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सोमवार, 21 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [2] ' अनुसरण ही सच्चा स्मरण है '

स्वामी जी ने ऐसा क्यों कहा था - 
'अशिक्षित लोगों को प्रकाश दो, किन्तु शिक्षित लोगों को और अधिक प्रकाश दो !'   
स्वामी विवेकानन्द ( नरेन्द्रनाथ दत्त ) का जन्म एक सौ पचास वर्ष पूर्व १२ जनवरी, १८६३ ई० को  हुआ था। और ४ जुलाई १९०२ को, मात्र ३९ वर्ष की आयु में ही, मानो किसी आँधी की सदृश्य उन्होंने सपूर्ण विश्व को ही झकझोर देने के बाद उन्होंने अपने शरीर का त्याग कर दिया था। जिस समय वे जीवित थे, पहले हमने उनके विचारों का विरोध किया था, उनकी निन्दा की थी, उनके उपर झूठे आरोप लगाये थे, और उन आरोपों को बढ़ा-चढ़ा कर प्रचार करने की चेष्टा भी की थी। फिर उनको प्यार भी किया था, प्रशस्ति-पत्र दिए थे, उनके स्वागत में तोरण-द्वार सजाये थे, उनके रथ को घोड़ों से खिंचवाने के बजाय मनुष्यों से खिंचवाया था, धन्यवाद कहा था, उनके प्रति श्रद्धा दिखलाये थे, उनकी पूजा की थी।
आज, उनके चले जाने के ९५ वर्ष बाद भी हमलोग उनके आविर्भूत होने को स्मरण करके ,उनके प्रति विभिन्न प्रकार से अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करते हैं। किन्तु हमलोगों के सामाजिक जीवन में आज मानो एक ऐसा संधि-क्षण उपस्थित हुआ है जब कुछ लोग, थमक कर यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि हमलोग अभी जिस रूप में स्वामीजी की जन्मजयंती आदि मना, रहे हैं, उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त  करने का वह तरीका ठीक भी है या नहीं? लगता है शायद नहीं ! क्योंकि, तब हमलोग सोचते, उनके विचार तो बहुत अच्छे और उपयोगी प्रतीत होते हैं, किन्तु उनके संदेशों को देख-सुनकर और समझ-बुझकर आगे बढ़ना श्रेयस्कर होगा। किन्तु हम वैसा नहीं कर रहे हैं।  ९५ वर्ष पहले के दिनों में विवेकानन्द के प्रति हमलोगों ने जो विरोधिता एवं उत्साही-आवेग दोनों ही भाव प्रदर्शित किये थे, वे बहुत हद तक हमारे मन की संकीर्णता एवं जड़ता तथा अतिशय भावुकता और परिणाम थे। अभी का यह उत्साह ('विवेकानन्द रथ ' के पीछे-पीछे चलने वाला अभी का यह आवेग) भी लगभग उसी प्रकार का है। 
किसी कार्य को करने के पहले हमलोग अक्सर  खूब सोच-बिचार  करने के बाद कदम नहीं बढ़ाते हैं। किसी व्यक्ति या भाव को ग्रहण करते समय केवल,अपने तात्क्षणिक-भावना या अपनी पसन्द या नापसन्द को ही अधिक महत्व देते हैं, विवेक-विचार करके यह देखने की चेष्टा नहीं करते कि जिस आदर्श या उद्देश्य को हम ग्रहण कर रहे हैं, या वहिष्कार कर रहे हैं, उसका अपना तात्विक मूल्य (intrinsic value) कितना है ?  बिना जाने समझे ही दल बनाकर किसी की भी पूजा करना, या अपनी अज्ञानता के कारण किसी उच्च आदर्श की उपेक्षा कर देने से अधिक श्रेयस्कर है, रुककर थोड़ा सोच-विचार करना। किसी के कहने पर नहीं, स्वयं एक व्यक्ति के रूप में विवेक-विचार से निर्णय करके देखूँगा कि जिस व्यक्ति को मैं अपना आदर्श मानने जा रहा हूँ, उसके कौन -कौन से भाव (चरित्र के गुण) सचमुच अच्छे हैं, और मेरे लिए अनुकरणीय हैं ? इस प्रकार विवेक-विचार करने के बाद ही उन भावों को या तो ग्रहण करूँगा या उनका वहिष्कार कर दूँगा। 
इस प्रकार विवेक-प्रयोग करने के बाद किसी भाव का वहिष्कार करने से भी क्षति नहीं होगी। और एक बार यदि कुछ भावों को आदर्श मान कर ग्रहण कर लिया, तो पूरी आस्था के साथ उन भावों को कार्यरूप देने की चेष्टा में लग जाना होगा। क्योंकि यदि उन उच्च भावों जीवन में नहीं अपनाया गया तो, उन भावों को ग्रहण करने का कुछ अर्थ ही नहीं है। स्वामी विवेकानन्द या अन्य किसी  (नवनी दा?)के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का तब तक कोई विशेष मूल्य नहीं है, जब तक हमलोग उनके भाव (सदगुणों को) को निष्ठा के साथ ग्रहण न कर सकें,तथा उन भावों को अपने जीवन में एवं समाज में रूपायित करने की चेष्टा न करें। इन दिनों हमलोग जिस प्रकार अश्रद्धा प्रकट करने के लिए भी समारोह आयोजित करते हैं, उसी प्रकार से कई लोगों के प्रति श्रद्धा-सुमन भी चढ़ा आते हैं। 
इस प्रकार, वर्ष भर  लगातार एक के बाद एक विभिन्न महानुभावों का शत-वार्षिक समारोहों को आयोजित होता देखने से आश्चर्य भी होता है, कि इस भारतवर्ष में पहले इतने सारे एक के बाद एक स्मरण करने योग्य व्यक्ति क्या सचमुच भारत में आविर्भूत भी हुए थे ! हमलोग प्रत्येक वर्ष बहुत से  महापुरुषों की जन्म-जयन्ती मनाते हैं, या स्मरण-सभाओं का आयोजन करते हैं। किन्तु  उसके साथ साथ यदि उनके भावों को आचरण में उतारने  की चेष्टा भी करते हों, तभी यह निर्धारित होगा कि ,हमलोग  उनका स्मरण कितनी आंतरिकता के साथ करते हैं और उसका मूल्य कितना है? अतः यदि हमलोग स्वामी विवेकानन्द का स्मरण करना चाहते हो, तो कम से कम उनका अनुसरण करने की चेष्टा तो हमें करनी ही चाहिये। क्योंकि यदि (या अब नवनी दा के लिये स्मरण-सभा का आयोजन तो करना चाहते हों, किन्तु ) उनका भी अनुसरण हमलोग नहीं कर सकें, तो उनके नाम पर आयोजित होने वाली समस्त स्मारक सभायें निरर्थक हो जायेंगी। इसलिये प्रश्न उठता है कि उनका (नवनी दा का) अनुसरण किस प्रकार किया जाय ?  कहाँ और किस क्षेत्र में हम लोग उनका (नवनी दा का ) अनुसरण कर सकते हैं ? यदि हम सचमुच उनका स्मरण करना चाहते हों, तो पहले यह विचार करना पड़ेगा कि उनका  (नवनी दा का ) मूल भाव (The main idea) क्या है
हमलोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य का सही रूप में 'मनुष्य बन जाना' (মানুষ হয়ে ওঠা); या मनुष्य को सही 'मनुष्य बना देना' (মানুষ করে তোলা) --यही उनका मौलिक विचार (brainchild या अपना विचार) है। 
यदि ऐसा है, तब तो मनुष्य के जीवन के समस्त क्षेत्रों में इस विचार-धारा को रूपायित कर देना सम्भव है; और समाज के सभी स्तर पर रहने वाले मनुष्यों के बीच इस कार्य को किया जा सकता है। इस विचार का उपयोग देश-काल की सीमारेखा  के परे (स्थानिक दूरी एवं सामयिक दूरी, या टाइम ऐंड स्पेस ) भी किया जा सकता है।  क्योंकि मनुष्य की सत्ता (पूर्णता या आत्मा ) सभी देशों और सभी युग में एक ही रहती है। उस सत्ता (पूर्णता) की अभिव्यक्ति विभिन्न देशों या विभिन्न युगों में अलग अलग हो सकती है। (देश-काल -पात्र के अनुसार पूर्णता ही  अपने को ईसा, बुद्ध, मोहम्मद, नानक, कबीर, राम-कृष्ण, श्रीरामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, नवनी दा के रूप में अपने को अभिव्यक्त करती है !) इसीलिये कोई भी अवरोध, चाहे समस्त प्रकार की संकीर्णता हो, या विशिष्ट आदर्श की सीमा हो,इसे सीमित नहीं कर सकते। स्वामी जी (और नवनी दा भी) सभी देशों के सभी मनुष्यों को उसकी पूर्णता को अभिव्यक्त करने की दिशा में अग्रसर होने में सहायता करना चाहते थे
इसीलिये,जिन मनुष्यों में संभावनाओं की अभिव्यक्ति सबसे कम हो सकी है,उनकी दृष्टि विशेष रूप से उनके उपर आकृष्ट हुई थी। जो लोग मूर्ख हैं, दरिद्र हैं, जो समाज में सबसे अधिक उपेक्षित और पददलित हैं, उनके प्रति स्वामी विवेकानन्द की संवेदना (compassion) सबसे अधिक थी। किन्तु इसके बावजूद, उनहोंने अपने क्रमानुयायियों (Successor, उत्तराधिकारी भावी नेताओं) के सामने एक अभूतपूर्व अनुरोध (appeal) रखा था। उन्होंने कहा था- गरीबों को प्रकाश दो। किन्तु धनी लोगों को और अधिक प्रकाश दो, क्योंकि वे लोग उनकी अपेक्षा अधिक गहरे अंधकार में गिरे हुए हैं। अशिक्षित लोगों को प्रकाश दो, किन्तु शिक्षित लोगों को और भी अधिक प्रकाश दो, क्योंकि वर्तमान समय में उच्च शिक्षा (डॉक्टरेट की डिग्री) का अहंकार बहुत अधिक बढ़ गया है। इसीलिये, जो लोग धन या विद्या के अहंकार (arrogance) में चूर हैं, वे भी कम करुणा के पात्र नहीं हैं। क्योंकि वे लोग समाज के उपेक्षित मनुष्यों (देवताओं) की सेवा करने का अवसर पा कर भी उसका सदुपयोग नहीं करते। जो लोग गरीबों के शोषण से प्राप्त धन को खर्च करके शिक्षित हुए हैं, किन्तु पढ़-लिख लेने के बाद उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं सोचते, उनको ही स्वामीजी ने देशद्रोही के रूप में चिन्हित किया था। उन्होंने कहा था कि जब तक उनके देश का एक कुत्ता भी भूखा है, उसको रोटी देना ही मेरा धर्म है। 
इसीलिये आज यदि हम उनका अनुसरण करना चाहते हों, तो हमलोगों के लिये इस बात को ठीक तरीके से समझ लेना आवश्यक है कि स्वामी विवेकानन्द (नवनी दा) अपने सक्सेसर्स (उत्तराधिकारियों) से क्या चाहते थे ? जब उनको पहली बार देखा, तो वे कैसे लगे -(नवनी दा या स्वामीजी को देखा तो ऐसा लगा जैसे शायर का ख्वाब, जैसे मन्दिर में हो एक जलता दिया, हो!) या देखने से- वे हमें कैसे लगते हैं, उसी को लेकर बैठे रहना भावुकता का लक्ष्ण है। 
विवेकानन्द के प्रभावशाली मुखमण्डल या गेरुआ वस्त्र (या नवनी दा की पेनीट्रेटिंग दृष्टि) को देखकर, विवेक-रहित तरीके से अभिभूत न होकर, हमें यह उपलब्धी करनी होगी कि उनका गेरुआ वस्त्र (और नवनी दा के चश्मा के भीतर से भेदनकारी दृष्टि) उनके अनन्त-जीवन के संग्राम का प्रतिक है। उनको स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हमलोग उनके मौलिक भाव (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है)- को समझने की चेष्टा करें तथा स्वयं,भले ही वह कितने ही छोटे पैमाने पर क्यों न हो-  उस मौलिक भाव का अनुसरण भी करें। 
 हमलोगों ने सामाजिक दृष्टि से -व्यापक रूप में यह समाज क्या है, या प्रत्येक मनुष्य वास्तव में क्या है ; इस दृष्टि से हमने उनके मौलिक भाव को (नवनी दा के ब्रेन्चाइल्ड -अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल कोसमझने की चेष्टा ही नहीं की है। उनका अनुसरण करना तो अभी भी बड़े दूर की बात है।
 इसलिये आज स्वामीजी की १५० वीं जयन्ती  '१२ जनवरी ' के अवसर पर (और नवनी दा के आगामी ८५ वीं जयन्ती १५ अगस्त २०१७ मनाते हुए) उनको स्मरण करते समय, इन बातों को हमें भूलना नहीं चाहिये। 
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[अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक, सचिव और बाद में अध्यक्ष श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (हमलोगों के नवनी दा) ने २६ सितंबर २०१६ को कोन्नगर स्थित महामण्डल भवन में अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया, और श्रीरामकृष्ण लोक चले गये। उनका  जन्म १५ अगस्त १९३१ को श्री रामकृष्ण परमहंस के पार्षद महिमाचरण चक्रवर्ती के काशीपुर स्थित निवासस्थान में हुआ था। महिमाचरण चक्रवर्ती की पुत्री तुषारवासिनी देवी के साथ नवनी दा के पितामह शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय का विवाह हुआ था, और उन्हीं की सन्तान थे नवनीहरन के पिता डॉ. इन्दीवर मुखोपाध्याय। नवनी दा की पूजनीया माता जी का नाम था, उषारानी देवी। नवनीहरन मुखोपाध्याय के पितामह शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय तथा उनके अग्रज यतीषचन्द्र मुखोपाध्याय दोनों प्रेसिडेंसी कॉलेज के मेधावी छात्र थे, तथा श्रीरामकृष्ण के पार्षद नाटककार महाकवि गिरीशचन्द्र घोष के अंतरंग मित्र थे। नवनी दा की संक्षिप्त जीवनी बंगला और अंग्रेजी में महामण्डल द्वारा प्रकाशित हुई है, अगले अंक में उसका हिन्दी अनुवाद देने की चेष्टा करूँगा। ....... तब तक 
'Inter State Be and Make ' ग्रूप से जुड़े सभी भाइयों के लिये एक निवेदन :स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ' नामक महामण्डल पुस्तक में 'स्वामी विवेकानन्द -व्यक्ति और मन', के अन्तर्गत ९ निबन्धों को रखा गया है। पूज्य नवनी दा के शरीर त्याग देने के बाद यदि हम इस शीर्षक को ऐसे पढ़ें - 'श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय और हमारी सम्भावना ' तथा प्रथम विचार बिन्दु -'को ऐसे पढ़ें -'श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय-व्यक्ति और मन '। और उनके शरीर त्याग के बाद जो 'स्मरण सभा', उनकी जीवनी और वीडियो प्रकाशन आदि तो प्रकाशित हुए हैं; उसी क्रम में इस लेख का शीर्षक - 'नवनी दा अनुसरण ही सच्चा स्मरण है !' के आलोक में इन निबन्धों को फिर से पढ़ा जाय तो महामण्डल कर्मियों को लाभ होगा -ऐसा मेरा विचार है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए, ' स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ' के सभी ७३ लेखों को फिर से अनुवादित किया जा रहा है।] 
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शनिवार, 19 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना :[1] 'विवेकानन्द अतीत के नायक थे या भावी युग के ?'

स्वामी विवेकानन्द उद्विकास (evolution) या क्रमिक विकास में विश्वास रखते थे।
जब हमारे कुछ बुद्धिजीवी (तथाकथित) लोग स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त व्याख्यानों के कुछ शब्दों का अर्थ, सामान्य  प्रचलित धारणा के अनुसार तोड़-मड़ोड़ कर व्यक्त करते हैं, तो हमलोग अक्सर उनके कथन का गलत अर्थ समझ बैठते हैं। क्योंकि,हमलोगों ने अभी तक स्वयं 'विवेकानन्द साहित्य'  को  गहराई से पढ़ने या समझने की चेष्टा  नहीं की है, इसीलिये उनको एक महान 'Religious awe' (धार्मिक खौफ) के रूप में देखते हैं, किन्तु साथ ही साथ उनके प्रति एक आदर का भाव भी रखते हैं। परन्तु,यह आदर का भाव उनको ठीक से नहीं समझ पाने के कारण, उनके प्रति अटूट श्रद्धा में परिणत नहीं हो पाता, इसीलिये युवावस्था में तो हमलोग उनका अनुसरण करने की बात भी नहीं सोच पाते हैं।

स्वामी विवेकानन्द (१८६३-१९०२)
उनके व्याख्यानों के  कुछ  (उत्तिष्ठत -जाग्रत आदि) अबूझ-शब्दों को पहली बार सुनने के कारण हमलोग उनको भी कोई आम प्राचीन दुरूह धार्मिक प्रवक्ता समझ लेते हैं। क्योंकि, आज के हमलोग- जिस समय विवेकानन्द जी आविर्भूत हुए थे, उस समय से  बहुत आगे निकल चुके हैं- आज हमलोग चन्द्रमा की धरती पर पैर रखने का गर्व करने वाले मानव बन चुके हैं। समय के साथ साथ हमलोग भी चलते  चले जा रहे हैं। हमलोग समय के साथ कदम से कदम मिला कर चलना चाहते  हैं। क्योंकि जिनके पाँव समय के साथ मिल कर चलते हैं, उनको ही आधुनिक मनुष्य कहा जाता है, नहीं तो प्राचीन युग में जीने वाला या ' पुरातन-पन्थी ' समझ लिया जाता है।  किन्तु समय के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पाने के- दो कारण हो सकते हैं। पहला जो मनुष्य समय से पीछे रह गया है, उसके कदम समय के साथ मिलेंगे ही नहीं। दूसरा - जो लोग मानवजाति के मार्गदर्शक नेता होते हैं वे भविष्य-द्रष्टा ऋषि होते हैं, इसीलिये वे सदैव अपने कदमों को समय से आगे बढ़ा कर चलते हैं ! अतएव समय के साथ-साथ चलने वाले व्यक्तियों के कदम भी नेता के कदमों से नहीं मिल पाते हैं। और यही कारण है कि स्वामी विवेकानन्द जैसे किसी युग-नायक के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले लोग बहुत कम ही होते हैं। इसीलिये उनके जैसे नेता का तो सदैव अनुसरण ही करना पड़ता है।
 प्राचीन समय में दिये गये स्वामी जी के व्याख्यानों को, कुछ लोग वर्तमान के भौतिकवादी वातावरण में अपनी बुद्धि की तराजू पर तौल कर और तर्क-वितर्क करके उतना उपयोगी नहीं मानते। किन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि - समय के साथ जिनके शब्द नहीं मिलते, वे समय से पीछे रहने वालों के शब्द भी हो सकते हैं, और समय से आगे चलने वालों के शब्द भी हो सकते हैं। स्वामीजी के शब्द समय से आगे रहने वालों में से थे। वे तो अतीत के बिल्कुल विपरीत- भविष्य के द्रष्टा थे। इसीलिये वर्तमान की निष्क्रियता और धीमी गति को देखने लिए उन्हें पीछे मुड़ कर देखना पड़ता था । वास्तव में हमलोगों के लिये उनको समझाना अपनी ही निष्क्रियता तथा धीमी गति आदि सैंकड़ो कारणों से आमतौर पर थोड़ा
कठिन प्रतीत होता है। 
जिस युग में स्वामी विवेकानन्द आविर्भूत हुए थे, उस समय पाश्चत्य से नव आयातित आधुनिकता या भौतिकवाद के कारण मूर्ति-पूजा के प्रति अविश्वास का भाव हमारे देश को प्लावित कर रहा था, और उनके समकालीन नवशिक्षित सम्प्रदाय उसी 'विश्वास-अविश्वास 'के प्लावन में डूब-उतरा रहे थे। किन्तु उन्हीं दिनों स्वामी  विवेकानन्द ने यह भी कहा था कि  ' वे इतने नौसिखुए आधुनिक भी नहीं हैं, जो ईश्वर को तड़ित (बिजली) का 'परिणाम-विशेष' के रूप में प्रमाणित करने की चेष्टा करेंगे। ' वे तो एक ऐसे नित्य-आधुनिक व्यक्ति थे- जो अपने (विवेकज ज्ञान के द्वारा)  इन्द्रधनुष के समान विस्तृत अतीत में हुए सृष्टि-के क्षण से प्रारंभ करके,वर्तमान को भी पार करके, भविष्य तक की सृष्टि को' - केवल एकबार दृष्टिपात करके ही, स्पष्ट रूप से देख पाने में समर्थ थे।
इसीलिये वे अपने युग के तथाकथित ' नव-आधुनिक ' या **छद्म उदारवादियों के जैसा इस मन्त्र का जाप करने को तैयार नहीं थे, कि समय के प्रवाह में पुराने होकर जिन सनातन मूल्यों (वर्णाश्रम धर्म आदि) को 
'पूराण' के नाम से पुकारा जाने लगे, जायें उन्हें बिल्कुल ही त्याग देना चाहिये। क्योंकि ' वहिष्कार ' (Exclusion ) जैसे शब्द का उनकी भाषा में कोई स्थान ही नहीं है। इसीलिये उन्होंने भविष्य को और भी अधिक महान रूप से गढ़ने की साधना में,  वर्तमान के 'शिशु' को, अपने गौरव-पूर्ण अतीत से प्रेरणा प्राप्त करके, अपने पैरों पर खड़े होने तथा वीरता के साथ कदम उठाते हुए आगे बढ़ने का आह्वान किया है।
उन्होंने कामनाओं का त्याग करने को कहा है। किन्तु ऐसा कह कर उन्होंने सभी मनुष्यों को कामनाहीन,

निरुत्साही, निश्चेष्ट, बनस्पति के जैसा मनुष्य बनने के लिये नहीं कहा था। कामनाओं को त्याग करने का अर्थ है- कामनाओं का दास नहीं बनना। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के धार्मिक इतिहास का तुलनात्मक अध्यन करके यह दिखलाया है कि केवल भारत में ही धर्म, अर्थ और कामना के सानुपातिक (सुसमन्वित -well  proportioned) व्यवहार करने की पम्परा थी बल्कि मोक्ष को तो सभी मनुष्यों के लिये अनिवार्य भी नहीं माना गया था। केवल हमारे ही देश में ही 'चार वर्ण' (शूद्र,वैश्य, क्षत्रीय,ब्राह्मण) में क्रमविकास की जातिप्रथा थी, जो वंशानुगत नहीं थी। 'चार पुरुषार्थ ' के द्वारा चरित्र-निर्माण करके शुद्र को भी ब्राह्मण तक उन्नत होने का समान अवसर प्राप्त था।  
स्वामी जी ने 'धर्म' को परिभाषित करते हुए, कहीं कहीं उसे 'भोग' भी कहा है।  इहलोक में भोग तथा परलोक में भोग- सुख भोग के प्रति सभी मनुष्यों में एक स्वाभाविक लालसा रहती है। आज के भारत में उस सुख-भोग की निस्सारता को समझने के लिए पहले थोड़ा सुख-भोग करने की आवश्यकता है। इसलिए वे भारतवासियों में पहले रजोगुण की वृद्धि देखना चाहते थे। इसीलिए वे कहते थे कि -पाश्चात्य के लोग हमारी अपेक्षा धर्म का अधिक व्यवहार करते हैं।  क्योंकि हमलोगों ने अभी तक उनके समान भोग-सामग्रियों का उत्पादन और उपभोग करके उनकी व्यर्थता का अनुभव करना नहीं सीखा है; इसीलिये उन्होंने यह आक्षेप हमलोगों पर लगाया है। सुख-सुविधा का भोग किये बिना, जो कुछ भाग्य से प्राप्त हो जाय उसकी अयोक्तिक बड़ाई करने को उन्होंने पाखण्ड कहते हुए उसकी निन्दा की है। भाग्य की दुहाई देते हुए,' अंगूर खट्टे हैं ' को छिपाने के लिये दरिद्रता और अभाव में ही सम्पूर्ण जीवन बिता देने को, उन्होंने सात्विकता के आवरण में छुपी हुई महान तामसिकता कहा है
स्वामी विवेकानन्द उद्विकास (evolution) या क्रमिक विकास में विश्वास रखते थे। जिस प्रकार वे मनुष्यों को पहले रजोगुण की अभिव्यक्ति करने के माध्यम से तामसिकता को दूर हटाकर, सतोगुण (सत्व-शुद्ध-चित्त में) में लीन शान्ति का आश्रय ग्रहण करने पक्षपाती थे, ठीक उसी प्रकार वे सामाजिक जीवन के क्षेत्र में भी पहले शूद्रों की एकता, वैश्यों के आदान-प्रदान, क्षात्र-वीर्य ( क्षत्रियों की वीरता और साहस) की उपलब्धी कर लेने के बाद ही  साधना के द्वारा 'ब्रह्मतेज' को प्राप्त करने के पथ पर सबों को अग्रसर करवा देने की प्रेरणा देते थे। 
दरिद्रता, अशिक्षा, अज्ञानता के घने अंधकार को भूतकाल की गहरी खाई में फेंक कर, मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (शाश्वत महानता) को उद्घाटित करा देना ही स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित कर्म-योग का रहस्य है। वे हमलोगों को केवल इतना ही याद करवा देना चाहते थे कि " कई हजार ब्रह्मा एवं इन्द्रादि देवता भी ' बुद्धत्व-प्राप्त ' नर-देवता के चरणों में शीस झुकाते हैं तथा इस बुद्धत्व-प्राप्ति पर मानव-मात्र का अधिकार है। " इस भविष्य-द्रष्टा योद्धा-सन्यासी के समक्ष आधुनिकता की राग अलापना नवजात शिशु का क्रंदन मात्र प्रतीत होता है । इसीलिये यह प्रश्न उठता है, कि स्वामीजी अतीत युग के नायक थे या भावी युग के ? 
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खेतड़ी (राजपुताना) के महाराज 'राजा अजीत बहादुर सिंह ' द्वारा लिखित ४ मार्च १८९५ के पत्र के जवाब में स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं -- " भारतवर्ष के प्राचीन ऋषिगण इतने दूरदर्शी थे कि उनके द्वारा निर्मित सामाजिक विधानों में प्रत्येक युग के अनुसार स्वमेव परिवर्तन होता रहता है, इसीलिये विश्व को उसके वर्णाश्रम धर्म आदि की बहुमूल्यता और गहराई को समझने में अब भी सदियों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। किन्तु, उनके वंशधरों द्वारा भी इस महान उद्देश्य (वर्णाश्रम धर्म) को पूर्ण रूप से ग्रहण करने की अक्षमता ही भारत की अवनति का एकमात्र कारण है।
 प्राचीन भारत सदियों तक ब्राह्मण और क्षत्रिय अपनी इन दो प्रमुख जातियों (classes) की महत्वाकांक्षा और स्वार्थ की पूर्ति के लिये एक युद्ध-क्षेत्र बना रहा था। निर्धन और अशिक्षित जनता पर प्रभुत्व स्थापित करने की महत्वाकांक्षा इन दोनों जातियों में वर्तमान थी। किन्तु अंत में ज्ञान की जीत हुई; कर्मकाण्ड को नीचा देखना पड़ा। यह वही क्रांति थी जिसे हम बौद्ध-सुधारवाद के नाम से जानते हैं। प्राचीन भारत ने जिन दो सर्वश्रेष्ठ पुरुषों को जन्म दिया था, वे दोनों ही क्षत्रिय हैं -वे थे कृष्ण और बुद्ध। और इन दोनों ही देव-मानवों ने लिंग और जाति-भेद को न मानकर (irrespective of birth or sex.) सबके लिए ज्ञान का द्वार उन्मुक्त कर दिया था।
खेतड़ी के इस राजा ने नरेंद्र को दिया था विवेकानंद नाम
खेतड़ी के महाराज 'राजा अजीत बहादुर सिंह ' (१८६१-१९०१)     

क्षत्रियगण सदा से ही भारत के मेरुदण्ड रहे हैं, अतएव वे ही विज्ञान और स्वतन्त्रता के सनातन रक्षक हैं। देश से अन्धविश्वासों को हटा देने और पुरोहितों के अत्याचार से जनता की रक्षा के लिए वे स्वयं एक अभेद्द्य दीवार की भाँति खड़े रहे हैं। किन्तु जब उनमें से अधिकांश स्वयं घोर अज्ञानता में निमग्न हो गए,....... भारत-भूमि एकदम नीचे डूब गयी, --और इससे इसका उद्धार उस समय तक नहीं होगा, जब तक कि क्षत्रियगण स्वयं न जागेंगे तथा अपने को मुक्त कर शेष जाति के पैरों से जंजीरों को न खोल देंगे।
पुरोहित-प्रपंच (ठग-वैद्य बाबाओं की शैतानियाँ ) ही भारत की अधोगति का मूल कारण है। मनुष्य यदि दूसरे मनुष्य का - अपने भाई का शोषण करें, तो क्या वह स्वयं शोषित होने से बच सकता है ? हे राजन, स्मरण रखिये, आपके पूर्वजों द्वारा आविष्कृत सत्यों में सर्वश्रेष्ठ सत्य है - इस ब्रह्माण्ड का एकत्व। जब प्रत्येक आत्मा ब्रह्म है- तो क्या कोई व्यक्ति स्वयं का किसी प्रकार अनिष्ट किये बिना दूसरों को हानि पहुँचा सकता है?  ब्राह्मण और क्षत्रियों के ये ही अत्याचार चक्रवृद्धि ब्याज के सहित अब स्वयं उनके सिर पर पतित हुए हैं, एवं यह हजार वर्षों की पराधीनता और अवनति निश्चय ही उन्हीं के कर्मों के अनिवार्य फल का भोग है।" 
भारतवर्ष में प्रचलित सनातन धर्म " बार बार यह भारतभूमि मूर्च्छापन्न अर्थात धर्मलुप्त हुई है, और बारम्बार भारत के भगवान ने अपने आविर्भाव द्वारा इसे पुनरुज्जीवित किया है।"को स्वामी विवेकानन्द 'डाइनैमिक रिलिजन' या गत्यात्मक धर्म कहते थे। इसे स्पष्ट करने के लिये उन्होंने कहा है -   क्योंकि जब भारत के भगवान श्रीकृष्ण के रूप में आये थे, तब उन्होंने स्वयं हमें आश्वस्त करते हुए कहा था - 
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।

' जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब तब मैं पुनः धर्म की संस्थापना के लिये अवतीर्ण होता हूँ!' (ह्वेनेवर वर्चू सब्साइड्स एंड विकेडनेस्स राइजेज इट्स हेड, आइ मैनिफ़ेस्ट माइसेल्फ टु रिस्टोर दी ग्लोरी ऑफ़ रिलिजन !)
" - हे राजन, गीता का यही वाक्य इस विश्व-ब्रह्माण्ड में आध्यात्मिक ऊर्जा-प्रवाह के उत्थान और पतन के सनातन नियमों ('डाइनैमिक रिलिजन') का मूल-मंत्र है । 
भारत की जीवनी शक्ति इसी सनातन गत्यात्मक धर्म में निहित है। और जब तक हिन्दू जाति अपने पूर्वजों से प्राप्त उत्तराधिकार को नहीं भूलेगी, तब तक संसार में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं जो उसका ध्वंश कर सके। आपके एक पूर्वज ने, जिन्हें लोग ईश्वर का अवतार समझते हैं, गीता ५.१९ में कहा था-" इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। "  - जिनका मन समत्वभाव (sameness) में स्थित है उन्होंने इसी जीवन में सर्ग (सापेक्षिक सत्य या जन्मादिरूप संसार) को जीत लिया है! ईवन इन दिस लाइफ, दे हैव कोन्कर्ड रिलेटिविटी, हूज माइंड इज फिक्स्ड इन सैमनेसजब तक कोई मनुष्य इस साम्य-ज्ञान को प्राप्त नहीं करता वह कभी मुक्त नहीं हो सकता।
इग्नोरेंस (अविद्या), भेदबुद्धि एवं वासना (सापेक्ष सत्य को निरपेक्ष सत्य समझना) ये तीनों ही मानवजाति के दुःख के कारण हैं, और उनमें एक के साथ दूसरे का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। किसी को क्या अधिकार है कि वह स्वयं को अन्य मनुष्यों की अपेक्षा, यहाँ तक कि पशु से भी श्रेष्ठ समझे ? वास्तव में तो सर्वत्र एक ही वस्तु विराजमान है। -श्वे० उपनिषद (४- ३)  में  स्त्री को तो ब्रह्म का रूप ही स्वीकार किया गया है और महाशक्ति का स्तवन करते हुए कहा गया है : 
 त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी। 
त्वं जीर्णो दण्डेन वचसि त्वं जातो भवति विश्वतोमुखः॥  
 "- हे माँ महामाया ! तुम स्त्री हो, तुम पुरुष हो, तुम कुमार हो एवं तुम्हीं कुमारी हो ! तुम वृद्ध होकर लाठी के सहारे चलती हो, और तू ही उत्पन्न होकर सब ओर मुख वाली (ब्रम्हा जी) हो जाती हो !"
बहुत से लोग ऐसा सोच सकते हैं,कि हम सब तो गृहस्थ हैं, 'इस प्रकार सोचना तो केवल सन्यासी को ही शोभा देता है ? पर मेरे तो  स्त्री और बच्चे हैं ?
 यह बात ठीक है कि गृहस्थ को स्त्री-पुत्र, घर-परिवार के प्रति अनेक कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है, और वह इस साम्य-भाव में सर्वत्यागी संन्यासियों के जितना स्थित नहीं रह सकता। किन्तु, इस सबके बावजूद गृहस्थ लोगों का आदर्श भी यही होना उचित है। क्योंकि इस समत्व-भाव को प्राप्त करना मानव-मात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। पर अफ़सोस ! ('ययाति' टाइप ) लोग समझते हैं कि वैषम्य (M/F)-भोग ही समता की प्राप्ति का मार्ग है । मानो अन्याय करते करते वे न्याय के रास्ते पर आ पहुँचेंगे! परन्तु यह वैषम्य-देखना ही दैहिक, दैविक,आध्यात्मिक सर्वविध बन्धनों का मूल है।
किन्तु आजकल के तथाकथित आधुनिक (सेक्यूलर) बुद्धिजीवी लोग भारत के गौरवशाली प्राचीन सनातन मूल्यों -वर्णाश्रम धर्म के ऊपर गर्व करने वाले देशवासियों की निन्दा ही किया करते हैं।  किन्तु मेरी तो यह धारणा है कि, जब तक ब्राह्मण-क्षत्रिय या वैश्य और शूद्र आदि जातियाँ अपने गौरवशाली अतीत को भूले हुए थीं, तब तक वे संज्ञाहीन अवस्था में पड़ी रहीं, और अतीत की ओर दृष्टि जाते ही चारों ओर पुनर्जीवन के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। भविष्य को इसी अतीत के साँचे में ढालना होगा, अतीत ही भविष्य हो जायेगा।"  
आप राजपूत लोग ही प्राचीन भारत के गौरवस्वरूप रहे हैं । आप लोगों की अवनति के साथ ही जातीय अवनति आरम्भ हो गयी; और भारत का उत्थान केवल तभी हो सकता है, जब क्षत्रियों के वंशज ब्राह्मणों के वंशजों के साथ समवेत प्रयत्न में कटिबद्ध होंगे, लूटे हुए वैभव और शक्ति का बटवारा करने के लिये नहीं, वरन 'टू एनलाइटेन दी इग्नोरेन्ट'- (देहाध्यास में फंसे लोगों को डी हिप्नोटाइज्ड करने के लिये) , एवं अपने पूर्वज ऋषि-मुनियों की पवित्र निवास भूमि की खोई हुई महिमा को पुनः-प्रतिष्ठित करने के लिये। कौन कह सकता है कि यह शुभ मुहूर्त नहीं है ? फिर से कालचक्र घूमकर आ रहा है, एक बार फिर भारत से वही शक्ति-प्रवाह निःसृत हो रहा है,जो शीघ्र ही समस्त जगत को प्लावित कर देगा ! [प्लैटिनम जुबली ऑफ़ रामकृष्ण मिशन और गोल्डन जुबली ऑफ़ युवा महामण्डल एक साथ बेलुड़ मठ में आयोजित हो रहा है।] 
हे मेरे प्रिय राजन, आप उसी जाति के वंशधर हैं, जो सनातन धर्म का जीवन्त आधार-स्तम्भ स्वरूप है एवं जो सनातन धर्म के शपथ-बद्ध रक्षक और सहायक है; आप राम और कृष्ण के वंशधर हैं, क्या आप इस शक्ति-प्रवाह से बाहर रहेंगे ?  
मैं जानता हूँ, यह कभी नहीं हो सकता। यह मेरी दृढ़ धारणा है कि आपका हाथ ही सर्वप्रथम फिर से धर्म की सहायता के लिये आगे बढ़ेगा। और जब भी, हे राजा अजीत सिंह, मैं आपके बारे में सोचता हूँ, तब यह देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है कि आप में आपकी वंशगत सर्वपरिचित वैज्ञानिक योग्यता के साथ ही साथ सब मानवों के प्रति असीम प्रेमयुक्त ऐसे पवित्र चरित्र का सम्मिलन हुआ है, जिससे एक साधु भी गौरवान्वित हो सकता है! और जब ऐसे व्यक्ति ही सनातन धर्म के पुनर्गठन ( या 'बनो और बनाओ आंदोलन' का नेतृत्व करने) के इच्छुक हैं, तब मैं उसके महा गौरवशाली पुनर्निर्माण में विश्वास रखे बिना नहीं रह सकता।" [९/३५३-५८]   
" दक्षिण भारत के सारे मनुष्य आर्यों के सिवा और कोई नहीं हैं, द्रविड़ भाषा को बोलते बोलते वे भी संस्कृत भूल गए हैं, जैसे आज उत्तर भारतीय हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाओँ को बोलते बोलते संस्कृत भूलते जा रहे हैं। संस्कृत में पाण्डित्य होने से ही भारत में सम्मान मिलता है। संस्कृत भाषा का ज्ञान होने से ही कोई भी तुम्हारे विरुद्ध कुछ कहने का साहस नहीं करेगा। यही एकमात्र रहस्य है, अतः इसे जान लो और संस्कृत पढ़ो !"   "यदि तुम 'आर्य' और 'द्राविड़' , 'ब्राह्मण' और 'अब्राह्मण' जैसे तुच्छ विषयों को लेकर 'तू तू मैं मैं ' करोगे -झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढ़ाओगे -तो समझ लो कि तुम उस शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है ! 'इच्छाशक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही वह सारा रहस्य है। इसीलिये ये सब मतभेद के झगड़े बन्द हो जाने चाहिये। "            " ब्राह्मणों को जो इतना सम्मान और विशेषाधिकार दिए जाते हैं, इसका कारण यह है कि उनके पास धर्म का भण्डार है। अतः यह ब्राह्मण जाति का कर्तव्य है कि भारत की दूसरी सब जातियों के उद्धार की चेष्टा करें। यदि वे वैसा करती हैं, और जब तक वैसा करतीं हैं, तभी तक वह ब्राह्मण है, अगर वह धन के चक्कर में पड़ी रहती है तो वह ब्राह्मण नहीं है। "
"भविष्य में जो सत्ययुग आ रहा है, उसमें ब्राह्मणेत्तर सभी जातियाँ फिर ब्राह्मण रूप में परिणत हो जाएँगी! यह वही प्राचीन भूमि भारत है जहाँ से उमड़ती हुई बाढ़ की तरह धर्म तथा दार्शनिक तत्वों ने समग्र संसार को बार बार प्लावित कर दिया और यही भूमि है, जहाँ से पुनः ऐसी ही तरंग उठकर निस्तेज जातियों में शक्ति और जीवन का संचार कर देंगी। "
किन्तु स्वामी विवेकानन्द के निर्देशानुसार "निःस्वार्थ नर-नारियों का निर्माण' करेगा कौन ? ब्राह्मणेत्तर सभी जातियों को चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण देकर, ब्राह्मण (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) बनने और बनाने का कार्य करेगा कौन ? - इसी को कहते हैं ऐतिहासिक अनिवार्यता। जिस समय धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है, इसी प्रकार के एक आविर्भाव की आवश्यकता होती है। जिस समय धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है, अधर्म का सिर ऊँचा उठ जाता है, उस समय धर्म को पुनः स्थापित करने के लिये ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य से सम्पन्न,कुछ नेताओं का निर्माण करने में समर्थ - एक महान आविर्भाव अनिवार्यता बन जाती है।
 वह चाहे अवतार के द्वारा हो या जैसे भी हो, एक विशिष्ट भाव मूर्तमान होता अवश्य है! आधुनिक युग में श्री रामकृष्ण के भीतर वही भाव मूर्तमान हुआ है। 
स्वामीजी कहते हैं -" तुम (आधुनिक युग के भगवान) श्री रामकृष्ण को समझ सके, यह जानकर मुझे बड़ा हर्ष है ! कारण, तुम्हें मनुष्य जाति का श्रेष्ठ मार्गदर्शक नेता (शिक्षक) होना है। समय आने पर तुम्हें वह अधिकार प्राप्त हो जायेगा, जब तुम संसार में चारों ओर उनके पवित्र नाम का प्रचार करोगे। पहले कर्म और ठाकुर की भक्ति के द्वारा अपने को पवित्र करो। श्रीरामकृष्ण के पदप्रान्त में बैठने पर ही भारत का उत्थान हो सकता है। उनकी जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा, हिन्दू समाज के अंग में - रोम रोम में उन्हें भरना होगा। यह कौन करेगा ? हू आर टु टेक अप दी फ्लैग ऑफ़ श्री रामाकृष्णा एंड मार्च फॉर दी साल्वेशन ऑफ़ दी वर्ल्ड? श्री रामकृष्ण की पताका हाथ में लेकर संसार की मुक्ति के लिये विचरण करने वाला है कोई? अपने नाम-यश, कामिनी-कांचन भोगों में आसक्ति, यहाँ तक कि इहलोक और परलोक की सारी आशाओं का त्याग करके भी अधः-पतन के ज्वार को रोकने वाला है कोई ?"
महामण्डल की दृष्टि में श्री रामकृष्ण ही आधुनिक युग के प्रथम युवा नेता हैं, जननेता हैं,  मानवप्रेमी हैं -जो मानवमात्र को हृदय से प्रेम करते हैं। सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करते हैं। उनके जीवन में पूर्ण साम्य प्रतिष्ठित हुआ है। उन्होंने समस्त मानव जाति, समस्त जीवों तथा यहाँ तक कि जड़ वस्तुओं के साथ भी अभिन्नता का साक्षात्कार किया है। उनके जीवन में जो पूर्ण एकात्म-बोध या पूर्ण साम्य  राजनैतिक दलों के मंच पर खड़े होकर साम्यवाद पर भाषण दिये जाने वाला साम्य नहीं है, अपितु उन्होंने इसे अपने आचरण में उतारकर दिखा दिया है। उन्होंने इन्हीं जनसाधारण शोषितों -पीड़ितों के दारुण दुःख से द्रवित होकर, साधारण जनता की मुक्ति के लिये प्रयत्न किया है, उन को मुक्त करने के लिये ही भावी युवा नेताओं को संगठित करने की चेष्टा की है। श्रीरामकृष्ण अब भी युवाओं को संगठित करने की चेष्टा कर रहे हैं, सभी लोगों को अनुप्रेरित कर रहे हैं, किन्तु युवाओं को अधिक संख्या में आकर्षित कर रहे हैं। 
स्वामी जी ने अपने जीवन के उद्देश्य को अनेक स्थानों पर भिन्न भिन्न तरह से निरुपित किया है। एक स्थान पर वे कहते हैं -" मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है, मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना। और अपने में ब्रह्म भाव को अभिव्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरों की सहायता करना। तुम लोग इस काम में मेरे सहायक बनो। युवाओं को संगठित करना ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।'  किन्तु उन युवा-दलों को संगठित करने का प्रयास स्वयं करने के बाद भी वे मुट्ठीभर युवाओं को ही श्री रामकृष्ण देव के झण्डे तले एकत्रित कर सके थे।  
किन्तु उसी समय उन्होंने भविष्यवाणी करते हुए (३० नवम्बर,१८९४ को डॉ.नंजुन्दा राव को लिखित पत्र में कहा था- " बहुत थोड़े से युवा इस देहाध्यास से सम्बन्ध-विच्छेद करके साम्यभाव में स्थित मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलन में कूद पड़े हैं, उन्होंने अपने मिथ्या अहं का त्याग कर दिया है। परन्तु इनकी संख्या बहुत कम है, हम चाहते हैं कि ऐसे ही युवा कई हजार हो जायें, ऐंड दे विल कम !"  यही जो 'They will come" की भविष्यवाणी है- वैसे युवा कहाँ से आयेंगे? ऐसे युवाओं का एक जत्था रामकृष्ण मिशन के माध्यम से भी संगठित हो सकता है, किन्तु जो युवा रामकृष्ण मिशन में अपना योगदान देंगे, उनके जीवन का लक्ष्य, व्रत और आदर्श होगा,'आत्मनो मोक्षार्थम् जगद्हिताय च।' किन्तु कितने युवा ऐसे हैं, जो अभी से मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं ? और इसी कारण वैसे अधिकांश युवा जिन्हें स्वामीजी श्रीरामकृष्ण देव के झण्डे तले एकत्रित करना चाहते थे, वे तो इस रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा के बाहर ही छूट जायेंगे।
क्या स्वामी जी ने वेदान्त की अमोघ वाणी -'उठो ! जागो ! और जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये विश्राम मत लो' - सुनाकर सभी मनुष्यों को मोहनिद्रा से जग्रत करने की जिम्मेवारी भारत के युवाओं पर नहीं सौंपी है ? भारत के जुड़वां राष्ट्रीय आदर्श -'त्याग और सेवा' तथा उसका प्रतीकात्मक चिन्ह है- सिस्टर निवेदिता द्वारा निर्मित 'वज्रांकित-पताका', जिसे महामण्डल ने अपने ध्वज के रूप में ग्रहण किया है। उसी पताका के नीचे सभी जाति और धर्म के युवा, एक साथ संगठित और सम्मिलित होकर - अपनी अन्तर्निहित दिव्यता  प्रति स्वयं जाग्रत होंगे और सबों को जाग्रत करने का प्रयास करेंगे - यह प्रयास करते जाना ही महामण्डल का कार्यक्रम है ! 
स्वामी जी द्वारा सौंपे गए इसी कार्य को सर्वव्यापी बना देना ही महामण्डल आंदोलन का लक्ष्य है। क्योंकि जब तक देश में चरित्रवान, सत्य-निष्ठ और निःस्वार्थी मनुष्यों का अभाव रहेगा, तब तक कोई भी परिकल्पना यथार्थ रूप में सफल नहीं हो सकेगी। इसलिये एक सार्थक मनुष्य-निर्माणकारी आंदोलन को संचालित करना ही महामण्डल का कार्य है। ऐसे युवा-आंदोलन को प्रचण्ड वेग से देश के कोने कोने में फैला देने में समर्थ समस्त सारे उद्धरण स्वामी विवेकानन्द के जीवन और संदेशों में यथेष्ट रूप से विद्यमान हैं।  इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ही महामण्डल के आदर्श हैं, उन्हीं को अपना नेता मानकर हम इस आंदोलन को सम्पूर्ण भारत के कोने-कोने तक पहुँचा देंगे। 
किसी बड़े संघ या संगठन के द्वारा इस कार्य को सर्वत्र छोटे-छोटे ग्रामों, कस्बों और शहरों तक पहुँचा देना सम्भव नहीं है। इसीलिये महामण्डल छोटे-छोटे केन्द्रों को स्थापित करते हुए, सर्वत्र फ़ैल जाना चाहता है। इस महान कार्य को करने में हमारी भूमिका उसी छोटी सी गिलहरी के समान है, जो श्री रामचन्द्र द्वारा सेतुबंधन करते समय, अपनी छोटी सी अंजलि में बालू भर भर कर राम-सेतु के ऊपर डालती रहती थी। समान भाव रखने वाली अन्य प्रकार की बड़ी बड़ी संस्थाओं में परस्पर के बीच भावनात्मक बंधन का अभाव होता है, किन्तु महामण्डल के सभी केन्द्रों के बीच परस्पर प्रेमपूर्ण-भ्रातृत्व का एक आत्मीय बंधन रहता है, जिसके फलस्वरूप सिद्धान्त और व्यवहार के बीच समन्वय स्थापित करने का विशेष सुयोग मिलता है। जहाँ अन्य संस्थाएं विशेष रूप से युवाओं के लिये ही गठित नहीं हुई हैं, वहीं महामण्डल विशुद्ध रूप से युवाओं की ही संस्था है, जो स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा को, युवाओं की ही भाषा में उनके लिए बोधगम्य बनाकर उनके समक्ष प्रस्तुत करता है। उन्हें जीवन-गठन, मनःसंयोग, चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया आदि को इस प्रकार कही जाती हैं, जिससे उन्हें समझने में कोई कठिनाई न हो। बल्कि स्वामी जी के '3H'-विकास से सम्बंधित सारे उपदेश इतनी सरल भाषा में समझाया जाता है, कि वे उन्हें अपने दैनन्दिन जीवन में अंगीकार्य करने योग्य प्रतीत होती हैं। 
इस दृष्टि से विचार किया जाय, और एक बार इसके द्वारा आयोजित छः दिवसीय 'ऐनुअल आल इंडिया यूथ ट्रेनिंग कैम्प' में स्वयं भाग लिया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा में-लीडरशिप ट्रेनिंग' द्वारा राष्ट्र के कल्याण के लिए यथार्थ देश-प्रेमी और मानवजाति का मार्गदर्शक नेता (या लोक-शिक्षक) बनने और बनाने के कार्य को एक आंदोलन का रूप देने में, बहुत अल्प ही सही किन्तु महामण्डल की भी एक भूमिका अवश्य है। इस ओस की बूँदों जैसे अदृष्ट भूमिका द्वारा प्राप्त बीज की परिणीति जब एक दिन विराट वृक्ष के रूप में दिखाई देगी, तब निश्चित रूप से महामण्डल सभी देशवासियों का आशीर्वाद प्राप्त कर सकेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है ! 
" Let the lion of Vedanta roar; the foxes will fly to their holes. " 

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -"धीरे धीरे पाश्चात्यवासी भी यह अनुभव करने लगे हैं कि उन्हें राष्ट्र (या संयुक्त परिवार) के रूप् में बने रहने के लिएआध्यात्मिकता की आवश्यकता है। वे इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं; चाव से इसकी बाट जोह रहे हैं। उसकी पूर्ति कहाँ से होगी? वे मनुष्य कहाँ हैं, जो भारतीय महर्षियो   का उपदेश जगत् के सब देशो (पहले भारत के सभी राज्यों) में पहुँचाने के लिए तैयार हों? कहाँ हैं वे लोग, जो इसलिए सब कुछ छोड़ने को तैयार हों कि ये कल्याणकर उपदेश संसार के कोने कोने तक फैल जायँ? सत्य के प्रचार के लिए ऐसे ही वीर लोगों की आवश्यकता है। वेदान्त के महासत्यों को फैलाने के लिए ऐसे वीर कर्मियों को बाहर जाना चाहिए। उठो भारत, तुम अपनी आध्यात्मिकता द्वारा जगत् पर विजय प्राप्त करो। "
[  भारतवर्ष के चार दिशाओं के लिये, चार वेदान्त-केसरी नेताओं (बुद्ध) का निर्माण करो !  कोई भी धर्म हिन्दू, मुसलमान या किसी भी जाति में जन्मे उन युवा सिंहों के जीवन का गठन इस प्रकार हो कि वे - 'ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य' से सम्पन्न मनुष्य हों ! अर्थात स्वयं भ्रममुक्त हो जाने के बाद, वेदान्त-केसरी बनकर 'भेंड़त्व' से मुक्ति दिलाने वाला मन्त्र -'बी ऐंड मेक' का प्रचार सिंह-विक्रम की दहाड़ के साथ करें -म्याऊँ- म्याउँ; करके नहीं !    भारत के चार दिशाओं में चार वेदान्त-केसरी को दहाड़ने दो,  जिनका जीवन  ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य से सम्पन्न मानव जाति के भावी मार्गदर्शक नेता (बुद्ध के रूप में) गठित हुआ है; सारे सियार (ढोंगी परमानन्द जैसे ठग-वैद्य) अपने अपने बिलों में छिप जायेंगे!]
   " मेरी आशा, मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। मान हो या अपमान, मैंने तो इन नवयुवकों का संगठन करने के लिये जन्म लिया है। यहीं क्या प्रत्येक नगर में सैकड़ो मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार हैं। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा। वे सिंह-विक्रम से देश की यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्या का समाधान करेंगे। वे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र का विस्तार करेंगे -और इस प्रकार हम धीरे धीरे समग्र भारत में फ़ैल जायेंगे।"  

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 ' नव-आधुनिक ' या **छद्म उदारवादी' 
डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के बाद छद्म-उदारवादी मिडिया और भारत इन्टोलरेंट हो गया है पर बहस करने तथाकथित बुद्धि-जीवियों में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में जोड़े गये नये शब्द -'पोस्ट ट्रूथ' अर्थात 'उत्तर सत्य ' को लेकर बहस चल रहा है। महाभारत में युधिष्ठिर ने 'अर्ध-सत्य' कहा था, 'अश्वस्थामा हतो -नरो वा..' विगत ७० वर्षों से कुछ छद्म उदारवादी मिडिया और राजनीतिज्ञों ने मार्क्स और मैकाले की आधुनिक सोंच का सहारा लेकर भारत के गौरवशाली अतीत पर कीचड़ उछालने का काम किया है, और भ्रष्टाचार से देश लूटने में लगे रहे हैं। 
पश्चमी देशों का नकल करके राष्ट्र और समाज से अधिक महत्व व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता को दिया जाने लगा था। राष्ट्रगान के समय अपने निजी धर्म का हवाला देकर कोई खड़ा न होना चाहे तो उसे पूरी छूट थी। व्यक्ति अपने जाति और धर्म के आधार पर स्वयं को राष्ट्र और समाज से -उसके संविधान से भी अपने को बड़ा मानने लगा था। 
महान भारत बनाना है, तो क्या करना चाहिए ? दो प्रकार की सोंच दिखाई देती है - १.सच्चे मार्गदर्शक नेता की सोंच है - 'व्यक्ति का निर्माण करें, वही राष्ट्र का निर्माण करेगा ! चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करें, वे स्वयं एक महान राष्ट्र का निर्माण कर लेंगे!' २. दूसरा राजनीतिज्ञ नेता की सोंच जो हमेशा गाड़ी को घोड़े के आगे रखते हैं - "महान राष्ट्र का निर्माण करें, व्यक्ति स्वयं उसमें शामिल हो जायेगा! "   
   







शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

🔆🙏 शिक्षा ही समाधान 🔆🙏[ (SVHS-4.4 )] 🔆🙏 युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के आदर्श (इष्ट देव ) रामलला की प्राणप्रतिष्ठा 22 जनवरी 2024 [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ] शिक्षा : समस्त रोगों का रामबाण ईलाज है "


[ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ]

(SVHS-4.4) 
 
🔆🙏शिक्षा ही समाधान 🔆🙏 

(1) 

🔆  👉 शिक्षा (शैक्षणिक -धर्म) किसे कहते हैं ?  👈 🔆

[What is education?]

শিক্ষা কি ? 

       श्री रामकृष्ण देव के इस उपदेश - "जावत बाँची तावत सीखी", अर्थात अन्तिम समय तक सीखने की चेष्टा करते रहो -  को हमें सदैव याद रखना चाहिये। शिक्षा क्या है ? [ भगवान श्रीराम या युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द में विद्यमान ?]  कुछ उच्च जीवन मूल्यों को अपने चारित्रिक गुणों में ढाल लेना ही शिक्षा है। हमारे भीतर जो पूर्णत्व पहले से अन्तर्निहित है , उसे अभिव्यक्त कर लेने नाम ही है -शिक्षा। हमलोगों ने स्वामी विवेकानन्द से सुना है , " शिक्षा उस संयम का नाम है जिसके द्वारा हमलोग इच्छाशक्ति के विकास और प्रवाह  को संयमित और एकमुखी बनाकर, इस प्रकार अभिव्यक्त कर सकें ताकि वह मनोवांछित परिणाम देने में समर्थ हो। अर्थात इच्छाशक्ति को नियंत्रित करने की पद्धति को सीख लेने का नाम ही शिक्षा है।
      शिक्षा का अर्थ है -सुन्दर चरित्र का अधिकारी मनुष्य बन जाना। विवेकानन्द ने कहा था  " हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो, और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे।" अर्थात हमलोग सच्चा मनुष्य बन कर, अपने मनुष्योचित कर्तव्यबोध के सम्बन्ध में जागरूक हो सकें और अपने -अपने कर्तव्यों का पालन समुचित ढंग से कर सकें। इस प्रकार अपने परिवार , समाज और देश के कल्याण एक सुयोग्य 
माननीय मनुष्य बन जाना ही शिक्षा है।  विवेकानन्द कहते थे  " शिक्षा का अर्थ यह नहीं है कि कुछ तथ्यों तथा कुछ सिद्धान्तों को रटकर किसी प्रकार अपने दिमाग में भर लेना , जिन्हें हम पचा भी नहीं सकें और जो आजीवन वहीँ जमा रहकर दिमाग में उपद्रव मचाते रहे। केवल विवेकानन्द ने कहा है , इसीलिए नहीं - यदि उपरोक्त सभी बातों पर  हमलोग स्वयं भी शान्तचित्त होकर विचार करें तो हमलोग भी इन बातों को समझ सकते हैं। क्या शिक्षा का अर्थ केवल स्कूल- कॉलेज में जाना भर है ? क्या वास्तव में इसको शिक्षा कहा जा सकता है? शिक्षा का अर्थ क्या विभिन्न विषयों के कुछ सिद्धान्तों को रट लेना है। कुछ फॉर्मूला और सूचनाओं को रटकर याद कर लिया और परीक्षा -हॉल में बैठकर उत्तर पुस्तिकाओं में उन सब को लिख दिया क्या इसको शिक्षा कह सकते हैं ?   इस प्रकार हम कुछ डिग्री, सर्टिफिकेट्स प्राप्त कर लेते हैं;  उन सर्टफिकेट्स के कुछ बाजार मूल्य हैं। इन्हें बाजार में दिखाकर नौकरी पाई जा सकती है,  या उन्हें भुना कर कुछ और किया जा सकता है। किन्तु  इसको तो शिक्षा नहीं कह सकते। जैसा पहले बताया गया- शिक्षा का अर्थ है , जिसके द्वारा हमलोग अपनी आन्तरिक शक्ति को उपयुक्त तरीके से अपने प्रयोजनीय कार्य में लगा सकते हैं। मेरी शिक्षा ढंग से हुई है या नहीं ; इस बात को हमलोग कैसे समझेंगे ? इसकी कसौटी यह है कि उससे हमलोगों का जीवन सार्थक हो जायेगा, अपना जीवन ईश्वर का वरदान प्रतीत होगा।हमलोगों का जीवन सुन्दर होगा, प्रेम-पूर्ण  होगा, किसी को असहनीय नहीं लगेगा। 
          अभी तो हमलोग शिक्षापद्धति को लेकर ही विभिन्न प्रकार के प्रयोगों के दौर से गुजर रहे हैं, और स्वयं को शिक्षित समझ रहे हैं। लेकिन क्या हमें अपना जीवन कभी -कभी बिल्कुल असहाय या दुःखद जैसा नहीं लगता है? क्या हमलोग स्वयं अपने परिवेश का निर्माण इस प्रकार से नहीं कर रहे हैं जो विचार या कार्य की दृष्टि से देखने पर बिल्कुल अच्छा नहीं प्रतीत होता है। आज अपने समाज में जिन घटनाओं को हमलोग घटित होते हुए देख रहे हैं - उसके लिए उत्तरदायी कौन है ? क्या इसके लिए हमलोग ही उत्तरदायी नहीं हैं ? जो घटनायें और सामाजिक वातावरण हमलोगों को कईबार असहनीय प्रतीत होने लगता है, उसका निर्माण भी तो हमलोगों ने ही किया है। हमने जैसी शिक्षा प्राप्त की है उसी के अनुसार हमारे मन में विचार भी उठ रहे हैं , और इन विचारों के फलस्वरूप जो कार्य होते हैं - उसी के अनुरूप समाज और उसका परिवेश निर्मित हो जाता है।  
      जरा विचार करके देखें कि हमलोगों का पारस्परिक व्यवहार , विचार तथा अन्य वस्तुओं का आदान-प्रदान किस प्रकार हो रहा है ? पारस्परिक बातचीत का ढंग और अन्य वस्तुओं का लेन-देन करते समय हमारा व्यवहार ऐसा रहता है जैसे हमलोग एक-दूसरे पर अविश्वास कर रहे हैं, या सन्देह कर रहे हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपनी बुद्धि या चालाकी द्वारा दूसरों को ठग कर या वंचित कर अधिक से अधिक लाभ उठाने का प्रयास कर रहा है। यही तो है वर्तमान शिक्षा का परिणाम, क्या इसीको शिक्षा कहते हैं ?  निश्चित रूप से यह शिक्षा नहीं है। यदि हमलोग सच्ची शिक्षा प्राप्त कर सकें, तो हमलोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के ऊपर उतना ही ध्यान देंगे जिससे मेरे  और समाज के दूसरे अन्य व्यक्तियों के बीच जो कुछ भी आदान-प्रदान हो, वह दोनों पक्षों के लिये समानरूप से लाभदायक हो। एक दूसरे की सहायता और कल्याण - यही हमारे कार्यों का उद्देश्य होगा। इन दिनों अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध भी इसी 'win- win situation' या दोनों पक्षों के लिए सामान रूप से लाभप्रद मॉडल  की बुनियाद पर निर्मित किये जा रहे हैं। मात्र अपने निजी स्वार्थ को पूर्ण करने की इच्छा से प्रेरित होकर कार्य करने से  हमलोग कभी समाज का सच्चा  कल्याण नहीं कर सकते। इसलिए यदि हमलोग समाज के सभी व्यक्तियों के हितों पर ध्यान देना  चाहते हों, सबों  के स्वार्थ की रक्षा करना चाहते हों तो हमें पहले स्वयं निःस्वार्थ बनना होगा। अर्थात हमें अपनी स्वार्थपरता को क्रमशः कम करते जाना होगा।  जो शिक्षा हमें निःस्वार्थ  नहीं बना सके,उसे शिक्षा कहना भी उचित नहीं है। इसलिए हमें प्रचलित शिक्षा के साथ -साथ इस आध्यात्मिक शिक्षा -'Be and Make ' को भी सीखना होगा।
 [इस स्वार्थपरता को कैसे कम किया जाता है, " स्वार्थ शून्यता की ओर कैसे प्रवृत्त हुआ जाता है ?" (Selfishness tending to zero) --इसे समझ लेना ही सीखने योग्य वस्तु है। ]
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गीता में भगवान ने कहा है, "परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ। (गीता 3.11)" - इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुये,  ज्ञानप्राप्ति द्वारा तुम परम श्रेय व परम कल्याण (मोक्ष रूप ' ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' भ्रममुक्त अवस्था) को  प्राप्त होगे। 
 घोरस्वार्थी व्यक्तियों (पशुमानवों) को भी क्रमशः पशु से मनुष्य , और मनुष्य से पूर्णतः निःस्वार्थ देव मानव में उन्नत होने का उपाय बतलाते हुए भी शैक्षणिक धर्म - 'Be and Make ' सीखने को उत्साहित करते हुए मनुमहाराज कहते हैं -   

न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । 
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ।।
 
(मनु स्मृति 5/56 )
मांस भक्षण करने, मद्य (शराब आदि) पीने, तथा मैथुन करने (वंश-विस्तार करने) में प्रायः जीवों की प्रवृत्ति है और वह अज्ञानवश इसमें दोष नहीं मानते हैं। परन्तु इन सबका परित्याग महाफल का देने वाला है। 
>>Why ~"एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । #"  🔱🙏अर्थात वह सत्ता केवल एक ही है, ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं। (ऋ. 1.164.46)-🔱🙏 " धर्म/शिक्षा  का परिणाम : मतभेद या समन्वय " यदि "सत्य केवल एक ही है", तो ब्रह्मविद व्यक्ति भी उसे विभिन्न नामों से क्यों पुकारते हैं ? 
 किंतु कोई व्यक्ति, उस इन्द्रियातीत सत्य (परम् सत्य Absolute truth-ब्रह्म या आत्मा का) का समग्र रूप से (इन्द्रियगोचर रूप से-माँ काली /जगदम्बा रूप से) साक्षात्कार करने में असमर्थ है ;  एवं मात्र आंशिक या एक पक्ष (Relative Truth- सापेक्षिक सत्य -M/F देह और मन )  का दर्शन करने में ही समर्थ हो पाता है। उसी अंश को (सापेक्षिक सत्य को) सम्पूर्ण सत्य (परम सत्य)-मानकर, कुछ लोग, सत्य खोजने-पाने-जानने का प्रबल दावा करते हैं और दूसरों को झूठा एवं दोषी ठहरा देते हैं। यही नहीं अपने अहंकार में, वे, इतने असहिष्णु हो जाते हैं कि, जो असहमत हैं, भिन्न राय रखते हैं, उनके दमन, उनकी हत्या को भी अपना धर्म-सिद्ध अधिकार एवं कर्तव्य समझते हैं। किन्तु,  सनातन अथवा हिंदू धर्म, आरंभ से ही, प्रगतिशील, सहिष्णु एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाता आया है। उसका कहना है कि सत्य एक है, किंतु विद्वानों के द्वारा, उसे अपने दृष्टिकोण के अनुरूप व्याख्यायित किया जाता है।
>>>Effects of fanaticism: धर्मान्धता  के दोष को स्पष्ट करने के लिये श्रीरामकृष्ण बहुत प्रसिद्द कहानी  'एक हाथी और चार दृष्टिहीन व्यक्तियों की कथा ' इस प्रकार सुनाते थे- "चार दृष्टिहीन मनुष्यों को, एक हाथी को स्पर्श करके, उस पशु का अनुमान लगाने के लिए कहा गया। प्रत्येक मनुष्य ने हाथी के भिन्न-भिन्न अंगों को स्पर्श करके, उसके बारे में भिन्न-भिन्न अनुमान लगाए, यद्यपि वे सभी अनुमान एक ही पशु के विषय में लगाए गए थे। सत्य एक ही था, पर उसके रूप अनेक थे — प्रत्येक मनुष्य द्वारा की गई व्याख्या सही थी, पर सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान उन्हें नहीं हो पाया। " 
" एक बार चार दृष्टिहीन व्यक्ति हाथी देखने गये थे ! उनमें से एक जन हाथी के पैर को ही छू कर वापस आ गया, और कहने लगा ' हाथी खम्भे जैसा है।' दूसरे ने हाथी के सूँड़ को छुआ था, वह कहने लगा, ' हाथी अजगर -जैसा है।' तीसरा अन्धा हाथी के पेट को छू आया था; वह कहने लगा,  " हाथी बड़े नाद की तरह है।' चौथा हाथी के कान को स्पर्श कर आकर कहने लगा-' हाथी तो सूप-जैसा है।' इस तरह चारों हाथी के रूप के बारे में वाद-विवाद करने लगे। उनका शोरगुल सुनकर एक व्यक्ति ने आकर पूछा, ' क्या बात है ? तुम लोग क्यों झगड़ रहे हो ? ' तब उन दृष्टिहीन व्यक्तियों ने उसी को मध्यस्त ठहराकर सब किस्सा कह सुनाया। सुनकर वह आदमी बोला, ' तुममें से किसी ने भी ठीक-ठीक हाथी को नहीं देखा। हाथी खम्भे के जैसा नहीं, उसके पाँव खम्भे-जैसे हैं। वह अजगर के जैसा नहीं उसकी सूँड़ अजगर-जैसी है। वह नांद के जैसा नहीं, उसका पेट नाँद के जैसा है। वह सूप-जैसा नहीं, उसके कान सूप-जैसे हैं। इन सब को मिलाकर ही हाथी बना है।' जिन्होंने ईश्वर के स्वरूप (3H) के एक ही पहलू (इन्द्रियगोचर शरीर और मन 2H ) को देखा है, (3rd"H" आत्मा या ह्रदय को नहीं देखा वे आपस में इसी प्रकार झगड़ते रहते हैं। " (अमृतवाणी-302)
 >>>विज्ञान में विश्वास -भगवान पर भरोसा (Belief in Science – Trust in God) : 
"कई रंग बदलने वाले गिरगिट की कहानी" - दो आदमियों के बीच घोर विवाद छिड़ गया। एक ने कहा, ' उस खजूर के पेड़ पर एक सुन्दर लाल लाल रंग का (साकार ) गिरगिट रहता है।' दूसरा बोला,'तुम भूल करते हो, वह गिरगिट लाल नहीं नीला (निराकार)  है।' विवाद करते हुए जब वे किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सके तो उसी खजूर के पेड़ के निचे रहने वाले एक आदमी (आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति या सद्गुरु देव) से मिलने पहुंचे। उनमें से एक ने पूछा, ' क्यों जी, तुम्हारे इस इस पेड़ पर एक लाल रंग का गिरगिट रहता है न ! ' वह आदमी बोला, ' जी हाँ '। तब दूसरे ने कहा,' अजी, कहते क्या हो ? वह गिरगिट लाल नहीं, नीला है।' वह आदमी बोला -'जी हाँ' । वह जनता था कि गिरगिट बहुरूपी होता है, सदा रंग बदलता  रहता है, इसलिये उसने दोनों की बात में हामी भरी। सच्चिदानन्द भगवान के भी मूर्त और अमूर्त अनेक रूप हैं। जिस साधक ने उनके जिस रूप का दर्शन किया है,वह उसी रूप को जानता है। परन्तु जिसने (आत्म साक्षात्कारी मनुष्य ने) उनके बहुविध रूपों को देखा है, वही कह सकता है कि ये विविध रूप उस एकही प्रभु के हैं। वे साकार हैं, निराकार हैं, तथा उनके और भी कितने प्रकार हैं यह कोई नहीं जानता।"(अमृतवाणी /124)
 ये कथायें एक प्रतीक है जो सत्य तथा सत्यार्थियों के परस्पर संबंधों को प्रभावी ढंग से दर्शाती है। बचपन में एक कहानी पढ़ी थी—एथेंस का सत्यार्थी।  इसमें एक जिज्ञासु, सत्य के दर्शन पाकर अपनी दृष्टि खो बैठता है।  (अर्थात इसमें एक -"इन्द्रियातीत सत्य का जिज्ञासु" उस "परम सत्य " के दर्शन पाकर अपनी 'दृष्टि' (भौतिक दृष्टि ?) खो बैठता है।) क्योंकि उसकी अंतःप्रज्ञा (intuition) खुल जाती है।  बच्चों के लिए इस अंतः प्रज्ञा को अनुभव करना एवं इसे विकसित करना सरल होता है। बच्चों का मन सरल होता है।  उनमें आसक्ति कम होती है और वह प्रकृति के साथ लयबद्ध होते हैं।  अत: अंतःप्रज्ञा (intuition) बिना तर्क किये और बिना अनुमान (inference) के ही ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता है, जैसे गाय का एक बछड़ा सैकड़ो गायों में दिग्भ्रमित न होते हुए अपनी माँ को पहचान लेता है। बुद्धी भ्रमित हो सकती है लेकिन अंतःप्रज्ञा नहीं। अंतरात्मा (विवेक-प्रयोग शक्ति)  भी इसी प्रकार अंत:प्रज्ञा का ही एक रूप है , जो हमें परामर्श देता है कि कोई कृत्य जो हम कर रहे हैं वह नैतिक (पुण्य-श्रेय) है या अनैतिक (अपुण्य-प्रेय ) ? 
 " यदि कोई अपने को दिव्य प्रेरित कहकर दावा करे, फिर साथ ही युक्ति के विरुद्ध भी अटपटा बोलता रहे, तो उसकी बात मत सुनना। क्यों ? इसलिए कि मन के जिन तीन -भूमियों की बात कही गयी है, जैसे -जन्मजात प्रवृत्ति , चेतन या तर्कजात ज्ञान में या इन्द्रियातीत -अतिचेतन या जगदातीत भूमि - ये तीनों एक ही मन की विभिन्न अवस्थायें हैं। एक मनुष्य के तीन मन नहीं हैं , वरन उस एक ही मन की एक अवस्था दूसरी अवस्थाओं में परिवर्तित हो जाती है। जन्मजात प्रवृत्ति -तर्कजात ज्ञान में और तर्कजात ज्ञान इन्द्रियातीत [अतिचेतन जगद्तीत] ज्ञान में परिणत होता है। अतः इन अवस्थाओं में कोई भी अवस्था दूसरी अवस्थाओं का विरोधी नहीं है। यथार्थ दिव्य प्रेरणा , तर्कजात ज्ञान की अपूर्णता को पूर्ण मात्र करती है। जैसा ईसा ने कहा था - " हम विनाश करने नहीं आये हैं, वरन पूर्ण करने आये हैं ! " इसी प्रकार दिव्य प्रेरणा भी तर्कजात ज्ञान का पूरक है और उसके साथ दिव्य प्रेरणा का पूर्ण समन्वय है। " (ध्यान और समाधि : १/९७ )
[When you hear a man say, "I am inspired," and then talk irrationally, reject it. Why? Because these three states — instinct, reason, and superconsciousness, or the unconscious, conscious, and super-conscious states — belong to one and the same mind. There are not three minds in one man, but one state of it develops into the others. Instinct develops into reason, and reason into the transcendental consciousness; therefore, not one of the states contradicts the others. Real inspiration never contradicts reason, but fulfils it. Just as you find the great prophets saying, "I come not to destroy but to fulfil," (Matthew 5:17-20)*so inspiration always comes to fulfil reason, and is in harmony with it. (Volume 1, Raja-Yoga/ CHAPTER VII/DHYANA AND SAMADHI)]
... इस दिव्य प्रेरणा को प्राप्त करने की शक्ति प्राचीन पैगम्बरों के सामान प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव में है। वे पैगम्बर कोई अद्वितीय नहीं थे , वे भी हमारे तुम्हारे समान मनुष्य ही थे। वे [योगेश्वर कृष्ण भी ] अत्यन्त उच्च कोटि के योगी थे। उन्होंने पूर्वोक्त अतिचेतन अवस्था (इन्द्रियातीत अवस्था)   प्राप्त कर ली थी , और प्रयत्न करने पर तुम और मैं भी [गुरुदेव की कृपा और माँ काली की कृपा से ?] उस अवस्था की प्राप्ति कर ले सकते हैं। .... यह केवल सम्भव ही नहीं है , वरन समय आने पर सभी इस अवस्था की प्राप्ति कर लेंगे। इस अवस्था को प्राप्त करना ही धर्म है। " (१/९७)
[ this is a most vital point to understand, that inspiration is as much in every man's nature as it was in that of the ancient prophets. These prophets were not unique; they were men as you or I. They were great Yogis. They had gained this superconsciousness, and you and I can get the same. They were not peculiar people. The very fact that one man ever reached that state, proves that it is possible for every man to do so. Not only is it possible, but every man must, eventually, get to that state, and that is religion. ]
>>"जब-तक जीना तब तक सीखना।  अनुभव ही सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है" :" केवल प्रत्यक्ष अनुभव के द्वारा ही यथार्थ शिक्षा-लाभ होता है। हमलोग भले ही सारे जीवन भर तर्क-विचार करते रहें , पर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव किये बिना हम सत्य का (अतिचेतन अवस्था के परम् सत्य का ?) कण मात्र भी न समझ सकेंगे। कुछ पुस्तकें पढ़ाकर- लेकिन बिना इन्टर्नशिप किये तुम किसी व्यक्ति से शल्य -चिकत्सक बनने की आशा नहीं कर सकते। " (१/९८)   
[ Experience is the only teacher we have. We may talk and reason all our lives, but we shall not understand a word of truth, until we experience it ourselves. You cannot hope to make a man a surgeon by simply giving him a few books- (but without performing internship). (Volume 1, Raja-Yoga/ CHAPTER VII/DHYANA AND SAMADHI)] 
 .... ठीक वैज्ञानिक उपाय से अतिचेतन अवस्था को प्राप्त करने के लिए , मैं तुम्हें अष्टांग योग के विविध सोपानों के बारे बतला रहा हूँ , प्रत्याहार और धारणा के बाद अब ध्यान के बारे में बताने जा रहा हूँ। ' जब ध्यान-शक्ति इतनी तीव्र हो जाती है कि मन अनुभूति (यथार्थ स्वरुप) के बाहरी भाग को छोड़कर, केवल उसके अन्तर्भाग या अर्थ के ही ओर एकाग्र हो जाता है , तब उस अवस्था का नाम है समाधि। धारणा -ध्यान -समाधि , इन तीनों को एक साथ लेने को संयम कहते हैं। [In order to reach the superconscious state in a scientific manner it is necessary to pass through the various steps of Raja-Yoga I have been teaching.After Pratyâhâra and Dhâranâ, we come to Dhyâna, meditation.
 ... When one has so intensified the power of Dhyana as to be able to reject the external part of perception and remain meditating only on the internal part, the meaning, that state is called Samadhi. The three — Dharana, Dhyana, and Samadhi — together, are called Samyama. 
>>>भोग  के पीछे दौड़ने से ज्ञानी भी सिद्धि खो देते हैं !  (The evil of running after enjoyments.):
... पहले -पहल स्थूल वस्तु (इष्टदेव की छवि) पर ध्यान करना चाहिये। फिर क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर ध्यान में हमारा अधिकार होगा,और अन्तमें हम विषयशून्य अर्थात निर्विकल्प ध्यान में सफल हो जायेंगे। [अर्थात साकार प्रतिमा पर प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करना चाहिये। निर्गुण सच्चिदानन्द का ध्यान स्वतः होगा।] . ... ऐसी अवस्था प्राप्त  होने पर योगी अपने मन की नींव तक का अनुभव कर लेते हैं , और तब मन उनके सम्पूर्ण वश में आ जाता है। ... योगी के पास तब नानाप्रकार की अलौकिक शक्तियाँ [सिद्धियाँ] आने लगती हैं। पर यदि उनको वे काकविष्ठा समझकर त्याग नहीं दें तो उनकी भविष्य की उन्नति का मार्ग रुक जाता है। किन्तु वे यदि इन सभी अलौकिक शक्तियों को भी छोड़ सकें, तो वे मनरूप समुद्र में उठने वाले वृत्ति-प्रवाहों को पूर्णतया रोकने में समर्थ हो सकेंगे। " और यही योग का चरम लक्ष्य है। तभी, देह -मन के नाना प्रकार के दैहिक-मानसिक विक्षेप से विचलित न होकर आत्मा की महिमा अपनी पूर्ण ज्योति से प्रकाशित होगी। "(१/९७... ९८.... १०० )
[" This meditation must begin with gross objects and slowly rise to finer and finer, until it becomes objectless. .... Then will he have seen the very foundations of his mind, and it (mind-चित्त) will be under his perfect control. Different powers will come to the Yogi, and if he yields to the temptations of any one of these, the road to his further progress will be barred. But if he is strong enough to reject even these miraculous powers, he will attain to the goal of Yoga, the complete suppression of the waves in the ocean of the mind....  Then the glory of the soul, undisturbed by the distractions of the mind, or motions of the body, will shine in its full effulgence.]
>>" स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारुढोऽभिनिवेश: ।। साधनपाद : 2.9 ।।
शब्दार्थ :- स्वरसवाही, ( पहले के मृत्यु के अनुभवों से) जो परम्परागत अर्थात पीढ़ियों से स्वभाविक रूप से चला आ रहा है ) विदुष अपि, (एवं जो ब्रह्मविद या विवेकशील पुरुषों या विद्वानों में भी एक समान भाव से विद्यमान देखा जाता है ) वह अभिनिवेश, ( मृत्यु अर्थात मौत का डर- या जीवन के प्रति ममता है।) 
सूत्रार्थ :- जो मृत्यु अर्थात मरने का डर (या जीवन के प्रति ममता) है । वह परम्परागत रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी विद्वानों तथा साधारण लोगों में समान रूप से देखा जा सकता है । यही मृत्यु का डर अभिनिवेश नामक अन्तिम क्लेश है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में 5 क्लेशों [अविद्या-स्मिता -राग-द्वेष- अभिनिवेश]  में से अन्तिम क्लेश अर्थात अभिनिवेश के स्वरूप को दर्शाया गया है । सभी मनुष्य स्वभाविक रूप से बहुत सारी बातों में एक जैसे होते हैं । जैसे उनके शरीर की आकृति, उनका खाना खाने का तरीका, सांस लेने का तरीका आदि । इस प्रकार प्रत्येक इंसान में समानता है । ऐसी ही एक अन्य समानता भी सभी मनुष्यों में पीढ़ियों से स्वभाविक रूप से चली आ रही है । वह है मृत्यु का भय अर्थात मरने से डरना ।
सभी मनुष्य अलग- अलग लोगों से प्यार करते हैं । अलग- अलग चीजें उनको पसन्द होती हैं । सभी अलग- अलग तरह की पोशाक ( ड्रेस ) व भोजन को पसन्द करते हैं । कोई किसी इन्सान से ज्यादा तो कोई किसी से कम प्यार करता है । लेकिन एक वस्तु या पदार्थ ऐसा है जिससे सभी व्यक्ति बेहद या सबसे ज्यादा प्यार करते हैं । वह कुछ और नहीं बल्कि हमारा प्राण ही है । (प्राण या सांस-जीवनीशक्ति: प्राण समस्त जीवन का आधार और सार है; यह वह ऊर्जा और तेज है, जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। प्राण उस प्रत्येक वस्तु में प्रवाहित होता है जिसका अस्तित्व है। इससे भी अधिक, प्राण भौतिक संसार, चेतना और मन के मध्य सम्पर्क सूत्र है। यही तो भौतिक स्तर पर जीवन को संभव बनाता है। ) ही है । और जब यह शरीर से निकलता है तो सबसे ज्यादा कष्ट होता है ।
आप सभी अब विचार करके देखो की क्या कोई व्यक्ति ऐसा है जिसे अपने प्राण अर्थात अपने जीवन से प्यार नहीं है ? आपका उत्तर नहीं में ही आएगा । क्योंकि सभी जीवधारी चाहे वह मनुष्य हो या जानवर सभी को अपनी – अपनी जिन्दगी बहुत प्यारी होती है । और यदि किसी कारण से हमें लगे कि अब हमारी मृत्यु होने वाली है, तो हम बेचैन हो उठते हैं । उस समय दुनिया की कोई भी अच्छे से अच्छी वस्तु हमें अच्छी नहीं लगती है । क्योंकि बिना जीवन के (बिना साँस लिए)  हम उसका आनन्द नहीं ले सकते हैं ।
और यह घटनाक्रम आज से ही नहीं बल्कि सदियों से चला आ रहा है । राजा हो या रंक, धनवान हो या गरीब, छोटा हो या बड़ा, स्त्री हो या पुरुष सभी मृत्यु रूपी भय से भयभीत होते हैं । यहाँ इस सूत्र में विद्वानों को भी इस दुःख से पीड़ित बताया गया है । इसका अर्थ ऐसे  विद्वानों से है जो सांसारिक रूप से तो समझदार होते हैं, किन्तु योग की उच्च अवस्था वाले योगी या ब्रह्मविद  नहीं होते हैं । इसलिए यहाँ पर विद्वजन को इसी प्रकार समझना चाहिए । केवल योग की उच्च अवस्था या स्थिति को प्राप्त योगीजनों को (ब्रह्मविद सद्गुरु या CINC नवनीदा को)  ही मृत्यु का भय नहीं सताता है। बाकी सभी व्यक्ति इस ~  अभिनिवेश नामक क्लेश से पीड़ित होते हैं ।
[साभार /https://drsomveeryoga.com/yoga-sutra-2-9/#]

" जीवन के प्रति यह ममता (स्वयं को M/F देह समझने- तीनों ऐषणाओं के प्रति यह आसक्ति) केवल मनुष्यों में ही नहीं,पशुओं में भी स्पष्ट रूप से देखी जाती है। इस पर मृतक का अगला जन्म किस योनि  में होगा; भविष्य -जीवन सम्बन्धी सिद्धान्तों (the theory of a future life-देवता-पितर) को स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। (१/१५५) मनुष्य अपने ऐहिक जीवन से इतना प्यार करता है कि उसकी यह आकांक्षा रहती है कि वह भविष्य में भी जीवित रहे। .... समस्त जन्मजात प्रवृत्तियाँ पूर्व जन्म में हुए प्रत्यक्ष अनुभूतियों के फल हैं। अब प्रश्न यह है कि यह अनुभूति जीवात्मा की है, अथवा केवल शरीर की ? आधुनिक वैज्ञानिक कहते हैं -वह केवल उसके शरीर का धर्म है ; पर योगी कहते है कि यह मन (अहं) की अनुभूति है, जो शरीर के माध्यम से संचारित होकर आ रही है। इसीको को पुनर्जन्मवाद कहते हैं। वासनाओं को संयत करने के लिए हमें उसके मूल में जाना होगा। तभी हम उनके बीज तक को दग्ध कर डालने में सफल होंगे। जैसे भुने हुए बीज जमीन में बो देने पर फिर अंकुरित नहीं होते , उसी प्रकार ये वासनायें भी फिर कभी उदित नहीं होंगी। " (१/१५६-158)  
[This clinging to life you see manifested in every animal. Upon it many attempts have been made to build the theory of a future life, because men are so fond of life that they desire a future life also.  As reason cannot come without experience, all instinct is, therefore, the result of past experience. ... Then the question is whether that experience belongs to a particular soul, or to the body simply ? Modern scientific men hold that it belongs to the body, but the Yogis hold that it is the experience of the mind, transmitted through the body. This is called the theory of reincarnation......To control our passions we have to control them at their very roots; then alone shall we be able to burn out their very seeds. As fried seeds thrown into the ground will never come up, so these passions will never arise. ]
>>>प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थां दृश्यम् ।। साधनपाद 2.18 ।।
शब्दार्थ :- प्रकाश, ( सत्त्वगुण ) क्रिया, ( रजोगुण ) स्थिति, ( तमोगुण ) शीलम्, ( स्वभाव ) भूत, ( सूक्ष्म ) इन्द्रिय, ( स्थूल ) आत्मकम्, ( स्वरूप ) भोग, ( जीवन ) अपवर्ग, ( मुक्ति ) अर्थम्, ( अर्थ या प्रयोजन है ) दृश्यम्, ( वह दृश्य अर्थात प्रकृत्ति है । )
सूत्रार्थ :- जो सत्त्वगुण, रजोगुण व तमोगुण स्वभाव वाला है । सूक्ष्म और स्थूल जिसका स्वरूप है। भोग भोगना एवं मुक्ति को प्राप्त होना जिसका अर्थ या प्रयोजन होता है । वही दृश्य अर्थात प्रकृति होती है ।
"प्रकाश (illumination-उजाला -सतोगुण), क्रिया (action-रजोगुण ) और निष्क्रियता (inertia-तमोगुण -जड़ता-आलस्य ) जिसका स्वभाव है, भूत (स्थूल) और इन्द्रियाँ (सूक्ष्म) जिसका (प्रकट) स्वरुप है , (पुरुष) के भोग और मुक्ति (चार पुरुषार्थ) के लिए ही जिसका प्रयोजन है, वह दृश्य -अर्थात परिवर्तनशील प्रकृति है।" - विवेकानन्द।    
व्याख्या :- इस सूत्र में दृश्य  ( प्रकृत्ति ) के स्वरूप को बताया गया है । तीनों गुण अर्थात सत्त्वगुण, रजोगुण व तमोगुण दृश्य ( प्रकृत्ति ) के अंतर्गत आते हैं । मनुष्य इन तीनों गुणों से ही प्रभावित रहता है । जब उसमें सत्त्वगुण की मात्रा बढ़ती है तो वह प्रकाशशील स्वभाव वाला हो जाता है । जैसे ही रजोगुण बढ़ता है वैसे ही वह अत्यन्त क्रियाशील स्वभाव ( चंचल ) वाला हो जाता है । और जब उसमें तमोगुण की मात्रा बढ़ती है तो वह मूढं बुद्धि हो जाता है । यह सभी स्वभाव से जो युक्त है वह दृश्य है ।
>>>भूत का अर्थ है जो दिखाई न दे । लेकिन वास्तव में जिसकी सत्ता हो । जैसे- शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध होते तो हैं । लेकिन दिखाई नहीं देते । ये जो सूक्ष्मभूत होते हैं यह भी प्रकृत्ति के ही अंतर्गत आते हैं । इसलिए यह सूक्ष्म भी दृश्य है । और जो इन्द्रिय अर्थात जो हमारी आँखों से देखे जा सकते हैं, कानों से जिनको सुना जा सकता है । त्वचा से जिसे महसूस किया जा सकता है । वह स्थूल भूत होते हैं । जैसे – आकाश, पृथ्वी, स्पर्श आदि । अतः यह स्थूलभूत भी दृश्य अर्थात प्रकृत्ति का ही स्वरूप हैं ।
>>>भोग का अर्थ है हमारा जीवन । हम जीवन में सभी वस्तुओं या सुविधाओं का लाभ उठाते हैं । जैसे जीवन – यापन ( जीने के लिए ) जो- जो कार्य किए जाते हैं । वह सभी भोग कहलाते हैं । और जो अपवर्ग है वह मुक्ति (मोक्ष) होती है । अर्थात इस दुःखमय जीवन से मुक्त होने का तरीका । यह दोनों ( जीवन व मुक्ति ) दृश्य अर्थात प्रकृत्ति का ही प्रयोजन हैं । उपर्युक्त वर्णित सभी स्वभाव, स्वरूप व प्रयोजन दृश्य के ही अधीन होते हैं ।
>>SV की व्याख्या :-दृश्य अर्थात प्रकृति भूतों और इन्द्रियों से निर्मित है, भूत कहने से स्थूल, सूक्ष्म सब प्रकार के भूतों का बोध होता है, जो सारी प्रकृति का निर्माण करते हैं और इन्द्रिय से आँख आदि समस्त इन्द्रियाँ तथा मन (अहं-चित्त -बुद्धि) आदि का भी बोध होता है। उनके धर्म तीन प्रकार के हैं ; जैसे - प्रकाश, कार्य और स्थिति यानि जड़त्व , इन्हीं को दूसरे शब्दों में सत्व, रज और तम कहते हैं। समग्र प्रकृति का उद्देश्य क्या है ? यही कि पुरुष समुदय (दृश्यों का) भोगों का अनुभव प्राप्त करे। पुरुष मानो अपने महान ईश्वरीय स्वभाव को भूल गया है।' [What is the purpose of the whole of nature? That the Purusha may gain experience. The Purusha has, as it were, forgotten its mighty, godly nature. ]
 .... किसी समय देवराज इन्द्र शूकर बनकर कीचड़ में रहते थे , उनके एक शूकरी थी -उस शूकरी से उनके बहुत बच्चे पैदा हुए थे। वे बड़े सुख से समय बिताते थे। कुछ देवता  उनकी यह दुरावस्था देखकर उनके पास आकर बोले - " आप देवराज हैं , समस्त देवगण आपके शासन के अधीन हैं। फिर आप यहाँ क्यों हैं ? परन्तु इन्द्र ने उत्तर दिया , " मैं बड़े मजे में हूँ। मुझे स्वर्ग की परवाह नहीं ; यह शूकरी और ये बच्चे जबतक हैं , तबतक स्वर्ग आदि कुछ भी नहीं चाहिए। " देवगण यह सुनकर पहले अवाक हो गए, पर  कुछ दिनों बाद उनके सब बच्चों मार डाले ; तो इन्द्र कातर होकर होकर विलाप करने लगे। तब देवताओं ने इन्द्र की शूकर -देह को भी चीर डाला। तब तो इन्द्र उस शूकर -देह से बाहर होकर हँसने लगे और सोचने लगे - " मैं भी कैसा भयंकर स्वप्न देख रहा था ! कहाँ मैं देवराज ! और कहाँ इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था ; यही नहीं , वरन सारा संसार शूकर-देह धारण करे , ऐसी कामना कर रहा था !' पुरुष भी बस , इसी प्रकार प्रकृति के साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनन्तस्वरुप है। .... आत्मा को अस्तित्ववान, ज्ञानवान अथवा प्रेममय कहना सर्वथा भूल है। प्रेम, ज्ञान और अस्तित्व पुरुष के गुण नहीं , वे तो उसका स्वरुप हैं। " [It is a mistake to say the Soul loves, exists, or knows. Love, existence, and knowledge are not the qualities of the Purusha, but its essence. ]  (१/१६५)  
...... किन्तु वह यहाँ तक स्वरुप-भ्रष्ट हो गया है कि यदि तुम उसके पास जाकर कहो कि तुम तुम शूकर नहीं हो , तो वह चिल्लाने लगता है और काटने दौड़ता है। [ It appears to have become so degenerate that if you approach to tell it, "You are not a pig," it begins to squeal and bite.] इस माया के बीच, इस स्वप्नमय जगत के बीच हमारी भी ठीक वही दशा हो गयी है। यहाँ है केवल रोना , केवल दुःख , केवल हाहाकार ! अजीब तमाशा है यहाँ का ! यहाँ सोने के कुछ गोले लुढ़का दिए जाते हैं और बस , सारा संसार उनके लिए पागलों के समान छूट पड़ता है। 
.... योगी (गुरु -नेता -अवतार -पैगम्बर) तुम्हें यही शिक्षा देते हैं कि-"प्रकृति का बन्धन तुम पर किसी काल में नहीं था; तुम कभी भी किसी नियम से बद्ध नहीं थे ! योगी तुम्हें यही यही शिक्षा देते हैं ; धैर्य के साथ इसे सीखो।  योगी यह दिखा देते हैं कि पुरुष किस प्रकार इस प्रकृति के साथ अपने को मिलाकर - अपने को मन और जगत के साथ तादात्म्य करके अपने आपको दुखी समझने लगता है। योगी यह भी कहते हैं कि अनुभव के माध्यम से ही इस दुःखमय संसार से छुटकारा पाने का उपाय है।  ये सब अनुभव प्राप्त तो करना ही होगा , अतएव जितनी जल्दी वह कर लिया जाये , उतना ही शुभ है। हमने अपने आप को इस जाल में  (पंचक्लेश जन्य जन्म-मृत्यु के जाल में) फँसा लिया है, हमें इसके बाहर आना होगा।  हम स्वयं इस फन्दे में फँस गए हैं , और अब हमें अपने ही प्रयत्न से उससे मुक्ति प्राप्त करनी पड़ेगी। .... अतएव, पति-पत्नी संबन्धी, मित्र-सखी सम्बन्धी तथा और भी जो सब छोटी छोटी प्रेम की आकांक्षाएं हैं , सभी का अनुभव पा लो। यदि अपना स्वरुप तुम्हें सदा याद रहे, तो तुम शीघ्र ही निर्विघ्न इसके पार हो जाओगे। 
[ You were never bound by laws, nature never had a bond for you. That is what the Yogi tells you. Have patience to learn it. And the Yogi shows how, by junction with nature, and identifying itself with the mind and the world, the Purusha thinks itself miserable. Then the Yogi goes on to show you that the way out is through experience. You have to get all this experience, but finish it quickly. We have placed ourselves in this net, and will have to get out. We have got ourselves caught in the trap, and we will have to work out our freedom. So get this experience of husbands, and wives, and friends, and little loves; you will get through them safely if you never forget what you really are
यह कभी न भूलना की यह अवस्था बिल्कुल अल्प समय के लिए है और हमें इसके भीतर से बाध्य होकर जाना पड़ रहा है। भोग - सुख-दुःख का यह अनुभव ही हमारा एकमात्र महान शिक्षक है, लेकिन स्मरण रहे , ये सब केवल अनुभव मात्र हैं ; वे क्रमशः हमें एक ऐसी अवस्था में ले जाते हैं , जहाँ संसार की समस्त वस्तुएँ बिल्कुल तुच्छ हो जाती हैं।  तब पुरुष विश्वव्यापी विराट के रूप में प्रकाशित हो जाता है। और तब यह सारा विश्व सिन्धु में एक बिन्दु सा प्रतीत होने लगता है , और अपनी ही इस क्षुद्रता के कारण - इस शून्यता के कारण न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। सुख-दुःख का भोग तो हमें करना ही पड़ेगा , पर स्मरण रहे , हम अपना चरम लक्ष्य कभी न भूलें। " (द्वितीय अध्याय - साधनपाद : १/१६४-१६५)     
 [Never forget this is only a momentary state, and that we have to pass through it. Experience is the one great teacher experience of pleasure and pain — but know it is only experience.  It leads, step by step, to that state where all things become small, and the Purusha so great that the whole universe seems as a drop in the ocean and falls off by its own nothingness. We have to go through different experiences, but let us never forget the ideal. (Volume 1, Raja-Yoga/ CONCENTRATION: ITS PRACTICE)

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(2) 

🔆शिक्षा और नैतिकता🔆

[️Education and Ethics]
 
        हमलोग यदि नैतिक बनना चाहते हों, नैतिक सिद्धान्तों को अपने जीवन में प्रतिष्ठित करना चाहते हों तो हमलोगों को अवश्य नीतिपरायण बनना होगा। अतएव शिक्षा को हमें नीतिपरायण बनाने में सक्षम होना चाहिए। नैतिकता क्या है ? नीति कैसे बनती है ,उसका आधार क्या है? इस विषय में अनेक मत-मतान्तर हैं। यहाँ तक कि 'Ethics या नीतिविज्ञान' भी यही कहता है कि 'Absolute Morality ' निरपेक्ष नैतिकता जैसी कोई चीज नहीं होती। 'Moral' शब्द लैटिन  भाषा के mores शब्द से निकला है- Mores का अर्थ होता है- वह प्रथा (customs) या रीति-रिवाज ( traditions) जो प्रचलन में हो। इस परिभाषा के अनुसार जो रीति-रिवाज  जिस देश में प्रचलित हो, जैसी सामाजिक व्यवस्था चलन में हो उसीको moral या नैतिक मान लेना पड़ेगा।  क्योंकि सदियों की परम्परा से उस देश में ऐसा ही होता आ रहा है। 
        उसी प्रकार Ethics शब्द ग्रीक भाषा के 'ethos' (इथॉस) शब्द से निकला है। Ethics का अर्थ होता है 'character' (चरित्र या आचार- संहिता) । इसी सिद्धान्त को कई देशों में - लगभग सर्वत्र ऐसा ही कहा जाता है। क्योंकि परम्परागत आचार -व्यवहार का मानदण्ड या -'behavioral standards ' में प्रचलित रीतिरिवाज (mores या customs) सभी देशों में और सभी समय में एक समान नहीं होते।  दो हजार वर्ष पहले जो रीति-रिवाज और सामाजिक प्रथायें  प्रचलन में थीं, वे सभी आज प्रचलित नहीं हैं। अथवा जो प्रथायें इस देश में प्रचलित हैं, वैसी प्रथाएं अन्य देशों में प्रचलित नहीं हैं। इसीलिए अब हमलोगों ने लगभग यह मान लिया है कि सभी देशों की नीति , सभी समय में एक समान हो ही नहीं सकती। क्योंकि जिस प्रथा को हमलोग अपने देश में moral या नीति संगत व्यवहार समझते हैं, हो सकता है अन्य किसी देश में वैसा ही व्यवहार नीति-विरुद्ध या अशोभनीय समझा जाता हो। इसी प्रकार जिस व्यवहार को हमलोग अपने देश में  बिल्कुल अनैतिक समझते हैं; उसी व्यवहार को अन्य किसी देश में अनैतिक  न समझा जाता हो ! इसीलिए सभी देशों के लिए नैतिकता का एक सामान्य मानदण्ड होना सम्भव नहीं है।
          ऐसा मान लेने के बाद अंतिम निष्कर्ष क्या निकला ? यही कि नैतिकता का वैसा कोई विशेष महत्व नहीं है, मोटे तौर पर जहाँ जैसा रीति-रिवाज सदियों से मान्य है उन पारम्परिक रीतिरिवाजों का पालन करते रहना ही यथेष्ट है। तो फिर हमलोग किस प्रकार के आचरण को सही मानकर, जीवन में उसका अनुसरण करेंगे ? यही कि "जब जैसा तब तैसा" (जेखन जेमन तखन तेमन) की नीति का पालन करना-गंगा गए तो गंगादास और जमुना गए तो जमुनादास हो जाने से मनुष्य बनने का काम हो जायेगा ?   किन्तु, क्या ' जब जैसा तब तैसा' - के आचरण को नीति-संगत व्यवहार कहना उचित होगा ? नहीं, इसे नीति  नहीं कहा जा सकता। इसीलिये नैतिकता की कोई एक परिभाषा खोज पाना बहुत कठिन है।