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शुक्रवार, 16 जून 2023

🔱🙏 "स्वामी विवेकानन्द के दार्शनिक और धार्मिक व्याख्यान" 🔱🙏The Philosophical And Religious Lectures of Swami Vivekananda 🔱🙏 - Condensed and Retold by Swami Tapasyananda

"स्वामी विवेकानन्द के दार्शनिक और धार्मिक व्याख्यान" 

- स्वामी तपस्यानन्द द्वारा संक्षेपित एवं पुनर्कथित

 [The Philosophical And Religious Lectures of Swami Vivekananda

  Condensed and Retold by Swami Tapasyananda ] 

 प्रथम संस्करण की प्रस्तावना 

 >>>What is Practicality : 'व्यावहारिकता (दुनियादारी) क्या है ?' - इसको समझ लेना ही सच्ची तपस्या है !>'What is pragmatism (worldliness)?'- To understand this is the real penance!> 🔱🙏  

 भूमिका 

शिक्षा-लाभ या धर्म-लाभ करने की भारतीय "गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में  दर्शन और धर्म हमेशा साथ-साथ चलते रहे हैं। हमारे दार्शनिकों ने (इन्द्रियातीत सत्य के द्रष्टा ऋषियों ने), इस पाश्चात्य दार्शनिक दृष्टिकोण को कभी स्वीकार नहीं किया कि धर्म और साक्षात् - ईश्वर दर्शन में कोई बौद्धिक अलगाव रहना चाहिए। जब कोई भी दर्शन (philosophy) यह स्वीकार कर लेता है कि मनुष्य में अंतर्निहित दिव्यता को प्रकट करने में सहायता करना ही उसका उद्देश्य है ; तो वह मनुष्य का सबसे अच्छा सहयोगी (best ally) या धर्म बन जाता है, और उसके आत्मविकास में प्रभावकारी होता है। स्वामी विवेकानन्द के दार्शनिक व्याख्यान मनुष्य के जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने में दर्शन के व्यावहारिक उपयोग का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। वे बिना किसी विशेष धर्म-सम्प्रदाय (cult) या पन्थ (creed) के नाम का उल्लेख किये सार्वभौमिक आध्यात्मिक मूल्यों को बड़े तर्कसंगत औचित्य (rational justification) के साथ प्रस्तुत करते हैं। यद्यपि अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा "~ में संचालित 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी" आन्दोलन ~ 'Be and Make' की पृष्ठभूमि वेदांतिक है; तथापि वे आध्यात्मिक जीवन के मूल सिद्धांतों से इतनी निकटता से जुड़े हुए हैं, कि किसी भी धर्म के अनुयायि को 'Mental Concentration' या 'मनःसंयोग' पद्धति सीखने से अपने विश्वास को गहरा और व्यापक बनाने में कुछ न कुछ  सहायता अवश्य प्राप्त होगी। 

PRACTICAL VEDANTA-1 

व्यवहारिक जीवन में वेदान्त -1

(१) 

🔱🙏व्यावहारिकता (दुनियादारी) क्या है ? 🔱🙏

What is Practicality

>>> 'व्यावहारिकता (दुनियादारी) क्या है ?' - इसको समझ लेना ही सच्ची तपस्या है ! 

काटवा के वैष्णव को उपदेश- 'छन-छनाना' (sizzling) छोड़ दो ! [(मंगलवार, 1 सितंबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-121]

'What is pragmatism (worldliness)?'- To understand this is the real penance!

Advice to the Vaishnavs of Katwa - Quit 'sizzling'! [(Tuesday, September 1, 1885) Sri Ramakrishna Vachanamrit-121]

अद्वैत दर्शन, यदि व्यावहारिक नहीं है, तो इसकी कोई अन्य प्रासंगिकता ही नहीं है।  वेदान्त के सिद्धान्तों को यदि कार्यरूप में परिणत नहीं किया जा सके तो बुद्धि-विलास के अतिरिक्त उसका और क्या मूल्य है ?  " यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य हैं "- (यदि निराकार ब्रह्म ही साकार जगत बन गया है)- तो धार्मिक और सांसारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है उसे भी मिट जाना चाहिये। वेदान्त के अनुसार धर्म के जो आदर्श हैं (त्याग और सेवा, Be and Make ) उससे अपने जीवन के सभी क्षेत्रों को आच्छादित कर लेना चाहिए, इन्हें हमारे प्रत्येक विचार के भीतर प्रविष्ट होकर, हमारे समस्त कार्यों के माध्यम से अभिव्यक्त होने चाहिए।  

 वेदान्त की इस अपार व्यावहारिकता को आम जनमानस में प्रविष्ट  कराने के उद्देश्य से  ही उपनिषदों  की कई प्रेरक संवादों को पुरोहितों या एकान्तवासी संन्यासियों  के मुख से न कहलवा कर; कोलाहलपूर्ण नगरों के कामकाजी व्यस्त जीवन से जुड़े जिन व्यक्तियों को हम सब से अधिक कर्मण्य मानते हैं, वैसे राजसिंहासन पर बैठनेवाले राजर्षि (राजा + ऋषि) लोगों के मुख से कहलवाया गया है।  

वेदान्तदर्शन का सर्वोत्तम भाष्य है भगवद् गीता, किन्तु गीता के उपदेश को श्री कृष्ण द्वारा किसी निर्जन आश्रम में नहीं बल्कि विशाल पांडव सेना के सेनाधिपति (generalissimo, C-IN-C) अर्जुन को  'युद्धक्षेत्र' में दिया गया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि वेदान्त दर्शन केवल  बैठे बैठे 'आरामकुर्सी तोड़ने वाले' दार्शनिकों (armchair philosopher) के बहस का मुद्दा नहीं है ; या उन तथाकथित बैरागी वृद्ध नागरिकों का भी मुद्दा नहीं है , जो केवल स्वर्ग या पुनर्जन्म में रूचि रखते हों। 

लेकिन आम तौर पर व्यावहारिक क्या है, इसे जानने की एक उत्सुक धारणा सभी लोगों में होती ही है। अब मानो किसी व्यक्ति (गुरु, नेता)  ने मुझे किसी विशेष आदर्श (युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द)  के सम्बन्ध में उपदेश दिया,  निश्चय ही उनका पहला उपदेश यही होगा कि स्वार्थपरता तथा आत्मसुख का त्याग करो।  में सोचता हूँ कि यह करना तो असम्भव है। किन्तु यदि किसी ने एक ऐसे आदर्श (फ़िल्मी हीरो) के सम्बन्ध में उपदेश दिया जो कि मेरी स्वार्थपरता और निम्न भावों का समर्थन करे तो मैं उसी समय कह उठता हूँ, 'यह है मेरा आदर्श' और मैं उसी आदर्श का अनुसरण करने के लिए तत्पर हो जाता हूँ।

जैसे 'orthodox' या "रूढ़िवादी"  शब्द को चालाकी से तोड़ मरोड़ कर विभिन्न रूपों में प्रयोग किया जाता रहा है, वैसे ही अनर्थ "practical" या "व्यावहारिक" शब्द के साथ भी किया जाता है।  हम सब इस 'व्यावहारिक' शब्द का प्रयोग केवल उन्हीं कर्मों के लिए (आहार, निद्रा, भय , मैथुन के लिए)  -करते हैं जिनकी ओर हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति है, और जो हमसे किये जा सकते हैं। लेकिन जब वेदांत को व्यावहारिक कहा जाता है, तो इसका मतलब यह होता है कि यह एक ऐसा उच्च आदर्श है,  जिसे बिना कोई समझौता किये के या मलिन किये व्यवहार में लाना होता है।

हर जगह कुछ ऐसे लोग रहते हैं, जो हमें हमारी  कमजोरियों के साथ समझौता करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, और हमें सिखाते हैं कि हम अपनी सभी मूर्खतापूर्ण वासनाओं तथा मूर्खतापूर्ण  इच्छाओं को पूरा करने के लिए विशेष प्रकार के बहाने कैसे बना सकते हैं ;  और हम सोचने लगते हैं कि ऐसे कमजोर, हल्के आदर्श ही एकमात्र आदर्श हैं,  जिनकी हमें आवश्यकता है। लेकिन वेदान्त के अनुसार ऐसा नहीं है। हमें अपने वास्तविक जीवन को आदर्श के अनुरूप गढ़ना चाहिए, वर्तमान  जीवन (नश्वर जीवन ?) को शाश्वत जीवन के साथ एक करने की चेष्टा करनी चाहिए, न कि इसके विपरीत।

(२) 

 DIVINITY OF MAN, A PRACTICAL GOSPEL  

🔱🙏'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' - यह एक व्यावहारिक सिद्धान्त है !🔱🙏

 'દરેક આત્મા અવ્યક્ત બ્રહ્મ છે' - આ એક વ્યવહારુ સિદ્ધાંત છે!   

वेदान्त का आदर्श कितना ही उच्च क्यों न हो, वह किसी असम्भव आदर्श को हमारे सामने नहीं रखता और वास्तव में यह आदर्श ही ठीक ठीक आदर्श है। एक शब्द में वेदान्त का सार है "तत्त्वमसि' - तुम्हीं वह ब्रह्म हो' और इसके समस्त उपदेशों (महावाक्यों) की अन्तिम परिणति यही है। अपने समस्त बौद्धिक व्यायाम के बाद वेदान्त इसी निष्कर्ष पर पहुँचता है कि मानवात्मा सदैव शुद्धस्वभाव और पूर्ण है, आत्मा का न कभी जन्म होता है न मृत्यु; और समस्त शक्ति और सारी महिमा इस आत्मा में ही सन्निहित है। और यदि कोई मनुष्य यह कहे कि 'मैं तो केवल साढ़े तीन हाथ का एक नश्वर शरीर मात्र हूँ' तो वह बड़ा झूठ बोल रहा है। [क्योंकि 'evolution' या क्रमविकास शरीर-मन आदि का होता है, आत्मा का नहीं।]        

 वेदान्त सब से पहले मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास करने के लिए कहता है। जिस प्रकार संसार का कोई कोई धर्म कहता है कि जो व्यक्ति अपने से बाहर किसी सगुण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है, उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। अपनी आत्मा की महिमा में विश्वास न करने को ही वेदान्त में नास्तिकता कहते हैं। बहुत से लोगों के लिए यह एक भीषण विचार है, इसमें कोई सन्देह नहीं; और हममें अधिकांश व्यक्ति यही सोचते हैं कि, वेदान्त के महावाक्यों को प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता; किन्तु वेदान्त दृढ़ रूप से कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति इस सत्य को जीवन में प्रत्यक्ष कर सकता है। इसकी उपलब्धि में स्त्री -पुरुष का भेद नहीं है, बालक- बालिका का भेद नहीं है, जाति या धर्म का भेद नहीं है- और मानवमात्र ही इस सत्य की उपलब्धि कर सकते हैं।- कुछ भी इसका प्रतिबन्धक नहीं हो सकता, कारण, वेदान्त दिखा देता है कि वह सत्य पहले से ही अनुभूत है और पहले से विद्यमान भी है। 

हम सबों में ब्रह्माण्ड की समूची शक्ति पहले से ही अन्तर्निहित है। हम लोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकर 'अन्धकार' 'अन्धकार' कहकर चीत्कार करते हैं। हाथ हटाने पर ही तुम देखोगे कि वहाँ प्रकाश पहले से ही वर्तमान था। वर्तमान भी है।' अन्धकार कभी था ही नहीं, अपवित्रता कभी थी ही नहीं, हम लोग मूर्ख होने के कारण ही चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं।  इस प्रकार वेदान्त, केवल 'आदर्श को कार्यान्वित किया जा सकता है' यही नहीं कहता, किन्तु यह भी कहता है कि वह आदर्श हम लोगों को पहले से ही प्राप्त है और जिसे हम अब आदर्श कहते हैं वही हमारी प्रकृत सत्ता है- वही हम लोगों का स्वरूप है।  और जो कुछ (घटना -दुर्घटना, भाई-भाई में सम्पत्ति विवाद और न जाने क्या -क्या) हम देखते हैं वह सब ..... सम्पूर्ण मिथ्या है।

अतएव, जो कोई अपने को दुर्बल समझता है, वह भ्रान्त है; जो अपने को अपवित्र मानता है वह भ्रान्त है; वह जगत् में एक असत् चिन्तनधारा प्रवाहित करता हैं। हमें सदा यह याद रखना चाहिए कि, " वेदान्त में हमारे इस वर्तमान सम्मोहित जीवन (hypnotized life) का, हमारे द्वारा स्वीकृत मिथ्या जीवन का, जिसमें आदर्श के साथ समझौता करने वाली वृत्ति हो, का कभी अनुमोदन नहीं किया गया है। बल्कि, उसका तो परित्याग करने के लिए कहा गया है और ऐसा होने पर ही उसके पीछे जो सत्य-जीवन, शाश्वत-जीवन (true life, eternal life) सदा वर्तमान है, वह प्रकाशित होगा, व्यक्त होगा । यह नहीं कि जो मनुष्य पहले अपेक्षाकृत कम पवित्र था वह उससे भी अधिक पवित्र हो गया, किन्तु वास्तव में वह पहले से ही पूर्ण शुद्ध है उसका वही पूर्ण शुद्ध स्वभाव धीरे धीरे प्रकाशित होता है। आवरण हटता जाता है और आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता प्रकाशित होने लगती है ! 

जगत रूप से प्रतीत होने वाला यह " दृष्टिगोचर बहुत्व उस अपरिणामी एकत्व की ही अभिव्यक्ति" है। केवल वह 'एक' (ब्रह्म-शक्ति) ही अपने को बहुरूप में-- जड़, चेतन, मन, विचार अथवा अन्य विविध नाम-रूपों व्यक्त कर रहा है। अतएव, हम वेदान्तियों का प्रथम कर्तव्य है - इस ब्रह्मात्मैक्य के विषय में स्वयं को तथा दूसरों को शिक्षा देना। सम्पूर्ण विश्व इस महान् आदर्श - 'ब्रह्मात्मैक्य की घोषणा' से,'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' - ऋग वेद (1:164:46) ' की घोषणा' से इस प्रकार प्रतिध्वनित हो कि- उसके सब कुसंस्कार दूर हो जायें। दुर्बल मनुष्यों को यही सुनाते रहो- लगातार सुनाते रहो- 'तुम शुद्धस्वरूप हो, उठो, जागृत हो जाओ। हे शक्तिमान, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती। उठो, जागो इस प्रकार मोहनिद्रा में पड़े रहना तुम्हें भाता नहीं। तुम अपने को दुर्बल और दुःखी मत समझो। हे सर्वशक्तिमान्,  उठो, जाग्रत  होओ, अपना स्वरूप प्रकाशित करो। तुम अपने को पापी समझते हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। 'जगत् से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो- देखो, इसका क्या व्यावहारिक फल होता है,  देखो , कैसे बिजली के प्रकाश से सभी वस्तुएं (अपने सियाराम स्वरुप में) प्रकाशित हो उठती हैं , और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है। 

मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित आत्मा की शक्ति एवं पवित्रता पर आधारित वेदान्त के इन सकारात्मक शिक्षाओं की कसौटी पर , किसी व्यक्ति को खरा न उतरते देखने से, उसके प्रति हमारी सहानुभूति में कोई कमी नहीं आनी चाहिए। सब वही एक  (सच्चिदानन्द) है, जो अपने को विचार , जीवन, आत्मा या देह के रूप में अभिव्यक्त करता है  — और उनमें अंतर केवल परिमाण का है। हमें किसी भी मनुष्य की दुर्बलता को देखकर उसे घृणित दृष्टि से कभी नहीं देखना चाहिए। हम सभी उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं।  अतः जो किसी कारणवश हमारे समान उन्नति नहीं कर पाये उनके प्रति घृणा करने का अधिकार हमें नहीं है।  दुर्बलता और सबलता में केवल परिमाणगत भेद है। प्रकाश और अन्धकार में भेद है केवल परिमाणगत- पाप और पुण्य के बीच भी भेद है केवल परिमाणगत- जीवन और मृत्यु के बीच में भेद  केवल परिमाणगत, एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद केवल परिमाणगत ही है, प्रकारगत नहीं; कारण, वास्तव में सभी वस्तुएँ वही एक अखण्ड वस्तु मात्र हैं।  [नाम-रूप की दृष्टि से कोई छोटी तरंग है, कोई विशाल तरंग है, कोई केवल बुलबुला है, किन्तु जल की दृष्टि से सभी तरंगों के पीछे समुद्र ही है। ] 

>>>We have to evolve, we have to progress >(हमलोगों को क्रमविकसित होना है , उन्नति करनी है) : वेदांत केवल इस बात पर जोर देता है कि किसी भी वस्तु के सकारात्मक पक्ष पर जोर दिया जाना चाहिए न कि नकारात्मक पर। ग्लास आधा खाली है, न कहकर वेदान्ती कहेगा- 'ग्लास आधा भरा हुआ है। सभी लोग एक ही लक्ष्य की ओर देख रहे हैं , कम-बेश उसी आदर्श (100 % निःस्वार्थता) की ओर पहुँच रहे हैं और हम लोगों में जो अंतर है, वे केवल अभिव्यक्ति के हैं।उदाहरण के लिए, (बाइबिल के) इस सिद्धान्त को लें कि 'मनुष्य पापी है'। यह सिद्धान्त वेदान्त के अविद्या (अज्ञान या ignorance) के सिद्धान्त से मेल खाता है, जो आत्मा की अंतर्निहित शक्ति की अभिव्यक्ति में बाधा डालती है। वेदान्त में कथित अविद्या (अज्ञान या ignorance) की धारणा तथा (बाइबिल के) इस सिद्धान्त को लें कि 'मनुष्य पापी है' — दोनों वास्तव में एक ही बात हैं।केवल एक सकारात्मक है, दूसरी नकारात्मक है। एक, मनुष्य को उसकी दुर्बलता दिखा देती है और दूसरी कहती है कि दुर्बलता हो सकती है, किन्तु उस ओर ध्यान मत दो, हम लोगों को क्रमविकसित होना है, उन्नति करनी है। इसीलिए वेदांत अपने अनुयायिओं कभी भी पापी होने या अपनी अज्ञानता पर ढोल पीटने की अनुमति नहीं देता, क्योंकि उससे भी बड़ा सत्य तो यह है कि -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है , और आत्मा की इस अंतर्निहित प्रकृति को कोई भी शक्ति कभी नष्ट नहीं कर सकती।  मनुष्य को सदैव उसकी दुर्बलता की याद कराते कहना उसकी दुर्बलता का प्रतीकार नहीं है, बल्कि उसे अपने बल का स्मरण करा देना ही उसके प्रतीकार का उपाय है। उसमें जो बल पहले से ही विद्यमान है उसका उसे स्मरण कराओ। 

मनुष्य को सदैव उसकी दुर्बलता की याद कराते रहना उसकी दुर्बलता का प्रतीकार नहीं है, बल्कि उसे अपने बल का स्मरण करा देना ही उसके प्रतीकार का उपाय है। उसमें जो बल पहले से ही विद्यमान है उसका उसे स्मरण कराओ। वेदान्त मनुष्य को पापी न बतलाकर ठीक उसका विपरीत मार्ग ग्रहण करता है और कहता है, "तुम पूर्ण और शुद्धस्वरूप हो और जिसे तुम पाप कहते हो वह तुममें नहीं है।" जिसे तुम 'पाप' कहते हो वह " देह और मन के माध्यम से" तुम्हारी आत्माभिव्यक्ति (क्रमविकास) का निम्नतम प्रकाश है; अब अपनी आत्मा को (देह-मन से खींचकर मन का स्वामी बनकर) आत्मा के उच्चतर भाव (अहंब्रह्मास्मि) में प्रकाशित करो। 

(३)

Vedanta and Everyday Life

वेदांत >आत्मश्रद्धा-विवेक >और रोजमर्रा की जीवनशैली

        વેદાંત અને રોજિંદા જીવનશૈલી 

वेदान्त के सिद्धान्त 'Immense idealistic ' अपार आदर्शवादी होने के साथ साथ यदि 'Immense Pragmatic' अपार व्यावहारिक भी नहीं हों, अर्थात उनका प्रयोग यदि हम अपने दैनन्दिन जीवन के हर क्षेत्र में नहीं कर सकते हों, तो उसकी अन्य कोई प्रासंगिकता है ही नहीं। " वेदान्त के सिद्धान्तों को यदि कार्यरूप में परिणत नहीं किया जा सके तो बुद्धि-विलास के अतिरिक्त उसका और क्या मूल्य है ? हजारों वर्ष पहले एक ऋषि ने वेदान्त के मूल सिद्धान्त की घोषणा करते हुए कहा था - 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' - ऋग वेद (1:164:46) “सत्य एक है, पर ज्ञानीजन उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं।” 'अनेकता में एकता' (unity in diversity) के इस वेदान्ती उपदेश के सामने - धार्मिक और सांसारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद चला आ रहा था, उसे अब बिल्कुल समाप्त हो जाना चाहिए। वेदान्त के अनुसार धर्म के जो आदर्श हैं (त्याग और सेवा, Be and Make) उससे अपने जीवन के सभी क्षेत्रों को आच्छादित कर लेना चाहिए, इन्हें हमारे प्रत्येक विचार के भीतर प्रविष्ट होकर, हमारे समस्त कार्यों के माध्यम से अधिकाधिक अभिव्यक्त भी होना चाहिए। 

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 Preface to the First Edition :In the Indian tradition philosophy and religion have always gone hand in hand. Our philosophers never adopted the Western philosophical outlook of an intellectual aloofness that seeks to steer clear of religion. When philosophy accepts the furtherance of man’s spiritual life as its aim, it becomes the best ally or religion, exercising an ennobling and liberalising influence on it. Swami Vivekananda’s philosophical lectures provide the best example of philosophy put to such a use. They present the universal spiritual values and their rational justification without reference to any particular cult or creed. Though their background is Vedantic, they are so closely related to the fundamentals of spiritual life that the followers of any religion will find in them some aid both to deepen and to broaden their faith.

Contents : 

Practical Vedanta-I  

1 What is Practicality 1

2 Divinity of Man, a Practical Gospel 2

3 Vedanta and Everyday Life 4

4 The God of Vendanta is Every One's Experience 5

  Practical Vedanta-II  

1 Practical Of The Upanishadic Teachers  

2 The Practical Nature Of the Vedantic Idea Of Salvation 7

3 The Impersonal God 9

4 Advantages of the Impersonal Conception 11

  Practical Vendanta-III  

1 Requirements of a Scientific Religion 13

2 Buddhist Criticism of Dualism 14

3 The Only Answer lies in Advaitism 15

4 The Personal and The Impersonal Reconciled 16

  Practical Vedanta-IV  

1 Soul-Body Theory Criticised 19

2 The Advaitin's Reconciliation 20

3 the Problem from the Individual's Point of View 22

4 Advita and Individuality 24

5 Individuality and Morality 24


  The Way To The Realisation Of 

A Universal Religion 27


1 Truth and Religious Plurality 28

2 Each Religion has a Soul Of Its Own 29

3 What From Universal Religion is Possible 31


  The Ideal Of A Universal Religion  

1 Differences as an Unavoidable Feature Of Religion 34

2 Unity in Diversity as The Law of Life 35

3 Some Basic Truths Underlying Universality 37

4 The Four Types Of Nature And Universal Religion 37

5 Raja yoga 38

6 Karma Yoga 40

7 Bhakti Yoga 40

8 Jnana Yoga 41

  The Importance Of psychology  

1 Psychology As The Science Of Sciences 43

2 How The Mind Can Be studied 44

  Soul, God And Religion 45

1 The Idea Of The Soul 46

2 The Idea Of The Deity 48

3 Religion as Realisation 48

  What Is Religion?  

1 Quest For Freedom as The Genesis Of Religion 50

2 The Comprehensive Idea Of God as The Fulfillment Of The Struggle For Freedom 51

3 The True 'I' 52

  The Veda And The Vedanta  

1 monotheism Of The Veda 53

2 From Vedism to Vedanta 54

  The Vedanta Philosophy  

1 Texts Of The Vedanta  

2 The World- View Of The Vedanta  

3 The State Of Advaitic Realisation  

  Reason And Religion  

1 The Conflicting Claims Of Religion And Science 60

2 Reason as an Arbiter in The Conflict of Scriptures 61

3 Principles of Scientific Reasoning 62

4 How Vedanta Fulfils The Needs Of a Scientific Religion 63

5 Vedanta is not Pantheism 64

6 The Deficiency Of a Personal God 65

7 The Impersonal; and Problem Of Evil 65

8 Complementary Nature Of the Personal And The Impersonal 66

  Some Special Features Of The Vedanta 69

  Steps Of hindu Philosophic Thought  

1 Jiva and Nature 71

2 The Jiva and His Embodiments 72

3 Qualified Non- Dualism 74

4 Non- dualism 74

  Steps To realisation  

1 The seven Steps ..76 

2 Purity Attained through Disciplines leads to Realization ..78 

  Vedanta And Privilege

1 The Absolute and Manifestation 80

2 Diversity and Inequality, a Necessity Of Life 80

3 Demand For Privilege an Unjustifiable Evil 81

  Work And Its Secret  

1 Power Of Attachment And Detachment As The Secret Of Work 83

2 Detachment does not mean Imperviousness 84

3 Unselfishness The Secret Of True Detachment 84

4 Control Yourselves; Then The Environment Will be Controlled 85

  The Powers Of The Mind  

1 The Mystery Of Power of Personality and unaccountable Phenomena 86

2 Yoga as Aid To Rapid Evolution 87

  Hints On Practical Spirituality  

1 The Meaning And Purpose Of Pranayama 88

2 Prana as Universal Energy 89

3 The Unconscious Aspect Of Mind 90

4 A New Outlook on sin and Wickedness 90

5 Control of the Unconscious and the Supra- Conscious 91

  Bhakti or Devotion  

1 Ritualism as the universal Expression of Divine Adoration 93

2 When does Man Rise Above Ritualism 93

3 The Dawn of Longing For God 95

4 The three characteristics of genuine Love 96

  The Way To Blessedness  

1 The Real can be Apprehended only by looking within 98

2 The Unity Of Existence 98

3 The Three Perceptions 99

  Soul, Nature And God  

1 The Gross Body, Subtle Body And Atman 101

2 Nature and Evolution 103

3 The Soul In Its Three Phases 103

  Cosmology  

1 Cyclic Nature of creative Activity 105

2 Bhutas, Prana and Akasa 106

3 Sukshma- Sarira and the Atman 106

4 Meaning Of Evolution 107

5 God of the Sankhyas 107

6 Subjectivity in Perception 109

  A Study Of The Sankhya Philosophy  

1 Kapila, the World's first Philosopher 110

2 Prakriti and its Evolutes 110

3 The Sub- Conscious, conscious and super - conscious 111

4 Why the world looks imperfect 112

5 Purusha as antecedent to Intelligence and Will 112

  Sankhya And Vedanta 114

  Unity , The Goal Of Religion  

1 Religion a constitutional necessity for Man 117

2 The Relevancy of Religion 117

3 Religion And Discovery Of New Truth 118

  The Free Soul  

1 You are the Whole Atman, not Part 119

2 The Knower cannot be the known 120

3 How the Free has become the Bound 120

4 How the Illusion came about , an impossible Question 121

5 Worship in the Monist's Perspective 122

6 Who is fit to be a Jnana Yogi 123

  One Existence Appearing As Many  

1 Renunciation the Key-note Of Advaitism 124

2 The one Existence 124

3 Advaitin's View about the Hereafter 125

4 Causation, a Myth 125

5 Overcoming Slavery 126

Real Worship  

1 Without Purity no true worship is possible 127

2 Service and Unselfishness form true Religion 127

  The Vedanta  

1 The Veda and the Vedanta 129

2 The Vedanta Teaching are Complementary and not contradictory 130

3 Cosmology and Psychology of Vedanta 131

4 The Structure and Functions Of Antahkarana 132

5 The Provisional Conception Of the Atman and Iswara 133

6 The Atman and Evolution 134

7 The Buddhist Challenge 136

8 The Advaitta alone can answer these Critics 137

9 Brahman as the Unknown - How? 138

10 The Doctrine Of Maya 140

11 The Apprehension of Brahman in three Stages 140

12 Advaita alone is consistent with the Scientific Outlook 142

13 Adivaita and Morality 143

14 Practical Vedanta 144

  The Influence Of Indian Spiritual Thought In England  

1 Expression is the Message Of the West 146

2 What India has to give to the West 146

  Sannyasa: Its Ideal and Practice 149

  India's Spiritual Ideals  

1 The Reformers and the Orthodox 151

2 The true Spiritual Ideal 151

3 The three Precious Attainments 152

4 Hindu Scriptures 152

5 Some important Doctrines of Hinduism 153

6 A Word to the Reformers and the Orthodox 155

  Addresses On Bhakti-Yoga  

1 The Preparation 156

2 The First Step: The Outlook Of a true Aspirant 157

3 For Progress one must really want God 159

4 Teachers of Spirituality 160

5 Who is a fit Disciple and who is a proper Guru 160

6 World Teachers and Incarnations 162

7 Early stages of Bhakti 163

8 Prayers and Ceremonies for Satisfaction of Desires have no place in Bhakti 164

8 Symbols: Pratikas and pratimas 165

10 Sound Symbols 167

11 Ishtam or Freedom Of Choice in Religion 168

12 Ishtam is Sacred, not Secret 170

  Is The Soul immortal?  

1 Death and Inherent Sense of immortality 171

2 The inherent Sense Of Freedom 172

3 Immortality of the soul as Explanation 173

  Reincarnation  

1 The Mystery of Man's Internal Nature 174

2 Theories of the Soul 174

3 Soul Theory of the Vedas 175

4 Proofs of the soul's Pre-Existence 176

  Is Vedanta The Future Religion?  

1 Requisites for a Religion to Prevail widely 179

2 The Difficulty of Vedantic Idea Of God 180

3 The Vedantic Idea Of God 180

4 The Goal of Vedantic Ideal Of Religion and the Difficulty of Realising it  

  Discourses On Jnana Yoga  

1 Some Characteristics of Jnana Yoga 184

2 Sankaracharya 185

3 The Nature Of jnan On Gita and Krishna 185

4 On Gita and Krishna 186

5 Characteristics of Jnana and the Jnani 186

6 When is Jnana attained 187

7 Higher understanding very rare among Men 187

8 Sacrifice as Essential to True Religion 188

9 Dvaitins and Advaitins 188

10 What is perfection 189

11 Law, Sin and sinners 190

12 The Body and its true Evaluation 190

13 Instinct, Reason and Intuition 191

14 What is Jnana? 191

  The Methods And Purpose Of Religion  

1 The two Approaches of Religion to Truth 193

2 The Quest of the Vedanta: Unity of Existence 193

3 Analysis of Religion into Philosophy, Mythology and Ritual 194

4 How Vedanta Escapes from Personality Cult 195

5 Rishihood for all as the Goal of Religion 196

  The Nature Of The Soul And Its Goal  

1 The Egyptian Idea of a 'Double' 198

2 The Aryan Idea of soul as a Bright Body 198

3 From 'Bright Body' to Atman 199

4 The Atman as Inherently Perfect 199

5 Evolution is of the Body not of Atman 200

6 The Unity of the Atman 202

  Discipleship  

1 Right Attitude of Discipleship 203

2 Spirit of Renunciation 203

3 Control of the senses and the Mind 204

4 Faith 204

5 Burning Desire to be free 205

6 Discrimination 206

  Six Lessons On Raja Yoga  

  Introduction 207

1 First Lesson : Early Disciplines 207

2 Second Lesson: Pranayama 209

3 Third Lesson: Kundalini 211

4 Fourth Lesson: Control of Mind 211

5 Fifth Lesson: Pratyahara and Dharana 212

6 Sixth Lesson: Sushumna 213

  Thoughts On The Gita  

1 Gita in Historical Perspective 214

2 Gita Contrasted with the Upanishads 215

3 Samanvaya and Nishkama Karma 215

4 Manliness, the dominant Note of the Gita 216

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PRACTICAL VEDANTA-1 

What is Practicality

The Vedanta philosophy, if it is not practical, has no other relevancy. Before the Vedantic teachings of oneness, the fictitious difference between religion and the life of the world must vanish . The ideal of religion, according to Vedanta, must cover the whole field of life, they must enter into all our thoughts, and find expression in all our actions.

It is to indicate this extreme practicality of Vedanta that many of the Upanishadic discourses are put in the mouths of ruling monarchs and not of priests or recluses dwelling away from the company of men or in restricted and cloistered surroundings. 

The great Vedantic text, the Bhagavad Gita, was delivered in the field of battle by Sri Krishna to Arjuna, the generalissimo of the Pandava army. Vedanta is therefore meant to be not a concern of mere armchair philosophers or of recluse interested only in the life hereafter. 

But people generally have a curious notion as to what is practical. "Now if any man comes to preach to me a certain ideal, the first step towards which is to give up selfishness, to give up self-enjoyment, I think that is impractical. But when a man brings an ideal which can be reconciled with my selfishness, I am glad at once and jump at it. That is the ideal for me.

 As the word "orthodox" has been manipulated into various forms, so has been the word "practical". Thus man ordinarily means by practical - that which he likes and can do. But when Vedanta is spoken of as practical, it is meant that it is a  high ideal which at the same is to be put into practice without any compromise or dilution.  

There are persons who encourage us to make compromises with our weaknesses and teach us how to make special excuses for all our foolish wants and foolish desires, and we think that such diluted ideals are the only ideals we need to have. But it is not so according to Vedanta. The actual should conform to the ideal, the present life should be made to coincide with life eternal, and not vice versa.   

(2)

 DIVINITY OF MAN, A PRACTICAL GOSPEL  

The essence of Vedanta is the assertion of the divinity of man, as embodied in the cryptic saying: 'Thou art That '.  After all its intellectual gymnastics it comes to the conclusion that the spirit in man has always been pure and perfect,  that it was never born and will never die, and that all power and glory are lodged in it, and that if anyone says, ' I am but a little mortal being ' he is giving out a great lie. 

The Vedanta teaches men to have faith in themselves first. Certain religions of the world say that a man who does not believe in a Personal God outside of himself is an atheist, so Vedanta says, a man who does not believe in himself is an atheist. Not believing in the glory of our own soul is what Vedanta calls atheism. To many this is, no doubt, a terrible idea; and most of us think that this ideal can never be reached, but the Vedanta insists that it can be realized by everyone. There is neither man nor woman or child, nor difference of race or sex, nor anything that stands as a bar to the realization of the ideal, because Vedanta shows that it is realized already, it is already there. 

All the powers in the universe are already ours. It is we who have put our hands before our eyes and cry that it is dark. Know that there is no darkness around us. Take the hands away and there is the light which was from the beginning. Darkness never existed, and weakness never existed. Thus Vedanta not only insists that the ideal is practical, but that it has been so all the time; and this Ideal, this Reality, is our own nature. Everything else that you see is false, untrue.......

Therefore, whosoever thinks he is weak is wrong, whosoever thinks he is impure is wrong, and is throwing a bad thought into the world. We must always bear in mind that in the Vedanta there is no attempt at reconciling the present life — the hypnotized life, this false life which we have assumed — with the ideal; but this false life must go, and the real-life which is always existing must manifest itself, must shine out. No man becomes purer and purer, it is a matter of greater manifestation. The veil drops away, and the native purity of the soul begins to manifest itself. 

All this manifoldness is the manifestation of that One. That One is manifesting Himself as many, as matter, spirit, mind, thought, and everything else. It is that One, manifesting Himself as many. Therefore the first step for us to take is to teach the truth to ourselves and to others. Let the world resound with this ideal, and let superstitions vanish. Tell it to men who are weak and persist in telling it. You are the Pure One; awake and arise O mighty one, this sleep does not become you. Awake and arise, it does not befit you. Think not that you are weak and miserable. Almighty, arise and awake, and manifest your own nature. It is not fitting that you think yourself a sinner. It is not fitting that you think yourself weak. Say that to the world, say it to yourselves, and see what a practical result comes, see how with an electric flash everything is manifested, how everything is changed.

These positive teachings of Vedanta on the inherent power and purity of the spirit in man should not be interpreted as a lack of sympathy for the man in his weakness. All of us are going towards the same goal. The difference between weakness and strength is one of degree; the difference between virtue and vice is one of degree, the difference between heaven and hell is one of degree, the difference between life and death is one of degree, all differences in this world are of degree, and not of kind, because oneness is the secret of everything.

What Vedanta insists is that the positive side of things should be stressed and not the negative. For example, take the doctrine that man is a sinner. It corresponds to the Vedantic idea of ignorance, which obstructs the manifestation of the inherent nature of the soul. But the Vedanta never allows an aspirant to harp on his being a sinner or to gloat on his ignorance, it is a greater truth that the soul of man is divine and that nothing can destroy this inherent nature of the soul. The one doctrine shows to man his strength, and the other his weakness; the one takes the positive side the other the negative. There may be a weakness, says Vedanta, but never mind, we want to grow, and being reminded always of our weakness does not help much. Give strength, but strength does not come by thinking of weakness all the time.  

The remedy for weakness is not brooding over weakness, but thinking of strength. Teach men of the strength that is already within them. Instead of telling them they are sinners, the Vedanta takes the opposite position, and says, "You are pure and perfect, and what you call sin does not belong to you." Sins are very low degrees of Self-manifestation; manifest your Self in a high degree. " 

(3)

Vedanta and Everyday Life

  Religion, if it is to be a potent force in the life of man, must provide him with strength and inspiration in all situations of life. The Vedantic teaching of faith in oneself  is based on the idea of one's inherent Divinity (आत्मश्रद्धा या आस्तिक्य बुद्धि) is the best means for generating this strength and inspiration.  In the lives of all great men and women, that history knows, it was their tremendous faith in themselves and their mission that led to their achievements. All the differences between man and man arise from the degree of faith they have in themselves. 


 







बुधवार, 14 जून 2023

🔱🙏'गुरो, चैतन्यं देहि'🔱🙏लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्म लोकवेदत्वात् ।। वेदान्त केसरी की दहाड़ !

 🙏 'आत्म-विकास' या 'श्रेष्ठतर मनुष्य बनने और बनाने के विज्ञान' को ही धर्म कहते हैं🙏

 ['Self-development' - or the science of 'being and becoming a better human being (by Making )' is called Religion. ] 

[ ( 27 अगस्त 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-120]

श्रीरामकृष्ण – (मास्टर से, पण्डितजी को इशारे से बताकर) - ये बड़े अच्छे आदमी हैं । (पण्डितजी से) 'नेति नेति' करके जहाँ मन को विराम मिलता है, वहाँ वे (ब्रह्म) हैं । 

MASTER (to M., pointing to the pundit): "He is very nice. (To the pundit) Where the mind attains peace by practicing the discipline of 'Neti, neti', there Brahman is.

“राजा सात ड्योढ़ियों के पार रहते हैं । पहली ड्योढ़ी में किसी ने जाकर देखा, एक धनी मनुष्य बहुत से आदमियों को लेकर बैठा हुआ है, बड़े ठाट-बाट से । राजा को देखने के लिए जो मनुष्य गया हुआ था, उसने अपने साथवाले से पूछा, ‘क्या राजा यही है ?’ साथवाले ने जरा मुस्कराकर कहा, ‘नहीं’ ।

"The king dwells in the innermost room of the palace, which has seven gates. The visitor comes to the first gate. There he sees a lordly person with a large retinue, surrounded on all sides by pomp and grandeur. The visitor asks his companion, 'Is he the king?' 'No', says his friend with a smile.

“दूसरी ड्योढ़ी तथा अन्य ड्योढ़ियों में भी उसने इसी तरह कहा । वह जितना ही बढ़ता था, उसे उतना ही ऐश्वर्य दीख पड़ता था, उतनी ही तड़क-भड़क । जब वह सातों ड्योढ़ियों को पार कर गया तब उसने अपने साथवाले से फिर नहीं पूछा, राजा के अतुल ऐश्वर्य को देखकर अवाक् होकर खड़ा रह गया - समझ गया राजा यही है, इसमें कोई सन्देह नहीं ।”

"At the second and the other gates, he repeats the same question to his friend. He finds that the nearer he comes to the inmost part of the palace, the greater the glory, pomp, and grandeur. When he passes the seventh gate he does not ask his companion whether it is the king; he stands speechless at the king's immeasurable glory. He realizes that he is face-to-face with the king. He hasn't the slightest doubt about it." 

पण्डितजी - माया के राज्य [देश-काल-निमित्त] को पार कर जाने से उनके दर्शन होते हैं ।

PUNDIT: "One sees God beyond the realm of Maya."

श्रीरामकृष्ण - उनके दर्शन हो जाने के बाद दिखता है कि यह माया और जीव-जगत् वे ही हुए हैं । यह संसार 'धोखे की टट्टी' है - स्वप्नवत् है । यह बोध तभी होता है जब साधक 'नेति नेति' का विचार करता है । उनके दर्शन हो जाने पर यही संसार 'मौज की कुटिया' हो जाता है । 

MASTER: "But after realizing God one finds that He alone has become maya, the universe, and all living beings. This world is no doubt a 'frame-work of illusion', unreal as a dream. One feels that way when one discriminates following the process of 'Not this, not this'. But after the vision of God this very world becomes 'a mansion of mirth'.

श्रीरामकृष्ण - “केवल शास्त्रों के पाठ से क्या होगा ? पण्डित लोग सिर्फ विचार किया करते हैं ।”

"What will you gain by the mere study of scriptures? The pundits merely indulge in reasoning."

पण्डितजी - जब कोई मुझे 'पण्डित' (न्याय-वागीश) के नाम पुकारता है, तो घृणा होती है ।

PUNDIT: "I hate the idea of being called a pundit."

श्रीरामकृष्ण - यह उनकी कृपा है । पण्डित लोग केवल तर्क-वितर्क में लगे रहते हैं । परन्तु किसी ने दूध का नाम मात्र सुना है और किसी ने दूध देखा है । दर्शन हो जाने पर सब को नारायण देखोगे - देखोगे, नारायण ही सब कुछ हुए हैं ।

MASTER: "That is due to the grace of God. The pundits merely indulge in reasoning. Some have heard of milk and some have drunk milk. After you have the vision of God you will find that everything is Narayana. It is Narayana Himself who has become everything."

पण्डितजी नारायण का स्तव सुना रहे हैं । श्रीरामकृष्ण आनन्द में मग्न हैं ।

The pundit recited a hymn to Narayana. Sri Ramakrishna was overwhelmed with joy.

 🔱🙏आत्म-विकास या '3H' -विकास का

 वैज्ञानिक सूत्र' है गीता (6-29 to31) 🔱🙏

नारायण स्तव हो जाने पर अब पण्डितजी गीता (6.29) में दिये गए, 'आत्म-विकास' या '3H' -विकास का वैज्ञानिक सूत्र' [Scientific formula of self-development or ('3H'-development)] को उद्धृत कर रहे हैं  -

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्रसमदर्शनः ॥

 गीता ६.२९।। 

[शब्दार्थ : - सर्वभूतस्थम् = सर्वभूतस्थितं या निखिलभूतस्थितम्-; आत्मानं= स्वम्-खुद को; सर्वभूतानि = सकलभूतानि (all beings-सभी प्राणियों को); आत्मनि च = स्वस्मिन् च- अपने आप में (in his own); ईक्षते = अवलोकते-(observes-सिर्फ देखता नहीं , ध्यानपूर्वक देखता है) योगयुक्तात्मा = समाहितचित्तः, एकाग्र ह्रदय वाला (integrated heart) योगी; सर्वत्र = सर्वेषु- ऊँच और नीच, (high and low-सभी लोगों में) समदर्शनः = तुल्यदृष्टि (equal vision) ॥

अन्वय- योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः आत्मानम् सर्वभूतस्थम् आत्मनि च सर्वभूतानि ईक्षते ।

।।6.29।। योगयुक्त अन्त:करण (concentrated consciousness) वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी, आत्मा (भगवान) को सब जीवों में और जीवों को आत्मा (भगवान) में देखता है।।

BG 6.29: सच्चा योगी अपनी चेतना को भगवान के साथ एकीकृत कर समान दृष्टि से सभी जीवों में भगवान और भगवान को सभी जीवों में देखता है।

व्याख्या :विश्व के सभी धर्म महान हैं ,परन्तु धर्म शब्द का अर्थ यदि -'science of self-improvement' आत्मोन्नति (या आत्म-सुधार) का विज्ञान है, तो कोई भी धर्म वेदान्त के समान पूर्ण नहीं है। गीता के प्राय सभी अध्यायों में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है कि नाम-रूपमय यह  जगत इन्द्रियातीत सत्य की ही अभिव्यक्ति है, तथा यह सृष्टि उसी सत्य पर अध्यस्त (कल्पित) है।

हम अपने शरीर मन और बुद्धि के द्वारा क्रमश भौतिक पदार्थ दूसरों की भावनाएँ और विचारों को देख और समझ पाते हैं। जिसने इन उपाधियों से परे आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर लिया वह पुरुष उस आध्यात्मिक दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) से जब जगत् को देखता है तब उसे सर्वत्र व्याप्त आत्मा का ही अनुभव होता है। वह योगी स्वयं आत्मस्वरूप बन जाता है।

मिट्टी की दृष्टि से घट नहीं है और न सुवर्ण की दृष्टि से आभूषण। उसी प्रकार आत्मदृष्टि से आत्मा ही विद्यमान है और उससे भिन्न कोई वस्तु नहीं है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण नामरूपों का अधिष्ठान यह देशकालातीत आत्मतत्व ही है। जैसे मिट्टी समस्त मिट्टी के बने पात्रों में सुवर्ण समस्त आभूषणों में जल समस्त तरंगों में वैसे ही आत्मा समस्त नामरूपों में अधिष्ठान के रूप में स्थित है। 

भारत में दीपावली उत्सव के समय दुकानों में कई प्रकार की चीनी से बनी मिठाइयाँ, जैसे- हाथी, गुड़िया, कार, गेंद और टोपी आदि का आकार बनाकर बेची जाती हैं। बच्चे अपने अभिभावकों से कार, हाथी आदि की आकृतियों में बनी हुई चीनी की मिठाइयाँ लेने की हठ करते हैं। अभिभावक उनकी नासमझी पर यह समझकर हँसते हैं कि ये सब खिलौने एक ही चीनी की सामग्री से बने और सबकी मिठास एक समान है। इसी प्रकार सभी पदार्थों में प्रकट घटकों में (components, 3H में )  भगवान अपनी विभिन्न शक्तियों (various potencies) के रूप में स्वयं रहते हैं।

'अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव'  ही पूर्णत्व का द्योतक है जिसे ऋषियों ने सदैव अपना लक्ष्य बनाया है। इसी अनुभव को इस श्लोक में अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से दर्शाया गया है। किन्तु, केवल वह पुरुष आत्मज्ञानी या ईश्वर का साक्षात्कारकर्ता नहीं कहा जा सकता जिसने मात्र स्वयं को ही शुद्ध दिव्य स्वरूप में अनुभव किया हो। वह पुरुष जिसने कि सम्पूर्ण भूतों में विराजमान एक ही आत्मतत्त्व के दर्शन किये हों आत्मज्ञानी कहा जायेगा। 

अपने हृदय में स्थित चैतन्य आत्मा ही सर्वत्र सभी नाम रूपों में स्थित है और यही चैतन्य सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् का अधिष्ठान है। अत हृदयस्थ चैतन्य के अनुभव का अर्थ ही सर्वत्र व्याप्त नित्य तत्व को अनुभव करना है।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥30॥

BG 6.30: वे जो मुझे सर्वत्र और प्रत्येक वस्तु में देखते हैं, मैं उनके लिए कभी अदृश्य नहीं होता और वे मेरे लिए अदृश्य नहीं होते।

व्याख्या - भगवान (आत्मा) को खोने से तात्पर्य मन का भगवान से विमुख होकर भटकना है और उसमें मन के लगने का अर्थ मन को भगवान में एकत्व कर उसके सम्मुख होना है। मन को भगवान के साथ जोड़ने का सरल उपाय 'मनःसंयोग ' सीखने के लिए सभी पदार्थों को भगवान से संबंधित देखना चाहिए।

 उदाहरणार्थ जब कोई विश्वासघात करता है, या कोई हमें आहत करता है तब मन अपनी प्रवृति के अनुसार भावुक होकर हमलोग आहत करने वाले, धोखेबाज के प्रति रोष और घृणा व्यक्त करते हैं। जब हम मन को ऐसा करने की अनुमति देते हैं तब हमारा मन आध्यात्मिक क्षेत्र से दूर भाग जाता है, और मन की भगवान (आत्मा) के साथ भक्तिमयी एकीकरण की संभावना समाप्त हो जाती है। इसके स्थान पर यदि हम उसी समय बारम्बार - 'सर्वेभवन्तु सुखिनः' का महामन्त्र जपने लगते हैं; और उस व्यक्ति के भीतर भी भगवान की अनुभूति करते हैं तब हम ऐसा सोचते हैं कि -"भगवान इस व्यक्ति के माध्यम से मेरी परीक्षा ले रहे हैं। क्योंकि वे मेरे भीतर सहिष्णुता के गुण को बढ़ाना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने इस व्यक्ति को मेरे साथ दुर्व्यवहार करने की प्रेरणा दी होगी लेकिन मैं अपने मन को इस घटना से मुझे विक्षुब्ध करने की स्वीकृति नहीं दूंगा।" इस प्रकार से सोचकर हम अपने मन को नकारात्मक मनोभावों का शिकार बनने से रोकने में समर्थ हो सकते हैं। 

इसी प्रकार से मन जब किसी विशेष M/F में आसक्त हो जाता है तब वह भगवान से विमुख हो जाता है। ऐसे में यदि हम मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करें कि वह उस मित्र (M/F) दोनों  में शरीर देखने के बजाय भगवान (आत्मा) को देखे; और जब कभी मन उस पुरुष-विशेष या महिला में भटकने लगे तब हमें यह सोचना चाहिए–'भगवान श्रीकृष्ण (ठाकुरदेव ही, आत्मा )  उस विशेष पुरुष या महिला मित्र के भीतर उपस्थित हैं। इसलिए मैं इन पर आकर्षित हो रहा हूँ।' इस विधि से मन स्थिर होकर निरन्तर अवतारवरिष्ठ की भक्ति में लीन रहेगा।

 उसी प्रकार हमारा मन कई बार अतीत की घटनाओं पर शोक व्यक्त करता है। इससे मन दिव्य आध्यात्मिक क्षेत्र (भगवान के नाम-रूप लीला धाम) से पुनः विलग हो जाता है। क्योंकि शोक मन को अतीत में उलझा देता है, और इससे वर्तमान में भगवान और गुरु का चिन्तन समाप्त हो जाता है। यदि उन घटनाओं का संबंध भी हम भगवान के साथ जोड़कर देखें तब हमलोग यह सोचेंगे कि -" भगवान ने जान-बूझकर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की थी, ताकि मैं संसार के स्वार्थ-पूर्ण  सम्बन्धों के कटु सत्यों का, कष्टों का अनुभव कर सकूँ और जिससे कि मैं सांसारिक आकर्षणों से विरक्त होने के योग्य बन पाऊँ। भगवान मेरे कल्याण के संबंध में अत्यंत चिन्तित हैं इसलिए उन्होंने मुझ पर दया करके ऐसी उपयुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न की हैं जो कि मेरे आध्यात्मिक उत्थान के लिए अत्यंत लाभदायक हैं।" ऐसा सोचकर हम भगवान की भक्ति को सुरक्षित रखने के योग्य बन सकते हैं।

लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्म लोकवेदत्वात् ।। 

(नारद भक्तिदर्शन सूत्र-61)

लोकहानि की चिन्ता (भक्त) को नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह (भक्त) अपने आपको और अपने लौकिक-वैदिक (secular-sacred, सब प्रकार के) कर्मों को भगवान को अर्पण कर चुका है। इसलिए जब हम संसार में कठिनाइयों का सामना करे, तब हमें शोक या इन पर चिन्ता नहीं करनी चाहिए। इन घटनाओं को भगवान की कृपा के रूप में देखना चाहिए।" यदि हमारा मन निजी स्वार्थ वश  भगवान के अलावा अन्य किसी को प्रश्रय देता है, तब इसको समझाने का सरल उपाय सर्वत्र सभी पदार्थों और समस्त जीवों में भगवान को देखना है। यह अभ्यास का चरण है जो धीरे-धीरे पूर्णता की ओर ले जाता है और फिर जैसे कि इस श्लोक में उल्लेख किया गया है कि हम कभी भगवान के लिए अदृश्य नहीं होंगे और भगवान हमारे लिए अदृश्य नहीं होंगे।

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥31॥

शब्दार्थ : सर्व-भूत-सभी जीवों में स्थित; यः-जो; माम्-मुझको; भजति–आराधना करता है; एकत्वम्-एकीकृत; अस्थितः-विकसित; सर्वथा-सभी प्रकार से; वर्तमान:-करता हुआ; अपि-भी; सः-सह; योगी-योगी; मयि–मुझमें; वर्तते-निवास करता है।

BG 6.31: जो योगी मुझमें एकनिष्ठ हो जाता है और परमात्मा के रूप में सभी प्राणियों में मुझे देखकर श्रद्धापूर्वक मेरी भक्ति करता है, वह सभी प्रकार के कर्म करता हुआ भी केवल मुझमें स्थित हो जाता है।

  एकत्व भाव में  स्थित हुआ जो पुरुष समस्त जीवों  में स्थित मुझ 'वासुदेव श्रीकृष्ण' को  भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (कोई भी काम करता हुआ) मुझमें ही स्थित रहता है। अर्थात् वह सदा मुक्त ही है उसको मोक्ष पाने (d-hypnotized होने से) कोई भी रोक नहीं सकता। क्योंकि भगवान संसार में सर्वत्र सर्वव्यापक है। वे परमात्मा (Supreme Soul) के रूप में सभी के हृदय में निवास करते हैं। 

।।6.31।। इस श्लोक का मुख्य प्रयोजन यह दर्शाना है कि कोई आवश्यक नहीं कि एक आत्मानुभवी पुरुष हिमालय की किसी अज्ञात गुफा में जाकर निवृत्ति मार्गी संन्यासी का जीवन व्यतीत करेगा। भगवान् कहते हैं कि जीवन के समस्त सामान्य व्यवहार करता हुआ सभी परिस्थितियों में वह अपने स्वरूप के ज्ञान में स्थित रह सकता है। 

जब मनुष्य ऑपरेशन का मरीज हो जाता है तब उसे नित्य के कार्यों से निवृत्त होकर हॉस्पिटल में भर्ती होने की आवश्यकता होती है;  परन्तु पूर्ण स्वस्थ हो जाने के पश्चात् नहीं। स्वस्थ होकर तो वह पुन अधिक उत्साह के साथ अपना कार्य करने लगता है। इसी प्रकार 'विघटित व्यक्तित्व' या  'Hypnotized' मनुष्य के लिए जो सिंह-शावक होकर भी अपने को भेंड़ समझकर मेंमे करता है,  उस सम्मोहित मनुष्य  के लिए भगवान 'मनःसंयोग' की पद्धति का उपचार बतलाते हैं।  उस मनःसंयोग के  अभ्यास से जब वह स्वस्वरूप को पहचान कर दैवी सार्मथ्य प्राप्त कर लेता है; तब वह निश्चय ही अपने पूर्व के कार्य क्षेत्र (बिजनेस,व्यापार या राज-काज) में जाकर कर्म करते हुए भी पूर्णत्व के ज्ञान को सुदृढ़ बनाये रख सकता है। वास्तव में देखा जाय तो चिरस्थायी फलदायी कर्म कुशलतापूर्वक तभी किये जा सकते हैं जब कर्ता आत्मस्वरूप के ज्ञान में स्थित हो।  इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मज्ञानी पुरुष किसी भी कार्यक्षेत्र में कर्म करते हुए भी अपने वास्तविक स्वरूप का भान रख सकता है। गीता का यही संदेश है कि समर्पण की भावना से किये गये कर्म आत्म-विकास के साधन हैं। 

अठारहवें अध्याय के 61वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने वर्णन किया है-"मैं सभी प्राणियों के हृदय में निवास करता हूँ।" इस प्रकार से सभी प्राणियों के शरीर में दो ही तत्त्व हैं-आत्मा (soul) और परमात्मा (Supreme Soul.)। 

1. भौतिक चेतना (material consciousness) से युक्त लोग सभी जीव को केवल शरीर के रूप में देखते हैं, और जाति, नस्ल, लिंग (gender) , आयु और सामाजिक प्रतिष्ठा (social status) के आधार पर एक-दूसरे से भेदभाव बनाए रखते हैं। 

2. उच्च चेतना (higher consciousness) में युक्त मनुष्य सभी को आत्मा के रूप में देखते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण ने पाँचवे अध्याय के 18वें श्लोक में कहा है कि विद्वान लोग दिव्य ज्ञान की दृष्टि से ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और कुत्ते का मांस भक्षण करने वाले चाण्डाल को भी समान दृष्टि से देखते हैं। 

3. दिव्य चेतना (divine consciousness) युक्त सिद्ध योगी भगवान को, प्रत्येक जीव में अवस्थित परमात्मा (Supreme Soul)  के रूप में देखते हैं। वे भी संसार का अनुभव तो करते हैं,  किन्तु उसमें उलझते नहीं। वे हंस के समान होते हैं जो दूध और जल के मिश्रण में से दूध पी लेता है व जल को छोड़ देता है।

4. उच्च सिद्धावस्था (high perfection)  प्राप्त योगियों को परमहंस कहा जाता है। वे केवल भगवान को देखते हैं और संसार का अनुभव नहीं करते। श्रीमद्भागवद् में किए गए वर्णन के अनुसार महर्षि वेदव्यास के सुपुत्र शुकदेव की अनुभूति परमहंस के स्तर की थीः

यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव । 

पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ।।

(श्रीमद्भागवत् 1.2.2) 

किस स्तर के योगी हैं शुकदेव गोस्वामी ?--"यं प्रव्रजन्तं अनुपेतं अपेत कृत्यं" शुकाचार्यजी प्रव्रजन्त हैं। सरिता बहती भली और साधू चलता भला। सरिता का आकर्षण  उसके बहने में है और साधू का आकर्षण चलते रहने में है। शुकाचार्यजी प्रव्रजन्त हैं। 'प्रव्रजन्तं अनुपेतं'  जिन्होंने जन्म तो लिया, पर रुके नहीं, बिना जात कर्म संस्कार के, बिना यज्ञोपवीत संस्कार के, भजना नन्दी बन गए। जो समाज से और समाज के वस्तुओं से आसक्त है, वह साधू नहीं संसारी है, जिसने इन तीनों ऐषणाओं में (कामिनी-कांचन और लोकप्रसिद्धि में ) आसक्ति का  त्याग किया वही सच्चा संत है!  ऐसे परम पुनीत, परमहंस, परमभागवत को हमारा वंदन​, प्रणाम, नमस्कार है। अब कथा के लिए हमें व्यास जी ले चलते हैं नैमिषारण्य ! तो आईये अब आप हम भी चले पवित्र भूमि नैमिषारण्य की ओर।

नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्य महामतिम् ।

कथामृत रसास्वाद कुशल​: शौनकोऽब्रवीत ॥

कथा चल रही है नैमिषारण्य में, नैमिषारण्य केवल एक भूमि का नाम नहीं है। नैमिषारण्य तो भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य परम्परा में श्रोता और वक्ता की भूमिका का नाम है। निमेष कहते है क्षण के तीसरे हिस्से को, अर्थात तीन निमेष एक क्षण बनता हैतो निमेष मात्र में ब्रम्हा जी के द्वारा मनोमय चक्र इस अरण्य में आकर के गिरा। अरण्य कहते है, वन को। अत: उस जंगल को हम नैमिषारण्य कहते हैं, जो आज का हमारा एक तीर्थ स्थल  है। जहां पर सौनकादी अठ्ठासी हजार ऋषियों ने एक हजार वर्ष का ज्ञान सत्र चलाया, ज्ञान यज्ञ का आरम्भ किया था। 

अब हम नैमिषारण्य चलते हैं जहाँ पर शौनकजी के साथ 88 हजार महात्मा जो सूतजी के सानिध्य में कथा श्रवण कर रहे हैं। सौनक जी ने यहाँ पर सूतजी से छ​: प्रश्न किये हैं। इन्हीं छ​: प्रश्नों पर आधारित हमारी पूरी भागवत कथा है । हमारे जीवन के जितने भी प्रश्न हैं, उन सभी प्रश्नों के उत्तर हमें भागवात जी से प्राप्त होता है । इसलिए छ​: प्रश्न और छ​: दिन, एक दिन तो माहात्म्य का है । पर ये छ: प्रश्नों का जवाब हमें इन छ​: दिनों में मिलेंगे । इसलिए हमसे हमारे छ​: प्रश्न छूटें न, इसका प्रयास हमें करना है । ध्यान दें पहला प्रश्न क्या है:- 

1.प्राणी मात्र का कल्याण कैसे होगा, प्राणी का परम धर्म क्या है जिससे उसका कल्याण हो ? 

2. हमारे शास्त्र अनेक हैं और देवता भी तो इन शास्त्रों का निचोड़ क्या है ? 

3. परमात्मा कर्तुमा अकर्तुमा अनेकात्मा ईश्वर है, तो वह जन्म क्यों लेता है, उन्हे जन्म लेने की क्या आवश्यकता ? 

4. यदि परमात्मा जन्म लेते हैं तो अब तक कितने अवतार हुए, कोई 10 कहते हैं तो कोई 24 ? 

5. प्राणी मात्र का कर्तव्य क्या है ? 

6. भगवान जब लीला सम्पन्न करके स्वधाम जाते हैं तो धर्म किसकी शरण में जाता है?

शौनकजी के ये छ​: प्रश्न सुनकर गद-गद हो गये ।बोले- ऋषियो आपने बड़े सुन्दर प्रश्न किये, पर आपके इन प्रश्नो के उत्तर देने से पहले मैं अपने गुरुदेव को वन्दन करना चाहता हूँ । वैसे तो मेरे गुरु व्यासजी हैं पर यह दिव्य कथा मैनें शुकाचार जी से सुना इसलिए पहले उनको प्रणाम करते हैं।

यह मनोमय चक्र क्या है ?...हमारा जो मन है न​, वही तो मनोमय चक्र है। जिसकी रफ़्तार (गती) कैसी है?  निमेष मात्र में हम बैठे-बैठे चाहे जहाँ घूम कर आ जाते हैं। अर्थात- हमारा मन  शान्त नहीं है। भटक रहा है, तो शान्त कैसे हो? ऋषियों ने हंसारूढ ब्रम्हाजी से पूछा । हंसारूढ़  ब्रम्हा का दूसरा अर्थ है, विवेकाधिष्ठित बुद्धी। आप अपनी विवेकाधिष्ठित बुद्धी से पूछो, की अभी हम कहां बैठे हैं? तो जगतगुरु श्रीरामकृष्ण का जबाव मिलेगा-  'नेति नेति' करके जहाँ मन को विराम मिलता है, वहाँ वे (ब्रह्म) हैं 'नेति नेति 'करते हुए जहां हमारा मनोमय चक्र शान्त होता है। जब तक हमारा मनष्चक्र शान्त नहीं होगा, हम कथा नहीं सुन सकते। तो नैमिषारण्य श्रोता और वक्ता के शान्त मन को भी कहते हैं, और मन को शान्त करने के लिए मंगलाचरण किया जाता है। मंगलाचरण से हमारा मन शान्त होता है।  

कथा में तन तो बैठा है, पर मन भटक रहा है, अर्थात हम तो बैठे हैं, पर कथा हम पर नहीं बैठेगी। तो जहां आपका मन शान्त हो जाए, जब कथा समझ में आने लगे तो समझो वही नैमिषारण्य है। नैमिषारण्य में बड़ी शान्ती है, पूरा वातावरण शान्त और मधुर है चारो ओर हरियाली ही हरियाली ऐसा शान्त वातावरण। यहां सूतजी कथा वक्ता हैं, वे महामती हैं। जो जटिल से जटिल शब्दों को सरल करने में कुशल हैं, कथा करने में कुशलता तो चाहिए ही पर कथा श्रवण करने में भी कुशलता चाहिए। नित्य श्रवण और श्रवण के बाद मनन और मनन के बाद नितध्यासन बहुत जरूरी है। तो यहां आकर व्यर्थ की चिन्ता न किया करें। पूर्ण श्रद्धा से प्रेम से और भाव से श्रवण करें, तभी आप स्वयं को जान सकेंगे

यदि आपको कथा वक्ता, गुरू या नेता के प्रति श्रद्धा नहीं, तो उनके द्वारा बताया गया ज्ञान, ज्ञान नहीं आपके लिए मात्र एक जानकारी होगी। जानकारी में और ज्ञान में अन्तर है, आप पूर्ण श्रद्धा से समर्पित हों यह आवश्यक है। गुरू या मार्गदर्शक नेता का अर्थ ही अज्ञान रूप अंधकार से आत्मज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाने में समर्थ नेता (C-IN-C नवनीदा) होता है। 

शौनकजी कहते हैं- अज्ञानध्वान्तविध्वंस​,  हे सूतजी- आप हमारे अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करें। कथा तो हमने बहुत सुनी, पर आप हमें कथा का सार बताईये। भक्ती, ज्ञान​, वैराज्ञ से दूर हमारा विवेक, आगे कैसे बढे़, वह बताईये। भक्ती, ज्ञान, वैराग्य से दूर हमारा विवेक कैसे आगे बढे़ वह बताईये ? वैष्णव लोग माया मोह का त्याग कैसे करते हैं ? हे सूत जी! इस कलिकाल में हम वैष्णवों का कल्याण कैसे हो ? हमें श्रीकृष्णरूप परमात्म तत्व की प्राप्ती का साधन बताईये?.. चिन्तामणि, कल्पवृक्ष और कामधेनु ये तीनों मन चाहा सुख देने बाले हैं, परन्तु ये तीनों मोक्ष नहीं दे सकते हैं। मोक्ष (भ्रम से मुक्ति) तो हमें सद्गुरू, नेता या पैगम्बर ही प्रदान कर सकते हैं। 

 शुकाचार्य जी का जन्म व्यास जी की पत्नी आरुणी से हुआ, शुकदेव जी अपनी माता के गर्भ में 12 वर्ष तक रहे, जब पिता व्यास जी ने उन्हें बाहर आने को बोले तब शुक जी बोले पृथ्वी में भगवान हरि की माया विराजती है वह जीव के विवेक को हर लेती है। जब तक स्वयं श्रीहरि आकर मुझे आस्वस्थ्य न कर दें तब तक मैं पृथ्वी पर नहीं आऊँगा । इसप्रकार वेदव्यासजी ने भगवान श्रीहरि का आवाहन किया और भगवान श्रीहरि प्रकट हो शुक जी से बोले पुत्र तुम बाहर आओ तुम्हें मेरी माया स्पर्स भी न करेगी ।

इस प्रकार जब शुकदेव जी को माधव की वाणी प्राप्त हुई तो शुकजी ने जन्म लिया, और जन्म लेते ही माया से अनाशक्त हो वन की ओर चल पड़े । व्यास जी शुकदेव जी का उपनयन संस्कार तक नहीं कर पाये इस चिन्ता में व्यास जी उअनके पीछे दौड़े। अरे बेटा तनिक मेरी बात तो सुनो.. पर पुत्र तो निकल गया यहाँ पर शुक जी की ओर से वृक्षों ने उत्तर दिया । पिता जी इस मरण शील संसार में कौन किसका पुत्र होता है और कौन किसका पिता । यह जगत चक्र है चलता रहता है । इसलिए हम सत्य की शोध में जाते हैं । ऐसे हैं हमारे शुकाचार्य जी महराज ।"

[साभार /http://aacharyarakesh.blogspot.com/2014/12/1.html] 

जब शुकदेव बचपन में ही घर से संन्यास के निकल पड़े उस समय वह ऐसी परम सिद्धावस्था में थे कि उन्हें संसार का बोध नहीं था। उन्होंने सरोवर में नग्न होकर स्नान कर रही सुन्दर स्त्रियों की ओर ध्यान नहीं दिया, जबकि वे उनके सामने से निकल कर गये थे। उन्होंने केवल भगवान की ही अनुभूति को भगवान के बारे में ही सुना और भगवान का ही चिन्तन किया।" इस श्लोक में श्रीकृष्ण पूर्ण सिद्ध योगी की चर्चा कर रहे हैं जो तीसरे और चौथे चरण से ऊपर के स्तर की अनुभूति है।

[>>>वेदान्त केसरी की दहाड़ (The Roar of the Lion of Vedanta) :>

"First, let us be Gods, and then help others to be Gods. “Be and Make.” Let this be our motto. "

"Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; you are not matter, you are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter."

"Each soul is potentially divine. The goal is to manifest this Divinity within by controlling nature, external and internal. Do this either by work, worship, psychic control, or philosophy – by one, or more, or all of these – and be free. This is the whole of religion. Doctrines, dogmas, rituals, books, temples, or forms, are but secondary details." 

"God has become man; man will become God again. Man is the best mirror, and the purer the man, the more clearly he can reflect God."

"This universe is simply a gymnasium in which the soul is taking exercise, and after these exercises we become God. So the value of everything is to be decided by how far it is a manifestation of God. Civilization is the manifestation of that divinity in man." 

"All the wealth of the world cannot help one little village if the people are not taught to help themselves."

"What is education? Is it book learning? No. Is it diverse knowledge? Not even that. The training by which the current and expression of will are brought under control and become fruitful is called education."

"Education is not the amount of information that is put into your brain and runs riot there, undigested, all your life. We must have life-building, man-making, character-building assimilation of ideas. If you have assimilated five ideas and made them your life and character, you have more education than any man who has got by heart a whole library.

"To me, the very essence of education is concentration of mind, not the collecting of facts. We want an education by which character is formed, the strength of mind is increased, the intellect is expanded, and by which one can stand on one’s own feet.

"Education is the manifestation of the perfection already in man. Religion is the manifestation of the Divinity already in man. Therefore the only duty of the teacher in both cases is to remove all obstructions from the way. Hands off! as I always say, and everything will be right. That is, our duty is to clear the way. The Lord does the rest." ( Written to "Kidi" on March 3, 1894, from Chicago.) 

" It is a man-making religion that we want. It is man-making theories that we want. It is man-making education all around that we want. And here is the test of truth–anything that makes you weak physically, intellectually, and spiritually, reject as poison; there is no life in it, it cannot be true.

" My ideal indeed can be put into a few words and that is; to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life. God is in every man, whether the man knows it or not; your loving devotion is bound to call up the divinity in him."

"One idea that I see clear as daylight is that misery is caused by ignorance and nothing else. Who will give the world light? Sacrifice in the past has been the Law, it will be, alas, for ages to come. The earth’s bravest and best will have to sacrifice themselves for the good of many, for the welfare of all. Buddhas by the hundred are necessary with eternal love and pity."

"The infinite power of the spirit, brought to bear upon matter evolves material development, made to act upon thought evolves intellectuality, and made to act upon itself makes man a God.

"If the fisherman thinks that he is the Spirit he will be a better fisherman, if the student thinks he is the Spirit, he will be a better student. If the lawyer thinks that he is the Spirit, he will be a better lawyer."

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