कुल पेज दृश्य

रविवार, 23 जून 2019

जो ब्रह्मविद वही ब्रह्म है, ताको वाणी वेद

'THE SPIRITUAL ASPIRANT AND SPIRITUAL DISCIPLINE' 
[आध्यात्मिक शिक्षण के मौलिक सिद्धांत : Fundamental Principles of Spiritual Discipline : https://aneela-daduji.blogspot.com/
'वेद वचन' 
"सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म "----- ब्रह्म सत्य है, ब्रह्म ज्ञान स्वरूप है, ब्रह्म अनन्त है । [तैत्तिरीयोपनिषत्]
"सत्यस्य सत्यं इति प्राणा: वै सत्यं तेषां एष: सत्यम्। "उसको जानो, उसके निकट जाओ, वह सत्य का भी सत्य है। प्राणादिकों का भी सत्य है, मूलभूत ऊर्जा सत्य है, परन्तु वह इसका भी सत्य है। " त्रिकाल सत्यम् ।"----जिसका तीन काल में भी नाश नहीं होता ।[बृहदारण्यक उपनिषद २-१-२०]
"आकाश पुष्पवत्, बांझपुत्रवत्, शसाश्रुंगवत् । "प्रपंचरहित परमात्मा के बीच में प्रपंच का अरोप करके, फिर निषेध करके कहते हैं कि कारण अविद्या, कार्य अन्त:करण, इनका त्याग करके पूर्ण बोधरूप आत्मा ही अवशेष रहता है ।
"मरीचिका बारिवत्" (मृग-तृष्णा का जल)/ शुक्ति-रजतवत्" (सीपी में रजत)/ "रज्जु-भुंजगवत् (रस्सी में सांप) इति शंका उत्तर : कहते हैं कि भ्रम का स्वरूप तो भ्रांति-काल में प्रतीत होता है और भ्रांति के नाश के पश्चात् उत्तरकाल में प्रतीत नहीं होता।
"यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।" उस ब्रह्म तक तो मन, वाणी की पहुँच नहीं है, क्योंकि निरंजन तो सर्व माया-प्रपंच से रहित है, और मन-वाणी तो माया के कार्य प्रपंच को ग्रहण कर सकती हैं, अतः जो ब्रह्म-वस्तु मन-वाणी के अगोचर है, उसको कैसे विषय करेगी अर्थात् जानेगी ?
"ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति" ~ अर्थात ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है ! 
--------------------
आगम-शास्त्र के अनुसार:  आगम-शास्त्रों में देवी के विभिन्न स्वरूपों (साकार एवं निराकार) का प्रतीकात्मक विवरण भी मिलता है। दश महाविद्याओं के अन्तर्गत प्रथम महाविद्या श्री आद्या(काली) के साकार स्वरूप का जो विवरण उपलब्ध है उसके अनुसार काली का रूप अत्यन्त भयंकर एवं डरावना है। उनका वर्ण काला है परन्तु शक्ति के उपासक उन्हें परम रूपवती तथा करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान देखते हैं। वह दिगम्बरा हैं परन्तु भक्तों को समस्त ऐश्वर्य प्रदान करती हैं। उनका निवासस्थान श्मशान है जहां पहुंचते ही स्वतः वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। काली मुक्तकेशी हैं। शवासना हैं। मुन्डमालावृतागी हैं। खड्ग एवं मुन्डधारिणी है। काली का यह विशिष्टरूप भक्तों के मन में वैराग्य तथा अद्वैतभावना उत्पन्न कर देता है।
मां काली अत्यन्त विशुद्ध, स्वयं प्रकाशमान्, सत्चित्आनन्दरूपा तथा समस्त संसार में व्याप्त है। श्री आद्या का पुरूषरूप ही श्री कृष्ण है। वह स्वयं महाशक्ति बताती हैं-‘ममैव पौरूषं रूपं-गोपिकाजन मोहनम्’---अर्थात गोपियों के मन को मोहने वाला मेरा पुरूष रूप श्री कृष्ण है। शक्ति- ग्रन्थों में श्री विष्णु के दश अवतारों की दश महाविद्याओं से एकरूपता सिद्ध की गई है,यथा‘‘कृष्णस्तु कालिका साक्षात्-राम मूर्तिश्च तारिणी….धूमावती वामनस्यात्-कूर्मस्तु वगुलामुखी’’।भगवती पराशक्ति पार्वती का स्वरूप॥ अर्थात् कालिका ही पुरूषरूप में श्री कृष्ण हैं।तारा-राम हैं। भुवनेश्वरी-वराहरूप हैं। त्रिपुरभैरवी-नृसिंह,धूमावती-वामन,छिन्नमस्ता-परशुराम, लक्ष्मी-मत्स्य, वगुलामुखी-कूर्म, मातंगी-बौद्ध तथा त्रिपुरसुन्दरी-कल्कि रूप में है।विभिन्न आगम-ग्रन्थों में महाशक्ति का कुण्डलिनी स्वरूप, विद्युत स्वरूप तथा प्रकाश रूप में भी गुणगान किया गया है। कुण्डलिनी रूप में उसे ‘‘शक्तिः कुण्डलिनी समस्त जननी’’ ‘‘शक्तिः कुण्डलिनी गुणत्रय वपु’’तथा ‘‘मूलोन्निद्र भुजंगराज सदृशी’’ माना गया है। 
फिर शक्ति- ग्रन्थों (देवी-अथर्वशीर्षम्-23) में देवी के स्वरूपों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए बताया गया है कि उनके वास्तविक स्वरूप को ब्रह्मादि त्रिदेव भी नहीं जानते हैं।   
 ‘यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया ।
 यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता ।
यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या ।
 यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा ।
 एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका । 
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका । 
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ॥23
 जिसका  (उसका) लक्ष्य / हेतु / प्रयोजन क्या है यह विदित नहीं होता इसलिए उसे अलक्ष्या कहा जाता है।
जिसका जन्म / आगमन कब / किससे / कैसे हुआ नहीं पता चलता इसलिए उसे अजन्मा कहा  जाता है ।
चूँकि जो (वह) एकमात्र ही सर्वत्र है, इसलिए उसे एका कहा जाता है । एक वही विश्वरूप सर्व भी है, इसलिए उसे एक-अनेक से विलक्षण कहा जाता है । अतः उसका वर्णन "अज्ञेया-अनंता-अलक्ष्या-अजन्मा (जन्मरहित)-एका-न-एका" इन शब्दों किया जाता है । अर्थात: देवी अज्ञेय है, एक है, अजा है, अलक्ष्या है। देवताओं के पूछने पर महादेवी ने बताया कि ब्रह्मस्वरूपा है तथा उनसे ही समस्त जगत की उत्पत्ति हुई है। वही विज्ञान तथा अविज्ञानरूपिणी हैं। ब्रह्म भी हैं। अब्रह्म भी हैं। वह वेद भी हैं। अवेद भी हैं। वही सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी हैं। वह वेदों द्वारा वन्दित तथा पाप नाशिनी देवमाता अदिति या दक्षकन्या सती के रूप की हैं। वही आठवसु, एकादश रूद्र, द्वादश आदित्य,असुर, पिशाच, यक्ष और सिद्ध भी हैं। वह आत्मशक्ति हैं। विश्व को मोहित करने वाली हैं तथा श्रीविद्यास्वरूपिणी महात्रिपुरसुन्दरी है। 

वृहदारण्यक उपनिषद् (अध्याय 1, ब्रााहृण 4 श्लोक 1) में कहते हैं---“आत्मैवेदमग्र आसीत्पुरुषविद्य: सो अनुवीक्ष्य नान्यदात्मनो।" ---वह अकेला था। उसने अपने से भिन्न कोई दूसरा नहीं देखा।”फिर क्या हुआ? आगे बताते हैं--स वै नैव रेमे, तस्मादेकाकी न रमते। वह आनंदित नहीं हुआ, मन नहीं लगा। एकाकी होने के कारण रमण, मन नहीं लगा – आनंद नहीं आया।इसलिए “स द्वितीयमैच्छत” – उसने दूसरे की इच्छा की। लीला के लिए एक से दो बन गया शिव एवं पार्वती । ऐतरेयोपनिषद् (1.1.1-2) में भी यही स्थापना है, “पहले वह एकमात्र था--इदमेक एवाग्र आसीत्-----दूसरा कोई नहीं था। नान्यत्किचनेमिषत्।उसने लोकसृजन की इच्छा की स ईक्षत् लोकान्नु इति। उसने लोक रचे- स इमांल्लोकानसृजत।” ”आत्मैवेदमग्रआसीत् एक एव सो कामयत” इत्यादि बृहदारण्यकश्रुति तद इच्छत , स इच्छान चकरे।
 देवी भागवत के अनुसार वह सगुण-निर्गुण दोनों हैं, रागी (भक्त) सगुण की तथा विरागी (ज्ञानी) निर्गुण की उपासना करते हैं ।भक्तजन परमेश्वर (परब्रह्म) के इस परमतत्व की निर्गुण, सगुण, साकार, निराकार, स्त्री रूप, पुरूषरूप तथा विभिन्न अवतारों के रूप में उपासना करते हैं।
 ये पराशक्ति का ही कमाल है की भगवान शिव सदा नित्य आनंदमय रहते है , सदा आनंद का भोग करते है। गाणपत्यों के गणपति, शैवों के शिव, बैष्णवों के विष्णु तथा सौरों के सविता (सूर्य) ही शाक्तों की त्रैलोक्यसुन्दरी महाशक्ति है। जिस परम-तत्व को वेद मंत्रों ने पुलिंग शब्द से, वेदान्तियों ने नपुंसकलिंग से प्रतिपादित किया है, शाक्त-धर्म प्रेमियों ने सत्-चित्- आनन्द स्वरूपा उसी महाशक्ति पार्वती को स्त्री-लिंग मानकर प्रतिष्ठित किया है
अतः ब्रह्म और शक्ति के कथित गूढ़ रहस्यों को उपनिषद की परम्परा में प्रश्नोत्तर के माध्यम से समझने की चेष्टा की जाय, तभी ये रहस्य आसानी से हृदयंगम हो सकते हैं। क्योंकि अन्तरात्मा ही ‘सर्व भूतान्तरात्मा’ सभी की आत्मा होती है। एकत्व में सभी का समावेश रहता है। एकत्व ही अनेकत्व में अभिव्यक्त होता रहता है। इस तरह जीवन की रहस्य कथा 'नचिकेता' समझाते हुए 'यमराज' कहते हैं:
एको वशी सर्व भूतान्तरात्मा।एकं रूपं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येनु पश्यन्ति धीराःतेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।।
 जिनकी प्रज्ञा जागृत हो गई वे धीर मानव अन्तरात्मा का सातत्यपूर्वक दर्शन करते रहते हैं। उन्हें यह स्पष्ट दिखता है कि जीवन की अनेकता में यह एक ही आत्मा विराजती है। फिर द्वैत-दुजापन कैसे टिक सकता है? और एकत्व को मृत्यु मार नहीं सकती। वह कालातीत होता है। जो अनेकता को सत्य मानकर उसका पीछा करते हैं, सुख के लिये व्यर्थ की दौड़ लगाते हैं, उन्हें मृत्यु आकर पकड़ लेती है। यह बात भी यमराज स्पष्ट शब्दों में बता देते हैं-'मृत्योः सर्वे मृत्युं गच्छति।य इह नानेव पश्यति।'
 अपने यहाँ पुराणों में अतिभोग की व्यर्थता राजा ययाति के मुख से उद्घोषित हुई है: न जातु कामः कामनां उपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेय भूयेव अभिवर्धते।।  वह तो भारतीय संस्कृति का ही उद्गार है : यह चाहिए, वह भी चाहिए, यह तृष्णा, यह कामना उपभोग करने पर शमित नहीं हो तो, कभी तृप्त नहीं होती। अग्नि में आहूति देने पर अग्नि ज्वाला बुझकर शीतल नहीं होती, उल्टे, अधिक ही भड़क उठती है।  अधिक प्राप्ति की कामना, दूसरे की सम्पदा अपनी हो जाए, केवल अपनी ही होकर रहे, यह वासना मानव-मन को चिपका हुआ रोग है। यही दुःख का कारण है। भगवान बुद्ध की परिभाषा में यही तृष्णा है-जो सभी मानवी दुःखों की जड़ है। सुख की, निरामय आनन्द की कांक्षा होगी तो इस तृष्णा को बढ़ाना नहीं चाहिए। उसे क्षीण करने के लिये जीवन-भर साधना करनी आवश्यक है। उपनिषदों, वेदों और सभी धर्मों की सिखावन ने वासना-विकारों का शमन करने का मार्ग प्रशस्त किया है।
प्रश्न : एकाग्रता का अभ्यास किस प्रकार किया जाता है ? किस साधना या कौशल से सर्वाग्र और सर्वव्याप्त 'ब्रह्म' का साक्षात्कार किया जाता है ?
उत्तर : माण्डूक्योपनिषद के द्रष्टा ऋषि बता देते हैं: 'प्रणवो धनुः शरोहि आत्मा-ब्रह्म तल्लक्षमुच्यते।अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शखत्तन्मयो भवेत्।।
प्रश्न : उस निरंजन (सच्चिदानन्द या ब्रह्म) की प्राप्ति किस प्रकार से होती है ?
 उत्तर : निरंजन की प्राप्ति का हेतु गुरु उपदेश है । किन्तु जैसे समुद्र के पार जाने के साधनों में जहाज ही एक सुन्दर साधन है, वैसे ही परमात्मा को जानने के साधनों में श्रेष्ठ साधन गुरु-ज्ञान ही है ।
प्रश्न : गुरु/'नेतावरिष्ठ~(C-in-C) के लक्षण क्या हैं ?
उत्तर : *नेतावरिष्ठ के लक्षण -
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5.19।।
जिनका अन्तःकरण समता में स्थित है उन्होंने इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार को जीत लिया है क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्ममें ही स्थित हैं। जिनका अन्तःकरण समता में अर्थात् सब भूतों के अन्तर्गत ब्रह्मरूप समभाव में स्थित यानी निश्चल हो गया है। उन समदर्शी पण्डितों ने यहाँ जीवितावस्था में ही सर्ग को यानी जन्म-मृत्यु को जीत लिया है अर्थात् उसे अपने अधीन कर लिया है। क्योंकि ब्रह्म निर्दोष ( और सम ) है।[ यद्यपि मूर्ख लोगों को दोषयुक्त चाण्डालादि में उनके दोषों के कारण आत्मा दोष-युक्त सा प्रतीत होता है तो भी वास्तव में वह ( आत्मा ) उनके दोषों से निर्लिप्त ही है। ]
निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा: । 
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत् ॥ 
 दूर हो गये हैं मोह और मान जिनके, जीत लिया है संग का दोष जिन्होंने, वेदान्त के श्रवण मनन विचार में सदैव लगे रहते हैं और समस्त कामनायें इस लोक परलोक की नष्ट हो चुकी हैं चित्त से जिनकी सुख दु:ख आदि द्वन्द्वों से छूटे हुए आत्मतत्व के जानने वाले ज्ञानी संत उस निर्विकार पद को प्राप्त होते हैं ।
गुकार: प्रथमो वर्णो मायादि गुणभासक: । 
रुकारोऽद्वितीयं ब्रह्म-माया भ्रान्ति विमोचक: । 
 (गु=अन्धकार, रु= विनाशक, गुरु= अज्ञानान्धकार को मिटाने वाला, जो स्वयं De-Hypnotized हो चुके
 और जो दूसरों के अज्ञानान्धकार को हटाने में सहायता करते हैं -ऐसे शास्त्र क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ अनेक लक्षणयुक्त जो गुरुदेव हैं, ऐसे गुरुदेव को मेरा नमस्कार है । तत्पश्चात् सब संतों को हमारी वन्दना है। इस प्रकार हरि गुरु - सन्तों नेतावरिष्ठ नवनीदा  को साक्षात् प्रणाम करने वाले इस भवसागर से अवश्य पार होंगे।
गुरु (नेता,पैगम्बर) जीवनमुक्त शिक्षक जिनका अहंकार एवं मोह दूर हो गया है---   वैसे ही नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण,  भारत में निवृत्ति मार्ग के अधिकारीयों के लिये  'श्रीरामकृष्णदेव-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में आविर्भूत 'रामकृष्ण मठ और मिशन'; तथा नेतावरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा के निर्देशन में ' स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त नेतृत्व (leadership) प्रशिक्षण परम्परा -Be and Make ' में प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारीयों के लिए आविर्भूत -'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के अतिरिक्त अन्य किस तथाकतित विकसित देशों (अमेरिका, इंग्लैण्ड,कनाडा आदि) में ऐसे जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण कार्य चल रहा है ?
 भारत के अतिरिक्त अन्य किस देश में 10 से लेकर 24 अवतारों अथवा असंख्य भ्रममुक्त या De-Hypnotized ब्रह्मवेत्ता ऋषियों,मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं, या पैगम्बरों  आविर्भाव हुआ है?  भारत के अतिरिक्त कौन ऐसा 'विकसित देश' (Developed Country) है जिसने दृष्टिगोचर जगत के परे क्या है? मृत्यु के परे क्या है ? अथवा अज्ञात (ईश्वर या निरपेक्ष सत्य) को जानने के लिए,  अंतरिक्ष में रॉकेट भेजने के आलावा, इस प्रकार का प्रयास किया हो ? राजपुताना के सन्त दादू से लेकर निश्चल दास के ग्रन्थ 'विचार सागर' को पढ़ो, इन समस्त विभिन्न पन्थों का मूल आधार वही 'अद्वैत मत' (सनातन मत) दिखाई देगा। दादू-पंथी सम्प्रदाय के त्यागी सन्त निश्चलदास ने अपने ग्रन्थ 'विचारसागर' में स्पष्ट रूप से घोषणा की है - 
 जो ब्रह्मविद वही ब्रह्म है, ताको वाणी वेद। 
 संस्कृत और भाषा में, करत भरम का छेद।। 
'जिसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्म बन गया, उसकी वाणी वेद है, और उससे अज्ञान का अन्धकार दूर हट जायेगा, चाहे वह वाणी संस्कृत में हो या किसी लोक-भाषा में (मगही-भोजपुरी-मैथली -पंजाबी या गुजराती में)हो !दादू जाने ब्रह्म को, ब्रह्म सरीखा सोई ॥ 'जानत तुम्हीं तुम्हीं ह्वै जाई' (अयोध्याकाण्ड।) इस लिए ब्रह्मवेत्ता के विषय में शंका नहीं बनती ।
[http://vivek-anjan.blogspot.com/2017/05/blog-post.html/] 
.... गीता 4/7 में भगवान श्रीकृष्ण ने किसी अवतार (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) का आविर्भाव क्यों होता है, अथवा 'मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माण- कारी शिक्षा' को जन आंदोलन बना देने में समर्थ- 'युवा महामण्डल' जैसे किसी संगठन का आविर्भाव क्यों होता है- उसी कारण को स्पष्ट करते हुए, कहा है - 
'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।' 
वह अवतार तत्व ('विष्णु' existence -consciousness-bliss) किन परिस्थितयों में साकार रूप (मानवशरीर) धारण करता है, और क्या कार्य करता है, अर्थात वह जन्म कब और किसलिये होता है ?  सो कहते हैं ~ ' हे भारत, वर्णाश्रम धर्म आदि जिसके लक्षण हैं एवं प्राणियों की उन्नति और परम कल्याण (अभ्युदय और निःश्रेयस) का जो साधन है ! उस धर्म की जब-जब हानि होती है, और अधर्म का अभ्युत्थान अर्थात् उन्नति होती है, तब-तब ही मैं माया से अपने स्वरूप को रचता हूँ !"
नेतावरिष्ठ (C-in-C) पूज्य नवनी दा (महामण्डल के संस्थापक सचिव) कहते हैं , " इसी को कहते हैं -ऐतिहासिक अनिवार्यता (Historical requirement)| जिस समय धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है, इसी प्रकार के एक आविर्भाव की आवश्यकता होती है। भारतवासी यह जानते हैं कि समय-चक्र के घूर्णन-पथ की ऐतिहासिक यात्रा में इसी तरह की अनिवार्यता बार-बार दृष्टिगोचर हुई है। जिस समय धर्म ( प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्म, धूर्त राजनीतिज्ञों के कारण) अपने स्थान च्युत हो जाता है, अधर्म का सिर ऊँचा उठ जाता है, उस समय धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए एक महान आविर्भाव अनिवार्यता बन जाती है। वह चाहे फिर, किसी अवतार के द्वारा हो या किसी संगठन के द्वारा हो, एक विशिष्ट भाव ('Be and Make' या मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा पद्धति) अवश्य मूर्तमान होता है। 
इस युग में श्रीरामकृष्णदेव के भीतर वही भाव मूर्तमान हुआ है। हमारी दृष्टि में श्रीरामकृष्णदेव ही आधुनिक युग के ऐसे प्रथम युवा नेता हैं, जिनके जीवन में पूर्ण साम्य (harmony)प्रतिष्ठित हुआ है। तभी तो वे पृथ्वी के समस्त धर्मों और जातियों के मनुष्यों को अपने हृदय के अंतस्तल से प्रेम करते हैं।  वे आधुनिक युग के प्रथम जननेता हैं, मानवप्रेमी हैं - जो मानवमात्र को अपने हृदय की गहराई से प्रेम करते हैं। क्योंकि उनके जीवन में प्रतिष्ठित साम्य (harmony),राजनैतिक दलों के नेताओं द्वारा मंच पर खड़े होकर भाषण देने वाला साम्य नहीं है।  बल्कि उन्होंने सम्पूर्ण मनुष्यजाति, समस्त जीवों, यहाँ तक कि जड़ वस्तुओं के साथ भी अद्वैत/अभिन्नता का साक्षात्कार किया है; तथा इस साम्य (harmonyया अविरोध) को अपने आचरण में भी उतार कर दिखा दिया है।  उन्होंने जन-साधारण तथा दीन-दुःखियों के दारुण दुःख से द्रवित होकर आम जनों की मुक्ति के लिए प्रयास किया है, और इसी कार्य को सम्पन्न करने के लिए उन्होंने 'प्रबुद्ध युवाओं' को संघबद्ध करने की चेष्टा की है। " 
इस तथ्य को समझने के लिए (प्रबुद्ध युवाओं के संगठन की अनिवार्यता को समझने के लिए), में स्वामी विवेकानन्द के उद्गारों पर गहराई से विचार करना आवश्यक है। देववाणी -1 जुलाई के भाषण में स्वामी जी अपने गुरु श्रीरामकृष्णदेव के सम्बन्ध में कहते हैं -" श्रीरामकृष्णदेव ने कभी किसी के विरुद्ध कोई कड़ी बात नहीं कही। उनका हृदय अत्यन्त उदार था; वे इतने सहिष्णु थे कि, चाहे कोई किसी भी सम्प्रदाय का व्यक्ति क्यों न हो, उनसे मिलने के बाद यही सोचता था, कि ये भी मेरे ही सम्प्रदाय के कोई   सिद्ध महापुरुष हैं, जिनसे मिलकर मेरा जीवन धन्य हो गया !  वे सभी धर्म के लोगों से समानरूप में प्रेम करते थे। उनकी दृष्टि में सभी धर्म सत्य थे - वे कहते थे सभी धर्म एक ही सत्य तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग हैं, इसलिए धर्मजगत में सभी धर्मों का समान स्थान है।  श्रीरामकृष्ण के मुक्तस्वभाव का परिचय वज्रवत कठोरता (thunder) में नहीं, अपितु सर्वसाधारण के प्रति उनके प्रेमपूर्ण शब्दों में ही प्रकट होता था। 
इस प्रकार के कोमलहृदय व्यक्ति (mild type-अवतार/नेता) ही सर्वप्रथम किसी नये भाव का सृजन करते हैं;और बाद में वज्रवत कठोरता  के साथ कर्म करने में सक्षम व्यक्ति (thundering type,  क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न स्वामी विवेकानन्द, सरदानानन्द, अभेदानन्द आदि 12 युवा)  इस भाव को चारों ओर फैला देते हैं। सन्त पॉल भी इसी दूसरी श्रेणी के नेता थे। इसलिए उन्होंने सत्य के आलोक को चारों फैला दिया था।  किन्तु अब सन्त पॉल का युग नहीं है।   अतः हमको ही आधुनिक जगत का नूतन 'आलोक-स्वरूप' (Lighthouse) होना होगा। हमारे युग की आवश्यकता है एक ऐसे संघ का निर्माण जो 'अपना समायोजन'----स्वयं कर ल
[प्रकाश-स्तंभ (Light house,दीपस्तंभ या दीपघर) सागर में या सागर के किनारे पर बनाया गया उस  स्तंभ या मीनार को कहते हैं, जिस पर रात में जहाजों के चालकों या नाविकों को खतरनाक चट्टानों या अन्य ख़तरों से बचाने के लिए या किनारे का संकेत करने हेतु , तेज़ रोशनी की जाती है। यह किसी भी प्रणाली से तेज रौशनी प्रसारित कर सकती है। पुराने समय में यह कार्य आग जला कर किया जाता था, किन्तु वर्तमान समय में विद्युत एवं अन्य कई साधन हैं। 
 अर्थात  हमें स्वयं प्रबुद्ध युवा वर्ग का प्रकाशस्तम्भ (Lighthouse के जैसा) मार्गदर्शक नेता बनना होगा और साथ ही साथ  भावी नेताओं  को भी प्रकाश-स्तम्भ तुल्य नेता बनने में सहायता भी करनी होगी।
 संसार-चक्र चलेगा ही-पर हमें उसकी सहायता करनी होगी ,बाधा देने से काम नहीं चलेगा।
 हमें 'Be and Make' परम्परा में निर्मित वैसा प्रकाशस्तम्भ 'lighthouse' स्वरुप -- गुरु (नेता,पैगम्बर) जीवनमुक्त शिक्षक जिनका अहंकार एवं मोह दूर हो गया हे,( जो भ्रम या सम्मोहन दूर कर -dehypnotized हो गए हैं , और जिसमें परार्थ (altruism) की पवित्र अग्नि सदा प्रज्ज्वलित रहती है--का निर्माण करने में सक्षम संगठन महामण्डल का प्रचार-प्रसार प्रत्येक देश में करना होगा। जब वैसा होगा, तब वही जगत का अन्तिम धर्म होगा।
  जब ऐसा आत्म-समंजक (Self-adjusting ) युवा-संगठन सर्वत्र स्थापित कर लिया जायेगा,तब 'Be and Make'  जगत का अन्तिम धर्म होगा। हमारे युग की विशेष आवश्यकता (अनिवार्यता) है एक ऐसे संघ (संगठन) का निर्माण जो स्वयं अपना समायोजन (self-adjusting करने में सक्षम हो। जब ऐसा होगा, तब वही जगत का अन्तिम धर्म होगा। बहुत बड़ी संख्या में युग के पैगम्बरों (Prophets of the period) का निर्माण करने वाले संगठन का नाम है ---'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल', और यही जगत का अन्तिम धर्म होगा ! [और बहुत से लोगों का यही मानना है कि स्वामी जी स्वयं-सन्त पॉल की श्रेणी के 'thundering type' कर्मप्रवण नेता,'योद्धा संन्यासी' नेता, लोक-शिक्षक थे।]
 हर युग में धार्मिक विचार-धाराओं की तरंगें  उठती है, गिरती है और उन सभी तरंगों के शीर्ष -प्रदेश में उसी युग के पैगम्बर  "prophet of the period" विराजते हैं !श्रीरामकृष्ण वर्तमान युग के उपयुक्त धर्म की शिक्षा देने आये थे, जो निर्माणकारी है, न कि विनाशकारी या विध्वंसक। श्रीरामकृष्ण को बिल्कुल अभिनव ढंग से प्रकृति के समीप जाकर (माँ काली के समीप जाकर) सत्य (ब्रह्म) को जानने की चेष्टा करनी पड़ी थी, फलस्वरूप उन्होंने वैज्ञानिक धर्म को प्राप्त कर लिया था। वैज्ञानिक धर्म वह धर्म है, जिसे दूसरों में सम्प्रेषित या हस्तांतरित भी किया जा सकता है! यह धर्म किसीको कुछ मानलेने को नहीं कहता, स्वयं परखकर देख लेने को कहता है।
 [He had to go afresh to Nature to ask for facts, and he got scientific religion which never says "believe", but "see"; "I see, and you too can see."] " मैं सत्य का दर्शन करता हूँ , तुम भी इच्छा करने पर उसका दर्शन कर सकते हो। मैंने जिस साधना-पद्धति का अवलम्बन किया है,म भी उसी का अवलम्बन करो , वैसा करने पर तुम भी हमारे सदृश सत्य का दर्शन करोगे। " ईश्वर सभी के समीप आएंगे - इस समत्व भाव को सभी प्राप्त कर सकेंगे। श्रीरामकृष्ण जो कुछ उपदेश दे गए हैं, वह सब हिन्दू धर्म का सार-स्वरुप है। उन्होंने अपनी ओर से कोई नयी बात नहीं कही है। और वे उन सब बातों को अपनी बतलाने का भी कभी दावा नहीं करते थे; वे नाम-यश के लिए किंचित मात्र भी आकांक्षा नहीं रखते थे। "- देववाणी, 1 जुलाई सोमवार/ 7-32]                          
"Shri Ramakrishna never spoke a harsh word against anyone. So beautifully tolerant was he that every sect thought that he belonged to them. He loved everyone. To him all religions were true. He found a place for each one. He was free, but free in love, not in "thunder". The mild type creates, the thundering type spreads. Paul was the thundering type to spread the light. (And it has been said by many that Swami Vivekananda himself was a kind of St. Paul to Shri Ramakrishna.) The age of St. Paul, however, is gone; we are to be the new lights for this day.
 A self-adjusting organisation is the great need of our time. When we can get one, that will be the last religion of the world. The wheel must turn, and we should help it, not hinder. The waves of religious thought rise and fall, and on the topmost one stands the "prophet of the period".  Ramakrishna came to teach the religion of today, constructive, not destructive. He had to go afresh to Nature to ask for facts, and he got scientific religion which never says "believe", but "see"; "I see, and you too can see." Use the same means and you will reach the same vision. God will come to everyone, harmony is within the reach of all. Shri Ramakrishna's teachings are "the gist of Hinduism"; they were not peculiar to him. Nor did he claim that they were; he cared naught for name or fame."MONDAY, July 1, 1895. (Shri Ramakrishna Deva)] 
स्वामी जी अपने भाषण में अन्यत्र कहते हैं - " मेरे गुरुदेव ने यह 'शिक्षा' मुझे सैंकड़ों बार दी, परन्तु फिर भी मैं इसे  (धर्म क्या है ?) प्रायः भूल जाता हूँ। (My Master 'Nda' taught me this lesson hundreds of times, yet I often forget it.) विचार-सम्प्रेषण की अदभुत शक्ति (power of thought-communicating) को बहुत थोड़े से लोग ही समझ पाते हैं। यदि कोई मनुष्य किसी गुफा (निर्जन-स्थान या कैम्प) में घुसकर अपने को बन्दकर किसी एक ही विचार ( प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है - 'Be and Make ') पर एकाग्रचित्त होकर निरंतर मनन करता रहे, और उसी दशा में आजन्म मनन करता हुआ यदि अपने प्राण भी त्याग दे। तो उसके विचार की तरंगें गुफा की दीवारों को भेदकर चारों ओर फ़ैल जाएँगी, और अन्त में वे विचार-तरंगें सारी मनुष्य जाति में प्रविष्ट हो जाएँगी। (If a man goes into a cave, shuts himself in, and thinks one really great thought (each soul is potentially divine-प्रत्येक 'आत्मा' संभावित परमात्मा है)  and dies, that thought will penetrate the walls of that cave, vibrate through space, and at last permeate the whole human race.)
 विचार-सम्प्रेषण की यही अदभुत शक्ति है। अतः अपने विचारों को दूसरे में सम्प्रेषित करने में, हमें जल्दी-बाजी नहीं करनी चाहिए। पहले हमारे पास कुछ (खुद की कमाई ) होना चाहिए, जिसे हम दूसरे को दे सकें। मनुष्य को शिक्षा देने का कार्य केवल वही कर सकता है, जिसके पास देने को कुछ हो। क्योंकि शिक्षा देना ( या मनःसंयोग का प्रशिक्षण देना) केवल भाषण देना नहीं है, और न बड़े-बड़े सिद्धान्तों का (संस्कृत में) बखान करना है। शिक्षा का तात्पर्य है - सम्प्रेषण ! [First have something to give. He alone teaches who has something to give, for teaching is not talking, teaching is not imparting doctrines, it is communicating.सम्प्रेषण -संचारण / Transmission of communication] आध्यात्मिकता (धर्म) को भी दूसरों में उसी तरह सम्प्रेषित (हस्तान्तरित -transmission) किया जा सकता है, जिस प्रकार मैं तुम्हें एक फूल दे सकता हूँ। और यह बात अक्षरशः सत्य है !  
[क्योंकि मैं इस बात का गवाह हूँ ,अपने अनुभव से जानता हूँ कि-" Spirituality can be communicated just as really as I can give you a flower.This is true in the most literal sense." ' ॐ त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥ऋतम् वच्मि ॥ सत्यं वच्मि ॥ ' कहते हुए आँख में आँख डालकर भी सम्प्रेषित किया जा सकता है।] यह भाव भारतवर्ष में अति प्राचीन काल से विद्यमान है। [This idea is very old in India and finds illustration in the West in the "theory, in the belief, of Apostolic Succession.और पाश्चात्य देशों में 'पैगम्बर निर्माण की गुरु-शिष्य उत्तराधिकार परम्परा (Apostolic Succession  Tradition)*** ' का जो सिद्धान्त प्रचलित है, उसमें भी इसी भाव का दृष्टान्त पाया जाता है। अतः सर्वप्रथम हमें स्वयं चरित्रवान मनुष्य बनना चाहिए और यही सबसे बड़ा कर्तव्य है, जो हमारे सामने है। सत्य का ज्ञान पहले स्वयं को होना चाहिए, और उसके बाद तुम अनेक को सिखा सकते हो, बल्कि वे लोग स्वयं उसे सीखने आएंगे।'Be and Make' ~ यही मेरे गुरुदेव की विशिष्ट शैली थी। [७/२५८] 
 क्रिश्चियानिटी में 'Apostle' (अपॉसल में 't' silent है) *** शब्द का अर्थ होता है ईश्वर  (माँ काली, अल्ला या गॉड)  का भेजा हुआ धर्मदूत !(जैसे रामदूत अतुलित बलधामा, अथवा भगवान श्रीरामकृष्णदेव से चपरास प्राप्त सन्देश वाहक, रामकृष्ण-दूत, पैगम्बर, या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता/भ्रममुक्त 'de-Hypnotized' कर देने में समर्थ, जीवनमुक्त शिक्षक-स्वामी विवेकानन्द ! 
श्रीरामकृष्णदेव ने भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' को पुनर्स्थापित करने के उद्देश्य से, पहले स्वयं साक्षात् माँ काली से (वक्त से ?) 'भावमुख अवस्था' रहने का मौखिक चपरास प्राप्त किया था। तत्पश्चात आश्चर्य जनक रूप से उनके पास प्रत्येक मार्ग (तन्त्र मार्ग से लेकर इस्लाम और अद्वैत वेदान्त तक) के गुरु (भैरवी ब्राह्मणी, गोविन्दराय नामक इस्लामी सूफी, और श्रीमद तोतापुरी)   स्वतः आते चले गए। जिनसे उन्होंने विधिवत दीक्षा प्राप्त की थी।  फिर उन्होंने उनके 12 युवा शिष्यों में से योग्यतम शिष्य नरेन्द्रनाथ  को चुन कर,  उस शिक्षा (धर्म) को सर्वत्र संचारित (communicating) करने का चपरास~  'नरेन शिक्षा देगा!' अपने हाथों से लिखकर और एक आवक्ष रेखाचित्र के पीछे धावित मयूर का चित्र भी अंकित करते हुए हस्तान्तरित कर दिया था। 
तदनुसार निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषियों में एक स्वामी विवेकानन्द ने  अपने गृहस्थ (प्रवृत्ति मार्ग के ) पाश्चात्य शिष्यों में से योग्यतम शिष्य कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर  को चुनकर जिस प्रकार ईसाईयों  में गुरु-शिष्य 'अपोस्टोलिक उत्तराधिकार परम्परा' ('Apostolic Succession) का सिद्धान्त प्रचलित है, उसे अद्वैत आश्रम, मायावती के माध्यम से भारत के प्रबुद्ध (अंग्रेजी पढ़े-लिखे) युवाओं में प्रचार-प्रसार करने का कार्यभार सौंपा था। किन्तु अद्वैत आश्रम को मायावती में स्थापित करने के तुरन्त बाद ही, कैप्टन सेवियर का देहान्त हो गया था। उनके शरीर की अन्तयेष्टि  मायावती में एक नदी के किनारे उनकी इच्छानुसार वेदज्ञ ब्राह्मण-ऋषि के अनुरूप की गयी थी। 
किन्तु स्वामी विवेकानन्द के द्वारा सौंपा हुआ कार्य अधूरा था, इसीलिए 'Apostolic Succession' को नए रूप में ~ 'बनो और बनाओ-वेदांत नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा;   ''Be and Make -Vedanta Leadership Training Tradition' के रूप में प्रचारित करने उद्देश्य से  कैप्टन सेवियर को ही नवनीहरन मुखोपाध्याय के रूप में, और महामण्डल को एक प्रबुद्ध युवा -संगठन के रूप में  अवतरित होना पड़ा। इस घटना का सम्पूर्ण विवरण नवनी दा की जीवनी -" जीवन नदी के हर मोड़ पर नामक" पुस्तक में उपलब्ध है। [अभी हाल में ही रूस ने  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने देश का सर्वोच्‍च नागरिक सम्‍मान,'आर्डर ऑफ सेंट एंड्रयू द अपॉसल' [Order of St Andrew the Apostle] देने की घोषणा की है, क्या यह महज एक संयोग है ? ] 
संसार-चक्र तो चलता ही रहेगा,*** पर हमें उसकी सहायता करनी होगी, बाधा देने से काम नहीं चलेगा :  अर्थात मनुष्य स्व-प्रेरणा से भी पूर्णता (perfection-पूर्णतः निःस्वार्थी बन जाने) की ओर तरक्की (March) करता ही रहेगा; किन्तु हमें पूरे उत्साह के साथ "चरैवेति -चरैवेति" करते हुए, इस चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने वाले आंदोलन का प्रचार-प्रसार करने में सहायक बनना होगा, बाधक बनने से काम नहीं चलेगा। और जब 'Be and Make 'के आदर्श में ढले ऐसे किसी संगठन (युवा महामण्डल) को पूरे भारत में स्थापित कर लिया जायेगा,  तब 'Be and Make~ धर्म' अर्थात 'चरित्रवान मनुष्य बनो और बनाओ ' आंदोलन ही जगत का अन्तिम धर्म होगा ! 
महामण्डल पुस्तिका 'एक युवा आन्दोलन' में नवनी दा आगे लिखते हैं - " इस तथ्य को समझने के लिए श्री रामकृष्णदेव के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के उदगारों का विशेष रूप से अध्यन करना आवश्यक है। स्वामी जी कहते हैं कि श्रीरामकृष्णदेव युवाओं को संगठित करने की चेष्टा कर रहे हैं। वैसे तो वे सभी लोगों को ही अनुप्रेरित कर रहे हैं, किन्तु विशेष रूप से युवा लोग अधिक संख्या में उनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। उनका लक्ष्य युवाओं को ही आकर्षित करना था।" स्वयं विवेकानन्द इस बात के प्रमाण हैं, तथा इस बात को वे स्वयं स्वीकार भी करते हैं। हमलोग भी इसे देख सकते हैं। ठाकुर ने स्पष्ट रूप से अनुभव किया था कि मेरे अति अल्प जीवनकाल में मैं जितना कर सकता था, वह कर चुका। किन्तु इसके बाद जो वास्तविक कार्य है -वह यही है कि बहुत ही अल्पसमय के भीतर कुछ युवाओं के जीवन को इस प्रकार (भ्रममुक्त/नेता/शिक्षक के रूप में ) गठित कर देना होगा कि वे इस भाव को (Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition) का प्रचार प्रसार करने में समर्थ शिक्षकों का निर्माण) थोड़े समय में ही सारे जगत में दावानल की तरह फैला देने में सक्षम हो जाएँ। और वैसा करने के बाद उन्होंने अपने शरीर का त्याग कर दिया, तथा स्वामीजी ने भी उनके द्वारा सौंपे गए कार्य को पूरा कर दिखाया। 
स्वामी जी ने अपने जीवन के लक्ष्य के विषय में कई स्थानों पर अलग-अलग ढंग से उल्लेख किया है। एक स्थान पर वे कहते हैं -" युवाओं को संगठित करना ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।' "मेरे जीवन का व्रत है, युवक दल को संगठित करना। " उसी युवक दल को स्वयं संगठित करने का प्रयास करने के बाद भी वे मुट्ठीभर युवाओं को ही श्रीरामकृष्ण पताका के नीचे एकत्रित कर सके थे। फिर भी उसी समय स्वामी जी ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था - " A few have jumped into the breach they are only a few. A few thousands are necessary and they will come ." यही जो " they will come" की भविष्यवाणी है - वे युवा आयेंगे कहाँ से ? ये युवा दल तो रामकृष्ण मिशन के माध्यम से भी संगठित हो सकते हैं, किन्तु जो युवक रामकृष्ण-मठ मिशन में आकर अपना योगदान करेंगे, उनके जीवन का लक्ष्य होगा - व्रत और आदर्श वाक्य होगा, " आत्मनो मोक्षार्थं जगद-हिताय च। " किन्तु कितने युवक ऐसे होंगे जो इसी उम्र में सबकुछ छोड़छाड़ कर 'मोक्ष' प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर होने की पात्रता रखते हैं ? और इसी कारण वैसे अधिकांश युवा जिन्हें स्वामी जी श्रीरामकृष्ण पताका के नीचे एकत्र करना चाहते थे, वे तो इससे बाहर ही छूट जायेंगे। 
स्वामीजी कहते थे जाति -धर्म, या गुण-दोष के आधार पर वर्गीकृत करके छोड़ देने, या वहिष्कृत कर देने के (exclusion) लायक कोई भी मनुष्य उनकी दृष्टि में है ही नहीं ! [क्योंकि उनका मानना था -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! ] अतः सभी वर्ग और श्रेणी के युवाओं को श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त आंदोलन की पताका की क्षत्रछाया में संगठित करना होगा। यही जो सबों को ग्रहण करके, प्रारंभिक स्तर पर स्वामीजी की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षाओं को सभी युवाओं के दरवाजे -दरवाजे पर जाकर सुनाने का काम है, इस कार्य को करेगा कौन ? दावानल की तरह पृथ्वी के कोने-कोने में, सर्वत्र जा-जाकर , ग्रामों-शहरों के शिक्षितों -अशिक्षितों, छात्रों , नौकरी पेशा करने वालों, तथा बेरोजगार युवाओं के पास स्वामी जी की शिक्षाओं को लेकर जायेगा कौन ? जिन क्षेत्रों में धर्म, मंदिर, मठ तथा संन्यासी की छाया भी देखने को नहीं मिलती, उन दूर-दराज के क्षेत्रों तक उनकी मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षापद्धति को सुनाएगा कौन ? केवल सुनाएगा ही नहीं, बल्कि स्वामी जी की शिक्षाओं के अनुरूप अपने सुंदर जीवन को गठित करके, दूसरों को भी स्वामीजी के शिक्षाओं से प्रभावित करके, इस आदर्श को पूरा करने के कार्य में खींचेगा कौन? क्योंकि 'Be and Make' के कार्य में उतरने से ही तो मेरा अपना चरित्र सुंदर रूप में गठित होगा, और मेरा भारत महान बनेगा, पूरे देश की उन्नति होगी। 
इसी प्राथमिक कार्य को करने की जिम्मेदारी को महामण्डल ने स्वयं आगे बढ़कर अपने कंधों पर उठा लिया है। इसलिए यह बार बार कहा जाता है कि महामण्डल एक प्राथमिक पाठशाला है। जो लोग आध्यात्मिक साधना में अधिक उन्नत हो जायेंगे, उनके उच्च विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि तो हैं ही। स्वामी जी की कल्पना के अनुसार गठित 'रामकृष्ण मठ और मिशन ' इसी प्रकार का एक विश्वविद्यालय है। किन्तु उसमें प्रवेश लेने से पहले, महाविद्यालय की पढाई पूरी करनी होगी। और महाविद्यालय की डिग्री पाने के लिए जो एंट्रेन्स की परीक्षा पास करनी होती है, जिसे उच्च शिक्षा का प्रवेश-पत्र कहा जाता है। उस प्रवेश-पत्र को प्राप्त करने की योग्यता अर्जित करनी हो, तो पहले वर्णमाला को सीखना अनिवार्य होता है। और महामण्डल का उद्देश्य उसी वर्णमाला से युवाओं का परिचय करवा देना है। महामण्डल वह प्राथमिक पाठशाला है, जहाँ 'मनुष्य जीवन' को प्राप्त करने के लिए अ-आ, क-ख सीखा जाता है। 
अ-आ, क -ख को समाप्त कर लेने के बाद महामण्डल की जिम्मेवारी समाप्त हो जाती है। उसके बाद शाश्वत-जीवन, मोक्ष या अमरत्व को प्राप्त करने के अनेक मार्ग हैं।  जो जिस मार्ग से होकर शाश्वत जीवन को प्राप्त करना चाहें, वे उसी मार्ग से अपनी यात्रा पूरी कर सकते हैं। " (महामण्डल के गठन की अनिवार्यता -पृष्ठ १९-२०)               
चरित्रवान या भ्रम मुक्त 'मनुष्य' बनने के लिए इतने सारे धर्म-मार्ग क्यों बने हैं ? प्रत्येक व्यक्ति पूर्वजन्म में संचित संस्कारों के अनुरूप अपने आपमें एक भिन्न अस्तित्व होता है । प्राय: हम देखते हैं कि प्रत्येक बच्चा अपना विशेष स्वभाव (धर्म या भूतवैशिष्ट्य) लेकर जन्म लेता है, जो उसकी बाल्यावस्था में ही प्रकट हो जाता है । एक ही माता-पिता की भिन्न-भिन्न संतानों के स्वभाव भिन्न भिन्न प्रकार के देखे जाते हैं । श्रीरामकृष्णदेव कहते थे -" सत्त्व, रज और तम के तारतम्य से मनुष्य भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते हैं। वस्तुतः सभी जीवों का यथार्थ स्वरूप एक ही है, किन्तु अवस्था-भेद के अनुसार वे चार श्रेणी के होते हैं -बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और नित्यमुक्त। किसी मछुए ने नदी में जाल डाला। जाल में बहुत सी मछलियाँ फँसीं। कुछ मछलियॉँ तो जाल में पड़कर भी कीचड़ में मुँह घुसाकर एकदम निश्चेष्ट और शांत पड़ी रहीं, -उन्होंने जाल से बाहर निकलने की बिल्कुल कोशिश नहीं की। कुछ ने भागने की बहुत कोशिश की, काफी उछल-कूद मचाई किन्तु वे भाग न पाईं; और कुछ किसी प्रकार कूद-फाँद करते हुए, जाल काटकर या फैलाकर भाग निकलीं। इसी प्रकार संसार में भी तीन प्रकार के जीव होते हैं- बद्ध जीव, जो कभी मुक्त होने का प्रयत्न नहीं करते; मुमुक्षु जीव, जो बन्धन में होते हुए भी मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं। और मुक्त जीव, जिन्होंने मुक्ति प्राप्त कर ली है ! (यथा विवेकानन्द, नवनी दा)  नित्यमुक्त, अवतार, ईश्वर-दूत या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता -यथा श्रीरामकृष्ण; वे हैं जिन्हें अपना ईश्वरत्व कभी भूलता ही नहीं है, क्योंकि वे जन्म से ही इस विषय में दूसरों की सहायता करते रहते हैं।
सदग्रन्थों में श्रवण-मनन -निदिध्यासन को ही चरित्रवान मनुष्य या भ्रम-मुक्त मनुष्य बनने का उपाय कहा गया है। गुरु (अर्थात नित्यमुक्त अवतार या पैगम्बर) के मुख से महावाक्यों का श्रवण करने, सदग्रन्थों का अध्ययन,  व साधुओं की सत्संगति से सत्य-असत्य, नित्य-अनित्य, आत्मा- अनात्मा का विश्लेषण करने की विचार शक्ति उत्पन्न होती है। और इस प्रकार किये जाने वाले विश्लेषण को मनन कहते हैं। मनन का अर्थ है सोचना, विचारना, चिंतन करना। मन को एक दिशा में ले जाने के लिए जो विचार किया जाता है उसे मनन कहते है। 
गुरु के मुख से  अथवा स्वयं के अध्यन से  ईश्वर (ठाकुर-माँ -स्वामीजी ) की कथाओं को सुनने व बारम्बार मनन करने से एकमात्र परम सत्य, अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव  के चरणों में प्रेम उत्पन्न होता है।  और समस्त विनाशशील, अनित्य एवं सांसारिक वस्तुओं से आसक्ति हट जाती है। साथ ही यह भी समझ आने लगता है कि जैसे धुँधले प्रकाश में भ्रम के कारण रस्सी -सर्प की तरह अनुभव होती है, वैसे ही अविद्या (ignorance) के कारण एक (ब्रह्म) ही अनेक नामरूप-मय जगत के रूप में भासता है। फिर विद्यामाया (माँ सारदा देवी) की कृपा से दृष्टि ज्ञानमयी (या भगवानमयी) हो जाने के बाद यह स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है कि वास्तव में जीवात्मा-परमात्मा आदि सब कुछ एक ही हैं। इस प्रकार इस तत्त्व को समझ लेना ही विवेक है। इस विवेक के द्वारा जब सत्य-असत्य-मिथ्या का पृथक्करण हो जाता है, तब मिथ्या (क्षणस्थायी विषयभोग) से आसक्ति हट जाती है।और साथ ही साथ लोक-परलोक के समस्त पदार्थों - "कामिनी-कांचन और कीर्ति" में आसक्ति भी नहीं रहती, इसे ही वैराग्य कहते हैं ! जब तक कोई व्यक्ति विवेक-प्रयोग करते हुए  जगत के क्षणस्थायी विषय-भोगों में अनासक्त होकर, और निषिद्ध कर्मों (शास्त्रविरुद्ध कर्मों) को पूर्णतया त्यागकर वैराग्यवान नहीं बन जाता; तब तक वह केवल मंत्रविशेष या क्रियाविशेष नाक-टीपने आदि की साधना से, जगत्कारण ईश्वर (माँ काली) की कृपा प्राप्त करने का अधिकारी नहीं बन सकता।
स्वभाव की भिन्नता का एक कारण पूर्व जन्मों के संस्कार हो सकते हैं । अर्थात पूर्व जन्म की स्मृति नष्ट होने पर भी नवीन जन्म में पूर्व जन्म के संस्कार रह जाते हैं । वैराग्यवान व्यक्ति को नवीन जन्म में (पुनर्जन्म में) समत्व बुद्धि से संबंधित संस्कार बिना किसी प्रयास के ही प्राप्त हो जाते हैं । अतः उसके कर्म करनेकी गति, उसके विचार करने की प्रक्रिया, उसके पूर्व संचित, प्रारब्ध, आनुपातिक-त्रिगुण  और अनुपातिक पंचमहाभूत, सब भिन्न होते हैं। इसलिए प्रत्येक  व्यक्ति का साधना-मार्ग भी भिन्न होता है । त्रैगुण्यविपर्ययात्-- सांख्यदर्शन के इस तर्क के अनुसार तीनो गुणो की आनुपातिक विभिन्नता के कारण ही मनुष्यों की तीन श्रेणियाँ ~ 'देवता,मानव और राक्षस' पाई जाती है।  जिसमें सत्व की प्रधानता है वह देवता, जिसमें रजो गुण की प्रधानता वह मनुष्य, जो तमोगुण प्रधान है वह राक्षस योनि का माना जाता है।  अत: तीनो गुणो की आनुपातिक भिन्नता के कारण मनुष्यो में विभेद पाया जाता है।
महाराज भर्तृहरि को राजा-कवि  या (Poet king) भी कहा जाता है, क्योंकि वे राजा होने के साथ -साथ एक कवि भी थे। कहा जाता है कि कतिपय सांसारिक स्वार्थपरता के अनुभवों के पश्चात् उनके मन में वैराग्यभाव जाग गया। और उन्होंने राजपाठ अपने छोटे भाई राजा विक्रमादित्य को सोंपकर संन्यास ग्रहण कर लिया । उनकी रचनाओं में - 'शतकत्रयम्' काफी चर्चित पुस्तक है, जिसके तीन खंड हैं: नीतिशतकम्, शृंगारशतकम् एवं वैराग्यशतकम् । कवि-महाराज भर्तृहरि कहते हैं इस विश्व में 4 प्रकार के लोग होते हैं,
एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परितज्य ये, 
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाऽविरोधेन ये ।
 तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये, 
      ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।। " 
(नीतिशतकम् – 75) 
अन्वय – ये स्वार्थं परित्यज्य परार्थघटकाः, (ते) एते सत्पुरुषाः (सन्ति) । ये तु (पुनः) स्वार्थाविरोधेन परार्थम् उद्यमभृतः ते सामान्या : (जनाः) सन्ति)|  ये स्वार्थाय परहितं निघ्नंन्ति, ते अमी मानुषराक्षसाः (मन्तव्याः) | 
 (परं) तु ये निरर्थकं परहितं घ्नन्ति, ते के (इति वयं) न जानीमहे।  
भावार्थ - संसार में उत्तम कोटि के सज्जन पुरुष भी है जो नि:स्वार्थ भाव से सदैव दुसरो की भलाई में ही लगे रहते है । मध्यम श्रेणी के -कुछ सामान्यजन कुछ ऐसे भी हैं, जो अपने स्वार्थ की रक्षा करते हुए दुसरो के हित साधन में लगे रहते है।  और अधम श्रेणी के है जो अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए दुसरो को हानि पहुँचाते है, वे मनुष्य के रूप में राक्षस ही हैं। परन्तु जो , भले उनका कोई स्वार्थ पूरा नहीं होता हो, फिर भी सदैव ही दुसरो के हितों का नाश किया करते है, वे कौन है?  उनको किस नाम से पुकारू यह मैं भी नही जानता।
व्याख्या - संसार में सज्जन मनुष्यों की कमी नही है, तो दुष्ट मनुष्यों की भी कोई कमी नहीं। कवि -महाराज भर्तृहरि कहते हैं, कि सज्जन पुरुष नि:स्वार्थ भाव से दूसरों का कल्याण करते है । कुछ साधारण जन अपना स्वार्थ भी साधते है और दुसरो का भला भी चाहते है। कुछ अपने स्वार्थ के लिए दुसरो को हानि पहुँचाते है उन्हें (हानि पहुँचाने वालो को) कवि ने राक्षस की संज्ञा दी है।  किन्तु जो लोग बेवजह निर्दोष प्राणियों को हानि पहुँचाते हैं, अर्थात् ऐसा करके उन्हे कोई लाभ नही होता, उसे क्या संज्ञा दी जाए ? वे तो राक्षसो से भी गिरे हुए हैं, अतः किस नाम से पुकारे जाएँ यह प्रश्न जटिल है ।
यदि भर्तृहरि आज होते तो उन्हें 'Terrorists' या आतंकवादी के नाम से पुकार सकते थे। क्या उन कुख्यात आतंकवादियों को सुधारने के लिए भी कोई मार्ग हो सकता है ? इस्लाम में उसी मार्ग को सूफिज़्म कहा जाता है। जिस इस्लाम-धर्म के सूफी-मत की साधना करने के बाद; श्रीरामकृष्णदेव ने कहा था , ‘जतो मत, ततो पथ”, अर्थात जितने व्यक्ति, उतनी ही प्रकृतियां और उतनी ही साधना की पद्धतियां भी होती हैं। साधारणतः जब हम चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने, अथवा अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व या दिव्यता को अभिव्यक्त करने के उद्देश्य से महामण्डल द्वारा निर्देशित जिन 5 अभ्यासों (प्रार्थना,मनःसंयोग,व्यायाम,
स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग) को करते हैं, उसे ही साधना कहते हैं । जिसके द्वारा कट्टर आतंकवादियों को भी मनुष्य बनाया जा सकता है।

['जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को।
 जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
 किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल। 
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है। 
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग, 
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक। 
..... नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुंज-कानन में। 
 समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल। 
....'जाति! हाय री जाति !' कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
 कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला। 
'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखंड ,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड। 
~ रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / राष्ट्रकवि रामधारी सिंह "दिनकर"]
[महामण्डल के चरित्रनिर्माणकारी युवा प्रशिक्षण शिविर में साधकभाव  का चपरासप्राप्त/ प्रशिक्षित नेता/ पैगम्बर/भ्रममुक्त शिक्षकों का यथार्थ परिचय प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम यह समझ लेना आवश्यक है कि 'Be and Make' Vedanta Leadership Training Tradition' में साधना (5 अभ्यास) क्या हैं, और क्यों किये जाते हैं।  साधना का शाब्दिक अर्थ है अभ्यास करना या निशाना लगाना। [साध+ना= साधना। साधो मत, सधने दो !( नेता, अवतार  जिन्हें जन्म से ही अपने आविर्भूत होने का उद्देश्य ज्ञात होता है। साधना पद्धति-Be and Make vedanta Leadership Training Tradition) ]
------------------------

शुक्रवार, 21 जून 2019

लीलाप्रसंग -7. "साधक और साधना"

सर्व भूतों में ब्रह्मदर्शन ही साधना का चरम फल है।  
अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव की जीवनी (biography)-'श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग' में, तथा नेतावरिष्ठ (C-in-C)  श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा (memorabilia)- 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' में उनके साधक भाव का यथार्थ परिचय प्राप्त करने के लिए, सर्वपर्थम यह समझ लेना आवश्यक है कि-- साधना कहते किसे हैं ?  
यह सुनकर कुछ लोग आपत्ति उठा सकते हैं कि भारत तो प्राचीन काल से ही किसी न किसी रूप में 'धर्मसाधन' में संलग्न है---अर्थात धार्मिक व्यक्ति बनने की साधना में संलग्न है ही, फिर आप उसकी पुनः चर्चा करके ग्रन्थ को मोटा क्यों करना चाहते हैं ? आध्यात्मिक राज्य की सत्य वस्तुओं को जानने के लिए , भारतवर्ष के अतिरिक्त संसार में ऐसी कौन सी दूसरी जाति या देश है, जिसने सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक अपनी राष्ट्रीय ऊर्जा को खर्च करने में इस प्रकार का अथक प्रयास किया हो ? भारत के अतिरिक्त -अन्य किस देश में इतनी अधिक संख्या में भगवान के अवतारों  एवं  ब्रह्मवेत्ता ऋषियों (knowers of Brahman) का आविर्भाव हुआ है ? अतः हम भारतवासी जो अत्यन्त प्राचीन काल से ही आध्यात्मिक अनुशासन के मौलिक सिद्धान्तों से पूर्वपरिचित रहे हैं, धार्मिक मनुष्य बनने की साधना के मूलसूत्रों की पुनरावृत्ति करना निरर्थक सा प्रतीत होता है। यह बात सत्य होने पर भी, आध्यात्मिक साधना के विषय में पुनः कुछ न कुछ कहने की आवश्यकता आज भी बनी हुई है।क्योंकि, कई स्थानों में जनसाधारण के बीच धार्मिक-मनुष्य बनने की साधना के नाम पर, विभिन्न प्रकार की विचित्र धारणायें आजभी प्रचलित हैं।  
1.साधना के सम्बन्ध में साधारण मानव की भ्रान्त धारणा (The erroneous conception of ordinary people about Sadhana/সাধনা সম্বন্ধে সাধারণ মানবের ভ্রান্ত ধারণা) : 
मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य या ज्ञातव्य वस्तु के प्रति लक्ष्यभ्रष्ट होकर बहुधा साधारण-जन केवल शारीरिक कठोरता,(जैसे नाक दबाकर श्वास-प्रश्वासों का अवरोध) ,अथवा दुष्प्राप्य वस्तुओं (जैसे उल्लू की खोपड़ी, घोड़े की नाल, बिल्ली की पूंछ) के संयोग से, विभिन्न स्थानों में विशेष-विशेष क्रियाओं का निरर्थक अनुष्ठान को (श्मशान में दारू-मुर्गा चढ़ाने जैसे अनुष्ठान), यहाँ तक कि इन दिनों विक्षिप्त मन (deranged minds) की विचित्र हरकतों को~ भी धार्मिक-साधना [धार्मिक मनुष्य बनने की साधना] का ही कोई विशेष रूप समझते हैं। 
 'वैराग्यवान' हुए बिना, संसार के क्षणस्थायी विषय-भोगों (3'K') के प्रति समान रूप से आसक्त और लालायित रहते हुए, मन्त्र या विशेष-कर्मकाण्डों से जगत्कारण ईश्वर (माँ जगदम्बा को)  मंत्र और जड़ीबूटी से वशीभूत सर्प की तरह अपने अधीन बनाया जा सकता है ? ------इस प्रकार की भ्रान्त धारणा के चंगुल में फँस कर अधिकांश लोगों को व्यर्थ के प्रयास में फंसकर समय बिताते हुए देखा जा रहा है। कठोपनिषद 1.2.24/ में कहा गया है -
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।। 
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।' 
अर्थात् जो दुश्चरित्र से विरत नहीं हुआ है (क्योंकि दुराचार से प्रगाढ़ हुई बुरी आदतें बड़ी मुश्किल से छूटती हैं -bad habits die hard !), जिसकी इन्द्रियाँ शान्त नहीं हुई हैं, जो समाहित-चित्त नहीं है, चित्त की स्थिरता का अभ्यास न करने के कारण जिसका मन अशान्त (विक्षिप्त) बना हुआ है, वह व्यक्ति आत्मा को प्रज्ञा द्वारा प्राप्त नहीं कर सकता।
अतः आत्मा या ब्रह्म को जानने के लिए----चरित्रवान मनुष्य बनना पहली शर्त है !---भले ही कोई साधक संन्यासी हो या गृहस्थ !  इसीलिए  हजारों वर्ष की साधना के फलस्वरूप भारत के ऋषियों-मुनियों ने प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्म के अलग-अलग अधिकारी व्यक्तियों के लिए जिस धर्म-साधना से धार्मिक मनुष्य (चरित्रवान मनुष्य) बनने और बनाने की साधना पद्धति को आविष्कृत किया था, यहाँ उसका संक्षिप्त विवरण देना विषय-विरुद्ध न होगा।
2. सर्व भूतों में ब्रह्मदर्शन ही साधना का चरम फल है।[ Seeing Brahman or God in all beings is the last word of Sadhana. সাধনার চরম ফল সর্বভূতে ব্রহ্মদর্শন]  
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, " सभी प्राणियों में ब्रह्मदर्शन अथवा ईश्वरदर्शन सबसे उच्च और अन्तिम अवस्था है। साधना में चरम उन्नति होने पर किसी विरले मनुष्य को ही सौभाग्य से (माँ जगदम्बा की कृपा से ?) ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।"[ ठाकुर बलितेन --"सर्वभूते ब्रह्मदर्शन वा ईश्वरदर्शन शेषकालेर कथा। " ~ ঠাকুর বলিতেন, "সর্বভূতে ব্রহ্মদর্শন বা ঈশ্বরদর্শন শেষকালের কথা" - সাধনার চরম উন্নতিতেই উহা মানবের ভাগ্যে উপস্থিত হয়।] 
हिन्दुओं सर्वोच्च प्रामाणिक ग्रंथों,  वेदों उपनिषदों में भी यही कहा गया है कि -'साधना का अंतिम परिणाम है ----'सभी प्राणियों में ब्रह्म की उपलब्धि।' शास्त्रों का कथन है कि जगत में स्थूल-सूक्ष्म, चेतन (sentient ) -अचेतन (insentient ) जो कुछ तुम देख रहे हो- ईंट, पत्थर,लकड़ी,मिट्टी, मनुष्य, पशु, वृक्ष-लता, जीव-जन्तु, देव-देवता ये सब एक अद्वितीय ब्रह्मवस्तु (existence-consciousness-bliss) ही हैं। एक और अद्वितीय ब्रह्मवस्तु को ही तुम विभिन्न नाम-रूपों में देख रहे हो, सुन रहे हो, स्पर्श, घ्राण तथा आस्वादन कर रहे हो। यद्यपि उनके (आत्मा की शक्ति के)  द्वारा ही तुम आजीवन सब प्रकार के दैनन्दिन क्रियाकलाप सम्पन्न करते हो, तथापि आत्मस्वरुप का बोध न होने के कारण यह सोच रहे हो, कि विभिन्न वस्तु तथा व्यक्तियों के साथ तुम्हारा सम्पर्क है। 

इन रहस्यपूर्ण-गूढ़ बातों,'जैसे लोटा ब्रह्म; थाली ब्रह्म ' --- को सुनकर पहले-पहल हमारे मन में जिस प्रकार सन्देह -परम्परा (gist of the doubts) का उदय होता है, उन  सन्देहों का खण्डन या निराकरण (refutation) हमारे शास्त्रों में (उपनिषदों में) जिस प्रकार  'गुरु-शिष्य वेदान्त प्रश्नोत्तर परम्परा ' में रखकर निर्देश दिया जाता है।  उसी प्रकार यहाँ भी उसका संक्षिप्त तात्पर्य पाठकों के सम्मुख -प्रश्नोत्तर के रूप में रखने से वे इस गूढ़ विषय को आसानी से हृदयंगम कर सकते हैं। 
[ सिद्ध महापुरुष लोगों के जैसा हमलोग भी  प्रत्यक्ष रूप से प्रत्येक वस्तुओं और व्यक्तियों के साथ अपनी आत्मा के एकत्व का अनुभव क्यों नहीं कर पाते हैं ? घाँस पर किसी के चलने से अपनी छाती में कष्ट का अनुभव, देवघर में भूखे -कंगालों से एकत्व, माँझी को थप्पड़ मारने से ठाकुर के पीठ पर बाम उखड़ना आदि -जो अनुभव ठाकुर को होते थे, वैसे अनुभव सर्वसामान्य बात क्यों नहीं हो सकती ? इसे प्रश्नोत्तरी में समझें ---] 
प्रश्न --तो फिर उस ब्रह्म-वस्तु का प्रत्यक्ष अनुभव हमें अभी क्यों नहीं हो रहा है? (ঐ কথা আমাদের প্রত্যক্ষ হইতেছে না কেন? Why is this 'fact ' not directly felt by us? ) 
उत्तर : तुम लोगों को भ्रम हो गया है। जब तक एक बार तुम उस भ्रम से बाहर निकल नहीं जाते, तब तक तुम्हें यह पता कैसे चलेगा कि तुम भ्रम में थे ?  [ तुम लोग 'hypnotized' हो गए हो, जब तक तुम de-hypnotized नहीं हो जाते, तब तक तुम्हें कैसे पता चलेगा कि तुम 'hypnotize' अवस्था में थे ? ]यथार्थ वस्तु तथा अवस्था के साथ तुलना करने पर ही हम भीतर तथा बाहर के भ्रम को समझ पाते हैं।  अतः 'if you want to detect that delusion' पूर्वोक्त भ्रम को जानने के लिए तुमको भी 'उसी प्रकार का ज्ञान' 'That kind of knowledge' (विवेकज-ज्ञान) होना आवश्यक है ![ जैसे उस सिंहशावक हरि की कथा में सिंह-शिशु हरी भी 'hypnotized' हो गया था और उसको भेंड़ होने का भ्रम हो गया था ? .... तब बड़े शेर द्वारा 'वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' 'Be and Make' में प्रशिक्षित किये जाने पर वह भ्रममुक्त (De- Hypnotize) हो गया था। किन्तु क्या माँ जगदम्बा भी सिंहशावक हरि की कथा में वर्णित शेरनी की ही तरह  (आत्मा,अकाल-पुरुष को ? या व्यष्टि 'अहं' को ) जन्म देकर मर गयी थी ? नहीं अपने बच्चे को परेशान देखकर भी हँस रही थीं। क्योंकि वे जानती हैं कि प्रत्येक सम्मोहित भेड़ भी अव्यक्त ब्रह्म 'शेर' ही है। नाम-रूप के जाल को काट एक दिन अवश्य मुक्त हो जायेगा !  Similarly, you must have that kind of knowledge if you want to detect that delusion. পূর্বোক্ত ভ্রম ধরিতে হইলেও তোমাদের ঐরূপ জ্ঞানের প্রয়োজন। ]
प्रश्न: अच्छा, उस प्रकार के भ्रम में पड़ जाने का कारण क्या है ?  वह भ्रम मुझे सबसे पहले किस समय हुआ ? वह 'भ्रम' ~ कि 'मैं आत्मा नहीं  M/F हूँ!' हमें  कब से हुआ है ? [ आच्छा, एईरूप भ्रम होई बार कारन कि एवं कबे होईतेई वा एई भ्रम आसिया उपस्थित होईलो ?আচ্ছা, ঐরূপ ভ্রম হইবার কারণ কি এবং কবে হইতেই বা আমাদের এই ভ্রম আসিয়া উপস্থিত হইল?  Well, what is the cause of that delusion ? And when did it arise in us?]
3. भ्रम (delusion) और अज्ञानता (ignorance) के कारण सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता है; जब तक कोई भ्रम में है,(बेहोशी में है) तब तक कोई इसका कारण (बेहोशी के कारण को) नहीं जान सकता! [ভ্রম বা অজ্ঞানবশতঃ সত্য প্রত্যক্ষ হয় না - অজ্ঞানাবস্থায় থাকিয়া অজ্ঞানের কারণ বুঝা যায় না/Truth does not become immediately known on account of delusion and ignorance; as long as one is in delusion, one cannot know its cause.]  
उत्तर : भ्रम का कारण यहाँ भी वही है जो सर्वत्र देखने को मिलता है, -यहाँ भी भ्रमित हो जाने का कारण अज्ञान (ignorance) ही है। वह अज्ञान कब उपस्थित हुआ, यह तुम कैसे जान सकते हो ?  जब तक तुम स्वयं अज्ञानावस्था में विद्यमान हो ,  तब-तक उसे जानने की चेष्टा करना व्यर्थ है।  [As long as you are in ignorance, your efforts to know it are in vain. अर्थात जब तक तुम भ्रमित अवस्था,  'हिप्नोटाइज्ड या मोहग्रस्त अवस्था' में पड़े हुए हो, तब-तक किसी भ्रममुक्त व्यक्ति (डीहिप्नोटाइज्ड, नेता या लोक-शिक्षक) की सहायता के बिना, परमसत्य को जानने की चेष्टा करना व्यर्थ है।]  
जब तक कोई व्यक्ति स्वप्न देख रहा होता है, तब तक वह उसे बिल्कुल सच समझता रहता है। नींद खुलने पर जाग्रत अवस्था के साथ स्वप्न की तुलना करने से ही उसके मिथ्यात्व की धारणा होती है। तुम तर्क उठा सकते हो कि कुछ व्यक्तियों को तो स्वप्न देखते समय भी यह विश्वास बना रहता है, कि -'मैं स्वप्न देख रहा हूँ'; किन्तु यहाँ भी वह विश्वास उन्हें जागृत अवस्था की स्मृति से ही प्राप्त होता है। ठीक उसी प्रकार  कुछ सिद्ध व्यक्तियों में जगत (नाम-रूप या सापेक्षिक सत्य) को देखते समय भी अद्वै ब्रह्मवस्तु (निरपेक्ष सत्य) की स्मृति जागृत रहती है। (Some people are seen similarly to have the memory of the reality of the non-dual Brahman when they are conscious of the world in the waking state.) 'रज्जु-भुजङ्गवत'  -जैसे अँधेरे में रस्सी को सर्प समझ लिया जाता है ? उन विरले महापुरुषों को जाग्रत अवस्था (waking state) में भी अद्वय ब्रह्मवस्तु (सच्चिदानन्द स्वरूप 'existence-consciousness- bliss') की स्मृति जागृत रहती है।  जनक राजा का अदभुत स्वप्न ~ " ये सच है ; या वो सच था ?"ठीक इसी प्रकार, जो व्यक्ति श्रीरामकृष्णदेव जैसे अवतारवरिष्ठ हैं, या नवनीदा जैसे नेतावरिष्ठ (C-in-C ) जैसे जीवन्मुक्त शिक्षक होते हैं, वे जाग्रत अवस्था में भी  सचेत होकर, 'ज्ञानमयी दृष्टि' द्वारा जगत को ब्रह्ममय (नाम-रूप या Reflected Consciousness के पीछे स्थित Pure Consciousness) देखने, या 'भगवानमयी- दृष्टि' द्वारा जगत को भगवानमय देखने और व्यवहार करने में समर्थ होते हैं। ]
प्रश्न : तो फिर उपाय क्या है ? ( तबे उपाय ? তবে উপায়?Then what is the Way out ? भ्रम से मुक्त या DeHypnotized होने का मार्ग क्या है?) 
उत्तर : उस अज्ञान (बेहोशी-सम्मोहन की अवस्था) को दूर करना ही एकमात्र उपाय है; और मैं निश्चित तौर पर तुम्हें यह बता बता सकता हूँ कि विधिवत चेष्टा करने से उस भ्रम और अज्ञान (Ignorance) को अवश्य दूर किया जा सकता है। प्राचीन ऋषि लोग (अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव और महामण्डल के चपरास प्राप्त नेतावरिष्ठ (C-in-C )  नवनी दा आदि) स्वयं को भ्रममुक्त करने में समर्थ हुए थे, और किस पद्धति से वह भ्रम/अज्ञानता दूर हो जाती है, उसका (5 अभ्यास का) विधिवत निर्देश भी बता गए हैं। (The ancient seers were able to remove them, and have left us instruction as to the method.)
प्रश्न : बहुत अच्छा, लेकिन इससे पहले कि हम उन साधनों को (भ्रममुक्त होने के 5 अभ्यास को ) जानने के लिए आगे बढ़ें, एक-दो प्रश्न हम और करना चाहते हैं। हम इतने सारे लोग (बहुसंख्यक लोग) जीवन में जिन नाना वस्तुओं और व्यक्तियों को जिस रूप देख रहे हैं और व्यवहार कर रहे हैं, उसे तो आप भ्रम बता रहे हैं, और अल्पसंख्यक ऋषियों ने जिस रूप में (ब्रह्ममय या सियाराममय रूप में) इस जगत का प्रत्यक्ष किया, या अनुभव किया है, उसे ही सत्य कह रहे हैं।  क्या यह सम्भव नहीं कि ऋषियों ने जो कुछ प्रत्यक्ष किया है (जगत को ब्रह्ममय देखा है), वही भ्रम हो ?
4. ऋषियों में (सत्य द्रष्टाओं ने) जगत को जिस रूप में देखा है, वही सत्य है। —उसका कारण! 
 ['जगतके ऋषिगण जेरुप देखियाछेन ताहाई सत्य -उहार कारण' জগৎকে ঋষিগণ যেরূপ দেখিয়াছেন তাহাই সত্য - উহার কারণ/What the seers saw the world to be, is alone true. —The reason for it] 
उत्तर: बहुसंख्यक सामान्य लोग जो विश्वास करते हैं, सर्वदा वही सत्य होगा -ऐसा कोई नियम नहीं है।  [जैसे बहुसंख्यक सामान्य इसाई लोग 16 वीं शताब्दी तक यही विश्वास करते थे कि सूरज घूमता है और पृथ्वी स्थिर है, बाद में अल्पसंख्यक वैज्ञानिकों गैलीलियो गैलिली (१५६५ - १६४२), और इनके पहले कोपरनिकस को ही प्रत्यक्ष ज्ञान से विदित हुआ, कि सूर्य स्थिर है -पृथ्वी घूमती है! किन्तु जब इस सत्य की घोषणा उन्होंने की तो  उन्हे चर्च का कोपभाजन बनना पड़ा था।] दूसरी ओर अल्पसंख्यक सत्यद्रष्टा ऋषियों के प्रत्यक्ष ज्ञान (direct knowledge- आत्मानुभूति) को सत्य कहने का कारण यह है कि उसी प्रत्यक्ष ज्ञान (अपरोक्षानुभूति) की सहायता से वे सभी ऋषिगण समस्त प्रकार के भय और दुःख से मुक्त होकर अभिः पद (परमपद) के अधिकारी हुए थे। एवं निश्चित मरणशील मानव जीवन के सब प्रकार के व्यवहार-चेष्टा आदि (विवाह प्रथा आदि) का उन्हें एक लक्ष्य भी विदित हो गया था।
[इसीलिए नेतावरिष्ठ नवनीदा विवेकानन्द-दर्शनम में कहते हैं - " इस ईश्वर-रचित सृष्टिचक्र के पीछे जो महान उद्देश्य अन्तर्निहित है, वह यही है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी भ्रमों और भूलों को सुधारता हुआ उसी सत्य या पूर्णता की ओर देवमानव बनने (भ्रममुक्त मनुष्य) की ओर अग्रसर हो रहा है !" नवनी दा ने कहा था -'Man is marching towards perfection'] 
इसके अतिरिक्त यह भी देखा जाता है कि प्रत्यक्षज्ञान (direct knowledge-या विवेकज-ज्ञान) हो जाने पर मनुष्य में अन्तर्निहित चरित्र के 24 गुण यथा -आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास, तितिक्षा (forbearance), सन्तोष, करुणा, विनयशीलता, आदि सदगुण विकसित होकर उस ऋषि/पैगम्बर को असाधरण रूप से (uncommonly) उदार-हृदय का मनुष्य (Heart whole Man) भी बना देता है। तथा उन्हीं के  पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए जो लोग बाद में सिद्धिलाभ करते हैं----' विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त  शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा -Be and Make ' का अनुसरण करते हुए बाद में नेतावरिष्ठ (C-in-C) का चिन्ह/बैज प्राप्त कर लेते हैं, उनके अंदर भी वैसा ही असाधारण रूप से 'पूर्ण उदार-हृदय मनुष्य' (whole hearted man) जैसा व्यक्तित्व  देखने में आता है। [नेतावरीष्ठ नवनीदा- प्रमोददा वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण-परम्परा में प्रशिक्षित कई वरिष्ठ महामण्डल कर्मीयों का जीवन भी असाधारण रूप से 'पूर्ण उदार-हृदय मनुष्य' का जीवन देखने में आता है।( क्योंकि श्रुति-परम्परा में प्रशिक्षित होने से उनका 'व्यष्टि अहं' भी माँ जगदम्बा के अवतार नवनीदा के मातृहृदय जैसा असामान्य रूप से सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध में रूपांतरित हो जाता है। )
5. अनेक व्यक्तियों को एक ही प्रकार का भ्रम होने पर भी भ्रम कभी सत्य नहीं होता।  ('अनेकेर एकरूप भ्रम होईलेउ भ्रम कखन सत्य हय ना' অনেকের একরূপ ভ্রম হইলেও ভ্রম কখন সত্য হয় না; Delusion, although shared by many, is not right knowledge) 
प्रश्न :अच्छा, हम सभी को एक ही प्रकार का भ्रम क्यों हो रहा है ? (Well, how is it that all of us have the same delusion?) मैं जिसे पशु समझता हूँ, आप भी उसे पशु ही समझते हैं, मनुष्य तो नहीं समझते। और दूसरे विषयों के बारे में भी ऐसा ही होता है। इतने व्यक्तियों को एक ही समय में एक ही प्रकार का भ्रम होना क्या आश्चर्यजनक नहीं है ?[जैसे जादूगर सबकी घड़ी को एक साथ गलत समय बताते दिखा देता है ?] ऐसा लगभग सर्वत्र दिखाई पड़ता है कि असंख्य साधारण लोगों को किसी विषय में भ्रमात्मक धारणा होने पर भी, कुछ अन्य लोगों की (वैज्ञानिकों की) उस विषय में सत्य-दृष्टि बनी रहती है।  सभी प्राकृतिक घटनाओं (सेव का नीचे गिरना) में एक ही प्राकृतिक नियम को कार्यशील देखा जाता है।(जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम ज्ञानी -अज्ञानी सबके लिए एक समान ही कार्य करता है। अथवा अंधरे में रस्सी को देखकर कुछ लोगों में सर्प की भ्रमात्मक धारणा होने पर भी, दूसरे लोगों में उस रस्सी के प्रति सत्य-दृष्टि बनी रहती है।)  (But here that truth does not hold good at all. Therefore, what you say does not seem to be probable.) किन्तु यहाँ [कुछ मुट्ठीभर ज्ञानमयी दृष्टि सम्पन्न लोगों को ही जगत का ब्रह्ममय दिखना] पर उस नियम का सर्वथा व्यतिक्रम हो रहा है, इसीलिए आपका कथन - 'दृष्टिं भगवानमयी कृत्वा पश्येत भगवानमय जगत' - सम्भव (probable ) प्रतीत नहीं होता।
6. माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट मन में जगतरूप की कल्पना विद्यमान रहने के कारण ही साधारण मानवों को एक सा भ्रम (मैं मरणधर्मा शरीर मात्र हूँ !?) हो रहा है: किन्तु उसके चलते विराट मन भ्रम में आबद्ध नहीं है। ( विराट मने जगतरूप कल्पना विद्यमान बोलियाई मानव-साधारनेर एकरूप भ्रम होइतेछे -विराट मन किन्तु एइजन्ये भ्रमे आबद्ध नहे:  বিরাট মনে জগৎরূপ কল্পনা বিদ্যমান বলিয়াই মানবসাধারণের একরূপ ভ্রম হইতেছে - বিরাট মন কিন্তু ঐজন্য ভ্রমে আবদ্ধ নহে: All have the same delusion, as the universe is an ideation of the cosmic mind which, however, is not it- self deluded.)
उत्तर - तुमको यहाँ पर नियम का अपवाद इसीलिए दिखाई पड़ रहा है, कि तुम अल्पसंख्यक ऋषियों की तुलना सर्वसाधारण (H2O=पानी जानने वाले अल्पसंख्यक वैज्ञानिकों) के साथ नहीं कर रहे हो। अन्यथा पूर्व प्रश्न के साथ ही इसका उत्तर भी दे दिया गया है। फिर भी तुम जो यह पूछ रहे हो कि ~ "how all people are under the same delusion ?" इसके उत्तर में शास्त्रों का कहना है कि -एक असीम अनन्त समष्टि मन (Limitless Infinite Cosmic Mind) में सम्पूर्ण जगत रूपी (universe) की कल्पना (ideation) का उदय हुआ है ! 
तुम्हारा, मेरा तथा जनसाधारण का व्यष्टि-मन (individual minds) उसी विराट-सर्वव्यापी मन (that cosmic mind,माँ जगदम्बा का विराट सर्वव्यापी अहं 'मैं -बोध' ) का अंश तथा अंगीभूत होने के कारण हमलोगों को एक प्रकार की कल्पना ( we all have to experience the same ideas. मैं M/F हूँ ?) का अनुभव करना पड़ रहा है। यही कारण है कि हम अपनी इच्छानुसार (by our individual efforts) पशु को पशु के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में देखने या कल्पना करने में समर्थ नहीं हैं। और इसीलिए हमलोगों में से कोई-कोई (सन्त,ब्रह्मवेत्ता, पैगम्बर,नेता या ऋषि) यथार्थ ज्ञान ( अपरोक्षानुभूति या right knowledge) को प्राप्त कर सब प्रकार के भ्रमों से मुक्त --de -Hypnotized ' हो जाते हैं।  किन्तु अन्य सभी लोग जिस प्रकार पहले से भ्रम में पड़े हुए थे -(सम्मोहित या Hypnotized) अवस्था में पड़े हुए थे, वैसे ही उसमें पड़े रहते हैं !
एक और बात: हालाँकि सर्वव्यापी विराट मन में (Cosmic Mind, माँ जगदम्बा के अहं-बोध में)  विश्व-ब्रम्हाण्ड की कल्पना का उदय होने पर भी वे हमलोगों की तरह अविद्या माया के बन्धन (bondage of ignorance) में कभी फँसती (entangled) नहीं हैं। क्योंकि वे सर्वज्ञ -सत्ता (all-knowing Person) हैं, इसीलिए वे इस मनःकल्पित जगत के भीतर और बाहर उसी एक अद्वय ब्रह्मवस्तु (Existence-Consciousness-Bliss, सच्चिदानन्द) को ओतप्रोत रूप से विद्यमान देखते हैं। इस प्रकार त्रिकालदर्शी नहीं होने के कारण, हमलोगों की बात स्वतः ही भिन्न है। ( ~ " विवेकज-ज्ञान से प्राप्त होने वाली ज्ञानमयी दृष्टि/ या इष्टदेव के दर्शन से प्राप्त होने वाली भगवानमयी दृष्टि" ~ नहीं रहने के कारण, हमलोगों की बात पैगम्बरों/शिक्षकों/नेताओं से स्वतः भिन्न है।) जैसे श्रीरामकृष्णदेव कहते थे- " साँप के मुँह में विष रहता है, उसी मुँह से वह नित्य भोजन कर रहा है, किन्तु उससे साँप का कुछ नहीं बिगड़ता, किन्तु साँप जिसे काटता है, उसकी तो विष से तत्काल ही मृत्यु हो जाती है। " ( A snake has poison in its mouth. It takes its food daily through it, still it remains unaffected by the poison, But anyone whom it bites, meets with instantaneous death.कोबरा काट ले तो तीन पुकार में मिथ्या अहं की मृत्यु निश्चित है!)
7. जगतरूप कल्पना देश-काल से परे विद्यमान है, इसलिए प्रकृति (माया) भी अनादि है।(जगतरूप कल्पना देशकालेर बाहिरे वर्तमान ~ प्रकृति अनादि ! জগৎরূপ কল্পনা দেশকালের বাহিরে বর্তমান - প্রকৃতি অনাদি|The ideation of the universe is beyond time and space. Prakriti is beginningless.ॐ की वैष्णवी शक्ति, ब्रह्म (ॐ का अनुस्वार समय से परे है ?) के साथ ही विद्यमान रहती हैं ! इसीलिए प्रकृति अनादि है!) 
इस प्रकार शास्त्रों के दृष्टिकोण से यदि देखा जाय, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध (Cosmic Mind) में जिस जगतरूप कल्पना का उदय हुआ है, वह एक प्रकार से हमलोगों का भी मनःकल्पित है। क्योंकि हमलोगों का क्षुद्र व्यष्टि अहं (मन), माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट मातृहृदय का अहं -बोध के साथ शरीर तथा अन्य अंगों की तरह अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है।फिर, यह भी नहीं कहा जा सकता कि जगतरूप कल्पना पहले किसी समय विश्वमन (universal mind-माँ जगदम्बा के मन) में विद्यमान नहीं थी, तथा इस कल्पना का उदय बाद में हुआ।  क्योंकि नाम और रूप (name and form) अथवा देश (space खाली-जगह,आकाश) और काल (space and time) दोनों पदार्थों के बिना किसी प्रकार विविधता (diversity) पूर्ण जगत का सृजन नहीं हो सकता।  दूसरे शब्दों में नाम-रूप या देश-काल (आकाश और प्राण,E=Mc2) जगतरूप कल्पना के साथ अविच्छेद्य रूप से नित्य विद्यमान हैं। शान्त चित्त से कुछ देर विचार करने पर पाठक स्वयं ही इस बात को समझ पाएंगे कि वेदादि शास्त्रों ने - प्रकृति, माया अथवा सृजनशक्ति की आदिकारण स्वरूपा (ultimate material of creation) माँ काली को अनादि (आद्याशक्ति beginningless) तथा कालातीत (beyond time) मानने की शिक्षा क्यों दी है
जगत को यदि मनःकल्पित (an idea of the mind) ही माना जाय,तथा उस कल्पना का प्रारम्भ 'काल' शब्द से “ time ” -कहने से हमें जो बोध होता है, यदि उस समय के अन्दर न हुआ हो, तो इसका निष्कर्ष यह होगा कि 'समय' की कल्पना के साथ ही साथ जगतरूप कल्पना “ the universe ” भी उस कल्पना का आश्रयस्थल - उस विराट सार्वभौमिक मन ( the universal mind) में नित्य-विद्यमान रहता है !क्योंकि हमारा ससीम व्यष्टि मन अभीतक अपनी चहारदीवारी को लाँघ नहीं सका है, और लम्बे समय से (जन्म-जन्मांन्तर से) लगातार उस कल्पना को देखते रहने के कारण इस दृष्टिगोचर जगत के अस्तित्व में ही उसकी धारणा दृढ़ बनी हुई है ! तथा उस अद्वय ब्रह्मवस्तु (सच्चिदानन्द Existence-consciousness-bliss) के अपरोक्षानुभूति से दीर्घकाल तक वंचित (debarred) रहने के कारण, हमारा व्यष्टि मन इस बात को बिल्कुल भूल चुका है, कि 'यह जगत मनःकल्पित वस्तु मात्र है !' इसीलिए अभी हमें अपने भ्रम का (error या सम्मोहित अवस्था का) अनुभव नहीं हो रहा है। क्योंकि यह पहले ही कहा जा चुका है कि जाग्रत अवस्था के साथ तुलना करने पर ही स्वप्न के भ्रम को दूर करने में सक्षम हो पाते हैं। (राजा जनक की तुलना के बाद ही यह सच या वह सच ?)
 8. साधना और साधक की परिभाषा :  देश-कालातीत जगतकारण (माँ काली, जगदम्बा-आश्रम की माँ श्री श्रीसारदादेवी) के साथ परिचित होने का प्रयास ही साधना है।
(देशकालातीत जगतकारनेर सहित परिचित होइबार चेष्टाई साधना: দেশকালাতীত জগৎকারণের সহিত পরিচিত হইবার চেষ্টাই সাধনা: knowing  the universal cause beyond time and space, is Sadhana.) 
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्वब्रह्माण्ड के दृष्टिगोचर और अनुभव में आने वाले उसके वर्तमान रूपों की अवधारणा हमारे दीर्घकाल संचित अभ्यास (आदतों-प्रवृत्तियों) के फलस्वरूप ही गठित हुई है। अतः यदि हम इस जगत के यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करना चाहें तो हमें अब नाम-रूप, देश-काल, मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार आदि जगत के अन्तर्गत सभी परिवर्तनशील विषयों (reflected consciousness) के अतीत जो सत्य वस्तु (ब्रह्म-pure consciousness) है ~ उसके साथ परिचित होना पड़ेगा !
इस परिचय को प्राप्त करने के प्रयास को  [माँ काली या माँ सारदादेवी के रूप में परिचित होने के प्रयास को]  ही वेदादि शास्त्रों ने -'साधना' नाम से निर्देश किया है। तथा ज्ञात-अज्ञात रूप से जो कोई स्त्री या पुरुष इसी प्रयत्न में सदैव रत रहते हैं, उन्हीं को भारत 'साधक' के नाम से सम्बोधित किया जाता है !
9.साधना के दो प्रमुख मार्ग~ 'नेति, नेति' तथा 'इति,इति': ['নেতি, নেতি' ও 'ইতি, ইতি' সাধনপথ:The two paths of Sadhana: (1) not this, not this  and (2) this, this.] 
जगत से अतीत (देश-काल, प्रकृति या माया से परे) उस ब्रह्म वस्तु के अनुसन्धान (search of the reality beyond the universe) करने का पूर्वोक्त प्रयास, (परमसत्य की खोज) दो प्रमुख मार्गों से प्रवाहित होता रहा है।  उनमें से प्रथम मार्ग को शास्त्रों ने " नेति, नेति,"  (यह नहीं, यह नहीं) अथवा ज्ञानमार्ग के नाम से निर्देश किया है; दूसरे को "इति, इति" या भक्तिमार्ग कहा है। ज्ञानमार्ग के साधक (निवृत्ति धर्म के अधिकारी) के पास प्रारम्भ से ही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य (the ultimate ideal-अविनाशी आत्मा-existence-consciousness-bliss) की एक अवधारणा रहती है, और सर्वदा अपने उसी अविनाशी स्वरूप का स्मरण करते हुए, उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए ज्ञानपूर्वक (consciously,
शाश्वत-नश्वर विवेक-प्रयोग करते हुए) दिन-प्रतिदिन अग्रसर होते रहते हैं।
किन्तु भक्तिमार्ग के साधक (प्रवृत्ति धर्म के अधिकारी या सत्यार्थी अथवा 'पथिकजी' लोग) अक्सर इस बात से अनजान रहते हैं , कि भक्ति की चरम अवस्था में वे कहाँ पहुंचेंगे ? वे लोग जीवन के मुख्य उद्देश्य के रूप में उच्च से उच्चतर लक्ष्यों को क्रमशः ग्रहण करते हुए अन्त में जगत (नाम-रूप) से अतीत अद्वैतवस्तु (জগদতীত অদ্বৈতবস্তুর श्रीरामकृष्ण परमहंस देव-अविनाशी आत्मा-existence-consciousness-bliss) से साक्षात् परिचय प्राप्त कर लेते हैं! 
[ भक्ति मार्ग के साधक जब  माँ सारदा देवी की कृपा से अचानक उस निर्विकल्प अवस्था,अतिचेतन अथवा
(superconscious या DeHypnotized state) को प्राप्त होते हैं, तब उन्हें क्या अनुभव होता है ?  भक्तिमार्ग के इस साधक को 15.4. 1992 सुबह 6 बजे ऊँच ब्रिज, बनारस के पहले निर्विकल्प में पहुँचने पर यह पता चला कि ' मैं वास्तव में कौन हूँ ? ' मरणधर्मा शरीर मात्र हूँ अथवा अविनाशी आत्मा हूँ ? इस सत्य को देखने के लिए- अभी देखूँगा कि अगले क्षण होने वाले अपरिहार्य ऐक्सिडेंट में मरता कौन है, देह या मन ? 'मृत्युरूपा माता' केवल अहं-मन के लिए मृत्यु है -आत्मा तो स्वयं वही हैं ! अतिचेतन अवस्था से लौटने पर 'शिवोहं -शिवोहं' की अनुभूति होती है।]  
परन्तु अन्ततोगत्वा (নতুবা ) जगत के सम्बन्ध में साधारण मानवों के अंदर जो धारणा बनी हुई है (स्वार्थपूर्ण धारणा -तीन ऐषणाएँ कामिनी-कांचन और कीर्ति का लालच) दोनों पथ के पथिकों को उसे (पाशविक स्वार्थपरता को) त्याग देना ही पड़ता है ! (नतुवा जगतसम्बन्धे साधारण जनगणेर जे धारणा आछे, ताहा उभय पथेर पथिकगणकेई त्याग करिते होय। নতুবা জগৎসম্বন্ধে সাধারণ জনগণের যে ধারণা আছে, তাহা উভয় পথের পথিকগণকেই ত্যাগ করিতে হয়।) 
ज्ञानी (निवृत्ति मार्ग के अधिकारी) साधना के प्रारम्भ से ही उसे (घोर स्वार्थपरता या पशुता) को पूर्णतया परित्याग करने का प्रयास करते हैं।  एवं भक्त (प्रवृत्ति धर्म के अधिकारी) सर्वप्रथम उसके कुछ अंशों को छोड़कर तथा कुछ अंशों को ग्रहण कर साधना में प्रवृत्त होते हैं। परन्तु साधना के अन्त में [जब सर्वभूतों में ब्रह्मदर्शन की पात्रता चली आती है] ज्ञानी की ही तरह भक्त  भी उसको सम्पूर्ण रूप से परित्याग कर (घोर स्वार्थपरता या पशुता को सम्पूर्ण रूप से परित्याग कर) 'एकमेवाद्वितीयं' सच्चिदानन्द तत्व (existence-consciousness-bliss) में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। जगत के सम्बन्ध में घोर-स्वार्थपूर्ण तथा एकमात्र भोगसुखपरिपूर्ण साधारण धारणा (पशुता) के वर्जन को ही शास्त्रों में " वैराग्य " कहकर निर्देश किया गया है। 
 9A. Precondition of sadhna :  ज्ञानमार्ग के पथिक और भक्तिमार्ग के पथिक के बीच अन्तर का एकमात्र बिन्दु यही है, किन्तु दोनों पथ के पथिकों को 'निवृत्ति अस्तु महाफला' का स्मरण करते हुए अंततोगत्वा सामान्य मानवों के अन्दर जो धारणा बनी हुई है, उस इन्द्रियभोगों में आसक्ति को पूर्णतया त्याग देना पड़ता है। जहाँ, ज्ञान के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति (निवृत्तिमार्ग का अधिकारी व्यक्ति) प्रारम्भ से ही इन्द्रियभोगों को पूर्णतया त्याग देने का प्रयास करता है। वहीँ,  भक्त (प्रवृत्ति मार्ग का अधिकारी व्यक्ति) आंशिक रूप से त्याग (अर्थात निषिद्ध कर्मों का पूणतया त्याग) और स्वधर्म पालन करते हुए आंशिक रूप से इसे बनाये रखते हुए (partly renouncing and partly retaining,शास्त्रसम्मत पुरुषार्थ -धर्म,अर्थ, काम करते हुए) 'मोक्ष' (भ्रममुक्त होने) के मार्ग पर आगे बढ़ता है। और अन्त में 'ज्ञानी' की ही तरह 'भक्त' भी इन्द्रियभोगों को सम्पूर्ण रूप से परित्याग करके 'एकमेवाद्वितीयम' “ One without a second” सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है। जगत के सम्बन्ध में स्वार्थपूर्ण तथा इन्द्रियभोगों को ही सर्वस्व समझने की आम धारणा के वर्जन को ही शास्त्रों में अनासक्ति (detachment)  या 'वैराग्य' (dispassion) कहा गया है।
हम पाते हैं कि " निरन्तर परिवर्तित होने वाले (ever changing) तथा निश्चित मरणशील मानवजीवन (ends in sure death) को विचार पूर्वक देखने से",  जगत की नश्वरता (transitoriness) का 'बोध' सहज ही में आकर उपस्थित हो जाता है! अतः ऐसा प्रतीत होता है कि, प्राचीन युग में "जगत्कारण की खोज" करते समय (the search for 'The Ultimate Cause Of the Universe~ Mother Kali'अहं की मृत्युरूपा माँ सारदा देवी), जगत सम्बन्धी सामान्य धारणा (साधारण भोगवादी दृष्टि-पशुता) को पूर्णतया त्याग (renunciation) देने में समर्थ हमारे (निवृत्ति मार्गी) ऋषियों के समक्ष 'नेति, नेति' मार्ग ['न इति, न इति' अर्थात  'अन्त नहीं है, अन्त नहीं है'] ही स्वाभाविक रूप से सबसे पहले आकर उपस्थित हुआ होगा। और इसीलिए भारत में भक्ति एवं ज्ञान ये दोनों मार्ग (अर्थात प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दोनों धर्म-simultaneously ) एक साथ प्रचलित रहने पर भी, उपनिषदों में भक्तिमार्ग के समस्त विभागों (नवधाभक्ति) की सम्पूर्ण परिपुष्टि होने के पूर्व ही, ज्ञान मार्ग  का पूर्ण विकास ( the complete development of the path of knowledge) देखा जा सकता है।
10. 'मैं क्या हूँ ?' इस विषय की खोज करना ही -'नेति,नेति' साधना मार्ग का लक्ष्य है। ['नेति, नेति' पथेर लक्ष्य - 'आमि कोन पदार्थ' तदविषये सन्धान करा। 'নেতি, নেতি' পথের লক্ষ্য - 'আমি কোন্ পদার্থ' তদ্বিষয়ে সন্ধান করা| The goal of the path of “not this, not this,” is to know “What am I” ] 
 उपनिषद इस बात का साक्षी है कि,'नेति, नेति' ~ नित्यसवरूप जगत्कारण 'यह नहीं है', 'वह नहीं है'  ~ इस प्रकार विवेक-प्रयोग मार्ग में अग्रसर होकर हमारे ऋषि-मुनि बहुत थोड़े समय में ही 'introspective' अन्तर्मुखी बन चुके थे या आत्म-विश्लेषण करने में समर्थ बन चुके थे ! उन्होंने यह अनुभव किया था कि अन्य समस्त वस्तुओं की अपेक्षा, सबसे पहले वे अपनी देह (Hand) तथा मन (Head) के द्वारा ही वे इस जगत के साथ जुड़े हुए हैं। अतः शरीर और मन (2'H') के सहारे जगत्कारण (cause of the universe: 3rd 'H' -Heart) के अन्वेषण में अग्रसर होने पर शीघ्र ही उसका पता लगने की सम्भावना है। (অতএব, দেহ-মনাবলম্বনে জগৎকারণের অন্বেষণে অগ্রসর হইলে উহার সন্ধান শীঘ্র পাইবার সম্ভাবনা। ) 
साथ ही जिस प्रकार' हाँडी के एक चावल को दबाकर देख लेने से' - यह पता चल जाता है कि भात अच्छी तरह पक गया है या नहीं ?' ठीक उसी प्रकार अपने हृदय में ही 'नित्य-कारण -स्वरूप' (ब्रह्म-शक्ति अभेद) का अनुसन्धान मिलते ही,दूसरी वस्तु तथा व्यक्तियों में भी उसकी खोज मिल सकती है। इसीलिए ज्ञानमार्ग के पथिकों के निकट 'मैं कौन हूँ ?' “ Who am I ” ( 3'H' या शरीर,मन या आत्मा -इन तीनों में मैं कौन हूँ ?) इस विषय का अनुसन्धान ही, जीवन का एक मात्र लक्ष्य बन जाता है।
 [बृहदारण्यक उपनिषद में  'नेति ,नेति ' के सिद्धान्त:  the path of “not this”, “not this” ~  का प्रतिपादन किया गया है । 
उपनिषदों में सर्वाधिक बृहदाकार, बृहदारण्यक उपनिषद् के नाम का अर्थ 'बृहद ज्ञान वाला' या 'घने जंगलों में लिखा गया' उपनिषद है। यह उपनिषद अद्वैत वेदांत और संन्यासनिष्ठा का प्रतिपादक है। स्त्री, संतान अथवा जिस किसी से मनुष्य प्रेम करता है वह वस्तुत: अपने लिए करता है। अस्तु, यह आत्मा क्या है ?--- इसे ढूँढना चाहिए, ज्ञानियों से इसके विषय में सुनना, इसका मनन करना और समाधि में साक्षात्कार करना ही परम पुरुषार्थ है।'चक्षुर्वै सत्यम्' अर्थात् आँख देखी बात सत्य मानने की लोकधारणा के विचार से जगत् सत्य है, परंतु वह प्रत्यक्षत: अनित्य और परिवर्तनशील है और निश्चय ही उसके मूल में स्थित तत्व नित्य और अविकारी है। अतएव मूल तत्व को 'सत्य का सत्य' अथवा अमृत कहते हैं। नाशवान् 'सत्य' से अमृत ढँका हुआ है।  
ज्ञवलक्य ने कहा है-  ब्रहा न यह और न वह है 'नेति, नेति'। 'यह नहीं, यह नहीं' मार्ग : सर्वासु हि उपनिषत्सु ज्ञेयं ब्रह्म ‘नेति, नेति’-----'न इति, न इति' अर्थात  'अन्त नहीं है, अन्त नहीं है'। (बृ. उ. २ । ३ । ६)  'यह वाक्य उपनिषदों में ब्रह्म, ईश्वर या जगत्कारण (जगतजननी माँ सारदा) के संबंध में उनकी अनन्तता को सूचित करने के लिए आया है। उपनिषद् के इस महावाक्य के अनुसार ब्रह्म शब्दों के परे है। यह वाक्य उपनिषदों एवं अवधूत गीता में इस तरह आया है-
तत्त्वमस्यादिवाक्येन स्वात्मा हि प्रतिपादितः। 
          नेति नेति श्रुतिर्ब्रूयाद अनृतं पांचभौतिकम् ॥ १.२५॥ 
अर्थ ---- 'तत्वमसि' आदि महावाक्य के द्वारा अपनी आत्मा का ही प्रतिपादन किया गया है। असत्य, जो पांच अवयवों से बना है, उसके बारे में श्रुति कहती है- नेति नेति (यह नहीं, यह नहीं)। 
ब्रह्मज्ञान के इच्छुक व्यक्ति को यह वाक्य पहले यह समझाता है कि 'ब्रह्म क्या-क्या नहीं है'। जैसे ब्रह्म यह स्थूल शरीर नहीं है, सूक्ष्म शरीर या मन भी नहीं है, कारण शरीर भी नहीं है, इस प्रकार से वैज्ञानिक ढंग से  या तर्क-संगत दृष्टि से 'वस्तु-विचार' या ब्रह्म-मिमांसा करने की पद्धति को पाश्चात्य संस्कृति में 'वाया निगेटिवा' (via negativa) कहते है।
' नेति नेति ' विचार-पद्धति को वेदान्त का ज्ञानमार्ग कहा जाता है। यहाँ पर ईश्वर का अस्तित्व अन्धविश्वास के ऊपर प्रतिष्टित नहीं है। इसमें न्याय-विचार करके सभी मतों का खण्डन कर दिया जाता है। इस अद्वैत-वाद में युक्ति-तर्क की सहायता से एक परम-सत्य तक पहुँचना होता है। यह मार्ग चरम विवेक-प्रयोग क्षमता के उपर प्रतिष्ठित है। इस पथ में युक्ति-तर्क के आधार पर यह सिद्ध किया जाता है कि - ' ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या '। ' नेति नेति ' करते हुए आत्मा की उपलब्धि करने का नाम ज्ञान है। पहले ' नेति नेति ' विचार करना पड़ता है। ईश्वर पंचभूत नहीं है, इन्द्रिय नहीं हैं, मन, बुद्धि, अहंकार नहीं हैं, वे सभी तत्वों के अतीत हैं।
श्रीरामचरित मानस के अरण्यकाण्ड में सन्त तुलसी दास जी कहते हैं - 
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥ 
अर्थात जिन्हें वेद 'नेति, नेति' (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनंदस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैं। शतपथब्राह्मण १४.५.३ में कहा गया है -  " द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे। मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च। " ] 
11.निर्विकल्प समाधि: (Nirvikalpa. নির্বিকল্প সমাধি का अनुभव अहं को नहीं आत्मा को होता है।) यह पहले ही कहा जा चुका है कि इस जगत को लेकर आम जनों में जो साधारण धारणा  बनी हुई है,ज्ञानी तथा भक्त दोनों मार्ग के पथिकों को उसका (भोगमयी, स्वार्थपूर्ण दृष्टि का ) त्याग कर देना पड़ता है। उस भ्रान्त धरणा का बिल्कुल त्याग देने से ही -मानवमन सर्ववृत्ति रहित (अहं-वृत्ति रहित या 'चित्त की वृत्तियों का निरोध' होकर-आत्मा ) समाधि का अधिकारी बन जाता है। इस प्रकार की समाधि (जिसमें 'अहं'-वृत्ति का भी नाश हो जाता है) को ही शास्त्रों में निर्विकल्प समाधि कहा गया है।ज्ञानमार्ग के साधक-  " वास्तव में मैं कौन पदार्थ हूँ "?   [“ Who am I”, or What am I ~ 2'H' or 3rd 'H'उस तत्व (जगत्कारण,परमसत्य, ब्रह्म-अथवा मृत्युरूपा माँ काली, existence-consciousness-bliss) का अनुसन्धान करने के लिए नचिकेता जैसी अटल आत्मश्रद्धा के साथ अग्रसर होकर किस प्रकार निर्विकल्प समाधि में प्रतिष्ठित हो  जाते हैं, तथा उस 'superconscious state' इन्द्रियातीत अवस्था या अतिचेतन अवस्था में किस प्रकार का अनुभव होता है ? [वहाँ लौटने के बाद ज्ञानमार्ग के साधक यह कैसे समझ पाते हैं कि सच्चिदानन्द स्वरुप 'ब्रह्म' का अनुभव उनके 'अहं'- को नहीं आत्मा को ही हुआ था, क्योंकि वहाँ तक तो अहं-मन या वाणी पहुँच ही नहीं सकता !] इस बात का उल्लेख अन्यत्र* किया गया है। (*'गुरुभाव ~पूर्वार्ध ' के द्वितीय अध्याय में किया गया है।) अतः भक्तिपथ के पथिक किस तरह उस निर्विकल्प समाधि के अनुभव को प्राप्त करते हैं, अब पाठकों के लिए उस विषय में कुछ कहना उचित प्रतीत होता है। 
भक्ति के मार्ग (path of devotion) को हमने 'इति,इति' रूप साधन-पथ के नाम से निर्दिष्ट किया है;  क्योंकि इस मार्ग से चलने वाले पथिक को भी यद्यपि जगत की क्षणभंगुरता (transience,अनित्यता ) का  स्पष्ट रूप से बोध (ज्ञान) रहता है, तथापि वे जगत्कर्ता ईश्वर (जगतजननी ,माँ जगदम्बा) पर भरोसा रखकर उनके द्वारा रचित इस जगत-रचना को भी सत्य मानते हैं, एवं उसके (माँ काली के)अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। भक्त लोग जगत एवं उसके अंतर्गत समस्त वस्तुओं तथा व्यक्तियों को ईश्वर के साथ सम्बन्धित देखकर उन्हें अपना लेते हैं। इस सम्बन्ध को मधुर और प्रगाढ़ बनाने के मार्ग में जो कुछ उन्हें बाधक दिखाई पड़ता है, उसका (लज्जा-घृणा-भय आदि अन्तराय का) वे दूर से ही परित्याग कर देते हैं। इसके अतिरिक्त ईश्वर (माँ काली) के किसी रूप में (अवतार-वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव के नाम-रूप में) अनुरक्त तथा उन्हीं के ध्यान में तन्मय होना (विवेकदर्शन में तन्मय होना) और उनकी प्रीति के निमित्त ही समस्त कार्यों का अनुष्ठान करना भक्तों का तत्काल ही लक्ष्य बन जाता है।
12.'इति,इति' ( 'यह, यह',“ this, this") के मार्ग से निर्विकल्प समाधि में पहुँचने का विवरण :[ 'इति,इति' पथे निर्विकल्प समाधि लाभेर विवरण' -  'ইতি, ইতি' পথে নির্বিকল্প সমাধিলাভের বিবরণ/ How Nirvikalpa Samadhi is attained on the path of “this, this” ?]
अब हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि 'रूप' (सगुण-साकार) के ध्यान में लीन हो जगत के अस्तित्व को भूलकर किस प्रकार निर्विकल्प अवस्था (Nirvikalpa state of consciousness) में पहुँचा जा सकता है? [अब हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि माँ काली के किसी अवतारवरिष्ठ या नेतावरिष्ठ के नाम-रूप पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास- 'मनःसंयोग' या प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास, अथवा विवेक-दर्शन का अभ्यास करते हुए, किस प्रकार निर्विकल्प में पहुँचकर अपने विवेक-स्रोत को उद्घाटित किया जा सकता है।] यह पहले ही कहा जा चुका है कि भक्त लोग ईश्वर के किसी विशेष रूप को अपना इष्ट अथवा मुक्ति तथा परमसत्य की प्राप्ति का मुख्य सहायक मानकर, उसी रूप-विशेष (माँ काली के अवतार-वरिष्ठ का नाम-रूप विशेष) का चिंतन एवं ध्यान किया करते हैं। ध्यान करते समय प्रारम्भ में उस इष्ट-मूर्ति (हृदय में धारण करने के योग्य पहले से 'chosen Ideal' चयनित आदर्श रूप-विशेष स्वामी विवेकानन्द) के सर्वांगीण चित्र को भक्त लोग अपने मानसचक्षु के सम्मुख नहीं ला पाते। कभी उनके हाथ, कभी चरण और कभी कभी केवल उनका मुखमण्डल उनके समक्ष अभिव्यक्त होता है;  और वह भी दर्शनमात्र से ही मानो विलीन हो जाता है; उनके सामने अविचल रूप से विद्यमान नहीं रहता।
किन्तु लगातार अभ्यास  करते रहने के फलस्वरूप ध्यान के गहरे होने पर उस रूप-विशेष का सर्वांगीण चित्र कभी कभी उनके मानसचक्षु के सम्मुख आकर उपस्थित हो जाता है। क्रमशः जब ध्यान और भी अधिक गहरा होने लगता है तब वह रूप-विशेष (परिव्राजक विवेकानन्द का मुखमण्डल) जब तक मन चंचल नहीं हो जाता, तब तक के लिए निश्चल रूप से मानसचक्षु के सामने उपस्थित रहता है। बाद में ध्यान की गहराई के तारतम्यानुसार हृदय में उस मूर्ति-विशेष का चलना-फिरना, हँसना -बोलना तथा चरम-दशा में भक्तों को उनके स्पर्श तक की भी अनुभूति होती है। उस समय वह मूर्ति सब प्रकार से जीवित जैसी दिखाई देती है। और तब वह भक्त आँखों को मूँदकर अथवा खोलकर कैसे भी क्यों न ध्यान करते रहें, उस रूप-विशेष (माँ श्रीसारदा, या स्वामी जी) की विभिन्न प्रकार की चेष्टाओं का समान रूप से उन्हें प्रत्यक्ष होता रहता है।
         इसके बाद " मेरे इष्टदेव (श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा और स्वामी जी) ने ही अपनी इच्छानुसार नाना प्रकार के रूप धारण किये हैं"- “My chosen Ideal has, out of his own accord, assumed all forms”- इस प्रकार के विश्वास के फलस्वरूप भक्त साधक अपने इष्ट-देव (ठाकुर, माँ, स्वामी जी) की मूर्ति के सहारे ही विविध-प्रकार के दिव्य रूपों का दर्शन करते हैं। श्रीरामकृष्णदेव कहते थे -"जिस व्यक्ति को किसी एक रूप के जीवन्त-भाव का दर्शन प्राप्त हुआ है, उसके लिए उनके अन्य समस्त रूपों का दर्शन भी सहज ही में होने लगता है।" उपरोक्त घटनाओं पर चिंतन-मनन करने से - एक बात तो बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है,कि जिस व्यक्ति को सौभाग्यवश इस प्रकार की जीवंत मूर्तियों का दर्शन प्राप्त होता है, उनको जाग्रत अवस्था (waking state) में खुली आँखों से ध्यान करते समय दिखाई देने वाली भाव-राज्य की उन जीवंत मूर्तियों का अस्तित्व भी समान रूप से बिल्कुल सत्य प्रतीत होता रहता है।
इस प्रकार, बाह्य-स्थूलजगत  (concrete external world) तथा भाव-राज्य (world of ideas) की उन जीवन्त मूर्तियों का समान-अस्तित्व-बोध ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों- त्यों उनके मन में बाह्य-स्थूलजगत के 'मनःकल्पित' (Projection of the Mind)  होने की धारणा में विश्वास भी दृढ़ होता जाता है।  साथ ही गहरे ध्यान के समय भावराज्य का अनुभव ( the experiences of the realm of ideas) भक्तों के मन में इतना प्रबल (powerful) हो उठता है कि उस समय उनमें बाह्य-स्थूलजगत की अनुभूति (आसक्ति ?) लेशमात्र भी विद्यमान नहीं रहती। भक्तों की उस अवस्था को शास्त्रों में 'सविकल्प समाधि' का नाम दिया गया है।
इस प्रकार की समाधि के समय, मानसिक शक्ति (इच्छाशक्ति ?) के प्रभाव से भक्त के मन में बाह्य-स्थूलजगत का विलय (कामिनी-कांचन और कीर्ति में आसक्ति का विलय?) हो जाने पर भी भाव-राज्य का विलय नहीं होता। बाह्य जगत के दृष्टिगोचर वस्तुओं और व्यक्तियों (Bh) के साथ सम्बन्ध स्थापित कर हमलोग जिस प्रकार प्रतिदिन मिलन और विछोह (misery and happiness) का अनुभव करते हैं, अपने इष्टदेव की मूर्ति के साथ सम्पर्क स्थापन कर भक्त भी ठीक उसी प्रकार का अनुभव करते हैं। तब केवल अपने इष्टदेव (माँ काली के अवतारवरिष्ठ भगवान श्री रामकृष्णदेव) की छवि का ही आश्रय लेकर उनके मन में समस्त संकल्प-विकल्पों का उदय होता रहता है। एक ही विषय को मुख्य रूप से अवलंबन किये रहने के कारण भक्तों के हृदय में उस समय जिस वृत्ति-परम्परा ( series of the mental modifications) का उदय होता है, उसको ही शास्त्रों में सविकल्पक या विकल्पसंयुक्त समाधि की संज्ञा दी गयी है। 
उपरोक्त भाव-राज्य के लीला-विशेष के चिंतन में निमग्न रहने के कारण स्थूल बाह्य जगत तथा एक ही भावना के प्राबल्य से स्थूल जगत के अन्य सभी आकर्षण भी भक्तों  के  मन से विलीन हो जाते हैं।[particular object of the realm of the ideal world,माँ काली-श्रीरामकृष्ण Be and Make वेदान्त शिक्षक - प्रशिक्षण परम्परा के चिंतन में निमग्न रहने के कारण भक्तों के मन में एक ही विचार का प्राबल्य बना रहता है, अतएव बाह्य-स्थूल जगत तथा उसके अन्य सभी आकर्षण (gross external world के आकर्षण या कामिनी-कांचन और कीर्ति में आसक्ति) उसके मन से गायब हो जाते हैं। जिन भक्त -साधकों ( devout aspirant-माँ काली के भक्त अथवा महामण्डल कर्मियों) के लिए महामण्डल के चरित्रनिर्माण आंदोलन अथवा "Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition "  में इस प्रकार अग्रसर होना सम्भव हो सका है, उन सौभाग्यवान कर्मियों के लिए 'The attainment of the Nirvikalpa Samadhi is not very remote' - अर्थात समाधि की निर्विकल्प भूमि अधिक दूर नहीं है। 
महामण्डल के जो कर्मी (would be Leader, भावी नेता/शिक्षक), दीर्घकाल से या जन्मजन्मांतर से (infinitely long time -से)  दृष्टिगोचर जगत (देह-मन) को ही सत्य समझने में अभ्यस्त (accustomed) थे, परन्तु इस प्रकार के प्रशिक्षण  (मनःसंयोग आदि 5 अभ्यास) के बल पर, उस भ्रम को (सुपरिचित स्थूल-जगत के अस्तित्वबोध को) दूर करने में समर्थ हो गए हैं (भ्रममुक्त या dehypnotized हो चुके हैं) उनके मन का अत्यधिक शक्तिसम्पन्न तथा दृढ़संकल्प (Willpower and determination) होना कोई आश्चर्य की कोई बात नहीं है। 
जब किसी व्यक्ति के 'चित्त-वृतियों' का एक क्षण के लिए भी सम्पूर्ण निरोध (completely free from modifications) हो जाता है,और वह (अहं नहीं आत्मा) निर्विकल्प अवस्था का अनुभव कर लेता है, तब ईश्वर-सम्भोग (enjoyment of divine - existence-consciousness-bliss) की 'वह स्मृति' क्षण-स्थायी नहीं, अपितु निरन्तर बनी रहती है।  (नाम-खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन-रात ! क्योंकि सुमिरन शरीर की नहीं आत्मा की खुराक है।)  एक बार इस बात की धारणा होने पर (superconscious state का अनुभव हो जाने पर)  साधक का समग्र-मन (The whole of his mind चेतन-अवचेतन-अचेतन तक) उस परमानन्द की ओर समग्र उत्साह के साथ अग्रसर होता है। एवं श्रीगुरुदेव (स्वामी विवेकानन्द) और ईश्वर (ठाकुर -माँ सारदादेवी) की कृपा से साधक शीघ्र ही भावराज्य की चरमभूमि (अतिचेतन भूमि) पर आरूढ़ एवं अद्वैत ज्ञान में प्रतिष्ठित होकर चिरशान्ति ( eternal peace) का अधिकारी बन जाता है।
 अथवा दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अपने इष्टदेव  के प्रति प्रगाढ़ प्रेम- 'very intense love for his chosen Ideal' (कौन? गोविन्द ?  नहीं 'गुरु'! श्रीरामकृष्ण? नहीं विवेकानन्द !) ही उन्हें उस भूमि (अतिचेतन) का दर्शन कराता है और उसकी प्रेरणा से व्रज गोपिकाओं की भाँति वे अपने इष्टदेव के साथ उस समय एकत्व का अनुभव करते हैं।   'प्रभु'संग प्रेम की डोर बांधले-अर्थात गोविन्द श्रीरामकृष्ण? नहीं, गुरु विवेकानन्द संग प्रेम की डोर बांधले और अपने जीवन को साधले ! प्रभुनाम की नाव पर चढ़कर तुन इस इस भवसागर को लाँघ ले !ज्ञानी तथा भक्त साधकों के लिए चरम लक्ष्य में पहुँचने का यह क्रम शास्त्रनिर्धारित है।

किन्तु अवतार पुरुषों में (अर्थात मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं में) देव तथा मानव इन दोनों भावों का एक साथ संयोग रहने के कारण साधनावस्था में ही कभी कभी उनके अन्दर सिद्धों की तरह विकास देखने को मिलता है, तथा वे उनकी ही भाँति शक्तिसम्पन्न भी दिखायी देते हैं। [किन्तु नेतावरिष्ठ 
नवनीदा जैसे अवतार पुरुषों तथा उनके माध्यम से आविर्भूत युवा-मार्गदर्शक संगठन 'विवेकानन्द युवा महामण्डल' में  में 'मानवीय' एवं 'दिव्य' दोनों भाव का एक साथ सम्मिलन आजीवन बना रहता है, इसीलिए साधनावस्था में ही कभी-कभी उनके अन्दर सिद्धों (पूर्णता में प्रतिष्ठित -अटूट व्यक्ति ) की तरह ज्ञान और शक्ति पूर्ण का विकास देखने को मिलता है, तथा वे उनकी भाँति ही शक्तिसम्पन्न दिखायी देते हैं।] 
13. अवतार पुरुषों में [ अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव एवं नेतावरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा में]  देव तथा मानव इन दोनों भावों के विद्यमान रहने के कारण, साधनकाल में ही वे सिद्ध जैसे प्रतीत होते हैं। अतः जब हम किसी अवतारी पुरुष की जीवनी (biography)~ श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग'  का अध्यन करें; या नेतावरिष्ठ की आत्मकथा (memorabilia) ~ ' जीवन नदी के हर मोड़ पर ' का अध्यन करे, तो उनके देव तथा मानव दोनों भावों के आधार पर ही उनके जीवन का अध्यन करना आवश्यक है।
'अवतारपुरुषे देव उ मानव उभय भाव विद्यमान थाकाय साधनकाले तांहादिगके सिद्धेर न्याय प्रतीत हय - देव उ मानव उभयभावे तांहादिगेर जीवनालोचना आवश्यक।'অবতারপুরুষে দেব ও মানব উভয় ভাব বিদ্যমান থাকায় সাধনকালে তাঁহাদিগকে সিদ্ধের ন্যায় প্রতীত হয় - দেব ও মানব উভয়ভাবে তাঁহাদিগের জীবনালোচনা আবশ্যক./ Incarnations of God combine in them both the aspects, the divine and the human. So they sometimes appear as perfect even during Sadhana. Hence the need of studying their lives from both the points of view.] 
ऐसा इसलिए होता है, कि उनके भीतर देव और मानव इन दोनों भूमियों पर विचरण करने की शक्ति स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है। क्योंकि उनका 'नारायण भाव' जन्मजात और स्वतःप्रवर्तित (inborn and spontaneous) होता है, इसीलिए वह भाव समय- समय पर उनके 'नर -भाव' (मानव-भाव) के बाहरी आवरण को भेदकर स्वतः ही प्रकट होता रहता है। उनके जीवन में घटित इस प्रकार की घटनाओं (अद्वैतआश्रम मायावती में कैप्टन सेवियर के दाहसंस्कार की स्मृति आदि घटनाओं) को देखकर चाहे हम जिस निष्कर्ष पर क्यों न पहुंचें, किन्तु इस प्रकार के तथ्य ही अवतार पुरुषों (मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं/शिक्षकों) के जीवन को समझ पाना सामान्य मानव-बुद्धि के लिए जटिल और रहस्यमय बना देते हैं।यह सम्भव नहीं प्रतीत होता कि मनुष्य कभी अपनी बुद्धि (अहंमिश्रित बुद्धि) के द्वारा इस दुर्भेद्य रहस्य को पूर्णतः भेद सकेगा।  किन्तु यह बात निश्चित है (ध्रुवसत्य है) कि जब कोई भक्त पूरी श्रद्धा के साथ अपने इष्टदेव (अवतारवरिष्ठ श्री रामकृष्णदेव) की जीवनी का अध्यन करता है तो उसका अनन्त कल्याण हो सकता है। 
[महामण्डल कैसे आविर्भूत हुआ ? यह प्रश्न दुर्भेद्य और जटिल होने से भी, यह बात तो ध्रुव सत्य है कि जब कोई महामण्डल कर्मी पूरी श्रद्धा के साथ नवनीदा तथा 1967 में उनके माध्यम से कोलकाता में अवतरित होने वाले युवा-मार्गदर्शक संगठन 'महामण्डल' के आविर्भूत होने के समय की रहस्यपूर्ण घटनाओं के तह तक जाने की चेष्टा करता है, अथवा महामण्डल की गहराई और विस्तार को जानने की चेष्टा करता है, तथा इसके लिए जब वह पूरी श्रद्धा के साथ 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' पुस्तक का अध्यन करता है, तो उसका अनन्त कल्याण होता है !]
प्राचीन पौराणिक युग में भगवान के अवतारों के (माँ काली के अवतार पुरुषों के) मानव-भाव को ढँककर केवल उनके देवभाव की ही चर्चा की गयी है। किन्तु, आधुनिक सन्देहवादी युग,   (skeptical modern age) में उन अवतारों (मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं/शिक्षकों) के देवभाव (divine nature) को पूरीतरह से भुला दिया गया है, तथा केवल उनके मानव-भाव के ऊपर ही चर्चा की जा रही है। 
वर्तमान युग के वैसे ही एक 'देव-मानव' अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव की जीवनी पर चर्चा करके हमलोग  इस बात को समझने का प्रयास करेंगे, कि उन समस्त मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं/शिक्षकों/पैगंबरों /अवतारों में प्रारम्भ से ही मानव और देव दोनों भाव एक साथ विद्यमान रहते हैं! यह कहना अनावश्यक है कि देवमानव श्रीरामकृष्ण के पुण्यदर्शन का सौभाग्य यदि हमें प्राप्त न होता तो अवतार चरित्र को इस रूप में देखना हमारे लिए (उनके लीलापार्षद स्वामी सारदानन्द जी के लिए भी) कभी सम्भव नहीं था।  
-----------------------
[विवेकदर्शन का अभ्यास:  अर्थात " यम,नियम " का अभ्यास ~ 24 X 7 / और "आसन, प्रत्याहार, धारणा" का अभ्यास~ 1 X 2) करते समय, साधक के मानस-चक्षु के सामने इष्ट-मूर्ति (या विवेकानन्द का सम्पूर्ण मुखमण्डल)  लगातार अविचल रूप से विद्यमान नहीं रहता, एक झलक दिखलाकर ही मानो गायब हो जाता है। किन्तु बिना थके प्रतिदिन दो बार सुबह और शाम एकाग्रता (धारणा Concentration) का लगातार अभ्यास करते रहने के परिणामस्वरूप, जब धारणा गहरी हो जाती है, तब उस रूप (आदर्श) की पूरी छवि मानसचक्षु के सामने बीच -बीच में आकर खड़ी हो जाती है। जब धारणा क्रमशः गहरी होने लगती है, तब वह छवि मानसचक्षु के समक्ष स्थिर होकर तब तक बनी रहती है,जब तक कि मन में कोई हलचल न होने लगे। इसको ही ध्यान कहते हैं ?] 
[The Master used to say, “ A person who has the vision of one such form in that living fashion, gets easily the vision of all other forms.” जिस व्यक्ति को बेलघड़िया में आयोजित महामण्डल कैम्प, के निर्जन वास के समय 29 दिसंबर 1987 को  श्री जगदम्बा आश्रम, कोआलपाड़ा में लगे श्री माँ सारदा के, उन विशेष रूपों की छवि में से किसी एक रूप-विशेष का जीवन्त भाव से दर्शन (बेलघाड़िया तालाब में स्नान के लिए जाते समय -लालमुख और सफ़ेद साड़ी में बूढ़ी माँ का दर्शन) प्राप्त हुआ है, और उनके साथ स्पष्ट बातचीत हुई थी, " तुमि भय करो ना आमि तोमार जन्ये बोले दियेची !" उस प्रथम बेलघड़ीया शिविर 1987 से लेकर गंगाधरपुर कैम्प 2019 तक (32 कैम्पों में लगातार हर साल) माँ सारदा ही विभिन्न रूपों में सामने प्रकट होकर तरह-तरह से-कभी, प्रातः व्यायाम के समय सबके साथ व्यायाम करते हुए, कभी गर्म चादर मांग कर दर्शन-स्पर्शन, , कभी भोजन, कभी बच्चों के लिए वस्त्र आदि माँगकर अपनी लीला दिखलाती रहती हैं ? 1986 के हरिद्वार कुम्भ में विचित्र दर्शन आदि क्यों हुए ? वे सारे प्रश्न जगदम्बा आश्रम कोआल पाड़ा, जयरामवाटी और कामारपुकुर जाने से सुलझ जाते हैं। कोआलपाड़ा से माँ हर साल कैम्प में आती हैं !  छः दिवसीय निर्जनवास या महामण्डल -कैम्प में रहते हुए खुली आँखों का ध्यान करते करते, एक दिन महामण्डल के निष्ठावान कर्मी को माँ सारदा के विभिन्न रूपों से बातचीत और उनकी उँगलियों के स्पर्श की अनुभूति भी बिल्कुल जाग्रत अवस्था की अनुभूति जैसा सत्य प्रतीत होता रहता है।]   Thus, as the feeling deepens that these experiences of the world of ideas are as real as those of the external world, the conviction that the latter also are a projection of the mind is intensified. किसी व्यक्ति का स्थूल-M/F शरीर वास्तव में उस व्यक्ति सूक्ष्मशरीर या अहं-मन का ही एक प्रक्षेपण -projection of the mind, होने की धारणा में विश्वास भी दृढ़ होता जाता है।]
[सविकल्प समाधि के समय भी भावराज्य का दर्शन-स्पर्शन-बातचीत बना ही रहता है, ठाकुर को रामलला जीवंत प्रतीत होते थे ? और स्वामी जी को लोटाब्रह्म -थालीब्रह्म का अनुभव होता रहता है --माँ का भक्त बेटा या hero ! को माँ की कृपा से इस प्रकार श्रीमाँ की जीवन्त मूर्तियों का दर्शन प्राप्त हो जाता है। at the time of such Samadhi, the realm of ideas still persists.
माँ काली-श्रीरामकृष्ण Be and Make वेदान्त शिक्षक - प्रशिक्षण परम्परा को मुख्य रूप से अवलंबन किये रहने के कारण भक्तों (भावी-शिक्षकों) के हृदय में (witness consciousness) के समक्ष उस समय जिस मानसिक रूपान्तरण की श्रृंखला ( series of the mental modifications) का उदय होता है, उसको ही शास्त्रों में सविकल्प समाधि की संज्ञा दी गयी है। 
-----------------------------------