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शुक्रवार, 2 जून 2023

'व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-2' [स्वामी विवेकानन्द, द्वितीय व्याख्यान, हिन्दी में ] | Swami Vivekanand Vedanta Chapter-2]

  व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-2 

 द्वितीय व्याख्यान

( १२ नवम्बर, १८६६ ई ० को लन्दन में दिया हुआ भाषण ) 

Vedanta Swami Vivekanand: मैं छान्दोग्य उपनिषद् से एक बालक को किस प्रकार ज्ञान प्राप्त हुआ इस सम्बन्ध में एक कहानी सुनाता हूँ। यद्यपि यह कहानी प्राचीन शैली की है फिर भी इसमें एक सार तत्त्व निहित है। एक छोटे बालक ने अपनी माता से कहा, "माँ, में वेद शिक्षा पाने के लिए जाना चाहता हूँ, मेरे पिता का नाम और मेरा गोत्र क्या है बताओ।" 

उसकी माँ विवाहिता स्त्री नहीं थी और भारतवर्ष में अविवाहित स्त्री की सन्तान समाज में नगण्य सी मानी जाती है किसी कार्य में उसका अधिकार नहीं होता, वेद पाठ करना तो दूर रहा। अतएव उसकी माँ ने कहा, "मैंने यौवन में अनेक व्यक्तियों की सेवा की है, उसी अवस्था में तुम्हारा जन्म हुआ, अतएव में तुम्हारे पिता का नाम एवं तुम्हारा गोत्र क्या है, यह नहीं जानती; इतना ही जानती हूँ कि मेरा नाम जबाला है और तुम्हारा सत्यकाम, अर्थात वह जो सत्य की इच्छा करने वाला हो,सत्यार्थी हो। 

बालक एक ऋषि के पास गया और उसने उनसे प्रार्थना की कि वे उसे ब्रह्मचारी शिष्य के रूप में ग्रहण करें। तब उन्होंने उससे पूछा, "तुम्हारे पिता का नाम और तुम्हारा गोत्र क्या है?" बालक ने जो उसकी माँ ने कहा था, वही दुहराया। यह सुनकर ऋषि ने तुरन्त ही कहा, "वत्स, तुमने सच भाषण किया है, तुम धर्मपथ से विचलित नहीं हुए, यही सत्यवादिता ब्राह्मण का लक्षण है, इसीलिए मैंने तुम्हें ब्राह्मण मान लिया- मैं तुम्हें शिष्य बनाऊँगा।" यह कहकर वे उसे अपने निकट रखकर शिक्षा देने लगे। 

प्राचीन शिक्षा प्रणाली के अनुसार सत्यकाम की शिक्षा होने लगी। गुरु ने सत्यकाम को चार सौ गायें देकर कहा, "इन्हें लेकर तुम वन में चले जाओ, जब कुल गायें एक हजार हो जायें तब लौटकर चले आना।" उसने आज्ञा पालन की और वह गायें लेकर वन में चला गया। कई साल बाद इस झुण्ड में से एक प्रधान वृषभ ने सत्यकाम से कहा, "हम लोग अब कुल एक हजार हो गये हैं, हमें तुम अपने गुरु के पास ले चलो। मैं तुम्हें ब्रह्म के विषय कुछ शिक्षा दूंगा।" सत्यकाम ने कहा, “कहिये प्रभु" वृषभ ने कहा, "उत्तर दिशा ब्रह्म का एक अंश है; उसी प्रकार पूर्व दिशा, दक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा भी उसके एक एक अंश हैं। चारों दिशाएँ ब्रह्म के चार अंश हैं।" इतना कहकर उन्होंने कहा, “अब अग्नि तुम्हें और कुछ शिक्षा देंगे।" उस समय अग्नि ब्रह्म के एक विशिष्ट प्रतीक रूप से पूजे जाते थे। प्रत्येक ब्रह्मचारी को अग्नि चयन करके उसमें आहुति देनी पड़ती थी।

अतः अगले दिन सत्यकाम अपने गुरु-गृह (Guru's house)  की ओर प्रस्थान किया, और जब स्नानादि करके, अग्नि की पूजा और  होम आदि कर उनके निकट बैठे हुए थे, इसी समय अग्नि से एक वाणी सुनायी पड़ी- "सत्यकाम !" सत्यकाम ने कहा, "प्रभो, आज्ञा!" तुम लोगों को शायद याद होगा कि बाइबिल की प्राचीन व्यवस्थान  में भी इसी प्रकार की एक कथा है।  सैमुएल ने ऐसी ही एक अद्भुत वाणी सुनी थी। जो हो, अग्नि ने कहा, “मैं तुम्हें ब्रह्म के सम्बन्ध में कुछ शिक्षा दूंगा। यह पृथ्वी ब्रह्म का एक अंश है, अन्तरिक्ष एक अंश है, स्वर्ग एक अंश है, समुद्र एक अंश है।" फिर अग्नि ने कहा, "अब एक हंस तुम्हें कुछ शिक्षा देगा।” हंस की खोज में सत्यकाम ने अपनी यात्रा जारी रखी, और अगले दिन जब वह सांध्य-अग्निहोत्र कर चुका था, तब एक हंस उसके निकट आया, और सत्यकाम से कहा," मैं तुम्हें ब्रह्म के विषय में कुछ शिक्षा दूंगा। हे सत्यकाम, यह अग्नि जिसकी तुम उपासना करते हो, ब्रह्म का एक अंश है, सूर्य एक अंश है, चन्द्र एक अंश है, विद्युत् भी एक अंश है।"  फिर हंस ने कहा, "अब मद्गु (Madgu) नामक एक पक्षी भी तुम्हे कुछ शिक्षा देगा।" निदान एक दिन यह पक्षी आकर सत्यकाम से बोला, "में तुम्हे ब्रह्म के सम्बन्ध में कछ शिक्षा दूंगा। 'प्राण' उसका एक अंश है, चक्षु एक अंश है, श्रवण एक अंश एवं मन एक अंश है।"

 तदनन्तर बालक अपने गुरु के पास पहुँचा, गुरु ने उसे दूर से देखकर कहा, “वत्स, तुम्हारा मुख तो किसी 'ब्रह्मवेत्ता' के समान चमक रहा है। तुम्हें किसने शिक्षा दी है ?" सत्यकाम ने उत्तर दिया - " मानवेतर प्राणियों ने, किन्तु मैं चाहता हूँ कि आप मुझे उपदेश दें।" क्योंकि आप जैसे मनीषियों से मैंने सुन रखा है कि "केवल गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा- से प्राप्त ज्ञान ,'Be and Make' ही श्रेयस की ओर ले जाता है। " तब ऋषि ने उसे उसी ज्ञान- 'तत्त्वमसि' (तत् त्वम् असि) 'वह ब्रह्म (परम् सत्य) तुम्हीं हो' की शिक्षा दी; जो उन्हें अपने देवभावापन्न गुरु (C-IN-C नवनीदा जैसे पैगम्बर) से प्राप्त हो चुका था। फिर बोले, " अब कुछ भी शेष नहीं रहा। "   

यहाँ पर मान लीजिये हम इन सब रूपकों को थोड़ी देर के लिए हटा दें कि वृषभ ने क्या सिखाया, अग्नि ने क्या सिखाया तथा अन्य सबों ने क्या सिखाया - और केवल केन्द्रीय तत्त्व की ओर ध्यान दें तो हमको तात्कालीन विचारधारा की दिशा का कुछ पता लग सकता है। हमें जिस महान ज्ञान का बीज यहाँ मिलता है, वह यह है कि 'ये सारी ध्वनियाँ हमारे अन्दर ही हैं।' इन सत्यों (महावाक्यों) को और गहराई से अध्यन करने पर अन्त में हम यही तत्व पायेंगे कि यह वाणी (चार महावाक्य) वास्तव में हमलोगों के ह्रदय में से ही उठी है। शिष्य निरन्तर सत्य के सम्बन्ध में उपदेश पा रहा है, किन्तु वह जो समझ रहा था कि ये सब शिक्षाएं बाह्य जगत् से प्राप्त हो रही हैं, उसका ऐसा समझना ठीक नहीं था। उसने इन वाणियों को बाह्यजगत से (मानवेत्तर प्राणियों से) आती हुई समझा, लेकिन वे सदा उसीके भीतर से ही उठ रही थीं।  

और भी एक तत्त्व इसी से पाया जाता है, और वह है कर्मण्य जीवन में रहते हुए ही ब्रह्मज्ञान को व्यावहारिक बनाया जा सकता है। जगत इसी खोज में सदा व्यस्त रहता है कि , व्यावहारिक जीवन में धर्म से क्या सहायता प्राप्त हो सकती है ? और उपनिषद के इन कथाओं में हम यह भी देख सकते हैं कि दिन-प्रतिदिन किस प्रकार यह सत्य, सत्यकाम के लिए व्यवहारोपयोगी बनता जा रहा था। शिष्य सत्यकाम को अपने दैनंदिन जीवन में जिन समस्त प्राणियों के संसर्ग में आना पड़ता था, वे उन्हीं से ब्रह्मज्ञान प्राप्त करते हैं। वृषभ और गायों की सेवा से, अग्नि , जिसमें वे प्रतिदिन होम करते हैं, उसीमें वे ब्रह्म-साक्षात्कार कर रहे हैं। इसी प्रकार दृष्टिगोचर पृथ्वी, सूर्य , चंद्र आदि को भी वे ब्रह्म के एक अंश रूप में अनुभव कर रहे हैं -इत्यादि, इत्यादि। 

इसके बाद एक कहानी सत्यकाम के एक शिष्य-'उपकोशल कमलायन'  के सम्बन्ध में है। यह शिष्य भी सत्य काम से शिक्षा प्राप्त करने के लिए उनके पास कुछ दिन रहा था। सत्यकाम कार्यवश कहीं बाहर गये। इससे शिष्य को बहुत कष्ट हुआ। जब गुरु पत्नी ने उसके समीप आकर पूछा, 'वत्स, तुम खाते क्यों नहीं?' तब बालक ने कहा, 'मेरा मन कुछ ठीक नहीं है, इसीलिए कुछ खाना नहीं चाहता।'

   इसी समय वह जिस अग्नि में हवन कर रहा था उसमें से एक आवाज आयी,'प्राण ब्रह्म है, सुख ब्रह्म है, आकाश ब्रह्म है, तुम ब्रह्म को जानो।' तब उसने उत्तर दिया, 'प्राण ब्रह्म है, यह मैं जानता हूँ,  किन्तु वे आकाश और सुख-स्वरूप हैं, यह मैं नहीं जानता।' तब अग्नि ने समझाया, कि 'आकाश' और 'सुख' , इन दो शब्दों का अर्थ वस्तुतः एक ही है, यानि ह्रदय में निवास करने वाला चिदाकाश (अथवा शुद्ध बुद्धि।) इस प्रकार अग्नि ने प्राण और चिदाकाश के रूप में उसे ब्रह्म का उपदेश किया।     

तदुपरान्त अग्नि ने पुनः उपदेश दिया - 'यह पृथ्वी, यह अन्न, यह सूर्य जिसकी तुम उपासना करते हो, सब ब्रह्म के ही रूप हैं। जो पुरुष सूर्य में दिखलाई पड़ता है, वह मैं ही हूँ।" जो यह जानते हैं  और उस प्रेमस्वरूप ब्रह्म के किसी मूर्तमान अवतार, पैगम्बर पर मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करते हैं, उनके सब पाप नष्ट हो जाते है, वे दीर्घ जीवन प्राप्त करते हैं और सुखी होते हैं। जो समस्त दिशाओं में वास करते हैं, मैं भी वही हूँ। जो इस प्राण में हैं, इस आकाश में हैं, स्वर्गसमूह और विद्युत् में बसते है, मैं भी वही हूँ।' -- इन वचनों में भी हमें व्यहारोपयोगी धर्म का उदाहरण मिलता है। जिसकी वे अग्नि, सूर्य, चन्द्र आदि के रूप में उपासना करते थे, जिन सब वस्तुओं के साथ वे परिचित थे -वही इन कथाओं का आधार है, जो उनकी व्याख्या करती है और उन्हें  उच्चतर अर्थ प्रदान करती हैं।  यही वेदान्त का सच्चा , व्यावहारिक पक्ष है।

वेदान्त जगत् को उड़ा नहीं देता, उसकी व्याख्या करता है। वह व्यक्ति को उड़ा नहीं देता -उसकी व्याख्या करता है। वह 'व्यक्तित्व' को (मिथ्या अहं को) मिटाने का उपदेश नहीं करता किन्तु वास्तविक व्यक्तित्व का स्वरुप सामने रखकर , वास्तविक 'अहंत्व' (अर्थात 'माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी और विराट "अहंत्व'') क्या है यह समझा देता है। वह यह नहीं कहता कि जगत् वृथा है अथवा उसका कोई अस्तित्व नहीं है, किन्तु बतलाता है कि " जगत् क्या है यह समझो, जिससे वह तुम्हारा कोई अनिष्ट न कर सके।"  उस वाणी ने सत्यकाम अथवा उनके शिष्य उपकोशल से यह नहीं कहा था कि तुम सूर्य, चन्द्र, विद्युत अथवा और कुछ, जिसकी व उपासना करते थे, वह एकदम 'भूल' है; किन्तु यही कहा कि- " जो चैतन्य सूर्य, चन्द्र, विद्युत, अग्नि और पृथ्वी के भीतर है, वही उनके अन्दर भी है।" 

अतएव उपकोशल की ज्ञानमयी दृष्टि के सामने जगत की प्रत्येक वस्तु ने एक नवीन रूप धारण कर लिया; वह सम्पूर्ण जगत को ही ब्रह्ममय देखने लगा ! जो अग्नि पहले केवल हवन करने की जड़ अग्नि मात्र थी, उसने एक नया रूप धारण कर लिया और वह ईश्वररूप में प्रतीत हुई। पृथ्वी ने एक नया रूप धारण कर लिया, प्राण, सूर्य, चन्द्र, तारा, विद्युत् सभी ने एक नया रूप धारण कर लिया, सब ब्रह्मभावापन्न हो गये और उनका वास्तविक स्वरूप तब समझ में आया। वेदान्त का उद्देश्य ही इन सब वस्तुओं में भगवान् का दर्शन करना है, उनका जो रूप आपाततः प्रतीत होता है, वह न देखकर उनको उनके प्रकृत स्वरूप (सियाराम मय स्वरुप) में जानना है। 

उसके बाद उपनिषदों में एक दूसरा, विशेष प्रकार का उपदेश है, 'जो आँखों में चमक रहा है, वह ब्रह्म है; वह रमणीय और ज्योतिर्मय है। और वही सम्पूर्ण जगत् में अभिव्यक्त हो रहा है।' यहाँ भाष्यकार कहता है, 'पवित्रात्मा पुरुषों (C-IN-C नवनीदा) की आँखों में जो एक विशेष प्रकार की ज्योति का आविर्भाव होता है, वह वास्तव में अन्तस्थ सर्वव्यापी आत्मा की ही ज्योति है। वह ज्योति ही ग्रहों, सूर्य, चन्द्र और तारों में प्रकाशित हो रही है।" 

तुम लोगों से अब मैं जन्म-मृत्यु आदि के सम्बन्ध में इन प्राचीन उपनिषदों की कुछ अद्भुत कथाएँ कहूँगा। शायद ये तुम्हें अच्छी लगें। श्वेतकेतु, पांचालराज के पास गया। राजा ने उससे पूछा, 'क्या तुम यह जानते हो मृत्यु होने के पश्चात् सब मनुष्य कहाँ जाते हैं? क्या जानते हो कि वे किस प्रकार फिर लौट आते हैं? क्या तुम जानते हो कि परलोक (other world) कभी 'houseful' क्यों नहीं होता, या एकदम से भर क्यों नहीं जाता ? 'बालक ने कहा, 'नहीं, मैं यह सब नहीं जानता।' उसने अपने पिता से जाकर ये ही सब प्रश्न पूछे। पिताने कहा, 'इन सब प्रश्नों का ठीक ठीक उत्तर दो मुझे भी मालूम नहीं। ' तब वे दोनों राजा के पास लौट गये। राजा ने कहा, 'यह ज्ञान ब्राह्मणों के पास कभी नहीं रहा, केवल राजागण (राजर्षि लोग)  ही इसे जानते थे, और इसी ज्ञान के बल पर राजागण (सूर्यवंशी राजर्षि लोग) पृथ्वी पर शासन करते रहे है।'

तब वे  दोनों  राजा के पास कुछ दिन रहे,  क्योंकि राजा ने उन्हें शिक्षा देने का वचन दिया था। राजर्षि पाँचाल राज ने कहा, 'हे गौतम, तुम अपने से बाहर जिस अग्नि की उपासना करते हो, वह अत्यन्त निम्न स्तर का पदार्थ है। सूर्य  [सौर ऊर्जा (solar energy)]  ईंधन है, और यह पृथ्वी भी अग्निस्वरूप है। संवत्सर उसके काष्ठस्वरूप हैं, रात्रि उसकी धूम्रस्वरूप हैं। दिन ज्वाला है, चन्द्रमा भस्म है। तारागण चिनगारियाँ हैं।  इसी अग्नि में देवतागण श्रद्धा ( faith-आस्तिक्यबुद्धि ) की  आहुति देते रहते हैं, इसी से राजा सोम (अन्न ) उत्पन्न होता है।"  इस प्रकार राजा अनेक उपदेश देने के बाद बोले, " तुम्हारी (मनुष्य से पृथक) इस क्षुद्र अग्नि में होम करने का कोई प्रयोजन नहीं, सम्पूर्ण जगत् ही वह अग्नि है और दिन-रात उसमें होम हो रहा है। देवता, मनुष्य सभी दिन- रात उसी की उपासना करते हैं। हे गौतम, मनुष्य का शरीर ही अग्नि का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है।"

[नानकदेव ने भी भगवान की  मानव रूपी अदृश्य वेदी के सामने प्रकृति द्वारा आरती किये जाने पर एक बहुत सुन्दर भजन जगन्नाथ जी के मन्दिर में गाया था -  गगन मै थाल, रव चंद दीपक बने... परंपरागत आरती से हट कर, इसमें सम्पूर्ण सृष्टि को ही परमात्मा की  आरती में लीन प्रदर्शित किया गया है। गुरु नानक ने अपनी आरती में परमात्मा के विराट स्वरुप का चित्रण किया है और कल्पना की है कि समस्त ब्रह्माँड ही उसकी पूजा में लीन है। आरती के प्रारंभिक बोल इस प्रकार हैं:" गगन मै थालु, रवि चंदु दीपक बने,तारका मंडल, जनक मोती। धूपु मलआनलो, पवण चवरो करे,सगल बनराइ फुलन्त जोति॥ कैसी आरती होइ॥ भवखंडना तेरी आरती॥ अनहत सबद बाजंत भेरी "] 

>>देह ही देवालय है > हम यहाँ भी देखते हैं कि धर्म को कार्य में परिणत किया जा रहा है, ब्रह्म को सृष्टि की हर वस्तु में देखा जा रहा है। इन सब रूपकों में यही एक तत्त्व देखता हूँ कि मनुष्य की बनायी हुई मूर्ति मनुष्यों के लिए हितकारिणी और शुभ हो सकती है, किन्तु उससे भी श्रेष्ठ 'मानव-प्रतिमा'  पहले से ही विद्यमान है। यदि ईश्वरोपासना करने के लिए 'प्रतिमा' आवश्यक है तो उससे श्रेष्ठ 'जीवन्त मानव-प्रतिमा' [ठाकुर, माँ, स्वामीजी के रूप में] पहले से मौजूद है। यदि ईश्वरोपासना के लिए मन्दिर निर्माण करना चाहते हो तो करो, किन्तु सोच लो कि उससे भी उच्चतर, उससे भी महान् मानव देह रूपी मन्दिर तो पहले से ही मोजूद है। 

हम लोगों को याद रखना चाहिए कि वेद के दो भाग हैं - कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड। उपनिषदों के अभ्युदय-काल में कर्म काण्ड इतना जटिल और विस्तारपूर्ण हो गया था कि उससे मुक्त होना असम्भव सा कार्य हो गया। उपनिषदों में कर्मकाण्ड बिलकुल छोड़ दिया गया है ऐसा कहा जा सकता है, किन्तु धीरे धीरे  प्रत्येक कर्मकाण्ड के अन्दर एक उच्चतर अर्थगाम्भीर्य दिखाने की चेष्टा की गयी है। अत्यन्त प्राचीन काल में यह सब यज्ञादिक कर्मकाण्ड प्रचलित थे, किन्तु उपनिषद काल में ज्ञानियों का अभ्युदय हुआ। उन लोगों ने क्या किया? आधुनिक सुधारकों के समान उन लोगों ने यज्ञादि के विरुद्ध प्रचार करके उसे एकदम मिथ्या या पाखण्ड कहकर उड़ा देने को चेष्टा नहीं की, किन्तु उन्हीं का उच्चतर तात्पर्य समझाकर लोगों को एक ग्रहण करने योग्य वस्तु दी। उन्होंने कहा 'अग्नि में हवन करो, वहुत अच्छी बात है, किन्तु इस पृथ्वी पर तो दिन-रात हवन चल रहा है'। ये देव-प्रतीकात्मक मन्दिर भी बने रहें, ठीक है, इनको तोड़ डालने की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही हमारा मन्दिर है, हम कहीं भी उपासना कर सकते हैं। तुम लोग वेदी बनाते हो- किन्तु हम लोगों के मत में, [श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित नेता या पैगम्बर नवनीदा के मत में], जीवित, चेतन, मनुष्य-देह रूपी वेदी तो पहले से वर्तमान है; और इस मनुष्यदेह-रूपी वेदी पर की गयी पूजा दूसरी अचेतन मृत, जड़ मूर्ति की पूजा की अपेक्षा श्रेयस्कर है।' 

>>>देवयान> यहाँ और भी एक विशेष मत का वर्णन किया गया है। मैं स्वयं ही इसका अधिकांश नहीं समझता। उपनिषद् का यह एक अंश मैं पढ़ता हूँ, तुम लोग इसे कुछ समझ सको तो समझो। जो व्यक्ति ध्यान-बल से विशुद्धचित्त होकर ज्ञानलाभ कर चुका है, वह जब मरता है, तो पहले अर्चि, उसके बाद दिन, फिर क्रमशः शुक्लपक्ष में ओर उत्तरायण षण्मास में जाता है; वहाँ से संवत्सर, संवत्सर से सूर्य लोक, और सूर्यलोक से चन्द्रलोक, तथा चन्द्रलोक से विद्युल्लोक में जाता है। वहाँ से एक दिव्यपुरुष उसे ब्रह्मलोक में ले जाते हैं। इसी का नाम देवयान है। जब साधु और ज्ञानियों की मृत्यु होती है, तो वे इसी मार्ग द्वारा जाते हैं। इस मास, संवत्सर आदि शब्दों का क्या अर्थ है यह कोई भी भलीभाँति नहीं समझता। सभी अपने अपने मस्तिष्क का कल्पित अर्थ लगाते रहते हैं। बहुत से लोग यह भी कहते हैं कि यह बेकार की बात है। इन चन्द्र लोक, सूर्यलोक आदि में जाने का क्या अर्थ है? और यह दिव्य पुरुष [श्रीरामकृष्ण देव ?] आकर विद्युल्लोक से ब्रह्मलोक [रामकृष्ण लोक] में ले जाता है, इसका भी क्या अर्थ है

हिन्दुओं में एक धारणा थी कि चन्द्रलोक में जीवन है— इसके बाद हम लोग यह देखेंगे कि किस प्रकार चन्द्र लोक से पतित होकर मनुष्य पृथ्वी पर वापस आता है। जो ज्ञान प्राप्त नहीं करते हैं किन्तु इस जीवन में शुभ कर्म कर चुके हैं वे जब मरते हैं तो पहले धूम्र में जाते हैं फिर रात्रि में, तदनन्तर कृष्णपक्ष फिर दक्षिणायन षण्मास और उसके बाद संवत्सर में से होकर वे पितृलोक में जाते हैं। वहाँ से आकाश में और फिर वे चन्द्रलोक में गमन करते हैं। वहाँ देवताओं के खाद्यरूप होकर देवजन्म ग्रहण करते हैं। जब तक उनका पुण्यक्षय नहीं होता तब तक वहीं रहते हैं। कर्मफल समाप्त होने पर फिर उन्हें पृथ्वी पर आना पड़ता है। 

>>देव से मानव बनने की प्रक्रिया >वे पहले आकाशरूप में परिणत होते हैं, फिर वायुरूप से फिर घूम्र, उसके बाद मेघ आदि के रूप में परिणत होकर अन्त में, वृष्टिकण का आश्रय लेकर पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं, वहाँ शस्यक्षेत्र में गिरकर शस्य रूप में परिणत होकर मनुष्य के खाद्यरूप में परिगृहीत होते हैं और अन्त में उनकी सन्तानादि बन जाते हैं। जिन लोगों ने खूब सत्कर्म किये थे, वे सदवंश में जन्म ग्रहण करते हैं। जिन लोगों ने अत्यन्त असत् कर्म किये थे, उनका अत्यन्त नीच जन्म होता है, यहाँ तक कि उनको कभी कभी पशु (सूअर) का भी जन्म लेना पड़ता है। पशु बार बार जन्म ग्रहण करते रहते हैं तथा बार बार मृत्यु के मुँह में पड़ते रहते हैं।  इसी कारण पृथ्वी न तो एकदम सूनी होती है और न परिपूर्ण ही।

हम लोग इससे कुछ थोड़े से विचार प्राप्त कर सकते हैं और बाद में शायद हम इसका बहुत कुछ अर्थ भी समझ सकेंगे। अभी हम इसके अर्थ पर कुछ अटकल लगा सकते हैं।  स्वर्ग में जाकर जीव फिर से किस प्रकार लौट आते हैं ? इससे सम्बन्ध रखने वाला अंश पहले अंश की अपेक्षा कुछ अधिक स्पष्ट प्रतीत होता है , किन्तु इन सब उक्तियों का सार तत्त्व यही जान पड़ता है कि ब्रह्मानुभूति के बिना स्वर्गादि प्राप्ति स्थायी नहीं होती है। मान लो, कुछ व्यक्ति जिन्हें अभी तक ब्रह्मानुभव नहीं हो सका, किन्तु इस लोक में कुछ सत्कर्म कर चुके हैं ;  और वह कर्म भी सकाम किया गया है, तो उनकी मृत्यु होने पर वे इधर उधर अनेक स्थानों में घूम फिरकर स्वर्ग पहुँचते हैं। और हम लोग जिस प्रकार पैदा होते हैं, ठीक उसी प्रकार वे भी देवताओं की सन्तानरूप में पैदा होते हैं।  और जितने दिन उनके शुभ कर्मफल की समाप्ति नहीं होती,  उतने दिन वे वहां रहते हैं।

>>>जिसका नाम रूप है वही नश्वर है>इसी से वेदान्त का एक मूल तत्त्व यह पाया जाता है कि जिसका नाम रूप है वही नश्वर है। अतएव स्वर्ग भी नश्वर होगा, क्योंकि उसका भी तो नाम रूप है।  अनन्त स्वर्ग स्व विरोधी वाक्य मात्र है, जिस प्रकार यह पृथ्वी अनन्त नहीं हो सकती, क्योंकि जिस वस्तु का भी नाम रूप है उसी की उत्पत्ति काल में है, स्थिति काल में है, विनाश काल में है। वेदान्त का यह स्थिर सिद्धान्त है अतएव अनन्त स्वर्ग की धारणा व्यर्थ है।  

हमने देखा है कि वेद के संहिता भाग में चिरंतन स्वर्ग का वर्णन है? जिस प्रकार मुसलमान और ईसाईयों के धर्म ग्रन्थों में है। मुसलमानों की स्वर्ग धारणा और भी स्थूल है। वे लोग कहते हैं, स्वर्ग में बाग बगीचे हैं, उनके नीचे नदियाँ बह रही हैं। अरब वासियों के रेगिस्थान में जल एक बहुत ही वांछनीय पदार्थ है। इसीलिए मुसलमान सदा जलपूर्ण स्वर्ग की कल्पना करते हैं। मेरा जहाँ जन्म हुआ, वहाँ साल में छः महीने जल बरसता रहता है। मैं स्वर्ग को कल्पना में शायद शुष्क स्थान सोचंगा, अंग्रेज भी यह सोचेंगे। 

संहिता का यह स्वर्ग अनन्त है, वहाँ मृत व्यक्ति जाकर रहते हैं। वे लोग वहाँ सुन्दर देह पाकर वहाँ के पितृगण के साथ अत्यन्त सुखसहित चिरकाल तक रहते हैं, वहीं उनके माता पिता स्त्री पुत्रादि भी आ मिलते हैं। और वे बहुत कुछ यहीं के समान रहते हैं; हाँ उनका जीवन अपेक्षाकृत अधिक सुखमय होता है। उन लोगों के स्वर्ग की धारणा भी यही है कि इस जीवन में सुख प्राप्ति में जो सब विघ्नबाधाएँ हैं वे सब मिट जायेंगी, केवल इसका जो सुखमय अंश वही शेष रहेगा। स्वर्ग की यह धारणा हमें सुखकर भले ही प्रतीत हो, किन्तु सुखकर और सत्य ये दोनों पूर्ण रूप से भिन्न वस्तुएँ हैं। वास्तव में चरम सीमा पर पहुॅचे बिना, सत्य कभी सुखकर नहीं होता। मनुष्य का स्वभाव ही बड़ा स्थितिशील है, वह हमेशा 'Comfort Zone' में रहना चाहता है। मनुष्य जैसे ही कोई विशेष काम करता रहता है, तो एक बार उसे शुरू करने पर फिर उसे छोड़ना उसके लिए बहुत कठिन हो जाता है। मन कोई नया विचार नहीं ग्रहण करता, कारण वह बहुत कष्टकर होता है। 

अतएव हम लोग देखते हैं कि उपनिषदों में पूर्वप्रचलित धारणा का विशेष व्यक्तिक्रम हुआ है। उपनिषदों में कहा है, यह सब स्वर्ग जहाँ मनुष्य जाकर पितृगण के साथ रहता है, कभी नित्य नहीं हो सकता।  क्योंकि नाम-रूपात्मक सभी वस्तुएँ विनाशशील हैं।  यदि स्वर्ग साकार है तो काल के अनुसार उस स्वर्ग का अवश्य नाश होगा। हो सकता है, वह लाखों वर्ष रहे, किन्तु अन्त में ऐसा एक समय अवश्य आयगा कि उसका नाश होगा, और अवश्य होगा। 

इसीके साथ  एक और भी धारणा लोगों के मन में आयी है और वह यह कि ये सब आत्माएँ दुबारा इसी पृथ्वी पर लौट आती हैं।  और स्वर्ग केवल उनके शुभ कर्मों के फलभोग का स्थानमात्र है। फलभोग शेष होने पर वे फिर पृथ्वी पर ही जन्म ग्रहण करती हैं। एक बात इसी से स्पष्ट प्रतीत होती है कि मनुष्य को अत्यन्त प्राचीन काल से ही कार्य-कारण विज्ञान ( philosophy of causation) विदित था। बाद में हम लोग देखेंगे कि हमारे दार्शनिकों ने इसी तत्व का वर्णन,  दर्शन तथा न्याय की भाषा में किया है।  किन्तु इस स्थान में मानो एक शिशु की अस्पष्ट भाषा में इसे कहा गया है। इन  ग्रन्थों का पाठ करते समय तुम लोगों ने शायद यह समझ लिया होगा कि ये सब तत्त्व प्रत्यक्ष अनुभूति के फलस्वरूप हैं। यदि तुम लोग यह पूछो कि ये सब कार्यरूप में परिणत हो सकते हैं या नहीं; तो मैं कहूँगा कि पहले ये सब कार्यरूप में परिणत हुए हैं और बाद में दर्शन के रूप में आविर्भूत हुए हैं। 

>>>Time, Space and Causation> तुमने देखा कि ये सब पहले अनुभूत हुए, बाद में लिखे गये। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्राचीन ऋषियों के साथ मानो बातें करता था। पक्षिगण उनसे बोलते, पशुगण भी उनसे बात चीत करते और चन्द्र-सूर्य से भी उनका सम्भाषण होता था। वे क्रमशः समस्त वत्तुओं का अनुभव करने लगे, प्रकृति के अन्तस्तल में पैठने लगे। उन्होंने उस मायातीत सत्य की उपलब्धि चिन्तन द्वारा अथवा तर्क द्वारा नहीं पाया और न आजकल की प्रथा के अनुसार ऐसा ही हुआ कि किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा विचारित कुछ विषय संग्रह किये और एक ग्रन्थ बना दिया।  अथवा मैं आज जैसे उन्हीं के एक ग्रन्थ को लेकर लम्बी-चौड़ी वक्तृता दे डालता हूँ, ऐसा भी नहीं हुआ, वरन् उनको इसका स्वयं आविष्कार करना पड़ा। 

>>practice first, and knowledge afterwards.> इसकी सारस्वरूप पद्धति थी साधना -(गुरु-शिष्य परम्परा के प्रशिक्षण द्वारा ) प्रत्यक्षानुभूति, और चिरकाल तक वही रहेगी। धर्म/शिक्षा चिरकाल से एक व्यावहारिक विज्ञान रहा है; शास्त्र /पुस्तक पर निर्भर रहने वाला धर्म /शिक्षा न कोई कभी हुआ है , न होगा।  पहले (वैराग्य सहित) अभ्यास, उसके बाद ज्ञान। जीवगण यहाँ लौट आते हैं, यह धारणा मैं इस उपनिषद् में पहले से विद्यमान  पाता हूँ । जो फल की कामना से कुछ सत्कर्म करते हैं, उन्हें उस सत्कर्म का फल प्राप्त होता है, किन्तु यह फल नित्य नहीं होता। कार्य-कारणवाद ( idea of causation) यहाँ बहुत सुन्दर रूप में वर्णित हुआ है, क्योंकि कहा गया है कि कार्य कारण के अनुसार ही होता है। जैसा कारण है, कार्य भी वैसा ही होगा (As the cause is, so the effect will be.); कारण जब अनित्य है तो कार्य भी अनित्य है। कारण नित्य होने पर कार्य भी नित्य होगा। किन्तु सत्कर्म रूपी ये कारण अनित्य और ससीम (finite causes) है अतएव उनका फल भी नित्य (infinite) नहीं हो सकता। 

>>> (माया) को अतिक्रमण करने का तीसरा मार्ग (third course) – 'सत्य का अनुभव करना।' इस तत्त्व का एक और पहलू देखने से यह भलीभांति समझ में आ जायगा कि जिस कारण से अनन्त स्वर्ग नहीं हो सकता उसी कारण से अनन्त नरक भी नहीं हो सकता। मान लो, मैं एक बहुत दुष्ट आदमी हूँ और समस्त जीवन भर अन्यायपूर्ण कर्म करता रहा हूँ, तो भी यह सारा जीवन उसकी अनन्त जीवन के साथ तुलना करने पर कुछ भी नहीं है। यदि दण्ड अनन्त हो तो इसका यह अर्थ होगा कि ससीम कारण से असीम फल की उत्पत्ति हुई। यह नहीं हो सकता। यदि यह मान लिया जाय कि समस्त जीवनपर्यन्त सत्कर्म करते रहने पर अनन्त स्वर्गलाभ होता है तो भी यह दोष बना रहेगा। उपर्युक्त जिन सब मार्गों की बातें कही गयी हैं, उनके व्यतिरिक्त उन लोगों के लिए जिन्होंने सत्य को जान लिया है और भी एक तीसरा मार्ग (third course ) है। मायावरण से बाहर निकलने का यही एकमात्र उपाय है– 'सत्य का अनुभव करना।' और सब उपनिषद्, यह सत्यानुभव किसे कहते हैं, यही समझाते हैं। "अच्छा बुरा कुछ न देखो, सभी वस्तुएँ और सभी कार्य आत्मा से उत्पन्न होते हैं, यही विचार करो। आत्मा सभी में है। यही कहो कि जगत् नामक कोई चीज नहीं है। बाह्यदृष्टि बन्द करो और उसी प्रभु को स्वर्ग नरक सभी स्थानों में देखो। मृत्यु और जीवन में सर्वत्र उसी की उपलब्धि करो।" 

मैंने पहले जो तुम्हें पढ़कर सुनाया है, उसमें भी यही भाव है— यह पृथ्वी उसी भगवान् का एक प्रतीक है, आकाश भी भगवान् का एक दूसरा प्रतीक है, इत्यादि इत्यादि। ये सब ब्रह्म हैं। परन्तु यह देखना पड़ेगा, अनुभव करना पड़ेगा, इस विषय की केवल आलोचना अथवा तर्क करने से कुछ नहीं होगा। मान लो, जब आत्मा ने जगत् की प्रत्येक वस्तु का स्वरूप समझ लिया और उसे यह अनुभव होने लगा कि प्रत्येक वस्तु ही ब्रह्ममय (सियाराममय) है, तब वह स्वर्ग में जाय अथवा नरक में, या अन्यत्र और कहीं चली जाय, तो इससे कछ बनता बिगड़ता नहीं। में पृथ्वी पर जन्म अथवा स्वर्ग में जाऊं, इससे कोई अन्तर नहीं होता। मेरे लिए ये सब निरर्थक है क्योंकि मेरे लिए सभी स्थान समान हैं, सभी स्थान भगवान् के मन्दिर हैं, सभी स्थान पवित्र हैं, कारण स्वर्ग, नरक अथवा अन्यत्र मैं केवल भगवत्सत्ता का ही अनुभव कर रहा हूँ। भला-बुरा अथवा जीवन-मरण मुझे कुछ नहीं दीखते, एकमात्र ब्रह्म का ही अस्तित्व है। 

वेदान्त मत में मनुष्य जब ऐसी अनुभूति प्राप्त कर लेता है, तब वह मुक्त हो जाता है।  और वेदान्त कहता है केवल वही व्यक्ति संसार में रहने योग्य है, दूसरा नहीं। जो व्यक्ति जगत् में केवल अशुभ देखता है, वह भला संसार में कैसे वास कर सकता है? उसका जीवन तो सर्वदा दुःखमय होगा। जो व्यक्ति यहाँ अनेकानेक विघ्नबाधाओं तथा विपत्तियों को देखता है, मृत्यु देखता है, उसका जीवन तो दुःखमय होगा ही।  परन्तु जो व्यक्ति प्रत्येक वस्तु में उसी सत्य स्वरूप को देखता है, वही संसार में रहने योग्य है; वही यह कह सकता है, कि मैं इस जीवन का उपभोग कर रहा हूँ, मैं इस जीवन में आनन्द में हूँ। यहाँ मैं यह कह देना चाहता हूँ कि वेद में कहीं भी नरक का उल्लेख नहीं है। वेद के बहुत परवर्ती काल में रचित पुराणों में यह नरक प्रसंग दिया गया है।

वेद में सब से बड़ा दण्ड है- पुनर्जन्म !  अर्थात् इस जगत में एक बार और आना, यहाँ (मनुष्य बनने का-ब्रह्मविद बनने का) एक दूसरा अवसर प्राप्त करना। हम देखते हैं कि पहले से ही यह निर्गुण भाव चलता आ रहा है। पुरस्कार और दण्ड का भाव बहुत ही जड़भावात्मक है और यह भाव केवल मनुष्य के समान सगुण ईश्वरवाद में ही सम्भव है- जो ईश्वर हमारे समान किसी एक से प्रेम करते हों, दूसरे से नहीं।  इस प्रकार की ईश्वर-धारणा के साथ ही पुरस्कार और दण्ड का भाव संगत हो सकता है। संहिताओं में ईश्वर का वर्णन इसी प्रकार दिया गया है। वहाँ इस धारणा के साथ भय मिला हुआ था, किन्तु उपनिषदों में यह भयभाव बिलकुल नहीं मिलता। इसके साथ ही उपनिषदों में हम ईश्वर की निर्गुण की धारणा पाते हैं- और प्रत्येक दशा में यह निर्गुण की धारणा करना ही विशेष कठिन होता है। मनुष्य सर्वदा ही सगुण रूप लेकर रहना चाहता है। 

>>> उच्च भाव क्या है ? a living God, or a dead God? बहुत बड़े बड़े विचारक भी, कम से कम संसार जिन्हें बहुत बड़ा विचारक मानता है, इस निर्गुण ईश्वर से सहमत नहीं हैं।  किन्तु देहधारी ईश्वर जो बादलों में रहता है, ऐसी कल्पना मुझे हास्यास्पद प्रतीत होती है। उच्चतर भाव कौन सा है -जीवित ईश्वर या मृत ईश्वर ? -जिस ईश्वर को कोई देख नहीं सकता, जान नहीं पाता - अथवा जो ईश्वर (हमारे सम्मुख दरिद्र, मुर्ख और रोगी के रूप में) चारों ओर प्रकट एवं ज्ञात है ?   

'निर्वैयक्तिक भगवान' (The Impersonal God) जीवन्त ईश्वर है, यह सिद्धान्त है। सगुण -निर्गुण के बीच में भेद यही है कि सगुण ईश्वर, कोई मानवविशेष मात्र ही हो सकता है,जबकि  निर्गुण ईश्वर फ़रिश्ता, पैगम्बर, मनुष्य, पशु, तथा कुछ और अधिक जो हम नहीं देख पाते हैं, क्योंकि, सगुण निर्गुण के अन्तर्गत है। और 'निर्गुण'  सगुण व्यष्टि, समष्टि एवं उसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ है। 'जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत् में भिन्न भिन्न रूप से प्रकाशित होती है, और उसके अतिरिक्त भी अग्नि का अस्तित्व है, इसी प्रकार निर्गुण भी है।' हम जीवित ईश्वर की पूजा करना चाहते हैं। मैंने सम्पूर्ण जीवन में ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखा। तुमने भी नहीं देखा। इस कुर्सी को देखने से पहले तुम्हें ईश्वर (आत्मा)  को देखना पड़ता है, उसके बाद उन्हीं के भीतर से कुर्सी को देखना पड़ता है। वह दिन-रात जगत् में रहकर प्रतिक्षण 'मैं हूँ', 'मैं हूँ'  कह रहा है।  जिस क्षण तुम बोलते हो 'मैं हूँ' उसी क्षण तुम उस सत्ता को जान रहे हो। तुम ईश्वर को कहाँ ढूँढ़ने जाओगे, यदि तुम उसे अपने हृदय में, जीवित प्राणियों में नहीं देख पाते ? (यदि तुम रास्ते से जानेवाले उस बोझा ढोनेवाले कुली में जिसके शरीर से पसीने की धारा बह रही है, उसे नहीं देख पाते?' ) 

त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी, 

त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि, त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः।'

 तुम स्त्री, तुम पुरुष, तुम कुमार, तुम कुमारी हो, तुम्हीं वृद्ध होकर लाठी के सहारे चल रहे हो, तुम्हीं सम्पूर्ण जगत् में भिन्न भिन्न रूप में प्रकट- यह सब हो।' कितना अद्भुत 'जीवित ईश्वर' है-संसार वह (आत्मा) ही, एकमात्र सत्य है। यह धारणा अनेक लोगों को उस परम्परागत ईश्वर की धारणा के घोर विरोधात्मक लगती है, जो किसी विशेष स्थान में किसी आवरण के पीछे छिपा बैठा है , और जिसे कोई कभी नहीं देख सकता। मुल्ला -पुरोहित लोग (ब्रह्मविद ब्राह्मण नहीं) हमें केवल यही आश्वासन देते हैं कि यदि हम लोग उनका अनुसरण करें, उनकी भर्तस्ना सुनते रहें, और उनके निर्दिष्ट लीक पर चलते रहें, तो मरते समय वे हमें एक मुक्ति-पत्र देंगे और तब हम जन्नत प्राप्त कर ईश्वर-दर्शन कर सकेंगे। इससे यह स्पष्ट ही समझ में आता है कि यह सारा 'स्वर्गवाद' इस अनर्गल मुल्ला-पुरोहित प्रपंच (priestcraft) के विवध रूपों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 

अवश्य ही निर्गुणवाद अनेक चीज नष्ट कर डालता है, वह मुल्ला -पुरोहितों के हाथ से सारा व्यवसाय छीन लेता है।  उसके फल स्वरूप मन्दिर, गिर्जा आदि सब उड़ जाते हैं। भारत में इस समय दुर्भिक्ष है, किन्तु वहाँ ऐसे बहुत से मन्दिर हैं जिनमें से प्रत्येक में एक राजा को भी खरीद लेने योग्य बहुमूल्य रत्नों की राशि सुरक्षित है। यदि मुल्ला-पुरोहित लोग इस निर्गुण ब्रह्म की शिक्षा दें, तो उनका व्यवसाय छिन जायगा। किन्तु हमें उस निर्गुण ब्रह्म (ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं) की शिक्षा निःस्वार्थभाव से, बिना पुरोहित प्रपंच के देनी होगी।  तुम भी ईश्वर (आत्मा) , मैं भी वही (आत्मा) तब कौन किसकी आज्ञा पालन करे?  (कौन गुरु, कौन शिष्य ?) कौन  किसकी उपासना करे? तुम्हीं ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ मन्दिर हो; मैं किसी मन्दिर, किसी प्रतिमा,  या किसी बाइबिल की उपासना न कर तुम्हारी ही उपासना करूँगा। 

लोग इतनी परस्परविरोधी विचार क्यों करते हैं? लोग कहते हैं, हम ठेठ प्रत्यक्षवादी है, ठीक बात है; किन्तु तुम्हारी उपासना करने की अपेक्षा और अधिक प्रत्यक्ष क्या हो सकता है? मैं तुम्हें देख रहा हूँ, तुम्हारा अनुभव कर रहा हूँ और जानता हूँ कि तुम ईश्वर हो। मुसलमान कहते हैं, अल्लाह के सिवाय और कोई ईश्वर नहीं हैं; किन्तु वेदान्त कहता है, ऐसा कुछ है ही नहीं जो ईश्वर न हो। यह सुनकर तुममें से बहुतों को भय हो सकता है, किन्तु तुम लोग धीरे धीरे यह समझ जाओगे। जीवित ईश्वर तुम लोगों के भीतर रहते हैं, तब भी तुम मन्दिर, गिर्जाघर आदि बनाते हो और सब प्रकार की काल्पनिक झूठी चीजों में विश्वास करते हो। मनुष्य-देह में स्थित मानव-आत्मा ही एकमात्र ईश्वर है। पशु भी भगवान के मंदिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है- ताजमहल जैसा। यदि मैं उनकी उपासना नहीं कर सका तो किसी भी मन्दिर से कुछ भी उपकार नहीं होगा।जिस क्षण में प्रत्येक मनुष्य-देहरूपी मन्दिर में उपविष्ट ईश्वर की उपलब्धि कर सकूँगा, जिस क्षण में प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख भक्तिभाव से खड़ा हो सकूँगा, और वास्तव में उनमें ईश्वर देख सकूँगा, जिस क्षण मेरे अन्दर यह भाव आ जायगा, उसी क्षण मैं सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाऊँगा - बाँधने वाले पदार्थों में आसक्ति (कामिनी,कांचन,कीर्ति में आसक्ति) हट जाएगी, और मैं मुक्त हो जाऊँगा।   

यही सब से अधिक व्यावहारिक उपासना है। मत-मतान्तर से इसका कोई प्रयोजन नही। किन्तु यह बात कहने से अनेक लोग डर जाते हैं। वे कहते हैं, यह ठीक नहीं है। उनके वयोवृद्ध पितामह जन कह गये हैं, कि स्वर्ग में सिंहासन पर बैठे हुए एक ईश्वर ने किसी व्यक्ति को बतला दिया था कि -मैं ईश्वर हूँ , और तबसे वे उसी व्यक्ति के सम्बन्ध में बौद्धिक माथापच्ची किये चले जा रहे हैं कि उनको ईश्वर कहें, या देवदूत कहें ? उनके मत में 'राम बन्दा थे, या परवर दिगार थे?' इस पर समालोचना करते रहना -यही व्यावहारिक बात है, और हमलोगों का मत व्यावहारिक नहीं है। वेदान्त कहता है, सब अपने अपने मार्ग पर चलें, कोई हर्ज नहीं किन्तु, किन्तु मार्ग (साधन)  ही लक्ष्य (साध्य-मंजिल) नहीं है। किसी स्वर्गस्थ ईश्वर की उपासना आदि करना बुरा नहीं, किन्तु ये सब केवल सत्य की दिशा में साधन मात्र हैं, साध्य सत्य नहीं

 >>>Dark Mass:(गहरा द्रव्यमान,डार्क मैटर)>ये सब सुन्दर एवं शुभ हैं, इनमें कुछ अद्भुत भाव हैं;किन्तु वेदान्त पग पग पर कहता, " बन्धु, तुम जिसकी 'अज्ञात' कहकर उपासना करते हो, और जिसकी खोज विश्व-ब्रह्माण्ड में करते फिर रहे हो, वह सदैव से तुम्हारे भीतर ही विराजमान हैं 'तुम' यदि जीवित हो, (तुम्हारा व्यष्टि मैं यदि जीवित है), तो इसी के कारण कि 'जगत् के नित्यसाक्षी -ईश्वर' उसके पीछे अवस्थित हैं। सम्पूर्ण वेद जिस 'साक्षी चैतन्य' (ब्रह्म) की उपासना करते हैं, और जो शाश्वत- 'मैं' (the eternal 'I'-माँ जगदम्बा, जगतजननी माँ सारदा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट 'मैं') के रूप में सदा वर्तमान हैं, वे ही हैं इसलिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी दृष्टिगोचर हो रहा है। वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रकाश और प्राण है। यदि वह 'शाश्वत मैं' (पाका आमि the eternal 'I') तुम्हारे भीतर न हों तो तुम सूर्य को भी न देख पाते, सभी कुछ तुम्हारे लिए अन्धकारमय जड़राशि (dark mass) के समान प्रतीत होता। वे ही प्रकाशित हैं, इसीलिए तुम जगत् को देख पाते हो। 

[डार्क मैटर की विशेषता : (dark matter या आन्ध्र प्रदेश/पदार्थ /शनिदेव/ या माँ काली) की विशेषता है कि अन्य पदार्थ अपने द्वारा उत्सर्जित विकिरण से पहचाने जा सकते हैं किन्तु आन्ध्र पदार्थ अपने द्वारा उत्सर्जित विकिरण से पहचाने नहीं जा सकते। डार्क मैटर के अस्तित्व (presence) का अनुमान दृश्यमान पदार्थों पर इनके द्वारा आरोपित गुरुत्वीय प्रभावों से किया जाता है।]

इस विषय में साधारणतया एक प्रश्न पूछा जाता है, और वह यह है कि इस बिचार-धारा को मान लेने से बहुत गड़बड़ी हो जाने की सम्भावना है। हम सभी यह सोचेंगे कि, 'मैं ईश्वर (ब्रह्म) हूँ' - जो कुछ 'मैं' सोचता हूँ या करता हूँ (वासना और दौलत में आसक्त हूँ या मुर्गा-मीट खाता हूँ) वही अच्छा है-- क्योंकि ईश्वर (ब्रह्म) को भला पाप क्या? इसका उत्तर यह है कि पहले यदि इस प्रकार की विपरीत व्याख्या रूप आशंका की सम्भावना मान भी ली जाय,  तब भी क्या यह प्रमाणित किया जा सकता है कि दूसरे पक्ष में भी यही आशंका नहीं उत्पन्न होगी? लोग अपने से पृथक् स्वर्गस्थित ईश्वर की उपासना करते हैं, उससे [माँ काली या शनिदेव से] खूब डरते भी हैं। वे लोग भय से काँपते रहते हैं और सारा जीवन इसी प्रकार काँपते हुए काट देते हैं। तो क्या दुनिया ऐसा मान लेने पर भी पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी हो गयी है? 

>>>  can morality to be developed through fear? > तुम यह विचार करके देखो कि जो व्यक्ति ईश्वर को सगुणसाकार [माँ काली] मानकर उसकी उपासना करते हैं और जो निर्गुण ईश्वरतत्त्व को समझकर निर्गुण की उपासना करते हैं, इन दोनों में से किसके सम्प्रदाय में संसार के बड़े-बड़े महापुरुष हो गये हैं? महान् कर्मयोगी-महा चरित्रवान्! निश्चय ही ऐसे महापुरुष [एक अपवाद भगवान श्री रामकृष्ण को छोड़कर] निर्गुण साधकों के बीच ही हुए हैं! (निःस्वार्थ प्रेम करने से ) 'भयभीत व्यक्ति' क्या कभी चरित्रवान् या नैतिक पुरुष (पैगम्बर या नेता) हो सकता? नहीं, कभी नहीं !  'जहाँ एक दूसरे को देखता है, जहाँ एक दूसरे को सुनता है, वही माया है। जहाँ एक दूसरे को नहीं देखता, एक दूसरे को नहीं सुनता, जहाँ सम्पूर्ण जगत ही आत्ममय (जहाँ सम्पूर्ण जगत-सियाराम मय) हो जाता है, वहाँ कौन किसे देखेगा, कौन किसे सुनेगा ?  तब सभी 'वह' अथवा सभी 'मैं ' हो जाता है ! 'It is all He, and all I, at the same time. '- तब आत्मा पवित्र हो जाती है। तभी - और केवल तभी हम प्रेम (निःस्वार्थ प्रेम) किसे कहते हैं, यह समझ सकते हैं। डर से क्या ऐसा प्रेम हो सकता है? प्रेम की भित्ति है, स्वाधीनता। स्वाधीनता मुक्तस्वभाव होने पर ही प्रेम होता है। जब हमलोग निःस्वार्थ भाव से जगत् को स्नेह करना प्रारम्भ करते हैं, तभी 'विश्वबन्धुत्व' (brotherhood of mankind-मानव जाति का भाईचारा, या गंगाजमुनी तहजीब) का वास्तविक अर्थ समझते हैं-अन्यथा नहीं। 

इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि इस निर्गुण मत से (एकेश्वरवाद से) समस्त संसार में भयानक पाप-धारा बह  उठेगी, मानो दूसरे मत से दुनिया कभी भी अन्यान्य की ओर गयी ही नहीं, अथवा क्या वह सारी दुनिया खून में रँगने से, तथा मनुष्य को परस्पर टुकड़े-टुकड़े कर डालनेवाली साम्प्रदायिकता  की ओर कभी ले ही नहीं गयी ? एक सम्प्रदाय को मानने वाले कहते हैं,  मेरा ईश्वर ही सर्वश्रेष्ठ है। इसका प्रमाण? आओ, हम दोनों लड़ लें यही प्रमाण है। द्वैतवाद से यही गड़बड़ी सारी दुनिया में फैल गयी है।क्षुद्र और संकीर्ण रास्तों (कट्टरता) में न जाकर प्रशान्त उज्ज्वल दिन के प्रकाश में आओ। महान् अनन्त आत्मा संकीर्ण भावों में कैसे बँधी रह सकती है? हमारे सम्मुख यह प्रकाशमय ब्रह्माण्ड है, इसकी प्रत्येक वस्तु हमारी है। अपनी बाहें फैलाकर सम्पूर्ण जगत् का प्रेमालिंगन करने की चेष्टा करो। यदि कभी ऐसा करने की इच्छा हो तभी समझो कि तुम्हें ईश्वर का अनुभव हुआ है। 

बुद्धदेव के उपदेश का वह अंश तुमको अवश्य ही स्मरण होगा कि वे किस प्रकार उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ऊपर, नीचे सर्वत्र ही प्रेम की भावना प्रवाहित कर देते थे, जब तक कि चारों ओर वही महान् अनन्त प्रेम सम्पूर्ण विश्व में छा जाता था। इसी प्रकार जब तुम लोगों का भी यही भाव होगा, तब तुम्हारा भी यथार्थ व्यक्तित्व प्रकट होगा। तभी सम्पूर्ण जगत् एक व्यक्ति बन जायगा-क्षुद्र वस्तुओं (कामिनी -कांचन और कीर्ति) की ओर फिर मन नहीं जायगा। इस अनन्त सुख के लिए छोटी छोटी वस्तुओं का परित्याग कर दो। 

इन सब क्षुद्र सुखों से तुम्हें क्या लाभ होगा? और वास्तव में तो तुम्हें इन छोटे छोटे सुखों को भी छोड़ना नहीं पड़ता, कारण, तुम लोगों को याद होगा कि सगुण ईश्वर भी निर्गुण ईश्वर के ही अन्तर्गत है, जो कि मैं पहले ही कह चुका हूँ। अतएव ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों ही है। 'मनुष्य'- अनन्तस्वरूप निर्गुण मनुष्य भी- अपने को सगुण रूप में, व्यक्ति रूप में (M/F रूप में) देख रहा है; मानो हम अनन्तस्वरूप होकर भी अपने को क्षुद्र- क्षुद्र रूपों में  (M/F में) सीमाबद्ध बना डालते हैं। वेदान्त कहता है, असीमता ही हमारा सच्चा स्वरुप है। वह कभी लुप्त नहीं हो सकती, सदा रहेगी। किन्तु हम अपने कर्म द्वारा अपने को सीमाबद्ध कर डालते हैं,  और उसी ने मानो हमारे गले में जंजीर डालकर हमें आबद्ध कर रखा है। जंजीरें तोड़ डालो और मुक्त हो जाओ। निमय को पैरों तले कुचल डालो। मनुष्य के प्रकृतस्वरूप में कोई नियम नहीं, कोई दैव नहीं, कोई अदृष्ट नहीं। अनन्त (आत्मा) में विधान या नियम कैसे रह सकते हैं? स्वाधीनता ही इसका मूल मन्त्र है, स्वाधीनता ही इसका स्वरूप है- इसका जन्मसिद्ध अधिकार है। पहले मुक्त (आत्मा) बनो, तब फिर जितना क्षुद्र व्यक्तित्व रखना चाहो रखो। 

तब हम लोग रंगमंच पर अभिनेताओं के समान अभिनय करेंगे। जैसे जब कोई अभिनेता भिखारी का अभिनय कर रहा होता है। उसकी तुलना गलियों में भटकनेवाले वास्तविक भिखारी से करो। यद्यपि दृश्य दोनों अवस्थाओं में एक सामान है, वर्णन करने में भी एक सा है, किन्तु दोनों में कितना भेद है! एक व्यक्ति भिक्षुक का अभिनय कर आनन्द ले रहा है, और दूसरा सचमुच दुःख- कष्ट से पीड़ित है। ऐसा भेद क्यों होता है? कारण, एक मुक्त है और दूसरा बद्ध। अभिनेता जानता है कि उसकी यह निर्धनता सत्य नहीं है, उसने यह केवल अभिनय के लिए स्वीकार किया है।  किन्तु यथार्थ भिक्षुक जानता है कि यह उसकी चिरपरिचित अवस्था है, एवं उसकी इच्छा हो या न हो, उसे वह कष्ट सहना ही पड़ेगा। उसके लिए यह भिखारीपन एक अभेद्य नियम के समान है ,और इसीलिए उसे कष्ट उठाना ही पड़ता है। 

हम तुम जब तक अपने यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते तब तक हम लोग केवल मिक्षुक हैं, प्रकृति के अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु ने ही हमें दास बना रखा है। हम सम्पूर्ण जगत् में सहायता के लिए चीत्कार करते हुए फिरते हैं- अन्त में काल्पनिक सत्ताओं से भी हम सहायता मांगते हैं, पर सहायता कभी नहीं मिलती।  तो भी हम सोचते हैं कि इस बार सहायता मिलेगी। इस प्रकार हम सर्वदा आशा लगाये बैठे रहते हैं। बस, इसी बीच एक जीवन बीत जाता है, और फिर वही खेल चलने लगता है। 

स्वाधीन होओ; किसी दूसरे से कुछ न चाहो। में यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि यदि तुम अपने जीवन की अतीत घटनाएँ याद करो, तो देखोगे कि तुम सदैव व्यर्थ ही दूसरों से सहायता पाने की चेष्टा करते रहे किन्तु कभी पा नहीं सके।  जो  कुछ सहायता मिली, वह तुम्हारे अपने अन्दर से ही आयी थी। तुम स्वयं जिसके लिए चेष्टा करते हो, उसे ही फल रूप में पाते हो।  तथापि कितना आश्चर्य है कि तुम सदैव ही दूसरे से सहायता की भीख माँगते रहते हो! धनियों के बैठकखाने सदा भरे रहते हैं, किन्तु यदि ध्यान से देखो तो पाओगे कि  इस समय वहाँ जो लोग हैं कुछ समय के बाद वे ही लोग वहाँ दिखायी नहीं पड़ेंगे। सदैव वे लोग आशा लगाये रहते हैं कि धनियों के पास से कुछ मांगकर लायेंगे, किन्त ऐसा कर नहीं पाते। मंगतों को बाबू पसन्द नहीं करते। 

हमारा जीवन भी उसी प्रकार का है, हम केवल आशा किये चले जा रहे हैं, उनका अन्त नहीं। वेदान्त कहता है इसी आशा का परित्याग करो। क्यों आशा करते हो? तुम्हारे पास सब कुछ है। तुम आत्मा हो, तुम सम्राट् स्वरूप हो, तुम भला किसकी आशा करते हो? यदि राजा पागल होकर अपने देश में 'राजा कहाँ है, राजा कहाँ है' कहकर खोजता फिरे तो वह कभी राजा को नहीं पा सकता, क्योंकि वह स्वयं ही राजा है। वह अपने राज्य के प्रत्येक ग्राम में, प्रत्येक नगर में यहाँ तक कि प्रत्येक घर में खोज करे, खूब रोये चिल्लाये, फिर भी राजा का पता नहीं लग सकता; क्योंकि वह व्यक्ति स्वयं ही राजा है। इसी प्रकार हम लोग यदि जान सकें कि हम स्वयं ईश्वर है (सत्य स्वरूप, अविनाशी आत्मा) हैं और इस राजान्वेषणरूपी व्यर्थं चेष्टा को छोड़ सकें, तो बहुत ही अच्छा हो। इस प्रकार अपने को ईश्वररूप (आत्मा ही परमात्मा है) जान लेने पर ही हम सन्तुष्ट और सुखी हो सकते हैं। यह सब पागलों- जैसी चेष्टा छोड़कर जगतुरूपी मंच पर एक अभिनेता के समान कार्य करते चलो। 

इस प्रकार की अवस्था आने से हम लोगों की सम्पूर्ण दृष्टि परिवर्तित हो जाती है (ज्ञानमयी हो जाती है)। और  यह जगत् अनन्त कारागारस्वरूप न होकर खेलने का स्थान बन जाता है। प्रतियोगिता की जगह न बनकर यह भौरों के गुंजन से परिपूर्ण वसन्त काल का रूप धारण कर लेता है। पहले जो जगत् नरककुण्ड जैसा लगता था, वही अब स्वर्ग बन जाता है। बद्ध जीव की दृष्टि में यह जगत एक महायन्त्रणा का स्थान है, किन्तु (श्रद्धावान मुमुक्षु या) मुक्त व्यक्ति (पैगम्बर) की दृष्टि में यही स्वर्ग है; स्वर्ग अन्यत्र नहीं है। एक ही प्राण सर्वत्र विराजित है। पुनर्जन्म आदि जो कुछ है सब यहीं होता है। देवतागण सब यहीं हैं- वे मनुष्य के आदर्श के अनुसार कल्पित हैं। देवताओं ने मनुष्यों को अपने आदर्श के अनुसार नहीं बनाया; किन्तु मनुष्यों ने ही देवताओं की सृष्टि की है।  जैसे कि इन्द्र, वरुण और सम्पूर्ण, ब्रह्माण्ड के देवता सब यहीं हैं। 

तुम्ही लोग अपने एक अंश [कच्चा मैं -अहं की थोड़ी निःस्वार्थपरता] को बाहर प्रक्षिप्त करते हो, किन्तु वास्तव में तुम्ही असली वस्तु [पूर्ण निःस्वार्थपरता ] हो- तुम्ही प्रकृत उपास्य देवता हो। यही वेदान्त का मत है और यही यथार्थ में व्यावहारिक है। अपने यथार्थ सच्चिदानन्द स्वरुप की अनुभूति करके मुक्त हो जाने के बाद, अब उन्मत्त के समान [हाबु -हाबु , मैं वह हूँ' 'मैं वही हूँ', बोलते हुए]  समाज और घर-गृहस्थी, बिजनेस-व्यापार, त्याग करने अथवा जंगलों- गुफाओं में जाकर तपस्या करते हुए मर जाने की आवश्यकता नहीं है। तुम जहाँ हो वहीं रहोगे, किन्तु भेद इतना ही होगा कि तुम सम्पूर्ण जगत् का रहस्य समझ जाओगे। 

पहले देखी हुई समस्त वस्तुएँ (phenomena)जैसी की तैसी ही रहेंगी, किन्तु उनका एक नवीन अर्थ समझने लगोगे। तुम अभी जगत् का स्वरूप नहीं जानते हो; केवल मुक्त होने पर ही इसका स्वरूप जान सकोगे। (परम् सत्य की अनुभूति के बाद) हमलोग देखेंगे कि यह तथाकथित विधि, (so-called law) दैव या अदृष्ट (destiny) हम लोगों की प्रकृति का एक अत्यन्त क्षुद्र अंश मात्र (infinitesimal) है। यह हम लोगों की प्रकृति का केवल एक पहलू मात्र है, दूसरी दिशा में मुक्ति सदा विद्यमान रही है। लेकिन हम लोग शिकारी द्वारा पीछा किये गये खरगोश के समान मिट्टी में अपना सिर छिपाकर अपने को अशुभ से (Accident में अपने अवश्यम्भावी मृत्यु से) बचाने की चेष्टा करते हैं। [अपने यथार्थ अविनाशी स्वरुप का स्मरण करते हुए यदि हम साहस पूर्वक यह निश्चय करें कि देखता हूँ, अभी मरता कौन है ? मैं तो केवल साक्षी आत्मा हूँ ! सारा रहस्य खुल जाता है कि - मैं कभी मर नहीं सकता, मृत्यु नाम की कोई वस्तु नहीं है। ] 

लेकिन भ्रमवश (delusion) अपना स्वरुप भूलने की चेष्टा करते हैं [सिंह -शावक या अविनाशी आत्मा का स्वरुप, भूलकर भेंड़ों के समान, में-में करने लगते हैं।], किन्तु हम अपने सच्चिदान्द स्वरुप को कभी भूल ही नहीं सकते; क्योंकि वह हमेशा हमें पुकारता रहता है। बाह्यजगत में हम जिन देवता, ईश्वर आदि का अनुसन्धान करते हैं, या प्रकति के नियमों से स्वाधीन होने की चेष्टा करते हैं , वह सब वास्तव में हमारे वास्तविक नित्यमुक्त अविनाशी स्वरुप का अनुसन्धान मात्र है। कहाँ से आवाज आ रही है यह जानने में हम लोगों ने भूल की है। हम लोग पहले सोचते हैं यह आवाज - प्रमुख वृषभ से, मुद्गु पक्षी से, अग्नि, सूर्य, चन्द्र, तारा अथवा किसी देवता से आती है- अन्त मैं हम लोग देखते हैं कि यह तो हम लोगों के अन्दर ही है। यह वही अनन्त वाणी अनन्त मुक्ति का समाचार देती है।  

यह संगीत [अनहद नाद] अनन्त काल से चला आ रहा है। उसी आत्म-संगीत का कुछ अंश इस नियमबद्ध ब्रह्माण्ड, इस पृथ्वी के रूप में परिणत हुआ है, किन्तु यथार्थतः हम लोग आत्म स्वरूप हैं और चिरकाल तक आत्मस्वरूप ही रहेंगे। एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है" मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना, और उसका सन्देश है - कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, व्यक्त ईश्वर की , उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर (माँ काली) की कल्पना कैसे करोगे जो अव्यक्त है ? " [ In one word, the ideal of Vedanta is to know man as he really is, and this is its message, that if you cannot worship your brother man, the manifested God, how can you worship a God who is unmanifested? ] 

क्या तुम लोगों को बाइबिल की वह कथा याद नहीं कि " यदि तुम अपने भाई को, जिसे तुम देख रहे हो, प्यार नही कर सकते तो ईश्वर को, जिसे तुमने कभी नहीं देखा, भला कैसे प्यार कर सकोगे? [यदि कोई कहता है, “मैं परमेश्वर को प्रेम करता हूँ,” और अपने भाई से घृणा करता है तो वह झूठा है। क्योंकि अपने उस भाई को, जिसे उसने देखा है, जब वह प्रेम नहीं करता, तो परमेश्वर को जिसे उसने देखा ही नहीं है, वह प्रेम नहीं कर सकता।(जॉन 4:20) ] यदि तुम ईश्वर को मनुष्य के चेहरे में नहीं देख सकते, तो उसे मेघ अथवा अन्य किसी मृत जड़ पदार्थ में अथवा अपने मस्तिष्क की कल्पित कथाओं में कैसे देखोगे? जिस दिन से तुम नर- नारियों (Bh,मिश्राjn) में ईश्वर देखने लगोगे, उसी दिन से मैं तुम्हें धार्मिक कहूँगा।  और तभी तुम लोग समझोगे कि दाहिने गाल पर थप्पड़ मारने पर,  मारनेवाले के सामने बायाँ गाल फिराने का क्या अर्थ है ? जब तुम मनुष्य को ईश्वररूप में देखोगे; तब सभी वस्तुओं का, यहाँ तक कि यदि तुम्हारे पास बाघ तक आ जाय, तो उसका भी तुम स्वागत करोगे। जो कुछ तुम्हारे पास आता है वह सब अनन्त आनन्दमय प्रभु का भिन्न भिन्न रूप ही है — वे ही हमारे माता, पिता, बन्धु और सन्तान हैं। वे हमारी अपनी आत्मा ही हैं, जो हमारे साथ खेल कर रही है। 

>>>How human relationships can be made divine ? जिस प्रकार अपने सगे-सम्बन्धियों (सहोदर भाई-बहन) या मित्र में भूलों के रहने के बावजूद, उनके साथ अपने सम्बन्ध को ईश्वरभावापन्न (Divine) बनाया जा सकता है, उसी प्रकार ईश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध भी इनमें से कोई रूप ले सकता है। और हम उसे अपना पिता, माता, भाई, मित्र, प्रियतम कुछ भी मान सकते हैं।  भगवान् (नवनीदा) को पिता कहने की अपेक्षा एक और उच्चतर भाव है साधक लोग उन्हें 'माता' कहते हैं। फिर इससे भी एक पवित्रतर भाव है उन्हें 'प्रिय सखा' (Friend) कहना। उसकी अपेक्षा एक और श्रेष्ठ भाव है उन्हें अपना प्रेमास्पद (beloved,प्रियतम -प्रेमिका ) कहना। प्रेम और प्रेमास्पद (lover and beloved) में कुछ भेद न देखना ही सर्वोच्च भाव है। 

तुम लोगों को वह प्राचीन फारसी कहानी (सन्त राबिया की कहानी )याद होगी। एक प्रेमी ने आकर अपने प्रेमास्पद के घर का दरवाजा खटखटाया। प्रश्न हुआ, 'कौन है?' वह बोला, 'मैं'। द्वार नहीं खुला। दुबारा फिर उसने कहा, 'मैं आया हूँ', पर द्वार फिर भी न खुला। तीसरी बार वह फिर आया, प्रश्न हुआ, 'कौन है?' तब उसने कहा-"I am thyself, my beloved" 'प्रेमास्पद, मैं तुम हूँ', तब द्वार खुल गया। भगवान् और हमारे बीच सम्बन्ध भी ठीक ऐसा ही है। वे सब में हैं और वे ही सब कुछ हैं।  प्रत्येक नर-नारी ही वही प्रत्यक्ष जीवन्त आनन्दमय एकमात्र ईश्वर है। कौन कहता है, ईश्वर अज्ञात है! कौन कहता है, उसे खोजना पड़ेगा ? हमने उसे अनन्त काल के लिए पाया है। हम उसी में अनन्त काल तक रहते हैं- वह सर्वत्र अनन्त काल के लिए ज्ञात है और वही अनन्त काल से उपासित हो रहा है। 

एक और बात इसी प्रसंग में जाननी होगी। वेदान्त कहता है- दूसरे प्रकार की उपासनाएँ भी भ्रमात्मक नहीं हैं। यह कभी न भूलना चाहिए कि जो अनेक प्रकार के कर्म-काण्ड द्वारा भगवत् उपासना करते हैं- हम इन कर्मों को चाहे कितना ही अनुपयोगी क्यों न मानें - वे लोग वास्तव में भ्रान्त नहीं हैं। क्योंकि, मनुष्य का स्वाभाव है कि वह सत्य से सत्य की ओर, निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर आगे बढ़ता रहता है। अन्धकार कहने से समझना चाहिए, स्वल्प प्रकाश; बुरा कहने से समझना चाहिए, थोड़ा अच्छा; अपवित्रता कहने से समझना चाहिए, स्वल्प पवित्रता। अतएव हम लोगों को (भावी पैगम्बरों को) दूसरों को हर हाल में प्रेम और सहानुभूति की दृष्टि से ही देखना चाहिए। हम लोग जिस मार्ग पर कुछ आगे बढ़ गए हैं, वे भी उसी रास्ते से चल रहे हैं। यदि तुम वास्तव में मुक्त हो, तो तुम्हें अवश्य ही यह समझना चाहिए कि वे भी आगे- पीछे अवश्य मुक्त होंगे।

और जब तुम मुक्त ही हो गये,  तो जो अनित्य है उसे तुम किस प्रकार देख पाओगे? यदि तुम वास्तव में पवित्र हो तो तुम्हें अपवित्रता कैसे दिखायी दे सकती है?  क्योंकि, जो भीतर है वही बाहर दीख पड़ता है। हमारे अन्दर यदि अपवित्रता न होती तो हम उसे बाहर कभी देख ही न पाते। वेदान्त की यह भी एक साधना है। आशा है, हम लोग सभी भावी नेता - अपने जीवन में इसको व्यवहार में लाने की चेष्टा करेंगे। 

इसका अभ्यास करने के लिए सारा जीवन पड़ा है, किन्तु इन सब विचारों की आलोचना से हमें यह ज्ञात हुआ है कि, अशान्ति और असन्तोष के बदले अब हम शान्ति और सन्तोष के साथ कार्य करेंगे । क्योंकि, हमने जान लिया है कि वह सत्य (अपर्वतनीय सत्य) प्रत्येक मनुष्य के अन्दर है -और उस पर उसका (birthright) जन्मसिद्ध (birthright अधिकार है। हमारे लिए आवश्यक है, केवल उसको प्रकाशित करना, प्रत्यक्ष अनुभव करना, प्रत्यक्ष अनुभव बनाना, जो अभी शेष है।

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