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शुक्रवार, 16 अगस्त 2024

🏹😇🔱🕊 🙋"14 अगस्त 1947 "~ श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय 😇🔱🕊बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे , और कहाँ हैं ईश ? 🏹 🙋


Introduction : 'https://www.youtube.com/@akhilbharatvivekanandayuva5663'

परिचय : 👆 यह चैनल अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ,  6/1 ए जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो, कोलकाता - 700009  का आधिकारिक यूट्यूब चैनल है। 

   यह चैनल स्वामी विवेकानन्द की चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा को विशेष रूप से युवाओं के बीच प्रचारित करने के प्रति समर्पित है। स्वामी विवेकानन्द के पास भविष्य के एक विकसित और श्रेष्ठ भारत का एक महान स्वप्न था तथा उस परिकल्पना को साकार रूप देने के लिए उन्होंने एक मास्टर प्लान भी तैयार किया था। उनके मास्टर प्लान का केन्द्रीय विचार था सभी देशवासियों के लिए सच्ची शिक्षा के द्वारा अच्छे नागरिक और प्रबुद्ध नेताओं (3'H's विकसित)-'enlightened Leaders' का निर्माण करनाजिसके पास तीक्ष्ण बुद्धि संपन्न मस्तिष्क (Head) और फौलादी मांस-पेशीयों वाले शरीर (Hand) के साथ अनन्त तक विस्तृत एक ऐसा ह्रदय (Heart) भी होगा जो करोड़ों देशवासियों के लिए रोता हो और उनके दुःख-तकलीफ को दूर करने की तीव्र व्याकुलता से भरा हुआ हो ! स्वामीजी का विश्वास युवा पीढ़ी, नई पीढ़ी में था। वे कहते थे -  मेरे कार्यकर्ता इनमें से आएंगे और वे सिंहों की भांति समस्त समस्याओं का हल निकाल लेंगे। तथा उस 'सिंहत्व ' को प्राप्त कर भयशून्य हो जाने- के लिए उन्होंने युवाओं को  'तत्वविज्ञान' (Metaphysics) की पर्याप्त शिक्षा भी दी थी। स्वामीजी का स्वप्न था कि उन्हें 1000 तेजस्वी युवा (प्रबुद्ध पैगंबर-नेता) मिल जाएं तो वह भारत को विश्व शिखर पर पहुंचा सकते हैं। [He rested all his hope in the younger generations – and gave all the ingredients needed to make lions out of them.स्वामी विवेकानन्द की उसी भयशून्य मनुष्य बनने वाली जीवन-गठन और चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा को साकार रूप देने के लिए महामण्डल  विगत 57 वर्षों से (1967 से) युवाओं के बीच साप्ताहिक-पाठचक्र, युवा -प्रशिक्षण शिविर तथा सेमिनार आदि विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से चुपचाप काम करता चला आ रहा है। इस समय भारत के विभिन्न राज्यों में इसके 300 से अधिक केन्द्र  क्रियाशील हैं। 'सारदा नारी संगठन' इसका सहयोगी संगठन ( sister organization) है जो उन्हीं सब कार्यक्रमों (साप्ताहिक-पाठचक्र तथा युवा -प्रशिक्षण शिविर, सेमिनार आदि) के माध्यम से महिलाओं के बीच काम करती है। 

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https://www.youtube.com/@akhilbharatvivekanandayuva5663/featured

The official YouTube Channel of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal, 6/1 A Justice Manmatha Mukherjee Row, Kolkata - 700009

This channel is dedicated to propagating the man-making and character-building ideas of Swami Vivekananda, especially among the youths  in India. Swami Vivekananda had a great vision of Future India and formulated a Master Plan to actualize it. The central idea in his Master Plan was true education for all, for making good citizens, and leaders, with developed brains and brawn – and a heart that bleeds for the teeming millions. He rested all his hope in the younger generations – and gave all the ingredients needed to make lions out of them. Following his advice,  Mahamandal has been working silently among young men to shape their lives and character through various programs since 1967. Now it has grown to nearly 300 units spread over several states of India. Its sister organization, Sarada Nari Sangathan, works among women with the same program.

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https://www.facebook.com/abvym

परिचय - महामण्डल युवाओं का एक अखिल भारतीय संगठन है।  यह संगठन भविष्य के भारत को महान, विकसित और श्रेष्ठ बनाने के उद्देश्य से स्वामी विवेकानन्द के मनुष्य-निर्माण और जीवन-गठन की 'शीक्षा' (अर्थात उपनिषदों में वर्णित सिंहत्व प्राप्त भयशून्य मनुष्य बन जाने की शिक्षा) का प्रचार-प्रसार विशेष रूप से युवाओं के बीच करने का काम करता है। इसका आदर्श वाक्य है: Be and Make.  (कम से कम 1000 तेजस्वी या निःस्वार्थी मनुष्य बनो और बनाओ।)

Introduction - Mahamandal is an all India organization of youth. To make the future India developed and great, this organization works to propagate the Life-building and Man-making education of Swami Vivekananda among the youth. Its motto is: Be and Make.

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 14 अगस्त 1947 :  गंगार काछेई आमादेर बाड़ी। पश्चिम पाड़े सूर्य अस्त जाच्छे। मने मने बोललाम -'पराधीन भारतवर्षे शेष सूर्य तुमि अस्ते जाछौ। काल यखन तुमि पूर्व आकाशे उदित होबे, तखन भारतबर्ष स्वाधीन !"     

  ~ "हमारा (पूज्य नवनीदा का, पैतृक निवास, भुवन -भवन, खड़दह,) घर गंगा के निकट है। उस दिन पश्चिमी तट पर सूर्य अस्त हो रहा था । और मैं अपने-आप से बातें कर रहा था - 'हे सूर्य देव ! आज आप पराधीन भारत के अंतिम सूर्य के रूप में अस्त अवश्य होंगे; किन्तु कल जब आप पूर्वी आकाश में उगेंगे, तब -तक भारत माता स्वतंत्र हो चुकी होगी।"

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प्रश्न: स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा- Be and Make को वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अभी तक लागु क्यों नहीं किया गया?

उत्तर : श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय .................स्वामी जी ने बहुत कुछ कहा, और बहुत कुछ लिखा भी है। किन्तु जिस एक सन्देश  'Be and Make' - अर्थात स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो' के ऊपर हमलोग विगत 57 वर्षों से दिलो-जान से काम कर रहे हैं, मुझे इसके विषय में महामण्डल गठित होने से पहले कहीं और सुनने का सौभाग्य नहीं मिला है।  स्वामी जी ने ऐसा बहुमूल्य उद्घोष किया, और केवल इस 'एक सन्देश' को क्रियान्वित करने का कितना महत्व है, उसके विषय में जो कुछ कहा है; वह हमने कम से कम महामण्डल के गठित होने से पहले तो नहीं सुना था। मुझे नहीं पता कि किसी और ने सुना है या नहीं।

 इस समय जो लोग देश चला रहे हैं, जो लोग देश की नई शिक्षा नीति बना रहे हैं, क्या उन लोगों ने कभी 'मनुष्य -निर्माण' करने की आवश्यकता पर कभी कुछ सोचा है, क्या इस छोटे से महा-वाक्य 'Be and Make' के बारे में उनके अपने कुछ विचार हैं? क्या उन्हें यह बात मालूम है कि 'मनुष्य' बनना पड़ता है, या निःस्वार्थपर मनुष्य हुआ जा सकता है? 'शिक्षा में सुधार' - के नाम पर वे क्या कर रहे हैं ? .....नये नये स्कूल, कॉलेज , यूनिवर्सिटी खोल रहे हैं और वहाँ नये -नये विषय के संकाय (faculty) शुरू करके सिलेबस बढ़ाते जा रहे हैं। क्या वे जानते हैं कि 'शिक्षा' किसे कहते हैं? चाहे केन्द्र हो या राज्य शिक्षा का हाल हर जगह एक जैसा है।   

 तुम 'शिक्षा व्यवस्था' के विषय में स्वामी विवेकानन्द के क्या विचार थे यह जानना चाहते हो, किन्तु स्वामीजी के सम्बन्ध में कौन जानते हैं ? भारतवर्ष में कितने लोग जानते हैं कि स्वामीजी क्या थे?  देश चलाने वाले नेताओं, मंत्रियों, नौकरशाहों (bureaucrats) में से कितने लोग ऐसे हैं जो स्वामी विवेकानन्द के बारे में जानते हैं? 

     बुरा मत मानना ​​भाई; आजकल सुनने को मिलता है - गांधी जी ने कहा था, 'स्वामी जी की रचनाएँ पढ़कर उनका देश-प्रेम हजार गुना बढ़ गया।' उन्होंने इतना केवल कहा भर था। एक बार गाँधी जी स्वामी जी से मिलने बेलूर मठ में आये थे। किन्तु स्वामी जी उस दिन मठ में नहीं थे। चूँकि उन दिनों आज के जैसा मोबाइल फ़ोन या ईमेल की सुविधा नहीं थी, इसलिए वे अपने आने की पूर्वसूचना नहीं दे सके थे। लौटते समय उन्हें आगंतुक पुस्तिका (visitor's book) में कुछ लिखना था तो उन्होंने वही एक पंक्ति लिख दी। लेकिन, क्या कोई यह बता सकता है कि उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के किस विचार (impression) को भारत में प्रचार-प्रसार करने की चेष्टा की थी ? 

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नाम को उनके लोग बिल्कुल.....उन्होंने भारत की पुनः खोज की और 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' नामक एक पुस्तक लिखी। He rediscovered India and wrote a book called 'Discovery of India!'. देश के तथाकथित पढ़े-लिखे बड़े-बड़े नेता देश में तो पढ़ते ही थे ,विदेशों में भी 'बैरिस्टरी' पढ़े हैं। लेकिन नए भारत के निर्माताओं की खोज करते समय नेहरू की दृष्टि स्वामी विवेकानन्द पर पड़ी ही नहीं। उस पुस्तक में स्वामी जी का नाम नहीं था। तुमलोग हंस तो रहे हो, लेकिन यही सच है। उस समय के एक संन्यासी ने रामकृष्ण मिशन के तत्कालीन अध्यक्ष (12 वें अध्यक्ष श्रीमत स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज ?.....) को यह पुस्तक पढ़ने के लिए दी थी, फिर कुछ दिनों बाद उन्होंने महाराज से आकर पूछा - 'महाराज क्या आपने वह पुस्तक पूरी पढ़ ली है ?  महाराज ने कहा मैंने पढ़ लिया है।' संन्यासी प्रेसिडेन्ट महाराज की प्रतिक्रिया जानने के लिए उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करने लगे। महाराज का उत्तर बहुत संक्षिप्त था, उन्होंने ने कहा-‘‘Nehru is yet to discover India, भारतवर्ष के आविष्कार करते नेहरूर एखनो समय लागबे।’’-  भारत की खोज करने  में नेहरू को अभी और समय लगेगा।"  

उनके बाद स्वामी रंगनाथानन्द जी महाराज रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष बने। बहुत से लोग यह जानते होंगे कि स्वामी विवेकानन्द के बाद, यह स्वामी रंगनाथनन्द ही थे जिन्होंने ने अपने भाषणों से पूरे विश्व के Intellectual World को हिलाकर रख दिया था और बाद में स्वामी रंगनाथनन्द रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष बने। बहुत से लोग यह जानते होंगे कि स्वामी विवेकानन्द के बाद यह  स्वामी रंगनाथानन्द ही थे जिन्होंने अपने भाषणों से पूरे विश्व के 'Intellectual World' को एक बार फिर से झकझोर दिया था

      जब स्वामी रंगनाथानन्द जी दिल्ली रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष थे, तब कई अन्य लोगों की तरह, जवाहरलाल नेहरू भी महाराज से मिलने आते थे। महाराज ने एक दिन उनसे कहा - ‘Jawaharlal, Swamiji's name is not even mentioned in your book? -'जवाहरलाल, तुम्हारी पुस्तक में स्वामी विवेकानन्द का नाम तक नहीं है?' यह सुनकर नेहरू ने कहा -‘Sorry ! sorry ! It was a bad omission’~ महाराज क्षमा करें, कि मुझसे यह बहुत बड़ी चूक हो गयी ! ओह ! मुझे सचमुच खेद है। मुझसे यह बहुत बड़ी भूल हो गयी है।" यह सब कहने के बाद 'Discovery of India!' के अगले संस्करण में स्वामीजी के बारे में कुछ शब्द लिखकर 2/4 पेज जोड़ दिये। 9.22 minute

     यही तो है भारत में स्वामीजी को जानने वाले राजनेताओं की मानसिक अवस्था। 'आमार बयस होयछे भाई 'मेरी उमर काफी हो चुकी है - भाई ! मैंने ब्रिटिश शासन देखा है। मैंने भारत को आज़ाद होते देखा है। मुझे आज भी वह दिन अच्छी तरह याद है। तुमलोगों से जब मैं यह बात कह रहा हूँ , तो मेरी आँखों में आँसू आ रहे हैं।  14 अगस्त 1947 :  हमारा घर (पूज्य नवनीदा का पैतृक निवास : 'भुवन -भवन' खड़दह) गंगा के निकट है। उस दिन पश्चिमी तट पर सूर्य अस्त हो रहा था । और मैं अपने-आप से बातें कर रहा था - 'हे सूर्य देव ! आज आप पराधीन भारत के अंतिम सूर्य के रूप में अस्त अवश्य होंगे; किन्तु कल जब आप पूर्वी आकाश में उगेंगे, तब -तक भारत माता स्वतंत्र हो चुकी होगी।' यह आनन्द ऐसा था जिसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता- हृदय आनन्द से इतना लबरेज था कि -बाहर फट पड़ेगा ! सिर्फ मैं ही नहीं , सारे देश के युवा ऐसे ही आनन्द का अनुभव कर रहे थे। सारी गलियाँ, चौराहे, घर-मकान बत्तियों से जगमग कर रहे थे।पूरी रात चारों ओर उत्सव का माहौल था। उस समय टेलीविजन नहीं था, रात के 12 बजे मध्यरात्रि को जाहरलाल ने रेडियो पर अद्भुत भाषण दिया था और घोषणा कि थी -'India has become independent "~ भारत स्वतंत्र हो गया है।" 

     क्या हमलोग आज- तक (2006 तक) स्वाधीनता का आनन्द प्राप्त कर सके हैं? क्या सच-मुच हमें सही आज़ादी मिल चुकी है? तो, इस स्वाधीन भारत में स्वामी विवेकानन्द के किस विचार को अपनाया गया है ? हमारे अब तक के राजनेताओं को स्वामीजी का मूल्य पता ही नहीं था भाई। मुझे क्या कहना था और , किसी दीवाने की तरह मेरे मुख से क्या निकल गया -मुझे मालूम नहीं भाई। 

स्वामीजी 1897 में अमेरिका से जब लौट आये थे और कलकत्ता में बलराम मन्दिर में रह रहे थे। उन दिनों कोलकाता में मन्दिर का अर्थ आवास होता था, मन्दिर का अर्थ वास्तव में घर ही होता है। [जैसे हिन्दी फिल्मों में कहा जाता है - घर एक मन्दिर है!] तब उसी बलराम मन्दिर में यानि बलराम बाबू के घर में, कुछ 'युवा राजनीतिक नेता' स्वामी जी से मिलने आये थे। उन्होंने स्वामीजी से पूछा कि - 'देश में इतनी सारी समस्यायें #हैं, आप यह बतलाइये कि इन सबसे छुटकारा पाने का उपाय क्या है?  [#कॉन्ग्रेस पार्टी की स्थापना 1885 में हुई थी -उसका उद्देश्य स्वाधीनता प्राप्त करना नहीं था - अंग्रेजों से समस्या दूर करने का प्रार्थना भर था -उनलोगों ने देश की समस्यायों का बहुत बड़ा लिस्ट तैयार किया था।] 

    तब स्वामीजी ने कहा था , " देशे मानुष कोई रे, आगे मानुष तैरी करो , ताहोलेई सब समस्या चले जाबे। " - अर्थात "देश में मनुष्य कहाँ हैं रे ; पहले मनुष्य निर्माण करो, वैसा होने से ही देश की समस्त समस्यायों का निदान हो जायेगा !" उन लोगों ने पूछा, "तो क्या पराधीनता (अंग्रेजों की गुलामी) हमलोगों के देश की सबसे बड़ी समस्या नहीं है ? " उत्तर में उन्होंने कहा था -  "देशे यदि (यथार्थ) मानुष ना थाके ताहोले स्वाधीनतार रक्षा कोरबे के ? ' - अर्थात "अगर देश में सच्चे मनुष्य (निःस्वार्थी मनुष्य) ही नहीं रहेंगे तो उस आज़ादी की रक्षा कौन करेगा ?" 

    एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा था - " स्वतंत्रता? मैं इसे 3 दिनों में दे सकता हूं। सभी देश-वासियों को एक बड़े मैदान में एकत्र करो और वहाँ भारत का राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर घोषणा करो - आज से 30 करोड़ भारत वासी मात्र 1 लाख अंग्रेजों की गुलामी से अपने को स्वतंत्र घोषित करते हैं! और सभी बड़े-बड़े देशों को संदेश दे दो कि भारत आज से स्वतंत्र हो गया है।  तुम्हें पता है, इसके बाद क्या होगा? यही न कि अंग्रेज गोली चलाएंगे ? -लेकिन देखोगे कि विवेकानन्द का खून सबसे पहले जमीन पर गिरेगा। "

     स्वामी जी को पहले के किसी राजनेता ने तो नहीं ही समझा, और शायद आज भी (एक-दो को छोड़ कर ? और) कोई नहीं समझ पाया है- भाई। भारत वर्ष के राजनीतिक नेताओं ने स्वामी विवेकानन्द को समझने की कभी चेष्टा नहीं की है। वोट लेने के लिए,स्वामीजी के शब्दों को अपने मुँह से केवल कह भर देते हैं। स्वामीजी के नाम पर जो लोग राजनीती करते हैं , वे मठ -मिशन भी जाते हैं। मैंने उन्हें वहाँ देखा है, मेरी उम्र भी काफी हो गयी है मैं उन्हें खूब पहचानता हूँ। -वैसे धूर्त नेताओं को देखने से भी कष्ट होता है। [मैंने देशप्रेम किसे कहते हैं -यह अन्दुल स्कूल में अपने आचार्यदेव से जो सीखा है।] -यदि वही असहनीय यंत्रणा ह्रदय को मथ नहीं रहा होता, तो यह महामण्डल भी साकार रूप नहीं ले पाता। किन्तु क्या साथ के लोग [हमउम्र बुजुर्ग लोग?] अब भी चुपचाप बैठे रहेंगे ? क्या मेरे युवा भाई लोग भी हाथ पर हाथ रखे बैठे रहेंगे ? भारत को महान विकसित और श्रेष्ठ बनाने का  दूसरा कोई और मार्ग नहीं है -नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ! भाइयों। इसके अतिरिक्त ['Be and Make' के अतिरिक्त अन्य कोई भी विचारधारा (doctrine), और कोई भी 'इज्म' कार्यकारी सिद्ध नहीं होगा।]  किसी भी 'Economic policy' को लागू करने से (तथाकथित समाजवाद,-साम्यवाद या Globalization को भी लागू करने से) देश की अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होगा। क्योंकि योजना कोई भी हो, उसको लागू करने वाले तो मनुष्य ही होंगे! और वे मनुष्य ही यदि यथार्थ मनुष्य नहीं बनेंगे - तो अन्य किसी उपाय से भारत की उन्नति सम्भव नहीं है। [ श्वेताश्वतर ०उप० 6.15 में कहा गया है -  

एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः।

तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥

[एको हंसो भुवनस्य अस्य मध्ये। सः एव अग्निः सलिले संनिविष्टः । तम् एव विदित्वा अत्येति मृत्युम्   न अन्यः पन्थाः न विद्यते अयनाय॥] 

इस सम्पूर्ण विश्व के अन्तर में 'एक' 'हंसस्वरूपी आत्मसत्ता' है एवं 'वह' अग्निस्वरूप' है जो ह्रदय जल (चित्त) की अतल गहराई में स्थित है। 'उसका' ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है।

 अर्थात इस लोक के मध्य में एक ही हंस ( destroyer of ignorance : 'विवेकानन्द') के गुरु परमात्मा- भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस) है, वह जल में अग्नि के समान अगोचर है । यद्यपि शीतल स्वाभवयुक्त जल में उष्णस्वभाव अग्नि का होना साधारण दृष्टि से समझ में नहीं आता। क्योंकि दोनों का स्वभाव परस्पर विरुद्ध है। फिरभी उसके रहस्य को जानने वाले वैज्ञानिकों को यह प्रत्यक्ष दीखता है।

जैसे यहाँ इस श्लोक ने  ‘जल में अग्नि के होने का ज्ञान’ ऋषि के लिए कोई बड़ी बात हो ऐसा उसकी शैली से कहीं नहीं झलकता ।  जल में अग्नि रहती है ‘…एवाग्निः सलिल संनिविष्टः’ ; “जल की उत्पत्ति अग्नि से होती है (अग्नेरापः) और अग्नि जल में समाविष्ट है ‘बड़वानल’ के रूप में।  यह सिद्धांत विज्ञान-सम्मत है (हाइड्रोजन + ऑक्सीजन + ताप = पानी)” । समुद्र के गर्त्त में volcano_into_the_sea ज्वालामुखी के रूप रहती हुई, विनाश का ताण्डव करने वाली इस अग्नि को ‘सुबाड़वाग्नि भी कहते हैं । ऋषि के कहने के ढंग से हमें ज्ञात होता है कि उस काल तक तो विज्ञान का यह सत्य कितना पुराना पड़ चुका था ।

 अतः वे उसी जल में से बिजली के रूप में उस अग्नितत्व को निकाल कर वभिन्न प्रकार से उसका उपयोग करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है - समुद्र में बड़वानल अग्नि है। कार्य में कारण व्याप्त रहता है - इस न्याय से भी तेजस तत्व का जल में व्याप्त होना उचित ही है। किन्तु इस रहस्य को न जानने वाला जल में स्थित अग्नि को नहीं देख पाता। इसी प्रकार परमात्मा (आत्मा) इस जड़ जगत से [देह और मन से ] स्वभावतः बिल्कुल भिन्न है - क्योंकि वह चेतन, ज्ञानस्वरूप और सर्वज्ञ है - तथा यह दृष्टिगोचर जगत- देह और मन - जड़ और ज्ञेय है ! इसी प्रकार जगत से विरुद्ध दिखने के कारण साधारण दृष्टि से यह बात समझ में नहीं आती कि अविनाशी परमेश्वर इस परिवर्तनशील होने के कारण नश्वर जगत [देह -मन ] में किस प्रकार व्याप्त हैं ? और वे ही इस जगत के कारण कैसे हैं ? परन्तु जो उस परब्रह्म श्री रामकृष्ण परमहंस की अचिन्त्य अद्भुत शक्ति [माँ सारदा ] के रहस्य को समझते हैं , उनको ये प्रत्यक्षवत सर्वत्र परिपूर्ण और सबके- [ईश्वर -जीव और जगत के]   एकमात्र कारण प्रतीत होते हैं। उन सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमात्मा - श्री रामकृष्ण परमहंस देव को जानकर ही मनुष्य इस मृत्युरूप संसार-समुद्र से पार हो सकता है - सदा के लिए जन्म-मरण के चक्र से सर्वथा छूट सकता है। ठाकुर देव के दिव्य परमधाम की प्राप्ति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है। अतः हमें उन परमात्मा का जिज्ञासु होकर उन्हें जानने की चेष्टा में लग जाना चाहिए।  और एक दिन हमें भी ऋषियों के समान कहना चाहिए -     

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।।

―(यजु० ३१/१८)

अर्थात्― मैं ने उस 'प्रभु' को (-अर्थात अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को) जान लिया है जो सबसे महान् है, जो करोड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान है, जिसमें अविद्या और अन्धकार का लेश भी नहीं है। उसी परमात्मा को जानकर मनुष्य दुःखों से, संसाररुपी मृत्यु-सागर से पार उतरता है, मोक्ष-प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है।

इन्हीं सब बातों को समझने और स्वामीजी के सपनों का मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए हमलोग प्रति वर्ष महामण्डल द्वारा आयोजित छः दिवसीय (3 दिवसीय,1 दिवसीय) शिविर में शामिल होते हैं। 

      1500 भाई एक स्थान पर एकत्र होते हैं, इतना कष्ट स्वीकार करते हैं, कुछ अखाद्य भोजन करना पड़ता हैं, अत्यधिक ठंड पड़ने से सोने में कठिनाई होती है, फिर क्लास में लगातार बैठे भी रहना पड़ता है। यह सब ऐसे ही नहीं होता है -भाई। यह युवा प्रशिक्षण-शिविर वास्तव में एक बहुत बड़ी साधना-स्थली है, हम सबों के तपस्या का क्षेत्र है। यहाँ आकर जो अग्नि स्वामी विवेकानन्द के ह्रदय में जल रही थी, उसी अग्नि को हम अपने ह्रदय में जला लेंगे। हमलोग अपने जीवन को इतने सुन्दर ढंग से गठित करेंगे, जिससे उसका उपयोग समाज और देश के कल्याण के लिए हो सके। हमें अपना जीवन ऐसा बनाना पड़ेगा, जिससे मैं सभी से प्रेम करने में सक्षम हो सकूँ। समाज में जो पिछड़े हैं, जो पीड़ित हैं, जो उत्पीड़ित हैं, मैं उनके निकट खड़ा हो सकूँ। 

    यदि मैं अपना सम्पूर्ण जीवन न्योछावर करके भी ऐसा मनुष्य बन सकूँ, और कम से कम एक व्यक्ति के भीतर भी उस आग को  प्रज्वलित कर सकूं, [उसे यह समझा सकूँ कि श्रद्धा क्या है , विवेक क्या है, और मनुष्य का जीवन सार्थक कैसे होता है ?] तभी मेरा जीवन भी सार्थक हो सकेगा। 

सम्पूर्ण विश्व को यह समझा दो कि 'मनुष्य' बन जाना कोई साधारण उपलब्धि नहीं है, मनुष्य मन और इन्द्रियों का गुलाम नहीं है, क्योंकि मनुष्य पशु नहीं है। मैंने मानव-शरीर इसलिए नहीं धारण किया था कि जन्म लिया, कुछ शिक्षा प्राप्त की, पैसा कमाया, शादी की और सन्तान पैदा किया , और फिर एक दिन चल बसा ? सिर्फ इतना सब करने के लिए तो मैंने मनुष्य शरीर धारण नहीं किया था। जिन लोगों का जीवन बस यही सब करके समाप्त हो जाता है, वे अभागे हैं, अत्यन्त बदकिस्मत हैं। ......  

स्वामी जी कहते थे यदि मानव शरीर में जन्म लिए हो तो एक निशानी (PR) छोड़ जाओ !  जितने दिनों तक और जीवित हूँ उतने दिनों तक जो कुछ भी करूँगा वह कर्म कम से कम एक व्यक्ति के ह्रदय पर तो अपना निशान अवश्य छोड़ेगा। जैसे किसी ने पूछा था कि पाठचक्र कैसे करना चाहिये की उसका प्रभाव सभी पर पड़े। बस ऐसे ही जैसे तुम्हारे जीवन से अन्य दस लोगों को अच्छा मनुष्य बनने की प्रेरणा प्राप्त हो सके। जहाँ ऐसा नहीं होकर तथाकथित 'भक्त 'लोगों का एक दल तैयार हो जाता हो , वैसे पाठचक्र का कोई लाभ नहीं है।  वे सेवा किये बिना सीधा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। ब्रह्म का यदि शब्दार्थ करें तो उसका अर्थ होता है -बृहत। अर्थात विशाल ह्रदय वाला मनुष्य। वैसे मनुष्य का निर्माण करने की चेष्टा करो। वैसे मनुष्यों को संगठित करने की चेष्टा करो। सभी मनुष्यों की इच्छा को एक पूर्व निर्धारित उपाय से एक निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में निर्दिष्ट रखो। ऐसा करने से देश के जो दीन -दुःखी नागरिक हैं उनकी सहायता कैसे करोगे ? यह समझाओ ! यदि तुम्हारा अपना जीवन उन्नत नहीं हो , तो तुम दूसरों की सहायता कैसे करोगे ? दूसरों की सेवा कैसे करूँ - इसके लिए व्याकुल होओ। खुद मनुष्यत्व अर्जन करने की चेष्टा करो। अर्थात पवित्रता- देह रूपी देवालय को पवित्र रखो। यह मानव शरीर ही ईश्वर का सबसे बड़ा मंदिर है। अन्य सभी ईश्वर तो कल्पना हैं , उनका [चतुर्भुज] सारा  रूप तो काल्पनिक है। किन्तु तुम्हारे सम्मुख जो मनुष्य खड़ा है वह तो काल्पनिक नहीं है। वह तो वास्तविक है। यदि उस मनुष्य में ईश्वर को नहीं देख सके - तो ईश्वर को खोजने कहाँ जाओगे ? स्वामीजी ने कहा है -मनुष्य मात्र के भीतर ईश्वर को देखने की चेष्टा करो। -

' बहुरूपे सम्मुखे तोमार छाड़ि कोथाय खूंजिछो ईश्वर ?

 जीवे प्रेम करे जेईजन सेई जन सेवेच्छे ईश्वर ! "

बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे , और कहाँ हैं ईश ?

व्यर्थ खोज काल्पनिक रूपों में,

 जिव-प्रेम जिसने किया ,उसकी सेवा पाते जगदीश ! 

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इसीलिए मैं किसी को स्वामीजी की पूजा करने के लिए नहीं कहता हूँ। पूजा करना तो दूर की बात उनकी भक्ति करने के लिए भी नहीं कहता हूँ। स्वामीजी से प्रेम करने के लिए कहता हूँ। यदि सबसे अपना कोई दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक बड़ा भाई है - तो वे स्वामी विवेकानन्द ही हैं ! इस तथ्य को समझना सीखो। स्वामीजी कहीं चले नहीं गए हैं। जैसे उन्होंने कहा था - "हो सकता है मैं अपने शरीर को जीर्ण वस्त्र की तरह त्याग दूँ , किन्तु मनुष्यों को अनुप्रेरित करना तबतक नहीं छोड़ूँगा , जबतक विश्व के सभी मनुष्य यह नहीं जान लेते कि वे ईश्वर के साथ अभिन्न हैं। " इस बात पर विश्वास करने की चेष्टा करो। भगवान कहाँ रहते हैं , स्वर्ग में रहते होंगे या कहीं और मंदिर-मस्जिद -गिरजा में रहते होंगे ? भगवान ही जानते हैं। किन्तु मनुष्य के भीतर भगवान हैं-इसकी खोज करो।  -स्वामीजी ने तीर्थ जाकर भगवान खोजने की सीख नहीं दी है। किसी संन्यासी ने कर्मयोग विषय पर एक बहुत सुन्दर कहानी लिखी है। (26.06 minute)

     " किसी गाँव में एक संन्यासी वास करते थे। उनकी कुटिया गाँव के बिल्कुल अन्तिम छोर पर थी। उसके आगे घनघोर जंगल पड़ता था। उसी गाँव में एक और व्यक्ति रहता था -जिसका काम-या पेशा ही डकैती करना था। उसने कई डाका डाला था। इसी क्रम में उसने कई खून भी किये थे। जब उसकी उम्र अधिक हुई तो उसके मन में विचार आया कि ये सब कार्य -डाका डालना, हत्या करना ठीक कार्य नहीं है। थोड़ा मन में पश्चाताप भी हुआ कि ऐसा कार्य अब और नहीं करूँगा , लेकिन पहले जो पाप हो चुके हैं -उनका प्रायश्चित कैसे किया जाये ? उसने साधु महाराज के पास जाकर हाथ जोड़कर पूछा- " महाराज मैं एक भयंकर डकैत हूँ, कई डाके डाले हैं , अनेकों मनुष्यों की हत्या की है। किन्तु अब यह सब अच्छा नहीं लगता है। मैं यहाँ आपके आश्रम रहना चाहता हूँ , क्या मुझे रहने देंगे ? आश्रम का भी कुछ कार्य आदि कर दिया करूँगा। साधु लोग तो उदार ह्रदय के होते ही हैं, किसी के दोष को नहीं देखते। साधु बोले ठीक है रह जाओ। कुछ दिनों तक कुटिया में रहने के बाद डकैत ने कहा , मुझे तीर्थ दर्शन करने की इच्छा हो रही है। क्या मैं जाऊँ ? साधु बोले यदि तुम्हारी इच्छा है तो जाओ। लेकिन तीर्थ करने की इच्छा हुई क्यों ? उस डकैत ने कहा - मैंने बहुत से पाप किये हैं, और विभिन्न तीर्थस्थान के सरोवर में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं। अतः मैं भी तीर्थाटन -स्नान करके देखना चाहता हूँ। 

     साधु ने कहा -" अच्छा यह बताओ कि तीर्थ-स्नान आदि से तुम्हारे पाप मिट गए या नहीं -इस बात को तुम समझोगे कैसे ? डकैत ने सोचा , ठीक बात है। मेरे पाप मिटे या नहीं -इस बात को मैं कैसे जान पाउँगा ? साधु बोले तुम - एक काम करो, सफ़ेद कपड़े का एक टुकड़ा ले आओ। डकैत सफ़ेद कपड़े का एक टुकड़ा ले आया। साधु बोले वहाँ दावात रखा है , उसकी स्याही इस कपड़े पर उड़ेल दो। डकैत ने वैसा ही किया। अच्छा जब तो यात्रा पर जाओगे तुम्हारे साथ कोई पोटली भी रहेगी ही। इस कपड़े को उसी पोटली में डाल दो, और जब कभी किसी तीर्थ स्थान में स्नान करो तो, बाद में इसे पोटली से बाहर निकाल कर देख लेना। यदि कपड़ा काला ही रहे तो समझना कि तुम्हारे पाप अभी मिटे नहीं हैं। और जब पाप मिट जायेगा तो देखोगे की तुम्हारा कपड़ा फिर से सफ़ेद हो गया है। "

अब, वह डकैत निकल पड़ा तीर्थाटन करने। जगह जगह तीर्थों का दर्शन -स्नान करता और स्नान के बाद अपनी पोटली खोल कर देखता तो पाता कि वह कपड़ा वैसे ही काला का काला ही पड़ा हुआ है। जब कई तीर्थों में स्नान के बाद भी कालिख नहीं मिटी तो उदास होकर वह वापस लौटने लगा। वापस लौटते समय रास्ते में एक घना जंगल भी पार करना पड़ा। जब वह जंगल से गुजर रहा था तो उसे किसी स्त्री का आर्तनाद सुनाई पड़ी - "बचाओ ,बचाओ। " वह उसी आवाज की दिशा में चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि कुछ डकैत लोग एक नव-विवाहिता स्त्री को पेड़ से बाँधकर उसका सोने का गहना आदि लूट रहे हैं। यह देखकर उस तीर्थाटन करके लौटते हुए डकैत के मन में यह विचार आया कि इस अकेली स्त्री को बचाना ही होगा। उसको वहाँ जमीन पर गिरी हुई एक कुल्हाड़ी पर नजर पड़ी , जो उन डाकुओं की ही थी। उसने आव देखा न ताव-बस कुल्हाड़ी उठाया और- डकैत के सिर पर वार करते हुए कहा - 'जहाँ 52 वां वहीं 53 वां !'  माने जैसे 52 खून पहले किये थे , वहीँ एक खून और सही ! उसकी हालत देखकर सब डकैत भाग खड़े हुए। तब उसने उस स्त्री का बंधन खोल दिया और उसके सभी गहनों को एक पोटली में बांधकर उसके हाथों में रख दिया। फिर उसका नाम-पता पूछकर उसे सकुशल घर पहुँचाकर, साधु की कुटिया में वापस लौट आया। 

      जब वह साधुजी से मिला तो उन्होंने उसके चेहरे को लटका हुआ देखा , तब पूछा - कहो क्या समाचार है ? तुम्हारे पाप मिटे या नहीं ? तब उस डकैत ने बहुत दुखी होकर कहा - " महाराज ! पाप मिटना तो दूर की बात है, और एक नया खून कर आया हूँ। " फिर उसने साधु को पूरी रामकहानी सुना दी। तब साधु ने कहा- अच्छा तुम अब जरा अपनी पोटली से उस कालिख लगे कपड़े को निकाल कर देखो तो। " जब उसने पोटली से उस कपड़े को निकाला तो देखा - पूरा कपड़ा सफ़ेद हो चुका था, उस पर स्याही की कोई दाग भी नहीं थी ! हमलोग लोक व्यवहार में इस कहावत 'जहाँ 52 वां वहीं 53 वां !' का प्रयोग कई अर्थों में करते हैं। किन्तु इस कहानी के माध्यम से साधु महाराज ने उस डकैत को कर्मयोग के रहस्य को भलभाँति समझाया है। 52 खून करने के कारण जितने पाप लगे थे वे सारे पाप 53 वां खून करने से धुल गए थे। उन्होंने डकैत को समझाया कि - जो खून तुमने अभी अभी किया है , वह खून करना ही तुम्हारा कर्तव्य था। क्योंकि तुमने वह खून निःस्वार्थ भाव से एक अबला की रक्षा के लिए किया था। किन्तु इसके पहले तुमने जितने खून किये थे उसका उद्देश्य लूटपाट करना था ; जबकि इस हत्या के पीछे तुम्हारा उद्देश्य उस अबला की रक्षा करना था। इसीलिए कहा जाता है - 'गहना कर्मणो गतिः। " कर्म का फल-या कुफल मिलेगा समझना बहुत कठिन है। (32.minute)   

इसलिए हमलोग यदि साक्षी भाव से हमेशा यह देखते रहें जो सबके लिए अच्छा कर्म है ,जीवन में मंगल प्रदान करने वाला है वह कर्म है- अपने अन्य 5 भाइयों के साथ स्वामी विवेकानन्द का अनुसरण करते हुए जीवनगठन और मनुष्य निर्माण के 'बनो और बनाओ'- आंदोलन से जुड़े रहना। ऐसा करने से अपने देश का बहुत बड़ा कल्याण हो सकता है। यदि वैसा नहीं हुआ तो हमारे शहर में हो सकता है , हमारे अपने परिवार में तो हो सकता है। मैंने देखा है -बहुत से परिवारों में सौहार्दपूर्ण वातावरण नहीं है। 32.33 minute)   अभी तो कितने ही परिवार में देखता हूँ -सब भाई अलग अलग हो गए हैं। कितने तरह -तरह के भाई होते हैं -जो अपने भाई के बच्चों को भी अपने बच्चे के समान पालते -पोषते हैं। वहीँ ऐसा देखा जाता है कि एक भाई को दो टाइम भोजन नहीं है , दूसरे भाई के पास आलीशान मकान और महंगी गाड़ी है। ऐसा कैसे हुआ ? क्योंकि हमलोग मनुष्य हैं -किन्तु मनुष्यत्व का बोध नहीं है ! ठाकुर देव की भाषा में हम मानहूँष नहीं हैं। हमलोग कई जगह बोलते हैं - हमलोग परस्पर भाई-भाई हैं। लेकिन अपने ही परिवार में भाई को भाई की दृष्टि से नहीं देख पाते ? भाईयों तुमलोगों को मैं ज्ञान देने के लिए कुछ नहीं कह सकता , तुम मुझे विनती करने की अनुमति दो। जब यहाँ आये हो तो यहाँ की शिक्षाओं से कुछ को जीवन में धारण करने की चेष्टा करो। यही कि अभी तक मैं जैसा हूँ - यहाँ से जाने के बाद इससे थोड़ा और अच्छा मनुष्य बनने की चेष्टा करूँगा। और थोड़ा अच्छा होने की चेष्टा करूँगा का अर्थ क्या हुआ ? यही कि मेरा ह्रदय थोड़ा और बड़ा होगा। इसका अर्थ हुआ मैं मेरे परिवार के आलावा जो उससे बाहर के मनुष्य हैं -उनको अपने से थोड़ा और नजदीकी मनुष्य के रूप में देख सकूंगा। कमसे कम अपने भाई को कष्ट में पड़ा देखकर उसकी सहायता करने की चेष्टा तो अवश्य करूँगा। मेरे माता -पिता को कोई कष्ट हुआ तो मैं चुप कैसे रहूंगा ? बहुत से लोग तो भाई या माँ -बाप को संकट में देखकर घर छोड़कर दूसरे जगह चले जाते हैं। किन्तु एक गृहत्यागी बालक का इतिहास एक संन्यासी के मुख से सुना हूँ। तुम परिवार को छोड़कर कैसे आया ? मैंने फर्स्ट-डिवीजन में इंजीयरिंग पास किया है। नौकरी तो मुझे तुरंत मिल सकती थी। मैंने बहुत सोचविचार कर देखा। मेरे पिताजी रिटायर करने वाले थे, और 5 भाई-बहन थे -सभी मुझसे छोटे थे। यदि नौकरी में जितने पैसे मिलेंगे वह सब तो इनलोगों को पालने -पोषने में ही खत्म हो जायेंगे। बहुत से जगह में ऐसी नौकरी मिलती है जो विदेश या अमेरिका भेज देते हैं। मैं भी वही करूँगा। सुनकर बहुत कष्ट होता है। हमारा ह्रदय कितना संकीर्ण हो गया है ? हम अपने भाई-बहन को अपने माँ -बाप की सेवा भी नहीं करना चाहते। अपने भाई को अपना कहना ? यह तो सोच भी नहीं सकते।            

---श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय, 

अध्यक्ष, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल।

40वें अखिल भारतीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर (2006) का अंश।

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'गहना कर्मणो गतिः' एक संस्कृत सूत्र वाक्य है जिसका अर्थ है कि कर्म की गति गहन है।  इसका मतलब है कि कर्म का स्वरूप, अकर्म का स्वरूप, और विकर्म का स्वरूप जानना ज़रूरी है।  कर्म को इस तरह से करना चाहिए कि वह विकर्म न बनें, बल्कि अकर्म में बदल जाएं।  इससे कर्ता अकर्ता हो सकता है और परमात्म-पद पाया जा सकता है। 

कर्म ही मनुष्य को पशुत्व से मनुष्यत्व में , और मनुष्यत्व से देवत्व  में उन्नत कर देता है , कर्म ही मनुष्य को ईश्वरत्व की प्राप्ति कराता है। कर्म निरंतर होता रहता है। कृष्ण ने कहा अर्जुन मैंने सर्वप्रथम यह रहस्य विवस्वान ( सूर्य) को बताया था, क्योंकि सूर्य निरंतर कर्मरत हैं। इस प्रकार के कर्म पुण्य की की अपेक्षा से नहीं किए जाते, यह स्वाभाविक रूप से होते हैं परन्तु ऐसे कर्मों से पुण्य - प्राप्ति होती है।

अकर्म न करने से पुण्य की प्राप्ति तो नहीं होती परन्तु करने से मनुष्य पापभागी अवश्य होता है। जैसे यदि हम चोरी न करें तो हमें पुण्य नहीं मिल जाता परन्तु चोरी करने से पाप निश्चित रूप से मिलता है।

विकर्म में मनुष्य से यह अपेक्षित है कि वह विवेकी होकर कर्म करे। जिस प्रकार दान देना पुण्यकर्म है परन्तु कुपात्र को दान देने से मनुष्य पुण्यभागी नहीं होता। पूरा श्लोक इस प्रकार है - 

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17।।

 कर्म का (स्वरूप) जानना चाहिये और विकर्म का (स्वरूप) भी जानना चाहिये ; (बोद्धव्यम्) तथा अकर्म का भी (स्वरूप) जानना चाहिये (क्योंकि) कर्म की गति गहन है।।

उपर्युक्त कहानी - 'डकैत का तीर्थ-स्नान ' से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म का मूल्यांकन केवल उसके वाह्य स्वरूप को देखकर नहीं बल्कि उसके उद्देश्य को भी ध्यान में रखते हुये करना चाहिये। उद्देश्य की श्रेष्ठता एवं शुचिता से उस व्यक्ति विशेष के कर्म श्रेष्ठ एवं पवित्र होंगे।

जीवन क्रियाशील है। क्रिया की समाप्ति ही मृत्यु का आगमन है। क्रियाशील जीवन में ही हम उत्थान और पतन को प्राप्त हो सकते हैं। एक स्थान पर स्थिर जल सड़ता और दुर्गन्ध फैलाता है जबकि सरिता का प्रवाहित जल सदा स्वच्छ और शुद्ध बना रहता है। जीवन शक्ति की उपस्थिति में कर्मो का आत्यन्तिक अभाव नहीं हो सकता। 

क्रिया ही जीवन है। निष्क्रियता से उन्नति और अधोगति दोनों ही सम्भव नहीं। गहन निद्रा अथवा मृत्यु की कर्म शून्य अवस्था मनुष्य के विकास में न साधक है न बाधक। कर्म के क्षण मनुष्य का निर्माण करते हैं।  इस श्लोक के कर्म शब्द में मनुष्य के विकास में साधक के निर्माणकारी कर्तव्य कर्मों का ही समावेश है। यह मनुष्य निर्माण -Be and Make !  इस बात पर निर्भर करता है कि हम कौन से कर्मों को अपने हाथों में लेकर करते हैं। यह आवश्यक है कि अपने भौतिक अभ्युदय तथा आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक साधक कर्मों के इस वर्गीकरण को भली प्रकार समझें।

    प्राचीन ऋषियों के अनुसार कर्म दो प्रकार के होते हैं निर्माणकारी (कर्तव्य) और विनाशकारी (निषिद्ध)।  जिन कर्मों से मनुष्य अपने मनुष्यत्व से नीचे - 'पशुत्व ' की अवस्था (घोर स्वार्थपरता में ) गिर जाता है उन कर्मों को यहाँ विकर्म कहा है जिन्हें शास्त्रों ने निषिद्ध कर्म का नाम दिया है। आत्मविकास के लिये विकर्म का सर्वथा त्याग और कर्तव्य का सभी परिस्थितियों में पालन करना चाहिये। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण इस बात को स्वीकार करते हैं कि कर्मों के इस विश्लेषण के बाद भी सामान्य मनुष्य को कर्म-अकर्म का विवेक करना सहज नहीं होता क्योंकि कर्म की गति गहन है

शारीरिक कर्म बुद्धि में स्थित किसी ज्ञात अथवा अज्ञात इच्छा की केवल स्थूल अभिव्यक्ति है। पूर्ण नैर्ष्कम्य की स्थिति का अर्थ निष्कामत्व की स्थिति होनी चाहिए इसे ही पूर्ण ईश्वरत्व की स्थिति कहते हैं। विवेकी पुरुष सहजता से अवलोकन कर सकता है कि शरीर से अकर्म होने पर भी उसके मन और बुद्धि पूर्ण वेग से कार्य कर रहे होते हैं। फिर वह यह भी अनुभव करता है कि शरीर द्वारा निरन्तर कर्म करते रहने पर भी वह शान्त और स्थिर रहकर केवल साक्षीभाव /द्रष्टाभाव से उन्हें स्वयं अकर्म में रहते हुए देख सकता है; यह अकर्म सात्त्विक गुण की चरम सीमा है।

श्री शंकराचार्य और अन्य आचार्यवृन्द [स्वामी विवेकानन्द ने ]  बार -बार कहा कि कर्तव्य पालन से -चित्त की शुद्धि हो जाती है , और शुद्धान्तकरण वाले व्यक्ति में वह सार्मथ्य आ जाती है कि वह स्वयं के मन में तथा बाहर होने वाली क्रियाओं को साक्षी भाव से देख सकता है। जब वह यह जान लेता है कि उसके कर्म विश्व में हो रहे कर्मों के ही भाग हैं तब उसे एक अनिर्वचनीय समता का भाव प्राप्त हो जाता है।  जिस पुरुष में आत्मनिरीक्षण की क्षमता है वह अकर्म में कर्म को पहचान सकता है।एक विवेकी पुरुष जब जगत् में क्रियाशील रहता है उस समय मानो अपने आपको सब उपाधियों से अलग करके साक्षीभाव से स्वयं अकर्म में रहते हुए वह सब कर्मों को होते हुए देख सकता है। जब मैं इन शब्दों को लिख रहा हूँ तब मेरे मन का ही कोई भाग मानों द्रष्टाभाव से देख सकता है कि हाथ में पकड़ी हुई लेखनी कागज पर शब्दों को लिख रही है। इसी प्रकार सभी कर्मों में स्वयं अकर्म में रहते हुए कर्मों को देखने की क्षमता दुर्लभ नहीं है। 

     रेल चलती है वाष्प नहीं। पंखा घूमता है विद्युत नहीं। इसी प्रकार ईंधन जलता है अग्नि नहींशरीर मन और बुद्धि कार्य करते है परन्तु चैतन्य आत्मा नहीं। इस प्रकार कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाले पुरुष को सब मनुष्यों में बुद्धिमान कहा जाता है। संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि निस्वार्थ भाव तथा अर्पण की भावना से कर्माचरण Be and Make करने पर चित्त शुद्ध होता है।  और बुद्धि में साक्षी भाव से कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने की क्षमता आती है। यह क्षमता दैवी और श्रेष्ठ है क्योंकि इसके द्वारा ही हम अपने आप को सांसारिक बन्धनों से मुक्त कर सकते हैं।

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১৪ই আগস্ট ১৯৪৭ ~  গঙ্গার কাছেই আমাদের বাড়ি। পশ্চিম পাড়ে সূর্য অস্ত যাচ্ছে। মনে মনে বললাম- ‘পরাধীন ভারতবর্ষের শেষ সূর্য তুমি অস্ত যাচ্ছ। কাল যখন তুমি পূর্ব আকাশে উদিত হবে, তখন ভারতবর্ষ স্বাধীন’। 

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প্রশ্নঃ স্বামীজীর মানুষ হবার শিক্ষা 'Be and Make ' বর্তমান শিক্ষা ব্যবস্থায় কেন এখনো আনা হয়নি ?

श्री নবনীহরণ মুখোপাধ্যায়  ................স্বামীজী অনেক কথা বলেছেন, অনেক কথা লিখেছেন। তার ভিতর থেকে যে কথাটা নিয়ে আমরা কাজ করছি ‘Be & Make’ , নিজে মানুষ হওয়া আর অন্যকে মানুষ হতে সাহায্য করা, আমার সৌভাগ্য হয়নি আর কোথাও এই কথাটি শোনার। স্বামীজী এরকম মুল্যবান একটি কথা বলেছেন, আর সেটা নিয়ে যে কিছু করা যায়, এ কথাটির যে একটা গুরুত্ব আছে, সেটি মহামণ্ডল হওয়ার আগে আমরা অন্তত শুনিনি। জানিনা অন্য কেউ শুনেছে কিনা।

এখন যারা দেশ চালাচ্ছেন, যারা দেশের শিক্ষা ব্যবস্থা নিয়ে কাজ করেন, তারা কি ভাবেন মানুষ গড়ার কথা, তাদের কোনও ধারনা আছে  ‘Be & Make’ সম্পর্কে ? মানুষ যে হওয়া যায় বা মানুষ যে হতে হয় একথা জানেন তারা ? শিক্ষার উন্নতির জন্য কি করছেন- নতুন নতুন স্কুল – কলেজ – ইউনিভার্সিটি করছেন, আর সেখানে নতুন নতুন সাবজেক্ট খুলছেন, সিলেবাস বাড়াচ্ছেন। শিক্ষা কাকে বলে জানেন তারা ? রাজ্যে হোক আর কেন্দ্রেই হোক সব এক।  

শিক্ষা ব্যবস্থায় স্বামীজীর চিন্তা নিয়ে বলছ, স্বামীজী সম্বন্ধে কে জানেন ? ভারতবর্ষে ক’জন জানেন স্বামীজী কি ছিলেন ? নেতা, মন্ত্রী, আমলা যারা দেশ চালান, তাদের ভিতর ক’জন জানেন স্বামীজী সম্পর্কে ? তোমরা কিছু মনে করো না ভাই। কথা উঠলেই আজকাল শোনা যায় -  গান্ধীজী বলেছিলেন, স্বামীজীর লেখা পড়ে দেশের প্রতি তার ভালবাসা সহস্র গুন বেড়ে যায়। ঐ টুকুই বলেছিলেন। বেলুড় মঠে একবার স্বামীজীর সাথে দেখা করতে এসেছিলেন। স্বামীজী সেদিন মঠে ছিলেন না। এখনকার মত তো আর মোবাইল বা ইমেল ছিল না, তাই আগে থেকে জানিয়ে আসতে পারেননি। ফিরে যাবার পথে ভিজিটরস বুকে কিছু লিখতে হয় তাই ঐ এক লাইন লিখেছিলেন। কিন্তু স্বামীজীর কোন ভাবটা তিনি ভারতবর্ষকে দেয়ার চেষ্টা করেছেন ? 

ভারতের প্রথম প্রধানমন্ত্রী জহরলাল নেহেরুর নাম বলতে সবাই একেবারে…… ! তিনি নতুন করে ভারতবর্ষকে আবিস্কার করে ‘Discovery of India’ নামে একটি বই লিখলেন। দেশের তথাকথিত শিক্ষিত লোক তো পড়েছেই, বিদেশেও পড়া হয়েছে। কিন্তু নেহেরু ভারতবর্ষকে আবিস্কার করতে গিয়ে স্বামীজীকে দেখতেই পেলেন না। স্বামীজীর নামটাই ঐ বই এ ছিল না। তোমরা হাসছ তো, কিন্তু এটাই ঘটনা। তখনকার সময়ে রামকৃষ্ণ মিশনের প্রেসিডেন্ট মহারাজকে এক সন্ন্যাসী বইটি পড়তে দিয়ে কিছুদিন পর এসে জিজ্ঞাসা করলেন- মহারাজ, বইটি পড়েছেন ? মহারাজ বললেন পড়েছি। সন্ন্যাসী মহারাজের প্রতিক্রিয়া জানার জন্য আগ্রহভরে তাকিয়ে রইলেন। মহারাজের উত্তর ছিল খুবই সংক্ষিপ্ত ‘‘Nehru is yet to discover India, ভারতবর্ষকে আবিস্কার করতে নেহেরুর এখনো সময় লাগবে’’। 

এবং পরে রামকৃষ্ণ মিশনের প্রেসিডেন্ট হয়েছিলেন স্বামী রঙ্গনাথানন্দ। অনেকেই হয়তো জান, স্বামী বিবেকানন্দের পরে সমগ্র জগতে Intellectual World কে নাড়া দিয়েছিলেন স্বামী রঙ্গনাথানন্দ। তিনি দিল্লিতে থাকা কালীন অনেকের মত জহরলাল নেহেরুও মহারাজের কাছে আসতেন। মহারাজ একদিন বললেন – ‘Jawaharlal, in your book you are not included Swami Vivekananda’s name ?’ তোমার বই এ স্বামীজীর নামটা পর্যন্ত রাখনি ? এই কথা শুনে নেহেরু বললেন-  ‘Sorry ! sorry ! It was a bad omission’ । ওহ ! আমি সত্যিই দুঃখিত, এটা মারাত্মক ভুল হয়ে গেছে। এই সব বলে পরের সংস্করণে স্বামীজী সম্পর্কে কিছু কথা, ২ /৪ পাতা যোগ করলেন। 

এই তো ভারতবর্ষের স্বামীজীকে চেনা। আমার বয়স হয়েছে ভাই। ব্রিটিশের রাজত্ব দেখেছি। ভারতবর্ষ স্বাধীন হতে দেখেছি। সেই দিনটি আজও স্পষ্ট মনে পড়ে। এখনো তোমাদের বলতেই চোখে জল আসছে। ১৪ই আগস্ট ১৯৪৭। গঙ্গার কাছেই আমাদের বাড়ি। পশ্চিম পাড়ে সূর্য অস্ত যাচ্ছে। মনে মনে বললাম- ‘পরাধীন ভারতবর্ষের শেষ সূর্য তুমি অস্ত যাচ্ছ। কাল যখন তুমি পূর্ব আকাশে উদিত হবে, তখন ভারতবর্ষ স্বাধীন’। সে যে কি আনন্দ, বুক ফাটা আনন্দ। আমি শুধু নয়, দেশশুদ্দ লোক করেছিল। আলোয় আলোকময় রাস্তাঘাট, বাড়ি। সারারাত উৎসব চারিদিকে। তখন তো আর টেলিভিশন বের হয়নি, রাত ১২ টার সময় জহরলাল রেডিও তে চমৎকার এক ভাষণ দিয়ে বললেন, ভারত স্বাধীন হল। 

কি স্বাধীনতা আজ আমরা ভোগ করছি ? সত্যিই কি আমরা যথার্থ স্বাধীনতা পেয়েছি ? এই স্বাধীন ভারতবর্ষে স্বামীজীর কোন ভাবটি নেয়া হয়েছে। স্বামীজীর মুল্য তারা জানতেন না ভাই। কি বলতে কি পাগলের মত বলে ফেলছি জানি না ভাই।

স্বামীজী আমেরিকা থেকে ফিরে কলকাতায় রয়েছেন। কিছু তরুন রাজনৈতিক নেতা দেখা করে স্বামীজীকে বললেন, দেশের এত সমস্যা এর থেকে মুক্তির উপায় কি ? স্বামীজী বললেন- ‘দেশে মানুষ কই রে, আগে মানুষ তৈরি করো, তাহলেই সব সমস্যা চলে যাবে’। পরাধীনতাই কি আমাদের সবথেকে বড় সমস্যা নয় ? ‘দেশে যদি মানুষ না থাকে তাহলে স্বাধীনতা রক্ষা করবে কে’। আর এক জায়গায় বলেছিলেন-  ‘স্বাধীনতা ? ওরে আমি ৩ দিনে এনে দিতে পারি। মস্ত বড় এক ময়দানে সকলকে জড় কর। সেখানে ভারতের জাতীয় পতাকা তুলে দিয়ে ঘোষণা কর, আমরা আজ স্বাধীন হলাম। আর গোটাকতক বড় বড় দেশে বার্তা পাঠা যে, ভারতবর্ষ আজ থেকে স্বাধীন হল। এটা করলে কি হবে জানিস ? ইংরেজ গুলি চালাবে। তবে জানবি, বিবেকানন্দের রক্তটা মাটিতে প্রথম পড়বে’। (13.32 minute) 

স্বামীজীকে কেউ বোঝেনি ভাই, আজও বোঝেনি। ভারতবর্ষের রাজনৈতিক নেতারা বোঝেনি কোন কালে। মুখে বলেন স্বামীজীর কথা। স্বামীজীকে নিয়ে রাজনীতি করেন, মঠে মিশনে যান। এদের চেনা আছে, বয়স হয়েছে, দেখেছি। অসহ্য লাগে। সেই যন্ত্রণা বুকে না থাকলে এই মহামণ্ডল হতো না। কিন্তু এখনো সবাই কি চুপ করে বসে থাকব ? যুবকরা কি বসে থাকবে ? আর কোনও রাস্তা নেই ভাই ! আর দ্বিতীয় কোনও মতবাদ, আর কোনও ইজমে কিছু হবে না। কোনও ইকনমিক পলিসিতে কিছু হবে না। কারণ সব কিছুর পিছনে আছে মানুষ। সেই মানুষ যদি মানুষ না হয়, কিছুতেই ভারতের উন্নতি সম্ভব নয়। 

সেই কথা বুঝে নিয়ে, তেমন মানুষ হওয়ার জন্য আমাদের এই ক’দিনের এখানে আসা। ১৫০০ ভাই এক জায়গায় এসে, এত কষ্ট স্বীকার করা, অখাদ্য কিছু খাবার, প্রচণ্ড শীতে শোয়ার কষ্ট, একটানা বসে থাকা। এতো এমনি নয় ভাই। মস্ত বড় সাধনা, সকলের তপস্যার ক্ষেত্র। যে আগুন স্বামীজীর বুকে জ্বলছিল, সেই আগুন আমাদের ভিতরে জ্বালিয়ে নেব। আমরা আমাদের জীবনটা এমন করব যেন সেটা দেশের কাজে লাগে সমাজের কাজে লাগে। সবাইকে যেন ভালবাসতে পারি। যারা পিছিয়ে আছে, যারা নির্যাতিত, যারা নিপীড়িত, তাদের পাশে দাঁড়াবো। সমস্ত জীবন দিয়ে যদি এমন মানুষ হতে পারি, আর অন্তত একজন মানুষের ভিতরে সেই আগুন জ্বালিয়ে দিতে পারি, জীবন সার্থক হয়ে যাবে। বুঝিয়ে দাও জগতকে। মানুষ সোজা জিনিস নয়, মানুষ ফেলনা নয়, মানুষ পশু নয়। জন্ম নিলাম, কিছু লেখাপড়া শিখলাম, রোজগার করলাম, বিয়ে করে সন্তান জন্ম দিয়ে একদিন চলে গেলাম। এটুকুর জন্য মানুষ হয়ে আসিনি। যাদের শুধু এটুকুতেই জীবন শেষ হয় তারা অভাগা, অত্যন্ত দুর্ভাগা। (20.20 minute) 

--- শ্রী নবনীহরণ মুখোপাধ্যায়

প্রেসিডেন্ট, অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল।

৪০তম সর্বভারতীয় বার্ষিক যুব শিক্ষন শিবিরে প্রস্নত্তরের কিছু অংশ (২০০৬)।

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बुधवार, 14 अगस्त 2024

🔱🕊 🏹 🙋अविस्मरणीय महान क्रांतिकारी एवं विचारक: डाॅ. भूपेन्द्रनाथ दत्त 😇🔱Unforgettable great revolutionary and thinker: Dr. Bhupendranath Dutta🕊 🏹 🙋

 अंदुल-मौड़ी का करीबी व्यक्ति -

अविस्मरणीय महान क्रांतिकारी एवं विचारक

डॉ.भूपेन्द्रनाथ दत्त

(1880 -1961)

[क्रांतिकारी डॉ. भूपेन्द्रनाथ की स्मृति में]

युगाचार्य स्वामी विवेकानन्द के छोटे भाई क्रान्तिकारी डॉ. भूपेन्द्रनाथ दत्त से मेरी मुलाकात - 21 जुलाई 1928, शनिवार को दोपहर में हुई थी। उस दिन उन्होंने देशभक्त कवि शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (1876-1938) द्वारा 'Mission of Creative Nationalism' के तहत स्थापित  किए गए संगठन "हावड़ा युवक संघ (1928)" के अन्दुल-मौड़ी शाखा का उद्घाटन किया था। वह केन्द्र उत्तर मौड़ी के 'खटी' क्षेत्र में उद्घाटित हुआ था।

हावड़ा युवक संघ के अध्यक्ष थे 'बुजुर्ग-युवा' बिपिन बिहारी चट्टोपाध्याय, सचिव थे डॉ. श्रीललित मोहन चक्रवर्ती (1893) और मैं उनका सहायक था।  तथा मेरी जिम्मेदारी थी अपने परिचित और संस्था के 'आदर्श -उद्देश्य ' [चरित्रगठन और मनुष्य निर्माण] के प्रति उत्साही युवाओं को संगठन से जुड़ने के लिए अनुप्रेरित करना। अतीत के महान क्रन्तिकारी नारायण दास दे संगठन के मार्गदर्शक और उत्प्रेरक थे। मन्मथनाथ हालदार, डॉ. तिनकौड़ी घोष, डॉ. उपेन्द्रनाथ पाल, क्षेत्रमोहन पाल, श्री हरेन्द्र कृष्ण दास-घोष, दाशरथी मन्ना, मिहिरलाल, संन्यासीचरण आदि इस संघ के वरिष्ठ संरक्षक थे। युवाओं में तुलसीचरण घोष, श्री नीरदवरन घोष, श्री लक्ष्मी नारायण बंदोपाध्याय, श्री जगदीश चंद्र चक्रवर्ती (पंचायत प्रधान, दुइला); श्री हरिगोपाल भट्टाचार्य, श्री श्यामा प्रसन्न भट्टाचार्य,ex-M.P; पाँचूगोपाल तरफदार, रेवतीभूषण चट्टोपाध्याय, डॉ. श्री इंदुभूषण दास, देवीपद चक्रवर्ती, श्रीगोपाल चंद्र चक्रवर्ती, प्रसाद चंद्र घोष, श्री जयकेश मुखर्जी, M.L.A  आदि प्रमुख थे। शालकिया के दो कॉमरेड - श्री अब्दुल मोमिन [secretary, carters (गाड़ी) union] और श्री सुधांशु रॉय चौधरी (प्रसिद्ध भारतीय 'Fresco painter' भित्ति चित्र के चित्रकार) जो दक्षिणेश्वर बम मामले में शामिल थे। 

उस दिन, डॉ. दत्त मौड़ी गांव (तब उनसानी) रेलवे स्टेशन पर उतरे और पालकी में बैठकर हमारे गांव के ग्रामीण पगडण्डी से होते हुए (नवनीदा जानीबिगहा से टनकुप्पा -6KM) एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा की थी।... संघ की गतिविधियों के उचित प्रबंधन के लिए कई देशभक्त स्वतंत्रता-सेनानी भी समय-समय पर अपना सहयोग प्रदान करते रहे हैं - जिनमें क्रांतिकारी बिपिन बिहारी गांगुली, हृषिकेश मुखोपाध्याय,डोमजूर बम कांड के धीरेंद्रनाथ मुखोपाध्याय आदि प्रमुख थे। 

संघ के सदस्यों के सहयोग से मई 1931 में अन्दुल के 19वीं सदी के जमींदार मल्लिक बाबू के बागान के अहाता (वर्तमान वेटिंक्टन से सटे परिसर) में 'हावड़ा जिला राजनीतिक कार्यकर्ता सम्मेलन' का आयोजन किया गया था। कई बाधाओं और सरकारी आतंक के बीच उस सम्मेलन का उद्घाटन देशभक्त यतीन्द्रमोहन सेनगुप्ता (1885-1933) द्वारा बहुत उत्साहपूर्वक 'वन्दे-मातरम' गान और तुरही -भेरी की ध्वनि के साथ किया गया था। उस सभा में 'मेरठ षड़यंत्र ' के सहयोगीयों में से एक कॉमरेड बंकिम चंद्र मुखोपाध्याय ने एक विद्व्तापूर्ण और शोधपरक लिखित अध्यक्षीय भाषण का पाठ किया था। सभा के मुख्य अतिथि थे - डॉ. केएल गांगुली। उस सम्मेलन में स्वागत भाषण ( welcome address) दिया था युवा समाज के आकर्षक व्यक्तित्व वाले वक्ता  क्रांतिकारी डॉ. भूपेन्द्रनाथ दत्त एवं पुलिन बिहारी बंदोपाध्याय (झाड़हट) ने । सम्मेलन के अंतिम दिन 'चारण कवि ' मुकुन्द दास ' ने जात्रा (नाट्य संगीत) के माध्यम से जनसाधारण के बीच जोश और उत्साह का संचार कर दिया था।  [(बांग्ला: মুকুন্দদাস, (22 फ़रवरी 1878 - 18 मई 1934), भारत से बांग्ला भाषा के कवि, गीतकार, संगीतकार और देशभक्त थे, जिन्होने ग्रामीण स्वदेशी आंदोलन के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।]

      जहाँ बृहत्तर बंगाल में राजनीतिक दलबंदी का माहौल जारी था, एक ओर सेनगुप्त के अनुयायी थे, तो दूसरी ओर समझौता नहीं करने पर अडिग 'सुभाषचंद्र ' के "radical reformist" घोर सुधारवादी समर्थक आदर्शवादी युवाओं का एक विशाल समूह था। सम्पूर्ण भारतवर्ष में अहिंसक असहयोग आंदोलन और 'चरखा -काटो' अभियान भी चल रहा था। ... 1938 के ऐसे संघर्षपूर्ण राजनैतिक सम्मेलन में भाग लेने आये डॉ. दत्त ने जब कुंडू चौधरी बाबू के संरक्षण एवं संरक्षण में चलने वाली 'लाइब्रेरी (1886) को देखा तो उन्हें बहुत आनन्द हुआ। इस बात को आगन्तु पंजी में दर्ज करते हुए लिखा था -  "I have visited the Mohiary Public Library and I am satisfied with what I saw. The Library contains a good collection of old Bengali books and manuscripts. .... I wish success to the Library. (30.10.1938)"   इसके बाद वे 1942 में आन्दुल आये थे - स्थानीय हाई इंग्लिश स्कूल की शताब्दी और पूर्व छात्रों के पुनर्मिलन (alumni reunion) के अवसर पर।

     1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, वे  विभिन्न सांस्कृतिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में भाग लेने कई बार आन्दुल आये थे। वे एक प्रखर नैतिकतावादी थे तथा प्रगतिशील समाजवाद में विश्वास करते थे। वे स्वामी विवेकानन्द को भारत राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और सेवा ' के महानतम तात्विक व्याख्याकार और व्यावहारिक प्रयोगकर्ता मानते थे। लेकिन स्वामीजी के नाम के साथ सभा-समिति में उनका नाम संयोगवश जोड़ा जाना भी उन्हें न केवल नापसंद था, बल्कि वे काफी नाराज भी होते थे। कारण बहुत सुंदर और स्पष्ट था। वे कहा करते थे - " तुम लोगों के स्वामीजी संन्यास के कट्टर समर्थक और धर्मप्रचारक थे , लेकिन मेरे लिए वे भारत के अदम्य और अद्वितीय स्वतन्त्रता सेनानी थे।  सामाजिक प्रजातंत्र के अग्रदूत, अभूतपूर्व मानवतावादी तंत्र के प्रवक्ता,जनसाधारण के एक सच्चे निर्विवाद, परोपकारी (undisputed, benevolent) मार्गदर्शक नेता। राष्ट्रीयता और देशप्रेम के आदर्श मूर्त प्रतीक। देश की समस्त आशा और विश्वास के असंदिग्ध पथ-प्रदर्शक थे।" 

     प्रसंगवश, स्वामीजी के बारे में कविगुरु रवीन्द्रनाथ के कुछ उक्तियों को याद करना अप्रासंगिक नहीं होगा - " ग्रहण करने, मिलान करने, निर्माण करने, की अतुलनीय प्रतिभा उनमें (विवेकानन्द में) थी , विवेकानन्द ने कहा था - 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है', मनुष्य मात्र के भीतर ब्रह्म की अनन्त शक्ति है ; उन्होंने घोषणा की थी -'नारायण गरीबों के माध्यम से हमारी सेवा प्राप्त करने के भूखे हैं!' वे मूर्ख और दरीद्र के रूप में हमारी सेवा पाना चाहते हैं। ' इसको कहते हैं - सूक्ति, यथार्थ वेदान्त डिण्डिम -dictum! ...यह एक ऐसा संदेश है, जो मनुष्य की आत्म-चेतना को स्वार्थ की सीमाओं से परे अनंत मुक्ति (infinite liberation:मोक्ष ?) का मार्ग दिखाता है। उनके इसी कथन में अन्तर्निहित है छुआछूतवाद का सहज विरोध, जो उनके मुख से इसलिए नहीं निकला था कि इससे राष्ट्रीय स्वायत्तता मिल सकेगी, बल्कि इसलिए कि उसके द्वारा जाति और धर्म के नाम होने वाला मनुष्य का अपमान दूर हो जाएगा। विवेकानन्द का यही सन्देश मनुष्य के सम्पूर्ण मनुष्यत्व को उद्घाटित कर देता है। उनके इस सन्देश ने मनुष्य के मुरझाये हुए मन-प्राण को एक अलग तरीके से प्राणवन्त बना दिया था। बंगाल के कुछ मेधावी युवाओं में जो साहसपूर्ण अदम्य अध्यवसाय (adventurous perseverance) देखने को मिलता है, उसके लिए विवेकानन्द का यह सन्देश-'नारायण ही मूर्ख और दरीद्र के रूप में हमारी सेवा पाना चाहते हैं।'  ही मूल कारण है। "  

"क्रांतिकारी 'नेताजी' सुभाषचंद्र (1897—1945?) के शब्दों में भी रवीन्द्रनाथ की अनुगूंज ही सुनाई पड़ती है -" जब विवेकानंद मेरे जीवन में आए...मैं मुश्किल से पंद्रह साल का था उनकी आकर्षक कर्मठता में उनका पुरुषार्थ झलकता था, उनका हृदय मनुष्य मात्र के प्रति असीम प्रेम से परिपूर्ण था, उनका ज्ञान सागर जैसा गहरा और बहुमुखी था। वे जितना उल्लसित होकर अपनी भावनाओं को व्यक्त करते थे, आक्षेप लगाते समय उतने निर्दयी भी थे, फिर भी वे एक बच्चे की तरह सरल थे।  वे हमारी इस दुनिया में एक दुर्लभ व्यक्तित्व थे।"  ("I was barely fifteen when Vivekananda entered my life... His was a type of manhood that was appealing in his activity, boundless in his love, profound and versatile in his wisdom, exuberant in his emotions, relentless in his attacks, but yet simple as a child's. He was a rare personality in this world of ours." -Netaji

क्रांतिकारी डॉ. भूपेन्द्रनाथ से परिचित होने से पहले, बीसवीं शताब्दी के पहले दशक के प्रारम्भ में  उनके बड़े भाई और विद्वान् मनीषी महेंद्रनाथ (1869-1956) के सानिध्य में रहने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ था। वे विश्वनाथ दत्त की नौवीं संतान थे और मंझले पुत्र थे। डॉ. भूपेन्द्रनाथ दत्त का जन्म शनिवार, 4 सितंबर, 1880 को हुआ था। इन दोनों मनीषियों के अलंघनीय आकर्षण में बंधकर मैं किसी न किसी बहाने 3 नंबर, गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट पर पहुँच जाता था। 1934से 1956 साल तक शिमुलिया के दत्त परिवार के घर पर पर अक्सर आना -जाना हुआ करता था।

    देश-निर्वासित क्रांतिकारी डॉ. भूपेन्द्रनाथ दत्त सत्रह वर्ष की लम्बी अवधि तक अमेरिका, जर्मनी, रूस आदि देशों में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद 1925 में कलकत्ता लौट आये। पुस्तक लिखने तथा किसान-मजदूर संगठन में ध्यान देते हुए भारतीय संस्कृति की रक्षा, साहित्य में स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदर्शित इतिहास और विज्ञान आधारित प्रगतिवाद के अनुशरण कर्ताओं के बीच तीसवें दशक के प्रसिद्द समस्त संकीर्णता और ईर्ष्या से मुक्त साहित्यकार थे डॉ. दत्त। लेकिन वे किसी भी राजनीतिक दल से स्थायी रूप से नहीं जुड़ सके। 

जर्मनी में अपने प्रवास के दौरान क्रांतिकारी भूपेन्द्रनाथ को भारतीय क्रांतिकारियों की 'Berlin Committee' का सचिव नियुक्त किया गया और 1916 से 1918 तक संगठन के साप्ताहिक मुखपत्र 'Independence dance' का सम्पदाक बनाया गया था। 1921 में वे रूस के Comintern' में योगदान करने का अवसर पाए। महात्मा लेलिन (?) के साथ व्यक्तिगत रूप से मिलने और बात करके वे विशेष रूप से अनुप्रेरित हुए थे। 1941 में कोलकाता में स्थापित स्थापित  'Friends of the Soviet Union' संगठन के डॉ. दत्त पहले अध्यक्ष बने।

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पचास के दशक में डॉ.दत्त प्रतिदिन संध्या के समय 'हेदुआ' में पुष्करणी की परिक्रमा करते थे। एक हाथ में लाठी रहती और दूसरे हाथ किसी निष्ठावान अनुयायी के कन्धों पर रखकर; विभिन्न प्रकार की जानकारी लेते रहते थे! एक के बाद एक - नई - पुरानी पार्टी कार्यकर्ताओं से मिलना - मिलाना - बातचीत - परिचय - पूछताछ - अलग-अलग राय के उत्साही प्रशंसकों के साथ विदेशों की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक चर्चा और दो घंटे बाद घर लौटना-यही चलता था ।

ऐसे ही एक दिन (सन् 1952-53) उन्होंने अचानक मुझसे पूछा - "तुम्हारा घर तो अन्दुल मौड़ी  है न ?  क्या तुम वहाँ के राजाओं का इतिहास जानते हो? तुम्हारे यहाँ के 'काली-कीर्तन' के प्रतिष्ठाता 'प्रेमिक महाराज' मेरी पूजनीय माता जी के गुरुदेव थे। मैं -इसी आन्दुल का राजा बन जाता। " 

       मैंने बड़े आश्चर्य से कहा - ''नहीं, मैंने तो इस सब के बारे कभी  किसी से कुछ नहीं सुना है।'' और डॉ. दत्त खुद भी इन सब के बारे में अपनी माता जी से ही सुना था -वे स्वयं इसके प्रत्यक्षदर्शी नहीं थे। इसकी पृष्ठभूमि को देखें तो, एक ओर शिमुलिया का दत्तवंश, आन्दुल का राजपरिवार और 'प्रेमिक महाराज' तथा बाद में (1898 के बाद) प्रेमिक महाराज की 'काली- कीर्तन समीति ' तथा बेलुड़ मठ का आपसी सम्पर्क के उज्ज्वल घटनाओं का इतिहास।                19वीं शताब्दी के आरंभ में आन्दुल-राजमहल द्वारा प्रकाशित 'कायस्थ-कौस्तुभ' में डॉ. दत्त के पर-पितामह राममोहन दत्त को कुलीन और समृद्ध कायस्थ कुल तिलकों में से एक कहा गया है। वे ' Supreme Court ' में एक अंग्रेज वकील के सहायक थे। उनके उदारवादी और प्रसिद्द संगीत प्रेमी पौत्र  विश्वनाथ दत्त (1835-84) को अंदुल के राजमहल में आयोजित होने वाले सभी उत्सवों में त्यौहार के अवसर पर आयोजित होने वाले विशेषतः शास्त्रीय संगीत समारोह में विधिवत आमंत्रित किया जाता था; जिसमें वे अपने मित्र अटर्नी निमाई चरण बोस के साथ अवश्य भाग लेते थे। 

विश्वनाथ दत्त अगस्त 1877 से 1879 अगस्त (?) महीने बीच कुछ समय के लिए रायपुर (मध्य प्रदेश) में भी रहे थे? घर वापस लौटने के बाद भुवनेश्वरी देवी ने 'दीक्षा' ग्रहण करने में विशेष रुचि व्यक्त की। दत्त-वंश के पारंपरिक कुलगुरु महापण्डित राष्ट्रीय शिक्षक भूदेव मुखोपाध्याय (1825-94) ने असमर्थता व्यक्त की। और परामर्श दिया कि हाल ही में, आन्दुल के कविरत्न महेंद्रनाथ भट्टाचार्य (1845-1909) को राजकवि के रूप में नियुक्त किया गया है। आप उनसे मेरे बारे में बात करते हुए, दीक्षा के लिए बोल कर देख सकते हैं। मुझे उम्मीद है कि वे इस कार्य को स्वीकार कर सकेंगे।' उसी परामर्श के अनुरूप महान 'कौलाचारी' (कौल परम्परा के आचार्य -जिनके विषय में कहा जाता है -

"अन्तःशक्ता वहिः शैवाः सभायां वैष्णवा मताः। 

नाना वेशधराः कौला विचरंति महीतले ।"

- अन्दर से शाक्त, बाहर से शैव,सभा मध्य में वैष्णव इसी प्रकार नाना वेशधारी "कौल" समस्त पृथ्वी में विचरण करता है। " ऐसे ही एक कौलाचार्य - श्री महेन्द्रनाथ (वशिष्ठानन्दनाथ) भुवनेश्वरी देवी के दीक्षा-गुरु के आसन पर प्रतिष्ठित हुए।   

यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि दत्त-वंश के अन्य किसी भी व्यक्ति ने 'प्रेमिक' महेंद्रनाथ से दीक्षा नहीं ली थी, और 'संन्यासी विवेकानन्द ' ( संन्यास ग्रहण के बाद नरेन्द्रनाथ का परिचय) वे भी कभी अन्दुल नहीं आये थे। हाँ, फरवरी 1884 के उत्तरार्ध में एक दिन नरेंद्रनाथ दत्त अपने पिता के पारलौकिक कर्तव्यों का निर्वहन करने के उद्देश्य से 'प्रेमिक-आलय ' अवश्य आये थे। (वे जिस स्थान पर बैठे थे -उस स्थल का दर्शन मैंने और गुजरात महामण्डल के कर्मी भाई जितेन्द्र सिंह ने भी दर्शन किया है। ) लेकिन बाद में वे आन्दुल नहीं आये। अतीत में यानी 1879 में और उससे पहले भी वे अंदुल आये होंगे या नहीं , जिसकी सटीक जानकारी मिलना मुश्किल है।

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इसी बीच सात-आठ महीने बीत गये। और विश्वनाथ दत्त ने आशुतोष धर के साथ अपनी साझेदारी समाप्त करके अपने नाम पर एक  'Attorney Office' खोल लिया। घर में आनंद-उत्स्व का कोई अंत नहीं ! तब नया वातावरण था, नरेंद्रनाथ भी ब्रह्म समाज के एक सदस्य थे और प्रेसीडेंसी कॉलेज के प्रथम वर्ष के छात्र थे। संगी-साथी सब अपरिचित थे , वे उस नए परिवेश में अपने को ढाल नहीं पा रहे थे। भोग-विलास, आमोद -प्रमोद के प्रति शुरू से ही स्वाभाविक अरुचि थी। .... इसी समय 1880 के मध्य में, आन्दुल के राजा विजय केशव रॉय (1836-79) की दो पत्नियाँ  - रानी दुर्गासुंदरी और रानी नवदुर्गासुंदरी दोनों निःसन्तान थीं। तब उन्हें 'Privy Council ' के फैसले के अनुसार अलग से एक एक दत्तक पुत्र लेने की अनुमति दी गयी थी। क्योंकि राजा विजय केशव रॉय ने हिन्दू शास्त्रों में वर्णित (Sacramental Marriage) पवित्र विवाह विधान - 'पुत्रार्थे क्रियते भार्या पुत्र: पिण्ड प्रायोजन:' के अनुसार और अपनी पहली पत्नी की सहमति से दूसरा विवाह किया था।  [ 'पुत्र प्राप्ति के हेतु ही भार्या की आवश्यकता है न कि कामवासना को तृप्त करने के लिए' क्योंकि पुत्र के द्वारा ही उत्तर क्रिया सम्पन्न होती है। ... इसी प्रकार पुत्र का सबसे बड़ा कर्तव्य पुन: पुत्र उत्पन्न कर पितृ ऋण से मुक्त होना है। संतान न होने पर दूसरे कुल और परिवार का वह लड़का जो विधिवत् गोद लेकर अपना पुत्र बनाया गया हो या वह संतान जिसे उत्तराधिकारी बनाने के उद्देश्य से गोद लिया गया हो दत्तक पुत्र कहलाता है।

उपरोक्त समाचार को विश्वनाथ दत्त ने अन्दुल राजा के 'State Attorney' तथा अपने मित्र निमाई बाबू के मुख सुना। दोनों मित्र सोच-विचार करके नरेन्द्रनाथ और महेन्द्रनाथ दोनों को दोनों रानियों दत्तक-पुत्र के रूप से देने पर आनंद और उत्साह के साथ एकमत हुए। विश्वनाथ दत्त की सोच से भुवनेश्‍वरी देवी की सोच बिल्कुल अलग थी, इस बात को सुनकर भुवनेश्‍वरी देवी खुश नहीं हुईं । विश्वनाथ ने उन्हें समझाते हुए कहा 'मैंने उनकी जन्म -कुंडली देखी है, नरेन या तो  विश्वविख्यात राजा होगा; और नहीं, तो वह मेरे पिता के मार्ग - संन्यास का अनुसरण करेगा।

महिम (महेन्द्रनाथ) भी नरेन (नरेन्द्रनाथ) के प्रति समर्पित है -दोनों एक-दूसरे के प्रति बहुत स्नेह भी रखते हैं। दोनों को उच्च शिक्षा पाने के पर्याप्त अवसर मिलेंगे - समाज में मान -प्रतिष्ठा अर्जित होगी। आत्मसुधार और उसका प्रयास परिवेश पर निर्भर करता है। स्वामीजी ने अपनी एक कविता  में लिखा है - 

"किसे दोष दूँ ~मैं ही स्वयं अपना साकार अतीत हूँ !

जिसने बड़ी बड़ी योजनायें बनाई थी ;

जैसे संकल्प और जैसी धारणायें थीं -उन्हीं के अनुरूप,

ढल गया है यह जीवन ,

और कोई नहीं , इसके लिए सिर्फ़ मैं ही ज़िम्मेदार हूँ।

No One is To Blame ~ I am my own embodied past ! " 

" Each day in my life I make or  mar, 

Each deed begets its kind,

Good good , bad bad , the tide once set ,

No one can stop or stem ;

No one but me to blame .

I am my own embodied past ! " 

इसी पृष्ठभूमि में 4 सितम्बर, 1880 को भूपेन्द्रनाथ का जन्म होता है। तब विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी दोनों इस बात पर सहमत होते हैं कि नरेन और महिम के बजाय इस नवजात शिशु लड़के (भूपेंद्रनाथ) को दत्तक पुत्र के रूप में दिया जाये। - इसमें कोई विशेष कठिनाई नहीं है। यह सोचकर भुवनेश्वरी देवी ने एक दिन कहा - "ओ नरेन ! तुमने नहीं सुना! भूपेन राजा होगा। आन्दुल के राजा विजय केशव की दोनों रानियाँ मिलकर उसको अपना दत्तक पुत्र के रूप गोद लेने वाली हैं !... पहले तुम्हे और महिम को गोद देने की बात चल रही थी।  " लेकिन भुवनेश्वरी देवी के मुख से यह समाचार सुनने का फल उल्टा हुआ। उन्होंने नाराजगी प्रकट करते हुए कहा - " आप दोनों खासकर पिताजी हम तीनों भाइयों के बारे में क्या सोचते हैं -यह मुझे नहीं पता। लेकिन आपलोग यह बात निश्चित रूप से जान लीजिये कि हमलोगों में से कोई भी भाई किसी का दत्तक पुत्र बनकर अपना भाग्य आजमाने के लिए पैदा नहीं हुए हैं ! " 

        'कालस्य कुटिला गतिः' – अर्थात काल की गति टेढ़ी होती है। "यत् भावो – तत् भवति"  अर्थात्  आप जैसा सोचते हैं वैसा ही बन जाते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य जगत् को उसी रूप में देखता है जैसा कि वह स्वयं होता है। 'यथा दृष्टि तथा सृष्टि'  जैसा आपको इस दुनिया को देखने का नजरिया होगा ये दुनिया आपको वैसे ही दिखेगी। नजर नजर का फर्क है, अब ये आप पर निर्भर करता है आप इस दुनिया को कैसे देखते हैं। स्वंय विचार कीजिए! जो हो - आन्दुल राजमहल द्वारा दत्तक पुत्र लेने का प्रश्न अचानक समाप्त हो गया। विजय केशव के दादा, अंदुल राज द्वितीय काशीनाथ रॉय की बेटी के पुत्र क्षेत्रकृष्ण मित्र (1621-1907) अन्दुल के महाराजा बने। 

       दूसरी ओर स्वाभाविक रूप से भुवनेश्वरी देवी ने थोड़े ही समय बाद चमत्कारपूर्ण ढंग से और दुनियावी दृष्टि से परे अपने प्रथम दो पुत्रों को-  दत्तक के रूप में दे दिया था - उनके पहले दो पुत्रों को श्री श्री रामकृष्ण-सरदादेवी ने विश्व कल्याण के लिए दत्तक रूप से 'गोद' लिया था।1907 में भुवनेश्वरी देवी ने अपने तीसरे पुत्र भूपेन्द्रनाथ को प्रशांत चित्त से - सभी के सामने भारत माता [देशजननी] के गोद में डाल दिया था। उन्होंने कहा था "भूपेन का काम तो अभी शुरू हुआ है। मैंने उसे  देश के लिए समर्पित कर दिया है।" -  (Patriot - Prophet/112: देशभक्त - पैगंबर/112) 

      डॉ दत्त के अंतिम जीवन का उत्कृष्ट योगदान है अन्ततोगत्वा दो लघु कथनों का संग्रह साहित्य " Swami Vivekananda: Patriot- Prophet' (1954)इस पुस्तक को मैंने इसके श्रद्धेय लेखक के हाथों से  3 अगस्त 1955 को  ग्रहण करके, अपने आचार्यदेव शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966), एवं तत्वदर्शी उद्बोधन पत्रिका के सम्पादक श्रीमत स्वामी वासु-देवानंद (1891-1956) महाराज को पढ़ने के लिए समर्पित किया था।मेरे मन के मुताबिक जैसे कोई पुस्तक हाथ लगती थी, उसको पहले पढ़ने के लिए मैं आचार्य शिरीषचन्द्र को ही देता था। और अक्सर उनके द्वारा निर्देशित पुस्तकों को संग्रहित करने की चेष्टा करता था। इस पुस्तक को देने के लिए मैं आचार्यदेव के घर खड़दह जाकर विशेष आग्रह पूर्वक   - 6 अगस्त, शनिवार, 1955 को दे आया था   उस पुस्तक को अक्षरशः पढ़ने के बाद, 11 सितंबर, 1955 को उस पर निम्नलिखित पंक्तियाँ लिख कर वापस कर दिया था -

" A Critique: 

"The test of a great author, says Emerson, is his perpetual modernity. Dr. Datta has it pre-eminently. The appreciative mention of the militant monk of medieval Bengal, Madhusudan Saraswati; the spontaneous homage offered to that redoubtable champion of Western culture -cum-neo- Vedantism of Western culture -cum- neo- Vedantism and social reforms, Raja Ram Mohan Roy; the glowing tribute paid to Lytton's  'genius of the Town Hall ' Keshub Chunder Sen, are only some of the purple passages to be met with in this volume. 

The terse fourteen-page monograph on Ramakrishna Paramahamsa is informing challenging, not of the 'gliding -refined gold' kind; edifying indeed, if not inspiring. Here is a scholarship with no bias toward hero worship. 

In that deft mosaic on Swami Vivekananda, the protagonist of this study reveals the true coup de maitre of the author with all the rounded complexity of a modern mind, which is his own. An old bibliolater will retrieve and resense a plenary inspiration from the perusal of this stimulating tome ......  

["एक समीक्षा : "एमर्सन ने कहा है कि किसी महान लेखक की कसौटी उसकी अनवरत  आधुनिकता है। और डॉ. दत्त इस कसौटी पर बिल्कुल खरे उतरते हैं। उनके पुस्तक में मध्य-कालीन बंगाल के योद्धा संन्यासी मधुसूदन सरस्वती का गुणग्राही उल्लेख; पाश्चात्य संस्कृति के अदम्य हिमायती होने के साथ नव-वेदान्तवाद और सामाजिक सुधारों के उत्साही समर्थक राजा राममोहन राय को दी गई सहज श्रद्धांजलि; Lytton's के 'टाउन हॉल के जीनियस' केशव चंद्र सेन को दी गई शानदार श्रद्धांजलि, इस पुस्तक में मिलने वाले कुछ सनसनीखेज अंश (purple passages) मात्र हैं। 

रामकृष्ण परमहंस पर चौदह पन्नों का संक्षिप्त विशेष लेख (monograph)- किसी चमकीले सोने  'gliding -refined gold' के जैसा नहीं, बल्कि जो चुनौतीपूर्ण जानकारी देता है;वह भले ही प्रेरणादायक न हो, परन्तु वास्तव में शिक्षाप्रद है। यहाँ एक विद्वत्ता है जिसमें नायक पूजा के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं है। स्वामी विवेकानन्द पर इस चतुराईपूर्ण जड़ाऊ काम में, इस अध्ययन के नेता को एक आधुनिक दिमाग की सभी गोल जटिलताओं के साथ लेखक के सच्चे वेदनात्मक प्रहार तख्तापलट को प्रकट करता है, जो उसका अपना है।

 इस प्रेरक ग्रंथ के अध्ययन से कोई भी पुराना ग्रंथ-प्रेमी पूर्ण प्रेरणा प्राप्त करेगा और नयापन  अनुभव करेगा......

31 सितंबर को श्रीमत स्वामी वासुदेवानंद महाराजजी ने कहा -" बिलकुल एक नया विवेकानन्द दिखाई देगा। हर किसी को यह किताब पढ़नी चाहिए।"

अत्रेव शिवम्।

श्री भवदेव बंदोपाध्याय।

9 अक्टूबर, 1980

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2 नवंबर 1980, रविवार को दोपहर में अन्दुल-मौरी विवेकानन्द युवा महामंडल द्वारा आयोजित विजया-सम्मालिनी के अवसर पर उपस्थित सुधिवृन्द को श्री दीपांकर कल्याणी के द्वारा  सुनाया गया।

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[माध्यमिक बँगला के प्रथम महाकवि, जिनके संबंध में हमे कुछ जानकारी है, संभवत: कृत्तिवास ओझा थे (जन्म लगभग 1399 ई.)। संस्कृत रामायण को बँगला में प्रस्तुत करनेवाले (लगभग 1418 ई.) वे पहले लोकप्रिय कवि थे जिन्होंने राम का चित्रण वाल्मीकि की तरह शुद्ध मानव और वीर पुरुष के रूप में न कर भगवान के करुणामय अवतार के रूप में किया जिसकी ओर सीधी सादी भक्तिमय जनता का हृदय सहज भाव से आकर्षित हो सकता था। 

      भूदेव मुखोपाध्याय (1825-94) शिक्षाशास्त्री, गद्यलेखक और पत्रकार थे। समाज और संस्कृति के संरक्षण तथा पुनरुद्धार संबंधी उनके लेखों का आज भी यथेष्ट महत्व है। उनकी रचनाओं को बंगाल पुनर्जागरण के दौर में राष्ट्रवाद और दर्शन का प्रबल प्रदर्शन माना जाता था। उनका उपन्यास अंगुरिया बिनिमोय (1857) बंगला में लिखा गया पहला ऐतिहासिक उपन्यास था। बंकिमचंद्र चट्टोपध्याय बँगला के सर्वश्रेष्ठ लेखक माने जाते हैं। उनका साहित्यिक जीवन अंग्रेजी में लिखित "राजमोहन की स्त्री" नामक उपन्यास (1864) से आरंभ होता है। बँगला में पहला उपन्यास उन्होंने दुगेंशनंदिनी (1865) के नाम से लिखा। 1872 में उन्होंने "बंगदर्शन" नामक साहित्यिक पत्र निकाला जिसने बँगला साहित्य को नया मोड़ दिया। उनके सामाजिक उपन्यासों में "विषवृक्ष" तथा "कृष्णकांतेर विल का स्थान ऊँचा है। उनका "कपालकुंडला" शुद्ध प्रेम और कल्पना का उत्कृष्ट नमूना माना जा सकता है। "आनंदमठ" प्रसिद्ध राजनीतिक उपन्यास है जिसका "वंदेमातरम्" गीत चिरकाल तक भारत का राष्ट्रीयगान माना जाता रहा और आज भी इस रूप में इसका समादर है। उनके उपन्यासों तथा अन्य रचनाओं का भारत की प्राय: सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। आधुनिक बँगला के सर्वप्रसिद्ध उपन्यासकार शरच्चंद्र चटर्जी (1876-1938) माने जाते हैं। सरल और सुंदर भाषा में लिखे गए इनके कुछ उपन्यास ये हैं - श्रीकांत, गृहदाह, पल्ली समाज, देना पावना, देवदास, चंद्रनाथ, चरित्रहीन, शेष प्रश्न आदि।विभाजन के बाद यद्यपि पाकिस्तान सरकार ने प्रयत्न किया कि पूर्वी बंगाल के मुसलमान अपनी भाषा अरबी लिपि में लिखने लगें, पर इसमें सफलता नहीं मिली। मुसलिम छात्रों तथा अन्य लोगों ने इस प्रयत्न का तथा बंगालियों पर उर्दू लादने का जोरदार विरोध किया और बंगलादेश का उदय हुआ।]

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 আন্দুল-মৌড়ির  কাছের মানুষ -

 অবিস্মরণীয় মহান বিপ্লবী ও চিন্তানায়ক : 

Dr. ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত 

(১৮৮০ -১৯৬১) 

বিপ্লবী ডঃ ভুপেন্দ্রনাথ স্মরণে 

क যুগাচার্য স্বামী বিবেকানন্দের কনিষ্ঠ ভ্রাতা ' বিপ্লবী ডক্টর ভূপেন্দ্রনাথ দত্তের সহিত সাক্ষাৎ পরিচয় ঘটে - ১৯২৮ সালে ২১ সে জুলাই , শনিবার অপরাহ্নে। এ দিন তিনি দেশপ্রেমিক 'কথাশিল্পী ' শরৎচন্দ্র চট্টোপাধ্যায় (১৮৭৬-১৯৩৮)প্রবর্তিত -' The Howrah Yubak Sangha (1928)- Mission of Creative Nationalism ' -প্রতিষ্ঠানের Andul -Mauri Branch -এর উদ্বোধন করেন। সংস্থার কেন্দ্রটি ছিল উত্তর -মৌড়ি -'খটি' অঞ্চলে।  

সভাপতি - 'বয়ঃবৃদ্ধ -তরুণ ' বিপিন বিহারি চট্টোপাধ্যায় (বিপ্রনওপাড়া।) ডক্টর শ্রীলালিত মোহন চক্রবর্তী (১৮৯৩) সম্পাদক ; আমি ছিলাম  উঁর সহকারী -দায় -দায়িত্ব ছিল সংঘের আদর্শে উৎসাহী পরিচিত যুবক গণকে সংগঠনের শামিল করা। উদ্যোক্তা ও উপদেষ্টা - পুরনো দিনের নাম-করা কৃত-কর্মা অনান্যসাধারন বিপ্লবী নারায়ন দাস -দে। পৃষ্ঠপোষক ছিলেন অনেকে -মন্মথনাথ হালদার ,ডাক্তার তিনকড়ি ঘোষ, ডাক্তার উপেন্দ্রনাথ পাল, ক্ষেত্রমোহন পাল, শ্রী হরেন্দ্র কৃষ্ণ দাস -ঘোষ, দাশরথি মান্না , মিহিরলাল , সন্ন্যাসী চরণ প্রভৃতি। তরুণদের মধ্যে তুলসীচরণ ঘোষ, শ্রী নীরদবরণ  ঘোষ, শ্রী লক্ষ্মী নারায়ন বন্দোপাধ্যায় , শ্রী জগদীশ চন্দ্র চক্রবর্তী (পঞ্চায়েত প্রধান, দুইলা); শ্রী হরিগোপাল ভট্টাচার্য , শ্রী শ্যামা প্রসন্ন ভট্টাচার্য , ex-MP ; পাঁচুগোপাল তরফদার , রেবতীভূষণ চট্টোপাধ্যায় , ডাক্তার শ্রী ইন্দুভূষণ দাস , দেবীপদ চক্রবর্তী , শ্রীগোপাল চন্দ্র চক্রবর্তী , প্রাসাদ চন্দ্র ঘোষ, শ্রী জয়কেশ মুখোপাধ্যায়, MLA ইত্যাদি। সালকিয়ার দু -জন -কমরেড শ্রী আব্দুল মোমিন (secretary , carters union) এবং দক্ষিণেশ্বরের বোমার মামলায় জড়িত শ্রীসুধাংশু রায়চৌধরী (প্রখ্যাত ভারতীয় Fresco' চিত্রশিল্পী।) শ্রীযুক্ত রায় চৌধরী একবার মাত্র Maoudite এসেছিলেন(১৯৪২।)

সে দিন ডঃ দত্ত মৌরি গ্রাম (তৎকালীন উনসানি )রেলস্টেশনে নেমে আমাদের এই গ্রামের দুর্গম পথে - এক প্রান্ত হতে অপর প্রান্ত , পালকি যোগে যাতায়াত করেন। ... সঙ্ঘের কার্যকলাপ সুষ্ঠ পরিচালনকল্পে সময়-সুযোগমত সন্তর্পনে একাধিক দেশপ্রাণ স্বাধীনতা -সংগ্রামীগনও এসেছেন - বিপ্লবী বিপিনবিহারি গাঙ্গুলি , হৃষিকেশ মুখোপাধ্যায় (পরবর্তীকালে ডমুরদহ উত্মাশ্রম 'এর স্বামী বিজ্ঞানানন্দ) Domjur Bomb Case ' এর ফেরার ধীরেন্দ্রনাথ মুখোপাধ্যায় , রেবতী রঞ্জন চক্রবর্তী (চট্টগ্রাম),সারদা (শরৎ ) বসু (ফরিদপুর) প্রমুখ। সবিশেষ উল্লাহ যোগ্য আদিতে (১৯২৫) ব্রজেন্দ্রনাথ পাল (নদীয়া /সালকিয়া )অন্তে  (১৯৩০-৩১)ডঃ অতীন্দ্রনাথ বসু (ঢাকা) . এঁরা দুজন ই স্বতন্ত্র ভাবে এসেছেন এতদ অঞ্চলে বহুবার -জীবনের শেষ দিনের কয়েক মাস অব্যবহিত পূর্ব পর্যন্ত।

   সংঘের সভ্য গণের সহযোগিতায় ১৯৩১ সালে মে মাসে 'হাওড়া জেলা রাজনৈতিক কর্মী -সম্মেলন ' আহুত হয় - ঊনবিংশ শতাব্দীর আন্দুলের দুর্ঘর্ষ জমিদার মল্লিক বাবুদের বাগানের আবেষ্টনীর অভ্যন্তরে (বর্তমান ওকিংটন সিনেমাসহ -সংলগ্ন চত্বর।) বহু বাধা ও সন্ত্রাসের মধ্যে 'বন্দেমাতরম ' ও 'শিঙ্গাধ্বনি ' সহকারে বিপুল উদ্দীপনার সঙ্গে সম্মিলনী উদ্বোধন করেন 'দেশপ্রিয় ' যতীন্দ্রমোহন সেনগুপ্ত (১৮৮৫ -১৯৩৩।) পান্ডিত্য ও গবেষণাপূর্ন  সভাপতির দীর্ঘ মুদ্রিত ভাষণ পাঠ করেন ' মিরাট -ষড়যন্ত্র '- এর  অন্যতম সহযোগী কমরেড বঙ্কিমচন্দ্র মুখোপাধ্যায়। প্রধান অতিথি -ডঃ KL গাঙ্গুলি।  স্বাগত সম্ভাষণ জ্ঞাপন  করেন পুলিন বিহারি বন্দোপাধ্যায় (ঝাড়হাট ) সভায় তরুণ সম্প্রদায়ের আকর্ষী ব্যক্তিত্বসম্পন্ন বক্তাগণের মধ্যে ভাস্বর বিপ্লবী ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত। সমাবেশের শেষের দিন সন্ধ্যায় 'চারণ -কবি ' মুকুন্দ দাসের যাত্রা অভিনয় জনসাধারণের মধ্যে বিশেষ আনন্দ ও উৎসাহ বর্ধন করে। 

পক্ষান্তরে বৃহত্তর বাংলায় চলছে রাজনৈতিক -দলাদলির উদগ্র আবহাওয়া। প্রতিপক্ষ -'একদিকে ' 'সেনগুপ্ত অনুরাগী ' অনুগামীগন , অপর দিকে 'আপোষহীন সংগ্রামী ' সুভাষচন্দ্রের ' আমূল সংস্কার পন্থী ' তরুনের দল ! সর্বভারতীয় পরিস্থিতি - বিপ্লবীগনের বহুমুখী আপ্রাণ প্রচেষ্টা -প্রয়ত্নের প্রতিকূল, অহিংস-অসহযোগ আন্দোলনে ও 'চরকা -কাটো' যান্ত্রিক আচার -আচরণে দেশের মন বহুলাংশ প্রভাবিত ও বিক্ষিপ্ত ! ..... এমন এক রাজনৈতিক সভায় ড দত্ত এসেছিলেন ১৯৩৮ সালে। এ সময়ে কুন্ডুচৌধুরী বাবুদের বদান্য -পুষ্ট ও পৃষ্ঠপোষকতায় পরিচালিত ' গ্রন্থাগার (১৮৮৬) 'পরিদর্শনে তিনি বিশেষ সন্তোষ লাভ করেন - I have visited the Mohiary Public Library and I am satisfied with what I saw. The Library contains a good collections of old Bengali books and manuscripts. .... I wish success to the Library. (30.10.1938)" পরে তিনি আসেন ১৯৪২ সালে -স্থানীয় উচ্চ ইংরেজি বিদ্যালয়ের শতবার্ষিকী ও প্রাক্তন ছাত্রসম্মিলন উপলক্ষে। ১৯৪১ সালে ভারতবর্ষ স্বাধীন হওয়ার পর তিনি আরও কয়েকবার এসেছেন -বিভিন্ন সাংস্কৃতিক ও রাজনৈতিক সভ্যয়। তিনি ছিলেন নৈষ্ঠিক নৈতিকতাবাদী ; বৈজ্ঞানিক সমাজবাদে বিশ্বাসী। স্বামী বিবেকাননদের জাতীয় আদর্শের অন্যতম শ্রেষ্ঠ তাত্বিক প্রবক্তা ও প্রায়োগিক প্রযোকতা। কিন্তু সভা-সমিতিতে প্রসঙ্গক্রমে স্বামীজীর নামের সঙ্গে তাঁর নাম সংযুক্ত করা তিনি আদৌ পছন্দ করতেন না শুধু নয় , বেশ বিরক্ত হতেন। কারন অতি স্বচ্ছ ও সুন্দর। তিনি বলতেন - " তোদের স্বামীজী , রক্ষণশীল ধর্মপ্রচারক সন্ন্যাসী ; আমার নিকট তিনি ভারতের অদম্য অদ্বিতীয় মুক্তিকামী যোদ্ধা। সামাজিক গণতন্ত্রের অগ্রদূত। অভূতপূর্ব অন্যান্য তন্ত্র মানবতাবাদী। জনগণের অবিসংবাদিত ক্ল্যাকৃত প্রকৃত নেতা। জাতীয়তা ও স্বত্যবোধের আদর্শ মূর্ত  প্রতীক।  সকল আশা -ভরসার অশ্রান্ত অভ্রান্ত দিশারী। "   

প্রসঙ্গত স্বামীজীর সম্বন্ধে রবীন্দ্রনাথের দু-একটি কথা স্মরণ অপ্রাসঙ্গিক হবে না : " গ্রহণ করিবার , মিল করিবার , সৃজন করিবার প্রতিভাই তাঁহার (বিবেকানন্দের) ছিল। ... বিবেকানন্দ বলে ছিলেন , প্রত্যেক মানুষের মধ্যে ব্রহ্মের শক্তি ; বলেছিলেন, দরিদ্রের মধ্যে দিয়ে নারায়ন আমাদের সেবা পেতে চান। এ'কে বলি বাণী।   এই বাণী স্বার্থবোধের সীমার বাহিরে মানুষের আত্মবোধকে অসীম মুক্তির পথ দেখালে। ..ছুঁৎমার্গের বিরুদ্ধতা এর মধ্যে আপনিই এসে পড়েছে , তার দ্বারা রাষ্ট্রিক স্বাতন্ত্রের সুযোগ হতে পারে বলে নয় ,তার দ্বারা মানুষের অপমান দূর হবে বলে , সেই অপমানে আমাদের প্রত্যেকের আত্ম অবমাননা। বিবেকানন্দের এই বাণী সম্পূর্ণ মানুষের উদ্বোধন। .. তা মানুষের প্রাণ মনকে বিচিত্র ভাবে প্রাণবান করেছে। বাংলাদেশে যুবকদের মধ্যে যে সব দুঃসাহসিক অধ্যবসায়ের পরিচয় পাই তার মুলে আছে বিবেকানন্দের সেই বাণী। ...." বিপ্লবী 'নেতাজি ' সুভাষচন্দ্র রের অভিব্যক্তিতে ও রবীন্দ্রনাথের প্রতিধ্বনি -  "I was barely fifteen when Vivekananda entered my life.... His was a type of manhood which appealing in his activity, boundless in his love , profound and versatile in his wisdom, exuberant in his emotions, merciless in his attacks was but yet simple as a child's.He was a rare personality in this world of ours.'  

      বিপ্লবী ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ এর সহিতপরিচিত হওয়ার পূর্বে তাঁর অগ্রজ বিদগ্ধ মহামনা মহেন্দ্রনাথ (১৮৬৯-১৯৫৬) -এর সানিধ্য লাভের সৌভাগ্য হয়েছিল বিষের দশকের প্রথম দিকে। " যিনি ছিলেন বিশ্বনাথ দত্তের নবম সন্তান -তৃতীয় পুত্র। ডঃ দত্ত জন্মগ্রহণ করেন ১৮৮০ সালের ৪ঠা সেপ্টেম্বর, শনিবার। এই দুই মনীষীর, অলঙ্ঘনীয় আকর্ষনে প্রায়ই -যে কোন অজুহাতে, খেতাম ৩ নম্বর গৌরমোহন মুখার্জি স্ট্রিট।  বিগত ১৯৩৮ -৩৫ অবধি খুবই যাওয়া -আসা ছিল শিমুলিয়ার দত্ত বাড়িতে।        

          সুদীর্ঘ সতেরো বৎসরকাল আমেরিকা , জার্মানি , রাশিয়া , প্রভৃতি দেশে শিক্ষা-দীক্ষা শেষ করে নির্বাসিত বিপ্লবী ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ দত্ত ১৯২৫ সালে কলকাতায় ফেরেন ; গ্রন্থ প্রণয়ন ও কৃষক -শ্রমিক সংগঠনে মনোনিবেশ করেন ভারতীয় সংস্কৃতির প্রতিরক্ষায় -সাহিত্যে স্বামী বিবেকানন্দের প্রদর্শিত ইতিহাস ও বিজ্ঞান ভিত্তিক প্রগতিবাদের অনুসরণ কারীগণ এর মধ্যে ত্রিশ-দশকের খ্যাতনামা - সকল সঙ্কীর্ণতা ও ঈর্ষ্যমুক্ত সাহিত্যিক ডঃ দত্ত।  তিনি কিন্তু কোন রাজনৌতিক সংস্থার সঙ্গে স্থায়ী ভাবে সংযুক্ত থাকতে পারেন নি। জার্মানিতে থাকা কালীন বিপ্লবী ভুপেন্রনাথ ভারতীয় বিপ্লবীগনের ' Berlin কমিটি' র সম্পাদকের কার্যভার গ্রহণের সঙ্গে এ সংস্থার মুখপত্র সাপ্তাহিক  'Independence dance' এর সম্পদনায় নিযুক্ত হন (১৯১৬-১৮.) ১৯২১ সালে তিনি রাশিয়ায় ' Comintern' এ যোগদানের সুযোগ পান।  মহাত্মা লেলিনের ? সহিত ব্যক্তিগত ভাবে পরিচয় ও আলাপে বিশেষ অনুপ্রাণিত হন।১৯৮১ সালে কলকাতায় স্থাপিত ' Friends of the Soviet Union ' সংস্থার প্রথম সভাপতির পদে বৃত হন ডঃ দত্ত। 

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পঞ্চাশের দশকে ডঃ দত্ত প্রত্যহ বিকালে পদচারণ করতেন 'হেদুয়ায় ' পুষ্করণী পরিক্রমা করে। এক হাতে লাঠি - অপর হাতটি কোন অনুগত অনুগামীর স্কন্ধে ; নানা অনুসন্ধিস -রত ! এক জনের পর একজন - নিত্য নুতন -পুরাতন দল-মতনির্বিশেষ অনুরাগী উৎসাহী বৃন্দ এর সহিত দেখা -সাক্ষাৎ - আলাপ -পরিচয় -জিজ্ঞাসাবাদ -দেশবিদেশের রাজনৌতিক সামাজিক অর্থনৈতিক আলোচনায় অনন্ত দু -ঘন্টা অতিবাহিত হলে বাড়ি ফিরতেন। এমন একদিন বেড়াতে বেড়াতে (১৯৫২-৫৩ সাল) হঠাৎ আমাকে প্রশ্ন করলেন -" তোর তো আন্দুল বাড়ি।  রাজাদের ইতিহাস জানিস ? তোদের কালী-কীর্তনের 'প্রেমিক ' মহারাজ ছিলেন আমার মা'র গুরুদেব।  আমি -ই আন্দুলের রাজা হাতেম ! " 

    সচকিত সবিস্ময়ে বল্লাম - " না , এ সব কোন কোথাই -ঘুণাক্ষরে কোন দিনই কাহারও নিকট কিছুই শুনি -নি। " 

-অবশ্যই এ সকল কাহিনী সম্বন্ধে ডঃ দত্ত মোটেই পর্যক্ষভাবে পরিজ্ঞাত ছিলেন না ; শুনে ছিলেন -তাঁর মাতা ঠাকুরানী র নিকট - বয়ঃ বৃদ্ধির সঙ্গে সঙ্গে ও পরিস্থিতির পরিপেক্ষিতে।   

দিগ্দর্শনে প্রতিভাত - একদিকে শিমুলিয়ার দত্তবংশ , অপর দিকে আন্দুলের রাজপরিবার ও 'প্রেমিক মহারাজ ' এবং পরবর্তীকালে (১৮৯৮) প্রেমিক মহারাজ তথা তাঁর 'কালী-কীর্তন সমিতি ' ও বেলুড় মঠ - পারস্পরিক যোগাযোগ সম্বন্ধে সম্প্রীতি এক অম্লান গঠনঘন এতিহ্য। ঊনবিংশ শতকের প্রথম ভাগে আন্দুল -রাজবাটী হতে প্রকাশিত 'কায়স্থ -কৌস্তুভ ' এ উল্লেখ্য তদানী অভিজাত সমৃদ্ধিশালী কায়স্থ কুল তিলক গনের মধ্যে ডঃ দত্তের প্রপিতামহ রামমোহন অন্যতম। ইনি ' Supreme Court ' এর জনৈক ইংরেজ অটোরিনি র সহকারী ছিলেন।  এর লব্ধ প্রতিষ্ঠিত ব্যবহার জিবি উদারনীতি পৌত্র - বিশ্বনাথ দত্ত (১৮৩৫-৮৪), আন্দুলের রাজবাটী সকল অনুষ্ঠান -উৎসবে -বিশেষতঃ উচ্চাঙ্গ -সংগীতের মজলিসে যথারীতি আমন্ত্রিত হয়ে আসতেন সগোওষ্ঠী ও বন্ধুবর এটর্নি নিমাই চারণ বোট সম ভি ব্যাহারে।    

বিশ্বনাথ দত্ত কিছুদিন রায়পুর (মধ্যপ্রদেশ) বসবাস করেন ১৮৭৭ সালের মধ্যে ভাগে ১৮৭৯বসলে আগস্ট ? পর্যন্ত।  গৃহে প্রত্যাগমনের পর ভুবনেশ্বরী দেবী 'দীক্ষা ' গ্রহণে বিশেষ আগ্রহবনীতা হন। দত্ত বংশের পরম্পরাগত কুলগুরু অসমর্থতা ব্যক্ত করেন। সম্প্রতি আন্দুলের মহেন্দ্র নাথ ভট্টাচার্য (১৮৯৫-১৯০৯), কবিরত্ন পূর্ণাভিষিক্ত হয়েছেন তাঁকে আমার কথা বলে দেখতে পারো। আশা করি তিনি এ কার্যভার গ্রহণ সামর্থ হবেন।

    তদ্ অনুসারে ই লব্ধ কীর্তি 'কৌলাচারী ' -

" अन्तःशक्ता वहिः शैवाः सभायां वैष्णवा मताः।  

नाना वेशधराः कौला विचरंति महीतले ।

अन्दर से शाक्त, बाहर से शैव,सभा मध्य में वैष्णव इसी प्रकार नाना वेशधारी "कौल" समस्त पृथ्वी में विचरण करता है। কুল অবধূত মহেন্দ্রনাথ (বশিষ্ঠানন্দ নাথ) ভুবনেশ্বরী দেবীর দীক্ষা-গুরু আসনে অধিষ্ঠিত হন। এক্ষণে বিশেষ স্মর্তব্য। দত্ত বংশের অপর কেউ 'প্রেমিক ' মহেন্দ্রনাথ নিকট দীক্ষা গ্রহণ করেন নি এবং সন্ন্যাসী বিবেকানন্দ ও আন্দুলে কোনও দিন ই আসেন নি। 'প্রেমিক ' আলয়ে এসে ছিলেন নরেন্দ্রনাথ দত্ত -১৮৮৪ সালের ফেব্রুযারী মাসের শেষভাগে কোন এক দিন , তাঁর পিতার পারলাউকিক কর্তব্য। পরে কিন্তু তিনি আর আসেন নি। অতীতে অর্থাৎ ১৮৭৭ সালে ও তার পূর্বে তিনি আন্দুল এসে থাকতে পারেন , যার সঠিক তথ্য কঠিন।   

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ইতিমধ্য সাত-আট মাস অতীত হয়ে গিয়েছে। আশুতোষ ধরের  সহিত পার্টনারশিপ সমাপ্ত করে বিশ্বনাথ দত্ত স্বনামে এটর্নি অফিস খুলেছেন। গৃহে আনন্দ উৎসবের অন্ত নেই ! ব্রাহ্মসমাজ ভুক্ত নরেন্দ্রনাথ তখন প্রেসিডেন্সি কলেজের প্রথম বার্ষিক শ্রেণীর ছাত্র। নুতন পরিবেশ। এই সময় ১৮৮০ সালের মাঝামাঝি আন্দুলের রাজা বিজয়কেশব রায় (১৮৬৬-৭৯) এর দুই নিঃসন্তান স্ত্রী -রানী দুর্গাসুন্দরী ও রানী নব -দুর্গাসুন্দরী উভয়ই " Privy Council ' এর রায় অনুসারে পৃথক পৃথক একটি পোষ্যপুত্র গ্রহণের অনুমতি পান। যেহেতু রাজা বিজয়কেশ্ব দ্বিতীয় স্ত্রী গ্রহণ করে ছিলেন তাঁর প্রথম স্ত্রী সযোগিতা ও সম্মতি ক্রমে এবং হিন্দু শাস্ত্রোক্ত বিধিবদ্ধ নীতি নিয়মানুযায়ী (Sacramental Marriage)  - 'পুত্রার্থে ক্ৰিয়তে ভার্যা। ...' पुत्रार्थे क्रियते भार्या ' ['पुत्रार्थे क्रियते भार्या पुत्र: पिंड प्रायोजन:' पुत्र प्राप्ति के हेतु ही भार्या की आवश्यकता है न कि कामवासना को तृप्त करने के लिए और पुत्र के द्वारा ही उत्तर क्रिया सम्पन्न होती है। ... इसी प्रकार पुत्र का सबसे बड़ा कर्तव्य ही पुन: पुत्र उत्पन्न कर पितृ ऋण से मुक्त होना है। विवाहिता सवर्णा स्त्री के गर्भ से जिसकी उत्पत्ति हुई हो वह 'औरस पुत्र' कहलाता है । औरस ही सबसे श्रेष्ठ और मुख्य पुत्र है । संतान न होने पर दूसरे कुल और परिवार का वह लड़का जो विधिवत् गोद लेकर अपना पुत्र बनाया गया हो या वह संतान जिसे उत्तराधिकारी बनाने के उद्देश्य से गोद लिया गया हो दत्तक पुत्र कहलाता है। ] 

উক্ত সংবাদ বিশ্বনাথ দত্ত রাজ্ -স্টেটের এটর্নি নিমাইবাবু নিকট শোনা মাত্রই আকৃষ্ট হন এবং মন্তব্য বিষয়ের গুরুত্ব প্রতি মনোনিবেশ করেন।  দুই বন্ধু (বিশ্বনাথ ও নিমাইচরণ) নরেন্দ্রনাথ ও মহেন্দ্রনাথ উভয়কেই দুই রানীর দত্তক রূপে দেয়া উপযুক্ততা সম্বন্ধে সানন্দে ও সাহোৎসাহে নিঃসন্দেহে একমত হন। বিশ্বনাথের চিন্তাধারা ও ভুবনেশ্বরী দেবীর চিন্তাধারা সম্পূর্ণ ভিন্ন , শুনে ভুবনেশ্বরী দেবী নারাজ হলেন। বিশ্বনাথ বললেন 'আমি ওদের রাশিচক্র গ্রহযোগ দেখেছি , নরেন বিশ্ববিখ্যাত রাজা হবে ; আর তা না হলে ও আমার পিতার পথ অনুসরণ করবে। মহিম ও নরেনের বিশেষ অনুগত ও অনুরক্ত -পরস্পর খুবই স্নেহপূর্ণ।  দুজন ই পড়াশুনা ও যথেষ্ট সুযোগ পাবে - সমাজে সুনাম প্রতিষ্ঠা সার্জন হবে।  সংস্কার ও প্রয়াস পরিবেশ -নির্ভরশীল। প্রতিকূল ভবিতব্যে র ক্ষণ বর্তমানের আঙিনার পরিবেশের গর্ভেই তাঁর জন্ম -

किसे दोष दूँ  ? अपने अतीत के अनुरूप मैं एक देहधारी आत्मा  हूँ ! "   ("I am an embodied soul in accordance with my past!") 

" Each day in my life I make or  mar, 

Each deed begets its kind,

Good good , bad bad , the tide once set ,

No one can stop or stem ;

No one but me to blame .

I am my own embodied past ! " 

क দুজন একমত হন যে নরেন ও মহিমের পরিবর্তে নবজাত শিশুপুত্র (ভূপেন্দ্রনাথ)কে দত্তক দেওয়া। - এ তে বিশেষ অসুবিধা নেই। ভুবনেশ্বরী দেবী একদিন বললেন - " ও ! নরেন তুই শুনিস নি ! ভূপেন রাজা হবে। আন্দুলের রাজা বিজয় কেশব এর রানী দ্বয় ওরে পুষ্যি নেবে। কিন্তু নরেন্দ্র বিরোধ করলেন। कालस्य कुटिला गतिः – अर्थात काल की गति टेढ़ी होती है।"यत् भावो – तत् भवति"  अर्थात्  आप जैसा सोचते हैं वैसा ही बन जाते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य जगत् को उसी रूप में देखता है जैसा कि वह स्वयं होता है। यथा दृष्टि तथा सृष्टि।  जैसा आपको इस दुनिया को देखने का नजरिया होगा ये दुनिया आपको वैसे ही दिखेगी। नजर नजर का फर्क है, अब ये आप पर निर्भर करता है आप इस दुनिया को कैसे देखते हैं।स्वंय विचार कीजिए!] আন্দুল রাজবাড়ির র দত্তক পুত্র প্রশ্নের পরিসমাপ্তি হয়ে গেলো আকস্মিক ভাবে। অন্য্ ধারায় বিজয় কেশবের পিতামহ দ্বিতীয় আন্দুল রাজ্ কাশীনাথ রায়ের কন্যার পুত্র ক্ষেত্ৰকৃষ্ণ মিত্র (১৬২১-১৯০৭) মহারাজ হন। 

পক্ষান্তরে প্রাকৃত পক্ষে ভুবনেশ্বরী দেবীর স্বল্পকাল পরে তাঁর তিন পুত্র সন্তানকেই দত্তক দিয়েছিলেন ; অলৌকিকভাবে - লোকচাকচুর অন্তরালে ! প্রথম দুই পুত্রকে বিশ্বকল্যানে শ্রী শ্রী রামকৃষ্ণ -সারদাদেবী 'দত্তক ' গ্রহণ করেন। ১৯০৭ সালে ভূপেন্দ্রনাথ কে ভুবনেশ্বরী সগোচরে প্রশান্ত চিত্তে দত্তক দিলেন দেশজননী কে. " Bhupen's work has just begun. I have dedicated him to the cause of the country." - (Patriot - Prophet/112) পরিশেষে ডঃ দত্তের শেষ জীবনের অনবদ্য অবদান - " Swami Vivekananda: Patriot- Prophet' (1954) সম্বন্ধে দুইটি সক্ষিপ্ত উক্তি-সংকলন। পুস্তক খানি ১৯৫৫ সালে ৩ রা আগস্ট শ্রদ্ধেয় গ্রন্থকারের নিকট হতে সংগ্ৰহ করি এবং পাঠ্য উদ্দেশ্যেই প্রথম দিয়ে দুই পরম পূজনীয় আচার্য দ্বায় - শিরিশচন্দ্র মুখোপাধ্যায় (১৮৭৩-১৯৬৬) মহাশয় ও তাত্বদর্শী উদ্বোধন' সম্পাদক শ্রীমৎ স্বামী বাসুদেবানন্দ (১৮৯১-১৯৫৬) মহারাজ।  মনোমত কোন নুতন পুস্তক সংগৃহিত হলে অগ্রে পড়ার জন্য আচার্য শিরিষ চন্দ্র কে দিতাম। এবং অনেক সময় তাঁর নির্দেশমত পুস্তক সংগ্রহ করতে চেষ্টা করতাম .এই পুস্তক খানি আচার্য দেবের খড়দহ এর বাড়ি গিয়ে তাঁকে 'বিশেষ আগ্রহ সহকারে ' দিয়ে আসি - ৬ই আগষ্ট , শনিবার। পুস্তক খানি পুঞ্চানুপুঞ্চ রূপে পাঠান্তে তিনি ১১ই সেপ্টেম্বর উহাতে নিম্নলিখিত বক্তব্য লিখে ফেরত পাঠান

" A Critique: "The test of a great author, says Emerson, is his perpetual modernity. Dr. Datta has it pre-eminently . The appreciative mention of the militant monk of medieval Bengal, Madhusudan Saraswati; the spontaneous homage offered to that redoubtable champion of Western culture -cum-neo- Vedantism of Western culture -cum- neo- Vedantism and social reforms, Raja Ram Mohan Roy; the glowing tribute paid to Lytton's  'genius of the Town Hall ' Keshub Chunder Sen, are only some of the purple passages to be met with in this volume. 

The terse fourteen-page monograph on Ramakrishna Paramahamsa is informing challenging , not of the 'gliding -refined gold' kind; edifying indeed, if not inspiring. Here is a scholarship with no bias toward hero worship. 

In that deft mosaic on Swami Vivekananda, the protagonist of this study reveals the true coup de maitre of the author with all the rounded complexity of a modern mind, which is his own. An old bibliolater will retrieve and  resense a plerrary inspiration from the perusal of this stimulating tome ......

৩১ শে সেপ্টেম্বর শ্রীমৎ স্বামী বাসুদেবানন্দ মহারাজজি বললেন -

 " This is a new Vivekananda . Everyone should read this Book." 

অত্রৈব শিবম।  

শ্রী ভবদেব বন্দোপাধ্যায়। 

৯ই অক্টোবরম, ১৯৮০ 

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২রা নভেম্বর ১৮৯০, রবিবার , অপরাহ্নে আন্দুল -মৌরি বিবেকানন্দ যুব মাহামন্ডল ' -আয়োজিত বিজয়া -সম্মলিনী উপলক্ষে সমাযত  সুধিবৃন্দ সমক্ষে শ্রীযুক্ত দীপঙ্কর কল্যাণী কৃতক পঠিত। 

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  "দেশকে উন্নত করিতে হইলে নীরবে কর্ম করিয়া  তিল তিল করিয়া বিভিন্ন প্রতিষ্ঠান সংঠন করিয়া তাদ্বারা দেশোন্নতি করিতে হইবে। .... যাঁহারা নেতৃত্ব স্থানীয় অথবা 'নেতা ' হইবার চেষ্টা করিতেছেন তাঁহাদের মনোগতি দেখিয়া বোধ হয় exploitation (শোষণ) নীতিই যেন তাহাঁদের মূলমন্ত্র। ... এই জন্যেই দলাদলি। .. জোট পাকানো প্রভৃতি স্বদেশ সেবায় পন্থারূপে পরিণত হইয়াছে। "- ডঃ দত্ত 

জ্ঞান সব সময়ে বিদ্যালয়ের মাধ্যমে পাওয়া যায় না। বিদ্যালয়ের শিক্ষা প্রণালী ছাত্ররের চিন্তাধারায় শুধু একটি শৃঙ্খলা আনিয়া দেয় মাত্র। শাসক শ্রেণীর নির্দিষ্ট নীতি অনুযায়ী বিদ্যালয়ের goose step পদ্ধতিই শিক্ষা হয়। সেইজন্যে জ্ঞান আহরণ করিতে হয় বাইরে হইতে।  ... বর্তমান ভারতের চিন্তা ক্ষেত্রে বিপ্লবের প্রয়োজন এবং সেইখানেই রহিয়াছে গ্রন্থগারের বিশিষ্ট স্থান। 

ডঃ দত্ত   

" মতামতন্ত্রে আসে যায় কি ? -কর্ম কর্ম even unto death . দুর্বল গুলোর কর্মবীর মহাবীর হতে হবে - টাকার জন্যে ভয় নাই টাকা উড়ে আসবে। ... ক্ষুধিতের পেটে অন্ন পৌচ্ছাতে যদি নাম ধাম সব রসাত টলেও  যায় -अहो भाग्यमहो भाग्यं' পুঁতি পাত্রা বিডিএমইদ্যে , যোগ ধ্যান জ্ঞান - প্রেমের কাছে সব ধূলিসামান এই তো পূজা , নরনারী - শরীরধারী প্রভুর পুজো , আর যা কিছু-तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ 'वह' जो वाणी के द्वारा अभिव्यक्त नहीं हो पाता, जिसके द्वारा वाणी अभिव्यक्त होती है, 'उसे' तुम 'ब्रह्म' जानो, न कि इसे जिसकी मनुष्य यहाँ उपासना करते हैं। (কেন উপনিষদ -৪ ) ... it is through the heart and that alone , that the world can be reached ."

 - स्वामी विवेकानन्द  

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বিপ্লবী ডঃ ভূপেন্দ্রনাথ দত্তের স্বদেশ সেবায় - 

স্বাজাত্যবোধ  বনাম জাতীয় সঞ্চারিত মর্মবাণী 

এক জাতীয়তার একটি বড় মনস্তাত্বিক কথা হইতেছে common mind (এক মন) হওয়া চাই। এক ম না হইলে লোকে একতা অনুভব করে না। এই জন্যে ঋগ্বেদে বলিয়াছে - " সামানী ব আকুতিঃ সমানা  হৃদয়ানি বঃ" এই অনুভূতির পশ্চাতে আছে sentiment . এই ভাব প্রবণতার পিছনে আছে স্বার্থ।  ব্যক্তি বিশেষের জড়িত স্বার্থ এক ধরনের ভাব প্রবণতা সৃষ্টি করে। এই ভাব প্রবণতা এক জাতীয়তার প্রধান উপাদান।   

... এক জাতীয়তা উদ্দত হইবার জন্যে এক রক্তের , এক ধর্মের লোকসমষ্টি হওয়ার প্রয়োজন নাই। মার্কসীয় ব্যাখ্যা  অনুসারে ভারতে সম ঐতিহাসিক কৃষ্টির একতা রহিয়া ছে।  তাহাদের ভাগ্য ও এক সূত্রে গ্রথিত। এক্ষেত্রে  তাহারা যদি বোঝে তাহাদের স্বার্থ এক তাহা হইলে একজাতীয়তা।  অর্জনে কোন বিঘ্ন নাই। স্বীজের লাইন্ড এই সত্যের সার্থক উদাহরণ। স্বাধীন রাজ্য বাহ্য আকৃতিতে জাতীয় national হলেই পর্যাপ্ত হইবে না , তাহার অভ্যন্তরীণ দ্রব্য সমূহ সশ্লিষ্ট হওয়া চাই তাহা না হইলে সামাজিক ও সাম্প্রদায়িক কলহ সমূহের অবসান হইবে না। বর্তমান স্বাধীন ভারতের বহুঘষিত সোশালিস্ট পেট্রন রাজনৈতিক আদর্শের মর্যাদা রক্ষা করা সম্ভব হইবে না। 

India always had a common cultural evolution since the days of the Gupta Empire . Racial feeling, as understood today in the occidental  imperialist sense , never existed in India . Today, India though truncated again , is under a common historical-cultural evolution . Here it should be remembered that those of India who considerd themselves  to be  different, in communities of interest and fate , have gone out of Bharat .

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