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रविवार, 27 अगस्त 2023

🔱🙏महामंडल आंदोलन को सफल बनाने में शिशु -विभाग की अनिवार्यता एवं उसका महत्व 🔱🙏

महामण्डल के विचार में बाल-विभाग

श्री दीपक रंजन मुखर्जी

(बंगला में) पहली बार प्रकाशित  : दिसंबर, 2006

(बंगला में) पुनर्मुद्रण: अप्रैल 2014

(हिन्दी में) पहली बार प्रकाशित : दिसंबर, 2023  

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भूमिका 

(Introduction) 

महामंडल का 'विवेक-वाहिनी' नामक बाल विभाग विगत तीन दशकों से अधिक समय से चल रहा है। आज के बच्चे भविष्य में सही 'मनुष्य' (इंसान) बन सकें और देश के निर्माण में योग्य भूमिका निभा सकें, इसके लिए बचपन से ही उस दिशा में ध्यान देना जरूरी है। इसी उद्देश्य से विवेक-वाहिनी में चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए खेल-कूद, पी.टी, परेड, जयघोष तुकबंदी, अभिनय गीत, कथा -कहानि आदि के माध्यम से बच्चों के जीवन की नींव को गढ़ने का प्रयास किया जाता है।

 इस 'विवेक-वाहिनी ' या बाल विभाग को संचालित करने वाले निदेशकों को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से महामण्डल केन्द्रीय, अन्तर्राजीय और क्षेत्रीय स्तर पर प्रशिक्षण शिविर का आयोजन  करता चला आ रहा है।  'केन्द्रीय विवेक-वाहिनी प्रशिक्षण शिविर' में पीटी, अभिनय गीत ( rhymes) , खेल-कूद के अलावा महामण्डल परिसंघ द्वारा संचालित मनुष्य-निर्माण आंदोलन को सामग्रीक रूप से मजबूत बनाने में बाल-विभाग की प्रयोजनीयता और महत्व, बाल मन की विशेषताएं (characteristics), बाल विभाग के लिए पाठ्-चक्र के संचालन की पद्धति आदि पर भी विस्तार से चर्चा की जाती है। 

हालाँकि बच्चों के खेल-कूद, अभिनय गीत और जयघोष आदि पर पुस्तिकाएँ पहले भी प्रकाशित होती रही हैं, लेकिन उपरोक्त विषयों पर एक पुस्तिका की आवश्यकता काफी समय से महसूस की जा रही थी। आशा है कि वर्तमान पुस्तिका उस आवश्यकता को पूरा करने में सहायता करेगी।

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1. 

महामंडल का कार्य 

(Mahamandal work)  

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल एक अखिल भारतीय युवा संगठन है। 

महामंडल के आदर्श हैं - स्वामी विवेकानन्द। 

महामण्डल का उद्देश्य है - भारत एवं विश्व का कल्याण। 

विश्व-कल्याण का साधन (उपाय) है  व्यष्टि चरित्र निर्माण द्वारा समाज एवं देश का निर्माण। 

महामण्डल का आदर्श वाक्य (Motto) है - Be and Make ! 

महामण्डल का अभियान मंत्र है-  चरैवेति, चरैवेति। "  

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का उद्देश्य है , भारतीय संस्कृति में समाहित उन जीवनमूल्यों को, जो स्वामी विवेकानन्द के - "मनुष्यत्व (प्रभावकारी व्यक्तित्व) उन्मेषक **और चरित्रनिर्माणकारी" आदर्शों और शिक्षाओं में में कथित (perceived) हुए हैं उनका प्रचार-प्रसार करना। विशेष रूप से - भारत के राष्ट्रीय आदर्श - 'त्याग और सेवा' को  निःस्वार्थ देशसेवा के माध्यम से युवाओं और तरुणों के बीच प्रसारित करना और युवाशक्ति कोअनुशासित करके राष्ट्र-निर्माण के कार्य में नियोजित करना। और इसका लक्ष्य है एक श्रेष्ठतर समाज का निर्माण करने के लिए श्रेष्ठतर मनुष्यों का (ब्रह्मविद मनुष्यों /नेताओं) बहुत बड़ी संख्या में निर्माण करना।    

संगठन की इस विचारधारा और इसके विभिन्न केंद्रों में चल रहे कार्यक्रमों का संवाद प्रचार करने के लिए महामंडल एक द्विभाषी (अंग्रेजी और बंगाली) मासिक मुखपत्र - "विवेक जीवन" भी  प्रकाशित करता है।

[ "उन्मेषक" ***शब्द का अर्थ है- जैसे फूल का खिलना; आँख का खुलना -वैसे, खुलना, स्फुरण।  आंखों का खुलना । समस्त चराचर में  हृदय की सामान्य अनूभूति का जैसा तीव्र और पूर्ण उन्मेष करुणा में होता है वैसा किसी और भाव में नहीं होता । अशोक वाजपेयी अपनी कविता- 'आगमन' में कहते हैं - "  (जैसे) दिगम्बर शाखा प्रतीक्षा करती है, कोमल हरी सुगबुगाहट की। (वैसे ही)  तट की रेत प्रतीक्षा करती है,  सब कुछ को भिंगोनेवाले- लहरों के #उन्मेष की ! ]

[অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের উদ্দেশ্য হল ভারতীয় সংস্কৃতি অনুসারী মূল্যবোধকে - যা স্বামী বিবেকানন্দের ' মনুষত্ব উন্মেষক ও চরিত্র গঠনকারী আদর্শে গ্রথিত - বিশেষ করে কিশোর ও যুবকদের মধ্যে ছড়িয়ে দেওয়া ও যুবশক্তিকে সুশৃঙ্খলভাবে নিঃস্বার্থ দেশসেবার মধ্যে দিয়ে জাতিগঠনে কাজে সংহত করা , যার লক্ষ্য হল একটি সুন্দরতর সমাজের জন্যে সুন্দরতর মানুষ গড়ে তোলা। মহামণ্ডল একটি দ্বিভাষিক (ইংরাজি ও বাংলা ) মাসিক মুখপত্র - " বিবেক জীবন " - এই আদর্শ ও সংস্থার সংবাদাদি প্রচারে জন্যে প্রকাশ করে থাকে।]

शिक्षा पर चर्चा करते हुए स्वामी जी ने कहा है - " सारी शिक्षा तथा समस्त प्रशिक्षण का एकमात्र उद्देश्य मनुष्य का निर्माण होना चाहिए। परन्तु यह न करके, केवल हम बाहर को चमकाने की ही कोशिश किया करते हैं। जहाँ व्यक्तित्व  का ही अभाव है, वहाँ सिर्फ बहिरंग पर पानी चढ़ाने का प्रयत्न करने से क्या लाभ ? सारी शिक्षा का ध्येय है आदमी में मनुष्यत्व का उन्मेष अथवा विकास।  वैसे मनुष्य का निर्माण  जो अपना प्रभाव सब पर डालता है, जो अपने संगियों पर जादू  (magic) सा कर देता है, जो शक्ति का एक महान केन्द्र (dynamo) है, और जब वह मनुष्य तैयार हो जाता है, वह  [ब्रह्मविद]  जो चाहे कर सकता है। उस नेता का व्यक्तित्व (मनुष्यत्व) चाहे जिस जीव पर अपना प्रभाव डालता है , उसी वस्तु को कार्यशील बना देता है। "  ४/१७२ 

'महामण्डल ध्वज : - 

आयताकार (3X2)  गेरुआ कपड़े के ऊपर नीले रंग में छपा, या नीले रंग के धागे की कढ़ाई (embroidery) द्वारा उकेरा गया वज्र निशान [ त्याग और शक्ति का प्रतीक।]  

महामण्डल का प्रतीक चिन्ह : 

 भूमण्डल के ऊपर रेखांकित भारत भूमि के कन्याकुमारी पर दण्डायमान स्वामी विवेकानन्द की परिव्राजक मूर्ति। उसके ऊपर देव-नागरी अक्षर (lingua-franca) में लिखा ' चरैवेति चरैवेति ' एवं नीचे अंग्रेजी में ' BE AND MAKE ' लिखा गया है। वृत्त के शेष अंश को दोनों ओर सात-सात छोटे- छोटे वज्र से घेर दिया गया है।

[Mahamandal Flag: -

Rectangular (3X2) Vajra mark  ['The Thunderbolt' symbol of Selflessness and Power.]  printed in blue on ocher cloth, or embroidered with blue thread embroidery.

Mahamandal Symbol: 

Parivrajak idol of  Swami Vivekananda standing on Kanyakumari of the land of India outlined upon the globe. On top it is written 'Charaiveti Charaiveti' in Dev-Nagri alphabet (lingua-franca) and below- 'BE AND MAKE' is written in English .  The remaining part of the circle is surrounded by seven small thunderbolts on both sides.] 

स्वामीजी के शब्दों में - " मनुष्य निर्माण करना ही मेरा लक्ष्य है।" और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए -" युवाओं को संगठित करना ही मेरे जीवन का व्रत है। " देश के कल्याण में युवाओं को  चरित्रवान बनाकर समाज के सभी क्षेत्रों में नियोजित करने की जो योजना स्वामी विवेकानन्द ने बनाई थी और अपने उत्साहपूर्ण आह्वान से देश के युवा समाज को अनुप्रेरित करके स्वाधीनता संग्राम में नियोजित किया था, उसी भावना को वर्तमान युग में रूपायित करने के लिए सार्थक एक युवा आन्दोलन बना देना ही महामण्डल का कार्य है।  

देश के पुनर्निर्माण में राजनीती, अर्थनीति , इतिहास, दर्शन, विज्ञान इत्यादि का अभ्यास, उन्नत्त प्रौद्योगिकी (Advanced technology), सब कुछ आवश्यक है। किन्तु इन सब की जरूरत मनुष्य के लिए है। मनुष्य यदि पूरी तरह से मनुष्य न बन सका, तो इन सब का कोई लाभ नहीं होगा। समाज का मूल घटक (constituent) है मनुष्य। इसलिए यदि सुन्दरतर समाज का निर्माण करना चाहते हों , तो सुन्दरतर मनुष्य निर्माण करना होगा। मनुष्य होने का तात्पर्य है - ऐसा मस्तिष्क जो चिंतनशील हो , ऐसा ह्रदय जो अनुभव करने में सक्षम हो, वैसे हाथ जो कर्मठ हों। इन तीनों का सुसमन्वित विकास करना ही मनुष्य निर्माण करना है।  

व्यायाम करने और पौष्टिक आहार से शरीर सबल होता है। स्वस्थ और सबल शरीर सबल मन का आधार होता है। स्वाध्याय और ज्ञानचर्चा द्वारा मन को उच्च विचारों से भर कर , उचित-अनुचित , श्रेय-प्रेय विवेक के द्वारा कार्य को नियंत्रित किया जाता है। सेवा परायणता और सभी के प्रति प्रेम का भाव रखने से ह्रदय को विस्तारित किया जा सकता है। इसके फलस्वरूप मनुष्य विवेक-प्रयोग शक्ति से सम्पन्न एक मजबूत और संतुलित मन , विस्तृत ह्रदय और सबल, कर्मठ शरीर का अधिकारी पूर्ण रूप से मनुष्य बनकर समाज के सभी क्षेत्र में कार्य करते हैं, तब समाज और देश भी सुन्दरतर बन जाता है। 

इस प्रकार मनुष्यत्व में प्रतिष्ठित होने या व्यष्टि जीवन गठन में अनुप्राणित करने के लिए प्रचलित शिक्षा व्यवस्था के बाहर चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रसार करना आवश्यक है। जिस शिक्षा के फलस्वरूप देश के लिए स्वार्थ-त्याग करने को तत्पर निःस्वार्थी युवाओं का एक दल तैयार हो जायेगा। व्यक्तिगत या पारिवारिक सभी कार्यों को करते हुए भी वे भारतवासियों को प्राण से प्रेम करेंगे। वे अपने समस्त प्रकार के सुखभोग [तीनों ऐषणाओं] में अनासक्त होकर देह-मन-वचन से  करोड़ो अधोपतीत स्वदेशवासी नरनारियों के कल्याण के लिए चुपचाप अपने अपने क्षेत्र में कार्य करते जायेंगे। जीवनके सभी क्षेत्र में ऐसे चरित्रवान देशप्रेमी सर्वत्र एक प्रकार की उत्साह- गति उत्पन्न कर देंगे। बालक से लेकर युवा , सभी आयुवर्ग के नागरिकों के सामने जीवन को सकारात्मक दृष्टि से देखने और जीवन-निर्माण करने की पद्धति के अभ्यास की सम्भावना पर प्रकाश डालेंगे। 

भगिनी निवेदिता को लिखित पत्र (7th June, 1896) में स्वामी जी के कहते हैं  -" मेरे आदर्श को अत्यन्त संक्षेप में कहा जा सकता है -वह है मनुष्यमात्र में अन्तर्निहित देवत्व का प्रचार करना , तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे प्रकट करने का उपाय बताना। " (My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life.) इसी बात को सरल शब्दों में कहें तो - " तुम स्वयं मनुष्य  बनो और दूसरों को मनुष्यत्व प्राप्त करने (ब्रह्मविद बनने) में सहायता करो। " 

प्रिय बन्धुओं,  अपने परिव्राजक जीवन में स्वामी जी ने यह अनुभव किया था कि - भारतवर्ष में निवास करने वाली प्रजा तो ऋषि-मुनियों की संतानें हैं, इसीलिए इन युवाओं को  ऐतेरेय ब्राह्मण के मन्त्र - " चरैवेति, चरैवेति।  कलिः शयानो भवति... " को सुना-सुनाकर कलियुग की मोहनिद्रा से जाग्रत करना होगा। 

कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः।

उत्तिष्ठम्स्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन्।। चरैवेति, चरैवेति" 

 -ऐतरेय ब्राह्मण (7/15/4) 

(शयानः कलिः भवति, संजिहानः तु द्वापरः, उत्तिष्ठः त्रेता भवति, चरन् कृतं संपाद्यते, चर एव इति।)

अर्थात्- जो मोहनिद्रा में सो रहा है वह कलियुग में है, निद्रा से उठने वाला द्वापर युग में है । उठकर खड़ा होने वाला त्रेता युग में है और श्रम करने वाला सतयुग बन जाता है। इसलिए श्रम करते रहे। चलते रहो।"

यही स्वामी विवेकानन्द जी की क्रन्तिकारी-योजना थी, और यही वह कार्य है, जिसे पूरा करने की जिम्मेदारी उनके गुरु श्रीरामकृष्ण ने स्वामी विवेकानन्द के उपर सौंपा था। (और विवेकानन्द ने कैप्टन सेवियर पर, फिर अगले जन्म में नवनीदा रूपी सेवियर ने महामण्डल की " Be and Make C-IN-C प्रशिक्षण परम्परा" के उपर सौंपा था। 

पाश्चात्य भ्रमण के दौरान स्वामी जी ने स्पष्ट रूप से जान लिया था, कि  "सभी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाएँ उससे जुड़े मनुष्यों के सदाचार और सच्चरित्रता के उपर ही निर्भर करती हैं। कोई भी राष्ट्र केवल इसलिए महान और अच्छा नहीं बन जाता कि उसके पार्लियामेंट ने यह या वह बिल पास कर दिया है, वरन इसलिए होता है कि उसके नागरिक महान और अच्छे हैं।"

इसीलिए स्वामी विवेकानन्द जी ने भविष्य के गौरवशाली भारत का निर्माण-सूत्र दिया था - " Be and Make" अर्थात  "तुम स्वयं 'मनुष्य' बनो और दूसरों को भी 'मनुष्य' बनने में सहायता करो।यही वह पद्धति है जिसके द्वारा हमारे देश का 'राष्ट्रीय - चरित्र' (National-Character) भी पुनर्निर्मित हो सकता है। क्योंकि चरित्र मनुष्य को दो बड़े गुणों से विभूषित कर देता है, पहला - उसको यह समझ में आ जाता है कि उसे स्वयं के साथ कैसा व्यव्हार करना चाहिए और दूसरा - यह कि उसे दूसरों के साथ कैसा व्यव्हार करना चाहिए। पहला गुण है पवित्रता और दूसरा है नैतिकता या सदाचार। 

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2. 

बालक-बालिकाओं का सर्वांगीण विकास

(Overall development of the child)

>>>Every tiny seed of a banyan tree is potentially a huge tree.>बाल विभाग का महत्व विषय पर अलग से चर्चा करने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि महामण्डल के बाल विभाग का कार्य मूलतः 'बाल- शिक्षण का कार्य' है। बच्चों की शिक्षा के बारे में विचार करते समय सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि 'बच्चों का विकास ' कहने का तात्पर्य क्या है, और बच्चों का विकास होता कैसे है ? (स्वामीजी के शब्दों में " जैसे प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है" वैसे ही) किसी विशाल बरगद के पेड़ के प्रत्येक छोटे से बीज (tiny seeds) में भी विशाल वृक्ष में परिणत होने की सम्भावना छिपी रहती है। यदि इसे उचित मात्रा में जल, मिट्टी, वायु, खाद  और प्रकाश मिले तो यह तय है कि यह छोटा सा बीज भी एक दिन विशाल वट वृक्ष बन जायेगा। उसी तरह प्रत्येक बच्चे के भीतर जो अनन्त सम्भावना छिपी हुई है, वह उपयुक्त परिवेश मिलने से विकसित होकर एक दिन प्रत्येक बच्चे को चरित्र के समस्त 24 गुणों से परिपूर्ण (Complete with values) और समस्त 12 दोषों से रहित एक चरित्रवान, बेहतर- श्रेष्ठतर मनुष्य या प्रबुद्ध नागरिक (enlightened citizens) में परिणत कर देगी। बच्चों के इस प्रकार चरित्रवान, श्रेष्ठतर या प्रबुद्ध नागरिक बन जाने को ही बालक-बालिकाओं का सर्वांगीण विकास कहा जाता है। शरीर, बुद्धि और ह्रदय का संतुलित विकास (balanced development of '3H's) को ही सर्वांगीण विकास कहा जाता है।  

ऐसे सर्वांगीण विकास में मन की भूमिका भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। विवेक-प्रयोग द्वारा अपने मन को नियंत्रण में रखते हुए, मन में उठने वाले विचारों की दिशा और वेग को जीवन-गठन (Life building) के लिए उपयोगी विचारों की ओर घुमा देने में समर्थ होना ही -इस 3H के संतुलित  विकास का प्रारम्भ है ! किन्तु शिशु-मन कोमल पौधे की तरह होता है , वह स्वयं विवेक-प्रयोग नहीं कर सकता। इसीलिए एक ऐसे माहौल, परिवेश -वातावरण (घेरा डाल देना) का निर्माण करना आवश्यक है, जो बच्चे को एक निश्चित दिशा में - [श्रेष्ठतर ,चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की दिशा में] विकसित करेगा।

>>>meaning of imparting education, or teaching children : शिक्षा प्रदान करने , या बच्चों को पढ़ाने का अर्थ बातचीत करना नहीं है, बल्कि उसका तात्पर्य,  बच्चे में उच्च भावों को संचारित कर देना है।  और उचित दृष्टिकोण तथा मानसिकता वाले बच्चे के माता-पिता, अभिभावक, रिश्तेदार या शिक्षक ही इस प्रकार के उच्च भावों को, उनमें संचारित (transmit) कर सकते हैं। लेकिन, वर्तमान में प्रचलित शिक्षा पद्धति के अनुसार स्थापित स्कूल, कॉलेज या यूनिवर्सिटी में यह कार्य बहुत प्रभावशाली ढंग से वस्तुतः रूपायित नहीं हो रहा है। महामण्डल के शिशु विभाग के निदेशक ही इस कार्य में उचित मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकते हैं। शिशु-विभाग इसी प्रकार शिशु के सर्वांगीण विकास या जीवन-गठन में एक शिक्षा केंद्र की भूमिका निभाता है। इसीलिए कहा जाता है कि महामण्डल का शिशु विभाग प्रचलित शिक्षा व्यवस्था से भिन्न एक केन्द्र है जो स्कूलों, कॉलेजों या विश्वविद्यालयों में प्राप्त शिक्षा का अनुपूरक  (complementary) है।  

शिक्षा की मूल बात मनरूपी यंत्र को पवित्र और निर्मल बनाकर उसे पूरीतरह से वशीभूत करना है। जो व्यक्ति अपनी वाणी में अपनी सत्ता या अपना जीवन उड़ेल सकते हों, उनकी वाणी ही फलप्रसू होती है। इसे करने में उस व्यक्ति के अपने जीवन में कुछ अच्छे भावों का आत्मसाती-करण आवश्यक होता है, केवल तथ्यों का संग्रह नहीं। इसे समझ लेना होगा कि - 'बच्चा अपने जीवन के धर्म - अस्तित्व के नियम से ही बड़ा होता है। शिक्षक का कार्य केवल इतना ही है कि उसकी स्वाभाविक विकास में कोई बाधक तत्व न आ जाये , उस पर उसका ध्यान रखे। एक उद्देश्यपूर्ण जीवन का निर्माण करने के लिए उपयुक्त विचारों को बच्चे के पास पहुँचा देना, ताकि वह उन भावों को अभ्यास द्वारा जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रयोग कर सके -उस ओर दृष्टि रखना। इसीलिए भारतीय संस्कृति में शिक्षा पद्धति को -श्रवण, मनन निदिध्यासन कहा जाता है।  जीवन-गठन में उपयोगी विचारों को सबसे पहले सुनना, जानना या पढ़ना, बाद में पुनः पुनः चिंतन करके उन अच्छे भावों को अवचेतन मन में बैठा लेना। और सबसे अन्त में उन अच्छे विचारों को मन के भीतर में लगातार अभ्यास करते हुए इस प्रकार प्रयोग में लाना जिससे वे सदा प्रत्येक कार्य में अभिव्यक्त होने लगें। 

महामण्डल के शिशु विभाग के दैनन्दिन कार्यक्रम में शिशु के शरीर, बुद्धि और ह्रदय का सन्तुलित विकास किस प्रकार हो सकता है , अब उस पर चर्चा की जाये। 

शरीर का विकास : - मध्यम सीमा का व्यायाम (Moderate exercise), खेलकूद, अभिनय-गीत , जयघोष , परेड ,पी.टी आदि का अभ्यास बच्चे के शारीरिक विकास में सहायता करते हैं। मन (सूक्ष्म शरीर) का आधार है शरीर (स्थूल शरीर)। एक शक्तिशाली और सुगठित शरीर ही  शक्तिशाली मन के भावों या आवेगों (emotions-लहर, चित्तवृत्ति) को धारण करने में समर्थ होता है। देह को स्वस्थ-सबल रखने में व्यायाम करना आवश्यक है। किन्तु व्यायाम नियमित और परिमित होना ठीक होता है। सभी कार्यों में मन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। व्यायाम के क्षेत्र में भी मन की भूमिका को अस्वीकार नहीं कर सकते। व्यायाम करते समय -मन में इस विचार को भरे रहने से अधिक फल मिलता है- कि व्यायाम करने से मेरा शरीर निरोग और बलिष्ठ बन गया है। बहुत से लोग सोचते हैं कि खेलकूद करना ही व्यायाम है। ऐसा सोचना ठीक नहीं है।  व्यायाम का अर्थ व्यायाम करना ही होता है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए खाली हाथ का व्यायाम और आसन करना पर्याप्त है। प्रत्येक शिशु के लिए नियमित अल्प व्यायाम करना आवश्यक है। 

पाँच, छः या सात वर्ष का शिशु बड़ों के जैसा व्यायाम नहीं कर सकते। उनके लिए अभिनयगीत और जयघोष के साथ व्यायाम उपयोगी होता है। अभिनयगीत आदि  के छन्द, सुर और अंग-विन्यास शिशुमन को आकर्षित करते हैं।  महामण्डल के शिशु विभाग में ठाकुर, माँ और स्वामीजी के जीवन की घटना , उनके उपदेश, या उनके मुख से कही कहानियों पर आधारित बहुतसे अभिनय गीत लयबद्ध (The rhythm of the rhymes) हुए हैं। इन जयघोषों को बार-बार दोहराने, और अभिनय-गीत के लय के साथ हाथ -पाँव हिलाने के साथ-साथ  अभिनय गीत के कहानिमूलक या नीतिमूलक विचार बालक के मन पर एक स्थायी छाप (संस्कार) छोड़ते हैं। ये छाप सकारात्मक होने के फलस्वरूप, बच्चों के जीवनगठन में तथा मानसिक उन्नति में सहायता करते हैं।    

जीवन गठन में अनुशासन अत्यंत आवश्यक है। अनुशासन कहने से बाहरी और भीतरी दोनों प्रकार के अनुशासन महत्वपूर्ण हैं। बाहरी स्तर (शारीरक तौर) पर अनुशासन का पालन करने से वह आंतरिक अनुशासन में परिणत हो जाता है। और जब आंतरिक अनुशासन दृढ़ता के साथ स्थापित हो जाता है,  यह बोध चाहे या अनचाहे शिशु मन को जीवन गठनकारी दिशा में ही चलने को प्रेरित करता रहता है।  

पैरेड पर पीटी बालकों को बाहरी जीवन में अनुशासन का पालन करना सिखाता है। नियमित अभ्यास करने से एक साथ हाथ-पैर हिलाना, या साथ-साथ हाथ पैर के उठाने -गिराने से बाह्य जीवन में अनुशासन स्थापित हो जाता है। स्वामीजी जब इंग्लैण्ड में रह रहे थे, एक दिन स्वामी सारदानन्द जी ने स्वामीजी के मँझले भाई महेन्द्रनाथ दत्त के साथ लन्दन के सड़क पर चलते समय उनके आगे चल रहे दो-तीन अंग्रेजों को दिखलाते हुए कहा - " देखो महिन ! ये दो-तीन लोग जब पास-पास बातें करते हुए चल रहे हैं, फिर भी उनमें से प्रत्येक का पैर एक साथ मिलकर पड़ता है। बाएं पैर के साथ बायाँ , दायें पैर के साथ दाहिना, --इसी की आवश्यकता है। " अभ्यास के द्वारा ऐसे शारीरक अनुशासन में दृढ़ता से प्रतिष्ठित हो जाने के बाद, यह मस्तिष्क में प्रविष्ट होकर आंतरिक अनुशासन में परिणत हो जाता है। इसीलिए महामण्डल के शिशु विभाग में पैरेड और पीटी का नियमित रूप से अभ्यास करवाया जाता है। और सभी लोग जब एक साथ मिलकर अभ्यास करते हैं, तो उसके फलस्वरूप भीतर में एकजूटता की भावना, सामुदायिक- साहचर्य का भाव, परस्पर के बीच भाईचारे का सम्बन्ध विकसित हो जाता है।  

>>>development of intelligence : बुद्धि का विकास कहने से बुद्धि को तीक्ष्ण करना और विवेक-प्रयोग शक्ति को (श्रेय-प्रेय, उचित-अनुचित निर्णय क्षमता को) जाग्रत करना' -  इन दोनों शक्तियों के विकास को समझना चाहिए। बुद्धि तीक्ष्ण हो जाने से किसी भी विषय की धारणा- शीघ्र, सही और स्पष्ट तरिके से हो जाती है। पशु और मनुष्य में मुख्य अन्तर मननशीलता और विवेक-प्रयोग क्षमता को लेकर ही है, शेष चार बातें ~ " आहार, निद्रा , भय और मैथुन" एक जैसी हैं  वैदिक निरुक्तकार यास्क मुनि ने मनुष्य को परिभाषित करते हुए लिखा है कि ‘मनुष्यः कस्मात् मत्वा कर्माणि सीव्यति सः ’ (३/८/२) अर्थात् मनुष्य तभी तक मनुष्य है जब वह किसी भी कर्म को चिन्तन तथा मनन पूर्वक करता है।

[मननशील मनुष्य (ऋषि) की विशेषता यही है कि वह सत्य-असत्य और मिथ्या को पृथक-पृथक रूप से पहचान सकता है। उसी खोज पर आधारित एक महावाक्य है -  'एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति।' ऋग्वेद (164/ 46) -सत्ता एक है,  एक ही सत्ता को अलग-अलग ऋषि भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते हैं। इस ऋचा के द्वारा जो सत्य प्रकट हुआ है, भारतीय संस्कृति (जीवन-पद्धति)  पर उसके बड़े ही दूरगामी प्रभाव पड़े हैं। इस सत्य ने एक सांचे का काम किया है, जिसमें भारतवासी अपने जीवन को ढालने की चेष्टा करते रहे हैं। इसी ऋचा ने हमारी रगों में उदारता का रक्त  -'सर्वे  भवन्तु सुखिनः' और " वसुधैव कुटुंबकम"- यानि " One Earth, One Family, One Future. " दुनिया एक परिवार है -मानने की भावना को हमारे रक्त में भर दिया  है।  ऐसी उदारता, जो विश्व के अन्य किसी धर्म में हमें नहीं मिलती। विक्रम लैण्डर से चन्द्रयान -3 चन्द्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर जहाँ उतरा, उस स्थान का नाम शिव-शक्ति पॉइंट रखा गया - यानि हिमालय से कन्याकुमारी तक ब्रह्म और शक्ति अभेद्य है। ब्रह्मविद ही ब्रह्म है। इस दो प्रकार के सत्य- इन्द्रियगोचर सत्य और इन्द्रियातीत सत्य को जानने की शिक्षा का ही परिणाम है कि हिन्दू ने धर्म के नाम पर कभी खून-खराबी नहीं की। 

>>>G-20 Summit In India:  जी-20 की कामकाजी भाषा अंग्रेजी ही है।    लेकिन चीन को संस्‍कृत के शब्‍द 'वसुधैव कुटुंबकम' से खासी दिक्कत है, जिसको लेकर उसने अपना विरोध भी दर्ज कराया है।  दरअसल, इस बार जी-20 की मेजबानी भारत कर रहा है, ऐसे में जी-20 के दस्तावेज़ों में 'वसुधैव कुटुंबकम' शब्‍द का उपयोग किया गया है, जो हमारा सभ्यतागत लोकाचार (civilizational ethos) का प्रतीक है;   जिसपर चीन ने आपत्ति दर्ज कराई है। चीन के इस विरोध पर भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा कि-"The theme of the G-20 being chaired by India is,  'One Earth, One Family, One Future.' It is based on our civilizational ethos of 'Vasudhaiva Kutumbakam .']  

मनन की यही प्रवृत्ति मनुष्यता की परिचायक है अन्यथा मनुष्य भी उस पशु के समान ही है जो चिन्तन- मनन किये बिना (अर्थात विवेक-प्रयोग किये बिना) जो कुछ देखता है उसी विषय को भोगने में प्रवृत्त हो जाता है। इसलिए मनुष्य के लिए धर्म का अर्थ है - विवेक-प्रयोग शक्ति और मननशीलता। विवेक-बुद्धि मनुष्य को सदसद्विवेक क्षमता प्रदान करती है। जिसके द्वारा मनुष्य - अच्छे-बुरे की या उचित-अनुचित की पहचान कर सकता है। साधारणतः सदसद्विवेक का अर्थ अच्छा और बुरा में अन्तर करना होने से भी, इसका वास्तविक अर्थ यही नहीं है।  सत का अर्थ है - जो शाश्वत , चिरस्थाई हो ; और असत का अर्थ है क्षणभंगुर या क्षणस्थायी। जो दीर्घ स्थायी है, सभी के लिए कल्याणकर  है, इसीलिए सत है। इसीलिए सत -असत विवेक का अर्थ हुआ जो सभी के लिए, देश के लिए, सम्पूर्ण विश्व के लिए कल्याणकर है वह है -आत्मा के एकत्व का बोध! 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यह समाज मनुष्य की जरूरतों को पूर्ण करने के लिए, मनुष्य के द्वारा गढ़ा गया है। देश या समाज तभी सुन्दर और महान बन सकता है , जब प्रत्येक कार्य को विवेक-पूर्वक मनुष्य के कल्याण के लिए किया जाये। प्रत्येक कार्य के पीछे विचार होता है, यानि किसी भी कार्य को करने के पहले मन में उसका विचार उठता है। इसलिए समाज को बेहतर बनाने के लिए,  देश को महान बनाने के लिए - अपने विचार को समष्टि मानवजाति के कल्याण में नियंत्रित रखना आवश्यक है।

और यहीं पर मननशीलता या विवेक-प्रयोग की आवश्यकता उत्पन्न होती है। विवेकी मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य के मन से यही विचार उठता है कि मेरा प्रत्येक बार स्वांस ग्रहण भी सामान्य मानवी (समष्टि मनुष्य -विश्वमानवता) के कल्याण के लिए हो। इसीलिए ज्ञान को बढ़ाने या विकसित करने के लिए , एवं श्रेय-प्रेय विवेक -प्रयोग की क्षमता में वृद्धि करने के लिए - बुद्धि को विकसित करना आवश्यक है। इसके लिए स्वाध्याय , चर्चा , मनन करके विषयों को आत्मसात करना होगा। यह कार्य महामण्डल के पाठचक्र से किया जाता है। इसलिए महामण्डल के शिशु विभाग में सप्ताह में एक दिन पाठचक्र का आयोजन किया जाता है। सरल भाषा में कहें तो पाठचक्र है मन का व्यायाम ! 

>>>Heart development: (ह्रदय का विकास) : देह और बुद्धि के विकास के साथ यदि ह्रदय के विकास को संयुक्त न किया जाये , अर्थात देह और बुद्धि बुद्धि के साथ साथ यदि किसी मनुष्य का ह्रदय भी विकसित न हुआ हो, तो वह मनुष्य मनुष्य न होकर, असुर या राक्षस में परिणत हो जाता है। रामायण में हमलोग पाते हैं कि रावण एक निष्ठावान ब्राह्मण था। कार्यक्षमता और शारीरिक शक्ति में दस मनुष्यों के बराबर अकेला था। उद्योग-धंधों से समृद्ध देश, सोने से बनी लंका का राजा था। बुद्धि की तीक्ष्णता की बात करें तो दशानन रावण दस मनुष्यों के बराबर बुद्धि रखता था। फिर भी रावण को राक्षस कहा जाता है। रावण के पास दस सिर और बीस भुजायें तो थीं , किन्तु ह्रदय एक ही था। इसीलिए स्वार्थपरता , असयंम , दम्भ और आचार -आचरण की दृष्टि से रावण मानवता का राक्षस था।  

दूसरी ओर देह, बुद्धि और ह्रदय के सन्तुलित विकास होने से रामचन्द्र मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं। पशु, मनुष्य , वृक्ष-लता सभी उनके प्रेम से आकृष्ट हो जाते थे , सभी को वे अपना समझते थे। छोटे से लेकर बड़े तक सभी के प्रति समदृष्टि, मित्रता का भाव था। प्रेम शत्रु और मित्र दोनों को आकर्षित करता है। वैसे सभी जन जो निम्नजाति के श्रेणी में गिनी जाती थीं, यहाँ तक कि अचेतन पत्थर भी उनके हृदय के प्रेम को अनुभव कर चैतन्य सजीव हो उठते थे। इसीलिए वे सभी के आराध्य देवता हैं। मनुष्य से देवता में उन्नत हो चुके पुरुषोत्तम की मौन वाणी है -['আমা হতে নাহি ভয় জীব-জগতের']इस सम्पूर्ण जड़-चेतन जगत में मुझसे किसी को भय करने की जरूरत नहीं " सभी के ह्रदय को स्पर्श करती है। 

 >>>Way to gain heart expansion? पशु-पक्षी और छोटे से लेकर बड़े मनुष्यों तक के प्रति अपने ह्रदय को विस्तृत करने का उपाय क्या है ? प्रतिदिन दो बार (प्रातः और संध्या में) थोड़ी देर तक सभी प्राणियों के मंगल की प्रार्थना - 'सर्वे भवन्तु सुखिनः', 'वसुधैव कुटुंबकम' की भावना करना चाहिए। और इसके साथ-साथ जिनका हृदय समुद्र जितना विशाल है, वैसे विवेकानन्द के जीवन और सन्देश का पाठ करके पहले स्वयं अनुप्राणित होना चाहिए, फिर उनकी शिक्षाओं को युवाओं तक पहुँचाने की समाज-सेवा करते हुए अपने ह्रदय को विस्तृत करने का प्रयत्न करना चाहिये। स्वामीजी अपनी कविता -'सखा के प्रति ' में कहते हैं - हमें अपने प्राण, अर्थ, बुद्धि तथा वाणी  को नरनारायण की सेवा में अर्थात मानवदेह रूपी देवालय में विराजित ईश्वर की सेवा में लगाना चाहिए - 

'सखा के प्रति ' 

ब्रह्म ह'ते कीट -परमाणु, सर्वभूते सेई प्रेममय ,

मन प्राण शरीर अर्पण कर सखे, ए सबार पाय।   

बहुरूपे सम्मुखे तोमार, छाड़ि कोथा खूंजिछ ईश्वर ?

जीवे प्रेम करे जेई जन, सेई जन सेविछे ईश्वर।  

********

ब्रह्म से कीट-परमाणु तक, सब में झांके वही प्रेममय ,

 भागवत कहे 'एतावत जन्म साफल्यं देहिनामिह देहिषु' 

 प्राण,अर्थ, धिया, वाचा ~ सब जीवों को देदो अभय। 

बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ है ईश ?

जीवों से प्रेम करता है जो जन, उसी की पूजा स्वीकारते जगदीश।  

९/३२५         

ব্রহ্ম হ'তে কীট-পরমাণু, সর্বভূতে সেই প্রেমময়,

মন প্রাণ শরীর অর্পণ কর সখে, এ সবার পায়।

বহুরূপে সম্মুখে তোমার, ছাড়ি কোথা খুঁজিছ ঈশ্বর ?

জীবে প্রেম করে যেই জন, সেই জন সেবিছে ঈশ্বর॥ 

सिद्धांत: यदि आप सृष्टिकर्ता से प्रेम पाना चाहते हैं, तो इसे प्राप्त करने का एकमात्र तरीका उसके सभी प्राणियों के प्रति प्रेम दिखाना है। अतएव हमें भी स्वामीजी की इस कविता में वर्णित मानसिकता के साथ समाज-सेवा करना होगा। मनुष्य शरीर रूपी देवालय में नरनारायण की पूजा करने का मनोभाव लेकर समाज-सेवा करने से ह्रदय का विस्तार घटित होता है। शिशु-विभाग के संचालन -प्रबंधन आदि कार्यों को इसी पूजा के मनोभाव से करने से उसका वास्तविक फल प्राप्त होगा।  

इस प्रकार शरीर की शक्ति का विकास होने के साथ साथ ह्रदय का विस्तार और मन को नियंत्रण में रखते हुए संतुलित रूप में विकसित हुआ विवेक-वाहिनी का प्रत्येक शिशु सुन्दर मनुष्य में परिणत होकर समाज के सभी क्षेत्रों में फ़ैल जायेंगे। जिसके फलस्वरूप सुंदरतर मनुष्यों का एक सुन्दरतर समाज निर्मित हो जायेगा।   

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3.

🔱🙏महामंडल आंदोलन में शिशु -विभाग की आवश्यकता एवं उसका महत्व🔱🙏

[The necessity and importance of Vivek-Vahini in Mahamandal]

किसी भी कार्य के पहले विचार होता है। और उस विचार के अनुसार ही कार्य होता है। कार्य से परिवेश निर्मित होता है। फिर परिवेश विचारों को प्रभावित करता है। अतएव वर्तमान का जो असहनीय सामाजिक परिवेश या परिस्थिति है वह जानबूझकर या अनजाने में हमारे द्वारा ही बनाया गया है। हमलोगों ने जैसी शिक्षा प्राप्त की है, उस शिक्षा ने ही हमलोगों के विचार, व्यवहार तथा रूचि को विकसित किया है। अतएव यदि इस सामाजिक परिस्थिति में परिवर्तन लाना चाहते हैं, तो परिवेश का निर्माण करने वाले मनुष्यों की मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा। और वह केवल तभी सम्भव है जब इन मनुष्यों के चरित्र में परिवर्तन किया जाये। उपयुक्त शिक्षा ही चरित्र में परिवर्तन कर सकती है। जिसके फलस्वरूप लोगों के विचार और कार्य नियंत्रित होंगे। इसीलिए कहा जाता है -केवल स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माणकारी (व्यक्तित्व उन्मेषक) शिक्षा ही समाज, देश या राष्ट्र का  कल्याण करने में समर्थ युवाओं के दल को गठित कर सकती है। 

चरित्र निर्माण का कार्य युवा अवस्था में ही शुरू करने से, जिस प्रकार एक सुन्दर जीवन गठित हो जाता है, उसी प्रकार यदि बचपन से ही शुरू किया जाये तो और भी सुन्दतर जीवन गठित होने की सम्भावना रहती है। अंग्रेजी में एक प्रसिद्द कहावत है - 'The Child Is The Father Of The Man' -अर्थात “बच्चा मनुष्य का पिता होता है।”  बंगला में भी कहावत है -(ঘুমিয়ে আছে শিশুর পিতা সব শিশুরই অন্তরে।) "घूमिये आछे शिशुर पिता सब शिशुरई अन्तरे"- वास्तव में यह मुहावरा अंग्रेजी के प्रसिद्द कवि  विलियम वर्ड्सवर्थ द्वारा 1802 में लिखी गई कविता, “माय हार्ट लीप्स अप” से लिया गया है। कवि का तात्पर्य यह है कि मनुष्य का व्यक्तित्व, उसके अपने बचपन की आदतों-संस्कारों से बना होता है। वर्ड्सवर्थ कहते हैं एक शिशु के रूप में जब वे  इंद्रधनुष को देखते तो बहुत प्रसन्न हो जाते थे , और उनका ह्रदय रोमांचित होकर बल्लियों उछलने लगता था - और एक वयस्क के रूप में वह प्रकृति को देखकर अभी भी उसी प्रकार की खुशी का अनुभव करता है जैसे वह पहले करता था। [" My heart leaps up when I behold, A rainbow in the sky: So was it when my life began; So is it now I am a man; So be it when I shall grow old, Or let me die! The Child is the Father of the Man! ]

यह कहावत इस विचार को व्यक्त करता है कि एक बच्चे  के रूप में हम जो चरित्र बनाते हैं वह हमारे वयस्क जीवन में भी हमारे साथ रहता है।  यह स्वाभाविक है कि कोई व्यक्ति अपने बचपन के दिनों में जो सीखता है वही उसकी आदत और प्रवृत्ति बनकर बाद में उसके जीवन में प्रतिबिंबित होती है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति बचपन के दौरान अच्छी आदतें विकसित करता है तो उसके एक अनुशासित जीवन जीने की संभावना है। इसी तरह एक बच्चे में जब बुरी आदतें पनपने लगती है तो उसके बढ़ती उम्र के साथ वह उनका आदी हो जाता है। इसका मतलब है कि किसी व्यक्ति के बचपन का व्यवहार और गतिविधियाँ उसके व्यक्तित्व के निर्माण में बहुत सहायक सिद्ध होती  हैं। आज के बालक ही भविष्य के युवा हैं। इसीलिए युवा कल्याण का प्रारम्भ बालकों के कल्याण से होता है। और यहीं पर महामण्डल की कार्यपद्धति में शिशु-विभाग का महत्व स्पष्ट हो उठता है।   

महामण्डल के शिशु विभाग का नाम 'विवेक वाहिनी ' होने से भी अखिल भारतीय या क्षेत्रीय स्तर पर बालकों के विकास के लिए देशभर में अलग-अलग नाम से  कई संगठन पहले से कार्यरत हैं। तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि, अलग से महामण्डल का शिशु-विभाग गठित करने की क्या आवश्यकता है ? उत्तर में कहना पड़ता है कि -जब कार्य उद्देश्यपूर्ण होगा तभी वह वांछित परिणाम देगा। बालक का जीवन, परिवार,समाज या देश के कल्याण में उपयोगी  और सुंदर रूप से निर्मित होने का अर्थ है बालक का सर्वांगीण विकास। बालक के शरीर-बुद्धि -ह्रदय का सन्तुलित विकास के साथ ही साथ मन पर नियंत्रण , विवेक-प्रयोग द्वारा निर्णय लेने की क्षमता का जागरण, और दैनन्दिन समस्त कार्यों में केवल उसके प्रयोग की आदत और बाद में प्रवृत्ति बन जाने -की पद्धति से ही बालकों का सर्वांगीण विकास होना सम्भव है। और महामण्डल के शिशु-विभाग का यही उद्देश्य है।

इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए महामंडल के बाल विभाग की दैनिक कार्यपद्धति एवं प्रबंधन प्रणाली विकसित की गई है। महामण्डल में बालक के खेलकूद, पीटी -पैरेड , अभिनय-गीत और जयघोष तथा पाठचक्र -समस्त कार्यक्रम इसी प्रकार उद्देश्यपूर्ण ढंग से विकसित किया गया है। यहाँ तक कि प्रशिक्षकों का प्रशिक्षण कार्य भी उसी प्रकार उद्देश्यपूर्ण है। प्रत्येक दिन के खेलकूद इत्यादि के माध्यम से बालकों के भीतर इन ऊंच भावों को प्रविष्ट करवा देना ही महामण्डल का लक्ष्य है। जिसके फलस्वरूप दैनन्दिन जीवन के प्रत्येक क्षण में बालकों के सभी काम , व्यवहार या चालचलन (behavior), बोलचाल (conversation), सोचने का तरीका (ideology) सब कुछ बालक के जाने या अनजाने इन्हीं भावों के द्वारा नियंत्रित होंगे। शिशु -विभाग के जयघोष के माध्यम से सीखा जाता है -'নিজেকে দিয়েই সমাজ-দেশ গড়ার শুরু বুঝেছি বেশ '; ' "समाज और देश के निर्माण की शुरुआत, मेरे स्वयं से है समझी है बेश"; ''পরের তরে বাঁচা মোদের ', 'স্বরূপ মোদের জানবো মোরা সেরা মানুষ হব ', 'সবার কথায় সত্য আছে , কেউ কিছু দূর কেউ বা কাছে ', 'পরের দোষ দেখব না ভাই , দেখবো নিজের দোষ ', अभिनय गीत के ये सभी शब्द, कीर्तन के ताल -बोल की तरह  बालक के मन में सोते-स्वप्नदेखते -या जागरण में सदैव गूंजता रहेगा,एवं ये अनमोल शब्द ही एक मापदण्ड (criterion) का रूप लेकर बालकों के जीवन को हमेशा नियंत्रित करता रहेगा। 

इसीलिए बाहर से देखने पर महामण्डल का शिशु-विभाग प्रत्येक दिन का केवल दो घंटे के लिए  कार्यक्रम चलने वाला कोई बालक-मनोरंजन केंद्र नहीं है , बल्कि परिवार के बीच , स्कूल में , दोस्तों के साथ फुर्सत के पल बिताते समय - 'अरे लरेशवो चलमा लद्दी लहाइले ? " - सर्वत्र , मन के भीतर शिशु-विभाग का ही कार्यक्रम चलता रहेगा। और इस प्रकार एकदिन महामण्डल के शिशु-विभाग से प्रशिक्षित प्रत्येक बालक /शिशु पूर्ण मनुष्यत्व में प्रतिष्ठित होकर (नेता/पैगम्बर वाले व्यक्तित्व में प्रतिष्ठित होकर भी) अपने को केवल एक चरित्रवान नागरिक समझते हुए देश के समस्त कार्यक्षेत्र में फ़ैल जायेंगे और समाज तथा देश को और भी श्रेष्ठतर /सुन्दरतर बना देंगे।  

>>> जीवन का प्रत्येक क्षण अपने पैरों पर खड़ा मनुष्य बनने का प्रयास है :Every moment of life is an attempt to rise _to one's feet? জীবনের প্রত্যেকটি মুহূর্তে মানুষ হয় উঠার একটি প্রচেষ্টা ) :

अतएव महामंडल का शिशु- वर्ग, अन्य संगठनों द्वारा संचालित बाल वर्गों की तरह शारीरिक सौष्ठव प्रदर्शन (Bodybuilding display) , चार दिनों का सांस्कृतिक तमासा (four-day cultural extravaganza) अथवा केवल एक तयसीमा में समाप्त हो जाने वाला कोई 'खाली समय बिताने का मनोरंजन' (Leisure entertainment) नहीं है। बल्कि यहाँ जीवन का प्रत्येक क्षण ऊपर उठने का प्रयत्न है, पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवत्व में उन्नत होने का -प्रयास है। और यहीं दूसरे बाल -केंद्रों से महामण्डल के शिशु-विभाग का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द की भाषा में कहें तो -"मेरे बच्चों ~ 'अलवरी युवको', धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं।  जो केवल 'प्रभु, प्रभु ' की रट लगाता है, वह नहीं , किन्तु जो उस परम् पिता की इच्छानुसार कार्य करता है "- वही धार्मिक है। तुमलोग जितने भी हो सभी योग्य हो, और मैं आशा करता हूँ कि तुममें से अनेक व्यक्ति अविलम्ब ही समाज के भूषण तथा जन्मभूमि के कल्याण के कारण बन सकेंगे। १/३८०  

[अर्थात सद्सद्विवेक (conscience-अन्तरात्मा की आवाज) = 'Good and Pleasant' विवेक का सिद्धान्त को जान लेना धर्म नहीं है, धर्म का रहस्य विवेक- प्रयोग करते हुए जीवन यापन करने से जाना जा सकता है।" - 'Good and Pleasant' विवेक या  'अच्छा (श्रेय-आँवला) और सुखद (प्रेय-ईमली) ' विवेक-सिद्धान्त को जान लेना नहीं विवेक-प्रयोग करके अच्छा मनुष्य बनना और अच्छा मार्ग यानि श्रेय मार्ग,  -त्याग और सेवा के मार्ग पर चलना - इसमें ही समग्र धर्म निहित है। 

(My children,  You Alwaris,....... You are a nice band of young men, and I hope in no distant future many of you will be ornaments of the society and blessings to the country you are born in. the secret of religion lies not in theories but in practice. To be good and to do good — that is the whole of religion.  "Not he that crieth 'Lord', 'Lord', but he that doeth the will of the Father".  'তত্ত্বে নয়, তত্ত্বের প্রয়োগেই ধর্মের গোপন রহস্য।স্বার্থশূন্য , সেবাপরায়ণ ,সংযত , প্রেমী , শক্তিমান ও হৃদয়বান  মানুষ 

केवल सिद्धान्त नहीं, स्वार्थरहित (Selfless), सेवापरायण (service minded or helpful), आत्मानुशासित (restrained), विश्वमानव प्रेमी , शक्तिशाली और उदारहृदय (यानि बसुधैव कुटुंबकम' पर आस्था रखने वाला, wholehearted person) मनुष्य के रूप में बालको के विकसित होने में सहायता करके प्रत्येक बालक को एक अच्छा नागरिक, या एक आदर्श महा-मण्डल कार्यकर्ता  के रूप ढाल देने  के कार्य में अच्छी तरह से योजनाबद्ध, इस उद्देश्य के अनुसार एक परिवेश तैयार करने के कार्य को महामण्डल का शिशु-विभाग समझना चाहिए। जो आज के सन्दर्भ में और भी आवश्यक है।  

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🔱🙏जीवन गठन पर परिवेश का प्रभाव।🔱🙏

[The influence of surroundings on Life building]

(জীবন গঠনে পরিবেশের প্রভাব)

>>>Growth of a child is very similar to plant

किसी बच्चे के संवृद्धि की प्रक्रिया  बिल्कुल पौधों के संवृद्धि (growth) की प्रक्रिया (पैटर्न-arrangement) जैसी होती है। एक पौधा स्वयं ही बड़ा होकर वृक्ष बन जाता है। (A tree grows by itself- उसको खींचकर लम्बा नहीं करना पड़ता।) लेकिन कोमल अंकुरण (seedling) की अवस्था में पौधे को जानवरों से बचाने के लिए उसके चारों ओर बाड़ लगा देना अथवा घेरा डाल देना आवश्यक होता है। तथा इस ओर ध्यान रखना होता है कि पौधे को हवा, मिट्टी , धूप, खाद और जल भी आवश्यक्तानुसार  उचित अनुपात में मिलता रहे। पौधा स्वयं अपने तरीके से अपना आहार तैयार करके स्वयं का पोषण (Nourishes) कर लेता है। 

  एक शिशु भी ठीक इसी प्रकार बड़ा हो जाता है। वह शिशु-सुलभ अवस्था में लेटे -लेटे ही अपने हाथ-पैर फेंककर शरीर की स्वस्थ संरचना में अपनी सहायता करता है। छोटा बच्चा सोये -सोये गर्दन घुमाकर चारों तरफ देखता रहता है, जो कुछ दिखाई पड़े उसी को छूना और पकड़ना चाहता है। कुछ झुनझुना आदि बजाने से सुनना चाहता है। इसी प्रकार वह ज्ञान संचित करता रहता है। ज्ञान संचित करने का कार्य बच्चे के जन्म लेने से पूर्व से या माँ के गर्भ में रहते समय से ही चलता रहता है। महाभारत में हमलोग पाते हैं कि अभिमन्यु चक्रव्यूह में प्रविष्ट होना जानते थे , किन्तु चक्रव्यूह से बाहर निकलना नहीं जानते थे। (मन को लगाने और हटाने, यानि अनासक्ति का रहस्य नहीं जानने के कारण) इसीलिए उनको चक्रव्यूह के भीतर ही मृत्यु स्वीकार करना पड़ा था। युद्ध समाप्त होने के बाद, पूछे जाने पर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया था कि, आसन्न-प्रसवा सुभद्रा ने अर्जुन से जब  चक्रव्यूह भेदन के विषय में प्रश्न किया, तब अर्जुन जमीन पर लकीर खींचते हुए चक्रव्यूह का चित्र बनाये, फिर उसमें प्रविष्ट होने और निकलने (Entry and exit) की पद्धति समझाने लगे थे। सुभद्रा ने चक्रव्यूह में प्रविष्ट करने की पद्धति तक मनोयोग पूर्वक सुना, फिर सुनते -सुनते वे अर्धतंद्रा (half sleep) में चली गयीं, और सो गयीं। किन्तु अर्जुन यह नहीं जान सके कि सुभद्रा कब नींद में चली गयीं, इसलिए उन्होंने अन्त तक चक्रव्यूह भेदन की पद्धति को समझाना जारी रखा। इसी कारण सुभद्रा के गर्भस्थ पुत्र (unborn child) चक्रव्यूह में प्रविष्ट होने पद्धति तक ही सीख सके थे। शिशु वास्तव में माँ के गर्भ में रहते समय से ही सीखना शुरू कर देता है , यह उसीका एक उदाहरण है। और आधुनिक युग में कई शोध -अध्यनों में इसे सत्य स्वीकृत किया गया है। 

बालकों की शिक्षा में उनके परिवेश का प्रभाव भी अवश्य पड़ता है। परिवेश दो प्रकार का होता है। जन्मजात परिवेश (Congenital) और अर्जित (acquired) परिवेश। जन्मजात परिवेश का अर्थ वंशानुगत परिवेश (hereditary-राठौर आनुवांशिक) होता है। वंशानुगत परिवेश के साथ बालक के जन्मजात रूप से अर्जित उसके चारों ओर की परिस्थितियाँ, जिसके भीतर परिवार के दूसरे लोगों का आचार -व्यवहार, बात-चीत, क्रिया-कलाप जो परोक्ष रूप से बच्चे के विकास पर प्रभाव डालते हों , उनसब को भी हमलोग वंशानुगत परिवेश की बात समझ सकते हैं। क्योंकि उस परिवेश के भीतर बालक रहना चाहे या नहीं रहना चाहे, वह बच्चे की इच्छा या अनिच्छा पर निर्भर नहीं करता है। और बच्चे के दैहिक, मानसिक और बौद्धिक विकास के प्रति चिंतन-मनन करके, बालक के लिए एक उपयुक्त और अनुकूल परिवेश में बच्चे को रखना, और उसके मित्रों, खेल के साथियों के निर्वाचन में सहायता करने से बालक को जो परिवेश प्राप्त होता है, उसको अर्जित परिवेश कहा जाता है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि बालक के सर्वांगीण विकास के लिए किस प्रकार का वातावरण देना सबसे ज्यादा उपयुक्त रहेगा। 

प्राचीन भारत में  जीवन गठन के लिए जन्मगत से अर्जित परिवेश के प्रभाव को ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता था। इसीलिए हम देख सकते हैं कि वशिष्ठ, नारद, सत्यकाम जाबाल, व्यासदेव आदि में से प्रत्येक विभिन्न वंश में जन्म लेने से भी, जनसाधारण के द्वारा ऋषिश्रेष्ठ या ब्राह्मण के रूप में स्वीकृत और सम्मानित होते थे। उसी प्रकार अज्ञात पिता , कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और कर्ण आदि को भी वीरश्रेष्ठ एवं महान क्षत्रिय कहके प्रतिष्ठा दी जाती थी। यह तो बहुत बाद के समय में ब्राह्मण के पुत्र को ब्राह्मण या मोची के पुत्र को मोची के रूप में जाना जाने लगा; एवं आनुवांशिक परिवेश (वंश-वाद, भ्रष्टाचार आदि) को सामाजिक रूप से प्रधान मानने को प्रचारित किया गया। 

लेकिन जीवन गठन के क्षेत्र में स्वामीजी वैसे अर्जित परिवेश को आनुवंशिक परिवेश की अपेक्षा अधिक महत्व दिए हैं। अपने इस तर्क के पक्ष में, उन्होंने शिकागो धर्म-महासभा के वक्ताओं में से एक नीग्रो युवा वक्ता का उल्लेख किया है। वह युवक अफ्रीका के एक नरभक्षी कबीले के मुखिया का लड़का था; बाल्यावस्था में ही उसे किसी कारणवश अमेरिका चला आना पड़ा था। 

पुराणों में वर्णित रानी मदालसा की कहानी में भी बालक -चरित्र पर इसी अर्जित परिवेश के अधिक प्रभावी होने की बात देख सकते हैं। रानी मदालसा अपने पुत्रों को पालने (cradle ) में झुलाते समय लोरी गाती थीं - 'तत्वमसि निरंजनः। ' अर्थात ' मेरे बच्चे तुम क्यों रोते हो ?  हमेशा याद रखना  तुम वही शुद्ध, बुद्ध , नित्य मुक्त  आत्मा हो' तुम्हारा यह पुकारू नाम तो अभी मिला है!" इस प्रकार रानी मदालसा के पालने में उपदेश सुन-सुन कर उनके तीन लड़के बड़े होने पर एक एक कर युवावस्था में ही संन्यासी होकर वन में चले गए। बाद में राजा ऋतुध्वज के बहुत अनुरोध करने पर कि उनके राजपाट को भी देखने वाला कोई होगा या नहीं ? चतुर्थ संतान को उन्होंने अलर्क नाम दिया और दूसरे ढंग से शिक्षादेकर बड़ा किया , और आगे चलकर उसने राज्य को चलाया। वंशानुगत रूप से राजकुमार लोग क्षत्रिय थे, किन्तु अर्जित परिवेश के प्रभाव से ही उनके जीवन का गठन हुआ। 

एक बंगाली लोकोक्ति है -'जन्म होक यथा तथा - कर्म होक भालो।' अर्थात जन्म चाहे जहाँ कहीं हुआ हो, हर परिस्थिति में सादकर्म करने में सक्षम मनुष्य बना जा सकता है। [ ' জন্ম হােক যথা তথা' কর্ম হােক ভালাে. ] अर्थात सिद्धान्त यह हुआ कि मनुष्य के जाने के बाद, उसको संसार में उसके गुणों के कारण ही याद किया जाता है, सम्मान दिया जाता है। इसके साथ साथ इस जगत में भी कीर्ति और प्रतिष्ठा पाने के पीछे कारण रूप से सदकर्म की ही भूमिका होती है। अच्छे कर्म, प्यारभरा दिल और मीठी जुबान से ही कोई मनुष्य समाज और देश में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। यहाँ वंशानुगत परिवेश का कोई महत्व नहीं रह जाता है। 

कबिरा जब हम पैदा हुए जग हंसा हम रोय। 

ऐसी करनी कर चलो हम हंसे जग रोय।।

यदि आप बच्चे को 'लक्ष्योन्मुख जीवन गठन ' (Goal-oriented life building) करने के योग्य और उपयुक्त वातावरण बच्चों के सामने रखेंगे, तो बच्चे का विकास बेहतर तरीके से होगा। महामण्डल का शिशु विभाग बच्चों के समक्ष इसी प्रकार का अर्जित परिवेश प्रस्तुत करना चाहता है , जिससे बालक बचपन से ही मनुष्य जीवन को देवदुर्लभ क्यों कहा है, इसके महत्व को समझ ले। और यह कार्य केवल शिशु-विभाग के नेता /परिचालक /निदेशक ही कर सकते हैं। और इसके लिए परिचालक को स्वयं उपयुक्त मनुष्य [ब्रह्मविद मनुष्य] बनने की चेष्टा करनी होगी। और इसके साथ ही साथ शिशु के मन की विशेषता पर दृष्टि रखते हुए शिशु-विभाग का संचालन भी करना होगा।     

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रानी मदालसा की कथा 

स्वामी विवेकानन्द जी ने हमेशा परिवेश के निर्माण करने पर ही बल दिया है, तोड़ने पर नहीं। समस्या को तोड़ना या चीर-फाड़ करना ठीक नहीं है। जिस वर्ग के जीवन से जुड़ी हुई समस्या है, उस वर्ग के जीवन को उचित तरीके गढ़ना ही समस्या का स्थायी समाधान है। और स्वामीजी द्वारा प्रदत्त समस्त समस्याओं के समाधान का मूल सूत्र भी यही है।

वे कहते थे - " यदि मेरी कोई संतान होती तो मैं उसे जन्म से ही सुनाता- 'तत्वमसि निरंजनः।' तुमने अवश्य ही पुराणों में रानी मदालसा की वह सुन्दर कहानी पढ़ी होगी। उसके संतान होते ही वह उसको अपने हाथ से झूले पर रखकर उसको लोरी सुनाते हुए गाती थी- 'तुम हो मेरे लाल निरंजन अतिपावन निष्पाप, तुम हो सर्व-शक्तिमान, तेरा है अमित प्रताप।' इस कहानी में एक महान सत्य छिपा हुआ है- 'अपने को बचपन से ही महान समझो और तुम सचमुच महान हो जाओगे!" (५/१३८)

एक मां कैसे अपने ज्ञान से बच्चों को सही दिशा दे सकती है, इतिहास में इसका एकमात्र उदाहरण है- रानी मदालसा। इन्होंने अपने पुत्रों को परम ज्ञान का उपदेश देकर जीवन जीने की दिशा दिखाई थी। (बबुआ तू सब कुछ कर सके ल, मन से कबो हार मत मनिह! ; तूँ जे चाह लेब ऊ जरूर हो जाई ! मन जीता जगजीत)

पुत्र से मां का मोह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन रानी मदालसा ने इस मोह से हटकर अपने चारों पुत्रों को ऎसी शिक्षा दी जिससे उनके कर्म के आधार पर उनकी पहचान हो। वे मानतीं थी कि संसार में नाम की महिमा कुछ नहीं है। व्यक्ति को उसके नाम से नहीं बल्कि उसके कर्मो से पहचाना जाता है। जब राजा ऋतध्वज अपने पुत्रों का नामकरण करते थे तो मदालसा को हंसी आती थी। पहले तीन पुत्रों के जन्म के बाद राजा ने उनका नामकरण किया तो वे हर बार हंसी। अपने तीनों पुत्रों को मदालसा ने यही सिखाया। उन्हें शरीर व भौतिक सुखों से मोह नहीं करने की शिक्षा दी।

उन्होंने बताया कि विद्वान वही है जो सुखों को भी दुख समझकर जीवनयापन करें। उनके तीन पुत्र हुए। बड़े का नाम विक्रांत, दूसरे का नाम सुबाहु और तीसरे का नाम शत्रुमर्दन था। मदालसा ने उन्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दी।अपने लड़के को पालने में रख कर, झुलाते झुलाते यह लोरी गा कर सुनाती थीं-

शुद्धोsसि रे तात न तेsस्ति नाम

कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।

पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति

नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥

हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?

बचपन से ही वेदान्त सुनकर तीनों पुत्रों को वैराग्य हो गया और वे जंगल में तपस्या करने चले गए। तब मदालसा का चौथा पुत्र हुआ। तब राजा ने मदालसा से कहा कि कम से कम इस पुत्र को तो सांसारिकज्ञान की शिक्षा दो जिससे हमारा राजपाट चल सके।

उसका नाम अलर्क (पगला कुत्ता ) रखा गया। मदालसा की शिक्षा से वह बहुत ही शूरवीर, पराक्रमी राजा हुआ। कुछ समय बाद राजा ऋतुध्वज अपनी पत्नी मदालसा के साथ अलर्क को राज्य सौंपकर जंगल में तपस्या करने चले गए। हालांकि राजा के कहने पर चौथे पुत्र को धर्म, अर्थ और काम शास्त्रों की भी शिक्षा दी। लेकिन तपस्या के लिए वन में जाते समय उसे भी यही उपदेश दिया कि आत्मा निराकार है। अंतत: मां की दी हुई यही शिक्षा पाकर चौथे पुत्र को भी आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई कि तू शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। इस प्रकार यह रानी मदालसा की ही शिक्षा थी कि जिससे सुबाहु, विक्रांत और शत्रुमर्दन जैसे ब्रह्मज्ञानी और अलर्क जैसे प्रतापी राजा हुए। मदालसा भारत की एक गौरवमयी माँ थीं। 

কেউ কেউ ভাবেন, মানুষের প্রতিষ্ঠা ও গৌরব লাভের পেছনে বংশপরিচয় গুরুত্বপূর্ণ। প্রকৃতপক্ষে তা সঠিক নয়। কারণ মানুষ কোন বংশে জন্মগ্রহণ করেছে তা বিবেচনা না করে জীবনে সে কী অবদান রেখে গেছে সেটাই মানুষের মহিমাকে তুলে ধরে। সমাজের নীচু স্তরে জন্ম নিয়েও অনেক মানুষ কর্ম ও অবদানের মাধ্যমে বড় বলে পরিগণিত হয়েছে। মানবসমাজের ইতিহাসে এ রকম অজস্র উদাহরণ আছে। উঁচু বংশ বা নীচু বংশ বড় কথা নয়, মহৎ অবদানেই মানুষ বড় মাপের মানুষ হয়। কাজী নজরুল ইসলাম, বিশ্বকবি রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর, মাইকেল মধুসূদন দত্ত, বিজ্ঞানী জগদীশ চন্দ্র বসুসহ আরও অনেকে তাদের কর্মের অবদানের জন্যে স্মরণীয় ও বরণীয় হয়ে আছেন। এঁরা কেউ জন্মপরিচয় বা বংশগৌরবের কারণে বড় বলে পরিগণিত নন। পদ্মফুলের জন্মস্থান বড় নয়, এর সৌন্দর্য বড়। তেমনি মানুষের কর্মের সাফল্যই বড়, বংশ ও জন্মপরিচয় নয়। কর্মই জীবন। জীবনে কাজ না থাকলে জীবনই ব্যর্থ হয়। মানুষই বিভিন্ন কর্ম দ্বারা দেশ, সমাজ ও জাতির উন্নতি সাধন করে। বংশ বা জন্মপরিচয় দিয়ে দেশের উন্নতি করা যায় না।মানুষের জীবনের ব্রত হচ্ছে কর্ম কর্মের মধ্যে লুকিয়ে থাকে মানবজীবনের সাফল্য ও ব্যর্থতা। মানুষ কর্মের মাধ্যমে চেষ্টা চালায় জীবনে উন্নতি সাধনে, সাথে সাথে দেশ, জাতি ও সমাজের মঙ্গল সাধনে । মানুষের এ মহৎ কর্মগুণই তাকে অমরত্ব দান করে। জন্মপরিচয় বা বংশগৌরব কখনাে মহৎ গুণের মাপকাঠি নয় ।

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5. 

बाल मन की विशेषताएँ एवं निर्देशक (C-IN-C) की भूमिका |

[Characteristics of child mind and role of Teacher.  

শিশুমনের বৈশিষ্ট্য ও পরিচালকের ভূমিকা ]

बालक का मन अत्यन्त कोमल और संवेदनशील (प्रेम का भूखा) होता है। इसलिए शासन करते समय , या आदेश-निर्देश देते समय यह ध्यान रखना होगा कि जिससे बच्चे के मन पर चोट न पहुँचे। 

 बच्चे का मन ग्रहणशील (receptive -विचार या छाप ग्रहण करनेवाला) होता है। इसीलिए बालकों के सामने कोई भी बात रखने से पूर्व यह विचार करना आवश्यक है कि वह विषय बच्चों के लिए उपयोगी है या नहीं ; फिर वह चाहे अपना आचार -व्यवहार हो, बातचीत करने का तरीका हो , कोई शिक्षणीय विषय ही क्यों न हो। 

बच्चे अत्यन्त अनुकरणप्रिय (imitative) होते हैं। यह बात हमेशा याद रखते हुए परिचालक/नेता या शिक्षक को हमेशा सतर्क रहना चाहिए। [कोई भी बुरी आदत प्रदर्शित नहीं करनी चाहिए।] 

शिशु मन (मूछों वाला बच्चा भी)  प्रत्येक कार्य के बाद अपनी गतिविधियों के लिए सराहना के दो शब्द सुनना चाहते हैं, या अपनी पहचान चाहते हैं। बालक के खेलकूद , या किसी कार्य का स्तर जितना भी साधारण क्यों न हो , वे अपने बड़ों से उसकी बड़ाई सुनना चाहते हैं। इसलिए हमेशा याद रखना जरुरी है कि उसकी इस इच्छा को सीधा अस्वीकार नहीं करके, इस इच्छा को ही दूसरी तरफ मोड़ देना चाहिए। यही है कर्म का रहस्य ! 

शिशु मन में नवीनता के प्रति तीव्र आकर्षण रहता है। खेलकूद, पीटी या पैरेड कराते समय, कुछ दिनों के बाद सबकुछ में परिवर्तन लाते रहने से उसकी एकरसता चली जाती है , और बच्चे के लिए अधिक स्वीकार्य होता है। इसी लिए परिचालक को सिखाये जाने वाले विषयों की एक योजना पहले से बना लेनी चाहिए। महीने -दोमहीने के अन्तराल पर मैदान के दैनन्दिन कार्क्रम को छोड़कर गाँव या शहर के कुछ जगहों पर घुमा लाने से बच्चे नवनीता का स्वाद पाकर खुश हो जाते हैं।  

नेतृत्व के प्रति आकर्षण : बच्चों को नेतृत्व करने का अवसर देना आवश्यक है। इसके द्वारा उनके व्यक्तित्व का विकास होता है।  

बच्चे प्रेम चाहते हैं। प्रेम सभी को अपना बना लेता है, प्रेम से एकता आती है। सभी आदेश, निर्देश और शासन के साथ निःस्वार्थ निष्पक्ष प्रेम को जोड़ सकने में ही परिचालक की सार्थकता है। प्रेम के लिए गरीब बच्चा, प्रेम मिलने से परिचालक का गुलाम बन जाता है। अभिभावक लोग भी संघ के प्रति आकृष्ट होते हैं। 

परिचालक की भूमिका : शिशु विभाग का उद्देश्य तभी सम्पूर्ण रूप से और सफलता पूर्वक कार्यान्वित होगा जब परिचालक शिशु-विभाग के उद्देश्य को सही रूप से अपने प्राणों से समझेंगे और शिशु-मन के इन विशेषताओं पर ध्यान रखते हुए शिशु-विभाग को संचालित करेंगे। इसके लिए चाहिए परिचालकों में धैर्य , पवित्रता, पवित्रता , अध्यवसाय और सर्वोपरि चाहिए - प्यार भरा दिल मीठी जुबाँ। प्रेम परस्पर के बीच एकता लाता है, प्रेम ही संघ की बुनियाद है। स्वामीजी से जब ठाकुर देव के विषय में बोलने को कहा गया तब उन्होंने कहा था, 'ठाकुर को यदि एक शब्द में व्यक्त करना हो, तो कहना पड़ेगा - घनीभूत प्रेम !' ठाकुर के प्रेम की बात याद करने से स्वामीजी भावविव्हल हो जाते थे। वे कहते थे - हम सभी गुरुभाई उनके प्रेम के कशिश -आकर्षण में बन्ध गए थे। यह उनका प्रेम ही था जो हमलोगों का सब कुछ दूर करके उनके पास खींच लाया था। उसी प्रकार स्वामीजी के प्रेम की बात कहते हुए स्वामी सदानन्द जी महाराज आँखों से अश्रु बहाते हुए कहते थे , उनका प्रेम माँ-बाप के प्रेम से बी ही कहीं ज्यादा ऊपर था। पैरों में दर्द के कारण चल नहीं पा रहा था, तब स्वामीजी ने मेरी मोटरी, जूते सबकुछ को अपने सिर पर रखकर पहाड़ी रास्तों पर चलते थे। ठाकुर गले में दर्द के कारण कुछ खा नहीं पा रहे हैं , फिर भी माँ से अपने कष्ट के विषय में कुछ कहते नहीं हैं। किन्तु नरेन् की दुःख-कष्ट की बात जानने के बाद जो उनके पास आता उससे ही नरेन् के लिए कुछ करने के लिए कहते हैं। यहां तक कि माँ काली के सामने खड़े होकर भी नरेन् का कष्ट दूर हो इसके लिए प्रार्थना करते हैं। इसी प्रेम ने श्रीरामकृष्ण मठ और मिशन को स्थायी बना दिया है। 

महामण्डल शिशु-विभाग के परिचालक भी यदि प्रत्येक बच्चे को इसीप्रकार प्रेम दे सकें , कोई शिशु दूर नहीं जा सकेगा , परिचालक का दास हो जायेगा। परिचालक ह्रदय में यदि प्रेम हो , तो पद के लिए मोह , हिंसा या ईर्ष्या के लिए वहाँ कोई स्थान नहीं होगा। सरल भाषा में कहें तो महामण्डल का शिशु विभाग तभी सफल होगा जब परिचालक लोग महामण्डल के भाव को आत्मसात करने की चेष्टा करेंगे। यही सफलता की कुंजी है और समस्त रोगों की रामबाण औषधि है। 

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6.

 शिशु-विभाग का पाठचक्र 

पाठचक्र क्या है ? यह है मन का व्यायाम। जिस प्रकार देह को स्वस्थ रखने के लिए पौष्टिक आहार और व्यायाम की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मन को पौष्टिक आहार देने और ह्रदय के आवेग (emotion या भावतरंगों EQ और SQ) को नियंत्रित करने के लिए मन का व्यायाम करना आवश्यक है। खेलकूद, पीटी, पैरेड, अभिनयगीत , जयघोष, किस्से -कहानीयां इत्यादि के माध्यम से बच्चों के जीवन-गठन के लिए बहुमूल्य सामग्री - नैतिक शिक्षा और आदर्श के साथ तादात्म्य स्थापित करने से जो कार्य होता है, उसे और भी अच्छे ढंग से करने के लिए पाठचक्र की व्यवस्था करना आवश्यक है। संक्षेप में कहें तो -बच्चों के मन को आदर्शोन्मुख (Ideal oriented) रूप से विकसित करने के लिए पाठचक्र की आवश्यकता होती है। बार बार सुनते सुनते, और मनन करते करते बार बार इस विषय का अभ्यास करते हुए आदत जब प्रवृत्ति बन जाती है , तब कोई भी कार्य स्वाभाविक और स्वचालित ढंग से होने लगता है। और सीखने की चाह जब आदत बनकर चित्त में प्रविष्ट हो कर संस्कृति का हिस्सा बन जाती है तब भाव दृढ़ होता है।   
पाठचक्र की पद्धति : सप्ताह में एक दिन नियमित रूप से निश्चित समय और वार (दिन) में पाठचक्र होगा। बच्चों की संख्या यदि अधिक हो तो उनको बाँट कर पाठचक्र करने से अच्छा होगा। पाठचक्र में बच्चों के बीच जो अपेक्षाकृत छोटे हैं , उनको सामने तथा बड़ों को पीछे बैठाना होगा। शांत, जिम्मदार और अपेक्षाकृत बड़े दो-तीन बच्चों को छोटे बच्चों के बीच बैठाना होगा। ऐसा करने से पाठचक्र को नियंत्रित रखने में सुविधा होती है। परिचालक बच्चों के सामने और थोड़ा ऊँचा पर बैठें तो अच्छा होगा। परिचालक के पीछे एक बेंच या कुर्सी पर स्वामीजी का चित्र रखना अच्छा होता है। चित्र को ऐसी जगह पर रखना चाहिए ताकि सभी बच्चे उस चित्र को देख सकें। 
सभी लोग जब ठीक से बैठ जायेंगे तब, संघगीत - 'एक साथ चलेंगे , एक बात बोलेंगे ' को समवेत स्वर में गाया जायेगा। उसके बाद निम्नलिखित गीतों में कोई एक गीत गाया जायेगा। एक ही गीत चार/पाँच पाठचक्र में होगा। उसके बाद एक दूसरा गीत भी इसी प्रकार गाया जायेगा। इसके फलस्वरूप सभी गीतों को गाने की आदत सबों में आ जाएगी। जो गीत गाये जायेंगे वे इस प्रकार हैं - " तेज तुम तेज दो", " हे ईश्वर हमारी रक्षा करो ", " हम हैं सभी , माँ के बेटे" , " माँ हमें मनुष्य बना दे , यह विनती तेरे चरणों में " इत्यादि। इसके बाद स्वदेशमन्त्र का पाठ होगा। स्वदेशमन्त्र पाठ करने के बाद कुछ सेकण्ड के लिए स्वदेशमन्त्र में उल्लिखित शब्दों पर या स्वामीजी पर मनन करेंगे। उसके बाद पाठचक्र के विषय का पाठ होगा। सब से अन्त में गीत होगा - " असत राह से मुझे सत राह पर लो, ज्ञानालोक से मन का अँधेरा हटाओ ' , इस गाने को समवेत स्वर में गाने के बाद पाठचक्र समाप्त होगा। 
 बच्चों के पाठचक्र में पुराणों, उपनिषदों से श्रेष्ठ और अनुकरणीय चरित्र (exemplary characters) वाले पात्रों की कथाओं को इस प्रकार सुनाना होगा कि, उन पात्रों के त्याग और सेवापरायणता जैसे गुणों की छाप बच्चों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ें। उदाहरण के लिए - जब रामायण से रामचन्द्रजी की कहानी सुनाई जाये तो, उस समय के कुछ घटनाओं का वर्णन इस ढंग से करना चाहिए ताकि रामजी की की पितृभक्ति, सत्यनिष्ठा, त्याग और कर्त्तव्यपरायणता आदि प्रसंग एक तस्वीर की तरह उन बालकों के दिलो-दिमाग में (चित्त में) बैठ जाये। उसी तरह भरत जी की भ्रातृ भक्ति, त्याग , हनुमान जी की आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास, तेज , प्रभु-भक्ति; माँ सीता की पवित्रता , धैर्य , त्याग आदि प्रसंगों को भी चित्ताकर्षक करके सुनाना होगा। बच्चों में प्रचलित किस्से-कहानियों का (शीत -बसन्त, कौआ हकनि आदि का)  शिशुमन पर गहरा छाप नहीं पड़ता है। इसकारण से शिशु-विभाग के पाठचक्र परिचालना के लिए परिचालकों को स्वयं स्वाध्याय आदि करना , उनपर मनन-चिंतन करना आवश्यक है। बिना पूर्व तैयारी किये तत्काल कुछ सुना देने से विशेष लाभ नहीं होता है। क्योंकि तब उसके भीतर पाठचक्र के नेता /शिक्षक के विचारों में कोई गहराई नहीं होती, फलस्वरूप उनकी कहानी बच्चों के ह्रदय को छू नहीं पाती। 
पाठचक्र के संचालक साधारण तौर से यदि निम्नलिखित क्रम में पाठचक्र संचालित करें तो उसका परिणाम अच्छा हो सकता है - 
1. श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द के जीवन की छोटी-छोटी उपाख्यानात्मक किस्से -कहानियाँ, जिसके भीतर गदाधर से रामकृष्ण बनने में प्रयास की घटनाएं हों , छोटे से गाँव सरल , बिना पढ़ी-लिखी सारू से जगतजननी बन जाने , सब की माँ सारदा बन जाने , या नटखट बिले से जिज्ञासु नरेन्द्रनाथ, एवं नरेन्द्रनाथ से स्वामी विवेकानन्द में रूपान्तरित होने के प्रयास के प्रति उनकी स्वरुप-जागरूकता की आदत, प्रवृत्ति से संस्कार बनने का संकेत हों। उनके जीवन की उन घटनाओं को लोकशिक्षा के लिए अवतार-लीला कहा जाता है , किन्तु हमारे लिए उन घटाओं (हुक्का पीना आदि) को सुनना , मनन करके उसके सार उपदेश को आत्मसात करना, और फिर जीवन में उसकी आदत बनाकर संस्कार में परिणत करने की चेष्टा ही प्रत्येक शिशु के जीवन को चरित्रवान मनुष्य में रूपांतरित कर देंगे।
2. श्रीराकृष्ण के उपदेश और कथाएं , माँ के द्वारा कही गयी कहानी , स्वामीजी के उपदेश और कहानियाँ जो भी कही गयीं है - उन सबके भीतर जो शिक्षा है, उस पर चर्चा करने से हमलोग कैसे -उन्नत मनुष्य या देवमानव बन सकेंगे यह सब बताना होगा।  
3. उपनिषदों की कथायें , भागवत की कहानियाँ और उन कहानियों का तात्पर्य बच्चो को समझाना होगा। 
4. रामायण, महाभारत से ली गयी कथाएं। लेकिन उनमें से बच्चो के लिए जितना उपयुक्त हों केवल उतने ही हिस्से को चुनकर कहना होगा। इसके पहले वैसे कुछ कहानियों के विषय में लिखा जा चुका है। उनके अलावा लक्ष्मण की भ्रातृभक्ति , श्रवण की कहानी, राजा हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता और त्याग , एकलव्य की कहानी, रानी मदालसा की कहानी, याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी की कहानी, नचिकेता और यम जैसी कहानियों को सुनाना चाहिए। 
5. पुराण, पंचतन्त्र, हितोपदेश , कथासरित्सागर , जातक कथायें , ईसप की कहानियाँ, द होली मैन, बिशप्स कैंडल स्टिक्स, कैसाबियांका, सेल्फिश जाइंट आदि। 
 [(कक्षा 9 का अंग्रेजी/हिन्दी  साहित्य रीडर - बिशप कैंडलस्टिक्सकी कहानी, आकाशदीप (कहानी संग्रह) जयशंकर प्रसाद ) हार की जीत', 'एथेंस का सत्यार्थी' (सुदर्शन)उसने जब सत्य को देखा उसकी आँखें चौंधिया गई। जब यह कहानी सुनी तब इसकी गूढ़ता समझ से परे थी,आखिर कौन सा सत्य इतना चमकीला हो सकता है कि  कोई उसे देख ही न सके ? देखना चाहे तो, न चाहते हुए भी आँखें बंद हो जाएँ। एथेंस का सत्यार्थी तो अँधा हो गया था … तात्पर्य यह कि सच को देखने का साहस नहीं होता, कहने में तो शब्दों का तोड़-मरोड़ होता ही है तो सब सही रहता है।पर उम्र के हर पायदान पर इस सत्यार्थी ने एक नया नजरिया दिया। 
...... अब देवकुलीश फिर मूर्ति के चरणों में बैठा था और फिर उसी तरह बालकों के सदृश रो-रोकर प्रार्थना कर रहा था, मानो वह संगमरमर की मूर्ति न थी, इस दुनिया की जीती-जागती स्त्री थी, जो सुनती भी है, जवाब 'भी देती है। बुद्धिमान देवकुलीश ने पागलपन के आवेश में कहा—आज की रात फ़ैसले की रात है। ऐ ज्ञान और विवेक की रानी। तूने मेरे दिल में जिज्ञासा की आग सुलगाई है, तू ही उसे सत्य के शीतल जल से, शाँत कर सकती है। वह सत्य कहाँ है?—-अजर, अमर, अटल सत्य! वह सत्य जिसपर बुद्धिमान लोग शास्त्रार्थ करते हैं, जिसका पंडित चिंतन करते हैं, जिसे लोग एकांत में तलाश करते हैं, मंदिरों में ढूँढते हैं, जिसके लिए दूर-दूर भटकते हैं। मैं वह उच्च कोटि का सत्य देखने का अभिलाषी हूँ। 

नहीं तो मैं चाँद की उज्वल चाँदनी के सामने तेरे पैरों की सौगंध खाकर कहता हूँ, कि अपने निरर्थक जीवन को यहीं, इसी जगह समाप्त कर दूँगा। मुझे सत्यहीन जीवन की कोई आवश्यकता नहीं।यह कहकर देवकुलीश ने अपनी चादर के अंदर से एक कटार निकाली और आत्महत्या करने को तैयार हो गया।एकाएक सफ़ेद पत्थर की मूर्ति सजीव हो गई। उसने देवकुलीश के हाथ से कटार छीन ली, उसे आँगन के एक अँधेरे कोने में फेंक दिया और कहा...देवकुलीश।

--बहादुर सत्यार्थी ने देवी का कहना न माना और आगे बढ़ा। उसका कलेजा धड़क रहा था, उसके पाँव लड़खडा रहे थे, उसके हाथ काँप रहे थे, उसका सिर चकरा रहा था, मगर वह फिर भी आगे बढ़ा। उसने अपनी आत्मा और शरीर की सारी शक्तियाँ हाथों में जमा की और उन्हें फैलाकर सत्य का अंतिम परदा फाड़ दिया। 
ओ परमात्मा!... चारो ओर अंधकार छा गया था;  उसने चिल्लाकर कहा—-देवी माता! यह क्या हो गया? मुझे कुछ दिखाई नहीं देता, वह जो परदे के पीछे था, कहाँ चला गया? ( ऐसा भयानक अंधकार, जैसा इससे पूर्व देवकुलीश ने कभी न देखा था। प्रलय घट चुका था, अहं था ही नहीं केवल एकत्व की अनुभूति थी )  समाधि से लौट आने पर देवी ने (C-IN-C, गुरु मुख से) मधुर स्वर से कहा—-देवकुलीश! देवकुलीश!!देवकुलीश ने अँधेरे में टटोलते हुए कहा—-देवी! मुझे बता, वह कहाँ है? मैं कहाँ हूँ, तू कहाँ है? देवी ने अपना, हाथ धीरे से उसके कंधे पर रखा और जवाब दिया—देवकुलीश! उस सच्चिदानन्द के साथ एकत्व की अनुभूति तुम्हें नहीं आत्मा को हुई थी। मैं वापस कैसे आया ? मेरी तो एकदम इच्छा नहीं थी , मैं तो परमानन्द में डूबा हुआ था , माँ ने जबरदस्ती मुझे भेजा ? दादा ने कहा - शायद तुम्हारी ही इच्छा रही होगी इसीलिए तुम लौट आये ! तुम्हारा काम बाकी था।  तब तुम्हारी संसारी आँखें नंगे सत्य का दृश्य देखने में असमर्थ होने के कारण फूट गईं। ज्ञानमयी दृष्टि से ब्रह्ममय जगत को देखो ,  अब संसार की कोई शक्ति ऐसी नहीं, जो उन् पुरानी आँखों को  ठीक कर सके। ]  

उपरोक्त कथाओं का उल्लेख केवल दो प्रकार के सत्य होते हैं, इसकी धारणा को नेता के मन में स्पष्ट करने के उद्देश्य से कही गयी है।  एक है - इन्द्रियगोचर सत्य , जैसे  चन्द्रयान 3 द्वारा प्राप्त ज्ञान, जिसको विज्ञान कहते हैं, जो उसके द्वारा प्राप्त सूचनाओं का विश्लेषण करते हैं उन्हें वैज्ञानिक कहते हैं। और दूसरा सत्य है - इन्द्रियातीत सत्य , उस सत्य का जिसको अनुभव होता है उसको ऋषि , और उस सत्य को वेद कहते हैं। लेकिन इस तरह की कहानी समझने की पात्रता किसमें है , कितने लड़कों में है -यह सब समझबूझकर ही बच्चों को उनके समझ में आने के लायक कहानी ही सुनानी चाहिए।   
महामण्डल के 'Be and Make' वेदान्त लीडरशिप (C-IN-C)  -ट्रेनिंग परम्परा' का मर्म समझने के लिए, पाठचक्र के नेता /परिचालक के लिए इन सब के अतिरक्त कई अन्य पुस्तकों का अध्यन खाली समय में अवश्य पढ़ना चाहिए। जैसे - 'भारत कल्याण ', स्वामीजी का राष्ट्र को आह्वान ', तरुणों का स्वप्न', महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम', ' चिन्ता और काज', चरित्र-गठन , जीवन गठन , मनःसंयोग ', स्वामी विवेकानन्द और युवा आन्दोलन', विवेक-जीवन ' विवेक-अंजन के सभी सम्पादकीय तथा अन्य महामण्डल पुस्तिकाओं को भी बार बार पढ़ना और उसपर मनन करना जरुरी है। इन सबके आलावा महामण्डल के परिचालकों /नेताओं को विवेकानन्द साहित्य के 10 खण्डों को या उनमेसे कमसेकम -स्वामी शिष्य संवाद', पत्रावली ', भारतीय व्याख्यान ', इन सबके साथ ही साथ श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द की जीवनी , माँ सारदा की जीवनी भी बीच बिच में पढ़ते रहना चाहिए। 
यद्यपि बच्चो के पाठचक्र में गंभीर विषयों पर चर्चा करना  विशेष प्रभावी नहीं होता है। तथापि बीच बीच में महामण्डल के शिशु -विभाग का उद्देश्य , मनःसंयोग आदि विषय पर चर्चा करते हुए समझाने की जरूरत है। पाठचक्र के अन्त में बच्चे लोग प्रश्न पूछ सकते हैं , या परिचालक स्वयं बच्चों से उस दिन की चर्चा या कहानी के ऊपर जिज्ञासा करके उनसे उत्तर पाना चाहें तब पाठचक्र के प्रति बच्चों में आकर्षण बढ़ता है। बच्चों के बीच प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता (Quiz competition) का आयोजन करते रहने से भी इस ओर बच्चों की रूचि बढ़ती है। 
'विवेक -वाहिनी ' के सभी कार्यों को संचालित करने की जिम्मवारी केवल उसके संचालक पर है , ऐसा सोचना ठीक नहीं। यह दायित्व उस स्थान के महामण्डल केन्द्र का है। हो सकता है कि विवेक-वाहिनी का जो परिचालक मैदान में खेलकूद या पीटी पैरेड अच्छीतरह से कराता हो , वह बच्चों का पाठचक्र कक्षा का संचालन उतनी अच्छीतरह से नहीं कर पाता हो। इसलिए स्थानीय केंद्र के किसी अन्य कर्मी को आगे बढ़कर स्वयं उसका दायित्व ले लेना चाहिए। महामण्डल के सचिव या  करिकारिणी के अन्य सदस्यों के लिए छोटे बच्चों खेलकूद इत्यादि के समय मैदान में या पाठचक्र में उपस्थित रहना बहुत आवश्यक है। जितना हो सके उतनी सहायता करना चाहिए , या निर्देश देना चाहिए या सही ढंग से काम हो रहा है कि नहीं इस बातों पर दोतीन वरिष्ठ कर्मियों को अवश्य नजर रखनी चाहिए। परिचालक लोग शिशु-विभाग का सही परिचालन करने के लिए निःसन्देह स्वयं को अच्छी तरह निर्मित चेष्टा करेंगे। लेकिन कैसे उनका व्यक्तित्व और प्रभावकारी बनेगा इस विषय में भी वरिष्ठ सदस्य दिशानिर्देश देते रहना आवश्यक है।  
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7. 

🔱🙏मनःसंयोग का महत्व और बच्चों के लिए मनःसंयोग की पद्धति🔱🙏 

जीवन-गठन में मन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। शिक्षा पर चर्चा करते हुए स्वामी जी ने कहा है - " हमारे देश में शिक्षा के विषय में बच्चे की अपनी राय का कोई महत्व नहीं है। शिक्षा का अर्थ मन का (यानि चित्त-मन -बुद्धि -अहंकार का) सुव्यवस्थित विकास है। मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की एकाग्रता (concentration- तन्मयता या समाधि) प्राप्त करना है, तथ्यों का संकलन नहीं। यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा आरम्भ करनी हो और इसमें मेरा वश चले, तो मैं तथ्यों का अध्यन कदापि न करता । बल्कि मैं अपने मन को इच्छानुसार किसी विषय पर लगाने और एक क्षण में वहाँ से खींच लेने का सामर्थ्य बढ़ाता और मन रूपी यंत्र पर पूर्णतः अपना नियत्रण स्थापित कर लेने के बाद उसके माध्यम से इच्छानुसार आवश्यक तथ्यों का संकलन करता।
 बालकों में मन को एकाग्र करने और अनासक्त करने का सामर्थ्य एक साथ विकसित होना चाहिए। हम में वह सामर्थ्य विकसित होना चाहिए कि हम अपनी इच्छानुसार (विवेक-प्रयोग करने के बाद) अपना मन किसी वस्तु पर नियोजित करें। न कि वस्तुएँ (Milk Chocolate) हमारे मन को बरबस अपनी ओर खींच लें। अक्सर हमारा मन विवश होकर विभिन्न गैर जरुरी वस्तुओं ( जैसे Milk Chocolate) पर उनके किसी आकर्षक विषय आसक्त होने कारण इस प्रकार अटक जाता है कि हम उसका प्रतिरोध नहीं कर पाते। मन को वश में करने , अभीष्ट स्थान पर उसे लगाने के लिए विशेष प्रशिक्षण [निर्जनवास] की आवश्यकता पड़ती है। दूसरे किसी तरीके से यह नहीं हो सकता। धर्म की साधना में (अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने में ) हमें मन को मन पर एकाग्र करना पड़ता है।
[एकाग्रता और श्वास-प्रश्वास क्रिया-४, १०९> Concentration and Breathing/ vol 6/)] 
             
यदि मन को एकाग्र करने की शक्ति हममें नहीं हो , तो कोई भी कार्य न्याय-संगत (fair) और सुन्दर ढंग से सम्पादित नहीं हो सकता। कुछ भी करने , देखने , सुनने या किसी विषय के बारे में कुछ जानने या उसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसमें मन को लगाना ही पड़ता है। जो व्यक्ति जितनी अच्छीतरह से मन लगा सकता है , उसका कार्य उतना ही अच्छा होता है। किन्तु किसी कार्य में मन को लगाने के लिए, मन को अपने वश में रखना जरुरी है। जिसके लिए विधिपूर्वक एकाग्रता का अभ्यास करना आवश्यक है। विज्ञान की दृष्टि से दो भिन्न छात्रों में मेधा (बुद्धि की तीक्ष्णता) का जो पार्थक्य होता है - वह उनके मन की एकाग्रता शक्ति के तारतम्य के कारण ही होता है। 
 इसीलिए महामण्डल के शिशु- विभाग में समग्र विकास की दृष्टि से मनःसंयोग (Mindfulness-स्वरूप चैतन्य) का अभ्यास करना आवश्यक है। मनःसंयोग का अभ्यास दो बार निर्दिष्ट समय पर करना (सुबह नींद से उठने के बाद और रात में सोने से पहले) आवश्यक है। मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिये बैठते ही सर्वप्रथम सभी के मंगल की प्रार्थना - 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' [और वसुधैव कुटुम्बकम'] वाक्य को मन ही मन कई बार कहना होगा। उसके बाद मनःसंयोग का अभ्यास करना होगा। 
मनःसंयोग (माइंडफुलनेस) की कई विधियाँ हैं। किन्तु बच्चों को मनःसंयोग सिखलाने के लिए महामण्डल में एक सरल विधि विकसित की गई है। महामण्डल के सभी शिशु-विभागों में उसी पद्धति से बच्चों को मनःसंयोग का अभ्यास सीखना आवश्यक है। क्योंकि शिशु विभाग में विभिन्न उम्र के और विभिन्न कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे रहते हैं। उम्र में अन्तर के अनुसार बच्चों के मन की क्षमता में जो तारतम्य रहता है , उसी तारतम्य के अनुसार मन को शान्त और स्थिर करने की विधि भी अलग-अलग होनी चाहिए। 

पाँच वर्ष की आयु से नौ वर्ष की आयु के बच्चे या कक्षा चार तक पढ़ने वाले बच्चे ऑंखें बन्द करके सबों के मंगल की प्रार्थना करने के बाद आँखों को बन्द करके बैठे रहेंगे। और मन ही मन 1 से 60 तक गिनती करेंगे , उसके बाद प्रार्थना करेंगे - ज्ञान दो, भक्ति दो, पवित्रता दो , मुझे मनुष्य बनाओ ! 
10 से 14 वर्ष के उम्र के बच्चे अर्थात पाँचवीं से आठवीं कक्षा तक भाई -बहन ऑंखें मूँदकर सभीके लिए मंगल प्रार्थना करने के बाद स्वामीजी या श्रीश्री माँ सारदा देवी के चित्र को थोड़ी देर तक देखेंगे , उसके बाद आँखों को मूँदकर भी उसी चित्र को देखने की चेष्टा करेंगे। अन्त में मन ही मन प्रार्थना करेंगे। 
 इससे अधिक उम्र के, अर्थात 15 वर्ष से अधिक उम्र के किशोर भैया लोग -  भी 'मनःसंयोग ' की पुस्तिका के अनुसार ही मनःसंयोग का अभ्यास करेंगे।  और जो पाठचक्र का संचालन करेंगे उनको मनःसंयोग ' पुस्तिका अच्छी तरह बार बार पढ़ना आवश्यक होगा। 
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8. 

बाल विभाग को संचालित करने में उसके नेता/
शिक्षक/परिचालक को क्या लाभ होगा ?  

शिशु विभाग के परिचालक यदि स्वयं अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने का प्रयास करें , तो शिशु विभाग भी सफल होगा। अपने जीवन को सुन्दर रूप गढ़ने के लिए परिचालक लोगों को स्वामीजी के निम्नलिखित शिक्षाओं (महावाक्यों को) याद रखनी आवश्यक है । 
1.'বিষয়ীকে পরিবর্তন কর , বিষয়ও পরিবর্তিত হইয়া যাইবে। ', নিজেকে পবিত্র কর , তাহা হইলে জগৎ পবিত্র হইতে বাধ্য হইবে। '
स्वामी एक जगह कहते हैं - आत्मपरिवर्तन के साथ वस्तुपरिवर्तन अवश्यम्भावी है; अपने को पवित्र कर लो , संसार का पवित्र होना अवश्यम्भावी है। [समत्व में विशेषाधिकार की बात कहाँ ? ]  "Change the subject, and the object is bound to change; purify yourself, and the world is bound to be purified. "---(Vedanta And Privilege) 
 तुममें से जिन लोगों ने गीता उन्हें यह स्मरणीय उद्धरण याद होगा-
 
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5.18।।

(विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ १८ ॥) 
सचमुच वही ऋषि और पण्डित है जो विद्या तथा विनय से युक्त ब्राह्मण, गाय , हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में समदृष्टि रखता है। 

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5.19।।

इह एव तैः जितः सर्गः येषां साम्ये स्थितं मनः निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ १९ ॥
जिसकी ज्ञानमयी दृष्टि (बुद्धि) इस प्रकार समत्वभाव में स्थित है,  उनके द्वारा यहीं पर यह सर्ग जीत लिया जाता है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष है और सम है, इसलिये जो समदर्शी और निर्दोष हैं , वे ब्रह्म में ही स्थित कहे जाते हैं।।
वेदान्ती नैतिकता का यही सारांश है - सबके प्रति साम्य।  प्रश्न यह है कि मैं दूसरों में दोष क्यों देखूं ? जब तक मैं दोषमय न हो जाऊँ, तब तक मैं दोष नहीं देख सकता।  हम यह देख चुके हैं द्रष्टामन (Subjective mind -Seer) दृश्य मन (Objective mind- Seen मन और शरीर) पर शासन करता है ! विषयी को बदलो विषय (Milk Chocolate) में आसक्ति भी बदलने के लिए बाध्य है। दृष्टि बदल जाने पर नज़ारे भी बदल जाने को बाध्य हैं।  [वेदान्त और विशेषाधिकार/खण्ड ९ -१०३]
  
दृष्टिं ज्ञानमयीं  कृत्वा पश्येद्  ब्रह्ममयं जगत् ' 
देहबुद्धया तु दासोऽहं  जीवबुद्धया त्वदंशक
आत्मबुद्धया  त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥ 

ज्ञानमय दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए--देहबुद्धिसे तो मैं दास हूँ, जीवबुद्धिसे आपका अंश ही हूँ और  आत्मबुद्धि से में वही हूँ जो आप हैं, यही मेरी निश्चित मति है॥  

" दुनिया तभी पवित्र और अच्छी हो सकती है , जब हम स्वयं पवित्र और अच्छे हों। वह कार्य है और हम हैं उसके कारण। इसलिए आओ, हम अपने को पवित्र बना लें। आओ, हम अपने आप को पूर्ण बना लें। "     

2."ঠাকুর , মা ও স্বামীজীর জীবন ও বাণী অনুসরণ করে ভিতের মানুষটিকে গড়ে তোলা প্রয়োজন। '
-- ठाकुर, माँ और स्वामी जी के जीवन और उपदेशों का अनुसरण करते हुए अपने अंदर के मनुष्य को विकसित करना जरूरी है। '[ कच्चा मैं M/F नामरूप में सम्मोहित मन को पक्का' मैं', अर्थात 'दास मैं' में- विकसित करना जरुरी है, अर्थात व्यष्टि अहं को सबकी माँ सारदा के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपान्तरित करना जरुरी है।
3. 'যা কিছু দেখ , যা কিছু কর , তা মহামণ্ডলের ভাবধারায় আচ্ছাদিত করে দেখো বা কর।'
जो कुछ भी देखो , या जो कुछ करो वह महामण्डल की विचारधारा- 'ब्रह्म ही जगत बना है ' (ॐ ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।) अर्थात जगत को उसी 'प्रेममय' (नवनीदा) से ढँक कर देखो, और शिव ज्ञान से जीव सेवा करो ! 
  
4. 'যদি তুমি ঈশ্বরের ব্যক্তরূপ - তোমার ভাইকে উপাসনা না করতে পার , তবে অন্য কোথাও অন্য কোন উপাসনা বিশ্বাসযোগ্য নয়। ' 

" यदि तुम ईश्वर का व्यक्तरूप अपने भाई [बहन-बहनोई, मैनेजर और उसके ससुर तथा पुत्र] की उपासना नहीं कर सकते, तो तुम उस ईश्वर की उपासना कैसे करोगे जो अव्यक्त है ? " 

" मनुष्य शरीर में स्थित मानवात्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है। हाँ, पशु आदि भी भगवान के मन्दिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है - ताजमहल जैसा। यदि मैं उनकी उपासना नहीं कर सका तो किसी भी मन्दिर से कुछ भी उपकार नहीं। (व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-)    

5. মনকে উচ্চ আদর্শে পূর্ন কর। সর্বদা এই আদর্শ সম্মুখ রাখ ও চিন্তা কর। মাসের পর মাস , বছরের পর বছর ঐ আদর্শের কথা ভাবতে থাক। এই -ই একমাত্র উপায়। আদর্শের আত্তীকরণ , আদর্শস্বরূপ হয়ে যাওয়া - এই -ই শেষ কথা। ' 

" एक विचार (महावाक्य) लो; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ – उसी का चिन्तन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसीमें जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क, स्नायु, शरीर के सर्वाङ्ग उसीके विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है; और इसी उपाय से बड़े बड़े धर्मवीरों की उत्पत्ति हुई है। शेष सब तो बातें करने वाले यन्त्र मात्र है। यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें, तो हमें गहराई तक जाना होगा।
 (राज योग) 

" संसार में दुःख का मुख्य कारण भय ही है, यही सब से बड़ा भ्रम है, यह भय हमारे दुःखों का कारण है, और यह निर्भीकता है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है। अतएव, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।’

सब से पहले हमें अपने देश की आध्यात्मिक और लौकिक शिक्षा का भार ग्रहण करना होगा। क्या तुम इस बात की सार्थकता को समझ रहें हो ? तुम्हें इस विषय पर सोचना-विचारना होगा, इस पर तर्क-वितर्क और आपस में परामर्श करना होगा, दिमाग लगाना होगा और अन्तः में उसे कार्य रूप में परिणत करना होगा। जबतक तुम यह काम पूरा नहीं करते हो, तब तक तुम्हारे देश का उद्धार होना असम्भव है।

प्राचीन काल में भारत में त्याग ही की विजय थी, अब भी भारत में इसे विजय प्राप्त करना है। यह त्याग भारत के आदर्शों में अब भी सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च है। यह बुद्ध की भूमि, रामानुज की भूमि, रामकृष्ण की भूमि, त्याग की भूमि है।

धीरज धरो, न धन से काम होता है। न नाम से; न यश काम आता है, न विद्या; परम ही से सब कुछ होता है। चरित्र ही कठिनाइयों की संगीन दीवारें तोड़कर अपना रास्ता बना लेते है।

जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो–उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो। सत्य की ज्योति ‘बुद्धिमान’ मनुष्यों के लिए यदि अत्यधिक मात्रा में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्हें बहा ले जाती है, तो ले जाने दो; वे जितना शीघ्र बह जाएँ उतना अच्छा ही हैं।

मैं अपने देश से प्रेम करता हूँ; मैं तुम्हें और अधिक पतित और ज्यादा कमजोर नहीं देख सकता। अतएव तुम्हारे कल्याण के लिए, सत्य के लिए जिससे मेरी जाति और अधिक अवनत न हो जाय, इसलिए मैं जोर से चिल्लाकर कहने के लिए बाध्य हो रहा हूँ – बस ठहरो। अवनति की ओर और न बढ़ो – जहाँ तक गये हो, बस उतना ही काफी हो चुका। … उपनिषद् के सत्य तुम्हारे सामने हैं। इनका अवलम्बन करो, इनकी उपलब्धि कर इन्हें कार्य में परिणत करो। बस देखोगे, भारत का उद्धार निश्चित है।

किसी से लड़ने झगड़ने की आवश्यकता नहीं है। अपना संदेशा दे दो तथा औरों को अपने अपने भाव लेकर रहने दो। सत्यमेव जयते नानृतम्  – “सत्य की ही जय होती है असत्य की नहीं”, तदा किं विवादेन – तब क्यों लड़ते हो ?

धर्म  का रहस्य  तत्व  की  बातों  में  नहीं — बल्कि  आचरण  में  है ।  सत्चरित्र  होना एवं  सत्  कार्य  करना  इसमें  ही  समस्त  धर्म  है ।  जो  केवल  प्रभु   प्रभु  कहकर  रोता  चिल्लाता  है  वह  धार्मिक  नहीं  बल्कि जो  ईश्वर  की  इच्छानुसार   कार्य  करता  है  वही  ठीक  ठीक धार्मिक  है ।

 हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का धयान रखिये कि आप क्या सोचते हैं। शब्द गौण हैं। विचार रहते हैं, वे दूर तक यात्रा करते हैं ।

शक्ति जीवन है, निर्बलता मृत्यु हैं। विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु हैं। प्रेम जीवन है, द्वेष मृत्यु हैं।

“जब तक जीना, तब तक सीखना” – अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक हैं।

एक विचार लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो – उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जियो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सफल होने का तरीका हैं।
[साभार https://www.swamivivekananda.guru/2019/07/19/hindi-quotes-of-swami-vivekananda/

और जब इस भाव से अनुप्रेरित होकर शिशु-विभाग के परिचालक जब मैदान में खेलने के लिए आये प्रत्येक बच्चे को इस रूप में, जैसे पूजा के समय देवता बुद्धि से स्वयं ठाकुर, माँ और स्वामीजी को ही देखते हुए - 'इहा, गच्छ -इहा तिष्ठ' आमन्त्रित करेंगे -और इस प्रकार की  दृष्टि से ब्रह्ममय जगत देखते हुए शिशु -विभाग को संचालित करेंगे, तब वे मिट्टी, पत्थर या लकड़ी से बनी मूर्ति की पूजा किये बिना , मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर गए बिना भी , वे स्वयं देवता (देवमानव) में रूपान्तरित हो जायेंगे। इसीको मनुष्य से देवता बन जाने की साधना कहते हैं। परिचालक बनने का लाभ इसी में है। और इसी शिशु-विभाग में शनिवार, 4 सितंबर, 1893. स्वामीजी द्वारा  (प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट), को लिखित एक पत्र में लिखित कविता  - 'Quest for God' में कथित इस पंक्ति का वास्तविक क्रियान्वयन हो जाता है -  " When innocent children laugh and play, I see Thee standing by.'जब मासूम बच्चे हंसते-खेलते हैं तो मैं तुम्हें उनके पास खड़ा देखता हूं। ' 
" सारी शिक्षा तथा समस्त प्रशिक्षण का एकमात्र उद्देश्य मनुष्य का निर्माण होना चाहिए। परन्तु यह न करके, केवल हम बाहर को चमकाने की ही कोशिश किया करते हैं। जहाँ व्यक्तित्व  का ही अभाव है, वहाँ सिर्फ बहिरंग पर पानी चढ़ाने का प्रयत्न करने से क्या लाभ ? सारी शिक्षा का ध्येय है आदमी में मनुष्यत्व का उन्मेष अथवा विकास।  वैसे मनुष्य का निर्माण  जो अपना प्रभाव सब पर डालता है, जो अपने संगियों पर जादू  (magic) सा कर देता है, जो शक्ति का एक महान केन्द्र (dynamo) है, और जब वह मनुष्य तैयार हो जाता है, वह  [ब्रह्मविद]  जो चाहे कर सकता है। उस नेता का व्यक्तित्व (मनुष्यत्व) चाहे जिस जीव पर अपना प्रभाव डालता है , उसी वस्तु को कार्यशील बना देता है। "  ४/१७२   
      
[আর এইরকম পরিচালক যখন শিশু বিভাগ পরিচালনা করবেন , যখন খেলতে আসা প্রত্যেকটি শিশু কে ঠাকুর-মা -স্বামীজী- ই এই শিশুরূপ ধরে খেলতে এসেছেন - ভাবতে ভাবতে শিশু বিভাগ পরিচালনা করবেন ,তখন মাটি-কাঠ -পাথরের মূর্তিতে পুজো না করেও বা মন্দির -মসজিদ -গির্জায় না গিয়েও তিনি দেবতা হয়ে যাবেন। এ হল মানুষ থেকে দেবতা হয়ে ওঠার সাধনা। পরিচালকের এইখানেই লাভ। ' যখন নিষ্পাপ শিশুরা হাসে ও খেলে আমি দেখি তুমি দাঁড়িয়ে আছো তাদের পাশে। ' তখনই হবে স্বামীজীর এই পংক্তিটির বাস্তব রূপায়ন।
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9.
 शिशु-विभाग के संचालन में शाखा सचिव, 
महामंडल कार्यकारिणी के सदस्य
  एवं परिचालकों के कार्य एवं उत्तरदायित्व। 

महामण्डल के सदस्यों को जैसे महामण्डल कर्मी कहा जाता है, उसी प्रकार जो महामण्डल कर्मी महामण्डल के शिशु-विभाग की परिचालना करते हैं उसको विवेक-वाहिनी का परिचालक या शिशु-विभाग का परिचालक कहा जा सकता है। आवश्यक्तानुसार किसी शाखा के इन परिचालकों की संख्या एक से अधिक हो सकती है। 
महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य की ओर नजर रखकर जीवन गठन के माध्यम से समाज गठन एवं  काम के प्रति समर्पित सभी लोगों को एकत्रित करने की चेष्टा करने के लिए महामण्डल द्वारा विभिन्न विधियां बताई गई हैं।  उनमें से एक है बालक- विभाग का संचालन। शिशु विभाग के परिचालन का दायित्व एक से अधिक विशिष्ट कार्यकर्ताओं पर सौंपे जाने का अर्थ यह नहीं है कि, वे महामण्डल कर्मी के रूप में एक विशिष्ट पोज़िशन के अधिकारी हैं। लेकिन यह कहा जा सकता है - यदि आप शिशु विभाग के प्रबंधन की जिम्मेदारी को निष्ठा और श्रद्धा के साथ पूरा करने का प्रयास करेंगे, तो आपका अपना जीवन गठन अधिक सफल हो सकता है। इसी कारण वे लोग [तरुण -मनोरंजन ] अपने को अधिक भाग्यशाली समझ सकते हैं। फिर शिशु -विभाग का सारा काम परिचालक को ही करना होगा - ऐसा सोचने का भी कोई कारण नहीं है। हो सकता है पाठचक्र का संचालन कोई ऐसा व्यक्ति करे जो इसके लिए उपयुक्त हों , तथा पीटी पैरेड आदि कोई दूसरे व्यक्ति करवाएं जो इस विषय में निपुण हों - ऐसा होना ही स्वाभाविक है। 

'विवेक-वाहिनी ' के परिचालक की जिम्मेदारी बहुत बड़ी है। वमें ह हमेशा बच्चों के सामने रहते हैं, इसीलिए उनके आचार व्यवहार , बातचीत का ढंग , कपड़े इत्यादि सब कुछ को बच्चे हर पल  नोटिस करते रहते हैं। फिर बच्चों के विभाग का संचालन करते करते, उसके भीतर संघ परिचालन के गुण भी विकसित होते हैं और उनका व्यक्तित्व एक नेता/शिक्षक के रूप में विकसित हो जाता है। ऐसे में उनके परिचालक का गुण उनको शिशु-विभाग से महामंडल के आदर्श कर्मी के रूप में गढ़ देता है,और महामंडल को और भी अधिक शक्तिशाली बना देते हैं। अर्थात शिशु विभाग का कार्य महामण्डल के समग्र कार्य का ही एक अंश है , किन्तु बहुत महत्वपूर्ण है। महामण्डल के समस्त कर्मियों के सहयोग से ही शिशु-विभाग और भी सुन्दरतर या आदर्श शिशु-विभाग के रूप खड़ा हो सकता है। 
किन्तु कर्मियों में परस्परिक सहयोग तभी सम्भव होगा , जब सभी कर्मियों में महामण्डल का आदर्श और उद्देश्य के विषय में सम्यक धारणा हो, सभी कर्मी इस दृष्टिकोण को जीवन के सभी गतिविधियों में हर क्षण प्रयोग में लाने का प्रयास करते हों, और आदर्श जीवन या आदर्श कर्मी के रूप में अपने जीवन को गठित करने के लिए दृढ़ संकल्पित हो। जहाँ  जीवन गठन ही हमारे सभी कार्यों का मुख्य स्वर- या वादी स्वर हो , वहाँ महामंडल के अन्य कर्मी, परिचालक या सचिव कोई भी अपने अपने क्षेत्र में अधिक महत्वपूर्ण या कम महत्वपूर्ण बिल्कुल नहीं हैं।  
महामण्डल के कर्मियों में से कोई हो सकता है पाठचक्र की जिम्मेदारी संभालते हों, कोई शिशु वभाग के परिचालक हों , कोई पुस्तकालय -वाचनालय के प्रभारी हों , कोई हो सकता है सांस्कृतिक कार्यकर्मों के आयोजन पर कार्य करते हों। कोई बालकों को पैरेड पीटी करवाने की जिम्मदारी पाते हैं , कोई अभिनय गीत और जयघोष बोलना सिखाते हैं , कोई कर्मी खेलकूद सिखलाने में दक्ष होते हैं - [रासबिहारी और अपूर्व] | इसलिए शिशु -विभाग की परिचालना का कार्य , और महामण्डल के अन्य प्रभाग की जिम्मेदारी लेना दो अलग-अलग बंद कमरों की तरह नहीं हैं। जिम्मेदारियों का ऐसा विभाजन केवल एक सांगठनिक अनुशासन का हिस्सा भर है। 

शाखा के सचिव को ही शिशु-विभाग के परिचालन के साथ महामण्डल के समस्त कार्यों के लिए उत्तरदायी समझा जायेगा। अतः सचिव को ही महामण्डल के समस्त विभागों एवं कार्यों के प्रबंधक एवं संयोजक (coordinator) समझा जायेगा। इसी कारण अन्य सभी विभागों के जैसे शिशु-विभाग के परिचालक भी शाखा सचिव के निर्देश एवं परामर्श के अनुसार कार्य करेंगे। परिचालक यदि कोई नवीन विचार या योजना बनाएंगे तो उसकी सूचना शाखा सचिव को अवश्य देंगे। और सचिव यह तय करेंगे कि योजना महामण्डल की कार्यपद्धति के अनुरूप और उचित है या नहीं , उसको कार्यान्वित करना सम्भव है या नहीं , यह सब सोच-समझकर परिचालक को बतलायेंगे। आवश्यकता होने से सचिव दूसरे कर्मी लोगों से , या कार्यकरणीं समिति के साथ चर्चा कर सकते हैं। केंद्रीय संस्था के साथ संपर्क रखना , चिट्ठी-पत्री देना , चन्दा माँगना , रसीद देना , केंद्रीय संस्था को रिपोर्ट भेजना , अभिभावक लोगों के साथ बातचीत करना , अभिभावकों की मीटिंग बुलाना , हिसाब-किताब रखना , सब चीज की जिम्मवारी सचिव पर होगी। फिर कार्यकारणी समिति को योजना की जानकारी देने आर्य भी सचिव का होगा। इसीलिए किसी भी कर्मी को योग्य समझकर परिचालक का दायित्व भी जैसे सचिव उठाएंगे, उसी प्रकार सचिव चाहें तो परिचालक से दायित्वभार लेकर किसी अन्य कर्मी को भी दे सकते हैं। इसके पीछे उनका उद्देश्य केवल यह होगा कि शाखा महामण्डल के आदर्श ,उद्देश्य और कार्यपद्धति के अनुसार ही, उचित तरीके से  प्रबंधित हो सके, और क्रमशः एक आदर्श शिशु-विभाग में परिणत हो जाये। 
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किशोर विकास वाहिनी

[महामंडल का किशोर प्रभाग] 

(नियम एवं संचालन पद्धति )

1967 में जब अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का गठन हुआ तो उस समय हमलोगों ने अपने कार्य क्षेत्र को केवल युवा वर्ग के बीच काम करने तक ही सीमित रखने का विचार किया था। लेकिन जैसे-जैसे महामण्डल के केंद्रों की संख्या में वृद्धि होती गयी, हमलोगों ने यह महसूस किया कि, मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णता या दिव्यता (ब्रह्मत्व) को प्रस्फुटित करके सम्पूर्ण भारत में स्वामी जी के मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा 'Be and Make ' का प्रचार प्रसार करते हुए आगे बढ़ने के लिए हमारे पास पर्याप्त संख्या में युवा नहीं हैं। 

क्योंकि युवावस्था यानी 18 वर्ष की आयु तक पहुँचने से पहले उनमें से अधिकांश  शिशुओं को (बालक-बालिकाओं को) श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा देवी या स्वामी विवेकानन्द, जैसे महान (जीवन्मुक्त) शिक्षक, मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, आचार्य / या पैगम्बरों के संपर्क में आने का अवसर नहीं मिलता, फलस्वरूप बाहर से उनके जीवन पर कुछ आक्रमण आता है, जिसके कारण उनके जीवन में (चित्त में) गहराई तक कुछ विपरीत गुण या दुर्गुण प्रविष्ट हो जाती हैं, जिन्हें समझकर दूर करना अनिवार्य हो जाता है। नहीं तो इसके परिणामस्वरूप, तार्किक रूप से इस प्रकार के महान विचारों को- जैंसे 'ईमानदार और चरित्रवान नागरिक ही देश को महान बनाते हैं 'आदि को स्वीकार करने के बावजूद, उम्र बढ़ जाने के बाद इन्हें अपने जीवन में धारण करना अधिकांश लोगों को बहुत कठिन प्रतीत होता है। इसलिए वे महामण्डल से जुड़ने में कठिनाई महसूस करते हैं। 

लड़कों के लिए विवेक वाहिनी की "नियमावली एवं संचालन पद्धति " पुस्तिका में कहा गया है कि 14 साल से अधिक उम्र के लड़के यदि चाहें तो महामण्डल के स्थानीय केंद्रों में शामिल हो सकते हैं, और यदि वहां के विवेक-वाहिनी प्रभारी (Vivek-Vahini Incharge) उचित समझें तो उन्हें विवेक वाहिनी संचालक की जिम्मेदारी उन्हें सौंप सकते हैं।

अतएव स्वामी विवेकानन्द को अपने जीवन का ध्रुवतारा मानकर आदर्शोन्मुख जीवन गठन  (Ideal-oriented life building) की विचारधारा (Pole Star-"चन्द्र टरै, सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार। पर दृढ़ संकल्पी श्री हरिश्चन्द्र के टरै न सत्य विचार।। की विचारधारा" )  को बड़ी संख्या में युवाओं के जीवन में प्रविष्ट करवाने अथवा, शिशु नरेन्द्रनाथ (बिले) के जीवन के साँचे में अपने जीवन को ढालने के लिए  बचपन से ही उनके जीवन और शिक्षाओं के सानिध्य में रहना आवश्यक होता है। 

अतः 1978 से विभिन्न स्थानों के महामंडल केन्द्रों के कार्य में शिशु-विभाग (विवेक-वाहिनी) को भी सम्मिलित कर लिया गया। महामण्डल के शिशु वर्ग में शामिल होने की आयु सीमा लड़कियों के लिए 12 वर्ष और लड़कों के लिए 14 वर्ष निर्धारित किया गया है। 12 वर्ष से अधिक उम्र की बालिकायें जिन स्थानों पर महामण्डल भावधारा में आधारित 'सारदा नारी संगठन' के केन्द्र स्थापित हैं वहां के साप्ताहिक पाठचक्र आदि में शामिल हो सकती हैं।

यद्यपि 15 वर्ष से लेकर 18 वर्ष तक के कम आयु के लड़कों के लिए जिन्हें आमतौर पर किशोर कहा जाता है, उनके के लिए पाठचक्र और जीवन-गठन में सहायता देने वाले कार्यक्रमों (Life-shaping accessory programs) के लिए अलग से कोई विशिष्ट दिशा-निर्देश नहीं दी गयी  हैं। तथापि , महामण्डल कई केंद्रों में अब किशोरों के लिए भी अलग से पाठचक्र चलाने की व्यवस्था की जा रही है। और ताकि किशोर आयु वर्ग के लिए उपयुक्त विभिन्न कार्यक्रमों को अपनाकर इन्हें हर जगह समान रूप से संचालित किया जा सके और  किशोरों पर विशेष जोर और ध्यान दिया जा सके। 

अतएव महामण्डल के द्वारा एक अलग 'किशोर प्रभाग' की योजना बनाई गई है। उसी के तर्ज पर प्रत्येक महामण्डल केन्द्र में जैसा कि शिशु विभाग चलाने के लिये कहा जाता है, वैसे ही एक किशोर विभाग स्थापित करना भी आवश्यक है। क्योंकि यह  किशोरावस्था  [पौगंड या कैशोर / बालकृष्ण भट्ट - गद्य कोश] केवल शारीरिक कारणों से ही यौवन की दहलीज नहीं है -किन्तु यह मानसिक गठन और चरित्र निर्माण के लिए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण समय है।   

>>>Hormonal changes during adolescence. कैशोर अवस्था में शरीर में जो हार्मोनल चेंज होता है। उसके  विषय में  [ ‘चरित्र शोधन’ निबंध में भट्ट जी [श्री बालकृष्ण भट्ट (3 जून 1844 - 20 जुलाई 1914)  ने लिखा है –

 “चरित्र पालन सभ्यता का प्रधान अंग है। राष्ट्र की सच्ची तरक्की तभी कहलावेगी जब हर एक आदमी उस जाती या कौम के चरित्र संपन्न और भलमनसाहत की कसौटी में कसे हुए अपने को प्रकट कर सकते हों। भले (चरित्रवान) लोगों के चले हुए मार्ग पर चलने ही का नाम कानून, व्यवस्था या मोरालिटी है।”   भट्ट जी सच्चे अर्थों में देश भक्त थे। भारतेंदु की तरह उनमें राजभक्ति और देशभक्ति का द्वन्द्व नहीं था। राजभक्ति और भय का अंश उनमें लेशमात्र भी न था। राजभक्ति को वे क्षणिक सुख मानते थे जबकि देशभक्ति उनका परम लक्ष्य था। राजभक्ति और देशभक्ति के बीच अंतर करते हुए उन्होंने कहा कि ‘जिस प्रकार हँसना और गाल फुलाना, बहुरी चबाना और शहनाई बजाना एक साथ संभव नहीं है' - ठीक उसी प्रकार राजभक्ति और देशभक्ति भी  एक साथ संभव नहीं है।’ अपने विचार से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। अपनी रचनाओं में वे धर्म और अर्थ के नाम पर होने वाले लूट का सदा विरोध करते थे। देश का धन विदेश जा रहा था। देशी विकासमान शिक्षा और कुटीर उद्योग धंधों को बंद किया जा रहा था। विकास के नाम पर देशी संस्कृति को नष्ट कर लाभ केन्द्रित संस्कृति स्थापित की जा रही थी। इन सभी समकालीन स्थितियों का बेबाक चित्रण भट्ट जी के साहित्य में है। इन विषयों पर उनकी लेखन शैली कबीर की तरह तिलमिला देने वाली थी। भट्ट जी के इस तेवर को उनके राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन से संबंध रखने वाले निबंधों में देखा जा सकता है।

किशोरावस्था के जरूरी बदलाव जिन्हें समझना है बहुत जरूरी है। हार्मोन के वजह से इस वक्त शरीर में कई तरह के बदलाव होते हैं। एडोलसेंस में होने वाले इन शारीरिक बदलावों को प्यूबर्टी कहते हैं। लड़के और लड़कियां दोनों ही इस बदलाव से गुज़रते हैं।  लड़कियों में यह 12 और लड़कों में 13 साल की उम्र में शुरू हो जाती है।   हार्मोन की वजह से बच्चे के शरीर में कई बदलाव हो रहे हैं और इन बदलावों का असर ना सिर्फ उसके शरीर में  दिखता है बल्कि उसके व्यवहार में भी दिखता है। 

पेरेंट्स के लिए भी ये वक्त बड़ा नाजुक है। इस वक्त बच्चों को समझने के साथ साथ उन्हें समझाना भी अहम हो जाता है । अपने बच्चों को समझाएं कि शरीर में हो रहे यो बदलाव सामान्य हैं और हर कोई इस अवस्था से गुजरता है। अपने एक्सपीरियंस भी उन्हें बताएं और समझाएं कैसे उन्हें इन बदलावों को एक्सेप्ट करना है। उनके दोस्तों को घर बुलाएं, उनसे उनके तरह की बातें जैसे- गेम्स, फोम, लेटेस्ट मूवी आदि पर बातें करें और एक दोस्ताना व्यवहार रखें। कोशिश करें कि बच्चा आपसे कुछ ना छुपाये। वो आपसे कहे या ना कहे, लेकिन आपको यह समझना होगा कि बच्चे को आपके साथ की बहुत ज़रूरत है। इस वक्त आपके बच्चे नए लोगों के संपर्क में आ रहे हैं और इसी स्टेज में उनका ओपोजि़ट सेक्स की तरफ आकर्षण भी बढ़ता है। बच्चे को सही और गलत का ज्ञान देना, उन्हें उनकी सेक्सुअलिटी के बारे में खुलकर समझाना और सभी परिणामों से अवगत कराना बहुत ज़रूरी है। 

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परिशिष्ट

Appendix

विवेक वाहिनी के (37) अभिनय गीत तथा (16) जय घोष के तराने 


1. बोड़ो होबो , बोड़ो होबो , बोड़ो होबो भाई > बड़े होंगे, बड़े होंगे , बड़े बड़े होंगे भाई 


बड़े होंगे, बड़े होंगे , बड़े बड़े होंगे भाई। 

बड़ा होने  लिए आगे चरित्र ठीक चाई।।

चरित्र ठीक गढ़ना है , तो जायें हम कहाँ ?

विवेक-वाहिनी नाम वाला दल है जहाँ।।


छोटे-छोटे बच्चे सभी , चलें वहीँ भाई। 

बड़े होने के लिए पहले चरित्र ठीक चाई।।

इस वाहिनी के पीछे खड़ा , बड़ों का एक दल।  

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल।। 


स्वामीजी को आदर्श माने , नित्य करें कर्म। 

वहीं जाकर युवा सीखें , चरित्र माने धर्म।।

जीवन सफल करने हेतु , विकल्प नहीं भाई।

बड़े होने के लिए पहले चरित्र ठीक चाई।।


বড় হবো বড় হবো বড় হবো ভাই ,

বড় হতে গেলে আগে চরিত্র ঠিক চাই। 

চরিত্র ঠিক গড়তে হলে কোথায় জাবি বল ,

বিবেক-বাহিনী নাম রয়েছে এক দল। 

ছোটরা আজ সবাই মিলে চলো সেথায় যাই ,

বড় হতে গেলে আগে চরিত্র ঠিক চাই। 

এই বাহিনীর পিছে আছে বড়দের এক দল ,

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল। 

স্বামীজীর আদর্শে সেথায় নিত্য চলে কাজ ,

যুবকরা সব জড় হলো ভাইতো সেখায় আজ। 

জীবন সফল করতে তার বিকল্প নাই ,

বড় হতে গেলে আগে চরিত্র ঠিক চাই। 


2. सबार आगे स्वास्थ चाई , सबसे पहले स्वास्थ चाहिए 

सबसे पहले स्वास्थ चाहिये ,

आध्यात्मिक शक्ति चाहिए। 

उपासना ज्ञान से कर्म' मय जीवन चाई ,

पिता-माता-गुरु आज्ञा पालन करो भाई। 

देश के काम में मरें भाई, देश सेवा में लगें भाई।।

अभीः मन्त्र से दीक्षा हमारी , बाधा -बिघ्नों से भय नाई।। 

अल्ला गॉड भगवान एकई शक्ति जानी ताई।

स्वामीजी के आर्शीवाद से , मनुष्य हम सब होंगे भाई।। 


সবার আগে স্বাস্থ্য চাই ,

আধ্যাত্মিক শক্তি চাই। 

উপাসনা জ্ঞানে কর্মময় জীবন চাই। 

পিতামাতা গুরুজনদের কথামত চলব ভাই। 

দেশের কাজে মরতে চাই।।

দেশের সেবায় লাগতে চাই।।

অভিঃ মন্ত্রে দীক্ষা মোদের। 

বাধা বিঘ্নে ভয় নাই।।

নিজের দোষ দেখবো মোরা ,

পরের দোষে নজর নাই।।

আল্লা গড ভগবান 

একই শক্তি জানি ভাই।।

স্বামীজীর আশীর্বাদে 

মানুষ আমরা হবই ভাই।    

 

3. रविन्द्र संगीत -  आमरा सबाई राजा आमादेर एई राजार राजत्वे > (Amra Sobai Raja, আমরা সবাই রাজা) | Rabindranath Tagore/ स्वदेश /दादरा > 

हमारे इस राजा के शासनकाल में, हैं हम सभी राजा - 

नहीं तो  हम सब  राजा संग मिलते किस हैसियत (शक्ति) से ? 

जो हमें अच्छा लगता- हम वही हैं करते, 

फिर भी हम उसकी इच्छा का ही पालन हैं करते ! 

राजा के आतंक की डर से हम गुलामी नहीं करते, 

नहीं तो राजा संग हम सब मिलते किस हैसियत (शक्ति) से ?

राजा सेवा को महत्व देता है, वही मूल्य तुम्हें वापस मिलता है। 

हमें कोई (अविद्या माया) भी स्वयं को छोटा(असत्य यानि क्षणभंगुर शरीर) मानने के भ्रम से 'hypnotized' नहीं कर सकती । 

नहीं तो राजा संग हम सब मिलते किस हैसियत (शक्ति) से ?

हम सब चलेंगे अपने -अपने मत से , और अन्त में पहुँचेंगे सभी परम् सत्य में । 

असफलता के दुष्चक्र में (पंचभूत के फन्दे में फंसने से भी) कोई नहीं मरेगा -

नहीं तो राजा संग हम सब मिलेंगे किस हैसियत (शक्ति) से ?  


আমরা       সবাই রাজা আমাদের এই রাজার রাজত্বে--


              নইলে মোদের রাজার সনে মিলব কী স্বত্বে?।


আমরা       যা খুশি তাই করি,   তবু   তাঁর খুশিতেই চরি,


আমরা       নই বাঁধা নই দাসের রাজার ত্রাসের দাসত্বে--


              নইলে মোদের রাজার সনে মিলব কী স্বত্বে?।


রাজা         সবারে দেন মান,    সে মান    আপনি ফিরে পান,


মোদের      খাটো ক'রে রাখে নি কেউ কোনো অসত্যে--


              নইলে মোদের রাজার সনে মিলব কী স্বত্বে?


আমরা       চলব আপন মতে,    শেষে     মিলব তাঁরি পথে,


মোরা        মরব না কেউ বিফলতার বিষম আবর্তে--


              নইলে মোদের রাজার সনে মিলব কী স্বত্বে?।


4.यदि तोर डाक सुने केउ ना आसे तबे एकला चलो रे >

यदि तुम्हारी पुकार कोई न सुने, तो अकेले चलो रे । 

अकेले चलो, अकेले चलो, अकेले चलो, अकेले चलो। रे 

यदि कोई तुमसे बात न करे , अरे,ओ-ओ बदकिस्मत ; 

अगर हर कोई ले मुँह फेर, हर कोई करे भय - 

तब मुँह खोल , जी भर कर 

अपने मन की बात अरे तुम, अकेला बोलो रे।। 

यदि सभी साथ छोड़ दें, अरे,ओ-ओ बदकिस्मत ; 

यदि गहन मार्ग से जाते समय, कोई मुड़ के न देखे ;

और रस्ते में काँटे गड़े ; 

तब तुम उसी रक्तरंजित पैरों से अकेला बढ़ो रे। 

यदि अग्नि नहीं पकड़े, तो अरे,ओ-ओ बदकिस्मत ; 

और घनी अँधेरी रात में तूफान दरवाजे पर दस्तक दे -

तब बज्राग्नि से पसलियों को जलाओ,   

और अपने सीने को ताने , अकेले जलो रे ।


যদি তোর   ডাক শুনে কেউ না আসে   তবে   একলা চলো রে।

একলা চলো,   একলা চলো,   একলা চলো,   একলা চলো রে ॥

যদি   কেউ কথা না কয়,   ওরে ওরে ও অভাগা,

যদি   সবাই থাকে মুখ ফিরায়ে   সবাই করে ভয়--

                   তবে   পরান খুলে


ও তুই   মুখ ফুটে তোর মনের কথা   একলা বলো রে ॥

যদি   সবাই ফিরে যায়,   ওরে ওরে ও অভাগা,

যদি   গহন পথে যাবার কালে কেউ ফিরে না চায়--

                   তবে   পথের কাঁটা

ও তুই   রক্তমাখা চরণতলে   একলা দলো রে ॥

যদি   আলো না ধরে,   ওরে ওরে ও অভাগা,

যদি   ঝড়-বাদলে আঁধার রাতে   দুয়ার দেয় ঘরে--

                   তবে   বজ্রানলে

আপন   বুকের পাঁজর জ্বালিয়ে নিয়ে   একলা জ্বলো রে ॥

--রবীন্দ্রনাথ     

5. शीर्षक: धन्-धान्य पूष्प भरा आमादेर एई वसुन्धरा >  /कलाकार: समवेत स्वर  /गीतकार: द्विजेंद्रलाल रॉय/ संगीतकार: द्विजेंद्रलाल रॉय 

धन-धान्य पुष्प-परिपूर्ण, हमारी यह वसुन्धरा,

उसके भीतर एक देश है ऐसा, जो सभी देशों में सर्वश्रेष्ठ है।  

और सपनों से बना वो देश गौरवशाली स्मृतियों से है घिरी हुई। 

कोरस: ऐसा देश आपको ढूँढ़ने से भी कहीं मिलेगा नहीं ,

समस्त देशों की जो रानी है , वो है मेरी जन्मभूमि; वो  है मेरी जन्मभूमि।।  

चाँद, सूरज, ग्रह, तारे, इतने चमकीले और कहाँ चमकते हैं?

ऐसी दामिनी और कहाँ दमकती है , 

इतने काले बादल और कहाँ उमड़ते हैं?

चिड़ियों की चहचाहट सुनके उसकी नींद से उठा ! जागा आँखे खोले।   

कोरस: ऐसा देश आपको ढूँढ़ने से भी कहीं मिलेगा नहीं ,

समस्त देशों की जो रानी है , वो है मेरी जन्मभूमि; वो  है मेरी जन्मभूमि।। 

 ऐसी मीठी नदियाँ कहाँ है, कहाँ है ऐसे काले पहाड़,

 ऐसा हरा-भरा मैदान कहाँ , जहाँ आकाश धरती से मिलता है,

दूसरा कोई देश ऐसा कहाँ , जहाँ पवन धान पर ऐसे लहरें खेलता है।

कोरस: ऐसा देश आपको ढूँढ़ने से भी कहीं मिलेगा नहीं ,

समस्त देशों की जो रानी है , वो है मेरी जन्मभूमि; वो  है मेरी जन्मभूमि।। 

ढेरों -ढेर पुष्पों-फूलों  से भरी शाखाएँ हों, जहाँ बाग -बगीचे में पक्षी गाते हों,

जिसे देख गुँजन करते भँवरे (अली)  आते हों ,

और उन पुष्पों का मधु पीकर उसी पर सो जाते हों - 

कोरस: ऐसा देश आपको ढूँढ़ने से भी कहीं मिलेगा नहीं ,

समस्त देशों की जो रानी है , वो है मेरी जन्मभूमि; वो  है मेरी जन्मभूमि।। 

भाई- माँ 'ई से इतना प्यार -? - कोई कहाँ जाके देखे ?

हे भारत माँ ! तुम्हारे दो चरण मेरे हृदय में रहें। 

वर दो मुझे , जन्म मेरा जिस देश में हुआ , उसी देश में मरुँ !  

कोरस: ऐसा देश आपको ढूँढ़ने से भी कहीं मिलेगा नहीं ,

समस्त देशों की जो रानी है , वो है मेरी जन्मभूमि; वो  है मेरी जन्मभूमि।। 

द्विजेन्द्र गीति 

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ধন ধান্য পুষ্প ভরা

                 -- দ্বিজেন্দ্রলাল রায়

ধনধান্য পুষ্প ভরা আমাদের এই বসুন্ধরা

তাহার মাঝে আছে দেশ এক সকল দেশের সেরা

ও সে স্বপ্ন দিয়ে তৈরি সে দেশ স্মৃতি দিয়ে ঘেরা

এমন দেশটি কোথাও খুঁজে পাবে নাকো তুমি

ও সে সকল দেশের রাণী সে যে আমার জন্মভূমি

সে যে আমার জন্মভূমি, সে যে আমার জন্মভূমি।।


চন্দ্র সূর্য গ্রহতারা, কোথায় উজল এমন ধারা

কোথায় এমন খেলে তড়িৎ এমন কালো মেঘে

তার পাখির ডাকে ঘুমিয়ে উঠি পাখির ডাকে জেগে।।


এত স্নিগ্ধ নদী কাহার, কোথায় এমন ধুম্র পাহাড়

কোথায় এমন হরিত ক্ষেত্র আকাশ তলে মেশে

এমন ধানের উপর ঢেউ খেলে যায় বাতাস কাহার দেশে ।।


পুষ্পে পুষ্পে ভরা শাখি কুঞ্জে কুঞ্জে গাহে পাখি

গুঞ্জরিয়া আসে অলি পুঞ্জে পুঞ্জে ধেয়ে

তারা ফুলের ওপর ঘুমিয়ে পড়ে ফুলের মধু খেয়ে।।


ভায়ের মায়ের এত স্নেহ কোথায় গেলে পাবে কেহ

ওমা তোমার চরণ দুটি বক্ষে আমার ধরি

আমার এই দেশেতে জন্ম যেন এই দেশেতে মরি।।

গীতিকারঃ দ্বিজেন্দ্রলাল রায়

6. विश्वसाथे योगे जेथाय विहारो , सेईखाने योग तोमार साथै आमारओ !  

जहाँ कहीं आप विश्व के साथ एकता में हैं, वहीं पर आपके साथ मेरा योग भी है। 

नहीं तो वन में, न अरण्य में, और नहीं मेरे अपने मन में ।

तुम जहाँ हो सबके प्रिय , उसी मूर्ति में तुम मेरे भी प्रिय हो।  


हर किसी का आलिंगन करने के लिए , तुम अपने बाहु जब फैलाते हो, 

उसी के भीतर प्रेम मेरा जागेगा , और मुझे भी उससे प्यार हो जाएगा। 

प्यार गुप्त नहीं रहता, घर में हो - तो भी नहीं, रोशनी की तरह फैलता है -

तुम सबके लिए आनन्द की वस्तु हो - हे मेरे प्रिय, 

तुम्हारे आनन्द में ही मेरा भी आनन्द है।

*****

বিশ্বসাথে যোগে যেথায় বিহারো

      সেইখানে যোগ তোমার সাথে আমারও॥

নয়কো বনে, নয় বিজনে               নয়কো আমার আপন মনে--

সবার যেথায় আপন তুমি, হে প্রিয়,    সেথায় আপন আমারও॥

        সবার পানে যেথায় বাহু পসারো,

        সেইখানেতেই প্রেম জাগিবে আমারও।

গোপনে প্রেম রয় না ঘরে,        আলোর মতো ছড়িয়ে পড়ে--

সবার তুমি আনন্দধন,হে প্রিয়,      আনন্দ সেই আমারও॥

7. शुभ कर्मपथे धर' निर्भय गान। सब दुर्बल संशय होक अवसान।   

शुभ कर्मों के पथ से, गाओ निर्भीक गान। 

सब दुर्बल संशय , करो अवसान।  

শুভ     কর্মপথে ধর' নির্ভয় গান।

সব      দুর্বল সংশয় হোক অবসান।

চির-    শক্তির নির্ঝর নিত্য ঝরে

লহ'          সে অভিষেক ললাট'পরে।

তব     জাগ্রত নির্মল নূতন প্রাণ

ত্যাগব্রতে নিক দীক্ষা,

বিঘ্ন হতে নিক শিক্ষা--

নিষ্ঠুর সঙ্কট দিক সম্মান।

দুঃখই হোক তব বিত্ত মহান।

চল' যাত্রী, চল' দিনরাত্রি--

কর' অমৃতলোকপথ অনুসন্ধান।

জড়তাতামস হও উত্তীর্ণ,

ক্লান্তিজাল কর' দীর্ণ বিদীর্ণ--

দিন-অন্তে অপরাজিত চিত্তে

মৃত্যুতরণ তীর্থে কর' স্নান ॥

-  রবীন্দ্রনাথ 

8. होउ धरमे'ते धीर होउ करमें'ते बीर , होउ उन्नत सिर नाहि भय।   
 অতুল প্রাসাদ গান 
দেশগান : 
হও ধরমেতে ধীর  হও করমেতে বীর ,
হও উন্নত শির নাহি ভয়। 
ভুলি ভেদাভেদ জ্ঞান হও সবে আগুয়ান , 
সাথে আছে ভগবান হবে জয়।। 
তেত্রিশ কোটি মোরা নহি কভু ক্ষীণ, 
হতে পারি দীন , তবু নহি মোরা হীন ; 
ভারতে জনম , পুনঃ আসিবে সুদিন -
ওই দেখো প্রভাত-উদয় ,
ওই দেখো প্রভাত-উদয়।।
নানা ভাষা , নানা মত , নানা পরিধান ,
বিবিধের মাঝে দেখো মিলন মহান ;
দেখিয়া ভারতে মহা জাতির উত্থান ,
জগজন মানিবে বিস্ময় ,
জগজন মানিবে বিস্ময়। 
ন্যায় বিরাজিত যাদের করে ,
বিঘ্ন পরাজিত তাদের শরে ;
সাম্য কভু নাহি স্বার্থে ডরে। 
সত্যের নাহি পরাজয়, 
সত্যের নাহি পরাজয়। 
9 . उठो गो भारत लक्खी , उठो आदि -जगत - जन -पूज्या,  

 উঠো গো ভারত-লক্ষ্মী,
উঠো আদি-জগত-জন-পূজ্যা,
উঠো গো ভারত-লক্ষ্মী,
উঠো আদি-জগত-জন-পূজ্যা,
দুঃখ দৈন্য সব নাশি
করো দূরিত ভারত-লজ্জা,
ছাড়ো গো ছাড়ো শোকশয্যা,
কর সজ্জা
পুনঃ কমল-কনক-ধন-ধান্যে। 

জননী গো, লহো তুলে বক্ষে
সান্ত্বন-বাস দেহ তুলে চক্ষে,
কাঁদিছে তব চরণতলে
ত্রিংশতি কোটি নরনারী গো।

কাণ্ডারী নাহিক কমলা
দুঃখলাঞ্ছিত ভারতবর্ষে,
শঙ্কিত মোরা সব যাত্রী
কালসাগর-কম্পন-দর্শে,
তোমার অভয়-পদ-স্পর্শে, নব হর্ষে,
পুনঃ চলিবে তরণী শুভ লক্ষ্যে।

জননী গো, লহো তুলে বক্ষে
সান্ত্বন-বাস দেহ তুলে চক্ষে;
কাঁদিছে তব চরণতলে
ত্রিংশতি কোটি নরনারী গো।

ভারত-শ্মশান করো পূর্ণ
পুনঃ কোকিল-কূজিত কুঞ্জে,
দ্বেষ-হিংসা করি চূর্ণ
করো পূরিত প্রেম-অলি-গুঞ্জে,
দূরিত করি পাপ-পুঞ্জে, তপঃ-তুঞ্জে
পুনঃ বিমল করো ভারত পুণ্যে।

জননী গো, লহো তুলে বক্ষে,
সান্ত্বন-বাস দেহ তুলে চক্ষে;
কাঁদিছে তব চরণতলে
ত্রিংশতি কোটি নরনারী গো।

জননী দেহ তব পদে ভক্তি 
দেহ নব আশা, দেহ নব শক্তি,
এক সূর্যে করো বন্ধন আজ 
ত্রিংশতি কোটি দেশবাসী জনে। 

10. आगुनेर परशमणि छोआओ प्राणे। ए जीवन पुण्य करो दहन -दाने। 
আগুনের পরশমনি ছোঁয়াও প্রাণে। 
এ জীবন পুন্য করো দহন -দানে। 
আমার এই দেহখানি তুলে ধরো ,
তোমার ওই দেবালয়ের প্রদীপ করো -
নিশিদিন আলোক -শিক্ষা জ্বলুক গানে। 
আঁধারের গায়ে গায়ে পরশ তব,
সারা রাত ফোটাক তারা নব নব। 
নয়নের দৃষ্টি হতে ঘুচবে কালো , 
যেখানে পড়বে সেথায় দেখবে আলো -
ব্যথা মোর উঠবে জ্বলে ঊর্ধ্ব-পানে।। 
--রবীন্দ্রনাথ
11. चल रे चल देशेर काजे चल, पोल्ली मोदेर डाके आये रे छूटे आये।
धीचांग  धीचांग बोले उठलो मोदेर विवेक-दल , आये छुटे सोकोले एई मोदेर विवेक -दोले। .....  
12. तोमारी गेहे पालीचो स्नेहे , तुमि धन्य धन्य हे। आमार प्राणे तोमारी दान ,  तुमि धन्य धन्य हे। 
তোমারি গেহে পালিছ স্নেহে , তুমি ধন্য ধন্য হে। 
আমার প্রাণে তোমারি দান , তুমি ধন্য ধন্য হে। 
পিতার বক্ষে রেখছো মোরে, জনম দিয়েছ জননী ক্রোড়ে ,
বেঁধেছ সখার প্রনয়ভরে, তুমি ধন্য ধন্য হে। 
তোমার বিশাল বিপুল ভুবন করেছ আমার নয়ন লোভন -
হৃদয় -বাহিরে স্বদেশে--বিদেশে যুগ -যুগান্তে নিমেষে -নিমেষে ,
জনমে -মরনে শোকে-আনন্দে তুমি ধন্য ধন্য হে|  
--रविन्द्र संगीत। 
13. कहेन स्वामी विवेकानन्द नतून भारत बेर होक !
.....  कण्ठे तादेर होउक ध्वनित - वाह गुरु की फतेह ! 
-ध्रुव चौधरी

কহেন  স্বামী বিবেকানন্দ 
নতুন ভারত বের হোক। 
বের হোক লাঙ্গল ধরে ,
চাষার কুটির ভেদি। 
জেলা মালা মুচি আর ,
মেথরের ঝুপড়ি থেকে , 
তারা বের হোক। 
নতুন ভারত বের হোক। 
বের হোক তারা 
মুদির দোকান থেকে ,
কলকারখানা আর ভুনাওয়ালার 
উনুনের পাশ থেকে বের হোক 
হাট বাজার থেকে বের হোক ;
ঝোড় জঙ্গল পাহাড় থেকে 
তারা বের হোক। 
কণ্ঠে তাদের হউক ধ্বনিত 
ওয়াহ গুরু কি ফতে।  ওয়াহ গুরু কি ফতে, ওয়াহ গুরু কি ফতে 
কহেন  স্বামী বিবেকানন্দ 
নতুন ভারত বের হোক। 
--ধ্রুব চৌধুরী    
14. मैसूर भजन -एकताल : आनन्द लोके मंगलालोके विराजो सत्य-सुन्दर। 
মহীশূরী ভজন /একতাল 
আনন্দলোকে মঙ্গলালোকে 
বিরাজ, সত্যসুন্দর।  
আনন্দলোকে মঙ্গলালোকে। ... 
মহিমা তব উদ্ভাসিত 

>>>15. हासिते खेलिते आसिनी ए जगते, करिते होबे मोदेर मायेरई साधना !   

आशा -
 
(भैरवी , कहरवा) 

हँसने खेलने - आया नहीं , इस जगत में !
 
करनी पड़ेगी  हमें माँ की ही साधना। 

दिखानी पड़ेगी आज -जगतवासी सब को ,

अभी भी गयी नहीं  रे,  भारत की चेतना ! 

हँसने खेलने - आया नहीं , इस जगत में ! 

गम्भीर ओंकार से इतने , हुँकार के पुकारो आज ,

आवाज सुनके तेरे सिहर उठे विश्व , धरती भी फ़टे जाक। 

हँसने खेलने - आया नहीं , इस जगत में ! 

हमारी यह जन्मभूमि देवताओं की लीलाभूमि ,

देवगण उतरें नीचे, पूर्ण करें कामना। 

सार्थक होगा तब ये मानव -जन्म सभीका ,

और बेटे पर गर्व से अपने , गौरवान्वित होगी भारत माता मेरी  । 

जगत मेरी भारत के चरणों में लौटेगा , जितनी देनदारी है मिटेगी।
 
और दास मुकुन्द की जो कामना बहुत दिनों से थी वो पूर्ण होगी ! 


আশা -ভৈরবী / কাহারবা 
হাসিতে খেলিতে আসিনি এ জগতে,
করিতে হবে মোদের মায়েরই সাধনা। 
দেখাতে হবে আজি জগৎবাসী সবে ,
এখনো ভারতের যায়নি রে চেতনা। 
গভীর ওঙ্কারে হুন্কারি দে রে ডাক ,
শিহরি উঠুক বিশ্ব , মেদিনীটা ফেটে যাক। 
আমাদের জন্মভূমি দেবতার লীলাভূমি ,
দেবগন আসুক , নেমে , পূর্ন হোক বাসনা। 
সার্থক হবে তবে এ জনম সবাকার ,
ছেলের গৌরবে হবে গরবিনী মা আমার। 
জগৎ লুটিয়ে পায়, ঘুচে যাবে যত দায় ,
মিটে যাবে মুকুন্দের চিরদিনের কামনা। 
--মুকুন্দ দাস। 

16. पुजार प्रदीप ज्वालिये राखिस , ह्रदय बेदिर माझे।
  
পূজার প্রদীপ জ্বালিয়ে রাখিস , হৃদয় বেদির মাঝে,
ভক্তি প্রেমের ধুপটি জ্বালাস , নিত্য সকাল সাঁঝে। 
পাবি যেদিন দুঃখ -ব্যথা , দেবতারি পালে নোয়াস মাথা , 
বলিস " তোমার ইচ্ছা ফলুক, আমার জীবন মাঝে। " 
আপনারে তার ভৃত্য রাখিস , তারে করিস রাজা ,
তার তরে তুই আসন পাতিস , ফুলের মালা সাজা। 
তবু যদি দেখা না পাস , চোখের জ্বলে বেদন জানাস। 
বলিস , " প্রিয় ! তোমার তরে এ দেহে প্রাণ আছে।  " 
- নির্মল বড়াল।

17. हे स्वामीजी ! आमरा युवक दल , तोमार आशीष , तोमार वाणी कोरेछि सम्बल। 

হে স্বামীজী ! আমরা যুবক দল , তোমার আশীষ তোমার বাণী করেছি সম্বল। 
তুমি মোদের ইষ্ট , তুমি চলার পথ। এই জীবনের লক্ষ্য তুমি, তুমি আলোর রথ। 
তুমি মোদের সকল আশা, দেহে নবীন বল। 
তোমার বাণী বক্ষে নিয়ে শপথ নিব , মাতৃভূমির কল্যানে জীবন সঁপিব ,
তাইতো মোরা তোমায় নমি , তোমার দুটি চরণ চুমি , মাতবো এই ধরণীতল। 
তোমার আশীষ তোমার বাণী করেছি সম্বল। 

18. मानुष होवार आन्दोलने मानुष होते चाई , मानुष होये जीवन तरे जीवन देबो भाई। 

মানুষ হওয়ার আন্দোলনে মানুষ হতে চাই, 
মানুষ হয়ে দেশের তরে জীবন দেব ভাই।   
এ আন্দোলন তোমার আমার একা কারোর নয়, 
সবাই মিলে এসো আজি মানুষ হতে যাই। 
অগ্নিমন্ত্রে দীক্ষা মোদের ভয় বা করি কারে ,
বীর সেনানী সবাই মোরা স্বামীজীর তরে। 
ডাক দিয়েছেন সেনাপতি আর দেরি নয় ভাই ,
এগিয়ে চল এগিয়ে এস দেশের কাজে যাই। 

19. ये पथे मोदेर रक्षा करो, 

20 . चले मस मस मस ,बां -डान मस मस , 
सबचेये भालो पा -गाड़ी। 
 
চলে মস মস মস 
বাঁ -ডান মস মস , 
সবচেয়ে ভাল পা গাড়ি। 
রেলেতে চড়ি না বড় ঝকমারি, 
ট্রামে -বাসে বড় ভিড় হয় মারামারি। 
মোটরেতে চড়ি না পেট্রোল নাই ,
ঘোড়াতে চড়ি না আমি পাছে পড়ে যাই। 
প্লেনেতে চড়ি না বড় তাড়াতাড়ি ,
দরদেতে চড়ি না ঘোড়ায় টানা গাড়ি। 
নৌকায় চড়ি না অতি ধীরে যায় ,
রিক্সা গরুর গাড়ির ঐ দশা হায়। 
টেক্সী চড়ি না আমি লাগে বেশি টাকা ,
চড়িতে জানি না হায় গাড়ী দুই চাকা।।

21. कारार ओई लौह कपाट , भेंगे फेल कोररे लोपाट। 

रक्त जमाट शिकल पूजोर पाषाण बेदी।      

A)
 
কারার ঐ লৌহ কপাট ,
ভেঙ্গে ফেল কররে লোপাট। 
রক্ত জমাট শিকল পুজোর পাষান বেদি। 
ওরে ও তরুণ ঈশান ,
বাজা তোর প্রলয় বিশান ,
ধ্বংস নিশান উড়ুক প্রাচী'র ভেদি। 
কারার ঐ লৌহ কপাট ,...... 


B) 

গাজনের বাজনা বাজা ,
কে মালিক ? কে সে রাজা ? 
কে দেয় সাজা , মুক্ত স্বাধীন সত্য কে রে ? 
কে দেয় সাজা , মুক্ত স্বাধীন সত্য কে রে ? 

হা হা হা পায় সে হাসি, 
ভগবান পরবে ফাঁসি ,
সর্বনাশী শিখায় এ হীন তথ্য কে রে ?

C) 
ওরে ও পাগলা ভোলা ,
দেরে দে প্রলয় দোলা ,
গারদগুলো জোরসে ধরে হেঁচকা টানে !
মার হাঁক হেরদী হাঁক ,
কাঁধে না দুন্দুভি চাক ,
ডাক ওরে ডাক মৃত্যুকে ডাক জীবন পানে। 

D ) 

কারার ঐ লৌহ কপাট ,
ভেঙ্গে ফেল কররে লোপাট। 

নাচে ঐ কাল রোশেখী , কাটাবি কাল বসে কি ?
দে রে দেখি ভীম কারার ঐ ভিত্তি নাড়ি। 
লাথি মার্ ভাঙরে তালা ,
যত সব বন্দী শালায় ,
আগুন জ্বালা , আগুন জ্বালা ,  ফেল উপাড়ি।  

- নজরুলগীতি 

22. बोलो बलो बलो सबे , शत वीणा वेणु रवे , 

भारत आबार जगत सभाय श्रेष्ठ आसन लबे। 

অতুল প্রসাদের গান > 

 দেশগান 

বোলো বোলো বোলো সবে , শত বীনা বেনু রবে ,
ভারত আবার জগৎ সভায় শ্রেষ্ঠ আসন লবে। 
ধর্মে মহান হবে , কর্মে মহান হবে ,
নব দিনমনি উদিবে আবার পুরাতন এ পুরবে।।

আজও গিরিরাজ রয়েছে প্রহরী,
ঘিরি তিন দিক নাচিছে লহরী ; 
যায়নি শুকায়ে গঙ্গা গোদাবরী ,
এখনও অমৃত বাহিনী।  

প্রতি প্রান্তর, প্রতি গুহা বন,
প্রতি জনপদ তীর্থ অগণন , 
কহিছে গৌরব কাহিনী।।

বোলো বোলো বোলো সবে , শত বীনা বেনু রবে ,


বিদুষী মৈত্রেয়ী খনা লীলাবতী ,
সতী সাবিত্রী সীতা অরুন্ধতী ,
বহু বীর বালা বীরেন্দ্র প্রসূতি ,-
আমরা তাঁদেরই সন্ততি। 

অনলে দহিয়া রাখে যারা মান ,
পতি পুত্র তরে সুখে ত্যজে প্রাণ ,
আমরা তাঁদেরই সন্ততি। 

বোলো বোলো বোলো সবে , শত বীনা বেনু রবে ,

ভোলেনি ভারত , ভোলেনি সেকথা,
অহিংসার বাণী উঠেছিল হেথা ;
নানক নিমাই করেছিল ভাই 
সকল ভারত -নন্দনে।    

ভুলি ধর্ম-দ্বেষ জাতি অভিমান , 
ত্রিশ কোটি দেহ হবে এক-প্রাণ, 
এক জাতি প্রেম -বন্ধনে।।

বোলো বোলো বোলো সবে , শত বীনা বেনু রবে ,

মোদের এদেশ নাহি রবে পিছে ,
ঋষি-রাজকুল জন্মে নি মিছে ;
দুদিনের তরে হীনতা সহিছে,
জাগিবে আবার জাগিবে।  

আসিবে শিল্প ধন বাণিজ্য ,
আসিবে বিদ্যা বিনয় বীর্য ,
আসিবে আবার যাইবে।।

বোলো বোলো বোলো সবে , শত বীনা বেনু রবে ,

এস হে কৃষক কুটির নিবাসী
 এসো অনার্য গিরি-বনবাসী ,
এসো হে সংসারী , এসো হে সন্ন্যাসী,
মিল হে মায়ের চরণে।  

এসো অবনত , এসো শিক্ষিত , 
পরহিত ব্রতে হইয়া দীক্ষিত ,
মিল ' হে মায়ের চরণে। 
ऐसो हे हिन्दू , ऐसो मुसलमान - 
এসো হে পারসী , বৌদ্ধ , খ্রীষ্টিয়ান ,
মিল ' হে মায়ের চরণে।।  

23. most pathetic condition of MAN 

संकोचेर विह्वलता निजेर अपमान ,

 संकटेर कल्पनाते होयो ना प्रियमान।  


রবীন্দ্র সংগীত 
স্বদেশ /দাদরা 

সঙ্কোচের বিহবলতা নিজের অপমান,
সঙ্কটের কল্পনাতে হয়ো না প্রিয়মান। 
মুক্ত করো ভয় , আপনা -মাঝে শক্তি ধরো , নিজের করো জয়। 
দুর্বলের রক্ষা করো , দুর্জনেরে হানো,
নিজেরে দীন নিঃসহায় যেন কভু না জানো। 
মুক্ত করো ভয় , নিজের 'পরে , করিতে তর না রেখো সংশয়। 
ধর্ম যাবে শঙ্খ রবে করিবে আহবান ,
নীরব হয়ে , নস্রু হয় , পন করিয়ো প্রাণ। 
মুক্ত কারো ভয় , দুরূহ কাজে নিজেরই দিয়ো কঠিন পরিচয়।।  

24. एक ही मत एक ही पथ , आमरा भाई भाई -   

তাল : কাহারবা 

একই মত , একই পথ , আমরা ভাই ভাই -
হিংসা দ্বেষ ভুলে , মোরা বাঁচতে সবাই চাই। 
মিলে মিশে স্ফূর্তি করে হাসি খেলি গান গাই -
গান গান , গাই গান। 

25. कन्याकुमारी -मन्दिरे माझे दाडाय मूरति विवेकानन्द।  

কন্যাকুমারী -মন্দিরে মাঝে 
দাঁড়ায়ে মুরতি বিবেকানন্দ। 

সমুখে বিশাল মহাজলধির 
উর্মিমালায় নৃত্য ছন্দ।  

26. सब काजे हात लागाई मोरा सब काजेई   
बाधा बाँधन नेई गो नेई। 
রবীন্দ্র সংগীত 
বিচিত্র /দাদরা /স্বরবিতান -৫২ 

সব কাজে হাত লাগাই মোরা   সব কাজেই।
              বাধা বাঁধন নেই গো নেই॥
দেখি   খুঁজি বুঝি,     কেবল   ভাঙি গড়ি যুঝি,
     মোরা    সব দেশেতেই বেড়াই ঘুরে   সব সাজেই॥

          পারি নাইবা পারি,   নাহয়   জিতি কিম্বা হারি--
যদি   অমনিতে হাল ছাড়ি   মরি সেই লাজেই।
     আপন হাতের জোরে   আমরা   তুলি সৃজন ক'রে,
          আমরা   প্রাণ দিয়ে ঘর বাঁধি,   থাকি তার মাঝেই॥

27. जागो गो जागो गो जननी श्यामा माँ , तुई ना जागिले श्यामा केह तो जागिबे न माँ -मुकुंद दास का गाना

মুকুন্দ দাসের গান :

জাগো গো জাগো গো জননী শ্যামা মা ,
তুই না জাগিলে শ্যামা কেহ তো জাগিবে না মা;  
তুই না নাচালে কারো নাচিবে না ধমনী। 
জাগো গো জাগো জননী, শ্যামা মা . 
জাগো গো জাগো জননী

ডেকে ডেকে হলাম সারা, কেউ সাড়া দিল না, মা
খুঁজে দেখলাম কত প্রাণ, কারো প্রাণ কাঁদল না, মা। 
তুই না কাঁদালে প্রাণ, কাঁদিবে না কারো প্রাণ
না কাঁদিলে সবার প্রাণ পোহাবে না রজনী
জাগো গো জাগো জননী, শ্যামা মা . 
জাগো গো জাগো জননী

দয়াময়ী নাম ধরিস, দয়া কি আর আছে তোর?
দয়া থাকলে মরে কি, মা, ৩০ কোটি ছেলে তোর?
মরি তাহে ক্ষতি নাই, বাসনা মা দেখে যাই
মরি তাহে ক্ষতি নাই, বাসনা মা দেখে যাই
ভারতের ভাগ্যাকাশে উঠিবে কি দিনমণি?

জাগো গো জাগো জননী শ্যামা মা
জাগো গো জাগো জননী
তুই না জাগিলে শ্যামা, কেহ তো জাগিবে না মা
তুই না জাগিলে শ্যামা, কেহ তো জাগিবে না মা
তুই না নাচালে কারো নাচিবে না ধমনী
জাগো গো জাগো জননী শ্যামা মা
জাগো গো জাগো জননী 
--
28. जागोरे भाई सबे स्मारिया केशवे ; जय जय रवे काँपाये मेदिनी।  

 জাগোরে ভাই সবে স্মরিয়া কেশবে ; 
জয় জয় রবে কাঁপায়ে মেদিনী। 
দুঃখ -নিশা মোদের হল অবসান -
উদিত পুরবে সুখ -দিনমনি। 
 জাগোরে ভাই সবে স্মরিয়া কেশবে ; 

এ নব ঊষাতে জাগিয়ে নিলে প্রাণ, 
ঘুমাবে না কভু আর ভারত সন্তান। 
দেখিলে মায়ের দশা কেঁদে উঠিবে প্রাণ;

করম- সিন্ধু-নীরে ভাসাবে তরণী। 
 জাগোরে ভাই সবে স্মরিয়া কেশবে ; 
জাগিলে বীর জাতি অরুন আলোকে ;
 জাগিল সব দেশ  নবীন পুলকে। 
 ভারত জাগিলে এ নব আলোকে, 
পলকে জিনিতে পারে সে ধরণী। 
জাগোরে ভাই সবে স্মরিয়া কেশবে ; 
জয় জয় রবে কাঁপায়ে মেদিনী। 

মুকুন্দ দাসে কয় আর কারে করিস ভয়?
 অভয়দায়িনী  দিয়েছে অভয়।  
 চল্লিশ  কোটী কন্ঠে বল 'মাই কী জয়' -
বাজায়ে বিজয় ডঙ্কা , কাঁপুক ধরণী।
  
---মুকুন্দ দাস 

29. अंकुरे छिले बिले , नरेन्द्र छात्र काले , 

(आबार) विवेकानंद नाम निये तुमि विश्व माताले।   

অঙ্কুরে ছিলে বিলে নরেন্দ্র ছাত্র কালে
(আবার) বিবেকানন্দ নাম নিয়ে তুমি বিশ্ব মাতালে। 
জাত যে কখনো যায় না চ'লে অন্য জাতে চ'লে। 
ভিন্ন জাতের হুঁকো মুখ দিয়ে সেই জাবাবই দিলে। 
শিব জ্ঞানে জীবে করতে পূজা তুমিই শেখালে। 

আবার বিবেকানন্দ ------

অগ্নিমন্ত্রে জাগালে ভারত সাজালে নুতন সাজে ,
হে যুগ সূর্য তোমার আলোয় আঁধার মরে যে লাজে। 
মনে পড়ে আজো চিকাগোর সেই ধর্মসভার কথা ,
সয়ে ছিলে কত লাঞ্ছনা তুমি সয়েছিলে কত ব্যাথা ,
(আবার) ধন্য ধন্য করলো তারাই বরল শ্রেষ্ঠ মাল্যে।।

অঙ্কুরে ছিলে বিলে নরেন্দ্র ছাত্র কালে
(আবার) বিবেকানন্দ নাম নিয়ে তুমি বিশ্ব মাতালে।

30. 'उत्पल सिंह ' द्वारा लिखित - 

आय आय आय आयरे सब छूटे, सब बाधाके पिछने फेले  

আয় আয় আয় আয়রে সব ছুটে ,
সব বাধাকে পিছনে ফেলে -
আয়ের ছুটে সবাই। 
মানুষ হয়ে মানুষ গড়ার -
সংকল্প নিয়েছি মোরা 
(সেই) সংকল্প সার্থক করতে 
নিয়েছি স্বামীজীর ভাবধারা। 
ত্যাগেরই মন্ত্রে দীক্ষা নিয়ে যে ,
হৃদয় কে বিরাট করি ,
সব মানুষ মাঝে নিজেকে দেখার 
সাধনা যে নিয়ত করি। 

--উৎপল সিংহ  

31. ज्योतिंद्रनाथ का गीत चलरे चल सबे भारत सन्तान, मातृभूमि करे आह्वान !  

চলরে চল সবে ভারত সন্তান '
জ্যোতিন্দ্রনাথের গান 
তাল -কাহারবা 


চল রে চল সবে ভারত সন্তান,
মাতৃভূমি করে আহ্বান ৷
চল রে চল সবে ভারত সন্তান,
মাতৃভূমি করে আহ্বান ৷

বীর দর্পে পৌরুষ গর্বে,
সাধ রে সাধ সবে দেশের কল্যাণ ৷
চল রে চল সবে ভারত সন্তান,
মাতৃভূমি করে আহ্বান৷

পুত্র ভিন্ন, মাতৃ দৈন্য, কে করে মোচন
পুত্র ভিন্ন, মাতৃ দৈন্য, কে করে মোচন
উঠ, জাগো, সবে বলো, মাগো 
তব পদে সপিনু পরাণ ৷
সবে ভারত সন্তান,
মাতৃভূমি করে আহ্বান ৷
চল রে চল সবে ভারত সন্তান,
মাতৃভূমি করে আহ্বান ৷

এক তন্ত্রে করো তপ, এক মন্ত্রে জপ
এক তন্ত্রে করো তপ, এক মন্ত্রে জপ
শিক্ষা-দীক্ষা, লক্ষ্য-মোক্ষ এক,
এক সুরে গাও সবে গান
দেশ-দেশান্তে যাও রে আনতে নব নব জ্ঞান
দেশ-দেশান্তে যাও রে আনতে নব নব জ্ঞান
নব ভাবে নবৎসাহে মাতো , উঠাও রে নবতর তান
সবে ভারত সন্তান, মাতৃভূমি করে আহ্বান ৷
চল রে চল সবে ভারত সন্তান,
মাতৃভূমি করে আহ্বান ৷

লোক রঞ্জন, লোক গঞ্জন, না করি দৃকপাত
লোক রঞ্জন, লোক গঞ্জন, না করি দৃকপাত
যাহা শুভ, যাহা ধ্রুব ন্যায়, তাহাতে জীবন কর দান
দলাদলি সব ভুলি, হিন্দু-মুসলমান
এক পথে, এক সাথে চলো, উড়াইয়ে একতা নিশান
সবে ভারত সন্তান, মাতৃভূমি করে আহ্বান৷
চল রে চল সবে ভারত সন্তান,
মাতৃভূমি করে আহ্বান ৷  

32. भारत आमार भारतवर्ष - स्वदेश आमार स्वप्न गो। -- शिवदास बंद्योपाध्याय। 

 ভারত আমার ভারতবর্ষ - শিবদাস বন্দ্যোপাধ্যায় 

A)

ভারত আমার ভারতবর্য
.             স্বদেশ আমার স্বপ্ন গো
তোমাতে আমরা লভিয়া জনম
.             ধন্য হয়েছি ধন্য গো ||

B.) 

কিরীট ধারিনী তুষার শৃঙ্গে
.             সবুজে সাজানো তোমার দেশ
তোমার উপমা তুমিই তো মা
.             তোমার রূপের নাহিতো শেষ
 C)

সঘন গহন তমসা সহসা
.             নেমে আসে যদি আকাশে তোর
হাতে হাত রেখে মিলি একসাথে
.             আমরা আনিব নতুন ভোর ||

D)

শক্তি দায়িনী দাও মা শক্তি
.             ঘুচাও দীনতা ভীরু আবেশ
আঁধার রজনী ভয় কি জননী
.             আমরা বাঁচাব এ-মহাদেশ

E) 

রবীন্দ্রনাথ বিবেকানন্দ
.             বীর সুভাষের মহান দেশ
নাহি তো ভাবনা, করি না চিন্তা
.             হৃদয়ে নাহি তো ভয়ের লেশ ||

. *************************
33.दुर्गम गिरी काण्डार मरु दूस्तर पारावार हे।  - काजी नजरूल इस्लाम : 

দুর্গম গিরি কান্ডার মরু - নজরুলগীতি 

A)

দুর্গম গিরি কান্তার মরু,
 দুস্তর পারাবার হে!
লঙ্ঘিতে হবে রাত্রি নিশীথে, 
যাত্রীরা হুঁশিয়ার।।

B)

দুলিতেছে তরী, ফুলিতেছে জল,
 ভুলিতেছে মাঝি পথ —
ছিঁড়িয়াছে পাল কে ধরিবে হাল, 
কার আছে হিম্মত।
কে আছো জোয়ান, হও আগুয়ান,
 হাঁকিছে ভবিষ্যত
এ তুফান ভারী, দিতে হবে পাড়ি,
 নিতে হবে তরী পার।।

C)

তিমির রাত্রি, মাতৃ–মন্ত্রী
 সান্ত্রীরা সাবধান!
যুগ-যুগান্ত সঞ্চিত ব্যথা 
ঘোষিয়াছে অভিযান।
ফেনাইয়া ওঠে বঞ্চিত বুকে 
পুঞ্জিত অভিমান
ইহাদেরে পথে নিতে হবে সাথে,
 দিতে হবে অধিকার।।

D)

অসহায় জাতি মরিছে ডুবিয়া, 
জানে না সন্তরণ
কান্ডারী, আজি দেখিব তোমার
 মাতৃ–মুক্তি–পণ।
’হিন্দু না ওরা মুসলিম’– 
ওই জিজ্ঞাসে কোন্‌ জন
কান্ডারী, বল, ডুবিছে মানুষ 
সন্তান মোর মা’র।।

E)

ফাঁসির মঞ্চে গেয়ে গেল যারা 
জীবনের জয়গান —
আসি’ অলক্ষ্যে দাঁড়ায়েছে তারা,
 দিবে কোন্ বলিদান!
আজি পরীক্ষা জাতির অথবা 
জাতেরে করিবে ত্রাণ
দুলিতেছে তরী, ফুলিতেছে জল, 
কান্ডারী হুঁশিয়ার।।

34, मुक्तिर मंदिर सोपान तले, कतो प्राण होलो बलिदान  - मोहिनी चौधरी

A )

মুক্তির মন্দির সোপানতলে     
 কত প্রাণ হলো বলিদান,
লেখা আছে অশ্রুজলে। 

B )কত বিপ্লবী বন্ধুর রক্তে রাঙা   
 বন্দীশালার ওই শিকল ভাঙা,
তারা কি ফিরিবে আজ 
তারা কি ফিরিবে না সুপ্রভাতে,
যত তরুণ-অরুণ গেছে অস্তাচলে?

C ) 
যারা স্বর্গগত তারা এখনো জানে 
স্বর্গের চেয়ে প্রিয় জন্মভূমি,
আজ স্বদেশব্রতে মহাদীক্ষা লভি
 সেই মৃত্যুঞ্জয়ীদের চরণ চুমি।
D )
যারা জীর্ণ জাতির বুকে জাগাল আশা,
 মৌন মলিন মুখে জাগালো ভাষা,
আজ রক্তকমলে গাঁথা মাল্যখানি
 বিজয়লক্ষ্মী দেবে তাদের-ই গলে।।

35. तुमि निर्मल करो , मंगल करे मलिन मर्म मुछाये। 
Song : Tumi Nirmal Karo Mangal Kare (তুমি নির্মল কর মঙ্গল করে)

তুমি নির্মল কর, মঙ্গল করে
মলিন মর্ম মুছায়ে।
তব পূণ্য-কিরণ দিয়ে যাক মোর
মোহ-কালিমা ঘুচায়ে।
মলিন মর্ম মুছায়ে।
তুমি নির্মল কর, মঙ্গল করে
মলিন মর্ম মুছায়ে।

লক্ষ্য শূন্য, লক্ষ বাসনা,
ছুটিছে গভীর আঁধারে
জানি না কখন ডুবে যাবে কোন
অকুল গরল পাথারে।
প্রভু, বিশ্ব বিপদহন্তা,
তুমি দাঁড়াও রুধিয়া পন্থা
তব শ্রীচরণ তলে নিয়ে এসো মোর
মোহো-বাসনা গুছায়ে,
মলিন মর্ম মুছায়ে।
তুমি নির্মল কর, মঙ্গল করে
মলিন মর্ম মুছায়ে।

আছো অনল-অনিলে চিরনভোনীলে,
ভূধর-সলিলে গহনে
আছো বিটপীলতায় জলদের গায়
শশীতারকায় তপনে।
আমি নয়নে বসন বাঁধিয়া,
বসে আঁধারে মরিগো কাঁদিয়া
আমি দেখি নাই কিছু বুঝি নাই কিছু
দাও হে দেখায়ে বুঝায়ে।
মলিন মর্ম মুছায়ে।

তুমি নির্মল কর, মঙ্গল করে
মলিন মর্ম মুছায়ে।
তব পূণ্য-কিরণ দিয়ে যাক, মোর
মোহ-কালিমা ঘুচায়ে।
মলিন মর্ম মুছায়ে।
তুমি নির্মল কর, মঙ্গল করে
মলিন মর্ম মুছায়ে। 
36 . मायेर तरे जीवन मोदेर 
ए कथाटी भुलबो ना,  
मायेर तरे परान दिते'
एक्टूओ भय कोरबो ना।    

মায়ের তরে জীবন মোদের এ কথাটি ভুলবো না ,
মায়ের তরে পরান দিতে একটুও ভয় করবো না। 
37 . भारत भूमिते जन्म मोदेर 
गर्व हृदय भरा ,
लक्ष्य , देशेर कल्याण काजे
 जीवन सफल करा।  
ভারত ভূমিতে জন্ম মোদের গর্ব হৃদয় ভরা ,
লক্ষ্য , দেশের কল্যাণ কাজে জীবন সফল করা।
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विवेक- वाहिनी के 16 जय घोष :

१. महामण्डल केतन करो दुर्जय , 
निवेदिता वज्र हो अक्षय, हो अक्षय , हो अक्षय ! 

२. चरैवेति चरैवेति हुँकारो अस्माकं। 
विवेकानन्दो नेता नः विभीमः कस्मात वयं।। 

३. मिलजुलकर एक साथ रहेंगे , और बढ़ेगी एकता। 
उद्देश्य हमारा देश की सेवा , विवेकानन्द हमारे नेता।। 

४।  स्वामीजी का आदर्श कर्म-धारा। 
हमारे जीवन का ध्रुव तारा।। 

५. नया भारत गढ़ेंगे हमसब , यही किया है प्रण ।
होगा अपना लौह -शरीर, स्वस्थ-सबल मन।।

६. 'त्याग -सेवा ' है दीक्षा अपना , अभीः अपना मंत्र। 
शपथ अपना मनुष्य होना , कर्म अपना तन्त्र।।

७. आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! स्वामीजी की यही पुकार। 
स्वामीजी हैं नेता हमारे , डरो नहीं किसी से यही उनकी ललकार। 

८. 'त्याग सेवा ' की जो पहचान , महामण्डल ध्वज में वज्र निशान। 
 महामण्डल ध्वज की क्या पहचान , भगवा भीतर वज्र निशान।। 

९. उड़िया 
शपथ आमर मनीष हेबार , अभीः अमार मंत्र। 
शिवज्ञाने जीव सेवा आमर लक्ष्य, त्याग जीवन तंत्र। 

१०।  सेवा त्राण शिक्षा , यही हमारी दीक्षा। 
यही हमारी दीक्षा , सेवा त्राण शिक्षा। 

११. मनुष्य बनो और बनाओ , यही है पुकार। 
देश को मात्र मनुष्य चाहिए , यही है सुधार !  यही है सुधार !  यही है सुधार ! 

१२।  मनुष्य शरीर मिला है जब , पशु आचरण नहीं करेंगे। 
 स्वामीजी हैं नेता हमारे , सिंह -शावक नहीं भेंड़ बनेंगे। 

१३. चरित्र से बनता देश समाज , जान लिया है हमने राज। 
जान लिया है हमने राज , चरित्र से बनता देश -समाज। 

१४।  अमृत पुत्र हमसभी मनुष्य हैं , है आत्मा अजर -अमर। 
करो नहीं किसी से भय, कहो विवेकानन्द की जय। 

१५।  पदंडी मुंडकू , पदंडी मुंडकू, अनुनदी मन झेयम। 
विवेकानंदडु मन नेता , भय मिंड़कू, भी मींडकु मन किंका।  

१६।  Sleep no more , Arise Awake .
calls Swamiji Be and Make ! # 3 
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शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

Born Again-1-Camp 2023 🔱🙏 देह म्यान और आत्मा तलवार है ! 🔱🙏 " विश्व के महान शिक्षक निर्माण की 'Be and Make ~वेदान्त परम्परा "

🔱🙏 देह म्यान और आत्मा तलवार है ! 🔱🙏

 (पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवत्व, की ओर बढ़ना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।)

[It is our birthright to graduate from animal

 to human and from human to divinity.]

2 . 

व्यक्तित्व क्या है? 

[What is personality?]   

>>>Personality development (व्यक्तित्व विकास) : शिक्षा और धर्म का उद्देश्य अन्तर्निहित पूर्णता (दिव्यता-निःस्वार्थपरता) को क्रमशः विकसित करते हुए मनुष्यत्व (व्यक्तित्व) का विकास करना है।  " ये सभी असाधारण शक्तियाँ -  हवा से मिठाई या गुच्छे-गुच्छे ताजा अंगूर मँगवा देना, मन को पढ़ना, गुलाब के खिले फूलों का ढेर निकलना ----ये बातें यद्यपि असाधारण हैं, तथापि हैं प्राकृतिक ही, अलौकिक नहीं हैं। अलौकिक नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। ये बातें भी वैसे ही नियमबद्ध हैं, जैसी भौतिक जगत की अन्यान्य बातें।  "....... such powers. They can be systematically studied, practiced, and acquired. This science they call the science of Râja-Yoga." अर्थात  इन (शक्तियों)  विभूतियों को अर्जित करने के विज्ञान का अध्यन किया जा सकता है, इनका अभ्यास किया जा सकता है और ये शक्तियाँ अपने में उत्पन्न की जा सकती हैं।  इस विज्ञान को भारत में राज-योग का विज्ञान कहते हैं। और वे इस सिद्धान्त पर पहुँचे हैं कि - यह सारा अद्भुत सामर्थ्य मनुष्य के मन में अवस्थित है। मनुष्य का व्यष्टि मन समष्टि-मन (universal mind) का अंश मात्र है। प्रत्येक मन दूसरे प्रत्येक मन से संलग्न है। और प्रत्येक मन , वह चाहे जहाँ रहे , सम्पूर्ण विश्व के साथ सम्बद्ध है।  

>>> There is a continuity of mind : [Thought Transference (thought communication : A man here is thinking something, and that thought is manifested in somebody else, in some other place. telepathy)] 

अर्थात मन (चित्त) एक अखण्ड वस्तु है, इसीलिए दूर से भी विचार -सम्प्रेषण या विचारों का आदान-प्रदान करना सम्भव है : जैसे यहाँ एक व्यक्ति कुछ विचार (सर्वमंगल की प्रार्थना) करता है - " सर्वे भवन्तु सुखिनः" (गरुड़ पुराण), "वसुधैव कुटुंबकम" (महा उपनिषद) आदि, आदि और वह विचार अन्यत्र किसी दूसरे मनुष्य में प्रकट हो जाता है। दूरी के कारण कुछ अन्तर नहीं पड़ता। यह सन्देश ~ उस दूसरे मनुष्य तक पहुँच जाता है और वह दूसरा मनुष्य उसे समझ लेता है।  इससे यह सिद्ध हो जाता है कि मन एक अखण्ड वस्तु है, जैसा कि योगी कहते हैं। ( The mind is universal.समाधि से लौटा-ब्रह्मविद का मन) मन विश्वव्यापी (universal) है। तुम्हारा मन (अहं), मेरा मन (अहं), ये सब विभिन्न मन (M/F अहं) उस समष्टि-मन  (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'अहं') के अंशमात्र हैं , मानो समुद्र पर उठनेवाली छोटी छोटी लहरें हैं; और इस अखण्डता के कारण ही हम अपने विचारों को एकदम सीधे , बिना किसी माध्यम के, आपस में (directly ) सम्प्रेषित कर सकते हैं।  

यह दुनिया क्या है ? अपना प्रभाव चलाना, यही दुनिया है। हमारी अंतर्निहित ऊर्जा (आत्मा या शिव यानि कल्याण के संकल्प की शक्ति ) का कुछ अंश तो हमारे शरीर के संरक्ष्ण में खर्च होता हैं, और शेष शक्ति का एक एक कण- हिमालय से कन्याकुमारी तक  दूसरों पर अपना प्रभाव डालने में रातदिन खर्च होता रहता है। हमारी शारीरिक शक्ति (बाहुबल), हमारी श्रद्धा आदि गुणों से प्रेरित बुद्धि (मनोबल) तथा हमारी आध्यात्मिक शक्ति या (आत्मिक बल- spirituality या अभौतिकता-सादगी, नैतिकता, सदाचार की शक्ति ) ये सब लगातार दूसरों पर प्रभाव डालते आ रहे हैं। इसी प्रकार, उलटे रूप में , दूसरों का प्रभाव हम पर पड़ता चला आ रहा है। ४/१७० / 

>>>What is personalityव्यक्तित्व क्या है" एक मनुष्य तुम्हारे पास आता है, वह खूब पढ़ा-लिखा है, उसकी भाषा भी सुन्दर है, वह तुमसे एक घंटा बात करता है , फिर भी वह अपना असर नहीं छोड़ जाता। दूसरा मनुष्य आता है। वह इने-गिने शब्द बोलता है। शायद व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध भी हों, फिर भी वह खूब असर कर जाता है। जिसे तुम वैयक्तिक चुम्बक ( personal magnetism) कहते हो , वही प्रकट होकर तुमको प्रभावित कर देता है।" ४/१७०/ 

" हम लोगों के कुटुम्बों में मुख्य संचालक होते हैं। उनमें से कोई कोई घर के मुखिया घर चलाने सफल होते हैं, परन्तु कोई नहीं। ऐसा क्यों ? जब हमें असफलता मिलती है (बँटवारे की बात?) , तो हम दूसरों को (jpm, bin,sdd आदि को) कोसते हैं। हमें स्वयं से पूछना चाहिए कि ऐसा क्यों है कि कुछ व्यक्ति अपने परिवार को इतनी अच्छी तरह से चला लेते हैं, और अन्य नहीं ? तब तुम्हें पता चलेगा कि यह अन्तर उस मनुष्य के ही कारण है - उस मनुष्य (ब्रह्मविद नेता) के व्यक्तित्व के कारण ही अन्तर पड़ता है। " ४/१७१ / 

" किसी मानवजाति के मार्गदर्शक नेता या दिग्गज विचारक (नवनीदाप्रमोददा) का - सच्चा मनुष्यत्व या उसका व्यक्तित्व (दिव्यत्व 100 % निःस्वार्थपरता) ही वह वस्तु है, जो हम पर प्रभाव डालती है। हमारे कर्म (Our actions are but effects.दैवी-पाशविक-मानवोचित कर्म) हमारे व्यक्तित्व की  बाह्य अभिव्यक्ति मात्र हैं। प्रभावी व्यक्तित्व कर्म के रूप से प्रकट होगा ही - कारण के रहते हुए कार्य का आविर्भाव अवश्यम्भावी है। " ४/१७१ ( It is the real man, the personality of the man, that runs through us. Our actions are but effects. Actions must come when the man is there; the effect is bound to follow the cause.)                         

[" The ideal of all education, all training, should be this man-making. 'The end and aim of all training is to make the man grow.'] 

सारी शिक्षा तथा समस्त प्रशिक्षण का एकमात्र उद्देश्य मनुष्य का निर्माण होना चाहिए। परन्तु यह न करके, केवल हम बाहर को चमकाने की ही कोशिश किया करते हैं। जहाँ व्यक्तित्व (मनुष्यत्व) का ही अभाव है, वहाँ सिर्फ बहिरंग पर पानी चढ़ाने का प्रयत्न करने से क्या लाभ ? सारी शिक्षा का ध्येय है आदमी में मनुष्यत्व (व्यक्तित्व) का उन्मेष अथवा विकास। [उपनिषदों की शीक्षा=3H विकास के 5 अभ्यास के प्रशिक्षण का ध्येय है आदमी में मनुष्यत्व (निःस्वार्थपरता या आत्मश्रद्धा -इन्सानियत)  का उन्मेष अथवा विकास ! ] वैसे मनुष्य का निर्माण  (नेता,जीवनमुक्त शिक्षक, पैगम्बर)  जो अपना प्रभाव सब पर डालता है, जो अपने संगियों पर जादू  (magic) सा कर देता है, शक्ति का एक महान केन्द्र (dynamo of power) है, और जब वह मनुष्य तैयार हो जाता है, वह  [ब्रह्मविद नेता -जाको वाणी वेद !]  जो चाहे कर सकता है। उस नेता का व्यक्तित्व (मनुष्यत्व) चाहे जिस जीव पर अपना प्रभाव डालता है , उसी वस्तु को कार्यशील बना देता है। "  ४/१७२ 

“ मानव जाति के महान मार्गदर्शक नेताओं की बात यदि ली जाये, तो हमें सदा यही दिखलाई देगा कि उनका व्यक्तित्व ही उनके प्रभाव का कारण है। 

" अब अतीतकाल के लेखकों-विचारकों द्वारा रचित पुस्तकों को देखो और प्रत्येक का मूल्य आँको। असल, नये और स्वतंत्र विचार (चार महावाक्य के बाद दो शब्द 'Be and Make') जो अभी तक इस संसार में सोचे गए हैं, केवल मुट्ठी भर ही हैं।" 

महान धर्माचार्यों (teachers of religion, मानवजाति के महान शिक्षकों, मार्गदर्शक नेताओं, पैगम्बरों) की तुलना बड़े बड़े दार्शनिकों (philosophers) के साथ करो। इन दार्शनिकों ने अद्भुत किताबें लिखीं, किन्तु शायद ही किसी के व्यक्तित्व को उन्होंने प्रभावित किया हो। दूसरी और रामानुजशंकरगुरुनानकस्वामीजी ने अपने जीवन काल में ही सारे देश /विश्व को हिला दिया था। व्यक्तित्व (मनुष्यत्व) ही था, वह जिसने यह अन्तर पैदा किया। दार्शनिकों का व्यक्तित्व साधारण प्रभाव डालता है, जबकि महान शिक्षकों और धर्मसंस्थापकों का वही व्यक्तित्व प्रचण्ड होता है। दार्शनिकों में बुद्धि और महान नेताओं में जीवन होता है। दार्शनिक के व्यक्तित्व का प्रभाव दूसरे पर रासायनिक प्रक्रिया जैसे होता है, कभी सफल -कभी असफल रहेगा। जबकि निःस्वार्थ नेता का व्यक्तित्व एक जलती हुई मशाल के सदृश है, जो शीघ्र ही एक के बाद दूसरे (जीवन-दीप) को प्रज्वलित करता है। " ४/१७२   

" राजयोग का विज्ञान यह दावा करता है कि उसने उन नियमों तथा उपायों को ढूंढ़ निकाला है, जिसका विधिवत अभ्यास करने से, each one can grow and strengthen his personality."  प्रत्येक मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और उसे शक्तिशाली बना सकता है। महत्वपूर्ण जीवनोपयोगी बातों में यह भी एक है, और समस्त शिक्षा का यही रहस्य है। इसकी उपयोगिता सार्वभौमिक है। चाहे वह गृहस्थ हो, चाहे गरीब, अमीर, व्यापारी, वैज्ञानिक  या धार्मिक - सभी के जीवन में व्यक्तित्व (personality) को शक्तिशाली बनाना ही एक महत्व की बात है। " (in every one’s life, it is a great thing, the strengthening of this personality…”) ४/१७३/          

" जब हिन्दू शत्रु से युद्ध करने जाता है, तो कहता है, " हमारा एक 'नागा -योगी' तुम्हारे  झुण्ड के झुण्ड सैनिकों को मार भगाएगा। " हिन्दुओं का यह दृढ़ विश्वास है कि हाथ या तलवार में ताकत कहाँ ? ताकत तो है आत्मा में।" ४/१७८/ 

['मन की शक्तियाँ' खण्ड-४,१७२ / english-2/215  8 जनवरी, 1900 को लॉस एंजिल्स, कैलिफोर्निया में दिया हुआ भाषण।]

मन की शक्ति :  देखना, सुनना, स्पर्श करना या चखना आदि कार्य भी क्रिया की विभिन्न अवस्थाओं में - वस्तुतः हमारा मन ही तो है ! किसी कमरे (या जादूगर पीसी सरकार के हॉल) का वातावरण सम्मोहन से इस प्रकार प्रभावित किया जा सकता है कि उसमें प्रवेश करने वाले किसी भी व्यक्ति को नाना प्रकार की वस्तुएं -हवा में उड़ते हुए आदमी और पदार्थ दिखाई पड़ते हैं। प्रत्येक व्यक्ति सम्मोहित हो चुका है। मुक्त होने, अपने वास्तविक स्वरुप का बोध होने (ब्रह्मविद बनने) का कार्य इसमें है कि सम्मोहन का प्रभाव हटा दिया जाये। एक बात याद रखने की है कि हमलोग कहीं से कोई शक्ति प्राप्त नहीं कर रहे हैं। वे हममें पहले से ही हैं। विकास की पूरी प्रक्रिया है सम्मोहन का प्रभाव हटाना। मन जितना ही निर्मल होगा, उसे वश में रखना उतना ही सरल होगा। जो मन की सिद्धियों के चक्कर में पड़ता है, वह उन्हीं का शिकार बन जाता है।" [४/१८१/ 

"Hearing, seeing, tasting, etc. is the mind in different states of action. The atmosphere of a room may be hypnotized so that everybody who enters it will see all sorts of things — men and objects flying through the air. Everybody is hypnotized already. The work of attaining freedom and realizing one’s real nature consists of de-hypnotization. One thing to be remembered is that we are not gaining powers at all. We have them already. The whole process of growth is de-hypnotization.  The purer the mind, the easier it is to control.  One who seeks the powers of the mind succumbs to them." (THE POWER OF THE MIND /(6-125)]        

(जो सोचता है वह जगतजननी सारदा, माँ तारा या सिंहवाहिनी का बेटा, सिंह-शावक, नहीं है-सम्मोहित अवस्था में है। पंचभूतों के फंदे में फंसा ब्रह्म रो रहा है।)                  

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पशु मनःस्थिति से मानव मनःस्थिति में कैसे प्रवेश करें? अपने इस जन्मसिद्ध अधिकार को प्राप्त करने के लिए हमें पहले पशु मनःस्थिति से निकलकर मानवीय मनःस्थिति की ओर बढ़ना होगा। और इसके लिए अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय/ में >>> महामण्डल परिसंघ के महिला प्रभाग - "सारदा नारी संगठन" के वरिष्ठ संगरक्षक श्री आलेख शामल, समीर दासगुप्ता, अरुणाभ सेनगुप्ता, महामण्डल के  "बाल विभाग के साथ किशोर विभाग " के क्रियाकलापों के (प्रमुख 1, तपन चट्टोपाध्याय,  श्री तरुण चक्रवर्ती/ 2 प्रोफेसर तुहिन चटर्जी, अपूर्वा दास , मनोरंजन)  को महामण्डल कार्यकारिणी समिति में शामिल करना आवश्यक है। 

>>>महामण्डल शिविर का उद्देश्य > युवाओं को अपराविद्या (अर्थात Astronomy- ज्योतिष शास्त्र या खगोल विद्या जैसा 'निम्न ज्ञान') तथा पराविद्या ( 'तत्त्वमसि महावाक्य' एवं इसके अनुभव का उपाय पतंजलि योग सूत्र -'अथ योग अनुशासनं ' जैसा उच्च ज्ञान) दोनों विद्याओं में प्रतिष्ठित "नित्य नूतन चिर पुरातन भारतीय संस्कृति " से परिचित कराते हुए उन्हें स्वामी विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत वेदान्त परम्परा में 3H विकास के 5 अभ्यास द्वारा  " Man-making and Character building education." के अनुसार Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' 'मनुष्य (ब्रह्मविद) बनने और बनाने ' की  मनुष्य या विश्व के महानशिक्षक या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता या पैगम्बर बनने और बनाने की विद्या ~  प्रशिक्षित होकर प्रशिक्षित करना है।  

" प्रथम बिहार-झारखण्ड  अंतरराज्यीय विवेक-वाहिनी सह युवा प्रशिक्षण शिविर "("First Bihar-Jharkhand Inter-State Vivek-Vahini cum Youth Training Camp"): 

महामण्डल की  झुमरीतिलैया शाखा द्वारा अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के वरिष्ठ सदस्य श्री प्रमोदरंजन दास की उपस्थिति और निर्देशन में, 18 अगस्त से 20 अगस्त 2023 तक, "स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर वेदान्त (तत्वमसि एवं अथ योग अनुशासनं) Be and Make' लीडरशिप प्रशिक्षण परम्परा' में आधारित " प्रथम दो दिवसीय बिहार-झारखण्ड  अंतरराज्यीय विवेक-वाहिनी सह युवा प्रशिक्षण शिविर " का सफल -आयोजन विवेकानन्द स्कूल (राणा प्रताप चौक के निकट) किया गया। 

सर्वप्रथम शिविर का जयघोष दिनांक 19 अगस्त 2023 को प्रातः 4.15 पर " बिगुल जागरण ध्वनि सह संस्कृत में दशावतार स्त्रोत्र (मानवजाति के दस मार्गदर्शक नेताओं की स्तुति का स्त्रोत्र) पाठ हुआ। [Bugle- Awakening sound and chanting the name of 10 angels (Leaders of the mankind).  तत्पश्चात महामण्डल पताका उत्तोलन (अर्थात भारत के राष्ट्रीय आदर्श >त्याग और सेवा का प्रतीक श्री रामकृष्ण पताका उत्तोलन) महामण्डल के वरिष्ठ सदस्य प्रमोद दा के द्वारा प्रातः 5.40 पर विधिवत सम्पन्न होने के साथ-साथ महामण्डल के "Be and Make Leadership Training Tradition' (मनुष्य बनो और बनाओ नेतृत्व प्रशिक्षण-परम्परा) में आधारित " विवेक-वाहिनी प्रशिक्षक प्रशिक्षण शिविर " ("Vivek-Vahini Instructor Training Camp") का प्रारम्भ श्री रामकृष्ण स्तुति, और बाद में श्रीरामकृष्ण देव के द्वादश सन्तानों का स्तुति पाठ महामण्डल के हिन्दी संगीत प्रशिक्षक श्री अजय पाण्डेय  द्वारा गाये किया 

 युवा महामण्डल के प्रत्येक केन्द्र में ' शिशु विभाग के साथ किशोर विभाग'  गठित करने की अनिवार्यता (Necessity of Adolescent Division) पर महामण्डल के शिशु विभाग के " केन्द्रीय विवेक-वाहिनी प्रशिक्षक " श्री तरुण चक्रवर्ती के द्वारा कक्षा 1 से 8 तक के बालक -बालिकाओं के लिए मन को एकाग्र करके पढ़ाई करने का प्रशिक्षण दिया गया। जिसे सभी स्कूल से आये 165 बच्चों ने बड़े उत्साह से सीखा। इस बार के AGM में ' शिशु विभाग के साथ किशोर विभाग ' के प्रभारी का चुनाव भी होना  आवश्यक होगा। 

ता थैय्या ता थैय्या नाचे भोला, बं बबं बम बाजे गाल।

डिमि डिमि डमरू बाजे, डिमि डिमि डिमि डमरु बाजे, डोले कपालमाल ॥

गरजे गंगा जटा माझे, उगले अनल त्रिशूल राजे।  

धक धक धक् मौली बन्ध,धक धक धक् मौली बन्ध, ज्वले शशांक भाल।। .....

>>> भारतवर्ष में शक्ति साधना के दो कुल हैं। एक है काली कुल , जो बंगाल , आसाम आदि अंचल में प्रचलित है। और दूसरा है श्री कुल जो दक्षिण भारत में प्रचलित है। श्रीकुल की मान्यता है कि काली कुल की साधना में सिद्ध हुए बिना श्रीकुल साधना की योग्यता प्राप्त नहीं होती। और ठाकुर श्री रामकृष्ण देव के क्षेत्र में देखा जाता है कि, वे तो तूफान में टूटे हुए पेड़ के पत्ते के समान उनकी जगन्माता की इच्छानुसार ही समूची साधना कर रहे हैं। और जिस समय वे सचेतन भाव से साधना नहीं भी कर रहे हों तो जगत जननी उनको सबकुछ जुगाड़ कर दे रही हैं। जिस प्रकार साधना के उपकरण का जुगाड़ कर दे रही हैं , उसी प्रकार विभिन्न प्रकार की साधना के लिए विभिन्न गुरु लोगों का भी जुगाड़ कर दे रही हैं। इसलिए यह देखा जाता है कि ठाकुर देव की साधना का प्रारम्भ शक्ति की साधना से हुआ है। माँ काली की साधना से शुरू।    

माँ काली आदि शक्ती का पहला रूप है। माँ काली का मतलब “कालिका” यानी समय कालिका (time clock)।  इन्हें समय का साकार रूप माना जाता है।  समय जो सबसे बलवान होता है।  यह देवी हर प्रकार के बुराई का (सर्वोपरि मिथ्या अहंकार का ?) सर्वनाश करती है इसलिये उग्र रुप धारिणी है। माँ काली का ताण्डव शिवजी के ताण्डव से भी भयावह था।  इसलिये उनकी ऊर्जा से कहीं सम्पूर्ण भूलोक ही नष्ट ना हो जाय, इसलिये शिवजी भूलोक और काली माँ  के पैरो के बीच मे लेटकर उनके इस विनाशक शक्ती को खुद झेलते हुये दिखाई देते हैं। और हमे लगाता है, यह माँ काली तो शिवजी के उपर नाच रही है। 

रक्तबीज नामक राक्षस को भी मारने के लिये माँ काली की योजना हुई थी। (जो कि माँ दुर्गा का ही रूप है।) उनकी यह पोप्युलर तस्वीर रक्तबीज का संहार करने के युद्ध के दरमियान की है। देवि काली माँ  बीमारी को नष्ट करती है।  दुष्ट आत्मा के प्रभाव से हमे मुक्त करती है दुष्ट ग्रह स्थिती से हमे बचाती है।  अकाल मृत्यु से बचाने की ताकत अगर किसी मे है तो वो स्वयम माँ काली मे है।  क्योंकि माँ  काली से स्वयम मृत्यु के देवता यमराज भी डरते हैं। माँ काली के प्रसन्न होने से वाक- सिद्धि यानी हम जो बोलेंगे वो ही सत्य हो जाता है।  इसलिये माँ काली कि शक्ति को विधिवत प्राप्त करे।  

माँ तारा भगवान शिवशंकर की भी माता हैं ।  तो तारा माँ की  शक्ति का अंदाजा लगाइये।  जब देव और दानव समुद्र-मंथन कर रहे थे तो उससे हलाहल विष  निकला था, उस हलाहल से विश्व को बचाने के लिये शिव शंकर सामने आये उन्होंने उस विष का पान कर लिया। लेकिन गड़बड़ यह हुई के उनके शरीर का दाह रुकने का नाम नही ले रहा था।  इसलिये माँ दूर्गा ने तारा माँ  का रूप लिया और भगवान शिवजी ने शावक (सिंह -शावक) का रूप लिया।  फिर माँ तारा देवी उन्हे स्तन से लगाकार उन्हे स्तनों का दूध पिलाने लगी।  उस वात्सल्य पूर्ण स्तंनपान से शिवजी का दाह कम हुआ।  लेकिन माँ तारा के शरीर पर हलाहल का असर हुआ जिसके कारण वह नीले वर्ण की हो गयी। 

और  20 अगस्त 2023 को  महामण्डल द्वारा आयोजित " प्रथम बिहार-झारखण्ड विवेक-वाहिनी सह युवा प्रशिक्षण शिविर " का समापन पताका अवनमन के साथ संध्या 4.15 बजे सम्पन्न हो गया। पताका अवनमन के समय 2 मिनट तक मानों शिविर के मुख्य आयोजनकर्ता के रूप में ठाकुर-माँ -स्वामीजी ने प्रसन्न होकर शांति जल के रूप में वर्षा करके अपना आशीर्वाद दिया है।  इस बार के शिविर में यह विश्वास और दृढ़ हो गया कि पूरी सृष्टि का एक ही उद्देश्य है- "प्रत्येक मनुष्य अपने भ्रमों-भूलों को अर्थात माया के सम्मोहन को त्यागता हुआ पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में ही अग्रसर हो रहा है।"    

 20 अगस्त को महामण्डल द्वारा आयोजित " प्रथम बिहार-झारखण्ड विवेक-वाहिनी सह युवा प्रशिक्षण शिविर " में महामण्डल पताका उत्तोलन एवं पताका अवनमन के माध्यम से यह अनुभव हुआ कि भारतीय संस्कृति चूँकि दो प्रकार की विद्याओं -पराविद्या (उच्च ज्ञान) और अपराविद्या (निम्न-ज्ञान) में प्रतिष्ठित (आधारित) है। इसलिए हजारों वर्षों की गुलामी के बाद भी वह प्राचीन भारतीय संस्कृति आज तक "नित्य नूतन चिर पुरातन" बनी हुई है, और नित् नई ऊँचाइयों को छू रही है।

20 अगस्त, 2023 को पताका अवनमन के बाद समाचार मिला कि भारतीय चन्द्रयान- 3, जो  23 अगस्त 2023 को संध्या 6.05 बजे चन्द्रमा की धरती पर उतरने वाला है। लेकिन रूस का जो रॉकेट  'लूना ' उसका अध्यन करने के लिए उसके पीछे-पीछे घूम रहा था; वह 'लूना' आज क्रैश हो गया। किन्तु चंद्रयान अभी तक सही दिशा में आगे बढ़ता जा रहा है।  

तत्त्वमसि महावाक्य : "ऐतदात्म्यं इदं सर्वम्। तत्सत्यम्। स आत्मा। तत्वमसि श्वेतकेतो" -छांदोग्य उपनिषद (VI.8.7)

 जिसका शाब्दिक अर्थ है, वह तुम ही हो। वह दूर नहीं है, बहुत पास है, पास से भी ज्यादा पास है। तेरा होना ही वही है। सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही ब्रह्म इस नित्य परिवर्तनशील जगत में  विद्यमान है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।

भारत के शास्त्रों व उपनिषदों में ब्रह्म तथा आत्मा सम्बन्धी अभेदसूचक वाक्य  तत्त्वमसि (तत् त्वम् असि)  > यह महावाक्य ब्रह्म और आत्मा के एकत्व  का वर्णन  करता है।  अगर इस एक वाक्य को ही अनुसरण करते हुए अपनी जीवन की परम स्थिति का अनुसंधान कर लें, तो हमारा यह जीवन सार्थक हो जाएगा। इसलिए इसको महावाक्य कहते हैं।

बारह बरस गुरुकुल में वेद आदि ग्रंथों का अध्ययन करके श्वेतकेतु अपने पिता ऋषि उद्दालक आरुणि के पास लौटा। श्वेतकेतु ने कड़ी मेहनत से जो ज्ञान पाया, उसका उसके मन में अहंकार हो गया। ब्रह्मज्ञानी ऋषि उद्दालक अपने पुत्र में पनप चुके इस अहंकार को भांप गए। उससे सवाल किया।

‘पुत्र, यह बताओ क्या तुमने वह ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया, जिसके जानने के बाद, जो कुछ भी अज्ञात है, रहस्यमय है, वह सब समझ में आ जाता है। जिसे जानने के बाद कुछ और जानने को बचा नहीं रहता, क्या ऐसा कोई उपदेश तुम्हारे आचार्य ने तुम्हें दिया है? श्वेतकेतु की जिज्ञासा बढ़ी। वह पिता से पूछता है- यह ब्रह्म ज्ञान किस प्रकार का ज्ञान है?

ब्रह्म ज्ञान का विस्तार समझाते हुए ऋषि उद्दालक कहते हैं, ‘मिट्टी के रूप को पूरी तरह जान लेने से उससे बनी हुई किसी भी वस्तु को जाना जा सकता है। मिट्टी के लोंदे से बने हुए बर्तनों में मिट्टी ही मूल तत्व है। बर्तन तो मिट्टी को वाणी द्वारा दिया हुआ सिर्फ नाम है। सत्य तो केवल मिट्टी ही है।’

ऋषि ने आगे कहा, ‘इसी तरह सोने से बने हुए कंगन में सोना ही मूल तत्व है। उससे बने हुए आभूषण तो वाणी द्वारा दिए गए अलग-अलग नाम हैं। सत्य तो केवल सोना ही है। लोहे से बने हुए पदार्थ के लिए भी यही सत्य है। 

वैसे ही नाम और रूप के पार देखने पर पूरे संसार का जो मूल तत्व लक्षित होता है वह ब्रह्म है।’ श्वेतकेतु को अपनी भूल समझ में आ गई। वह अपने पिता से आग्रह करता है कि इस ज्ञान को विस्तार से समझाएं।

ऋषि उद्दालक अपने पुत्र की जिज्ञासा देख प्रसन्न होते हैं। उसे सबसे गूढ़, सबसे रहस्यमयी ब्रह्म विद्या का उपदेश देने का भरोसा दिलाते हुए कहते हैं, ‘मधुमक्खी कितने ही फूलों से रस लेकर शहद बनाती है। कोई नहीं बता सकता कि शहद की कौन-सी बूंद किस फूल के रस से बनी है। कितनी ही नदियों का जल समुद्र में मिलता है, कोई नहीं बता सकता कि समुद्र की कौन-सी बूंद किस नदी से आई है।

वैसा ही संबंध जीव और ब्रह्म का भी है। जब तक जीव ब्रह्म में लीन नहीं होता, नाम और रूप के कारण दोनों में भेद दिखाई देता है। हर जीव के साथ यही होता है। चाहे वह मनुष्य हो, शेर हो, भालू हो या कोई कीड़ा। नाम और रूप के खो जाने पर जो रहता है, वही ब्रह्म है और वही तुम भी हो श्वेतकेतु।’

छांदोग्य उपनिषद में ऋषि उद्दालक इस प्रकार के सरल उदाहरण से अपने पुत्र श्वेतकेतु को , ब्रह्म और आत्मा की एकता  समझाते हैं। उनके उपदेश का सार है, ‘तत् त्वम असि’। वह जो जगत का कारण है, जिससे संपूर्ण जगत प्रकाशमान है, एक मात्र सत्य हैवह ब्रह्म तुम ही हो। ‘तत् त्वम असि’ एक महावाक्य है। इसे उपदेश वाक्य कहा गया है, क्योंकि ऋषि इस सूत्र के द्वारा शिष्यों को ब्रह्म का उपदेश देते हैं। यह मंत्र  (तत् त्वम् असि) गुजरात प्रान्त के पश्चिम में स्थित भारत के चार धामों में से एक द्वारका धाम या शारदा मठ का भी आधार वाक्य है।   

महान गृहस्वामी शौनक, शिष्य के लिए उचित विधि के अनुसार महर्षि अंगिरस के पास गए  और उनसे पूछा, ऐसा कुछ है क्या जिसके जानने से सब कुछ का ज्ञान हो जाता हो ?

 कस्मिन् नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतिति ॥मुण्डक उपनिषद॥ (3) 

तस्मै स होवाच—द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति परा चावापरा च ॥4॥

4) अंगिरस ने उनसे इस प्रकार कहा: ब्रह्मविद लोग [ ब्रह्म को जानने वाले, अर्थात ईश्वर के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण को जानने वाले स्वामी विवेकानन्द जैसे गुरु,नेता, पैगम्बर, जीवनमुक्त महान शिक्षक लोग] बताते हैं कि वह दो प्रकार का ज्ञान है परा (उच्च ) और अपरा (निम्न।)  

तत्रपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति

अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥5॥

5) दो प्रकार ज्ञान में से अपरा या निम्न-स्तर का ज्ञान कौन सा है ? कहते हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, जप-अनुष्ठान, व्याकरण, व्युत्पत्ति संबंधी व्याख्या, और छंद और खगोल विज्ञान (Astronomy-ज्योतिष शास्त्रये सब निम्न-स्तर का ज्ञान है । और फिर परा ज्ञान,  उच्चतर ज्ञान, वह समाधि - योगः चित्तवृत्ति निरोधः, या इहैव ते अर्जितो सर्गो येषां साम्ये स्थितः मनः ' है जिससे अपरिवर्तनीय, अविनाशी, परम् सत्य -आत्मा या ब्रह्म भी ज्ञात हो जाता है।  

 जिसके अनुसार गंगा नदी स्वर्ग से ,वैकुण्ठ से सीधी धरती पर नहीं उतरती हैं - पहले शिवजी उन्हें अपने जटा में लपेट लेते हैं। तब पुनः गंगा शिव की जटाओं से निकलती हैं। उसी प्रकार ज्ञान गुरु परम्परा से प्राप्त होता है। महामण्डल देने से पहले , विवेक-वाहिनी का दान ? 80 % बंगला में बात 20 % हिन्दी में। फोन से हिन्दी सीखने में बोलना " मुझे तुम्हारी याद आती है, तुम्हें मेरी याद नहीं आती ? " पहले विवेक वाहिनी का रूल पढ़ो।

>>>विवेक वाहिनी प्रोडक्ट ? श्री सलिल घोष द्वारा निर्देशित एवं (तत्वमसि तथा अथ योगानुशासनम् पाठ्यक्रम) पर आधारित और ' विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and  Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में आयोजित " जानीबिगहा, तृतीय मगध ग्राम स्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर " (सह विवेकवाहिनी कैम्प) का सर्टिफिकेट :  

" अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' प्रतीक चिन्ह, प्रमाणपत्र संख्या --

प्रमाणित किया जाता है कि श्री ------- , ग्राम---- ---- ने " प्राथमिक विद्यालय, जानीबिगहा, जिला गया में  12 अप्रैल से 14 अप्रैल 1997 तक आयोजित "तृतीय मगध ग्राम स्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर " में भाग लिया एवं शिविर में इनका आचरण उत्तम रहा है। इस शिविर में इन्होंने 'नित्य नूतन चिर पुरातन-भारतीय संस्कृति, मनःसंयोग, तथा आत्म-अनुशासन सम्बन्धी पाठ्यक्रम की जानकारी प्राप्त की तथा व्याख्यानों को सुना है। - 

sd./नवनीदा / 

सचिव अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल

एवं   

(C-IN-C)

 मुख्य शिविर समादेष्टा, 

जानीबिगहा युवा प्रशिक्षण शिविर।

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 चन्द्रयान 23 अगस्त 2023 को चन्द्रमा की धरती पर उतरने वाला है। रूस का रॉकेट 'लूना ' उसका अध्यन करने के लिए उस के पीछे-पीछे घूम रहा था। क्योंकि जिज्ञासा मनुष्य का प्रधान धर्म है। वह उसकी एक अदम्य प्रेरणा है। मनुष्य सब कुछ जानना चाहता है। बाह्म जगत (स्थूल जगत) और अंतर जगत् (सूक्ष्म-  जगत) दोनों उसकी जिज्ञासा के विषय हैं। 

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किशोरावस्था में ही 'तत् त्वम् असि' का  ज्ञान प्रदान करने में सक्षम  नेताओं के निर्माण के उद्देश्य स  जाति या वर्ण का विचार न कर, मानवमात्र के लिए योगसूत्र-1/1, अथ योगानुशासनम्।' की रचना करने वाले महर्षि पतंजलि हों, सबके प्रति साम्य भाव रखने वाले - समता की मूर्ति  'कर्म और भक्ति' का समन्वय करने वाले रामानुजाचार्य, हों तथा महर्षि वेदव्यास के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखकर ज्ञान और भक्ति का समन्वय करने वाले आदिगुरु शंकराचार्य हों,(.... या विश्व भर के मुसलमानों के प्रति बन्धुभाव का प्रदर्शन करने वाले पैगम्बर मुहम्मद साहब ने अपने जीवन के दृष्टान्त से यह दिखला दिया कि मुसलमान मात्र में सम्पूर्ण साम्य रहना चाहिए। )  ये सभी विश्व के महान शिक्षक थे। 

>>>क्या रामानुज, आचार्य शंकर जैसे अवतारी पुरुष और (नवनीदा) जैसे जीवनमुक्त महान शिक्षक और भी जन्म ग्रहण करेंगे ? स्वामीजी कहते हैं , " निश्चय ही वे धरा पर अवतीर्ण होंगे। किन्तु उनके आगमन की प्रतीक्षा में मत बैठे रहो। वे यदि ईश्वर-पुत्र और अवतार हैं , तो हम भी वही हैं। उन्होंने अपनी पूर्णता पहले प्राप्त कर ली है, और हम भी यहीं और इसी जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेंगे।  इसी क्षण हम सबको यह दृढ़ संकल्प लेना चाहिये कि ' मैं मानवजाति का मार्गदर्शक नेता (मसीहा ) बनूँगा, मैं पैगम्बर बनूँगा।   मैं ज्योतिस्वरूप भगवान का , नेता वरिष्ठ का सन्देशवाहक बनूँगा - मैं ईश्वर-पुत्र (ब्रह्मविद -राजपूत) बनूंगा - नहीं, मैं स्वयं ईश्वरस्वरूप (राजा-ब्रह्म) बनूँगा। " ७/१९२ ) 

यहाँ यह बात स्मरण रखना है कि महर्षि पतंजलि के योगसूत्र पर भाष्य आचार्य शंकर ने नहीं लिखा था, इस पर सबसे पहला भाष्य 5000 वर्ष पूर्व वेदव्यास जी ने लिखा था। उसके बाद आधुनिक युग में और आधुनिक भाषा में  योगसूत्र पर भाष्य  सबसे पहले स्वामी विवेकानन्द ने ही लिखा था और पाश्चात्य देशों में उसकी शिक्षा का प्रचार -प्रसार करके विवेकानन्द ने भारतमाता को विश्वगुरु के आसन पर बैठाने का आह्वान करते हुए युवाओ से कहा था - " हम देखते हैं कि हर अवतार, हर पैगम्बर ने दुनिया को एक न एक महान सत्य का सन्देश दिया है। किन्तु अज्ञ और बुद्धिहीन व्यक्तियों का गठबन्धन-[घमण्डिया गठबन्धन-या अजय के अनुसार 'हिन्दू न पतितायेते!' के हिन्दुओं का ?] उनकी महान शिक्षाओं को लेकर उन पर अपने मतानुसार -उनके महावाक्यों की भ्रान्त व्याख्यायें करने लगते हैं। किन्तु हर एक महापुरुष की जीवनी ही उसके उपदेशों का एकमात्र भाष्य है। किसी महान आचार्य के जीवन का अवलोकन करो- उनके कार्य ही उनके उपदेशों का अर्थ स्पष्ट करने लगते हैं। श्रीकृष्ण के उपदेश - 'गीता' को ही पढ़कर देखो, तुम्हें कृष्ण के जीवन और गीता के एक एक शब्द में सामंजस्य दिखेगा। "  

[ उसी प्रकार महान आचार्य 'नेतावरिष्ठ (C-IN-C) श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय, जिनके सानिध्य में मुझे लम्बे समय तक (लगभग 40 साल तक) रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, की आत्मकथा  'जीवन नदी के हर मोड़ पर' का अवलोकन करो। उनके द्वारा स्थापित 'महामण्डल' का ध्वज और प्रतीक चिन्ह [ स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर 'Be and Make ' वेदान्त (तत्वमसि)  परम्परा " में  स्थापित अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ] के माध्यम से  मनुष्य-निर्माण का कार्य ही विगत 56 वर्षों से उनके उपदेशों का अर्थ स्पष्ट करता चला आ रहा है। ] 

प्राचीन भारतीय संस्कृति की विश्व को दी गयी सबसे अद्भुत देन है,  युवाओं को (सिंह -शावकों को) भेंड़त्व के भ्रम से निकलने का उपाय बताने में समर्थ महान आचार्यों, मार्गदर्शक नेताओं के निर्माण प्रशिक्षण का महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योग सूत्र या योगदर्शन।   

महर्षि पतंजलि जैसा अद्भुत पुरुष कभी इस भारत भूमि पर रहा था, और  उससे भी आश्चर्यजनक यह है कि उनकी अंतः प्रज्ञा से निसृत अमृत #योगदर्शन के रूप में आज भी ज्यों का त्यों उपलब्ध है। 

और मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं के निर्माण  प्रशिक्षण का प्रमुख विषय होगा,  बुढ़ापे में जीवन सूना-सूना सा  क्यों प्रतीत होता है ? मानव जीवन को बहुमूल्य क्यों कहा जाता है ? जीवन का उद्देश्य क्या है ?  जीवन क्या है  ? इन सबका उत्तर जानने के लिए -

अथ योगानुशासनम् ।।( योगसूत्र 1/1)

शब्दार्थ– (अथ ) अब, ( योगानुशासनम् ) योग के अनुशासन का प्रतिपादन ।

सूत्रार्थ– [साभार /https://drsomveeryoga.com/yoga-sutra-1/1] अब योग के अनुशासन अर्थात स्वरूप को बताने वाले ग्रन्थ / शास्त्र को प्रारम्भ किया जाता है।

व्याख्या: महर्षि पतंजलि योगसूत्र की शुरुआत 'अथ' शब्द से करते हैं। ऐसे ही आदिगुरु शंकराचार्य 'ब्रह्मसूत्र' का आरंभ भी 'अथ' से ही करते हैं। 'अथ' का अर्थ है, जब साधक में साधना का तीव्र संवेग उठकर, आत्मज्ञान की प्यास जग जाए और उसका शिष्यत्व जाग जाए तथा वह सद्‌गुरु को पाने के लिए बेचैन हो जाए, वह क्षण 'अथ' कहलाता है। 

शासन और अनुशासन का फर्क (साभार /https://www.arnavh.com/post/yoga-sutras-1-1) शासन (क्रिया) का अर्थ है शासन करना या आदेश देना - शासन वह अनुशासन है जो दूसरों द्वारा लगाया जाता है। लेकिन आत्मानुशासन या अनुशासन वे नियम हैं जो कोई व्यक्ति स्वयं पर ही लागु करता है। अनुशासन की आवश्यकता तब होती है जब जीवन-गठन के लिए 3H विकास के  5 अभ्यास को जीवन में धारण करने की आवश्यकता होती है। खाली समय का सदुपयोग  करने के लिए अनुशासन की आवश्यकता है। 

शरीर को स्वस्थ रखने के लिए नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार को अपने दिनचर्या में शामिल करने के लिए अनुशासन की आवश्यकता होती है।  परीक्षा के समय क्रिकेट मैच छोड़कर मन लगाकर पढ़ना आवश्यक है,  अतएव मनःसंयोग (Mental concentration) या  मन को एकाग्र करने का नियमित अभ्यास, मन का पौष्टिक आहार - स्वाध्याय  करने के लिए अनुशासन की आवश्यकता होती है। अनुशासन वास्तव में स्वतंत्रता है - जो प्राण का संचार करता है और व्यक्ति को दृढ़ इच्छाशक्ति वाला बनाता है और मन को अपने जीवन के उद्देश्य पर एकाग्र रखता है। ह्रदय का विस्तार करने के लिए महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेकर सद्गुणों को व्यक्त करने में अनुशासन की आवश्यकता होती है।  

अब योग को समझते हैं- यूं तो योग शब्द के अनेक अर्थ हैं, लेकिन यहां योग का अर्थ समाधि से है, क्योंकि योग 'युज्' धातु से बना है। योग कोई शास्त्र नहीं, अपितु एक अनुशासन है।

 समाधि की प्राप्ति कैसे की जाए? इसके लिए सर्वप्रथम समाधि को समझना आवश्यक है । समाधि चित्त की सभी भूमियों में रहने वाला धर्म है। चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध नामक पाँच भूमियाँ हैं। चित्त (mind stuff) का निर्माण सत्त्व, रज, और तम से हुआ है। जिनमें से किसी भी पदार्थ ( तत्त्व ) की अधिकता या न्यूनता होने से चित्त की भूमियाँ बनती रहती है। यहाँ पर इन सभी चित्त भूमियों को विस्तार से जानने का प्रयास करते है।

(1) क्षिप्त– जब चित्त में रजोगुण की प्रधानता,अधिकता होती है और सत्त्वगुण व तमोगुण गौण अवस्था में रहते है। तब रज के प्रभाव से व्यक्ति चञ्चल स्वभाव वाला हो जाता है। चंचलता के कारण वह अपने चित्त को अनेकों विषयों में चलाता रहता है। इस प्रकार चित्त एकाग्र नही हो पाता जिससे वह अपने जीवन लक्ष्य को निर्धारित ही नही कर पाता है। यह चित्त की क्षिप्त अवस्था है।

(2) मूढ़ – चित्त में तमोगुण के बढ़ने से और सत्त्वगुण व रजोगुण के गौण होने से व्यक्ति में आलस्य,निद्रा, तंद्रा, व मूर्छा आदि अवगुणों का प्रभाव बढ़ता है। चित्त की इस अवस्था को मूढं कहा है। इसमें किसी प्रकार के सही – गलत का भान ( विवेक -ज्ञान ) नही होता है।

(3) विक्षिप्त– जब चित्त में सत्त्वगुण की अल्प मात्रा में प्रधानता होती है और साथ ही कभी – कभी रजोगुण का प्रभाव भी हो जाता है तो कुछ समय के लिए हमारा चित्त एकाग्र होता है। परन्तु रजोगुण के कारण वह एकाग्रता भंग हो जाती है। इसमें तमोगुण गौण रहता है। चित्त की इस अवस्था को विक्षिप्त कहा है।

(4) एकाग्र– जब चित्त में सत्त्वगुण की प्रधानता और रजोगुण व तमोगुण की न्यूनता होती है, तब व्यक्ति का चित्त किसी भी विषय या पदार्थ लम्बे समय तक एकाग्र होने लगता है। इससे योगी में विवेक और वैराग्य बढ़ता है। इस अवस्था में ‘सम्प्रज्ञात समाधि’ की प्राप्ति होती है जिससे वह असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त करने का अधिकारी बनता है। चित्त की इस अवस्था को एकाग्र कहा है।

(5)  निरुद्ध– यह चित्त की अन्तिम अवस्था है। जब योगी सम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त कर लेता है तो उसे उसमे भी कुछ दोष दिखाई देते है जिससे उसमे ‘परवैराग्य’ का भाव जागृत होने से चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है। चित्त की इस निरुद्ध अवस्था को ही असम्प्रज्ञात समाधि कहा गया है। इस असम्प्रज्ञात समाधि में ध्याता, ध्येय, व ध्यान की त्रिपुटी समाप्त होने से शुद्ध चैतन्य आत्मस्वरूप ही शेष रहता है। यही योगी के जीवन का अन्तिम लक्ष्य होता है, जिसमें ईश्वर का साक्षात्कार समाधि द्वारा होता है।

>>>इस अन्तिम लक्ष्य को  कैसे प्राप्त किया जाए ? इसका  उपाय  योगसूत्र के पहले ही सूत्र “ अथ योगानुशासनम्” में ही मिलता है। अनुशासन का अर्थ है किसी भी कार्य को, गुरुपरम्परा में  उसके आवश्यक दिशा – निर्देशों का पालन करते हुए किया जाए।

अपने नेता वरिष्ठ से प्राप्त इन्ही आवश्यक दिशा- निर्देशों के पालन करने की बात इस सूत्र में कही गयी है। इस प्रकार से जब पूरी तरह से अनुशासित होकर किसी कार्य को प्रारम्भ किया जाता है तो उस कार्य की सफलता निश्चित हो जाती है।

मन का चंचल और बहुत गतिशील होना हमारे लिए बुरा नहीं है। इसको हम एक उदाहरण के साथ समझने का प्रयास करेंगे:

मान लीजिए कि आपको किसी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना है। वहा तक पहुँचने के लिए आप अपनी सुविधानुसार एक मार्ग का चयन करतें है । इसके बाद इस बात का निर्णय लिया जाता है कि वहाँ तक पहुँचने के लिए किस साधन (वाहन -घोड़ा या गधा ?) का प्रयोग किया जाए।

 जब आप अपनी यात्रा को शुरू करतें है तो आपको जगह- जगह पर दूरी, दिशा, अवरोध ( रेड लाईट,ब्रेकर ) व अन्य सूचनाएं देते हुए सूचना पट्ट ( साइन बोर्ड ) मिलते है। जिनसे आपको इस बात का पता चलता रहता है कि आपको कहाँ मुड़ना है? कहाँ गति अवरोधक है? कहाँ पर रेड लाईट है? तथा राष्ट्रीय राजमार्ग ( हाइवे ) पे गाड़ी की गति ( स्पीड ) कितनी होगी? पहुँच मार्ग ( लिंक, लोकल रोड ) पर गति कितनी होगी? 

आदि सभी यातायात के नियमों का पालन करते हुए जब आप अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हो, तब आपकी यात्रा का सुखद व सफल होना सुनिश्चित हो जाता हैं। किसी भी प्रकार के व्यवधान की आशंका नही रहती है। क्योंकि आपने यात्रा के लिए आवश्यक दिशा- निर्देशों ( अनुशासन ) का पालन करते हुए यात्रा को पूर्ण किया है। ठीक इसी प्रकार हम अपनी योग यात्रा का प्रारम्भ भी उचित दिशा- निर्देशों ( अनुशासन ) के साथ करतें है तो सफलता निश्चित तौर से हमें मिलती है।

इसी लिए महर्षि पतंजलि ने पहले ही सूत्र में अनुशासन की बात कही है। और साथ ही हम देखें तो पूरे योगसूत्र की रचना भी एक अनुशासित तरीके से की गई है।

पहले पाद  में अनुशासित होकर लक्ष्य (समाधि) का निर्धारण किया गया है। दूसरे पाद में उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किस साधन (योग साधना) का प्रयोग किया जाए। इसके लिए अनेक योगमार्गों ( क्रिया योग, अष्टांग योग, अभ्यास- वैराग्य, ईश्वर- प्रणिधान, चित्त प्रसादन के उपाय ) का निर्देश किया है। जिनको साधक अपनी सुविधानुसार अपने अनुरूप योग मार्ग का चयन कर सके।

तीसरे विभूतिपाद में महर्षि पतंजलि जिन विभूतियों का वर्णन करते है, वो रास्ते में आने वाले सूचना पट्ट ( साइन बोर्ड ) का कार्य करती है। जिससे हमें यह पता चलता रहे कि हम सही दिशा में यात्रा कर रहें है। 

उसमें जब सिद्धियों की विभूतियों की चर्चा करने लगते हैं तो एक सूत्र में  कहते हैं-

-मैत्र्यादिषु बलानि ।। योगदर्शन 3.23 ।। 

शब्दार्थ :- मैत्री ( मित्रता ) आदिषु ( आदि भावनाओं में संयम करने से ) बलानि ( बल की प्राप्ति होती है )

अर्थात समाधि में पहुंचकर अपने धर्म को (Law of existence जिसके बिना शरीर छूट जाये - अस्तित्व ya वह 'आत्मा' है इस परम्को सत्य को अपने अनुभव से)  जान लेने के बाद, जगत की अन्य आत्माओं या जीवों (kjn,ajp,rcm,etc जिनसे कभी चोट पहुंची हो) को भी अपने ही जैसे सच्चिदानन्द मानकर उनके प्रति मन में मित्रता-भाव बढ़ाने - ह्रदय का विस्तार करने का फल बताया जा रहा है।   महर्षि पतंजलि योगसूत्र ने समाधिपाद के सूत्र संख्या- 33 में चित्त प्रसादन के उपायों का वर्णन किया है । वहाँ पर चित्त प्रसादन के चार उपायों की बात कही गई है जो मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा नाम से हैं ।

और इस प्रकार से ( अनुशासित होकर ) यात्रा करते हुए हम अपने जीवन के अन्तिम लक्ष्य अर्थात समाधि को प्राप्त करने के योग्य हो जाते है । इसी लक्ष्य को पुनः अन्तिम कैवल्य पाद में बताया गया है। 

अतः चाहे किसी स्थान की यात्रा हो या जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करने की यात्रा हो, उसकी सफलता को सुनिश्चित करने के लिए हमें पूर्ण रूप से अनुशासित होकर उस यात्रा को पूरा करना पड़ेगा। हमारा अनुशासन ही हमारी सफलता को निर्धारित करता है।

निष्कर्ष :

योगसूत्र योग का पहला व्यवस्थित ग्रन्थ है। जिसको चार पादो में विभक्त करते हुए महर्षि पतंजलि ने मानव जीवन के अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष अर्थात समाधि की प्राप्ति के लिए इसकी रचना की।  यह योगी साधकों के लिए योग साधना मार्ग को अत्यंत सुगम व सारगर्भित बनाने का अद्भुत कार्य किया है।

स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर 'Be and Make  वेदान्त  लीडरशिप  ट्रेनिंग परम्परा के युवा प्रशिक्षण शिविर में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त 'विश्व के महान शिक्षकों का निर्माण' करने की [जीवन्मुक्त योगि, भ्रममुक्त- शिक्षक, विसम्मोहित ( de -hypnotized) सिंह-शावक नेता, या संगीतज्ञ ऋषि बनने और बनाने की 'गुरुगृहवास प्रशिक्षण पद्धति'  नित्य नूतन चिर पुरातन भारतीय संस्कृति के दो महावाक्य 'तत्त्वमसि 'तथा 'अथ योगानुशासनम्' पर आधारित है।

जिसके अनुसार स्वयं तरकर दूसरों को पार ले जाने की विद्या में प्रशिक्षित एवं अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने में समर्थ "C-in-C' का चपरास प्राप्त महामण्डल के नेता वरिष्ठ (नवनीदा) अथवा 'L'-ove वज्रांकित नैतृत्व प्रशिक्षु बैज प्राप्त प्रत्येक भावी नेता के लिए पशु से मनुष्य में और मनुष्य से 'देवमानव - पद' (God-man) में उन्नत हो जाना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है ! इसी विषय पर स्वामी विवेकानन्द द्वारा 3 फ़रवरी,1900 ई० को पसाडेना, कैलिफोर्निया के  शेक्सपियर क्लब में जो अंग्रेजी भाषण दिया था उसका हिन्दी भावानुवाद। (विवेकानन्द साहित्य खंड 7/177/Volume 4, Lectures and Discourses) (महामण्डल ब्लॉग सोमवार, 21 सितंबर 2020)

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