( 1 जनवरी 1883) परिच्छेद ~22,श्रीरामकृष्ण वचनामृत]
*ताँके लाभ होले , ताँते समाधिस्थ होले - ज्ञानविचार आर थाके ना।*
पैगम्बर-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण (मास्टर और प्राणकृष्ण से) --“उन्हें (अपने इष्टदेव को) प्राप्त कर लेने पर, उनमें समाधिमग्न हो जाने पर (अर्थात आत्मसाक्षात्कार हो जाने पर), फिर ज्ञान-विचार ("Reasoning and discrimination, कुतर्क करने की आदत और अपना-पराया में भेदभाव) नहीं रह जाता ।”
[“তাঁকে লাভ হলে, তাঁতে সমাধিস্থ হলে — জ্ঞানবিচার আর থাকে না।
"Reasoning and discrimination vanish after the attainment of God and communion with Him in samadhi.
“ज्ञान-विचार तो तभी तक है, जब तक अनेक वस्तुओं की धारणा रहती है- जब तक जीव, जगत्, हम, तुम, यह ज्ञान रहता है । जब एकत्व का यथार्थ ज्ञान हो जाता है, तब चुप हो जाना पड़ता है । जैसे त्रैलंगस्वामी ^ ।” (^ बनारस के एक प्रसिद्ध संन्यासी जो मौनव्रत का पालन करते थे , जिनसे श्रीठाकुर एक बार मिले थे। )
[“জ্ঞানবিচার আর কতক্ষণ? যতক্ষণ অনেক বলে বোধ হয় —“যতক্ষণ জীব, জগৎ, আমি, তুমি — এ-সব বোধ থাকে। যখন ঠিক ঠিক এক জ্ঞান হয় তখন চুপ হয়ে যায়। যেমন ত্রৈলঙ্গ স্বামী।
How long does a man reason and discriminate? As long as he is conscious of the manifold, as long as he is aware of the universe, of embodied beings, of 'I' and you'. He becomes silent when he is truly aware of Unity. This was the case with Trailanga Swami. (A noted monk of Benares whom the Master once met. The Swami observed a vow of silence.)
ब्रह्मभोज के समय नहीं देखा? पहले खूब गुलगपाड़ा मचता है । ज्यों-ज्यों पेट भरता जाता है, त्यों-त्यों आवाज घटती जाती है । जब दही आया, तब सुप्-सुप्, बस और कोई शब्द नहीं । इसके बाद ही निद्रा-समाधि ! तब आवाज जरा भी नहीं रह जाती !
[“ব্রাহ্মণ ভোজনের সময় দেখ নাই? প্রথমটা খুব হইচই। পেট যত ভরে আসছে ততই হইচই কমে যাচ্ছে। যখন দধি মুণ্ডি পড়ল তখন কেবল সুপ-সাপ! আর কোনও শব্দ নাই। তারপরই নিদ্রা — সমাধি। তখন হইচই আর আদৌ নাই।
"Have you watched a feast given to the brahmins? At first there is a great uproar. But the noise lessens as their stomachs become more and more filled with food. When the last course of curd and sweets is served, one hears only the sound 'soop, soop' as they scoop up the curd in their hands. There is no other sound. Next is the stage of sleep — samadhi. There is no more uproar.]
श्रीरामकृष्ण (मास्टर और प्राणकृष्ण से) – “कितने ही ऐसे हैं जो ब्रह्मज्ञान की डींग मारते हैं परन्तु नीचे स्तर की वस्तुएँ लेकर मग्न रहते हैं । घर-द्वार, धनमान, इन्द्रियसुख । मोनूमेण्ट (Monument- ^शहीद मीनार, कोलकाता के एस्प्लेनेड में स्थित है। इसकी ऊँचाई 157 फीट है।) के नीचे जब तक रहा जाता है, तब तक गाड़ी, घोड़ा, साहब, मेम-यही सब दीख पड़ते हैं । ऊपर चढ़ने पर सिर्फ आकाश, समुद्र लहराता हुआ दीख पड़ता है । तब घर-द्वार, घोड़ा-गाड़ी, आदमी-इन पर मन नहीं रमता, ये सब चींटी जैसे नजर आते हैं ।”
[(মাস্টার ও প্রাণকৃষ্ণের প্রতি) — “অনেকে ব্রহ্মজ্ঞানের কথা কয়, কিন্তু নিচের জিনিস লয়ে থাকে। ঘরবাড়ি, টাকা, মান, ইনিদ্রয়সুখ। মনুমেন্টের নিচে যতক্ষণ থাক ততক্ষণ গাড়ি, ঘোড়া, সাহেব, মেম — এইসব দেখা যায়। উপরে উঠলে কেবল আকাশ, সমুদ্র, ধু-ধু কচ্ছে! তখন বাড়ি, ঘোড়া, গাড়ি, মানুষ এ-সব আর ভাল লাগে না; এ-সব পিঁপড়ের মতো দেখায়!
(To M. and Prankrishna) "Many people talk of Brahmajnana, but their minds are always preoccupied with lower things: house, buildings, money, name, and sense pleasures. As long as you stand at the foot of the Monument, (A reference to the Ochterloney Monument in Calcutta.) so long do you see horses, carriages, Englishmen, and Englishwomen. But when you climb to its top, you behold the sky and the ocean stretching to infinity. Then you do not enjoy buildings, carriages, horses, or men. They look like ants.]
“ब्रह्मज्ञान होने पर संसार की आसक्ति चली जाती है, 'कामिनी -कांचन' के लिए उत्साह नहीं रहता –सब शान्त हो जाता है । काठ जब जलता है तब उसमें चटाचट आवाज होती है और कड़ुआ धुआँ भी निकलता है । जब सब जलकर खाक हो जाता है, तब फिर शब्द नहीं होता । कामवासना और लोभ (Lust and greed ) में आसक्ति के जाते ही तृष्णा (Thirst ) भी चली जाती है । अन्त में केवल शान्ति रह जाती है ।”
[“ব্রহ্মজ্ঞান হলে সংসারাসক্তি, কামিনী-কাঞ্চনে উৎসাহ — সব চলে যায়। সব শান্তি হয়ে যায়। কাঠ পোড়বার সময় অনেক পড়পড় শব্দ আর আগুনের ঝাঁঝ। সব শেষ হয়ে গেলে, ছাই পড়ল — তখন আর শব্দ থাকে না। আসক্তি গেলেই উৎসাহ যায় — শেষে শান্তি।
"All such things as attachment to the world and enthusiasm for 'woman and gold' disappear after the attainment of the Knowledge of Brahman. Then comes the cessation of all passions. When the log burns, it makes a crackling noise and one sees the flame. But when the burning is over and only ash remains, then no more noise is heard. Thirst disappears with the destruction of attachment. Finally comes peace.
“ईश्वर की ओर कोई जितना ही बढ़ता है, उतनी ही शान्ति मिलती है । शान्तिः शान्तिः शान्तिः प्रशान्तिः। गंगा के निकट जितना ही जाया जाता है, उतना ही शीतलता का अनुभव होता जाता है । नहाने पर और भी शान्ति मिलती है ।”
[“ঈশ্বরের যত নিকটে এগিয়ে যাবে ততই শান্তি। শান্তিঃ শান্তিঃ শান্তিঃ প্রশান্তিঃ। গঙ্গার যত নিকটে যাবে ততই শীতল বোধ হবে। স্নান করলে আরও শান্তি।
"The nearer you come to God, the more you feel peace. Peace, peace, peace — supreme peace! The nearer you come to the Ganges, the more you feel its coolness. You will feel completely soothed when you plunge into the river. ]
“परन्तु जीव, जगत, चौबीस तत्त्व ^* , इनकी सत्ता उन्हीं की सत्ता से भासित हो रही है । उन्हें छोड़ देने पर कुछ भी नहीं रह जाता । एक के बाद शून्य रखने से संख्या बढ़ जाती है । एक को निकाल डालो तो शून्य का कोई अर्थ नहीं रह जाता ।”
[“তবে জীব, জগৎ, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব,^* এ-সব, তিনি আছেন বলে সব আছে। তাঁকে বাদ দিলে কিছুই থাকে না। ১-এর পিঠে অনেক শূন্য দিলে সংখ্যা বেড়ে যায়। ১-কে পুঁছে ফেললে শূন্যের কোনও পদার্থ থাকে না।”
"But the universe and its created beings, and the twenty-four cosmic principles,^* all exist because God exists. Nothing remains if God is eliminated. The number increases if you put many zeros after the figure one; but the zeros don't have any value if the one is not there."
[ चौबीस तत्त्व ^* सांख्य-दर्शन में माना जाता है कि सृष्टि का निर्माण 24 ब्रह्माण्डीय तत्वों से मिलकर हुआ है।इसके अनुसार सृष्टि के पूर्व त्रिगुणात्मक अव्यक्त प्रकृति साम्यावस्था में थी। गुणों की साम्यावस्था में विक्षोभ होने से बुद्धि या महत् की उत्पत्ति होती है। उससे तीन अंहकार (सत, रज, तम), तामस अहंकार से पांच तन्मात्राएं (the causal energies of creation) : {रूप (Form), रस (Taste), शब्द (Sound) , गन्ध (Smell) और स्पर्श (Touch)। } एवं सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय [पांच ज्ञानेद्रियां ( the Five Sense Organs : आंख,नाक, कान , जीभ और त्वचा); पांच कर्मेन्द्रियां ( the Five Motor Organs : गुदा,जननेन्द्रिय ,हाथ, पैर, वाणी) तथा उभयात्मक मन ] और अंत में पंच तन्मात्रों से क्रमश: आकाश , वायु, तेजस् , जल तथा पृथ्वी नामक पंच महाभूत ( the Five Elements)। इस प्रकार मुख्यामुख्य भेद से सांख्य दर्शन 24 तत्व मानता है। इन्हीं चौबीस तत्वों से मिलकर ही पूरी सृष्टि और मनुष्य का निर्माण हुआ है।]
प्राणकृष्ण पर कृपा करने के लिए श्रीरामकृष्ण अपनी अवस्था के सम्बन्ध में कह रहे हैं ।
*ब्रह्मज्ञान के उपरान्त~ ‘भक्ति का मैं’*
पैगम्बर-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण- ब्रह्मज्ञान के पश्चात् समाधि के पश्चात्, कोई कोई नीचे उतरकर ‘विद्या का मैं’, ‘भक्ति का मैं’ लेकर रहते हैं । हाट का क्रय-विक्रय समाप्त हो जाने पर भी कुछ लोग अपनी इच्छानुसार हाट में ही रह जाते हैं, जैसे नारद आदि । वे ‘भक्ति का मैं’ लेकर लोकशिक्षा के लिए संसार में रहते हैं । शंकारचार्य ने लोकशिक्षा के लिए ‘विद्या का मैं’ रखा था ।
[“ব্রহ্মজ্ঞানের পর — সমাধির পর — কেহ কেহ নেমে এসে ‘বিদ্যার আমি’, ‘ভক্তির আমি’ লয়ে থাকে। বাজার চুকে গেলে কেউ কেউ আপনার খুশি বাজারে থাকে। যেমন নারদাদি। তাঁরা লোকশিক্ষার জন্য ‘ভক্তির আমি’ লয়ে থাকেন। শঙ্করাচার্য লোকশিক্ষার জন্য ‘বিদ্যার আমি’ রেখেছিলেন।
{"There are some who come down , as it were, after attaining the Knowledge of Brahman — after samadhi — and retain the 'ego of Knowledge' or the 'ego of Devotion' , just as there are people who, of their own sweet will, stay in the market-place after the market breaks up. This was the case with sages like Narada. They kept the 'ego of Devotion' for the purpose of teaching men. Sankaracharya kept the 'ego of Knowledge' for the same purpose.
“कामिनी -कांचन में आसक्ति का नाममात्र भी रहते वे नहीं मिल सकते । सूत के रेशे निकले हुए हों तो वह सुई के भीतर नहीं जा सकता ।”
[“একটুও আসক্তি থাকলে তাঁকে পাওয়া যায় না। সূতার ভিতর একটু আঁশ থাকলে ছুঁচের ভিতর যাবে না।
"God cannot be realized if there is the slightest attachment to the things of the world. A thread cannot pass through the eye of a needle if the tiniest fibre sticks out.
“जिन्होंने ईश्वर को प्राप्त कर लिया है, उनके काम-क्रोध नाममात्र के हैं, जैसे जली रस्सी, - रस्सी का आकार तो है परन्तु फूकने से ही उड़ जाती हैं ।”
[ “যিনি ঈশ্বরলাভ করেছেন, তাঁর কাম-ক্রোধাদি নামমাত্র। যেমন পোড়া দড়ি। দড়ির আকার। কিন্তু ফুঁ দিলে উড়ে যায়।
"The anger and lust of a man who has realized God are only appearances. They are like a burnt string. It looks like a string, but a mere puff blows it away.}
*शुद्ध मन में जो कुछ भी प्रकट होता है वह ईश्वर की वाणी है।*
“मन से आसक्ति के चले जाने पर उनके दर्शन होते हैं । शुद्ध मन में जो कुछ भी प्रकट होता है , वह उन्हीं की वाणी है । शुद्ध मन जो है, शुद्ध बुद्धि भी वही है और शुद्ध आत्मा भी वही है; क्योंकि उन्हें छोड़ कोई दूसरा शुद्ध नहीं है ।”
“परन्तु उन्हें पा लेने पर लोग धर्माधर्म को पार कर जाते हैं ।”
{“মন আসক্তিশূন্য হলেই তাঁকে দর্শন হয়। শুদ্ধ মনে যা উঠবে সে তাঁরই বাণী। শুদ্ধ মনও যা শুদ্ধ বুদ্ধিও তা — শুদ্ধ আত্মাও তা। কেননা তিনি বই আর কেউ শুদ্ধ নাই।“তাঁকে কিন্তু লাভ করলে ধর্মাধর্মের পার হওয়া যায়।”
"God is realized as soon as the mind becomes free from attachment. Whatever appears in the Pure Mind is the voice of God. (अर्थात व्यष्टि-समष्टि अहं का शवदाह हो जाने के बाद )That which is Pure Mind is also Pure Buddhi; that, again, is Pure Atman, because there is nothing pure but God. But in order to realize God one must go beyond dharma and adharma."
इतना कहकर श्रीरामकृष्ण मधुर कण्ठ से भक्त रामप्रसाद का एक गीत गाने लगे-
आय मन बेड़ाते जाबी।
काली-कल्पतरु मूले रे (मन), चारी फल कूड़ाये पाबी।।
प्रवृत्ति निवृत्ति जाया (तार), निवृत्तीरे संगे लोबी।
ओ रे विवेक नामेर तार बेटारे , तत्व कथा ताय सुधाबि।।
शुचि अशुचिरे लोये दिव्य घोरे कोरे शुबि।
जोखन दुई सौतिने पिरित होबे, तोखन श्यामा मा के देखते पाबी।।
अहंकार अविद्या तोर, पितामाताय ताड़िये दिबि।
जोदि मोहगर्ते टेने लोय, धैर्य-खोंटा धोरे रोबी।।
धर्माधर्म दुटो अजा, तुच्छ खूंटाये बेन्धे खुबि।
जोदि ना माने निषेध, तबे ज्ञानखड्गे बलि दिबि।।
प्रथम भार्यार संतानेरे दूर होते बुझाईबि।
जोदि ना माने प्रबोध, ज्ञान-सिन्धु माझे डूबाईबि।।
प्रसाद बोले, एमोन होले कालेर काछे जोबाब दिबि।
तबे बापु बाछा बापेर ठाकूर , मोनेर मतो मन होबि।।
আয় মন, বেড়াতে যাবি ৷
কালী-কল্পতরুমূলে রে (মন) চারি ফল কুড়ায়ে পাবি ৷৷
প্রবৃত্তি নিবৃত্তি জায়া, (তার) নিবৃত্তিরে সঙ্গে লবি ৷
ওরে বিবেক নামে তার বেটা, তত্ত্ব-কথা তায় সুধাবি ৷৷
শুচি অশুচিরে লয়ে দিব্য ঘরে কবে শুবি ৷
যখন দুই সতীনে পিরিত হবে, তখন শ্যামা মাকে পাবি ৷৷
অহংকার অবিদ্যা তোর, পিতামাতায় তাড়িয়ে দিবি ৷
যদি মোহগর্তে টেনে লয়, ধৈর্যখোঁটা ধরে রবি ৷৷
ধর্মাধর্ম দুটো অজা, তুচ্ছখোঁটায় বেঁধে থুবি ৷
যদি না মানে নিষেধ, তবে জ্ঞানখড়্গে বলি দিবি ৷৷
প্রথম ভার্যার সন্তানের দূর হতে বুঝাইবি ৷
যদি না মানে প্রবোধ, জ্ঞান-সিন্ধু মাঝে ডুবাইবি ৷৷
প্রসাদ বলে, এমন হলে কালের কাছে জবাব দিবি ৷
তবে বাপু বাছা বাপের ঠাকুর, মনের মতো মন হবি ৷৷
(भावार्थ )- “मन, चल, सैर करने चलें । कालीरूप कल्पवृक्ष के नीचे तुझे जीवन के चारों फल (.धर्म,अर्थ , काम और मोक्ष) मिल जायेंगे । हे मन, अपनी इन दो पत्नियों प्रवृत्ति और निवृत्ति, में से तू निवृत्ति को साथ लेना; और उसी के निवृत्ति के पुत्र विवेक से तत्त्व की बातें पूछना ।” शुचि अशुचि दोनों को साथ लेकर तू दिव्य गृह में कब सोएगा? जब इन दो सौतों में प्रीति स्थापित होगी तभी तू श्यामा माँ को पाएगा। अहंकार और अविद्या तेरे पिता और माता हैं- दोनों को भगा दे । यदि मोह तुझे पकड़कर खींचे तो तू धैर्यरूपी खूँटे को पकड़े रह । धर्म अधर्म इन दो बकरों को उपेक्षारूपी खूँटी से बाँधे रख । यदि वे नहीं मानें तो ज्ञानखड्ग के द्वारा उनका बलिदान कर देना । प्रवृत्ति नामक पहली पत्नी की सन्तानों को दूर ही से समझाना । यदि वे न मानें तो उन्हें ज्ञानसिन्धु में डुबो देना । रामप्रसाद कहता है, ऐसा करने पर तू यम को सही जवाब से सकेगा और तभी तू सच्चा मन होगा ।”
{O mind, Come, let us go for a walk, to Kali, the Wish-fulfilling Tree, And there beneath It gather the four fruits of life. Of your two wives, Dispassion (निवृत्ति) and Worldliness (प्रवृत्ति) , Bring along Dispassion only, on your way to the Tree, And ask her son Discrimination about the Truth. When will you learn-to lie, O mind, in the abode of Blessedness, With Cleanliness (शुचि ) and Defilement (अशुचि) on either side of you? Only when you have found the way, To keep these wives contentedly under a single roof, Will you behold the matchless form of Mother Syama. Ego and Ignorance, your parents, instantly banish from your sight; And should Delusion seek to drag you to its hole, Manfully cling to the pillar of Patience. Tie to the post of Unconcern the goats of Vice and Virtue, Killing them with the sword of Knowledge if they rebel. With the children of Worldliness, your first wife, plead from a goodly distance, And, if they will not listen, drown them in Wisdom's sea. Says Ramprasad: If you do as I say, You can submit a good account, O mind, to the King of Death, And I shall be well pleased with you and call you my darling.}
[( 27 अक्टूबर 1882) परिच्छेद ~ 13, श्री रामकृष्ण वचनामृत ]*... वास्तव में मन ही है कल्पवृक्ष है ! ; गाना समाप्त कर श्रीरामकृष्ण बोले- “किसी ने ईसाईयों की एक किताब दी थी; मैंने पढ़कर सुनाने के लिए कहा । उसमें केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही भरा था । (केशव के प्रति) तुम्हारे ब्राह्मसमाज में भी केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही सुनायी देता है । *जो व्यक्ति बार बार ‘मैं बद्ध हूँ’ मैं बद्ध हूँ’ कहता रहता है वह बद्ध ही हो जाता है, जो दिन-रात ‘मैं पापी हूँ’ मैं पापी हूँ’ यही रटता रहता है, वह सचमुच पापी ही बन जाता है ।*
“संसार में रहकर ईश्वरलाभ क्यों नहीं होगा? जनक राजा को हुआ था । रामप्रसाद ने कहा था, यह संसार ‘धोखे की जगह’ (framework of illusion-धोखे की टट्टी) है । परन्तु ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति होने पर- "एई संसारई मजार कुठि (mansion of mirth) , आमि खाई-दाई आर मजा लूटी। जनक राजा महातेजा , तार किसेर छिलो त्रुटि। से जे येदिक उदिक दूदिक् रेखे , खेयेछिलो दूधेर बाटी।"
‘यह संसार मौज की जगह है । मैं यहाँ खाता, पीता और मौज उड़ाता हूँ । जनक राजा महातेजस्वी था, उसकी किसी बात में कसर नहीं थी । उसने यह और वह-दोनों बाजू सम्हालकर दूध का प्याला पिया था।’(सब हँसने लगे)
["Why shouldn't one be able to realize God in this world? King Janaka had such realization. Ramprasad described the world as a mere 'framework of illusion'. But if one loves God's hallowed feet, then —This very world is a mansion of mirth; Here I can eat, here drink and make merry. Janaka's might was unsurpassed; What did he lack of the world or the Spirit? Holding to one as well as the other, He drank his milk from a brimming cup!
‘মনেতেই বদ্ধ, মনেতেই মুক্ত। আমি মুক্ত পুরুষ; সংসারেই থাকি বা অরণ্যেই থাকি, আমার বন্ধন কি? আমি ঈশ্বরের সন্তান; রাজাধিরাজের ছেলে; আমায় আবার বাঁধে কে? যদি সাপে কামড়ায়, ‘বিষ নাই’ জোর করে বললে বিষ ছেড়ে যায়! তেমনি ‘আমি বদ্ধ নই, আমি মুক্ত’ এই কথাটি রোখ করে বলতে বলতে তাই হয়ে যায়। মুক্তই হয়ে যায়। .... সংসারে ঈশ্বরলাভ হবে না কেন? জনকের হয়েছিল। এ-সংসার ‘ধোঁকার টাটি’ প্রসাদ বলেছিল। তাঁর পাদপদ্মে ভক্তিলাভ করলে —এই সংসারই মজার কুটি, আমি খাই-দাই আর মজা লুটি। জনক রাজা মহাতেজা, তার কীসের ছিল ক্রটি। সে যে এদিক ওদিক দুদিক রেখে, খেয়েছিল দুধের বাটি।’
[(১৮৮২, ২৭শে অক্টোবর)-ব্রাহ্মদিগকে উপদেশ -- খ্রীষ্টধর্ম, ব্রাহ্মসমাজ ও পাপবাদ ]
====================
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें