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शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

एक अद्भुत लेखन ( Awesome writing) [पूजा और त्यौहार में सामंजस्य बनाये रखने का कौशल]

 {[11/10, 23:02] +91 70035 86052 ] 

एक अद्भुत रचना ( Awesome writing)} 

 लेखक को बहुत-बहुत धन्यवाद  🙏(लेखक अज्ञात)

हर कोई कातर अनुरोध कर  रहा है - 'इस साल दुर्गापूजा के अवसर पर उत्स्व मत मनाइये, केवल  'पूजा' भर कीजिये।' नहीं तो कोरोना के अन्तिम दिन 'बेलेघाटा आईडी' (जैसे पटना का बाँसघाट)  पर  'पता' टंग जायेगा। इस बात को लेकर डॉक्टर, पुलिस और समाज-सेवी छटपट कर रहे हैं, 'मास्क-मास्क ' चिल्ला रहे हैं लेकिन परवाह किसे है!

वास्तव में, यह जनसाधारण की गलती नहीं है, यह उन्हीं लोगों की गलती है जो इसके लिए अनुरोध कर रहे हैं! वे एक ऐसे राष्ट्र से 'पूजा ' करने के लिए कह रहे हैं जो कम से कम 50 वर्ष पहले ही 'पूजा करना'  भूल गया है ! यह राष्ट्र प्रत्येक वर्ष ' पूजा करना ' छोड़कर, बाकी 'महोत्स्व ' [মোচ্ছব-টা] को ही बड़ी धूमधाम से (with great pomp) आयोजित करता चला आ रहा हैं!

आइए आत्मविश्लेषण करके देखें कि एक सामान्य भारतवासी (विशेष रूप से बंगालवासी) दुर्गा पूजा के दिनों में अपना समय कैसे व्यतीत करते हैं ? !  

अगर आप  'teenager' किशोर या युवा  हैं, तो रात भर घूमते हैं (hang out all night long.) या दोस्तों के संग अड्डाबाजी करते हैं 

दोपहर में बिरयानी , शाम को फिश फ्राई, गाँजा -भांग का सेवन , कोल्ड ड्रिंक की बोतल में व्हिस्की मिला कर पीना। दोस्तों के साथ किसी के घर पर या 'पब ' में जाकर वाइन-बियर पार्टी चलता है । अपने गर्लफ्रेंड के साथ  'ओयो रूम' या किसी दोस्त के खाली फ्लैट की तलाश करते हैं । इन सभी 'महत्वपूर्ण लीलाओं' के समाप्त होने पर ब्रह्म-मुहूर्त में या सुबह-सुबह जब देवी की पूजा शुरू हो रही होती है, उस समय आप  घर वापस लौटते हैं। और घर पहुंचकर  दोपहर 12 बजे तक सोते हैं। और नए वस्त्र, दशमी के दिन लाल किनारे की धोती , अष्टमी में पंजाबी-कुर्ता , (भारत या ) बंगाल में जन्म लेने पर ये सब (भारत-वंशियों) वाली आत्मीयता तो मिल ही जाती है।

आइए अब देखते हैं कि जिनकी आयु और अधिक हो गयी है , जो माता-पिता बन चुके हैं , वे सब नौकरी-पेशा माँ-बाप क्या कर रहे हैं ?  वे लोग पूजा के उपलक्ष्य पर परदेश में जहाँ नौकरी -व्यवसाय कर रहे हों , वहां से वापस अपने पैतृक-निवास पर लौटते हैं। देर से उठते हैं , और दोपहर का भोजन अपने माता-पिता के साथ किसी रेस्तरां में  करते हैं । घर पर अपने  दोस्तों और दोस्तों की 'मिसेज ' के साथ पार्टी का आयोजन करते हैं। एक दिन फिल्म, दूसरे दिन कहीं लॉन्ग ड्राइव पर निकल गए, किसी एक रात में जागकर दशभुजा देवी मूर्तियों का दर्शन कर लेता हूं।

जो लोग उसी शहर के रहने वाले हैं , वे लोग क्या करते हैं ? उन लोगों का इस वर्ष के पूजा की छुट्टियों में 'travel program'  यात्रा- कार्यक्रम 5 महीने पहले से ही निश्चित किया हुआ है। शिमला , मनाली ; अथवा जेब गर्म है तो अमेरिका -यूरोप चल दिए। उनकी माँ (तारा) उनके देश आ रही हैं -इसी ख़ुशी में  बँगाली (भारतीय) देश छोड़कर भाग रहे हैं !     

फिर  'सार्वजनिक दुर्गा पूजा ' की उत्पत्ति के विषय में हमलोग गर्व से कहते हैं - " पहले पूँजीपति वर्ग (bourgeoisie) के राज -सत्ताधारी (authorities) लोग अपने कुलीनतंत्रीय पूजा (বনেদি পুজোয় ) में सभी जन-साधारण को भाग लेने की अनुमति नहीं देते थे , इसीलिये बारुयारी और सार्वजनिक दुर्गापूजा  का प्रारम्भ हुआ ! "   

लेकिन वास्तविकता ( real picture)  क्या है ? यदि किसी सार्वजनिक पूजा समिति का बजट दो लाख का है , तो उसमें से एक लाख रुपया पॉकेट में , या बोतल खर्च में चला जायेगा ! भट्टाचार्जी महाशय पूछ-पूछ कर थक जाते हैं , " बेटे , फूलों वाले थैले में कपड़े वाला डब्बा तो नहीं दिख रहा है ; नए कपड़ों के डब्बे बिना माँ की पूजा निष्फल होगी। " उस सार्वजनिक क्लब का सचिव उत्तर देता है , " ओह चाचाजी (जेठू) , आप बहुत डिस्टर्ब करते हैं; आपके पहले वाले पण्डितजी तो ऐसे नहीं थे ! डब्बा के बिना ही क्या आप काम नहीं चला सकते ? देखते नहीं हैं - रात के प्रोग्राम में अभिनय करने (या perform करने) के लिए मिस (सूश्री ....अमुक) आ रही हैं। मेरा कितना ही काम बाकी है।  

"दो सौ साल पहले प्रथम  बारुयारी पूजा का विरोध समाज के गणमान्य लोगों (big gun-হোমরাচোমরাने यह कहकर किया था - " क्या ! अब भिक्षा माँगकर माँ दुर्गा की पूजा करनी होगी ?  इससे तो भयानक प्रकार के मनुष्य निर्मित (অনাসৃষ্টি) होंगे  ? "  

उस समय के उन  रूढ़िवादी ब्राह्मणों की उक्ति भले ही उस समय हास्यास्पद प्रतीत होती हो, लेकिन अब 21 वीं सदी में आकर चिंतनशील बंगालियों को (भारत वासियों को) इस बात का अहसास हो रहा है कि 'बारुयारी पूजा ' के नाम पर हमने कितने भयानक फ्रेंकस्टीन (frankenstien)  का निर्माण कर लिया है। माइक पर होने वाले आवाजों के शोर से कान झनझना उठते हैं। पियक्कड़ लोगों का उत्पीड़न , मुँह-माँगा चन्दा न देने पर रंगदारी की धमकी, रूलिंग पार्टी (सत्ता दल) के नेताओं की लाल ऑंखें , मूर्ति विसर्जन के दिन भाँग खाकर लेटेस्ट  DJ धुन पर उछलना। जनसाधारण के टैक्स के पैसों से यह कैसी बारुयारी (सरकारी) पूजा ! अगले वर्ष भी इसी तरह खूब धूम -धड़ाके से पूजा आयोजित होगी ! पीछे लात मारकर भी विसर्जन तो हो ही सकता है। धन्य आधुनिक बंगाली (आधुनिक भारतीय)! 

और धन्य है वह प्राचीन बंगाल (भारत) के वे बुजुर्ग जिन्होंने उसी समय भविष्यवाणी कर दी थी कि - (सरकारी खर्चे पर) बारुयारी करने से " অনাসৃষ্টি হবে" !!! (भयंकर दुश्चरित्र मनुष्यों का निर्माण होगा।)  

इस बार के बारुयारी महोत्स्व के भव्य आयोजन हेतु मुख्यमंत्री जी प्रत्येक क्लब को 50, 000 रुपए की सहायता राशि दे रही हैं ! इसलिए प्रत्येक क्लब को थाना से ठण्ढे गले में फोन आता है - ' कहाँ आपके क्लब से , तो पैसे लेने कोई नहीं आया ?  (Every club gets a cold throat call from the police station - - "Where?" Your club did not come to take money? “) 

अब भला किसकी छाती में इतना दम है कि वह  राजा के द्वारा दिये गए दान को अस्वीकार करने की हिमाकत करे ?  (कार बूकेर पाटा आछे राजार दान प्रत्याख्यान कोरे ! ??কার বুকের পাটা আছে রাজার দান প্রত্যাখ্যান করে !??)

आइये, अब देखते हैं कि मूर्ति उद्योग (idol industry) हमें क्या ज्ञान दे रहा है । थीम आधारित पूजा में  मूर्ति का सिर बड़ा है, शरीर छोटा। प्रतिमा के त्रिनयन ललाट को लांघते हुए ब्रह्मरन्ध्र का स्पर्श कर रहे हैं ! गणेश पुलिस ! कार्तिक स्वीपर (ঝাড়ুদার) बने हैं  ! सरस्वती  जीन्स और टॉप (jeans-top) पहनी हैं, लक्ष्मी के हाथों में नैपकिन-सैनिटाइज़र,  कभी दानव (अशुभ) ऊपर और देवी (शुभ) नीचे ! इनदिनों  प्रतिमा-निर्माण  अमूर्तकला (abstract art)  और आधुनिक कला (modern art) की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया है। किसी जमाने में  मूर्तियाँ ईश्वर के साथ जुड़ने , (मनःसंयोग करने) की माध्यम थीं। इसके साथ जुड़ी थीं- सामाजिकता , परिवेश , आध्यात्मिकता , तथा स्वास्थ और वित्तीय उत्थान। लेकिन अब माँ दुर्गा की प्रतिमा एक आर्ट-मीडियम  (museum) मात्र है, एक उपभोग की सामग्री (commodity)  और दर्शक उपभोगता (consumer) ! 

शास्त्रों में कहा गया है कि यदि प्रतिमा सर्वांग सुन्दर और परिपूर्ण न हो, तो उस मूर्ति में देवता आविर्भूत नहीं होते। अगर इसे सच मान लिया जाये तो माँ दुर्गा कोलकाता शहर से बहुत पहले पलायन कर चुकी हैं। सर्वांग परिपूर्ण और सुन्दर प्रतिमा तो दूर की बात है , जानबूझकर प्रतिमा को विकृत करना ही आजकल 'आर्ट ' है !     

   यह तो हुई आम बंगाली की 'पूजा संस्कृति' है। अब हमें यह समझायें कि, आपको इन सबके बीच  "पूजा" कहाँ प्राप्त हो गयी ?!

 पूजा करता कौन है ? 

यहाँ तक कि पूजा के वे पाँच दिन जिन्हें धर्म-कर्म के लिए उपयुक्त माना जाता है , उसमें अष्टमी के दिन वाली पुष्पांजलि भी लड़कियों पर प्रभाव  जमाने का अनुष्ठान होने के कारण प्रसिद्द है। विभिन्न विज्ञापनों , सिनेमा में , धारिवाहकों में देखते हैं की जब पुष्पांजलि देते हुए प्रभाव जमाया जा रहा है , तब आनन्द से भर जाते हैं और हमें अपने बंगाली होने पर गर्व होता है। यह हमारी दुर्गा पूजा है। दुनिया में कहीं भी ऐसा त्यौहार नहीं है !! लेकिन इस बात पर जरा भी गौर नहीं करते कि जब हम माँ जगदम्बा की आराधना करने आये हैं , वहाँ यह  कैसा आचरण है !    

अरे भाई, क्या (गर्ल -फ्रैंड) रिझाने (tickle) के लिए तुमको यही समय मिला है?!

तो फिर मेरे कहने का सही तात्पर्य क्या है ? क्या मैं यह चाहता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति पूजा के समय खुशियाँ मनाना भूल कर केवल पूजा -पाठ में डूबा रहे ? कदापि नहीं ! बेशक हमलोग दुर्गोत्स्व का आनन्द मनायेंगे ; किन्तु उसके साथ साथ पूजा का अर्थ (meaning of worship) और उसका विज्ञान (science) भी मन में उज्ज्वल बना रहेगा। ताकि हमलोग उत्सव मनाते हुए कहीं पूजा के मूल सूत्र को ही न भूल जाएँ। जहाँ पूजा के विज्ञान को ध्यान में नहीं रखा जाता, वहाँ उत्सव या त्यौहार  (festivals)  लम्पटता (debauchery-व्यभिचारिता) के नग्न नृत्य  और (orgy-मद्यपान उत्स्व, मदनोत्सव ) आदि को जन्म देते हैं। अतः हमलोगों को पूजा और त्यौहार में सामंजस्य (consistency-अनुरूपता, संगतता , सादृश्य) या सन्तुलन बनाये रखने का कौशल सीखना होगा। उस सामंजस्य रखने के विज्ञान कार्यकर बनाये रखना आवश्यक है। माँ दुर्गा के आगमन की खुशी में , हमें इस बोध (feeling) को खोना नहीं चाहिए। कहीं खुशियाँ मनाने के चक्कर में 'माँ का आगमन ' कहीं  माँ को 'टेने आना (Dragged)' घसीट कर लाना तो नहीं हो रहा है?  हमें अपनी प्राचीन हिन्दू-संस्कृति के जड़ (Root-एकं सत)  को नहीं भूलना चाहिये !   

वास्तविकता तो यह है कि 'बंगाली पूजा ' कई दशकों से लुप्तप्राय हो चुकी है ! प्रति-वर्ष बहुत धुम-धाम से जो कुछ आयोजित होता है उसका नया नाम 'Carnival' , मेला, हुड़दंग पूर्ण त्यौहार में 'मन का रंजन ' करना या  'मन की गुलामी' को प्रदर्शित करना है ! इस प्रकार की 'पूजा' का योग्य नामकरण यही है। इसीलिए जो लोग (Govt Machinery आदि ) गला फाड़ -फाड़ कर चिल्ला रहे हैं - " त्यौहार मत मनाइये , मेला का आयोजन मत कीजिये , केवल पूजा कीजिये " वे लोग एक प्रकार से मूर्खता ही कर रहे हैं। आज के 'बंग्रेज' समाज में परिणत बंगाली के जीवन में बंगाली संस्कार से युक्त पूजा के लिए कोई स्थान  नहीं है। पूजा  के नाम पर जो कुछ चल रहा है , वह सब कुछ 'कार्निवाल ' है ! 

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[11/10, 23:02] +91 70035 86052: অসাধারণ লেখা 👌🌹

                                লেখককে অসংখ্য ধন্যবাদ জানাই 🙏(লেখক অজ্ঞাত)

আসলে দোষ জনগণের না , যারা এই অনুরোধ আবেদন করছেন দোষ তাদেরই ! তারা এমন এক জাতিকে পুজো করতে বলছেন , যে জাতি অন্তত ৫০ বছর আগেই পুজো করতেই ভুলে গেছে ! তারা ফি বৎসর পুজোটুকু বাদ দিয়ে বাকি মোচ্ছব-টা অতি ধুমধাম করে আয়োজন করে !

আসুন বিচার করে দেখি । একটা আম বাঙালী দুর্গা পূজোর দিনে কী করে ?! 

বয়েস কম হোলে মোটামুটি সারা রাত night out আড্ডা । 

 দুপুরে বিরিয়ানি , সন্ধ্যে বেলা ফিশ ফ্রাই , গাঁজা , বিয়ার কিংবা কোল্ড ড্রিঙ্কসের বোতলে মেশানো হুইস্কি। বন্ধুদের সাথে কারুর বাড়ি বা পাবে মদের পার্টি । গার্লফ্রেন্ডের সাথে ওয়ো রুম বা বন্ধুর খালি ফ্ল্যাট খোঁজা । এই সব গুরুত্বপূর্ণ লীলা সমাধা করে ব্রাহ্ম মুহূর্তে কিংবা ভোরে যখন দেবীর পুজোর শুরু হচ্ছে তখন বাড়ি ফিরে বেলা ১২ টা অবধি ঘুম ।  আর জামা কাপড় , দশমীতে লাল পাড় , অষ্টমীতে পাঞ্জাবি এসব বাঙালি জন্মসূত্রে পাওয়া আঁতলামি তো আছেই ।

আসুন দেখা যাক যাদের বয়েস আরও কিছু বেশী , সেই সব চাকুরীজীবী বাবা মায়েরা কি করছে ?  পুজো উপলক্ষে তেনারা বিদেশে কর্মস্থল থেকে বাড়ি ফিরেছেন । দেরি করে ঘুম থেকে ওঠা , নিজের নিজের মা বাবাকে নিয়ে রেস্টুরেন্টে দুপুরের ভোজ । বাড়িতে বন্ধু ও বন্ধুদের মিসেস সহযোগে পার্টি । কোন একদিন একটা সিনেমা , অন্যদিন একটা লং ড্রাইভ , একদিন রাত জেগে ঠাকুর দেখা ।

যারা শহরে থাকে তারা কি করে ? পাঁচ মাস আগে থেকে তাদের পুজোয় ভ্রমন কর্মসূচি ঠিক হয়ে আছে । শিমলা মানালি । পকেটে রেস্ত থাকলে প্যারিস ইউরোপ । নিজের দেশে মা আসছেন বলে বাঙালি আনন্দে দেশ ছেড়ে পালাচ্ছে !

আবার গর্বের সাথে আমরা বলি – " বুরজোয়া শ্রেণির শাসক গোষ্ঠী  নিজেদের বনেদি পুজোয় সাধারণ মানুষ কে ঢুকতে দেয় নি বলে বারইয়ারি আর সার্বজনীন পুজোর উৎপত্তি !  “ 

কিন্তু বাস্তব চিত্র টা কি ? ২ লাখ টাকার পুজো বাজেটের থেকে এক লাখ যাবে পকেটে আর বোতলে ! ভটচাজ মশাই জিগ্যেস করে করে ক্লান্ত – “ বাবা , ফুলের প্যাকেটে দুব্বা নেইকো । দুব্বা ছাড়া মার পুজো অচল । “ ক্লাব কর্তার জবাব – “ বড্ড ডিস্টার্ব করেন আপনি জেঠু , আগের জন এরকম ছিলেন না ! দুব্বা ছাড়া একটু চালিয়ে নিতে পারেন না ? দেখছেন মিস অমুক আসছেন অনুষ্ঠান করতে।  আমার কত্ত কাজ ! “ 

দুশো বছর আগে প্রথম বারইয়ারি পুজোর বিরুদ্ধাচারন করেছিলেন সমাজের হোমরাচোমরা রা। বলেছিলেন - " কি ! ভিক্ষা করে মায়ের পুজো হবে ? এত বড় অনাসৃষ্টি !? " 

সেদিনের সেইসব গোঁড়া বামুনের কথা হাস্যকর শোনালেও , বারইয়ারি পুজোর নামে কি যে এক  ভয়ঙ্কর frankenstien আমরা তৈরি করেছি সেটা বাঙালি টের পাচ্ছে এই একবিংশ শতকে এসে !  মাইকের আওাজে কান ঝালাপালা ! মাতালদের উৎপাত , চাঁদার হুমকি , পার্টির চোখ রাঙ্গানো , বিসর্জনে ডি জে ...... আর নবতম সংযোজন , জনগণের ট্যাক্সের টাকায় বারইয়ারি ! আসছে বছর আবার হবে! পিছনে লাথি মেরে বিসর্জন!  ধন্য বাঙালি ! 

আর ধন্য সেই সব প্রাচীনদের যারা বলেছিলেন - " অনাসৃষ্টি হবে" !!!

বারোয়ারি মোচ্ছবে মুখ্যমন্ত্রি ৫০,০০০ হাজার করে টাকা দিচ্ছেন !  থানা থেকে ক্লাবে ক্লাবে ফোন আসছে ঠাণ্ডা গলায় –“ কই ? আপনাদের ক্লাব তো টাকা নিতে এলো না? “ 

কার বুকের পাটা আছে রাজার দান প্রত্যাখ্যান করে !??

এবার আসুন দেখি প্রতিমা শিল্প কি জানান দিচ্ছে । থিমের পুজোর প্রতিমার মাথা বড় , দেহ ছোট । ত্রিনয়ন কপাল ছাড়িয়ে মাথার ব্রহ্মরন্ধ্রে গিয়ে ঠেকেছে ! গনেশ পুলিশ! কার্তিক ঝাড়ুদার!  সরস্বতী জিনস-টপ পড়া লক্ষ্মীর হাতে  ন্যাপকিন- স্যানিটাইজার কখনও অসুর ( অর্থাৎ অশুভ ) ওপরে আর দেবী ( শুভ ) নিচে ! প্রতিমা এখন abstract art ও আধুনিক শিল্প কলার মাধ্যম ! কোনও এক যুগে প্রতিমা ছিল ইশ্বরের সাথে সংযোগ স্থাপনের মাধ্যম । এর সাথে জড়িয়ে থাকে  স্বাস্থ্য - সামাজিকতা - পরিবেশ - আর্থিক - ও আধ্যাত্মিকতা।  এখন প্রতিমা একটা আর্ট মিডিয়াম  ( মিউজিয়াম )  মাত্র ! একটা commodity । দর্শক consumer ! 

শাস্ত্র বলছে যে প্রতিমা সর্বাঙ্গসুন্দর ও নিখুঁত না হলে তাতে দেবতা অধিষ্ঠান করেন না ! এটা সত্য মানলে কলকাতা শহর থেকে দেবী দুর্গা অনেকদিন আগেই পালিয়েছেন ! নিখুঁত তো দূর অস্ত , প্রতিমা ইচ্ছাকৃত করে বিকৃত করাই আজকাল "আর্ট" !!

এই তো গেল আম বাঙ্গালীর পুজো কালচার । এবার আমাকে বোঝান , যে এর মধ্যে “পুজো” টা কোথায় পেলেন আপনি ?!

কে পুজো করে ?! 

এমনকি পুজোর পাঁচ দিনের মধ্যে একটু আধটু ধম্ম কম্মের দিন বলে খ্যাত যেটি , সেই অষ্টমীর অঞ্জলিও মেয়েদের ঝারি মারার কারনে প্রসিদ্ধ ! বিভিন্ন বিজ্ঞাপনে সিনেমায় সিরিয়ালে আমরা অঞ্জলি দিতে দিতে ঝারি মারা দেখে আনন্দ বিগলিত হয়ে বাঙালি হিসেবে গর্ব বোধ করি ! এই আমাদের দুর্গা পুজো । এমন উৎসব পৃথিবীর কোত্থাও নেই !! কিন্তু একবারও ভেবে দেখি না যে মায়ের আরাধনা করতে এসে এ কি আচরণ ! 

আরে ভাই , সুড়সুড়ি দেওয়ার কি ওইটাই টাইম পেলি ?! 

 তাহলে আমার বক্তব্যটা ঠিক কি ?  আমি কি চাইছি যে সবাই আনন্দ ভুলে,  পুজো আচ্চা নিয়েই থাকবে ? একদমই না ! অবশ্যই আনন্দ থাকবে। তবে তার সাথে পূজার অর্থ ও তার বিজ্ঞান থাকবে।  পুজোর মূল সুত্রটুকু যেন আমরা না ভুলি । যেখানে বিজ্ঞান নেই সেখানে উৎসব - মোচ্ছব, বেলেল্লাপনা, বিশৃঙ্খলতার জন্ম দেয়।আমাদের সামঞ্জস্য রক্ষা করার কৌশল জানতে হবে।  এই সামঞ্জস্য রক্ষাটাই প্রয়োজন । মায়ের আগমনের কারনে আনন্দ এই বোধ টা যেন না হারায় । আনন্দ করার জন্য মা কে টেনে আনা যেন না হয়ে দাঁড়ায় ! শিকড় যেন বিস্মৃত না হই ! 

 আসল কথা হল , বাঙ্গালীর পুজো বহু দশক হল লুপ্ত ।  ফি। বছর ধুমধাম করে যেটা হয় , সেটার নতুন নামকরণ তো " কার্নিভাল " ! মেলা !! মোচ্ছোব !!! মনের রঞ্জন !!!!  অতি যোগ্য নামকরণ ! তাই যারা উৎসব করবেন না পুজো করুন বলে গলা ফাটাচ্ছেন তারা এক প্রকার মূর্খ ! আজকের বাংরেজি  বাঙ্গালীর জীবনে কোনও পুজো নেই , সংস্কার নেই,  সবটাই কার্নিভাল !

(সংগৃহীত)

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