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गुरुवार, 31 जुलाई 2025

⚜️️🔱 प्रीति बिरोध समान सन, करिअ नीति असि आहि।⚜️️🔱 घटना -310⚜️️️️🔱सभा में अंगद का व्यंग और श्रीराम की सेना के बल और पराक्रम का रावण द्वारा उपहास ⚜️️🔱 श्रीरामचरितमानस- षष्ठ सोपान, लंका काण्ड। ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || लंका काण्ड भाग #310 🔱

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[सुन्दर काण्ड /लंका  काण्ड]

(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???) 
   
[ घटना - 310: दोहा -23,24]

[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #310||]


 

>>सभा में अंगद का व्यंग और श्रीराम की सेना  के बल और पराक्रम का रावण द्वारा उपहास 

          सभा में अंगद के व्यंग वचन सुनकर रावण श्रीराम की सेना के सभी योद्धाओं के बल और पराक्रम का उपहास करता है। हाँ, उस वानर को वो नहीं भूला जिसने लंका जलाई थी। अंगद ने कहा -तूँ जिसके बल की सरहना कर रहा है , वो तो सुग्रीव का सन्देशवाहक मात्र था, किन्तु क्या सचमुच ही प्रभु की आज्ञा पाए बिना तुम्हारी सोने की लंका जला डाली ? तुम सच ही कहते हो कि हमारे दल में कोई भी ऐसा वीर नहीं जो तुमसे लड़कर शोभा पाए। प्रीति और वैर अपने बराबर वालों से ही करना चाहिए। तुम्हें मारना श्रीराम को शोभा नहीं देता ; किन्तु क्षत्रिय का क्रोध बड़ा प्रबल होता है। अंगद के व्यंग वाणों से रावण का कलेजा जल उठा, क्रोध में उसने वानर जाति के लिए अपशब्द कहे। उनकी स्वामि-भक्ति की खिल्ली उड़ाई। और ये कहकर अपने बड़प्पन का परिचय दिया कि वो गुणग्राहक है , और इसी कारण वानरों के बकवास पर ध्यान नहीं देता। अंगद ने फिर व्यंगवाण छोड़ा - हाँ तेरी गुणग्राहकता मैंने हनुमान से सुनी थी। लंकादहन , अशोकवाटिका का विध्वंश और अपने पुत्र अक्षयकुमार का वध करने के बाद भी तूने इसी गुणग्राहकता के कारण तूने हनुमान का कोई अहित नहीं किया। फिर अपने पिता बाली/वाली के हाँथों रावण को क्षमा दान का स्मरण कर बोले, मैंने जगत में कई रावण होने की बात सुनी है। एक रावण तो वो था जो जब बाली को जीतने पाताल लोक गया , तो बच्चों ने उसे घुड़साल में बाँध रखा। बाली दयाकर उसे बच्चों से मुक्त कराया। एक और रावण को जन्तु समझ सहस्त्रबाहु ने पकड़ लिया था , कौतुक के लिए जब उसे घर ले आये , तो पुलस्त्य ऋषि ने उसे मुक्त कराया। एक रावण ने वो भी था , जिसे बाली ने अपनी काँख में दबा लिया था; इनमें से तूँ कौन सा रावण है ?..... 

दोहा :
Doha:

* सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ।
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ॥23 क॥

भावार्थ:- क्या सचमुच ही उस वानर ने प्रभु की आज्ञा पाए बिना ही तुम्हारा नगर जला डाला? मालूम होता है, इसी डर से वह लौटकर सुग्रीव के पास नहीं गया और कहीं छिप रहा!॥23 (क)||

English: "It seems true that the monkey set fire to your capital without receiving an order from his master. That is why he did not go back to Sugriva and remained in hiding for fear. 

* सत्य कहहि दसकंठ सब मोहि न सुनि कछु कोह।
कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह॥23 ख॥

भावार्थ:- हे रावण! तुम सब सत्य ही कहते हो, मुझे सुनकर कुछ भी क्रोध नहीं है। सचमुच हमारी सेना में कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे लड़ने में शोभा पाए॥23 (ख)||

English: All that you say, Ravana, is true and I am not in the least angry at hearing it. There is none in our army who would fight you with any amount of grace.

* प्रीति बिरोध समान सन, करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि॥23 ग॥

भावार्थ:- प्रीति और वैर बराबरी वाले से ही करना चाहिए, नीति ऐसी ही है। सिंह यदि मेंढकों को मारे, तो क्या उसे कोई भला कहेगा?॥23 (ग)||

English: Make friends or enter into hostilities only with your equals: this is a sound maxim to follow. If a lion were to kill frogs, will anyone speak well of him?

* जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष।
तदपि कठिन दसकंठ सुनु छत्र जाति कर रोष॥23 घ॥

भावार्थ:-यद्यपि तुम्हें मारने में श्री रामजी की लघुता है और बड़ा दोष भी है तथापि हे रावण! सुनो, क्षत्रिय जाति का क्रोध बड़ा कठिन होता है॥23 (घ)||

English: Though it would be derogatory on the part of Shri Ram to kill you and He will incur great blame thereby, yet, mark me, Ravana, the fury of the Kshatriya race is hard to face.”

* बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस।
प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस॥23 ङ॥

भावार्थ:-वक्रोक्ति रूपी धनुष से वचन रूपी बाण मारकर अंगद ने शत्रु का हृदय जला दिया। वीर रावण उन बाणों को मानो प्रत्युत्तर रूपी सँड़सियों से निकाल रहा है॥ 23 (ङ)||

English: The monkey (Angad) burnt the enemy’s heart with shafts of speech shot forth from the bow of sarcasm; and the ten-headed hero proceeded to extract the arrows, so to speak, with pairs of pincers in the form of rejoinders.

* हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक।
जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक॥23 च॥

भावार्थ:- तब रावण हँसकर बोला- बंदर में यह एक बड़ा गुण है कि जो उसे पालता है, उसका वह अनेकों उपायों से भला करने की चेष्टा करता है॥23 (च)||

English: He laughed and said: "“A monkey possesses one great virtue: it does everything in its power to serve him who maintains it."
चौपाई :
Chaupai:

* धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा॥
नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करइ धर्म निपुनाई॥1॥

भावार्थ:- बंदर को धन्य है, जो अपने मालिक के लिए लाज छोड़कर जहाँ-तहाँ नाचता है नाच-कूदकर, लोगों को रिझाकर, मालिक का हित करता है। यह उसके धर्म की निपुणता है॥1||

English: "Bravo for a monkey, who dances unabashed in the service of its master anywhere and everywhere. Dancing and skipping about to amuse the people it serves the interest of its master; this shows its keen devotion to duty.

* अंगद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती॥
मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करउँ नहिं काना॥2॥

भावार्थ:-हे अंगद! तेरी जाति स्वामिभक्त है (फिर भला) तू अपने मालिक के गुण इस प्रकार कैसे न बखानेगा? मैं गुण ग्राहक (गुणों का आदर करने वाला) और परम सुजान (समझदार) हूँ, इसी से तेरी जली-कटी बक-बक पर कान (ध्यान) नहीं देता॥2||

English: Angad, all of your race are devoted to their lord; how could you, then, fail to extol the virtues of your master in the way you have done? I am a respecter of merit and too magnanimous to pay any attention to your scurrilously glib talk.”

* कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई॥
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा॥3॥

भावार्थ:- अंगद ने कहा- तुम्हारी सच्ची गुण ग्राहकता तो मुझे हनुमान्‌ ने सुनाई थी। उसने अशोक वन में विध्वंस (तहस-नहस) करके, तुम्हारे पुत्र को मारकर नगर को जला दिया था। तो भी (तुमने अपनी गुण ग्राहकता के कारण यही समझा कि) उसने तुम्हारा कुछ भी अपकार नहीं किया॥3||

English: Said Angad: “The son of the wind-god gave me a true account of your partiality to merit. He laid waste your garden, killed your son and set fire to your city and yet (in your eyes) he did you no wrong.

* सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई॥
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा॥4॥

भावार्थ:- तुम्हारा वही सुंदर स्वभाव विचार कर, हे दशग्रीव! मैंने कुछ धृष्टता की है। हनुमान्‌ ने जो कुछ कहा था, उसे आकर मैंने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है, न क्रोध है और न चिढ़ है॥4||

English: Remembering such amiability of your disposition I have been so insolent in my behaviour with you, O Ravan. On coming here I have witnessed all that Hanuman told me, viz., that you have no shame, no anger and no feeling of resentment.”

*जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा॥
पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही॥5॥

भावार्थ:- (रावण बोला-) अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुद्धि है, तभी तो तू बाप को खा गया। ऐसा वचन कहकर रावण हँसा। अंगद ने कहा- पिता को खाकर फिर तुमको भी खा डालता, परन्तु अभी तुरंत कुछ और ही बात मेरी समझ में आ गई!॥5||

English: "Having been the death of my father I would have next claimed you as my victim; but a thought has come to me just now.   

* बालि बिमल जस भाजन जानी। हतउँ न तोहि अधम अभिमानी॥
कहु रावन रावन जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते॥6॥

भावार्थ:- अरे नीच अभिमानी! बालि के निर्मल यश का पात्र (कारण) जानकर तुम्हें मैं नहीं मारता। रावण! यह तो बता कि जगत्‌ में कितने रावण हैं? मैंने जितने रावण अपने कानों से सुन रखे हैं, उन्हें सुन-॥6||

English: Knowing you to be a living memorial of Bali's unsullied fame, I desist from killing you, O vile boaster. Tell me, Ravana, how many Ravana there are in the world? Or hear from me how many I have heard of.

* बलिहि जितन एक गयउ पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला॥
खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोड़ाई॥7॥

भावार्थ:- एक रावण तो बलि को जीतने पाताल में गया था, तब बच्चों ने उसे घुड़साल में बाँध रखा। बालक खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बलि को दया लगी, तब उन्होंने उसे छुड़ा दिया॥7||

English: One went to the nether world (Pataal) to conquer Bali and was tied up in the stables by the children, who made sport of him and thrashed him till Bali took compassion on him and had him released.

* एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जंतु बिसेषा॥
कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़ावा॥8॥

भावार्थ:- फिर एक रावण को सहस्रबाहु ने देखा, और उसने दौड़कर उसको एक विशेष प्रकार के (विचित्र) जन्तु की तरह (समझकर) पकड़ लिया। तमाशे के लिए वह उसे घर ले आया। तब पुलस्त्य मुनि ने जाकर उसे छुड़ाया॥8||

English: Another again was discovered by King Sahasrabahu who ran and captured him as a strange creature and brought him home for the sake of fun. The sage Pulastya then went and secured his release."

दोहा :
Doha:


* एक कहत मोहि सकुच अति, रहा बालि कीं काँख।
इन्ह महुँ रावन तैं कवन, सत्य बदहि तजि माख॥24॥

भावार्थ:- एक रावण की बात कहने में तो मुझे बड़ा संकोच हो रहा है- वह (बहुत दिनों तक) बालि की काँख में रहा था। इनमें से तुम कौन से रावण हो? खीझना छोड़कर सच-सच बताओ॥24||

English: "Yet another, I am much ashamed to tell you, was held tight under Bali's arm. Be not angry, Ravana, but tell me the truth, which of these may you be?”

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बुधवार, 30 जुलाई 2025

⚜️️🔱* सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई॥⚜️️🔱 घटना -309⚜️️️️🔱 लंका की सभा में अंगद और रावण का संवाद⚜️️🔱 श्रीरामचरितमानस- षष्ठ सोपान, लंका काण्ड। ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || लंका काण्ड भाग #309⚜️🔱

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[सुन्दर काण्ड /लंका  काण्ड]

(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???) 
   
[ घटना - 309: दोहा -21,22]

[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #309||]

>>लंका की सभा में अंगद और रावण का संवाद

            अंगद की बात सुन, रावण को क्रोध हो आता है। सामने खड़ा बन्दर बालिपुत्र है, ये जानकर रावण सकुचाया। किन्तु उसे कुलनाशक कहकर उसकी भर्त्स्ना करते हुआ बोला - तूँ तो अपने कुल रूपी बाँस के लिए अग्निरूप पैदा हुआ है। अपने को एक तपस्वी का दूत बताते हुए तुझे लज्जा नहीं आती ? तेरा पिता कहाँ है , और कैसा है वो ? अंगद उत्तर देते हैं - कुछ दिनों बाद तुम स्वयं उनके पास जाकर उनका कुशलक्षेम पूछ लेना। सच है मैं कुल-नाशक हूँ , और तुम कुल-रक्षक हो। ऐसी बात तो अंधे और बहरे भी नहीं करते, तुम तो दस शीश और बीस आँखों वाले हो। अंगद के वचन सुनकर, रावण का क्रोध उबल पड़ता है। किन्तु उसे अपने नीतिवान और धर्मपालक होने का भ्रम भी है, अतः अपने क्रोध पर काबू पाने का बड़प्पन दिखाता है। अंगद व्यंग करते हैं -तुम्हारी धर्मशीलता के बारे में मैंने सुना है। तुम्हारी धर्मशीलता का उदाहरण है कि तुमने परायी स्त्री का हरण कर लिया है। अपनी बहन का नाककान कटे देख, धर्म का विचार करके ही तो तुमने क्षमा कर दिया था। बड़े भाग हैं मेरे , जो मैंने तुम्हारा दर्शन पाया ..... 

चौपाई :
Chaupai:

* रे कपिपोत बोलु संभारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी॥
कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई॥1॥

भावार्थ:- (रावण ने कहा-) अरे बंदर के बच्चे! सँभालकर बोल! मूर्ख! मुझ देवताओं के शत्रु को तूने जाना नहीं? अरे भाई! अपना और अपने बाप का नाम तो बता। किस नाते से मित्रता मानता है?॥1||

English: “Mind what you speak, you little monkey. Fool, are you not aware of my being an avowed enemy of the gods? Tell me, young fellow, your own name as well as your father’s. What is the common ground on which you claim fellowship between your father and myself?”

* अंगद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भई ही भेंटा॥
अंगद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना॥2॥

भावार्थ:-(अंगद ने कहा-) मेरा नाम अंगद है, मैं बालि का पुत्र हूँ। उनसे कभी तुम्हारी भेंट हुई थी? अंगद का वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया (और बोला-) हाँ, मैं जान गया (मुझे याद आ गया), बालि नाम का एक बंदर था॥2||

English: Angad is my name: I am Bali`s son. Did you ever meet him?” Ravan felt uncomfortable when he heard Angad`s reply. “Yes, I do remember that there was a monkey, Bali by name.

* अंगद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक॥
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु॥3॥

भावार्थ:- अरे अंगद! तू ही बालि का लड़का है? अरे कुलनाशक! तू तो अपने कुलरूपी बाँस के लिए अग्नि रूप ही पैदा हुआ! गर्भ में ही क्यों न नष्ट हो गया तू? व्यर्थ ही पैदा हुआ जो अपने ही मुँह से तपस्वियों का दूत कहलाया!॥3||

English: But, Angad, are you Bali`s son? You have been born as a fire in a cluster of bamboos for the destruction of your own race. Why should you have not perished even in the womb? In vain were you born, who have called yourself with your own mouth a hermit’s envoy.

* अब कहु कुसल बालि कहँ अहई। बिहँसि बचन तब अंगद कहई॥
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई॥4॥

भावार्थ:- अब बालि की कुशल तो बता, वह (आजकल) कहाँ है? तब अंगद ने हँसकर कहा- दस (कुछ) दिन बीतने पर (स्वयं ही) बालि के पास जाकर, अपने मित्र को हृदय से लगाकर, उसी से कुशल पूछ लेना॥4||

English: Now tell me if all is well with Bali and, if so, where is he?” Angad laughed at this and then replied. “Ten days hence you shall go to Bali and embracing your friend personally enquire after his welfare.

* राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई॥
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्री रघुबीर हृदय नहिं जाकें॥5॥

भावार्थ:-श्री रामजी से विरोध करने पर जैसी कुशल होती है, वह सब तुमको वे सुनावेंगे। हे मूर्ख! सुन, भेद उसी के मन में पड़ सकता है, (भेद नीति उसी पर अपना प्रभाव डाल सकती है) जिसके हृदय में श्री रघुवीर न हों॥5||

English: He will tell you all about the welfare that follows from hostility with Shri Ram. Listen, O fool: the seeds of dissension can be sown in the mind of him alone whose heart is closed to the Hero of Raghu’s line.”    


दोहा :
Doha:

* हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस।
अंधउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस॥21॥

भावार्थ:- सच है, मैं तो कुल का नाश करने वाला हूँ और हे रावण! तुम कुल के रक्षक हो। अंधे-बहरे भी ऐसी बात नहीं कहते, तुम्हारे तो बीस नेत्र और बीस कान हैं!॥21||

English: “I, forsooth, am the exterminator of my race; while you, Ravana are the preserver of yours. Even the blind and the deaf would not say so, whereas you possess a score of eyes and an equal number of ears.”
चौपाई :
Chaupai:

* सिव बिरंचि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई॥
तासु दूत होइ हम कुल बोरा। अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा॥1॥

भावार्थ:- शिव, ब्रह्मा (आदि) देवता और मुनियों के समुदाय जिनके चरणों की सेवा (करना) चाहते हैं, उनका दूत होकर मैंने कुल को डुबा दिया? अरे ऐसी बुद्धि होने पर भी तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता?॥1||

English: “What ! Did I bring dishonour on my family by acting as His ambassador whose feet even Shiv, Brahma and all the gods and sages desire to serve? It is strange that your heart does not burst asunder even on entertaining such an idea.”

* सुनि कठोर बानी कपि केरी। कहत दसानन नयन तरेरी॥
खल तव कठिन बचन सब सहऊँ। नीति धर्म मैं जानत अहऊँ॥2॥

भावार्थ:- वानर (अंगद) की कठोर वाणी सुनकर रावण आँखें तरेरकर (तिरछी करके) बोला- अरे दुष्ट! मैं तेरे सब कठोर वचन इसीलिए सह रहा हूँ कि मैं नीति और धर्म को जानता हूँ (उन्हीं की रक्षा कर रहा हूँ)॥2||

English: When he heard the monkey’s sharp rejoinder, Ravana glowered at him and said, “Wretch, I put up with your harsh words only because I know the bounds of decorum and righteousness.”

* कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी॥
देखी नयन दूत रखवारी। बूड़ि न मरहु धर्म ब्रतधारी॥3॥

भावार्थ:- अंगद ने कहा- तुम्हारी धर्मशीलता मैंने भी सुनी है। (वह यह कि) तुमने पराई स्त्री की चोरी की है! और दूत की रक्षा की बात तो अपनी आँखों से देख ली। ऐसे धर्म के व्रत को धारण (पालन) करने वाले तुम डूबकर मर नहीं जाते!॥3||

English: Said the monkey, “I too have heard of your piety, which is evident from the fact that you stole away another’s wife. And I have witnessed with my own eyes the protection you vouchsafed to an envoy. An upholder of piety, why do you not drown yourself and thus end your life?

* कान नाक बिनु भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी॥
धर्मसीलता तव जग जागी। पावा दरसु हमहुँ बड़भागी॥4॥

भावार्थ:-नाक-कान से रहित बहिन को देखकर तुमने धर्म विचारकर ही तो क्षमा कर दिया था! तुम्हारी धर्मशीलता जगजाहिर है। मैं भी बड़ा भाग्यवान्‌ हूँ, जो मैंने तुम्हारा दर्शन पाया?॥4||

English: When you saw your sister with her ears and nose cut off, it was from considerations of piety that you forgave the wrong. Your piety is famed throughout the world: I too am very fortunate in having been able to see you.” 

दोहा :
Doha:

* जनि जल्पसि जड़ जंतु कपि सठ बिलोकु मम बाहु।
लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु॥22 क॥

भावार्थ:- (रावण ने कहा-) अरे जड़ जन्तु वानर! व्यर्थ बक-बक न कर, अरे मूर्ख! मेरी भुजाएँ तो देख। ये सब लोकपालों के विशाल बल रूपी चंद्रमा को ग्रसने के लिए राहु हैं॥22 (क)||

English: “Prate no more, you stupid creature, but look at my arms, O foolish monkey, that are like so many Rahu`s to eclipse the tremendous moon-like might of the guardians of the spheres.

* पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास।
सोभत भयउ मराल इव संभु सहित कैलास॥22 ख॥

भावार्थ:- फिर (तूने सुना ही होगा कि) आकाश रूपी तालाब में मेरी भुजाओं रूपी कमलों पर बसकर शिवजी सहित कैलास हंस के समान शोभा को प्राप्त हुआ था!॥22 (ख)|| 

English: Again, (you might have heard that) while resting on my lotus-like palms in the lake of the heavens. Mount Kailash with Sambhu (Lord Shiva) shone like a swan.”

चौपाई :
Chaupai:

* तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद॥
तब प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना॥1॥

भावार्थ:- अरे अंगद! सुन, तेरी सेना में बता, ऐसा कौन योद्धा है, जो मुझसे भिड़ सकेगा। तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग में बलहीन हो रहा है और उसका छोटा भाई उसी के दुःख से दुःखी और उदास है॥1||

English: “Listen, Angad; tell me which warrior in your army will dare encounter me. Your master Ram has grown weak due to separation from his wife, while his younger brother (Lakshman) shares his grief and is consequently very sad.

* तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ॥
जामवंत मंत्री अति बूढ़ा। सो कि होइ अब समरारूढ़ा॥2॥

भावार्थ:- तुम और सुग्रीव, दोनों (नदी) तट के वृक्ष हो (रहा) मेरा छोटा भाई विभीषण, (सो) वह भी बड़ा डरपोक है। मंत्री जाम्बवान्‌ बहुत बूढ़ा है। वह अब लड़ाई में क्या चढ़ (उद्यत हो) सकता है?॥2||

English: You and Sugreev are like trees on a river bank (that can be washed away any moment); as for my younger brother (Vibhishan), he is a great coward. Your counsellor, Jambvan, is too advanced in age to take his stand on the field of battle;

* सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला॥
आवा प्रथम नगरु जेहिं जारा। सुनत बचन कह बालिकुमारा॥3॥

भावार्थ:- नल-नील तो शिल्प-कर्म जानते हैं (वे लड़ना क्या जानें?)। हाँ, एक वानर जरूर महान्‌ बलवान्‌ है, जो पहले आया था और जिसने लंका जलाई थी। यह वचन सुनते ही बालि पुत्र अंगद ने कहा-॥3||

English: while Nala and Nila are mere architects (and no warriors). There is one monkey, no doubt, of extraordinary might—he who came before and set fire to the city.” On hearing this Bali's son (Angad) replied: “

* सत्य बचन कहु निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा॥
रावण नगर अल्प कपि दहई। सुनि अस बचन सत्य को कहई॥4॥

भावार्थ:- हे राक्षसराज! सच्ची बात कहो! क्या उस वानर ने सचमुच तुम्हारा नगर जला दिया? रावण (जैसे जगद्विजयी योद्धा) का नगर एक छोटे से वानर ने जला दिया। ऐसे वचन सुनकर उन्हें सत्य कौन कहेगा?॥4||

English: Tell me the truth, O demon king: is it a fact that a monkey burnt down your capital? A puny monkey set on fire Ravana`s capital ! Who, on hearing such a report, would declare it as true?

* जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन॥
चलइ बहुत सो बीर न होई। पठवा खबरि लेन हम सोई॥5॥

भावार्थ:- हे रावण! जिसको तुमने बहुत बड़ा योद्धा कहकर सराहा है, वह तो सुग्रीव का एक छोटा सा दौड़कर चलने वाला हरकारा है। वह बहुत चलता है, वीर नहीं है। उसको तो हमने (केवल) खबर लेने के लिए भेजा था॥5||

English: Ravana, he whom you have extolled as a distinguished warrior is only one of Sugriva`s petty runners. He who walks long distances is no champion; we sent him only to get news.”

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मंगलवार, 29 जुलाई 2025

⚜️️🔱'प्रभु प्रताप उर सहज असंका'⚜️️🔱 घटना -308⚜️️🔱>>श्रीराम का सन्देश लेकर दूत के रूप में अंगद के रावण की सभा में पहुँचने का प्रसंग ⚜️️🔱- श्रीरामचरितमानस- षष्ठ सोपान, लंका काण्ड। ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || लंका काण्ड भाग #308⚜️🔱

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान


[सुन्दर काण्ड /लंका  काण्ड]

(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???) 
   
[ घटना - 308: दोहा -17 ख, 18, 19,20 ]

[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #308||]


 

>>श्रीराम का सन्देश लेकर दूत के रूप में अंगद के रावण की सभा में पहुँचने का प्रसंग - 

           मैं जानता हूँ कि तुम परम चतुर हो, शत्रु से ऐसे बात करना जिससे हमारा उद्देश्य पूरा हो, और उसका कल्याण हो (भारत की विदेशनीति : हमारा उद्देश्य पूरा हो और शत्रु का कल्याण हो)।श्रीराम का ये वचन ह्रदय में धारण कर अंगद लंका में प्रवेश करते हैं। राह में रावण के एक पुत्र से भेंट होती है, जो इनके समान ही अतुलनीय बलशाली है। बातों- बातों में दोनों में झगड़ा हो जाता है। रावणपुत्र ने क्रोध में इन्हें मारने को जो लात उठाई, तो अंगद ने वही लात पकड़ उसे मार गिराया; पूरी लंका में भय और आतंक छा गया। बालिपुत्र अंगद तब रावण की सभा में उपस्थित होते हैं , परिचय पूछे जाने पर अंगद कहते हैं - 'मैं श्रीराम का दूत हूँ , मेरे पिता बाली तुम्हारे मित्र थे; अतः मैं तुम्हारे कल्याण की बात करने आया हूँ , पुलस्तय ऋषि के पौत्र होने के नाते तुम उत्तम कुल के वंशज हो। सभी लोकपालों और राजाओं को तुमने जीता है ; लेकिन मदाधन्ता वश तुम जगतजननी सीता को हर लाये हो। अब अपनी करनी के पश्चाताप स्वरुप मेरी सलाह मानकर श्रीराम की शरण जाकर उनसे क्षमा प्रार्थना करो.... 

चौपाई :
Chaupai:

* बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई॥
प्रभु प्रताप उर सहज असंका। रन बाँकुरा बालिसुत बंका॥1॥

भावार्थ:- चरणों की वंदना करके और भगवान्‌ की प्रभुता हृदय में धरकर अंगद सबको सिर नवाकर चले। प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण किए हुए रणबाँकुरे वीर बालिपुत्र स्वाभाविक ही निर्भय हैं॥1||


English: Adoring the Lord’s feet and keeping His glory in his heart Angad bowed his head to all and departed. The gallant son of Vali, who was an adept in warfare, was dauntless by nature, cherishing as he did the might of the Lord.

* पुर पैठत, रावन कर बेटा। खेलत रहा, सो होइ गै भेंटा॥
बातहिं बात करष बढ़ि आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई॥2॥

भावार्थ:-लंका में प्रवेश करते ही रावण के पुत्र से भेंट हो गई, जो वहाँ खेल रहा था बातों ही बातों में दोनों में झगड़ा बढ़ गया (क्योंकि) दोनों ही अतुलनीय बलवान्‌ थे और फिर दोनों की युवावस्था थी॥2||   

English: As soon as he entered the city he met one of Ravan`s sons (Prahasta by name), who was playing there. From words they proceeded to fight; for both were unrivalled in strength and in the prime of youth to boot.

* तेहिं अंगद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई॥
निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी॥3॥

भावार्थ:- उसने अंगद पर लात उठाई। अंगद ने (वही) पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका (मार गिराया)। राक्षस के समूह भारी योद्धा देखकर जहाँ-तहाँ (भाग) चले, वे डर के मारे पुकार भी न मचा सके॥3||

English: He raised his foot to kick Angad, who in his turn seized the foot and, swinging him round, dashed him to the ground finding him a formidable warrior, the demons ran helter-skelter in large numbers, too much frightened to raise an alarm. They did not tell one another what had happened,

* एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं॥
भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहिं जारी॥4॥

भावार्थ:-एक-दूसरे को मर्म (असली बात) नहीं बतलाते, उस (रावण के पुत्र) का वध समझकर सब चुप मारकर रह जाते हैं। (रावण पुत्र की मृत्यु जानकर और राक्षसों को भय के मारे भागते देखकर) नगरभर में कोलाहल मच गया कि जिसने लंका जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है॥4||

English: but kept quiet when they thought of the death of Ravan`s son. There was a cry in the whole city that the same monkey who had burnt down Lanka had come again.

* अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा॥
बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई॥5॥

भावार्थ:- सब अत्यंत भयभीत होकर विचार करने लगे कि विधाता अब न जाने क्या करेगा। वे बिना पूछे ही अंगद को (रावण के दरबार की) राह बता देते हैं। जिसे ही वे देखते हैं, वही डर के मारे सूख जाता है॥5||

English: “Who knows what turn Providence is going to take?” everyone thought in excessive dismay. People showed him the way unasked: if he but looked at anyone, the latter would turn deadly pale.

दोहा :
Doha:

* गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज।
सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज॥18॥

भावार्थ:- श्री रामजी के चरणकमलों का स्मरण करके अंगद रावण की सभा के द्वार पर गए और वे धीर, वीर और बल की राशि अंगद सिंह की सी ऐंड़ (शान) से इधर-उधर देखने लगे॥18||

English: With his thoughts fixed on the lotus-feet of Shri Ram he then reached the gate of Ravana`s council-chamber. And there the stout-hearted and mighty hero stood with the mien of a lion glancing this side and that 

चौपाई :
Chaupai:

* तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा॥
सुनत बिहँसि बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा॥1॥

भावार्थ:- तुरंत ही उन्होंने एक राक्षस को भेजा और रावण को अपने आने का समाचार सूचित किया। सुनते ही रावण हँसकर बोला- बुला लाओ, (देखें) कहाँ का बंदर है॥1||

English: He forthwith sent a demon and apprised Ravana of his arrival. On hearing the news the ten-headed monster laughed and said. “Go, usher him in my presence and let me see where the monkey has come from.”

* आयसु पाइ दूत बहु धाए। कपिकुंजरहि बोलि लै आए॥
अंगद दीख दसानन बैसें। सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें॥2॥

भावार्थ:- आज्ञा पाकर बहुत से दूत दौड़े और वानरों में हाथी के समान अंगद को बुला लाए। अंगद ने रावण को ऐसे बैठे हुए देखा, जैसे कोई प्राणयुक्त (सजीव) काजल का पहाड़ हो!॥2||

English: Receiving his order a host of messengers ran and fetched the monkey chief. Angad saw the ten-headed giant seated on his throne like a living mountain of collyrium. 

* भुजा बिटप सिर सृंग समाना। रोमावली लता जनु नाना॥
मुख नासिका नयन अरु काना। गिरि कंदरा खोह अनुमाना॥3॥

भावार्थ:- भुजाएँ वृक्षों के और सिर पर्वतों के शिखरों के समान हैं। रोमावली मानो बहुत सी लताएँ हैं। मुँह, नाक, नेत्र और कान पर्वत की कन्दराओं और खोहों के बराबर हैं॥3||

English: His arms looked like trees and heads like peaks; while the hair on his body presented the appearance of numerous creepers. His mouths, nostrils, eyes and ears were as big as mountain caves and chasms.

* गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा॥
उठे सभासद कपि कहुँ देखी। रावन उर भा क्रोध बिसेषी॥4॥

भावार्थ:- अत्यंत बलवान्‌ बाँके वीर बालिपुत्र अंगद सभा में गए, वे मन में जरा भी नहीं झिझके। अंगद को देखते ही सब सभासद् उठ खड़े हुए। यह देखकर रावण के हृदय में बड़ा क्रोध हुआ॥4||

English: With an unflinching mind he entered the court, the valiant son of Vali, possessed of great might. The assembly abruptly rose at the sight of the monkey; at this Ravan`s heart was filled with great fury.

दोहा :
Doha:

* जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ।
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ॥19॥

भावार्थ:- जैसे मतवाले हाथियों के झुंड में सिंह (निःशंक होकर) चला जाता है, वैसे ही श्री रामजी के प्रताप का हृदय में स्मरण करके वे (निर्भय) सभा में सिर नवाकर बैठ गए॥19||

English: Thinking of Shri Ram`s might Angada bowed his head and took his seat in the assembly as fearlessly as a lion treads in the midst of mad elephants.

चौपाई :
Chaupai:

* कह दसकंठ, कवन तैं बंदर। मैं रघुबीर दूत दसकंधर॥
मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई॥1॥

भावार्थ:- रावण ने कहा- अरे बंदर! तू कौन है? (अंगद ने कहा-) हे दशग्रीव! मैं श्री रघुवीर का दूत हूँ। मेरे पिता से और तुमसे मित्रता थी, इसलिए हे भाई! मैं तुम्हारी भलाई के लिए ही आया हूँ॥1||

English: “Monkey, who are you?” Ravana asked. “I am an ambassador from the Hero of Raghu’s line, Ravana. There was friendship between you and my father; hence it is in your interest, brother, that I have come.

* उत्तम कुल, पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा॥2॥

भावार्थ:- तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो। शिवजी की और ब्रह्माजी की तुमने बहुत प्रकार से पूजा की है। उनसे वर पाए हैं और सब काम सिद्ध किए हैं। लोकपालों और सब राजाओं को तुमने जीत लिया है॥2||

English: Of noble descent and a grandson of the sage Pulastya (one of the mind-born sons of  Brahma), you worshipped Lord Shiva and Brahma in various ways, obtained boons from them, accomplished all your objects and conquered the guardians of the different spheres as well as all earthly sovereigns.

* नृप अभिमान मोह बस किंबा। हरि आनिहु सीता जगदंबा॥
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥3॥

भावार्थ:- राजमद से या मोहवश तुम जगज्जननी सीताजी को हर लाए हो। अब तुम मेरे शुभ वचन (मेरी हितभरी सलाह) सुनो! (उसके अनुसार चलने से) प्रभु श्री रामजी तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे॥3||

English: Under the influence of kingly pride or infatuation you carried off Sita, the Mother of the Universe. But even now you listen to my friendly advice and the Lord will forgive all your offences.

* दसन गहहु तृन कंठ कुठारी। परिजन सहित संग निज नारी॥
सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें॥4॥

भावार्थ:-दाँतों में तिनका दबाओ, गले में कुल्हाड़ी डालो और कुटुम्बियों सहित अपनी स्त्रियों को साथ लेकर, आदरपूर्वक जानकीजी को आगे करके, इस प्रकार सब भय छोड़कर चलो-॥4||

English: Put a straw between the rows of your teeth and an axe by your throat and take all your people including your wives with you, respectfully placing Janaka’s Daughter at the head. In this way repair to Him shedding all fear.

दोहा :
Doha:

* प्रनतपाल रघुबंसमनि, त्राहि त्राहि अब मोहि।
आरत गिरा सुनत प्रभु, अभय करेंगे तोहि॥20॥

भावार्थ:- और 'हे शरणागत के पालन करने वाले रघुवंश शिरोमणि श्री रामजी! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।' (इस प्रकार आर्त प्रार्थना करो।) आर्त पुकार सुनते ही प्रभु तुमको निर्भय कर देंगे॥20||

English: “And address Him thus: ‘O Protector of the suppliant, O Jewel of Raghu’s race, save me, save me now.’ The moment He hears your piteous cry the Lord will surely rid you of every fear.”

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⚜️️🔱 'अहंकार' सिव 'बुद्धि' अज 'मन' ससि 'चित्त' महान।⚜️️🔱 घटना -307⚜️️मूरुख हृदयँ न चेत जौं, गुर मिलहिं बिरंचि सम॥🔱श्रीराम के व्यापक स्वरुप का वर्णन कर मन्दोदरी द्वारा रावण को समझाने का प्रयत्न और अंगद को दूत के रूप में रावण की सभा में भेजने का विचार⚜️️🔱श्रीरामचरितमानस- षष्ठ सोपान, लंका काण्ड। ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || लंका काण्ड भाग #307⚜️🔱

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान


[सुन्दर काण्ड /लंका  काण्ड]

(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???) 
   
[ घटना - 307: दोहा -15क,15ख,16क, 16ख, 17क,17 ख  ]

[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #307||]


⚜️️मूरुख हृदयँ न चेत जौं, गुर मिलहिं बिरंचि सम॥⚜️️

    >>श्रीराम के व्यापक स्वरुप (विश्वरूप) का वर्णन कर मन्दोदरी द्वारा रावण को समझाने का प्रयत्न और अंगद को दूत के रूप में रावण की सभा में भेजने का विचार ......

     कर्णफूल के काटकर गिरने से मन्दोदरी सोंच में पड़ गयी थी ; वो श्रीराम के व्यापक स्वरुप और पराक्रम की कल्पना भलीभाँति कर सकती थी। शिव जिनके मान (अहंकार), ब्रह्मा बुद्धि, चन्द्रमा मन और विष्णु चित्त हैं;उन्हीं जगदीश्वर ने मनुष्य रूप धारण किया है !! वो पति को यह सब समझाने की भरसक चेष्टा करती है। किन्तु रावण हँसकर उसकी ये बात -यह कहते हुए टाल देता है- 'सच कहते हैं, कि नारी के ह्रदय में छल, भय, चंचलता , झूठ , अविवेक और अपवित्रता तथा निर्दयता का निवास होता है। मन्दोदरी द्वारा वर्णित भगवान के विश्वरूप में वर्णित यह चराचर विश्व तो मेरा आधिपत्य स्वीकार करते हैं, अतः उनसे भय कैसा ? हो न हो अपने कथन से वो उसकी प्रभुता की ही महिमा बखान रही है। रानी की गूढ़ बातें रावण के लिए विरोध का हेतु बन गयीं। आमोद-प्रमोद के क्षण बीत जाते हैं; सवेरा होता है। जिस प्रकार बादलों द्वारा बरसाया गया जीवनदायी जल पाकर भी बेंत फल-फूल नहीं सकता, उसी प्रकार मन्दोदरी समझ लेती है कि उसका पति काल के वश में हो गया है, उसकी मति मारी गयी है, ऐसे में तो ब्रह्मा जैसा गुरु भी उन्हें ज्ञान नहीं दे सकता। इधर श्रीराम की सभा में वृद्ध जामवंत ये परामर्श देते हैं कि अंगद को दूत के रूप में रावण की सभा में भेजा जाए ...                 

दोहा

 Doha:
अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान॥15 क॥

भावार्थ:- शिव जिनका अहंकार (मान)  हैं, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चंद्रमा मन (अन्तःकरण =मन, बुद्धि, चित) हैं और महान (विष्णु) ही चित्त (मनवस्तु) हैं। उन्हीं चराचर रूप (विश्वरूप) भगवान श्री रामजी ने मनुष्य रूप में निवास किया है॥15 (क)||

English: “Lord Shiva is His ego, Brahma His Intellect (reason), the moon His mind [faculty of understanding =अन्तःकरण = मन, बुद्धि,चित्त और अहंकार] and the great Vishnu is His चित्त (mind stuff-चित्त). It is the same Lord Shri Ram, manifested in the form of this animate and inanimate creation,

* अस बिचारि सुनु प्रानपति, प्रभु सन बयरु बिहाइ।
प्रीति करहु रघुबीर पद, मम अहिवात न जाइ॥15 ख॥

भावार्थ:- हे प्राणपति सुनिए, ऐसा विचार कर प्रभु से वैर छोड़कर श्री रघुवीर के चरणों में प्रेम कीजिए, जिससे मेरा सुहाग न जाए॥15 (ख)||

English: who has assumed a human semblance.(मानव रूप) Pondering thus, hear me, O lord of my life: cease hostility with the Lord and cultivate devotion to the feet of Shri Ram (the Hero of Raghu’s line) so that my good-luck may not desert me.”

चौपाई :
Chaupai:


* बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना॥
नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं॥1॥

भावार्थ:- पत्नी के वचन कानों से सुनकर रावण खूब हँसा (और बोला-) अहो! मोह (अज्ञान-infatuation) की महिमा बड़ी बलवान्‌ है। स्त्री का स्वभाव सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं-॥1||

English: Ravan laughed when he heard the words of his wife. “Oh, how mighty is the power of infatuation (आसक्ति की दीवानगी)! They rightly observe in regard to the character of a woman that the following eight evils ever abide in her heart:

* साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया॥
रिपु कर रूप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा॥2॥

भावार्थ:- साहस (recklessness-दुस्साहस) , झूठ (mendacity-मिथ्याभाषण) , चंचलता, माया (deceit-छल), भय (timidity-डरपोकपन) अविवेक (indiscretion-धृष्टता-ढिठाई), अपवित्रता और निर्दयता (callousness-बेरहमी)। तूने शत्रु का समग्र (विराट) रूप गाया और मुझे उसका बड़ा भारी भय सुनाया॥2||

English: recklessness, mendacity, fickleness, deceit, timidity, indiscretion, impurity and callousness. You have described the enemy’s cosmic form and thus told me a most alarming story.

* सो सब प्रिया सहज बस मोरें। समुझि परा अब प्रसाद तोरें॥
जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई। एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई॥3॥

भावार्थ:- हे प्रिये! वह सब (यह चराचर विश्व तो) स्वभाव से ही मेरे वश में है। तेरी कृपा से मुझे यह अब समझ पड़ा। हे प्रिये! तेरी चतुराई मैं जान गया। तू इस प्रकार (इसी बहाने) मेरी प्रभुता का बखान कर रही है॥3||

English: But all that (whatever is comprised in that cosmic form), my beloved, is naturally under my control; it is by your grace that this has become clear to me now. I have come to know your ingenuity, my dear; for in this way you have told my greatness.

* तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि॥
मंदोदरि मन महुँ अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयउ॥4॥

भावार्थ:- हे मृगनयनी! तेरी बातें बड़ी गूढ़ (रहस्यभरी) हैं, समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय छुड़ाने वाली हैं। मंदोदरी ने मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि पति को कालवश मतिभ्रम हो गया है॥4||

English: Your words, O fawn-eyed lady, are profound: they afford delight when understood and dispel all fear even when heard. Mandodari was now convinced at heart that her husband’s impending death had deluded him.

दोहा :
Doha:
* ऐहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध।
सहज असंक लंकपति सभाँ गयउ मद अंध॥16 क॥

भावार्थ:- इस प्रकार (अज्ञानवश) बहुत से विनोद करते हुए रावण को सबेरा हो गया। तब स्वभाव से ही निडर और घमंड में अंधा लंकापति सभा में गया॥16 (क)||

English: While Ravan was laughing and joking in diverse ways as mentioned above, the day broke and the king of Lanka, who was intrepid by nature and further blinded by pride, entered the court.

सोरठा :#

 
Sortha:


* फूलइ फरइ न बेत, जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं, गुर मिलहिं बिरंचि सम॥16 ख॥

भावार्थ:- यद्यपि बादल अमृत सा जल बरसाते हैं तो भी बेत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्ख के हृदय में चेत (ज्ञान) नहीं होता॥16 (ख)||

[सोरठा क्या है ? एक अर्द्धसम मात्रिक छंद है। यह दोहा का ठीक उलटा होता है। इसके विषम चरणों चरण में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं।]  

English: The reed neither blossoms nor bears fruit even though the clouds rain nectar on it. Similarly the light of wisdom would never dawn on a fool even though he may have a teacher like Viranchi (Brahma).

चौपाई :
Chaupai:


* इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई॥
कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई॥1॥

भावार्थ:- यहाँ (सुबेल पर्वत पर) प्रातःकाल श्री रघुनाथजी जागे और उन्होंने सब मंत्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइए, अब क्या उपाय करना चाहिए? जाम्बवान्‌ ने श्री रामजी के चरणों में सिर नवाकर कहा-॥1||

English: At this end the Lord of the Raghus woke at daybreak and, summoning all His counsellors, asked their opinion: “Tell me quickly what course should be adopted.” Jambvan bowed his head at the Lord’s feet and said

* सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥2॥

भावार्थ:- हे सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले)! हे सबके हृदय में बसने वाले (अंतर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि! सुनिए! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूँ कि बालिकुमार अंगद को दूत बनाकर भेजा जाए!॥2||

English: “Listen, O omniscient Lord, indweller of all hearts, storehouse of wisdom, strength, glory, piety and goodness: I offer advice to You according to my own lights. It is that Vali`s son (Prince Angad) may be sent as an envoy (to Ravana).”

* नीक मंत्र सब के मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना॥
बालितनय बुधि बल गुन धामा। लंका जाहु तात मम कामा॥3॥

भावार्थ:- यह अच्छी सलाह सबके मन में जँच गई। कृपा के निधान श्री रामजी ने अंगद से कहा- हे बल, बुद्धि और गुणों के धाम बालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे काम के लिए लंका जाओ॥3||

English: The good counsel commended itself to all and the All-merciful turned to Angad and said, “O son of Vali, repository of wisdom, strength and goodness! go to Lanka, dear son, for My cause.

* बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥
काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥4॥

भावार्थ:- तुमको बहुत समझाकर क्या कहूँ! मैं जानता हूँ, तुम परम चतुर हो। शत्रु से वही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो॥4||

English: I need not give you any elaborate instructions. I know you are supremely clever. You should talk with the enemy in such words as may advance My cause and serve his interest at the same time.”

सोरठा :
Soratha:


* प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ।
सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा कर करहु॥17 क॥

भावार्थ:-प्रभु की आज्ञा सिर चढ़कर और उनके चरणों की वंदना करके अंगदजी उठे (और बोले-) हे भगवान्‌ श्री रामजी! आप जिस पर कृपा करें, वही गुणों का समुद्र हो जाता है॥17 (क)||

English: Bowing to the Lord’s command and adoring His feet, Angad arose and said, “He alone is an ocean of virtues, on whom You shower Your grace, O divine Rama.

* स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ।
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ॥17 ख॥

भावार्थ:-स्वामी सब कार्य अपने-आप सिद्ध हैं, यह तो प्रभु ने मुझ को आदर दिया है (जो मुझे अपने कार्य पर भेज रहे हैं)। ऐसा विचार कर युवराज अंगद का हृदय हर्षित और शरीर पुलकित हो गया॥17 (ख)||

English: “All the objects of my Lord are self-accomplished,” he thought; “He has only honoured me (by charging me with this task).” And the thought thrilled his body and delighted his heart. 

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रविवार, 27 जुलाई 2025

⚜️🔱बिस्वरूप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु। ⚜️️🔱 घटना -306 ⚜️️🔱ऑपरेशन सिन्दूर ⚜️️🔱श्री रामजी के प्रत्यावर्ती बाण (Boomerang Arrow) से रावण के छत्र, मुकुट- और मन्दोदरी के कर्णफ़ूलों आदि को गिराकर बाण का तरकस में वापस आना ⚜️🔱श्रीरामचरितमानस- षष्ठ सोपान, लंका काण्ड। ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || लंका काण्ड भाग #306⚜️🔱

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान


[सुन्दर काण्ड /लंका  काण्ड]

(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???) 
   
[ घटना - 306: दोहा -12 क,12 ख, 13 क, 13 ख, 14 ]

[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #306 ||]

 
 बिस्वरूप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।

>> श्रीराम द्वारा बाण का सन्धान और रावण द्वारा अपने पराक्रम  और निर्भयता का उद्घोष

           रावण को चुनौती देने के लिए, श्रीराम ने एक ऐसे बाण # का सन्धान किया , जो उसके, क्षत्र-मुकुट और मन्दोदरी के कर्णफूलों को काटता गिराता ; तरकस में वापस आ गया। उपस्थित असुर समुदाय आतंकित हो गया। सबको भयभीत देख रावण ने अपने पराक्रम और निर्भयता का उद्घोष किया।  

दोहा :
कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास॥12 क॥


भावार्थ: - हनुमान्जी ने कहा- हे प्रभो! सुनिए, चंद्रमा आपका प्रिय दास है। आपकी सुंदर श्याम मूर्ति चंद्रमा के हृदय में बसती है, वही श्यामता की झलक चंद्रमा में है॥12 (क)॥ 

पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान।
दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान॥12 ख॥


भावार्थ: - पवनपुत्र हनुमान्जी के वचन सुनकर सुजान श्री रामजी हँसे। फिर दक्षिण की ओर देखकर कृपानिधान प्रभु बोले-॥12 (ख)॥

चौपाई :


देखु विभीषन दच्छिन आसा। घन घमंड दामिनी बिलासा॥
मधुर मधुर गरजइ घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा॥1॥


भावार्थ: - हे विभीषण! दक्षिण दिशा की ओर देखो, बादल कैसा घुमड़ रहा है और बिजली चमक रही है। भयानक बादल मीठे-मीठे (हल्के-हल्के) स्वर से गरज रहा है। कहीं कठोर ओलों की वर्षा न हो!॥1॥

कहत विभीषन सुनहू कृपाला। होइ न तड़ित न बारिद माला॥
लंका सिखर उपर आगारा। तहँ दसकंधर देख अखारा॥2॥


भावार्थ: - विभीषण बोले- हे कृपालु! सुनिए, यह न तो बिजली है, न बादलों की घटा। लंका की चोटी पर एक महल है। दशग्रीव रावण वहाँ (नाच-गान का) अखाड़ा देख रहा है॥2॥

छत्र मेघडंबर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी॥
मंदोदरी श्रवन ताटंका। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका॥3॥


भावार्थ: - रावण ने सिर पर मेघडंबर (बादलों के डंबर जैसा विशाल और काला) छत्र धारण कर रखा है। वही मानो बादलों की काली घटा है। मंदोदरी के कानों में जो कर्णफूल हिल रहे हैं, हे प्रभो! वही मानो बिजली चमक रही है॥3॥

बाजहिं ताल मृदंग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहू सुरभूपा।
प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप चढ़ाव बान संधाना॥4॥


भावार्थ: - हे देवताओं के सम्राट! सुनिए, अनुपम ताल मृदंग बज रहे हैं। वही मधुर (गर्जन) ध्वनि है। रावण का अभिमान समझकर प्रभु मुस्कुराए। उन्होंने धनुष चढ़ाकर उस पर बाण का सन्धान किया॥4॥

दोहा :
छत्र मुकुट तांटक तब हते एकहीं बान।
सब कें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान॥13 क॥


भावार्थ: - और एक ही बाण से (रावण के) छत्र-मुकुट और (मंदोदरी के) कर्णफूल काट गिराए। सबके देखते-देखते वे जमीन पर आ पड़े, पर इसका भेद (कारण) किसी ने नहीं जाना॥13 (क)॥

अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आई निषंग।
रावन सभा ससंक सब देखि महा रसभंग॥13 ख॥


भावार्थ: - ऐसा चमत्कार करके श्री रामजी का बाण (वापस) आकर (फिर) तरकस में जा घुसा। यह महान् रस भंग (रंग में भंग) देखकर रावण की सारी सभा भयभीत हो गई॥13 (ख)॥

चौपाई :
कंप न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।
सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयंकर भारी॥1॥


भावार्थ: - न भूकम्प हुआ, न बहुत जोर की हवा (आँधी) चली। न कोई अस्त्र-शस्त्र ही नेत्रों से देखे। (फिर ये छत्र, मुकुट और कर्णफूल जैसे कटकर गिर पड़े?) सभी अपने-अपने हृदय में सोच रहे हैं कि यह बड़ा भयंकर अपशकुन हुआ!॥1॥

दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।
सिरउ गिरे संतत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही॥2॥


भावार्थ: - सभा को भयतीत देखकर रावण ने हँसकर युक्ति रचकर ये वचन कहे- सिरों का गिरना भी जिसके लिए निरंतर शुभ होता रहा है, उसके लिए मुकुट का गिरना अपशकुन कैसा?॥2॥


मन्दोदरी का फिर रावण को समझाना और श्री राम की महिमा कहना

सयन करहु निज निज गृह जाईं। गवने भवन सकल सिर नाई॥
मंदोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ॥3॥


भावार्थ: - अपने-अपने घर जाकर सो रहो (डरने की कोई बात नहीं है) तब सब लोग सिर नवाकर घर गए। जब से कर्णफूल पृथ्वी पर गिरा, तब से मंदोदरी के हृदय में सोच बस गया॥3॥

सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी॥
कंत राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ लग धरहू॥4॥


भावार्थ: - नेत्रों में जल भरकर, दोनों हाथ जोड़कर वह (रावण से) कहने लगी- हे प्राणनाथ! मेरी विनती सुनिए। हे प्रियतम! श्री राम से विरोध छोड़ दीजिए। उन्हें मनुष्य जानकर मन में हठ न पकड़े रहिए॥4॥

दोहा :
बिस्वरूप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।
लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु॥14॥


भावार्थ: - मेरे इन वचनों पर विश्वास कीजिए कि ये रघुकुल के शिरोमणि श्री रामचंद्रजी विश्व रूप हैं- (यह सारा विश्व उन्हीं का रूप है)। वेद जिनके अंग-अंग में लोकों की कल्पना करते हैं॥14॥

चौपाई :
पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥
भृकुटि बिलास भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला॥1॥


भावार्थ: - पाताल (जिन विश्व रूप भगवान् का) चरण है, ब्रह्म लोक सिर है, अन्य (बीच के सब) लोकों का विश्राम (स्थिति) जिनके अन्य भिन्न-भिन्न अंगों पर है। भयंकर काल जिनका भृकुटि संचालन (भौंहों का चलना) है। सूर्य नेत्र हैं, बादलों का समूह बाल है॥1॥

जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा॥
श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी॥2॥


भावार्थ: - अश्विनी कुमार जिनकी नासिका हैं, रात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना और खोलना) हैं। दसों दिशाएँ कान हैं, वेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणी है॥2॥

अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला॥
आनन अनल अंबुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा॥3॥


भावार्थ: - लोभ जिनका अधर (होठ) है, यमराज भयानक दाँत हैं। माया हँसी है, दिक्पाल भुजाएँ हैं। अग्नि मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्टा (क्रिया) है॥3॥

रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा॥
उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना॥4॥


भावार्थ: - अठारह प्रकार की असंख्य वनस्पतियाँ जिनकी रोमावली हैं, पर्वत अस्थियाँ हैं, नदियाँ नसों का जाल है, समुद्र पेट है और नरक जिनकी नीचे की इंद्रियाँ हैं। इस प्रकार प्रभु विश्वमय हैं, अधिक कल्पना (ऊहापोह) क्या की जाए?॥4॥ 

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सोये वीरों की नींद खुली, सदियों के टूट गए बंधन !  
फिर और हिमालय गरज उठा , गरज उठा हिन्दमहासागर
!

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⚜️ देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक : 'देखो चंद्रमा कैसा सिंह के समान निडर है'!⚜️घटना -305 ⚜️🔱 रावण द्वारा अपने 'विवेकवान पुत्र प्रहस्त' की सलाह न मानने और श्रीराम का अपने प्रियजनों से मंत्रणा का प्रसंग ⚜️🔱श्रीरामचरितमानस- षष्ठ सोपान, लंका काण्ड। ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || लंका काण्ड भाग #305 ⚜️🔱

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान


[सुन्दर काण्ड /लंका  काण्ड]

(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???) 

   
[ घटना - 305: दोहा -9,10, 11 ख]


[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #305||]

>>रावण द्वारा अपने 'विवेकवान पुत्र प्रहस्त' की सलाह न मानने और श्रीराम का अपने प्रियजनों से मंत्रणा का प्रसंग --- 

     अपने पुत्र प्रहस्त से नीति की बात तथा श्रीराम से प्रीति करने का अनुरोध सुनकर रावण उसे झिड़क देता है। प्रहस्त को प्रतीति होती है कि मृत्यु के वशीभूत रोगी पर औषधि का कोई प्रभाव नहीं होता। रावण लंका की चोटी पर निर्मित अपने रंगमहल में किन्नरों के गान तथा अप्सराओं के नृत्य का आनन्द उठाने चल देता है। उधर सुबेल पर्वत पर श्रीराम सुग्रीव की गोद में सिर रख के अपने प्रियजनों -विभीषण, हनुमान, लक्ष्मण आदि से मंत्रणा कर रहे हैं। पूर्वी क्षितिज पर चन्द्रमा उदित हो रहा है , जिसकी शोभा से सभी मुग्ध हैं, अनंत आकाश पर बिखरे तारों से मानो रात्रि रूपी सुन्दरी ने अपना श्रृंगार किया है ---

यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा॥
सुत सन कह दसकंठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई॥1॥


भावार्थ: - हे प्रभो! यदि आप मेरी यह सम्मति मानेंगे, तो जगत् में दोनों ही प्रकार से आपका सुयश होगा। रावण ने गुस्से में भरकर पुत्र से कहा- अरे मूर्ख! तुझे ऐसी बुद्धि किसने सिखायी?॥1॥  

अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई॥
सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा॥2॥


भावार्थ: - अभी से हृदय में सन्देह (भय) हो रहा है? हे पुत्र! तू तो बाँस की जड़ में घमोई हुआ (तू मेरे वंश के अनुकूल या अनुरूप नहीं हुआ)। पिता की अत्यन्त घोर और कठोर वाणी सुनकर प्रहस्त ये कड़े वचन कहता हुआ घर को चला गया॥2॥

हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुँ भेषज जैसें॥
संध्या समय जानि दससीसा। भवन चलेउ निरखत भुज बीसा॥3॥


भावार्थ: - हित की सलाह आपको कैसे नहीं लगती (आप पर कैसे असर नहीं करती), जैसे मृत्यु के वश हुए (रोगी) को दवा नहीं लगती। संध्या का समय जानकर रावण अपनी बीसों भुजाओं को देखता हुआ महल को चला॥3॥

लंका सिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा॥
बैठ जाइ तेहिं मंदिर रावन। लागे किंनर गुन गन गावन॥4॥


भावार्थ: - लंका की चोटी पर एक अत्यन्त विचित्र महल था। वहाँ नाच-गान का अखाड़ा जमता था। रावण उस महल में जाकर बैठ गया। किन्नर उसके गुण समूहों को गाने लगे॥4॥

बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना॥5॥


भावार्थ: - ताल (करताल), पखावज (मृदंग) और बीणा बज रहे हैं। नृत्य में प्रवीण अप्सराएँ नाच रही हैं॥5॥

दोहा :
सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास।
परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास॥10॥


भावार्थ: - वह निरन्तर सैकड़ों इन्द्रों के समान भोग-विलास करता रहता है। यद्यपि (श्रीरामजी-सरीखा) अत्यन्त प्रबल शत्रु सिर पर है, फिर भी उसको न तो चिन्ता है और न डर ही है॥10॥


सुबेल पर्वत पर श्री रामजी की झाँकी और चंद्रोदय वर्णन

चौपाई :
इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा॥
सिखर एक उतंग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी॥1॥


भावार्थ: - यहाँ श्री रघुवीर सुबेल पर्वत पर सेना की बड़ी भीड़ (बड़े समूह) के साथ उतरे। पर्वत का एक बहुत ऊँचा, परम रमणीय, समतल और विशेष रूप से उज्ज्वल शिखर देखकर-॥1॥

तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥
ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला॥2॥


भावार्थ: - वहाँ लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूल अपने हाथों से सजाकर बिछा दिए। उस पर सुंदर और कोमल मृग छाला बिछा दी। उसी आसन पर कृपालु श्री रामजी विराजमान थे॥2॥

प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निषंगा॥
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लंकेस मंत्र लगि काना॥3॥


भावार्थ: - प्रभु श्री रामजी वानरराज सुग्रीव की गोद में अपना सिर रखे हैं। उनकी बायीं ओर धनुष तथा दाहिनी ओर तरकस (रखा) है। वे अपने दोनों करकमलों से बाण सुधार रहे हैं। विभीषणजी कानों से लगकर सलाह कर रहे हैं॥3॥

बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना॥
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान सरासन॥4


भावार्थ: - परम भाग्यशाली अंगद और हनुमान अनेकों प्रकार से प्रभु के चरण कमलों को दबा रहे हैं। लक्ष्मणजी कमर में तरकस कसे और हाथों में धनुष-बाण लिए वीरासन से प्रभु के पीछे सुशोभित हैं॥4॥

दोहा :
ऐहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन॥11 क॥


भावार्थ: - इस प्रकार कृपा, रूप (सौंदर्य) और गुणों के धाम श्री रामजी विराजमान हैं। वे मनुष्य धन्य हैं, जो सदा इस ध्यान में लौ लगाए रहते हैं॥11 (क)॥

पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मयंक।
कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक॥11 ख॥


भावार्थ: - पूर्व दिशा की ओर देखकर प्रभु श्री रामजी ने चंद्रमा को उदय हुआ देखा। तब वे सबसे कहने लगे- चंद्रमा को तो देखो। कैसा सिंह के समान निडर है!॥11 (ख)॥

चौपाई :
पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी॥
मत्त नाग तम कुंभ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी॥1॥


भावार्थ: - पूर्व दिशा रूपी पर्वत की गुफा में रहने वाला, अत्यंत प्रताप, तेज और बल की राशि यह चंद्रमा रूपी सिंह अंधकार रूपी मतवाले हाथी के मस्तक को विदीर्ण करके आकाश रूपी वन में निर्भय विचर रहा है॥1॥

बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुंदरी केर सिंगारा॥
कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई॥2॥


भावार्थ: - आकाश में बिखरे हुए तारे मोतियों के समान हैं, जो रात्रि रूपी सुंदर स्त्री के श्रृंगार हैं। प्रभु ने कहा- भाइयो! चंद्रमा में जो कालापन है, वह क्या है? अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार कहो॥2॥

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई॥
मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई॥3॥


भावार्थ: - सुग्रीव ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए! चंद्रमा में पृथ्वी की छाया दिखाई दे रही है। किसी ने कहा- चंद्रमा को राहु ने मारा था। वही (चोट का) काला दाग हृदय पर पड़ा हुआ है॥3॥

कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥
छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं॥4॥


भावार्थ: - कोई कहता है- जब ब्रह्मा ने (कामदेव की स्त्री) रति का मुख बनाया, तब उसने चंद्रमा का सार भाग निकाल लिया (जिससे रति का मुख तो परम सुंदर बन गया, परन्तु चंद्रमा के हृदय में छेद हो गया)। वही छेद चंद्रमा के हृदय में वर्तमान है, जिसकी राह से आकाश की काली छाया उसमें दिखाई पड़ती है॥4॥

प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा॥
बिष संजुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवंत नर नारी॥5॥


भावार्थ: - प्रभु श्री रामजी ने कहा- विष चंद्रमा का बहुत प्यारा भाई है, इसी से उसने विष को अपने हृदय में स्थान दे रखा है। विषयुक्त अपने किरण समूह को फैलाकर वह वियोगी नर-नारियों को जलाता रहता है॥5॥  

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दोहा :
कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास॥12 क॥


भावार्थ: - हनुमान्जी ने कहा- हे प्रभो! सुनिए, चंद्रमा आपका प्रिय दास है। आपकी सुंदर श्याम मूर्ति चंद्रमा के हृदय में बसती है, वही श्यामता की झलक चंद्रमा में है॥12 (क)॥

नवाह्नपारायण, सातवाँ विश्राम :

 नवाह्नपारायण, रामचरितमानस के पाठ की एक विधि है जिसमें संपूर्ण रामचरितमानस को नौ दिनों में पूरा किया जाता है। यह विशेष रूप से नवरात्रों के दौरान आयोजित किया जाता है, जहाँ हर दिन एक निश्चित भाग का पाठ किया जाता है। नवाह्नपारायण के दौरान, रामचरितमानस के विभिन्न कांडों को नौ विश्राम (विराम) स्थलों में विभाजित किया जाता है।  हर दिन एक विश्राम स्थल तक का पाठ किया जाता है। नवाह्नपारायण का मुख्य उद्देश्य रामचरितमानस का पाठ करके भगवान राम का आशीर्वाद प्राप्त करना और आध्यात्मिक शांति प्राप्त करना है।  यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि नवाह्नपारायण एक विशेष विधि है और इसे करने के लिए उचित मार्गदर्शन और विधि का पालन करना आवश्यक है।       

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⚜️🔱बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे॥⚜️🔱घटना -304 ⚜️🔱मन्दोदरी और राज सभा में पुत्र प्रहस्त द्वारा रावण को समझाने का प्रयास ⚜️🔱श्रीरामचरितमानस- षष्ठ सोपान, लंका काण्ड। ⚜️🔱श्री रामचरित मानस गायन || लंका काण्ड भाग #304 ⚜️🔱

 श्रीरामचरितमानस
षष्ठ सोपान


लंका  काण्ड
[ घटना - 304 : दोहा -5,6,7,8,9]
[Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #303||]  


 >> मन्दोदरी और राज सभा में पुत्र प्रहस्त द्वारा रावण को समझाने का प्रयास

      मन्दोदरी के लाख समझाने पर भी रावण को सद्बुद्धि नहीं आती, श्रीराम की शरण में न जाकर वो अपनी प्रभुता और पराक्रम का गान करने लगता है। मन्दोदरी को अपना सुहाग अचल रखने की चिन्ता है , किन्तु रावण की मदान्धता बहुत अधिक हो गयी है , वो सोचता है कि जब मैंने वरुण, कुबेर, पवन और यमराज को ही नहीं बल्कि काल को भी जीत लिया है; तो मेरा अहित अब भला कौन कर सकता है ? मन्दोदरी को विश्वास हो जाता है कि उसके पति पर अब काल सवार है , अन्यथा इतना अभिमान उसे क्यूँ कर होता ? सभा में मन्त्रणा के नाम पर मन्त्री गण उसकी ठकुरसुहाती करते हैं ; ये देख रावण का विवेकवान पुत्र प्रहस्त पिता को एक बार फिर समझाने का प्रयास करता है।  कहता है - एक ही वानर आकर सोने की लंका जला गया , हे प्रभु इन मंत्रियों की तो समझ सुनने में तो बहुत प्रिय लग रही है , किन्तु इनकी बात मानकर चलने पर  आगे दुःख उठाना पड़ेगा। जगत में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है , जो सुहाने वाली बातें कहते हैं , सत्य और प्रिय कहने वालों की संख्या कम होती है। मुझे कायर और भीरु न समझ , मैं जो कहता हूँ उस पर ध्यान दीजिये -और नीति के अनुसार दूत भेजकर , श्रीराम से सद्भाव स्थापित कर लीजिये। ... 

चौपाई :
निज बिकलता बिचारि बहोरी॥ बिहँसि गयउ गृह करि भय भोरी॥
मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो॥1॥


भावार्थ: - फिर अपनी व्याकुलता को समझकर (ऊपर से) हँसता हुआ, भय को भुलाकर, रावण महल को गया। (जब) मंदोदरी ने सुना कि प्रभु श्री रामजी आ गए हैं और उन्होंने खेल में ही समुद्र को बँधवा लिया है,॥1॥

कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी॥
चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा॥2॥


भावार्थ: - (तब) वह हाथ पकड़कर, पति को अपने महल में लाकर परम मनोहर वाणी बोली। चरणों में सिर नवाकर उसने अपना आँचल पसारा और कहा- हे प्रियतम! क्रोध त्याग कर मेरा वचन सुनिए॥2॥

नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों॥
तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा॥3॥


भावार्थ: - हे नाथ! वैर उसी के साथ करना चाहिए, जिससे बुद्धि और बल के द्वारा जीत सकें। आप में और श्री रघुनाथजी में निश्चय ही कैसा अंतर है, जैसा जुगनू और सूर्य में!॥3॥

अति बल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत संघारे॥
जेहिं बलि बाँधि सहस भुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा॥4॥


भावार्थ: - जिन्होंने (विष्णु रूप से) अत्यन्त बलवान् मधु और कैटभ (दैत्य) मारे और (वराह और नृसिंह रूप से) महान् शूरवीर दिति के पुत्रों (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) का संहार किया, जिन्होंने (वामन रूप से) बलि को बाँधा और (परशुराम रूप से) सहस्रबाहु को मारा, वे ही (भगवान्) पृथ्वी का भार हरण करने के लिए (रामरूप में) अवतीर्ण (प्रकट) हुए हैं!॥4

तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा॥5॥

भावार्थ: - हे नाथ! उनका विरोध न कीजिए, जिनके हाथ में काल, कर्म और जीव सभी हैं॥5॥

दोहा :
रामहि सौंपि जानकी नाइ कमल पद माथ।
सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ॥6॥


भावार्थ: - (श्री रामजी) के चरण कमलों में सिर नवाकर (उनकी शरण में जाकर) उनको जानकीजी सौंप दीजिए और आप पुत्र को राज्य देकर वन में जाकर श्री रघुनाथजी का भजन कीजिए॥6॥

चौपाई :
नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई॥
चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते॥1॥


भावार्थ: - हे नाथ! श्री रघुनाथजी तो दीनों पर दया करने वाले हैं। सम्मुख (शरण) जाने पर तो बाघ भी नहीं खाता। आपको जो कुछ करना चाहिए था, वह सब आप कर चुके। आपने देवता, राक्षस तथा चर-अचर सभी को जीत लिया॥1॥

संत कहहिं असि नीति दसानन। चौथेंपन जाइहि नृप कानन॥
तासु भजनु कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता॥2॥


भावार्थ: - हे दशमुख! संतजन ऐसी नीति कहते हैं कि चौथेपन (बुढ़ापे) में राजा को वन में चला जाना चाहिए। हे स्वामी! वहाँ (वन में) आप उनका भजन कीजिए जो सृष्टि के रचने वाले, पालने वाले और संहार करने वाले हैं॥2॥

सोइ रघुबीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी॥
मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी॥3॥


भावार्थ: - हे नाथ! आप विषयों की सारी ममता छोड़कर उन्हीं शरणागत पर प्रेम करने वाले भगवान् का भजन कीजिए। जिनके लिए श्रेष्ठ मुनि साधन करते हैं और राजा राज्य छोड़कर वैरागी हो जाते हैं-॥3॥

सोइ कोसलाधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया॥
जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन॥4॥


भावार्थ: - वही कोसलाधीश श्री रघुनाथजी आप पर दया करने आए हैं। हे प्रियतम! यदि आप मेरी सीख मान लेंगे, तो आपका अत्यंत पवित्र और सुंदर यश तीनों लोकों में फैल जाएगा॥4॥

दोहा :
अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात॥7॥


भावार्थ: - ऐसा कहकर, नेत्रों में (करुणा का) जल भरकर और पति के चरण पकड़कर, काँपते हुए शरीर से मंदोदरी ने कहा- हे नाथ! श्री रघुनाथजी का भजन कीजिए, जिससे मेरा सुहाग अचल हो जाए॥7॥ 

चौपाई :
तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई॥
सुनु तैं प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना॥1॥


भावार्थ: - तब रावण ने मंदोदरी को उठाया और वह दुष्ट उससे अपनी प्रभुता कहने लगा- हे प्रिये! सुन, तूने व्यर्थ ही भय मान रखा है। बता तो जगत् में मेरे समान योद्धा है कौन?॥1॥

[घटना -304]

बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला॥
देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें॥2॥


भावार्थ: - वरुण, कुबेर, पवन, यमराज आदि सभी दिक्पालों को तथा काल को भी मैंने अपनी भुजाओं के बल से जीत रखा है। देवता, दानव और मनुष्य सभी मेरे वश में हैं। फिर तुझको यह भय किस कारण उत्पन्न हो गया?॥2॥ 

नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई॥
मंदोदरीं हृदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना॥3॥


भावार्थ: - मंदोदरी ने उसे बहुत तरह से समझाकर कहा (किन्तु रावण ने उसकी एक भी बात न सुनी) और वह फिर सभा में जाकर बैठ गया। मंदोदरी ने हृदय में ऐसा जान लिया कि काल के वश होने से पति को अभिमान हो गया है॥3॥

सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेहिं बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा॥
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा॥4॥


भावार्थ: - सभा में आकर उसने मंत्रियों से पूछा कि शत्रु के साथ किस प्रकार से युद्ध करना होगा? मंत्री कहने लगे- हे राक्षसों के नाथ! हे प्रभु! सुनिए, आप बार-बार क्या पूछते हैं?॥4॥

कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा॥5॥


भावार्थ: - कहिए तो (ऐसा) कौन-सा बड़ा भय है, जिसका विचार किया जाए? (भय की बात ही क्या है?) मनुष्य और वानर-भालू तो हमारे भोजन (की सामग्री) हैं॥

दोहा :
सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि।
नीति बिरोध न करिअ प्रभु मंत्रिन्ह मति अति थोरि॥8॥


भावार्थ: - कानों से सबके वचन सुनकर (रावण का विवेकवान पुत्र) प्रहस्त हाथ जोड़कर कहने लगा- हे प्रभु! नीति के विरुद्ध कुछ भी नहीं करना चाहिए, मन्त्रियों में बहुत ही थोड़ी बुद्धि है॥8॥

कहहिं सचिव सठ ठकुर सोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती॥
बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा॥॥1॥


भावार्थ: - ये सभी मूर्ख (खुशामदी) मन्त्र ठकुरसुहाती (मुँहदेखी) कह रहे हैं। हे नाथ! इस प्रकार की बातों से पूरा नहीं पड़ेगा। एक ही बंदर समुद्र लाँघकर आया था। उसका चरित्र सब लोग अब भी मन-ही-मन गाया करते हैं (स्मरण किया करते हैं) ॥1॥

छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू॥
सुनत नीक आगें दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा॥॥2॥


भावार्थ: - उस समय तुम लोगों में से किसी को भूख न थी? (बंदर तो तुम्हारा भोजन ही हैं, फिर) नगर जलाते समय उसे पकड़कर क्यों नहीं खा लिया? इन मन्त्रियों ने स्वामी (आप) को ऐसी सम्मति सुनायी है जो सुनने में अच्छी है पर जिससे आगे चलकर दुःख पाना होगा॥2॥

जेहिं बारीस बँधायउ हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला॥
सो भनु मनुज खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई॥3॥


भावार्थ: - जिसने खेल-ही-खेल में समुद्र बँधा लिया और जो सेना सहित सुबेल पर्वत पर आ उतरा है। हे भाई! कहो वह मनुष्य है, जिसे कहते हो कि हम खा लेंगे? सब गाल फुला-फुलाकर (पागलों की तरह) वचन कह रहे हैं!॥3॥

तात बचन मम सुनु अति आदर। जनि मन गुनहु मोहि करि कादर।
प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीं॥4॥


भावार्थ: - हे तात! मेरे वचनों को बहुत आदर से (बड़े गौर से) सुनिए। मुझे मन में कायर न समझ लीजिएगा। जगत् में ऐसे मनुष्य झुंड-के-झुंड (बहुत अधिक) हैं, जो प्यारी (मुँह पर मीठी लगने वाली) बात ही सुनते और कहते हैं॥4॥

बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे॥##
प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती॥5॥


भावार्थ: - हे प्रभो! सुनने में कठोर परन्तु (परिणाम में) परम हितकारी वचन जो सुनते और कहते हैं,वे मनुष्य बहुत ही थोड़े हैं। नीति सुनिये, (उसके अनुसार) पहले दूत भेजिये, और (फिर) सीता को देकर श्रीरामजी से प्रीति (मेल) कर लीजिये॥5

दोहा :
नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि।
नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि॥9॥


भावार्थ: - यदि वे स्त्री पाकर लौट जाएँ, तब तो (व्यर्थ) झगड़ा न बढ़ाइये। नहीं तो (यदि न फिरें तो) हे तात! सम्मुख युद्धभूमि में उनसे हठपूर्वक (डटकर) मार-काट कीजिए॥9॥ 

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##सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः।

अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।।

अर्थ—हे राजन् संसार में प्रिय वचन बोलनेवाले व्यक्ति तो बहुत मिलेंगे पर जो अप्रिय होने पर भी हितकारी हो,ऐसी बात कहने और सुननेवाले दुर्लभ हैं। (यह वाल्मीकीयरामायण,अरण्यकाण्ड,अध्याय ३७ का दूसरा श्लोक है।) 

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