" व्यावहारिक जीवन में वेदान्त -4 "
चतुर्थ भाग
(18 नवम्बर, सन् 1896 ई. को लन्दन में दिया हुआ भाषण)
हम अभी तक समष्टि (universal) की आलोचना करते आये हैं। आज इस प्रातःकाल मैं तुमसे व्यष्टि (particular) के साथ समष्टि (universal-आलमगीर) का सम्बन्ध, इस विषय में वेदान्त का मत बतलाने का प्रयत्न करूँगा। हम प्राचीनतर द्वैतवादात्मक (dualistic) वैदिक मतों में देखते हैं कि प्रत्येक जीव की एक निर्दिष्ट सीमाविशिष्ट आत्मा (limited soul) है। प्रत्येक जीव में अवस्थित इस विशेष आत्मा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के मतवाद प्रचलित हैं। किन्तु प्राचीन बौद्धों और प्राचीन वेदान्तियों के बीच में प्रधान विचारार्थ विषय यही था कि प्राचीन वेदान्ती स्वयं में पूर्ण जीवात्मा मानते थे, और बौद्ध लोग इस प्रकार के जीवात्मा के अस्तित्व को नितान्त अस्वीकृत करते थे।
जैसा कि मैंने कल कहा था, यूरोप में भी ठीक ऐसा ही विवाद द्रव्य (substance) और गुण (quality) पर चल रहा है। एक दल यह मानता है कि गुणों के पीछे द्रव्यरूप कोई वस्तु है जिसमें गुण आधारित हैं। और दूसरे दल के मत में द्रव्य को मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं, गुण स्वयं ही रह सकते हैं। आत्मा के सम्बन्ध में सर्वप्राचीन मत 'अहं-सारूप्य' गत युक्ति के ऊपर स्थापित है। 'अहं- सारूप्य गत युक्ति' का अर्थ है; "I am I" -"मैं मैं हूँ "! कल का 'मैं' ही आज का 'मैं' है ओर आज का 'मैं' आगामी कल का 'मैं' रहेगा। शरीर में जो कुछ भी परिवर्तन हो रहा है उसके होने पर भी, में यह विश्वास करता हूँ कि -'I am the same I', मैं वही हूँ, सदा एकरूप ही हूँ। जान पड़ता है, जो सीमित, पर स्वयं में पूर्ण जीवात्मा मानते थे उनकी प्रधान युक्ति यही थी।
दूसरी ओर प्राचीन बौद्धगण ऐसी जीवात्मा मानने की कोई आवश्यकता नहीं समझते थे। उनकी यह युक्ति थी कि हम केवल इन परिवर्तनों को ही जानते हैं, एवं इन परिवर्तनों के अतिरिक्त और कुछ भी जानना हम लोगों के लिए असम्भव है। एक अपरिवर्तनीय और अपरिणामी द्रव्य को स्वीकार करना अनावश्यक है। और वास्तव में यदि इस प्रकार की कोई अपरिणामी वस्तु हो भी, तो हम उसे कभी समझ नहीं सकेंगे और न उसे किसी भी तरह प्रत्यक्ष ही कर सकेंगे! आजकल यूरोप में भी एक ओर धर्मनिष्ठ (religionists) और आदर्शवादी (Idealist), तथा दूसरी ओर आधुनिक यथार्थवादी (Realist), अज्ञेय वादी (Agnostic) तथा भाववादी (positivists) विचारकों में यही विवाद चल रहा है। एक दल का विश्वास है कि कोई ऐसी वस्तु है, जो परिवर्तनशील या परिणामी नहीं है, (पाश्चत्य जगत में इस मत नवनीतम प्रतिनिधि हर्बर्ट स्पेन्सर थे) और हमें किसी ऐसी वस्तु की झलक (glimpse) देखते हैं जो अपरिवर्तनीय है। दूसरे दल के प्रतिनिधि हैं कोमते [Comte- Auguste Comte (1798–1857) the founder of positivism.] के आधुनिक शिष्यगण तथा आधुनिक अज्ञेयवादीगण।
तुम लोगों में से जिन व्यक्तियों ने कुछ साल पहले फ़्रेडरिक हैरिसन और हर्बर्ट स्पेन्सर के बीच का वाद-विवाद ध्यानपूर्वक पढ़ा होगा, वे लोग जानते होंगे कि इसमें भी यही कठिनाई मौजूद है। एक पक्ष कहता है कि हम बिना किसी अपरिणामी या अपरिवर्तनशील सत्ता की कल्पना किये परिणाम या परिवर्तन की कल्पना ही नहीं कर सकते। दूसरे पक्ष यह युक्ति पेश करता है कि ऐसा मानने की कोई जरूरत नहीं, हम केवल परिणामशील पदार्थ की ही धारणा कर सकते हैं। और जहाँ किसी अपरिणामी सत्ता को समझने की बात है, तो उसे न हम कभी समझ सकते हैं, और न अनुभव या प्रत्यक्ष ही कर सकते हैं।
भारत में भी इस महान् समस्या का समाधान अत्यन्त प्राचीन काल में नहीं मिल सका था, क्योंकि हमने देखा है कि गुणों के पीछे अवस्थित, तथापि गुणों से भिन्न पदार्थ की सत्ता कभी प्रमाणित नहीं की जा सकती। केवल यही नहीं, आत्मा के अस्तित्व का 'अहं-सारूप्य' गत प्रमाण, स्मृति से आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी युक्ति- कल जो 'मैं' था, आज भी 'मैं' वही हूँ, क्योंकि मुझे यह स्मरण है, अतएव मैं सतत रहने वाला 'कुछ' हूँ, यह युक्ति प्रमाणित नहीं की जा सकती। और भी एक युक्ति का आभास, जो साधारणतः दर्शाया जाता है, वह भी केवल शब्दों का जोड़ तोड़ है। "मैं जाता हूँ", "मैं खाता हूँ", "मैं स्वप्न देखता हूँ, "मैं सो रहा हूँ," "मैं चलता हूँ" आदि कितने ही वाक्य लेकर वे कहते हैं कि करना, खाना, जाना, स्वप्न देखना, ये सब विभिन्न परिवर्तन भले ही हों किन्तु उनके बीच में 'मैं-पन' नित्य भाव से वर्तमान है। और इस प्रकार वे इस सिद्धान्त पर पहुँचते हैं कि यह 'मैं' नित्य और स्वयं एक व्यक्ति है; तथा ये सब परिवर्तन शरीर के धर्म हैं। यह युक्ति सुनने में खूब उपादेय तथा स्पष्ट जान पड़ती है, किन्तु वास्तव में वह केवल शब्दों का खेल है। यह 'मैं' और 'करना', 'जाना', 'स्वप्न देखना' आदि लिखने में भले ही अलग लगें, किन्तु मन में कोई भी उन्हें अलग नहीं कर सकता।
जब में खाता हूँ, तो 'मैं खा रहा हूँ' कहकर सोचता हूँ तब आहारकार्य के साथ मेरा तादात्म्यभाव हो जाता है। जब मैं दौड़ता रहता हूँ तब 'मैं' और 'दौड़ना', ये दो अलग अलग बातें नहीं होतीं। अतएव व्यक्तिगत तादात्म्य पर आधारित यह युक्ति कुछ अधिक सबल नहीं जान पड़ती। स्मृति वाला दूसरा तर्क भी निर्बल है। यदि मेरे अस्तित्व का सारूप्य मुझे अपनी स्मृति द्वारा प्रमाणित करना पड़े, तो अपनी जो सब अवस्थाएँ मैं भूल गया हूँ, उनमें मैं था ही नहीं यही मानना पड़ेगा। और हम यह भी जानते हैं कि कुछ विशेष अवस्थाओं में [सिर के पीछे चोट लगने पर] अनेक लोग पिछला, सब कुछ पूर्ण रूप से भूल जाते हैं।
अनेक पागल व्यक्ति अपने को 'काँच-के -बने' हुए ( made of glass) अथवा कोई पशु मानते देखे जाते हैं। यदि केवल स्मृति पर ही उस व्यक्ति का अस्तित्व निर्भर होता हो, तो वह काँच हो गया या पशु हो गया, यही मानना पड़ेगा। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता, अतः यह अहं-सारूप्य, स्मृति जैसी नगण्य युक्ति पर आधारित नहीं हो सकता। तब क्या निष्कर्ष निकला? यही कि ससीम तथापि सम्पूर्ण और नित्य 'अहं' का सारूप्य गुणसमूह से पृथक् रूप में स्थापित नहीं हो सकता। हम ऐसा कोई संकीर्ण सीमाबद्ध अस्तित्व नहीं मान सकते जिसके पीछे गुण लगे हों।
दूसरे पक्ष में प्राचीन बौद्धों का यह मत कि गुणसमूह के पीछे अवस्थित किसी वस्तु के विषय में हम न कुछ जानते हैं और न जान सकते हैं, अधिक दृढ़ भित्ति पर स्थापित जान पड़ता है। उनके मतानुसार अनुभूति और भावरूप कुछ गुणों की समष्टि ही आत्मा है। यह गुणराशि ही आत्मा है और वह निरंतर परिवर्तन शील है।
अद्वैत द्वारा इन दोनों मतों में सामंजस्य होता है। अद्वैतवाद का सिद्धान्त यह है कि हम वस्तु को गुण से अलग नहीं मान सकते, यह सत्य है। हम परिणाम और अपरिणाम दोनों को एक साथ नहीं सोच सकते। इस प्रकार सोचना भी असम्भव है। किन्तु जिसे द्रव्य (पदार्थ) कहा जाता है वही गुण स्वरूप है। द्रव्य और गुण पृथक् नहीं हैं। अपरिणामी वस्तु (दूध) ही परिणाम-रूप में (दही-रूप में) प्रतीत होती है। यह अपरिणामी सत्ता परिणामी जगत् से पृथक नहीं है। पारमार्थिक सत्ता व्यावहारिक सत्ता से पूर्णतया पृथक् वस्तु नहीं है, किन्तु यह पारमार्थिक सत्ता ही व्यावहारिक सत्ता बन जाती है। अपरिणामी आत्मा है, और हम जिसे अनुभूति, भाव आदि कहते हैं, केवल ये ही नहीं अपितु यह शरीर भी एक अन्य दृष्टिकोण से देखि हुई आत्मा है। और वास्तव में हम लोग एक ही समय में दो वस्तुओं का अनुभव नहीं करते, एक ही का करते हैं। हम लोगों का '3H' है -शरीर है, मन है, आत्मा है, इस प्रकार सोचने का हमें अभ्यास हो गया है, किन्तु वास्तव में केवल एक ही सत्ता है।
जब मैं अपने को 'शरीर' सोचता हूँ तब मैं केवल शरीर हूँ; मैं इसके अतिरिक्त और कुछ हूँ यह कहना बेकार की बात है। जब मैं अपने को आत्मा मानता हूँ, तब देह तो कहीं उड़ जाती है, देहानुभूति ही नहीं रहती। देहज्ञान लुप्त हुए बिना कभी आत्मानुभूति होती ही नहीं! गुण की अनुभूति लुप्त न होने तक वस्तु (substance) का अनुभव कभी किसी को भी नहीं हो सकता।
इसको और अधिक अच्छी तरह समझने के लिए अद्वैतवादियों का रज्जु-सर्प का उदाहरण लिया जा सकता है। जब मनुष्य रस्सी को साँप समझकर भूल करता है, तब उसके लिए रस्सी नहीं रहती और जब वह उसे वास्तविक रस्सी समझता है, तब उसका सर्प- ज्ञान नष्ट हो जाता है; और केवल रस्सी ही बच रहती है। अपर्याप्त आधार-सामग्री (insufficient data) के आधार पर विचार करने के कारण हमें द्वित्व या त्रित्व की अनुभूति होती है। ये सब बातें हम पुस्तकों में पढ़ते अथवा सुनते आये हैं। इसी कारण हम भ्रम में पड़ गये हैं कि मानो सचमुच ही हमें आत्मा और देह दोनों का ही अनुभव हो रहा है, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं। एक समय में या तो केवल देह का ही अनुभव होता है या आत्मा का ही। इसको प्रमाणित करने के लिए किसी युक्ति की जरूरत नहीं। अपने मन से ही तुम इसका सत्यापन कर सकते हो।
>>>Leadership :
तुम अपने को देह-मुक्त आत्मा (disembodied soul-डिसएम्बोडिड सोल, देह-रहित आत्मा) मानकर सोचने का प्रयत्न करो, तो तुम्हें प्रतीत होगा कि यह असम्भव सा है। और जो इने-गिने लोग इसमें सफल होते हैं, वे देखेंगे कि जब वे अपने को आत्मस्वरूप अनुभव कर रहे थे, उस समय उन्हें देहज्ञान बिल्कुल नहीं था। [और जो इने-गिने लोग (भावी नेता -पैगम्बर) ऐसा करने में सक्षम हो पायेंगे, वे देखेंगे कि 'जिस समय' ( at the time) वे अपने को आत्मा (सच्चिदानन्द) के रूप में महसूस कर रहे होते हैं, शरीर का कोई पता नहीं होता है।] तुमने ऐसे व्यक्तियों के विषय में सुना होगा, और शायद देखा भी होगा, जो व्यक्ति कभी कभी गहरे ध्यान, सम्मोहन (Hypnotization या वशीकरण), हिस्टीरिया (एक प्रकार की मूर्छा जो, विशेषकर स्त्रियों Bh को होती है) या मादक पदार्थ (drugs-भाँग,अफीम) के प्रभाव से अथवा अन्य किसी कारण से (स्वामीजी की कृपा से?) समय समय पर विशेष अवस्था में आ जाते हैं। उन लोगों की इन अनुभूतियों से तुमको पता चलेगा कि जिस समय वे (उनका अहं नहीं आत्मा) भीतर ही भीतर कुछ (अद्भुत वस्तु सच्चिदानन्द या ब्रह्म का) अनुभव कर रहे थे, उस समय उनका बाह्य-ज्ञान (the external-सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड) एकदम लुप्त हो गया था, बिल्कुल नहीं रह गया था। इसी से जान पड़ता है कि अस्तित्व (ब्रह्म और आत्मा) एक ही है, दो नहीं। वह एक ही अनेक रूपों में जान पड़ता है और उनमें कार्य- कारण-सम्बन्ध भी है। कार्य-कारण-सम्बन्ध का अर्थ है परिणाम, एक (दूध) का दूसरे (दही) में बदल जाना।
समय समय पर मानो कारण (ब्रह्म) अन्तर्हित हो जाता है, केवल उसके बदले कार्य (अहं से भ्रमित आत्मा) रह जाता है। यदि आत्मा देह का कारण है तो मानो कुछ देर के लिए वह अन्तर्हित हो जाती है और उसके बदले देह रह जाती है, और जब शरीर अन्तर्हित हो जाता है, तो आत्मा (अहं भाव से मुक्त आत्मा) अवशिष्ट रहती है। [The relation of cause and effect is one of evolution — the one becomes the other, and so on. कारण का कार्य में बदल जाना ही -'evolution' कार्मिक विकास है, जिसमें एक आत्मा ही मानो मन और देह के रूप में परिणित हो जाती है।]
इस मत से बौद्धों का मत खण्डित हो जाता है। बौद्धगण आत्मा और शरीर इन दोनों को पृथक् मानने के अनुमान के विरुद्ध तर्क करते थे। अब अद्वैतवाद के द्वारा इस द्वैतभाव को मिटाने और द्रव्य (देह) तथा गुण (मन) एक ही वस्तु के विभिन्न रूप हैं, यह प्रदर्शित करने से उनका मत भी खण्डित हो गया।
>>>Whole and Part : whole (universal ego) and part (individual ego)>
हम लोगों ने यह भी देखा कि अपरिणामित्व केवल समष्टि के सम्बन्ध में ही सत्य हो सकता है, व्यष्टि के सम्बन्ध में नहीं। परिणाम और गति, इन भावों के साथ व्यष्टि की धारणा जड़ित है। जो कुछ ससीम है वही परिणामी है, क्योंकि किसी ससीम पदार्थ की, दूसरे किसी असीम वस्तु के साथ तुलना करके उस ससीम को असीम का परिणाम सोचा जा सकता है। किन्तु पूर्ण (the whole) का अपरिणामी (unchangeable) होना अनिवार्य है। समष्टि अपरिणामी है, क्योंकि उसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं जिसके साथ तुलना करके उसका परिणाम या गति सोची जा सके। परिणाम केवल दूसरे किसी अल्पपरिणामी अथवा पूर्ण रूप से अपरिणामी पदार्थ के साथ तुलना करने पर ही जाना जा सकता है।
अतएव अद्वैतवाद के अनुसार, सर्वव्यापी अपरिणामी अमर आत्मा (ब्रह्म) के अस्तित्व का विषय भी यथासम्भव प्रमाणित किया जा सकता है। लेकिन व्यष्टि आत्मा को भी अमर सिद्ध करने के बारे में कठिनाई उत्पन्न हो जाती है। तो फिर हमारे सब प्राचीन द्वैतवादी सिद्धान्तों का क्या होगा जिनका हमारे ऊपर इतना प्रबल प्रभाव है? और फिर ससीम, क्षुद्र, व्यक्तिगत आत्माओं (individual souls ) में उन विश्वासों का भी क्या होगा, जिनसे होकर हम सबको गुजरना होता है।
हमने देखा कि समष्टिभाव से हम लोग अमर हैं, किन्तु समस्या यही है कि हम क्षुद्र व्यक्ति के रूप में भी अमर होने के इच्छुक हैं, इसका क्या अर्थ है? हमने देखा कि हम अनन्त हैं, और वही हमारा यथार्थ व्यक्तित्व है। किन्तु हम इस क्षुद्र आत्मा को ही व्यक्ति रूप में मानकर उसे अमर बनाना चाहते हैं। फिर उस क्षुद्र व्यक्तित्व का (भेंड़त्व का) क्या होगा? दैनन्दिन जीवन में हम देख रहे हैं कि उनका व्यक्तित्व है, किन्तु वह व्यक्तित्व है निरन्तर विकासशील। वे एक हैं, और फिर भी एक नहीं हैं। [They are the same, yet not the same.-देखने में रूप वैसा ही है, किन्तु अब सिंह-शावक में रूपांतरित हो गए हैं ?] कल का 'मैं' आज का 'मैं' है भी, और साथ ही नहीं भी है। क्योंकि वह पुराना व्यक्तित्व (भेंड़त्व) परिवर्तित होकर थोड़ा (सिंहत्व में) बदल जाता है। इस द्वैत-भावात्मक धारणा अर्थात् समस्त परिणाम के भीतर कुछ ऐसा है -एकत्व सूत्र साक्षीभाव विद्यमान है– जो परिवर्तित नहीं होता। इसीके आधार पर बौद्ध मत का परित्याग हुआ और नितान्त आधुनिक भाव 'evolution ' अर्थात् क्रमविकासवाद का ग्रहण हुआ। और क्रमविकासवाद को स्वीकार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह 'मैं' (ह्रदय) एक सतत परिवर्तनशील और विकसनशील (expanding) सत्ता है।
यदि यह सत्य है कि मनुष्य सीप-घोंघा आदि जन्तुविशेष का क्रम-विकास (evolution) मात्र है, तो वह विशिष्ट सीपी और मनुष्य एक ही पदार्थ हुए, भेद हुआ कि मनुष्य उस 'mollusc individual' यानि घोंघा-बसन्त * का बहु परिणामात्मक विकास मात्र है। [*ढपोर शंख या घोंघा वसंत मुहावरा है - जिसका अर्थ है, वह व्यक्ति जो कहे बहुत, पर कर कुछ न सके, डींग मारने वाला, बड़े डीलडौल का पर मूर्ख, देखने में सयाना पर बच्चों की सी समझ वाला, जिसको स्वामीजी प्रेम से 'mustache baby' या मूंछों वाला बच्चा कहते थे।] वही विशिष्ट सीपी क्रमशः विकसित होते होते अनन्त की ओर जा रहा है, और अब [महामण्डल में आने के बाद, 3H विकास के 5 अभ्यास के प्रशिक्षण से ] उसने मनुष्य का रूप धारण किया है। इसलिए सीमाबद्ध जीवात्मा ( limited soul) को भी व्यक्ति (individual) कहा जा सकता है, वही क्रमशः पूर्ण व्यक्तित्व (Infinite Individual) की ओर अग्रसर हो रहा है। पूर्ण व्यक्तित्व तभी प्राप्त होगा जब वह अनन्त में (देवत्व या 100 % निःस्वार्थपरता में) पहुँचेगा। किन्तु इस अवस्था में पहुँचने से पहले ही उसके व्यक्तित्व का लगातार परिणाम हो रहा है और साथ ही साथ विकास भी।
अद्वैत वेदान्त का प्रधान वैशिष्ट्य है- पूर्ववर्ती मतों में सामंजस्य स्थापित करना। अनेक समय इससे उसका बहुत लाभ भी हुआ पर कभी कभी इससे उसके गम्भीर तत्त्वों की बहुत क्षति भी हुई। जिसे आज आप क्रमविकासवाद का सिद्धान्त (theory of evolution) कहते हैं, अर्थात एक प्रजाति का दूसरे में परिणित होना कहते हैं, 'वह विकास उत्तरोत्तर (step by step) या शनैः शनैः क्रमबद्ध होता है ' -इस सिद्धान्त को हमारे प्राचीन दार्शनिक जानते थे। और इसीकी सहायता से वे समस्त पूर्ववर्ती दर्शनों का सामंजस्य करने में सफल भी हुए। अतएव पूर्ववर्ती कोई भी मत 'परित्यक्त' नहीं हुआ।
बौद्धमत की यह एक विशेष त्रुटि थी कि उसके अनुयायीयों को क्रमविकासवाद का ज्ञान नहीं था और न उसको समझने की क्षमता ही थी। अतएव उन्होंने आदर्श में पहुँचने की पूर्ववर्ती सीढ़ियों के साथ अपने मत का सामंजस्य करने का कोई प्रयत्न नहीं किया, वरन् उन्हें निरर्थक और अनिष्ट कहकर उनका परित्याग कर दिया। धर्म में ऐसी प्रवृत्ति अत्यन्त अनिष्टकारक है। जैसे ही किसी व्यक्ति को एक नूतन और श्रेष्ठतर भाव मिलता है, वह तुरंत अपने पुराने भावों के प्रति यह निर्णय कर लेता है कि वे सब अनावश्यक तथा हानिकारक थे। वह यह कभी नहीं सोचता कि उसकी आज की दृष्टि में वे कितने ही निरर्थक क्यों न हों, एक समय वह भी तो था जब वे ही उसके लिए उपयोगी और उसकी वर्तमान अवस्था तक उसे पहुँचाने के लिए आवश्यक थे । हम लोगों में से प्रत्येक [भावी नेता] को ही उसी प्रकार से आत्मविकास करना पड़ेगा, पहले स्थूल भावों को अपनाना होगा, और उनसे लाभान्वित होकर एक उच्चतर मानदण्ड (higher standard) तक पहुँचना होगा।
इसलिए अद्वैतवाद प्राचीन सभी मतों से- द्वैतवाद से तथा और जो जो मत उससे पहले के हैं, उनके साथ भी मित्रभाव रखता है। और अपने पूर्वगामी किसी भी मत को एक संरक्षक (patron) की दृष्टि से नहीं देखता, वरन यही मानकर सभी मतवादों को अंगीकार कर लेता है कि वे भी उसी सत्य की सच्ची अभिव्यक्तियाँ हैं; और अद्वैतवाद जिन सिद्धान्तों पर पहुंचा है, वे भी उन्हीं सिद्धान्तों पर पहुंचेंगे।
अतएव मनुष्य को जिन सब सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर जाना है, उनके प्रति कठोर वचन न कह कर उनको आशीर्वाद देते हुए उसे उनकी रक्षा करनी चाहिए। इसीलिए वेदान्त में इन सब द्वैतवादी सिद्धान्तों की उचित रक्षा की गयी है, उनका परित्याग नहीं किया गया है। और इसीलिए द्वैतवाद की मान्यता के अनुसार ससीम जीवात्मा (individual soul) में भी अव्यक्त पूर्ण आत्मा की कल्पना ने वेदान्त में स्थान पाया है।
द्वैत मत के अनुसार मृत्यु होने के पश्चात् मनुष्य अन्यान्य लोकों में जाता है इत्यादि, ये सब भाव भी अद्वैतवाद में सम्पूर्ण रूप से रक्षित हैं। क्योंकि अद्वैतवाद में क्रमविकास की प्रक्रिया स्वीकृत है , इसीलिए इन समस्त विविध सिद्धान्तों को अपना उचित स्थान मिल जाता है, हाँ इतना ही मानना पड़ेगा कि वे उसी एक प्रकृत सत्य के आंशिक वर्णन मात्र हैं।
द्वैतवादी दृष्टिकोण से इस ब्रह्माण्ड को केवल भौतिक द्रव्य (Matter-पंचभूत) या ऊर्जा (Energy-शक्ति, प्राण) की सृष्टि के रूप में ही देखा जा सकता है। उसे किसी विशेष इच्छाशक्ति (माँ जगदम्बा) की क्रीडा के रूप में ही सोचा जा सकता है, और पुनः उस इच्छा-शक्ति को केवल ब्रह्माण्ड से पृथक एक सत्ता के रूप में सोचना ही सम्भव है। इस दृष्टि से मनुष्य अपने को आत्मा और देह दोनों की समष्टि के रूप में सोच सकता है; और यह आत्मा ससीम होने पर भी पूर्ण है।इस प्रकार के व्यक्ति की अमरत्व (immortality) और भावी जीवन (future life-पुनर्जन्म) आदि की धारणायें उसकी आत्मा सम्बन्धी धारणाओं के अनुसार ही होती हैं। वेदान्त में इन सब अवस्थाओं को सुरक्षित रखा गया है। और इसीलिए द्वैतवादियों की कुछ लोकप्रिय धारणाओं का परिचय तुमको देना आवश्यक है।
>>>The law of Karma.>इस मत के अनुसार पहले तो हमारा स्थूल शरीर है। इस स्थूल शरीर के पीछे एक सूक्ष्म शरीर है। यह सूक्ष्म शरीर भी भौतिक है, किन्तु अत्यन्त सूक्ष्म भूतों से बना है। वह हमारे सम्पूर्ण कर्मों और संस्कारों का आश्रय स्वरूप है। सम्पूर्ण कर्मों के संस्कार इस सूक्ष्म शरीर में स्थिर रहते हैं और उनकी प्रवृत्ति सदा फल प्रदान करने की ओर होती है। हम लोग जो कुछ सोचते हैं, जो कुछ कार्य करते हैं वही कुछ समय बाद सूक्ष्म रूप धारण कर लेता है, मानो बीजरूप बन जाता है, और वही इस शरीर में अव्यक्त रूप से रहता है, और फिर कुछ समय बाद प्रकाशित होकर फल भी देता है। कर्म-फलों का यही समूह मनुष्य जीवन को निर्धारित करता है। मनुष्य अपना जीवन स्वयं गढ़ता है। मनुष्य अपने लिए जिन नियमों की रचना करता है , उनके अतिरिक्त वह और किसी भी नियम से बद्ध नहीं है। वह अपने ही मन-वचन और कर्म के अनुसार किये कर्मफल के नियम में, अपने ही जाल में अपने आप बँधा है। हमारे विचार, शब्द और कर्म हमारे शुभ या अशुभ हमारे बन्धन-जाल के सूत हैं। एक बार किसी शक्ति को चलायमान कर देने पर उसका पूर्ण फल हमें भोगना पड़ता है। यही कर्मविधान (law of Karma) है।
इस सूक्ष्म शरीर के पीछे जीव या मनुष्य की व्यष्टिगत आत्मा ( individual soul) है। इस ससीम जीवात्मा के रूप और आकार को लेकर अनेक वाद-विवाद हुए हैं। किसी के मत में यह अणु जैसा लघु है, तो किसी के मत में वह उतना लघु भी नहीं है , और दूसरों के मत में बहुत बड़ा है , बृहत् है आदि। यह जीव अनादि है और उसी सर्वव्यापी सत्ता के एक अंश के रूप में अवस्थित है। वह अनन्त है और अपना प्रकृतस्वरूप, पवित्रता (पूर्णता, दिव्यता या निःस्वार्थपरता)को प्रकाशित करने के लिए अनेक प्रकार की देहों में से होकर आगे बढ़ रहा है। जो कर्म इस प्रकाश की अभिव्यक्ति में बाधा उपस्थित करता है, उसे असत् कर्म कहते हैं; ऐसा ही विचारों के सम्बन्ध में भी है, और जिस कार्य अथवा विचार द्वारा उसके स्वरूप प्रकाशन में विशेष सहायता मिलती है, उसे सत्कार्य अथवा सदविचार कहते हैं।
किन्तु भारत के निम्नतम द्वैतवादी (crudest dualists) और अत्यन्त उन्नत अद्वैतवादी ( most advanced non-dualists) सभी का यह सामान्य मत है कि आत्मा की समस्त शक्ति और सम्भावना उसके भीतर ही है- वे और किसी बाह्य स्रोत से नहीं आती। वे आत्मा में ही अव्यक्त रूप से रहती है, और जीवन का सारा कार्य केवल उसके उस अव्यक्त शक्ति समूह (potentialities) को व्यक्त करना मात्र है।
वे पुनर्जन्म के सिद्धान्त को भी मानते हैं, जिसके अनुसार इस देह के नष्ट होने पर जीव फिर एक देह धारण करेगा, और उस देह के नष्ट होने पर, जीव फिर एक दूसरी देह, और इसी प्रकार आगे भी क्रम चलता रहेगा। जीवात्मा इसी पृथ्वी पर जन्म ले अथवा अन्य किसी लोक में जाय, किन्तु इसी पृथ्वी को श्रेष्ठतर बताया गया है। उनका मत यही है कि हमारे सम्पूर्ण प्रयोजन की सिद्धि के लिए यह पृथ्वी ही सर्वश्रेष्ठ है। अन्यान्य लोकों (स्वर्गादि) में दुःखकष्ट यद्यपि बहुत कम अवश्य हैं, किन्तु इसी कारण वहाँ उच्चतम विचार करने के लिए अवसर ही नहीं मिलता। इस जगत् में बहुत अच्छा सामंजस्य है। यहाँ घोर दुःख भी है और कुछ सुख भी। अतएव जीव की मोह-निद्रा यहाँ कभी न कभी टूटती ही है, कभी न कभी उसकी इच्छा मुक्ति पाने की होती ही है।
किन्तु जैसे इस लोक में बहुत धनी व्यक्ति के लिए उच्चतर विचार करने का अवसर बहुत कम मिलता हैं, ठीक उसी प्रकार जीव यदि स्वर्ग-लोक में गमन करता है, तो उसकी भी आत्मोन्नति की कोई सम्भावना नहीं रहती। कारण यह कि उसकी दशा यहाँ के धनी व्यक्ति की भाँति हो जाती है, बल्कि यहाँ की अपेक्षा और प्रखर। उसको वहाँ जो अत्यन्त सूक्ष्म देह प्राप्त होती है, वह रोगमुक्त होती है। स्वर्ग में बीपी , शुगर, जनित कोई बीमारी किसी को नहीं होती। सूक्ष्म देह प्राप्त होने से उसमें खाने पीने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती और सब कामनायें भी पूर्ण होती रहती हैं। जीव वहाँ सुख पर सुख भोगता है, परन्तु इसीलिए वह अपना स्वरूप बिलकुल भूल जाता।
>>>The great teachers of the world :फिर भी कुछ उच्चतर लोक ऐसे भी हैं -[ श्रीरामकृष्ण लोक-बैकुण्ठ] जहाँ सब भोगों के हुए भी ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) के भक्त उस सब से अनासक्त होकर और आगे विकास कर सकते हैं। कुछ द्वैतवादी उस उच्चतम स्वर्ग [श्रीरामकृष्ण लोक] को ही चरम लक्ष्य मानते हैं- उनके मतानुसार जीवात्माएँ वहाँ जाकर चिरकाल तक भगवान के साथ रहती हैं। वे वहाँ दिव्य देह प्राप्त करती हैं- उन्हे रोग, शोक, मृत्यु अथवा अन्य कोई अशुभ नहीं सताता। उनकी सब वासनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वे भी वहाँ चिरकाल तक भगवान के साथ रहती हैं।
उनमें से (श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा -स्वामी विवेकानन्द के भक्तों में से) कोई कोई- प्रभुभक्त समय-समय पर पृथ्वी पर आकर, देह धारण कर, मनुष्य को ईश्वर के मार्ग का उपदेश देते हैं, और जगत् के सभी श्रेष्ठ धर्माचार्यगण, (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, पैगम्बर, या जीवन-मुक्त लोक-शिक्षक) ऐसे ही व्यक्ति हैं। वे पहले ही मुक्त होकर वे भगवान [श्रीरामकृष्ण] के साथ उच्चतम लोक [बैकुण्ठ, श्रीरामकृष्ण लोक] में वास करते हैं, किन्तु दुःखार्त मनुष्यों के ऊपर उनके ह्रदय में इतना प्रेम और करुणा होती है कि वे यहाँ आकर पुन: देह धारण कर लोगों को स्वर्ग-पथ के सम्बन्ध में उपदेश देते हैं।
>>>Thought comes from limitation.> अद्वैतवाद की मान्यता से तो हमलोग परिचित हैं, स्वर्ग (वैकुण्ठ ?) हमारा लक्ष्य या आदर्श नहीं हो सकता। हमारा लक्ष्य होना चाहिए सम्पूर्ण विदेह मुक्ति। आदर्श कभी ससीम (finite, सीमाबद्ध) नहीं हो सकता। अनन्त से छोटा (short) और कुछ भी हमारा चरम लक्ष्य नहीं हो सकता। किन्तु देह तो कभी अनन्त नहीं होती। यह होना असम्भव है, क्योंकि ससीमता (limitation) से शरीर की उत्पत्ति है। विचार अनन्त नहीं हो सकती, क्योंकि विचार भी ससीम (मन) से ही उत्पन्न होता है । [कहावत है मियाँ की दौड़,मस्जिद तक। मन की दौड़ उसके द्वारा स्वीकृत ब्रह्माण्ड की चहारदीवारी तक ही है !]
>>>Go beyond the body, and beyond thought too,>अद्वैतवादी कहता है, हमें शरीर (Hand) और विचार (Head या मन) के भी परे जाना होगा। और हमने अद्वैतवादियों की यह विशेष धारणा भी देखी है कि मुक्ति (freedom) कोई प्राप्त करने की वस्तु नहीं है, वह तो सदा से तुम्हारी अपनी है। केवल हम लोग भूल जाते हैं और उसे अस्वीकार करते हैं। यह पूर्णता (Perfection) हमें प्राप्त करना नहीं है, वह तो सदैव ही हमारे भीतर वर्तमान है। यह अमरत्व (Immortality) और नित्यता का आनन्द (Bliss) हमें अर्जित नहीं करना है, वह तो सदा से ही हमें प्राप्त है।
" यदि तुम साहस के साथ यह कह सको कि 'मैं मुक्त हूँ' तो इसी क्षण तुम मुक्त हो। यदि तुम कहो 'मैं बद्ध हूँ' तो तुम बद्ध ही रहोगे। यही वेदान्त डिम-डिम है, जिसे अद्वैत बहुत साहसपूर्वक उद्घोषित करता है। जो हो, द्वैतवादीयों अन्यान्य मत [वैकुण्ठ-श्रीरामकृष्णलोक आदि मत] भी मैंने तुम्हें बता दिये हैं, अब इनमें से तुम जिसे चाहो, ग्रहण करो। [भेंड़त्व, सूकरत्व या सिंहत्व जिसे चाहो ग्रहण करो ! सूकर शरीर में कब तक रहना है, यह पूरी तरह तुम पर निर्भर है। मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। ]
वेदान्त के उच्चतम आदर्श (highest ideal) को समझना बहुत कठिन है और लोग सदा इस पर विवाद करते हैं। सब से बड़ी कठिनाई तो यही है कि जो किसी एक मत को ले लेता है, वह दूसरे मत को बिलकुल अस्वीकार कर उस मतावलम्बी के साथ वाद-विवाद करने में प्रवृत्त हो जाता है। तुम्हें जो उपयुक्त लगता हो उसे तुम ग्रहण करो, और दूसरों को जो उपयुक्त लगे उन्हें वह ग्रहण करने दो। यदि तुम अपने इस क्षुद्र व्यक्तित्व को, इस 'ससीम मानवत्व' (सूकरत्व या भेंड़त्व) के साथ चिपके रहने के लिए इतने इच्छुक हो, तो उसे अनायास ही रख सकते हो, तुम्हारी सभी वासनाएँ रह सकती हैं और तुम उनमें सन्तुष्ट भी रह सकते हो। यदि मनुष्यभाव में रहने का अनुभव (experience of manhood) तुम्हें इतना सुन्दर और मधुर लगता है तो तुम जितने दिन इच्छा हो उसको रख सकते हो, क्योंकि तुम जानते हो कि तुम्हीं अपने भाग्य के निर्माता हो। जबरदस्ती तुमसे कोई कुछ भी नहीं करा सकता। जब तक तुम्हारी इच्छा हो, मनुष्य बने रहो तुम्हें तुम्हारी तथाकथित मर्दानगी 'manhood' छोड़ने के लिए, कोई भी नेता/शिक्षक मजबूर नहीं कर सकता [सूकरत्व धारण किये रहो, पशुमानव बने रहो ,और नाली में मटर -पनीर ढूँढ़ते रहो। ]
>>> If you want to be angels, you will be angels, that is the law.
यदि तुम देवता [देवदूत, पैगम्बर, नेता या लोकशिक्षक ] होने की इच्छा करो, तो तुम देवदूत हो जाओगे, यही नियम है। किन्तु कुछ लोग ऐसे हैं जो देवता [पैगम्बर या C-IN-C नवनीदा जैसा नेता] भी नहीं बनना चाहते। अब 'उनकी यह धारणा तो बहुत खराब है' इसी बात पर उनसे झगड़ा करने का अधिकार तुम्हें किसने दिया है? 2000 का एक नोट खो जाने पर (या बन्द हो जाने पर) तुम्हें दुःख हो सकता है, किन्तु ऐसे भी अनेक लोग [परमभोगी भ्र्ष्ट नेता या सर्वस्व-त्यागी संन्यासी लोग हैं] हैं जिनके करोड़ों रुपये नष्ट होने पर तनिक भी कष्ट नहीं होगा।
>>>Accord a place to everyone. ऐसे लोग प्राचीन काल में बहुत थे और आज भी हैं। तुम उन्हें अपने आदर्श के पैमाने से क्यों नापते हो? तुम यदि अपनी क्षुद्र सीमित भावों से चिपके रहना चाहते हो तो रहो, 'वासना और सम्पत्ति' को ही यदि अपना सर्वोच्च आदर्श समझते हो, तो उसे पकड़े रहो। तुम जैसा चाहोगे वैसा ही पाओगे,'It will be to you as you wish.' किन्तु तुम्हें छोड़कर ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जिन्हें सत्य का दर्शन हुआ है- वे उस स्वर्गादि सीमाओं में सन्तुष्ट नहीं रह सकते, वे इसके परे जाना चाहते हैं। जगत् और उसका सम्पूर्ण भोग उन्हें गोखुर से अधिक नहीं जान पड़ता। तुम उन्हें अपने भाव में क्यों फँसाकर रखना चाहते हो? 'नेता ' को इस प्रवृत्ति को बिलकुल छोड़ना पड़ेगा। प्रत्येक को उसका स्थान दो।
>>>>Leaders should Be brave and generous like the Crew of HMS Calliope. > मैंने एक बार सचित्र लन्दन-समाचार (Illustrated London News) नामक पत्र में एक समाचार पढ़ा था। प्रशान्त महासागर के एक द्वीपपुंज (Apia, Samoa-एपिया, समोआ) के निकट कुछ जहाज 1889 में आये एक चक्रवाती तूफान (tropical cyclone) में फँस गये थे। तूफान में ब्रिटिश रॉयल नेवी के केवल एक युद्धपोत [HMS Calliope cruiser-एचएमएस कैलीओप क्रूजर] को छोड़ कर अन्य सब जहाज भग्न होकर डूब गये थे। जबकि ब्रिटिश नेवी का वह युद्धपोत उस चक्रवाती तूफान को पार कर लौट आया था। इस पत्रिका में इस घटना के चित्र भी छपे था। इन चित्रों में 'Seamanship' (नाविक-विद्या) के कौशल को दिखाया गया था, कि जब जहाज डूबा जा रहा था, तब उस डूबते हुए जहाज का 'crew', अर्थात नाविकों का पूरा जत्था (केवटों का पूरा दल),जहाज के डेक के ऊपर खड़े होकर, तूफान से बचने की चेष्टा कर रहे यात्रियों को प्रोत्साहित कर रहे थे। हमलोगों को भी (भावी नेताओं, लोक शिक्षकों या पैगम्बरों को भी) इसी प्रकार वीर, उदार (नैतिक) होना चाहिए।
दूसरों को नीचे खींचकर अपनी भूमि पर मत लाओ। लोग मूर्ख के समान एक और मत की पुष्टि किया करते हैं कि यदि हमारा यह क्षुद्र व्यक्तित्व [व्यष्टि 'मैं-पन'] ही चला जायेगा तो जगत् में किसी प्रकार की नीतिपरायणता नहीं रहेगी, मनुष्य जाति को अपने-आप पर कुछ भी आशा भरोसा न रह जायगा। जो ऐसा कहते हैं, वे मानो समग्र मानवजाति के लिए [महिलाओं, बच्चो को ऊँचा उठाने के लिए] सदा प्राणोत्सर्ग तक कर देने के लिए तैयार हैं ! ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें! यदि हर देश में केवल दो सौ ही नर-नारी देश के सच्चे हितैषी हों, तो पाँच दिन में ही सत्ययुग आ सकता है। लेकिन हम अपने दिल ही दिल में जानते हैं कि हम मनुष्यजाति के उपकार के लिए किस प्रकार से आत्मोत्सर्ग करना चाहते हैं!? ये सब लम्बी चौड़ी बातें हैं- इन सब बातों में कुछ-न-कुछ हमारा स्वार्थ छिपा रहता है। [यदि और कुछ नहीं तो, कम-से-कम लोकैषणा तो रहता ही है]।
विश्व के इतिहास में यह स्पष्ट है कि जिन्होंने अपने इस क्षुद्र व्यक्तित्व (little individuality) को एकदम भुला दिया था [या जिसने (C-IN-C नवनीदा ने) अपने क्षुद्र 'मैं' को माँ जगदम्बा के मातृ-ह्रदय के सर्वव्यापी 'विराट मैं' रूपान्तरित कर लिया था !] वे पुरुष ही मानवजाति के सर्वोत्तम हितैषी हैं। और लोग अपने कच्चा 'अहं ' को जितना अधिक भूल जायेंगे, उतने ही वे अधिक परोपकारी बन सकेंगे। और जो स्त्री-पुरुष जितना अधिक अपने स्वार्थ (ऐषणाओं) को पूरा करने में दिन-रात व्यस्त रहते है, वे दूसरों के लिए उतना ही कम कर पाते हैं। उनमें से पहलेवालों में स्वार्थपरता है और दूसरों में निःस्वार्थपरता (unselfishness)। इन छोटे छोटे भोग-सुखों में आसक्त रहना और यह सोचना कि ये ही चिरस्थायी हैं, घोर स्वार्थपरता (selfishness) है।
ऐसी मनोवृत्ति सत्यानुराग अथवा दूसरों के प्रति दयालु भाव के कारण नहीं होती इसकी उत्पत्ति का (Genesis) एक मात्र कारण है घोर स्वार्थपरता। दूसरे किसी की ओर दृष्टि न रखकर केवल अपनी ही भोगवृत्ति के भाव से इसका जन्म होता है। कम-से-कम मुझे तो यही जान पड़ता है। मैं इस जगत में प्राचीन पैगम्बरों (अवतारों, मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं) और लोकशिक्षक बुद्ध के समान दृढ़ चरित्र के बलशाली अनेक व्यक्ति देखना चाहता हूँ- वे एक क्षुद्र पशु तक के उपकारार्थ सौ सौ जीवन त्यागने के लिए तैयार थे। नीति और परोपकार की क्या बात करते हो? यह तो आजकल की बेकार की बातें हैं।
मैं गौतमबुद्ध के समान चरित्रबलशाली नेता (पैगम्बर) देखना चाहता हूँ, जो सगुण ईश्वर अथवा व्यक्तिगत आत्मा में विश्वास नहीं करते थे, जो उस विषय में कभी प्रश्न ही नहीं करते थे, जो उस विषय में पूर्ण अज्ञेयवादी थे, किन्तु जो सब के लिए अपने प्राण तक देने को प्रस्तुत थे। — आजन्म दूसरों का उपकार करने में रत रहते तथा सदैव इसी चिन्ता में मग्न रहते थे कि दूसरों का उपकार किस प्रकार हो। उनके जीवन चरित लिखनेवालों ने ठीक ही कहा है कि उन्होंने "बहुजनहिताय बहुजनसुखाय" जन्म ग्रहण किया था। इतना ही नहीं, वे अपनी निजी मुक्ति के लिए वन में तप करने नहीं गये। उन्होंने महसूस किया था , 'दुनिया दुःख में जली जा रही है- और मुझे इसको बचाने का कोई उपाय अवश्य खोज निकालना होगा।' उनके समस्त जीवन में यही एक चिन्ता थी कि जगत् में इतना दुःख क्यों है? तुम लोग क्या यह समझते हो कि हम सब उनके समान नीतिपरायण हैं? मनुष्य जितना स्वार्थी होता है, उतना ही अनैतिक भी होता है। यही बात राष्ट्रों के सम्बन्ध में सत्य है। केवल अपने निजी स्वार्थ से ही विजड़ित रहनेवाले देश (सीरिया, लीबिया, रूस-यूक्रेन-यूरोप-अमेरिका?) ही संसार में सब से अधिक क्रूर और पातकी सिद्ध हुई है।
अरब के पैगम्बर द्वारा प्रवर्तित धर्म से बढ़कर द्वैतवाद से चिपकनेवाला कोई दूसरा धर्म आज तक नहीं हुआ, और इतना रक्त बहानेवाला तथा दूसरों के प्रति इतना निर्मम धर्म भी कोई दूसरा नहीं हुआ। कुरान का यह आदेश है कि जो मनुष्य इन शिक्षाओं को न माने, उसको मार डालना चाहिए; उसकी हत्या कर डालना ही उस पर दया करना है! और 72 सुन्दर हूरों तथा सभी प्रकार के भोगों से युक्त स्वर्ग को प्राप्त करने का सब से विश्वस्त रास्ता है, काफिरों की हत्या करना। ऐसे कुविश्वासों के फलस्वरूप जितना रक्तपात हुआ है, उसकी कल्पना कर लो!
ईसा मसीह ने जिस धर्म का प्रचार किया था उसमें ऐसी भद्दी बातें नहीं थीं। उस विशुद्ध ईसाई धर्म और वेदान्त धर्म में बहुत कम अन्तर है। उन्होंने अद्वैतवाद का भी प्रचार किया और जन साधारण को सन्तुष्ट रखने के लिए, उसे उच्चतम आदर्श की धारणा करने के लिए सोपानरूप से द्वैतवाद के आदर्श की शिक्षा भी दी। वही पैगम्बर (अवतार,नेता ईसा) जिन्होंने "Our Father which art in heaven"- 'हमारे पिता जो स्वर्ग में है' कहकर प्रार्थना करने का उपदेश दिया था, उन्होंने यह भी कहा था-"I and my Father are one", 'मैं और मेरे पिता एक हैं।' वे यह भी जानते थे कि इस "Father in heaven" स्वर्गस्थ पितारूप सगुण ईश्वर' की द्वैतभाव से उपासना करते करते ही- 'मैं और मेरे पिता एक हैं।' के अद्वैत तक पहुँचने का मार्ग खुल जाता है। भक्त-और भगवान में, मनुष्य और भगवान में अभेद बुद्धि आ जाती है। उस समय का ईसाई धर्म केवल प्रेम और आशीर्वादपूर्ण था; किन्तु जैसे ही उसमें कूसंस्कार आ घुसे वह च्युत होकर अरब के पैगम्बर के धर्म के स्तर पर आ टिका। यह जो क्षुद्र 'मैं' के लिए मारकाट, 'मैं' के प्रति घोर आसक्ति, और केवल इसी जीवन में नहीं, बल्कि मृत्यु के बाद भी इस क्षुद्र 'मैं' तथा इस क्षुद्र व्यक्तित्व को ही लेकर रहने की इच्छा, ये सब कूसांस्कार ही तो हैं। और वे इसीको निःस्वार्थपरता और नैतिकता की नींव कहते हैं। यही अगर नीति की आधारशिला हो तो फिर दुर्नीति की भित्ति क्या है? यह आश्चर्य की बात यह है कि जिन सब नर-नारियों से हम अधिक ज्ञान की आशा रखते हैं, उन्हें यह डर लगता है कि इस क्षुद्र 'मैं' के मिटने पर, सारी नैतिकता बिलकुल नष्ट हो जायेगी। यह कहने से कि इस क्षुद्र 'मैं' के विनाश पर ही यथार्थ नैतिकता अवलम्बित है, ये लोग घबड़ा जाते हैं, इनका कलेजा मुँह में आ जाता है । सब प्रकार की नीति, शुभ तथा मंगल का मूलमन्त्र 'मैं' नहीं, 'तुम' है। कौन सोचता है कि स्वर्ग और नरक हैं या नहीं? कौन सोचता है कि कोई अविनाशी सत्ता या नहीं?
हमारे सामने यह सारा संसार है और वह दुःख से परिपूर्ण है। बुद्ध के समान इस संसार-सागर में गोता लगाकर या तो इस संसार के दुःख को दूर करो या इस प्रयत्न में प्राण त्याग दो। अपने को भूल जाओ; आस्तिक हो या नास्तिक, अज्ञेयवादी ही हो या वेदान्ती, ईसाई हो या मुसलमान -प्रत्येक के लिए यही सब से पहली शिक्षा है। और जो शिक्षा सबको स्पष्ट है, वह है तुच्छ अहं (कच्चा 'मैं') का उन्मूलन (या 'पक्का मैं' में रूपांतरण) और वास्तविक आत्मा का विकास।
>>>Two forces > दो शक्तियाँ (घोर-स्वार्थपरता और पूर्ण निःस्वार्थपरता) सदा समानान्तर रेखाओं में एक दूसरे के साथ कार्य कर रही हैं। एक कहती है 'अहं' और दूसरी कहती है 'नाहं' - 'तुहं-तुहं'। इस निःस्वार्थपर शक्ति की अभिव्यक्ति केवल मनुष्यों में ही नहीं, किन्तु पशुओं में भी देखी जाती है— केवल पशुओं में ही नहीं , क्षुद्रतम कीटाणुओं में भी इस शक्ति का विकास दीख पड़ता है। नर-रक्त की प्यासी लपलपाती जीभ वाली बाघिन भी अपने बच्चे की रक्षा के लिए जान देने को प्रस्तुत रहती है। कोई अत्यन्त बुरा आदमी भी जो अनायास ही अपने भाई का गला काट सकता है- वह भी भूख से मरती हुई अपनी स्त्री तथा बाल-बच्चों के लिए अपने प्राण भी न्योछावर कर सकता है।
सृष्टि के भीतर ये दोनों शक्तियाँ पास पास ही काम कर रही हैं- जहाँ एक शक्ति देखोगे, वहाँ दूसरी भी दीख पड़ेगी। एक स्वार्थपरता है, और दूसरी निःस्वार्थपरता। एक है 'acquisition' या संग्रहण, दूसरी है (renunciation) त्याग। क्षुद्रतम प्राणी से लेकर उच्चतम प्राणी तक, समस्त ब्रह्माण्ड इन्हीं दोनों शक्तियों का लीलाक्षेत्र है! इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं-यह स्वतः प्रमाण है।
समाज के किसी भी वर्ग के लोगों को (गृही या संन्यासी को) यह कहने का क्या अधिकार है कि ब्रह्माण्ड का सारा कार्य और विकास इन दोनों शक्तियों में से केवल एक घटक, अहंशक्ति-प्रसूत प्रतिद्वन्द्विता (competition) एवं संघर्ष (struggle) पर आधारित कर दे ? जगत् का सारा कार्य राग-द्वेष, युद्ध, प्रतिद्वन्द्विता और संघर्ष पर अधिष्ठित मानने का उन्हें क्या अधिकार है ? उनके अस्तित्व को हम अस्वीकार नहीं करते। ये सारी प्रवृत्तियाँ ही इस जगत् के अधिकांश व्यक्तियों को संचालित करती हैं इसे हम अस्वीकार नहीं करते। किन्तु उन्हें दूसरी शक्ति (निःस्वार्थपरता) को बिलकुल न मानने का क्या अधिकार है? और क्या कोई मनुष्य यह अस्वीकार कर सकता है कि यह प्रेम, अहंशून्यता अथवा त्याग ही जगत् की एकमात्र सकारात्मक शक्ति (positive power) है?
दूसरी शक्ति इस नाहं अथवा प्रेम-शक्ति का ही विपरीत रूप से प्रयोग करना है और प्रेम-शक्ति के नकारात्मक प्रयोग से ही प्रतिद्वन्द्विता की उत्पत्ति होती है। अशुभ की उत्पत्ति भी निःस्वार्थ-परता से होती और अशुभ का परिणाम भी शुभ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वह केवल मंगल-विधायिनी शक्ति का दुरुपयोग मात्र है। एक व्यक्ति जो दूसरे की हत्या करता है वह भी प्रायः अपने पुत्रादि के प्रति स्नेह की प्रेरणा से ही, एवं उनके लालन-पालन के लिए अपना प्रेम अन्य लाखों व्यक्तियों से हटाकर वह केवल अपनी सन्तान (विशेष कर छोटका बेटा ?) के प्रति दर्शाता है। इस कारण उसका प्रेम ससीम भाव में परिणत हो जाता है, किन्तु ससीम हो या असीम, वह मूलतः एक ही प्रेम है।
अतएव समग्र ब्रह्माण्ड की परिचालक [माँ जगदम्बा ], जगत् में एकमात्र प्रकृत और जीवन्त शक्ति वही एक अद्भुत वस्तु है- वह किसी भी आकार में व्यक्त क्यों न हो, वह उस प्रेम, निःस्वार्थपरता तथा त्याग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। वेदान्त यहीं पर द्वैतवाद छोड़कर अद्वैतवाद पर जोर देता है। हम भी इस अद्वैतवाद पर इसीलिए विशेष जोर देते हैं, क्योंकि हम जगत के दो कारण हैं, ऐसा कभी स्वीकार नहीं कर सकते। हाँ यदि हम यह स्वीकार कर लें कि वही एक अपूर्व सुन्दर प्रेम सीमित होकर - मिथ्या (असत) रूप में प्रतीत होता है, तो एक ही प्रेमशक्ति द्वारा सम्पूर्ण जगत की व्याख्या हो जाती है। नहीं तो हमें जगत् के दो कारण मानने पड़ेंगे- एक शुभ शक्ति, दूसरी अशुभ शक्ति, एक प्रेम शक्ति, दूसरी द्वेष शक्ति। इन दोनों सिद्धान्तों के बीच में कौन अधिक न्याय संगत है?- निश्चय ही शक्ति का एकत्व मानकर सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या करने वाला सिद्धान्त ।
मैं अब ऐसी बातों की चर्चा करूँगा जो सम्भवतः द्वैतवाद से सम्बन्ध नहीं रखती। मैं द्वैतवाद की इस आलोचना में और अधिक समय नहीं दूंगा। मेरा उद्देश्य यहाँ यह दिखलाना है कि नैतिकता और निःस्वार्थपरता के उच्चतम आदर्श उच्चतम दार्शनिक धारणा के साथ असंगत नहीं हैं। मेरा उद्देश्य यही दिखाने का है कि नीति परायण होने से तुम्हें दार्शनिक धारणा को नीचा नहीं करना पड़ता, वरन् नैतिकता की नींव को ठोस आधार देने के लिए तुमको उच्चतम दार्शनिक और वैज्ञानिक धारणायें स्वीकार करनी होंगी। मनुष्य का ज्ञान मनुष्य के शुभ का विरोधी नहीं है, वरनु जीवन के प्रत्येक विभाग में ही ज्ञान हमारी रक्षा करता है। ज्ञान ही उपासना है। हम जितना जान सकें उसी में हमारा मंगल।
वेदान्ती कहते हैं, इस आपात प्रतीयमान अशुभ का कारण है- असीम का सीमाबद्ध हो जाना । जो प्रेम सीमाबद्ध होकर क्षुद्रभावापन्न हो जाता है तथा अशुभ प्रतीत होता है, वही फिर अपनी चरमावस्था में स्वयं को ईश्वर रूप में प्रकाशित करता है। और वेदान्त यह भी कहता है कि इस आपात-प्रतीयमान सम्पूर्ण अशुभ का कारण हमारे भीतर ही है। किसी लोकोत्तर पुरुष [बिधना] को दोष न दो, न निराश या विषण्ण होओ। न कभी यह सोचो कि तुम गर्त के बीच में पड़े हो, और जब तक कोई दूसरा आकर तुम्हारी सहायता नहीं करता, तब तक तुम इससे निकल नहीं सकते। वेदान्त कहता है, दूसरे की सहायता से हमारा कुछ नहीं हो सकता। हम रेशम के कीड़े के समान हैं। अपने ही शरीर से अपने आप जाल बनाकर उसी में आबद्ध हो गये हैं। किन्तु यह बद्धभाव चिरकाल के लिए नहीं है। हम लोग उससे तितली के समान बाहर निकलकर मुक्त हो जायेंगे।
हम लोग अपने चारों और इस कर्मजाल को लगा देते हैं और अज्ञानवश सोचने लगते हैं कि हम बद्ध हैं, और सहायता के लिए रोते-चिल्लाते हैं। किन्तु बाहर से कोई सहायता नहीं मिलती, सहायता मिलती है भीतर से। दुनिया के सारे देवताओं के पास तुम रो सकते हो, मैं भी बहुत वर्ष इसी तरह रोता रहा, अन्त में देखा कि मुझे सहायता मिल रही है, किन्तु यह सहायता भीतर से मिली। भ्रान्तिवश इतने दिन तक जो अनेक प्रकार के काम करता रहा, उस भ्रान्ति को मुझे दूर करना पड़ा। यही एकमात्र उपाय है। मैंने स्वयं अपने को जिस जाल में फँसा रखा है, वह मुझे ही काटना पड़ेगा और उसे काटने की शक्ति भी मुझमें ही है। इस विषय में मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि जीवन की सदसद कोई भी प्रवृत्ति व्यर्थ नहीं गयी- मैं उसी अतीत शुभाशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का समष्टिस्वरूप हूँ।
मैंने जीवन में बहुत सी गलतियाँ की हैं, किन्तु उनको किये बिना आज जो मैं हूँ वह कभी नहीं होता। मैं अपने जीवन से अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। पर मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि तुम घर जाकर चाहे जितना अन्याय हो , सब करते रहो, मेरी बात का गलत मतलब न समझ लेना। मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि कुछ भूल-चूक हो गयी है, इसलिए एकदम हाथ पर हाथ रखकर बैठे मत रहो, किन्तु यह समझ रखो कि अन्त में फल सब का शुभ ही होता है। इसके विपरीत और कुछ कभी नहीं हो सकता, क्योंकि शिवत्व और विशुद्धत्व हमारा स्वाभाविक धर्म है। उसका किसी भी प्रकार नाश नहीं हो सकता। हम लोगों का यथार्थ स्वरूप सदा ही एकरूप रहता है।
>>>Genesis Of leadership > [स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श मानने वाला प्रत्येक युवा भावी पैगम्बर , नेता या जीवनमुक्त शिक्षक है ! ]
हमें जो समझ लेना है, वह यह कि जिन्हें हम भूलें या अशुभ कहते हैं, वह हम दुर्बल होने के कारण ही करते हैं। और हम दुर्बल इसीलिए हैं , क्योंकि हम अज्ञानी हैं ! [अभीतक Hypnotized हैं ?] मैं पाप शब्द के बजाय भूल शब्द [भ्रम शब्द] का प्रयोग अधिक उपयुक्त समझता हूँ।
हमें किसने अज्ञानी बनाया है ? अज्ञानान्धकार में किसने फेंका है? उत्तर स्पष्ट है कि हम लोग अपने को [तीनो ऐषणाओं में फँसाकर ] स्वयं ही स्वयं को अज्ञानान्धकार में फेंकते हैं। हम लोग स्वयं अपनी आँखों पर हाथ रखकर 'अँधेरा, अँधेरा, 'कहकर चिल्लाते हैं। हाथ हटा लो, देखोगे कि जीवात्मा स्वप्रकाश है, स्वरूप से ही आलोकित है। आधुनिक वैज्ञानिकगण क्या कहते हैं, यह क्यों नहीं देखते? इस सब क्रमविकास का क्या कारण है? -वासना, इच्छा।
कोई भी पशु जिस रूप में वह अवस्थित है, उसे छोड़कर उससे उच्चतर रूप में जाना चाहता है- वह सोचता है कि वह जिस अवस्था में है, वह उसके उपयोगी नहीं है इसलिए वह एक नूतन शरीर धारणा कर लेता है। तुम निम्नतम जीवाणु अमीबा से अपनी इच्छाशक्ति के कारण विकसित हुए हो। फिर से उसी इच्छाशक्ति का प्रयोग करो, अपनी विवेक-शक्ति का प्रयोग करते रहो और भी अधिक उन्नत हो जाओगे।
तुम कहोगे, यदि इच्छा सर्व शक्तिमान है तो मैं जो काम करना चाहता हूँ, चरित्रवान मनुष्य बनना चाहता हूँ, उसके लिए निर्देशित अभ्यासों को मैं क्यों नहीं कर पाता? उत्तर यह है कि तुम जब ऐसी बातें करते हो उस समय केवल अपने क्षुद्र 'मैं' की ओर देखते हो। सोचकर देखो, तुम क्षुद्र जीवाणु से इतने बड़े मनुष्य हो गये। किसने तुम्हें मनुष्य बनाया? तुम्हारी अपनी इच्छाशक्ति ने ही। यह इच्छा-शक्ति सर्वशक्तिमान है - तुम क्या यह अस्वीकार कर सकते हो? जिसने तुम्हें इतना उन्नत बना दिया, वह तुम्हें और भी अधिक उन्नत करेगी। हमारी आवश्यकता है श्रद्धा, विवेक के प्रयोग से इच्छाशक्ति को और सबल बनाने की।
अतएव यदि मैं तुम्हें यह उपदेश दूं कि तुम्हारी प्रकृति असत् है, और यह कहूँ कि तुमने कुछ भूलें की हैं तो इसलिए अब तुम अपना जीवन केवल पश्चात्ताप करने तथा रोने धोने में ही बिताओ। तो इससे तुम्हारा कुछ भी उपकार न होगा, वरन् उससे और भी दुर्बल हो जाओगे। ऐसा करना तुम्हें सत्पथ बताने के बजाय असत्पथ दिखाना होगा। यदि हजारों साल इस कमरे में अँधेरा रहे और तुम उस कमरे में आकर 'हाय! बड़ा अँधेरा है! बड़ा अँधेरा है! 'कह कहकर रोते रहो तो क्या अँधेरा चला जायगा? कभी नहीं। परन्तु एक दियासलाई जलाते ही कमरा प्रकाशित हो उठेगा। अतएव जीवन भर 'मैंने बहुत दोष किये हैं, मैंने बहुत अन्याय किया है, यह सोचने से क्या तुम्हारा कुछ भी उपकार हो सकेगा?
हममें बहुतसे दोष हैं यह किसी को बतलाना नहीं पड़ता। ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करो, एक क्षण में सब अशुभ चला जायगा। अपने प्रकृत स्वरूप को पहचानो, प्रकृत 'मैं' को उसी ज्योतिर्मय उज्ज्वल, नित्यशुभ 'मैं' को, प्रकाशित करो- प्रत्येक व्यक्ति में उसी आत्मा को जगाओ। मैं चाहता हूँ कि सभी व्यक्ति ऐसी दशा में आ जायँ कि, अति जघन्य पुरुष को भी देखकर उसकी बाह्य दुर्बलताओं की ओर वे दृष्टिपात न करें। बल्कि उसके हृदय में रहनेवाले भगवान् को देख सकें। और उसकी निन्दा न कर, यह कह सकें, 'हे स्वप्रकाशक, ज्योतिर्मय, उठो! हे सदाशुद्धस्वरूप उठो! हे अज, अविनाशी, सर्वशक्तिमान, उठो! आत्मस्वरूप प्रकाशित करो। तुम जिन क्षुद्र भावों में आबद्ध पड़े हो वे तुम्हें सोहते नहीं।' अद्वैतवाद इसी श्रेष्ठतम प्रार्थना 'सर्वे भवन्तु सुखिनः ' का उपदेश को देता रहता है।
निजस्वरूप स्मरण, सदा उसी अन्तःस्थ ईश्वर का स्मरण, उसी को सदा अनन्त, सर्वशक्तिमान, सदाशिव, निष्काम कहकर उसका स्मरण- यही एकमात्र प्रार्थना है । यह क्षुद्र 'मैं' उसमें नहीं रहता, क्षुद्र बन्धन उसे नहीं बाँध सकते। और वह अकाम है, इसीलिए अभय और ओजःस्वरूप है ! क्योंकि कामना तथा स्वार्थ से ही भय की उत्पत्ति होती है। जिसे अपने लिए कोई कामना नहीं, वह किससे डरेगा? कौनसी वस्तु उसे डरा सकती है? क्या उसे मृत्यु डरा सकती है? अशुभ विपत्ति डरा सकती है? कभी नहीं। अतएव यदि हम अद्वैतवादी हैं तो हमें अवश्य सोचना होगा कि हमारा 'मैं-पन' इसी क्षण से मृत है। फिर मैं स्त्री हूँ या पुरुष हूँ, फलाना - ढिकाना [सकलदीपी ब्राह्मण] हूँ ! यह सब भाव नहीं रह जाता, ये अन्धविश्वास मात्र थे। और शेष रहता है वही नित्यशुद्ध, नित्य ओजःस्वरूप, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञस्वरूप, और तब हमारा सारा भय चला जाता है। कौन इस सर्वव्यापी 'मैं' का अनिष्ट कर सकता है? इस प्रकार हमारी सम्पूर्ण दुर्बलता चली जाती है।
तब दूसरों में भी उसी शक्ति को उद्दीप्त करना हमारा एकमात्र कार्य हो जाता है। हम देखते हैं, वे भी यही आत्मा स्वरूप हैं, किन्तु वे यह जानते नहीं। अतएव हमें उन्हें सिखाना होगा- उनके इस अनन्त स्वरूप के प्रकाशार्थ हमें उनकी सहायता करनी पड़ेगी। मैं देखता हूँ कि जगत् में इसी के प्रचार की सब से अधिक आवश्यकता है।
ये सब मत अत्यन्त पुराने हैं, बहुतेरे पर्वतों से भी पुराने। सभी सत्य सनातन हैं। ये सत्य किसी व्यक्तिविशेष की सम्पत्ति नहीं है। कोई भी राष्ट्र, कोई भी व्यक्ति उसे अपनी सम्पत्ति कहकर दावा नहीं कर सकता। सत्य ही सब आत्मा का यथार्थ स्वरूप है। किसी भी व्यक्तिविशेष का उस पर विशेष अधिकार नहीं है। किन्तु हमें उसे व्यावहारिक और सरल बनाना होगा , सरल भाव से उसका प्रचार करना पड़ेगा, उन्हें कार्यरूप में परिणत करना होगा। क्योंकि तुम देखोगे कि सभी उच्चतम सत्य अत्यन्त सहज और सरल होते हैं। अतएव अत्यन्त सहज और सरल भाव से ही उनका प्रचार करना भी आवश्यक है, जिससे वह समाज में सभी जगह अपना अधिकार कर ले, उच्चतम मस्तिष्क से लेकर अत्यन्त साधारण मन द्वारा भी समझा जा सके, तथा आबाल- वृद्ध- वनिता सभी उसे जान सकें।
न्याय के ये कूट विचार, दार्शनिक मीमांसाएँ, ये सब मतवाद और क्रिया-काण्ड, इन सभी ने किसी एक समय भले ही उपकार किया हो, किन्तु आओ, हम सब आज से, इसी क्षण से धर्म को सहज बनाने की चेष्टा करें। और उस सत्ययुग के पुनरागमन में सहायता करें, जब कि प्रत्येक व्यक्ति उपासक होगा तथा उसका (और सबों का, सम्पूर्ण मनुष्यजाति का) अन्तःस्थ सत्य ही उसका उपास्य देवता होगा।"
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