Introduction : 'https://www.youtube.com/@akhilbharatvivekanandayuva5663'
परिचय : 👆 यह चैनल अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल , 6/1 ए जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो, कोलकाता - 700009 का आधिकारिक यूट्यूब चैनल है।
यह चैनल स्वामी विवेकानन्द की चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा को विशेष रूप से युवाओं के बीच प्रचारित करने के प्रति समर्पित है। स्वामी विवेकानन्द के पास भविष्य के एक विकसित और श्रेष्ठ भारत का एक महान स्वप्न था तथा उस परिकल्पना को साकार रूप देने के लिए उन्होंने एक मास्टर प्लान भी तैयार किया था। उनके मास्टर प्लान का केन्द्रीय विचार था सभी देशवासियों के लिए सच्ची शिक्षा के द्वारा अच्छे नागरिक और प्रबुद्ध नेताओं (3'H's विकसित)-'enlightened Leaders' का निर्माण करना; जिसके पास तीक्ष्ण बुद्धि संपन्न मस्तिष्क (Head) और फौलादी मांस-पेशीयों वाले शरीर (Hand) के साथ अनन्त तक विस्तृत एक ऐसा ह्रदय (Heart) भी होगा जो करोड़ों देशवासियों के लिए रोता हो और उनके दुःख-तकलीफ को दूर करने की तीव्र व्याकुलता से भरा हुआ हो ! स्वामीजी का विश्वास युवा पीढ़ी, नई पीढ़ी में था। वे कहते थे - मेरे कार्यकर्ता इनमें से आएंगे और वे सिंहों की भांति समस्त समस्याओं का हल निकाल लेंगे। तथा उस 'सिंहत्व ' को प्राप्त कर भयशून्य हो जाने- के लिए उन्होंने युवाओं को 'तत्वविज्ञान' (Metaphysics) की पर्याप्त शिक्षा भी दी थी। स्वामीजी का स्वप्न था कि उन्हें 1000 तेजस्वी युवा (प्रबुद्ध पैगंबर-नेता) मिल जाएं तो वह भारत को विश्व शिखर पर पहुंचा सकते हैं। [He rested all his hope in the younger generations – and gave all the ingredients needed to make lions out of them.] स्वामी विवेकानन्द की उसी भयशून्य मनुष्य बनने वाली जीवन-गठन और चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा को साकार रूप देने के लिए महामण्डल विगत 57 वर्षों से (1967 से) युवाओं के बीच साप्ताहिक-पाठचक्र, युवा -प्रशिक्षण शिविर तथा सेमिनार आदि विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से चुपचाप काम करता चला आ रहा है। इस समय भारत के विभिन्न राज्यों में इसके 300 से अधिक केन्द्र क्रियाशील हैं। 'सारदा नारी संगठन' इसका सहयोगी संगठन ( sister organization) है जो उन्हीं सब कार्यक्रमों (साप्ताहिक-पाठचक्र तथा युवा -प्रशिक्षण शिविर, सेमिनार आदि) के माध्यम से महिलाओं के बीच काम करती है।
=========
https://www.youtube.com/@akhilbharatvivekanandayuva5663/featured
The official YouTube Channel of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal, 6/1 A Justice Manmatha Mukherjee Row, Kolkata - 700009
This channel is dedicated to propagating the man-making and character-building ideas of Swami Vivekananda, especially among the youths in India. Swami Vivekananda had a great vision of Future India and formulated a Master Plan to actualize it. The central idea in his Master Plan was true education for all, for making good citizens, and leaders, with developed brains and brawn – and a heart that bleeds for the teeming millions. He rested all his hope in the younger generations – and gave all the ingredients needed to make lions out of them. Following his advice, Mahamandal has been working silently among young men to shape their lives and character through various programs since 1967. Now it has grown to nearly 300 units spread over several states of India. Its sister organization, Sarada Nari Sangathan, works among women with the same program.
==========
https://www.facebook.com/abvym
परिचय - महामण्डल युवाओं का एक अखिल भारतीय संगठन है। यह संगठन भविष्य के भारत को महान, विकसित और श्रेष्ठ बनाने के उद्देश्य से स्वामी विवेकानन्द के मनुष्य-निर्माण और जीवन-गठन की 'शीक्षा' (अर्थात उपनिषदों में वर्णित सिंहत्व प्राप्त भयशून्य मनुष्य बन जाने की शिक्षा) का प्रचार-प्रसार विशेष रूप से युवाओं के बीच करने का काम करता है। इसका आदर्श वाक्य है: Be and Make. (कम से कम 1000 तेजस्वी या निःस्वार्थी मनुष्य बनो और बनाओ।)
Introduction - Mahamandal is an all India organization of youth. To make the future India developed and great, this organization works to propagate the Life-building and Man-making education of Swami Vivekananda among the youth. Its motto is: Be and Make.
* * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
14 अगस्त 1947 : " गंगार काछेई आमादेर बाड़ी। पश्चिम पाड़े सूर्य अस्त जाच्छे। मने मने बोललाम -'पराधीन भारतवर्षे शेष सूर्य तुमि अस्ते जाछौ। काल यखन तुमि पूर्व आकाशे उदित होबे, तखन भारतबर्ष स्वाधीन !"
~ "हमारा (पूज्य नवनीदा का, पैतृक निवास, भुवन -भवन, खड़दह,) घर गंगा के निकट है। उस दिन पश्चिमी तट पर सूर्य अस्त हो रहा था । और मैं अपने-आप से बातें कर रहा था - 'हे सूर्य देव ! आज आप पराधीन भारत के अंतिम सूर्य के रूप में अस्त अवश्य होंगे; किन्तु कल जब आप पूर्वी आकाश में उगेंगे, तब -तक भारत माता स्वतंत्र हो चुकी होगी।"
**************************
प्रश्न: स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा- Be and Make को वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अभी तक लागु क्यों नहीं किया गया?
उत्तर : श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय .................स्वामी जी ने बहुत कुछ कहा, और बहुत कुछ लिखा भी है। किन्तु जिस एक सन्देश 'Be and Make' - अर्थात स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो' के ऊपर हमलोग विगत 57 वर्षों से दिलो-जान से काम कर रहे हैं, मुझे इसके विषय में महामण्डल गठित होने से पहले कहीं और सुनने का सौभाग्य नहीं मिला है। स्वामी जी ने ऐसा बहुमूल्य उद्घोष किया, और केवल इस 'एक सन्देश' को क्रियान्वित करने का कितना महत्व है, उसके विषय में जो कुछ कहा है; वह हमने कम से कम महामण्डल के गठित होने से पहले तो नहीं सुना था। मुझे नहीं पता कि किसी और ने सुना है या नहीं।
इस समय जो लोग देश चला रहे हैं, जो लोग देश की नई शिक्षा नीति बना रहे हैं, क्या उन लोगों ने कभी 'मनुष्य -निर्माण' करने की आवश्यकता पर कभी कुछ सोचा है, क्या इस छोटे से महा-वाक्य 'Be and Make' के बारे में उनके अपने कुछ विचार हैं? क्या उन्हें यह बात मालूम है कि 'मनुष्य' बनना पड़ता है, या निःस्वार्थपर मनुष्य हुआ जा सकता है? 'शिक्षा में सुधार' - के नाम पर वे क्या कर रहे हैं ? .....नये नये स्कूल, कॉलेज , यूनिवर्सिटी खोल रहे हैं और वहाँ नये -नये विषय के संकाय (faculty) शुरू करके सिलेबस बढ़ाते जा रहे हैं। क्या वे जानते हैं कि 'शिक्षा' किसे कहते हैं? चाहे केन्द्र हो या राज्य शिक्षा का हाल हर जगह एक जैसा है।
तुम 'शिक्षा व्यवस्था' के विषय में स्वामी विवेकानन्द के क्या विचार थे यह जानना चाहते हो, किन्तु स्वामीजी के सम्बन्ध में कौन जानते हैं ? भारतवर्ष में कितने लोग जानते हैं कि स्वामीजी क्या थे? देश चलाने वाले नेताओं, मंत्रियों, नौकरशाहों (bureaucrats) में से कितने लोग ऐसे हैं जो स्वामी विवेकानन्द के बारे में जानते हैं?
बुरा मत मानना भाई; आजकल सुनने को मिलता है - गांधी जी ने कहा था, 'स्वामी जी की रचनाएँ पढ़कर उनका देश-प्रेम हजार गुना बढ़ गया।' उन्होंने इतना केवल कहा भर था। एक बार गाँधी जी स्वामी जी से मिलने बेलूर मठ में आये थे। किन्तु स्वामी जी उस दिन मठ में नहीं थे। चूँकि उन दिनों आज के जैसा मोबाइल फ़ोन या ईमेल की सुविधा नहीं थी, इसलिए वे अपने आने की पूर्वसूचना नहीं दे सके थे। लौटते समय उन्हें आगंतुक पुस्तिका (visitor's book) में कुछ लिखना था तो उन्होंने वही एक पंक्ति लिख दी। लेकिन, क्या कोई यह बता सकता है कि उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के किस विचार (impression) को भारत में प्रचार-प्रसार करने की चेष्टा की थी ?
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नाम को उनके लोग बिल्कुल.....उन्होंने भारत की पुनः खोज की और 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' नामक एक पुस्तक लिखी। He rediscovered India and wrote a book called 'Discovery of India!'. देश के तथाकथित पढ़े-लिखे बड़े-बड़े नेता देश में तो पढ़ते ही थे ,विदेशों में भी 'बैरिस्टरी' पढ़े हैं। लेकिन नए भारत के निर्माताओं की खोज करते समय नेहरू की दृष्टि स्वामी विवेकानन्द पर पड़ी ही नहीं। उस पुस्तक में स्वामी जी का नाम नहीं था। तुमलोग हंस तो रहे हो, लेकिन यही सच है। उस समय के एक संन्यासी ने रामकृष्ण मिशन के तत्कालीन अध्यक्ष (12 वें अध्यक्ष श्रीमत स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज ?.....) को यह पुस्तक पढ़ने के लिए दी थी, फिर कुछ दिनों बाद उन्होंने महाराज से आकर पूछा - 'महाराज क्या आपने वह पुस्तक पूरी पढ़ ली है ? महाराज ने कहा मैंने पढ़ लिया है।' संन्यासी प्रेसिडेन्ट महाराज की प्रतिक्रिया जानने के लिए उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करने लगे। महाराज का उत्तर बहुत संक्षिप्त था, उन्होंने ने कहा-‘‘Nehru is yet to discover India, भारतवर्ष के आविष्कार करते नेहरूर एखनो समय लागबे।’’- भारत की खोज करने में नेहरू को अभी और समय लगेगा।"
उनके बाद स्वामी रंगनाथानन्द जी महाराज रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष बने। बहुत से लोग यह जानते होंगे कि स्वामी विवेकानन्द के बाद, यह स्वामी रंगनाथनन्द ही थे जिन्होंने ने अपने भाषणों से पूरे विश्व के Intellectual World को हिलाकर रख दिया था और बाद में स्वामी रंगनाथनन्द रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष बने। बहुत से लोग यह जानते होंगे कि स्वामी विवेकानन्द के बाद यह स्वामी रंगनाथानन्द ही थे जिन्होंने अपने भाषणों से पूरे विश्व के 'Intellectual World' को एक बार फिर से झकझोर दिया था।
जब स्वामी रंगनाथानन्द जी दिल्ली रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष थे, तब कई अन्य लोगों की तरह, जवाहरलाल नेहरू भी महाराज से मिलने आते थे। महाराज ने एक दिन उनसे कहा - ‘Jawaharlal, Swamiji's name is not even mentioned in your book? -'जवाहरलाल, तुम्हारी पुस्तक में स्वामी विवेकानन्द का नाम तक नहीं है?' यह सुनकर नेहरू ने कहा -‘Sorry ! sorry ! It was a bad omission’~ महाराज क्षमा करें, कि मुझसे यह बहुत बड़ी चूक हो गयी ! ओह ! मुझे सचमुच खेद है। मुझसे यह बहुत बड़ी भूल हो गयी है।" यह सब कहने के बाद 'Discovery of India!' के अगले संस्करण में स्वामीजी के बारे में कुछ शब्द लिखकर 2/4 पेज जोड़ दिये। 9.22 minute
यही तो है भारत में स्वामीजी को जानने वाले राजनेताओं की मानसिक अवस्था। 'आमार बयस होयछे भाई ' ~ मेरी उमर काफी हो चुकी है - भाई ! मैंने ब्रिटिश शासन देखा है। मैंने भारत को आज़ाद होते देखा है। मुझे आज भी वह दिन अच्छी तरह याद है। तुमलोगों से जब मैं यह बात कह रहा हूँ , तो मेरी आँखों में आँसू आ रहे हैं। 14 अगस्त 1947 : हमारा घर (पूज्य नवनीदा का पैतृक निवास : 'भुवन -भवन' खड़दह) गंगा के निकट है। उस दिन पश्चिमी तट पर सूर्य अस्त हो रहा था । और मैं अपने-आप से बातें कर रहा था - 'हे सूर्य देव ! आज आप पराधीन भारत के अंतिम सूर्य के रूप में अस्त अवश्य होंगे; किन्तु कल जब आप पूर्वी आकाश में उगेंगे, तब -तक भारत माता स्वतंत्र हो चुकी होगी।' यह आनन्द ऐसा था जिसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता- हृदय आनन्द से इतना लबरेज था कि -बाहर फट पड़ेगा ! सिर्फ मैं ही नहीं , सारे देश के युवा ऐसे ही आनन्द का अनुभव कर रहे थे। सारी गलियाँ, चौराहे, घर-मकान बत्तियों से जगमग कर रहे थे।पूरी रात चारों ओर उत्सव का माहौल था। उस समय टेलीविजन नहीं था, रात के 12 बजे मध्यरात्रि को जाहरलाल ने रेडियो पर अद्भुत भाषण दिया था और घोषणा कि थी -'India has become independent "~ भारत स्वतंत्र हो गया है।"
क्या हमलोग आज- तक (2006 तक) स्वाधीनता का आनन्द प्राप्त कर सके हैं? क्या सच-मुच हमें सही आज़ादी मिल चुकी है? तो, इस स्वाधीन भारत में स्वामी विवेकानन्द के किस विचार को अपनाया गया है ? हमारे अब तक के राजनेताओं को स्वामीजी का मूल्य पता ही नहीं था भाई। मुझे क्या कहना था और , किसी दीवाने की तरह मेरे मुख से क्या निकल गया -मुझे मालूम नहीं भाई।
स्वामीजी 1897 में अमेरिका से जब लौट आये थे और कलकत्ता में बलराम मन्दिर में रह रहे थे। उन दिनों कोलकाता में मन्दिर का अर्थ आवास होता था, मन्दिर का अर्थ वास्तव में घर ही होता है। [जैसे हिन्दी फिल्मों में कहा जाता है - घर एक मन्दिर है!] तब उसी बलराम मन्दिर में यानि बलराम बाबू के घर में, कुछ 'युवा राजनीतिक नेता' स्वामी जी से मिलने आये थे। उन्होंने स्वामीजी से पूछा कि - 'देश में इतनी सारी समस्यायें #हैं, आप यह बतलाइये कि इन सबसे छुटकारा पाने का उपाय क्या है? [#कॉन्ग्रेस पार्टी की स्थापना 1885 में हुई थी -उसका उद्देश्य स्वाधीनता प्राप्त करना नहीं था - अंग्रेजों से समस्या दूर करने का प्रार्थना भर था -उनलोगों ने देश की समस्यायों का बहुत बड़ा लिस्ट तैयार किया था।]
तब स्वामीजी ने कहा था , " देशे मानुष कोई रे, आगे मानुष तैरी करो , ताहोलेई सब समस्या चले जाबे। " - अर्थात "देश में मनुष्य कहाँ हैं रे ; पहले मनुष्य निर्माण करो, वैसा होने से ही देश की समस्त समस्यायों का निदान हो जायेगा !" उन लोगों ने पूछा, "तो क्या पराधीनता (अंग्रेजों की गुलामी) हमलोगों के देश की सबसे बड़ी समस्या नहीं है ? " उत्तर में उन्होंने कहा था - "देशे यदि (यथार्थ) मानुष ना थाके ताहोले स्वाधीनतार रक्षा कोरबे के ? ' - अर्थात "अगर देश में सच्चे मनुष्य (निःस्वार्थी मनुष्य) ही नहीं रहेंगे तो उस आज़ादी की रक्षा कौन करेगा ?"
एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा था - " स्वतंत्रता? मैं इसे 3 दिनों में दे सकता हूं। सभी देश-वासियों को एक बड़े मैदान में एकत्र करो और वहाँ भारत का राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर घोषणा करो - आज से 30 करोड़ भारत वासी मात्र 1 लाख अंग्रेजों की गुलामी से अपने को स्वतंत्र घोषित करते हैं! और सभी बड़े-बड़े देशों को संदेश दे दो कि भारत आज से स्वतंत्र हो गया है। तुम्हें पता है, इसके बाद क्या होगा? यही न कि अंग्रेज गोली चलाएंगे ? -लेकिन देखोगे कि विवेकानन्द का खून सबसे पहले जमीन पर गिरेगा। "
स्वामी जी को पहले के किसी राजनेता ने तो नहीं ही समझा, और शायद आज भी (एक-दो को छोड़ कर ? और) कोई नहीं समझ पाया है- भाई। भारत वर्ष के राजनीतिक नेताओं ने स्वामी विवेकानन्द को समझने की कभी चेष्टा नहीं की है। वोट लेने के लिए,स्वामीजी के शब्दों को अपने मुँह से केवल कह भर देते हैं। स्वामीजी के नाम पर जो लोग राजनीती करते हैं , वे मठ -मिशन भी जाते हैं। मैंने उन्हें वहाँ देखा है, मेरी उम्र भी काफी हो गयी है मैं उन्हें खूब पहचानता हूँ। -वैसे धूर्त नेताओं को देखने से भी कष्ट होता है। [मैंने देशप्रेम किसे कहते हैं -यह अन्दुल स्कूल में अपने आचार्यदेव से जो सीखा है।] -यदि वही असहनीय यंत्रणा ह्रदय को मथ नहीं रहा होता, तो यह महामण्डल भी साकार रूप नहीं ले पाता। किन्तु क्या साथ के लोग [हमउम्र बुजुर्ग लोग?] अब भी चुपचाप बैठे रहेंगे ? क्या मेरे युवा भाई लोग भी हाथ पर हाथ रखे बैठे रहेंगे ? भारत को महान विकसित और श्रेष्ठ बनाने का दूसरा कोई और मार्ग नहीं है -नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ! भाइयों। इसके अतिरिक्त ['Be and Make' के अतिरिक्त अन्य कोई भी विचारधारा (doctrine), और कोई भी 'इज्म' कार्यकारी सिद्ध नहीं होगा।] किसी भी 'Economic policy' को लागू करने से (तथाकथित समाजवाद,-साम्यवाद या Globalization को भी लागू करने से) देश की अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं होगा। क्योंकि योजना कोई भी हो, उसको लागू करने वाले तो मनुष्य ही होंगे! और वे मनुष्य ही यदि यथार्थ मनुष्य नहीं बनेंगे - तो अन्य किसी उपाय से भारत की उन्नति सम्भव नहीं है। [ श्वेताश्वतर ०उप० 6.15 में कहा गया है -
एको हंसो भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥
[एको हंसो भुवनस्य अस्य मध्ये। सः एव अग्निः सलिले संनिविष्टः । तम् एव विदित्वा अत्येति मृत्युम् न अन्यः पन्थाः न विद्यते अयनाय॥]
इस सम्पूर्ण विश्व के अन्तर में 'एक' 'हंसस्वरूपी आत्मसत्ता' है एवं 'वह' अग्निस्वरूप' है जो ह्रदय जल (चित्त) की अतल गहराई में स्थित है। 'उसका' ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
अर्थात इस लोक के मध्य में एक ही हंस ( destroyer of ignorance : 'विवेकानन्द') के गुरु परमात्मा- भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस) है, वह जल में अग्नि के समान अगोचर है । यद्यपि शीतल स्वाभवयुक्त जल में उष्णस्वभाव अग्नि का होना साधारण दृष्टि से समझ में नहीं आता। क्योंकि दोनों का स्वभाव परस्पर विरुद्ध है। फिरभी उसके रहस्य को जानने वाले वैज्ञानिकों को यह प्रत्यक्ष दीखता है।
जैसे यहाँ इस श्लोक ने ‘जल में अग्नि के होने का ज्ञान’ ऋषि के लिए कोई बड़ी बात हो ऐसा उसकी शैली से कहीं नहीं झलकता । जल में अग्नि रहती है ‘…एवाग्निः सलिल संनिविष्टः’ ; “जल की उत्पत्ति अग्नि से होती है (अग्नेरापः) और अग्नि जल में समाविष्ट है ‘बड़वानल’ के रूप में। यह सिद्धांत विज्ञान-सम्मत है (हाइड्रोजन + ऑक्सीजन + ताप = पानी)” । समुद्र के गर्त्त में volcano_into_the_sea ज्वालामुखी के रूप रहती हुई, विनाश का ताण्डव करने वाली इस अग्नि को ‘सुबाड़वाग्नि भी कहते हैं । ऋषि के कहने के ढंग से हमें ज्ञात होता है कि उस काल तक तो विज्ञान का यह सत्य कितना पुराना पड़ चुका था ।
अतः वे उसी जल में से बिजली के रूप में उस अग्नितत्व को निकाल कर वभिन्न प्रकार से उसका उपयोग करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है - समुद्र में बड़वानल अग्नि है। कार्य में कारण व्याप्त रहता है - इस न्याय से भी तेजस तत्व का जल में व्याप्त होना उचित ही है। किन्तु इस रहस्य को न जानने वाला जल में स्थित अग्नि को नहीं देख पाता। इसी प्रकार परमात्मा (आत्मा) इस जड़ जगत से [देह और मन से ] स्वभावतः बिल्कुल भिन्न है - क्योंकि वह चेतन, ज्ञानस्वरूप और सर्वज्ञ है - तथा यह दृष्टिगोचर जगत- देह और मन - जड़ और ज्ञेय है ! इसी प्रकार जगत से विरुद्ध दिखने के कारण साधारण दृष्टि से यह बात समझ में नहीं आती कि अविनाशी परमेश्वर इस परिवर्तनशील होने के कारण नश्वर जगत [देह -मन ] में किस प्रकार व्याप्त हैं ? और वे ही इस जगत के कारण कैसे हैं ? परन्तु जो उस परब्रह्म श्री रामकृष्ण परमहंस की अचिन्त्य अद्भुत शक्ति [माँ सारदा ] के रहस्य को समझते हैं , उनको ये प्रत्यक्षवत सर्वत्र परिपूर्ण और सबके- [ईश्वर -जीव और जगत के] एकमात्र कारण प्रतीत होते हैं। उन सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमात्मा - श्री रामकृष्ण परमहंस देव को जानकर ही मनुष्य इस मृत्युरूप संसार-समुद्र से पार हो सकता है - सदा के लिए जन्म-मरण के चक्र से सर्वथा छूट सकता है। ठाकुर देव के दिव्य परमधाम की प्राप्ति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है। अतः हमें उन परमात्मा का जिज्ञासु होकर उन्हें जानने की चेष्टा में लग जाना चाहिए। और एक दिन हमें भी ऋषियों के समान कहना चाहिए -
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।।
―(यजु० ३१/१८)
अर्थात्― मैं ने उस 'प्रभु' को (-अर्थात अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को) जान लिया है जो सबसे महान् है, जो करोड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान है, जिसमें अविद्या और अन्धकार का लेश भी नहीं है। उसी परमात्मा को जानकर मनुष्य दुःखों से, संसाररुपी मृत्यु-सागर से पार उतरता है, मोक्ष-प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है।
इन्हीं सब बातों को समझने और स्वामीजी के सपनों का मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए हमलोग प्रति वर्ष महामण्डल द्वारा आयोजित छः दिवसीय (3 दिवसीय,1 दिवसीय) शिविर में शामिल होते हैं।
1500 भाई एक स्थान पर एकत्र होते हैं, इतना कष्ट स्वीकार करते हैं, कुछ अखाद्य भोजन करना पड़ता हैं, अत्यधिक ठंड पड़ने से सोने में कठिनाई होती है, फिर क्लास में लगातार बैठे भी रहना पड़ता है। यह सब ऐसे ही नहीं होता है -भाई। यह युवा प्रशिक्षण-शिविर वास्तव में एक बहुत बड़ी साधना-स्थली है, हम सबों के तपस्या का क्षेत्र है। यहाँ आकर जो अग्नि स्वामी विवेकानन्द के ह्रदय में जल रही थी, उसी अग्नि को हम अपने ह्रदय में जला लेंगे। हमलोग अपने जीवन को इतने सुन्दर ढंग से गठित करेंगे, जिससे उसका उपयोग समाज और देश के कल्याण के लिए हो सके। हमें अपना जीवन ऐसा बनाना पड़ेगा, जिससे मैं सभी से प्रेम करने में सक्षम हो सकूँ। समाज में जो पिछड़े हैं, जो पीड़ित हैं, जो उत्पीड़ित हैं, मैं उनके निकट खड़ा हो सकूँ।
यदि मैं अपना सम्पूर्ण जीवन न्योछावर करके भी ऐसा मनुष्य बन सकूँ, और कम से कम एक व्यक्ति के भीतर भी उस आग को प्रज्वलित कर सकूं, [उसे यह समझा सकूँ कि श्रद्धा क्या है , विवेक क्या है, और मनुष्य का जीवन सार्थक कैसे होता है ?] तभी मेरा जीवन भी सार्थक हो सकेगा।
सम्पूर्ण विश्व को यह समझा दो कि 'मनुष्य' बन जाना कोई साधारण उपलब्धि नहीं है, मनुष्य मन और इन्द्रियों का गुलाम नहीं है, क्योंकि मनुष्य पशु नहीं है। मैंने मानव-शरीर इसलिए नहीं धारण किया था कि जन्म लिया, कुछ शिक्षा प्राप्त की, पैसा कमाया, शादी की और सन्तान पैदा किया , और फिर एक दिन चल बसा ? सिर्फ इतना सब करने के लिए तो मैंने मनुष्य शरीर धारण नहीं किया था। जिन लोगों का जीवन बस यही सब करके समाप्त हो जाता है, वे अभागे हैं, अत्यन्त बदकिस्मत हैं। ......
स्वामी जी कहते थे यदि मानव शरीर में जन्म लिए हो तो एक निशानी (PR) छोड़ जाओ ! जितने दिनों तक और जीवित हूँ उतने दिनों तक जो कुछ भी करूँगा वह कर्म कम से कम एक व्यक्ति के ह्रदय पर तो अपना निशान अवश्य छोड़ेगा। जैसे किसी ने पूछा था कि पाठचक्र कैसे करना चाहिये की उसका प्रभाव सभी पर पड़े। बस ऐसे ही जैसे तुम्हारे जीवन से अन्य दस लोगों को अच्छा मनुष्य बनने की प्रेरणा प्राप्त हो सके। जहाँ ऐसा नहीं होकर तथाकथित 'भक्त 'लोगों का एक दल तैयार हो जाता हो , वैसे पाठचक्र का कोई लाभ नहीं है। वे सेवा किये बिना सीधा ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। ब्रह्म का यदि शब्दार्थ करें तो उसका अर्थ होता है -बृहत। अर्थात विशाल ह्रदय वाला मनुष्य। वैसे मनुष्य का निर्माण करने की चेष्टा करो। वैसे मनुष्यों को संगठित करने की चेष्टा करो। सभी मनुष्यों की इच्छा को एक पूर्व निर्धारित उपाय से एक निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में निर्दिष्ट रखो। ऐसा करने से देश के जो दीन -दुःखी नागरिक हैं उनकी सहायता कैसे करोगे ? यह समझाओ ! यदि तुम्हारा अपना जीवन उन्नत नहीं हो , तो तुम दूसरों की सहायता कैसे करोगे ? दूसरों की सेवा कैसे करूँ - इसके लिए व्याकुल होओ। खुद मनुष्यत्व अर्जन करने की चेष्टा करो। अर्थात पवित्रता- देह रूपी देवालय को पवित्र रखो। यह मानव शरीर ही ईश्वर का सबसे बड़ा मंदिर है। अन्य सभी ईश्वर तो कल्पना हैं , उनका [चतुर्भुज] सारा रूप तो काल्पनिक है। किन्तु तुम्हारे सम्मुख जो मनुष्य खड़ा है वह तो काल्पनिक नहीं है। वह तो वास्तविक है। यदि उस मनुष्य में ईश्वर को नहीं देख सके - तो ईश्वर को खोजने कहाँ जाओगे ? स्वामीजी ने कहा है -मनुष्य मात्र के भीतर ईश्वर को देखने की चेष्टा करो। -
' बहुरूपे सम्मुखे तोमार छाड़ि कोथाय खूंजिछो ईश्वर ?
जीवे प्रेम करे जेईजन सेई जन सेवेच्छे ईश्वर ! "
बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे , और कहाँ हैं ईश ?
व्यर्थ खोज काल्पनिक रूपों में,
जिव-प्रेम जिसने किया ,उसकी सेवा पाते जगदीश !
[9 /325]
इसीलिए मैं किसी को स्वामीजी की पूजा करने के लिए नहीं कहता हूँ। पूजा करना तो दूर की बात उनकी भक्ति करने के लिए भी नहीं कहता हूँ। स्वामीजी से प्रेम करने के लिए कहता हूँ। यदि सबसे अपना कोई दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक बड़ा भाई है - तो वे स्वामी विवेकानन्द ही हैं ! इस तथ्य को समझना सीखो। स्वामीजी कहीं चले नहीं गए हैं। जैसे उन्होंने कहा था - "हो सकता है मैं अपने शरीर को जीर्ण वस्त्र की तरह त्याग दूँ , किन्तु मनुष्यों को अनुप्रेरित करना तबतक नहीं छोड़ूँगा , जबतक विश्व के सभी मनुष्य यह नहीं जान लेते कि वे ईश्वर के साथ अभिन्न हैं। " इस बात पर विश्वास करने की चेष्टा करो। भगवान कहाँ रहते हैं , स्वर्ग में रहते होंगे या कहीं और मंदिर-मस्जिद -गिरजा में रहते होंगे ? भगवान ही जानते हैं। किन्तु मनुष्य के भीतर भगवान हैं-इसकी खोज करो। -स्वामीजी ने तीर्थ जाकर भगवान खोजने की सीख नहीं दी है। किसी संन्यासी ने कर्मयोग विषय पर एक बहुत सुन्दर कहानी लिखी है। (26.06 minute)
" किसी गाँव में एक संन्यासी वास करते थे। उनकी कुटिया गाँव के बिल्कुल अन्तिम छोर पर थी। उसके आगे घनघोर जंगल पड़ता था। उसी गाँव में एक और व्यक्ति रहता था -जिसका काम-या पेशा ही डकैती करना था। उसने कई डाका डाला था। इसी क्रम में उसने कई खून भी किये थे। जब उसकी उम्र अधिक हुई तो उसके मन में विचार आया कि ये सब कार्य -डाका डालना, हत्या करना ठीक कार्य नहीं है। थोड़ा मन में पश्चाताप भी हुआ कि ऐसा कार्य अब और नहीं करूँगा , लेकिन पहले जो पाप हो चुके हैं -उनका प्रायश्चित कैसे किया जाये ? उसने साधु महाराज के पास जाकर हाथ जोड़कर पूछा- " महाराज मैं एक भयंकर डकैत हूँ, कई डाके डाले हैं , अनेकों मनुष्यों की हत्या की है। किन्तु अब यह सब अच्छा नहीं लगता है। मैं यहाँ आपके आश्रम रहना चाहता हूँ , क्या मुझे रहने देंगे ? आश्रम का भी कुछ कार्य आदि कर दिया करूँगा। साधु लोग तो उदार ह्रदय के होते ही हैं, किसी के दोष को नहीं देखते। साधु बोले ठीक है रह जाओ। कुछ दिनों तक कुटिया में रहने के बाद डकैत ने कहा , मुझे तीर्थ दर्शन करने की इच्छा हो रही है। क्या मैं जाऊँ ? साधु बोले यदि तुम्हारी इच्छा है तो जाओ। लेकिन तीर्थ करने की इच्छा हुई क्यों ? उस डकैत ने कहा - मैंने बहुत से पाप किये हैं, और विभिन्न तीर्थस्थान के सरोवर में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं। अतः मैं भी तीर्थाटन -स्नान करके देखना चाहता हूँ।
साधु ने कहा -" अच्छा यह बताओ कि तीर्थ-स्नान आदि से तुम्हारे पाप मिट गए या नहीं -इस बात को तुम समझोगे कैसे ? डकैत ने सोचा , ठीक बात है। मेरे पाप मिटे या नहीं -इस बात को मैं कैसे जान पाउँगा ? साधु बोले तुम - एक काम करो, सफ़ेद कपड़े का एक टुकड़ा ले आओ। डकैत सफ़ेद कपड़े का एक टुकड़ा ले आया। साधु बोले वहाँ दावात रखा है , उसकी स्याही इस कपड़े पर उड़ेल दो। डकैत ने वैसा ही किया। अच्छा जब तो यात्रा पर जाओगे तुम्हारे साथ कोई पोटली भी रहेगी ही। इस कपड़े को उसी पोटली में डाल दो, और जब कभी किसी तीर्थ स्थान में स्नान करो तो, बाद में इसे पोटली से बाहर निकाल कर देख लेना। यदि कपड़ा काला ही रहे तो समझना कि तुम्हारे पाप अभी मिटे नहीं हैं। और जब पाप मिट जायेगा तो देखोगे की तुम्हारा कपड़ा फिर से सफ़ेद हो गया है। "
अब, वह डकैत निकल पड़ा तीर्थाटन करने। जगह जगह तीर्थों का दर्शन -स्नान करता और स्नान के बाद अपनी पोटली खोल कर देखता तो पाता कि वह कपड़ा वैसे ही काला का काला ही पड़ा हुआ है। जब कई तीर्थों में स्नान के बाद भी कालिख नहीं मिटी तो उदास होकर वह वापस लौटने लगा। वापस लौटते समय रास्ते में एक घना जंगल भी पार करना पड़ा। जब वह जंगल से गुजर रहा था तो उसे किसी स्त्री का आर्तनाद सुनाई पड़ी - "बचाओ ,बचाओ। " वह उसी आवाज की दिशा में चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि कुछ डकैत लोग एक नव-विवाहिता स्त्री को पेड़ से बाँधकर उसका सोने का गहना आदि लूट रहे हैं। यह देखकर उस तीर्थाटन करके लौटते हुए डकैत के मन में यह विचार आया कि इस अकेली स्त्री को बचाना ही होगा। उसको वहाँ जमीन पर गिरी हुई एक कुल्हाड़ी पर नजर पड़ी , जो उन डाकुओं की ही थी। उसने आव देखा न ताव-बस कुल्हाड़ी उठाया और- डकैत के सिर पर वार करते हुए कहा - 'जहाँ 52 वां वहीं 53 वां !' माने जैसे 52 खून पहले किये थे , वहीँ एक खून और सही ! उसकी हालत देखकर सब डकैत भाग खड़े हुए। तब उसने उस स्त्री का बंधन खोल दिया और उसके सभी गहनों को एक पोटली में बांधकर उसके हाथों में रख दिया। फिर उसका नाम-पता पूछकर उसे सकुशल घर पहुँचाकर, साधु की कुटिया में वापस लौट आया।
जब वह साधुजी से मिला तो उन्होंने उसके चेहरे को लटका हुआ देखा , तब पूछा - कहो क्या समाचार है ? तुम्हारे पाप मिटे या नहीं ? तब उस डकैत ने बहुत दुखी होकर कहा - " महाराज ! पाप मिटना तो दूर की बात है, और एक नया खून कर आया हूँ। " फिर उसने साधु को पूरी रामकहानी सुना दी। तब साधु ने कहा- अच्छा तुम अब जरा अपनी पोटली से उस कालिख लगे कपड़े को निकाल कर देखो तो। " जब उसने पोटली से उस कपड़े को निकाला तो देखा - पूरा कपड़ा सफ़ेद हो चुका था, उस पर स्याही की कोई दाग भी नहीं थी ! हमलोग लोक व्यवहार में इस कहावत 'जहाँ 52 वां वहीं 53 वां !' का प्रयोग कई अर्थों में करते हैं। किन्तु इस कहानी के माध्यम से साधु महाराज ने उस डकैत को कर्मयोग के रहस्य को भलभाँति समझाया है। 52 खून करने के कारण जितने पाप लगे थे वे सारे पाप 53 वां खून करने से धुल गए थे। उन्होंने डकैत को समझाया कि - जो खून तुमने अभी अभी किया है , वह खून करना ही तुम्हारा कर्तव्य था। क्योंकि तुमने वह खून निःस्वार्थ भाव से एक अबला की रक्षा के लिए किया था। किन्तु इसके पहले तुमने जितने खून किये थे उसका उद्देश्य लूटपाट करना था ; जबकि इस हत्या के पीछे तुम्हारा उद्देश्य उस अबला की रक्षा करना था। इसीलिए कहा जाता है - 'गहना कर्मणो गतिः। " कर्म का फल-या कुफल मिलेगा समझना बहुत कठिन है। (32.minute)
इसलिए हमलोग यदि साक्षी भाव से हमेशा यह देखते रहें जो सबके लिए अच्छा कर्म है ,जीवन में मंगल प्रदान करने वाला है वह कर्म है- अपने अन्य 5 भाइयों के साथ स्वामी विवेकानन्द का अनुसरण करते हुए जीवनगठन और मनुष्य निर्माण के 'बनो और बनाओ'- आंदोलन से जुड़े रहना। ऐसा करने से अपने देश का बहुत बड़ा कल्याण हो सकता है। यदि वैसा नहीं हुआ तो हमारे शहर में हो सकता है , हमारे अपने परिवार में तो हो सकता है। मैंने देखा है -बहुत से परिवारों में सौहार्दपूर्ण वातावरण नहीं है। 32.33 minute) अभी तो कितने ही परिवार में देखता हूँ -सब भाई अलग अलग हो गए हैं। कितने तरह -तरह के भाई होते हैं -जो अपने भाई के बच्चों को भी अपने बच्चे के समान पालते -पोषते हैं। वहीँ ऐसा देखा जाता है कि एक भाई को दो टाइम भोजन नहीं है , दूसरे भाई के पास आलीशान मकान और महंगी गाड़ी है। ऐसा कैसे हुआ ? क्योंकि हमलोग मनुष्य हैं -किन्तु मनुष्यत्व का बोध नहीं है ! ठाकुर देव की भाषा में हम मानहूँष नहीं हैं। हमलोग कई जगह बोलते हैं - हमलोग परस्पर भाई-भाई हैं। लेकिन अपने ही परिवार में भाई को भाई की दृष्टि से नहीं देख पाते ? भाईयों तुमलोगों को मैं ज्ञान देने के लिए कुछ नहीं कह सकता , तुम मुझे विनती करने की अनुमति दो। जब यहाँ आये हो तो यहाँ की शिक्षाओं से कुछ को जीवन में धारण करने की चेष्टा करो। यही कि अभी तक मैं जैसा हूँ - यहाँ से जाने के बाद इससे थोड़ा और अच्छा मनुष्य बनने की चेष्टा करूँगा। और थोड़ा अच्छा होने की चेष्टा करूँगा का अर्थ क्या हुआ ? यही कि मेरा ह्रदय थोड़ा और बड़ा होगा। इसका अर्थ हुआ मैं मेरे परिवार के आलावा जो उससे बाहर के मनुष्य हैं -उनको अपने से थोड़ा और नजदीकी मनुष्य के रूप में देख सकूंगा। कमसे कम अपने भाई को कष्ट में पड़ा देखकर उसकी सहायता करने की चेष्टा तो अवश्य करूँगा। मेरे माता -पिता को कोई कष्ट हुआ तो मैं चुप कैसे रहूंगा ? बहुत से लोग तो भाई या माँ -बाप को संकट में देखकर घर छोड़कर दूसरे जगह चले जाते हैं। किन्तु एक गृहत्यागी बालक का इतिहास एक संन्यासी के मुख से सुना हूँ। तुम परिवार को छोड़कर कैसे आया ? मैंने फर्स्ट-डिवीजन में इंजीयरिंग पास किया है। नौकरी तो मुझे तुरंत मिल सकती थी। मैंने बहुत सोचविचार कर देखा। मेरे पिताजी रिटायर करने वाले थे, और 5 भाई-बहन थे -सभी मुझसे छोटे थे। यदि नौकरी में जितने पैसे मिलेंगे वह सब तो इनलोगों को पालने -पोषने में ही खत्म हो जायेंगे। बहुत से जगह में ऐसी नौकरी मिलती है जो विदेश या अमेरिका भेज देते हैं। मैं भी वही करूँगा। सुनकर बहुत कष्ट होता है। हमारा ह्रदय कितना संकीर्ण हो गया है ? हम अपने भाई-बहन को अपने माँ -बाप की सेवा भी नहीं करना चाहते। अपने भाई को अपना कहना ? यह तो सोच भी नहीं सकते।
---श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय,
अध्यक्ष, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल।
40वें अखिल भारतीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर (2006) का अंश।
* * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
'गहना कर्मणो गतिः' एक संस्कृत सूत्र वाक्य है जिसका अर्थ है कि कर्म की गति गहन है। इसका मतलब है कि कर्म का स्वरूप, अकर्म का स्वरूप, और विकर्म का स्वरूप जानना ज़रूरी है। कर्म को इस तरह से करना चाहिए कि वह विकर्म न बनें, बल्कि अकर्म में बदल जाएं। इससे कर्ता अकर्ता हो सकता है और परमात्म-पद पाया जा सकता है।
कर्म ही मनुष्य को पशुत्व से मनुष्यत्व में , और मनुष्यत्व से देवत्व में उन्नत कर देता है , कर्म ही मनुष्य को ईश्वरत्व की प्राप्ति कराता है। कर्म निरंतर होता रहता है। कृष्ण ने कहा अर्जुन मैंने सर्वप्रथम यह रहस्य विवस्वान ( सूर्य) को बताया था, क्योंकि सूर्य निरंतर कर्मरत हैं। इस प्रकार के कर्म पुण्य की की अपेक्षा से नहीं किए जाते, यह स्वाभाविक रूप से होते हैं परन्तु ऐसे कर्मों से पुण्य - प्राप्ति होती है।
अकर्म न करने से पुण्य की प्राप्ति तो नहीं होती परन्तु करने से मनुष्य पापभागी अवश्य होता है। जैसे यदि हम चोरी न करें तो हमें पुण्य नहीं मिल जाता परन्तु चोरी करने से पाप निश्चित रूप से मिलता है।
विकर्म में मनुष्य से यह अपेक्षित है कि वह विवेकी होकर कर्म करे। जिस प्रकार दान देना पुण्यकर्म है परन्तु कुपात्र को दान देने से मनुष्य पुण्यभागी नहीं होता। पूरा श्लोक इस प्रकार है -
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17।।
कर्म का (स्वरूप) जानना चाहिये और विकर्म का (स्वरूप) भी जानना चाहिये ; (बोद्धव्यम्) तथा अकर्म का भी (स्वरूप) जानना चाहिये (क्योंकि) कर्म की गति गहन है।।
उपर्युक्त कहानी - 'डकैत का तीर्थ-स्नान ' से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म का मूल्यांकन केवल उसके वाह्य स्वरूप को देखकर नहीं बल्कि उसके उद्देश्य को भी ध्यान में रखते हुये करना चाहिये। उद्देश्य की श्रेष्ठता एवं शुचिता से उस व्यक्ति विशेष के कर्म श्रेष्ठ एवं पवित्र होंगे।
जीवन क्रियाशील है। क्रिया की समाप्ति ही मृत्यु का आगमन है। क्रियाशील जीवन में ही हम उत्थान और पतन को प्राप्त हो सकते हैं। एक स्थान पर स्थिर जल सड़ता और दुर्गन्ध फैलाता है जबकि सरिता का प्रवाहित जल सदा स्वच्छ और शुद्ध बना रहता है। जीवन शक्ति की उपस्थिति में कर्मो का आत्यन्तिक अभाव नहीं हो सकता।
क्रिया ही जीवन है। निष्क्रियता से उन्नति और अधोगति दोनों ही सम्भव नहीं। गहन निद्रा अथवा मृत्यु की कर्म शून्य अवस्था मनुष्य के विकास में न साधक है न बाधक। कर्म के क्षण मनुष्य का निर्माण करते हैं। इस श्लोक के कर्म शब्द में मनुष्य के विकास में साधक के निर्माणकारी कर्तव्य कर्मों का ही समावेश है। यह मनुष्य निर्माण -Be and Make ! इस बात पर निर्भर करता है कि हम कौन से कर्मों को अपने हाथों में लेकर करते हैं। यह आवश्यक है कि अपने भौतिक अभ्युदय तथा आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक साधक कर्मों के इस वर्गीकरण को भली प्रकार समझें।
प्राचीन ऋषियों के अनुसार कर्म दो प्रकार के होते हैं निर्माणकारी (कर्तव्य) और विनाशकारी (निषिद्ध)। जिन कर्मों से मनुष्य अपने मनुष्यत्व से नीचे - 'पशुत्व ' की अवस्था (घोर स्वार्थपरता में ) गिर जाता है उन कर्मों को यहाँ विकर्म कहा है जिन्हें शास्त्रों ने निषिद्ध कर्म का नाम दिया है। आत्मविकास के लिये विकर्म का सर्वथा त्याग और कर्तव्य का सभी परिस्थितियों में पालन करना चाहिये। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण इस बात को स्वीकार करते हैं कि कर्मों के इस विश्लेषण के बाद भी सामान्य मनुष्य को कर्म-अकर्म का विवेक करना सहज नहीं होता क्योंकि कर्म की गति गहन है।
शारीरिक कर्म बुद्धि में स्थित किसी ज्ञात अथवा अज्ञात इच्छा की केवल स्थूल अभिव्यक्ति है। पूर्ण नैर्ष्कम्य की स्थिति का अर्थ निष्कामत्व की स्थिति होनी चाहिए इसे ही पूर्ण ईश्वरत्व की स्थिति कहते हैं। विवेकी पुरुष सहजता से अवलोकन कर सकता है कि शरीर से अकर्म होने पर भी उसके मन और बुद्धि पूर्ण वेग से कार्य कर रहे होते हैं। फिर वह यह भी अनुभव करता है कि शरीर द्वारा निरन्तर कर्म करते रहने पर भी वह शान्त और स्थिर रहकर केवल साक्षीभाव /द्रष्टाभाव से उन्हें स्वयं अकर्म में रहते हुए देख सकता है; यह अकर्म सात्त्विक गुण की चरम सीमा है।
श्री शंकराचार्य और अन्य आचार्यवृन्द [स्वामी विवेकानन्द ने ] बार -बार कहा कि कर्तव्य पालन से -चित्त की शुद्धि हो जाती है , और शुद्धान्तकरण वाले व्यक्ति में वह सार्मथ्य आ जाती है कि वह स्वयं के मन में तथा बाहर होने वाली क्रियाओं को साक्षी भाव से देख सकता है। जब वह यह जान लेता है कि उसके कर्म विश्व में हो रहे कर्मों के ही भाग हैं तब उसे एक अनिर्वचनीय समता का भाव प्राप्त हो जाता है। जिस पुरुष में आत्मनिरीक्षण की क्षमता है वह अकर्म में कर्म को पहचान सकता है।एक विवेकी पुरुष जब जगत् में क्रियाशील रहता है उस समय मानो अपने आपको सब उपाधियों से अलग करके साक्षीभाव से स्वयं अकर्म में रहते हुए वह सब कर्मों को होते हुए देख सकता है। जब मैं इन शब्दों को लिख रहा हूँ तब मेरे मन का ही कोई भाग मानों द्रष्टाभाव से देख सकता है कि हाथ में पकड़ी हुई लेखनी कागज पर शब्दों को लिख रही है। इसी प्रकार सभी कर्मों में स्वयं अकर्म में रहते हुए कर्मों को देखने की क्षमता दुर्लभ नहीं है।
रेल चलती है वाष्प नहीं। पंखा घूमता है विद्युत नहीं। इसी प्रकार ईंधन जलता है अग्नि नहीं। शरीर मन और बुद्धि कार्य करते है परन्तु चैतन्य आत्मा नहीं। इस प्रकार कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने वाले पुरुष को सब मनुष्यों में बुद्धिमान कहा जाता है। संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि निस्वार्थ भाव तथा अर्पण की भावना से कर्माचरण Be and Make करने पर चित्त शुद्ध होता है। और बुद्धि में साक्षी भाव से कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने की क्षमता आती है। यह क्षमता दैवी और श्रेष्ठ है क्योंकि इसके द्वारा ही हम अपने आप को सांसारिक बन्धनों से मुक्त कर सकते हैं।
=======
১৪ই আগস্ট ১৯৪৭ ~ গঙ্গার কাছেই আমাদের বাড়ি। পশ্চিম পাড়ে সূর্য অস্ত যাচ্ছে। মনে মনে বললাম- ‘পরাধীন ভারতবর্ষের শেষ সূর্য তুমি অস্ত যাচ্ছ। কাল যখন তুমি পূর্ব আকাশে উদিত হবে, তখন ভারতবর্ষ স্বাধীন’।
* * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
প্রশ্নঃ স্বামীজীর মানুষ হবার শিক্ষা 'Be and Make ' বর্তমান শিক্ষা ব্যবস্থায় কেন এখনো আনা হয়নি ?
श्री নবনীহরণ মুখোপাধ্যায় ................স্বামীজী অনেক কথা বলেছেন, অনেক কথা লিখেছেন। তার ভিতর থেকে যে কথাটা নিয়ে আমরা কাজ করছি ‘Be & Make’ , নিজে মানুষ হওয়া আর অন্যকে মানুষ হতে সাহায্য করা, আমার সৌভাগ্য হয়নি আর কোথাও এই কথাটি শোনার। স্বামীজী এরকম মুল্যবান একটি কথা বলেছেন, আর সেটা নিয়ে যে কিছু করা যায়, এ কথাটির যে একটা গুরুত্ব আছে, সেটি মহামণ্ডল হওয়ার আগে আমরা অন্তত শুনিনি। জানিনা অন্য কেউ শুনেছে কিনা।
এখন যারা দেশ চালাচ্ছেন, যারা দেশের শিক্ষা ব্যবস্থা নিয়ে কাজ করেন, তারা কি ভাবেন মানুষ গড়ার কথা, তাদের কোনও ধারনা আছে ‘Be & Make’ সম্পর্কে ? মানুষ যে হওয়া যায় বা মানুষ যে হতে হয় একথা জানেন তারা ? শিক্ষার উন্নতির জন্য কি করছেন- নতুন নতুন স্কুল – কলেজ – ইউনিভার্সিটি করছেন, আর সেখানে নতুন নতুন সাবজেক্ট খুলছেন, সিলেবাস বাড়াচ্ছেন। শিক্ষা কাকে বলে জানেন তারা ? রাজ্যে হোক আর কেন্দ্রেই হোক সব এক।
শিক্ষা ব্যবস্থায় স্বামীজীর চিন্তা নিয়ে বলছ, স্বামীজী সম্বন্ধে কে জানেন ? ভারতবর্ষে ক’জন জানেন স্বামীজী কি ছিলেন ? নেতা, মন্ত্রী, আমলা যারা দেশ চালান, তাদের ভিতর ক’জন জানেন স্বামীজী সম্পর্কে ? তোমরা কিছু মনে করো না ভাই। কথা উঠলেই আজকাল শোনা যায় - গান্ধীজী বলেছিলেন, স্বামীজীর লেখা পড়ে দেশের প্রতি তার ভালবাসা সহস্র গুন বেড়ে যায়। ঐ টুকুই বলেছিলেন। বেলুড় মঠে একবার স্বামীজীর সাথে দেখা করতে এসেছিলেন। স্বামীজী সেদিন মঠে ছিলেন না। এখনকার মত তো আর মোবাইল বা ইমেল ছিল না, তাই আগে থেকে জানিয়ে আসতে পারেননি। ফিরে যাবার পথে ভিজিটরস বুকে কিছু লিখতে হয় তাই ঐ এক লাইন লিখেছিলেন। কিন্তু স্বামীজীর কোন ভাবটা তিনি ভারতবর্ষকে দেয়ার চেষ্টা করেছেন ?
ভারতের প্রথম প্রধানমন্ত্রী জহরলাল নেহেরুর নাম বলতে সবাই একেবারে…… ! তিনি নতুন করে ভারতবর্ষকে আবিস্কার করে ‘Discovery of India’ নামে একটি বই লিখলেন। দেশের তথাকথিত শিক্ষিত লোক তো পড়েছেই, বিদেশেও পড়া হয়েছে। কিন্তু নেহেরু ভারতবর্ষকে আবিস্কার করতে গিয়ে স্বামীজীকে দেখতেই পেলেন না। স্বামীজীর নামটাই ঐ বই এ ছিল না। তোমরা হাসছ তো, কিন্তু এটাই ঘটনা। তখনকার সময়ে রামকৃষ্ণ মিশনের প্রেসিডেন্ট মহারাজকে এক সন্ন্যাসী বইটি পড়তে দিয়ে কিছুদিন পর এসে জিজ্ঞাসা করলেন- মহারাজ, বইটি পড়েছেন ? মহারাজ বললেন পড়েছি। সন্ন্যাসী মহারাজের প্রতিক্রিয়া জানার জন্য আগ্রহভরে তাকিয়ে রইলেন। মহারাজের উত্তর ছিল খুবই সংক্ষিপ্ত ‘‘Nehru is yet to discover India, ভারতবর্ষকে আবিস্কার করতে নেহেরুর এখনো সময় লাগবে’’।
এবং পরে রামকৃষ্ণ মিশনের প্রেসিডেন্ট হয়েছিলেন স্বামী রঙ্গনাথানন্দ। অনেকেই হয়তো জান, স্বামী বিবেকানন্দের পরে সমগ্র জগতে Intellectual World কে নাড়া দিয়েছিলেন স্বামী রঙ্গনাথানন্দ। তিনি দিল্লিতে থাকা কালীন অনেকের মত জহরলাল নেহেরুও মহারাজের কাছে আসতেন। মহারাজ একদিন বললেন – ‘Jawaharlal, in your book you are not included Swami Vivekananda’s name ?’ তোমার বই এ স্বামীজীর নামটা পর্যন্ত রাখনি ? এই কথা শুনে নেহেরু বললেন- ‘Sorry ! sorry ! It was a bad omission’ । ওহ ! আমি সত্যিই দুঃখিত, এটা মারাত্মক ভুল হয়ে গেছে। এই সব বলে পরের সংস্করণে স্বামীজী সম্পর্কে কিছু কথা, ২ /৪ পাতা যোগ করলেন।
এই তো ভারতবর্ষের স্বামীজীকে চেনা। আমার বয়স হয়েছে ভাই। ব্রিটিশের রাজত্ব দেখেছি। ভারতবর্ষ স্বাধীন হতে দেখেছি। সেই দিনটি আজও স্পষ্ট মনে পড়ে। এখনো তোমাদের বলতেই চোখে জল আসছে। ১৪ই আগস্ট ১৯৪৭। গঙ্গার কাছেই আমাদের বাড়ি। পশ্চিম পাড়ে সূর্য অস্ত যাচ্ছে। মনে মনে বললাম- ‘পরাধীন ভারতবর্ষের শেষ সূর্য তুমি অস্ত যাচ্ছ। কাল যখন তুমি পূর্ব আকাশে উদিত হবে, তখন ভারতবর্ষ স্বাধীন’। সে যে কি আনন্দ, বুক ফাটা আনন্দ। আমি শুধু নয়, দেশশুদ্দ লোক করেছিল। আলোয় আলোকময় রাস্তাঘাট, বাড়ি। সারারাত উৎসব চারিদিকে। তখন তো আর টেলিভিশন বের হয়নি, রাত ১২ টার সময় জহরলাল রেডিও তে চমৎকার এক ভাষণ দিয়ে বললেন, ভারত স্বাধীন হল।
কি স্বাধীনতা আজ আমরা ভোগ করছি ? সত্যিই কি আমরা যথার্থ স্বাধীনতা পেয়েছি ? এই স্বাধীন ভারতবর্ষে স্বামীজীর কোন ভাবটি নেয়া হয়েছে। স্বামীজীর মুল্য তারা জানতেন না ভাই। কি বলতে কি পাগলের মত বলে ফেলছি জানি না ভাই।
স্বামীজী আমেরিকা থেকে ফিরে কলকাতায় রয়েছেন। কিছু তরুন রাজনৈতিক নেতা দেখা করে স্বামীজীকে বললেন, দেশের এত সমস্যা এর থেকে মুক্তির উপায় কি ? স্বামীজী বললেন- ‘দেশে মানুষ কই রে, আগে মানুষ তৈরি করো, তাহলেই সব সমস্যা চলে যাবে’। পরাধীনতাই কি আমাদের সবথেকে বড় সমস্যা নয় ? ‘দেশে যদি মানুষ না থাকে তাহলে স্বাধীনতা রক্ষা করবে কে’। আর এক জায়গায় বলেছিলেন- ‘স্বাধীনতা ? ওরে আমি ৩ দিনে এনে দিতে পারি। মস্ত বড় এক ময়দানে সকলকে জড় কর। সেখানে ভারতের জাতীয় পতাকা তুলে দিয়ে ঘোষণা কর, আমরা আজ স্বাধীন হলাম। আর গোটাকতক বড় বড় দেশে বার্তা পাঠা যে, ভারতবর্ষ আজ থেকে স্বাধীন হল। এটা করলে কি হবে জানিস ? ইংরেজ গুলি চালাবে। তবে জানবি, বিবেকানন্দের রক্তটা মাটিতে প্রথম পড়বে’। (13.32 minute)
স্বামীজীকে কেউ বোঝেনি ভাই, আজও বোঝেনি। ভারতবর্ষের রাজনৈতিক নেতারা বোঝেনি কোন কালে। মুখে বলেন স্বামীজীর কথা। স্বামীজীকে নিয়ে রাজনীতি করেন, মঠে মিশনে যান। এদের চেনা আছে, বয়স হয়েছে, দেখেছি। অসহ্য লাগে। সেই যন্ত্রণা বুকে না থাকলে এই মহামণ্ডল হতো না। কিন্তু এখনো সবাই কি চুপ করে বসে থাকব ? যুবকরা কি বসে থাকবে ? আর কোনও রাস্তা নেই ভাই ! আর দ্বিতীয় কোনও মতবাদ, আর কোনও ইজমে কিছু হবে না। কোনও ইকনমিক পলিসিতে কিছু হবে না। কারণ সব কিছুর পিছনে আছে মানুষ। সেই মানুষ যদি মানুষ না হয়, কিছুতেই ভারতের উন্নতি সম্ভব নয়।
সেই কথা বুঝে নিয়ে, তেমন মানুষ হওয়ার জন্য আমাদের এই ক’দিনের এখানে আসা। ১৫০০ ভাই এক জায়গায় এসে, এত কষ্ট স্বীকার করা, অখাদ্য কিছু খাবার, প্রচণ্ড শীতে শোয়ার কষ্ট, একটানা বসে থাকা। এতো এমনি নয় ভাই। মস্ত বড় সাধনা, সকলের তপস্যার ক্ষেত্র। যে আগুন স্বামীজীর বুকে জ্বলছিল, সেই আগুন আমাদের ভিতরে জ্বালিয়ে নেব। আমরা আমাদের জীবনটা এমন করব যেন সেটা দেশের কাজে লাগে সমাজের কাজে লাগে। সবাইকে যেন ভালবাসতে পারি। যারা পিছিয়ে আছে, যারা নির্যাতিত, যারা নিপীড়িত, তাদের পাশে দাঁড়াবো। সমস্ত জীবন দিয়ে যদি এমন মানুষ হতে পারি, আর অন্তত একজন মানুষের ভিতরে সেই আগুন জ্বালিয়ে দিতে পারি, জীবন সার্থক হয়ে যাবে। বুঝিয়ে দাও জগতকে। মানুষ সোজা জিনিস নয়, মানুষ ফেলনা নয়, মানুষ পশু নয়। জন্ম নিলাম, কিছু লেখাপড়া শিখলাম, রোজগার করলাম, বিয়ে করে সন্তান জন্ম দিয়ে একদিন চলে গেলাম। এটুকুর জন্য মানুষ হয়ে আসিনি। যাদের শুধু এটুকুতেই জীবন শেষ হয় তারা অভাগা, অত্যন্ত দুর্ভাগা। (20.20 minute)
--- শ্রী নবনীহরণ মুখোপাধ্যায়
প্রেসিডেন্ট, অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল।
৪০তম সর্বভারতীয় বার্ষিক যুব শিক্ষন শিবিরে প্রস্নত্তরের কিছু অংশ (২০০৬)।
* * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *