" न विद्या संगीतात् परा "
महामण्डल के प्रतिष्ठाता श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय की आत्मकथा "जीवन नदी के हर मोड़ पर" के लेख- " न विद्या संगीतात् परा " में कहते हैं - स्वामी विवेकानन्द कितना सुन्दर गाते थे ! उनका कन्ठ-स्वर कितना असाधारण (अनोखा) था। हमलोगों ने तो सुना ही नहीं है, अतः उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। शायद बड़ानगर मठ की बात है, एक दिन रात को लगभग १० बजे सेवक को कहते हैं, " अरे, जरा हारमोनियम देना तो " और हारमोनियम ले कर वे संस्कृत के एक श्लोक ( गायत्री आह्वान का मन्त्र) -
" आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि।
गायत्रिच्छन्दसां मात: ब्रह्मयोने नमोऽस्तुते॥ "
को विभिन्न रागों में गाने लगे। बहुत रात बीत जाने तक भी यही क्रम चलता रहा। सभी लोग बेसुध होकर सुन रहे थे, उन्हें समय का बोध भी न रह गया था। तब स्वामी ब्रह्मनान्दजी ने प्रातः ४ बजे स्वामीजी से विराम करने के लिये कहा।
नवनीदा ने अपने उपनयन संस्कार का उल्लेख करते हुए " विद्या गुरुमुखी " [21 JNKHMP- सोमवार, 10 मई 2010] में यह बतलाया है कि 'ब्रह्म के नाम का श्रवण-मनन -निदिध्यासन ' दादा-गुरु परम्परा में प्रशिक्षित आचार्य देव से ही क्यों करना चाहिये ?
दादा कहते हैं - " बड़े भैया का और मेरा उपनयन संस्कार (यज्ञोपवीत संस्कार) एक ही साथ हुआ था। और सौभाग्य से अपने पण्डित महाशय, मेरे स्कूल के संस्कृत शिक्षक पण्डित भूतनाथ सप्ततीर्थ, जो हमलोगों के स्कूल के ही छात्र भी रह चुके थे , वे हम दोनों भाइयों को उपनयन संस्कार करवाने के लिए हमारे घर पर पधारे थे। पण्डित महाशय के विषय में और क्या कहूँ ? उन्होंने जितना सात्विक जीवन व्यतीत किया था , उसका वर्णन नहीं हो सकता। वे जब भी घर से दूर कहीं जाते तो बाहर का एक घूँट जल भी ग्रहण नहीं करते थे। यदि ट्रेन से भी कहीं जाना पड़ता तो भी दुकान से बनी कोई चीज नहीं खाते थे , यहाँ तक कि जल भी नहीं पीते थे।"
[लेकिन पण्डित भूतनाथ सप्ततीर्थ अपने आचार्यदेव श्री शिरीषचन्द्र मुखोपाध्य (दादा के पितामह) के आदेश को ब्रह्मवाक्य समझकर उसका पालन करते थे। आगे की एक -दो घटना से हमें इसका परिचय मिलेगा। ]
" आचार्यदेव (दादा के पितामह-Grand father) की गुरु उनकी माँ जगन्मोहिनी देवी (नवनीदा की प्रमातामही-Great-grandmother) ही थीं-जो एक असाधारण आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्ना साध्वी थीं। तन्त्र शास्त्रों में कहा गया है - यदि किसी व्यक्ति की गुरु उसकी माता ही हों, तो माँ से प्राप्त होने वाली तंत्र-विद्या श्रेष्ठ स्तर की तंत्र विद्या होती है। मेरे पितामह की गुरु उनकी माँ ही थीं। उन्होंने उनसे तंत्र-विद्या की कई प्रकार की साधनायें करवाई थीं।
मेरे घर के तालाब के सामने वाले बेल-वृक्ष के नीचे जो शिवजी हैं, उनकी प्रतिष्ठा भी उन्होंने ही की थी। हमारे घर के दो तल्ले पर स्थित पूजा घर में माँ काली की प्राण-प्रतिष्ठा भी उन्होंने ही की थी। पितामह को बेल-वृक्ष के नीचे प्रतिष्ठित शिवजी के निकट बैठाकर , ऊपर से (खिड़की पर खड़ी होकर) निर्देश देते हुए , उन्होंने तंत्र-विद्या की बहुत सारी साधनायें करवाई थीं। तंत्र की एक विशिष्ट साधना का प्रशिक्षण देते समय ऊपर से वे बोल रही हैं- " पहले 'राधा-यन्त्र'** बनाकर उसकी पूजा करो ! तत्पश्चात शिवजी के पास बैठकर तन्त्र की साधना करो !"
{(Radha Mahavidya Yantra )**देवी श्री राधा प्रेम की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती है। सनातन धर्म में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि श्री राधाष्टमी के नाम से प्रसिद्ध है। जिनके दर्शन बड़े बड़े देवताओं के लिए भी दुर्लभ है तत्वज्ञ मनुष्य सैकड़ो जन्मों तक तप करने पर भी जिनकी झांकी नहीं पाते, वे ही श्री राधिका जी वृषभानु के यहां साकार रूप से प्रकट हुई। श्री राधा रानी जी निकुंज प्रदेश के एक सुन्दर मंदिर में जब अवतीर्ण हुई उस समय भाद्र पद का महीना था, शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि, अनुराधा नक्षत्र, मध्यान्ह काल 12 बजे और सोमवार का दिन था।
श्री राधा रानी जी श्रीकृष्ण जी से ग्यारह माह बड़ी थीं। लेकिन श्री किशोरी जी ने अपने प्राकट्य से ही अपनी आंखे नहीं तबतक नहीं खोली, जबतक उनको श्री कृष्ण का दर्शन नहीं हुआ । कुछ समय पश्चात जब नन्द महाराज कि पत्नी यशोदा जी गोकुल से अपने लाडले के साथ वृषभानु जी के घर आती है तब वृषभानु जी और कीर्ति जी उनका स्वागत करती है। यशोदा जी कान्हा को गोद में लिए राधा जी के पास आती है। जैसे ही श्री कृष्ण और राधा आमने-सामने आते है। तब राधा जी पहली बार अपनी आंखे खोलती है। अपने प्राण प्रिय श्री कृष्ण को देखने के लिए, वे एक टक कृष्ण जी को देखती है, अपनी प्राण प्रिय को अपने सामने एक सुन्दर-सी बालिका के रूप में देखकर कृष्ण जी स्वयं बहुत आनंदित होते है। शास्त्रों के अनुसार ब्रह्माजी ने वृन्दावन में श्री कृष्ण के साथ साक्षात राधा का विधिपूर्वक विवाह संपन्न कराया था। बृज में आज भी माना जाता है कि राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं और कृष्ण बिना श्री राधा। धार्मिक पुराणों के अनुसार राधा और कृष्ण की ही पूजा का विधान है। राधे कृष्णा - राधे कृष्णा " 2020 में राधा अष्टमी 26 अगस्त को पड़ रहा है। मंत्र ॐ वृषभानुज्यै विद्महे कृष्णप्रियायै धीमहि तन्नो राधा प्रचोदयात॥}
पितामह के जीवन का सब कुछ अद्भुत था। जब वे आन्दुल स्कूल में प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यरत थे , उस समय भी वहाँ कई प्रकार की आश्चर्यजनक घटनायें घटित होती रहती थीं; जिनके विषय में बहुत थोड़े से लोग ही जान पाते थे। रात्रि के समय न जाने कहाँ- कहाँ से उनके निकट कुछ तांत्रिक लोग पहुँच जाया करते थे। तंत्र-विद्या से सम्बन्धित बहुत प्रकार की चर्चायें होती रहती थीं। तांत्रिक धर्म-चक्र बैठकें भी हुआ करती थीं। एक दिन अत्यन्त ही आश्चर्यपूर्ण घटना घटी थी। इस घटना को मैंने अपने पितामह के ही मुख से तब सुना था , जब वे किसी अन्य व्यक्ति को इस घटना के विषय में बता रहे थे। उनकी सभी बातों की जानकारी हमलोगों को इसी प्रकार हो जाया करती थीं। ऐसा नहीं था कि वे हमलोगों को अपने सामने बैठाकर पुराने समय की ये सब बातें सुनाते हों। दरअसल उनके पास बहुत सारे नामी -गिरामी लोग आया करते थे , जिनके साथ पितामह की कई विषयों पर चर्चा होती रहती थी। उन्हीं बातों को हमलोग बगल के कमरे से, अगल-बगल खड़े होकर सुना करते थे।
घटना इस प्रकार थी - " पितामह एक दिन काफी रात बीत जाने के बाद आन्दुल स्कूल से बाहर निकले। उस समय आन्दुल और मौड़ी एक ही गाँव हुआ करता था। अधिकांश क्षेत्र वनों के द्वारा आच्छादित था। किनारे -किनारे सरस्वती नदी प्रवाहित होती थी। हमलोग भी सरस्वती नदी के किनारे -किनारे होकर ही स्कूल आते -जाते थे। बाहरहाल , उस दिन घोर अँधेरी रात्रि में पैदल चलते-चलते पितामह कितनी दूर निकल यह उन्हें पता भी नहीं चला। हठात एक जगह पर (सरस्वती नदी के किनारे, श्मशान में ?) उन्हें एक ' मुर्दा' पड़ा हुआ दिखाई दिया।
उसी शव के ऊपर बैठकर उन्होंने उस रात 'शवसाधना ' किया था। शव साधना करने के पश्चात उनके मन में यह विचार उठा कि शीघ्रातिशीघ्र मुझे अपने गुरु के पास जाना होगा। अर्थात उसी समय खड़दह अपनी माँ रूपी गुरु के पास जाना होगा। इस प्रकार आन्दुल स्कूल से निकलकर रात में ही पैदल चलते हुए खड़दह जा पहुँचे। घर के निकट पहुँचते ही उनके मन में यह भावना उठी कि घर में घुसकर बस एक बार ' माँ ' कहकर पुकारूँगा। और मेरी पुकार सुनते ही , माँ खड़ी हुई नहीं दिखाई दीं , या उनका कोई उत्तर नहीं आया , तो मेरा शरीर नहीं बचेगा ; वहीं गिरकर नष्ट हो जायेगा।
हमारे खड़दह वाले घर (भुवन-भवन) में दरवाजे से होकर सीधे अन्दर तक प्रवेश तो किया जा सकता है। किन्तु दरवाजे के सामने ही एक ऊँचा दीवाल है , जिसके कारण बाहर से भीतर तक पूरी तरह से देखा नहीं जा सकता। (अभी भी वह दीवाल उसी प्रकार बना हुआ है, दादा के शरीर त्याग करने के बाद जब पहली बार मैं उनके घर गया था , तब सबकुछ ऐसा ही था।) वे जब बाहर वाले दुर्गा -पूजा के दालान को पारकर घर में प्रविष्ट हुए और ' माँ ' कहकर एक बार जैसे ही पुकारा, तो देखते हैं कि माँ वहाँ खड़ी हैं, तथा उनके हाथ में एक कटा हुआ डाभ (पानीवाला नारियल) है , जिसके मुख को उन्होंने हाथों से ढंक रखा है। उन्हें देखते ही बोलती हैं - " लो, मेरे बेटे , इसे पी लो ! "
वे ऐसे खड़ी थीं मानो उनकी ही प्रतीक्षा कर रही हों। यह सब सुनने से आश्चर्य होता है कि वे कैसे एक डाभ को काटकर हाथ में लिये हुए खड़ी हैं। वे कैसे जानती हैं कि मेरा पुत्र आ रहा है , तथा उसके माँ कहकर पुकारने पर , यदि उसने मुझे अपने सामने खड़ी नहीं देखा , तो उसका प्राणान्त हो जायेगा ? पितामह आन्दुल से पैदल चलते हुए खड़दह आ रहे हैं, तथा आज रात्रि में उसने शव साधना किया है , यह वे कैसे जान गयीं ? तथा आवाज लगाते ही कैसे उनकी माँ ने उन्हें डाभ पकड़ा दिया ? यह सब सुनकर आश्चर्य होता है। आज इन सब बातों की कल्पना करना भी कठिन है। किन्तु यह सब मेरे पितामह के जीवन में घटित हुआ है। [हिन्दी पृष्ठ-५१-५२ ]
.... हाँ, तो चर्चा हो रही थी कि पण्डित भूतनाथ सप्ततीर्थ बहुत सात्विक प्रकृति के थे और अपने आचार्यदेव श्री शिरीषचन्द्र मुखोपाध्य (दादा के पितामह) के आदेश को ब्रह्मवाक्य समझकर उसका पालन करते थे। बड़े भैया का और मेरा उपनयन संस्कार पण्डित भूतनाथ सप्ततीर्थ के हाथों हुआ था , इस बात को जानकर सभी प्रसन्न थे।.... यज्ञोपवीत के अवसर पर इष्ट-मित्रों के लिए प्रीतिभोज की व्यवस्था भी की जाती है। इस भोज में आन्दुल स्कूल हेडमास्टर के बहुत से (ex students) छात्र लोग आये थे। सभी एक साथ मिलकर एक कमरे में भोजन करने के लिये बैठे थे। बंगाल की परम्परा के अनुसार भोजन के अन्त में मिठाई परोसा जाता है। उस भोज की मिठाइयों में बंगाल का प्रसिद्द -संदेस था , रसगुल्ला था और साथ में "पन्तुआ" भी था। चूँकि पन्तुआ की सामग्री को पहले कड़ाही में भुना जाता है , इसलिए बहुत से सात्विक प्रकृति के लोग दुकान का बना हुआ पन्तुआ नहीं खाते हैं। चूँकि आन्दुल से आये सभी लोग भोजन के लिए एक ही साथ बैठे थे, वहाँ किसी प्रकार यह बात उठी कि पण्डित महाशय तो पन्तुआ खायेंगे नहीं , क्योंकि यह दुकान का बना हुआ है। आन्दुल के सभी लोग इस बात को जानते थे। इसलिए जब पन्तुआ परोसने वाला हर किसी को देते हुए पण्डित जी तक पहुँचा , तो किसी ने कहा - "उनको मत देना , उनको मत देना। " ठीक उसी समय पितामह उस कमरे में प्रविष्ट हुए तथा पूछा - " तुमलोग अच्छी तरह से खा रहे हो न ? " तभी उनकी दृष्टि पण्डित महाशय के पत्तल पर पड़ी , उसमें तो पान्तुआ था ही नहीं। तब उन्होंने परोसने वाले से कहा - ' भूतनाथ (पण्डित महाशय) को पन्तुआ क्यों नहीं दिया , दो ! और पत्तल पर पन्तुआ पड़ते ही इस सात्विक पुरुष -भूतनाथ ने उसे अपने मुख में डाल लिया। यह सोचकर कि जब आचार्य स्वयं आदेश दे रहे हों , तो वहाँ विधि-निषेध को मानने की बाध्यता नहीं रह जाती। ... क्योंकि कहा गया है - " विद्या गुरुमुखी !" (हिन्दी -५५)
जब वे स्कूल में हमलोगों के शिक्षक थे उसके बहुत दिनों बाद, उनके (पण्डित भूतनाथ सप्ततीर्थ के) विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बनने की बात भी स्मरणीय है। उनदिनों बंगला भाषा का अख़बार ' दैनिक-वसुमती ' बहुत प्रचलित था, एवं हमलोगों के घर में भी वही अख़बार आता था। एक दिन सुबह सुबह ' वसुमती ' के सम्पादकीय में देखा- लिखा था, ' कलकाता विश्व विद्यालय के दर्शन -विभाग में प्राध्यापक के इतने पद खाली क्यों पड़े हुए हैं? जब भूतनाथ सप्ततीर्थ हैं ही, तो उनको यह पद क्यों नहीं दिया गया है?
पढ़ कर बहुत आनन्द हुआ कि हमलोगों के स्कूल के पण्डित महाशय को विश्वविद्यालय में प्राध्यापक का पद मिलना चाहिये, जो अभी तक उन्हें नहीं मिला है। ऐसा क्यों नहीं हुआ है, यह बात समाचार पत्र के संपादकीय में लिखा है। उसके कुछ ही दिनों बाद यह सुनने में आया कि विश्वविद्यालय की ओर से पण्डित भूतनाथ महाशय को वहाँ के प्राध्यापक का पद ग्रहण करने के लिये एक नियुक्ति पत्र भेजा गया है।
बाद में सुना गया की पण्डित भूतनाथ महाशय ने विश्वविद्यालय में जाना अस्वीकार कर दिया है। उस समय विश्वविद्यालय बिल्कुल भिन्न प्रकार के हुआ करते थे। उनकी दृष्टि सदैव इस ओर लगी रहती थी कि कैसे विद्यार्थियों को अच्छी से अच्छी शिक्षा प्राप्त हो सके। विश्वविद्यालय वालों ने आपस में चर्चा की कि आखिर पण्डित भूतनाथ महाशय क्यों नहीं आना चाहते हैं?
इसकी खोज-खबर लेने पर उनलोगों को यह पता चला कि, पण्डित महाशय जिस स्कूल के छात्र रहे हैं, तथा जिसमें अध्यापन भी कर रहे हैं, उसके प्रधानाचार्य काफी अधिक आयु हो जाने के बाद भी अभी तक स्कूल में ही पढ़ा रहे हैं। इसीलिये जब तक वे स्कूल में रहेंगे, तब तक पण्डित महाशय स्कूल छोड़ कर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक का पद नहीं ग्रहण कर सकते। तब उनलोगों ने आपस में परामर्श करके, हमलोगों के आचार्यदेव शिरीष चन्द्र मुखोपाध्याय के पास विश्विद्यालय की ओर से एक अनुरोध पत्र भेजा - " अपने स्कूल के संस्कृत के शिक्षक को यदि आप हमारे विश्विद्यालय में आने की अनुमति दे देते तो बहुत अच्छा होता। "
तब आचार्यदेव ने एक दिन उनको बुलाया और कहा- " भूतनाथ !" सर्वत्र जयमिच्छेत पुत्रात् शिष्यात् पराजयम्।" -अर्थात मनुष्य हर जगह विजय पाने की आकांक्षा करता है, किन्तु , अपने पुत्र और शिष्य से पराजित होना पसंद करता है। " इसीलिये यदि तुम विश्वविद्यालय में अध्यापन करो तो मुझे बहुत आनन्द होगा। " अपने गुरुदेव के आदेश के पश्चात अगले ही दिन स्कूल की नौकरी छोड़ कर वे स्कूल की नौकरी छोड़कर विश्वविद्यालय में अध्यापन करने चले गये।
बाद में दर्शन-शास्त्र के ऊपर उनकी लिखी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। उस पुस्तक के प्रकाशित होने के पश्चात् उन्होंने उसकी एक प्रति अपने आचार्य देव को दी, तथा एक और प्रति एक आचार्य जो कलकाता के विख्यात पण्डित भी थे- उनको भी दी। उन दोनों ने पुस्तक को पढ़ा। बाद में जब वे कलकाता विश्वविद्यालय के उस आचार्य पास पहुँचे तब उन्होंने कहा - " भूतनाथ, तुम्हारा पाण्डित्य और तुम्हारी स्मरण-शक्ति कितनी प्रखर है, इस बात से सभी परिचित हैं। किन्तु इस ग्रन्थ में तुमने एक स्थान पर शुकदेव जी द्वारा कथित एक श्लोक को उद्धृत किया है , वहाँ पर तुमने जैसा लिखा है, मूल श्लोक में वैसा तो नहीं है, तुमसे ऐसी भूल कैसे हुई ?"
तब उन्होंने उत्तर दिया था-" आप लोगों से ही मैंने सीखा है--- ' विद्या गुरुमुखी!" मैं जिस समय आठवीं क्लास में पढता था तब हमलोगों के प्रधान शिक्षक (आचार्यदेव ) ने जिस भाव से उस श्लोक को कहा था, ठीक उसी प्रकार का भाव मेरे लिये भी ग्रहणीय है। इसीलिये शुकदेव के मूल श्लोक को जानते हुए भी, उसे उसी रूप में लिखने में मैंने अपने को असमर्थ पाया।" आश्चर्य होता है ! ऐसी गुरुभक्ति देख कर, बहुत आश्चर्य होता है। इस प्रकार की कितनी ही आसाधारण बातें घटित हुई हैं। "
(देखें'जीवन नदी के हर मोड़ पर'-पृष्ठ 51 से 56 तक)
श्रीमद्भागवत (11.9.28 ) में शुकदेव जी द्वारा कथित वह श्लोक है - " सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजया-ऽऽत्मशक्त्या। वृक्षान् सरीसृप पशून् खगदंशमत्स्यान् । तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय । ब्रह्मावलोक-धिषणं मुदमाप देवः ॥ (श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः ९/श्लोक: २८ ॥) जो दादा को भी बहुत प्रिय था, और अपने मनःसंयोग की कक्षा में दादा भी पण्डित भूतनाथ की तरह ही दादा भी इस मूल श्लोक के क्रम से थोड़ा अलग करके कहते थे - " ब्रह्मावलोक-धिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवः। "
तथा स्वामी जी के द्वारा कथित यह कहानी हर कैम्प कहते थे - " ईश्वर ने अपनी मायारूप अनादि आत्म-शक्ति से- वृक्ष, रेंगने वाले प्राणी, पशु, उड़ने वाले पक्षी, डंक मारने वाले मच्छर, मछली आदि अनेक प्रकार के जीवों के अनेक शरीर रचे, फिर भी उनको उनमें संतोष नहीं हुआ। तब उन्होंने मनुष्य शरीर की सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धि से युक्त है जो अपने बनाने वाले (रचयिता) 'ब्रह्म ' का साक्षात्कार करने में समर्थ है। अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति 'मनुष्य' की रचना करके वे बहुत आनन्दित हुए। बाईबिल और कुरान में इसका उल्लेख करते हुए कहा है - तब ईश्वर ने सभी फ़रिश्तों को बुलवा भेजा, और उनसे मनुष्य के सामने सिर को झुकाने, उसका अभिनन्दन करने का आदेश दिया। इबलीस को छोड़कर बाकी सबने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। इससे वह शैतना बन गया। क्योंकि जो मनुष्य-मात्र के सामने अपने सिर को नहीं झुकाता है, वही शैतान है। इस रूपक (allegory) के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। ईश्वर की निम्नतर सृष्टि -पशु आदि मन्दबुद्धि के हैं, क्योंकि वे तमोगुण से ही निर्मित हुए हैं। पशु (beast ) किसी ऊँचे तत्त्व की धारणा नहीं कर सकते। इसी तरह मानव-समाज में भी अत्यधिक-धन अथवा अत्यधिक-दरिद्रता आत्मा के उच्चतर विकास के लिए महान बाधाएँ हैं। संसार में जितने महात्मा (लीलापुरुष/अवतार /नेता / जीवनमुक्त लोकशिक्षक) पैदा हुए हैं , सभी मध्यमवर्ग के लोगों से हुए हैं। मध्यम वर्ग वालों में सब शक्तियाँ समान रूप से समायोजित और सन्तुलित रहती हैं। " (वि० सा० ख ० 1 / 53-54)
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " यदि हमारे शास्त्र (गीता, माण्डूक्य उपनिषद, गौड़पादीय कारिका , शंकर भाष्य सहित , आनन्दगिरि टीका आदि) सब व्यक्तियों को , सब परिस्थितियों में , सब समय उपयोगी न हों, तो वे किस काम के हैं ? अगर शास्त्र सिर्फ संन्यासियों के काम के हों, और गृहस्थों के नहीं , तो फिर ऐसे एकांगी शास्त्रों का गृहस्थों को क्या उपयोग है? यदि शास्त्र सिर्फ 'संग-परित्यागि ' विरक्त और वानप्रस्थों के लिए ही हों , और यदि वे दैनन्दिन जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में आशा का दीपक नहीं जला सकते , यदि वे उनके दैनिक , श्रम , रोग , दुःख ,दैन्य , परिताप में निराशा , दलितों की आत्मग्लानि , युद्ध के भय , लोभ , क्रोध , इन्द्रिय सुख , विजयानन्द , पराजय के अन्धकार और अंततः मृत्यु की भयावनी रात (कोरोना लॉकडाउन) में काम नहीं आते - तो दुर्बल मानवता को ऐसे शास्त्रों की जरूरत नहीं , और ऐसे शास्त्र शास्त्र ही नहीं हैं।" १०/२२३
{ " If the Shastras cannot help all men in all conditions at all times, of what use, then, are such Shastras? If the Shastras show the way to the Sannyasins only and not to the householders, then what need has a householder for such one-sided Shastras? If the Shastras can only help men when they give up all work and retire into the forests, and cannot show the way of lighting the lamp of hope in the hearts of men of the workaday world—in the midst of their daily toil, disease, misery, and poverty, in the despondency of the penitent, in the self-reproach of the downtrodden, in the terror of the battlefield, in lust, anger and pleasure, in the joy of victory, in the darkness of defeat, and finally, in the dreaded night of death—then weak humanity has no need of such Shastras, and such Shastras will be no Shastras at all! " (Volume 5, Sayings and Utterances: 88)}
योग-दिवस 21 जून 2021
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।।6.23।।
।।6.23।। जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है, उसी को 'योग' नाम से जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोग का लक्ष्य है,) उस ध्यानयोग का अभ्यास न उकताये हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिये।
भगवान् कहते हैं दुख के संयोग से वियोग की स्थिति योग है। यदि अग्नि की उष्णता असह्य लग रही हो तो हमें केवल इतना ही करना होगा कि उससे दूर हटकर किसी शीतल स्थान पर पहुँच जायें। इसी प्रकार यदि परिच्छिन्नता का जीवन दुखदायक है तो उससे मुक्ति पाने के लिए आनन्दस्वरूप आत्मा में स्थित होने की आवश्यकता है। यही है दुखसंयोगवियोग योग।
भगवान् कहते हैं कि इस योग का अभ्यास उत्साहपूर्ण और निश्चयात्मक बुद्धि से करना चाहिए। निश्चय और उत्साह ही योग की सफलता के लिए आवश्यक गुण हैं क्योंकि मिथ्या से वियोग और सत्य से संयोग ही योग है।
इस मार्ग पर चलने के लिये सबको उत्साहित करने के लिए भगवान् योगी को प्राप्त सर्वोत्तम लक्ष्य का भी वर्णन करते हैं। भगवान् का स्पष्ट कथन है कि जिसमें स्थित होने पर योगी तत्त्व से कभी दूर नहीं होता। यह शाश्वत सुख है जिसे प्राप्त कर लेने पर साधक पुनः कभी दुःखरूप संसार को प्राप्त नहीं होता। योग शब्द का अर्थ है संबंध। अज्ञान दशा में मनुष्य का संबंध केवल अनित्य परिच्छिन्न विषयों के साथ ही होने के कारण उसे जीवन में सदैव अनित्य सुख ही मिलते हैं। इन विषयों का अनुभव शरीर मन और बुद्धि के द्वारा होता है। एक सुख का अन्त ही दुःख का प्रारम्भ है।
क्या उस योगी को सामान्य जनों को अनुभव होने वाले दुख कभी नहीं होंगे ? क्या उसमें संसारी मनुष्यों के समान अधिक से अधिक वस्तुओं को संग्रह करने की इच्छा नहीं होगी ? क्या वह लोगों से प्रेम करने के साथ उनसे उसकी अपेक्षा नहीं रखेगा ? क्या इस प्रकार की उत्तेजनाएं केवल अज्ञानी पुरुष के लिए ही कष्टप्रद हो सकती हैं, ज्ञानी के लिए नहीं ? क्या इस आनन्द के अनुभव को जीवन की तनाव दुख कष्ट और शोकपूर्ण परिस्थितियों में भी निश्चल रखा जा सकता है ? क्या जीवन में आनेवाली कठिन परिस्थितियों में जैसे प्रिय का वियोग, हानि, रुग्णता, दरिद्रता, भुखमरी आदि में धर्म के द्वारा आश्वासित पूर्णत्व अविचलित रह सकता है ? दूसरे शब्दों में क्या धर्म धनवान् और समर्थ लोगों के लिए के लिए केवल मनोरंजन और विलास दुर्बल एवं असहाय लोगों के लिए अन्धविश्वासजन्य सन्तोष और पलायनवादियों के लिए काल्पनिक स्वर्गमात्र नहीं है ?
लोगों के मन में उठने वाली इस शंका का असंदिग्ध उत्तर देते हुए यहाँ स्पष्ट कहते हैं कि जिसमें स्थित हो जाने पर पर्वताकार दुखों से भी वह योगी विचलित नहीं होता। उपर्युक्त विवेचन का संक्षेप में सार यह है योगाभ्यास से मन के एकाग्र होने पर योगी को अपने उस परम आनन्दस्वरूप की अनुभूति होती है जो अतीन्द्रिय तथा केवल शुद्ध बुद्धि के द्वारा ग्राह्य है। उस अनुभव में फिर बुद्धि भी लीन हो जाती है। बुद्धि से वियुक्त होकर आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप में अनुभव करना ही दुखसंयोग-वियोग योग है। विषयों में आसक्ति से ही मन का अस्तित्व बना रहता है। किसी एक वस्तु से वियुक्त करने के लिए उसे अन्य श्रेष्ठतर वस्तु का आलम्बन देना पड़ता है। अत पारमार्थिक सत्य के आनन्द में स्थित होने का आलम्बन देने से ही दुखसंयोग से वियोग हो सकता है। परन्तु इसके लिए प्रारम्भ में मन को प्रयत्नपूर्वक बाह्य विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर करना होगा।
इस स्थिति में न संसार में पुनरागमन होता है न इससे श्रेष्ठतर कोई अन्य लाभ ही है। इसमें स्थित पुरुष गुरुतम दुखों से भी विचलित नहीं होता।
गीता 8 . 22 में उस परमसत्य को उद्घाटित करते हैं जिसे प्राप्त कर लेने पर योगी इससे अधिक अन्य कोई भी लाभ नहीं मानता है। आत्मज्ञान तथा आत्मानुभूति के साधन को गीता में योग कहा गया है और इस अध्याय में योग की बहुत सुन्दर परिभाषा दी गई है। इसलिए उपाधियों के साथ तादात्म्य किया हुआ जीवन दुःख संयुक्त होगा। स्पष्ट है कि योग विधि में हमारा प्रयत्न यह होगा कि इन उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग दें अर्थात् उनसे ध्यान दूर कर लें।
पूर्व उपदिष्ट साधनों के अभ्यास के फलस्वरूप जब चित्त पूर्णतया शान्त हो जाता है तब उस शान्त चित्त में आत्मा का साक्षात् अनुभव होता है स्वयं से भिन्न किसी विषय के रूप में नहीं वरन् अपने आत्मस्वरूप से।
मन की अपने ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप की अनुभूति की यह स्थिति परम आनन्द स्वरूप है। परन्तु यह साक्षात्कार तभी संभव है जब जीव शरीर मन और बुद्धि इन परिच्छेदक उपाधियों के साथ के अपने तादात्म्य को पूर्णतया त्याग देता है।
इस सुख को अतीन्द्रिय कहने से स्पष्ट है कि विषयोपभोग के सुख के समान यह सुख नहीं है। सामान्यत हमारे सभी अनुभव इन्द्रियों के द्वारा ही होते हैं। इसलिए जब आचार्यगण आत्मसाक्षात्कार को आनन्द की स्थिति के रूप में वर्णन करते हैं तब हम उसे बाह्य और स्वयं से भिन्न कोई लक्ष्य समझते हैं।
गुरु-शिष्य परम्परा :- उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है - 'समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। इसका अर्थ यह है कि जिस विद्या से परब्रह्म, अर्थात ईश्वर का सामीप्य प्राप्त हो, उसके साथ तादात्म्य स्थापित हो,वह विद्या 'उपनिषद' कहलाती है।
उपनिषदों में सबसे छोटी उपनिषद है -माण्डूक्य उपनिषद। माण्डूक्य उपनिषद में केवल 12 मंत्र हैं। और आदिगुरु शंकराचार्य के गुरूजी के गुरूजी (दादा गुरु) गौड़पादाचार्य जी ने माण्डूक्य उपनिषद की 12 मंत्रों की 215 मंत्रों से जो श्लोकबद्ध व्याख्या लिखा था उसके संग्रह ग्रन्थ का नाम है -माण्डूक्य कारिका। कारिका का अर्थ होता है श्लोक । इसके चार प्रकरण हैं। कारिका के उन चारो प्रकरणों तथा मूल उपनिषद पर शंकराचार्य जी की व्याख्या है , जिसका नाम है भाष्य। तथा आनंदगिरिजी ने आचार्य शंकर द्वारा लिखित माण्डूक्य उपनिषद के भाष्य और माण्डूक्य कारिका के व्याख्यानरूप भाष्य -दोनों ग्रन्थ पर अपनी टिकाएं लिखी है।
भारत की प्राचीन ब्रह्मविद्या में वेदान्त गुरु-शिष्य परम्परा, यह मानती है कि यह परम्परा भगवान नारायण से प्रारम्भ हुई है , और इस परम्परा के आदिगुरु (नेता) स्वयं भगवान विष्णु हैं।
इसीलिए जब हम "स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित तथा चपरास प्राप्त [ अर्थात C-IN-C का बिल्ला प्राप्त किसी नवनीदा जैसे नेता] जीवनमुक्त शिक्षक से ज्ञान प्राप्त करते हैं, तभी हम अज्ञानता और आत्मज्ञान के प्रकाश से पर्दा उठा पाने में सक्षम होते हैं।
इन्हीं सब बातों पर विचार करके महामण्डल की अंग्रेजी पुस्तिका - " A NEW YOUTH MOVEMENT" (First Print -1987) के प्रथम पृष्ठ पर ही नवनी दा ने कहा है - " No individual or organization can undertake to do all that needs to be done . It has been said in the Gita (18.25) that - that work is tamasa , which is undertaken without consideration of the result that it may yield, expenditure of money , energy , etc, chance of injuring other's interests, and the capacity to undertake and execute a plan - merely from a momentary impulse or enthusiasm , not guided by analysis and discrimination . It is not prudence to jump upon some work without thoroughly studying the pros and cons and the possibility of success ."
--अर्थात " लोक-कल्याण (जनहित) के उन समस्त कार्यों को पूर्ण कर देने की जिम्मेदारी,कोई एक व्यक्ति या कोई संस्था नहीं उठा सकती है, जिन्हें करने की आवश्यकता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (18.25) में 'तामस -कर्म' को परिभाषित करते हुए कहा है-
अनुबन्धं, क्षयं, हिंसाम् अनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहात् आरभ्यते कर्म यत् तत् तामसम् उच्यते ।।
उस कर्म को तामसिक कहा जाता है, जो कर्म अनुबन्ध (consequence) या परिणाम, हानि, हिंसा और सार्मथ्य (पौरुषम्) का विचार न करके केवल मोहवश (नाम-यश की इच्छा से प्रेरित होकर) आरम्भ किया जाता है। और तामसिक कर्म सदैव दूसरों के लिये क्षति कारक होता है।
[अनुबन्धं = किसी भी कार्य-योजना या आंदोलन में जुड़ने से पहले, उस कार्य के अन्त में होनेवाला जो परिणाम (consequence) है उसे जान लेने को अनुबन्ध कहते हैं, उस अनुबंध को। फिर क्षयं= अर्थात उस कर्म (कार्य-योजना) को पूरा के करने में जितनी शारीरिक शक्ति और धन का व्यय (क्षय) होता है, उस क्षय को जान कर कार्य का प्रारम्भ करें। हिंसाम् = हिंसा को प्राणियों की पीड़ा को; और पौरुषम् = अमुक कर्म को मैं समाप्त कर सकता हूँ ऐसी अपनी सामर्थ्य को; इस प्रकार अनुबन्ध से लेकर पौरुष तक के इन समस्त भावों की अपेक्षा न करके -- इनकी परवाह न करके, जो धर्म (समाज-सेवा) मोह से -- अज्ञान से आरम्भ किया जाता है वह तामस -- तमोगुण-पूर्वक किया हुआ कहा जाता है।]
तमोगुणी पुरुष कर्म प्रारम्भ करने के पूर्व इस बात का विचार ही नहीं करता कि उस कर्म का परिणाम (अनुबन्ध) क्या होगा तथा उसके करने में कितनी शारीरिक, आर्थिक आदि शक्तियों का क्षय अर्थात् ह्रास होगा। उसे इस बात की भी कोई चिन्ता नहीं होती कि उसके कर्म के कारण कितनी हिंसा हो रही है अथवा लोगों को कष्ट हो रहा है। ऐसे प्रमादी और उत्तरदायित्वहीन लोगों के कर्म मोहवश अर्थात् किसी भ्रान्त धारणा और हीन उद्देश्य (नाम-यश की कामना) से प्रेरित होते हैं।
अर्थात जो धर्म , जैसे ज्ञानदान (पाठचक्र या युवा प्रशिक्षण शिविर) या अन्नदान , वस्त्रदान, आदि विभिन्न प्रकार के Relief work (राहत कार्य) तो 'Heart-whole Man ' (पूर्णतया नैतिक और विशाल हृदय का मनुष्य) बनने की पात्रता अर्जित करने के उपाय मात्र हैं, यह समझे बिना ही, यदि मोहवश 'नाम-यश ' की इच्छा से प्रेरित होकर आरम्भ किया जाता है वह तामस कर्म है।
महामण्डल आन्दोलन या "Be and Make Leadership Training" गीता और उपनिषदों की शिक्षा (ब्रह्मविद्या) पर आधारित है। अतः महामण्डल आंदोलन से जुड़ने का अनुबंध तो चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण देने में समर्थ (गीता, उपनिषद आदि शास्त्रों के अध्यन -अध्यापन की योग्यता रखने वाले) नेताओं / जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण करना है। महामण्डल आन्दोलन के इस मूल अनुबन्ध को समझे बिना, किसी हीन उद्देश्य (नाम-यश की आकांक्षा) से प्रेरित होकर , या किसी क्षणिक आवेश के वशीभूत होकर उन्हें क्रियान्वित करने के कार्य में कूद पड़ने को बुद्धिमानी का कार्य नहीं कहा जा सकता।
नवनीदा कहते हैं - " जिस संगठन का उद्देश्य जितना महान होगा, सफलता की प्राप्ति उसी अनुपात में कठिनतर होगी। यह 'Be and Make ' का कार्य मानो उत्ताल तरंगों को चीरते हुए, नौका को खेते हुए तट पर पहुँचा देना जैसा कठिन कार्य है। तरंगें सर्वदा नौका को डुबो देने की चेष्टा करेंगी, तेज हवाएँ उसे कुमार्ग में धकेल देने की चेष्टा करेगी। नौका के हाल को यदि पूरी शक्ति से लक्ष्य की दिशा में ही खींचे रखा जाय, और पूरे प्राणपण से लगातार चप्पुओं को चलाते रहा जाए, सभी तूफानी थपेडों को एक-एक कर काटते हुए सतत् आगे बढ़ते जाने से ही लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है।
ऐसे किसी महान संगठन में भी खतरा दो तरफ से आ सकता है, बाहर से या भीतर से । बाहरी खतरा भी दो रूपों में आता है- ' आक्रमण ' और ' अनुप्रवेश '। इस प्रकार के कुछ ढोंगी लोग संस्था में घुस गए कि, संगठन का महान उद्देश्य- " Be and Make " तो पीछे छूट गया और पद को लेकर ही खीँच-तान चलने लगी, और संस्था की सारी गरिमा नष्ट हो गई।
... प्रसिद्द कहावत है - ' कायर या डरपोक व्यक्ति को ही झुरमुठ में भयानक भूत दिखाई पड़ता है। '- कुछ गुटबंदी (groupism) करने वाले असंतुष्ट लोग यह सोंचने लगते हैं, कि दूसरे मत के लोग कहीं हमलोगों के प्रभाव को कम तो नहीं कर देंगे ? या ये लोग कहीं हमारे ही प्रतिद्वन्द्वी तो नहीं बन बैठेंगे ? अथवा वैसे नाकाबिल नेतृत्व के मन में शंका होने लगती है, कहीं हमारे दल से जुड़े सदस्य, दूसरे गुट की तरफ तो नहीं चले जायेंगे ? (महामण्डल पुस्तिका - "नेति से ईति" -शुक्रवार, 26 जून 2009) महामण्डल का जो नेता ॐ के अर्थ को समझकर इस " Be and Make " आन्दोलन के साथ संयुक्त रहेगा वह कभी (लोकेषणा) -प्रसिद्धि पाने की इच्छा से गुटबन्दी में नहीं पड़ेगा। उसको कभी "झुरमुठ में भयानक भूत " के दर्शन भी नहीं होंगे।
इसी बात को छान्दोग्य उपनिषद् (१.१. १०) में भी बड़े सुन्दर ढंग से कहा गया है --"तेनोभौ कुरुतो यश्चैतदेवं वेद यश्च न वेद। नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति खल्वेतस्यैवाक्षरस्योपव्याख्यानं भवति ॥ १.१.१० ॥ {" That work becomes more efficient , says the Chhandyogya Upnishad (1.1.10), which is undertaken with adequate understanding , faith , conviction and sincerity , and the required know-how. With understanding of the negative and the positive aspects , if a work is taken up, it has a better chance for success.}
{i}."तेन उभौ कुरुतः यश् च एतद् एवं वेद यश् च न वेद ।" कोई कह सकता है कि ॐ के रहस्य को जाने वाला और दूसरा ॐ के रहस्य को नहीं जानने वाला अगर यज्ञ करे तो उसमे समान फल मिलेंगे। लेकिन नहीं, ऐसा नहीं है। [ॐ के] ज्ञान होने से और ज्ञान नहीं होने से फल भिन्न होते हैं। जिस कार्य को शुरू करने से पहले उसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलुओं (pros and cons) को समझकर , विद्या से या ॐ के ज्ञान से किया जाय, प्रभु के प्रति सच्ची आस्था, धारणा, श्रद्धा और विश्वास के साथ वेद विषयों के ज्ञान सहित पूर्ण किये जाये, वह कर्म अति बलवान होकर उत्तम फल प्राप्त कराते हैं । यही ॐ की विस्तृत व्याख्या है।
{ अर्थात कोई ऐसा सोच सकता है कि ॐ के रहस्य को जाने वाला ['BE AND MAKE' अर्थात "ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ" के रहस्य को जानने वाला ] और दूसरा ॐ के रहस्य को नहीं जानने वाला अगर एक ही तरह का धर्म -(समाज सेवा, Relief Work हो ज्ञान दान ) "BE AND MAKE" आन्दोलन का प्रचार-प्रसार करे, गीता -उपनिषद आदि ग्रन्थों का अध्यन -अध्यापन करे तो उसमें दोनों को समान फल मिलेंगे। लेकिन नहीं, ऐसा नहीं है।}
{ii}. नाना तु विद्या च अ-विद्या च । विद्या और अविद्या दोनों भिन्न हैं, अतः ब्रह्म का ज्ञान होने से और ज्ञान नहीं होने से फल भिन्न होते हैं। ॐ के ज्ञान, श्रद्धा और देवताओं ( deities = ईश्वर की मूर्ति पर मनःसंयोग) या विवेक-दर्शन के अभ्यास से बहुत अधिक उत्तम फल प्राप्त होते हैं। यह ॐ की विस्तृत व्याख्या है।"
{iii}. यद् एव विद्यया करोति श्रद्धया उपनिषदा तद् एव वीर्यवत्तरं भवति (विद्यया=विज्ञानेन= विशेष-विज्ञानेन सन् यदेव करोति, श्रद्धया=आस्तिक्यबुद्ध्या, उपनिषदा = उपासनेन चोपलक्षितः; तदेव कर्म वीर्यवत्तरं भवति ।)" - अर्थात वही कार्य अधिक फलोत्पादक (efficient या प्रभावशाली) होता है, या उसी कार्य में सफलता मिलने की सम्भावना अधिक होती है, जिस कार्य को इस जीव -जगत और ईश्वर के विषय में पर्याप्त समझ, श्रद्धा, विश्वास और सत्य-निष्ठा तथा Required know-How , (दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर जगत को 'ब्रह्ममय' अनुभव करने की तकनीकी जानकारी) के साथ प्रारम्भ किया जाता है।"
{iv}. इति खल्व् एतस्य एव अ-क्षरस्य उपव्याख्यानं भवति ॥ इति जो कुछ कहा गया खलु निश्चय करके एतस्यैव इसी अक्षरस्य अक्षर ॐ का उपव्याख्यानम् विशेष व्याख्यान है । अज्ञानयुक्त कर्म की अपेक्षा ज्ञान और श्रद्धा से किया हुआ कर्म अधिक लाभदायक होता है, यह बात प्रायः सर्वसम्मत ही है।
इसी कारण हिन्दू बच्चे का उपनयन संस्कार करते समय गायत्री मंत्र के साथ ॐ की दीक्षा देते हैं। वास्तव में " ॐ तत्सत् " परमात्मा के ये तीन नाम ही गायत्री है।
श्रीमद्भागवत (11.9.28 ) में शुकदेव जी द्वारा कथित वह श्लोक है - " सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजया-ऽऽत्मशक्त्या। वृक्षान् सरीसृप पशून् खगदंशमत्स्यान् । तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय । ब्रह्मावलोक-धिषणं मुदमाप देवः ॥ (श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः ९/श्लोक: २८ ॥) जो दादा को भी बहुत प्रिय था, और अपने मनःसंयोग की कक्षा में दादा भी पण्डित भूतनाथ की तरह ही दादा भी इस मूल श्लोक के क्रम से थोड़ा अलग करके कहते थे - " ब्रह्मावलोक-धिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवः। "
तथा स्वामी जी के द्वारा कथित यह कहानी हर कैम्प कहते थे - " ईश्वर ने अपनी मायारूप अनादि आत्म-शक्ति से- वृक्ष, रेंगने वाले प्राणी, पशु, उड़ने वाले पक्षी, डंक मारने वाले मच्छर, मछली आदि अनेक प्रकार के जीवों के अनेक शरीर रचे, फिर भी उनको उनमें संतोष नहीं हुआ। तब उन्होंने मनुष्य शरीर की सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धि से युक्त है जो अपने बनाने वाले (रचयिता) 'ब्रह्म ' का साक्षात्कार करने में समर्थ है। अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति 'मनुष्य' की रचना करके वे बहुत आनन्दित हुए। बाईबिल और कुरान में इसका उल्लेख करते हुए कहा है - तब ईश्वर ने सभी फ़रिश्तों को बुलवा भेजा, और उनसे मनुष्य के सामने सिर को झुकाने, उसका अभिनन्दन करने का आदेश दिया। इबलीस को छोड़कर बाकी सबने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। इससे वह शैतना बन गया। क्योंकि जो मनुष्य-मात्र के सामने अपने सिर को नहीं झुकाता है, वही शैतान है। इस रूपक (allegory) के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। ईश्वर की निम्नतर सृष्टि -पशु आदि मन्दबुद्धि के हैं, क्योंकि वे तमोगुण से ही निर्मित हुए हैं। पशु (beast ) किसी ऊँचे तत्त्व की धारणा नहीं कर सकते। इसी तरह मानव-समाज में भी अत्यधिक-धन अथवा अत्यधिक-दरिद्रता आत्मा के उच्चतर विकास के लिए महान बाधाएँ हैं। संसार में जितने महात्मा (लीलापुरुष/अवतार /नेता / जीवनमुक्त लोकशिक्षक) पैदा हुए हैं , सभी मध्यमवर्ग के लोगों से हुए हैं। मध्यम वर्ग वालों में सब शक्तियाँ समान रूप से समायोजित और सन्तुलित रहती हैं। " (वि० सा० ख ० 1 / 53-54)
इस प्रकार महामण्डल के 'Be and Make युवा -प्रशिक्षण शिविर' में भाग लेकर- श्रद्धा और विवेक-दर्शन के अभ्यास से शुरू कीजिये और अपने भाग्य का निर्माता आप स्वयं बन जाइये - ये है महामण्डल के माध्यम से स्वामी विवेकानन्द का प्रायौगिक व्यावहारिक वेदान्त (Applied Practical Vedanta) या स्वामी विवेकानन्द की 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ' का निहितार्थ !
(So start with belief (श्रद्धा , आस्था , इष्ट) and end with Destiny,(भाग्य,प्रारब्ध , अदृष्ट) So start with belief and end with Destiny - That is Vivekananda's Applied Practical Vedanta through Mahamandal !)
अतः स्वपरामर्श सूत्र (Auto -Suggestion) -"चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा !" विधि के अनुसार अपने जीवन में प्रशिक्षित नेता अर्थात चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का संकल्प ग्रहण कीजिये । एक बार जो श्रेय-प्रेय विवेक द्वारा 'चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ' का संकल्प ग्रहण कर लिया , या व्रत ले लिया, फिर जरा-सी तकलीफ होने पर छोड़ दिया तो फिर आप कोई भी कठिन काम करने में समर्थ नहीं होंगे। महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 नियमों का अभ्यास नहीं कर सकते वे संसार में कोई महान् कार्य नहीं कर सकते। जब कोई महान काम आप संसार में करेंगे तो आपको आत्मबल चाहिए - मनोबल चाहिए - ‘नायं आत्मा बलहीनने लभ्यः’। इसलिए 'Poet King ' राजा कवि भर्तृहरि कहते हैं - उत्तम मनुष्य किसी कार्य को अधूरा नहीं छोड़ते-
आरभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः,
आरभ्य विघ्नविहिता विरमन्ति मध्याः।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः,
प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति।।
इस संसार में नीच, मध्यम और उत्तम ये तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं; जिनमे से नीच प्रकार के मनुष्य तो आने वाली विध्न-बाधाओं के डर मात्र से ही किसी उत्तम कार्य की शुरुआत ही नहीं करते; और मध्यम प्रकार के मनुष्य कार्य की शुरुआत तो करते हैं लेकिन छोटी-छोटी परेशानियों के आते ही काम को अधूरा छोड़ देते हैं। लेकिन ‘उत्तमजना: प्रारब्धं विघ्नै: पुन: पुन: प्रतिहन्यमाना: अपि न परित्यजन्ति।’ परन्तु उत्तम मनुष्य ऐसे धैर्यवान होते हैं जो प्रारब्ध वश बार-बार विपत्तियों के घेर लेने पर भी अपने हाथ में लिए गए काम सम्पूर्ण किये बिना कदापि नहीं छोड़ते।
स्वामी विवेकानन्द माण्डूक्य उपनिषद के शांतिमन्त्र में उल्लेखित "अरिष्टनेमि -सुदर्शनचक्र " का स्मरण करते हुए 25 सितंबर 1894 को लिखित एक पत्र में कहते हैं - " हमें तहलका मचाना ही होगा, इससे कम में किसी तरह नहीं चल सकता। कुछ परवाह नहीं। इस तरह सारी दुनीया में प्रलय मच जायेगी, वाह! गुरु जी का खालसा , वाहे गुरूजी की फतह ! अरे भाई, श्रेयांसि बहुविघ्नानि —अच्छे कर्मों में कितने ही विघ्न आते हैं। किन्तु उन्ही विघ्नों की रेल पेल में यथार्थ मनुष्य का निर्माण होता है।मिशनरी फिशनरी का काम थोडे ही है जो यह धक्का सम्हाले!... बड़े – बड़े बह गये, अब गड़ेरिये की क्या मजाल है, जो थाह ले? यह सब नहीं चलने का भैया, कोई चिन्ता न करना।"
{ ‘বাহ গুরুকা ফতে!’ আরে দাদা ‘শ্রেয়াংসি বহুবিঘ্নানি’ (ভাল কাজে অনেক বিঘ্ন হয়), ঐ বিঘ্নের গুঁতোয় বড়লোক তৈরী হয়ে যায়। বলি মিশনরী-ফিশনরীর কর্ম কি এ ধাক্কা সামলায়? এখন মিশনরীর ঘরে বাঘ সেঁধিয়েছে। এখানকার দিগ্গজ দিগ্গজ পাদ্রীতে ঢের চেষ্টা-বেষ্টা করলে—এ গিরিগোবর্ধন টলাবার যো কি। মোগল পাঠান হদ্দ হল, এখন কি তাঁতীর কর্ম ফার্সি পড়া? ও সব চলবে না ভায়া, কিছু চিন্তা করো না। "
Victory to the Guru! You know, श्रेयांसि बहुविघ्नानि — Great undertakings are always fraught with many obstacles." It is these obstacles which knock and shape great characters. ... Is it in the power of missionaries and people of that sort to withstand this shock? ... Should a fool succeed where scholars have failed? It is no go, my boy, set your mind at ease about that. In every attempt there will be one set of men who will applaud, and another who will pick holes. Go on doing your own work, what need have you to reply to any party? "सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः — Truth alone triumphs, not falsehood. Through Truth lies Devayâna, the path of gods" (Mundaka, III. i. 6). Everything will come about by degrees. }]
स्वामी विवेकनन्द ने कहा है - " शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य है, मनुष्य का निर्माण। वैसा ' मनुष्य ' (सच्चरित्र) बनो जो अपना प्रभाव सब पर डालता है। जो अपने संगियों के उपर मानो जादू सा कर देता है, जो इच्छाशक्ति का एक महान केंद्र (Dynamo) है, और जब ऐसा मनुष्य तैयार हो जाता है, वह जो चाहे कर सकता है...महान धर्माचार्यों या पैगम्बरों (बुद्धदेव, ईसामसीह, मोहम्मद, नानक, श्रीरामकृष्ण आदि) के जीवन को देखो, उन्होंने अपने जीवन-काल में ही सारे देश को झकझोर कर रख दिया था...उन महापुरुषों में ऐसा क्या था कि शताब्दियों के बाद भी लोग उनके बताये रस्ते पर चलने की बातें करते हैं ? उनका वैसा सुंदर चरित्र और व्यक्तित्व ही था जिसने यह अन्तर पैदा किया " (४/१७२)
* चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा *
" मैं पूरी दृढ़ता के साथ संकल्प लेता हूँ कि मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूंगा, क्योंकि केवल इसी प्रकार मैं जगत का सर्वाधिक कल्याण करने में सक्षम हो सकता हूँ। मेरा सुन्दर चरित्र ही एक सुन्दर-समाज का निर्माण कर मेरी प्रिय मातृभूमि भारतवर्ष को सुन्दर और महान बनाने में मेरी सहायता करेगा।
" मैं जानता हूँ कि चरित्रवान मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता होता है, अतः इसी चरित्रबल से मैं अपना भी सर्वाधिक कल्याण कर पाउँगा। चरित्र के बिना लौकिक उन्नति अथवा आध्यात्मिक उन्नति के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना सम्भव नहीं है।
" क्योंकि स्वामी विवेकानन्द अपनी शिक्षाओं की प्रतिमूर्ति हैं, इसीलिये मैं प्रति दिन उनके चित्र पर अपने मन को इस तरह एकाग्र करने का अभ्यास करूँगा कि उनका जीवन्त स्वरुप मेरे चित्त की गहरी परतों में बस जाये।"
" मैं जानता हूँ कि मैं स्वयं को एक चरित्रवान मनुष्य के साँचे में ढाल सकता हूँ। इसी लिये इस उद्देश्य को सिद्ध करने के मार्ग में आने वाले किसी भी बाधा या विघ्न को कभी प्रश्रय नहीं दूंगा। तथा धैर्य और अध्यवसाय के साथ बिना आलस्य किये इस उद्देश्य के सिद्ध हो जाने तक निरन्तर प्रयत्न करता रहूँगा। मैं अवश्य सफल होऊंगा, क्योंकि मैं उस अनन्त शक्ति के प्रति अटूट विश्वास रखता हूँ जो मुझमें अन्तर्निहित है।"
दिनांक /हस्ताक्षर
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उपरोक्त कथन को एक कागज पर लिखिए तथा उसके नीचे अपना हस्ताक्षर करके आज की तारीख डाल दीजिये। अपनी इस वचनबद्धता को प्रतिदिन कई बार पढिये, विशेष रूप से रात में सोने से पहले तथा सुबह नीन्द से उठने के तुरन्त बाद बहुत ध्यान पूर्वक पढिये, तथा आपने चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का जो संकल्प-ग्रहण किया है उसको साकार करने के कार्य में जुट जाइये।
आप देखेंगे कि केवल छः महीनों में ही आपका चरित्र पहले से अच्छा बन गया है, और आपका आत्मविश्वास बहुत बढ़ चुका है। इस प्रक्रिया की सफलता के सम्बन्ध में कोई सन्देह ही नहीं है, आप इसका परिक्षण करके स्वयं देख सकते हैं।
इस प्रक्रिया को अपनाने से सुन्दर चरित्र बनता ही है- यह कोई चमत्कार नहीं है। बल्कि यह एक ऐसा भृंगी-कीट न्याय (प्राकृतिक नियम , साहचर्य का नियम - Law of Association) है, जो आपकी आज्ञा का पालन करने को बाध्य है। ! }
स्वामी विवेकानन्द के चरित्र में कौन कौन से ऐसे सदगुण हैं, जो विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से , हमारे विवेक-स्रोत को उद्घाटित कर देते है ? निम्नलिखित तालिका में चरित्र के उन्हीं गुणों की सूचि दी गयी है , जिन्हें ठीक से समझ कर उन्हें क्रमशः आत्मसात करते जाने से हमारा चरित्र निश्चित रूप से अच्छा बन जायेगा।
चरित्र के गुण :
1. आत्म-श्रद्धा
2. आत्म-विश्वास
3. सच्चाई
4. स्पष्ट-विचारण
5. साहस
6. संकल्प
7. ईमानदारी
8. निष्कपटता
9. उद्यम
10. अध्यवसाय
11. साधन-सम्पन्नता
12. सहन-शीलता
13. भद्रता
14. सहानुभूति
15. विश्वसनीयता
16. आत्म-संयम
17.आत्म-निर्भरता
18. धैर्य
19. सेवा परायणता
20.संतुलन
21. निःस्वार्थपरता
22. अनुशासन की भावना
23. स्वच्छता
24. सामान्य बुद्धि
आत्म-मूल्यांकन तालिका
(श्री ----------------------)
केवल तुम्हारा चरित्र-बल ही तुम्हें अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता प्रदान करता है। क्या तुम्हें अपना निश्चित जीवन-लक्ष्य ज्ञात है ? यदि नहीं, तो इसी समय अपने जीवन का एक निश्चित लक्ष्य निर्धारित कर लो और यहाँ नीचे लिखो। यदि अपने अन्तर्निहित विवेक-शक्ति का प्रयोग करते हुए निम्न लिखित गुणों को जीवन में धारण कर लोगे तो तुम निश्चित रूप से तुम एक चरित्रवान मनुष्य बन सकोगे।
मेरा निश्चित जीवन -लक्ष्य है : " -----------------------------------"
प्रत्येक निश्चित अन्तराल के बाद- (साप्तहिक , पाक्षिक या मासिक ) आत्म-समीक्षा करो और उपरोक्त गुणों के सामने जो तुम अपनाने योग्य समझते हो, एक " श्रेणीकरण चिन्ह " या मानांक लगाओ.
80 % व अधिक के लिये - ' A '
70 % व अधिक के लिये - 'B'
60 % व अधिक के लिये - 'C'
50 % व अधिक के लिये - 'D'
40 % से कम के लिये .. .... ' E '
हर एक गुण के मानांक को क्रमशः बढ़ाते जाओ तथा आगे के मार्गदर्शन हेतु -स्थानीय अथवा केन्द्रीय महामण्डल सचिव के साथ सम्पर्क में रहो।
स्मरण रखो कि इनमें से प्रत्येक गुण तुम्हारे लिये आवश्यक है, एवं केवल तुम स्वयं ही अपने संकल्प और चेष्टा से इन गुणों को बढ़ा सकते हो। इन गुणों पर चिन्तन करो और प्रतिदिन कोई भी कार्य या व्यव्हार करते समय विवेक का प्रयोग करके इस प्रकार करो, जिससे इन गुणों में से कोई एक या एकाधिक गुण को जीवन में धारण करने और उसे बढ़ाने में सहायता मिलती हो।
विवेक-प्रयोग का अभ्यास जिस प्रकार निरंतर सभी अवस्था में करोगे, उसी प्रकार प्रतिदिन/ प्रतिसप्ताह/१५ दिन बाद या महीने में एक बार आत्म-समीक्षा भी करो कि तुमने कौन से गुण को कितना अर्जित किया है। फिर उसको तालिका में अंकित कर दो। ऐसा करते रहने से तुम देखोगे, कि कुछ महीनों में ही तुमने चरित्र-निर्माण में कितनी उत्तम प्रगति कर ली है !
इस प्रयक्ष-प्रमाण को देखने से तुमको एक ऐसे अपूर्व आनन्द का अनुभव होगा, जो तुम्हें आत्म-विकास में निरन्तर आगे बढ़ते रहने के लिये अदमनीय उत्साह और उर्जा से भरपूर कर देगा!
{ गुरुवार, 24 सितंबर 2015 : 'चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया'' (SVHS -35 /The Method of Character-Building)}
ऐसा जादुई नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) आप्तकाम हो जाते हैं। आप्तकाम वो होता है - जिसको सब कुछ प्राप्त है, उसके अंदर कोई इच्छा नहीं रहेगी। और किसी व्यक्ति के अन्तःकरण में जितनी अधिक इच्छायें होती हैं, उस व्यक्ति को उतना दुर्बल माना जाता है। और वह व्यक्ति जितना अधिक इच्छारहित होता जायेगा , निष्काम होगा उसी अनुपात में वह शक्तिमान होता जायेगा। और जिसके अंदर बिल्कुल एक भी इच्छा न हो वह सबसे अधिक शक्तिशाली होगा। (नेता होगा या होगा)।
भोग की इच्छायें मनुष्य को दुर्बल बना देती हैं। और इच्छा का बीज है अज्ञान ,अध्यास अविद्या या देहाध्यास ! जो अध्यास -वान (अज्ञानी?) हैं और संसार के भोगों में आसक्त हैं ,वे अपने-आप को बहुत कमजोर समझते हैं। इसलिये यदि किसी सत्संग/या कैम्प में भी जाते हैं, तो जिन विषयों के प्रति उनमें राग या आसक्ति है, उन उन वस्तुओं की खोज या माँग वहां भी करते रहते हैं।
और वैसे व्यक्ति जो संसार की विषय-भोगों की कामना से विरक्त तो हो गए हैं ,जिसके अंदर सांसारिक इच्छा का 'बीज' तो नहीं है ; लेकिन ईश्वर की कृपा से जो अभी तक पूर्णरूप से अध्यास-मुक्त (D-Hypnotized) नहीं हो सके हैं। तब उनमें भी इच्छा रहेगी मुक्त होने की, मुक्ति के साधनरूप ज्ञान की। ऐसी कोई न कोई कामना या इच्छा तो उनमें रहेगी।
ऐसे ही लोगों को कहा जायेगा 'मुमुक्षु'। इच्छावान व्यक्ति अभीष्ट पदार्थ को प्राप्त करने में जब अपनेआप को कमजोर देखता है , तब उस पदार्थ को प्राप्त करने में किसी न किसी का सहयोग लेना चाहता है।और वह मुमुक्षु भी मुक्ति को माँगता ही रहेगा। इच्छा है तो उस इच्छा को पूर्ण करने के लिए पदार्थ में प्रस्ताव रखती ही रखती है। तब वो देखता/सुनता है कि 'अमुक नेता' (नवनीदा) अधिक बलवान है। उसके अंदर सामर्थ्य है कि वो मेरे अभीष्ट को उपलब्ध करा सकता है।
{ इसलिए कोई -कोई मुमुक्षु सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान परमात्मा से प्रार्थना करता है , कि हमें किसी ऐसे नेता के पास ले चलो जिनसे हमें अध्यास-रोग से मुक्ति दिलाने वाला ज्ञान (मनःसंयोग का प्रशिक्षण) प्राप्त हो। गुरु खोजने के लिए 1986 में कुम्भ मेला भी चला जाता है, लौटकर 1987 में देखता है कि असली बलवान नेता तो C-IN-C -नवनीदा हैं। }
तो जो अभी बिल्कुल संसारी है , संसार में घोर रूप से आसक्त हैं उनकी अपेक्षा तो मुमुक्षु अवश्य बलवान है , लेकिन मोक्ष के प्रति, ज्ञान के प्रति (परम् सत्य को जानने के प्रति) अपने आप को दुर्बल समझता है। इसलिए वैसे गुरु या नेता जो स्वयं मुक्त हो चुके हैं , और जो सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं , उनसे अपेक्षा करता है , कि वे हमें मुक्ति दिलाने वाली विद्या या ज्ञान प्रदान करो ! किसी जिज्ञासु (सत्यार्थी) की ऐसी प्रार्थना होती है न ?
यदि श्रीकृष्ण खाली वृन्दावन (खरदाह) में होंगे , हरिद्वार (कोन्नगर) में नहीं होंगे तो उनको विष्णु कैसे कहा जायेगा ? विष्णु का अर्थ है व्यापक। इसलिए कृष्ण को कहा जाता है -नित्यानन्द। तो यदि नित्य आनन्द केवल वृन्दावन में ही रहेगा , तो केवल वृन्दावन में रहने वालों को ही वो नित्य आनंद मिलेगा। काशी में रहनेवालों को जगन्नाथपुरी में रहने वालों को , बद्रीनाथ में रहने वालों को, हरिद्वार में रहने वालों को नित्यानन्द नहीं मिलता है क्या ? इसलिए नित्यानन्द का अर्थ है आत्मा , प्रत्यग आत्मस्वरूप ! सम्पूर्ण जगत का अधिष्ठान है -उसी को सत् शब्द बताया गया न !
उसीप्रकार श्रीरामकृष्णदेव नामधारी जो परमात्मा है, उन्हें हम नमस्कार करते हैं।
उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द के गुरु ब्रह्मस्वरुप अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव के नाम को जानने वाले केवल बंगाल में या कामारपुकुर में होंगे और यदि न्यूयॉर्क में नहीं होंगे ? तो उनको विष्णु कैसे कहा जायेगा ? इसलिए श्रीरामकृष्णदेव ही नित्यानन्द राय - नित्य आनन्द स्वरुप हैं। यदि यह नित्य आनंद केवल कामारपुकुर में ही रहेगा , तो केवल कामारपुकुर में रहने वालों को ही वो नित्य आनंद मिलेगा। तो सम्पूर्ण विश्व में रहने वालों को - अमेरिका , इंग्लैण्ड , रूस , चीन , जापान, अरब में रहने वालों को वो नित्यानन्द नहीं मिलता है क्या ? इसलिए नित्यानन्द का अर्थ है आत्मा , प्रत्यग आत्मस्वरूप ! जो सम्पूर्ण जगत का अधिष्ठान है -उसी को सत् शब्द बताया गया न! और वो हैं ब्रह्म नामधारी भगवान श्री रामकृष्ण देव ही।और श्रीरामकृष्णदेव देशतः अपरिच्छिन्न हैं - माने Beyond Time and Space ,समय और स्थान से परे हैं ! उनके इस विशेषत्व को दिखाने के लिये उन्हें कहा - परिपूर्णपरिज्ञानपरितृप्तिमते सते ।
स्वामीजी ने कहा था, " जो सनातन, असीम, सर्वव्यापी एवं सर्वज्ञ हैं, वे कोई व्यक्तिविशेष नहीं - तत्व हैं, और जिस व्यक्ति (श्रीरामकृष्ण) के भीतर यह यह अनन्त तत्व जितना अधिक प्रकाशित होता है, वे उतने ही महान होते हैं। बाकी समस्त मनुष्यों को उनकी पूर्ण प्रतिमूर्ति बनना होगा। एकात्मता की अनुभूति करने के अतिरिक्त धर्म और कुछ नहीं है, तथा प्रेम ही इसका साधन है। "
" ज्ञानात् एव तु कैवल्यम् इति शास्त्रेषु डिण्डिमः ॥ ९७॥ " ऋतेः ज्ञानात् न मुक्तिः - अर्थात ज्ञान (आत्मबोध) के बिना मोक्ष या मुक्ति संभव नहीं है। - भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले इस कथन से यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारतीय परंपरा में ज्ञान का अर्थात् 'विद्या' का क्या स्थान है। इसलिये प्राचीन समय में ही " गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" (अर्थात Be and Make) का भारतीय जन-जीवन में बहुत महत्व रहता आया है।
सौ वर्ष के जीवन की कामना करने वाले भारतीय ऋषियों ने जीवन को चार भागों में बांटा था, यह प्रत्येक भाग 25 वर्ष की अवधि का था। ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और अंतिम था संन्यास आश्रम। ब्रह्मचर्य (ब्रह्म या सत्य का अनुसन्धान करने की पात्रता अर्जित करना - जो आज रूढ़ हो गए अर्थ के बिलकुल इतर है।) गुरुकुल में प्रवेश से शुरु होता था, पच्चीस वर्ष में कई विद्याओं और विधाओं में पारंगत होकर जब व्यक्ति लौटता था तो उसके योग्य चयन से उसका विवाह संपन्न होता था।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करने के लिए ये चार आश्रम थे। ब्रह्मचर्य आश्रम में केवल धर्म (अर्थात शिक्षा) ही होता था, गृहस्थ सर्वोत्तम आश्रम माना जाता था। क्योंकि इस आश्रम में धर्म के साथ ही अर्थ और काम की भी प्राप्ति होती थी। (जिससे चारो आश्रमों को अवलंबन मिलता था।) वानप्रस्थ समाज-सेवा की साधना की तरफ पहला कदम था, जो मोक्ष का लक्ष्यकर चलता था। संन्यास का एकमात्र लक्ष्य मोक्ष ही था। योग वसिष्ठ में महर्षि वसिष्ठ भगवान श्रीराम को कहते हैं -
ज्ञानवान् एव सुखवान्, ज्ञानवान् एव जीवति।
ज्ञानवान् एव बलवान्, तस्मात् ज्ञानमयो भव।।
जीवन्मुक्ति-सुखप्राप्ति हेतवे जन्मधारितम् ।
आत्मना नित्यमुक्तेन न तु संसारकाम्यया ।।
अर्थात् - वह नित्यमुक्त आत्मा किसी सांसारिक कामना से नहीं, अपितु जीवनमुक्ति के सुख का आस्वादन करने के लिए ही जन्म लेती है।
महाभारत में एक जगह राजा युधिष्ठिर देवर्षि नारद जी से पूछते हैं कि सनातन धर्म क्या है ? इसके उत्तर में नारद कहते हैं,नारद उवाच - नत्वा भगवतेऽजाय लोकानां धर्मसेतवे । वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायणमुखात् श्रुतम् ॥ {श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ७/अध्यायः ११) मनुष्यों के धर्म सेतुस्वरुप भगवान को प्रणाम करके मैंने स्वयं नारायण के मुख से सनातन धर्म के विषय में जो सुना है , वह तुम्हें कहता हूँ। इसके बाद वे भगवान के मुख से सुने सनातन धर्म की परिभाषा मे जो कुछ कहते हैं, उसकी तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।
जब हमलोग अनौपचारिक ढंग से बातचीत करते हैं तो कहते हैं कि स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण तो ईश्वर ईश्वर कहकर पागल हो गये थे। किन्तु उनके शिष्य होने से भी स्वामी विवेकानन्द आधुनिक शिक्षा में शिक्षित थे, देश-विदेश घुमे थे, गरीबों के लिये आँखों से कितना अश्रु बहाते थे, देश के उन्नति की बात कहते समय वे कहते थे कि मैं समाजवाद में विश्वास करता हूँ, या शयद कहीं वे सेक्युलर साम्यवादी तो नहीं थे ? जो हो , नारदजी "वक्ष्ये सनातनं धर्में " कहने के बाद कहते है-
अन्नाद्यादेः संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हतः ।
तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव ॥ १० ॥
--अर्थात - समाज में अन्नादि जो कुछ भी उत्पन्न होगा, उस सकल घरेलू उत्पाद (GDP) को समाज के समस्त सामान्य लोगों में जिसकी जितनी आवश्यकता हो, उसी हिसाब से वितरण करना होगा। लेकिन उस 'सकल घरेलू उत्पाद' का जनता को उनकी आवश्यकतानुसार वितरण करने की जिम्मेदारी जिन नेताओं , राज्य-कर्मचारियों या व्यापारियों पर होगी, उनको वितरण करते समय यह यह मनोभाव रखते हुए वितरण करना होगा कि " तेष्वात्म-देवताबुद्धिः"; -अर्थात वे सभी मनुष्य हमारे ही आत्मास्वरुप देवता (शिवजी) हैं, इस ज्ञान से देना होगा। (शिव ज्ञान से जीव सेवा करना ) इसको कहते हैं- सनातन धर्म !!
स्वामीजी ने कहा था, जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा है, मेरा समस्त धर्म उसको रोटी खिलाना ही है। जो ईश्वर भूखे को एक मुट्ठी अन्न नहीं दे सकता, जो किसी विधवा के अश्रु नहीं पोछ सकता, वैसे ईश्वर पर मैं विश्वास नहीं करता। स्वामी जी ने यह भी कहा था, " उस व्यक्ति के धर्म की नीति में (या शिक्षानीति में) किसी के प्रति शत्रुता या या उत्पीडन का स्थान नहीं हो सकता। उसके हृदय में प्रत्येक नर-नारी देवस्वभाव स्वीकृत होंगे। और उसकी समस्त शक्ति मनुष्यजाति को उसके अन्तर्निहित देवस्वभाव की अनुभूति करने में सहायता करने में ही व्यय होगी।" ऐसे धर्म (या शिक्षा) को ही सनातन धर्म कहते हैं।
स्वामीजी ने कहा था, " एक आश्चर्यजनक सत्य मैंने अपने गुरुदेव से सीखा, वह यह है कि संसार में जितने धर्म हैं, वे परस्पर विरोधी नहीं हैं, वे केवल एक ही चिरन्तन शास्वत धर्म के भिन्न भिन्न भाव मात्र हैं। यही एक सनातन धर्म चिर काल से समग्र विश्व का आधारस्वरुप रहा है और चिर काल तक रहेगा, और यही धर्म विभिन्न देशों में, विभिन्न भावो में प्रकाशित हो रहा है। "(7/261)
{मंगलवार, 22 जनवरी 2013/$@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [65-29 A] " धर्म सनातन "(धर्म और समाज)}
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उपनिषदों में सबसे छोटी उपनिषद है -माण्डूक्य उपनिषद। इसमें केवल 12 मंत्र हैं। ईशावास्योपनिषद में 18 मंत्र हैं। आदिगुरु शंकराचार्य के गुरू के गुरूजी (दादा गुरु) गौड़पादाचार्य जी ने माण्डूक्य उपनिषद के 12 मंत्रों की व्याख्या करते हुए जिन 215 श्लोकों की रचना की है उस ग्रन्थ का नाम है -माण्डूक्य कारिका। कारिका कहते हैं , श्लोकबद्ध व्याख्या को।माण्डूक्य कारिका के उन चारो प्रकरणों पर तथा मूल माण्डूक्य उपनिषद पर शंकराचार्य जी ने व्याख्या की है , उसका नाम है भाष्य। दोनों ग्रन्थ पर आनन्दगिरि जी ने टीका लिखी है। माण्डूक्य उपनिषद के अर्थ को प्रगट करने वाले जो श्लोक हैं , वे 215 श्लोक गौड़पादाचार्य जी के द्वारा रचित हैं। और गौड़पादाचार्य जी ऐसे सुंदर श्लोकों की रचना किसकी कृपा से करने में समर्थ हुए ? तो कहा कि - नारायण प्रसादतः प्रतिपन्नान् ! नारायण कौन हैं ? श्रीमत नारायण जो ब्रह्मविद्या-परम्परा के प्रथम आचार्य हैं।
सनातन धर्म में वेदान्त दर्शन की गुरु परम्परा भगवान् नारायण से प्रारम्भ होती है। इसलिए भारत की ब्रह्मविद्या -सम्प्रदाय की गुरु-शिष्य परम्परा को 'नारायणं पद्मभवं वशिष्ठं ' कहा जाता है। एवं परम पुरुष भगवान नारायण ( विष्णु ) को ही आदि गुरु माना जाता है। और इसी कार्य को करने के लिए नारायण भगवान हर युग में अवतरित होते रहते हैं। इसके लिए ही उन्होंने गीता में प्रतिज्ञा की है- सम्भवामि युगे युगे ! गुरु-पूजन स्तोत्र में कहा गया है --
‘नारायणं पद्मभवं वशिष्ठं, शक्तिं च तत्पुत्र पराशरं च।
व्यासं शुकं गौडपदं महान्तं, गोविन्दयोगीन्द्र मथास्यशिष्यम् ॥
श्रीशंकराचार्य मथास्य पद्मपादं च हस्तामलकम् च शिष्यान्।
तं त्रोटकं वार्तिककारमन्यान्, अस्मद् गुरून्सन्तत मानतोस्मि।।’
अर्थात् आदि गुरु नेता भगवान् नारायण के पुत्रशिष्य हुए स्वयम्भू ब्रह्माजी, ब्रह्माजी के पुत्रशिष्य हुए ब्रह्मर्षि वशिष्ठ, ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के पुत्रशिष्य हुए महर्षि शक्ति, महर्षि शक्ति के पुत्रशिष्य हुए महर्षि पराशर, महर्षि पराशर के पुत्रशिष्य हुए ब्रह्मसूत्र के रचनाकार श्रीकृष्ण द्वैपायन बादरायण महर्षि वेदव्यास, महर्षि व्यास के पुत्रशिष्य हुए ब्रह्मरात शुकदेवजी, ब्रह्मरात शुकदेवजी के शिष्य हुए गौड़पाद, गौड़पाद के शिष्य हुए महायोगी गुरु गोविन्दपाद, गुरुगोविन्दपाद के शिष्य हुए भगवत्पाद शंकराचार्य, जगद्गुरु भगवत्पाद आदि शंकराचार्य के चार शिष्य हुए: 1. पद्मपाद 2. वार्तिककार सुरेश्वर 3. हस्तामलक 4. त्रोटक ॥
और नारायण की इसी प्रतिज्ञा के अनुसार जब आधुनिक युग में लार्ड मैकाले की नास्तिक बनाने वाली , आत्मश्रद्धा रहित बनाने वाली शिक्षानीति के दुष्प्रभाव को भारत से समाप्त करना अनिवार्य हो गया , तब वही भगवान नारायण एक बार फिर 18 फरवरी 1836 को - विश्वगुरु स्वामी विवेकानन्द के गुरु - प्रथम युवा नेता भगवान विष्णु के अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव के रूप अवतरित होते हैं। और अपने प्रिय शिष्य नरेन्द्रनाथ को लिखित चपरास देते हैं - 'नरेन् शिक्षा देगा' और इस प्रकार ब्रह्मविद्या के संन्यासी सम्प्रदाय की गुरु-शिष्य परम्परा (श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा) एक बार पुनः संस्थापित हो जाती है।
फिर चुकी भगवान भाष्यकार शंकराचार्य जी की यह इच्छा थी कि भारत के गाँव-गाँव में रहने वाले साधारण गृहस्थों में भी ('माण्डूक्य उपनिषद और माण्डूक्य कारिका ' के भाष्यग्रंथ में वर्णित) ब्रह्म-विद्या का सम्पूर्ण भारतवर्ष में पुनः प्रचूर अध्यन -अध्यापन हो, खूब प्रचार -प्रसार हो। इसलिए जब 'स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ' के प्रचार-प्रसार करने के लिए भाष्य-ग्रन्थ का अध्यन -अध्यापन करने के लिए चपरास प्राप्त गृहस्थ नेताओं का बहुत बड़ी संख्या में निर्माण करना अनिवार्य हो गया था। तब 1967 में स्वामी विवेकानन्द -अद्वैत आश्रम मायावती के गृहस्थ संस्थापक कैप्टन सेवियर ' Be and Make Leadership Training Tradition ' के प्रथम आचार्य (C-IN-C) श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के नेतृत्व में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' को आविर्भूत होना पड़ा।
*नमस्कार्य कौन है *
मनुष्य को सच्चे अर्थों में 'मनुष्य' या ब्रह्मविद (ब्रह्म अवलोक धिषणं मनुष्य ) बना देना ही नवनी दा के मन का स्वाभाविक मनोभाव था ! क्योंकि उनके मुख से मैं इसी कहानी को विगत 35 वर्षों से सुनता आ रहा हूँ -तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ (11 -9 -28 श्रीमद्भागवतपुराण)-अर्थात विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई और, इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप (रेंगकर चलने वाले), पशु, पक्षी, दंश -या ढंक (डंक) मारने वाले को "हिन्दी में क्या कहते हो भाई ?" तो कीड़े-मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ।-परन्तु ,उस सृजन से विधाता को सन्तुष्टि नहीं हुई, क्योंकि उन प्राणियों में उस परमचैतन्य की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हो सकी थी। अत: अन्त में विधाता ने मनुष्य का निर्माण किया, उसकी चेतना इतनी विकसित थी कि वह- अपने बनाने वाले को भी जान सकता था ! और अपने इस रचना को देखकर ब्रह्म अत्यन्त प्रसन्न हो गये! (पुरुषं विधाय व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवा !) मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव है जो अपने बनाने वाले को भी जान सकता है ! उन्होंने सभी देवदूतों को बुलवाकर कहा - तुम लोग इसके सामने सिर को झुकाओ, इब्लीस को छोड़ सबने वैसा किया -अल्ला ने कहा दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया ! इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सब प्राणियों की अपेक्षा, यहाँ तक देवताओं की अपेक्षा भी श्रेष्ठ है।
हमलोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य का सही रूप में 'मनुष्य बन जाना' (মানুষ হয়ে ওঠা); या मनुष्य को सही 'मनुष्य (ब्रह्मविद) बना देना।' नवनी दा की संगीत रागिनी-में बार-बार दुहराया जाने वाला आलाप था- 'BE AND MAKE' अर्थात " स्वयं ब्रह्मविद मनुष्य बनो और दूसरों को 'मनुष्यत्व' अर्जित करने में सहायता करो।"
परन्तु जब तक हम अपने को ' यथार्थ मनुष्य' या विवेकी मनुष्य (ब्रह्मविद मनुष्य) नहीं, केवल मानव-शरीर (पुरुष/स्त्री) ही मानते रहेंगे , तब तक हमें अपना स्वरुप यही प्रतीत होता रहेगा कि - मैं कर्ता हूँ , मैं भोक्ता हूँ ! [इस भ्रम (भेंड़त्व) की अवस्था में भ्रमित 'नेता' ? को लगेगा कि - मैं प्रेसिडेन्ट हूँ। मैं सेक्रेटरी हूँ , आध्यात्मिक संगठन का नहीं , राजनितिक दल का लीडर हूँ, अमुक Relief Work/पाठचक्र आदि कार्यों में मुझसे अधिक नाम-यश कमा रहा है , उसको महामण्डल से निकाल दूँगा , अमुक यूनिट की मान्यता रद्द कर दूँगा। यह भूल जाऊँगा सबको साथ लेकर चलने में ही बहादुरी है। ]
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जिस क्षण मैंने यह जान लिया कि भगवान हर एक मानव शरीर रुपी मंदिर में विराजमान हैं, जिस क्षण मैं हर व्यक्ति के सामने श्रद्धा से खड़ा हो गया और उसके भीतर भगवान को देखने लगा – उसी क्षण मैं बन्धनों से मुक्त हूँ, हर वो चीज जो बांधती है(तीनो ऐषणायें) नष्ट हो गयी, और मैं स्वतंत्र हूँ।"
" न संख्या-शक्ति, न धन, न पाण्डित्य, न वाक चातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुध्द जीवन, एक शब्द में अनुभूति, आत्म-साक्षात्कार को विजय मिलेगी! पहले भारत प्रत्येक राज्य में (फिर विश्व के प्रत्येक देश में ) सिंह जैसी शक्तिमान दस-बारह आत्माएँ होने दो, जिन्होने अपने बन्धन तोड डाले हैं, जिन्होने अनन्त का स्पर्श कर लिया है, जिनका चित्त केवल ब्रह्मनुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं, न बल की, न नाम की और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे। (वि.स.४/३३६)
इसलिये भारत में जन्मे प्रत्येक युवा को यह सोचना चाहिये कि मैंने देश को क्या दिया है ? और यदि आप देना चाहते हों , तो पहले आपको धनी बनना होगा ! If you want to give, then you have to be rich first . और हर भारतीय को अपने किस बात की धनाड्यता का गर्व करना है ? And what is your richness ? Becoming a Heart-whole man आपकी धनाड्यता निर्भर करती है , हृदय के विस्तार पर , अपनी अन्तर्निहित प्रेम की शक्ति-" The power of Love ! को विकसित करने पर।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" संसार का इतिहास उन थोड़े से व्यक्तियों का इतिहास है , जिनमें आत्मविश्वास था। यह विश्वास ही आत्मा की अन्तर्निहित शक्ति को ललकार कर प्रकट कर देता है। तब व्यक्ति कुछ भी कर सकता है , सर्व समर्थ हो जाता है। असफकता तभी होती है , जब तुम अन्तःस्थ अमोघ शक्ति को अभिव्यक्त करने की चेष्टा नहीं करते। जिस क्षण व्यक्ति या राष्ट्र आत्मविश्वास खो देता है , उसी क्षण उसकी मृत्यु आ जाती है।
सब के पास जा जा कर कहो, " उठो , जागो और सोओ मत , सम्पूर्ण अभाव और दुःख नष्ट करने की शक्ति तुम्हीं में है ; इस बात पर विश्वास करने से ही वह शक्ति जाग उठेगी। ... यदि तुम भी सोच सको कि हमारे अन्दर अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अदम्य उत्साह वर्तमान है , और अपने अंदर की शक्ति को जगा सको , तो तुम भी मेरे सामान हो जाओगे। "
स्वामीजी कहते हैं -" तुम (प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान ) अपनी अंत:स्थ आत्मा को छोड़ किसी और के सामने सिर मत झुकाओ। जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्त नहीं हो सकते।
" ईश्वर ही ईश्वर की उपलब्थि कर सकता है। सभी जीवंत ईश्वर हैं–इस भाव से सब को देखो। मनुष्य का अध्ययन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है। जगत में जितने ईसा या बुद्ध हुए हैं, सभी हमारी ज्योति से ज्योतिष्मान हैं। इस ज्योति को छोड़ देने पर ये सब हमारे लिए और अधिक जीवित नहीं रह सकेंगे, मर जाएंगे। तुम अपनी आत्मा के ऊपर स्थिर रहो।
"मुक्ति-लाभ के अतिरिक्त और कौन सी उच्चावस्था (high position) का लाभ किया जा सकता है? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते। सांसारिक धक्का ही हमें जगा देता है, वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।
{covid-19 pandemic जैसे फरवरी 2020 से लेकर जुलाई 2020 तक और शायद वैक्सीन आ जाने तक ? चलने वाले लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।}
" पहले मन को एकाग्र करने का (मनःसंयोग का) अभ्यास करो और उसका विकास करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो–उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है।
" पहले स्वयं संपूर्ण मुक्तावस्था प्राप्त कर लो, उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो। प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो।
" बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो -- यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं -- इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।
" भाग्य बहादुर और कर्मठ व्यक्ति का ही साथ देता है। पीछे मुडकर मत देखो आगे, अपार शक्ति, अपरिमित उत्साह, अमित साहस और निस्सीम धैर्य की आवश्यकता है- और तभी महत कार्य निष्पन्न किये जा सकते हैं। हमें पूरे विश्व को उद्दीप्त करना है। (वि.स.४/३५१)
'बसन्त की तरह लोग का हित करते हुए' - यहि मेरा धर्म है। "मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः- यही मेरा धर्म है।" (वि.स.४/३२८)
" यही रहस्य है। योग प्रवर्तक पंतजलि कहते हैं, ' जब मनुष्य समस्त अलौकेक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्म मेघ नामक समाधि प्राप्त होती है। वह प्रमात्मा का दर्शन करता है, वह परमात्मा बन जाता है और दूसरों को तदरूप बनने में सहायता करता है।' मुझे इसीका प्रचार करना है। जगत् में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परन्तु हाय! कोई भी किंचित् अंश में प्रत्य्क्ष आचरण नहीं करता। (वि.स.४/३३७)
" 'आत्मश्रद्धा' का गुण (The ideal of faith in ourselves ) ही हमारी सबसे अधिक सहायता कर सकता है। यदि (चरित्र के 24 गुणों में) अपने आप में "श्रद्धा" रखना ,अर्थात स्वयं में विश्वास करना और अधिक विस्तार से पढ़ाया और अभ्यास कराया गया होता, तो मुझे यकीन है कि जगत में जितनी बुराईयाँ और दुःख है, उसका का एक बहुत बड़ा हिस्सा गायब हो गया होता!" {व्यावहारिक जीवन में वेदान्त (१)- ८/१२}
" मानव जाति के समग्र इतिहास में, सभी महान स्त्री -पुरुषों के जीवन में यदि कोई प्रेरणा ( motive power) सबसे अधिक सशक्त रही है, तो यह अपने आप में विश्वास (श्रद्धा) ही है। वे इस विश्वास या ज्ञान (consciousness) के साथ पैदा हुए थे कि वे महान (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) बनेंगे और वे महान नेता /जीवनमुक्त शिक्षक बने भी!" ४/१२
[Throughout the history of mankind, if any motive power has been more potent than another in the lives of all great men and women, it is that of faith in themselves. Born with the consciousness that they were Born to be great, they became great.]
"मनुष्य और मनुष्य के बीच जो भेद है वह केवल अपने आप पर विश्वास या आत्मश्रद्धा की उपस्थिति तथा अभाव के कारण ही है। यह बात उन नेताओं / नवनीदा जैसे जीवनमुक्त शिक्षकों के जीवन को देखकर सरलता से ही सीखी जा सकती है। इस आत्मश्रद्धा के द्वारा ही सबकुछ सम्भव (मृत्यु को जीतना भी सम्भव है !), लेकिन बैन्क-बैलेन्स (Possession) उच्चपद (Position) से नहीं !"
इसलिए सबसे पहले अपने हृदय की सर्व विजयनी प्रेमशक्ति को विकसित करो, और प्रेम (भक्ति) के धन से से पहले धनाड्य बन जाओ। (So first develop that love within , and first be rich within) प्रश्न उठता है कि - हम प्रेम के धन से धनाड्य, पूर्ण-ह्रदय मनुष्य कैसे बनें ? And how can you be a Heart-whole man ? -by loving people ! आप भीतर की शक्ति के धनी कैसे बन सकते हैं ? लोगों को प्यार करके। अपने ह्रदय को अधिक से अधिक विकसित करने का प्रयास करें। अच्छे लोगों की संगति में रहिये। आप अपने -पराये का भेद छोड़ कर प्रत्येक मनुष्य से प्रेम कीजिये।
भक्ति (प्रेम की शक्ति) दरअसल आत्मा का अनुसंधान है। माता शबरी ने भगवान को अपने घर आने का निमंत्रण नहीं भेजा था। मगर प्रबल प्रेम के कारण भगवान स्वयं चलकर शबरी के आश्रम आये।
" जो सबका दास होता है, वही उन्का सच्चा स्वामी होता है। जिसके प्रेम में ऊँच - नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है, जो ऊँच - नीच सोचने के लिए कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है। (वि.स. ४/४०३)
" मेरी दृढ धारणा है कि तुममें अन्धविश्वास नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है, धीरे - धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे। 'साहसी' शब्द और उससे अधिक 'साहसी' कर्मों की हमें आवश्यकता है। उठो! उठो! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकते हो? हम बार - बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है? इससे महान कर्म क्या है? (वि.स. ४/४०८)
" शक्ति ही जीवन है , अर्थात अपने -पराये का भेद छोड़ कर प्रत्येक मनुष्य से प्रेम करने की शक्ति ही जीवनप्रद है, और हृदय को विकसित करने में निर्बलता ही मृत्यु है। हृदय का विस्तार ही जीवन है, और हृदय का संकुचन मृत्यु है। अपने भाइयों से प्रेम करना ही जीवन है और उनसे (किसी मतभेद को लेकर) घृणा करना ही मृत्यु है!
और सबसे बड़ा गुण है श्रद्धा , महात्मा गाँधी ने जब स्वामी विवेकानन्द के व्यावहारिक वेदान्त भाषण में कथित इस निम्नोक्त अंश को पढ़ा -
" मनुष्य कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न पहुँच जाये , एक समय ऐसा अवश्य आता है , जब वह उन घटनाओं से बेहद आर्त होकर एक उर्ध्वगामी मोड़ (U-turn) लेता है। और अपने आप पर श्रद्धा रखना, या विश्वास करना सीख जाता है। लेकिन हमलोग यदि इस श्रद्धा के गुण को शुरू में (विद्यार्थी जीवन में या महामण्डल में) ही अर्जित करने का प्रशिक्षण प्राप्त कर लिये होते तो कितना अच्छा होता ! इस आत्मश्रद्धा को सीखने के लिये जीवन में इतने कटु अनुभव क्यों भोगना पड़े ? " ४/१२
(Let a man go down as low as possible; there must come a time when out of sheer desperation he will take an upward curve and will learn to have faith in himself. But it is better for us that we should know it from the very first. Why should we have all these bitter experiences in order to gain faith in ourselves? )
" व्यक्ति अपने विचारों से निर्मित प्राणी है, वह जो सोचता है वही बन जाता है !" गाँधीजी ने जब स्वामीजी के इस श्रद्धासूत्र - को पढ़ा तब भावविभोर होकर कहा था - " ओह यह कितना सच है ! महात्मा गाँधी ने विवेकानन्द को उद्धृत करते हुए कहा था- “विचार ही व्यक्तित्त्व की जननी है, जो आप सोचते हैं बन जाते हैं। ” वस्तुतः महात्मा गांधी ने यह स्वीकार भी किया था कि विवेकानन्द को पढ़ने के बाद भारत के प्रति उनका प्रेम हज़ार गुना बढ़ गया। स्वामी विवेकानंद के इन्हीं नवीन विचारों और प्रेरक आह्वानों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए उनके जन्मदिवस 12 जनवरी को भारत का ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ घोषित किया गया।
"Your beliefs will become your thoughts , your thoughts will become your actions , your actions will become your habits , your habits become your character , and your character become , your destiny ."
" तुम्हारी श्रद्धा जिस पर होगी, उन्हीं के जैसे तुम्हारे विचार बन जाएंगे। फिर तुम्हारे विचार ही तुम्हारे कार्य बन जाएंगे, तुम्हारे कार्य ही तुम्हारी आदतें बन जाएंगे, तुम्हारी आदतें ही तुम्हारा चरित्र बन जाएंगी, और तुम्हारा चरित्र ही तुम्हारा भाग्य बन जाएगा।"
" ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं! ये हम ही हैं जो अपनी आँखों पर हाँथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अन्धकार है!
" तुम्हे अन्दर से बाहर की तरफ विकसित होना है. कोई तुम्हे पढ़ा नहीं सकता, कोई तुम्हे आध्यात्मिक नहीं बना सकता। तुम्हारी आत्मा के आलावा कोई और गुरु नहीं है!
" एक विचार लो. उस विचार को अपना जीवन बना लो – उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जियो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सफल होने का तरीका है!
" तुम्हारा मन ही कल्पवृक्ष है। तुम मन से जैसा दृढ़ चिंतन करते हो, वैसा ही होने भी लगता है। हाँ, दृढ़ चिन्तन में आपकी सत्यनिष्ठा होनी चाहिए।
" तुम जो कुछ सोचोगे , तुम वही हो जाओगे ; यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे , तो तुम दुर्बल हो जाओगे। बलवान सोचोगे तो बलवान बन जाओगे।
"अतः उस असीम विश्व -व्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए इस कारस्वरूप दुःखमय क्षुद्र व्यक्तित्व का अंत होना चाहिए। जब मैं प्राणस्वरूप के साथ एक हो जाऊंगा , तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता है। जब मैं आनन्दस्वरूप हो जाऊंगा , तभी दुःख का अंत हो सकता है। जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊंगा , तभी सब अज्ञान का अंत हो सकता है। विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम मात्र है। " १ /१५
स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में भाषण में कहा था " तुम्हारा चिंतन दृढ़ हो, और श्रद्धा पक्की हो, तो फिर तुम अगर पहाड़ को भी सामने से हट जाने का आदेश दो ,तो वह भी हटकर तुम्हें आगे बढ़ने का मार्ग दे देता है। जिसस ने भी कहा हैः - " जिस मनुष्य की जितनी एकाग्रता शक्ति होगी और मनोबल होगा, श्रद्धा पक्की होगी, वह उतना ही महान हो सकता है।"
[ गीता और उपनिषदों का सम्पूर्ण भारतवर्ष में पुनः प्रचूर अध्यन -अध्यापन हो, इसके लिए भारत के गाँव -गाँव में " Be and Make -वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित (चपरास प्राप्त) गृहस्थ अध्यापकों का निर्माण बहुत बड़ी संख्या में होता रहे। इसीलिए कैम्प में नवनीदा की आत्मकथा 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' का हिन्दी अनुवाद देने उनके कमरे में जब मैं और रामचंद्र गए थे। तो उन्होंने भी यही कहा था कि -हिन्दीभाषी लोग इसको चाव से पढ़ना पसंद करेंगे न?]
परमात्मा ने अपने को तीन मूर्तियों में बाँटा है। ‘त्रिमूर्ति’ कहने पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश याद आते हैं, लेकिन यह दूसरी त्रिमूर्ति है- ईश्वरो गुरुरात्मेति। अभी हम जिस त्रिमूर्ति की बात करते हैं, वह है गुरु, ईश्वर और हम! तीनों एक हो जाएं।
ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने ।
व्योमवद् व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ।।
ईश्वर, गुरू और आत्मा स्वरूपत: एक हैं, अनंत आकाश की तरह पूरे शरीर में व्याप्त हैं, परंतु विभागत: अर्थात नाम-रूप से भिन्न हैं। उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।
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Need to Approach Leader or Guru, If We have to conquer Maya! :
मायासंख्यातुरीयं **माया को यदि जीतना है तो नेता/ गुरु विवेकानन्द की शरण में जाना अनिवार्य है ! :- अर्थात तुरीयं या अव्यक्त रूप में ब्रह्म (परमात्मा) का कोई नाम नहीं है, इसलिए उसको जानने, बताने के लिए ही उसे शब्द (नाम, उपाधि) से बांधा गया है। माण्डूक्य उपनिषद में ॐ की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि - अ, उ, म और बिंदु ब्रह्म के चार पाद हैं। विश्व में एवं भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालों में तथा इनके परे भी जो नित्य तत्व सर्वत्र व्याप्त है वह ॐ है। यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है। आत्मा चतुष्पाद है अर्थात उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएँ हैं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। जिनको वैश्वानर, तैजस, प्राज्ञ और तुरीयं (अव्यक्त) नाम से निर्दिष्ट किया गया है। अब प्रश्न उठता है कि जो ब्रह्म किसी भी उपाधि से वस्तुतः असंश्लिष्ट हैं, ब्रह्म के जैसी पारमार्थिक सत्ता वाली दूसरी कोई वस्तु है नहीं, वह अलैकिक या इन्द्रियातीत वस्तु "ब्रह्म " जो एक और अद्वितीयं हैं; उनको जाना कैसे जाय?
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " दूसरों की हिंसा करने से बंधन आता है, और वह हिंसा सत्य को छिपा लेती है। केवल निषेधात्मक सद्गुण (5 यम) ही पर्याप्त नहीं है। [अर्थात जिनका मत हमसे नहीं मिलता 'ds -आंटी, आदि' उनको मन, वाणी या हाथों से चोट पहुँचाने की चेष्टा करने, या सत्य ,अहिंसा, आस्तेय ,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन नहीं करने से बंधन आता है और हम मन के गुलाम बनकर 'आत्मा ही ब्रह्म ' है -इस सत्य को भूल जाते हैं।]
हमें माया को जीतना होगा, तभी वह हमारे वश में हो जायगी। जब कोई भी वस्तु हमें बाँध नहीं पाती , तभी उस पर हमारा यथार्थ अधिकार होता है। जब बन्धन (तीनों ऐषणाओं में आसक्ति) ठीक ठीक छूट जाता है , तब सब कुछ (Bh) हमारे निकट आकर उपस्थित हो जाता है। जिन्हें किसी वस्तु का अभाव नहीं है, अर्थात जो पूर्णतया वासना -रहित हैं, वे ही प्रकृति (बाह्य और अन्तःप्रकृति) पर विजय पाते हैं।"
[देव-वाणी: स्वामी विवेकानन्द की एक शिष्या कुमारी एस.ई. वाल्डो, द्वारा अभिलिखित : THURSDAY, 25 जुलाई, 1895. (पतंजलि के योग सूत्र) ७/८१}
{ To injure another creates bondage and hides the truth. Negative virtues (5 यम का पालन) are not enough; we have to conquer Maya, and then she will follow us. We only deserve things when they cease to bind us. When the bondage ceases, really and truly, all things come to us. Only those who want nothing are masters of nature."
[ Inspired Talks : Recorded by Miss S. E. Waldo , a disciple of Swami Vivekananda:THURSDAY, July 25, 1895. (Patanjali's Yoga Aphorisms)}
ऐसे किसी महात्मा (अवतारी महात्मा या अवतारी संगठन) की शरण में जाओ , जिनका अपना बन्धन टूट गया है; समय आने पर वे अपनी कृपा से तुम्हें मुक्त कर देंगे। ईश्वर की शरणागति (चपरास प्राप्त 'C-IN-C ' नवनीदा की शरणागति) इसकी अपेक्षा उच्च भाव है, किन्तु वह बड़ी कठिन है। (वैसा ब्रह्मवेत्ता 'मनुष्य' बनना और बनाना बहुत कठिन है।) वास्तव में इसे कार्य रूप में परिणत करने वाला 'मनुष्य' शताब्दी में कहीं एक-आध देखा जाता है। 'मैं '-पन के साथ कुछ भी अनुभव मत करो, कुछ भी मत जानो , कुछ भी मत करो, (महामण्डल में किसी को ट्रस्टी तुम न बनाओ , न निकालो। सब कुछ माँ-राधा सारदा की कृपा से होने दो।) कुछ भी अपना कहकर मत रखो -सब कुछ ईश्वर (आदर्श, गुरु, माँ -राधा) में समर्पित कर दो; और सर्वान्तःकरण से कहो , " प्रभो! तुम्हारी ही इच्छा पूर्ण हो!"
[Take refuge in some soul (C-IN-C, Navani da) who has already broken his bondage, and in time he will free you through his mercy. Higher still is to take refuge in the Lord (Ishvara), but it is the most difficult; only once in a century can one be found who has really done it. Feel nothing, know nothing, do nothing, have nothing, give up all to God, and say utterly, "Thy will be done".)
स्वामी विवेकानन्द आगे कहते हैं - " हम दूसरों के प्रति दया प्रकाशित कर पाते हैं , यह हमारा एक विशेष सौभाग्य है - क्योंकि इसी प्रकार के कार्य (निःस्वार्थ कर्म -"Be and Make"-आन्दोलन) में निरंतर लगे रहने से ही हमारी आत्मोन्नति होती है। (अर्थात माँ राधा-प्रेम से हृदय का विस्तार होता है।) दीन जन मानो इसलिये कष्ट पाते हैं कि हमारा कल्याण हो। अतएव विद्या -दान करते समय - " let the giver kneel down and give thanks, let the receiver stand up and permit." अर्थात दानदाता दान-प्राप्तकर्ता के सामने घुटनों के बल बैठ जाये और धन्यवाद दे; और दान-प्राप्तकर्ता अपने पैरों पर खड़े हो कर (आत्मश्रद्धा से भर कर) दानदाता को (ब्रह्म-विद्या) दान करने की अनुमति दे। सभी प्राणियों में विद्यमान ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण -माँ सारदा) का दर्शन करते हुए, उन्हीं को दान दो !
(It is our privilege to be allowed to be charitable, for only so can we grow. The poor man suffers that we may be helped; let the giver kneel down and give thanks, let the receiver stand up and permit. See the Lord back of every being and give to Him.)
जब हम कुछ भी बुराई नहीं देख पायेंगे , तब हमारे लिए जगत्प्रपंच (कालनेमि) भी नहीं रहेगा। क्योंकि प्रकृति का उद्देश्य ही है हमें इस भ्रम से मुक्त करना। (अमुक -अमुक में) असम्पूर्णता नामक कोई चीज है, यह सोचना ही असम्पूर्णता की सृष्टि करना है।
हम सभी मनुष्य सम्भावित (potentially) पूर्णस्वरूप और ओजःस्वरुप हैं , इस प्रकार के शक्तिदायी विचारों का प्रचार-प्रसार करने से ही, हमारी असम्पूर्णता की भावना दूर हो सकती है। चाहे कितना अच्छा काम क्यों न करो , किन्तु उसमें कुछ न कुछ बुराई लगी ही रहेगी। फिर अपने व्यक्तिगत फलाफल की ओर देखे बिना , सामने उपस्थित समस्त कार्य करते जाओ , तथा कार्य-जन्य फलों को ईश्वर में समर्पित कर दो। ऐसा करने पर अच्छा या बुरा कुछ भी तुम्हें अभिभूत न कर सकेगा।
( When we cease to see evil, the world must end for us, since to rid us of that mistake is its only object. To think there is any imperfection creates it. Thoughts of strength and perfection alone can cure it. Do what good you can, some evil will inhere in it; but do all without regard to personal result, give up all results to the Lord, then neither good nor evil will affect you.)
" कर्म करना (Be and Make) धर्म नहीं है , फिर भी यथोचित रूपसे कर्म करना मुक्ति की ओर ले जाता है। वास्तव में समग्र दया अज्ञान है। क्योंकि हम किस पर दया करेंगे ? क्या तुम ईश्वर की ओर दया की दृष्टि से देख सकते हो ? फिर ईश्वर को छोड़कर और है ही क्या ? ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने तुम्हारी आत्मोन्नति के लिये यह जगत-रूपी (महामण्डल-आंदोलन रूपी) नैतिक व्यायामशाला तुम्हें प्रदान की है। यह कभी मत सोचना कि तुम जगत को सुधार सकते हो। तुम्हें यदि कोई बुरा-भला कहे , तो उसके प्रति कृतज्ञ होओ। क्योंकि गाली या अभिशाप क्या है ,यह देखने के लिये उसने मानो तुम्हारे सम्मुख एक दर्पण रखा है , तथा वह आत्मसंयम का अभ्यास करने के लिये तुम्हें एक अवसर भी प्रदान कर रहा है। अतएव उसे आशीर्वाद दो , और आनन्द में स्थित रहो। अभ्यास करने का अवसर मिले बिना व्यक्ति का विकास नहीं हो सकता , और दर्पण सामने रखे बिना हम अपना मुख नहीं देख सकते। "
(Doing work is not religion, but work done rightly leads to freedom. In reality all pity is darkness, because whom to pity? Can you pity God? And is there anything else? Thank God for giving you this world as a moral gymnasium to help your development, but never imagine you can help the world. Be grateful to him who curses you, for he gives you a mirror to show what cursing is, also a chance to practice self-restraint; so bless him and be glad. Without exercise, power cannot come out; without the mirror, we cannot see ourselves.)
" कामुक कल्पना उतनी ही बुरी है , जितनी कामुक क्रिया। नियंत्रित इच्छा से (लालच को कम करने से) उच्चतम फल का लाभ होता है। काम-ऊर्जा को आध्यात्मिक ऊर्जा में परिणत करो , किन्तु अपने को पुरुषत्वहीन मत बनाओ , क्योंकि उससे शक्ति का क्षय होगा। 'यह शक्ति जितनी प्रबल होगी , इसके द्वारा उतना ही अधिक कार्य हो सकेगा। " Only a powerful current of water can do hydraulic mining." केवल प्रबल जलधारा-चालित ड्रिलिंग मशीन से ही खनन और उत्खनन (mining and quarrying) किया जा सकता है। आज (विद्यार्थी जीवन में) हमारी आवश्यकता यह है कि हम जान लें कि एक ईश्वर हैं, और यहीं एवं इसी समय हम उन्हें देख सकते हैं, और उनका अनुभव कर सकते हैं!"
(देववाणी -७/८२)
(Unchaste imagination is as bad as unchaste action. Controlled desire leads to the highest result. Transform the sexual energy into spiritual energy, but do not emasculate, because that is throwing away the power. The stronger this force, the more can be done with it.What we need today is to know there is a God and that we can see and feel Him here and now. )
आज हमारी आवश्यकता यह है कि हम जान लें कि एक ईश्वर हैं, और यहीं एवं इसी समय हम उसका अनुभव कर सकते हैं। शिकागो के एक प्रोफेसर ने कहा - " इस जगत की चिन्ता तुम कर लो, ईश्वर परलोक की चिंता कर लेंगे। " कैसी मूर्खतापूर्ण बात है ! यदि इस जगत की सब तरह की व्यवस्था (निश्चित समय से पहले ही कोबिड -वैक्सीन का इज़ाद) करने में समर्थ हैं, तो फिर परलोक का भार ग्रहण करने के लिए एक ऐसे अनावश्यक ईश्वर की क्या आवश्यकता है ?
(What we need today is to know there is a God and that we can see and feel Him here and now. A Chicago professor says, "Take care of this world, God will take care of the next." What nonsense! If we can take care of this world, what need of a gratuitous Lord to take care of the other!)
" हम बद्ध हैं " -यह भाव हमारा स्वप्न मात्र है। जागो --यह बन्धन दूर कर दो। ईश्वर (आदर्श -स्वामी विवेकानन्द -नेता, माँ राधा !) की शरण में जाओ , " Let go thy hold- उपाधि (नाम-यश) में तुम्हारी पकड़ को जाने दो " इस माया मरुभूमि को पार करने का यही एकमात्र उपाय है !
" छोड़ दो रज्जु , बोलो हे वीर संन्यासी , ॐ तत् सत् ॐ। " (देववाणी ७/८२)
"Let go thy hold, Sannyasin bold, say, Om tat sat, Om!"
(We only dream this bondage. Wake up and let it go. Take refuge in God, only so can we cross the desert of Maya. "Let go thy hold, Sannyasin bold, say, Om tat sat, Om!")
[ उठो ,जागो ! -अर्थात अनात्म उपाधियों (वैश्वानर, तैजस , प्राज्ञ आदि) से तादात्म्य को त्याग देने से ही हम प्रवृत्ति (तीनो ऐषणाओं में आसक्ति) के बन्धनों को काटकर अपने परमात्म स्वरूप में स्थित रह सकते हैं।जब हम कुछ भी बुराई नहीं देख पायेंगे-- अर्थात जब यह समझ लेंगे कि कालनेमी जैसे विश्व -रंगमंच के पात्रों का उद्देश्य ही है, हमें द्वैत के भ्रम -या सम्मोहन से विसम्मोहित करना। मनुष्य बनने और बनाने की चाह " रखने वालों के साथ, "मोक्ष की चाह " रखने वालों की सहभागिता (collaboration) में युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करना क्या उचित है ? (Thoughts of strength and perfection alone can cure it. कर्म करते समय भी शक्तिदायी विचार " ॐ तत्सत् ॐ " का स्मरण करते रहना) माया का संतरण करने के लिए, या तुरीयं को जानने के लिए - ऐसे किसी गुरु-शिष्य परम्परा ("Be and Make: स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा) में प्रशिक्षित और शिक्षा देने का चपरास प्राप्त (C-IN-C) नेता , जीवनमुक्त शिक्षक (नवनीदा-या उनके द्वारा स्थापित युवा महामण्डल) की शरण में जाओ , जिनका अपना बन्धन टूट गया है। वे तुम्हें अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी और विराट अहं-बोध में रूपांतरित करने का प्रशिक्षण देंगे!विद्यार्थी जीवन में ही मानवजाति के समस्त मार्गदर्शक नेताओं (दादागुरु से प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त युवा-आदर्श या जीवनमुक्त शिक्षकों) में से अपने लिए एक युवा-आदर्श के नाम का चयन करने की आवश्यकता। अपना सुंदर चरित्र गढ़ने के लिए यदि आज के युवाओं को साधारण मनुष्यों में से किसी युवा-आदर्श ("Be and Make: गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित मार्गदर्शक नेता, जीवनमुक्त शिक्षक) का यदि चयन करना हो- (जैसे महर्षि वशिष्ठ -श्रीराम, 64 कलाओं को जानने वाले महर्षि सांदीपनि-श्रीकृष्ण, बुद्ध ,ईसा, मोहम्मद ...श्री तोतापुरी -श्रीरामकृष्ण , विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर आदि), तो पहले उस जीवनमुक्त शिक्षक,नेता (C-IN-C नवनीदा) या वैसे प्रशिक्षित नेताओं का निर्माण करने वाले युवा -संगठन " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " के नाम को जानना होता है। तत्पश्चात उसके द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) बनने और बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करना होता है । जिसको बुद्धि से नहीं जाना जाता, गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित 'स्वामी विवेकानन्द' को युवा-आदर्श के रूप में चयन कर उनके निर्देशन में माँ काली के अवतारवरिष्ठ के नाम (श्रीरामकृष्ण) को जानकर उनके छवि पर मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा अपने हृदय में ही अनुभव किया जाता है।]
[जब अहंकार मर जाता है तब~"अहं बाह्मास्मि, इत्याकारिका वृत्ति" ]
*श्रीरमण महर्षि द्वारा मैं का अनुसन्धान*
जिसे मन कहा जाता है वह विचारों और भावनाओं का निरंतर प्रवाह है। और इनमें सबसे महत्वपूर्ण है - 'मैं'-पन, का विचार या "अहम् वृत्ति"। अन्य सभी वृत्ति, इसी 'अहम् वृत्ति' पर निर्भर हैं। इस "अहम् वृत्ति" के बिना, हम यह नहीं कह सकते कि हमारा मन है। सभी प्रकार की इच्छाओं के लिए, या संकल्प करने के लिये इस 'मैं '-पन को ही मन कहा जाता है।
लेकिन एक विचित्र बात यह है कि हम जिसे 'मैं' -कहते हैं , वह क्या है ? यह 'अहम् वृत्ति' स्वयं अपने अस्तित्व का अनुसन्धान नहीं कर सकती । ऐसा क्यों होता है? हमलोग यहाँ उसी कारण के ऊपर विचार करेंगे। (We need to trace this I to its source.) मन क्या है , और यह 'अहम् वृत्ति' वास्तव में क्या है ? इसे समझने के लिये हमें वैज्ञानिक ढंग से अनुसन्धान करना होगा। हमें इस 'मैं'-बोध के उद्गम या बीज का पता लगाना पड़ेगा।
हमें यह पता लगाने की जरूरत है कि यह 'अहम् वृत्ति' क्या है और इसकी जड़ कहाँ है ? क्या इस 'मैं'-बोध से भी सूक्ष्म और इससे परे किसी अन्य वस्तु का अस्तित्व है ? वर्तमान में मुझे लगता है कि मैं यह 'मैं'-पन हूँ, जो अपने को स्थूल-शरीर , M/F समझ रहा है। लेकिन वास्तव में क्या ऐसा है? आइये इसका अनुसन्धान करते हैं।
इस अनुसन्धान प्रक्रिया के बारे में, श्री रमण महर्षि कहते हैं: ' अहम् अयं ' कुतो भवति चिनवतः, यह 'मैं' -बोध उत्पन्न कहां से होता है, हमें इसके उद्गम का पता लगाना चाहिए। (From where does this I-thought arise, one should enquire thus.)
यह 'मैं' कौन है? गहरी नींद (deep sleep) की अवस्था में यह 'मैं'-बोध नहीं था, लेकिन अब जाग्रत अवस्था (waking state) में यह आ गया है और यह, स्वप्न अवस्था (dream state) में भी वहाँ रहेगा। अपने विगत 24 घंटों का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि हम सोने और सपने देखने में बहुत समय व्यतीत करते हैं।
हम अपना अधिकांश समय जाग्रत अवस्था में व्यतीत करते हैं। और इसको (जाग्रत अवस्था को) ही सबसे अधिक महत्व भी देते हैं। जाग्रत अवस्था में यह 'मैं ' -बोध बना रहता है। जाग्रत अवस्था के दृष्टिकोण से ही हम कहते हैं कि एक स्वप्न अवस्था होती है, और गहरी नींद की अवस्था होती है। लेकिन गहरी नींद की स्थिति को हम उतना महत्व क्यों नहीं देते?
सुषुप्ति की अवस्था या गहरी नींद की अवस्था क्या है? उसमें 'मैं'-बोध भी नहीं रहता है , और न 'यह'-बोध रहता है। फिर भी सुषुप्ति में भी हमतो होते हैं। कभी कभी स्वप्न अवस्था में 'मैं '-बोध रहता है और मानसिक जगत के दृश्य भी सत्य प्रतीत होते हैं। नींद टूटने पर हम कहते हैं , चलो वह केवल एक स्वप्न ही था। जब यह 'मैं'-बोध और जगत रहता है , उसे हम स्वप्न और जाग्रत अवस्था कहते हैं। अन्यथा चैतन्य (awareness) या साक्षी चेतना (witness consciousness) के आलावा अन्य किसी का अस्तित्व नहीं होता।
इस प्रकार सुषुप्ति में और स्वप्न अवस्था में यह 'मैं' -बोध नहीं रहता; यह दीखता है , फिर अदृश्य हो जाता है। यहाँ तक परिस्थितियों की विविधतता के कारण भी जब इस 'मैं'-बोध का अनुभव होता तो हम पाते हैं कि , तदनुसार यह बदलता रहता है। इसलिए कभी मैं कहता हूँ , मैं खुश हूँ , कभी कहता हूँ -मैं दुःखी हूँ , मैं उदास हूँ या मैं प्रसन्न हूँ। यह 'मैं '-बोध विचारों के साथ तादाम्य करके हमेशा परिवर्तित होता रहता है। तो हम यह जानने की कोशिश करें कि यह 'मैं '-बोध क्या है।
सारा ज्ञान हमें मन की एकाग्रता के द्वारा ही प्राप्त होता है , अतः अभी अन्य सभी विचारों से मन को खींचकर , इस मन को 'मैं'-बोध पर ही एकाग्र करते हैं। इस मन को देखने के लिए हमें अन्य किसी की सहायता नहीं लेनी है , मन के द्वारा ही मन को एकटक नजर से, नजर गड़ाकर घूरना है। किसी भी 'इस' या उस वृत्ति की सहायता नहीं लेनी है। हमारे सभी विचार, अवधारणाएं और कल्पनायें केवल यह अहं -वृत्ति ही है।
यदि मन उठने वाले अन्य किसी भी वृत्ति से इस अहं -वृत्ति को जानने की चेष्टा करेंगे , तो कुछ भी ज्ञात नहीं होगा , क्योंकि वे वृत्तियाँ अस्थायी (temporary) हैं , वे आती हैं और चली जाती हैं। यह अन्य सभी वृत्तियाँ या विचार तो क्षणिक या अस्थायी आगंतुक हैं। उन्हें इस 'मैं'-बोध के बारे में कुछ भी पता नहीं है। जबकि 'मैं'-बोध, मन का एक स्थायी निवासी (permanent resident) है।
अपना सारा ध्यान अन्य सभी विचारों से हटाकर इस 'मैं '- बोध पर ही केन्द्रित करें और इसे देखें, इसके बारे में सचेत रहें, यह पता करें कि यह कहाँ से आया है। यह अनुभवात्मक (experiential) है न कि सैद्धांतिक। यह एक ऐसा अवयव है , जो क्रोध पर भाषण तो देता है, लेकिन वह क्रोध नहीं करता है। स्वयं क्रोधित नहीं होता। लेकिन यदि आप उस 'मैं'- बोध को सामने खड़ा करके , एक टमाटर उसके चेहरे पर फेंकते हैं, तो वह सीधे गुस्से का अनुभव करेगा। इसी तरह, केवल धर्मग्रंथों की सहायता से 'मैं'-पन के बारे में चेष्टा करना केवल किसी सिद्धांत को रटने जैसा होता है। सभी सिद्धांतों से अपना ध्यान हटाएं और 'मैं'- बोध को देखें। 'मैं वह हूँ।' इसे अपनी मातृभाषा में कहें, क्योंकि वही हमारे सबसे निकट है।
जब हम अपनी माँ के गर्भ में थे, तब भी यह 'मैं' -बोध वहाँ नहीं था। जब हम पैदा हुए थे तो यह 'मैं'-पन इतना मजबूत नहीं था। हम अपनी मां को ही अपना "मैं " मान रहे थे। फिर धीरे-धीरे जैसे-जैसे हम बड़े होने लगे, हमने यह महसूस किया कि यह 'मैं'-बोध स्थूल शरीर में स्थित था, और माँ में नहीं। और धीरे-धीरे इस धारणा ने ठोस रूप धारण कर लिया। इसलिए अपनी मातृभाषा में कहिये - " मैं यह पता लगाकर रहूँगा कि इस 'मैं'-बोध का उद्गम कहाँ है ?" अभी आपको इसके बारे में कोई अवधारणा बनाने की जरूरत नहीं है। बस केवल द्रष्टा मन के द्वारा दृश्य मन को टकटकी लगाकर देखते रहिये। इस द्रष्टा मैं पर नजरें गड़ाए रखिये।
ऐसा करने से क्या होगा? एक बड़ी विचित्र बात होगी। अब तक तो किसी ने भी इस 'मैं'-पन को देखने की चेष्टा नहीं की थी। अनादिकाल से यह 'मैं'-पन वहाँ था , लेकिन किसी ने अभीतक इसके बारे में अनुसन्धान करने की चेष्टा नहीं की थी। इसलिए यह 'मैं'-बोध वहाँ है। लेकिन यह जीवित कैसे रहता है? अनुसन्धान के अभाव में ही यह अभीतक बचा हुआ है। जब हम अनुसन्धान करने लगते हैं , कि यह 'मैं '-बोध क्या है ? तो इस 'मैं' -बोध का अवशेष भी नहीं मिलता।
'मैं'-पन का अस्तित्व केवल इसी 'मैं'-बोध पर निर्भर है। जाग्रत अवस्था का 'मैं' और स्वप्नावस्था का 'मैं ' सुषुप्ति की अवस्था में एक साथ गुमनामी (oblivion) में चले जाते हैं, और फिर से जग उठते हैं, क्योंकि वे कुछ समय के लिए आराम कर रहे होते हैं।
इसलिए मनःसंयोग करते समय अपना ध्यान इस विचार से हटाकर कि सुषुप्ति में ये कहाँ चले गए होंगे , अभी इस दृश्य 'मैं'-पन पर ही मन को एकाग्र रखें,और इसे टकटकी लगाकर देखते रहें। जब आप इसे टकटकी लगाकर देखते हैं, तो यह लुप्त (dissolve) हो जाता है। अयि पतते हम्। 'मैं'-पन की धारणा ही अन्तर्ध्यान हो जाती है ,गिर जाती है। अहम् गायब हो जाता है, लेकिन मनःसंयोग का अभ्यास करते समय - अहम् का यह गायब होना वैसा नहीं है जैसा कि गहरी नींद की अवस्था में गायब हो जाता है। सुषुप्ति की अवस्था में यह लय की अवस्था में चला जाता है, (सूक्ष्मशरीर कारण शरीर में) या अव्यक्त प्रकृति में लीन हो जाता है।
लेकिन यहां, मनःसंयोग का अभ्यास करते समय , प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करते समय, आप जाग्रत अवस्था में हैं, सचेत हैं, फिर भी अहम्-वृत्ति या 'मैं'-बोध लुप्त हो जाता है। समाप्त हो जाता है। " अयि पततेहम् निजविचरणं। " ( निज स्वरूप में स्थित, भेद रहित, इच्छा रहित, चेतन) इसीका नाम है -आत्म -अनुसन्धान। यही सत्य का अन्वेषण करना है। जब कोई व्यक्ति इस प्रकार से नियमित रूप से मनःसंयोग का अभ्यास , या आत्मानुसंधान करता रहता है, तो एक दिन (माँ काली की कृपा से) पूरे होशोहवास में उसका अहम गायब हो जाता है।
अहम् उस परम् सत्य (ब्रह्म) के सबसे निकट है। (Aham is the nearest to that Reality.)भगवान रमण महर्षि कहते थे कि ईश्वर का सबसे अच्छा नाम 'अहम्' है। यदि तुम जप करना चाहते हो, तो 'अहम्' का जाप अपनी मातृभाषा में करो। आमतौर पर हर भाषा में 'अहम्' एक छोटा सा शब्द ही होता है, क्योंकि हम इसे बहुत बार उपयोग करते हैं। अहम् शब्द 'अ ’ से शुरू होता है, बीच में 'ह’ आता है, और ‘म’ के साथ समाप्त होता है। 'म' अंतिम ध्वनि है। 'अ', 'ह' और 'म', अहम - इसमें सब कुछ शामिल है।
इस 'अहम्' का अनुसन्धान करो। लोग जब भगवान रमण महर्षि के पास आते थे और कहते थे कि मुझे अमुक-अमुक समस्या है, तब वे उनकी दृष्टि को समस्या से हटाकर उस व्यक्ति पर मन को एकाग्र करने को कहते थे -जिसको वह समस्या है। उसका पता लगाओ जिसको यह समस्या है।
उदाहरण के लिए यदि कोई कहता कि मुझे बहुत जल्दी क्रोध आ जाता है , आप इसको नियंत्रित करने का कोई उपाय बताइये। तो महर्षि रमण कहते थे - आओ पहले उस व्यक्ति का अनुसन्धान करते हैं , जिसको क्रोध की समस्या है। तब हम इस रोग को नियंत्रित करने के बारे में सोचेंगे। हमें पहले रोगी का पता लगाना चाहिए। पहले हमें ठीक ठीक यह निर्धारित करना होगा कि किस व्यक्ति को कोई समस्या है।
इसी तरह, जब लोग कहते हैं, मुझे ईर्ष्या क्यों होती है ? या मैं मुक्ती चाहता हूं या मैं कुछ बनना चाहता हूं -- हमें यह पता लगाना होगा कि यह 'मैं ' कौन है, जिसे मुक्ति चाहिए ? यह हुआ अनुसन्धान। और जब हम उस "मैं " का अनुसन्धान करते हैं, तो हम पाते हैं कि ऐसा कोई व्यक्ति है ही नहीं, जिसे 'मैं' कहा जाता है। इस प्रकार से खोज करने पर "मैं " स्वयं खो जाता है। (‘I’ itself falls down.) जैसे टायर से हवा निकाल देने पर पूरी कार नीचे बैठ जाती है। या जैसे गैस के गुब्बारे (gas balloon ) गैस निकाल दें, तो गुब्बारा पिचक जाता है।हम भी गैस वाले बैलून की तरह 'मैं'-रूपी गर्म हवा के कारण उठ रहे हैं। इस "मैं" को यदि पंचर करदें , गर्म हवा बाहर निकल जाती है और सब कुछ, सभी अवधारणाएं, सारे मतवाद लुप्त हो जाते हैं - पूरी दुनिया नीचे गिर जाती है। 'मैं'-पन के या विचारों के कारण ही संसार का अनुभव होता है। विचारों के बिना हम जगत का अनुभव नहीं कर सकते।
माण्डूक्य कारिका कहती है कि यह पूरी दुनिया सिर्फ "मनः स्पंदनं " है , यह सम्पूर्ण जगत मन का कंपन है। जब तक मन कंपन करता रहता है, तब तक दुनिया देखी जाती है। जैसे-जैसे मन शांत होता जाता है, वैसे-वैसे विश्व-ब्रह्माण्ड का दिखना भी बंद हो जाता है। उसी प्रकार इस मन का और 'मैं' - पन का अनुसन्धान करने पर, यह 'मैं'-बोध भी लुप्त हो जाता है। [शुभतरं स्पंदनं नौमि, सर्वतेजस्वरूपिणि। The Mandukya Karika says that the whole world is just manah spandanam, a vibration of the mind.]
लेकिन एक समस्या है। कुछ लोग यह सोचकर डर जाते हैं कि अगर यह 'मैं'-बोध समाप्त हो गया तो फिर उनका क्या होगा ? क्योंकि वे सोचते हैं कि यह "मैं " --तो मैं हूँ ; किन्तु आप यह 'मैं' नहीं हैं। [because they feel I am - I. No, but you are not ‘I’.] और यह ‘मैं’ कौन है? आप भी 'मैं ’हैं, लेकिन वह ‘ मैं ’ नहीं हैं। जो 'मैं' - 'मैं' हूँ?
इसे समझने के लिए आइए हम रज्जु और सर्प का उदाहरण लें। अंधकार में रस्सी वैसे ही पड़ी हुई है, लेकिन आपको वहाँ एक सांप दिखाई दे रहा है। और जब आप सांप को देखते हैं तो आप कहते हैं कि सांप 'है'। (the snake ‘is’.) साँप में भी 'है '-पन का विचार ('is'-ness) तो है। पर अब यह अनुसन्धान एक रोचक मोड़ ले लेता है। आप अपने मन को उस मिथ्या, अवास्तविक सर्प पर केंद्रित कीजिये। या अपना ध्यान भ्रामक सांप पर केंद्रित करें।(Focus your attention on the illusory snake.)आप सांप को देख रहे हैं और आप कहते हैं कि सांप 'है- है'। (You are seeing the snake and you say that the snake ‘is-is’.)
फिर जैसे-जैसे आप अपने मन को उस अवास्तविक सर्प पर केंद्रित करते जाते हैं , सर्प तो वहाँ से गायब हो जाता है , लेकिन कुछ तो 'है'- यह 'है' का विचार गायब नहीं होता है , और वह रस्सी के साथ जुड़ जाता है। रस्सी तो जैसे रस्सी ही थी, अब भी 'है' — रस्सी ही 'है'। यह 'है ' सर्प से हट कर रस्सी के साथ जुड़ जाता है। इसी तरह, वह 'मैं'-बोध जिसका अस्तित्व दूसरे से भिन्न प्रतीत होता था , उसका वह अलग अस्तित्व (नश्वर छोटा मैं-काचा आमी) समाप्त हो जाता है ; लेकिन वास्तविक 'मैं'- (अविनाशी पाका आमी) आत्मा के रूप में, या शुद्ध चेतना ( pure Consciousness) के रूप में प्रकाशित या अभिव्यक्त होने लगता है। " अहम् अहम् इति स्वयम् स्फुरति ह्रत्।" चित या शुद्ध चेतना (pure consciousness) खुद-ब-खुद अभिव्यक्त होने लगती है। और वो क्या है? यह है परम पूर्ण - सत । यह सर्वोच्च है और यह पूर्ण है। अंश नहीं है, यह किसी चीज के द्वारा (नाम-रूप के द्वारा) सीमित नहीं है, यह पूर्ण है, अनन्त है।
और यह सत है, यही हमारा शुद्ध अस्तित्व (M/F नहीं-Pure Existence) है। यही हमारा यथार्थ स्वरुप (Ultimate Reality) है ! यही परम सत्य है।
इसलिए पहले हमें यह समझना होगा कि 'रज्जु -सर्प ' के उदाहरण द्वारा बौद्धिक रूप से क्या कहा जा रहा है,और फिर हमें लक्ष्य तक पहुँचने के लिए दिए गए मार्ग- विवेक-प्रयोग और मनःसंयोग सहित 5 अभ्यास का अनुसरण करना होगा। रमण महर्षि तथा अन्य कई साधकों ने भी इसी सरल और स्पष्ट मार्ग पर चलकर ब्रह्मविद की अवस्था को प्राप्त किया था। नियमित मनःसंयोग सहित 5 अभ्यास को छोड़कर किसी अन्य अभ्यास की आवश्यकता नहीं है।
गीता , उपनिषद आदि शास्त्रों को छोड़कर अन्य ग्रंथों के विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता नहीं है। किसी विशेष मठ या मंदिर, चर्च या मस्जिद में भी जाने की कोई आवश्यक्ता नहीं है। प्रार्थना , मनःसंयोग , व्यायाम , स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग सहित 5 अभ्यास करने में लिंग, आयु, धर्म-जाति या शिक्षा का कोई बंधन नहीं है। सभी मतों के लोग इसका अभ्यास कर सकते हैं। यदि हम इस 'Be and Make ' मार्ग को समझ सकें,और निष्ठा के साथ इसका पालन करें, तो हम अपने लक्ष्य 'मनुष्य बनने और बनाने ' का प्रशिक्षण देने में समर्थ गृहस्थ अध्यापकों का बहुत बड़ी संख्या में अवश्य निर्माण कर सकते हैं।
[Courtesy: Swami Nikhilananda Saraswati, a spiritual master of the Chinmaya lineage, is the Acharaya of Chinmaya Mission Margao Goa.'अहं इत्याकारिका वृत्ति ' : श्रीविद्यारण्यकृत - वेदान्तपंचदशी। कल्याणपीयूषव्याख्यासमेत। व्याख्याता : रायप्रोलु लिङ्गनसोमयाजी, बि. ए.बि. एल्.,न्यायवादी - गुटूरु। (https://sa.wikisource.org/wiki/)[अपने व्यष्टि अहम् वृत्ति को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी और विराट अहं बोध में रूपांतरित करके ग्रहण करते हैं। और वही तुम हो -तत्त्वमसि ! वाक्य के द्वारा उस व्यष्टि अहं को सर्वव्यापी विराट मैं में रूपांतरित करने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में है, इसका स्मरण करने के लिए -मनुष्य मात्र के समक्ष अपने सिर को झुकाते हुए उसे नमस्कार करते हैं। ]
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* जीवन का समलङ्करण *
प्रिय शिविरार्थी भाइयो आप याद रखिये कि आपका जन्म ऐसे अद्भुत देश में हुआ है , आप बहुत सौभाग्यशाली हैं , कि आपका जन्म इस पुण्य भूमि भारतवर्ष में हुआ है ! जहाँ कोई तेंदुआ अपने धब्बों को नहीं बदल सकता किन्तु मनुष्य अपने चरित्र को बदल सकता है !'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' आज भी "Be and Make मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन " के माध्यम से गीता और माण्डूक्य उपनिषद जैसे शास्त्रों का अध्यन -अध्यापन करने की योग्यता और रूचि रखने वाले नेता/ जीवनमुक्त शिक्षक बनने और बनाने के कार्य में लगा हुआ है।
इस बात को Medical point of view से या चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से भी समझा जा सकता है। बहुत अधिक दिनों तक, भोजन नली में बाहर से भोजन देकर आपको डॉक्टर्स भी जीवित नहीं रख सकते , जब तक कि आप स्वयं नहीं खायें और स्वयं ही पचाये भी नहीं। कोई भी डॉक्टर आपके शरीर के भोजन को आपके लिए पचा नहीं सकता। 'Doctors cannot digest for you.' वैसे ही जब तक कि आप एक दिन स्वयं साँस नहीं खींचने लगते, तब बहुत दिनों तक आपको बाहर से किसी ventilator machine या ऑक्सीजन यंत्र के द्वारा साँस की आपूर्ति करके भी जीवित नहीं रखा जा सकता। You can't breathe from outside for a long time , unless one day you breathe for yourself .
इसका क्या अर्थ निकला ? यही कि सारी शक्तियाँ हमारे भीतर ही निहित हैं, हमारे बाहर कोई भी शक्ति कहीं मौजूद नहीं है। यदि फिर भी आप सोचते हैं कि कोई बाहरी शक्ति है , तो हो सकता है कि शायद वो political power हो। हमारे बाहर कोई शक्ति नहीं है, समस्त शक्तियाँ हमारे भीतर हैं -हमारी आत्मा अनन्त शक्तिशाली है। गीता कहती है -' इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकता , अग्नि नहीं जला सकती और वायु भी सूखा नहीं सकता !'
भक्ति (प्रेम की शक्ति) दरअसल आत्मा का अनुसंधान है। माता शबरी ने भगवान को अपने घर आने का निमंत्रण नहीं दिया था। मगर प्रबल प्रेम के कारण भगवान स्वयं चलकर शबरी के आश्रम आये।
'प्रबल प्रेम के पाले पड़कर प्रभु को नियम बदलते देखा।
अपना मान टले टल जाये पर भक्त का मान न टले देखा।'
प्रत्येक युवा को अपने जीवन का समलङ्करण करना चाहिए। ठाकुर कहते थे सत्य बोलना कलयुग की तपस्या है, इसलिए जीवन में जितना सम्भव हो सके सत्य का आचरण कीजिए। एवं भारतीय पद्धति के अनुसार वासनात्मक प्रपञ्च से दूर रहकर ब्रह्मचर्य का आचरण कीजिए। यहाँ गृहस्थों के लिए भी ब्रह्मचर्य शब्द कदाचित् आपको कुछ अटपटा प्रतीत हो रहा होगा। लेकिन वस्तुतः ऐसा नहीं है , यह गृहस्थों के लिए 'यम -नियम ' पालन का एक व्यावहारिक स्वरूप है। वह यह कि पुरुष एक जीवनसङ्गिनी के साथ जीवन निभाये। यह उसका ब्रह्मचर्य है। और नारी एक जीवनसङ्गी के साथ जीवनयात्रा को पूर्ण कर लें, यह उसका ब्रह्मचर्य है।
५ अभ्यास के स्वीकरण द्वारा आपके जीवन का निश्चित रूप से अलङ्करण होगा। वे हैं -प्रार्थना , मनःसंयोग , व्यायाम, स्वाध्याय, विवेक-प्रयोग और समाज तथा राष्ट्र के लिए कुछ त्याग। भारतीय संस्कृति का यह एक मूल मन्त्र है –त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः।
{ "न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः ॥" -उस (अमृत) की प्राप्ति न कर्म के द्वारा, न वंशविस्तार के द्वारा और न ही धन के द्वारा हो पाती है। एक मात्र त्याग के द्वारा ही अमरत्व को प्राप्त किया जा सकता है॥ कर्मणा वा प्रजया वा धनेन वा अमृतत्वं न प्राप्यते । किंतु एके त्यागेन ज्ञानिनः अमृतत्वं प्राप्तवन्तः ॥ तर्हि मोक्षस्य किं वा साधनम् ? इति चेत् । त्यागः, त्यागो नाम अध्यासस्य त्यागः । अहङ्कारममकारयोरेव त्यागः । अविद्याहानिरेव त्यागः । आत्मज्ञानमेव नूनं त्यागः । त्यागेनैव मुक्तिः ॥कैवल्योपनिषद १.३}
महामण्डल आज भारत के युवाओं के समक्ष ऐसा ही वातावरण प्रस्तुत कर रहा है। जिसको यदि हम आणविक जीव-विज्ञान (molecular biology) की भाषा में हम इसे 'Epigenetic
mechanism' भी कह सकते हैं। एपिजेनेटिक्स जीन को चालू या बंद करने के बारे में है। यह ऐसा करने के बारे में भी है कि कोई तेंदुआ अपने धब्बों को नहीं नहीं बदल पाता, जबकि वह हर साल अपने रोआं (fur) को छोड़ (shed) सकता है ? 'एपिजेनेटिक्स' के अनुसंधानों से यह सिद्ध हो रहा है कि हमारे वंशाणु 'genes' (DNA sequence) या हमारे भाग्य के निर्माता नहीं हैं। हम अपने जीन के गुलाम नहीं हैं।
आनुवंशिकी जीन विज्ञान (Genetics- जेनेटिक्स) के जनक ग्रेगर मेंडल हैं। जीन इंसानी शरीर का ब्लूप्रिंट होता है। इस ब्लूप्रिंट की कॉपी हर जीन में होती है। लेकिन हर जीन के इस्तेमाल की जरूरत नहीं पड़ती। एपिजेनेटिक्स जीन के उस स्ट्डी का नाम है जो जीन के कार्य को शुरु (स्विच ऑन) करने या बंद ( स्विच ऑफ) करने पर ध्यान देता है। किसी जीन को स्विच ऑफ यानी बंद करने के लिए मेथाइल ग्रुप के रसायन को डीएनए में खास जगह लगाया जाता है।
चेहरे पर झुर्रियां क्यों आती हैं, मांसपेशियां कमज़ोर क्यों पड़ने लगती हैं? इस तरह के सवालों के जवाब ढूंढने के लिए वैज्ञानिकों ने एक 103 साल के वृद्ध व्यक्ति और एक नवजात बच्चे के डीएनए पर शोध किया। शोधकर्ताओं ने दोनों की 'एपीजेनेटिक्स' पर ध्यान दिया।
उन्होनें पाया कि एपिजेनेटिक्स उम्र के बढ़ने में बड़ा रोल अदा करता है। क्या किसी व्यक्ति के एपिजीनोम को बदला जा सकता है जिससे ज्यदा लंबा और स्वस्थ जीवन जिया जा सके? इस सवाल के जबाव में डॉक्टर एस्टेल कहते हैं, "ये ऐसी चीज है जिसे हम बाहर से प्रभावित कर सकते हैं। अगर हम एपिजीनोम को बदल पाएं तो हम बुढापे की चाल को धीमा कर सकते हैं।
जीव विज्ञान साबित कर रहा है कि हमारी दस में से नौ बीमारियों का कारण तनाव है। तनाव से ग्रस्त शरीर की रोगों से लड़ने वाली शक्ति क्षीण हो जाती है। बुद्धि में, चेतना में नियन्त्रण रखने वाली क्रिया पर लगाम लग जाती है। ये सब मिलजुल कर स्वास्थ्य बिगाड़ देते हैं, जिजीविशा को मिटा देते हैं। तनाव तब तो और विकराल रूप ले लेता है, जब किसी को लगने लगता है कि वह इन असाध्य कठिनाइयों के सामने लाचार है।
मजबूरी और तनाव का सबसे बड़ा कारण हमारी वह सोंच है, जो हमें यह मानने पर विवश करती है कि हमारा जीवन आनुवंशिकी के वश में होता है। यानी हमारा शरीर, हमारी चेतना, सब कुछ हमारे माता-पिता से मिले आनुवंशिकी तत्वों पर निर्भर है। यानी जिसे पहले भाग्य या प्रारब्ध कहते थे, वह असल में हमारे ही शरीर में, हमारे ‘जीन’ में लिखा हुआ है। पढ़े-लिखे में भी और जन साधारण में जो एक नए तरह का भाग्यवाद बढ़ रहा है वह है आनुवंशिकी का नियतिवाद। जब हमारे भाग्य में ही ऐसा लिखा है, तो हम क्या कर सकते हैं ?
हमारे ये आनुवंशिक तत्व जब चाहे चालू (स्विच ऑन) हो जाते हैं, जब चाहे रुक (स्विचऑफ) जाते हैं। हममें से कोई भी अपने ‘जीन’ चुन नहीं सकता। यह नहीं तय कर सकता कि उसका जन्म किस माता-पिता से होगा। यानी हम अपने ‘जीन’ बदल भी नहीं सकते। अगर हमें अपने पैदाइशी गुण अच्छे नहीं लगते तो इससे यह भाव पनपता है कि हम अपने से किसी बड़ी शक्ति के खेल में मामूली से मोहरे हैं,बस।
अग्रजों में यह विश्वास है कि कैंसर या मधुमेह या हृदयरोग जैसी कई विषम बीमारियाँ एक परिवार के लोगों को होती रहती हैं। मानसिक विषाद और ‘अलज्हाइमरस’ जैसी आदतें और प्रवृत्तियाँ भी एक पीढ़ी से दूसरी को ‘जीन’ के साथ मिलती हैं। जिन लोेेेगों के परिवार में, ऐसे रोग पाए गए हैं, वे मानते हैं कि उन्हें भी आगे नहीं तो पीछे ये रोग पकड़ेंगे ही।
सन् 1990 के दशक से विज्ञान की दुनिया अब ‘डी.एन.ए.’ के उस नियतिवाद को अस्वीकार कर रही है , जो उस पर बुरी तरह से छाया हुआ था। ‘जीन’ पर आधारित ‘जेनेटिक्स’ की बजाय अब बात हो रही है ‘एपिजेनेटिक्स' (Epigenetics) की। ग्रीक भाषा में एपी (épí) का अर्थ होता है - आनुवंशिकी से "ऊपर", इसलिये ‘एपिजेनेटिक्स‘ शब्द का अर्थ हुआ ‘जेनेटिक्स’ से भी ऊपर और परेे।
एक ताजा रिसर्च में यह सामने आया है कि एकाग्रता का अभ्यास (मनःसंयोग) करने से Inflammatory Genes (उत्तेजना पैदा करने वाले जीन्स) की क्रियाशीलता दबाई जा सकती है। इससे तनाव पर काबू पाया जा सकता है। कैंसर से निपटने में भी मन को एकाग्र करने का अभ्यास या विवेक-दर्शन का अभ्यास करने मन को हर अवस्था में प्रफुल्ल रखने और आनंद में स्थित रहने में मदद मिलने की उम्मीद की जा रही है।
स्पेन, फ्रांस और अमेरिकी वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस शोध में सामने आया है कि मनःसंयोग की मदद से इंसान के शरीर में उन जीन्स को दबाया जा सकता है जो उत्तेजना पैदा करते हैं। ये जीन्स हैं RIPK2 और COX2 हैं। इनके अलावा हिस्टोन डीएक्टिलेज जीन्स भी हैं जिनकी सक्रियता पर ध्यान करने से असर पड़ता है।
इस शोध में पता चलता है कि लोग मनःसंयोग की मदद से अपने शरीर में जेनेटिक गतिविधियों को नियंत्रित कर सकते हैं, जिसमें गुस्से को काबू करना, सोच, आदतें या सेहत को सुधारना, प्रेम की शक्ति को भी विकसित करना शामिल है। इस शोध का मोलिक्यूलर बायोलॉजी के क्षेत्र 'एपिजेनेटिक्स' से भी सीधा संबंध है, जिसके अनुसार आसपास के माहौल का (सत्संग का) जीन के मॉलिक्यूलर स्तर पर स्थायी प्रभाव पड़ सकता है।
1990 के दशक में जब 'एपिजेनेटिक्स' मोलिक्यूलर बायोलॉजी के एक क्षेत्र के रूप में उभर कर सामने आई तो इसने उन मान्यताओं को हिला दिया जिनके अनुसार मनुष्य के जीन्स उनका भाग्य निर्धारित करते हैं। कोशिका नाभिक में मौजूद अणुओं की जांच कर एपिजेनेटिक्स में यह समझा जा सका कि डीएनए सीक्वेंस में परिवर्तन किए बगैर भी जीन्स को दबाया या उत्तेजित किया जा सकता है। फरवरी में इस शोध पर आधारित रिपोर्ट 'साइकोन्यूरोएंडोक्राइनोलॉजी' पत्रिका में छपने जा रही है।
‘एपिजेनेटिक्स’ (epigenetics) की विधा इसी सत्य पर बनी है कि हर शरीर के खून का रासायनिक स्वभाव इन कोशिकाओं का वातावरण बनाता है। यह स्वभाव कोशिकाओं के आनुवंशिक गुणों-अवगुणों को बदल भी सकता है। तो सवाल उठता है कि खून का रासायनिक स्वभाव कैसे तय होता है? जवाब है मस्तिष्क। मस्तिष्क ही शरीर का असली रसायनशास्त्री है, शरीर का केमिस्ट है। हमारे विचारों और पर्यावरण के बोध के आधार पर मस्तिष्क नसों में रसायन छोड़ता है। ये ही रसायन खून में घुल कर पूरे शरीर में घूमते हैं और कोशिकाओं और अंगों को संचालित करते हैं।
उदाहरण के लिए अगर हम आँख खोलते ही किसी प्रियजन को देखते हैं तो मस्तिष्क खून में कुछ खास तरह के रस, कुछ हॉर्मोन छोड़ता है। इनके नाम हैं ‘डोपामाइन’ और ‘ऑक्सिटोसिन’। कुछ ऐसे हॉर्मोन भी होते हैं जो शरीर के विकास को बढ़ाते हैं। इन रसायनों से कोशिकाओं का स्वास्थ्य अच्छा होता है। इसीलिए किसी प्रिय और पहुँचे व्यक्ति (नेता /जीवनमुक्त शिक्षक) से मिलने के बाद उनके कमरे से बाहर निकलने पर हमारा चेहरा उत्साह से चमकने, दमकने लगता है। हमें लगता है कि उनका आशीर्वाद मिल गया है।
इससे ठीक उलटा होता है जब हम किसी अप्रिय व्यक्ति या वस्तु को देखते हैं तब मस्तिष्क तनाव पैदा करने वाले, शरीर में सूजन पैदा करने वाले रसायन छोड़ने लगता है। यह दिमाग का प्रतिरक्षा तन्त्र है क्योंकि तनाव में शरीर वह सब कर सकता है जो प्रसन्न रूप में नहीं करता। यह आपातकाल से जूझने का एक तरीका है। लेकिन जब कोई व्यक्ति लगातार अप्रिय वातावरण में रहता है तो मस्तिष्क को लगातार आपातकाल का भास होता रहता है, जिसके जवाब में यह लगातार तनाव के रसायन छोड़ता रहता है। इससे व्यक्ति हमेशा तना हुआ रहता है। ऐसा वातावरण बने रहने से कोशिकाओं की स्वस्थ आदतें जाती रहती हैं। कोशिकाएँ मरने लगती हैं। यही कारण है कि ऐसा तनाव मृत्यु का कारण बन जाता है।
परीक्षण करने पर सप्ताह भर में आठ घंटे तक मनःसंयोग का अभ्यास करने के बाद उत्तेजना पैदा करने वाले जीन्स की क्रियाशीलता के स्तर में कमी पाई गई। इसके अलावा जीन रेग्यूलेटरी मशीनरी में और भी कई परिवर्तन देखे गए। इससे तनावपूर्ण स्थिति से जल्दी उबरने में मदद मिलती है। एपिजेनेटिक्स के मशहूर वैज्ञानिक ब्रूस लिप्टन कहते हैं, मन जो कुछ देखता है और उसे रसायन में परिवर्तित कर देता है, रसायन शरीर की कोशिकाओं तक पहुंचते हैं और एपिजेनेटिक्स के लिए जिम्मेदार होते हैं।' शरीर , मन और हृदय (3H) की शक्ति को विकसित करना सीधे तौर पर हमारी जीवनशैली तथा 5 अभ्यास से जुड़ा है। और जीवनशैली बदलना हमारे हाथ में है। " इसलिए प्रत्येक मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता बन सकता है!"
क्योंकि शरीर की सभी कोशिकाओं में एक ही जीन होता है, इसलिए एपिजेनेटिक्स - अर्थात विवेकदर्शन का अभ्यास (मनःसंयोग) प्रत्येक जीन के कार्यों को कोशिका के अनुसार नियंत्रित करने के साधन के रूप में कार्य करता है। ब्रूस लिप्टन भी मानते हैं कि हम अपने आपको विश्वास (श्रद्धा) और अपने दिनचर्या में परिवर्तन लेकर स्वयं ही स्वयं को निरोग कर सकते हैं। उन्होंने 2008 में हुई उस रिसर्च की याद दिलाई जिसमें कहा गया था कि पोषण और जीवनशैली में परिवर्तन से कैंसर के लिए जिम्मेदार जीन्स को दबाया जा सकता है।
यह विधा बता रही है कि , किसी जीव के पर्यावरण का बोध भी ‘डी.एन.ए‘ की अभिव्यक्ति काबू कर सकता है। तो पर्यावरण यानी 'संगत' के बदलने से हमारे वे वंशानुगत गुण-अवगुण भी बदल जाते हैं, जिनके बारे में अब तक विज्ञान यही बताता रहा है कि इन्हें तो आपको ढोना ही पड़ेगा ।
‘एपिजेनेटिक्स’ का यह नया अनुसन्धान हमें यह भी बताता है कि हम अपनी आनुवंशिकी के आगे बेबस नहीं हैं। अब हम किसी ‘डी.एन. ए.’ की गुलाम कठपुतली भर नहीं हैं। हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं हैं। क्योंकि हम अपने शरीर के पर्यावरण को (सत्संग और विवेकदर्शन के अभ्यास से) बदल सकते हैं, और श्रद्धा के बल पर प्रेम करने की शक्ति को भी विकसित कर सकते हैं, इसलिए हम (अपने -पराये में भेद देखने की) अपनी मजबूरी से ऊपर भी उठ सकते हैं। इससे यह विश्वास भी मिलता है कि हम अपने विवेक-प्रयोग से कुसंग से होने वाले नुकसान (पर्यावरण का नुकसान) करने से अपने आप को रोक सकते हैं।
हम अपने आप को चाहे एक पुरुष / स्त्री शरीर माने, व्यक्ति मानें, एक शरीर मानें, सच्चाई इससे एकदम परे है। हमारा शरीर कई चीजों को मिलकर बना है। एक औसत आकार के शरीर में लगभग 50 लाख करोड़, कोशिकाएँ होती हैं। 50 की संख्या पर तेरह शून्य लगेंगे-50,0000000000000! हर कोशिका अपने आप में एक जीव है, एक जीवन्त संस्कार, संसार है।
यानि हर मनुष्य का शरीर अनगिनत कोशिकाओं का मिला-जुला, भरा-पूरा समाज है। सामाजिकता और परस्पर मिलजुल कर रहने का सबक अगर सीखना हो तो अपने शरीर से बहुत दूर देखने की जरूरत नहीं है। सिर्फ अपने भीतर झाँक कर देखने की जरूरत है। और इसके लिए मनःसंयोग या विवेक-दर्शन का अभ्यास करने की आवश्यकता है।
इससे पता यह चलता है कि किसी भी जीव के स्थूल शरीर से ऊपर उसका सूक्ष्म शरीर (मस्तिष्क या मन) है। और इस अन्तःकरण (मस्तिष्क) का स्वभाव कैसे तय होता है? बुद्धि में होने वाले विचार से। इसका मतलब यह है कि किसी भी व्यक्ति के वंशानुगत स्वभाव को उसकी बुद्धि, उसका विवेक बदल सकता है। इसका मतलब यह है कि हमारे बर्ताव, हमारे कर्म पर हमारा वश है। चाहे हम दुनिया को नहीं बदल सकते हों , लेकिन हमारे अपने स्वभाव को तो हम अवश्य बदल सकते हैं। अपनी बुद्धि में बारीक बदलाव लाकर। इसके लिए हमें मस्तिष्क की रूप-रेखा पर एक नजर दौड़ानी होगी।
हमारे मस्तिष्क के दो विभिन्न अंश हैंः चेतन और अवचेतन। दोनों ही अलग-अलग प्रयोजनों के लिए जिम्मेदार हैं और दोनों के सीखने के तरीके भी अलग-अलग हैं। मस्तिष्क का चेतन भाग हमें विशिष्ट बनाता है, वही हमारी विशिष्टता है। इसकी वजह से एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से अलग होता है। हमारा कुछ अलग-सा स्वभाव, हमारी कुछ अनोखी सृजनात्मक शक्ति-ये सब मस्तिष्क के इसी हिस्से से संचालित होती हैं। तय होती है। हर व्यक्ति की चेतन रचनात्मकता ही उसकी मनोकामना, उसकी इच्छा और महत्वाकांक्षा तय करती है।
इसके विपरीत मस्तिष्क का अवचेतन हिस्सा एक ताकतवर प्रतिश्रुति यन्त्र जैसा ही है। यह अब तक के रिकॉर्ड किए हुए अनुभव दोहरता रहता है। इसमें रचनात्मकता नहीं होती । यह उन स्वचलित क्रियाओं और उस सहज स्वभाव को नियन्त्रित करता है, जो दुहरा-दुहरा कर, हमारी आदत का एक हिस्सा बन चुका है। यह जरूरी नहीं है कि अवचेतन दिमाग की आदतें और प्रतिक्रियाएँ हमारी मनोकामनाओं या हमारी पहचान पर आधारित हों। दिमाग का यह हिस्सा अपने सबक जन्म के थोड़े पहले, माँ के पेट में ही सीखना शुरू कर देता है। (जीवन के ‘चक्रव्यूह’ में उतरने से पहले ही ‘अभिमन्यु’ पाठ सीखने लगता है! -अनुवादक) यहाँ से लेकर सात साल की उमर तक वे सारे कर्म और आचरण, जो भावी जीवन के लिए मूल हैं, उन्हें हमारे दिमाग का यह अवचेतन हिस्सा सीख लेता है। फिर से दुहरा लें कि सात साल की उमर आते-आते अवचेेतन दिमाग बहुत कुछ सीख चुका होता है। कैसे? माता-पिता, भाई-बहन, परिवार-कुनबा और आस-पड़ोस के आचरण की नकल करके।
क्या यह मान लें कि नकारात्मक बातों से भरे हमारे इस अवचेतन दिमाग से हमें आजादी मिल ही नहीं सकती? ऐसा नहीं है। इस तरह की आजादी की अनुभूति हर किसी को कभी न कभी जरूर होती है। इसका उदाहरण है प्रेम की मानसिक अवस्था। प्रेम में, स्नेह में अभिभूत व्यक्ति का स्वास्थ्य कुछ अलग चमकता हुआ दिखता है, उसमें ऊर्जा दिखती है। प्रेम में सने, स्नेह में अभिभूत व्यक्ति (नवनीदा) का स्वास्थ्य और चेहरा कुछ अलग सा चमकता हुआ दिखता है। उसमें ऊर्जा दिखती है। वैज्ञानिक अनुसन्धानों से हाल ही में पता चला है कि जो लोग रचनात्मक ढंग से सोचने की अवस्था में होते हैं, वे सदैव आनंद में रहते हैं, उनका चेतन दिमाग 90 प्रतिशत समय सजग रहता है। चेतन अवस्था में लिए निर्णय और हुए अनुभव किसी भी व्यक्ति की मनोकामनाओं और महत्वाकांक्षाओं के अनुरूप होते हैं। तब दिमाग अपने अवचेतन के प्रतिबंधक ढर्रों पर बार-बार वापिस नहीं लौटता है। लेकिन यह रचनात्मक अवस्था सदा नहीं रहती। जल्दी ही अवचेतन कमान पर लौट आता है।
दिमाग का अवचेतन भाग अगर नए भाव से, सकारात्मक आदतें चेतन हिस्से से सीख सके तो इस समस्या का समाधान निकल आए। ऐसा सम्भव है। इसके चार सिद्ध तरीके हैंः (i} सम्मोहन के द्वारा, जैसे कि सात साल की उमर के पहले अवचेतन दिमाग सबक सीखता है। {ii} नई आदतें बार-बार दोहराने से, [Autosuggestion and Character-building process] अर्थात आत्मसुझाव और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया के प्रशिक्षण द्वारा। जो सात साल की उमर के बाद अवचेतन दिमाग को सीखने का एकमात्र सहज तरीका है। {iii} जब कोई व्यक्ति किसी घनघोर संकट से गुजरता है, जैसे किसी दुर्घटना या किसी गम्भीर बीमारी का होना या किसी प्रियजन की मृत्यु हो जाना, या कोई बड़ा सदमा लगता है, तब अवचेतन नए सिरे से सबक सीखने लगता है। {iv} आजकल कुछ ऐसी चिकित्सा पद्धतियाँ आई हैं जो अवचेतन पर ही काम करती हैं इनमें से एक का नाम है- ‘एपिजेनेटिक्स’ जो उपचार के ऐसे तरीकों पर बल देती है जो भाग्य या प्रारब्ध को कोसने के बजाए समस्याओं के समाधान अपने आचरण, अपने मस्तिष्क में ढूँढ़ते हैं। यह आत्म-साक्षात्कार आत्मज्ञान के रास्ते की ओर इशारा करता है।
( साभार - आत्मज्ञान की ओर ले जाता विज्ञान' -अमेरिकी वैज्ञानिक श्री ब्रूस लिप्टन के इस लेख का हिन्दी अनुवाद श्री सोपान जोशी ने किया है। Courtesy :https://hindi.indiawaterportal.org/)]
आपके भीतर जितने भी प्रकार के वायरस या जीन हैं , वे कभी आपको नुकसान नहीं पहुंचा सकते। अपनी मन को शक्ति को निंयत्रित करने से, सत्संग में रहने से 5 अभ्यास करने से आप अपने भीतर के जीन को नियंत्रित कर सकते हैं। अपने मस्तिष्क को ऊंचे विचारों और उच्चतम आदर्शों से भर दो। इसके बाद आप जो भी कार्य करेंगे, वह महान होगा।
तो आत्मा (ब्रह्म या ॐ,चतुष्पाद) की इन चारो अवस्थाओं को समझ लेने के बाद, क्या बैंक-बैलेन्स (Possession) और पद (Position) के आधार पर क्या मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद रह जाता है ? "Should there be any difference between man to man due to Position and Possession ? " फिर भी हर जगह इसी आधार पर भेद दिखता है। .... और यही माया (अज्ञान) है !
यह सोचना कि मैं स्वयं इतने ऊँचे सरकारी पद पर हूँ , या मैं देश के सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति का पिता हूँ , तो क्या इस प्रकार सोचने से हम अमृत को प्राप्त कर सकते हैं ? (अर्थात मृत्यु को भी जीत सकते हैं ?) इस प्रकार के अभिमान भरे रहने को ही अज्ञानता कहते हैं।
यदि कोई इस बात पर गर्व करे कि मेरे पास तो बहुत बड़ा बैंक बैलेन्स है ! अन्त काल में वेन्टीलेटर और ऑक्सीजन का सिलिण्डर भी काम नहीं आने वाला है। यदि कोई बैंक में जमा धन राशि पर गर्व करे , या तोसक के नीचे एक करोड़ रखकर उसपर सोने का गर्व करे , यदि किसी के पास "Vitamin M" जरूरत से बहुत अधिक हो गया , तो उसका परिणाम बहुत घातक सिद्ध होगा। वो बिल्कुल कोबरा नाग के साथ सोने जैसी अवस्था है।
दो चीजें जो पहले से मुर्दा (lifeless) हैं - उनके नाम क्या हैं ? कोई बता सकता है? मेरे पीछे बैठे युवा मित्रों, अब आगे से इन दोनों चीजों को याद रखना; जो पहले से ही मुर्दा (lifeless) हैं, निर्जीव हैं --एक है Position और दूसरा है Possession ! दोनों मृत हैं , दोनों मुर्दा हैं और आप उसी को जीवन दे रहे हैं। इसी मुर्दे को जीवन देने में लोग मरने -मारने पर उतारू हैं।
श्रुति कहती है - 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा' (ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।(ईशोपनिषद्, मन्त्र 1) जिसका सार कुछ यूं है: जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है । मनुष्य इसके पदार्थों का त्यागपूर्वक अर्थात आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु उसमें आसक्त होकर , ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे । (क्योंकि) बैंक बैलेंस, धन –या भोग्य पदार्थ – किसका है ? अर्थात् किसी का नहीं है ।’)
परमात्मा हमारे लिये जो उत्सृष्ट करें उसी से हमें अपनी जीवन यात्रा चलानी चाहिए। जहाँ भी व्यक्ति आवश्यकता से अतिरिक्त धन संचय और संग्रह में (बैंक बैलेन्स बढ़ाते रहने में) तत्पर होता है वहाँ उसके जीवन में अशान्ति आ जाती है। आज यही तो अशान्ति का मूल है। व्यक्ति आवश्यकता से अधिक धन चाह रहा है। उसकी पूर्ति के अभाव में वह कदाचारी, अन्यायी, अधर्मी, आतङ्कवादी और असहिष्णु बनता जा रहा है।
हमारी जितनी आवश्यकता हो उतना तो ईश्वर हमें उपलब्ध कराते रहते हैं। वास्तविक ईश्वरप्रेमी कभी विपन्न नहीं हेाता। कोई भी वर्ग या कोई भी व्यक्ति अध्यात्म के बिना शान्ति को प्राप्त ही नहीं कर सकता। सबको अध्यात्म उपादेय हैं चाहे वह किसी भी जाति या किसी भी वर्ग या किसी भी सम्प्रदाय का हो। अध्यात्म का अर्थ क्या है? क्या सभी छात्रों को दण्ड -कमण्डलु लेकर बाबा और सभी छात्राओं को साध्वी बन जाना चाहिये ? कभी नहीं। परन्तु आपको कर्मयोगी बनना आवश्यक है। योगी बनो अर्थात् निष्काम भाव से , निःस्वार्थ भाव से कर्म करते रहो। अकर्मण्य मत बनो कुछ-न-कुछ करो।
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्।।4.15।।
पूर्वकाल के मुमुक्ष पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किया गया है; इसलिये तुम भी पूर्वजों द्वारा सदा से किये हुए कर्मों को ही करो। " मैं न तो कर्मों का कर्ता ही हूँ और न मुझे कर्मफल की चाहना ही है" - ऐसा समझकर ही हमारे पूर्वकाल के मुमुक्षु पुरुषों ने भी कर्म किये थे। इसलिये तू भी वैसे ही कर्म ही कर। तेरे लिये चुपचाप बैठ रहना या संन्यास लेना यह दोनों ही कर्तव्य नहीं है। क्योंकि पूर्वजों ने भी कर्म का आचरण किया है, इसलिये यदि तू आत्मज्ञानी नहीं है तब तो अन्तःकरणकी शुद्धि के लिये कर्म कर। और यदि तत्त्वज्ञानी है तो लोकसंग्रह के लिये जनकादि पूर्वजों के द्वारा सदा से किये हुए, अनासक्त होकर निष्काम भाव से ही कर्म कर, नये ढंग से किये जाने वाले कर्म मत कर।
कुरु कर्मैव (भ.गी. ४/१५)। कर्म करो। भगवान् की पूजा पुष्पों के द्वारा नहीं प्रत्युत निष्ठा द्वारा, निःस्वार्थ-भाव से सम्पन्न कर्मों (Be and Make) से करो। कर्म करते-करते यदि भगवान् के मन्दिर में जाने का समय न मिले तो जान लो उसी दिन तुम्हारी पूजा सम्पन्न हो गयी है।
पूजा का प्राण है चरित्र के 24 गुणों का अर्जन। जीवन में 24 सद्गुणों का सर्जन ही पूजा की आत्मा है। और पूजा का विशेषार्घ्य है 12 दुर्गुणों का विसर्जन। हमें इन तथ्यों के साथ अपने जीवन को मधुमय बनाना है। जीवन भगवत्प्रसाद है। किसी भी परिस्थिति में रहकर उसे भगवत्प्रसाद मानकर मुस्कुराते रहना ही मानवता की वास्तविक परिभाषा है।
लेकिन जब कोई व्यक्ति किसी Director or DC जैसे उच्च सरकारी पद, या ब्रह्मपद को छोड़कर आप जिस किसी अन्य पद (position) को बड़ा समझते हों , पर पहुँच जाता है। और जब उस कुर्सी पर बैठने जाता है। तब क्या आप जानते हैं कि, वह कुर्सी उनसे क्या कहती है ? वह कुर्सी कहती है -कि मैंने तुमसे पहले इस पर सैकड़ों लोगों को बैठते और 'उठ जाते' भी देखा है। कोई Principal Secretary (भारत सरकार) ने एक बार कहा था - जब मैं अपने पद पर था तो कितने ही बड़े बड़े अधिकारी मेरे सामने नतमस्तक रहते थे , पर अब retirement के बाद तो कोई मुझे पूछता ही नहीं है। यह है एक कटु सत्य -और भावी पीढ़ी के युवा उसी के पीछे भाग रहे हैं। जबकि इस विद्यार्थी जीवन में ही आपको अपना चरित्र-निर्माण करके और मनुष्य बनने और बनाने के कार्य में जुट जाना चाहिए था।
जीवन में उचित निर्णय लेकर ही आगे बढ़ा जाता है , लेकिन नेता को भी यह ध्यान रखना होगा कि उसके शब्दों से कोई आहत नहीं हो। [अतः बिना किसी से बहस में उलझे अपने सर्वशक्तिमान अवतार वरिष्ठ इष्टदेव पर भरोसा रखते हुए मनुष्य बनने और बनाने के मार्ग पर आगे बढ़ते रहना चाहिए।]
समय- सूचक AM और PM उद्गम स्थान ब्रिटेन नहीं भारत ही था। पर हमें बचपन से यह रटवाया गया, विश्वास दिलवाया गया कि इन दो शब्दों AM और PM का मतलब होता है -
AM : Ante meridiem (ऐन्टी मरिडीएम)
PM : Post meridian
ग्रीक भाषा में Ante का मतलब होता है- पहले, लेकिन किसके ? पर post यानि बाद में , लेकिन किसके? यह कभी स्पष्ट नहीं किया गया कि यह हमारे संस्कृत भाषा से चुराये गये शब्द का लघुतम रूप था।
AM : आरोहणम् मार्तण्डस्य (Arohanam Martandasaya) यानि सूर्य का आरोहण (चढ़ाव)।
PM : पतनम् मार्तण्डस्य (Patanam Martandasaya) यानि सूर्य का ढलाव।
सूर्य, जो कि हर आकाशीय गणना का मूल है, उसीको गौण कर दिया, कैसे गौण किया यह सोचनीय है और बेतुका भी। भ्रम इसलिए पैदा होता है कि अंग्रेजी के ये शब्द संस्कृत के उस 'मतलब' को नहीं इंगित करते जो कि वास्तविक हैं।
दिन के बारह बजे के पहले सूर्य चढ़ता रहता है आरोहणम् मार्तण्डस्य (AM), बारह के बाद सूर्य का अवसान, पतन होता है 'पतनम् मार्तण्डस्य' (PM)| अक्सर लोग AM और PM को डिजिटल घड़ी पर देखते हैं। लेकिन बहुत से लोग यह नहीं जानते कि "समय अवधि को बताने वाले इन शोर्ट फॉर्म का क्या मतलब होता है"? AM (Ante Meridiem) का अर्थ है पूर्वाह्न (सुबह) जबकि PM (Post Meridiem) का अर्थ है मध्याह्न के बाद। इसलिए 24 घंटे के एक दिन को दो अवधि में बांटा गया है– AM जिसका अर्थ है मध्याह्न से पहले और PM जिसका अर्थ है मध्याह्न के बाद। संख्या की दृष्टि से प्रत्येक अवधि में 12 घंटे होते हैं। घड़ी का पूरा प्रकरण और विभाजित समय अवधि सिर्फ पृथ्वी के घूर्णन को परिलक्षित करने के लिए थी, इसलिए प्राचीन काल में सूर्य घड़ी का प्रयोग आक्षांश की जानकारी के आधार पर सौर समय मापने के लिए किया जाता था। पाश्चात्य सभ्यता में रमे हुए और पश्चिमी शिक्षा पाए कुछ लोगों में यह भ्रम रहता है कि समस्त वैज्ञानिक अनुसन्धान आधारित चिंतन केवल पाश्चात्य जगत की ही देन है।
जबकि पाश्चात्य मनीषी Max Muller और Nivedita दोनों ने कहा था - " If India is dead , I repeat - If the India is dead , world is dead much before ! " क्या भारत मर जायेगा ? अगर भारत मर जायेगा , तो मैं फिर से कहता हूं - अगर भारत ही मर जायेगा; तब तो विश्व उससे बहुत पहले मर चुका होगा!
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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
मध्यम वर्ग में जन्मे स्वराज के प्रणेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (Bal Gangadhar Tilak : जन्म-23 जुलाई 1856, परलोक प्रस्थान- 1 अगस्त, सन् 1920) का व्यक्तित्व सौ साल बाद भी लोगों के मन-मस्तिष्क में अपनी छाप छोड़े हुए है।
1. तिलक की विलक्षण क्षमता और व्यापक व्यक्तित्व को समझना आसान नहीं : तिलक जी का नेतृत्व (Leadership) आज के लिए एक अमूल्य विरासत है , जिसमें व्यक्ति , समाज और राष्ट्र -तीनों का मार्गदर्शन करने करने का कालजयी सामर्थ्य है। तिलक जी बहुआयामी क्षमता के धनी थे। शिक्षक , अधिवक्ता , पत्रकार , समाज-सुधारक , चिंतक , दार्शनिक , प्रखर वक्ता , नेता , स्वतंत्रता सेनानी जैसे विभिन्न भूमिकाओं में अपने दायित्वों का सम्यक ढंग से निर्वहन किया है।
तिलकजी की विलक्षण क्षमता और बहुआयामी व्यक्तित्व को समझना इतना आसान नहीं है। उनके व्यक्तित्व में एक ऐसा तेज, एक ऐसी ऊर्जा थी, जिससे आम और खास-सभी लोग सहज ही आर्किषत और प्रेरित हो जाते थे। तिलकजी की इस ऊर्जा से महात्मा गांधी को स्वदेशी का मंत्र मिला तो मदन मोहन मालवीय काशी हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण में जुट गए और वीर सावरकर एवं अरविंदो घोष क्रांति के मार्ग पर निकल पड़े। क्योंकि तिलक जी को स्वयं स्वामी विवेकानन्द से अनुप्रेरित होने का अवसर प्राप्त हुआ था।
2.तिलक ने कहा था- स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूंगा : राष्ट्र की स्वाधीनता को लेकर तिलकजी का स्पष्ट मत था। कांग्रेस पार्टी में तिलक महाराज ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने संपूर्ण स्वराज की मांग करते हुए कहा था, ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूंगा।’ {इस महावाक्य की प्राप्ति उन्हें स्वामी विवेकानन्द के इन उक्तियों से हुई थी - " The Sat-Chit-Ânanda — Existence-Knowledge-Bliss Absolute — is the nature, the birthright of the Soul, and all the manifestations that we see are Its expressions, dimly or brightly manifesting Itself. Even death is but a manifestation of that Real Existence. Birth and death, life and decay, degeneration and regeneration — are all manifestations of that Oneness. You are pure already, you are free already. If you think you are free, free you are this moment, and if you think you are bound, bound you will be. "I am He, I am He; and so art thou. I am pure and perfect and so are all my enemies. You are He, and so am I." That is - the position of strength." [THE FREEDOM OF THE SOUL:(Delivered in London, 5th November 1896) " रानी मदालसा ने अपने चौथे पुत्र अलर्क को लिखित ताबीज दिया था जिसमें लिखा था - "God alone is true. All else is false. The soul never kills or is killed. Live alone or in the company of holy ones. Drinking the cup of desire, the world becomes mad." Day and night never come together, so desire and the Lord can never come together. Give up desire. Give up the beggar's dress of the world; wear the flag of freedom, the ochre robe.(देववाणी -SATURDAY, August 3, 1895)}
3.तिलक ने अंग्रेजी समाचार पत्र 'मराठा ' में लिखा था- सच्चा राष्ट्रवाद पुरानी नींव के आधार पर ही निर्मित हो सकता है" --- इस वाक्य ने स्वतंत्रता आंदोलन को लोक आंदोलन में परिर्वितत करने में बड़ी भूमिका निभाई। उनका मानना था कि भारत-वासियों को अपनी प्राचीन संस्कृति के गौरव से परिचित कराने पर ही उनमें आत्मगौरव एवं राष्ट्रीयता की भावना पैदा की जा सकती है। उन्होंने अपने समाचार-पत्र "मराठा " में लिखा था, 'सच्चा राष्ट्रवाद गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' की बुनियाद पर ही निर्मित हो सकता है'।
4. तिलक देशवासियों में राष्ट्र प्रेम उत्पन्न करना चाहते थे :
तिलकजी भारतीय सांस्कृतिक जागरण के आधार पर देशवासियों में राष्ट्रप्रेम उत्पन्न करना चाहते थे। उनका मानना था कि स्वाधीन भारत के विकास का जो खाका बनाया जाय वह पाश्चात्य मॉडल पर आधारित न होकर भारतीय दर्शन, संस्कृति और ज्ञान पर आधारित होना चाहिये। इसके लिए उन्होंने अनेक प्रकार की पहल की, जिनमें 'सार्वजनिक गणपति उत्सव' और 'शिवाजी महाराज जयंती' प्रमुख हैं। ये उत्सव आज बड़ी परंपरा बन चुके हैं। इन प्रयासों से तिलकजी ने राष्ट्रीय सांस्कृतिक जागरण आंदोलन, जो पहले मात्र कांग्रेस के कुछ उदारवादियों और उनके अनुयायियों तक सीमित था, को सामान्य जन तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण काम किया। अगर स्वाधीनता संग्राम को भारतीय बनाने का किसी ने काम किया तो वह तिलकजी ने किया।
5.सदैव जनता से जुड़े रहने के चलते तिलक के नाम के साथ लोकमान्य जैसी उपाधि जुड़ गई:
वह सदैव जनता-जनार्दन से जुड़े रहे और इसी क्रम में स्वत: ही उनके नाम के साथ लोकमान्य जैसी उपाधि जुड़ गई। अपनी राष्ट्रवादी पत्रकारिता के माध्यम से भी तिलकजी स्वाधीनता की अलख जगाते रहे। अंग्रेजी में ‘मराठा’ और मराठी में ‘केसरी’ नामक समाचार पत्रों के माध्यम से जब उनके लेख लोगों तक पहुंचते तो उनका एक-एक शब्द अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध विद्रोह की चिंगारी भरने और स्वाधीनता की ज्वाला को प्रबल करने का काम करता। अपने लेखों में तिलक जी अंग्रेजों की क्रूरता और भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी हीनभावना की कड़ी आलोचना करते थे। उनकी कलम से अंग्रेज हुकूमत किस कदर भयभीत थी, इसका अनुमान इससे होता है कि केसरी में छपने वाले लेखों की वजह से उन्हेंं कई बार जेल जाना पड़ा।(जैसे आजीवन युवा चरित्र-निर्माण और मनुष्य निर्माण से जुड़े रहने के कारण महामण्डल के प्रतिष्ठाता श्री नवनीहरण मुखोपाध्य का नाम -नवनीदा हो गया !)
6.तिलक महाराज को भारतीय आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विषयों की गहरी समझ थी :
तिलकजी भारतीय आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विषयों की गहरी समझ रखते थे। जब ब्रिटिश हुकूमत ने उन पर राजद्रोह का मुकदमा करके उन्हेंं बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया तो वहां भी उनकी सांस्कृतिक चेतना और सक्रियता पर विराम नहीं लगा। जेल में उनके भीतर का विद्वान जाग उठा और हमें श्रीमद्भागवद्गीता के रहस्य खोलने वाली ‘गीता-रहस्य’ नामक कृति प्राप्त हुई। जिसके विषय में राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा था कि, ‘श्रीमद्भागवद्गीता दो बार कही गयी है , पहली बार तो भगवान श्रीकृष्ण के मुख से कही गई और दूसरी बार कर्मयोग का सच्चा आख्यान तिलक महाराज ने किया है।’
7.तिलक का कहना था- सामाजिक सुधार तभी संभव हैं जब नेता इन्हेंं अपने जीवन में लागू करें:
सामाजिक सुधारों को लेकर तिलक जी का स्पष्ट मत था कि ये तभी संभव हैं जब इस आंदोलन के नेता इन्हेंं अपने जीवन में लागू करें। ("Be and Make मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन" का प्रचार-प्रसार देश-व्यापी तभी होगा जब, जब इस आंदोलन के नेता चारित्रिक-गुणों को अपने जीवन में लागू करें ! ) अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह उनके सोलह वर्ष का हो जाने के बाद करके उन्होंने इस कथन को अपने जीवन में उतारा। 25 मार्च, 1918 को मुंबई में दलित जाति के सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि- "यदि कोई ईश्वर (श्रीराम ) अस्पृश्यता (जन्म के आधार ऊँच -नीच भेद) को सहन करे, तो मैं उसे ईश्वर के रूप में सहन नहीं करूंगा।" तब ऐसी बात कहना बड़े साहस का काम था।
8. तिलक न सिर्फ राजनीति-शास्त्र के ज्ञाता थे, बल्कि रणनीतिक कौशल बनाने में भी सिद्धहस्त थे:
विभिन्न अवसरों पर दलित जाति के लोगों के साथ भोजन करके उन्होंने अपने छुआछूत विरोधी विचारों को सिद्ध भी किया। तिलकजी न सिर्फ राजनीतिशास्त्र के ज्ञाता थे, बल्कि रणनीतिक कौशल बनाने में भी सिद्धहस्त थे। वीर सावरकर जी द्वारा तिलकजी के जन्म जयंती समारोह में कहे गए ये शब्द सदैव स्मरणीय बने रहेंगे जब उन्होंने कहा था, ‘जहां तक कानून के निर्बंध का दायरा सरलता से लाँघा जा सकता हो , वहां तक पूरे जी-जान से लड़ाई को लड़ते रहना। अगर अंग्रेजों के क़ानूनी निर्बंध थोड़े बढ़ गए तो थोड़ा पीछे आना, मगर फिर से बाहर निकलते वक्त उसी निर्बंध को ही तोड़ देना।’ 9. तिलक महाराज का संदेश था- शिक्षा और अर्थनीति में अन्य देशों पर भारत की निर्भरता कम हो:
आज आत्मनिर्भर भारत की बात हो रही है। तिलकजी ने भी स्वदेशी और आत्मनिर्भरता पर बल दिया था। उन्होंने शिक्षा, मीडिया, लघु उद्योग, कपड़ा मिल जैसे क्षेत्र में अनेक प्रकार के उद्योग आरंभ किए और उनका संचालन भी किया। देसी उद्योगों को पूंजी मुहैया कराने हेतु उन्होंने ‘पैसा फंड’ नामक एक कोष शुरू किया और युवाओं का आह्वान किया कि वे एक दिन का वेतन उसमें दें। इन सब गतिविधियों के माध्यम से उनका यही संदेश था कि अन्य देशों (चीन जैसे) पर भारत की निर्भरता कम हो। भारतीय शिक्षा निति में मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने पर तिलकजी बल देते थे। आज उनके जाने के 100 वर्ष बाद जब भारत की नई शिक्षा नीति लाई गयी है तो उसमें मातृभाषा में शिक्षा को लेकर व्यवस्था की गई है।
10.तिलक का व्यक्तित्व 100 साल बाद भी लोगों के मन-मस्तिष्क में अपनी छाप छोड़े हुए है:
मरण और स्मरण में केवल आधे ‘स’ का अंतर होता है, लेकिन इस आधे अक्षर के लिए पूरे जीवन सिद्धांतों पर चलना पड़ता है तब जाकर लोग मरण के सौ साल बाद आपको स्मरण करते हैं। तिलकजी का व्यक्तित्व ऐसा ही था जो सौ साल बाद भी लोगों के मन-मस्तिष्क में अपनी छाप छोड़े हुए है और आने वाले अनेक वर्षों तक इसका प्रभाव बना रहेगा।
{Coutresy : https://www.jagran.com/editorial/apnibaat-proponent-of-swaraj-lokmanya-tilak-20603327.h/ [ अमित शाह ]}
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