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🔱आत्मज्ञानी महापुरुष की कृपा से ही, आत्मज्ञान की इच्छा बलवती होती है 🔱
Is God a powerful individual? जिज्ञाषु तरुणों के मन में बहुत से प्रश्न मन में उठते हैं, ईश्वर कौन है ? क्या ईश्वर कोई शक्तिमान व्यक्तिविशेष है ? (द्वैतवादी) लोग किन्तु वैसे ही ईश्वर में विश्वास रखते हैं।
स्वामीजी कहते हैं - " सर्वेश्वर (The highest principle) कभी भी व्यक्ति विशेष नहीं बन सकता। जीव है व्यष्टि; और समस्त जीवों की समष्टि है ईश्वर। जीव में अविद्या प्रबल है; ईश्वर विद्या और अविद्या की समष्टिरूपी 'माया' को वशीभूत करके विराजमान है। और स्वाधीन भाव से उस स्थावर -जंगात्मक जगत को अपने भीतर से बाहर निकाल रहा है।
[ The highest principle, the Lord of all, cannot be a Person. The Jiva is an individual and the sum total of all Jivas is the Ishvara. In the Jiva, Avidyâ is predominant, but Ishvara controls Maya composed of Avidya and Vidyâ, and independently projects this world of moving and immovable things out of Himself.
জীবের অবিদ্যা প্রবল; ঈশ্বর বিদ্যা ও অবিদ্যার সমষ্টি মায়াকে বশীভূত করে রয়েছেন এবং স্বাধীনভাবে এই স্থাবরজঙ্গমাত্মক জগৎটা নিজের ভেতর থেকে project (বাহির) করেছেন।
परन्तु ब्रह्म उस व्यष्टि-समष्टि से अथवा जीव और ईश्वर से परे है। ब्रह्म का अंशांश भाग नहीं होता। समझाने के लिए उनके त्रिपाद , चतुष्पाद आदि की कल्पना मात्र की गयी है।
But Brahman transcends both the individual and collective aspects, the Jiva and Ishvara. In Brahman there is no part. It is for the sake of easy comprehension that parts have been imagined in It.
ব্রহ্ম কিন্তু ঐ ব্যষ্টি-সমষ্টির অথবা জীব ও ঈশ্বরের পারে বর্তমান। ব্রহ্মের অংশাংশ-ভাগ হয় না। বোঝাবার জন্য তাঁর ত্রিপাদ, চতুষ্পাদ ইত্যাদি কল্পনা করা হয়েছে মাত্র।
विशिष्टाद्वैतवादी कहते हैं , ब्रह्म ही जीव-जगत के रूप में परिणत हुआ है। अद्वैतवादी कहते हैं , " विवर्तवाद के अनुसार, ब्रह्म में जीव -जगत अध्यस्त मात्र हुआ है। लेकिन जगत बन जाने पर भी, ब्रह्म में दूध से दही बन जैसा कोई परिणाम नहीं हुआ है।
The Qualified Monists hold that it is Brahman that has transformed Itself into Jivas and the universe. The Advaitins on the contrary maintain that Jivas and the universe have been merely superimposed on Brahman. But in reality, there has been no modification in Brahman.
বিশিষ্টাদ্বৈতবাদীরা বলেন, ব্রহ্মই জীবজগৎরূপে পরিণত হয়েছেন। অদ্বৈতবাদীরা বলেনঃ তা নয়, ব্রহ্মে এই জীবজগৎ অধ্যস্ত হয়েছে মাত্র; কিন্তু বস্তুতঃ ওতে ব্রহ্মের কোনরূপ পরিণাম হয়নি।
अद्वैतवादी का कहना है कि जगत केवल नाम-रूप ही है। जब तक नाम-रूप है , तभी तक जगत है। प्रत्याहार -धारणा द्वारा [वैराग्य के साथ मनःसंयोग का अभ्यास द्वारा] जब नाम-रूप लुप्त हो जाता है, उस समय एकमात्र ब्रह्म ही रह जाता है। उस समय ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान सब एक हो जाता है। उस समय ऐसा लगता है , मैं ही सच्चिदानन्द स्वरुप चैतन्य अथवा ब्रह्म हूँ - जीव का स्वरुप ही ब्रह्म है। " (६/१६३ )
The Advaitin says that the universe consists only of name and form. It endures only so long as there are names and forms. When through meditation and other practices name and form are dissolved, then only the transcendent Brahman remains. Then the separate reality of Jivas and the universe is felt no longer. Then it is realized that one is the Eternal Pure Essence of Intelligence or Brahman. The real nature of the Jiva is Brahman.
অদ্বৈতবাদীরা বলেন, নামরূপ নিয়েই জগৎ। যতক্ষণ নামরূপ আছে, ততক্ষণই জগৎ আছে। ধ্যান-ধারণা-বলে যখন নামরূপের বিলয় হয়ে যায়, তখন এক ব্রহ্মই থাকেন। তখন তোর, আমার বা জীব-জগতের স্বতন্ত্র সত্তার আর অনুভব হয় না। তখন বোধ হয় আমিই নিত্য-শুদ্ধ-বুদ্ধ প্রত্যক্-চৈতন্য বা ব্রহ্ম। জীবের স্বরূপই হচ্ছেন ব্রহ্ম; ধ্যান-ধারণায় নাম-রূপের আবরণটা দূর হয়ে ঐ ভাবটা প্রত্যক্ষ হয় মাত্র। (६/१६३ )
" जब तक 'अहंब्रह्मास्मि' यह तत्व प्रत्यक्ष न होगा , तब तक इस जन्म-मृत्यु चक्र से किसीका छुटकारा नहीं है। 'मनुष्य- जन्म' प्राप्त करके, मुक्ति की प्रबल इच्छा (मुमुक्षत्वं) होने के बाद किसी आत्मज्ञानी (ब्रह्मविद) महापुरुष की कृपा; प्राप्त होने पर ही मनुष्य को आत्मज्ञान की आकांक्षा बलवती होती है ! (तीनो दुर्लभ है-मनुष्यत्वं , मुक्षुत्वं -महापुरुष संश्रयः !) -नहीं तो कामिनी -कांचन में लिप्त (आदत के गुलाम) लोगों के मन की उधर प्रवृत्ति ही नहीं होती।
And none can escape the round of births and deaths until he realizes his identity with Brahman. Getting human birth, when the desire for freedom becomes very strong, and along with it comes the grace of a person of realization, then man’s desire for Self-knowledge becomes intensified. Otherwise, the mind of men given to lust and greed never inclines that way.
যতক্ষণ না ‘অহং ব্রহ্ম’ এই তত্ত্ব প্রত্যক্ষ হবে, ততক্ষণ এই জন্মমৃত্যু-গতির হাত থেকে কারুরই নিস্তার নেই। মানুষজন্ম লাভ করে মুক্তির ইচ্ছা প্রবল হলে ও মহাপুরুষের কৃপালাভ হলে—তবে মানুষের আত্মজ্ঞানস্পৃহা বলবতী হয়। নতুবা কাম-কাঞ্চন-জড়িত লোকের ওদিকে মনের গতিই হয় না।
जिसके मन में स्त्री,पुत्र, धन, मान प्राप्त करने का संकल्प है, (ऐषणा है ?) उसके मन में ब्रह्म को जानने की इच्छा कैसे हो ? जो सर्वस्व त्यागने को तैयार है, जो सुख-दुःख , भले-बुरे के चंचल प्रवाह में भी धीर-स्थिर, शान्त तथा दृढ़ संकल्पवान रहता है , वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट होता है। वही , 'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी' - महाबल से जगत-रूपी जाल को तोड़कर माया की सीमा को लांघ सिंह की तरह बाहर निकल जाता है। " (6/164)
How should the desire to know Brahman arise in one who has the hankering in his mind for the pleasures of family life, wealth, and for fame? He who is prepared to renounce all, who amid the strong current of the duality of good and evil, happiness and misery, is calm, steady, balanced, and awake to his Ideal, alone endeavors to attain Self-knowledge. He alone by the might of his own power tears asunder the net of the world. “निर्गच्छति जगज्जालात् पिञ्जरादिव केसरी — Breaking the barriers of Maya, he emerges like a mighty lion.”
মাগ-ছেলে ধন-মান লাভ করবে বলে মনে যার সঙ্কল্প রয়েছে, তার কি করে ব্রহ্ম-বিবিদিষা হবে? যে সব ত্যাগ করতে প্রস্তুত, যে সুখ-দুঃখ ভাল-মন্দের চঞ্চল প্রবাহে ধীর স্থির শান্ত সমনস্ক, সে-ই আত্মজ্ঞানলাভে যত্নপর হয়। সে-ই ‘নির্গচ্ছতি জগজ্জালাৎ পিঞ্জরাদিব কেশরী’—মহাবলে জগজ্জাল ছিন্ন করে মায়ার গণ্ডী ভেঙে সিংহের মত বেরিয়ে পড়ে। (6/164)
शिष्य - महाराज इस अति चंचल मन को , इन्द्रिय विषयों से खींचकर, ब्रह्म (अवतार वरिष्ठ या युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द) के चित्र में डुबों देना तो बहुत कठिन है।
[Disciple: Sir, it is so difficult to direct this uncontrolled mind towards Brahman.]
শিষ্য॥ মহাশয়, এই উদ্দাম (अहंकारी) উন্মত্ত (शराबी बानर जैसा , ईर्ष्या बिच्छू से दंशित) মনকে ব্রহ্মাবগাহী করা মহা কঠিন।
स्वामी जी - उद्देश्य और उपाय सभी तेरे हाथ में हैं। मैं एक शिक्षक , या नेता के रूप में केवल आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा (मनुष्य बनने और बनाने की इच्छा) को, तुम्हारे मन में उत्तेजित (stimulate-उद्दीप्त ) कर सकता हूँ। तू इन सब सत शास्त्रों का अध्यन कर रहा है - बड़े बड़े ब्रह्मज्ञ संन्यासियों [और नवनीदा जैसे महापुरुष] की सेवा और सत्संग कर रहा है - इतने पर भी यदि- "Idea of Renunciation" अर्थात - " श्रेय का ग्रहण , और प्रेय का त्याग " का भाव नहीं आता, तो यह जन्म व्यर्थ हो जायेगा - लेकिन समय पर, अगले जन्म में इस साधना का परिणाम अवश्य मिलेगा। (१.१६५)
Swamiji: The end and the means are all in your hands. I can only stimulate them. You have read so many scriptures and are serving and associating with such Sadhus who have known Brahman; if even this does not bring the idea of renunciation, then your life is in vain. But it will not be altogether vain; the effects of this will manifest in some way or other in time.
স্বামীজী॥ উদ্দেশ্য ও উপায়—সবই তোর হাতে। আমি কেবল stimulate (উদ্বুদ্ধ) করে দিতে পারি। এইসব সৎশাস্ত্র পড়ছিস, এমন ব্রহ্মজ্ঞ সাধুদের সেবা ও সঙ্গ করছিস—এতেও যদি না ত্যাগের ভাব আসে, তবে জীবনই বৃথা। তবে একেবারে বৃথা হবে না, কালে এর ফল তেড়েফুঁড়ে বেরুবেই বেরুবে।
>>>The person who is able to Transform the rippled lake of mind-stuff into a clean calm lake again is Leader!
>>>मन -वस्तु रूपी तरंगायित झील को पुनः स्वच्छ शांत सरोवर में परिणत कर देने में समर्थ व्यक्ति को ही नेता, 'वीर ' (Hero), पैगम्बर कहते हैं।
स्वामी जी - ' वीर ' (Hero) के लिए क्या कठिन नाम की कोई चीज है ? कापुरुष ही ऐसी बातें कहा करते हैं ! " विराणमेव करतलगता मुक्तिः, न पुनः कापुरुषाणाम। " It is the hero alone, not the coward, who has liberation within his easy reach. अभ्यास और वैराग्य के बल से मन को संयत कर। गीता में कहा है , - "अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।। [ ऋषि पतंजलि ने भी यही उपदेश दिया है- अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधाः।। (पतंजली योगदर्शन-1.12) मन को संसार से हटाना वैराग्य है और मन को भगवान (आदर्श ,नेता,गुरु, शिक्षक,अवतार, पैगम्बर, महापुरुष) में स्थित करना अभ्यास है। दादा बोलते थे -वीर हो -धीर बनो !...... 'मन की चंचलता को निरन्तर अभ्यास और विरक्ति द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।' ]
Swamiji: Is there anything difficult for the hero? Only men of faint hearts speak so. “वीराणामेव करतलगता मुक्तिः न पुनः कापुरुषाणाम् — Mukti is easy of attainment only to the hero — but not to cowards.” “अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते — By renunciation and by practice is the mind brought under control, O Arjuna.” Says the Gita (VI. 35)
স্বামীজী- বীরের কাছে আবার কঠিন বলে কোন জিনিষ আছে? কাপুরুষেরাই ও-কথা বলে।—বীরাণামেব করতলগতা মুক্তিঃ, ন পুনঃ কাপুরুষাণাম্। অভ্যাস ও বৈরাগ্যবলে মনকে সংযত কর। গীতা বলছেন, ‘অভ্যাসেন তু কৌন্তেয় বৈরাগ্যেণ চ গৃহ্যতে।’
>>चित्त अर्थात ' मनवस्तु ' (mind-stuff) : मानो एक शान्त सरोवर की तरह है। रूप -रस आदि इन्द्रिय विषयों के आघात से उसमें जो तरंगे उठ रही हैं, उसी का नाम है मन। इसीलिए मन का काम ही है संकल्प -विकल्प करते रहना। उस संकल्प-विकल्प से ही मन में वासना उठती है। [श्रेय-प्रेय विवेक प्रयोग के लिए मन को जब तक गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित नहीं किया जायेगा, उस मन में प्रेय को ग्रहण करने और श्रेय को त्यागने का संकल्प-विकल्प होता रहेगा।] उसके बाद मन की वह तीव्र इच्छा (भोग-वासना) ही क्रियाशक्ति के रूप में परिणत होकर स्थूल देह रूपी यंत्र के माध्यम से कार्य करता है। फिर कर्म जिस प्रकार अनन्त है, कर्म का फल भी वैसा ही अनन्त है। अतः अनन्त असंख्य कर्मफल रूपी तरंग में मन सदा झूला करता है। उस मन को वृत्तिशून्य बना देना होगा। [मन रूपी तरंगायित चित्त-सरोवर को] उसे पुनः स्वच्छ तालाब में परिणत करना होगा, जिससे उसमें फिर वृत्तिरूपी (स्वार्थी प्रवृत्ति रूपी) एक भी तरंग न उठ सके। तभी अन्तर्निहित ब्रह्म-तत्व (Divinity) प्रगट होगा। शास्त्रकार उसी स्थिति का आभास देते हुए कहते हैं - 'भिद्यते हृदयग्रंथिः ' आदि समझते हो भाई ? (६.१६६)
Chitta or mind-stuff is like a transparent lake, and the waves which rise in it by the impact of sense-impressions constitute Manas or the mind. Therefore the mind consists of a succession of thought-waves. From these mental waves arises desire. Then that desire transforms itself into will and works through its gross instrument, the body. Again, as work is endless, so its fruits also are endless. Hence the mind is always being tossed by countless myriads of waves — the fruits of work. This mind has to be divested of all modifications (Vrittis) and reconverted into the transparent lake, so that there remains not a single wave of modification in it. Then will Brahman manifest Itself. The scriptures give a glimpse of this state in such passages as: “Then all the knots of the heart are cut asunder”, etc. Do you understand?
চিত্ত হচ্ছে যেন স্বচ্ছ হ্রদ। রূপরসাদির আঘাতে তাতে যে তরঙ্গ উঠছে, তার নামই মন। এজন্যই মনের স্বরূপ সংকল্পবিকল্পাত্মক। ঐ সঙ্কল্পবিকল্প থেকেই বাসনা ওঠে। তারপর ঐ মনই ক্রিয়াশক্তিরূপে পরিণত হয়ে স্থূলদেহরূপ যন্ত্র দিয়ে কাজ করে। আবার কর্মও যেমন অনন্ত, কর্মের ফলও তেমনি অনন্ত। সুতরাং অনন্ত অযুত কর্মফলরূপ তরঙ্গে মন সর্বদা দুলছে। সেই মনকে বৃত্তিশূন্য করে দিতে হবে—পুনরায় স্বচ্ছ হ্রদে পরিণত করতে হবে, যাতে বৃত্তিরূপ তরঙ্গ আর একটিও না থাকে; তবেই ব্রহ্ম প্রকাশ হবেন। শাস্ত্রকার ঐ অবস্থারই আভাস এই ভাবে দিচ্ছেন—‘ভিদ্যতে হৃদয়গ্রন্থিঃ’ ইত্যাদি। বুঝলি?
"तू सर्वव्यापी आत्मा है' --इसी बात का मनन और ध्यान किया कर। मैं देह नहीं -मन नहीं -बुद्धि नहीं -स्थूल नहीं -सूक्ष्म नहीं - इस प्रकार 'नेति , नेति ' करके प्रत्यक चैतन्य रूपी अपने स्वरुप में मन डुबो दे। इस प्रकार मन को बार बार डुबो डुबो कर मार डाल। तभी ज्ञानसरूप का बोध या सच्चिदानन्द स्वरुप में स्थिति होगी। उस समय ध्याता-ध्येय-ध्यान एक बन जायेंगे। ज्ञाता -ज्ञेय-ज्ञान एक हो जायेंगे। अभी अध्यासो (M/F) की निवृत्ति हो जाएगी। इसीको शास्त्र में 'त्रिपुटी भेद' कहा है। (the transcendence of the triad or relative knowledge; देश-काल-निमित्त रूपी त्रय या सापेक्षिक सत्य का अतिक्रमण कहा है।) इस स्थिति में जानने , न जानने का प्रश्न ही नहीं रह जाता। आत्मा ही जब एकमात्र विज्ञाता , तब उसे फिर जानेगा कैसे ? आत्मा ही ज्ञान - आत्मा ही चैतन्य - आत्मा ही सच्चिदानन्द है। (६.१६६)
Think and meditate that you are the omnipresent Atman. “I am neither the body, nor the mind, nor the Buddhi (determinative faculty), neither the gross nor the subtle body” — by this process of elimination, immerse your mind in the transcendent knowledge which is your real nature. Kill the mind by thus plunging it repeatedly in this. Then only you will realise the Essence of Intelligence, or be established in your real nature. Knower and known, meditator and the object meditated upon will then become one, and the cessation of all phenomenal superimpositions will follow. This is styled in the Shâstras as the transcendence of the triad or relative knowledge (Triputibheda).
তুই সর্বগ আত্মা—এটিই মনন ও ধ্যান করবি। আমি দেহ নই, মন নই, বুদ্ধি নই, স্থূল নই, সূক্ষ্ম নই—এইরূপে ‘নেতি নেতি’ করে প্রত্যক্চৈতন্যরূপ স্ব-স্বরূপে মনকে ডুবিয়ে দিবি। এরূপে মন-শালাকে বারংবার ডুবিয়ে ডুবিয়ে মেরে ফেলবি। তবেই বোধস্বরূপের বোধ বা স্ব-স্বরূপে স্থিতি হবে। ধ্যাতা-ধ্যেয়-ধ্যান তখন এক হয়ে যাবে; জ্ঞাতা-জ্ঞেয়-জ্ঞান এক হয়ে যাবে। নিখিল অধ্যাসের নিবৃতি হবে। একেই শাস্ত্রে বলে—‘ত্রিপুটিভেদ’।
" मैंने वास्तव में इस अवस्था को प्रत्यक्ष किया है.... उसका अनुभव किया है। तुमलोग भी देखो -अनुभव करो - और जाकर जीवों को यह ब्रह्म-तत्व सुनाओ। तभी तो शान्ति पायेगा। " इस सर्वमत ग्रासिनी , सर्वमत सामञ्जसा ब्रह्मविद्या का स्वयं अनुभव कर - और जगत में प्रचार कर, उससे अपना कल्याण होगा , जीव का भी कल्याण होगा। " ब्रह्मज्ञ बनना ही चरम लक्ष्य है - परम् पुरुषार्थ है। परन्तु मनुष्य तो हर समय ब्रह्म में स्थित नहीं रह सकता ? व्युत्थान के समय कुछ लेकर तो रहना होगा ? उस समय ऐसे कर्म करना चाहिए, जिससे लोगों का कल्याण हो। इसलिए तुम लोगों से कहता हूँ, अभेद बुद्धि से जीव- सेवा के भाव से कर्म करो। परन्तु भैया कर्म के ऐसे दाँव -घात हैं कि बड़े -बड़े साधु भी इसमें (लोकेषणा, पुत्रेष्णा, वित्तेषणा में ) आबद्ध हो जाते हैं ! इसीलिए फल की आकांक्षा से शून्य होकर कर्म करना चाहिए। गीता में यही बात कही गयी है। परन्तु यह समझ लेना कि - " ब्रह्मज्ञान होने में कर्म , कहीं से भी कारक नहीं है। " सत्कर्म के द्वारा बहुत हुआ तो चित्तशुद्धि होती है। ... निष्काम कर्म से किसी किसी को ब्रह्मज्ञान हो सकता है। लेकिन यह कर्म केवल चित्त शुद्धि का उपाय है , परन्तु उद्देश्य है ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति। (६/१६७)
I have seen that state, realised it. You also see and realise it and preach this truth of Brahman to all. Then only will you attain to peace. “Realise in your own life this knowledge of Brahman which comprehends all theories and is the rationale of all truths, and preach it to the world. This will conduce to your own good and the good of others as well. The knowledge of Brahman is the ultimate goal — the highest destiny of man. But man cannot remain absorbed in Brahman all the time. When he comes out of it, he must have something to engage himself. At that time he should do such work as will contribute to the real well-being of people. Therefore do I urge you in the service of Jivas in a spirit of oneness. But, my son, such are the intricacies of work, that even great saints are caught in them and become attached. Therefore work has to be done without any desire for results. This is the teaching of the Gita. But know that in the knowledge of Brahman there is no touch of any relation to work. Good works, at the most, purify the mind. This is also a means, but the end is the realisation of Brahman.
আমি ঐ অবস্থা সত্যসত্যই দেখেছি, অনুভূতি করেছি। তোরাও দেখ, অনুভূতি কর আর জীবকে এই ব্রহ্মতত্ত্ব শোনাগে। তবে তো শান্তি পাবি। এই সর্বমতগ্রাসিনী সর্বমতসমঞ্জসা ব্রহ্মবিদ্যা নিজে অনুভব কর, আর জগতে প্রচার কর। এতে নিজের মঙ্গল হবে, জীবেরও কল্যাণ হবে। এই ব্রহ্মজ্ঞ হওয়াই চরম লক্ষ্য, পরম পুরুষার্থ। তবে মানুষ তো আর সর্বদা ব্রহ্মসংস্থ হয়ে থাকতে পারে না! ব্যুত্থান-কালে কিছু নিয়ে তো থাকতে হবে। তখন এমন কর্ম করা উচিত, যাতে লোকের শ্রেয়োলাভ হয়। এইজন্য তোদের বলি, অভেদ-বুদ্ধিতে জীবসেবারূপ কর্ম কর। কিন্তু বাবা, কর্মের এমন মারপ্যাঁচ যে বড় বড় সাধুরাও এতে বদ্ধ হয়ে পড়েন। সেইজন্য ফলাকাঙ্ক্ষাহীন হয়ে কর্ম করতে হয়। গীতায় ঐ কথায় বলেছে। কিন্তু জানবি, ব্রহ্মজ্ঞানে কর্মের অনুপ্রবেশও নেই; সৎকর্ম দ্বারা বড়জোর চিত্তশুদ্ধি হয়।
".... ब्रह्म तथा ब्रह्मज्ञ में कुछ भी अन्तर नहीं है - ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति ( ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म हो जाता है। लेकिन ) 'आत्मा को तो जाना नहीं जा सकता' क्योंकि यह आत्मा ही ज्ञाता (सत्यार्थी) और मननशील बनी हुई है - यह बात मैंने पहले ही कही है। अतः मनुष्य का जानना उसी अवतार (नेता -अवतार वरिष्ठ, नवनीदा ) तक है - जो आत्मसंस्थ है ! मानव बुद्धि ईश्वर के सम्बन्ध में जो सबसे उच्च भाव ग्रहण कर सकती है, वह वहीं तक है।
..... Between Brahman and the knower of Brahman there is not the least difference. “ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति — He who knows the Brahman becomes the Brahman” (Mundaka, III. ii. 9). The Atman cannot be known by the mind for It is Itself the Knower — this I have already said. Therefore man’s relative knowledge reached up to the Avataras — those who are always established in the Atman. The highest ideal of Ishvara which the human mind can grasp is the Avatara.
ব্রহ্ম ও ব্রহ্মজ্ঞে কিছুমাত্র তফাত নেই—‘ব্রহ্ম বেদ ব্রহ্মৈব ভবতি।’ আত্মাকে তো আর জানা যায় না, কারণ এই আত্মাই বিজ্ঞাতা ও মন্তা হয়ে রয়েছেন—এ কথা পূর্বেই বলেছি। অতএব মানুষের জানাজানি ঐ অবতার পর্যন্ত—যাঁরা আত্মসংস্থ। মানব-বুদ্ধি ঈশ্বর সম্বন্ধে highest ideal (সর্বাপেক্ষা উচ্চ আদর্শ) যা গ্রহণ করতে পারে, তা ঐ পর্যন্ত।
उस प्रकार के ब्रह्मज्ञ कभी कभी ही जगत में पैदा होते हैं। उन्हें कम लोग ही समझ पाते हैं। वे नेता (CINC नवनीदा जैसे नेता) ही शास्त्र वचनों के प्रमाण स्थल हैं - 'भवसागर के 'lighthouse' -आलोकस्तम्भ है !' इन अवतारों के सत्संग तथा कृपादृष्टि से एक क्षण में ही ह्रदय का अन्धकार दूर हो जाता है - एकाएक ब्रह्मज्ञान का स्फुरण हो जाता है। क्यों होता है ? अथवा किस उपाय से होता है , इसका निर्णय नहीं किया जा सकता , परन्तु होता अवश्य है। मैंने होते देखा है। (६/१६८)
Such knowers of Brahman are rarely born in the world. And very few people can understand them. They alone are the proof of the truths of the scriptures — the towers of light in the ocean of the world. By the company of such Avataras and by their grace, the darkness of the mind disappears in a trice and realisation flashes immediately in the heart. Why or by what process it comes cannot be ascertained. But it does come. I have seen it happen like that.
ঐরূপ ব্রহ্মজ্ঞ কদাচিৎ জগতে জন্মায়। অল্প লোকেই তাঁদের বুঝতে পারে। তাঁরাই শাস্ত্রোক্তির প্রমাণস্থল—ভবসমুদ্রে আলোকস্তম্ভস্বরূপ। এই অবতারগণের সঙ্গ ও কৃপাদৃষ্টিতে মুহূর্তমধ্যে হৃদয়ের অন্ধকার দূর হয়ে যায়—সহসা ব্রহ্মজ্ঞানের স্ফুরণ হয়। কেন বা কি process-এ (উপায়) হয়, তার নির্ণয় করা যায় না। তবে হয়—হতে দেখেছি।
@@>>> Man making method : मनुष्य निर्माण का उपाय ...... 'श्रेय' (आँवला) को ग्रहण कर - 'प्रेय ' (इमली या तम्बाकू गुल) का त्याग कर ! यह आत्म-तत्व चाण्डाल आदि सभी को सुना। सुनाते सुनाते तेरी बुद्धि भी निर्मल हो जाएगी। तत्त्वमसि , सोऽहमस्मि, सर्वं खल्विदं ब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म - आदि महावाक्यों का सदा उच्चारण कर, और ह्रदय में सिंह की तरह बल रख।
Accept the “beneficial” and discard the “pleasant”. Speak of this Atman to all, even to the lowest. By continued speaking your own intelligence also will clear up. And always repeat the great Mantras — “तत्वमसि — Thou art That, “सोऽहमस्मि — I am That”, “सर्वं खल्विदं ब्रह्म — All this is verily Brahman” — and have the courage of a lion in the heart.
‘শ্রেয়ঃ’কে গ্রহণ কর, ‘প্রেয়ঃ’কে পরিত্যাগ কর। এই আত্মতত্ত্ব আচণ্ডাল সবাইকে বলবি। বলতে বলতে নিজের বুদ্ধিও পরিষ্কার হয়ে যাবে। আর ‘তত্ত্বমসি’, ‘সোঽহমস্মি’, ‘সর্বং খল্বিদং ব্রহ্ম’ প্রভৃতি মহামন্ত্র সর্বদা উচ্চারণ করবি এবং হৃদয়ে সিংহের মত বল রাখবি।
भय क्या है ? भय ही मृत्यु है - भय ही महापातक है। नररूपी अर्जुन को भय हुआ था - इसीलिए भगवान श्री कृष्ण ने आत्मसंस्थ होकर उन्हें गीता का उपदेश दिया ; फिर भी कि क्या उनका भय चला गया था ? अर्जुन जब विश्वरूप का दर्शन कर स्वयं आत्मसंस्थ हुए तभी वे ज्ञानाग्नि-दग्धकर्मा बने और उन्होंने युद्ध किया।
What is there to fear? Fear is death — fear is the greatest sin. The human soul, represented by Arjuna, was touched with fear. Therefore Bhagavân Shri Krishna, established in the Atman, spoke to him the teachings of the Gita. Still his fear would not leave him. Later, when Arjuna saw the Universal Form of the Lord, and became established in the Atman, then with all bondages of Karma burnt by the fire of knowledge, he fought the battle.
ज्ञान-प्राप्ति के बाद साधारण लोग जिसे कर्म कहते हैं , वैसा कर्म नहीं रहता। उस समय [ व्यवसाय में मुकदमेंबाजी या युद्ध जैसा घोर कर्म ] कर्म भी 'जगद्धिताय ' हो जाता है। आत्मज्ञानी की सभी बातें जीव के कल्याण के लिए होती हैं। मैंने श्री रामकृष्ण (CINC नवनीदा) को देखा है - देहस्थोपि न देहस्थः - (देह में रहते हुए भी देह में न रहना ) यह भाव ! वैसे नेताओं/ जीवनमुक्त शिक्षकों के कर्म के उद्देश्य के सम्बन्ध में केवल यही कहा जा सकता है - "लोकवत्तु लीला कैवल्यं " (ब्रह्मसूत्र - 2.1.33) - जो कुछ वे करते हैं , वे लोक में लीला रूप में है। (६/१६९)
After realisation, what is ordinarily called work does not persist. It changes its character. The work which the Jnani does only conduces to the well-being of the world. Whatever a man of realisation says or does contributes to the welfare of all. We have observed Shri Ramakrishna; he was, as it were, “देहस्थोऽपि न देहस्थः — In the body, but not of it!” About the motive of the actions of such personages only this can be said: “लोकवत्तु लीलाकैवल्यम् — Everything they do like men, simply by way of sport” (Brahma-Sutras, II. i. 33).
জ্ঞানলাভের পর সাধারণের যাকে কর্ম বলে, সেরূপ কর্ম থাকে না। তখন কর্ম ‘জগদ্ধিতায়’ হয়ে দাঁড়ায়। আত্মজ্ঞানীর চলন-বলন সবই জীবের কল্যাণসাধণ করে। ঠাকুরকে দেখেছি ‘দেহস্থোঽপি ন দেহস্থঃ’৬৬ —এই ভাব! ঐরূপ পুরুষদের কর্মের উদ্দেশ্য সম্বন্ধে কেবল এই কথামাত্র বলা যায়—‘লোকবত্ত লীলা-কৈবল্যম্।’৬৭
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[ वार्ता एवं संलाप : संख्या ३२ : स्थान बेलुड़ मठ। वर्ष : १८९९ ई०/ XV : (Translated from Bengali ) 'Conversations and dialogues:'/Place : Belur Math. Year :1899/ (অধ্যায় - ৩২/ স্থান—বেলুড় মঠ/ কাল—১৯০০)/ thakurmaaswamiji.com/2021/08/swami-sisya-sambada.html#point5]
नेता की कृपा से ही पशु (घोर स्वार्थी) से मनुष्य बनने, और मनुष्य से देवता (पूर्ण निःस्वार्थी -D-hypnotized हो जाने या बुद्ध) बनने की इच्छा बलवती होती है। नहीं तो तीनों ऐषणाओं से जकड़ा मनुष्य, (भेंड़त्व से , आदत की गुलामी से ) आदतों का (कामिनी-कांचन, नामयश में आसक्ति का- ) इतना गुलाम हो चुका होता है कि वह मन को विषयों से खींचकर ह्रदय में विद्यमान महापुरुष नेता गुरु या अवतार पर अपने मन को एकाग्र करना ही नहीं चाहता। 'स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित, या इस जन्म के CINC नवनीदा जैसे किसी मार्गदर्शक नेता, जीवनमुक्त शिक्षक, पैगम्बर, की कृपा प्राप्त होने पर ही- कोई सत्यार्थी श्रद्धा और विवेक-प्रयोग > 'श्रेय का ग्रहण -प्रेय का त्याग' करने में समर्थ होता है। ]
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>>>Self-confidence Awakening Education or 'Enlightenment Education' of Swami Vivekananda: स्वामी विवेकानन्द की 'ज्ञानोदय शिक्षा', यानि आत्मश्रद्धा जागरण शिक्षा ।' : (આત્મવિશ્વાસ જાગૃત શિક્ષણ અથવા સ્વામી વિવેકાનંદનું 'બોધ શિક્ષણ)
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🔱🙏'भवसागर के 'lighthouse' -आलोकस्तम्भ !'🔱🙏
स्वामी जी अपने, 'विश्व के महान शिक्षक' नामक भाषण (जो शेक्सपियर क्लब, पासाडेना, कैलिफोर्निया में 3 फरवरी, 1900 को दिया गया था) में कहते हैं - " मानवजाति के सभी महान आचार्यों (नेताओं, पैगम्बरों) में तुम्हें एक लक्षण सर्वत्र दिखेगा कि उनमें प्रचण्ड आत्मविश्वास भरा होता है। उनका यह आत्मविश्वास असाधारण है, इसीलिए उन्हें हम पूर्णतया नहीं समझ सकते। जब वे बोलते हैं, तो एक एक शब्द सीधे ह्रदय में प्रवेश करता है ,... कभी कभी हम देखते हैं कि मौन रहकर भी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में सत्य संचार करते जाते हैं। ये महान शिक्षक इस पृथ्वी पर जीवंत ईश्वरस्वरूप है। इनके अतिरिक्त हम और किनकी उपासना करें ? (७/ १८०-१)
"अपनी मानसिक चहारदीवारी को भला कौन स्वयं पार कर सकता है ? ये नर देव - ये मानवरूप-धारी देवता, सदा से, सभी जातियों एवं सभी राष्ट्रों में चिरकाल से पूजित होते रहे हैं, और तब तक पूजित होते रहेंगे, जब तक मानव मानव ही बना रहेगा। (अर्थात पशु से मनुष्य और मनुष्य से ईश्वर बंनने की चेष्टा नहीं करेगा ?) तुममें से जो जो किसी एक विशेष अवतार (अपने देश के पैगम्बर या नेता) में ही सत्य एवं ईश्वर की अभिव्यक्ति देखते हैं, और दूसरे में नहीं , उनके विषय में मेरा स्वाभाविक निष्कर्ष यही है कि वे किसी भी अवतार के ईश्वरत्व को नहीं जानते। (अर्थात वे यह नहीं जानते कि बिना किसी मार्गदर्शक गुरु के सहायता के बिना कोई व्यक्ति देश-काल-निमित, माया के राज्य को पार कर ब्रह्म में कैसे पहुँच सकता है ? (७/१८२)
" एक बात और गौर करने की है ; वह यह कि मानवजाति के सभी महान शिक्षक स्वार्थशून्य हैं ! ... जहाँ कहीं किसी असाधारण शक्तिसम्पन्न एवं पवित्र आत्मा को मानवजाति के उत्थान के लिए प्रयत्न करते हुए देखो, तो यह जान लो कि वह मेरे ही तेज से उत्पन्न हुआ है , मैं उसके माध्यम से कार्य कर रहा हूँ। " (ईशदूत ईसा -७.२२८)
" जब एक अवतार जन्म लेता है,तो समस्त संसार में आध्यात्मिकता की एक बाढ़ आ जाती है। और लोग वायु के कण कण में धर्म-भाव का अनुभव करने लगते हैं। 4/28 श्रीरामकृष्ण का नाम जिनको मिल गया वे धन्य हैं, कुलं पवित्रं जननी कृतार्था !6/212""नर रूप धारी अवतार की पहचान क्या है ? जो मनुष्यों के विनाश के दुर्भाग्य को बदल सके, वह भगवान है। मुझे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई पड़ता, जो रामकृष्ण को भगवान समझता हो। उन्हें (रामकृष्ण को) भगवान के रूप में जान लेने और साथ ही संसार से आसक्ति रखने में संगती नहीं है। " 10/401 "हम भविष्य में क्या होने वाले हैं,कितने महान होने वाले है-यह क्या ईश्वर नहीं जानता? सभी मनुष्य जीवन्त ईश्वर हैं,जीवन्त ईसा हैं- इस भाव से सबको देखो। मनुष्य का अध्यन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है।" ७/१०४
" वर्तमान युग का हिन्दू युवक, सनातन धर्म के अनेक पंथों की भूल-भुलैयों में भटका हुआ है। अपने भ्रमात्मक पुवाग्रहों से ग्रस्त रहने और धर्म के मर्म को नहीं समझने के कारण, उन पाश्चात्य देशों से - जिन्होंने निरी भौतिकता के सिवाय कभी और कुछ नहीं जाना, आध्यात्मिक सत्य का अवैज्ञानिक पैमान उधार लेकर अँधेरे में टटोलता हुआ, अपने पूर्वजों के धर्म को समझने का व्यर्थ कष्ट उठाता है। किन्तु अन्त में उस खोज को बिल्कुल त्याग देता है और या तो वह निपट अज्ञेय-वादी बन जाता है,या अपनी धार्मिक प्रवृत्ति की प्रेरणाओं के कारण पशुजीवन बिताने में असमर्थ होकर किसी आधे-अधूरे बाबा या धूर्त (मौलवी-पण्डित का चोला ओढ़े धार्मिक नेता) को अवतार या ईश्वर का संदेश-वाहक कहकर पूजने लगता है, और -परियन्ति मूढ़ा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः को चरितार्थ करता है। 'They alone escape whose spiritual nature has been touched and vivified by the life-giving touch of the "Sad-Guru". केवल वे ही बच पाते हैं, जिनका मुरझाया हुआ ह्रदय सद्गुरु के संजीवनी स्पर्श (जीवनदायी स्पर्श) से हरभरा हो जाता है -अर्थात जिनकी आत्मश्रद्धा पुनरुज्जीवित (vivified) हो जाती है !" आचार्य शंकर ने बहुत सुन्दर ढंग से कहा है -
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुशसंश्रयः॥
- ये तीन दुर्लभ हैं और ईश्वर के अनुग्रह से ही प्राप्त होते हैं - मनुष्य योनि में जन्म, मोक्ष (भ्रम-मुक्त या D-hypnotized) की तीव्र इच्छा और किसी जीवनमुक्त शिक्षक, गुरु, नेता पैगम्बर का सानिध्य।
...... चाहे सन्त कबीरदास के संन्यासी शिष्यों को - 'सत साहब बन्दगी।' कहकर प्रणाम करो और साखी (कबीर के भजनों) के श्रवण का आनन्द उठाओ; चाहे राजपुताना के सुधारक दादू के अद्भुत ज्ञान-भण्डार को पढ़ो या उनके राजशिष्य सुन्दरदास से लेकर उस 'विचारसागर' के प्रख्यात लेखक निश्चलदास के ग्रंथों को ही पढ़ो -(९/३६१,२,३,४) .... एक भाव हिन्दू धर्म में संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा विशेष है। वह यह कि मनुष्य को इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति करनी होगी और अद्वैत ग्रन्थ [इस प्राचीन वैदिक महावाक्य - 'एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति' के आविष्कार के बाद ] अत्यन्त प्रमाणयुक्त तर्क के साथ उसमें यह जोड़ देते हैं कि ,' ईश्वर को जानना ही ईश्वर हो जाना है ' -ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति।' "To know God is to become God."(मुण्डकोपनिषत् ३-२-९) इसके आवश्यक फलस्वरूप जो उदार और अत्यन्त प्रभावशाली मत घोषित हुआ, जिसे न केवल विदुर,धर्मव्याध, " जानत तुमहिं तुमहिं ह्वै जाई " (तुलसी रामायण, अयोध्याकाण्ड) आदि ने ही कहा है , वरन अभी कुछ समय पूर्व दादू-पंथी सम्प्रदाय के त्यागी सन्त निश्चलदास ने अपने 'विचारसागर' में स्पष्टतापूर्वक कहा है -"He who has known Brahman has become Brahman. His words are Vedas, and they will dispel the darkness of ignorance, either expressed in Sanskrit or any popular dialect."
जो ब्रह्मविद वही ब्रह्म है,
ताको वाणी वेद।
भाषा अथवा संस्कृत में,
करत भेद-भ्रम का छेद।।
~ विचार सागर
-अर्थात जिसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्म बन गया, उसकी वाणी वेदरूप है, और उससे अज्ञान का अंधकार दूर हट जायेगा, चाहे वह वाणी संस्कृत में हो या किसी लोकभाषा में हो।"
" वेद के वचन विना ज्ञान नहीं होगा " --- ऐसा कोई नियम नहीं | जैसे आयुर्वेद में जो रोग, उसका लक्षण एवं औषध कहा हैं, वह अन्य संस्कृतग्रंथ अथवा भाषाग्रंथ पढ़कर पूर्णरूप से ज्ञात होना संभव हैं, वैसे आत्मा एवं ब्रह्मविषयक ज्ञान भी भाषाग्रंथ से प्राप्त करना संभव हैं | "
भाषाग्रंथ से ज्ञान नहीं होता ये मानना हठमात्र हैं। इसी अभिप्राय से गुरु नानक देवजी, दादूजी, रामदास स्वामी, एकनाथस्वामी आदि अनेक महात्मा पुरुषों ने प्राकृतवाणी में रचना की हैं, जो कल्याणकारक हैं। ये ग्रंथों संस्कृत के अभ्यास से रहित पुरुषों के लिए ज्ञानद्वारा कल्याण का हेतु हैं।
सूत्र भाष्य वार्तिक प्रभृति,
ग्रंथ बहुत सुरबानि।।
तथापि मैं भाषा करूं,
लखि मतिमंद अजानि।।७।।
~ विचारसागर
" यद्यपि सूत्र, भाष्य, वार्तिक आदि से लेकर बहुत सारे संस्कृत ग्रंथ उपलब्ध हैं, तथापि संस्कृतग्रंथ से मंदबुद्धि पुरुष को बोध नहीं होता। परंतु भाषाग्रंथ से मन्दबुद्धि पुरुष को भी बोध होता हैं। इसलिए भाषाग्रंथ की रचना निष्फल नहीं ; किन्तु संस्कृत ग्रंथ पर विचार करने में जिनकी बुद्धि समर्थ नहीं हैं, उनके निमित्त ये ग्रंथ आरंभ किया जा रहा हैं। "
>>>बनारस के संत निश्चलदास दहिया गोत्री जाट थे। वे स्वयं भी संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान् थे, जाट परिवार में जन्म लेकर भी उन्होंने बनारस में संस्कृत का अध्यन किया था,किन्तु लोक कल्याण के लिये लोक-भाषा में ही उपदेश देते थे। डंके की चोट पर यह घोषणा- 'जो ब्रह्मवेत्ता पुरुष हैं, सो ब्रह्मरूप हैं।' उन्होंने कहा था, " जो यह कहते हैं कि 'वेद का अध्यन किये बिना किसी को ज्ञान नहीं होता'-सो नीयम नहीं है। जैसे सिर-दर्द की जो दवा है, उस दवा के नाम को संस्कृत में लिखें, या फारसी में उसके खाने से आराम अवश्य मिलता है। उसी प्रकार जो ब्रह्म सभी की आत्मा हैं, उसका ज्ञान भी लोक-भाषा में लिखे ग्रन्थों 'रामायण' आदि ग्रंथों से किसी वर्ण या किसी उम्र के व्यक्ति को भी हो सकता है। इसीलिये मैं चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र), चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) में जो संत हुए हैं और जो इस संसार-सागर से पार होकर परब्रह्म स्वरूप में लीन हुए हैं, हो रहे हैं या होंगे, उन सभी साधुओं को वन्दना करता हूँ। और इसी प्रकार आगे भी श्री हरि के अवतार- मानवजाति के सभी मार्गदर्शक नेता; गुरु-सन्तों, पैगम्बरों, जीवन्मुक्त शिक्षकों को प्रणाम करने वाले सभी मनुष्य इस भवसागर से अवश्य पार होंगे!"
>>प्रकाश स्तम्भ (lighthouse) जैसे शिक्षक, किस प्रकार साधारण मनुष्य को भवसागर से पार ले जाते हैं ? इसका वर्णन करते हुए संत निश्चल दास कहते थे, जैसे सूर्य के सामने आतसी शीशा (Convex lens-उत्तल लेंस) रखने से, उसके 'focal point' या केन्द्रबिन्दु पर सूर्य की किरणों से अग्नि प्रकट होती है और कागज जलने लगता है। उसी प्रकार ब्रह्मविद नेता, जीवनमुक्त- शिक्षक, या महामण्डल के वार्षिक युवा -प्रशिक्षण शिविर में मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने वाले गुरु-नेता (CINC नवनीदा), जब किसी शिष्य को अपना प्रिय-पात्र समझकर उसको अपने ध्यान का 'focal point' (केंद्र बिंदु) बना लेते हैं ; तब उनके जीवन और सन्देश रूपी 'उत्तल ताल' -" जीवन नदी के हर मोड़ पर ग्रन्थ " नामक ग्रंथ का अध्यन और वैराग्य पूर्वक प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास करते रहने से एक दिन अचानक (बनारस, कबीरचौरा अस्पताल के निकट, ऊँच पुल पर) शिष्य के अन्त:करण में ब्रह्म-प्रकाश प्रकट हो जाता है। यह " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा ~ Be and Make ~ गुरु-परम्परा वेदों से प्रारम्भ हुई। गुरु-परम्परा को मानना वैदिक परम्परा का स्वीकार भी है और आस्तिकता या नचिकेता वाली आत्मश्रद्धा का स्वीकार भी। क्योंकि 'आत्मा का ज्ञान' अधयात्म रहस्य का विषय है। गूढ़ है। इसलिए निर्गुणपंथी संतों में गुरु की भूमिका अनिवार्य हो जाती है। स्वामी निश्चलदास के मतानुसार सूफ़ी संत सरमद भी एक ' ब्रह्मविद ' थे, इसीलिये उनकी वाणी भी वेद है, एक उदहारण उनके वचनों में देखिये -
" ऐ आदमी, तू एक पहेली है !
तू सिर्फ उसे जानता है,
जो कि दिखाई देता है।
लेकिन तेरी हकीकत ढंकी हुई है
तू जिस्म नहीं, जान (spirit) है !
जैसे सियाह कांच के पीछे छिपी हुई लौ
तेरी रोशनी छिपी है,
लेकिन कांच (चित्त, मनवस्तु) के पीछे तेरी बेपर्दा हकीकत है।।"
इसीलिए स्वामी जी कहते हैं - " इस प्रकार द्वैतवादियों के मतानुसार - जिसे (सर्वव्यापी परम् सत्य-या) ब्रह्म (अवतार वरिष्ठ भगवान श्री रामकृष्ण के दोनों रूपों- निराकार और साकार) की अनुभूति करना (to realize God ) कहते हैं, या अद्वैत वादियों के मत के अनुसार 'ब्रह्म (ईश्वर-100 % Unselfish ) बन जाना ही मनुष्य बन जाना है!' (To become Brahman is to become a human being.) -- यही वेदों के समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है, और उसके अन्य उपदेश हमारी, उस लक्ष्य की ओर प्रगति के लिये सोपान स्वरूप हैं।" (९/३७१)
" पहले हमें मनुष्य (ब्रह्मविद भगवान) बन लेने दो। ततपश्चात दूसरों को मनुष्य (ब्रह्मविद भगवान) बनाने में सहायता देंगे। "Be and make." मनुष्य बनो और बनाओ '- यही हमारा मूल-मंत्र रहे। ऐसा न कहो कि कोई भी मनुष्य पापी है। उसे यह बताओ कि तू ब्रह्म है। यदि कोई शैतान हो, तो भी हमारा कर्तव्य यही है कि हम ब्रह्म का ही स्मरण करें, शैतान का नहीं। " First, let us be Gods, and then help others to be Gods. "Be and make." Let this be our motto. Say not man is a sinner. Tell him that he is a God. Even if there were a devil, it would be our duty to remember God always, and not the devil. " ... हम यही कहते रहें -"We are" -"God is" and "We are God", " हम (पूर्ण) हैं; और ईश्वर (पूर्ण) हैं ! और हम ईश्वर (100 % निःस्वार्थी) हैं। " -- 'चिदानन्द रूपः शिवोहम् ,शिवोहम् !!' कहते हुए आगे बढ़ते चलो -इस नश्वर जड़ शरीर (के परे), जो शाश्वत -अविनाशी चैतन्य हमारा स्वरुप है, वही हमारा लक्ष्य है। (उस इन्द्रिया-तीत सत्य, सच्चिदानन्द का साक्षात्कार करो।) नाम और रूप वाले सभी पदार्थ (दृश्यमान जगत ) नामरूपहीन सत्ता (ब्रह्म) के अधीन है। इसी सनातन सत्य की शिक्षा श्रुति दे रही है। प्रकाश को ले आओ, अन्धकार आप ही आप नष्ट हो जायेगा। वेदान्त-केसरी गर्जना करे, सियार अपने बिलों में छिप जायेंगे। " भारत का पुनरुत्थान होगा, पर वह जड़ की शक्ति से नहीं, वरन आत्मा की शक्ति द्वारा। अपनी अन्तर्निहित दिव्यता (पूर्णता) को प्रकट करो, और सब कुछ उसके चारों ओर सामंजस्यपूर्ण ढंग से व्यवस्थित हो जाएगा।" ऐसा मत कहो कि हम दुर्बल हैं, कमजोर हैं। आत्मा सर्वशक्तिमान है। भविष्य मुझे दीखता नहीं, और मैं उसे देखने की चिंता भी नहीं करता। परन्तु मैं अपने सामने यह एक सजीव दृश्य देख रहा हूँ - " हमारी यह प्राचीन माता पुनः एक बार जाग्रत होकर अपने सिंहासन पर नवयौवनपूर्ण और पूर्व की अपेक्षा अधिक महिमान्वित होकर विराजी है। (९/३७९,८०,८१)
भारत माता के गौरवशाली सिंहासन पर बैठने का सजीव दृश्य देखने के पीछे उसका ठोस आधार -बतलाते हुए पूज्य दादा ने 'सरिसा आश्रम कैम्प' में अंग्रेजी कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग की कविता को उद्धृत करते हुए कहा था - " Progress, man’s distinctive mark alone, Not God’s, and not the beasts’: God is, they are, Man partly is and wholly hopes to be.“ - अर्थात उन्नति, पशुत्व से देवत्व में विकसित हो जाना, या संकीर्ण ह्रदय के स्वार्थी मनुष्य से पूर्ण ह्रदय विकसित मनुष्य (100 % निःस्वार्थी) बन जाना, केवल मनुष्यों की ही विशिष्ट पहचान है। भगवान की नहीं, और पशुओं की भी नहीं : क्योंकि भगवान तो पहले से पूर्ण हैं, पशु भी पूर्ण है। किन्तु मनुष्य आंशिक रूप से निःस्वार्थी है और पूर्णतया निःस्वार्थपर बन जाने का प्रयत्न करता रहता है।"
क्योंकि क्रमविकास शरीर का होता है; आत्मा का नहीं ! 'मनुष्य शरीर' में क्रमविकसित हो जाने के बाद 'ब्रह्मविद मनुष्य' इच्छा होती है कि ईश्वर (पूर्णतः निःस्वार्थ ) बन जाएँ। अर्थात उन्नति, जगत से ब्रह्म में आरोहण या भवसागर से पार-गमन (crossing) की चेष्टा करने की आवश्यकता ईश्वर को नहीं है, पशुओं में तो इसकी क्षमता भी नहीं है, यह केवल मनुष्यों का ही वैशिष्ट्य है। ईश्वर तो पूर्णता में ही विराजमान रहते हैं, उनके आरोहण (ascension) का तो प्रश्न ही नहीं उठता। पशु की प्रजातियाँ (गाय-भैंसें,गधे आदि) ' सतयुग ' में जैसे थे, आज तक वैसी ही हैं। किन्तु अपूर्ण होने पर भी मनुष्य पूर्णता में पहुँचने की आशा लेकर उन्नति के लिये प्रयत्न करता है। उर्दू के प्रसिद्द शायर जलालुद्दीन रूमी का एक प्रसिद्द नज्म है -
'आदमी की तरक़्क़ी'
(मनुष्य का क्रमविकास)
१.बेजान चीज़ों से मर गया, पौधा बन गया।
फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया।
हैवानों से मर गया और 'आदमी ' हो गया.
डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?"
डरूँ क्यों, कि कब। ......
अगली दफ़े आदमियों के बीच से मर जाऊँ;
ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ।
और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना;
क्युंके सिवा 'उस' के हर शै को है फ़ना हो जाना।
एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा।
फिर जो सोच में नहीं आता, मैं 'वो' (ब्रह्म) हो जाऊँगा !!
इसका तात्पर्य यह है कि खनिज, उद्भिज, पौधा, स्थावर-जंगम, पशु आदि योनियों से उन्नत होते हुए अन्त में यह मनुष्य का शरीर प्राप्त हुआ है। किन्तु यही अन्त नहीं है, शरीर का क्रम-विकास (आत्मा का नहीं) अब भी चलना चाहिये। मनुष्य को अपना वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए (अर्थ-काम-मोक्ष के मार्ग पर चलते हुए) मनुष्य को देवता (ब्रह्म) में विकसित हो जाना चाहिये। देवता बन जाने के लिये स्वर्ग -नरक जाने की आवश्यकता नहीं है। Heart whole Man, man with capital 'M', d-hypnotized, भ्रममुक्त मनुष्य, (100 में 85 खा जाने वाला PM नहीं) शतप्रतिशत निःस्वार्थपर मनुष्य अथवा 'देवता जैसा मनुष्य' बनकर भी धरती पर ही रहा जाता है। यह कैसे सम्भव होता है ? यह सम्भव होता है - वैराग्य सहित, 'श्रेय को ग्रहण करने, और प्रेय का त्याग करने' का अभ्यास करने से। मन (awareness-चेतना) की अनन्त शक्ति को अपने वश में ले आने से सबकुछ सम्भव हो जाता है।
स्वामी विवेकानन्द का युवाओं के प्रति आह्वान था- Be and Make ! वास्तव में यह वेदान्त के चार संस्कृत महावाक्यों जैसा अंग्रेजी का एक महावाक्य है ! इस महावाक्य में स्वामी जी ने हमें सर्वप्रथम 'Be'- होने का अर्थात 'पूर्ण हृदयवान मनुष्य' (Heart whole Man-या शतप्रतिशत निःस्वार्थपर मनुष्य) बनने का आदेश दिया है, अगले ही शब्द में वैसा मनुष्य बनने का उपाय ~ 'Make ' बताते हुए कहते हैं- 'अपने भीतर ब्रह्म-भाव को जाग्रत रखने का सबसे सरल तरीका है, दूसरों को इस कार्य में ~ सहायता करना।' [ अर्थात " श्रेय को ग्रहण करने और प्रेय का त्याग" करने के लिए अपने निकट रहने वालों प्रोत्साहित करते रहना ] तुम स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने और दूसरों को मनुष्य बनाने के प्रयत्न में आगे बढ़ो! आगे बढ़ो! 'चरैवेति चरैवेति !' क्योंकि 'पूर्णहृदयवान सच्चा मनुष्य' बन जाना यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है।
[साभार-मनःसंयोग-4 [ 29-12 -2018 : 'सरिसा आश्रम कैम्प' : The Best Class of Nda] / http://vivek-anjan.blogspot.com/2019/03/4-29-12-2018-best-class-of-nda.html/ रविवार, 3 मार्च 2019]
Let us say, "We are" and "God is" and "We are God", "Shivoham, Shivoham", and march on. Not matter but spirit. All that has name and form is subject to all that has none. This is the eternal truth the Shrutis preach. ...India will be raised, not with the power of the flesh, but with the power of the spirit; Manifest the divinity within you, and everything will be harmoniously arranged around it. Say not that you are weak. The spirit is omnipotent. Bring in the light; the darkness will vanish of itself. Let the lion of Vedanta roar; the foxes will fly to their holes. I do not see into the future; nor do I care to see. But one vision I see dear as life before me: that the ancient Mother has awakened once more, sitting on Her throne rejuvenated, more glorious than ever.
(३)
🔱🙏व्यावहारिक जीवन में वेदांत >अर्थात आत्मश्रद्धा और विवेक-प्रयोग🔱🙏
Vedanta and Everyday Life
વેદાંત અને રોજિંદા જીવનશૈલી
वेदान्त के सिद्धान्त 'Immense idealistic ' अपार आदर्शवादी होने के साथ साथ यदि 'Immense Pragmatic' अपार व्यावहारिक भी नहीं हों, अर्थात उनका प्रयोग यदि हम अपने दैनन्दिन जीवन के हर क्षेत्र में नहीं कर सकते हों, तो उसकी अन्य कोई प्रासंगिकता है ही नहीं। " वेदान्त के सिद्धान्तों को यदि कार्यरूप में परिणत नहीं किया जा सके तो बुद्धि-विलास के अतिरिक्त उसका और क्या मूल्य है ? हजारों वर्ष पहले एक ऋषि ने वेदान्त के मूल सिद्धान्त की घोषणा करते हुए कहा था - 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' - ऋग वेद (1:164:46) “सत्य एक है, पर ज्ञानीजन उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं।” [क्योंकि जो एकमेवाद्वितीय सच्चिदानन्द (Existence-Consciousness, Bliss), निर्गुण-निराकार ब्रह्म, अल्ला, गॉड, आत्मा, चैतन्य हैं वे ही 'घनीभूत' (Condensed) होकर अनेक नाम-रूपों में दिखाई पड़ रहे हैं।]
वेदान्त के इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए भगिनी निवेदिता विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में लिखती हैं - " यदि 'अनेक' और 'एक' मन की विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न दृष्टिकोण से देखा जाने वाला एक ही सत्य है; अथवा श्री रामकृष्ण ने उसी सिद्धान्त को इस प्रकार व्यक्त किया है - " ईश्वर साकार और निराकार, दोनों है। ईश्वर वह भी है, जिसमें साकार और निराकार दोनों ही समाविष्ट हैं।" अतएव " यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य हैं, तो यह 'ज्ञान' भक्ति से से अलग नहीं, वरन भक्ति को अभिव्यक्त करने का ठोस आधार भी अद्वैत ज्ञान ही है। उस ज्ञानी (ब्रह्मविद) के लिए कारखाना, खेत और खेल का मैदान आदि भगवान के साक्षात्कार के वैसे ही उत्तम और योग्य स्थान हैं, जैसे साधु की कुटी या मन्दिर का द्वार। उनके लिए मानव की सेवा और ईश्वर की पूजा, सच्चे चारित्रिक बल (true strength of character) और आध्यात्मिकता (spirituality) में, पौरुष (manliness) तथा आत्मश्रद्धा (faith-आस्तिक्य-बुद्धि) में कोई भेद नहीं रह जाता। ....उसी प्रकार लौकिक (secular) और धार्मिक (sacred) जीवन में जो एक काल्पनिक भेद है, वह भी समाप्त हो जाता है। कर्म करना ही उपासना करना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग करना है। स्वयं जीवन ही धर्म है। प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना उतनी ही कठोर तपस्या है, जितना कि त्याग करना और विमुख होना।" एक दृष्टि से उनकी सम्पूर्ण वाणी को इसी केन्द्रीय दृढ़ आस्था के भाष्य के रूप में पढ़ा जा सकता है। एक बार उन्होंने कहा था -" कोई भी पेशा, कला, विज्ञान एवं धर्म एक ही सत्य की अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यम हैं। लेकिन इसे समझने के लिए हमें अवश्य ही अद्वैत का सिद्धान्त चाहिए। "
["If the Many and the One be indeed the same Reality, perceived by the mind at different times and in different attitudes; or as Sri Ramakrishna expressed the same thing, "God is both with form and without form. And He is that which includes both form and formlessness. " then it is not all modes of worship alone, but equally all manners of work, all ways of struggle, all methods of creation, which are paths of realization—no distinction, henceforth, between sacred and secular. To labor is to pray. To conquer is to renounce. Life is itself religion. To have and to hold is as stern a trust as to quit and to avoid."]
'अनेकता में एकता' (unity in diversity) के इस वेदान्ती उपदेश के सामने - धार्मिक और सांसारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद चला आ रहा था, उसे अब बिल्कुल समाप्त हो जाना चाहिए। वेदान्त के अनुसार धर्म के जो आदर्श हैं (त्याग और सेवा, Be and Make) उससे अपने जीवन के सभी क्षेत्रों को आच्छादित कर लेना चाहिए, इन्हें हमारे प्रत्येक विचार के भीतर प्रविष्ट होकर, हमारे समस्त कार्यों के माध्यम से अधिकाधिक अभिव्यक्त भी होना चाहिए।
" व्यावहारिक जीवन में वेदान्त " 1896 ई० में स्वामी विवेकानन्दजी द्वारा लन्दन में 'व्यावहारिक वेदान्त' विषय पर दिये गये चार भाषणों का संग्रह है। साधारण लोगों में यह धारणा प्रचलित है कि वेदान्त (अद्वैत दर्शन) केवल सिद्धान्तों का समुच्चय ही है, और हमारे दैनन्दिन कर्म-जीवन के विभिन्न पहलुओं के साथ उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। वह केवल कुछ बुद्धिवादियों के मस्तिष्क की चहारदीवारी तक ही सीमित है, अतः व्यावहारिक जीवन में इसका कुछ भी महत्त्व नहीं है।
परन्तु अपने चार भाषणों की शृंखला में स्वामीजी ने स्पष्ट दर्शा दिया है कि वेदान्त किस प्रकार अत्यन्त व्यावहारिक है, तथा वह मनुष्य को किस प्रकार अपने सर्वागीण जीवन-गठन में सहायता प्रदान करता है। इन भाषणों में स्वामीजी ने वेदान्त के प्रमुख सिद्धान्तों की आलोचना करते हुये उनको दैनन्दिन जीवन में व्यवहृत करने का मार्ग स्पष्टरूपेण निर्दिष्ट कर दिया है। उन्होंने दिखला दिया है कि किस प्रकार राजा के कर्मव्यस्त जीवन से लेकर मोची, मछुआरा तक सभी प्रकार के जीवन के सभी क्षेत्रों में कामकाजी व्यस्तता के बीच रहने वाले लोग इससे लाभान्वित हो सकते हैं। और इस तरह उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि वेदान्त की उपादेयता सार्वभौम है। आधुनिक भौतिक विज्ञान उन्हीं निष्कर्षों तक पहुँच रहा है ,जिन तक वेदान्त हजारों वर्ष पूर्व पहुँच चुका था। अतएव वर्तमान भौतिक विज्ञान अपने सिद्धान्तों को छोड़े बिना यदि केवल वेदान्त के सिद्धान्त को ग्रहण कर ले तो, विज्ञान भी अपने आप आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हो सकता है।
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🔱🙏धार्मिक नेताओं की दो श्रेणी - 'पुरोहित और पैगम्बर'🔱🙏
[@@@@*'धार्मिक नेताओं के दो वर्ग (species)- " पुरोहित और पैगम्बर !" */शुक्रवार, 8 फरवरी 2013 / https://vivek-jivan.blogspot.com/2013/02/species.html/ऑनलाइन गुरु गिरी करने वाले पुरोहितों की प्राचीन तिकड़ी को [brnda, bada, rnnda :> nda, pda, dsda / rjtm, ajp,rcm,--gjp /jn,ds,bs.[(७/ २०१) bin -sdd होने के बावजूद कामिनी-कांचन में आसक्त,.. (18 मार्च, 1900 को) सैन फ्रांसिस्को में दिया गया भाषण। जितेंधर्में जैसे सिंह-शावक होकर भी अपने को भेंड़ समझने वाले Hypnotized लोगों को , जनता की विशाल राशि, sudp, pint, shs, को पैगम्बर लोग " निवृत्ति मार्ग के अधिकारी तीनों ऐषणाओं का पूर्ण त्याग कर देंगे / और प्रवृति मार्ग के अधिकारी भी वैराग्य पूर्वक अभ्यास द्वारा आसक्ति का त्याग करते हुए, और क्रमशः प्रवृत्ति से निवृत्ति में स्थित हो जायेंगे।]
चिर-सधवा 'চির সীমন্তিনী' श्रीमाँ सारदा
[श्री श्री माँ सारदा देवी वचनामृत - (Gospel of The Holy Mother - p. 123)]
" एक बार कुछ भक्तों ने दक्षिणेश्वर आकर देखा कि श्रीरामकृष्ण चिकित्सा के निमित्त काशीपुर चले गये हैं। वे साथ में उनके लिये मिठाई आदि लेकर आये थे। तब उन्होंने श्रीरामकृष्ण के चित्र का सम्मुख उन चीजों का भोग लगाकर प्रसाद पाया। यह बात सुनकर जगतगुरु (श्रीरामकृष्ण) ने कहा था, " माँ काली को भोग न लगा कर, आज लड़कों ने उस चित्र को भोग क्यों लगा दिया?" यह सुनकर अमंगल की भावना से श्री माँ आदि सभी थोड़ा असहज हो गए। यह देख श्रीरामकृष्ण ने हमें सांत्वना देते हुए कहा, “ तुम चिंता मत करो। तुम देखोगी कि समय बीतने के साथ, घर-घर में मेरी पूजा होगी। मैं सौगन्ध खा कर कहता हूँ, यह बात बिल्कुल सच साबित होगी । आजकल के भक्त लोग कम बुद्धिमान नहीं होते, उन्होंने मेरा फोटो खींच लिया है। मणि (मास्टर महाशय श्री म) का उदाहरण लो। क्या वह कोई साधारण मनुष्य है ? उसने मेरे समस्त उपदेशों को सुनकर डायरी में लिख लिया है। क्या जगतगुरु श्रीरामकृष्ण से पहले अन्य किसी भी अवतार का फोटो खींचा गया है, अथवा अन्य किसी भी अवतार के वचनों को इस प्रकार अक्षरशः रिकॉर्ड किया गया है ? "
उसके बाद जब श्री माँ तारकेश्वर मन्दिर में धरना दिया था, तीसरी रात्रि में उन्हें मानो रूद्र के प्रलय -विषाण की जोरदार आवाज सुनाई दी। ऐसी आवाज जो तीव्र गति से चलती जीप और बस के आमने -सामने टक्कर [15.4.1992 at 6.AM?, ऊँच -बनारस में ] होने पर, चपटी हो गयी जीप में बैठी उस साहसी आत्मा को सुनाई देती है; जो -बन्द आँखों से इस श्रद्धा (आस्तिक्य बुद्धि) के साथ यह देखने की चेष्टा करता है, कि यदि वास्तविक 'मैं' ब्रह्म है (साक्षी चेतना परम् सत्य है या अविनाशी आत्मा है), तो देखता हूँ 'इस क्षण और आने वाले क्षण" क्रम के बीच मरता कौन है ?
चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहं '... सच्चिदानन्द के साथ एकत्व की अनुभूति कर पुनः अपने शरीर में लौटी श्री माँ ; उस आवाज से जाग पड़ीं और एकाएक उनके मन यह भावना उठी , " इस जगत में कौन किसका पति है, इस संसार में कौन किसका है , किसके लिए यहाँ मैं अपने प्राणों की हत्या करने बैठी हूँ? " मानो उस अस्फुट ध्वनि ने माया के परदे को उनके मन से हटा दिया, और उसके स्थान पर असीम वैराग्य का उज्ज्वल प्रकाश चमक उठा। ..... किसी किसी विशेष समय में ससीम मानव मन माँ जगदम्बा की अचिन्त्य कृपा से ब्रह्माण्डीय परिधियों का अतिक्रमण कर, उनसे परे अवस्थित सर्वव्यापी विराट मन के साथ एक हो जाता है। उसके फलस्वरूप उसे एक ऐसा अखण्ड दृष्टिकोण प्राप्त होता है, जिसके प्रभाव से मर्त्यलोक के सम्बन्ध आदि से सदा के लिए जुड़े हुए समस्त पूर्व संकल्पों की युक्तिहीनता देखकर अपने आप उन्हें त्याग देता है। समष्टि मैं या सर्वव्यापी विराट मैं में व्यष्टि मैं (काचा आमि या मिथ्या अहं) की इस विलीनता को ही हम वैराग्य कहते हैं। उसी वैराग्य के प्रभाव से प्रेरित होकर श्रीमाँ काशीपुर लौट आयीं। सबकुछ जानते हुए भी श्रीरामकृष्ण ने हँसी में पूछा , " कहो, कुछ हुआ ? -कुछ नहीं ! "
>>>मन की उच्च अवस्था > " भारत का उत्थान होगा, लेकिन शरीर की शक्ति से नहीं बल्कि आत्मा की शक्ति से।"India will be raised, not with the power of the flesh, but with power of the spirit !......[15.4.1992 at 6.AM?, ऊँच -बनारस, कबीर चौरा हॉस्पिटल के समीप] "किसी किसी विशेष समय में ससीम (finite-सीमाबद्ध) मानव मन भगवान की अचिन्त्य प्रेरणा से (माँ जगदम्बा की अचिन्त्य कृपा से) अपने आप को अनन्तता (infinitude) में खो देने के लिए, उर्ध्व दिशा में बहुत तीव्र गति से उछाल मारता है (कीक मारता है, shoots upward) और सांसारिक परिधियों (ब्रह्माण्डीय परिधियों) का अतिक्रमण कर, उनसे परे अवस्थित सर्वव्यापी विराट मन (cosmic mind) के साथ एक हो जाता है। उसके फलस्वरूप उसे एक ऐसा अखण्ड दृष्टिकोण प्राप्त होता है, जिसके प्रभाव से मर्त्यलोक के सम्बन्ध आदि से सदा के लिए जुड़े हुए समस्त पूर्व संकल्पों की युक्तिहीनता देखकर अपने आप उन्हें त्याग देता है। समष्टि मैं या सर्वव्यापी विराट मैं में 'व्यष्टि मैं' (काचा आमि या मिथ्या अहं) की इस विलीनता को ही हम वैराग्य कहते हैं। [चिर-सधवा : श्रीमाँ सारदा-पेज 170, जो स्त्री सिंधोरा-[सिंदूर + ओरा (प्रत्यय)] से अर्थात सिंदूर रखने के लकड़ी का पात्र (सिंदूर दानी) से अपनी माँग में सदा सिन्दूर लगाती हो।]
" The finite human mind sometimes shoots upward through some divine inspiration to lose itself in the infinitude of the cosmic mind thereby getting a new and all-encompassing outlook as a result of which the old worldly ties look ephemeral and meaningless and are, therefore, automatically discarded. This immersion of the microcosm into the macrocosm is what we call renunciation. " (In undying union -page, 135)
"খন্ড মানব মন কোন কোন বিশেষ সময়ে শ্রীভগবানের অচিন্ত্য প্রেরণায় জাগতিক সসীমতার ঊর্ধ্বে অবস্থিত বিরাট মনের সহিত একীভূত হইয়া এমন এক অখন্ড দৃষ্টিকোণ প্রাপ্ত হয়, যাহার প্রভাবে সে মরজগতের সম্বন্ধাদির সহিত অবিচ্ছেদ্যভাবে গ্রথিত সমস্ত পূর্ব সংকল্পের অযৌক্তিকতাদর্শনে উহা স্বেচ্ছায় বর্জন করে। সমষ্টির মধ্যে ব্যষ্টির এই নিমজ্জনকেই আমরা বৈরাগ্য নামে অভিহিত করি। [ 'চির সীমন্তিনী' ১০৭/ সীমন্তিনী অর্থ - [বিশেষ্য পদ] সধবা, সিঁথিতে সিঁদুর দেয় এমন নারী।]
MAA SAYINGS…Shree Maa…(Gospel of The Holy Mother - p. 123)
Once the Master said, “Why did they offer the food before the photograph (of the Master) instead of offering it to the Mother Kali?” We were a little uneasy that this smelt of a bad omen. The Master, however, comforted us, saying, “Don't worry. You will see, in due course, I will be worshipped in every home. I swear, it will come to pass!” The people nowadays are clever – they have taken his photograph! Take the case of Master Mahasaya. Is he an ordinary soul? He has noted down all the words of the Master. Which Avatara has been photographed, and whose words been recorded in this fashion?
>>>Sri Sarada Devi: In Undying Union :
It was fast becoming clear from the steady deterioration in the health of Sri Ramakrishna that after entrusting the task of spiritual regeneration to the worthy hands of the Holy Mother and the chosen disciples, he was fast approaching the day of final departure. But the Mother could not accept this as inevitable. She had experienced the grace of Simhavahini in her own life, had seen the economic conditions of her father’s family improve through the favor of Jagaddhatri, and had received signs of the Lord’s mercy in many ways and many a time in the days of stress and strain. After long deliberation, the Mother decided to go to Tarakeshwar and lie there fasting day and night at the temple of Siva who is known as the fulfiller of all wishes; for once, at least, she must stay and see if the inexorable Divine law had not an exception, if Providence could not be moved by the piteous wail of a creature in distress.
Experiences at Cossipore: Five years earlier Sri Ramakrishna had indicated the omens that would precede his passing way – he would accept food indiscriminately from anyone, would spend the night in Calcutta, and would eat food apart from what he had been given to somebody earlier – which had all come true even before he left Dakshineswar. On his return to Dakshineswar after spending the night at Balaram Babu’s house during the car festival (ratha-yātrā) of 1885, he told her of another sign, ‘When you find many people accepting, honoring and adoring this (pointing to himself) as the Deity, you will know that the time of disappearance is near at hand.’ That portent too, the Mother might have taken as having been already fulfilled; for there were quite a number of devout souls who looked upon the Master as God incarnate. And while at Cossipore, she got a concrete illustration too.
A few devotees went with some sweets one day to meet Sri Ramakrishna at Dakshineswar. But to their dismay, they learned that he had gone to Calcutta for treatment; so they offered the sweets to Sri Ramakrishna’s picture and then took the prasāda. When the news reached Sri Ramakrishna, he said, ‘Why did they make the offering to the picture instead of to the Mother?’ The Holy Mother and others became upset at the news of this offering to a picture of Sri Ramakrishna while the Master was in flesh and blood; for such adoration of a living person augured ill for him. But Sri Ramakrishna removed their consternation by emphatically asserting, ‘Don’t you be worried, my dear! I shall be worshipped in every house hereafter; I say this upon oath, so help me God.’ Therefore it became clear that not only was destiny against her but that Sri Ramakrishna was also determined to bid adieu. From that point of view, in fact, there was nothing to cheer her. And yet hope lingers though belief passes away, and nobody can keep silent without calling on God who is the only source of solace amid blank despair.
Visit to Tarakeshwar : The Mother went to Tarakeshwar; the Master did not object. It is not known who were her companions. Perhaps Lakshmi Devi and her maidservant accompanied her but she lay down there for two days without food and water – but there was no sign of Siva’s blessing. On the second night, the Mother continued there as before, craving the Lord’s mercy, when she heard a crackling sound much resembling the sound of some earthen jars piled up together being broken with a stick. That woke her up, and the thought took possession of her mind, ‘Who is a husband in the world and of whom? Who is related to whom here? For whom am I sacrificing my life here?’ It was as though a distant rumbling of the horn of Rudra, the great Destroyer, was ushering in the dissolution of the world, rending asunder all earthly ties, and creating in It became quite evident to the Mother that that was the real explanation of the Master’s temple where the holy water offered to Siva had accumulated, and taking up a little of it in her hand she quenched her thirst. Then she felt relieved. Thus foiled in her attempt to save the Master, she left the next day for Cossipore. " The finite human mind sometimes shoots upward through some divine inspiration to lose itself in the infinitude of the cosmic mind thereby getting a new and all-encompassing outlook, as a result of which the old worldly ties look ephemeral and meaningless and are, therefore, automatically discarded. This immersion of the microcosm into the macrocosm is referred to as renunciation. Through the influence of that overpowering self –abnegation the Mother deflected from her resolve and returned disappointed to Cossipore. The Master knew all this, and in good humor, he said, ‘How now, my dear? Did you get anything? Nothing at all!’
युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द
स्वामी जी 11 जुलाई, 1897 को अल्मोड़ा से स्वामी शुद्धानन्द (रामकृष्ण मठ और मिशन के द्वितीय महासचिव और पंचम अध्यक्ष) को लिखित पत्र में कहते हैं- " अब मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मठ-मिशन के कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए, एक साथ तीन सचिवों (महन्तों) का निर्वाचन करना आवश्यक है - एक व्यावहारिक कार्यों का संचालन करेंगे, दूसरे सदस्यों की आध्यात्मिक प्रगति पर ध्यान देंगे, और तीसरे ज्ञानार्जन (ज्ञानोदय, या enlightenment) की व्यवस्था करेंगे। मैं देखता हूँ कि 'Director of education' अर्थात शिक्षा-विभाग के संचालन योग्य नेतृत्व (C-IN-C) को पाना ही कठिन है। ब्रह्मानन्द और तुरियानन्द आसानी से शेष दोनों विभागों का कार्य सम्भाल सकते हैं। "
- It now seems to me that there must at least be three Mahantas (heads) elected at a time — one to direct the business part (aspect), one to the spiritual part, and the other to the 'enlightenment' part. The difficulty is to get the 'Director of education (C-IN-C)' . Brahmananda and Turiyananda may well fill the other two."
এখন মনে হচ্ছে—মঠে একসঙ্গে অন্ততঃ তিন জন করে মহান্ত নির্বাচন করলে ভাল হয়; একজন বৈষয়িক ব্যাপার চালাবেন, একজন আধ্যাত্মিক দিক্ দেখবেন, আর একজন জ্ঞানার্জনের ব্যবস্থা করবেন। শিক্ষাবিভাগের উপযুক্ত পরিচালক পাওয়াই দেখছি কঠিন। ব্রহ্মানন্দ ও তুরীয়ানন্দ অনায়াসে অপর দুটি বিভাগের ভার নিতে পারেন।
यह पूछने पर कि, स्वामीजी के लिए ब्रह्मानन्द और तुरियानन्द जैसे सन्यासियों के रहते हुए भी ज्ञानोदय शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने में सक्षम शिक्षा-निदेशक या 'Director of education (C-IN-C)' को पाना क्यों कठिन था ? .... इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए स्वामी विवेकानन्द की " मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' अर्थात आत्मश्रद्धा जागरण शिक्षा, ज्ञानोदय अथवा जीवन-गठनकारी शिक्षा " के प्रथम मुख्य शिक्षा -निदेशक, 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के संस्थापक सचिव (P.R.) " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर - 'Be and Make' शिक्षक -प्रशिक्षण प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित नेता (C-IN-C) नवनीदा ने एक बार कहा था -
.... और वैराग्य की बात यदि निवृत्ति मार्गी गेरुआ धारी संन्यासी करे तो अधिकांश युवा समझेंगे कि मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिए हमें भी सन्यासी बनना होगा ? और वे इस कैम्प से दूर भागेंगे। इसलिए जो गृहस्थ आश्रम या प्रवृत्ति मार्ग की साधारण वेशभूषा में रहते हुए भी - ब्रह्म को अपने अनुभव से जानने वाले, (C-IN-C नवनीदा जैसे) युवा नेताओं का निर्माण किया जाये, तभी इस ज्ञानोदय शिक्षा का प्रचार-प्रसार व्यापक पैमाने पर करना सम्भव है।
का आशीर्वाद या चपरास है - 'हृदयसम्पूर्णः पुरुषः भव' -'be a Heart whole man' ! एक विशालकाय बरगद ह्रदय में परिणत वटबीज जैसा नेता, पैगम्बर, जीवनमुक्त शिक्षक, 'दाना' >Be and Make a giant> बनो और बनाओ ! बालक नचिकेता के लिए पौरुष (Manliness) और आत्मश्रद्धा (Faith) में कोई अन्तर नहीं था, वह जानता था कि अटूट आत्मश्रद्धा ही वह शक्ति है जिसके बल पर कोईव्यक्ति नेता बन सकता है !
दाना>(a giant , विशाल हृदयवान नेता, जीवनमुक्त शिक्षक,पैगम्बर, अथवा 'C-IN-C Navni da' type of Leadership says 'be a Heart whole man', 'हृदयसम्पूर्णः पुरुषः भव' इति । [100 % Unselfish ] : The difficulty is to get the ' दाना' director (C-IN-C) of education. जिस प्रकार सरसों के दाना बराबर वट-बीज में बरगद का विशाल वृक्ष बन जाने की सम्भावना छुपी है, उसी प्रकार प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है, अर्थात प्रत्येक व्यष्टि अहं में माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं में रूपान्तरित होने की सम्भावना अन्तर्निहित है। "
महान वट-वृक्ष बन जाने, अर्थात पैगम्बर या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बन जाने की सम्भावना छिपी रहती है। दूसरे शब्दों में जब तक युवाओं को सर्वप्रथम - शरीरिक, नैतिक, और बौद्धिक,(3H) हर दृष्टि से आत्मनिर्भर-शील मनुष्य (self-reliant Man) बनने और बनाने (Be and Make) की शिक्षा (प्रशिक्षण) न दी जाये, तब तक सारे संसार की दौलत से भी भारत के एक छोटे से गाँव की सहायता नहीं की जा सकती। " -अर्थात जब तक युवाओं को " जीवन गठन (Life Building) की गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" ("Guru-Shishya Vedanta Teacher-Training Tradition for Life Building.) के अनुसार (या महामण्डल के 'C-IN-C नवनीदा' द्वारा आविष्कृत वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा के अनुसार, अथवा "स्वामी विवेकानंद-कैप्टन सेवियर मायावती वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परंपरा" के अनुसार) आत्म-विकास या जीवन के हर पहलू -3H's के विकास द्वारा शारीरिक, नैतिक और बौद्धिक रूप से आत्मनिर्भर शील मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा- विस्तार योजना को, अथवा जब तक स्वामी विवेकानन्द की - 'मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माण कारी शिक्षा' के माध्यम से श्रेष्ठतर 'मनुष्य बनो और बनाओ योजना' - 'Be and Make scheme ' का पूरे भारत में व्यापक पैमाने पर प्रचार-प्रसार नहीं किया जाता;तब तक सारे संसार की दौलत से भी भारत के एक छोटे से गाँव की सहायता नहीं की जा सकती। (As long as the 'Be and Make' better human beings through the Man-making and Character-building Education of Swami Vivekananda' is not widely propagated throughout India; till then even the wealth of the whole world cannot help a small village in India.) ]
[ 'Enlightenment' : "education that results in understanding and the spread of knowledge, or (Hinduism and Buddhism) the Beatitude (blessedness) that transcends the cycle of reincarnation; characterized by the extinction of desire and suffering and individual consciousness." अर्थात लीडरशिप ट्रेनिंग या युवा-प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से प्राप्त होने वाली वह शिक्षा- 'enlightenment' या शिक्षा/शीक्षा =प्रशिक्षण व्यवस्था= जो समझ (आत्म-विकास) और ज्ञान के प्रसार योजना में परिणत होती है (education that results in understanding and the spread of knowledge-("Be and Make" scheme), अथवा (हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म में समाहित अद्वैत वेदान्त का सिद्धान्त) वह परमानन्द (Beatitude- निःश्रेयस, स्वर्गसुख या परम् आनन्द की अवस्था), जो पुनर्जन्म (cycle of reincarnation-rebirth) के चक्र का अतिक्रमण करता है;और जो Lust and Lucre (कामिनी -कांचन) में आसक्ति या भोगेच्छा और जो हर प्रकार दुःख और व्यक्तिगत चेतना (व्यष्टि अहं) के विलुप्त होने की विशेषता है।]
['Enlightenment': "education that results in understanding and the spread of knowledge, or (Hinduism and Buddhism) the Beatitude (blessedness) that transcends the cycle of reincarnation; characterized by the extinction of desire and suffering and individual consciousness."]
[That is if the youth are not first taught, how to become self-reliant human beings - physically, morally, and intellectually, then even the wealth of the whole world cannot help a small village in India. i.e. Unless the youths are not taught, How to become self-reliant Men in every aspect of life - physical, moral, and intellectual; by learning the "Vedantic method of Life building" or going through "Man making and character building education" as per "Swami Vivekananda -Captain Sevier 'Be and Make' Mayawati Vedantic Leadership training tradition" for development of 3H's; and become a man of character, all the wealth of the world cannot help one little Indian village.]
" वेदों में जो 'शरीर को नश्वर और आत्मा को अविनाशी' कहा गया है, वह बिल्कुल सत्य है, इसे स्वीकार कर लेने पर, सत्य-शोधन में हम अपना समय बचा सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आप किसी जानवर की हड्डी छू लेते हैं, तो आप अपवित्र हो जाते हैं। लेकिन शंख भी पशु की हड्डी है , घोंघा या सीपी की हड्डी है, किन्तु उसे मन्दिर या देवस्थान में रखा जाता है। इस महत्ता पर प्रकाश डालते हुए स्वामी जी अपने प्रवचन 'प्रत्याहार और धारणा' में कहते हैं - " शुक्ति (सीपी नामक जलीय जंतु- घोंघा) के समान बनो। भारतवर्ष में वेदों की एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि वर्षा हो, और उसकी एक बून्द किसी सीपी में चली जाए, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बून्द की प्रतीक्षा करती रहती है। ज्योंही एक बून्द पानी उनके पेट में आता है , त्योंही मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं , और वहाँ बड़े धैर्य से उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं। हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा, श्रवण, मनन से समझकर निदिध्यासन द्वारा अन्तर्निहत ब्रह्मत्व (दिव्यता, निःस्वार्थपरता) को विकसित करना होगा। (१/८९)
तो वैदिक निर्देश इतना परिपूर्ण है। वेदों में पहले से कहा है कि कुछ जन्तु (घोंगा या सीपी जैसे पशु) की हड्डी शुद्ध क्यों होती है, गोबर शुद्ध होता है, यह पहले से ही ज्ञात है। आपको कोई शोध करने की आवश्यकता नहीं है। आप बस स्वीकार करते हैं और तथ्य प्राप्त करते हैं। यह चार महावाक्य - अहंब्रह्मास्मि, तत्वमसि आदि भी वैदिक सत्य है। आपको कोई शोध करने की आवश्यकता नहीं है। आप बस स्वीकार करते हैं और तथ्य प्राप्त करते हैं। यह वैदिक सत्य है।
तुम अपने-आप को जो मान लोगे वही हो जाओगे। एक विचार को लो; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ -उसीका चिन्तन करो , उसीका स्वप्न देखो और उसीमें जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क, स्नायु, उसी से परिपूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है ; और इसी उपाय से बड़े बड़े धर्मवीरों (पैगम्बरों -नेताओं-CINC नवनीदा) की उत्पत्ति हुई है। शेष सब तो टॉकिंग मशीन मात्र हैं। यदि हम स्वयं कृतार्थ होना चाहते हैं [मनःसंयोग करके आत्मसाक्षात्कार करना चाहते हैं ] और दूसरों को भी उसका मार्ग बताना चाहते हैं तो हमें अपने चित्त की गहराई तक जाना होगा। सिद्ध होना है तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए , मन का अपरिमित बल चाहिए। अध्यवसायशील साधक कहता है - " मैं चुल्लू से समुद्र पी जाऊँगा। मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर चूर हो जायेंगे। " इस प्रकार का तेज, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर [3H विकास के 5 अभ्यास] की साधना करो , और तुम ध्येय को अवश्य प्राप्त करोगे। " उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो!
*राग विलावल ॥२१॥ (गायन समय प्रातः ६ से ९)*
🔱🙏*जब मैं 'रहते' की 'रह' जानी ।*🔱🙏
काल काया के निकट न आवै, पावत है सुख प्राणी ॥टेक॥*
जब मुझे निश्चल परब्रह्म परमात्मा का अभेद ज्ञान प्राप्त हुआ, तभी से काम क्रोध विकार मुझे स्पर्श भी नहीं कर सकते । किन्तु मैं परम सुखी हूँ ।
*शोक संताप नैन नहिं देखूं, राग द्वेष नहिं आवै ।*
*जागत है जासौं रुचि मेरी, स्वप्नै सोइ दिखावै ॥१॥*
शोक संताप आदि दोष मेरे से दूर ही खड़े रहते हैं। मेरे पास नहीं आते राग द्वेष मद मात्सर्यमोह आदि चित्त के दोष जो ज्ञान के प्रतिबन्धक माने जाते हैं, वे पता नहीं कहां भाग गये । जाग्रत् अवस्था में ब्रह्माकारवृत्ति से जिस ब्रह्म को देखता हूँ उसी का स्वप्न में मुझे भान होता है ।
*भरम कर्म मोह नहिं ममता, वाद विवाद न जानूं ।*
*मोहन सौं मेरी बन आई, रसना सोई बखानूं ॥२॥*
शुद्ध बोध स्वरूप होने से वाद विवाद तो कभी याद ही नहीं आते । विश्व को मोहित करने वाले (Hypnotized करने वाले) 'मोहन भगवान्' (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) में मेरा बहुत प्रेम हो रहा है । मैं अपनी वाणी से उसी का यशोगान करता हूँ और उसी का नाम स्मरण करता हूँ । कृतकृत्य होने से मेरे लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं है । जिसको जानना था वह जाना गया अतः मेरे लिये कोई ज्ञातव्य शेष नहीं है । मोह ममता रूपी हिरण्यकशिपु महादैत्य को आत्मसाक्षात्कार रूपी नृसिंह देव (सिम्हाचलं पर्वत पर विराजमान नवनीदा) ने नष्ट कर डाला ।
*निशिवासर मोहन तन मेरे, चरण कँवल मन जानै ।*
*निधि निरख देख सचु पाऊँ, दादू और न जानै ॥३॥*
[निशिवासर = रातदिन । सदा । सर्वदा । हमेशा ।
मेरे हृदय में तो विशेष रूप से भगवान् ही विराज रहे हैं । मेरा मन उन्हीं के चरणों में संतुष्ट हो रहा है । अहो मैं उस परमानन्द को हाथ में रखे हुए आवलां की तरह प्रत्यक्ष जान कर कृतकृत्य हो गया हूँ । मैं केवल शुद्ध बोधरूप से स्फुरित हो रहा हूँ ।
निष्कर्ष : योगवासिष्ठ में लिखा है कि – हे वत्स राम ! जैसे सरोवर में गिरे हुए पत्ते, जल, मल (काई आदि) और काष्ठ; यद्यपि परस्पर संबद्ध रहते हैं तथापि भीतरी संग से (आसक्ति) से रहित होने का कारण, वे कभी दुःखी ही नहीं होते । उसी तरह यद्यपि (आत्मज्ञानी -ब्रह्मविद की) आत्मा-भी देह, इन्द्रियें और मन, परस्पर पूर्णतया संबद्ध है; तथापि अन्तःकरण में आसक्ति का अभाव होने से, ज्ञानी (ब्रह्मविद) महात्मा सदा सर्वदा दुःख रहित (वैराग्य सम्पन्न) ही रहता है ।
साभार > @@ महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं । > *(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #३४३)* भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
🔱🙏'गुरो, चैतन्यं देहि'🔱🙏
लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्म लोकवेदत्वात् ।।
वेदान्त केसरी की दहाड़ !
🙏 'आत्म-विकास' या 'श्रेष्ठतर मनुष्य बनने और बनाने के विज्ञान' को ही धर्म कहते हैं🙏
['Self-development' - or the science of 'being and becoming a better human being (by Making )' is called Religion. ]
[ ( 27 अगस्त 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-120]
श्रीरामकृष्ण – (मास्टर से, पण्डितजी को इशारे से बताकर) - ये बड़े अच्छे आदमी हैं । (पण्डितजी से) 'नेति नेति' करके जहाँ मन को विराम मिलता है, वहाँ वे (ब्रह्म) हैं ।
MASTER (to M., pointing to the pundit): "He is very nice. (To the pundit) Where the mind attains peace by practicing the discipline of 'Neti, neti', there Brahman is.
“राजा सात ड्योढ़ियों के पार रहते हैं । पहली ड्योढ़ी में किसी ने जाकर देखा, एक धनी मनुष्य बहुत से आदमियों को लेकर बैठा हुआ है, बड़े ठाट-बाट से । राजा को देखने के लिए जो मनुष्य गया हुआ था, उसने अपने साथवाले से पूछा, ‘क्या राजा यही है ?’ साथवाले ने जरा मुस्कराकर कहा, ‘नहीं’ ।
"The king dwells in the innermost room of the palace, which has seven gates. The visitor comes to the first gate. There he sees a lordly person with a large retinue, surrounded on all sides by pomp and grandeur. The visitor asks his companion, 'Is he the king?' 'No', says his friend with a smile.
“दूसरी ड्योढ़ी तथा अन्य ड्योढ़ियों में भी उसने इसी तरह कहा । वह जितना ही बढ़ता था, उसे उतना ही ऐश्वर्य दीख पड़ता था, उतनी ही तड़क-भड़क । जब वह सातों ड्योढ़ियों को पार कर गया तब उसने अपने साथवाले से फिर नहीं पूछा, राजा के अतुल ऐश्वर्य को देखकर अवाक् होकर खड़ा रह गया - समझ गया राजा यही है, इसमें कोई सन्देह नहीं ।”
"At the second and the other gates, he repeats the same question to his friend. He finds that the nearer he comes to the inmost part of the palace, the greater the glory, pomp, and grandeur. When he passes the seventh gate he does not ask his companion whether it is the king; he stands speechless at the king's immeasurable glory. He realizes that he is face-to-face with the king. He hasn't the slightest doubt about it."
पण्डितजी - माया के राज्य [देश-काल-निमित्त] को पार कर जाने से उनके दर्शन होते हैं ।
PUNDIT: "One sees God beyond the realm of Maya."
श्रीरामकृष्ण - उनके दर्शन हो जाने के बाद दिखता है कि यह माया और जीव-जगत् वे ही हुए हैं । यह संसार 'धोखे की टट्टी' है - स्वप्नवत् है । यह बोध तभी होता है जब साधक 'नेति नेति' का विचार करता है । उनके दर्शन हो जाने पर यही संसार 'मौज की कुटिया' हो जाता है ।
MASTER: "But after realizing God one finds that He alone has become maya, the universe, and all living beings. This world is no doubt a 'frame-work of illusion', unreal as a dream. One feels that way when one discriminates following the process of 'Not this, not this'. But after the vision of God this very world becomes 'a mansion of mirth'.
श्रीरामकृष्ण - “केवल शास्त्रों के पाठ से क्या होगा ? पण्डित लोग सिर्फ विचार किया करते हैं ।”
"What will you gain by the mere study of scriptures? The pundits merely indulge in reasoning."
पण्डितजी - जब कोई मुझे 'पण्डित' (न्याय-वागीश) के नाम पुकारता है, तो घृणा होती है ।
PUNDIT: "I hate the idea of being called a pundit."
श्रीरामकृष्ण - यह उनकी कृपा है । पण्डित लोग केवल तर्क-वितर्क में लगे रहते हैं । परन्तु किसी ने दूध का नाम मात्र सुना है और किसी ने दूध देखा है । दर्शन हो जाने पर सब को नारायण देखोगे - देखोगे, नारायण ही सब कुछ हुए हैं ।
MASTER: "That is due to the grace of God. The pundits merely indulge in reasoning. Some have heard of milk and some have drunk milk. After you have the vision of God you will find that everything is Narayana. It is Narayana Himself who has become everything."
पण्डितजी नारायण का स्तव सुना रहे हैं । श्रीरामकृष्ण आनन्द में मग्न हैं ।
The pundit recited a hymn to Narayana. Sri Ramakrishna was overwhelmed with joy.
🔱🙏आत्म-विकास या '3H' -विकास का
वैज्ञानिक सूत्र' है गीता (6-29 to31) 🔱🙏
नारायण स्तव हो जाने पर अब पण्डितजी गीता (6.29) में दिये गए, 'आत्म-विकास' या '3H' -विकास का वैज्ञानिक सूत्र' [Scientific formula of self-development or ('3H'-development)] को उद्धृत कर रहे हैं -
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्रसमदर्शनः ॥
गीता ६.२९।।
[शब्दार्थ : - सर्वभूतस्थम् = सर्वभूतस्थितं या निखिलभूतस्थितम्-; आत्मानं= स्वम्-खुद को; सर्वभूतानि = सकलभूतानि (all beings-सभी प्राणियों को); आत्मनि च = स्वस्मिन् च- अपने आप में (in his own); ईक्षते = अवलोकते-(observes-सिर्फ देखता नहीं , ध्यानपूर्वक देखता है) योगयुक्तात्मा = समाहितचित्तः, एकाग्र ह्रदय वाला (integrated heart) योगी; सर्वत्र = सर्वेषु- ऊँच और नीच, (high and low-सभी लोगों में) समदर्शनः = तुल्यदृष्टि (equal vision) ॥
अन्वय- योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः आत्मानम् सर्वभूतस्थम् आत्मनि च सर्वभूतानि ईक्षते ।
।।6.29।। योगयुक्त अन्त:करण (concentrated consciousness) वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी, आत्मा (भगवान) को सब जीवों में और जीवों को आत्मा (भगवान) में देखता है।।
BG 6.29: सच्चा योगी अपनी चेतना को भगवान के साथ एकीकृत कर समान दृष्टि से सभी जीवों में भगवान और भगवान को सभी जीवों में देखता है।
व्याख्या :विश्व के सभी धर्म महान हैं ,परन्तु धर्म शब्द का अर्थ यदि -'science of self-improvement' आत्मोन्नति (या आत्म-सुधार) का विज्ञान है, तो कोई भी धर्म वेदान्त के समान पूर्ण नहीं है। गीता के प्राय सभी अध्यायों में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि नाम-रूपमय यह जगत इन्द्रियातीत सत्य की ही अभिव्यक्ति है, तथा यह सृष्टि उसी सत्य पर अध्यस्त (कल्पित) है।
हम अपने शरीर मन और बुद्धि के द्वारा क्रमश भौतिक पदार्थ दूसरों की भावनाएँ और विचारों को देख और समझ पाते हैं। जिसने इन उपाधियों से परे आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर लिया वह पुरुष उस आध्यात्मिक दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) से जब जगत् को देखता है तब उसे सर्वत्र व्याप्त आत्मा का ही अनुभव होता है। वह योगी स्वयं आत्मस्वरूप बन जाता है।
मिट्टी की दृष्टि से घट नहीं है और न सुवर्ण की दृष्टि से आभूषण। उसी प्रकार आत्मदृष्टि से आत्मा ही विद्यमान है और उससे भिन्न कोई वस्तु नहीं है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण नामरूपों का अधिष्ठान यह देशकालातीत आत्मतत्व ही है। जैसे मिट्टी समस्त मिट्टी के बने पात्रों में सुवर्ण समस्त आभूषणों में जल समस्त तरंगों में वैसे ही आत्मा समस्त नामरूपों में अधिष्ठान के रूप में स्थित है।
भारत में दीपावली उत्सव के समय दुकानों में कई प्रकार की चीनी से बनी मिठाइयाँ, जैसे- हाथी, गुड़िया, कार, गेंद और टोपी आदि का आकार बनाकर बेची जाती हैं। बच्चे अपने अभिभावकों से कार, हाथी आदि की आकृतियों में बनी हुई चीनी की मिठाइयाँ लेने की हठ करते हैं। अभिभावक उनकी नासमझी पर यह समझकर हँसते हैं कि ये सब खिलौने एक ही चीनी की सामग्री से बने और सबकी मिठास एक समान है। इसी प्रकार सभी पदार्थों में प्रकट घटकों में (components, 3H में ) भगवान अपनी विभिन्न शक्तियों (various potencies) के रूप में स्वयं रहते हैं।
'अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव' ही पूर्णत्व का द्योतक है जिसे ऋषियों ने सदैव अपना लक्ष्य बनाया है। इसी अनुभव को इस श्लोक में अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है। किन्तु, केवल वह पुरुष आत्मज्ञानी या ईश्वर का साक्षात्कारकर्ता नहीं कहा जा सकता जिसने मात्र स्वयं को ही शुद्ध दिव्य स्वरूप में अनुभव किया हो। वह पुरुष जिसने कि सम्पूर्ण भूतों में विराजमान एक ही आत्मतत्त्व के दर्शन किये हों आत्मज्ञानी कहा जायेगा।
अपने हृदय में स्थित चैतन्य आत्मा ही सर्वत्र सभी नाम रूपों में स्थित है और यही चैतन्य सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। अत हृदयस्थ चैतन्य के अनुभव का अर्थ ही सर्वत्र व्याप्त नित्य तत्व को अनुभव करना है।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥30॥
BG 6.30: वे जो मुझे सर्वत्र और प्रत्येक वस्तु में देखते हैं, मैं उनके लिए कभी अदृश्य नहीं होता और वे मेरे लिए अदृश्य नहीं होते।
व्याख्या - भगवान (आत्मा) को खोने से तात्पर्य मन का भगवान से विमुख होकर भटकना है और उसमें मन के लगने का अर्थ मन को भगवान में एकत्व कर उसके सम्मुख होना है। मन को भगवान के साथ जोड़ने का सरल उपाय 'मनःसंयोग ' सीखने के लिए सभी पदार्थों को भगवान से संबंधित देखना चाहिए।
उदाहरणार्थ जब कोई विश्वासघात करता है, या कोई हमें आहत करता है तब मन अपनी प्रवृति के अनुसार भावुक होकर हमलोग आहत करने वाले, धोखेबाज के प्रति रोष और घृणा व्यक्त करते हैं। जब हम मन को ऐसा करने की अनुमति देते हैं तब हमारा मन आध्यात्मिक क्षेत्र से दूर भाग जाता है, और मन की भगवान (आत्मा) के साथ भक्तिमयी एकीकरण की संभावना समाप्त हो जाती है। इसके स्थान पर यदि हम उसी समय बारम्बार - 'सर्वेभवन्तु सुखिनः' का महामन्त्र जपने लगते हैं; और उस व्यक्ति के भीतर भी भगवान की अनुभूति करते हैं तब हम ऐसा सोचते हैं कि -"भगवान इस व्यक्ति के माध्यम से मेरी परीक्षा ले रहे हैं। क्योंकि वे मेरे भीतर सहिष्णुता के गुण को बढ़ाना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने इस व्यक्ति को मेरे साथ दुर्व्यवहार करने की प्रेरणा दी होगी लेकिन मैं अपने मन को इस घटना से मुझे विक्षुब्ध करने की स्वीकृति नहीं दूंगा।" इस प्रकार से सोचकर हम अपने मन को नकारात्मक मनोभावों का शिकार बनने से रोकने में समर्थ हो सकते हैं।
इसी प्रकार से मन जब किसी पुरुष या महिला-मित्र विशेष में आसक्त हो जाता है तब वह भगवान से विमुख हो जाता है। ऐसे में यदि हम मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करें कि वह उस मित्र (M/F) दोनों में शरीर देखने के बजाय भगवान (आत्मा) को देखे; और जब कभी मन उस पुरुष-विशेष या महिला में भटकने लगे तब हमें यह सोचना चाहिए–'भगवान श्रीकृष्ण (ठाकुरदेव ही, आत्मा ) उस विशेष पुरुष या महिला मित्र के भीतर उपस्थित हैं। इसलिए मैं इन पर आकर्षित हो रहा हूँ।' इस विधि से मन स्थिर होकर निरन्तर अवतारवरिष्ठ की भक्ति में लीन रहेगा।
उसी प्रकार हमारा मन कई बार अतीत की घटनाओं पर शोक व्यक्त करता है। इससे मन दिव्य आध्यात्मिक क्षेत्र (भगवान के नाम-रूप लीला धाम) से पुनः विलग हो जाता है। क्योंकि शोक मन को अतीत में उलझा देता है, और इससे वर्तमान में भगवान और गुरु का चिन्तन समाप्त हो जाता है। यदि उन घटनाओं का संबंध भी हम भगवान के साथ जोड़कर देखें तब हमलोग यह सोचेंगे कि -" भगवान ने जान-बूझकर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की थी, ताकि मैं संसार के स्वार्थ-पूर्ण सम्बन्धों के कटु सत्यों का, कष्टों का अनुभव कर सकूँ और जिससे कि मैं सांसारिक आकर्षणों से विरक्त होने के योग्य बन पाऊँ। भगवान मेरे कल्याण के संबंध में अत्यंत चिन्तित हैं इसलिए उन्होंने मुझ पर दया करके ऐसी उपयुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न की हैं जो कि मेरे आध्यात्मिक उत्थान के लिए अत्यंत लाभदायक हैं।" ऐसा सोचकर हम भगवान की भक्ति को सुरक्षित रखने के योग्य बन सकते हैं।
लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्म लोकवेदत्वात् ।।
(नारद भक्तिदर्शन सूत्र-61)
लोकहानि की चिन्ता (भक्त) को नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह (भक्त) अपने आपको और अपने लौकिक-वैदिक (secular-sacred, सब प्रकार के) कर्मों को भगवान को अर्पण कर चुका है। इसलिए जब हम संसार में कठिनाइयों का सामना करे, तब हमें शोक या इन पर चिन्ता नहीं करनी चाहिए। इन घटनाओं को भगवान की कृपा के रूप में देखना चाहिए।" यदि हमारा मन निजी स्वार्थ वश भगवान के अलावा अन्य किसी को प्रश्रय देता है, तब इसको समझाने का सरल उपाय सर्वत्र सभी पदार्थों और समस्त जीवों में भगवान को देखना है। यह अभ्यास का चरण है जो धीरे-धीरे पूर्णता की ओर ले जाता है और फिर जैसे कि इस श्लोक में उल्लेख किया गया है कि हम कभी भगवान के लिए अदृश्य नहीं होंगे और भगवान हमारे लिए अदृश्य नहीं होंगे।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥31॥
शब्दार्थ : सर्व-भूत-सभी जीवों में स्थित; यः-जो; माम्-मुझको; भजति–आराधना करता है; एकत्वम्-एकीकृत; अस्थितः-विकसित; सर्वथा-सभी प्रकार से; वर्तमान:-करता हुआ; अपि-भी; सः-सह; योगी-योगी; मयि–मुझमें; वर्तते-निवास करता है।
BG 6.31: जो योगी मुझमें एकनिष्ठ हो जाता है और परमात्मा के रूप में सभी प्राणियों में मुझे देखकर श्रद्धापूर्वक मेरी भक्ति करता है, वह सभी प्रकार के कर्म करता हुआ भी केवल मुझमें स्थित हो जाता है।
एकत्व भाव में स्थित हुआ जो पुरुष समस्त जीवों में स्थित मुझ 'वासुदेव श्रीकृष्ण' को भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (कोई भी काम करता हुआ) मुझमें ही स्थित रहता है। अर्थात् वह सदा मुक्त ही है उसको मोक्ष पाने (d-hypnotized होने से) कोई भी रोक नहीं सकता। क्योंकि भगवान संसार में सर्वत्र सर्वव्यापक है। वे परमात्मा (Supreme Soul) के रूप में सभी के हृदय में निवास करते हैं।
।।6.31।। इस श्लोक का मुख्य प्रयोजन यह दर्शाना है कि कोई आवश्यक नहीं कि एक आत्मानुभवी पुरुष हिमालय की किसी अज्ञात गुफा में जाकर निवृत्ति मार्गी संन्यासी का जीवन व्यतीत करेगा। भगवान् कहते हैं कि जीवन के समस्त सामान्य व्यवहार करता हुआ सभी परिस्थितियों में वह अपने स्वरूप के ज्ञान में स्थित रह सकता है।
जब मनुष्य ऑपरेशन का मरीज हो जाता है तब उसे नित्य के कार्यों से निवृत्त होकर हॉस्पिटल में भर्ती होने की आवश्यकता होती है; परन्तु पूर्ण स्वस्थ हो जाने के पश्चात् नहीं। स्वस्थ होकर तो वह पुन अधिक उत्साह के साथ अपना कार्य करने लगता है। इसी प्रकार 'विघटित व्यक्तित्व' या 'Hypnotized' मनुष्य के लिए जो सिंह-शावक होकर भी अपने को भेंड़ समझकर मेंमे करता है, उस सम्मोहित मनुष्य के लिए भगवान 'मनःसंयोग' की पद्धति का उपचार बतलाते हैं। उस मनःसंयोग के अभ्यास से जब वह स्वस्वरूप को पहचान कर दैवी सार्मथ्य प्राप्त कर लेता है; तब वह निश्चय ही अपने पूर्व के कार्य क्षेत्र (बिजनेस,व्यापार या राज-काज) में जाकर कर्म करते हुए भी पूर्णत्व के ज्ञान को सुदृढ़ बनाये रख सकता है। वास्तव में देखा जाय तो चिरस्थायी फलदायी कर्म कुशलतापूर्वक तभी किये जा सकते हैं जब कर्ता आत्मस्वरूप के ज्ञान में स्थित हो। इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मज्ञानी पुरुष किसी भी कार्यक्षेत्र में कर्म करते हुए भी अपने वास्तविक स्वरूप का भान रख सकता है। गीता का यही संदेश है कि समर्पण की भावना से किये गये कर्म आत्म-विकास के साधन हैं।
अठारहवें अध्याय के 61वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने वर्णन किया है-"मैं सभी प्राणियों के हृदय में निवास करता हूँ।" इस प्रकार से सभी प्राणियों के शरीर में दो ही तत्त्व हैं-आत्मा (soul) और परमात्मा (Supreme Soul.)।
1. भौतिक चेतना (material consciousness) से युक्त लोग सभी जीव को केवल शरीर के रूप में देखते हैं, और जाति, नस्ल, लिंग (gender) , आयु और सामाजिक प्रतिष्ठा (social status) के आधार पर एक-दूसरे से भेदभाव बनाए रखते हैं।
2. उच्च चेतना (higher consciousness) में युक्त मनुष्य सभी को आत्मा के रूप में देखते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण ने पाँचवे अध्याय के 18वें श्लोक में कहा है कि विद्वान लोग दिव्य ज्ञान की दृष्टि से ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और कुत्ते का मांस भक्षण करने वाले चाण्डाल को भी समान दृष्टि से देखते हैं।
3. दिव्य चेतना (divine consciousness) युक्त सिद्ध योगी भगवान को, प्रत्येक जीव में अवस्थित परमात्मा (Supreme Soul) के रूप में देखते हैं। वे भी संसार का अनुभव तो करते हैं, किन्तु उसमें उलझते नहीं। वे हंस के समान होते हैं जो दूध और जल के मिश्रण में से दूध पी लेता है व जल को छोड़ देता है।
4. उच्च सिद्धावस्था (high perfection) प्राप्त योगियों को परमहंस कहा जाता है। वे केवल भगवान को देखते हैं और संसार का अनुभव नहीं करते। श्रीमद्भागवद् में किए गए वर्णन के अनुसार महर्षि वेदव्यास के सुपुत्र शुकदेव की अनुभूति परमहंस के स्तर की थीः
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ।।
(श्रीमद्भागवत् 1.2.2)
किस स्तर के योगी हैं शुकदेव गोस्वामी ?--"यं प्रव्रजन्तं अनुपेतं अपेत कृत्यं" शुकाचार्यजी प्रव्रजन्त हैं। सरिता बहती भली और साधू चलता भला। सरिता का आकर्षण उसके बहने में है और साधू का आकर्षण चलते रहने में है। शुकाचार्यजी प्रव्रजन्त हैं। 'प्रव्रजन्तं अनुपेतं' जिन्होंने जन्म तो लिया, पर रुके नहीं, बिना जात कर्म संस्कार के, बिना यज्ञोपवीत संस्कार के, भजना नन्दी बन गए। जो समाज से और समाज के वस्तुओं से आसक्त है, वह साधू नहीं संसारी है, जिसने इन तीनों ऐषणाओं में (कामिनी-कांचन और लोकप्रसिद्धि में ) आसक्ति का त्याग किया वही सच्चा संत है! ऐसे परम पुनीत, परमहंस, परमभागवत को हमारा वंदन, प्रणाम, नमस्कार है। अब कथा के लिए हमें व्यास जी ले चलते हैं नैमिषारण्य ! तो आईये अब आप हम भी चले पवित्र भूमि नैमिषारण्य की ओर।
नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्य महामतिम् ।
कथामृत रसास्वाद कुशल: शौनकोऽब्रवीत ॥
कथा चल रही है नैमिषारण्य में, नैमिषारण्य केवल एक भूमि का नाम नहीं है। नैमिषारण्य तो भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य परम्परा में श्रोता और वक्ता की भूमिका का नाम है। निमेष कहते है क्षण के तीसरे हिस्से को, अर्थात तीन निमेष एक क्षण बनता है। तो निमेष मात्र में ब्रम्हा जी के द्वारा मनोमय चक्र इस अरण्य में आकर के गिरा। अरण्य कहते है, वन को। अत: उस जंगल को हम नैमिषारण्य कहते हैं, जो आज का हमारा एक तीर्थ स्थल है। जहां पर सौनकादी अठ्ठासी हजार ऋषियों ने एक हजार वर्ष का ज्ञान सत्र चलाया, ज्ञान यज्ञ का आरम्भ किया था।
अब हम नैमिषारण्य चलते हैं जहाँ पर शौनकजी के साथ 88 हजार महात्मा जो सूतजी के सानिध्य में कथा श्रवण कर रहे हैं। सौनक जी ने यहाँ पर सूतजी से छ: प्रश्न किये हैं। इन्हीं छ: प्रश्नों पर आधारित हमारी पूरी भागवत कथा है । हमारे जीवन के जितने भी प्रश्न हैं, उन सभी प्रश्नों के उत्तर हमें भागवात जी से प्राप्त होता है । इसलिए छ: प्रश्न और छ: दिन, एक दिन तो माहात्म्य का है । पर ये छ: प्रश्नों का जवाब हमें इन छ: दिनों में मिलेंगे । इसलिए हमसे हमारे छ: प्रश्न छूटें न, इसका प्रयास हमें करना है । ध्यान दें पहला प्रश्न क्या है:-
1.प्राणी मात्र का कल्याण कैसे होगा, प्राणी का परम धर्म क्या है जिससे उसका कल्याण हो ?
2. हमारे शास्त्र अनेक हैं और देवता भी तो इन शास्त्रों का निचोड़ क्या है ?
3. परमात्मा कर्तुमा अकर्तुमा अनेकात्मा ईश्वर है, तो वह जन्म क्यों लेता है, उन्हे जन्म लेने की क्या आवश्यकता ?
4. यदि परमात्मा जन्म लेते हैं तो अब तक कितने अवतार हुए, कोई 10 कहते हैं तो कोई 24 ?
5. प्राणी मात्र का कर्तव्य क्या है ?
6. भगवान जब लीला सम्पन्न करके स्वधाम जाते हैं तो धर्म किसकी शरण में जाता है?
शौनकजी के ये छ: प्रश्न सुनकर गद-गद हो गये ।बोले- ऋषियो आपने बड़े सुन्दर प्रश्न किये, पर आपके इन प्रश्नो के उत्तर देने से पहले मैं अपने गुरुदेव को वन्दन करना चाहता हूँ । वैसे तो मेरे गुरु व्यासजी हैं पर यह दिव्य कथा मैनें शुकाचार जी से सुना इसलिए पहले उनको प्रणाम करते हैं।
यह मनोमय चक्र क्या है ?...हमारा जो मन है न, वही तो मनोमय चक्र है। जिसकी रफ़्तार (गती) कैसी है? निमेष मात्र में हम बैठे-बैठे चाहे जहाँ घूम कर आ जाते हैं। अर्थात- हमारा मन शान्त नहीं है। भटक रहा है, तो शान्त कैसे हो? ऋषियों ने हंसारूढ ब्रम्हाजी से पूछा । हंसारूढ़ ब्रम्हा का दूसरा अर्थ है, विवेकाधिष्ठित बुद्धी। आप अपनी विवेकाधिष्ठित बुद्धी से पूछो, की अभी हम कहां बैठे हैं? तो जगतगुरु श्रीरामकृष्ण का जबाव मिलेगा- 'नेति नेति' करके जहाँ मन को विराम मिलता है, वहाँ वे (ब्रह्म) हैं। 'नेति नेति 'करते हुए जहां हमारा मनोमय चक्र शान्त होता है। जब तक हमारा मनष्चक्र शान्त नहीं होगा, हम कथा नहीं सुन सकते। तो नैमिषारण्य श्रोता और वक्ता के शान्त मन को भी कहते हैं, और मन को शान्त करने के लिए मंगलाचरण किया जाता है। मंगलाचरण से हमारा मन शान्त होता है।
कथा में तन तो बैठा है, पर मन भटक रहा है, अर्थात हम तो बैठे हैं, पर कथा हम पर नहीं बैठेगी। तो जहां आपका मन शान्त हो जाए, जब कथा समझ में आने लगे तो समझो वही नैमिषारण्य है। नैमिषारण्य में बड़ी शान्ती है, पूरा वातावरण शान्त और मधुर है चारो ओर हरियाली ही हरियाली ऐसा शान्त वातावरण। यहां सूतजी कथा वक्ता हैं, वे महामती हैं। जो जटिल से जटिल शब्दों को सरल करने में कुशल हैं, कथा करने में कुशलता तो चाहिए ही पर कथा श्रवण करने में भी कुशलता चाहिए। नित्य श्रवण और श्रवण के बाद मनन और मनन के बाद नितध्यासन बहुत जरूरी है। तो यहां आकर व्यर्थ की चिन्ता न किया करें। पूर्ण श्रद्धा से प्रेम से और भाव से श्रवण करें, तभी आप स्वयं को जान सकेंगे।
यदि आपको कथा वक्ता, गुरू या नेता के प्रति श्रद्धा नहीं, तो उनके द्वारा बताया गया ज्ञान, ज्ञान नहीं आपके लिए मात्र एक जानकारी होगी। जानकारी में और ज्ञान में अन्तर है, आप पूर्ण श्रद्धा से समर्पित हों यह आवश्यक है। गुरू या मार्गदर्शक नेता का अर्थ ही अज्ञान रूप अंधकार से आत्मज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाने में समर्थ नेता (C-IN-C नवनीदा) होता है।
शौनकजी कहते हैं- अज्ञानध्वान्तविध्वंस, हे सूतजी- आप हमारे अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करें। कथा तो हमने बहुत सुनी, पर आप हमें कथा का सार बताईये। भक्ती, ज्ञान, वैराज्ञ से दूर हमारा विवेक, आगे कैसे बढे़, वह बताईये। भक्ती, ज्ञान, वैराग्य से दूर हमारा विवेक कैसे आगे बढे़ वह बताईये ? वैष्णव लोग माया मोह का त्याग कैसे करते हैं ? हे सूत जी! इस कलिकाल में हम वैष्णवों का कल्याण कैसे हो ? हमें श्रीकृष्णरूप परमात्म तत्व की प्राप्ती का साधन बताईये?.. चिन्तामणि, कल्पवृक्ष और कामधेनु ये तीनों मन चाहा सुख देने बाले हैं, परन्तु ये तीनों मोक्ष नहीं दे सकते हैं। मोक्ष (भ्रम से मुक्ति) तो हमें सद्गुरू, नेता या पैगम्बर ही प्रदान कर सकते हैं।
शुकाचार्य जी का जन्म व्यास जी की पत्नी आरुणी से हुआ, शुकदेव जी अपनी माता के गर्भ में 12 वर्ष तक रहे, जब पिता व्यास जी ने उन्हें बाहर आने को बोले तब शुक जी बोले पृथ्वी में भगवान हरि की माया विराजती है वह जीव के विवेक को हर लेती है। जब तक स्वयं श्रीहरि आकर मुझे आस्वस्थ्य न कर दें तब तक मैं पृथ्वी पर नहीं आऊँगा । इसप्रकार वेदव्यासजी ने भगवान श्रीहरि का आवाहन किया और भगवान श्रीहरि प्रकट हो शुक जी से बोले पुत्र तुम बाहर आओ तुम्हें मेरी माया स्पर्स भी न करेगी ।
इस प्रकार जब शुकदेव जी को माधव की वाणी प्राप्त हुई तो शुकजी ने जन्म लिया, और जन्म लेते ही माया से अनाशक्त हो वन की ओर चल पड़े । व्यास जी शुकदेव जी का उपनयन संस्कार तक नहीं कर पाये इस चिन्ता में व्यास जी उअनके पीछे दौड़े। अरे बेटा तनिक मेरी बात तो सुनो.. पर पुत्र तो निकल गया यहाँ पर शुक जी की ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया । पिता जी इस मरण शील संसार में कौन किसका पुत्र होता है और कौन किसका पिता । यह जगत चक्र है चलता रहता है । इसलिए हम सत्य की शोध में जाते हैं । ऐसे हैं हमारे शुकाचार्य जी महराज ।"
[साभार /http://aacharyarakesh.blogspot.com/2014/12/1.html]
जब शुकदेव बचपन में ही घर से संन्यास के निकल पड़े उस समय वह ऐसी परम सिद्धावस्था में थे कि उन्हें संसार का बोध नहीं था। उन्होंने सरोवर में नग्न होकर स्नान कर रही सुन्दर स्त्रियों की ओर ध्यान नहीं दिया, जबकि वे उनके सामने से निकल कर गये थे। उन्होंने केवल भगवान की ही अनुभूति को भगवान के बारे में ही सुना और भगवान का ही चिन्तन किया।" इस श्लोक में श्रीकृष्ण पूर्ण सिद्ध योगी की चर्चा कर रहे हैं जो तीसरे और चौथे चरण से ऊपर के स्तर की अनुभूति है।
[स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-9. { विवेक-जीवन ब्लॉग्स , मंगलवार, 31 जुलाई 2012.) " स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा : एक सम्पूर्ण परिचय " {अध्याय-१ : स्वामी विवेकानन्द -व्यक्ति और मन } " स्वामीविवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में 'Be and Make ' Leadership Training Tradition पर नवनी दा द्वारा प्रदत्त जीवन को उन्नत बनाने का सूत्र: }
>>>प्रेरक वेद-वाक्य > 1. एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । (1.164.46) एकेश्व र को विद्वान लोग अनेक प्रकार से पुकारते हैं । 2. स्वस्ति पन्थामनुचरेम । (5.51.15) कल्याण मार्ग का अनुसरण करें । 3. विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्न आसुव । (5.85.5) विश्व देव सविता बुराइयां दूर करावें जो कल्याणकारी है, वह प्रदान करें । 4. उप सर्प मातरं भूमिम् । (10.18.10) सेवा करें मातृ भूमि की । 5. सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् । (10.181.2) साथ चलें मिलकर बोलें । यजुर्वेद : सुमना भव । अच्छे मन वाले बनें 6. ऋतस्य पथा प्रेत । (7.45) धर्म के मार्ग पर चलें । 7. भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम । (25.11) मंगलकारी वचन कानों से सुनें । 8. तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु । (34.1) यह मेरा मन शिव संकल्प युक्त हो । 9. मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे । (36.18) मित्र की दृष्टिस से सर्वत्र देखें । 10. मा गृधा कस्य स्विद धनम् । (40.1) मत लालच करें किसी अन्य के धन का । सामवेद : सरस्वन्तम् हवामहे । परमेश्व र का आवाहन है 11. अध्वरे सत्य धर्माणं कविम् अग्निम् उप स्तुहि । (32) यज्ञ में सत्य धर्मरत कवि अग्नि की स्तुति करें । 12. ऋचा वरेण्यम् अवः यामि । (48) वेद मंत्रों से श्रेष्ठ2 रक्षण मांगता हूँ । 13. मंत्र श्रुत्यं चरामसि । (176) मंत्र श्रुति का हम पालन करते हैं । 14. जीवा ज्योति रशीमहि । (259) सभी जीव परमप्रकाश को प्राप्त करें । 15. यज्ञस्य ज्योतिः प्रियं मधु पवते । (15) यज्ञ की ज्योति प्रिय मधुर भाव उत्पन्न करती है । अथर्ववेद : मानवो मानवम् पातु - मनुष्य मनुष्य को पाले ।16. माता भूमिः पुत्रोSहम् पृथिव्याः । माता भूमि है, पुत्र है हम पृथ्वी के । 17. यज्ञो विश्वपस्य भुवनस्य नाभिः । (9.10.14) यज्ञ कार्यक्रम विश्वप भुवन का केन्द्र है। 18. ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत । (11.5.19) ब्रह्मचर्य के तप से देवों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की ।19. मधुमतीं वाचमुदेयम । (16.2.2) मैं मीठी वाणी बोलूँ । 20. सर्वमेव शमस्तु नः । (19.9.14) सभी शान्तिप्रद हो हमारा ।]
[>>>वेदान्त केसरी की दहाड़ (The Roar of the Lion of Vedanta) :>
"First, let us be Gods, and then help others to be Gods. “Be and Make.” Let this be our motto. "
"Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; you are not matter, you are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter."
"Each soul is potentially divine. The goal is to manifest this Divinity within by controlling nature, external and internal. Do this either by work, worship, psychic control, or philosophy – by one, or more, or all of these – and be free. This is the whole of religion. Doctrines, dogmas, rituals, books, temples, or forms, are but secondary details."
"God has become man; man will become God again. Man is the best mirror, and the purer the man, the more clearly he can reflect God."
"This universe is simply a gymnasium in which the soul is taking exercise, and after these exercises we become God. So the value of everything is to be decided by how far it is a manifestation of God. Civilization is the manifestation of that divinity in man."
"All the wealth of the world cannot help one little village if the people are not taught to help themselves."
"What is education? Is it book learning? No. Is it diverse knowledge? Not even that. The training by which the current and expression of will are brought under control and become fruitful is called education."
"Education is not the amount of information that is put into your brain and runs riot there, undigested, all your life. We must have life-building, man-making, character-building assimilation of ideas. If you have assimilated five ideas and made them your life and character, you have more education than any man who has got by heart a whole library.
"To me, the very essence of education is concentration of mind, not the collecting of facts. We want an education by which character is formed, the strength of mind is increased, the intellect is expanded, and by which one can stand on one’s own feet.
"Education is the manifestation of the perfection already in man. Religion is the manifestation of the Divinity already in man. Therefore the only duty of the teacher in both cases is to remove all obstructions from the way. Hands off! as I always say, and everything will be right. That is, our duty is to clear the way. The Lord does the rest." ( Written to "Kidi" on March 3, 1894, from Chicago.)
" It is a man-making religion that we want. It is man-making theories that we want. It is man-making education all around that we want. And here is the test of truth–anything that makes you weak physically, intellectually, and spiritually, reject as poison; there is no life in it, it cannot be true.
" My ideal indeed can be put into a few words and that is; to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life. God is in every man, whether the man knows it or not; your loving devotion is bound to call up the divinity in him."
"One idea that I see clear as daylight is that misery is caused by ignorance and nothing else. Who will give the world light? Sacrifice in the past has been the Law, it will be, alas, for ages to come. The earth’s bravest and best will have to sacrifice themselves for the good of many, for the welfare of all. Buddhas by the hundred are necessary with eternal love and pity."
"The infinite power of the spirit, brought to bear upon matter evolves material development, made to act upon thought evolves intellectuality, and made to act upon itself makes man a God.
"If the fisherman thinks that he is the Spirit he will be a better fisherman, if the student thinks he is the Spirit, he will be a better student. If the lawyer thinks that he is the Spirit, he will be a better lawyer."
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[ ( 31अगस्त, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]
🔱🙏पुनर्जन्म की प्रक्रिया तथा अवतारवाद 🔱🙏
हर पल, अभी में रहकर, अंत होते हुए काल में भी, आत्मभाव में रहना ही मुक्ति है, ना कि ऐसा सोचना कि मृत्यु रूपी अंतकाल आएगा तब प्रभु का नाम लेकर मुक्त हो जाएंगे।कुछ गीता के श्लोक जहां इन शब्दों का प्रयोग हुआ है- [अंतकाल – 2/72, 8/5; निधन- 3/35;त्यजन्देह (देह त्याग)- 8/13;त्यक्त्वा देह (देह त्याग )- 4/9,प्रयाण काल -7/30, 8/2 & 10, कलेवर त्याग- 8/5-6, प्रलियन्ते -8/18, प्रलियते -8 /19; प्रयाता -8/23 & 24;प्रयाति -8/5 & 12; मृत्यु – 9/3,19 & 21,10/34, 12/7, 13/8 & 25;]
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।8.6।।
शब्दार्थ : यम यम– जो भी ; वा - या ; अपि– सम ; _ स्मरण – स्मरण ; भावम् - स्मरण ; त्यागति– त्याग देता है ; पूर्व – अंत में ; कलेवरम् - शरीर ; तम् - उस को ; तम् - उस को ; एव– निश्चय ही ; एति– प्राप्त करता है ; कौन्तेय -कुंती के पुत्र अर्जुन ; सदा– सदा ; _ तत्– वह ; _ भाव-भावितः - चिंतन में लीन।
।।8.6।। हे कौन्तेय ! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ, [यानि गुरु-शिष्य परम्परा में अपने गुरुदेव के मुख से श्रवण किये जिस किसी देवता-विशेष (अवतार विशेष -रामकृष्णो के नाम)] का चिन्तन करता हुआ, शरीर को त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है।।
व्याख्या : केवल मेरे (कृष्णावतार के) विषय में ही यह नियम नहीं है किंतु --, हे कुन्तीपुत्र प्राण-वियोग के समय ( यह जीव ) जिस- जिस भी भाव का अर्थात् ( जिस किसी भी ) देवता-विशेष (अवतार विशेष) का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है उस भावसे भावित हुआ वह पुरुष सदा उस स्मरण किये हुए भावको ही प्राप्त होता है अन्यको नहीं। उपास्य देव (भगवान श्री रामकृष्ण देव ) विषयक भावना का नाम तद्भाव है वह जिसने भावित यानी बारंबार चिन्तन करने के द्वारा अभ्यस्त किया हो उसका नाम तद्भावभावित है ऐसा होता हुआ ( उसीको प्राप्त होता है )। साभार -https://www.holy-bhagavad-gita.org/chapter/8/verse/6]
टीका BG 8.6 : हे कुन्ती पुत्र, मृत्यु के समय, यानि शरीर (कलेवर) त्यागते समय जीव जिस देव-विशेष या अवतार विशेष को स्मरण करता हुआ, अपने कलेवर को त्याग देता है, वह उस अवस्था को प्राप्त करता है, जो हमेशा ऐसे चिंतन में लीन रहता है।
श्री कृष्ण इस श्लोक में कहते हैं, मृत्यु के समय व्यक्ति के मन में जो भी विचार प्रमुखता से हावी होते हैं, वे विचार ही उसके अगले जन्म के (देवयान या पितृयान मार्ग का) निर्धारण करते हैं। हालाँकि, किसी को यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि मृत्यु के समय केवल ईश्वर का ध्यान करने से ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त किया जा सकता है। जब हम अपनी यात्रा की योजना बनाते हैं, तो अपना सामान पैक करने के बाद हम अपनी योजना नहीं बना सकते; इसके लिए पहले से सावधानी पूर्वक योजना और निष्पादन की आवश्यकता होती है।
उदाहरण के लिए, बहुत प्रयास के बाद, कोई अपने पालतू तोते को "रूपु सीता- राम, सीता -राम बोलो" कहना सिखा देता है। लेकिन, जब बिल्ली तोते पर हमला करती है, तो उस समय उसने सीखा है, वह सब कुछ भूल जाता है और जो उसकी स्वाभाविक ध्वनि है - "टें- टें' करना उसी प्राकृतिक ध्वनि में चिल्लाता है। इसी तरह अपने जीवन भर की आदत से हमने जिन प्रमुख विचारों के चैनल अपने चित्त पर बनाये हुए हैं, मृत्यु के समय भी वही विचार स्वाभाविक रूप से हमारे मन में प्रवाहित होंगे। हम जीवन भर जिन बातों का लगातार चिंतन (श्रवण, मनन निदिध्यासन) करते हैं, वे हमारी दैनिक आदतों, संगति और प्रवृत्ति से प्रभावित होती हैं। इसलिए, यह स्वाभाविक है कि ये हमारे अंतिम विचारों को निर्धारित करते रहेंगे।
पुराणों एक प्रतापी राजा भरत की कहानी आती है। समय के प्रवाह में वे 'अनासक्ति योग' को भूल गए, और ईश्वर-प्राप्ति के लिए प्रौढ़ अवस्था में प्रवृत्ति मार्ग को त्यागकर निवृत्ति मार्ग का संन्यासी बनने के लिए, अपने राज्य को त्याग कर घने जंगल में चले आये। और जंगल में नदी किनारे एक कुटिया बनाकर तपस्वी का जीवन जीने लगे। एक बार, जब वे नदी के किनारे ध्यान कर रहे थे, तब उन्होंने " देखा" कि एक गर्भवती हिरणी हमलावर बाघ से अपनी जान बचाने के लिए उस नदी में कूद गयी है । और डर के मारे उसी बहती हुई नदी में एक मृग-छौने का जन्म हो गया। उसके पास अपने नवजात को बचाने का कोई मौका नहीं था और वह नदी को पार कर दूसरे किनारे की तरफ भाग गई।
इस पूरे प्रकरण को देखकर भरत को नदी में तैरते-डूबते हुए हिरण के बच्चे पर दया आ गई। उन्होंने उस मृग-शिशु को बचाया और अपनी कुटिया में ले आये। वे बड़े प्रेम से उसका लाल-पालन करने लगे। हरी-हरी घास काटकर उसे खिलाना, अपने सीने से लगा कर उस मृग के छौने को गर्म रखना, और उसे कुटिया के पास चौकड़ी मारते देखकर राजा भरत को बड़ी प्रसन्नता होती थी। धीरे-धीरे राजा भरत का सारा दिन उसी मृग-शावक की देखभाल में बीतने लगा। उनका मन पूरी तरह से उसी मृग की चिन्ता में लीन रहने और वे ईश्वर के चिंतन से दूर होते चले गए। और इसीप्र कार जीते हुए, एक दिन जब उनके मरने का समय आया, उस समय भी वे केवल मृग-शावक के बारे में ही चिंतित थे, और उसे याद करते हुए उस मृग-के बच्चे का नाम पुकारा। इसके फलस्वरूप राजा भरत ने अगले जन्म में हिरण के रूप में जन्म लिया।
लेकिन अपने पिछले जन्मों की आध्यात्मिक साधना के कारण एक हिरण शरीर में रहते हुए भी, राजा भरत अपने पूर्व जन्म में हुई भूलों से अवगत थे। इसलिए हिरण के रूप में भी भरत ने अपना पूरा जीवन जंगल में साधु-सन्तों के पवित्र आश्रमों के निकट व्यतीत किया । और इस बार एक हिरण के रूप में जब उनकी मृत्यु हुई, तो उन्हें फिर से ईश्वर-भक्ति प्राप्त करने के लिए मानव जन्म प्राप्त हुआ। इस बार भरत ने मौका नहीं गंवाया, और अपनी साधना पूरी की। आखिरकार, उन्हें ईश्वर-साक्षात्कार और ईश्वर-भक्ति प्राप्त हुई और उन्हें महान ऋषि जड़भारत के रूप में जाना जाने लगा।
'मृत्यु' एक बहुत ही दर्दनाक अनुभव है। इसलिए, यह स्वाभाविक है कि उस समय में मन केवल उसी विचार की ओर आकर्षित होता है जो किसी की अंतर्निहित प्रकृति का हिस्सा बन चुके हैं। स्कंद पुराण के अनुसार मृत्यु के समय ईश्वर का (अवतार वरिष्ठ के नाम का- चिदानन्द रूपः शिवोहं- शिवोहं का) चिंतन करना अत्यंत कठिन है। हमेशा ईश्वर के बारे में (अपने सच्चिदानन्द स्वरुप के बारे में) सोचने के लिए हमारी अन्तः प्रकृति और वाह्य प्रकृति को ईश्वर के साथ (माँ काली के अवतार वरिष्ठ के साथ ) एक होने की आवश्यकता होती है। इसलिए, विद्यार्थी जीवन से ही (स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर Be and Make' परम्परा में) ईश्वर के अवतार वरिष्ठ पर मन को अपने वश में रखने, या एकाग्र करने का प्रशिक्षण किसी (CINC नवनीदा जैसे) योग्य नेता से अवश्य प्राप्त करना चाहिए।
>>>अन्तः प्रकृति (inner nature)> हमारे मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के भीतर जो चेतना (consciousness) रहती है उसको ही हमारी आंतरिक प्रकृति, या अन्तःप्रकृति कहते हैं। [The consciousness that resides within our mind, intellect, chitta and ego is called our inner nature.] और हम अपने जिस किसी आदर्श पर मन को विधिवत सुबह-शाम दो बार एकाग्र करने का अभ्यास करते हैं, (या गुरुमुख से सुने ईश्वर के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव से सम्बन्धित) वही दिव्य विचार हमारे मन -वचन-कर्म के माध्यम से निरन्तर हमारी अन्तःप्रकृति की बाह्य अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट होते रहते हैं। इसलिए हमें अपने जीवन के हर पल में भगवान " श्रीरामकृष्ण देव -श्रीमाँ सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द, (C-IN-C नवनीदा) " के नाम-रूप-लीला-धाम का स्मरण करते रहने का अभ्यास करना चाहिए। केवल तभी हम एक ईश्वर-चेतन अन्तः प्रकृति (God-conscious inner nature) का या हृदयवत्ता का विकास कर सकेंगे। [Only then we will be able to develop a God-conscious inner nature or heart.] अगले श्लोक में भगवान कृष्ण अर्जुन को यही सलाह देते हैं "-तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर युध्य च" ---क्योंकि इस प्रकार अन्तकाल की भावना ही अन्य शरीर की प्राप्ति का कारण है --, इसलिये तू हर समय मेरा स्मरण कर और शास्त्राज्ञानुसार स्वधर्मरूप युद्ध भी कर।
साभार -https://www.holy-bhagavad-gita.org/chapter/8/verse/6]
>>>पुनर्जन्म की प्रक्रिया : के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता में स्पष्ट जानकारी दी गई है जो अत्यंत लोकप्रिय भी है। कर्मयोग का ज्ञान देते समय भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि, 'सृष्टि के आरंभ में मैंने ये ज्ञान सूर्य को दिया था। आज तुम्हें दे रहा हूँ।' अर्जुन ने आश्वर्यचकित होकर प्रश्न पूछा कि, 'आपका जन्म तो अभी कुछ साल पूर्व हुआ और सूर्य तो कई सालों से है। सृष्टि के आरंभ में आपने सूर्य को ये (कर्मयोग का) ज्ञान कब दिया?' कृष्ण ने कहा कि, 'तेरे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं, तुम भूल चुके हो किन्तु मुझे याद है। गीता में कृष्ण-अर्जुन का ये पूरा संवाद निम्नलिखित है:-
श्री भगवानुवाच-
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।4.1।।
[इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम्, विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत् ॥
[इमम् = एनम्, अव्ययम् = अविनाशिनम्, योगम् = योगमार्गम्, अहम् = अहम्, विवस्वते = सूर्याय, प्रोक्तवान् = अवोचम्, विवस्वान् = सूर्यः, मनवे = मनुसंज्ञकाय राज्ञे, प्राह = अवदत्, मनुः = मनुः, इक्ष्वाकवे = इक्ष्वाकुनाम्ने राज्ञे, अब्रवीत् = अकथयत् ।]
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - मैंने इस अविनाशी (सनातन) योग-मार्ग का उपदेश सृष्टि के आरम्भ में विवस्वान (सूर्य देव) को दिया था, विवस्वान ने यह उपदेश अपने पुत्र मनुष्यों के जन्म-दाता मनु को दिया और मनु ने यह उपदेश अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को दिया। (१)
व्याख्या : इस श्लोक में भगावन द्वारा कथित 'योगम्' = योगमार्गम्, शब्द से वेद में कहे गए प्रवृत्ति-धर्मरूप और निवृत्ति-धर्मरूप दोनों प्रकार मार्गों का सम्पूर्ण तात्पर्य समाहित हो जाता है आगे समस्त अध्यायों में यही ( ज्ञानयोग-विज्ञान सहित ज्ञान) विवक्षित है। इस योगका फल अविनाशी है इसलिये यह अव्यय है क्योंकि इस सम्यक् ज्ञाननिष्ठा रूप योग का मोक्षरूप फल कभी नष्ट नहीं होता। श्री भगवान ने कहा - मैंने इस अविनाशी योग-विद्या का उपदेश सृष्टि के आरम्भ में विवस्वान् (सूर्य देव) को दिया था, उस सूर्य ने यह योग अपने पुत्र मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र सबसे पहले राजा बनने वाले इक्ष्वाकु से कहा। जो सूर्य-वंश के पूर्वज थे, इस वंश के राजाओं ने दीर्घकाल तक अयोध्या पर शासन किया। (१)
व्याख्या : वेद शब्द संस्कृत के विद् धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। अतः वेद का अर्थ है ज्ञान अथवा ज्ञान का साधन (प्रमाण)। और वेदान्त का अर्थ है - जानने का अन्त; वह सनातन सत्य, जिसको जान लेने के बाद और कुछ जानना बाकि नहीं रहता। वेदों का प्रतिपाद्य विषय है जीव के शुद्ध ज्ञान स्वरूप तथा उसकी अभिव्यक्ति के साधनों का बोध। जैसे हम गुरुत्वाकर्षण के नियम को नित्य कह सकते हैं क्योंकि उसके प्रथम बार आविष्कृत होने के पूर्व भी वह थी, और यदि हमें उसका विस्मरण भी हो जाता है तब भी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के नियम का अस्तित्व बना रहेगा। इसी प्रकार हमारे नहीं जानने से दिव्य चैतन्य स्वरूप आत्मा का नाश नहीं होता। इस अविनाशी आत्मा का ज्ञान वास्तव में अव्यय -अर्थात अविनाशी है।
वेदों का विषय आत्मानुभूति होने के कारण वाणी उसका वर्णन करने में सर्वथा असमर्थ है। किसी भी इन्द्रियातीत सत्य के गम्भीर अनुभव को शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। अतएव स्वयं की बुद्धि से ही शास्त्रों का अध्ययन करने से उनका सम्यक् ज्ञान तो दूर रहा विपरीत ज्ञान होने की ही सम्भावना अधिक रहती है। इसलिये भारत में गुरु-शिष्य परम्परा से यह ज्ञान दिया जाता रहा है। भारत में अध्यात्म ज्ञान (वेदान्त) के उपदेश को गुरु-शिष्य परम्परा में आत्मानुभव में स्थित गुरु के मुख से ही श्रवण किया जाता है , फिर श्रवण- मनन -निदिध्यासन प्रक्रियानुसार सीखा और सिखाया जाता है। इस श्लोक में प्राचीन भारतीय संस्कृति की ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने की गुरु-शिष्य परम्परा से परिचय कराया गया है।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।4.2।।
भावार्थ : भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार गुरु-शिष्य परम्परा से प्राप्त इस विज्ञान सहित ज्ञान को राज-ऋषियों ने बिधि-पूर्वक समझा, किन्तु समय के प्रभाव से वह परम-श्रेष्ठ विज्ञान सहित ज्ञान इस संसार से प्राय: छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गया। (२)
व्याख्या : वेदों में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्म - मार्गों का उपदेश है। भारत के राजर्षियों को परम्परागत रूप से 'सेंगोल - हस्तांतरण ' द्वारा इस 'मनःसंयोग पूर्वक कर्म' करने ' का ज्ञान था। परन्तु समय के प्रवाह में भारत के अध्यात्म का स्वर्ण युग समाप्त होकर, 1836 में लॉर्ड मैकाले की पाश्चत्य शिक्षा पद्धति के माध्यम से भोगप्रधान आसुरी जीवन का अन्धा युग प्रारम्भ हुआ। किन्तु जगतजननी माँ काली आसुरी भौतिकवाद से ग्रस्त उस पीढ़ी को अपने ही अवगुणों द्वारा निरन्तर दुःख भोगने के लिए उपेक्षित नहीं छोड़ सकती थी। अतएव माँ काली की इच्छा से ठीक उसी समय (18 फरवरी 1836 को महान् जगतगुरु श्री रामकृष्ण को आविर्भूत होना ही पड़ता है ! और प्राचीन भारतीय गुरु-शिष्य परम्परा पुनः प्रतिष्ठित हो जाती है। "श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त निवृत्ति मार्गी शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' या " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर, प्रवृत्ति मार्गी 'Be and Make' परम्परा के Leadership-Training Tradition" में, C-IN-C नवनीदा के नेतृत्व में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' जैसा कोई युवा संगठन अध्यात्म क्षितिज पर अवतीर्ण होकर तत्कालीन युवा पीढ़ी को प्रेरणा साहस उत्साह और आवश्यक नेतृत्व प्रदान करके दुख पूर्ण पगडंडी से बाहर सांस्कृतिक पुनरुत्थान के राजमार्ग पर ले आता है।
[जिस प्रकार 15 अगस्त 1947 को पारम्परिक ढंग से नेहरू जी सेंगोल सौंपा गया तो उन्हें गुरु-शिष्य परम्परा का ज्ञान नहीं था। अतएव वे राजदण्ड का उचित मूल्यांकन न कर सके और 'गोल्डन वॉकिंग स्टिक ' के नाम से प्रायराज म्यूजियम में भिजवा दिया।] उसी प्रकार महाभारत काल में भी पुत्रमोहवश राजा ने राजदण्ड योग्य हाथों में न सौंपकर, दुष्ट दुर्योधन को दे दिया था। उस महाभारतकालीन अवस्था का उचित मूल्यांकन करते हुए श्रीकृष्ण भगवान् ठीक ही कहते हैं कि दीर्घकाल के अन्तराल से वह योग यहाँ नष्ट हो गया है। यह देखकर कि इन्द्रिय संयम से रहित दुर्बल व्यक्तियों के हाथों में जाकर यह योग नष्टप्राय हो गया जिसके बिना जीवन का परम् पुरुषार्थ प्राप्त नहीं किया जा सकता। भगवान् आगे कहते हैं-
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।4.3।।
भावार्थ : आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग (आत्मा का परमात्मा से मिलन का विज्ञान) तुझसे कहा जा रहा है क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय मित्र भी है, अत: तू ही इस उत्तम रहस्य को समझ सकता है। (३)
।।4.3।। व्याख्या : यहाँ इस ज्ञान को रहस्य कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि कोई व्यक्ति कितना ही बुद्धिमान् क्यों न हो फिर भी अनुभवी पुरुष (गुरु, नाता, जीवनमुक्त शिक्षक) के उपदेश के बिना वह आत्मा के अस्तित्व का कभी आभास भी नहीं पा सकता। क्योंकि समस्त बुद्धि वृत्तियों को प्रकाशित करने वाली आत्मा स्वयं बुद्धि के परे होती है। इसलिये मनुष्य का विवेक सार्मथ्य भी नित्य अविकारी आत्मा को कभी विषय रूप में नहीं जान सकती। यही कारण है कि सत्य के विज्ञान को यहाँ उत्तम रहस्य कहा गया है।
शिष्य के प्रति स्नेह भाव होने पर ही कोई गुरु उत्साह और कुशलता पूर्वक उपदेश दे सकता है। श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच ऐसा ही सम्बन्ध था और भगवान् को यह विश्वास था कि उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का वह अनुसरण करेगा। गुरु और शिष्य के बीच यदि इस प्रकार की व्यापारिक शिक्षा व्यवस्था हो कि तुम पहले दक्षिणा - शुल्क जमा करो , तब मैं बाद पढ़ाऊँगा, तो उस पद्धति में आत्म-विकास या 3H विकास की शिक्षा नहीं दी जा सकती। आत्मानुभव का ज्ञान प्रदान करने के लिए आवश्यक गुणों को अर्जुन में देखकर ही श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने इस योग का ज्ञान उसे दिया।
अर्जुन उवाच-
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।4.4।।
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - सूर्य देव का जन्म तो सृष्टि के प्रारम्भ हुआ है और आपका जन्म तो अब हुआ है, तो फ़िर मैं कैसे समूझँ कि सृष्टि के आरम्भ में आपने ही इस योग का उपदेश दिया था? (४)
श्रीकृष्ण ने कहा कि उन्होंने सृष्टि के प्रारम्भ में इस योग को विवस्वान् को सिखाया। श्रीकृष्ण की निश्चित जन्म तिथि थी और वे अर्जुन के ही समकालीन थे। इस दृष्टि से उनका सूर्य के प्रति उपदेश करना असंभव था क्योंकि सम्पूर्ण ग्रहों की सृष्टि के पूर्व सूर्य का अस्तित्व सिद्ध है। गीतोपदेष्टा भगवान् श्रीकृष्ण को कोई साधारण मनुष्य न समझ ले इसलिये व्यासजी भगवान् के ही मुख से घोषणा करवाते हैं कि
श्री भगवानुवाच-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।।
अर्थात-श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन ! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं; उन सबको मैं जानता हूँ, किंतु हे परंतप ! तू (उन्हें) नहीं जानता। क्योंकि पुण्यपाप आदि के संस्कारों से तेरी ज्ञानशक्ति आच्छादित हो रही है। परंतु मैं तो नित्यशुद्धबुद्धमुक्त स्वभाव वाला हूँ इस कारण मेरी ज्ञान शक्ति आवरण रहित है, इसलिये हे परन्तप मैं ( सब कुछ ) जानता हूँ। (५) मुझे (अवतार) को कभी भी अपने दिव्य स्वरूप का विस्मरण नहीं होता।
डार्विन के क्रम-विकास के सिद्धान्त के अनुसार भी प्रत्येक व्यक्ति जगत में क्रम-विकास की सीढी पर उन्नति करने के फलस्वरूप आया है। किसी एक भी प्राणी का जन्म केवल संयोग ही नहीं है। प्रत्येक देहधारी का जीवन उस जीव के दीर्घ आत्मचरित्र को दर्शाता है। असंख्य और विभिन्न प्रकार के शरीरों में वास करने के पश्चात् ही जीव वर्तमान विकसित स्थिति को प्राप्त करता हुआ है। प्रत्येक नवीन देह में जीव को पूर्व जन्मों का विस्मरण हो जाता है, किन्तु वह पूर्व जन्मों में अर्जित वासनाओं के रुझानों या प्रवृत्तियों से युक्त रहता है।
श्रुति कहती है कि जो लोग मनःसंयोग विद्या के माध्यम से देवयान के मार्ग से ब्रह्मलोक तक या मनःसंयोग पूर्वक कर्मयोग के माध्यम से पितृयान के मार्ग से चंद्रलोक तक नहीं जाते हैं, वे अक्सर निम्न शरीर में पैदा होते हैं और तत्काल मर जाते हैं। जो इन दोनों में से किसी भी रास्ते से नहीं जाते हैं, वे पाप करने वाले तीसरे स्थान ( तृतीयम् स्थानम् ) में जाते हैं, क्योंकि वह न ब्रह्मलोक है और न चन्द्रलोक।। जिनके लिए यह कहा जा सकता है: 'जयस्व , म्रियस्व'। वे कीट, मच्छर आदि का शरीर धारण करते हैं। उनका तीसरा स्थान है।
well- informed या बाख़बर नेता : सूक्ष्म शरीर में बुद्धि, अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं । ये सूक्ष्म शरीर आत्मा को सृष्टि के आरम्भ में जो मिलता है वही एक ही सूक्ष्म शरीर सृष्टि के अंत तक उस आत्मा के साथ पूरे एक सृष्टि काल तक चलता है । और यदि बीच में ही किसी जन्म में कहीं आत्मा का मोक्ष हो जाए तो ये सूक्ष्म शरीर भी प्रकृति में वहीं लीन हो जायेगा ।
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[Shuddhananda Maharaj, who was the fifth president of the Ramakrishna Order, was a direct monastic disciple of Vivekananda. He joined the Ramakrishna Math in 1897. He became a trustee of Ramakrishna Math and a member of the governing body of Ramakrishna Mission in May 1903. He also took up the editorship of the Bengali magazine called Udbodhan for some time. He was appointed as the secretary of the math and the mission in 1927 and as the vice president in 1937. In 1938, he became the president of the order. His tenure was short, as he died in 1938. He is renowned in Bengali literary circles to have translated most of Vivekananda's original works from English to Bengali.
[अश्नि बिजली : पिथौरागढ़ के पर्यावरणविदों ने बताया कि सफेद और पीले रंग की बिजली नुकसान नहीं करती लेकिन हरे नीले रंग की बिजली विनाशकारी होती है। पहाड़ों पर बरसात में इस तरह की घटनाएं होती रहती हैं। हरे- नीले रंगी की बिजली दिखाई पड़ती है। गिरती है तो धरती में भी गड्ढे कर देती है। अश्नि बिजली साधारण बिजली के मुकाबले कई गुना अधिक घातक होती है। हरी और नीली रोशनी के साथ ये बहुत तेज आवाज और गति से जमीन पर गिरती है। धरती को 1000 मीटर तक भेद सकती है।जलाशयों में या भूगर्भीय जल स्रोतों की ओर ये तेजी से खिंचती चली आती है। जलने के लिए जरूरी ऑक्सीजन की तलाश में ये जमीन और पानी की ओर आकर्षित होती है। भूगर्भीय जल की ओर आकर्षित होने पर यह धरती को चीरती हुई भूतल में घुस जाती है। ग्रेटर हिमालय की पवर्त श्रंखला विशेष तौर से उत्तर पूर्वी इलाका इसका उत्पत्ति क्षेत्र है। यहां उच्च सक्रिय विद्युत आवेशित कण पाए जाते हैं। इन कणों को संहिताओं में मारुत, पशु या रुद्र नाम से पुकारा गया है। इसलिए केदार घाटी के नीचे रुद्र खंड है जिसे रुद्र प्रयाग के नाम से जाना जाता है। खुले आसमान में ये कण एक दूसरे से मिल जाते हैं। ये उच्च सक्रिय विद्युत कण ही अश्नि है। नीले और हरे रंग की रोशनी वाले इन कणों की तरंगे इलाके में शक्तिशाली विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र पैदा करती हैं। ऑक्सीजन से मिलने के बाद ये जलते हुए तेज गति के साथ धरती पर गिरती हैं। ये या तो पानी में गिरती हैं या भूगर्भीय जल स्रोतों की तलाश करती हैं। जिससे धरती फट जाती है।]
" स्वामीजी का यह सन्देश .... देखो, एकाग्र मन के माध्यम से अभी अभी मेरे ह्रदय के द्वार तक पहुँचा है कि 'श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित एवं चपरास प्राप्त, प्रथम वीर सेनापति स्वामी विवेकानन्द के प्रत्येक 'direct' अर्थात वंशागत त्यागी/गृही अनुयायी सन्तान रूपी वट-बीज के भीतर, महामण्डल के संस्थापक वीर सेनापति 'C-IN-C नवनीदा' के जैसा विशाल वट-वृक्ष, जीवनमुक्त शिक्षक, नेता या पैगम्बर बन जाने की सम्भावना निहित है! "
Bangala Letter dated -July 11, 1897, Number - 344/ Written From -Almora to Swami Shuddhananda, (1872-1938 ) स्वामीजी 11 जुलाई, 1897 को अल्मोड़ा से स्वामी शुद्धानन्द को पत्र लिख रहे हैं - स्वामी शुद्धानन्द महाराज 'श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक- परम्परा' में प्रशिक्षित प्रथम नेता का चपरास प्राप्त,C-IN-C स्वामी विवेकानन्द के 'direct' अर्थात 'वंशागत' त्यागी शिष्य (direct monastic disciple of Vivekananda) थे, रामकृष्ण मठ और मिशन के द्वितीय महासचिव और पंचम अध्यक्ष थे।
https://www.thakurmaaswamiji.com/2021/08/swami-vivekananda-samagra-rachanabali.html]
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Ramakrishna Order : The Ramakrishna Order (Bengali: রামকৃষ্ণ সংঘ)
InformationThe Ramakrishna Order is the monastic lineage that gave birth to the twin organizations Ramakrishna Math and Ramakrishna Mission, both headquartered at Belur Math near Kolkata, India.
The seal of the Ramakrishna Order
The seal of Ramakrishna includes certain symbols that depict their idea for the four paths to God. It includes wavy waters that means unselfish work, the lotus means the love of God, the rising sun means knowledge, and the encompass serpent means the awakening of spiritual powers.[3]
Ramakrishna Mission (RKM) is a Hindu religious and spiritual organization headquartered in Belur Math, West Bengal.[1][2] The organization mainly propagates the Hindu philosophy of Vedanta–Advaita Vedanta and four yogic ideals – Jnana, Bhakti, Karma, and Raja yoga.[3][1]
Overview
The Math and the Mission are the two key organizations that direct the work of the socio-spiritual-religious Ramakrishna movement, influenced by 19th-century saint Ramakrishna Paramahamsa and founded by his chief disciple Vivekananda.
History
Ramakrishna Paramahamsa (1836–1886), regarded as a 19th-century mystic, was the inspirator of the Ramakrishna Order of monks[8] and is regarded as the spiritual founder of the Ramakrishna Movement.[9][10] Ramakrishna was a priest in the Dakshineswar Kali Temple and attracted several monastic and householder disciples. Narendranath Dutta, who later became Vivekananda, was one of the chief monastic disciples. According to Vrajaprana, shortly before his death in 1886 Ramakrishna gave the ochre cloths to his young disciples, who were planning to become renunciates. Ramakrishna entrusted the care of these young boys to Vivekananda. After Ramakrishna's death, the young disciples of Ramakrishna gathered and practiced spiritual disciplines. They took informal monastic vows on a night of 24 December 1886.[8]
After the death of Ramakrishna in 1886, the monastic disciples formed the first Math (monastery) at Baranagore. Later Vivekananda became a wandering monk and in 1893 he was a delegate at the 1893 Parliament of the World's Religions. His speech there, beginning with "Sisters and brothers of America" became famous and brought him widespread recognition. Vivekananda went on lecture tours and held private discourses on Hinduism and spirituality. He also founded the first Vedanta Society in the United States at New York. He returned to India in 1897 and founded the Ramakrishna Mission on 1 May 1897.[8] Though he was a Hindu sadhu and was hailed as the first Hindu missionary in modern times, he exhorted his followers to be true to their faith but respect all religions of the world as his guru Ramakrishna had taught that all religions are pathways to God. One such example is his exhortion that one can be born in a church but he or she should not die in a church meaning that one should realise the spiritual truths for themselves and not stop at blindly believing in doctrines taught to them. The same year, famine relief was started at Sargachi by Swami Akhandananda, a direct disciple of Ramakrishna. Swami Brahmananda, a direct disciple of Ramakrishna, was appointed as the first president of the Order. After the death of Vivekananda in 1902, Sarada Devi, the spiritual counterpart of Ramakrishna, played an important role as the advisory head of a nascent monastic organisation. Gayatri Spivak writes that Sarada Devi "performed her role with tact and wisdom, always remaining in the background."[11]
The Mission, founded by Vivekananda in 1897,[7] is a humanitarian and spiritual organization that carries out medical, relief, and educational programs. Both organizations have headquarters at Belur Math. The Mission acquired a legal status when it was registered in 1909 under Act XXI of 1860. Its management is vested in a Governing Body. Though the Mission with its branches is a distinct legal entity, it is closely related to Math. The elected trustees of the Math also serve as Mission's Governing Body.[6] Vedanta Societies comprise the American arm of the Movement and work more in purely spiritual fields rather than social welfare.[6]
Administration
The Ramakrishna Mission is administered by a Governing Body, which is composed of the democratically elected Trustees of Ramakrishna Math. The headquarters of Ramakrishna Math at Belur (popularly known as Belur Math) serves also as the headquarters of Ramakrishna Mission. A branch centre of Ramakrishna Math is managed by a team of monks posted by the Trustees, led by a head monk with the title Adhyaksha. A branch centre of Ramakrishna Mission is governed by a Managing Committee consisting of monks and laypersons appointed by the Governing Body of Ramakrishna Mission whose Secretary, almost always a monk, functions as the executive head.[12][13]
The scope of the Administration follows the detailed rules made by Swami Vivekananda when he was the General President of Ramakrishna Mission. These rules were formed when the monastic brothers in 1898 wished that there should be specific rules for the work of the Ramakrishna Mission (as the Ramakrishna Movement is commonly known). They were dictated by Swami Vivekananda to Swami Suddhananda, between 1898 and 1899, and has been accepted as the consensus of the opinion of all the monks of the Ramakrishna Mission then, consisting of all the disciples of Sri Ramakrishna and their disciples. Later for clear and formal legal confirmation of these rules, a Trust Deed was registered by Swami Vivekananda and many of the other disciples of Sri Ramakrishna, during 1899 – 1901.[14][12]
Motto and principles
The aims and ideals of the Mission are purely spiritual and humanitarian and they have no connection with politics.[15] The mission strives to practice and preach these.[16] he Principles of the Upanishads and Yoga in the Bhagavad Gita are reinterpreted in the light of Ramakrishna's life and teachings and are the main source of inspiration for the Mission.[17]
Motto
Manifestation of the Atman can be realized through any of the four yogas. The Ramakrishna Mission also believes in the harmony of all religions, i.e. that all religions lead to the same goal if followed properly.[18]
Monastic Order
After the death of Ramakrishna in 1886, his young disciples organised themselves into a new monastic order. The original monastery at Baranagar, known as Baranagar Math, was subsequently moved to the nearby Alambazar area in 1892, then to Nilambar Mukherjee's Garden House, south of the present Belur Math in 1898 before finally being shifted in January 1899 to a newly acquired plot of land at Belur in Howrah district by Vivekananda.[19]
Attitude towards politics
Swami Vivekananda forbade his organisation from taking part in any political movement or activity, on the basis of the idea that holy men are apolitical.[20]
Almost 95% of the monks possess voter ID cards for the sake of identification and particularly for travelling, as they are forced by governmental authorities to seek a voter ID card. But they generally use it only for identification purpose and not for voting though they are not forbidden to vote. As individuals, the monks may have political opinions, but these are not meant to be discussed in public.[21]
The Mission, had, however, supported the movement of Indian independence, with a section of the monks keeping close apolitical relations with freedom fighters of various camps. A number of political revolutionaries later joined the Ramakrishna Order.[22]
Emblem
Designed and explained by Swami Vivekananda in his own words:[23]The wavy waters in the picture are symbolic of Karma; the lotus, of Bhakti; and the rising-sun, of Jnana. The encircling serpent is indicative of [Raja] Yoga and the awakened Kundalini Shakti, while the swan in the picture stands for Paramatman (Supreme Self). Therefore, the idea of the picture is that by the union of Karma, Jnana, Bhakti and Yoga, the vision of Paramatman is obtained.
Branch centres
As of seventh March 2022, the Math and Mission have 265 centres all over the world: 198 in India, 26 in Bangladesh, 14 in the United States, two each in Canada, Russia, and South Africa and one each in Argentina, Australia, Brazil, Fiji, France, Germany, Ireland, Japan, Malaysia, Mauritius, Nepal, Netherlands, Singapore, Sri Lanka, Switzerland, UK, and Zambia. Besides, there are 44 sub-centres (14 within India, 30 outside India) under different centres.[45][46]
The centres of the Ramakrishna Order outside India fall into two broad categories. In countries such as Bangladesh, Nepal, Sri Lanka, Fiji and Mauritius, the nature of service activities is very much similar to India. In other parts of the world, especially in Europe, Canada, United States, Japan, and Australia, the work is mostly confined to the preaching of Vedanta, the publication of books and journals and personal guidance in spiritual matters.[47] Many of the centres outside India are called as the 'Vedanta Society' or 'Vedanta Centre'.
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