इस ब्लॉग में व्यक्त कोई भी विचार किसी व्यक्ति विशेष के दिमाग में उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है! इस ब्लॉग में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है ! ब्लॉग में वर्णित विचारों को '' एप्लाइड विवेकानन्दा इन दी नेशनल कान्टेक्स्ट" कहा जा सकता है। एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने के लिए युवाओं को 'अनुप्राणित' करना है।
️️🔱खेल के मैदान में तो उतरना ही है - पर पूरे आत्मविश्वास के साथ उतरिये !🔱
इसके पहले वाले के सत्र में हमलोग पाँचवे प्रश्न- अनात्मा क्या है ? का उत्तर सुन रहे थे। कुछ लोग सवेरे वाले सत्र को मिस कर गए हैं , तो मैं पहले संक्षेप में दुहरा देता हूँ। अनात्मा क्या है ? जब इस प्रश्न पर विचार करते हैं , तब सबसे प्रथम हमारा अपना स्थूल शरीर ही सामने आता है। अनात्मा की सबसे स्थूल अभिव्यक्ति हमारा अपना स्थूल शरीर ही है।तो ये स्थूल शरीर क्या है ? यह सत्यार्थी के अन्वेषण का विषय है। हमने गहरी दृष्टि से विचार करने पर देखा था कि इसके भीतर क्या-क्या है -अस्थि है, मज्जा है,मेद है , पल है ,रक्त है , चर्म है; और फिर उसके विभिन्न मुख्य अंग और उपांग हैं। स्थूल शरीर का विस्तृत वर्णन करने का प्रयोजन है कि ये किस चीज से बना हुआ है ?
हम सतही दृष्टि से जब विपरीत लिंगी किसी शरीर को देखते हैं , तो जम इस पर मोहित हो जाते हैं। हम सतह पर देखकर के हम मोहित या Hypnotized हो जाते हैं -ये बहुत बड़ी समस्या है कि नहीं ? हमारी सारी समस्याओं का मूल है - Superficial दृष्टि -सतही से कहते हैं वो 2 mm view तक - अभी हमारी दृष्टि सिर्फ चमड़े तक ही सीमित है। थोड़ा सा हम भीतर चले जाएँ तो M/F शरीर सब समान है या नहीं ? चमड़े के पीछे कदम रखते ही सब समान हो गए या नहीं ? हम लोग Hypnotized क्यों हैं ? हमारा जो चमड़ी देखने वाला 2 mm दृष्टि है , उसके कारण भीतर से देखने पर सब समान है। जबतक दृष्टि चर्म तक सीमित रहती है , तब तक हम सब मोहित हैं। हमको लगता है कि ये सुंदर है , ये सुंदर नहीं है। ये स्त्री है -ये पुरुष है , ये सुंदर -ये असुंदर है ; आप थोड़ा भीतर चले जाएँ तो , ये सब भेद भीतर झाँकने से चला जाता है। उस दृष्टि से देखने पर सब कुछ बदल जायेगा। खास करके युवा अवस्था में , युवावस्था से सभी लोग गुजरते हैं। उस अवस्था में ; युवा वस्था में हम सभी सिनेमा देखकर के बड़े हुए हैं। सभीलोग बचपन से सिनेमा देखते आये हैं , सिनेमा तो मनोरंजन में जीवन का एक अंग ही है। उसमें कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन सिनेमा के हीरो , हीरोइन का हमारे जीवन पर कितना प्रभाव हर व्यक्ति के मन पर पड़ता है! सतह पर देखकर हम उनके चेहरे से मोहित हो जाते हैं। लेकिन अब जब, इस दृष्टिकोण से सिनेमा देखेंगे तो इस नई दृष्टि से देखेंगे। थोड़ा सा भीतर चला जाये , और अब आप पर्दे पर देखकर मूर्ख नहीं बनोगे। शरीर भीतर से तो सभी समान है , इसमें से कौन आकर्षक है -कौन नहीं है ? हमने देखा कि शरीर पंचभौतिक है , पंचभूतों से बना हुआ है। इस शरीर और इन्द्रियों के माध्यम से हमको जो विषय दिखाई देते हैं ,वे भी उन्हीं पंचभूतों से बना हुआ है। सारा विश्व-प्रपंच पंचभौतिक है। आकाश , वायु, अग्नि , जल और पृथ्वी। फिर शंकराचार्य जी एक बड़ा महत्वपूर्ण मुद्दा उठाते है - वो है आसक्ति (राग) का मुद्दा - हमारा व्यव्हार भी आसक्ति से संचालित, राग संचालित है। वहाँ विषयों में आसक्त व्यक्ति को शंकराचार्यजी मूढ़ कहते हैं - ये एषु मूढा विषयेषु बद्धा ! (6.44)
आसक्ति और प्रेम का विवेक
मूढ़ ' यानि 'मूर्ख' कौन है ? जो मगरमच्छ को लट्ठा समझ रहा है। जो एक चीज को दूसरा समझ रहा है -वो विद्वान् तो नहीं है ? इस दृष्टिकोण अगर देखें - तो समाज में विद्वान् या समझदार लोग कितने हैं ? शास्त्र से उतन्न होने वाली अब समझदारी की परिभाषा ही बदल जाएगी। शास्त्र से उत्पन्न होने वाली यह नई दृष्टि है। मुर्ख व्यक्ति वो है जो आसक्ति के कारण विषयों में आबद्ध हो जाता है। बंधने के रस्सी की आवश्यकता होती है।
गाय को अगर खूँटे से बांधना ही तो रस्सी की आवश्यकता है। मनुष्य को विषयों में बांधने वाली रस्सी है राग - Attachment! और ये जो आसक्ति रूपी अदृश्य रस्सी जो है , वो अदृश्य है। ये रस्सी बहुत मजबूत है , इस रस्सी को काटना बहुत मुश्किल है। जो मूढ़ व्यक्ति व्यक्तियों और विषयों में आसक्ति की रस्सी में बंध जाता है उसका फल क्या होता है ?आयान्ति निर्यान्ति अध: ऊर्ध्वम् उच्चै: स्वकर्मदूतेन जवेन नीताः। वो आता है जाता है ,आता है जाता है,आता है जाता है, माने ? जन्म लेता है , फिर मरता है ,जन्म लेता है , फिर मरता है ,जन्म लेता है , फिर मरता है , अपने कर्मों का फल भोगते -भोगते यह क्रम चलता ही रहता है।
यह आसक्ति- 'राग' रूपी अदृश्य रस्सी ही हमें जन्म-मृत्यु के चक्र में बांधकर रख रही है। (9.50) एक बुलबुला दूसरे बुलबले के साथ आसक्ति रूपी रस्सी से बंधा हुआ है। जब तक आसक्ति रूपी रस्सी से बंधा रहेगा जन्म-मृत्यु के चक्र से बंधा रहेगा। आचार्य शंकर आसक्ति, राग में बंधे 5 पशुओं का उदाहरण देते हैं - कुरंग-मातंग-पतंग-मीन-भृंगा: नर: पंचभि: अंचित: किम्।। ॥७८॥ ये पाँचो पशु केवल एक विषय में आबद्ध होकर मृत्यु को प्राप्त होता है। पशु जो काम खुले में करता हैं , हम सभ्य लोग कमरे में बंद करते हैं। यह व्यव्हार हमारा भी है -जब तक विवेक -जाग्रत नहीं हुआ मनुष्य भी पशु का कार्य करता है। सभ्य तरीके मनुष्य बिल्डिंग बना कर करता है। पशुओं से भी भयंकर अवस्था मनुष्य की है जो पाँचों विषयों में आसक्त है। ये विषय - कितने 'Poisonous' विषाक्त हैं ? नाग साँप का विष काटने के बाद असर करता है , पर विषयों का विष दूर से देखने पर ही आदमी को मार देता है। कृष्णसर्पविषात् अपि , विषं निहन्ति भोक्तारं द्रष्टारं चक्षुषा अपि अयम्। पहली नजर में प्रेम ? बहुत बड़ा तीर मार दिया कि मूर्खता का लक्षण है?हम क्या इतने कमजोर हैं ? दूर से देख लिया - और नींद चली गयी ? चैन चला गया ? ब्रह्म ही अविवेक के कारण कितना पराधीन - दीनहीन हो जाता है। नस काट लेता है ? (20.00)
दूसरा उदाहरण देखिये -हनुमान , विवेकानंद , रमण महर्षि , ठाकुर देव को कोई गुलाम बना सकता है ? कामिनी -कांचन की समस्या आपके मन में घुस गयी है। आप ac कमरे में हैं - पर कामिनी -कांचन की समस्या से नींद नहीं आ रही है। सारी दुनिया काम - मतलब विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण। इससे कोई तृप्त हुआ है क्या। गुलाम जैसे बेड़ियों में बंधा रहता है - कामना और धन के लालच से हम गुलाम बने हुए हैं। इससे जो ऊपर उठ जाता है , वही मुक्त होता है। ऐसा मुक्त होना ही हमारा लक्ष्य है। एक बुलबुला दूसरे बुलबुले के प्रति जो आसक्त हो जाता है , राग रूपी रस्सी से बंध जाता है।
पर एक महत्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यही है कि क्या इस आकर्षण या राग को काम कहेंगे या इसको प्रेम कहेंगे ? पर समाज में इसी को प्रेम कहा जाता है। आसक्ति रूपी बीमारी को ही प्रेम समझ लेते हैं। राग क्या है ? और प्रेम क्या है ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। What is Attachment and What is Love ? हमारे दैनंदिन जीवन में यह आसक्ति ही प्रेम के रूप में प्रतीत होता है। समाज में , फिल्मों में जो प्रेम दिखाया जाता है -वो प्रेम नहीं आसक्ति है। प्रेम क्या है ? इलू इलू क्या है ? आसक्ति को प्रेम कहता है। आसक्ति को हमने प्रेम समझ लिया है , जैसे मगरमच्छ को हमने लट्ठा समझ लिया है। जीवन भर हम एक चीज को कुछ दूसरा समझकर बंध जाते हैं। आसक्ति और प्रेम में क्या अन्तर है ? पहले आसक्ति को समझते हैं - दो बुलबुलों के बीच में जो पारस्परिक आकर्षण है। जो बुलबुला दूसरे बुलबुले से जुड़ जाता है , वह उसके कल्याण की बहुत चिंता करता है। ये सब प्रेम की तरह दीखता है -ये प्रेम है क्या ? आसक्ति केवल निकट के चंद संबंधियों तक सीमित रहती है - जिनसे हमारा रक्त सम्बन्ध या Genetic relation रहता है। (28.53) मेरा बच्चा , मेरी पत्नी , ये आसक्ति है। माता-पिता का प्रेम बच्चे के प्रति जो प्रेम है -वो भी आसक्ति है। मेरा बच्चा , और पराया बच्चा एक नहीं दीखता है।
स्वामी विवेकानन्द का प्रेम सारी मानवता के प्रति है। ये प्रेम है। सभी इलू इलू करते हैं ? प्रेम क्या है ? प्रेम का स्थूल शरीर से कुछ लेना-देना नहीं है। जब तक अपने को एक M/F शरीर मानते हो , तब तक वो दीखता है प्रेम की तरह , किन्तु वास्तव में वह आसक्ति है। (33.19) शरीर केंद्रित आकर्षण दीखता प्रेम की तरह है , पर वास्तव में आसक्ति है। इसका अंतिम परिणाम दुखद ही होता है, अंत कड़वाहट में होगा । आकर्षण छः महीना में कड़वा हो जाता है , प्रेम कभी कड़वा नहीं हो सकता। प्रेम आत्मा से उत्पन्न है , आसक्ति शरीर से उत्पन्न होती है। देह से सम्बन्ध का प्रेम - आसक्ति है। पर जो बुलबुला अपने यथार्थ स्वरुप को जा जाता है कि - मैं बुलबुला नहीं अनंत समुद्र हूँ। इस आत्मज्ञान से जो प्रेम उत्पन्न होगा वो सभी के लिए होगा। (36.59) मैं बुलबुला नहीं समुद्र हूँ और ये सारे बुलबुले मेरे अंदर ही हैं। मेरे ही हैं। आत्मज्ञानी बुलबुले के लिए कोई पराया नहीं होगा। उसका प्रेम सीमित कुछ रक्त-सम्बन्धियों से नहीं होगा। उसका प्रेम शरीर से संबंधित -ये मेरा बच्चा है , इसलिए नहीं होगा। समाज तो लैंगिक आकर्षण को ही प्रेम समझता है - यही सबसे बड़ी मूर्खता है। प्रेम तब आएगा जब आप जानोगे मैं 'सच्चिदानन्द आत्मा हूँ ', तो सबको समान रूप से अपना समझोगे। स्वामी विवेकानंद की संवेदनाएं सम्पूर्ण मानवजाति के लिए ही रहेगी। फिल्मों वाला प्रेम- नाचगाना , उछलना -भागना ये सिर्फ मोह है , आसक्ति है। सिनेमा देखिये , पर सिनेमा देखते समय मोह में मत रहिये। प्रेम की कोई सीमा नहीं होती आसक्ति हर समय सीमित होती है ! शारीरिक आकर्षण - या लैंगिक आकर्षण ही राग रूपी अदृश्य है जिसके कारण हम बंध जाते हैं। इस लैंगिक आकर्षण वाले बंधन से ऊपर उठना -जो देवर्षि नारद को भी बाँध लेती है ? जो पानी पीने में 12 साल बिता देते हैं , उस आसक्ति से ऊपर उठना यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। (40.47) ये कितना प्रैक्टिकल एडवाइस है ? प्रेम जेनेटिकल नहीं होता -सीमित नहीं होता , अपने शरीर से जुड़े चार-पांच लोगों के लिए नहीं होता। स्वामी जी का अमेरिकन और यूरोप के मित्रों के प्रति प्रेम था -वो शरीर के आकर्षण से उत्पन्न प्रेम नहीं था ,आत्मा से उत्पन्न प्रेम था इसलिए उसमें शारीरिक स्वार्थपूर्ण आकर्षण की गंध भी नहीं थी , सभी के प्रति समान था। शरीर के आकर्षण से उत्पन्न होने वाला प्रेम आसक्ति है , वो कभी प्रेम नहीं हो सकता। स्वामी रंगनाथानंद जी महाराज (मठ-मिशन के 13 वें अध्यक्ष) कहते थे - (43.00) जो लोग सिर्फ शरीर केंद्रित जीवन जीते हैं -' मैं और मेरा परिवार' उतने तक ही जिनका प्रेम सीमित रहता है , बाकि दुनिया नष्ट हो जाये उनको उससे कुछ मतलब नहीं केवल हमलोग बचे रहें। सभी लोग तो 'मैं' और 'मेरा' में ही तो फंसे है ? यही तो है, घर-संसार वाली सीमित दुनिया। ऊपर से देखने पर मैं और मेरा बड़ा प्रेम की तरह दीखता है , ये मोह है , अपने को सीमित करना है। पहले तो आपने अपने को शरीर मान लिया है ? और अपने शरीर मानकर दूसरे बुलबुलों के साथ , अपने एक प्रकार का संबंध बना लिया है -जो रक्त का संबंध है। शारीरिक संबंधियों से आप बंधे हुए हैं ? इस मोह रूपी प्रेम का अंत केवल दुःख है , अंधकार, लेकिन आत्मा से उतपन्न प्रेम प्रकाश है -क्योंकि वह असीम है। प्रेम में शारीरिक सम्बन्ध है ही नहीं। प्रेम का सेक्स और लिंग से कोई संबंध नहीं है।Love has nothing to with sex and gender .हर आदमी वासना में आसक्ति को ही प्रेम समझ लेता है - नारद का माया-दर्शन स्मरण रखने योग्य कथा है। रंगनाथ जी बहुत सुंदर ढंग से मोहग्रस्त लोगों की ईश्वर से प्रार्थना करने के ढंग का वर्णन करते थे कि वे कैसे प्रार्थना करते हैं ? O God save me and my wife, my son and his wife , we four and no more ! ये प्रेम की तरह दीखता है -पर पूरा अंधकार है। प्रेम की प्रार्थना कैसा होता है ? हे भगवान सभी सुखी रहें। ये बुद्धि आत्मा से आती है ! तो हमें ऐसे प्रेम में प्रतिष्ठित होना है , आसक्ति में नहीं। आसक्ति बंधन में डाल देती है , प्रेम आपको मुक्त कर देती है। जब अपने को समुद्र रूपी सच्चिदानंद जानोगे , तब प्रेम आएगा , जब आप अपने देह या बुलबुला समझोगे तो विपरीत लिंग के प्रति आसक्ति होगी। सब बुलबुले मेरे हैं ! समुद्र की सतह पर उठने वाले जितने बुलबुले हैं , वे किसके बुलबुले हैं ? वे समुद्र के ही बुलबुले हैं। इसलिए विवेकानंद के लिए सब मेरे हैं, क्योंकि वे वेदांती थे। यही अद्वैत वेदांत है - सब मेरे अपने हैं, कोई पराया नहीं है ; ये प्रेम है! (46.57) इसको समझना बहुत महत्वपूर्ण है , इसको समझने से व्यक्ति में बहुत बड़ा बदलाव लाता है , इसीलिए इस पर अधिक जोर दिया जा रहा है। तो हमलोग शुरू से ही विवेक के महत्व को समझ रहे हैं - कि हमलोग एक चीज को दूसरा समझ रहे हैं , आसक्ति को प्रेम समझ रहे हैं। मगरमच्छ को लट्ठा समझ रहे हैं। इसीलिए सभी पीड़ित हैं , सभी कष्ट में हैं। अपने परिवार में ही देख लीजिये -जो पुत्रमोह में आसक्त है वो भी पीड़ित है , जिससे आसक्त है -वो भी पीड़ित है। प्रेम किसी को बांधकर नहीं रखता। हम जिससे आसक्त हो जाते हैं , हम उसको बांध के रखना चाहते हैं। आसक्ति में Sense of possessiveness, पकड़ के रखने का भाव होता है। मेरा बेटे है -मेरे हिसाब से चलेगा ? स्वामी जी कहते हैं -Liberty is first condition of growth! Love and Freedom are the same thing . स्वतंत्रता विकास की पहली शर्त है ! एवं प्रेम और मुक्ति एक ही बात है ! प्रेम और स्वतंत्रता एक ही बात है। (48.55) आसक्ति वाला प्रेम -प्रेम नहीं मोह है , हमको बांधता है। दोनों बुलबुला जानता है कि वे टूटने वाले हैं - पर एक दूसरे को पकड़कर सुरक्षित रहने की चेष्टा करते हैं। ये कैसा है ? शुतुर्मुग वाली अवस्था है - तूफान आने पर गड्ढा खोदकर उसमें मुख छिपाकर सोचता हैं , हम बच जायेंगे। अपने को शरीर मानकर प्रेम करने वाले सभी बुलबुलों का यही स्वभाव है , ये हम सबके साथ हो रहा है। पत्नी को लगता है -मैं पति के साथ रहकर सुरक्षित हूँ , पति को लगता है -पत्नी के साथ रहकर मैं सुरक्षित हूँ। एक दिन वो पतिरुपी बुलबुला टूट जायेगा , तो वो रोयेगी या रोयेगा ? जब तक बुलबुला अपने सत्य स्वरुप को नहीं जानेगा , मैं वो अनंत समुद्र हूँ , तब तक इन समस्याओं का कोई स्थायी समाधान नहीं है। एक बुलबुला दूसरे बुलबुले के साथ सम्बन्ध बनाकर आप भयमुक्त नहीं हो सकते हो। स्थूल शरीर ही सबसे बड़ा अनात्मा है ; यही इस अध्यन का निष्कर्ष है।
शरीर ही अनात्मा है - यह बोध होने से शास्त्र और गुरु हमारी ऑंखें खोल रहे हैं ! हम कितने भ्रमित थे -जगत सत्य को लेकर ? इस जगत के विषय में हमने ऐसा कभी सोचा भी नहीं था। तो आगे से फिल्म में नायक-नायिका को कश्मीर में डांस करते देखकर याद रखना कि ये लैंगिक आकर्षण मोहः है -प्रेम नहीं है। फ़िल्मी गाना सुनते -देखते समय याद रखो कि ये प्रेम नहीं मूर्खता है। इस भ्रम के मूल में है - 2mm वाला दृष्टिकोण। जो व्यक्ति चमड़ी वाली दृष्टि से ऊपर उठ गया उसकी 60 % समस्या का समाधान हो गया। (52.58) M/F के आकर्षण से हम मोहित हो गए हैं। M/F के 2mm दृष्टि के कारण हम सम्मोहित हो गए हैं - Hypnotized हैं ?इसके भीतर जाकर देखिये तब आपका लिंगभेद नहीं रहेगा। तब जगत को देखते समय आपका दृष्टिकोण शरीर केंद्रित नहीं होगा , लिंग केंद्रित नहीं होगा। हम स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श क्यों मानते हैं ? उनके जीवनी को पढ़ना जरुरी क्यों है ? उनकी दृष्टि प्रेम पूर्ण थी। क्योंकि उनका दृष्टिकोण समदर्शी था -M/F की दृष्टि से वे अपने शिष्यों को या जगत को नहीं देखते थे। वे किसी भी शरीर से नहीं बंधे थे , लेकिन हम तो गुलामों की तरह - विपरीत लिंगी शरीर के आसक्ति में बेड़ियों से बंध जाते हैं। तो इस बंधन से मुक्त होना यही मनुष्य जीवन का , विवेक-दृष्टि सम्पन्न मनुष्य के जीवन का मुख्य उद्देश्य है। कि राग (Infatuation) क्या है ? प्रेम (Love) क्या है ? इन दोनों में भ्रम में नहीं पड़ना है। शरीर का प्रेम -मोह ही है, ससीम है -दुःख होगा। प्रेम -असीम है , इसमें शरीर की लैंगिक दृष्टि वाला प्रेम नहीं है। प्रेम क जन्म आत्मा से होता है , आसक्ति या राग का जन्म अपने को M/F शरीर मानने से होता है। देखिये भ्रम को तोड़ने का काम केवल गुरु और शास्त्र ही कर सकते हैं या नहीं ? (55.41) हमारे माता-पिता भी कर सकते हैं क्या ? क्योंकि वे भी इसी विषय में भ्रमित हैं। उनको लगता है कि वे प्रेम कर रहे हैं -पर वे भी, ब्लड रिलेशन के कारण पूरी तरह से आसक्त हैं। मोहित हैं। उनकी संवेदना कुछ लोगों तक सीमित हैं। 77 वां श्लोक को एक बार फिर से पढ़ लीजिये इसमें अनात्मा को लेकर विष जितना खतरनांक है , मोह के प्रति गुरु और शास्त्र हमें सावधान कर रहे हैं। -
ये एषु मूढा: विषयेषु बद्धा: रागोरुपाशेन सुदुर्दमेन।
ये विषय इतने खतरनाक हैं कि ये दूर से देखने से हमें मर देती हैं , क्योंकि हम दूर से देखकर ही हम अदृश्य राग रूपी रस्सी से हम बंध जाते हैं। इस एक मात्र श्लोक को पकड़ लोगे तो जीवनभर कभी गलत जगह पर पैर नहीं रखोगे। ये विवेक है - स्पष्टता है- आसक्ति क्या है ? प्रेम क्या है ? आसक्ति और प्रेम का विवेक ही हमें मगरमच्छ को लट्ठा समझने से बचाता है ! हर विषय में हमने गोलमाल कर दिया है - B.'H' राग को हमने प्रेम समझ लिया ? इन दोनों के बीच विवेक कर के देखो तब आपको समझ में आएगा कि राग क्या है -प्रेम क्या है ? तब आपको समझ में आएगा कि क्या लेना है और क्या छोड़ना है ? सच्चा प्रेम हो गया तो जीवन धन्य हो जायेगा। मैं आत्मा से उतपन्न प्रेम की बात कर रहा हूँ , विवेकानन्द वाला प्रेम ! जिसमें न लिंग का कोई स्थान है , न कोई शरीर के साथ संबंध है। शारीरिक-आकर्षण का वहाँ कोई स्थान नहीं है। लेकिन सब के प्रति समभाव ! ये शरीर क्या है ? ये शरीर ही 'मैं' और 'मेरा' का आस्पद है। "अहं मम इति प्रथितं शरीरं, मोहास्पदं स्थूलम् इति ईर्यते बुधैः।७४। यह स्थूल शरीर ही मोह का आस्पद है। मैं -मेरा करते रहना प्रेम की तरह दीखता है , ये प्रेम नहीं है। ये सिर्फ राग है - आसक्ति है। मैं -मेरा नाम का कोई चीज नहीं है - लेकिन हम इसी राग रूपी अदृश्य बंधन में बंधे हुए हैं।
के बाद अब श्लोक 84 को लेते हैं -Sticking is strictly prohibited -
अर्थ:-यदि तुझे मोक्ष की इच्छा है तोविषयों को विषके समान दूर ही से त्याग दे। और सन्तोष, दया, क्षमा, सरलता, शम और दम का अमृत के समान नित्य आदरपूर्वक सेवन कर।
(1:00:52) आप यदि मोक्ष प्राप्त करने के इच्छुक हो, तो आपको एक चीज से दूर रहना है , एक चीज को छोड़ना है, दूसरे चीज को पकड़ना है। तो हमको छोड़ना क्या है ? -तो आदिगुरु शंकराचार्यजी हमें पुनः सावधान करते हुए कहते हैं, यदि तुझे मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा हो तो - त्यज अतिदूरात् विषयान् विषं यथा। ये जितने भी इन्द्रियविषय हैं इनको दूर से ही - 'Goodbye' -अलविदा कर दो ! दूर से ही इन्द्रिय विषयों को 'राम-राम' कर दो। इन विषयों के चक्कर में पड़ो ही मत। मतलब विषय तो आएंगे ही लेकिन उसमें आसक्त न होना। आसक्ति -रहित होकर विषयों का सदुपयोग करो। विषयों को छोड़ना है -यानि कमंडल लेकर जंगल में नहीं भागना है। आसक्ति रूपी रस्सी के बंधन को काटना है। अब यदि कोई ऋषि वाल्क्य जैसा जीवन में -कात्यायनी और मैत्रयी जैसे दो पत्नियों के मोह से बंधा हो , तब उसे इस रस्सी को काटने में बहुत पापड़ बेलना पड़ता है। फंस-के निकलना बहुत कठिन है। आसक्ति के बगैर भी ऋषि याग्वल्क्य ने धन का बँटवारा और ज्ञान का बंटवारा किया। विषयों को छोड़ना मतलब कामिनी या कंचन कहीं भी चिपको मत। एक बुलबुला दूसरे बुलबुले से चिपकने के बाद भी - और भी कई बुलबुलों के साथ चिपकने का प्रयास करता है। यही तो बंधन है। एक बुलबुला या बुलबुली जो खुद टूटने वाला है , उसको लगता है कि दूसरे बुलबुलों के साथ चिपककर वह सुखी हो जायेगा / हो जाएगी ? वो सुखी होता है क्या ? वो चिपकना ही तो बंधन का कारण है। सारा जीवन वो बुलबुला ही बना रहता है -बुलबुला ही मरता है। फिर बड़ा बुलबुला बनेगा। लेकिन जब तक वो बुलबुला होकर दूसरे बुलबुले से चिपकने की आसक्ति में बंधा रहेगा वह जन्म-मृत्यु ,जन्म-मृत्यु, जन्म-मृत्यु, जन्म-मृत्यु के चक्र में बंधा ही रहेगा। घुमा-फिराकर हमारे जीवन का अपना दर्शन क्या होगा ? किसी भी नश्वर बुलबुले के साथ चिपकना मना है।चिपकना मना है' - ऐसा ही नहीं चिपकना सख्त मना है ! Sticking is strictly prohibited !! अपने पढ़ने के कमरे में इसको लिख करके रख दो -किसी भी नामरूप के BH में चिपकना सख्त मना है। कोई बुलबुली जो दूसरे बुलबुले के साथ चिपक कर सुखी होने का प्रयास कर रही है , वह प्रयास दुखद ही होगा विफल ही होगा ! गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को यही समझा रहे हैं। सबके बीच में रह , समाज के कर्तव्यों का पालन कर , अपने जीवन में कुछ करणीय लगे वो सब कर , लेकिन किसी से चिपक मत। संगं त्यक्त्वा, संगं त्यक्त्वा,संगं त्यक्त्वा -दर्जनों बार भगवान कृष्ण यही कह रहे हैं।
।।2.48।। हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।हे धनंजय योगमें स्थित होकर केवल ईश्वर के लिये कर्म कर। उनमें भी ईश्वर मुझ पर प्रसन्न हों। इस आशारूप आसक्तिको भी छोड़कर कर।वह कौनसा योग है जिसमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहा है यही जो सिद्धि और असिद्धिमें समत्व है इसीको योग कहते हैं।
हे अर्जुन ! "कर्म करना कर्तव्य है" ऐसा समझकर जो नियत कर्म आसक्ति और फल को त्यागकर किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है।।
तो अंत में इस ब्राहमयी दृष्टि से अनासक्त होकर कर्म करने का अर्थ, जीवन का दर्शन ये होगा कि -किसी भी बुलबुले से चिपक मत , चाहे वो कितना भी प्यारा क्यों न लगता हो ? Sticking is strictly prohibited ! जो माता-पिता बन गए हैं -उनके लिए यह ज्यादा आवश्यक है। ये बहुत बड़ी सलाह है - यदि आप गलत धारणा के साथ मैदान में उतरोगे , तो मुश्किल में फंस जाओगे। मैदान में उतरना ही है -तो विवेक के साथ उतरेंगे ! तब आप पूरी समझदारी के साथ अपने जीवन को जी सकोगे। ये प्रैक्टिकल बात है। जब आप इन्द्रिय-विषय , प्रेम और आसक्ति आदि के विषय में स्पष्टता से जान लोगे तब विवेक के साथ मैदान में उतरेंगे। तमाशा घुस के देखेंगे - पर विवेक साथ देखेंगे। मैदान में तो उतरना ही है - पर पूरे आत्मविश्वास के साथ उतरिये ! जीवन की हर समस्या को समझदारी के साथ निबटाइये। ये जीवन की कला है। हम यहाँ पाठचक्र में जीने की कला सीख रहे हैं ! अविवेक में जब तक हैं - अपने स्थूल शरीर को ही मैं समझ रहे हैं , तो आपका जीवन एक प्रकार का होगा। पहले ही हमने देखा है - जो व्यक्ति मगरमच्छ को ही जबतक लट्ठा समझ रहा था, तबतक उसका आचरण क्या था ? उसकी ओर दौड़ रहा था , जब उसको ये पता चला कि ये लट्ठा नहीं है मगरमच्छ है - अब उसका आचरण क्या है ? अब समझदारी आ गयी -अब वो उसको समझदारी से हल करेगा। जब विवेक आ गया तो व्यक्ति हर चीज को समझदारी से हैंडल कर सकता है। ये विवेक पगपग पर हर विषय में - पांचों विषय हमने देखे न ? हर विषय में लागु होता है। हर चीज में हम एक को दूसरा समझकर बैठे है। प्रेम क्या है ? आसक्ति क्या है ? इसका विवेक हो जाना ही असली शिक्षा है , जो हमें केवल गुरु और शास्त्र से ही मिल सकता है। हमारे दैनंदिन जीवन के लिए यह अनिवार्य शिक्षा है , क्योंकि हम यहाँ आसक्ति को ही प्रेम समझकर बैठे हैं। इससे ऊपर उठना होगा। असली प्रेम कुछ और ही है। प्रेम की कोई सीमा नहीं है प्रेम का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है। प्रेम का लिंग के साथ कुछ लेना देना नहीं है , प्रेम का स्त्री-पुरुष भाव वाली आकृति के साथ कोई संबंध नहीं है। सब समान हैं !! उस ब्रह्ममयी दृष्टि वाले मनुष्य के लिए सब समान है। विवेक चूड़ामणि ग्रंथ के 84 वें श्लोक पर विस्तृत चर्चा हमलोग अगले सत्र में देखेंगे।
[विवेकचूडामणि के इस श्लोक में आद्य शंकराचार्य मोक्ष प्राप्ति की आकांक्षा रखने वाले साधक को स्पष्ट और गहन मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। वे कहते हैं कि यदि वास्तव में तुम्हारे भीतर मोक्ष की तीव्र इच्छा है — वह परम सत्य की प्राप्ति, संसार बन्धन से पूर्ण मुक्ति की आकांक्षा है — तो सबसे पहले तुम्हें विषयों का, इन्द्रिय-सुखों का त्याग करना होगा। विषय, यहाँ केवल भोग-विलास की वस्तुएँ नहीं हैं, बल्कि वे समस्त आकर्षण हैं जो आत्मा को शरीर और जगत से बाँधते हैं। इन विषयों की तुलना शंकराचार्य ‘विष’ से करते हैं — जैसे विष शरीर का नाश करता है, वैसे ही विषय चित्त की शुद्धता का नाश कर आत्मज्ञान से दूर कर देते हैं। इसलिए, विषयों का दूर से ही परित्याग करना आवश्यक है; उन्हें निकट लाना भी साधक के लिए घातक हो सकता है।
विषयों का त्याग ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि त्याग के साथ-साथ जीवन में अमृत-स्वरूप सद्गुणों का समावेश भी आवश्यक है। शंकराचार्य छः ऐसे गुणों का उल्लेख करते हैं जो आत्मज्ञान की ओर ले जाने वाले हैं — संतोष, दया, क्षमा, सरलता, शम और दम। ये गुण साधक की आन्तरिक भूमि को पवित्र और उर्वर बनाते हैं, जिस पर आत्मज्ञान का बीज सहज रूप से पनपता है। संतोष वह गुण है जो बाह्य वस्तुओं की इच्छा को क्षीण करता है और अन्तःशांति प्रदान करता है। दया से हृदय में करुणा का संचार होता है, जो द्वैत की दीवारों को गिराता है। क्षमा मन में रहने वाले वैर, रोष और प्रतिशोध की वृत्तियों को समाप्त करती है और अहंकार को पिघलाती है।
सरलता या आर्जव वह गुण है जो जीवन को निष्कपट और सच्चा बनाता है। यह मन, वाणी और कर्म में एकरूपता लाता है। शम अर्थात् चित्त की स्थिरता — मन को विषयों से हटाकर आत्मा में स्थिर करना। दम अर्थात् इन्द्रियों का निग्रह — इन्द्रियों को विषयों की ओर भागने से रोकना और आत्मविवेक की दिशा में लगाना। ये गुण साधक के लिए केवल सैद्धान्तिक अवधारणाएँ नहीं हैं, बल्कि उन्हें प्रतिदिन के जीवन में आदरपूर्वक अपनाना होता है। जैसे कोई अमृत को नित्य पीता है, वैसे ही इन गुणों का नित्य सेवन करना आवश्यक है, क्योंकि ये ही मुक्ति के द्वार तक पहुँचने के साधन हैं।
शंकराचार्य का यह उपदेश केवल वैराग्य की ओर नहीं ले जाता, बल्कि सकारात्मक आध्यात्मिक जीवन की रचना करता है। यह हमें बताता है कि मोक्ष केवल संन्यास या त्याग से प्राप्त नहीं होता, बल्कि एक विशुद्ध और सद्गुणों से युक्त जीवन जीने से प्राप्त होता है। जब विषयों का त्याग और सद्गुणों का अंगीकरण एक साथ होता है, तब ही चित्त निर्मल होता है और आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने लगती है। अतः इस श्लोक में मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो निर्देश दिए गए हैं, वे न केवल व्यवहारिक हैं, बल्कि साधना के प्रत्येक चरण में हमारे लिए आवश्यक भी हैं। इसलिए चिपकना सख्त मना है !
रावण का मायाजाल और रथारूढ़ होकर युद्धभूमि की ओर श्रीराम के अग्रसर होने का दृश्य
वानर और आसुरी सेनाओं के युद्ध का अन्त होता नहीं दीखता , सारा प्रांतर शवों से पट गया है। रक्त और मज्जा की जैसे नदियाँ बह रही हैं। इनमें बहुत-पिशाच स्नान कर रहे हैं। चील और कौवे कटे अंग लेकर उड़ते और आपस से छिना-झपटी कर रहे हैं। अजीब वीभत्स दृश्य उपस्थित है। लेकिन रावण अपनी सेना का उत्तरोत्तर संहार होता देख माया रचने की सोचता है। इधर श्रीराम को पैदल देखकर इंद्र अपने सारथि मातलि के साथ अपना रथ भेज देते हैं , श्रीराम जब रथारूढ़ होते हैं तब वानर सेना में हर्ष की लहर दौड़ जाती है। उधर रावण ने अपना मायाजाल फैलाया। स्वयं राम को छोड़कर वानर-भालू सेना को जगह -जगह कई राम और लक्ष्मण दिखाई देने लगे। ये दृश्य देख लक्ष्मण भी मूरत की तरह ठगे से खड़े रह गए। किन्तु श्रीराम से इस दृश्य का भेद और अपनी सेना का , असमंजस छिपा न रहा। वे बोले हे वीरों युद्ध करते करते तुमलोग थक गए हो अतः तुम्हें विश्राम चाहिए। अब मेरा और रावण का द्वन्द्व युद्ध देखो।-----
चौपाई : * मज्जहिं भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिंग कराला॥ काक कंक लै भुजा उड़ाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥1॥
भावार्थ:-भूत, पिशाच और बेताल, बड़े-बड़े झोंटों वाले महान् भयंकर झोटिंग और प्रमथ (शिवगण) उस नदी में स्नान करते हैं। कौए और चील भुजाएँ लेकर उड़ते हैं और एक-दूसरे से छीनकर खा जाते हैं॥1॥
* एक कहहिं ऐसिउ सौंघाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥ कहँरत भट घायल तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे॥2॥
भावार्थ:- एक (कोई) कहते हैं, अरे मूर्खों! ऐसी सस्ती (बहुतायत) है, फिर भी तुम्हारी दरिद्रता नहीं जाती? घायल योद्धा तट पर पड़े कराह रहे हैं, मानो जहाँ-तहाँ अर्धजल (वे व्यक्ति जो मरने के समय आधे जल में रखे जाते हैं) पड़े हों॥2॥
भावार्थ:- गीध आँतें खींच रहे हैं, मानो मछली मार नदी तट पर से चित्त लगाए हुए (ध्यानस्थ होकर) बंसी खेल रहे हों (बंसी से मछली पकड़ रहे हों)। बहुत से योद्धा बहे जा रहे हैं और पक्षी उन पर चढ़े चले जा रहे हैं। मानो वे नदी में नावरि (नौका क्रीड़ा) खेल रहे हों॥3॥
भावार्थ:- योगिनियाँ खप्परों में भर-भरकर खून जमा कर रही हैं। भूत-पिशाचों की स्त्रियाँ आकाश में नाच रही हैं। चामुण्डाएँ योद्धाओं की खोपड़ियों का करताल बजा रही हैं और नाना प्रकार से गा रही हैं॥4॥
* जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं॥ कोटिन्ह रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जय जय बोल्लहिं॥5॥
भावार्थ:- गीदड़ों के समूह कट-कट शब्द करते हुए मुरदों को काटते, खाते, हुआँ-हुआँ करते और पेट भर जाने पर एक-दूसरे को डाँटते हैं। करोड़ों धड़ बिना सिर के घूम रहे हैं और सिर पृथ्वी पर पड़े जय-जय बोल रहे है॥5॥
छंद : * बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं। खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं॥ बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए। संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए॥
भावार्थ:-मुण्ड (कटे सिर) जय-जय बोल बोलते हैं और प्रचण्ड रुण्ड (धड़) बिना सिर के दौड़ते हैं। पक्षी खोपड़ियों में उलझ-उलझकर परस्पर लड़े मरते हैं, उत्तम योद्धा दूसरे योद्धाओं को ढहा रहे हैं। श्री रामचंद्रजी बल से दर्पित हुए वानर राक्षसों के झुंडों को मसले डालते हैं। श्री रामजी के बाण समूहों से मरे हुए योद्धा लड़ाई के मैदान में सो रहे हैं।
दोहा : * रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार। मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार॥88॥
भावार्थ:- रावण ने हृदय में विचारा कि राक्षसों का नाश हो गया है। मैं अकेला हूँ और वानर-भालू बहुत हैं, इसलिए मैं अब अपार माया रचूँ॥88॥
इंद्र का श्री रामजी के लिए रथ भेजना, राम-रावण युद्ध चौपाई : * देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥ सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥1॥
भावार्थ:- देवताओं ने प्रभु को पैदल (बिना सवारी के युद्ध करते) देखा, तो उनके हृदय में बड़ा भारी क्षोभ (दुःख) उत्पन्न हुआ। (फिर क्या था) इंद्र ने तुरंत अपना रथ भेज दिया। (उसका सारथी) मातलि हर्ष के साथ उसे ले आया॥1॥
भावार्थ:- उस दिव्य अनुपम और तेज के पुंज (तेजोमय) रथ पर कोसलपुरी के राजा श्री रामचंद्रजी हर्षित होकर चढ़े। उसमें चार चंचल, मनोहर, अजर, अमर और मन की गति के समान शीघ्र चलने वाले (देवलोक के) घोड़े जुते थे॥2॥
* रथारूढ़ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी॥ सही न जाइ कपिन्ह कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी॥3॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी को रथ पर चढ़े देखकर वानर विशेष बल पाकर दौड़े। वानरों की मार सही नहीं जाती। तब रावण ने माया फैलाई॥3॥
* सो माया रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची॥ देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी॥4॥
भावार्थ:-एक श्री रघुवीर के ही वह माया नहीं लगी। सब वानरों ने और लक्ष्मणजी ने भी उस माया को सच मान लिया। वानरों ने राक्षसी सेना में भाई लक्ष्मणजी सहित बहुत से रामों को देखा॥4॥
छंद : * बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे। जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे॥ निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसलधनी। माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी॥
भावार्थ:-बहुत से राम-लक्ष्मण देखकर वानर-भालू मन में मिथ्या डर से बहुत ही डर गए। लक्ष्मणजी सहित वे मानो चित्र लिखे से जहाँ के तहाँ खड़े देखने लगे। अपनी सेना को आश्चर्यचकित देखकर कोसलपति भगवान् हरि (दुःखों के हरने वाले श्री रामजी) ने हँसकर धनुष पर बाण चढ़ाकर, पल भर में सारी माया हर ली। वानरों की सारी सेना हर्षित हो गई।
दोहा : * बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर। द्वंदजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर॥89॥
भावार्थ:-फिर श्री रामजी सबकी ओर देखकर गंभीर वचन बोले- हे वीरों! तुम सब बहुत ही थक गए हो, इसलिए अब (मेरा और रावण का) द्वंद्व युद्ध देखो॥89॥
युद्धभूमि में रावण और सारंग धनुष लेकर श्रीराम का आगमन
रावण का यज्ञ विध्वंश करने के लिए वानर भालू आ पहुँचे किन्तु अपने उत्पात से जब वे उसे अपने वेदी से नहीं उठा पाए तो उसके शरीर पर अपने भीमकाय दाँतों लातों का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया। किन्तु उसका ध्यान तब भी भंग नहीं हुआ। वानर भालुओं ने तब वहाँ के स्त्रियों के केस पकड़ कर महल से बाहर घसीटना आरम्भ कर दिया। रावण अब अपना धैर्य खो बैठा। और उठकर वानरों के पैर पकड़ -पकड़ कर उन्हें धरती पर पटकने लगा। किन्तु इस प्रकार उसका यज्ञ तो भंग हो ही गया। रावण अपनी सेना फिर से सजाकर युद्धभूमि की ओर अग्रसर होता है , अपशकुन रूप में उसके सर पर गिद्ध मंडरा रहे हैं ; किन्तु इसकी अनदेखी करके वो युद्ध का डंका बजवाता है , और एकबार फिर घमासन युद्ध होने लगता है। युद्ध के बाद युद्ध , फिर और युद्ध देवताओं का धैर्य टूटने लगा है , वो प्रभु से विनती करते हैं कि अब और विलम्ब न करके वो रावण का वध करें। श्रीराम जब अपना सारंग धनुष लेकर युद्ध के लिए अग्रसर होते हैं तो धरती डगमगाने लगती है ----
छंद : * नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं। धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥ तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई। एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥
भावार्थ:-जब उसने नहीं देखा, तब वानर क्रोध करके उसे दाँतों से पकड़कर (काटने और) लातों से मारने लगे। स्त्रियों को बाल पकड़कर घर से बाहर घसीट लाए, वे अत्यंत ही दीन होकर पुकारने लगीं। तब रावण काल के समान क्रोधित होकर उठा और वानरों को पैर पकड़कर पटकने लगा। इसी बीच में वानरों ने यज्ञ विध्वंस कर डाला, यह देखकर वह मन में हारने लगा। (निराश होने लगा)।
भावार्थ:- चलते समय अत्यंत भयंकर अमंगल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़कर उसके सिरों पर बैठने लगे, किन्तु वह काल के वश था, इससे किसी भी अपशकुन को नहीं मानता था। उसने कहा- युद्ध का डंका बजाओ॥1॥
भावार्थ:-निशाचरों की अपार सेना चली। उसमें बहुत से हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल हैं। वे दुष्ट प्रभु के सामने कैसे दौड़े, जैसे पतंगों के समूह अग्नि की ओर (जलने के लिए) दौड़ते हैं॥।2॥
* इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही॥ अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही॥3॥
भावार्थ:- इधर देवताओं ने स्तुति की कि हे श्री रामजी! इसने हमको दारुण दुःख दिए हैं। अब आप इसे (अधिक) न खेलाइए। जानकीजी बहुत ही दुःखी हो रही हैं॥3॥
भावार्थ:-देवताओं के वचन सुनकर प्रभु मुस्कुराए। फिर श्री रघुवीर ने उठकर बाण सुधारे। मस्तक पर जटाओं के जूड़े को कसकर बाँधे हुए हैं, उसके बीच-बीच में पुष्प गूँथे हुए शोभित हो रहे हैं॥4॥
* अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा॥ कटितट परिकर कस्यो निषंगा। कर कोदंड कठिन सारंगा॥5॥
भावार्थ:- लाल नेत्र और मेघ के समान श्याम शरीर वाले और संपूर्ण लोकों के नेत्रों को आनंद देने वाले हैं। प्रभु ने कमर में फेंटा तथा तरकस कस लिया और हाथ में कठोर शार्गं धनुष ले लिया॥5॥
छंद : * सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो। भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥ कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे। ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे॥
भावार्थ:- प्रभु ने हाथ में शार्गं धनुष लेकर कमर में बाणों की खान (अक्षय) सुंदर तरकस कस लिया। उनके भुजदण्ड पुष्ट हैं और मनोहर चौड़ी छाती पर ब्राह्मण (भृगुजी) के चरण का चिह्न शोभित है। तुलसीदासजी कहते हैं, ज्यों ही प्रभु धनुष-बाण हाथ में लेकर फिराने लगे, त्यों ही ब्रह्माण्ड, दिशाओं के हाथी, कच्छप, शेषजी, पृथ्वी, समुद्र और पर्वत सभी डगमगा उठे।
दोहा : * सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार। जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार॥86॥
भावार्थ:- (भगवान् की) शोभा देखकर देवता हर्षित होकर फूलों की अपार वर्षा करने लगे और शोभा, शक्ति और गुणों के धाम करुणानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो (ऐसा पुकारने लगे)॥86॥
चौपाई : * एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी॥ देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥1॥
भावार्थ:-इसी बीच में निशाचरों की अत्यंत घनी सेना कसमसाती हुई (आपस में टकराती हुई) आई। उसे देखकर वानर योद्धा इस प्रकार (उसके) सामने चले जैसे प्रलयकाल के बादलों के समूह हों॥1॥
भावार्थ:- बहुत से कृपाल और तलवारें चमक रही हैं। मानो दसों दिशाओं में बिजलियाँ चमक रही हों। हाथी, रथ और घोड़ों का कठोर चिंग्घाड़ ऐसा लगता है मानो बादल भयंकर गर्जन कर रहे हों॥2॥
भावार्थ:-वानरों की बहुत सी पूँछें आकाश में छाई हुई हैं। (वे ऐसी शोभा दे रही हैं) मानो सुंदर इंद्रधनुष उदय हुए हों। धूल ऐसी उठ रही है मानो जल की धारा हो। बाण रूपी बूँदों की अपार वृष्टि हुई॥3॥
भावार्थ:-दोनों ओर से योद्धा पर्वतों का प्रहार करते हैं। मानो बारंबार वज्रपात हो रहा हो। श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके बाणों की झड़ी लगा दी, (जिससे) राक्षसों की सेना घायल हो गई॥4॥
भावार्थ:- बाण लगते ही वीर चीत्कार कर उठते हैं और चक्कर खा-खाकर जहाँ-तहाँ पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। उनके शरीर से ऐसे खून बह रहा है मानो पर्वत के भारी झरनों से जल बह रहा हो। इस प्रकार डरपोकों को भय उत्पन्न करने वाली रुधिर की नदी बह चली॥5॥
भावार्थ:- डरपोकों को भय उपजाने वाली अत्यंत अपवित्र रक्त की नदी बह चली। दोनों दल उसके दोनों किनारे हैं। रथ रेत है और पहिए भँवर हैं। वह नदी बहुत भयावनी बह रही है। हाथी, पैदल, घोड़े, गदहे तथा अनेकों सवारियाँ ही, जिनकी गिनती कौन करे, नदी के जल जन्तु हैं। बाण, शक्ति और तोमर सर्प हैं, धनुष तरंगें हैं और ढाल बहुत से कछुवे हैं।
दोहा : * बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन। कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन॥87॥
भावार्थ:- वीर पृथ्वी पर इस तरह गिर रहे हैं, मानो नदी-किनारे के वृक्ष ढह रहे हों। बहुत सी मज्जा बह रही है, वही फेन है। डरपोक जहाँ इसे देखकर डरते हैं, वहाँ उत्तम योद्धाओं के मन में सुख होता है॥87॥
हे भाई! हृदय में समझो, तुमकाल के भी भक्षक और देवताओं के रक्षक हो॥3॥
रावण और लक्ष्मण के बीच युद्ध का दृश्य
वानर और आसुरी सेना का युद्ध अपने चरम पर पहुँच चुका है। वानर भालुओं का संहार करते रावण को लक्ष्मण ने चुनौती दी। रावण तो अपने पुत्र घाती को ढूँढ ही रहा था , उसने उनपर प्रहार आरम्भ कर दिया। लक्ष्मण ने उसको लाखों अस्त्र काट डाले , उसके रथ को वाणों से खंडित कर दिया , सौ -सौ वाण उसके दशों सिरों पर मारे और उतने ही वाण उसकी छाती पर। रावण मूर्छित हो गया। किन्तु मूर्छावस्था से उठते ही उसने ब्रह्मा से प्राप्त अस्त्र लक्ष्मण के छाती में मारा। जिसके प्रहार से वे धरती पर गिर पड़े। रावण ने उन्हें उठा लेने की चेष्टा की किन्तु शेषनाग के रूप में जिसने पूरे भुवन को एक तिनके के समान अपने सर पर उठा रखा है ,उसे भला रावण कैसे उठा सकता था ? रावण को लक्ष्मण के शरीर को उठाने का प्रयत्न करते देख , हनुमान जो आगे आये तो उसने उन पर घूसे से प्रहार किया अपने को सँभालते हुए हनुमान ने उसे जो घूसा मारा , तो रावण एक बार फिर मूर्छित हो गया। इस बार मूर्छा टूटने पर रावण यज्ञ करने के लिए अपने महल की ओर चल पड़ा।
चौपाई : * रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥ खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़ावउँ छाती॥1॥
भावार्थ:- (लक्ष्मणजी ने पास जाकर कहा-) अरे दुष्ट! वानर भालुओं को क्या मार रहा है? मुझे देख, मैं तेरा काल हूँ। (रावण ने कहा-) अरे मेरे पुत्र के घातक! मैं तुझी को ढूँढ रहा था। आज तुझे मारकर (अपनी) छाती ठंडी करूँगा॥1॥
भावार्थ:- ऐसा कहकर उसने प्रचण्ड बाण छोड़े। लक्ष्मणजी ने सबके सैकड़ों टुकड़े कर डाले। रावण ने करोड़ों अस्त्र-शस्त्र चलाए। लक्ष्मणजी ने उनको तिल के बराबर करके काटकर हटा दिया॥2॥
भावार्थ:- फिर अपने बाणों से (उस पर) प्रहार किया और (उसके) रथ को तोड़कर सारथी को मार डाला। (रावण के) दसों मस्तकों में सौ-सौ बाण मारे। वे सिरों में ऐसे पैठ गए मानो पहाड़ के शिखरों में सर्प प्रवेश कर रहे हों॥3॥
* पुनि सुत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं॥ उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाड़िसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी॥4॥
भावार्थ:-फिर सौ बाण उसकी छाती में मारे। वह पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसे कुछ भी होश न रहा। फिर मूर्च्छा छूटने पर वह प्रबल रावण उठा और उसने वह शक्ति चलाई जो ब्रह्माजी ने उसे दी थी॥4॥
छंद : * सो ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही। पर्यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही॥ ब्रह्मांड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी। तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी॥
भावार्थ:-वह ब्रह्मा की दी हुई प्रचण्ड शक्ति लक्ष्मणजी की ठीक छाती में लगी। वीर लक्ष्मणजी व्याकुल होकर गिर पड़े। तब रावण उन्हें उठाने लगा, पर उसके अतुलित बल की महिमा यों ही रह गई, (व्यर्थ हो गई, वह उन्हें उठा न सका)। जिनके एक ही सिर पर ब्रह्मांड रूपी भवन धूल के एक कण के समान विराजता है, उन्हें मूर्ख रावण उठाना चाहता है! वह तीनों भुवनों के स्वामी लक्ष्मणजी को नहीं जानता।
भावार्थ:- यह देखकर पवनपुत्र हनुमान्जी कठोर वचन बोलते हुए दौड़े। हनुमान्जी के आते ही रावण ने उन पर अत्यंत भयंकर घूँसे का प्रहार किया॥83॥
चौपाई: * जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥ मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥1॥
भावार्थ:- हनुमान्जी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं और फिर क्रोध से भरे हुए संभलकर उठे। हनुमान्जी ने रावण को एक घूँसा मारा। वह ऐसा गिर पड़ा जैसे वज्र की मार से पर्वत गिरा हो॥1॥
भावार्थ:-मूर्च्छा भंग होने पर फिर वह जागा और हनुमान्जी के बड़े भारी बल को सराहने लगा। (हनुमान्जी ने कहा-) मेरे पौरुष को धिक्कार है, धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है, जो हे देवद्रोही! तू अब भी जीता रह गया॥2॥
भावार्थ:-ऐसा कहकर और लक्ष्मणजी को उठाकर हनुमान्जी श्री रघुनाथजी के पास ले आए। यह देखकर रावण को आश्चर्य हुआ। श्री रघुवीर ने (लक्ष्मणजी से) कहा- हे भाई! हृदय में समझो, तुमकाल के भी भक्षक और देवताओं के रक्षक हो॥3॥
* सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सो सकति कराला॥ पुनि कोदंड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए॥4॥
भावार्थ:-ये वचन सुनते ही कृपालु लक्ष्मणजी उठ बैठे। वह कराल शक्ति आकाश को चली गई। लक्ष्मणजी फिर धनुष-बाण लेकर दौड़े और बड़ी शीघ्रता से शत्रु के सामने आ पहुँचे॥4॥
भावार्थ:-फिर उन्होंने बड़ी ही शीघ्रता से रावण के रथ को चूर-चूर कर और सारथी को मारकर उसे (रावण को) व्याकुल कर दिया। सौ बाणों से उसका हृदय बेध दिया, जिससे रावण अत्यंत व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब दूसरा सारथी उसे रथ में डालकर तुरंत ही लंका को ले गया। प्रताप के समूह श्री रघुवीर के भाई लक्ष्मणजी ने फिर आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम किया।
दोहा: * उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य। राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य॥84॥
भावार्थ:- वहाँ (लंका में) रावण मूर्छा से जागकर कुछ यज्ञ करने लगा। वह मूर्ख और अत्यंत अज्ञानी हठवश श्री रघुनाथजी से विरोध करके विजय चाहता है॥84॥
भावार्थ:-यहाँ विभीषणजी ने सब खबर पाई और तुरंत जाकर श्री रघुनाथजी को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध होने पर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा॥1॥
भावार्थ:- हे नाथ! तुरंत वानर योद्धाओं को भेजिए, जो यज्ञ का विध्वंस करें, जिससे रावण युद्ध में आवे। प्रातःकाल होते ही प्रभु ने वीर योद्धाओं को भेजा। हनुमान् और अंगद आदि सब (प्रधान वीर) दौड़े॥2॥
* कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका। पैठे रावन भवन असंका॥ जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा॥3॥
भावार्थ:-वानर खेल से ही कूदकर लंका पर जा चढ़े और निर्भय होकर रावण के महल में जा घुसे। ज्यों ही उसको यज्ञ करते देखा, त्यों ही सब वानरों को बहुत क्रोध हुआ॥3॥
* रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा। अस कहि अंगद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता॥4॥
भावार्थ:- (उन्होंने कहा-) अरे ओ निर्लज्ज! रणभूमि से घर भाग आया और यहाँ आकर बगुले का सा ध्यान लगाकर बैठा है? ऐसा कहकर अंगद ने लात मारी। पर उसने इनकी ओर देखा भी नहीं, उस दुष्ट का मन स्वार्थ में अनुरक्त था॥4॥
रावण और श्रीराम की सेना में घमासान युद्ध का प्रसंग
श्रीराम तथा रावण की सेनाएं एक-दूसरे से जूझ रही हैं। एक ओर श्रीराम की जयजयकार तो दूसरी ओर रावण का जयघोष गूँज रहा है। वानर और रीछ महाबली राक्षसों को मारते -काटते धाराशायी करके उनके उदर चीर देते हैं। फिर उन्हीं के मुण्डों को अस्त्र के रूप में फेंक कर ओरों के कपाल फोड़ देते हैं। असुरों को कुचलते मसलते वानर मेघ के समान गर्जन करते हैं , जिससे रावण के सैनिक विचलित हो जाते हैं। अपनी सेना को त्रस्त और भयभीत देखकर रावण उनका उत्साह बढ़ाने के लिए भयंकर हुंकार करता आगे आगे दौड़ता है। वानरों द्वारा फेंके गए वज्र के समान पत्थर, उसके शरीर से टकराकर चूरचूर हो जाते हैं। भीषण क्रोध से काँपते उसने जब वानर और भालू सेना का संहार करना प्रारम्भ किया तो वे त्राहि त्राहि कर उठे। पूरि सेना श्रीराम की शरण लेने को जैसे भाग खड़ी हुई। लेकिन सभी दिशाएं रावण के भाँति भाँती के आच्छादित हैं ; वानर-भालू भागकर जाएँ भी तो किधर ? लगता है वे चारों ओर से घिर गए हैं --
भावार्थ:- हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो,जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान् दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)॥80 (क)॥
* सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज। एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज॥80 ख
भावार्थ:- प्रभु के वचन सुनकर विभीषणजी ने हर्षित होकर उनके चरण कमल पकड़ लिए (और कहा-) हे कृपा और सुख के समूह श्री रामजी! आपने इसी बहाने मुझे (महान्) उपदेश दिया॥80 (ख)॥
भावार्थ:- उधर से रावण ललकार रहा है और इधर से अंगद और हनुमान्। राक्षस और रीछ-वानर अपने-अपने स्वामी की दुहाई देकर लड़ रहे हैं॥80 (ग)॥
चौपाई : * सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े बिमाना॥ हमहू उमा रहे तेहिं संगा। देखत राम चरित रन रंगा॥1॥
भावार्थ:-ब्रह्मा आदि देवता और अनेकों सिद्ध तथा मुनि विमानों पर चढ़े हुए आकाश से युद्ध देख रहे हैं। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! मैं भी उस समाज में था और श्री रामजी के रण-रंग (रणोत्साह) की लीला देख रहा था॥1॥
* सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते॥ एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं॥2॥
भावार्थ:-दोनों ओर के योद्धा रण रस में मतवाले हो रहे हैं। वानरों को श्री रामजी का बल है, इससे वे जयशील हैं (जीत रहे हैं)। एक-दूसरे से भिड़ते और ललकारते हैं और एक-दूसरे को मसल-मसलकर पृथ्वी पर डाल देते हैं॥2॥
भावार्थ:- वे मारते, काटते, पकड़ते और पछाड़ देते हैं और सिर तोड़कर उन्हीं सिरों से दूसरों को मारते हैं। पेट फाड़ते हैं, भुजाएँ उखाड़ते हैं और योद्धाओं को पैर पकड़कर पृथ्वी पर पटक देते हैं॥3॥
* निसिचर भट महि गाड़हिं भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू॥ बीर बलीमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे॥4॥
भावार्थ:- राक्षस योद्धाओं को भालू पृथ्वी में गाड़ देते हैं और ऊपर से बहुत सी बालू डाल देते हैं। युद्ध में शत्रुओं से विरुद्ध हुए वीर वानर ऐसे दिखाई पड़ते हैं मानो बहुत से क्रोधित काल हों॥4॥
भावार्थ:- क्रोधित हुए काल के समान वे वानर खून बहते हुए शरीरों से शोभित हो रहे हैं। वे बलवान् वीर राक्षसों की सेना के योद्धाओं को मसलते और मेघ की तरह गरजते हैं। डाँटकर चपेटों से मारते, दाँतों से काटकर लातों से पीस डालते हैं। वानर-भालू चिग्घाड़ते और ऐसा छल-बल करते हैं, जिससे दुष्ट राक्षस नष्ट हो जाएँ॥1॥
* धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं। प्रह्लादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं॥ धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही। जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही॥2॥
भावार्थ:- वे राक्षसों के गाल पकड़कर फाड़ डालते हैं, छाती चीर डालते हैं और उनकी अँतड़ियाँ निकालकर गले में डाल लेते हैं। वे वानर ऐसे दिख पड़ते हैं मानो प्रह्लाद के स्वामी श्री नृसिंह भगवान् अनेकों शरीर धारण करके युद्ध के मैदान में क्रीड़ा कर रहे हों। पकड़ो, मारो, काटो, पछाड़ो आदि घोर शब्द आकाश और पृथ्वी में भर (छा) गए हैं। श्री रामचंद्रजी की जय हो, जो सचमुच तृण से वज्र और वज्र से तृण कर देते हैं (निर्बल को सबल और सबल को निर्बल कर देते हैं)॥2॥
दोहा : * निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप। रथ चढ़ि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप॥81॥
भावार्थ:-अपनी सेना को विचलित होते हुए देखा, तब बीस भुजाओं में दस धनुष लेकर रावण रथ पर चढ़कर गर्व करके 'लौटो, लौटो' कहता हुआ चला॥81॥
भावार्थ:-रावण अत्यंत क्रोधित होकर दौड़ा। वानर हुँकार करते हुए (लड़ने के लिए) उसके सामने चले। उन्होंने हाथों में वृक्ष, पत्थर और पहाड़ लेकर रावण पर एक ही साथ डाले॥1॥
* लागहिं सैल बज्र तन तासू। खंड खंड होइ फूटहिं आसू॥ चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी॥2॥
भावार्थ:-पर्वत उसके वज्रतुल्य शरीर में लगते ही तुरंत टुकड़े-टुकड़े होकर फूट जाते हैं। अत्यंत क्रोधी रणोन्मत्त रावण रथ रोककर अचल खड़ा रहा, (अपने स्थान से) जरा भी नहीं हिला॥2॥
भावार्थ:-उसे बहुत ही क्रोध हुआ। वह इधर-उधर झपटकर और डपटकर वानर योद्धाओं को मसलने लगा। अनेकों वानर-भालू 'हे अंगद! हे हनुमान्! रक्षा करो, रक्षा करो' (पुकारते हुए) भाग चले॥3॥
* पाहि पाहि रघुबीर गोसाईं। यह खल खाइ काल की नाईं॥ तेहिं देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक संधाने॥4॥
भावार्थ:-हे रघुवीर! हे गोसाईं! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। यह दुष्ट काल की भाँति हमें खा रहा है। उसने देखा कि सब वानर भाग छूटे, तब (रावण ने) दसों धनुषों पर बाण संधान किए॥4॥
छंद : * संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं। रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदिसि कहँ कपि भागहीं॥ भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे। रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे॥
भावार्थ:-उसने धनुष पर सन्धान करके बाणों के समूह छोड़े। वे बाण सर्प की तरह उड़कर जा लगते थे। पृथ्वी-आकाश और दिशा-विदिशा सर्वत्र बाण भर रहे हैं। वानर भागें तो कहाँ? अत्यंत कोलाहल मच गया। वानर-भालुओं की सेना व्याकुल होकर आर्त्त पुकार करने लगी- हे रघुवीर! हे करुणासागर! हे पीड़ितों के बन्धु! हे सेवकों की रक्षा करके उनके दुःख हरने वाले हरि!
दोहा : * निज दल बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ। लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ॥82॥
भावार्थ:- अपनी सेना को व्याकुल देखकर कमर में तरकस कसकर और हाथ में धनुष लेकर श्री रघुनाथजी के चरणों पर मस्तक नवाकर लक्ष्मणजी क्रोधित होकर चले॥82॥
====== ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ॐ शांति, शांति, शांतिः
अब तक हमने देखा कि इस ग्रन्थ की शुरुआत होती है मनुष्य शरीर में जन्म लेना दुर्लभ क्यों है? इसका महत्व क्या है ? अब देखिये धीरे -धीरे हमलोगों को अब यह समझ में भी आ रहा है। हमलोग जो पढ़ रहे हैं , चिंतन-मनन, और श्रवण कर रहे हैं और उससे यह जो हमारा 'विवेक' जाग्रत हो रहा है , यह केवल मनुष्य शरीर में ही सम्भव है। किसी अन्य शरीर में - इस प्रकार से विवेक का जगना सम्भव नहीं है। और मनुष्य शरीर में जन्म लेने का जो मुख्य उद्देश्य है , वो है - मोक्ष प्राप्ति। देखिये
जो हमलोग पढ़ रहे हैं वो कैसे हमारे अन्तःकरण को मुक्त कर रहा है ! बहुत
सारे भ्रमों से हमे मुक्त करा रही है , और अंत में हमें अज्ञान से भी मुक्त
करा देगी।
तो हमने देखा मनुष्य शरीर में जन्म लेने का जो मुख्य उद्देश्य है , वो है - मोक्ष प्राप्ति। जो की आत्मज्ञान से होता है ! और इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए , या मैं कौन हूँ ? यह जानने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता होती है। वे चार साधन हैं - विवेक , वैराग्य षट्सम्पत्ति और मुमुक्षता। अब ऐसा भी नहीं है कि ये सारी चीजें हमारे पास 100 % होनी चाहिए। ऐसा कभी नहीं होता है , लेकिन थोड़ी मात्रा में इसकी अपेक्षा है। कम-सेकम 5 % या 10 % भी होनी चाहिए। बिल्कुल विवेक -वैराग्य न हो , तो हमारी यात्रा शुरू भी नहीं हो सकती है। ऐसा जो साधन-चतुष्टय सम्पन्न एक मोक्षार्थी है ; या जो सत्य की खोज में निकल पड़ा है , या जो एक सत्यार्थी है; वह गुरु के पास जाता है। तो एक आदर्श शिष्य की मनोभूमिका कैसी होती है - ये हमने देखा। उसकी विशेषता ये है कि वो अत्यंत ही व्याकुल है। [दुर्वारसंसार दावाग्नि तप्तं, दोधूयमानं दुरदृष्टवातैः । भीतं प्रपन्नं परिपाहि मृत्योः, शरण्यमन्यद्यदहं न जाने ॥ ३८॥ ] और उसका मन एकाग्र है। संसार के दूसरे चीजों को प्राप्त करने की इच्छा अब उसमें नहीं है। वो अब सिर्फ सत्य को ही जानना चाहता है? मैं कौन हूँ ? या क्या हूँ ? बस यही जानना चाहता है। ऐसी मनोभूमिका को लेकर वो गुरु के पास जाता है। (4.35 मिनट)
फिर हमने एक आदर्श गुरु को देखा। आदर्शगुरु कौन है ? और इन दोनों के बीचमें एक संवाद भी होता है। यह सत्यान्वेषी जो है , या योग्य शिष्य है -वो गुरु के समक्ष कुछ मूलभूत गंभीर प्रश्नों को रखता है। और वे सारे प्रश्न 'बंधन-केंद्रित ' हैं। क्योंकि ये योग्य शिष्य वह है , जो अपने आप को बंधन में पा रहा है। और बंधन का उसको कष्ट हो रहा है, दुःख हो रहा है। वो यह देख रहा है कि -वो एक ऐसे गड्ढे में गिरा हुआ है , जिसका कोई तल ही नहीं है। वो ऐसे समुद्र में गिरा हुआ है, जहाँ से बाहर निकलना उसके लिए स्वयं के प्रयास से असम्भव है ; क्योंकि उसको बाहर निकलने का रास्ता पता नहीं है। वो ऐसे संसार में है , जहाँ चारों-ओर उसको अग्नि ही दिखाई दे रही है। और उस संसार अग्नि में वो तप रहा है। तो ऐसे संसार-बंधन से मुक्त होने की तीव्र इच्छा को लेकरके यह शिष्य गुरु के पास आता है। और गुरु के सामने जो सात प्रश्न रखता है , वो सब बंधन केंद्रित है - [को नाम बन्धः कथमेष आगतः, कथं प्रतिष्ठास्य कथं विमोक्षः । कोऽसावनात्मा परमः क आत्मा, तयोर्विवेकः कथमेतदुच्यताम् ॥ ५१ ॥ तो पहला प्रश्न क्या था ? 1.बन्धन क्या है? 2. यह कैसे हुआ? 3.हमारे जीवन में ये Continue कैसे कर रहा है, या इसकी स्थिति कैसे है? 4. और इस बंधन से मोक्ष कैसे मिल सकता है? 5.अनात्मा क्या है? 6.परमात्मा किसे कहते हैं? और 7. उनका विवेक (पार्थक्य ज्ञान) कैसे होता है? ये सब मूलभूत प्रश्न हैं -बहुत ही गंभीर प्रश्न ये योग्य शिष्य अपने गुरु से करते हैं ! अब पूरा विवेक- चूड़ामणि इन्हीं सात प्रश्नों का उत्तर है। इस विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ में कुल 580 श्लोक हैं ,और सब श्लोकों में इन 7 प्रश्नों का उत्तर है। इसलिए हम लोग केवल कुछ चुने हुए श्लोकों को ही पढ़ेंगे।
गुरु चौथे प्रश्न का उत्तर सबसे पहले क्यों देते हैं ? उसका क्या कारण है ? ये हमने देखा। [ ये शिष्य जब गुरु के पास में आया था तब अत्यंत दर्द में आया था या नहीं ? भयभीत था , भयग्रस्त था , कष्ट में था , मैं संसार सागर में डूब रहा हूँ , दावाग्नि में जल रहा हूँ , इस ताप से मुझे बचाइए। ऐसी परिस्थिति में यह बंधन क्या है ? बंधन आया कहाँ से ? ये बंधन हमारे जीवन में Continue कैसे हो रहा है ? ये सब प्राथमिक प्रश्न नहीं था। प्राथमिक प्रश्न ये है कि इस बंधन से बाहर कैसे निकलें ? इस कष्ट से बाहर कैसे निकलें ? (भाग -11 :40.34 मिनट) इसलिए गुरुदेव इस चतुर्थ प्रश्न का उत्तर पहले देते हैं। क्योंकि यदि मुख्य समस्या का समाधान निकल गया तो बाकि चर्चा हमलोग बाद में भी कर लेंगे। इसलिए तो उनको गुरु कहते हैं , उन्हें पता है कि हमारी प्राथमिकता क्या है ? Let's be focused- बहुत से प्रश्नों का उत्तर न देखकर मुख्य को अभी लेते हैं। आपका दिमाग भी इसी प्रश्न पर केंद्रित रहना चाहिए की सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? मैं कौन हूँ ?... सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? मैं कौन हूँ ? घूम-फिर कर हमारे मन में भी यही मंथन , यही प्रश्न चलना चाहिए।]
चतुर्थ प्रश्न था -कथं विमोक्षः ? इस बंधन से हम मुक्त कैसे होंगे ? इसके उत्तर में गुरु ने प्रथम चरण कहा , वो है -वैराग्यम् अत्यन्तम् अनित्य वस्तुषु ! अनित्य वस्तुओं से तीव्र वैराग्य की अपेक्षा है। क्योंकि जब तक संसार के विषयों के प्रति आपका मोह है ,आकर्षण है, तब तक तो आप इस तलहीन गड्ढे से बाहर निकल ही नहीं सकते हो। आत्मज्ञान प्राप्ति का पहला मुद्दा है - वैराग्य ! और जब वैराग्य हो जाता है , तब शम, दम , उपरति , सभी षट्सम्पत्ति आ जाती है। मतलब पूरा साधन-चतुष्टय आ जाता है। तो आप यह समझ लीजिये कि मोक्ष का पहला हेतु - यानि आत्मज्ञान का पहला हेतु है : साधन-चतुष्टय का होना अनिवार्य है! (7.31 मिनट) इसमें विवेक और वैराग्य प्रधान है। विवेक-वैराग्य अगर हो जाता है , तो वहाँ सारे षट्सम्पत्ति वहां इकट्ठे हो जाते हैं। इस प्रकार साधन-चतुष्टय सम्पन्न साधक केवल निष्काम ही करता है , अब वो सकाम कर्म नहीं करेगा। ऐसी मनोस्थिति में जब वो गुरु को शब्दों को श्रद्धा के साथ श्रवण करेगा , और ऐसी मनःस्थिति होने पर ही वो जब शास्त्र के वाक्यों को (उपनिषदों के महावाक्यों को) श्रद्धा-भक्ति पूर्वक सुनेगा , ग्रहण करेगा, मनन करेगा , और जब उसपर ध्यान करेगा। इस प्रकार वो अपने सत्यस्वरूप को पहचाने गा , अनुभव करेगा। और जीवित अवस्था में ही वह उस निर्वाण सुख को अनुभव करेगा। मरणोपरान्त नहीं जीवितावस्था में ही वह जो मुमुक्षु शिष्य था अपने गंतव्य स्थान तक पहुँच जायेगा। उसे पता चल जायेगा कि मैं कौन हूँ ? और इस 'मैं' का अर्थ क्या है ? (8.44) मैं अपने इन्द्रियों से अपने सामने जो कुछ देख रहा हूँ , जिसको जगत-जगत कह रहा हूँ , इसका असली स्वरुप क्या है? मेरी इन्द्रियाँ इस जगत को मुझे जैसा दिखाती है , इससे हटकर के इस बिल्कुल सत्य सत्यस्वरूप उसके लिए बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। तब वह इस जगत के पंजे से , जगत के चपेट से वो मुक्त हो जाता है। हम अभी जिसको जगत ,जगत , जगत कह रहे हैं , पर हम उसके पंजे में जकड़े हुए हैं। हम इसके बंधन में हैं , हम इस जगत को देखकर के मोहित हो जाते हैं। लेकिन जिस व्यक्ति ने अपने सत्य स्वरुप को जान लिया है वो , इसके आकर्षणों और मोह से इसके बन्धनों से वह छूट जाता है। और यही मुक्ति है - जीवनमुक्ति है ! वह छूटता कैसे है ? क्योंकि उसको ये ज्ञान हो जाता है कि ये क्या है ? हम आज जिसको जगत ,जगत , जगत कह रहे हैं , वो वास्तविक रूप से क्या है? और हम लोग भी इसी को समझने का प्रयास कर रहे हैं। अभी हमलोग धीरे धीरे उसी ओर प्रस्थान कर रहे हैं। तो यहाँ तक था शिष्य के चतुर्थ प्रश्न का उत्तर कि इस बंधन से हम मुक्त कैसे होंगे ? चतुर्थ प्रश्न था -कथं विमोक्षः ? इस बंधन से हम मुक्त कैसे होंगे ? पिछले दो श्लोकों में गुरु ने हमलोगों के लिए मार्ग दिखला दिया। यदि आप इस भवबन्धन से मुक्त होना चाहते हो , तो आपको इस विवेक- वैराग्य आदि साधन-चतुष्टय के रास्ते पर चलना होगा। इसके बाद गुरुदेव पाँचवे प्रश्न को ले लेते हैं कि - अनात्मा क्या है ? (10.24) क्योंकि अनात्मा के कारण ही हमारे मन में सारे भ्रम हैं। हम अनात्मा को देखकर के ही पूरी तरह से भ्रमित हैं। जिस प्रकार हमने मगरमच्छ को लक्क्ड़ समझ लिया , उसी प्रकार इन्द्रियगोचर अनित्य वस्तुएं , जिनमें से एक हमारा अपना शरीर भी एक सबसे नजदीकी अनात्मा है। तो पहले इसी अनात्मा की जाँचपड़ताल करके देखते हैं -इस स्थूल शरीर को ही Investigate (इन्वेस्टिगेट) करते हैं ! भाई ये अनात्मा क्या चीज है ? जब अनात्मा क्या है ? ये इन्वेस्टिगेट हो जायेगा ; तब आत्मा को जानना तो एकदम सरल है। Actually आत्मा तो एकदम सरल चीज है। अनात्मा बहुत ही Complicated है , उलझा हुआ है। अनात्मा हमारा स्थूल शरीर और मन ही सबसे Complicated चीज है, जो हमें भ्रमित कर देती है। आत्मा तो सर्वोच्च सत्य है - बहुत सरल है।
इसीलिए गुरदेव अब पहले पाँचवें प्रश्न को उठाते हैं कि अनात्मा क्या है ? हमारा स्थूल शरीर से ही अनात्मा की खोज होनी चाहिए। बाह्य में हम जोकुछ भी अनित्य को नित्य जैसा देख रहे हैं -वो अपने स्थूल शरीर और इन्द्रियों के माध्यम से ही तो देख रहे है ? अनात्मा की पहली अभिव्यक्ति यह हमारा स्थूल शरीर है , तो चलो Investigate करके देखते हैं कि यह स्थूल शरीर क्या है ? हमारे स्थूल शरीर के विषय में शास्त्र जैसा कहते हैं ,वैसा हम लोग सच नहीं समझते हैं। साधारण मनुष्य तो बस ऐसे ही जी रहा है , जो कुछ सामने M/F दिखाई दिया वही सत्य है। सतह पर हमको जो चीज जैसा दिखाई देता है , उसी से हमलोग मोहित होकर संचालित हो रहे हैं। अपने आपको या M/F को कभी भी हमने आज तक Skeleton के रूप देखने की चेष्टा नहीं की होगी। स्थूल को वर्णित करते हुए यहाँ क्या कहा गया था - इस चमड़ी के थैले में थोड़ा सा अगर हम झांककर के देखें , 2mm चमड़े के पीछे क्या है ? लेकिन चमड़ा तो बड़ा आकर्षक है , और इसी चमड़े के पीछे सारा विश्वप्रपंच पागल है।
चमड़े के पीछे देखने का कदम बहुत साहसी कदम है , और हर सत्यान्वेषी के अंदर इतना साहस होना ही चाहिए। हम देखें कि हमारे शरीर के अंदर क्या है ? अस्थि , मज्जा है मज्जा -अस्थि-मेद: पल-रक्तचर्म-त्वक् -आह्वयै: एभि: धातुभि: अन्वितं/ पादोरुवक्षो-भुजपृष्ठ-मस्तकै: अङ्गै: उपांगै: उपयुक्तम्। हमने अंग-उपांग तक देख लिया था। अब हम अपने को और थोड़ा सा गहराई में जाकर देखने का प्रयत्न कर रहे हैं , और पाते हैं कि इस प्रकार गहराई से देखने पर मोह टूटने लगता है। इस शरीर के प्रति हमारा जो मोह है , उस मोह का टूटना अच्छा है। उस मोह को टूटना चाहिए। उसी के लिए प्रस्तुति चल रही है। सतह पर M/F देखकर हम जो मोहित हो जाते हैं , आकृष्ट हो जाते हैं , उससे हम ऊपर हो जाते हैं। अब यह साहसी सत्यान्वेषी भ्रमित नहीं होगा। अब आगे देखिये शंकराचार्यजी क्या कहते हैं ? (14.44)
अर्थ:-मज्जा, अस्थि, मेद, मांस, रक्त, चर्म और त्वचा-इन सात धातुओं से बने हुए तथा चरण, जंघा, वक्षःस्थल (छाती), भुजा, पीठ और मस्तक आदि अंगोपांगों से युक्त, 'मैं और मेरा' रूप से प्रसिद्ध इस मोह के आश्रय रूप देह को विद्वान् लोग 'स्थूल शरीर' कहते हैं। यह श्लोकवे आत्मा और अनात्मा के विवेक के माध्यम से आत्मबोध की ओर साधक को निर्देशित करते हैं। इस श्लोक में उन्होंने 'स्थूल शरीर' की यथार्थ पहचान कराई है, जिससे मनुष्य सामान्यतः 'मैं' और 'मेरा' की भावना जोड़ता है। यह देह वास्तव में सात धातुओं—मज्जा (गूदा), अस्थि (हड्डियाँ), मेद (चर्बी), मांस (मांसपेशियाँ), रक्त (खून), चर्म (त्वचा), और त्वक् (बाहरी चमड़ी)—से बना हुआ है। ये सभी तत्व प्रकृति के ही अंग हैं और निरंतर परिवर्तनशील हैं।
इस शरीर में जो अंग-प्रत्यंग हैं—पाँव, जाँघें, वक्षःस्थल, भुजाएँ, पीठ और मस्तक आदि—ये सब केवल शरीर की रचना के बाह्य और आंतरिक अवयव हैं। इन सबका सम्मिलित रूप, जिसमें अनेक जीव-विकार, विकृति और विनाश की प्रवृत्ति अंतर्निहित होती है, वही यह स्थूल शरीर है। परंतु अज्ञानवश जीव इस शरीर को ही 'मैं' समझ बैठता है और इसके संबंधों को 'मेरा' मानता है। यही 'अहं' और 'मम' की भ्रांति का मूल कारण है। 'अहं शरीर हूँ' और 'यह मेरा है'—इन दोनों मिथ्या विचारों का केन्द्र यही शरीर है।
शंकराचार्य इसे 'मोहास्पदं' कहते हैं—अर्थात यह शरीर अज्ञान से उत्पन्न मोह का आश्रय है। यह मोह ही जीव को बंधन में डाल देता है और वह अपने वास्तविक स्वरूप—शुद्ध, अच्युत, निरपेक्ष आत्मा—को भूलकर इस नश्वर शरीर से अपनी पहचान जोड़ लेता है। यही जीव की सबसे बड़ी त्रुटि है, क्योंकि शरीर एक दिन नष्ट हो जाएगा, और आत्मा न कभी जन्म लेती है, न मरती है।
इस श्लोक का उद्देश्य साधक को यह स्मरण कराना है कि जब तक वह शरीर को ही 'स्वरूप' मानता रहेगा, तब तक वह जन्म-मरण के चक्र में फँसा रहेगा। विद्वान लोग—'बुधाः'—इस देह को केवल एक 'स्थूल शरीर' मानते हैं, न कि आत्मा। वे जानते हैं कि यह शरीर पंचमहाभूतों और सप्तधातुओं से बना है, नाशवान है, और आत्मा से सर्वथा भिन्न है। इसलिए वे इससे अपनी पहचान नहीं जोड़ते।
इस विवेचन का मर्म यही है कि साधक को चाहिए कि वह इस देह को मात्र एक उपकरण की भाँति देखे, जिससे आत्मसाधना की जा सकती है, न कि अपने स्वरूप के रूप में। देह के प्रति इस दृष्टिकोण का विकास ही विवेक है, जो साधना के पथ पर आरूढ़ होने की प्रथम आवश्यकता है। जब 'मैं शरीर नहीं हूँ' का अनुभव भीतर दृढ़ होता है, तब ही आत्मज्ञान की यात्रा प्रारंभ होती है। यही विवेकचूडामणि की शिक्षाओं का सार है। ]
अब कहते हैं -यह जो स्थूल शरीर है, यहाँ से और भी गहराई में जा रहे हैं -ध्यान से सुनिए हमारे साथ यही हो रहा है। गुरु हमसे कह रहे हैं कि स्थूल शरीर के विषय में हमारी धारणा क्या है ? 'अहं मम' ये मैं हूँ और यह मेरा है ! हमारा सारा दैनंदिन व्यवहार जो कुछ भी चलता है , ये सब अहं पर ही टिकी हुई है कि नहीं ? अहं को छोड़ करके तो कोई व्यवहार होता नहीं है। अहं मतलब मैं ! मैं मायावती जाऊँगा , मैं Retreat (आश्रय-स्थल) attain करूँगा। मैं ध्यान करूँगा , मैं वहाँ जाऊँगा। सारा जगत व्यवहार तो मैं और मेरा को लेकर ही है। और आज हमने अहं का मतलब लगा लिया है , मेरा स्थूल शरीर। मैं शब्द का व्यवहार करते समय हमारी क्या धारणा होती है ? यह M/F शरीर ही तो मेरी पहचान है। मैं कहते ही हमारा रूप हमारी आँखों के सामने आ जाता है। आंख बंद करके 'मैं' कहते ही आपका रूप आँखों के सामने आ जाता है। आपका ही यह स्थूल शरीर वाला M/F रूप। इस स्थूल शरीर को लेकर ही मैं और मेरा चलता है।
यहाँ शास्त्र कह रहे हैं - अहं मम इति प्रथितं शरीरं , यह स्थूल शरीर वह चीज है जिसको लेकर के मैं और मेरा भाव रहता है। और क्या है ? मोहास्पदं - यह शरीर मोह का आस्पद है , यानि स्थान या आश्रय है ! यहाँ एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा गुरुदेव बता रहे हैं। ये स्थूल शरीर ही मोह का स्थान है। जिसके विषय में मैं मेरा का भाव है -वह स्थूल शरीर ही मोह का अधिष्ठान है ,आश्रय है। अच्छा मोह क्या है ? मोह को अंग्रेजी में Delusion कहते हैं, हिंदी में क्या कहें ? तो मोह के फल से हम उसे समझे - मोह वह चीज है , जो हमें अँधा बना देती है। हम जब किसी से मोहित हो जाते हैं , तो क्या होता है ? हम अंधे हो जाते हैं। आसक्ति भी बात की है। पहले तो हम अंधे हो जाते हैं। मोह क्या है ? वह जो आपको अँधा बना देती है। मोह कई प्रकार के हो सकते हैं -जो आपको सत्य देखने ही नहीं देती। जैसे पुरुषों को स्त्री के प्रति एक प्रकार की मोह हो जाती है। स्त्री को पुरुषों के प्रति मोह हो जाती है। और जब ऐसा मोह हो जाता है तो व्यक्ति पूरी तरह से अँधा# हो जाता है या नहीं ? उसको फिर दूसरा कुछ दिखाई नहीं देता है। [Delusion माया या मतिभ्रम से अँधा# संत तुलसी दास का रत्नावली के प्रति मोह : गोस्वामी तुलसीदास जी अपनी पत्नी रत्नावली से अत्यधिक प्रेम करते थे। ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत् 1583 को 29 वर्ष की आयु में राजापुर से थोड़ी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। तुलसीदास जी व रत्नावली दोनों का बहुत सुन्दर जोड़ा था, दोनों विद्वान थे, दोनों का सरल जीवन चल रहा था। परन्तु दोंगा या गौना नहीं हुआ था -विवाह के कुछ समय बाद रत्नावली अपने भाई के साथ मायके चलीं गई तब उनका वियोग तुलसी के लिए असहनीय हो गया था। एक दिन तुलसीदास के सब्र का बांध टूटा और वह रत्नावली से मिलने निकल पड़े। रत्नावली मिलन की चाह ऐसी की तेज वर्षा और अंधेरी रात का सुध-बुध भी नहीं रहा। जब वह एक उफनती नदी के किनारे पहुंचे, तो उनको एक लाश भी लकड़ी का लट्ठा दिखाई दे रहा था। शव को लट्ठा समझकर उफनती हुई नदी, सहारे पार कर लिया। जब वे रत्नावली के घर के पास पहुंचे तो, घर से सटा एक वृक्ष जिससे एक सर्प लटक रहा था| उस समय वह सर्प भी उन्हें रस्सी दिखाई दे रहा था। वह सर्प को रस्सी समझ कर ऊपर चढ़ गए जब वह रत्नावली के कमरे में दाख़िल हुए तब उनकी पत्नी उन्हें देख उन्हें लोक-लाज की दुहाई देते हुए उन्हें जाने को कहा, परंतु तुलसीदास रत्नावली को अपने साथ चलने के लिए निरंतर आग्रह करते रहे, बाद में रत्नावली बेहद क्रोधित मन से धिक्कारते हुए बोली -
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ! नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।
अर्थात् कि तुम मेरे इस हड्डी मांस के शरीर के प्रति जितना तुम्हारा प्रेम है, उसका आधा भी स्नेह तुम्हारा प्रभु राम के लिए होता तो तुम भवसागर पार कर लेते। तुलसीदास की इस प्रकार से अवहेलना ने उनकी दशा और दिशा दोनों ही बदल कर रख दी। इस अवेहलना के तत्पश्चात वह प्रभु श्री राम की भक्ति में ऐसे लीन हुए कि वह प्रभु राम के ही हो गए।]
उसी तरह धन का मोह होता है। सन्तान का मोह होता है। अच्छा पुत्र-मोह भयंकर होता है। पुत्रमोह का सबसे प्रसिद्द उदाहरण कौन है ? धृतराष्ट्र। धृतराष्ट्र शरीर से भी अंधे थे और बुद्धि से भी अंधे थे। तो क्या है ? पुत्र से मोहित थे। मेरा दुर्योधन , मेरा दुर्योधन , मेरा दुर्योधन कहते रहे , यह जानते हुए भी कि दुर्योधन सब अधर्म कर्म कर रहा है। सब अनैतिक कर्म कर रहा है। सब जान रहा है , पर मान नहीं पा रहा है। क्यों ? पिता पुत्र से मोहित है। मोह से जब हम अंधे हो जाते हैं तब हम सत्य को देख नहीं पाते हैं। हम घर-गृहस्थी में रहते हैं , हमको पता है। कैसे माता -पिता संतान के मोह में मोहित होकर बिल्कुल अंधे हो जाते हैं। ऐसे में उस संतान का लालन -पालन ठीक से नहीं होता है। सही लालन-पालन तो विवेक से ही होता है। जब आप स्पष्ट रूप से देख्नेगे तभी उसका लालन -पालन ठीक होगा। तो कितने प्रकार के मोह होते हैं - जैसे कि ये Gender Attraction लैंगिक अट्रैक्शन। स्त्री-मोह है, पुरुष मोह है , धन मोह है , संतान मोह है , या फिर नाम-यश में भी मोह हो सकता है !! यह मोह गर्दन में माला पहनने में आसक्ति या ऐषणा सबसे खतरनाक है , यह भी एक सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति को बिल्कुल अँधा बना देता है। यहाँ शास्त्र हमसे कह रही है - यह शरीर मोह का आस्पद है। यह मोह के उत्पन्न होने का स्थान है। पहले तो आप अपनेआप से ही मोहित हो गए हैं। आप अंधे हो गए हो , आप सत्य को नहीं देख रहे हो- जब आप यह कहते हो कियह शरीर मैं हूँ और ये मेरा शरीर है ! इसका सम्मान मेरा सम्मान है , और इसका अपमान मेरा अपमान है ? अपने ही स्थूल शरीर के ऊपर आप इतने मोहित हो गए हो , कि आपको सत्य दिखाई ही नहीं दे रहा है। इसलिए सत्य के अन्वेषण में यह शरीर का मोह बहुत बड़ी बाधा बन जाती है। हम इस आधार कार्ड वाली पहचान को ही सत्य मानकर चल रहे हैं कि - मैं का मतलब यह शरीर ही है। प्रश्न यह है कि इस 'मैं ' का मतलब स्थूल शरीर है क्या ? हमने देखा था कि यह शरीर तो एक बुलबुले के समान है , जो कभी भी फूट सकता है। इस बुलबुले के अंदर क्या है ? ये हमने देखा - -मज्जा, अस्थि, मेद, मांस, रक्त, चर्म और त्वचा- आदि से बने हुए तथा चरण, जंघा, वक्षःस्थल (छाती), भुजा, पीठ और मस्तक आदि अंगोपांगों से युक्त है। जो की सतत बदल रहा है। उसका रूप बदल रहा है , कभी भी टूटने वाला है। इसके अंदर अपना मैं इससे सटकर बैठा है। जैसे ही हम शरीर को मैं मान लेते हैं - यही से सारा व्यवहार शुरू हो जाता है। हम कभी यह प्रश्न नहीं करते कि क्या मैं यह शरीर हूँ ? M/F शरीर का देहाध्यास ही क्या मेरी असली पहचान है ? विपरीत लिंग के प्रति प्राकृतिक रूप से - स्वाभाविक आकर्षण हो जाता है। और वहीँ से सारा संसार फैलता है। हम अपने स्थूल शरीर को मैं मान कर , दूसरे प्रकार के स्थूल शरीर के साथ अपना सम्बन्ध बना लेते हैं। और वहीँ से पूरा जाल फैलता जाता है। ये मेरा पति है , ये मेरी पत्नी है - ये मेरे बच्चे हैं। मेरा घर-गृहस्ती मेरी सम्पत्ति। ये सब मैं और मेरा यहाँ से फैलता है। इसका शुरुआत इस स्थूल शरीर से ही है। ये सारा जाल फ़ैल रहा है। पहले हम इस स्थूल शरीर को मैं मान लेते हैं , कभी प्रश्न नहीं करते हैं। फिर दूसरा भी हमको वैसा ही दिखाई देता है। दूसरे को भी हम स्थूल दृष्टि से ही देखते हैं। मोहित हो जाते हैं। संबंध बन जाता है। विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध बन जाते हैं - सारे जो रिश्ते-नातों का जो जाल है - मेरा बेटा -पुतोह, बेटी -दामाद , पोता -पोती , नाती -नतिनी , वाला जाल यहीं से फैलता है। कोई कोई आशिक और माशूक भी बन जाते हैं। इसीलिए स्थूल शरीर को मोहास्पद कहा गया है। यह मोह का अधिष्ठान है , आस्पद है। तो शास्त्र में कहा गया - 'अहं मम इति प्रथितं शरीरं' मोहास्पदं स्थूलम् इति ईर्यते बुधैः !' इसीको स्थूल शरीर कहा गया है , सभी लोग इस स्थूल शरीर पर मोहित है। एक बार मोहित हो जाते हो , तो आप अंधे हो जाते हो। उसके बाद हमको सत्य दिखाई नहीं देता।
(25.36 मिनट) ये स्थूल शरीर किन चीजों से बनी हुई है ? आपने पंच तन्मात्रा का नाम सुना होगा। पंचतन्मात्राएँ परस्पर मिलकर पंचभूत हो जाते है। पंचतन्मात्रएँ कौन-कौन से हैं ? आकाश है , वायु है , अग्नि है , जल है , और पृथ्वी है। ये पंचतन्मात्राएँ है , ये सूक्ष्म तन्मात्राएँ जो हैं , वे परस्पर मिलकरके स्थूल हो जाते हैं। फिर वो पंचभूत बन जाते हैं , और पंचभूत से ही सबकुछ यहाँ पर बना हुआ है। तो ये स्थूल शरीर किससे बना हुआ है ? नभः -नभस्वत्-दहन-अंबु-भूमयः सूक्ष्माणि भूतानि भवन्ति तानि, परस्परांशैः मिलितानि भूत्वा स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतवः। नभो मतलब आकाश ,नभस्वत् वायु है -दहन माने अग्नि , अम्बु है - माने जल है। और भूमि है -पृथ्वी है। 'सूक्ष्माणि भूतानि भवन्ति तानि' - ये जो पाँच सूक्ष्मतन्मात्राएँ हैं - वे 'परस्परांशैः मिलितानि भूत्वा स्थूलानि च स्थूलशरीरहेतवः' ये एक दूसरे से मिल जाती हैं। अगर अंग्रेजी में कहें तो जो Simple- सरल हैं वे Compound या यौगिक बन जाती हैं। उनके मिलने की कुछ Technical Ratios- तकनीकी अनुपात हैं। इस प्रकार तन्मात्राएँ परस्पर मिलकर करके इस स्थूल शरीर का कारण बन जाती हैं। ये स्थूल शरीर पंचभूतों से बना हुआ है। ये सारे जितने भी स्थूल शरीर हमको दिखाई देता है , सब पंचभूतों से बना हुआ है। तो इस स्थूल शरीर और इन्द्रियों के माध्यम से बनाहुआ ये जो सम्पूर्ण विश्व प्रपंच जो सामने दिखाई देता है। ये सब किन चिजों से बनी हुई है ? ये टेबल है , ये बिल्डिंग हैं - पेड़-पौधे हैं ये भी पंचभूतों से बने हुए हैं।
अर्थ:-आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी- ये सूक्ष्म भूत हैं। इनके अंश परस्पर मिलने से स्थूल होकर स्थूल शरीर के हेतु होते हैं और इन्हीं की तन्मात्राएँ भोक्ता जीव के भोग रूप सुख के लिये शब्दादि पाँच विषय हो जाती हैं। विवेकचूडामणि के श्लोक ७५ और ७६ में आदि शंकराचार्य जीव और शरीर की रचना को अत्यंत सूक्ष्म और दार्शनिक दृष्टिकोण से स्पष्ट करते हैं। यहाँ पर पंचमहाभूतों और उनकी तन्मात्राओं के माध्यम से स्थूल शरीर की उत्पत्ति की व्याख्या की गई है, जो वेदान्त दर्शन के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है। श्लोक ७५ में कहा गया है कि आकाश (नभ), वायु (नभस्वत्), अग्नि (दहन), जल (अम्बु) और पृथ्वी (भूमि) — ये पाँच सूक्ष्म भूत होते हैं। 'सूक्ष्म' का अर्थ यहाँ यह है कि ये इन्द्रियगोचर नहीं होते, अर्थात् इन्हें हम प्रत्यक्ष रूप से देख या छू नहीं सकते, परंतु इनसे उत्पन्न होने वाले प्रभावों को अनुभव किया जा सकता है। आकाश से शब्द, वायु से स्पर्श, अग्नि से रूप, जल से रस और पृथ्वी से गंध — ये पाँच विषय उत्पन्न होते हैं। ये पंचमहाभूत पहले सूक्ष्म रूप में रहते हैं और फिर इनकी रचनात्मक प्रक्रिया के द्वारा वे स्थूल रूप में परिवर्तित होते हैं। इनका यह सूक्ष्म स्वरूप समस्त भौतिक जगत की आधारशिला है।
फिर श्लोक ७६ में बताया गया है कि ये पंचमहाभूत परस्पर मिलकर, एक-दूसरे के अंशों से युक्त होकर स्थूल रूप ग्रहण करते हैं। इस प्रक्रिया को 'पंचीकरण' कहते हैं। पंचीकरण का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक स्थूल भूत में अन्य चार भूतों के अंश भी रहते हैं, जिससे यह भौतिक जगत की विविधता और स्थूलता उत्पन्न होती है। इन स्थूल पंचमहाभूतों के मेल से जो शरीर बनता है, वही स्थूल शरीर कहलाता है। यह स्थूल शरीर ही जीव के कर्मों का क्षेत्र बनता है, जहाँ वह भोग और अनुभव करता है। यही शरीर सुख-दुख, शीत-उष्ण, राग-द्वेष आदि का अनुभव करने का साधन बनता है।
आगे कहा गया है कि इन पंचमहाभूतों से उत्पन्न होने वाली तन्मात्राएँ — शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध — जीव के भोग के विषय बनती हैं। शब्द आकाश का गुण है, स्पर्श वायु का, रूप अग्नि का, रस जल का और गंध पृथ्वी का। ये विषय जब इन्द्रियों से संयोग करते हैं, तब जीव को सुख और दुःख का अनुभव होता है। जीव की चित्तवृत्तियाँ इन विषयों की ओर आकर्षित होती हैं, और यह आकर्षण ही बन्धन का कारण बनता है। सुख की कामना और दुःख से बचने की प्रवृत्ति ही संसार में जीव को बार-बार जन्म लेने को बाध्य करती है।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि शंकराचार्य इन श्लोकों के माध्यम से केवल स्थूल शरीर की भौतिक रचना का वर्णन नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे इसके पीछे छिपी हुई आत्मज्ञान की गूढ़ दृष्टि को भी सामने ला रहे हैं। वे यह दिखाना चाहते हैं कि यह स्थूल शरीर भी अंततः पंचमहाभूतों से बना है, जो स्वयं परिवर्तनशील और नश्वर हैं। जिस सुख के लिए जीव इन्द्रियों द्वारा विषयों में आसक्त होता है, वह भी पंचभौतिक तत्वों से उत्पन्न है और इसलिए क्षणिक और असत्य है। इस प्रकार, इस ज्ञान से साधक के भीतर वैराग्य उत्पन्न होता है और वह जानने लगता है कि सत्य स्वरूप आत्मा इन पंचभूतों से परे है।
इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि स्थूल शरीर, विषय, इन्द्रियाँ, और उनका पारस्परिक संबंध सभी माया के अधीन हैं। माया पंचमहाभूतों की रचना करती है, और जीव को इस पंचभौतिक शरीर से तादात्म्य करके संसार में बाँध देती है। परन्तु जब जीव यह जान लेता है कि ये सब क्षणिक हैं और आत्मा इनसे भिन्न है, तब वह इस शरीर और विषयों को साधन रूप में देखता है, भोग के साधन के रूप में नहीं। इस प्रकार इन श्लोकों का उद्देश्य साधक को यह बोध कराना है कि शरीर पंचमहाभूतों से बना हुआ है, और इसके विषय भी उन्हीं से उत्पन्न होते हैं। अतः न तो शरीर सत्य है और न ही इन्द्रियजन्य सुख। जो वस्तु नित्य नहीं है, वह आत्मा नहीं हो सकती। इस विवेक से ही आत्मज्ञान का आरम्भ होता है। यही विवेकचूडामणि का लक्ष्य है — जीव को आत्मा और अनात्मा के बीच भेद का स्पष्ट बोध कराना, ताकि वह आत्मा को जानकर मोक्ष प्राप्त कर सके। ]
(28.06 मिनट) वही पंचतन्मात्राएँ फिर विषयों में भी होते हैं। तो हमारा स्थूल शरीर पंचभूतों से बना है , हमारी इन्द्रियाँ जो हैं वे भी पंचभूतों से ही बनी हुई हैं। इन्द्रियाँ जिन विषयों को ग्रहण कर रही हैं, वह भी पंचभूतों का बना हुआ है। मात्रास्तदीया विषया भवन्ति,शब्दादयः ' हमारी ज्ञानिन्द्रियों के शब्दादि जो पाँच विषय हैं, -रूप , रस, शब्द , स्पर्श और गंध। इन्हीं पाँच विषयों के अतिरिक्त हम कुछ भी अनुभव नहीं कर रहे हैं। हम जिसको जगत कह रहे हैं - येभी पांच इन्द्रियों तक सीमित है। हमारी पांच इन्द्रियां जो दिखा रही हैं -हम उतना ही देख रहे हैं। पाँच इन्द्रियों की सीमा के बाहर हमें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। अपने अप्प में यह एक बहुत विचारणीय प्रश्न है। उस दायरे के बाहर कुछ है या नहीं ? ये किसीको पता नहीं है। इसीको हम भौतिकवाद -Materialism कहते हैं। भौतिकवाद शब्द कहाँ से आया ? संस्कृत शब्द है - ये सब कुछ पंचभूतों से बना है। जो आधुनिक Modern Physical Science है -या आधुनिक भौतिक विज्ञान है ; और जितने भौतिक विज्ञानी हैं , उनकी धारणा में जो भी आँखों से दिखाई देता है , वही जगत है। जो इन्द्रियों के परे है -उसको वे मानते ही नहीं हैं। इन्द्रियों से जिस चीज की अनुभति नहीं होती पाश्चात्य वैज्ञानिक उसको मानते ही नहीं है। लकिन क्या सचमुच ये विश्वब्रह्माण्ड इन्द्रियों से दिखने वाला जितना जगत है, उतने तक ही सीमित है ? नहीं ! यहाँ ऐसे अनेक स्तर हैं -जिनका हमको ज्ञान ही नहीं है। वो सब है लेकिन वे इन्द्रियों से बाहर हैं। सूक्ष्म स्तरों में कितने ऐसे लोक हैं - जो हमें इन इन्द्रियों दिखाई देने वाली नहीं हैं। तो आधुनिक भौतिक विज्ञान जो बहुत गर्व करता है कि हमलोग बड़े rational -तर्क-संगत हैं। क्या आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान की सोच सचमुच में - Scientific है ? जो कहते है कि मुझे इन्द्रियों से जितना दिखाई देता है - बस उतना ही सत्य है। स्वामी विवेकानन्द इसीको -वैज्ञानिक अंधविश्वास Scientific superstition' कहते थे। ऐसा कहना कि जगत सिर्फ उतना ही है जितना इन्द्रियों से दीखता है। पाश्चात्य वैज्ञानिक इन्द्रियों से परे जो सत्य है , जिसकी अनुभूति हमारे ऋषियों ने हजारों साल पहले कर ली थी - उस इन्द्रियातीत सत्य को आधुनिक भौतिक विज्ञानी सत्य नहीं मानते। कारण क्या है ? वे साधन चतुष्टय जो - 10 % होना भी आत्मज्ञान की अनिवार्य शर्त है। उतना भी संयम पालन करने का साहस उनमें नहीं है। वहीँ वेदांत कहता है, ये इन्द्रियाँ जो दिखा रही हैं -वे सत्य नहीं मिथ्या हैं। असत भी नहीं हैं -लेकिन मिथ्या हैं। (32.22 मिनट) क्या इन इन्द्रिय जगत के परे , कितने ऐसे लोक विद्यमान हैं , जिसका पता आधुनिक विज्ञान को नहीं है। स्वामी विवेकानन्द पाश्चात्य वैज्ञानिकों के गर्व को ही Scientific superstition' कहते हैं। आप विज्ञान के विद्यार्थियों ने सुना होगा Reductionism ? You reduce everything to matter, you reduce everything to sense, this itself is a biggest superstition , ये मान लेना की जगत बस इतना ही है - ये अपनेआप में एक अन्धविश्वास है। सत्य नहीं है। हमारे ऋषियों की अनुभूति है , कितने ऐसे लोक हैं - जो इन्द्रियातीत हैं। हमारे वेदांत में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को 'चतुर्दश भुवनानि' कहते हैं। Fourteen Planes of Existence- या अस्तित्व के चौदह स्तर कहते हैं। और उन 24 स्तरों वाले अस्तित्व में मानव-चेतना का स्तर भी अस्तित्व का एक स्तर है। मनुष्य-लोक केवल एक लोक है। भौतिक विज्ञान की दौड़ अभी मनुष्य-लोक तक ही है , वह भी जो इन्द्रियों के सिमा के भीतर है। वेदों में कहे -बाकी 23 स्तरों की उनको धारणा ही नहीं है। यह बहुत बड़ा अंधविश्वास है कि नहीं ? यह सोचना कि इन्द्रियों से जितना दिखाई दे रही है उतना मात्र ही जगत है।जबकि इन्द्रियां जो हमें दिखा रही हैं -वे तो केवल बून्द मात्र हैं। ये विषय Reductionism ? यहाँ आया कहा से ? इन्द्रियों से जिस जगत को हम देख रहे हैं वह भी पंचभूतों से बना हुआ है। तो ये जगत क्या हुआ ? ये पंचभौतिक जगत है। जो भी हम इन्द्रियों से अनुभव कर रहे हैं , ये सब पंचभौतिक हैं। ये पंचभूत ही हमको विभिन्न -विभन्न आकृति में दिखाई दे रहा है। ये पंचभूत अभी अजय के रूप में मेरे सामने खड़ा है। ये एक रूप बन गया है , फिर ये रूप पिघल जायेगा। ये रूप चला जायेगा। (35.22 मिनट) लेकिन पंचभूत अपनी जगह पर है। They form into different configuration- वे अलग-अलग विन्यास में भिन्न भिन्न रूप ग्रहण करते हैं। नाम-रूप का आना और जाना लगातार चल रहा है। पंचभूत ही अलग अलग रूप ग्रहण कर रहे हैं। forms are appearing and disappearing' रूप प्रकट और अदृश्य हो रहे हैं, रूप बन रहे हैं और गायब हो रहे हैं। रूप प्रकट और अदृश्य हो रहे हैं,रूप प्रकट और अदृश्य हो रहे हैं। अनादि -अनंत काल तक ये सतत चल रहा है। ये पूरा-सृष्टि चक्र सतत चल रहा है। एक एक बुलबुले के समान ये प्रकट हो रहा है अदृश्य हो रहा है। प्रकट हो रहा है अदृश्य हो रहा है.प्रकट हो रहा है अदृश्य हो रहा है। तो इस प्रकार का ये स्थूल शरीर पंचभूतों से बना हुआ है। पंचतन्मात्राएँ एक दूसरे से मिलकर स्थूल होकर , पंचभूत हो जाते हैं। और ये पंचभूत इस स्थूल शरीर का कारण बन जाती है। स्थूल शरीर से दिखने वाले जितने विषय हैं , वे भी सब पंच भौतिक हैं। यहाँ तक हम आ गए। (36.46 मिनट) अब जो दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा आने वाला है ,देखिये - हमारे सारी समस्यायों का मूल यहीं पर है। ध्यान से सुन लीजिये।
अर्थ:-जो मूढ इन विषयों में रागरूपी सुदृढ़ एवं विस्तृत बन्धन से बँध जाते हैं, वे अपने कर्मरूपी दूत के द्वारा वेग से प्रेरित होकर अनेक उत्तमाधम योनियों में आते-जाते हैं।
यह श्लोक विवेकचूडामणि का ७७वाँ श्लोक है, जिसमें श्री आदि शंकराचार्य ने संसार में रत, अविवेकी जीवों की दशा का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। इस श्लोक में कहा गया है कि जो मूढ़ – अर्थात अज्ञान के कारण विवेकहीन, भेद न कर सकने वाले व्यक्ति – इन्द्रिय विषयों में आसक्त हो जाते हैं, वे रागरूपी एक अत्यंत सुदृढ़ और कठिनता से छूटने वाले बन्धन में जकड़े हुए होते हैं। यह बन्धन इतना गहरा होता है कि मनुष्य स्वयं उसकी पकड़ से बाहर निकलने में असमर्थ होता है। ‘राग’ अर्थात विषयों के प्रति आसक्ति ही वह सूक्ष्म परंतु शक्तिशाली डोरी है, जो जीव को बार-बार जन्म और मरण के चक्र में घसीटती रहती है।
यहाँ 'सुदुर्दमेन रागेन' कहा गया है – अर्थात यह राग इतना दुर्दान्त है कि इसे जीतना सामान्य मनुष्य के लिए अत्यंत कठिन है। यह राग इन्द्रियों के द्वारा मन को विषयों की ओर खींचता है – रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द इन पांच विषयों में लिप्त होकर जीव स्वयं को उनसे एकीकृत कर लेता है। जैसे मकड़ी अपने ही जाले में उलझ जाती है, वैसे ही यह जीव भी अपनी राग-आसक्ति से निर्मित संसार-जाल में फँस जाता है। शंकराचार्य कहते हैं कि ऐसे जीव अपने ही कर्मों के अनुसार – 'स्वकर्मदूतेन' – यानि कर्मरूपी दूत द्वारा – गति प्राप्त करते हैं। कर्म ही उन्हें ऊँची या नीची योनियों में ले जाता है। यह गति 'जवेन नीताः' – तीव्रता से होती है, जैसे कोई दूत बलपूर्वक किसी को पकड़कर कहीं ले जाए। यह दर्शाता है कि कर्म का फल टालने योग्य नहीं होता – जीव की गति उसी के अनुसार निर्धारित होती है।
‘आयान्ति निर्यान्ति’ – अर्थात वे बार-बार जन्म लेते हैं और मरते हैं। यह जन्म-मरण का चक्र अनादि है और जब तक राग रूपी बन्धन नहीं टूटता, तब तक यह क्रम चलता रहता है। 'अध ऊर्ध्वमुच्चैः' – इसका तात्पर्य है कि जीव कभी अधम योनियों में गिरता है, जैसे तामसिक प्रवृत्तियाँ युक्त जीवन, पशुयोनि, नरक आदि, और कभी ऊर्ध्व – अर्थात श्रेष्ठ योनियाँ, जैसे मनुष्य योनि या स्वर्गादि। लेकिन यह उन्नयन या पतन स्थायी नहीं होता, क्योंकि दोनों ही कर्माधीन हैं। इस प्रकार यह श्लोक हमें यह बोध कराता है कि जब तक राग की शृंखला नहीं टूटती, तब तक आत्मा संसार के प्रवाह में बहती रहती है। केवल विवेक, वैराग्य और आत्मज्ञान ही इस राग को छिन्न कर सकता है। इसलिए उपदेश है कि विषयों में रत न होकर, अपने चित्त को आत्मदर्शन की ओर मोड़ो, अन्यथा कर्म के दास बनकर तुम्हारी गति कभी स्थिर नहीं होगी। यही शाश्वत सत्य है, और यही आत्मकल्याण का मार्ग है। ]
शंकराचार्य जी इस 'मूढ़' शब्द का प्रयोग अक्सर करते हैं , उनको यह मूढ़ शब्द क्या बहुत प्रिय था? मूढ़ मनुष्य से अभिप्राय यह है कि जो मगरमच्छ को (या लाश को) लकड़ी का लट्ठा समझकर उस पर चढ़कर नदी पार करने की चेष्टा करता है। जो एक को दूसरा समझ लेता है - रज्जु को सर्प समझ लेता है - वो बेवकूफ नहीं है , वो मूढ़ है ; उसकी मत मारी गयी है ? उसी प्रकार भज गोविंदम स्त्रोत्र में क्या है -भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते । प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे ॥दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायाताः ।कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ॥१॥ भज गोविन्दं मूढमते - अर्थात हे भज गोविन्दं- हे मूढ़ सत्य को जान ,सत्य को जान, सत्य को जान, सत्य को जान ! समय निकला जा रहा है , सत्य को जान ले। ईश्वर को खोजो मत - उसको पहचान लो। श्रद्धा का अर्थ है -आत्मविश्वास ! और आत्मविश्वास का अर्थ है , ईश्वर में विश्वास ! " जब मैं था , तब हरि नहीं , अब हरि हैं - मैं नाहीं। प्रेमगली अति शांकरी , ता में दो न समाहीं। "
समय रहते -सत्य को जान ले , ये मनुष्य शरीर मिला ही है इस सत्य को जान लेने के लिए। हे मूर्ख ! सत्य को जानले ! ये मूढ़ शब्द उनको बहुत प्रिय है। यहाँ पर शंकराचार्य जी कहते हैं -ये एषु मूढा:, ये जो मूर्ख व्यक्ति है - मनुष्य को ही मूर्ख व्यक्ति क्यों कह रहे हैं ? क्योंकि वह 'विषयेषु बद्धाः' - विषयों से बंधा हुआ है ! यह बहुत ही विचारणीय प्रश्न है। मूढ़ व्यक्ति वो है -जो विषयों में आबद्ध है। जो विषयों के साथ (ऐषणाओं के साथ) बंध गया है ! देखिये ये हमारी ही परिस्थिति है। ये हमारी ही वर्णन चल रहा है कि -हम कैसे विषयों में बंधे हुए हैं। 'ये एषु मूढा: विषयेषु बद्धाः' मूर्ख व्यक्ति विषयों में बंधा हुआ है। सिर्फ विभिन्न प्रकार के विषयों में ही नहीं बंध गया है , व्यक्तियों में भी बंध गया है। जब हमारी दृष्टि साफ नहीं होती , जब हमारे दृष्टि स्पष्ट नहीं होती अविवेक के कारण -हम कालनेमि को भी महात्मा समझने की भूल कर बैठते हैं। और उस परिस्थितयों और व्यक्तियों के साथ हम बंध जाते हैं। इसके मूल में सिर्फ अविवेक ही कारण है। (40.36 मिनट)
जीवन की सबसे बड़ी भूल : अविवेक या अज्ञान के कारण पहले मनुष्य अपने-आपको को ही स्थूल शरीर समझ लेता है। और इन्द्रिय भोग के विषयों के साथ वो बंध जाता है। उसके मूल में क्या है ? पहले ह, अपने-आप को स्थूल शरीर (M/F ) मानकर ही चलते हैं। जब अपने को पुरुष स्थूल शरीर मान लेते हैं, तो दूसरे स्त्री -शरीर के आकर्षण या मोह में बंध जाता है। इसलिए शंकराचार्यजी कहते हैं - 'ये एषु मूढाः विषयेषु बद्धाः !' अब दूसरा मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है - एक चीज को दूसरा समझ लेने पर - एक चीज को दूसरे से बांधने के बंधन क्या हैं ? अगर किसी को किसी के साथ बांधना हो तो आपको किस चीज की आवश्यकता होगी। रस्सी की ? गाय को अगर खूँटे से बांधना हो तो क्या आवश्यक है ? रस्सी के बगैर तो आप गाय को नहीं बांध सकते हैं। तो किसी चीज को जब दूसरे के साथ बांधना हो तो , रस्सी की आवश्यकता होती है। तो ये कौन सा रस्सी है -जिसके द्वारा मनुष्य विषयों से बंध जाता है ? जिसके कारण वो इन्द्रिय विषयों के साथ और व्यक्तियों (विपरीत लिंगी-opposite sex) के साथ वो बंध जाता है ? वो कौन रस्सी है - तो वो रस्सी है -राग ! राग ! राग ! ये राग ही वह रस्सी है , जिसको हमलोग अंग्रेजी में attachment ' लगाव , आसक्ति , बंधन कहते हैं। मोह होने से ही लगाव (attachment-को संस्कृत में राग कहते हैं। ) हो जाता है। यह राग ही वह अदृश्य रस्सी है - जिससे हम विषयों से बंध जाते हैं। आसक्ति वह अदृश्य रस्सी है जिसके माध्यम से आप विभिन्न वस्तुओं और व्यक्तियों से बंध जाते हैं।attachment is the invisible rope/ attachment is the invisible rope through which you get tied down to the different objects and persons. लिख कर रख लीजिये यही हमारी दैनंदिन जीवन की समस्या है।हर मनुष्य विभिन्न प्रकार के विषयों से और व्यक्तियों से और परिस्थितियों-परिवेश से बंधा हुआ है। लेकिन कैसे बंधा हुआ है ? राग रूपी अदृश्य रस्सी के साथ बंधा हुआ है। किसी ने इस रस्सी को देखा है ? गाय को खूँटे से बांधने वाला रस्सी तो हमको दिखाई देता है। लेकिन ये रस्सी ऐसा है , जो हमको दीखता भी नहीं है लेकिन है। राग वह अदृश्य रस्सी है जिसके द्वारा हम दूसरे व्यक्ति , दूसरे विषयों और विभिन्न प्रकार के परिवेश के साथ हम बंध जाते हैं। और ये रस्सी कैसी है ? शंकराचार्य जी बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं - रागोरुपाशेन सुदुर्दमेन ! -रागोरुपाशेन - राग-उरु-पाशेन, सुदुर्दमेन - अतिदु:खेन दमयितुं शक्येन। ये राग जो पाश है - पाश मतलब है रस्सी। राग या attachment रस्सी के समान है। ये पाश यानि रस्सी कैसा है ? 'ऊरु पाश' अत्यंत बलवान रस्सी है। रस्सी इतनी मजबूत है कि इसको काटना बड़ा -सुदुर्दम या बहुत कठिन है। स्थूल रस्सी यदि बहुत मोटा भी है - तो उसको हम काट सकते हैं ; लेकिन यह रागरूपी जो अदृश्य रस्सी है यह इतना मजबूत है कि इसको काटना बड़ा -सुदुर्दम है - बड़ा कठिन है। (44.12 मिनट) और ये ऊरु है - मतलब बड़ा मजबूत है। राग रूपी अदृश्य रस्सी इतना मजबूत है - इसको काटना बड़ा ही कठिन है। ये आसानी नहीं कटता। हमारे दैनंदिन जीवन समस्या का मूल यहाँ पर आता है। शास्त्र यहाँ यह बता रही है कि मूढ़ व्यक्ति जो है -अपने अविवेक के कारण , मोह के कारण , अंधेपन के कारण अपनेआप को जो यह मान बैठा - कि मैं यह स्थूल शरीर (M/F) हूँ , और अपनेआप को स्थूल शरीर मानकर दूसरे व्यक्तियों के आकर्षण में बंध जाता है , मोह में फंस जाता है। कैसे बंध जाता है - राग रूपी अदृश्य रस्सी से बंध जाता है। [अविद्या -अस्मिता -राग-द्वेष -अभिनिवेश ' पंचक्लेश।]और एक बार जब आप इस अदृश्य रस्सी से बँधजाते हो तो क्या होता है ?
'आयान्ति निर्यान्ति अध: ऊर्ध्वम्उच्चै: स्वकर्मदूतेन जवेन नीता:' (45.33 मिनट) ये जो राग रूपी रस्सी से हम इस संसार में बंध जाते हैं ; तो उसका परिणाम क्या होता है ? आना-जाना,आना-जाना,आना-जाना ! मतलब ? पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् । इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥८॥ भज …ये चलता ही रहता है। जब तक आप बंधे हुए हैं , एक शरीर गया फिर दूसरा शरीर , तीसरा गया तो चौथा शरीर। ये चक्र फिर चलता ही रहता है - 'अधः ऊर्ध्वं ' का मतलब क्या है ? कभी आप निचले शरीर को प्राप्त करते हो कभी , श्रेष्ठ शरीर को प्राप्त करते हो। किस कारण ? 'स्वकर्मदूतेन जवेन नीताः।' अपने कर्म और उसके फल के अनुसार हमें उच्च या अधः शरीर की प्राप्ति होती है। किसी ने इस जन्म में यदि पशुतुल्य कर्म क्या तो पशु योनि में जन्म बन जाता है। किसी ने अच्छा काम किया हो तो ऊँचे योनियों में - जैसे देव, गंधर्व, यक्ष ऐसे ऊँचे योनियों में जन्म होता है। सभी योनियों में मनुष्य शरीर सबसे महत्वपूर्ण है। ' जन्तूनां नरजन्म दुर्लभं ' जीवों को प्रथम तो नरजन्म ही दुर्लभ है, उससे भी पुरुषत्व और उससे भी ब्राह्मणत्वका मिलना कठिन है;ब्राह्मण होने से भी वैदिक धर्मका अनुगामी होना और उससे भी विद्वत्ताका होना कठिन है। (यह सब कुछ होने पर भी) आत्मा और अनात्माका विवेक सम्यक् अनुभव –ब्रह्मात्मभाव से स्थिति और मुक्ति-ये तो करोड़ों जन्मों में किये हुए शुभ कर्मों के परिपाकके बिना प्राप्त हो ही नहीं सकते। (आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति- र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते।। 2 ।।) मनुष्य योनि छोड़करके तो कितनी योनियाँ है - अपने अपने कर्मों के अनुसार योनियों की प्राप्ति होती है। इसके मूल में क्या है ? राग !
राग के द्वारा हम इस संसार में बंध जाते हैं। राग एक ऐसा अदृश्य रस्सी है जो दीखता नहीं है , किन्तु इसके द्वारा ही हम दूसरे व्यक्तियों और विषयों के साथ बंध जाते हैं ; और यह बहुत ही मजबूत रस्सी है जिसको काटना बहुत कठिन है। इस राग के कारण ही हमलोग जीवन में सभी दुखों का अनुभव करते हैं। सभी दुःखों का मूल ये राग रूपी अदृश्य रस्सी ही है। हमलोग एक बार राग रूपी बीमारी या attachment की बीमारी से ग्रस्त हो जाएँ ? ये कहना गलत है - हम तो अपने स्थूल शरीर को ही मैं मानकर उससे पहले से ही ग्रस्त हैं। और इसीलिए हम त्रस्त भी हैं। हम ग्रस्त भी हैं। राग के कारण ही हम विभिन्न व्यक्तियों , वस्तुओं , परिस्थितियों से हम बंधे हुए हैं। और अब वो व्यक्ति , परिस्थितयां और वस्तु हमें नचा रहे हैं। क्योंकि हमें अपने स्थूल शरीर के नाम-रूप से attachment राग हो गया है। इस राग रूपी रस्सी के द्वारा हम बंध गए हैं। और बंध जाने से जन्म-मृत्यु का चक्र अनवरत चलता ही रहता है। यह 'राग रूपी' बीमारी या 'रोग' कितना भयावह है- इसको समझाने के लिए शंकराचार्यजी कुछ उदाहरण दे रहे हैं - क्योंकि यह राग ही हमारे सारे दुखों का कारण है - हमारी मृत्यु का कारण है ! हमारे सर्वनाश का कारण है। ये समझाने के लिए गुरु और शास्त्र हमको पांच उदाहरण दे रहे हैं - (50.19 मिनट)
अर्थ:-अपने-अपने स्वभाव के अनुसार शब्दादि पाँच विषयों में से केवल एक-एक से बँधे हुए हरिण, हाथी, पतंग, मछली और भौर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, फिर इन पाँचों से जकड़ा हुआ मनुष्य कैसे बच सकता है?
[शंकराचार्य कृत विवेकचूडामणि का यह श्लोक अत्यंत प्रभावशाली और गहन उपदेश से युक्त है। इसमें पाँच इन्द्रियों के पाँच विषयों की आसक्ति द्वारा होने वाले पतन को अत्यंत सूक्ष्म और मार्मिक उदाहरणों के माध्यम से समझाया गया है। श्लोक में कहा गया है कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध — ये पाँच विषय हैं, जो क्रमशः कान, त्वचा, आँख, जिह्वा और नाक की इन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण किए जाते हैं। हर एक प्राणी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के कारण इनमें से किसी एक विषय की ओर इतना आकर्षित हो जाता है कि वह उसके कारण अपने जीवन का अंत कर बैठता है।
हरिण का उदाहरण लें। वह मधुर शब्द को सुनकर आकर्षित होता है, विशेषकर वीणा या मृदंग की ध्वनि उसे मोहित कर लेती है।शिकारी इसी प्रवृत्ति का लाभ उठाकर मधुर संगीत बजाते हैं, और हरिण उस ओर खिंचा चला आता है — परिणामतः उसकी मृत्यु होती है। इस प्रकार ‘शब्द’ विषय ने उसे बाँध दिया।
हाथी की प्रवृत्ति ‘स्पर्श’ में होती है। वह मादा हाथी के शरीर के स्पर्श को पाने की लालसा में जाल में फँस जाता है। इस प्रकार ‘स्पर्श’ ने उसे बाँध लिया और उसी की परिणति मृत्यु में हुई।
पतंगा दीपक की लौ के ‘रूप’ अर्थात् दृश्य सौंदर्य की ओर आकर्षित होकर उसमें समा जाता है और जलकर मर जाता है। केवल नेत्रों से देखे जाने वाले रूप के मोह में पड़कर वह अपने प्राण गंवा बैठता है।
मछली ‘रस’ अर्थात् स्वाद की लोभी होती है। काँटे में लगे चारे का स्वाद पाने की लालसा में वह उस चारे को निगल लेती है, और उसी के साथ जीवन भी समाप्त हो जाता है।
भौंरा ‘गंध’ के मोह में पड़ता है। वह फूल की सुगंध से मोहित होकर उसके अंदर समा जाता है, वहीं पर रात हो जाती है और फूल बंद हो जाता है, जिससे वह उसी में बंद होकर मर जाता है।
इन पाँचों उदाहरणों में देखा जाए तो प्रत्येक प्राणी केवल एक-एक विषय के मोह में पड़कर ही अपने जीवन का अंत कर बैठता है। शंकराचार्य यहाँ पर अत्यंत मार्मिक प्रश्न उठाते हैं — जब इन प्राणियों में से प्रत्येक एक ही विषय की आसक्ति से नष्ट हो जाता है, तो मनुष्य जो इन पाँचों विषयों से एक साथ आसक्त है, वह कैसे बच सकता है? मनुष्य के मन में सभी विषयों की अत्यंत गहरी आसक्ति होती है। वह मधुर संगीत, कोमल स्पर्श, सुंदर रूप, स्वादिष्ट भोजन और मनोहर गंध — इन सभी के प्रति आकर्षित होता है। उसकी इन्द्रियाँ इन विषयों की प्राप्ति के लिए निरंतर चेष्टा करती रहती हैं।
यह श्लोक हमें गहराई से यह सिखाता है कि यदि इन विषयों की ओर हम असावधानीपूर्वक आकर्षित होते हैं, तो हमारा अंत भी निश्चित है। अतः विवेकपूर्वक इन्द्रियों का संयम और विषयों के प्रति वैराग्य ही मुक्ति का मार्ग है। यही इस श्लोक का मर्म है।]
यहाँ गुरु उदाहरण दे रहे हैं किबचा केवल एक विषय के प्रति ही है , पर उसी एक विषय में राग होने से उसका जीवन नष्ट हो जाता है। हिरण केवल शब्द में आसक्त होकर बंध जाता है। पर उसकी एक कमजोरी से बंधन में फंस जाता है। कुरंग है हिरण -हिरण की कमजोरी sound . मतङ्ग है हाथी स्पर्श सुख का गुलाम है। हथिनी के स्पर्श सुख -इस राग के कारण वो पकड़ा जाता है। पतंग को दिया की रौशनी या रूप में इतना राग है कि उसमें बंधकर मर जाता है। मीन -मछली का राग स्वाद में है। मछलियों को आप कुछ भी फेंकिए वो खाती रहती हैं। वो स्वाद को Resist - प्रतिरोध नहीं कर पाती हैं। मछली केवल एक विषय-सुख की अदृश्य रस्सी से बंधा हुआ है। और उसके कारण यह प्राणी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। भृङ्गा -है भँवरा ! भँवरा की कमजोरी है गंध। ये जो पाँच पशुओं का उदाहरण दिया गया , ये पशु केवल एक विषय में आसक्ति के कारण मृत्युग्रस्त हो जाते हैं। लेकिन मनुष्य तो पाँचो विषय-सुख में आसक्त है - इसको कौन बचा सकता है ? (1:01: 21) मनुष्य पांचों विषयों में आसक्त है - इस राग के बंधन में मनुष्य बंधा हुआ है। अगर आपको यहाँ चीटियों को बुलाना हो , तो क्या करोगे ? गुड़ रख दो। बड़ा आसान है कि नहीं ? सिर्फ इन पशुओं की कमजोरी क्या है ? ये पता होना चाहिए। पशुओं को पकड़ना कितना आसान है ? लेकिन मनुष्य को पकड़ना तो सबसे आसान है ! क्योंकि मनुष्यों की कमजोरी तो पशुओं से भी जयादा है। जितने पशुओं का उदाहरण दिया गया - तो पशुओं की कमजोरी किसी एक विषय के प्रति है। मनुष्य की कमजोरी तो पाँचो विषयों में है। शब्दादिभि: पंचभि: एव पंच पंचत्वम् आपु: स्वगुणेन बद्धा:; कुरंगमातंगपतंगमीनभृंगा: नर: पंचभि: अंचित: किम्। पंचत्वमापु: माने मृत्यु को प्राप्त करते हैं। मनुष्य पाँचों विषयों से कैसे बँधा हुआ है ? राग रूपी अदृश्य रस्सी से बंधा हुआ है। This is a very profound observation-This is a very deep observation of the birth-death cycle' जन्म-मृत्यु चक्र का यह एक बहुत ही गहन अवलोकन है ! अगला श्लोक और भी महत्व पूर्ण हो जाता है -
अर्थ:-दोष में विषय काले सर्प के विष से भी अधिक तीव्र है, क्योंकि विष तो खाने वाले को ही मारता है, परन्तु विषय तो आँख से देखने वाले को भी नहीं छोड़ते।
विवेकचूडामणि का यह श्लोक अत्यंत गहन और मार्मिक उपदेश देता है। इसमें विषयासक्ति की तुलना काले सर्प के विष से की गई है, और स्पष्ट रूप से यह दिखाया गया है कि विषयों की तृष्णा और उनमें रत रहने की प्रवृत्ति साधक के आत्मकल्याण के मार्ग में कितनी घातक हो सकती है। शंकराचार्य कहते हैं कि विषय अर्थात संसारिक भोगों की लालसा, काले सर्प के विष से भी अधिक तीव्र और विनाशकारी है। सामान्यतः हम यह समझते हैं कि सर्प का विष केवल उस व्यक्ति को मारता है जो उसके काटने का शिकार होता है, परन्तु विषयों का विष केवल उनका भोग करने वाले को ही नहीं, बल्कि मात्र देखने वाले को भी हानि पहुँचाता है।
यहाँ "दोषेण तीव्रो विषयः" वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है। इसका अभिप्राय है कि विषय inherently दोषयुक्त हैं — अर्थात् उनमें जन्मजात दोष है। वे नित्य नहीं हैं, क्षणभंगुर हैं, और उनमें आनंद का भ्रम मात्र है। फिर भी जीव उनके प्रति आसक्त रहता है, और इस आसक्ति से ही जन्म-जन्मांतर के बंधन उत्पन्न होते हैं। विषयों की तृष्णा शांत नहीं होती; जैसे अग्नि में घी डालने से वह और प्रज्वलित होती है, वैसे ही विषयों का सेवन मन को और अधिक व्याकुल करता है। यह एक ऐसा चक्र है जो अंतहीन दुःख का कारण बनता है।
"कृष्णसर्पविषादपि" — यहाँ काले सर्प का विष प्रतीक है अत्यंत घातकता का। यह दर्शाता है कि सांसारिक विषयों का प्रभाव कितना गहरा हो सकता है। परंतु यहाँ जो बात विशेष रूप से चौंकाने वाली है, वह यह कि विष तो केवल उस व्यक्ति को हानि पहुँचाता है जो उसे शरीर में ग्रहण करता है, परन्तु विषय तो इतने घातक हैं कि वे केवल देखने मात्र से भी चित्त को कलुषित कर देते हैं। "द्रष्टारं चक्षुषाप्ययम्" — यह वाक्य बताता है कि विषयों की आक्रामकता इतनी अधिक है कि वे देखने वाले को भी भ्रमित कर देते हैं और साधना से विमुख कर देते हैं।
इस श्लोक का गूढ़ संकेत यही है कि साधक को विषयों के प्रति अत्यंत सतर्क रहना चाहिए। मात्र इंद्रिय संयम ही पर्याप्त नहीं है, अपितु मन का भी निग्रह आवश्यक है। यदि मन विषयों की ओर आकर्षित हुआ, तो भले ही इंद्रियाँ नियंत्रित हों, भीतर का वैराग्य खंडित हो जाता है। इसलिए साधना की प्रथम अवस्था में विषयों से दूर रहना और अंततः उनके प्रति उदासीनता उत्पन्न करना अत्यंत आवश्यक है। यह श्लोक न केवल विषयासक्ति की घातकता को उजागर करता है, बल्कि यह भी इंगित करता है कि आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर चलने वाला साधक यदि विषयों के जाल में फँस गया, तो उसका पतन निश्चित है। अतः विषयों से पूर्ण वैराग्य ही आत्मकल्याण की दिशा में प्रथम और अनिवार्य कदम है।]
कहते हैं - जितने भी विषय हमें इन्द्रियों से दिखाई देते हैं - इसमें तीव्र दोष है , ये सब अत्यंत ही दोषयुक्त है। या हम कह सकते हैं ये अत्यंत ही भयानक हैं ,खतरनाक विष जैसे हैं। आप सोचोगे कि शंकराचार्य जी ऐसा क्यों कह रहे हैं ? रूप-रस-गंध -शब्द-स्पर्श जो पाँच विषय हैं -इसमें खतरा क्या है ? ये बड़े मासूम हैं। बड़ा महत्व पूर्ण अवलोकन है -'दोषेण तीव्र: विषय: कृष्णसर्पविषात् अपि' कृष्ण -सर्प यानि काला नाग ! जो सबसे ज्यादा जहरीला होता है , जिसको हमलोग अंग्रेजी में King Cobra कहते हैं। तो कहते हैं नाग का जो विष है , उससे भी तीव्र विष इन पाँचो विषय रूपी विष का विष है। क्यों ? हम कोई रूप देख रहे हैं - तो उसमें विष कहाँ है ? तो कारण कहते हैं -विषं निहन्ति भोक्तारं, द्रष्टारं चक्षुषा अपि अयम्।' काळा नाग का विष हमारे लिए घातक कब होगा ? जब वो हमें डस लेगा ? उसका विष जब हमारे रक्त में प्रवाहित होगा - तभी हम मरेंगे। इसके पहले नहीं। दूर पर कोई नाग घूमता हो तो उससे क्या हम मरने वाले हैं ? लेकिन ऋषि यहाँ कह रहे हैं , ये जितने विषय हैं न ये ऐसे हैं कि दूर से उसको देखकर ही - मलवा ! रे मलवा ! वो विषय हमें मार देती हैं। दूर से दिखाई देते ही मोह से अँधा या राग से अँधा बना देती है।एक सांसारिक उदाहरण से समझें - आप सबने सुना होगा ? LOVE at first sight ! पहली नज़र में प्यार !! उनसे नजरें मिलीं और जिगर लुट गया ? क्या हुआ ? कोई एक व्यक्ति दूर में खड़ा या खड़ी है ! और आपका उसके प्रति वही सतही दृष्टि का '2 mm व्यू है ' 'दो मिमी का दृष्टिकोण' 2 mm View ' पुरुष के लिए कोई स्त्री हो सकती है , स्त्री के लिए कोई पुरुष हो सकता है। कोई पुरुष दूर से खड़ी महिला को 2 mm वाली दृष्टि से देखा। मोहित हो गया। अभी बात भी नहीं किया। सिर्फ देखने मात्र ये व्यक्ति घायल हो गया , मर गया !! Is this not a fact ? क्या यह सच नहीं है ? उस महिला से बात भी नहीं हुई , वो महिला चली गयी। लेकिन उस 'महिला का 2mm रूप' इसके मन में प्रविष्ट हो गया है। अभी उसका घातक प्रभाव न भी दिखे -पर मौका मिलते ही वह राग में बंध जायेगा। इसकी अब नींद उड़ गयी है , ये अब सो नहीं पा रहा है ? इसका चयन चला गया है , अंतःकरण की शांति चली गयी है। Is this not a fact ? tell me ! क्या यह सच नहीं है?मुझे बताओ! It Is a profound psychological observation ! यह एक गहन मनोवैज्ञानिक पर्यवेक्षण -निरीक्षण है ! ये विषय कैसे हमें दूर से देखने मात्र से हमें मार देती है ! होता है कि नहीं ? कितना बड़ा- psychological observation' मनोवैज्ञानिक पर्यवेक्षण है इस ऋषि दृष्टि का ? इस व्यक्ति ने उस व्यक्ति से बात भी नहीं किया है , कुछ भी नहीं हुआ है ; सिर्फ देखा मात्र है। '2 mm व्यू' उसका मुख्य कारण है। लेकिन क्या हुआ है ? इस व्यक्ति के मन का अपहरण हो गया है। आप ऐसा सोच लीजिये। This person's mind has been hijacked ! इस व्यक्ति का दिमाग हाईजैक कर लिया गया है। उसका मन अपहृत कैसे हो गया ? उसने दूर से ही कोई रूप देख लिया था ? उस विषय के पास भी नहीं गया है। उससे बात भी नहीं किया है - लेकिन उस विषय ने व्यक्ति के मन का अपहरण कर लिया है। This is how the sense objects kill us ! इस प्रकार इंद्रिय विषय हमें मार डालते हैं! इस शख्स का दिमाग हाईजैक कर लिया गया है। पहली नजर में प्यार ? ये केवल समझने के लिए उदाहरण है , लेकिन कीतनि ही प्रकार की वस्तुएं हैं जो हमारे मन पर हावी हो जाती हैं। देखने मात्र से हमारे मन में वही घूमता रहता है या नहीं ? लोग कहते हैं - दादा मन एकाग्र नहीं होता है ? कैसे होगा ध्यान ? विद्यार्थी है तो मन लगाकर पढ़ नहीं पाता है , मन पढाई में लगेगा भी कैसे ? उसने तो किसी को देख लिया है ? या कोई पुराना प्रेम-प्रसंग है ? सभीलोग इस दौर से गुजरते हैं। ये प्राकृतिक Human Behavior है। हम किसी पुराने सदस्य को Judge नहीं कर रहे हैं ? हम सिर्फ मानव- स्वभाव का अध्यन कर रहे हैं।सभी मनुष्यों के साथ ऐसा होता है। हमलोग उसकी समस्या के तहतक जाकर उसे समझने का प्रयास कर रहे हैं। पढ़ाई में ध्यान नहीं लग रहा है ? तो उसका कारण यही है कि मन में कुछ और घुसा हुआ है। मन में कोई भी चीज घुसी हुई रहे तो मन एकाग्र कैसे होगा ? क्योंकि मन का तो अपहरण हो गया है। कोई एक व्यक्ति है , कोई एक विषय है जिसने उसके मन का अपहरण कर लिया है। उसका मन उसके हाथ में ही नहीं है। अब वो अपने मन को एकाग्र कैसे करेगा ? तो ऋषि शंकराचार्यजी की ये कितनी दृष्टि गहन निरीक्षण दृष्टि है ? तो दिखिए ये इन्द्रियविषय ऐसे हैं -जो दूर से ही हमें मार देती हैं। सर्प का जो विष है , वो काटने से मारता है। लेकिन विषय ऐसे हैं जो दूर से देखने पर ही मार देते हैं। मार देने का मतलब क्या हुआ ? उसके मन का अपहरण कर लेती हैं। फिर उसकी शांति चली जाती है , वो बेचैन रहने लगता है , उसकी नींद चली जाती है। अपने दूर से किसी के व्यवहार को देखा - और वो व्यवहार आपको घण्टों परेशान किये रहता है। मन में घंटों यही चलता रहता है। हो रहा है कि नहीं ? यह सब क्यों हो रहा है ? इसके मूल में अविवेक (अविद्या) है ! अपने स्थूल शरीर को ही मैं समझ लेना और उसमें आसक्त हो जाना इसका मुख्य कारण है। इसके मूल में अविवेक है। एक विवेकी के साथ ऐसा नहीं होगा। विवेकी जिस किसी विषय को देखेगा वो उसके मन पर प्रभाव नहीं डाल सकता। अपने को स्थूल शरीर समझने वाले अविवेकी का मन सब समय प्रभावित है , प्रलोभित है। विषयों को दूर से देखने मात्र से ये विषय हमारे मन का अपहरण कर लेते हैं। विषय हमको तभी मार सकता है , जब हम अविवेकी हों। शरीर को सत्य और आत्मा को मिथ्या समझते हों। अभी हमारे पास '2 mm व्यू' वाला अविवेकी दृष्टिकोण है। इसको हमेशा याद रखिये क्योंकि -इसका हमें निरंतर अभ्यास करना है। As long as you have 2 mm view of human beings- you are gone ! -जब तक आपके पास मनुष्यों को देखने की क्षमता मात्र "2 मिमी है" -तो आप विषयों में चले गए! केवल मनुष्य ही नहीं अगर Sunset देखने का भी गहरी दृष्टिकोण होगा , तो दृश्य कुछ और ही होगा। और तब इन किसी भीचीजों से मोहित नहीं होते हैं। यहीं हमलोग रुक जाते हैं - !! ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!