"उन दो चरणों का सार ",
(श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द भावानुरागी !)
" সারদা চরন দুটি ভুল না। "
(सारदा चरण दूटि भूलो ना।)
অপূর্ব সুন্দর শরনাগতি সমৃদ্ধ গান। এই গান টি বারবার শুনতে খুবই ভালো লাগে।
প্রনাম জানাই মাগো তোমার ও দুটি রাতুল শ্রীচরনপাদপদ্মে।
প্রনাম জানাই পরমপূজনীয় মহারাজ এর শ্রীচরনে।
(স্বামী তপানন্দের লেখা এই গান যেন সর্বগানন্দজীর কণ্ঠে যেন এক অনবদ্য রূপ পেয়েছে ।)
[अपूर्व सुन्दर शरणागति समृद्ध गान। एई गान टि बार बारबार सुनते खूबई भालो लागे।
प्रणाम जानाई मागो तोमार ओ दूटि रातुल श्रीचरणपादपद्मे।
प्रणाम जानाई परम पूजनीय महाराज एर श्रीचरणे।
स्वामी तपानन्देर लेखा एई गान जेनो सर्वगानन्दजीर कण्ठे जेनो एक अनवद्य रूप पेयेछे।
हिन्दी अनुवाद :
जगतजननी श्री श्री माँ सारदा देवी के उन दो रक्तवर्ण चरणों कमलों को कभी भूलना मत !
आश्चर्यजनक रूप से सुन्दर शरणागति भाव से समृद्ध गाना । इस गाने को बार-बार सुनना बहुत अच्छा लगता है। हे माँ ! मैं आपके उन दो रक्तवर्ण चरण कमलो में अपना प्रणाम निवेदित करता हूँ। मैं परम पूज्य महाराज जी के पवित्र चरणों में नमन करता हूँ।
(स्वामी तपानन्द जी महाराज द्वारा लिखित इस गीत को स्वामी सर्वगानंदजी की मधुर आवाज से एक सुन्दर रूप प्राप्त हुआ है।)
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🔱🕊 🏹 🙋" वेदांत सार - वेदांत का सार।"🔱🕊 🏹 🙋
[Vedanta Saar - The Essence of Vedanta]
(श्रीमत् स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज-अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती )
[ यह व्याख्यान 8 दिसंबर 2024 को रामकृष्ण मठ और मिशन,बेलूर मठ में आयोजित "भक्त सम्मेलन" में श्रीमत स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज , अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती द्वारा-दिया गया था। पूज्य महाराज के अनुसार अति संक्षेप में वेदान्त सार : महामाया जगतजननी श्री श्री माँ सारदा देवी के अनुग्रह के बिना किसी को अद्वैत-दृष्टि के साथ ही साथ भक्ति की भी प्राप्ति होना सम्भव नहीं है !]
परम पूज्य स्वामी सुविरानन्द जी महाराज (पूज्य जेनरल सेक्रेटरी महाराज),जो अभी-अभी मंच से उठे हैं को प्रणाम करता हूँ। परम् पूज्य स्वामी बोधसारानन्द जी महाराज, अन्य सभी पूज्य संन्यासी वृन्द को प्रणाम करता हूँ, अन्य समस्त भाषणकर्ताओं को प्रणाम,एवं यहाँ उपस्थित अन्य समस्त भक्तों को मेरा नमस्कार। हमलोगों ने अभी तक भगवान श्रीरामकृष्ण , माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं पर कई प्रेरणादायक सुन्दर प्रवचनों को सुना है। अभी -अभी हमने पूज्य जेनरल सेक्रेटरी महाराज के अद्भुत भाषण को भी सुना है। अभी तक आप भक्तिभाव से परिपूर्ण भाषणों को ही सुन रहे थे।
तथापि कुछ तथाकथित भक्तों के मन में व्यापक रूप से यह बात बैठ गयी है कि यह ज्ञान-मार्ग, भक्ति-मार्ग से कोई बिल्कुल अलग ही वस्तु है; और यह कि 'ज्ञानमार्ग ' आनन्द से रहित होता है। ज्ञानमार्ग शुष्क -है, इससे ह्रदय में आनन्द नहीं उठता है! किन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवत् गीता (7.16) में चार प्रकार के भक्तों की बात कही है-और वहीँ उन्होंने भक्ति क्या है और ज्ञान क्या है इस पर विस्तार से चर्चा भी की है।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
।।7.16।। हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ एवं पवित्र कर्म करने वाले, (सुकृतिन:) अर्जुन! अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी ' ये चार प्रकार के मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं।
इस श्लोक में पुण्यकर्मी भक्तों का चार प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। वे हैं (क) आर्त आर्त का सामान्य अर्थ है दुःख से पीड़ित व्यक्ति। दुखार्त भक्त अपने कष्ट के निवारण के लिए भक्ति करता है। यह सामान्य दुख के विषय में हुआ किन्तु ऐसे भी कुछ व्यक्ति होते हैं जिन्हें जीवन में सब प्रकार की सुखसुविधाएं उपलब्ध होने पर भी वे एक प्रकार की आन्तरिक अशान्ति का अनुभव करते हैं। इस अशान्ति की निवृत्ति भगवत्स्वरूप की प्राप्ति से ही होती है। ऐसे आर्त भक्त भी मेरा भजन करते हैं।
(ख) जिज्ञासु - दूसरा भक्त है जिज्ञासु। जो साधक शास्त्राध्ययन के द्वारा मुझे जानना चाहते हैं वे जिज्ञासु (seeker of knowledge) भक्त हैं।
(ग) अर्थार्थी किसी- न- किसी कार्यक्षेत्र में (the seeker of wealth) इष्ट फल को प्राप्त करने के लिए जो लोग कर्म करते हुए मेरे अनुग्रह की कामना करते हैं, उन्हें अर्थार्थी कहते हैं। कामना की पूर्ति इनका लक्ष्य होता है।
(घ) ज्ञानी: भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - ज्ञानी च भरतर्षभ ! उपर्युक्त तीनों से भिन्न ज्ञानी भक्त विरला ही होता है जो न किसी फल की इच्छा रखता है और न मुझसे कोई अपेक्षा। वह स्वयं को ही मुझे अर्पित कर देता है। वह मेरे स्वरूप को पहचान कर मेरे साथ एकत्व को प्राप्त हो जाता है। इन चर्तुविध भक्तों में सर्वश्रेष्ठ कौन है ?
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥17॥
[तेषाम्-उनमें से; ज्ञानी–वे जो ज्ञान में स्थित रहते हैं; नित्य-युक्त:-सदैव दृढ़; एक-अनन्य; भक्ति:-भक्ति में; विशिष्यते-श्रेष्ठ है; प्रियः-अति प्रिय; हि-निश्चय ही; ज्ञानिनः-ज्ञानवान; अत्यर्थम्-अत्यधिक; अहम्-मैं हूँ; सः-वह; च-भी; मम–मेरा; प्रियः-प्रिय।]
BG 7.17: श्रीकृष्ण कहते हैं-उन चारो में भी मुझ से नित्ययुक्त होकर , अनन्य भक्ति करने वाला ज्ञानी श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।। गीता (७/१७)
इस अंतिम बात को हमें याद रखना चाहिए कि ज्ञानी ही सर्वश्रेष्ठ भक्त होता है। क्योंकि हमलोगों यह गलत धारणा हो गयी है कि ज्ञान अलग है और भक्ति अलग चीज है। वास्तव में देखें तो सच्ची भक्ति सच्चे ज्ञान के बाद ही उत्पन्न होती है। अद्वैत में ही आपको भक्ति की सही तस्वीर दिखाई देती है। आचार्य शंकर अपने भाष्य में इसकी सुंदर व्याख्या देते हैं। कहते हैं - ज्ञानी का अर्थ है 'आत्मवेत्ता !' जो व्यक्ति अपने सत्यस्वरुप को जान लेता है वो ज्ञानी है। और वही आत्मवेत्ता - सबसे बड़ा भक्त भी है। क्यों ?
क्योंकि ज्ञानी जानता है कि भगवान के अतिरिक्त जगत में और कुछ नहीं है , ईश्वर ही जगत रूप में प्रतीत हो रहे हैं। यहाँ अद्वैत-दृष्टि की बात है - अद्वैतिक दृष्टि में यहाँ इस जगत में ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। किसी अद्वैतवादी के लिए एक 'सत्य' के अलावा अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है। उस परम् सत्य को आप किसी भी नाम से पुकारें कोई अन्तर नहीं पड़ता। आप उन्हें ब्रह्म कह सकते हैं , आप उन्हें ईश्वर कह सकते हैं। एक के अलावा दूसरे का अस्तित्व ही नहीं है। अतएव ज्ञानी वह व्यक्ति है -जो निरन्तर ईश्वर को ही देख रहा होता है। इसलिए वह लगातार ईश्वर के सानिध्य/ सम्पर्क में ही रहता है। इसीलिए वह सबसे श्रेष्ठ भक्त होता है। आचार्य शंकर अपने भाष्य में कहते हैं -'अन्यस्य भजनीयस्य अदर्शनात् अतः स एकभक्तिः विशिष्यते' (अर्थात ज्ञानी वह भक्त है जो इस जगत में भी परम् सत्य के अलावा और कुछ देखता ही नहीं है - वह देखता है।)
मैं इस एक बिन्दु पर इतना जोर क्यों दे रहा हूँ ? स्वयं भगवान श्री रामकृष्ण की अनुभूति -या 'बोधन' इस विषय में क्या थी ? हम जैसे तुच्छ लोग श्रीरामकृष्ण की आध्यात्मिक अनुभूति को कितना समझ सकते हैं ? किन्तु अतीत के महान ऋषि-मुनियों और उपनिषद युग के ऋषियों की उक्ति को देखें -भगवतगीता को देखें, आचार्य शंकर की रचनाओं को देखें उसके पैमाने से देखने पर हम कह सकते हैं -कि श्रीरामकृष्ण देव , जगत में ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखते थे। इस प्रकार हम कह सकते हैं - आचार्य शंकर, श्री कृष्ण या अवतारवरिष्ठ भगवान श्री रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द आदि की रचनाओं को देखे तो पाते हैं कि सभी अद्वैतवादी महापुरुष, बहुत बड़े भक्त भी थे। भगवान श्री रामकृष्ण देव बहुत बड़े अद्वैतवादी थे ! माँ तो उनको अद्वैतस्वरूप कहती थीं ! लेकिन वे माँ काली के सबसे बड़े भक्त भी थे। क्योंकि ज्ञानी भक्त अपनी दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर जगत को ब्रह्ममय देखता है और, मानवमात्र में अन्तर्निहित ब्रह्मत्व, दिव्यता या 'Inherent Divinity' को देखकर हमेशा उसका उत्स्व मनाता है, क्योंकि वह ब्रह्म को अनेक रूपों में देखकर, उनके हर रूप का जश्न मना सकता है-ठाकुर देव वैश्या में भी माँ को देख सकते थे-हर देश में तू हर भेष में तू , तेरे नाम अनेक तू एक ही है।) !! (Gyani bhakt is One who celebrates divinity everywhere !) हम लोग जानते है कि आचार्य शंकर प्रकाण्ड अद्वैतवादी थे , किन्तु हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि आचार्य शंकर माँ जगदम्बा के बहुत बड़े भक्त भी थे। अद्वैतवाद ही हमें वह दृष्टि देता है जिसके द्वारा हम हरेक रूप में - लुच्चा नारायण , लबरा नारायण में भी ब्रह्मत्व की अनुभूति कर सकते हैं। [प्रबोध महाराज , वेंकट महाराज , आनन्द महाराज , सन्तोष महाराज (स्वामी सत्यरूपानन्द जी) आदि से लेकर मेरे गुरुदेव श्रीमत्स्वामी भूतेशानन्द महाराज जी तक रामकृष्ण मठ-मिशन के कई साधुओं ने मेरे जीवन को नई दिशा में मोड़ दिया है ! ]
आज के भाषण का विषय ही है - 'वेदान्त सार' : The Essence of Vedanta' ; वेदान्त का अर्थ ही है -उपनिषद ! वेदान्त सार कहने का तात्पर्य हुआ -उपनिषद सार ! (9.10 मिनट) उपनिषदों का सार क्या है ? यही कि इस दृष्टिगोचर जगत में केवल मात्र - ब्रह्म का अस्तित्व है। उस परम् सत्य (को चाहे जिस नाम से पुकारो) के सिवा, अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है। केवल इस वास्तविकता को , अपने स्वरुप की सत्यता को जान लेने पर ही कोई 'तथाकथित जीव ' (WE THE - So Called Human Being) सभी प्रकार के दुःख से परे उठ सकता है -दुःख-कष्टों से मुक्ति का इससे भिन्न कोई अन्य मार्ग नहीं है। अपने अविनाशी सत्यस्वरूप को जान लेने के बाद हमें अपने सारे दुःखों से -भेंड़त्व से मुक्ति मिल जाती है। केवल अपने अजर-अमर -अविनाशी सत्यस्वरूप को जान लेने के बाद ही हम 'अभीः' अर्थात निर्भीक या भयमुक्त बन सकते हैं , नहीं तो मृत्यु के भय से भेंड़ों की तरह मिमियाते रहना होगा। अपने इन्द्रियातीत सत्य स्वरुप को जान लेने के बाद हमारी सारी दुर्बलता समाप्त हो जाती है। स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं - यह अद्वैतवाद ही एकमात्र उपाय है जो मनुष्य को आत्मज्ञान देकर उसके सभी दुःखों का अन्त कर देती है। उसे निर्भीक और निडर बना देती है। जीवन के समस्त उतार -चढ़ाव में उसे 'अविचल' संतुलित (balanced) बनाये रखती है। और वह जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है। और अन्ततः परम् मुक्ति को प्राप्त होता है। अब उपनिषदों का अंतिम उपदेश एक वाक्य में कहें तो क्या है ? मुक्ति -मुक्ति यही आत्मा का गीत है , हर रोज शाम को यहाँ आरात्रिक भजन में हमलोग गाते हैं - उस आरती के पहले तीन शब्द क्या हैं ? 'खण्डन -भव -बन्धन' --स्वामी सारदानन्द महाराज द्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण देव की जीवनी -'लीला प्रसंग ' हिन्दी में तीन खण्डों में है। स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज , अध्यक्ष मायावती के अनुसार श्रीरामकृष्णदेव की सम्पूर्ण जीवनी को उनकी आरती के प्रथम तीन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है। वे मानवजीवन के केवल एक 'घटना' - का प्रतिनिधित्व करते हैं ; जो कि खण्डन -भव -बन्धन है। और यही वेदान्त सार है , यानि सभी उपनिषदों का एकमात्र सार-संगीत है - सम्पूर्ण मानवजाति को केवल यही बताना चाहता है कि - 'खण्डन भव बन्धन' में प्रतिष्ठित होने का उपाय क्या है ? मुक्ति पाने का उपाय क्या है ? (Oneness of all existence and Inherent Divinity का पता बता देना। ) भगवान श्रीरामकृष्ण देव -जिनके नाम से यह भक्त-सम्मेलन आयोजित हो रहा है , वे स्वयं, इस भव-बंधन को खण्डित करने के प्रतीक और उपाय है।
एक बात हमें सदैव याद रखनी चाहिए - श्रीरामकृष्ण देव यहाँ हमारे संसार में आसक्ति (घर-परिवार -पुत्र-पत्नी में आसक्ति) को निरन्तर बनाये रखने के लिए अवतरित नहीं हुए थे। श्री रामकृष्ण के सभी भक्तों को यह महत्वपूर्ण बात अवश्य याद रखनी चाहिए की भगवान श्री रामकृष्ण हमारे सांसारिक -आसक्ति को जारी रखने के लिए अवतरित नहीं हुए थे। वे तो हमारे संसार-बंधन को काट देने के लिए अवतरित हुए थे। अतः हम सभी श्रीरामकृष्ण भक्तों को एक बात अवश्य याद रखना होगा कि हमलोग श्री रामकृष्ण से हम क्या पाने की प्रार्थना कर रहे हैं ? श्री रामकृष्ण से प्रार्थना करने का अर्थ है - उस ईश्वर से प्रार्थना करना, जो सृष्टि के मूल कारण हैं ।श्रीरामकृष्ण अपने जीवन से हमें प्रार्थना में क्या माँगना चाहिए , ये दिखला देते हैं। वे कहते हैं हमें भगवान से -'भक्ति , विवेक, वैराग्य और ज्ञान ' देने की प्रार्थना करनी चाहिए। हमारे जीवन में ये चीजें जितनी अधिक मात्रा में होंगी , आप पाएंगे कि आपका जीवन उतना ही सुंदर और सुगन्धित हो उठा है। और समझेंगे की 'fruitful life' -फलदायी जीवन की शुरुआत ही विवेक-वैराग्य -भक्ति और ज्ञान ' आदि दैवी गुणों के जागृत होने के बाद ही होती है। (13.10 मिनट)
10 मिनट और बचे हैं -अब मुख्य विषय पर आता हूँ। वेदान्तसार क्या है ? वेदान्त हमें सीख देता है कि प्रत्येक मनुष्य , स्त्री-पुरुष वास्तव में अव्यक्त ब्रह्म ही है। Each soul is potentially divine ! दिव्य है। जीव कहने का कोई दूसरा अर्थ नहीं है , हमलोग -प्रत्येक मनुष्य अनिवार्यतः ब्रह्म ही हैं ! और इस अन्तर्निहित दिव्यता को -ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करना ही मानवजीवन का चरम उद्देश्य है। गौण उद्देश्य कई हो सकते हैं, होने भी चाहिए और उन्हें प्राप्त भी करना चाहिए। कोई इंजीनियर बनना चाहता है , कोई डॉक्टर बनना चाहता है , कोई बिजनेसमैन बनना चाहता है , ये सभी गौण उद्देश्य हैं और जरूर होने चाहिए। क्योंकि आर्थिक उन्नति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति भी होनी चाहिए -किन्तु याद रहे कि मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य ईश्वरप्राप्ति ही है। प्रत्येक स्त्री -पुरुष ब्रह्म ही है। सभी संतों , भगवत गीता में और सभी उपनिषदों में इसी बात को कहा गया है।
मुण्डक उपनिषद में एक छोटी सी कहानी कही गयी है। आपने भी उसे अवश्य सुना होगा। सुन्दर दृष्टान्त है। एक ही वृक्ष पर रहने वाले दो एक समान सुन्दर पक्षी की कथा है। ऊपरी डाल पर जो पक्षी बैठा है , वह वृक्ष के फल नहीं खाता और आनन्द में रहता है- याद रखें ऊपर वाला पक्षी ही आत्मा या ईश्वर हैं । नीचे वाला पक्षी , कच्चे-पक्के तीते - मीठे फल खाता रहता है। नीचे वाला पक्षी तीते-मीठे फल चखने में ही रमा हुआ रहता है। मीठा फल तो बड़े चाव से खाता है , लेकिन जब कभी तीता फल मिलता है , तब वह दुःखी होकर ऊपर वाले शान्त और महिमा में विराजे पक्षी को देखता है। निचे की डाल पर बैठा पक्षी केवल शुरू में - Initially ऊपर वाले पक्षी से -जो ईश्वर है ; से अलग दीखता है। यही हम सबों की अवस्था है -हम सभी इस समय अज्ञान (अविद्या माया के प्रभाव में हैं ) अतएव हमलोग अपने को ईश्वर से या आत्मा से अलग केवल देह (M/F) हूँ समझते हैं- हमारे मन में ऐसी धारणा बैठ गयी है। मैं ईश्वर से अलग एक जीव मात्र हूँ। इस मान्यता को आम तौर से समाज में स्थापित कर दिया गया है।
लेकिन आध्यात्मिक अभ्यास -या 3H विकास के 5 अभ्यास - Spiritual Practice क्या है ? (गुरु-शिष्य परम्परा में दीक्षा और जप-ध्यान की विधि याद नहीं ?: विवाह की तिथि याद है दीक्षा की तिथि याद नहीं रहती ? गुरु-प्रदत्त मंत्र याद है कि नहीं ? ) >> या Be and Make ' परम्परा में 3H विकास के 5 अभ्यास : सवेरे उठकर ज्ञान-भक्ति, विवेक -वैराग्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना, मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग से आत्ममूल्यांकन चार्ट में मनांक बैठाना। इन आध्यात्मिक अभ्यासों को करने से - निचले डाल पर बैठे पक्षी का क्रमविकास (evolution) होता रहता है , और वह इस मानसिकता से क्रमशः ऊपर वाले पक्षी (ईश्वर या अपने सत्य स्वरुप) के निकट से निकटतर पहुँचता रहता है। हमलोग ईश्वर के जितना अधिक निकट पहुँचते रहते हैं , उतना ही अधिक हम उस ईश्वर के साथ सम्बन्ध बनाने सफल होते हैं, जो स्वयं हमारे ह्रदय में विराजमान हैं। जितना अधिक इष्टदेव के समीप होंगे और उतना ही अधिक हम देखेंगे कि हम सभी दुःखो-कष्टों से मुक्त होते जा रहे हैं। इसलिए उस दृष्टान्त कथा में ऋषि कहते हैं - इस प्रकार यह नीचे बैठा पक्षी मीठे-कड़वे फलों को चखता रहता है। और जब कभी उसको अत्यधिक कड़वा फल चखने को मिलता है, तब वह ऊपर वाले पक्षी को देखता है। तो क्रमशः उनकी तरफ ऊपर उठता जाता है , और अन्ततः जब अन्तिम चरण में क्या होता है ? वह ऊँची डाल पर बैठे पक्षी में ही विलीन हो जाता है - वह देखता है कि दूसरा पक्षी तो था ही नहीं। एकबार जब नीचे वाला पक्षी ऊपर वाले पक्षी में विलीन हो जाता है तब उसे क्या अनुभूति होती है ? उसे यही अनुभव होता है कि -नीचे वाले पक्षी का तो कभी अस्तित्व ही नहीं था। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में यह सर्वोच्च अन्वेषण (Discovery-या खोज) की प्रतीक्षा होती रहती है। सत्य तो यही है कि नीचे वाला पक्षी जो ऊपर वाले पक्षी से भिन्न प्रतीत होता है ; वास्तव वह केवल एक प्रतीति है। सबसे सरल सत्य यही कि नीचे वाला पक्षी -सर्वोच्च पक्षी के साथ एक और अभिन्न है। हमलोग उसी ईश्वर की श्रीरामकृष्ण की जिनकी हम पूजा कर रहे हैं - उन्हीं के साथ एकत्व में स्थापित होने की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। उपनिषद के हर श्लोक में यही बताने की चेष्टा की गयी है। आचार्य शंकर अविनाशी मंत्र का स्मरण करें - " ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या' जैसे ही हम कहते हैं - जगत मिथ्या , लोग डर जाते हैं , इसे स्वीकार नहीं करना चाहते। यह सबसे सरल सत्य है -यही सच्चाई है। इस श्लोक का जो दूसरा वाक्य है और बहुत महत्वपूर्ण है , उस पर हमलोग ध्यान नहीं देते। पहली लाइन अधूरी है -पहला वाक्य कहता है ," ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या' तो इसमें सन्देह ही क्या है ? दूसरा वाक्य क्या कहता है - 'जीवो ब्रह्मैव, नापरः।' जब आप कहते हैं कि जीव ईश्वर से भिन्न नहीं है -तो जगत भी ईश्वर से भिन्न नहीं हैं। ये जीव और जगत क्या है ? ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है। जो कुछ भी अस्तित्व में है -वह सब एक मात्र ब्रह्म ही है। इसलिए जब हम श्रीरामकृष्ण की शिक्षाओं पर गौर करते हैं - तो देखते हैं कि उनके सभी उपदेश अत्यंत सुंदर हैं। किन्तु उनकी सबसे अच्छी शिक्षा है - 'अद्वैत ज्ञान को आँचल के खूटे से बाँधकर जो इच्छा हो , वही करो ! ' (अद्वैत ज्ञान आँचले बेंधे , तारपोरे जा इच्छा ताई कोरो।) और सबसे दिलचस्प बात यही है कि -उनके इस उपदेश पर बहुत कम चर्चा होती है। श्री रामकृष्ण ने अपने जीवन से दिखलाया है कि सुन्दर जीवन जीने के लिए यह अद्वैतवादी दृष्टि विकसित करना बहुत उपयोगी है- प्रत्येक वस्तु divine है। हर पुरुष -दिव्य है , हर स्त्री दिव्य है -यहाँ divinity या ब्रह्म के सिवा अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है। इस ज्ञानमयी दृष्टि के विकसित हो जाने के बाद आप अपने जीवन को बहुत सुंदर ढंग से -बुद्धिमत्ता पूर्वक व्यतीत कर सकेंगे। इस ज्ञानमयी दृष्टि को विकसित नहीं कर सकने के कारण ही हमारा जीवन दुःखमय बन जाता है। हमारा जीवन ही खिलवाड़ बन जाता है। श्री रामकृष्ण की सर्वोत्तम शिक्षा यही है - अद्वैत ज्ञान को अपने धोती के खूंटे से बांधकर जो इच्छा वही करो, जीवन को समर्पित करके जीओ । स्वामी ब्रह्मानन्द जी ने श्रीरामकृष्ण के उपदेशों को श्रेणीबद्ध किया है। उसमें वे लिखते हैं -एक भक्त श्रीरामकृष्ण से मिलने आया -और पूछा -ठाकुर एक वाक्य में मुझे ऐसा उपदेश दीजिये जिससे मेरी बुद्धि प्रकाशित हो जाये। श्री रामकृष्ण ने कहा - 'ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या' यदि तुम इस उक्ति के मर्म को आत्मसात कर लेते हो , तो इसी क्षण तुम्हारी बुद्धि प्रकाशित हो जाएगी। इस उपदेश सभी उपनिषदों का सार है , और समस्त अवतारों -सन्तो की भी यही शिक्षा है। उसी शाश्वत सत्य की प्रतिध्वनि है। एक लाइन की शिक्षा -केवल दिव्यता का ही अस्तित्व है।
एक आखरी बिन्दु पर चर्चा करके मैं अपने वक्तव्य को समाप्त करूँगा। अद्वैत आश्रम से बेलूर मठ आते समय मेरे साथ एक ब्रह्मचारी भी थे। जो मेरे साथ कुछ वर्षों से वहीँ रहते हैं। कार में आते समय वे मुझसे एक घटना का उल्लेख कर रहे थे। वह घटना का जिक्र यहाँ के लिए बहुत उपयुक्त होगी। घटना थी स्वामी विवेकानन्द के जीवन की। अपने जीवन के आखरी दिनों में वे अपने कमरे में यही रहते थे। एक दिन उस कमरे से वे बाहर आये और आम के पेड़ के नीचे बैठ गए। अपने भक्तों से जो बातें कहें वे शब्द बहुत महत्वपूर्ण हैं। जीवन के अंतिम क्षणों में स्वामी विवेकानन्द के मन केवल यही भाव था।
स्वामीजी कहते हैं - ये बड़े शर्म की बात है कि हमलोग सामने बैठे इस भगवान को छोड़कर दूसरे भगवान की पूजा अर्चना करते हैं। सामने बैठे इस भगवान - को माने बहुरूपे सम्मुखे तोमार ,छाड़ी कोथाये खुजी छो ईश्वर ? यही उपनिषदों की सर्वमान्य दृष्टि है। उपनिषदों की अंतिम शिक्षा है। ईश्वर की सबसे सुंदर रूप यही है -जो सामने बैठे हैं ! जो खुली आँखों से ईश्वर का ध्यान करने की शिक्षा -Open-eyed Meditation की शिक्षा देते हैं। शायद उनके जीवन का यही सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा है। "सर्वं ह्येतद् ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ." (माण्डुक्योपनिषद् Verse २) यह सम्पूर्ण 'विश्व' 'शाश्वत-ब्रह्म' ही है यह 'आत्मा' 'ब्रह्म' हैं एवं 'आत्मा' चतुर्विध है, इसके चार पाद हैं। 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन ' यह वेदांत का एक मूल सिद्धांत है. इसका मतलब है कि यह सारा संसार ही ब्रह्म है और इसके अलावा कुछ और नहीं है। श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द दोनों उपनिषद के इन शक्तिदायी मंत्रों के मूर्तमान रूप हैं। भक्तों के रूप में हमें यह समझना चाहिए कि श्री रामकृष्ण के जीवन से सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा क्या प्राप्त करना है ? हर जगह ईश्वर को ब्रह्म को दिव्यता को देखना। जीवन दिव्य है , हमारे परिवार के सदस्य दिव्य हैं , हमारे बच्चे , हमारे पति , हमारी पत्नी सब दिव्य हैं। भाई-बहन हर कोई दिव्य है। हर वस्तु का दिव्य रूप में देखना - दृष्टि को ज्ञानमयी बना कर जगत को ब्रह्ममय देखना ही उपनिषदों का सार है। हर व्यक्ति और वस्तु का अध्यात्मीकरण करना है। यही सन्देश गीता में श्रीकृष्ण देते हैं , आचार्य शंकर यही कहते हैं-ज्ञानमय दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए- 'दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद् ब्रह्ममयं जगत्। ' श्री हनुमान जी कहते हैं
-"देहबुद्धया तु दासोऽहं जीवबुद्धया त्वदंशक,
आत्मबुद्धया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥"
देहबुद्धिसे तो मैं दास हूँ, जीवबुद्धिसे आपका अंश ही हूँ और आत्मबुद्धिसे में वही हूँ जो आप.. ठाकुर और स्वामीजी इसी ब्राहमयी दृष्टि के मूर्त रूप थे। हमें भी अपने जीवन में इसी दृष्टि को विकसित करना है। मैं श्री रामकृष्ण से प्रार्थना करता हूँ और दिव्य माँ सारदा से प्रार्थना करता हूँ। यह ज्ञानमयी दृष्टि बिना पवित्र माँ सारदा देवी के अनुग्रह के बिना , कृपा के बिना प्राप्त नहीं होगी। वे महामाया हैं , शक्ति हैं , Divine Mother हैं, जो ज्ञानमयी दृष्टि के द्वार को खोल कर जगत को ब्रह्ममय देखने की या खुली आँखों से ध्यान ध्यान करने का सामर्थ्य देती हैं। यदि मुझे यह दृष्टि प्राप्त हुई है तो यह केवल माँ सारदा देवी के असीम कृपा से ही प्राप्त हो सकती है। मैं पवित्र माँ से भी प्राथना करता हूँ कि हम सबों को ऐसी भक्ति प्राप्त हो। अद्वैत दृष्टि और भक्ति - एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। इसी दृष्टि को हमें अपने जीवन में विकसित करने का प्रयास करते रहना चाहिए। और लक्ष्य प्राप्त न होने तक रुकना नहीं चाहिए।
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अतएव गीता का उपदेश है कि मनुष्य शरीर से तो कर्म करे परन्तु समर्पण की भावना से इससे शक्ति के अपव्यय से बचाव होने के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व का (ठाकुर-माँ -स्वामीजी का दासो अहं की भावना का) भी विकास होता है। आत्मस्वरूप को नहीं जानने वाले पुरुष के लिए कर्तव्य का त्याग उचित नहीं है।
[#####अर्थात जगतगुरु भगवान श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा देवी के आशीर्वाद से तथा स्वामीजी की कृपा और प्रेरणा से अपने अपने सत्य स्वरूप को एक बार पहचान लेने के बाद भी, जीवन और व्यव्हार में उस पहचान की अभिव्यक्ति को चरित्रगत होने तक- प्रवृत्ति से होकर निवर्त्ती में स्थित होने का प्रयत्न करने वाले कर्मी या गृहस्थ साधक के लिए अपने कर्तव्य का त्याग करना उचित नहीं है।]
कोई भी पुरुष कभी क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा अवश हुए सब (पुरुषों) से कर्म करवा लिया जाता है।।
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Volume 2/Jnana-Yoga/ खंड 2/ज्ञान-योग: The real and practical identity of man!/ The real and practical man/
वास्तविक और व्यावहारिक मनुष्य
या
मनुष्य की वास्तविक और प्रतिभाषिक पहचान !
हम अपने चारों ओर जो कुछ देखते हैं , अनुभव करते हैं , छूते हैं , आस्वादन करते हैं, वह सब इसी आकाश की विभिन्न अभिव्यक्ति मात्र है। यह आकाश सूक्ष्म और सर्वव्यापी है। पदार्थ की तीनों अवस्थाएं - ठोस, तरल और गैस , सब प्रकार के नाम-रूप, शरीर , पृथ्वी , सूर्य , चंद्र , तारे -सब इसी आकाश से निर्मित हैं। (२/२१)
वह कौन सी शक्ति है जो इस आकाश पर कार्य करती है और इससे इस जगत्-प्रपंच का निर्माण करती है? आकाश के साथ-साथ एक सर्वव्यापी शक्ति रहती है। जगत में जितनी भी शक्तियाँ हैं -आकर्षण, विकर्षण या विचारशक्ति भी सभी 'प्राण ' नामक एक महाशक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसी प्राण ने आकाश पर कार्य करके इस इस जगत्प्रपंच की रचना की है। कल्पांत में सभी ठोस पदार्थ पिघल जायेंगे, और वह तरल पदार्थ वाष्पीय आकार में परिणत हो जायेगा। और वह अधिक सूक्ष्म और तेज (finer and more uniform heat vibrations एकसमान तापीय कम्पन) में परिवर्तित हो जाएगा, अंत में सब कुछ जिस आकाश से उत्पन्न हुआ था , उसीमें विलीन हो जायेगा। और आकर्षण, विकर्षण और विचार-गति आदि समस्त शक्तियाँ धीरे-धीरे मूल प्राण में परिणत हो जायँगी।
उसके बाद जबतक फिर से कल्पारम्भ नहीं होता, तब तक यह प्राण मानो निद्रित अवस्था में रहेगा। कल्पारम्भ होने पर वह जागकर पुनः नाना नाम-रूपों को प्रकाशित करेगा। और कल्पान्त में फिरसे सब का लय हो जायेगा। पर यह विश्लेषण अधूरा है। इतना तो आधुनिक भौतिक विज्ञान को भी पता है। लेकिन इसके परे की अवस्था - (इन्द्रियातीत सत्य स्वरुप तक) भौतिक विज्ञान की पहुँच नहीं है। पर इस अनुसन्धान का अन्त यहीं नहीं हो जाता है। हमने अभी तक उस वस्तु को प्राप्त नहीं किया, जिसे जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकेगा।
हमने पूरे ब्रह्मांड को दो भागों में विभाजित कर दिया है, जिन्हें पदार्थ (Matter) और ऊर्जा (Energy) कहते हैं, या जिन्हें भारत के प्राचीन दार्शनिकों ने आकाश (Akasha) और प्राण (Prana) कहा है। अगला कदम इस आकाश और प्राण को उनके मूल तत्व में ( into their origin.) पर्यवसित/ (विभाजित या रूपांतरित) करना होगा। इन्हें मन नामक उच्चतर सत्ता में पर्यवसित किया जा सकता है। मन अर्थात महत् अथवा सार्वभौमिक विचार-शक्ति से ही प्राण और आकाश दोनों की उत्पत्ति होती है। आकाश या प्राण की अपेक्षा विचार सत्ता की और अधिक सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है। विचार ही स्वयं इन दोनों में विभक्त हो जाता है। प्रारम्भ में यह सर्वब्यापी मन ही था और इसने स्वयं को व्यक्त , परिवर्तित , और विकसित करके आकाश और प्राण ये दो रूप धारण किये और इन दोनों के सम्मिश्रण से सारा जगत बना।
>>>दर्शन-क्रिया कैसे होती है ?
अब हम मनोविज्ञान (मनःसंयोग -psychology) पर चर्चा करेंगे।
मैं आपको देख रहा हूँ। आँखें देखने के साधन नहीं हैं। वे केवल बाहरी उपकरण हैं। इस चक्षु के पीछे मस्तिष्क में यथार्थ चक्षुरन्द्रिय है। इसीप्रकार नासिका घ्राण-इन्द्रिय नहीं है , घ्राणीन्द्रिय भी उसके पीछे स्थित है। प्रत्येक इन्द्रिय के सम्बन्ध में ऐसा ही समझना चाहिए , कि बाह्य यंत्र या उपकरण इस स्थूल शरीर में अवस्थित हैं और इनके पीछे मस्तिष्क में उनकी इन्द्रिय भी मौजूद है। किन्तु उनके साथ यदि मन नहीं जुड़ा हो -तो आप घंटे की आवाज नहीं सुन पाएंगे। बाहरी यंत्र भले ही आवाज को भीतर ले जाये। मन भी इन्द्रियों के साथ जुड़ा हो फिर भी विषयानुभूति पूर्ण नहीं होगी, भीतर से भी प्रतिक्रिया होनी चाहिए। प्रतिक्रिया से ज्ञान उत्पन्न होगा। बाह्य इन्द्रियों ने मानों मेरे अन्दर संवाद -प्रवाह भेजा। मेरे मन ने उसे लेकर बुद्धि के निकट अर्पित कर दिया। बुद्धि ने निर्णय किया। परन्तु इससे भी विषयानुभूति पूर्ण नहीं हुई। एक अचल वस्तु -परदे की आवश्यकता है जिसपर चित्र डाला जा सके। वह कौन सी वस्तु है जो हर पल गतिशील वस्तु की पहचान को बनाए रखता है? वह कौन सी वस्तु है जो विभिन्न गतियों के भीतर भी प्रतिक्षण एकत्व की रक्षा किये रहती है ? और उस वस्तु को शरीर और मन की तुलना ,में अचल होना आवश्यक है। यदि पर्दा अचल न हुआ तो उस पर चित्र पड़ेगा ही नहीं। अर्थात उस वस्तु को, उस द्रष्टा को एक व्यक्ति (Individual) होना चाहिए। जिस वस्तु पर मन यह सब चित्रांकन करता है , जिस पर मन और बुद्धि द्वारा ले जाई गई संवेदनाएँ स्थापित , श्रेणीबद्ध और एकत्रीभूत होती हैं , बस उसीको मनुष्य की आत्मा कहते हैं। (२/२४)
तो , हमने देखा है कि समष्टि मन, महत जो है वो आकाश और प्राण इन दो भागों में विभक्त है।और मन के पीछे है आत्मा ! समष्टि मन के पीछे जो आत्मा है , उसे ईश्वर (इष्टदेव) कहते है। व्यष्टि में यह मनुष्य की आत्मा मात्र है। जिस प्रकार समष्टि मन ही आकाश और प्राण के रूप परिणत हो गया है , उसी प्रकार समष्टि-आत्मा भी मन के रूप में परिणत हो गयी है। तो क्या मनुष्य का मन ही उसके शरीर का स्रष्टा है और क्या उसकी आत्मा उसके मन की स्रष्टा है? अर्थात्, मनुष्य का शरीर, मन और आत्मा - ये तीन (3H) क्या तीन विभिन्न वस्तुयें हैं , अथवा ये एक के भीतर ही तीन हैं , अथवा ये सब एक ही सत्ता की तीन विभिन्न अवस्थाएं हैं ? अबतक हमने देखा कि पहले तो यह स्थूल देह है, उसके पीछे इन्द्रियां हैं , फिर मन , उसके बाद बुद्धि और बुद्धि के पीछे आत्मा। तो पहली बात ये हुई कि आत्मा शरीर से पृथक है, तथा वह मन से भी पृथक है ! बस यहीं से धर्म जगत में मतभेद देखा जाता है। द्वैतवादी कहते हैं कि आत्मा सगुण है , अर्थात भोग, सुख-दुःख आदि सभी वास्तव में आत्मा के धर्म हैं , पर अद्वैतवादी कहते हैं कि आत्मा निर्गुण है, उसमें ये धर्म नहीं है।
यह आत्मा आकाश और प्राण से गठित न होने के कारण तथा शरीर और मन (अहंकार) से पृथक होने के कारण - निश्चित रूप से अजर , अमर, अविनाशी है !! क्यों ? मृत्यु का या शरीर-मन के नश्वर होने का क्या अर्थ है ? विघटित ( decomposed) हो जाना ; और जो वस्तु कुछ पदार्थों के संयोजन से बनती हैं , वही विघटित भी होती है। जो अन्य पदार्थों के संयोजन से उत्तपन्न नहीं हुई है , वह कभी विघटित नहीं होती। इसलिए वह अविनाशी है। इस शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा रहेगी।
वेदान्तियों के मतानुसार जब इस नश्वर शरीर का नाश हो जाता है , तब मनुष्य की इन्द्रियाँ मन में लीन हो जाती हैं , मन का प्राण में लय हो जाता है , प्राण आत्मा में प्रविष्ट हो जाता है और तब मानव की आत्मा मानो सूक्ष्म शरीर अथवा लिंगशरीर रूपी वस्त्र पहनकर चली जाती है। इस सूक्ष्म शरीर में ही मनुष्य के सारे संस्कार वास करते हैं। मनुष्य के मर जाने पर भी ये संस्कार उसके मन में विद्यमान रहते हैं - वे फिर सूक्ष्म शरीर पर कार्य करते रहते हैं। जो लोग मुक्ति की निकटतम सीढ़ी पर पहुँच गए हैं , जिनमें अपवित्रता बहुत कम रह गयी है , वे ही सूर्य किरणों के सहारे ब्रह्मलोक में जाते हैं। जो मध्यम वर्ग के लोग हैं , जो स्वर्ग जाने की इच्छा से सत्कर्म करते हैं , वे चंद्रलोक में जाकर वहाँ के स्वर्गों में वास करते हैं , और देव शरीर प्राप्त करते हैं , पर मुक्ति की प्राप्ति के लिए उन्हें पुनः मनुष्य देह धारण करनी पड़ती है। जो अत्यंत दुष्ट हैं वे राक्षस आदि निम्न-योनियों में जाने के बाद पशु शरीर में जन्म लेते हैं , और मुक्ति लाभ के लिए उन्हें फिर से मनुष्य-जन्म ग्रहण करना पड़ता है।
इस पृथ्वी को कर्मभूमि ( the sphere of Karma) कहा जाता है, अच्छा-बुरा सभी कर्म यहीं करना होता है। वेदान्त मत से मनुष्य ही जगत में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और यह कर्मभूमि पृथ्वी ही सर्वश्रेष्ठ स्थान है , क्योंकि एकमात्र यहीं पर उसके पूर्णत्व प्राप्त करने की सर्वोत्कृष्ट और सर्वाधिक सम्भावना है। देवदूत या देवता आदि को भी पूर्ण (perfect) होने के लिए मनुष्य-जन्म ग्रहण करना पड़ेगा। यह मानव-जीवन एक महान केंद्र , अद्भुत स्थिति (the wonderful poise) और अद्भुत अवसर (wonderful opportunity) है।
आत्मा, मन और शरीर , ये तीनों (3H) पृथक-पृथक वस्तुएं नहीं हैं , बल्कि वे एक ही हैं , क्योंकि इन तीनों से बना हुआ यह प्राणी वस्तुतः एक ही है। एक ही वस्तु कभी देह , कभी मन और कभी देह और मन से परे आत्मा के रूप में प्रतीत होती है। किन्तु वह एक ही समय में यह तीनों नहीं होती। जो शरीर को देखते हैं , वे मन को नहीं देख पाते ; जो मन को देखते हैं वे आत्मा को नहीं देख पाते ; और जो आत्मा को देखते हैं, उनके लिए शरीर और मन , दोनों न जाने कहाँ चले जाते हैं ! जो लोग केवल गति देखते हैं [चलचित्र फिल्म शोले देखते हैं], वे सम्पूर्ण स्थिर भाव (पर्दे) को नहीं देख पाते , और जो इस सम्पूर्ण स्थिर-भाव को (पर्दे को) देख पाते हैं, उनके लिए गति (चलचित्र की कथा महाभारत या शोले)/ न जाने कहाँ चली जाती है। रज्जु में सर्प का भ्रम हुआ। जो व्यक्ति रज्जु में सर्प देखता है , उसके लिए रज्जु न जाने कहाँ चली जाती है , और जब भ्रान्ति दूर हो जाने पर वह व्यक्ति रज्जु देखता है, तो उसके लिए फिर सर्प नहीं रह जाता। (2/30)
तो हमने देखा कि सर्वव्यापी सत्ता एक ही है, और वह 'एक' ही 'अनेक' रूपों में प्रतीत होती है। (and that one appears as manifold.) अद्वैतवादियों की भाषा में यह आत्मा ही ब्रह्म है, जो नाम-रूप की उपाधि के कारण अनेक प्रतीत हो रहा है। समुद्र की तरंगों की ओर देखो; एक भी तरंग समुद्र से पृथक नहीं है। फिर भी तरंग क्यों पृथक प्रतीत होती है ? नाम और रूप के कारण - तरंग की आकृति और उसे हमने जो 'तरंग ' नाम दिया है, बस, इन दोनों ने उसे समुद्र से पृथक किया है। नाम-रूप के नष्ट हो जाने पर वह समुद्र की समुद्र ही रह जाती है। तरंग और समुद्र के बीच भला कौन भेद कर सकता है। वास्तव में "मैं" अथवा "तूम" कुछ नहीं है- सब एक ही है। चाहे कह लो ' सभी मैं हूँ ", या कह लो -" सभी तूम हो "। यह द्वैत ज्ञान बिल्कुल मिथ्या है, और सारा जगत इसी द्वैत ज्ञान का फल है। जब विवेक का उदय होने पर [विवेकदर्शन के अभ्यास से विवेक-श्रोत के उद्घाटित होकर विवेकज ज्ञान होने पर ] मनुष्य देखता है कि दो वस्तुएं नहीं हैं , एक ही वस्तु है , तब उसे यह बोध होता है कि वह स्वयं ही यह अनंत ब्रह्माण्ड स्वरुप है। और मैं ही अपरिणामी , निर्गुण , नित्य पूर्ण (100 % नहीं 99. 9 %? निःस्वार्थपर) , नित्यानन्दमय हूँ -सच्चिदानन्द हूँ ! (२/३१)
दो प्रश्न उठते हैं - पहला क्या इसकी उपलब्धि सम्भव है ? दूसरा क्या सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) की उपलब्धि के बाद उनकी तुरंत मृत्यु हो जाती है ? ऐसे अनेक व्यक्ति संसार में इस समय जीवित हैं , जिनका अज्ञान सदा के लिए चला गया है। ...उतनी जल्दी नहीं, जितनी जल्दी हम समझते हैं।मानलो एक लकड़ी से जुड़े हुए दो पहिये साथ-साथ चल रहे हैं। अब यदि मैं एक पहिये को पकड़ कर बीच की लकड़ी को कुल्हाड़ी से काट दूँ , तो जिस पहिये को मैंने पकड़ रखा है , वह तो रुक जायेगा , पर दूसरा पहिया , जिसमें पहले का वेग कभी नष्ट नहीं हुआ है , कुछ दूर चलेगा और फिर गिर पड़ेगा। पूर्ण शुद्धस्वरुप आत्मा मानों एक पहिया है , और शरीर -मनरूप भ्रान्ति दूसरा पहिया ; ये दोनों कर्मरूपी लकड़ी द्वारा जुड़े हुए हैं। ज्ञान मानो कुल्हाड़ी है , जो जोड़नेवाली इस लकड़ी को काट देता है। .. जब तक पूर्व कर्मों का वेग बचा रहता है, पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता , तबतक शरीर और मन बने रहते हैं। यह वेग समाप्त हो जाने पर इनका भी नाश हो जाता है तब आत्मा मुक्त हो जाती है। जिन व्यक्तियों ने इस जीवन में ही इस अवस्था को प्राप्त कर लिया है , जिन्हें कम से एक मिनट के लिए भी संसार का यह साधारण दृश्य बदलकर सत्य का ज्ञान मिल गया है , उन्हें जीवन्मुक्त कहते हैं। जीवित रहते हुए यह मुक्ति प्राप्त करना ही वेदान्ती का का लक्ष्य है। " (२/३६)
" एक दिन यह मरीचिका (जगत-प्रपंच) अदृश्य हो जाएगी। पर वह फिर से आ जाएगी - शरीर को पूर्व कर्मों के अधीन रहना पड़ता है , अतः यह मरीचिका फिर से लौट आएगी। जब तक हम कर्म से बंधे हुए हैं , तबतक जगत हमारे सम्मुख आएगा ही। नर, नारी , पशु , उद्भिद, आसक्ति , कर्तव्य -सबकुछ आएगा , पर वे पहले की भाँति हम पर प्रभाव न डाल सकेंगे। इस नवीन ज्ञान के प्रभाव से कर्म की शक्ति का नाश हो जायेगा , उसके विष के दाँत टूट जायेंगे, जगत हमारे लिए एकदम बदल जायगा ; क्योंकि जैसे ही जगत दिखाई देगा , वैसे ही उसका स्वरुप और सत्य तथा मरीचिका के भेद का ज्ञान भी हमारे सामने प्रकाशित हो जायेगा। " (२/३६)
" मनुष्य परमार्थतः मुक्त ही है , किन्तु ज्योंही वह माया के जगत में आता है , ज्योंही नाम-रूप के भीतर पड़ जाता है , त्योंही वह बद्ध हो जाता है ? 'स्वाधीन इच्छा ' कहना ही भूल है। इच्छा कभी स्वाधीन हो नहीं सकती। होगी कैसे ? जो प्रकृत मनुष्य है , वह जब बद्ध हो जाता है , तभी उसकी इच्छा की उत्पत्ति होती है, उससे पहले नहीं। मनुष्य की इच्छा बद्ध है , किन्तु जो इसका आधार है , वह तो सदा ही मुक्त है। " (२/३७)
" जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, जिहोंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिए अतीत जीवन के शुभ-संस्कार , शुभ-वेग ही बचा रहता है। शरीर में वास करते हुए भी और अनवरत कर्म करते हुए भी वे केवल सत्कर्म ही करते हैं ; उनके मुख से सबके प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है। वे स्वयं एक सजीव आशीर्वाद होते हैं। यदि वह कुछ भी न बोले, तो भी उसका होना मात्र मानवता के लिए एक आशीष-स्वरूप है। ऐसा व्यक्ति अपनी उपस्थिति मात्र से घोर दुरात्मा को भी संत बना देता है। " (२/३८)
" अतएव जिन्होंने परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) को प्रत्यक्ष कर लिया है , उन्हें फिर सत्य को समझने के लिए न्याय -युक्ति , तर्क-वितर्क आदि बौद्धिक व्यायामों की आवश्यकता नहीं रह जाती। उनके लिए परम् 'सत्य जीवन का जीवन या हस्तामलकवत हो गया है। आत्मानुभूति सम्पन्न लोग निःसंकोच भाव से कह सकते है - "Here is the Self" - 'यही आत्मा है !' तुम उनके साथ कितना ही तर्क क्यों न करो , वे तुम्हारी बात पर केवल हँसेंगे। वे उन्हें बकने देंगे। उन्होंने अपने सत्यस्वरूप की अनुभूति कर लिया है , और पूर्ण हो गए।
मान लो कि तुम एक देश देखकर आये, और कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आकर यह तर्क करने लगे इस उस देश का कहीं अस्तित्व ही नहीं है। वह फिर कितना ही तर्क क्यों न करे , पर उसके प्रति तुम्हारा भाव यही रहेगा कि वह पागलखाने में भेज देने लायक है। इसी प्रकार, जो आत्मसाक्षात्कार कर चुके हैं , वे कहते हैं - "जगत में धर्म सम्बन्धी जो बातें सुनी जाते हैं, वे सब केवल बच्चों की सी बातें हैं। आत्मसाक्षात्कार ही धर्म का सार है। धर्म की उपलब्धि की जा सकती है। realization is the soul, the very essence of religion." Religion can be realised. क्या तुम तैयार हो? क्या तुम इसे चाहते हो? अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम्हें आत्मसाक्षात्कार मिलेगा, और तब तुम सच्चे धार्मिक होगे। जब तक तुम्हें आत्मसाक्षात्कार नहीं मिल जाता, तब तक तुममें और नास्तिकों में कोई अंतर नहीं है। नास्तिक तो फिर भी निष्कपट होते हैं, लेकिन जो व्यक्ति कहता है कि 'मैं धर्म में विश्वास करता हूँ ,पर कभी उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति की चेष्टा नहीं करता, वह निश्चय ही निष्कपट नहीं है। (२/३९)
The Real and the Apparent Man
Everything that we see around us, feel, touch, taste, is simply a differentiated manifestation of this Akasha. It is all-pervading, fine. All that we call solids, liquids, or gases, figures, forms, or bodies, the earth, sun, moon, and stars — everything is composed of this Akasha. This Prana, acting on Akasha, is creating the whole of this universe.
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ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।
अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः॥
ब्रह्म वास्तविक है, ब्रह्मांड मिथ्या है (क्योंकि इसे सत्य या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है)। जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है।
फिल्म आलाप - Movie/(1977)
Music By: जयदेव/Performed By:
लता मंगेशकर, दिलराज कौर,
रागभैरवी :
माता सरस्वती सारदा ,
हे माता , सरस्वती सारदा !
विद्या दानी, दयानी, दुःख हरिणी।
जगत जननी ज्वालामुखी,
माता सरस्वती सारदा।
कीजे सुदृष्टि, सेवक जान अपना,
इतना वरदान दीजे,
तान, ताल और आलाप
बुद्धी अलंकार, सारदा
हे माता सरस्वती सारदा, हे माता सरस्वती सारदा जगजननी ज्वालामुखी /
विद्यादानी दयानी दुःखहरिणी, जगतजननी ज्वालामुखी, माता सरस्वती, सारदा ।।
"আরও প্রেমে, আরও প্রেমে
মোর 'আমি' ডুবে যাক নেমে..."
বিশ্বাস এই যে, 'আমি' র বিনাশ প্রাপ্তির জন্যেই দিব্যত্রয়ী প্রদর্শিত পথে আমাদের পা ফেলা। এভাবেই আমরা একদিন ঠিক পৌঁছে যাবো আমাদের পরম কাঙ্খিত শ্রীরামকৃষ্ণলোকে।
'ও দুটি চরণ সার' আধ্যাত্মিক গ্ৰুপটি হয়ে উঠুক সেই কাঙ্খিত ধামে পৌঁছনোর সোপান স্বরূপ।
আমাদের লক্ষ্য হোক অনন্ত ভাবময় ঠাকুরের বার্তা মানুষের দ্বারে দ্বারে পৌঁছে দেওয়া---শিবজ্ঞানে জীবসেবা।
এখানে থাকবে না কোনও ব্যবসায়িক প্রলোভন। থাকবে না ব্যক্তিগত স্বার্থ সিদ্ধির প্রয়াস। থাকবে কেবল জগৎবাসীর জন্য আন্তরিক ভালবাসা ও প্রার্থনা।
'গুরু কৃপাহি কেবলম্'
मैहर घराना : सारदा माता मंदिर-
ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान शिव मृत माँ देवी (हिंदी में माई ) सती के शरीर को ले जा रहे थे , तो उनका हार ( हिंदी में हर ) इस स्थान पर गिरा और इसलिए इसका नाम “मैहर” पड़ा (मैहर = माई + हर , जिसका अर्थ है “माँ का हार”)।मैहर के स्थानीय लोगों के अनुसार, राजा परमर्दिदेव चंदेल के शासन में योद्धा आल्हा और उदल , जिनका पृथ्वी राज चौहान के साथ युद्ध हुआ था , सारदा देवी के बहुत बड़े अनुयायी थे।ऐसा कहा जाता है कि वे इस सुदूर जंगल में देवी के दर्शन करने वाले पहले व्यक्ति थे। उन्होंने माँ देवी को “सारदा माई” के नाम से पुकारा, और तब से वे “माता सारदा माई” के रूप में लोकप्रिय हो गईं मैहर का इतिहास पुरापाषाण काल से जुड़ा है ।
मैहर दो बातों के लिए मशहूर है मां शारदा देवी के मंदिर और पद्म विभूषण उस्ताद बाबा अलाउद्दीन खां की कर्मभूमि के रूप मे. बाबा अलाउद्दीन खां का जन्म 1862 मे हुआ था पूर्वी बंगाल में जो आज बांग्लादेश है.माना जाता है कि वो मियाँ तानसेन की शिष्य परंपरा के अंग थे. उनके कई मशहूर शिष्यों में पंडित रविशंकर और अली अक़बर ख़ान जैसे कलाकार शामिल हैं. बाबा के परिवार में नौ पद्म सम्मान बाबा अलाउद्दीन खान पद्म भूषण पद्म विभूषण बाबा के पुत्र डॉ अली अकबर खान पद्म भूषण पद्म विभूषण बाबा की बेटी अन्नपूर्णा पद्मभूषण पद्म विभूषण बाबा के दामाद पंडित रविशंकर जी पद्मभूषण पद्म विभूषण एवं भारत रत्न।
बाबा अलाउद्दीन खां की एक बड़ी उपलब्धि थी मैहर वाद्य वृंद का गठन- सरोद वादन के अलग राग ध्रुपद संगीत , होरी , कजरी , टप्पा के लिए विशेष रूप से आविष्कृत सरोद के वादक पण्डित आशीष खां - का कहना है , मैहर घराने का सरोद अरबिक धुन पर नहीं बजाया जा सकता है !
मैहर के महाराज बृजनाथ सिंह बीसवीं सदी की शुरुआत में उन्हें मैहर लाए थे. लेकिन बाबा जितना दरबार में बजाते थे उससे कहीं अधिक नियमित रूप से मां शारदा देवी के मंदिर में गाते थे. राजमाता कवितेश्वरी देवी द्वारा बताया गया कि बाबा अलाउद्दीन खां की एक बड़ी उपलब्धि थी मैहर वाद्य वृंद का गठन । बाबा अलाउद्दीन खां का घर उनकी सादा जीवन शैली और सर्वधर्म सरोकार का परिचय देता है. घर के दो नाम हैं-मदीना भवन और शांति भवन।
मैहर राज्य की स्थापना ( कछवाहा राजपूत )-
मैहर रियासत की स्थापना कछवाहा वंशज श्रीमंत महाराजा बेनी सिंह जूदेव के द्वारा 1770 में की गयी जिसका क्षेत्रफल 407 वर्ग किलोमीटर था। उनके बाद उनके पुत्र महाराजा दुर्जन सिंह जूदेव गद्दी पर आसीन हुए।मैहर में स्थित माँ सारदा /शारदा के मंदिर का निर्माण और मैहर क्षेत्र का विकास और परकोटा बनाकर मैहर क्षेत्र को सुरक्षित किया।
1820 में महाराजा दुर्जन सिंह ने अपना तुलादान करवाया और माँ सारदा /शारदा के मंदिर पहुँचने के लिये सीढ़ियों का निर्माण करवाया और दर्शनार्थियों के लिए दो बावलियों का निर्माण भी करवाया।ब्रिटिश काल में उनके परपोते महाराजा रघुवीर सिंह जूदेव (1844-1908) ने मैहर शहर का और विकास कर कई और मंदिरों का निर्माण करवाया।उनके परपोते महाराजा बृजनाथ सिंह जूदेव (1896-1968) ने मैहर का आधुनिक विकास कराया जैसे पुलघटा का निर्माण रेलवे स्टेशन (1934) बाबा अल्लाउद्दीन खां साब को मैहर लाकर मैहर घराने की स्थापना की।बाबा प्रतिदिन की नमाज के साथ मां सारदा /शारदा के दर्शन करने भी मंदिर जाया करते थे । एक दिन लौटते वक्त बन्दूक के पाइप का एक टुकड़ा जो उनके पैरों से टकराया और वह सीढी से से नीचे की ओर विभिन्न स्थितियों मैं गिरता जा रहा था। और बाबा को उसके टकराने से संगीत के स्वर मिल रहे थे, बाबा ने यह बात आकर महाराजा बृजनाथ सिंह जू देव जी से बताइ। बाबा की बात सुनकर महाराज साहब ने बंदूक की पचासो नालियां कटवा दी बाबा ने उन नालियों को स्वरबद्ध कर दिया और लय में लाकर एक विश्व का अद्वितीय इकलौता वाद्य नल तरंग का ईजाद किया।
मैहर सेनिया घराना
( संगीत नगरी ) मैहर, हिंदुस्तानी संगीत की एक घराना सेनिया घराना(स्कूल या शैली) का जन्मस्थान के रूप में एक भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक प्रमुख स्थान है। भारतीय शास्त्रीय संगीत उस्ताद अलाउद्दीन खान (1972 मृत्यु हो गई) की सबसे बड़ी दिग्गज लंबे समय के लिए यहां रहते थे और मैहर के महाराजा पैलेस के दरबार संगीतकार और उसकी छात्रों श्रीमती अन्नपूर्णा देवी (अलाउद्दीन खान की बेटी) उस्ताद अली अकबर खान (अलाउद्दीन खान के पुत्र), पंडित रवि शंकर बाबा के दामाद अलाउद्दीन खान के चार पोते – उस्ताद आशीष खान, उस्ताद ध्यानेश खान , उस्ताद प्रणेश खान , अमरेश खान, बाबा की एक पोती अमीना परेरा, उस्ताद बहादुर खान (अलाउद्दीन खान के भतीजे), तिमिर बारां भट्टाचार्य (अलाउद्दीन खान के पहले छात्र) पं. इन्द्रनील(तिमिर बारां भट्टाचार्य के पुत्र) भट्टाचार्य, वसंत राय पंडित पन्नालाल घोष, पंडित निखिल बनर्जी (अलाउद्दीन खान के छात्रों) (अलाउद्दीन खान की अंतिम छात्र) बीसवीं शताब्दी| पहले उस्ताद अलाउद्दीन खां सब ने जब जीवन के 100 वर्ष पूर्ण किए तो मध्य प्रदेश कला परिषद ने उन्हें भोपाल में सम्मानित किया। मैहर की जनता भी लालायत थी अपने बाबा का सम्मान अपने मैहर में करने के लिए तत्कालीन उद्योग मंत्री श्री गोपाल शरण सिंह जी के कुशल मार्गदर्शन में शरद पूर्णिमा के दिन 1962 में यह आयोजन करने की जवाबदारी दीप चंद जैन को दी, कलाकार गुरु शिष्य परंपरा में घर पर ही रहते थे इस सम्मेलन कलाकारों अली अकबर, पंडित रवि शंकर, पंडित राम नारायण , पंडित शांता प्रसाद , निखिल बनर्जी पंडित उस्ताद , सरन रानी, एचडी डेबिट आदि।
उस्ताद अलाउद्दीन खाँ (1862 – 6 सितम्बर 1972) एक बहुप्रसिद्ध सरोद वादक थे साथ ही अन्य वाद्य यंत्रों को बजाने में भी पारंगत थे। वह एक अतुलनीय संगीतकार और बीसवीं सदी के सबसे महान संगीत शिक्षकों में से एक माने जाते हैं। सन् 1935 में पंडित उदय शंकर के बैले समूह के साथ खाँ साहब ने यूरोप का दौरा किया और इसके बाद काफी लंबे समय तक उत्तराखंड के अल्मोड़ा में स्थित ‘उदय शंकर इण्डिया कल्चर सेंटर’ से भी जुड़े रहे। अपने जीवन काल में उन्होंने कई रागों की रचना की और विश्व संगीत जगत में विख्यात मैहर घराने की नींव रखी। उनकी सबसे खास रिकॉर्डिंग्स में से ऑल इण्डिया रेडियो के साथ 1950-60 के दशक में की गई उनकी रिकॉर्डिंग सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं।
संस्कृति और विरासत
मैहर (रियासत राज्य)
महामहिम महाराजा श्रीमंत साहेब अक्षयराज सिंह जूदेव बहादुर , मैहर के 12 वें महाराजा साहेब का जन्म 1985, 26 फरवरी 2014 को एचएच महारानी साहेब स्वर्णिम कुमारी जूदेव से शादी हुई , जो हट्टा के श्री कुंवर आदित्य वर्धन सिंहजी हजारी और स्वर्गीय श्रीमती पद्मजा राजे हजारी की बेटी हैं और उनकी एक बेटी है।
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ज्ञान गंगोत्री गीता :
कुरुक्षेत्र की रणभूमि में हताश-निराश , अज्ञान और मोह से ग्रस्त अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण द्वारा 18 अध्याय और 700 श्लोकों में दिये गए श्रीमद्भगवत गीता के दिव्य ज्ञान में हमारी समस्त आध्यात्मिक ग्रन्थों {उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र ,योगदर्शन आदि} का सार निहित है। गीता के ज्ञान ने ही अर्जुन को अजर-अमर -अविनाशी आत्मा का आत्मिक बल प्रदान किया था। जिसके बाद उसने घोषणा की थी -
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।
।।18.73।। अर्जुन ने कहा -- हे अच्युत ! आपके कृपाप्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया है, और मुझे स्मृति (ज्ञान-?आत्मज्ञान !!!) प्राप्त हो गयी है? अब मैं संशयरहित हो गया हूँ और मैं आपके वचन (आज्ञा) का पालन करूँगा।।
गीता में आत्मा , परमात्मा , संसार , जन्म-मृत्यु , पुनर्जन्म, सांसारिक जीवन और मोक्ष जैसे गूढ़ आध्यात्मिक विषयों की सरल व्याख्या है। श्रीमद्भगवत गीता से ज्ञानयोग (शांख्ययोग), कर्मयोग (या भक्तियोग) के मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा मिलती है। अपने व्यावहारिक जीवन में उत्कृष्ट कर्मों को करने के प्रति सजगता , निष्ठा, कुशलता के साथ परिपूर्ण करना ही गीता का मर्म है।
गीता मनुष्य को अधर्म और अनीति के समक्ष दृढ़ संकल्पित होकर [मैं एक चरित्रवान मनुष्य अवश्य बनूँगा का संकल्प -ग्रहण करके] संघर्ष करने की प्रेरणा देती है। सांसारिक जीवन में रहते हुए प्रत्येक मनुष्य के मानसपटल पर जब जड़ता , तामसिकता , आलस्य , प्रमाद , चिंता , अशांति एवं कर्तव्य-विमुखता छा जाती है , तब ऐसे अशांत चित्त को गीता का स्वर्णिम चिंतन सकारत्मकता , उल्लास एवं आंतरिक ऊर्जा से परिपूर्ण कर देता है।
गीता का चिंतन सूक्ष्म, आध्यात्मिक एवं दार्शनिक सूत्रों से परिपूर्ण होते हुए भी मनुष्य का मार्गदर्शन करता है। प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में हर क्षण महाभारत जारी है। जहाँ कौरव अर्थात आसुरी या पाशविक प्रवृत्तियाँ बहुत अधिक संख्या में हैं ,और पाण्डव अर्थात सात्विक प्रवृत्तियों की संख्या सीमित है। व्यावहारिक जीवन में प्रवृत्तियों के इस देवासुर संग्राम में विजय अंत में दैवी प्रवृत्तियों की होती है।
ज्ञान की गंगोत्री श्रीमद्भगवत गीता के स्वर्णिम सूत्र [Golden Rule] हमें गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में , वैसा मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा- Be and Make ' की शिक्षा प्रदान करते हैं, कि जहाँ पर आध्यात्मिक मूल्यों से ओतप्रोत योगेश्वर श्रीकृष्ण जैसा चरित्र तथा क्षत्रिय-शक्तियों से परिपूर्ण अर्जुन जैसा धुरन्धर योद्धा होते हैं , वहाँ जीवन के हर पथपर विजय प्राप्त होती है। श्रीमद्भगवत गीता का यह स्वर्णिम सूत्र -
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।
।।18.78।। जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है।।
जीवनपथ पर कठिनाइयों, संघर्षों, दुःखों से अशांत एवं हताश मनुष्य को तत्परता और निष्ठा से विषम विषम-परिस्थितियों में संघर्ष करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। ज्ञान की गंगोत्री गीता का यह चिरंतन -चिंतन प्रत्येक मनुष्य के लिए दैनंदिन-जीवन रूपी अंधकार में मार्गदर्शक प्रकाश स्तम्भ (Light-house) के समान है।
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अतएव गीता का उपदेश है कि मनुष्य शरीर से तो कर्म करे परन्तु समर्पण की भावना से इससे शक्ति के अपव्यय से बचाव होने के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व का (ठाकुर-माँ -स्वामीजी का दासो अहं की भावना का) भी विकास होता है। आत्मस्वरूप को नहीं जानने वाले पुरुष के लिए कर्तव्य का त्याग उचित नहीं है।
[#####अर्थात जगतगुरु भगवान श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा देवी के आशीर्वाद से तथा स्वामीजी की कृपा और प्रेरणा से अपने अपने सत्य स्वरूप को एक बार पहचान लेने के बाद भी, जीवन और व्यव्हार में उस पहचान की अभिव्यक्ति को चरित्रगत होने तक- प्रवृत्ति से होकर निवर्त्ती में स्थित होने का प्रयत्न करने वाले कर्मी या गृहस्थ साधक के लिए अपने कर्तव्य का त्याग करना उचित नहीं है।]
कोई भी पुरुष कभी क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा अवश हुए सब (पुरुषों) से कर्म करवा लिया जाता है।।
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ज्ञान गंगोत्री गीता :
कुरुक्षेत्र की रणभूमि में हताश-निराश , अज्ञान और मोह से ग्रस्त अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण द्वारा 18 अध्याय और 700 श्लोकों में दिये गए श्रीमद्भगवत गीता के दिव्य ज्ञान में हमारी समस्त आध्यात्मिक ग्रन्थों {उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र ,योगदर्शन आदि} का सार निहित है। गीता के ज्ञान ने ही अर्जुन को अजर-अमर -अविनाशी आत्मा का आत्मिक बल प्रदान किया था। जिसके बाद उसने घोषणा की थी -
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।
।।18.73।। अर्जुन ने कहा -- हे अच्युत ! आपके कृपाप्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया है, और मुझे स्मृति (ज्ञान-?आत्मज्ञान !!!) प्राप्त हो गयी है? अब मैं संशयरहित हो गया हूँ और मैं आपके वचन (आज्ञा) का पालन करूँगा।।
गीता में आत्मा , परमात्मा , संसार , जन्म-मृत्यु , पुनर्जन्म, सांसारिक जीवन और मोक्ष जैसे गूढ़ आध्यात्मिक विषयों की सरल व्याख्या है। श्रीमद्भगवत गीता से ज्ञानयोग (शांख्ययोग), कर्मयोग (या भक्तियोग) के मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा मिलती है। अपने व्यावहारिक जीवन में उत्कृष्ट कर्मों को करने के प्रति सजगता , निष्ठा, कुशलता के साथ परिपूर्ण करना ही गीता का मर्म है।
गीता मनुष्य को अधर्म और अनीति के समक्ष दृढ़ संकल्पित होकर [मैं एक चरित्रवान मनुष्य अवश्य बनूँगा का संकल्प -ग्रहण करके] संघर्ष करने की प्रेरणा देती है। सांसारिक जीवन में रहते हुए प्रत्येक मनुष्य के मानसपटल पर जब जड़ता , तामसिकता , आलस्य , प्रमाद , चिंता , अशांति एवं कर्तव्य-विमुखता छा जाती है , तब ऐसे अशांत चित्त को गीता का स्वर्णिम चिंतन सकारत्मकता , उल्लास एवं आंतरिक ऊर्जा से परिपूर्ण कर देता है।
गीता का चिंतन सूक्ष्म, आध्यात्मिक एवं दार्शनिक सूत्रों से परिपूर्ण होते हुए भी मनुष्य का मार्गदर्शन करता है। प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में हर क्षण महाभारत जारी है। जहाँ कौरव अर्थात आसुरी या पाशविक प्रवृत्तियाँ बहुत अधिक संख्या में हैं ,और पाण्डव अर्थात सात्विक प्रवृत्तियों की संख्या सीमित है। व्यावहारिक जीवन में प्रवृत्तियों के इस देवासुर संग्राम में विजय अंत में दैवी प्रवृत्तियों की होती है।
ज्ञान की गंगोत्री श्रीमद्भगवत गीता के स्वर्णिम सूत्र [Golden Rule] हमें गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में , वैसा मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा- Be and Make ' की शिक्षा प्रदान करते हैं, कि जहाँ पर आध्यात्मिक मूल्यों से ओतप्रोत योगेश्वर श्रीकृष्ण जैसा चरित्र तथा क्षत्रिय-शक्तियों से परिपूर्ण अर्जुन जैसा धुरन्धर योद्धा होते हैं , वहाँ जीवन के हर पथपर विजय प्राप्त होती है। श्रीमद्भगवत गीता का यह स्वर्णिम सूत्र -
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।18.78।
।।18.78।। जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है।।
जीवनपथ पर कठिनाइयों, संघर्षों, दुःखों से अशांत एवं हताश मनुष्य को तत्परता और निष्ठा से विषम विषम-परिस्थितियों में संघर्ष करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। ज्ञान की गंगोत्री गीता का यह चिरंतन -चिंतन प्रत्येक मनुष्य के लिए दैनंदिन-जीवन रूपी अंधकार में मार्गदर्शक प्रकाश स्तम्भ (Light-house) के समान है।
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रविवार चिरंतिनि : 15 -12 - 2024 / ब्राह्म संगीत /उज्ज्वल घोष ?
"अनन्त अपार तोमाये के जाने ? अजर अमर चिन्मय नित्य निरंजन पावन हे।/ तोमार ई तुलना तुमि देखा न दिले प्राणे ज्ञाने ?
>>>हमलोगों के भीतर जो द्वैत सत्ता हैं - वे कौन हैं > ? रविन्द्र नाथ कविता -और जो अद्वैत सत्ता हैं वे कौन हैं ? के आचेन? ? की चाई ? मोन केमन कोरे ? बेथिक पोथेर पथिक। रूप के भीतर अरूप को खोजने का प्रयास। रूप से अरूप में चलने की पद्धति।
14 जनवरी 1985 को मकरसंक्रान्ति के दिन जब एक अन्तर्निहित सत्ता (द्वासुपर्णा का नीचे वाला पक्षी ) मार्ग नहीं खोज पा रहा था , उस समय एक अंतर्निहित सत्ता (ऊपर वाला पक्षी अपना दूत स्वामी विवेकानन्द - गुरुदेव - नवनीदा को भेजकर उसका हाथ पकड़ कर सन्मार्ग पर ले जाती है। वही सत्ता हमारे आदर्श और इष्टदेव होते हैं।
एक सुंदर गाँव की कहानी सुने : के पहले रविंद्र नाथ का लिखा ब्राह्मसंगीत प्रभाती संगीत सुना जाये > जागो कुलवासी ब्राह्मसंगित : जागो जागो प्रेम पियासी। शुभ दिने। एक सुंदर गाँव की कहानी। उस गाँव में एक युवती रहती थी। उसने छोटा सा बगीचा लगा रखा था। पहाड़ों से घिरा क्षेत्र में उसका गांव था। गांव के सभी लोग परस्पर भाईचारा के अनुसार रहते थे। सभी के पास टमटम पर बाजार से सामान खरीदने का सामर्थ्य था। ग्रामीण सुंदरी युवती के बगान में सुंदर -सुंदर फूल खिलते थे। विदेशी फूल भी लगा हुआ था। अल्मोड़ा जैसा ग्राम मायावती था ? माली से प्रशिक्षण लिया , मिट्टी काटा करता और बगान में बीज रोपने के लायक बनाता था। पहले एक गीत सुनिए - --आमादेरो प्राण आचे - तोमार हिरदयेर करुणा आपना भूलिए रोबो। तरुणी ने उस बीज को रोप दिया। पौधा निकला -पर फूल नहीं हुआ ? पानी देती -कुछ दिनों बाद अद्भुत घटना हुई - पत्ता हुआ पर फूल क्यों नहीं खिला ? पहले दुःख हुआ फिर निराश होने लगी। उसने अंत में उस पौधे को उखाड़ देने का निर्णय किया। लेकिन उखाड़ने के पहले विचार करने लगी -ज्योतिंद्र नाथ ठाकुर का लिखा ब्राह्मसंगीत। निखिल जगत चोलो सुर नर वंदन जग चितरंजन , दीनानाथ करुणामय सुंदर। नामरूप से परे सत्य स्वरुप-.... प्रणमामि ! काटने के पहले कुआँ से पानी लाने गयी। वहाँ पडोसी काकी माँ भी थी। उसने पूछा लड़की तू इतनी उदास क्यों है ? तुम्हारे बगान के बाहर मेरे हाता में में बहुत सुंदर फूल खिला है ! काकी माँ उसके घर गयी तो देखा वहाँ बहुत सुंदर फूल खिला था। फूल उसके काकी-माँ /मासी माँ के बगान में नहीं खिला पर दूसरे बगान वाला अपना मानकर ग्रहण किया। कर्म करो फल की की चिंता मत करो। फल तो होगा ही - कर्मण्ये वाधिका रस्ते गीता। तुम भले बगान के फूल का आनंद न ले सको पर तुम्हारे पड़ोसी, तुम्हारे बाद आने वाली पीढ़ी तो सूँघ सकेंगे। आज POST Covid - में वही भाईचारा फिर से चाहिए।
रविवार की चिरंतनी का नंबर - 999 / चिरंतिनि मार्गदर्शक नेता का काम करती है। हर हफ्ते शर्मिष्ठा उसका इंतजार करती है। उज्ज्वल के प्रति शुभेक्षा -दुःख है फिर भी आनन्द है ! मनोज सिंह को कुछ लिखकर फोटो/पद के साथ कुछ नहीं लिखना है। क्या मैं सही रास्ते पर जा रहा हूँ ? दादा भाई शुभप्रभात ! सभी कोलकाता fm रेडिओ के श्रोता का परिवार। मेदनीपुर के मैदान में घूमकर चिरंतिनि सुन रहा हूँ। ठण्ढ में दूसरों के दुःख की अनुभूति होती है। जहाँ खूब ठण्ढ पड़ती हैं -वहां गरीबों को कम्बल -स्वेटर देने की व्यवस्था करो। फसल कटने के बाद - सेमिनार में भेंट होता है। अच्छे कर्म करते जाओ -फल तो आएगा ही। समाज आज का फल पर आधारित है -किन्तु फल के परे। नदिया न पीये कभी अपना जल - आम का पेड़ खुद अपने फल खाता। केवल फोन पर कितना अच्छा सम्बन्ध बनता है ?? twisting story और गाने !!
रविवार चिरंतिनि : 15 -12 - 2024 / ब्राह्म संगीत /उज्ज्वल घोष ?
"अनन्त अपार तोमाये के जाने ? अजर अमर चिन्मय नित्य निरंजन पावन हे।/ तोमार ई तुलना तुमि देखा न दिले प्राणे ज्ञाने ?
>>>हमलोगों के भीतर जो द्वैत सत्ता हैं - वे कौन हैं > ? रविन्द्र नाथ कविता -और जो अद्वैत सत्ता हैं वे कौन हैं ? के आचेन? ? की चाई ? मोन केमन कोरे ? बेथिक पोथेर पथिक। रूप के भीतर अरूप को खोजने का प्रयास। रूप से अरूप में चलने की पद्धति।
14 जनवरी 1985 को मकरसंक्रान्ति के दिन जब एक अन्तर्निहित सत्ता (द्वासुपर्णा का नीचे वाला पक्षी ) मार्ग नहीं खोज पा रहा था , उस समय एक अंतर्निहित सत्ता (ऊपर वाला पक्षी अपना दूत स्वामी विवेकानन्द - गुरुदेव - नवनीदा को भेजकर उसका हाथ पकड़ कर सन्मार्ग पर ले जाती है। वही सत्ता हमारे आदर्श और इष्टदेव होते हैं।
एक सुंदर गाँव की कहानी सुने : के पहले रविंद्र नाथ का लिखा ब्राह्मसंगीत प्रभाती संगीत सुना जाये > जागो कुलवासी ब्राह्मसंगित : जागो जागो प्रेम पियासी। शुभ दिने। एक सुंदर गाँव की कहानी। उस गाँव में एक युवती रहती थी। उसने छोटा सा बगीचा लगा रखा था। पहाड़ों से घिरा क्षेत्र में उसका गांव था। गांव के सभी लोग परस्पर भाईचारा के अनुसार रहते थे। सभी के पास टमटम पर बाजार से सामान खरीदने का सामर्थ्य था। ग्रामीण सुंदरी युवती के बगान में सुंदर -सुंदर फूल खिलते थे। विदेशी फूल भी लगा हुआ था। अल्मोड़ा जैसा ग्राम मायावती था ? माली से प्रशिक्षण लिया , मिट्टी काटा करता और बगान में बीज रोपने के लायक बनाता था। पहले एक गीत सुनिए - --आमादेरो प्राण आचे - तोमार हिरदयेर करुणा आपना भूलिए रोबो। तरुणी ने उस बीज को रोप दिया। पौधा निकला -पर फूल नहीं हुआ ? पानी देती -कुछ दिनों बाद अद्भुत घटना हुई - पत्ता हुआ पर फूल क्यों नहीं खिला ? पहले दुःख हुआ फिर निराश होने लगी। उसने अंत में उस पौधे को उखाड़ देने का निर्णय किया। लेकिन उखाड़ने के पहले विचार करने लगी -ज्योतिंद्र नाथ ठाकुर का लिखा ब्राह्मसंगीत। निखिल जगत चोलो सुर नर वंदन जग चितरंजन , दीनानाथ करुणामय सुंदर। नामरूप से परे सत्य स्वरुप-.... प्रणमामि ! काटने के पहले कुआँ से पानी लाने गयी। वहाँ पडोसी काकी माँ भी थी। उसने पूछा लड़की तू इतनी उदास क्यों है ? तुम्हारे बगान के बाहर मेरे हाता में में बहुत सुंदर फूल खिला है ! काकी माँ उसके घर गयी तो देखा वहाँ बहुत सुंदर फूल खिला था। फूल उसके काकी-माँ /मासी माँ के बगान में नहीं खिला पर दूसरे बगान वाला अपना मानकर ग्रहण किया। कर्म करो फल की की चिंता मत करो। फल तो होगा ही - कर्मण्ये वाधिका रस्ते गीता। तुम भले बगान के फूल का आनंद न ले सको पर तुम्हारे पड़ोसी, तुम्हारे बाद आने वाली पीढ़ी तो सूँघ सकेंगे। पहले का छोटा शहर तिलैया में जो परस्पर-परस्पर के प्रति भाईचारा था, खेत का सलगम सुदर्शन छाबड़ा ने अपने चाचा सुभाष आर्या को धोकर और पत्ते काट -छाँट करके भेजा था। आज POST Covid - में वही भाईचारा फिर से चाहिए।
रविवार की चिरंतनी का नंबर - 999 / चिरंतिनि मार्गदर्शक नेता का काम करती है। हर हफ्ते शर्मिष्ठा उसका इंतजार करती है। उज्ज्वल के प्रति शुभेक्षा -दुःख है फिर भी आनन्द है ! मनोज सिंह को कुछ लिखकर फोटो/पद के साथ कुछ नहीं लिखना है। क्या मैं सही रास्ते पर जा रहा हूँ ? दादा भाई शुभप्रभात ! सभी कोलकाता fm रेडिओ के श्रोता का परिवार। मेदनीपुर के मैदान में घूमकर चिरंतिनि सुन रहा हूँ। ठण्ढ में दूसरों के दुःख की अनुभूति होती है। जहाँ खूब ठण्ढ पड़ती हैं -वहां गरीबों को कम्बल -स्वेटर देने की व्यवस्था करो। फसल कटने के बाद - सेमिनार में भेंट होता है। अच्छे कर्म करते जाओ -फल तो आएगा ही। समाज आज का फल पर आधारित है -किन्तु फल के परे। नदिया न पीये कभी अपना जल - आम का पेड़ खुद अपने फल खाता। केवल फोन पर कितना अच्छा सम्बन्ध बनता है ?? twisting story और गाने !!
[>>>शुक्रवार चिरंतिनि/20 -12 -2024/ पण्डित या शिक्षित लोग अन्त में, जीवन के अन्तिम पड़ाव अकेले ही हो जाते हैं। क्यों ? क्योंकि वे दो भाई भी परस्पर भी दूसरे से अधिक ज्ञानी मानते हैं ; और यही चाहते हैं कि -मार्केट में , एक को दूसरे से अधिक मान -प्रतिष्ठा प्राप्त हो। समाज के प्रतिष्ठित लोगों के सामने एक- दूसरे की शिकायत करते रहते हैं। दो पण्डित माधवेन्दु पंडित और यादवेन्दु की कथा ने दोनों शिक्षित लोगों की आंखे खोल दी। पण्डित की आँख राजा ने खोल दिया। जो अपने को, खुद को जितना बड़ा ज्ञानी समझता है , वो उतना ही बड़ा मूर्ख है। और जो अपने को हर नए विषय में मूर्ख समझता है - वो उतना ही बड़ा ज्ञानी होता है। दोनों शिक्षित भाइयों को कभी दूसरे के पास खुद से तुच्छ या बुद्धिहीन सिद्ध करने की चेष्टा नहीं करनी चागिए। तुम नहीं - मैं बहुत काबिल हूँ, बड़ा भाई हूँ तो काबिल बनकर ही पैदा हुआ हूँ !??? अपने इस अहंकार को सबके सामने जाहिर करने की क्या जरूरत है ? दूसरों की कमी और दोष खोजने में ही अपना पांडित्य खो देते हैं। 'इन्द्राणी दीदी' की कथा/ ]
चिरंतिनि/शनिवार, 21 दिसम्बर,2024/ UNO -विश्वध्यान दिवस : यूएन समाचार : UN News/Mehboob Khan/ संयुक्त राष्ट्र (United Nations) में भारत के स्थाई मिशन ने न्यूयॉर्क स्थित यूएन मुख्यालय में "मानसिक स्वास्थ्य में 'ध्यान' (Meditation) की महत्ता" विषय पर प्रथम विश्व-ध्यानदिवस का आयोजन किया। 'World Meditation Day''विश्व ध्यान दिवस' मनाने का उद्देश्य, दरअसल सभी को उच्च स्तर के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य से लाभान्वित बनाने में मदद करना भी है।
First International Day of Meditation: प्रथम अन्तरराष्ट्रीय ध्यान दिवस मनाने के लिए, शुक्रवार, 20 दिसम्बर (2024) को यू.एन. मुख्यालय के ट्रस्टीशीप काउंसिल चैम्बर में एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
यूएन महासभा के 79वें सत्र के लिए अध्यक्ष फ़िलेमॉन यैंग (Philemon Yang) ने इस कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए कहा कि विश्व ध्यान दिवस से इस प्राचीन अष्टांग योग-पद्धति में निहित लाभ और दैनिक जीवन में उसके अन्तर्निहित मूल्यों को बढ़ावा मिलेगा। “जब हम ध्यान लगाते हैं, तो हम अपने मस्तिष्क को अन्तर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity) ईश्वर या ब्रह्मत्व, या किसी महापुरुष के मूर्त रूप पर उनके शान्त, विचारों पर केन्द्रित करते हैं और ऐसा करने से विश्व-मानवता के प्रति करुणा व श्रद्धा को जाग्रत करते हैं। निजी तौर पर इस रूपान्तरकारी बदलाव का असर दूर तक नज़र होता है, जिससे हमारे परिवारों, हमारे समुदायों और उससे इतर सम्पूर्ण मानव-समाज भी समरसता प्रेरित होती है। ”
सबसे छोटा दिन-लंबी रात होगी (दिन की अवधि 10 घंटे 41 मिनट तथा रात की 13 घंटे 19 मिनट की) होगी। आज,1700 वर्ष पूर्व इस दिन मनाते थे ''मकर संक्रान्ति'': मकर संक्रान्ति पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायण भी कहते हैं। 14 जनवरी के बाद से सूर्य उत्तर दिशा की ओर अग्रसर (जाता हुआ) होता है। इसी कारण इस पर्व को 'उतरायण' (सूर्य उत्तर की ओर) भी कहते है।
सूर्य पूरे साल उत्तरी गोलार्ध और दक्षिणी गोलार्ध में भ्रमण करते हैं, जब सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर संचार करने लगते हैं तब पृथ्वी के दक्षिण गोलार्ध में दिन बड़े और रात छोटी होने लगती है। मकर संक्रांति के दिन से सूर्य उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश कर जाते हैं, तब से दिन बड़े होने लगते हैं और रात छोटी। सूर्य जब मकर राशि से मिथुन राशि में प्रवेश करते हैं तब सूर्य उत्तरी गोलार्ध में होते हैं, वहीं जब सूर्य कर्क राशि से धनु राशि में होते हैं, तब वह दक्षिणी गोलार्ध में होते हैं। इसलिए मकर संक्रांति के पर्व को सूर्य का उत्तरायण कहते हैं क्योंकि इस समय सूर्य उत्तरी गोलार्ध में आ जाते हैं।
वैज्ञानिक तौर पर इसका मुख्य कारण पृथ्वी का निरंतर 6 महीनों के समय अवधि के उपरांत उत्तर से दक्षिण की ओर वलन कर लेना होता है। और यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। खगोल शास्त्री कहते हैं इस समय पृथ्वी अपने अक्ष पर साढ़े तेईस डिग्री झुकी हुई है। आज का दिन 'वास्तविक संक्राति' भी कहलाता है। कहते हैं लगभग 1700 वर्ष पूर्व आज के ही दिन 'मकर संक्रान्ति' का पर्व मनाए जाने का विधान था। वर्तमान समय में 14 जनवरी को यह पर्व मनाया जाता है।
22 दिसम्बर के बाद सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है तथा सूर्य की गति उत्तर की ओर दृष्टिगोचर होनी प्रारम्भ हो जाती है। सूर्य की उत्तर की ओर गति होने के कारण अब उत्तरी गोलार्ध में दिन धीरे-धीरे बड़े और रातें छोटी होने लगेंगी। उन्होंने बताया कि अगले वर्ष 21 मार्च, 2018 को सूर्य विषुवत रेखा पर लम्बवत होगा और इस दिन दिन-रात बराबर होंगे।
दिसम्बर महीने की 22 तारीख को सूर्य के मकर रेखा पर लम्बवत होने के चलते उत्तरी गोलार्ध में सबसे छोटा दिन तथा सबसे बड़ी रात होगी। इसे विंटर सोल्टाइस अथवा दिसंबर दक्षिणायन भी कहते हैं। दिन की अवधि 10 घंटे 41 मिनट तथा रात की 13 घंटे 19 मिनट की होगी। कुवैत के अमीर शेख मिशाल अल-अहमद अल-जबर अल-सबा के निमंत्रण पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 21 और 22 दिसंबर को कुवैत दौरे पर रहेंगे। विदेश मंत्रालय ने कहा कि यह 43 वर्षों में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की कुवैत की पहली यात्रा होगी।
ध्यान में देखो : 'तत्त्वमसि, श्वेतकेतु'- यह अद्वैत की सबसे प्रखर घोषणा है। तत्त्वमसि 'तुम और मैं एक ही हैं !' इससे बड़ा अद्वैत का प्रतिपादन कोई और नहीं हुआ। यह ब्रह्मात्मैक्यबोध (यानी ब्रह्म और आत्म में ऐक्य है) का परम उद्घोष है।
तत्त्वमसि, भारत के पुरातन हिंदू शास्त्रों और उपनिषदों में वर्णित चार महावाक्यों में से एक है। इसका अर्थ है, 'वह तुम ही हो। तत्त्वमसि, ज्ञानी के लिए नहीं बल्कि भक्त के लिए है। तत्त्वमसि का अर्थ है, तुम और हम दो नहीं एक हैं। तत्त्वमसि के बारे में ध्रुव भट्ट ने एक किताब भी लिखी है जिसका नाम है, 'तत्त्वमसि: वह तुम्ही हो जिसे ब्रह्म कहा जाता है। ' 'यह व्यक्ति और ब्रह्मांड के बीच संबंध और समन्वय को दर्शाता है। तत्त्वमसि, सामवेद का महावाक्य है। अहं ब्रह्मास्मि, यजुर्वेद का महावाक्य है। प्रज्ञानं ब्रह्म, ऋग्वेद का महावाक्य है। अयमात्मा ब्रह्म, अथर्ववेद का महावाक्य है।
हर वर्ष 21 जून को अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस भी मनाया जाता है. पतंजलि अष्टांग योगसूत्र : यम, नियम , आसन , प्राणायाम , धारणा, ध्यान और समाधि ! स्वयं को विश्वशक्ति के साथ संयुक्त करने को ही योग कहते हैं। आज सबसे छोटा दिन , और रात्रि बड़ी होती जाएगी मकरसंक्रान्ति से दिन की अवधि में परिवर्तन शुरू होगा।
सामाजिक व्यवस्था ऐसी बन गयी है कि हमलोग प्रकृति से कट गए हैं। इसीलिए जीवन से आनन्द नहीं आता। चार योग को सीखना होगा, और इस Oneness को पहचान कर , अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को प्राप्त करने /अभिव्यक्त करने की स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा-पद्धति "Be and Make " / या 3H विकास का 5 अभ्यास - प्रार्थना , मनःसंयोग , व्यायाम , स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग (आत्म-मूल्यांकन) का प्रशिक्षण प्राप्त कर के स्वयं मनुष्य बनना होगा और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करनी होगी। मनुष्य बनने और बनाने का कार्य 'Simultaneously' चलना चाहिए, अर्थात साथ-साथ चलना चाहिए। स्वयं मनुष्य बनने (ईश्वर बनने) के प्रयास के साथ दूसरों को भी मनुष्य बनने (ईश्वर 100 % निःस्वार्थ ) बनने ने सहायता करनी होगी। इसीलिए अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का उद्देश्य , आदर्श , उपाय और आदर्श-वाक्य (motto) है "Be and Make !" अभियान मंत्र है - "चरैवेति, चरैवेति "!
'विश्व -ध्यानदिवस और ध्यान की उपयोगिता' विषय के ऊपर देवर्षि नारद की वैकुण्ठ जाने कथा :
संक्षेप में राजयोग / (१/ १०५) " विणा बजाते हुए नारायण से मिलने जा रहे थे। रास्ते में एक साधु मिले जिनके चारो ओर बल्मीकी बन गया था। नारद जी बोले मैं बैकुण्ठ जा रहा हूँ , नारायण से पूछा भगवान से पूछियेगा -मेरी मुक्ति कब होगी ? दूसरा व्यक्ति एक इमली के पेड़ के नीचे विणा बजाकर नाच रहा था संकीर्तन कर रहा था। उसने भी पूछा नारायण से पूछियेगा मेरी मुक्ति कब होगी ? नारद जी ने दोनों को आश्वासन दिया। लौटते समय उन्होंने दोनों से जो कहा - उसके मर्म को समझें। (गिरीश घोष की रचना - प्राणेर प्राणे देखते आसि , आमार) पहले वाले बाल्मीकि साधु - को बोले तुमको और चार जन्म तक इतना तपस्या और करना होगा। वो हतास हो गया ! और हा प्रभु ! इतना कठोर ! दूसरा साधु और जोर से नाचने लगा - भगवान की आकाशवाणी हुई तुम अभी मुक्त हो। वह दूसरा व्यक्ति इतना अध्यवसाय सम्पन्न (diligent) था ! इसीलिए उसे वह पुरस्कार मिला। वह इतने जन्म साधना करने के लिए तैयार था ! कुछ भी उसे उद्योगशून्य [ हताश -निराश ] न कर सका। परतु प्रथमोक्त व्यक्ति चार जन्मों की बात सुनकर ही घबड़ा गया। जो व्यक्ति मुक्ति के लिए सैकड़ों युग तक बाट जोहने को तैयार था , उसके समान अध्यवसाय सम्पन्न होने पर ही उच्चतम फल प्राप्त होता है। फल पाने की इच्छा से कर्म करने को कर्मयोग नहीं कहते हैं। फल पाने इच्छा से मुक्त होना होगा। तब कोई भी कर्म योग बन जायेगा।
ध्यान की उपयोगिता : ध्यान करने से ही ब्रह्माण्ड और पिण्ड का एकत्व समझ में आता है। समाधि में अपने अहंकार को खो देना ही महालय/महाप्रलय या गहरी समाधि /(निर्विकल्प समाधि) हो जाता है -वहाँ पहुँचकर पूर्ण और शून्य वहाँ एक हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द की रचना - निर्विकल्प समाधि का वर्णन किया है।
गीत में विवेकानंद निर्विकल्प समाधि के अनुभवों को बताने की कोशिश करते हैं । निर्विकल्प समाधि की व्याख्या करने के लिए , वे कहते हैं, ( निर्विकल्प समाधि के दौरान ), उन्हें एक ऐसे वातावरण का अनुभव होता है जहाँ उन्हें न तो सूर्य दिखाई देता है, न ही चंद्रमा, न ही किसी प्रकार का प्रकाश। वह पूरे ब्रह्मांड को एक छाया की तरह आकाश में तैरते हुए देखता है। वह ब्रह्मांड को देखता है - उठता, तैरता और डूबता हुआ - और यह लगातार चलता रहता है। बहुत धीरे-धीरे, छाया-भीड़ आदिम-गर्भ में प्रवेश करती है, और केवल धारा रह जाती है, जो गूंजती रहती है - "मैं हूं", "मैं हूं"। धीरे-धीरे, वह धारा भी बंद हो जाती है, "शून्य (पूर्ण) शून्य में विलीन हो जाता है" और वह समाधि की एक अवस्था - निर्विकल्प समाधि का अनुभव करता है , जिसे वह महसूस करता है, - " मनो सगोचरं" (मन और वाणी से परे)।
विवेकानन्द ने एक अन्य अवसर पर निर्विकल्प समाधि पर बात की थी—
यदि सृष्टि मिथ्या है, तो आप जीव की निर्विकल्प समाधि और उसके बाद उसकी वापसी को भी प्रतीतिपूर्ण मान सकते हैं। जीव स्वभाव से ब्रह्म है। उसे बंधन का अनुभव कैसे हो सकता है? उस स्थिति में आपकी यह इच्छा कि आप ब्रह्म हैं, वह भी एक भ्रम है - क्योंकि शास्त्र कहते हैं, "आप पहले से ही ब्रह्म हैं।" इसलिए, "(संस्कृत) - यह वास्तव में आपका बंधन है कि आप समाधि प्राप्ति का अभ्यास कर रहे हैं।"
'नहीं सुरजो नहीं ज्योति'
(महाप्रलय या गहरी समाधि)
(নাহি সূর্য নাহি জ্যোতিঃ নাহি শশাঙ্ক সুন্দর।
ভাসে ব্যোমে ছায়া-সম ছবি বিশ্ব-চরাচর॥
অস্ফুট মন আকাশে, জগত সংসার ভাসে,
ওঠে ভাসে ডুবে পুনঃ অহং-স্রোতে নিরন্তর॥
ধীরে ধীরে ছায়া-দল, মহালয়ে প্রবেশিল,
বহে মাত্র ‘আমি আমি’ — এই ধারা অনুক্ষণ॥
সে ধারাও বদ্ধ হল, শূন্যে শূন্য মিলাইল,
‘অবাঙমনসোগোচরম্’, বোঝে — প্রাণ বোঝে যার॥
কথা ও সুর: স্বামী বিবেকানন্দ)
शनिवार को विश्वध्यान दिवस को सुनकर मन शान्त हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति यदि ध्यान पालन करे तो विश्व-शांति आएगा ही। कर्म करो किन्तु फल की चिंता मत करो। नदी अपना जल नहीं पीता , वृक्ष अपने फल नहीं खाता। ईश्वर अर्पण करके कर्म करें। पतंजलि योग/ मनःसंयोग का अभ्यास करने से जीवन धन्य हो जायेगा। प्रकृति के साथ/ अपने स्वरुप से विच्छिन्न होने से ही जीवन में समस्या बढ़ती है। शाश्वत वाणी है -Be and Make !
चिरंतिनि : रविवार 22-12-2024 > अल्ला ईशु भगवान तीनों एक हैं किन्तु उनकी संतानों में कोई मनुष्य कोई राक्षस कोई शैतान बन जाता है ! अतएव शाश्वत जीवन का पथ दिखा देने वाला मार्गदर्शक नेता ईसामसीह - अपने भक्त को (Leadership) के विषय में क्या सीख देते हैं? भगवान का शरण कैसे ग्रहण करें ? ईसा ने एक कथा सुनाई - रास्ते के राही को लौटते समय एक डकैत ने लूटकर घायल कर दिया। किन्तु क्या कोई दूसरा आदमी उसकी सहायता करने कोई नहीं आएगा ? ईसा अपनी कथा में कहते है - आज भी प्रेम मरा नहीं है। जो पुरोहित -धनी बचकर निकल गया , लेकिन मानवजन्म का उद्देश्य सोचने वाला बाउल - मानव-जीवन सार्थक हुआ या विफल हो गया - विचार करके देखो। गुरुदेव की चरणों का आश्रय लो और विचार करके देखो न ? मानवजीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण क्या है ? खाओ-पीओ-मौज उड़ाओ - क्या जीवन का यही उद्देश्य होगा ? मैं अपने पड़ोसी की सेवा कैसे करूँ ? उसी रास्ते से एक सूफी फ़क़ीर ने देखा , घायल यात्री एक युहीदी था। मुसलमान होकर भी फ़क़ीर ने उसकी सहायता की। बचपन में पढ़ी Good Samaritan की कथा - Love thy Neighbour -अपने पड़ोसी से प्रेम करो., पड़ोसी हमारा सम्पूर्ण विश्व ही है। क्योंकि 'एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति ' ही परम सत्य। हमें सम्पूर्ण मानवता की निःस्वार्थभाव से सेवा करनी चाहिए।
बाइबल की कहानी 'अच्छे सामरी' एक दृष्टांत है. यह कहानी हमें अपने पड़ोसियों से अपने समान प्रेम करने के लिए प्रेरित करती है. इस कहानी के बारे में कुछ खास बातेंः
इस कहानी में, यीशु हमें अच्छे सामरी की तरह बनने का निर्देश देते हैं.
यीशु कहते हैं कि जब दूसरों को हमारी मदद की ज़्यादा ज़रूरत होती है, तो पड़ोसियों के लिए हमारे प्रेम की परीक्षा होती है.
इस कहानी में, पुजारी और लेवी की तरह पड़ोसी की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए.
इस कहानी के कुछ सबकः
हमें अपने पूर्वाग्रह को अलग रखना चाहिए और दूसरों के लिए प्यार और करुणा दिखानी चाहिए.
हमें सभी मानवजाति से प्रेम करना चाहिए.
इस कहानी के बारे में एक और व्याख्या यह है कि घायल व्यक्ति पाप की गिरी हुई अवस्था में सभी मनुष्य हैं.
इस कहानी में, लुटेरे शैतान हैं जो मनुष्य पर हमला करते हैं.
इस कहानी में, सामरी यीशु है जो आध्यात्मिक स्वास्थ्य का मार्ग प्रदान करता है.
जो ईशु आजीवन मनुष्य को प्रेम की शिक्षा देते थे वे नेता कौन थे ? हे प्रभु जिसने मुझे मारा , उसे भी तुम क्षमा कर दो ! सभी तो ईश्वर की संतान हैं - तो हम मनुष्य बनकर पशु जैसा व्यवहार क्यों करें ? प्रभु ईशु के जैसे क्षमाशील बनो और बनाओ ! जिसने पूर्वजन्म में मुझे दुश्मन समझकर मारा था , वही भाई बनकर इस जन्म में आया है ? हम सभी एक दूसरे के पडोसी है , अतएव सबसे प्रेम करो - सहायता करो। सभी शिव हैं , अमृतत्व के पुत्र है - 'वसुधैव कुटुंबकम ' आज की कहानी यहीं तक। इन्द्राणी दीदी भाई -का नंबर 990 365 99923 पर भेजो प्रतिक्रिया। नया समाज गढ़ो ! राधे -राधे , Good samaritan' मुसीबत में मदत करने वाला पड़ोसी। मनुष्य ही भगवान बनता है। आज माँ सारदा देवी का जन्मदिन है - आज के दिन इशू की यही कथा सुनो और सुनाओ ! जो हमारे पड़ोसी हैं - उनकी जाती धर्म का विचार किये बिना प्रेम करो। माँ सारदा का 172 वां जन्मदिवस है। उन्होंने सबों से प्रेम करने की शिक्षा दी थी। असीम शक्ति का केंद्र है -मनुष्य का मन। बड़े दिन की शुभ कामनायें। सभी का मंगल हो -कल्याण हो। हमलोग सभी मानहूँष होकर जन्म ग्रहण किये हैं। परस्पर प्रेम करो। आठवीं क्लास में मैंने गुड सेमेरिटन की कहानी सुनी थी !
अच्छे सामरी की कहानी यीशु के दृष्टांतों में से एक है। दृष्टांत वे कहानियाँ हैं जो यीशु ने लोगों को आध्यात्मिक चीज़ों को समझने में मदद करने के लिए रोज़मर्रा की ज़िंदगी के बारे में बताईं। यह कहानी बाइबल में, ल्यूक के सुसमाचार में दर्ज है। यीशु ने लोगों को अपने पड़ोसी से प्यार करने की अवधारणा को समझने में मदद करने के लिए कहानी का इस्तेमाल किया।
लूका 10:25-37 के अनुसार, एक दिन यीशु प्रचार कर रहे थे, तभी एक व्यवस्था के विशेषज्ञ ने उनसे पूछा कि वह अनन्त जीवन (शाश्वत जीवन या अमरत्व) कैसे प्राप्त कर सकते हैं।
यीशु ने उस आदमी से पूछा कि व्यवस्था क्या कहती है।
व्यवस्था के जानकार ने उत्तर दिया, “अपने प्रभु परमेश्वर से अपने पूरे दिल, अपनी पूरी आत्मा, अपनी पूरी ताकत और अपनी पूरी बुद्धि से प्रेम करो और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करो।”
यीशु ने कहा कि यह सही है।लेकिन कानून का विशेषज्ञ उलझन में था। उसने पूछा, "लेकिन मेरा पड़ोसी कौन है?" स्पष्टी-करण देते हुए यीशु ने निम्नलिखित कहानी सुनाई। "एक आदमी यरूशलेम से जेरिको की ओर जा रहा था। जब वह चल रहा था, तो लुटेरों ने उस पर हमला कर दिया। उन्होंने उसके कपड़े उतार दिए, उसे बुरी तरह पीटा और उसे सड़क के किनारे बुरी तरह घायल करके छोड़ दिया।
कुछ देर बाद, एक पादरी उसी सड़क से गुज़र रहा था। उसने घायल व्यक्ति को देखा और सड़क के दूसरी तरफ़ चला गया। वह उस व्यक्ति की कोई मदद किए बिना ही वहाँ से चला गया। थोड़ी देर बाद, एक और धर्म का पुरोहित या मौलवी (नेता) भी उसी सड़क से गुज़रा। पादरी की तरह, उसने भी घायल व्यक्ति को देखा लेकिन उसकी मदद करने की कोई कोशिश नहीं की। नेता उस व्यक्ति को सड़क के किनारे छोड़कर चलता रहा।
लेकिन तभी एक सामरी सड़क पर चला आया। सामरी क्या है?
कहानी के समय, यहूदी और सामरी लोग आपस में नहीं मिलते थे और एक दूसरे से कोई लेना-देना नहीं रखते थे। हालाँकि दोनों समुदाय यहूदी धर्म का पालन करते थे, लेकिन उनकी मान्यताएँ अलग-अलग थीं और इसके परिणामस्वरूप बहुत अशांति हुई।
सामरी ने घायल यहूदी आदमी को सड़क पर पड़ा देखा। पुजारी और लेवी के विपरीत, वह रुक गया और उस आदमी पर दया की। वह नीचे झुका और उस आदमी के घावों पर तेल और शराब डालकर पट्टी बाँधी। उसने उस आदमी को अपने गधे की पीठ पर चढ़ने में मदद की और फिर उसे गधे के साथ-साथ चलते हुए एक सराय में ले गया।जब वे सराय पहुंचे तो उसने सराय मालिक को रात भर के लिए भुगतान किया और उसे घायल व्यक्ति की देखभाल करने को कहा।
सामरी ने कहा, 'उसकी देखभाल करो, और जब मैं वापस आऊंगा, तो तुम्हारा जो भी अतिरिक्त खर्च होगा, मैं उसे चुका दूंगा।' यीशु ने व्यवस्था के विशेषज्ञ की ओर मुड़कर पूछा, “इन तीनों में से कौन उस घायल व्यक्ति का पड़ोसी था?”कानून के विशेषज्ञ ने कहा, "जिस आदमी ने मदद की।"
यीशु ने कहा, “जाओ और तुम भी ऐसा ही करो।”अच्छे सामरी की कहानी का अर्थ
>>>द गुड सेमेरिटन की कहानी से पता चलता है कि आपको सभी के प्रति दयालु होना चाहिए और सभी को अपना पड़ोसी मानना चाहिए, भले ही उनकी मान्यताएँ या पृष्ठभूमि आपसे अलग हों। पाखंड के बारे में भी एक बात कही जा सकती है, जिसमें धार्मिक व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति के पास से गुज़रते हैं जिसे वास्तव में उनकी मदद की ज़रूरत होती है।गुड सेमेरिटन दृष्टांत के पीछे का अर्थ दूसरों को अच्छा करने के लिए प्रेरित करता है। उदाहरण के लिए, समरिटन्स एक पंजीकृत चैरिटी है जिसे यूनाइटेड किंगडम और आयरलैंड में भावनात्मक संकट में पड़े लोगों की मदद करने के लिए बनाया गया है, जो आत्महत्या के जोखिम में हैं। हालाँकि चैरिटी का नाम गुड सेमेरिटन के दृष्टांत से आया है, लेकिन यह संगठन खुद गैर-धार्मिक है।अच्छे सामरी की कहानी क्यों पढ़ाएं?
दयालुता, दान और उन लोगों की मदद करने के तरीके खोजने के बारे में चर्चा शुरू करने के लिए गुड सेमेरिटन की कहानी एक बेहतरीन साधन हो सकती है जिन्हें आप नहीं जानते। इसका इस्तेमाल कभी-कभी पूर्वाग्रह, आस्था, प्रेम, कर्तव्य और भरोसे जैसे कठिन विषयों से निपटने के तरीके के रूप में भी किया जा सकता है।
कक्षा में नेक इंसान की कहानी पढ़ाने के तरीके: आप अपने पाठों में गुड सेमेरिटन कहानी का उपयोग कई तरीकों से कर सकते हैं। आप इसे धार्मिक शिक्षा कक्षाओं में ईसाई धर्म के अध्ययन के हिस्से के रूप में या कहानी की संरचना को देखने के तरीके के रूप में उपयोग कर सकते हैं।
यह गुड सेमेरिटन स्टोरी पावरपॉइंट स्लाइड दर स्लाइड कहानी बताता है। चित्र उज्ज्वल और आकर्षक हैं, पाठ बच्चों के पढ़ने और समझने के लिए काफी सरल है। बच्चे कहानी के कुछ हिस्से को बारी-बारी से जोर से पढ़ सकते हैं। पावरपॉइंट दिखाते समय, आप प्रस्तुति को रोक सकते हैं और बच्चों के मन में आने वाले सवालों पर विचार कर सकते हैं या उन विषयों पर चर्चा कर सकते हैं जो आपको लगता है कि उन्हें समझ में नहीं आ रहे हैं।
एक बार जब आप एक साथ प्रस्तुतिकरण को पढ़ लें, तो इस गुड सेमेरिटन क्विज़ के साथ उनके ज्ञान का परीक्षण करें । 'कहानी में आदमी कहाँ से कहाँ जा रहा था?', 'कानून के विशेषज्ञ ने यीशु से क्या सवाल पूछा?' और 'सामरी ने आदमी के घावों को ठीक करने के लिए क्या इस्तेमाल किया?' जैसे सवालों के साथ, यह क्विज़ दृष्टांत के मुख्य बिंदुओं को संशोधित करने और बच्चों को महत्वपूर्ण जानकारी याद रखने में मदद करने का एक शानदार तरीका है।
एक बार जब बच्चों को कहानी की अच्छी समझ हो जाती है, तो वे इन गुड सेमेरिटन स्टोरी सीक्वेंसिंग कार्ड्स का उपयोग करके घटनाओं को क्रम में रख सकते हैं। यह दृष्टांत की उनकी समझ का परीक्षण करने का एक शानदार तरीका है, लेकिन कहानी कहने के प्राकृतिक पैटर्न को सीखने में उनकी मदद भी करता है। आप अपनी कक्षा को समूहों में विभाजित कर सकते हैं और प्रत्येक समूह को एक चित्र दे सकते हैं। समूह दृश्य का अभिनय कर सकते हैं, फिर इसे कक्षा के बाकी बच्चों के सामने प्रस्तुत कर सकते हैं। आप प्रत्येक चरित्र को 'हॉट सीट' पर बिठा सकते हैं - उनके कंधे पर थपथपाएँ और उनसे पूछें कि वे क्या सोच रहे हैं। यह बच्चों को कहानियों के भीतर दृष्टिकोण समझने और सहानुभूति विकसित करने में मदद करने का एक शानदार तरीका हो सकता है।
कर्म सभी करते हैं, किन्तु कर्मयोग करने वाले विरले ही होते हैं।
जो महामण्डल के सक्रीय कर्मी होंगे उनके इष्टदेव अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव ही होंगे, इसलिए कर्म करने के बाद अपने को (स्वरुप को) उसका कर्ता कभी नहीं मानेंगे (द्रष्टा या साक्षी मानेंगे), और कर्म करने के बाद वे कहेंगे - भगवान श्री रामकृष्ण अर्पणं अस्तु, जो शिव -भक्त होंगे वे कहेंगे - जो शिव भक्त होंगे वे कहेंगे -ওঁ নমঃ শিবায়/ ॐ नमः शिव अर्पणं अस्तु ! कृष्ण के भक्त होंगे वे कहेंगे श्रीकृष्ण अर्पणं अस्तु ! अपने सत्य स्वरुप में कुछ कर ही नहीं सकते। आप कर्मों के द्रष्टा -साक्षी मात्र हैं - कर्ता नहीं हैं ! हमारे 'प्राण-शखा' - गुरु विवेकनन्द हमारा हाथ पकड़ कर हमारा मार्गदर्शन करते आ रहे हैं ! और विवेक-दर्शन के अभ्यास से विवेक-स्रोत उद्घाटित हो जाता है ; इसलिए हमलोग पाप नहीं ,भूल /गलती- करते है - कर्म से अनासक्त होने का अर्थ समझने में। नमः शिवाय का अर्थ "भगवान शिव को नमस्कार" या "उस मंगलकारी को प्रणाम!" है।
>>>Sticking to karma is prohibited!, No, sticking to karma is strictly prohibited !!
कर्म से चिपकना मना है ! नहीं , कर्म से चिपकना सख्त मना है !!
काया की संगति तजै, बैठा हरि पद मांहि ।
दादू निर्भय ह्वै रहै, कोई गुण व्यापै नांहि ॥
वेदान्त का सार : Essence of Vedanta : / श्रीमद्भगवत गीता का सार ! -स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, अध्यक्ष अद्वैत आश्रम , मायावती। सर्वप्रियानन्द जी भी राजनन्द गॉँव के स्वामी निरंजनानन्द अपरिग्रह -धनबाद का कोई सामान नहीं की तरह योगनिद्रा -,पर भाषण देते , बिन्नी के नानाजी रायपुर के स्वामी सत्य जी महाराज विलासपुर का पगला भक्त लड़का ??? नाम शर्मा, और चाँपा के मनोज साधवानी, जो पंडापढ़ि आदि दादा और रनेन दा के भक्त थे । और गंगापार से बेलुड़ मठ देखने के लिए में बंगाल में एक फ़्लैट खरीदना चाहते थे। मज़ाक में अलकायदा के सरगना लादेन और अल जवाहिरी के अनुशासन पर चर्चा करते थे।
' विवेकानन्द दर्शनम् सारांश ' (1-16 ) : सोमवार, 1 सितंबर 2014/
' विवेकानन्द - दर्शनम् ' (6) - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः रविवार, 25 मई 2014/
रामचरितमानस तुलसीदासजी का सुदृढ़ कीर्ति स्तंभ है, जिसके कारण वे संसार में श्रेष्ठ कवि के रूप में जाने जाते हैं। मगर राम की भक्ति से पहले अर्थात् जब तक उन्हें ज्ञान के साथ श्रीरामजी की प्राप्ति नहीं हुई थी तब तक उनका जीवन एक साधारण मानव की तरह ही था। राम की भक्ति एवं प्रभु के प्रति उनकी प्रीति के पीछे उनकी पत्नी रत्नावली की ही प्रेरणा थी। वे उनसे इतना प्रेम करते थे कि उनके बिना नहीं रहते थे। रामचरित मानस की ये चौपाई खुद तुलसीदास जी पर भी लागू होती है। अगर राम की इच्छा नहीं होती तो रामबोला की पत्नी उनका तिरस्कार नहीं करतीं और वो कभी तुलसीदास नहीं बनते।रामबोला को उनकी पत्नी ने धिक्कारा था जब वो उनके पीछे-पीछे पत्नी के मायके चले गए थे। यह बात स्वयं तुलसीदास जी भी स्वीकर करते हैं, इसलिए पत्नी को क्षमा करके बाद में उन्हें अपना शिष्य बना लेते है।
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥
भावार्थ- जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मन में) ऐसा कहकर शिव भगवान हरि का नाम जपने लगे और सती वहाँ गईं जहाँ सुख के धाम प्रभु राम थे। जो राम ने रच दिया है वही होगा, फिर चिंता कैसी? बालकांड की इस चौपाई का अर्थ सभी मनुष्यों को जरूर जानना चाहिए।
ठाकुर देव के भक्त हीरानन्द जो सिन्ध के दो अखबारों के सम्पादक थे, वे 1883 के बी. ए. थे , किन्तु 'जासूसी दुनिया ' के लेखक इब्ने सफ़ी 'बी. ए.' की तरह उपाधि का प्रयोग नहीं करते थे। इब्ने सफ़ी पर शोध करने वाले और जामिया मिलिया इस्लामिया में उर्दू के रीडर ख़ालिद जावेद कहते हैं कि हिंदी या फिर अन्य भारतीय भाषाओं में इब्ने सफ़ी की लोकप्रियता की एक वजह को ‘बैलेंसिंग एक्ट’ कहा जाता हैं। “उनके उपन्यासों में कहीं भी भारत या पाकिस्तान का जिक्र नहीं आता है। कई अन्य मुस्लिम देशों का हवाला ये कह कर दिया जाता है कि वो उनके देश के ख़िलाफ़ साजि़श कर रहे हैं, लेकिन भारत और पाकिस्तान का ज़िक्र नहीं। ”वो पैदा इलाहाबाद में हुए और अपने लेखन का सिलसिला वो भारत में ही कर चुके थे, लेकिन 1952 में वो पाकिस्तान चले गए थे। लेकिन भारत को लेकर कभी उनमें कोई तल्खी नहीं रही। 2001 में अल जवाहिरी ने इजिप्टियन इस्लामिक जिहाद का विलय अलकायदा में कर दिया। इसके बाद अलकायदा के जरिए पूरी दुनिया में आतंक फैलाने लगा था। जवाहिरी ने अमेरिकी हमले में ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद संगठन की कमान अपने हाथ में ली थी। 2011 में वह अलकायदा का सरगना बन गया था।
साभार https://www.bbc.com/hindi/india/2015/03/150315_urdu_jasoosi_novels_pm ]
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