केनोपनिषद् में एक आख्यान सुनाया है जिसका प्रयोजन यह बताना है कि 'गोलोकधाम ' जैसे लूडो के खेल में भी ईश्वर सदा युद्ध होने पर देवताओं के लिये जीत संपन्न करते हैं। देवता इस अनुग्रह को बिना समझे जय-निमित्तक गर्व से ग्रस्त हो गये। “जीत हमारी हुई है” ! यों देवताओं की मान्यता समझकर ईश्वर उन्हें समझाने के लिये उनके सम्मुख यक्ष के रूप में प्रकट हुए। सभा में उपस्थित देवों ने ईश्वर का अलौकिक शरीर देखकर, “यह क्या है? यह पता लगाने के लिये अग्नि को ईश्वर के पास भेजा ।देवासुर संग्राम में जो देव- विजय होती है वह ईश्वरकृत ही हुआ करती है। कभी-कभी असुर-विजय भी होती है, लेकिन वह ईश्वरकृत तो है लेकिन उसमें भी देवहित निहित अवश्य रहता है।
जय हुई ईश्वरानुग्रह से पर देवों में गर्व हो गया कि “हमारी ही यह जय है, हमारी ही यह महिमा है? । लोक में भी देखते हैं : एक दुकान /होटल व्यवसाय आदि चल रही है, सेठ जी तीन समय आश्रम आकर ध्यान-भजन-सत्संग विचार करते हैं। भगवान् से प्रार्थना की, उनकी कृपा से एक से दो, दो से चार दुकानें/ होटल बड़ा हो गया। सेठ जी को यह भूल जाता है कि ईश्वरानुग्रह से व्यापार चमका है, यह अभिमान हो जाता है कि "मेरे करने से होटल चल रहा है। ” यही हाल देवों का हुआ तो परमेश्वर ने सोचा कि देवों में यह आसुर भाव पनपना ठीक नहीं। अतः जहाँ देवता सभा जमाये बैठे थे वहाँ पास में भगवान् एक विचित्र यक्षरूप धारण कर प्रकट हो गये जिसे देवता देख तो सकें पर कौन है यह समझ न सकें। सीधे ही पहचान सकने वाला रूप लेकर आये होते तो देवता आदर-सत्कार कर देते लेकिन जो मुख्य उद्देश्य था वह पूरा न होता कि उनका भ्रम मिटे। अज्ञात शरीर देख कर उसके बारे में पता लगाने को सबसे पहले अग्निदेव को भेजा गया ।
पास आये अग्नि के कुछ पूछने से पहले को ईश्वर ने ही पूछ लिया “आप कौन हैं?” उसने गर्वीला हो कहा “मैं अग्नि , नाम का जाततवेदा हूँ।” उसका गर्व भंग करने के लिये परमेश्वर ने पूछा 'तुममें क्या ताकत है?” उसने गर्व से यह बात कही “सब कुछ जला डालता हूँ ।” अपनी दी हुई शक्ति को खींचकर “यह तिनका जलाओ' ऐसा ईश्वर बोले। वह (पूरा जोर लगाकर) भी उस तिनके को जला ही नहीं पाया!।।८३।। अग्नि गया तो था पता लगाने के लिए पर यक्ष के सम्मुख अभिभूत हो गया, पूछने की हिम्मत नहीं जुटा-पाया, बोलती बन्द हो गयी। यक्ष ने ही उससे परिचय पूछा तो हिम्मत खुली, अपना नाम बताया और साथ में गर्वसूचक विशेषण दिया “जातवेदा” अर्थात् जो कुछ संसार में उत्पन्न होता है उसे अग्नि जानता है!
जब सब कुछ जला देने की शक्ति को ताकत बतायी तब यक्ष ने पहले तो उसे दी हुई वह ताकत रोक ली; और फिर सामने एक तिनका रखकर उसे जलाने को कहा! अग्नि ने जलाने की ताकत को परमेश्वर की कृपा से प्राप्त हुई है , ऐसा न कहकर “अपनी” कहा था। अतः यक्ष ने उसे प्रत्यक्ष करा दिया कि ताकत उसकी तो है लेकिन “अपनी” नहीं, परमेश्वर-प्रदत्त है। पुराने समय में भारतीयों का बोलने का ढंग ही था कि परमेश्वर की कृपा से कुछ हुआ, उपलब्ध हुआ आदि। घर-मकान आदि को भी कहते थे “भगवान् के दिये हैं! भले ही सबको सर्वथा गर्वराहित्य नहीं हासिल होता था। लेकिन कम-से-कम भगवान् तो याद आते थे, संस्कार पड़ता था, बच्चों को शिक्षा मिलती थी। पाश्चात्य शिक्षा और आधुनिकता ने वह भाव तो मिटाया ही, बोलने में भी परिवर्तन कर दिया, भगवान् के जिक्र से ही परहेज होने लगा है। यह अभिमानवर्धन ही वर्तमान काल के दबाव तनाव आदि मनोविकारों से स्कूल फाइनल का रिजल्ट निकलने के बाद अवसाद ग्रस्त होने या आत्महत्या करने का मुख्य हेतु है। भगवान् मिहनत का फल देने में भगवान ही जिम्मेवार है यह याद रखें तो अपने सिर का बोझ नहीं रहता, मैं ही सब करने-धरने वाला हूँ तो बोझ मुझ पर ही रहेगा! अग्नि भी इसी 'मेरा” के प्रभाव में था अतः उसका पराभव हुआ। परमेश्वर ने जब शक्ति रोक ली तब अग्नि सारी कोशिश करके भी उस एक छोटे से सूखे तिनके को भी जलाने में असमर्थ रहा! अत्यंत लज्जित हो, बिना कुछ कहे तुरंत लौट आया और देवताओं से इतना ही कहा "मैं पता नहीं लगा पाया!।
आगे की कथा में बताते हैं अग्नि की तरह वायु भी यक्ष के समाने गर्व-भंग होने पर लौट आया। अग्नि निष्फल हुआ तो देवताओं ने वायुको भेजा। वह भी पूछ न पाया। यक्ष ने ही पूछा 'कौन हो, क्या करते हो? वायु बोला वायु, मातरिश्वा हूँ, सब कुछ उड़ा देता हूँ। यक्ष ने वैसे ही उसकी सामर्थ्य रोककर तिनका उड़ाने को कहा जिसे वह उड़ा न पाया तो मुँह लटकाकर लौट आया।
इन प्रधान देवताओं की असामर्थ्य को देखकर इन्द्र का गर्व जाता रहा। वह स्वयं पता लगाने चला। यक्ष ने समझ लिया कि गर्व तो इसका मिट ही चुका अब केवल इसकी श्रद्धा परीक्षणीय है। दैवी गुणों में निरभिमान (अहंशून्यता-निःस्वार्थपरता ) और श्रद्धा प्रधान हैं। परीक्षा के लिये यक्ष अन्तर्धान हो गया। इन्द्र यह देखकर अधिक श्रद्धालु हुआ। यदि इन्द्र भी अहंकारी और अश्रद्धालु होता तो सोचता 'कुछ नहीं था" या ऐसा ही कोई तुच्छ बल वाला था जो मेरा तेज नहीं सह पाया” आदि। लेकिन इंद्र में श्रद्धा जाग्रत हुई। उसे मालूम था कि अग्नि-वायु भी ऐरे-गैरे नहीं हैं, प्रधान देवता हैं। भले ही इंद्र राजा होने से विशेष है पर वे भी अतिसमर्थ हैं। अतः यक्ष की उपेक्षा न कर उसके महत्त्व के प्रति सद्भाववाला हुआ। जो मुझे समझ में न आये वह हो ही नहीं सकता'यह अश्रद्धालुओं का निश्चय होता है। शास्त्रों के वर्णन, देवकृपा, तपःसामर्थ्य आदि सब को इसी दृष्टि से देखने का बढ़ता रिवाज अश्रद्धा का ही परिचायक है। 'मेरी समझ से परे भी बहुत कुछ है” यह श्रद्धालु की सोच है। जिससे प्रेरित हो वह अधिक-अधिक जानने का प्रयास करता है। सत्य को जानने या समझने का प्रयास ही श्रद्धा को दिखाता है। अश्रद्धालु ऐसा प्रयास ही नहीं कर सकता क्योंकि अपने समझे हुए खाके में बैठाने में ही उलझा रहता है। इन्द्र निर्गव और श्रद्धालु था अतः वहीं रुका रहा। उसे निश्चय था कि भगवान् की कृपा से ही पता लगेगा अतः वह माँ जगदम्बा का कृपा प्रार्थी बना ।ऊपर अर्थात् मन-वाणी से परे तत्त्व का विलोकन अर्थात् चिन्तन करते हुए स्थिर रहा। श्रद्धा देख भगवान् ने उमा-रूप में दर्शन दिया। जिसने यक्ष-रूप में जिज्ञासा जगायी, उसी ने उमारूप से ज्ञान दिया। परमेश्वर ही विविदिषा-उत्पादन (ज्ञानप्राप्त की इच्छा , इन्द्रियातीत सत्य को जानने की कामना ।) पूर्वक विद्या देते हैं। किन्तु इसकी योग्यता गर्वहीन श्रद्धा है। जैसे अंधे को सूर्य भी नहीं दीखता वैसे श्रद्धारूप चक्षु से वंचित को परमार्थ उपलब्ध नहीं होता। अश्रद्धा रहते साकार परमेश्वर भी 'दीखता” नहीं, कंस शिशुपाल आदि को कृष्ण परमेश्वर नहीं दीखे। (इन्द्र ने प्रयास किया।) इन्द्र को गर्वरहित देख कर उसकी परीक्षा लेने के लिये यक्ष रूपी ब्रह्म तिरोहित हो गये ।ईश्वर-कृपा को चाहने वाला इन्द्र , वापस नहीं लौटा , ऊपर देखता हुआ खड़ा रहा। उस इन्द्र पर अनुग्रह करने के लिये भगवान ने उमा-रूप धारण कर लिया। इन्द्र ने पूछा 'हे देवी! देवों ने इससे पहले जो देखा वह क्या है? उमा बोली “वह ब्रह्म है, उसके अनुग्रह से ही देवासुर संग्राम में जीत हुई थी” ।हैमवती को देख इन्द्र ने उसी यक्ष के बारे में पूछा जिसका स्वरूप उमा ने ब्रह्म बताया, उसका प्रभाव देवताओं की जीत बतायी। शास्त्रसंस्कारी इन्द्र “ब्रह्म! शब्द सुनते ही ठीक समझ गया कि कौन यक्ष था। विजय उसका प्रभाव था सुनकर इंद्र को बोध हो गया कि किस प्रयोजन से यक्ष ने दर्शन दिया था। विचारशील इंद्र योग्य था अतः उमा के उपदेशमात्र से उसे साक्षात्कार हो गया। श्रवण की ज्ञान- साधनता इससे स्पष्ट हो जाती है। अग्नि-वायु की यक्ष से और इन्द्र की उमा से जो थोड़ी-सी बातचीत हुई इसीसे ये देवताओं से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गये, वेदों में इनके मंत्र ज्यादा हैं। जैसे जो राजा से कुछ बातचीत कर आये, गाँव में उसका ओहदा बढ़ जाता है वैसे परब्रह्म परमात्मा से वार्तालाप किया तो इन देवताओं का सम्मान बढ़ गया।परमेश्वर से थोड़ी-सी बातचीत करने के कारण अग्नि, वायु और इन्द्र उत्कृष्ट हैं। इनमें भी इन्द्र पुण्यात्मा है क्योंकि उस पर अनुग्रह भी ज्यादा हुआ ।
केन उपनिषद ने कहानी सुनाकर ईश्वर की उपासना का विधान इस प्रकार किया है : -" तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदा इतीन्न्यमीमिषदा इत्यधिदैवतम् ॥" --यह 'उसी' का निर्देश है,... जैसे विद्युत् का चमकना हो अथवा जैसे पलक का झपक जाना हो, वैसा ही अधिदैव-भाव है।अथाध्यात्मं यद्देतद् गच्छतीव च मनोऽनेन चैतदुपस्मरत्यभीक्श्णं सङ्कल्पः ॥अब अध्यात्म-भाव यथा इस मन की गति 'उस' (परतत्त्व) को प्राप्त करती प्रतीत होती है एवं तत्पश्चात् उससे चिन्तनगत संकल्प निरन्तर 'उसका’ स्मरण करता है। तद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं स य एतदेवं वेदाभि हैनम् सर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति॥‘उस' (परतत्त्व) का नाम है ''वह आनन्द'', 'उस आनन्द' के रूप में ही 'उसकी' उपासना करनी चाहिये। जो 'उसे' इस रूप में जानता है सभी प्राणी उसे विशेष रूप से चाहते हैं। (केन ४.४-६)
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।
(गीता 8.4)
हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! क्षरभाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ (पंचमहाभूत) को अधिभूत कहते हैं, पुरुष (अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी) अधिदैव हैं, और इस शरीर में अन्तर्यामी रूप से मैं ही अधियज्ञ हूँ।
यद्यपि परमात्मा स्वयं निराकार और सूक्ष्म होने के कारण सर्वव्यापी है तथापि उसकी सार्मथ्य और कृपा का अनुभव प्रत्येक भौतिक शरीर में स्पष्ट होता है। देह -मन उपाधि से मानो परिच्छिन्न हुआ ब्रह्म जब उस देह में व्यक्त होता है तब उसे अध्यात्म कहते हैं। संक्षेप में सम्पूर्ण दृश्यमान जड़ जगत् क्षर अधिभूत है। अध्यात्म दृष्टि से क्षर उपाधियाँ हैं शरीर इन्द्रियाँ मन और बुद्धि। पुरुष अधिदैव है। पुरुष का अर्थ है पुरी में शयन करने वाला अर्थात् देह में वास करने वाला। परम अक्षर तत्त्व ब्रह्म है ब्रह्म शब्द उस अपरिवर्तनशील और अविनाशी तत्त्व का संकेत करता है जो इस दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। वही आत्मरूप से शरीर मन और बुद्धि को चैतन्य प्रदान कर उनके जन्म से लेकर मरण तक के असंख्य परिवर्तनों को प्रकाशित करता है। ब्रह्म का ही प्रतिदेह में आत्मभाव अध्यात्म कहलाता है।
कोई भी कर्म केवल ईश्वर प्रीत्यर्थ करने पर उपासना है।मनुष्य को चाहिये कि वह ईश्वर की कृपा सिद्ध (प्राप्त) करने के लिये ब्रह्म की उपासना करें । अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत (भौतिक) तीनों धरातलों पर उसकी उपासना की जाये। कोई विशेष प्रकार का कर्म-काण्ड आदि ही ईश्वरोपासना नहीं है , बल्कि सभी बाह्य एवं भीतरी कर्म ईश्वर प्रीत्यर्थ करने पर, वैसे कर्म (ब्लॉग लिखना भी ?) उपासना है। अपने पिता की सेवा भी उस शरीर में स्थित ईश्वरप्रीत्यर्थ सेवा करने पर, वह सेवा भी ईश्वरोपासना हो जाती है। ईश्वर-प्रसन्नता के अलावा कोई कामना मन में न रखकर करने पर ही उपासना होगी। अतः मोक्षेच्छुक ही इस उपासना में समर्थ होता है। संसार में कुछ भी चाहने वाला (कामिनी-कांचन में घोर रूप से आसक्त व्यक्ति) ईश्वरोपासना में अक्षम है।
आधिदैविक उपदेश : जैसे बिजली चमक कर प्रकट- और फिर अप्रकट हो जाती है ; वैसे ब्रह्म में भी प्रकट होना एवं छिप जाना दोनों हुआ करते हैं। जैसे बिजली का स्वभाव ही अचानक चमकना फिर बुझना है वैसे ब्रह्म कभी किसी अनुभव रूप से प्रकट होता है फिर छिप जाता है। देवताओं को परमेश्वर ने यक्षरूप में अचानक ही दर्शन दिया, अचानक ही लुप्त हो गये। इससे इन्द्र ने यह तो पता लगाया कि यक्ष कौन था, लेकिन क्यों दर्शन मिला ? और फिर वंचित क्यों रह गये ? इसकी चिंता इन्द्रादि ने नहीं की । यह परमेश्वर की स्वतंत्रता ही है इसे स्वीकारने में ही बुद्धिमानी है। क्योंकि देवताओं को यों अनुभव हुआ यह बताया और क्योंकि बिजली चमकाना देवकार्य ही है ! इसलिये दिव्य उपमा से दिया यह आधिदैविक उपदेश है ।
आध्यात्मिक उपदेश में 'मन' को दृष्टान्त बनाया जाता है , उसकी उपमा से यह समझाते हैं कि याद और संकल्प समेत मन अध्यात्म में उपाधि है। शरीर के भीतर रहने से 'मन' को अध्यात्म कहा गया है। जैसे हमें अचानक अनेक स्मृतियाँ आती हैं, वे क्यों आयीं ? कुछ पता नहीं, कोशिश करते हैं तो आती नहीं हैं। विविध संकल्प भी क्यों होते रहते हैं ? कुछ पता नहीं चलता, ऐसे ही परमेश्वर का कर्मादिस्मरण और सृष्टिसंकल्प क्यों होता है ? इसका एक ही सही उत्तर हमें भी पता नहीं है । अतः अपनी समस्त मनोवृत्तियों को परमात्मा की मूर्ति समझना चाहिये। सभी वृत्तियाँ व्यक्त तो परमात्मा को ही करती हैं। अतः कुछ भी याद आये तो समझो भगवान् ने अपनी स्मृति- प्रदान करने के सामर्थ्य को ही व्यक्त किया है । ऐसे ही संकल्पादि में है। यहाँ भी वृत्तियों में उलझे बिना केवल उनसे परमात्मा का बोध कायम रखना यहाँ उपासना है। इसी तरह भजा गया ब्रह्म आचार्य की उपलब्धि कराता है।
सावधान होकर एकमात्र परमेश्वर (अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) की ही उपासना करनी चाहिये, उससे अलग अन्य किसी को उपासना-योग्य न समझे। यों उपासित परमेश्वर साधक को योग्य आचार्य /( गुरुदेव / CINC नवनीदा ) की उपलब्धि करा देता है। और ऐसे उपासक में ही आचार्य होने की योग्यता प्रकट होती है। काली के उपासक या " ईश्वरभक्त ब्रह्मवेत्ता" के पास ही भक्त आकर - " परमात्मा की विद्या सुनाइये” ऐसी प्रार्थना करते हैं। ईश्वरभक्त ब्रह्मज्ञ (माँ काली के भक्त ब्रह्मज्ञ -ब्रह्मविद ) को चाहते सभी हैं पर भक्त यों चाहते हैं कि वह उपदेश दे। संसारी लोग उससे ब्रह्मोपदेश नहीं चाहते लेकिन उसकी ओर आकृष्ट तो होते ही हैं।
नचिकेता जैसा जिज्ञासु ही उपदेश-योग्य होता है। सही-गलत किसी भी कोटि में जो निश्चित है उसे उपदेश नहीं दिया जा सकता। वरन् जिसे सन्देह है, अपनी जानकारी पर भरोसा नहीं है, वही समझने को तैयार हो सकता है। नचिकेता, मैत्रेयी, जनक, अर्जुन आदि जब यों प्रष्टा बने तभी उन्हें उपदेश मिला।किसी अज्ञात देवदत्त को यदि गदहा कहा जाये तो यह मनन का विषय नहीं बनता ; किंतु हमें ही यदि कोई गदहा कहे तो विचार करना पड़ता है- कि क्यों कहा, किस ग़लती से कहा इत्यादि। सृष्टि-आदि का कारण जब 'मुझे” बताया जाता है तभी मनन जरूरी है। जब तक तो “कोई! परमेश्वर है तब तक केवल सुनना है, किन्तु में परमेश्वर हूँ", तब सोचना पड़ता है कि प्रमाणरूप वेद कह क्या रहा है। माण्डूक्य उपनिषद् और उस पर लिखी हुई कारिका में इसी तथ्य को समझाया गया है। केवल 'श्रवण ' या सुनने से नहीं, मनन किया जाने पर त्राण करता हो , वैसा रक्षा करने वाला 'मन्त्र ' कहलाता है। संसार के विषयों में (कामिनी-कांचन में) आसक्ति ही बुद्धि (चित्त ) की अशुद्धि है। कामिनी-कांचन में आसक्त व्यक्ति स्वयं का वास्तविक स्वरूप नहीं जान सकता। कारण अपने कार्य से सूक्ष्म होता है, उसी सूक्ष्मता की परकाष्ठा होने से परमेश्वर को परमकारण कह दिया जाता है। वही तत्त्व बुद्धिसाक्षी हुआ साक्षिरूप से सभी को देख रहा है, सबको प्रकाशित कर रहा है। हमें दो 'मैं ' का अनुभव होता है, एक बदलने वाला और दूसरा न बदलने वाला एकरस, स्थायी । इस स्थायी 'मैं ' को साक्षी और बदलते रहने वाले को प्रमाता कहते हैं। एक मैं बच्चा 'था', (अब नहीं हूँ) और दूसरा मैं जो अब भी हूँ'। देह-इन्द्रिय आदि से तादात्म्यापन्न मैं परिवर्तित होने वाला हूँ, संसारी हूँ, यहाँ भी देश-अवस्था आदि में सरकता रहता हूँ। और लोकलोकान्तर में भी जाता-आता रहता हूँ। किन्तु जो इन सब परिवर्तनों को, संसरणों को जानता है, जिसके द्वारा जाने गये होने से ही ये परिवर्तन एक के हैं। यह सिद्ध होता है, वह अपरिवर्तनशील साक्षी ही वास्तव में आत्मा है, ब्रह्म है। “मैं वह हूँ, वह मैं हूँ” सः मायने वह (परमेश्वर), अहम् मायने मैं (साक्षी)। लगातार सोहं-सोहं-सोहम् कहने पर अहं सः भी सम्बन्ध सुनाई देता है। नाम-रूप (Bh )का महत्त्व विपरीत शरीर के प्रति राग रहने से ही भासते हैं, इसीलिए उसके संहार में संकोच होता है। अतः वैराग्य के बिना निर्विशेष की ध्यान-साधना भी संभव नहीं। ब्रह्म में जगत् भी तभी मिले जब पहले जगत् कुछ हो; क्योंकि वह " है” नहीं, है एकमात्र ब्रह्म, इसलिये जगत् का संहार हो जाता है।'स्थूल-सूक्ष्म-कारण तीनों शरीर मुझमें माया से आरोपित हैं? विवेकी (विवेक-प्रयोग में समर्थ व्यक्ति की) की तो प्रतीति ही होती है कि प्रमाता-रूप मैं ही विकारी है, साक्षिरूप मैं निर्विकार ही हूँ। मान लें मच्छरों ने काटना शुरू कर दिया, उन्हें उड़ाने की तीव्र इच्छा में मन उलझा है; तब चिंतन करते हुए उड़ाये कि काटने वाला मच्छर अधिदैव है, जिसे काट रहा है वह शरीर अध्यात्म है। अतः उड़ाने वाला हाथ भी अध्यात्म है, इन्हीं का परस्पर व्यवहार है, मैं इससे अछूता हूँ। इन्द्रियों से व्यवहार जाग्रत् में जाग्रत् है। मन से चिन्तन करना जाग्रतू में स्वप्न है। इन्द्रिय-मन की निश्चेष्ट स्थिति जाग्रतू में सुषुप्ति है। तृप्तता जाग्रत् में तुरीय है । स्वप्न के अंतर्गत भी जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति-तुरीय ये चार स्वप्न के भेद हैं।सपना ठीक याद आये तो समझना चाहिये कि दीखते समय वह सपने में जाग्रत् स्थिति थी। साफ न याद आये तो वह सपने में सपने की अवस्था थी। बिलकुल याद न रहे फिर भी शरीर के भारीपन से या अन्य उपाय से पता चले कि सपने आते रहे, तो वह सपने में सुषुप्ति थी।(इन्द्रियों सहित) बुद्धि लीन हो जाने पर आत्मा सुषुप्ति में स्थित रहता है। तब द्वैत का लोप (अदर्शन) हो जाने से आत्मा अकेला होता है।सुषुप्ति में कोई दुःख नहीं हो सकता । आत्मा सुखरूप है, दुःख उत्पन्न होने पर आत्मसुख छिप-सा जाता है और हमें अनुभव में उल्लेख दुःख का ही होता है; जब द्वैत न रहने से दुःख है नहीं ; तब स्वतः स्फूर्त आत्मसुख बना ही रहता है। इसी से सुषुप्त को आनन्दमय कहा। क्योंकि दुःखबीज अज्ञान बचा है इसलिये आनंदरूप नहीं कह सकते।चेतना के चतुर्भेद सुषुप्ति में आत्मा प्राज्ञ और ईश्वर कहलाता है। आत्मा (ह्रदय -Heart) ही ज्ञान-कर्मेन्द्रियों का (Hand) , प्राण मन (Head) आदि का प्रेरक है, इनका विषय नहीं। सुनार गहने बेचते समय चाहे आकार (डिजाइन) की ही प्रशंसा करता रहे, लेकिन खरीदते समय सोने का ही मूल्य देता है। अतः सार ही मूल्यवान् है। ज्ञान ही मूल्यवान् रूप है। आँख-कान आदि से होने वाले तो ज्ञानाभास हैं, आत्मरूप ज्ञान तो अपरोक्ष, निरपेक्ष अनुभूति है। स्थूल जाग्रत् में और सूक्ष्म स्वप्न में भिन्न प्रतीत होकर दुःखदायी है ही, सुषुप्ति में भेदप्रतीति न सही पर सारे भेदों के बीज रहने से सभी दुःखों के बीज भी वहाँ हैं। अतः उसे भी वास्तव में दुःखरहित अवस्था नहीं कह सकते भेददृष्टि आत्मस्वरूप के अज्ञान से है। तत्त्वसाक्षात्कार से अज्ञान दूर हो चुकने से भेददृष्टि समाप्त हो जाती है अतः कोई दुःख संभव नहीं रहता, यही मोक्ष में बंधन से विशेष है। बंधन अज्ञान के रहते है, अज्ञान की निवृत्ति से मोक्ष है। अज्ञान से ही हमलोग स्वयं को साक्षी न जानकर प्रमाता (ज्ञाता-ध्याता) समझते हैं,आँख-कान के सहारे ज्ञान वाला समझते हैं, देखने-सुनने चलने-पकड़ने वाला, सोचने-समझने वाला स्वयं को मानते हैं और तभी प्रपंच क्लेश देता रहता है। दुःख की पहुँच है ही मन तक, मुझ तक नहीं है, फिर भी इस तथ्य को न जानकर हम मन से एकमेक हुए दुःखी हैं। ऐसा दुःख तभी मिटे जब हम समझ लें कि हम मन नहीं उसके साक्षी हैं।
ध्याता स्वयं को ईश्वर न समझे वरन् तुरीय समझे,तुरीय सत्य है, विश्वादि उस पर अध्यस्त हैं। तुरीय ही कल्याणस्वरूप, आनंदस्वरूप होने से शिव है। स्वरूप से निर्विकार होने पर भी भ्रम से आरोपित विकारों के भी बाधित हो जाने पर वह शांत, दुःखरहित है। द्वैत उसमें कदापि नहीं अतः वही सत्य वस्तु अद्वैत है। समझने के लिये उसे आत्मा का चौथा चरण कहते हैं। वास्तव में वही आत्मा है लेकिन भ्रमसिद्ध तीन चरणों से स्वतन्त्र बताने के लिये उसे चौथा चरण कह देते हैं।
चित्त का भटकना ही संसार का स्वरूप है जिसकी स्थायी शांति के लिये योग और विवेक दो साधन बताये गए हैं । योग में चित्त -प्रवाह का निरोध चाहिये,ज्ञान निश्वय में प्रमाण पर अटूट श्रद्धा चाहिये। मनः संयोग का अभ्यास, सांसारिक फलों के लिये नहीं, संसारनिवृत्ति के लिये है अतः विरक्त मुमुक्षु ही इसका (विवेक-दर्शन का) अभ्यास करे। चित्त का भ्रमण ही जन्म-मरण का चक्ररूप संसार है । 'भ्रमण” से ध्वनित है कि चित्त-निमित्तक भ्रम ही संसार है। उपाधितादात्म्य को ही जन्म और स्थूल से तादात्म्य छूटने को मरण कहते हैं। तादात्म्य स्पष्ट ही भ्रम है अतः संसार को भ्रम कहना बनता है। जीवन के दौरान भी सुख-दुःख का भोग रूप संसार तादात्म्य से ही है क्योंकि आत्मा वस्तुतः तो साक्षी ही रहता है। इस भ्रमण से वैराग्य हो तभी अध्यात्म साधना प्रारंभ होगी।
ज्ञाता ज्ञेय से पृथक् होता ही है, हमें चक्षु आदि ज्ञेयरूप से प्रतीत होते हैं अतः निश्चय है कि हम उनसे पृथक् हैं। चक्षु आदि में मन भी आ जाता है। मन से प्रथक् स्वयं को समझते ही साक्षिरूप में स्थिति हो जाती है। साक्षी नित्यदृष्टि होने पर भी उसे अनित्य ज्ञान इसीलिये हो पाते हैं कि उसपर अहंकार आरोपित है। अहंकाररूप उपाधि से ही साक्षी प्रमाता बनता है।
सुषुप्ति में अहंकार न रहते कोई अनित्य ज्ञान भी नहीं होता, ज्ञानमात्र कायम रहता ही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जो लगातार रहता है वह ज्ञान आत्मा है, उसमें जो ज्ञानकर्त॒त्व, ज्ञातृत्व, अनित्य ज्ञानवत्त्व प्रतीत होता है वह अहंकार उपाधि से होने वाला भ्रम है।
जगत में बहुधा साधारण से अनुभवों पर चिंतन करने से गंभीर तथ्य प्रकट होते हैं। सेब गिरना देखने से गुरुत्वाकर्षण के नियम का आविष्कार हुआ , कचरे को चमकता देखने से रेडियम का पता चला, फूल का रंग बदलना देखने से रमण-प्रभाव का निर्णय हुआ। ऐसे ही हमारे सभी अनुभव इस योग्य हैं कि इन पर चिंतन करें तो परमात्मा का आविष्कार हो सकता है।
नरसिंह देव का एक नाम है 'भक्त वत्सल' - अर्थात भक्तों पर कृपा दिखाने के लिए सदा आतुर । नृसिंह-शब्द भी नृ-से जीव और सिंह-से ईश्वर को कहकर दोनों का अभेद व्यक्त करता है।
ॐ उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् ।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥
भावार्थ:ॐ हे क्रुद्ध एवं शूर-वीर महाविष्णु, आपकी ज्वाला एवं ताप चारों दिशाओं में फैली हुई है।हे नरसिंहदेव प्रभु, आपका चेहरा सर्वव्यापी है, तुम मृत्यु के भी यम हो और मैं आपके समक्ष आत्मसमर्पण करता हूँ।
इस अनुष्टुप् का प्रथम पद ‘उग्रम्' मंत्र का प्रथम स्थान है, यह जानने वाला अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है। मंत्र में ‘वीरम्' का द्वितीय स्थान है।'महाविष्णुम्' पद का तृतीय स्थान है। ‘ज्वलंतम्' का चतुर्थ स्थान है। ‘सर्वतोमुखम्' का पंचम स्थान है। ‘नृसिंहम्' का षष्ठ स्थान है। ‘भीषणम्' का सप्तम स्थान है। ‘ भद्रम्' का अष्टम स्थान है। ‘मृत्युमृत्युम्' का नवम स्थान है।‘नमामि' का दशम स्थान है।‘अहम्' को एकादश स्थान है, ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार जानने वाला अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है ॥ उग्रादिपदोक्त ब्रह्म का 'अहं ' से अभेद है यह उस मन्त्र का भाव है। मंत्र से समझने में कठिनाई लगे तो प्रसिद्ध 'अहं ब्रह्मास्म' आदि महावाक्य से अनुस्मरण करे।
उक्त साधन के पश्चात् अविद्या को निवृत्त करके प्रकट होने वाला वही है जो हमेशा स्वयं नृसिंह ही था! अर्थात् ब्रह्म ही बंधानुभव कर रहा था, साधना कर रहा था, अब मुक्त है भले ही ब्रह्म होने से सदा मुक्त रहता है। कारणभूत अविद्या, जो वास्तव में है ही नहीं, उसे चित् से खाया हुआ बनाकर वीर को चाहिये कि तत्त्वस्मरण करते हुए निर्भय हो जाये ।मायाको आत्माके वश में लाकर प्रतीतिमात्रसिद्ध उस माया को निष्प्रभाव बनाकर उसे साक्षी में डुबाकर, ब्रह्मानुभवरूप सिंह से उसे खाकर रहने वाला यह वीर किसी से हार नहीं सकता।
“नमामि” शब्द से ब्रह्म से अभिन्नता का अनुचिंतन करे। ऐसा योगी कामनारहित होगा, वह कामना करे ऐसा कोई विषय संभव नहीं ।लौकिक कामनाओं से (कामिनी-कांचन में आसक्ति से ) निवृत्त हो चुकने पर साधक जब निष्काम हो जाता है, अब वह केवल आत्मा को ही चाहता रहा। फिर उसे वह आत्मा भी बोध से प्राप्त हो गया, अब और क्या चाह सकता है। तब उसके प्राणों का उत्क्रमण नहीं होता वरन् वे परमात्मा में लीन हो जाते हैं।“नमामि " नमस्कार या नमन का अर्थ हैअहंकार समाप्त करना । अहं छोड़ते ही ब्रह्म से अभेद का पता चल जाता है।
आत्मज्ञान की इच्छा उत्पन्न होने में , विषयासक्ति (कामिनी -कांचन में आसक्ति ) ही सबसे बड़ी रुकावट है । अतः इसे दूर करने को प्राथमिकता देना साधक का कार्य है। कामिनी -कांचन के प्रति अतिशय आसक्ति , शास्त्रनिषिद्ध कर्म करने को प्रेरित करती है , यह आसुरी प्रवृत्ति होने से पाप है, वह विद्या की इच्छा को ही प्रतिबद्ध (रोक) कर लेती है अतः पहले इसे ही हटाया जाये।आसक्ति, आकर्षण होता है नाम-रूप-कर्म के प्रति तथा वे ही मिथ्या हैं! सत्य की ओर हमारा आकर्षण ही नहीं होता। इन्द्रिय-मन में तादात्म्य कर हम इनके गुलाम बने हैं, इनसे अपना भेद पहचानकर इस गुलामी से मुक्ति पुरुषार्थ है।
रज और तम की वृत्तियाँ छोड़कर सात्त्विक वृत्ति का सहारा लेने वाली बुद्धि जब चिदानन्दरूप आत्मा के ध्यान में, संलग्न रहती है तब तदाकार ही हो जाती है। सगुण ईश्वर की उपासना से तमोगुण पर और निर्गुण की उपासना से रजोगुण पर विजय होती है। मंत्र वही रहता है, उसके अर्थों में ही भेद है। सर्वत्र वेदादि के मंत्रों में यह रहस्य है कि आपाततः सगुण (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) का वर्णन करते हुए भी वे लक्षणा-व्यंजना-ध्वनि आदि वृत्तियों से निर्गुण का कथन करते हैं। साधक एकाएक निर्गुणोपासना कर नहीं सकता अतः सगुणोपासना से ही प्रारम्भ करे।
ब्रह्म के सत्-चित्-आनन्द सब वस्तुओं में दीखते हैं, अतः ब्रह्म सब का आत्मा है।सुषुप्ति में जीव-चैतन्य अद्वैत ब्रह्मरूप हो जाता है और सारा जगत् अविद्या रह जाता है यह सभी का अनुभव है । सृष्टि से पहले भी ऐसे ही अद्वैत-स्थिति थी । वट के बीज जैसी उस माया ने अनेक रूप धारण कर जीव और ईश्वर का निर्माण किया। कार्य की उपाधि वाला यह जीव है तथा कारणरूप उपाधि वाला ईश्वर है। वटबीज में अतिविस्तृत वट वृक्ष की तरह ईश्वर में संसार था जो उसी में से प्रकट हो गया ; तब जिन उपाधियों का विकास हुआ , उनके संबंध से परमेश्वर ही ईश्वर एवं जीव कहलाने व समझा जाने लग गया।
जैसे एक ही वटबीज-सामान्य अपने से अभिन्न अनेक सबीज वट उत्पन्न कर उनमें स्वयं पूर्णतः रहता है। वैसे ही अविद्या शक्ति , मायामय अनेक जीवादि का आभास कराती है; क्योंकि वह अघटन -घटना पटियसी है, दुर्घट-घटना करने में समर्थ है। उस कार्य-कारण विभाग को प्राप्त अविद्या में आभास द्वारा अहंकार बाँधे रखने वाला जीव हो जाता है और आभास का साक्षी रहने वाला ईश्वर हो जाता है। साक्षी होने से ही वह किसी परिच्छिन्न में सीमित नहीं रहता। इनमें भेद उपाधिकृत ही है अतः वास्तव में ये अभिन्न ही हैं। कारण- उपाधि में सर्वसामर्थ्य है अतः ईश्वर सर्वशक्तिमान् है, कार्य-उपाधि में अल्प सामर्थ्य है ; अतः जीव अल्पशक्तिमान् है। लेकिन यह भेद उपाधि पर निर्भर है, वास्तव में नहीं। जीव का सामर्थ्य अल्प ही रहता है।
ईसाई सुनाते हैं कि ईसा ने एक मुर्दे को जिन्दा कर दिया। हमने पूछा “कहाँ है वह जिन्दा हुआ व्यक्ति?” वे कहते हैं "अरे! अब कहाँ होगा! वह तो फिर मर ही गया। ' तो विचार करो, ईसा की महत्ता क्या हुई! मिनट-घण्टा-दिन- महीना-साल भले ही बदले; पर मरने वाले को न मरने वाला तो नहीं बनाया। अतः जीव स्वयं परिच्छिन्न उपाधि में खुद को बँधा मानने से परिच्छिन्न ही सामर्थ्य वाला है। ईश्वर ऐसे सीमित अभिमान वाला है नहीं अतः असीमित सामर्थ्य वाला है।
ईश्वर (जगदम्बा) के निर्णयों का अनुमोदन करने के अलावा जीव कुछ कर नहीं सकता, लेकिन यह न स्वीकारने से कर्तृत्व-भ्रम पाले हुए है। जिसके फलस्वरूप भोक्तृत्व-भ्रम अनिवार्य है।
आत्मा नित्य ही सच्चिदानन्द है। अविद्या के नशे में स्वयं को और कुछ समझने पर भी वास्तव में वही है। नशा उतारने के लिये ही " स्वामी विवेकानन्द कैप्टन सेवियर- 'Be and Make ' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा " में प्रशिक्षित और C-IN-C होने के चपरास प्राप्त नेता (नवनीदा) द्वारा 3-'H' विकास के 5 अभ्यास के प्रशिक्षण को युवाओं तक पहुँचाने के लिए ही महामण्डल को आविर्भूत होना पड़ा है ।
1 . Hand या स्थूल शरीर की अवस्था में चेतना का विकास : पशु- मनुष्य - देवता आदि शरीर वाला चेतन व्यष्टि जीव कहा जाता है। परमेश्वर ही सब शरीरों में घुसकर माया से छिपा-सा रहता है। द्वैत मायामय होने से सत्य अद्वैत है यह समझना चाहिये।
व्यष्टि सूक्ष्म कारण शरीरों (Head-अन्तःकरण) में भी देव-पशु-मनुष्य आदि भेद नहीं है , क्योंकि जो आज देव है वही कल पशु पैदा हो सकता है। अतः पशु , मनुष्य और देवता का भेद केवल व्यष्टि स्थूल शरीरों में ही हैं। इससे विवेक-प्रयोग करने में आसानी हो जाती है।
साभार https://archive.org/stream/anubhuti-prakash-vidyaranya-swami/Anubhut Prakash /
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