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प्रेमिक पथिक संवाद :
" रटन्ति निशा- भ्रमन "-2
आचार्य शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966)
🔱🙏शिव और शक्ति अभिन्न हैं🔱🙏
Shiva and Shakti are inseparable
শিব ও শক্তি অবিচ্ছেদ্য
अब शिव -शक्ति तत्व को लेकर तर्क उठता है। अद्वैतवाद-प्रधान शक्ति-तंत्र में शिव-शक्ति को अभिन्न माना गया है। शिव की भी शक्ति नहीं हैं, # [#शक्तिहीन शिव शव हैं - प्रमाण देवीभागवतपुराणम् में कहा गया है -'शिवोऽपि शवतां याति कुण्डलिन्या विवर्जितः।' तथा- शक्ति विना शिवे नाम धाम न विद्यते।'- योगिनीतंत्र/" शिव एवं शक्ति अलग-अलग नहीं हैं -वहाँ द्वन्द्व या दो की सत्ता नहीं है -जो शिव हैं वे ही शक्ति हैं। रामेश्वर की पवित्र कथा का स्मरण करो। श्री राम ने सेतुबंध में 'रामेश्वर' शिवलिंग की स्थापना की और पूजा करते समय उन्होंने 'राम के ईश्वर ' कहकर जैसे ही शिव की स्तुति करने लगे- "रामस्य ईश्वर: स: रामेश्वर:"- मतलब जो श्री राम के ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं। उसी समय शिव पाषाण को भेद कर प्रकट हुए और बोले - 'नहीं, मैं राम का ईश्वर 'रामेश्वर' नहीं हूँ। बल्कि 'राम ही जिसके ईश्वर हैं ' "राम ईश्वरो यस्य सः रामेश्वरः" - यानि श्री राम जिसके ईश्वर हैं वही 'रामेश्वर' हैं। इस अर्थ में मैंने अपना नाम 'रामेश्वर' स्वीकार किया है।
तब शिव और राम में समास को लेकर तर्क चलने लगा। यहाँ रामका षष्ठितत्पुरुष-होगा या शिव का बहुब्रीहि समास कहना ठीक होगा ? आदि व्याकरण शिव-सूत्र जाल के जालिक स्वयं नटराज का ताण्डव नृत्य था, (शिव-सूत्र को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है।) इसलिए श्रीराम शिव के तर्क से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। तब इस 'समास-कूट' को हल करने के लिए ब्रह्मलोक से ब्रह्माजी को आना पड़ा। ब्रह्माजी ने आकर कहा - " यहाँ षष्ठी तत्पुरुष समास नहीं चलेगा , और बहुब्रीहि समास भी नहीं चलेगा। यहाँ कर्मधारय समास का प्रयोग करना ही ठीक होगा। - रामेश्वर का सही अर्थ मैं करता हूँ- "रामश्चासौ ईश्वरश्च,रामेश्वरः" जो राम हैं वे ही ईश्वर - महेश्वर, शिव हैं ! उसी प्रकार यहाँ भी जो (ब्रह्म) 'शिव' है, वही 'शक्ति' भी हैं ,दोनों में कोई अंतर नहीं -अद्वय है, दोनों अभिन्न हैं जैसे - 'चंद्र-चंद्रिका' ! (#2 "नानयोरंतरं विद्याच्चंद्रच- न्द्रिकयोरिव' जैसे चाँद और चाँदनी अभिन्न है!
उदाहरण के लिये चना (छोला) में दो दल (दाल)-आलिंगित हैं, एक-दूसरे को हृदय से लगाये हुए हैं, किन्तु स्पष्तः एक ही चना है। उसी प्रकार -'शिव और शिवा' प्रधान रूप से 'एक' ही तत्व हैं, किन्तु इसी बात को और स्पष्ट रूप से समझने के दो रूपों में प्रतीत होते हैं। और भी अधिक सूक्ष्म न्याय में कहें तो 'कुण्डलीकृत सर्प-और 'चलता हुआ सर्प' - दोनों अलग हैं ऐसी धारणा नहीं होती - दोनों अवस्थाओं में 'सर्प' तो एक ही रहता है। " फिर प्रेमिक जी ने हँसते हुए कहा - अन्त में साँप निकल ही आया ! देखो, ऐसी साधना की रात्रि में 'न्याय' को लेकर माथापच्ची नहीं करनी चाहिए।
पथिक ने कहा - " नहीं, इस बार आनुष्ठानिक कर्मकाण्ड को लेकर कुछ प्रश्न हैं। काली पूजा में, हम देवी-मूर्ति को दक्षिणमुखी देखते हैं, और उपासक उत्तरमुखी होकर उपासना करते हैं। उत्तर-दक्षिण दिशा में क्या कोई विशेष बात है, जो पूर्व-पश्चिम में नहीं मिलती? "
उत्तर - 'उपासना ' का अर्थ है निकट आना, सानिध्य। उत्तर-दक्षिण दिशा में उपास्य और उपासक के बीच का अन्तर (gap) अपेक्षाकृत कम तो होगा ही।
पथिक - 'होगा ही' ! यह कैसी बात है महाशय।
प्रेमीक - यही तो असली बात है! अन्य बातों #से क्या काम है?
[# मानलो कि 20 हाथ लंबा बाँस 'पूरब-पश्चिम' दिशा में लम्बा करके सुलाया हुआ है। बांस को उठाकर उत्तर-दक्षिण दिशा में जमीन पर रखने से वह थोड़ा छोटा हो जायेगा। गज (yardstick) को भी उत्तर-दक्षिण दिशा में लम्बा करें तो वह तुरंत ही नगण्य सा छोटा हो जायेगा , इसीलिए बाँस की वह कमी दिखाई नहीं पड़ती है। इस लेख को पढ़ने वाले विज्ञान के छात्र इसे ठीक से समझ पाएंगे। ]
पथिक अवाक् हो गए। उसने देखा - और कोई बात कहने से भी बात नहीं बनेगी, तब बोले ओह! माँ को दक्षिण की ओर मुख करके रखा जाता है, क्या इसीलिए उनका नाम दक्षिणाकाली-है?
प्रेमीक - नहीं! माँ का नाम दक्षिणाकाली केवल इसी कारण से नहीं है। ध्यान से देखोगे तो पता चलेगा कि साधारण महिला का बायां पैर पहले गिरता है- क्योंकि वे वामा हैं ना ? लेकिन माँ काली की प्रतिमा में देखोगे तो उनका दाहिना पैर बायें पैर से कुछ आगे स्थापित हैं। इसका -तात्पर्य यही कि माँ काली कोई साधारण नारी नहीं हैं। दक्षिणाग्र- चरणा माँ काली, असाधरण नारी नृत्यमाना महानारी -मूर्ति। दक्षिण दिशा के स्वामी स्वयं यम हैं, किन्तु माँ काली का नाम सुनते ही वे भी उनके डर से -भाग जाते हैं। 'निर्वाण तंत्र' के अनुसार-
दक्षिणस्यां दिशि स्थाने संस्थितश्वत खेः सुतः।
काली नाम्ना पलायेत भीति युक्तः समन्ततः ।।
अः सा दक्षिणा काली त्रिषु लोकेषु गीयते ।।
अर्थात् - "काली साधक के द्वारा उच्चरित 'काली' शब्द का श्रवण मात्र करने से ही सूर्य पुत्र "यम" भयभीत होकर पलायन कर जाते हैं। वे काली साधक को नरकगामी नहीं बना सकते, इसी कारण भगवती को 'दक्षिणा काली' कहते हैं।"
दक्षिण दिक् भयहारिणी होने के कारण ही माँ को दक्षिणाकाली कहते हैं। फिर शिव को या महाकाल को वशीभूत करने या प्रकट करने और लीन करने में दक्षिणा या कुशला हैं , इसीलिए नाम हुआ दक्षिणकाली। #
निर्गुणः पुरुषः काल्या सृज्यते लुप्यते यतः।
अतः सा दक्षिणाकाली त्रिषु लोकेषु गीयते ।।
~ निर्वाण तंत्र।
पुरुष: (महाकाल) जो तीनो गुणों से परे हैं, उन्हें भी काली रचती और नष्ट करती हैं। इस असम्भव कार्य को सिद्ध करने में कुशल होने के कारण ये तीनों लोकों में दक्षिणाकाली के नाम से विख्यात हैं।
एक बात और गौर करने की है -दक्षिणकाली की मूर्ति में - उन्होंने जो कमरधनी पहन रखी है, वह सब पुरुष-हाथों की पंक्ति है (नर-कर-श्रृंखला) है, और उसमें भी पुरुष के केवल दाहिने हाथ की ही पंक्ति है। मूर्ति बनवाते समय शिल्पकार को यह बात बता देनी चाहिए, ताकि भूल न हो।
पथिक - अद्भुत हैं आपके शब्द !
प्रेमीक - लेकिन तंत्र को परियों की कहानी (fairy tale) मत समझो। हजारों-हजारों वीर साधकों ने इस दक्षिणकाली-साधना में अपने हृदय के सर्वस्वधन यहाँ तक कि अपने प्राणों को भी अर्पित कर दिया है।
पथिक - इस बार, आखिरी बार - एक बार और मैं सरल शब्दों में, काली-कृष्ण के अभेद तत्व को सुनना चाहता हूँ। लेकिन वह 'कुण्डलीकृत' सर्प न्याय जैसा न हो !
प्रेमिक महाराज , थोड़ा मुस्कुराकर फिर उसे उपाख्यानों में समझाने लगे। " कलौ काली कलौ कृष्णः कलौ गोपालकालिका। " अर्थात कलिकाल (कलयुग) में काली हैं, कलिकाल में गोपाल हैं, और फिर कलिकाल में गोपाल-काली दोनों अभिन्न भी हैं! देवी पुराण के अनुसार ऐसा माना जाता है कि कृष्ण, विष्णु के नहीं बल्कि माँ काली के अवतार थे। ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं; इसिलये कहा गया है काली के साथ कृष्ण अर्थात (अवतार तत्व) को भी समझो। "
उन्होंने कहा -" कृष्णनगर के जो राजा थे, उनके राज्य में एक धार्मिक परिवार रहता था जिसमे दो सहोदर भाई रहते थे और दोनों ही बड़े भले थे। वे दोनों भाई ईश्वर के बड़े भक्त थे और अपने-अपने इष्टदेव की पूजा अपने-अपने मन्दिरों में किया करते थे। किन्तु उनमे से बड़ा भाई काली भक्त था , और छोटा भाई कृष्णभक्त। पहले के ज़माने में जिस शैली में घर बनाये जाते थे, प्रवेश द्वार से घुसते ही बीच में आँगन था जिसके ओर जिसके एक ओर एक भाई का पूजा -घर, दूसरी ओर दूसरे भाई का पूजा -घर था। बड़े भाई के पूजा-घर में उनकी उपास्या जगन्माता की मूर्ति प्रतिष्ठित थीं, और छोटे भाई के पूजा-घर में नन्ददुलाल -बालगोपाल प्रतिष्ठित थे।
उनके आँगन में एक आम का गाँछ उग आया, फिर वह थोड़ा बड़ा हो गया उसमे ढेर सारे मंजर भी लगे| किन्तु उसमे आम का टिकोला एक ही लग पाया ! धीरे वह आम बड़ा होने लगा| प्रतिदिन सुबह-सुबह उठ कर दोनों भाई अलग अलग से देखा करते कि आम कितना बड़ा हुआ है? बड़े भाई सोंच रहे हैं- जैसे ही आम और थोड़ा बड़ा हो जायेगा, थोड़ा सा पकते ही इसे तोड़ कर माँ को दूंगा ! और छोटा भाई सोचता है- यह आम जैसे ही थोड़ा और बड़ा होकर पकना शुरू करेगा मैं इसे तोड़ कर गोपाल को दूंगा ! रोज प्रातः काल उठते ही दोनों कि नजर आम पर ही रहती थी। दिन पर दिन बीत रहे थे किन्तु आम अभी तक कच्चा ही था। उस समय एक ऐसा विशेष कार्य सामने आ गया कि यदि दोनों भाई बिजनेस-टूर पर अगर एक साथ परदेश नहीं गए, तो गाँव-घर का मामला ही बिगड़ जायेगा।
प्रात:काल ही दोनों अपने-अपने इष्ट-देवी (काली) और इष्ट-देव (कृष्ण) को अपनी-अपनी मनोकामना बताकर परदेश यात्रा पर निकल पड़े। परदेश के व्यापार कार्य में एक पक्ष व्यतीत हो गया। व्यापार काम में सफल होकर दोनों भाईयों ने हाँफते हुए घर में प्रवेश किया। परन्तु अँगने में जाकर देखा तो गाँछ पर वह आम था ही नहीं ! बड़े भाई अपने घर में जाकर अपनी धर्मपत्नी से कहा कि, " मेरी बड़ी इच्छा थी कि आंगन में जो अकेला आम ऊगा था उसको माँ काली को अर्पित करूँगा। लेकिन मैं कितना अभागा हूँ , कि वैसा कर न सका ! " गृहणी ने हँसते हुए कहा, " तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हो गयी है। कल शाम के समय मैंने देखा कि आम अच्छी तरह से पक गया है; तब मैंने ब्राह्मण -पड़ोसी के लड़के बुलवाकर आम तुड़वा लिया। पहले पूजा-घर में जाकर देखो तो सही , माँ काली के सम्मुख आम निवेदित किया हुआ है।" पति ने उत्साह से भर कर कहा - वाह ! तुम सचमुच मेरी सहधर्मिणी हो - सतिसाध्वी हो ! तुम मेरे मन की बात भी जान जाती हो ! अपने पूजा-घर में जाकर देखते हैं कि माँ काली के वराभय वाले हाथ में वही आम सुशोभित हो रहा है !
इधर छोटे भाई अपने घर में पहुँचकर अपनी स्त्री के मुँह से सुनते हैं कि पडोसी ब्राह्मण के लड़के से आम को बालक-गोपाल को निवेदित किया जा चुका है। तब पतीने उत्साह से भरकर अपनी स्त्री से कहा, इसीको कहते हैं सहधर्मिणी ! तुम अपने पति के मन की बात को भी जान जाती हो। तब उल्लास से भरकर पूजाघर में जाकर देखा तो , उनके लड्डूगोपाल के हाथ में लड्डू की ही तरह आम भी सुशोभित है ! आनन्द से अधीर होकर अपने बड़ेभाई के कमरे में गए और पूरी घटना विस्तार से बता दिए।
बड़े भाई आश्चर्य से भरकर बोले - ऐसे कैसे हो सकता है ! मैं तो अभी अभी अपने पूजा-घर से लौटा हूँ। माँ काली के हाथ में वही आम सुशोभित हो रहा था। " छोटा भाई बोला - नहीं भैया ! मैं कुछ ही क्षणों पहले वही आम लड्डूगोपाल के हाथ में देखकर तुमको बताने आया हूँ। तब दोनों भाई अत्यन्त विस्मित होकर एक साथ दुबारा पूजाघर में सत्य-असत्य जानने के लिए प्रवेश किये। दोनों ही ईश्वर भक्त हैं ! और ईश्वर (अवतार) तो भक्तवांछा-कल्पतरु हैं,अपने सभी भक्तों की अलग -अलग रूप में की गयी मनोकामना को भी पूर्ण कर देते हैं। यहाँ दो ईश्वर-भक्त एक साथ मिलकर आ रहे हैं। धड़कते दिल से सोंच रहे हैं - क्या होगा ?..... अब क्या होगा ? तब जो नहीं होना था, अनहोनी था , वही घटित होता है ! दोनों भाई एक साथ पूजाघर में जाकर देखते हैं कि-" उलंग (উলঙ্গ : निर्वस्त्र -naked) काली -कोले, उलंग (निर्वस्त्र naked) गोपाल दोले!" कृष्ण-माता कात्यायनी बालगोपाल को गोद में लेकर अपने वर वाले हाथ से उनके मुख में आम खिला रही हैं। पथिक तब गाने लगे -
एमोन शुनि नाई - शुनबो ना हे !
उलंग (निर्वस्त्र) काली कोले , उलंग (निर्वस्त्र) गोपाल दोले !
एमोन देखि नाई - देखबो ना हे !
तुमि कौल -बाउल -एक कोरेछ -
दैछ काली कालार समान साज !
जय जय जय प्रेमिक महाराज !!
के देखेछे कोबे -
मुक्तकेशीर युक्त बेनी बेणीमाधवे !
एकबार हृद मलंचे गूंजे धेये प्रेमिक अलि ! बसो आज !
जय जय जय प्रेमिक महाराज !!
[# यह आश्चर्यजनक घटना नवद्वीप में कृष्णानन्द अगमवागीश के गाँव में घटित हुई थी यह लोकप्रसिद्ध है। बड़ेभाई कृष्णानन्द शाक्त थे और छोटे भाई माधवानन्द वैष्णव थे। दोनों भाई का देवद्वन्द के समय उपाय रूप में 'नवद्वीप महिमा' कहकर वर्णित है। ]
इस बीच रटन्ती-निशा # लगभग समाप्त होने को है। [# रटंती का अर्थ है मनाया हुआ या प्रिय। इस दिन माँ के रूप में देवी काली की पूजा की जाती है। यह दिव्य भक्तों के लिए एक विशेष अवसर माना जाता है। आज के दिन बंगाल में लोग दक्षिणेश्वर काली मंदिर में काली मां की पूजा करते हैं। रटन्ती चतुर्दशी माघ मास के चंद्रमा के कृष्ण पक्ष (अंधेरे चरण) के 14वें दिन मनाई जाती है। ]
रटन्ती चतुर्द्दशी की रात्रि समाप्त होने को है। ...."तनुप्रकाशेन विचेयतारका-प्रभातकल्पा शशिनेव शर्वरी ॥ (रघुवंशम्-३.२) " (A little before morning.-सुबह से थोड़ा पहले.-कालिदास )- "सतारव्योमकाले तु तत्र स्नानं महाफलम् ।" रटन्ति -चतुर्दशी-स्नान भी "सतार-व्योमकाले" करना आवश्यक है। प्रेमिक महाराज आसन छोड़कर उठ खड़े हुए। पथिक अंग्रेजी -पाठ्यक्रम में पढ़े थे, फिरभी मानो 'सद्यः -प्राणस्पर्शनी रटन्ति देवी की शक्ति द्वारा अभिभूत होकर उसी विचेय-तारका रजनी को अपूर्व शक्तिमती -मूर्तिमती देखने लगे। और देखते देखते वाल्ट व्हाइटमैन द्वारा (1855) में रचित कविता “Song of Myself” को सम्बोधन पूर्वक- (सस्वर-सुर में) गाने लगे -
Press close , bare -bosom's night !
Press close magnetic , nourishing night !
" Night of South winds! night of the large few stars !
" Still , nodding night !
" Earth of the limpid grey clouds .
brighter and clearer for my sake ! "
---Walt Whitman .
(from Strophe 21, "Song of Myself”)
प्रेमीक महाराज ने पथिक का हाथ पकड़ कर कहा- यह सब क्या कह रहे हो? रटन्ति चतुर्दशी तिथि का ऐसा महात्म्य है कि आज नदी के जल में भी एक प्रकार की स्फुरण शक्ति युक्त हो जाती है। विश्वास नहीं होता है ना ? चलो -चलो स्नान करने के लिए चलो। सुनो, सुनो - इस सरस्वती नदी का जल आज कल्लोल करके, पुकारते हुए क्या कह रहा है - "जो अपने को ब्रह्महत्यारा समझता हो और इस पाप से छुटकारा पाना चाहते हो तो मेरे जल में डुबकी लगाने चले आओ ! जो चाण्डाल हो, या पतित हो और पवित्र होना चाहता हो तो अभी तुरंत चले आओ और हमारे जल में डुबकी लगाओ। आज मैं तुमलोगों को भी पवित्र कर दूँगीं ! भविष्य पुराण में माघ मास में प्रातःकाल स्नान का विशेष महत्व का उल्लेख करके कहा गया है -
माघमासे रटन्त्यापः किञ्चिदभ्युदिते रवौ ।
ब्रह्मघ्नमपि चण्डालं कं पतन्तं पुनीमहे।। ”
( अभ्युदितः=यस्मिन् सुप्ते सूर्य्य उदेति सः । ) माघ स्नान की अपूर्व महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि माघ मास में जल का यह कहना है की जो सूर्योदय होते ही मुझमें स्नान करता है, उसके ब्रह्महत्या, सुरापान आदि बड़े से बड़े पाप भी हम तत्काल धोकर उसे सर्वथा शुद्ध एवं पवित्र कर डालते हैं। मान्यता है कि माघ मास में शीतल जल में डुबकी लगाने-नहाने वाले मनुष्य पापमुक्त होकर स्वर्गलोक जाते हैं – “माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति”
पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में माघ मास के स्नान माहत्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है-व्रतैर्दानैस्तपोभिश्च न तथा प्रीयते हरि:। माघमज्जनमात्रेण यथा प्रीणाति केशव:॥प्रीतये वासुदेवस्य सर्वपापापनुक्तये। माघस्नानं प्रकुर्वीत स्वर्ग लाभाय मानव:॥
अर्थात व्रत, दान और तपस्या से भी भगवान श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि माघ महीने में स्नान मात्र से होती है। इसलिए स्वर्ग लाभ, सभी पापों से मुक्ति और भगवान वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान अवश्य करना चाहिए।
रटन्ती चतुर्दशी को शरीर को पवित्र करने वाले जलराशि की 'रटना वचनों ' का अवश्य श्रवण करो। इसीमें शिव है -कल्याण है !
[बिश्ववाणी -पत्रिका 27 वां वर्ष, 9 वीं अंक]
["सॉन्ग ऑफ मायसेल्फ" वॉल्ट व्हिटमैन द्वारा रचित एक कविता है। वॉल्ट व्हिटमैन एक अमेरिकी कवि थे। उन्हें एक व्यक्तिवादी कवि के रूप में जाना जाता है। कविता पढ़ने के बाद हमें लगता है कि यह कविता किसी विशेष पंथ या सम्प्रदाय से संबंधित नहीं है। यह मानव स्वभाव का चित्रण है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सॉन्ग ऑफ मायसेल्फ दुनिया में भाईचारे की भावना को दर्शाता है। सभी मनुष्यों में सब कुछ एक जैसा है। उनका खून एक ही रंग का है। वह विविधता में एकता का संदेश देता है। कवि कहता है कि विभिन्न धर्मों के लोगों को हर धर्म के प्रति सम्मान की भावना रखनी चाहिए। इस दुनिया में सब कुछ अस्थायी है। इसलिए हमें खुशी की तलाश में रहने की कोशिश करनी चाहिए। खुशी की तलाश ही जीवन का उद्देश्य है। इस तरह वह अपने स्वयं के गीत के माध्यम से पूरी मानवता की एकता और भाईचारे का जश्न मनाता है। को श्री अरबिन्द घोष के दर्शन के माध्यम से योग के संश्लेषण में देखा जाता है। अरबिंदो का यह कार्य आध्यात्मिक विकास की एक संपूर्ण प्रणाली का वर्णन करता है।]
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शिव-सूत्र या माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शिव) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से मानी गयी है। इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है। प्रसिद्धि है कि महर्षि पाणिनि ने इन सूत्रों को देवाधिदेव शिव के आशीर्वाद से प्राप्त किया जो कि पाणिनीय संस्कृत व्याकरण का आधार बना। शिव सूत्र में कुल तीन अध्याय और ७७ सूत्र हैं। "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की पूर्ति के लिये नवपंच (चौदह) बार डमरू बजाया। इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।" डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ।
साभार /https://www.brahmagyaan.in/2022/02/shiv-sutra-hindi-translation.html/ शिव सूत्र : संस्कृत से हिंदी भावार्थ सहित (Shiv Sutra Hindi Translation)
वेदान्त इस जगत् को नाम रूपात्मक मानता है-'अस्ति भाति प्रियं नाम रूपं चेत्यंशपञ्चकम् ।आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपमथद्वयम् ।।'(परम सत्ता के अस्ति = सत्, भाति = चित् , प्रिय = आनन्द, नाम और रूप ये पाँच अंश हैं। इनमें से प्रथम तीन अंश ब्रह्म का रूप है, शेष दो जगत् का रूप है।) परा स्थिति में केवल शब्द या नाद रहता है। अर्थ उसमें निगूढ़तम स्थिति में रहता है। शनै:-शनै: विकास के क्रम से दोनों पृथक् आभासित होने लगते हैं।
आप जानते ही हैं कि तीन उपाय हैं, तीन साधन। एक श्रेष्ठ है, दूसरा मध्यम है, और तीसरा निकृष्ट है। निकृष्ट को आणवोपाय कहते हैं, मध्यम को शाक्तोपाय कहते हैं, और श्रेष्ठ को साम्भवोपाय कहते हैं।
शाम्भवोपाय का अर्थ है विचारशून्यता में जागरूकता बनाये रखना। जब आप जैविक जगत में जागरूकता बनाए रखते हैं , तो वह शाक्तोपाय है । जब आप मूल जगत में जागरूकता बनाए रखते हैं , तो वह आनवोपाय है - अर्थात श्वास, श्वास, मंत्र , मंत्र का उच्चारण , और ये सब; इन्हें आणवोपाय कहा जाता है ।
जब आप सिर्फ एकाग्रचित्त मनोदशा में होते हैं - यानी जैविक दुनिया में, बिना मंत्र जाप के , बिना श्वास अभ्यास के - वह शाक्तोपाय है। जब आप विचार-शून्यता में जागरूकता बनाए रखते हैं, तो वह शाम्भवोपाय , श्रेष्ठ, सर्वोच्च है।
शिव सूत्र कुछ ऐसे सूत्रों का संकलन है जो हमें आध्यात्मिक ज्ञान की उस उंचाई से अवगत कराती है , जो शायद भगवद गीता जैसे महाकाव्यों में ही मिलती है। शिव सूत्र को माहेश्वर सूत्राणि के नाम से भी जाना जाता है। सूत्र अक्सर छोटे होते हैं, इसीलिये इन्हें सूत्र कहते हैं। किन्तु इन सूत्रों को केवल एक छोटा वाक्य समझने की भूल मत करना, क्योंकि हर सूत्र बहुत गहरा है। इनका शाब्दिक अर्थ चाहे छोटा लगे किन्तु भावार्थ बड़ा है। हर सूत्र का शब्दार्थ एक हो सकता है , किन्तु हर ज्ञानी पुरुष अपनी बुद्धिमत्ता और भाव के अनुसार अलग अलग भावार्थ तक पहुच सकता है। भावार्थ भाव से उत्त्पन्न होता है , शब्दकोष से नहीं। एक शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं , लेकिन ये आपके भाव पर निर्भर करता है कि आप किस अर्थ को सही समझें। सूत्र में आयतन कम होता है , और घनत्व अधिक। इसलिए एक सूत्र की व्याख्या करने के लिए एक दिन भी कम पड़ सकता है। हर सूत्र एक बीज है , किसी को उसमें एक वृक्ष दिख सकता है और किसी को नहीं।
शिव सूत्र को वैदिक संस्कृत भाषा में लिखा गया था जिसका ज्ञान आज बहुत कम व्यक्तियों को है। इन सूत्रों का अर्थ आपको समझाने के लिए इनका संस्कृत से हिंदी संवाद इस पेज पर दिया गया है। शिव-सूत्र एक तांत्रिक ग्रंथ है, जिसमें कुल ३ अध्याय और ७७ सूत्र है।
शिव सूत्र
१ - शाम्भवोपाय
चैतन्यमात्मा । १-१। - अर्थ
ज्ञानं बन्धः । १-२। अर्थ
योनिवर्गः कलाशरीरम् । १-३। अर्थ
ज्ञानाधिष्ठानं मातृका । १-४। अर्थ
उद्यमो भैरवः । १-५। अर्थ
शक्तिचक्रसन्धाने विश्वसंहारः । १-६। अर्थ
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तभेदे तुर्याभोगसंभवः । १-७। अर्थ
ज्ञानं जाग्रत् । १-८। अर्थ
स्वप्नो विकल्पाः । १-९। अर्थ
अविवेको मायासौषुप्तम् । १-१०।
त्रितयभोक्ता वीरेशः । १-११।
विस्मयो योगभूमिकाः । १-१२।
इच्छा शक्तिरुमा कुमारी । १-१३।
दृश्यं शरीरम् । १-१४।
हृदये चित्तसंघट्टाद् दृश्यस्वापदर्शनम् । १-१५।
शुद्धतत्त्वसन्धानाद् वा अपशुशक्तिः । १-१६।
वितर्क आत्मज्ञानम् । १-१७।
लोकानन्दः समाधिसुखम् । १-१८।
शक्तिसन्धाने शरीरोत्पत्तिः । १-१९।
भूतसन्धान भूतपृथक्त्व विश्वसंघट्टाः । १-२०।
शुद्धविद्योदयाच्चक्रेशत्व सिद्धिः । १-२१।
महाह्रदानुसन्धानान्मन्त्रवीर्यानुभवः । १-२२।
२- शाक्तोपाय
चित्तं मन्त्रः । २-१।
प्रयत्नः साधकः । २-२।
विद्याशरीरसत्ता मन्त्ररहस्यम् । २-३।
गर्भे चित्तविकासोऽविशिष्ट विद्यास्वप्नः । २-४।
विद्यासमुत्थाने स्वाभाविके खेचरी शिवावस्था । २-५।
गुरुरुपायः । २-६।
मातृकाचक्रसम्बोधः । २-७।
शरीरं हविः । २-८।
ज्ञानं अन्नम् । २-९।
विद्यासंहारे तदुत्थ स्वप्न दर्शनम् । २-१०।
३- आणवोपाय
आत्मा चित्तम् । ३-१।
(आत्मा चित्तम्)
ज्ञानं बन्धः । ३-२।
(ज्ञानम् बन्धः)
कलादीनां तत्त्वानां अविवेको माया । ३-३।
(कला-आदिनाम् तत्त्वानाम् अविवेको माया)
शरीरे संहारः कलानाम् । ३-४।
(शरीरे संहारः कलानाम्)
नाडी संहार भूतजय भूतकैवल्य भूतपृथक्त्वानि । ३-५।
(नाडी-संहार भूतजय-भूतकैवल्य-भूतपृथक्त्वानि)
मोहावरणात् सिद्धिः मोहावरणात् । ३-६।
(मोह+आवरणात् सिद्धिः)
मोहजयाद् अनन्ताभोगात् सहजविद्याजयः अनन्ताभोगात् । ३-७।
(मोह-जयात् अनन्त आभोगात् सहज-विद्या-जयः)
जाग्रद् द्वितीयकरः । ३-८।
(जाग्रत् द्वितीय करः)
नर्तक आत्मा । ३-९।
(नर्तक आत्मा)
रङ्गोऽन्तरात्मा । ३-१०।
(रङ्गः अन्तरात्मा)
प्रेक्षकाणीन्द्रियाणि । ३-११।
(प्रेक्षकाणि इन्द्रियाणि)
धीवशात् सत्त्वसिद्धिः धीवशात् । ३-१२।
(धी-वशात् सत्त्व-सिद्धिः)
सिद्धः स्वतन्त्रभावः । ३-१३।
(सिद्धः स्वतन्त्र-भावः)
यथा तत्र तथान्यत्र । ३-१४।
(यथा तत्र तथा अन्यत्र)
विसर्गस्वाभाव्याद् अबहिः स्थितेस्तत्स्थितिः । ३-१५।
बीजावधानम् । ३-१६।
(बीज अवधानम्)
आसनस्थः सुखं ह्रदे निमज्जति । ३-१७।
(आसनस्थः सुखम् ह्रदे निमज्जति)
स्वमात्रा निर्माणं आपादयति । ३-१८।
(स्व-मात्रा निर्माणम् आपादयति)
विद्या अविनाशे जन्म विनाशः । ३-१९।
(विद्या अविनाशे जन्म-विनाशः)
कवर्गादिषु माहेश्वर्याद्याः पशुमातरः । ३-२०।
(क-वर्ग आदिषु माहेश्वरी आद्याः पशु-मातरः)
त्रिषु चतुर्थं तैलवदासेच्यम् । ३-२१।
(त्रिषु चतुर्थम् तैलवत् आसेच्यम्)
मग्नः स्वचित्तेन प्रविशेत् । ३-२२।
(मग्नः स्वचित्तेन प्रविशेत्)
प्राण समाचारे समदर्शनम् । ३-२३।
(प्राण-समाचरे सम-दर्शनम्)
मध्येऽवर प्रसवः । ३-२४।
(मध्ये अवर प्रसवः)
मात्रास्वप्रत्यय सन्धाने नष्टस्य पुनरुत्थानम् । ३-२५।
(मात्रा-स्वप्रत्यय-सन्धाने नष्टस्य पुनः उत्थानम्)
शिवतुल्यो जायते । ३-२६।
(शिव तुल्यो जायते)
शरीरवृत्तिर्व्रतम् । ३-२७।
(शरीर-वृत्तिः व्रतम्)
कथा जपः । ३-२८।
(कथा जपः)
दानं आत्मज्ञानम् । ३-२९।
(दानम् आत्मज्ञानम्)
योऽविपस्थो ज्ञाहेतुश्च । ३-३०।
(यो अविपस्थः ज्ञा-हेतुः च)
स्वशक्ति प्रचयोऽस्य विश्वम् । ३-३१।
(स्व-शक्ति प्रचयो अस्य विश्वम्)
स्तिथिलयौ । ३-३२।
(स्थिति-लयौ)
तत् प्रवृत्तावप्यनिरासःतत् प्रवृत्तावप्यनिरासः संवेत्तृभावात् । ३-३३।
(तत् प्रवृत्तौ अपि अनिरासः संवेतृ-भावात्)
सुख दुःखयोर्बहिर्मननम् । ३-३४।
(सुख-दुःखयोः बहिः मननम्)
तद्विमुक्तस्तु केवली । ३-३५।
(तत् विमुक्तः तु केवली)
मोहप्रतिसंहतस्तु कर्मात्मा । ३-३६।
(मोह-प्रतिसंहतः तु कर्म आत्मा)
भेद तिरस्कारे सर्गान्तर कर्मत्वम् । ३-३७।
(भेद-तिरस्कारे सर्ग अन्तर कर्मत्वम्)
करणशक्तिः स्वतोऽनुभवात् । ३-३८।
(करण-शक्तिः स्वतः अनुभवात्)
त्रिपदाद्यनुप्राणनम् । ३-३९।
(त्रिपद-आदि अनुप्राणनम्)
चित्तस्थितिवत् शरीर चित्तस्थितिवत् करण बाह्येषु । ३-४०।
(चित्त-स्थिति-वत् शरीर-करण-बाह्येषु)
अभिलाषाद्बहिर्गतिः संवाह्यस्य । ३-४१।
(अभिलाषात् बहिः गतिः संवाह्यस्य)
तदारूढप्रमितेस्तत्क्षयाज्जीवसंक्षयः । ३-४२।
(तत् आरूढ प्रमितेः तत् क्षयात् जीव-संक्षयः)
भूतकञ्चुकी तदा विमुक्तो भूयः पतिसमः परः । ३-४३।
(भूत-कञ्चुकी तदा विमुक्तो भूयः पति-समः परः)
नैसर्गिकः प्राणसंबन्धः । ३-४४।
(नैसर्गिकः प्राण-सम्बन्धः)
नासिकान्तर्मध्य संयमात् किमत्र संयमात् सव्यापसव्य सौषुम्नेषु । ३-४५।
(नासिका-अन्तर्मध्य-संयमात् किमत्र सव्य-अपसव्य सौषुम्णेषु)
भूयः स्यात् प्रतिमीलनम् । ३-४६।
(भूयः स्यात् प्रति-मीलनम्)
ॐ तत् सत्
शिव सूत्र :
1 - 1 'चैतन्यमात्मा'
(चैतन्यम् आत्मा) यह शिव सूत्र के प्रथम अध्याय का प्रथम सूत्र है। शाब्दिक अर्थ : चैतन्य ही आत्मा है। चैतन्य अर्थात हमारे मन की जाग्रत अवस्था ही आत्मा है। भावार्थ : इस सूत्र में भगवान शिव ने आत्मा शब्द का अर्थ बताया है।
ज्यादातर हिन्दू इस तथ्य से अवगत हैं की हमारे शारीर के भीतर एक आत्मा विद्यमान है। किन्तु उस आत्मा को जानने का अवसर कुछ जाग्रत मनुष्यों को ही मिलता है। एक साधारण मनुष्य केवल अपने मन और शरीर से ही बंधा रहता है। हमारे मन ने ही हमें वासनाओ (तीन ऐषणाओं) से ग्रसित रखता है। ये वासना किसी वस्तु को पाने की , किसी का प्यार पाने की , किसी का शरीर पाने की या किसी अन्य भौतिक सुख को पाने की हो सकती है। हमारा मन (मिथ्या अहं M/F शरीर का देहाध्यास ) ही हमें हमारी आत्मा तक पहुचने से रोकता है। क्योंकि वह जाग्रत अवस्था जिसमें हमें हमारी आत्मा की (अपने सच्चिदानन्द स्वरूप की) अनुभूति होती है , वो अवस्था हमारे मन के पार जा कर ही हो सकती है। सरल शब्दों में, हमारी आत्मा हमारे मन का ही जाग्रत स्वरुप है। जब कोई व्यक्ति उस शाश्वत चैतन्य या जाग्रत अवस्था में पहुचता है, तो उसका मन उसे नहीं चला सकता , बल्कि उसका मन उसके अनुसार चलता है। जाग्रत होने के पश्चात् हमारा मन रह ही नहीं जाता , जो रहता है वो केवल जाग्रत आत्मा है।
ज्ञानं बन्धः [शिव सूत्र : 1 - 2] यह शिव सूत्र के प्रथम अध्याय का दूसरा सूत्र है। (ज्ञानम् बन्धः) : ज्ञान बंधन है। भावार्थ : इस सूत्र में भगवान् शिव ज्ञान को एक प्रकार का बंधन बता रहे हैं। ज्ञान भौतिक भी होता है और अध्यात्मिक भी। यहाँ भौतिक ज्ञान को बंधन बताया गया गया है. यह भौतिक ज्ञान जिसे हम विशेष-ज्ञान या विज्ञान समझते है, एक प्रकार का बंधन है, जो हमें अपनी वास्तविकता (हमारी आत्मा ) को जानने से रोकता है। कोई मनुष्य यदि यह समझता हो कि विज्ञान को समझ कर वह सम्पूर्ण सृष्टि के रहस्य को समझ सकता है, तो वह केवल एक भ्रम है।
ये ठीक वैसा ही है जैसे कोई पुरुष किसी स्त्री के शरीर की पूरी जानकारी एकत्र कर के, या उसके शरीर के साथ सम्बन्ध स्थापित करके ये सोचे की उसने उसे पा लिया। जबकि पाने का असली अर्थ तो उसके प्रेम को पाना है। शरीर तो कोई बलात्कारी भी पा लेता है , किन्तु प्रेम नहीं। इसी प्रकार बाह्य जगत का ज्ञान (अपरा विद्या) हमें इस सृष्टि के चलने के नियम बता सकता है, ग्रुत्वाकर्षण और अनंत ब्रह्माण्ड की तसवीरें दिखा सकता है, किन्तु उस सृष्टा से (परमात्मा से) जो हमारी आत्मा में बसा हुआ है, उस से अवगत नहीं करा सकता।
भौतिक ज्ञान हमें Extrovert (बहिर्मुखी) बनाता है और हम अपने अन्दर झांकने की कभी कोशिश ही नहीं करते। हम कभी अपने अपने मन को जानने की कोशिश ही नहीं करते, आत्मा की तो बात ही छोड़ दीजिये। बाहर का ज्ञान हमें आकर्षित करता है और उलझाये रखता है। जिस प्रकार सृष्टि का कोई अंत नहीं है , उसी प्रकार इस ज्ञान का भी कोई अंत नहीं है। जिस पल हम ये समझ जाते हैं की ये ज्ञान ही बंधन है , उसी पल से हम अपने और उस सृष्टा के और निकट हो जाते है। ज्ञान बंधन अवश्य है किन्तु ये बंधन भी उसी शिव का बनाया हुआ है। इस अनंत विज्ञान का कुछ हिस्सा जानने के बाद ही हमें ये अनुभूति हो सकती है की ये ज्ञान बंधन है।
शिव सूत्र : 1 - 3 योनिवर्गः कलाशरीरम्' यह शिव सूत्र के प्रथम अध्याय का तीसरा सूत्र है। (योनि-वर्गः कला-शरीरम्) शाब्दिक अर्थ : योनि अर्थात वह स्रोत जिससे हमारा जन्म हुआ यानि हम उपजे हैं, वर्ग अर्थात समाज या प्रकृति का एक हिस्सा। कला अर्थात कर्ता का भाव। शरीर अर्थात ये देह। और हमारे मन में पल रहा कर्ता होने का भाव ही हमें अलग अलग प्रकार के (M/F) शरीर और योनियों में भेजता है।
भावार्थ : यह सूत्र बहुत गहरा है। अक्सर लोग वर्ग शब्द आने पर समाजिक वर्गों से आगे नहीं बढ़ पाते। किन्तु शिव की दृष्टि बहुत गहरी है। योनी का अर्थ प्रकृति या स्त्री भी होता है। योनी शब्द का उपयोग केवल मनुष्यों के लिए नहीं बल्कि किसी भी जीव के लिए हो सकता है। कलाशरीरम् अर्थात "हमारे मन का करता का भाव" ही हमें शरीर की प्राप्ति कराता है। हमारा मन जिस चीज़ को पाने को लालायित रहता है , हम उसी के अनुरूप शरीर पाने की तरफ अग्रसर हो जाते हैं। प्रकृति तो योनी है, वह गर्भ है, हमारी इच्छा (हमारे कर्ता भाव ) के अनुरूप हमें शरीर प्रदान करती है।
इस सूत्र को यदि हम गहराई से समझें तो हम अपने दुःखों के लिए कभी किसी दूसरे को दोषी नहीं बनायेंगे। हम आज जो भी हैं वो अपने कर्मों के कारण ही हैं। कुछ व्यक्ति ये समझते हैं की उन्होंने कभी किसी का बुरा नहीं किया , फिर उन्हें दुःख क्यों प्राप्त हो रहा है ? यही एक साधारण व्यक्ति की सबसे बड़ी भूल होती है। मनुष्य अन्याय कर सकता है , किन्तु प्रकृति नहीं। हमारे मन में उत्पन्न हर विचार एक बीज है , जो अंकुरित भी होता है और वृक्ष भी बनता है। ये बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर होता है। हमारे कृत्य चाहे अच्छे हों या बुरे किन्तु उनके पीछे हमारे मन के (कर्तापन का) भाव ही हमारा असली कर्म होता है। एक सत्य वचन भी द्वेष वाले मनोभाव से कहा जा सकता है , फिर ये सोचना की आपने सदा सत्य बोला है या सत्य का साथ दिया है , उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसी प्रकार एक असत्य वचन बोलने के पीछे क्या भाव है , वह हमारे कर्मफल का कारण बनता है।
हमारा मनोभाव ही हमारे शरीर का निर्माण करता है। इस जन्म में हमारे भाव हमारे शरीर के अच्छे एवं बुरे विकारों का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार जीवन के अंतिम समय में हमारे भाव हमारे भावी गर्भ और प्रवृति निर्धारित करते हैं। एक व्यक्ति जो सदा उड़ने का विचार मन में रखता है , वह एक पक्षी के गर्भ से नया जन्म ले सकता है। वह व्यक्ति जो सदा कामवासना से ग्रसित रहता है, वह किसी ऐसी योनी में नया जन्म ले सकता है जहाँ ऐसी वासना की पूर्ती आसानी से हो सके। "योनिवर्गः कलाशरीरम्" का अर्थ एक पंक्ति में ये समझा जा सकता है की "हमारे भावी शरीर (योनी) का निर्धारण हमारे मनो-भावों के द्वारा निर्धारित होता है। "
शिव सूत्र : 1 - 4 ज्ञानाधिष्ठानं मातृका /यह शिव सूत्र के प्रथम अध्याय का चौथा सूत्र है। (ज्ञान अधिष्ठानम् मातृका)शाब्दिक अर्थ : ज्ञान अर्थात सांसारिक वस्तुओं की जानकारी जिसकी एक सीमा है। अधिष्ठानं का अर्थ जिसके अधीन रह कर कोई कार्य किया जाए। मातृका शब्द के कई अर्थ हैं - जननी, सौतेली माँ, माँ जैसी, ठोड़ी की आठ विशिष्ट नसें , स्वर और संस्कृत भाषा (जो सब भाषाओँ की जननी है। ) संसार में संगत से प्राप्त ज्ञान ही हमें अपने अधीन रखता है , और वही हमारे मुख से भाषा के माध्यम से निकलता है।
मातृका शब्द भी बहुत गहरा है। इसके बहुत से अर्थों में एक "स्वर" भी है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ये समस्त संसार और ब्रह्माण्ड स्वर (नाद) से ही उत्त्पन्न हुआ है। स्वर की तरंगें ही समस्त अणुओं और पदार्थों को आकर देती हैं। हम सभी इन्ही स्वर तरंगों से निर्मित हैं। इसीलिये हमारे वेदों में परमात्मा को "नादब्रह्म" भी कहा गया है। नाद एक ऐसा स्वर है जो ब्रह्माण्ड उत्त्पत्ति से पहले भी था और इसके बाद भी रहेगा। समस्त ग्रह, उपग्रह, तारे, वायु, जल, जीव और जीवन इसी नाद का विस्तृत स्वरुप है। हमारे समस्त ज्ञान में यही नाद विद्यमान है, और हमारे समस्त बोले गए शब्दों में भी यही नाद (स्वर) है।
भावार्थ : हम जब से इस संसार में जन्म लेते हैं, अपनी संगति के अनुसार केवल इस संसार का ही ज्ञान प्राप्त करते हैं। हम सभी जाने अनजाने इस ज्ञान के अधीन अपना जीवन व्यतीत करते हैं। यही ज्ञान (बिशुआ का ज्ञान-सुरतिया) शब्दों के माध्यम से हमारे मुख से निकलता है। ज्ञानाधिष्ठानं का अर्थ बड़ा गहरा है, हमारा ज्ञान ही हमारे सभी कर्मों का स्रोत है। यह ज्ञान ही हमारा आधार है, यही हमें अपने वशीभूत रखता है , और हम इस भ्रम में जीते हैं की हम स्वतन्त्र हैं। सांसारिक ज्ञान की एक सीमा है। संसार का कोई भी ज्ञान शिव को व्यक्त करने में असमर्थ है। हमारी भाषाएँ भी उसे व्यक्त नहीं कर सकती। संस्कृत जैसी पौराणिक भाषा, जिससे सब भाषाएँ उपजी हैं, वह भी हमारे सांसारिक ज्ञान के अधीन हो कर रह जाती है। दो व्यक्ति एक ही चीज़ को अलग-अलग ढंग से देखते हैं और व्यक्त करते हैं , क्योंकि उनका ज्ञान अलग-अलग है , उनका नजरिया अलग-अलग है।
अगर हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो संसार की सबसे छोटी इकाई अणु (Atom) है। इस Atom में बीच में एक Nucleus है, जिसके चारों तरफ electrons चक्कर काटते हैं। ये इलेक्ट्रान कोई तत्व नहीं बल्कि तरंग हैं, जैसे स्वर एक तरंग है। किसी तरंग को एक सीधी रेखा में व्यक्त नहीं किया जा सकता। इस प्रकार इलेक्ट्रान भी सीधे नहीं चलते , बल्कि एक तरंग की तरह ऊपर नीचे होते हुए चलते हैं। Nucleus के भीतर मौजूद proton और neutron भी तरंगों से ज्यादा कुछ नहीं हैं। एक Atom के भीतर तुलनात्मक रूप से अनंत space होता है। Nucleus और electron का आकर उसके Atom की तुलना में कुछ भी नहीं होता। एक Atom की कोई बाहरी दीवार भी नहीं होती। इसलिए एक Atom एक बहुत बड़े स्पेस में घुमती हुई बहुत सारी छोटी छोटी तरंगों का समूह है। इसे यदि एक स्वर तरंग कहा जाए तो कुछ गलत नहीं है। समस्त ब्रह्माण्ड इन्ही छोटे छोटे अणुओं से बना है, जो स्वयं एक तरंग है। हम सभी इन्ही स्वर तरंगों का एक बड़ा समूह हैं।
शिव सूत्र : 1 - 5 उद्यमो भैरवः/
(उद्यमः भैरवः)शाब्दिक अर्थ : उद्यम अर्थात एक सार्थक प्रयास | भैरव - शिव का एक रूप जो अत्यंत भयानक है। इस सूत्र का शाब्दिक अर्थ यह है की एक आध्यात्मिक सार्थक प्रयास से ही हम भैरव स्वरुप को समझ सकते हैं।
भावार्थ : शिव सूत्र का हर सूत्र अपने से पिछले और अगले सूत्र से जुड़ा हुआ है। पिछले सूत्र में ये बताया गया था की यह सांसारिक ज्ञान केवल स्वर है, जो हमें जीवन भर अपने नियंत्रण में रखता है। इस सूत्र में थोडा आगे बढ़कर एक सार्थक प्रयास करने की बात कही गयी है , जिससे हम इस माया से मुक्त हो कर उस भैरव स्वरुप को जान सकें।भैरव संहार करते हैं। इसीलिये शिव को काल भैरव भी कहा गया है। वे संहार के देवता हैं। हर जीव और वस्तु की एक आयु है , उसके बाद उसकी मृत्यु या संहार निश्चित है। जो इस मृत्यु को समझ गया , उस भैरव को समझ गया , वही सांसारिक ज्ञान (जो माया है ) से मुक्त हो सकता है। उस भैरव का जानना इतना सरल भी नहीं है। जो सार्थक प्रयास इस भैरव को जानने के लिए करना पड़ता है , वह असाधारण है। कुछ लोग केवल मृत्यु भय से मुक्ति के लिए भैरव की उपासना करते हैं।
इस सूत्र में उद्यम का अर्थ समझना भी महत्वपूर्ण है। कुछ लोग उद्यम को श्रम समझ बैठते हैं, जबकि ये दोनों अलग हैं। श्रम तो शरीर से किया जाता है , जिस प्रकार एक श्रमिक करता है। उद्यम श्रम से श्रेष्ठ है , क्योकि वह सम्पूर्ण चित्त के साथ किया जाता है , और उद्यम तब तक किया जाता है जब तक सफलता न मिल जाए।
उद्यम को शिव की प्रार्थना समझने की भूल भी न करें। प्राथना भी अक्सर खुद को छलने का तरीका बन जाती है। कुछ लोग तो प्रार्थना भी ऐसे करते हैं जैसे परमात्मा पे उपकार कर रहे हों। कुछ लोगों का प्रार्थना का उद्देश्य केवल माँगना होता है। कुछ लोग ऐसी प्रार्थना करते हैं जैसे परमात्मा को उसकी गलती बता रहें हों , की हम अच्छा आचरण करते हैं फिर भी हम पर कोई उपकार नहीं करते और हमारे दुष्ट पडोसी पर आपने बेवजह कृपा बरसाई हुई है। ऐसी प्रार्थना उद्यम की श्रेणी में नहीं आती , यह तो केवल व्यापार समझ आती है। उस शिव, उस भैरव को जानने के लिए कोई ध्यान नहीं लगाता, न ही ये कहता है की हे प्रभु हमें अपने स्वरुप से अवगत कराएं। उद्यम तो वह तब है जब आप कृतज्ञ हो कर प्रार्थना करें और उस शिव को जानने के लिए ध्यान लगायें। पूर्ण समग्रता से उद्यम के बिना उस भैरव को नहीं जाना जा सकता।
मृत्यु को सबसे बड़ा सत्य बताया गया है। भैरव को जानना अर्थात मृत्यु को जानना, जो इस संसार का सबसे बड़ा सत्य है। जिस दिन हम मृत्यु को समझ गए, उस दिन हम उस भैरव के निकट पहुच गए।
शिव सूत्र : 1 - 6 शक्तिचक्रसन्धाने विश्वसंहारः/
(शक्ति-चक्र-सन्धाने विश्व-संहारः)शाब्दिक अर्थ : शक्ति अर्थात शिव का वो अभिन्न हिस्सा जो इस जगत को चला रहा है। चक्र अर्थात एक गोला। संधान शब्द के कई अर्थ हैं जैसे धनुष पर बाण चढ़ाना , निशाना लगाना या मिलाना। विश्वसंहारः अर्थात इस संसार का संहार या अंत।
भावार्थ : समस्त जगत की शक्ति जो शिव का ही एक अभिन्न अंग है और इस जगत को स्वरुप प्रदान किये हुए है, जब वह समस्त शक्तिचक्र एक जगह इकठ्ठा होता है , तब जगत का संहार होता है। शिव का कार्य ही संहार है। जो भी चीज़ उत्त्पन्न हुई है , उसका संहार भी अवश्यम्भावी है। ये समस्त ब्रह्माण्ड भी इसी नियम से बंधा हुआ है। शिव इसका भी संहार करते है। समस्त ब्रह्माण्ड शिव की शक्ति का ही विस्तार है , जब ये समस्त शक्ति एक चक्र बना कर इकट्ठी होती है , तब विश्व का संहार होता है।
इस के अलावा इस सूत्र का एक और भाव भी है। हमारे शरीर में भी कुछ चक्र होते हैं जिन्हें योग के माध्यम से जाग्रत किया जा सकता है। ये चक्र न सिर्फ शक्ति का स्रोत होते हैं, बल्कि अनंत ज्ञान के भी स्रोत होते हैं। जब कोई योगी इन शक्तिचक्रों को साधता है , अर्थात इन्हें जाग्रत करता है , तो इस पहले से ज्ञात विश्व का उसके लिए अस्तित्व मिट जाता है। क्योंकि उस योगी के लिए ये विश्व केवल उस परम शक्ति का विस्तार मात्र रह जाता है। वह ज्ञान के उस बंधन से मुक्त हो जाता है , जिससे एक साधारण मनुष्य जीवन भर बंधा रहता है। शिव परम योगी हैं , जो सभी तरह की योग विद्याओं के जनक हैं। ऐसी असाधारण बात केवल वही बता सकते हैं।
शिव सूत्र : 1 - 7 जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तभेदे तुर्याभोगसंभवः/
(जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति भेदे तुर्य आभोग सम्भवः)शाब्दिक अर्थ : जाग्रत अवस्था , स्वप्न अवस्था और सुषुप्त अवस्था के भेद को जो जान लेता है , वही तुर्यावस्था को भोग सकता है।
भावार्थ : साधारण मनुष्य केवल तीन अवस्थाओं को जानता है , जाग्रत अवस्था (जागना), स्वप्नावस्था (जब हम स्वप्न देखते हैं ) और सुषुप्त अवस्था (जब हम गहरी नीद में होते हैं। ) इस सूत्र में भगवान् शिव हमारी जागृति की चार अवस्थाएं बताते हैं। चौथी अवस्था केवल योगियों को ही ज्ञात होती है, जिसे तुर्यावस्था कहा जाता है। इस चौथी अवस्था को जानने के लिए आपको पहले की तीनो अवस्थाओं को समझना ज़रूरी है।
सामान्य जाग्रत अवस्था वो है जब हमें संसार का ज्ञान होता है किन्तु स्वयं का ज्ञान नहीं। इस अवस्था में हम शरीर के बाहर तो झाँक सकते हैं किन्तु अन्दर नहीं। ये अवस्था जाग्रत होते हुए भी हम उस स्वयं से अनभिज्ञ रह जाते हैं जो सबसे ज्यादा जानने योग्य है। इस अवस्था में हम जाग्रत होते हुए भी अपने मन और आत्मा से दूर रहते हैं और केवल व्यर्थ के संसार को सच मानते हैं, जो केवल माया है।
दूसरी अवस्था जिसे हम स्वप्नावस्था कहते हैं , इस में हम केवल बंद आँखों से संसार का प्रतिबिम्ब देख पाते हैं। इस अवस्था में हमारा मन हमें वो प्रतिबिम्ब दिखता है जो हम जाग्रत अवस्था में नहीं कर पाते। इस अवस्था में हमारा मन और मष्तिष्क हमें उन सब चीज़ों की अनुभूति करा सकता है, जिनकी हमने कामना करी हो। स्वप्न हमारे भय को भी विकराल रूप में दिखा सकते हैं , और हमें बिना पंखों के गगन में उड़ा भी सकते हैं। किन्तु इस अवस्था में भी हम स्वयं को जानने से चूक जाते हैं। इस अवस्था में भी संसार हमारा पीछा नहीं छोड़ता , और प्रतिबिम्ब रूप में हमें घेरे रहता है।
तीसरी अवस्था है सुषुप्त अवस्था , जिसमें हम सब चीज़ों को भूल कर केवल नींद में होते हैं। इस अवस्था में न तो हमें संस्सर का ज्ञान होता है, न संसार के प्रतिबिम्ब का और न स्वयं का। इन तीनो अवस्थाओं में एक बात समान है, वो है स्वयं को न जानना |
इस स्तर पर कुछ लोग ये कह सकते हैं कि हम तो स्वयं को जानते हैं। उनका मत हो सकता है की ये मेरे हाथ हैं , ये मेरे पैर हैं , और इससे ज्यादा स्वयं को जानना क्या है ? जो व्यक्ति ऐसा मत रखते हैं उनके लिए ये जानना आवश्यक है कि जो तुम्हारा है वो तुम नहीं हो। मेरा घर मैं नहीं हूँ , मेरे कपडे मैं नहीं हूँ , मेरा भोजन मैं नहीं हूँ , उसी प्रकार मेरा शरीर भी मैं नहीं हूँ ! जो मेरा है वो मैं कैसे हो सकता हूँ। मैं तो आत्मा हूँ !! तुर्यावस्था वो अवस्था है , जिसमें आपको उस स्वयं की अनुभूति होती है जो इस शरीर से भी परे है !
तुर्यावस्था वह सिद्ध अवस्था है जिसमें मनुष्य अपने आप को जानता है। सब योग और ध्यान उसी अवस्था को पाने के उपाय हैं। इस अवस्था में मनुष्य संसार के साथ-साथ स्वयं को भी जान लेता है, और उसे ये भी पता चल जाता है की 3H में से श्रेष्ठ क्या है। सामान्य जागृत अवस्था एक दीपक की तरह है जो आस पास की वस्तुओं को तो प्रकाशित कर सकती है लेकिन खुद दीपक के तले अँधेरा रहता है। लेकिन तुर्यावस्था सूर्य की तरह है जो सभी दिशाओं को एक साथ प्रकाशित कर देता है।
शिव सूत्र : 1 - 8 ज्ञानं जाग्रत्/
(ज्ञानम् जाग्रत्)शाब्दिक अर्थ : ज्ञान का बना रहना ही जाग्रत अवस्था है।
भावार्थ : साधारण जाग्रत अवस्था तक हम नींद से उठने पर पहुँच जाते हैं, किन्तु पूर्ण जाग्रत अवस्था तक हमें केवल हमारा ज्ञान पहुंचा सकता है। शिव सूत्र के प्रथम अध्याय के दूसरे सूत्र के अनुसार "ज्ञानं बन्धः" अर्थात ज्ञान बंधन है, किन्तु यही ज्ञान (आत्मज्ञान !) हमें उस बंधन से मुक्त कर के पूर्ण जागृति तक पहुचाने का सामर्थ्य भी रखता है। पूर्ण जाग्रत अवस्था केवल शरीर का जागरण नहीं है, अपितु हमारे अंतर्मन, आत्मा व् चेतना का जागरण है। हमारा ज्ञान हमें केवल भौतिक जगत का बोध नहीं कराता, ज्ञान हमें स्वयं को पहचानने का अवसर भी देता है।
हमारा सारा ज्ञान हमारी इन्द्रियों द्वारा एकत्र किया गया होता है, इन्द्रियां हमें बहुत कुछ देखने और समझने में मदद करती हैं, किन्तु उनकी भी एक सीमा होती है। हमारा इन्द्रिय -ज्ञान ही हमें यह समझने में मदद करता है कि कुछ है जो इन इन्द्रियों से भी परे है। उदाहरण के तौर पर हम मैग्नेटिक तरंगों को महसूस नहीं कर सकते, इसलिए बिना आँखों की मदद लिए हम दिशाओं का ज्ञान नहीं पा सकते। किन्तु कुछ पक्षियों और कुछ मछलियों में चुम्बकीय तरंगों को अनुभव करने वाली एक विशेष इंद्री होती है, जिसकी मदद से वे बिना भटके हजारों मील का सफ़र हर साल तय करते हैं। मनुष्यों के पास वह इंद्री नहीं है, किन्तु अब यह ज्ञान है कि कुछ ऐसी भी इन्द्रियां हो सकती है जिनसे हमारे इस सृष्टि को समझने का नजरिया बदल सकता है।
हमारा शरीर, इन्द्रियां और ज्ञान एक बंधन अवश्य है , किन्तु यह ज्ञान ही हमें यह अनुभव कराता है की कुछ है जो ज्ञान से भी परे है। हमारा यह बोध ही हमारी जाग्रत अवस्था को पूर्ण जाग्रत बनाता है, और तुर्यावस्था की यात्रा को आरम्भ करता है। बिना ज्ञान के हमें यह बोध नहीं हो सकता की ज्ञान एक बंधन है।
यदि कोई निर्धन व्यक्ति (भिखमंगा) यह कहे की वह अपना सारा धन दान कर देगा क्योंकि उसे बोध हो गया है की धन कुछ नहीं है , तो उसकी बात आपको निरर्थक लगेगी। किन्तु यदि एक बहुत अमीर आदमी (राजकुमार सिद्धार्थ गौतम) यही बात कहे तो उसकी बात में कुछ वज़न होगा। इसी प्रकार एक ज्ञानी पुरुष यदि ज्ञान को त्याग कर ज्ञान से परे जाने की बात करे तो समझ जाना की वह तुर्यावस्था तक जाने की बात कर रहा है, किन्तु यदि एक अज्ञानी व्यक्ति यह कहे की ज्ञान एक बंधन है, इसलिए उसने उसे प्राप्त करने की कोशिश ही नहीं करी, तो समझ जाना की अंगूर खट्टे थे।
ज्ञान आपको सही अर्थों में जाग्रत बनाता है। हमारा ज्ञान ही हमारी जाग्रत अवस्था को पूर्णता प्रदान करता है, और इसके बाद ही तुर्यावस्था का मार्ग प्रारंभ होता है।
शिव सूत्र : 1 - 9 स्वप्नो विकल्पाः/
(स्वप्नः विकल्पाः) शाब्दिक अर्थ : विकल्प ही स्वप्न हैं।
भावार्थ : विकल्प वह स्थिति है जो हो सकती थी किन्तु हुई नहीं। विकल्प भविष्य और भूत दोनों के सन्दर्भ में हो सकते हैं। हमारे मन अथवा चित्त में ये विकल्प सदा रहते हैं। सोते समय यही हमें स्वप्न के रूप में दिखते हैं, किन्तु यदि आप यह सोचते हैं की दिन में जाग्रत अवस्था में आप इन स्वप्नों से दूर हो जाते हैं तो यह आपका भ्रम है। दिन में भी हम ज़्यादातर समय भूत अथवा भविष्य के सन्दर्भ में ही सोचते हैं। रात के समय हमारे मन में मौजूद विकल्प ही मूर्त रूप में स्वप्न के रूप में दिखते हैं। कभी यह स्वप्न हमारे भय से प्रेरित होते हैं, तो कभी प्रेम से, तो कभी वासना से , कभी बीते हुए कल से, तो कभी आने वाले कल से।
रात के समय जो तारे आपको आकाश में दिखते हैं, वे दिन में भी वहीँ होते हैं, किन्तु सूर्य के प्रकाश में धूमिल होकर नहीं दिखते। यदि आप एक गहरे कूए में उतर कर आकाश में देखें तो वह आपको दिन में भी दिख जायेंगे। ठीक इसी प्रकार आप सदैव स्वप्न अर्थात विकल्पों में रहते हैं। आपकी जाग्रत अवस्था भी सदा स्वप्नावस्था से ही घिरी रहती है। ये विकल्प सत्य नहीं हैं किन्तु फिर भी सदैव आपको उलझाए रखते हैं।
हमारे जीवन का अधिकतर समय इन्ही स्वप्नों में व्यतीत होता है। नीद में तो आप इस स्वप्नों से नहीं बच सकते किन्तु दिन में अपनी जाग्रत अवस्था को अधिक जाग्रत बनाने का प्रयत्न अवश्य कर सकते हैं। इन विकल्पों से बच कर आप वर्तमान में अधिक रह सकते हैं, और स्वयं के भीतर उस दृष्टा का अनुभव कर सकते हैं जो आपको तुर्यावस्था की राह पर ले जाए।
यह इतना सरल भी नहीं है, जितना प्रतीत होता है। आप अपने मन को एक सेकंड के लिए भी विचार शून्य नहीं कर सकते, पूरे दिन की तो बात बहुत कठिन है। मन को विचार शून्य करने की शक्ति गुरुदेव प्रदत्त मन्त्र में होती है, जिसके बारे में आगे आने वाले सूत्रों में चर्चा होगी।
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ओशो / या नामालूम की व्याख्या
शिव सूत्र : 1 - 10 अविवेको मायासौषुप्तम्।
(अविवेकः माया सौषुप्तम्) अविवेक अर्थात स्व—बोध का अभाव मायामय सुषुप्ति है।
सुषुप्ति में तुम वहीं पहुंचते हो, जहां बुद्ध और शिव जाग्रत अवस्था में पहुंचते हैं। नींद में भी तुम खूबह थोड़ी—सी खबर लाते हो कि बड़ा सुख था; हालांकि, तुम साफ नहीं कह सकते कि कैसा सुख था, तुम कुछ बता नहीं सकते, कुछ व्याख्या नहीं कर सकते, कुछ स्वाद की खबर नहीं दे सकते। नींद में गहरी, लेकिन फिर भी तुम सुबह थोड़ी—सी ताजगी लेकर आते हो। सुबह उठते हुए आदमी की—जो रात गहरी नींद सोया हो—उसके चेहरे पर बुद्धत्व की थोड़ी—सी झलक होती है। खासकर छोटे बच्चे, जो कि सच में गहरी नींद सोते हैं—क्योंकि जैसे —जैसे तुम्हारी चिंताएं बढ़ने लगती हैं, गहरी नींद भी मुश्किल हो जाती है—छोटे बच्चों को सुबह उठते समय देखो, इसके पहले कि उनकी नींद टूटे, उनके चेहरे को देखो, उस पर बुद्धत्व की ताजगी होती है। कहीं भीतर कोई आनंदपूर्ण घटना घट रही है, जिसका उसे होश नहीं है; लेकिन, घटना घट रही है।
सुषुप्ति में सब तनाव खो जाते है, लेकिन विवेक नहीं होता। और समाधि में—तुरीयावस्था में—सब तनाव खो जाते हैं और विवेक होता है। विवेक + सुषुप्ति = समाधि (योग -चित्तवृत्ति निरोधः)।
त्रितयभोक्ता वीरेशः । शिव सूत्र १-११।
(त्रितय-भोक्ता वीरेशः)वह अपनी इन्द्रियों का स्वामी (ईशः) है, “वीर” का शाब्दिक अर्थ है “नायक”, (वीर) जो जाग्रत ,स्वप्न व सुषुप्ति तीनो ही अवस्था मे शक्ति चक्र का अनुसंधान करने वाला योगी ही तुर्य के आनन्द रस से भरा होता है। (पूर्वोक्त “आभोग” या दिव्य आनन्द का) भोक्ता है (भोक्ता) त्रय (जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति) में (त्रितय) ||११|| इसी आनन्द रस मे मगन वह योगी हर दशा के भेद से उपर की दशा में सदैव अनन्त शिव भाव मे आनन्दपूर्वक रमण करता है। इस अवस्था मे तीनो अवस्था का विलोपन हो तूर्य अवस्था का आभास होने लगता है,वस्तुतः इसी अवस्था मे योगी जान लेता है कि समस्त भौतिक सम्बन्ध व्यर्थ हैं। वह वाह्य इन्द्रियों पर स्वयं शाशन करता है व समस्त भौतिक भावनाओं का अधिपति बन सदैव शिव की लीला ही संसार मे देखता है ,स्वयं का (मिथ्या अहं का) लोप होना शुरू हो जाता है। यह जिज्ञासु परम मे एकाकार होने के राह का राही हो जाता है ,जिसके लिये समस्त भौतिक संसार मिथ्या ही हो जाता है जो तुर्यातीत अवस्था है। अर्थात वह विषय, विषयों मे,विषय के भोग, मे सम्बन्ध नही रख स्वयं शिव के साक्षी भाव की अनुभूति का अनुभव करता हुआ आनन्द रस मे रमता है,अर्थात चैतन्य हो जाता है।
विस्मयो योगभूमिकाः । शिवसूत्र १-१२।
(विस्मयः योग-भूमिकाः) अर्थ विस्मय योग की भूमिका है। इसे थोड़ा समझें। विस्मय का अर्थ शब्दकोश में दिया है--आश्चर्य। पर आश्चर्य और विस्मय में एक बुनियादी भेद है। और वह भेद समझ में न आए तो अलग-अलग यात्राएं शुरू हो जाती हैं। आश्चर्य विज्ञान की भूमिका है, विस्मय योग की; आश्चर्य बहिर्मुखी है, विस्मय अंतर्मुखी; आश्चर्य दूसरे के संबंध में होता है, विस्मय स्वयं के संबंध में--एक बात। जिसे हम नहीं समझ पाते; जो हमें अवाक कर जाता है; जिस पर हमारी बुद्धि की पकड़ नहीं बैठती; जो हमसे बड़ा सिद्ध होता है; जिसके सामने हम अनायास ही किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं; जो हमें (मिथ्या अहं को) मिटा जाता है--उससे विस्मय पैदा होता है।
लेकिन अगर यह जो विस्मय की दशा भीतर पैदा होती है--अतर्क्य, अचिंत्य के समक्ष खड़े होकर--इस धारा को हम बहिर्मुखी कर दें, तो विज्ञान पैदा होता है। विज्ञान जगत से आश्चर्य को मिटाने में लगा है। अगर विज्ञान सफल हुआ तो दुनिया में ऐसी कोई चीज न रह जाएगी, जो आदमी न कह सके कि हम जानते हैं। इसका अर्थ हुआ कि जगत में कोई परमात्मा न बचेगा; क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही यह होता है कि जिसे हम जान भी लें तो भी दावा न किया जा सके कि हम जानते हैं; जो हमारे जानने के बाद भी जानने को शेष रह जाए; जिसे जान-जान कर भी हम चुकता न कर पाएं; जिसके विस्मय को अंत करने का कोई उपाय नहीं।.....विस्मयकारी और रोमांचक है तुरीय अवस्था, जो अलौकिक है, जो योग के अभ्यास के दौरान कभी-कभी घटित होती है, जो व्यक्ति को अद्भुत भावनाओं से भर देती है।
इच्छा शक्तिरुमा कुमारी । १-१३।
(इच्छा-शक्तिः उमा कुमारी) इच्छा शक्ति उमा कुंवारी हैं । इच्छा कभी भी शिव तत्व से मिल नहीं पाती है । इच्छा शक्ति शान्त, अद्वैत तत्व, आत्म तत्व से मिल नहीं सकती । आत्म तत्व में अर्थात् आनंद में जो पहुँच गया, उसमें इच्छा नहीं है। जहाँ इच्छा उठी तो फिर आनंद कहाँ रह गया ? इच्छा हो तो आनंद नहीं है । शिव तत्व आनंद है । इच्छा शक्ति चैतन्य शक्ति है । इसलिए लोग कहते है कि ' इच्छा छोड़ दो तो शिव मिलेंगे ।' परंतु इच्छा छोड़नी है यह भी एक इच्छा नयी इच्छा बन जाती है । भूख लगे तो भोजन की इच्छा हुई । प्यास लगे तो पानी की इच्छा हुई । इच्छाएँ तो अपने आप उठती है, पूछ कर थोड़े ही उठती है । तो फिर रास्ता क्या है ? शिव सूत्र में कहते है इच्छा से लड़ो मत । इस इच्छा शक्ति का जो कि माया है, उसका सम्मान करो ।
सोचो कि , ' हाँ ! यह तो इच्छा शक्ति है । यह तो मुझे सम्पूर्ण आनंद दे नहीं सकती है ।' इस तरह प्रत्येक इच्छा को सम्मान देने से या सम्मानपूर्वक देखने से जीवन में जो आवश्यक है, वे इच्छाएं स्वत: ही पूरी हो जाती है । जिसकी जरूरत नहीं है वह इच्छा अपने आप छूट जाती है।मैं स्वयं तृप्ति हूँ, ऐसा सोचो । अरे ! तृप्ति को कौन दूसरा तृप्त कर सकता है ? इसके अभाव में 'इच्छा शक्ति उमा कुमारी की तरह रह जाती है ।' वह शिव से मिलने का जाप करती रहती है पर मिल नहीं पाती है । कन्याकुमारी के चित्र में देखोगे कि एक सुन्दर कन्या खड़ी है, हाथ में जप माला जाप रही है, लगातार जाप कर रही है । शिवजी का ही जाप कर रही है । हर इच्छा आनंद का ही जाप कर रही है । तुम्हारे भीतर जो भी इच्छाएँ हैं, उन इच्छाओं का लक्ष्य क्या है?
दृश्यं शरीरम् । १-१४।
(दृश्यम् शरीरम्)तो यह सूत्र हुआ " शरीर को भी दृश्य बनाना होगा । नहीं तो उसकी पीड़ा में दुःखी हो जाओगे । उसके सुखी होने पर तल्लीन हो जाओगे । शरीर को भी दृश्यं बनाओ । जिस तरह पहाड़ों को नदी को, नज़ारों को देखते हो, उसी तरह अपने शरीर को भी आप देखते जाओ। यह शरीर भी सुंदर है, पवित्र है । और आगे चलकर मन को भी इसी प्रकार देखो । जिस तरह हमारा स्थूल शरीर है उसी प्रकार एक ' मनोमय ' शरीर भी है - मन भी एक शरीर है । उस मन को एक दृश्य की तरह देखो । मन में कितने विचार उठते है और चले जाते हैं । विचारों को भी दृश्य की तरह देखना है । यह समझना है कि यह विचार भी मेरे अपने नहीं है । यहाँ भी अपने मन को साक्षी की तरह देखना है । विचारों का अपना ही आयाम है । समय, स्थान व परिस्थितियों के साथ विचार भी बदलते रहते हैं । उनको भी दृश्य बना दो । भाव को भी दृश्य बना दो और इस तरह सबको दृश्य बना दिया तो दृष्टा कौन है यह अपने आप पता चल जायेगा । यह एक अर्थ हुआ।
इसका और एक दूसरा अर्थ है " दृश्यं शरीरम्।" तुम जो कुछ भी देखते हो वह तुम्हारा ही शरीर है । अगर हवा दूषित हो जाये तो हमारा शरीर भी ठीक नहीं रह सकता । अगर हवा विषैली हो जायेगी तो हमारा शरीर भी खत्म हो जाएगा । इसलिए हवा भी हमारा शरीर ही है । इसी तरह सूरज भी हमारा शरीर है क्योंकि सूरज के बिना हमारा शरीर टिक नहीं सकता । सूरज नहीं होता तो न पृथ्वी की उत्पत्ति होती न ही आप होते । आपका विस्तार , आपके शरीर का विस्तार केवल ये पार्थिव शरीर तक नहीं है । सम्पूर्ण पृथ्वी के साथ है , सूरज के साथ है । विश्व के साथ है। " विश्व " शब्द का अर्थ है, 'जो है' जिसमें कोई ' बीता हुआ कल' या ' आने वाला कल ' नहीं है । विश्व अर्थात् जो हमेशा के लिए है ।
हृदये चित्तसंघट्टाद् दृश्यस्वापदर्शनम् । १-१५।
(हृदये चित्त-सङ्घटात् दृश्य-स्वाप-दर्शनम्)जब योगी का मन चेतना (consciousness) के मूल (आधारभूत चेतना का प्रकाश, जिसे प्रकाश (light-ज्योति) के रूप में जाना जाता है) के साथ एक हो जाता है, तो उसके लिए दृश्यमान जगत एक स्वप्न अवस्था की तरह प्रतीत होती है (जहाँ रंग, आकार, रूप आदि जैसी धारणाएँ पूरी तरह से अनुपस्थित होती हैं) जहाँ वस्तुनिष्ठ जगत (objective world) का अस्तित्व नहीं होता।
शुद्धतत्त्वसन्धानाद् वा अपशुशक्तिः । १-१६।
(शुद्ध-तत्त्व सन्धानात् वा अ-पशु-शक्तिः)अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड परम शिव का रूप है, जो ज्ञान का शुद्ध सार है।
वितर्क आत्मज्ञानम् । १-१७।
(वितर्क आत्म-ज्ञानम्) वितर्क अर्थात विवेक [शाश्वत-नश्वर /सत-असत -मिथ्या विवेक] से आत्मज्ञान होता है।
अपना व्यक्तित्व (M/F भाव) त्यागने के बाद योगी अंतिम मुक्ति की ओर आगे बढ़ता है और यह अनुभव करने लगता है कि वह शिव है। चूँकि योगी ने अपनी शाश्वत चेतना को पहले से ही परमशिव पर स्थिर कर लिया है, जैसा कि पिछले सूत्र में चर्चा की गई है, इसलिए वह यह पुष्टि करने में सक्षम है कि "मैं शिव हूँ"।जब योगी सचेत रूप से यह स्वीकार करता है कि वह शिव है, तो उसके मन में सभी द्वैत विलीन हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप शिव ही प्रबल हो जाते हैं। इस मानसिक स्थिति के परिणामस्वरूप, अर्थात योगी के मन में सभी द्वैत विलीन हो जाने पर, विषय भी उसके लिए शिव हो जाता है। यह तर्क से नहीं, बल्कि दृढ़ विश्वास से ही संभव है। उसके मन में तर्क उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि वह हर जगह केवल शिव को ही देखता है, क्योंकि उसके लिए विषय और वस्तु दोनों ही शिव हैं।
लोकानन्दः समाधिसुखम् । १-१८।
(लोक-आनन्दः समाधि-सुखम्) समाधि—सुख का क्या अर्थ है: जिसके साथ दुःख बिलकुल नहीं है। उसके साथ कोई तृषा, कोई तृष्णा, कोई दुख नहीं जुडा है। वह सिर्फ होने का आनंद है। आत्मा का सुख शुद्धतम सुख है; वहां दुख का कोई उपाय नहीं है। लेकिन, वह केंद्र पर घटित होता है; परिधि पर तो तुम शरीर हो।शरीर परिधि है। वह तुम्हारा घेरा है घर का, वह तुम नहीं हो।शरीर से तुम जो भी सुख जानोगे, उसमें दुख रहेगा ही। लेकिन आत्मा सिर्फ अमृत है। उसकी कोई मृत्यु नही। वह शाश्वत है। वहां विपरीत नहीं है। वह सिर्फ जीवन है—शुद्ध जीवन। केंद्र पर तुम आत्मा हो। वहां एक नये सुख का आविर्भाव होता है। वहां सुख सिर्फ होने का सुख है—सिर्फ होना मात्र।
अस्तित्व का आनंद भोगना समाधि—सुख है। और, जब तुम स्वयं में पहुंच गये, ठहर गये तो तुम अस्तित्व की गहनतम स्थिति में आ गये। वहां सघनतम अस्तित्व है; क्योंकि वहीं से सब पैदा हो रहा है। तुम्हारा केंद्र तुम्हारा ही केंद्र नहीं है, सारे लोक का केंद्र है।
हम परिधि पर ही अलग—अलग है। मैं और तू का फासला शरीरों का फासला है। जैसे ही हम शरीर को छोड़ते व्यक्तित्व (M/F भाव) त्याग देते है और भीतर हटते है, वैसे—वैसे फासले कम होने लगते हैं। जिस दिन तुम आत्मा को जानोगे, उसी दिन तुमने परमात्मा को भी जान लिया। जिस दिन तुमने अपनी आत्मा जानी उसी दिन तुमने समस्त की आत्मा जान ली; क्योंकि वहां केंद्र पर कोई फासला नहीं। परिधि पर हममें भेद हैं। वहां भिन्नताएं हैं। केंद्र में हममें कोई भेद नहीं। वहां हम सब एक अस्तित्वरूप हैं।
शक्तिसन्धाने शरीरोत्पत्तिः । १-१९।
(शक्ति-सन्धाने शरीर उत्पत्तिः) शक्ति पर ध्यान करने से व्यक्ति को एक नए शरीर का सृजन करने, एक विद्यमान शरीर को रूपांतरित करने, या एक ही समय में विभिन्न शरीरों में प्रकट होने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
भूतसन्धान भूतपृथक्त्व विश्वसंघट्टाः । १-२०।
(भूत-सन्धान भूत-पृथक्त्व विश्व-सङ्घट्टाः) भूत-पृथक्त्व सभी तत्त्वों पर पूर्णतया अधिकार प्राप्त हो जाने पर उन्हें स्वतंत्र रूप से संयोजन तथा वियोजन करने की सामर्थ्य का प्राप्त होना। शैवी साधना के अभ्यास से नाडी संहार (देखिए), भूतजय (देखिए) तथा भूतकैवल्य (देखिए) में स्थिति हो जाने पर साधक अपने शुद्ध स्वरूप में आनंदाप्लावित होकर रहता है। इस स्थिति में स्थिरता आने से छत्तीस तत्त्वों पर तथा उनकी भिन्न भिन्न प्रकार की पदार्थ रचना पर उसे स्वातंत्र्य प्राप्त हो जाता है। इस स्वातंत्र्य से वह किसी भी पदार्थ या तत्त्व का संघटन या विघटन कर सकता है तथा सभी तत्त्वों को अपनी शुद्ध संविद्रूपता में समरस करके पारमेश्वरी अखंडित स्वातंत्र्य को प्राप्त कर सकता है। छत्तीस तत्त्वों पर उसकी ऐसे सामर्थ्य को भूतपृथक्त्व कहते हैं। (शि.सू.वा.पृ. 48)।
शुद्धविद्योदयाच्चक्रेशत्व सिद्धिः । १-२१।
(शुद्ध-विद्या उदयात् चक्र-ईशत्व-सिद्धिः)
महाह्रदानुसन्धानान्मन्त्रवीर्यानुभवः । १-२२।
(महा-ह्रद अनुसन्धानात् मन्त्र-वीर्य अनुभवः)
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२- शाक्तोपाय
चित्तं मन्त्रः । २-१। (Chittam Mantra:)
चित्तम् मन्त्रः जो व्यक्ति निरंतर परम तत्व का चिन्तन करता है उसका मन ( चित्तम् ) ही मन्त्र है । यह सूत्र कह रहा है: 'चित्त ही मंत्र है। यानि मन ही साधन है। (Mind is the instrument.) अन्तःकरण की एक वृत्ति को चित्त कहते हैं । अंतःकरण की चार वृत्तियाँ है— मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन, निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि और इन्हीं दोनों के अंतर्गत अनुसंधानात्मक वृत्ति को चित्त औऱ अभिमानात्मक वृत्ति को अंहकार कहते हैं । 'चित्त ही मंत्र है। मनुष्य के संकल्प में यह अपूर्व और अद्भुत शक्ति है कि वह जिस प्रकार की भावना करता है, वैसा ही बन जाता है । कठोपनिषद् के अनुसार मन इन्द्रियों से परे है, उनसे उत्कृष्ट है:इन्द्रियेभ्यः परं मनः । यही मन गृहस्थ को कर्मठ बनाता है एवं उसे नीति से जीविकोपार्जन की बुद्धि देता है । सन्यासी को भी यही मन विषयों से विमुख रखता है, जिससे वह सद्चिन्तन में रत रहे, विकारों की उत्पत्ति एवं उपद्रव से वह बचा रहे। अतः ऋषि परमात्मा से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हमारा मन शुभ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो !
प्रयत्नः साधकः । २-२।
(प्रयत्नः साधकः) Effort leads to fulfillment. प्रयास करने से पूर्णता प्राप्त होती है। ‘चित्त ही मंत्र है।’‘और प्रयत्न साधक है’--दूसरा सूत्र। ‘चित्त ही मंत्र है।’‘और प्रयत्न साधक है’--दूसरा सूत्र। प्रयत्न का अर्थ है: इस चित्त वृत्ति के चक्र के बाहर निकलने की चेष्टा। जो निकल गया, वह सिद्ध है; जो निकलने की चेष्टा कर रहा है, वह साधक है।
विद्याशरीरसत्ता मन्त्ररहस्यम् । २-३।
(विद्या-शरीर-सत्ता मन्त्र-रहस्यम्) ज्ञान-शरीर का क्षेत्र मन यंत्र का रहस्य है।The domain of knowledge-body is the secret of the [mind] instrument.
गर्भे चित्तविकासोऽविशिष्ट विद्यास्वप्नः । २-४।
(गर्भे चित्त-विकासः अविशिष्ट-विद्या-स्वप्नः)मन-शरीर-गर्भ से स्वप्नों का निम्नस्तरीय ज्ञान आता है। (पंथों को जन्म देता है।) From mind-body-womb comes inferior knowledge of dreams. (give rise to cults)
विद्यासमुत्थाने स्वाभाविके खेचरी शिवावस्था । २-५।
(विद्या-समुत्थाने स्वा-भाविके खेचरी शिव-अवस्था) चेतना-स्थान में विद्या का सहज उदय ही शिव-अवस्था है।The spontaneous rise of vidyā in consciousness-space is the Śiva-state. (सहज)
गुरुरुपायः । २-६।
(गुरुः उपायः) शिक्षक एक मार्गदर्शक है। The teacher is a guide.
मातृकाचक्रसम्बोधः । २-७।
(मातृका-चक्र-सम्बोधः) मातृकाएँ (अनुभूति के तत्व) अर्थ प्रदान करती हैं। (मातृकाएँ ध्वनियों के तत्व हैं जो शब्द बन जाते हैं) Mātṛkā (elements of apprehension) provide meaning. (Mātṛkā are elements of sounds that become words)
शरीरं हविः । २-८।
(शरीरम् हविः) तब शरीर ही आहुति है। (गहन बात, चिंतन योग्य)The body is then the offering. (Deep point, worthy of contemplation)
ज्ञानं अन्नम् । २-९।
(ज्ञानम् अन्नम्) (सीमित) ज्ञान ही भोजन है। (Limited) knowledge is the food.
विद्यासंहारे तदुत्थ स्वप्न दर्शनम् । २-१०।
(विद्या-संहारे तत्-उत्थ स्वप्न-दर्शनम्) ज्ञान-वस्तु के नष्ट होने पर, "उस" से उत्पन्न होने वाले मन-परिवर्तन (स्वप्न) प्रकट होते हैं। यह एक प्रवाह की तरह है जो पहले जो था उसे बदल देता है। इसे बाद में प्रज्ञा सूत्र के माध्यम से समझाया जा सकता है।
Knowledge-as-thing destroyed, there appear mind-modifications (Swapna) arising out of "that". It is like a flow that changes what one was before. This can be explained later through the Prajna Sutra.
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[आज के इस विशेष मुहूर्त में-आन्दुल के सरस्वती नदी में नहाने का वैसा ही विशेष मुहूर्त होता है जैसे कुम्भ-स्नान के शुभ दिनों में होता है । ब्रह्महत्या का शाब्दिक अर्थ है-ब्राह्मणवध । ब्राह्मण को मार डालना । 'ब्राह्मण' का अर्थ है- ब्रह्म को जानने वाला (ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः। —मनु आदि ने ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी ओर गुरूपत्नी के साथ गमन को महापातक कहा है । पुराणों में ब्रह्महत्या को अन्य पापों से बड़ा माना गया है। मान्यता है कि प्रभु श्रीराम ने जब लंकाधिपति रावण (ब्राह्मण) का वध किया तो उसके कुछ दिन बाद यहां ब्रह्महत्या के दोष से मुक्त होने के लिए माता सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ यहां आए थे।]
श्रीरामचरितमानस में तुलसीदासजी ने भी लिखा है –
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥
पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
अर्थात माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं॥ श्री वेणीमाधवजी के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं। गंगा और यमुना के संगम का जल ‘वेणी’ के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें माघ मास में दो घड़ी का स्नान देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।
सती! पृथ्वी पर जितने तीर्थ तथा जितनी पुण्यपुरियां हैं, वे मकर राशि पर सूर्य के रहते हुए माघ मास में वेणी में स्नान करने के लिए आती हैं। भगवान् नारायण प्रयाग में स्नान करने वाले पुरुषों को भोग और मोक्ष प्रदान करते हैं। माघ-मकर का योग चराचर त्रिलोकी के लिए दुर्लभ है। माघ मास में प्रयाग संगम में स्नान का विशेष महत्व है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार जो पुरुष माघ में अरुणोदय के समय प्रयाग की गंगा में स्नान करता है, उसे दीर्घकाल तक भगवान श्रीहरि के मन्दिर में आनन्द लाभ करने का सुअवसर मिलता है। फिर वह उत्तम योनि में आकर भगवान श्रीहरि की भक्ति एवं मन्त्र पाता है; और भारत में जन्म लेकर जितेन्द्रियशिरोमणि होता है। माघ स्नान के लिये ब्रह्मचारी, गृहस्थ, संन्यासी और वनवासी – चारों आश्रमों के; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णोंके; बाल, युवा और वृद्ध – तीनों अवस्थाओं के स्त्री, पुरुष या नपुंसक जो भी हों, सबको आज्ञा है; सभी यथा नियम नित्यप्रति माघस्त्रान कर सकते हैं ।
रटन्ती चतुर्दशी : “माघे मास्यसिते पक्षे रटन्त्याख्यचतुर्द्दशी । तस्यामुदयवेलायां स्नाता नावेक्षते यमम् ॥” उदयवेलायां अरुणोदयवेलायाम् । “अनर्काभ्युदिते काले माघे कृष्णचतुर्द्दशी । पौष कृष्ण पक्ष चतुर्दशी या पौष माह में चंद्रमा के कृष्ण पक्ष (अंधेरे चरण) के 14वें दिन मनाई जाती है।इस व्रत में यमराज की पूजा करनी चाहिए। इसमें अरुणोदय के समय स्नान करके 14 नामों के साथ यम को तर्पण देना चाहिए। मौनी अमावस्या माघ में ही आती है । आज के दिन प्रातः जागरण से स्नान काल तक मौन रहा जाता है। यह वाक् तप में आता है। आज की ही रात्रि में बंगाल में रटन्ती कालिका का पूजन होता है।
[नवनीदा ने अपनी पुस्तक 'जीवननदी के हर मोड़ पर' में लिखा है - सच चाहे जो कुछ भी क्यों न हो, परन्तु इस कथा का उल्लेख मेरे पितामह अक्सर किया करते थे। एक दिन मेरे पितामह उनके बड़े भाई से आपसी वार्तालाप के क्रम में कहते हैं -" कलौ काली कलौ कृष्णः कलौ गोपालकालिका। / या कालिके ? " - कलिकाल (कलयुग) में काली हैं, कलिकाल में गोपाल हैं, और फिर कलिकाल में अर्थात कलयुग में गोपाल-काली दोनों अभिन्न भी हैं! पितामह के अग्रज श्रीयतीशचन्द्र मुखोपाध्याय भी वैसे ही थे, वे भी संस्कृत के विद्वान् पण्डित थे- उनको ' विद्यार्नव ' की उपाधि मिली हुई थी। तो पितामह के श्लोक को सुन कर उनके बड़े भाई कहते हैं, गोपाल और काली तो दो अलग अलग सत्ता हैं, इसलिये यहाँ 'गोपालकालीका' कहना व्याकरण की दृष्टि से उचित नहीं लगता। यहाँ द्विवचन लगेगा अतः 'गोपालकालिके' कहना उचित होगा। इसपर छोटे भाई बोले, 'ना, ता हबे ना, दादा; गोपाल आर काली एखाने तो आलादा नन, काजेई द्विवचन ना हये एकवचनई भाल।' - अर्थात नहीं, भैया वैसा नहीं होगा; क्योंकि यहाँ पर गोपाल और काली तो भिन्न नहीं हैं, इसीलिये द्विवचन न होकर एकवचन लगाना ही ठीक होगा |"..... माँ काली का नाम ( मिथ्या अहंके?) विध्वंश का पर्याय है, किन्तु माँ काली की पूजन विधि बहुत सरल और आसान है। माँ काली बहुत थोड़े फलों और साधारण भोग चढ़ाने से ही सन्तुष्ट हो जाती हैं। मा काली को संतुष्ट करने के लिए छप्पन भोग पकाने की आवश्यकता नहीं होती। कुछ लोग तो माँ काली को भोग के रूप में 'सोमरस' या शुद्ध देसी शराब भी चढ़ाते हैं। (मुनिस्वामी के साथ मैंने विशाखापत्तनम में एक ऐसा मन्दिर देखा है जहाँ देवी केवल शुद्ध देशी शराब ही चढ़या जाता है।) मानवजाति के महान मार्गदर्शक नेता (The great spiritual leader) आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने एक बार कहा था -'माँ काली तो मानवमात्र की देवी हैं, क्योंकि जो कुछ मानव खाते हैं, वे वह सब कुछ खाती हैं।' शायद यही कारण है कि आम जनता का प्रत्येक तबका (जनता का क्रॉस-सेक्शन) माँ काली की पूजा करता है।]
[काली के अनेक रूप भेदों में 'दक्षिणा काली' स्वरूप सद्यः फलप्रद कहा गया है। दक्षिणा काली को ही भगवती काली, अनादि रूपा, आद्या विद्या, ब्रह्म स्वरूपिणी तथा कैवल्य दात्री भी कहा गया है। शास्त्रों के अनुसार भगवती काली आद्या शक्ति, चित्त शक्ति के रूप में विद्यमान होने के कारण अनादि, अनन्त, अनित्य व सबकी स्वामिनी हैं। वेद में काली की स्तुति "भद्र काली" नाम से की गयी है।
काली (काली) शब्द 'काल' से लिया गया है जिसका अर्थ अंधकार और समय दोनों है। ऐसा माना जाता है कि देवी काली समय की शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो जीवन और ब्रह्मांड के विनाश और निर्माण दोनों को अपने साथ लेकर चलती हैं। ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस कहते हैं: माँ काली के गर्भ में पूरा ब्रह्मांड समाया हुआ है। आप उनकी महानता को कैसे जान सकते हैं? और फिर वे कहते हैं, 'यहां तक कि दर्शन के छह स्कूल (6 दर्शन - सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत) भी उन्हें प्रकट करने में सक्षम नहीं हैं।' आप किसी भी विद्वत्ता से उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते।"दिव्य माँ को केवल प्रेम और भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है! यदि आप उन्हें चाहते हैं तो पहले उनके साथ माँ-बच्चे का रिश्ता स्थापित करें और फिर बाकी सब आप स्वयं समझ जाएँगे।~ विद्यासागर से भेंट- श्री रामकृष्ण वचनामृत , 5 अगस्त, 1882]
[यथा शिवस्तथा देवी यथा देवी तथा शिवः । नानयोरंतरं विद्याच्चंद्रचन्द्रिकयोरिव ॥ ९ ॥"चन्द्रो न खलु भात्येष चन्द्रिकया विना। न भाति विद्यमानोऽपि तथा शक्तया विना शिवः।।प्रभया हि विना यद्वद्भानुरेष न विद्यते। प्रभा च भानुना तेन सुतरां तदुपाश्रया।। एवं परस्परापेक्षा शक्तिशक्तिमतोः स्थिता ॥ न शिवेन विना शक्तिर्न शक्त्या च विना शिवः ॥(शिव पुराण खं. ४|९ -१० - १२) जिस तरह चन्द्रमा और उनकी चान्दनी में कोई अन्तर नहीं है, उसी प्रकार शिव और शिवा में कोई अन्तर न समझें। जैसे चन्द्रिका के बिना ये चन्द्रमा सुशोभित नहीं होते उसी प्रकार शिव विद्यमान होने पर भी शक्ति के बिना सुशोभित नहीं होते। जैसे ये सूर्यदेव कभी प्रभा के बिना नहीं रहते और प्रभा भी सूर्यदेव के बिना नहीं रहती, निरन्तर उनके आश्रय ही रहती है। उसी प्रकार शक्ति और शक्तिमान को सदा एक-दूसरे की अपेक्षा होती है। न तो शिव के बिना शक्ति रह सकती है और न शक्ति के बिना शिव।]
ऐसा माना जाता है कि माँ काली ही कलियुग की प्रधान देवी है 'कालिका मोक्षदा देवि कलौ शीघ्र फलप्रदायिनी' जो भक्तों को शीघ्र फल प्रदान करती हैं। माँ ममता की मूरत है। उनकी साधना करने वाले के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रह जाता है। काली माता का ध्यान करने से साधक के मन में सुरक्षा का भाव आता है। उनकी अर्चना और स्मरण से बडे से बडा संकट भी टल जाता है। अतः मनुष्यमात्र को यदि अपना आत्मकल्याण करना हो अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना हो (-अर्थात मैं सिंह नहीं भेंड़ हूँ के भ्रम से मुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो) तो अवश्य ही माँ भगवती की आराधना करें। इतना तो निश्चित है जो भगवती के शरण में जाता है, उसे माँ अवश्य अपनाती है।
[The Puruṣaḥ (Māhākāla) beyond attributes is created and destroyed by Kālī. Being skilled in accomplishing this impossible feat, She is known as Dakṣiṇākālī in the three worlds.~ Nirvana Tantra]
कालिका सृजन करती है, कालिका पालन करती है, कालिका विनाश भी करती है। उसके सामने किसी का अस्तित्व नहीं है, माँ काली देवत्व की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है - विश्व का मूल स्रोत एक ही है पर वह सृष्टि -निर्माण के लिये 2 रूपों में बंट जाता है। "यथा कर्मसमाप्तौ च दक्षिणा फलसिद्धिदा। तथा मुक्तिरसौ देवी, सर्वेषां फलदायिनी।। अतो हि दक्षिणा काली कख्याते वरवर्णिनी। " ~ ~ कामाख्या तंत्र 10.9)---जिस प्रकार यज्ञ के अंत में दक्षिणा मनोवांछित फल देने वाली हैं, उसी प्रकार यह देवी मोक्ष तथा सभी को मनोवांछित फल देने वाली हैं। इसी कारण इन्हें "दक्षिणा काली" कहा गया है। चेतन तत्त्व पुरुष है,पदार्थ रूप श्री या शक्ति (माता-matter) है। शक्ति माता है अतः पदार्थ को मातृ (matter) कहते हैं। सभी राष्ट्रीय पर्वों की तरह यह पूरे समाज के लिये है पर क्षत्रियों के लिये मुख्य है, जो समाज का क्षत से त्राण करते हैं-
एकैवाहम् जगत्यत्र द्वितीया का मामापरा।
पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः ।।
अहमेवास्मि सकलं मदन्यो नास्ति कश्चन ।
इस ब्रह्मांड में मेरे अलावा कोई नहीं है। मैं ही अलग-अलग रूपों में मौजूद हूँ। जिस वस्तु का भी अस्तित्व है ,वह सब मैं ही हूँ। मेरे अलावा और किसी का अस्तित्व नहीं है।]
देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः ०१/अध्यायः ०८/१.८ अष्टमोऽध्यायः । आराध्यनिर्णयवर्णनम् । देवी भागवत में कहा गया है - ' शिव ' भी कुण्डलिनी ' - विहीन होने पर ' शव ' हो जाते हैं। "Without Shakti, Shiva is just a corpse." शक्ति के बिना शिव सिर्फ एक शव हैं।
शिवोऽपि शवतां याति कुण्डलिन्या विवर्जितः ।
शक्तिहीनस्तु यः कश्चिदसमर्थः स्मृतो बुधैः ॥ ३१ ॥
🏹🔱🕊রটন্তী- নিশা ভ্রমন - ২ 🏹🔱🕊
(আচার্য শিরীষচন্দ্র মুখোপাধ্যায়) :
তবে তর্ক উঠে , শিবশক্তি তত্ব লইয়া। অদ্বেতবাদ -প্রধান শক্তি-তন্ত্রে শিব-শক্তি অভিন্ন। শিবেরও শক্তি নয় , শিব এবং শক্তিও নয় - দ্বন্দ্ব বা দুই নয় , যেই শিব সেই শক্তি ! রামেশ্বরের আখ্যান স্মরণ কর। শ্রীরাম সেতুবন্ধে 'রামেশ্বর ' শিবলিঙ্গ প্রতিষ্ঠা করিয়া পূজাকালে 'রামের ঈশ্বর ' বলিয়া শিবের স্তব করিতেই শিব পাষান ভেদ করিয়া উত্থিত বলিলেন - না , আমি রামের ঈশ্বর 'রামেশ্বর ' নহি , ' রামই যাহার ঈশ্বর ' - এই অর্থে আমি 'রামেশ্বর ' নাম স্বীকার করি ! তখন শিব-রামে বিষম বিগ্রহ উপস্থিত হ'ল - সমাসের বিগ্রহ বাক্য নিয়ে ! রামের ষষ্ঠী তৎপুরুষ , না শিবের বহুব্রীহি সমাস -ঠিক ? আদি ব্যাকরণের শিব-সূত্র জালের জালিক শিবকে শ্রীরাম তর্কে আঁটিয়া উঠিতে পারিতেছিলেন না। তখন এই সমাসকুট- সমাধান করিতে ব্রহ্মলোক হইতে ব্রহ্মাকে আসিতে হইল। ব্রহ্মা আসিয়া বলিলেন - এ ষষ্ঠী তৎপরুষও এখানে চলিবে না , ও বহুব্রীহি ও নয় ! এখানে কর্মধারয় সমাসই সঙ্গত - রামেশচ আসো ঈশ্বরশ্চেতি - যেই রাম , সেই ঈশ্বর - মহেশ্বর , শিব। এখানেও তাই - যিনি শিব , তিনিই শক্তি , -অদ্বয় , উভয় নয় - 'চন্দ্রচন্দ্রিকা যথা অর্থা। যেমন , চনকের (ছোলার) মধ্যে দুইটি দল (ডাল) আলিঙ্গিত অথচ স্পষ্টত একটিই চনক (ছোলা) ; তেমনই , শিব শিবা মুখ্যত একই তত্ব ; খুলিয়া বুঝিতে গেলে দুই বলিয়া প্রতীয়মান হয়। আরও সূক্ষ্ম ন্যায়ে উঠে - 'অহিকুন্ডল' ইত্যাকার প্রতিতিতে অহি এক, এবং কুন্ডল আর , - এরূপ ধারণা হয় না ; কুন্ডলীকৃত অহি সর্বেব অহিই থাকে -এক।
প্রেমিক হাসিয়া আবার বলিলেন - শেষটা সাপ বেরিয়ে পড়ল ! দেখ, এমন সাধনার রাত্রিতে আর ন্যায়ের কচকচিতে কাজ নাই। পথিক বলিল - না, এবারে একটা আনুষ্ঠানিক ব্যাপারে কিছু জিজ্ঞাসা আছে। কালীপূজায় দেখি ঠাকুরের দক্ষিণ মুখ , আর পূজক উত্তরাস্যা হইয়া উপাসনা করে। এরূপ উত্তর দক্ষিণের কি বিশেষ কিছু আছে , যা পূর্ব -পশ্চিমে পাওয়া যায় না ?
উত্তর - 'উপাসনা ' কি না সমীপবর্তী হউণ, সানিধ্য। উত্তর-দক্ষিণে পূজা -পূজকের ব্যবধান পূর্ব-পশ্চিমের ব্যবধান অপেক্ষা হ্রস্বতর হইবেই !
পথিক - 'হইবেই ' ! এ কি কথা হল , মহাশয় ?
প্রেমিক - এই হল কথা ! আর কথান্তরে কাজ কি ?
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১. শক্তিহীন শিব শব। প্রমান - 'শিবোহপি শবতাং যাতি কুন্ডলিংয়ে বিবাজ্জিতঃ। অপিচ - ' শক্তি বিনা শিবে সূক্ষ্ম নাম ধাম ন বিজ্ঞাতে। ' যোগিনী তন্ত্র
২. 'যথা শিব স্থা দেবী যথা দেবী তথা শিবং। ' মান্যর রন্ত্রমগ বিদ্যাচন্দ্র-চন্দ্রিকা যথা। অপিচ 'আদ্যা সেকা পরা শক্তিসচিন্ময়ী শিব সংশ্রয়া। বৈশেষিক দর্শনে ভরদ্বাজ বৃত্তি ভাষায় উল্লিখিত।
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পথিক অপ্রতিভ হইল। দেখিল -আর ওদিকে কথা চলে না তখন বলিল ও ! তাই দক্ষিণ মুখে মাকে রাখা হয় বলিয়া দক্ষিনাকালী নাম ?
প্রেমিক - না ! দক্ষিনাকালী নাম কেবল সে জন্যে নয়। লক্ষ্য ক'র সাধারণ স্ত্রীলোকের বাঁ পা আগে পড়ে - বামা কি না ? মার প্রতিমাতে দেখো , তাঁর দক্ষিণ পদ বাম পদের কিছু অগ্রে স্থাপিত। ধ্বনি এই যে তিনি সামান্য-নারী নহেন ; দক্ষিনাগ্রচরনা মা কালী -অসামান্যা নারী -নৃত্যমানা মহানারী -মূর্তি। যাঁর নামে দক্ষিণ দিকের অধিপতি যম -তিনিও সভায় সরিয়া যান ! দক্ষিণ দিগ্ ভয়হারিণী বলিয়া মা দক্ষিণাকালী ! আবার শিবকে বা মহাকাল কে বশীভূত বা প্রকট ও লীন করিতে 'দক্ষিনা' কিনা কুশলা বলিয়া দক্ষিণাকালী নাম। আরও একটু লক্ষ্য ক'র দক্ষিণাকালী -প্রতিমায় যে নর-কর-কাঞ্চি থাকে , সে কোমর পাটায় কেবল দ: হস্তের সারি গাঁথা। প্যাটদের প্রতিমা গড়নের সময় বলে দেওয়া উচিত যে ভুল না করে।
পথিক - অপরূপ কথা !
প্রেমিক - কিন্তু তন্ত্রকে রূপকথা মনে ক'র না। সহস্র সহস্র বীর সাধক এই দক্ষিণাকালী -সাধন হৃদয়ের সর্বস্বধন -প্রাণ পর্যন্ত পন - করেছেন !
পথিক - এবার , শেষবার - আর একবার - কালী- কৃষনের অভেদ তত্ব শুনিতে চাই। সহজ কথায় - সে 'অহিকুন্ডল' -এর ন্যায় না হয় !
ঈষৎ হাসিয়া প্রেমিক মহারাজ তখন উপাখ্যানে তাহার ব্যাখ্যা করিতে লাগিলেন। 'কালো কালী কালো কৃষণঃ ক্লু গোপাল -কালিকা '. এক গ্রামে দুই সহোদর ভাই বাস করেন। জ্যেষ্ঠ কালীভক্ত , কনিষ্ঠ কৃষ্ণভক্ত। দুই ভাইয়ের দুইখানি কুটির - মধ্যে আঙিনা -সম্মুখের পর্ণশালায় ঠাকুরঘর। এদিকে জ্যেষ্ঠের উপাস্যা জগন্মাতার মূর্তি - জবা বিল্ব-দলে প্রপীড়িত যুগল চরণ কমল ! অপরদিকে কনিষ্ঠের সর্বস্বধন নন্দদুলাল - বালগোপাল -মূর্তি। আঙিনায় একটি আমগাছ আছে , তাহাতে এসময় একটি আম ফলিয়েছে। জ্যেষ্ঠ আশা করিয়া আছেন - আমটি সুপক্ব হইলে মাকে নিবেদন করিয়া দেবেন। কনিষ্ঠ সহোদর তাহার কিছুই জানেন না। তিনি মনে মনে সঙ্কল্প করিয়া আছেন -এই অসময়ের আমটি তাঁহার ইষ্টদেব বাল-গোপালছোট হইয়া কে নিবেদন করিয়া দিবেন। দিনের পর দিন যায় -আমে আর রঙ ধরে না। তখন এমন এক বিষয়কার্য উপস্থিত হ'ল উভয় ভ্রাতা কেই একসঙ্গে প্রবাসে না গেলে গ্রামঃচ্ছাদনের ব্যাপার বধঃ হইয়া যায়। অগত্যা প্রাতঃকালে উভয়ই আপন আপন ইষ্টদেবতা মনের অভিলাষ জানাইয়া বিদেশে যাত্রা করিলেন।
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৩। ২০ হাত মাপের একটি বাঁশ পূর্ব পশ্চিমে লম্বা করা শোয়ান আছে। বাঁশটা তুলিয়া উত্তর দক্ষিণে লম্বা করিয়া মাটিতে রাখিলে সামান্য কিছু ছোট হইয়া যাইবে। মাপকাঠি টাও উত্তর -দক্ষিণে লম্বা করিলে সঙ্গে সঙ্গে অতি সামান্য কিছু ছোট হইয়া যাইবে , কাজেই তাহা বাঁশের কমিটা ধরা পড়ে না। এ সভায় উপস্থিত বিজ্ঞানের ছাত্ররা হয় তো কথা টা বুঝিবেন।
৪. নির্গুনঃ পুরুষঃ কাল্যা সরজতে লুপাতে যথাঃ। এতাঃ সা দক্ষিণাকালী ত্রিযু লোকেষু গিয়তে। নির্বাণ তন্ত্রে।
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বিষয়কার্যে বিদেশে এক পক্ষ কাল অতীত হল। তখন বিষয়কার্যে সফলকাম হইয়া উভয়ে ঊর্ধ্ব শ্বাসে গৃহ প্রবেশ করিয়াই আংগিনাযা গিয়ে দেখেন -গাছে সেই আমটি নাই। জ্যেষ্ঠ আপন ঘরে গিয়া গৃহনি কে বলিলেন -আঙিনার অসময়ের আমটি মা কালীকে নিবেদন করিয়া দিব মানস করিয়াছিলাম। হতভাগ্য আমি ! - তাহা আর হল না। গৃহিনী হাসিয়া কহিলেন তোমার মনস্কাময় সিদ্ধ হইয়াছে। কাল সন্ধ্যায় এমটিতে বেশ পাক ধরিয়াছে দেখিয়া ওপাড়ার সেই বামুনের ছেলেটিকে ডাকিয়া আনিয়া - দেখ না গিয়া ঠাকুর ঘরে -মা কালির কাছে আমটি নিবেদিত আছে। উচ্ছাস ভরে স্বামী বলিলেন -তুমি যথার্থই আমার সহধর্মিনী -সাধ্বী ! আমার মনের কথা জানিতে পার। ঠাকুরঘরে গিয়া দেখেন বরাভয় করার বর -করে আমটি শোভা পাইতেছে।
এদিকে কনিষ্ঠ ভ্রাতা নিজ কুটির প্রবেশ করিয়া স্ত্রীর কাছে সুনীল যে আমটি ওপাড়ার বামুনের ছেলেটিটর দ্বারা বালগোপাল কে নিবেদিত হয়েছে। তখন স্বামী উচ্ছাসভরে স্ত্রীকে কহিলেন -একই বলে সহধর্মিনী -তুমি স্বামীর মনের কথা টের পাও ! তখন উল্লাসে ঠাকুরঘরে প্রবেশ করিয়া দেখেন যে , তাঁহার নাচুগোপালের হাতে নাড়ুর মতই আমটি শোভা পাইতেছে। আনন্দে অধীর হইয়া দাদার ঘরে গিয়া আনুপূর্বিক সমুদয় ঘটনা বিবৃত করিলেন। বড় ভাই বিস্মিত হইয়া বলিলেন সে কি ! আমি এইমাত্র ঠাকুরঘরে গিয়া দেখিয়া আসিয়াছি - মা কালীর হাতে সে আমটি রহিয়াছে। ছোট ভাই বললো না , দাদা ! আমি এইমাত্র আমার নাচুগোপালের হাতে সেই আমটি দেখিয়া তোমায় বলিতে আসলাম। তখন উভয় ভ্রাতা অতীব বিস্মিত হইয়া একসঙ্গে পুনর্বার ঠাকুরঘরে দিক সত্যাসত্য নিরুপনের জন্যে চলিলেন। উভয়েই ভক্ত। ভক্তবাঞ্ছা কল্পতরু পৃথক পৃথক ভাবে উভয়ের মনোবাঞ্ছা পূরণ কৈয়াছেন। তখন দুই ভক্ত একত্র হইয়া আসিতেছে। কি হয় ! কি হয় ! তখন যাহা হইবার নয় , তাহাই হইল ! দুই ভাই একযোগে ঠাকুরঘরে গিয়া দেখেন - উলঙ্গ কালী -কোলে উলঙ্গ গোপাল দোলে ! কৃষ্ণমাতা কাত্যায়নী বালগোপালকে কোলে লইয়া আপন কর-করের আমটি বালগোপালের মুখে ধরিয়া আছেন। পথিক তখন গাহিতে লাগিত -
এমন শুনি নাই - শুনবো না হে !
উলঙ্গ কালী কোলে উলঙ্গ গোপাল দোলে !
এমন দেখি নাই - দেখবো না হে !
তুমি কৌল -বাউল - এক করেছো -
দেছ কালী কালার সমান সাজ !
জয় জয় জয় প্রেমিক মহারাজ !!
কে দেখেছে কবে -
মুক্তকেশীর যুক্ত বেণী বেণীমাধবে !
একবার হৃদ মালানকে গুঁজে ধ্যেয় প্রেমিক অলি ! বসো আজ !
জয় জয় জয় প্রেমিক মহারাজ !!
এদিকে রটন্তী -নিশা অবসান প্রায়। ' বিচেইতারকা -প্ৰভাতকল্পা। ....শর্বরী ! 'সতার ব্যোমকালে' - রটন্তী- চতুর্দশী স্নান করিতে হয়। প্রেমিক আসন ছাড়িয়া উঠিয়া পড়িলেন। পথিক ইংরেজি -নবীশ , তবুও যেন সদ্যঃ -প্রাণস্পর্শিনী রটন্তীদেবী- শক্তির দ্বারা অভিভূত হইয়া সেই বিচেযতারকা রজনী কে অপূর্ব শক্তিমতী -মূর্তিমতী দেখিতে লাগিল। দেখিতে দেখিতে সম্বোধন পূর্বক বলিতে লাগিল -
Press close , bare -bosom's night !
Press close magnetic , nourishing night !
" Night of South winds! night of the large few stars !
" Still , nodding night !
" Earth of the limpid grey clouds .
brighter and clearer for my sake ! "
---Walt Whitman .
প্রেমিক মহারাজ পথিকের হাত ধরিয়া কহিলেন - ও আবার কি বকিতেছে ? রটন্তী চতুর্দশী তিথি , মহাতেম্যা জলরাশি পর্যন্ত আজ সৃক্ষনশক্তি যুক্ত। বিশ্বাস হয় না ? চল, চল , স্নানে চল। শুন, শুন - ঐ সরস্বতীর জলরাশি আজ কল্লোল করিয়া ডাকিয়া কি বলিতেছে - 'কে আছ ব্রহ্মহত্যার পাতকী , কে আছ চণ্ডাল , কে আছ পতিত , এস এস। আমাদের মধ্যে অবগাহন কর। আজ যে আমরা তোমাদেরও পবিত্র করিয়া দিব।
'মাঘে মাসি রটন্যাআপঃ কিঞ্চিৎ অভ্যুদিতে রবু।
ব্রহ্মঘঁম্পি চন্ডালম কং পতনত : পুনিমোহে।
রটন্তী চতুর্দশীতে দেহ-দুরিৎবরি বাড়ি রাশির রটনা -বাণী শ্রবণ কর। অত্রেব শিবম।
(বিশ্ববানী -২৭ শ বর্ষ , ৯ম সংখ্যা )
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৫। এই রূপ বিস্ময়কর ঘটনা নবদ্বীপে কৃষ্ণানন্দ আগমবাগীশ-এর ভিটায় ঘটিয়াছিল বলিয়া জনশ্রুতি আছে। জ্যেষ্ঠ কৃষ্ণানন্দ শাক্ত কনিষ্ঠ মাধবানন্দ বৈষ্ণব ছিলেন। উভয় ভ্রাতার দেব দ্বন্দ্ব -সময়ের দেব উপায় সংঘটিত হয় বলিয়া 'নবদ্বীপ মহিমা ' -য বর্ণিত আছে।
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शिव निवास, हिमालय : तिब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर प्रारम्भ में उनका निवास रहा। वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत धरती की सबसे प्राचीन भूमि है और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। फिर जब समुद्र हटा तो अन्य धरती का प्रकटन हुआ। जहाँ पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है। ऐसा पुराण कहते हैं।
वैज्ञानिकों की मान्यता है कि आज जहाँ हिमालय पर्वत अवस्थित है, वहाँ किसी युग में एक विंध्याचल महासागर लहराता था, जो समस्त भूमण्डल को उत्तरार्ध तथा दक्षिणार्थ दो भागों में विभक्त करता था। कालान्तर में दबाव पड़ने के कारण एक ओर का सिरा उठने लगा तथा धीरे-धीरे रेणुकण एकत्र होने से पर्वतमालाओं की रचना होने रूगी। इनमें तीन चार हजार फीट वाली पूरे हिमालय तक फेली हुई शिवालिक पहाड़ियाँ , बारह हजार से लेकर पन्द्रह हजार फीट वाली पव॑त मालाएं तथा बीस हजार फीट ऊँचे बर्फीले पवेतशिखर हैं। इनमें भी गौरीशंकर ( एवरेष्ट कहता अनुपयुक्त हैं ) का शिखर उच्चतम है । हिमालय पर्वत तक फेली पाँच मील से लेकर तीस मील तक चौडी शिवालिक पहाड़ियों में ऋषि-महर्षियों के आश्रमों का जाल हुआ करता था। ये ऋषि-महांष महेश्वर के दर्शनार्थ कैलास पर्वत आते जाते रहते थे। कैलास के उत्तरी पूर्वी तथा पश्चमी भाग में भगवान् शंकर ने अपने अनुचर वर्ग को आबाद किया था । मह॒षि व्यास का निवास हिमालय पर था। यहीं , वशम्पायन, जैमिनि तथा पेल वेदाभ्यास किया करते थे। हिमालय पर्वत पर बने विश्वविद्यालयों में दूर-दूर से विद्यालिप्सु आते थे ।इसी हिमालय पर कुलपति (चांसलर) वशिष्ठ का आश्रम था। दिलीप जेसे शिष्य उनकी नन्दिनी धेनु को देवदारु-तरु-ततियों से परिवेष्टित कन्दराओं तक चराने ले जाते थे। इधर हिमालय के दक्षिणी भाग में अर्थ तथा काम की साधना में निरत संततियों का बहुत विस्तार हो गया । तब मनु महाराज ने मनु-स्मृति रचकर पूरातन व्यवस्थाओं के तत्त्वावधान में नवीन व्यवस्थाओं का उपक्रम बाँधा। अधिकांशत: विजिगीषु जन ऐश्वर्य-सम्पन्न हिमालय की ओर आश्रय लेता चाहते थे।
अलकनन्दा की यह उद्भवस्थली प्रकृति-चारुता में पगी हे। बदरीनाथ की यात्रा में अलकनन्दा सर्वत्र दर्शनीय है । इसीके उस पार 'माणा? ग्राम अवस्थित है। माणा में ही एक पहाड़ी पर व्यास और गणेश की गुफाएँ हैं। जनश्रुति से अनुसार महर्षि व्यास ने यहीं महाभारत प्रश्नृति ग्रन्थ लिखे तथा वेदों का प्रतिसंस्कार किया । इसी के पास गणेश गुफा है। लेखन कार्य के निमित्त व्यास जी ने हंकर-सुत गणेश जी को अपना सहायक बनाया था। व्यास गुफा के पाएवे-भाग से प्रवहमान सरस्वती की धारा माणा ग्राम के किनारे अलकनन्दा में विलीन हो जाती है ।
( दे” भा० ९.४-४ )--
गणेशजननी दुर्गा राधा लक्ष्मी सरस्वती ।
सावित्री च सृध्टिविधों प्रकृति: पद्नधा स्पृता ॥
(दे० भा० ९.१.८ )-+
प्रथमे वर्तंते प्रश्च॒ कृतिश्वच॒स्ष्टिवाचक: ।
सष्टेरादौ च या देवी प्रकृति: सा प्रकीतिता ॥ ( दे० भा० 2,८३१ )--
इसी प्रकृति को शक्ति रूप में देत्य दानव तक पूजते थे क्योंकि शक्ति --सामर्थ्य अथवा बल के न रहने पर सभी असमर्थ हो जाते हैं । 'इ'कार शक्ति के न रहने पर शिव भी शव बन जाते हैं! पुराणों में दुर्गा, पार्वती , सरस्वती इत्यादि भेद एक ही शक्ति के स्वरूप बताये गये हें । गायत्री का एक नाम सरस्वती भी है।
षष्ठ शताब्दी के वराहमिहिर की बृहत्संहिता में पक्का लोहा बनाने की अनेक विधियाँ दिखायी गयी हैँ। दिल्ली के लोहस्तम्भ का लोहा अगणित शीतातप-वर्षाओं के थपेड़े खाकर आज भी उसी प्रकार निर्विकार बना हुआ है, जिस प्रकार स्थापना के समय था।
आध्यात्मिक शक्ति द्वारा भौतिक शक्ति पर विजय (Victory over material power by spiritual power) : धारणा ,ध्यान और समाधि कर लेने से शरीर का हल्की रुई के समान हो जाना और साधक को आकाश- गमन की शक्ति का प्राप्त हो जाना ! यह है आध्यात्मिक शक्ति का भौतिक शक्ति पर विजय । प्रज्ञा का ऋतम्भरा बन जाना, योग के आठों अंगों के अनुष्ठान से अबुद्धि का क्षय हो जाना तथा ज्ञान का प्रकाश प्रकट होना । यदि किसी के जीवन में अहिंसा की ठीक-ठीक प्रतिष्ठा हो जाए, तो उसके सानिध्य में हिंस्र जन्तु (बाघ-बकरी, कुत्ता-बिल्ली) भी वैर भूल जाते हैं। अपरियग्रह की - स्थिरता हो जाए तो पूर्व जन्म और इस जन्म का ज्ञान हो जाएगा। शौच (अंतर्-वाह्य पवित्रता) का ठीक-ठीक पालन हो जाए तो स्वयं अपने शरीर द्वारा इन्द्रिय भोगों से घृणा हो जाएगी ,और दूसरे शरीरों के साथ संसर्ग की इच्छा जाती रहेगी। इसके अतिरिक्त पवित्रता की परिपक्वता के अन्य ये लाभ भी हैं--१. सत्त्व की शुद्धि, २. सौमनस्य ( अदुष्ट मन होना), ३. एकाग्रता, ४. इन्द्रियजय तथा ५. आत्मदर्शन की योग्यता । अशुद्धि के नष्ट होने से शरीर और इन्द्रियों में सिद्धि का प्रवेश होता है। ईश्वर के ध्यान से समाधि की सिद्धि होती है।
संस्कृत भारत की आत्मा है : भारत का सम्पूर्ण ज्ञान और विज्ञान संस्कृत में निबद्ध हैं । संस्कृत भाषा में निबद्ध आयुर्वेद हजारों वषों से भारतीय जनता के प्राणों की रक्षा करता आ रहा है। आयुर्वेद की साख पहले से ही जमी हुई हे। अत: उसे जमाने के लिए, उसकी गरिमा बताने के लिए हमें अधिक प्रयत्न भी नहीं करना है। आयुर्वेदीय चिकित्सा-पद्धति पर हमारे ऋषियों और आचार्यों ने अपने अनुभव-प्रयोगों के आधार पर विविध ग्रन्थों की रचना की थी। चरक, सुश्रुत आदि उपलब्ध ग्रन्थों पर भी उक्त दिशा में कार्य कराने होंगे। इन सभी अनुसन्धानों का माध्यम संस्कृत भाषा होगी । भारत में अब भी ऐसी जड़ी-बूटियाँ हैँ, जिनके प्रयोग से असाध्य से असाध्य रोग भी निर्मूल हो जाते हैं । ग्रामों के वृद्ध उनका प्रयोग अब भी जानते हैं। वैद्यों का कर्तव्य है कि वे फील्ड वर्क करें। औषधियों को प्रयोग की कसौटी पर कसें और लोक प्रचलित औषधियों के नामों को उनके गुणों के साथ लोक-बद्ध कर ले। पर टबलेट और इंजेक्शन छाप ऐलोपैथी के प्रभाव से बहुत-से रोगों की आयुर्वेदिक औषधियों के ज्ञान का लोप होता जा रहा है। ग्रामीण-परम्परा नष्ट होती जा रही है । जड़ी बूटियों के नाम और गुणों को आधुनिक ग्रामीण भुलते जा रहे हैं । वे अपनी परम्परा से हट रहे हैं। यदि चार शताब्दी पूर्व ही इस बिखरे ज्ञान को संस्कृत में ही पचा लिया होता, तो आज आयुर्वेद की स्थिति कुछ और ही होती । विज्ञान किसी एक देश, जाति या व्यक्ति की थाती नहीं होता। मानवमात्र का हित उसे अभिप्रेत हे।
आज सारा विश्व मानसिक और शारीरिक रोगों से आक्रान्त है। योगशास्त्र की छत्र-च्छाया में आया साधक इन दोतों से मुक्त होकर शान्ति प्राप्त कर सकता है। हमारा योग शासत्र आज विश्व का आकर्षण-केन्द्र बना हैं। विदेशी धनाढ्य व्यक्ति योगशात्र की सहायता से मानसिक दक्षता बढ़ाने के लिए लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं। योग की दिशा में भारत का ज्ञान विश्व के लिए आज भी नूतन है । पश्चिमी जगत् इस ओर नूतन अन्वेषण नहीं कर सका। किन्तु उसने अष्टांग योग के छठे अंग धारणा को लेकर mesmerism (सम्मोहन विधा-कृत्रिम निद्रावस्था) को जन्म दिया।
सम्पूर्ण शरीर की सहायता के बिना केवल मस्तिष्क कार्य नही कर सकता। यज्ञ अथवा पुण्य कार्यों के सम्पादनार्थ संपूर्ण समाज की अपेक्षा होती हे। संपूर्ण समाज में विश्वास जगाना हैं और सबको साथ लेकर चलना है । ऋग्वेद के अन्त में यही उपदेश हे--
सं गच्छथ्वं स॑ वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्व संजानाना उपासते॥ १॥
साथ चलो, साथ बोलो -- परस्पर विरोध छोड़कर एक प्रकार का वाक्य बोलो, तुम लोगों के मन एक रूप अर्थ को समझें । जिस प्रकार पुरातन देव ऐकमत्य रखकर ह॒वि भोंग स्वीकृत करते थे, उसी प्रकार तुम लोग भी वेमत्य छोड़कर धन स्वीकृत करो ॥ १। गुप्त भाषण समान हो, प्राप्ति भी समान हो। मनन का साधन सबका अन्तःकरण ( >>मन) समान हो । चित्त --विचार ज ज्ञान समान हो। तुम लोगों के समान मन्त्र को चित्त की एकविधता के लिए सेस्कुत करता हूँ ॥ २। तुम लोगों का संकल्प अथवा अध्यवसाय समान हो | तुम्हारे हृदय समान हों और तुम्हारा अन्त:करण भी समान हो ॥ ३ । इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह संस्कृत के द्वारा संस्कारवान्, चरित्रवान, योग्य मनुष्य बनकर देश की कीर्ति को बढ़ाए। योग्य व्यक्तियों के समुदाय से योग्य जाति, योग्य जातियों के समुदाय से योग्य समाज और योग्य समाज के समुदाय से देश उन्नत प्रतिष्ठित और गौरवान्वित होता है । प्रत्येक व्यक्ति जाति समाज और राष्ट्र की समुन्नति एवं सफलता के लिए सबको श्रद्धा, विश्वास और प्रयत्न का अवलम्बन लेना है। सफलता रूपी चिड़िया के दो पंख हैं श्रद्धा ओर विश्वास। यत्न ही उसकी उड़ान है ।
[https://archive.org/stream/sanskrit-hindi-sahitya_20210119/Bharat%20Mein%20Sanskrit%]
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