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बुधवार, 1 जून 2022

🔆🙏 [राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ] - स्वामी विवेकानंद 🔆🙏दर्शन क्रिया कैसे होती है ?🔆🙏अधिकांश लोगों का मन शरीर का गुलाम होता है🔆🙏मन अपनेआप को द्रष्टा और दृश्य में विभक्त कर सकता है🔆🙏अविनाशी, अपरिवर्तनीय सत्य का दर्शन ही सर्वोच्च पुरस्कार है🔆🙏मन को मन के द्वारा ही देखा जा सकता है🔆🙏यदि कोई विवेक-स्रोत [आत्मा ] है तो उसे उद्घाटित करना होगा🔆🙏आत्मदर्शन ही ईश्वरदर्शन है ! 🔆🙏

 राजयोग 

भूमिका :स्वभाव से ही मानव - मन अतिशय चंचल है । वह एक क्षण भी किसी वस्तु पर ठहर नहीं सकता । इस मन की चंचलता को नष्ट कर उसे किस प्रकार अपने वश में लाया जाए , किस प्रकार उसकी इतस्ततः बिखरी हुई शक्तियों को समेटकर उसे सर्वोच्च ध्येय में एकाग्र कर दिया जाए , यही राजयोग का विषय है । प्रत्येक व्यक्ति में अनन्त ज्ञान और शक्ति का वास है राजयोग उन्हें जागृत करने का मार्ग प्रदर्शित करता है । राजयोग का  एकमात्र उद्देश्य है मनुष्य के मन को एकाग्र कर उसे ' समाधि ' नामक पूर्ण एकाग्रता की अवस्था में पहुँचा देना

 "मृत्यु का भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है । जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है , जिसका किसी काल में नाश नहीं , जो स्वरूपतः नित्यपूर्ण और नित्यशुद्ध है , तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता , उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है ।  मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है , तब उसे फिर मृत्युभय नहीं रह जाता । अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएँ फिर नहीं रहतीं । पूर्वोक्त कारणद्वय का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता । उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है । इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता । "  

" प्रत्येक जीवात्मा अव्यक्त ब्रह्म है ।

बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके अपने इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है । 

कर्म , उपासना , मनःसंयम अथवा ज्ञान , इनमें से एक , एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ ।

बस , यही धर्म का सर्वस्व है । मत , अनुष्ठानपद्धति , शास्त्र , मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया - कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं ।"  -स्वामी विवेकानन्द

"मनुष्य जो दिखता है, वह नहीं है, बल्कि वह साक्षात् सच्चिदानन्द ब्रह्म ही है। मनुष्य का वास्तविक और प्रातिभासिक स्वरूप बहुत भिन्न-भिन्न हैं ; और बिना अपरोक्षानुभूति के यह जानना बहुत कठिन है।" ~ `मनुष्य का सत्य एवं आभासमय स्वरुप' - -स्वामी विवेकानन्द] 

" कस्मिन् नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥ 

   तस्मिन् (??) विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति। " 

-मुण्डकोपनिषद्।}

प्रथम अध्याय 

अवतरणिका

[CHAPTER - I, INTRODUCTORY]

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏सामान्य -ज्ञान "Common sense"  क्या है ?🔆🙏  

विभिन्न शब्दकोशों के अनुसार,  वह "ज्ञान जो सभी के लिए उपलब्ध है" उसे सामान्य ज्ञान (common sense) कहते हैं। और हमारे समस्त ज्ञान आत्म-अनुभव (self-experience, परीक्षा) पर आधारित हैं । जिसे हम आनुमानिक विश्लेषण (inferential analysis) कहते हैं, और जिसके माध्यम से हम सामान्य से सामान्यतर या सामान्य (general) से " विशेष तरह का ज्ञान" (specialized knowledge) तक पहुँचते हैं , उसकी बुनियाद भी इसी स्वानुभूति में है।

जिनको निश्चित विज्ञान (exact sciences) कहते हैं , उनकी सत्यता सहज ही लोगों की समझ में आ जाती है , क्योंकि वे प्रत्येक व्यक्ति से कहते हैं- " तुम स्वयं यह देख लो कि यह बात सत्य है अथवा नहीं , और तब उस पर विश्वास करो । " भौतिक जगत के वैज्ञानिक (scientist) तुमको किसी भी विषय पर विश्वास कर बैठने को न कहेंगे । उन्होंने स्वयं कुछ विषयों का प्रत्यक्ष अनुभव किया है और उन पर विचार करके कुछ सिद्धान्तों पर पहुँचे हैं । जब वे अपने उन सिद्धान्तों पर हमसे विश्वास करने के लिए कहते हैं , तब जनसाधारण की अनुभूति पर उनके सत्यासत्य के निर्णय का भार छोड़ देते हैं ।

"[आध्यात्मिक जगत के वैज्ञानिक श्रीरामकृष्ण के सामान्य ज्ञान "Common sense" का उदाहरण :

१. श्रीगोविन्दजी की मूर्ति का खण्डित होना - सन 1855 की बात है। पहले दिन जन्माष्टमी उत्स्व भलीभाँति सम्पन्न हो चुका था। उस दिन 'नन्दोत्स्व' ^ था। मध्याह्न के समय श्रीराधागोविन्दजी के विशेष पूजन तथा भोगादि के पश्चात् पुजारी क्षेत्रनाथ चट्टोपाध्याय श्रीराधारानी को एक कमरे में शयन कराके; श्रीगोविन्दजी को शयन देने के लिए ही जा रहे थे कि सहसा वे फिसल पड़े और श्रीगोविन्दजी की मूर्ति के पैर टूट गये! उससे एकदम खलबली मच गयी ! पुजारी को स्वयं तो चोट लग ही गयी थी , विशेषकर उस घटना से भयभीत हो वे काँपने लगे ! बाबू के समीप समाचार पहुँचा कि अब क्या किया जाये ? भग्नमूर्ति (खण्डित मूर्ति) का पूजन तो सम्भव नहीं था - ऐसी स्थिति में दूसरा उपाय ही क्या था। 

"रानी रासमणि तथा मथुरबाबू ने उपाय निर्धारित लिए शहर के प्रसिद्द पण्डितों को सादर आमंत्रित कर एक सभा की व्यवस्था की। ... पोथी-पत्रा खोलकर बारम्बार अपनी बुद्धि की जड़ में `नस्सी ' ठूँसते हुए पण्डितों ने फतवा दिया कि - "भग्न मूर्ति गंगाजी में विसर्जित कर दी जाये तथा उसके स्थान पर दूसरी नयी मूर्ति स्थापित की जाये।" कारीगर को नवीन मूर्ति बनाने का आदेश दे दिया। सभा की समाप्ति के समय मथुरबाबू ने रानी रासमणि से कहा , " बाबा से इस विषय में तो कुछ पूछा नहीं गया ! वे  इस सम्बन्ध में काया कहते हैं, यह जानना आवश्यक है। "

 श्रीरामकृष्णदेव से इस विषय में उनका अभिमत पूछा गया। भावाविष्ट हो श्रीरामकृष्णदेव कहने लगे , " रानी के दामादों में से , गिर जाने के कारण यदि किसी का पैर टूट गया होता , तब क्या उसे त्यागकर और किसी को लाकर उसके स्थान पर बैठाया जाता या पैर की चिकित्सा की व्यवस्था की जाती ? यहाँ भी ठीक वैसा ही होना चाहिए -मूर्ति को जोड़कर उसी मूर्ति की पूर्ववत पूजा की जाय। उसे त्याग देने का कारण ही क्या है ? " तदन्तर श्रीरामकृष्णदेव ने स्वयं अपने हाथों से उस मूर्ति को जोड़ दिया तथा उसकी पूजा आदि पूर्ववत होने लगी। कारीगर के यहाँ से जो नवीन मूर्ति निर्मित होकर आयी , उसकी प्रतिष्ठा नहीं की गयी।  वह नवीन मूर्ति अभीतक उसी तरह श्रीगोविन्दजी के भीतर एक ओर रखी हुई है।"

 [लोलाप्रसंग -II 'गुरुभाव तथा मथुरनाथ ' पृष्ठ १६९-७० ]        

 २.नौकरी करने के सम्बन्ध में श्री रामकृष्ण का अभिमत - आध्यात्मिकता के साथ नौकरी का कभी सामंजस्य नहीं होता , अतः भक्त को ईश्वर के सिवाय और किसी की नौकरी नहीं करनी चाहिए। अत्यन्त अभावग्रस्त हुए बिना स्वेच्छापूर्वक नौकरी करने पर किसी व्यक्ति को वे अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे। लेकिन यदि अपने असहाय वृद्धा माता के भरण-पोषण के निमित्त किसी ने नौकरी करना स्वीकार किया हो , तो वे उसे बुरा नहीं समझते थे। किसी ने पूछा , " महाशय आप नौकरी की निन्दा कर रहे हैं , किन्तु नौकरी न करने पर संसार -यात्रा [गृहस्थ जीवन ] का निर्वाह कैसे होगा ? उत्तर में श्रीरामकृष्णदेव बोले , " जो नौकरी करना चाहे करे ; मैं तो सबको मना नहीं कर रहा हूँ , (निरंजन आदि अन्यान्य बालक-भक्तों, को दिखाकर ......) मैं इन लोगों से.....मानवजाति के भावी नेताओं, `वुड बी लीडर्स ' से यह बात कह रहा हूँ , इनकी बात अलग है। " श्रीरामकृष्ण अपने बालक-भक्तों के जीवन को दूसरे ही प्रकार से निर्माण कर रहे थे। [लीलाप्रसंग-I, `पूजक-पद ग्रहण'  पृष्ठ -१९६ ]   

 प्रत्येक निश्चित विज्ञान की एक सामान्य आधारभूमि है और उससे जो सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं , इच्छा करने पर कोई भी उनका सत्यासत्य तत्काल समझ ले सकता है । अब प्रश्न यह है , धर्म की ऐसी सामान्य आधारभूमि कोई है भी या नहीं ? हमें इसका उत्तर देने के लिए ' हाँ ' (affirmative) और ' नहीं ' (negative), दोनों कहने होंगे । 

संसार में धर्म के सम्बन्ध में सर्वत्र ऐसी शिक्षा मिलती है कि धर्म केवल श्रद्धा और विश्वास ( faith and belief) पर स्थापित है , और अधिकांश स्थलों में तो वह भिन्न भिन्न मतों की समष्टि मात्र है। यही कारण है कि धर्मों के बीच केवल लड़ाई - झगड़ा दिखाई देता है । ये मत फिर विश्वास पर स्थापित हैं । कोई कोई कहते हैं कि बादलों के ऊपर एक महान् पुरुष है , वही सारे संसार का शासन करता है , और वक्ता महोदय केवल अपनी बात के बल पर ही मुझसे इसमें विश्वास करने को कहते हैं । 

मेरे भी ऐसे अनेक भाव हो सकते हैं, जिन पर विश्वास करने के लिए मैं दूसरों से कहता हूँ ; और यदि वे कोई युक्ति चाहें , इस विश्वास का कारण पूछें , तो मैं उन्हें युक्ति - तर्क देने में असमर्थ हो जाता हूँ । इसीलिए आजकल धर्म और दर्शन - शास्त्रों की इतनी निन्दा सुनी जाती है । प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति का मानो यही मनोभाव है — ‘ अहो , ये धर्म कुछ मतों के गट्टे भर हैं । उनके सत्यासत्य विचार का कोई एक मापदण्ड नहीं ; जिसके जी में जो आया , बस , वही बक गया ! ' किन्तु ये लोग चाहे जो कुछ सोचें , वास्तव में धर्मविश्वास की एक सार्वभौमिक भित्ति है – वही विभिन्न देशों के विभिन्न सम्प्रदायों के भिन्न भिन्न मतवादों और सब प्रकार की विभिन्न धारणाओं को नियमित करती है । उन सब के मूल में जाने पर हम देखते हैं कि वे सभी सार्वजनिक अनुभूति पर प्रतिष्ठित हैं ।

पहली बात तो यह कि यदि तुम पृथ्वी के भिन्न भिन्न धर्मों का जरा विश्लेषण करो , तो तुमको ज्ञात हो जाएगा कि वे दो श्रेणियों में विभक्त हैं । कुछ की शास्त्रभित्ति है , और कुछ की शास्त्रभित्ति नहीं । जो शास्त्रभित्ति पर स्थापित हैं , वे सुदृढ़ हैं , उन धर्मों के माननेवालों की संख्या भी अधिक है । जिनकी शास्त्रभित्ति नहीं है , वे धर्म प्रायः लुप्त हो गये हैं । कुछ नये उठे अवश्य हैं , पर उनके अनुयायी बहुत थोड़े हैं । फिर भी उक्त सभी सम्प्रदायों में यह मतैक्य दीख पड़ता है कि उनकी शिक्षा विशिष्ट व्यक्तियों के प्रत्यक्ष अनुभव मात्र हैं । 

ईसाई तुमसे अपने धर्म पर , ईसा पर , ईसा के अवतारत्व पर , ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व पर और उस आत्मा की भविष्य उन्नति की सम्भवनीयता पर विश्वास करने को कहता है । यदि मैं उससे इस विश्वास का कारण पूछँ , तो वह कहता है , “ यह मेरा विश्वास है । ” किन्तु यदि तुम ईसाई धर्म के मूल में जाओ , तो देखोगे कि वह भी प्रत्यक्ष अनुभूति पर स्थापित है । ईसा ने कहा है , " मैंने ईश्वर के दर्शन किये हैं । ” उनके शिष्यों ने भी कहा है , " हमने ईश्वर का अनुभव किया है । ” - आदि आदि ।

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏आत्मदर्शन ही ईश्वरदर्शन है ! 🔆🙏

अवतरणिका बौद्ध धर्म के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है । बुद्धदेव की प्रत्यक्ष अनुभूति पर यह धर्म स्थापित है । उन्होंने कुछ सत्यों का अनुभव किया था । उन्होंने उन सब को देखा था , वे उन सत्यों के संस्पर्श में आये थे , और उन्हीं का उन्होंने संसार में प्रचार किया । हिन्दुओं के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है ; उनके शास्त्रों में कुछ सत्यों ' ऋषि ' नाम से सम्बोधित किये जानेवाले ग्रन्थकर्ता कह गये हैं , " हमने के अनुभव किये हैं । " और उन्हीं का वे संसार में प्रचार कर गये हैं । अतः यह स्पष्ट है कि संसार के समस्त धर्म उस प्रत्यक्ष अनुभव पर स्थापित हैं , जो ज्ञान की सार्वभौमिक और सुदृढ़ भित्ति है । 

सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था । उन सभी ने आत्मदर्शन किया था ; अपने अनन्त स्वरूप का ज्ञान सभी को हुआ था , सब ने अपनी भविष्य अवस्था देखी थी , और जो कुछ उन्होंने देखा था , उसी का वे प्रचार कर गये । [The teachers all saw God; they all saw their own souls, they saw their future, they saw their eternity, and what they saw they preached. ] भेद इतना ही है कि इनमें से अधिकांश धर्मों में , विशेषतः आजकल, एक अद्भुत दावा हमारे सामने उपस्थित होता है , और वह यह कि ' इस समय ये अनुभूतियाँ असम्भव हैं । जो धर्म के प्रथम संस्थापक थे , बाद में जिनके नाम से उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ , ऐसे केवल थोड़े व्यक्तियों के लिए ही ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव सम्भव हुआ था ।अब ऐसे अनुभव के लिए कोई रास्ता नहीं रहा , फलतः अब धर्म पर विश्वास भर कर लेना होगा ।' 

इस बात को मैं पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ । यदि संसार में किसी प्रकार के विज्ञान के किसी विषय की किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की हैं , तो इससे इस सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुँचा जा सकता है कि पहले भी कोटि कोटि बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी और भविष्य में भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना बनी रहेगी । एकरूपता ही प्रकृति का एक बड़ा नियम है । एक बार जो घटित हुआ है , वह पुनः घटित हो सकता है । 

इसीलिए योगविद्या के आचार्यगण कहते हैं कि धर्म पूर्वकालीन अनुभवों पर केवल स्थापित ही नहीं, वरन् इन अनुभवों से स्वयं सम्पन्न हुए बिना कोई भी धार्मिक नहीं हो सकता । जिस विद्या के द्वारा ये अनुभव प्राप्त होते हैं , उसका नाम है योग । धर्म के सत्यों का जब तक कोई अनुभव नहीं कर लेता , तब तक धर्म की बात करना ही वृथा है । भगवान् के नाम पर इतनी लड़ाई , विरोध और झगडा क्यों ? भगवान् के नाम पर जितना खून बहा है , उतना और किसी कारण से नहीं । ऐसा क्यों ?

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏यदि कोई विवेक-स्रोत [आत्मा ] है तो उसे उद्घाटित करना होगा🔆🙏 

इसीलिए कि कोई भी व्यक्ति, स्वयं विवेक-दर्शन का अभ्यास करके अपने 'विवेक-स्रोत' को (fountain-head को) उद्घाटित करने का प्रयास नहीं करता था । सब लोग पूर्वजों के कुछ आचारों का अनुमोदन करके ही सन्तुष्ट थे । वे चाहते थे कि दूसरे भी वैसा ही करें । जिन्हें आत्मा की अनुभूति या ईश्वरसाक्षात्कार न हुआ हो , उन्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि आत्मा या ईश्वर है ? 

यदि ईश्वर हो , तो उसका साक्षात्कार करना होगा ; यदि आत्मा नामक कोई चीज हो , तो उसकी उपलब्धि करनी होगी । अन्यथा विश्वास न करना ही भला । ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है । [If there is a soul we must perceive it; otherwise it is better not to believe. It is better to be an outspoken atheist than a hypocrite. ]

एक ओर आजकल के तथाकथित विद्वान् “learned”  (उच्च डिग्रीधारी)  कहलाने वाले मनुष्यों के मन का भाव,यह है कि धर्म , दर्शन (metaphysics,आत्मतत्व-विज्ञान) और एक परम पुरुष (Supreme Being-परमात्मा या अवतार) का अनुसन्धान, यह सब व्यर्थ की बातें है। और दूसरी ओर,जो अर्धशिक्षित (semi-educated) हैं,उनका मनोभाव ऐसा जान पड़ता है कि धर्म , दर्शन आदि की वास्तव में कोई बुनियाद नहीं उनकी इतनी ही उपयोगिता है कि वे संसार के मंगलसाधन की बलशाली प्रेरक शक्तियां  हैं; यदि लोगों का ईश्वर की सत्ता में विश्वास रहेगा , तो वे सत् और नीतिपरायण बनेंगे और इसीलिए अच्छे नागरिक होंगे । 

जिन लोगों का मनोभाव ऐसा हैं , तो इसके लिए उनको दोष नहीं दिया जा सकता।  क्योंकि वे धर्म के सम्बन्ध में जो शिक्षा पाते हैं , वह केवल सारशून्य , अर्थहीन अनन्त शब्दसमष्टि पर विश्वास मात्र है । उन लोगों से नीरस और निरर्थक (rigmarole) -शब्दों पर विश्वास करके रहने के लिए कहा जाता है ; क्या ऐसा कोई कभी कर सकता है ? यदि मनुष्य द्वारा यह सम्भव होता , तो मानवप्रकृति पर मेरी तिल मात्र श्रद्धा न रहती । 

मनुष्य चाहता है सत्य । वह सत्य का स्वयं अनुभव करना चाहता है ; और जब वह सत्य की धारणा कर लेता है , सत्य का साक्षात्कार  कर लेता है , हृदय के अन्तरतम प्रदेश में उसका अनुभव कर लेता है (उस इन्द्रियातीत परम् सत्य का अविष्कार कर लेता है जो अविनाशी और अपरिवर्तनीय है) , वेद कहते हैं -- 

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । 

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।। 

-मुण्डकोपनिषद् , 

' तभी उसके सारे सन्देह दूर होते हैं , सारा तमोजाल छिन्न - भिन्न हो जाता है और ह्रदय की सारी वक्रता सीधी हो जाती है । ' 

" भारत के प्राचीन आचार्य, प्राचीन ऋषि जंगल में बैठे इसी प्रश्न पर विचार कर रहे हैं, बड़े बड़े वयोवृद्ध पवित्रमय महर्षिगण भी इसकी मीमांसा करने में असमर्थ रहे हैं परन्तु एक तरुण  उनके बीच खड़े हो कर घोषणा करता है―"हे अमृत के पुत्रगण सुनो , यहाँ तक कि जो दिव्य धामवासी निवासी हैं, वे भी सुनें ! मुझे अज्ञानान्धकार से आलोक में जाने का मार्ग (गुरु,मार्गदर्शक नेता) मिल गया है, जो समस्त तम के पार है ! उसको जानने पर ही वहाँ जाया जा सकता है - मुक्ति का और कोई दूसरा उपाय नहीं । 

श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः।

आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमस. परस्तात्।

तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥

(श्वेताश्वतर उपनिषद्)

इस सत्य को प्राप्त करने के लिए , राजयोग - विद्या मानव के समक्ष यथार्थ व्यावहारिक और साधनोपयोगी वैज्ञानिक प्रणाली रखने का प्रस्ताव करती है । पहले तो , प्रत्येक विद्या के अनुसन्धान और साधन की प्रणाली पृथक् पृथक् है । यदि तुम खगोलशास्त्रज्ञ होने की इच्छा करो और बैठे बैठे केवल ' खगोलशास्त्र खगोलशास्त्र ' कहकर चिल्लाते रहो , तो तुम कभी खगोलशास्त्र के अधिकारी न हो सकोगे । रसायनशास्त्र के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है ; उसमें भी एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा ; प्रयोगशाला में जाकर विभिन्न द्रव्यादि लेने होंगे , उनको एकत्र करना होगा , उन्हें उचित अनुपात में मिलाना होगा , फिर उनको लेकर उनकी परीक्षा करनी होगी , तब कहीं तुम रसायनवित हो सकोगे । 

यदि तुम खगोलशास्त्रज्ञ होना चाहते हो , तो तुम्हें वेधशाला में जाकर दूरबीन की सहायता से ताराओं और ग्रहों का पर्यवेक्षण करके उनके विषय में आलोचना करनी होगी , तभी तुम खगोलशास्त्रज्ञ हो सकोगे । प्रत्येक विद्या की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है । मैं तुम्हें सैकड़ों उपदेश दे सकता हूँ , परन्तु तुम यदि साधना न करो, तो तुम कभी धार्मिक न हो सकोगे । सभी युगों में, सभी देशों में, निष्काम, शुद्धस्वभाव साधु - महापुरुष इसी सत्य का प्रचार कर गये हैं। संसार का हित छोड़कर अन्य कोई कामना उनमें नहीं थी । 

उन सभी लोगों ने कहा है कि "इन्द्रियाँ हमें जहाँ तक सत्य का अनुभव करा सकती हैं , हमने उससे उच्चतर सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) प्राप्त कर लिया है" , और वे उसकी परीक्षा के लिए तुम्हें बुलाते हैं । वे कहते हैं , " तुम एक निर्दिष्ट साधनप्रणाली लेकर सरल भाव से साधना करते रहो , और यदि यह उच्चतर सत्य प्राप्त न हो , तो फिर भले ही कह सकते हो कि इस उच्चतर सत्य के सम्बन्ध की बातें केवल कपोलकल्पित है । पर हाँ , इससे पहले इन उक्तियों की सत्यता को बिलकुल अस्वीकृत कर देना किसी तरह युक्तिपूर्ण नहीं है । " अतएव निर्दिष्ट साधनप्रणाली लेकर श्रद्धापूर्वक साधना करना हमारे लिए आवश्यक हैं , और तब प्रकाश अवश्य आएगा ।

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏मन को मन के द्वारा ही देखा जा सकता है🔆🙏 

कोई ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम साधारणीकरण की सहायता लेते हैं । और साधारणीकरण (generalisation) घटनाओं के पर्यवेक्षण (observation) पर आधारित है । हम पहले घटनावली (facts) का पर्यवेक्षण करते हैं , फिर उनका साधारणीकरण करते हैं और फिर उनसे अपने सिद्धान्त (conclusions) या मतामत (principles) निकालते हैं । हम जब तक यह प्रत्यक्ष नहीं कर लेते कि हमारे मन के भीतर क्या हो रहा है और क्या नहीं , तब तक हम अपने मन के सम्बन्ध में , मनुष्य की आभ्यन्तरिक प्रकृति के सम्बन्ध में मनुष्य के विचार के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जान सकते । बाह्य जगत् के व्यापारों का पर्यवेक्षण करना अपेक्षाकृत सहज है , क्योंकि उसके लिए हजारों यन्त्र निर्मित हो चुके हैं पर अन्तर्जगत् के व्यापार को समझने में मदद करनेवाला कोई भी यन्त्र नहीं । 

किन्तु फिर भी हम यह निश्चयपूर्वक जानते हैं कि किसी विषय का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए पर्यवेक्षण आवश्यक है । उचित विश्लेषण के बिना विज्ञान निरर्थक और निष्फल होकर केवल भित्तिहीन अनुमान में परिणत हो जाता है । इसी कारण , उन थोड़े से मनस्तत्त्वान्वेषियों को छोड़कर , जिन्होंने पर्यवेक्षण करने के उपाय जान लिये हैं , शेष सब लोग चिरकाल से परस्पर केवल विवाद ही करते आ रहे हैं । 

राजयोग - विद्या [मनःसंयोग का प्रशिक्षण]  पहले मनुष्य को उसकी अपनी आभ्यन्तरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण का इस प्रकार उपाय दिखा देती है । मन ही उस पर्यवेक्षण का यन्त्र है । मनोयोग की शक्ति का सही सही नियमन कर जब उसे अन्तर्जगत् की ओर परिचालित किया जाता है , तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है और तब उसके प्रकाश से हम यह सही सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या घट रहा है । 

मन की शक्तियाँ इधर - उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान हैं । जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है , तब वे सब कुछ आलोकित कर देती हैं । यही ज्ञान का हमारा एकमात्र उपाय है । बाह्य जगत् में हो अथवा अन्तर्जगत् में , लोग इसी को काम में ला रहे हैं । पर वैज्ञानिक जिस सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का प्रयोग बहिर्जगत् में करता है , मनस्तत्त्वान्वेषी उसी का मन पर करते हैं। इसके लिए काफी अभ्यास आवश्यक है । बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सीखा है , अन्तर्जगत में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी । 

इसी कारण हममें से अधिकांश आभ्यन्तरिक क्रिया - विधि की निरीक्षणशक्ति खो बैठे हैं । मन को अन्तर्मुखी करना , उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना , उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर , उस मन के ही ऊपर उनका प्रयोग करना , ताकि वह अपना स्वभाव समझ सके , अपने आपको विश्लेषण करके देख सके एक अत्यन्त कठिन कार्य है । पर इस विषय में वैज्ञानिक प्रथा के अनुसार अग्रसर होने के लिए यही एकमात्र उपाय है । 

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏अविनाशी, अपरिवर्तनीय सत्य का दर्शन ही सर्वोच्च पुरस्कार है🔆🙏  

इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है ? पहले तो , ज्ञान स्वयं ज्ञान का सर्वोच्च पुरस्कार है । दूसरे , इसकी उपयोगिता भी है । यह हमारे समस्त दुःखों का हरण करेगा । "जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है , जिसका किसी काल में नाश नहीं , जो स्वरूपतः नित्यपूर्ण और नित्यशुद्ध है , तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता , उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है । 

मृत्यु का भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है । पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है , तब उसे फिर मृत्युभय नहीं रह जाता । अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएँ फिर नहीं रहतीं । पूर्वोक्त कारणद्वय का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता । उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है । 

इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता । रसायनवित् अपनी प्रयोगशाला में जाकर अपने मन की समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत करके ,जिन वस्तुओं का विश्लेषण करता है , उन पर प्रयोग करता है , और इस प्रकार वह उनके रहस्य जान लेता है । खगोलशास्त्रज्ञ अपने मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके दूरबीन के भीतर से आकाश में प्रक्षिप्त करता है , और बस, त्याही सूर्य , चन्द्र और ताराएँ अपने अपने रहस्य उसके निकट खोल देती हैं ।

 मैं जिस विषय पर बातचीत कर रहा हूँ , उस विषय में मैं जितना मनोनिवेश कर सकूँगा , उतना ही उस विषय का गूढ़ तत्त्व तुम लोगों के निकट प्रकट कर सकूँगा । तुम लोग मेरी बात सुन रहे हो । तुम लोग जितना इस विषय में मनोनिवेश करोगे , उतनी ही मेरी बात की स्पष्ट रूप से धारणा कर सकोगे । 

मन की शक्तियों को एकाग्र करने के सिवा अन्य किस तरह संसार में ये समस्त ज्ञान उपलब्ध हुए हैं ? यदि प्रकृति के द्वार को कैसे खटखटाना चाहिए , - उस पर कैसे आघात देना चाहिए , केवल यह ज्ञात हो गया , तो बस , प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती है । उस आघात की शक्ति और तीव्रता एकाग्रता से ही आती है । मानव - मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं । वह जितना ही एकाग्र होता है , उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है , यही रहस्य है । 

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏मन अपनेआप को द्रष्टा और दृश्य -दो में विभक्त कर सकता है🔆🙏 

मन को बाहरी विषय पर स्थिर करना अपेक्षाकृत सहज है । मन स्वभावतः बहिर्मुखी है । किन्तु धर्म , मनोविज्ञान , अथवा दर्शन के विषय में ऐसा नहीं है । यहाँ तो ज्ञाता और ज्ञेय (विषयी और विषय) एक हैं । यहाँ प्रमेय (विषय) एक अन्दर की वस्तु है - मन ही यहाँ प्रमेय है । मनस्तत्त्व का अन्वेषण करना ही यहाँ प्रयोजन है , और मन ही मनस्तत्त्व के अन्वेषण का कर्ता है । हमें मालूम है कि मन की एक ऐसी शक्ति है , जिससे वह अपने अन्दर जो कुछ हो रहा है , उसे देख सकता है इसको अन्तः पर्यवेक्षण - शक्ति कह सकते हैं । 

मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूँ फिर साथ ही मैं मानो एक और व्यक्ति होकर बाहर खड़ा हूँ और जो कुछ कह रहा हूँ ; वह जान - सुन रहा हूँ । तुम एक ही समय काम और चिन्तन दोनों कर रहे हो, परन्तु तुम्हारे मन का एक और अंश मानो बाहर खड़े होकर तुम जो कुछ चिन्तन कर रहे हो , उसे देख रहा है । मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही उनका प्रयोग करना होगा। जैसे सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के सामने घने अन्धकारमय स्थान भी अपने गुप्त तथ्य खोल देते हैं , उसी तरह यह एकाग्र मन अपने सब अन्तरतम रहस्य प्रकाशित कर देगा । 

तब हम विश्वास की सच्ची बुनियाद" पर पहुँचेंगे । तभी हमको सही सही धर्मप्राप्ति होगी । तभी , आत्मा है या नहीं , "जीवन केवल इस सामान्य जीवितकाल तक ही सीमित है अथवा अनन्तकालव्यापी है और संसार में कोई ईश्वर है या नहीं , यह सब हम स्वयं देख सकेंगे । सब कुछ हमारे ज्ञानचक्षुओं के सामने उद्भासित हो उठेगा । राजयोग (मनःसंयोग) हमें यही शिक्षा देना चाहता है । इसमें जितने उपदेश हैं , उन सब का उद्देश्य , प्रथमतः , मन की एकाग्रता का साधन है, इसके बाद है - उसके गम्भीरतम प्रदेश में कितने प्रकार के भिन्न भिन्न कार्य हो रहे हैं , उनका ज्ञान प्राप्त करना ; और तत्पश्चात् उनसे साधारण सत्यों को निकालकर उनसे अपने एक सिद्धान्त पर उपनीत होना । 

"इसीलिए राजयोग (मनःसंयोग) की शिक्षा किसी धर्मविशेष पर आधारित नहीं है । तुम्हारा धर्म चाहे जो हो तुम चाहे आस्तिक हो या नास्तिक , यहूदी या बौद्ध या ईसाई इससे कुछ बनता - बिगड़ता नहीं , तुम मनुष्य हो, बस, यही पर्याप्त है । प्रत्येक मनुष्य में धर्मतत्त्व का अनुसन्धान करने की शक्ति है, उसे उसका अधिकार है । प्रत्येक व्यक्ति का , किसी भी विषय से क्यों न हो, कारण पूछने का अधिकार है , और उसमें ऐसी शक्ति भी है कि वह अपने भीतर से ही उन प्रश्नों के उत्तर पा सके । पर हाँ , उसे इसके लिए कुछ कष्ट उठाना पड़ेगा ।

अब तक हमने देखा , इस राजयोग की साधना में किसी प्रकार के विश्वास की आवश्यकता नहीं । जब तक कोई बात स्वयं प्रत्यक्ष न कर सको , तब तक उस पर विश्वास न करो- राजयोग यही शिक्षा देता है । सत्य को प्रतिष्ठित करने के लिए अन्य किसी सहायता की आवश्यकता नहीं । क्या तुम कहना चाहते हो कि जाग्रत् अवस्था की सत्यता के प्रमाण के लिए स्वप्न अथवा कल्पना की सहायता की जरूरत है ? नहीं , कभी नहीं । इस राजयोग की साधना में दीर्घ काल और निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है । इस अभ्यास का कुछ अंश शरीरसंयम विषयक है , परन्तु इसका अधिकांश मनःसंयमात्मक है । 

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏अधिकांश लोगों का मन शरीर का गुलाम होता है🔆🙏

हम क्रमशः समझेंगे , मन और शरीर में किस प्रकार का सम्बन्ध है । यदि हम विश्वास करें कि मन शरीर की केवल एक सूक्ष्म अवस्थाविशेष है और मन शरीर पर कार्य करता है , तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि शरीर भी मन पर कार्य करता है । शरीर के अस्वस्थ होने पर मन भी अस्वस्थ हो जाता है , शरीर स्वस्थ रहने पर मन भी स्वस्थ और तेजस्वी रहता है । जब किसी व्यक्ति को क्रोध आता है , तब उसका मन अस्थिर हो जाता है । मन की अस्थिरता के कारण शरीर भी पूरी तरह अस्थिर हो जाता है । अधिकांश लोगों का मन शरीर के सम्पूर्ण अधीन रहता है। असल में उनके मन की शक्ति बहुत थोड़े परिमाण में विकसित हुई रहती है। 

अधिकांश मनुष्य पशु से बहुत थोड़े ही उन्नत हैं , क्योंकि अधिकांश स्थलों में तो उनकी संयम की शक्ति पशु - पक्षियों से कोई विशेष अधिक नहीं । हममें मन के निग्रह की शक्ति बहुत थोड़ी है । मन पर यह अधिकार पाने के लिए , शरीर और मन पर आधिपत्य लाने के लिए कुछ बहिरंग साधनाओं की दैहिक साधनाओं की आवश्यकता है । शरीर जब पूरी तरह अधिकार में आ जाएगा, तब मन को हिलाने - डुलाने का समय आएगा । इस तरह मन जब बहुत कुछ वश में आ जाएगा, तब हम इच्छानुसार उससे काम ले सकेंगे , उसकी वृत्तियों को एकमुखी होने के लिए मजबूर कर सकेंगे । 

राजयोगी के मतानुसार यह सम्पूर्ण बहिर्जगत् अन्तर्जगत् या सूक्ष्म जगत् का स्थूल विकास मात्र है । सभी स्थलों में सूक्ष्म को कारण और स्थूल को कार्य समझना होगा । इस नियम से , बहिर्जगत् कार्य है और अन्तर्जगत् कारण । इसी हिसाब से स्थूल जगत् की परिदृश्यमान शक्तियाँ आभ्यन्तरिक सूक्ष्मतर शक्तियों का स्थूल भाग मात्र हैं । 

जिन्होंने इन आभ्यन्तरिक शक्तियों का आविष्कार करके उन्हें इच्छानुसार चलाना सीख लिया है , वे सम्पूर्ण प्रकृति को वश में कर सकते हैं । सम्पूर्ण जगत् को वशीभूत करना और सारी प्रकृति पर अधिकार हासिल करना इस बृहत् कार्य को ही योगी अपना कर्तव्य समझते हैं । वे एक ऐसी अवस्था में जाना चाहते हैं , जहाँ , हम जिन्हें ' प्रकृति के नियम ' कहते हैं , वे उन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते , जिस अवस्था में वे उन सब को पार कर जाते हैं । तब वे आभ्यन्तरिक और बाह्य समस्त प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेते हैं । 

मनुष्यजाति की उन्नति और सभ्यता इस प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति पर ही निर्भर है । इस प्रकृति को वशीभूत करने के लिए भिन्न भिन्न जातियाँ भिन्न भिन्न प्रणालियों का सहारा लेती है । जैसे एक ही समाज के भीतर कुछ व्यक्ति बाह्य प्रकृति को और कुछ अन्तःप्रकृति को वशीभूत करने की चेष्टा करते हैं , वैसे ही भित्र भिन्न जातियों में कोई कोई जातियाँ बाह्य प्रकृति को , तो कोई कोई अन्तःप्रकृति को वशीभूत करने का प्रयत्न करती हैं । किसी के मत से अन्तः प्रकृति को वशीभूत करने पर सब कुछ वशीभूत हो जाता है ; फिर दूसरों के मत से , बाह्य प्रकृति को वशीभूत करने पर सब कुछ वश में आ जाता है । 

इन दो सिद्धान्तों के चरम भावों को देखने पर यह प्रतीत होता है कि दोनों ही सिद्धान्त सही है ; क्योंकि यथार्थतः प्रकृति में बाह्य और आभ्यन्तर जैसा कोई भेद नहीं । यह केवल एक काल्पनिक विभाग विभाग का कोई अस्तित्व ही नहीं , और यह कभी था भी नहीं । बहिर्वादी और अन्तर्वादी जब अपने अपने ज्ञान की चरम सीमा प्राप्त कर लेंगे , तब दोनों अवश्य एक ही स्थान पर पहुँच जाएँगे । जैसे भौतिक विज्ञानी जब अपने ज्ञान को चरम सीमा पर ले जाएँगे , तो अन्त में उन्हें दार्शनिक होना होगा , उसी प्रकार दार्शनिक भी देखेंगे कि वे मन और भूत के नाम से जो दो भेद कर रहे थे , वह वास्तव में कल्पना मात्र है वह एक दिन बिलकुल विलीन हो जाएगी । 

जिस `एक ' से यह `अनेक '  उत्पन्न हुआ है , जो एक पदार्थ बहु रूपों में प्रकाशित हुआ है , उसका निर्णय करना ही समस्त विज्ञान का मुख्य उद्देश्य और लक्ष्य है । राजयोगी कहते हैं , हम पहले अन्तर्जगत का ज्ञान प्राप्त करेंगे , फिर उसी के द्वारा बाह्य और आन्तर उभय प्रकृति को वशीभूत कर लेंगे । प्राचीन काल से ही लोग इसके लिए प्रयत्नशील रहे हैं । भारतवर्ष में इसकी विशेष चेष्टा होती रही है , परन्तु दूसरी जातियों ने भी इस ओर कुछ प्रयत्न किये हैं । पाश्चात्य देशों में लोग इसको रहस्य या गुप्त विद्या सोचते थे ; जो लोग इसका अभ्यास करने जाते थे , उन पर अघोरी , जादूगर , ऐन्द्रजालिक आदि अपवाद लगाकर उन्हें जला दिया अथवा मार डाला जाता था। भारतवर्ष में अनेक कारणों से यह विद्या ऐसे व्यक्तियों के हाथ पड़ी , जिन्होंने इसका ९ ० प्रतिशत अंश नष्ट कर डाला और शेष को गुप्त रीति से रखने की चेष्टा की । आजकल पश्चिमी देशों में , भारतवर्ष के गुरुओं की अपेक्षा निकृष्टतर अनेक गुरु नामधारी व्यक्ति दिखाई पड़ते हैं । भारतवर्ष के गुरु फिर भी कुछ जानते थे, पर ये आधुनिक व्याख्याकार तो कुछ भी नहीं जानते । 

इन सारी योगप्रणालियों में जो कुछ गुह्य या रहस्यात्मक है , सब छोड़ देना पड़ेगा । जिससे बल मिलता है , उसी का अनुसरण करना चाहिए । अन्यान्य विषयों में जैसा है , धर्म में भी ठीक वैसा ही है - जो तुमको दुर्बल बनाता है (कामिनी-कांचन में आसक्ति) , वह समूल त्याज्य है । रहस्यस्पृहा मानव - मस्तिष्क को दुर्बल कर देती है । इसके कारण ही आज योगशास्त्र नष्ट सा हो गया है । किन्तु वास्तव में यह एक महाविज्ञान है । चार हजार वर्ष से भी पहले यह आविष्कृत हुआ था । तब से भारतवर्ष में यह प्रणालीबद्ध होकर वर्णित और प्रचारित होता रहा है । 

यह एक आश्चर्यजनक बात है कि व्याख्याकार जितना आधुनिक है , उसका भ्रम भी उतना ही अधिक है ; और लेखक जितना प्राचीन है , उसने उतनी ही अधिक युक्तियुक्त बात कही है । आधुनिक लेखकों में ऐसे अनेक हैं , जो नाना प्रकार की रहस्यात्मक और अद्भुत अद्भुत बातें कहा करते हैं । इस प्रकार , जिनके हाथ यह शास्त्र पड़ा , उन्होंने समस्त शक्तियाँ अपने अधिकार में कर रखने की इच्छा से इसको महागोपनीय बना डाला और युक्तिरूप प्रभाकर का पूर्ण आलोक इस पर नहीं पड़ने दिया । 

मैं पहले ही कह देना चाहता हूँ कि मैं जो कुछ प्रचार कर रहा हूँ , उसमें गुह्य नाम की कोई चीज नहीं है । मैं जो कुछ थोड़ा सा जानता हूँ , वही तुमसे कहूँगा । जहाँ तक यह युक्ति से समझाया जा सकता है , वहाँ तक समझाने की कोशिश करूँगा । परन्तु मैं जो नहीं समझ सकता , उसके बारे में कह दूँगा , “ शास्त्र का यह कथन है । " अन्धविश्वास करना ठीक नहीं । अपनी विचारशक्ति और युक्ति काम में लानी होगी । यह प्रत्यक्ष करके देखना होगा कि शास्त्र में जो कुछ लिखा है , वह सत्य है या नहीं । 

[राजयोग (प्रथम अध्याय) :अवतरणिका ]

🔆🙏दर्शन क्रिया कैसे होती है ?🔆🙏 

भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो , ठीक उसी ढंग से यह धर्मविज्ञान भी सीखना होगा । इसमें गुप्त रखने की कोई बात नहीं , किसी विपत्ति की भी आशंका नहीं । इसमें जहाँ तक सत्य है , उसका सब के समक्ष राजपथ पर प्रकट रूप से प्रचार करना आवश्यक है । यह सब किसी प्रकार छिपा रखने की चेष्टा करने से अनेक प्रकार की महान् विपत्तियाँ उत्पन्न होती हैं । कुछ और अधिक कहने के पहले मैं सांख्य दर्शन के सम्बन्ध में कुछ कहूँगा । इस सांख्य दर्शन पर पूरा राजयोग आधारित है । 

सांख्य दर्शन के मत से किसी विषय के ज्ञान की प्रणाली इस प्रकार है - प्रथमतः विषय के साथ चक्षु आदि बाह्य करणों का संयोग होता है । ये चक्षु आदि बाहरी करण फिर उसे मस्तिष्कस्थित अपने अपने केन्द्र अर्थात् इन्द्रियों के पास भेजते हैं ; इन्द्रियाँ मन के निकट , और मन उसे निश्चयात्मिका बुद्धि के निकट ले जाता है , तब पुरुष या आत्मा उसका ग्रहण करता है । फिर जिस सोपानक्रम में से होता हुआ वह विषय अन्दर आया था , उसी में से होते हुए लौट जाने की पुरुष मानो उसे आज्ञा देता है । इस प्रकार विषय गृहीत होता है । 

पुरुष को छोड़कर शेष सब जड़ हैं । पर आँख आदि बाहरी करणों की अपेक्षा मन सूक्ष्मतर भूत से निर्मित है । मन जिस उपादान से निर्मित है , उसी से तन्मात्रा नामक सूक्ष्म भूतों की उत्पत्ति होती है । उनके स्थूल हो जाने पर परिदृश्यमान भूतों की उत्पत्ति होती है । यही सांख्य का मनोविज्ञान है । अतएव बुद्धि और परिदृश्यमान स्थूल भूत में अन्तर केवल स्थूलता के तारतम्य में है। एकमात्र पुरुष या आत्मा ही चेतन है । मन तो मानो आत्मा के हाथों एक यन्त्र है । उसके द्वारा आत्मा बाहरी विषयों को ग्रहण करती है । 

मन सतत परिवर्तनशील है , इधर से उधर दौड़ता रहता है , कभी सभी इन्द्रियों से लगा रहता है , तो कभी एक से , और कभी किसी भी इन्द्रिय से संलग्न नहीं रहता । मान लो , मैं मन लगाकर एक घड़ी की टिकटिक सुन रहा हूँ । ऐसी दशा में आँखें खुली रहने पर भी मैं कुछ देख न पाऊँगा। इससे स्पष्ट समझ में आ जाता है कि मन जब श्रवणेन्द्रिय से लगा था , तो दर्शनेन्द्रिय से उसका संयोग न था । पर पूर्णताप्राप्त मन सभी इन्द्रियों से एक साथ लगाया जा सकता है । उसकी अन्तर्दृष्टि की शक्ति है , जिसके बल से मनुष्य अपने अन्तर के सब से गहरे प्रदेश तक में नज़र डाल सकता है । इस अन्तर्दृष्टि का विकास साधना ही योगी का उद्देश्य है । मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके भीतर की ओर मोड़कर वे जानना चाहते हैं कि भीतर क्या हो रहा है । इसमें केवल विश्वास की कोई बात नहीं ; यह तो दार्शनिकों के मनस्तत्त्व - विश्लेषण का फल मात्र है । 

आधुनिक शरीरविज्ञानवित का कथन है कि आँखें यथार्थतः दर्शनेन्द्रिय नहीं हैं ; वह इन्द्रिय तो मस्तिष्क के अन्तर्गत स्नायुकेन्द्र में अवस्थित है और समस्त इन्द्रियों के सम्बन्ध में ठीक ऐसा ही समझना चाहिए । उनका यह भी कहना है कि मस्तिष्क जिस पदार्थ से निर्मित है , ये केन्द्र भी ठीक उसी पदार्थ से बने हैं । सांख्य भी ऐसा ही कहता है । अन्तर यह है कि सांख्य का सिद्धान्त मनस्तत्त्व पर आधारित है और वैज्ञानिकों का भौतिकता पर । फिर भी दोनों एक ही बात है । हमारे शोध के क्षेत्र इन दोनों के परे हैं ।

 योगी प्रयत्न करते हैं कि वे अपने को ऐसा सूक्ष्म अनुभूतिसम्पन्न कर लें , जिससे वे विभिन्न मानसिक स्थाओं को प्रत्यक्ष कर सकें । समस्त मानसिक प्रक्रियाओं को पृथक् पृथक् रूप से मानस - प्रत्यक्ष करना आवश्यक है । 

इन्द्रियगोलकों पर विषयों का आघात होते ही उससे उत्पन्न हुई संवेदनाएँ उस उस करण की सहायता से किस तरह स्नायु में से होती हुई जाती हैं , मन किस प्रकार उनको ग्रहण करता है , किस प्रकार फिर वे निश्चयात्मिका बुद्धि के पास जाती हैं , तत्पश्चात् किस प्रकार वह पुरुष के पास उन्हें पहुँचाता है - इन समस्त व्यापारों को पृथक् पृथक् रूप से देखना होगा । प्रत्येक विषय की शिक्षा की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है । 

कोई भी विज्ञान क्यों न सीखो , पहले अपने आपको उसके लिए तैयार करना होगा , फिर एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा , इसके अतिरिक्त उस विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है । राजयोग के सम्बन्ध में भी ठीक ऐसा ही है । 

भोजन के सम्बन्ध में कुछ नियम आवश्यक हैं । जिससे मन खूब पवित्र रहे , ऐसा भोजन करना चाहिए । तुम यदि किसी Zoo (चिड़ियाघर)में जाओ , तो भोजन के साथ जीव का क्या सम्बन्ध है, यह भलीभाँति समझ में आ जाएगा । हाथी बड़ा भारी प्राणी है , परन्तु उसकी प्रकृति बही शान्त है । और यदि तुम सिंह या बाघ  के पिंजड़े की ओर जाओ , तो देखोगे , वे बड़े चंचल हैं । इससे समझ में आ जाता है कि आहार का तारतम्य कितना भयानक परिवर्तन कर देता है । हमारे शरीर के अन्दर जितनी शक्तियाँ कार्यशील हैं , वे आहार से पैदा हुई है और यह हम प्रतिदिन प्रत्यक्ष देखते हैं । 

यदि तुम उपवास करना आरम्भ कर दो , तो तुम्हारा शरीर दुर्बल हो जाएगा , दैहिक शक्तियों का हरास हो जाएगा और कुछ दिनों बाद मानसिक शक्तियाँ भी क्षीण होने लगेंगी । पहले स्मृतिशक्ति जाती रहेगी , फिर ऐसा एक समय आएगा , जब सोचने के लिए भी सामर्थ्य न रह जाएगा - किसी विषय पर गम्भीर रूप से विचार करना तो दूर की बात रही । 

इसीलिए साधना की पहली अवस्था में , भोजन के सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखना होगा : फिर बाद में साधना में विशेष प्रगति हो जाने पर उतना सावधान न रहने से भी चलेगा । जब तक पौधा छोटा रहता है , तब तक उसे घेरकर रखते हैं , नहीं तो जानवर उसे चर जाएँ । उसके बड़े वृक्ष हो जाने पर घेरा निकाल दिया जाता है । तब वह सारे आघात झेलने के लिए पर्याप्त समर्थ है । 

योगी को अधिक विलास और कठोरता , दोनों ही त्याग देने चाहिए । उनके लिए उपवास करना या देह को किसी प्रकार कष्ट देना उचित नहीं । गीता कहती है-[नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।। युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा । -गीता , (६।१६-१७) ] - "जो अपने को अनर्थक क्लेश देते हैं , वे कभी योगी नहीं हो सकते । अतिभोजनकारी ^  , उपवासशील , अधिक जागरणशील , अधिक निद्रालु अत्यन्त कर्मी अथवा बिलकुल आलसी- इनमें से कोई भी योगी नहीं हो सकता । उस पुरुष के लिए योग दु:खनाशक होता है, जो युक्त आहार और विहार करने वाला है, यथायोग्य चेष्टा करने वाला है और परिमित शयन और जागरण करने वाला है।। "

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['नन्दोत्स्व' ^भाद्र पद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी (जन्माष्ठमी ) को अर्धरात्रि में (रात 12 बजे)  श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा में कंस के कारागार में हुआ था। उनके पिता वसुदेव कंस के भय से श्रीकृष्ण को रात्रि में ही यमुना नदी पार कर नन्द बाबा के यहाँ गोकुल में छोड़ आये थे।  इसीलिए कृष्ण जन्म के दूसरे दिन गोकुल गाँव में ‘नन्दोत्सव’ मनाया जाता है।  भाद्रपद मास की नवमी पर समस्त ब्रजमंडल में नंदोत्सव की धूम रहती है। गोकुल की गलियां ‘नंद घर आनंद भयो जै कन्हैया लाल की’ ‘गोकुल में मचा हल्ला, जसोदा जायो लल्ला’ के स्वरों से गूंज उठतीं हैं। नन्द जी की पत्नी यशोदा को एक कन्या हुई थी।  वासुदेव श्रीकृष्ण को यशोदा के पास सुलाकर उस कन्या को अपने साथ ले गए।  कंस ने उस कन्या को वासुदेव और देवकी की संतान समझ पटककर मार डालना चाहा लेकिन वह इस कार्य में असफल ही रहा।  दैवयोग से वह कन्या जीवित बच गई।  इसके बाद श्रीकृष्ण का लालन–पालन यशोदा व नन्द ने किया।  जब श्रीकृष्ण जी बड़े हुए तो उन्होंने कंस का वध कर अपने माता-पिता को उसकी कैद से मुक्त कराया। नंदोत्सव का मुख्य आकर्षण ‘दधिकांदों’ है, ‘दधिकांदो’ का अर्थ है हल्दी मिश्रित दही (लाला की छीछी)। इस दही की वर्षा श्रद्धालुओं पर की जाएगी। मटकियों में दही घोलकर उसमें हल्दी मिलायी जा रही है। इसके अलावा खिलौने, फल, मिश्री-माखन, मूंगा-मोती और रुपये लुटाते हुए गोकुलवासी लाला के जन्मोत्सव की खुशी मनाएंगे। इस दिन सुप्रसिद्ध 'लठ्ठे के मेले' का आयोजन किया जाता है। मथुरा ज़िले में वृंदावन के विशाल श्री रंगनाथ मंदिर में ब्रज के नायक भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के दूसरे दिन नन्दोत्सव की धूम रहती है। ] 





















 


 





















  








 





मंगलवार, 31 मई 2022

🔆🙏[राजयोग (द्वितीय अध्याय) : ` साधना के प्राथमिक सोपान' ] -स्वामी विवेकानंद /🔆🙏आसन, प्रत्याहार , धारणा का अभ्यास प्रतिदिन 2 बार🔆🙏नाड़िशुद्धि प्राणायाम क्यों आवश्यक है🔆🙏शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्~ शरीर धर्म पालन का पहला साधन है।🔆🙏देह सुख (कामिनी -कांचन) में आसक्ति के रहते सत्यलाभ नहीं होता🔆🙏देह, मन और प्राण आत्मा का यंत्र (instrument) है 🔆🙏

 राजयोग 

द्वितीय अध्याय

  `साधना के प्राथमिक सोपान' 

CHAPTER- II  

THE FIRST STEPS

राजयोग आठ अंगों में विभक्त है । पहला है यम- अर्थात् अहिंसा , सत्य , अस्तेय ( चोरी का अभाव ) , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । दूसरा है नियम अर्थात् शौच , सन्तोष , तपस्या , स्वाध्याय ( अध्यात्म - शास्त्रपाठ ) और ईश्वरप्रणिधान अर्थात् ईश्वर को आत्मसमर्पण । तीसरा है आसन- अर्थात् बैठने की प्रणाली । चौथा है प्राणायाम- अर्थात् प्राण का संयम पाँचवाँ है प्रत्याहार- अर्थात मन की विषयाभिमुखी गति को फेरकर उसे अन्तर्मुखी करना । छठाँ है धारणा- अर्थात् किसी स्थल पर मन का धारण । सातवाँ है ध्यान । और आठवाँ है समाधि- अर्थात् अतिचेतन अवस्था । 

हम देख रहे हैं , यम और नियम चरित्रनिर्माण के साधन हैं । इनको नींव बनाए बिना किसी तरह की योगसाधना सिद्ध न होगी । यम और नियम में दृढ़प्रतिष्ठ हो जाने पर योगी अपनी साधना का फल अनुभव करना आरम्भ कर देते हैं । इनके न रहने पर साधना का कोई फल न होगा । योगी को चाहिए कि वे तन - मन - वचन से किसी के विरुद्ध हिंसाचरण न करें । दया मनुष्यजाति में ही आबद्ध न रहे , वरन् उसके परे भी वह जाए और सारे संसार का आलिंगन कर ले । 

यम और नियम के बाद तीसरा अंग - 'आसन' आता है । जब तक बहुत उच्च अवस्था की प्राप्ति नहीं हो जाती , तब तक रोज नियमानुसार कुछ शारीरिक और मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं । अतएव जिससे दीर्घ काल तक एक ढंग से बैठा जा सके , ऐसे एक आसन का अभ्यास आवश्यक है । जिनको जिस आसन से सुभीता मालूम होता हो , उनको उसी आसन पर बैठना चाहिए । एक व्यक्ति के लिए एक प्रकार से बैठकर सोचना सहज हो सकता है परन्तु दूसरे के लिए , सम्भव है , वह बहुत कठिन जान पड़े । 

हम बाद में देखेंगे कि योगसाधना के समय शरीर के भीतर नाना प्रकार के कार्य होते रहते हैं । स्नायविक शक्तिप्रवाह की गति को फेरकर उसे नये रास्ते से दौड़ाना होगा तब शरीर में नये प्रकार के स्पन्दन या क्रिया शुरू होगी ; सारा शरीर मानो नये रूप से गठित हो जाएगा । इस क्रिया का अधिकांश मेरुदण्ड के भीतर होगा । इसलिए आसन के सम्बन्ध में इतना समझ लेना होगा कि मेरुदण्ड को सहज स्थिति में रखना आवश्यक है - ठीक सीधा बैठना होगा- वक्ष , ग्रीवा और मस्तक सीधे और समुन्नत रहें , जिससे देह का सारा भार पसलियों पर पड़े । `You will easily see that you cannot think very high thoughts with the chest in. ' यह तुम सहज ही समझ सकोगे कि छाती-पीठ यदि नीचे की ओर झुका रहे , तो किसी प्रकार का उच्च चिन्तन करना सम्भव नहीं । 

राजयोग का यह भाग हठयोग से बहुत कुछ मिलता - जुलता है । हठयोग केवल स्थूल देह को लेकर व्यस्त रहता है । इसका उद्देश्य केवल स्थूल देह को सबल बनाना है । हठयोग के सम्बन्ध में यहाँ कुछ कहने की आवश्यकता नहीं , क्योंकि उसकी क्रियाएँ बहुत कठिन हैं । एक दिन में उसकी शिक्षा भी सम्भव नहीं । फिर उससे कोई आध्यात्मिक उन्नति भी नहीं होती । डेलसर्ट और अन्य आचार्यों के ग्रन्थों में इन क्रियाओं के अनेक अंश देखने को मिलते हैं । उन लोगों ने भी शरीर को भिन्न भिन्न स्थितियों में रखने की व्यवस्था की है । हठयोग की तरह उनका भी उद्देश्य दैहिक उन्नति है , आध्यात्मिक नहीं । शरीर की ऐसी कोई पेशी नहीं , जिसे हठयोगी अपने वश में न ला सके । हृदययन्त्र उसकी इच्छा के अनुसार बंद किया या चलाया जा सकता है- शरीर के सारे अंश वह अपनी इच्छानुसार चला सकता है । 

मनुष्य किस प्रकार दीर्घजीवी हो , यही हठयोग का एकमात्र उद्देश्य है । शरीर किस प्रकार पूर्ण स्वस्थ रहे , यही हठयोगियों का एकमात्र लक्ष्य है । हठयोगियों का यह दृढ़ संकल्प है कि हम अस्वस्थ न हों । और इस दृढ़ संकल्प के बल से वे कभी अस्वस्थ होते भी नहीं । वे दीर्घजीवी हो सकते हैं , सौ वर्ष तक जीवित रहना तो उनके लिए मामूली सी बात है । उनकी डेढ़ सौ वर्ष की आयु हो जाने पर भी , देखोगे , वे पूर्ण युवा और सतेज हैं , उनका एक भी बाल सफेद नहीं हुआ, किन्तु इसका फल बस , यहीं तक है । वटवृक्ष (banyan tree) भी कभी कभी पाँच हजार वर्ष जीवित रहता है , किन्तु वह वटवृक्ष का वटवृक्ष ही बना रहता है । 

फिर वे लोग भी यदि उसी तरह दीर्घजीवी हुए , तो उससे क्या ? वे बस , एक बड़े स्वस्थकाय जीव भर रहते हैं । हठयोगियों के दो - एक साधारण उपदेश बड़े उपकारी हैं । सिर की पीड़ा होने पर , शय्यात्याग करते ही नाक से शीतल जल पियो , इससे सारा दिन मस्तिष्क ठीक और शान्त रहेगा और कभी सर्दी न होगी । नाक से पानी पीना कोई कठिन काम नहीं , बड़ा सरल है । नाक को पानी के भीतर डुबाकर गले में पानी खींचते रहो । पानी अपने आप ही धीरे धीरे भीतर जाने लगेगा । आसन सिद्ध होने पर , किसी किसी सम्प्रदाय के मतानुसार नाड़िशुद्धि करनी पड़ती है । बहुत से लोग यह सोचकर कि यह राजयोग के अन्तर्गत नहीं है , इसकी आवश्यकता स्वीकार नहीं करते । 

परन्तु जब शंकराचार्य जैसे भाष्यकार ने भी इसका (नाड़िशुद्धि प्राणायाम) विधान किया है , तब मेरे लिए भी इसका उल्लेख करना उचित जान पड़ता है । मैं श्वेताश्वतर उपनिषद् पर उनके भाष्य से इस सम्बन्ध में उनका मत उद्धृत करूँगा– " प्राणायाम के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया है, वही मन ब्रह्म में स्थिर होता है । " इसलिए शास्त्रों में 'अनुलोम-विलोम प्राणायाम ' के विषय का उल्लेख है । पहले (कपालभाति और) 'अनुलोम-विलोम प्राणायाम ' द्वारा नाड़ीशुद्धि करनी पड़ती है तभी प्राणायाम करने की शक्ति आती है । अँगूठे से दाहिना नथुना दबाकर बायें नथुने से यथाशक्ति वायु अंदर खींचो , फिर बीच में तनिक देर भी विश्राम किये बिना बायोँ नथुना बंद करके दाहिने नथुने से वायु निकालो ।  फिर दाहिने नथुने से वायु ग्रहण करके बायें से निकालो । दिन भर में चार बार अर्थात् उषा , मध्याह्न , सायाहन और निशीथ , इन चार समय पूर्वोक्त क्रिया का तीन बार या पाँच बार अभ्यास करने पर , एक पक्ष या महीने भर में नाड़ीशुद्धि हो जाती है । उसके बाद प्राणायाम पर अधिकार होगा । 

किन्तु इस नाड़िशुद्धि प्राणायाम का नियमित रूप से  अभ्यास आवश्यक है । तुम रोज देर तक बैठे हुए मेरी बात सुन सकते हो , परन्तु अभ्यास किये बिना तुम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते । [प्राणायामक्षपितमनोमलस्य चित्तं ब्रह्मणि स्थितं भवतीति प्राणायामो निर्दिश्यते । प्रथमं नाडीशोधनं कर्तव्यम् । ततः प्राणायामंड धिकार । दक्षिणनासिकापुटमङ्गुल्यावष्टभ्य वामेन वायु पूरयेत् यथाशक्ति । ततोऽनन्तरमुत्सृज्यैवं दक्षिणेन पुटेन समुत्सृजेत् । सव्यमपि धारयेत् । पुनदक्षिणेन पूरयित्वा सव्येन समुत्सृजेत् यथाशक्ति । त्रि पंचकृत्वो वा एवं अभ्यस्यतः सवनचतुष्टयमपररात्रे मध्याहने पूर्वरात्रेऽर्धरात्रे च पक्षान्मासात् विशुद्धिर्भवति । - श्वेताश्वतरोपनिषद् , २१८- शांकरभाष्य

सब कुछ साधना पर निर्भर है । प्रत्यक्ष अनुभूति बिना ये तत्त्व कुछ भी समझ में नहीं आते । स्वयं अनुभव करना होगा , केवल व्याख्या और मत सुनने से न होगा । फिर साधना में बहुत से विघ्न भी हैं । पहला तो व्याधिग्रस्त देह है । शरीर स्वस्थ न रहे , तो साधना में बाधा पड़ती है । अतः शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है । किस प्रकार का खान - पान करना होगा , किस प्रकार जीवनयापन करना होगा , इन सब बातों की ओर हमें विशेष ध्यान देना होगा । मन से सोचना होगा कि शरीर सबल हो - जैसा कि यहाँ के क्रिश्चियन साइन्स मतावलम्बी करते हैं । बस शरीर के लिए फिर और कुछ करने की जरूरत नहीं । यह हम कभी न भूलें कि स्वस्थ शरीर एकाग्रता के उद्देश्य के साधन का एक उपाय मात्र है । यदि स्वास्थ्य ही उद्देश्य होता , तो हम तो पशुतुल्य हो गये होते । पशु प्रायः अस्वस्थ नहीं होते । 

[क्रिश्चियन साइन्स ( Christian Science ) : यह सम्प्रदाय श्रीमती एडी नामक एक अमेरिकन महिला द्वारा प्रतिष्ठित हुआ है । इनके मतानुसार सचमुच जड़ नामक कोई पदार्थ नहीं , वह हमारे मन का केवल भ्रम है । विश्वास करना होगा- ' हमें कोई रोग नहीं , तो हम उसी समय रोगमुक्त हो जाएँगे । इसका ' क्रिश्चियन साइन्स ' नाम पड़ने का कारण यह है कि इसके मतावलम्बी कहते हैं , " हम ईसा का ठीक ठीक पदानुसरण कर रहे हैं । ईसा ने जो अद्भुत क्रियाएँ की थीं , हम भी वैसा करने में समर्थ हैं , और सब प्रकार से दोषशून्य जीवनयापन करना हमारा उद्देश्य है ।

दूसरा विघ्न है योग की सत्यता पर सन्देह । हम जो कुछ नहीं देख पाते , उसके सम्बन्ध में सन्दिग्ध हो जाते हैं । मनुष्य कितनी भी चेष्टा क्यों न करे , वह केवल बात के भरोसे नहीं रह सकता । यही कारण है कि योगशास्त्रोक्त सत्यता के सम्बन्ध में सन्देह उपस्थित हो जाता है । यह सन्देह बहुत अच्छे आदमियों में भी देखने को मिलता है । परन्तु साधना का श्रीगणेश कर देने पर बहुत थोड़े दिनों में ही कुछ कुछ अलौकिक व्यापार देखने को मिलेंगे , और तब साधना के लिए तुम्हारा उत्साह बढ़ जाएगा ।

योगशास्त्र के एक भाष्यकार ने कहा भी है , " योगशास्त्र की सत्यता के सम्बन्ध में यदि एक बिलकुल सामान्य प्रमाण भी मिल जाए , तो उतने से ही सम्पूर्ण योगशास्त्र पर विश्वास हो जाएगा "। उदाहरणस्वरूप तुम देखोगे कि कुछ महीनों की साधना के बाद तुम दूसरों का मनोभाव समझ सक रहे हो , वे तुम्हारे पास चित्र के रूप में आएँगे ; यदि बहुत दूर पर कोई शब्द या बातचीत हो रही हो , तो मन एकाग्र करके सुनने की चेष्टा करने से ही तुम उसे सुन लोगे । पहलेपहल अवश्य ये व्यापार बहुत थोड़ा थोड़ा करके दिखेंगे । परन्तु उसी से तुम्हारा विश्वास , बल और आशा बढती रहेगी । 

मान लो , नासिका के अग्रभाग में तुम चित्त का संयम करने लगे , तब तो थोड़े ही दिनों में तुम्हें दिव्य सुगन्ध मिलने लगेगी ; इसी से तुम समझ जाओगे कि हमारा मन कभी कभी वस्तु के प्रत्यक्ष संस्पर्श में न आकर भी उसका अनुभव कर लेता है । पर यह हमें सदा याद रखना चाहिए कि इन सिद्धियों का और कोई स्वतन्त्र मूल्य नहीं ; वे हमारे प्रकृत उद्देश्य के साधन में कुछ सहायता मात्र करती हैं । हमें याद रखना होगा कि इन सब साधनों का एकमात्र लक्ष्य , एकमात्र उद्देश्य-मन की गुलामी से   'आत्मा की मुक्ति ' है

[राजयोग (द्वितीय अध्याय) ` साधना के प्राथमिक सोपान' ] 

🔆🙏देह, मन और प्राण आत्मा का यंत्र (instrument) है 🔆🙏

प्रकृति को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लेना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है । इसके सिवा और कुछ भी हमारा प्रकृत लक्ष्य नहीं हो सकता । हम अवश्य ही प्रकृति के स्वामी होंगे , प्रकृति के गुलाम नहीं । 'शरीर ' या 'मन'  (बाह्य और अन्तः) कुछ भी हमारे स्वामी कभी नहीं हो सकते । हम यह कभी न भूलें कि ' शरीर' हमारा है- हम शरीर के नहीं । 

एक देवता (इंद्र) और एक असुर (विरोचन)  किसी महापुरुष (प्रजापिता ब्रह्मा) के पास `आत्म-जिज्ञासु' होकर गये । उन्होंने उन महापुरुष के पास एक अरसे तक रहकर शिक्षा प्राप्त की । कुछ दिन बाद उन महापुरुष (गुरु /नेता) ने उनसे कहा , “You yourselves are the Being you are seeking.” अर्थात " तुम लोग जिसको खोज रहे हो , वह तो तुम्हीं हो। " उन लोगों ने सोचा , " तो देह ही आत्मा है । " फिर उन लोगों ने यह सोचकर कि जो कुछ मिलना था, मिल गया, सन्तुष्ट चित्त से अपनी अपनी जगह को प्रस्थान किया ।

 उन लोगों ने जाकर अपने अपने आत्मीय जनों से कहा , " जो कुछ सीखना था , सब सीख आये। अब आओ , भोजन , पान और आनन्द में दिन बिताएँ - हमीं (यह देह ही) वह आत्मा हैं , इसके सिवा और कोई वस्तु नहीं । " उस असुर का स्वभाव अज्ञान से ढका हुआ था , इसलिए इस विषय में उसने आगे अधिक अन्वेषण नहीं किया । अपने को ईश्वर समझकर वह पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो गया उसने ' आत्मा ' शब्द से देह समझा । परन्तु देवता का स्वभाव अपेक्षाकृत पवित्र था । 

वे भी पहले इस भ्रम में पड़े थे कि ' मैं ' का अर्थ यह शरीर ही है । यह देह ही ब्रह्म है , इसलिए इसे स्वस्थ और सबल रखना , सुन्दर वस्त्रादि पहनना और सब प्रकार के दैहिक सुखों का भोग करना ही कर्तव्य है । परन्तु कुछ दिन जाने पर उन्हें यह बोध होने लगा कि गुरु के उपदेश का अर्थ यह नहीं हो सकता कि देह ही आत्मा है ; वरन  देह से भी श्रेष्ठ कुछ अवश्य है । तब उन्होंने गुरु के निकट आकर पूछा , " गुरो , आपके वाक्य का क्या यह तात्पर्य है कि देह ही आत्मा है ? परन्तु यह कैसे हो सकता है ? सभी शरीर तो नष्ट होते हैं , पर आत्मा का तो नाश नहीं । " 

आचार्य ने कहा , " तुम स्वयं इसका निर्णय करो , तुम वही हो - `तत्त्वमसि ।'  तब शिष्य ने सोचा , शरीर में क्रियाशील जो प्राण हैं , शायद उनको लक्ष्य कर गुरु ने पूर्वोक्त उपदेश दिया था। वे वापस चले गये । परन्तु फिर शीघ्र ही देखा कि भोजन करने पर प्राण तेजस्वी रहते हैं और न करने पर मुरझाने लगते हैं । तब वे पुनः गुरु के पास आये और कहा , " गुरो , आपने क्या प्राणों को आत्मा कहा है ? ' ' गुरु ने कहा , " स्वयं तुम इसका निर्णय करो , तुम वही हो । ” उस अध्यवसायशील शिष्य ने गुरु के यहाँ से लौटकर सोचा , “ तो शायद मन ही आत्मा होगा । ” 

परन्तु वे शीघ्र ही समझ गये कि मनोवृत्तियाँ बहुत तरह की हैं ; मन में कभी सद्वृत्ति , तो कभी असद्वृत्ति उठती है ; अतः मन इतना परिवर्तनशील है कि वह कभी आत्मा नहीं हो सकता । तब फिर से गुरु के पास आकर उन्होंने कहा , “ मन आत्मा है , ऐसा तो मुझे नहीं जान पड़ता । आपने क्या ऐसा ही उपदेश दिया है ? ” गुरु ने कहा , तुम“ नहीं , तुम्हीं वह हो , तुम स्वयं इसका निर्णय करो-`तत्त्वमसि । "

 वे देवपुंगव फिर लौट गये ; तब उनको यह ज्ञान हुआ , “ मैं समस्त मनोवृत्तियों के परे एकमेवाद्वितीय आत्मा हूँ । मेरा जन्म नहीं , मृत्यु नहीं , मुझे तलवार नहीं काट सकती , आग नहीं जला सकती , हवा नहीं सुखा सकती , जल नहीं गला सकता , मैं अनादि हूँ;  जन्मरहित , अचल, अस्पर्श , सर्वज्ञ , सर्वशक्तिमान् पुरुष हूँ । `तत्त्वमसि- आत्मा शरीर या मन नहीं , वह तो इन सब के परे हैं ।

[राजयोग (द्वितीय अध्याय) ` साधना के प्राथमिक सोपान' ] 

🔆🙏देह सुख (कामिनी -कांचन) में आसक्ति के रहते सत्यलाभ नहीं होता🔆🙏 

इस प्रकार वे देवता ज्ञानप्रसूत आनन्द (विवेकज ज्ञान)  से तृप्त हो गये । पर उस असुर बेचारे को सत्यलाभ न हुआ , क्योंकि देह में उसकी अत्यन्त आसक्ति थी । 

 इस जगत् में ऐसी असुर प्रकृति के अनेक लोग हैं , फिर भी देवता प्रकृतिवाले बिलकुल ही न हों, ऐसा नहीं । यदि कोई कहे , " आओ , तुम लोगों को मैं एक ऐसी विद्या सिखाऊँगा , जिससे तुम्हारा इन्द्रियसुख अनन्त गुना बढ़ जाएगा " तो अगणित लोग उसके पास दौड़ पड़ेंगे । परन्तु यदि कोई कहे , " आओ , मैं तुम लोगों को तुम्हारे जीवन का चरम लक्ष्य परमात्मा का विषय सिखाऊँगा " तो शायद उनकी बात की कोई परवाह भी न करेगा । ऊँचे तत्त्व की धारणा करने की शक्ति बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है ; `सत्य ' को प्राप्त करने के लिए अध्यवसायशील लोगों की संख्या तो और भी बिरली है । 

 पर संसार में ऐसे महापुरुष (पैगम्बर/नेता) भी हैं , जिनकी यह निश्चित धारणा है कि शरीर चाहे हजार वर्ष रहे या लाख वर्ष, अन्त में परिणाम एक ही होगा । जिन शक्तियों के बल से देह कायम है, उनके चले जाने पर देह न रहेगी । कोई भी व्यक्ति पल भर के लिए भी शरीर का परिवर्तन रोकने में समर्थ नहीं हो सकता । आखिर शरीर है क्या ? वह कुछ सतत परिवर्तनशील परमाणुओं की समष्टि मात्र है । नदी के दृष्टान्त से यह तत्त्व सहज बोधगम्य हो सकता है । तुम अपने सामने नदी में जलराशि देख रहे हो वह देखो , पल भर में वह चली गयी और उसकी जगह एक नयी जलराशि आ गयी । 

[राजयोग (द्वितीय अध्याय) ` साधना के प्राथमिक सोपान' ] 

🔆🙏शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्~ शरीर धर्म पालन का पहला साधन है।🔆🙏

जो जलराशि आयी , वह सम्पूर्ण नयी है , परन्तु देखने में पहली ही जलराशि की तरह है । शरीर भी ठीक इसी तरह सतत परिवर्तनशील है । उसके इस प्रकार परिवर्तनशील होने पर भी उसे स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है , क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी । यही हमारे पास सर्वोत्तम साधन है । 

सब प्रकार के शरीरों में मानव - शरीर ही श्रेष्ठतम है ; मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है । मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से- यहाँ तक कि देवादि से भी - श्रेष्ठ है । मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं । देवताओं को भी ज्ञानलाभ के लिए मनुष्यदेह धारण करनी पड़ती है । एकमात्र मनुष्य ही ज्ञानलाभ का अधिकारी है , यहाँ तक कि देवता भी नहीं ।

"यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार ईश्वर ने देवदूत और अन्य समस्त सृष्टियों के बाद मनुष्य की सृष्टि की और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने देवदूतों से मनुष्य को प्रणाम और अभिनन्दन कर आने के लिए कहा । इबलीस को छोड़कर बाकी सब ने ऐसा किया । अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया । इससे वह शैतान बन गया । इस रूपक के पीछे यह महान् सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य जन्म ही अन्य सब जन्मों की अपेक्षा श्रेष्ठ है ।

[According to the Jews and Mohammedans, God created man after creating the angels and everything else, and after creating man He asked the angels to come and salute him, and all did so except Iblis; so God cursed him and he became Satan. Behind this allegory is the great truth that this human birth is the greatest birth we can have.]

 पशु आदि हीनयोनियाँ जड़ या मन्दबुद्धि की हैं , ये प्रधानतः तम से निर्मित हुई हैं । पशु किसी ऊँचे तत्त्व की धारणा नहीं कर सकते । देवदूत या देवता भी मनुष्य जन्म लिये बिना मुक्तिलाभ नहीं कर सकते । 

इसी तरह मनुष्य समाज में भी अत्यधिक धन अथवा अत्यधिक दरिद्रता आत्मा के उच्चतर विकास के लिए महान् बाधक है । संसार में जितने महात्मा पैदा हुए हैं , सभी मध्यम वर्ग के लोगों से हुए थे । मध्यम-वर्ग वालों में सब शक्तियाँ समान रूप से समायोजित और सन्तुलित रहती हैं । 

[राजयोग (द्वितीय अध्याय) ` साधना के प्राथमिक सोपान' ] 

🔆🙏नाड़िशुद्धि प्राणायाम क्यों आवश्यक है🔆🙏

अब हम अपने विषय पर आएँ । हमें अब प्राणायाम - श्वास - प्रश्वास के नियमन के सम्बन्ध में आलोचना करनी चाहिए । चित्तवृत्तियों के निरोध से प्राणायाम का क्या सम्बन्ध है ? श्वास - प्रश्वास मानो देहयन्त्र का गतिनियामक प्रचक्र ( fly - wheel ) है। 

एक बृहत् इंजन पर निगाह डालने पर देखोगे कि पहले प्रचक्र घूम रहा है और उस चक्र की गति क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर यन्त्रों में संचारित होती है। इस प्रकार उस इंजन के अत्यन्त सूक्ष्मतम यन्त्र तक गतिशील हो जाते हैं । श्वास - प्रश्वास ठीक वैसा ही एक गतिनियामक प्रचक्र है । वही इस शरीर के सब अंगों में जहाँ जिस प्रकार की शक्ति की आवश्यकता है , उसकी पूर्ति कर रहा है और उस प्रेरक - शक्ति को नियमित भी कर रहा है । 

एक राजा के एक मन्त्री था । किसी कारण से राजा उस पर नाराज हो गया । राजा ने उसे एक बड़ी ऊँची मीनार की चोटी में कैद करके रखने की आज्ञा दी । राजा की आज्ञा का पालन किया गया । मन्त्री भी वहाँ कैद होकर मौत की राह देखने लगा । मन्त्री के एक पतिव्रता पत्नी थी । रात को उस मीनार के नीचे आ उसने चोटी पर कैद हुए पति को पुकारकर पूछा , " मैं किस प्रकार तुम्हारी रक्षा करूँ ? " मन्त्री ने कहा , " अगली रात को एक लम्बा मोटा रस्सा , एक मजबूत डोरी , एक बंडल सूत , रेशम का पतला सूत , एक भृंग और थोड़ा - सा शहद लेती आना । " उसकी सहधर्मिणी पति की यह बात सुनकर बहुत आश्चर्यचकित हो गयी । जो हो , वह पति की आज्ञानुसार दूसरे दिन सब वस्तुएँ ले गयी । 

मन्त्री ने उससे कहा , " रेशम का सूत मजबूती से भृंग के पैर में बाँध दो , उसकी मूँछों में एक बूँद शहद लगा दो और उसका सिर ऊपर की ओर करके उसे मीनार की दीवार पर छोड़ दो । " पतिव्रता ने सब आज्ञाओं का पालन किया । तब उस कीड़े ने अपना लम्बा रास्ता पार करना शुरू किया । सामने शहद की महक पाकर उसके लोभ से वह धीरे धीरे ऊपर चढ़ने लगा , और अन्त में मीनार की चोटी पर जा पहुँचा , मन्त्री ने झट उसे पकड़ लिया और उसके साथ रेशम के सूत को भी । 

इसके बाद अपनी पत्नी से कहा , " बंडल में जो सूत है , उसे रेशम के सूत के छोर से बाँध दो ।" इस तरह वह भी उसके हाथ में आ गया । इसी उपाय से उसने डोरा और मोटा रस्सा भी पकड़ लिया । अब कोई कठिन काम न रह गया । रस्सा ऊपर बाँधकर वह नीचे उतरा और भाग खड़ा हुआ । हमारी इस देह में श्वास - प्रश्वास की गति मानो रेशमी सूत है । इसके धारण या संयम कर सकने पर पहले स्नायविक शक्तिप्रवाहरूप ( nerve currents ) सूत का बंडल , फिर मनोवृत्तिरूप डोरी और अन्त में प्राणरूप रस्से को पकड़ सकते हैं । प्राणों को जीत लेने पर मुक्ति प्राप्त होती है । 

हम अपने शरीर के सम्बन्ध में बड़े अज्ञ हैं , कुछ जानकारी रखना भी हमें सम्भव नहीं मालूम पड़ता । बहुत हुआ , तो हम मृत देह को चीर - फाड़कर देख सकते हैं कि उसके भीतर क्या है और क्या नहीं ; और कोई कोई इसके लिए किसी जीवित पशु की देह ले सकते हैं । पर इससे हमारे अपने शरीर का कोई सम्बन्ध नहीं । हम अपने शरीर के सम्बन्ध में बहुत कम जानते हैं । इसका कारण क्या है ? यह कि हम मन को उतनी दूर तक एकाग्र नहीं कर सकते , जिससे हम शरीर के भीतर की अतिसूक्ष्म गतियों तक को समझ सकें । 

मन जब बाह्य विषयों का परित्याग करके (कामिनी -कांचन में आसक्ति का परित्याग करके) देह के भीतर प्रविष्ट होता है और अत्यन्त सूक्ष्मावस्था प्राप्त करता है , तभी हम उन गतियों को जान सकते हैं । इस प्रकार सूक्ष्म अनुभूतिसम्पन्न होने के लिए हमें पहले स्थूल से आरम्भ करना होगा । देखना होगा , अन्तसारे शरीरयन्त्र को चलाता कौन है , और उसे अपने वश में लाना होगा । वह प्राण है , इसमें कोई सन्देह नहीं । श्वास - प्रश्वास ही उस प्राणशक्ति की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है । अब , श्वास - प्रश्वास के साथ धीरे धीरे शरीर के भीतर प्रवेश करना होगा । 

इसी से हम देह के भीतर की सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और समझ सकेंगे कि स्नायविक शक्तिप्रवाह किस तरह शरीर में सर्वत्र भ्रमण कर रहे हैं । और जब हम मन में उनका अनुभव कर सकेंगे , तब उन्हें और उनके साथ देह को भी हमारे अधिकार में लाने के लिए हम प्रारम्भ करेंगे । मन भी इन स्नायविक शक्तिप्रवाहों द्वारा संचालित हो रहा है । इसीलिए उन पर विजय पाने से मन और शरीर , दोनों ही हमारे अधीन हो जाते हैं , हमारे दास बन जाते हैं । ज्ञान ही शक्ति है,और यह शक्ति प्राप्त करना ही हमारा उद्देश्य है । इसलिए हमें प्राणायाम - प्राण के नियमन - से प्रारम्भ करना होगा । इस प्राणायाम - तत्त्व की विशेष आलोचना के लिए दीर्घ समय की आवश्यकता है - इसको अच्छी तरह समझाते बहुत दिन लगेंगे । हम उसका एक एक अंश लेकर चर्चा करेंगे ।
 
हम क्रमशः समझ सकेंगे कि प्राणायाम के साधन में जो क्रियाएँ की जाती हैं , उनका हेतु क्या है और प्रत्येक क्रिया से देह के भीतर किस प्रकार की शक्ति प्रवाहित होती है । क्रमशः यह सब हमें बोधगम्य हो जाएगा । परन्तु इसके लिए निरन्तर साधना आवश्यक है । साधना के द्वारा ही मेरी बात की सत्यता का प्रमाण मिलेगा । मैं इस विषय में कितनी भी युक्तियों का प्रयोग क्यों न करूँ , पर तुम्हारे लिए वे प्रमाण नहीं होंगी , जब तक तुम स्वयं प्रत्यक्ष न कर लोगे । जब देह के भीतर इन शक्तियों के प्रवाह की गति स्पष्ट अनुभव करने लगोगे , तभी सारे संशय दूर होंगे । 

[राजयोग (द्वितीय अध्याय) ` साधना के प्राथमिक सोपान' ] 

🔆🙏आसन, प्रत्याहार , धारणा का अभ्यास प्रतिदिन 2 बार🔆🙏  

परन्तु इसके अनुभव के लिए प्रत्यह कठोर अभ्यास आवश्यक है । प्रतिदिन कम से कम दो बार अभ्यास करना चाहिए , और उस अभ्यास का उपयुक्त समय है प्रातः और सायं । जब रात बीतती है और पी फटती है तथा जब दिन बीतता है और रात आती है , इन दो समयों में प्रकृति अपेक्षाकृत शान्त होती है । ब्राह्ममुहूर्त और गोधूलि , ये दो समय मन की स्थिरता के लिए अनुकूल हैं । इन दोनों समयों में शरीर बहुत कुछ शान्त रहता है । इस समय साधना करने से प्रकृति हमारी काफी सहायता करेगी , इसलिए इन्हीं दो समयों में साधना करनी आवश्यक है ।

यह नियम बना लो कि साधना समाप्त किये बिना भोजन न करोगे । ऐसा नियम बना लेने पर भूख का प्रबल वेग ही तुम्हारा आलस्य नष्ट कर देगा । भारतवर्ष में बालक यही शिक्षा पाते हैं कि स्नान - पूजा और साधना किये बिना भोजन नहीं करना चाहिए । कालान्तर में यह उनके लिए स्वाभाविक हो जाता है ; उनकी जब तक स्नान - पूजा और साधना समाप्त नहीं हो जाती , तब तक उन्हें भूख नहीं लगती । 

तुममें से जिनको सुभीता हो , वे साधना के लिए यदि एक स्वतन्त्र कमरा [पूजा का कमरा]  रख सकें , तो अच्छा हो । इस कमरे को सोने के काम में न लाओ । इसे पवित्र रखो । बिना स्नान किये और शरीर - मन को बिना शुद्ध किये इस कमरे में प्रवेश न करो । इस कमरे में सदा पुष्प और हृदय को आनन्द देनेवाले चित्र रखो । योगी के लिए ऐसे वातावरण में रहना बहुत उत्तम है । सुबह और शाम वहाँ । और धूप चन्दनचूर्ण आदि जलाओ । उस कमरे में किसी प्रकार का क्रोध , कलह और अपवित्र चिन्तन न किया जाए । 

तुम्हारे साथ जिनके भाव मिलते हैं , केवल उन्हीं को उस कमरे में प्रवेश करने दो । ऐसा करने पर शीघ्र वह कमरा सत्त्वगुण से पूर्ण हो जाएगा ; यहाँ तक कि , जब किसी प्रकार का दुःख या संशय आए अथवा मन चंचल हो , तो उस समय उस कमरे में प्रवेश करते ही तुम्हारा मन शान्त हो जाएगा । मन्दिर , गिरजाघर आदि के निर्माण का सच्चा उद्देश्य यही था । अब भी बहुत से मन्दिरों और गिरजाघरों में यह भाव देखने को मिलता है ; परन्तु अधिकतर स्थलों में लोग इनका उद्देश्य भूल गये हैं । चारों ओर पवित्र चिन्तन के परमाणु सदा स्पन्दित होते रहने के कारण वह स्थान पवित्र ज्योति से भरा रहता है । जो इस प्रकार के स्वतन्त्र कमरे की व्यवस्था नहीं कर सकते , वे जहाँ इच्छा हो , वहीं बैठकर साधना कर सकते हैं । शरीर को सीधा रखकर बैठो । संसार में पवित्र चिन्तन का एक स्रोत बहा दो । 

गयीमन ही मन कहो , “ संसार में सभी सुखी हों , सभी शान्तिलाभ करें , सभी आनन्द पाएँ । " इस प्रकार पूर्व , पश्चिम , उत्तर , दक्षिण चारों ओर पवित्र चिन्तन की धारा बहा दो । ऐसा जितना करोगे , उतना ही तुम अपने को अच्छा अनुभव करने लगोगे । बाद में देखोगे , ‘ दूसरे सब लोग स्वस्थ हों , ' यह चिन्तन ही स्वास्थ्य - लाभ का सहज उपाय है । ' दूसरे लोग सुखी हों ' , ऐसी भावना ही अपने को सुखी करने का सहज उपाय है । इसके बाद जो लोग ईश्वर पर विश्वास करते हैं , वे ईश्वर के निकट प्रार्थना करें- अर्थ , स्वास्थ्य अथवा स्वर्ग के लिए नहीं , वरन् हृदय में ज्ञान और सत्यतत्त्व के उन्मेष के लिए । 

इसको छोड बाकी सब प्रार्थनाएँ स्वार्थभरी हैं । इसके बाद भावना करनी होगी , ' मेरा शरीर वज्रवत् दृढ़ , सबल और स्वस्थ है । यह देह ही मेरी मुक्ति में एकमात्र सहायक है । इसी की सहायता से मैं यह जीवनसमुद्र पार कर लूँगा । ' जो दुर्बल है , वह कभी मुक्ति नहीं पा सकता । समस्त दुर्बलताओं का त्याग करो । देह से कहो , ' तुम खूब बलिष्ठ हो । ' मन से कहो , ' तुम अनन्त शक्तिधर हो ' , और स्वयं पर प्रबल विश्वास और भरोसा रखो ।

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