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रविवार, 24 फ़रवरी 2019

मनःसंयोग-3 [28 -12 -2018 : मनःसंयोग : तीसरा सत्र ]

[28 -12 -2018 : मनःसंयोग : तीसरा सत्र -गंगाधरपुर
[Sri Ganesha archetype of developed Body, Mind and Soul-3'H', Texture, Nature and Function of Mind.technique to control mind. Power of Concentration
आज जगतजननी (माँ भवतारिणी), जगदम्बा -सर्वव्यापी विराट मातृहृदय के अहं-बोध का मूर्तरूप श्री श्री माँ सारदादेवी की जन्मतिथि है।यहाँ हमलोग उनकी पवित्रता,सेवापरायणता, प्रेम, करुणा आदि  चारित्रिक  गुणों के ऊपर चर्चा करके उन गुणों को अपने जीवन में धारण कर सकते हैं। कल हम लोगों ने मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव शरीर, मन और हृदय (3H) को विकसित करके मनुष्य बनना पड़ता है; इसके विषय में सुना था। 'संकर-सुवन भवानी-नंदन' मंगलकर्ता, विध्न विनाशक भगवान श्रीगणेश की मूर्ति विकसित (शरीर, मन और हृदय -3'H ') का प्रतीक है। इस मूर्ति के माध्यम से हम शरीर, मन और आत्मा की संरचना (texture-बनावट), स्वभाव (Nature या प्रकृति )और कार्य (Function), तथा मन को एकाग्र करने की तकनीक (technique) को समझने का प्रयास करेंगे। 
तुलसीदास राम के अनन्य भक्त हैं इसलिए हृदय में राम और सीता को ही बसाए रखना चाहते हैं।  लेकिन इसकी प्राप्ति के लिए सबसे पहले गणपति से ही याचना करते हैं। गणेश की अनुकंपा के अभाव में किसी अन्य ईष्ट की कृपा भी संभव नहीं। कोई भी कार्य हो, अनुष्ठान हो अग्रपूज्य हैं गणेश। इसीलिये तुलसीदास अपनी विनय सीता के माध्यम से राम तक पहुँचाने की प्रार्थना करते हैं।  लेकिन 'विनयपत्रिका' में जो सबसे पहला पद है वह है 'श्रीगणेश-स्तुति' जो निम्न प्रकार से है - " गाइये गनपति जगबंदन। संकर-सुवन भवानी-नंदन॥ सिद्ध-सिदन, गज-बदन, विनायक। कृपा-सिंधु, सुंदर सब-लायक॥ मोदक-प्रिय, मुद-मंगल-दाता। विद्या-वारिध, बुद्धि-विधाता॥ माँगत तुलसिदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे॥" 
सबसे पहले गणेश के हस्तिमुख पर विचार करते हैं।  गणेश का हस्तिमुख हमें लगातार स्मरण कराता रहता है कि हमें हर हाल में देहाध्यास से, अर्थात स्वयं को नश्वर शरीर मानने के भ्रम से मुक्त होना है। मनुष्य सकारात्मक और नकारात्मक भावों अथवा वृत्तियों का समुच्चय ही तो है।  लेकिन यदि नकारात्मकता बढ़ जाती है तो उसका उन्मूलन अनिवार्य है।आध्यात्मिक उन्नति के अभाव में भौतिक उन्नति भी असंभव है। और यदि आध्यात्मिक उन्नति के बिना भौतिक उन्नति प्राप्त कर भी ली जाती है तो जीवन में संतुलन संभव नहीं। 
शिव द्वारा पहले तो गणेश का सिर काटना और फिर उस पर मानवमुख की बजाय हाथी का सिर आरोपित करना वास्तव मे प्रतीकात्मक ही है। सिर या मस्तिष्क अहंकार (मन-Head) का प्रतीक है। जब तक सिर रूपी अहंकार को उतार कर नहीं फेंका जाता तब तक आध्यात्मिक उन्नति संभव ही नहीं। जीवन में संतुलन लाने के लिए अहंकार की समाप्ति अथवा शिरोच्छेदन अनिवार्य है। शरीर, मन और आत्मा (3-H) का एक धरातल पर आना- अर्थात तीनों अवयव का सुसामंजस्यपूर्ण विकास ही वास्तविक उन्नति है। "प्रेम" या  हृदय का विकास भी जीवन का अनिवार्य तत्व है। अहंकार के कारण ही हृदय में निःस्वार्थ प्रेम (empathy) का विकास नहीं हो पाता है। अहंकार के साथ प्रेम भी असंभव है। अहंकार गया तो आत्मज्ञान होते देर नहीं लगती। हाथी बुद्धिमत्ता का प्रतीक है। हाथी का सिर पुनर्स्थापित होने का अर्थ है आत्मश्रद्धा और विवेक-प्रयोग द्वारा ज्ञान (विवेकज-ज्ञान) की प्राप्ति का प्रारंभ। आत्मज्ञान के प्राप्त होने पर अहंकार का विसर्जन स्वाभाविक है। अहंकार के साथ अन्य नकारात्मक वृत्तियाँ भी चली जाती हैं। पुनर्जन्म की स्थिति है ये। एक सिर को काट कर दूसरा सिर लगाना या दूषित रक्त को निकालकर स्वस्थ रक्त चढ़ाना पुनर्जन्म नहीं तो और क्या है? पुनर्जन्म से तात्पर्य शारीरिक मृत्यु नहीं अपितु दूषित मनोभावों से मुक्ति है। जब व्यक्ति के दूषित मनोभाव तिरोहित हो जाते हैं - अर्थात मनुष्य जब भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाता है, तभी वह सही अर्थों में जीना प्रारंभ करता है।
तभी तो हृदय-विस्तार के सम्बन्ध में कबीर कहते हैं  - " यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं। सीस उतारे भुईं धरे तब पैठे घर माहिं॥ " अहंकार के रहते हमें परिवार,समाज या किसी संस्था में महत्व नहीं मिल सकता। अंहकार का समापन ही किसी व्यक्ति को Leader नेता, नायक, गणपति अथवा अग्रपूज्य (जीवनमुक्त शिक्षक) बना सकता है। अतः हमें हर हाल में अपनी जड़ता और दूषित मनोभावों अथवा विकारों से मुक्त होना है।  अर्थात हमें हर हाल में सिंहशावक (अविनाशी आत्मा या Soul) होकर भी स्वयं को भेंड़ समझने (नश्वर देह-मन या Body -Mind समझने) के भ्रम से मुक्त होना है।(अविनाशी आत्मा होते हुए भी स्वयं को नश्वर शरीर-मन मानने के भ्रम से मुक्त होना है।) 
हमलोगों का मन बाह्यजगत के नाना विषयों में ही इतना उलझा रहता है, कि उसे बाह्य जगत से मुड़कर अपने आंतरिक जगत या भीतर की सत्ता को जानने की इच्छा ही नहीं होती,  'हृदय में ही सोना दबा है' किन्तु उस तरफ उसका ध्यान कभी जाता ही नहीं ! क्योंकि जन्म -जन्म के अभ्यास से हमारी इन्द्रियाँ और हमारा मन बहिर्मुखी बन गया है। मन की इस अवस्था को देखकर सन्त तुलसी दास जी कहते हैं-  
                          मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।
 जनम जनम अभ्यास -निरत चित, अधिक अधिक लपटाई।1। 
नयन मलिन परनारि निरखि, मन मलिन बिषय सँग लागे। 
हृदय मलिन बासना-मान-मद, जीव सहज सुख त्यागे।2। 
परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, बचन दोष पर गाये।
 सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ- चरन बिसराये।3।  
तुलसिदास ब्रत-दान, ग्यान-तप, सुद्धिहेतु श्रुति गावै।
राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै।4।
मोह से उत्पन्न जो अनेक प्रकार का (पापरूपी कचरा ) मल लगा हुआ है, वह करोडों उपयों से भी नहीं छुटता। अनेक जन्मों से यह मन पाप में लगे रहने का अभ्यासी हो रहा है, इसीलिये यह मल अधिकाधिक लिपटता ही चला जाता है। पर-स्त्रियोंकी ओर देखनेसे नेत्र मलिन हो गये हैं, विषयों का संग करनेसे मन मलिन हो गया है और वासना, अहंकार तथा गर्वसे हृदय मलिन हो गया है तथा सुखरूप स्व-स्वरूप के त्याग से जीव मलिन हो गया है। परनिन्दा सुनते-सुनते कान और दुसरों का दोष कहते-कहते वचन मलिन हो गये हैं। अपने नाथ श्रीरामजी के चरणोंको भूल जाने से ही यह मलका भार सब प्रकार से मेरे पीछे लगा फिरता है। इस पाप के धुलने के लिये वेद तो व्रत, दान, ज्ञान, तप आदि अनेक उपाय बतलाता है; परंतु हे तुलसीदास! श्रीराम के (अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के) चरणों के प्रेमरूपी जल बिना इस पाप-रूपी मल (कामिनी-कांचन में आसक्ति) का समूल नाश नहीं हो सकता 
गणेश के बड़े-बड़े हस्तिकर्ण सारग्राह्यता के ही प्रतीक हैं। हाथी के कान होते हैं सूप के समान बडे-बड़े। सूप सार तत्व को रखकर बेकार की थोथी अथवा महत्वहीन वस्तु को उड़ा देता है। सिर्फ काम की बातें ग्रहण करो शेष छोड़ दो तभी मानव जीवन की सार्थकता है, तभी सफलता है। उपयोगी का चुनाव हमें आगे ले जाता है। सही जनप्रतिनिधियों का चुनाव राष्ट्र और समाज की उन्नति में सहायक है। हाथी का मुँह छोटा है पर कान बड़े-बड़े। यहाँ गणेश संदेश देते हैं कि कम बोलो और सुनो ज्यादा तथा ध्यानपूर्वक। जब जरूरत हो तभी बोलो। इसके लिए चिंतनशील होना अनिवार्य है।
 हाथी का शरीर विशाल होता है लेकिन ऑंखें छोटी-छोटी। गणेश की छोटी-छोटी ऑंखें सूक्ष्म दृष्टि तथा एकाग्रता का प्रतीक हैं जो उनकी चिंतनशीलता का ही प्रमाण है। हाथी की सूंड दूर तक सूंघने में सक्षम होती है अत: यह दूरदर्शिता के महत्व को प्रतिपादित करती है। उसे जीवन के हर क्षेत्र में दूरदर्शी होना चाहिये और हर कदम फूंक-फूंक कर रखना चाहिए। गणेश के दो दाँत हैं जिनमें से एक पूरा है तथा दूसरा अपूर्ण। पूरा दाँत श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक है तो अपूर्ण या भग्न दाँत बुद्धि और ज्ञान का। बुद्धि अथवा ज्ञान कभी पूर्ण नहीं हो सकता लेकिन पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से हम निरंतर ज्ञानार्जन और आत्मज्ञान के क्षेत्र में प्रगति कर सकते हैं। श्रद्धा में पूर्ण समर्पण होता है और समर्पण में अहंकार और द्वैत का विसर्जन। इस प्रकार श्रीगणेश का हस्तिमुख एक वृहद आध्यात्मिक और सामाजिक प्रतीकात्मक अर्थ प्रस्तुत करता है।
भारी-भरकम उदर के कारण ही लंबोदर कहलाए लेकिन लंबोदर का गुण है सब कुछ उदरस्थ कर लेना। सब कुछ स्वीकार कर लेना। सह लेना। गणेश सब कुछ स्वीकार कर लेते हैं, सह लेते हैं और पचा जाते हैं। बुराइयों को फैलने से रोक देते हैं। शिव ने विष को कंठ में धारण किया था, गणेश नकारात्मकता को उदर में धारण कर लेते हैं। गोपनीयता बनाए रखते हैं। समाज को विकृति से बचाए रखते हैं। ये इस बात का प्रतीक है कि नकारात्मक भावों को मन-मस्तिष्क से निकाल कर उदरस्थ कर लो। मल का स्थान मन नहीं ऑंतें हैं।
गणेश के चारों हाथों में से एक में अकुंश है, दूसरे में पाश, तीसरे में मोदक तथा चौथा आशीर्वाद की मुद्रा में। अंकुश प्रतीक है विषय-वासनाओं पर नियंत्रण (24 X 7 यम और नियम का अभ्यास) का  मन और इंद्रियों पर नियंत्रण स्थापित कर लेने का प्रतीक है - पाश। (सुबह-शाम दो बार आसन-प्रत्याहार-धारणा द्वारा)  इंद्रियों को वश में रख कर मन को नियंत्रित करो। उसमें विषय-वासनाओं और विकारों के उत्पन्न होने पर रोक लगाओ। इच्छाओं पर नियंत्रण कर संयमित जीवन जीओ। मनुष्य के जीवन में रूपांतरण तभी संभव है जब विवेक-प्रयोग द्वारा विचारों (भावनाओं) को परिष्कृत किया जा सके। तभी नये मनुष्य का जन्म संभव है। 
मोदक तत्वज्ञान से उपजने वाले आनन्द (विवेकज आनन्द) और सात्विक-आहार का प्रतीक है। निष्काम कर्म (Be and Make चरित्र-निर्माण आन्दोलन) द्वारा व्यक्ति कर्म के बंधन से मुक्त होकर आनंद की प्राप्ति करने में सक्षम है। अभयमुद्रा जीवन में निडरता के साथ आगे बढ़ने का संदेश देती है। जब तक किसी भी प्रकार का भय है हम आगे नहीं बढ़ सकते। मृत्यु का भय ठीक से जीने नहीं देता, रोग का भय स्वस्थ नहीं रहने देता, निर्धनता का भय समृद्धि से दूर ले जाता है। निर्भय होकर ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति संभव है।गणेश का वाहन है नन्हा चूहा जो एक अत्यंत क्षुद्र जीव है। गणेश समता के प्रतीक हैं। उनका सिर पृथ्वी पर सबसे बड़े प्राणी हाथी का तथा वाहन अत्यंत छोटा प्राणी चूहा। समाज के विकास के लिए न केवल सभी वर्गों के लोगों का मिल-जुलकर रहना और कार्य करना अनिवार्य है। अपितु धरती पर भी सभी जीवों का अस्तित्व महत्वपूर्ण है। 
 भारतीय संस्कृति अध्यात्मवादी है, तभी तो उसका श्रोत कभी सूख नहीं पाता है। मंगलकर्ता, विध्न विनाशक भगवान श्रीगणेश हमारे प्रेरणा के  श्रोत हैं- उनका बड़ा मस्तक  बड़ी और उपयोगी बातें सोचने के लिए प्रेरित करता है।  उनके बड़े-बड़े कान हमें नए विचारों और सुझावों को ध्यान और धैर्यपूर्वक सुनने की सीख देते हैं। युगद्रष्टा लोकमान्य तिलक ने धर्म के माध्यम से राजनीतिक व सामाजिक चेतना के विकास के लिए सामूहिक गणेशोत्सव को 1893 में एक आन्दोलन के रूप में स्थापित किया था। तब उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के उद्देश्य से समाज को एकाकार करने के लिए सामूहिक गणेशोत्सव की परम्परा कायम की थी। उस समय देश को स्वतंत्र कराना एक अहम मुद्दा था। सामूहिक गणेशोत्सव आयोजन के माध्यम से इसकी चेतना का विकास खूब किया गया। आज के भारत के लिए सबसे अहम मुद्दा है, राष्ट्रीय-चरित्र का निर्माण। निष्काम कर्म द्वारा (Be and Make चरित्र-निर्माण आन्दोलन द्वारा) व्यक्ति कर्म के बंधन से मुक्त होकर आनंद की प्राप्ति करने में सक्षम है। अतः वर्तमान समय में गणेश की पूजा-अर्चना के साथ-साथ 3H' विकास की प्रशिक्षण-पद्धति को जोड़ देने से चरित्र-निर्माण आंदोलन का देशव्यापी प्रचार-प्रसार किया जा सकता है।  
[साभार श्री सीताराम गुप्ता /http://www.rachanakar.org/2007/09/blog-post_8811.html] 
मन की बनावट (Texture of Mind): हमारे दो जगत हैं - बाह्य जगत तथा अंतर्जगत। यह दृष्टिगोचर जगत या बाह्य जगत नाना प्रकार के नाम-रूपों से बनी हुई संरचना है। और मन उन दोनों जगत के बीच सेतु के समान है। बाह्य जगत की वस्तुओं तथा विषयों का ज्ञान अर्जित करने के लिए उनके साथ संयुक्त होने का बहुत उन्नत किन्तु अत्यन्त सूक्ष्म साधन या उपकरण (instrument) है हमारा मन। मन हमारा अन्तःकरण है -आंतरिक उपकरण है। इसके चार पार्ट हैं - चित्त,मन, बुद्धि और अहंकार। मनवस्तु (mind stuff) जिससे मन बना है, उसको चित्त कहते हैं। चित्त स्मृतियों (memories, चेतनाका भण्डारगृह है। हमारी 5 इन्द्रियाँ है-आँख, कान, नाक,जीभ और त्वचा। और इनके 5 विषय हैं-रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श।  चित्त में पांचों विषयों के छाप पड़ते हैं ,बार बार अभ्यास के कारण जो छाप चित्त पर बहुत गहरे निशान बना देते हैं, वे बैल गाड़ी की पहियों से बने निसान 'लीक' (rut) -पक्की आदत या प्रवृत्ति बन जाती है। मनुष्य विवेक-विचार भूलकर उसी लीक पर चलता रहता है। कहावत है ‘लीक-लीक गाड़ी चले, लीकहि चले कपूत। लीक छाड़ि तीनों चलें, शायर सिंह सपूत।’ यानी लकीर पर तो बैल गाड़ी चलती है, क्योंकि  पहिये से बनी हुई लकीरों पर चलते रहना बैलों की आदत होती है।  या फिर लीक पर कपूत चलता है, क्योंकि योग्यता के अभाव में वह समय की माँग के अनुरूप कुछ नया, कुछ हटके करने की नहीं सोच पाता। वह तो पुरानी परिपाटी पर चलने में ही भलाई समझता है और पीछे रह जाता है। जबकि कवि, सिंह और सपूत लीक छोड़कर चलते हैं और अपने-अपने क्षेत्र में राज करते हैं। इसलिए अपनी लकीर बड़ी करना है तो लकीर को छोड़कर चलना पड़ेगा।
 हमलोगों ने शरीर-मन -इन्द्रियों के माध्यम से अभी तक जो कुछ भी कार्य किये हैं, उसके संस्कार या छाप चित्त की गहरी परतों में या भूमि में कार्बन-मन कॉपी की तरह संचित हैं। किन्तु हमलोग उन्हें अभी भूल चुके हैं, जैसे कोट की जेब कुछ रखकर हमलोग उसे भूल जाते हैं। चित्त की तुलना किसी शांत सरोवर से की जाती है। जिस प्रकार निर्मल शांत झील की तली को देखा जा सकता है, किन्तु उसमें ढेला फेंकने से वह तरंगायित हो जाता है। उसी प्रकार  इन 5 इन्द्रियों के माध्यम से 5 विषय रूपी ढेले चित्त सरोवर में गिरते रहते हैं। पांच विषयों के छाप या संस्कार पड़ते रहने से चित्त रूपी सरोवर तरंगयीत हो जाता है।  और मन बन जाता है।और अब हम उसकी तली को नहीं देख सकते। मन का काम है -जिज्ञासा करना, संशय करना,  क्या है-क्या है करना। बुद्धि का काम है -निर्णय करना। फिर जैसे ही बुद्धि निर्णय करती है, वैसे ही मैं या अहं का बोध जाग उठता है। किस चीज की सिटी है ? हम बोल पड़ते- मैं जानता हूँ कि यह सिटी रेल की है, बस का हॉर्न नहीं है। अहंकार या 'अहं' भी आत्मा का ही अभिकरण (Agency) जिसके सहारे वह जगत-व्यवहार (नेता /दैत्य का कार्य) करता है। किन्तु जब हिप्नोटाइज्ड अवस्था में किसी व्यक्ति का यह अहंकार बहुत बढ़ जाता है तब वही दैत्यराज शुम्भ-निशुम्भ बन जाता है, जिसका विध्वंश करने या मातृ-हृदय के सर्वव्यापी अहंकार में रूपांतरित करने के लिये माँ जगदम्बा को स्वयं अवतरित होना पड़ता है। 
मन का स्वभाव (Nature of Mind): मन का स्वभाव अत्यन्त चंचल है। मन की गति भी प्रचण्ड है। अभी हमारा मन यहाँ है तो दुसरे ही क्षण धरती के दूसरे छोर तक चला जाता है या सुदूर आकाश के किसी कोने में जा पहुँचता है। हमारा यह मन ध्वनि ही नहीं प्रकाश की गति से भी अधिक वेगवान है। यहाँ तक की कि स्वप्न में भी हमारा मन कितने ही प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करता रहता है, देखता रहता है और आस्वादन भी करता है। स्वामी विवेकानन्द ने मन के स्वभाव को  बन्दर के एक रूपक के द्वारा समझाया है - " कहीं एक बन्दर था। वह स्वभावतः चंचल था, जैसे कि सभी बन्दर होते हैं। लेकिन उतने से संतुष्ट न हो, एक आदमी ने उसे काफ़ी शराब पिला दी। इससे वह और भी चंचल हो गया। इसके बाद उसे एक बिच्छू ने डंक मार दिया। तुम जानते हो, किसीको बिच्छू डंक मार दे, तो वह दिन भर इधर-उधर कितना तड़पता रहता है। सो उस प्रमत्त अवस्था के ऊपर बिच्छू का डंक ! इससे वह बन्दर बहुत अस्थिर हो गया। तत्पश्चात् मानो उसके दुःख की मात्रा को पूरी करने के लिए एक भूत उस पर सवार हो गया। यह सब मिलकर, सोचो, बन्दर कितना चंचल हो गया होगा। यह भाषा द्वारा व्यक्त करना असंभव है। बस मनुष्य का मन उस बन्दर के ही सदृश्य है। मन तो स्वभावतः सतत चंचल है ही, फ़िर वह वासना-रूप मदिरा से मत्त है।  इससे उसकी अथिरता बढ़ गयी है। जब वासना आकर मन पर अधिकार कर लेती है, तब सुखी लोगों को देखने पर इर्ष्या रूपी बिच्छू डंक मारता ही है, जिससे मन और तड़पने लगता है। (वह अतिरिक्त चंचल हो जाता है) उसके ऊपर भी जब अहंकार रूपी भूत मन पर सवार हो जाता है, तब तो वह अपने आगे किसी को नहीं गिनता। ऐसी तो हमारे मन की अवस्था है ! सोचो तो इसका संयम करना कितना कठिन है ! "(विवेकानन्द साहित्य ख ० -१: ८६)मन के चंचल स्वभाव के सम्बन्ध में जान लेने के बाद मन में थोड़ी हताशा उतपन्न हो जाती है कि जब मन का स्वभाव इतना चंचल है, तो हम उसे कैसे नियंत्रण में रखेंगे, उसे कैसे संयमित करेंगे ? क्या चित्त के विक्षेप को रोकना कभी सम्भव भी है ? 
कठोपनिषद में कहा गया है - 'कश्चित् धीरः' स्वयंभू  परमात्मा ने इन्द्रियों को बहिर्मुख करके बाह्यजगत तक ही सीमित कर दिया है। इसी से जीव बाह्य विषयों को देखता है, अंतरात्मा को नहीं। जिसने अमरत्व की इच्छा करते हुए अपनी इन्द्रियों को रोक लिया है, ऐसा कोई धीर व्यक्ति  ही बाह्य जगत से मन को खींचकर अपने हृदय में स्थित आत्मा (अनन्त सत्ता, साक्षी चैतन्य या witness consciousness) पर लगा सकता है। मन के माध्यम से ही विवेक-विचार, श्रेय-प्रेय निर्णय और श्रेय -अमृतत्व को पाने की इच्छा से मनुष्य प्रयत्न करता है।
मन के कार्य (Function of Mind): को समझने के लिए अक्सर ईश्वरचंद्र विद्यासागर की तल्लीनता का उदाहरण दिया जाता है। वे बड़े गरीब किन्तु मेधावी छात्र थे, एग्जाम के समय फुटपाथ पर एक लैंप पोस्ट के नीचे बैठ कर पढने में तल्लीन थे। उनके सामने रोड से एक बारात गुजर गई , थोडी ही देर के बाद एक व्यक्ति आकर उनसे पूछता है, क्या आप बता सकते हैं कि अभी-अभी इधर से जो बारात गुजरा वह किस ओर मुड़ा था ? वे मानो नींद से चौंक कर उठे हों, कहते हैं- ' sorry, no ? ' वे बारात को क्यों नहीं देख सके ? आँखें खुलीं थीं, मस्तिष्क भी जाग्रत और क्रियाशील था किन्तु मन वहाँ नहीं था, तब उनका मन अध्यन में इतना तल्लीन था कि पूरी बारात गुजर गई पर वे उसे देख नहीं सके। शब्द या रूप जिस विषय की छाप चित्त पर पड़ रही है, उसके साथ यदि मन संयुक्त न हो, अन्य विषयों में चला गया हो, तब हमें उसकी अवधारणा नहीं हो सकती। आँखें खुली रहने से भी हम नहीं देख पाते , और कान खुले रहने से भी नहीं सुन पाते। कभी कभी रोड से चलते हम हम किसी विचार में इतने तल्लीन हो जाते हैं, कि किसी ने कुछ कहा तो हम कहते हैं, क्षमा कीजियेगा मैंने सुना नहीं-क्या आप फिर से एकबार कहने का कष्ट करेंगे ?( पीछे से आने वाली कार का हार्न भी सुनाई नहीं देता-तो ड्राइवर क्या कहता है ?) 
मन को वश करने की तकनीक (Technique to control the mind) : आठ चरणों में मन को वश में लाने की तकनीक या पद्धति को पातंजलि योगसूत्र या अष्टांग-योग (अष्टांग- योगा टेक्निक) कहते हैं। महर्षि पतंजलि योगसूत्र १.१२  में अचेतन मन या चित्त पर पड़ी वृत्तियों (जन्मजात पाशविक वृत्तियों) का रोध करने या हटा देने  उपाय (नुस्खा) बतलाते हुए कहते हैं-अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः। चित्त-सरोवर में विषयों का ढेला पड़ने से, चित्त में उठने वाली प्रबल-उन्मत्त बन्दर जैसी उन समस्त वृत्तियों, तरंगों या विक्षेपों को अभ्यास और वैराग्य से रोकना सम्भव हो जाता है। तन्निरोधः –चित्त की उन क्लिष्ट एवं अक्लिष्ट वृत्तियों का निरोध, अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा निर्मूल किया जा सकता है।  मन के पार जाना, मन की वृत्तियों के चक्रव्यूह से उबरना है, तो उपाय दो ही है- अभ्यास और वैराग्य। जिस योग साधक के जीवन में ये दोनों तत्त्व हैं, उसकी सफलता निश्चित है। यदि अभ्यास है, पर वैराग्य नहीं है, तो जो भी साधना की जाती है, जो भी योग- ऊर्जा अवतरित होती है, वह सबकी सब विभिन्न इच्छाओं और आसक्तियों के छिद्रों से बह जाती है। साधक सदा खाली का खाली बना रहता है। इसी तरह किसी में यदि केवल वैराग्य रहे, पर यम-नियम के अभ्यास में दृढ़ता नहीं है, तो जीवन में केवल आलस्य का अँधेरा ही जिन्दगी में घिरा रहता है। ऊर्जा, शक्ति, चैतन्यता की किरणें कहीं भी दिखाई नहीं देती। यही कारण है कि महर्षि दोनों की समन्वित आवश्यकता बताते हैं। 
जब साधक के सामने सवाल आता है कि आखिर यह अभ्यास क्या है और इसे करें कैसे? तो महर्षि समाधान करते हुए अगला सूत्र कहते हैं- तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः॥ १/१३॥ शब्दार्थ- तत्र= उन दोनों (अभ्यास और वैराग्य) की सहायता से, स्थितौ= चित्त की स्थिति में बने रहने के लिए, यत्नः= यत्न करना, अभ्यासः= अभ्यास है।  इस तरह केन्द्र में स्थित होने के लिए क्या करें? प्रत्याहार और धारणा एक ऐसी होशपूर्ण कोशिश, जिसका मतलब है कि इससे पहले कि मन बाह्य इन्द्रिय-विषयों में बहिर्मुखी होना चाहे उसे खींच कर -अर्थात अंतर्मुखी करके हमें अपने केन्द्र में स्थित होने का प्रयास करना चाहिए। पहले हम अपने केन्द्र में स्थित होकर (हृदय में विद्यमान गुरु विवेकानन्द का दर्शन करते हुए) विचार करें और फिर कुछ दूसरा निर्णय करें। यह इतनी बड़ी रूपान्तरकारी घटना है कि एक बार जब हम अपने भीतर केन्द्रित हो जाते हैं, तो सारी बात ही अलग दिखाई पड़ने लगती है, सारा का सारा परिदृश्य ही बदल जाता है। 
परन्तु यह वैराग्य सहित अभ्यास क्या है ? विद्यार्थियों के लिए वैराग्य का अर्थ कमण्डल लेकर जंगल में चला जाना नहीं है। विवेक-प्रयोग द्वारा आँवला -इमली को पृथक -पृथक समझकर प्रेय या सुखद (कामिनी-कांचन भोग की तृष्णा) की लालच को क्रमशः कमजोर करते जाना है। बुद्धि और विवेक के अन्तर को समझना है। विवेक क्या है ?  जगत के शुण्डाकार अस्तित्व या शंकु रूप 'tapering existence' को समझते हुए;श्रेय-प्रेय विवेक अर्थात सुख के पीछे दुःख का होना आवश्यक है;  अच्छा और सुखद (Good and Pleasant) में पार्थक्य को समझकर, अच्छा को चुन लेने की प्रबल इच्छाशक्ति।  फिर मन के थोड़ा और शांत होने के बाद नित्य-अनित्य विवेक, श्रृंगार -भक्ति विवेक, नीर-क्षीर विवेक या  'द्रष्टा-दृश्य विवेक' अर्थात साक्षी चेतना (witness consciousness) और प्रतिबिंबित चेतना (reflected consciousness) का विवेक-प्रयोग करते हुए, विषय भोगों को भोगने की इच्छा रखने वाले M/F अहं-भाव को कमजोर किया जाता है।  द्रष्‍ट्टदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः||17|| [द्रष्‍ट्टदृश्ययोः] द्रष्‍टा ओर दृश्य का [संयोगः] प‌रस्पर संयुक्त होना [हेयहेतुः] दुःख का कारण है |द्रष्‍टा= जीव तथा दृश्य= प्रकृति (से बने पदार्थों) का परस्पर संयोग होना ही दुःख का कारण है। सर्वबन्धनों और दुःखों के मूल कारण पंचक्लेश है – अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। जो कुछ जानना था जान लिया ( दुःख का कारण-पंचक्लेश क्या है? यह जान गया।) – अब कुछ जानने योग्य नहीं रहा। अर्थात जितना गुणमय दृश्य है वह सब परिणाम, ताप और संस्कार दुःखों से दुःख स्वरुप ही है। इसलिए ‘हेय’ है।
 वैराग्य सहित अभ्यास करने का अर्थ है - विवेक-प्रयोग द्वारा  द्रष्टा और दृश्य का संयोग जो ‘ हेय हेतु ‘ है वह दूर कर दिया। ] अब नश्वर सुखों को पाने के लालच को कम करते हुए अपने केन्द्र (हृदय) में स्थित होने का प्रयास करना। इन दोनों माध्यम से चित्त की वृत्तियों को रोका जा सकता है। पहले हम अपने केन्द्र में स्थित होकर विवेक-दर्शन का अभ्यास करे और विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कोई कार्य करें। खुली आँखों से (सियाराम मय जगत को देखने का अभ्यास) ध्यान  करने के लिये जो प्रयास किया जाता है , वह अभ्यास कहाता है। यह इतनी बड़ी रूपान्तरकारी घटना है कि एक बार जब हम अपने भीतर केन्द्रित हो जाते हैं, तो सारी बात ही अलग दिखाई पड़ने लगती है, सारा का सारा परिदृश्य ही बदल जाता है। नजरें बदली तो नजारे बदल गए, कश्ती का मुख मोड़ा तो किनारे बदल गए। दृष्टिं भक्तिमयी कृत्वा पश्येत भगवानमय जगत !  
योगमार्ग पर चलने वाले के लिए नाना प्रकार के प्रलोभन (Bh सिद्धियां) आते है। अभ्यासी को उनसे सावधान रहना चाहिए, उन सिद्धियों में फँसने से और घमंड करने से बचे रहना चाहिए। अपने सहयोगियों-सहकर्मियों द्वारा आदर- भाव या सम्मान (C-in-C का बैज)  पाने पर उसमें लगाव और अभिमान नहीं करना चाहिए। नित्य -अनित्य का भेद,  चित्त और पुरुष के भेद को जानने वाला सारे भावों के अधिष्ठातृत्त्व और सर्वज्ञातृत्त्व को प्राप्त होता है। योगी को सिद्धियों से अनासक्त रहते हुए अपने असली ध्येय की ओर बढ़ना चाहिए। सिद्धियों से भी वैराग्य होने पर, दोषों का बीज क्षय हो इन पर कैवल्य होता है।इसका संकेत दूसरे पाद साधनपाद (Instrument) के 26 वें सूत्र तथा भाष्य में विवेकख्याति नाम से किया गया है। दुःख के नितांत अभाव का उपाय निर्मल अडोल विवेकख्याति है- विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः।  [26] (विवेकख्यातिः अविप्लवाः हान-उपायः।)||26||[विवेकख्यातिः] प्रकृति तथा पुरुष (= जीव और ईश्‍वर) के भेद का ज्ञान होना [अविप्लवा] अस्थिरता आदि दोष रहित (= स्थिर, दृढ़) [हानोपायः] हान का उपाय है।  ईश्‍वर, जीव और प्रकृति को अलग-अलग, यथार्थ रूप से जान लेना हान अर्थात् दुःख का नाश करने का उपाय है।  इन तीन तत्वों का यथार्थज्ञान स्थिर (दृढ़ = न छूटने वाला) होना चाहिए | 
समय (क्षणों) को निर्मित किया गया है:  समय एक प्रक्रिया की भांति—भूत, वर्तमान, के रूप में—इच्छाओं द्वारा निर्मित किया गया है। यदि हम समय की प्रक्रिया पर साक्षी चेतना को एकाग्र करने में सक्षम हो जाएँ, तो अचानक परम तत्व का ज्ञान हो जाता है। क्योंकि जिस क्षण हम समाधि के साथ समय को देखने में समर्थ हो जाते हैं —वर्तमान, भविष्य और भूत का विभेद खो जाता है, वे विलय हो जाते हैं। उनमें विभाजन झूठा है। पदार्थ के सबसे छोटे कण को परमाणु कहते हैं। अर्थात पदार्थ का (प्लेटोनियम का) ऐसा छोटा कण जिसके और टुकड़े न हो सकें। जिसको और भागों में बाँटा न जा सके। जैसे पत्थर के एक टुकड़े को इतना चूरा जाय कि उसको और न चूरा सके, पत्थर के ऐसे चूरे को हम रेत कहते हैं। उस रेत के और विभाग नहीं किये जा सकते। उसी प्रकार समय का वह सबसे छोटा भाग जिसे और किसी भाग में न बाँटा जा सके क्षण कहलाता है।  जैसे वर्ष को महीनों में, महीनों को दिनों में , दिनों को घंटों में, घंटों को मिनटों में, मिनटों को सेकंड में, और सेकंड को प्वाइंट में बाँटा जा सकता है। किन्तु प्वांइट का विभाग नहीं किया जा सकता। इसी प्वाइंट को क्षण अथवा पल कहते हैं। इन्हीं क्षणों या पलों के निरंतर चलने वाले प्रवाह को क्रम कहते हैं। यह क्रम निर्बाध गति से (अर्थात बिना किसी रुकावट के) चलता रहता है। जैसे ही किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है वह हमें नई लगती है। जैसे नयी गाड़ी, नया कपड़ा, या अन्य कोई नयी पोशाक। किन्तु वह पोशाक या गाड़ी प्रतिक्षण पुरानी होती जाती है। एक लम्बे समय के बाद -अर्थात क्षणों के निरंतर बीतने के क्रमानुसार वह वस्तु नष्ट हो जाती है। यह सब खेल समय का या बीतते हुए पलों का होता है। क्षणों का प्रभाव उन्हीं वस्तुओं पर होता है (शरीर 'मैं'-पन पर होता है) जिनकी उत्पत्ति होती है, या जो पैदा होते हैं। क्षणों (परिवर्तन) का प्रभाव साक्षी चेतना (witness consciousness) या आत्मा (existence-consciousness-bliss) या द्रष्टा पर नहीं होता। द्रष्टा हमेशा अपरिवर्तनशील रहता है, द्रष्टा हमेशा एक होता है, दृश्य परिवर्तनशील और अनेक होते हैं।  
कोई योगी जब क्षणों के क्रम (विभाग) में मन को एकाग्र कर लेता है, तो उसे अचानक विवेकजन्य-ज्ञान (अद्वैत-ज्ञान) की प्राप्ति हो जाती है।  अचानक हम शाश्वत के प्रति बोधपूर्ण हो जाते हो तब समय का अर्थ समकालिकता है। यदि हम समय को , समाधि कीआंखों से देख सकें, तो समय तिरोहित हो जाता है। जब समय खो जाता है, सब कुछ खो जाता है—क्योंकि इच्छा, महत्वाकांक्षा, प्रेरणा का सारा संसार वहां है, क्योंकि हमारे पास समय ही गलत अवधारणा है। आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है .. ''अहंकार का संपूर्ण तिरोहित हो जाना''। और अहंकार (तृष्णा-कामना) के भस्म होने के साथ , हर चीज तिरोहित हो जाती है।जैसे हजार वर्षों से कमरे में अंधकार हो तो क्षण भर में चला जाता है।  
विभूतिपाद 53 - 'क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम्। (क्षण-तत्-क्रमयोः संयमात्-विवेकजम् ज्ञानम्।)
वर्तमान क्षण, और जो क्षण आने वाला है उसके बीच में - दो क्षणों के अन्तराल में, मन को एकाग्र करने से वर्तमान क्षण विलीन हो जाता है, और आने वाला क्षण परम तत्व के बोध से जन्मे ज्ञान को लेकर आता है। गुजरते हुए एक-एक पल तथा आने वाले प्रत्येक पल के प्रति पूर्ण जागरूकता (Complete awareness) और मौत को आमनेसामने देखकर भी आत्मनियंत्रण -'देखता हूँ इस टक्कर में मरता कौन है ? ऐसा शौर्य और ऐसी जागरूकता उस ज्ञान को अपने साथ लाती है, जो (उस भावी शिक्षक को) वास्तव में परम सत्य (तुरीय अवस्था ) क्या है, यह कहने का अधिकार (ability-सामर्थ्य) प्रदान करता है। 
अक्रम विज्ञान : अक्रम का अर्थ है बिना-क्रम, बिना किसी विभाग के। विवेक से उत्पन्न ज्ञान क्रम की सीमा से परे है।  जिसमें अहंकार का अल्प -विराम या कोमा नहीं लगा हो। यथार्थ ज्ञान वही कहलाता है; जो हर परिस्थिति में सही समाधान प्रदान करे। यह ‘अक्रम विज्ञान’ ठीक वैसा ही करता हैं। (Complete awareness and control for each and every passing moment brings that knowledge which results from the ability to really tell what is really real.) यह विज्ञान आपको न सिर्फ अपने ‘वास्तविक’ स्वरूप से जोड़ता है परन्तु आपको जीवन को वह जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करने की गहरी अंतर्दृष्टि भी देता है। इस ज्ञान के बाद अन्य किसी को जानने की आवश्यकता नहीं होती। 
विभूतिपाद :भस्म शिव की विभूति है, विभूतिपाद में उन शक्तियों का वर्णन जो मन में छिपे काम या 'अहं'-(मैं-पन) को भस्मीभूत करने के साथ ही साथ प्राप्त होती हैं। (Vibhuti pada: On the Powers That Come With Attainment of Knowledge.)  
जातिलक्षणदेशेरन्यताऽनवच्छेदात्तुल्ययोस्ततः प्रतिपत्तिः।  [54] (जाति-लक्षण-देशेः अन्यता-अनवच्छेदात् तुल्ययोः ततः प्रतिपत्तिः।)  Because of this ability two identical things and events seemingly having the same type, property or position can be distinguished.जब योगी जन्म, गुण अथवा देश-काल जनित भिन्नता के बावजूद बिना किसी भेद भाव के, अपना-पराया देखे बिना, सबको अपना समझकर सभी से समान व्यवहार करता है, तब वह समादृत और प्रतिष्ठित होता है। -जिन विषयों का जाति, लक्षण और क्षेत्र का भेद नहीं किया जा सकता उस समय जो दो वस्तुऐं एक समान प्रतीत होती हैं उनकी पहचान विवेक ज्ञान से की जा सकती है।प्रकृति ने मनुष्य और पशुओं के बीच अंतर केवल विवेक शक्ति का ही रखा है। मन, बुद्धि तथा अहंकार तो पशुओं में भी पाये जाते हैं पर अपने से संबद्ध विषय की भिन्नता, उनके  लक्षण तथा  उपयोग करने की इच्छा का निर्धारण करने की क्षमता केवल मनुष्य में ही है।  इसके लिये आवश्यक है कि जब मनुष्य के सामने कोई वस्तु, विषय या व्यक्ति दृश्यमान होता है तब उस पर संयम के साथ हर क्षण दृष्टि जमाये रखना चाहिये। यह क्रिया तब तक करना चाहिये जब तक यह तय न हो जाये कि उस दृष्यमान विषय की प्रकृत्ति, लक्षण तथा उससे संपर्क रखने का परिणाम किस तरह का हो सकता है?
तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम्। [55] (तारकम् सर्वविषयम् सर्वथा-विषयं-अक्रमम् च इति विवेक-जम् ज्ञानम्।) And this most high knowing is transcendent. It embraces all things. It is in all places. It is in all ways. It is at all times. It is born from an awareness of what is really real.इस सूत्र में विवेक से उत्पन्न ज्ञान की चार विशेषताओं का वर्णन किया गया है-तारक, सर्वविषय, सर्वथा विषय, अक्रम। तारक : साधना की उच्च अवस्था में जब साधक वैराग्य भाव को प्राप्त हो जाता है, तब योगी के स्वयं की बुद्धि से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे तारक ज्ञान कहते हैं। उसका कोई माध्यम (गुरु) नहीं होता। जानना केवल प्रत्यक्ष बोध से सम्भव है, जो सभी विषयों, स्थानों से परे है। (जानत तुम्हीं तुम ह्वै जायी ! तब मन ही गुरु बन जाता है ?) इस प्रकार का ज्ञान संसार रूपी भवसागर को तारने वाला होता है। सर्व विषय : अर्थात जो एक साथ समस्त विषयों का साक्षात्कार कर सके। जो ज्ञान एक झटके में डीहिप्नोटाइज्ड या भ्रममुक्त कर देता है। सर्वथा विषय: विवेक जनित ज्ञान से योगी को सभी कालों में सभी पदार्थों की सभी अवस्थाओं-भूत, भविष्य, वर्तमान की जानकारी हो जाती है।
हमलोगों के जीवन का उद्देश्य है, भारत का कल्याण।  मन में छिपे काम या अहं- को भस्मीभूत कर चरित्रवान मनुष्य बनना और भारतमाता की सेवा में अपने जीवन को होम कर देना।और भारत का कल्याण करने के लिए चरित्र-गठन और जीवन -गठन करना आवश्यक है। क्योंकि जो व्यक्ति मन का गुलाम है, वह देश की सेवा नहीं  कर सकता, निःस्वार्थ लीडरशिप नहीं दे सकता। सेवा कार्यों में भी भ्रष्टाचार्य करता है।  और इसके लिए मन पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। किन्तु अहं-मन तो वायु के समान चंचल है। इसलिए अर्जुन ने भी कृष्ण से पूछा था, क्या ऐसे चंचल मन को वश में करना सम्भव है ? तब योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को वही नुस्खा बताया था, जो महर्षि पतंजलि ने अपने सूत्र में बताया था। अर्थात कृष्ण अभ्यास  और वैराग्य से मन (अहं) को भस्मीभूत किया जा सकता है। महर्षि पतंजलि ने मन को वश करने, (अहं को भस्मीभूत करने) की वैज्ञानिक पद्धति बतलायी है; शेष दो दिनों में हम उसी पद्धति को सीखेंगे!
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[ मनःसंयोग का तीसरा सत्र :28-12-2005 कैम्प : नवनी दा  सरिसा रामकृष्ण मिशन आश्रम।  Why is the word Heart used to understand the texture of the soul? Meaning and importance of of concentration.] 

technique to develop -3'H' ( द्रष्टा-दृश्य विवेक): मनुष्य के व्यक्तित्व को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है -शरीर, मन और हृदय। (Hand, Head, Heart=3'H')  द्रष्टा-दृश्य विवेक के अनुसार द्रष्टा अपरिवर्तनशील (अविनाशी) होता है और दृश्य  परिवर्तनशील (नश्वर) होता है। मनुष्य के व्यक्तित्व का पहला हिस्सा 'H' देह, स्थूल है, अभी सत्य प्रतीत हो रहा है, किन्तु परिवर्तनशील है इसलिए मिथ्या है, लेकिन असत्य नहीं है। सत्य-असत्य-मिथ्या के अन्तर को ठीक से समझ लेना चाहिए। असत्य वह जो तीन काल में हो ही नहीं, जैसे आकाशकुसुम, खरहे का सींग। सत्य वह है जो तीन कालों में सदा अपरिवर्तनशील रहता है, और मिथ्या वह है, जो अभी दिख रहा है किन्तु बाद में नहीं रहेगा जो परिवर्तनशील है इसलिए नश्वर है। मिथ्या का अर्थ होता है जो सत्य जैसा भासे लेकिन सत्य हो न। जैसे सांझ के धुंधलके में, राह पर पड़ी हुई रस्सी सर्प जैसी मालूम पड़ती है । मनुष्य के व्यक्तित्व का, दूसरा सूक्ष्म तल है मन का। मन (बुद्धि) देह की परिवर्तनशील अवस्था को जानता है, कब चश्मा लगेगा यह मन जान लेता है। इसलिए मन 'ज्ञाता' (knower) है, और शरीर ज्ञेय है। यहाँ शरीर दृश्य है -और मन उसका द्रष्टा है। शरीरविज्ञान (physiology) भी शरीर या पदार्थ की ही खोज करता है। किन्तु और गहराई पर उतर कर विश्लेषण करने से पता चलता है, कि मन भी परिवर्तनशील है, और हृदय उसका द्रष्टा है, जो कभी नहीं बदलता इसलिए उसीको परम सत्य या आत्मा कहा जाता है जो अविनाशी है।  शरीर का आकार है, आत्मा निराकार है। वह मनुष्य के व्यक्तित्व का --तीसरा पहलू है । शरीर सगुण है, आत्मा निर्गुण है। शरीर और मन दिखाई पड़ता है, आत्मा देखने वाला है। शरीर-मन दृश्य है, आत्मा द्रष्टा (seer या witness consciousness, साक्षी) है। 
जीवन निर्वाह ठीक से हो सके, इसके लिए देह का स्वस्थ होना जरूरी है, अतः नियमित रूप से पौष्टिक आहार लेना और व्यायाम करना आवश्यक है। अर्थ और काम की इतनी भर आवश्यकता है। उसमें लिप्त होने की आवश्यकता नहीं है। अतः युवा-काल से ही मनुष्य जीवन को गठित करने का प्रयत्न करना चाहिये। जीवन-गठन का तात्पर्य है-चरित्र को बनाना। और चरित्र-निर्माण की सबसे पहली आवश्यकता है, मन को वश में लाना। मन के वशीभूत होने का अर्थ है,  विवेकज ज्ञान की ज्योति का जाग्रत हो जाना। विवेक सम्पन्न ' मनुष्य ' बन जाना। अर्थात व्यष्टि 'अहं' (मैं-पन' या काचाआमी) के धारावाहिकत्व के भ्रम को हटाकर यह अनुभव से जान लेना कि मैं केवल मरण धर्मा शरीर मात्र नहीं हूँ, मेरी सार-वस्तु, सत्ता तो आत्मा या ब्रह्म हैं। 'जन्माद्यस्य यतः' - जिससे सबकुछ निकला, जिसमें सबकुछ स्थित है और जिसमें सबकुछ लीन हो जाता है; उसी चैतन्य से उत्पन्न इस अति-दुर्लभ मनुष्य-जीवन को सार्थक नहीं बनाकर, अर्थात मूलतत्व का साक्षात्कार किये बिना, क्या केवल, ' आहार-निद्रा-भय-मैथुन ' करके पशुओं की तरह मर जाना मनुष्य को शोभा देता है ?
सरस्वतीरहस्योपनिषत् 31 -32 में कहा गया है -  देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम् ॥ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥‘उस परमात्मतत्त्वकी ओर दृष्टि जाते ही हृदय की ग्रन्थियाँ टूट जाती हैं, सब संशय मिट जाते हैं और सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।’ यह सूत्र कहता है: "देहाभिमान के गलने और परमात्मा के जानने के बाद जहां-जहां मन जाता है...। विवेक-सम्पन्न दृष्टि हो जाने पर मिथ्या देहाध्यास(स्त्री-पुरुष शरीर में) 'मैं'-पन का मिथ्या अहं चला जाता है। और पूर्ण का साक्षात्कार होते ही यह अनुभव हो जाता है, कि मैं भी पूर्ण हूँ,क्योंकि अखण्ड चैतन्य का खण्ड नहीं हो सकता। शरीर को ही मैं समझना तो केवल भ्रम है, जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम हो जाता है. भ्रम से ही कोई पराया दीखता है, अपने से भिन्न दीखता है, इसी भ्रम से भय होता है।  जब देह में रहते होते हुए ही कोई व्यक्ति (आत्मा) अपने को देह से पृथक् अनुभव कर लेता है, या जो व्यक्ति (शरीर और मन की मृत्यु के रहस्य को जानकर) अपनी मौत की यात्रा के साक्षी बन जाते हैं उनके लिये जीवन-यात्रा केवल यात्रा भर रह जाती है, साक्षी उस यात्रा से परे हो जाता है।
भगवान श्री रामकृष्ण देव ने कहा है - " जड़ की रे ? सब चैतन्य ! तोमादेर चैतन्य होक !"-अर्थात यहाँ जड़ कहकर कुछ नहीं है, सब कुछ चैतन्य है ! तुम लोगों को चैतन्य की प्राप्ति हो! और इसी अद्वैत तत्व को व्यावहारिक बनाते हुए माँ श्री श्री सारदा देवी कहती हैं -  " जगत के आपनार कोरे निते शिखो, केऊ पर नेई मा जगत तोमार ! "  अर्थात 'जगत में कोई पराया नहीं है, बेटी जगत को अपना बना लेना सीखो! ' ये दोनों उक्तियाँ विस्मय-बोधक हैं, इन आश्चर्य उक्तियों में छिपे आश्चर्य-जनक सत्य 'अभेद-दृष्टि' (ज्ञानमयी -दृष्टि, भगवनमयी दृष्टि) की उपलब्धि होने पर ही जगत भगवानमय (सियाराम मय) दिखता है, और निःस्वार्थ प्रेम सेवा-धर्म में परिणत हो जाता है। 
आत्मा क्या है ? स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "हिन्दुओं की यह धारण है कि आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नही है किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित है; और मृत्यु का अर्थ है, इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरित हो जाना। 
जीवात्मा चौबीस घंटे एक जगह नहीं रहता, वो स्थान भी बदलता रहता है। जैसे आप अपने घर में क्या एक ही कमरे में बैठे रहते हैं, बदलते रहते हैं न। कभी बेडरूम में चले गए, कभी किचन में चले गए, कभी बाथरूम में चले गए, कभी ड्राइंगरूम में चले गए। ऐसे ही यह शरीर जीवात्मा का घर है। वो जब इच्छा होती है, तो अपनी जगह बदल लेता है। जीवात्मा के तीन अलग-अलग स्थान हैं। जाग्रत में जीवात्मा कहीं और होता है, स्वप्न में कहीं और होता है, सुषुप्ति में कहीं और होता है। मतलब स्थान बदलता रहता है। इतनी बात तो स्पष्ट है।
" भारत का सदैव यही सन्देष रहा है, आत्मा प्रकृति के लिए नही वरन् प्रकृति आत्मा के लिए है।"
गीता में कहा गया है-  शरीर से इन्द्रियां श्रेष्ठ हैं। इन्द्रियों से मन श्रेष्ठ है।  मन से बुद्धि श्रेष्ठ है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है वह आत्मा है।
यह आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय, और ध्यान किए जाने के योग्य है.-बृहदारण्यकोपनिषद्  
" ज्ञान-स्वरूप आत्मा न तो जन्म लती है, न मरती है. यह न तो स्वयं किसी की हुई है, न इससे कोई भी हुआ है. यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है. शरीर का नाश होने पर इसका नाश नही किया जा सकता.-कठोपनिषद्
" जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते है क्योंकि यह आत्मा न मरती है और न इस मारा जाता है.-वेदव्यास(महाभारत,भीष्म-पर्व, अथवा गीता)
" आत्मा को आग भी नहीं जला सकती है. उसी प्रकार न तो इसको पानी गला सकता है और न वायु सुखा सकती है. यह आत्मा कभी न कटने वाला, न जलने वाला, न भीगने वाला और न सूखने वाला तथा नित्य सर्वव्यापी, स्थिर, अचल एवं सनातन है.-गीता 
" यह आत्मा न तो प्रवचनों से प्राप्त  हो सकता है, न बुद्धि से, न अध्ययन से ही। जिस का यह वरण कर लेता है, उसी को प्राप्त होता है और उसके लिए यह स्वयं आकर अपने स्वरूप को खोलकर रख देता है.-मुण्डकोपनिषद
 " इस आत्मा को बलहीन व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता, प्रमोद से भी यह अपर्याप्त है और प्रयोजनहीन तप से भी.-मुंडकोपनिषद्
"पाँचों रूपों-अस्ति, भाति, प्रिय, नाम और रूप-के परित्याग से तथा अपने स्वरूप के अपरित्याग से अधिष्ठान रूप जो एक सत्ता बची रहती है, वही महान् परम तत्व है.
" कोई भी इस आत्मा को आश्चर्यवत देखता है और वैसे ही दूसरा कोई ही आश्चर्यवत् (इसके तत्त्व को) कहता है और दूसरा (कोई ही) इस आत्मा को आश्चर्यवत् सुनता है। और कोई सुनकर भी इस आत्मा को नहीं जानता.-गीता 
" मै न जन्म लेता हूं, न बड़ा होता हूं, न नष्ट होता हूं. प्रकृति से उत्पन्न सभी धर्म देह के कहे जाते हैं। कर्तृव्य आदि अहंकार के होते है. चिन्मय आत्मा के नहीं। मैं स्वयं शिव हु.मेरे लिए न मृत्यु है, न भय, न जाति-भेद, न पिता न माता, न जन्म, न बन्धु, न मित्र और न गुरू। मैं चिदानन्द रूप हूं, मै शिव हूँ। -शंकराचार्य (निर्वाण षटकम्)
 क्या किसी व्यक्ति को सचमुच सर्वभूतों में आत्मदर्शन होता है ? काली-महाराज (एथेंस का सत्यार्थी स्वामी अभेदानन्द जी) के लिए वेदान्त एक अनुसन्धान (exploration) था। उनके प्राणों की भूख थी। उनका मन किसी सत्यान्वेषी जैसी सत्य का साक्षात्कार करने व्याकुलता के आवेग और  आर्तनाद से भरा हुआ था। वे श्रीरामकृष्ण के दिव्यसनिध्य में उपविष्ट थे। उनकी ज्ञानान्वेषी वेदान्तिक तर्कशील मानसिकता अंतर की व्याकुलता को अवदमित कर रही थी। उनके प्राणों में यह प्रश्न बार बार उठ रहा था- ' क्या सचमुच, किसी को अभेद-दृष्टि प्राप्त हो सकती है ? क्या, किसी व्यक्ति को सचमुच सर्वभूतों में आत्मदर्शन होता है ? क्या कोई समर्थ गुरु हैं, जो मुझे 'विवेक-अंजन ' प्रदान करके मेरी आत्मदृष्टि को (विवेकश्रोत-अभेददृष्टि को) भी उद्घाटित करा सकते हैं ? यदि कोई वैसे समर्थ गुरु हैं, तो वह अद्वैत-ज्ञानी गुरु  मिलेंगे कहाँ ?वे इस प्रकार सोच ही रहे थे कि, वेदान्त-सिद्धान्त को व्यवहार में, प्रत्यक्ष-प्रमाण में रूपांतरित होते देखने का अवसर उपस्थित हो गया !  शायद अन्तर्यामी अद्वैतवादी श्रीरामकृष्ण ने अपनी अद्वैतानुभूती के द्वारा काली-महाराज की आन्तरिक वासना (तीव्र इच्छा) को अपने ह्रदय में अनुभव कर लिया था। इसीलिए उन्होंने काशीपुर-उद्यानबाड़ी में स्वयं इसके दृष्टान्त-स्वरुप बन कर, काली-महाराज को आवेगपूर्ण शब्दों में आदेश दिया- " बाहर जा कर देखो, कोई आदमी मंदिर  की हरी-हरी घासों पर टहल रहा है, उसको घास पर चलने से मना कर दो।  मुझे बहुत कष्ट हो रहा है। ऐसा महसूस हो रहा है, मानो वह मेरी छाती के उपर ही चल रहा हो। " काली-महाराज अवाक् रह गए, मन में उठा प्रश्न मन में ही रह गया। सोचने लगे- ' इन्होंने मेरे मन की बात को जान कैसे लिया ? स्तम्भित काली-वेदान्ती ठाकुर के निर्देशानुसार शीघ्रता से बाहर निकल कर देखे- अरे बिलकुल सच ! बाहर एक व्यक्ति मठ की हरी हरी दूबों के उपर टहल रहा था। जल्दी से वहाँ पहुँच कर उसको घास के उपर उस प्रकार चहल-कदमी करने से मना किया। आदेश को सुन कर, उस व्यक्ति ने घास के उपर चलना जैसे ही बन्द किया। लौट कर उन्होंने देखा कि, ठाकुर श्रीरामकृष्ण थोड़ा स्वस्थ अनुभव करने लगे हैं। अब आश्चर्य-चकित होकर, काली-महाराज अवाक् हो गए और अपलक-दृष्टि से श्रीरामकृष्ण को देखते रह गए; मानो अद्वैत-विज्ञान किसे कहते है, उसके प्रत्यक्ष-प्रमाण स्वरुप जीवन्त वेदान्त-मूर्ति को देख कर मिला रहे हों। अद्वैतानुभूती को, आज उन्होंने अपनी आँखों के सम्मुख प्रमाणित होते देख लिया था।  विचार कर रहे हैं- क्या इसको ही आत्मज्ञान कहते हैं, इसको ही आत्मदृष्टि (अभेद-दृष्टि)  कहते है? तृणादि जड़-चेतन, जीव-जगत, सब-कुछ के भीतर स्वयं को देखना ही तो ' अभेदज्ञान ' है! यही तो अद्वैत-वेदान्त का चरम तत्व है- जिसको निज-अनुभव से जानने के लिए साधक को साधनारुपी सोपानों से होकर गुजरना होता है। 
Why is the Soul identified with Heart?(आत्मा की पहचान हृदय (Heart) के द्वारा क्यों की जाती है):मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव शरीर (Hand), मन (Head) और आत्मा (soul) का परिचायक हृदय (Heart) से करते हुए स्वामी जी ने 3'H' -निर्माण सूत्र दिया है। इस सूत्र में आत्मा की बनावट को समझने के लिए  'हृदय' शब्द का प्रयोग क्यों किया गया है?  3'H' सूत्र में शरीर, मन और हृदय में हृदय ही सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है। क्योंकि हृदय ही सजगता, (होश, awareness , consciousness, 
feeling या धारणा) का आसन है।  (Heart is seat of feeling.) स्वामी जी ने एक बार, मानवशरीर को सिर से लेकर पैर तक  scan करके देखना चाहा कि आत्मा हृदय में कहाँ रहती होगी? स्वामी जी अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, कि यह (sympathetic ganglia) सहानुभूति गैन्ग्लिया के पास रहता है, जो शरीर विज्ञान में तंत्रिका का केंद्र है। 21 फरवरी 1900 को स्वामी अखण्डानन्द जी को लिखित एक पत्र में स्वामी जी कहते हैं -  " शतं चैका च हृदयस्य नाड्य: — The nerves of the heart are a hundred and one" etc. The chief nerve-centre near the heart, called the sympathetic ganglia, is where the Atman has Its citadel. The more heart you will be able to manifest, the greater will be the victory you achieve." मेडिकल साइंस (Physiologyके अनुसार दिल या हृदय (blood pumping machine) जो धमनियों में रक्त-संचार क्रिया को नियंत्रित करता है, उसकी मुख्य तंत्रिका-केन्द्र का नाम 'सहानुभूति ग्रंथि' (sympathetic ganglia) क्यों दिया गया है ? (physical heart control the flow of blood through the heart -why it was named sympathetic ganglia ?) जो भौतिक हृदय नसों में रक्त के प्रवाह को नियंत्रित करता है-उसे सहानुभूति गैन्ग्लिया क्यों कहा जाता है?इसके उत्तर में नवनीदा ने कहा था -without science religion is blind , and without  religion science is lame." - अर्थात विज्ञान के बिना धर्म अंधा है, और धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है। कर्ता (agency -अन्तःकरण -अहं-मन- इन्द्रिय) के बिना कर्म नहीं हो सकता।  
जो लोग मानव-जीवन प्राप्त करके भी उसको सार्थक करने का प्रयत्न नहीं करते और केवल 'कामिनी-कांचन' के भोगों में ही रचे-पचे रहते हैं, वे भी क्या मनुष्य हैं?( are you a beast ? ) सत्य ही कहा है...."एषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः?ते मर्त्यलोके भुविभारभुता....मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति!!" रूप-आकृति या शरीर का ढाँचा तो मनुष्य की तरह है, किन्तु आचरण 'मृग ' की तरह का यदि हो, तो उसे मनुष्य कैसे कहा जा सकता है ? मृगा का अर्थ केवल हीरण नहीं होता है, उसका अर्थ है -पशु। हमलोगों ने कल जलालुद्दीन रूमी की नज्म 'आदमी की तरक़्क़ी' में सुना था -
" बेजान चीज़ों से मर गया, पौधा बन गया,
फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया।  
हैवानों से मर गया और 'आदमी ' हो गया, 
डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?" 
किन्तु मनुष्य बन जाने के बाद इच्छा होती है कि देवता बन जाएँ। देवमानव बन जाने के बाद भी इसी प्रकार वैराग्य के साथ एकाग्रता का अभ्यास करते हुए उससे भी उन्नतअवस्था ' ब्रह्म ' होने तक यात्रा (evolution-क्रमागत उन्नति,पुरुषार्थ-चतुष्टय) जारी रहनी चाहिये। इसीलिये रूमी आगे कहते हैं - 
'अगली दफ़े आदमियों के बीच से मर जाऊँ,
 ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ। 
और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना,
कि सिवा उस के हर शै को फ़ना हो जाना। 
एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा,
फिर " जो " सोच में नहीं आता, "वो " (ब्रह्म) हो जाऊँगा। 
भारतीय सभ्यता और सांस्कृतिक परम्परा के अनुसार सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है। 
' Evolution Theory ' क्रमागत उन्नति (क्रमविकास) के सिद्धान्त का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण में भी आया है-सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या  वृक्षान्‌ सरीसृपपशून्‌ खगदंशमत्स्यान्‌।तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ ११-९-२८ भगवान ने अपनी अचिन्त्य आद्या-शक्ति के द्वारा स्थावर-जंगम कई प्रकार की सृष्टि को रचा।  इस क्रम में पहाड़-खनिज,पेड़-पौधा, बड़े-बड़े विशालकाय-पशु, रेंगने वाले सरीसृप,उड़ने वाले पक्षी, डंक मारने वाले कीड़े- मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ। परन्तु उससे स्रष्टा के मन में संतुष्टि नहीं हुई। अत: अन्त में मनुष्य का निर्माण हुआ जो अपने स्रष्टा को भी देखने में समर्थ था।'व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:' ऐसी अद्भुत-शक्ति से सम्पन्न मनुष्य को देखकर सृष्टा को बहुत आनन्द हुआ।'   ब्रह्म का अर्थ है बृहत व्यापक सबसे बड़ा -सब कुछ इसी के उपर अध्यारोपित है।  हमलोगों का यथार्थ स्वरुप भी वही चैतन्य है-जिससे सबकुछ निकला है ! यही क्षमता प्रत्येक मनुष्य के भीतर अभी सर्वोच्च-संभावना के रूप में छुपी हुई है। उसका साक्षात्कार करने या अनुभव से जानने के लिये लालच को कम करते हुए एकाग्रता का -या विवेक-प्रयोग का निरन्तर अभ्यास करते रहना होगा। 
 उद्धवगीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - एकद्वित्रिचतुष्पादो बहुपादस् तथापदः । बह्व्यः सन्ति पुरः सृष्टास्तासां मे पौरुषी प्रिया ।२२। मैंने अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण किया किन्तु मुझे सबसे अधिक प्रिय यह मनुष्य शरीर है”। (श्रीमद्भाग.11−7−22) शतपथ ब्राह्मण एक और स्थान पर कहता है “पुरुषौ वै प्रजापतेन्नैदिष्ठम्” (2/5/1/1) अर्थात् “नर ही नारायण के सर्वाधिक समीप है।” मनुष्य विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है। 
इससे मिलती जुलती क्रमागत उन्नति की बात मुसलमानों और ईसाईयों के धर्ग्रन्थों में भी कही गयी है। कुरान की आयतें (सूरा 2 व ३५) कहती हैं कि,अल्ला,(जिसको यहाँ ब्रह्म या ब्रह्माजी कहते हैं), ने जब समूची दुनिया को बना लिया,तो भी वे बहुत satisfied नहीं हुए. किन्तु जब मनुष्य को बना लिया तो अपनी इस रचना को देखकर वे बहुत खुश हो गए। उन्होंने सभी फरिस्तों या देवदूतों को बुलाकर कहा कि तुमलोग इसको सिर झुकाकर प्रणाम करो, यह हमारी श्रेष्ठतम रचना है।  मनुष्य पृथ्वी पर मेरा (अल्लाह) का प्रतिनिधि है तथा उसे मैंने (अल्लाह ने) अपने ही रूप में निर्मित किया है।  सभी फरिस्तों ने सिर को झुकाया, लेकिन एक इब्लीस ने सिर नहीं झुकाया तो उसीको अल्ला कहा-तुम दूर हो जाओ शैतान ! जो मनुष्य के सामने अपना सिर नहीं झुकाता, वही शैतान है। ईसाईयों के पवित्र धर्मग्रंथ बाइबिल के जेनेसिस अध्याय में भी यह कहानी उल्लिखित हुई है, और स्थान-स्थान पर (1/2,6/27, 5/1, 5/6) कहा गया है कि इस संसार में मनुष्य ही परमसत्ता का साकार रूप है। 
 “सुरदुर्लभ मानुस तन पावा” की उक्ति नितान्त सत्य है व हर मनुष्य के लिए मानव जन्म एक गौरव का विषय है। मनुष्य अभी क्या है, आगे उसमें क्या बन जाने की सम्भावना है ?  वस्तुतः मनुष्य में ज्ञान के विकास की विलक्षणता व असीम संभावनाओं को देखकर ही परमात्मसत्ता पुरुष देह को सबसे अधिक प्रिय मानती है। मनुष्य को अपौरुषेयवाणी के माध्यम से वेदों में अमृत-पुत्र (श्रण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः) कहकर सम्मानित किया गया है। महर्षि वेद व्यास ने इसके संबंध में कहा है, ''गुह्य ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि, नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हिं किंचित।'' अर्थात्  -- हे संसार के लोगों, तुम्हे एक रहस्यपूर्ण बात बताता हूं--" इस संसार मनुष्ययोनि से श्रेष्ठ और कुछ भी नही है ।" शंकर कहते हैं कि तीन अतिदुर्लभ पदार्थों, मनुष्यत्व, मुमुक्षत्व तथा महापुरुषसंश्रय में सर्वप्रथम मनुष्यत्व ही प्रधान है। देवताओं ने उसके शरीर व मन में प्रवेश कर उसे जीता जागता देवालय बनाने का प्रयास किया है। मनुष्य जन्म मिला व प्रमाद में, भोग में गँवा दिया तो इससे बड़ी अदूरदर्शिता क्या कही जा सकती है? 
पुरुषार्थ- चतुष्टय (Manliness):   ईश्वरीय सत्ता (सच्चिदानन्द) के प्रतिनिधि मनुष्य की प्रवृत्ति सुख के लिए होती है। जीवमात्र सुख की ही कामना करता है, वही उसे अभीष्ट है अतः यह सही भी है। सुख दो प्रकार के हैं-विषय-सुख ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों से संपर्क होने पर जो दुखमिश्रित अस्थायी सुख प्राप्त हो वह विषय सुख है। तथा इनसे थक कर स्वयं को शरीर न मानकर सांसारिक विषय वासनाओं से रहित होकर आत्मिक उल्लास की स्थिति कहलाती है-ब्रह्मानन्द आत्मसुख। तो फिर यह देवमानव पुरुषार्थ क्षेत्र में भटक क्यों जाता है? बंधनों से मुक्त क्यों नहीं हो पाता? बहुसंख्य व्यक्तियों का जीवन भर का पुरुषार्थ देहादि बंधनों से परे नहीं जा पाता। 
 ... इस धरती में बहुत कष्ट है,बहुत दुःख है; किन्तु उस दुःख-कष्ट को हमलोगों ने स्वयं बुलाने की चेष्टा की है। पंच-क्लेश वह हमारे ही कर्मों का फल है, किन्तु बाद में रोना पड़ता है। जो मुक्त होने का प्रयास करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता हुआ पुरुषार्थ चतुष्टय की सिद्धि करता है। धर्म  और मोक्ष के लिए प्रयत्नशील न हो कर केवल अर्थ और काम की ही चिन्ता करना संपूर्ण पुरुषार्थों से ही हाथ धो बैठना है, क्योंकि इससे मनुष्य ज्ञान-विज्ञान दोनों से च्युत होकर स्थावर योनि को प्राप्त हो जाता है। पर अब बुढ़ापे में रोने से क्या होगा ? क्यों हमने युवाकाल में ही जीवन-गठन करने का प्रयत्न नहीं किया ? जब समय रहते , जब जवानी का तेज मुझमें विद्यमान था, उस समय 3H के निर्माण का कोई प्रयत्न नहीं किया, तो बुढ़ापे में पश्चाताप करने से भी कोई उपाय नहीं सूझेगा।  इसी प्रकार सही समय पर - अर्थात युवाकाल में ही, श्रेय-प्रेय विवेक -प्रयोग (धर्म) द्वारा उचित जीवन-लक्ष्य का निर्धारण नहीं कर पाने से लाखों युवाओं का जीवन नष्ट हो जाता है। 
जबकि स्वतंत्रता प्राप्त करने के 70 वर्षों के बाद भी  स्कूल-कॉलेज में शिक्षा ग्रहण करने के साथ साथ जीवन-गठन और चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण देने की कोई शिक्षा-नीति पूरे भारतवर्ष में कहीं नहीं है।हमारे राजनीतिज्ञ नेता लोग युवाओं को केवल वोट बटोरने या भारतवासियों में घृणा फ़ैलाने के लिये उनका उपयोग fodder या चारे की तरह करते हैं। अभी (२००५ में) पश्चिम बंगाल के साम्यवादी मुख्यमन्त्री जिस रस्ते से जा रहे थे, उसमें लैण्डमाईन का कॉइल बिछा हुआ दिखाई पड़ा। तब D.G.P डर कर तुरन्त मिलिट्री से माईन डिफ्यूज करने वाला एक्सपर्ट बुलवाये और रास्ते को साफ करवा लिया गया। किन्तु इस घटना के बाद, साम्यवादी पार्टी के हेडक्वार्टर से एक आदेश निकाला गया कि आगे से C.M को जिस रास्ते पर भी पैदल जाना हो, तो उनके आगे आगे ४०० पार्टी कामरेडों को या कैडर्स को भेज कर रास्ते की 'सुरक्षा जाँच' करवा लेना अनिवार्य होगा। उन पार्टी कैडर्स को मरने दो! क्या पार्टी कैडर और मुख्यमंत्री के 'प्राण' में कोई 'साम्यवाद' नहीं है ?मनुष्य का जीवन कितना सस्ता हो गया है ? ये राजनीतिज्ञ लोग अपने जीवन की रक्षा करने के लिये कितने भी लोगों को मरवाने से नहीं हिचकते हैं, क्या उनके ह्रदय थोड़ा भी feeling for others, थोड़ी भी Empathy समानुभूति या हमदर्दी नहीं है? [क्या इसिलए तो 2019 में अलगाववादी मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने पुलवामा में मिलेट्री मूवमेंट के समय प्राइवेट गाड़ी को चेक करने का आदेश निरस्त करके 44 जवानों को fodder बना दिया, ताकि भारत सरकार पाकिस्तान से बात करने को राजी हो जाये ?]  
भारतीय संस्कृति की वर्णाश्रमधर्म व्यवस्था का मूल आधार भी पुरुषार्थ चतुष्टय है। इसे समझें। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय एवं शूद्र यह वर्ण विभाजन जिस कर्म पुरुषार्थ के आधार पर किया गया है, वह नितान्त वैज्ञानिक है। कालक्रम में वह जातिगत आधार बन गया, यह विडम्बना है। ब्राह्मण कौन? जो धर्माचरण करे वह ब्राह्मण। जिसके अर्थ व काम का सुनियोजन मोक्ष हेतु हो। जो विद्या रूपी तप द्वारा ब्राह्मणत्व की सिद्धि प्राप्त कर ज्ञान सम्पदा का वितरण करे। वर्जनाओं का महत्व सबको अपने जीवन द्वारा समझाए। क्षत्रिय वह जो ‘काम’ को उल्लास-स्फूर्ति के रूप में परिमार्जित कर प्रशासन की व्यवस्था का भार सँभाले। उपयोग में ऊर्जा का अपव्यय न कर समाज की सुरक्षा का दायित्व निभाना ही उसका एक मात्र धर्म है। स्वस्थ मनोरंजन की प्रक्रिया को जन्म देकर काम बीज परिष्कार जो कर सके, ऐसे धर्म पर आधारित काम ही उसका मूल पुरुषार्थ है। वैश्य वह, जो अर्थ का सुनियोजन धर्म के आधार पर करे-शतहस्तं समाकर-सहस्र हस्तं संकिर” का तत्त्वदर्शन समझे एवं दान परम्परा द्वारा अर्थ का सुव्यवस्थित वितरण करे। अब ‘शूद्र’ की परिभाषा समझ लेना यहाँ ठीक होगा। शूद्र वह जो धर्म पर नहीं चले तथा अर्थ व काम के वास्तविक रूप को विकृत कर दे। जो भोगवादी जीवन जीते हुए प्रजनन तक सीमित रहे, निरन्तर स्वयं को बंधनों में बाँधता चला जाए वह शूद्र है। जन्मना जायतो शूद्रः - जन्म से हम सब इसी स्थिति में होते हैं। क्रमशः जीवनयात्रा के लक्ष्य को पार करते हुए काम, अर्थ व धर्म की सिद्धि द्वारा अंततः मोक्ष को प्राप्त होते हैं, जो जीवन-लक्ष्य है।
इस प्रकार व्यक्ति के द्वारा वाँछित चाहे गए दो ही मूल प्रयोजन, पुरुषार्थ या लक्ष्य हैं-(1) काम और (2) मोक्ष। इन दोनों ही पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए दो ही साधन हैं (1) अर्थ और (2) धर्म। दो साध्य व दो साधन रूपी जोड़ों को मिला देने से बनता है पुरुषार्थ चतुष्टय-हर व्यक्ति की जीवन यात्रा के वे महत्वपूर्ण अंगजिनसे वह लक्ष्य सिद्धि की ओर बढ़ता है। ये चारों ही मनुष्य जीवन के मुख्य उद्देश्य हैं। कोई मनुष्य ‘अर्थ’ अर्थात् धन प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ करते हैं तो कोई 'काम' को अर्थात् सुख को चाहते हैं और कोई इन दोनों के मूल अर्थात् 'धर्म' को चाहते हैं। ‘धर्म’ की प्राप्ति के पश्चात् अर्थ व काम तो स्वतः सिद्ध हो जाते हैं। इन तीनों ही वर्गों का विधिवत् उपार्जन होने पर पुरुष अंतिम पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ बंधनमुक्ति को अनायास ही प्राप्त कर लेता है। 
वस्तुतः मानवमात्र को इस सृष्टि पर अवतरण के बाद दो प्रकार के कर्म-मार्गों का सामना करना पड़ता है-एक है ‘प्रेय’ मार्ग दूसरा ‘श्रेय’ मार्ग। हर मानव का इन दोनों से पाला पड़ता हैं। सांसारिकता, भोगविलास-कामानुरक्त्ता वाला मार्ग प्रेय मार्ग है।  तथा ईश्वरीय सत्ता के प्रति अनुराग, मानवमात्र के अभ्युदय के प्रति अटूट निष्ठ, सब में समभाव देखते हुए सबका हित सोचने वाला मार्ग श्रेय मार्ग है। जहाँ प्रेय में व्यष्टिगत सुख कामना प्रधान होती है, वहाँ श्रेय में समष्टिगत सुख का भाव होता है। प्रेय मार्ग पर चलने वाला दो ही पुरुषार्थ प्रधान मानता है- अर्थ व काम तथा श्रेय मार्ग पर चलने वाला धर्म पर आरूढ़ होकर चलता है। धर्म से ही अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं एवं उसका वास्तविक फल मोक्ष है। 
अतः ‘अभ्युदय’ रूपी इस सिद्धि के तीन साधन हुए-धर्म, अर्थ व काम। अभ्युदय अर्थात् मनुष्य की सर्वांगीण-आमूलचूल प्रगति-उन्नति इनमें भी काम पर उनने कम जोर देकर उसे परिष्कृत कर उल्लास में बदलने की बात कही है तथा उसके बाद अर्थ की बात कही है। अर्थ से भी बढ़कर है-धर्म इस अभ्युदय की प्राप्ति के बाद ‘धर्म’ की परिभाषा जो प्रारंभ में की गयी, के अनुसार अगली सिद्धि रह जाती है वह है “निःश्रेयस्” जिससे बढ़कर और कोई भी श्रेष्ठतम फल न हो, उसकी प्राप्ति को निःश्रेयस अथवा मोक्ष कहते हैं। मोक्ष चरम पुरुषार्थ है व हर मानव का अंतिम लक्ष्य भी। धर्म, अर्थ और काम का नाम त्रिवर्ग है। इस त्रिवर्ग के साथ चतुर्थ पुरुषार्थ मोक्ष को मिला देने से चतुर्वर्ग हो जाता है।
मानव जीवन की सफलता इस अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति ही है। पाश्चात्य सभ्यता भोग-प्रधान सभ्यता है। वहअर्थ पर जोर देती है वहाँ ‘काम’ रूपी धुरी पर ही उनका समग्र चिन्तन चलता है। धर्म अर्थात् विवेक, नैतिकता, संवेदना, वर्जनाएँ, मर्यादाएँ जीवन को दिशा देने वाला तत्त्वज्ञान वहाँ न होने से भव-बंधनों में जकड़ा मानव भोगों जन्य दुःख -कष्टों को पाता नजर आता है। मात्र पश्चिम नहीं, यह हर सभ्यता-हर समाज व हर युग पर तथ्य लागू होता है कि जब तक मानवी पुरुषार्थ धर्म (विवेक-प्रयोग)  पर आश्रित नहीं होता, वह संतापों-दुःखों व विग्रहों-विद्वेषों का ही निमित्त कारण बनता है।
हमारे ऋषियों ने पुरुषार्थ के त्रिवर्ग ‘धर्म’ पर आमूलचूल जोर देते हुए शेष दो पुरुषार्थ - अर्थ और काम को  'त्याग और सेवा ' में प्रतिष्ठ कर मानवी जीवन के उदात्तीकरण का आदर्श प्रस्तुत किया है। वे इतने व्यावहारिक भी हैं कि धन अर्जन और संचय के लिए भी मना नहीं करते, किन्तु उसका मुख्य उद्देश्य नश्वर विषय-भोग नहीं करके , राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) राष्ट्रीय संपदा के समुचित उपार्जन व सभी मनुष्यों को अपनी आत्मा समझकर, जरूरत के मुताबिक सभी में समान रूप से  वितरण की प्रक्रिया पर जोर देने को ही सनातन धर्म कहते हैं। आज का संकट ‘अपरिग्रह’ की परम्परा के लुप्त हो जाने से ही पैदा हुआ है। वे कामसेवन का मुख्य लाभ जीवन पुरुषार्थ हेतु दिये जाने की बात कहते हैं। भोग न करके धर्म हेतु ही उसका सुनियोजन उल्लास को जीवन में समाविष्ट करता है। 
मन क्या है ? जैसे शरीर आत्मा के कार्य करने का एक बाहरी यंत्र है या बाह्य-करण है वैसे ही मन आत्मा के कार्य करने का अन्तःकरण है। छान्दोग्यपनिषद ( ८। १२। ५) में कहा गया है कि मन आत्मा का दिव्य चक्षु है-  "अथ यो वेदेदं मन्वानीति स आत्मा मनोऽस्य दैवं चक्षुः स वा एष एतेन दैवेन चक्षुषा मनसैतान्कामान्पश्यन्रमते य एते ब्रह्मलोके ॥ ५ ॥(अथ यो वेदेदं मन्वानीति स आत्मा । मनोऽस्य दैवं चक्षुः ।  अथ यो+ वेद+ इदं+ मन्वानि+ इति स+ आत्मा ।  मनो+  अस्य दैवं+ चक्षुः। वह जो यह जानता है कि ‘मै मनन करूं’ वही आत्मा है।  (mind is divine eyes of  Atmanमन आत्मा का दैव-चक्षु है, मन आत्मा का दिव्य-नेत्र है । यह मन भी आत्मा का साधन (यंत्र) है। जो मन के द्वारा मनन करता है वही आत्मा है। (स वाऐ एष एतेन दैवेन चक्षुषा मनसैतान्कामान्पश्यन्रमते य एते ब्रह्मलोके ॥ स+ वाऐ+ एष+ एतेन दैवेन चक्षुषा मनसा+ एतान् कामान् पश्यन् रमते यए+ एते ब्रह्म-लोके ॥)  इसके माध्यम से यह आगे-पीछे, भूत-भविष्यत् सब देखता है । आत्मा इसी दिव्य चक्षु के द्वारा समय के भागों को देखता हुआ रमण करता है। मन के चार भाग हैं - चित्त, मन , बुद्धि और अहंकार। मनवस्तु (mind stuff) को चित्त कहते हैं। chitt is store house of memories ,  चित्त स्मृतियों (memories -चेतना) का भण्डार है। जिसकी तुलना शान्त सरोवर से की गयी है। विषयों का ढेला गिरने से तरंगायित होकर यह मन बन जाता है। मन का काम है संशय (शंका) करना - Without mind who will doubt ? बुद्धि मन की एक वृत्ति (function) है जो निर्णय करती है। Intellect will decide, without ego no boasting,बुद्धि के निर्णय करते ही एक झूठा अहंकार आ जाता है। क्योंकि बिना अहंकार के आत्मश्लाघा (boasting) कौन करेगा ? (मैंने असुरों को हरा दिया कौन बोलेगा ?) मन के चार भाग हैं - चित्त, मन, बुद्धि, अहंकार।जिसके कार्य है, संकल्प-विकल्प, संशय, निश्चय, गर्व, स्मरण , च धारणा। 
Nature of Mind:  मन के स्वाभाव को जानकर बड़ा आश्चर्य होता है - ' मनो मर्कटो मदीरो उन्मत्तः वृश्चिको दंशितः पश्चात् भूत आरुढ़ो ' जैसा चंचल है। ऐसे मन को अपने वश में ले आना ही पहला पुरुषार्थ है।  जिनका मन उनके वश में आ गया, वे जगत के स्वामी हो जाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्व को भी जीत सकते हैं।  मन का प्रभु होने वाले को ही मनुष्य कहते हैं। अभी हमलोग मन के दास हैं, जो स्वयं को जीत सकते हैं, वे सबों को जीत सकते हैं।  इसीलिये कहा गया है ' आत्मानं प्रथमं द्वेष रूपेण योजयेत ' - अर्थात मन को ही सबसे बड़ा शत्रु समझते हुये उसे जीत लेना चाहिये, तब जगत जय हो जायेगा।
 Techniques for Concentration of the Mind: मन को एकाग्र करने या जय करने का एक ही नुस्खा (prescription- निर्धारित औषधि) है - जिसका उल्लेख गीता में है, भागवत में है और योगसूत्र के साधन पाद में दिया गया है, और वह है -"अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः "| योगश्चित्तवृत्ति निरोध: ।। (पातंजल योग सूत्र, 1/2) तथा सभी शास्त्रों में चित्त वृत्तियों के निरोध की या मन को जीतने की यही औषधि बताई गयी है- अभ्यास और वैराग्य ! " उभयाधिनः चित्तवृत्ति निरोधः" -अर्थात इन्हीं दो उपायों के ऊपर मन को वश में रखना निर्भर करता है। 
वैराग्य का अर्थ किसी भी वस्तु की बहुत ज्यादा कामना नहीं रखना, लालच नहीं रखना, जीने के लिये जितना आवश्यक है उतना ही ग्रहण करना -परिमित मात्रा में ही सभी वस्तुओं  का उपभोग करना। (अर्थात "निवृत्ति अस्तु महाफला" का भाव हृदय में रखते हुए, कामिनी-कांचन का सदुपयोग करना।) क्योंकि 
सन्तत्व (आत्मस्वरूप में अवस्थान -या भ्रममुक्ति)  केवल 'परिधान-परिवर्तन' (गरुआ-धारण करने)  का नाम नही है। बल्कि मन का एक ऐसा रूपांतरण है, जहाँ कोई भी पराया शेष नही रहता है, वह व्यक्ति सदा-सदा के लिए अपने-पराये के भ्रम से मुक्त हो जाता है!  एकाग्रता की शक्ति प्राप्त करने उपाय या मन को वश में करने की तकनीक है, वैराग्य के साथ अभ्यास ! अभ्यास करने के साथ साथ मन में थोडा वैराग्य का भाव भी रखना होगा। इसके आलावा अन्य कोई उपाय (technique)नहीं है। वैराग्य (quietude-अर्थात यम-नियम का पालन) के बिना कुछ नहीं होगा। योग सूत्र के दूसरे अध्याय 'साधन-पाद' के अन्तर्गत योग को प्राप्त करने के लिए, साधना के आठ चरण बतलाये गए हैं। 
अष्टांग-योग के अन्तर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का समावेश किया गया है।इस अध्याय के अन्तर्गत ही द्रष्टा-दृश्य विवेक का वर्णन भी विस्तार से किया गया है। द्रष्टा यहां पुरुष (आत्मा, साक्षी-चेतना या witness consciousnessको एवं दृश्य (प्रकृति, मन या reflected  consciousness, प्रतिबिम्बित चेतना) को कहा गया है। इन दोनों में 'विवेकज-ज्ञान' हो जाना ही योग की प्राप्ति कराता है। इन दोनों की मिली हुई अवस्था के कारण ही अविद्या की स्थिति बनी रहती है।
[इसी अध्याय में क्रिया-योग के अन्तर्गत तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का समावेश किया है। जो यम -नियम के अन्तर्गत आ जाते हैं। पंचक्लेषों की विस्तृत चर्चा भी इसी अध्याय के अन्तर्गत मिलती है। क्योंकि क्लेषों की पूर्ण निवृत्ति ही योग का साधन बनता है। बिना इनकी निवृत्ति के योग सम्भव नहीं।  हेय-दु:ख का वर्णन, हेयहेतु-दु:ख के कारण का वर्णन, हान-मोक्ष का स्वरूप और हानोपाय-मोक्ष प्राप्ति का उपाय सम्मिलित है।  कर्मफल का सिद्धान्त भी इसी अध्याय के अन्तर्गत आता है। इन सभी विषयों का ठीक प्रकार से समावेश होने के कारण इस अध्याय का नाम साधन पाद बहुत ठीक जान पड़ता है।
महामण्डल चूँकि छात्रों और युवाओं का संगठन है, इसीलिए यहाँ अष्टांग योग के केवल 5 अंग ~ यम, नियम, आसन, प्रत्याहार और धारणा तक का प्रशिक्षण दिया जाता है। श्रीरामकृष्ण ने स्वामी विवेकानन्द को निर्विकल्प समाधि में रहने से मना कर दिया था। और ध्यान की परिपक्व अवस्था में समाधि प्राप्त होती है, तथा स्वामी जी ने योग्य शिक्षक के निर्देशन में ही प्राणायाम करने का आदेश दिया है ,ऐसा नहीं करने से दिमाग बिगड़ जाने की सम्भावना रहती है। इसलिए महामण्डल में अष्टांग योग के तीन अंग -प्राणायाम,ध्यान, समाधि का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। पहले दो अंग चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन के सबसे महत्वपूर्ण साधन हैं, इसलिए यम-नियम का अभ्यास 24 X 7 प्रति मुहूर्त करना है। और बाकी तीन अंग -आसन, प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास प्रतिदिन दो बार प्रातः और संध्या में करना है। यम-नियम के बारे में हमलोग सुन चुके हैं। 
आसन क्या है ? स्थिर और सुखकर शारीरिक स्थिति मानसिक संतुलन लाती है और मन की चंचलता को रोकती है।महर्षि पतंजलि ने आसन शरीर को स्थिर और सुखदायी रखने की तकनीक के रूप में बताया है।पातंजल योग सूत्र 2/46 में कहा है - स्थिरंसुखमासनम्।। -अर्थात जो स्थिर और सुखदायी हो वह, आसन है। आसन मे स्थिरता व सुख होने पर ही हम मन को देखने और उसके साथ बातचीत करने की क्रिया सम्पन्न कर सकते हैं। मृगछाल, कुश, चटाई, या कालीन के आसन पर बैठने से  शरीर, मन तथा आत्मा एक साथ व स्थिर हो जाती है और उससे जो सुख की अनुभूति होती है वह स्थिति आसन कहलाती है। ‘बैठने का स्थान’ या परिवेश को सुगन्धित धूप -सुन्दर फूलों से आसन को सुखदायी बनाया जा सकता है। तथा ‘शारीरिक अवस्था’ को स्थिर और सुखकर बनाकर अर्थात पलथीमारकर 'बाबू होकर' बैठना चाहिए। अर्धपद्मासन में बैठना सबसे अच्छा है। इसमें ध्यान शरीर की ओर नहीं जाता। रीढ़ की हड्डी सीधी रहेगी, ठुड्डी को जमीन के समानांतर 'parallel to the ground' रखना है। दिशाओं को न देख केवल अपनी आँखों को मूँद लेना और दोनों हाथों को इस प्रकार धीरे से गोद में रख कर स्थिर होकर बैठना आसन है। 
प्रत्याहार क्या है ? प्रत्याहार दो शब्दों ‘प्रति’ और ‘आहार’ से मिलकर बना है। ‘प्रति’ का अर्थ है विपरीत तथा आहरण करने का अर्थ है, खींच लेना।  इंद्रियॉं विषयी हैं, ये विषय को ग्रहण करती हैं। पाँच इन्द्रियों के जो पाँच विषय या पंच तन्मात्राएँ हैं - रूप-रस-गंध-शब्द और अपने विषय हैं उनको उनके विषय या आहार के विपरीत कर देना। मन को इन्द्रिय-विषयों में जाने से खींचकर अपने सामने ले आना प्रत्याहार है।चेतना ज्ञान प्राप्त करना चाहती हैं और चित्त (मन)  उसका माध्यम बनता है। पांच विषयों में  इन्द्रियों का इतना  आकर्षण है कि चित्त उसमें भटक जाता है।  और उस जानकारी को  इन्द्रियों से प्राप्त करने में ही रमा रहता है। जब इंद्रियाँ विषयों को छोड़कर विपरीत दिशा में मुड़ती हैं तो प्रत्याहार होता है। अर्थात इंद्रियों की बहिर्मुखता का अंतर्मुख होना ही प्रत्याहार है।
संतोष से बड़ा और कोई सद्गुण नहीं है, माँ सारदा स्वयं ऐसा कहती थीं।  पूर्णत्व का अर्थ है, अपना जीवन जगत की सेवा में समर्पित कर देना- यही है वैराग्य का भाव, इसके साथ साथ मन को एकाग्र करने का अभ्यास। अर्थात यह देखते रहना कि मेरा मन अभी कहाँ है ? मन्दिर में, बाजार में, किचेन में जाता है, अभी घर में चला गया ? यहाँ-वहाँ कई स्थानों में जा रहा है, उसकी इस दौड़ को देखकर, पहले थोड़ा 'हँसना' और फिर उसको समझाना-बुझाना-' बाबा उधर कहाँ जाता है ? थोडा इधर आओ !' ह्रदय में एक आसन बिछाकर उस पर जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द को बैठाकर उनका ही चिन्तन करो।  या ठाकुर को बैठा सकते हो।  क्योंकि ईश्वर क्या है, यह हमलोग अभी नहीं जानते हैं। वेद कहता है- " न तस्य प्रतिमा अस्ति " -अर्थात उसकी कोई प्रतिमा नहीं है।  क्योंकि वो सर्वत्र व्यापक है उसको किसी ने भी देखा नहीं है। वो निराकार होते हुए साकार ब्रह्माण्ड का निर्माता है, संसार में जितनी भी जीती जागती प्रतिमाये हैं वो सभी उस निराकार परमात्मा का साकार स्वरुप हैं। किन्तु हमारे मन का गठन इस प्रकार हुआ है कि उसे मूर्त से अमूर्त तक पहुँचने में आसानी होती है। अमूर्त या निराकार वस्तु में मन को लगाना संभव नहीं होता। अब हमने यदि ईश्वर को देखा ही नहीं है, तो उसकी भक्ति कैसे करें ? इसलिये स्वामीजी ने योगसूत्र समाधि पाद के सूत्र १.२३ ईश्वरप्रणिधानाद्वा ।  ईश्वरप्रणिधानात् वा =  वा – अथवा (इसके अतिरिक्त), ईश्वरप्रणिधानात् – ईश्वरप्रणिधान से (समाधि की सिद्धि शीघ्र होती है)। अपेक्षाकृत अल्पकाल में सिद्धिलाभ के लिये अन्य श्रेष्ठ उपाय ईश्वर - प्रणिधान है। प्रणिधान का तात्पर्य है - अनन्य चित्त होकर पूर्णभक्तिभाव से आत्मसमर्पणपूर्वक उपासना करना। अब हमने यदि ईश्वर को देखा ही नहीं है, तो उसकी भक्ति कैसे करें ? इसलिये इस सूत्र को और सरल करते हुए स्वामी जी कहते हैं- ' महापुरुष प्रणिधानात् वा '! तुमको जिस किसी तत्वदर्शी महापुरुष  में आस्था हो जिनके जीवन को तुमने पढ़ा या नजदीक से देखा है जैसे ठाकुर-माँ-स्वामीजी में से किसी की छवि या मूर्ति पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास किया जा सकता है। (या हममें से जिन लोगों ने नवनी दा जैसे महापुरुष को नजदीक से देखा है, वे उनकी छवि पर भी मन को एकाग्र करने का अभ्यास कर सकते हैं !)
 महर्षि पतंजलि प्रत्याहार के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए पातंजल योग सूत्र 2/54 में कहते हैं -स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार:।। अर्थात अपने विषयों के संबंध से रहित होने पर इंद्रियों का जो चित्त के स्वरूप में तदाकार सा हो जाता है, वह प्रत्याहार है। महर्षि व्यास के अनूसार - इंद्रियाँ अपने विषय से असम्बद्ध हैं, जैसे मधुमक्खियाँ रानी मधुमक्खी का अनुकरण करती हैं। राजा मन के निरोध होने से इन्द्रियों का भी निरोध हो जाता है। योग की इस स्थिति को ही प्रत्याहार कहा जाता है। घेरण्ड संहिता के अनूसार - यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्यैव वशं नयेत्।। 4/2 अर्थात जहाँ-जहाँ यह चंचल मन विचरण करे इसे वहीं-वहीं से लौटाने का प्रयत्न करते हुए आत्मा के वश में करे (यही प्रत्याहार है)। महर्षि पतंजलि प्रत्याहार का परिणाम एवं महत्व पर प्रकाश डालते हुए  पातंजल योग सूत्र 2/55 में कहते हैं  -
तत: परमावश्यतेइन्द्रियाणाम्।। 
उस प्रत्याहार से इंद्रियों की परम वश्यता होती है अर्थात प्रत्याहार से इंद्रियाँ अपने वश में हो जाती हैं।
धर्म-प्रचारकों के लिए इंद्रियों की परमवश्यता क्या है ? इसे व्यास भाष्य में इस प्रकार कहा गया है-कोई कहते हैं शब्दादि विषयों में आसक्त न होना अर्थात अपने अधीन रखना इन्द्रियवश्यता या इन्द्रिजय है।दूसरे कहते हैं कि वेदशास्त्र से अविरूद्ध विषयों का सेवन, उनके विरूद्ध विषयों का त्याग इन्द्रियजय है।कुछ लोग कहते हैं कि विषयों में न फँसकर अपनी इच्छा से विषयों के साथ इन्द्रियों का सम्प्रयोग।कुछ लोग कहते हैं कि राग-द्वेष के अभावपूर्वक सुख-दु:ख से शून्य विषयों का ज्ञान होना इन्द्रियजय है।
 गृहस्थ (प्रवृत्ति मार्ग के धर्म-प्रचारकों) के लिए बाहरी कपड़े को रंगने की जरुरत नहीं है, अपने मन को,अपने विचारों को ही त्याग के रंग में,पवित्रता के रंग में, रंग लेना चाहिये।  प्रत्येक पति को अपनी स्त्री को छोड़ कर अन्य सभी स्त्रियों को अपनी सगी माता, बहन अथवा पुत्री के रूप में देखना चाहिये। विशेष रूप से जो गृहस्थ शिक्षक  (छात्रों को एकाग्रता की शक्ति प्राप्त करने की तकनीक और लीडरशिप क्लास लेने के लायक जीवन्मुक्त शिक्षक भृंगी बनना चाहता हो) उसके लिये यह आवश्यक है कि वह प्रत्येक स्त्री को मातृवत देखे और उसके साथ तद्रूप व्यवहार करे। क्योंकि मातृपद ही संसार में सबसे श्रेष्ठ पद है, और यही एक अवस्था है जिससे निःस्वार्थपरता की महत्तम शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। स्वामीजी कहते हैं- " वास्तव में वह पुरुष धन्य है जो स्त्री को ईश्वर के मातृभाव की प्रतिमूर्ति समझता है, और वह स्त्री भी धन्य है, जो पुरुष के पितृभाव की प्रतिमूर्ति मानती है। तथा वे बच्चे भी धन्य हैं, जो अपने माता-पिता को भगवान का ही रूप मानते हैं।  " (३/४२) 
मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं या लोकशिक्षकों को हमेशा 'निवृत्ति अस्तु महाफला ' के सिद्धान्त पर चलते हुए 'कामिनी -कांचन' से अनासक्त पूणतया निःस्वार्थपर मनुष्य बन जाना चाहिए। संत कबीर ने कहा है-"मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा ! दढ़िया बढ़ाये जोगी बन गईले बकरा !आसान मारि मंदिर में बईठे, ब्रह्म छाड़ी पूजन लागे पथरा..! जंगल जाय जोगी धुनिया रमवलै,कमवा जराय जोगी होगइलै हिजड़ा !किन्तु स्वामी विवेकानन्द जी, प्रवृत्ति मार्ग के नहीं, बल्कि  निवृत्ति मार्ग के ऋषि थे।  उत्तर आकाश में ध्रुव तारे के चारों ओर जिन सप्तर्षियों को हम ध्रुवतारे की परिक्रमा करते हुए देखत हैं, वे प्रवृत्ति मार्ग के सात ऋषि हैं। निवृत्ति मार्ग के ऋषियों का वर्णन पुराणों में किया गया है। [चौथे अवतार में = तुर्ये In the fourth incarnation, तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणावृषी भूत्वात्मोपशमोपेतमकरोद्दुश्चरं तपः ।। भागवत पुराण १. ३.८।। धर्मपत्नी मूर्ति (अहिंसा) के गर्भ से  नर नारायण नाम के दो ऋषियों के रूप में भगवान् नारायण ने चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतार में  (निवृत्ति मार्ग के ) ऋषि बनकर भगवान ने नर- नारायण के रूप में बद्रीनाथ नाम के स्थान पर मन और इन्द्रियों का सर्वथा संयम करके बहुत कठिन तपस्या की। नर-नारायण की अवधारणा  में, मानव आत्मा 'नर',  दिव्य  पुरुष नारायण का शाश्वत साथी है। नर शेष के अवतार और नारायाण विष्णु के अवतार हैं।  महाभारत में अर्जुन को 'नर' और कृष्ण को 'नारायण' कहा गया। वे धर्म की पत्नी मूर्ति या अहिंसा के पुत्र हैं जो विष्णु के अवतार हैं। नारायण विष्णु हैं और नर शेष हैं। ( In the concept of Nar-Naaraayan, the human soul Nar is the eternal companion of the Divine Naaraayan .Mahabharat identifies Krishna with Narayan and Arjun - with Nar.They are the sons of Dharm by Murti or Ahimsa and emanations of Vishnu.Naaraayan is Vishnu while Nar is Shesh.) श्रीमद्भागवत पुराण में इनसे उर्वशी के जन्म की कथा दी है -जब नर और नारायण तपस्या कर रहे थे तो उनकी तपस्या से डर कर इंद्र ने कामदेव, उसके साथी वसंत और अप्सराओं को उनकी तपस्या तोड़ने के लिए भेजा। नारायण ने अपनी जंघा पर एक फूल रखा जिससे उर्वशी जैसी सुन्दर अप्सरा प्रकट हुयी, उर्वशी इंद्र की भेजी सब अप्सराओं से अधिक सुन्दर थी, उसे भी उन्होंने उन सब के साथ भेज दिया, वे भी अपमानित होकर उर्वशी को अपनी साथ ले गये।इसलिए श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को देखते ही पहचान लेते हैं।  तथा भीतरी बरामदे में ले जाकर देवता की तरह सम्मान देते हुए हाथ जोड़ कर कहते हैं -" प्रभु मैं जानता हूँ, आप वही पुरातन ' नारायण ऋषि ' हैं, जीवों का दुःख दूर करने के लिये जगत में आये हैं। "  ठाकुर यहाँ जो नरेन्द्र को नारायण कहते हैं, वह वैकुण्ठ के नारायण नहीं हैं, वे तो निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक हैं।  जिन्हें ठाकुर स्वयं अखण्ड के राज्य से लेकर धरती पर आये थे।  ये वही नारायण ऋषि हैं, जो बदरी पहाड़ पर बैठकर १००० वर्ष तक ॐ गायत्री मन्त्र का जाप किये थे, जिसके फलस्वरूप उनको सर्वोच्च स्थित ब्रह्लोक प्राप्त हुआ था।  उस समय ध्यान ही उनका भोजन था। जो व्यक्ति वैराग्य के साथ एकाग्रता का अभ्यास करते हैं, उनमें से कई लोगों को बहुत अधिक मात्रा में भोजन करने की आवश्यकता नहीं रहती। किन्तु स्वामी विवेकानन्द तो पहले से ही " वो " -नारायण ऋषि थे [उनकी समाधि-साधना लीला है।] क्योंकि नरेन्द्र को धरती पर आने का निमन्त्रण देने के लिये, ठाकुर स्वयं अखण्ड के राज्य में जब गये थे, उस घटना का वर्णन करते हुए कहते हैं -" एक दिन देखता हूँ कि - ' मन ' समाधि के मार्ग से ज्योतिर्मय पथ से भी उपर उठता ही जा रहा है ! चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र-युक्त स्थूल जगत का सहज में ही अतिक्रमण कर वह पहले सूक्ष्म भाव-जगत में प्रविष्ट हुआ. उस राज्य के ऊँचे ऊँचे स्तरों में वह जितना ही उपर उठने लगा, उतना ही अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ पथ के दोनों ओर दिखाई पड़ने लगी. क्रमशः वह उस राज्य की अन्तिम सीमा पर आ पहुँचा। वहाँ देखा कि एक ज्योतिर्मय पर्दे के द्वारा खण्ड और अखण्ड राज्यों का विभाग किया गया है।  उस पर्दे को लाँघ कर वह क्रमशः अखण्ड राज्य में प्रविष्ट हुआ।  वहाँ देखा, मूर्तरूप-धारी कुछ भी नहीं है, यहाँ तक कि दिव्य-देहधारी देवी-देवता भी वहाँ प्रवेश करने का साहस न कर सकने के कारण बहुत दूर नीचे अपना अधिकार फैलाकर अवस्थित है।  किन्तु दूसरे ही क्षण दिखाई पड़ा कि दिव्य-ज्योतिर्तनु सात प्राचीन ऋषि वहाँ समाधिस्थ होकर बैठे हैं।  समझ लिया कि ज्ञान और पूण्य में तथा त्याग और प्रेम में ये लोग मनुष्य का तो कहना ही क्या- देवी-देवता तक के परे पहुँचे हुए हैं ! विस्मित होकर इनकी महिमा के विषय में सोचने लगा. इसी समय सामने देखता हूँ, अखण्ड, भेद-रहित, समरस ज्योतिर्मण्डल का एक अंश घनीभूत होकर एक दिव्य शिशु के रूप में परिणत हो गया।  फिर वह दिव्य-शिशु उन सप्त-ऋषियों में एक के पास जाकर अपने कोमल हाथों से आलिंगन करके अपनी अमृतमयी वाणी से उन्हें समाधि से जगाने की चेष्टा करने लगा.   शिशु के कोमल प्रेम-स्पर्श से ऋषि समाधि से जाग्रत हुए और अधखुले नेत्रों से उस अपूर्व बालक को देखने लगे। उनके मुख-मण्डल के प्रसन्नोज्ज्वल भाव देखकर ज्ञात हुआ कि मानो वह बालक उनका बहुत दिनों का परिचित ह्रदय-धन है. वह अद्भुत देव-शिशु अति आनन्दित हो उनसे कहने लगा- ' मैं जा रहा हूँ, तुम्हें भी आना होगा !' उसके अनुरोध पर ऋषि के कुछ न कहने पर भी उनके प्रेमपूर्ण नेत्रों से अन्तर की सम्मति प्रकट हो रही थी. इसके अनन्तर वह ऋषि, बालक को प्रेम-पूर्ण दृष्टि से देखते हुए पुनः समाधिस्थ हो गये. उस समय आश्चर्य से चकित होकर मैंने देखा कि उन्हीं के शरीर-मन का एक अंश उज्ज्वल ज्योति के रूप में परिणत होकर विलोम-मार्ग से धराधाम पर अवतीर्ण हो रहा है। नरेन्द्र को देखते ही मैं जान गया था, कि यही वह 'नारायण ऋषि' है !  उस दर्शन में जो दिव्य-शिशु ऋषि को आने का निमंत्रण दे रहा था वह स्वयं श्रीरामकृष्ण देव थे " (श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग पेज ८०-८१ ) निवृत्ति मार्ग के 'नारायण ऋषि' अखण्ड के राज्य से धरती पर स्वामी विवेकानन्द (नरेन्द्रनाथ दत्त) बनकर क्यों आये थे ? सिर्फ मानव-कल्याण के लिये, क्योंकि तब मानवजाति को  विवेक-मार्ग दिखलाने वाले मार्गदर्शक नेता / जीवन्मुक्त शिक्षक का घोर अभाव हो गया था 
Meaning of concentration (धारणा का अर्थ): किसी एक वस्तु,एक स्थान या एक बिन्दु पर मन को एकाग्र रखने की क्षमता को धारणा (concentration) कहते हैं। किसी एक बिन्दु, एक वस्तु, एक विषय या एक स्थान पर ही मन की सजगता (awarenessया consciousness) को अविचल 
(motionless, स्थिर या स्तब्धबनाए रखने की क्षमता को धारणा अथवा मन की एकाग्रता शक्ति कहते हैं। योग में धारणा का अर्थ होता है मन को किसी एक बिन्दु पर लगाए रखना, टिकाए रखना। किसी एक बिंदु पर मन को लगाए रखना ही धारणा है। जिस विधि में मन और मन की प्रवृत्तियाँ एकाग्र कर दी जाती हैं। उनमें चंचलता और विक्षेप नहीं रहता उसे (या उस विधि को) धारणा कहा जाता है। 
हम मन की तुलना 'convex lens' से कर सकते हैं। जैसे सूर्य का प्रकाश सभी दिशाओं में फैलता है, उसकी ताप -ऊर्जा बिखरती रहती है। धूप में एक-दो घंटा छोड़ देने से कागज गर्म हो जाता है, किन्तु जलता नहीं है। किन्तु किसी उत्तल ताल पर सूर्य की किरणों को केन्द्रीभूत किया जाय और उसके नीचे कागज रख दिया जाय तो उस बिन्दु पर कागज काला पड़ जाता है, धुआँ निकलने लगता है , और कागज जल उठता है। इसी प्रकार हमारे मन में भी प्रच्छन्न रूप में अपरिमित शक्ति है, परन्तु यह सभी दिशाओं में बिखरी हुई है जो धारणा का अभ्यास करने से केन्द्रित होती है। और हमें उस वस्तु का सम्यक ज्ञान प्राप्त हो जाता है। 
धारणा शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘धृ’ धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है- आधार, नींव।’’ धारणा अर्थात ध्यान की नींव, ध्यान की आधारशिला को धारणा कहते हैं। धारणा परिपक्व होने पर ही ध्यान में प्रवेश मिलता है। महर्षि पतंजलि ने धारणा को परिभाषित करते हुए कहा है -  देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।। पा.यो.सू. 3/1 अर्थात देश विशेष में चित्त को स्थिर करना धारणा कहलाता है। स्पष्ट है कि मन या चित्त को "किसी स्थान विशेष में " एकाग्र रखने या बांधकर रखने की प्रक्रिया ही धारणा है। यहाँ देश के दो भेद किए गए हैं,'externally'- बाह्यदेश जैसे किसी छवि, मूर्ति, सूर्य, चन्द्रमा आदि पर मन को एकाग्र रखें या तथा 'internally' -अन्तरदेश जैसे शरीर के अंदर के कुछ विशिष्ट स्थान में जैसे “हृदय-कमल" (अनाहतचक्र-हृदयपुण्डरीके) आदि में मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करें। तो हमें आत्मा का सम्यक ज्ञान प्राप्त हो सकता है। क्योंकि अनाहत चक्र आत्मा की पीठ (स्थान) है। [अनाहत चक्र हृदय के निकट सीने के बीच में स्थित है, जहाँ से  अनाहत नाद = शाश्वत ध्वनि ॐ ध्वनि उठती रहती है। इस चक्र में धारणा का अभ्यास करने से हमारी चेतना अनंत तक फैल सकती है।
 Examples of Power of Concentration (एकाग्रता शक्ति के उदाहरण): स्वामी विवेकानन्द की एकाग्रता शक्ति कितनी अधिक विकसित थी, उसके दो उदाहरण  यहाँ उद्धृत किये जा सकते हैं। वे लाइब्रेरी से सुबह में encyclopedia britannica (विश्वकोश ब्रिटैनिका)  का एक वॉल्यूम लाते हैं और दूसरे दिन वापस करके दूसरा खण्ड ले आते हैं। लाइब्रेरियन को आश्चर्य हुआ आप कल सुबह में दो खण्ड ले गये थे, और शाम को दोनों वापस कर दिये थे, क्या आपने इसको पढ़ लिया था? स्वामीजी बोले हैं, मैं तो पढ़कर ही वापस किया हूँ, कुछ पूछना चाहते हों, तो पूछ कर देख लीजिये और पूछने पर ठीक ठीक उत्तर देते हैं। और दूसरा उदाहरण है - इंग्लैण्ड में नदी में बहते अण्डे के छिलकों पर एयर गन से निशाना लगते हुए बच्चों के एयर गन से एक बार में ही सभी अण्डों पर सही सही निशाना लगाकर दिखाते हैं, बच्चे आश्चर्य से पूछते हैं कि क्या आप रोज बन्दुक से निशाना लगाने का अभ्यास करते हैं ? स्वामीजी ने कहा मैंने तो आज ही पहली बार बन्दुक से निशाना लगाया है।स्वामी रंगनाथानन्द जी में भी ऐसी ही एकाग्रता देखनो को मिली है. एक बार हम दोनों ट्रेन से साथ में आ रहे थे। उन्होंने अपने बैग से एक मोटी पुस्तक निकाली और १५-२० मिनट में १०-१२ पन्ने पढकर वहाँ मार्कर लगा कर रख दिए।  मैंने पूछा अभी अभी जो पोर्शन अपने पढ़ा है, क्या आपको याद भी हो गया ? वे बोले -हाँ, यदि और एक बार देख लूँगा तो उसका शब्द-शब्द याद हो जायेगा। पूछने पर रंगनाथानन्दजी बोले- हम word to word नहीं पढ़ते हैं, पन्ने के बायीं तरफ उपर में लिखे एक लाइन को पढ़ता हूँ, और पन्ने के नीचे लिखे अंतिम लाइन को पढ़ लेने से पूरा पन्ना याद हो जाता है। इसी को कनेक्शन ऑफ़ माइंड (connection of mind) या मनः संयोग अर्थात आत्मा के साथ मन का सम्बन्ध होना कहते हैं !  मानो xerox मशीन से चित्त के उपर एक ऑफिस कॉपी छप जाती है।  छात्र लोग यदि इस मनः संयोग को सीख लें तो पढाई कितना अच्छा होगा ? 
भृंगी भाव का महत्व और श्रेष्ठता को जानो: मामूली कीट का भृंगी में बदलने का अदभुत रहस्य को समझ लेने से  महान शिक्षा प्राप्त होती है। श्रीमद्भागवत में  भृंगी नामक कीट का उदाहरण दिया गया है। भृंगी कीट  पंखों वाले चींटे के समान एक कीड़ा  होता है। यह प्रायः दीवार के कोनों पर गीली मिट्टी से अपना घर बनाता है।  इसकी विशेषता ये है कि ये जनन क्रिया द्वारा बच्चे उत्पन्न नहीं करता । क्योंकि भृंगी कीट में मादा जीव होता ही नहीं है । ये दीवाल आदि पर बने अपने तीन चार छिद्रों वाले मिट्टी के छोटे से गोल घर में किसी तिनके जैसे मामूली कीड़े को उठा लाता है, उसकी बड़ी पिटाई करता है। फिर घर को बंद कर स्वयं बाहर से पंख फड़फड़ाता हुआ तेज भूँ भूँ हूँ हूँ की ध्वनि हुआ उड़ता है। इसके स्वर के भय के मारे छोटा कीड़ा उसका उस पर अपने मन को इतना एकाग्र करता है (या ध्यान करता है) कि उसकी आंतरिक बाह्य संरचना परिवर्तित होकर भृंगी कीट जैसी ही हो जाती है । ये कोई सुनी हुयी दन्तकथा नहीं है। बल्कि सिद्ध है । प्रमाणित है । और इसका परीक्षण करने हेतु बस आपको किसी भृंगी कीट पर निगरानी रखनी होगी । -
 " यत्र यत्र मनः देही धारयेत् सकलं धिया ।
 स्नेहात् द्वेषात् भयात् वा अपि याति तत् तत् सरूपताम् ॥ २२।
 कीटः पेशस्कृतं ध्यायन् कुड्यां तेन प्रवेशितः । 
याति तत्सात्मतां राजन् पूर्वरूपमसन्त्यजन् ॥ " 
(श्रीमदभगवत, उद्धवगीता ११. ९.२२, २३ ॥)
- राजन ! देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भय से जिस-जिस वस्तु में बुद्धिपूर्वक अपना मन एकाग्र करता है, उन-उन पदार्थों से वह एकरूप हो जाता है।  जैसे भृंगी द्वारा अपने घोंसले में बलात लाया हुआ कीट (भय से) उस भृंगी का ही ध्यान करता है। फलस्वरूप इसी देह में उसकी देह बदलकर उसे भृंगी का रूप प्राप्त हो जाता है।
असंख्य झींगुर कीटों में से कोई कोई बिरला कीट ही भृंगी के प्रथम शब्द गुंजार को ह्रदय से स्वीकारता है ।अन्यथा कोई दूसरे और तीसरे शब्द को ही शब्द स्वर मानकर स्वीकार कर लेता है । तन मन से रहित भृंगी (जीवन-मुक्त भृंगी या शिक्षक) के उस महान शब्द रूपी गुंजार (इष्टमंत्र) को स्वीकार करने में ही झींगुर कीट अपना भला मानते हैं। भृंगी के शब्द स्वर गुंजार को जो कीट स्वीकार नहीं करता । तो फ़िर वह कीट योनि के आश्रय में ही पड़ा रहता है । यानी वह मामूली कीट (भेंड़-मानव)  से शक्तिशाली भृंगी (वेदान्त केसरी) नहीं बन सकता । इसी प्रकार जड़ बुद्धि शिष्य जो सदगुरु के उपदेश को ह्रदय से स्वीकार करके गृहण करता है । उससे वह विषय विकारों से मुक्त होकर अज्ञान रूपी बंधनों से मुक्त होकर कल्याणदायी मोक्ष को प्राप्त होता है। (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड  हो जाता है।)  भृंगी की तरह यदि कोई मनुष्य निश्चय पूर्ण बुद्धि से गुरु के उपदेश को स्वीकार करे । तो गुरु उसे अपने समान ही बना लेते हैं । जिसके ह्रदय में गुरु के अलावा दूसरा कोई भाव नहीं होता । और वह सदगुरु को समर्पित होता है । वह मोक्ष को प्राप्त होता है । इस तरह वह नीच योनि में बसने वाले कौवे से बदलकर उत्तम योनि को प्राप्त हो हंस/नेता / जीवन्मुक्त शिक्षक / कहलाता है ।रामचरितमानस में संत तुलसीदास जी ने भी- 'कीड़ा भय के मारे स्वयं भृंगी बन जाता है', इस बात का उल्लेख किया है। अरण्यकाण्ड में मारीच रावण से कहता है- " भइ मम गति कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई(रघुराई)॥ 
किन्तु क्या भगवान डरने की चीज हैं ? do you fear God ? उनसे तो प्यार करना चाहिये -वे तो स्वयं प्रेम-स्वरूप हैं ! फिर भी कोई व्यक्ति यदि डर कर भी उनका चिन्तन करे, या उनसे शत्रुता के कारण  भी उनका चिन्तन करे या उनसे प्रेम होने के कारण निरन्तर उनका स्मरण करता रहता हो, चाहे जैसे भी उनकी छवि पर मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करता हो, तो 'साहचर्य के नियमानुसार' उनकी सत्ता हममें आ ही जाती है।भृंगी (Leader/गुरु ) के महान शब्द रूपी स्वर गुंजार (Be and Make) को यदि कीट (would be Leader/भावी शिक्षक) -अच्छी तरह से स्वीकार कर ले। तो वह मामूली कीट (स्वयं को भेंड़ समझनेवाला सिंहशावक) से भृंगी के समान शक्तिशाली हो जाता है । फ़िर दोनों में कोई अंतर नहीं रहता । समान हो जाता है। "जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥" ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति !
Importance of concentration:  धारणा का अभ्यास करने से एकाग्रता शक्ति बढ़ती है। और एकाग्रता से अनेक कार्य सफलतापूर्वक संपन्न होते हैं क्योंकि हमारी सम्पूर्ण मानसिक ऊर्जा एक बिन्दु पर केन्द्रित होती है। आध्यात्मिक एवं लौकिक दोनों प्रकार के कार्यों में सफलता प्राप्त करने के लिए धारणा आवश्यक है। कोई भी छोटा से छोटा कार्य हो, उसे एकाग्रता से करने की आवश्यकता होती है। बिना एकाग्रता के हम कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। जबकि एकाग्र मन वाला व्यक्ति कोई भी कार्य अधिक दक्षतापूर्वक कर सकता है।  हमलोग सुंदर ढंग जो कुछ कार्य करते हैं, जो  कुछ भी अन्वेषण करते हैं आविष्कार करते हैं, सुंदर चित्र बनाते हैं, या कविता लिखते हैं, वो सब मन की सहायता से ही होता है।
[ वेदांत ग्रंथ दो प्रकार के होते हैं- एक होते हैं  प्रकरण-ग्रंथ (वह process, method, प्रक्रिया जिसके  सहारे सिद्धान्त की सिद्धि की जा सके। )  और दूसरे होते हैं सिद्धान्त ग्रंथ। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – इन पाँच स्थूल भूतों तथा सूक्ष्म भूतों की जानकारी, स्थूल भूतों से स्थूल शरीर कैसे बना ? सूक्ष्म भूतों से सूक्ष्म शरीर कैसे बना ? चैतन्य स्वरूप आत्मा इससे पृथक कैसे है ? – इस प्रकार जो ग्रंथ विभिन्न चरणों में, प्रक्रियात्मक ढंग से परब्रह्म-परमात्मा की समझ देते हैं, उन ग्रन्थों को कहा जाता है 'प्रकरण  या प्रक्रिया ग्रंथ'। जैसे –विचारसागर, पंचदशी, दृग-दृश्य विवेक आदि।'श्री योगवासिष्ठ महारामायण' शास्त्र है या  सिद्धान्तग्रंथ है। इसमें कहानियाँ, संवाद, इतिहास – सब कहे गये हैं और घुमा फिराकर वही सिद्धान्त की सारभूत बात कही गयी है। योगवासिष्ठ एक ऐसा ग्रंथ है जिसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति इस मनुष्यलोक में आत्मज्ञान पाये बिना नहीं रह सकता।'श्री योगवासिष्ठ' कदम-कदम पर सार बात है।भगवान श्रीरामजी का विवेक मात्र 16 वर्ष की उम्र में जग गया और वे विवेक-विचार में खोये रहने लगे। वासिष्ठ जी ने कहाः " जब श्रीराम जी का विवेक जगा है तो हम उन्हें ज्ञानी बना कर भेज देंगे, कर्मबंधन से पार करके भेज देंगे। वे ब्रह्मज्ञानी होकर राज्य करें। (आधुनिक युग में बिजनेस करें, I.A.S बनें, नेता बनें, गृहस्थ बनें, या संन्यासी बनें।)  " 
योग वशिष्ठ में कहा गया है -"  हे राम जी, युद्ध करना हो तो भी करिये परन्तु वृत्ति साक्षी (witness consciousness)  ही की ओर हो; और उसी को अपना स्वरुप जानिये और स्थित होइये। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, ये जो पाँच विषय इन्द्रियों के हैं इनको अंगीकार कीजिये परन्तु इनके जानने वाले साक्षी में स्थित रहिये। यह जो मायामय संसार-चक्र है उसका नाभिस्थान (nucleus) चित्त (स्मृतियों का भण्डारघर) है। जब चित्त वश में आ जाता है, (अर्थात जब चित्त मन की वृत्ति बनने से रुक जाता है। केवल तभी संसारचक्र का वेग (आहार-निद्रा-भय - मैथुन का वेग) रोका जा सकता है, अन्य किसी उपाय से  नहीं रोका जा सकता है। 
ध्यान करने की चीज नहीं है, स्वयं घटित होता है। धारणा (concentration एकाग्रचित्त होना) प्रगाढ़ होने पर स्वयं ध्यान और समाधि में परिणत हो जाती है। परन्तु मन के वशीभूत होने के स्वाद को (अर्थात चित्त के तरंगायित होने से पूर्व की स्थिति को) पुरे जीवन में केवल दो या तीन बार, वह भी बस २ या ३ सेकण्ड के लिये ही अनुभव किया जा सकता है। यम-नियम-आसन -प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास पूरी निष्ठा के साथ जितना ही कम उम्र से, १४-१५ वर्ष की उम्र से ही एकाग्रता का अभ्यास करते रहें, तो मन इतना एकाग्र हो जायेगा कि दुनिया के हर काम में सफलता प्राप्त कर लेना आसान हो जायेगा। 
प्रसिद्द शायर असरारुल हक़ मजाज़ की एक यादगार नज़्म है - ' जिंदगी की सख्त तूफानी अंधेरी रात में, कुछ नहीं तो कम से कम ख़्वाबे सहर देखा तो है।  जिस तरफ देखा न था अब तक उधर देखा तो है !' ये कवि लोग भी बड़ी गहरी दृष्टि रखते हैं, स्वप्न में भी प्रभात का उजाला फैलता हुआ देख लेते हैं ! यहाँ असरार कह रहे हैं - कम से कम ' ख्वाबे- सहर ' तो देख लिया ! अर्थात स्वप्न में ही सही किन्तु प्रभात के सूरज को उगता हुआ तो देख लिया ! इतना तो हमसे हुआ…ये जो इतना गहरा अँधेरा छाया हुआ है, इस गहरे अँधेरे में भी उजाला होने का स्वप्न तो देखा है।
प्रभात का वह सूर्य हैं -स्वामी विवेकानन्द। जो भी व्यक्ति विवेक-दर्शन का अभ्यास करता है, अर्थात अपने हृदय में स्वामी विवेकानन्द को उगते हुए सूरज के रूप में देखने का अभ्यास करता है, उसके हृदय की गुम्फा में हजार वर्षों से छाया हुआ अँधेरा भी दूर हो जाता है। कि जिस व्यक्ति विवेक जाग्रत हो जाता है, या विवेक-प्रयोग करने की शक्ति  जाग्रत हो जाती है, उसे सबकुछ (अभेद-दृष्टि) मिल जाता है। पतंजलि योगसूत्र के नियमानुसार विवेक-दर्शन का अभ्यास किये बिना केवल योगा -योगा करते रहने से क्या होता है? उनका नाम विवेकानन्द कैसे हो गया  था ? यह ठीक से ज्ञात नहीं है। अपने गुरुभाइयों का संन्यास नाम भी उन्होंने ही रखा था।  और अमेरिका जाने से पहले उन्होंने अपना नाम भी स्वयं ही रख लिया था और इसी नाम से जहाज का टिकट खरीदा था।  विवेक जाग्रत हो जाने से सबकुछ  जाता है। पतंजली योग सूत्र इतना प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थ है कि उसके उपर भाष्य स्वयं व्यासदेव को लिखना पड़ा था। 
स्वामी विवेकानन्द को तो भारत सरकार ने भी ' युवा आदर्श ' युवाओं के ' नेता ' के रूप में स्वीकार किया है. क्योंकि वे सभी जाति, और सभी धर्म के युवाओं से प्यार करते थे, यहाँ तक जी युवा किसी ईश्वर पर विश्वास नहीं करता हो, उससे भी प्यार करते थे। उनके चित्र के उपर मन को एकाग्र करना एक scientific process है, mechanical method है।  विवेकानन्द (या नवनीदा) के उपर मन को एकाग्र करने से कोई हिन्दू नहीं बन जाता है। उन्होंने सभी संप्रदाय के युवाओं को जीवन से सर्वाधिक लाभ उठाने का उपाय बताया है. यहाँ विवेकानन्द के चित्र या मूर्ति की कोई हिन्दू ढंग पूजा करने को भी नहीं कहा जाता है। केवल चंचल मन को वश में लेन के लिये ही, किसी महापुरुष के चित्र पर मन को एकाग्र रखने के लिये कहा गया है।  यदि कोई चाहे तो ईसामसीह की मूर्ति या छवि को अपने ह्रदय में धारण कर उनके उपर भी मन को एकाग्र करने का अभ्यास कर सकता है। तब पूरी दुनिया मुट्ठी में आ जायेगी। इसके लिये अब रीढ़ की हड्डी सीधी रखते हुए अर्ध-पद्मासन में बैठो और यह देखने की कोशिश करो कि तुम अपने ह्रदय में स्वामीजी की छवि देख पा रहे हो या नहीं ? इसको बिल्कुल एक खेल के जैसा लो, और मन से अनुरोध करते रहो, उसको समझाते रहो कि अभी थोड़ी देर तक केवल उन्हीं का चिन्तन करना है।  यदि ऐसा होने लगा तो बहुत कल्याण हो जायेगा। पवित्र और अच्छे विचारों से मन जितना अधिक भरा रहेगा हम उतने ही अच्छे मनुष्य बन जायेंगे। 'या मति सा गतिर्भवेत' यह अभ्यास बिल्कुल logical है, सरलता से समझ में आ जाता है, गूढ़ तत्व इसमें कुछ नहीं है, मन को वश में रखने का सबसे सरल उपाय है। ॐ 
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सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

मनःसंयोग-2 [27 -12 -2018 ] [ गंगाधरपुर युवा प्रशिक्षण शिविर]

कार्य-कारण सम्बन्ध:  पिछले क्लास में हमने देखा कि किसी भी काम में सफलता प्राप्त करने के लिए, या किसी कार्य को बेहतर ढंग से करने के लिए, 'मनः संयोग' सीखना कितना आवश्यक है ! किन्तु कोई यह पूछ सकता है, कि जब हम मनःसंयोग नहीं जानते थे, तब भी क्या हमारा काम नहीं चल रहा था ? नहीं तो, 12 या इण्टर तक सफलता कैसे मिला ? इसका उत्तर यह है कि उस समय भी हम मनःसंयोग ही कर रहे थे, किन्तु अनजाने में कर रहे थे। यदि मन को एकाग्र करने की पद्धति को सीखकर पढाई करते तो रिजल्ट और भी अच्छा हो सकता था। क्योकि मन लगाकर पढ़ाई करते समय मन पढाई में इतना लीन हो जाता है, कि उस समय सामने से कोई चला गया या किसी ने कुछ कहा -तो उसका भी पता नहीं चलता। अब हमलोग  मन लगाकर पढ़ने के कार्य  को  एक उदहारण के द्वारा समझने का प्रयास करेंगे। तुमने ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम सुना होगा। वे बड़े गरीब किन्तु मेधावी छात्र थे, एग्जाम के समय फुटपाथ पर एक लैंप पोस्ट के नीचे बैठ कर पढने में तल्लीन थे। उनके सामने रोड से एक बारात गुजर गई , थोडी ही देर के बाद एक व्यक्ति आकर उनसे पूछता है, क्या आप बता सकते हैं कि अभी-अभी इधर से जो बारात गुजरा वह किस ओर मुड़ा था ? वे मानो नींद से चौंक कर उठे हों, कहते हैं- ' sorry, no ? ' वे बारात को क्यों नहीं देख सके ? आँखें खुलीं थीं, मस्तिष्क भी जाग्रत और क्रियाशील था किन्तु तब उनका मन सड़क देखने में नहीं लगा था, तब उनका मन अध्यन में तल्लीन था ! इसीलिये पूरी बारात गुजर गई पर वे उसे देख नहीं सके। किन्तु हमारी समस्या यह कि हम मन को उसकी चंचलता के कारण एक क्षण के लिए भी किसी एक ही विषय पर केन्द्रीभूत नहीं रख सकते। 
कार्य क्या है ? हम सभी लोग जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं,एक सफल और महान मनुष्य (बुद्ध जैसा) बनना चाहते हैं। परन्तु यदि हमने मनःसंयोग की पद्धति नहीं सीखा हो, तो जीवन में सफलता कैसे मिल सकती है? यदि हमलोग मन को अपनी इच्छा और आवश्यकता के अनुसार किसी एक ही कार्य या विषय में लगाने की तकनीक को सीख जायें, तो सफलता की सम्भावना निश्चित हो जाएगी। अतः हम समझ सकते हैं कि सफल मनुष्य या महान मनुष्य बनने के लिए मनःसंयोग की पद्धति को सीखकर उसका निष्ठापूर्वक 'अभ्यास करना' आवश्यक है। अब प्रश्न है कि 'कार्य' कहने से हम क्या समझते हैं ? आगे हम इसी बात को थोड़ा और बेहतर तरीके से समझने की चेष्टा करेंगे अर्थात इसी विषय पर मनःसंयोग करेंगे। 
प्राकृतिक कार्य: जगत में प्राकृतिक रूप से कई प्रकार की घटनायें घटनाएँ घटित होती रहती हैं। इनमे से प्रत्येक घटना एक प्रकार का कार्य ही तो है ! जैसे हम देखते हैं कि ऋतुपरिवर्तन होता है, प्रातः काल में सूर्य उदित होता है, रात्रि के अंधकार को दूर हटा कर सूर्य की किरणें जगमगा उठतीं हैं। फूल खिल जाते हैं, नदी बहती जा रही हैं।  बारिश से सूखी हुई मिट्टी गीली हो जाती है, सूर्य के प्रचण्ड ताप से मिट्टी का जल वाष्प बन कर उड़ जाता है,और इसी प्रकार के अन्य कितने ही कार्य होते रहते हैं। ये सभी कार्य प्रकृति के नियमानुसार घटित होते रहते हैं। इनमे से किसी भी कार्य के पीछे मनुष्य की कल्पना, इच्छा, प्रयत्न या उद्यम आवश्यक नहीं होता।
आवश्यक कार्य :  फ़िर हम यहाँ कुछ ऐसे कार्यों को भी घटित होते देखते हैं जिनमें प्रत्येक के पीछे मनुष्य की इच्छा, और प्रयत्न आवश्यक होता है। मनुष्य कोई भी कार्य इच्छा और विचार से प्रेरित होकर ही करता है। किसी आवश्यक /अनावश्यक कार्य को करने का विचार जब मनुष्य के मन में उठता है, तब वह अपने शरीर, या अन्य किसी उपकरण या दूसरी चीज की सहायता से अपनी इच्छा को रूप देने की चेष्टा करता है। कार्य करते समय मनुष्य अपनी कल्पना को रूपायित करना चाहता है। पहले हम मन में कल्पना करते हैं, फिर इच्छा-शक्ति (will power) का प्रयोग करते हुए किसी आवश्यक कल्पना को साकार रूप देते हैं। इसी को कार्य करना कहते है।  किन्तु उस कार्य का जनक कौन है ? कार्य का कारण कहाँ है ? कार्य का कारण मन में है, विचार में है। मनुष्य की आकांक्षा, इच्छा, और चेष्टा आदि का आधार मनुष्य का मन ही होता है। जैसे हम देखते हैं कि - किसान खेत में हल चला रहा है, मछुआरा मछली पकड़ रहा है, श्रमिक-कारीगर लोग कितने प्रकार के कार्य कर रहे हैं, कोई खेल रहा है तो कोई पढ़ने में लगा हुआ है आदि-आदि। इन सभी प्रकार के क्रिया-कलापों का आधार मनुष्य का मन ही तो है। मन की किसी आकांक्षा, इच्छा, लक्ष्य, उद्देश्य या संकल्प को पूरा करने के लिए मनुष्य उद्यम, अध्यवसाय,प्रयत्न, श्रम या पुरुषार्थ करता है।
किसी वस्तु पर कार्य करने से उसके स्वरूप में रपान्तरण हो जाता है:  जैसे मैं कोई पुस्तक पढ़ता हूँ तो पुस्तक का ज्ञान मुझे प्राप्त हो जाता है। कागज के ऊपर तूलिका घुमाने से, मन की कल्पना चित्र के रूप में साकार हो जाती है। किसी प्राकृतिक घटना पर मन को एकाग्र करके गहराई से विचार करने से, हम किसी नये नियम या नये उदाहरण का आविष्कार कर लेते हैं! ये सब भी विभिन्न प्रकार के कार्य ही हैं ! अब यदि ध्यान पूर्वक देखें तो पायेंगे कि जिस विषय या वस्तु के ऊपर कार्य किया जा रहा है, उसके रूप या स्थान में परिवर्तन हो जाता है। जैसे लकड़ी के तख्ते से कुर्सी का निर्माण हो गया, सूत से गमछा बन गया, धरती पर पड़े गोबर से जलाने वाला उपला बन गया, कोयले के चूरे से जलाऊ गोटे बन गये, हल चलाने से धरती खेती करने योग्य हो गयी आदि-आदि।
दैहिक शक्ति की सीमा है, मानसिक शक्ति असीम है: कार्य विषयक संकल्प लेने, चिंतन द्वारा उसका खाका (ब्लूप्रिन्ट) तैयार करने में जिस शक्ति का क्षय होता है उसे मानसिक शक्ति (will power )कहते हैं।  जबकि प्रयत्न करने में या कार्य करने में जो शक्ति लगती है वह शारीरिक शक्ति कहलाती है। परन्तु यह शारीरिक शक्ति भी मन को नियोजित करने के बाद ही क्रियाशील होती है। महर्षि कणाद 'मूसल' के उदाहरण द्वारा प्रयत्न या कार्य की उत्पत्ति के क्रम को समझाते हुए  वैशेषिक सूत्र 5.1.2 में कहते हैं - 'तथा हस्तसंयोगाच्च मुसले कर्म । ' - और वैसे ही ( कर्म वाले ) हाथ के संयोग से मूसल में क्रिया (होती है)। यहाँ 'मूसल' का उदाहरण देते हुए ऋषि बतलाते है, प्रयत्न आदि की उत्पत्ति का क्रम यह है- ' आत्म जन्या भवदिच्छा इच्छाजन्या भवेद  कृतिः । कृतिजन्या भवेचेष्टा तज्जन्यैव क्रिया भवेत्।'  आत्मा के साथ मन का संयोग होने से मन में इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छा से प्रयत्न उत्पन्न होता है। प्रयत्न  से ( सारे  शरीर में या  किसी एक अङ्ग में) चेष्टा उत्पन्न होती है। चेष्टा से  क्रिया-उत्पन्न होती है। आत्मा (pure consciousnessके साथ मन का संयोग होने पर स्वाभाविक रूप से पहले मन में (प्रतिबिंबित चेतना reflected consciousness या अन्तःकरण में) मूसल उठाने की इच्छा उत्पन्न होती है। फिर आत्मा के साथ मन का संयोग रहने से हाथ में (मूसल को ऊपर की ओर उठाने की) चेष्टा-उत्पन्न हुई। उस चेष्टा से मूसल में 'उत्क्षेपण ' क्रिया उत्पन्न हुई। इसी क्रम मे नीचे लाते समय 'अवक्षेपण' क्रियाः उत्पन्न होती है। जिस प्रकार आत्मा के संयोग और प्रयत्न से हाथ में क्रिया होती है, उसी प्रकार हाथ के संयोग से ऊखल में धान कुटने वाले -मूसल में, धान कूटते समय क्रिया उत्पन्न होती है। यहाँ  महर्षि कणाद सूत्र में ‘‘च’’ से बतला रहे हैं कि मूसल के गिरने में उसका भारी होना भी एक कारण है। ऋषि अगले सूत्र में कहते हैं - अभिघातजे मुसलादौ कर्मणि व्यतिरेकादकारणं हस्तसंयोगः । वैशेषिक-५,१.३ ।अर्थ : जब मूसल नीचे गिरता है, यद्यपि उस समय हाथ का भी संयोग होता है, परन्तु गिरने में भारी होने के अतिरिक्त पृथ्वी की जो गुरुत्वाकर्षण शक्ति उसे नीचे की ओर खींचती है, उसमें हाथ की शक्ति (दैहिक शक्ति) नहीं लगानी पड़ती। इसीलिए मूसल के गिरते समय आत्मा को प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती । उसकी युक्ति यह है कि चाहे हाथ का संयोग हो या न हो, भारी होने के कारण गुरुत्वाकर्षण की शक्ति से वह नीचे अवश्य ही गिरेगा। जब हाथ के बिना उसका गिरना आवश्यकीय है क्योंकि यदि गिरते समय प्रयत्न होता है तो वह उसको नीचे गिरने से रोकता न कि गिराता। क्योंकि प्रयत्न हमेशा प्राकृतिक शक्ति के विरूद्ध ही किया जाता है।  या प्राकृतिक आकर्षण को उपने बल से चलाने में उसका प्रयोग होता है। इस मूसल के उदाहरण से यह परिणाम भी निकलता है, कि मनुष्य को उन्नति करने में प्रयत्न करने की आवश्यकता है। और यदि उन्नत मनुष्य बनने का यत्न न किया जाये,  तो अवनति स्वयं ही हो जाती है।  क्योंकि जिस प्रकार भारी वस्तुओं को पृथ्वी की गुर्त्वाकर्षण शक्ति अपनी ओर खींच ही लेती है,उसे गिराने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती।  इसी प्रकार विषयों की आकर्षण शक्ति इन्द्रियों को बराबर अपनी ओर खींचती है, यदि आत्मा इन्द्रियों को विषय से रोकने का काम न करे तो बलात् आत्मा का विषयों की ओर ले जायेगी। जिस प्रकार भारी वस्तुओं में गुरूत्व पृथ्वी पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से है, इसलिए वह वस्तुओं को अपने कारण पृथ्वी की ओर ले जाता है, इसी प्रकार इन्द्रियां और मन पंचभूतों से उत्पन्न होते हैं और वह प्रत्येक वस्तु को भौतिक विषयों की आर ले जाते हैं। 
इसलिए जो लोग ऐसा मानते हैं कि यदि हम बुरा काम न करें तो हमको संध्या अग्नि-होत्र आदि शुभ कर्म अथवा महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 दैनन्दिन अभ्यास करने की क्या आवश्यकता है ? तो वह बड़ी भारी भूल करते हैं क्योंकि बुराई उनको अवश्य अपनी ओर खींच लेगी। यदि हमलोग मनःसंयोग और विवेक-प्रयोग सीखकर अपने मन को वश में करके मनुष्य बनने और बनाने का अभ्यास न करें तो, हम नीचे गिर कर मानव-पशु ही नहीं मानव-राक्षस भी बन सकते हैं। अतः मानसिक ऊर्जा (mental energy) को पूरी तरह से निवेशित करके कार्य करने से -कोई भी कार्य कम समय में पूर्णता के साथ सम्पन्न हो सकता है। जिस क्रिया के पीछे 'कामना-वासना' नहीं केवल निःस्वार्थपरता हो उनके संस्कार हमें कर्म-बन्धन में नहीं बांधते। इसलिये हमें निःस्वार्थ Be and Make आंदोलन का प्रचार-प्रसार करने में घोर परिश्रम करना चाहिये। 'नजरें तेरी बदली तो नजारे बदल गए, कश्ती ने रुख मोड़ा तो किनारे बदल गए'! हमें परिणाम की चिंता छोड़कर कर्म करना चाहिए। जब तक विवेक-प्रयोग द्वारा - " चेतन, अवचेतन, अचेतन, तुरीय "  को पूरी तरह से जगा नहीं दिया जाता, तब तक मन को वश में नहीं लाया जा सकता। यदि कर्म पूरे मन से किया गया होगा, तो उसका अच्छा फल मिलना निश्चित है। इसलिए कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा कर्म उत्कृष्ट हो। इससे चित्तशुद्धि हो जाती है। 
कपटधार्मिकः बकः छद्म-धर्मी बगुला" बाहरी वेशभूषा नहीं, मन में शिव-संकल्प रहना आवश्यक है,  कोई सहचारी या संगत में रहने वाला ही सहचारी के व्यवहार को देखकर उसके चरित्र को ठीक ठीक पहचान सकता है।  श्री राम और लक्ष्मण एकबार स्नान करने के लिए पंपा सरोवर पहुंचे। श्री राम ने सरोवर में मंथर गति से चलते हुए बगुलों की ओर इशारा करते हुए लक्ष्मण को कहा कि-“पश्य लक्ष्मण पम्पायां बकोयंपरमधार्मिकः। शनैः शनैः पदं धत्ते जीवानां वधशंकया॥” अर्थात लक्ष्मण, देख इस पम्पा सरोवर में बगुला कितना धार्मिक है। कहीं मेरे पांवों से जीवों का वधन न हो जाए, इसीलिए कैसा धीरे-धीरे पैर रखते हुए चल रहा है। श्री राम की इस बात को सरोवर में रहने वाली एक मछली सुन लेती है। और वह भगवान राम से कहती है - "सहवासी विजानाति सहवासी विचेष्टितम्।बकोऽयं वर्ण्यते राय तेनाहं निष्कुलीकृतः॥ नहीं नहीं रामजी, आप किसकी प्रशंसा कर रहे हैं ? जिस बगुले की प्रशंसा की जा रही है। उसने हमारा कुल उजाड़ दिया, सारा कुल नष्ट कर दिया। और जब शुद्ध-पवित्र मन केवल शिव-संकल्पों से ही भरा रहता है तब उसकी शक्ति अनन्त गुना बढ़ जाती है। और ऐसे शक्तिशाली उपकरण के तैयार हो जाने के बाद; इसे जिस कार्य में लगा दिया जायेगा वह कार्य भी बड़े सुन्दर ढंग से सम्पन्न होगा,और उसमें निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होगी। इस तथ्य को समझ लेने में अब कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। 
ज्ञान क्या है ? इस जगत-ब्रह्माण्ड के सुदूर अपरिमेय अंतरिक्ष में खचित विशालकाय ग्रह-नक्षत्र से लेकर सूक्ष्म अणु-परमाणु के मध्य असंख्य ज्ञातव्य या जानने योग्य वस्तुएँ एवं विषय बिखरे हुए हैं। इनमें से जिन वस्तुओं या विषयों  की जानकारी (information-आँकड़ा ) हमें प्राप्त है, उसको ही उस वस्तु या विषय का ज्ञान कहा जाता है। किन्तु इनमें से किसी भी वस्तु या विषय का ज्ञान हमें मन की सहायता से ही प्राप्त होता है। बचपन में एक सुन्दर सुगंधित फूल को देखा, तो पिता जी से पूछा -ये कौन सा फूल है ?... ये कमल का फूल, उड़हुल का फूल है; पिता जी ने बता दिया इस फूल को गुलाब कहते हैं। तो उस फूल का रूप और विशिष्ट सुगन्धि मन के खाँचे में संचित हो गया। अब फूलों की प्रदर्शनी में गुलाब के फूल को आसानी से पहचान सकता हूँ। 
उसी प्रकार कुछ बड़े होने पर रात्रि के समय चाँद और चाँदनी के प्रकाश को देखा तो पिताजी से पूछा -क्या यह चन्द्रमा का अपना प्रकाश है ? पिताजी ने बता दिया, नहीं यह भी सूर्य का ही प्रकाश है, जो चन्द्रमा से परावर्तित होकर धरती पर उजियाला फैला रहा है। अर्थात चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित हो रहे हैं। फिर पूछा सूर्य किससे प्रकाशित होते हैं ? उन्होंने समझा दिया कि सूर्य -किसी से प्रकाशित नहीं है, वह एक गर्म आग का गोला है, और उसका यह अपना प्रकाश है। सूर्य स्थिर है, न उगता है न डूबता है। पृथ्वी अपनी धुरी पर 24 घंटे में एक चक्र पूरा करती है, जिससे दिन-रात आते जाते हैं। पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है, जिसके कारण पेड़ से फल टूटने पर नीचे गिरता है,ऊपर नहीं जाता आदि आदि। इस प्रकार जगत-ब्रह्माण्ड के विषय के बारे में हमारे ज्ञान का क्षेत्र क्रमशः बढ़ता जाता है। यह सब ज्ञान आता कहाँ से है ? बाहर से? नहीं यह ज्ञान हमारे भीतर ही था। जब जिस वस्तु या विषय का ज्ञान प्राप्त करना होता है, उस पर मन को एकाग्र करने से उस विषय या वस्तु का ज्ञान हमें प्राप्त हो जाता है। समस्त मानवजाति एक है -इसको पहचान लेना और प्रत्येक मनुष्य के सामने श्रद्धापूर्वक अपने सिर को झुकाना, उसकी कदर करना ही सच्चा ज्ञान है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने मन को एकाग्र करने की तकनीक सीखने को ही शिक्षा का प्रधान तत्व  कहा है। 
मन क्या है ? सूक्ष्म वस्तु को हम देख नहीं सकते: इसीलिए हमें मन के विषय में स्पष्ट अवधारणा नहीं है। परन्तु हम अनुभव करते हैं, कि मन है। पर वह कार्य कैसे करता है ? हम कहते हैं -मेरा शरीर परिवर्तनशील है,बच्चा-जवान बूढ़ा होता है, लम्बा-नाटा, मोटा-दुबला होता रहता है। मेरी आँखों में नंबर लगेगा या नहीं ? मै बायें कान से कम सुन पाता हूँ - इसकी अवस्था को जानने वाला (knower-ज्ञाता ) कौन है? मेरा मन ही तो है ! इस शरीर और इन्द्रियों की अवस्था को मन जानता है। फिर हम देखते हैं कि मेरा मन भी परिवर्तनशील है, कभी तो यह खुश रहता है, कभी उदास हो जाता है। तो मन की अवस्थाओं को कौन जानता है ? हमलोग कहते हैं -हमलोग मैच जीत गए, मेरा मन आज बहुत प्रसन्न है। मन का भी कोई ज्ञाता है -तो वह कौन है ? मन का भी कोई द्रष्टा है - जो मन को भी देख सकता है -वही हमारी सत्ता है। 
 जिसको हम अपना वास्तविक 'मैं' कहते हैं, जो कभी नहीं बदलता-पर शरीर का ज्ञाता कहलाने वाले मन की अवस्था को भी जो जानता है, वह कौन है -क्या है ? हमारे देश में उसको आत्मा (existence- consciousness-bliss, सच्चिदानन्द या ब्रह्म) कहा जाता है। भले इस समय उस सत्ता स्पष्ट रूप से नहीं समझ पा रहे हों,फिर भी हमें उस सत्ता पर श्रद्धा रखनी चाहिए। जैसे विज्ञान के भी बहुत से फैक्ट्स को एक्सपेरिमेंट करके हमने अभी स्वयं नहीं देखा है। जल का सूत्र है H2O,अर्थात दो भाग हाइड्रोजन 1 भाग ऑक्सीजन को मिलाने से जल बनाकर हमने नहीं देखा है, किन्तु वैज्ञानिक-खोज से उत्पन्न इस सिद्धान्त पर हममें अधिकांश लोग विश्वास करते हैं।
 उसी प्रकार हमलोगों को आध्यात्मिक जगत के वैज्ञानिकों अपने पूर्वज ऋषियों (स्वामी विवेकानन्द) द्वारा भारत निर्माण का आविष्कृत सूत्र 3'H'-विकास पद्धति पर  विश्वास करना चाहिए कि हम वास्तव में आत्मा हैं। और यह मन अपरिवर्तनशील आत्मा और परिवर्तनशील जगत के बीच एक पूल के जैसा काम करता है। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं - Hand, Head और Heart (3rd H) भी हैं। मनुष्य केवल 2H नहीं 3H है ! इन तीनो शक्तियों को विकसित करने की पद्धति को सीखकर मनुष्य बना जा सकता है। इसीको मनुष्यनिर्माणकारी शिक्षा कहते हैं।
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[नवनी दा 27-12-2005 कैम्प :धर्मलाभ -पहला पुरुषार्थ "मनोतीर्थ में स्नान !" सरिसा रामकृष्ण मिशन आश्रम/ॐ सहनाववतु सहनौभुनक्तु]
स्वामी विवेकानन्द के शिकागो भाषण के पहले तक अंग्रेज लोग वेदों-उपनिषदों को shepherd song (गड़ेरिया का गीत-चरवाहा गीत) कह कर इसका उपहास किया करते थे। परन्तु 2003 में UNESCO  ने  वेदों उपनिषदों की मौखिक परम्परा को 'मनुष्यजाति की मौखिक और अमूर्त विरासत' " Oral and Intangible Heritage of Humanity." [ दूसरे शब्दों में यूनेस्को के द्वारा 2003 में " आगम -निगम अर्थात शिव-पार्वती संवाद (अथवा उससे निकले जैनिज्म, बुद्धिज्म, सिखिज्म में) या वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में  प्रचलित - मौखिक दीक्षा-परम्परा को "मानवता की मौखिक और अमूर्त विरासत"  कहकर सम्मानित किया गया है। संस्कृत भाषा में लिखे वेद-उपनिषदों के महत्व को पाश्चात्य जगत या यूनेस्को को समझने में इतना समय क्यों लगा ? क्योंकि प्राचीन समय में पाश्चात्य देशों में संस्कृत की शिक्षा देने की कोई व्यवस्था नहीं थी। 
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में  संस्कृत चेयर के  'बोडेन चेयर' पद पर प्रतिष्ठित होने वालो सबसे पहले व्यक्ति थे-संस्कृत के विद्वान एच.एच. विल्सन(Horace Hayman Wilson: १७८६-१८६०)। वे  भारत में मेडीकल प्रोफेशन के एक सदस्य के रूप में, १८०८ में आये  तथा १८३२ तक यहाँ रहे थे। एक भारतीय विद्वान के पत्र के उत्तर में विल्सन साहब  ने संस्कृत के माधुर्य के बारे में, संस्कृत के अनुष्टप छन्द में लिखा था-'अमृतं मधुरं सम्यक् संस्कृतं हि ततोऽधिकं |देव भोग्यमिदम् यस्माद् देव भाषेती कथ्यते || '' अमृत बहुत मीठा होता है। संस्कृत उससे भी अधिक मीठी है, क्योंकि देवता इसका सेवन करते हैं। यह देववाणी कहलाती है। इस संस्कृत में ऐसी मिठास है जिसके कारण हम विदेशी लोग इसके सदा दीवाने रहते हैं। जब तक कि भारतवर्ष में विन्ध्य तथा हिमालय है,.....यावत गंगा च कावेरी च तावदहि संस्कृतं। "  जब तक गंगा तथा गोदावरी है,तब तक संस्कृत है।' 
एक जनश्रुति प्रसिद्द है कि राजा भोज ने एक लकड़हारे के सिर पर बोझ देखकर परदुःख-कातर हो उससे संस्कृत में पूछा-  "किम ते भारं बाधति?" तुम्हें यह बोझ कहीं कष्ट तो नहीं पहुंचा रहा है ? और 'बाधति ' क्रिया का प्रयोग किया। इस पर लकड़हारे ने उत्तर दिया --"भारं न बाधते राजन यथा बाधति बाधते।। "महाराज ! मुझे इस बोझ से उतना कष्ट नहीं हो रहा है जितना ' बाधते ' के  स्थान पर आपके बोले हुए 'बाधति ' पद से हो रहा है।' जबकि भारतीय समाज का मेरुदण्ड है - ग्रहस्थाश्रम ; अन्य आश्रमों की स्थिति ग्रहस्थाश्रम के ऊपर ही निर्भर है। इसीलिये संस्कृत साहित्य में गार्हस्थ्य धर्म का सांगोपांग वर्णन पूर्ण तथा हृदयावर्जक रूप से उपलब्ध होता है। संस्कृत साहित्य का आदिमहाकाव्य वाल्मीकिरामायण गार्हस्थ्य धर्म की धुरी पर घूमता है। दशरथ का आदर्श पितृत्व ,  कौशल्या का आदर्श मातृत्व ,सीता का आदर्श पत्नीत्व ,भारत का आदर्श भातृत्व ,सुग्रीव का आदर्श बन्धुत्व ,तथा सबसे अधिक रामचन्द्र का आदर्श पुत्रत्व भारतीय गार्हस्थ्य धर्म के ही विभिन्न अन्गों के आराधनीय आदर्शों की मधुमय मनोरम अभिव्यक्ति है। भारतीय साहित्य में संस्कृत वाङ्गमय का विशेष महत्त्व है। संस्कृत वाङ्गमय जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष से संबद्ध सभी विषयों का  साङ्गोपाङ्ग वर्णन करता है। जीवन का एसा कोई भी पक्ष नहीं जिसका सूक्ष्म विवेचन संस्कृत वाङ्गमय में ना हो। 
वैदिक संस्कृति और संस्कृत भाषा के प्रति यही भाव मानवजाति के सभी मार्गदर्शक नेताओं, अवतारों, या जीवन्मुक्त शिक्षकों में पाया जाता है। मानवजाति के जितने भी मार्गदर्शक नेता आते रहे हैं -उन सबों ने गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में अपने जीवन पुष्प को (चरित्र को) कमल - पुष्प की तरह प्रस्फुटित करने का मार्ग दिखलाया है। स्वामी जी के भाषण को सुनने के बाद वहाँ की एक महिला ने पूछा -Swami ji are you Buddhist? स्वामी जी थोड़ा विनोदी स्वभाव के थे, उन्होंने उत्तर में कहा था - No, I am not a Buddhist, but I am bud'ist ! नहीं, मैं बुद्धिष्ट नहीं हूँ, बल्कि मैं कली को फूल में विकसित होने की शिक्षा देता हूँ। उसी प्रकार इस शिविर में भी जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने की पद्धति सिखाई जाती है। हमलोगों का जीवन  भी अभी कली के रूप है, इस जीवन पुष्प को प्रस्फुटित करने की पद्धति हमें भी सीखना है। 
सबसे बड़ा मूर्ख कौन है ? इसके उत्तर में आचार्य शंकर ने कहा है- इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्ति स्वार्थे प्रमाद्यति। दुर्लभम् मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषं।। ( इतः कः  नु अस्ति मूढात्मा  यः  तु स्वार्थे प्रमाद्यति,  दुर्लभं मानुषं  देहं प्राप्य तत्र अपि पौरुषम्। विवेक-चूड़ामणि ) - "देव- दुर्लभ मनुष्य देह और पौरुष को पाकर भी जो स्वार्थ साधनमें प्रमाद करता है - अर्थात अपने जीवनपुष्प को प्रस्फुटित करने में प्रमाद करता है, उससे अधिक और मूढ कौन होगा ? जो मनुष्य मन को वश करने का कौशल सीखकर अपने को पशुमानव से देवमानव में रूपान्तरित करने की कोई चेष्टा नहीं करता वही तो सबसे अधिक मूर्ख या मोहित व्यक्ति है !  सबसे बड़ा मूर्ख वही है, जो मनुष्यत्व और पौरुष को प्राप्त करके भी अपने जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने का प्रयत्न नहीं करता है। देवदुर्लभ मानव-शरीर, उसके भी उपर पौरुष- साहसिकता या यौवन का तेज प्राप्त करके भी जो व्यक्ति आलस्यवश स्वयं के यथार्थ स्वार्थ या सर्वोत्तम हित 'चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ' की साधना की उपेक्षा करता है, उस व्यक्ति से बड़ा मूर्ख (मोहग्रस्त मनुष्य) कौन हो सकता है ? 
को दरिद्रः ? दरिद्र कौन है ?  जिसकी तृष्णा  विशाला (असीम) होती है वही दरिद्र (निर्धन) होता है ,मन में  सन्तोष हो तो कौन धनवान है और कौन निर्धन है? स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला। मनसि तु परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः॥ वैराग्यशतक /45 जिसके मन में जितनी अधिक तृष्णा है वह उतना बड़ा दरिद्र है। और जब मन में सन्तोष आ जाता है, तब धनी-गरीब का अपने मन में कोइ भेद नहीं होता ।  विषयों को भोगने की तृष्णा के कारण ही हमलोग सम्मोहित (hypnotized) हो जाते हैं, हमारी बुद्धि मोहित हो जाती है। जन्म लेते ही प्रत्येक मनुष्य सम्मोहित हो जाता है, इसलिए उच्चतम डिग्री प्राप्त मनुष्य की बुद्धि भी मोह-निद्रा में सोयी हुई बुद्धि है। सन्त तुलसी दास जी कहते हैं - 'सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहि जग बारहिं बारा।अर्थात पुत्र धन स्त्री मकान और परिवार आदि तो इस संसार में बार बार प्राप्त होते रहते हैं।विवेक-प्रयोग तथा चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का संकल्प-ग्रहण किये बिना हम कभी विसम्मोहित (Dhypnotized या भ्रममुक्त) नहीं हो सकते; हमारी मती कभी जाग्रत नहीं हो सकती और इसका परिणाम क्या होता है ?शूकर, सियार, स्वान योनियों में जन्म लेना पड़ता है।  वैसा जीव अपनी जन्म-दायिनी माता को केवल दुःख देने के लिये ही पैदा हुआ है। 
भ्रूण हत्या क्यों ? प्रकृति का कोमल उपहार,भोर की उजली किरण,जीवन की प्रथम कलि,खिलने से पहले ही मुरझाने ko विवश क्यूँ ?' कन्या' ही माँ, बेटी, बहन है जन्मदायिनी माँ की आंख में आंसू क्यूँ ? संकल्प ग्रहण (आत्मसुझाव-Autosuggestion) तथा विवेक-प्रयोग की शिक्षा (प्रशिक्षण)  देने से - भ्रूण में पल रही बेटी या बेटा दोनों - Would be Leader of the mankind. भावी सारदादेवी, मीराबाई, सहजोबाई या लक्ष्मी बाई, श्रीरामकृष्ण,बुद्ध ईसा भी बन सकती/सकता है।  इसीलिए सहजोबाई कहती हैं -राम तजूं मैं गुरु न बिसारूं, गुरु के सम हरि को न निहारूं। हरि ने जन्म दियो जग माहीं, गुरु ने आवागमन छुड़ाही॥सन्त तुलसीदास जी ने भी कहा है, तुलसिदास हरि गुरू-करूना बिनु, बिमल विवेक न होई । बिनु विवेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई ।। भगवान तथा गुरु (विवेकानन्द ) की कृपा के  बिना किसी को शुद्ध-विवेक (clear-discrimination) प्राप्त नहीं होता, और इसके (विवेकानन्द के) बिना कोई व्यक्ति ब्रह्मांड नामित गहरे समुद्र (भव-सागर) को पार नहीं कर सकता। सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक॥ भावार्थ:-हे तात! सुनो, माया से रचे हुए ही अनेक (सब) गुण और दोष हैं (इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है)। गुण (विवेक) इसी में है कि दोनों ही न देखे जाएँ, इन्हें देखना ही अविवेक है॥41॥
कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता। आतंकवाद को आतंकवाद से नष्ट नहीं किया जा सकता। प्रेम के आधार पर ही नया विश्व बनाना चाहिए। यह काम केवल भारत से होगा। पहले सबके हृदय में परस्पर कितना प्रेम था ! " भूल न जाना हर भारतीय मेरा भाई है !" Forget not every Indian is my brother' - 'वसुधैव कुटुम्ब्कं'- अब ऐसा कौन कहता है ?अब तो केवल अधिक से अधिक धन जमा करने की होड़ मची है। इस गला-काट प्रतियोगिता और आतंकवाद का अंत कैसे होगा ? मनुष्य बनकर और को भी मनुष्य बनने में सहायता करने से होगा। स्वाधीन भारत के किसी नेता ने स्वामी विवेकानन्द को नहीं पहचाना है। 
स्वामी जी कहते थे -" जिस प्रकार स्वयं को हिन्दू कहकर अपना परिचय देना आजकल हमलोगों में परिचलित है, उसकी अब कोई सार्थकता नहीं बची है। इसलिए मैं अपने लिए अब हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं करूँगा।" -५/१९ (क्योंकि पंचानन मिश्रा को पेंचो कहना उसका अपमान करना है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी १८७५ ई ० 'आर्य समाज ' की स्थापना की थी, 'हिन्दू महासभा' की नहीं । क्योंकि हिन्दू शब्द हमें फ़ारसी लोगों से प्राप्त हुआ है। हम अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था में पले -बढ़े लोग स्वामी विवेकानन्द के परामर्श के अनुसार, " गर्व से कहो कि मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतवासी (भारतीय) मेरा भाई है ! कहने के बजाये  महामण्डल के अंग्रेजी स्वदेशमन्त्र में भी भारत को India क्यों कहना चाहिए ? [अंग्रेजी शासन-काल में हमारे देश का नाम भारतवर्ष से India कर दिया गया। स्वामी जी के समय में भारत अंग्रेजों का गुलाम था, तब उन्हें 'O India Forget not " कहा था। "every Indian is my brother" कहना भी मजबूरी रही होगी। स्वाधीनता के 70 वर्षों बात भारतियों को अपना परिचय 'Indian' या हिन्दुस्तानी कहकर क्यों देना चाहिए ? क्या यह भी अंग्रेजी परस्ती नहीं है ?]  
श्री रामकृष्ण कहते थे -जितने भी 'branded religion' (  ट्रेड-मार्क या बाहरी छाप वाले) जितने भी धर्म हैं, वैसे सभी साम्प्रदायिक धर्म जितना शीघ्रातिशीघ्र नष्ट हो जाये तो उतनी ही शीघ्रता से मानवजाति का कल्याण सम्भव हो जायेगा। धर्म तो एक ही होता है -[जिसके रहने से पाशविक मानसिकता नष्ट होकर आदमी से इंसान या मनुष्य कहा जाता है।] धर्म कभी दो-चार नहीं हो सकता। देश-काल परिस्थिति के अनुसार पैगंबर या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता लोग आविर्भूत होते हैं, और अलग -अलग पद्धति से उसी एक धर्म [अभ्युदय और निःश्रेयस] को अपने आचरण में उतार कर उसका प्रचार करते हैं। " श्री रामकृष्ण देव इस्लामधर्म के सूफ़ी-सम्प्रदाय के औलिया (सन्त) गोविन्द राय से दीक्षा लेकर 'अल्ला' के मंत्र का जप (99 नाम का) किया करते थे। प्रसिद्द सूफी संत (धार्मिक विद्वान) जलालुद्दीन रूमी "आदमी की तरक़्क़ी" नामक नज़्म में कहते हैं,  - 
" बेजान चीज़ों (खनिज आदि) से मर गया, पौधा बन गया। 
फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया। 
हैवानों (पशु -मानव) से मर गया और आदमी (इंसान -चरित्रवान मनुष्य)  हो गया। 
डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया? 
अगली दफ़े आदमियों (इंसानों)  के बीच से मर जाऊँ। 
ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ। 
और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना कि सिवा उसके; हर शै को है -फ़ना हो जाना। 
एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा। फिर जो सोच में नहीं आता, वो हो जाऊँगा!
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 "द्वार पर दस्तक तो दो सही- देखो फिर वो द्वार अपने खोल देगा; 
तुम 'ना कुछ' हो जाओ [100 % unselfish हो जाओ !]  
, - ओर वो तुम्हे सबकुछ बना देगा।" 
एक बार फिर रूमी अपनी प्रेमिका के दरवाजे पर गए और दरवाजा खटखटाया। अंदर से आवाज आई - ‘कौन है?’ इस बार रूमी ने कहा, ‘तुम, सिर्फ तुम। रूमी अब कहीं नहीं है।’ दरवाजा खुल गया..." 
माशूक़ ही है सब कुछ, आशिक़ है बस परदा।
माशूक ही बस जी रहा है, आशिक़ तो एक मुरदा॥  
सूर्य की किरणें चन्द्रमा पर गिरती हैं, और चन्द्रमा  चमकने लगता है. पर वास्तव में यह उसकी अपनी चमक नहीं है, ठीक इसी प्रकार इस दुनिया में हर चीज़ की अपनी खुद की कोई खूबी नहीं है।  इसलिए तुम उस स्रोत (विवेक-श्रोत) की तलाश करो, जो की हमेशा अपनी खुद की रौशनी से चमकता है । 
[जलालुद्दीन रूमी के मज़ार पर ये पंक्तियाँ लिखी हैं ” जब में मर जाऊ तो मेरे मकबरे को ज़मीन में मत खोजना, उसे लोगों के दिलों में खोजना” रूमी की दो रचनाये बहुत मशहूर हुई, एक “मसनवी” और “दीवान ए शम्स तबरेज़”। ] 
रूमी के प्रसिद्द नज्म "आदमी की तरक़्क़ी" का तात्पर्य डार्विन के Evolution (क्रम-विकासवाद) को आगे बढ़ाना है। वे कहते हैं विभिन्न योनियों से उन्नत होते हुए अन्त में मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। किन्तु यहीं पर  क्रम-विकास का अन्त नहीं हो जाता है। क्रमविकास अब भी चलना चाहिए, मनुष्य को देवता में उन्नत होना चाहिए। जो घोर स्वार्थपर है- वह पशुमानव की अवस्था में है, जब धर्म (विवेक-प्रयोग) सीखकर वह सहानुभूति (sympathyसम्पन्न होता है, तब वह क्रमशः निःस्वार्थपर (unselfish) मनुष्य होने लगता है। जब कोई व्यक्ति पूर्णतः निःस्वार्थपर (100 % unselfish) हो जाता है, वह विकसित हृदय वाला मनुष्य -अर्थात समानुभूति (empathyसम्पन्न हृदय वाला मनुष्य [Empowered heart] या देवता बन जाता है। देवता होने के लिए मनुष्य को स्वर्ग-नरक में जाना नहीं पड़ता। देवता (ईश्वर) होने के बाद भी मनुष्य धरती पर ही रहते हैं। यदि हमारे मन में ईर्ष्या-द्वेष या "असूया" (दूसरे के गुण में भी दोष निकालना) के भाव अधिक मात्रा में भरे हुए हों, तो दूसरों के दुःख में भीतर से खुश रहकर बाहर से सहानुभूति का दिखावा करना आसान है। (राहुल बीमार परिकर को देखने जाते हैं ?) पर दूसरों की उन्नति देखकर, ठीक उन्हीं के जैसा आनन्द का अनुभव करने को Empathy -समानुभूति, हमदर्दी (दूसरे की भावनाओं को समझने और साझा करने की क्षमता।) कहते हैं। यह गुण (संवेदना) यदि हममें बिल्कुल नहीं हो, तो ईर्ष्या का बिच्छू बहुत डंक मारेगा, और (अहंकार का भूत भी सिर पर सवार हो जायेगा।) हम नरकवास (कलयुग) करने लगेंगे। परन्तु यदि दूसरों की उन्नति सुनकर मन में सच्चा आनन्द होता है, तो हमारा स्वर्गवास (स्वर्णयुग-सत्ययुग) 
चल रहा है। 
पर यह भी विकासवाद का अन्त नहीं है ! शास्त्रों में कहा गया है कि यह स्वर्ग का सुख भी सच्चा सुख नहीं है, पुण्य क्षीण होने पर वहाँ से भी गिरना पड़ता है। गीता 9 /21 में कहा गया है - 'क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति (enter) |' जो स्वर्गलोक प्राप्त करता है उसे दीर्घ जीवन तथा विषय-सुख की श्रेष्ठ सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। तो भी उसे वहाँ सदा नहीं रहने दिया जाता।  पुण्यकर्मों के फलों के क्षीण होने पर उसे पुनः इस पृथ्वी पर भेज दिया जाता है। जैसा कि वेदान्तसूत्र में इंगित किया गया है, (जन्माद्यस्य यतः) जिसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं किया या जो समस्त कारणों के कारण (माँ जगदम्बा के अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) को नहीं समझता, वह जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता। वह बारम्बार स्वर्ग को तथा फिर पृथ्वी-लोक को जाता-आता रहता है,मानो वह किसी चक्र-हिण्डोले पर स्थित हो, जो कभी ऊपर जाता है और कभी नीचे आता है। सारांश यह है कि वह वैकुण्ठलोक (रामकृष्णलोक) न जाकर स्वर्ग तथा मृत्युलोक के बीच जन्म-मृत्यु चक्र में घूमता रहता है। अच्छा तो यह होगा कि इसी जीवन में, दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येत ब्रह्ममय जगत या 'दृष्टिं भगवानमयी कृत्वा पश्येत भगवानमय जगत'  देखने और सच्चिदानन्द-मय जीवन भोगने के लिए वैकुण्ठलोक की प्राप्ति (= रामकृष्ण-लोक, महामण्डल कर्मी का जीवन) की जाये, क्योंकि वहाँ से इस दुखमय संसार में लौटना नहीं होता। वह रामकृष्ण-लोक जिस उपाय से प्राप्त होता है, उसीका नाम है -मनःसंयोग। अभ्यास और वैराग्य के द्वारा किस प्रकार मन को वश में लाया जाता है, उसी पद्धति को सीखना चाहिए। 
Function of Heart: 3'H' विकास का प्रशिक्षण का अर्थ है जिस अवयव का जो function है, उसे विकसित करने की चेष्टा करते रहना ! मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं- शरीर,मन और आत्मा। परन्तु आत्मा क्या है, अभी हमलोग आत्मा कहने से उसका अर्थ नहीं समझ पाते हैं। इसलिए सरलता से समझाने के लिए स्वामी जी आत्मा नहीं कहकर -Heart कहते हैं, और मनुष्य की तरक्की के लिए 3'H' विकास - अर्थात Hand, Head, Heart के विकास का सूत्र देते हैं। प्रश्न उठता है कि स्वामी जी आत्मा को Heart क्यों कहते हैं ? हम सभी जानते हैं कि मर्माहत होने पर, या सुख-दुःख की संवेदना (परानुभूति) होने पर हाथ अपने आप यहाँ जाता है। क्योंकि ह्रदय में केवल sympathy ही नहीं  empathy को भी विकसित करना चाहिये। अर्थात दूसरों के दुःख सहानुभूति का दिखावा तो कोई भी कर सकता है, परन्तु हृदय को विकसित करने का अर्थ है-दूसरों के सुख-सम्पत्ति को देखकर, अपने हृदय में भी बिल्कुल उसके ही जैसा सुखी और आनन्द की उत्फुल्लता का अनुभव, करने में सक्षम होना चाहिए। 
Function and nature of Hand: शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।' - शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन (Instrument)  है। body is tool to carry the work of soul (existence-consciousness-bliss)]   -अर्थात शरीर आत्मा के कार्य को करने के लिए एक उपकरण है। इसीलिए  शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है। शरीर को निरोगी, स्वस्थ और कर्मठ बनाये रखना पहला धर्म है।  इसी के होने से सभी का होना है अत: शरीर की रक्षा और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि शरीर पर ही दिनरात मन को लगाये रखना होगा ।  ठाकुर (श्रीरामकृष्ण देव) कहते थे, "दिन में ढूंस-ढूंसकर खा लो, रात में कम खाना। दिन में पेट भरकर खाओ, सब हजम हो जाएगा। रात में कम खाने से शरीर हल्का रहेगा, ध्यान-भजन की भी खासी सुविधा रहेगी। " शरीर को हमलोग अपने दिनचर्या में परिवर्तन लाकर, नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा हमलोग निरोग और स्वस्थ रहना सीखते हैं। यहाँ इसके लिये प्रशिक्षण भी दिया जाता है. इसके लिए पौष्टिक आहार , व्यायाम और दिनचर्या को नियमित करके हमलोग स्वस्थ और निरोग रह सकते हैं। कैसे आहार संयम और व्यायाम के द्वारा कर्मठ बने रह सकते हैं। इसके लिए भी यहाँ प्रशिक्षण दिया जाता है।
Function of Mind and nature of Mind : कहा गया है Healthy mind in healthy body -स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि हम मन के गुलाम न हों, मन तो हमारा यंत्र है, उसे हमारे इच्छा और आज्ञा का पालन करना चाहिए।  मन को अपनी मुट्ठी में करने की क्षमता को ही पुरुषार्थ कहते हैं। परन्तु अभी मेरे मन की हालत, उसकी उदण्डता तो इतनी बढ़ी हुई कि वह बिना मुझसे अनुमति लिए, मेरे चाहे बिना ही -इसी क्षण मुझे किसी दूसरे ग्रह में, बुरे स्थानों में, इंटरनेट वीडियो-बार में या डांसबार में ले जा सकता है; या मन्दिर में भी ले जा सकता है। क्योंकि अभी यह मर्कट की तरह चंचल है। हमेशा इधर-उधर उछल-कूद मचाता रहता है। कामिनी-कांचन का अत्यधिक लालच, इन्द्रियविषयों को भोगने की इच्छा रूपी मदिरा को पीकर मन मर्कट उन्मत्त हो गया है।  क्योंकि हृदय का विस्तार नहीं होने से हमलोग empathy नहीं कर पाते और दूसरों की उन्नति सुख-सम्पत्ति को देखकर ईर्ष्या का बिच्छू डंक मारता रहता है। फिर जब दूसरों को नीचा दिखा देने का अहंकार रूपी भूत भी सवार हो जाता है, तब वैसे मन को शान्त करना , मन को अपने से दूर हटाकर उसे देखना और संयम में रखना बहुत कठिन हो जाता है। किन्तु असम्भव नहीं है, 'अभ्यास और वैराग्य के द्वारा उसको वश में लाया जा सकता है।' मन को वश में करने का यही उपाय- गीता, भागवत और योगसूत्र में कहा गया है। यह यम-नियम का अभ्यास हर रोज 24 घंटे (24 X 7) करते रहना चाहिए। 
मनःसंयोग (दृग-दृश्य विवेक): अर्थात मन को अपने से अलग  हटाकर उसे देखने का अभ्यास : The practice of seeing the person apart from his mind. आसन-प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास प्रतिदिन दो बार सुबह और शाम करना चाहिये। आसन पर बैठकर जब हम मन से अपने को थोड़ा दूर हटाकर उसको देखने का प्रयास करते हैं, बहिर्मुखी मन को खींच कर अपने सामने लाने का प्रयास करते हैं, तब मालूम पड़ता है कि मन कितना चंचल है, कहाँ कहाँ न दौड़ता रहता है ! जैसे किसी चंचल बालक को शान्त करने के लिये उसको प्यार से अपने सामने बैठाकर समझा-बुझाकर शान्त करना पड़ता है, उसी तरह मन को भी सामने बैठाकर साधना पड़ता है। 
उपनिषदों में मन को बन्दर की तरह नहीं कहा गया है। 'लालयेत चित्त बालकम' उसको प्रेम के साथ धीरे -धीरे समझा-बुझाकर शान्त करो, जबरदस्ती करने से मन बिगड़ भी सकता है।[मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। इसलिये मूलत: वह सर्वज्ञानी है। अपने आप में पूर्ण है। लेकिन देह-मन भाव के कारण वह अपने को कुछ भिन्न मानता है। मनुष्य को उसके देहभाव (देहाध्यास)से मुक्त करना ही शिक्षा का काम है। चाणक्य नीति में लिखा है - लालयेत पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत् । प्राप्तेषु षोडषे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत् ॥ पुत्र को [ यह उक्ति संतान मात्र के लिए है वो चाहे पुत्र हो या पुत्री )जन्म से लेकर पांच वर्ष तक सिर्फ दुलारते हुए ही पालन करना चाहिए ,पांच वर्ष से दश वर्ष की अवस्था बच्चो के सीखने की अवस्था होती है अत; पूर्ण से अनुशाषित रखना चाहिए और  जब सन्तान सोलह वर्ष की अवस्था को प्राप्त हो जाए तब हर तरह से हमें  मित्रवत व्यवहार करना चाहिए।] 
 इसलिए मन को प्रेम से समझाते हुए कहो - " यहाँ मेरे सामने आओ, बैठो -देखो हर समय इतना दौड़ते रहना अच्छा नहीं है। तुम्हारे बिना कोई कार्य नहीं कर पाउँगा, अतः तुम मेरा साथ दो, मेरा कहना मानो। तुम्हारी सहायता से मैं दुनिया को अच्छा बना सकता हूँ, उसका विध्वंश भी कर सकता हूँ। Atom Bomb का विस्फोट करके दुनिया में 'धर्म' का राज्य स्थापित नहीं किया जा सकता। प्रेम के द्वारा ही सम्पूर्ण विश्व को एकता के सूत्र में बाँधा जा सकता है। आज देश की अवस्था इतनी खराब इसीलिए लग रही है कि हम सभी लोग स्वार्थी बन गए हैं। आपस में प्रेम, सद्भाव, सहानुभूति, समानुभूति नहीं है। मन को वशीभूत करने से यह सब हो सकता है। घर के अभिभावक लोग सोचते हैं, धन कमा लेने से सबकुछ मिल जायेगा। परन्तु ऐसा सोचना ठीक नहीं है, घरों में सुख-शांति तभी आएगी जब हमारा मन हमारे वश में रहेगा। किसी की प्रशंसा या कटुवचन को सुनकर प्रतिक्रिया दिखाना -सुखी-दुःखी होना छोड़ देगा। इसलिए  महाभारत (विदुरनीति 2.56-57)  में कहा गया है -  
                                 अविजित्य य आत्मानममात्यान् विजिगीषते। 
अमित्रान् वाऽजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते। 
जो राजा अपनी इंद्रियों और मन को जीते बिना अपने मंत्रियों को जीतना चाहता है तथा मंत्रियों की जीते बिना अपने शत्रुओं को जीतना चाहता है, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है। 
आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण यो जयेत्। 
ततोऽमात्यानमित्रांशच न मोघं विजिगीषते।। 
जो राजा अपनी इंद्रियों व मन को ही अपना सबसे बड़ा शत्रु समझकर पहले उन्हें जीत लेता है, फिर अपने मंत्रियों और शत्रुओं को जीतने का प्रयास करता है, तो उसे अवश्य सफलता मिलती है।  
ट्रेरिस्टों पर बम गिराने के लिए इराक -अफगानिस्तान कहाँ जा रहे हो ? पाश्चात्य देश अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए दानव हो गए है, वे दानव-दलन कैसे करेंगे ? किन्तु जब तुम्हारा सोया हुआ विवेक जाग्रत हो जायेगा, तब तुम यह समझ जाओगे कि हमारे हृदय में ही प्रेमस्वरूप ईश्वर (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ) जगत्जननि माँ सारदा देवी, जगतबन्धु स्वामी विवेकानन्द (प्रेम का समुद्र) ज्वार मार रहा है। उसी माँ जगदम्बा के विराट सर्वव्यापी 'अहं'-बोध से निसृत जगतग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। जब उस प्रेम को अभिव्यक्त होने की बाधा व्यष्टि अहं से (reflected consciousness या देहाध्यास के अहं-मन से) शुद्ध चेतना (pure consciousness) को विवेक के द्वारा पृथक -पृथक कर लिया जायेगा, तो वह प्रेम सम्पूर्ण विश्व को अपना समझने में समर्थ बना देगा। सभी केवल भाई ही नहीं हैं, सारी मानवजाति एक है ! 'अनेकता में एकता'  भारत की विशेषता-Unity in diversity, Oneness of humankind, कोई अलग नहीं है; तुम और मैं एक हूँ ! 
परीक्षा और परिणाम : वेदान्ती साम्यवाद, सनातन धर्म के अनुसार सारी मानवजाति एक है!  वेदान्त दर्शन की भाषा में इसी Oneness को अद्वैत कहा जाता है। यही सनातन धर्म में है जिसके अनुसार -देश में उत्पादित अन्न से लेकर कल-कारखानों में जो कुछ भी उत्पादन होता है (GDP सकल घरेलू उत्पाद) को सब मनुष्यों में उनकी जरूरत के हिसाब से बँटवारा कर देना चाहिए।  सबों में उनकी जरूरतों के हिसाब से वितरण करो, किन्तु उनको अपना इष्टदेव समझकर वितरण करना। अपने भाई-बहनों में पारिवारिक संपत्ति का बँटवारा करते समय भी उनकी जरूरतों के मुताबिक ही बँटवारा करना चाहिए। क्योंकि वे मेरे भाई-बहन ही नहीं हैं, मेरी आत्मा की आत्मा -मेरे इष्टदेव के स्वरूप हैं !  भागवत (7. 11. 10)  में सनातन धर्म को परिभाषित करते हुए जहाँ कहा गया है - 'तेष्वात्मदेवताबुद्धिः' अर्थात 'तेषु आत्मदेवता बुद्धिः' को मार्क्स के साम्यवाद में स्वीकार नहीं किया गया। सभी देशवासियों को अपनी आत्मा समझकर कर वितरण करने वाले 'सनातन धर्म' को भी अफीम कह दिया गया। इसीलिए यह आध्यात्मिक साम्यवाद दुनिया में कहीं नहीं आ सका है। 
[क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान। मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान। बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध नही होता और बिना अज्ञान के द्वैत बुद्धि नही हो सकती। माया के बशीभूत जड़ जीव क्या कभी ईश्वर के समानहो सकता है।] 
सम्पूर्ण भारतियों को जिस 'आत्मदेवता-बुद्धि' से देखते हुए GDP (1947 3 लाख से 2019 98 लाख) को भारतियों में उनकी जरूरतों के हिसाब से वितरण की बात सनातन धर्म में कही गयी है, स्वामी जी की ऋषि दृष्टि भी उसी प्रकार की थी। स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने ऐसा कहा है, स्वामीजी निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक थे, किन्तु हमारी दृष्टि वहाँ तक पहुँच नहीं पाती है।  वे तो पृथ्वी-लोक के परे ब्रह्मलोक में अखण्ड के घर में बैठकर तपस्या कर रहे थे, ठाकुर उनको समाधि से जगाकर अपना काम कराने के लिये पृथ्वी पर लेकर आये थे. इन बातों को मुँह से बोलकर नहीं समझाया जा सकता है, किन्तु योग-सूत्र के व्यास भाष्य में भी सप्तर्षियों में से विवेकदर्शर्न का अभ्यास करने कहा गया है। उत्तर आकाश में जो सप्त-ऋषि ध्रुव-तारे या पोल-स्टार की परिक्रमा करते दिखाई देते हैं, वे सब प्रवृत्ति-मार्ग के ऋषि है। स्वामीजी उनमें से कोई एक नहीं हैं।  
ब्रह्मा जी ने जब इतने सुन्दर सृष्टि की रचना की तो सोचने लगे, इतने सुन्दर जगत को देखने वाला भी तो कोई होना चाहिए। उन्होंने सोचा प्रजा की रचना करने से वे इस सुन्दर सृष्टि को देखकर खुश हो जाएँगी। तब उन्होंने अपनी इच्छा से प्रवृत्ति-मार्ग के सप्त-ऋषियों की रचना की. किन्तु उन्होंने सोचा कि यदि ये लोग भी प्रवृत्ति में फँस कर अपने स्वरुप को ही भूल गए, तो उनको फिर सही मार्ग पर कौन लायेगा ? इसीलिये सभी लोगो को सही मार्ग दिखलाने के लिये उन्होंने निवृत्ति-मार्ग के सप्त ऋषियों की रचना की. इस पूरी कहानी को समझ लेना बहुत कठिन है। भगवान क्या है ? मेरे मन में जो विचार उठ रहा है, वह भी भगवान का ही विचार है. भगवान भी शरीर-धारी चैतन्य ही हैं. ' चैतन्यात सर्वं उत्पन्न्म '! यहाँ कुछ भी जड़ नहीं है, सबकुछ चैतन्य ही है। इस सत्य की धारणा करने के लिये विषय-भोग की इच्छा, कामना-वासना का त्याग करना होगा, पवित्र होने के लिये गंगा-सागर तीर्थ या केदारनाथ धाम नहीं जाना होगा। 

उस मनुष्य का मन ही सबसे बड़ा तीर्थ है, जिसमें वह अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण -माँ सारदादेवी -स्वामी विवेकानन्द का निरंतर दर्शन करता रहता है, एक ऐसे अवतार का - जिसके दर्शन मात्र से प्राणियो के, घट घट के संताप, दु:ख, पाप मिट जाते है। 'यस्मिन वेदश्च देवश्च '- जहाँ समस्त वेदों और देवताओं की सब पवित्रता मिलकर एक हो गया हो, उस मन के सरोवर में स्नान करने से तुम अमृत हो जाओगे। -दिल के आईने में है तस्वीर-ए-यार। जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली।  
कर्मयोग में स्वामीजी एक कहानी कहते थे, - किसी गाँव में एक साधू झोपड़ी बनाकर रहते थे. उसी गाँव में एक बहुत भयंकर डकैत भी रहता था. किन्तु साधुसंग करने से उसके मन में पाश्चाताप उत्पन्न हुआ. वह साधू के पास रहकर उनकी सेवा करने की अनुमति मांगता है, कुछ दिनों तक वह रहने के बाद एक रोज साधू से कहता है, ' आप तो सब पर कृपा करते हैं, मुझे भी तीर्थ जाने की अनुमति दीजिये। मैंने सुना है कि तीर्थों में जाने से सारे पाप चले जाते हैं. ' किन्तु मैं यह कैसे समझूंगा कि मेरे सारे पाप चले गये हैं ? तब उस साधू ने कहा कि तुम एक गज साफ धुल हुआ श्वेत कपड़ा ले आओ. उसे काले रंग की स्याही में डुबो दो. इस काले कपड़े को सदा अपने साथ रखना, जब तुम किसी तीर्थ से स्नान कर के लौटना तो उस काले कपड़े को देखना कि उसका काला रंग अभी गया है या नहीं ? वह डकैत कई तीर्थों में भटका किन्तु कपड़ा जस-का तस ही रहा. वह बहुत दुखी मन से अपने गाँव की तरफ लौट रहा था. तभी उसे एक जंगल के भीतर से किसी औरत के रोने की आवाज सुनाई देती है. कोई डकैत उस औरत को अकेली पाकर उसका गहना लूट रहा था. यह देखकर उस डकैत को बहुत गुस्सा आ गया. तुरन्त उसने एक फरसे से उस डकैत का सिर उसके धड़ से अलग करते हुए कहा- ' जैसा बावनवां वैसा तिरपनवाँ ' फिर डकैत से उस युवती को बचाकर वह डकैत उसके गाँव तक छोड़ आया. फिर साधू के आश्रम में लौट आया.साधू ने पूछा - क्या तुम्हारा पाप चला गया ? उस डकैत ने कहा नहीं महाराज कई तीर्थों में नहा  कर मैंने देख लिया, पर जब खोला  तो वह काला का काला ही था. तब साधू ने पूछा रस्ते में तुमने क्या किसी असहाय स्त्री को बचाया भी था ? डकैत ने जब पूरी रामकहानी सुना दी, तो साधू ने कहा तू एकबार उस कपड़े को निकाल कर देखो। देखता है- तो कपड़ा सफ़ेद हो चूका था ! तब आश्चर्य से उस नवसाधु  ने कहा कि मैंने तो सिर काटा था, ऐसा कैसे हुआ ? तब साधू बोले, नहीं तुमने उस औरत को बचाने के लिये वैसा किया था, उसमे तुम्हारा अपना कुछ स्वार्थ नहीं था। तुम्हारे ह्रदय में जो निःस्वार्थ प्रेम रूपी धर्म का झरना  फूट पड़ा था, उसी धर्म के कारण तुम्हारे सारे पाप धुल गये हैं। '
ये जो मानस-सरोवर है, हमारा मन है, इस मन को वैसा ही तीर्थ बना लेना चाहिये और उसमें स्नान करके अमृत बन जाना चाहिये। यही स्वामीजी का आह्वान है, सभी मनुष्य उस मनोतीर्थ में स्नान करके अमृत हो सकते हैं। उस मनोतीर्थ के घाट पर हिन्दू-मुसलमान में कोई अन्तर नहीं रहता, नास्तिक भी अलग नहीं है. सभी धर्म यही कहते हैं, कि मन को पवित्र रखना चाहिये तथा उसे प्रेम से भर देना चाहिये। यही धर्म है, इस धर्म का लाभ हो जाने पर, यहाँ से जाते समय हम भी कह सकेंगे कि - वास्तव में यह जगत ईश्वर की सुन्दर रचना है ! यह तभी संभव होगा जब हमलोग उस आह्वान का अनुसरण करेंगे जो जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द ने दिया था कि -आओ हम अपने मन के स्वामी बने, आओ हम यथार्थ मनुष्य बनें ! इसीलिए स्वामी जी कहते थे - " तुम्हारी पाश्चात्य-शिक्षा पद्धति का एक बड़ा दोष यह है कि तुम केवल बौद्धिक शिक्षा की ही चिंता करते हो, हृदय की ओर ध्यान नहीं देते. इसका फल यह होता है कि मनुष्य दस गुना अधिक स्वार्थी बन जाता है। अपने तन-मन और वाणी को ‘जगद्धिताय’ अर्पित करो. तुमने पढ़ा है, ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ अपनी माता को ईश्वर समझो, पिता को ईश्वर समझो- परंतु मैं कहता हूं ‘दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवो भव’- गरीब, निरक्षर, मूर्ख और दुखी को ईश्वर मानो।" 
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