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शुक्रवार, 7 जून 2024

🔱🕊🏹1. "आत्म-ज्ञान " 🕊🏹 (श्री श्री रामकृष्ण उपदेश" -1, स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित) 🕊🏹स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना की भूमिका 🕊🏹


🔱🕊🏹आत्म-ज्ञान🔱🕊🏹 

['Who am I'] 

(स्वरूप के विषय में जागरूकता)

1. एक संत सदैव परमानंद की अवस्था में रहते थे, किसी से बातचीत नहीं करते थे, लोग उन्हें पागल समझते थे। एक दिन एक भिखारी मोहल्ले में आया और भिक्षान्न लेकर एक कुत्ते पर बैठ कर खुद खाने लगा और कुत्ते को भी खिलाने लगा। यह देखकर बहुत से लोग वहां आ गये और उनमें से कुछ लोग उसे पागल कहकर उसका मजाक उड़ाने लगे। यह देखकर संत ने लोगों से कहा -“तुम लोग क्यों हंस रहे हो?

विष्णुपरि स्थिता विष्णुः,  

विष्णुः खादति विष्णवे। 

कथं हससि रे विष्णो ,

 सर्वं विष्णुमयं जगत्।। 

 একজন সাধু সর্বদা জ্ঞানোন্মাদ-অবস্থায় থাকতেন, কারও সহিত বাক্যালাপ করতেন না, লোকেরা তাঁকে পাগল বলে জানত। একদিন লোকালয়ে এসে ভিক্ষা করে এনে একটা কুকুরের উপর বসে সেই ভিক্ষান্ন নিজে খেতে লাগলেন ও কুকুরকে খাওয়াতে লাগলেন। তাই দেখে অনেক লোক সেখানে এসে উপস্থিত হল এবং তাদের মধ্যে কেউ কেউ তাঁকে পাগল বলে উপহাস করতে লাগল। এই দেখে সেই সাধু লোকদিগকে বলতে লাগলেন, "তোমরা হাসছ কেন?

বিষ্ণূপরি স্থিতো বিষ্ণুঃ, 

বিষ্ণুঃ খাদতি বিষ্ণবে।

কথং হসসি রে বিষ্ণো,

                                          সর্বং বিষ্ণুময়ং জগৎ।"

2.  मनुष्य  यदि स्वयं को जान ले तो वह ईश्वर को भी जान सकता है। 'मैं कौन हूं' ('Who am 'I'= 3H's) की सावधानीपूर्वक जांच करने पर पता चलता है कि 'मैं' जैसी कोई चीज नहीं है।  हाथ पैर, रक्त, मांस आदि - इनमें से 'मैं' क्या है? जैसे प्याज को छीलने पर केवल छिलका ही निकलता है, कोई सार वस्तु नहीं होता; उसी प्रकार 'नेति-नेति' विचार करने पर 'मैं' नाम की कोई चीज़ नहीं होती! अंत में जो बचता है, आत्मा-चैतन्य (Consciousness) है। जैसे ही 'मैं' और 'मेरा' का भाव (अहं बोध) लुप्त हो जाता है, तो भगवान (सच्चिदानन्द) प्रकट हो जाते हैं।

2। মানুষ আপনাকে চিনতে পারলে ভগবানকে চিনতে পারে। 'আমি কে' ভালরূপ বিচার করলে দেখতে পাওয়া যায়, 'আমি' বলে কোন জিনিস নেই। হাত, পা, রক্ত, মাংস ইত্যাদি - এর কোনটা 'আমি'? যেমন প্যাঁজের খোসা ছাড়াতে ছাড়াতে কেবল খোসাই বেরোয়, সার কিছু থাকে না, সেইরূপ বিচার কল্লে 'আমি' বলে কিছুই পাইনে! শেষে যা থাকে, তাই আত্মা - চৈতন্য। 'আমার' 'আমিত্ব' দূর হলে ভগবান্ দেখা দেন।

3. 'मैं' (अहं) दो प्रकार का होता है - एक है पका हुआ 'मैं' ( ripe ego ) और दूसरा है कच्चा (raw ego) 'मैं'मेरा घर, मेरा परिवार, मेरा बेटा - ये कच्चा 'मैं' (raw-अप्रशिक्षित, बिना उबाला हुआ) हैं। और पका हुआ (ripe ego- परिपक्व,सिद्ध या उबाला हुआ) 'मैं' है - मैं उनका सेवक हूं, मैं उनकी संतान हूं, और मैं 'वही' नित्य-मुक्त-ज्ञानस्वरूप (ब्रह्म -माँ जगदम्बा) हूं।

[चार महावाक्य में से पहला है -ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि  ! इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से ब्रह्म (ध्येय) और जीव (ध्याता) की एकता का बोध होता है। जब जीव (ध्याता) परमात्मा (ध्येय -ब्रह्म या माँ काली) का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्मास्मि' कह उठता है।" (साभार -महावाक्य, विकिपीडिया)]

3. দুই রকম 'আমি' আছে - একটা পাকা 'আমি' আর একটা কাঁচা। আমার বাড়ি, আমার ঘর, আমার ছেলে - এগুলো কাঁচা 'আমি'; আর পাকা 'আমি' হচ্ছে - আমি তাঁর দাস, আমি তাঁর সন্তান, আর আমি সেই নিত্য-মুক্ত-জ্ঞানস্বরূপ।

4. किसी व्यक्ति ने श्रीरामकृष्ण से पूछा, " मुझे एक शब्द से ज्ञान हो जाये, ऐसा कोई उपदेश दीजिये। " उन्होंने कहा - " ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या" - इसकी धारणा करो। " इतना कहकर वे चुप हो गए।   

4। এক ব্যক্তি তাঁকে বলেছিলেন, "আমার এক কথায় জ্ঞান হয়, এমত উপদেশ দিন।" তিনি বললেন, "'ব্রহ্ম সত্য জগৎ মিথ্যা' - এইটি ধারণা কর।" ইহা বলিয়া চুপ করিয়া রহিলেন।

5. शरीर रहने तक 'मैं-पन' या मेरापन का भाव बिल्कुल समाप्त नहीं होता, कुछ-न-कुछ बचा ही रहता है। जैसे नारियल के पेड़ की पत्तियाँ झड़ जाती हैं, लेकिन दाग रह जाते हैं। किन्तु यह छोटा सा 'मैं-पन' (समाधि से लौटा हुए अद्वैत बोधजन्य अहिंसा में प्रतिष्ठित मैंपन) मुक्त पुरुष (dehypnotized-सिंहशावक या साक्षी आत्मा) को मन की गुलामी (M/F शरीर भाव मैं और मेरा की आसक्ति) में बाँध नहीं सकता।     

5। শরীর থাকতে আমার 'আমিত্ব' একেবারে যায় না, একটু-না-একটু থাকেই; যেমন নারিকেল গাছের বালতো খসে যায়, কিন্তু দাগ থাকে। কিন্তু এই সামান্য 'আমিত্ব' মুক্ত পুরুষকে আবদ্ধ করতে পারে না।

6. परमहंसदेव ने नागा संन्यासी तोतापुरी से पूछा, "आपके मन की जो अवस्था है , उस सिद्धा-वस्था में में दैनिक ध्यान करना क्या आवश्यक है?" तोतापुरी ने उत्तर दिया, " यदि लोटे को प्रतिदिन माँजा नहीं जाये तो वह मलीन हो जाता है, उसी तरह नियमित ध्यान नहीं करने से चित्त (मन-अहं-बुद्धि) अपवित्र हो जाता है। इसके उत्तर में परमहंसदेव ने कहा, " यदि लोटा सोना का हो, तो वह मलीन नहीं होता।" अर्थात यदि आपको सच्चिदानंद स्वरुप की अनुभूति हो जाए तो आगे की साधना (यम-नियम 24 X 7 और आसन-पत्याहार -धारणा दो बार करने) की कोई आवश्यकता नहीं है।

6. নেংটা তোতাপুরীকে পরমহংসদেব জিজ্ঞাসা করেছিলেন, "তোমার যে অবস্থা তাতে রোজ ধ্যান করার আবশ্যক কি?" তোতাপুরী উত্তরে বলেছিলেন, "ঘটি যদি রোজ রোজ না মাজা যায়, তা হলে কলঙ্ক পড়ে। নিত্য ধ্যান না করলে চিত্ত অশুদ্ধ হয়।" পরমহংসদেব উত্তরে বল্লেন, "যদি সোনার ঘটি হয়, তা হলে পড়ে না।" অর্থাৎ সচ্চিদানন্দ লাভ করলে আর সাধনের দরকার নেই।

7. वेदान्त सार -"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" या इस अंतिम निष्कर्ष (conclusion) " जो कुछ है, सो तूँ ही है" पर दो प्रकार से पहुँचना होगा - अनुलोम और बिलोम। "जेमन खोलारई माझा ओ माझेरई खोल।"   

7. বিচার দুই প্রকার জানবে - অনুলোম ও বিলোম। যেমন খোলেরই মাঝ ও মাঝেরই খোল। 

[ ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः। अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः॥ [Brahman is real, the universe is mithya (it cannot be categorized as either real or unreal). The jiva is Brahman itself and not different. This should be understood as the correct Sastra. This is proclaimed by Vedanta.

      ब्रह्म सत्य है, ब्रह्मांड मिथ्या है (क्योंकि नित्य परिवर्तनशील होने के कारण इसे सत्य  या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।) जीव ही ब्रह्म है, उससे अलग नहीं है। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है। इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए।  इस घोषित निष्कर्ष ~ "जो कुछ है, सो तूँ ही है" पर [या वेदान्त सार -"ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" या अंतिम निर्णय (conclusion] - इस निष्कर्ष पर ] दो प्रकार से पहुँचा जाता है - अनुलोम और विलोम।  छत पर चढ़ते समय "नेति-नेति " और बाद में उतरते समय "इति -इति"।  जिस  'बालू और सीमेंट' से छत बनी है, उसीकी सीढ़ियाँ भी बनी हुई हैं !  ] 

8. जब तक (शरीर रहने तक?) 'मैं-पन' (अहं) का भाव है, तब तक 'तूँ' भाव भी रहेगा। जैसे जिसको प्रकाश का ज्ञान है, उसको अन्धकार का ज्ञान भी रहता है, जिसे पाप का ज्ञान है, उसे पुण्य का भी ज्ञान है; जिसके पास अच्छी समझ (good sense) है उसके पास बुरी समझ (bad sense) भी है।

8। 'আমি'-বোধ থাকলে 'তুমি'-বোধও থাকবে। যেমন যার আলো জ্ঞান আছে, তার অন্ধকার জ্ঞানও আছে; যার পাপ জ্ঞান আছে, তার পুণ্য জ্ঞানও আছে; যার ভাল বোধ আছে, তার মন্দ বোধও আছে।

9. जिस प्रकार अपने पैरों में जूते पहनकर  कोई व्यक्ति  आसानी से कांटों पर चल सकता है, उसी प्रकार हमारा मन तत्वज्ञान का आवरण (दासोऽहं) पहनकर इस कांटों भरी दुनिया में घूम सकता है।

9. যেমন পায়ে জুতা পরা থাকলে লোকে স্বচ্ছন্দে কাঁটার ওপর দিয়ে চলে যায়, তেমনি তত্ত্বজ্ঞানরূপ আবরণ পরে মন এই কণ্টকময় সংসারে বিচরণ করতে পারে।

 http://srisriramakrishnaupadesh.blogspot.com/2018/]

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[स्वामी ब्रह्मानंद द्वारा संकलित "श्री श्री रामकृष्ण उपदेश" ~ आत्म-ज्ञान, ईश्वर, माया, अवतार, जीवों की विभिन्न अवस्थाएँ, गुरु-नेता -जीवनमुक्त शिक्षक, धर्म धारणा करने (उपलब्धि करने) की वस्तु है, अध्ययन या सत्य-मिथ्या निर्णय की वस्तु नहीं, संसार और साधना, साधना के अधिकारी, विभिन्न प्रकार की साधना, उत्तम -अधम भक्त, साधना में बाधक तत्व, साधना में सहायक तत्व, साधना में अध्यवसाय /दृढ़ता, व्याकुलता -सिर्फ सत्य को चुनने की व्याकुलता, भक्ति और भाव(विचार), ध्यान, 3H -अभ्यास और आहार, भगवान की कृपा, सिद्ध अवस्था, सर्वधर्म-समन्वय, कर्मफल का नियम, युगधर्म, धर्मप्रचारक का जीवन, विविध।

[सूर्य ने अँधेरा देखा ही नहीं है। आत्मा ने मृत्यु देखा ही नहीं है ! 

ॐ नमः श्री यति राजाय विवेकानन्द सूरये। 

सत्चित् - सुख स्वरूपाय, स्वामिने तापहारिने !!

अर्थ:1: ॐ, संन्यासियों के राजा, स्वामी विवेकानन्द  (जो) सूर्य की तरह चमकते हैं। 2: जो सच्चिदानन्द (ब्रह्म) के आनंद की प्रकृति वाले हैं; (उन सुख स्वरूप स्वामी विवेकानन्द को) नमस्कार है, जो सांसारिक जीवन के दुखों को दूर करते हैं।]

 मिलजुल कर एक साथ रहेंगे, और बढ़ेगी एकता,

 उद्देश्य हमारा देश की सेवा, विवेकानन्द हमारे नेता -3 !!!  

[🔱🙏अल्मोड़ा का आकर्षण - महामण्डल ब्लॉग बुधवार, 13 मई 2020/ 

"जिनके ओजस्वी वचनों से, गूँज उठा था विश्व गगन !

वही प्रेरणा पुंज हमारे, स्वामी पूज्य विवेकानन्द - 3 !!! साभार - Amit Agrawal/]

🕊🏹श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के प्रेरक जीवन-प्रसंग 🕊🏹

 1. जो सिर्फ सत्य को चुनेगा, सत्य उसे ही चुनेगा।

 ज्ञातुं द्रष्टु च तत्त्वेन प्रवेष्टुं : "निवृत्ति अस्तु महाफला" को समझकर बुरी आदतों को त्याग देना महाफलदायी होता है को समझ कर जो व्यक्ति जगत की तीनों ऐषणाओं (कामिनी- कांचन और नाम-यश) में आसक्ति को पूर्णतः त्याग देगा या अनासक्त हो जायेगा, और सिर्फ सत्य (ईश्वर) को चुनेगा, सत्य उसी को चुनेगा। 
 
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌ ॥

(–मुण्डकोपनिषद् ,तृतीयो मुण्डकः,द्वितीयः खण्डः,मन्त्र-3) 

अन्वय: - अयम् आत्मा प्रवचनेन न लभ्यः। न मेधया न बहुधा श्रुतेन। एषः यं एव वॄणुते तेन लभ्यः। तस्य एषः आत्मा त्वां तनूं विवृणुते ॥
अर्थात् यह 'आत्मा' प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं हैं, न ही मेधा (बुद्धि)-शक्ति और न शास्त्रों को बहुत अधिक जानने-सुनने से प्राप्य है। केवल वही 'उसे' प्राप्त कर सकता है जिसका 'यह वरण करता है; केवल उसके प्रति ही यह 'आत्मा' अपने स्वरूप का उद्घाटन करता है।
न अयम आत्मा, "प्रवचनेन लभ्यो", प्रवचन से नहीं मिलती। “न मेधया”- दूसरे से प्रवचन सुन कर नहीं मिलेगी, और अपनी मेधा से नहीं मिलेगी, अपनी बुद्धि से नहीं मिलेगी। “न बहुना श्रुतेन”- सुनलो कितना सुन सकते हो, नहीं मिलेगी। सारी श्रुतियाँ पढ़ डालो तो भी नहीं मिलेगी। किसको मिलती है? उसको जिसको ये चुनती है।

 तात्पर्य यह है कि जिसने भौतिक इच्छाओं (ऐषणाओं) से मुक्ति पा ली हो और जिसके मन में केवल उस परमात्मा के स्वरूप को (इन्द्रियातीत सत्य को)  जानने की लालसा शेष रह गयी हो वही उस ज्ञान का हकदार है । जो एहिक सुख-दुःखों, और नाते-रिश्तों, क्रियाकलापों, में उलझा हो उसे वह आत्मज्ञान (इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान) नहीं प्राप्त हो सकता है । जिस व्यक्ति का भौतिक संसार से मोह समाप्त हो चला हो वस्तुतः वही कर्मफलों से मुक्त हो जाता है और उसका ही परब्रह्म से साक्षात्कार होता है।
स्वामी रामानुज अपने भाष्य में कहते हैं - स्मरण किया जाने वाला विषय अत्यन्त प्रिय होने से जो स्वयं भी अत्यन्त प्रियरूप है, ऐसे चिन्तन के प्रवाह को ही उपासना कहा गया है। उसी को ‘भक्ति’ कहते हैं। ‘उसी को इस प्रकार जानने वाला- विद्वान् यहाँ अर्मत हो जाता है।’ 
" भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। 
 ज्ञातुं द्रष्टु च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।।’ (गीता, 11/53-54) 
।।11.54।। परन्तु हे शत्रुतापन अर्जुन ! इस प्रकार (चतुर्भुज-रूप वाला) मैं अनन्य भक्ति से ही तत्त्व से जानने में, सगुणरूप से देखने में और प्राप्त करने में शक्य हूँ।
जिन तीन क्रमिक सोपानों में सत्य का साक्षात्कार होता है उसका निर्देश भगवान् इन तीन शब्दों से करते हैं जानना, देखना और प्रवेश करना
      जिसे यहां जानना शब्द से सूचित किया गया है और इसका साधन है श्रवण। इस प्रकार कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेने पर मन में सन्देह उत्पन्न होते हैं, इन सन्देहों की निवृत्ति के लिए प्राप्त ज्ञान पर युक्तिपूर्वक मनन करना अत्यावश्यक होता है । सन्देहों की निवृत्ति होने पर तत्त्व का दर्शन होता है। तत्पश्चात् निदिध्यासन के अभ्यास से (विवेक-दर्शन का अभ्यास से) मिथ्या उपाधियों के साथ तादात्म्य को सर्वथा त्यागकर आत्मस्वरूप के साथ एकरूप हो जाना ही उसमें प्रवेश करना है। आत्मा का यह अनुभव स्वयं से भिन्न किसी वस्तु का नहीं वरन् अपने स्वस्वरूप का है। प्रवेश (प्रवेष्टुं) शब्द से साधक और साध्य के एकत्व का बोध कराया गया है। स्वप्नद्रष्टा के स्वाप्निक दुखों का अन्त, तब हो जाता है, जब वह जाग्रत पुरुष में प्रवेश करके स्वयं जाग्रत पुरुष बन जाता है। 
*ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का समन्वय*
कुछ अध्यात्मवाद के साधक (बौद्ध लोग?-अवतार ?) आत्मज्ञान को ही चरम लक्ष्य मानते हैं। जिस प्रकार जल की बूंद महासागर का लघु अंश होती है ठीक इसी प्रकार से आत्म ज्ञान, ब्रह्म ज्ञान का छोटा सा अंश है। वे जिन्हें बूंद का ज्ञान होता है, उनके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे महासागर की गहराई चौड़ाई और शक्ति  को जान सकें। समान रूप से जो आत्मा को समझ लेते हैं, उनके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वे भगवान (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस देव) को  भी जान सकते हैं। वे जिन्हें भगवान का ज्ञान  हो जाता है उन्हें स्वतः वह सब ज्ञान हो जाता है जो भगवान से संबंधित हैं। 

प्रिय के साथ तादात्म्य ही प्रेम का वास्तविक मापदण्ड है। भक्त अपने व्यक्तिगत जीवभाव (M/F)  के अस्तित्व को विस्मृत कर, जब प्रेम में अपने प्रिय भगवान् के साथ तादात्म्य को प्राप्त हो जाता है, तब उस प्रेम की परिसमाप्ति परा-भक्ति या अनन्य भक्ति कहलाती है। 
      "भगवान (अर्थात विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ) को न तो आध्यात्मिक उपदेशों, बुद्धि और न ही विभिन्न प्रकार की शिक्षाओं को सुनकर जाना जा सकता है। भगवान (ठाकुर , माँ और स्वामीजी)जब किसी पर अपनी कृपा करते हैं , तब केवल वही भाग्यशाली आत्मा उन्हें जान पाती है। " जब कोई भगवान का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तब वह भगवान  के संबंध में सब कुछ जान लेता है। वेदों में भी उल्लेख किया गया है- “एकस्मिन् विजन्नाते सर्वमिदं विजन्नातं भवति" अर्थात “यदि तुम भगवान (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण)  को जान जाते हो तब तुम सब कुछ जान जाओगे।" 

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 🕊🏹 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 🕊🏹

(Swami Vivekananda and our Potential)

(স্বামী বিবেকানন্দ ও আমাদের সম্ভাবনা) 

प्रकाशक का निवेदन : 

महामंडल के संस्थापक सचिव, श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय द्वारा  मूल रूप से बंगाली और अंग्रेजी में लिखित महामंडल की पुस्तकों और पुस्तिकाओं तथा  इसकी द्विभाषी मासिक पत्रिका - 'विवेक-जीवन' को हिंदी में अनुवाद और प्रकाशित करने का काम  झुमरीतिलैया विवेकानंद युवा महामंडल के स्थायी प्रतिनिधि (पीआर) श्री विजय कुमार सिंह  को वर्ष 1988 में सौंपा गया था। 

श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय द्वारा मूल बंगला और अंग्रेजी में लिखित महामण्डल की समस्त पुस्तक -पुस्तिकाओं का हिन्दी में अनुवाद करने के फलस्वरूप इसके अनुवादक को यह अनुभव हुआ कि  "मनुष्य बनो और बनाओ " ( Be and Make)  सर्वोत्तम समाज सेवा है। तथा  'स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' (স্বামী বিবেকানন্দ ও আমাদের সম্ভাবনা ) पुस्तक में इस सर्वोत्तम समाज सेवा करने की पात्रता अर्जित करने के उपाय को बहुत सुन्दर ढंग से समझाया गया है। 

       वास्तव में यह एक अद्भुत प्रेरणादायक पुस्तक है जिसे हर किसी को पढ़ना चाहिए। क्योंकि महामण्डल के आविर्भूत होने से पहले यह कोई नहीं जानता था कि स्वामी विवेकानन्द ने संन्यासियों के लिए जैसे रामकृष्ण मठ और मिशन का आदर्शवाक्य - Motto " आत्मनो मोक्षार्थं जगत हिताय च " दिया था।  

      उसी प्रकार उन्होंने सुदूर भविष्य में  गृहस्थों के लिए गठित होने वाले (25 अक्टूबर, 1967 को गठित होने वाले) युवा महामण्डल के आदर्शवाक्य को भी बहुत पहले ही इस प्रकार लिख दिया था-"पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। ततपश्चात दूसरों को (मनुष्य- 100 % निःस्वार्थपर) बनाने में सहायता देंगे।  बनो और बनाओ - 'Be and Make' यही हमारा मूलमंत्र रहे।"('विवेकानन्द साहित्य' खण्ड-9, पृष्ठ 379)  

       इन दो छोटे-छोटे शब्दों को ही 10 खण्डों में संचित स्वामी विवेकानन्द का सम्पूर्ण कार्य  (Complete Works of Swami Vivekananda) का सारांश क्यों कहा जा सकता है। इसी बात को महामण्डल के संस्थापक सचिव पूज्य नवनीहरन मुखोपाध्याय द्वारा लिखित पुस्तक "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " (স্বামী বিবেকানন্দ ও আমাদের সম্ভাবনা) में बहुत सुन्दर ढंग से समझाया गया है। गहराई से देखा जाये तो यह पुस्तक सभी युवाओं के लिए गीता -उपनिषद, कुरान या बाइबिल जैसी पवित्र पुस्तक प्रतीत होती है। 

 महामण्डल के समस्त हिन्दी पुस्तिकाओं के अनुवादक जब इस पुस्तक में छपे विभिन्न लेखों का अनुवाद कर रहे थे,  तब इसमें समाहित लेखों को पढ़ने के बाद यह महसूस किये कि इस पुस्तक में,  मानवजाति और पूरे समाज की उन्नति के लिए- " विशेष रूप से हिन्दी भाषी क्षेत्र की अधिकांश जनता जो अभी तक स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस,  स्वामीजी की गुरुमाता श्रीश्री माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द के बाकी गुरुभाइयों से अभी तक परिचित नहीं हो सके हैं ' उन सबों की उन्नति के लिए - इस पुस्तक में ऐसी अमूल्य जीवन-दायिनी सामग्री है जिसे शीघ्रातिशीघ्र प्रकाशित करने की आवश्यकता है। इस महती आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए 'झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल' ने इसे प्रकाशित करने का निर्णय लिया है ।  किन्तु पुस्तक की मोटाई और आर्थिक अभाव को देखते हुए इसे प्रकाशित करना सम्भव नहीं हो पा रहा था , अतएव महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय से अनुमति लेकर इसे खण्डों में प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया ताकि यह आसानी से छपता रहे और छात्र-छात्राओं को भी कम मूल्य पर प्राप्त होता रहे। 

इस पुस्तक में दस अध्याय और एक परिशिष्ट में कुल 75 निबन्ध समाहित हैं -  

1. स्वामी विवेकानन्द - प्रेरणास्पद व्यक्तित्व एवं एकाग्र मन ( Swami Vivekananda – Inspirational personality and concentrated mind.)

2. समस्या और समाधान ( Problem and solution )

3.स्वामी विवेकानन्द एवं युवा समाज (Swami Vivekananda and youth) 

4.शिक्षा ही सभी रोगों का इलाज है (Education is the cure for all diseases)

5.धर्म और समाज (Religion and Society)

6. जीवन गठन की सामग्री (Ingredients of life building) 

7. व्यावहारिक जीवन में अध्यात्म (Spirituality in practical life) 

8. मानव मस्तिष्क (Human mind/ brain) 

9. समाज और सेवा (Society and Service) 

10. विश्व मानव जाति के कल्याण के लिए भारत का कल्याण (The welfare of India for the welfare of  world mankind) 

11. परिशिष्ट (Appendix)  - एक नया युवा आन्दोलन (A New Youth Movement)

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"जनगणेर अधिकार " (सामन्य जनता के अधिकार) प्रथम संस्करण -जनवरी 1971, सप्तम पुनर्मुद्रण -जून 2011: पुस्तक प्राप्ति स्थान : अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल , 6/1 A, जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो, कोलकाता, उद्बोधन, अद्वैत आश्रम, बेलुड़ मठ इत्यादि। 

प्रकाशक का निवेदन - 

इस संकलन का उद्देश्य आम जनता को स्वामी विवेकानन्द के समाजवादी विचारधारा से परिचित कराना है। (कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में) स्वतंत्र भारतवर्ष ने समाजवाद को अपने राष्ट्रीय लक्ष्य के रूप में अपनाया है। भारत भूमि पर यदि समाजवाद को सचमुच सफल करना चाहते हों तो,हमें  भारत -आत्मा की प्रतिमूर्ति स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा का अनुसरण करना होगा। 'সমাজতান্ত্রিক চিন্তার ক্ষেত্রে স্বামীজী ভারতে পথিকৃৎ।' भारत में समाजवादी विचारधारा के अग्रदूत (pioneer) थे - स्वामी विवेकानन्द। 

     यह संचयन (collection,संग्रह) सबसे पहले श्री लक्ष्मीकांत बराल, श्री बिमल घोष, श्री विश्वनाथ बोस और श्री शंकरीप्रसाद बोस द्वारा संकलित और प्रकाशित किया गया था। दूसरा संस्करण भी उनके द्वारा ही किया गया है।

इस पुस्तिका के कवर पृष्ठ पर भगिनी निवेदिता द्वारा परिकल्पित (designed) और 'वज्र निशान अंकित' जो राष्ट्रीय ध्वज बनाया गया है, उसकी चित्रकारी श्री नित्यानन्द भकत द्वारा की गयी है। निवेदिता वज्र को पूर्ण आत्म-बलिदान का (100 % निःस्वार्थपरता का) प्रतीक-चिन्ह मानती थीं। 

      क्योंकि इस संचयन का उद्देश्य स्वामीजी के शक्तिदायी विचारों का प्रचार-प्रसार करना था इसीलिए प्रथम संस्करण की कीमत बहुत कम रखी गयी थी। इसलिए प्रथम संस्करण की पाँच हजार प्रतियाँ बहुत कम समय में समाप्त हो गईं। [दीपक दा ने स्वामी स्मरणानन्द की स्मरण सभा में इस बात का उल्लेख करते हुए बताया कि -बेलुड़ मठ द्वारा प्रकाशित संचयन - "स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्र को आह्वान" का मूल्य 25 पैसा रखा गया था और चीन के चेयर मैन की 'लाल किताब' के जवाब में महामण्डल द्वारा प्रकाशित 'जनगणेर अधिकार' का मूल्य आठ आना रखा गया था।] इसी उद्देश्य से, दूसरे संस्करण की कीमत भी कम कर दी गई है, हालांकि आकार बढ़ा दिया गया है और पुस्तक की पंक्तियों को सुन्दर अक्षरों में मुद्रित किया गया है। 

      दूसरे संस्करण की दस हजार प्रतियां समाप्त होने के बाद, द इंडियन प्रेस प्राइवेट लिमिटेड के श्री निर्मल मित्र महाशय के सौजन्य से, तीसरे संस्करण की पंद्रह हजार प्रतियां भी सरकार द्वारा आपूर्ति किए गए सस्ते कागज पर बहुत कम कीमत में उपलब्ध करवायी जा रही हैं। 

     चतुर्थ और पंचम मुद्रण के समय सस्ते दर पर कागज उपलब्ध नहीं हो सकने से अनिवार्य रूप से पुस्तक की कीमत कुछ अधिक करनी पड़ी थी। किन्तु अभी कागज का मूल्य बहुत अधिक बढ़ जाने और मुद्रण खर्च में वृद्धि होने से अनिच्छापूर्वक विगत मुद्रण की तुलना में पुस्तिका का मूल्य थोड़ा बढ़ाकर दस रुपया कर दिया गया है, इसके लिए हम खेद व्यक्त करते हैं।  

भूमिका 

1. स्वामी विवेकानन्द ने तत्कालीन भारत को उसके उत्थान के दौरान दो आवश्यक बातें दीं थी - राष्ट्रवाद और समाजवाद। भारत में राष्ट्रवाद का जन्म स्वामी जी के आगमन से पहले ही हो गया था। लेकिन वह राष्ट्रीयता आंशिक, विशेष श्रेणी में बद्ध और अत्यंत हताश थी। वह राष्ट्रवाद विचारों तक ही सीमित थी, आत्म-बलिदान तक नहीं पहुँची थी। पराधीन भारतवर्ष में आम लोगों का मन हीनता की भावना से भरा, और भविष्य की आशा - भरोसा से रहित था।  

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मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

🔱सर्वश्रेष्ठ समाज सेवा है - 'Be and Make ' 🔱

[कांकुरगाछी, योगोद्यान मठ में आयोजित रामकृष्ण मठ और मिशन के 16 वें अध्यक्ष श्रीमत स्वामी स्मरणानंद जी की स्मरण-सभा में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के उपाध्यक्ष श्री दीपक कुमार सरकार महाशय का वक्तव्य - (25 मिनट 46 सेकण्ड से) तैत्तरीय उपनिषद के ब्रह्मानन्द वल्ली का शान्ति पाठ से प्रारम्भ हुआ।] 

🔱सर्वश्रेष्ठ समाज सेवा है - 'Be and Make'🔱 

हरिः ॐ। सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ हरिः ॐ  तत् सत्। 

हे ईश्वर ! आप हम दोनों (गुरु-शिष्य) की साथ-साथ रक्षा करें। आप हम  दोनों का साथ-साथ पालन-पोषण करें।  हम एक साथ शक्ति एवं वीर्य अर्जित करें।  हमारा अध्ययन हम दोनों के लिए तेजस्वी हो, प्रकाश एवं शक्ति से परिपूरित हो। हम कदापि परस्पर द्वेष न करें। ॐ शान्तिः! शान्तिः! शान्तिः! (सर्वत्र शान्ति रहे।)

ठाकुर, माँ, और स्वामीजी के (रातुल / लाल रंग से रंगे चरणों) श्री चरणों में मैं अपना प्रणाम निवेदन करता हूँ, प्रणाम निवेदन करता हूँ - श्रीमत स्वामी स्मरणानन्द जी के चरणों में, जिनकी स्मृति में आज यह स्मरण सभा आयोजित हुई है। प्रणाम निवेदन करता हूँ सभा में उपस्थित श्रीमत स्वामी विमलात्मानन्द जी, अध्यक्ष ,कांकुरगाछी योगोद्यान मठ , के चरणों में। प्रणाम करता हूँ आज के सभापति श्रीमत स्वामी लोकोत्तरानन्दजी महाराज, अध्य्क्ष कामारपुकुर, रामकृष्ण मठ और मिशन  को, अपनी आंतरिक शुभेच्छा और श्रद्धा अर्पित करता हूँ हमारे प्रिय डाक्टर बाबू' डाक्टर विश्वजीत घोष दस्तीदार महाशय को। यहाँ उपस्थित समस्त संन्यासियों तथा ब्रह्मचारियों को भी मैं अपना प्रणाम और शुभेच्छा ज्ञापित करता हूँ। सभा में उपस्थित समस्त सुधिवृन्द (विद्वत मण्डली ?) को मैं अपना आंतरिक नमस्कार एवं शुभेच्छा ज्ञापित करता हूँ।  

पूजनीय महाराज (जयराम महाराज-श्रीमत स्वामी स्मरणानन्द जी महाराज) क्योंकि रामकृष्ण मठ मिशन के संन्यासी थे इसलिए उनके आध्यात्मिक जीवन पर चर्चा होना ही स्वाभाविक है। बेलुड़ मठ में भी इस पर चर्चा हुई थी, और अभी अभी महाराज ने भी उस विशेष पहलु पर हमलोगों का ध्यान आकर्षित किया है। किन्तु, मैं इस बात को जोर देकर का सकता हूँ कि आप में से बहुत से लोग यह नहीं जानते होंगे कि; उनके जैसा एक विद्वान् संन्यासी जिन्होंने रामकृष्ण मठ मिशन के साथ 72 वर्षों तक संन्यास जीवन का पालन किया है; उन्होंने अपने वास्तविक जीवन में, सामाजिक जीवन में भारतवर्ष के कल्याण के लिए, विशेष रूप से युवा सम्प्रदाय के कल्याण लिए, इतना महान काम कर गए हैं, कि वह इतिहास में सदैव एक उदाहरण बना रहेगा। 

     कोलकाता का अद्वैत आश्रम 5 नम्बर , डेही एंटली रोड (Dehi Entally Road) पर जहाँ अवस्थित है - उसके ठीक  पहले 'देब लेन' में हम लोगों का पैतृक निवास है। हमलोगों के 'डेही एंटली रोड मुहल्ले' में रहने वाले देव नारायण बाबू के घर के एक सदस्य उपेन्द्र नारायण देव स्वामी विवेकानन्द के सहपाठी थे। उन्होंने दानपत्र में लिखकर जो मकान रामकृष्ण मिशन को दान में दिया था, आज से लगभग 60 वर्ष से अधिक पहले उस मकान को तोड़ कर एक नया मकान जब बना, तब  मैं स्कूल का छात्र था और 7 वीं या 8 वीं कक्षा में पढ़  था। कौतुहल वश मैंने अपने पिताजी और घर के बड़े लोगों से मैंने पूछा था कि यहाँ क्या होगा ? उन्होंने बताया कि इसमें रामकृष्ण मिशन का एक केन्द्र खुलेगा। 

          मेरी आँखों के सामने- शायद 1960-61 में उस केन्द्र का उद्घाटन हुआ था।  प्रथम तल्ले पर Book Publishing Center (पुस्तक प्रकाशन केन्द्र) का कार्यालय था, दूसरे तल्ले पर एक तरफ सभागार (auditorium) था और दूसरी तरफ पुस्तकालय (library) था।  हम लागों ने कौतुहल वश वहां जाना आना शुरू कर दिया। छात्र जीवन के समय "Postage Stamp " (डाक टिकट) संग्रह करने के प्रति मेरा बहुत आकर्षण था; डाकटिकट संग्रह करना ही मेरा शौक (Hobby) था। और चूँकि अद्वैत आश्रम अनेक देशों से जुड़ा हुआ था, इसलिए वहाँ अनेक देशों से पत्र आते रहते थे। वह समय कम्प्यूटर युग का नहीं था, ईमेल प्रारम्भ नहीं हुआ था, मोबाईल का युग नहीं था । [महाराज एकटक होकर सुन रहे थे। ] उस समय केवल टेलीग्राम होता था या टेली फैक्स होता था, या फिर डाक के माध्यम से पत्रों  का आदान-प्रदान होता था। उसी डाकटिकट संग्रह करने की दृष्टि से वहाँ जाना -आना शुरू किया।   उस समय श्रीमत स्वामी अद्वयानन्द जी महाराज (अर्धेन्दु महराज) अद्वैत आश्रम के मैनेजर थे - बहुत दिनों पूर्व ही उनका शरीर चला गया है। वहाँ जाने पर वे हमलोगों को कुछ Voluntary work करने का मौका भी देते थे। महाराज बोलते थे नया लाइब्रेरी बना है, तुम लोग लाइब्रेरी में आते रहना। यहाँ आकर तुमलोग कैटलॉग बनाना , इंडेक्स बनाने का काम करना।  

   'उपेन बाबू' के दानपत्र में लिखे एक शर्त के अनुसार, उस समय मानसेवा रूप से कुछ राहत कार्य (Relief Work)  प्रति माह एक विशेष तिथि पर वर्ष भर चलता रहता था। हमलोग भी volunteer (स्वयं सेवक) के रूप में काम करते थे। स्कूल या घर के काम करने के बाद जितना समय बचता था हमोग सेवा कार्य में अपना पूरा सहयोग करते थे। शाम के 4.30 बजे अद्वैत आश्रम में छुट्टी हो जाती थी, ऑफिस बंद हो जाता था , अभी भी वही नियम चल रहा है। उस समय महाराज के साथ उतनी घनिष्टता नहीं हुई थी, क्योंकि उस समय वे भीतर वाले कमरे में बैठते थे। और उस कमरे को वे लोग PB कमरा कहते थे। PB का अर्थ समझता नहीं था; बहुत दिनों बाद मैंने महाराज से पूछा -महाराज PB का क्या अर्थ है ? अर्धेन्दु महाराज ने कहा -प्रबुद्ध भारत। प्रबुद्ध भारत पत्रिका को वे लोग संक्षेप में P.B कहते थे।  अर्धेन्दु महाराज प्रबुद्ध भारत पत्रिका के प्रकाशन के साथ जुड़े हुए थे, किन्तु तब हमलोगों का उनके साथ कोई घनिष्ट  परिचय नहीं हुआ था। 

  और तीन-चार साल बाद - जब  हमलोग थोड़े बड़े हो गए थे और हायर सेकण्ड्री का एग्जाम देने वाले थे। तब 1964 में पार्क सर्कस मैदान में जहाँ  स्वामी जी की शतवार्षिकी के अवसर पर मुख्य कार्यक्रम आयोजित होने वाला था वहाँ  exhibition तथा  auditorium के लिए एक विशाल पण्डाल का निर्माण किया गया था।  उस समय हमलोगों को वहां स्वैच्छिक सेवा  (voluntary service) करने का अवसर प्राप्त हुआ था। वह कार्यक्रम बहुत अच्छा और लम्बा  चला था। और उस समय साम्प्रदायिक घटनावश वहाँ एक दंगा # होने से कुछ विघ्न भी हुआ था, किन्तु उस प्रसंग को नहीं उठा रहा हूँ। उसके बाद शायद 1965 में अर्धेन्दु महाराज बदली होकर कमार पुकुर आश्रम चले गए। 

          उनके जाने के बाद पूजनीय जयराम महाराज ने अद्वैत आश्रम में मैनेजर का पदभार ग्रहण किया। इस समय उनके साथ हमलोगों का बहुत घनिष्ट परिचय हो गया। वे हमलोगों से किसी मित्र के समान व्यवहार करने लगे। महाराज थोड़ी देर पहले कह रहे थे कि जयराम महाराज बहुत सरल थे, किन्तु वे कितने सरल थे इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। मैंने हिसाब लगाकर देखा है, वे मुझसे लगभग 17 -18 वर्ष बड़े थे। किन्तु हमलोगों के साथ मित्र के समान मिलते थे। ऐसी कोई बात नहीं हो सकती जिसको मैं महाराज के साथ शेयर नहीं करता होऊंगा। स्कूल के मित्रों के साथ भी जिस बात का उल्लेख नहीं होता हो, वो भी उनके साथ शयेर करता था। कहाँ गया था, किसके साथ था,सारा दिन समय कैसे बिताया, किसने क्या कहा, किस क्लास में क्या गड़बड़ी हुई है, लड़कों ने क्या-क्या है -सब कुछ उनको बताता था। और जो कुछ मैं कहता  उन्हीं बातों में से कुछ बातों को उठाकर, वे ठीक जगह पर सुधार (correction) भी कर देते थे। सामाजिक जीवन में या प्रैक्टिकल लाइफ में  जीवनगठन के लिए क्या -क्या आवश्यक है -इसे इतने आश्चर्यजनक रूप से समझा देते थे, कि उनको सामने से नहीं देखने पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इतने दिनों बाद भी , 60 वर्ष पहले की बातों का स्मरण करने से कितने  अद्भुत अनुभूति होती है, आप लोग भी समझ सकते हैं। यहाँ मैं कोई बात अपने मन से बनाकर नहीं कह रहा हूँ।  60 वर्ष पहले की उतनी पुरानी बातों को मैं कैसे याद रख सकता हूँ , इसलिए कहीं मैं भूल न जाऊँ इसलिए आपके सामने प्रस्तुत करने के लिए मैं कुछ बातों को date के हिसाब से लिख कर लाया हूँ। किन्तु उनके साथ इतनी अन्तरंगता थी, इतने घनिष्ट रूप से मिलना होता था कि मेरी आँखों के सामने अब भी वे सजीव दृश्य के रूप में जागृत हैं। जो हो हायर सेकण्ड्री की शिक्षा पद्धति 1964 में नई नई शुरू हुई थी उसके अनुसार 11 वीं पास करने के बाद कॉलेज में नाम लिखवाया जा सकता था। मैं साइंस लेकर पढ़ रहा था , मुझे स्कॉटिश चर्च कॉलेज में नाम लिखाने का अवसर प्राप्त हुआ। 1964 -1965 तक कॉलेज का पढाई ठीक-ठाक चलता रहा। लेकिन 1966-67 के मध्य में पढ़ाई करते समय यह खबर फैली की पश्चिम बंगाल में , विशेष रूप से उत्तरबंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान से एक आन्दोलन शुरू हुआ है। (34 मिनट 13 से रिकॉर्डिंग सहीहुआ। ) तब मुझे उतनी जानकारी नहीं रहती थी , इतनी मैचुरिटी भी नहीं थी। लेकिन इतना जानता था कि वह आन्दोलन 'कृषक आन्दोलन ' के नाम से शुरू हुआ था। किन्तु 'नक्सलबाड़ी कृषक आन्दोलन' के कुछ नेताओं के दिमाग में पता नहीं किस कीड़े ने काटा कि अद्भुत रूप से उनलोगों ने पूरे कृषक आन्दोलन को युवा सम्प्रदाय के उग्र असन्तोष से जोड़ दिया।  यहीं से आन्दोलन का turning point आया और किसान आंदोलन हिंसक दिशा में मुड़ गया। 

      सम्पूर्ण रूप से विन्ध्वसक काण्ड शुरू हुआ , दिन दहाड़े सड़क पर ही पुलिस का खून किया जाने लगा। विभिन्न स्थानों पर सरकारी सम्पत्तियों में आग लगा देने का काम शुरू हो गया। हम लोगों के कॉलेज में प्रोफेसर लेक्चर दे रहे हैं और उग्रवादी लोग क्लास में घुस कर ब्रेनवाश करने के लिए तोड़-फोड़ का लेक्चर देने लगा । उन लोगों का मुख्य अड्डा था प्रेसीडेन्सी कॉलेज और कोलकाता यूनिवर्सिटी। वहाँ से स्कॉटिश चर्च कॉलेज ज्यादा दूर नहीं पड़ता है। जब तब उनलोग हमारे कॉलेज के युवाओं पर अटैक करने लगा , और क्रमशः ये सब बढ़ता चला गया। घोर  चिंता का विषय बन गया, सभी लोग इस समस्या पर चर्चा तो करते थे , किन्तु किसी के पास इसका समाधान नहीं था। या समाधान के लिए कोई चेष्टा भी नहीं करता था। 

  देखिये ठाकुर की क्या अद्भुत लीला थी ! हमने अपने आँखों के सामने देखा था -यदि उस समय का नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन उतना उग्र और विध्वंसक छात्र आन्दोलन में नहीं बदल गया होता तो महामण्डल का गठन भी नहीं हुआ होता। मैं आपको इस युवा संगठन के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि बतला रहा हूँ; कि हमलोग ऐसा क्यों विश्वास करते हैं कि- " महामण्डल का गठन भगवान श्रीरामकृष्ण देव की इच्छा, जगतजननी माँ सारदा देवी के आशीर्वाद तथा स्वामी विवेकानन्द की उत्प्रेरणा  (inspiration) से हुआ है ! बेलपत्र के तीन पत्तों के समान इन त्रिदेवों के बिना महा-मण्डल का आविर्भाव होना असम्भव था। उस समय के युवाओं के लिए यह एक बहुत चुनौती पूर्ण कार्य (Challenging-Job) था !

       (35 मिनट 56 सेकण्ड) इन सब घटनाओं को देखकर महाराज (स्वामी स्मरणानन्द जी -जयराम महाराज) बहुत दुखित और व्यथित हुए थे। तब उनके साथ स्वामी अनन्यानन्द जी (गोविन्द महाराज) बहुत क्लोजलि होकर काम करते थे।  स्वामी अनन्यानन्द जी PB के सम्पदाक थे। महामंडल के जन्म के समय अलापी/अलोपी महाराज (श्रीमत स्वामी चिदात्मानंद जी) अद्वैत आश्रम के अध्यक्ष ( प्रेसिडेन्ट) थे। बाद में, उन्हें सहायक सचिव के रूप में बेलूर मठ में स्थानांतरित कर दिया गया। उन्हें अलापी महाराज के नाम से जाना जाता था; वे भी बहुत पवित्र और सच्चे मनुष्य थे -बिल्कुल माँ सारदा के जैसे ! बिल्कुल माँ सारदा की ही प्रतिमूर्ति -थोड़ा भी बढ़ाकर नहीं कह रहा हूँ। इन  सभी महाराज लोगों का ह्रदय अंदर से मड़ोड़ रहा था , अत्यन्त व्यथित था। हमने अपने आँखों के सामने देखा था - वे सभी चाहते थे कि युवाओं को बचाने के लिए कुछ करना जरुरी है।

     उनलोगों की व्याकुलता और ह्रदय की व्यथा को देखकर शायद  ठाकुर देव ने ही भीतर से उन लोगों से कहा था, कि खून-हत्या का जवाब हमलोग भी खून- हत्या से नहीं दे सकते। इसके प्रतिवाद का सही तरीका है स्वामी विवेकानन्द का- " Man- Making and Character- Building Education" (मनुष्य निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा) युवाओं के बीच इसके प्रचार-प्रसार के लिए कुछ करना होगा। लेकिन तुरंत ही स्वामी स्मरणानन्द जी और स्वामी अनन्यानन्द जी दोनों सम्मिलत रूप से कहने लगे कि, यह काम संन्यासियों के माध्यम से होने वाला नहीं है  [ इसका यदि कारण यदि ठीक से समझना हो तो "जीवन नदीके .... (पृष्ठ 126) पर विस्तार से देख सकते हैं] गृहस्थ के द्वारा ही गृहस्थ लोगों के बीच स्वामीजी की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करना होगा 

     क्या करना होगा और कैसे करना होगा ? युवाओं को दोषी ठहराने से कोई लाभ नहीं होगा , ये नेता लोग युवाओं का ब्रेन वाश कर रहे हैं। नक्सल नेताओं द्वारा युवाओं पर आक्रमण हो रहा है, उनको डराया -धमकाया जा रहा है। समाज के तानेबाने को चूर-चूर किया जा रहा है। ऐसा नहीं चलने दिया जा सकता। इसलिए उनको स्वामीजी के उपदेशों को सुनाना पड़ेगा। स्वामीजी ने कहा था हमलोग नया भारत गढ़ेंगे, किसके द्वारा ? -युवाओं के द्वारा। ऐसा युवा चाहिए जो देश-प्रेमी होगा, जो बिल्कुल निष्कपट होगा , जो ईमानदार होगा और जो होगा 100 % निःस्वार्थपर ! (गृहस्थ नेता को भी भीतर से पूर्ण त्यागी अर्थात निःस्वार्थपर होना होगा। उसे तीनों ऐषणाओं में से किसी एक में भी आसक्ति नहीं रखनी होगी।) क्योंकि स्वामी जी ने कहा है  -"केवल वही जीवित है , जो दूसरों के लिए जीता है। शेष तो मृत से भी अधम हैं !"  

     अब असली रहस्य पर आ रहा हूँ , महाराज [स्वामी अनन्यानन्द जी (गोविन्द महाराज) जो पत्रिका के सम्पादक थे) उन दिनों उनके पास जाते थे नवनीदा (श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय महाशय) जो सरकारी सचिवालय में कार्य करते थे; और उन दिनों वेदान्त मठ जाया करते थे। एक दूसरे सज्जन उषा दा  (श्री उषा रंजन दत्त) भी वहाँ वेदान्त मठ जाया करते थे।  वहां उषा दा से उनका परिचय हुआ। उषा दा की यह आदत थी कि मठ -मिशन में जहाँ कही अच्छा भाषण होता वे जाते रहते थे। उन्होंने एक दिन नवनी दा से कहा - चलिए न गोलपार्क में स्वामी रंगनाथानंदजी आये हैं , वे वहां के सेक्रेटरी हैं तथा बहुत अच्छा भाषण करते हैं, आपको अच्छा लगेगा। नवनी दा वहाँ गए , उनका भाषण सुना। अच्छा लगा , एक दिन गए -दो दिन गए। वे महाराज के साथ मिलकर बातचीत किये। उनसे मिलकर नवनीदा को बहुत अच्छा लगा। महाराज उनको रोज आने के लिए इन्वाइट किये वे अक्सर गोलपार्क जाने लगे। 

1964 में पार्क सरकस मैदान में स्वामी जी की जन्म शतवार्षिकी के समय, टिकट काउंटर के रुपए -पैसों को रखने की जिम्मेदारी स्वामी भाष्यानंद जी ने ही नवनीदा पर सौंपी थी। उस समय भाष्यानंद जी गोलपार्क में असिस्टेन्ट सेक्रेटरी थे। बाद में अमेरिका - शिकागो में उनकी बदली हो गयी थी। किन्तु स्वामी भाष्यानंद जी ने अभी तक किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा था-जिसने स्वामी विवेकानन्द को देखा हो। रंगनाथानन्द जी यह जानते थे कि नवनीदा के पितामह ने, बहुत कम उम्र में ही स्वामी विवेकानन्द का दर्शन किया था। इसलिए उनके पास जाने की इच्छा उनलोगों ने व्यक्त की। जब उनसे मिलने के लिए वे लोग नवनीदा के घर खड़दह गये थे, तब अद्वैत आश्रम से उन लोगों के साथ गोविन्द महाराज और जयराम महाराज भी गए थे। वहाँ जब उनलोगों में बातचीत हुई तो नवनीदा को ज्ञात हुआ कि जयराम महाराज अद्वैत आश्रम में मैनेजर हैं। उन्होंने नवनीदा को अद्वैत आश्रम आने का निमंत्रण दिया। 

    उनलोगों के मन में उस समय से ही मन में  यह विचार चल रहा था कि युवाओं को किस प्रकार संगठित किया जाये ? वहाँ यह चर्चा चलना प्रारम्भ हुआ। मैं भी वहाँ जाता रहता था , मेरे कान में भी यह बात गयी। मैं बहुत ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि क्या बातचीत चल रही है , किन्तु बातचीत लगातार चल रही थी। एक दिन 25 अक्टूबर 1967 को , कन्वेनर कौन ? श्रीमत स्वामी स्मरणानन्दजी  ने मीटिंग बुलवाया, First Meeting Was Convent by Him।  दिन लिख कर लाया हूँ , भूल नहीं जाऊँ। हमलोगों के पास मिनट्स है, रिजोलुशन है । जयराम महाराज ने स्वयं एक मीटिंग आहूत किया था , किनको बुलाया था ? उनके जो लोग परिचित रामकृष्ण मिशन के भक्त मण्डली थे और जिन्हें रामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा या दर्शन का ज्ञान भी था। और बुलवाया गया था रामकृष्ण मिशन के साथ जुड़े , कुछ युवा संगठन - जैसे एक युवा संगठन न्यू बैरकपुर में था। एक संगठन बैरकपुर में था। एक था भद्रकाली , हुगली में। एक संगठन  बाग बजार का भी था। इस प्रकार मिशन के साथ संयुक्त कुछ संस्थाएं थीं , जिन्हें बुलवाया गया था। उस समय तक भावप्रचार परिषद का गठन नहीं हुआ था। सिमित संख्या के लोगों को बुलाकर उन लोगों के साथ बैठक में महाराज ने परामर्श के बाद तय किया गया कि कोई रचनान्त्मक कदम उठाना होगा।  विभिन्न प्रांतों के गाँव -गाँव में मुहल्ले -मुहल्ले में स्वामीजी का भाव युवाओं के भीतर युवाओं के द्वारा ही प्रचारित तथा प्रसारित कर देना होगा।  इस प्रकार महामण्डल के - Be and Make ' आन्दोलन या मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलन का सूत्रपात हुआ था। एक संगठन बन गया और नाम भी दिया गया -सम्पूर्ण भारतवर्ष में काम होगा ,विवेकानन्द का नाम होगा - क्योंकि वे इस आंदोलन के आदर्श होंगे। युवाओं का संगठन होगा इसलिए इसके नाम युवा भी रहेगा। महामण्डल क्यों ? इसलिए की सभी स्थान के लोगों को लेकर होगा , अतएव नाम दिया गया -अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल। नाम थोड़ा बड़ा हो गया पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। प्रिंसिपल श्री ओमियो मुजमदार बड़े प्रसिद्द विद्वान् व्यक्ति थे, दार्शनिक भी थे उनको प्रेसिडेन्ट बनाया गया। और सबों ने प्रस्ताव दिया कि नवनी बाबू आप इसके सेक्रेटरी बनिये। नवनीदा सेक्रेटरी बने , काम भी शुरू हुआ। किन्तु मैंने अपनी आँखों से देखा है दिन पर दिन महामण्डल के friend-philosopher and guide' की भूमिका में जयराम महाराज स्वयं थे, उन्होंने अपने हाथों से इस संगठन को खड़ा किया है।

[25 अक्टूबर 1967 को .... जिस दिन संस्थापक व्यक्तिगत सदस्य (Founder individual Members) की बैठक में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को स्थापित करने का निर्णय लिया गया था, उस समय सभी सदस्यों की आयु 35 वर्ष या उससे अधिक थी। प्रथम महामंडल बैठक के संयोजक "Convener of the first Mahamandal meeting " पूज्य जयराम महाराज (स्वामी स्मरणानन्द जी महाराज) स्वयं उस समय 38 वर्ष के थे,अमियों दा (महामण्डल के संस्थापक अध्यक्ष) और नवनी दा (संस्थापक सचिव), नीलमणि दा (आयरन मैन) सभी 35 या उससे अधिक आयु के थे। तब जयराम महाराज ने ही first symbolic youth founder के तौर पर - 20 वर्ष के कॉलेज स्टुडेन्ट दीपक रंजन सरकार का नाम प्रस्तावित करते हुए कहा था - चुँकि यह संगठन युवाओं के लिए है , इसलिए संस्थापक सदस्यों में एक सदस्य इसको भी रखना चाहिए। महामण्डल कार्यालय में उस बैठक में लिए गए समस्त निर्णयों का मिनट्स और रिजोलुशन अब भी सुरक्षित है।] 

       इतने वर्षो बाद यह बात सुनकर बहुत अच्छा लगा। जयराम महाराज जिस समय जेनरल सेक्रेटरी थे, उनके जो सेवक लोग थे , दीप्ती महाराज को अलावा जो ब्रह्मचारी लोग आते थे, उनमें से एक का नाम यह शान्तनु महाराज।अभी अगरतल्ला में हैं। 27 तारीख को जब काम हो रहा था मुझे देखकर ही बोले - क्या हो ? तुम लोग तो अब पुनः अभिभावक हीन बन गया ? ठीक यही बात बोले ! पीछे से बोलते हैं तुमलोगों को तो उन्होंने अपने हाथों से तैयार कर गए हैं ! किन्तु सुंदर बात कहे , सुनकर मन को थोड़ा कष्ट भी हुआ। लेकिन बात तो ध्रुव सत्य थी। एक इतने बड़े संगठन के प्रमुख, इस उम्र में इतने वरिष्ठ ; काम का कितना दबाव उनपर रहता होगा -इसके बावजूद इतने गृहस्थ युवाओं में से कुछ के भीतर यह भाव प्रविष्ट करवा देना। और तिल -तिल करके एक अखिल भारत युवा संगठन को खड़ा कर देना -आप लोग आश्चर्य चकित हो जायेंगे। 

     ऑफिस नहीं था हमलोग का। तो उन्हीं के ऑफिस में महामण्डल का काम होगा। कितने दिनों तक ? लगभग एक-डेढ़ वर्ष तक। कितनी देर तक, कबसे  काम होगा ? साढे चार बजे अद्वैत आश्रम का काम समाप्त हो जाने के बाद। छुट्टी हो जाने के बाद रात 8 -9 बजे तक काम चलता रहता था। अंत में जयराम महाराज ने कहा चिदात्मानन्द जी (अलोपी महाराज) कह रहे हैं -नवनी बाबू यह तो अच्छा नहीं लगता है ; रामकृष्ण मिशन के एक ब्रांच में किसी प्राइवेट संगठन का ऑफिस चल रहा है, ठीक दिखाई नहीं पड़ताआपलोग एक ऑफिस की व्यवस्था कीजिये। लेकिन प्राइवेट संगठन को भाड़ा में ऑफिस कौन देगा ? जयराम महाराज महामण्डल के ऑफिस के लिए स्वयं  भाड़े का मकान खोजने लगे। 

     मैं उसी मुहल्ले में रहता था , मुझे कोई मकान नहीं मिला पर उन्होंने महामण्डल के लिए भाड़े पर एक ऑफिस वहीँ पर खोज लिया। 11 नंबर शम्भुबाबू लेन में 100 रुपया भाड़ा में एक मकान खोज दिया और कहा यदि आपलोग से भाड़ा की व्यवस्था नहीं होगी तो मैं ही दे दूंगा, लेकिन ऑफिस वहां सिफ्ट कर लीजिये। इस प्रकार काम शुरू हो गया। बाद में 1973 में हमलोग सियालदह वाले ऑफिस - 6/1 A, जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो, में चले गए। जहाँ हमलोगों का वर्तमान रजिस्टर्ड ऑफिस चल रहा है। वह हमलोगों के फॉउंडर उपाध्यक्षउपसचिव ? श्री तनुलाल पाल का मकान था। वे रामकृष्ण मठ मिशन के बहुत पुराने भक्त थे (स्वामीजी के गुरुभाई विज्ञान महाराज के शिष्य थे-104 वर्ष की आयु में उनका शरीर गया। ) 1967 में महामण्डल प्रितिष्ठित होने के समय ही उनकी उम्र भी काफी थी- 50 +? थी । 

         >>> মহামন্ডলের জন্ম আমার আঁতুর ঘরে ??? ! आपलोग सुनकर आश्चर्य चकित होंगे कि - स्वामी चिदात्मानन्द जी ? महामण्डल के प्रति किस भाषा में उदगार प्रकट करते थे - वे बहुत गर्व के साथ कहते थे - महामण्डल का जन्म हमलोगों के 'सूतिकागार' (शिशु -प्रसव का कमरा- बंगला आँतुर घर) में हुआ है ! स्पष्ट घोषणा करते थे उनकी भावना की क्या हम कल्पना भी कर सकते हैं ? कैसा अद्भुत प्रेम, कितनी अद्भुत करुणा, ठाकुर का (जयराम महाराज का ?) कितना अद्भुत आशीर्वाद ! जो हो, इस प्रकार युवाओं के बीच महामण्डल का कार्य शुरू हुआ।  स्वामी स्मरणानन्द जी ने बहुत सूक्ष्म बुद्धि का प्रयोग कर स्वामीजी की शिक्षाओं को या जंगल के वेदान्त को घर-घर तक पहुँचा देने के उद्देश्य से 1969 में स्वामी विवेकानन्द की उक्तियों का संकलन पुस्तक - "स्वामी विवेकानन्द -राष्ट्र को आह्वान"('Vivekananda- His Call to the Nation') बहुत कम मूल्य में केवल 25 पैसा में प्रकाशित करवाया था। साथ -साथ महामण्डल ने भी प्रयास किया और नवनीदा (श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय, महामण्डल के संस्थापक सचिव) ने बंगला में भी स्वामी जी की उक्तियों का एक संकलन पुस्तक लिखा - "जनगणेर अधिकार" (People's rights- জনগণের অধিকার- स्वामी विवेकानन्द) जो महामण्डल द्वारा जनवरी 1971 में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तिका के कवर पृष्ठ पर भगिनी निवेदिता द्वारा परिकल्पित (designed) और 'वज्र निशान अंकित' जो राष्ट्रीय ध्वज बनाया गया है, उसकी चित्रकारी श्री नित्यानन्द भकत द्वारा की गयी है। निवेदिता वज्र को पूर्ण आत्म-बलिदान का (100 % निःस्वार्थपरता का) प्रतीक-चिन्ह मानती थीं। उस पुस्तक का ऊपरी भाग लाल रंग में -नीचे सादा बोर्डर देकर बीच में वज्र का निशान देकर छपवाया गया था। मूल्य रखा गया आठ आना (2011 में 10 रुपया) 

      प्रश्न उठ सकता है - महामण्डल के द्वारा प्रकाशित "जनगणेर अधिकार" पुस्तक लाल रंग में क्यों छपा था ? कारण था उस समय पश्चिम बंगाल के कुछ सनकी नेता चीन के चेयर मैन को अपना चेयर मैन मान रहे थे और उसके "Red book"# (लाल किताब) के उक्तियों - "political power grows out of the barrel of a gun" का उपयोग करके युवाओं का ब्रेन वाश करते हुए उन्हें हिंसक आंदोलन में लिप्त रहना सिखा रहा थे। [Chairman of China's Red Book (Lal Kitab): Originally produced in 1964 an early version was titled 200 Quotations from Chairman Mao - it soon became a key feature of the leader's personality cult.]

           1964 में प्रकाशित चीनी चेयर मैन के 'लाल किताब' (Red book#) के विरुद्ध - counter में हम लोगों ने 1971 में स्वामी विवेकानन्द के शक्तिदायी विचारों से भरी  "जनगणेर अधिकार" नामक महामण्डल की लाल किताब (Red book) प्रकाशित कर दिया।  फिर क्या था; महामण्डल के भाइयों ने उसका वितरण करना शुरू किया। बस में, ट्रेन में, सड़क पर, गली के नुक्क्ड़ पर- जहाँ- तहाँ  हमलोगों ने बेचना शुरू कर दिया। हमारे भाइयों ने  लाल किताब के जवाब में स्वामीजी के शक्तिदायी विचार को भारत भर में फैलाना शुरू कर दिया। और जो 5 -6 संगठन उस दिन की बैठक में उपस्थित थे , उनके माध्यम से और छोटे -छोटे एक दिवसीय, दो दिवसीय शिविर युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से, गाँव -गाँव शहर-शहर में होने लगे। 

नवनीदा ने  यूथ कैम्प आयोजित करने में परिश्रम की पराकाष्ठा कर दी थी , उसके लिए उन्होंने आश्चर्यजनक कठोर परिश्रम किया था। तथा उनके साथ -साथ जयराम महाराज भी रहते थे। उन्होंने (जयराम महाराज ने) कितना कठोर परिश्रम  किया था उसकी कल्पना भी आप नहीं कर सकते। उन दिनों आज जैसी गाड़ियों की सुविधा नहीं थी। रामकृष्ण मठ मिशन में भी गाड़ी की इतनी सुविधा नहीं थी, अद्वैत आश्रम में भी अपनी कोई गाड़ी नहीं थी, और महामण्डल में तो गाड़ी रहने का प्रश्न ही नहीं था। नवनीदा के साथ वे लोकल ट्रेन से कहाँ नहीं चले गए थे - मेदनीपुर चले गए , बर्दवान चले गए, उत्तर 24 परगना चले गए थे, नदिया चले गए। हावड़ा , हुगली आदि विभिन्न स्थानों में गए थे। क्यों जाते थे ? ताकि स्वामीजी के कार्य के लिए युवा लोग संगठित होक उनको जब आमंत्रित करते थे वे हर जगह चले जाते थे। स्वामीजी के विचार सुनाने के लिए वे हर जगह जाते रहते थे। ऐसा भी समय हुआ है कि जयराम महाराज को कष्ट करके दूर देहात में जाने पर रात में उन्हें जमीन पर भी सोना पड़ा है। क्यों ? क्योंकि जयराम महाराज संन्यास के नियमों का कठोरता से साधन और पालन करते थे। वे गृहस्थ के बिछावन पर कभी नहीं सोते थे। 

         उनके परिश्रम की कल्पना भी नहीं हो सकती। कोलकाता में तो ये काम हुआ, पश्चिम बंगाल में भी हुआ -लेकिन इस काम को अन्य प्रान्तों में भी तो करना था। उनका परिचय उड़ीसा में श्री दिगम्बर पात्रा नामक एक ऐसे सज्जन से हुआ जो वहाँ के शिक्षा विभाग उच्च पदस्थ अधिकारी थे। उनके माध्यम से उड़ीसा का कोई ऐसा जिला नहीं है -जहाँ की यात्रा उन्होंने नहीं की होगी। साथ में रहते थे स्वामी रंगनाथानन्द जी -उनको लेकर भी उड़ीसा जाते थे। उड़ीसा के 20 -22 स्थानों में महामण्डल का केंद्र स्थापित हो गया। उड़ीसा के बाद चले गए आन्ध्र प्रदेश। बापतला, गुन्टूर , सिकंदराबाद, एर्नाकुलम, श्रीकाकुलम, विशाखापत्तनम कोई स्थान अछूता नहीं था। विभिन्न स्थानों घूमघूम कर युवाओं को Be and Make के लिए अनुप्रेरित करना -बहुत कठिन काम था। अच्छे अच्छे लड़के- उच्च शिक्षित और उच्च पदस्थ लड़के भी इस काम में लगे हुए थे। उनके त्याग का कहना ही क्या था - कितना कठोर था उनका ज्ञान-वैराग्य। इस बात का उल्लेख यहाँ करना ठीक नहीं होगा , लेकिन सिर्फ आपलोगों की जानकारी में देने के उद्देश्य से कहता हूँ। यह महामण्डल का काम नहीं है , हमारे मैनिफेस्टो ऐसा नहीं लिखा है - मेरे बारे गलत धारणा मत बनाइयेगा। इसी काम को करते करते युवाओं के भीतर। बहुत से युवाओं के भीतर इतनी त्याग और तितिक्षा की भावना जाग्रत हो गयी कि, ठाकुर माँ स्वामी जी के भावों से उद्बुद्ध होकर महामण्डल के कई सौ युवा भाईयों ने रामकृष्ण मिशन में अभीतक संन्यासी के रूप योगदान कर दिया है। और आज संन्यासी होकर रामकृष्ण मिशन में विभिन्न केन्द्रों में कार्यरत हैं।

    यह महामण्डल का काम नहीं है , किन्तु हो गया है। यह भी ठाकुर देव का ही आशीर्वाद है। आश्चर्यजनक बातें हैं। जो संगठन गृहस्थ लोगों के लिए बना है , घर में रहते हुए यह Be and Make का काम करना होगा । हमलोगों का यह शर्त में था -सर्वप्रथम  इसके सदस्यों को अराजनैतिक होना होगा, दूसरा शर्त था तुम घर में रहते हो। तो तुम्हारा एक दायित्व है - Primary Responsibility है। तुम्हें अपने माता-पिता की देखभाल करनी होगी, अपने भाई-बहनों की देखभाल करनी होगी। तुम यदि विवाहित हो तो तुम्हें तुम्हारे स्त्री और सन्तानों की देखभाल करनी होगी। तुम जिस पेशा से जुड़े हुए हो ,यदि युवा अवस्था में हो पढ़ाई -लिखाई कर रहे हो , विद्यार्थी हो तो तुम पढ़ाई की उपेक्षा नहीं कर सकोगे। तुम यदि शिक्षक हो , तो उस कार्य की अनदेखी नहीं कर सकते। 

   तुम यदि डॉक्टर हो, तुम यदि इंजीनियर हो , तुम यदि वकालत करते हो, तुम यदि बिजनेस में हो तो - अपने पेशे से जुड़े कार्यों को भलीभाँति पूरा करने के बाद -तुम्हारे पास 24 घंटे में से जो अतिरिक्त समय बचेगा, केवल उतना ही समय तुम महामण्डल को दोगे। महामण्डल को समय देने का तात्पर्य क्या हुआ ? तातपर्य है अपना समय अपने देश को देना। अपने बहुमूल्य समय में से कुछ समय निकाल कर अपने देश वासियों के कल्याण के लिए देना। नया भारत गढ़ने की यह नई पद्धति है - कितनी अद्भुत है सोचकर देखिये। किन्तु हाँ - एक और शर्त है , हमारा यह आंदोलन आध्यात्मिकता की बुनियाद पर खड़ा होगा। और इसी प्रकार स्पिरिचुअल आधार पर खड़े होकर अपने मातृभूमि के प्रति समर्पित भाव से समस्त कार्य करने होंगे। इसी प्रकार कार्य करते हुए फलस्वरूप आज के दिन महामण्डल कहाँ पहुँचा है जानते हैं ? आज भारतवर्ष में लगभग 300 से भी अधिक केंद्र हैं।  भारतवर्ष में पश्चिम बंगाल में तो है ही, इसके अलावा बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा , गुजरात , छत्तीस गढ़ , आंध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश आदि विभिन्न राज्यों में हमारे लड़के काम करते जा रहे हैं।

       1967 से यह आंदोलन शुरू होकर अभी 2024- तक इस आंदोलन के 57 वर्ष बीत चुके हैं। इन विगत 57 वर्षों में कम से कम कई हजार युवा महामण्डल के माध्यम से अपना जीवन गठित कर सुनागरिक -भारत के प्रबुद्ध नागरिक बन चुके हैं। तब आप पूछेंगे यदि ऐसा है- हजारों युवा जब सुनागरिक बन चुके हैं तो, हमारे देश में ऐसी अराजकता क्यों है ? उसका उत्तर होगा - क्योंकि वैसा होना ही स्वाभाविक है ! स्वामीजी ने कहा था कुत्ते की टेंढ़ी पूँछ कभी सीधी नहीं होगी। संसार उसीकी गति से चलता रहेगा, और हमारा कार्य भी चलता रहेगा। इसीलिये महामण्डल के कार्य का कोई अंत नहीं है। स्वामीजी द्वारा युवाओं के ऊपर सौंपा गया यह कार्य- 'Be and Make ' - अर्थात तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने सहायता करो,  बनाओ कार्य कभी समाप्त होने वाला नहीं है ! स्वामीजी का यह विचार - "मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण " (Man-Making and Character-Building) अनन्त काल तक चलता रहने वाला कार्य है। कोई व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि मैंने 15 या 20 वर्षों का एक कोर्स किया है ; महामण्डल के 20 कैम्प कर लिये हैं - अब मैं मनुष्य बन चुका हूँ। मनुष्य बनने और बनाने -(अर्थात बुद्ध और ईसा जैसा महापुरुष बनने और बनाने) का कोई अन्त नहीं है ! मनुष्य बन जाने के लिए सारा जीवन इस आंदोलन के साथ जुड़ा रहना होगा। जितने दिनों तक उसके प्राण है,अंतिम साँस तक इसके साथ जुड़े रहकर 3H विकास के 5 अभ्यास को सीखने की चेष्टा करते रहना होगा। 

    स्वामीजी के इस महावाक्य में केवल दो छोटे से शब्द हैं - Be and Make ! स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो। बहुत पहले जब मेरी आयु बहुत कम थी, छात्र जीवन में था  - नवनीदा से पूछने का मेरे में साहस नहीं था। तब मैंने जयराम महाराज को एक दिन अकेला पाकर उनसे पूछा था -महाराज यह  'Make' वाला कार्य कैसे होगा ? उन्होंने कहा था - तुम्हें इतना सोंचने की जरूरत नहीं है, पहले तुम स्वयं मनुष्य बनो। तुम्हारे जीवन को देखकर , दूसरे लोग Inspired -अनुप्रेरित हो जायेंगे। एक जीवन से दूसरा जीवन तैयार किया जाता है।  জীবন দিয়ে জীবন তৈরি করা যায় 'A Life can be built with another life'- जीवन गठन करने के लिए किसी को शिक्षा नहीं दिया जाता है मैं किसी को सीखा सकता हूँ - वह एक गलत धारणा है। 

    बहुत कुछ और बोलना था- लेकिन मेरा समय पूरा हो गया-60 वर्ष का इतिहास 15 मिनट में कहना सम्भव नहीं होता है। असम्भव है। केवल एक बात कहकर शेष करता हूँ -1916 में नवनीदा का शरीर जाने के बाद , जयराम महाराज 2017 में रामकृष्ण मठ मिशन के प्रेसिडेन्ट हो चुके थे !  तनु बाबू के बारे में पहले कहा था, तनु लाल पाल का मकान कुछ हिस्सा दूसरे लोगों के हाथ में था। हमलोग बहुत कष्ट करके 2018 में, उनलोगों से स्वयं चंदा इकट्ठा करके खरीद लिया गया। बाकि हिस्सा तनु दा ने दान में दे दिया। हमारे भाइयों ने ही चंदा इकट्ठा किया -लभग एक करोड़ रुपया के लागत से बना। महाराज सुनकर आश्चर्य चकित थे, उन्होंने  कहा था -इतना पैसा तुमलोग कहाँ से लाएगा ? उधार पसंद नहीं करते थे - तुमलोग कहीं से मत लेना। विशेष रूप से कोई बिल्डिंग बनाना ही वे पसंद नहीं करते थे। उन्होंने बार बार कहा था - किसी बड़े सेवा काम को हाथ में मत लेना। रामकृष्ण मिशन उसके लिए है - उसके साथ कभी तुलना मत करना। चूँकि हमलोग मिशन के साथ बहुत निकट से जुड़े हुए हैं, इसलिए उनसे Motivated होकर हमलोग भी कोई बड़ा Social Work करें। उन्होंने मना किया था। 

      उन्होंने बार बार कहा था, जब वे अस्वस्थ हो गये थे, तब भी कहा था -तुम्हारे महामण्डल का आदर्शवाक्य (motto) है 'Be and Make ' और रामकृष्ण मिशन का motto है - 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत हिताय च " दोनों में मिलों का अन्तर है- Don't get Confused. भ्रमित मत होना। हॉस्पिटल बनाना, स्कूल -कॉलेज खोलना , विभिन्न प्रकार के रिलीफ वर्क या सोशल वर्क करना- ये सब तुम लोगों का काम नहीं है। मनुष्य बनो और बनाते चले जाओ -Be and Make! इससे ही नया भारत गढ़ेगा।  इससे बड़ा, सबसे बड़ा सामाजिक सुरक्षा,  welfare, समृद्ध देश का निर्माण नहीं हो सकता है। इससे बड़ा कोई सोशल वर्क नहीं किया जा सकता है- सर्वश्रेष्ठ समाज सेवा है - 'Be and Make ' जयराम महाराज महामण्डल भवन के शिलान्यास के समय वहां आये थे। 2018 के सितम्बर महीने में उन्हीं के हाथ से इस भवन की बुनियाद रखी गयी थी। सियालदह स्टेशन के निकट एक छोटी सो गली में स्थित एक छोटा भूमि खंड। बहुत कष्ट करके वे पहुँचे थे। 

उनके भीतर एक अद्भुत अनुभूति काम करती थी , हमलोगों ने देखा है महामण्डल का कोई लड़का उनसे मिलने गया है , कोई लड़का उनको प्रणाम करने आया है -सुनते ही वे व्यग्र हो उठते थे। भाइयों ने मुझे बताया कि झाड़ग्राम में एक नया टेकओवर हुआ है , महाराज वहां दीक्षा देने गए थे। उस समय सान्तनु महाराज भी वहीं पर थे। हमलोगों के कई सौ युवा भाई वहाँ महामण्डल के सदस्य हैं। कई स्थानों पर वहां पाठचक्र होता है। उनके सेवक ने बताया कि महाराज महामण्डल के लड़के लोग आये हैं। वे लम्बी यात्रा के बाद-4 -5 घंटा जर्नी से थोड़ा tired हो गए थे। भाइयों ने बताया की सुनते ही वे ताजा हो गए थे। 

    और मैं तो खुद इसका साक्षी हूँ। मैं जब कभी उनके पास गया हूँ -समय या असमय भी,  चाहे वे बेलूर मठ में रहे हों या नरेन्द्रपुर में या सरिसा में या बड़नगर में और कहीं गए हों देखते ही महामण्डल की बात करते थे। 24 जुलाई 2023 को लास्ट बार मैं उनसे नरेन्द्रपुर में मिलने गया था। उस समय शरीर इतना अस्वस्थ नहीं था किन्तु थके हुए थे। शाम के समय restricted दर्शन की अनुमति थी। मैं उसके पहले चला गया। बोला दीप्ती महाराज से appointment लिया हूँ। उनके पैरों में बैठकर मैंने हाथ जोड़कर कहा था -महाराज आज मैं आपको छोड़ूँगा नहीं - आपको कमरे में जाने नहीं दूँगा। क्यों ऐसा बोला नहीं जानता। सेवक महाराज बोले एक घंटा विश्राम लेने के बाद अब वे प्रणाम में बैठेंगे -आप उनको छोड़ दीजिये। 

    नहीं उनको उत्तर देना ही होगा -मैं जानना चाहता हूँ कि महामण्डल के भाइयों के लिए क्या सन्देश है , आपको हर समय मिलना सम्भव नहीं होता है। केवल दो बात बोलना -"सभी सदस्यों को स्वामीजी की पुस्तकों को पढ़ने के लिए कहना। और  स्वामीजी के सन्देश को युवाओं के बीच जितना अधिक से अधिक हो सके प्रसारित कर सकते हो करते रहने को कहना। " महाराज ने अपने हाथों से हमलोगों को तैयार किया है न , महाराज ने  जीवन भर हमलोगों को इंस्पायर किया है न ? हर समय हमलोगों के साथ थे। मेरा दृढ़ विश्वास है कि वे इस समय भी हैं, और बाद के समय भी हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। महामण्डल को वे ही आगे ले जायेंगे - ॐ शान्ति,शान्ति , शांति। हरिः ॐ तत्सत।                                                                                       

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[#अंग्रेजी कविता- 'कॉसाबियांका ' (Casabianca)...पार्क सर्कस के उस साम्प्रदायिक घटना का जिसका जिक्र दीपक दा ने अपने भाषण में किया -  "उसका उल्लेख करते हुए नवनीदा ने जीवन नदी०-..पुस्तक पेज 119-22 में  लिखा है - " पार्क सर्कस मैदान में निर्मित जिस विशाल पण्डाल में वह भव्य कार्यक्रम इतने दिनों तक चलने वाला था,....  उसके विभिन्न टिकट काउंटर्स में टिकट देना, बेचे गए टिकटों का हिसाब रखना तथा बिक्री से आये समस्त रूपये -पैसों को संभाल कर रखना- अर्थात काउंटर्स संचालित करने का दायित्व मुझे दिया गया था। मेरे पास रुपयों से भरी एक बड़ी सी झोली हुआ करती थी -जिसमें कई प्रकार के ढेरसारे नोट एवं खुदरा पैसे आदि रखे होते थे। स्वामी भाष्यानंद जी प्रतिदिन कार्यक्रम प्रारम्भ होने से पहले अपनी गाड़ी से मुझे वहाँ पहुँचा देते थे, तथा कार्यक्रम समाप्ति के पश्चात मुझे अपने साथ लेकर आते थे। ... उस दिन टिकटों की खूब बिक्री भी हुई थी। रुपयों से भरी एक लम्बी सी बोरी और बचे हुए टिकटों को लेकर आखिर मैं जाता भी तो कहाँ ? .... उसी बोरी को लेकर मैं मंच पर चढ़ गया तथा उसी बोरी को तकिया बनाकर सो गया। सुबह उस बोरी को किसी प्रकार खींचते हुए एक ट्राम पर चढ़ गया और मौलाली चला आया। निकट में ही सूर महाशय के मकान में स्वामीजी का शतवार्षिकी ऑफिस था। ..वहीं स्वामी समबुद्धानन्द जी के पास सारे रूपये जमा करवा दिए। .... उस दिन की घटना से मुझे बहुत अच्छी सीख मिली की कठिन परिस्थितियों में कार्य करते हुए भी -इतना निश्चिंत होकर रहा जा सकता है ! (सोया भी जा सकता है !) किसी भी परिस्थिति में घिरने पर भय का नामो-निशान नहीं रहेगा। किसी भी अभाव में पड़ने पर कष्टबोध नहीं होगा , और जो भी दायित्व सौंपा गया हो उस कर्तव्य का सम्पूर्णतया पालन कविता के  'कैसाबियांका' नामक उस आज्ञाकारी लड़के की तरह करना होगा। जिसकी सच्ची कहानी पर आधारित है अंग्रेजी कविता- 'Casabianca' (कैसाबियांका) कविता का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है " The poem starts: "The boy stood on the burning deck, Whence all but he had fled !" उस सच्ची कहानी के अनुसार कैसाबियांका इतना आज्ञाकारी था कि, जब सभी भाग गए थे लेकिन जहाज के जलते हुए डेक पर भी खड़े रहकर वह लड़का अपने पिता के आदेशों का इंतजार इसलिए कर रहा था, क्योंकि उसे यह नहीं मालूम था कि उसके पिता अब जीवित नहीं हैं।जहाज में आग लग गयी है, किन्तु जिसे जहाँ खड़े रहने के लिए कहा गया हो, उसे वहीं खड़ा रहना होगा। आग से डरकर भागना नहीं होगा, यदि हम ऐसा करने में समर्थ हो गए - तो उसी में है ब्रह्मानन्द (बृहद आनन्द) !" [(जीवन नदी०- पेज 119 -... [42] विवेक-जीवन ब्लॉग - 31 जुलाई 2010" कर्तव्य निष्ठा "नोट हिन्दी अनुवादक साभार //'कॉसाबियांका ' ]  

>>Vivekananda: His Call to the Nation  (Paperback-Ratings 5 & Best Reviews) :

"It is the Best Book I have ever read, and still keep reading..! It's really a wonderful inspiring book everybody should read. It's an extraction of Swami Vivekananda's Complete Works. I can say it's The Bhagavat of Hindus, the Quran for Muslims, and the Holy Bible for Christians.

Contents:

1. A Brief Life of Swami Vivekananda : स्वामी विवेकानन्द की संक्षिप्त जीवनी। 

2. Faith and strength : श्रद्धा और बल 

3. Powers of the Mind : मन की शक्तियाँ 

4. Man the Maker of His Destiny : मनुष्य -अपना भाग्यनिर्माता।  

5. Education And Society : शिक्षा और समाज 

6. Serve Man As God : मनुष्य की ईश्वरभाव से सेवा 

7. Religion and Ethics : धर्म और नीति 

8. India: Our Motherland : हमारी मातृभूमि भारत 

9. Other Exhortations : विविध उपदेश 

10. Context list (References) संदर्भ सूची

This is the best guide to make everyone realize their strengths oneself. Though there are translations available I suggest you read this book in your mother tongue with the English edition also. Swami Vivekananda Says "Never Say No. Never Say I can't even time and space are nothing compared to your nature. You can do anything and everything. You are Almighty..!"

There cannot be any other book better than this for the whole of humanity, particularly for the young generation. The book will serve the young mind to develop into a noble human being who will be able to live a life of contentment and will be able to contribute towards the welfare of humanity.

To build a Selfless youth and to lead the future one must read and make your friends read this book..! Get charged with the inspiring words of a great soul.

(Jagadish Appana Seo/Sep, 2013)

[1970 में नागपुर से हिन्दी भाषा में  प्रकाशित पुस्तक "विवेकानन्द - राष्ट्र को आह्वान" का मूल्य अभी 15 रुपया है। [ask why CW not available on Internet? बंगाली, मराठी, गुजराती में वि० साहित्य है, तो नागपुर-गोवा से हिन्दी में क्यों नहीं है ?]

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गुरुवार, 25 जनवरी 2024

👉'रामो विग्रहवान् धर्मः' 👈 - मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम धर्म [शीक्षा- #] के साक्षात् साकार रूप हैं !

 👉भगवान श्री राम धर्म और 'शी'क्षा # के साक्षात् साकार रूप हैं👈

 [तैत्तरीय उपनिषद में दीर्घ 'ई' वाली शीक्षा वल्ली देखें]    

500 वर्ष तक संघर्ष करने के बाद पुण्यभूमि भारत के श्री अयोध्याधाम में  22 जनवरी 2024 को  रामलला की मूर्ति में  प्राण-प्रतिष्ठा होने जा रही है।  यह एतिहासिक अवसर है कि एक कुशल चालक की तरह हमारे युवा समाज रूपी वाहन के बैक मिरर पर भी क्षणिक दृष्टिपात करें ताकि देख सकें कि अतीत में हम क्या थे ? हमारी कमजोरियां व बुराईयां कौन-सी थीं और हमारी शक्ति व अच्छाईयां क्या। अपनी कमजोरियों व बुराइयों को छोड़ अतीत की शक्ति व अच्छाइयों से अपने आप को आत्मसात करें। राममन्दिर के साथ-साथ राष्ट्रमन्दिर के निर्माण में भी जुटें और रामराज्य के गुणात्मक प्रजातान्त्रिक मूल्यों को अपना कर अपने देश के लोकतन्त्र को दुनिया के सबसे बड़ा होने के साथ-साथ गुणात्मक लोकतन्त्र होने का भी गौरव प्रदान करें
 500 वर्ष की प्रतीक्षा के बाद  पुण्यभूमि भारत के श्री अयोध्याधाम में रामलला की मूर्ति में  22 जनवरी 2024 को प्राण-प्रतिष्ठा हो जाने के बाद - धर्म और शिक्षा का भेद समाप्त होता  है ! 
अर्थात वाल्मीकि के  'रामो विग्रहवान् धर्मः' - मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम  धर्म के साक्षात् साकार रूप हैं-  कहने का तात्पयर्य है राम जैसा उत्तम चरित्र का अधिकारी मनुष्य बन कर उन्हीं गुणों को अपने  व्यवहार द्वारा अपने जीवन से  प्रकट करने का नाम है 'शी'क्षा। 
  कुछ बहुमूल्य विचारों को  आत्मसात  कर लेना चरित्रगत कर लेना (mingle with the blood बना लेना) यानि रक्त -मज्जा से एकीभूत कर लेना - इस प्रकार यथार्थ मनुष्य बनाने वाले धर्म का नाम ही शिक्षा (जैसे चार महावाक्यों - Be and Make) भारतीय सांस्कृतिक चेतना के लोकनायक भगवान श्रीराम के अयोध्याधाम में उनकी रामलला रूप में  प्राण-प्रतिष्ठा  दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।

छः अध्यायों वाली वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड  (3.37.2) में मारीच ने रावण को समझाया कि  राम और सीता ब्रह्म और शक्ति के साक्षात् अवतार हैं - कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं -  के गुणों का वर्णन किया-- तथा रावण को यह सलाह दी की उसे सीता के अपहरण का विचार त्याग देना चाहिए। 
सुलभाः पुरुषा राजन्सततं प्रियवादिनः।

अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।।

(वाल्मिकी रामायण : 3.37.2) 

(राजन् O king, प्रियवादिनः sweettongued, पुरुषाः men, सततम् always, सुलभाः easy to find, अप्रियस्य unpleasant to hear, तु but, पथ्यस्य salutary, वक्ता speaker, श्रोता च audience, दुर्लभः is difficult to find.)
हे राजन, सदा प्रिय वचन बोलकर चाटुकारिता करने वाले मनुष्य सर्वत्र बहुतायत में मिलते है;  किन्तु जो अप्रिय (कानों के लिए) होने पर भी जीवन गठन में हितकारी हो ऐसी बात कहने और सुनने वाले लोग सर्वत्र दुर्लभ होते है। 
O king, it is always easy to find men who speak pleasing words, but it is difficult to get a speaker and a listener who use words unpleasant (to the ears) but beneficial (in life).

तब रामलला की मूर्ति में प्रतिष्ठा हो जाती है और पुण्यभूमि भारत के सनातन धर्म (शीक्षा) मार्ग पर चलने वालों के जीवन में त्रेता युग चलने लगता है और तब उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है।   

रामचरितमानस में कहा गया है कि ‘सबको विश्राम दे, वह राम।’ तो गुरु कृपा से मेरी अपनी समझ यह बनी कि वह चाहे अयोध्या में प्रकट हुए हों, चाहे कोई भी प्रांत में, राम को शायद हम पूरा नहीं समझ पाएं। 'राम'  तो परम तत्व का एक नाम हैं। उनसे ही कई विष्णु अवतरित हैं। 

(अर्थात  अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव  के सिद्धान्त -" जे जार इष्ट से तार आत्मा ! " के अनुसार- " जो  राम , जो कृष्ण वही रामकृष्ण- इस बार दोनों एक साथ; किन्तु तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं !" इस गुणातीत -श्रद्धा की दृष्टि से राम किसी व्यक्ति नश्वर देह-मन का नाम नहीं है, बल्कि ब्रह्माण्ड की आत्मा - सभी की आत्मा, पूर्णता, दिव्यत्व या ब्रह्मत्व का एक नाम है , उनसे ही कई विष्णु अवतरित होते रहते हैं ! उन्हीं में से एक 'मनुज अवतारी ' विष्णु का नाम है- राम !)  
गोस्वामी तुलसीदास जी का भगवान श्रीराम के प्राकट्य के दिन का वर्णन करते हुए लिखा है -

नवमी तिथि मधुमास पुनीता,

 सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता।

मध्य दिवस अति सीत न घामा, 

पावन काल लोक बिश्रामा। 

(रामचरितमानस) 
 
भावार्थ:-पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित्‌ मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बहुत सर्दी थी, न धूप (गरमी) थी। वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देने वाला था॥1॥

राम दोपहर में जन्मे, जिस समय व्यक्ति भोजन कर आराम करता है। तो आदमी को तृप्त कर विश्राम देने के काल में राम का आगमन होता है। नवमी तिथि का दूसरा पक्ष यह भी है कि यह पूर्ण है। नौ का अंक (4005=9) पूर्ण है, दस में तो फिर एक के साथ जीरो जोड़ना पड़ता है। ग्यारह में दो एक करना पड़ता है। एक, दो, तीन, चार, पांच की गिनती में नौ आखिरी तिथि है, इसलिए उसको पूर्ण भी कहा गया है।
मानस में वशिष्ठ जी कहते हैं, ‘जो आनंद का सागर है, सुख की खान है और जिसका नाम लेने से आदमी को विश्राम मिलेगा और मन शांत होगा, उस बालक का नाम राम रखता हूं।’ तो राम महामंत्र है- तारक मंत्र है ! अपने भारत देश में विशेष रूप से काशी के मणिकर्णिका घाट पर आज भी भगवान शिव स्वयं  'तारक मंत्र '- “श्रीराम जय राम जय जय राम” सुनाकर मृतकों को मुक्ति प्रदान करते हैं! वहीँ युद्ध में 'जय श्रीराम ! ' अभिवादन के लिए राम-राम, खेद प्रकट करने के लिए राम-राम-राम और अंत समय “राम नाम सत्य है” कहने का प्रचलन है। यानी जन्म से अंत तक राम का ही नाम अपने समाज में रच-बस गया है। अतः सब ओर राम ही राम है। राम का नाम तो किसी भी समय लिया जा सकता है। इस महामंत्र का जप करने वाले को तीन नियम मानने चाहिए। 
पहला सूत्र- राम नाम भजने वाला किसी का शोषण न करे, बल्कि सबका पोषण करे। दूसरा सूत्र- किसी के साथ दुश्मनी न रखे और दूसरों की मदद भी करे। ऐसा करेंगे, तो राम नाम ज्यादा सार्थक होगा। सुंदर कांड में हनुमान को लंका में जलाने का प्रयास किया गया। जहां (जिस व्यक्ति में) भक्ति का दर्शन होता है, उसे समाज रूपी लंका जलाने का प्रयास करती ही है, लेकिन सच्चे संत को लंका जला नहीं सकती। तीसरा सूत्र है- सबका कल्याण और समाज को जोड़ना। लंका कांड के आरंभ में सेतु बंध तैयार हुआ। दिव्य सेतु बंध के दर्शन कर प्रभु ने धरती पर भगवान रामेश्वर की स्थापना की। यह शिव स्थान हुआ। यह राम नीति है। कल्याणकारी राज्य  की स्थापना करना। शिव यानी भारत का कल्याण। सेतु निर्माण करना  यानी सम्पूर्ण समाज को जोड़ना

>>>रामचरितमानस/ रामकृष्ण लीलाप्रसंग  में कहा गया है कि ‘जो सबको विश्राम दे, वह राम।’ तो गुरु कृपा  से मेरी अपनी समझ यह बनी कि वह चाहे अयोध्या में प्रकट हुए हों, चाहे कोई भी प्रांत- UP हो या WB  में, कोई भी देश में, पाताल में, आकाश में या कहीं भी प्रकट हुए हों, लेकिन वह चंचल मन को आराम को प्रदान करें, विराम को प्रदान करें, विश्राम को प्रदान करें और साथ-साथ अभिराम को प्रकट करें। हमारे आंगन में आराम, विश्राम, विराम और अभिराम- ये चार खेलने लगें, तो समझना चाहिए कि तुलसी का राम चार पैरों से हमारे आंगन में घूम रहा है। 
  आज 22 जनवरी 2024 को रामलला की प्राणप्रतिष्ठा के शुभ मुहूर्त पर इस अयोध्या में केवल राम मन्दिर निर्माण नहीं - बल्कि राष्ट्र-मन्दिर निर्माण की दृष्टि से भगवान राम के नाम का यही सात्विक-तात्विक अर्थ भी निकालना चाहिए। मानस में स्पष्ट लिखा है कि राम मानव के रूप में आए, ऐसी शर्त है- ‘लीन्ह मनुज अवतार’। चतुर्भुज रूप लेकर प्रकट हुए, तो कौसल्या ने मना कर दिया कि मुझे चार हाथ वाला ईश्वर नहीं चाहिए, मुझे दो हाथ वाला ईश्वर चाहिए।  आज  सिर्फ भारत को ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को  दो हाथ वाले ईश्वर की ज्यादा जरूरत है। यथार्थ मनुष्य के रूप में,  इंसान के रूप में ईश्वर की ज्यादा जरूरत है।  इसलिए तुलसी ने कहा, ‘लीन्ह मनुज अवतार’। 

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥

लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥1॥

भावार्थ:-दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने (खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए॥1॥

    हाथ भले दो हो, मनुष्य के रूप में हो, लेकिन चार हाथों का काम करे, ऐसा ईश्वर चाहिए। और ये चार हाथों का काम है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। पहला पुरुषार्थ धर्म - यानि स्वामीजी के अनुसार शिक्षा और धर्म एक ही बात है , इसलिए भारत के युवा विश्व में सतयुग के धर्म (मनुष्य -निर्माणकारी शिक्षा) को संस्थापित करें। क्योंकि विवेकानन्द ने कहा था - " श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से -सतयुग का प्रारम्भ हो चुका है ! " सम्पूर्ण जगत में सतयुग स्थापित करने से तात्पर्य है कि इस विश्व में 'अर्थ' हो - याने गरीबी न रहे,  दुनिया में दीनता न रहे, हीनता न रहे, दुनिया संपन्न रहे। काम' हो माने, दुनिया रसपूर्ण और पल-पल का आनंद उठाए। और मोक्ष माने, आखिर में सभी बंधनों से जो मुक्ति की ओर ले जाए, वही दो हाथ वाले राम के चार भुजकर्म हैं- एक अकेला सब पर भारी 
 " साकेत " काव्य के -प्रथम सर्ग में मैथिलीशरण गुप्त जी लिखते हैं -
अयि दयामयि देवि, सुखदे, सारदे,इधर भी निज वरद-पाणि पसारदे।
दास की यह देह-तंत्री तार दे,रोम-तारों में नई झंकार दे।
बैठ मानस-हंस पर कि सनाथ हो,भार-वाही कंठ-केकी साथ हो।
चल अयोध्या के लिए सज साज तू, मां, मुझे कृतकृत्य कर दे आज तू। 

स्वर्ग से भी आज भूतल बढ़ गया,भाग्यभास्कर उदयगिरि पर चढ़ गया।
हो गया निर्गुण सगुण-साकार है;ले लिया अखिलेश ने अवतार है।
राम। तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है। कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है॥ 
(मैथिलीशरण गुप्त)
हम राम को पढ़ते हैं, पूजते हैं। उनके जीवन, विचार, संवाद और प्रसंगों को पढ़ते-पढ़ते भावविभोर हो जाते हैं। उनका नाम लेते ही हमारा हृदय श्रद्धा और भक्तिभाव से सराबोर हो जाता है। हमारे सामने श्रीराम की धर्मपत्नी माता सीता का महान आदर्श है जो अद्वितीय है। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जैसा भाई, महावीर हनुमान और शबरी जैसी भक्ति, अंगद जैसा आत्मविश्वासी तरुण, भला और कहां दिखाई देता है! रामायण के प्रमुख पात्रों में जटायु, सुग्रीव, जाम्बवन्त, नल-नील, विभीषण जैसे नायक लक्ष्यपूर्ति के लिए प्रतिबद्ध हैं। वहीं रावण, कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत मेघनाथ जैसे पराक्रमी असुरों का वर्णन भी विकराल है, जिनपर श्रीराम और उनके सहयोगी सैनिकों द्वारा विजय प्राप्त करना सचमुच अद्भुत है। 
रामायण में सीता स्वयंवर, राम-वनवास, सीता हरण, जटायु का रावण से संघर्ष, हनुमान द्वारा सीता की खोज, लंका-दहन, समुद्र में सेतु निर्माण, इन्द्रजीत-कुम्भकर्ण-रावण वध, लंका विजय के बाद विभीषण को लंकापति बनाना, श्रीराम का अयोध्या आगमन, राम-भरत मिलन आदि सबकुछ अद्भुत और अद्वितीय प्रसंग है। अधर्म पर धर्म, असत्य पर सत्य तथा अनीति पर नीति का विजय का प्रतीक रामायण भारतीय इतिहास की गौरवमय थाती है। रामायण का हर पात्र अपनेआप में श्रेष्ठ हैं पर श्रीराम के साथ ही माता सीता, महावीर हनुमान, लक्ष्मण और भरत का चरित्र पाठक के मनःपटल को आलोकित करता है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने “गोस्वामी तुलसीदास” नामक अपनी पुस्तक में कहा है, “राम के बिना सनातन हिन्दू जीवन नीरस है – फीका है।  यही रामरस ही जिसने शिक्षा और धर्म के वास्तविक  स्वाद को अभी तक बनाए रखा है और आगे भी बनाए रहेगा। राम का ही मुख देख कर हिन्दू जनता का इतना बड़ा भाग हजारों वर्षों की गुलामी के बावजूद  अपने धर्म और जाति के घेरे में पड़ा अक्षुण्ण बना रहा। न उसे तलवार काट सकी, न धन-मान का लोभ, न धर्मान्तरण के जेहादी उपदेशों की तड़क-भड़क।”
श्रीराम भारतीय जनमानस में आराध्य देव के रूप में स्थापित हैं और भारत के प्रत्येक जाति, मत, सम्प्रदाय के लोग श्रीराम की पूजा-आराधना करते हैं। कोई भी घर ऐसा नहीं होगा, जिसमें राम-कथा से सम्बंधित किसी न किसी प्रकार का साहित्य न हो।  क्योंकि भारत की प्रत्येक भाषा में रामकथा पर आधारित साहित्य उपलब्ध है। भारत के बाहर भी विश्व के अनेक देश ऐसे हैं जहां के जन-जीवन और संस्कृति में श्रीराम इस तरह समाहित हो गए हैं कि वे अपनी मातृभूमि को श्रीराम की लीलाभूमि एवं अपने को उनका वंशज मानने लगे हैं। 
चीनी भाषा में राम साहित्य पर तीन पुस्तकें प्राप्त होती हैं जिनके नाम “लिऊ तऊत्व”, “त्वपाओ” एवं “लंका सिहा” है जिनका रचनाकाल क्रमशः 251ई., 472ई. तथा 7वीं शती है।  इंडोनेशिया में हरिश्रय, रामपुराण, अर्जुन विजय, राम विजय, विरातत्व, कपिपर्व, चरित्र रामायण, ककविन रामायण, जावी रामायण एवं मिसासुर रामकथा नामक ग्रन्थ लिखे गए। थाईलैंड में “केचक रामकथा”, लाओस में ‘फालक रामकथा’ और ‘पोम्मचाक’, मलेशिया में “हकायत श्रीराम, कम्बोडिया में “रामकीर्ति” और फिलीपिन्स में ‘महरादिया लावना’ नामक ग्रंथ की रचना की गई।
रूस में तुलसीकृत रामचरितमानस का रूसी भाषा में अनुवाद बारौत्रिकोव ने 10 वर्षों के अथक परिश्रम से किया, जिसे सोवियत संघ की विज्ञान अकादमी ने सन 1948 में प्रकाशित किया। उपर्युक्त देशों की भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, उर्दू, फारसी, पश्तों आदि भाषाओं में भी राम साहित्य की रचना की गई। कहने का तात्पर्य है कि भगवान राम सर्वव्यापक तो हैं ही, साथ ही उनपर लिखे गए साहित्य की व्यापकता भी विश्व की अनेक भाषाओं में उपलब्ध है। यह श्रीराम चरित्र की विश्व लोकप्रियता को प्रतिबिंबित करता है।

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है ‘रामो विग्रहवान धर्म:’, अर्थात् राम धर्म के साक्षात् साकार रूप हैं। 
रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्यपराक्रमः ।
राजा सर्वस्य लोकस्य देवानाम् इव वासवः ॥

 (वाल्मीकि रामायण)

श्रीराम विग्रहवान धर्म हैं, वे साधु और सत्यप्रक्रमी हैं। जैसे इन्द्र समस्त देवताओं के अधिपति हैं वैसे वे सम्पूर्ण जगत के राजा हैं।
उन्होंने किसी दण्डात्मक प्रणाली के तहत नहीं बल्कि धर्म को केन्द्र में रख कर लोकतान्त्रिक प्रणाली में रामराज्य की व्यवस्था की थी । लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सर्वाधिक मूल्यवान मानी जाती है, अभिव्यक्ति अर्थात् बोलने की आजादी जिसको लेकर आजकल लम्बी-चौड़ी बहस छिड़ती रही है। अपने देश के संविधान में स्वतन्त्रता का अधिकार मूल अधिकारों में सम्मिलित है। इसकी 19, 20, 21 तथा 22 क्रमांक की धाराएं नागरिकों को बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सहित 6 प्रकार की स्वतन्त्रता प्रदान करतीं हैं- जैसे संगठित होना, संघ या सहकारी समिति बनाने की स्वतन्त्रता, सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतन्त्रता, कहीं भी बसने की स्वतन्त्रता, कोई भी उपजीविका या कारोबार की स्वतन्त्रता। किन्तु इस स्वतन्त्रता पर राज्य मानहानि, न्यायालय-अवमान, सदाचार, राज्य की सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध, अपराध-उद्दीपन, लोक व्यवस्था, देश की प्रभुता और अखण्डता को ध्यान में रख कर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगा सकता है। उसी तरह रामराज्य के दौरान भी धर्म एक ऐसा अंकुश था जिसका पालन शासक वर्ग के साथ-साथ हर नागरिक भी आत्मप्रेरणा से करते थे। अपनी संस्कृति में कहा गया है- "सत्यम वद, धर्मं चर"-अर्थात् सत्य बोलो और धर्म का आचरण करो।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्।

प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, एष धर्म: सनातन:॥

भाव यह कि सत्य बोलो, प्रिय बोलो। अप्रिय नहीं बोलना चाहिये चाहे वह सत्य ही क्यों न हो। प्रिय बोलना चाहिए परन्तु असत्य नहीं; यही सनातन धर्म है। 

रामराज्य में इस पर कितना जोर दिया गया वह उस युग के लिए ही नहीं बल्कि आधुनिक काल के लिए भी अद्भुत है। रामराज में जनसाधारण को भी बोलने व राजा तक का परामर्श मानने या ठुकराने की कितनी स्वतन्त्रता थी इसके बारे तुलसीदास जी कहते हैं-

सुनहुसकल पुरजन मम बानी। कहउं न कछु ममता उर आनी।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।

श्रीराम अपने गुरु वशिष्ठ जी, ब्राह्मणों व जनसाधारण को बुला कर कहते हैं कि संकोच व भय छोड़ कर आप मेरी बात सुनें। इसके बाद अच्छी लगे तो ही इनका पालन करें।

सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।

वो ही मेरा श्रेष्ठ सेवक और प्रियतम है जो मेरी बात माने और यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूं तो भय भुला कर बेखटके से मुझे बोलते हुए रोक दे। श्रीराम अपनी प्रजा को केवल अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ही नहीं देते बल्कि अपनी निन्दा व आलोचना करने वाले को अपना प्रियतम सेवक भी बताते हैं। 
धोबी द्वारा माता सीता को लेकर दिये गए उलाहने का प्रकरण बताता है कि उन्होंने यह बात केवल कही ही नहीं बल्कि इसे अपने जीवन में उतारा भी। एक साधारण नागरिक के रूप में धोबी की बात मानने की उनकी कोई विवशता नहीं थी। वे चाहते तो इसे धृष्टता बता कर दण्ड भी दे सकते थे, या विद्वानों-धर्मगुरुओं से जनसाधारण को इसका स्पष्टीकरण भी दिलवा सकते थे परन्तु उन्होंने इन सबकी बजाए अपनी प्राण प्रिय सीता के त्याग का मार्ग चुना। एक राजा द्वारा जन-अपवाद के निस्तारण का इससे श्रेष्ठ उदाहरण आज तक नहीं सुना गया।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जो स्वयं धर्म स्वरूप हैं; उनका वर्णन करनेवाले तुलसीदास ने स्वयं ही कह दिया –
“नाना भांति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा।।
रामहि केवल प्रेम पियारा। जानि लेउ जो जाननिहारा।।”
अर्थात राम का जीवन अपरम्पार है, उसे समझना कठिन है। पर राम को जाना जा सकता है – केवल प्रेम के द्वारा। आइए, अंतःकरण के प्रेम से भगवान श्रीराम का स्मरण करें।
अपनी रचना ‘पौलस्त्य वध’ के लेखक  लक्ष्मण सुरि ने श्रीराम का वर्णन करते हुए कहा है, “हाथ से दान, पैरों से तीर्थ-यात्रा, भुजाओं में विजयश्री, वचन में सत्यता, प्रसाद में लक्ष्मी, संघर्ष में शत्रु की मृत्यु – ये राम के स्वाभाविक गुण हैं।”
साभार – लखेश्वर चन्द्रवंशी “लखेश”,नागपुर / https://punyabhumibharat.wordpress.com/2019/04/14/
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