधारण रूप से उदाहरण देकर कहते हैं, क्या जब मैं ऑंखें बंद करता हूँ तब भगवान दीखते हैं , जब खोल लेता हूँ तब ईश्वर नहीं रहते ? ये किस प्रकार के भगवान हुए ? (वहां Bh/nanku/rjt/skm आ जाते हैं ?) ऑंखें बंद हों या खुली हों, भीतर में दीखते हों बाहर में, सर्वत्र एक ही सत्ता विद्यमान है ! यही वह गोल्डन थ्रेड है जो उनकी समस्त शिक्षाओं का मूल स्वर है। जिसे वह अपने समस्त शिक्षक वर्ग को सिखाना चाहते थे ! 
43.उपसंहार : अवतार रामकृष्ण की कहानी इसके आगे भी जारी रहती है, मथुरबाबू आते हैं, हृदय आता है, दूसर महान भक्त लोग आते हैं-बलरामबोस , नाट्यकार गिरीश घोष आते हैं, दूसरीबार समय मिलने पर आगे की कथा भी कहूंगा।  ईशरवुड ने जैसा कहा था- 'Story of a Phenomenon' वे सच्चे हृदय से यह विश्वास करते थे केवल 100 वर्ष पहले ही भगवान एक बार फिर कुछ समय के लिए स्वयं धरती पर घूम रहे थे।[ मैं भी जानता हूँ केवल 2 वर्ष पहले भगवान जनबीघा में घूमने गए थे।] रामकृष्ण कहा करते थे आर्केष्ट्रा का दल आता है गाता -बजाता है और अदृश्य हो जाता है। उनके समय के लोग नहीं समझ पाते कि वे कौन हैं ? बाद में लोगों को यह समझ में आता है कि वे रामकृष्ण ही ब्रह्म थे, माँ सारदा स्वयं देवी भगवती थीं, स्वामी विवेकानन्द के रूप में स्वयं शिव थे।  100 वर्षों से ज्यादा समय बीत जाने के बाद हमलोगों ने अभी तक केवल होली ट्रायो को आविष्कृत करने का कार्य प्रारम्भ किया है।  उपनिवेशिक भारत में गंगाजी के किनारे अवस्थित दक्षिणेश्वर मंदिर के छोटे से पंचवटी उद्यान रूपी साधना स्थली से.उन्हीं होली ट्रायो के माध्यम से आध्यात्मिकता का जो झरना फूट पड़ा था,  आध्यात्मिक वेगवती नदी  निकली थी, उसने आध्यात्मिक बाढ़ में विश्व को बहा दिया है। किन्तु हमलोग अभी तक रामकृष्ण द्वारा प्रतिपादित आध्यात्मिक आंदोलन की गहराई, विस्तार, आयाम और निहितार्थ (dimension and  the implication) को नहीं समझ पाये हैं।

मैं भारत और विश्व के लगभग सभी देशों के आध्यात्मिक सत्य शोधकों से मिल चुका हूँ,हर जगह मैंने यही पाया है कि उन सबों के आध्यात्मिक प्रेरणा -श्रोत श्रीरामकृष्णदेव ही हैं !  हम अभी भी उनको पढ़ते हैं ,2o सदी में अभी 21 वीं सदी में वे ही मानवता के जीवंत साक्ष्य हैं living testimony of human being, कि आध्यात्मिकता सत्य है, सभी धर्म सत्य हैं। मैं विभिन्न धर्मों और मार्गों के विभिन्न सन्यासियों, यगियों, योगिनी से मिल चुका हूँ, जिन्हें रामकृष्ण परम्परा से कुछ लेना देना नहीं है। उनमें से अधिकांश लोगों का यही कहना है कि श्रीरामकृष्ण वचनामृत ही वह आध्यात्मिक प्रेरणा श्रोत है जिसने मुझे अनुप्रेरित किया है,विवेकानन्द साहित्य ने, या स्वयं स्वामी विवेकानन्द ने मुझे भी अनुप्रेरित किया है।

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था जो शक्ति दक्षिणेश्वर से प्रारम्भ हुई थी वह आने वाले 20 सदियों तक लोगों को अनुप्राणित करती रहेगी।और सम्पूर्ण विश्व को एक बार आध्यात्मिकता के बाढ़ में प्लावित कर देगी। हम श्रीरामकृष्ण से,माँ सारदा देवी से , स्वामी विवेकानन्द से प्रार्थना करते हैं कि वे हमलोगों को अनुप्रेरित करते रहें,वे हमारे जीवन में भी विवेकज -ज्ञान की ज्योति को प्रज्ज्वलित कर दें। हमारे हृदय को दिव्य-प्रेम या भक्ति से आपूरित कर दें, और हमारे इसी जीवन को उस ईश्वर उपलब्धि से प्राप्त होने वाली प्रशान्ति में बदल दें।  ॐ शांति , शांति। शांतिः हरिः ॐ तत्सत। श्रीरामकृष्णs अर्पणं अस्तु ! 27.29 मिनट /
['वेदान्त सोसाइटी ऑफ न्यूयॉर्क (NY)' में18 फरवरी, 2018 को श्री रामकृष्ण के जनमोत्स्व के अवसर पर स्वामी सर्वप्रियानन्द द्वारा  "अवतारवरिष्ठ -   श्री रामकृष्ण देव का जीवन और सन्देश  " (Avatara - Story of Sri Ramakrishna) विषय पर दिये  अंग्रेजी व्याख्यान तथा ठाकुर देव के भक्त श्री अक्षय कुमार के लेख पर आधारित ! ]

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[ भावमुख भारत को पुनरुज्जीवित करने  का उपाय-श्रीरामकृष्ण कथा का श्रवण,मनन निदिध्यासन। तव कथामृतं तप्त जीवनं कविभिरीडितं कल्मशापहम्। श्रवण मंगलं श्रीमदाततं भुविगृणन्त ये भूरिदाजनाः ॥ तव कथा अमृतं ............"माँ ने 30 sept 2018 को कहा है -'भावी लोकशिक्षकों को श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग पुस्तक के साथ साथ उपरोक्त साईट से बंगला से मिलाकर पढ़ना आवश्यक है !' 
 http://web.eecs.umich.edu/~lahiri/LilaPrasanga] 
 323 -364 अशब्दमस्पर्शमरूपम अव्ययमेकमेवाद्वितीयं /सत्ता–ब्रह्म-तो प्रपञ्चात्मक नहीं है अपितु 'अशब्दमस्पर्शमरूपम. अव्ययम्' इत्यादि श्रुति के कथनानुसार प्रपञ्चविहीन है। अतः. प्रपञ्चविहीन ब्रह्म से सुख-दुःख-मोहात्मक जगत् की उत्पत्ति कैसे. संभव है।] 'भैरवी': तीनों लोकों के अंतर्गत विध्वंस (अज्ञान विध्वंश या प्रलय ?) की जो शक्ति हैं, वह भैरवी ही हैं।देवी, विनाश एवं विध्वंस से सम्बंधित भगवान शिव की शक्ति हैं, उनके विध्वंसक प्रवृति की देवी प्रतिनिधित्व करती हैं। विनाश सर्वदा नकारात्मक नहीं होती हैं। रचना विनाश के बिना संभव नहीं हैं। देवी का सम्बन्ध विनाश से होते हुए भी वे सज्जन जातकों के लिए नम्र तथा सौम्य हैं तथा दुष्ट प्रवृति, पापियों हेतु उग्र तथा विनाशकारी हैं। दुर्जनों को देवी की शक्ति ही विनाश की ओर अग्रसित करती हैं, जिससे उनका पूर्ण विनाश हो जाता हैं या बुद्धि विपरीत हो जाती हैं। सृजन और विनाश, परिचालन लय के अधीन हैं जो ब्रह्मांड सञ्चालन के दो आवश्यक पहलू हैं।इस ब्रह्मांड में व्याप्त प्रत्येक वस्तु नश्वर हैं तथा विनाश के बिना उत्पत्ति एवं नव कृति संभव नहीं हैं।  देवी कि शक्ति ही, जीवित प्राणी को क्रमानुसार मृत्यु की ओर अग्रसित करती हैं जैसे बालक से यौवन, यौवन से वृद्धावस्था, जिस पड़ाव में जा कर मनुष्य के शरीर का क्षय हो जाता हैं तथा अंततः मृत्यु, मृत्यु पश्चात मृत शरीर पञ्च तत्वों में विलीन होना, देवी के शक्ति के कारण ही संभव हो पाती हैं। विनाशक प्रकृति से युक्त देवी पूर्ण ज्ञानमयी भी हैं; विध्वंस काल उपस्थित होने पर अपने देवी अपने भयंकर तथा उग्र स्वरूप में भगवान शिव के साथ उपस्थित रहती हैं। सूर्य हर रोज गोल आकार में निकलता है जबकि चंद्रमा रोज एक नया आकार लेता है, इसलिए लोग चंद्रमा पर ज्यादा ध्यान देते हैं। देवी भी चंद्रमा की तरह हैं, जो अपने दो से ढाई दिन के चक्र या सत्ताइस से साढे सत्ताइस दिन के चक्र में चलती हैं। देवी/स्त्री को रात की ही जरूरत होती है। रात में वह अति सक्रिय होती हैं। इसलिए वह ब्रम्ह मुहूर्त और संध्याकाल को नहीं मानतीं। क्योंकि कोई भी स्त्री किसी न किसी तरीके से औरों से अलग होना चाहती है और निश्चित रूप से वह औरों से काफी अलग हैं। यही उनका आकर्षण, सुंदरता और संभावना है कि आप उनकी ओर ध्यान दिए बिना या उनसे आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकते। अगर आपकी जीवन ऊर्जा उनकी ओर आकर्षित होती है और आप उनका स्पर्श करते हैं तो आप बेहद आनंददायी स्थिति में पहुँच सकते हैं। अगर आप सहज रूप से उनके साथ बैठ जाएं तो वह आपको एक अलग आयाम में ले जाएंगी, क्योंकि उनकी रचना ही इस तरह हुई है।]
370: ঠাকুরের ব্রহ্মস্বরূপে অবস্থানের জন্য শ্রীমৎ তোতার প্রেরণা/ आत्मचिन्तन में निमग्न करने वाला तोतापुरी जी का ऑटोसजेशन फॉर्मूला : " नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव , देश-काल-निमित्त आदि द्वारा सर्वदा अपरिच्छिन्न एकमात्र ब्रह्मवस्तु ही सदा सत्य है। अघतन-घटन- पटियसी माया अपने प्रभाव से उनको नाम-रूप द्वारा खण्डितवत दिखलाने पर भी वे वास्तव में कभी उस प्रकार नहीं हैं ! क्योंकि समाधि-अवस्था में मायाजनित देश-काल या नाम-रूप की उपलब्धि रंचमात्र भी नहीं होती है!! अतः नाम-रूप की सीमा में जो कुछ भी अवस्थित है, वह कभी नित्य नहीं हो सकता। उसको दूर से त्याग दो। नाम-रूप के लौहजाल/दृढ़ पिंजर को सिंहविक्रम से काटकर/भेदकर बाहर निकल आओ। अपने हृदय में अवस्थित आत्मतत्व के अन्वेषण में डूब जाओ। समाधि के सहारे उसमें अवस्थित रहो; ऐसा करने पर देखोगे कि उस समय नामरूपात्मक जगत (सूर्य-चंद्र-तारे और पृत्वी सहित) न जाने कहाँ विलुप्त हो चूका है !! उस समय तुम्हारा तुच्छ अहं,या 'मैं'-पन सर्वव्यापी विराट अहं बोध में लीन व् स्तब्ध हो जायेगा; तथा अखण्ड सच्चिदानन्द (शाश्वत-चैतन्य -स्पंदन) को अपना स्वरूप समझकर साक्षात् या अपरोक्ष रूप से प्रत्यक्ष कर सकोगे।" जिस ज्ञान का अवलंबन कर एक व्यक्ति (मिथ्या व्यष्टि अहंबोध के द्वारा झोँकार /अनूप) दूसरे को देखता व् जानता है या दूसरों की बातों को सुनता है , वह 'अल्प ' या तुच्छ है -उसमें परमानन्द नहीं है। किन्तु जिस ज्ञान में अवस्थित होकर एक व्यक्ति दूसरे को नहीं देखता है, नहीं जानता है या दूसरे की वाणी को इन्द्रियगोचर नहीं करता है -वही 'भूमा ' या महान है, उसीके सहारे परमानन्द में अवस्थिति होती है। जो सदा सबके अंदर विज्ञाता रूप से विराजमान हैं -उनको भला किस मन-बुद्धि द्वारा जाना जा सकता है ? " 

[363 : देवीभक्त रामप्रसाद की यह उक्ति -'स्वयं चीनी बन जाने से कोई लाभ नहीं है माँ , मैं तो चीनी खाना पसन्द करता हूँ' भक्तों का आदर्श-वाक्य है। भावसाधना की चरमसीमा में पहुँचकर भावातीत अद्वैत अवस्था  प्राप्ति के लिए रामकृष्ण का प्रयास लोगों को कुछ विपरीत जैसा प्रतीत हो सकता है। क्योंकि भक्तों का यह स्वाभाव है कि वे कभी सायुज्य या निर्वाण मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते। यह बात बिल्कुल युक्तियुक्त थी कि शान्त,दास्य,वात्सल्य, मधुर आदि भाव राज्यों की साधना समाप्त हो जाने के बाद रामकृष्ण अद्वैत साधना में अग्रसर हों भाव तथा भावातीत -ये दोनों राज्य परस्पर कार्यकारण सम्बन्ध से सदा बंधे हुए हैं। भावातीत /इन्द्रियातीत अद्वैत राज्य का भूमानन्द ही सीमाबद्ध होकर भावराज्य के दर्शन-स्पर्शन आदि सम्भोगानन्द के रूप में अभिव्यक्त हैं। अतः मधुरभाव की पराकाष्ठा प्राप्त कर भावराज्य की चरमभूमि में पहुँचने के बाद भावातीत अद्वैतभूमि के अतिरिक्त उनका मन और किस ओर अग्रसर हो सकता था ?]  
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[1 *दादा कहते थे विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न अवतारी लोगों के नाम के साथ ऐसा अक्सर देखने में आता है,विविदिशा,विवेका,सचिदा,तारा -जनकराजकिशोरी ?
 2 * दक्षिण कलकत्ता के जानाबजार मुहल्ले में रानी रासमणि का निवासस्थान था, वे एक भक्त महिला थीं। उनकी तीसरी पुत्री इकलौते पुत्र को छोड़कर, जब मृत्यु हो गयी तब तीसरे दामाद मथुरनाथ विश्वास का विवाह अपनी चतुर्थ पुत्री जगदम्बा का विवाह कर दिया। मथुरबाबू ही उनकी विशाल जमींदारी के कार्य की देख-रेख बहुत दक्षता के साथ किया करते थे। वे बड़े अच्छे चरित्र के जमींदार थे।  काशीधाम में माँ अन्नपूर्णा -वीरेश्वर का दर्शन करने जब 1849 में जाने को प्रस्तुत हुईं तब उन्हें स्वप्न में आकर माँ जगदम्बा ने आदेश दिया कि,काशीधाम जाने की आवश्यकता नहीं है,यहीं दक्षिणेश्वर में गंगा किनारे मेरी मूर्ति स्थापित कर पूजा और भोग की व्यवस्था करो। रानी रासमणि के द्वारा क्षिणेश्वर कालीमंदिर के लिए 60 बीघा जमीन कलकत्ता के सुप्रीम कोर्ट के एटर्नी हेस्टी नामक एक अंग्रेज से 1847 ई ० में खरीदी गयी थी और मंदिर निर्माण में लगभग दस वर्ष लगे थे। 
3.* छोटे पुजारी रामकृष्ण के गाँव लौट जाने के बाद 1858 ई ० में रामकृष्णदेव के चचेरे भाई रामतारक उर्फ़ हलधारी को देवीपूजन का कार्य सौंप दिया गया। जो बलिप्रथा के विरोधी थे , उन्हें यह कार्य छोड़ देना पड़ा। 
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बुधवार, 5 सितंबर 2018

$$$ नवनीदा और अद्वैत आश्रम मायावती का सम्बन्ध

" मने राखबे तुमि एक जन শিক্ষক ! "                    
[आध्यात्म के बिना शिक्षा असम्पूर्ण है! Education without Spirituality is incomplete:  (আধ্যাত্মিকতা ছাড়া শিক্ষা অসম্পূর্ণ/ठाकुर की टीकाधारी सोनार की कथा -केशब ?गोपाल ! हरि -हरि ! हर-हर ! मुख में राम बगल में छूरी ? जिसके हाथ में होगी लाठी क्या भैंस वही ले जायेगा ? बल-बुद्धि में सबल मनुष्य क्या दुर्बल का शोषण करेगा?
 किन्तु मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता या जीवनमुक्त शिक्षक हमें बताते हैं कि 'किसी मनुष्य के पास यदि संसार की सारी संपत्ति है, किन्तु आध्यात्मिक शक्ति नहीं, तो वह सब किस काम की?  जिस तरह पाश्चात्य जाति ने बहिर्जगत की गवेषणा में श्रेष्ठत्व लाभ किया है, उसी तरह प्राच्य जाति ने भी अंतर्जगत की गवेषणा में श्रेष्ठत्व लाभ किया है ! ये दोनों ही भाव महत्वपूर्ण तथा गौरवशाली हैं ! किन्तु दोनों एक दूसरे को स्वप्न-राज्य में विचरण करने वाले समझते हैं।अतः यह ठीक ही है कि जब कभी मानवसमाज को आध्यात्मिक सामंजस्य की आवश्यकता होती है, तो उसका आरम्भ प्राच्य से ही होता है। साथ ही यह भी ठीक है कि यदि प्राच्य को भौतिक-समृद्धि लाने के लिए मशीन बनाने के सम्बन्ध में सीखना हो,तो वह पाश्चात्य के पास ही बैठकर सीखे। परन्तु यदि पाश्चत्य को मानसिक शांति पाने के लिए ईश्वर, आत्मा तथा वेदान्त के रहस्यों को जानने की आवश्यकता हो तो उसे प्राच्य के पास बैठकर सीखना होगा। वर्तमान सामंजस्य इन दोनों आदर्शों का - भौतिक समृद्धि (विज्ञान) और आध्यात्मिकता का समन्वय तथा मिश्रण रूप होगा।
हममें से कुछ लोगों ने यदि आचार्य शंकर का नाम सुना भी है, तो दूसरों की सुनी-सुनाई बातों को दुहराते हुए कहते हैं- ' शंकर ने तो जगत को बिलकुल उड़ा दिया था।' यदि उन्होंने जगत को ही उड़ा दिया था, तो अपने ज्ञान का प्रचार उनहोंने कहाँ किया था ?  उन्होंने कहा था- वेदों में दो प्रकार के धर्मों का उल्लेख है, एक है प्रवृत्ति का धर्म और दूसरा है निवृत्ति का धर्म। एक किनारे पर भोग है, तो दूसरे किनारे पर त्याग है। 
केन्द्रापसारी बल (Centrifugal force) और केंद्राभिसारी बल (centripetal force) दो प्रकार के बलों के प्रभाव से यह विश्व, समाज स्थितावस्था में बना रहता है, या यथापूर्व स्थिति (status quo) बनाये रखता है। ये दोनों हैं, इसीलिये मनुष्यों का समाज अपना संतुलन (Equilibrium) बनाये रखता है। जैसे हवाई जहाज अपने दोनों पंखों पर भारसंतुलन बना कर उड़ान भरता रहता है। उसी प्रकार धर्म के भी दो पक्ष हैं- 'भोग और त्याग ', इन दोनों की सहायता से मानव-समाज साम्यावस्था में रहता है। एक को भी छोड़ देने से दूसरा पक्ष या समाज चल नहीं सकता। त्यागमार्ग-विहीन समाज केवल भोग के उपर निर्भर होकर चल नहीं सकता है। उसी प्रकार सम्पूर्ण भोग-विहीन समाज भी संभव नहीं है। आवश्यकता दोनों में सामंजस्य रखने की है। 
 जब कभी इस सामंजस्य में असन्तुलन आने के कारण  धर्म लुप्त होने लगता है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, धर्म और चरित्र का पतन हो जाने के कारण मानव समाज और देश को भयंकर परिणाम भुगतना पड़ता है। देश की सामाजिक व्यव्स्थाएँ अस्तव्यस्त हो जाती हैं, जिसके फलस्वरूप देश में हिंसा,चोरी, लूट-पाट, कत्ल, झूट, छल, कपट आदि का आतंक छा जाता है। जिससे मानव जीवन अशान्त और दुखमय हो जाता है, तब उसके निवारण हेतु माँ जगदम्बा की इच्छा से, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद,या  आधुनिक युग में श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, जैसे अवतारों (या लोकशिक्षकों) का आविर्भाव होता है, अथवा महामण्डल (या विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर ?) जैसे आध्यात्मिक शिक्षकों का निर्माण करने वाले किसी युवा संगठन का आविर्भाव अनिवार्य हो जाता है।
 'आध्यात्मिक शिक्षक' ही मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता हैं! काश ! कि हमभी मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं, अवतारों,पैगम्बरों या जीवन्मुक्त लोक-शिक्षकों की तरह जन्मजात रूप से वेदान्त के चार महावाक्यों की धारणा, केवल अपने कॉमन सेन्स या साधारण बुद्धि के बल पर ही करने में समर्थ होते ! किन्तु स्वामी विवेकानन्द की जागरण वाणी -'उठो-जागो! ' सुने बिना हमारी मोह निद्रा भंग नहीं होती।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "हमारे देश में सबसे अधिक आदर और सम्मान एक शिक्षक को मिलता है,तथा उनके प्रति हमारी ऐसी श्रद्धा रहती है कि शिक्षक मानो साक्षात् ईश्वर ही हैं ! जितनी श्रद्धा हमें अपने शिक्षकों  (जीवन्मुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता) के प्रति रहती है; उतनी श्रद्धा हमें अपने माता-पिता के लिए भी नहीं होती। माता-पिता हमें केवल जन्म देते हैं,किन्तु शिक्षक (नेता) हमें अपने जीवन में वेदान्त का अभ्यास सिखाकर मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। "
मानवजाति के महान मार्गदर्शक नेता, आध्यात्मिक शिक्षक आचार्य शंकर आचार्य शंकर ईश्वर के इस 'जगत-संचालन कानून' को एक सूत्र (Formula या नुस्खा) में इस प्रकार कहा है -
 दुर्जन: सज्जनो भूयात, सज्जन: शांतिमाप्नुयात्। शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥ 
दूर्जन लोग पहले सज्जन बन जाएँ, क्योंकि जो सज्जन हैं, वे ही शान्ति प्राप्त कर सकते  हैं। फिर जो शान्त हो चुके हैं वे समस्त बन्धनों से मुक्त हो जायेंगे। जो स्वयं मुक्त हो चुके हों, वे दूसरों को मुक्त करने की चेष्टा  करते हैं। 
मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- सज्जन और दुर्जन। जन का अर्थ होता है-मनुष्य। सज्जन माने जो मनुष्य दूर्जन नहीं है।  बोलचाल की भाषा में ' सज्जनता ' कहने से हमलोग भद्रता समझते हैं।  किन्तु यथार्थ भद्रता तभी आती है, जब मनुष्य वास्तव में 'अच्छा' (अविनाशी) या 'ब्रह्म' के साथ अपने (आत्मा के) अद्वैत  को जानकर स्वयं अच्छा ('ब्रह्मविद') बन जाता है, उसे ही सूजन,सज्जन  या चरित्रवान मनुष्य कहा जाता है। जिनके परोपकारी व्यवहार से 'सू-जन' होने का परिचय मिलता है उसी को सज्जन कहते हैं। 
जबकि दूर्जन लोग कभी किसी का उपकार नहीं करना चाहते, फिर भी भावी नेता/आध्यात्मिक शिक्षक के लिये दूर्जनों से भी घृणा करना ठीक नहीं है। हमें उसके अज्ञान की गाँठ (Knot of Ignorance) काट देने की विद्या (५ अभ्यास) सीखनी होगी, उसके बुद्धि के भ्रम को मिटाकर (डीहिप्नोटाइज्ड) करके उसके बुद्धि का बन्धन (देहाध्यास, नाम-रूप, शरीर-मन के साथ तादात्म्य) खोल देना होगा तब वह भी सज्जन बन जायेगा। 
स्वामी जी के गुरु भाई स्वामी प्रेमानन्द जी ने एक बार कहा था - 'Before becoming a Monk, one should become a gentleman' - अर्थात संन्यासी बनने से पहले (निवृत्ति मार्ग के आध्यात्मिक शिक्षक या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने से पहले) किसी व्यक्ति को सज्जन मनुष्य (gentleman) बनना चाहिये। 'उनका यह निर्देश प्रवृत्ति या निवृत्ति सभी मार्गों के वुड बी लीडर्स या भावी आध्यात्मिक शिक्षकों पर लागू होता है।
 [ 'but the teacher shows us the way to salvation'. अर्थात शिक्षक 'सिंह-शावक' को अपना स्वरुप पहचान कर 'भेंड़ होने के भ्रम से मुक्त', जागृत या डी-हिप्नोटाइज्ड (awakened-प्रबुद्ध) हो उठने का मार्ग दिखलाते हैं !]
  श्रीमद्भागवत पुराण में कहा गया है - 'ब्रह्मावलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवः॥ ९.२८॥ ( -सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान्सरीसृप पशून्खगदंशमत्स्यान्। तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥)  जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्प-कार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था।  तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य को बनाया जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह अपनी बुद्धि को विकसित करके अपने बनाने वाले ब्रह्म या ईश्वर को भी जान लेने में भी समर्थ था।  इसी से मिलती-जुलती कथा बाइबिल और कुरान में भी है कि मनुष्य को ब्रह्मा जी ने अपने रूप में गढ़ा , और मनुष्य को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए।  और सभी देवदूतों (फरिस्तों) को बुलवा भेजा तथा उनको आदेश दिया कि तुम सबलोग मनुष्य के सामने सिर झुकाओ-इसको नमस्कार करो ! सभी फरिस्तों ने मनुष्य के सामने अपने सिर को झुकाया, केवल एक फरिस्ता जिसका नाम इब्लीस था,उसने सर नहीं झुकाया तो उसको भगवान ने कहा -दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया।
इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। निम्नतर सृष्टि, पशु-पक्षी आदि किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते। 
[ देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना, अर्थात गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों का पालन किये बिना, अर्थात प्रवृत्ति मार्ग की क्षणभंगुरता का अनुभव किये बिना, "निवृत्ति अस्तु महाफला की धारणा" नहीं कर सकते। अतः मुक्ति-लाभ या 'भ्रममुक्त अवस्था' भी प्राप्त नहीं कर सकते।]
जब हमें ऐसा महसूस होता है कि स्वयं को विश्व के अन्य मनुष्य के सुख-दुःख से काट कर एकाकी (isolated) बना लेना एक पाप है, तब हम सार्वजनिक कल्याण के कार्यों में स्वयं को खो देना चाहते हैं। हम अपने साथ दूसरे लोगों को जोड़ते चले जाते हैं, पहले अपने माता-पिता, बन्धु-बान्धव , जो हमारे अपने स्वजन सगे-संबंधियों में स्वयं को प्रसारित करने की चेष्टा करते हैं। अथवा (प्रवृत्ति मार्ग के अनुसार) विवाह होने के बाद जो नये नाते-रिश्ते बनते हैं, उनमें भी अपने को (अपने क्षुद्र व्यष्टि अहं या स्वार्थी अहं) खो देना चाहते हैं। और इस प्रकार क्रमशः हमें बोध होता है कि हमारी सबसे बड़ी विजय तो स्वयं को जीत लेने में है। प्रवृत्ति-मार्ग की क्षणभंगुरता (आहार-निद्रा-भय -मैथुन की क्षणभंगुरता का) अनुभव प्राप्त करने के बाद शास्त्र वाक्य 'निवृत्ति अस्तु महाफला' के अनुसार नाम-रूप के देहाध्यास या अहंकार से परे चले जाने में है ! जिसके फलस्वरूप हम अपने कामोन्माद या अपने परिवेश के गुलाम न होकर, शरीर और मन के जाल को काट कर भ्रममुक्त हो जाते हैं,और  स्वयं के स्वामी बन जाते हैं। 
उन पवित्र त्रिदेवों के जीवन तथा 'अद्वैत दर्शन' की समरूपता पर चिंतन- मनन  करने से मनुष्य को यह प्रेरणा प्राप्त होती है कि, अपने 'स्व' को , यथार्थ 'मैं' -को, 'अर्थात मैं वास्तव में कौन हूँ ' - को जान लेने के लिये,  आत्मा या इन्द्रियातीत सत्य तक केवल ऊपर आरोहण ही नहीं करना है, अपितु साक्षात्कार करने के बाद पुनः सापेक्षिक सत्य तक जन्तु-जगत् तक नीचे भी उतरना पड़ता है। और भारत के राष्ट्रीय आदर्श ' त्याग और सेवा' के अनुसार 'दृष्टि ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद्ब्रह्ममयं जगत्' - जगत को ब्रह्ममय देखते हुए इसकी सेवा में ही अपने जीवन को न्योछावर करके मनुष्य जीवन को सार्थक किया जा सकता है। जबकि पाश्चात्य भौतिकवादी शिक्षा से प्रभावित आधुनिक युवा सोचते हैं कि इस संसार में यदि प्राप्त करने योग्य  कोई अमूल्य वस्तु है तो वह भौतिक शक्ति ही है, तथा उन्नति और सभ्यता का पैमाना इसके सिवा दूसरा हो ही नहीं सकता। 
चाहे हम अपने 'स्व' (यथार्थ स्वरूप) को, 'मैं कौन हूँ ?' को गहराई से जानने की चेष्टा करें;  अथवा बाह्य प्रकृति को, दोनों अवस्थाओं में हमें उसी अनन्त-असीम (लिमिटलैस) का आह्वान सुनाई देता है। बाह्यजगत और अंतःजगत दोनों अथाह (fathomless) हैं, अतः इनकी गहराई को मापा नहीं जा सकता। इसीलिये हम उस प्रत्येक बाधा को तोड़ देना चाहते हैं, जो हमें इस मिथ्या व्यक्तित्व या नाम-रूप की सीमा में आबद्ध करना चाहती है। मानवजाति के जो मार्गदर्शक नेता अपने जीवन और उपदेशों के द्वारा इस मिथ्या व्यक्तित्व के अहं-बोध में फँसी आत्मा को.  या शरीर और मन की जाल में फँसी हुई आत्मा को सिंहविक्रम से काटकर मुक्त हो जाने का मार्ग दिखलाते हैं, उनके जीवन से हमलोगों को भी मुक्त होने की प्रेरणा प्राप्त होती है।   
महामण्डल आन्दोलन की गहराई को समझने के लिये, हमें पहले आधुनिक युग में सम्पूर्ण मानवजाति के प्रथम मार्गदर्शक नेता, प्रथम आध्यात्मिक शिक्षक, आदि गुरु भगवान श्रीरामकृष्णदेव- विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' के मर्म को समझना होगा। अथवा आधुनिक युग की आवश्यकता के अनुसार, माँ जगदम्बा भवतारिणी की ही इच्छा से -श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के नेतृत्व में  " विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा- BE AND MAKE"-के अनुरूप  'निवृत्ति अस्तु महाफला' में  प्रशिक्षित गृहस्थ आध्यात्मिक शिक्षकों/नेताओं  का निर्माण करने वाले 'महामण्डल' जैसे किसी अद्भुत (Wonderful ) युवा-संगठन का अविर्भूत होना भी अनिवार्य हो जाता है। छान्दोग्य उपनिषद् में बड़े सुन्दर ढंग से कहा गया है -- " तेन उभौ कुरुतो यश्च एतद् एवं वेद यश् च न वेद। नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति, श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति'.... ॥ कोई कह सकता है कि ॐ  के रहस्य को जाने वाला  और दूसरा ॐ  के रहस्य को नहीं जानने वाला अगर यज्ञ करे तो उसमे समान फल मिलेंगे।  लेकिन नहीं, ऐसा नहीं है। [ॐ के] ज्ञान होने से और ज्ञान नहीं होने से फल भिन्न होते हैं। ॐ  के ज्ञान, श्रधा और देवतों की साधना से बहुत अधिक उत्तम फल प्राप्त होते हैं।   यही ॐ की विस्तृत व्याख्या है। "वही कार्य अधिक फलोत्पादक (efficient या प्रभावशाली) होता है, या उसी कार्य में सफलता मिलने की सम्भावना अधिक होती है, जिस कार्य को इस जगत के विषय में पर्याप्त समझ, (अर्थात माँ जगदम्बा ही जगत बन गयीं हैं ! ) श्रद्धा, विश्वास और सत्य-निष्ठा तथा रिक्वायर्ड नो-हाउ, (दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर जगत को 'ब्रह्ममय' अनुभव करने की तकनीकी जानकारी) के साथ प्रारम्भ किया जाता है।"ईशा उपनिषद, मंत्र ११ में कहा गया है - विद्या और अविद्या मे सामंजस्य रखते हुए, हमे विद्या से अमृत प्राप्ति करनी चाहिए। विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।[यः तद् उभयं विद्यां च अविद्यां च सह वेद, सः अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ।] 

 इस स्वधर्म पालन या गृहस्थ जीवन (प्रवृत्ति मार्ग)  में रहते हुए शास्त्रविहित कर्म-साधन (निष्काम कर्म ) के द्वारा प्रवृत्ति मार्ग के  क्षणभंगुर भोगों को अनुभव से तुच्छ समझकर क्रमशः त्याग करते जाने के साथ -ही-साथ, विद्याम् -- निरन्तर विवेक-प्रयोग और ब्रह्मविचार रूपी 'निवृत्ति अस्तु महाफला' का अभ्यास करते हुए शीघ्र 'आत्मा ही परमात्मा है' की अनुभूति करके अमृतम्-अश्नुते=अमृत को भोगता है! जबकि इस कर्म-रहस्य से अनभिज्ञ ज्ञानाभिमानी गृहस्थ मनुष्य निष्काम-कर्म को भी  ब्रह्मज्ञान में बाधक समझकर -बिना पात्रता अर्जित किये ही निवृत्ति मार्ग या संन्यास ग्रहण करने के लालच में अपने स्वधर्म का त्याग कर देता है- वह अमृत नहीं चख पाता ।  जो मनुष्य उन दोनों को विद्याम् - भगवद उपासना और अविद्याम् - निष्काम कर्म, तद -इन, उभयं - दोनों को साथ-साथ वेद = यथार्थतः जान लेता है, वह अविद्यया = वर्णाश्रमोचित कर्मों का स्वरूपतः त्याग नहीं करता, बल्कि कर्तापन के अभिमान, रागद्वेष और फल-कामना से रहित होकर व्यावहारिक जीवन में धर्म का (अपने स्वधर्म का) पालन करता है, इस भाव से कर्म करने पर उसकी ऐहिक जीवन यात्रा सुखपूर्वक चलती है, उसका चित्त शुद्ध भी हो जाता है, और इसी अविद्या के सहारे वह मृत्युमय संसार से सहज ही तर जाता है। इसीलिये श्री रामकृष्णदेव कहते हैं, " ईश्वर (माँ जगदम्बा आश्रम, कोआलपाड़ा) में विद्या-माया और अविद्या -माया दोनों हैं। विद्या माया जीव को (क्रमशः) ईश्वर की ओर ले जाती है, और अविद्या-माया उसे ईश्वर से दूर। (श्री ठाकुर जी की ) भक्ति,विवेक, वैराग्य और ज्ञान - यह विद्या माया (श्री माँसारदादेवी माँ भवतारिणी) की कृपा से प्राप्त होता है। इन्हीं का आश्रय लेकर मनुष्य ईश्वर के समीप पहुँच सकता है। विद्या माया (विवेक-प्रयोग करने की शक्ति ) ही ब्रह्म का स्वरूप प्रकट कर देती है। माया की कृपा हुए बिना ब्रह्म को कौन जान सकता है ! माया से ही 'कारण -कार्य ' रूपी द्वैत-प्रपंच का उदय होता है, माया के परे जाने पर (तुरीय अवस्था में ) न भोक्ता रह जाता है, न भोग्य विषय। ईश्वर की शक्ति का ज्ञान हुए बिना ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता। "  [Women kinds of shakti (Nature and Actions) Sri Ramkrishna Paramahamsa:Some women are Vidya shakti who helps men in their God ward progress , and others are Avidya Shaktis who drag men towards  worldliness.The Vidya shaktis take small quantity of food , require a little sleep and have a naturally little attachment  to the senses. Their hearts are especially filled with joy to hear their husbands talk of God.They themselves talk of the Lord , and give their husbands a high spiritual impulse.They always protect husbands from mean inclinations and actions and assist them in all matters, so that they may be blessed by realizing god at last .The nature and actions of Avidya Shaktis , on the other hand , are of quite an opposite kind. They are seen to hanker after many physical comforts , such as food,sleep,etc., and their chief aim is to prevent their husbands from paying attention to anything except contributing to their own happiness.If their husbands speak to them about spiritual things, they become displeased and annoyed. As every women is a form of Shakti , they need to come out of ignorance understanding the ephemeral nature of material world and transform themselves as Vidya Shakti.] 
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[प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.30।।।।18.30।। ।।18.30।।जो बुद्धि? प्रवृत्तिको -- बन्धनके हेतुरूप कर्ममार्गको और निवृत्तिको -- मोक्षके हेतुरूप संन्यासमार्गको जानती है। बन्ध और मोक्षके साथ प्रवृत्ति और निवृत्तिकी समानवाक्यता है? इससे यह निश्चय होता है कि प्रवृत्ति और निवृत्तिका अर्थ कर्म मार्ग और संन्यासमार्ग ही है। तथा कर्तव्य और अकर्तव्यको -- विधि और प्रतिषेधको? यानी करनेयोग्य और न करनेयोग्यको ( भी जानती है )। यह कहना किसके सम्बन्धमें है देशकाल आदिकी अपेक्षासे जिनके दृष्ट और अदृष्ट फल होते हैं? उन कर्मोंके सम्बन्धमें। तथा जो बुद्धि भय और अभयको(जानती है )। जिससे मनुष्य भयभीत होता है? उसका नाम भय है और उससे विपरीतका नाम अभय है उन दोनोंको? यानी दृष्टादृष्टविषयक जो भय और अभय हैं उन दोनोंके कारणोंको जानता है? एवं हेतुसहित बन्धन और मोक्षको भी जानती है? हे पार्थ वह बुद्धि सात्त्विकी है। पहले जो ज्ञान कहा गया है? वह बुद्धिकी एक वृत्तिविशेष है और बुद्धि वृत्तिवाला है। धृति भी बुद्धिकी वृत्तिविशेष ही है।हे पृथानन्दन जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्तिको? कर्तव्य और अकर्तव्यको? भय और अभयको तथा बन्धन और मोक्षको जानती है? वह बुद्धि सात्त्विकी है।  हे पार्थ जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति? कार्य और अकार्य? भय और अभय तथा बन्ध और मोक्ष को तत्त्वत जानती है? वह बुद्धि सात्विकी है।।
इसीलिये  स्वामी विवेकानन्द ने अरण्यों में अध्यन किये जाने वाले अद्वैत वेदान्त को घर-घर तक पहुँचा देने के लिए', प्रवृत्तिमार्ग के अधिकारी युवाओं को विद्या और अविद्या स्त्री का अंतर  'निवृत्ति अस्तु महाफला ' के जीवंत उदाहरण से समझाकर  ' विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर  'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा', में प्रशिक्षित भावी आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में 'लीडरशिप ट्रेनिंग' में प्रशिक्षित करने के लिए प्रवृत्तिमार्ग के (सप्तऋषियों में से एक ?) आध्यात्मिक शिक्षक कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर और श्रीमती एलिजाबेथ सेवियर को अमेरिका से अपने साथ लाये थे। और इसीकारण श्री रामकृष्णदेव एवं स्वामी विवेकानन्द के आशीर्वाद से तथा श्रीमाँ सारदादेवी की इच्छा से अखिल भारत विवेकानन्द युवा महमामण्डल के संस्थापक तथा तीसरे महान शिक्षक- 'Sweetness and Love Personified',  ताजगी और प्रेम के मूर्तरूप, श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के नेतृत्व (लीडरशिप) में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को, पूरे भारत के युवाओं में मनुष्यनिर्माण तथा चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा प्रचार-प्रसार करने के लिये, 1967 में आविर्भूत होना पड़ा।
आधुनिक युग के प्रथम आध्यात्मिक शिक्षक 'श्रीरामकृष्णदेव' का मुख्य कार्य 'भावी शिक्षकों को शिक्षित करना' है। हमलोग श्रीरामकृष्णदेव की जीवनी में पढ़ते हैं कि मानवजाति के मार्गदर्शक नेता -अर्थात आस्तिकता को पुनः प्रतिष्ठापित करने में समर्थ 'आध्यात्मिक शिक्षक बनने और बनाने की साधना'  के प्रारम्भ में ही श्रीजगन्माता से यह प्रार्थना की थी -  " माँ, मुझे क्या करना चाहिये यह मैं कुछ नहीं जानता हूँ; तू मुझे जो सिखायेगी, मैं वही सीखूँगा। " श्रीजगदम्बा के बालक श्रीरामकृष्णदेव, तब उनपर पूर्णतया निर्भर होकर उनकी ओर दृष्टि आबद्ध किये अपने दिन बिता रहे थे, तथा वे जहाँ, जैसे उनको घुमा-फिरा रहीं थी, परमानन्दित हो कर वे भी उनका अनुसरण कर रहे थे। 

त्यागीश्वर श्रीरामकृष्ण का युवाओं के प्रति  के प्रेम को देखकर बहुत से लोगों को आश्चर्य होता था। उनके लिए तो कोई भी वस्तु ऐसी नहीं थी, जिसे प्राप्त करने के लिये उनके मन में चाह उठती हो। फिर भी वे क्यों चाहते थे कि युवा लोग उनके पास आयें?  और कितने आश्चर्य की बात है, कि इसके लिये वे दक्षिणेश्वर की माँ भवतारिणी के निकट प्रार्थना भी करते थे ! भला उनका अपना कार्य क्या हो सकता था? फिर भी माँ काली के निकट प्रार्थना करते हैं, और व्याकुलता के साथ युवाओं के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। क्या वे बिना किसी उद्देश्य के ही युवाओं के साथ समय बिता रहे थे, उनको प्रशिक्षित करने में अथक परिश्रम कर रहे थे?
नहीं, भगवान श्रीरामकृष्णदेव का एक उद्देश्य अवश्य था, और वह उद्देश्य था - सम्पूर्ण विश्व का कल्याण ! और इसी कार्य में नेतृत्व प्रदान करने के लिये, वे युवाओं के आने की बाट जोह रहे थे। किन्तु वे तो, इस जगत का मंगल वैसे भी कर सकते थे-वे केवल अपने हाथों को आशीर्वाद की मुद्रा में उठा देते-- और पलक झपकते दुनिया का सब कुछ ठीक हो जाता- किन्तु वैसा वे करते क्यों नहीं हैं ? श्रीराकृष्णदेव कहते हैं- 'आइन एरुप आचे ' - अर्थात माँ जगदम्बा के विश्व-संचालन का कानून ही ऐसा है। वे उसी कानून के भीतर रहते हुए कार्य करना चाहते हैं। उस कानून को सीखने और सिखाने के उद्देश्य से ही श्रीरामकृष्ण की समस्त जीवन-लीला सम्पन्न हुई है। और अपने इसी कार्य का उत्तरदायित्व भावी-पीढ़ी को सौंपने के लिये, वे योग्य, युवा-शिष्यों के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। 
" त्याग और आध्यात्मिकता -ये दोनों ही भारत के महान आदर्श हैं ! ३/१३६] ये दोनों गुण मानो एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। यह 'त्याग' का गुण ही व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिक शिक्षक की निःस्वार्थ 'सेवा' के रूप में अभिव्यक्त होने लगता है। यह त्याग (निवृत्ति अस्तु महाफला) ही ईश्वरीय-कानून है। अर्थात इस त्याग के नियम का उलंघन नहीं किया जा सकता है। माँ जगदम्बा के इस कानून का उलंघन करने से अकल्याण अवश्य होता है। किन्तु कल्याण ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है ! और जो यथार्थ में अच्छा है, वह अपरिवर्तनीय है, अविनाशी, नित्य, सत्य, ध्रुव है- इसीलिये कल्याण है। त्याग के इस नियम (कानून) के द्वारा ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य सिद्ध होता है। "त्याग की बात सुनते ही बहुत से लोग डर जाते हैं। जब मानवात्मा संसार की समस्त वस्तुओं से विमुख होकर गंभीर तत्वों के अनुसन्धान में लग जाती है, जब वह समझ लेती है कि नश्वर जड़ शरीर से तादात्म्य स्थापित कर लेने के कारण मैं स्वयं जड़ हुई जा रही हूँ और क्रमशः विनाश की ओर बढ़ रही हूँ-और ऐसा समझकर जब वह इन्द्रिय-विषयों से अपना मुँह मोड़ लेती है। तभी त्याग का आरम्भ होता है, तभी वास्तविक आध्यात्मिकता का विकास प्रारम्भ होता है। " ४/४५ ]" 
" पहले अज्ञान (अविद्या-Ignorance) का त्याग -अर्थात स्वयं के विषय में मिथ्या-धारणाओं का त्याग करना होगा, तभी सत्य अपने को प्रकाशित करने लगेगा। जब हम सत्य को दृढ़तापूर्वक पकड़े रहने में समर्थ हो जायेंगे, तब पहले हमने जो कुछ भी त्याग किया था (कामिनी कांचन में आसक्ति का त्याग किया था ?) वह अब एक नया रूप धारण कर लेगा, एक नये अलोक में प्रकट होगा, और ब्रह्ममय हो जायेगा। तब सब कुछ एक उदात्त भाव धारण कर लेगा। तब हम सभी पदार्थों को उनके सत्यालोक में समझ सकेंगे। किन्तु पहले हमें उन सबका त्याग करना होगा बाद में - सत्य का साक्षात्कार कर लेने के बाद; हम पुनः उन सबको ग्रहण कर लेंगे, पर अब ब्रह्म के रूप में। अतएव हमें सुख-दुःख सभी का त्याग करना होगा। 'सभी वेद जिसकी घोषणा करते हैं, सभी प्रकार की तपस्यायें जिनको प्राप्त करने के लिये की जाती हैं। जिसे पाने की इच्छा से लोग ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करते हैं,हम संक्षेप में उसीके संबंध में तुम्हें बतायेंगे, वह ॐ है ! वेदों में इसी ॐ शब्द की अतिशय महिमा और पवित्रता वर्णित है। " २/१७०
धर्मस्य तत्वं निहतो गुहायां -अतः चरित्र ही धर्म है की शिक्षा देने वाले 'शिक्षक' ही मानवजाति के यथार्थ मार्गदर्शक नेता हैं। धर्म (वेदान्त)  का उद्देश्य समाज का आध्यात्मिकीकरण करना है, विश्व के एकत्व (Oneness of Universe) की स्थापना करना है। धर्म (प्रवृत्ति और निवृत्ति) के दो पक्ष हैं - वैयक्तिक और सामाजिक: गीता, उपनिषद आदि में धर्म के वैयक्तिक और सामाजिक, दोनों पक्षों पर जोर दिया गया है। ईश्वर (माँ जगदम्बा)  केवल एक दूरस्थ विश्व-शासक ही नहीं हैं, अपितु हमलोगों की जन्मदात्री माता के जैसी  अत्यन्त घनिष्ठ मित्र और सहायक भी हैं। और यदि हम केवल उनके ऊपर विश्वास करें, उनके ऊपर भरोसा करें, तो मन पर (तुच्छ स्वार्थी अहंकार पर) विजय पाने में हमारी सहायता करने के लिए सदा तैयार रहतीं है।

क्योंकि स्वामी विवेकानन्द के अनुसार "धार्मिक मनुष्य वह नहीं, जो केवल 'प्रभु,प्रभु' की रट लगाता है, बल्कि वह है - जो उस परमपिता की इच्छा के अनुसार कार्य (निःस्वार्थ कर्म) करता है ! [भावी शिक्षक या नेता वह है जो युवा समाज में आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने वाले महामण्डल द्वारा प्रतिपादित चरित्र-निर्माण आंदोलन के साथ जुड़ जाता है।] 
स्वामी विवेकानन्द शिक्षा और धर्म में बहुत अधिक अंतर नहीं मानते थे। कहते हैं - " शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता (Perfection) की अभिव्यक्ति, जो प्रत्येक मनुष्य में पहले से विद्यमान है। "धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व (Divinity) की अभिव्यक्ति जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है !"अतः दोनों स्थलों पर किसी 'शिक्षक' (पूर्णतः निःस्वार्थी मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट को हटा देना है। जैसा मैं सर्वदा कहता हूँ -हस्तक्षेप बंद करो ! सब ठीक हो जायेगा। अर्थात हमारा कर्तव्य है -रास्ता साफ़ कर देना -शेष सब भगवान ही करते हैं ! " २/३२८  
 स्वामी सारदानन्द द्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग में कहा गया है कि निवृत्तिमार्ग के सप्तऋषियों में से एक स्वामी विवेकानन्द को, दूसरे भावी आश्चर्यजनक शिक्षक के रूप में गढ़ने के उद्देश्य से ही साम्यभाव में अवस्थित प्रथम युवा नेता श्री रामकृष्णदेव अपने साथ धरती पर लेकर अवतरित हुए थे। और उन्होंने निवृत्ति मार्ग के अधिकारी मनुष्यों को आध्यात्मिक-शिक्षक बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने के लिये १८९७ ई ० रामकृष्ण -मठ एवं मिशन की स्थापना कर दी थी।  
स्वामी विवेकानन्द के शिष्य कप्तान जेम्स हेनरी सेवियर एवं श्रीमती  शार्लोट सेवियर
[ Captain James Henry Sevier, and Mrs. Charlotte Sevier (1847-1930, /83 years ) , disciple of Swami Vivekananda.
किन्तु स्वामी विवेकानन्द जब परिव्राजक के रूप भारत परिक्रमा करने के बाद पाश्चात्य देशों में गए तो उन्हें यह अनुभव हुआ कि जगत में  प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी साधारण मनुष्यों की संख्या सर्वाधिक है। और मन को वश में करने की शिक्षा का यदि गृहत्यागी संन्यासी लोग देंगे, तो वे कन्फ्यूज्ड होकर सोचने लगेंगे कि, मन को वश में करने के लिए या मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण लेने के लिये हमें भी संन्यास लेना होगा।जबकि मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण तो विद्यार्थी अवस्था में लेना आवश्यक है। 
इसीलिये  स्वामी विवेकानन्द गृहस्थ जीवन के अधिकारी प्रवृत्तिमार्ग के अधिकारी युवाओं को 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा', या 'निवृत्ति अस्तु महाफला लीडरशिप ट्रेनिंग' में प्रशिक्षित करके ' अरण्यों में अध्यन किये जाने वाले अद्वैत वेदान्त को घर-घर तक पहुँचा देने के लिए', प्रवृत्तिमार्ग के सप्तऋषियों में से एक,प्रवृत्ति मार्ग के आध्यात्मिक शिक्षक कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर को अमेरिका से अपने साथ लाये थे। और इसीकारण श्री रामकृष्णदेव एवं स्वामी विवेकानन्द के आशीर्वाद से तथा श्रीमाँ सारदादेवी की इच्छा से अखिल भारत विवेकानन्द युवा महमामण्डल के संस्थापक तथा तीसरे महान शिक्षक- 'Sweetness and Love Personified',  ताजगी और प्रेम के मूर्तरूप, श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के नेतृत्व (लीडरशिप) में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को, पूरे भारत के युवाओं में मनुष्यनिर्माण तथा चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा प्रचार-प्रसार करने के लिये, 1967 में आविर्भूत होना पड़ा।
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[" কোনো রকমে অফিসে এসে মাইনেটা নিয়ে গেছি। গিয়ে ভীষণ শরীর কেমন করছে, ছাতে একখানা মাদুর পেয়ে রৌদ্রে পড়ে আছি। ১লা জানুয়ারি অজ্ঞান হয়ে গেলুম। তারপরে কিছু জানি না। ..... হঠাৎ মনে হল যে, আরে আমি কি যেন শুনতে পাচ্ছি, এ যেন আমার চেনা জিনিস, জানা জিনিস। কি ব্যাপার -নেতাজীর জন্মদিন, প্রসেশন যাচ্ছে। আরে আরে,কি হল কি হল ? -আমি গলা দিয়ে স্বর বার করার চেষ্টা করছি, বার করতে পারছি না। হাত নেড়ে বলছি আমার মনে হচ্ছে, আমি যেন বলছি, 'আমি বেঁচে আছি।' কিন্তু গলা দিয়ে আওয়াজ বেরোচ্ছে না।  আর এই যে 23 দিন ..... এর মধ্যে সব সময় স্বপ্ন দেখার মত হয়ে যাচ্ছে।  দেখতে দেখতে - এক জায়গায় দেখলুম আমি মারা গেছি। আমাকে সাজিয়ে গুজিয়ে অনেকে নিয়ে চলেছে। সবাই বিষন্ন।আমি সব দেখছি। কত দূর নিয়ে যাচ্ছে ! মাটী, আকাশ, গাছপালার পাতা, রং, ফুল অপূর্ব ! কি বড় বড় গাছে কি সুন্দর অচেনা ফুল। অনেক দূর ..... ........। একটু পাহাড়, উঠলো, ধীরে কিছুটা নীচে নেবে রাখল। চিতা সাজাল। শরীর চাপল, অগ্নি প্রদান হোল, শরীর পুড়ে ছাই উড়ে গেল। বহূ বছর পর মায়াবতীতে গিয়ে ঠিক ই সময় যা দেখেছিলুম সেই দৃশ্য দেখলাম। মায়াবতীর ওখানে গাছপালা, ফুল-ফল একটু ওপরে যে নীচু যায়গাটা যেখানে সেই সেভিয়ারের স্মৃতি ফলক আছে ঠিক সেইখানটা বলে মনে হোল। "
जो पत्र अपने पिताजी को दादा ने लिखा था डेटेड ? आस्क रनेन दा /मिन्टूदा / विवेकज ज्ञान या निर्विकल्प समाधि से पुनरुज्जीवित होने के बाद ?/ ऐसा प्रतीत हुआ यह शरीर मेरा नहीं है, माँ जगदम्बा का है, जो इसको निमित्त बनाकर कार्य कर रही हैं!  श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के सानिध्य में रहने का अवसर मुझे 1987 से 2016 तक प्राप्त हुआ है। वे किसी मनुष्य में कभी बुराई नहीं देखते थे, न किसी धर्म को कभी बुरा कहते थे। वे मूलतः यह विश्वास करते थे कि 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' यदि कोई मनुष्य बुरा कार्य कर बैठता है, तो उसका कारण वह मनुष्य नहीं, उसका बुरा चरित्र है। बी.बी.पी का संन्यास ग्रहण कर लेने के बाद, और 4 मार्च 2011 सुबह 5 बजे एम.एस. का निधन समाचार देते हुए दादा ने फोन पर कहा था -'अदर स्टेट्स में इस आंदोलन को फ़ैलाने में,अब तुम लोगों पर  (महामण्डल के झुमरीतिलैया शाखा पर) अधिक जिम्मेदारी है। ' जमशेदपुर इन्टरस्टेट कैम्प में कहा था 'निसिद्ध-कर्म' केवल पशु करते हैं, मनुष्य नहीं; " मने राखबे तुमि एक जन শিক্ষক ! " शिविर में तथा अन्य अवसरों पर उनके सानिध्य में रह कर मैंने यह जान लिया कि इस जीवन में ही मनुष्य आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। अतः पूज्य नवनीदा के जीवन की इन आश्चर्यजनक  घटनाओं को पढ़ने के बाद मुझे यह जानने की इच्छा हुई कि स्वामी विवेकानन्द के किस व्याख्यान को सुनकर उनकी शिष्यता ग्रहण की और अद्वैत आश्रम की स्थापना करने भारत चले आये ? उसकी सम्पूर्ण जानकारी मुझे अद्वैत आश्रम के वेबसाइट पर प्राप्त हो गयी।  [साभारhttp://www.advaitaashrama.org/advaita
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रनेनदा /6th इंटरस्टेट कैम्प वैज़ाग का प्रोग्राम अनिंदो ने बनाया , इस बात मेरे सिवा अन्य किसी से चर्चा नहीं करना। यह बात केवल मेरे और तुम्हारे बीच ही रहनी चाहिए। उसने लक्ष्मीनारायण का नंबर माँगा, फिर हमसे बोला कि सिटी ऑफिस, बीरेनदा, अपूर्वा से बात करके प्रोग्राम बनाया है। अपूर्व ने बाद में बताया कि उसकी बातचीत किसी से नहीं हुई है। मनःसंयोग का क्लास भी बीरेन दा को दे दिया था। उनका टिकट एक दिन पहले लौटने का है -उनको कैसे दोगे ? फिर उनका नाम हटा दिया।  अकादो प्रॉब्लम है - एक अतिउत्साह और दूसरा पोज मारने का। मैंने उसे प्यार से समझाकर यह कार्य करने से रोक दिया। भुवनेश्वर में १४-१५ को हमलोग के तर्ज पर 2 day कैम्प और मीटिंग कर रहे हैं। ओड़िया स्पीकर का नाम उसी दिन तय होगा। सतपथीजी भी एक्टिव हुए हैं -ऐसा साहूजी ने बताया। -अजय/ ]यदि खड़कपुर 'IIT' के गौतम साहा, अनिंदो , शुभेन्दु, अरुणाभ, अजय पाण्डे, रजत मिश्रा, यादवपुर के प्रशांत चक्रवर्ती, इसमें और अधिक नाम नहीं जोड़ना अच्छा, इनमें से किसी योग्य नेता के नेतृत्व में एक छोटा टीम तैयार किया जाय। एक ग्रुप बनाया जाय, जहाँ वे लोग आपस में चर्चा करके एक इन्डेप्थ नॉलेज का निर्माण करें, और फिर इसी ग्रुप के  ऊपर इंटरस्टेट मॉनिटरिंग का दायित्व दे दिया जाय तो कैसा होगा ? ये लोग अदर स्टेटस के कार्यकारी केंद्रों के साथ सम्पर्क रखेंगे। उनलोगों के द्वारा आयोजित प्रोग्राम में कौन कौन जायेगा, उसका निर्धारण करेंगे, उन केंद्रों से आये रिपोर्ट का उत्तर देंगे। किस राज्य में काम कैसे आगे बढ़ेगा इसको एक्सप्लोर करेंगे। महामण्डल के सेन्ट्रल ऑर्गनाइजेशन को अपने कार्यों के सम्बन्ध में पेरिओडिकल रिपोर्ट देंगे। महामण्डल को यदि अखिलभारत करना हो, तो ऐसा ग्रुप बनाने पर जोर देने की आवश्यकता है।  देश के स्वार्थ से ईगो -क्लैश बड़ा मुद्दा नहीं बनने देना चाहिए, वरिष्ठ भाईयों में कोई कोई शायद ऐसा सोचते हैं कि 'हमलोग नवनीदा के साथ बहुत वर्षों तक काम किये हैं, इसीलिए दूसरों की अपेक्षा नवनीदा को मैं अधिक जानता हूँ। ' किन्तु नवनीदा को जानना या नहीं जानना बड़ी बात नहीं  है, बड़ी बात तो यह है कि जिस उद्देश्य के लिए उन्होंने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया था, उसको सफल करने के लिए,  सम्पूर्ण भारत में इसका प्रचार-प्रसार करने के लिए जो कुछ करना आवश्यक है, वही करना चाहिए।ऐसा ग्रुप बनाने से क्या नवनीदा नाराज हो जायेंगे ?
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बुधवार, 22 अगस्त 2018

भगवान श्रीराम के अवतार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में क्या उपदेश दिया ?

         आध्यात्मिक पूर्णता ' कुरुक्षेत्र में -अर्थात गृहस्थ जीवन में' रहकर भी प्राप्त की जा सकती है !
[ Spiritual Perfection is Within the Reach of All ]
 'अद्वैत वेदान्त' का गूढ़ सिद्धांत है - ' ईश्वर और सत्य का अभेद'; "एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति" -सत्य एक ही है ज्ञानी नाना प्रकार से कहते हैं।  जिसे चारों वेदों ने इसी महासत्य को चार प्रकार से परिभाषित किया है। महावाक्य नाम से अभिहित यह परिभाषाएं निम्न प्रकार हैं-
१. प्रज्ञानं ब्रह्म - प्रज्ञा  रूप (उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है..[ इसका संबंध ब्रह्म की चैतन्यता से है , क्योंकि इसमें ब्रह्म को सर्वव्यापी चैतन्य (संवित या Consciousness) रूप में रखा गया है।'(ऐतरेय उपनिषद - ऋगवेद) Consciousness is Brahman'... Aitareya Upnishad... Rigveda.  ekam sat vipraa bahudhaa vadanti 
२. अहम् ब्रह्मास्मि - मैं ब्रह्म हू...[(ब्रिह्दारन्यक उपनिषद - यजुर्वेद) 'I am Brahman...' Brahadaranyak Upnishad... Yajurveda.इसे ' अनुभव वाक्य ' भी कहते हैं और इसके मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है। ]
३. तत्वमसि ~ तत + त्वम + असि >वह पूर्ण ब्रह्म तू है... (छान्दोग्य उपनिषद् - सामवेद) You are That... Chhandogya Upnishad... Saamveda.इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , तुम भी ब्रह्म ही हो , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है। इसे उपदेश वाक्य भी कहा जाता है। यह 'उपदेश-वाक्य' इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही , वे दूसरों के प्रति आदर की भावना को भी पैदा करते हैं।] 
४. अयं आत्माब्रह्म ~  यह (सर्वानुभव सिद्ध अपरोक्ष) आत्मा ब्रह्म है... (मांडूक्य उपनिषद - अथर्व-वेद) This Self(Aatma) is Brahman... Maandukya Upnishad... Atharv-veda. ' अयंआत्मा  ब्रह्म ' महावाक्य के जरिए यह जताने की कोशिश हुई है कि आत्मा ही परमात्मा (ब्रह्म या माँ जगदम्बा) है। दरअसल , यह अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और परम सत्य के बड़े स्वरूप की जानकारी देता है , इसलिए इसे ' अनुसंधान -वाक्य ' भी कहा जाता है। ] 
किन्तु किसी सामान्य मनुष्य को (जिसका कॉमन सेन्स अभी तक पर्याप्त मात्रा में विकसित नहीं हुआ हो) या बच्चों को वेदान्त के उपरोक्त गूढ़ सिद्धान्तों को कहानियों के माध्यम से ही समझाया जा सकता है। अतः युवा पाठचक्र (Youth Study Circle) में विचार-विमर्श अद्वैत वेदान्त के गूढ़ सिद्धान्तों को समझने के लिये करना चाहिये, कहानी की ऐतिहासिकता को लेकर अधिक माथापच्ची  नहीं करनी चाहिये। 
प्राचीन काल में भारतवर्ष पर विचित्र वीर्य नामक एक राजा का शासन था । उनके तीन पुत्र थे जिनका नाम -धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर था। धृतराष्ट्र बड़े थे, किन्तु जन्मान्ध थे इसीलिए राज्य का उत्तराधिकार उनको न देकर पाण्डु को राज्य-सिंहासन सौंप दिया गया। धृतराष्ट्र को एक सौ लड़के थे, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा लड़का था। पांडू के पाँच पुत्र थे जिनका नाम था- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकूल और सहदेव, इनमें युधिष्ठिर सबसे बड़े थे। जब ये राजकुमार छोटे ही थे कि पांडू का देहान्त हो गया; इसीलिए, धृतराष्ट्र ने ही अपनी  देख-रेख में अपने सौ पुत्रों के साथ-साथ उनके चचेरे भाइयों की शिक्षा-दीक्षा का भी उचित प्रबंध किया, और सभी राजकुमार एक ही साथ युद्धविद्या एवं शिक्षा आदि ग्रहण करते हुए बड़े हुए। 
न्यायोचित रूप से (legally) राजकुमार युधिष्ठिर ही राजसिंहासन के उत्तराधिकारी थे, इसलिये दुर्योधन प्रारंभ से ही उन्हें मार डालने का षड्यन्त्र करता रहता था। यह सब देख-सुन कर, भविष्य में कोई बड़ी घटना न घटे, धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों और भतीजों में आधा आधा राज्य बाँट दिया। किन्तु दुर्योधन को यह आधा राज्य मंजूर नहीं था। वह पूरा राज्य ही पाना चाहता था। उसने दुर्योधन को पाँसे का एक ऐसा खेल खेलने का आमन्त्रण भेजा, जिसमें हारने वाले के भाग्य का फैसला करने का अधिकार जीतने वाले के हाथों में होगा। 
दुर्योधन ने धोखे से पाँसे का खेल जीत लिया और यह माँग रखी की द्रौपदी सहित पांचो भाइयों को १४ वर्षों तक वनवास में जाना होगा। युधिष्ठिर तो सत्यवादी थे, उन्होंने वन में जाना सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस बीच दुर्योधन के कई अत्याचारों को चुप चाप सहते हुए, वर्षों बाद जंगल से वापस लौटने पर, युधिष्ठिर जब अपना राज्य पुनः वापस लौटा देने का अनुरोध करते हैं। किन्तु दुर्योधन उनके राज्य को वापस लौटने के लिए तैयार नहीं हुआ। तब युधिष्ठिर सारी शत्रुता को समाप्त करने के उद्देश्य से एक समझौते का प्रस्ताव भेजा कि पाँच भाइयों को क्षत्रिय जनोचित भरण-पोषण के लिए केवल पाँच गाँव ही दे दिया जाय। किन्तु युधिष्ठिर उतना भी देने को तैयार नहीं हुआ। उसने स्पष्ट रूप से यह कहा कि बिना बड़े-पैमाने पर युद्ध किये वह सूई की नोक जितनी जमीन भी पाण्डवों को नहीं देगा। 
और इस प्रकार जब शान्ति से न्याय पाने का कोई उपाय नहीं बचा, तब अन्त में कुरुक्षेत्र के मैदान में  दोनों पक्ष की सेनायें युद्ध के लिए आमने -सामने आकर खड़ी हो गयीं। फिर दोनों पक्ष के राजा और सेनापति भी एक दूसरे के सामने आकर अपना अपना स्थान ग्रहण करते हैं। दोनों पक्ष की सेनायें तैयार खड़ी हैं, बस अब थोड़ी ही देर में युद्ध शुरू होने को है। युद्ध के प्रारम्भ होने से पहले, युधिष्ठिर के तीसरे भ्राता महावीर 
अर्जुन अपने सखा और सारथि बने 'भगवान श्रीराम के अवतार' श्रीकृष्ण से कहते हैं-" सखा, तुम मेरे रथ को दोनों दलों की सेना के बीच में ले चलो, मैं यह देखना चाहता हूँ कि युद्ध करने के लिए दोनों पक्ष की ओर से कौन कौन से योद्धा एकत्र हुए हैं? " 
श्रीकृष्ण उनकी इच्छा के अनुसार रथ को बीच में लाकर दोनों दलों के सेनानियों का परिचय देने लगते हैं। अर्जुन ने जब अपने अनेक सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को शत्रु पक्ष की ओर खड़े देखा तो, वह करुणा के वशीभूत हो गया,उसके हाथ-पैर निष्क्रिय हो गये। शरीर कांपने लगा, उसके हाथों से छूट कर धनुष नीचे गिर गया। उसने अश्रु-पूरित नेत्रों से कृष्ण की ओर देख कर कहा - " सखा, थोड़ा सा सांसारिक-सुख प्राप्त करने के लिये, मैं अपने सगे-संबन्धियों की युद्ध में हत्या नहीं करना चाहता। "श्रीकृष्ण सोंचने लगे, यह क्या बात हुई ? इतना सब कुछ हो जाने के बाद अन्तिम क्षणों में अर्जुन ऐसा क्यों कह रहे हैं ? क्योंकि श्रीकृष्ण जानते थे कि अर्जुन कोई कायर व्यक्ति तो हैं नहीं, वे तो एक महापराक्रमी, और साहसी धनुर्धर हैं। इसके पहले भी अनेक युद्धों में उन्होंने अपनी असीम शक्ति और साहस का परिचय दिया है। वास्तव में द्रौपदी ने वर्षों पूर्व स्वयम्बर के समय, कई धनुर्धरों को पर्तिस्पर्धा में हरा देने के बाद ही अर्जुन का वरण अपने पति के रूप में किया था। 
इसके अतिरिक्त, गंधर्व लोगो के साथ युद्ध, बिराटनगर के राजा की गौओं का हरण करने वालों के साथ युद्ध, आदि प्रत्येक युद्ध में उन्होंने अपनी असीम वीरता का परिचय दिया था। गउओं के हरण के समय तो अर्जुन अकेले ही विपक्ष के समस्त वीरों को पराजित कर के राजा बिराट की समस्त गौओं को छीन कर वापस ले आया था। इसके अतिरिक्त, द्रोणाचार्य, देवराज इन्द्र, एवं देवादिदेव महादेव ने उनको इतने सारे दिव्य अस्त्र-शस्त्र  प्रदान किये हैं, कि ईच्छा होने से ही वे क्षण भर में सम्पूर्ण शत्रु दल को कुरुक्षेत्र में एक साथ ध्वंश कर सकते हैं। अतः अर्जुन के भयभीत हो जाने की सम्भावना तो हो ही नहीं सकती।  उनके मन की शक्ति भी तो कम नहीं है, फिर क्या बात है ? वे केवल  कुछ समय के लिए करुणा के वशीभूत हो गए हैं, और केवल धार्मिक कारणों से (righteous cause) युद्ध लड़ना नहीं चाहते हैं, क्योंकि युद्ध करने उनके अपने सगे-संबन्धी ही मारे जायेंगे।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन के उत्साह को फिर से जगाने की चेष्टा की, ताकि वो रणक्षेत्र में युद्ध के लिए तत्पर हो जाये। किन्तु उस समय अर्जुन की मनोदशा ही बिल्कुल भिन्न प्रकार की थी, वह युद्धभूमि को छोड़ कर एक संन्यासी बनना ज्यादा अच्छा समझ रहा था। उसने कहा, " सखा देखो, ये द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं, दुर्योधन आदि मेरे चचेरे भाई हैं, बचपन में अपने पितामह भीष्म की पीठ और गोदी में खेलकूद करके मैं बड़ा हुआ हूँ। और येही लोग यहाँ विपक्ष की ओर से युद्ध करने आये हैं। हमलोगों के उपर इनलोगों ने चाहे जितने भी अत्याचार क्यों न किये हों, किन्तु इनकी हत्या करके, इनके खून में सने अन्न को खाकर राज्यभोग करने की अपेक्षा मैं भिक्षा माँग कर खाने को उत्तम समझता हूँ।  इस राज्य की तो बात ही क्या, इन सब को मार कर, मैं स्वर्ग का राज्य भी लेना नहीं चाहूँगा। " 
उधर श्रीकृष्ण उसे युद्ध लड़ने के लिये उत्साहित कर रहे थे, वह भारी असमंजस की स्थिति (dilemma) में फंस गया था। अंत में आन-मान छोड़कर अपने  सार्थी की परामर्श माँगने का निश्चय किया, जो उसके सौभाग्य से ' भगवान श्रीराम के अवतार और स्वयं भगवान' श्रीकृष्ण ही थे! अर्जुन ने कहा- " देखो सखा, इस क्लेशकर और नाजुक परिस्थिति में पड़ कर मेरी बुद्धि भ्रमित हो गयी है, मैं स्वयम अभी सही निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ। इस समय मेरे लिए क्या करना उचित है, और क्या न करना उचित है- मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। तुम मुझे अच्छी तरह से समझा कर बता दो इस समय मेरा कर्तव्य क्या है।"
तब श्रीकृष्ण प्रारम्भ में ही कई प्रकार से वेदों में कहे 'प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म' की चर्चा करते हुए, अर्जुन को यह बात समझा देते हैं कि अर्जुन एक क्षत्रिय राजकुमार है, और अपने राज्य तथा प्रजा की रक्षा करना ही क्षत्रिय का धर्म है।  हजारों हजार लोगों की रक्षा और पालन करने का दायित्व उसीके कन्धों पर है, इस समय राज्य की ओर से जो अन्याय हो रहा है, उसका प्रतिकार वह नहीं करेगा, तो फिर कौन करेगा ? इतना ही नहीं, इस कर्तव्य का पालन करने के लिए यदि आवश्यक हुआ तो उसे कठोरता के साथ पितामह आदि गुरुजनों के साथ भी युद्ध करना पड़ेगा। उपरी तौर पर युद्ध में किसी की हत्या करना अति गर्हित कर्म जैसा प्रतीत होता है; किन्तु किसी व्यक्ति का चाहे जो भी स्वाभाविक धर्म अर्थात कर्तव्य है, उस स्वधर्म का पालन यदि कोई व्यक्ति पूर्णतः अनासक्त होकर, निष्काम भाव से करे, तो वह आध्यात्मिक-उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर भी पहुँच सकता है। इन सब कार्यों को करने से भी मनुष्य अधर्म नहीं करता; बल्कि उचित मनोभाव लेकर इन कर्मों को करने में सक्षम होने से ही, आत्मज्ञान ( अर्थात अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान, आत्मसाक्षात्कार) प्राप्त करके मनुष्य मोक्षधर्म में उन्नत  हो जाता है, देहाध्यास के भ्रम से मुक्त हो जाता है या सदा के लिए डीहिप्नोटाइज्ड हो जाता है।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह भी समझाया कि - ' जब तुम किसी व्यक्ति [दुष्ट,आतातायी व्यक्ति (Terrorists) आदि] की हत्या कर देते हो, तो तुम उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर रहे हो ' ऐसा सोंचने का कोई ठोस आधार नहीं है; क्योंकि अद्वैत-वेदान्त के अनुसार मनुष्य की आत्मा तो अजर-अमर और अविनाशी (immortal) है। (जिसे शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि जिसे जला नहीं सकती और वायु जिसे सूखा नहीं सकता।) अतः एक शरीर के समाप्त होने के बाद आत्मा एक और शरीर धारण कर लेगी। वेदान्त के अनुसार आत्मा (Heart) , शरीर (Hand) और मन (Head) के जाल (THE NET) में बन्दी हो गयी है (स्वेच्छा से =माँ की इच्छा से ?), जिसके कारण अहंकार की भावना बढ़ जाती है। किन्तु यह अहंकार किसी बुद्धिमान व्यक्ति (विवेक-प्रयोग करने में दक्ष-मनीषी) के सूक्ष्म परीक्षण (scrutiny) या अनुसंधान का सामना नहीं कर सकता [ "Sri Krishna also told Arjuna that there was no sound basis for the idea that when you slay a man, you are ending his existence; for the soul being immortal , it will take another body. The soul, according to Vedanta , is caught in THE NET of body and mind, giving rise to a sense of ego.This ego does not withstand the scrutiny of an intelligent person."-Swami Amarananda, Stories form Vedanta.page -26] 

 थोड़ा विवेक-प्रयोग करने से ही अहंकार भाग जाता है।  श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं  कि साधारण तौर से भ्रमित अवस्था में (हिप्नोटाइज्ड अवस्था में) सभी मनुष्य ऐसा अवश्य सोचते हैं कि मैंने अमुक व्यक्ति की हत्या कर डाली है, या अमुक के हाथों मैं मारा गया हूँ;  किन्तु वास्तव में वह सत्य नहीं है। जिस प्रकार प्राकृतिक नियमों के अनुसार बाह्यप्रकृति में आँधी आती है या वर्षा होती है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य की अन्तःप्रकृति - 'मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार' आदि भी प्राकृतिक नियमों के अनुसार ही परिचालित होकर उससे सारे कर्म करवा लेते हैं। हमलोगों का व्यष्टि अहं-भाव' मैं '-बोध (अपने नाम-रूप का देहध्यास) इस 'शरीर, मन, बुद्धि,चित्त अहंकार' के जाल में फँस कर भ्रमित हो चुका है, इसीलिए सम्मोहित अवस्था में हमलोग ऐसा समझते हैं कि हमलोग स्वयं ही यह सब कर रहे हैं। 
जैसे, आसमान में जब बदली छा गयी हो और कोई बादल का टुकड़ा यदि यह सोचने लगे कि मैं तो अपनी इच्छा से इधर-उधर उड़ता रहता हूँ, और जल बरसाता हूँ, तो उसका ऐसा सोचना हमलोगों को जितना हास्यास्पद प्रतीत होगा, ब्रह्मज्ञानी लोगों को-(अर्थात जिन लोगों ने अपने क्षुद्र व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपान्तरित कर लिया है, और जिनका मन साम्यभाव में प्रतिष्ठित हो गया हो, अथवा जिन्होंने श्रीरामकृष्णदेव की 'भावमुख-अवस्था' में रहने का तात्पर्य समझ लिया है, उन लोगों को) हमलोगों द्वारा ऐसा कहना कि ' अमुक कार्य मैंने किया है ' - भी ठीक उतना ही हास्यास्पद प्रतीत होगा। श्री कृष्ण ने यह भी समझाया कि, ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेने के पहले तक जो 'वास्तविक मनुष्य' (जीव) है, वह मरता नहीं है। बल्कि, मृत्यु के समय वह सूक्ष्म शरीर (अन्तःकरण) को अपने साथ लेकर देह (मृत शरीर) से बाहर निकल जाता है। फिर वह एक नया देह धारण करके जन्म लेता है- जैसे फटा-पुराना वस्त्र फेंक कर हमलोग नया वस्त्र धारण कर लेते हैं।
इस प्रकार मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्री कृष्ण ने अर्जुन को आध्यात्मिक क्रमविकास (Spiritual Evolution) के विभिन्न मार्गों का दिग्दर्शन कराया, जिन्हें संक्षेप में योग (Yogas) कहा जाता है। श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह भी समझा दिया कि चूँकि विभिन्न मनुष्यों की विचारधारा एवं रूचि भिन्न भिन्न प्रकार की होती है, इसीलिए परम सत्य, ईश्वर (पूर्ण निःस्वार्थपरता) में पहुँचने के लिए भी विभिन्न प्रकार के योग-मार्ग उत्पन्न हुए हैं।
ये सभी मार्ग अलग अलग प्रतीत होने पर भी, सभी मार्गों का उद्देश्य और लक्ष्य एक ही है। अतः इनमें से किसी एक मार्ग का अनुशरण करके, या चारों मार्गों का अनुशरण करते हुए कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में धन्यता (blessedness, परमानन्द, मोक्ष या भ्रममुक्त अवस्था) का अनुभव कर सकता है। नाम-रूप या शरीर मन के जाल में बंदी क्षुद्र व्यष्टि अहं' कच्चा मैं '-बोध की सीमा को, क्रमशः बढ़ाते हुए, और छोटी छोटी संकीर्णताओं (लींग, जाती, भाषा, धर्म आदि के आधार पर ' मैं और मेरा ' मानने की संकीर्णता) को क्रमशः दूर हटाते हुए माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं'-बोध में (पक्का मैं) रूपान्तरित कर लेने से, ये सभी योगमार्ग अन्त अन्त में मनुष्य को वेदान्तोक्त उसी 'सर्वव्यापी चैतन्य' (प्रज्ञा ,संवित या Consciousness) में पहुंचा देते हैं। श्री कृष्ण की इन शिक्षाओं को ही भगवद गीता के नाम से जाना जाता है।
भक्तियोग (path of devotion) का पथिक यह कल्पना करता है कि परम सत्य (Highest Reality ,इन्द्रियातीत सत्य, ईश्वर या माँ जगदम्बा ने) ही 'मानव-रूप' ----(मेरे इष्टदेव या शुभ्र-पुरुष श्री रामकृष्ण परमहंसदेव का रूप) धारण किया है, इसलिये वह पूरे दिलोजान से इस 'नवमानव- रूप' से प्रेम करने लगता है।  प्रेम करना क्या है, या मातृभाव क्या है -- इस बात से कमोबेश हम सभी लोग परिचित हैं। इसीलिए इस पथ पर चलना सबों के लिए आसान है। यह जान कर कि इस जगत में सब कुछ उनकी (माँ जगदम्बा की) ईच्छा से ही हो रहा है, भक्त-हृदय प्रत्येक घटना के पीछे उनका ही मुखड़ा देखते हुए सबकुछ करता चला जाता है। (ईश्वरेच्छा से प्राप्त समस्त भूमिकाओं को आनन्दपूर्वक निभाता चला जाता है।) इसप्रकार उसकी समस्त इच्छायें और क्रियाकलाप इसी सतत वर्धमान (ever-increasing) स्नेह (affection-मातृभाव) का हिस्सा बन जाते हैं। जैसे जैसे भक्त का प्रेम गहरा होता जाता है, वह अपने इष्टदेव की भक्ति में डूबता चला जाता है, उसका अपना पुराना व्यक्तित्व क्रमशः लुप्त (disappear) होने लगता है, और अंततोगत्वा वह अपने प्रेमास्पद (beloved) में विलीन हो जाता है।  
एक दूसरा मार्ग है ज्ञानयोग - या 'तात्विक अनुसन्धान' का मार्ग (The path of Philosophical Scrutiny)। केवल कॉमन सेन्स या सामान्य ज्ञान के बल पर बहुत गहराई से चिन्तन करने के परिणाम-स्वरूप कोई भी व्यक्ति इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि शरीर,मन बुद्धि आदि जड़ इंस्ट्रूमेंट्स से वह तत्वतः नितान्त पृथक है, तथा जन्म-मृत्यु से मुक्त है। विवेक-विचार करते हुए, गहराई से चिन्तन करते करते उसे  इस बात की स्पष्ट धारणा हो जाएगी, कि वह शरीर, मन, बुद्धि आदि जड़ पदार्थों से बिलकुल भिन्न - नित्यमुक्त, शाश्वत चैतन्य सत्ता है, उसका जन्म-मृत्यू तो है ही नहीं, और वही सबों के भीतर विद्यमान है। इस प्रकार से विचार-विश्लेषण करने में जिन मनुष्यों की बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण होगी और जो 'कामिनी-कांचन' प्रति बिल्कुल अनासक्त होंगे,वे स्वाभाविक रूप से इसी मार्ग पर चलना चाहेंगे। क्योंकि जो लोग अत्यधिक  चिन्तनशील होते हैं, वे प्रेम-विरह आदि कोमल मनोवृत्तियों को मानवीय -दुर्बलता समझते हैं, इसलिए उनको इस पथ पर चलने में बड़ी आसानी होती है। और केवल सामान्य ज्ञान का प्रयोग करते रहने से ही एक दिन उनको ब्रह्मज्ञान तक प्राप्त हो जाता है।  
एक तीसरा मार्ग है राजयोग (Raja-Yoga,- the path of mind control.) या मनःसंयोग अर्थात मन को नियंत्रण में रखने का मार्ग। जो युवा विद्यार्थी जीवन में ( अर्थात ब्रह्मचर्य-आश्रम के कालखण्ड में) इच्छा मात्र  से अपने मन को बाह्य विषयों से खीँच कर, किसी प्रयोजनीय विषय पर मन को एकाग्र रख सकते हों, यह मार्ग वैसे युवाओं के लिए बहुत अनुकूल है। हमलोगों का शरीर मानों एक बर्तन है, और मनवस्तु (mind-stuff) जिससे मन बनता है उसको चित्त कहते हैं, वही चित्त मानों इस पात्र में भरा हुआ जल है। जैसे किसी शांत सरोवर में ढेला फेंकने से वह तरंगायित हो जाता है, उसी प्रकार चित्त में 5 विषयों (रूप-रस-गन्ध -शब्द और स्पर्श) का ढेला गिरता रहता है, जिससे वह तरंगायित होकर मन बन जाता है, और यह क्या है ? -वह क्या है? करता रहता है। मन का कार्य ही है प्रश्न पूछना -कानों के माध्यम से कोई ध्वनि चित्त में गयी, तो मन प्रश्न करेगा कि मैंने अभी जो शब्द सुना वह किसी पंछी की कूक थी या मोटर का हॉर्न था ? अब बुद्धि निर्णय करेगी कि यह तो कोयल की कूक ही है! जैसे ही बुद्धि निर्णय लेती है, वैसे ही अहंकार 'मैं'-बोध आ जाता है - मैं जानता हूँ कि यह कोयल की आवाज है। वास्तव में ये सब हमारे (आत्मा के) उपकरण हैं। किन्तु मन में हर समय विचार तरंगें उठती रहती हैं, इसीलिए उसमें हमलोगों का स्वरुप ठीक तरह से प्रतिबिम्बित नहीं हो पाता है। जैसे बर्तन का जल स्थिर होते ही, उसमें सूर्य के स्पष्ट प्रतिबिम्ब को देखा जा सकता है, उसी प्रकार जैसे ही हमारा चित्त जब बिल्कुल शांत और स्थिर हो जाता है, वैसे ही चित्त के भीतर सत्य स्पष्ट रूप से दिखलाई देने लगता है। 
एक और मार्ग भी है- कर्मयोग, निष्काम भाव से कर्म करने का मार्ग। अर्थात कोई व्यक्ति चाहे जो कुछ भी कर्म करता हो, उसके फल से नहीं जुड़े नहीं होने का मार्ग-अर्थात 'निवृत्ति अस्तु महाफला' को समझ लेने का मार्ग। परिणाम में सुख मिले या दुःख, चाहे ख़ुशी मिले या गम दोनों अवस्थाओं में शांत रहना, दोनों में से किसी भी परिणाम से अनासक्त रहना; तथा अपने कर्मों के परिणामों से निर्लिप्त रहना ही इस योगमार्ग का सर्वस्व है। इस योगमार्ग का साधक यह अनुभव करता है कि, यह प्रकृति ही है जो शरीर तथा मन को संचालित कर रही है। अथवा इस मार्ग का साधक भक्ति के  मनोभाव के साथ भी कर्म कर सकता है कि मैं जो कुछ भी कर्म करता हूँ वह ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने की दृष्टि से करता हूँ; और मानसिक रूप से वह अपने समस्त कर्म को ईश्वर को समर्पित करता जाता है।
अथवा बदले में किसी फल की आशा (नाम-यश या अन्य कोई भी एषणा) किये बिना वह मानवता की सेवा भी कर सकता है। कर्म करते समय कर्मयोगी ऐसा मनोभाव रखता है कि- 'मैं कर्ता नहीं हूँ, प्रकृति के गुणों के द्वारा (सत-रज-तम के द्वारा) ही सभी कार्य हो रहे हैं !'  या फिर यह मनोभाव रखता है कि, 'मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, वह  ईश्वर (ठाकुर) को प्रसन्न करने के लिए ही कर रहा हूँ, जैसी उनकी इच्छा है वे मुझसे वैसा करवा ले रहे हैं।' यदि कोई व्यक्ति ईश्वर (माँ जगदम्बा या ब्रह्म और शक्ति में) के अस्तित्व में विश्वास नहीं भी रखता हो, किन्तु अपने  लिए कुछ भी पाने की इच्छा किये बिना, पूर्णतया निःस्वार्थभाव से केवल दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करता रहे तो उसके क्षुद्र व्यष्टि अहं की सीमा भी टूट जाती है और वह आध्यात्मिक मार्ग में उन्नत हो जाता है। इस प्रकार निष्काम भाव से कर्म करते रहने से एकदिन मनुष्य के व्यष्टि अहं ' मैं '-बोध की सीमा टूट जाती है, और वह सर्वव्यापी विराट मातृहृदय के अहं बोध में या आत्मस्वरूप (अपने यथार्थ स्वरुप) में प्रतिष्ठित हो जाता है।
श्रीकृष्ण के इन उपदेशों ने अर्जुन की बुद्धि में जमे भ्रम को दूर कर दिया। वह समझ गया कि युद्ध भी यदि उचित मनोभाव के साथ (कर्मयोग के रहस्य - निवृत्ति अस्तु महाफला को समझकर) लड़ा जाय, तो वह मेरी आध्यात्मिक प्रगति के रास्ते में बाधक सिद्ध नहीं होगा।अतः प्रारब्ध (destiny-भवितव्यता या अदृष्ट) के संग्राम में (in the battle of his destiny.) उसने अपने क्षत्रियोचित कर्तव्य का दृढ़ता पूर्वक पालन करने का संकल्प किया। और बड़े उत्साह के साथ यूद्ध करने को तैयार हो गये। सिंहविक्रम के साथ उन्होंने अपने धनुष को उठा लिया, तथा प्रत्यंचा चढ़ाकर एक जोरदार टंकार दिया, जिसकी अनुगूँज से सारा रणक्षेत्र थर्रा उठा ! इनदिनों तथाकथित सेक्यूलरवादियों  और समाजसुधारकों के बीच एक लोकप्रिय आलोचना (popular criticism) है कि धर्म ने ही भारत को आज इतना दब्बू, निष्क्रिय (passive) या बदतर बना दिया है, कि सम्पूर्ण राष्ट्र ही शक्तिहीन, कर्मविमुख कायरों के जाति में परिणत हो गया है। गीता की यह कहानी उस गलत और तथ्यहीन छिद्रान्वेषण का एक उपयुक्त जवाब है। [ तथा हमारे दो-भारतरत्न  आध्यात्मिक नेता अटलजी और वैज्ञानिक होकर भी आध्यात्मिक नेता A.P.J Abdul Kalam ने पोखरण में एक के बाद एक तीन परमाणु बमों का विस्फोट करके प्रमाणित भी कर दिया है !]  
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