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शनिवार, 11 दिसंबर 2021

🔆🙏 $$$ 🔆🙏 परमात्मा के दो रूप -सगुण और निर्गुण (Personal God and Impersonal God ) 🔆🙏

 

 1. सत्य के दो भेद है। [ पहला सत्य वह है जो हमें पंचेन्द्रियों के माध्यम से दृष्टिगोचर होता है , तथा जो कुछ सत्य के रूप में दिखाई दे रहा है - जैसे कोई ताजा फूल, शरीर (या न्यूटन ने देखा सेव का फल पेंड से टूटकर नीचे क्यों गिरा ? ऊपर क्यों नहीं गया ?) इस प्रकार युक्ति-तर्क के माध्यम से उसमें विद्यमान जिन तथ्यों को बौद्धिक अनुमानों के द्वारा स्वीकृत और सर्वमान्य होते हैं - उस सत्य-शोधन को विज्ञान कहते हैं। और दूसरा वह इन्द्रियातीत सत्य (अविनाशी,अपरिवर्तनीय सत्य), परम् सत्य  जिसका अनुभव हमलोग माँ जगदम्बा) की कृपा से और गुरुदेव से 'मनःसंयोग का प्रशिक्षण ' लेकर सूक्ष्म योगज शक्ति" (कुण्डलिनी शक्ति) के चतुर्थ भूमि तक उठा लेने के बाद -अपने ह्रदय में अनुभव करते हैं ! योगज शक्ति द्वारा संकलित ज्ञान को वेद (महावाक्य) कहते हैं !  ]    

पहला, जो मनुष्य की पंचेन्द्रियों से एवम् तदाश्रित (उसमें उपस्थापित) अनुमान द्वारा गृहीत होते हैं, और दूसरा-जिसका इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति के द्वारा ग्रहण होता है। प्रथम उपाय के द्वारा संकलित ज्ञान को ”विज्ञान“ कहते है, तथा द्वितीय प्रकार के संकलित ज्ञान को ”वेद“ कहते हैं।

 'वेद' नामक अनादि अनन्त अलौकिक ज्ञानराशि सदा विद्यमान है। सृष्टिकर्ता स्वयं इसी की सहायता से इस जगत के सृष्टि-स्थिति-प्रलय कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। जिन पुरूषों में उस इन्द्रियातीत शक्ति का आविर्भाव हुआ है, उन्हें ऋषि कहते है; और उस शक्ति के द्वारा जिस अलौकिक सत्य की खोज उन्होंने उपलब्धि की है, उसे ”वेद“ कहते हैं। इस ऋषित्व तथा वेद दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जब तक उसका उन्मेष नहीं होता तब तक ”धर्म“ केवल कहने भर की बात है।  एवम् समझना चाहिए कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान पर भी पैर नहीं रखा है। समस्त देश-काल-पात्र में व्याप्त होने के कारण वेद का शासन, अर्थात वेद का प्रभाव किसी देश विशेष , काल विशेष अथवा पात्र विशेष तक सीमित नहीं हैं। सार्वजनिन धर्म --'Be and Make ' की व्याख्या  करने वाला एक मात्र ”वेद“ ही है। [हिन्दू धर्म और श्रीरामकृष्ण /खण्ड 10 , पेज 139 ]

2.”वेद“ का अर्थ है- ईश्वरीय ज्ञान की राशि। विद् धातु का अर्थ है-जानना। वेदान्त नामक ज्ञानराशि ऋषि नाम धारी पुरूषों के द्वारा आविष्कृत हुई है। ऋषि शब्द का अर्थ है- मन्त्रद्रष्टा। पहले ही से वर्तमान ज्ञान को उन्होंने प्रत्यक्ष किया है। वह ज्ञान तथा भाव उनके अपने विचारों का फल नहीं था। जब कभी आप सुनें कि वेदों के अमुक अंश के ऋषि अमुक है, तब यह मत सोचिए कि उन्होंने उसे लिखा या अपनी बुद्धि द्वारा बनाया है, बल्कि पहले ही से वर्तमान भाव राशि के वे द्रष्टा मात्र है – वे भाव अनादि काल से ही इस संसार में विद्यमान थे, ऋषि ने उनका आविष्कार मात्र किया। ऋषिगण आध्यात्मिक आविष्कारक थे।

 3. हमारे शास्त्रों में परमात्मा के दो रूप कहे गये हैं- सगुण और निर्गुण। सगुण ईश्वर के अर्थ से वह  सर्वव्यापी है। संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कर्ता हैं। संसार के अनादि जनक तथा जननी हैं उनके साथ हमारा नित्य भेद है। और मुक्ति का अर्थ है – उनके सामीप्य और सालोक्य की प्राप्ति। सगुण ब्रह्म के ये सब विशेषण, निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में अनावश्यक और अयौक्तिक है इसलिए त्याज्य कर दिये गये हैं। वह निर्गुण और सर्वव्यापी पुरूष ज्ञानवान नहीं कहा जा सकता; क्योंकि ज्ञान मानव मन का धर्म है। इस निर्गुण पुरूष के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है? सम्बन्ध यह है कि हम उससे अभिन्न हैं। वह और हम एक हैं। हर एक मनुष्य, उसी निर्गुण पुरूष का- जो सब प्राणियों का मूल कारण है- अलग-अलग प्रकाश या अभिव्यक्ति है। जब हम इस अनन्त और निर्गुण पुरूष से अपने को पृथक (अलग )सोचते हैं तभी हमारे दुःख की उत्पत्ति होती है और इस अनिर्वचनीय निर्गुण सत्ता के साथ अभेद ज्ञान ही मुक्ति (मोक्ष -dehypnotized हो जाना ) है। संक्षेपतः हम अपने शास्त्रों में ईश्वर के इन्हीं दोनो ”भावों“ का उल्लेख देखते हैं। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि निर्गुण ब्रह्मवाद की भावना ही सब प्रकार के नीति विज्ञानोें की नींव है। जब तुम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की एकात्मकता , विश्व की एकता और जीवन के अखण्डत्व की अनुभूति कर लोगे -तब तुम समझ जाओगे कि दूसरे को प्यार करना अपने को ही प्यार करना है -दूसरों को हानि पहुँचाना अपनी ही हानि करना है। " [जफ़ना में हिन्दुओं के समक्ष स्वामीजी का भाषण - वेदान्त/खंड -5 पेज - 27-29, (vivek -jeevan ब्लॉग /शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011/' राष्ट्रीय एकता ' और स्वामी विवेकानन्द [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना]     

 4. जैसा कि यह स्थूल शरीर, स्थूल शाक्तियों का आधार है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर, सूक्ष्म शक्तियों का आधार है जिन्हें हम ”विचार“ कहते हैं। यह विचार शक्ति विभिन्न रूपों में प्रकाशित होती रहती है। इनमें कोई भेद नहीं हैं। केवल इतना ही है कि एक उसी वस्तु का स्थूल तथा दूसरा सूक्ष्म रूप है। इस सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर में भी कोई पार्थक्य नहीं है। सूक्ष्म शरीर भी भौतिक है, केवल इतना ही कि वह अत्यन्त सूक्ष्म जड़ वस्तु है। [सन्‌ १८९३ में शिकागो-धर्म-परिषद में यह निबंध- 'हिन्दू धर्म ' पढ़ा गया था। 

5.अद्वैत ही सर्वधर्म -समन्वय की बुनियाद है : चाहे हम उसे वेदान्त कहें या किसी और नाम से पुकारें, परन्तु सत्य तो यह है कि धर्म और विचार में अद्वैत ही अन्तिम शब्द है, और केवल उसी के दृष्टिकोण से सब धर्मो और सम्प्रदायों को प्रेम से देखा जा सकता है। हमें विश्वास है कि भविष्य के प्रबुद्व मानवी समाज का यही धर्म होंगा। 

 6.ॐ ही सृष्टि का मूल (महाकारण)  सृष्टि के पूर्व ब्रह्म शब्दात्मक बनते है, फिर ओंकारात्मक या नादात्मक होते है। तत्पश्चात पहले कल्पों के विशेष शब्द जैसे- भूः, भुवः, स्वः अथवा गो, मानव, घट, पट इत्यादि का प्रकाश उसी ओंकार से होता है। सिद्ध संकल्प ब्रह्म में क्रमशः एक-एक शब्द के होते ही उसी क्षण उन सब पदार्थो का भी प्रकाश हो जाता है और इस विचित्र जगत् का विकास हो उठता है। अब समझे न कि कैसे शब्द ही सृष्टि का मूल है। 

7. ॐ ही अपने को जगत रूप में परिणत कर लेते हैं:  यह सारा व्यक्त इन्द्रिय ग्राह्य जगत रूप है, और इसके पीछे है अनन्त अव्यक्त स्फोट। स्फोट का अर्थ- समस्त जगत की अभिव्यक्ति का कारण शब्द-ब्रह्म। समस्त नामों अर्थात भावों की नित्य समवायी उपादान स्वरूप यह नित्य स्फोट ही वह शक्ति है, जिससे भगवान इस विश्व की सृष्टि करते है। यही नहीं बल्कि भगवान पहले स्फोट-रूप में परिणत हो जाते है और तत्पश्चात अपने को उससे भी स्थूल इस इन्द्रिय ग्राह्य जगत् के रूप में परिणत कर लेते है।

8. सूक्ष्म जगत और स्थूल जगत (Microcosm and Macrocosm): हमारे सम्मुख दो शब्द है- सूक्ष्म  ब्रह्माण्ड और बृहत् ब्रह्माण्ड। अन्तः और बहिः। हम अनुभूति के द्वारा ही इन दोनों से सत्य लाभ करते है। आभ्यन्तर अनुभूति और बाह्य अनुभूति। आभ्यन्तर अनुभूति के द्वारा संगृहीत सत्य समूह मनोविज्ञान, दर्शन और धर्म के नाम से परिचित है, और बाह्य अनुभूति सेे भौतिक विज्ञान की उत्पत्ति हुई है। अब बात यह है कि जो सम्पूर्ण सत्य है उसका इन दोनों जगत् की अनुभूति के साथ समन्वय होगा। क्षुद्र ब्रह्माण्ड, बृह्त ब्रह्माण्ड के सत्य समूह को साक्षी प्रदान करेगा, उसी प्रकार बृहत् ब्रह्माण्ड भी क्षुद्र ब्रह्माण्ड के सत्य को स्वीकार करेगा। 

9. इस बाह्य जगत को बृहद् ब्रह्माण्ड तथा अन्तः जगत को सूक्ष्म  ब्रह्माण्ड कहते है। एक मनुष्य अर्थात् कोई भी प्राणी अर्थात् क्षुद्र ब्रह्माण्ड जिस नियम से गठित है उसी नियम से विश्व ब्रह्माण्ड अर्थात् बृहद् ब्रह्माण्ड भी गठित है। जैसे- हमारा एक मन, व्यक्तिमत मन है। उसी प्रकार एक विश्वमन संयुक्त मन भी है। सम्पूर्ण जगत एक अखण्ड स्वरूप है वेदान्त उसी को ब्रह्म कहता है।

10. 3H विकास के 5 अभ्यास : पहले यह स्थूल शरीर (Hand) , उसके पश्चात् सूक्ष्म शरीर (Head) , उसके पश्चात् जीव अथवा आत्मा (Heart) यही मानव का यथार्थ स्वरूप है। मनुष्य का एक सूक्ष्म शरीर और एक स्थूल शरीर है ऐसा नही। शरीर एक ही है। तथापि सूक्ष्म आकार में वह स्थूल की अपेक्षा दीर्घकाल तक रहता है। तथा स्थूल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। सूक्ष्म शरीर भी दीर्घ काल के पश्चात विलिष्ट हो जायेगा, किन्तु जीव , ह्रदय (Heart) अयौगिक पदार्थ है इसलिए वह कभी ध्वंस प्राप्त नहीं होेगा। 

11.समस्त जगत का एकत्व- यही सर्व -श्रेष्ठ धर्ममत है। मैं अमुक (नाम -रूप धारी)  व्यक्ति विशेष हूँ - यह बहुत ही संकीर्ण भाव है। यथार्थ ”अहम्“ लिए, यह सत्य नहीं है। मैं विश्व व्यापक हूँ - इस धारणा पर प्रतिष्ठित हो जाओ, और श्रेष्ठ की उपासना सदा श्रेष्ठ रूप में करोे, कारण ईश्वर चैतन्य स्वरूप है, आत्म स्वरूप है, चैतन्य एवम् सत्य में ही उसकी उपासना करनी होगी। मानव चैतन्य स्वरूप है, और इसलिए मानव भी अनन्त है। और केवल अनन्त ही अनन्त की उपासना में समर्थ है। हम अनन्त की उपासना करेगें, वही सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना है।

12.महामण्डल का आदर्श और उद्देश्य : अतः यदि भारत को महान बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की, शक्ति संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ गयी जिसमें कहा गया है, ‘‘तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ। एक मन हो जाना ही समाज का गठन का रहस्य है बस इच्छाशक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही सारा रहस्य है।

13. जड़ प्रकृति (2H)  को वश में रखना चेतन (आत्मा -3rd H) का लक्षण है :जो कुछ प्रकृति के विरूद्व लड़ाई करता है वह चेतना है। उसमें ही चैतन्य का विकास है। यदि एक चीटीं को मारने लगो तो देखोगे कि वह भी अपनी जीवन रक्षा के लिए एक बार लड़ाई करेगी। जहाँ चेष्टा या पुरूषकार है, जहाँ संग्राम है, वहीं जीवन का चिन्ह और चैतन्य का प्रकाश है। 

14.समग्र संसार का अखण्डत्व, जिसकें ग्रहण करने के लिए संसार प्रतीक्षा कर रहा है, हमारे उपनिषदों का दूसरा भाव है। प्राचीन काल के हदबन्दी और पार्थक्य इस समय तेजी से कम होते जा रहे हैं। हमारे उपनिषदों ने ठीक ही कहा है- ”अज्ञान ही सर्व प्रकार के दुःखो का कारण है।“ सामाजिक अथवा आध्यात्मिक जीवन की हो जिस अवस्था में देखो, यह बिल्कुल सही उतरता है। अज्ञान से ही हम परस्पर घृणा करते है, अज्ञान से ही एक दुसरे को जानते नहीं और इसलिए प्यार नहीं करते। जब हम एक दुसरे को जान लेगे, प्रेम का उदय हेागा। प्रेम का उदय निश्चित है क्योंकि क्या हम सब एक नहीं हैं? इसलिए हम देखते है कि चेष्टा न करने पर भी हम सब का एकत्व भाव स्वभाव से ही आ जाता है। यहाँ तक की राजनीति और समाजनीति के क्षेत्रो में भी जो समस्यायें बीस वर्ष पहले केवल राष्ट्रीय थी, इस समय उसकी मीमांसा केवल राष्ट्रीयता के आधार पर और विशाल आकार धारण कर रही हैं। केवल अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, अन्तर्राष्ट्रीय विधान ये ही आजकल के मूलतन्त्र स्वरूप है। 

15.सत् का कारण असत् कभी नहीं हो सकता। शून्य से किसी वस्तु का उद्भव नहीः कार्य-कारणवाद सर्वशक्तिमान है और ऐसा कोई देश-काल ज्ञात नहीं, जब इसका अस्तित्व नहीं था। यह सिद्धान्त भी उतना ही प्राचीन है, जितनी आर्य जाति। इस जाति के मन्त्र द्रष्टा कवियों ने उसका गौरव गान गया है। इसके दार्शनिकों ने उसको सूत्रबद्ध किया और उसकी वह आधारशिला बनायी, जिस पर आज का भी हिन्दू अपने जीवन का समग्र योजना स्थिर करता है।

16.शिक्षा की परिभाषा तथा मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह से ठूंस दी जाये, जो आपस में लड़ने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर हजम न कर सकें। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकंे, मनुष्य बन सके, चरित्र गठन कर सकें और विचारों का सांमजस्य कर सके, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को हजम कर तद्नुसार जीवन और चरित्र गठन कर सके तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है जिसने एक पूरी की पूरी लाइब्रेरी ही कठंस्थ कर ली है।

17.योग का शब्दिक अर्थ है- मिलन। दार्शनिक दृष्टि से इसका अर्थ परमात्मा से मिलन होता है और जो इस परमात्मा से हमें जोड़ता है, वह योग है। पूरे ब्रह्माण्ड में एक ही ब्रह्म है लेकिन जब यह अज्ञानवश देखा जाता है, तो वह अनेक दिखलाई पड़ता है। अज्ञान के फलस्वरूप हम अपने को परमात्मा से अलग समझते है। इतना ही नहीं, विविध वस्तुओं की आन्तरिक एकता को देखें बिना हम उन्हें भी भिन्न समझते है। यहीं दुःख का उदय होता है।

18.एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य के सच्चे स्वरुप को जानना। और वेदान्त का यहीं संदेश है कि यदि तुम व्यक्त ईश्वर रुप अपने भाई की उपासना नहीं कर सकते, तो तुम उस ईश्वर की उपासना कैसे करोगे जो अव्यक्त है। चाहे जिस विद्या में हो, प्रकृत सत्य में कभी परस्पर विरोध रह नहीं सकता। आभ्यन्तर सत्य समूह के साथ बाह्य सत्य समूह का समन्वय है। 

19.अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्तों को (संस्कृत के 4 महावाक्यों को) अंग्रेजी के इतने सरल शब्दों में व्याख्या करनी है कि कोई 7 साल का बच्चा भी उन्हें समझ सके !  हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएँ और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके- इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योगविद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक ऐसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके।

[साभार/https://www.jagran.com/blogs/vishwshastra/]

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षट्पद्मों में आदि-शक्ति का ध्यान ^* सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठ पर्यन्त का क्षेत्र एवं चक्र संस्थान 'शक्ति' भाग बताया है और कण्ठ से ऊपर का स्थान 'शिव' देश कहा है ।

मूलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिरथानमूदीरतम् ।

कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भव स्थानमुच्यते॥

(वराहश्रुति)

मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है । कण्ठ से ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है ।हमारे सात चक्र है जिनका नाम -मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,मणिपुर चक्र,अनाहत चक्र,विशुद्ध चक्र,आज्ञा चक्र, सहस्रदल चक्र। 

मूलाधार से सहस्रार तक की, 'काम बीज से ब्रह्म बीज तक की यात्रा' को ही महायात्रा कहते हैं । योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं । जीव, सत्ता, प्राण, शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है । प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलोक  में-ब्रह्मरन्ध्र में माना गया है । यह द्युलोक-देवलोक स्वर्गलोक है आत्मज्ञान का ब्रह्मज्ञान का सूर्य इसी लोक में निवास करता है । कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्म जी-कैलाशवासी शिव और शेषशायी विष्णु का निवास जिस मस्तिष्क मध्य केन्द्र में है-उसी नाभिक (न्यूविलस) को सहस्रार कहते हैं ।

आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं । उसका एक सिरा मस्तिष्क (सहस्रार ) का-दूसरा काम केन्द्र (मूलाधार) का स्पर्श करता है । कुण्डलिनी साधना की समस्त गतिविधियाँ प्रायः इसी क्षेत्र को परिष्कृत एवं सरल बनाने के लिए हैं । मेरुदण्ड को राजमार्ग-महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है । इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । हिन्दू धर्म के भूःभुवःस्वःतपःमहःसत्यम् यह सात लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है । इन विराम स्थलों को 'चक्र ' कहा गया है । 

चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती है, एक अवरोध के रूप में दूसरे अनुदान के रूप में महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है । अभिमन्यु उसमें फँस गया था । वेधन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था । चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं । इस अलंकारिक प्रसंग को आत्मा का सात चक्रों में फँसा होना कह सकते हैं । भौतिक आकर्षणों (कामिनी -कांचन में आसक्ति) की, भ्राँतियों की विकृतियों की चहारदीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है । इसलिए उसके वेधन का विघ्न (विधान ?) बताया गया है ।

कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत कर लेना बहुत ही जटिल प्रक्रिया है और यह एक अद्भुत और विचित्र अनुभव है जसकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत है या सात चक्र जागृत है ,वह साधारण मानव नहीं रह जाता है ,वह एक योगिक और अलोकिक व्यक्ति हो जाता है ,दुनिया के भौतिक सुखो से पर हो कर ईश्वर की साधन में लीन हो जाता है लेकिन ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ भी प्राप्त करना असंभव नहीं रहता है।

चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा जाता है कि उनके अन्तराल में दिव्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं । उन्हें ईश्वर ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता, पात्रता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले कुपात्रता अयोग्यता की स्थिति में बहुमूल्य साधन मिलने पर तो अनर्थ ही होता है । धातुओं की खदानें जमीन की ऊपरी परत पर बिखरी नहीं होती, उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरी खुदाई करनी पड़ती है । मोती प्राप्त करने के लिए लिए समुद्र में गहरे गोते लगाने पड़ते हैं । यह अवरोध इसलिए है कि साहसी एवं सुयोग्य सत्पात्रों को ही विभूतियों को वैभव मिल सके । 

गुरु परम्परा : मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों को ऐसी सिद्धियों का केन्द्र माना गया है जिनकी भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिए नितान्त आवश्यकता रहती है । इन सभी चक्रो को जागृत करने के लिए श्रद्धा और विश्वास और निरंतरता की आवश्यकता होती है। और किसी कुशल योग-गुरु के सरंक्षण में करना चाहिए ,नहीं तो अनिष्ट भी हो सकता है। गुरु के प्रति हमारा प्रेम जितना गहरा होगा उतना ही कुण्डलिनी जागरण के प्रति हमारा प्रयास अधिक होता चला जायेगा ।  

ऐसे प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थों के लिए स्त्री के साथ ही साधनारत होने का मार्ग भी ऋषियों ने खोज निकाला । मनुष्य में कार्य करने के लिए ऊर्जा व् आभा तथा ज्योति का मिश्रण ही काम में लाना पड़ता है । मनुष्य में इन तीनों तत्वों का उदगम है उसका खानपान और उसके विचार । जैसा उसका खानपान होगा वैसी उसके शरीर की ऊर्जा होगी । सात्विक जीवन सात्विक ऊर्जा तथा तामसिक भोजन तो तामसिक ऊर्जा । अतएव कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए सात्विक ऊर्जा  अति आवश्यक है । कुण्डलिनी शक्ति जागरण के लिए उत्तम उम्र 20 वर्ष से 45 वर्ष तक मानी गई है......हरि ॐ

लेकिन प्रवृत्ति मार्ग के साधक को भी यम व् नियम का पालन 24 X 7 करनी पड़ती है तथा आसन , प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास दिन में दो बार करनी पड़ती है। प्रवृत्ति मार्ग के साधक को भी बहिरंग साधना की उतनी ही तैयारी करनी पड़ती है, जितनी निवृति मार्ग अपनाने वाले साधक को करनी पड़ती है । 

गृहस्थ बिना स्त्री के नहीं चलता है, और संन्यास स्त्री के रहते कभी नहीं चलता है । (स्वामी महेन्द्र पुरी, स्वामी तोतापुरी ,ठाकुरदेव , स्वामी विवेकानन्द , CINC नवनीदा ...  ) परन्तु जहाँ तक मनःसंयोग और भक्ति ( या 3H विकास के 5 अभ्यास) के द्वारा कुण्डलिनी जागरण साधना का प्रश्न है तो क्या गृहस्थ और क्या सन्यासी क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी सामान अधिकार रखते हैं ।

 इड़ा पिंगला के प्राण प्रवाह इसी क्षेत्र को दुहराने के लिए नियोजित किये जाते हैं । साबुन पानी में कपड़े धोये जाते हैं । झाड़ू झाड़न से कमरे की सफाई होती है । इड़ा पिंगला के माध्यम से किये जाने वाले नाड़ी शोधन प्राणायाम मेरुदण्ड का संशोधन करने के लिए है । इन दोनों ऋणात्मक और धनात्मक शक्तियों का उपयोग सृजनात्मक उद्देश्य से भी होता है । इड़ा पिंगला के माध्यम से सुषम्ना क्षेत्र में काम करने वाली प्राण विद्युत का विशिष्ट संचार क्रम प्रस्तुत करके कुण्डलिनी जागरण की साधना सम्पन्न की जाती है । 

चक्रवेधन, चक्रशोधन, चक्र परिष्कार, चक्र जागरण आदि नामों से बताये गये विवेचनों एवं विधानों में कहा गया है कि इस प्रयास से अदक्षताओं एवं विकृतियों का निराकरण होता है । जो उपयुक्त है उसकी अभिवृद्धि का पथ प्रशस्त होता है । सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन, दुष्प्रवृत्तियों के दमन में यह चक्रवेधन विधान उपयोगी एवं सहायक है |

1. मूलाधार चक्र : 

मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी-शक्ति से युक्त ‘मूल’ आधारित अथवा स्थित है। यह चक्र शरीर के अन्तर्गत गुदा और लिंग मूल के मध्य में स्थित है जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है। चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है, वह मूलाधार-चक्र कहलाता है।

मूलाधार-चक्र अग्नि वर्ण का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है। इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है। इसके अन्दर चार अक्षरों से युक्त अग्नि वर्ण की चार पंखुड़ियाँ  नियत हैं। ये पंखुड़ियाँ अक्षरों से युक्त हैं वे – स, ष, श, व । यहाँ के अभीष्ट देवता के रूप में गणेश जी नियत किए गए हैं। जो साधक साधना के माध्यम से कुण्डलिनी जागृत कर लेता है अथवा जिस साधक की स्वास-प्रस्वास रूप साधना से जागृत हो जाती है और जागृत अवस्था में उर्ध्वगति में जब तक मूलाधार में रहती है, तब तक वह साधक गणेश जी की शक्ति से युक्त व्यक्ति हो जाता है।

मंत्र : इस चक्र का स्थान मेरु दंड के सबसे निचले  स्थिति होता है, इसका मूल मंत्र " लं " है | 

व्यक्ति को पहले प्राणायाम कर के मूलाधार चक्र पर अपना ध्यान केंद्रित कर मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। धीरे धीरे चक्र जागृत होता है

लाभ: इससे लाभ यह मिलता है की व्यक्ति के जीवन में लालच नाम की चीज खत्म हो जाता है,और एक आत्मिक ज्ञान प्राप्त होता है व्यक्ति अच्छा ज्ञान प्राप्त करता है और जिंदगी में बड़ी से बड़ी जिम्मेवारी लेने की क्षमता बढ़ जाता है। हौसला मजबूत होता है शारीरिक ऊर्जा बढ़ता है |

हानि: जब साधक-सिद्ध व्यक्ति सिद्धियों के चक्कर अथवा प्रदर्शन में फँस जाता है तो उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी से अधोमुखी होकर पुनः शयन-मुद्रा में चली जाती है जिसका परिणाम यह होता है की वह सिद्ध-साधक सिद्धि का प्रदर्शन अथवा दुरुपयोग करते-करते पुनः सिद्धिहीन हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह उर्ध्वमुखी यानि सिद्ध योगी तो बन नहीं पाता, सामान्य सिद्धि से भी वंचित हो जाता है। परन्तु जो साधक सिद्धि की तरफ ध्यान न देकर निरन्तर मात्र अपनी साधना करता रहता है उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी के कारण ऊपर उठकर स्वास-प्रस्वास रूपी डोरी (रस्सी) के द्वारा मूलाधार से स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँच जाती है

2. स्वाधिष्ठान चक्र

मूलाधार चक्र से थोड़ा ऊपर और नाभि से निचे यह चक्र स्थित है। स्वाधिष्ठान-चक्र में चक्र के छः दल हैं, जो पंखुड़ियाँ कहलाती हैं। यह चक्र सूर्य वर्ण का होता है जिसकी छः पंखुड़ियाँ पर स्वर्णिम वर्ण के छः अक्षर होते हैं जैसे- य, र, य, म, भ, ब । इस चक्र के अभीष्ट देवता इन्द्र नियत हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूपी साधना में लगा रहता है, उसकी कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होने के कारण स्वाधिष्ठान में पहुँचकर विश्राम लेती है। तब इस स्थिति में वह साधक इन्द्र की सिद्धि प्राप्त कर लेता है अर्थात सिद्ध हो जाने पर सिद्ध इन्द्र के समान शरीर में इन्द्रियों के अभिमानी देवताओं पर प्रशासन करने लगता है, इतना ही नहीं प्रशासनिक नेता, मन्त्री और राजा लोग भी प्रशासनिक व्यवस्था के सुचारु एवं सुदृढ़ता हेतु आशीर्वचन हेतु आने और निर्देशन में चलने लगते हैं। साथ ही सिद्ध-पुरुष में प्रबल अहंकार रूप में अभिमानी होने लगता है जो उसके लिए बहुत ही खतरनाक होता है।

मंत्र: इसका मूल मंत्र " वं " है। यह चक्र जल तत्त्व से सम्बंधित है।

लाभ: इस चक्र के जागृत होने पर शारीरिक समस्या समाप्त हो जाती है। शरीर में कोई भी विकार जल तत्त्व के ठीक न होने से होता है , इसके जाग्रत होने से जल तत्व का पूर्ण ज्ञान होता है , शारीरिक विकार का नाश हो जाता है ,जल सीधी की प्राप्ति हो जाती है |  इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है ।

हानि: यदि साधना बन्द हो गयी तो आगे का मार्ग तो रुक ही जाएगा, वर्तमान सिद्धि भी समाप्त हो जाएगी | 

3. मणिपुर चक्र

नाभि मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अन्तर्गत मणिपूरक नामक तीसरा चक्र है, जो दस दल कमल पंखुड़ियाँ से युक्त है जिस पर स्वर्णिम वर्ण के दस अक्षर बराबर कायम रहते हैं। वे अक्षर – फ, प, न, ध, द, थ, त, ण, ढ एवं ड हैं। इस चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूप साधना में लगा रहता है उसी की कुण्डलिनी-शक्ति मणिपूरक-चक्र तक पहुँच पाती है आलसियों एवं प्रमादियों की नहीं। मणिपूरक-चक्र एक ऐसा विचित्र-चक्र होता है; जो तेज से युक्त एक ऐसी मणि है, जो शरीर के सभी अंगों-उपांगों के लिए यह एक आपूर्ति-अधिकारी के रूप में कार्य करता रहता है। यही कारण है कि यह मणिपूरक-चक्र कहलाता है। नाभि कमल पर ही ब्रह्मा का वास है। सहयोगार्थ-समान वायु - मणिपूरक-चक्र पर सभी अंगों और उपांगों की यथोचित पूर्ति का भार होता है। इसके कार्य भार को देखते हुये सहयोगार्थ समान वायु नियत की गयी, ताकि बिना किसी परेशानी और असुविधा के ही अतिसुगमता पूर्वक सर्वत्र पहुँच जाय। यही कारण है कि हर प्रकार की भोग्य वस्तु इन्ही के क्षेत्र के अन्तर्गत पहुँच जाने की व्यवस्था नियत हुई है ताकि काफी सुविधा-पूर्वक आसानी से लक्ष्य पूर्ति होती रहे। 

मणिपूरक-चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी पर ही सृष्टि का भी भार होता है अर्थात गर्भाशय स्थित शरीर रचना करना, उसकी सामग्रियों की पूर्ति तथा साथ ही उस शरीर की सारी व्यवस्था का भार जन्म तक ही इसी चक्र पर रहता है जिसकी पूर्ति ब्रह्मनाल (ब्रह्म-नाड़ी) के माध्यम से होती रहती है। जब शरीर गर्भाशय से बाहर आ जाता है तब इनकी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है।

मणिपूरक-चक्र ही शरीर का केंद्र बिन्दु होता है। यहीं से शरीर में सब तरफ नाड़ियों का जाल बिछा होता है। समस्त अंगों-उपांगों की आपूर्ति व्यवस्था भी यहीं से होती है। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।

मंत्र: यह नाभि में स्थित होता है और इसके जागृत करने का मूल मंत्र " रं " है। इस चक्र को जागृत करने के लिए बहुत ज्यादा साधना की जरूरत होती है।

लाभ: यह चक्र जागृत होते है तब व्यक्ति सर्व शक्ति संपन्न हो जाता है। प्रकृति के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है ,जीवो की उत्पत्ति कैसे हुई इसका ज्ञान होता है। यहाँ तक की यह चक्र पूर्व जन्म का ज्ञान भी देता है , भाषा का ज्ञान देता है , अग्नि तत्त्व की सिद्धि देता है।

4. अनाहत चक्र

हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही अनाहत्-चक्र है। जिन द्वादश(१२) अक्षरों की बात काही जा रही है वे – ठ, ट, ञ, झ, ज, छ, च, ड़, घ, ग, ख और क हैं। इस के अभीष्ट देवता श्री विष्णु जी हैं। अनाहत्-चक्र ही वेदान्त आदि में हृदय-गुफा भी कहलाता है, जिसमें ईश्वर स्थित ( अवतार वरिष्ठ ठाकुर देव , गुरु स्वामी तोतापुरी,..... स्वामी महेन्द्र पुरी,...स्वामी विवेकानन्द , CINC नवनीदा) रहते हैं, ऐसा वर्णन मिलता है। ईश्वर ही ब्रह्म और आत्मा भी है।

सबका एक ही - यथार्थ बात यह है कि जो कर्मकांडियों का क्षीर-सागर है, वही वेदान्तियों का हृदय गुफा है और वही ध्यान-साधना वाले साधकों का अनाहत्-चक्र है। जब कुण्डलिनी अनाहत्-चक्र में प्रवेश कर उर्ध्वमुखी रूप में विश्राम लेते हुये जब तक इस चक्र में वास करती है, तब तक साधन-रत सिद्ध-साधक श्री विष्णु जी की सिद्धि को प्राप्त कर के उसी के प्रभाव के समान प्रभावी होने लगता है।

मंत्र: इसका मूल मंत्र " यं " है। व्यक्ति को यह चक्र जागृत करने के लिए हृदय पर ध्यान केंद्रित कर के इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

लाभ: अनाहत चक्र जागृत होते ही व्यक्ति को बहुत सारी सिद्धियाँ मिलती है। व्यक्ति को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से शक्ति प्राप्त होती है , यहाँ तक की यह चक्र जागृत हो जाये तो व्यक्ति सूक्षम रूप ले सकता है और शरीर त्यागने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। आनद प्राप्त होता है। श्रद्धा प्रेम जागृत होता है।  वायु तत्त्व से सम्बंधित सिद्धियाँ प्राप्त होती है। योग शक्ति प्राप्त होती है।

5. विशुद्ध चक्र

कण्ठ स्थित चन्द्र वर्ण का षोडसाक्षर अः, अं, औ, ओ, ऐ, ए, ऊ, उ, लृ, ऋ, ई, इ, आ, अ वर्णों से युक्त षोडसदल कमल की पंखुड़ियों वाला यह चक्र विशुद्ध-चक्र है, यहाँ के अभीष्ट देवता शंकर जी हैं। कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यहाँ सोलह कलाएँ, सोलह विभूतियाँ विद्यमान है। 

जब कुण्डलिनी-शक्ति विशुद्ध-चक्र में प्रवेश कर विश्राम करने लगती है, तब उस सिद्ध-साधक के अन्दर संसार त्याग का भाव प्रबल होने लगता है और उसके स्थान पर सन्यास भाव अच्छा लगने लगता है। संसार मिथ्या, भ्रम-जाल, स्वप्नवत् आदि के रूप में लगने लगता है। उस सिद्ध व्यक्ति में शंकर जी की शक्ति आ जाती है।

मंत्र: व्यक्ति को कंठ पर अपना ध्यान एकत्रित कर " हं " मूल मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

लाभ: विशुद्ध चक्र बहुत ही महत्वपूर्ण चक्र होता है। यह जागृत होते ही व्यक्ति को वाणी की सिद्धि प्राप्त होता है। इस चक्र के जागृत होने से आयु वृद्धि होती है , संगीत विद्या की सिद्धि प्राप्त होती है , शब्द का ज्ञान होता है। व्यक्ति विद्वान होता है।  

6. आज्ञा चक्र

भू-मध्य स्थित लाल वर्ण दो अक्षरों हं, सः से युक्त दो पंखुड़ियों वाला यह चक्र ही आज्ञा-चक्र है। इसका अभीष्ट प्रधान आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति अथवा ईश्वर या नूरे-इलाही या चाँदना अथवा दिव्य-ज्योति अथवा डिवाइन लाइट अथवा भर्गो-ज्योति अथवा सहज-प्रकाश अथवा परमप्रकाश अथवा आत्म ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि अनेक नामों वाला परन्तु एक ही रूप वाला ही नियत है। यह वह चक्र है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति अथवा शब्द-शक्ति से और अप्रत्यक्ष रूप अर्थात् शब्द-शक्ति के माध्यम से शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर से भी होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा का उत्पत्ति स्रोत तो परमेश्वर होता है और गन्तव्य-स्थल आज्ञा-चक्र होता है।......हरि ॐ

शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता है । वे धाराएँ मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर दौड़ती हैं । इसमें से छोटी-छोटी चिनगारियाँ तरंगों के रूप में उड़ती रहती हैं । उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हैं हजारों । इसलिए हजार या हजारों का उद्बोधक 'सहस्रार' शब्द प्रयोग में लाया जाता है । सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है सहस्र फन वाले शेषनाग की परिकल्पना का यही आधार है।...... हरि ॐ

लाभ: यह चक्र जागृत होते ही अनंत सिद्धियाँ मिलती है , व्यक्ति इतना सक्षम हो जाता है कि वह अपने आप को एक स्थान से दूसरे स्थान पर सूक्षम रूप से ले जा सकता है। वह अपनी इच्छा से मोक्ष प्राप्त कर सकता यही , उसको अनंत लोक का ज्ञान होता है , वह पूर्ण होता है। वह देव तुल्य होता है।.......हरि ॐ

कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत करने के लाभ : 

कुण्डलिनी  शक्ति जागरण विधा अन्धकार को दूर करने का सशक्त माध्यम है। स्वयं  को समझने व् दूसरे को पहचानने व् घर परिवार समाज और ब्रहमांड को समझने का मार्ग है । कुण्डलिनी शक्ति जागरण चारों ओर परम शांति प्रेम और आनंद स्थापना का सच्चा मार्ग है । परमानन्द प्राप्ति के बाद क्या करना चाहिए यही बताने का ज्ञान है ।

 कुण्डलिनी शक्ति जैसे जैसे आगे बढती है व् अनेक रंग इन्द्रधनुष की तरह से देखने को मिलते हैं। कभी हम बहुत शांत होते हैं कभी संतुष्ट दिखाई देते हैं । कभी हम दूसरों पर, कभी खुद पर  हंस रहे होते हैं । कुण्डलिनी जागरण की यात्रा तरह तरह के रंगों से भरी हुई है । इस जीवन में कुछ भी एक सा तो रहता नहीं लेकिन कुण्डलिनी जागरण यात्रा को एकरस कहा गया है । इस दुनियां में जब हम कुण्डलिनी जागरण की ओर पग बढाते हैं तो मन और माया रुपी शत्रु हमारे मार्ग में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न करते हैं । इसलिए अनहोनियों से न घबड़ाकर लगन व् निष्ठा पूर्वक हमें अपने मार्ग कीओर अग्रसर रहना चाहिए ।

[विशेष द्रष्टव्य : कुण्डलिनी शक्ति साधना दो प्रकार की होती है । एक प्राणायाम और योग वाली जिसमें शक्ति चालिनी मुद्रा उड्यान  बंध तथा कुम्भक प्राणायाम और ओज का महत्व प्रतिपादित किया गया है । ऐसी साधना प्रक्रिया अविवाहित विधुर अथवा सन्यासियों के लिए महत्वपूर्ण है । यह साधना उन लोगों के लिए उपयूक्त नहीं रही जो गृहस्थाश्रम में रहकर साधना करना चाहते हैं । जिस प्रकार वीर्य को उर्ध्व गति देने के लिए जहाँ सन्यासी लोग भस्त्रिका प्राणायाम का प्रयोग करते थे वहां प्रवृत्ति मार्ग के तांत्रिक दीर्घ सम्भोग का उपयोग करने लगे । इस प्रकार कुण्डलिनी साधना का दूसरा प्रकार काम मुद्राओं वाला बन गया । सम्भोग के कारण इस साधना में पुरुष व् स्त्री दोनों का बराबर का योगदान रहा । रमण एक तकनिकी प्रक्रिया है इस कारण सम्भोग साधना तांत्रिक क्रिया कहलाई । ] 

[साभार जगद्गुरु वनांचल-धर्मपीठाधीश्वर स्वामी दीनदयालाचार्यजी महाराज/ @deendayaljemaharaj1  · Public figure






मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

🌼शिव की सर्वोत्तम शिक्षा - "जहर पीना सीखो ,जहर उगलना नहीं।"🌼

  🌺 बालकों जैसा विश्वास और दर्शन की व्याकुलता होने से ईश्वर लाभ  🌺\


Hindustan Ki Sherni 🚩 Kanchan Singh auf Twitter: "शिव की सर्वोत्तम शिक्षा...  जहर पीना सीखो जहर उगलना नहीं... हर हर महादेव 🙏🏻📿📿… "
🌼शिव की सर्वोत्तम शिक्षा - "जहर पीना सीखो ,जहर उगलना नहीं।"🌼


मणि की ओर देखकर श्रीरामकृष्ण कहते हैं – “अनुराग होने पर ईश्वर मिलते हैं । खूब व्याकुलता होने पर संपूर्ण मन उन्हें अर्पित हो जाता है । 
[মণির দিকে চাহিয়া বলিতেছেন —“অনুরাগ হলে ঈশ্বরলাভ হয়। খুব ব্যাকুলতা চাই। খুব ব্যাকুলতা হলে সমস্ত মন তাঁতে গত হয়।”
The Master glanced at M. and said: "One attains God when one feels yearning for Him. An intense restlessness is needed. Through it the whole mind goes to God.]
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शनिवार, 16 अक्तूबर 2021

" कुमारी पूजा "

 [13/10, 06:05] +91 82502 65921: 

" कुमारी पूजा "

 🙏🙏 .....आज 13 अक्टूबर 2021 , तदानुसार 'महा-अष्टमी' तिथि है ! कश्मीर के क्षीरभवानी मन्दिर में 'महा-अष्टमी' के इसी विशेष दिन पर स्वामी विवेकानन्द ने 'कुमारी देवी' के रूप में एक मुस्लिम कन्या की पूजा   की थी। 

  'कुमारी पूजा ' शारदीय दुर्गोत्स्व के अवसर पर आयोजित होने वाला रंगबिरंगा कार्यक्रम ( colorful episode) माना जाता है ......इस अवसर पर  विशेष रूप से 'कुमारी देवी' को माँ दुर्गा की सांसारिक प्रतिनिधि के रूप पूजा -अर्चना की जाती है। हर वर्ष दुर्गा पूजा की महाष्टमी पूजा के अन्त में कुमारी पूजा का आयोजन किया जाता है। श्रीश्री माँ सारदा देवी की अनुमति से,  1901 ई ० में  इस पूजा की शुरुआत स्वामी विवेकानन्द ने की थी। हमारे धर्म - ग्रन्थों में नारी-जाति के प्रति सम्मान और श्रद्धा प्रदर्शित करने के लिए इस 'कुमारी पूजा ' को अनुष्ठित करने का विधान किया गया है। हमारे 'सनातन धर्म ' में नारी को सम्मान के सर्वोच्च सिंहासन पर विराजमान किया गया है।  

       प्रत्येक पुरुष (Male) को 'मनुष्य' बनने के लिए अपनी पाशविक-मनोवृत्ति पर अंकुश लगाकर महिलाओं (Female)  के प्रति सम्मान का भाव (मातृभाव) रखना सीखना अनिवार्य है - यही कुमारी पूजा का मुख्य उद्देश्य है। 'बृहद धर्म  पुराण' (Brihaddharma Purana)  में यह वर्णन मिलता है कि देवताओं द्वारा की गयी स्तुति से प्रसन्न होकर , देवी चण्डिका एक कुमारी कन्या का रूप धारण कर देवताओं के सामने प्रकट हुई थीं। 'देवी पुराण' में भी इस घटना का विस्तार से वर्णन किया गया है ...... तथापि बहुत से लोगों का मानना है कि तान्त्रिक साधना के अनुसार दुर्गापूजा के साथ कुमारी पूजा को  जोड़ा गया है। ऐसा सुनने में आता है कि एक समय था जब भारत के सभी शक्तिपीठों में कुमारी पूजा पद्धति (ritual of Kumari Puja ) प्रचलित थी। श्वेताश्वतर उपनिषद में भी कुमारी पूजा का उल्लेख हुआ है , और इससे हम यह समझ सकते हैं कि कुमारी पूजा की प्रथा बहुत पुरानी है। जिस प्रकार देवी दुर्गा के लिये 'कुमारी' का नाम (virgin name of the goddess) बहुत पुराना है , उसी प्रकार उनकी पूजा और आराधना करने की रीति-नीति भी बहुत प्राचीन और व्यापक है। 

योगिनीतंत्र , पुरोहित दर्पण आदि धार्मिक ग्रन्थों में कुमारी पूजा की पद्धति और उसके महात्म्य का वर्णन विस्तार से किया गया है। उस वर्णन के अनुसार , कन्या मात्र ही पूजनीय होती है। 'कुमारी पूजा' में किसी भी जाती, धर्म और वर्ण की कन्या के पूजन करने में कोई भेदभाव करने विधान नहीं है। देवी-ज्ञान से किसी भी 'कुमारी' की पूजा की जा सकती है । हालाँकि सामान्य तौर पर 'कुमारी देवी ' के रूप में सर्वत्र 'ब्राह्मण' कन्या की पूजा ही प्रचलित है।  

'कुमारी पूजा' के लिये आयु के आधार पर एक से 12-13  वर्ष के आयु तक की कन्याओं का ही चयन किया जाता है। यद्यपि किसी भी अन्य जाति और धर्म की कन्याओं का चयन 'कुमारी देवी ' के रूप में पूजने के लिए किया जा सकता है, तथापि उनमें रजोधर्म (Menstruation) का प्रारम्भ निश्चित रूप से नहीं होना चाहिए।  

अलग -अलग उम्र की कुमारी कन्याओं का धार्मिक विधान के अनुसार अलग-अलग नाम निर्धारित किया गया है --  

एक साल की कन्या का नाम है -  संध्या ( Sandhya)

दो साल की कन्या  का नाम है - सरस्वती (Saraswati)।  

तीन साल की कन्या का नाम है - त्रिधाममूर्ति (Tridhamurti) । 

चार साल की कन्या का नाम है - कालिका (Kalika)। 

पांच साल की कन्या का नाम है - सुभागा (Subhaga)। 

छह साल की कन्या का नाम है - उमा (Uma)। 

सात साल की कन्या का नाम है - मालिनी (Malini)। 

आठ साल की कन्या  का नाम है- कुंजिका (Kunjika)  ,

नौ साल की बेटी का नाम है -कालसन्दर्भा (Kalsandarbha)। 

दस साल की कन्या  का नाम है- अपराजिता (Aprajeeta)। 

ग्यारह साल की कन्या  का नाम है - रुद्राणी (Rudrani) । 

बारह साल की कन्या  का नाम है - भैरवी (Bhairvi) । 

तेरह साल की कन्या  का नाम है -महालक्ष्मी (Mahalakshmi)। 

चौदह साल की कन्या का नाम है - पीठानिका (Pithanika)।

पंद्रह साल की कन्या  का नाम है - क्षेत्रज्ञा (Kshetrajna)

सोलह साल की कन्या का नाम है -अंबिका (Ambika)।    

योगिनीतंत्र में कुमारी पूजा के विषय में उल्लेख किया गया है। ब्रह्माजी के श्राप से भगवान विष्णु के शरीर में जब पाप अवतरित हो जाता है , तब उस पाप से मुक्त होने के लिये विष्णु हिमाचल पर महाकाली की तपस्या करते हैं। महाकाली भगवान विष्णु की तपस्या से प्रसन्न हो जाती हैं , और देवी के सन्तोष मन्त्र से ही विष्णु के कमल से अचानक कोला महा-असुर प्रकट होता है।  उस कोलासुर ने इन्द्र आदि देवताओं को पराजित कर सम्पूर्ण पृथ्वी पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात विष्णु के वैकुण्ठ और ब्रह्मा जी के कमलासन को भी जीत लिया। तब पराजित विष्णु और सभी देवगण विनम्र भाव से " रक्षा करो, रक्षा करो" कहकर देवी की स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से संतुष्ट होकर देवी ने विष्णु से कहा , " हे विष्णु , मैं 'कुमारी' रूप धारण करके स्वयं कोलानगरी जाऊँगी और उस कोलासुर का वध कर दूँगी! "  

तत्पश्चात देवी ने जब कोलासुर का वध कर दिया , तब सभी देवताओं ने देवी माँ  की पूजा की। 

कुमारी पूजा का दार्शनिक- तत्व है महिलाओं की मातृशक्ति में परमार्थदर्शन और परमार्थ ज्ञान (सर्वव्यापी मातृहृदय के विराट 'मैं ') का अर्जन। विश्व-ब्रह्माण्ड में जो सृष्टि और प्रलय क्रिया निरन्तर अनुष्ठित हो रही है, वह शक्ति (Energy ऊर्जा) 'कुमारी ' में ही निहित है।  'कुमारी पूजा ' प्रकृति की  बीजावस्था (अव्यक्त अवस्था)  या अव्यक्त मातृ-शक्ति का प्रतीक है। इसीलिए कुमारी कन्या में देवी भाव आरोपित कर के सम्पूर्ण नारीजाति की साधना और पूजा की जाती है , और यह समझाने की चेष्टा की जाती है कि नारीजाति त्याज्य नहीं पूज्य है !  

कुमारी भगवती देवी दुर्गा की सात्विक प्रतिमूर्ति है। माँ जगदम्बा जगत की आत्म-शक्ति हैं , जो सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड की सृष्टिकर्त्री होकर भी चिरकुमारी हैं -.... कुमारी आद्याशक्ति महामाया की प्रतीक हैं। देवी दुर्गा का ही एक नाम कुमारी है।   

कुमारी में सम्पूर्ण मातृजाति की श्रेष्ठ-शक्ति , पवित्रता , सृजनी शक्ति (सृजन करने की शक्ति) ,पालनी शक्ति (पालन करने की शक्ति) और सर्व कल्याणी (सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने की शक्ति) सूक्ष्म रूप से विराजित है। इस तथ्य से मानवजाति का परिचय कराना ही कुमारी पूजा का उद्देश्य है। 

.........  🙏🙏🍁🍁🙏🙏 ......... ,

  [ (प्रज्वलित कलम से) [https://www.wisdomlib.org/hinduism/book/brihaddharma-purana-abridged]

[साभार https://hi.quora.com/डॉ. विनीत बाहरी, Punjab National Bank में पूर्व Sr. Manager (2000-2015) ] 

प्रश्न : देश का मौजूदा माहौल देखते हुए क्या आप 2024 में फिर से बीजेपी को वोट देंगे?

उत्तर  : "फ़ैसला है आपका……. सर है आपका "

मुझे याद आता है उस समय का एक विज्ञापन जब हेलमेट पहनने को अनिवार्य बनाया गया था, जिसमें सिर की तुलना एक तरबूज से करते हुए "अत्यंत स्पीड में चलती हुई मोटर साईकल से एक तरबूज नीचे गिरता है और वह तरबूज टुकड़े टुकड़े हो कर लाल रंग के चीथड़ो में बदल जाता है" तब टेबल में रखे तरबूज को हेलमेट पहनाते हुए बैकग्राउंड से एक भारी सी आवाज आती है -"फ़ैसला है आपका……. सर है आपका "

क्या आप लालू प्रसाद यादव या मायावती या मुलायम सिंह या प्रियंका गाँधी या राहुल गाँधी या ममता दीदी या मुफ़्ती मोहम्मद या फारुख या गुलाम नबी या वाई एस जगनमोहन रेड्डी या नवीन पटनायक या पिनाराई विजयन या भूपेश बघेल या हेमन्त सोरेन या पलानी स्वामी या चंद्रशेखर राव या नितीश कुमार या कमलनाथ या उद्धव ठाकरे या अरविंद केजरीवाल या अशोक गहलोत में से किसी को प्रधान मंत्री चुनना चाहेगे ?

आप मोदी जी के विरुद्ध किसी अन्य नेता की कल्पना करें तो आपको स्वत: जवाब मिल जाएगा.

यद्यपि कई राज्यों के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सफल नहीं हो रही है, परंतु बावजूद इसके मई 2019 के हाल ही के लोकसभा चुनावों में देश की जनता ने प्रधानमंत्री के रूप में श्री मोदी को प्रचंड बहुमत से स्वीकार किया है. इसका तात्पर्य है कि इस देश की जनता की अपेक्षाएं देश के लिए अलग हैं और राज्यों के लिए अलग….

असेम्बली चुनाव के मुद्दे उस राज्य से सम्बंधित होते हैं जबकि लोकसभा के चुनाव में देश दांव पर होता है. अब यह तथ्य स्थापित हो चुका है और यह विवाद का विषय नहीं बचा.

तो सीधे और सरल शब्दों में "फ़ैसला है आपका……. सर है आपका "

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[ साभार :बिसात कुमार, आर्य समाज का पूर्व समर्थक, अब सनातन धर्म का पक्षधर/ https://hi.quora.com/] 

प्रश्न : आर्य-समाजी लोग वेद ग्रंथों के भाष्य में झूठा, गलत, संदर्भहीन अर्थ निकालकर क्यों लिखते हैं?

उत्तर :---बिसात कुमार , आर्य समाज का पूर्व समर्थक, अब सनातन धर्म का पक्षधर। (जवाब दिया गया: 21 सित॰ 2020)

यह सवाल पढ़ कर मुझे सांत्वना मिली कि कोई तो है जो इस बात को मानता है, कि आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती ने वेदों का पूर्ण रूप से गलत भाष्य लिखा है। इतना ही नहीं उन्होंने लोगों के बीच और भी कई सारी मिथ्या भ्रांति फैलाई है, जो कि सनातन धर्म के मुख्यधारा से बिल्कुल उलट है। आइए मैं आपको आर्य समाज के द्वारा फैलाई गई कुछ झूठी बातों के बारे में विस्तारपूर्वक बतात हूं। आइए एक एक कर उनके सारे झूठे बातों का पर्दाफाश करें।

मिथ्या सं १. जितने भी पुराण हैं, वे वेद का भाग नहीं है।

तथ्य :- वेदों में पुराणों को पंचम वेद कहा गया है, आइए इसके प्रमाण देखें

छान्दोग्य उपनिषद (७.१.४) : नाम वा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद आथर्वणश्चतुर्थ इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः पित्र्यो राशिर्दैवो निधिर्वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्या ब्रह्मविद्या भूतविद्या क्षत्रविद्या नक्षत्रविद्या सर्पदेवजनविद्या नामैवैतन्नामोपास्स्वेति ॥ ७.१.४ ॥

यह मंत्र साफ साफ ये कहता है कि, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, ये चार वेद है, और इतिहास और पुराण पंचम वेद हैं।

अथर्व वेद (१५.६.१० - १२) स बृहतिं दिशमनु व्यचलत, तम इतिहासश्च पुराण च गाथाश्च नाराशंसोश्चानुरूपचलन,इतिहासस्य च वे स पुराणस्य च गाथानाम च नाराशंसीनाम च, प्रिय धाम भयति य एवं वेद। अर्थ:- उसने बृहती दिशा का गमन शुरू किया तब उनके लिए पुराण, इतिहास, गाथाएं एवं नाराशंसी अनुकूल हो गए, इस बात को जानने वाला पुराण, इतिहास और गाथाओं का प्रियधाम होता है।

इन दो मंत्रों के अलावा वेदों में और भी बहुत से साक्ष्य मिल जाएंगे, जिससे ये बात साफ होता है कि इतिहास और पुराण के बिना आपको पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती

मिथ्या सं २. पुराणों को वेद व्यास जी ने नहीं, बल्कि किसी पाखंडी ने लिखा है।

तथ्य :- कलियुग के लोगों के लिए पुराणों की रचना स्वयं वेद व्यास ही किए थे, और सनातन धर्म के जितने भी प्रमुख आचार्य हुए है, उन सभी ने पुराणों को ग्रंथ के रूप में स्वीकार किया है।

आर्य समाज अक्सर यह भ्रांति फैलता है कि पुराणों की रचना तो किसी पाखंडी ने किया है, परन्तु वे इसका साक्ष्य देने में असमर्थ हैं। सच्चाई तो यह है कि आर्य समाज को पुराणों से ही समस्या है, क्योंकि पुराणों में लिखी गई सिद्धांत आर्य समाज के सिद्धांत से परे है, इसलिए उन्होंने पूरे पुराणों को ही नकार दिया। दयानंद सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं कि भागवत पुराण की रचना भोपदेव ने ११०० के लगभग करी थी, परन्तु हमें भागवत पुराण के अस्तित्व के साक्ष्य उससे भी पहले मिलता है, आदि गुरु शंकराचार्य (जिनका जन्म ५०८ ई.पु में हुआ) अपने कृत्यों में भागवत पुराण के श्लोकों का उल्लेख करते हैैं। इतना ही नहीं, चाणक्य ने भी चाणक्य नीति में पौराणिक कथाओं के कुछ अंश का उल्लेख करते हैं।

मिथ्या सं‌ ३. वैदिक काल में लोग मूर्ति पूजा नहीं करते थे। 

तथ्य :- स्वयं रामायण में मूर्ति पूजा का उल्लेख है। आर्य समाज यह कहता है, कि राम और कृष्ण यज्ञ किया करते थे परन्तु मूर्ति पूजा नहीं करते थे, बल्कि सच्चाई तो यह है कि, रामायण में राम के द्वारा शिवलिंग की पूजा के बारे में सभी जानते है, और तो और रामायण में मंदिरों का भी उल्लेख है।

मिथ्या सं ४ :- ईश्वर निराकार है। 

तथ्य :- ईश्वर निराकार और साकार दोनों है।

आर्य समाज कहता है कि वेदों के अनुसार ईश्वर निराकार है, परन्तु वेद में तो ईश्वर के साकार रूप का भी वर्णन आता है, जैसे कि यह देखें। सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥- श्वेताश्वतरोपनिषद् ३.१४, यजुर्वेद ३१.१ अतर्ववेद १९.६.१ और ऋग्वेद १०.९०.१ में मंत्र है।

भावार्थ :- वह परम पुरुष हजारों सिर वाला, हजारों आँख वाला और हजारों पैर वाला, वह समस्त जगत को सब ओर से घेर कर नाभि से दस अङ्गुल ऊपर (हृदय में) स्थित है।

मित्रों तथ्य तो ये है कि ईश्वर एक समय निराकार और साकार दोनों होते है, आइए इसे हम बृहद आरण्यक उपनिषद के इस मंत्र से समझें - द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च,स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च॥- बृहदारण्यकोपनिषद् २.३.१भावार्थ:- ब्रह्म के दो रूप हैं - मूर्त और अमूर्त, मर्त्य और अमृत, स्थित और यत् (चर) तथा सत् और त्यत्। अर्थात् वो भगवान के ही दो स्वरूप है एक निराकार (अमूर्त) और दूसरा साकार (मूर्त)। भगवान की वो रूप जो हमारे बुद्धि से भी आच्छादित है, उन्हें ही शास्त्रों में निराकार कहा गया है।

मिथ्या सं ५. राम और कृष्ण आम व्यक्ति है, वे विष्णु के रूप नहीं है

तथ्य :- राम, कृष्ण और विष्णु एक ही है, वे दिव्य है, मनुष्य रूप में तो वे बस भक्तों के साथ लीला करने के लिए अपनी इच्छा से ही अवतरित होते है. इस बात की पुष्टि स्वयं कृष्ण ही भगवद गीता में करते है, -'जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं ' अर्थात मेरा जन्म और कर्म दिव्य है (भ० गी ० ४.९) और फिर 'न मां कर्माणि लिम्पन्ति' -अर्थात मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, या मैं कर्मों के बंधन से मुक्त हूं। और तो और वे अवतार लेने की बात स्वयं कहते हैं -यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥हे भारतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |

निष्कर्ष :- मित्रों आर्य समाज ने सिर्फ इतनी ही नहीं और भी बहुत सारी भ्रांतियां लोगों के बीच फैलाई हुई है, इतनी कि अगर मैं लिखने लग जाऊं तो धरती भी छोटी पड़ जाए, वे सभी साक्ष्यों के देने के बावजूद आए दिन यूट्यूब, फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से लोगों के बीच मिथ्या भ्रांति फैलाते हुए नजर आते हैं।

मैं आपलोग से बस इतना पूछता हूं कि क्या ये तथा कथित आर्य समाज वेद व्यास, वाल्मीकि, चाणक्य, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, वल्लभाचार्य जैसे आचार्यों से भी ज्यादा बुद्धिमान है ? किसी भी दृष्टिकोण से नहीं, अगर कोई ऐसा कहता है तो वह उसका अहंकार और मूर्खता है, आर्य समाज के बातों में अहंकार साफ नजर आता है, चाणक्य हमें ऐसे ही लोगों से दूरी बनाए रखने को कहते है, आप भी ऐसे लोगों से सचेत रहें। 

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विशेष : DAV School में बच्चों को भेजें पर वहाँ सरस्वतीपूजा करने के लिए अनुप्रेरित करें।  

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[13/10, 06:05] +91 82502 65921: 

"  কুমারী পুজা "

🙏🙏  .....  আজ ১৩- ই  অক্টোবর , ২০২১ |  কাশ্মীরে  ক্ষীরভবানী  মন্দিরে  স্বয়ং  স্বামী বিবেকানন্দ  একটি মুসলমান কন্যাকে মহাঅষ্টমীর এই বিশেষ  দিনে কুমারী দেবী  হিসেবে  পুজো  করেছিলেন  |

🙏🙏কুমারী পুজা শারদীয় দুর্গোৎসবের এক বর্ণাঢ্য পর্ব ...... বিশেষতঃ কুমারী দেবী দুর্গার পার্থিব প্রতিনিধি হিসাবে পুজো করা হয়ে থাকে ৷ প্রতি বছর দুর্গাপুজার মহাষ্টমি পুজোর শেষে কুমারী পুজা অনুষ্ঠিত হয় ৷

 শ্রীশ্রীমা -র অনুমতিক্রমে স্বামী বিবেকানন্দ ১৯০১ সালে এই পুজার প্রচলন করেন ৷ শাস্ত্রকাররা নারী জাতিকে সম্মান ও শ্রদ্ধা করতে এই পুজো করতে বলেছেন ৷ আমাদের সনাতন ধর্মে নারীকে সম্মানের শ্ৰেষ্ঠ আসনে বসানো হয়েছে ৷

    পুরুষদের পশুত্বকে সংযত রেখে নারীকে সন্মান জানাতে হবে , এটাই কুমারী পুজোর মুল লক্ষ্য ৷

বৃহদ্ধর্ম পুরাণের বর্ণনা অনুযায়ী দেবতাদের স্তবে . প্রসন্ন হয়ে দেবী চন্ডিকা কুমারী কন্যা রুপে দেবতাদের সামনে গিয়েছিলেন ৷ দেবীপুরানে বিস্তারিত এ বিষয়ে উল্লেখ আছে ..... তবে অনেকে মনে করেন দুর্গাপুজার কুমারী পুজা সংযুক্ত হয়েছে তান্ত্রিক সাধনা মতে ৷ শোনা যায় একসময়ে শক্তিপীঠ সমুহে কুমারী পুজার রীতি প্রচলন ছিল । শ্বেতাশ্বত উপনিষদেও কুমারী পুজার কথা উল্লেখ আছে এবং এথেকেও আমরা বুঝতে পারি যে কুমারী পুজোর প্রথা অনেক পুরোনো ৷ দেবীর কুমারী নাম যেমন পুরোনো , তেমনি তাঁর আরাধনা ও রীতিনীতিও প্রাচীন ও ব্যাপক ৷

     যোগিনীতন্ত্রে , পুরোহিত দর্পন প্রভৃতি ধর্মীয় গ্রন্থে কুমারী পুজোর পদ্ধতি ও মাহাত্ম্য বিশেষভাবে বর্ণিত আছে । বর্ণনানুসারে , কুমারী পুজোয় কোন জাতি , ধর্ম ও বর্নভেদ নেই ৷ দেবীজ্ঞানে যে কোন কুমারীই পুজনীয় ৷ তবে সাধারণতঃ ব্রাহ্মন কন্যার পুজোই সর্বত্র প্রচলিত |

   বয়স অনুসারে এক থেকে ষোল বছর বয়সি কুমারী কন্যাদেরই পুজো করা হয় ৷ তবে অন্যজাতির কন্যাকেও কুমারী পুজোয় নির্বাচন করা যেতেই পারে ..... কিন্তু অবশ্যই তাদের ঋতুবতী হওয়া চলবে না ৷

ধর্মীয় বিধান অনুযায়ী এক এক বয়সের কুমারীর এক এক নাম রয়েছে .....

১  বছরের কন্যার নাম সন্ধ্যা ।

দুই বছরের কন্যার নাম সরস্বতী ৷

তিন বছরের কন্যার নাম ত্রিধামুর্তি ৷

চার বছরের কন্যার নাম কালীকা ৷

পাঁচ বছরের কন্যার নাম সুভাগা ৷

ছয় বছরের কন্যার নাম উমা ৷

সাত বছরের কন্যার নাম মালিনী ৷

আট বছরের কন্যার নাম  কুঞ্জিকা |

নয় বছরের কন্যার নাম কালসন্দর্ভা ৷

দশ বছরের কন্যার নাম অপরাজিতা |

এগারো বছরের কন্যার নাম রুদ্রাণী ৷

বারো বছরের কন্যার নাম ভৈরবী ৷

তের বছরের কন্যার নাম মহালক্ষ্মী ৷

চোদ্দ বছরের কন্যার নাম পীঠনায়িকা ।

পনেরো বছরের কন্যার নাম ক্ষেত্রজ্ঞা ।

ষোল বছরের কন্যার নাম অম্বিকা |

যোগিনীতন্ত্রে কুমারী পুজা সম্পর্কে  উল্লেখ আছে ৷ ব্রহ্মশাপবলে মহাতেজা ভগবান বিষ্ণুর দেহে পাপ অবতার হলে সেই পাপ হতে মুক্ত হতে বিষ্ণু হিমাচলে মহাকালীর তপস্যা করেন ৷ ভগবান বিষ্ণুর তপস্যায় মহাকালী খুশি হন এবং দেবীর সন্তোষ মন্ত্রেই বিষ্ণুর পদ্ম হতে সহসা কোলা নামক মহাসুরের আবির্ভাব হয় ৷ সেই কোলাসুর ইন্দ্রাদি ও দেবগণকে পরাজিত করে অখিল ভূমন্ডল , বিষ্ণুর বৈকুন্ঠ ও ব্রহ্মার কমলাসন প্রভৃতি দখল করে নেয় ৷ তখন পরাজিত বিষ্ণু ও দেবগন " রক্ষ রক্ষ " বাক্যে ভক্তি বিনম্র চিত্তে দেবীর স্তব শুরু করেন ৷ দেবী সন্তুষ্ট হয়ে বিষ্ণুকে বলেন , " হে বিষ্ণু , আমি কুমারী রূপ ধারণ করে কোলানগরী গমন করে কোলাসুরকে সবান্ধবে হত্যা করিব । "

অতঃপর তিনি কোলাসুরকে হত্যা করেন এবং সমস্ত দেবগণ তখন মা-কে পুজো করেন ৷

কুমারী পুজোর দার্শনিকতত্ত্ব হল নারীতে পরমার্থ দর্শন ও পরমার্থ জ্ঞান অর্জন ৷ বিশ্ব ব্রহ্মান্ড প্রতিনিয়ত সৃষ্টি ও লয় ক্রিয়া অনুষ্ঠিত হচ্ছে , সেই  শক্তিই কুমারীতে নিহিত আছে ৷ কুমারী প্রকৃতি বা নারীজাতির প্রতীক ও বীজাবস্থা ..... তাই কুমারী  নারীতে দেবীভাব আরোপ করে তাতে সাধনা ও পুজো করা হয় এবং বোঝানো হয় নারীজাতি ভোগ্যা নয় , পুজ্যা ৷

     কুমারী ভগবতী দেবী দুর্গার  সাত্বিক রূপ ৷ জগতাত্ম বিশ্বব্রহ্মান্ডের সৃষ্টিকর্ত্রী হয়েও চিরকুমারী ..... কুমারী আদ্যাশক্তি মহামায়ার প্রতীক ৷ দেবী দুর্গার আরেক নাম কুমারী ৷

কুমারীতে সমগ্র মাতৃজাতির শ্রেষ্ঠ শক্তি , পবিত্রতা , সৃজনী ও পালনী শক্তি এবং সকল কল্যানী শক্তি সুক্ষ্মরূপে বিরাজিতা ৷

.........  🙏🙏🍁🍁🙏🙏 ......... ,

কলমে  তপতী ৷ 

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प्रज्ज्वलित कलम से निसृत : विजय कुमार सिंह, एक परिचय : मेरे पिता आर्यसमाज के पक्षधर थे , तत्कालीन प्रचलित धार्मिक-अन्धविश्वास जैसे ताबीज , अंगूठी,  छुआछूत आदि पर विश्वास नहीं करते थे।  परन्तु रामायण प्रेमी थे, सुबह -सुबह रामायण की चौपाइयाँ सुनाकर हम सभी भाईबहनों को जागते थे।  उन्हें  पूरा रामायण कंठस्थ था , किन्तु दशरथ के पुत्र राम भगवान विष्णु के अवतार थे , इस बात को नहीं मानते थे। परन्तु हमलोगों को मूर्तिपूजा करने या सनातन धर्म पर चलने से रोकते नहीं थे।   क्योंकि  मेरी माँ कृष्ण-भक्त थीं और सनातन धर्म की पक्षधर थीं। हमलोगों को अवतार पर विश्वास करने की शिक्षा देते हुए कहती थीं। अच्छे संस्कारों को ग्रहण करो , मन से कभी हारना नहीं , विश्वास करो तुम सबकुछ कर सकते हो। सन्तोष की डाल पर मेवा फलता है। अतः अच्छी आदतों के द्वारा अच्छे संस्कार अर्जित करो और  एक चरित्रवान मनुष्य बनकर जीने का प्रयास करो।  आर्य-समाजी लोग मूर्तिपूजा की निन्दा करते हैं , वेद, उपनिषद , मनुसमृति का झूठा,  गलत, संदर्भहीन अर्थ निकालकर सनातन धर्म को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। जो मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं था , लेकिन मेरे पिता आर्य समाजी थे और मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते थे ,क्योंकि उनकी शिक्षा-दीक्षा पटना के आर्यसमाजी स्कूल में हुई थी। इसलिए उनके साथ मेरी बैद्धिक-बहस होती रहती थी। किन्तु वे मुझे रामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा के साथ जाने के लिए कभी मना नहीं किये। 

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शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

एक अद्भुत लेखन ( Awesome writing) [पूजा और त्यौहार में सामंजस्य बनाये रखने का कौशल]

 {[11/10, 23:02] +91 70035 86052 ] 

एक अद्भुत रचना ( Awesome writing)} 

 लेखक को बहुत-बहुत धन्यवाद  🙏(लेखक अज्ञात)

हर कोई कातर अनुरोध कर  रहा है - 'इस साल दुर्गापूजा के अवसर पर उत्स्व मत मनाइये, केवल  'पूजा' भर कीजिये।' नहीं तो कोरोना के अन्तिम दिन 'बेलेघाटा आईडी' (जैसे पटना का बाँसघाट)  पर  'पता' टंग जायेगा। इस बात को लेकर डॉक्टर, पुलिस और समाज-सेवी छटपट कर रहे हैं, 'मास्क-मास्क ' चिल्ला रहे हैं लेकिन परवाह किसे है!

वास्तव में, यह जनसाधारण की गलती नहीं है, यह उन्हीं लोगों की गलती है जो इसके लिए अनुरोध कर रहे हैं! वे एक ऐसे राष्ट्र से 'पूजा ' करने के लिए कह रहे हैं जो कम से कम 50 वर्ष पहले ही 'पूजा करना'  भूल गया है ! यह राष्ट्र प्रत्येक वर्ष ' पूजा करना ' छोड़कर, बाकी 'महोत्स्व ' [মোচ্ছব-টা] को ही बड़ी धूमधाम से (with great pomp) आयोजित करता चला आ रहा हैं!

आइए आत्मविश्लेषण करके देखें कि एक सामान्य भारतवासी (विशेष रूप से बंगालवासी) दुर्गा पूजा के दिनों में अपना समय कैसे व्यतीत करते हैं ? !  

अगर आप  'teenager' किशोर या युवा  हैं, तो रात भर घूमते हैं (hang out all night long.) या दोस्तों के संग अड्डाबाजी करते हैं 

दोपहर में बिरयानी , शाम को फिश फ्राई, गाँजा -भांग का सेवन , कोल्ड ड्रिंक की बोतल में व्हिस्की मिला कर पीना। दोस्तों के साथ किसी के घर पर या 'पब ' में जाकर वाइन-बियर पार्टी चलता है । अपने गर्लफ्रेंड के साथ  'ओयो रूम' या किसी दोस्त के खाली फ्लैट की तलाश करते हैं । इन सभी 'महत्वपूर्ण लीलाओं' के समाप्त होने पर ब्रह्म-मुहूर्त में या सुबह-सुबह जब देवी की पूजा शुरू हो रही होती है, उस समय आप  घर वापस लौटते हैं। और घर पहुंचकर  दोपहर 12 बजे तक सोते हैं। और नए वस्त्र, दशमी के दिन लाल किनारे की धोती , अष्टमी में पंजाबी-कुर्ता , (भारत या ) बंगाल में जन्म लेने पर ये सब (भारत-वंशियों) वाली आत्मीयता तो मिल ही जाती है।

आइए अब देखते हैं कि जिनकी आयु और अधिक हो गयी है , जो माता-पिता बन चुके हैं , वे सब नौकरी-पेशा माँ-बाप क्या कर रहे हैं ?  वे लोग पूजा के उपलक्ष्य पर परदेश में जहाँ नौकरी -व्यवसाय कर रहे हों , वहां से वापस अपने पैतृक-निवास पर लौटते हैं। देर से उठते हैं , और दोपहर का भोजन अपने माता-पिता के साथ किसी रेस्तरां में  करते हैं । घर पर अपने  दोस्तों और दोस्तों की 'मिसेज ' के साथ पार्टी का आयोजन करते हैं। एक दिन फिल्म, दूसरे दिन कहीं लॉन्ग ड्राइव पर निकल गए, किसी एक रात में जागकर दशभुजा देवी मूर्तियों का दर्शन कर लेता हूं।

जो लोग उसी शहर के रहने वाले हैं , वे लोग क्या करते हैं ? उन लोगों का इस वर्ष के पूजा की छुट्टियों में 'travel program'  यात्रा- कार्यक्रम 5 महीने पहले से ही निश्चित किया हुआ है। शिमला , मनाली ; अथवा जेब गर्म है तो अमेरिका -यूरोप चल दिए। उनकी माँ (तारा) उनके देश आ रही हैं -इसी ख़ुशी में  बँगाली (भारतीय) देश छोड़कर भाग रहे हैं !     

फिर  'सार्वजनिक दुर्गा पूजा ' की उत्पत्ति के विषय में हमलोग गर्व से कहते हैं - " पहले पूँजीपति वर्ग (bourgeoisie) के राज -सत्ताधारी (authorities) लोग अपने कुलीनतंत्रीय पूजा (বনেদি পুজোয় ) में सभी जन-साधारण को भाग लेने की अनुमति नहीं देते थे , इसीलिये बारुयारी और सार्वजनिक दुर्गापूजा  का प्रारम्भ हुआ ! "   

लेकिन वास्तविकता ( real picture)  क्या है ? यदि किसी सार्वजनिक पूजा समिति का बजट दो लाख का है , तो उसमें से एक लाख रुपया पॉकेट में , या बोतल खर्च में चला जायेगा ! भट्टाचार्जी महाशय पूछ-पूछ कर थक जाते हैं , " बेटे , फूलों वाले थैले में कपड़े वाला डब्बा तो नहीं दिख रहा है ; नए कपड़ों के डब्बे बिना माँ की पूजा निष्फल होगी। " उस सार्वजनिक क्लब का सचिव उत्तर देता है , " ओह चाचाजी (जेठू) , आप बहुत डिस्टर्ब करते हैं; आपके पहले वाले पण्डितजी तो ऐसे नहीं थे ! डब्बा के बिना ही क्या आप काम नहीं चला सकते ? देखते नहीं हैं - रात के प्रोग्राम में अभिनय करने (या perform करने) के लिए मिस (सूश्री ....अमुक) आ रही हैं। मेरा कितना ही काम बाकी है।  

"दो सौ साल पहले प्रथम  बारुयारी पूजा का विरोध समाज के गणमान्य लोगों (big gun-হোমরাচোমরাने यह कहकर किया था - " क्या ! अब भिक्षा माँगकर माँ दुर्गा की पूजा करनी होगी ?  इससे तो भयानक प्रकार के मनुष्य निर्मित (অনাসৃষ্টি) होंगे  ? "  

उस समय के उन  रूढ़िवादी ब्राह्मणों की उक्ति भले ही उस समय हास्यास्पद प्रतीत होती हो, लेकिन अब 21 वीं सदी में आकर चिंतनशील बंगालियों को (भारत वासियों को) इस बात का अहसास हो रहा है कि 'बारुयारी पूजा ' के नाम पर हमने कितने भयानक फ्रेंकस्टीन (frankenstien)  का निर्माण कर लिया है। माइक पर होने वाले आवाजों के शोर से कान झनझना उठते हैं। पियक्कड़ लोगों का उत्पीड़न , मुँह-माँगा चन्दा न देने पर रंगदारी की धमकी, रूलिंग पार्टी (सत्ता दल) के नेताओं की लाल ऑंखें , मूर्ति विसर्जन के दिन भाँग खाकर लेटेस्ट  DJ धुन पर उछलना। जनसाधारण के टैक्स के पैसों से यह कैसी बारुयारी (सरकारी) पूजा ! अगले वर्ष भी इसी तरह खूब धूम -धड़ाके से पूजा आयोजित होगी ! पीछे लात मारकर भी विसर्जन तो हो ही सकता है। धन्य आधुनिक बंगाली (आधुनिक भारतीय)! 

और धन्य है वह प्राचीन बंगाल (भारत) के वे बुजुर्ग जिन्होंने उसी समय भविष्यवाणी कर दी थी कि - (सरकारी खर्चे पर) बारुयारी करने से " অনাসৃষ্টি হবে" !!! (भयंकर दुश्चरित्र मनुष्यों का निर्माण होगा।)  

इस बार के बारुयारी महोत्स्व के भव्य आयोजन हेतु मुख्यमंत्री जी प्रत्येक क्लब को 50, 000 रुपए की सहायता राशि दे रही हैं ! इसलिए प्रत्येक क्लब को थाना से ठण्ढे गले में फोन आता है - ' कहाँ आपके क्लब से , तो पैसे लेने कोई नहीं आया ?  (Every club gets a cold throat call from the police station - - "Where?" Your club did not come to take money? “) 

अब भला किसकी छाती में इतना दम है कि वह  राजा के द्वारा दिये गए दान को अस्वीकार करने की हिमाकत करे ?  (कार बूकेर पाटा आछे राजार दान प्रत्याख्यान कोरे ! ??কার বুকের পাটা আছে রাজার দান প্রত্যাখ্যান করে !??)

आइये, अब देखते हैं कि मूर्ति उद्योग (idol industry) हमें क्या ज्ञान दे रहा है । थीम आधारित पूजा में  मूर्ति का सिर बड़ा है, शरीर छोटा। प्रतिमा के त्रिनयन ललाट को लांघते हुए ब्रह्मरन्ध्र का स्पर्श कर रहे हैं ! गणेश पुलिस ! कार्तिक स्वीपर (ঝাড়ুদার) बने हैं  ! सरस्वती  जीन्स और टॉप (jeans-top) पहनी हैं, लक्ष्मी के हाथों में नैपकिन-सैनिटाइज़र,  कभी दानव (अशुभ) ऊपर और देवी (शुभ) नीचे ! इनदिनों  प्रतिमा-निर्माण  अमूर्तकला (abstract art)  और आधुनिक कला (modern art) की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया है। किसी जमाने में  मूर्तियाँ ईश्वर के साथ जुड़ने , (मनःसंयोग करने) की माध्यम थीं। इसके साथ जुड़ी थीं- सामाजिकता , परिवेश , आध्यात्मिकता , तथा स्वास्थ और वित्तीय उत्थान। लेकिन अब माँ दुर्गा की प्रतिमा एक आर्ट-मीडियम  (museum) मात्र है, एक उपभोग की सामग्री (commodity)  और दर्शक उपभोगता (consumer) ! 

शास्त्रों में कहा गया है कि यदि प्रतिमा सर्वांग सुन्दर और परिपूर्ण न हो, तो उस मूर्ति में देवता आविर्भूत नहीं होते। अगर इसे सच मान लिया जाये तो माँ दुर्गा कोलकाता शहर से बहुत पहले पलायन कर चुकी हैं। सर्वांग परिपूर्ण और सुन्दर प्रतिमा तो दूर की बात है , जानबूझकर प्रतिमा को विकृत करना ही आजकल 'आर्ट ' है !     

   यह तो हुई आम बंगाली की 'पूजा संस्कृति' है। अब हमें यह समझायें कि, आपको इन सबके बीच  "पूजा" कहाँ प्राप्त हो गयी ?!

 पूजा करता कौन है ? 

यहाँ तक कि पूजा के वे पाँच दिन जिन्हें धर्म-कर्म के लिए उपयुक्त माना जाता है , उसमें अष्टमी के दिन वाली पुष्पांजलि भी लड़कियों पर प्रभाव  जमाने का अनुष्ठान होने के कारण प्रसिद्द है। विभिन्न विज्ञापनों , सिनेमा में , धारिवाहकों में देखते हैं की जब पुष्पांजलि देते हुए प्रभाव जमाया जा रहा है , तब आनन्द से भर जाते हैं और हमें अपने बंगाली होने पर गर्व होता है। यह हमारी दुर्गा पूजा है। दुनिया में कहीं भी ऐसा त्यौहार नहीं है !! लेकिन इस बात पर जरा भी गौर नहीं करते कि जब हम माँ जगदम्बा की आराधना करने आये हैं , वहाँ यह  कैसा आचरण है !    

अरे भाई, क्या (गर्ल -फ्रैंड) रिझाने (tickle) के लिए तुमको यही समय मिला है?!

तो फिर मेरे कहने का सही तात्पर्य क्या है ? क्या मैं यह चाहता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति पूजा के समय खुशियाँ मनाना भूल कर केवल पूजा -पाठ में डूबा रहे ? कदापि नहीं ! बेशक हमलोग दुर्गोत्स्व का आनन्द मनायेंगे ; किन्तु उसके साथ साथ पूजा का अर्थ (meaning of worship) और उसका विज्ञान (science) भी मन में उज्ज्वल बना रहेगा। ताकि हमलोग उत्सव मनाते हुए कहीं पूजा के मूल सूत्र को ही न भूल जाएँ। जहाँ पूजा के विज्ञान को ध्यान में नहीं रखा जाता, वहाँ उत्सव या त्यौहार  (festivals)  लम्पटता (debauchery-व्यभिचारिता) के नग्न नृत्य  और (orgy-मद्यपान उत्स्व, मदनोत्सव ) आदि को जन्म देते हैं। अतः हमलोगों को पूजा और त्यौहार में सामंजस्य (consistency-अनुरूपता, संगतता , सादृश्य) या सन्तुलन बनाये रखने का कौशल सीखना होगा। उस सामंजस्य रखने के विज्ञान कार्यकर बनाये रखना आवश्यक है। माँ दुर्गा के आगमन की खुशी में , हमें इस बोध (feeling) को खोना नहीं चाहिए। कहीं खुशियाँ मनाने के चक्कर में 'माँ का आगमन ' कहीं  माँ को 'टेने आना (Dragged)' घसीट कर लाना तो नहीं हो रहा है?  हमें अपनी प्राचीन हिन्दू-संस्कृति के जड़ (Root-एकं सत)  को नहीं भूलना चाहिये !   

वास्तविकता तो यह है कि 'बंगाली पूजा ' कई दशकों से लुप्तप्राय हो चुकी है ! प्रति-वर्ष बहुत धुम-धाम से जो कुछ आयोजित होता है उसका नया नाम 'Carnival' , मेला, हुड़दंग पूर्ण त्यौहार में 'मन का रंजन ' करना या  'मन की गुलामी' को प्रदर्शित करना है ! इस प्रकार की 'पूजा' का योग्य नामकरण यही है। इसीलिए जो लोग (Govt Machinery आदि ) गला फाड़ -फाड़ कर चिल्ला रहे हैं - " त्यौहार मत मनाइये , मेला का आयोजन मत कीजिये , केवल पूजा कीजिये " वे लोग एक प्रकार से मूर्खता ही कर रहे हैं। आज के 'बंग्रेज' समाज में परिणत बंगाली के जीवन में बंगाली संस्कार से युक्त पूजा के लिए कोई स्थान  नहीं है। पूजा  के नाम पर जो कुछ चल रहा है , वह सब कुछ 'कार्निवाल ' है ! 

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[11/10, 23:02] +91 70035 86052: অসাধারণ লেখা 👌🌹

                                লেখককে অসংখ্য ধন্যবাদ জানাই 🙏(লেখক অজ্ঞাত)

আসলে দোষ জনগণের না , যারা এই অনুরোধ আবেদন করছেন দোষ তাদেরই ! তারা এমন এক জাতিকে পুজো করতে বলছেন , যে জাতি অন্তত ৫০ বছর আগেই পুজো করতেই ভুলে গেছে ! তারা ফি বৎসর পুজোটুকু বাদ দিয়ে বাকি মোচ্ছব-টা অতি ধুমধাম করে আয়োজন করে !

আসুন বিচার করে দেখি । একটা আম বাঙালী দুর্গা পূজোর দিনে কী করে ?! 

বয়েস কম হোলে মোটামুটি সারা রাত night out আড্ডা । 

 দুপুরে বিরিয়ানি , সন্ধ্যে বেলা ফিশ ফ্রাই , গাঁজা , বিয়ার কিংবা কোল্ড ড্রিঙ্কসের বোতলে মেশানো হুইস্কি। বন্ধুদের সাথে কারুর বাড়ি বা পাবে মদের পার্টি । গার্লফ্রেন্ডের সাথে ওয়ো রুম বা বন্ধুর খালি ফ্ল্যাট খোঁজা । এই সব গুরুত্বপূর্ণ লীলা সমাধা করে ব্রাহ্ম মুহূর্তে কিংবা ভোরে যখন দেবীর পুজোর শুরু হচ্ছে তখন বাড়ি ফিরে বেলা ১২ টা অবধি ঘুম ।  আর জামা কাপড় , দশমীতে লাল পাড় , অষ্টমীতে পাঞ্জাবি এসব বাঙালি জন্মসূত্রে পাওয়া আঁতলামি তো আছেই ।

আসুন দেখা যাক যাদের বয়েস আরও কিছু বেশী , সেই সব চাকুরীজীবী বাবা মায়েরা কি করছে ?  পুজো উপলক্ষে তেনারা বিদেশে কর্মস্থল থেকে বাড়ি ফিরেছেন । দেরি করে ঘুম থেকে ওঠা , নিজের নিজের মা বাবাকে নিয়ে রেস্টুরেন্টে দুপুরের ভোজ । বাড়িতে বন্ধু ও বন্ধুদের মিসেস সহযোগে পার্টি । কোন একদিন একটা সিনেমা , অন্যদিন একটা লং ড্রাইভ , একদিন রাত জেগে ঠাকুর দেখা ।

যারা শহরে থাকে তারা কি করে ? পাঁচ মাস আগে থেকে তাদের পুজোয় ভ্রমন কর্মসূচি ঠিক হয়ে আছে । শিমলা মানালি । পকেটে রেস্ত থাকলে প্যারিস ইউরোপ । নিজের দেশে মা আসছেন বলে বাঙালি আনন্দে দেশ ছেড়ে পালাচ্ছে !

আবার গর্বের সাথে আমরা বলি – " বুরজোয়া শ্রেণির শাসক গোষ্ঠী  নিজেদের বনেদি পুজোয় সাধারণ মানুষ কে ঢুকতে দেয় নি বলে বারইয়ারি আর সার্বজনীন পুজোর উৎপত্তি !  “ 

কিন্তু বাস্তব চিত্র টা কি ? ২ লাখ টাকার পুজো বাজেটের থেকে এক লাখ যাবে পকেটে আর বোতলে ! ভটচাজ মশাই জিগ্যেস করে করে ক্লান্ত – “ বাবা , ফুলের প্যাকেটে দুব্বা নেইকো । দুব্বা ছাড়া মার পুজো অচল । “ ক্লাব কর্তার জবাব – “ বড্ড ডিস্টার্ব করেন আপনি জেঠু , আগের জন এরকম ছিলেন না ! দুব্বা ছাড়া একটু চালিয়ে নিতে পারেন না ? দেখছেন মিস অমুক আসছেন অনুষ্ঠান করতে।  আমার কত্ত কাজ ! “ 

দুশো বছর আগে প্রথম বারইয়ারি পুজোর বিরুদ্ধাচারন করেছিলেন সমাজের হোমরাচোমরা রা। বলেছিলেন - " কি ! ভিক্ষা করে মায়ের পুজো হবে ? এত বড় অনাসৃষ্টি !? " 

সেদিনের সেইসব গোঁড়া বামুনের কথা হাস্যকর শোনালেও , বারইয়ারি পুজোর নামে কি যে এক  ভয়ঙ্কর frankenstien আমরা তৈরি করেছি সেটা বাঙালি টের পাচ্ছে এই একবিংশ শতকে এসে !  মাইকের আওাজে কান ঝালাপালা ! মাতালদের উৎপাত , চাঁদার হুমকি , পার্টির চোখ রাঙ্গানো , বিসর্জনে ডি জে ...... আর নবতম সংযোজন , জনগণের ট্যাক্সের টাকায় বারইয়ারি ! আসছে বছর আবার হবে! পিছনে লাথি মেরে বিসর্জন!  ধন্য বাঙালি ! 

আর ধন্য সেই সব প্রাচীনদের যারা বলেছিলেন - " অনাসৃষ্টি হবে" !!!

বারোয়ারি মোচ্ছবে মুখ্যমন্ত্রি ৫০,০০০ হাজার করে টাকা দিচ্ছেন !  থানা থেকে ক্লাবে ক্লাবে ফোন আসছে ঠাণ্ডা গলায় –“ কই ? আপনাদের ক্লাব তো টাকা নিতে এলো না? “ 

কার বুকের পাটা আছে রাজার দান প্রত্যাখ্যান করে !??

এবার আসুন দেখি প্রতিমা শিল্প কি জানান দিচ্ছে । থিমের পুজোর প্রতিমার মাথা বড় , দেহ ছোট । ত্রিনয়ন কপাল ছাড়িয়ে মাথার ব্রহ্মরন্ধ্রে গিয়ে ঠেকেছে ! গনেশ পুলিশ! কার্তিক ঝাড়ুদার!  সরস্বতী জিনস-টপ পড়া লক্ষ্মীর হাতে  ন্যাপকিন- স্যানিটাইজার কখনও অসুর ( অর্থাৎ অশুভ ) ওপরে আর দেবী ( শুভ ) নিচে ! প্রতিমা এখন abstract art ও আধুনিক শিল্প কলার মাধ্যম ! কোনও এক যুগে প্রতিমা ছিল ইশ্বরের সাথে সংযোগ স্থাপনের মাধ্যম । এর সাথে জড়িয়ে থাকে  স্বাস্থ্য - সামাজিকতা - পরিবেশ - আর্থিক - ও আধ্যাত্মিকতা।  এখন প্রতিমা একটা আর্ট মিডিয়াম  ( মিউজিয়াম )  মাত্র ! একটা commodity । দর্শক consumer ! 

শাস্ত্র বলছে যে প্রতিমা সর্বাঙ্গসুন্দর ও নিখুঁত না হলে তাতে দেবতা অধিষ্ঠান করেন না ! এটা সত্য মানলে কলকাতা শহর থেকে দেবী দুর্গা অনেকদিন আগেই পালিয়েছেন ! নিখুঁত তো দূর অস্ত , প্রতিমা ইচ্ছাকৃত করে বিকৃত করাই আজকাল "আর্ট" !!

এই তো গেল আম বাঙ্গালীর পুজো কালচার । এবার আমাকে বোঝান , যে এর মধ্যে “পুজো” টা কোথায় পেলেন আপনি ?!

কে পুজো করে ?! 

এমনকি পুজোর পাঁচ দিনের মধ্যে একটু আধটু ধম্ম কম্মের দিন বলে খ্যাত যেটি , সেই অষ্টমীর অঞ্জলিও মেয়েদের ঝারি মারার কারনে প্রসিদ্ধ ! বিভিন্ন বিজ্ঞাপনে সিনেমায় সিরিয়ালে আমরা অঞ্জলি দিতে দিতে ঝারি মারা দেখে আনন্দ বিগলিত হয়ে বাঙালি হিসেবে গর্ব বোধ করি ! এই আমাদের দুর্গা পুজো । এমন উৎসব পৃথিবীর কোত্থাও নেই !! কিন্তু একবারও ভেবে দেখি না যে মায়ের আরাধনা করতে এসে এ কি আচরণ ! 

আরে ভাই , সুড়সুড়ি দেওয়ার কি ওইটাই টাইম পেলি ?! 

 তাহলে আমার বক্তব্যটা ঠিক কি ?  আমি কি চাইছি যে সবাই আনন্দ ভুলে,  পুজো আচ্চা নিয়েই থাকবে ? একদমই না ! অবশ্যই আনন্দ থাকবে। তবে তার সাথে পূজার অর্থ ও তার বিজ্ঞান থাকবে।  পুজোর মূল সুত্রটুকু যেন আমরা না ভুলি । যেখানে বিজ্ঞান নেই সেখানে উৎসব - মোচ্ছব, বেলেল্লাপনা, বিশৃঙ্খলতার জন্ম দেয়।আমাদের সামঞ্জস্য রক্ষা করার কৌশল জানতে হবে।  এই সামঞ্জস্য রক্ষাটাই প্রয়োজন । মায়ের আগমনের কারনে আনন্দ এই বোধ টা যেন না হারায় । আনন্দ করার জন্য মা কে টেনে আনা যেন না হয়ে দাঁড়ায় ! শিকড় যেন বিস্মৃত না হই ! 

 আসল কথা হল , বাঙ্গালীর পুজো বহু দশক হল লুপ্ত ।  ফি। বছর ধুমধাম করে যেটা হয় , সেটার নতুন নামকরণ তো " কার্নিভাল " ! মেলা !! মোচ্ছোব !!! মনের রঞ্জন !!!!  অতি যোগ্য নামকরণ ! তাই যারা উৎসব করবেন না পুজো করুন বলে গলা ফাটাচ্ছেন তারা এক প্রকার মূর্খ ! আজকের বাংরেজি  বাঙ্গালীর জীবনে কোনও পুজো নেই , সংস্কার নেই,  সবটাই কার্নিভাল !

(সংগৃহীত)

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