प्रकाशक :
श्री विजय कुमार सिंह, (उपाध्यक्ष)
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल,
6/1 ए, न्यायमूर्ति मनमथा मुखर्जी मार्ग,
कोलकाता - 700009]
[Published by
Bijay Kumar Singh, Vice- President
Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal
6/1 A, Justice Manmatha Mukherjee Row,
Kolkata - 700009 ]
(C) सर्वाधिकार सुरक्षित
ISBN 978-81-86974-94-0
प्रथम अंग्रेजी संस्करण दिसम्बर, 1986
प्रथम हिन्दी संस्करण दिसम्बर, 1991
द्वितीय हिन्दी संस्करण दिसम्बर, 2009
तृतीय हिन्दी संस्करण दिसम्बर, 2023
मूल्य : 40
मुद्रक
हरि ओम प्रेस
झुमरी तिलैया, कोडरमा
825 409 (झारखण्ड)
मो० : 994149642
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प्रकाशक का मन्तव्य
किसी भी रचनात्मक आन्दोलन की सफलता के लिये नेतृत्व अति आवश्यक है। परन्तु, सामान्यतः हमलोगों के मन में नेतृत्व की कोई स्पष्ट अवधारणा नहीं होती। इस विषय पर अन्यत्र कोई पुस्तक मिलने की सम्भावना भी बहुत कम है। हाल ही में इस विषय पर एक पुस्तक अमेरिका में प्रकाशित हुई है, किन्तु उसमें केवल कुछ अमेरिकी राष्ट्रपतियों की जीवनी तथा उपलब्धियों का ही वर्णन है।
भारत में 'चुनाव कैसे जीतें " ? जैसे विषयों पर कुछ पुस्तकें बाजार में अवश्य आयी हैं किन्तु समाज को समुचित दिशा देने के लिये किस प्रकार के नेताओं की आवश्यकता है, किसी आंदोलन को सही मार्ग पर ले जाने के लिये किस प्रकार नेतृत्व का होना आवश्यक है , या देश की नयी पीढ़ी को राष्ट्र की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर देने के लिये अनुप्रेरित करने में समर्थ नेताओं में कौन -कौन से गुण होने चाहिये , इन महत्वपूर्ण/उद्देश्यपूर्ण प्रश्नों के ऊपर हम कभी गम्भीरता से विचार करने की चेष्टा भी नहीं करते।
महामण्डल द्वारा आयोजित होने वाले युवा प्रशिक्षण शिविरों तथा इसकी मासिक संवाद पत्रिका 'विवेक-जीवन' में इन्हीं सब प्रश्नों के ऊपर जो विवेचनायें होती रहती हैं , यह पुस्तक उन्हीं विवेचनाओं पर आधारित है। आशा की जाती है कि यह पुस्तिका महामण्डल के उन कार्यकर्ताओं को तो लाभ पहुँचायेगी ही, जो इस आन्दोलन को समुचित दिशा में आगे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध हैं , साथ ही साथ वैसे लोग भी लाभान्वित होंगे जो समाज कल्याण के किसी भी क्षेत्र में प्रभावकारी ढंग से कार्य करने की इच्छा रखते हैं।
श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा लिखित यह महामण्डल पुस्तिका पहली बार 1986 में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुई थी, एवं 1991 में इसका द्वितीय वर्धित अंग्रेजी संस्करण भी प्रकाशित हुआ था । महामण्डल के " Be and Make : जीवन-गठन आन्दोलन " का प्रचार -प्रसार करने में समर्थ इस पुस्तिका की असीम उपयोगिता को देखते हुए इसका प्रथम हिन्दी संस्करण झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल के द्वारा 1991 में प्रकाशित किया गया था। उस समय तक यह पुस्तिका बंगला भाषा में भी अनुवादित एवं प्रकाशित नहीं हो सकी थी। 1994 ई ० में श्रीमती नन्दिनी गोस्वामी द्वारा अनुवादित "নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী" ( नेतृत्वेर आदर्श ओ गुणावली) शीर्षक महामण्डल की बंगला पुस्तिका का प्रथम संस्करण प्रकाशित होने के बाद यह अभाव भी समाप्त हो चुका है।
इस पुस्तिका के द्वितीय हिन्दी संस्करण का स्टॉक पूरी तरह समाप्त हो जाने के बाद , पूर्व संस्करण में रह गए कुछ त्रुटियों का निराकरण करते हुए यह तीसरा हिन्दी संस्करण प्रकाशित हो रहा है। छपाई खर्च में वृद्धि हो जाने के कारण विवश होकर हमें इस पुस्तक के मूल्य को थोड़ा बढ़ाना पड़ा है। आशा है, सुहृद पाठक इस असुविधा पर ध्यान नहीं देंगे।
प्रकाशक
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अनुक्रमणिका
1. नेतृत्व की अवधारणा तथा उद्गम
2. नेतृत्व सम्बन्धी धारणा एवं उसका स्वरुप
3. सेवा करें प्रेरणा भरें
4. नेतृत्व का रहस्य
5. भावी नेताओं के लिये कुछ महत्वपूर्ण सुझाव
6. नेता भी गढ़े/बनाये जा सकते हैं
7. महामण्डल के नेताओं का दायित्व
8. सभी गुणों को विकसित कीजिये
9. नेतृत्व में स्वतंत्रता
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[1]
नेतृत्व की अवधारणा तथा उद्गम
( Genesis and Concept of Leadership)
(নেতৃত্বের উৎপত্তি ও ধারণা)
[>>>1. सृष्ट जगत में विभिन्नता अनिवार्य ]
वर्तमान समय में 'नेता' शब्द इतना बदनाम हो गया है कि 'नेता' शब्द सुनने मात्र से ही मन वितृष्णा से भर उठता है। किन्तु, हमें इसे केवल गलत अर्थों में न लेकर इसके यथार्थ मर्म को भी समझने की चेष्टा करनी चाहिए। आइये, हमलोग यह समझने का प्रयास करें कि नेतृत्व आखिर कहते किसे हैं, क्यों और कहाँ हमें एक नेता की आवश्यकता अनुभव होती है तथा वास्तव में नेता कौन हैं।
हमलोग यह जानते हैं कि सभी मनुष्य एक ही तत्व के बने होते हैं, किन्तु सभी मनुष्य गुण और सामर्थ्य की दृष्टि से बिल्कुल एक समान कभी नहीं हो सकते। फिर भी हम सभी के मन में हर दृष्टि से बिल्कुल एक सामान हो जाने की इच्छा विद्यमान रहती है। किन्तु प्राकृतिक तौर पर हम सभी बिल्कुल एक समान हैं ही नहीं। हमारे बीच अन्तर रहता ही है, क्योंकि सृष्ट जगत में स्वाभाविक तौर पर विविधतायें रहती ही है। विभिन्नता ही सृष्टि का आधार है। सृष्टि का अर्थ ही विविधता है। विविधताओं के बिना सृष्टि तो हो ही नहीं सकती। हमारी प्राचीन संस्कृति एवं परम्परा के अनुसार, हमारे अपने ऋषि-मुनियों के दर्शन के अनुसार मूल वस्तु केवल एक है- वह 'उर्ध्व मूल अधो शाखा' वस्तु ही सृष्टि का उद्गम (source-उत्स,श्रोत) है। उसी "एकमेवाद्वितीयं" से यह सारी सृष्टि अस्तित्व में आयी है।
इसका अर्थ यह हुआ कि सृष्टि के प्रारम्भ से पहले साम्य एवं संतुलन की ही अवस्था थी। उस अवस्था में जब केवल एकमेवाद्वितीय वस्तु ही थी तब, स्वाभाविक रूप से समानता थी। किन्तु जैसे ही उस मौलिक या आदि साम्यावस्था में विक्षोभ हुआ कि सृष्टि प्रारम्भ हो गयी। इसीलिये सृष्टि के किसी भी क्षेत्र में असामनता तथा विभिन्नता अवश्य रहेगी। यह एक स्वयंसिद्ध मौलिक तथ्य है जिसकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते, उसे हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा और "इसे" # समझना भी होगा !
[# जो अर्थ "आ... आनन्द" --- 'राम' और 'श्याम' का है, Shiva Shakti Point का है, परमानन्द स्वरुप सत्यानन्द, वही अर्थ श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा- स्वामी विवेकानन्द का भी है - 'इसे' समझना भी होगा।]
[>>>2.नेता का जीवन-लक्ष्य : सृष्ट-जगत में विभिन्नताओं को स्वीकार करते हुए साम्यभाव लाने का प्रयास करना।]
किन्तु इस विविधतापूर्ण जगत में हमारा प्रयास सदैव यही होनी चाहिये कि सारे विभेद मिट जायें तथा सतही तौर पर दिखाई पड़ने वाले असमानताओं की उपेक्षा करते हुए हमें एक सार्व-भौमिक समानता एवं वैश्विक -साम्यावस्था [ वसुधैवकुटुम्बकं भाव ] लाने के लिये प्रयासरत रहना चाहिये। यही जीवन का लक्ष्य है, यही वह उद्देश्य है जिसको प्राप्त करने की दिशा में इस विविधता और असमानता से परिपूर्ण जगत को अवश्य आगे बढ़ना चाहिए।
यह एक मौलिक सिद्धान्त है तथा इसी मूलभूत सिद्धान्त को आधार बनाकर हमें अपनी उन्नति, समाज का कल्याण, भारत का कल्याण तथा वैश्विक मानवता के कल्याण के लिए प्रयासरत रहना चाहिये। हमारी सारी योजनायें समस्त कार्यक्रम इसी मूल सिद्धान्त पर आधारित होने चाहिये। लेकिन, इसके साथ ही साथ हमें वस्तुस्थिति को समझते हुए इस (दृष्टिगोचर) जगत में विद्यमान विभिन्नताओं, असमानताओं के साथ-साथ गुणों एवं सामर्थ्य के अन्तर को भी अवश्य स्वीकार करना चाहिये।
सृष्टि की व्यक्तावस्था में विभिन्नताओं की अनिवार्यता के कारण सभी मनुष्यों की सांस्कृतिक, आर्थिक, नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि अवस्थाओं में अन्तर होना स्वाभाविक है। इसी कारण विभिन्न मनुष्यों की आकृतियों, अभिरुचियों तथा शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक क्षमता में असंख्य विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती हैं। जगत में जो कुछ भी विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती है उसका कारण यही है। जगत में विद्यमान विविधताओं, असमानताओं की वस्तुस्थिति को स्वीकार करते हुए हमें सर्वप्रथम अपनी शक्तियों और क्षमताओं को प्रगति, विकास, पूर्णत्व, समानता एवं साम्यावस्था को प्राप्त करने की दिशा में नियोजित करना/लगाना होगा।
>>>3. भवसागर से पार ले जाने में समर्थ नेतृत्व :
इस साम्यावस्था को प्राप्त करने के लिए हमें बहुत गहराई से चिन्तन कर पहले यह पता लगाना होगा कि अपनी शक्तियों और क्षमताओं का नियोजन करना समाज के किस स्तर से प्रारम्भ करें। इस विषय पर चिन्तन करने से हमलोग इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि इसे समाज के बिल्कुल निम्न स्तर पर रहने वाले या सामान्य स्तर पर रहने वाले व्यक्तियों से प्रारम्भ करने की अपेक्षा कुछ उच्च स्तर के व्यक्तियों से प्रारम्भ करना समुचित होगा।
क्योंकि जो व्यक्ति चेतना, सहानुभूति और समझ की दृष्टि से कुछ उच्चतर अवस्था में हों वे ही समाज के उनलोगों को ऊपर उठा सकेंगे जो चेतना, समझदारी, सामर्थ्य तथा गुणों की दृष्टि से उनकी अपेक्षा अभी निचले सोपान खड़े हों। यहीं पर नेतृत्व की क्षमता उभर कर सामने आ जाती है। सृष्टि या समाज में विद्यमान विषमताओं को स्वीकार करते हुए समता, साम्यावस्था, उन्नति तथा पूर्णता की प्राप्ति हेतु हमलोग भी कुछ प्रयास अवश्य कर सकते हैं।
अब, हमलोग नेतृत्व की अनिवार्यता तथा सच्चा नेतृत्व कैसा होता है- जैसे गूढ़ विषय को स्पष्ट रूप से समझने का प्रयास # करेंगे। विभिन्नता तथा विषमताओं से परिपूर्ण इस जगत में वैसे कुछ व्यक्ति जो विशेष गुणवान हैं, समझ और योग्यता की दृष्टि से जो अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ हैं, वे अपने इन विशिष्ट गुणों का उपयोग समाज में अपने से निचले सोपान पर खड़े मनुष्यों को ऊपर उठाने के लिए कर सकते हैं। सच्चे नेतृत्व का उद्गमबिन्दु (source) यही है।
हमलोग इस सृष्टि में यह देखते हैं कि यहाँ सभी मनुष्यों में समझदारी, गुण और योग्यता की दृष्टि से कुछ-न-कुछ विभेद या अन्तर अवश्य रहता है, तथा हमें इसे बाध्य होकर स्वीकार भी करना पड़ता है। अब यदि वैसे लोग जिनमें कुछ विशेष शक्ति या सामर्थ्य है , अपनी उन विशिष्ट क्षमताओं का उपयोग निम्न सोपान पर खड़े लोगों को ऊपर उठाने तथा आत्मोन्नति के लिए प्रेरित करने में करते हैं तो, वे उन्हें अपनी विशिष्ट क्षमता से ऊपर उठा सकते हैं, और उन्नत मनुष्य बनने में उनकी सहायता कर सकते हैं। यही है नेतृत्व का मूलभूत सिद्धान्त।
यहाँ हमलोग इस सिद्धान्त को तो समझने का प्रयास करेंगे ही साथ ही साथ इसे व्यवहारिक रूप देकर यथासम्भव इसका उपयोग न केवल मानव समाज की सामान्य उन्नति के लिए करेंगे बल्कि अपने देश भारत की उन्नति में इसको विशेष तौर से उपयोग में लायेंगे। मानव जाति के महान पथ-प्रदर्शक नेताओं में से एक स्वामी विवेकानन्द ने पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने के जो उपाय बताये हैं, उस उपाय को हम अपने देश के युवा वर्ग के बीच प्रसारित करेंगे तथा युवाओं को उसी आदर्श पर चलने के लिये सदैव प्रेरित करने का प्रयास करते रहेंगे !
>>>4. महामण्डल के प्रत्येक भावी नेता को 'L'-OVE स्वरुप 'L'-ighthouse : C-IN-C नवनीदा " के एक प्रेम-स्फुलिंग 'spark of love' से अपने ह्रदय को सदैव आलोकित रखना होगा। ]
नेता कौन हैं ? नेता कौन बन सकता है ? इस शब्द का प्रयोग हम बड़े ही चलताऊ ढंग से बिना कुछ विचार किये, जिस-तिस के लिए कर देते हैं। अतएव, कुछ लोग नेता होने के विचार से ही नफरत करने लगे हैं। 'नेता ' कहकर सम्बोधित किये जाने पर वे शायद यही सोच कर डर जाते हैं कि लोग, उनके बारे में भी निश्चित ही कोई गलत धारणा बना लेंगे।
हमारे समाज में इन दिनों यह शब्द एक प्रकार से गाली ही माना जाने लगा है। क्योंकि इन दिनों मुख्य रूप से नेता केवल राजनीति के क्षेत्र # में ही दिखाई पड़ते हैं। [तीनों ऐषणाओं के गुलाम फिर भी कट्टर ईमानदार नेता केवल राजनीति/ या सरकारी तंत्र के क्षेत्र में ही दिखाई पड़ते हैं।] परन्तु, केवल इसी कारण से मानव जाति के सच्चे नेताओं की उपेक्षा कर मार्गदर्शक प्रकाश सतम्भ -'Lighthouse' के अभाव में अँधेरे में ही भटकते रहना उचित नहीं है। मनुष्य जाति के पथ-प्रदर्शक नेता [जीवनमुक्त शिक्षक] सदा से रहे हैं और आज भी अवश्य होने चाहिये। अतः हमें अपने मन से कुछ शब्द और विचारों के प्रति जो पूर्वाग्रह है उसे निकाल फेंकना चाहिए। शब्दों के सही अर्थों को समझकर, उसके अर्थों में विचलन से मन को हटाकर महान सिद्धान्तों का अपने दैनन्दिन/वास्तविक जीवन में उपयोग करना चाहिए।
इस जगत में मनुष्य जाति को ऊपर उठाने, सन्मार्ग दिखलाने तथा नेतृत्व प्रदान करने का दायित्व अपने कन्धों पर उठा लेने वाले सच्चे नेताओं का प्रादुर्भाव शताब्दियों और सहस्त्राब्दियों से होता चला आ रहा है , उन्हीं में से कुछ को हम आज भी श्रीराम , श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, श्रीचैतन्य, श्रीरामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द के नाम से जानते हैं। ये सभी मनुष्य जाति के सच्चे नेता हैं। जब हमलोग अंग्रेजी में नेतृत्व शब्द लिखते हैं तो Leader, Leadership या Lighthouse लिखने के लिये अंग्रेजी वर्णाक्षर के 'L' से आरम्भ करना पड़ता है।
'L' अक्षर से आरम्भ होने वाले जितने भी सुन्दर शब्द हैं, उन सब में 'Love' से बढ़कर सुन्दर दूसरा और कोई शब्द नहीं है। एक बार स्वामी विवेकानन्द से बार- बार यह अनुरोध किया जा रहा था कि आप अपने गुरु, अपने प्रियतम, अपने नेता, अपने सर्वस्व श्रीरामकृष्ण के बारे में कुछ कहिये, जिनके चरणों में आपने अपना जीवन समर्पित कर दिया है। किन्तु, उनके बारे में एक शब्द बोलने में भी स्वामीजी को संकोच हो रहा था , वे मन ही मन अपने को असमर्थ पा रहे थे। अतः स्वामीजी बोले कि मैं उनके बारे में कुछ भी नहीं बोल पाउँगा। स्वामी जी जगत के विभन्न विषयों पर व्याख्यान दे सकते थे, वे कई ग्रन्थ लिख सकते थे, परन्तु अपने जीवन सर्वस्व के ऊपर एक शब्द भी कहने में हिचक रहे थे। उनको भय था कि उनके मुख से निकला कोई भी शब्द कहीं उनके गुरुदेव की महिमा को, उनकी महानता को सीमित न कर दे। वे तो इतने महान हैं ! इतने विशाल हैं ! भला समुद्र जैसे अगाध और गगन सदृश अनन्त विस्तार को शब्दों में कैसे व्यक्त किया जा सकता है ? स्वामी विवेकानन्द उस सीमाहीन विस्तार को मापने में तथा उसे शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करने में अपने को असमर्थ पा रहे थे। किन्तु, जब बार-बार अनुरोध किया जाने लगा -तो उन्होंने श्रीरामकृष्ण के सम्पूर्ण अद्भुत व्यक्तित्व को केवल एक शब्द में व्यक्त करते हुए कहा - LOVE ! प्रेम ! " श्रीरामकृष्ण प्रेम हैं !"
कोई भी (भावी) नेता सच्चा नेता केवल तभी बन सकता है, जब उसके हृदय में इसी प्रेमाग्नि का एक स्फुलिंग, एक टुकड़ा विद्यमान हो। जिनके ह्रदय में इस प्रेम का एक छोटा सा अंश भी विद्यमान नहीं है, वे किसी भी मनुष्य को उन्नति, पूर्णत्व या विकास की दिशा में नेतृत्व नहीं दे सकते। अतः नेतृत्व सम्बन्धी इस नूतन सिद्धान्त के आलोक में हमलोगों को अपने ह्रदय में इसी प्रेम को विकसित तथा प्राप्त करने के लिये प्रयासरत रहना चाहिये। गौतम बुद्ध, ईसा मसीह , मोहम्मद , श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द (कैप्टन सेवियर- नवनीदा) आदि महापुरुष केवल प्रेम की विभिन्न अभिव्यक्तियां मात्र थे। उन विभिन्न रूपों में केवल प्रेम ही मूर्तमान हुआ था। [और जिनमें से दो के चरणों में बैठने का सौभाग्य हम में से कुछ महामण्डल भाइयों को प्राप्त हुआ था - गुरुदेव और नवनीदा के साथ !]
>>>5.'नेतृत्व का सिद्धान्त एक उदार तथा महान विषय! '(Leadership Theory is a generous and great subject !)
क्या हमलोग भी नेता नहीं बन सकते ? क्या उस प्रेम के एक छोटे से अंश को भी अपने हृदय में नहीं धारण कर सकते ? क्या हमलोग अपने आस-पास रहने वाले लोगों से प्रेम नहीं कर सकते ? क्या हम उन्हें इस अनित्य और दुःखपूर्ण संसार के कष्ट, दारिद्रय और विवशता के दलदल से ऊपर नहीं उठा सकते ? निश्चय ही हमलोग ऐसा कर सकते हैं और हमें यह अवश्य करना चाहिए। ऐसा नेता बन जाने के बाद हमलोग कितनी धन्यता का अनुभव करेंगे ! इसी प्रकार के हजारों नेताओं की हमें आवश्यकता है। [को दरिद्रः ?] अभी हम कितना दरिद्र, किंतना अभावग्रस्त, कितना क्षुद्र हैं ! किन्तु, यदि हम स्वयं को बड़ा बनना चाहते हैं,तथा दूसरों को भी बड़ा बनाना चाहते तो, हमें पहले स्वयं अपने गुणों तथा क्षमताओं को विकसित करना होगा, तथा अपने आस-पास रहने वाले लोगों को भी इन गुणों तथा क्षमताओं को विकसित करने में सहायता करनी होगी ताकि वे भी बड़े हों।
नेतृत्व के सम्बन्ध में इस संक्षिप्त जानकारी से परिचित होकर क्या हमें ऐसा अनुभव नहीं होता कि 'नेतृत्व का सिद्धान्त' एक उदार तथा महान विषय है ? सचमुच वे लोग नेता थे तथा हम लोग भी नेता बनना चाहते हैं। [सचमुच 'Yato mat, tato path “As many faiths, so many paths.” की शिक्षा देने वाले 'The Holy Trio' - श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा - स्वामी -विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर, प्रेममय C-IN-C नवनीदा जैसे लोग 'Be and Make वेदान्त लीडरशिप परम्परा' (जीवनगठन आन्दोलन :Life Building movement) के उदार और महान नेता थे, और हमलोगों को भी वैसा नेता बनना चाहते हैं।]
>>>6. महामण्डल का उद्देश्य C-IN-C नवनीदा जैसे प्रेममय नेताओं/राजर्षियों का निर्माण :
हमने यह देखा कि इस सृष्ट जगत में विभिन्नतायें रहती ही हैं। इस वस्तु स्थिति को स्वीकार करते हुए यदि हम कुछ वैसे लोगों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए तैयार कर सकें जो इन सिद्धान्तों को आत्मसात करने में सक्षम हों तो, समाज के दूसरे लोगों की सहायता करने में उनका भी उपयोग किया जा सकता है। [यदि महामण्डल कुछ मध्यमवर्गीय राजर्षि लोगों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए तैयार कर सके , जो "को दरिद्रः ? यस्य तृष्णा /ऐषणा विशालः !" जैसे सिद्धान्तों को आत्मसात करने में सक्षम हों, तो समाज के दूसरे लोगों की सहायता करने में उनका भी उपयोग किया जा सकता है। ?]
श्रीरामकृष्ण एवं स्वामी विवेकानन्द यह अभिनव सिद्धान्त - (व्यावहारिक वेदान्त) आज भी क्रियाशील है। जैसा कि अपने जीवन काल में ही भविष्यवाणी करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की थी - " इन अभिनव सिद्धान्तों की तरंगे ऊँची उठ चुकी हैं , उस प्रचण्ड जलोच्छ्र्वास का कुछ भी प्रतिरोध न कर सकेगा। आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गयी है। निर्बाध , निःसीम , सर्वग्रासी उस प्लावन को मैं भूपृष्ठ पर अवतरित होता देख रहा हूँ। इस ज्वार ने लगभग सम्पूर्ण विश्व को ही ढँक लिया है। अब, इसे कोई रोक भी नहीं सकता, कोई भी शक्ति इन तरंगों को फिर से वापस समुद्रतल में ढकेल भी नहीं सकती। यह ज्वार आगे बढ़ते हुए सम्पूर्ण धरातल को आच्छादित कर लेगा , ये विचार सभी के मस्तिष्क में प्रविष्ट हो जायेंगे , सम्पूर्ण मानवता इन विचारों से प्रभावित हो जायेगी। "
हमलोग स्वामीजी के इन विचारों को जीवन और व्यवहार में अपनाकर 'सम्पत्तिवान ' बन जायेंगे , अपने जीवन की उच्चतर उपलब्धियों को अर्जित करने की चेष्टा करेंगे तथा कुछ दूसरे सहकर्मियों को भी अपने साथ लेते हुए आगे बढ़ते जायेंगे। [हमें सतर्कता के साथ यह भी देखना होगा कि ] हम स्वयं को शारीरिक , मानसिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध करने के प्रयास में व्यस्त रहते हुए दूसरों को कहीं असत विचारों की अग्नि में झुलसते तो नहीं छोड़ दे रहे हैं? अपने साथ-साथ उनको भी समृद्ध बनाते हुए [षट्सम्पत्त से राजर्षि बनाते हुए] आगे बढ़ना ही नेतृत्व का सार है।
श्रीरामकृष्ण कहते थे- " कुछ तख्ते इस प्रकार की लकड़ियों से बने होते हैं कि उस पर यदि एक कौवा भी बैठ जाये तो वह डूब जाता है; पर कुछ तख्ते ऐसी लकड़ियों से बने होते हैं जो स्वयं डूबे बिना अपने साथ- साथ अपने ऊपर लदे बोझ को भी नदी के उस पार तक पहुँचा सकते हैं। " जो नेता होते हैं -वे इसी प्रकार से न डूबने वाले लकड़ी के तख्ते जैसे हैं। वे दूसरों के दायित्व को भी अपने कन्धों पर उठा लेते हैं। वे उनका बोझ स्वेच्छा से बिना किसी निजी स्वार्थ, पारिश्रमिक या किसी लाभ की आशा रखे ही (100 % निःस्वार्थ केवल लोक-कल्याण करने की इच्छा से) उठा लेते हैं। उनके लिये तो दूसरों की उन्नति, सुधार, विकास, समानता और पूर्णत्व की प्राप्ति ही प्रत्यक्ष तौर पर एकमात्र प्रेरक शक्ति हो सकती है, तथा इन सबके पीछे परोक्ष तौर पर एक मात्र प्रेरणा रहता है -'Love'! और उस परोक्ष प्रेरणा के अपरोक्ष स्रोत रहते हैं - उनके ह्रदय में विद्यमान ईश्वर - क्योंकि God is Love ! ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं, तभी तो वे प्रेम के वशीभूत होकर 'मनुष्य ' को देवमानव (100% Unselfishness) में रूपान्तरित करने के लिए बार-बार धरती अवतरित होते रहते हैं !
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[#Leadership in Film -'Guide' (1965) :
>>जब मतलब से प्यार होता है, तो प्यार से मतलब नहीं रहता..... 12 दिन क्या मैं हमेशा के लिए खाना छोड़ दूं अगर उससे तुम्हारा भला होता है तो... (स्वामीजी ने जैसे बाघ को देखकर कहा था - मैं भी भूखा हूँ, तुम भी भूखे हो !... मैं तो तुम्हें खाकर अपनी भूख नहीं मिटा सकता , पर तुम मुझे खाकर अपनी भूख मिटा सकते हो !)
>>" आना- जाना क्या हमेशा अपने हाथ में थोड़ा होता है दोस्त; इंसान इधर जाना चाहता है किस्मत कान पकड़ कर उधर ले जाती है...... काम उसका, नाम तेरा...... मुसीबत का तो चिता तक साथ रहता है...... दुख वो अमृत है जिससे पाप धुलते हैं...
>> " मौत एक ख्याल है , जैसे जिंदगी एक ख्याल है; ' मौत एक ख्याल है, जैसे रोशनी एक ख्याल है। न सुख है न दुख है, न दीन है न दुनिया, न इंसान न भगवान ...... । " सिर्फ मैं हूँ, ......बस मैं। मैं। मैं। ....... सिर्फ मैं! ......इन लोगो को मुझ पर विश्वास है और अब मुझे इनके विश्वास पर विश्वास होने लगा है.....सोया था पर अब कुछ-कुछ जगने लगा हूँ! लगता है आज हर इच्छा पूरी होगी, पर मजा देखो, आज कोई इच्छा ही नहीं रही... .
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान। (मोल करो शरीर-मन में अन्तर्निहित विवेकज-ज्ञान रूपी तलवार का, और माया रूपी म्यान को लाँघ जाओ , या पड़ी रहन दो)
(# 'विवेकज ज्ञान ' (eternal-mortal conscience, शाश्वत -नश्वर विवेक) > 'शुद्ध चेतना' (Pure Consciousness) ही सर्वशक्तिमान और परम सत्य है और उसके अलावा-कुछ भी महत्वहीन है ! केवल मनुष्य-शरीर मिलने पर ही यह विवेक प्राप्त होता है कि "ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या" तब जो वेदान्त डिण्डिम वाला विवेकानन्द होता है - वह समझता है कि मैं अभी पुरुष देहधारी चेतना हूँ, किन्तु न पुरुष (M) हूँ न स्त्री (F) हूँ - सिर्फ मैं (Pure Consciousness) हूँ! जबकि किसी भी पशु शरीर में यह 'eternal-mortal conscience ' शाश्वत -नश्वर विवेक सम्भव नहीं]
[मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का नेतृत्व : भवसागर से पार ले जाने में सक्षम, अर्थात माया 'Time-Space-Causation' से transcend करा देने में समर्थ नेताओं का नेतृत्व कैसा होता है? .... जिस जगह को देखकर विवेकानन्द की याद आये, या परमात्मा की याद आए वो तीर्थ कहलाता है, और जिस व्यक्ति के चेहरे दर्शन से परमात्मा में भक्ति जगे, वो महात्मा कहलाता है…।
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क List of Useful Blogs to be Edited during DP of 2023
गुरुवार, 22 दिसंबर 2022
सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति [Genesis Of true Leadership ]/
(1) सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति [Genesis Of true Leadership ]
(1.1)>>>नेतृत्व का मौलिक सिद्धांत (Fundamental principle of Leadership)
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गुरुवार, 22 दिसंबर 2022
सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति [Genesis Of true Leadership ]/
(1) सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति [Genesis Of true Leadership ]
(1.1)>>>नेतृत्व का मौलिक सिद्धांत (Fundamental principle of Leadership)
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मंगलवार, 19 सितंबर 2023
🔱🙏यम और नचिकेता की कथा ! 🔱🙏 ["हथिया नक्षत्र"/ पितृपक्ष जानिबिघा तीन दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर ":- 30 सितम्बर,से 2 अक्टूबर -2023" ] "जीवन छोटा है , जीवन को उसकी पूर्णता में जियो" - जीवन को वैराग्य की प्रेरणा से जीओ ! 🔱🙏 "The Idea— Life is short“ Live life to the fullest :
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बुधवार, 27 सितंबर 2023
🔱🙏श्री रामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते हैं ?🔱🙏
🔱🙏श्री रामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते हैं ?🔱🙏
विष्णुपद मन्दिर गया और अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण : कठ उपनिषद का अर्थ है 'क=ब्रह्म' (इन्द्रियातीत सत्य) , 'ठ= निष्ठा/श्रद्धा! ', 3H-2H= 1H, 1-1=0, लेकिन ∞- ∞ = ∞ ही रहता है इसमें कोई संशय नहीं है।
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बुधवार, 19 नवंबर 2014
$$$$ १०.अभ्यास और लालच- त्याग / ११. सम्यक आसन [ " मनःसंयोग " लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]
$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ १०.चित्तवृत्तिनिरोध का नुस्खा
(विवेक-दर्शन का अभ्यास और लालचत्याग -उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः)
मन ही हमलोगों का सबसे अनमोल संसाधन (Most Precious Human Resources) है, ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है।
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