कुल पेज दृश्य

शनिवार, 3 जून 2023

'व्यावहारिक जीवन में वेदान्त -3' (स्वामी विवेकानन्द, तृतीय भाग, हिन्दी में)

 'व्यावहारिक जीवन में वेदान्त -3' 

( तृतीय भाग , हिन्दी में)  

( 17 नवम्बर, सन् 1896 को लन्दन में दिया हुआ भाषण

पूर्वोक्त (छान्दोग्य) उपनिषद् में हम आगे पढ़ते हैं कि, एक समय देवर्षि नारद ने सनत्कुमार के पास आकर अनेक प्रश्न पूछे जिनमें से एक यह था - वस्तुयें वर्तमान में जैसी हैं, क्या उसका कारण धर्म है ? सनत्कुमार उन्हें सोपानारोहण-न्याय (step by step) के अनुसार धीरे धीरे पृथ्वी, जल आदि तत्वों से ले जाते हुए अन्त में आकाशतत्त्व में जा पहुँचे। 'आकाश तेज से भी श्रेष्ठ है, कारण, आकाश में ही चन्द्र, सूर्य, विद्युत्, नक्षत्र आदि सभी कुछ वर्तमान हैं। आकाश में ही हम श्रवण करते हैं, आकाश में ही जीवन धारण करते हैं, आकाश में ही मरते हैं।' अब प्रश्न यह है कि क्या आकाश से भी कुछ श्रेष्ठ है? 

सनत्कुमार ने कहा, 'प्राण आकाश से भी श्रेष्ठ है।' वेदान्त मत में यह 'प्राण' ही जीवन की मूलभूत शक्ति (principle of life) है। आकाश के समान यह भी एक सर्वव्यापी तत्त्व है, और हमारे शरीर में अथवा अन्यत्र जो भी गति दिखायी पड़ती है, वह सभी प्राण का कार्य है। प्राण आकाश से भी श्रेष्ठ है। प्राण के द्वारा ही सभी वस्तुएँ जीवित रहती हैं, प्राण ही माता, प्राण ही पिता, प्राण ही भगिनी, प्राण ही आचार्य और प्राण ही ज्ञाता है। 

मैं तुम लोगों के लिए इसी उपनिषद् में से एक अंश और पढूंगा। जिसमें श्वेतकेतु अपने पिता आरुणि से 'सत्य' के सम्बन्ध में प्रश्न करता है। पिता ने उसे अनेक विषयों की शिक्षा देकर अन्त में कहा, 'इन सब वस्तुओं का जो सूक्ष्म कारण है, उसी से ये सब बनी हैं, यही सब कुछ है, यही सत्य है, हे श्वेतकेतो, तुम भी वही हो।' तदनन्तर वे यही समझाने के लिए अनेक उदाहरण देने लगे। "हे श्वेतकेतो, जिस प्रकार मधु-मक्षिका विभिन्न पुष्पों से मधु संचय कर एकत्र करती है; एवं ये विभिन्न मधुकण, जिस प्रकार यह नहीं जानते कि वे किस वृक्ष और किस पुष्प से आये हैं ? उसी प्रकार हम सब उसी 'एकमेवाद्वितीय' सत् से आकर भी उसे भूल गये हैं। जो प्रत्येक पदार्थ का सूक्ष्म सार तत्व है, वही समस्त सत्तावान पदार्थों की आत्मा है। वही सत् है। वही आत्मा है, और हे श्वेतकेतु, तुम वही हो। जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ समुद्र में मिल जाने के बाद नहीं जान पातीं कि वे कभी नाम वाली नदियाँ थीं, वैसे ही हम सब उसी सत्स्वरूप से आकर भी यह नहीं जानते कि हम वही हैं। हे श्वेतकेतु , तुम वही हो।” इस प्रकार पिता ने पुत्र को उपदेश दिया। 

सम्पूर्ण ज्ञान-प्राप्ति के दो मूल सूत्र हैं। एक सूत्र तो यह है कि विशेष (particular) को साधारण से और साधारण (general) को सार्वभौमिक (universal) तत्त्व की पृष्ठभूमि में जानना। दूसरा सूत्र यह है कि यदि किसी वस्तु की व्याख्या करनी हो तो, जहाँ तक हो सके, उसी वस्तु के स्वरूप से उसकी व्याख्या करना। पहले सूत्र के आधार पर हम देखते हैं कि हमारा सारा ज्ञान वास्तव में उच्च से उच्चतर होने वाला श्रेणीविभाग (classifications) मात्र है। जब कोई एक घटना अकेली है, तो मानो हम अतृप्त रहते हैं। जब यह दिखा दिया जाता है कि वही एक घटना बार बार घटती है तब हम सन्तुष्ट होते हैं और उसे 'नियम' कहते हैं। जब हम एक पत्थर या सेव को जमीन पर गिरते देखते हैं, तब हम लोग असन्तुष्ट रहते है। किन्तु जब देखते हैं कि सभी सेव गिरते हैं तो हम उसे गुरुत्वाकर्षण का नियम (law of gravitation) कहते हैं और सन्तुष्ट हो जाते हैं। बात यह है कि हम विशेष से साधारण का अनुमान निकालते हैं। 

धर्म का अध्यन करने में भी हमें इसी वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करना चाहिए। वही सिद्धान्त यहाँ भी लागु होता है, और तथ्य यह है कि धर्मतत्त्व का अध्यन करते समय इसी पद्धति का उपयोग सर्वदा होता आया है। इन उपनिषदों में भी, जिनका अनुवाद मैं तुमको सुनाता रहा हूँ, वहाँ भी मुझे विशेष (particular) से साधारण (general) की ओर जाने का सिद्धान्त दिखाई देता है। हम इनमें देखते हैं कि किस प्रकार देवगण क्रमश: एक ही तत्व में विलीन हो जाते है, समग्र विश्व की धारणा में भी ये प्राचीन विचार क्रमशः उच्च से उच्चतर की ओर अग्रसर होते हैं, - वे सूक्ष्म तत्वों से सूक्ष्मतर तथा अधिक व्यापक तत्वों की ओर बढ़ते हैं, इन विशेष विशेष स्थूल भूतों से प्रारम्भ कर अन्त में एक अत्यंत सूक्ष्म और सर्वव्यापी आकाशतत्त्व प्राप्त कर लेते हैं। फिर वहाँ से भी आगे बढ़कर वे प्राण नामक सर्वव्यापिनी शक्ति में आ जाते हैं।  और इन सभी में सर्वत्र यह सिद्धान्त विद्यमान रहता है कि कोई भी वस्तु अन्य सब वस्तुओं से अलग नहीं हैं। आकाश ही सूक्ष्मतर रूप में प्राण है, और प्राण ही स्थूल बनकर आकाश होता है, तथा आकाश स्थूल से स्थूलतर हो जाता है, इत्यादि इत्यादि।

>>>The generalization of the Personal God >सगुण ईश्वर (Personal God-'T') का साधारणीकरण (generalization-UBS) भी इसी मूल सूत्र का एक अन्य उदाहरण है। हमने पहले ही देखा है कि, जब सगुण ईश्वर के सामान्य भाव की प्राप्ति हुई, तब उन्हें समस्त चेतना (all consciousness) का कुल योग कहा गया। इससे केवल इतना ही समझा गया कि सगुण ईश्वर ('T') समस्त चेतना  (all consciousness, एक ही चेतना अपने को M/F UBS, etc में प्रकट करती है ) का समष्टि स्वरूप है। किन्तु उसमें एक शंका उठती है कि यह तो पर्याप्त साधारणीकरण नहीं हुआ। हमने प्राकृतिक घटनाओं के केवल एक पहलु, केवल चेतना (consciousness) तथ्य को लेकर यह साधारणीकरण किया और सगुण ईश्वर (Personal God-'T') तक आ पहुँचे, किन्तु शेष प्रकृति तो छूट ही गयी। अतएव पहले तो यह साधारणीकरण अपूर्ण ही हुआ। दूसरे, इसमें एक ओर भी अधूरापन है, जिसका सम्बन्ध दूसरे सूत्र से है। 

प्रत्येक घटना की व्याख्या उसके स्वरूप ही से  करनी चाहिए। एक समय लोग सोचते थे कि जमीन पर सेब (apple) को कोई भूत (ghost) खींच लेता है, किन्तु वास्तव में यह शक्ति गुरुत्वाकर्षण ( law of gravitation) की है। ओर यद्यपि हम यह जानते हैं कि केवल यही इसकी सम्पूर्ण व्याख्या नहीं है तथापि यह निश्चित है कि यह पहली व्याख्या से श्रेष्ठ है; कारण पहली व्याख्या है वस्तु के बाहर एक कारण की स्थापना करती है, और दूसरी उसके स्वभाव से सिद्ध होती है। इस प्रकार हम लोगों के सारे ज्ञान के सम्बन्ध में जो व्याख्या वस्तु के स्वभाव से सिद्ध है, वह वैज्ञानिक व्याख्या (scientific explanation) है और जो व्याख्या वस्तु के बाह्य रूप से सिद्ध है, वह अवैज्ञानिक (unscientific) है। 

अब "सगुण ईश्वर (Personal God) ही जगत् का सृष्टिकर्ता (creator) है" इस तत्त्व की भी इस सूत्र द्वारा परीक्षा की जाय। यदि यह ईश्वर प्रकृति के बाहर है और प्रकृति के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है, तथा यदि यह प्रकृति शून्य में से, उस ईश्वर की आज्ञा से बनती है, तब तो यह मत अत्यन्त अवैज्ञानिक हुआ। और यह प्रत्येक नास्तिक धर्म (theistic religion- धर्म-निरपेक्ष धर्म, मूर्तिपूजा विरोधी धर्म ?) का एक दुर्बल स्थल प्रत्येक युग में रहा है। ये दोनों दोष हमें सामान्यतः एकेश्वरवादी कहे जानेवाले सिद्धान्त (theory of monotheism) में मिलते हैं। उनके मतानुसार उनके सगुण ईश्वर ( Personal God-अल्ला मियाँ ?) में मनुष्य के ही सारे गुण -परिमाण में कईगुने अधिक होते हैं, और उसी ईश्वर ने अपने संकल्प के द्वारा शून्य में से जगत् की सृष्टि की है और वह इस जगत् से बिलकुल पृथक भी है।  ऐसा कहने से ही एकेश्वरवादी सिद्धान्त में दो कठिनाइयाँ दिखायी पड़ती हैं। 

जैसा कि हमने पहले देखा है, यह विशेष का पर्याप्त सामान्यीकरण नहीं है, दूसरे, यह वस्तु की स्वभावसिद्ध व्याख्या भी नहीं है। यह सिद्धान्त कार्य (effect) को कारण (cause) से भिन्न बताता है। जबकि मनुष्य का सारा ज्ञान यही बतलाता है कि कार्य कारण का रूपान्तर मात्र है। आधुनिक विज्ञान के सम्पूर्ण आविष्कार इसी ओर इशारा करते हैं और सर्वत्र स्वीकृत क्रम-विकासवाद का (theory of evolution का) तात्पर्य भी यही है कि कार्य कारण का रूपान्तर मात्र है। आधनिक वैज्ञानिक (modern scientists) तो 'शून्य से सृष्टिरचना' के सिद्धान्त (creation out of nothing के सिद्धान्त) की हँसी उड़ाते हैं।

>>> can religion stand these tests? क्या धर्म पूर्वोक्त दोनों कसौटियों पर खरा उतर सकता है?  यदि ऐसा कोई धर्ममत हो जो इन दोनों कसौटियों पर खरा उतर सके, तभी    आधुनिक विचारशील मानस (thinking mind) उसे ग्राह्य मान सकते हैं। यदि पुरोहित, चर्च अथवा किसी ग्रन्थ-विशेष के प्रमाण के बल पर किसी मत में जबरन विश्वास करने के लिए कहा जाय, तो आजकल के लोग उसमें विश्वास नहीं कर सकते, इसका फल होगा घोर अविश्वास। जो बाहर से देखने पर (external display of belief के आधार पर) पूर्ण (कट्टर) विश्वासी मालूम पड़ते हैं, वे अन्दर से देखने पर घोर अविश्वासी (आतंकवादी ?) निकलते हैं। शेष लोग धर्म को एकदम छोड़ देते हैं, उससे दूर भागते हैं, उसे पुरोहितों की धोखेबाजी (priestcraft) समझते हैं। 

धर्म भी अब एक राष्ट्रीय-मत (national form) के रूप में परिणत हो गया है। 'वह हमारे प्राचीन समाज का एक महान् उत्तराधिकार (ध्वंसावशेष-remnants) है, अतएव उसे रहने दो'- आज हम लोगों का यही भाव है। आजकल के लोगों के पुरखे उसमें जो अभिरुचि रखते थे वह आजकल के लोगों में नाममात्र को नहीं है; लोगों को अब यह बुद्धि संगत नहीं जान पड़ता। इस प्रकार की सगुण ईश्वर (Personal God) और सृष्टि-रचना (creation) की अवधारणा, जिसे हर धर्म में एकेश्वरवाद (monotheism) कहते हैं, आज का आधुनिक युवा उसे स्वीकार नहीं कर सकता। और भारत में बौद्ध धर्म के प्रभाव से यह अधिक बढ़ा भी नहीं; और इसी विषय में बौद्धगण प्राचीन काल में जीत भी गये थे। बौद्धों ने यह प्रमाणित कर दिखाया था कि यदि प्रकृति को अनन्त शक्तिसम्पन्न मान लिया जाय, और यदि प्रकृति अपने अभाव को स्वयं ही पूरा कर सकती है, तो प्रकृति (2H)  के अतीत और भी कुछ (आत्मा या 3rd'H') भी है, यह मानना अनावश्यक है। आत्मा-परमात्मा  के अस्तित्व को मानने का भी कोई प्रयोजन नहीं है-'अप्प दीपो भव '। 

पदार्थ (substance) और गुण (qualities) की चर्चा बहुत पुरानी है, इस विषय पर प्राचीन काल से ही वादविवाद चलता आ रहा है। इस समय भी वही प्राचीन अन्धविश्वास (superstition) चला आ रहा है। मध्यकालीन यूरोप में, यहाँ तक कि, मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है, उसके बहुत दिनों बाद तक यही एक विशेष विचारणीय विषय था कि गुण द्रव्याश्रित (गुण dead matter से चिपके रहते हैं) अथवा द्रव्य गुणाश्रित है (अर्थात क्या matter ही गुण से चिपका रहता है ?) लम्बाई, चौड़ाई और उँचाई (3D) क्या जड़ पदार्थ नामक द्रव्यविशेष के आश्रित हैं? और इन गुणों के न रहने पर भी द्रव्य का अस्तित्व रहता है या नहीं?

 बौद्ध लोग कहते हैं कि इस प्रकार के किसी द्रव्य (dead matter) का अस्तित्व स्वीकार करने का कोई प्रयोजन नहीं है, केवल इन गुणों का ही अस्तित्व है। इन गुणों के अतिरिक्त तुम और कुछ नहीं देख पाते। अधिकांश आधुनिक अज्ञेयवादियों (agnostics) का भी यही मत है, क्योंकि इसी द्रव्य-गुण-विचार को कुछ और उँचा ले जाओ तो यही विवाद निष्क्रियता (idleness-ब्रह्म) और सक्रीय सत्ता (शक्ति) का विवाद बन जाता है।

हमारे सम्मुख यह दृश्य जगत् नित्य परिणामशील जगत् (phenomenal world-शक्ति का कार्य) है और इसी के साथ ऐसी कोई वस्तु (ब्रह्म) है जिसमें कभी परिणाम नहीं होता; और कोई कोई कहते हैं, इन दो पदार्थों (ब्रह्म और शक्ति दोनों) का ही अस्तित्व है। कोई कोई और भी अधिक प्रमाण के साथ कहते हैं कि हमें इन दोनों पदार्थों के मानने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि हम जो कुछ देखते हैं, अनुभव करते हैं अथवा सोचते हैं, वे केवल दृश्य पदार्थ हैं। दृश्य के अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ के मानने का तुम्हें अधिकार नहीं। इस तर्क का पूर्ण संगत उत्तर प्राचीन काल में कोई भी नहीं दे सका। केवल वेदान्त का अद्वैतवादी सिद्धांत ( monistic theory) ही हमें इसका उत्तर देता है— [आचार्य शंकर विवर्तवाद से इसकी तुलना करते हुए कहते हैं] -एक ही वस्तु का अस्तित्व है, वही कभी द्रष्टा के रूप में और कभी दृश्य के रूप में प्रकाशित होती है। यह कहना ठीक नहीं कि परिणामशील वस्तु की कोई सत्ता है और उसी के अन्दर अपरिणामी वस्तु भी है, किन्तु वही एक वस्तु जो परिणामशील प्रतीत होती है, वास्तव में अपरिणामी है। 

>>>विवर्तवाद > हमारे सम्मुख यह दृश्य जगत् नित्य परिवर्तनशील (परिणामशील) जगत् है और इसी के साथ ऐसी कोई वस्तु है जिसमें कभी परिणाम नहीं होता; और कोई कोई कहते हैं, इन दो पदार्थों का ही अस्तित्व है। कोई कोई और भी अधिक प्रमाण के साथ कहते हैं कि हमें इन दोनों पदार्थों के मानने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि हम जो कुछ देखते हैं, अनुभव करते हैं अथवा सोचते हैं, वे केवल दृश्य जगत  हैं। दृश्य के अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ के मानने का तुम्हें अधिकार नहीं। 

इस बात का पूर्ण संगत उत्तर प्राचीन काल में कोई भी नहीं दे सका। केवल वेदान्त का अद्वैतवाद ( monistic theory) ही हमें इसका उत्तर देता है— एक ही वस्तु का अस्तित्व है, वही कभी द्रष्टा के रूप में और कभी दृश्य के रूप में प्रकाशित होती है। यह कहना ठीक नहीं कि परिणामशील वस्तु की कोई सत्ता है और उसी के अन्दर अपरिणामी वस्तु भी है, किन्तु वही एक वस्तु जो परिणामशील प्रतीत होती है, वास्तव में अपरिणामी है। 

हम लोग देह (body- Hand ),मन (mind- Head),आत्मा (soul- Heart) या (3'H') आदि अनेक भेद कर लेते हैं, किन्तु वास्तव में सत्ता एक ही है। वह एक ही वस्तु अनेक रूपों में प्रतीत होती है। अद्वैतवादियों को चिरपरिचित उपमा 'रज्जु-सर्प ' भ्रम; अर्थात रज्जु के ही सर्पाकार प्रतीत होने की अवस्था पर विचार करो। अन्धेरे से अथवा अन्य किसी कारणवश लोग रस्सी को ही साँप समझ लेते हैं, किन्तु ज्ञानोदय होने पर सर्पभ्रम नष्ट हो जाता है और केवल रस्सी ही दीख पड़ती है। इस उदाहरण द्वारा हम यह भलीभाँति समझ सकते हैं कि मन में जब सर्पज्ञान रहता है तब रज्जुज्ञान नहीं रहता और जब रज्जुज्ञान रहता है तब सर्पज्ञान नहीं टिकता। उसी प्रकार जब हम व्यावहारिक सत्ता [देह और मन ] देखते हैं, तब पारमार्थिक सत्ता (आत्मा) की प्रतीति नहीं होती और जब हम उस अपरिणामी पारमार्थिक सत्ता (आत्मा) को देखते हैं तो निश्चय ही फिर व्यावहारिक सत्ता [देह और मन ]की प्रतीति नहीं होती। 

अब हम यथार्थवादी (realist)और आदर्शवादी (idealist)– इन दोनों के मत खूब स्पष्ट रूप से समझ रहे हैं। यथार्थवादी केवल व्यावहारिक सत्ता (देह और मन) देखता है और आदर्शवादी (अर्थात वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाला मनुष्य) पारमार्थिक सत्ता (आत्मा) को देखने की चेष्टा करता है। प्रकृत विज्ञानवादियों लिए, जो अपरिणामी सत्ता का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं, फिर परिणामशील जगत् का अस्तित्व नहीं रह जाता। उन्हीं को यह कहने का अधिकार है कि समस्त जगत् मिथ्या है और परिणाम नामक कोई चीज नहीं है। किन्तु यथार्थवादी (The realist)  केवल परिणामशील की ओर ही दृष्टि रखते हैं। उनके लिए अपरिवर्तनीय या अपरिणामी (unchangeable) सत्ता नाम की कोई वस्तु है ही नहीं, अतएव उस यथार्थवादि (मूर्ख) को   जगत् को सत्य कहने का अधिकार है

>>> idea of Personal God is not sufficientइस विचार का फल क्या हुआ? फल यही हुआ कि ईश्वर के विषय में सगुण धारणा करना ही पर्याप्त नहीं। हम लोगों को और भी उच्चतर धारणा अर्थात् निर्गुण की धारणा (Impersonal idea) भी करनी चाहिए। उनके द्वारा सगुण धारणा नष्ट हो जायगी, सो बात नहीं। हमने यह नहीं प्रमाणित किया कि सगुण ईश्वर नहीं है, किन्तु हमने यही दिखाया है कि सगुण की व्याख्या के लिए हमें निर्गुण को स्वीकार करना ही पड़ेगा, क्योंकि निर्गुण सगुण की अपेक्षा अधिक व्यापक साधारणीकरण (generalization) है। केवल निर्गुण ही असीम (Infinite) हो सकता है , और सगुण ससीम (limited) है। इस प्रकार हम सगुण को सुरक्षित रखते हैं, उसे नष्ट नहीं करते। [^ सगुण ईश्वर या बुद्ध की मूर्तियों का विध्वंश नहीं करते, बहुधा हमें यह शंका होती है कि निर्गुण ईश्वर मानने पर सगुण भाव नष्ट हो जायगा, निर्गुण जीवात्मा मानने पर सगुण जीवात्मा का भाव नष्ट हो जायगा। किन्तु वेदान्त से वास्तव में व्यक्ति का विनाश न होकर (यानि 'मैं-पन' विनाश न होकर) उसकी सच्ची रक्षा होती है।] 

हम उस 'सार्वभौमिक सामान्यीकृत सत्ता या शक्ति' (Universal Generalized Power) से सम्बन्ध जोड़े बिना, यह सिद्ध किये बिना, कि यह व्यक्ति (नश्वर प्रतीत होने वाला जीव) ही वस्तुतः अनन्त (अविनाशी आत्मा) है, व्यक्ति के अस्तित्व को किसी प्रकार भी प्रमाणित नहीं कर सकते। यदि हम व्यक्ति को सम्पूर्ण जगत् से पृथक् मानकर सोचने की चेष्टा करें तो कभी भी ऐसा न कर पायेंगे, क्षणभर के लिए भी हम ऐसा नही सोच सकते। ऐसी कोई वस्तु कभी हुई ही नहीं (जो ब्रह्म से भिन्न हो)। 

दूसरी बात यह है कि पूर्वोक्त द्वितीय सिद्धान्त कहता है -"explanation of everything must come out of the nature of the thing." -  'प्रत्येक वस्तु की व्याख्या, उस वस्तु की प्रकृति से ही होनी चाहिए'; यह सिद्धान्त हमें एक और अधिक साहसी विचार (bolder idea) की ओर ले जाता है। जिसे समझना थड़ा मुश्किल है। यदि समस्त वस्तुओं की व्याख्या उनके स्वरुप से की जाये तो यही निष्कर्ष निकलता है कि वही निर्गुण पुरुष (Impersonal Being)- हमारा सर्वोच्च साधारणीकरण, चेतना (Consciousness,आत्मा, सच्चिदानन्द या ब्रह्म-जिससे मकड़ी के जाले जैसा जगत प्रकट होता है, फिर मकड़ी उसे समेट लेती है !) हमलोगों के अन्दर ही है, और वास्तव में हम वही हैं। 'हे श्वेतकेतो, तत्त्वमसि' -तुम वही हो।  तुम्हीं वह निर्गुण पुरुष हो, तुम्ही वह ब्रह्म हो जिसे तुम समस्त जगत् में ढूंढ़ते फिरते हो, तुम स्वयं हो। किन्तु 'तुम' यहाँ 'व्यक्ति' के अर्थ में नहीं, वरन् निर्गुण के अर्थ में प्रयुक्त हैं। जिस मनुष्य को हम जान रहे हैं, जिसे हम व्यक्त (manifested) देख रहे हैं , वह मानो 'personalised' -व्यष्टिकृत (सगुण) हुआ है, किन्तु उसकी प्रकृत सत्ता निर्गुण (Impersonal) है। इस सगुण (personal) को हमें निर्गुण (Impersonal) के द्वारा समझना होगा, विशेष (the particular) को साधारण (general) के द्वारा जानना होगा। और वह निर्गुण सत्ता (सच्चिदानन्द) ही प्रकृत सत्य है- वही मनुष्य की आत्मा है ![— इस सगुण व्यक्त पुरुष को सत्य नहीं कहा जा सकता। ]

इस सम्बन्ध में अनेक प्रश्न उठेंगे। मैं क्रमशः उनका उत्तर देने की चेष्टा करूँगा। बहुत सी कठिनाइयाँ भी उठेंगी, किन्तु उन कूट प्रश्नों की मीमांसा करने के पहले आओ, हम अद्वैतवाद क्या है, यह समझ लेने का प्रयत्न करें। अद्वैतवाद कहता है कि व्यक्त जीव रूप में हम मानो अलग अलग होकर रहते हैं, किन्तु वास्तव में हम सब एक ही सत्य स्वरूप हैं।  और हम अपने को उससे (परम् सत्य या ब्रह्म से) जितना कम पृथक् समझेंगे, उतना ही हमारा कल्याण होगा। इसके विपरीत हम लोग इस समष्टि से अपने को जितना अलग समझते हैं उतना ही दुःख-कष्ट झेलना पड़ता है।  इसी अद्वैतवादी सिद्धान्त (monistic principle) से हमें नैतिकता (ethics) का आधार प्राप्त होता है। और मेरा यह दावा है कि और किसी भी मत से हमें कोई नीतितत्त्व प्राप्त नहीं होता। 

हम जानते हैं कि नैतिकता (ethics) की सब से पुरानी धारणा यह थी कि किसी पुरुषविशेष अथवा कुछ विशिष्ट पुरुषों की जो आज्ञा (will) हो वही कर्तव्य है। लेकिन अब इसे मानने को कोई भी तैयार नहीं; क्योंकि वह आंशिक सामान्यीकरण (partial generalization) मात्र हैं।हिन्दू कहते हैं, अमुक कार्य करना ठीक नहीं, क्योंकि वेदों में उसका निषेध है, किन्तु ईसाई वेदों का प्रमाण नहीं मानते। ईसाई लोग कहते हैं, यह मत करो, वह मत करो, क्योंकि बाइबिल में यह सब करना मना है। जो बाइबिल नहीं मानते, वे इसका अनुपालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं।अतः हम लोगों को एक ऐसा तत्त्व खोजना पड़ेगा जो इन अनेक प्रकार के भावों का समन्वय कर सके।

हम देखते हैं कि लाखों व्यक्ति सगुण सृष्टिकर्ता (Personal Creator) में विश्वास करने को तैयार हैं वैसे ही इस दुनियाँ में हजारों ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्ति भी हैं जिन्हें ये सब धारणाएँ पर्याप्त नहीं जान पड़तीं। वे इससे कुछ ऊँची वस्तु चाहते हैं ! और जब जब धर्म  इन मनीषियों को अपने समुदाय में  समाहित कर सकने की सीमा तक उदार नहीं रहा, तब तब समाज के उज्ज्वलतम रत्न (brightest minds in society) धर्म का ही परित्याग कर देते हैं। और आज प्रधानतः यूरोप में यह जितना स्पष्ट देखा जाता है, उतना और कहीं भी नहीं पाया जाता। 

इन लोगों को धर्म सम्प्रदाय में रखने के लिए इन धर्मसम्प्रदायों के लिए विशेष उदारभावापन्न होना अत्यन्त आवश्यक है। धर्म जो कुछ कहता है, तर्क की कसौटी पर उन सब की परीक्षा करना आवश्यक है। सभी धर्म यही एक दावा क्यों करते हैं कि वे तर्क द्वारा परीक्षित होना नहीं चाहते, यह कोई नहीं बतला सकता। पर वास्तव में इसका कारण यह है कि उनमें शुरू से ही कुछ त्रुटियाँ हैं। युक्ति के मानदण्ड के बिना धर्म के विषय में भी किसी प्रकार का विचार या सिद्धान्त सम्भव नहीं है। 

इन प्रतिभाशाली व्यक्तियों को अपने धर्म सम्प्रदाय में रखने के लिए इन धर्मसम्प्रदायों का उदार भावा-पन्न होना अत्यन्त आवश्यक है। कोई भी धर्म जो कुछ दावा करता है, तर्क की कसौटी पर उन सब को खरा उतरना आवश्यक है। लेकिन सभी धर्म यही एक दावा क्यों करते हैं कि वे तर्क द्वारा परीक्षित होना नहीं चाहते, इसका कारण कोई नहीं बतला सकता। पर वास्तव में इसका कारण यह है कि उनमें शुरू से ही कुछ त्रुटियाँ रही हैं। युक्ति-तर्क के मानदण्ड पर खरा उतरे  बिना, धर्म के विषय में भी किसी प्रकार के विचार या सिद्धान्त को पचा लेना सम्भव नहीं है।

शायद कोई धर्म ने कुछ बीभत्स कार्य करने की आज्ञा भी दे सकता है। जैसे, इसलाम मुसलमानों को विधर्मियों की (काफ़िरों की ) हत्या करने की आज्ञा देता है।  कुरान में स्पष्ट लिखा है, "Kill the infidels if they do not become Mohammedans." अर्थात -  'यदिविधर्मी (इन्फिडेल) इसलाम इसलाम ग्रहण न करें तो उन्हें मार डालो। उन्हें तलवार और आग के घाट उतार दो। ' मुसलमान धर्म के इस आदेश के ऊपर मान लीजिये एक ईसाई ने कुछ दोषारोपण किया। इस पर मुसलमान स्वभावतः पूछेंगे, "तुम कैसे जानते हो कि यह अच्छा है या बुरा? हमारा प्राचीन धर्मग्रन्थ तो यही कहता है, कि यह सत्कार्य है। " और वह मुसलमान अपने धर्मग्रन्थ के प्राचीन होने का दावा करे,तो बौद्ध लोग कहेंगे कि उनका शास्त्र तुम्हारे से भी पुराना है और हिन्दू कहेंगे कि उनका शास्त्र सभी की अपेक्षा प्राचीनतम है। अतएव शास्त्र की दोहाई देने से काम नहीं चल सकता। [इस्लाम का उदय सातवीं सदी में अरब प्रायद्वीप में हुआ। इसके संस्थापक मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का जन्म 570 ईस्वी में मक्का में हुआ था। लगभग 1400 साल पहले 613 इस्वी के आसपास मुहम्मद साहब ने लोगों को अपने ज्ञान का उपदेश देना आरंभ किया था।]  

>>>समस्त धर्मों का तुलनात्मक अध्यन> (comparative study of all religions) : 

वह प्रतिमान आदर्श (standard) कहाँ है, जिसके आधार पर तुम अन्य सब धर्मों का तुलनात्मक अध्यन कर सको? ”ईसाई कहेंगे, ईसा का 'शैलोपदेश' (sermon on the mount) देखो। मुसलमान कहेंगे, 'कुरान का नीतिशास्त्र ' देखिये। मुसलमान कहेंगे, इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है, इसका निर्णय कौन करेगा, कौन मध्यस्थ बनेगा? बाइबिल और कुरान में जब विवाद है तो यह निश्चय है कि उन दोनों में से तो कोई मध्यस्थ नहीं बन सकता। कोई स्वतन्त्र व्यक्ति उनका मध्यस्थ हो तो अच्छा हो। यह कार्य किसी ग्रन्थ द्वारा नहीं हो सकता, किसी सार्वभौमिक तत्व के द्वारा ही हो सकता है। बुद्धि (युक्ति) की अपेक्षा अधिक सार्वभौमिक पदार्थ और कोई नहीं है। लेकिन यह भी कहा जाता है कि, बुद्धि मन की सीमा से परे नहीं जा सकती, इससे सत्य की प्राप्त में सदैव सहायता नहीं मिलती। अनेक समय उसके द्वारा भूल भी हो जाती है, अतः कुछ लोगों का सिद्धान्त है कि किसी न किसी धर्मसंघ की प्रमाणिकता में , या पुरोहित सम्प्रदाय के शासन में विश्वास करना चाहिए। ऐसा मुझसे एक बार एक रोमन कैथलिक ने कहा था। किन्तु मेरी समझ में यह युक्ति नहीं आयी। 

मैं कहूँगा कि यदि बुद्धि ही दुर्बल हो , तो पुरोहित सम्प्रदाय और भी दुर्बल होंगे। मैं उन लोगों की बात सुनने की अपेक्षा बुद्धि की बात सुनना अधिक पसन्द करूंगा। क्योंकि, बुद्धि में चाहे जितना दोष क्यों न हो, उसके माध्यम से कुछ न कुछ सत्यलाभ की सम्भावना तो है, किन्तु दूसरी ओर तो किसी सत्य को पाने की सम्भावना ही नहीं है।  

>>> Let men think. अ>तएव हम लोगों को बुद्धि  का अनुसरण करना चाहिए और उन लोगों से जो बुद्धि का अनुसरण कर के भी किसी विश्वास को अपना नहीं पाते, उनके साथ हम लोगों को सहानुभूति रखनी चाहिए। कारण, किसी के मत में मत मिलाकर,  बीसलाख देवताओं में विश्वास करने की अपेक्षा बुद्धि का अनुसरण करके नास्तिक होना अच्छा है।  हम चाहते हैं प्रगति, विकास और सत्य का साक्षात्कार,(realisation) प्रत्यक्ष अनुभव। किसी मत का अवलम्बन करके ही मनुष्य आज तक कभी ऊँचा श्रेष्ठ नहीं उठा। हजारों शास्त्र भी हम लोगों को पवित्र करने में सहायता नहीं कर सकते। ऐसा होने की एकमात्र शक्ति हम लोगों के अन्दर ही है। प्रत्यक्ष अनुभव ही हम लोगों को पवित्र बनाने में सहायक होता है और यह आत्मानुभूति केवल मनन (श्रवण-मनन-निदिध्यासन) द्वारा ही हो सकता है। मनुष्य चिन्तन करे। 

मिट्टी का लोंदा (clod of earth) कभी चिन्तन नहीं कर सकता। मान लीजिये, उसने सभी के मत पर विश्वास कर लिया, पर वह सदा के लिए मिट्टी का ढेला मात्र ही रह जाता है। किन्तु मनुष्य की गरिमा उसकी मननशीलता के कारण है, पशुओं से हम इसी बात में भिन्न हैं। यह मनन करना मनुष्य का स्वभाव सिद्ध धर्म है। अतएव हम लोगों को अपने मन को चिन्तनशील अवश्य बनाना पड़ेगा। इसीलिए मैं बुद्धि में विश्वास करता हूँ और बुद्धि का ही अनुसरण करता हूँ। केवल प्रवचन देने वाले व्यक्ति के वचनों में विश्वास करने से क्या अनिष्ट होता है ? यह मैं विशेष रूप से देख चुका हूँ, क्योंकि मैं जिस देश में पैदा हुआ हूँ वहाँ तो आप्त वचनों में विश्वास करने की पराकाष्ठा है। 

हिन्दू लोग विश्वास करते हैं कि वेदों से जगत की सृष्टि हुई है। उदाहरणार्थ एक गाय है, यह कैसे जाना? उत्तर है, 'गो' शब्द वेद में है, इसलिए। इसी प्रकार मनुष्य है, यह कैसे जाना? उत्तर आता है कि वेदों में 'मनुष्य' शब्द आया है। यदि यह शब्द वेदों में नहीं होता, तो बाह्यजगत में मनुष्य भी नहीं होता। वे यही कहते हैं। हिन्दू  लोगों की यह विश्वास की पराकाष्ठा है। मैंने जिस प्रकार इसका अध्यन किया है , उस प्रकार से इसका अध्यन नहीं होता। कुछ परम् तीक्ष्ण-बुद्धि व्यक्तियों ने इसको लेकर कुछ अपूर्व दार्शनिक तत्त्व ढूंढ़ निकाले हैं;  और हजारों बुद्धिमान व्यक्तियों ने हजारों वर्ष तक इसी सिद्धान्त को पुष्ट करने के आन्दोलन में समय बिताया है। आप्त वचनो में विश्वास में जितनी शक्ति है उसमें, खतरा भी उतनी ही बड़ा है। वह मनुष्य जाति की उन्नति रोक देता है। और हम लोगों को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि उन्नति करना ही हमारा लक्ष्य है। सम्पूर्ण आपेक्षिक सत्यानुसन्धान में भी सत्य की अपेक्षा हमारे मन की क्रियाशीलता ही अधिक आवश्यक है। 'मनन' ही मनुष्य का जीवन है। 

अद्वैतमत में यही गुण है कि सभी सम्भाव्य धार्मिक परिकल्पनाओं में यह सर्वाधिक बुद्धि-संगत है। अनेक धर्ममतों के बीच यही मत अधिकांश में निस्सन्देह रूप से प्रमाणित किया जा सकता है। और अन्य सब परिकल्पनायें - ईश्वर की आंशिक और सगुण धारणाएँ युक्तियुक्त नहीं हैं। तथापि, उसको यह गौरव प्राप्त है कि यह इन आंशिक धारणाएँ को बहुतों के लिए आवश्यक स्वीकार करता है। अनेक लोग कहते रहते हैं कि यह सगुणवाद अयौक्तिक (irrational) है, किन्तु वह है बड़ा शान्तिदायक। उन लोगों को धर्म तो सान्त्वना देनेवाला चाहिए, और हम लोग भी समझ सकते हैं कि उनके लिए इसकी जरूरत है। बहुत कम लोग सत्य का निर्मल प्रकाश सहन कर सकते हैं, (एथेंस का सत्यार्थी देवकुलिश भी उस सत्य का दर्शन करके अँधा हो गया था !!) उसके अनुसार जीवन बिताना तो बहुत दूर की बात है। अतएव इस सान्त्वना देनेवाले धर्म की भी आवश्यकता है; समय आने पर यही बहुतों को उच्चतर धर्मलाभ में सहायता करता है। 

जिस क्षुद्र मन की परिधि सीमित है और छोटी छोटी नगण्य वस्तुएँ जिस मन की मनन सामग्री हैं, वह मन कभी उच्च विचार क्षेत्र में विचरण करने का साहस नहीं कर सकता। और जो विचार-जगत में ऊँची उड़ाने भरने का साहस नहीं कर सकते , ऐसे छोटे छोटे देवताओं और प्रतीकों की धारणायें उत्तम और उपकारी हैं। किन्तु तुम्हें (भावी पैगम्बरों को ?) निर्गुणवाद भी समझना होगा, और इस निर्गुणवाद (Impersonal) के आलोक में ही अन्य सिद्धान्तों को समझा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप जान स्टुअर्ट मिल को ही लोजिये। वे ईश्वरका निर्गुणवाद समझते हैं और उसमें विश्वास भी करते हैं- वे कहते हैं, सगुण ईश्वर को प्रमाणित नहीं किया जा सकता, वह असम्भव है। मैं इस विषय में उनके साथ एकमत हूँ; फिर भी, मैं कहता हूँ कि मनुष्य बुद्धि (human intellect) से निर्गुण की जितनी दूर तक धारणा की जा सके, वही सगुण ईश्वर है। और वास्तव में निर्गुण  (Absolute) की इन विभिन्न धारणाओं के सिवाय जगत् में है ही क्या? वह मानो हम लोगों के सामने एक खुली पुस्तक है, और प्रत्येक व्यक्ति एकरूप सी अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उसका पाठ कर रहा है और प्रत्येक को स्वयं ही उसका पाठ करना पड़ता है। 

सभी मनुष्यों की बुद्धि बहुत कुछ एक सी ही है; इसीलिए मनुष्य की बुद्धि में कुछ वस्तुएँ एकरूप सी जान पड़ती हैं। हम और तुम दोनों ही एक कुर्सी देख रहे हैं। इससे यह प्रमाणित हुआ कि हम दोनों के मन के पीछे कोई एक जैसा व्यापक घटक (आत्मा) है। मान लो, कोई दूसरे प्रकार के इन्द्रियोंवाला प्राणी आया; वह हम लोगों की अनुभूत कुर्सी को नहीं देखेगा, किन्तु जितने लोग एक ही प्रकार से संरचित हैं, वे सब एक सा ही रूप देखेंगे। अतएव स्वयं यह जगत् ही निरपेक्ष अपरिणामी पारमार्थिक सत्ता है, और व्यावहारिक सत्ता (M/F) केवल उसके देखे हुए विविध रूप हैं। 

इसका कारण, पहले तो यह है कि व्यावहारिक सत्ता सदा ससीम होती है। हम जानते हैं कि हम जिस किसी व्यावहारिक सत्ता को देखते हैं, अनुभव करते अथवा उसका चिन्तन करते हैं, वह अवश्य ही हमारे ज्ञान के द्वारा सीमाबद्ध या ससीम है। और सगुण ईश्वर के सम्बन्ध में हमारी जैसी धारणा है उससे वह ईश्वर भी व्यावहारिक मात्र है। कार्य-कारण भाव केवल व्यावहारिक जगत् में ही सम्भव है और सगुण ईश्वर को जब मैं जगत् का कारण मानता हूँ , तो अवश्य ही उसे ससीम जैसा मानना ही पड़ेगा। किन्तु फिर भी वह वही [सगुण माँ काली ही] निर्गुण ब्रह्म है। हम लोगों ने पहले ही देखा है कि यह जगत् भी हमारी बुद्धि द्वारा देखा गया वही निर्गुण ब्रह्म मात्र है। यथार्थ में जगत् वही निर्गुण पुरुष मात्र है और हम लोगों की बुद्धि द्वारा उसको नाम-रूप दिये गये हैं। इस टेबिल में जितना सत्य है, वह वही पुरुष है और इस टेबिल की आकृति तथा जो कुछ अन्य बातें हैं, वे सब समान मानव- बुद्धि द्वारा ऊपर से जोड़ी गयी हैं। 

उदाहरणस्वरूप गति का विषय लो । व्यावहारिक सत्ता की वह नित्यसहचरी है। किन्तु वह सार्वभौमिक पारमार्थिक सत्ता के विषय में प्रयुक्त नहीं हो सकती। प्रत्येक क्षुद्र अणु, जगत् के अन्तर्गत प्रत्येक परमाणु, सदैव ही परिवर्तनशील  तथा गति शील है, किन्तु समष्टि रूप से जगत् अपरिणामी है, क्योंकि गति या परिणाम सापेक्षिक पदार्थ मात्र हैं। केवल गतिहीन पदार्थ के साथ तुलना करने पर ही हम गतिशील पदार्थ की बात सोच सकते हैं। गति समझने के लिए दोनों ही पदार्थ आवश्यक हैं।

सम्पूर्ण जगत् की समष्टि एक इकाई के रूप में गतिशील नहीं हो सकती। किसकी अपेक्षा वह गतिशील होगी ? उसमें परिवर्तन होता है, यह भी नहीं कहा जा सकता।  क्योंकि किसकी तुलना में उसका परिणाम हो सकेगा? अतएव वह समष्टि ही निरपेक्ष सत्ता ही है, किन्तु उसके भीतर का प्रत्येक अणु निरन्तर गतिशील और परिवर्तनशील है। वह परिणामी और साथ ही साथ अपरिणामी है। सगुण है और निर्गुण भी है। जगत्, गति एवं ईश्वर के सम्वन्ध में हम लोगों की यही धारणा है, और 'तत्त्वमसि' का भी यही अर्थ है। हमें अपना सच्चा स्वरूप- ब्रह्म -जानना है।

 ससीम, व्यक्ति मनुष्य अपना उत्पत्ति-स्थल भूल जाता है, और अपने को ब्रह्म से नितान्त पृथक समझने लगता है। व्यष्टिकृत और विभेदीकृत सत्ताओं के रूप में (M/F के रूप में) आने पर हम अपना सच्चिदानन्द स्वरूप भूल जाते हैं। अतः अद्वैतवाद हमें मिथ्या विभेदकरण को एकदम से त्याग देने की शिक्षा नहीं देता, वरन उसके यथार्थ रूप को समझकर अनासक्त होने की शिक्षा देता है। 

[विषय भावापन्न जगत् को त्याग करने की शिक्षा नहीं देता, वह क्या है यही समझ लेने को कहता है।  हम लोग जलस्वरूप हैं और यह जल समुद्र से उत्पन्न है, उसकी सत्ता समुद्र के ऊपर निर्भर रहती है, और वास्तव में वह समुद्र ही है— समुद्र का अंश नहीं, सम्पूर्ण समुद्रस्वरूप है, क्योंकि जो अनन्त शक्ति राशि ब्रह्माण्ड में वर्तमान है उसका समुदय ही हमारा तुम्हारा स्वरूप है।हम तुम तथा प्रत्येक अन्य व्यक्ति ही मानो कुछ माध्यम के समान हैं जिनमें से होकर वह अनन्तसत्ता अपने को अभिव्यक्त कर रही है, और यह परिवर्तनसमष्टि जिसे हम 'क्रमविकास' कहते हैं, वास्तव में अनेक रूपों में आत्मा का शक्तिविकास मात्र है, किन्तु अनन्त के इस पार, सान्त जगत में आत्मा की सम्पूर्ण शक्ति प्रकाशित नहीं हो सकती। हम लोग यहाँ कितनी भी शक्ति, कितना ही ज्ञान अथवा कितना ही आनन्द प्राप्त क्यों न करें, इस जगत् में वे सब असम्पूर्ण ही रहेंगे। ]

 हम वस्तुतः वही अनन्त पुरुष या वही आत्मा हैं। हमारा व्यक्तित्व समुद्र की सतह पर उठने वाली तरंगों के सदृश है, जिसमें वह अनन्त सत्ता ही अपने को अभिव्यक्त कर रही है। और यह सम्पूर्ण परिवर्तन-समष्टि , जिसे हमलोग क्रमविकास कहते हैं, अपनी अनंत शक्ति को व्यक्त करने में सचेष्ट , आत्मा के द्वारा सम्पादित होती है। किन्तु हम अनन्त के इस पार कहीं रुक नहीं सकते; हमारे आनन्द, चेतना एवं शक्ति को अनन्त होना ही है। अनन्त सत्ता, अनन्त शक्ति, अनन्त आनन्द हमारा स्वरुप है। हमलोगों को उन्हें उपार्जित नहीं करना है , वे हममें हैं, हमें तो उन्हें केवल अभिव्यक्त मात्र करना है।

>>>नशा शराब में होता, तो नाचती बोतल !  अद्वैतवाद से यही एक महासत्य प्राप्त होता है और इसको समझना बहुत कठिन है। मैं बचपन से देखता आ रहा है कि सभी दुर्बलता की शिक्षा देते आ रहे हैं, जन्म से ही मैं सुनता आ रहा हूँ कि मैं दुर्बल हूँ। अब मेरे लिए अपने भीतर निहित शक्ति का ज्ञान कठिन हो गया है, किन्तु विश्लेषण और विचार द्वारा अपनी अन्तर्निहित शक्ति का ज्ञान होता है , और फिर मैं उसे प्राप्त कर लेता हूँ। 

इस संसार में जितना भी ज्ञान है, वह कहाँ से आया ?  वह ज्ञान हमारे भीतर ही है। क्या बाहर कोई ज्ञान है? नहीं , ज्ञान कभी जड़ में नहीं था, वह सदा मनुष्य के भीतर ही था। किसी ने कभी भी ज्ञान की सृष्टि नहीं की। मनुष्य उसका आविष्कार करता है, उसको भीतर से बाहर लाता है। वह वहीं वर्तमान है। 

यह जो एक कोस तक फैला हुआ विशाल वटवृक्ष है, वह सरसों के बीज के अष्टमांश के समान उस छोटसे बीज में ही था। उसी बीज में ऊर्जा की वह विपुल राशि सन्निहित थी। हम जानते हैं कि एक जीवाणु कोष के भीतर ही अत्यद्भुत प्रखर बुद्धि अप्रकट रूप में विद्यमान है; फिर अनन्त शक्ति उसमें क्यों न रह सकेगी? हम जानते हैं यह सत्य है। पहेली सा लगने पर भी वह सत्य है। हम सभी एक जीवाणु-कोष से उत्पन्न हुए हैं और हम लोगों में जो कुछ भी शक्ति है, वह उसी में कुण्डली-रूप में बैठी थी। तुम लोग यह नहीं कह सकते कि वह खाद्य में से आयी है; ढेर की ढेर खाद्य सामग्री लेकर एक पर्वत बना डालो, किन्तु देखोगे उसमें से कोई शक्ति नहीं निकलती।

 हम लोगों के भीतर शक्ति पहले से ही अव्यक्त भाव में निहित थी, और वह थी अवश्य।  अतएव यही सिद्धान्त निश्चित हुआ कि मनुष्य की आत्मा के भीतर अनन्त शक्ति भरी पड़ी है। मनुष्य उसके सम्बन्ध में जाने भले ही नहीं, परन्तु फिर भी वह है। उसे केवल जानने की ही अपेक्षा है। धीरे धीरे मानो वह अनन्त शक्तिमान दैत्य जाग्रत  होकर अपनी शक्ति का ज्ञान प्राप्त कर रहा है; और जैसे जैसे वह सचेतन होता जाता है, वैसे वैसे एक के बाद एक उसके बन्धन टूटते जाते हैं, शृंखलाएँ छिन्नभिन्न होती जाती हैं; और ऐसा एक दिन अवश्य ही आयगा जब वह अपनी अनन्त शक्ति के पूर्ण ज्ञान के साथ अपने पैरों पर उठ खड़ा होगा। आओ, हम सब लोग उस महिमामयी निष्पत्ति को शीघ्र लाने में सहायता करें।

=======



       

    














 



 



  





=====

>>>४ महावाक्य : महावाक्य कहने से उन उपनिषद वाक्यों का निर्देश माना जाता है, जो स्वरूप में लघु है, परन्तु बहुत गहन विचार समाये हुए है। प्रमुख उपनिषदों के निम्नोक्त वाक्यों  को महावाक्य माना जाता है -

१. "अहं ब्रह्मास्मि "- "मैं ब्रह्म हूँ" ( बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद)

२. "तत्त्वमसि" - "वह ब्रह्म तू है" ( छान्दोग्य उपनिषद ६/८/७- सामवेद )

३. "प्रज्ञानं ब्रह्म" - "वह प्रज्ञानं ही ब्रह्म है" ( ऐतरेय उपनिषद १/२ - ऋग्वेद)

४."अयम् आत्मा ब्रह्म" - "यह आत्मा भी ब्रह्म ही है" ( माण्डूक्य उपनिषद १/२ - अथर्ववेद )

 प्रत्येक वेद से एक ही महावाक्य लेने पर उपरोक्त चार ही महावाक्य माने गए हैं, किन्तु वेद ऐसे कई गूढ़ वाक्यों से भरे पड़े हैं इसलिए इनके अलावा भी कई वाक्यों को महावाक्य या उनके समकक्ष माना गया है। जैसे -"सर्वं खल्विदं ब्रह्मम् "- "सब ब्रह्म ही है" ( छान्दोग्य उपनिषद ३/१४/१- सामवेद ) या जैसे " Be and Make " को भी महामण्डल में 'महावाक्य' माना जाता है।  

 उपनिषदों  के ये महावाक्य निराकार ब्रह्म और उसकी सर्वव्यापकता का परिचय देते हैं। ये सभी  महावाक्य यह उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुःख, जन्म-मरण से परे दिव्यस्वरूप है, अविनाशी आत्मा  है। आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी। जहां-जहां ईश्वर की सृष्टि का आलोक व विस्तार है, वहीं-वहीं उसकी पहुंच है। प्रत्येक जीव  परमात्मा का अंशीभूत आत्मा है। उपनिषद के ये महावाक्य मानव जाति के लिए महाप्राण, महोषधि एवं संजीवनी बूटी के समान हैं, जिन्हें हृदयंगम कर मनुष्य आत्मस्थ (डी-hypnotized)  हो सकता है। और इन महावाक्यों को अपने अनुभव से सत्य जान लेना ही  जीवन का चरम-परम पुरुषार्थ- अर्थात मोक्ष प्राप्त करना है (अर्थात भेंड़त्व से डी-hypnotized होना) है।

ये ४ महावाक्य ब्रह्म को परिभाषित करते हैं और वेद ब्रह्म की चर्चा के ही गीत हैं। इन वैदिक गीतों की व्याख्या में आचर्य शंकर कहते हैं - 

"श्लाकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रंथ कोटिभ:।

 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।। " 

अर्थात् जो अनेक ग्रंथों में लिखा है, उसे मैं आधे श्लोक में यहां कह रहा हूं। ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म ही है, कोई अन्य नहीं।

ब्रह्म पूरी ब्रम्हांड की चेतना (consciousness) का प्रतीक है।  यह सिनेमा के उस परदे की तरह है , जो हमेशा सिनेमा हाल में स्थिर होता है।  इस परदे पर प्रतिदिन अनेक जगत ( चलचित्र) बनते रहते हैं। इस में हमें हीरो ( देवता ) , विलेन (राक्षस ) भी दीखते हैं , उनके कृत्यों पर हम भावुक भी होते हैं , कुछ समय के लिए हम उसी दुनिया में खो जाते हैं। 

तो परदे पर जो लगातार बदल रहा है , वह माया या जगत है।  लेकिन अगर हम उसे छूने की कोशिश करें तो हमारा हाथ परदे को ही छुएगा न कि किसी व्यक्ति या पेड़ पौधे को जो दिखता प्रतीत होता है।  तो यह हो गया 'ब्रह्म सत्यम,जगत मिथ्या' का उदाहरण। 

दूसरा जो भी घटित हो रहा है उसमें ब्रह्म (पर्दा ) हर तरीके से शामिल है , उसके बिना कोई माया घटित नहीं हो सकती है। सभी तरह की माया ( फिल्म ) में पर्दा यानी ब्रह्म शामिल है।  तो परदे में दिखाए गए सभी चित्रों में ब्रम्ह है। तो यह हो गया 'अहम् ब्रम्हास्मि', 'तत्त्वमसि' और 'प्रज्ञानाम ब्रम्ह' अर्थात मैं भी ब्रह्म, तुम भी ब्रह्म,और सब में ब्रह्म है।

हमें ब्रह्म दिखता क्यों नहीं है ?

क्योंकि वह (ब्रह्म या पर्दा) माया रूपी (फिल्म) से आच्छादित है , जैसे ही फिल्म समाप्त होगी , पर्दा ही दिखेगा।  क्योंकि वही एक सनातन सत्य है , फ़िल्में आती जाती रहती हैं। 

हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।

तत्त्वं पूषन्न अपावृणु सत्य-धर्माय दृष्टये।।

- ईशावास्योपनिषद

सोने की थाली (हिरण्यमय पात्र) से सत्य का मुख ढका हुआ है और हम लोग सोने की थाली पर ही प्रलोभित होकर, उसी में संतुष्ट हो गये हैं। किन्तु उस सोने की थाली के पीछे ही वह परम सत्य ( ब्रह्म) है ।

लेकिन कुछ लोग आदि शंकराचार्य की तरह , फिल्म देखते हुए भी यह जानते हैं कि फ़िल्म ( जगत ) एक कल्पना (विवर्त) है, सत्य नहीं (दूध का दही बन जाने जैसा -जगत ब्रह्म का परिणाम नहीं विवर्त है,) पर्दे पर वही फिल्म चल रहा है जैसा जिसे एक निर्देशक ने बनाया है; वे लोग ही अद्वैतवादी हैं।  

=======








 








  







कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें