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गुरुवार, 11 अगस्त 2016

卐卐卐15. महामण्डल का स्वरुप एवं कार्य ' [एक नया युवा आन्दोलन -15'The Idea and the Method ]

 महामण्डल का स्वरूप एवं कार्य  

         महामण्डल किस प्रकार की संस्था है, इसका स्वरूप क्या है ? क्या यह एक धार्मिक संगठन है ? या फिर यह सांस्कृतिक, समाजसेवी या कोई शैक्षणिक संस्थान है ? क्योंकि इस संस्था के साथ स्वामी विवेकानन्द का नाम जुड़ा हुआ है, वे एक संन्यासी थे और उन्होंने धर्म का प्रचार किया था,अतः लोग आसानी से यह धारणा बना लेते हैं, कि शायद यह भी एक प्रकार का धार्मिक संगठन हो होगा। किन्तु ऐसे आकलन के आधार पर पूछे कि -
क्या महामण्डल कोई धार्मिक संगठन है ? तो उत्तर होगा - नहीं।  किन्तु धर्म का जो सार तत्व है, आध्यात्म का जो वास्तविक अर्थ होता है [नश्वर मानव शरीर में अविनाशी आत्मा को खोज लेना !!], उसकी ओर यदि किसी का संकेत हो - तो कहना पड़ेगा, निस्सन्देह महामण्डल एक धार्मिक संस्था है। किन्तु, यहाँ 'धर्म' का अर्थ कोई संकीर्ण दायरे वाला 'मतवाद' नहीं हो सकता। महामण्डल की आस्था जिस धर्म में है, वह हिन्दुओं का धर्म तो बिल्कुल नहीं है, हिन्दुओं में भी न तो यह वैष्णव है,न शाक्त है, और न शैव-पन्थ को ही मानने वाला है। 
 >> Sri Ramakrishna or Vivekananda  does not belong to any 
narrow boundary of particular religion . 
       क्योंकि हमलोग श्रीरामकृष्ण देव या स्वामी विवेकानन्द को किसी एक धर्म-विशेष से जुड़े हुए व्यक्ति नहीं थे। वे दोनों तो 'सर्वधर्म समन्वय' या सभी धर्मों में परस्पर सद्भाव (Harmony of all religions ) के संस्थापक रहे हैं। इन दोनों के आविर्भूत होने से पहले तक,- धर्म के क्षेत्र में सहिष्णुता पूर्णतया अनुपस्थित थी और आज भी ऐसा है या नहीं यह अभी भी सन्देहास्पद है। 
 धर्मों में परस्पर असहिष्णुता 'intolerance' की बुराई के विरुद्ध  विश्व की आँखों को खोलने वाले प्रथम व्यक्ति श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द ही हैं। मनुष्य समाज में विभिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न समय में देश-काल की विविधता के आधार पर पृथक पृथक नाम वाले मत या सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव होता रहा है। इसीलिये परमत सहिष्णु होना बहुत महत्वपूर्ण है। 
>>>way to the fulfillment of these aspirations, yearnings is the way of religion.
       मनुष्यों के जीवन में एक धर्म, कर्तव्य, कोई न कोई ज्वलन्त आकांक्षा और अभिलाषा 
(परमसत्य को जानने की इच्छा ?) होती हैं। और इन आकांक्षाओं या अभिलाषाओं को  पूर्ण करने का जो पथ है, उसी को 'धर्म का मार्ग' कहा जाता है। जिन लोगों को इस सच्चे धर्म (मिथ्या शरीर में सत्य सनातन आत्मा का साक्षात्कार रूपी धर्म) की उपलब्धि हो जाती है, उनके लिये हिन्दू, मुस्लिम या ईसाईयों के बीच (या शाक्त और वैष्णव के बीच) कोई अन्तर नहीं रह जाता।
        स्वामी विवेकानन्द ने इस तथ्य को बहुत गहराई से और विस्तारपूर्वक समझाया है। उनकी दृष्टि में जब कोई व्यक्ति बाह्य-प्रकृति और अन्तःप्रकृति दोनों के ऊपर विजय प्राप्त कर लेता है, केवल तभी उसे धर्म की प्राप्ति होती है। इसी के द्वारा मनुष्य को यथार्थ शक्ति प्राप्त होती है, इसीलिये वास्तव में यही सच्चा धर्म है। इसीलिये स्वामी जी धर्म की परिभाषा देते हुए कहते है, " धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। " इस कसौटी से देखने पर विभिन्न धर्मों के बीच भेदभाव करने के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता। हर धर्म के लिये यह पैमाना एक समान है, और जो कुछ इसके प्रतिकूल होगा उसे धर्म नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक धर्म यह बताता है कि मनुष्य को अपनी पाशविकता (स्वार्थपरता) पर अंकुश लगाना चाहिये और अपने मानवीय गुणों को विकसित करके यथार्थ मनुष्य [ शैतान से इन्सान] बन जाना चाहिए। कोई भी मनुष्य जब (यम-नियम का अनवरत पालन करके ) अपनी पशुता पर विजय प्राप्त कर लेगा, वह  सच्चा धार्मिक मनुष्य बन जायेगा तब उसे देखने और मिलने से ऐसा प्रतीत होगा मानो वह भी भगवान का ही प्रकट रूप है! (उसके चारों ओर भी किसी काल्पनिक भगवान के जैसा प्रभावलय प्रतीत होगा।) मनुष्य जब अपनी कल्पना के अनुसार भगवान का चित्र या मूर्ति गढ़ता है,तो वह उनके मुखड़े को पवित्रता, तेजस्विता, आदि नायकोचित उत्कृष्ट चारित्रिक गुणों से विभूषित करते हुए ही गढ़ता है, क्योंकि दिन-प्रतिदिन की व्यावहारिक दुनिया में ऐसा मुखमण्डल ढूँढ पाना लगभग मुश्किल है।सामान्यतः हम समाज में मनुष्यों का जैसा सौन्दर्य, शारीरक-शौष्ठव और स्वभाव आदि देखते हैं, उससे हमारी कल्पना को तृप्ति नहीं मिलती। इसीलिये जब हम भगवान के बारे में विचार करते हैं, तो हम उसमें समस्त मानवीय गुणों को अनन्त गुना विकसित रूप में देखने का प्रयास करते हैं।' इसीलिये हमलोग मनुष्य को भगवान या किसी अवतार के साँचे में डाल कर गढ़ना चाहते चाहते हैं। विश्व के प्रत्येक धर्म में यह बात एक समान पायी जाती है। 
इस दृष्टिकोण से विचार किया जाय महामण्डल भी निस्सन्देह धर्म (3H विकास के 5 अभ्यासों ) का पालन कर रहा है। किन्तु महामण्डल अपने किसी सदस्य को मन्दिर,मस्जिद,चर्च या गुरुद्वारा जाने, कर्मकाण्डीय अनुष्ठान करने या पूजा-पाठ करने का निर्देश नहीं देता, इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल धार्मिक संस्था नहीं है।  
           >>>If a man is really cultured , he does not look at the world the way animals do.
      आजकल बहुत से लोग 'संस्कृति'  का अर्थ नृत्य-संगीत, नाटक,कहानियाँ, उपन्यास, कुछ दुर्बोध चित्र या अर्थहीन कवितायें समझते हैं। किन्तु महामण्डल 'संस्कृति' की ऐसी व्याख्या को व्यर्थ और बौद्धिक शक्ति की बर्बादी समझकर इस पर कोई ध्यान नहीं देता। इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल कोई सांस्कृतिक संस्था भी नहीं है। यदि कोई मनुष्य सही अर्थों में सुसंस्कृत बन जाता है, तो वह बाह्य जगत को उस दृष्टि से नहीं देखता जिस दृष्टि कोई पशु (M/F) देखता है। 
'मनुष्यत्व' का विकास होने के साथ-साथ उसके भीतर सौन्दर्य की प्रशंसा करने के लिये एक कोमल आंतरिक शक्ति (सिया-राम मैं सब जग जानी वाली दृष्टि) भी पुष्पित हो जाती है। और अब उसे किसी वस्तु की व्यावहारिक उपयोगिता क्या है, उस दृष्टि से देखने पर सन्तुष्टि प्राप्त नहीं होती। जगत को 'सिया-राम मय' दृष्टि से देखने का अभ्यास करते करते उसका मन-दर्पण स्वच्छ हो जाता है (अब वहाँ ब्रह्म-रूपी जगत का कोई विकृत चित्र नहीं बनता ), जिसके फलस्वरूप वह चिंतन में, शब्दों में, प्रकृति में, जगत के समस्त सजीव प्राणियों में भी सौन्दर्य देखने की क्षमता या 'सौन्दर्यबोध ' अर्जित कर लेता है। यह निश्चित रूप से एक आध्यात्मिक गुण है। इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल अवश्य एक सांस्कृतिक संगठन है; किन्तु  उपरोक्तत बताये हुए संस्कृति के तथाकथित परिभाषा के अनुरूप यह कोई सांस्कृतिक संगठन भी नहीं है। 
      >>Place for social service in the Mahamandal .
        इसी प्रकार से विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जायेगा कि प्रचलित अर्थों में महामण्डल एक समाजसेवी संगठन भी नहीं है। क्यों ? आमतौर से कोई भी समाज-सेवी संस्था समाज के लिए कुछ न कुछ कल्याण कार्यों का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेता है, वह विभिन्न समाजोपयोगी कार्यों के द्वारा लोगों को सहायता प्रदान करता है। आजकल 'rural development'  अर्थात ग्रामीणविकास समाजसेवा के लिये एक महत्वपूर्ण विषय बन गया है। इसके अन्तर्गत सामान्यतः अन्नहीन को अन्न और वस्त्र-हीन को वस्त्र, रोगियों के लिये दवाइयाँ -इत्यादि  का वितरण करके निःसहायों की सहायता की जाती है। ये सभी अच्छे कार्य हैं। तथापि महामण्डल का गठन केवल इसी प्रकार की समाजसेवी कार्यों के लिये नहीं हुआ है।  इस तरह की सेवायें प्रदान करने के लिये तो पहले से ही स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर  देश-दुनिया में असंख्य संस्थायें कार्यरत हैं। राष्ट्रीय सरकार, विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संगठन एवं आम धनाड्य लोगों का संरक्षण भी उन्हें प्राप्त है। फिर उसी तरह के एक और संगठन का क्या औचित्य हो सकता है ? 
      >>'Service to the Ignorant and the Poor' 
      इसके बावजूद भी महामण्डल  में समाज-सेवा के लिए एक स्थान है। यह एक विशेष प्रकार की समाज-सेवा है,और यदि इसे हम 'उत्कृष्ट समाज सेवा ' का नाम भी दें, तो वह गलत नहीं होगा।  क्योंकि इस प्रकार के समाजसेवा की परिकल्पना स्वयं स्वामी विवेकानन्द जी के द्वारा ही की गयी थी। अज्ञानियों (अविद्याग्रस्त) और दरिद्रों (वैचारिक पूअर)' को साक्षात नारायण मानकर उनकी सेवा करने का उपदेश- स्वामी जी ने दिया था। निस्सन्देह भूखों को भोजन कराना, वस्त्रहीनों को वस्त्र देना, बीमारों के लिये चिकत्सा की व्यवस्था करना, आदि कार्य भी  स्वामी विवेकानन्द  द्वारा निर्देशित समाज-सेवा का ही हिस्सा है। किन्तु जिस प्रकार उन्होंने विशेष बल दिया था, वह है लोगों उत्तम विचार प्रदान करना , ऐसे महावाक्यों से परिचित करा देना जो किसी व्यक्ति  को उन्नततर मनुष्य बनने में सहायता करें । हमारे अपने ही परिवार और समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जो जीवन को उन्नततर बना देने वाले विचारों से वंचित रह गए हैं ! वास्तव में गरीब - तो वैसे ही लोग हैं। 
>>The work on which Swami ji  emphasis is providing good ideas to the people :
           गरीब केवल वे ही नहीं हैं जिनके पास पैसा नहीं है और जो अपने लिये दो वक्त की रोटी का भी प्रबंध नहीं कर सकते। बल्कि असली गरीब तो वह है जो धन होने के बावजूद, 
उन्नततर मनुष्य में परिणत कर देने वाले उच्च विचारों (महावाक्यों का श्रवण-मनन -निदिध्यासन) को समझने की अभिलाषा या अभाव से ग्रस्त है । स्वामी जी के अनुसार इस प्रकार के गरीब लोगों (माया द्वारा शोषित -वंचित लोगों) की सेवा करना  सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा का कार्य है। महामण्डल भी विशेष रूप से इसी उकृष्ट श्रेणी की समाज सेवा करने का पक्षधर है।  
         महामण्डल का उद्देश्य किसी की व्यक्तिगत इच्छा संकीर्ण सामूहिक इच्छा की पूर्ति करना भी नहीं है , जहाँ दानशील व्यक्ति या महान समाज कहलाने के पीछे मुख्य कारण बहुधा अहंकार की तृप्ति ही होती है। आजकल ऐसी मानसिकता से ही अक्सर समाजसेवा का कार्य किया जाता है। मेरे पास काफी धन-सम्पति और जमीन जायदाद आदि है चलो थोड़ा बहुत गरीबों को दान कर देता हूँ , इस मानसिकता के साथ की जाने वाली समाज सेवा व्यक्ति के ह्रदय को विशाल बनाने के बजाए उसके अहंकार को ही और पुष्ट कर देती है। इसीलिए तो इन दिनों समाचार पत्र , टेलीविजन या फेसबुक आदि में सभी प्रकार की तथाकथित समाज सेवा को , यहाँ तक कि जिसमें कम्बल -चादर बाँटना भी शामिल है , फोटो खिंचवाने की मुद्रा में दिखाया जाता है। स्वामीजी ने इस प्रकार से समाज सेवा करना कभी नहीं सिखाया है।       
        अगर उन्होंने भी इसी प्रकार की दिखावटी समाजसेवा का उपदेश दिया होता तो लोगों ने उन्हें अपनी स्मृति में इतना तरो-ताजा नहीं रखा होता, और भी  उनको इतनी श्रद्धा, सम्मान और प्रेम के साथ स्मरण नहीं किया जाता। कई लोग इस धरती पर पैदा हुए हैं, जिन्होंने उपरोक्त विवरण के अनुसार ही समाज सेवा करने के लिये योजनायें बनाई हैं , और उन्हें इस कार्य में सफलता भी प्राप्त हुई है ! किन्तु मानव स्मृति में इतने दीर्घकाल तक बने रहने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त नहीं हो सका है। 
      >>Pioneers among men, leaders of races,
 इस जगत में अबतक जितने भी अग्रणी मार्गदर्शक नेता, पूजनीय विभूतियाँ - जैसे राम, कृष्ण ,बुद्ध, ईसा,मोहम्मद, श्चैतन्य, रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द आदि हुए हैं; उन्हें सम्पूर्ण मानवता आज भी इसीलिये याद करती है कि उनमें से प्रत्येक ने समाज को ऐसे अमूल्य विचार दिये हैं जो मानवजाति के लिये सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हुई हैं, तथा युग-युगान्तर से मनुष्य उसका सच्चा लाभ उठाता आ रहा है। हालाँकि उनमें से कइयों ने स्वयं अपने नाम से कोई नया सम्प्रदाय या धर्म खड़ा नहीं किया है।  
>>complete elimination of all wants through positive ideas,
      जो मनुष्य जीवनदायी विचारों की गरीबी से त्रस्त हैं, वे उन महान विभूतियों के जीवन और सन्देशों से आज भी प्रेरणा प्राप्त करके उनके सकारात्मक विचारों द्वारा अपने समस्त अभाव को सदा के लिये समाप्त कर देने का उत्साह प्राप्त करते हैं। जीवन में पूर्णत्व प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। 
         महामण्डल ऐसा कोई दावा नहीं करता कि वह समाज की समस्त आवश्यकताओं पूर्ण कर देगा। किन्तु आज के युवाओं के पास उन विचारों का अभाव है जो उनके जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने के लिये आवश्यक है। अक्सर देश के युवाओं को वर्तमान में प्रचलित शिक्षा पद्धति से वैसे बहुमूल्य विचार प्राप्त नहीं होते, जो जीवन-गठन के लिये या मनुष्य बनने के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। बेशक (देश के सौभाग्य से ), आज भी कुछ ऐसे शिक्षक हैं जो पाठ्यपुस्तकों के घेरे से बाहर जाकर अपने स्वयं के जीवन की उपलब्धियों और अनुभवों से प्राप्त कुछ अनुकरणीय शिक्षाओं को अपने जीवन द्वारा छात्रों के समक्ष प्रस्तुत  करते हैं। वे ऐसा इसीलिये करते हैं, ताकि छात्र भी वैसे जीवन-मूल्यों से उत्प्रेरित होकर अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने के आग्रही बन सकें। वर्तमान समय में भी ऐसे कुछ शिक्षकों का अस्तित्व बचा हुआ है जिनका अपना जीवन त्याग और सेवा के द्वारा गठित है, जिसके कारण आज भी कुछ युवा देश की वास्तविक संपत्ति के रूप में विकसित हो पा रहे हैं। किन्तु, जब राजनितिक यूनियनबाजी के भँवर में फंस कर, ये थोड़े से आदर्श शिक्षक भी अपने घुटने टेक देंगे, और आदर्शों के साथ समझौता करना  शुरू करने पर मजबूर कर दिये जायेंगे, वही दिन अपने देश के लिये सचमुच अत्यन्त दुर्भाग्य का दिन होगा। इन दिनों जागरूक अभिभावकों की संख्या में भी तेजी से गिरावट आ रही है। वस्तुस्थिति की गंभीरता को देखते हुए महामण्डल ने इसी जरूरत को पूरा करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है।  इसीलिये महामण्डल के नाम के साथ यदि कोई विशेषण जोड़ना ही हो तो इसे धार्मिक,सांस्कृतिक अथवा समाज-सेवी संगठन न कहकर इसे एक शैक्षणिक संसथान  कहना चाहिये।
         अब यदि कोई यह प्रश्न पूछे कि आदर्श शिक्षा के प्रचार- प्रसार के लिये क्या महामण्डल भी किसी विशेष मॉडल पर आधारित कुछ विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना करना चाहता है ? तो पुनः इस प्रश्न का उत्तर होगा - 'नहीं !' बहुत से ऐसे संगठन हैं जो बड़े बड़े भवनों में विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना करके नैतिक शिक्षा प्रदान करने की योजना को भी लागु करने की कोशिश कर रहे हैं, किन्तु वे भी विफल मनोरथ ही सिद्ध हो रहे हैं। भले ही प्रचलित शिक्षा के साथ नैतिक शिक्षा प्रदान करने के लिए विषयवस्तु और पद्धति का चयन बहुत सोच-विचार कर किया जाय, यदि वैसा कर लेना भी सम्भव हुआ-तो भी इस तरह की आदर्श शिक्षा प्रदान करने के लिए कोई बनाई गयी कोई भी योजना, विफल होने को बाध्य होगी। क्यों ? क्योंकि उस आदर्श शिक्षा को देने वाले शिक्षकों भी तो 'employment exchange '  से या किसी राजनितिक दल द्वारा की गयी (शिक्षा विभाग के मंत्री पार्थो चटर्जी वाले बेलघड़िया , टॉलीगंज स्थित अर्पिता नुख्रजी के रोजगार दफ्तर के 50 करोड़ी अनुशंसाओं के बल पर ही हुई होगी। और इस प्रकार यह - राष्टीय शिक्षा निति में नैतिकता बोध जोड़ने वाली आदर्श शिक्षा योजना भी कागजों पर ही सिमटकर रह जाएगी। 
       >> If the boy does not come to education, education must go to the boy.' 
        इसीलिये,आज  की जो अवस्था है उसमें सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त शैक्षणिक संस्थाओं , या विद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या बढ़ाते रहने से कोई लाभ नहीं होगा , उलटे इस परियोजना में लगा हुआ समस्त श्रम और धन कोई वांछित लाभ पहुँचाये बिना व्यर्थ में ही नष्ट हो जायेगा। इसीलिये महामण्डल सही ढंग की शिक्षा प्रदान करने का वैसा ही कार्य करना तो चाहता है, किन्तु जनता के टैक्स के पैसों से  ऐसे शिक्षण शिक्षण संस्थानों की संख्या बढ़ा करके नहीं;  बल्कि इस नीति के अनुसार कार्य करना चाहता है कि-"यदि बालक शिक्षा के पास नहीं आ सकता तो शिक्षा को ही बालक के पास ले जाना होगा।" इसीलिये महामण्डल का कार्य गाँवों में शहरों में, हर जगह अपने केन्द्रों को प्रसारित करते जाना है। यदि कहीं कोई लड़का है जो उनमें से किसी केन्द्र तक भी नहीं पहुँच सकता, तो महामण्डल उनके घरों में उन विचारों की आपूर्ति करने के लिये जायेगा; जिसकी उन्हें बड़ी आवश्यकता है, जिसके बिना वह सही ढंग से विकसित नहीं हो सकता, जिसके अभाव में वह शारीरिक और नैतिक दृष्टि से जीर्ण और दुर्बल हो गया है। जब इस प्रकार के मनुष्य निर्माणकारी विचार उसे उपलब्ध करवा दिये जायेंगे, तो वह भी हर दृष्टि से विकसित हो जायेगा; और ये शक्तिदायी विचार उसको स्वस्थ और सबल बना देंगे।
      >>Man has three elements, which are his sources of power-body, mind and heart.  
इन्हीं विचारों को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं , जो शक्ति के स्रोत हैं - शरीर, मन और ह्रदय। जब इन तीनों तत्वों का समुचित और सुसमन्वित विकास हो जाता है , तब कोई भी व्यक्ति यथार्थ मनुष्य बन जाता है। "  यही वह कार्य है जिसे पूरा करने का बीड़ा महामण्डल ने उठाया है। शरीर को स्वस्थ और सबल बनाने के लिये शारीरिक व्यायाम, मन पर नियंत्रण प्राप्त कर उसे एकाग्र और सतेज बनाने के लिये मनःसंयोग का नियमित अभ्यास करना महामंडल युवाओं के दैनिक दिनचर्या में शामिल हैं। किन्तु यदि हम अपने बाहुबल और बुद्धिबल को ही अपना एकमात्र सम्बल मान लें, तो हमारे लिए यह सम्भव नहीं होगा कि हम मानव समाज के कल्याण की दिशा में हम विशेष प्रगति कर सकें। उसके लिये अन्य शक्तियों (2H)  के साथ 'हृदय की शक्ति' को भी जोड़ना अनिवार्य होगा। हृदय की जो सहनुभूतिशीलता है, उसका विस्तार (अनन्त तक) करना होगा। पर कैसे ? ह्रदय को विस्तृत करने की पद्धति क्या है ? 
       >>Every man is a temple in the true sense.
        उसी पद्धति का एक अंग है, समाज-सेवा। किन्तु यदि हृदय को विकसित करने का एक उपाय मानकर समाज-सेवा करनी हो, तो वह कभी दानी होने के अहंकार के साथ अपनी दान- शीलता का प्रदर्शन करने के मनोभाव को रखते हुए नहीं की जा सकती। अतः हमें अपनी समाज-सेवा मानव-मात्र के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते हुए नहीं की जानी चाहिए। बल्कि हमें शिविर में आने वाले अपने युवा मित्रों के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते हुए, देवता बुद्धि से आह्वान करते हुए कहना चाहिए - " इहागच्छ , इहतिष्ठ ! " [ॐ भूर्भुवः श्वः श्री भगवन विष्णो: इहागच्छ इह तिष्ठ।] ऐसा सोचना होगा, मानो प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक मनुष्य का शरीर सच्चे अर्थों में एक मंदिर (प्रभु-निवास) है। उस देह-मंदिर में विराजित देवता बड़े कष्ट में हैं, दुःख भोग रहे हैं- "ब्रह्म पंचभूतों के फंदे में पड़ कर रो रहे हैं !" और उनकी वास्तविक दिव्यता (निःस्वार्थपरता) अभिव्यक्त नहीं हो पा रही है। इसीलिए, हम एक शिवालय को जैसे धो-पोंछ कर स्वच्छ और पवित्र बनाते हैं, चन्दन घिसकर लेप तैयार करते हैं, फूल तोड़ते हैं, एवं साक्षात शिवजी की दिव्य उपस्थिति का अनुभव करने के लिये, उनके विग्रह और मंदिर को सुगन्धित पुष्प और धुप-चन्दन आदि से सजा कर मनोहारी बना देते हैं।
       विद्यादान रूपी समाज-सेवा भी ठीक उसी तरह की एक प्रकार का भयमिश्रित सम्मान और पवित्रता की अनुभूति करते हुए करनी होगी, कि सेवा में कहीं कोई त्रुटि तो नहीं हो गयी? जैसे हमलोग मन्दिर में आमतौर से देवताओं के प्रति रखते हैं। इसीलिये महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों में जो सेवा कार्य चलाये जा रहे हैं, उनका मूल्यांकन केवल सेवा कार्य की मात्रा, आर्थिक व्यय एवं बाहरी तड़क-भड़क या दिखावा के आधार पर करना उचित नहीं होगा। इस प्रकार के कार्यों का उचित मूल्यांकन तो केवल महामण्डल के कार्य-कर्ताओं के उद्देश्य, अनुभूति की गहराई- जो उन्हें क्रमशः आध्यात्मिक रूप उन्नत बना देगी, उस कार्य में संलग्न ऐसे कर्मियों की संख्या से ही निर्धारित की जा सकती है।
    >>Essence of true education : All-round development and unfoldment of the being. (शिक्षा का सार है - बहुमखी विकास और अस्तित्व का प्रकटीकरण)   
          जब कोई व्यक्ति अपने शरीर, मन और हृदय को महामण्डल द्वारा निर्धारित- " 3H विकास के 5 दैनन्दिन अभ्यास" का निरंतर अनुशीलन करते हुए अपने बहुमुखी विकास को 'सर्वोच्च उत्कृष्टता' (highest excellence) तक विकसित कर अपने वास्तविक अस्तित्व का अनावरण कर लेता है, उसी को 'सच्ची शिक्षा का सार' कहते हैं। और उसी को सच्चा धर्म या आध्यात्मिकता भी कहते हैं। इस आध्यात्मिकता का सम्बन्ध हमारी दुनिया से भिन्न कोई दूसरी दुनिया, या केवल मृत्यु के बाद की दुनिया से नहीं होता। प्रत्येक युग में कुछ सत्यान्वेषी मनुष्यों ने परम् सत्य तक पहुँचने के कुछ सुस्पष्ट मार्गों को खोजा है, और आगे चलकर ये सुस्पष्ट मार्ग ही  `वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' का रूप धारण कर लेते हैं, उन्हें ही धर्म मार्ग (paths of religion) कहते हैं। इन्हीं मार्गों को योग की संज्ञा भी दी गयी है। 
     >> Religion means conquering our inner nature as also the the nature outside . हमारे शास्त्रों में चार प्रमुख योगों का उल्लेख किया गया है, ये हैं- ज्ञानयोग, राजयोग, भक्तियोग और कर्मयोग। स्वामी विवेकानन्द ने ध्यान से देखा कि "धर्म का अर्थ है-  इन चारों में से कोई एक या एकाधिक अथवा सभी योग मार्गों का अवलम्बन करके अपनी अन्तःप्रकृति और बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेना।" विवेकानन्द ने यह भी कहा है कि जब हमारी आन्तरिक शक्ति (मानसिक शक्ति) पूर्णतया हमारे नियंत्रण में आ जाती हैं, तो बाह्य प्रकृति (जगत-व्यवहार) के ऊपर नियंत्रण पाना सहज हो जाता है। उनके मतानुसार सबसे प्रभावी और उत्तम मार्ग, इन चारो योगों को सुसमन्वित कर उन्हें संघटित कर लेने से प्राप्त होता है। जो व्यक्ति आत्मविकास के इस चारो योगों की सम्मिलित प्रणाली को अपनाता है, उसे चारों योगों के अलग-अलग फल एक साथ प्राप्त हो जाते हैं,और सभी दिशाओं उसका विकास एक साथ साधित हो जाता है।
       संक्षेप में कहा जाय तो 'ज्ञानयोग' विवेक-विचार करने का मार्ग है। यह पथ मनुष्य को निरंतर विवेक-प्रयोग करते हुए बुराई से अच्छाई को, अनित्य से नित्य वस्तु को, नश्वर से शाश्वत को पृथक करते रहने का आदेश देता है। और इस प्रकार विवेक प्रयोग करते हुए निर्णय लेने से मनुष्य जो शाश्वत और वास्तविक है उस परम सत्य प्राप्त कर सकता है।  
         एक 'राजयोगी' मानसिक शक्ति के ऊपर सर्वाधिक जोर देता है। उसके लिये मन ही सब कुछ है उसका दावा है कि मन की अतिरिक्त चंचलता को शांत कर मन की शक्ति को पूर्णतया आत्म-नियंत्रण में रखने से सत्य स्वयं को उद्घाटित कर देता है। सत्य का साक्षात्कार करने के लिये यही उसकी साधना का पथ है।
       एक भक्त को यही ठीक लगता है कि शरीर, मन या बुद्धि के लिये किसी विशेष व्यायाम की आवश्यकता नहीं है। नाक दबाकर प्राणायाम आदि का अभ्यास करने या किसी तरह के कठोर वैराग्य को अपनाने की जरूरत नहीं है। वह कहता है यदि कोई व्यायाम करना ही हो तो मैं ह्रदय का व्यायाम करना अधिक पसंद करूँगा। मैं अपने प्रभु या इष्टदेव के लिये अपने ह्रदय का द्वार खोल दूँगा। उसके मन में यह दृढ़ विश्वास या आस्था होती है कि चाहे जिस भाव से या जिस नाम से उन्हें क्यों न पुकारूँ हमारे ह्रदय में ही एक परम सत्य, प्रेमस्वरूप कोई रहता अवश्य है।    
      यदि हृदय में कोई प्रेमस्वरूप भगवान नहीं रह रहे होते, तो मेरे हृदय में प्रेम की एक छोटी सी कली भी कैसे अंकुरित हो सकती थी ? यदि वहाँ, ह्रदय में कोई ऐसी सत्ता विद्यमान नहीं है - जो प्रेम से भरी हुई हो और जिसका स्वभाव ही प्रेम है तो मेरे भीतर प्रेम का वह सागर कैसे उमड़ने लगता है जो किसी भी प्रकार के बंधन द्वारा अवरुद्ध होने से इन्कार कर देता है ? जो 'मैं' और 'मेरा' तक सीमित रहने की अवज्ञा करता है, जो उन्मुक्त होकर सर्वत्र-सबको अपने-पराये सभी को अपने आलिंगन में बाँध लेना चाहता है! वही परम प्रेमस्वरूप परमात्मा (माँ जगदम्बा) है जिसे कोई अल्ला, कोई भगवान, कोई शिव या कोई काली कहता है। तो कुछ लोग अपनी कल्पना में उन्हीं को भगवान मानकर स्वर्ग में सिंहासन पर आसीन देखते हैं। जो व्यक्ति भक्तियोग का अभ्यास करता है वह कहता है- विवेक प्रयोग, मन का नियन्त्रण या कठोर तपस्या के द्वारा सत्य का साक्षात्कार करने के बजाय मैं प्रेम के माध्यम से सत्य की खोज करूँगा, मैं अपने सीमित प्रेम को पूर्णतया उनमें ही लीन कर दूँगा-जो प्रेमस्वरूप हैं ! और इस प्रकार मैं सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति कर लूँगा। सम्पूर्ण जगत को अपना प्रेम समर्पित कर मैं स्वयं ही जगत स्वरूप बन जाऊँगा !  
        'कर्म-योगी' को उपरोक्त कोई भी मार्ग पसंद नहीं है। उसके अनुसार निरन्तर विवेक-प्रयोग करते रहने या भावुकता के आवेग से अभिभूत होकर हृदय को खोल कर भगवान के आगमन की प्रतीक्षा करते रहना बिल्कुल आवश्यक नहीं है। उसके मतानुसार अकर्मण्य होकर बैठे रहना सर्वथा अनुचित है। यह तथ्य है कि हमारे पास कर्म करने की शक्ति है स्वतः संचालित होने (self-start) की क्षमता है, लेकिन उसका एक अलग तात्पर्य है। इस कर्मशक्ति का उपयोग करके हम अपने जीवन को सार्थक और परिपूर्ण बना सकते हैं। कर्मयोगी जब पूर्णता प्राप्त करने के लिये अपनी पद्धति के अनुसार प्रयास करता रहता है तब उसे यह उपलब्धि होती है कि सच्चा आनन्द तो केवल तभी प्राप्त होता है जब वह किसी कार्य को वह अपने आमोद-प्रमोद या अपने भोग-विलास की इच्छा से प्रेरित होकर नहीं कर रहा होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म-योग (निष्काम कर्म) के फल का स्मरण कराते हुए कहा है - "दूसरों के कल्याण की इच्छा से किया गया निःस्वार्थ कर्म किसी सतर्क कर्मयोगी को ज्ञान के राज्य में प्रतिष्ठित करा देता है।
 कर्मयोगी जब अपने क्षुद्र स्वार्थ को त्याग कर दूसरों के कल्याण के लिये अपना सब कुछ न्योछावर कर देने को तत्पर हो जाता है तब उसे भी उसी सत्य की अनुभूति होती है, जिसको ज्ञानी ज्ञानयोग के द्वारा अनुभव करता है। क्योंकि, वह भी यही अनुभव करता है कि 'वह' और 'दूसरे लोग' भिन्न-भिन्न नहीं हैं। इस 'नूतन पहचान' की अनुभूति पूर्णतया उसी 'सत्य' के अनुरूप होती है,  जिस सत्य की उपलब्धि किसी प्रेमी को भगवान के प्रति प्रेम रखने से प्राप्त होती है, या किसी राज-योगी को मन पर नियंत्रण कर लेने से प्राप्त होती है। 
          परम सत्य की खोज और उसकी उपलब्धि करने के यही चार प्रमुख मार्ग हैं, जो व्यक्ति इन चारो मार्गों का अपने जीवन में समान रूप से और सही तरीके से प्रयोग करने में समर्थ होता है, और हर सम्भव तरीके से परम सत्य का आस्वादन कर लेता है - स्वामी विवेकानन्द के अनुसार वही आदर्श मनुष्य है। श्रीरामकृष्ण देव भी यही कहते थे कि- किसी खाद्य पदार्थ का स्वाद मुझे केवल एक ही तरीके से क्यों लेना चाहिये ? एक ही मछली (या सब्जी) को तो कितने ही प्रकार से तैयार किया जा सकता है। 
      अपनी सीमित क्षमता के साथ हमलोग 'रामकृष्ण-विवेकानन्द' के विचारों और निर्देशों के अनुसार विवेक प्रयोग, मन पर नियंत्रण, अपने-पराय के बीच भेदरहित प्रेम, और निष्काम कर्म के बीच समन्वय स्थापित करने के लिये सदा प्रयत्नशील रहेंगे। केवल तभी हमारा बहुमुखी और पूर्ण विकास साधित होगा। यह हो सकता है कि हमारे ह्रदय (Heart) में सभी देशवासियों के लिये प्रेम अंकुरित हो जाये,सहानुभूति भी जाग्रत हो जाये, किन्तु यदि हमारा शरीर (Hand)सबल और स्वस्थ नहीं है तो हम सेवा में सक्षम कर्मी नहीं बन पायेंगे। और हम उनके दुःख-कष्टों दूर करने के लिये 'परिश्रम को पराकाष्ठा तक भी नहीं पहुँचा सकेंगे! उसी प्रकार हम मन की एकाग्रता शक्ति अर्जित किये बिना लोगों के दुःख -कष्ट दूर करने जायें तो हम पूरे मनोयोग से सेवा भी नहीं कर पायेंगे और वह सेवा फलदायी भी नहीं होगी। उसी प्रकार सोचने, बोलने और कुछ भी करने के पहले विवेक-प्रयोग करके अवश्य देख लेना चाहिये कि वह अच्छा है या बुरा, श्रेय है या प्रेय - सही निर्णय लेने की इस शक्ति को जाग्रत करने के लिये विवेकज ज्ञान का संवर्धन करते रहना  आवश्यक है। किन्तु हमारी  ज्ञान-चर्चा इतनी विशद या दुरूह भी नहीं हो जानी चाहिये, कि तर्क द्वारा यह सिद्ध करने की चेष्टा करने लगें कि सच्चे वेदान्तवादी के लिए तो 'गंगाजल और नाले के जल' में भी कोई अंतर नहीं है! 
>>> Expansion of our heart , to stir up sympathy to feel for others'
       हम ज्ञान -विचार के साथ-साथ ह्रदय की क्षमता को भी सरल तरीके से विकसित करने का प्रयास कर सकते हैं। श्रीरामकृष्णदेव , स्वामी विवेकानन्द और माँ श्री श्री सारदा देवी के जीवन और शिक्षाओं  का अध्यन और उन पर चिंतन-मनन करना चाहिये।  उनके जीवन और सन्देश पर निरंतर चर्चा करते रहने से विवेक-प्रयोग करने की शक्ति तथा सही और गलत, सत्य और मिथ्या, अच्छा और बुरा के बीच निर्णय करने की क्षमता (विवेकज-ज्ञान) स्वतः जाग्रत हो जाती है। सर्वमंगल की प्रार्थना और मनःसंयोग के नियमित अभ्यास के द्वारा ही मन की शान्ति और सन्तुलन (poise) प्राप्त की जा सकती है; जिसके अभाव में हमलोग अक्सर गलत निर्णय कर बैठते हैं और वह प्रेम जो हमारे ह्रदय में उमड़ता है कभी कार्यान्वित नहीं हो पाता।  और अपने हृदय को विकसित करने के लिए दूसरों के दुःख-कष्ट को अपने हृदय में अनुभव करने की क्षमता को बढ़ाना चाहिये, अर्थात हृदय की सहानुभूति शक्ति को प्रदीप्त करना आवश्यक है। इसके लिये अपने हृदय की भक्ति-भावना का संवर्धन  करना जरुरी है- जो कि अपने प्रेम के सीमित दायरे- 'मैं' और 'मेरा' को सर्वत्र, सब दिशाओं में, सम्पूर्ण मानवता के लिये प्रसारित कर लेने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हृदय के प्रसार के इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये लगातार प्रयत्न करते रहना आवश्यक है। ठाकुर, माँ और स्वामी जी के जीवन और शिक्षाओं पर चिंतन-मनन करने से विवेक-प्रयोग करने की क्षमता में वृद्धि होने के साथ -साथ, हृदय को विकसित करने में भी सहायता प्राप्त होती है। ठाकुर, माँ और स्वामीजी का अनुसरण करने का अर्थ है, जो "ब्रह्म पंचभूतों के फन्दे में पड़कर रो रहे हैं"  उनके वास्तविक दुःख के कारण (अविद्या) को खोज कर उसे दूर हटाने के लिये उनकी सच्ची सेवा करना।
        जब कोई व्यक्ति विस्तृत ह्रदय (भक्तियोग) , जग्रत विवेक (ज्ञानयोग) और वशीभूत मन (राजयोग) और व्यावहारिक दक्षता (कर्मयोग) के साथ स्वयं को सुसज्जित करके, लोगों के वास्तविक कल्याण के लिये अपने जीवन तक को न्योछावर कर देने की ज्वलन्त इच्छा के साथ   जब सामाज-सेवा करने को उठ खड़ा होता है, तो उसके द्वारा की गयी समाज-सेवा साधारण समाजसेवियों द्वारा की गयी समाज-सेवा से थोड़ी अलग हटकर तो होती ही है! 
[क्योंकि --'साहसी, जो चाहता है दुःख  -
 मिल जाना मरण से ,नाश की नाचता है,
 माँ उसीके पास आयी !'
-स्वामी विवेकानन्द की कविता 'काली माता '।  ] 
       >>Transcend animality in man and to stride for full manhood. 
        महामण्डल की अपने विभिन्न केन्द्रों (३१५ से अधिक) के द्वारा इसी प्रकार के सुयोग्य, स्वस्थ, बलवान, अन्तर्विचारशील और सहानुभूति सम्पन्न मनुष्यों का निर्माण करने के कार्य में लगा हुआ है। भारत के विभिन्न गाँवों और शहरों में ऐसे युवा व्यक्तिगत रूप से और परस्पर मिल-जुल कर, स्वामी विवेकानन्द के जीवनप्रद और शक्तिदायी विचारों को व्यवहारिक रूप देते हैं। 
        महामण्डल की दृष्टि में,चारों योगों को समन्वित करके- मानव को उसकी पशु-प्रकृति का अतिक्रमण करने (transcend करने), तथा पूर्ण मनुष्यत्व (पूर्ण निःस्वार्थपरता) की ओर प्रगति करने का यही उपाय है। यही वह मार्ग है जिस पर चलते हुए महामण्डल  प्रचलित अर्थों में धार्मिक, सांस्कृतिक, समाजसेवी या शैक्षणिक संस्थान बने बिना, उन्नततर मनुष्यों का उन्नततर समाज बनाने का दृढ़ संकल्प लेकर, सच्चा धर्म, सच्ची संस्कृति, सच्चा समाज-कल्याण और सच्ची शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कार्य में, विगत 55 वर्षों से लगा हुआ है। वास्तव में महामण्डल का उद्देश्य और कार्य योजना भी यही है। 
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[*इलिप्सिस (ellipsis) = पद-न्यूनता : An ellipsis of "If the mountain won't come to Muhammad then Muhammad must go to the mountain." --' If one cannot get one's own way, one must bow to the inevitable.' coined by Francis Bacon, perhaps from a Turkish proverb. Mahomet made the people believe that he would call a hill to him, and from the top of it offer up his prayers, for the observers of his law. The people assembled; Mahomet called the hill to come to him, again and again; and when the hill stood still, he was never a whit abashed, but said, If the hill will not come to Mahomet, Mahomet will go to the hill.]
'रामकृष्ण-विवेकानन्द अचिन्त्य-भेदाभेद वेदान्त परम्परा' में आधारित यही सच्ची शिक्षा और सच्चा धर्म है जिसे 'एक नया युवा आन्दोलन' का रूप देकर सम्पूर्ण भारत में फैला देना अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का कार्य है! स्वामी विवेकानन्द कहते हैं,
"हम मनुष्यजाति को उस स्थान पर पहुँचाना चाहते हैं जहाँ न वेद है,न बाइबिल है,न कुरान है; परन्तु वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्यजाति को यह शिक्षा देनी चाहिये कि सब धर्म उस एकमेवाद्वितीय धर्म के भिन्न भिन्न रूप हैं, इसलिये प्रत्येक व्यक्ति उन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है। " 
[***'राजयोग -शिक्षा' में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं," ओजस- प्रभामंडल ही मानव-जाति के किसी सच्चे मार्गदर्शक “नेता” (आध्यात्मिक शिक्षक) की पवित्र पहचान होती है। ओजस उन पवित्र व्यक्तित्व-सम्पन्न महापुरुषों का असंदिग्ध संकेत-चिन्ह (signpost) है जिनकी मिठास हमें बरबस ही अपनी ओर बिना किसी स्पष्ट कारण के ही आकर्षित कर लेती है। 
 " ओजस् उसे कहते हैं, जो एक मनुष्य को दूसरे से भिन्न बनाता है। जिस मनुष्य में विपुल ओजस् होता है, वह जननेता होता है। ओजस् प्रबल आकर्षण-शक्ति प्रदान करता है। ओजस् का निर्माण नाड़ीय प्रवाहों से होता है। इसकी विचित्रता यह है कि उसका निर्माण उस शक्ति द्वारा बड़ी सरलता से होता है, जिसकी अभिव्यक्ति यौन शक्ति में होती है। यदि यौन केन्द्रों की शक्तियों का व्यर्थ में क्षय और अपव्यय न हो, (भाव की स्थूलतर अवस्था ही क्रिया है) तो उनको ओज में परिणत किया जा सकता है।"]
स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित इसी सर्वश्रेष्ठ समाजसेवा को भारत के गाँव-गाँव तक पहुँचा देने के लिये प्रयत्नशील है। आमतौर से प्रचलित समाज-सेवा जो किसी व्यक्ति,वर्ग, जाति,दल अथवा धर्म-विशेष के 'अमुक युवामंच' या क्लब के नाम पर की जाती है, उसके पीछे बहुधा अपने अहंकार को तुष्ट करने, नाम-यश पाने या दानशील कहे जाने, अथवा अपने निजी जीवन के गोरखधन्धों को छिपाने की कामना होती है। 
किन्तु उसी प्रकार का  एक दूसरा  समाज -सेवी संगठन बनाने के उद्देश्य से महामण्डल का आविर्भाव नहीं हुआ है। वर्तमान काल में, बहुधा विविध प्रकार के सामाज-सेवी संगठन या युवा-क्लब इसी तरह की मानसिकता के कारण एक ही झटके में खुल जाते हैं। "मेरे पास कितिनी धन-सम्पत्ति या जमीन- जायदाद है' उसमें से थोड़ा-बहुत  मैं गरीबों  या बिरहोर आदिवासियों को कुछ दान कर सकता हूँ", वे लोग भी क्या याद करेंगे कि कोई इतना दानी व्यक्ति भी है !"-यही वह मानसिकता है जो 'आत्मतुष्टी-करण एवं अहंकार का पोषण' करती है। 
इसीलिये तो इन दिनों सभी प्रकार की समाज-सेवा के कार्यों का, जिसमें 'डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ़ रग्स' (कम्बल-वितरण) आदि शामिल हैं का -  इतना अधिक प्रचार -समाचारपत्र, रेडियो,टेलीविजन आदि में दिखाई देता है!  विविध क्लबों या संगठनों द्वारा कंबल-वितरण, या सड़क पर झाड़ू लगाने  जैसे सेवा कार्यों का प्रारम्भ किया जाता है तो टी. वी. पेपर में अपना नाम- फोटो छपवाने के लिये - पहले से ही प्रिन्ट मिडिया एवं एल्क्ट्रॉनिक मिडिया को बुलवा लिया जाता है । किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने कभी इस प्रकार की समाज-सेवा करना नहीं सिखाया है। 

 [और प्रतिवर्ष इनकी संख्या में धीमी लेकिन स्थिर गति से बढ़ोत्तरी भी होती जा रही है। और सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि महामण्डल के केन्द्रीय मुख्यालय ने स्वयं किसी गाँव या कस्बे में जाकर इन केन्द्रों की  बुनियाद नहीं डाली है, बल्कि जो युवा महामण्डल द्वारा आयोजित  छह दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में, या राज्य-स्तरीय शिविरों में भाग लेते हैं, वे लौटने के बाद स्वतः प्रेरित होकर अपने अपने गांवों या शहरों में महामण्डल की शाखा स्थापित करते हैं। और इस कार्य में महामण्डल का केन्द्रीय मुख्यालय उन्हें हर सम्भव  की सहायता प्रदान करता है, तथा उचित मार्गदर्शन भी करता है। ] 
 [दूसरे शब्दों में लगातार प्रयास (पाँच कार्यों का अभ्यास) के द्वारा जिस इच्छाशक्ति का विकास और प्रकाश वश में लाया जाता है, और वह फलदायक होती है -अर्थात अब वह आध्यात्मिक शिक्षक /नेता  अपना " ईश्वरत्व कभी विस्मृत ही नहीं कर पाता  है"-- और इसी को शिक्षा कहते हैं।]
 "जिस प्रकार एक ही जल को कोई 'वारि' कहता है और कोई 'पानी', कोई 'वाटर' कहता है तो कोई 'एक्वा', उसी प्रकार एक ही सच्चिदानन्द को देश-भेद के अनुसार कोई 'हरि' कहता है तो कोई 'अल्लाह', कोई 'गॉड' कहता है तो कोई 'ब्रह्म'। "

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सोमवार, 8 अगस्त 2016

卐卐14. 'कार्य योजना' 'वेदान्त परम्परा में स्वर्णयुग स्थापन योजना-Be and Make ' [एक नया आन्दोलन -14.'The Plan of Work ']

महामण्डल की कार्य योजना 
     महामण्डल का मुख्य कार्य है, नवयुवकों के मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना- जिससे उन्हें एक नई जीवन-दृष्टि  (life-view) प्राप्त हो, और वे अपने जीवन के चरम लक्ष्य को खोज सकें।साथ ही जीवन क्या है ?  मनुष्य-जीवन को देव-दुर्लभ क्यों कहा जाता है इत्यादि की समझ और  आत्मविकास करने  तथा चरित्र-निर्माण की व्यवहारिक पद्धति प्रदान करना।  ताकि हमारे युवा ऐसे विवेकशील नागरिक बन सकें, जो समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्य निभाने के लिये सजग और सक्षम हों, और साथ-साथ अपने व्यक्तिगत जीवन में उच्चतर परिपूर्णता को प्राप्त करने में सफल हो सकें! महामण्डल की समस्त कार्य योजनायें इसी उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में निर्देशित हैं। 
         प्रत्येक मनुष्य के जीवन और चरित्र का निर्माण करके एक उच्चतर समाज का निर्माण करना ही महामण्डल  का उद्देश्य है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में कहें तो-'man-making and character-building'--'मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण' ही महामण्डल का उद्देश्य है। 'मनुष्य निर्माण' का अर्थ होता है,उसके तीनों प्रमुख अवयव -'3H' Hand (शरीर), Head (मन) और Heart (ह्रदय) का संतुलित विकास! यहाँ Head से तात्पर्य है विवेक प्रयोग करने की शक्ति का विकास , Hand -शारीरिक शक्ति तथा Heart-दूसरों के सुख-दुःख को अपने हृदय में अनुभव करने की शक्ति का प्रतीक है। जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति, सामूहिक रूप से और व्यापक पैमाने पर इसी एकमात्र उद्देश्य के लिये प्रयास करने लगेगा, तो निश्चित रूप समाज के ऊपर इसका प्रभाव पड़ेगा, जिसके फलस्वरूप के समाज की अवस्था में भी धीरे धीरे उन्नति दिखने लगेगी।
      किन्तु इस  'मनुष्य-निर्माण योजना'  को पंच-वर्षीय, दस-वर्षीय या पच्चीस वर्षीय योजना में सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता । क्योंकि एक पीढ़ी के बाद,  दूसरी पीढ़ी आती रहती है , इसीलिये हमें इस 'कार्य-योजना' को निरन्तर जारी रखना पड़ेगा। और हमारे जीवन में ऐसा कोई क्षण नहीं आयेगा, जब हम उच्च स्वर से घोषणा करेंगे, " समाप्ति ! हमारा कार्य समाप्त हुआ, हमने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है-  देखो यह रहा, पूर्ण विकसित मनुष्यों का परिपूर्ण समाज!" ऐसा सोचना एक अवास्तविक कल्पना है, अयथार्थवादी कथन है - और ऐसा समय कभी नहीं आने वाला है। जो लोग इस कार्य-योजना 'Be and Make अपने जीवन का एक मिशन समझकर, इसके साथ जुड़ना चाहते हैं, उन्हें आजीवन परिश्रम करते रहने के लिये अवश्य तत्पर रहना होगा।इस थाती को (विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर निवृत्ति अस्तु  महाफला वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण पद्धति को) उन भावी आध्यात्मिक शिक्षकों/नेताओं के हाथों में सौंप देना होगा, जो हमारे बाद आकर इस आन्दोलन से जुड़ने वाले हैं ! 
              महामण्डल युवाओं का संगठन है इसलिए, हो सकता है कि इस आंदोलन से जुड़ने वाले सभी युवा समाज में प्रचलित धार्मिक अनुष्ठानों को पसन्द नहीं करते हों,  किन्तु वे सभी एक योग्य नागरिक बनने में अवश्य रूचि रख सकते हैं। जो अपने सम्पूर्ण जीवन को देशवासियों और  मातृभूमि के कल्याण में समर्पित कर देने की क्षमता रखता हो। वास्तव में यही सर्वोच्च आध्यात्मिकता है। इस प्रकार वे पूर्ण मनुष्यत्व भी अर्जित कर सकेंगे । एक बड़ी संख्या में निष्कपट,  ईमानदार,  मेहनती, देशभक्त, निःस्वार्थी , विनम्र, त्यागी , उत्साही, और साहसी युवक देश भर में प्रत्येक स्थान पर हैं, जो राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए खुद को समर्पित कर देने को उत्सुक हैं, ऐसे युवाओं को संगठित एवं उत्साहित किया जा सकता है।
     इसके लिये अत्यावश्यक कार्य को समझना होगा, उस आवश्यकता को पूर्ण करने की पद्धति को जानना होगा , उस पद्धति का प्रयोग बहुत उचित रीति से करने के बाद उसके परिणाम पर भी दृष्टि रखनी होगी। यदि भारत में एक महान परिवर्तन लाना चाहते हैं - तो उसका यही उपाय है। स्वामी विवेकानन्द ने यह भी कहा है कि  - "जब आप मूल और ठोस बुनियादी कार्य करना चाहते हैं तो समस्त वास्तविक प्रगति मन्द ही होगी।" ४/२३३]
      कुछ लोग पूछते सकते हैं - " क्या सभी मनुष्यों को उन्नत किया जा सकता है? यदि नहीं तो क्या यथास्थिति को बनाये रखना ही विकल्प है ? क्या ऐसा सोंचने से किसी भी समस्या का हल निकलेगा ? लेकिन यदि इन प्रयासों को निरन्तर जारी रखा जाये तो कम से कम कुछ लोगों के चरित्र में अवश्य सुधार होगा, और क्रमशः इनकी संख्या में वृद्धि होगी और परिस्थितियाँ बदलने को बाध्य हो जायेंगी। स्वामी विवेकानन्द इसी बात की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं - " जब हम विश्व-इतिहास का मनन करते हैं, तो पाते हैं कि जब- जब किसी राष्ट्र में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, तब तब उस राष्ट्र का अभ्युदय हुआ है, तथा जब ससीम में असीम और अविनाशी आत्मा की खोज  (उसे उपयोगितावादी कितना भी अर्थहीन प्रमाणित करने की चेष्टा क्यों न करें) --समाप्त हो जाती है, तो उस राष्ट्र का पतन होने लगता है। " (२/१९८)  हमें इसी योजना को साकार करने के लिये कार्य करना है !
        अब कुछ लोग पूछ सकते हैं, और जैसा हमें अक्सर सुनने को मिलता है, ठीक है, आप लोगों का उद्देश्य तो महान है, योजनायें भी प्रशंसनीय हैं, किन्तु इस कार्य-योजना को साकार करने के लिये आपका मार्ग क्या है ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि, इस मनुष्य निर्माण एवं चरित्र-निर्माण' की पद्धति का अविष्कार हमारे पूर्वज ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व ही कर लिया था, स्वामी विवेकानन्द ने  उसी पद्धति को वनो के आश्रमों और मठों के चहारदीवारियों से बाहर निकाल कर जन-सामान्य के घरों तक पहुँचा दिया है। 
     और यह पद्धति (ऑटोसजेशन) आधुनिक मनोविज्ञान की शब्दशः प्रतिध्वनि है,और पूर्णतः विज्ञान सम्मत भी है। 
यदि बहुत संक्षेप में कहें तो, इस पद्धति में चारित्रिक-गुणों के सिद्धान्तों का पहले श्रवण करना, फिर उसके ऊपर गहराई से चिंतन- मनन करने के बाद उसकी स्पष्ट अवधारणा को विवेक प्रयोग और मनःसंयोग का अभ्यास करते हुए, अपने अवचेतन मन में अंतःस्थापित  कर लेना पड़ता है। तत्पश्चात विवेक की पहरेदारी और मार्गदर्शन में उपरोक्त प्रक्रिया का पुनः पुनः अभ्यास इतनि तत्परता के साथ करना है कि वे सिद्धान्त अवचेतन मन में स्थायी रूप से मुद्रित हो जायें। साथ ही इस प्रक्रिया को नियंत्रित और लक्ष्य की दिशा में निर्देशित भावावेग  की सहायता से सदैव सरस् बनाये रखना होगा - जो कि ह्रदय की भूमिका है। इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि यह पद्धति ,विवेक प्रयोग (ज्ञानयोग ), मानसिक नियंत्रण (राजयोग) हृदय के आवेग का नियंत्रण (भक्तियोग) और चरित्र निर्माण के उद्देश्य से निःस्वार्थ समाज-सेवा के कार्य (कर्मयोग); चारों योगों का एक सामंजस्यपूर्ण संयोजन है। 
      महामण्डल के सभी कार्यकलाप इतने सुनियोजित हैं कि इसमें सम्मिलित होने वाले प्रत्येक सदस्य को उपरोक्त चारों योगों के सामंजस्यपूर्ण संयोजन से होकर गुजरना ही पड़ता है। प्रार्थना , मनःसंयोग , पाठचक्र, मनःसंयोग, और समाज सेवा चरित्र-निर्माण प्रक्रिया में  चारो योगों को क्रमशः चार धाराओं में निरूपित करती है। समाजसेवा महामण्डल का लक्ष्य नहीं है, बल्कि यह चरित्र-निर्माण का एक उपाय मात्र है, इसकी मात्रा   महामण्डल कार्य-योजना की सफलता का पैमाना नहीं है। महामण्डल के कार्यों को करते समय सदस्यों का दृष्टिकोण ,विवेक प्रयोग करने  की क्षमता में वृद्धि , ह्रदय को सरस बनाये रखते हुए भावावेग पर नियंत्रण, मन को वश में रखने की क्षमता में वृद्धि इत्यादि बातें ही विचारणीय हैं।   
महामण्डल युवाओं के लिये इस प्रकार का एक परिवेश उपस्थित कराता है, जिसमें शामिल होकर वे महामण्डल की कार्य-योजना के अनुरूप अपने चरित्र का निर्माण कर सकते हैं। महामण्डल के केन्द्र (जिनकी संख्या विभिन्न राज्यों में ३१५ से  अधिक हैं) शहरों और गाँवों में है - इसे किसी कमरे, बरामदे या वृक्ष की छाया में, या खेल के मैदान अथवा पार्क में -जहाँ नवयुवक इकट्ठा होते हों, वहीं स्थापित किया जा सकता है। 
महामण्डल के सभी सदस्य अपने शरीर को स्वस्थ और सबल रखने के लिये व्यायाम करते हैं, ज्ञान अर्जित करने के लिये अध्यन और बुद्धि को कुशाग्र करने के लिए सामूहिक परिचर्चा करते हैं। साथ ही समुद्र जैसे विशाल ह्रदय वाले स्वामी विवेकानन्द के जीवन और शिक्षाओं के अध्यन से तथा उनके उपदेशनुसार मानवता की सेवा मूलक कार्यों में अपना योगदान देकर वे अपने ह्रदय का असीम तक विस्तार करने का प्रयत्न भी करते हैं। यह पद्धति कितनी व्यावहारिक है, इस पर कोई तब तक विश्वास नहीं कर सकता जब तक वह इन चारों प्रक्रियाओं से गुजरने के फलस्वरूप अपने हृदय के विस्तार को देखकर स्वयं ही आश्चर्य से चकित न हो जाये !
          बच्चों के लिये भी इसीके अनुरूप किन्तु अधिक सरल ढंग से अभ्यास करने की व्यवस्था की जाती है। मानव की अन्तस्थ दिव्यता की पूजा के लिये बाह्य सेवा की पद्धति का लाभ उठाने के लिये, तथा इसे जीवन के प्रतिमुहूर्त प्रकट करने के लिए महामण्डल के केन्द्रों द्वारा दातव्य चिकित्सालय, कोचिंग क्लास, प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र, बच्चों के लिए स्कूल , छात्रावास, पुस्तकालय इत्यादि चलाये जाते हैं। इसके अलावा प्राकृतिक आपदा से पीड़ित लोगों के लिये राहत कार्य, कृषि-प्रशिक्षण, ग्रामोन्नयन के कार्य, गरीबछात्रों तथा अभावग्रस्त लोगों की सहायता के लिये अन्य गतिविधियाँ भी चलायी जाती है। निर्धन रोगियों के लिये वे अक्सर रक्तदान भी किया करते हैं ।
          वे वैसे सभी कार्य करते हैं जिससे उनकी मांस-पेशियाँ पुष्ट हों, मस्तिष्क को तेज और हृदय को विस्तृत या उदार बनाये। इस सम्पूर्ण कार्ययोजना को समझने में सहायता करने के लिए, स्थानीय या जिला-स्तरीय से लेकर अखिल भारतीय स्तर पर अक्सर युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित होते रहते हैं। शिविर में जीवन गठन के विशिष्ट पद्धतियों की विस्तृत जानकारी दी जाती है तथा उन्हें अपनी क्रमागत उन्नति का रिकॉर्ड रखने का परामर्श भी दिया जाता है। इन रिकॉर्ड का अनुवर्ती अध्यन (Follow-up studies) सभी सदस्यों के  चारित्रिक-गुणों में क्रमशः सुधार की बहुत उत्साहजनक परिणामों की ओर इशारा करते हैं । देश के विभिन्न राज्यों से आये विभिन्न मतावलम्बी और भाषा-भाषी युवा जब एक जगह पर सम्मिलित होकर साथ-साथ रहते हैं सामूहिक गतिवधियों में भाग लेते हैं, तब उनमें सहिष्णुता, सहयोग की भावना, एकात्म-बोध एवं राष्ट्रीय एकता की भावना जागृत होती है। यह सब कुछ एकसाथ युवाओं को - कर्तव्यपारायण, देशभक्त, निःस्वार्थी एवं मानवतावादी दृष्टिकोण से युक्त त्यागी , सेवा भावना और उदार दृष्टिकोण से सम्पन्न  नागरिक बनने के लिये अनुप्रेरित करते हैं । 
     अतः युवाओं के लिये यह समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है कि जब तक हमारा अपना चरित्र  
सुन्दर ढंग से गठित नहीं हो जाता, तब तक हम राष्ट्र की सेवा करने, समाजिक समस्याओं  समाधान करने एवं समाज में होने वाले अनिष्ट को रोकने में  समर्थ नहीं हो सकते हैं। अतः अन्य  लोगों के लिये भी यह स्वाभाविक कर्तव्य हो जाता है कि वे युवाओं को अपना जीवन सही ढंग से गठित करने में गंभीरता पूर्वक सहायता करें। वास्तव में यही वह कार्य-क्षेत्र है, जिसमें महामण्डल ने अपनी समस्त ऊर्जा लगाने का निर्णय  ले लिया है। 
             इसीलिये अत्यावश्यक  कार्य है -युवाओं को  सही ढंग से प्रशिक्षित करना। (स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में पूर्ण मनुष्य बनने और बनाने के लिये 'निवृत्ति अस्तु महाफला' को समझने के लिए सही ढंग से प्रशिक्षित करना।)  इस  प्रशिक्षण की पूर्ण पद्धति इस प्रकार सुनियोजित होनी चाहिये कि उससे युवाओं का सर्वांगीण विकास सम्भव हो सके। प्रत्येक युवा को एक पूर्ण मनुष्य (निःस्वार्थी) के रूप में निर्मित कर देना ही इस प्रशिक्षण का लक्ष्य होना चाहिये। प्रचलित संस्थागत शिक्षा प्रणाली समग्र-शिक्षा के इस अत्यावश्यक तत्व (अप्रतिरोध्य निःस्वार्थपरता ) को प्रदान नहीं कर पाती , जिसे प्राप्त करना प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिये अनिवार्य है। इस दृष्टि से देखें तो महामण्डल का कार्य एक प्रकार से प्रचलित शिक्षा प्रणाली की को दूर करने में सहायता करना है। 
         इस जीवन गठन की प्रक्रिया के साथ समाज सेवा का कार्य भी घनिष्ट रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिये जिन क्षेत्रों में महामण्डल के केन्द्र क्रियाशील हैं, वहाँ का समाज भी इन केन्द्रों द्वारा गयी की सेवा से लाभान्वित होता है। तथा जो लोग महामण्डल के सदस्य बन जाते हैं, उन्हें जो सेवा दी जाती है शायद वही सर्वोत्कृष्ट  समाज सेवा है, क्योंकि यही एक मात्र ऐसी सेवा है जो समाज में वास्तविक परिवर्तन ला सकती है।अतएव, महामण्डल जीवन-गठन करने के लिये धीर-गति का एक ऐसा विशिष्ट आन्दोलन है, जिसके साथ यदि  देश के युवा पर्याप्त संख्या में जुड़ जायें तो यह आन्दोलन आगे चलकर निश्चित रूप से पूरे समाज को उन्नति के रास्ते पर आगे बढ़ा सकता है।विगत 55 वर्षों से इस कार्य की प्रगति तथा कार्य-पद्धति की सफलता के प्रत्यक्ष प्रमाण को देखकर यह आशा  लगातार बढ़ती जा रही है, और जो लोग इस आन्दोलन के कार्यकर्ता हैं, उनके मन की आशा अब दृढ़ विश्वास में परिणत हो चुकी है। महामण्डल पूर्ण रूप से तभी सन्तुष्ट होगा जब चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करने और जीवन के सभी क्षेत्रों में उनकी आपूर्ति करने के इस धन्यवाद विहीन कार्य को सालों -साल तक लगातार सफलतापूर्वक संचालित रखने में भी सक्षम हो जाता है। महामण्डल का उद्देश्य कभी भी युवाओं को अपने नियंत्रण में लेना और राजनीति के माध्यम से सत्ता की कुर्सी प्राप्त करना नहीं है। क्योंकि चरित्रवान मनुष्यों के बिना समाज की मूल समस्याओं का निदान होना सम्भव नहीं है। 
   स्वामी विवेकानन्द के कथन, 'And therefore, make men first.'- " अतएव पहले मनुष्य का निर्माण करो" - का तात्पर्य भी यही है। हमलोगों ने अभी तक उनके इस परामर्श के ऊपर समुचित ध्यान नहीं दिया है, किन्तु उनके इसी प्रस्ताव के भीतर एक क्रन्तिकारी परिवर्तन के बीज निहित हैं । आधुनिक भारत के सच्चे नेता के महत्व को ख़ारिज करने की कोशिश किये बिना उनके ऊपर  'भारत का हिन्दू संन्यासी'  का लेबल चिपका कर  हमें  सत्ता और सम्पत्ति जमा करने के लोभी  स्वप्नों को त्याग देना चाहिये। आइये , हमलोग इस 'रामकृष्ण -विवेकानन्द' स्वर्णयुग स्थापन योजना के ऊपर कार्य करें और इस  इस 'मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन '- को देश के कोने-कोने तक पहुँचा दें ।
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 जो लोग मैटर में इनर्जी को खोज लेते हैं, (आइंस्टिन आदि) उन्हें भौतिक विज्ञानी या साइंटिस्ट कहा जाता है; और जो लोग 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' --- " निवृत्ति अस्तु महाफला"  में प्रशिक्षित होकर इस नश्वर मानव शरीर में अविनाशी आत्मा को (अपने सच्चे-स्वरूप) जान लेते हैं उन्हें ' ऋषि ' ( नेता, पैगम्बर , जीवनमुक्त शिक्षक-नवनीदा ) कहा जाता है। इसी कार्य में सहायक हैं -महामण्डल द्वारा   'पाठचक्र, मनःसंयोग, प्रार्थना और समाज सेवा'- चारो योगों की चार धारायें'
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शनिवार, 6 अगस्त 2016

卐卐 13. "महामण्डल की भूमिका " -श्रद्धा का दान -अपने आप पर श्रद्धा करना सीखो! [एक नया आन्दोलन -13.'The Role of the Mahamandal ']

卐 महामण्डल की भूमिका  

         >>If there is no dropping into the same river twice; then How does history repeats itself ?
        एक पुरानी कहावत है,आप एक ही नदी में दो बार डुबकी नहीं लगा सकते। यह कहावत एक अन्य प्रचलित लोकोक्ति (adage)- `इतिहास स्वयं को दोहराता है' का सीधा खण्डन करता है। इस जगत को सतत प्रवाहमान कहा गया है, यह किसी नदी की तरह ही समय के साथ बहता रहता है। और जिस प्रकार कोई नदी अपने मार्ग में पुनः नहीं लौट सकती उसी प्रकार एक ही नदी में कोई दो बार डुबकी भी नहीं लगा सकता, क्योंकि उसी बीच वह समय के साथ पहले ही एक लम्बा रास्ता तय कर चुकी होती है। फिर इतिहास स्वयं को कैसे दोहराता है ? यह प्रश्न बहुत प्रासांगिक है। 
        >>law of history :  किन्तु हम यदि पीछे मुड़कर गुजरे हुए समय,  जिसे हम सही या गलत 'इतिहास'  कहते हैं, में जाँच -पड़ताल करें (look into), तो पाते हैं कि समय के प्रवाह में हम एक ही प्रकार की घटनाओं को बारम्बार घटित होते हुए देख रहे हैं। हालाँकि सामाजिक वातावरण और परिवेश बिल्कुल भिन्न होता है। और तब हमें ऐसा लगता है मानो हमने इतिहास के एक नियम को आविष्कृत कर लिया है , और हम घोषणा कर देते हैं कि -`इतिहास स्वयं को दोहराता है। ' किन्तु वैसा ही दूसरे सही तथ्य की अनदेखी कर देते हैं 'समय के प्रवाह में घटनाओं की पुनरावृत्ति भले ही एक जैसी दिखती हों, पर उनकी न्यायसंगत पुनरावृत्ति नहीं हो सकती। 
         इन दोनों विरोधाभासी कहावतों का समाधान इस तथ्य में निहित है कि दोनों में से कोई भी उक्ति न तो पूरी तरह से गलत है, और न पूरी तरह से सही है। जब कोई घटना स्वयं को दोहराती हुई सी प्रतीत होती हैं, तब तक सम्पूर्ण परिस्थितियाँ पूरी तरह से बदल चुकी होती हैं, और वास्तव में एक ही नदी में दो बार डुबकी नहीं लगाई जा सकती। किन्तु यदि हम बहती हुई नदी के वास्तविक कणों (अणु -परमाणु) पर हमारा ध्यान न हो तो हम पाते हैं कि अपने तल और दोनों किनारों  तथा अन्य वस्तुओं सहित नदी बिल्कुल वैसी ही है। उसी प्रकार जिन घटनाओं को हम अभी घटित होते हुए देख रहे हैं उसमें बहुत सी बातें ऐसी हैं जो पहले घटित किसी घटना में में भी समान रूप से मौजूद थीं। [जैसे ज्वार भाटे के उतराव में किसी खास बिन्दु पर एक शिखर भी प्रतीत होता है, इसकी प्रकृति भी बिल्कुल उसी घटना की तरह होती है, जिसका हमने पहले किसी स्थान और समय में अवलोकन किया था।
        यदि हम ध्यान से देखें तो पायेंगे कि कई बड़े बड़े ऐतिहासिक घटनाओं में बहुत सी बातें एक समान बातें घटित होती रही हैं और हम उससे बहुत कुछ सीख भी सकते हैं। इतिहास के  प्रवाह की लम्बी श्रृंखला में मनुष्य ने कई बार अपनी आत्मश्रद्धा को खोया है और उसे पुनः प्राप्त भी कर लिया है, इसके परिणाम स्वरूप संसार का इतिहास भी अलग अलग रूप धारण करता रहा है। और यहाँ तक कि एक ही युग में इसी आत्मश्रद्धा की शक्ति के अनुसार विभिन्न राष्ट्रों ने इतिहास के पन्नों पर अलग -अलग छाप छोड़े हैं।  स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, " संसार का इतिहास उन थोड़े से व्यक्तियों का इतिहास है जिन्हें अपने आप पर विश्वास था। जिस क्षण व्यक्ति या राष्ट्र अपनी आत्मश्रद्धा को खो देता है उसी क्षण उसकी मृत्यु हो जाती है।
          हमलोग भी इस समय एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जब हमारे देशवासियों ने अपनी आत्मश्रद्धा को लगभग सम्पूर्ण रूप से खो दिया है। विचारधारा और कर्म में कौशल का सम्पूर्ण सत्यानाश हो चुका है। हजार वर्षों की गुलामी ने हमें एक ऐसे राष्ट्र में परिणत कर दिया है, जिसकी रीढ़ की हड्डी ही नहीं बची है। आज जबकि पराधीनता के जुए को हमारे कन्धों से उठा दिया गया है, तब भी क्यों हमलोग अपना सिर उठाकर नहीं चल सकते। झुककर रहना ही हमारी आदत बन चुकी और गुलामों की भाँति किसी दूसरे जुए आदेश की प्रतीक्षा करते रहते हैं;  किन्तु  अपने भविष्य का निर्माता स्वयं बनने की बात तो सोच भी नहीं सकते। प्रश्न है ऐसा क्यों ? क्योंकि हमने अन्य कोई शिक्षा ग्रहण करने से पहले स्वयं पर विश्वास करना सीखा ही नहीं है। 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " विश्वास - विश्वास! अपने आप पर विश्वास, परमात्मा के ऊपर विश्वास -यही उन्नति करने का एकमात्र उपाय है। यदि पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर, और विदेशियों ने बीच बीच में जिन देवताओं को तुम्हारे बीच घुसा दिया है, उन सब पर भी तुम्हारा विश्वास हो, और अपने आप पर विश्वास न हो तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते। अपने आप पर श्रद्धा करना सीखो! और इसी आत्मश्रद्धा के बल से अपने पैरों पर खड़े हो जाओ !"
           यही वह सबक है , जिसे हमलोगों को व्यक्तिगत तौर पर और साथ ही राष्ट्रीय तौर पर 
सीखना है। जब तक हम मदद के लिये दूसरों के पास हाथ पसारते रहेंगे, हर समय भीख माँगते रहेंगे, तब तक हमलोगों को न तो व्यक्तिगत तौर पर न ही राष्ट्र के स्तर पर मोक्ष के अधिकारी हो सकेंगे। हम लोग जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्तिगत एवं राष्ट्र के स्तर पर दाता की भूमिका ग्रहण करना भूल चुके हैं। हमलोगों को इस बात की कभी शिक्षा ही नहीं मिली कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी क्षेत्र में दाता की भूमिका ग्रहण कर सकता है। उसी प्रकार एक राष्ट्र के रूप में भी अन्य राष्ट्रों को देने के लिये हमारे पास बहुत कुछ है। स्वामीजी कहते हैं  - " संसार में सर्वदा दाता की भूमिका ग्रहण करो। सर्वस्व दे दो, पर बदले में कुछ न चाहो।"  
यदि हम एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप जीना चाहते हों, यदि हम अपने खोये हुए आत्मविश्वास को पुनः प्राप्त करके राष्ट्र की मृत्यु को रोकना चाहते हों, तो ये ही वे सरल बातें हैं , जिन्हें हमें सिखाना पड़ेगा। समाज सेवा के साधारण एवं छोटे-छोटे कार्य करते समय इसके वास्तविक उद्देश्य पर अपनी दृष्टि को स्थिर रखते हुए, हम यह सीख सकते हैं कि बदले में कुछ भी पाने की आशा किये बिना ही दाता की भूमिका को कैसे ग्रहण किया जाता है और साथ ही साथ भरपूर आत्मविश्वास भी कैसे अर्जित होता है। इसी प्रयत्न में जुट जाने के लिये अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, अपने सभी युवा मित्रों को प्रेरित करता है। इसका कोई बहुत विस्तृत मैनिफेस्टो या घोषणा पत्र नहीं है। वास्तव में महामण्डल यह नहीं जानता कि आगे चलकर व्यापक सन्दर्भ में इसे कौन सी भूमिका निभानी होगी।  यह बहुत ही छोटे रूप में गठित होकर छोटे से बड़ा होता जा रहा है। धीरे धीरे यह युवाओं के मन को जीत रहा है, ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं को तो विशेष रूप से अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। ये युवा स्वयं को एक दुर्भेद्य-दुर्ग के रूप में गठित कर रहे हैं, जहाँ स्वार्थपरता को प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, जहाँ सेवापरायणता कभी आत्म-प्रशंसा के बोझ तले दब नहीं जाती।  
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - मैं कभी योजना नहीं बनाता,योजनायें स्वतः उदित होती हैं और वे निज बल से ही पुष्ट होती हैं , मैं केवल कहता हूँ -जागो, जागो !" (७ जून १८९६ को लिखित एक पत्र) अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल सभी युवाओं से  केवल यही अनुरोध करता है कि वे स्वामी विवेकानन्द के इस आह्वान को ध्यान देकर सुनने  और समझने का प्रयास करें।  और उस संकट की स्थितियों के प्रति जाग उठें। 
       जब हमारी चिर गौरवमयी भारत माता विषम परिस्थितियों में घिरी हुई है। जब हमलोग किसी के ऊपर भरोसा नहीं रख पते हैं , यहाँ तक कि स्वयं के ऊपर भी विश्वास नहीं कर पा रहे हैं, हमें यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये कि  हमारी प्रतिभा के अनुरूप भविष्य के भारत का निर्माण ही हमारा एकमात्र धर्ममत या सिद्धान्त होना चाहिए , और राष्ट्र-निर्माण भीख माँगने से नहीं  केवल दाता की भूमिका ग्रहण करने से ही सम्भव होता है !  सन्देह या अविश्वास कभी राष्ट्र-निर्माण के लिए प्रेरक बल नहीं बन सकता , केवल स्वयं के ऊपर विश्वास से ही ऐसा हो सकता है। यदि अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को भविष्य का नया -भारत गढ़ने में  कोई भूमिका अदा करनी है , तो वह है देश के नवयुवकों में इस खोये हुए आत्मविश्वास को वापस लौटा देने में सहायता करना । 
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" इस संसार में ईश्वर से साक्षात्कार का प्रयास करते रहना ही जीवन है ! यदि एक क्षण के लिये भी तुमने यह सोचा कि तुम स्वयं ईश्वर नहीं हो , तो तुम्हें महाभय ग्रास कर लेगा। और जैसे ही तुम सोचोगे, 'सोSहम --मैं वही हूँ,' वैसे ही तुम्हें महान आनन्द और शान्ति की उपलब्धि होगी। " ( ज्ञान और कर्म ९/१९२ ) 
" मनुष्य को नैतिक और पवित्र क्यों होना चाहिये ? क्योंकि इससे उसकी इच्छाशक्ति बलवती होती है। वह सब जो मनुष्य की अन्तर्निहित दिव्यता को उद्भासित करते हुए उसकी इच्छाशक्ति को सबल बनाये, नैतिक है। और वह सब, जो इसके विपरीत करे, इम्मोरल या अनैतिक है।" 
इस कार्य में हमारी सहायता वे ही कर सकते हैं जो अपने ईश्वरत्व को कभी नहीं भूलते। ये सभी अवतार (श्रीरामचन्द्र, श्रीकृष्ण,श्रीरामकृष्ण, बुद्ध,ईसा,विवेकानन्द, कैप्टन सेवियर, नवनीदा) उन अभिनेताओं के समान हैं, जिनका अपना अभिनय समाप्त हो चुका है, जिनका निजी अन्य कोई प्रयोजन नहीं है तो भी दूसरों आनन्द देने के लिये रंगमंच पर बारम्बार लौट आते हैं।  वे हमें कुछ काल तक शिक्षा देने भर के लिये हमारा रूप और सीमायें धारण करके आते हैं, वे ऐसा अभिनय करते हैं, मानो वे हमारे ही समान बद्ध हैं, किन्तु वे वास्तव में सीमित नहीं होते, वे सर्वदा मुक्तस्वभाव ही रहते हैं ।"(देववाणी- बुधवार,१९ जून, १८९५)]
" समग्र संसार हमसे इस धर्मसहिष्णुता की शिक्षा ग्रहण करने के इन्तजार में बैठा हुआ है। हाँ, तुमलोग शायद नहीं जानते कि विदेशों में कितना परधर्म-विद्वेष है। धर्म के लिए किसी मनुष्य की हत्या कर डालना पाश्चात्य देशवासियों के लिये इतनी मामूली बात है कि आज नहीं तो कल गर्वित पाश्चात्य सभ्यता के केन्द्रस्थल (अमेरिका) में ऐसी घटना (9/11) हो सकती है!" (वेदान्त का उद्देश्य ५/८३ -८६) ]
  
[प्रत्येक युग का अवतार-ग्रहण, प्रत्येक युग में एक के बाद दूसरे आध्यात्मिक शिक्षकों/नेताओं का अवतरित होते रहना, एक दूसरे की कार्बन-कॉपी बिल्कुल नहीं होती है ! अभी अवतारों में अलग अलग विशेषता दृष्टिगोचर होती है।  फिर भी, सभी ईश्वर के प्रति और अपने प्रति श्रद्धावान होते हैं ,'आध्यात्मिक शिक्षक अपने ईश्वरत्व को कभी नहीं भूलते ! ' इस तथ्य की अनदेखी करते हुए हमलोग अपने मन से सोच लेते हैं कि -" हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ" - इतिहास खुद को दोहराता है! 
[महामण्डल को सर्वदा दाता (आध्यात्मिक शिक्षा दाता - शिक्षक) की भूमिका में रहना है !
समग्र संसार को  धर्मसहिष्णुता की शिक्षा देना ही भारत का भाग्य है ! 
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卐卐 12. अत्यावश्यक समाज-सेवा क्या है ? [एक नया आन्दोलन -12.'What is Essential ']

अत्यावश्यक समाज सेवा क्या है ? 

            
कोई अकेला व्यक्ति दूसरों के कल्याण के लिये कुछ कार्य कर सकता है। या कोई संगठन भी जनसाधारण की भलाई के लिये, कुछ अच्छे कार्यों को करने का जिम्मा ले सकता है। वे सभी कार्य बहुत लाभदायक भी हो सकते हैं। इस तरह के कार्यों से बहुत सारे लोगों को कुछ न कुछ लाभ अवश्य उठा सकते हैं। किन्तु कुछ कार्य ऐसे भी होते हैं जो उतने स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देते, इस तरह के कार्यों से मिलने वाले लाभ पर भी सबों की दृष्टि नहीं जाती। तथापि उसका प्रभाव बहुत दूरगामी हो सकता है, और यह भी सम्भव है कि इस प्रकार के कार्यों को सम्पन्न किये बिना, दूसरे हितकारी कार्य भी अन्ततोगत्वा कोई स्थायी परिणाम न दे सकें। बहुत से लोग तो यह 
जानने की चेष्टा भी नहीं करते कि क्या ऐसा कोई निःशब्द कार्य हो सकता है ? यदि जानते भी हों, तो बहुत से लोग उसके लिये परिश्रम नहीं करना चाहेंगे, क्योंकि उनका परिणाम तत्काल दिखाई नहीं पड़ता, इसीलिए तभी का तभी उन्हें सभी के द्वारा मान्यता नहीं मिलती और गुणगान नहीं होता।   
          किन्तु महामण्डल ने अपने नाम-यश की कोई परवाह किये बिना अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा को कुछ ऐसे ही बुनियादी कार्यों में उत्सर्ग कर देने का निर्णय लिया है, जो अन्ततोगत्वा अन्य समस्त अच्छे सामाजिक प्रयासों की सफलता को सुनिश्चित बना देगी।  
     >>Man is the basic thing and man-making is the basic work. 
       'मनुष्य' ही समाज का मूलतत्व है और मनुष्य निर्माण करना ही बुनियादी कार्य है ! समाज सेवा का कोई भी कार्य चाहे वह सरकार के द्वारा हो या स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से हो - वास्तव में उन सभी कार्यों का प्रतिपादन तो मनुष्यों के स्तर से ही होता है। किन्तु इन मनुष्यों में सही समझ, उचित मनोभाव, प्रेरणा, निःस्वार्थपरता का भाव न हो, तो कोई भी सेवा-कार्य यथार्थ फलदायी नहीं हो सकेगी। इसीलिये, इन गुणों को विकसित करना ही बुनियादी काम है। क्योंकि ये सभी गुण वास्तव में मनुष्य के चरित्र में ही सन्निहित रहती हैं; इसलिए चरित्र-निर्माण ही मनुष्य-निर्माण का दूसरा नाम है। 
     >>character-building is another name for man-making.
        कोई व्यक्ति निस्सन्देह स्वयं या दूसरों के साथ मनुष्य -निर्माण का प्रयास कर सकता है। किन्तु इस कार्य को यदि राष्ट्रव्यापी स्तर पर करना हो, और इसे चन्द लोगों द्वारा किये जाने वाले आकस्मिक प्रयास (soda water effect) जैसा बीच में ही छोड़ देने के लिए न करना हो, और देश के सभी प्रान्तों में इसका प्रचार-प्रसार करना चाहते हों, तो एक संगठित प्रयास अनिवार्य हो जाता है। और यही महामंडल का कार्य है।
        >>>the duty of raising the masses of India;भारत को समृद्ध और खुशहाल बनाने के लिये क्या-क्या करना जरुरी है, इस विषय पर चर्चा करते हुए स्वामी विवेकानन्द अत्यावश्यक बिन्दु पर आते हैं, और कहते हैं --" इसलिए पहले 'मनुष्य' का निर्माण करो। जब देश में ऐसे मनुष्य तैयार हो जायेंगे, जो अपना सबकुछ देश के लिये न्योछावर कर देने को तैयार हों, जिनकी अस्थियाँ तक निष्ठा के द्वारा गठित हों, जब ऐसे मनुष्य जाग उठेंगे तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा। भारत तभी जागेगा जब विशाल हृदयवाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख की सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन-वचन और कर्म से उन करोड़ों भारतवासियों के कल्याण के लिये प्राणपण से प्रयास करेंगे, जो भूख, गरीबी और शिक्षा के अभाव में निरन्तर नीचे डूबते जा रहे हैं।" इसीलिये उन्होंने आह्वान किया था - " ऐसे युवकों के साथ कार्य करते रहो जो भारत के जनसाधारण के कल्याण का व्रत ले सकें और इस व्रत ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझते हुए उसमें अपने 'ह्रदय और आत्मा ' (heart and soul -3H) समर्पित कर सकें, भारतीय युवकों पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है। "
               >> the most essential social service. रुपया-पैसा या कुछ दान- सामग्री इकट्ठा कर अभावग्रस्त लोगों के बीच उनका वितरण करना, या जन-साधारण की आर्थिक उन्नति के लिए विशेष कार्यक्रम आदि चलाना,ये सभी अच्छे कार्य हैं। बहुत सारे सरकारी , गैर सरकारी संगठन इस के कार्य कर सकते हैं,तथा करने में लगे हुए भी हैं। किन्तु  इन सब समाज-सेवा के कार्यों से श्रेष्ठतर तथा अधिक महत्वपूर्ण हैं ऐसे देशवासियों के चरित्र का निर्माण करना, जो अपने देशवासियों के कल्याण के लिये निःस्वार्थ भाव से अपना सबकुछ न्योछावर करने को तत्पर रहेंगे। ऐसे मनुष्य - जीवन के सभी व्यवसायों में, समाज में और घरों में होने चाहिये। यही है अत्यावश्यक समाज सेवा, जो समाज-कल्याण की निरन्तरता (sustained social well-being) को सुनिश्चित बनाये रखने के लिए आश्वस्त करती है। गारंटी देती है। ऐसे निःस्वार्थी मनुष्यों का निर्माण करना ही 'अत्यावश्यक समाज सेवा' है ! अतएव, इस अत्यावश्यक समाजसेवा के बारे में हमारी धारणा बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिये। हमारे समस्त कार्यकलापों को इसी एक लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में संचालित करना चाहिये।             
       >>Come and see how individuals are improving.
(विगत 55 वर्षों से) महामण्डल के माध्यम से इसी कार्य को करने का प्रयास  किया जा रहा है। और हमलोग यह देखकर आश्वस्त हैं कि प्रयास परिणाम भी दे रहा है। इसके पास (निःस्वार्थी मनुष्य निर्माण के लिए) पूर्णतः सक्षम पद्धति है। सभी लोगों को इस अत्यावश्यक समाज सेवा को समझ लेना चाहिये, इसकी पद्धति (3H विकास के 5 अभ्यास) को जान लेना चाहिये, तत्पश्चात इस सुविचारित पद्धति का प्रयोग करके अपने जीवन में उसके परिणाम को देखते रहना चाहिए। केवल कुछ लेखों को पढ़ लेने या भाषणों को सुनने भर से ही काम नहीं चलेगा। आइये, हमारे छह दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लीजिये, और स्वयं अनुभव कीजिये कि कैसे हजारों युवा क्रमशः उन्नततर मनुष्य में रूपान्तरित होते जा रहे हैं। अगर हम भारत में बेहतर बदलाव चाहते हैं , तो यही उपाय है।  
>>>Character -qualities should be imbibed :    
  हमें चरित्र के गुणों को आत्मसात करना चाहिये, उसमें निहित उच्च आध्यात्मिक विचारों का आत्मसातीकरण करना चाहिये। इसीको सच्ची शिक्षा (तैत्तरीय उपनिषद वाली 'शीक्षा') कहते हैं। अत्यावश्यक समाज सेवा  यदि कुछ है तो वह मूलतः यह मनुष्य-निर्माणकारी (निःस्वार्थी मनुष्य - जीवनमुक्त शिक्षक/नेता/पैगम्बर) बनाने वाली शिक्षा ही है। और यह स्वाभाविक है कि इस शिक्षा को ग्रहण करने में समय लगेगा। किसी भी महान लक्ष्य को रातों-रात या बिना निरंतर कठोर परिश्रम किये प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
>> the alternative is status quo.
       कुछ लोग प्रश्न उठा सकते हैं कि क्या भारत के सभी मनुष्यों को चरित्रवान (निःस्वार्थपर) बनाया जा सकता है ? यदि नहीं बना सकते, उसका विकल्प क्या यथस्थिति-में पड़े रहना है ? क्या ऐसा करने से 'यथा पूर्वं तथा परं' किसी एक समस्या को भी हल किया जा सकता है ? किन्तु यदि इस प्रयास (3H निर्माण के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण ) को निरन्तर जारी रखा जाय,  तो कुछ युवाओं के चरित्र में निश्चित रूप से सुधार आएगा और क्रमशः उनकी संख्या में वृद्धि  होती रहेगी,  भले ही 25 वर्ष के बदले 55  वर्ष लग जायें, लेकिन परिस्थितियाँ अवश्य बदलेंगी ! जो लोग आलसी और घोर निराशावादी हैं, उनको सोये रहने दो। कि न्तु जो युवा आशावादी और परिश्रमी हैं, जिन्हें अपने आप पर और मानवमात्र पर अटूट श्रद्धा है; उन्हें आगे आना चाहिए और इस  अभियान-चक्र के पहिये पर अपने कंधों को भिड़ा देना चाहिये । 
           >> work hard to educate people and to be educated properly. स्वामी विवेकानन्द बिल्कुल सही निष्कर्ष पर पहुँचकर कहते हैं - " इसलिये हमें उस समय तक 'ठहरना' होगा, जब तक कि सामान्य मनुष्य (आध्यात्मिक दृष्टि से भी) शिक्षित न हो जायें,  जब तक वे अपनी आवश्यकताओं को सही ढंग से समझने न लगें, तथा अपनी समस्याओं को स्वयं सुलझा लेने के योग्य और सक्षम नहीं हो जायें।"  यहाँ 'ठहरना' होगा कहने का अर्थ यह नहीं है कि, जब तक भगवान की कृपा से सभी सामान्य मनुष्य सही रूप में शिक्षित नहीं हो जायें, तब तक हमें आलसी जैसा बैठे रहना चाहिये। उनका यह कथन सामान्य मनुष्यों को सही रूप में शिक्षित (केवल साक्षर नहीं-ब्रह्मविद) बनाने के लिये स्वयं भी सही रूप में शिक्षित (ब्रह्मविद) होने के लिये कठोर परिश्रम करते रहने पर जोर देता है। स्वामी जी का निर्देश है,' Take man where he stands and from thence give him a lift.'-अर्थात मनुष्य अभी जिस सोपान पर खड़ा है (यानि निःस्वार्थपरता के पैमाने से अपने को जो भी कुछ मान रहा है);उसे वहीं से उठाकर उन्नततर सोपान पर ले जाने के लिए हमें अपना हाथ बढ़ाना है ! स्वामीजी कहते थे - " जो शिक्षा साधारण व्यक्ति को जीवन-संग्राम में समर्थ नहीं बना सकती, जो मनुष्य में चरित्र-बल, परहित भावना तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती, वह भी कोई शिक्षा है? वास्तव में जिस प्रशिक्षण (मनःसंयोग सहित 5 अभ्यासों का प्रशिक्षण) के द्वारा  इच्छाशक्ति के प्रवाह और भावाभिव्यक्ति को वश में लाया जाता है, और वह फलदायक बन जाती है, उसे ही शिक्षा कहा जाता है ! " 
           किन्तु तरह की शिक्षा (विद्या-जो मुक्त करे) किसी शिक्षा परिषद (boards) अन्तर्गत कोई नया स्कूल स्थापित करके अथवा किसी विश्वविद्यालय की निगरानी में कोई नया कॉलेज निर्मित करके आयातित नहीं की जा सकती है। जैसा विवेकानन्द कहते थे , " हमारे देश में तो उस प्रकार के असंख्य शिक्षण-संस्थान पहले से खुले हुए हैं, और प्रतिदिन नये नये शिक्षण-संस्थान खुलते भी जा रहे हैं। किन्तु " जनसाधारण की भलाई के लिये, त्याग और सेवा की भावना का विकास हमारे राष्ट्र में अभी तक नहीं हुआ है।" और जैसा स्वामी जी चाहते थे इस मनुष्य बनने और बनाने वाली विद्या को देश के हर युवक के दरवाजे तक पहुँचा देना है। यही महामण्डल का वास्तिक कार्य है। और इस कार्य को तुम तभी कर सकते हो, जब तुम यह विश्वास करो कि हाँ तुम इसे अवश्य कर सकते हो ! 

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ब्रह्मविद किन्तु 'भावमुख' (अर्थात भावुक हुए बिना खुली आँखों से ध्यान और सेवा - करने में सक्षम  नेता श्रीरामकृष्ण' जैसे मनुष्य को ही सही रूप में शिक्षित मनुष्य कहा जा सकता  है! 
" स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर 'निवृत्ति अस्तु महाफला'  वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक,  पैगम्बर या नेता 'बनना और बनाना '  ही सबसे आवश्यक समाज-सेवा है ! 
स्वामीजी कहते थे," वेदान्त सब धर्मों का बौद्धिक सार है, वेदान्त के बिना सब धर्म अन्धविश्वास है। इसके साथ मिलकर प्रत्येक वस्तु धर्म बन जाती है! धर्म का रहस्य सिद्धान्त में नहीं, व्यवहार में है। मैं यहां मनुष्य-जाति में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करूंगा, जो ईश्वर में (इस व्यक्त ईश्वर- या 'इंसान' रूपी अल्ला में ) अन्तःकरण से विश्वास करेगा, और संसार की परवाह नहीं करेगा। यह कार्य मन्द, अति मन्द, गति से होगा। " [८/३४ ] 
एक शब्द में  वेदान्त का आदर्श है-'मनुष्य को उसके सच्चे स्वरूप में जानना !' (जीवो ब्रह्नैव नापर:)अतः महामण्डल के नेता का पहला कार्य है - अपने सच्चे स्वरूप को पहचान लेना या 'डिटेक्ट' कर लेना। "इन वन वर्ड, दी आइडियल ऑफ़ वेदान्त इज टू नो मैन ऐज ही रियली इज ! ' 

" यदि हम भारत को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, तो हमें उनके लिये काम करना होगा। तुम्हारे सामने है जनसमुदाय को उसका अधिकार (आत्मश्रद्धा) लौटा देने की समस्या। इसके लिये तुम्हारे पास संसार का महानतम धर्म -वेदान्त है, और तुम जनसमुदाय को गंदी नाली का पानी (आरक्षण और साम्प्रदायिकता का जहर ) पिलाते हो ? मैंने अपना आदर्श- (त्याग और सेवा ) निर्धारित कर लिया है और उसके लिये अपना समस्त जीवन दे दिया है। यदि मुझे सफलता नहीं मिलती, तो मेरे बाद कोई अधिक उपयुक्त व्यक्ति आयेगा और इस काम को सँभाल लेगा, और मैं आमरण प्रयत्न करते जाने में ही अपना संतोष मानूँगा। मैं पहले थोड़े से युवकों को 'नेता ' (आध्यात्मिक शिक्षक) के रूप में प्रशिक्षित करना चाहता हूँ, फिर उन्हीं के माध्यम से इन विचारों को देश के हर युवक के दरवाजे तक पहुँचा देना चाहता हूँ। मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में ,नयी पीढ़ी में है; मेरे कार्यकर्ता उनमें से आएंगे। सिंहों की भाँति वे समस्त समस्या का हल निकालेंगे।"  
 किन्तु महामण्डल छात्रों का संगठन है, इसीलिये महामण्डल में मनुष्य के सच्चे स्वरूप को डिटेक्ट करने लिये, यहाँ केवल मन को एकाग्र करने की पद्धति -प्रत्याहार और धारणा तक ही सिखाया जाता है, ध्यान-समाधी नहीं सिखाई जाती है। किन्तु महामण्डल युवाओं के लिये यदि किसी विशेष प्रकार के ध्यान की अनुशंसा करना चाहता है, तो वह है - "ओपेन-आइड मैडिटेशन"  अर्थात " खुली आँखों से किया जाने वाला ध्यान "। और वह है- 'मनुष्य' का ध्यान, स्वामीजी की भाषा में कहें तो ' मनुष्यरूपी- ताजमहल' का ध्यान ' ८/ २९] इस युवा महामंडल का वास्तविक कार्य भी यही है।  
[ऐसी शिक्षा कोई ऐसा (ब्रह्मवेत्ता-नेता ) युवा  ही दे सकता है-जिसका अपना चरित्र 'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में आधारित नेतृत्व-प्रशिक्षण के माध्यम से गठित हो चुका हो। 
मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को इसी वेदान्त परम्परा में नेतृत्व का प्रशिक्षण देकर, (जगतजननी माँ काली की इच्छा के साथ- 'विश्व का कल्याण'  के उद्देश्य से अपनी इच्छाशक्ति को समन्वित का प्रशिक्षण देकर) उन्हें तुच्छ सांसारिक भोगों के त्याग की तो बात ही क्या, निर्विकल्प समाधि के भूमा-आनन्द तक का त्याग करने में समर्थ जन-नेता स्वामी विवेकानन्द में रूपान्तरित कर दिया था!     

केवल पूर्ण तः निःस्वार्थी आध्यात्मिक शिक्षकों (बुद्ध जैसे नेताओं) की प्रशिक्षण परम्परा, या  यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की परम्परा 'BE AND MAKE ' ही 'चिरस्थाई सामाज कल्याण' (Sustainable Social Well-Being) की निरन्तरता को सुनिश्चित बनाये रखने के लिए आश्वस्त करती है। अतः ' विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर निवृत्ति अस्तु महाफला वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में युवाओं को नेतृत्व प्रशिक्षण देने का कार्य ही  सर्वाधिक आवश्यक समाज सेवा ही 'मोस्ट एसेंशियल' कार्य है! 
           लिहाजा कुछ ऐसे ही 'मनुष्य' (आध्यात्मिक शिक्षकों/ नेताओं/ ) का निर्माण करना सर्वाधिक आवश्यक समाज-सेवा या 'मोस्ट एसेंशियल सोशल सर्विस ' है। [माँ जगदम्बा -ठाकुर/ स्वामीजी- कैप्टन सेवियर निवृत्ति अस्तु महाफला वेदान्त नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा / नवनीदा- महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर परम्परा/ में प्राप्त होने वाली लीडरशिप ट्रेनिंग द्वारा यथार्थ मनुष्यों का निर्माण करना (आध्यात्मिक शिक्षकों  या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं के निर्माण करना)  ही सर्वाधिक आवश्यक समाज-सेवा है।] 
         अतः 'सर्वाधिक आवश्यक समाज-सेवा' के विषय में हमारी धारणा बिल्कुल स्पष्ट रहनी चाहिये। और हमारे समस्त कार्यकलापों को इसी 'एक लक्ष्य' को प्राप्त करने की दिशा में संचालित करना चाहिये। और महामण्डल विगत ४९ वर्षों से यही करने का प्रयास करता आ रहा है। और हमलोग यह देखकर आश्वस्त हैं कि ऐसे निःस्वार्थपर मनुष्य (आध्यात्मिक शिक्षक /नेता/ लोक-शिक्षक) निर्मित भी हो रहे हैं। 
अतः महामण्डल द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर ऐसे मनुष्यों (आध्यात्मिक शिक्षकों/नेताओ) का निर्माण करने में पूर्णतः सक्षम प्रशिक्षण-पद्धति है।  अतः महामण्डल के सभी सदस्यों को 'मोस्ट एसेंशियल' समाज-सेवा क्या है-इसे ठीक से समझ लेना चाहिये, इसकी प्रणाली को जान लेना चाहिये, तत्पश्चात  'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर निवृत्ति अस्तु महाफला वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में नेतृत्व-प्रशिक्षण पद्धति' का प्रयोग, उसके परिणाम को देखने के लिए करना चाहिये। 
          केवल कुछ निबन्धों को पढ़ लेने, या भाषणों को सुनने भर से ही काम नहीं चलेगा। महामण्डल के रजिस्टर्ड ऑफिस से संपर्क करे और प्रतिवर्ष २५-३० दिसम्बर तक आयोजित होने वाले इसके वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर स्वयं अनुभव कीजिये कि, हजारों युवा कैसे क्रमशः उन्नततर मनुष्य में रूपान्तरित होते जा रहे हैं ! यदि हम भारत को पुनः महान (विश्वगुरु) भारतवर्ष में परिवर्तित करना चाहते हैं, तो उसका यही एकमात्र उपाय है। हमें यथार्थ मनुष्य (मार्गदर्शक नेता के) चरित्र के गुणों को अपने भीतर आत्मसात कर लेना चाहिये, उनमें निहित भावों को 'चियू और डाइजेस्ट' करके अपनी नसों में के भीतर दौड़ने वाले खून में मिश्रित कर लेना चाहिये। इसीको सच्ची शिक्षा कहते हैं।     
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शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

卐 11. " मार्ग की पुनर्व्याख्या " 卐 स्वस्थ मानव-समाज के निर्माण के लिए युवाओं के चरित्र का निर्माण एक अनिवार्य शर्त (sine qua non) है। [एक नया युवा आन्दोलन -11. 'The Way Further Explained ']महामण्डल के 'आदर्श, उद्देश्य और कार्यपद्धति'

11. 

 मार्ग की पुनर्व्याख्या

[The Way Further Explained]  
  
        >>Only from  faith and conviction in 'One India - Best India' will come the 'will to work' for the ideal.
   महामण्डल देश के विभिन्न हिस्सों में फैल रहा है। कई बार इसके कार्यों में तीव्र उत्साह देखा गया है तो कई बार इसका अभाव भी दृष्टिगोचर हुआ है। यद्यपि इसका भौतिक विस्तार स्वागत योग्य है , किन्तु जो चीज सबसे अधिक आवश्यक है , वो है इसके उद्देश्य और आदर्श में दृढ़ विश्वास। यह दृढ़ विश्वास तभी आ सकेगी , जब वे सभी लोग जो इस कार्य में लगे हैं, और जो लोग आगे इसके साथ जुड़ना चाहते हैं, वे महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य से पूर्णतया परिचित हों। क्योंकि केवल 'एक भारत -श्रेष्ठ भारत का निर्माण ' के प्रति निष्ठा और दृढ़ विश्वास रखने से ही महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य को कार्यान्वित करने की प्रचण्ड इच्छाशक्ति आयेगी। 
       >> Weekly Study circles, Periodical training camps,  Annual training camps,  are practical methods for coordination of wills to bring about change in society.
जब तक महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य के प्रति हमारा विश्वास दृढ़ नहीं हो जाता , तब तक इसे कार्यान्वित करने के लिये जैसी  प्रचण्ड संकल्प शक्ति चाहिये उसका अभाव दिखाई देगा। महामण्डल के आदर्श, उद्देश्य और कार्यपद्धति को समझने के लिये विभिन्न भाषाओँ में पुस्तिकायें, सुचना पत्र (leaflets), मासिक मुखपत्र 'विवेक जीवन' , हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका 'विवेक अंजन',पत्राचार के माध्यम से मूल विचारों के आदान -प्रदान की सुविधा , तथा व्यक्तिगत तौर से बातचीत करने की सुविधा भी उपलब्ध है। विशेषतः साप्ताहिक पाठचक्र, आवधिक प्रशिक्षण शिविर, वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर आदि 'एक भारत -श्रेष्ठ भारत का निर्माण ' के लिए इच्छाशक्ति में समन्वय लाने के व्यावहारिक तरीके हैं।  
      >>Mahamandal -movement is a broad flow of coordinated will and This is the best instrument for social engineering.
      जब तक महामण्डल के  'आदर्श, उद्देश्य और कार्य-पद्धति' को हम अच्छी तरह से समझ नहीं लेते , तब तक भले ही इस बात पर सहमति हो कि देश के कल्याण के लिये हमें भी कुछ न कुछ अवश्य करना चाहिये, किन्तु हमारे 'असमन्वित क्रियाकलाप' (uncoordinated actions)  देश के कल्याण के लिये किये गए हमारे प्रयासों को एक रचनात्मक आन्दोलन का रूप नहीं दे सकते। तोड़-फोड़ करने या धरना प्रदर्शन (Agitations) से कुछ भी हासिल नहीं होगा। आज एक नये प्रकार के रचनात्मक आन्दोलन की आवश्यकता है। समन्वित इच्छाशक्ति के व्यापक प्रवाह को ही रचनात्मक आन्दोलन कहा जाता है। यह मनुष्य -निर्माण और चरित्र- निर्माण कारी आंदोलन समन्वित इच्छाशक्ति का एक व्यापक प्रवाह है और सामाजिक अभियान्त्रिकी (social engineering) का सबसे अच्छा साधन है। अलग-अलग व्यक्तियों की बिखरी हुई इच्छाशक्ति जब संयुक्त होकर 'समन्वित इच्छाशक्ति ' में रूपान्तरित हो जाती है -तब वह अमोघ शक्ति बन जाती है। 
           >>To give this movement a dynamism; Our Ideal is great hero and the pathfinder of the future - Swami Vivekananda !
    इस आन्दोलन को अद्भुत गतिशीलता देने के लिये हमने एक ऐसे 'आदर्श' का चयन किया है जो बिना किसी सम्भावित विचलन के हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे, एक ऐसा आदर्श जो जनता-जनार्दन के कल्याण के उद्देश्य से समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने में समर्थ हैं- वे हैं स्वामी विवेकानन्द। किन्तु इस महान जन-नायक और 'the pathfinder of the future' -भविष्य के सम्पूर्ण मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, स्वामी विवेकानन्द के नाम पर कुछ न कुछ करते रहना ही पर्याप्त नहीं है। यदि हमलोग कुछ ठोस परिणाम हासिल करना चाहते हों, तो हमें अपने -'उद्देश्य और कार्यपद्धति' को हमारे 'आदर्श ' (विवेकानन्द चरित ) के साथ समायोजित कर लेना होगा। अतः हमें इन तीन विषयों - 'उद्देश्य, आदर्श और कार्य-पद्धति' को बहुत अच्छी तरह से आत्मसात कर लेना होगा !   
        >> Buildings, schools, dispensaries, doing some social service work  are not the criteria to judge the success of this movement. 
 महामण्डल का किसी भी तरह की राजनीती से कोई लेना-देना नहीं है, ठीक उसी प्रकार यह साधारण अर्थों में कोई धार्मिक या समाज-सेवी संगठन भी नहीं है ! महामण्डल के सदस्य किसी भी राजनितिक दल या संगठन के साथ नहीं जुड़ सकते , उसी प्रकार महामण्डल की कार्यसूची में साधारण धार्मिक-संस्कार या अनुष्ठान का आयोजन करना या तथाकथित समाज-सेवा के कार्य का कोई स्थान भी नहीं है। इस आन्दोलन की सफलता का निर्णय करने का मापदण्ड यह नहीं हो सकता कि अब तक इसके कितने भवन बने हैं, कितने विद्यालय या दातव्य चिकित्सालय आदि इसके द्वारा चलाये जा रहे हैं। महामण्डल के सभी कार्यक्रमों का वास्तविक उद्देश्य चरित्र निर्माण के माध्यम से एक उन्नततर समाज की स्थापना करना है। इसके विविध कार्यक्रम,समारोह, संसथान, समाज सेवा आदि कार्य जो चरित्र का निर्माण करने में सहायता करती हों - साधन हैं और साध्य है युवाओं का जीवन गठन ! 
         >> Success of the Mahamandal work is to be evaluated, by taking  note of the progress of the working upon the youths mind.  
अतः महामण्डल आन्दोलन की सफलता का मूल्यांकन इस तरह के कार्यों की संख्या से नहीं, बल्कि इस बात से निर्धारित होता है कि ये सभी कार्य युवाओं को चारित्रिक गुणों को अर्जित करने में कितने सहायक सिद्ध हो रहे हैं। चूँकि इस प्रकार से मूल्यांकन करना कठिन होता है, और इसके सदस्यों के चारित्रिक गुणों का संवर्धन और उन्नति सतही दृष्टि से देखने पर दिखाई नहीं देती, इसलिए नौसिखिया लोग युवाओं के मन पर हुए कार्य की प्रगति को पहचानने में अक्सर विफल हो जाते हैं , इसलिए वे महामण्डल की कार्यपद्धति को अपनाने के विषय में आसानी से  
उत्साहित भी नहीं हो पाते है। फिर भी यहाँ निर्देशित निःशब्द अभ्यासों (3H विकास के 5 अभ्यास) को, इसकी सफलता के प्रति दृढ़ विश्वास रखते हुए व्यक्तिगत एवं सामूहिक तौर पर अपना लेना होगा।   
  इस बात को हमें निश्चित रूप से समझ लेना होगा, कि प्रत्येक व्यक्ति-चरित्र का निर्माण किये बिना , हमलोग अपने करोड़ो देशवासियों के दुःख-कष्ट को कभी दूर नहीं कर सकते, तथा उनके लिये  शिक्षा, आवास, भोजन आदि मुलभूत सुविधा नहीं जुटा सकते। और व्यक्तिगत चरित्र का निर्माण बनाए बिना सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी जड़ से नहीं मिटा सकते । और इसीलिये यह हमारा लक्ष्य है। और एक 'स्वस्थ समाज' के बिना मानव व्यक्तित्व का पूर्ण विकास, मनुष्यों की सम्पूर्ण शिक्षा (जो, कि यथार्थ धर्म या आध्यात्मिकता का ही दूसरा नाम है) सम्भव नहीं है। 
>> Character building of youths is the sine qua non for  full development of human personality,  which is nothing but true  spirituality .
अतएव स्वस्थ मानव-समाज के निर्माण के लिए युवाओं के चरित्र का निर्माण एक अनिवार्य शर्त (sine qua non) है। महामण्डल का यह सुविचारित आन्दोलन, असंख्य लोगों के कल्याण के लिये एक नये समाज का निर्माण करने दिशा में ही कार्यरत है। ऐसा महान उद्देश्य कुछ मुट्ठी भर लोगों के द्वारा या यहाँ-वहाँ कार्यरत समूहों के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। देश के सभी लोग पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक, एक बहुत बड़ी संख्या में जब एक ही उद्देश्य को प्राप्त करने इच्छा से, अपनी कार्य-योजना में अटल विश्वासी होकर, एक साथ संघबद्ध होकर, आगे बढ़ेंगे तो निःसन्देह परिवर्तन होकर रहेगा। ऐसे विचारों से अनुप्रेरित होकर महामण्डल ही महामण्डल का आविर्भाव हुआ है। अब यदि हम सभी लोग एक साथ मिल- जुल कर काम नहीं करते, और जो सुविचारित कार्यपद्धति है उसे कार्यरूप देने के लिये कठिन परिश्रम नहीं करते, तो स्वामी विवेकानन्द ने भारत में आमूल-चूल परिवर्तन लाने का जो स्वप्न देखा था, उसे धरातल पर कैसे उतारा जा सकेगा ? हमलोगों ने बातें बहुत कर ली हैं, बहुत आहें भर चुके हैं, बहुत दिनों तक तन्द्रा में सोये रहे हैं। बस, यह सब बहुत हो चुका, आइये हमलोग एकजुट होकर कार्य में जुट जाएँ । मनुष्य और समाज को हमलोग जिस रूप में ढालना चाहते हैं, उसके लिए हमारे पास पर्याप्त शक्ति भी है। 
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 महामण्डल के 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में इस चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान करने के प्रति आग्रही युवाओं को-गीता उपनिषद एवं श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में आध्यात्मिक शिक्षक बनने और बनाने की पद्धति 'निवृत्ति अस्तु महाफला' पर आधारित,'BE AND MAKE' लीडरशिप ट्रेनिंग भी दी जाती है। इस विशिष्ट प्रकार के लीडरशिप ट्रेनिंग को महामण्डल के रजिस्टर्ड ऑफिस से समय तय होने के बाद 'पर्सनल इन्टरव्यू' या व्यक्तिगत साक्षात्कार के द्वारा विचारों का आदान-प्रदान करके, अथवा पत्राचार के माध्यम से भी समझने की चेष्टा की जा सकती है। जो लोग इस कार्य को करने के इच्छुक हैं , वे इन पद्धतियों का उपयोग कर सकते हैं। तथा समाज में परिवर्तन लाने के लिये 'समन्वित इच्छाशक्ति' (coordination of wills) की प्रचण्ड क्षमता के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।     
स्वस्थ मानव-समाज के निर्माण के लिए युवाओं के चरित्र का निर्माण एक अनिवार्य शर्त (sine qua non) है। समन्वित इच्छाशक्ति: अमोघ शक्ति कैसे और क्यों बन जाती है ? स्वामी जी कहते हैं - "निस्सन्देह जगत जननी ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये ही श्री रामकृष्ण के शरीर का निर्माण किया था। देखो, मैं बिना यह विश्वास किये नहीं रह सकता कि कहीं कोई ऐसी शक्ति है, जो अपने को नारी मानती है और काली अथवा माँ जगत-जननी कही जाती है.... और मैं ब्रह्म (अवतार वरिष्ठ) में भी विश्वास करता हूँ !"  
" जो आन्दोलन वस्तुओं को, जैसी वे स्वरूपतः हैं- उस रूप में सुधारने का प्रयास नहीं करते, व्यर्थ हैं। " 'तूने दीवाना बनाया तो मैं दीवाना बना, अब मुझे होश की दुनिया में तमाशा न बना !'
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