कुल पेज दृश्य

बुधवार, 5 सितंबर 2018

$$$ नवनीदा और अद्वैत आश्रम मायावती का सम्बन्ध

" मने राखबे तुमि एक जन শিক্ষক ! "                    
[आध्यात्म के बिना शिक्षा असम्पूर्ण है! Education without Spirituality is incomplete:  (আধ্যাত্মিকতা ছাড়া শিক্ষা অসম্পূর্ণ/ठाकुर की टीकाधारी सोनार की कथा -केशब ?गोपाल ! हरि -हरि ! हर-हर ! मुख में राम बगल में छूरी ? जिसके हाथ में होगी लाठी क्या भैंस वही ले जायेगा ? बल-बुद्धि में सबल मनुष्य क्या दुर्बल का शोषण करेगा?
 किन्तु मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता या जीवनमुक्त शिक्षक हमें बताते हैं कि 'किसी मनुष्य के पास यदि संसार की सारी संपत्ति है, किन्तु आध्यात्मिक शक्ति नहीं, तो वह सब किस काम की?  जिस तरह पाश्चात्य जाति ने बहिर्जगत की गवेषणा में श्रेष्ठत्व लाभ किया है, उसी तरह प्राच्य जाति ने भी अंतर्जगत की गवेषणा में श्रेष्ठत्व लाभ किया है ! ये दोनों ही भाव महत्वपूर्ण तथा गौरवशाली हैं ! किन्तु दोनों एक दूसरे को स्वप्न-राज्य में विचरण करने वाले समझते हैं।अतः यह ठीक ही है कि जब कभी मानवसमाज को आध्यात्मिक सामंजस्य की आवश्यकता होती है, तो उसका आरम्भ प्राच्य से ही होता है। साथ ही यह भी ठीक है कि यदि प्राच्य को भौतिक-समृद्धि लाने के लिए मशीन बनाने के सम्बन्ध में सीखना हो,तो वह पाश्चात्य के पास ही बैठकर सीखे। परन्तु यदि पाश्चत्य को मानसिक शांति पाने के लिए ईश्वर, आत्मा तथा वेदान्त के रहस्यों को जानने की आवश्यकता हो तो उसे प्राच्य के पास बैठकर सीखना होगा। वर्तमान सामंजस्य इन दोनों आदर्शों का - भौतिक समृद्धि (विज्ञान) और आध्यात्मिकता का समन्वय तथा मिश्रण रूप होगा।
हममें से कुछ लोगों ने यदि आचार्य शंकर का नाम सुना भी है, तो दूसरों की सुनी-सुनाई बातों को दुहराते हुए कहते हैं- ' शंकर ने तो जगत को बिलकुल उड़ा दिया था।' यदि उन्होंने जगत को ही उड़ा दिया था, तो अपने ज्ञान का प्रचार उनहोंने कहाँ किया था ?  उन्होंने कहा था- वेदों में दो प्रकार के धर्मों का उल्लेख है, एक है प्रवृत्ति का धर्म और दूसरा है निवृत्ति का धर्म। एक किनारे पर भोग है, तो दूसरे किनारे पर त्याग है। 
केन्द्रापसारी बल (Centrifugal force) और केंद्राभिसारी बल (centripetal force) दो प्रकार के बलों के प्रभाव से यह विश्व, समाज स्थितावस्था में बना रहता है, या यथापूर्व स्थिति (status quo) बनाये रखता है। ये दोनों हैं, इसीलिये मनुष्यों का समाज अपना संतुलन (Equilibrium) बनाये रखता है। जैसे हवाई जहाज अपने दोनों पंखों पर भारसंतुलन बना कर उड़ान भरता रहता है। उसी प्रकार धर्म के भी दो पक्ष हैं- 'भोग और त्याग ', इन दोनों की सहायता से मानव-समाज साम्यावस्था में रहता है। एक को भी छोड़ देने से दूसरा पक्ष या समाज चल नहीं सकता। त्यागमार्ग-विहीन समाज केवल भोग के उपर निर्भर होकर चल नहीं सकता है। उसी प्रकार सम्पूर्ण भोग-विहीन समाज भी संभव नहीं है। आवश्यकता दोनों में सामंजस्य रखने की है। 
 जब कभी इस सामंजस्य में असन्तुलन आने के कारण  धर्म लुप्त होने लगता है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, धर्म और चरित्र का पतन हो जाने के कारण मानव समाज और देश को भयंकर परिणाम भुगतना पड़ता है। देश की सामाजिक व्यव्स्थाएँ अस्तव्यस्त हो जाती हैं, जिसके फलस्वरूप देश में हिंसा,चोरी, लूट-पाट, कत्ल, झूट, छल, कपट आदि का आतंक छा जाता है। जिससे मानव जीवन अशान्त और दुखमय हो जाता है, तब उसके निवारण हेतु माँ जगदम्बा की इच्छा से, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद,या  आधुनिक युग में श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, जैसे अवतारों (या लोकशिक्षकों) का आविर्भाव होता है, अथवा महामण्डल (या विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर ?) जैसे आध्यात्मिक शिक्षकों का निर्माण करने वाले किसी युवा संगठन का आविर्भाव अनिवार्य हो जाता है।
 'आध्यात्मिक शिक्षक' ही मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता हैं! काश ! कि हमभी मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं, अवतारों,पैगम्बरों या जीवन्मुक्त लोक-शिक्षकों की तरह जन्मजात रूप से वेदान्त के चार महावाक्यों की धारणा, केवल अपने कॉमन सेन्स या साधारण बुद्धि के बल पर ही करने में समर्थ होते ! किन्तु स्वामी विवेकानन्द की जागरण वाणी -'उठो-जागो! ' सुने बिना हमारी मोह निद्रा भंग नहीं होती।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "हमारे देश में सबसे अधिक आदर और सम्मान एक शिक्षक को मिलता है,तथा उनके प्रति हमारी ऐसी श्रद्धा रहती है कि शिक्षक मानो साक्षात् ईश्वर ही हैं ! जितनी श्रद्धा हमें अपने शिक्षकों  (जीवन्मुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता) के प्रति रहती है; उतनी श्रद्धा हमें अपने माता-पिता के लिए भी नहीं होती। माता-पिता हमें केवल जन्म देते हैं,किन्तु शिक्षक (नेता) हमें अपने जीवन में वेदान्त का अभ्यास सिखाकर मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। "
मानवजाति के महान मार्गदर्शक नेता, आध्यात्मिक शिक्षक आचार्य शंकर आचार्य शंकर ईश्वर के इस 'जगत-संचालन कानून' को एक सूत्र (Formula या नुस्खा) में इस प्रकार कहा है -
 दुर्जन: सज्जनो भूयात, सज्जन: शांतिमाप्नुयात्। शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥ 
दूर्जन लोग पहले सज्जन बन जाएँ, क्योंकि जो सज्जन हैं, वे ही शान्ति प्राप्त कर सकते  हैं। फिर जो शान्त हो चुके हैं वे समस्त बन्धनों से मुक्त हो जायेंगे। जो स्वयं मुक्त हो चुके हों, वे दूसरों को मुक्त करने की चेष्टा  करते हैं। 
मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- सज्जन और दुर्जन। जन का अर्थ होता है-मनुष्य। सज्जन माने जो मनुष्य दूर्जन नहीं है।  बोलचाल की भाषा में ' सज्जनता ' कहने से हमलोग भद्रता समझते हैं।  किन्तु यथार्थ भद्रता तभी आती है, जब मनुष्य वास्तव में 'अच्छा' (अविनाशी) या 'ब्रह्म' के साथ अपने (आत्मा के) अद्वैत  को जानकर स्वयं अच्छा ('ब्रह्मविद') बन जाता है, उसे ही सूजन,सज्जन  या चरित्रवान मनुष्य कहा जाता है। जिनके परोपकारी व्यवहार से 'सू-जन' होने का परिचय मिलता है उसी को सज्जन कहते हैं। 
जबकि दूर्जन लोग कभी किसी का उपकार नहीं करना चाहते, फिर भी भावी नेता/आध्यात्मिक शिक्षक के लिये दूर्जनों से भी घृणा करना ठीक नहीं है। हमें उसके अज्ञान की गाँठ (Knot of Ignorance) काट देने की विद्या (५ अभ्यास) सीखनी होगी, उसके बुद्धि के भ्रम को मिटाकर (डीहिप्नोटाइज्ड) करके उसके बुद्धि का बन्धन (देहाध्यास, नाम-रूप, शरीर-मन के साथ तादात्म्य) खोल देना होगा तब वह भी सज्जन बन जायेगा। 
स्वामी जी के गुरु भाई स्वामी प्रेमानन्द जी ने एक बार कहा था - 'Before becoming a Monk, one should become a gentleman' - अर्थात संन्यासी बनने से पहले (निवृत्ति मार्ग के आध्यात्मिक शिक्षक या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने से पहले) किसी व्यक्ति को सज्जन मनुष्य (gentleman) बनना चाहिये। 'उनका यह निर्देश प्रवृत्ति या निवृत्ति सभी मार्गों के वुड बी लीडर्स या भावी आध्यात्मिक शिक्षकों पर लागू होता है।
 [ 'but the teacher shows us the way to salvation'. अर्थात शिक्षक 'सिंह-शावक' को अपना स्वरुप पहचान कर 'भेंड़ होने के भ्रम से मुक्त', जागृत या डी-हिप्नोटाइज्ड (awakened-प्रबुद्ध) हो उठने का मार्ग दिखलाते हैं !]
  श्रीमद्भागवत पुराण में कहा गया है - 'ब्रह्मावलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवः॥ ९.२८॥ ( -सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान्सरीसृप पशून्खगदंशमत्स्यान्। तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥)  जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्प-कार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था।  तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य को बनाया जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह अपनी बुद्धि को विकसित करके अपने बनाने वाले ब्रह्म या ईश्वर को भी जान लेने में भी समर्थ था।  इसी से मिलती-जुलती कथा बाइबिल और कुरान में भी है कि मनुष्य को ब्रह्मा जी ने अपने रूप में गढ़ा , और मनुष्य को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए।  और सभी देवदूतों (फरिस्तों) को बुलवा भेजा तथा उनको आदेश दिया कि तुम सबलोग मनुष्य के सामने सिर झुकाओ-इसको नमस्कार करो ! सभी फरिस्तों ने मनुष्य के सामने अपने सिर को झुकाया, केवल एक फरिस्ता जिसका नाम इब्लीस था,उसने सर नहीं झुकाया तो उसको भगवान ने कहा -दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया।
इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। निम्नतर सृष्टि, पशु-पक्षी आदि किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते। 
[ देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना, अर्थात गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों का पालन किये बिना, अर्थात प्रवृत्ति मार्ग की क्षणभंगुरता का अनुभव किये बिना, "निवृत्ति अस्तु महाफला की धारणा" नहीं कर सकते। अतः मुक्ति-लाभ या 'भ्रममुक्त अवस्था' भी प्राप्त नहीं कर सकते।]
जब हमें ऐसा महसूस होता है कि स्वयं को विश्व के अन्य मनुष्य के सुख-दुःख से काट कर एकाकी (isolated) बना लेना एक पाप है, तब हम सार्वजनिक कल्याण के कार्यों में स्वयं को खो देना चाहते हैं। हम अपने साथ दूसरे लोगों को जोड़ते चले जाते हैं, पहले अपने माता-पिता, बन्धु-बान्धव , जो हमारे अपने स्वजन सगे-संबंधियों में स्वयं को प्रसारित करने की चेष्टा करते हैं। अथवा (प्रवृत्ति मार्ग के अनुसार) विवाह होने के बाद जो नये नाते-रिश्ते बनते हैं, उनमें भी अपने को (अपने क्षुद्र व्यष्टि अहं या स्वार्थी अहं) खो देना चाहते हैं। और इस प्रकार क्रमशः हमें बोध होता है कि हमारी सबसे बड़ी विजय तो स्वयं को जीत लेने में है। प्रवृत्ति-मार्ग की क्षणभंगुरता (आहार-निद्रा-भय -मैथुन की क्षणभंगुरता का) अनुभव प्राप्त करने के बाद शास्त्र वाक्य 'निवृत्ति अस्तु महाफला' के अनुसार नाम-रूप के देहाध्यास या अहंकार से परे चले जाने में है ! जिसके फलस्वरूप हम अपने कामोन्माद या अपने परिवेश के गुलाम न होकर, शरीर और मन के जाल को काट कर भ्रममुक्त हो जाते हैं,और  स्वयं के स्वामी बन जाते हैं। 
उन पवित्र त्रिदेवों के जीवन तथा 'अद्वैत दर्शन' की समरूपता पर चिंतन- मनन  करने से मनुष्य को यह प्रेरणा प्राप्त होती है कि, अपने 'स्व' को , यथार्थ 'मैं' -को, 'अर्थात मैं वास्तव में कौन हूँ ' - को जान लेने के लिये,  आत्मा या इन्द्रियातीत सत्य तक केवल ऊपर आरोहण ही नहीं करना है, अपितु साक्षात्कार करने के बाद पुनः सापेक्षिक सत्य तक जन्तु-जगत् तक नीचे भी उतरना पड़ता है। और भारत के राष्ट्रीय आदर्श ' त्याग और सेवा' के अनुसार 'दृष्टि ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद्ब्रह्ममयं जगत्' - जगत को ब्रह्ममय देखते हुए इसकी सेवा में ही अपने जीवन को न्योछावर करके मनुष्य जीवन को सार्थक किया जा सकता है। जबकि पाश्चात्य भौतिकवादी शिक्षा से प्रभावित आधुनिक युवा सोचते हैं कि इस संसार में यदि प्राप्त करने योग्य  कोई अमूल्य वस्तु है तो वह भौतिक शक्ति ही है, तथा उन्नति और सभ्यता का पैमाना इसके सिवा दूसरा हो ही नहीं सकता। 
चाहे हम अपने 'स्व' (यथार्थ स्वरूप) को, 'मैं कौन हूँ ?' को गहराई से जानने की चेष्टा करें;  अथवा बाह्य प्रकृति को, दोनों अवस्थाओं में हमें उसी अनन्त-असीम (लिमिटलैस) का आह्वान सुनाई देता है। बाह्यजगत और अंतःजगत दोनों अथाह (fathomless) हैं, अतः इनकी गहराई को मापा नहीं जा सकता। इसीलिये हम उस प्रत्येक बाधा को तोड़ देना चाहते हैं, जो हमें इस मिथ्या व्यक्तित्व या नाम-रूप की सीमा में आबद्ध करना चाहती है। मानवजाति के जो मार्गदर्शक नेता अपने जीवन और उपदेशों के द्वारा इस मिथ्या व्यक्तित्व के अहं-बोध में फँसी आत्मा को.  या शरीर और मन की जाल में फँसी हुई आत्मा को सिंहविक्रम से काटकर मुक्त हो जाने का मार्ग दिखलाते हैं, उनके जीवन से हमलोगों को भी मुक्त होने की प्रेरणा प्राप्त होती है।   
महामण्डल आन्दोलन की गहराई को समझने के लिये, हमें पहले आधुनिक युग में सम्पूर्ण मानवजाति के प्रथम मार्गदर्शक नेता, प्रथम आध्यात्मिक शिक्षक, आदि गुरु भगवान श्रीरामकृष्णदेव- विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' के मर्म को समझना होगा। अथवा आधुनिक युग की आवश्यकता के अनुसार, माँ जगदम्बा भवतारिणी की ही इच्छा से -श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के नेतृत्व में  " विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा- BE AND MAKE"-के अनुरूप  'निवृत्ति अस्तु महाफला' में  प्रशिक्षित गृहस्थ आध्यात्मिक शिक्षकों/नेताओं  का निर्माण करने वाले 'महामण्डल' जैसे किसी अद्भुत (Wonderful ) युवा-संगठन का अविर्भूत होना भी अनिवार्य हो जाता है। छान्दोग्य उपनिषद् में बड़े सुन्दर ढंग से कहा गया है -- " तेन उभौ कुरुतो यश्च एतद् एवं वेद यश् च न वेद। नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति, श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति'.... ॥ कोई कह सकता है कि ॐ  के रहस्य को जाने वाला  और दूसरा ॐ  के रहस्य को नहीं जानने वाला अगर यज्ञ करे तो उसमे समान फल मिलेंगे।  लेकिन नहीं, ऐसा नहीं है। [ॐ के] ज्ञान होने से और ज्ञान नहीं होने से फल भिन्न होते हैं। ॐ  के ज्ञान, श्रधा और देवतों की साधना से बहुत अधिक उत्तम फल प्राप्त होते हैं।   यही ॐ की विस्तृत व्याख्या है। "वही कार्य अधिक फलोत्पादक (efficient या प्रभावशाली) होता है, या उसी कार्य में सफलता मिलने की सम्भावना अधिक होती है, जिस कार्य को इस जगत के विषय में पर्याप्त समझ, (अर्थात माँ जगदम्बा ही जगत बन गयीं हैं ! ) श्रद्धा, विश्वास और सत्य-निष्ठा तथा रिक्वायर्ड नो-हाउ, (दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर जगत को 'ब्रह्ममय' अनुभव करने की तकनीकी जानकारी) के साथ प्रारम्भ किया जाता है।"ईशा उपनिषद, मंत्र ११ में कहा गया है - विद्या और अविद्या मे सामंजस्य रखते हुए, हमे विद्या से अमृत प्राप्ति करनी चाहिए। विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।[यः तद् उभयं विद्यां च अविद्यां च सह वेद, सः अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ।] 

 इस स्वधर्म पालन या गृहस्थ जीवन (प्रवृत्ति मार्ग)  में रहते हुए शास्त्रविहित कर्म-साधन (निष्काम कर्म ) के द्वारा प्रवृत्ति मार्ग के  क्षणभंगुर भोगों को अनुभव से तुच्छ समझकर क्रमशः त्याग करते जाने के साथ -ही-साथ, विद्याम् -- निरन्तर विवेक-प्रयोग और ब्रह्मविचार रूपी 'निवृत्ति अस्तु महाफला' का अभ्यास करते हुए शीघ्र 'आत्मा ही परमात्मा है' की अनुभूति करके अमृतम्-अश्नुते=अमृत को भोगता है! जबकि इस कर्म-रहस्य से अनभिज्ञ ज्ञानाभिमानी गृहस्थ मनुष्य निष्काम-कर्म को भी  ब्रह्मज्ञान में बाधक समझकर -बिना पात्रता अर्जित किये ही निवृत्ति मार्ग या संन्यास ग्रहण करने के लालच में अपने स्वधर्म का त्याग कर देता है- वह अमृत नहीं चख पाता ।  जो मनुष्य उन दोनों को विद्याम् - भगवद उपासना और अविद्याम् - निष्काम कर्म, तद -इन, उभयं - दोनों को साथ-साथ वेद = यथार्थतः जान लेता है, वह अविद्यया = वर्णाश्रमोचित कर्मों का स्वरूपतः त्याग नहीं करता, बल्कि कर्तापन के अभिमान, रागद्वेष और फल-कामना से रहित होकर व्यावहारिक जीवन में धर्म का (अपने स्वधर्म का) पालन करता है, इस भाव से कर्म करने पर उसकी ऐहिक जीवन यात्रा सुखपूर्वक चलती है, उसका चित्त शुद्ध भी हो जाता है, और इसी अविद्या के सहारे वह मृत्युमय संसार से सहज ही तर जाता है। इसीलिये श्री रामकृष्णदेव कहते हैं, " ईश्वर (माँ जगदम्बा आश्रम, कोआलपाड़ा) में विद्या-माया और अविद्या -माया दोनों हैं। विद्या माया जीव को (क्रमशः) ईश्वर की ओर ले जाती है, और अविद्या-माया उसे ईश्वर से दूर। (श्री ठाकुर जी की ) भक्ति,विवेक, वैराग्य और ज्ञान - यह विद्या माया (श्री माँसारदादेवी माँ भवतारिणी) की कृपा से प्राप्त होता है। इन्हीं का आश्रय लेकर मनुष्य ईश्वर के समीप पहुँच सकता है। विद्या माया (विवेक-प्रयोग करने की शक्ति ) ही ब्रह्म का स्वरूप प्रकट कर देती है। माया की कृपा हुए बिना ब्रह्म को कौन जान सकता है ! माया से ही 'कारण -कार्य ' रूपी द्वैत-प्रपंच का उदय होता है, माया के परे जाने पर (तुरीय अवस्था में ) न भोक्ता रह जाता है, न भोग्य विषय। ईश्वर की शक्ति का ज्ञान हुए बिना ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता। "  [Women kinds of shakti (Nature and Actions) Sri Ramkrishna Paramahamsa:Some women are Vidya shakti who helps men in their God ward progress , and others are Avidya Shaktis who drag men towards  worldliness.The Vidya shaktis take small quantity of food , require a little sleep and have a naturally little attachment  to the senses. Their hearts are especially filled with joy to hear their husbands talk of God.They themselves talk of the Lord , and give their husbands a high spiritual impulse.They always protect husbands from mean inclinations and actions and assist them in all matters, so that they may be blessed by realizing god at last .The nature and actions of Avidya Shaktis , on the other hand , are of quite an opposite kind. They are seen to hanker after many physical comforts , such as food,sleep,etc., and their chief aim is to prevent their husbands from paying attention to anything except contributing to their own happiness.If their husbands speak to them about spiritual things, they become displeased and annoyed. As every women is a form of Shakti , they need to come out of ignorance understanding the ephemeral nature of material world and transform themselves as Vidya Shakti.] 
------------------
[प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.30।।।।18.30।। ।।18.30।।जो बुद्धि? प्रवृत्तिको -- बन्धनके हेतुरूप कर्ममार्गको और निवृत्तिको -- मोक्षके हेतुरूप संन्यासमार्गको जानती है। बन्ध और मोक्षके साथ प्रवृत्ति और निवृत्तिकी समानवाक्यता है? इससे यह निश्चय होता है कि प्रवृत्ति और निवृत्तिका अर्थ कर्म मार्ग और संन्यासमार्ग ही है। तथा कर्तव्य और अकर्तव्यको -- विधि और प्रतिषेधको? यानी करनेयोग्य और न करनेयोग्यको ( भी जानती है )। यह कहना किसके सम्बन्धमें है देशकाल आदिकी अपेक्षासे जिनके दृष्ट और अदृष्ट फल होते हैं? उन कर्मोंके सम्बन्धमें। तथा जो बुद्धि भय और अभयको(जानती है )। जिससे मनुष्य भयभीत होता है? उसका नाम भय है और उससे विपरीतका नाम अभय है उन दोनोंको? यानी दृष्टादृष्टविषयक जो भय और अभय हैं उन दोनोंके कारणोंको जानता है? एवं हेतुसहित बन्धन और मोक्षको भी जानती है? हे पार्थ वह बुद्धि सात्त्विकी है। पहले जो ज्ञान कहा गया है? वह बुद्धिकी एक वृत्तिविशेष है और बुद्धि वृत्तिवाला है। धृति भी बुद्धिकी वृत्तिविशेष ही है।हे पृथानन्दन जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्तिको? कर्तव्य और अकर्तव्यको? भय और अभयको तथा बन्धन और मोक्षको जानती है? वह बुद्धि सात्त्विकी है।  हे पार्थ जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति? कार्य और अकार्य? भय और अभय तथा बन्ध और मोक्ष को तत्त्वत जानती है? वह बुद्धि सात्विकी है।।
इसीलिये  स्वामी विवेकानन्द ने अरण्यों में अध्यन किये जाने वाले अद्वैत वेदान्त को घर-घर तक पहुँचा देने के लिए', प्रवृत्तिमार्ग के अधिकारी युवाओं को विद्या और अविद्या स्त्री का अंतर  'निवृत्ति अस्तु महाफला ' के जीवंत उदाहरण से समझाकर  ' विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर  'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा', में प्रशिक्षित भावी आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में 'लीडरशिप ट्रेनिंग' में प्रशिक्षित करने के लिए प्रवृत्तिमार्ग के (सप्तऋषियों में से एक ?) आध्यात्मिक शिक्षक कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर और श्रीमती एलिजाबेथ सेवियर को अमेरिका से अपने साथ लाये थे। और इसीकारण श्री रामकृष्णदेव एवं स्वामी विवेकानन्द के आशीर्वाद से तथा श्रीमाँ सारदादेवी की इच्छा से अखिल भारत विवेकानन्द युवा महमामण्डल के संस्थापक तथा तीसरे महान शिक्षक- 'Sweetness and Love Personified',  ताजगी और प्रेम के मूर्तरूप, श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के नेतृत्व (लीडरशिप) में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को, पूरे भारत के युवाओं में मनुष्यनिर्माण तथा चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा प्रचार-प्रसार करने के लिये, 1967 में आविर्भूत होना पड़ा।
आधुनिक युग के प्रथम आध्यात्मिक शिक्षक 'श्रीरामकृष्णदेव' का मुख्य कार्य 'भावी शिक्षकों को शिक्षित करना' है। हमलोग श्रीरामकृष्णदेव की जीवनी में पढ़ते हैं कि मानवजाति के मार्गदर्शक नेता -अर्थात आस्तिकता को पुनः प्रतिष्ठापित करने में समर्थ 'आध्यात्मिक शिक्षक बनने और बनाने की साधना'  के प्रारम्भ में ही श्रीजगन्माता से यह प्रार्थना की थी -  " माँ, मुझे क्या करना चाहिये यह मैं कुछ नहीं जानता हूँ; तू मुझे जो सिखायेगी, मैं वही सीखूँगा। " श्रीजगदम्बा के बालक श्रीरामकृष्णदेव, तब उनपर पूर्णतया निर्भर होकर उनकी ओर दृष्टि आबद्ध किये अपने दिन बिता रहे थे, तथा वे जहाँ, जैसे उनको घुमा-फिरा रहीं थी, परमानन्दित हो कर वे भी उनका अनुसरण कर रहे थे। 

त्यागीश्वर श्रीरामकृष्ण का युवाओं के प्रति  के प्रेम को देखकर बहुत से लोगों को आश्चर्य होता था। उनके लिए तो कोई भी वस्तु ऐसी नहीं थी, जिसे प्राप्त करने के लिये उनके मन में चाह उठती हो। फिर भी वे क्यों चाहते थे कि युवा लोग उनके पास आयें?  और कितने आश्चर्य की बात है, कि इसके लिये वे दक्षिणेश्वर की माँ भवतारिणी के निकट प्रार्थना भी करते थे ! भला उनका अपना कार्य क्या हो सकता था? फिर भी माँ काली के निकट प्रार्थना करते हैं, और व्याकुलता के साथ युवाओं के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। क्या वे बिना किसी उद्देश्य के ही युवाओं के साथ समय बिता रहे थे, उनको प्रशिक्षित करने में अथक परिश्रम कर रहे थे?
नहीं, भगवान श्रीरामकृष्णदेव का एक उद्देश्य अवश्य था, और वह उद्देश्य था - सम्पूर्ण विश्व का कल्याण ! और इसी कार्य में नेतृत्व प्रदान करने के लिये, वे युवाओं के आने की बाट जोह रहे थे। किन्तु वे तो, इस जगत का मंगल वैसे भी कर सकते थे-वे केवल अपने हाथों को आशीर्वाद की मुद्रा में उठा देते-- और पलक झपकते दुनिया का सब कुछ ठीक हो जाता- किन्तु वैसा वे करते क्यों नहीं हैं ? श्रीराकृष्णदेव कहते हैं- 'आइन एरुप आचे ' - अर्थात माँ जगदम्बा के विश्व-संचालन का कानून ही ऐसा है। वे उसी कानून के भीतर रहते हुए कार्य करना चाहते हैं। उस कानून को सीखने और सिखाने के उद्देश्य से ही श्रीरामकृष्ण की समस्त जीवन-लीला सम्पन्न हुई है। और अपने इसी कार्य का उत्तरदायित्व भावी-पीढ़ी को सौंपने के लिये, वे योग्य, युवा-शिष्यों के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। 
" त्याग और आध्यात्मिकता -ये दोनों ही भारत के महान आदर्श हैं ! ३/१३६] ये दोनों गुण मानो एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। यह 'त्याग' का गुण ही व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिक शिक्षक की निःस्वार्थ 'सेवा' के रूप में अभिव्यक्त होने लगता है। यह त्याग (निवृत्ति अस्तु महाफला) ही ईश्वरीय-कानून है। अर्थात इस त्याग के नियम का उलंघन नहीं किया जा सकता है। माँ जगदम्बा के इस कानून का उलंघन करने से अकल्याण अवश्य होता है। किन्तु कल्याण ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है ! और जो यथार्थ में अच्छा है, वह अपरिवर्तनीय है, अविनाशी, नित्य, सत्य, ध्रुव है- इसीलिये कल्याण है। त्याग के इस नियम (कानून) के द्वारा ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य सिद्ध होता है। "त्याग की बात सुनते ही बहुत से लोग डर जाते हैं। जब मानवात्मा संसार की समस्त वस्तुओं से विमुख होकर गंभीर तत्वों के अनुसन्धान में लग जाती है, जब वह समझ लेती है कि नश्वर जड़ शरीर से तादात्म्य स्थापित कर लेने के कारण मैं स्वयं जड़ हुई जा रही हूँ और क्रमशः विनाश की ओर बढ़ रही हूँ-और ऐसा समझकर जब वह इन्द्रिय-विषयों से अपना मुँह मोड़ लेती है। तभी त्याग का आरम्भ होता है, तभी वास्तविक आध्यात्मिकता का विकास प्रारम्भ होता है। " ४/४५ ]" 
" पहले अज्ञान (अविद्या-Ignorance) का त्याग -अर्थात स्वयं के विषय में मिथ्या-धारणाओं का त्याग करना होगा, तभी सत्य अपने को प्रकाशित करने लगेगा। जब हम सत्य को दृढ़तापूर्वक पकड़े रहने में समर्थ हो जायेंगे, तब पहले हमने जो कुछ भी त्याग किया था (कामिनी कांचन में आसक्ति का त्याग किया था ?) वह अब एक नया रूप धारण कर लेगा, एक नये अलोक में प्रकट होगा, और ब्रह्ममय हो जायेगा। तब सब कुछ एक उदात्त भाव धारण कर लेगा। तब हम सभी पदार्थों को उनके सत्यालोक में समझ सकेंगे। किन्तु पहले हमें उन सबका त्याग करना होगा बाद में - सत्य का साक्षात्कार कर लेने के बाद; हम पुनः उन सबको ग्रहण कर लेंगे, पर अब ब्रह्म के रूप में। अतएव हमें सुख-दुःख सभी का त्याग करना होगा। 'सभी वेद जिसकी घोषणा करते हैं, सभी प्रकार की तपस्यायें जिनको प्राप्त करने के लिये की जाती हैं। जिसे पाने की इच्छा से लोग ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करते हैं,हम संक्षेप में उसीके संबंध में तुम्हें बतायेंगे, वह ॐ है ! वेदों में इसी ॐ शब्द की अतिशय महिमा और पवित्रता वर्णित है। " २/१७०
धर्मस्य तत्वं निहतो गुहायां -अतः चरित्र ही धर्म है की शिक्षा देने वाले 'शिक्षक' ही मानवजाति के यथार्थ मार्गदर्शक नेता हैं। धर्म (वेदान्त)  का उद्देश्य समाज का आध्यात्मिकीकरण करना है, विश्व के एकत्व (Oneness of Universe) की स्थापना करना है। धर्म (प्रवृत्ति और निवृत्ति) के दो पक्ष हैं - वैयक्तिक और सामाजिक: गीता, उपनिषद आदि में धर्म के वैयक्तिक और सामाजिक, दोनों पक्षों पर जोर दिया गया है। ईश्वर (माँ जगदम्बा)  केवल एक दूरस्थ विश्व-शासक ही नहीं हैं, अपितु हमलोगों की जन्मदात्री माता के जैसी  अत्यन्त घनिष्ठ मित्र और सहायक भी हैं। और यदि हम केवल उनके ऊपर विश्वास करें, उनके ऊपर भरोसा करें, तो मन पर (तुच्छ स्वार्थी अहंकार पर) विजय पाने में हमारी सहायता करने के लिए सदा तैयार रहतीं है।

क्योंकि स्वामी विवेकानन्द के अनुसार "धार्मिक मनुष्य वह नहीं, जो केवल 'प्रभु,प्रभु' की रट लगाता है, बल्कि वह है - जो उस परमपिता की इच्छा के अनुसार कार्य (निःस्वार्थ कर्म) करता है ! [भावी शिक्षक या नेता वह है जो युवा समाज में आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने वाले महामण्डल द्वारा प्रतिपादित चरित्र-निर्माण आंदोलन के साथ जुड़ जाता है।] 
स्वामी विवेकानन्द शिक्षा और धर्म में बहुत अधिक अंतर नहीं मानते थे। कहते हैं - " शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता (Perfection) की अभिव्यक्ति, जो प्रत्येक मनुष्य में पहले से विद्यमान है। "धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व (Divinity) की अभिव्यक्ति जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है !"अतः दोनों स्थलों पर किसी 'शिक्षक' (पूर्णतः निःस्वार्थी मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट को हटा देना है। जैसा मैं सर्वदा कहता हूँ -हस्तक्षेप बंद करो ! सब ठीक हो जायेगा। अर्थात हमारा कर्तव्य है -रास्ता साफ़ कर देना -शेष सब भगवान ही करते हैं ! " २/३२८  
 स्वामी सारदानन्द द्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग में कहा गया है कि निवृत्तिमार्ग के सप्तऋषियों में से एक स्वामी विवेकानन्द को, दूसरे भावी आश्चर्यजनक शिक्षक के रूप में गढ़ने के उद्देश्य से ही साम्यभाव में अवस्थित प्रथम युवा नेता श्री रामकृष्णदेव अपने साथ धरती पर लेकर अवतरित हुए थे। और उन्होंने निवृत्ति मार्ग के अधिकारी मनुष्यों को आध्यात्मिक-शिक्षक बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने के लिये १८९७ ई ० रामकृष्ण -मठ एवं मिशन की स्थापना कर दी थी।  
स्वामी विवेकानन्द के शिष्य कप्तान जेम्स हेनरी सेवियर एवं श्रीमती  शार्लोट सेवियर
[ Captain James Henry Sevier, and Mrs. Charlotte Sevier (1847-1930, /83 years ) , disciple of Swami Vivekananda.
किन्तु स्वामी विवेकानन्द जब परिव्राजक के रूप भारत परिक्रमा करने के बाद पाश्चात्य देशों में गए तो उन्हें यह अनुभव हुआ कि जगत में  प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी साधारण मनुष्यों की संख्या सर्वाधिक है। और मन को वश में करने की शिक्षा का यदि गृहत्यागी संन्यासी लोग देंगे, तो वे कन्फ्यूज्ड होकर सोचने लगेंगे कि, मन को वश में करने के लिए या मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण लेने के लिये हमें भी संन्यास लेना होगा।जबकि मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण तो विद्यार्थी अवस्था में लेना आवश्यक है। 
इसीलिये  स्वामी विवेकानन्द गृहस्थ जीवन के अधिकारी प्रवृत्तिमार्ग के अधिकारी युवाओं को 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा', या 'निवृत्ति अस्तु महाफला लीडरशिप ट्रेनिंग' में प्रशिक्षित करके ' अरण्यों में अध्यन किये जाने वाले अद्वैत वेदान्त को घर-घर तक पहुँचा देने के लिए', प्रवृत्तिमार्ग के सप्तऋषियों में से एक,प्रवृत्ति मार्ग के आध्यात्मिक शिक्षक कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर को अमेरिका से अपने साथ लाये थे। और इसीकारण श्री रामकृष्णदेव एवं स्वामी विवेकानन्द के आशीर्वाद से तथा श्रीमाँ सारदादेवी की इच्छा से अखिल भारत विवेकानन्द युवा महमामण्डल के संस्थापक तथा तीसरे महान शिक्षक- 'Sweetness and Love Personified',  ताजगी और प्रेम के मूर्तरूप, श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के नेतृत्व (लीडरशिप) में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को, पूरे भारत के युवाओं में मनुष्यनिर्माण तथा चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा प्रचार-प्रसार करने के लिये, 1967 में आविर्भूत होना पड़ा।
---------------------------
[" কোনো রকমে অফিসে এসে মাইনেটা নিয়ে গেছি। গিয়ে ভীষণ শরীর কেমন করছে, ছাতে একখানা মাদুর পেয়ে রৌদ্রে পড়ে আছি। ১লা জানুয়ারি অজ্ঞান হয়ে গেলুম। তারপরে কিছু জানি না। ..... হঠাৎ মনে হল যে, আরে আমি কি যেন শুনতে পাচ্ছি, এ যেন আমার চেনা জিনিস, জানা জিনিস। কি ব্যাপার -নেতাজীর জন্মদিন, প্রসেশন যাচ্ছে। আরে আরে,কি হল কি হল ? -আমি গলা দিয়ে স্বর বার করার চেষ্টা করছি, বার করতে পারছি না। হাত নেড়ে বলছি আমার মনে হচ্ছে, আমি যেন বলছি, 'আমি বেঁচে আছি।' কিন্তু গলা দিয়ে আওয়াজ বেরোচ্ছে না।  আর এই যে 23 দিন ..... এর মধ্যে সব সময় স্বপ্ন দেখার মত হয়ে যাচ্ছে।  দেখতে দেখতে - এক জায়গায় দেখলুম আমি মারা গেছি। আমাকে সাজিয়ে গুজিয়ে অনেকে নিয়ে চলেছে। সবাই বিষন্ন।আমি সব দেখছি। কত দূর নিয়ে যাচ্ছে ! মাটী, আকাশ, গাছপালার পাতা, রং, ফুল অপূর্ব ! কি বড় বড় গাছে কি সুন্দর অচেনা ফুল। অনেক দূর ..... ........। একটু পাহাড়, উঠলো, ধীরে কিছুটা নীচে নেবে রাখল। চিতা সাজাল। শরীর চাপল, অগ্নি প্রদান হোল, শরীর পুড়ে ছাই উড়ে গেল। বহূ বছর পর মায়াবতীতে গিয়ে ঠিক ই সময় যা দেখেছিলুম সেই দৃশ্য দেখলাম। মায়াবতীর ওখানে গাছপালা, ফুল-ফল একটু ওপরে যে নীচু যায়গাটা যেখানে সেই সেভিয়ারের স্মৃতি ফলক আছে ঠিক সেইখানটা বলে মনে হোল। "
जो पत्र अपने पिताजी को दादा ने लिखा था डेटेड ? आस्क रनेन दा /मिन्टूदा / विवेकज ज्ञान या निर्विकल्प समाधि से पुनरुज्जीवित होने के बाद ?/ ऐसा प्रतीत हुआ यह शरीर मेरा नहीं है, माँ जगदम्बा का है, जो इसको निमित्त बनाकर कार्य कर रही हैं!  श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के सानिध्य में रहने का अवसर मुझे 1987 से 2016 तक प्राप्त हुआ है। वे किसी मनुष्य में कभी बुराई नहीं देखते थे, न किसी धर्म को कभी बुरा कहते थे। वे मूलतः यह विश्वास करते थे कि 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' यदि कोई मनुष्य बुरा कार्य कर बैठता है, तो उसका कारण वह मनुष्य नहीं, उसका बुरा चरित्र है। बी.बी.पी का संन्यास ग्रहण कर लेने के बाद, और 4 मार्च 2011 सुबह 5 बजे एम.एस. का निधन समाचार देते हुए दादा ने फोन पर कहा था -'अदर स्टेट्स में इस आंदोलन को फ़ैलाने में,अब तुम लोगों पर  (महामण्डल के झुमरीतिलैया शाखा पर) अधिक जिम्मेदारी है। ' जमशेदपुर इन्टरस्टेट कैम्प में कहा था 'निसिद्ध-कर्म' केवल पशु करते हैं, मनुष्य नहीं; " मने राखबे तुमि एक जन শিক্ষক ! " शिविर में तथा अन्य अवसरों पर उनके सानिध्य में रह कर मैंने यह जान लिया कि इस जीवन में ही मनुष्य आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। अतः पूज्य नवनीदा के जीवन की इन आश्चर्यजनक  घटनाओं को पढ़ने के बाद मुझे यह जानने की इच्छा हुई कि स्वामी विवेकानन्द के किस व्याख्यान को सुनकर उनकी शिष्यता ग्रहण की और अद्वैत आश्रम की स्थापना करने भारत चले आये ? उसकी सम्पूर्ण जानकारी मुझे अद्वैत आश्रम के वेबसाइट पर प्राप्त हो गयी।  [साभारhttp://www.advaitaashrama.org/advaita
------------------------>>>>

रनेनदा /6th इंटरस्टेट कैम्प वैज़ाग का प्रोग्राम अनिंदो ने बनाया , इस बात मेरे सिवा अन्य किसी से चर्चा नहीं करना। यह बात केवल मेरे और तुम्हारे बीच ही रहनी चाहिए। उसने लक्ष्मीनारायण का नंबर माँगा, फिर हमसे बोला कि सिटी ऑफिस, बीरेनदा, अपूर्वा से बात करके प्रोग्राम बनाया है। अपूर्व ने बाद में बताया कि उसकी बातचीत किसी से नहीं हुई है। मनःसंयोग का क्लास भी बीरेन दा को दे दिया था। उनका टिकट एक दिन पहले लौटने का है -उनको कैसे दोगे ? फिर उनका नाम हटा दिया।  अकादो प्रॉब्लम है - एक अतिउत्साह और दूसरा पोज मारने का। मैंने उसे प्यार से समझाकर यह कार्य करने से रोक दिया। भुवनेश्वर में १४-१५ को हमलोग के तर्ज पर 2 day कैम्प और मीटिंग कर रहे हैं। ओड़िया स्पीकर का नाम उसी दिन तय होगा। सतपथीजी भी एक्टिव हुए हैं -ऐसा साहूजी ने बताया। -अजय/ ]यदि खड़कपुर 'IIT' के गौतम साहा, अनिंदो , शुभेन्दु, अरुणाभ, अजय पाण्डे, रजत मिश्रा, यादवपुर के प्रशांत चक्रवर्ती, इसमें और अधिक नाम नहीं जोड़ना अच्छा, इनमें से किसी योग्य नेता के नेतृत्व में एक छोटा टीम तैयार किया जाय। एक ग्रुप बनाया जाय, जहाँ वे लोग आपस में चर्चा करके एक इन्डेप्थ नॉलेज का निर्माण करें, और फिर इसी ग्रुप के  ऊपर इंटरस्टेट मॉनिटरिंग का दायित्व दे दिया जाय तो कैसा होगा ? ये लोग अदर स्टेटस के कार्यकारी केंद्रों के साथ सम्पर्क रखेंगे। उनलोगों के द्वारा आयोजित प्रोग्राम में कौन कौन जायेगा, उसका निर्धारण करेंगे, उन केंद्रों से आये रिपोर्ट का उत्तर देंगे। किस राज्य में काम कैसे आगे बढ़ेगा इसको एक्सप्लोर करेंगे। महामण्डल के सेन्ट्रल ऑर्गनाइजेशन को अपने कार्यों के सम्बन्ध में पेरिओडिकल रिपोर्ट देंगे। महामण्डल को यदि अखिलभारत करना हो, तो ऐसा ग्रुप बनाने पर जोर देने की आवश्यकता है।  देश के स्वार्थ से ईगो -क्लैश बड़ा मुद्दा नहीं बनने देना चाहिए, वरिष्ठ भाईयों में कोई कोई शायद ऐसा सोचते हैं कि 'हमलोग नवनीदा के साथ बहुत वर्षों तक काम किये हैं, इसीलिए दूसरों की अपेक्षा नवनीदा को मैं अधिक जानता हूँ। ' किन्तु नवनीदा को जानना या नहीं जानना बड़ी बात नहीं  है, बड़ी बात तो यह है कि जिस उद्देश्य के लिए उन्होंने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया था, उसको सफल करने के लिए,  सम्पूर्ण भारत में इसका प्रचार-प्रसार करने के लिए जो कुछ करना आवश्यक है, वही करना चाहिए।ऐसा ग्रुप बनाने से क्या नवनीदा नाराज हो जायेंगे ?
----------------------------------------------



बुधवार, 22 अगस्त 2018

भगवान श्रीराम के अवतार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में क्या उपदेश दिया ?

         आध्यात्मिक पूर्णता ' कुरुक्षेत्र में -अर्थात गृहस्थ जीवन में' रहकर भी प्राप्त की जा सकती है !
[ Spiritual Perfection is Within the Reach of All ]
 'अद्वैत वेदान्त' का गूढ़ सिद्धांत है - ' ईश्वर और सत्य का अभेद'; "एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति" -सत्य एक ही है ज्ञानी नाना प्रकार से कहते हैं।  जिसे चारों वेदों ने इसी महासत्य को चार प्रकार से परिभाषित किया है। महावाक्य नाम से अभिहित यह परिभाषाएं निम्न प्रकार हैं-
१. प्रज्ञानं ब्रह्म - प्रज्ञा  रूप (उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है..[ इसका संबंध ब्रह्म की चैतन्यता से है , क्योंकि इसमें ब्रह्म को सर्वव्यापी चैतन्य (संवित या Consciousness) रूप में रखा गया है।'(ऐतरेय उपनिषद - ऋगवेद) Consciousness is Brahman'... Aitareya Upnishad... Rigveda.  ekam sat vipraa bahudhaa vadanti 
२. अहम् ब्रह्मास्मि - मैं ब्रह्म हू...[(ब्रिह्दारन्यक उपनिषद - यजुर्वेद) 'I am Brahman...' Brahadaranyak Upnishad... Yajurveda.इसे ' अनुभव वाक्य ' भी कहते हैं और इसके मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है। ]
३. तत्वमसि ~ तत + त्वम + असि >वह पूर्ण ब्रह्म तू है... (छान्दोग्य उपनिषद् - सामवेद) You are That... Chhandogya Upnishad... Saamveda.इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , तुम भी ब्रह्म ही हो , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है। इसे उपदेश वाक्य भी कहा जाता है। यह 'उपदेश-वाक्य' इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही , वे दूसरों के प्रति आदर की भावना को भी पैदा करते हैं।] 
४. अयं आत्माब्रह्म ~  यह (सर्वानुभव सिद्ध अपरोक्ष) आत्मा ब्रह्म है... (मांडूक्य उपनिषद - अथर्व-वेद) This Self(Aatma) is Brahman... Maandukya Upnishad... Atharv-veda. ' अयंआत्मा  ब्रह्म ' महावाक्य के जरिए यह जताने की कोशिश हुई है कि आत्मा ही परमात्मा (ब्रह्म या माँ जगदम्बा) है। दरअसल , यह अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और परम सत्य के बड़े स्वरूप की जानकारी देता है , इसलिए इसे ' अनुसंधान -वाक्य ' भी कहा जाता है। ] 
किन्तु किसी सामान्य मनुष्य को (जिसका कॉमन सेन्स अभी तक पर्याप्त मात्रा में विकसित नहीं हुआ हो) या बच्चों को वेदान्त के उपरोक्त गूढ़ सिद्धान्तों को कहानियों के माध्यम से ही समझाया जा सकता है। अतः युवा पाठचक्र (Youth Study Circle) में विचार-विमर्श अद्वैत वेदान्त के गूढ़ सिद्धान्तों को समझने के लिये करना चाहिये, कहानी की ऐतिहासिकता को लेकर अधिक माथापच्ची  नहीं करनी चाहिये। 
प्राचीन काल में भारतवर्ष पर विचित्र वीर्य नामक एक राजा का शासन था । उनके तीन पुत्र थे जिनका नाम -धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर था। धृतराष्ट्र बड़े थे, किन्तु जन्मान्ध थे इसीलिए राज्य का उत्तराधिकार उनको न देकर पाण्डु को राज्य-सिंहासन सौंप दिया गया। धृतराष्ट्र को एक सौ लड़के थे, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा लड़का था। पांडू के पाँच पुत्र थे जिनका नाम था- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकूल और सहदेव, इनमें युधिष्ठिर सबसे बड़े थे। जब ये राजकुमार छोटे ही थे कि पांडू का देहान्त हो गया; इसीलिए, धृतराष्ट्र ने ही अपनी  देख-रेख में अपने सौ पुत्रों के साथ-साथ उनके चचेरे भाइयों की शिक्षा-दीक्षा का भी उचित प्रबंध किया, और सभी राजकुमार एक ही साथ युद्धविद्या एवं शिक्षा आदि ग्रहण करते हुए बड़े हुए। 
न्यायोचित रूप से (legally) राजकुमार युधिष्ठिर ही राजसिंहासन के उत्तराधिकारी थे, इसलिये दुर्योधन प्रारंभ से ही उन्हें मार डालने का षड्यन्त्र करता रहता था। यह सब देख-सुन कर, भविष्य में कोई बड़ी घटना न घटे, धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों और भतीजों में आधा आधा राज्य बाँट दिया। किन्तु दुर्योधन को यह आधा राज्य मंजूर नहीं था। वह पूरा राज्य ही पाना चाहता था। उसने दुर्योधन को पाँसे का एक ऐसा खेल खेलने का आमन्त्रण भेजा, जिसमें हारने वाले के भाग्य का फैसला करने का अधिकार जीतने वाले के हाथों में होगा। 
दुर्योधन ने धोखे से पाँसे का खेल जीत लिया और यह माँग रखी की द्रौपदी सहित पांचो भाइयों को १४ वर्षों तक वनवास में जाना होगा। युधिष्ठिर तो सत्यवादी थे, उन्होंने वन में जाना सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस बीच दुर्योधन के कई अत्याचारों को चुप चाप सहते हुए, वर्षों बाद जंगल से वापस लौटने पर, युधिष्ठिर जब अपना राज्य पुनः वापस लौटा देने का अनुरोध करते हैं। किन्तु दुर्योधन उनके राज्य को वापस लौटने के लिए तैयार नहीं हुआ। तब युधिष्ठिर सारी शत्रुता को समाप्त करने के उद्देश्य से एक समझौते का प्रस्ताव भेजा कि पाँच भाइयों को क्षत्रिय जनोचित भरण-पोषण के लिए केवल पाँच गाँव ही दे दिया जाय। किन्तु युधिष्ठिर उतना भी देने को तैयार नहीं हुआ। उसने स्पष्ट रूप से यह कहा कि बिना बड़े-पैमाने पर युद्ध किये वह सूई की नोक जितनी जमीन भी पाण्डवों को नहीं देगा। 
और इस प्रकार जब शान्ति से न्याय पाने का कोई उपाय नहीं बचा, तब अन्त में कुरुक्षेत्र के मैदान में  दोनों पक्ष की सेनायें युद्ध के लिए आमने -सामने आकर खड़ी हो गयीं। फिर दोनों पक्ष के राजा और सेनापति भी एक दूसरे के सामने आकर अपना अपना स्थान ग्रहण करते हैं। दोनों पक्ष की सेनायें तैयार खड़ी हैं, बस अब थोड़ी ही देर में युद्ध शुरू होने को है। युद्ध के प्रारम्भ होने से पहले, युधिष्ठिर के तीसरे भ्राता महावीर 
अर्जुन अपने सखा और सारथि बने 'भगवान श्रीराम के अवतार' श्रीकृष्ण से कहते हैं-" सखा, तुम मेरे रथ को दोनों दलों की सेना के बीच में ले चलो, मैं यह देखना चाहता हूँ कि युद्ध करने के लिए दोनों पक्ष की ओर से कौन कौन से योद्धा एकत्र हुए हैं? " 
श्रीकृष्ण उनकी इच्छा के अनुसार रथ को बीच में लाकर दोनों दलों के सेनानियों का परिचय देने लगते हैं। अर्जुन ने जब अपने अनेक सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को शत्रु पक्ष की ओर खड़े देखा तो, वह करुणा के वशीभूत हो गया,उसके हाथ-पैर निष्क्रिय हो गये। शरीर कांपने लगा, उसके हाथों से छूट कर धनुष नीचे गिर गया। उसने अश्रु-पूरित नेत्रों से कृष्ण की ओर देख कर कहा - " सखा, थोड़ा सा सांसारिक-सुख प्राप्त करने के लिये, मैं अपने सगे-संबन्धियों की युद्ध में हत्या नहीं करना चाहता। "श्रीकृष्ण सोंचने लगे, यह क्या बात हुई ? इतना सब कुछ हो जाने के बाद अन्तिम क्षणों में अर्जुन ऐसा क्यों कह रहे हैं ? क्योंकि श्रीकृष्ण जानते थे कि अर्जुन कोई कायर व्यक्ति तो हैं नहीं, वे तो एक महापराक्रमी, और साहसी धनुर्धर हैं। इसके पहले भी अनेक युद्धों में उन्होंने अपनी असीम शक्ति और साहस का परिचय दिया है। वास्तव में द्रौपदी ने वर्षों पूर्व स्वयम्बर के समय, कई धनुर्धरों को पर्तिस्पर्धा में हरा देने के बाद ही अर्जुन का वरण अपने पति के रूप में किया था। 
इसके अतिरिक्त, गंधर्व लोगो के साथ युद्ध, बिराटनगर के राजा की गौओं का हरण करने वालों के साथ युद्ध, आदि प्रत्येक युद्ध में उन्होंने अपनी असीम वीरता का परिचय दिया था। गउओं के हरण के समय तो अर्जुन अकेले ही विपक्ष के समस्त वीरों को पराजित कर के राजा बिराट की समस्त गौओं को छीन कर वापस ले आया था। इसके अतिरिक्त, द्रोणाचार्य, देवराज इन्द्र, एवं देवादिदेव महादेव ने उनको इतने सारे दिव्य अस्त्र-शस्त्र  प्रदान किये हैं, कि ईच्छा होने से ही वे क्षण भर में सम्पूर्ण शत्रु दल को कुरुक्षेत्र में एक साथ ध्वंश कर सकते हैं। अतः अर्जुन के भयभीत हो जाने की सम्भावना तो हो ही नहीं सकती।  उनके मन की शक्ति भी तो कम नहीं है, फिर क्या बात है ? वे केवल  कुछ समय के लिए करुणा के वशीभूत हो गए हैं, और केवल धार्मिक कारणों से (righteous cause) युद्ध लड़ना नहीं चाहते हैं, क्योंकि युद्ध करने उनके अपने सगे-संबन्धी ही मारे जायेंगे।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन के उत्साह को फिर से जगाने की चेष्टा की, ताकि वो रणक्षेत्र में युद्ध के लिए तत्पर हो जाये। किन्तु उस समय अर्जुन की मनोदशा ही बिल्कुल भिन्न प्रकार की थी, वह युद्धभूमि को छोड़ कर एक संन्यासी बनना ज्यादा अच्छा समझ रहा था। उसने कहा, " सखा देखो, ये द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं, दुर्योधन आदि मेरे चचेरे भाई हैं, बचपन में अपने पितामह भीष्म की पीठ और गोदी में खेलकूद करके मैं बड़ा हुआ हूँ। और येही लोग यहाँ विपक्ष की ओर से युद्ध करने आये हैं। हमलोगों के उपर इनलोगों ने चाहे जितने भी अत्याचार क्यों न किये हों, किन्तु इनकी हत्या करके, इनके खून में सने अन्न को खाकर राज्यभोग करने की अपेक्षा मैं भिक्षा माँग कर खाने को उत्तम समझता हूँ।  इस राज्य की तो बात ही क्या, इन सब को मार कर, मैं स्वर्ग का राज्य भी लेना नहीं चाहूँगा। " 
उधर श्रीकृष्ण उसे युद्ध लड़ने के लिये उत्साहित कर रहे थे, वह भारी असमंजस की स्थिति (dilemma) में फंस गया था। अंत में आन-मान छोड़कर अपने  सार्थी की परामर्श माँगने का निश्चय किया, जो उसके सौभाग्य से ' भगवान श्रीराम के अवतार और स्वयं भगवान' श्रीकृष्ण ही थे! अर्जुन ने कहा- " देखो सखा, इस क्लेशकर और नाजुक परिस्थिति में पड़ कर मेरी बुद्धि भ्रमित हो गयी है, मैं स्वयम अभी सही निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ। इस समय मेरे लिए क्या करना उचित है, और क्या न करना उचित है- मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। तुम मुझे अच्छी तरह से समझा कर बता दो इस समय मेरा कर्तव्य क्या है।"
तब श्रीकृष्ण प्रारम्भ में ही कई प्रकार से वेदों में कहे 'प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म' की चर्चा करते हुए, अर्जुन को यह बात समझा देते हैं कि अर्जुन एक क्षत्रिय राजकुमार है, और अपने राज्य तथा प्रजा की रक्षा करना ही क्षत्रिय का धर्म है।  हजारों हजार लोगों की रक्षा और पालन करने का दायित्व उसीके कन्धों पर है, इस समय राज्य की ओर से जो अन्याय हो रहा है, उसका प्रतिकार वह नहीं करेगा, तो फिर कौन करेगा ? इतना ही नहीं, इस कर्तव्य का पालन करने के लिए यदि आवश्यक हुआ तो उसे कठोरता के साथ पितामह आदि गुरुजनों के साथ भी युद्ध करना पड़ेगा। उपरी तौर पर युद्ध में किसी की हत्या करना अति गर्हित कर्म जैसा प्रतीत होता है; किन्तु किसी व्यक्ति का चाहे जो भी स्वाभाविक धर्म अर्थात कर्तव्य है, उस स्वधर्म का पालन यदि कोई व्यक्ति पूर्णतः अनासक्त होकर, निष्काम भाव से करे, तो वह आध्यात्मिक-उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर भी पहुँच सकता है। इन सब कार्यों को करने से भी मनुष्य अधर्म नहीं करता; बल्कि उचित मनोभाव लेकर इन कर्मों को करने में सक्षम होने से ही, आत्मज्ञान ( अर्थात अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान, आत्मसाक्षात्कार) प्राप्त करके मनुष्य मोक्षधर्म में उन्नत  हो जाता है, देहाध्यास के भ्रम से मुक्त हो जाता है या सदा के लिए डीहिप्नोटाइज्ड हो जाता है।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह भी समझाया कि - ' जब तुम किसी व्यक्ति [दुष्ट,आतातायी व्यक्ति (Terrorists) आदि] की हत्या कर देते हो, तो तुम उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर रहे हो ' ऐसा सोंचने का कोई ठोस आधार नहीं है; क्योंकि अद्वैत-वेदान्त के अनुसार मनुष्य की आत्मा तो अजर-अमर और अविनाशी (immortal) है। (जिसे शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि जिसे जला नहीं सकती और वायु जिसे सूखा नहीं सकता।) अतः एक शरीर के समाप्त होने के बाद आत्मा एक और शरीर धारण कर लेगी। वेदान्त के अनुसार आत्मा (Heart) , शरीर (Hand) और मन (Head) के जाल (THE NET) में बन्दी हो गयी है (स्वेच्छा से =माँ की इच्छा से ?), जिसके कारण अहंकार की भावना बढ़ जाती है। किन्तु यह अहंकार किसी बुद्धिमान व्यक्ति (विवेक-प्रयोग करने में दक्ष-मनीषी) के सूक्ष्म परीक्षण (scrutiny) या अनुसंधान का सामना नहीं कर सकता [ "Sri Krishna also told Arjuna that there was no sound basis for the idea that when you slay a man, you are ending his existence; for the soul being immortal , it will take another body. The soul, according to Vedanta , is caught in THE NET of body and mind, giving rise to a sense of ego.This ego does not withstand the scrutiny of an intelligent person."-Swami Amarananda, Stories form Vedanta.page -26] 

 थोड़ा विवेक-प्रयोग करने से ही अहंकार भाग जाता है।  श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं  कि साधारण तौर से भ्रमित अवस्था में (हिप्नोटाइज्ड अवस्था में) सभी मनुष्य ऐसा अवश्य सोचते हैं कि मैंने अमुक व्यक्ति की हत्या कर डाली है, या अमुक के हाथों मैं मारा गया हूँ;  किन्तु वास्तव में वह सत्य नहीं है। जिस प्रकार प्राकृतिक नियमों के अनुसार बाह्यप्रकृति में आँधी आती है या वर्षा होती है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य की अन्तःप्रकृति - 'मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार' आदि भी प्राकृतिक नियमों के अनुसार ही परिचालित होकर उससे सारे कर्म करवा लेते हैं। हमलोगों का व्यष्टि अहं-भाव' मैं '-बोध (अपने नाम-रूप का देहध्यास) इस 'शरीर, मन, बुद्धि,चित्त अहंकार' के जाल में फँस कर भ्रमित हो चुका है, इसीलिए सम्मोहित अवस्था में हमलोग ऐसा समझते हैं कि हमलोग स्वयं ही यह सब कर रहे हैं। 
जैसे, आसमान में जब बदली छा गयी हो और कोई बादल का टुकड़ा यदि यह सोचने लगे कि मैं तो अपनी इच्छा से इधर-उधर उड़ता रहता हूँ, और जल बरसाता हूँ, तो उसका ऐसा सोचना हमलोगों को जितना हास्यास्पद प्रतीत होगा, ब्रह्मज्ञानी लोगों को-(अर्थात जिन लोगों ने अपने क्षुद्र व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपान्तरित कर लिया है, और जिनका मन साम्यभाव में प्रतिष्ठित हो गया हो, अथवा जिन्होंने श्रीरामकृष्णदेव की 'भावमुख-अवस्था' में रहने का तात्पर्य समझ लिया है, उन लोगों को) हमलोगों द्वारा ऐसा कहना कि ' अमुक कार्य मैंने किया है ' - भी ठीक उतना ही हास्यास्पद प्रतीत होगा। श्री कृष्ण ने यह भी समझाया कि, ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेने के पहले तक जो 'वास्तविक मनुष्य' (जीव) है, वह मरता नहीं है। बल्कि, मृत्यु के समय वह सूक्ष्म शरीर (अन्तःकरण) को अपने साथ लेकर देह (मृत शरीर) से बाहर निकल जाता है। फिर वह एक नया देह धारण करके जन्म लेता है- जैसे फटा-पुराना वस्त्र फेंक कर हमलोग नया वस्त्र धारण कर लेते हैं।
इस प्रकार मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्री कृष्ण ने अर्जुन को आध्यात्मिक क्रमविकास (Spiritual Evolution) के विभिन्न मार्गों का दिग्दर्शन कराया, जिन्हें संक्षेप में योग (Yogas) कहा जाता है। श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह भी समझा दिया कि चूँकि विभिन्न मनुष्यों की विचारधारा एवं रूचि भिन्न भिन्न प्रकार की होती है, इसीलिए परम सत्य, ईश्वर (पूर्ण निःस्वार्थपरता) में पहुँचने के लिए भी विभिन्न प्रकार के योग-मार्ग उत्पन्न हुए हैं।
ये सभी मार्ग अलग अलग प्रतीत होने पर भी, सभी मार्गों का उद्देश्य और लक्ष्य एक ही है। अतः इनमें से किसी एक मार्ग का अनुशरण करके, या चारों मार्गों का अनुशरण करते हुए कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में धन्यता (blessedness, परमानन्द, मोक्ष या भ्रममुक्त अवस्था) का अनुभव कर सकता है। नाम-रूप या शरीर मन के जाल में बंदी क्षुद्र व्यष्टि अहं' कच्चा मैं '-बोध की सीमा को, क्रमशः बढ़ाते हुए, और छोटी छोटी संकीर्णताओं (लींग, जाती, भाषा, धर्म आदि के आधार पर ' मैं और मेरा ' मानने की संकीर्णता) को क्रमशः दूर हटाते हुए माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं'-बोध में (पक्का मैं) रूपान्तरित कर लेने से, ये सभी योगमार्ग अन्त अन्त में मनुष्य को वेदान्तोक्त उसी 'सर्वव्यापी चैतन्य' (प्रज्ञा ,संवित या Consciousness) में पहुंचा देते हैं। श्री कृष्ण की इन शिक्षाओं को ही भगवद गीता के नाम से जाना जाता है।
भक्तियोग (path of devotion) का पथिक यह कल्पना करता है कि परम सत्य (Highest Reality ,इन्द्रियातीत सत्य, ईश्वर या माँ जगदम्बा ने) ही 'मानव-रूप' ----(मेरे इष्टदेव या शुभ्र-पुरुष श्री रामकृष्ण परमहंसदेव का रूप) धारण किया है, इसलिये वह पूरे दिलोजान से इस 'नवमानव- रूप' से प्रेम करने लगता है।  प्रेम करना क्या है, या मातृभाव क्या है -- इस बात से कमोबेश हम सभी लोग परिचित हैं। इसीलिए इस पथ पर चलना सबों के लिए आसान है। यह जान कर कि इस जगत में सब कुछ उनकी (माँ जगदम्बा की) ईच्छा से ही हो रहा है, भक्त-हृदय प्रत्येक घटना के पीछे उनका ही मुखड़ा देखते हुए सबकुछ करता चला जाता है। (ईश्वरेच्छा से प्राप्त समस्त भूमिकाओं को आनन्दपूर्वक निभाता चला जाता है।) इसप्रकार उसकी समस्त इच्छायें और क्रियाकलाप इसी सतत वर्धमान (ever-increasing) स्नेह (affection-मातृभाव) का हिस्सा बन जाते हैं। जैसे जैसे भक्त का प्रेम गहरा होता जाता है, वह अपने इष्टदेव की भक्ति में डूबता चला जाता है, उसका अपना पुराना व्यक्तित्व क्रमशः लुप्त (disappear) होने लगता है, और अंततोगत्वा वह अपने प्रेमास्पद (beloved) में विलीन हो जाता है।  
एक दूसरा मार्ग है ज्ञानयोग - या 'तात्विक अनुसन्धान' का मार्ग (The path of Philosophical Scrutiny)। केवल कॉमन सेन्स या सामान्य ज्ञान के बल पर बहुत गहराई से चिन्तन करने के परिणाम-स्वरूप कोई भी व्यक्ति इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि शरीर,मन बुद्धि आदि जड़ इंस्ट्रूमेंट्स से वह तत्वतः नितान्त पृथक है, तथा जन्म-मृत्यु से मुक्त है। विवेक-विचार करते हुए, गहराई से चिन्तन करते करते उसे  इस बात की स्पष्ट धारणा हो जाएगी, कि वह शरीर, मन, बुद्धि आदि जड़ पदार्थों से बिलकुल भिन्न - नित्यमुक्त, शाश्वत चैतन्य सत्ता है, उसका जन्म-मृत्यू तो है ही नहीं, और वही सबों के भीतर विद्यमान है। इस प्रकार से विचार-विश्लेषण करने में जिन मनुष्यों की बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण होगी और जो 'कामिनी-कांचन' प्रति बिल्कुल अनासक्त होंगे,वे स्वाभाविक रूप से इसी मार्ग पर चलना चाहेंगे। क्योंकि जो लोग अत्यधिक  चिन्तनशील होते हैं, वे प्रेम-विरह आदि कोमल मनोवृत्तियों को मानवीय -दुर्बलता समझते हैं, इसलिए उनको इस पथ पर चलने में बड़ी आसानी होती है। और केवल सामान्य ज्ञान का प्रयोग करते रहने से ही एक दिन उनको ब्रह्मज्ञान तक प्राप्त हो जाता है।  
एक तीसरा मार्ग है राजयोग (Raja-Yoga,- the path of mind control.) या मनःसंयोग अर्थात मन को नियंत्रण में रखने का मार्ग। जो युवा विद्यार्थी जीवन में ( अर्थात ब्रह्मचर्य-आश्रम के कालखण्ड में) इच्छा मात्र  से अपने मन को बाह्य विषयों से खीँच कर, किसी प्रयोजनीय विषय पर मन को एकाग्र रख सकते हों, यह मार्ग वैसे युवाओं के लिए बहुत अनुकूल है। हमलोगों का शरीर मानों एक बर्तन है, और मनवस्तु (mind-stuff) जिससे मन बनता है उसको चित्त कहते हैं, वही चित्त मानों इस पात्र में भरा हुआ जल है। जैसे किसी शांत सरोवर में ढेला फेंकने से वह तरंगायित हो जाता है, उसी प्रकार चित्त में 5 विषयों (रूप-रस-गन्ध -शब्द और स्पर्श) का ढेला गिरता रहता है, जिससे वह तरंगायित होकर मन बन जाता है, और यह क्या है ? -वह क्या है? करता रहता है। मन का कार्य ही है प्रश्न पूछना -कानों के माध्यम से कोई ध्वनि चित्त में गयी, तो मन प्रश्न करेगा कि मैंने अभी जो शब्द सुना वह किसी पंछी की कूक थी या मोटर का हॉर्न था ? अब बुद्धि निर्णय करेगी कि यह तो कोयल की कूक ही है! जैसे ही बुद्धि निर्णय लेती है, वैसे ही अहंकार 'मैं'-बोध आ जाता है - मैं जानता हूँ कि यह कोयल की आवाज है। वास्तव में ये सब हमारे (आत्मा के) उपकरण हैं। किन्तु मन में हर समय विचार तरंगें उठती रहती हैं, इसीलिए उसमें हमलोगों का स्वरुप ठीक तरह से प्रतिबिम्बित नहीं हो पाता है। जैसे बर्तन का जल स्थिर होते ही, उसमें सूर्य के स्पष्ट प्रतिबिम्ब को देखा जा सकता है, उसी प्रकार जैसे ही हमारा चित्त जब बिल्कुल शांत और स्थिर हो जाता है, वैसे ही चित्त के भीतर सत्य स्पष्ट रूप से दिखलाई देने लगता है। 
एक और मार्ग भी है- कर्मयोग, निष्काम भाव से कर्म करने का मार्ग। अर्थात कोई व्यक्ति चाहे जो कुछ भी कर्म करता हो, उसके फल से नहीं जुड़े नहीं होने का मार्ग-अर्थात 'निवृत्ति अस्तु महाफला' को समझ लेने का मार्ग। परिणाम में सुख मिले या दुःख, चाहे ख़ुशी मिले या गम दोनों अवस्थाओं में शांत रहना, दोनों में से किसी भी परिणाम से अनासक्त रहना; तथा अपने कर्मों के परिणामों से निर्लिप्त रहना ही इस योगमार्ग का सर्वस्व है। इस योगमार्ग का साधक यह अनुभव करता है कि, यह प्रकृति ही है जो शरीर तथा मन को संचालित कर रही है। अथवा इस मार्ग का साधक भक्ति के  मनोभाव के साथ भी कर्म कर सकता है कि मैं जो कुछ भी कर्म करता हूँ वह ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने की दृष्टि से करता हूँ; और मानसिक रूप से वह अपने समस्त कर्म को ईश्वर को समर्पित करता जाता है।
अथवा बदले में किसी फल की आशा (नाम-यश या अन्य कोई भी एषणा) किये बिना वह मानवता की सेवा भी कर सकता है। कर्म करते समय कर्मयोगी ऐसा मनोभाव रखता है कि- 'मैं कर्ता नहीं हूँ, प्रकृति के गुणों के द्वारा (सत-रज-तम के द्वारा) ही सभी कार्य हो रहे हैं !'  या फिर यह मनोभाव रखता है कि, 'मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, वह  ईश्वर (ठाकुर) को प्रसन्न करने के लिए ही कर रहा हूँ, जैसी उनकी इच्छा है वे मुझसे वैसा करवा ले रहे हैं।' यदि कोई व्यक्ति ईश्वर (माँ जगदम्बा या ब्रह्म और शक्ति में) के अस्तित्व में विश्वास नहीं भी रखता हो, किन्तु अपने  लिए कुछ भी पाने की इच्छा किये बिना, पूर्णतया निःस्वार्थभाव से केवल दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करता रहे तो उसके क्षुद्र व्यष्टि अहं की सीमा भी टूट जाती है और वह आध्यात्मिक मार्ग में उन्नत हो जाता है। इस प्रकार निष्काम भाव से कर्म करते रहने से एकदिन मनुष्य के व्यष्टि अहं ' मैं '-बोध की सीमा टूट जाती है, और वह सर्वव्यापी विराट मातृहृदय के अहं बोध में या आत्मस्वरूप (अपने यथार्थ स्वरुप) में प्रतिष्ठित हो जाता है।
श्रीकृष्ण के इन उपदेशों ने अर्जुन की बुद्धि में जमे भ्रम को दूर कर दिया। वह समझ गया कि युद्ध भी यदि उचित मनोभाव के साथ (कर्मयोग के रहस्य - निवृत्ति अस्तु महाफला को समझकर) लड़ा जाय, तो वह मेरी आध्यात्मिक प्रगति के रास्ते में बाधक सिद्ध नहीं होगा।अतः प्रारब्ध (destiny-भवितव्यता या अदृष्ट) के संग्राम में (in the battle of his destiny.) उसने अपने क्षत्रियोचित कर्तव्य का दृढ़ता पूर्वक पालन करने का संकल्प किया। और बड़े उत्साह के साथ यूद्ध करने को तैयार हो गये। सिंहविक्रम के साथ उन्होंने अपने धनुष को उठा लिया, तथा प्रत्यंचा चढ़ाकर एक जोरदार टंकार दिया, जिसकी अनुगूँज से सारा रणक्षेत्र थर्रा उठा ! इनदिनों तथाकथित सेक्यूलरवादियों  और समाजसुधारकों के बीच एक लोकप्रिय आलोचना (popular criticism) है कि धर्म ने ही भारत को आज इतना दब्बू, निष्क्रिय (passive) या बदतर बना दिया है, कि सम्पूर्ण राष्ट्र ही शक्तिहीन, कर्मविमुख कायरों के जाति में परिणत हो गया है। गीता की यह कहानी उस गलत और तथ्यहीन छिद्रान्वेषण का एक उपयुक्त जवाब है। [ तथा हमारे दो-भारतरत्न  आध्यात्मिक नेता अटलजी और वैज्ञानिक होकर भी आध्यात्मिक नेता A.P.J Abdul Kalam ने पोखरण में एक के बाद एक तीन परमाणु बमों का विस्फोट करके प्रमाणित भी कर दिया है !]  
-----------------------

       


















मंगलवार, 21 अगस्त 2018

['आधुनिक युग के दो अद्भुत शिक्षक' - स्वामी रंगनाथनंद के अनुसार।

['Two wonderful Teachers of the Modern Era' 
-According to Swami Ranganathananda .] 
****
गीतोक्त (5/19) साम्यभाव में अवस्थित प्रथम युवा नेता -श्रीरामकृष्ण 
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "हमारे देश में सबसे अधिक आदर और सम्मान एक शिक्षक को मिलता है,तथा उनके प्रति हमारी ऐसी श्रद्धा रहती है कि शिक्षक मानो साक्षात् ईश्वर ही हैं ! जितनी श्रद्धा हमें अपने शिक्षकों  (जीवन्मुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता) के प्रति रहती है; उतनी श्रद्धा हमें अपने माता-पिता के लिए भी नहीं होती। माता-पिता हमें केवल जन्म देते हैं,किन्तु शिक्षक (नेता) हमें अपने जीवन में वेदान्त का अभ्यास सिखाकर मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। " 
[ 'but the teacher shows us the way to salvation'. अर्थात शिक्षक 'सिंह-शावक' को अपना स्वरुप पहचान कर 'भेंड़ होने के भ्रम से मुक्त', जागृत या डी-हिप्नोटाइज्ड (awakened-प्रबुद्ध) हो उठने का मार्ग दिखलाते हैं !]  
श्रीमद्भागवत पुराण में कहा गया है - 'ब्रह्मावलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवः॥ ९.२८॥ ( -सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान्सरीसृप पशून्खगदंशमत्स्यान्। तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥)  जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्प-कार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था।  तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य को बनाया जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह अपनी बुद्धि को विकसित करके अपने बनाने वाले ब्रह्म या ईश्वर को भी जान लेने में भी समर्थ था।  इसी से मिलती-जुलती कथा बाइबिल और कुरान में भी है कि मनुष्य को ब्रह्मा जी ने अपने रूप में गढ़ा , और मनुष्य को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए।  और सभी देवदूतों (फरिस्तों) को बुलवा भेजा तथा उनको आदेश दिया कि तुम सबलोग मनुष्य के सामने सिर झुकाओ-इसको नमस्कार करो ! सभी फरिस्तों ने मनुष्य के सामने अपने सिर को झुकाया, केवल एक फरिस्ता जिसका नाम इब्लीस था,उसने सर नहीं झुकाया तो उसको भगवान ने कहा -दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया।इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। निम्नतर सृष्टि, पशु-पक्षी आदि किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते।
 [ देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना, अर्थात गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों का पालन किये बिना  "निवृत्ति अस्तु महाफला की धारणा" नहीं कर सकते; अतः मुक्ति-लाभ या 'भ्रममुक्त अवस्था' भी प्राप्त नहीं कर सकते।]
 चाहे हम अपने 'स्व' (यथार्थ स्वरूप) को, 'मैं कौन हूँ ?' को गहराई से जानने की चेष्टा करें;  अथवा बाह्य प्रकृति को, दोनों अवस्थाओं में हमें उसी अनन्त-असीम (लिमिटलैस) का आह्वान सुनाई देता है। बाह्यजगत और अंतःजगत दोनों अथाह (fathomless) हैं, अतः इनकी गहराई को मापा नहीं जा सकता। इसीलिये हम उस प्रत्येक बाधा को तोड़ देना चाहते हैं, जो हमें इस मिथ्या व्यक्तित्व या नाम-रूप की सीमा में आबद्ध करना चाहती है। मानवजाति के जो मार्गदर्शक नेता अपने जीवन और उपदेशों के द्वारा इस मिथ्या व्यक्तित्व के अहं-बोध में फँसी आत्मा को.  या शरीर और मन की जाल में फँसी हुई आत्मा को सिंहविक्रम से काटकर मुक्त हो जाने का मार्ग दिखलाते हैं, उनके जीवन से हमलोगों को भी मुक्त होने की प्रेरणा प्राप्त होती है।   
आधुनिक युग के दो अद्भुत शिक्षक श्रीरामकृष्णदेव और स्वामी विवेकानन्द: आधुनिक युग में दो ऐसे आश्चर्यजनक शिक्षक हुए हैं जिन्होंने अपने जीवन से हमें यह शिक्षा दी है कि वेदान्त केवल मुख से कहने भर की बात नहीं है; इसे अपने दैनंदिन जीवन में अपनाना चाहिये; तथा स्वयं इसका अभ्यास करके उन्होंने इसे कार्यरूप देकर दिखा भी दिया है। श्रीरामकृष्ण तो धर्म क्षेत्र के एक महान वैज्ञानिक ही थे। ठीक किसी वैज्ञानिक की तरह जो अपनी प्रयोगशाला में अनुसंधान करने में व्यस्त रहता है, उन्होंने भी दक्षिणेश्वर के भवतारिणी मंदिर में १२ वर्षों तक परम् सत्य का अनुसंधान या आध्यात्मिक साधना करने के दौरान, सभी धर्मों की साधना करके यह देख लिया था कि "सभी धर्मों का मुख्य भाव यही है कि, 'मैं कुछ नहीं -तू ही सब कुछ है', जो कुछ है सो तू ही है! तथा जो कहता है -'मैं नहीं', बस उसीके हृदय को ईश्वर परिपूर्ण कर देते हैं। (हृदय से अंहकार के हटते ही माँ जगदम्बा वहाँ बैठ जाती हैं।) यह क्षुद्र अहंभाव जितना ही कम होता है,उतनी ही उसमें ईश्वर की अभिव्यक्ति होने लगती है। "७/२५५ 
अद्वैतभाव में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो जाने के लिए श्रीरामकृष्णदेवने कई प्रकार के प्रयोग किये थे; किन्तु उनमे से एक प्रयोग सबसे अद्भुत (Wonderful )था। अपने जीवन में अद्वैतवाद को प्रतिष्ठित करने के लिए वैसा 'अद्भुत -प्रयोग'  उनसे पहले के किसी भी शिक्षक, नेता, पैगम्बर या  मानवजाति के मार्गदर्शक नेता ने नहीं किया था। जबकि श्री रामकृष्ण ने अपने जीवन को ही अद्वैत वेदान्त उदाहरण बनाकर हम लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया है : 
एक दिन मध्य रात्री में श्रीरामकृष्ण उठ गए, और मंदिर के समीप रहने वाले एक चाण्डाल (sweeper caste'  वाल्मीक) के घर जाकर उसके शोचालय (latrine) को साफ कर दिए। यदि वे इस कार्य को दिन में करना चाहते तो नहीं कर पाते। क्योंकि वह चाण्डाल (वाल्मीक)उन्हें वैसा करने नहीं देता। क्योंकि अत्यंत प्राचीन काल से ही, भारत में उच्च जाति और निम्न जाति दोनों वर्ग के लोगों के दिमाग में यह विचार भर दिया गया है कि,  जिस मनुष्य का शरीर ब्राह्मण-कुल में जन्मा है, वह जन्मजात रूप से ही सर्वश्रेष्ठ जाति का है, या उच्च जाति का है।  उसी प्रकार जिन मनुष्यों का शरीर निम्न जाति के कुल में जन्मा है, वे जानते हैं कि वे निम्न जाति के हैं। और जो जन्मजात रूप से निम्न जाति के हैं, उन्हें आजीवन निम्न जाति में ही रहना होगा। दोनों वर्ग के लोगों के मन में यह विचार पूरी गहराई से घर कर चुका है। किन्तु यह प्राचीन भारतीय समाज में व्याप्त एक वंशानुगत पारम्परिक कुसंस्कार था, जिसे आधुनिक भारत या नए भारत में मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्ण ने तोड़ कर दिखा दिया है। 
वे कहा करते थे कि -" जन्म से ही प्रत्येक मनुष्य   'घृणा,लज्जा, भय, कुल,शील,मान, जाति तथा अहंकार (पंचक्लेश)' -इन अष्टपाश में आबद्ध है, यज्ञोपवीत भी 'मैं ब्राह्मण तथा सबसे श्रेष्ठ हूँ '-इस प्रकार के मिथ्या अहंकार (arrogancy) का चिन्ह होने के कारण यह भी एक पाश है,(अतः वर्णाश्रम धर्म की रक्षा करने के लिए ?) साधना करने के बाद पुनः यज्ञोपवीत को धारण कर लूँगा "  ! ईश्वर (माँ जगदम्बा ) को पुकारने के लिये इन पाशों (superimpositions) को त्यागकर, एकाग्रता के साथ उन्हें पुकारना पड़ता है। केवल स्थूल रूप से जनेऊ त्याग कर ही वे सन्तुष्ट नहीं हो गए थे। 
साम्यभाव अवस्थित रहने या 'समस्त जीवों में उपस्थित शिव' का अनुभव करने या के लिए श्रीरामकृष्णदेव अपने सिर के लम्बे बालों से उस अछूत चाण्डाल के शोचालय को धोकर स्वच्छ बना देने की साधना किया करते थे।  चाण्डाल जाति में जन्मे (मेहतर) का शौचालय  साफ़ करते समय श्रीरामकृष्ण माँ जगदम्बा से प्रार्थना भी किया करते थे," हे जगन्माता, मुझे चाण्डाल का दास बना दो और मुझे यह अनुभव कर लेने दो कि मैं उससे भी हीन हूँ। " तुम मेरे मन में छिपे इस भाव को दूर हटा दो, कि एक ब्राह्मण शरीर में जन्म लेने के कारण मैं अन्य सभी जातियों से श्रेष्ठ हूँ। तुम मुझे अपने को 'सभी का दास'- सर्वेंट ऑफ़ ऑल, मनुष्य मात्र का सेवक समझने की सद-बुद्धि दो ! यह एक अदभुत प्रार्थना है! किंतना सुंदर विचार है- नेता/शिक्षक  सभी का (अपने छात्रों -या भावी शिक्षकों का भी ?) दास होता है! जिस चाण्डाल (वाल्मीक या Sweeper) को अन्य लोग अत्यंत अपवित्र मानकर सर्वथा परित्याग करते हैं, श्रीरामकृष्ण मध्य रात्रि में जब उस चाण्डाल के शौचालय को, जब उसके घर के सभी लोग सो रहे होते, धो-पोछकर साफ कर दिया करते थे। ताकि वह चाण्डाल उन्हें शौचालय साफ़ करते हुए कहीं देख न ले। क्योंकि देख लेने से तो वह भी मना ही कर देता। 
अद्भुत शिक्षक श्रीरामकृष्ण की इस लीला का ये तो एक पहलु हुआ, दूसरा पहलु है, जिस रूढ़िवादी वंश-परम्परा में पले-बढ़े होने के कारण, भारत के सभी लोग छुआछूत (untouchability या अस्पृश्यता) को सदियों से सही मानते चले आ रहे हैं। उनके लिये यह इतना स्वाभाविक बन चुका है, कि अब वे इसके विपरीत वे कुछ सोंच ही नहीं सकते। इसीलिए युगावतार श्रीरामकृष्ण अपने जीवन द्वारा इस कुसंस्कार को मिटाकर व्यावहारिक वेदांती या सच्चा आध्यात्मिक शिक्षक बनने और बनाने के लिए अनुप्रेरित करते हैं। 
              ७० साल पहले किसी यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार ने स्वामी रंगनाथानन्द जी को भाषण में जब यह कहते सुना कि श्रीरामकृष्ण स्वयं ब्राह्मण होकर भी, १५ दिनों तक  एक अछूत मेहतर (वाल्मीक या चाण्डाल) का शौचालय साफ़ किया करते थे ! तो इतना सुनते ही उन्होंने अपने दोनों कानों को हाथ से ढँक लिये, और कहा -" रुक जाइये, रुक जाइये - ऐसी बात मुख से भी मत निकालिये।" किन्तु वक्ता ने जब कहा कि सच्चाई तो यही है कि ठाकुरदेव ने ऐसा किया था ! यदि ऐसा किया भी था तो यह बात आप दूसरों को मत बताइये। यह तो ब्राह्मण जाति के लिये बड़े अपमान की बात है ! वक्ता ने कहा जहाँ तक मैंने आध्यात्मिकता को समझा है, ऐसा करना तो किसी 'यथार्थ ब्राह्मण' के लिए सबसे बड़े गौरव की बात है ! किन्तु वे दोनों एक सामान्य तर्कसंगत धरातल पर नहीं पहुँच सके, क्योंकि बहस करते समय एक खतरे से बचकर दूसरे में पड़ने का भय था। क्योंकि आज भी समाज में एक ओर जहाँ वंश-परम्परा से चले आ रहे पुरातन-पंथी कुसंस्कार हावी हैं, वहीँ अल्ट्रा मॉडर्न आधुनिक समाजसुधारक समस्या की जड़ में गए बिना ही अपने निजी स्वार्थ या राजनितिक कारणों से अगड़ा-पिछड़ा, दलित-स्वर्ण, कहकर परस्पर विद्वेष फैलाते रहते हैं। 
*******
 वर्तमान युग के दूसरे महान शिक्षक स्वामी विवेकानन्द !
['गुरु-शिष्य संवाद' का एक प्रसंग द्रष्टव्य है:वर्ष-१९०२, स्थान: बेलूड़ मठ]
वेदान्त को अर्थात 'शिव ज्ञान से जीव-सेवा' को कार्यरूप देने वाले दूसरे महान शिक्षक हैं -स्वामी विवेकानन्द। उन्होंने कहा है, " मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि - जीव जीव में वे ही अधिष्ठित हैं; इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है।  'Who serves jiva serves God indeed!'
 पूर्व बंगाल से लौटने के बाद स्वामी जी मठ  में ही रहा करते हैं ...... उस समय उन्होंने मठ में कुछ गाय, हंस, कुत्ते और बकरियाँ पाल रखी थीं। एक बड़ी बकरी को 'हंसी' कहकर पुकारा करते और उसी के दूध से प्रातःकाल चाय पीते। बकरी के एक छोटे बच्चे को 'मटरू' कहकर पुकारा करते। उन्होंने प्रेम से उसके गले में घुंघरू पहना दिये थे। बकरी का वह बच्चा  प्यार पाकर स्वामी जी के पीछे पीछे घूमा करता और स्वामीजी उसके साथ पांच वर्ष के बच्चे की तरह दौड़ दौड़कर खेला करते थे। 
मठ देखने के लिये नये नये आये हुए व्यक्ति विस्मित होकर कहा करते थे, "क्या ये ही विश्व-विजयी स्वामी विवेकानन्द हैं!कुछ दिनों बाद 'मटरू' के मर जाने पर स्वामी जी ने दुःखी होकर शिष्य से कहा था -" देख, मैं जिससे भी जरा प्यार करने जाता हूँ, वही मर जाता है। (या उनलोगों का ट्रांसफर हो जाता है ?)" 
... मठ की जमीन सफाई तथा मिट्टी खोदने और बराबर करने के लिये कुछ संथाल स्त्री-पुरुष रेजी-रेजा या कुली आया करते थे। उनके साथ स्वामीजी कितना हँसते-खेलते रहते और उनके सुख-दुःख की बातें सुना करते थे। संथालों में एक व्यक्ति का नाम था 'केष्टा।' स्वामीजी केष्टा को बड़ा प्यार करते थे। बात करने के लिये आने पर केष्टा कभी कभी स्वामी जी से कहा करता था -"अरे स्वामी बाप, तू हमारे काम के समय यहाँ पर न आया कर-तेरे साथ बात करने से हमारा काम बन्द हो जाता है और बूढ़ा बाबा (स्वामी अद्वैतानन्द) आकर फटकारता है।  
यह सुनकर स्वामी जी की आँखे भर आती थीं और वे कहा करते थे , "नहीं, बूढ़ा बाबा फटकार नहीं लगायेगा, तुम अपने गाँव की दो -एक बातें मुझे और सुना।' और यह कहकर उसके पारिवारिक सुख-दुःखों की बातें छेड़ देते थे। एक दिन स्वामी जी ने केष्टा से कहा -" अरे, तुमलोग हमारे यहाँ खाना खाओगे ?" (हजारों वर्षों से अपने को निम्नजाति का हूँ विश्वास दिलाता आया) केष्टा बोला, " हम अब और तुमलोगों का छुआ नहीं खाते, ब्याह जो हो गया है। तुम्हारा छुआ 'नमक' खाने से जात जायेगी रे बाप। " स्वामी जी ने कहा, " नमक क्यों खायेगा रे? बिना नमक डालकर तरकारी पका देंगे, तब तो खायेगा न ? केष्टा उस बात पर राजी हो गया। 
इसके बाद स्वामी जी के आदेश से मठ में उन सब संथालों के लिए पूड़ी- बुंदिया, तरकारी, मिठाई,दही आदि का प्रबंध किया गया और वे उन्हें बैठकर खिलाने लगे। खाते खाते केष्टा बोला -" हाँ रे , स्वामी बाप, तुमने ऐसी चीजें कहाँ से पायी हैं -हमलोगों ने कभी ऐसा नहीं खाया।" स्वामी जी ने उन्हें तृप्ति भर भोजन कराकर कहा - " तुमलोग तो नारायण हो, आज मैंने साक्षात् नारायण को भोग दिया। " भोजन के बाद जब संथाल लोग आराम करने गए, तब स्वामी जी ने शिष्य से कहा " इन्हें देखा, मानो साक्षात् नारायण हैं -ऐसा सरल हृदय, ऐसा निष्कपट सच्चा प्रेम कभी नहीं देखा था।"
 ... हाय ! देश के लोग पेट भर भोजन भी नहीं पा रहे हैं, फिर हम किस मुँह से मालपूआ खाते हैं ?         उस देश में जब गया था तब माँ जगदम्बा से कितना कहा, " माँ ! यहाँ पर लोग फूलों की सेज पर सो रहे हैं, तरह तरह के खाद्य-पेयों का उपभोग कर रहे हैं, इन्होंने कौन सा भोग बाकी रखा है ! और हमारे देश के लोग भूखों मर रहे हैं। माँ, उनके उद्धार का कोई उपाय न होगा ?" उस धर्म महासभा में धर्म-प्रचारक के रूप में जाने का मेरा एक उद्देश्य यह भी था कि मैं इस देश के लिये अन्न का प्रबन्ध करूँ। "
" देश के लोगों को दो वक्त का भोजन भी खाने के लिए नहीं मिलता, यह देखकर कभी कभी मन में आता है कि घंटी हिलाना, शंखबजाना, शास्त्र पाठ करना सब कुछ छोड़ दूँ, और चरित्र तथा साधना के बल पर धनी लोगों को अनुप्रेरित कर धन संग्रह करके ले आऊँ और दरिद्रनारायण की सेवा में ही जीवन बिता दूँ। देश में इन गरीब-दुःखियों के कल्याण की चिन्ता करने वाला कोई भी नहीं है ! जो गरीब किसान-मजदूर हमारे राष्ट्र की रीढ़ हैं, जिनके परिश्रम से अन्न पैदा हो रहा है, जिन मेहतर-डोमों के एक दिन के लिये भी काम बन्द करने पर  शहर भर में हाहाकार मच जाता है- हाय ! हम क्यों न उनके इस महान सेवा के लिए उन्हें सम्मान दें ? उनके सुख-दुःख में उन्हें सान्त्वना दें? उनके साथ सहानुभूति रखें ? क्या देश में उनके साथ सहानुभूति रखने वाला कोई भी नहीं है रे !  
 यही देखो न -अपने स्वर्ण (ब्राह्मण) हिन्दू भाइयों की सहानुभूति न पाकर दक्षिण भारत में हजारों पैरिया (Pariahs -शूद्र वर्ण के लोग, 'ब्राह्मण' में रूपान्तरित होने अर्थात ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की पात्रता रखते हुए भी धर्मान्तरित करके ईसाई बनाये जा रहे हैं। पर ऐसा न समझना कि वे (पैरिया लोग) केवल पेट के कारण ईसाई बनते हैं; वास्तव में वे हमारे द्वारा सहानुभूति और सम्मान न दिए जाने की प्रतिक्रिया वश ईसाई या मुसलमान धर्म में धर्मान्तरित हो जाते हैं। हमलोग दिन-रात उनसे केवल यही कहते हैं कि -`Don't touch us! Don't touch us!'  "हमें मत छूना, हमें मत छूना। 'Let us open their eyes.' आओ, हम सब मिलकर इनकी ऑंखें खोल दें- मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूँ, "इनके और मेरे भीतर एक ही ब्रह्म -एक ही शक्ति विद्यमान है, केवल अभिव्यक्ति की न्यूनाधिकता है ! (the one Brahman in all, in them and in me -- one Shakti (Energy) dwells in all.) मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि - जीव जीव में वे (माँ जगदम्बा)  ही अधिष्ठित हैं; इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है। जो व्यक्ति जीव-सेवा को परोपकार के रूप में नहीं, ‘जीव में उपस्थित शिव की सेवा’ समझकर पूजा भाव से करता है, उसी ने ईश्वर को ठीक ठीक समझा है।
[भारत और विश्व के कल्याण के लिए " विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'BE AND MAKE' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में  'कर्म के रहस्य' (Secret of Work-'निवृत्ति अस्तु महाफला' में प्रशिक्षित गृहस्थ (या प्रवृत्ति मार्गी) युवाओं को अपना घर-परिवार छोड़े बिना, ऐसा ही 'शिक्षक/नेता बननेऔर बनाने' के लिए अनुप्रेरित (inspire) करना महामण्डल द्वारा आयोजित इस युवा प्रशिक्षण शिविर का मुख्य उद्देश्य है। 'BE AND MAKE ' ]
---------------
 [मूढ़ी खाने के लिए पूर्ण महाराज, राँची आश्रम, ने भी १९८५ में ठीक ऐसा ही कहा था ?] 


























 (In our country a teacher is a most highly venerated person, he is regarded as God Himself.)