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सोमवार, 16 अक्तूबर 2023

🔱(1) * नेतृत्व की अवधारणा तथा उद्गम * [नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

प्रकाशक : 

श्री विजय कुमार सिंह,  (उपाध्यक्ष)  

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल,

6/1 ए, न्यायमूर्ति मनमथा मुखर्जी मार्ग,

कोलकाता - 700009] 


[Published by

Bijay Kumar Singh, Vice- President  

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal 

6/1 A, Justice Manmatha Mukherjee Row,

Kolkata - 700009 ]


(C) सर्वाधिकार सुरक्षित 

ISBN 978-81-86974-94-0 


प्रथम अंग्रेजी संस्करण                      दिसम्बर, 1986


प्रथम हिन्दी संस्करण                        दिसम्बर, 1991 


द्वितीय हिन्दी संस्करण                         दिसम्बर, 2009 


तृतीय हिन्दी संस्करण                           दिसम्बर, 2023      


मूल्य : 40


मुद्रक 

हरि ओम प्रेस 

झुमरी तिलैया, कोडरमा 

825 409 (झारखण्ड) 

मो० : 994149642  

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प्रकाशक का मन्तव्य    

      किसी भी रचनात्मक आन्दोलन की सफलता के लिये नेतृत्व अति आवश्यक है। परन्तु, सामान्यतः हमलोगों के मन में नेतृत्व की कोई स्पष्ट अवधारणा नहीं होती। इस विषय पर अन्यत्र कोई पुस्तक मिलने की सम्भावना भी बहुत कम है। हाल ही में इस विषय पर एक पुस्तक अमेरिका में प्रकाशित हुई है, किन्तु उसमें केवल कुछ अमेरिकी राष्ट्रपतियों की जीवनी तथा उपलब्धियों का ही वर्णन है।        

       भारत में 'चुनाव कैसे जीतें " ? जैसे विषयों पर कुछ पुस्तकें बाजार में अवश्य आयी हैं किन्तु समाज को समुचित दिशा देने के लिये किस प्रकार के नेताओं की आवश्यकता है,  किसी आंदोलन को सही मार्ग पर ले जाने के लिये किस प्रकार नेतृत्व का होना आवश्यक है , या देश की नयी पीढ़ी को राष्ट्र की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर देने के लिये अनुप्रेरित करने में समर्थ नेताओं में कौन -कौन से गुण होने चाहिये , इन महत्वपूर्ण/उद्देश्यपूर्ण  प्रश्नों के ऊपर हम कभी गम्भीरता से विचार करने की चेष्टा भी नहीं करते।

        महामण्डल द्वारा आयोजित होने वाले युवा प्रशिक्षण शिविरों तथा इसकी मासिक संवाद पत्रिका  'विवेक-जीवन' में इन्हीं सब प्रश्नों के ऊपर जो विवेचनायें होती रहती हैं , यह पुस्तक उन्हीं विवेचनाओं पर आधारित है। आशा की जाती है कि यह पुस्तिका महामण्डल के उन कार्यकर्ताओं को तो लाभ पहुँचायेगी ही, जो इस आन्दोलन को समुचित दिशा में आगे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध हैं , साथ ही साथ वैसे लोग भी लाभान्वित होंगे जो समाज कल्याण के किसी भी क्षेत्र में प्रभावकारी ढंग से कार्य करने की इच्छा रखते हैं। 

       श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा लिखित  यह महामण्डल पुस्तिका पहली बार 1986 में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुई थी, एवं 1991 में इसका द्वितीय वर्धित अंग्रेजी संस्करण भी प्रकाशित हुआ था । महामण्डल के " Be and Make : जीवन-गठन आन्दोलन " का प्रचार -प्रसार करने में समर्थ इस पुस्तिका की असीम उपयोगिता को देखते हुए  इसका प्रथम हिन्दी संस्करण झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के द्वारा 1991 में प्रकाशित किया गया था। उस समय तक यह पुस्तिका बंगला भाषा में भी अनुवादित एवं प्रकाशित नहीं हो सकी थी। 1994 ई ० में श्रीमती नन्दिनी गोस्वामी द्वारा अनुवादित "নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী" ( नेतृत्वेर आदर्श ओ गुणावली)  शीर्षक महामण्डल की बंगला पुस्तिका का प्रथम  संस्करण प्रकाशित होने के बाद यह अभाव भी समाप्त हो चुका है। 

    इस पुस्तिका के द्वितीय हिन्दी संस्करण का स्टॉक पूरी तरह समाप्त हो जाने के बाद , पूर्व संस्करण में रह गए कुछ त्रुटियों का निराकरण करते हुए यह तीसरा हिन्दी संस्करण प्रकाशित हो रहा है। छपाई खर्च में वृद्धि हो जाने के कारण विवश होकर हमें इस पुस्तक के मूल्य को थोड़ा बढ़ाना पड़ा है। आशा है, सुहृद पाठक इस असुविधा पर ध्यान नहीं देंगे।  

प्रकाशक 

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अनुक्रमणिका 

1. नेतृत्व की अवधारणा तथा उद्गम 

2. नेतृत्व सम्बन्धी धारणा एवं उसका स्वरुप 

3. सेवा करें प्रेरणा भरें 

4. नेतृत्व का रहस्य 

5. भावी नेताओं के लिये कुछ महत्वपूर्ण सुझाव 

6. नेता भी गढ़े/बनाये जा सकते हैं  

7. महामण्डल के नेताओं का दायित्व 

8. सभी गुणों को विकसित कीजिये 

9. नेतृत्व में स्वतंत्रता 


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[1] 

नेतृत्व की अवधारणा तथा उद्गम 

( Genesis and Concept of Leadership)

(নেতৃত্বের উৎপত্তি ও ধারণা)

[>>>1. सृष्ट जगत में विभिन्नता अनिवार्य ] 

         वर्तमान समय में 'नेता' शब्द इतना बदनाम हो गया है कि 'नेता' शब्द सुनने मात्र से ही मन वितृष्णा से भर उठता है। किन्तु, हमें इसे केवल गलत अर्थों में न लेकर इसके यथार्थ मर्म को भी समझने की चेष्टा करनी चाहिए। आइये, हमलोग यह समझने का प्रयास करें कि नेतृत्व आखिर कहते किसे हैं, क्यों और कहाँ हमें एक नेता की आवश्यकता अनुभव होती है तथा वास्तव में नेता कौन हैं। 

           हमलोग यह जानते हैं कि सभी मनुष्य एक ही तत्व के बने होते हैं, किन्तु सभी मनुष्य गुण और सामर्थ्य की दृष्टि से बिल्कुल एक समान कभी नहीं हो सकते। फिर भी हम सभी के मन में हर दृष्टि से बिल्कुल एक सामान हो जाने की इच्छा विद्यमान रहती है।  किन्तु प्राकृतिक तौर पर हम सभी बिल्कुल एक समान हैं ही नहीं। हमारे बीच अन्तर रहता ही है, क्योंकि सृष्ट जगत में स्वाभाविक तौर पर विविधतायें रहती ही है। विभिन्नता ही सृष्टि का आधार है। सृष्टि का अर्थ ही विविधता है। विविधताओं के बिना सृष्टि तो हो ही नहीं सकती। हमारी प्राचीन संस्कृति एवं परम्परा के अनुसार, हमारे अपने ऋषि-मुनियों के दर्शन के अनुसार मूल वस्तु केवल एक है- वह 'उर्ध्व मूल अधो शाखा' वस्तु ही सृष्टि का उद्गम (source-उत्स,श्रोत) है। उसी "एकमेवाद्वितीयं" से यह सारी सृष्टि अस्तित्व में आयी है। 

     इसका अर्थ यह हुआ कि सृष्टि के प्रारम्भ से पहले साम्य एवं संतुलन की ही अवस्था थी। उस अवस्था में जब केवल एकमेवाद्वितीय वस्तु ही थी तब, स्वाभाविक रूप से समानता थी। किन्तु जैसे ही उस मौलिक या  आदि साम्यावस्था में विक्षोभ हुआ कि सृष्टि प्रारम्भ हो गयी। इसीलिये सृष्टि के किसी भी क्षेत्र में असामनता तथा विभिन्नता अवश्य रहेगी। यह एक स्वयंसिद्ध मौलिक तथ्य है जिसकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते, उसे हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा और "इसे" # समझना भी होगा ! 

[# जो अर्थ "आ... आनन्द" --- 'राम' और 'श्याम' का है, Shiva Shakti Point का है, परमानन्द स्वरुप सत्यानन्द, वही अर्थ श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा- स्वामी विवेकानन्द का भी है - 'इसे' समझना भी होगा।]  

[>>>2.नेता का जीवन-लक्ष्य : सृष्ट-जगत में विभिन्नताओं को स्वीकार करते हुए साम्यभाव लाने का प्रयास करना।]   

       किन्तु इस विविधतापूर्ण जगत में हमारा प्रयास सदैव यही होनी चाहिये कि सारे विभेद मिट जायें तथा सतही तौर पर दिखाई पड़ने वाले असमानताओं की उपेक्षा करते हुए हमें एक सार्व-भौमिक समानता एवं वैश्विक -साम्यावस्था [ वसुधैवकुटुम्बकं भाव ] लाने के लिये प्रयासरत रहना चाहिये। यही जीवन का लक्ष्य है, यही वह उद्देश्य है जिसको प्राप्त करने की दिशा में इस विविधता और असमानता से परिपूर्ण जगत को अवश्य आगे बढ़ना चाहिए।

       यह एक मौलिक सिद्धान्त है तथा इसी मूलभूत सिद्धान्त को आधार बनाकर हमें अपनी उन्नति, समाज का कल्याण, भारत का कल्याण तथा वैश्विक मानवता के कल्याण के लिए प्रयासरत रहना चाहिये। हमारी सारी योजनायें समस्त कार्यक्रम इसी मूल सिद्धान्त पर आधारित होने चाहिये। लेकिन, इसके साथ ही साथ हमें वस्तुस्थिति को समझते हुए इस (दृष्टिगोचर) जगत में विद्यमान विभिन्नताओं, असमानताओं के साथ-साथ गुणों एवं सामर्थ्य के अन्तर को भी अवश्य स्वीकार करना चाहिये।   

सृष्टि की व्यक्तावस्था में विभिन्नताओं की अनिवार्यता के कारण सभी मनुष्यों की सांस्कृतिक, आर्थिक, नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि अवस्थाओं में अन्तर होना स्वाभाविक है। इसी कारण विभिन्न मनुष्यों की आकृतियों, अभिरुचियों तथा शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक क्षमता में असंख्य विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती हैं। जगत में जो कुछ भी  विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती है उसका कारण यही है। जगत में विद्यमान विविधताओं, असमानताओं की वस्तुस्थिति को स्वीकार करते हुए हमें सर्वप्रथम अपनी शक्तियों और क्षमताओं को प्रगति, विकास, पूर्णत्व, समानता एवं साम्यावस्था को प्राप्त करने की दिशा में नियोजित करना/लगाना होगा। 

>>>3. भवसागर से पार ले जाने में समर्थ नेतृत्व : 

       इस साम्यावस्था को प्राप्त करने के लिए हमें बहुत गहराई से चिन्तन कर पहले यह पता लगाना होगा कि अपनी शक्तियों और क्षमताओं का नियोजन करना समाज के किस स्तर से प्रारम्भ करें। इस विषय पर चिन्तन करने से हमलोग इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि इसे समाज के बिल्कुल निम्न स्तर पर रहने वाले या सामान्य स्तर पर रहने वाले व्यक्तियों से प्रारम्भ करने की अपेक्षा कुछ उच्च स्तर के व्यक्तियों से प्रारम्भ करना समुचित होगा।   

      क्योंकि जो व्यक्ति चेतना, सहानुभूति और समझ की दृष्टि से कुछ उच्चतर अवस्था में हों वे ही समाज के उनलोगों को ऊपर उठा सकेंगे जो चेतना, समझदारी, सामर्थ्य तथा गुणों की दृष्टि से उनकी अपेक्षा अभी निचले सोपान खड़े हों। यहीं पर नेतृत्व की क्षमता उभर कर सामने आ जाती है। सृष्टि या समाज में विद्यमान विषमताओं को स्वीकार करते हुए समता, साम्यावस्था, उन्नति तथा पूर्णता की प्राप्ति हेतु हमलोग भी कुछ प्रयास अवश्य कर सकते हैं। 

      अब, हमलोग नेतृत्व की अनिवार्यता तथा सच्चा नेतृत्व कैसा होता है- जैसे गूढ़ विषय को स्पष्ट रूप से समझने का प्रयास # करेंगे। विभिन्नता तथा विषमताओं से परिपूर्ण इस जगत में वैसे कुछ व्यक्ति जो विशेष गुणवान हैं, समझ और योग्यता की दृष्टि से जो अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ हैं, वे अपने इन विशिष्ट गुणों का उपयोग समाज में अपने से निचले सोपान पर खड़े मनुष्यों को ऊपर उठाने के लिए कर सकते हैं। सच्चे नेतृत्व का उद्गमबिन्दु (source) यही है।

     हमलोग इस सृष्टि में यह देखते हैं कि यहाँ सभी मनुष्यों में समझदारी, गुण और योग्यता की दृष्टि से कुछ-न-कुछ विभेद या अन्तर अवश्य रहता है, तथा हमें इसे बाध्य होकर स्वीकार भी करना पड़ता है। अब यदि वैसे लोग जिनमें कुछ विशेष शक्ति या सामर्थ्य है ,  अपनी उन विशिष्ट क्षमताओं का उपयोग निम्न सोपान पर खड़े लोगों को ऊपर उठाने तथा आत्मोन्नति के लिए प्रेरित करने में करते हैं तो, वे उन्हें अपनी विशिष्ट क्षमता से ऊपर उठा सकते हैं, और उन्नत मनुष्य बनने में उनकी सहायता कर सकते हैं। यही है नेतृत्व का मूलभूत सिद्धान्त। 

     यहाँ हमलोग इस सिद्धान्त को तो समझने का प्रयास करेंगे ही साथ ही साथ इसे व्यवहारिक रूप देकर यथासम्भव इसका उपयोग न केवल मानव समाज की सामान्य उन्नति के लिए करेंगे बल्कि अपने देश भारत की उन्नति में इसको विशेष तौर से उपयोग में लायेंगे। मानव जाति के महान पथ-प्रदर्शक नेताओं में से एक स्वामी विवेकानन्द ने पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने के जो उपाय बताये हैं, उस उपाय को हम अपने देश के युवा वर्ग के बीच प्रसारित करेंगे तथा युवाओं को उसी आदर्श पर चलने के लिये सदैव प्रेरित करने का प्रयास करते रहेंगे ! 

>>>4. महामण्डल के प्रत्येक भावी नेता को 'L'-OVE स्वरुप 'L'-ighthouse : C-IN-C नवनीदा के एक प्रेम-स्फुलिंग 'spark of love' से अपने ह्रदय को सदैव आलोकित रखना होगा। ]  

      नेता कौन हैं ? नेता कौन बन सकता है ? इस शब्द का प्रयोग हम बड़े ही चलताऊ ढंग से बिना कुछ विचार किये, जिस-तिस के लिए कर देते हैं। अतएव, कुछ लोग नेता होने के विचार से ही नफरत करने लगे हैं। 'नेता ' कहकर सम्बोधित किये जाने पर वे शायद यही सोच कर डर जाते हैं कि लोग, उनके बारे में भी निश्चित ही कोई गलत धारणा बना लेंगे।

     हमारे समाज में इन दिनों यह शब्द एक प्रकार से गाली ही माना जाने लगा है। क्योंकि इन दिनों मुख्य रूप से नेता केवल राजनीति के क्षेत्र # में ही दिखाई पड़ते हैं। [तीनों ऐषणाओं के गुलाम फिर भी कट्टर ईमानदार नेता केवल राजनीति/ या सरकारी तंत्र के क्षेत्र में ही दिखाई पड़ते हैं।] परन्तु, केवल इसी कारण से मानव जाति के सच्चे नेताओं की उपेक्षा कर मार्गदर्शक प्रकाश सतम्भ -'Lighthouse' के अभाव में अँधेरे में ही भटकते रहना उचित नहीं है। मनुष्य जाति के पथ-प्रदर्शक नेता [जीवनमुक्त शिक्षक] सदा से रहे हैं और आज भी अवश्य होने चाहिये। अतः हमें अपने मन से कुछ शब्द और विचारों के प्रति जो पूर्वाग्रह है उसे निकाल फेंकना चाहिए। शब्दों के सही अर्थों को समझकर, उसके अर्थों में विचलन से मन को हटाकर महान सिद्धान्तों का अपने दैनन्दिन/वास्तविक जीवन में उपयोग करना चाहिए। 

     इस जगत में मनुष्य जाति को ऊपर उठाने, सन्मार्ग दिखलाने तथा नेतृत्व प्रदान करने का दायित्व अपने कन्धों पर उठा लेने वाले सच्चे नेताओं का प्रादुर्भाव शताब्दियों और सहस्त्राब्दियों से होता चला आ रहा है , उन्हीं में से कुछ को हम आज भी श्रीराम , श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, श्रीचैतन्य, श्रीरामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द के नाम से जानते हैं। ये सभी मनुष्य जाति के सच्चे नेता हैं। जब हमलोग अंग्रेजी में नेतृत्व शब्द लिखते हैं तो Leader, Leadership या Lighthouse लिखने के लिये अंग्रेजी वर्णाक्षर के 'L' से आरम्भ करना पड़ता है। 

        'L' अक्षर से आरम्भ होने वाले जितने भी सुन्दर शब्द हैं, उन सब में 'Love' से बढ़कर सुन्दर दूसरा और कोई शब्द नहीं है। एक बार स्वामी विवेकानन्द से बार- बार यह अनुरोध किया जा रहा था कि आप अपने गुरु, अपने प्रियतम, अपने नेता, अपने सर्वस्व श्रीरामकृष्ण के बारे में  कुछ कहिये, जिनके चरणों में आपने अपना जीवन समर्पित कर दिया है। किन्तु, उनके बारे में एक शब्द बोलने में भी स्वामीजी को संकोच हो रहा था , वे मन ही मन अपने को असमर्थ पा रहे थे। अतः स्वामीजी बोले कि मैं उनके बारे में कुछ भी नहीं बोल पाउँगा। स्वामी जी जगत के विभन्न विषयों पर व्याख्यान दे सकते थे, वे कई ग्रन्थ लिख सकते थे, परन्तु अपने जीवन सर्वस्व के ऊपर एक शब्द भी कहने में हिचक रहे थे। उनको भय था कि उनके मुख से निकला कोई भी शब्द कहीं उनके गुरुदेव की महिमा को, उनकी महानता को सीमित न कर दे। वे  तो इतने महान हैं ! इतने विशाल हैं ! भला समुद्र जैसे अगाध और गगन सदृश अनन्त विस्तार को शब्दों में कैसे व्यक्त किया जा सकता है ? स्वामी विवेकानन्द उस सीमाहीन विस्तार को मापने में तथा उसे शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करने में अपने को असमर्थ पा रहे थे। किन्तु, जब बार-बार अनुरोध किया जाने लगा -तो उन्होंने श्रीरामकृष्ण के सम्पूर्ण अद्भुत व्यक्तित्व को केवल एक शब्द में व्यक्त करते हुए कहा - LOVE ! प्रेम ! " श्रीरामकृष्ण प्रेम हैं !

     कोई भी (भावी) नेता सच्चा नेता केवल तभी बन सकता है, जब उसके हृदय में इसी  प्रेमाग्नि का एक स्फुलिंग, एक टुकड़ा विद्यमान हो। जिनके ह्रदय में इस प्रेम का एक छोटा सा अंश भी विद्यमान नहीं है, वे किसी भी मनुष्य को उन्नति, पूर्णत्व या विकास की दिशा में नेतृत्व नहीं दे सकते। अतः नेतृत्व सम्बन्धी इस नूतन सिद्धान्त के आलोक में हमलोगों को अपने ह्रदय में इसी प्रेम को विकसित तथा प्राप्त करने के लिये प्रयासरत रहना चाहिये। गौतम बुद्ध, ईसा मसीह , मोहम्मद , श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द (कैप्टन सेवियर- नवनीदा) आदि महापुरुष केवल प्रेम की विभिन्न अभिव्यक्तियां मात्र थे। उन विभिन्न रूपों में  केवल प्रेम ही मूर्तमान हुआ था [और जिनमें से दो के चरणों में बैठने का सौभाग्य हम में से कुछ महामण्डल भाइयों को प्राप्त हुआ था - गुरुदेव और नवनीदा के साथ !]

   >>>5.'नेतृत्व का सिद्धान्त एक उदार  तथा महान विषय! '(Leadership Theory is a generous and great subject !

         क्या हमलोग भी नेता नहीं बन सकते ? क्या उस प्रेम के एक छोटे से अंश को भी अपने हृदय में  नहीं धारण कर सकते ? क्या हमलोग अपने आस-पास रहने वाले लोगों से प्रेम नहीं कर सकते ? क्या हम उन्हें इस अनित्य और दुःखपूर्ण संसार के कष्ट, दारिद्रय और विवशता के दलदल से ऊपर नहीं उठा सकते ? निश्चय ही हमलोग ऐसा कर सकते हैं और हमें यह अवश्य करना चाहिए। ऐसा नेता बन जाने के बाद हमलोग कितनी धन्यता का अनुभव करेंगे !  इसी प्रकार के हजारों नेताओं की हमें आवश्यकता है।  [को दरिद्रः ?] अभी हम कितना दरिद्र, किंतना अभावग्रस्त, कितना क्षुद्र हैं ! किन्तु, यदि हम स्वयं को बड़ा बनना चाहते हैं,तथा दूसरों को भी बड़ा बनाना  चाहते तो, हमें पहले स्वयं अपने गुणों तथा क्षमताओं को विकसित करना होगा, तथा अपने आस-पास रहने वाले लोगों को भी इन गुणों तथा क्षमताओं को विकसित करने में सहायता करनी होगी ताकि वे भी बड़े हों। 

      नेतृत्व के सम्बन्ध में इस संक्षिप्त जानकारी से परिचित होकर क्या हमें ऐसा अनुभव नहीं होता कि 'नेतृत्व का सिद्धान्त' एक उदार  तथा महान विषय है ? सचमुच वे लोग नेता थे तथा हम लोग भी नेता बनना चाहते हैं। [सचमुच 'Yato mat, tato path “As many faiths, so many paths.” की शिक्षा देने वाले  'The Holy Trio' श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा - स्वामी  -विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर, प्रेममय C-IN-C नवनीदा जैसे लोग 'Be and Make वेदान्त लीडरशिप परम्परा' (जीवनगठन आन्दोलन :Life Building movement के  उदार और महान नेता थे, और हमलोगों को भी वैसा नेता बनना चाहते हैं।]  

>>>6. महामण्डल का उद्देश्य C-IN-C नवनीदा जैसे प्रेममय नेताओं/राजर्षियों का निर्माण : 

     हमने यह देखा कि इस सृष्ट जगत में विभिन्नतायें रहती ही हैं।  इस वस्तु स्थिति को स्वीकार करते हुए यदि हम कुछ वैसे लोगों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए तैयार कर सकें जो इन सिद्धान्तों को आत्मसात करने में सक्षम हों तो, समाज के दूसरे लोगों की सहायता करने में उनका भी उपयोग किया जा सकता है। [यदि महामण्डल कुछ मध्यमवर्गीय राजर्षि लोगों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए तैयार कर सके , जो "को दरिद्रः ? यस्य तृष्णा /ऐषणा विशालः !" जैसे सिद्धान्तों को आत्मसात करने में सक्षम हों, तो समाज के दूसरे लोगों की सहायता करने में उनका भी उपयोग किया जा सकता है। ?] 

       श्रीरामकृष्ण एवं स्वामी विवेकानन्द यह अभिनव सिद्धान्त - (व्यावहारिक वेदान्त) आज भी क्रियाशील है। जैसा कि अपने जीवन काल में ही भविष्यवाणी करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की थी - " इन अभिनव सिद्धान्तों की तरंगे ऊँची उठ चुकी हैं , उस प्रचण्ड जलोच्छ्र्वास का कुछ भी प्रतिरोध न कर सकेगा। आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गयी है। निर्बाध , निःसीम , सर्वग्रासी उस प्लावन को मैं भूपृष्ठ पर अवतरित होता देख रहा हूँ। इस ज्वार ने लगभग सम्पूर्ण विश्व को ही ढँक लिया है। अब, इसे कोई रोक भी नहीं सकता, कोई भी शक्ति इन तरंगों को फिर से वापस समुद्रतल में ढकेल भी नहीं सकती। यह ज्वार आगे बढ़ते हुए सम्पूर्ण धरातल को आच्छादित कर लेगा , ये विचार सभी के मस्तिष्क में प्रविष्ट हो जायेंगे , सम्पूर्ण मानवता इन विचारों से प्रभावित हो जायेगी। " 

          हमलोग स्वामीजी के इन विचारों को जीवन और व्यवहार में अपनाकर 'सम्पत्तिवान ' बन जायेंगे , अपने जीवन की उच्चतर उपलब्धियों को अर्जित करने की चेष्टा करेंगे तथा कुछ दूसरे सहकर्मियों को भी अपने साथ लेते हुए आगे बढ़ते जायेंगे। [हमें सतर्कता के साथ यह भी देखना होगा कि ] हम स्वयं को शारीरिक , मानसिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध करने के प्रयास में व्यस्त रहते हुए दूसरों को कहीं असत विचारों की अग्नि में झुलसते तो नहीं छोड़ दे रहे हैं? अपने  साथ-साथ उनको भी समृद्ध बनाते हुए  [षट्सम्पत्त से राजर्षि बनाते हुए] आगे बढ़ना ही नेतृत्व का सार है।  

         श्रीरामकृष्ण कहते थे- " कुछ तख्ते इस प्रकार की लकड़ियों से बने होते हैं कि उस पर यदि एक कौवा भी बैठ जाये तो वह डूब जाता है; पर कुछ तख्ते ऐसी लकड़ियों से बने होते हैं जो स्वयं डूबे बिना अपने साथ- साथ अपने ऊपर लदे बोझ को भी नदी के उस पार तक पहुँचा सकते हैं। " जो नेता होते हैं -वे इसी प्रकार से न डूबने वाले लकड़ी के तख्ते जैसे हैं। वे दूसरों के दायित्व को भी अपने कन्धों पर उठा लेते हैं। वे उनका बोझ स्वेच्छा से बिना किसी निजी स्वार्थ, पारिश्रमिक या किसी लाभ की आशा रखे ही (100 % निःस्वार्थ केवल लोक-कल्याण करने की इच्छा से) उठा लेते हैं। उनके लिये तो दूसरों की उन्नति, सुधार, विकास, समानता और पूर्णत्व की प्राप्ति ही प्रत्यक्ष तौर पर एकमात्र प्रेरक शक्ति हो सकती है,  तथा इन सबके पीछे परोक्ष तौर पर एक मात्र प्रेरणा रहता है -'Love'! और उस परोक्ष प्रेरणा के अपरोक्ष स्रोत रहते हैं - उनके ह्रदय में विद्यमान ईश्वर - क्योंकि God is Love ! ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं, तभी तो वे प्रेम के वशीभूत होकर 'मनुष्य ' को देवमानव  (100% Unselfishness) में रूपान्तरित करने के लिए बार-बार धरती अवतरित होते रहते हैं ! 

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 [#Leadership in Film -'Guide' (1965) : 

   >>जब मतलब से प्यार होता है, तो प्यार से मतलब नहीं रहता..... 12 दिन क्या मैं हमेशा के लिए खाना छोड़ दूं अगर उससे तुम्हारा भला होता है तो... (स्वामीजी ने जैसे बाघ को देखकर कहा था - मैं भी भूखा हूँ, तुम भी भूखे हो !... मैं तो तुम्हें खाकर अपनी भूख नहीं मिटा सकता , पर तुम मुझे खाकर अपनी भूख मिटा सकते हो !) 

  >>" आना- जाना क्या हमेशा अपने हाथ में थोड़ा होता है दोस्त;  इंसान इधर जाना चाहता है किस्मत कान पकड़ कर उधर ले जाती है...... काम उसका, नाम तेरा...... मुसीबत का तो चिता तक साथ रहता है...... दुख वो अमृत है जिससे पाप धुलते हैं... 

  >> " मौत एक ख्याल है , जैसे जिंदगी एक ख्याल है; मौत एक ख्याल है,  जैसे रोशनी एक ख्याल है। न सुख है न दुख है, न दीन है न दुनिया, न इंसान न भगवान ...... ।  " सिर्फ मैं हूँ, ......बस मैं। मैं। मैं।  ....... सिर्फ मैं!  ......इन लोगो को मुझ पर विश्वास है और अब मुझे इनके विश्वास पर विश्वास होने लगा है.....सोया था पर अब कुछ-कुछ जगने लगा हूँ!  लगता है आज हर इच्छा पूरी होगी, पर मजा देखो, आज कोई इच्छा ही नहीं रही... .

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान। (मोल करो शरीर-मन में अन्तर्निहित विवेकज-ज्ञान रूपी तलवार का, और माया रूपी म्यान को लाँघ जाओ , या पड़ी रहन दो) 

(# 'विवेकज ज्ञान ' (eternal-mortal conscience,  शाश्वत -नश्वर विवेक) > 'शुद्ध चेतना' (Pure Consciousness) ही सर्वशक्तिमान और परम सत्य है और उसके अलावा-कुछ भी महत्वहीन है ! केवल मनुष्य-शरीर मिलने पर ही यह विवेक प्राप्त होता है कि "ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या" तब जो वेदान्त डिण्डिम वाला विवेकानन्द होता है - वह समझता है कि मैं अभी पुरुष देहधारी चेतना हूँ, किन्तु न पुरुष (M) हूँ न स्त्री (F) हूँ - सिर्फ मैं (Pure Consciousness) हूँ! जबकि किसी भी पशु शरीर में यह 'eternal-mortal conscience ' शाश्वत -नश्वर विवेक सम्भव नहीं] 

[मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का नेतृत्व : भवसागर से पार ले जाने में सक्षम, अर्थात माया 'Time-Space-Causation' से transcend करा देने में समर्थ नेताओं का नेतृत्व  कैसा होता है? .... जिस जगह को देखकर विवेकानन्द की याद आये, या परमात्मा की याद आए  वो तीर्थ कहलाता है, और जिस व्यक्ति के चेहरे दर्शन से परमात्मा में भक्ति जगे, वो महात्मा कहलाता है…। 

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क List of Useful Blogs to be Edited during DP of 2023  

गुरुवार, 22 दिसंबर 2022

सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति [Genesis Of true Leadership ]/

(1) सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति [Genesis Of true Leadership ]

 (1.1)>>>नेतृत्व का मौलिक सिद्धांत (Fundamental principle of Leadership)

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गुरुवार, 22 दिसंबर 2022

सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति [Genesis Of true Leadership ]/


(1) सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति [Genesis Of true Leadership ]


 (1.1)>>>नेतृत्व का मौलिक सिद्धांत (Fundamental principle of Leadership)

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मंगलवार, 19 सितंबर 2023

🔱🙏यम और नचिकेता की कथा ! 🔱🙏 ["हथिया नक्षत्र"/ पितृपक्ष जानिबिघा तीन दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर ":- 30 सितम्बर,से 2 अक्टूबर -2023" ] "जीवन छोटा है , जीवन को उसकी पूर्णता में जियो" - जीवन को वैराग्य की प्रेरणा से जीओ ! 🔱🙏 "The Idea— Life is short“ Live life to the fullest :

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बुधवार, 27 सितंबर 2023

🔱🙏श्री रामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते हैं ?🔱🙏

🔱🙏श्री रामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते हैं ?🔱🙏 

विष्णुपद मन्दिर गया और अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण : कठ उपनिषद का अर्थ है  'क=ब्रह्म' (इन्द्रियातीत सत्य) , 'ठ= निष्ठा/श्रद्धा! ',  3H-2H= 1H, 1-1=0, लेकिन ∞- ∞ =  ∞ ही रहता है इसमें कोई संशय नहीं है। 

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बुधवार, 19 नवंबर 2014

$$$$ १०.अभ्यास और लालच- त्याग / ११. सम्यक आसन [ " मनःसंयोग " लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]

  $$$$$$$$$$$$$$$$$$$ १०.चित्तवृत्तिनिरोध का नुस्खा 

 (विवेक-दर्शन का अभ्यास और लालचत्याग -उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः)

मन ही हमलोगों का सबसे अनमोल संसाधन (Most Precious Human Resources) है, ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है।

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बुधवार, 27 सितंबर 2023

🔱🙏श्री रामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते हैं ?🔱🙏

🔱🙏श्री रामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते हैं ?🔱🙏 

विष्णुपद मन्दिर गया और अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण कठ उपनिषद का अर्थ है  'क=ब्रह्म' (इन्द्रियातीत सत्य) , 'ठ= निष्ठा/श्रद्धा! ',  3H-2H= 1H, 1-1=0, लेकिन ∞- ∞ =  ∞ ही रहता है इसमें कोई संशय नहीं है। 

गदाधर परमपद मन्दिर गया के फल्गु नदी में पिण्डदान क्यों होता है? हमको तो लगता है नचिकेता भी बोधगया के ही आसपास ही कहीं रहता होगा !  क्योंकि हमलोग जानते हैं कि गदाधर दर्शन के लिए ठाकुर के पिताजी विष्णुपद मंदिर आये थे।  स्वप्न में भगवान विष्णु ने कहा था -तुम्हारी सत्य में निष्ठा है- मैं तुम्हारे यहाँ आऊंगा! 

जैसी बात होती थी, सबसे महत्वपूर्ण हमारे पास जो चीज है, वो है मन ! सृष्टि कहाँ से शुरू हुई ? ईश्वर, कहते हो, भगवान कहते हो ब्रह्म कहते हो, जो भी धारणा हमारी हो सकती है -सृष्टि वहीं से शुरू हुई। और उनके मन से,  सृष्टि करने की इच्छा से, इच्छा मन में ही आती है। उसी प्रकार हमलोगों के मन से ही सब कुछ बनता है। इसीलिए कहा गया है - 


मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।

 बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥

(ब्रह्मबिन्दु/अमृतबिन्दु उपनिषद्- श्लोक 2)

मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का कारण है। इन्द्रिय विषयों में आसक्त मन- अर्थात तीनों ऐषणाओं में आसक्त मन बन्धन का और इन्द्रिय विषयों से विरक्त मन मुक्ति (मोक्ष) का कारण कहा गया है।" अतः जो मन निरन्तर ठाकुर, माँ, स्वामीजी के चिंतन मेँ लगा रहता है, वही परम मुक्ति का कारण है। 
देह (शरीर) की भी जरूरत है, पर इससे बहुत महत्वपूर्ण है हमारा मन। अगर मन को पकड़ा नहीं गया, वशीभूत नहीं किया गया, तो शरीर चाहे कितना भी बलवान हो उससे कोई लाभ नहीं होगा। 
 तो ये सब मन को एकाग्र करने से ही होता है। हमलोग मूल्यवान वस्तु (सोना-चाँदी?) की खोज में इधर-उधर बहुत दौड़ते हैं, पर नहीं जानते कि हमारे भीतर ही सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है हमारा मन। हमलोग बाहर में ढूँढ़ते हैं- लेकिन जब हमलोग " आवृत्त चक्षु: अमृतत्वं इच्छन् " आँखों को बाहर से मोड़कर भीतर की ओर घुमाना चाहिए । 
[पराञ्चिखानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन्‌।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैषदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्‌ ॥ 
(कठोपनिषद -२.१.१)
अन्वय : स्वयम्भूः खानि पराञ्चि व्यतृणत् तस्मात् पराङ् पश्यति न अन्तरान्मन्। कश्चित् धीरः आवृत्तचक्षुः अमृतत्वम् इच्छन् प्रत्यगात्मानम् ऐक्षत् ॥
'स्वयंभू' ने देह के द्वारों को, समस्त इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया है, इसीलिए मनुष्य की आत्मा बाहर की ओर देखती है, 'अन्तरात्मा' को नहीं। यत्र-तत्र विरला ही कोई ज्ञानी पुरुष (धीर पुरुष) होता है जो अमृतत्व की इच्छा करते हुए अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी करके 'अन्तरात्मा' को देखता है।] 

 >>>Two things are necessary Mind and Its Control: How to practice? मन और उसका नियंत्रण > अभ्यास कैसे करें? वैराग्य और अभ्यास दो चीजों की जरूरत है ! 'अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।' (यो० सू० 1.12) बाहरी आँखें बंद करके >'वैराग्य' और भीतरी आँखें खोलकर >'अभ्यास' कैसे करें?? 

 Mind and Its Control: How to practice? (Two things are necessary -By closing the outer eyes>'वैराग्य' (Renunciation) and opening the inner eyes > अभ्यास (Practice-Be and Make) कैसे करें??

 विवेकदर्शन या मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिए,  मन पर विजय पाने के लिए - या पुनर्मृत्यु पर विजय पाने के लिए दो चीजें आवश्यक हैं: भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं- 'त्याग और अभ्यास ' आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये - शेष सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। ( अर्थात वैराग्य के भाव के साथ सेवा >मनःसंयोग का प्रशिक्षण ..... देते जाइये)
 
>>> साहचर्य का नियम (Law of association):

श्रीमद्भागवत में कहा गया है –   यदि देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भयवश अपने मन को बुद्धि तथा पूर्ण एकाग्रता के साथ किसी विशेष शारीरिक स्वरूप में स्थिर कर दे, तो वह उस स्वरूप को अवश्य प्राप्त करेगा, जिसका वह ध्यान करता है।
यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया ।
स्‍नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्तत्स्वरूपताम् ॥ २२ ॥
शब्दार्थ-यत्र यत्र—जहाँ जहाँ; मन:—मन को; देही—बद्धजीव; धारयेत्—स्थिर करता है; सकलम्—पूर्ण एकाग्रता के साथ; धिया— बुद्धि से; स्नेहात्—स्नेहवश; द्वेषात्—द्वेष के कारण; भयात्—भयवश; वा अपि—अथवा; याति—जाता है; तत्-तत्—उस उस; स्वरूपताम्—विशेष अवस्था को।
तात्पर्य- इस श्लोक से यह समझना कठिन नहीं है कि यदि कोई व्यक्ति निरन्तर भगवान् का ध्यान करता है, तो उसे भगवान् जैसा ही आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होगा। धिया शब्द विशेष अर्थ में पूर्ण बौद्धिक संकल्प [Auto-suggestion- a miracle that obeys you.] को सूचित करता है। इसी तरह सकलम् शब्द मन की एकाग्रता का सूचक है। चेतना की ऐसी तल्लीनता से मनुष्य को अगले जीवन में वैसा ही स्वरूप प्राप्त होगा, जिसका वह चिन्तन करता रहता है। यह अन्य शिक्षा है, जो कीट-जगत से सीखी जा सकती है, जैसाकि अगले श्लोक में बतलाया गया है।
यदि प्राणी स्नेह द्वेष या भय से भी जान-बूझकर एकाग्रता से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का रूप प्राप्त हो जाता हैं । हे राजन् ! जैसे भृंगी एक कीड़े को पकड़ कर दीवाल पर अपने रहने के स्थान पर बन्द कर देती हैं, और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर को बिना त्यागे ही भृंगी के स्वरूप को प्राप्त हो जाता हैं । इसी तरह मनुष्य को अन्य का चिन्तन छोड़कर परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिये ।  
अपने मन की वृत्ति को परमात्मा के ध्यान में ऐसी लगानी चाहिये कि विषयों के स्फुरित होने पर भी मन की वृत्ति विषयों में न जा सके और कभी भी हरि के स्मरण को न छोड़ सके । जैसे माता अपने बच्चे को प्रतिक्षण याद करती रहती हैं और घर के कार्यों में व्यासक्त होने पर भी उसको नहीं भूलती । 
जैसे योगी प्रतिक्षण संयम के द्वारा अपने वीर्य बिन्दु की रक्षा का ध्यान रखता है । जैसे कुरुपा नारी सुन्दर रूप का स्मरण करती रहती हैं, जैसे रस्सी पर चढ़ी हुई नटणी पतन के भय से उस पर चलती हुई रस्सी का ध्यान नहीं भूलती । जैसे कच्छपी अपने अण्डों को नेत्र से देखती रहती हैं । जैसे चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र के जल की बूंद से प्रेम करता हैं ।
जैसे कीड़ा भृंगी का ध्यान करता हुआ, भृंग बन जाता हैं उसी शरीर में रहता हुआ । जैसे मृग बाँसुरी के नाद को सुनता हुआ प्रेम से अपने प्राण त्याग देता हैं । जैसे पतंग अग्नि में पड़कर शरीर जला देता हैं । जैसे मछली जल के बिना मर जाती हैं । इसी प्रकार भगवान् का भक्त भी प्रेम से भगवान् को भजता हैं । ऐसा स्मरण ही सर्वोत्तम स्मरण कहलाता हैं । 
हमारी सभी इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हैं, लेकिन इसको कभी कभी भीतर भी लेने की कोशिश करनी चाहिये। हमारे भीतर और भी बहुमूल्य सम्पत है। हमारी दृष्टि किसी वस्तु के भीतर जो है, वो तो है; लेकिन हम जिस दृष्टि से उसको देखते हैं - -उससे उसका भाव, उसका महात्म्य भी बढ़ जाता है।"
जब हम आँखों को मूँदकर अर्थात (बाह्य नेत्रों को मूँदकर और भीतर के नेत्रों को खोलकर) जिस दृष्टि से हम किसी वस्तु को देखते हैं -उससे  उसका महत्व और भी बढ़ जाता है। उसका भाव, उसका महात्म्य भी बढ़ जाता है।" मेरी दृष्टि से ऐसा होता है। इसलिए अब हमलोगों को भीतर देखने का अभ्यास करना है - 'अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।'  यो० सू० 1 / 12/ 
दो चीज की जरूरत है -Two things are necessary' - पहला है वैराग्य ! यहाँ सूत्र में अभ्यास पहले है , और वैराग्य बाद में है। लेकिन व्यवहार में पहले वैराग्य का भाव रहेगा तब अभ्यास फलदायी होगा। वैराग्य नहीं रहने से कुछ नहीं होगा, अभ्यास बहुत करने से भी कुछ नहीं होगा। बैठा --उठा !  कुछ नहीं हुआ। लेकिन विधिवत 5 -10 मिनट बैठने -उठने से, सही रूप से बैठकर उठने से दृष्टि भी बदल जाएगी- बिलकुल। इसलिए हमें मन के जोर से - संकल्प की दृढ़ता से ये अभ्यास हमें करते जाना चाहिए। कभी इसे बन्द नहीं करना चाहिए। सुबह-शाम नहीं हुआ तो रात को जरूर हम अभ्यास करने बैठेंगे; और किस पर ध्यान रखेंगे 
>>>तो 'रामोकृष्णो' (रामकृष्ण)  का क्या मतलब है ?  {भगवान् (श्रीरामकृष्ण) की आराधना करने के लिये भगवद्-तत्त्व को समझने की जरुरत है।}

जैसे यहाँ कहा जाता था , स्वामीजी को हमारा बंधु कहो ,गुरु कहो, शिक्षक कहो, जो भी हो -Swami Vivekananda is our friend, teacher or  Guru; so if we love him, That comes from my heart, I can't think otherwise. ठाकु-माँ-स्वामी जी की भक्ति करना बहुत अच्छी बात है; लेकिन भक्ति करना आसान नहीं है, और प्रेम बिल्कुल सहज है !  Devotion is alright, Very good!  But devotion is also not so easy. -But Love is spontaneous ! यदि मित्र-और गाईड स्वामीजी, माँ और ठाकुर की दया को याद करके हमारे ह्रदय में भी स्वामीजी के प्रति वही प्रेम किसी प्रकार जाग्रत हो जाये , तो हमलोग उनके और नजदीक आ जायेंगे। और जब हमलोग उनके बिल्कुल निकट आकर, बिना कुछ छुपाये उनका चिंतन करने कलगेंगे तो हमलोगों का यह पूरा शरीर -मन और ह्रदय सब कुछ बदल जायेगा; सब कुछ रूपान्तरित हो जायेगा। यह अब स्थूल शरीर (Physical Body) भी नहीं रह जायेगा। इसके लिए हमलोगों को जो अभ्यास करना होगा, पतंजलि योग सूत्र के अनुसार वह आठ चरणों में करना होगा।
पहला है कंट्रोलिंग - शम-दम बाह्य संयम और भीतर का संयम रहना चाहिए, लालच को कम करते जाना चाहिए। आसन - मेरुदण्ड या रीढ़ की हड्डी सीधी रखकर अर्ध पद्मासन में बैठना चाहिए। पद्मासन का अभ्यास नहीं रहने से शरीर को थोड़ा कष्ट होगा तो मन उधर चला जायेगा। अर्ध पद्मासन में बहुत देर तक बैठा जा सकता है , आधा घंटा -एक घंटा भी बैठ सकते हैं।  शरीर की ओर मन नहीं जायेगा। अर्धपद्मासन में बैठकर फिर चिंतन करना चाहिए। 

क्या चिन्तन, किसका चिंतन करना, किसका ध्यान करना चाहिए ? अभी देखिये - मनःसंयोग के पहले जो रामकृष्ण स्त्रोत्र चल रहा था, उसके बारे में अभी मेरे मन में जो चल रहा था, वो बतलाता हूँ। उसमें रामकृष्ण -रामकृष्ण बार-बार चलता था। रामकृष्ण नाम का  मतलब क्या है ? राम के बारे में रामायण से जानते हैं। कृष्ण के बारे में महाभारत आदि बहुत से ग्रन्थ है। लेकिन रामकृष्ण का क्या मतलब है ?
  वही जो राम का है, जो कृष्ण का है। इसमें राम नाम का क्या मतलब है?कृषि का अर्थ है भू जो भू भी आनन्द देता है।  "One who attracts is Rama." -"जो आकर्षित करे वही राम है।" "रमयति" means one who delights you. जो तुम्हारे ह्रदय को आनन्द से भर दे, यह राम दशरथ के पुत्र ही नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक शक्ति भी हैं- 'आत्मा-राम' हैं (आत्म-ज्योति दर्शन के समय का ब्रह्मानन्द है, वही राम है !) जो प्रत्येक ह्रदय में निवास करते हैं ! आत्मा का आनन्द एक सार्वभौमिक चुंबक है जो हर चीज़ को आकर्षित करती है।" 
>>>तो 'रामोकृष्णो' (रामकृष्ण)  का क्या मतलब है ?  {भगवान् (श्रीरामकृष्ण) की आराधना करने के लिये भगवद्-तत्त्व को समझने की जरुरत है।}
 Same thing - राम और कृष्ण , Same thing - रमयति इति राम: (रामो) – जो (परम्)-आनन्द देता है, वो है राम। कृष्ण क्या है -"कृषि भू वाचकः शब्दः णस्य तस्य निवृत्ति वाचकः" कृषि का मतलब भू या पृथ्वी, जो भू को भी आनन्द देता है- वो है कृष्ण । सभी मनुष्यों के मन को जो आनन्द देते हैं, सभी जीवों को जो आनन्द देते हैं -राम  - रमयति इति राम: (रामो) वे हैं राम। और कृष्ण भी वही हैं। सब जीवों को जो 'आ ' आनन्द देते हैं - ये हैं राम, ये हैं कृष्ण ! एक व्यक्ति राम वहाँ का (अयोध्या का) राजा था, दूसरे कृष्ण द्वारिका के राजा थे। केवल इतना ही नहीं।  रामायण-महाभारत पुराण आदि कहानियों के माध्यम से ज्ञान को साधारण जनता तक शिक्षा पहुँचाते हैं। केवल ऐसे कोई व्यक्ति थे या नहीं ? इस पर बहस में न पड़कर, लेकिन इसके पीछे, उनके नाम के बीच में जो भाव है, उसको पकड़ना चाहिए ; वह बहुत सुन्दर है। उनको राम या कृष्ण को एक प्रतीक के रूप में - किसी Image को लेने से यदि हमारे भीतर बहुत सुन्दर कोई बड़ा भाव आ जाता है, जो बहुत आनन्द देता है, वह क्या helpful है या नहीं ? यह देखना है। It is very helpful ' - भले ही ये सब कहानियाँ बच्चों के लिए लिखी गयी हों। 
बच्चे कहानियाँ सुनकर बहुत खुश हो जाते हैं। Stories are very good tutors .in earlier ages  वे इस तरह की कहानियाँ और सुनने के लिए आतुर हो जाते हैं। विश्व के हर देश में हर युग में ऐसी कहानियाँ-  'Aesop's Fables of the West'-पाश्चत्य जगत में बच्चों को नैतिक शिक्षा देने वाली प्रसिद्द " ईसप की दंतकथाएँ " होती हैं। ( ईसप की दंतकथाओं में शामिल कई कहनियां, जैसे लोमड़ी और अंगूर (जिससे “अंगूर खट्टे हैं” मुहावरा निकला) भारत में भी इस तरह की कई बच्चों को नैतिकता की शिक्षा देने वाली पुस्तकें पढ़ी जाती हैं। उन सभी का जड़ किन्तु पुराणों में पाया जाता है। आजकल कुछ भी रिसर्च पेपर छाप कर उसको न्यू फिलॉसफी कहने का चलन बढ़ गया है। लेकिन प्राचीन दर्शन तो सबसे पहले भारत में ही जन्में थे। वेदों और उपनिषदों में हम वास्तविक दर्शन देखते हैं। 
 
(and we see in our own time , the understanding and application of these great ideas shown very beautiful in the life of Sri Ramakrishna, Holy Mother Sarada devi and Swamiji.)  भारत ऐसे सन्त -महात्मा लोग बहुत बड़ी संख्या में आते रहते हैं। और भी देशों में आते हैं -लेकिन इक्के-दुक्के लोग ही आते हैं। भारत में और भी कई महान महापुरुष हुए हैं।  पर यदि हम उनके पास शिक्षा लेने जायेंगे -तो हमलोग उनकी शिक्षाओं और उनके जीवन में थोड़ा अन्तर दिखाई देगा। (Difference in their teachings and their life, Here we have the oldest philosophy) पर ठाकुर-माँ -स्वामीजी के जीवन में ही हमको सबसे प्राचीन दर्शन, 'वेदान्त -दर्शन'  दिखाई देखा। वेदान्त का मतलब क्या है? वेद का अर्थ है ज्ञान ! Veda doesn't mean some books . वेद का अर्थ पुस्तक/ग्रन्थ नहीं समझना चाहिए। They came in book form only the other day- पुस्तक के रूप में तो वे हाल में छापे गए। But they were orals, they came as orals from the mouth of teachers to the students . They used to hear , and after hearing they used to memorize themand recited  again , that is how it has came . लेकिन वे वेद-वाक्य, महावाक्य या ज्ञान शिक्षकों के मुख से विद्यार्थियों तक मौखिक भाषा के रूप में हजारों वर्ष पहले आये हैं । विद्यार्थी लोग उसे सुनते थे और सुनने के बाद उन्हें याद कर लेते थे, और गा कर उसका पाठ करते थे। (तैत्तरीय उपनिषद में तो उगल भी दिए थे)
इसीलिए वेदों को (महावाक्यों को) श्रुति कहा जाता है - शिष्यों ने इसे सुना है। सुनने से आया है। सुनकर याद है और फिर उसे अपने मुँह से निकालता है। उपनिषद क्या है ? उसे वेदान्त भी कहा जाता है। वेदों का जो शास्त्र है , उसके अन्त में जो है। वेदों के अन्त में उपनिषद है। और उसकी शिक्षाओं को अपने जीवन से demonstrate करने वाले महापुरुषों (मार्गदर्शक नेताओं) का भारत में कई बार अवतरण हुआ है। और इनमें से सब से अर्वाचीन हैं - हमारे युग के हैं , आधुनिक काल में जो अवतरित हुए हैं , वे हैं -श्री रामकृष्ण। 
मुझे एक ऐसे व्यक्ति को देखने का सौभाग्य मिला है -जिन्होंने श्रीरामकृष्ण को देखा था। मैंने ऐसे कई लोगों को देखा है , जिन्होंने माँ सारदा देवी को देखा था। और मैं कमसे कम एक व्यक्ति से मिला हूँ जिन्होंने स्वामी विवेकानन्द को देखा था। इसलिए वे कोई पौराणिक कहानी के पात्र नहीं थे , उनका जन्म हमारे युग में ही हुआ था। हमारे युग में ही वेदों के सिद्धान्त को, उपनिषदों के दर्शन को अपने जीवन से प्रदर्शित करने में पूर्ण सक्षम ठाकु-माँ -स्वामीजी में और उनके १२ शिष्यों में आविर्भूत हुए थे। 
भगवान धरती पर अवतरित हुए होंगे या नहीं, उस युग में हमलोग नहीं थे। पर इस युग में हमारे टाइम में तो ये तीनो - जिनको हमलोग बेलपत्तर का तीन पत्तों वाला त्रयी कहते हैं। वेदों का एक नाम त्रयी भी है। जैसे श्रुति भी वेदों का नाम है , वैसे वेद तो चार हैं , ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद , अथर्व वेद, फिर त्रयी  नाम क्यों हैं ? गद्य ,पद्य और संगीत की त्रयी है उसमें। इन वेदों में कुछ गलत है, ऐसा अभी तक कोई साबित नहीं कर सके हैं। हमलोग इस युग में जन्में हैं -जब मानवशरीर में आकर ये तीनों का त्रयी -Three human lives retold us the whole philosophical idea. तीन मानव जीवनों ने हमें वेदों के संपूर्ण दार्शनिक विचार को पुनः अपने जीवन में उतार कर बताया। हमें इन सिद्धान्तों का उपयोग अपने जीवन में करना चाहिए। इसीलिए हमलोग सुबह शाम कहते हैं - "स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे । अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ॥ " 
श्री रामकृष्ण देव को अवतारवरिष्ठ  क्यों कहते हैं ? बहुत से लोग अपने अपने धर्म के अवतार को मानते हैं, कुछ लोग नहीं मानते हैं। ये अवतरवरिष्ठ कैसे हो गए ? ईसा मसीह भी अवतार हैं। पैगम्बर मोहम्मद अवतार हैं। हमलोग मानते हैं, मुसलमान लोग नहीं भी मान सकते हैं। हमें नहीं मालूम है, हमलोग उनको भी अवतार मानते हैं।  इस देश में कितने अवतार हैं। रामचन्द्र हैं। उनसे भी पहले हुए हैं -दशावतार की बात हमलोग जानते हैं। कितने अवतार हैं , बुद्ध एक अवतार हैं। दस अवतार हैं -आते आते हमारे जमाने में श्री रामकृष्णदेव आये थे। तो स्वामी विवेकानन्द उनको प्राणम -मंत्र में बोलते हैं - अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ! अवतार वरिष्ठ क्यों बोलते हैं ? क्या इसलिए कि वे हमारे गुरु हैं , हमारे भाषा बोलने वाले राज्य से हैं क्या इसलिए ? नहीं ! अवतार लोग क्या किये हैं? वे लोग धर्म प्रचार करते हुए, या किसी नए धर्म की शिक्षा देते हुए , अपने समय में धर्म को स्थापित किये हैं।  समय के प्रवाह में हर चीज में क्षरण होता है। जब धर्म में इतनी ग्लानि हो जाती है कि लोग अपने आध्यात्मिक लाभ के लिए उसका अनुसरण भी नहीं कर सकें , तब कोई शक्ति देह धारण कर अवतरित होती है। एक महामानव धरती पर आविर्भूत होता है , और धर्म को पुनः ऊपर उठाता है। अध्यात्म और धर्म कभी पुराना नहीं होता है, यह सबसे प्राचीन चीज है। सर्वोच्च आत्मा को ब्रह्म कहा जाता है-The highest spirit is called Brahman ! लेकिन यह विचार भी समय के प्रवाह क्षीण हो जाता है। तब कोई अवतार आते हैं क्योंकि - मनुष्य अपने आध्यात्मिक स्वरूप को भूलकर पशु हो जाते हैं। पर मनुष्य साधारण चौपाया जीव नहीं हैं। [25.24मिनट गूढ़ बात ]  मानव जीवन का एक उच्च उद्देश्य है - पशुओं जैसे रहने नहीं आया है। आम तौर पर जानवर चार पैरों से चलते हैं। पर मनुष्य अपने दो पैरों पर सीधा खड़ा हो सकता है, गर्दन उठाकर आसमान को देख सकता है। कोई भी पशु आकाश, तारे और स्वर्ग की तरफ नहीं देख सकता। मानव -शरीर ताजमहल है , ऊंचा उद्देश्य है। देवता भी ईश्वर लाभ नहीं कर सकते पर मनुष्य कर सकता है। कल फ़ारसी कवि रूमी की शायरी पर बात हो रही थी - मैं घास बन था, बढ़ता हुआ मनुष्य बन गया , अब देवता जाऊँगा ! देवता बन जाना ही अन्तिम पड़ाव नहीं है। उससे भी आगे जा सकते हो। हमें देव-शरीर को भी पार कर अनन्त में पहुँचना है। हमलोग कहानी सुनते हैं रामकृष्ण ने ध्यान में देखा था -स्वामीजी को वहाँ से लाये थे जहाँ 7 निवृत्तिमार्ग के ऋषि बैठे थे। हमलोग भी अनन्त तक उठ सकते हैं। ऊपर उठने की कोई सीमा नहीं है। वैसे ही इस मनुष्य अवस्था से गिरने की भी कोई सीमा नहीं हैं -पताल की गहराइयों में भी जा सकते हैं।
 
उपनिषद में एक छोटी सी कहानी है - 'गुरु बृहस्पति और एकान्त में कबूतर काटने की परीक्षा' बृहस्पति को कहा जाता है देव गुरु ! वे अपने जंगल के आश्रम में सभी देवता लोगों को भी शिक्षा देते थे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक कई राज्यों में फैली हुई थी। देवता लोग उनके ज्ञान और समझदारी की वजह से उन से प्रभावित होकर बहुत दूर-दूर से उन्हें खोजते हुए इस जंगल में आ जाया करते थे।
tv के सामने बैठने का अभ्यास तो नहीं है। लेकिन अख़बार में कभी -कभी यूनिवर्सिटी या एडुकेशनल इंस्टीटूशन को लेकर फुल-वन पेज एडवर्टिजमेंट देखने को मिलता है। विदेशी यूनिवर्सिटी भारत में आती हैं, भारत की यूनिवर्सिटी विदेश में जाती है। यह कोई डिमाण्ड नहीं है, बल्कि उस शिक्षा को प्रचार के बल पर थोपा जाता है। हार्वर्ड और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी भी भारत में अपना ब्रांच खोलना चाहते हैं। [इंग्लैण्ड का ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, US के हार्वर्ड से काफी पुराना है क्योंकि इसकी स्थापना लगभग 900 साल पहले 1096 में हुई थी।] वहाँ के कुछ स्टूडेन्ट्स हमलोगों के यहाँ आये थे, सबसे हँसमुख मंत्री है - रेलवे मिनिस्टर द्वारा आविष्कृत कुछ नया क्रन्तिकारी मैनेजमेन्ट (जमीन के बदले नौकरी) सीखने आये थे। मंत्रीजी उनसे हिन्दी में बात किये। वहाँ के लड़के भी बहुत खुश हुए।उपनिषद में एक कहानी है - पहले की शिक्षा व्यवस्था में गुरु गृह वास की पद्धति थी। वे गुरु के घर में उनके साथ रहते थे और उनके परिवार के लिए काम भी करते थे। और शिक्षक उन्हें बिना फ़ीस लिए ही पढ़ाते थे। तो एक नया बैच उनके पास पढ़ने आया
 
1 दिन दो युवक इन महात्मा की खोज में इस जंगल में आ पहुंचे जहां एक बड़े ही सुंदर रमणीय स्थल पर महात्मा अपना गुरुकुल बना कर रहा करते थे। वे दोनों ही इन महात्मा को अपना गुरु स्वीकार कर उनसे शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे।
महात्मा कई युवकों को शिक्षा दे चुके थे लेकिन वे किसी भी युवक को शिक्षा देने से पहले उसकी कसौटी किया करते थे। इन दोनों युवकों को महात्मा ने देखा तो वे उन्हें अच्छे घर से लगे और उनकी परीक्षा लेने की महात्मा ने तय किया।
आप हमलोगों को पढ़ाना कब शुरू करेंगे 
महात्मा ने दोनों युवकों से कहा कि मैं तुम्हें अपना शिष्य जरूर बना लूंगा लेकिन उसके लिए तुम्हें मेरी एक शर्त पूरी करनी पड़ेगी। युवको ने महात्मा से कहा कि आप जो भी कहेंगे हमें मान्य हैं।

महात्मा ने गुरुकुल के कमरे में रख्खि दो कबूतरो की मूर्तियां लाकर चारों युवकों को 1-1 तेज छुरी थमांते हुए कहा इन कबूतरों की मूर्तियों को तुम जीवित कबूतर ही मानो और तुम्हें यह करना है कि जब तुम्हें कोई देख ना रहा हो तब तुम्हें इन कबूतरों की गर्दन काट देनी है! जब तुम ऐसा करने में सफल हो जाओ तो मेरे पास चले आना।

चारो  युवकों ने अपने-अपने कबूतरों को ध्यान से देखा। चारो ही कबूतर बहुत सुंदर से और उन पर बहुत अच्छे से रंग और आकृतियां बनी हुई थी। चारो  के मन में ख्याल आया कि इतनी आसान और सरल परीक्षा से गुरु जी हमें क्या सीखना चाहते होंगे? चारो  ने अपने अपने कबूतर लिए और अलग-अलग दिशा में जंगल में चले गए।
एक युवक जंगल में थोड़ी दूर गया जहां एक सुनसान मैदान उसे दिखा उसने चारों तरफ अपनी नजरें घुमा कर देखा और यह निश्चित करने के बाद की उसे कोई भी नहीं देख रहा है उसने अपने साथ लाए कबूतर की गर्दन काट दी। वह वापस गुरु के पास चला गया।
दूसरा युवक भी जंगल में दूसरी तरफ एक सुनसान जगह पर पहुंचा और एक पेड़ के नीचे खड़ा रहकर हर तरफ से नजरें घुमा कर देखने के बाद जब वह  कबूतर की गर्दन काटने ने लगा तब उसकी नजरें अचानक पेड़ के ऊपर बैठे अन्य पक्षियों पर पड़ी। क्यूकी उसे ऐसा करते हुए वे पक्षी देख रहे थे इसलिए उसने कबूतर की गर्दन नहीं काटी ।
युवक थोड़ी देर सोचने के बाद झाड़ियों में छिप गया और वहां पर कबूतर की गर्दन काटने  की कोशिश करने लगा। लेकिन वहां पर भी उसकी नजर झाड़ियों पर बैठी कीट पतंगे और मक्खियों पड़ गई और वहां पर भी वह यह काम पूरा न कर पाया।

फिर कुछ सोचने के बाद युवक ने एक जमीन में बड़ा सा गड्ढा बनाया और उसमें उतर कर कबूतर की गर्दन तोड़ने लगा। कबूतर की मूर्ति को छूते ही उसने देखा कि कबूतर की आंखें उसे देख रही है इसलिए उसने कबूतर की मूर्ति की आंखें ढक दी। 
फिर उसने सोचा कि वह खुद तो अपने आप को ऐसा करते हुए देख ही रहा है इसलिए उसने अपनी आंखों पर भी पट्टी बांधी ली! अब वह निश्चिंत हो गया कि ना ही कोई अन्य प्राणी या कबूतर की मूर्ति या वो खुद भी उसको ऐसा करते हुए देख पा रहा है। वह कबूतर की गर्दन पर हाथ रख कर काटने ने ही वाला था कि उसके अंदर से एक आवाज आई, वह आवाज उसके अंतरात्मा की थी! युवक अब अच्छे से समझ गया था कि गुरु जी इस छोटी सी सरल सी दिख रही परीक्षा से उन्हें क्या शिक्षा देना चाहते थे!
युवक बिना उस कबूतर की गर्दन मरोड़े ही गुरु के पास पहुंचा! गुरु के पास जाकर युवक ने गुरु से माफी मांगते हुए कहा कि गुरु जी मुझे क्षमा कर दीजिए। मैं आपका दिया यह काम पूरा नहीं कर पाया क्योंकि जब भी मैं ऐसा करने की कोशिश करता तो मुझे कोई ना कोई देख रहा होता!

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात ।

स भूमिं विश्वतो वृत्तत्यतिष्ठदशाङुलम् ॥1॥

 पुरुष(सार्वभौमिक सत्ता) के हजारों सिर, हजारों आंखें और हजारों पैर हैं ( हजारों का मतलब असंख्य है जो सार्वभौमिक सत्ता की सर्वव्यापकता की ओर इशारा करता है। 
[32.33 मिनट
हमलोग सोचते हैं कि हम यहाँ कैम्प में ट्रेनी या ट्रेनर बनकर आ गए हैं - घर के लोग तो देख नहीं रहे कि हम कहाँ जा रहे हैं। किसी कैम्प में ? (?) कुछ लड़के यहाँ आने के बदले बंगाल के पहाड़ी क्षेत्र में चले गए, कुछ मारे गए पर कैसे ? ये अभी तक पता नहीं चला है। कोई नहीं जान सका कि वे कहाँ गए थे ? पर एक आँख है - जो हर जगह हमें देखती है। 
We can't escape those eyes. We all must remember that we are always being watched! our movements , our talks , even our thoughts ! So always you should try to remain pure! So always you should try to remain pure! in thought, in body, in deeds , in words, insight even, in our looks also, we must always try to remain pure . 
हम उन नजरों से बच नहीं सकते. हम सभी को यह याद रखना चाहिए कि हम पर हमेशा नजर रखी जा रही है ! हमारी हरकतें, हमारी बातें, यहां तक कि हमारे विचार भी कोई हर समय देख रहा है। अतएव हमें सदैव पवित्र रहने का प्रयत्न करना चाहिए! तो सदैव पवित्र रहने का प्रयत्न करना चाहिए! विचारों में, शरीर में, कर्मों में, शब्दों में, अंतर्दृष्टि में, यहाँ तक कि अपनी दृष्टि में भी, हमें सदैव पवित्र रहने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि आत्मा पवित्रतम वस्तु है। 
जब मैंने यह सुनिश्चित कर लिया कि बाहरी दुनिया में मुझे कोई देख नहीं रहा है तब भी मेरी अंतरात्मा और वह परमात्मा मुझे देख रहा था इसलिए मैं इस परीक्षा में पूरी तरह असफल हो गया।
कहानी की शिक्षा 
महात्मा ने उस युवक को शाबाशी देते हुए कहा कि तुम इस कसौटी में असफल नहीं बल्कि पूरी तरह से सफल हुए हो! इस कसौटी से मैं तुम दोनों को यही सिखाना चाहता था कि हम जो भी कार्य करते हैं वह उस परमात्मा से, उस परम शक्ति से कभी छुपा नहीं सकते! इसलिए हमे कोई भी कार्य उस परमात्मा को ध्यान में रखकर की करना चाहिए और जब हम ऐसा करते हैं तो हम कभी गलत कार्य नहीं कर पाते। 
हमलोग अवतार वरिष्ठ पर बात कर रहे थे - श्री रामकृष्ण हमारे युग के नवीनतम अवतार हैं-latest incarnation हैं ! सभी अवतार बराबर होने चाहिए थे , स्वामीजी ने श्री रामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ क्यों कहा ? अवतारों का same rank - समान पद होना चाहिए , C-IN-C ऑफ़ अवतार क्यों कहा ? जब धर्म की हानि होती है , तब धर्म को पुनर्स्थापित करने के लिए अवतार को आना पड़ता है।   
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:। 
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ 

(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 7)

पर श्री रामकृष्ण के लिए कहना पड़ता है - दुनिया के सभी धर्मों में जब ग्लानि आ गयी -तब सभी धर्मों को उठाने के लिए यदा वै सर्व धर्मानं ग्लानि बभूव भारत , तदात्मानं स स्रजस्य स - उस समय उन्होंने अपने को प्रकट किया। वे अवतीर्ण हुए। इसीलिए उनको अवतार वरिष्ठ कहा जाता है कि केवल भारत के धर्म में ही नहीं विश्व के सभी धर्मों में जब ग्लानि आ गयी थी , तब -रामकृष्णो ही केवलः ! तब सभी धर्मों को उठाने के लिए अपने को बनाया।  एक नया धर्म देने के लिए नहीं। To revive, regenerate, every religion of the world not one, किसी एक धर्म को नहीं, दुनिया के हर धर्म को पुनर्जीवित करने, मुरझाये धर्म में जान डालने के लिए रामकृष्ण स्वयं अवतरित हुए। 
जैसे गाँव कोई तालाब होता है - एक घाट से हिन्दू पानी लेता है, ईसाई वॉटर, जल, कोई एकवा  लेता है, लेकिन सब एक तालाब के पानी को अलग अलग नाम से -कोई अल्ला , गॉड , ईश्वर कहता है। यह एकत्व आया है रामकृष्ण जी से। इसीलिए उनको अवतार वरिष्ठ रामकृष्णो ही केवलः- इतिहास पुरानेषु समः कोऽपि न विद्यते! उनके बराबर का उदाहरण कोई इतिहास में नहीं है , पुराणों में नहीं है। 
कुछ साल पहले एक जर्मन लेखक ने एक पुस्तक लिखा था -'रामकृष्ण और ईसा मसीह अथवा  अवतार तत्व का विरोधाभास' ! अद्भुत पुस्तक है।  A German author wrote a book  some year back- 'Ramakrishna and Christ or the Paradox of Incarnation' , wonderful book ! उन्होंने रामकृष्ण और ईसामसीह के जीवन को इतनी गहराई से देखा था कि हमलोग नहीं देख पाते। पुस्तक की अंतिम पंक्ति में श्री रामकृष्ण के बारे में वे कहते हैं कि - " श्रीरामकृष्ण देव एक 'पेरुमा' थे (लैटिन शब्द) का अर्थ होता है - पूर्ण परिपूर्णता {Entirety- Perfectness or Wholeness}  जिसमें कुछ भी नहीं जोड़ा जा सकता। और जहां वे यीशु मसीह से मिलते हैं - वे प्रेम है!"  -He says about Sri Ramakrishna, in the last line that - " He was a peruma - The absolute fullness to which nothing can be added. and where he meets Jesus Christ - He is Love! " वह एक पेरुमा थे - पूर्ण पूर्णता जिसमें कुछ भी नहीं जोड़ा जा सकता है। 
इसलिए हमलोग बहुत भाग्यवान हैं जो हमलोग इस युग में जन्म लिए , कि यदि हमलोग वेद-उपनिषद आदि शास्त्र या अन्य किसी भी धर्म का धार्मिक ग्रन्थ नहीं भी पढ़ें -इन तीनों के जीवन और शिक्षाओं को देखें तो बड़े सरल शब्दों में सभी धर्मों के शास्त्रों की शिक्षा मिलेगी। कि अगर कोई बच्चा भी समझने की कोशिश करे तो समझ सकता हैं। इसलिए हमलोग बड़े भाग्यवान हैं , हमलोगों को कठोर परिश्रम करना होगा, ताकि हम भी अपने जीवन को इतने परिपूर्णता से गढ़ सकें कि हमारे जीवन की परिपूर्णता में और कुछ जोड़ा नहीं जा सके।  

स्वामी विवेकानन्द से जुड़ी किसी भी संस्था के नाम को देखकर, महामण्डल के कुछ पुराने और वरिष्ठ सदस्य लोग भी यही समझते हैं कि यह महामण्डल भी मिशन की तरह कोई रिलीफ वर्क या  "अम्फान चक्रवात राहत कार्य " (Amphan cyclone relief work) चैरिटी करने वाला एक संगठन है।  परन्तु महामण्डल का मुख्य काम -'Be and Make' द्वारा या मनुष्य बनने और बनाने के आन्दोलन द्वारा, स्वयं भारत के राष्ट्रीय आदर्श त्याग और सेवा में तीव्रता लाने के अभिप्राय को समझकर 'वैराग्य और अभ्यास' का मुख्य कार्य को पीछे छोड़कर,यदि समाज सेवा करने जायेंगे , कम्प्यूटर ट्रेनिंग स्कूल या अस्पताल खोलेंगे तो वहां भी वैराग्य का भाव नहीं रहने से लालच आएगा। और सारा कार्य बदनाम हो जायेगा। 
"put the cart before the horse": घोड़े के आगे गाड़ी लगाने का क्या मतलब है? यदि आप कहते हैं कि कोई घोड़े के आगे गाड़ी रख रहा है, तो आपका मतलब है कि वे गलत क्रम में काम कर रहे हैं । उदाहरणार्थ  सरकार ने बड़े सुधार करने से पहले (चरित्रवान मनुष्य का निर्माण करने से पहले) भारी निवेश करके गाड़ी को घोड़े के आगे रख दिया। >कठोपनिषद के अनुसार यदि शरीर रथ और इन्द्रियाँ घोड़े हैं तो 'रथ के आगे घोड़ा लगाना उचित होता है, या घोड़ा के आगे रथ लगाना उचित होता है? "

23 सितम्बर, 2023 : कोन्ननगर 56th AGM : के पहले अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के General Secretary सोमनाथ बागची की स्मरण सभा में, सहायक महासचिव- अमित दत्ता ने अचानक मुझे भी कुछ बोलने को कहा गया। मैंने सोमनाथ दा और तुहीन चटर्जी के साथ 15 दिन के गुजरात प्रवास के दौरान जामनगर के शुभेन्दु महतो के घर पर 100 स्त्री-पुरुष की बैठक में महामण्डल के उद्देश्य और कार्यक्रम को बहुत अच्छीतरह रखे जाने का उल्लेख किया था। मुझसे पहले श्रद्धेय दीपक दा ने सभी सदस्यों को शरीर को स्वस्थ रखने का अनुरोध किया था। मैंने भी कहा था 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्' इन पंक्तियों का अर्थ इस प्रकार है.. कि शरीर की सारे कर्तव्यों को पूरा करने का एकमात्र साधन है। इसलिए शरीर को स्वस्थ रखना बेहद आवश्यक है, क्योंकि सारे कर्तव्य और कार्यों की सिद्धि इसी शरीर के माध्यम से ही होनी है। लेकिन जैसा मैंने सुना उनका घर श्याम बाजार (मायेर बाड़ी) के निकट था , वे शारीरिक तकलीफ को सह लिए, घाव में सेप्टिक हो गया किसी को बतलाये नहीं, 'रामकृष्ण सेवा -प्रतिष्ठान' के डॉक्टर स्वामी दिव्यानन्द जी के बहुत कहने पर उनका इलाज किये , पर सफल नहीं हुए। तब   मेरे मुख से केन उपनिषद का यह श्लोक आया था - 

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।

भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति

(केनोपनिषद- २. ५)

भारतीय फिलॉसफी (उपनिषद की) यह नैतिक शिक्षा कितनी पुरानी है! भूतेषु भूतेषु- सब जीवों में, 'विचित्य' उनको (ईश्वर को) देख कर-उनको समझकर; धीराः प्रेत्य अस्मात् लोकात् अमृता भवन्ति॥ After leaving behind this physical world-they become immortal - what a noble idea !  इस भौतिक संसार को पीछे छोड़ने के बाद वे - अमृता भवन्ति' -वे अमर हो जाते हैं - कितना अच्छा विचार है!
 We have all these teachings  , and these things come from that noble sources. हमारे पास ये सभी शिक्षाएँ हैं, और ये चीज़ें उन्हीं प्राचीन महान स्रोतों से (वेदों -उपनिषदों से) आती हैं। और हम अपने समय में, हमारे युग में अवतरित श्री रामकृष्ण, पवित्र माता सारदा देवी और स्वामीजी के जीवन में इन महान विचारों की समझ और अनुप्रयोग को बहुत सुंदर तरीके से देखते हैं।
  
[क 16. 22मिनट] 

[56th AGM held on '24-9-2023 :  After memorial meeting (স্মরণ সভা) : Assistant  General Secretary- Amit Dutta/Jagdish De मेरे बगल में सोया था ? /Tapan Chatterjee/तीनों डायस पर थे। स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make परम्परा में > Ranen da-President/ Dipak Sarkar da और BKS  VP// हुए। Amit Dutta-GS // Tapan chatterjee /C/O -Pramod da-Vikas da/ Prabal Mohanti, Ranjit Mohanti,  Saumen/ Anindo/-Samir/ Arunabho/ Tuhin/ Ajay/ +2 Ranjit Ghosh ,Abhijit Ghosh included by Ranen da, said Biren da's condition not good-his mouth become filled by saliva -'लारपूरितं मुखम्' सृष्टि का उद्देश्य अहं समाप्ति /दिव्यता /पूर्णत्व का विकास और प्रकाश। 
Uttam Chatterjee fine photographer and audio recordist of Mahamandal. The purpose behind creation is ego annihilation/ man is marching  towards perfection Professor Basudeb of  Ranchi is fine after the operation./  दिपयेन्दु जाना was with pramod da/ सृष्टेः पृष्ठतः  उद्देश्यं अहङ्कारस्य विनाशः अस्ति/ मनुष्यः सिद्धतां प्रति गच्छति रांचीनगरस्य प्रोफेसर बासुदेबः शल्यक्रियायाः अनन्तरं कुशलः अस्ति।] purpose of creation ego annihilation/Professor Basudeb of  Ranchi is fine after the operation.] 
    
{ किसी भी वस्तु को प्रकट होने के लिये स्थल चाहिये । बीज भूमि की अपेक्षा करता है ।
 ‘कृष्ण’ शब्द का मूल अर्थ महाभरत  में लिखा है-

कृषिर्भूवाचकः शब्दः 'ण'श्च निवृतिवाचकः । 

तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।।’

(महाभारत, उद्योग-पर्व 71/4)

‘कृष्’ धातु – भू अर्थात् सत्ता वाचक है; ‘ण’ – शब्द निवृत्ति अर्थात् परमानन्द वाचक है। ‘कृष्’-धातु में ‘ण’–प्रत्यय युक्त करके ‘कृष्ण’ शब्द में परमब्रह्म प्रतिपादित हुआ है। ‘कृष्ण’ शब्द से आनन्दमयी सत्ता को समझना चाहिए। 
 
 कृष् (कृषि) "भू" वाचक है, और "ण" निवृति(आनन्द)वाचक । ध्यातव्य है कि भू- भावसत्ता का ख्यापक है(@@@http://punyarkkriti.blogspot.com/2016/03/blog-post_11.html) 
वेदान्त में इसे ‘आनन्दं ब्रह्म’ (तै. उ.) कहते हैं, अर्थात् ब्रह्म आनन्दमय है, परन्तु कृष्ण में वह आनन्द प्रचुर मात्रा में है, अर्थात् कृष्ण का आनन्द असीम है, जो कि ब्रह्मानन्द-Cosmic Bliss'  का भी आधार है। दूसरी ओर भगवान् रस स्वरूप हैं, सुख स्वरूप एवं आनन्द स्वरूप हैं , " प्रमाण: रसो वै सः। रसं ह्ओवायं? लब्ध्वानन्दी भवति ।।(तैत्तिरीय उपनिषद् 2/7) वे (परम पुरुष कृष्ण) रस स्वरूप हैं। उस रस (आनन्द) का जो पान करते हैं, वे ‘आनन्दी’ होते हैं। उपनिषद् में ‘सः’ शब्द के द्वारा ‘कृष्ण’ को ही इंगित किया गया है
‘कृष्ण’ शब्द के अन्य अर्थ हैं – ‘कृष्’- आकर्षक सत्तावाचक, ‘ण’ आनन्दवाचक (अर्थात् ‘कृष्’ का अर्थ होता है आकर्षण और ‘ण’ का अर्थ आनन्द) – जो आकर्षण करके आनन्द देते हैं और स्वयं आनन्दित होते हैं, वे ही ‘कृष्ण’ हैं। अर्थात् कृष्ण का अर्थ है – सर्वाकर्षक, सर्वानन्ददायक। प्रत्येक विषय में सर्वोत्तम नहीं होने से वे सर्वाकर्षक नहीं हो सकते।
कृष्ण अणु से भी अणु परमात्मा और विभु से भी विभु ब्रह्म हैं।  एवं अनुत्व और विभुत्व को समाहित कर मध्यम स्वरूप से विचित्र प्रकार की अनन्य लीला करने वाले हैं।
‘वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज् ज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।।’
(श्रीमद्भा. 1-2-11)
‘तत्’ अर्थात् अतीन्द्रिय वस्तु के भाव को तत्त्व कहते हैं। अद्वय ज्ञान को ‘ब्रह्म’, ‘परमात्मा’ और ‘भगवान्’ – इन तीन शब्दों के द्वारा कहा जाता है
तत्त्व को जानने वाले उसी अखण्ड ज्ञान या अद्वय ज्ञान (absolute knowledge or infinte knowledge) को ‘तत्त्व’ कहते हैं। वहाँ अद्वय ज्ञान को ‘ब्रह्म’ शब्द द्वारा, ‘परमात्मा’ शब्द द्वारा एवं ‘भगवान्’ शब्द से सम्बोधित किया जाता है। ‘ब्रह्म’ शब्द से ‘वृहत्व’ अर्थात् बड़ा ही नहीं बड़े से भी बड़ा (greatest of the greatest), परमात्मा शब्द से ‘अणुत्व’ अर्थात् छोटा ही नहीं छोटे से भी छोटा व भगवान् से उनका ‘सर्वैश्वर्यमयत्व’ निर्देश होता है :- अर्थात् उनमें वृहत्व, अणुत्व, मध्यत्व व सर्वत्व सभी विद्यमान हैं। ‘भगवान्’ शब्द परतत्त्व के सभी प्रकार के भावों को प्रकाशित करता है। ज्ञानी अद्वयज्ञान तत्त्व को ब्रह्म (व्यक्तित्व रहित अखण्ड ज्ञान/Absolute knowledge without personality) रूप से, योगी परमात्मा रूप से एवं भक्त भगवान् रूप से अनुभव करते हैं। भगवान् अनन्त रूपों से जो अनन्त लीलायें करते हैं उनमें से श्री कृष्ण स्वयं रूप हैं।
“एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे।।”
(श्रीमद्भा.1/3/28)
श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी मत्स्य, कूर्म, राम, नृसिंहादि अवतारों के विषय में बोलने के पश्चात् कह रहे हैं कि ये कोई पुरुषोत्तम भगवान् श्रीहरि में अंशावतार, कोई कलावतार और कोई शक्त्यावेश अवतार हैं। प्रत्येक युग में जब भी जगत् असुरों से पीड़ित होता है, तब असुरों के उपद्रव से जगत् की रक्षा करने के लिए ये अवतार हुआ करते हैं। किन्तु, व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण तो साक्षात् स्वयं-भगवान् (अवतारी) हैं।श्री कृष्ण समस्त अवतारों के कारण-–अवतारीं हैं, स्वयं भगवान् हैं
उनका न तो कोई कारण है, न कोई उनके समान है, उनसे अधिक होने का तो प्रश्न ही नहीं है। अतः उन भगवान् को जानने के लिये उनकी कृपा के अतिरिक्त किसी अन्य उपाय को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसलिये यदि भगवद्-तत्त्व की उपलब्धि करनी है तो प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा-वृति लेकर तत्त्वदर्शी ज्ञानी गुरु के पास जाना होगा। श्रीमद् भगवद् गीता में भी ऐसा ही निर्देश दिया है:-
“तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्व दर्शिनः।।”
(श्रीगी. – 4/34)
“तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की विधि बताते हुए कह रहे हैं – अर्जुन! ज्ञान का उपदेश करने वाले गुरु के पास जाकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके जिज्ञासा करो, हे भगवन्! मैं संसार में क्यों फंसा हुआ हूँ? इससे किस प्रकार छुटकारा मिलेगा? इस प्रकार परिप्रश्न (युक्तिसंगत प्रश्न) करने के पश्चात् सेवा पूजा के द्वारा उन्हें प्रसन्न करो।”

 "कृष्ण" में कृष भू वाचक है । "ण" यहाँ निरतिशय अविरल अनन्त आनन्द का वाचक है । 
कृषिर्भूवाचकः शब्दः ण श्च निवृतिवाचकः । तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।।  कृष् (कृषि) "भू" वाचक है, और "ण" निवृति(आनन्द)वाचक । ध्यातव्य है कि भू- भावसत्ता का ख्यापक है। 

{ प्राची (पूर्व) दिशा से ही पूर्णचन्द्र उदय होता है । "बंदऊँ कौशल्या दिशि प्राची ।" प्राची रूपी कौशल्या माँ से पूर्णतम आनन्द श्री राम प्रकट हुए । पूर्णचन्द्र को उदय हेतु पूर्ण प्राची दिशा चाहिये । पूर्णिमा के अतिरिक्त पूर्ण पूर्व दिशा से चन्द्र उदय नही होता है । पूर्ण चन्द्र उदय हो रहा है विशुद्ध पूर्व दिशा से और हमारा चित् है आज पाश्चात्य मय हो गया है । 
और भागवत जी में श्रीकृष्ण चन्द्र का प्राकट्य  --
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः । 
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशिन्दुरिवपुष्कलः । 
देवरूपिणी देवकी (मनुष्य रूपिणी नहीं कहा गया , यह देवत्व पिपासा से प्राप्त निर्मलत्व ही है ) में आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र ऐसे प्रकट हुए जैसे प्राची दिशा से पूर्णचन्द्र । प्राची सम्बोधन का अर्थ है , निर्मल- विशुद्ध-सत्वमय देवकी रूपी  प्राची । ब्रह्म का पूर्ण प्रकाश ब्रह्माकार में समाये हुये परम् सत्वमयी मानसी वृत्ति पर ही पुर्णोत्तम पुरुषोत्तम का प्राकट्य होता है । सात्विकता की पराकाष्ठा से ही पूर्ण स्वरूप का दर्शन सम्भव है , और प्रेम पिपासा से वह अवस्था आज भी सुलभ है । देवकी माँ उसी सात्विकता की अधिष्ठात्री महाशक्ति देवरूपिणी श्री देवकी है और उनमें पूर्णतम तत्व का आनन्दघन श्री कृष्णचंद्ररूप में प्राकट्य हुआ है । 

श्रीरामकृष्ण प्राकट्योत्सव : फाल्गुन शुक्ल द्वितीया > जन्मोत्सव की हार्दिक बधाई जी ।  भगवान जन्म नहीँ लेते अवतार लेते है , अति विशेष भाव रस निर्मल चित् भूमि से ।  भगवतोत्सव ही रस है, और वह अवश्य किसी भी जाल में फंसे जीव को भगवत् रस की ओर लालायित करता है , भगवत् धाम तो नित्य नव नव उत्सवों से ही सजे होते है । सत्-चित्-आनन्द का आनन्द तो नित्य है और वर्धनमान है । 
अतः कृष्ण नाम में कृष् यानी भूमि अधिक और आनन्द उसके उपरान्त एक अक्षरी ही है । भूमि क्या है ? -- सत्ता । सत्ता क्या है -- भाव । भाव क्या है -- अत्यधिक एकात्म होने से अभीष्ट के चित्रण की चित् की द्रविभूत अवस्था । (इसे विस्तार से कभी वाणी माध्यम से भगवत्कृपा से व्यक्त करने का प्रयास रहेगा) । अतः भाव उपरांत आनन्द । भाव की भूमि पर सदा रहने और बढ़ते रहने वाला आनन्द । अतः पहली आवश्यकता है आनन्द के लिये भूमि की, और वह है भाव । भाव क्या है ? -- प्रेम अवस्था , और इस प्रेम अवस्था का मूल सार रस स्वरूप क्या है ? वह है श्री श्यामा जु । किशोरी जु । यशोदा - यश: ददाति इति यशोदा । जो दूसरों को यश दे वह यशोदा है, इस स्वरूप से देने के लिये होना भी चाहिये जिसमें अपार यश वर्षा हो वही स्वरूपा यशोदा है। 
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मंगलवार, 26 सितंबर 2023

🔱🙏 'कारण शरीर' और उसका निर्मूलन : रावण के पूर्वजन्मों की कहानियाँ 🔱🙏 साहचर्य का नियम--यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया । '56th AGM held on '24-9-2023 ' Causal body' and its elimination. 🔱🙏सोमनाथ बागची स्मरण सभा >

 *रावण के पूर्वजन्मों की कहानियाँ*  

रावण अपने पूर्वजन्म में भगवान विष्णु के द्वारपाल हुआ करते थे।  पर एक श्राप के चलते उन्हें तीन जन्मो तक राक्षस कुल में जन्म लेना पड़ा था। आज इस लेख में हम आपको रावण के दो पूर्वजन्मों और एक बाद के जन्म के बारे में बताएँगे।  पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार भगवान विष्णु के दर्शन हेतु सनक, सनंदन आदि ऋषि बैकुंठ पधारे। 

परंतु भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय ने उन्हें प्रवेश देने से इंकार कर दिया। ऋषि-गण इससे अप्रसन्न हो गए और क्रोध में आकर जय-विजय को शाप दे दिया कि तुम राक्षस हो जाओ। जय-विजय ने प्रार्थना की व अपराध के लिए क्षमा माँगी। भगवान विष्णु ने भी ऋषियों से क्षमा करने को कहा। 

तब ऋषियों ने अपने शाप की तीव्रता कम की और कहा कि तीन जन्मों तक तो तुम्हें राक्षस योनि में रहना पड़ेगा। और उसके बाद तुम पुनः इस पद पर प्रतिष्ठित हो सकोगे। इसके साथ एक और शर्त थी कि भगवान विष्णु या उनके किसी अवतारी-स्वरूप के हाथों तुम्हारा मरना अनिवार्य होगा। 

यही शाप वाला प्रसंग राक्षसराज, लंकापति, दशानन रावण के जन्म की आदि गाथा है।

भगवान विष्णु के ये द्वारपाल पहले जन्म में हिरण्याक्षहिरण्यकशिपु राक्षसों के रूप में जन्मे। हिरण्याक्ष राक्षस बहुत शक्तिशाली था और उसने पृथ्वी को उठाकर पाताल-लोक में पहुँचा दिया था। पृथ्वी की पवित्रता बहाल करने के लिए भगवान विष्णु को वराह अवतार धारण करना पड़ा था। फिर विष्णु ने हिरण्याक्ष का वध कर पृथ्वी को मुक्त कराया था।

हिरण्यकशिपु भी ताकतवर राक्षस था और उसने वरदान प्राप्तकर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया था। भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष का वध करने की वजह से हिरण्यकशिपु विष्णु विरोधी था और अपने विष्णुभक्त पुत्र प्रह्लाद को मरवाने के लिए भी उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। फिर भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण कर हिरण्यकशिपु का वध किया था। खंभे से नृसिंह भगवान का प्रकट होना ईश्वर की शाश्वत, सर्वव्यापी उपस्थिति का ही प्रमाण है। त्रेतायुग में ये दोनों भाई -हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ही पुनः रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए और विष्णु अवतार श्रीराम के हाथो मारे गए

तीसरे जन्म में द्वापर युग में जब भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लिया, तब ये दोनों शिशुपाल व दंतवक्त्र (Dantavaktra) नाम के अनाचारी के रूप में पैदा हुए थे। इन दोनों का भी वध भगवान श्रीकृष्ण के हाथों हुआ।

दन्तवक्र का उल्लेख पौराणिक महाकाव्य 'महाभारत' में हुआ है। महाभारत के अनुसार दन्तवक्र श्रुतदेवी का पुत्र था। श्रुतदेवी का विवाह करूषाधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था और उसका पुत्र था दन्तवक्र। श्रुतदेवी श्री कृष्ण की माता देवकी की छोटी बहन थी। जब शाल्व ने द्वारका पर आक्रमण किया, तब दन्तवक्र भी शाल्व की ओर से कृष्ण के विरुद्ध युद्ध में लड़ा था। 

युधिष्ठिर के 'राजसूय यज्ञ' के समय शिशुपाल को श्रीकृष्ण ने मार दिया था। उस समय उस राजसभा में शिशुपाल के जो मित्र, समर्थक राजा थे, वे सब भय के कारण प्राण लेकर भाग खड़े हुए। दन्तवक्र इन्द्रप्रस्थ से भाग तो गया, किन्तु उसे यह निश्चय हो गया था कि श्रीकृष्ण अवश्य मुझे भी मार देंगे।

बैकुण्ठ में भगवान विष्णु (नारायण) के पार्षद जय-विजय को सनत्कुमार के शाप से असुर योनि प्राप्त हुई थी। कृपालु महर्षि ने तीन जन्म में पुनः बैकुण्ठ लौट आने का इनका विधान कर दिया था। पहले जन्म में दोनों दिति के पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु हुए। हिरण्याक्ष को भगवान ने वराह रूप से और हिरण्यकशिपु को नृसिंह रूप धारण करके मारा। त्रेता युग में दोनों का दूसरा जन्म रावण-कुम्भकर्ण के रूप में हुआ। भगवान श्रीराम के बाणों ने दोनों को रणशैय्या दी।

शिशुपाल और दंतवक्त्र जन्म से ही भगवान कृष्ण से दुश्मनी रखते थे। शिशुपाल ने तो पानी पी-पी कर कृष्ण को गाली दी थी। फिर भी भगवान ने शिशुपाल को परम पद दिया। आखिर इस अद्भुत घटना का रहस्य समझाइए।

हे युधिष्ठिर ! भगवान की भक्ति करने वाले भक्त का उद्धार तो होता ही है, इनसे वैर करने वाले भी इनका चिंतन करते-करते इन्हीं में समा जाते हैं। पूतना, कंस, शिशुपाल, दंतवक्त्र इन लोगो ने द्वेष भाव से भगवान में ध्यान लगाया और हम लोगों ने भक्ति भाव से मन लगाया और सबका कल्याण हुआ। कृष्ण ने गीता में स्वयं कहा है-“ये यथा माम प्रपद्यंते तान् तथैव भजाम्यहम”

अब द्वापर युग में दोनों शिशुपाल-दन्तवक्र होकर उत्पन्न हुए थे। शिशुपाल को तो श्रीकृष्ण ने सायुज्य मुक्ति दे दिया था । अब दन्तवक्र की नियति उसे उत्तेजित कर रही थी। शिशुपाल से दन्तवक्र की प्रगाढ़ मित्रता थी। शिशुपाल की मृत्यु ने उसे उन्मत्त-प्राय: कर दिया था। लेकिन श्रीकृष्णचन्द्र के जरासंध के साथ सभी युद्धों में दन्तवक्र रहा था और प्रत्यके बार उसे पराजित होकर भागना ही पड़ा।

जब शाल्व अपने विमान से द्वारका पर आक्रमण करने चला गया, तब दन्तवक्र अकेला ही द्वारका पहुँचा। उसने रथ छोड़ दिया और गदा उठाये पैदल ही सेतु पार किया। दन्तवक्र गदा युद्ध करने आया था। उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा थी कि एक भरपूर गदा वह कृष्ण के वक्ष पर मार सके, बस। श्रीद्वारिकाधीश उसे देखते ही रथ से कूदे और गदा उठाये दौड़े। दन्तवक्र रुका। उसने अपनी भारी वज्र के समान गदा उठाई और श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर भरपूर वेग से प्रहार किया। अब श्रीद्वारिकाधीश ने अपनी कौमोदकी गदा उठाकर दन्तवक्र के वक्ष पर प्रहार किया। सहसा उसके मुख से वैसी ही ज्योति निकली, जैसे शिशुपाल के शरीर से निकली थी। यह ज्योति भी श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में लीन हो गयी।

शिशुपाल -दंतवक्त्र (Dantavaktra) वध का वास्तविक अर्थ है-'कारण शरीर' का निर्मूलन।   मनःसंयोग के अभ्यास और परमात्मा की  कृपा (माँ सारदा की कृपा) से  विष्णु ग्रंथि छेदन। अहंकार मे डुबे हुए साधक को “ तुम नर नही सिंह हो” कहना ही नरसिंहावतार का उद्देश्य है। सिंह-विक्रम जैसा प्रयत्न यानि दृढ प्रयत्न करने से इस भयंकर अहंकार से बाहर आ सकते हो ऐसा उद्भोदन करना ही हिरण्यकशिपु/हिरण्याक्ष वध (स्थूल शरीर निर्मूलन/ब्रह्म ग्रंथि छेदन) का उद्देश्य है। संसार (पानी) मे डुबे हुए साधक को पृथ्वी तत्व (मूलाधार) यानि प्रारंभिक प्रयत्न को ज्ञान के दाँतों से संसारसागर से बाहर लाना ही व(वरिष्ठ) राह(रास्ते पर लाना) वराह अवतार की उद्देश्य है। हिरण्याक्ष (संसारी की आँख)। अहंकार और कामांधता मे स्थित रावण को और कुंभ (बहुत) खाकर, कर्ण (मस्त हो कर कान बान्धकर) गहननिंद्रा मे स्थित कुंभकर्ण ( सूक्ष्म शरीर निर्मूलन/रुद्र ग्रंथि छेदन) वध कर के ध्यान साधना मे आगे बढना ही श्रीराम अवतार का उद्देश्य है। शिशुपाल का मतलब जो शिशु जैसा अनाड़ी हो। दंतावक्रु का मतलब शिशु अवस्था जैसा। परमात्मा के बारे मे साधक के मन मे व्याप्त शिशु अवस्था या अनाड़ीपन को दूर करना ही शिशुपाल और दंतावक्रु का वध यानि कारण शरीर निर्मूलन/विष्णु ग्रंथि छेदन है। श्री कृष्णावतार का यही उद्देश्य है। आखरी बात-  मानव जन्म, मुमुक्षत्व और महापुरुष दर्शन (विवेकानन्द का दर्शन)  यह तीनों चीजे मिलना अत्यंत दुर्लभ है। आज नही तो कल हम सभी लोगो को इस संसार सागर को घूमकर अन्त मे थक-हार कर अपने स्वगृह लौटकर यानि परमात्मा मे ही परमशांति प्राप्त होगी। चोरासी लाख (84 लाख) योनीयो मे केवल मनुष्य योनी में ही विवेकदर्शन के अभ्यास  की साधना से 'धारणा, ध्यान -समाधि' की अवस्था में पहुँच पाना साध्य है।  पशु-पक्षि इत्यादि योनियों में  मनःसंयोग की साधना असाध्य है (उनकी रीढ़ की हड्डी हॉरिजेंटल है) , लेकिन मोक्ष के लिये देवताओ को भी ध्यान साधना की जरूरत होती है, और उस ध्यान साधना को पूरा करने के लिये उन्हे भी मानव जन्म ही लेना पडता है इसीलिए -..........पहले वैराग्य' के साथ .....विवेकदर्शन  का अभ्यास कीजिये, ......अर्थात मनःसंयोग का अभ्यास कीजिये। ध्यान कीजिये.........ध्यान कीजिये ।।http://kriyayogasadhana.blogspot.com/2014/11/blog-post_3.html]

🔱🙏'कारण शरीर' और उसका निर्मूलन :🔱🙏

'Causal body' and its elimination. 

'कारण-शरीर’ और ‘सूक्ष्म-शरीर’ (‘subtle body’) कैसे बनते हैं। और आत्मा के साथ इनका सम्बन्ध कब तक रहता है? (How 'causal body' and 'subtle body' are formed. And how long does their relationship with the soul last?)

कारण शरीर ”प्रकृति” का नाम है। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों के समुदाय का नाम प्रकृति है। ये सूक्ष्मतम कण हैं। उसी का नाम ‘कारण-शरीर’ है। अब उस प्रकृति रूपी कारण शरीर से दूसरा जो शरीर उत्पन्न हुआ, उसका नाम ‘सूक्ष्म शरीर’ है। 

>>>कपड़ा -धागा - रुई : आपने शरीर पर सूती कुर्ता/ कपड़ा पहन रखा है। इसका कारण है धागा। और धागे का कारण है- रूई। रूई, धागा और कॉटन-कुर्ता ये तीन वस्तु हो गयीं। कुर्ता, धागा और रूई, तो ऐसे तीन शरीर हैं- स्थूल शरीर (gross body), सूक्ष्म शरीर (subtle body) और कारण शरीर (causal body) स्थूल शरीर है कुर्ता, सूक्ष्म शरीर है धागा, और कारण शरीर है- रूई

कारण शरीर के बिना सूक्ष्म शरीर नहीं बनेगा। सूक्ष्म शरीर के बिना स्थूल शरीर नहीं बनेगा। गीता १४/५ में कहा गया हैः- कारण शरीर प्रकृति सत्त्वरजसतमः। 

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।

निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।14.5।।

।।14.5।। हे महाबाहो ! सत्त्व, रज और तम ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण, देही 'आत्मा' को देह के साथ बांध देते हैं।।

 "गुण " शब्द संस्कृत -अध्यात्मशास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली का होने के कारण उसका किसी अन्य भाषा में अनुवाद करना कठिन है। विशेषकर अंग्रेजी में उसका समानार्थी कोई शब्द नहीं है। 

संस्कृत आध्यात्मिक साहित्य में सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों को क्रमशः श्वेत, रक्त और कृष्ण वर्ण के द्वारा सूचित किया जाता है। संस्कृत में गुण शब्द का अर्थ रज्जु अर्थात् रस्सी भी होता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्रकृति के ये तीन गुण रज्जु के समान हैं ; जो सच्चित्स्वरूप आत्मतत्त्व को असत् और जड़ अनात्मतत्त्व के साथ बांध देते हैं। ये गुण प्रकृति से उत्पन्न हुये हैं। वे आत्मा को देह के साथ मानो बांध देते हैं, जिसके कारण वह जीव भाव को प्राप्त होकर जीवन और मृत्यु के अविरल चक्र और संसार के दुखों में फँस जाता है। 

सारांशत ये गुण वे तीन विभिन्न प्रकार के भाव या तीन प्रकार की ऐषणा (पुत्र-वित्त-लोक) हैं जिनके वशीभूत् होकर हमारा मन  निरन्तर परिवर्तन - शील परिस्थितियों में विविध प्रकार से अपनी प्रतिक्रियारूपी क्रीड़ा करता रहता है।  जिनके कारण भिन्न-भिन्न व्यक्तियों (बीरेन दा, रणजीत दा......) का व्यवहार भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है।

आत्मा और अनात्मा (शरीर+मन) का यह संबंध मिथ्या है, वास्तविक नहीं।  देश-काल-पात्र आदि के परिच्छेदों से मुक्त आत्मा को इन परिच्छेदों से युक्त स्वप्न के समान प्रक्षेपित , जड़ उपाधियों के साथ कभी नहीं बांधा जा सकता।  वह इनके दोषों से (देह-मन या अहं के दोषों से) सदा असंस्पृष्ट ही रहता है, जैसे  स्तंभ अपने में अध्यस्त प्रेत से और जाग्रत् पुरुष स्वप्न द्रष्टा के अपराधों से वस्तुतः अलिप्त ही रहता है

 इसी प्रकार जब तक त्रिगुण जनित बन्धन (शरीर-M/F के अहं के साथ तादात्म्य) बना रहता है, तब तक ऐसा प्रतीत होता है- मानो आत्मा इन अनात्म उपाधियों के संसर्गवशात् जीव भाव (M/F भाव, Bhजय-विजय भाव) को प्राप्त हुआ है। परन्तु यथार्थतः वह [ब्रह्मविद आत्मा] -स्वप्नद्रष्टा के समान अपने स्वप्न से नित्यमुक्त ही रहता है। 

 हे महाबाहो भगवान की  माया से उत्पन्न ये तीनों गुण इस शरीर में शरीरधारी अविनाशी क्षेत्रज्ञ को मानो बाँध लेते हैं। क्षेत्रज्ञ का अविनाशित्व अनादित्वात् इत्यादि श्लोक में कहा ही है।  प्रश्न -- पहले यह कहा है कि देही -- आत्मा लिप्त नहीं होता? फिर यहाँ यह विपरीत बात कैसे कही जाती है कि उसको गुण बाँधते हैं ? उ0 -- इव शब्द का अध्याहार करके हमने इस शङ्का का परिहार कर दिया है। अर्थात् वास्तव में नहीं बाँधते,  बाँधते हुए से प्रतीत होते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से अब यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार इन गुणों के स्वरूप तथा उनसे उत्पन्न बन्धन की प्रक्रिया का स्पष्ट ज्ञान -  हमें मुक्ति (अन्तिम पुरुषार्थ -मोक्ष) का अधिकार पत्र प्रदान कर सकता है।

इसी मुक्ति प्रदाता यथार्थ ज्ञान की व्याख्या करते हुए, भगवान श्रीकृष्ण ने गीता -१३/३१ में कहा है  -- जिस समय ( यह विद्वान् ) भूतों के अलग-अलग भावों  को -- भूतों की पृथक्ता को एक आत्मा में ही स्थित देखता है। अर्थात् शास्त्र और आचार्य के उपदेश पर श्रवण-  मनन करके आत्मा को इस प्रकार प्रत्यक्ष-भाव से देखता है, कि यह सब कुछ आत्मा ही है। 

तथा उस आत्मा से ही सारा विस्तार -सब की उत्पत्ति, सृष्टि का विकास देखता है अर्थात् जिस समय आत्मा से ही प्राण, आत्मा से ही आशा, आत्मा से ही संकल्प आत्मा से ही आकाश, आत्मा से ही तेज, आत्मा से ही जल, आत्मा से ही अन्न, आत्मा से ही सबका प्रकट और लीन होना इत्यादि प्रकार से सारा विस्तार आत्मा से ही हुआ देखने लगता है, उस समय वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है -- ब्रह्मरूप ही हो जाता है।

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।

तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।13.31।।

।।13.31।। यह पुरुष (M/F नहीं ब्रह्मविद आत्मा) जब भूतों के पृथक् भावों को एक (परमात्मा) में स्थित देखता है तथा उस (परमात्मा) से ही यह विस्तार हुआ जानता है, तब वह ब्रह्म को प्राप्त होता है।।

किसी वस्तु या घटना के वैज्ञानिक अध्ययन की पूर्णता उसके बौद्धिक विश्लेषण तथा प्रायोगिक प्रत्यक्षीकरण से ही होती है। जब भौतिक विज्ञान में पदार्थ-ऊर्जा (E=Mc2) समीकरण से यह ज्ञात होता है कि परमाणु ही पदार्थ की इकाई है।  तब इस ज्ञान के साथ यह भी समझना चाहिए कि ये परमाणु ही विभिन्न संख्या एवं प्रकारों में संयोजित होकर असंख्य रूप और गुणों वाली वस्तुओं के इस जगत् की रचना करते हैं। 

इसी प्रकार समस्त 'नाम' और 'रूपों' के पीछे एक आत्मतत्त्व ही 'सत्य' (अविनाशी)  है;  यह जानना मात्र आंशिक ज्ञान है। ज्ञान की पूर्णता तो इसमें होगी कि जब हम यह भी जानेंगे कि उसी एक (अविनाशी-अपरिवर्तनशील) आत्मा से यह (परिवर्तनशील नश्वर) विविधता पूर्ण यह सृष्टि किस प्रकार प्रकट हुई है ? जिस प्रकार समुद्र को जानने वाला पुरुष असंख्य और विविध तरंगों का अस्तित्व एक समुद्र में ही देखता है। 

 इसी प्रकार ब्रह्मविद या आत्मज्ञानी पुरुष भी भूतों के पृथक्-पृथक  भाव को एक परमात्मा में ही स्थित देखता है। जैसे समस्त तरंगें समुद्र का ही विस्तार होती हैं। वैसे ब्रह्मविद-या आत्मज्ञानी पुरुष का भी यही अनुभव होता है कि एक आत्मा से ही इस सृष्टि का विस्तार हुआ है

स्वस्वरूपानुभूति के इन पवित्र क्षणों में ज्ञानी पुरुष, ब्रह्मविद स्वयं ब्रह्म बनकर यह अनुभव करता है कि एक ही आत्मतत्त्व अन्तर्बाह्य सब को व्याप्त और आलिंगन किए है।  सबका पोषण करते हुए स्थित है न केवल गहनगम्भीर और असीम-अनन्त में वह स्थित है, वरन् सभी सतही नाम और रूपों में भी वही व्याप्त है।

स्वयं आत्मस्वरूप बनकर ही आत्मा का अनुभव होता है। जिसने यह पूर्णतः जान लिया है कि स्वहृदय में स्थित आत्मा ही सर्वत्र भूतमात्र में स्थित आत्मा (ब्रह्म) है !  तथा किस प्रकार अविद्या के आवरण के कारण विविध नाम-रूपों में सत्य का दीप्तिमान स्वरूप आवृत हो जाता है, वही पुरुष तत्त्वज्ञ और सम्यक दर्शी - विवेकानन्द दर्शी या - साम्यभाव में स्थित (C-IN-C नेता) कहा जाता है।  उस अनुभव के समय में वह (साधारण खोजी) स्वयं उपाधियों से परे ब्रह्म से तादात्म्य को प्राप्त होता है। लेकिन नेता लौटकर शरीर-मन में पुनः आ जाता है, पर उससे निर्लिप्त रहता हुआ Be and Make आन्दोलन में लगा रहता है।  

>>>Subtle Body (सूक्ष्म शरीर) : सत्त्व, रज और तम से जो अठारह चीजें बनी हैं, उसका नाम है- सूक्ष्म शरीर। सृष्टि के आरंभ में जब भगवान ने ये सारी दुनिया बनायी तो 'कारण शरीर' (causal body) प्रकृति से (Nature -सत,रज, तम या माया, देश-काल-निमित्त से) अठारह पदार्थ उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- बुद्धि ,अहंकार, मन, पाँच ज्ञान- इन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रा। इन 18 का नाम सूक्ष्म शरीर है। ये सारे पदार्थ प्रकृति से बनते हैं। 

रूप,रस, गंध, शब्द और स्पर्श आदि पाँच तन्मात्राओं से पाँच महाभूत बनते हैं। जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि, आकाश, इन पाँच महाभूतों के नाम है। इन्हीं पाँच पदार्थों का समुदाय ये स्थूल शरीर बना (Physical Body) हुआ है। जो आपको आँख से दिखता है, वो स्थूल रूप (Physical Form)। तो ये इन तीनों का संबंध है।

जब तक जीवात्मा पुर्नजन्म धारण करेगा, यानी एक शरीर छोड़ दिया, दूसरा शरीर धारण कर लिया, तो स्थूल शरीर छूट जायेगा। अतः मृत्यु होने पर ये छूट जायेगा। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर, ये दोनों जीवात्मा के साथ जुड़े रहेंगे। पुर्नजन्म हुआ फिर नया स्थूल शरीर मिल गया, फिर अगला शरीर, फिर अगला। जब तक मुक्ति नहीं होगी तब तक सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर साथ रहेगा। जब मुक्ति हो जायेगी तब तीनों शरीर छूट जायेंगे। धागा वही रहता है, कुर्ते बदलते रहते हैं। 

>>>'आवृत चक्षु' का आध्यात्मिक प्रलय, एकाग्रता या समाधि  (Spiritual dissolution, concentration or samadhi of covered eyes):

 सूक्ष्म-शरीर और कारण-शरीर तब तक साथ रहेंगे, जब तक पुर्नजन्म होता रहेगा। जब मोक्ष हो जायेगा तब तीनों दूर हो जायेंगे।  अथवा मोक्ष नहीं हुआ और आ गई प्रलय तो प्रलय में तीनों शरीर छूट जायेगा [माँ सारदा देवी की कृपा से कोई-कोई (would be President) प्रलय के बाद भी अपने पुराने शरीर में वापस लौटेगा!]  स्थूल शरीर तो वैसे ही थोड़े-थोड़े दिनों में छूटते रहता है। तब सूक्ष्म शरीर भी टूट-फूट कर नष्ट हो जायेगा और कारण शरीर रूपी प्रकृति बचेगी। सूक्ष्म शरीर वापस टूट-फूट कर कारण शरीर के रूप में परिवर्तित हो जायेगा।

जैसे मिट्टी का हमने ढ़ेला लिया और उसकी ईंट पका ली और फिर ईंट तोड़कर वापस मिट्टी बना दी, तो वापस ये मिट्टी बन गई यानि कारण शरीर बन गया।  प्रलय के समय तो जीवात्मा अलग हो गया पर मुक्ति नहीं मिली। फिर एक नयी सृष्टि बनेगी, तो उसके साथ जीवात्मा को ईश्वर (कुम्हार) फिर दोबारा जोड़ देगा। 

 तब तक वह बंधन की स्थिति में है। जब तक मोक्ष न हो जाये अथवा प्रलय न हो जाये तब तक ये दोनों शरीर आत्मा के साथ जुड़े रहेंगे।  मोक्ष में या प्रलय में ये छूट जायेंगे। मोक्ष होने पर तो फिर हजारों सृष्टियों तक ये तीनों शरीर फिर जुड़ते नहीं हैं।

 अब रही बात राग और द्वेष की। राग और द्वेष भी जीवात्मा की शक्ति है। राग और द्वेष दो प्रकार का है :- एक स्वाभाविक और दूसरा नैमित्तिक। जो स्वाभाविक राग-द्वेष है, वो जीवात्मा से नहीं छूटेगा। वो मुक्ति में भी जीवात्मा में रहेगा। और स्वाभाविक राग-द्वेष में रहते-रहते मुक्ति हो जायेगी। इसमें कोई आपत्ति नहीं है, कोई बाधा नहीं है। जो नैमित्तिक राग-द्वेष है, वो बाधक है। उसे हटाना पड़ेगा, मुक्ति में वो छूट जायेगा।

>>> स्वाभाविक राग-द्वेष क्या है? और नैमित्तिक राग-द्वेष क्या है? उत्तर है कि जीवात्मा को हमेशा सुख चाहिये। यह उसको सूक्ष्म राग है। ये स्वाभाविक राग है। ये मुक्ति में बाधक नहीं है। जीवात्मा को दुःख कभी भी नहीं चाहिये। दुःख में उसको स्वाभाविक द्वेष है। ये भी मुक्ति में बाधक नहीं। ये स्वाभाविक राग और द्वेष रहेंगे, मुक्ति हो जायेगी। कोई परवाह नहीं।

अमुक-अमुक व्यक्ति ने मेरी हानि कर दी, मैं उसकी गर्दन तोडूँगा, ये सोचना नैमित्तिक द्वेष है। खीर, पूड़ी, लड्डू, हलुआ मुझे मिलना चाहिये, मुझे अधिक मिलना चाहिये, उसको कम, ये सोच नैमित्तिक राग है। ये मुक्ति में बाधक है। ये हट जायेगा, फिर मुक्ति होगी। इसके रहते मुक्ति नहीं होगी। इसको छोड़ देंगे तो मुक्ति हो जायेगी

>>>The world appears as one sees: जैसी दृष्टि वैसा (अपना -पराया) नजर आता है संसार

संसार बुरा तब लगता है जब हमारा मन इसे बुरी दृष्टि से-अर्थात  'अपना और पराया की दृष्टि' से देखता है। मन का स्वभाव दुख पकड़ने का है। संसार को कैसे देखा जाए इसके लिए श्रीराम किष्किंधा कांड में बालि की रोती हुई विधवा तारा को समझाते हैं। इस वार्तालाप पर तुलसीदासजी चौपाई लिखते हैं - 

तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया।। 

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।। 

तारा को व्याकुल देखकर श्रीरघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। उन्होंने कहा - पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पांच तत्वों से यह शरीर रचा गया है।' प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ? वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो?

 श्रीराम ने तारा को समझाया कि यह जो शरीर निष्प्राण तुम्हारे सामने पड़ा है यह इसके पूर्व तुम्हारे पति का था। शरीर का अंत होने पर पांचों तत्व अपना हिस्सा ले जाते हैं, लेकिन इसके भीतर जो आत्मा है वह कभी नहीं मरती। श्रीराम तारा को समझाते हैं कि जिस शरीर के लिए तुम रो रही हो क्या इसमें से आत्मा निकल जाने पर इसको रख सकती थी ? इस पूरे वार्तालाप से हम यह समझें कि संसार हमें उसकी समझ के कारण अच्छा या बुरा लगता है, अपना या पराया लगता है

 माँ सारदा देवी की दृष्टि से देखें तो - " यहाँ कोई पराया नहीं है बेटी, सबको अपना बनाना सीखो। दोष देखना हो तो अपना दोष देखो, दूसरे का नहीं ! " श्रीराम की दृष्टि से देखें, तो जिस शरीर का जन्म हुआ हो, उसकी मृत्यु भी होती है, जो आया है वह जाएगा। यदि हमलोग 'आवृत चक्षु ' होकर संसार के कण-कण में परमात्मा देखने लगें तो फिर जब हमें अपनों से बिछड़ना पड़े, या कभी अपनों से ही धोखा खाना पड़े तब हम सुख-दुःख को अलग ढंग से लेने लगेंगे।  क्योंकि परमात्मा प्रत्येक निर्णय में समाया हुआ है। उसे जितना देना था, उसने दिया और जितना लेना था ले लिया। फिर किस बात का शोक करें, क्यों दुःख मनाएं। हम "अमृतस्य पुत्राः " हैं - प्रेममय (CINC- नवनीदा) के हिस्से हैं , हमलोग तो -श्री रामोकृष्णो के हिस्से हैं उसी की तरह प्रसन्न रहें।

हे युधिष्ठिर ! भगवान की भक्ति करने वाले भक्त का उद्धार तो होता ही है, इनसे वैर करने वाले भी इनका चिंतन करते-करते इन्हीं में समा जाते हैं। पूतना, कंस, शिशुपाल, दंतवक्त्र इन लोगो ने द्वेष भाव से भगवान में ध्यान लगाया और हम लोगों ने भक्ति भाव से मन लगाया और सबका कल्याण हुआ। कृष्ण ने गीता में स्वयं कहा है-“ये यथा माम प्रपद्यंते तान् तथैव भजाम्यहम

>>>Law of association>"संसर्गस्य नियमः"

< साहचर्य का नियम : सोमनाथ बागची स्मरण सभा  >

श्रीमद्भागवत में कहा गया है –   यदि देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भयवश अपने मन को बुद्धि तथा पूर्ण एकाग्रता के साथ किसी विशेष शारीरिक स्वरूप में स्थिर कर दे, तो वह उस स्वरूप को अवश्य प्राप्त करेगा, जिसका वह ध्यान करता है।

यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया ।

स्‍नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्तत्स्वरूपताम् ॥ २२ ॥

शब्दार्थ-यत्र यत्र—जहाँ जहाँ; मन:—मन को; देही—बद्धजीव; धारयेत्—स्थिर करता है; सकलम्—पूर्ण एकाग्रता के साथ; धिया— बुद्धि से; स्नेहात्—स्नेहवश; द्वेषात्—द्वेष के कारण; भयात्—भयवश; वा अपि—अथवा; याति—जाता है; तत्-तत्—उस उस; स्वरूपताम्—विशेष अवस्था को।

तात्पर्य- इस श्लोक से यह समझना कठिन नहीं है कि यदि कोई व्यक्ति निरन्तर भगवान् का ध्यान करता है, तो उसे भगवान् जैसा ही आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होगा। धिया शब्द विशेष अर्थ में पूर्ण बौद्धिक संकल्प [Auto-suggestion- a miracle that obeys you.] को सूचित करता है। इसी तरह सकलम् शब्द मन की एकाग्रता का सूचक है। चेतना की ऐसी तल्लीनता से मनुष्य को अगले जीवन में वैसा ही स्वरूप प्राप्त होगा, जिसका वह चिन्तन करता रहता है। यह अन्य शिक्षा है, जो कीट-जगत से सीखी जा सकती है, जैसाकि अगले श्लोक में बतलाया गया है।

यदि प्राणी स्नेह द्वेष या भय से भी जान-बूझकर एकाग्रता से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का रूप प्राप्त हो जाता हैं । हे राजन् ! जैसे भृंगी एक कीड़े को पकड़ कर दीवाल पर अपने रहने के स्थान पर बन्द कर देती हैं, और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर को बिना त्यागे ही भृंगी के स्वरूप को प्राप्त हो जाता हैं । इसी तरह मनुष्य को अन्य का चिन्तन छोड़कर परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिये ।  

अपने मन की वृत्ति को परमात्मा के ध्यान में ऐसी लगानी चाहिये कि विषयों के स्फुरित होने पर भी मन की वृत्ति विषयों में न जा सके और कभी भी हरि के स्मरण को न छोड़ सके । जैसे माता अपने बच्चे को प्रतिक्षण याद करती रहती हैं और घर के कार्यों में व्यासक्त होने पर भी उसको नहीं भूलती । 

जैसे योगी प्रतिक्षण संयम के द्वारा अपने वीर्य बिन्दु की रक्षा का ध्यान रखता है । जैसे कुरुपा नारी सुन्दर रूप का स्मरण करती रहती हैं, जैसे रस्सी पर चढ़ी हुई नटणी पतन के भय से उस पर चलती हुई रस्सी का ध्यान नहीं भूलती । जैसे कच्छपी अपने अण्डों को नेत्र से देखती रहती हैं । जैसे चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र के जल की बूंद से प्रेम करता हैं ।

जैसे कीड़ा भृंगी का ध्यान करता हुआ, भृंग बन जाता हैं उसी शरीर में रहता हुआ । जैसे मृग बाँसुरी के नाद को सुनता हुआ प्रेम से अपने प्राण त्याग देता हैं । जैसे पतंग अग्नि में पड़कर शरीर जला देता हैं । जैसे मछली जल के बिना मर जाती हैं । इसी प्रकार भगवान् का भक्त भी प्रेम से भगवान् को भजता हैं । ऐसा स्मरण ही सर्वोत्तम स्मरण कहलाता हैं । 

पूर्व जीवन के भक्ति के संस्कार मिलना आसान नहीं है : पूर्व -जन्म के संस्कारों के वश से स्वाभाविक ही आप की बुद्धि हरि में लग गई थी । वे जान चुके थे कि, शरीर, मन- बुद्धि, हृदय (3H) में सर्वत्र राम [रामोकृष्णो]  रमण कर रहा हैं । अतः उसी का ध्यान करो । नेत्रों से सदा सर्वत्र राम को ही देखो । कानों से राम सम्बन्धी गुणों को सुनो । प्रतिश्वास राम का स्मरण करो । सब जगह जब राम रमण कर रहा है तो जो भी तुम्हारे सामने आये उन सबको राम ही समझो । सहजावस्था में स्थित होकर राम नाम का रसास्वादन करो । 

हरेक वृत्ति से राम का ध्यान करो क्योंकि राम सब में मौजूद हैं । ऐसे राम को परब्रह्म परमात्मा मानकर उसका आराधन करो । क्योंकि राम सर्वरूप सर्वसंगी हैं । ऐसा जान कर उसी में अपनी मनोवृत्ति को लगावो । बाहर अन्दर सर्वत्र राम ही विराजते हैं । ऐसा जानकर रामनाम के स्मरण से और उसके यशोगान (नाम-रूप -लीला- धाम का गुणगान)  से उसको प्राप्त करो । 

त्रिविध अंकुर का परिचय  - शास्त्रादि के उपदेशरूप आज्ञा लता से तीन प्रकार से साधक रूप अंकुर उत्पन्न होते हैं - १ हरिमुख, २ गुरुमुख, ३ मनमुख । तीसरा मनमुख परमार्थ से दूर ही रहता है ।

हरिमुख- भजन द्वारा हरि के सन्मुख रहने वाले हरिमुख साधक का हृदय निरंतर हरी प्रेम में ही लगा रहता है । हरिमुख के हृदय में हरि का निवास रहता है । हरिमुख साधक रूप अंकुर वर्षाकाल के समान है, जैसे वर्षाकाल में अंकुर की वृद्धि होती है, वैसे ही हरिमुख की वृद्धि होती है। 

गुरुमुख- गुरु की आज्ञा में रहनेवाला गुरुमुख साधक गुरु की संगति करके मोह निद्रा से जग जाता है । गुरुमुख विवेक-प्रयोग या ज्ञान का विचार करता है, इससे उसके हृदय में ब्रह्म प्रकाश प्रकट हो जाता है । गुरुमुख उष्णकाल के अंकुर के सामान है, जैसे उष्णकाल में अंकुर अपनी स्थिति में ही रहता है, बढता नहीं है, वैसे ही गुरुमुख साधक अपनी निष्ठा में ही स्थित रहता है, प्रपंच की और नहीं बढता । 

मनमुख - यानि मन के कहने में चलने वाला मनमुख मूर्ख होता है और ज्ञान- भक्ति रूप महा निधि का त्याग करके विवावादि में प्रवृत होता है । मनमुख जीव तो अपने जन्म को व्यर्थ ही नाश कर डालता है । और मनमुख महान शीतकाल के मध्य के अंकुर के समान है । जैसे अतिशीत से अंकुर की स्थिति होती है वैसे ही मनमुख की होती है । वह परमार्थ से गिर ही जाता है ।

ये हरिमुख, गुरुमुख, मनमुख, तीन प्रकार के अंकुर हमने पहचाने हैं । जो सच्चे संत होते हैं, ये इनको इनकी भावना, वचन और भेष से जान जाते हैं ।]

श्री राम भगवान विष्णु हैं जिन्होंने त्रेता युग में सत युग से बदलते मानव मूल्यों को स्थापित करने हेतु अवतार लिया । मानवता के नए आदर्श प्रस्तुत करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम को अनेक कष्ट झेलने पड़े पर प्रभु कभी विचलित नहीं हुए, कभी आसान मार्ग नहीं अपनाया।  पंडित भीमसेन जोशी द्वारा गाये गए इस अद्भुत भजन- श्री राम कहे समुझाई, सुन लछमन प्यारे भाई.. में  भगवान राम अपने अनुज लक्ष्मण को उपदेश दे रहे है कि किस प्रकार विषम परिस्थिति में भी सम भाव में रहना चाहिए । 

[56th AGM held on '24-9-2023 ' After memorial meeting (স্মরণ সভা) : Ranen da-President/ Dipak Sarkar da VP// Amit Dutta-GS /Pramod da-Vikas da/ Tapan chatterjee /Prabal Mohanti, Ranjit Mohanti,  Saumen/ Anindo/-Samir/ Arunabho/ Tuhin/ Ajay/ +2 Ranjit Ghosh ,Abhijit Ghosh included by Ranen da, said Biren da's condition not good-his mouth become filled by saliva -'लारपूरितं मुखम्' सृष्टि का उद्देश्य अहं समाप्ति /दिव्यता /पूर्णत्व का विकास और प्रकाश-Uttam Chatterjee fine photographer and audio recordist of Mahamandal. The purpose behind creation is ego annihilation/ man is marching  towards perfection Professor Basudeb of  Ranchi is fine after the operation./  दिपयेन्दु जाना was with pramod da/ सृष्टेः पृष्ठतः  उद्देश्यं अहङ्कारस्य विनाशः अस्ति/ मनुष्यः सिद्धतां प्रति गच्छति रांचीनगरस्य प्रोफेसर बासुदेबः शल्यक्रियायाः अनन्तरं कुशलः अस्ति।] purpose of creation ego annihilation/Professor Basudeb of  Ranchi is fine after the operation./   

सदन-कसाई :  सदना'जी जाति के कसाई थे, तो भी उनकी भक्ति की  बात बहुत अच्छी इतिहास बन गई थी । जैसे कसोटी से रगड़ने पर शुद्ध सोने की लकीर अच्छी ही आती है, वैसे ही इन शुद्ध भक्त में दुःख पड़ने पर यह भी परीक्षा में पूरे ही उतरे थे । कसाई कुल में उत्पन्न होने पर भी जीवों को नहीं मारते थे । अपनी कुलपरंपरा का आचरण समझ कर, दूसरे कसाइयों से मांस लाकर बेचा करते थे ।

'सदना कसाई ':  प्रेमपूर्वक हरि नाम स्मरण करते रहते थे। दैवयोग से इनके शालग्राम हाथ लग गये थे। बिना जाने उन्हीं से मांस तोल तोल कर बेचा करते थे। एक दिन इनकी दुकान के पास से एक संत जा रहे थे । उनकी दृष्टि शालग्रामजी पर पड़ गई । उनने नेत्रों में आंसू भरकर इनको कहा- 'ये तो शालग्रामजी हैं इनसे मांस मत तोला करो । लाओ इसको दो हम इनकी सेवा पूजा करेंगे ।' सदनाजी ने दे दिया । 

संत शालग्रामजी को ले आये और पञ्चामृत आदिक संस्कार करके पूजा करने लगे किन्तु उनकी पूजा प्रभु को प्रिय नहीं लगी । रात्रि के समय स्वप्न में संत की आज्ञा दी- "हमको उसी सदना' कसाई के यहाँ पहुँचा दो । वह हमारा नाम और गुण सप्रेम गाता है, सो हम सुनते हैं और उसकी हृदय की सच्चाई पर हम अति प्रसन्न हैं" ॥

मार्ग में एक ग्राम में भिक्षा लेने को एक घर में गये । उस घर की स्त्री इनका सुन्दर रूप देखकर इन पर आसक्त हो गई और बोली- "आप आज यहाँ ही भोजन करो और विश्राम भी यहाँ ही करो ।"

आप ठहर गये । रात्रि के समय वह स्त्री इनके पास आकर खड़ी हो गई और बोली- "मुझ से संग करो ।" आपने कहा- "यदि तू गला भी काट डाले तो भी मुझ से ऐसा नहीं होगा ।"

उसने यह समझकर कि मेरे पति के भय से नटता है । निर्भयता के साथ भीतर जाकर सोये हुए अपने पति का कंठ काट डाला । फिर कामवेग में निमग्न१ होकर आई और बोली - "अब तुम को कोई भय नहीं रहा है, निर्भयता से मेरा संग करो ।"

सदनाजी ने कहा- "मैं तो पहले ही नट गया था, अब भी कहता हूँ कि मेरा तुमसे क्या सम्बन्ध है अर्थात् मैं कदापि संग नहीं करूँगा ।" तब वह रोकर पुकारने लगी कि - "मेरे को अपने साथ ले चलने के लिये इसने मेरे पति की गर्दन काट डाली है ।" यह सुनकर गाँव के लोग इकट्ठे हो गये । 

उस ग्राम के अधिपति ने सदन को पूछा - "इसको तुमने मारा है ।" तब सदनजी ने हँसते हुये कहा - ''हाँ हमने ही मारा है ।" किन्तु इने मुख की प्रसन्नता को देख कर अधिपति को पूरा निश्चय नहीं हुआ कि इनने मारा है । इससे वह कुछ चिन्ता में पड़ गया कि अब मैं क्या करूँ । संशय होने से उसने इनका वध नहीं किया, केवल हाथ काट कर छोड़ दिया ।

कटे हुये हाथों से ही उठकर श्रीहरिजगन्नाथजी के यहाँ जाने वाले मार्ग से पुरी को चल पड़े । बिना दोष ही हाथ कटने का विचार जब हृदय में आया तो विचार किया कि मेरा कोई पूर्व का पाप था, उसका दंड देकर प्रभु ने मुझे (मेरे चित्त को) शुद्ध कर दिया है । शुद्ध होने पर प्रभु का दर्शन होता है । यह निश्चय हृदय में धारण किया ।

उधर श्रीजगन्नाथजी ने सदन को लाने के लिये सामने अपनी पालकी भेजी । पंडे लोग पूछते पूछते सदनाजी के पास पहुंच गये । और बोले - "पालकी पर चढ़ो ।" किन्तु सदनजी प्रभु की पालकी समझकर नहीं चढ़ते थे । पंडों ने कहा - "प्रभु की आज्ञा अमिट है, चढ़ना पड़ेगा ।" तब वे बिना- इच्छा ही कठिनता से उस पर चढे । फिर पंडे उनको प्रभु के पास ले आये । सदनाजी प्रभु का दर्शन करके साष्टांग प्रणाम करने लगे तब उसी क्षण हाथ ज्यों के त्यों हो गये । सब दुःख स्वप्न समान मिट गया । फिर श्रीजगन्नाथजी ने कहा- "तुमने भक्ति का प्रण भली भांति पालन किया है । परीक्षा में पूरे उतरे हो । अब आनन्द पूर्वक हमारी भक्ति का विस्तार करो ।" श्रीजगन्नाथजी ने विप्र रूप से कृपा करके सदनाजी के हाथ कटने का रहस्य भी सदनाजी को बता दिया था । 

ब्राह्मण ने कहा- पूर्व जन्म में तुम काशी में विप्र और पंडित भी थे । एक दिन एक गाय कसाई के घर से निकल कर भागी जा रही थी । पीछे से कसाई भी दौड़ता हुआ आ रहा था । उसने तुमसे पूछा- गाय किधर गई ? तुमने अपने हाथों से उसे बताया था । वही गाय इस जन्म में वह स्त्री हुई है और वह कसाई उसका पति था । कसाई ने गाय का गला काटा था उसी दोष से उस स्त्री ने पति का गला काटा है और तुम्हारे हाथ काटे गये हैं ।

 मैं अपने भक्तों को उनका कर्म भुगता कर निष्पाप कर देता हूँ । यह सुनकर सदनाजी प्रसन्न हुए और ब्राह्मणभेषधारी प्रभु अन्तर्धान हो गये ।

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