कुल पेज दृश्य

सोमवार, 27 सितंबर 2021

[(5 मार्च 1882) परिच्छेद ~ 3,श्री रामकृष्ण वचनामृत ]

  [(5 मार्च 1882) परिच्छेद ~ 3,श्री रामकृष्ण वचनामृत ]

* श्रीरामकृष्ण समाधि में * 

सभा भंग हुई । भक्त सब इधर-उधर घूमने लगे । मास्टर भी पंचवटी आदि स्थानों में घूम रहे थे । समय पाँच के लगभग होगा । कुछ देर बाद वे श्रीरामकृष्ण के कमरे में आए और देखा उसके उत्तर की ओर छोटे बरामदे में अद्भुत घटना हो रही है ।    

श्रीरामकृष्ण स्थिर भाव से खड़े हैं और नरेन्द्र गा रहे हैं।  दो-चार भक्त भी खड़े हैं । मास्टर आकर गाना सुनने लगे । गाना सुनते हुए वे मुग्ध हो गए । श्रीरामकृष्ण के गाने को छोड़कर ऐसा मधुर गाना उन्होंने कभी कहीं नहीं सुना था । अकस्मात् श्रीरामकृष्ण की ओर देखकर वे स्तब्ध हो गए । श्रीरामकृष्ण की देह निःस्पन्द हो गयी थी और नेत्र निर्निमेष । 

 श्वासोच्छ्वास चल रहा था या नहीं-बताना कठिन है । पूछने पर एक भक्त ने कहा, यह ‘समाधि’ है । मास्टर ने ऐसा न कभी देखा था, न सुना था । वे विस्मित होकर सोचने लगे, भगवच्चिन्तन करते हुए मनुष्यों का बाह्यज्ञान क्या यहाँ तक चला जाता है? न जाने कितनी भक्ति और विश्वास हो तो मनुष्यों की यह अवस्था होती है !

         नरेन्द्र जो गीत गा रहे थे, --

चिन्तय मम मानस हरि चिद्घन निरंजन।

किबा अनूपम भाति, मोहन मूरति, भकत-हृदय-रंजन॥



नव रागे रंजित  कोटि शशी बिनिन्दित,

किबा बिजली चमके, अरूप आलोके, पूलके शिहरे जीवन॥

हृदि-कमलासने, भाब तांर चरण,

देखी शांत मने, प्रेम नयने, अपरूप प्रिय-दर्शन।

चिदानंद-रसे भक्तियोगाबेशे हो ओ रे चिर मगन॥ 


চিন্তয় মম মানস হরি চিদঘন নিরঞ্জন।

কিবা, অনুপমভাতি, মোহনমূরতি, ভকত-হৃদয়-রঞ্জন।

নবরাগে রঞ্জিত, কোটি শশী-বিনিন্দিত;

(কিবা) বিজলি চমকে, সেরূপ আলোকে, পুলকে শিহরে জীবন।

उसका भाव यह है-

“ऐ मन, तू चिद्घन हरि का चिन्तन कर । उसकी मोहनमूर्ति की कैसी अनुपम छटा है, जो भक्तों का मन हर लेती है वह रूप नये नये वर्णों से मनोहर है, कोटि चन्द्रमाओं को लजानेवाला है, -उसकी छटा क्या है मानो बिजली चमकती है ! उसे देख आनन्द से जी भर जाता है ।”  

Narendra was singing: Meditate, O my mind, on the Lord Hari, The Stainless One, Pure Spirit through and through. How peerless is the Light that in Him shines! How soul-bewitching is His wondrous form! How dear is He to all His devotees! Ever more beauteous in fresh-blossoming love That shames the splendour of a million moons, Like lightning gleams the glory of His form, Raising erect the hair for very joy.  

गीत के इस चरण को गाते समय श्रीरामकृष्ण चौंकने लगे । देह पुलकायमान हुई । आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे । बीच बीच में मानो कुछ देखकर मुस्कराते हैं । कोटि चन्द्रमाओं को लजानेवाली उस अनुपम रूप का वे अवश्य दर्शन करते होंगे । क्या यही ईश्वर-दर्शन है? कितनी साधना, कितनी तपस्या, कितनी भक्ति और विश्वास से ईश्वर का ऐसा दर्शन होता है?

[ গানের এই চরণটি গাহিবার সময় ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ শিহরিতে লাগিলেন। দেহ রোমাঞ্চিত! চক্ষু হইতে আনন্দাশ্রু বিগলিত হইতেছে। মাঝে মাঝে যেন কি দেখিয়া হাসিতেছেন। না জানি ‘কোটি শশী-বিনিন্দিত’ কী অনুপম রূপদর্শন করিতেছেন! এরই নাম কি ভগবানের চিন্ময়-রূপ-দর্শন? কত সাধন করিলে, কত তপস্যার ফলে, কতখানি ভক্তি-বিশ্বাসের বলে, এরূপ ঈশ্বর-দর্শন হয়? আবার গান চলিতেছে:

The Master shuddered when this last line was sung. His hair stood on end, and tears of joy streamed down his cheeks. Now and then his lips parted in a smile. Was he seeing the peerless beauty of God, "that shames the splendour of a million moons"? Was this the vision of God, the Essence of Spirit? How much austerity and discipline, how much faith and devotion, must be necessary for such a vision!] 

========

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें