आदि शंकराचार्य ने बहुत सारे महान स्तोत्र (प्रार्थना) लिखे हैं, लेकिन यह एक अनोखी प्रार्थना है, जो न केवल एक प्रार्थना है, बल्कि उन सभी दर्शन का सारांश है जो उन्होंने सिखाया है। अपने समय के दौरान भी, इस स्तोत्र को समझना मुश्किल था। इसलिए सुरेश्वराचार्य ने इस स्तोत्र पर मानसोल्लास नामक एक भाष्य लिखा है । बाद में इस भाष्य के ऊपर भी बड़ी संख्या में पुस्तकें और टीकाएँ लिखी गयी हैं।
१. भगवान शिव के दक्षिणामूर्ति रूप की आराधना करने से भगवान शिव के इष्टदेव - "भगवान श्रीराम" की भक्ति एवं आत्मज्ञान (रामेश्वरम) दोनों की प्राप्ति होती है : भगवान शिव सृष्टि के आद्य गुरु हैं। उनके भिन्न - भिन्न रूपों की साधना भक्त करते हैं। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीय मानस भगवान् शिव को पूजता रहा है। शिव की दयालुता, उनके समान करुणावरुणालय कौन है? "शिव समान दाता नहीं" कहकर कवियों ने उनकी उदारता को प्रकट किया है। बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख कर बैठे हुए भगवान शिव को दक्षिणमूर्ति कहा जाता है। भगवान शिव के इस दक्षिणामूर्ति के रूप में आराधना करने से भक्तों को आत्मज्ञान और भगवान शिव के इष्टदेव भगवान श्रीराम की भक्ति दोनों प्राप्त होती है।
२. दक्षिणामूर्ति वैसे गुरु हैं जो कठिनतम विचारों को भी (ॐ के अर्थ को भी) कुशलतम तरीके से पढ़ा सकते हैं : "दक्षिणामूर्ति" भगवान शिव का वह रूप् हैं जिन्हें संसार के युवा गुरु के रूप् में जाना जाता है, जो सभी प्रकार के ज्ञान के गुरु हैं। दक्षिणामूर्ति कैलाश पर्वत के उपर और ध्रुव तारा के नीचे बैठते हैं। यह उत्तर दिशा में है और अब तक इस स्थान को इस गोल पृथ्वी का केंद्र माना जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत धरती की सबसे प्राचीन भूमि है और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। फिर जब समुद्र हटा तो अन्य धरती का प्रकटन हुआ और इस तरह धीरे-धीरे जीवन भी फैलता गया। भगवान शिव दुनिया के सभी धर्मों के मूल हैं। उन्हें दक्षिणामूर्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनका मुंह दक्षिण की ओर है। दक्षिणामूर्ति शब्द का अर्थ कुशल-उपदेशक भी होता है। इसलिए दक्षिणामूर्ति वैसे गुरु हैं जो कठिनतम विचारों को भी (ॐ के अर्थ को भी) कुशलतम तरीके से पढ़ा सकते हैं।
३. संसार (प्रवृत्ति) और संन्यास (निवृत्ति) :- शिव को 'त्रिलोचन' कहते हैं यानी उनकी तीन आंखें हैं। प्रत्येक मनुष्य की भौहों के बीच तीसरा नेत्र रहता है। शिव का तीसरा नेत्र हमेशा जाग्रत रहता है, लेकिन बंद। यदि आप अपनी आंखें बंद करेंगे तो आपको भी इस नेत्र का अहसास होगा। शिव का यह तीसरा नेत्र आधा खुला और आधा बंद है। यह इसी बात का प्रतीक है कि व्यक्ति ध्यान-साधना या संन्यास में रहकर भी संसार की जिम्मेदारियों को निभा सकता है। भारतवर्ष के सुदूर प्रान्तों में अपने द्वादश जोतिर्लिंग के रूप में विराजमान भगवान् शिव लोक चेतना को ज्ञान और भक्ति की ऊर्जा संपन्न करते रहते हैं। दक्षिणामूर्ति स्वरुप भगवान के कैलाश पर्वत पर आसन लगाये हुए स्वरुप का है। उनका मुख दक्षिण की और है। दक्षिणमुखी होकर वह शिष्यों को ( निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों मार्ग के ऋषियों, मुनियों को) ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। यहाँ पर भगवान् शिव युवा हैं और उनके शिष्य वृद्ध। भाव यह है कि 'आत्म ज्ञान' -अर्थात यह बोध कि 'आत्मा ही ब्रह्म है' सदा तरो ताजा रहता है।
४. चन्द्र कला का महत्व : शिव का एक नाम 'सोम' भी है। सोम का अर्थ चन्द्र होता है। उनका दिन सोमवार है। चन्द्रमा मन का कारक है। शिव द्वारा चन्द्रमा को धारण करना मन के नियंत्रण का भी प्रतीक है। हिमालय पर्वत और समुद्र से चन्द्रमा का सीधा संबंध है।मूलत: शिव के सभी त्योहार और पर्व चान्द्र-मास पर ही आधारित होते हैं। शिवरात्रि, महाशिवरात्रि आदि शिव से जुड़े त्योहारों में चन्द्र कलाओं का महत्व है। 3-कई धर्मों का प्रतीक चिह्न : यह अर्द्धचन्द्र शैव-पंथियों और चन्द्र-वंशियों के पंथ का प्रतीक चिह्न है। मध्य एशिया में यह मध्य एशियाई जाति के लोगों के ध्वज पर बना होता था। चंगेज खान के झंडे पर अर्द्धचन्द्र होता था। इस अर्धचंद्र का ध्वज पर होने का अपना ही एक अलग इतिहास है।
५- शिव यदि काल (समय) हैं , तो शक्ति (माँ काली) वो हैं जो समय को भी खा लेती हैं - शिव ज्ञान का साक्षात रूप हैं। लेकिन सबसे पहले साधुओं के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं देवी भगवती के द्वारा उनसे प्रश्न पूछे गये। बाद में उन्होंने शिव से शादी कर ली और उन्होंने उन्हें प्रवचन के लिए और अपने ज्ञान को चिंतन के माध्यम से ऋषि-मुनियों के बीच साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया। शिव ज्ञान का साक्षात रूप हैं। साधुओं के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं देवी के द्वारा उनसे प्रश्न पूछे गये। बाद में देवी शक्ति ने शिव से विवाह कर लिया और उन्होंने उन्हें प्रवचन के लिए और अपने ज्ञान को चिंतन के माध्यम से साधुओं के बीच साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया। तंत्र में इसी प्रकार यह संवाद दिखाया गया है। अगर शिव 'काल' यानि समय हैं तो वो 'काली' हैं, जो काल को यानि समय को भी खा लेती हैं। समय को अपने अधीन रखती हैं, और 'शव' को शिव बना देती हैं। यह देवी शक्ति (माँ काली) ही हैं जो स्थूल जगत और परिवर्तन को मूर्त रूप देती हैं और जवाबों को प्रेरित करती हैं।
६. दक्षिणामूर्ति के चरण के नीचे अपस्मर नामक असुर पड़ा हुआ है । यह आत्म-विस्मृति का प्रतीक है : दक्षिणामूर्ति में दो शब्द- दक्षिणा और मूर्ति एक सामासिक प्रयोग हैं इसका आशय होता है- जिनकी मूर्ति दक्षिण की ओर अभिमुख है । मृत्यु रूपी दक्षिण दिशा की ओर अभिमुखता भगवान शिव के कालातीत महाकालत्व की परिचायक है । भगवान शिव के निचले बायें हाथ में भोजपत्र में लिखे गये वेद हैं। उनका दायां निचला हाथ अभय चिन्मुद्रा में है। उनके हाथ की तर्जनी आत्म स्वरूप का संकेत कर रही है। अंगुष्ठ ब्रह्म तत्व का वोध कराता है । दक्षिणामूर्ति भगवान का दायां पांव बायें पांव के नीचे है । उनके चरण के नीचे अपस्मर नामक असुर पड़ा हुआ है । यह आत्म-विस्मृति का प्रतीक है । भगवान शिव की इस मुद्रा की, अपने दस श्लोकों में, आद्य जगद्गुरु भगवान् शंकराचार्य ने स्तुति की है। वस्तुतः यह एक शिव आराधना स्तोत्र है । दक्षिणामूर्ति (C-IN-C, नवनीदा) स्तोत्र अदिशंकर का अद्वेSत वेदान्त की उत्कृष्ट शिक्षा (Be and Make) संबंधी अदभुद् स्तोत्र है। इसमें ज्ञान के अमूर्त विज्ञान को जैसे वेदों के महावाक्य और गुरु उपदेशों के प्रचलित पदों (शिक्षा =मूर्त से अमूर्त की ओर) में उड़ेल दिया गया है।
ॐ मौनव्याख्या प्रकटितपरब्रह्मतत्वंयुवानं,वर्शिष्ठांतेवसद ऋषिगणै: आवृतं ब्रह्मनिष्ठैः।
आचार्येंद्रं करकलित चिन्मुद्रमानंदमूर्तिं,स्वात्मरामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे।।
भावार्थ - मैं उस दक्षिणामूर्ति की स्तुति और प्रणाम करता हूं, जो दक्षिण दिशा की ओर मुख करके विराजमान हैं। जिसका मन ब्रह्म पर स्थिर हुआ है , जो उनकी मौन स्थिति से ही ,परम ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या कर देते हैं। जो दिखने में युवा जैसे हैं, लेकिन जो वृद्ध शिष्यों (ऋषि , मुनि) से घिरे हुए है रहते हैं। जीवन्मुक्त शिक्षकों/नेताओं में सबसे बड़ा कौन है, जो अपने हाथ से चिन्मुद्रा को दिखाता है, जो खुशी का व्यक्तिकरण करता है, जो अपने भीतर चरम आनंद की स्थिति में है,और जिसकी मुस्कान अतयंत मनोहर है।
॥ दक्षिणामूर्ति स्तोत्रं ॥
विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतम्,
पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यदा निद्रया।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयम्,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (१)
भावार्थ :- यह विश्व दर्पण में दिखाई देने वाली नगरी के समान है (अवास्तविक है), स्वयं के भीतर है, मायावश आत्मा ही बाहर प्रकट हुआ सा दिखता है। जैसे नींद में अपने अन्दर देखा गया स्वप्न बाहर उत्पन्न हुआ सा दिखाई देता है। जो आत्म-साक्षात्कार के समय यह ज्ञान देते हैं कि आत्मा और ब्रह्म एक है उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (१)}
The universe is the reflection of a mirror . The Truth is the supreme Brahman, the one without a second . The mind, senses and intellect are all able to only discern the reflection of the Atman . The identity of the brahman and the Atman is apparent after self-illumination. I offer my profound salutations to the auspicious Guru, who is an embodiment of DakShinamurti, and whose grace is responsible for the illumination.
बीजस्यान्तरिवान्कुरो जगदिदं प्राङनिर्विकल्पं,
पुनर्मायाकल्पितदेशकालकलनावैचित्र्यचित्रीकृतम्।
मायावीव विजॄम्भयत्यपि महायोगोव यः स्वेच्छया,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (२)
भावार्थ :- बीज के अन्दर स्थित अंकुर की तरह पूर्व में निर्विकल्प इस जगत, जो बाद में पुनः माया से भांति - भांति के स्थान, समय , विकारों से चित्रित किया हुआ है, को जो किसी मायावी जैसे, महायोग से, स्वेच्छा से उद्घाटित करते हैं , उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (२)}
He in whom this universe, prior to its projection was present like a tree in a seed (unmanifested), and by whose magic this was transformed (manifested) in various forms, by His own will similar to a yogi’s- to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.
यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते,
साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान्।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (३)
भावार्थ :- जिनकी प्रेरणा से सत्य आत्म तत्त्व और उसके असत्य कल्पित अर्थ का ज्ञान हो जाता है, जो अपने आश्रितों को वेदों में कहे हुए महावाक्य 'तत्त्वमसि' (अर्थात् 'तुम साक्षात् वही ब्रह्म हो') का प्रत्यक्ष ज्ञान कराते हैं, जिनके साक्षात्कार के बिना इस भव-सागर से पार पाना संभव नहीं होता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (३)
He, by whose light the (unreal) universe appears real, teaches the truth of brahman to those who want to know the Atman through the vedic statement tattvamasi (thou art That) and He Who puts an end to the samsaric cycle – to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.
नानाच्छिद्रघटोदरस्तिथमहादीपप्रभाभास्वरं,
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा बहिः स्पन्दते।
जानामीति तमेव भांतमनुभात्येतत्समस्तं जगत्,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (४)
भावार्थ :- अनेक छिद्रों वाले घड़े में रक्खे हुए विशाल दीपक की उज्ज्वल प्रभा के समान ज्ञान जिनके नेत्र आदि इन्द्रियों द्वारा बाहर स्पंदित होता है, जिनकी कृपा से मैं यह जानता हूँ कि उस प्रकाश से ही यह सारा संसार प्रकाशित होता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (४))
He whose light gleams through the senses like the light emanating from a pot with holes (in which a lamp is kept), He whose knowledge alone brings the state of knowing (I am That), He whose brightness makes everything shine – to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.
देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः,
स्त्रीबालांधजड़ोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः।
मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिण॓,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (५)
भावार्थ : - भ्रमित हुए बहुवादी-शून्यवादी बौद्ध (मार्क्सवादी) आदि अभी मोहित (hypnotized) हैं, इसीलिये देह, प्राण, इन्द्रियों को तथा तीव्र बुद्धि को भी स्त्री, बालक, अंध और जड़ की तरह शून्य मानते हैं तथा 'अहं' को ही प्रधानता देते हैं। ऐसे माया-शक्ति के विलास से कल्पित महामोह (महान व्याकुलता ) का संहार करने वाले उन श्रीगुरु रूपी श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।। (५)
Some philosophers contend the body, senses, life-breath, intellect and non-existence (shunya) as the real `I’ (Atman). Their comprehension is worse than that of women, children, blind and the dull. He who destroys this delusion caused by maya (and makes us aware of the Truth)- to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.
राहुग्रस्तदिवाकरेंदुसदृशो मायासमाच्छादनात्,
संमात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान्।
प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (६)
भावार्थ :- राहु से ग्रसित सूर्य और चन्द्र के समान, माया से सब प्रकार से ढँका होने के कारण, करणों के हट जाने पर अजन्मा सोया हुआ पुरुष प्रकट हो जाता है। ज्ञान देते समय जो यह पहचान करा देते हैं कि पूर्व में सोये हुए यह तुम ही थे, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (६)
The brillance of sun exists even when intercepted by Rahu during eclipse . Similarly, the power of cognition only remains suspended during deep sleep . The Self exists as pure being even though unrecognized due to the veil of Maya . A person on awakening becomes aware that he was asleep earlier (and the dream was unreal). Similarly, a person who awakens to the consciousness of the Self recognizes his previous state of ignorance as unreal . He by whose grace alone does one awaken to the consciousness of the Self – to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.
बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि,
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (७)
भावार्थ :- जो अपने भक्तों के समक्ष 'भद्रा मुद्रा' द्वारा बाल, युवा, वृद्ध, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि मानसिक अवस्थाओं और अन्य सभी अवस्थाओं में 'अहं' रुप से अन्तःकरण में स्फुरमाण और उससे अलग, सदा 'मैं वह हूँ' (I am He) को या स्वात्मा को प्रकट कर देते हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (७)}
He, whose existence is changeless throughout the various states of the body (like old, young etc) and the mind (waking, dreaming etc), and who reveals the greatest knowledge of Atman by j~nAna-mudra (the joining of the thumb and the forefinger of a raised right hand) – to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.
विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः,
शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्राद्यात्मना भेदतः।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामितः,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (८ )
भावार्थ :- जिनकी माया द्वारा परिभ्रमित (Hypnotized) हुआ यह पुरुष स्वप्न अथवा जाग्रत-अवस्था में कार्य-कारण सम्बन्ध से विश्व को स्वयं के विभिन्न रूपों में- स्वामी-सेवक, शिष्य-आचार्य तथा पिता-पुत्र के भेद से देखता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (८ )
He, whose power of Maya enables one to experience the world as multiform (like teacher, disciple, father, son etc) during both the waking and dream states – to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.
भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो हिमांशुः पुमान्,
इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम्।
नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभोस्तस्मै,
श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (९)
भावार्थ :- जिनकी ये 'स्थावर और जंगम (स्थिर और गतिशील) आठ मूर्तियाँ' ---पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, (5) सूर्य, चन्द्रमा, पुरुष (3) ही इस चराचर जगत के रुप में प्रकाशित हो रही है, तथा विवेक-विचार करने पर जिससे परे और कुछ भी विद्यमान नहीं है, जिसने अपने 'व्यष्टि अहं' (काचा आमि) को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापक और विराट 'मैं' -बोध (पाका आमि) में रूपांतरित कर लिया है, - उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (९)
He, whose subtle and unmanifest eight-fold (अष्टधा प्रकृति) form causes the moving and unmoving universe, and by whose grace alone does all these manifestation disappear to reveal that `All that exists is Brahman’ – to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.
सर्वात्मत्वमिति स्फुटिकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे,
तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्धयानाच्च संकीर्तनात्।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः,
सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतम् चैश्वर्यमव्याहतम्॥ (१०)
भावार्थ :- सबके आत्मा आप ही हैं, जिनकी स्तुति से यह ज्ञान हो जाता है, जिनके बारे में सुनने से, उनके अर्थ पर विचार करने से, ध्यान और भजन करने से सबके आत्मारूप ईश्वर अपने अप्रतिहत ऐश्वर्य (Irresistible like Thunderbolt- वज्र के समान अप्रतिरोध्य -थंडरबोल्ट जैसा अट्रैक्टिव जादूगर का - वो जादू जिसको रोका न जा सके) समस्त विभूतियों सहित उस चपरास प्राप्त नेता के हृदय में आठ शक्तियों के रूप में स्वयं प्रकट हो जाते हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (१०)
The verse points out to the all pervasiveness of the indwelling Spirit, Atman . By the recital, contemplation and meditation of this hymn, the disciple attains the state of oneness with Atman and realizes his unity with the universe,thus becoming the very essence of the eight fold manifestation.
{आत्मा की जिस अवधारणा को इस स्तुति में समझाया गया है,जिस व्यक्ति को वह सुनकर समझ में आ गया, कौन सा ध्यान और कौन सा गायन, द्वारा पूर्णतः निःस्वार्थ व्यक्ति को आत्म बोध की महान स्थिति में ईश्वर (माँ काली) की कृपा प्राप्त होगी, उसे और आपको भी बिना किसी समस्या मनोगत की आठ शक्तियाँ मिलेंगी। निम्नलिखित तीन श्लोक और साथ ही प्रथम श्लोक का मुख्य स्तोत्र के बाद जप किया जाता है:
–चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्याः गुरुर्युवा।
गुरोस्तु मौनव्याख्यानं शिष्यास्तुच्छिन्नसंशयाः॥ १२ ॥
आश्चर्य तो यह है कि उस वटवृक्ष के नीचे सभी शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं। साथ ही गुरु का व्याख्यान भी मौन भाष में है, किंतु उसी से शिष्यों के सभी संशय नष्ट हो गये हैं ॥ १२ ॥
ॐ नमः प्रणवार्थाय शुद्धज्ञानैकमूर्तये |
निर्मलाय प्रशांताय दक्षिणामूर्तये नमः ||
उस दक्षिणामूर्ति को प्रणाम, जो “ओम”, प्रणव का अर्थ है,जो अलोकित ज्ञान का व्यक्तिकरण है, जो अपने विचार में स्पष्ट है,और जो शांति का प्रतीक है।
गुरवे सर्वलोकानां ,
भिषजे भवरोगिणाम्।
निधये सर्वविद्यानां,
दक्षिणामूर्तये नमः।।
उस दक्षिणामूर्ति को नमस्कार, जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड के गुरु और ज्ञान के देव हैं, जन्म और पुनर्जन्म के समुद्र के ज्वार से प्रभावित लोगों के रक्षक हैं, और जो सभी प्रकार के ज्ञान के भण्डार (treasure) है।
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
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– 'चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्याः गुरुर्युवा' --- इस प्रकार 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन में प्रशिक्षित और स्वयं स्वामीजी से (C-IN-C) कमाण्डर-इन-चीफ़ का चपरास प्राप्त -- नवनीदा जैसे नेता /आचार्य कभी कभी शब्दों का प्रयोग किंचित भी नहीं करते। किन्तु फिर भी मन ही मन सत्य को (योग्य) शिष्य में संचारित कर देते हैं! और एक सिंह-शावक से दूसरे भेँड़त्व के भ्रम से सम्मोहित सिंह-शावक क्रमशः स्वयं डीहिप्नोटाइज्ड या भ्रम-मुक्त होते जाते हैं , और दूसरों को भी भ्रममुक्त करते जाते हैं !
They come to give. वे केवल देने के लिये ही आते हैं। अर्थात वे जो ईशदूत (C-IN-C सत्यद्रष्टा ऋषि,पैगम्बर,ईशदूत या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता-नवनीदा) होते हैं। केवल उस विद्या का दान करने के लिये अवतरित होते हैं -जो मनुष्य जाति को मुक्त (देहध्यास के भ्रम से मुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड) कर देती है ! वे आज्ञा देते हैं- Be and Make ! और हमारा कार्य है उनके आज्ञा (command-प्रभुत्व ) को ग्रहण करना। क्या तुम्हें याद नहीं, स्वयं ईसा ने (मत्ती या मैथ्यू २८: १८-२० में) किस अधिकार पूर्ण वाणी से अपने शिष्यों को आज्ञा देते हुए कहा था -
“स्वर्ग और पृथ्वी पर सभी अधिकार (चपरास) मुझे सौंपे गये हैं। सो, जाओ और सभी देशों के लोगों को शिक्षा दो.....वे सभी आदेश जो मैंने तुम्हें दिये हैं, " मनुष्य बनो और बनाओ-Be and Make " उन्हें उन पर चलना सिखाओ। ” Do you not remember in your own scriptures the authority with which Jesus speaks? "Go ye, therefore, and teach all nations . . . teaching them to observe all things whatsoever I have commanded you."{$$$ महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर में " C-IN-C" की अवधारणा ! स्वामी विवेकानंद के आदर्श में स्थापित है -देखें : 'विश्व के महान शिक्षक ' (वि०सा० ख० ७/१७७)/ब्लॉग बुधवार, 14 मई 2014/ }
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