इस ब्लॉग में व्यक्त कोई भी विचार किसी व्यक्ति विशेष के दिमाग में उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है! इस ब्लॉग में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है ! ब्लॉग में वर्णित विचारों को '' एप्लाइड विवेकानन्दा इन दी नेशनल कान्टेक्स्ट" कहा जा सकता है। एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने के लिए युवाओं को 'अनुप्राणित' करना है।
भगवान श्रीराम द्वारा संत-असंत के लक्षणों की व्याख्या -
संत-असंत लक्षण की व्याख्या करते हुए श्रीराम भरत से कहते हैं -संतों के मन में कोई कामना नहीं होती , उनका ह्रदय शांति, वैराग्य, विवेक और सरलता का आगार होता है। उनमें सब के लिए प्रेम भाव और धर्म के लिए प्रेरक शक्ति होती है। वे कभी इन्द्रियों के निग्रह , नियम तथा नीति के मार्ग से विचलित नहीं होते। संतों के विपरीत असंतों के ह्रदय में सदा संताप का निवास होता है। उन्हें दूसरों की सुख-समृद्धि से ईर्ष्या होती है। परनिन्दा में उन्हें अपार सुख मिलता है। काम, क्रोध , लोभ तथा मोह उनके विशेष लक्षण होते हैं। उनका तन और मन निर्दयता , कपट, कुटिलता और पाप के घर होते हैं। जो उनकी भलाई करता है , वे उसे भी क्षति पहुँचाते हैं। अतः भूलकर भी उनकी संगति में नहीं पड़ना चाहिए। झूठ ही उनका लेना-देना, झूठ ही उनका भोजन, ओढ़ना और बिछौना होता है। माता-पिता गुरु-जन तथा पूजनीय व्यक्तियों के लिए उनके मन में कोई सम्मान नहीं होता। हे भाई ! इसीलिए मैं असंतों के लिए कालरूप, और उनके कार्य-कलाप का उचित फलाफल देता हूँ।
दोहा :
*निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुख पुंज॥38॥
भावार्थ:-जिन्हें निंदा और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे चरणकमलों में जिनकी ममता है,
वे गुणों के धाम और सुख की राशि संतजन मुझे प्राणों के समान प्रिय हैं॥38॥
चौपाई :
* सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ॥
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कपिलहि घालइ हरहाई॥1॥
भावार्थ:-अब असंतों दुष्टों का स्वभाव सुनो, कभी भूलकर भी उनकी संगति नहीं करनी चाहिए। उनका संग सदा दुःख देने वाला होता है। जैसे हरहाई (बुरी जाति की) गाय कपिला (सीधी और दुधार) गाय को अपने संग से नष्ट कर डालती है॥1॥
*खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी॥
भावार्थ:-बदुष्टों के हृदय में बहुत अधिक संताप रहता है। वे पराई संपत्ति (सुख) देखकर सदा जलते रहते हैं। वे जहाँ कहीं दूसरे की निंदा सुन पाते हैं, वहाँ ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्ते में पड़ी निधि (खजाना) पा ली हो॥2॥
* काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन॥
बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों॥3॥
भावार्थ:-वे काम, क्रोध, मद और लोभ के परायण तथा निर्दयी, कपटी, कुटिल और पापों के घर होते हैं। वे बिना ही कारण सब किसी से वैर किया करते हैं। जो भलाई करता है उसके साथ बुराई भी करते हैं॥3॥
*झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अहि हृदय कठोरा॥4॥
भावार्थ:-उनका झूठा ही लेना और झूठा ही देना होता है। झूठा ही भोजन होता है और झूठा ही चबेना होता है। (अर्थात् वे लेने-देने के व्यवहार में झूठ का आश्रय लेकर दूसरों का हक मार लेते हैं अथवा झूठी डींग हाँका करते हैं कि हमने लाखों रुपए ले लिए, करोड़ों का दान कर दिया। इसी प्रकार खाते हैं चने की रोटी और कहते हैं कि आज खूब माल खाकर आए। अथवा चबेना चबाकर रह जाते हैं और कहते हैं हमें बढ़िया भोजन से वैराग्य है, इत्यादि। मतलब यह कि वे सभी बातों में झूठ ही बोला करते हैं।) जैसे मोर साँपों को भी खा जाता है। वैसे ही वे भी ऊपर से मीठे वचन बोलते हैं। (परंतु हृदय के बड़े ही निर्दयी होते हैं)॥4॥
दोहा :
* पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥39॥
भावार्थ:-वे दूसरों से द्रोह करते हैं और पराई स्त्री, पराए धन तथा पराई निंदा में आसक्त रहते हैं। वे पामर और पापमय मनुष्य नर शरीर धारण किए हुए राक्षस ही हैं॥39॥
चौपाई :
*लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्नोदर पर जमपुर त्रास न॥
काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई॥1॥
भावार्थ:-लोभ ही उनका ओढ़ना और लोभ ही बिछौना होता है (अर्थात् लोभ ही से वे सदा घिरे हुए रहते हैं)। वे पशुओं के समान आहार और मैथुन के ही परायण होते हैं, उन्हें यमपुर का भय नहीं लगता। यदि किसी की बड़ाई सुन पाते हैं, तो वे ऐसी (दुःखभरी) साँस लेते हैं मानों उन्हें जूड़ी आ गई हो॥1॥
* जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती॥
स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी॥2॥
भावार्थ:-और जब किसी की विपत्ति देखते हैं, तब ऐसे सुखी होते हैं मानो जगत्भर के राजा हो गए हों। वे स्वार्थपरायण, परिवार वालों के विरोधी, काम और लोभ के कारण लंपट और अत्यंत क्रोधी होते हैं॥2॥
* मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं॥
करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा॥3॥
भावार्थ:-वे माता, पिता, गुरु और ब्राह्मण किसी को नहीं मानते। आप तो नष्ट हुए ही रहते हैं, (साथ ही अपने संग से) दूसरों को भी नष्ट करते हैं। मोहवश दूसरों से द्रोह करते हैं। उन्हें न संतों का संग अच्छा लगता है, न भगवान् की कथा ही सुहाती है॥3॥
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा॥4॥
भावार्थ:-वे अवगुणों के समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी (रागयुक्त), वेदों के निंदक और जबर्दस्ती पराए धन के स्वामी (लूटने वाले) होते हैं। वे दूसरों से द्रोह तो करते ही हैं, परंतु ब्राह्मण द्रोह विशेषता से करते हैं। उनके हृदय में दम्भ और कपट भरा रहता है, परंतु वे ऊपर से सुंदर वेष धारण किए रहते हैं॥4॥
दोहा :
* ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेताँ नाहिं।
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं॥40॥
भावार्थ:-ऐसे नीच और दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेता में नहीं होते। द्वापर में थोड़े से होंगे और कलियुग में तो इनके झुंड के झुंड होंगे॥40॥
चौपाई :
* पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
भावार्थ:-हे भाई! दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है। हे तात! समस्त पुराणों और वेदों का यह निर्णय (निश्चित सिद्धांत) मैंने तुमसे कहा है, इस बात को पण्डित लोग जानते हैं॥1॥
* नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा॥
लकरहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना॥2॥
भावार्थ:-मनुष्य का शरीर धारण करके जो लोग दूसरों को दुःख पहुँचाते हैं, उनको जन्म-मृत्यु के महान् संकट सहने पड़ते हैं। मनुष्य मोहवश स्वार्थपरायण होकर अनेकों पाप करते हैं, इसी से उनका परलोक नष्ट हुआ रहता है॥2॥
* कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फलदाता॥
अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने॥3॥
भावार्थ:-हे भाई! मैं उनके लिए कालरूप (भयंकर) हूँ और उनके अच्छे और बुरे कर्मों का (यथायोग्य) फल देने वाला हूँ! ऐसा विचार कर जो लोग परम चतुर हैं वे संसार (के प्रवाह) को दुःख रूप जानकर मुझे ही भजते हैं॥3॥
*त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक॥
संत असंतन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे॥4॥
भावार्थ:-इसी से वे शुभ और अशुभ फल देने वाले कर्मों को त्यागकर देवता, मनुष्य और मुनियों के नायक मुझको भजते हैं। (इस प्रकार) मैंने संतों और असंतों के गुण कहे। जिन लोगों ने इन गुणों को समझ रखा है, वे जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ते॥4॥
सन्त असन्त के लक्षण जानने की भरत की इच्छा का श्रीराम द्वारा समाधान
सुन्दर उपवन में रमण करते हुए भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न ने श्रीराम के सम्मुख सिर नवाया। भरत श्रीराम से कुछ जिज्ञासा करना चाहते हैं , किन्तु उन्हें संकोच हो रहा है। हनुमान उनके संकोच की बात बताकर उसे दूर कर देते हैं। भरत के मन में सन्त और असन्त के लक्षण सुनने की जिज्ञासा है। श्रीराम उनकी शंका का समाधान करते हैं। सन्तों और असंतों की करनी चंदन और कुल्हाड़ी के आचरण जैसी होती है। कुल्हाड़ी का काम है , वृक्ष को काटना। किन्तु चंदन उसके प्रहार सह कर भी उसे अपनी सुगंध देता है। इसी गुण के कारण चंदन देवताओं के मस्तक पर सुशोभित होता है। जबकि कुल्हाड़ी को आग में तपाकर, घन से पीटा जाता है। सन्त विष-वासना में लिप्त नहीं होते। उन्हें दूसरों को दुःखी देखकर दुःख , और सुखी देखकर सुख प्राप्त होता है। कोई उनका शत्रु नहीं होता। वे काम, क्रोध, लोभ और मोह रहित होते हैं। उनका चित्त अत्यन्त कोमल होता है , वे सबको आदर और सम्मान देते हैं , और स्वयं मान -अपमान रहित होते हैं। इसीलिए वे मुझे प्राणो के समान प्रिय होते हैं।
दोहा :
* बार-बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ॥35॥
भावार्थ:-प्रेम सहित बार-बार स्तुति करके और सिर नवाकर तथा अपना अत्यंत मनचाहा वर पाकर सनकादि मुनि ब्रह्मलोक को गए॥35॥
चौपाई :
* सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिर नाए॥
भावार्थ:-सनकादि मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। तब भाइयों ने श्री रामजी के चरणों में सिर नवाया। सब भाई प्रभु से पूछते सकुचाते हैं। (इसलिए) सब हनुमान्जी की ओर देख रहे हैं॥1॥
भावार्थ:-वे प्रभु के श्रीमुख की वाणी सुनना चाहते हैं, जिसे सुनकर सारे भ्रमों का नाश हो जाता है। अंतरयामी प्रभु सब जान गए और पूछने लगे- कहो हनुमान्! क्या बात है?॥2॥
* जोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता॥
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं॥3॥
भावार्थ:-तब हनुमान्जी हाथ जोड़कर बोले- हे दीनदयालु भगवान्! सुनिए। हे नाथ! भरतजी कुछ पूछना चाहते हैं, पर प्रश्न करते मन में सकुचा रहे हैं॥3॥
भावार्थ:-(भगवान् ने कहा-) हनुमान्! तुम तो मेरा स्वभाव जानते ही हो। भरत के और मेरे बीच में कभी भी कोई अंतर (भेद) है? प्रभु के वचन सुनकर भरतजी ने उनके चरण पकड़ लिए (और कहा-) हे नाथ! हे शरणागत के दुःखों को हरने वाले! सुनिए॥4॥
दोहा :
* नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानंद संदोह॥36॥
भावार्थ:-हे नाथ! न तो मुझे कुछ संदेह है और न स्वप्न में भी शोक और मोह है। हे कृपा और आनंद के समूह! यह केवल आपकी ही कृपा का फल है॥36॥
चौपाई :
* करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई॥
भावार्थ:-तथापि हे कृपानिधान! मैं आप से एक धृष्टता करता हूँ। मैं सेवक हूँ और आप सेवक को सुख देने वाले हैं (इससे मेरी दृष्टता को क्षमा कीजिए और मेरे प्रश्न का उत्तर देकर सुख दीजिए)। हे रघुनाथजी वेद-पुराणों ने संतों की महिमा बहुत प्रकार से गाई है॥1॥
*श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बड़ाई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई॥
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिंधु गुन ग्यान बिचच्छन॥2॥
भावार्थ:-आपने भी अपने श्रीमुख से उनकी बड़ाई की है और उन पर प्रभु (आप) का प्रेम भी बहुत है। हे प्रभो! मैं उनके लक्षण सुनना चाहता हूँ। आप कृपा के समुद्र हैं और गुण तथा ज्ञान में अत्यंत निपुण हैं॥2॥
*संत असंत भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई॥
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता॥3॥
भावार्थ:-हे शरणागत का पालन करने वाले! संत और असंत के भेद अलग-अलग करके मुझको समझाकर कहिए। (श्री रामजी ने कहा-) हे भाई! संतों के लक्षण (गुण) असंख्य हैं, जो वेद और पुराणों में प्रसिद्ध हैं॥3॥
* संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध बसाई॥4॥
भावार्थ:-संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। हे भाई! सुनो, कुल्हाड़ी चंदन को काटती है (क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है), किंतु चंदन अपने स्वभाववश अपना गुण देकर उसे (काटने वाली कुल्हाड़ी को) सुगंध से सुवासित कर देता है॥4॥
दोहा :
* ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड॥37॥
भावार्थ:-इसी गुण के कारण चंदन देवताओं के सिरों पर चढ़ता है और जगत् का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ी के मुख को यह दंड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटते हैं॥37॥
भावार्थ:-संत विषयों में लंपट (लिप्त) नहीं होते, शील और सद्गुणों की खान होते हैं, उन्हें पराया दुःख देखकर दुःख और सुख देखकर सुख होता है। वे (सबमें, सर्वत्र, सब समय) समता रखते हैं, उनके मन कोई उनका शत्रु नहीं है। वे मद से रहित और वैराग्यवान् होते हैं तथा लोभ, क्रोध, हर्ष और भय का त्याग किए हुए रहते हैं॥1॥
* कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥2॥
भावार्थ:-उनका चित्त बड़ा कोमल होता है। वे दीनों पर दया करते हैं तथा मन, वचन और कर्म से मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते हैं, पर स्वयं मानरहित होते हैं। हे भरत! वे प्राणी (संतजन) मेरे प्राणों के समान हैं॥2॥
* बिगत काम मम नाम परायन। सांति बिरति बिनती मुदितायन॥
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री॥3॥
भावार्थ:-उनको कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नाम के परायण होते है। शांति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नता के घर होते हैं। उनमें शीलता, सरलता, सबके प्रति मित्र भाव और ब्राह्मण के चरणों में प्रीति होती है, जो धर्मों को उत्पन्न करने वाली है॥3॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥4॥
भावार्थ:-हे तात! ये सब लक्षण जिसके हृदय में बसते हों, उसको सदा सच्चा संत जानना। जो शम (मन के निग्रह), दम (इंद्रियों के निग्रह), नियम और नीति से कभी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर वचन नहीं बोलते,॥4॥
अयोध्या पधारे मुनियों का भगवान श्रीराम द्वारा सादर सत्कार :
जहाँ कहीं भी रामचरित का गान होता है , ब्रह्म में सदैव तल्लीन रहने वाले मुनिगण वहाँ खिंचे चले आते हैं।राम के राज्य काल में अवधपुरी में चारों ओर सुख और शान्ति व्याप्त है , और इसी कारण सनकादि मुनि वहाँ पधारे हैं। इनके रूपों में मानो चारो वेदों ने बालरूप धारण कर लिया है। अगस्त्य मुनि के आश्रम से आये इन पुण्यात्माओं का श्रीराम ने सादर सत्कार किया। दण्डवत प्रणाम निवेदित कर अपना पीताम्बर बिछाकर , उन्हें आसन दिया। प्रभु की इस विनम्र भंगिमा और अद्भुत रूप ने उनका मन मोह लिया। वे प्रेम विह्वल हो गए , स्वयं श्रीराम इस अवस्था में भाव-विभोर हो बोले -" बड़े भाग्य से सत्संग प्राप्त होता है। साधु-संगति से मोक्ष की प्राप्ति होती है।इसके विपरीत विषय वासना में रत लोगों का संग जन्म और मृत्यु अर्थात आवागमन के कुचक्र में डालने वाला होता है।ये वचन सुनकर मुनिगण उनसे अखण्ड और अचल भक्ति की याचना करते हैं !
दोहा :
* देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह।
स्वागत पूँछि पीत पट प्रभु बैठन कहँ दीन्ह॥32॥
भावार्थ:-सनकादि मुनियों को आते देखकर श्री रामचंद्रजी ने हर्षित होकर दंडवत् किया और स्वागत (कुशल) पूछकर प्रभु ने (उनके) बैठने के लिए अपना पीताम्बर बिछा दिया॥32॥
चौपाई :
* कीन्ह दंडवत तीनिउँ भाई। सहित पवनसुत सुख अधिकाई॥
मुनि रघुपति छबि अतुल बिलोकी। भए मगन मन सके न रोकी॥1॥
भावार्थ:-फिर हनुमान्जी सहित तीनों भाइयों ने दंडवत् की, सबको बड़ा सुख हुआ। मुनि श्री रघुनाथजी की अतुलनीय छबि देखकर उसी में मग्न हो गए। वे मन को रोक न सके॥1॥
* स्यामल गात सरोरुह लोचन। सुंदरता मंदिर भव मोचन॥
एकटक रहे निमेष न लावहिं। प्रभु कर जोरें सीस नवावहिं॥2॥
भावार्थ:-वे जन्म-मृत्यु (के चक्र) से छुड़ाने वाले, श्याम शरीर, कमलनयन, सुंदरता के धाम श्री रामजी को टकटकी लगाए देखते ही रह गए, पलक नहीं मारते और प्रभु हाथ जोड़े सिर नवा रहे हैं॥2॥
* तिन्ह कै दसा देखि रघुबीरा। स्रवत नयन जल पुलक सरीरा॥
कर गहि प्रभु मुनिबर बैठारे। परम मनोहर बचन उचारे॥3॥
भावार्थ:-उनकी (प्रेम विह्लल) दशा देखकर (उन्हीं की भाँति) श्री रघुनाथजी के नेत्रों से भी (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगा और शरीर पुलकित हो गया। दतनन्तर प्रभु ने हाथ पकड़कर श्रेष्ठ मुनियों को बैठाया और परम मनोहर वचन कहे-॥3॥
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा॥4॥
भावार्थ:-हे मुनीश्वरो! सुनिए, आज मैं धन्य हूँ। आपके दर्शनों ही से (सारे) पाप नष्ट हो जाते हैं। बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है, जिससे बिन ही परिश्रम जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता है॥4॥
दोहा :
* संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥33॥
भावार्थ:-संत का संग मोक्ष (भव बंधन से छूटने) का और कामी का संग जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ने का मार्ग है। संत, कवि और पंडित तथा वेद, पुराण (आदि) सभी सद्ग्रंथ ऐसा कहते हैं॥33॥
भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर चारों मुनि हर्षित होकर, पुलकित शरीर से स्तुति करने लगे- हे भगवन्! आपकी जय हो। आप अंतरहित, विकाररहित, पापरहित, अनेक (सब रूपों में प्रकट), एक (अद्वितीय) और करुणामय हैं॥1॥
* जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर॥
जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर॥2॥
भावार्थ:-हे निर्गुण! आपकी जय हो। हे गुण के समुद्र! आपकी जय हो, जय हो। आप सुख के धाम, (अत्यंत) सुंदर और अति चतुर हैं। हे लक्ष्मीपति! आपकी जय हो। हे पृथ्वी के धारण करने वाले! आपकी जय हो। आप उपमारहित, अजन्मे, अनादि और शोभा की खान हैं॥2॥
भावार्थ:-आप ज्ञान के भंडार, (स्वयं) मानरहित और (दूसरों को) मान देने वाले हैं। वेद और पुराण आपका पावन सुंदर यश गाते हैं। आप तत्त्व के जानने वाले, की हुई सेवा को मानने वाले और अज्ञान का नाश करने वाले हैं। हे निरंजन (मायारहित)! आपके अनेकों (अनंत) नाम हैं और कोई नाम नहीं है (अर्थात् आप सब नामों के परे हैं)॥3॥
* सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। हृदि बसि राम काम मद गंजय॥4॥
भावार्थ:-आप सर्वरूप हैं, सब में व्याप्त हैं और सबके हृदय रूपी घर में सदा निवास करते हैं, (अतः) आप हमारा परिपालन कीजिए। (राग-द्वेष, अनुकूलता-प्रतिकूलता, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्व, विपत्ति और जन्म-मत्यु के जाल को काट दीजिए। हे रामजी! आप हमारे हृदय में बसकर काम और मद का नाश कर दीजिए॥4॥
दोहा :
* परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥34॥
भावार्थ:-आप परमानंद स्वरूप, कृपा के धाम और मन की कामनाओं को परिपूर्ण करने वाले हैं। हे श्री रामजी! हमको अपनी अविचल प्रेमाभक्ति दीजिए॥34॥
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥1॥
भावार्थ:-हे रघुनाथजी! आप हमें अपनी अत्यंत पवित्र करने वाली और तीनों प्रकार के तापों और जन्म-मरण के क्लेशों का नाश करने वाली भक्ति दीजिए। हे शरणागतों की कामना पूर्ण करने के लिए कामधेनु और कल्पवृक्ष रूप प्रभो! प्रसन्न होकर हमें यही वर दीजिए॥1॥
भावार्थ:-हे रघुनाथजी! आप जन्म-मृत्यु रूप समुद्र को सोखने के लिए अगस्त्य मुनि के समान हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देने वाले हैं। हे दीनबंधो! मन से उत्पन्न दारुण दुःखों का नाश कीजिए और (हम में) समदृष्टि का विस्तार कीजिए॥2॥
* आस त्रास इरिषाद निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक॥
भावार्थ:-आप (विषयों की) आशा, भय और ईर्षा आदि के निवारण करने वाले हैं तथा विनय, विवेक और वैराग्य के विस्तार करने वाले हैं। हे राजाओं के शिरोमणि एवं पृथ्वी के भूषण श्री रामजी! संसृति (जन्म-मृत्यु के प्रवाह) रूपी नदी के लिए नौका रूप अपनी भक्ति प्रदान कीजिए॥3॥
* मुनि मन मानस हंस निरंतर। चरन कमल बंदित अज संकर॥
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक॥4॥
भावार्थ:-हे मुनियों के मन रूपी मानसरोवर में निरंतर निवास करने वाले हंस! आपके चरणकमल ब्रह्माजी और शिवजी के द्वारा वंदित हैं। आप रघुकुल के केतु, वेदमर्यादा के रक्षक और काल, कर्म, स्वभाव तथा गुण (रूप बंधनों) के भक्षक (नाशक) हैं॥4॥
* तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन॥5॥
भावार्थ:-आपतरन-तारन (स्वयं तरे हुए और दूसरों को तारने वाले)तथा सब दोषों को हरने वाले हैं। तीनों लोकों के विभूषण आप ही तुलसीदास के स्वामी हैं॥5॥
श्रीराम के राज्य काल में अयोध्या की सुख सम्पदा तथा प्राकृतिक छटा को मात्र अनुपम की संज्ञा दे देना पर्याप्त नहीं है। पक्षीराज गरुड़ को 'रामनाम की महिमा' सुनाते हुए काकभुशुण्डि कहते हैं जब से अवधपुरी में राजा रामचन्द्र के प्रताप का सूर्य उदित हुआ है - 'तीनों लोकों से अज्ञान (अविद्या ?) का नाश हो गया है। 'मद, मान , मोह और ईर्ष्या का लोप और सुख, सन्तोष और वैराग्य और विवेक का उदय 'ये है राम राज्य की विशेषता।जिसका आकर्षण सनकादि मुनि तक को खींचकर अयोध्या ले आता है।
छंद :
* बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं॥
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं॥
भावार्थ:-अनुपम बावलियाँ, तालाब और मनोहर तथा विशाल कुएँ शोभा दे रहे हैं, जिनकी सुंदर (रत्नों की) सीढ़ियाँ और निर्मल जल देखकर देवता और मुनि तक मोहित हो जाते हैं। (तालाबों में) अनेक रंगों के कमल खिल रहे हैं, अनेकों पक्षी कूज रहे हैं और भौंरे गुंजार कर रहे हैं। (परम)रमणीय बगीचे कोयल आदि पक्षियों की (सुंदर बोली से) मानो राह चलने वालों को बुला रहे हैं।
दोहा :
* रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ॥29॥
भावार्थ:-स्वयं लक्ष्मीपति भगवान् जहाँ राजा हों, उस नगर का कहीं वर्णन किया जा सकता है? अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ और समस्त सुख-संपत्तियाँ अयोध्या में छा रही हैं॥29॥
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि॥1॥
भावार्थ:-लोग जहाँ-तहाँ श्री रघुनाथजी के गुण गाते हैं और बैठकर एक-दूसरे को यही सीख देते हैं कि शरणागत का पालन करने वाले श्री रामजी को भजो, शोभा, शील, रूप और गुणों के धाम श्री रघुनाथजी को भजो॥1॥
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि॥2॥
भावार्थ:-कमलनयन और साँवले शरीर वाले को भजो। पलक जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा करती हैं उसी प्रकार अपने सेवकों की रक्षा करने वाले को भजो। सुंदर बाण, धनुष और तरकस धारण करने वाले को भजो। संत रूपी कमलवन के (खिलाने के) सूर्य रूप रणधीर श्री रामजी को भजो॥2॥
* काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि॥
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि॥3॥
भावार्थ:-कालरूपी भयानक सर्प के भक्षण करने वाले श्री राम रूप गरुड़जी को भजो। निष्कामभाव से प्रणाम करते ही ममता का नाश कर देने वाले श्री रामजी को भजो।लोभ-मोह रूपी हरिनों के समूह के नाश करने वाले श्री राम किरात को भजो। कामदेव रूपी हाथी के लिए सिंह रूप तथा सेवकों को सुख देने वाले श्री राम को भजो॥3॥
भावार्थ:-संशय और शोक रूपी घने अंधकार का नाश करने वाले श्री राम रूप सूर्य को भजो। राक्षस रूपी घने वन को जलाने वाले श्री राम रूप अग्नि को भजो। जन्म-मृत्यु के भय को नाश करने वाले श्री जानकी समेत श्री रघुवीर को क्यों नहीं भजते?॥4॥
*बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि॥
मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि॥5॥
भावार्थ:-बहुत सी वासनाओं रूपी मच्छरों को नाश करने वाले श्री राम रूप हिमराशि (बर्फ के ढेर) को भजो। नित्य एकरस, अजन्मा और अविनाशी श्री रघुनाथजी को भजो। मुनियों को आनंद देने वाले, पृथ्वी का भार उतारने वाले और तुलसीदास के उदार (दयालु) स्वामी श्री रामजी को भजो॥5॥
दोहा :
* एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।
सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान॥30॥
भावार्थ:-इस प्रकार नगर के स्त्री-पुरुष श्री रामजी का गुण-गान करते हैं और कृपानिधान श्री रामजी सदा सब पर अत्यंत प्रसन्न रहते हैं॥30॥
चौपाई :
* जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा॥
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका॥1॥
भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे पक्षीराज गरुड़जी! जब से रामप्रताप रूपी अत्यंत प्रचण्ड सूर्य उदित हुआ, तब से तीनों लोकों में पूर्ण प्रकाश भर गया है। इससे बहुतों को सुख और बहुतों के मन में शोक हुआ॥1॥
* जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी॥
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने॥2॥ `
भावार्थ:-जिन-जिन को शोक हुआ, उन्हें मैं बखानकर कहता हूँ (सर्वत्र प्रकाश छा जाने से) पहले तो अविद्या रूपी रात्रि नष्ट हो गई।पाप रूपी उल्लू जहाँ-तहाँ छिप गए और काम-क्रोध रूपी कुमुद मुँद गए॥2॥
* बिबिध कर्म गुन काल सुभाउ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ॥
मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा॥3॥
भावार्थ:-भाँति-भाँति के (बंधनकारक) कर्म, गुण, काल और स्वभाव- ये चकोर हैं, जो (रामप्रताप रूपी सूर्य के प्रकाश में) कभी सुख नहीं पाते।मत्सर (डाह), मान, मोह और मद रूपी जो चोर हैं, उनका हुनर (कला) भी किसी ओर नहीं चल पाता॥3॥
भावार्थ:-धर्म रूपी तालाब में ज्ञान, विज्ञान- ये अनेकों प्रकार के कमल खिल उठे। सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक- ये अनेकों चकवे शोकरहित हो गए॥4॥
दोहा :
* यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास॥31॥
भावार्थ:-यह श्री रामप्रताप रूपी सूर्य जिसके हृदय में जब प्रकाश करता है, तब जिनका वर्णन पीछे से किया गया है, वे (धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक) बढ़ जाते हैं और जिनका वर्णन पहले किया गया है, वे (अविद्या, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, गुण, स्वभाव आदि) नाश को प्राप्त होते (नष्ट हो जाते) हैं॥31॥
चौपाई :
* भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा॥
सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए॥1॥
भावार्थ:-एक बार भाइयों सहित श्री रामचंद्रजी परम प्रिय हनुमान्जी को साथ लेकर सुंदर उपवन देखने गए। वहाँ के सब वृक्ष फूले हुए और नए पत्तों से युक्त थे॥1॥
* जानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए॥
ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥2॥
भावार्थ:-सुअवसर जानकर सनकादि मुनि आए, जो तेज के पुंज, सुंदर गुण और शील से युक्त तथा सदा ब्रह्मानंद में लवलीन रहते हैं। देखने में तो वे बालक लगते हैं, परंतु हैं बहुत समय के॥2॥
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥3॥
भावार्थ:-मानो चारों वेद ही बालक रूप धारण किए हों। वे मुनि समदर्शी और भेदरहित हैं। दिशाएँ ही उनके वस्त्र हैं। उनके एक ही व्यसन है कि जहाँ श्री रघुनाथजी की चरित्र कथा होती है वहाँ जाकर वे उसे अवश्य सुनते हैं॥3॥
* तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी॥
राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी॥4॥
भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-)हे भवानी! सनकादि मुनि वहाँ गए थे (वहीं से चले आ रहे थे) जहाँ ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ श्री अगस्त्यजी रहते थे। श्रेष्ठ मुनि ने श्री रामजी की बहुत सी कथाएँ वर्णन की थीं, जो ज्ञान उत्पन्न करने में उसी प्रकार समर्थ हैं, जैसे अरणि लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है॥4॥
अवधपुरी में स्वयं भगवान राजा रामचंद्र के रूप में विराजमान हैं। नारद सनकादि मुनीश्वर नित्य प्रति उनके दर्शनों के लिए अयोध्या आते हैं। और नगरी की शोभा देख अपना वैराग्य भूल जाते हैं। घरों में जब मणियों के दीप प्रज्ज्वलित होते हैं , तो मूंगों से निर्मित वेदियाँ चमक उठती हैं।पन्नों से जड़ी सोने की दीवारों को मानो ब्रह्मा ने स्वयं अपने हाथों से बनाया है। नगरनिवासियों ने सुंदर उद्यान लगाए हैं , जिनमें अनेक प्रकार की लतायें वसंत ऋतू की सुषमा बिखेरती रहती है।जहाँ स्वयं लक्ष्मीपति राजा के रूप में विद्यमान हों , वहाँ के हाटबाजार के शोभा का वर्णन क्या शब्दों में किया जा सकता है ?
चौपाई :
*नारदादि सनकादि मुनीसा। दरसन लागि कोसलाधीसा॥
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं। देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं॥1॥
भावार्थ:-नारद आदि और सनक आदि मुनीश्वर सब कोसलराज श्री रामजी के दर्शन के लिए प्रतिदिन अयोध्या आते हैं और उस (दिव्य) नगर को देखकर वैराग्य भुला देते हैं॥1॥
* जातरूप मनि रचित अटारीं। नाना रंग रुचिर गच ढारीं॥
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर। रचे कँगूरा रंग रंग बर॥2॥
भावार्थ:-(दिव्य) स्वर्ण और रत्नों से बनी हुई अटारियाँ हैं। उनमें (मणि-रत्नों की) अनेक रंगों की सुंदर ढली हुई फर्शें हैं। नगर के चारों ओर अत्यंत सुंदर परकोटा बना है, जिस पर सुंदर रंग-बिरंगे कँगूरे बने हैं॥2॥
* नव ग्रह निकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावति आई॥
लमहि बहु रंग रचित गच काँचा। जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा॥3॥
भावार्थ:-मानो नवग्रहों ने बड़ी भारी सेना बनाकर अमरावती को आकर घेर लिया हो। पृथ्वी (सड़कों) पर अनेकों रंगों के (दिव्य) काँचों (रत्नों) की गच बनाई (ढाली) गई है, जिसे देखकर श्रेष्ठ मुनियों के भी मन नाच उठते हैं॥3॥
भावार्थ:-उज्ज्वल महल ऊपर आकाश को चूम (छू) रहे हैं। महलों पर के कलश (अपने दिव्य प्रकाश से) मानो सूर्य, चंद्रमा के प्रकाश की भी निंदा (तिरस्कार) करते हैं। (महलों में) बहुत सी मणियों से रचे हुए झरोखे सुशोभित हैं और घर-घर में मणियों के दीपक शोभा पा रहे हैं॥4॥
छंद :
* मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे॥
भावार्थ:-घरों में मणियों के दीपक शोभा दे रहे हैं। मूँगों की बनी हुई देहलियाँ चमक रही हैं। मणियों (रत्नों) के खम्भे हैं। मरकतमणियों (पन्नों) से जड़ी हुई सोने की दीवारें ऐसी सुंदर हैं मानो ब्रह्मा ने खास तौर से बनाई हों। महल सुंदर, मनोहर और विशाल हैं। उनमें सुंदर स्फटिक के आँगन बने हैं। प्रत्येक द्वार पर बहुत से खरादे हुए हीरों से जड़े हुए सोने के किंवाड़ हैं॥
दोहा :
* चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ।
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ॥27॥
भावार्थ:-घर-घर में सुंदर चित्रशालाएँ हैं, जिनमें श्री रामचंद्रजी के चरित्र बड़ी सुंदरता के साथ सँवारकर अंकित किए हुए हैं। जिन्हें मुनि देखते हैं, तो वे उनके भी चित्त को चुरा लेते हैं॥27॥
लता ललित बहु जाति सुहाईं। फूलहिं सदा बसंत कि नाईं॥1॥
भावार्थ:-सभी लोगों ने भिन्न-भिन्न प्रकार की पुष्पों की वाटिकाएँ यत्न करके लगा रखी हैं, जिनमें बहुत जातियों की सुंदर और ललित लताएँ सदा वसंत की तरह फूलती रहती हैं॥1॥
*गुंजत मधुकर मुखर मनोहर। मारुत त्रिबिधि सदा बह सुंदर।
नाना खग बालकन्हि जिआए। बोलत मधुर उड़ात सुहाए॥2॥
भावार्थ:-भौंरे मनोहर स्वर से गुंजार करते हैं। सदा तीनों प्रकार की सुंदर वायु बहती रहती है। बालकों ने बहुत से पक्षी पाल रखे हैं, जो मधुर बोली बोलते हैं और उड़ने में सुंदर लगते हैं॥2॥
भावार्थ:-मोर, हंस, सारस और कबूतर घरों के ऊपर बड़ी ही शोभा पाते हैं। वे पक्षी (मणियों की दीवारों में और छत में) जहाँ-तहाँ अपनी परछाईं देखकर (वहाँ दूसरे पक्षी समझकर) बहुत प्रकार से मधुर बोली बोलते और नृत्य करते हैं॥3॥
*सुक सारिका पढ़ावहिं बालक। कहहु राम रघुपति जनपालक॥
राज दुआर सकल बिधि चारू। बीथीं चौहट रुचिर बजारू॥4॥
भावार्थ:-बालक तोता-मैना को पढ़ाते हैं कि कहो- 'राम' 'रघुपति' 'जनपालक'। राजद्वार सब प्रकार से सुंदर है। गलियाँ, चौराहे और बाजार सभी सुंदर हैं॥4॥
छंद :
* बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए॥
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरि सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे॥
भावार्थ:-सुंदर बाजार है, जो वर्णन करते नहीं बनता, वहाँ वस्तुएँ बिना ही मूल्य मिलती हैं। जहाँ स्वयं लक्ष्मीपति राजा हों, वहाँ की संपत्ति का वर्णन कैसे किया जाए?बजाज (कपड़े का व्यापार करने वाले), सराफ (रुपए-पैसे का लेन-देन करने वाले) आदि वणिक् (व्यापारी) बैठे हुए ऐसे जान प़ड़ते हैं मानो अनेक कुबेर हों,स्त्री, पुरुष बच्चे और बूढ़े जो भी हैं, सभी सुखी, सदाचारी और सुंदर हैं॥
दोहा :
* उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर॥28॥
भावार्थ:-नगर के उत्तर दिशा में सरयूजी बह रही हैं, जिनका जल निर्मल और गहरा है। मनोहर घाट बँधे हुए हैं, किनारे पर जरा भी कीचड़ नहीं है॥28॥
चौपाई :
* दूरि फराक रुचिर सो घाटा। जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा॥
पनिघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना॥1॥
भावार्थ:-अलग कुछ दूरी पर वह सुंदर घाट है, जहाँ घोड़ों और हाथियों के ठट्ट के ठट्ट जल पिया करते हैं। पानी भरने के लिए बहुत से (जनाने) घाट हैं, जो बड़े ही मनोहर हैं। वहाँ पुरुष स्नान नहीं करते॥1॥
तीर तीर देवन्ह के मंदिर। चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर॥2॥
भावार्थ:-राजघाट सब प्रकार से सुंदर और श्रेष्ठ है, जहाँ चारों वर्णों के पुरुष स्नान करते हैं। सरयूजी के किनारे-किनारे देवताओं के मंदिर हैं, जिनके चारों ओर सुंदर उपवन (बगीचे) हैं॥2॥
भावार्थ:-नदी के किनारे कहीं-कहीं विरक्त और ज्ञानपरायण मुनि और संन्यासी निवास करते हैं। सरयूजी के किनारे-किनारे सुंदर तुलसीजी के झुंड के झुंड बहुत से पेड़ मुनियों ने लगा रखे हैं॥3॥
* पुर सोभा कछु बरनि न जाई। बाहेर नगर परम रुचिराई॥
देखत पुरी अखिल अघ भागा। बन उपबन बापिका तड़ागा॥4॥
भावार्थ:-नगर की शोभा तो कुछ कही नहीं जाती। नगर के बाहर भी परम सुंदरता है। श्री अयोध्यापुरी के दर्शन करते ही संपूर्ण पाप भाग जाते हैं। (वहाँ) वन, उपवन, बावलिया और तालाब सुशोभित हैं॥4॥
⚜️️प्रश्न : आपकी दृष्टि काम पर अटकी है या राम पर ? ⚜️️
(अपरोक्ष ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग 'Practical Application')
(- परम् पूज्य स्वामी शुद्धिदानन्दा जी महाराज, अध्यक्ष,
अद्वैत आश्रम, मायावती , हिमालय।)
The Essence of Vivekachudamani | Session 24|
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,
निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः
1. अज्ञान की निवृत्ति होने पर शिष्य की वेदांत दृष्टि : शिष्य जब वेदांत दृष्टि या अंतिम दृष्टि, से जीव और जगत को देखता है तो पाता है कि जितने नाम-रूप हैं सभी ईश्वर के ही नामरूप हैं ! (इसी वेदांत दृष्टि में माँ सारदा नेतेलोभेलो मैदान में अपने डकैत माता-पिता को प्राप्त किया था !)
विगत सत्र में हमने देखा कि शिष्य शास्त्र और गुरु के द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण करने के लिए एकान्त में जाता है (निर्जन में जाता है, कैम्प में जाता है) और वहाँ जाकर श्रवण और मनन करने से उसको परोक्ष ज्ञान तो हो गया। अब वह अपरोक्ष ज्ञान या आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के लिए निदिध्यासन में या ध्यान (आत्मचिंतन) में मग्न हो जाता है।साक्षात् अपरोक्ष अनुभूति के लिए वो निदिध्यासन में या ध्यान (साक्षी आत्मा मरेगा या स्थूल शरीर ? के चिंतन में) में मग्न हो जाता है। और इस प्रकार निदिध्यासन में साधन-चतुष्टय की ओर अग्रसर रहते हुए -ईश्वर और गुरु के अनुग्रह से वह एक दिन अपने सत्य स्वरुप को पहचान जाता है। (जो परमेश शक्ति महामाया माँ काली के रूप में -सृष्टि, स्थिति, प्रलय का खेल दिखाकर शिव जी ढँकती है अर्थात अपने आवरण शक्ति के द्वारा मनुष्य की विशिष्ट योग्यता नित्य-अनित्य विवेक को सुला देतीं हैं, वही जगतजननीमहामाया माँ काली कृपा करके समय -समय परज्ञानदायिनी माँ सारदा के रूप में अवतरित होकर गुरु रूप में वो ही फिर कृपा कर के अपनी संतानों के पापों को स्वयं ग्रहण कर विवेक का मार्ग दिखला देती है।) परमेश शक्ति, माँ सारदा और गुरु (श्रीरामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द) के अनुग्रह से उस शिष्य के अज्ञान की जब निवृत्ति हो जाती है, तो उसकी अनुभूति क्या होती है ?
क्व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत् ।
अधुनैव मया दृष्टं नास्ति किं महाद्भुतम् ॥ ४३८ ॥
जगत कहाँ गया ? किसके द्वारा हटाया गया ? कहाँ लीन हो गया ये जगत ? (किस प्रलय में?) थोड़ी देर पहले तक , जबतक मैं अज्ञान में था , मुझे 'जीव' और जगत दिखाई दे रहा था। अब जब मैंने सत्य का अनुभव कर लिया , तब देख रहा हूँ -कहाँ है जीव और जगत ? नास्ति! जिव और जगत दोनों नहीं हैं , क्या अद्भुत है ? क्या अद्भुत है ? अज्ञान में मैं जिसको जीव और जगत समझ रहा था (बिकुआनउआ -समझ रहा था), ज्ञान में मुझे ये अनुभूति हुई कि वह ईश्वर ही है ! ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है। ये अनुभूति हुई किईश्वर से भिन्न न तो कोई जीव है, न तो कोई जगत है। तो जो भीं दिखाई दे रहा है , ये सब क्या है ? सिर्फ ईश्वर ही है , परब्रह्म परमात्मा ही है। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह वेदांत -वेदों की अंतिम दृष्टि है। तो जितने नामरूप दिखाई दे रहे हैं , वो सब ईश्वर के ही नाम रूप हैं ! तो जितने नाम-रूप यहाँ दिखाई दे रहे हैं, किसके नाम रूप हैं ? ईश्वर के परमात्मा के ही नाम रूप हैं। (4:00)
2. प्रश्न है आपकी दृष्टि कहाँ अटकी है ? [M/F स्थूल शरीर 2mm की चर्म दृष्टि :कार्य अपने कारण से भिन्न नहीं है : Causality- The effect is not different from its cause !]
किसी गाँव में एक किसान था। उस किसान का अपना खेत था। खेत उसके घर थोड़ी दूरी पर था। हर रोज ये किसान अपने घर से सवेरे निकल पड़ता था। रास्ते में एक कुम्हार का घर था। कुम्हार घड़ा-सुराही आदि बनाता था। एक दिन सवेरे उसके घर के आंगन में उसको मिट्टी का ढेर दिखाई पड़ा। खेत से लौटा तो कुम्हार के आंगन में वो ढेर नहीं था। पूछा मिट्टी कहाँ गयी ? कुम्हार ने घड़ा दिखाते हुए कहा - देखो ये घड़े बन गए हैं। उसी दिन रात को जोरों की बारिश हुई। और सवेरे जब किसान अपने खेत की और जा रहा था , तो उसे घड़े दिखाई नहीं पड़े। पूछा घड़े कहाँ गए ? कुम्हार ने बताया कि बारिश में सारे घड़े टूट-गल कर फिर से मिट्टी का ढेर हो गया। मिट्टी ही घड़ा बनता है। घड़ा ही मिट्टी है।
कुछ लोगों की दृष्टि सिर्फ घड़े पर (नाम-रूप पर) ही अटकी हुई है। और घड़े की खूबसूरती से वो आकृष्ट भी होता है। ये घड़ा सुंदर है। ये इतना सुंदर नहीं है। घड़े के बाहरी रूप को देखकर आकृष्ट हो जाता है। सुंदर घड़े पर मोहित होता है। लेकिन घड़े की दृष्टि से देखो तो -सुंदर और बदसूरत दोनों घड़ा टूटने वाला है। घड़ा नित्य है क्या ? आपकी दृष्टि जब रूप पर टिकी होती है -तब आप मोहित हो जाते हो। और रूप से चिपक जाते हो।
लेकिन ज्ञानी भी उसी घड़े को देख रहा है -लेकिन उसको दीखता क्या है ? मिट्टी ! प्रश्न ये है कि आपकी दृष्टि कहाँ पर टिकी हुई है? अविवेकी में 2mm की चर्म को देखने वाली दृष्टि हो, तब आप किसी घड़े को सुंदर , किसी को बदसूरत कहोगे। ये पुरुष है ये स्त्री है !
3. नित्य-अनित्य विवेक नहीं है ? स्थूल शरीर से चिपकना प्रेम नहीं राग है !
शरीर घड़ा है मिट्टी सत्य है। लेकिन हम इस घड़े के रंगरूप से हम मोहित हो जाते है , फिर चिपकने वाली बीमारी। और उस चिपकने को लोग प्रेम समझते हैं। शरीर या रूप में आसक्ति तो मोह है , राग है। ये प्रेम नहीं है। अज्ञानी रूप को देखेगा और कहेगा -ये सुंदर है -ये कम सुंदर है! कोई भी रूप नित्य है क्या? ये शरीर बुलबुला के समान , घड़े के समान है कभी भी टूट सकता है। विवेकी या ज्ञानी की दृष्टि रूप में अटकी नहीं होती। उसकी दृष्टि ईश्वर पर ही होती है। उसे हर नाम-रूप के भीतर और पीछे ईश्वर ही दीख रहा है, जैसे मिट्टी ही घड़े के रूप में दिख रहा था। (10:05)
4. ईश्वर ही है - यह विश्व-प्रपंच अविवेक में होता हुआ सा दीखता है :
जीव जगत सब ईश्वर ही है, तो यहाँ होना क्या है ? परम् सत्य यह है कि विश्व प्रपंच में हम जो भी रूप देख रहे हैं , सब ईश्वर से ही बना हुआ है। अज्ञान में कहेंगे कि घड़ा , सुराही , कपटी है -लोटा है। ज्ञानी को सब मिट्टी ही दिखेगा। मिट्टी नित्य है -घड़ा , सुराही , लोटा अनित्य है। घड़ा-सुराही का रूप बनता है , टूटता है , लेकिन मिट्टी को कुछ होता है क्या ? मिट्टी ही उन रूपों को धारण करता है , और उसको नष्ट भी करता है। नाम-रूपों का बनना और टूट जाना ,बनना और टूट जाना, बनना और टूट जाना,नाम-रूपों का बनना और टूट जाना -ये महाद्भुतम् ! ईश्वर ही इन सारे बुलबुलों के रूपों में हमको दिख रहा है। रूप बन रहा है , टूट रहा है ,बन रहा है , टूट रहा है। सच्चाई ये है कि कुछ भी नहीं हो रहा है -यहांपर। परम् सत्य ये है कि कुछ भी नहीं हो रहा है। जब ईश्वर ही सब है -तो होना क्या है ? ईश्वर से अतिरिक्त कुछ हैं नहीं -तो होना क्या है ? कुछ भी नहीं हो रहा है। हमको अज्ञान में होता हुआ सा प्रतीत होता है।
5. 'काम' एक विकृति है, ये क्यों आती है ?
ईश्वर ही जीव और जगत बन गया है। अविवेक में दृष्टि शरीर (घड़े) पर होगी, विवेक में ईश्वर (मिट्टी) पर। जगत (नाम-रूपों) की शरीर-केंद्रित दृष्टि से नहीं, ईश्वर-केंद्रित दृष्टि से देखो। नाम-रूपों के प्रति हमारी दो दृष्टि हो सकती है। अज्ञान में हमारी दृष्टि स्थूल रूपों (घड़े) पर टिकी हुई है। ज्ञान में हमारी दृष्टि ईश्वर (मिट्टी) पर टिकी हुई होती है। जब दृष्टि स्थूल शरीरों पर टिकी हुई है , तब हमारा व्यवहार एक प्रकार का होता है। मन में सारी विकृतियां (राग-आसक्ति -मोह या घृणा) उसी से उत्पन्न होती हैं। जब हमारी दृष्टि शरीर केंद्रित होती हैं, मन में सारी विकृतियाँ उसी से उत्पन्न होती हैं। काम ,क्रोध, लोभ, मद-मोह -मात्सर्य ,सारी विकृतियाँ उसी से उतपन्न होती हैं। 'काम' एक विकृति है। ये क्यों आती है ? काम-लोभ -यश रूपी विकृति या ऐषणा तभी उत्पन्न होता है , जब हमारी दृष्टि शरीर-केंद्रित होती है। (12:24) क्योंकि जब शरीर केंद्रित दृष्टि होगी -तभी आप कहेंगे कि ये M/F है - ये पुरुष है ये स्त्री है। तब मन में सब प्रकार की विकृतियां आती हैं। जब हम ईश्वर को शरीर केंद्रित दृष्टि, स्त्री-पुरुष देखते हैं उस वक्त क्या हम अज्ञान में बंध नहीं जाते है ? [नारद का माया दर्शन नहीं हो रहस्य ?] और वही दृष्टि जब ईश्वर केंद्रित होती है- फिर विकृतियाँ आ सकती हैं क्या ? आप देख रहे हैं उसी रूप को , लेकिन अब आपकी दृष्टि उस बाह्य स्थूल शरीर को नहीं देख रही , कहीं और-आत्मा या ईश्वर में टिकी है। तब मन में कोई विकृति आ सकती है क्या ?
6. पाठचक्र- स्वाध्याय-शिविर का अंतिम उद्देश्य है 'राम-केन्द्रित दृष्टि' को जगाना :
जहाँ काम होगा वहाँ राम नहीं होगा : This is matter to be experienced !इसको practice करके देखिये। यह अनुभव करने योग्य बात है, पर चिपकियेगा नहीं !जहाँ दृष्टि ईश्वर (कारण-शरीर अव्यक्त नाम्नी परमेश शक्ति, ज्ञानदायिनी माँ सारदा) में टिकी हुई है; अथवा जहाँ दृष्टि राम में टिकी हुई है वहाँ काम नहीं आ सकता !यही मुक्ति है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -
जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम ।
तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम ।।
सभी महापुरुषों की वाणी एक समान होती है। प्रश्न ये है कि आपकी दृष्टि कहाँ पर टिकी हुई है ? जब तक आपकी दृष्टि शरीर केन्द्रित होगी , तब तक उस दृष्टि में काम ही होगा। आप उस शरीर में चिपकने से बच नहीं सकते हो। लेकिन आपकी दृष्टि यदि राम-केन्द्रित हो , तो काम रूपी विकृति से हमारा अन्तःकरण मुक्त होता है। यही मुक्ति का लक्षणहै !
इस विवेक-चर्चा का अंतिम निर्णय है इस 'राम केंद्रित दृष्टि' को जगाना, इस ईश्वर-दृष्टि को जगाना। इस पूरे विगत के 23 सत्रों में विवेक-चूड़ामणि शास्त्र चर्चा के माध्यम से उस ईश्वर दृष्टि को जगाने का ही यह प्रयास चल रहा था। लेकिन यह स्वाध्याय निरंतर चलता रहना चाहिए। (14:00) इस राम केन्द्रित दृष्टि को अपने जीवन में धारण करने के उद्देश्य से ही प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिए। इसे केवल कुछ खास दिनों के लिए छोड़ना नहीं चाहिए। बल्कि आज से ही बहुत सावधानी पूर्वक दैनंदिन जीवन का सारा व्यवहार हमें अपने इस 'राम'-केन्द्रित दृष्टि या 'ईश्वर'-केंद्रित दृष्टि ('अल्ला' केंद्रित दृष्टि) को जाग्रत रखते हुएकरने का अभ्यास शुरू कर देना चाहिए।जब तक हम देह-दृष्टि में प्रतिष्ठित हैं, तब तक हमारा व्यवहार एक प्रकार का (चिपकने वाला ?) होगा। और यदि ईश्वर दृष्टि में प्रतिष्ठित हो तो आपका व्यवहार बिल्कुल ही भिन्न प्रकार का होगा। वो अलग प्रकार का व्यवहार ही है। यदि हम जीव-जगत को ईश्वर-दृष्टि ,अल्ला-दृष्टि' 'राम-दृष्टि से देखने के अभ्यास (आदत -प्रवृत्ति) में प्रतिष्ठित हैं तो हमारा व्यवहार दूसरे प्रकार का होगा। अर्थात हमारी आदत या प्रवृत्ति ही राम-ज्ञान सेईश्वर-ज्ञान से,अल्ला-ज्ञान से या शिव ज्ञान से जीव सेवा करने की हो जाएगी।
7.ईश्वर- केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाना ही मुक्ति (अविचलता) है :
अब आप अपरोक्ष ज्ञान (विवेकज-ज्ञान) का 'Practical Application' (व्यावहारिक अनुप्रयोग)देख लीजिये। शिविर-समापन के बाद,या साप्ताहिक पाठचक्र के बाद अब यहाँ से आपको जाना कहाँ है ? आपको अपने उसी परिवार के बीच जाना है। अपने परिवार के सभी सदस्यों को, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री पत्नी, सबको शरीर-केंद्रित दृष्टि से नहीं देख कर ईश्वर -केंद्रित दृष्टि से देखने की आदत बना लेनी होगी, प्रवृत्ति बना लेनी है। अपनी देह-केंद्रित दृष्टि को राम-केन्द्रित दृष्टि में बदल लेने को ही त्याग कहते हैं।(14:29) यही त्याग है। त्याग का अर्थ दृष्टि को बदलना है -देह केंद्रित दृष्टि का त्याग करके ईश्वर केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित होना है। यही मुक्ति है। सम्पूर्ण गीता में इसी त्याग की बात कही गयी है।
अब चलो इस त्याग और वैराग्य के तात्पर्य को समझने का प्रयास करते हैं ।त्याग का मतलब क्या आपको घर-गृहस्थी छोड़ देना है ? नहीं ! अपरोक्षानुभूति होने के बाद आपने क्या छोड़ दिया ? विवेक दृष्टि जाग जाने पर आपसे क्या छूट गया ? आपने उस देह-दृष्टि का त्याग कर दिया ! आपने अब मनुष्य को M/F की शरीर दृष्टि से देखना छोड़ दिया- देहदृष्टि को छोड़ देना ही त्याग है ! 'त्याग' शब्द सुनकर लोग डर जाते हैं। आपको घर-गृहस्थी से कहीं भागना नहीं है। ऐसा नहीं है कि आपको घर-गृहस्थी छोड़ के कहीं जंगल में भाग जाना हो। क्या छोड़ना है ? गलत दृष्टि को छोड़ना है। यह शरीर-केंद्रित जो दृष्टि है उसको छोड़कर के ईश्वर-केंद्रित दृष्टि का अवलम्बन करना है। पुनः-पुनः अभ्यास के द्वारा राम-दृष्टि में प्रतिष्ठित रहने की आदत बना लेनी है, उसकी प्रवृत्ति बना लेनी है।यही त्याग है। जब देह-केंद्रित दृष्टि को हम छोड़ देते हैं , तो उससे सम्बंधित जितनी विकृतियाँ हैं , जितनी बीमारियाँ है - वह सब अपने-आप ही छूट जाती हैं। और जब कोई मनुष्य स्वाभाविक रूप से ईश्वर-केन्द्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाता है , तो उससे सम्बन्धित उसके जितने व्यवहार होंगे -उसी में सुख है , उसी में परमानन्द है, उसी में मुक्ति है। उसी में तृप्ति है। उसी में पूर्णता (अविचलता ?) है। (15:31) और तब ईश्वर से सम्बन्धित जितने (24) गुण हैं , वो हम प्राप्त कर लेते हैं ! लेकिन शरीर केन्द्रित दृष्टि हो तब शरीर से सबंधित जितनी बीमारियाँ हैं, जितनी विकृतियाँ हैं , हम उस बीमारी में ही ग्रस्त रहते हैं। हम अपने -पराये के भ्रम में जलते रहते हैं। तो देखिये ये दो दृष्टि (नजर) से जगत को देखने की बात है।
इस प्रकार त्याग क्या है ? ये जो देह-केंद्रित हमारी जो दृष्टि है उससे ऊपर उठना, और ईश्वर-केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित होना यही त्याग है। (ठाकुर कहते थे गीता को उलट कर तागी कर दो -त्याग ही गीता की शिक्षा है।) लेकिन प्रचलित शिक्षा-व्यवस्था में इस दृष्टि -परिवर्तन के अभ्यास द्वारा चिरत्र-निर्माण और जीवन गठन की शिक्षा नहीं दी जाती है। इसीलिए 'त्याग' की बात सुनकर लोग डर जाते हैं। सोंचने लगते हैं -अभी क्या मैं अपने माँ -बाप को छोड़ दूँ ? अब कोई पति है , तो वो अपनी पत्नी को छोड़ देगा ? त्याग का ऐसा अर्थ नहीं है। या कोई पत्नी है -तो क्या वो अपने पति को छोड़कर कहीं भाग जायेगी ? ऐसा नहीं करना है। त्याग का अर्थ दृष्टि को बदलना है। अब पति के लिए पत्नी को देखने की कोई देह-केन्द्रित दृष्टि नहीं होगी , ईश्वर-केंद्रित दृष्टि होगी। और पत्नी के लिए भी पति के प्रति राम-केंद्रित दृष्टि होगी। उसी प्रकार हमारे, माता-पिता , भाई-बहन और बच्चे। पुत्र -पुत्री, नाती-पोता, सगे-सम्बन्धी, सहकर्मी या सेवाकर्मी सभी के प्रति जब आपकी ईश्वर-दृष्टि होगी तो आपका व्यवहार कैसा होगा ? अब आपके व्यवहार में अब काम रूपी सभी विकृतियों का अभाव ही होगा। और उसमें परमानन्द होगा ! (16:42)
8. ईश्वर -केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाने का मापदण्ड : राम या काम ?
जो व्यक्ति गृहस्थ होते हुए भी ईश्वर-केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाता है, उसका तो गृहस्थ जीवन जो है-वही अपने आप में आश्रम बन जाता है। तो देखिये शंकराचार्य जी यहाँ गृहस्थाश्रम की बात कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फरामकृष्ण-आश्रम है , दृष्टि बदल जाने से अपना घर ही आश्रम बन जाता है। जब ईश्वर-केंद्रित हमारा जीवन होता है , तो हमारा घर ही आश्रम बन जाता है। वही है गृहस्थाश्रम ! त्याग की महिमा को समझ रहे हैं ? त्याग का मतलब कहीं भागना नहीं है। स्थूल शरीर के स्तर पर-वेशभूषा, आहार-विहार में कुछ परिवर्तन नहीं करना है , लेकिन जब आप ईश्वर-दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाओगे तो आपकी पहचान क्या होगी ?
ये प्रश्न उठ सकता है किहमारी दृष्टि ईश्वर-केंद्रीत हो गयी है नहीं ? -इसका मापदण्ड क्या हो सकता है ? वैसे तो मैं अपने मन ही मन में सोंच सकता हूँ कि हाँ मुझे तो अपरोक्षानुभूति हो गयी है, और मेरी दृष्टि तो हमेशा ईश्वर-केन्द्रित ही रहेगी। लेकिन आपकी ईश्वर-केंद्रित दृष्टि हुई या नहीं -इस बात को कैसे परखेंगे आप ? इस ईश्वर-केंद्रित दृष्टि का मापदण्ड क्या हो सकता है? (17:32) उसका माप दण्ड यह है कि उस व्यक्ति के अंदर अब काम रूपी विकृति जो है -वह कम होती जाएगी, और धीरे-धीरे घटती जाएगी। ये उसका मापदण्ड है। आपकी दृष्टि जितना ईश्वर केंद्रित होगा , वहाँ पर फिर कामरूपी विकृति जो है वो काम नहीं कर सकता। यही राम-केंद्रित दृष्टि का मापदण्ड है। क्योंकि जहाँ ईश्वर है , जहाँ राम है -ये काम असम्भव है। ये दोनों एक दूसरे को मार देते हैं। (चाहे राम रहेंगे या काम रहेगा !) और जहाँ कोई (साधक होकर भी) कामाग्नि में जल रहा है, आप यदि काम अग्नि में डूबे हुए हो, वहां राम दूर-दूर तक नजर नहीं आयेंगे -असम्भव ! इन दो चीजों का एक साथ रहना असम्भव है। समझ रहे हो ? क्यों ? हमारी संस्कृति में (जगतगुरु श्रीरामकृष्ण -नरेन्द्रनाथ दत्त परम्परा में) परमहंस रामकृष्ण देव के उपदेशों को (श्रीरामकृष्ण वचनामृत को) जब आप पढ़ेंगे तो देखेंगेपरमहंस रामकृष्णदेव हर पन्ने पर-काम का त्याग, काम का त्याग ,हर पन्ने पर कहते हैं,काम का त्याग- ही त्याग है। काम का त्याग ही त्याग है !
9. काम का त्याग ईश्वर की कृपा से ही होता है : लेकिन काम का त्याग क्या इतनी आसानी से होगा ? कौन कर सकता है ? (हाथ ऊपर करके) वो ईश्वर की कृपा से ही होता है। जब ईश्वर की कृपा से , इस पगली माई की कृपा से, (ज्ञानदायिनी माँ सारदाकुष्माण्डा माता की कृपा से) जब हमारी बुद्धि ईश्वर-दृष्टि में प्रतिष्ठित लगती है , तब धीरे धीरे हम काम से ऊपर उठना शुरू करते हैं। हो सकता है -हम कई बार गिर जाएँ ! पर कोई बात नहीं -ये एक दिन में सफल नहीं होने वाला है। हम कई बार विफल हो जाएँ -कोई बात नहीं। लेकिन ये प्रक्रिया चलनी चाहिए। कोई भी मनुष्य एक दिन में Perfect नहीं होता।
लेकिन काम से ऊपर उठने का मार्ग यही है - देह-केंद्रित दृष्टि को ईश्वर-केंद्रित दृष्टि में बदलने का अभ्यास करते रहना। कामाग्नि में गिरना यानि उस गड्ढे में गिरना , जिसका तल है ही नहीं। उस कामाग्नि में व्यक्ति जल जायेगा, उसका जीवन खत्म हो जायेगा। लेकिन कहीं भी हम पहुँचेंगे नहीं ! और इस शरीर दृष्टि से ऊपर उठने का मार्ग क्या है ? दृष्टि देह से हटाकर के ईश्वर-केंद्रित -दृष्टि को लाना। स्थूल शरीर के भीतर और पीछे अंदर झाँक कर देखिये , थोड़ा सा गहराई से देखने का अभ्यास कीजिये। तो आपको दिखाई देगा -इस स्थूल शरीर के अंदर -ईश्वर (त्रिगुणात्मिका माया के त्रिगुणों में से कोई एक गुण-रजोगुण ?) ही तो बैठे हुए है!
उस ईश्वर में दृष्टि को केन्द्रीभूत करके जब आप व्यवहार करोगे , तो आप सभी प्रकार की शारीरिक-मानसिक समस्याओं से आप बच जाओगे। उससे जो आनन्द होगा, आप अभी उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। स्वभाव से ही आप तृप्त रहोगे , स्वभाव से ही आप आनंदित रहोगे। हर समय अन्तःकरण में एक पूर्णता (अविचलता) की भाव होगी। आपको कुछ करना नहीं पड़ेगा। बड़ा अद्भुत दृष्टि है।
10. दो प्रकार की दृष्टि का फल या परिणाम -
सभी महापुरुष आपको पूर्ण सन्तुष्ट और आनन्द में क्यों दीखते हैं ? आप इन महापुरुषों के चित्र को ही देखो न ! इस विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ को पढ़ते वक्त इन महापुरुषों को सोंच लेना चाहिए। ये ऐसे क्यों हैं ? (20:02) सभी महापुरुषों की दृष्टि शरीर में नहीं, शरीर के भीतर और पीछे ईश्वर में प्रतिष्ठित रहती है।अच्छा हम ऐसे क्यों हैं ? समझ रहे हो? हम ऐसे क्यों हैं ? और ये महापुरुष ऐसे क्यों हैं ? क्या उनके दो हाथ दो पैर नहीं हैं ? हमारे भी तो दो हाथ दो पैर ही हैं ! है कि नहीं ? लेकिन क्या अन्तर है ? उनके अन्दर ये कोई भी विकृतियाँ (काम,क्रोध,लोभ,मोह, मद और मात्सर्य में से एक भी विकृति) नहीं हैं। क्यों नहीं है ? वे कहाँ प्रतिष्ठित हैं ? वे ईश्वर में प्रतिष्ठित हैं ! वे ईश्वर में (अपने सत्यस्वरूप में) प्रतिष्ठित हैं। हमारे अन्दर ये विकृतियाँ भरी हुई हैं। क्यों ? हम शरीर में प्रतिष्ठित हैं। हम उस शरीर में प्रतिष्ठित हैं जो अनित्य है मिथ्या है !
11. नेता के प्रेमस्वरुप होने का रहस्य :
तो इन दो प्रकार की दृष्टि के फल को समझ लेने के बाद अंतिम निर्णय यह है कि, ये जो भी नाम और रूप हमको दिखाई दे रहे हैं , इन सभी नाम-रूपों में एक ईश्वर ही है। जो इतने रूपों में खेल रही है। एक नारायण ही हैं -जो इतने रूपों में खेल रही है। ये नारायण का खेल चल रहा है -ऐसा देखिये। ये नारायण प्रभु परमेश्वर का खेल चल रहा है। जीवन-मृत्यु रूप खेल ,सृष्टि-स्थिति -प्रलय रूपी खेल, सुख-दुःख रूपी खेल , ईश्वर ही सभी रूपों में यहाँ पर है। कितनी सुन्दर दृष्टि है ये सभी भक्तों की और ज्ञानियों की दृष्टि है। वे महापुरुष इसी प्रकार की दृष्टि से जगत कोदेखते हैं। इस प्रकार की दृष्टि वाले किसी व्यक्ति मन जो है -या ह्रदय जो है वो प्रेम से भरा हुआ होता है। क्योंकि ज्ञानी और भक्त सर्वत्र एक ईश्वर को ही देख रहा है। यही प्रेम का रहस्य है! यही तो प्यार है! This is what is love ! you understand ? Which is completely based on the body ideas, the Gender ideas, is that love ? That is pure attachment! That is pure darkness ! समझ रहे हो?
12. देह-दृष्टि फिर न लौटे - इसलिए चिपकना सख्त मना है :
लेकिन जो दृष्टि पूरी तरह से शरीर-केंद्रित और लिंग के विचारों पर आधारित हो, क्या वो प्यार है? वो शुद्ध आसक्ति है! वो शुद्ध अंधकार है! उससे सावधान रहो। तुम्हें सावधान रहना ही होगा! Be careful about that .You have to Be Careful !(-and Make others Careful )! तो वो जो attachment है , वो आसक्ति है, उसी आसक्ति से बचना चाहिए। यह बात- "चिपकना मना है", इस समय सुनने में थोड़ा अच्छा लग रहा होगा। लेकिन इसको अपने चिंतन-और व्यवहार में अपना लेना -बहुत बड़ी बात है। सबसे बड़ी बात है।It has to be taken very seriously! इसे बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए ! तो Ultimately या अन्त में आप देखोगे ; व्यवहार में जब हम इस आचरण को उतारने का अभ्यास करेंगे , उस समय हमें इस बात की सावधानी बरतनी है , की चिपकना सख्त मना है-Sticking is strictly prohibited ! क्योंकि Sticking होती क्यों है ? जब हमारी दृष्टि शरीर केंद्रित होती है ,तभी इस Sticking के भँवर में हम फँस जाते हैं।ईश्वर केंद्रित हमारी दृष्टि होगी तो , आप इस Sticking रूपी बीमारी से ऊपर उठ जाते हो। तब आप Non stick हो जाते हो। Non stick pan होता है न ? जिसमें आप कुछ भी डालो कुछ नहीं चिपकता। तब हमलोग वैसा हो जायेंगे। ये कुछ व्यावहारिक बातें अपरोक्षानुभूति से जुड़ी हुई थीं !
13. ईश्वर -केंद्रित दृष्टि (आत्मा) में प्रतिष्ठित होने फल :
जैसे ये दृष्टि तब आती है जब आपको पता होता है कि आप आत्मा हो। अगर किसी Student को पता होता है कि वो आत्मा है ;तो और भी बेहतरीन Student बनेगा ! किसी डॉक्टर को यदि पता हो कि वो आत्मा है -तो वह और भी हजारगुना ज्यादा बेहतरीन डॉक्टर बनेगा। कोई लॉयर या इंजीनियर है , आप जिस किसी भी प्रोफेसन में हो और अगर आपको पता हो गया कि आप आत्मा हो , आप यदि एक बार ईश्वर-केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित हो गए, तो आपके अंदर जो क्षमतायें हैं , वो 1000 गुना और भी बढ़ जायेंगी। ऐसा क्यों होता है ? एक Student की ही बात लेते हैं। Student की दृष्टि अगर ईश्वर-केंद्रित हो , या फिर उसकी दृष्टि अगर देह -केंद्रित हो ? अगर Student अपने को सिर्फ एक शरीर बोलकर ही जानेगा , तो शरीर से सम्बन्धित जितनी काम की विकृतियाँ हैं , उसके मन में उठता ही रहेगा। उस छात्र की पढाई में सबसे बड़ी बाधा यह काम की विकृति ही है। कोई शक ? (23:52)
14. छात्रों का मन एकाग्र क्यों नहीं होता ?
क्या यह विचारणीय विषय नहीं है? बच्चे प्रश्न करते हैं - मन एकाग्र क्यों नहीं होता ? गार्जियन बता नहीं पाते कि पढाई की ओर ध्यान क्यों नहीं जाता है ? ध्यान पढ़ाई पर क्यों नहीं जाता ? इस काम-विकृति के कारण ही Student- छात्र-छात्रायें पढ़ नहीं पाते हैं अपने मन को पढाई पर focus नहीं कर पाते हैं , मन को एकाग्र नहीं कर पाते हैं। यह एक गहन मनोविज्ञान है। It is a profound psychology!Is this not a point to ponder ? (24:09) क्यों जायेगा ? क्योंकि मन का तो अपहरण हो गया।Because the mind has been kidnapped ! मन का अपहरण किसने किया है ? काम ने किया है ! ये सच्चाई है कि नहीं ? बताइये मुझे ? युवा पीढ़ी की कितनी बड़ी सच्चाई है ? काम रूपी राक्षस के द्वारा उसके मन का अपहरण हो गया है। और काम रूपी राक्षस तब तक काम करेगा , जब तक आपकी दृष्टि देह केंद्रित है। जब तक आप सिर्फ स्त्री-पुरुष,स्त्री-पुरुष ,स्त्री-पुरुष ,स्त्री-पुरुष , देखते रहते हैं ,तब तक तो आप इस काम रूपी राक्षस से बच नहीं सकते हो ! समझ रहे हो ? और वही Student उसके अंदर अगर यह बुद्धि आ जाती है कि मैं यह शरीर नहीं -वो आत्मा हूँ ? वो ईश्वर-दृष्टि आ जाती है , तब काम की विकृति या तो शुरुआत में कम होने लगेगी या धीरे-धीरे वो काम पूरी तरह से शांत हो जाएगी। अब बताओ उसके पढाई ने क्या बाधा आ सकती है ? (25 :00) Will there be any any obstacle in the study of that student ? क्या अब उस छात्र की पढ़ाई में कोई बाधा आएगी? उसका मन कितना एकाग्र होगा ? समझ रहे हो ?
इसी प्रकार अब कोई डॉक्टर है , उस डॉक्टर की दृष्टि अगर देह केंद्रित हो अपने आप को देह समझ रहा हो ? तो वह डॉक्टर कभी भी निःस्वार्थ नहीं हो सकता। वो डॉक्टरी कर क्यों रहा है ? वो डॉक्टरी कर रहा है तो सिर्फ धन अर्जन करने के लिए। वो लूटेगा रोगी को। वैसे बहुत से अच्छे -अच्छे डॉक्टर्स भी हैं। लेकिन Generally - जो Medical Professional होते हैं - हम जानते हैं , इस क्षेत्र में कितना लूट चलता है। निर्दय होकर के गरीबों का खून चूस लेते हैं। जरा सी भी दया नहीं है ? कि भाई सामने वाला मरीज के पास पैसा नहीं है ; उसको भी Exploit करते हैं , गरीबों का भी शोषण करते हैं। पैसा नहीं है - तो सोना-चाँदी का गहना रखवाकर ईलाज करेगा। उसको क्या क्या test करने बोलेगा ? क्यों ऐसा होता है ? मैं शरीर हूँ और ये सब कुछ मेरा स्वार्थ है। अब उसी डॉक्टर के अंदर अगर आत्मदृष्टि हो , ईश्वर दृष्टि हो तो वो रोगी के अंदर भी नारायण देखता है , ईश्वर देखता है। तब वह किस प्रकार डॉक्टर होगा ? He will be the best Doctor, He will be able to deliver the best .Is it not ? वह सबसे अच्छा डॉक्टर होगा, वह सबसे अच्छा इलाज करने में सक्षम होगा। क्या ऐसा नहीं है?
See the practical application of this truth ! इस सत्य का व्यावहारिक अनुप्रयोग देखें। सत्य दृष्टि में , आत्मदृष्टि में , ईश्वर दृष्टि में केंद्रित रहने से आपका Profession जो भी हो , You will be the best , you will be excellent in that field .आप सर्वश्रेष्ठ होंगे, आप उस क्षेत्र में सबसे उत्कृष्ट होंगे। और मिथ्या दृष्टि में आपकी शक्तियाँ संकुचित हो जाती हैं। सीमित हो जाती है। आप स्वार्थी हो जाते हो। सबकुछ संकुचित हो जाता है। और जब आत्मदृष्टि आती है , उस दृष्टि में आपकी सम्भावनाओं और योग्यताओं की कोई सीमा नहीं है। ये इस अपरोक्षानुभिति का, वेदांत का व्यवहारिक उपयोग है। Is this not the point to ponder ? क्या यह विचारणीय बिन्दु नहीं है? ये सब आपको अपने दैनन्दिन जीवन में परख कर के देखना होगा। ऐसी आत्मदृष्टि रहने से मेरा अपना जीवन कितना सुंदर हो जायेगा ! और क्या ? अब आप जा सकते हो। सब शिक्षा तो पूरी हो गयी न ?(27:00)
15.सनातन हिन्दू जीवन-पद्धति का वर्णाश्रम धर्म :
अच्छा शरीर-केंद्रित दृष्टि के परिणाम स्वरुप उत्पन्न आसक्ति या राग के विषय में एक कहानी बाकि है। 'चिपकना मना है' के चेतावनी वाक्य के ऊपर ही पुराणों की यह कहानी आधारित है। Sticking is strictly prohibited! चिपकना सख्त मना है ! क्योंकि Sticking is that what kills us . क्योंकि चिपकना ही वह चीज है जो हमें (सत्य दृष्टि को राम -दृष्टि को) मार देती है। तो आदमी जब चिपक जाता है , तो कैसे बंध जाता है। ये हमने समझा कि एक बुलबुला जब दूसरे बुलबुले से चिपक जाता है -तो उसका अंजाम क्या क्या हो सकता है। और इस चिपकने की बीमारी के जड़ में सिर्फ अज्ञान ही है , अविवेक ही है और कुछ नहीं है।
तो अब हमारे हिन्दू सनातन धर्म की संस्कृति में -( वर्णाश्रम धर्म में )आप लोग जानते हो कि जीवन को चार भागों में विभाजित कर दिया है। यही हमारा आदर्श जीवन था। ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम , वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम। ये परम्परा हमारे देश में अनादिकाल से चल रहा है। अभी पिछले 100 -150 सालों में ही यह बंद हुआ है। जब से पाश्चात्य संस्कृति यहाँ घुस गयी है, तब से ये सब विचार हमसे छूट गयी हैं। हमारी जो एक आदर्श जीवनशैली थी , उसको हमने हटा दिया और पाश्चात्य संस्कृति हमने अपना लिया। पाश्चात्य शिक्षा पद्धति को हमने अपना लिया, इसलिए आज के बच्चों को ये सब आदर्श-जीवनशैली के बारे में कुछ भी पता नहीं है। इसमें उनका दोष नहीं है , हमने एक ऐसे system को अपना लिया है, इसीलिए भावी पीढ़ी को अपनी आदर्श संस्कृति के विषय में कुछ पता ही नहीं है। (29:00)
हम सिर्फ नाम के हिन्दू ही रह गए हैं। This is another big irony. ये एक दूसरी बड़ी विडंबना (irony) याअदृष्टविधानहै। आप देखोगे 99 % हिन्दुओं को ये पता ही नहीं है कि हिन्दू धर्म क्या है ? हमें अपने धर्म के सिद्धान्तों के विषय में कुछ भी पता नहीं है, यही इसका सबसे दुखद पहलू है। ये सच्चाई है कि नहीं ? We have no idea , that is the saddest part of it . और आज के बच्चे ऐसे बड़े हो रहे हैं , कि वे लोग हिन्दू विरोधी हो रहे हैं। ये सबसे खतरनाक चीज है , क्योंकि पाश्चात्य शिक्षा ने उनका Brainwash कर दिया है, उनकी बुद्धि भ्र्ष्ट कर दी है। उनको पट्टी पढ़ा दी है। उनको अपने ग्रंथों के बारे में कुछ भी पता नहीं है , क्योंकि उनका जबरदस्ती मतपरिवर्तन कर दिया है। अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति और पाश्चात्य विचारधारा से बच्चों का इस प्रकार से Brainwash कर दिया है , वे हिन्दू विचारधारा से , हिन्दू सिद्धांतों से विद्वेष करने लगे हैं। अपने ही धर्म को तुच्छ नजरों से देखने लगते हैं। ये विडंबना है।
जो भी हो , लेकिन अनादि काल से हमारे देश की संस्कृति की जीवनशैली इस प्रकार की थी कि जीवन का चार विभाग है ! ब्रह्मचर्य आश्रम में जो प्रथम 25 वर्ष होते हैं -जीवन का वह भाग विद्या ग्रहण के लिए होता है। जिस भाग में लड़का और लड़की दोनों ही जो विद्यार्थी हैं ,वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। ब्रह्मचर्य का पालन आप समझ रहे हैं ?काम-भोग से ऊपर। क्योंकि वह समय कामभोग के लिए नहीं है , जीवन का वो कालखण्ड सिर्फ विद्यार्जन के लिए है। एकाग्रता का अभ्यास सीखकर , एकाग्रचित्त से शिक्षण ग्रहण करे , और
हमारे यहाँ पर शिक्षण का पाठ्यक्रम कैसा होता था ? A blend of physics and spiritual science !उस प्रशिक्षण पद्धति का curriculumभौतिक-विज्ञान और आध्यात्मिक विज्ञान का मिश्रण होता था। क्योंकि यही श्रीरामकृष्ण -नरेन्द्रनाथ हिन्दू गुरु-शिष्य परम्परा की आदर्श शिक्षण पद्धति है ! और उसमे अध्यात्मविद्या (spiritual science ,अष्टांगयोग या राजयोग का प्रशिक्षण) ही प्रधान होती थी। और भौतिक विज्ञान भी पढ़ाया जाता था। हमारे देश में ही तो सबकुछ आविष्कृत होता था। खगोल विज्ञान, भौतिकी, ज्यामिति, बीजगणित - Astronomy, Physics, Geometry, Algebra -सब तो यही से गया हुआ है ! पता है न आपको ? यह भारत ही सब ज्ञान-विज्ञान की जन्मभूमि है। The birthplace of all knowledge and science is here. बड़ा अद्भुत है भारत भूमि! इसलिए सभी युवाओं को स्वामी विवेकानन्द के 'भारतीय व्याख्यान' पुस्तक या अंग्रेजी में Lectures from Colombo to Almora' पुस्तक को अवश्य पढ़ना चाहिए। उस पुस्तक में महान भारतीय हिन्दू संस्कृति की महिमा के विषय में स्वामी विवेकानन्द इतना भावा -आवेश में आकर, इतना Passionately कहते है - ये भारतवर्ष अद्भुत है ! ये सभी ज्ञान-विज्ञान की जन्मभूमि है ! ये पुण्यभूमि है -तुम जानलो ! इस भूमि से कोई भी श्रेष्ठ भूमि इस पृथ्वी पर नहीं है। This is the greatest land and the Hindu dharma is the greatest Religion ! यह भारतवर्ष महानतम भूमि है और हिन्दू धर्म महानतम धर्म है! बाकि जितने भी धर्म हैं , वे सब केवल "distant echo, reflection of this greatest religion called Hindu Dharma" स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म को सभी धर्मों की जननी कहते हैं। Hindu Dharma is the mother of all religions ! All other religions are just distant reflections ! अन्य सभी धर्म केवल इसके दूर के प्रतिबिंब हैं। We should be proud about it !हमें इस पर गर्व होना चाहिए! भारत राष्ट्र , हिन्दू राष्ट्र , हिन्दू धर्म ! यह सर्वश्रेष्ठ है -इस पर हमें गर्व होना चाहिए। (31 :34)
जो हो , तो ये है हमारी जीवन शैली जिसमें प्रथम 25 वर्ष तक विद्या-ग्रहण (अध्यन नहीं ग्रहण) के लिए है और उसमें ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। वहाँ पर बच्चों भैतिक ज्ञान के साथ आध्यात्मिक विज्ञान भी सिखाया जाता है कि देखो मनुष्य जीवन का लक्ष्य है -आत्मलाभ अर्थात ईश्वरलाभ ! विगत के 23 सत्रों में हमने जो अध्यन किया - पढ़ा ? इस बंधन से मुक्ति को प्राप्त करना परम् पुरुषार्थ है ! भवबंधन के खण्डन को परम् पुरुषार्थ क्यों कहा गया ?सभी लोग वहाँ - आत्मज्ञान तक Directly नहीं पहुँच सकते हैं !! (32:03) क्यों ? क्योंकि सभी लोग -काम से (या कामुकता Passion से) suddenly मुक्त नहीं हो सकते हैं। तो धीरे -धीरे 3H विकास की एक process है ; जिसे बता दिया गया है ; एक जीवन-गठन और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया है -जिसका प्रशिक्षण लेना पड़ता है। (ऐषणाओं से मुक्त होने का अष्टांग मार्ग है ! जिसको स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make वेदांत शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में सीखना पड़ता है।)
16.गृहस्थ आश्रम का दर्शन क्या है?
लेकिन विद्या-अध्यन के बाद भी सभी लोग तो संन्यासी नहीं हो सकते ? संन्यासी कोई एक-दो ऐसे विरल लड़के या लड़की हो सकती है जिसके अन्दर तीव्र वैराग्य है और उतना विवेक भी है - तो हो सकता है कि वह गृहस्थ आश्रम को न अपनाकर सीधा संन्यास आश्रम में चला जाये , या चली जाये। लेकिन ये बहुत ही विरल है। तो बाकि के 99 % जो बच्चे हैं , उनको तो गृहस्थ आश्रम में जाना ही है। लेकिन गृहस्थ आश्रम में जाते समय - (बारात में दूल्हा बनते समय?) उनको भी सब कुछ पता है कि गृहस्थ आश्रम का असली Philosophy क्या है ? (32:31) गृहस्थ आश्रम कोई भोग करने का स्थान नहीं है ; लेकिन वहाँ भोग के लिए भी स्थान है। वहाँ पर भोग परम् लक्ष्य नहीं है। लेकिन भोग के लिए भी भी स्थान है। गृहस्थ आश्रम Very fine system-बहुत बढ़िया प्रणाली है, सभी भोगों के अंदर से व्यक्ति ऊपर उठ रहा है। भोग से ऊपर उठने का प्रयत्न कर रहा है। स्त्री-पुरुष एक साथ आकर के वो एक दूसरे के मददगार हैं। They are helpers of each other ! So beautiful ! स्त्री-पुरुष दोनों में मनुष्य के प्रति विवाह से पहलेदोनों की दृष्टि क्या है ?ईश्वर दृष्टि है। ना कि शरीर दृष्टि। ईश्वर को केंद्र बनाकर के, वे विवाह करते है, और एक गृहस्थी में वे प्रवेश कर जाते हैं। विवाह करके उनके सन्तान हो जाते हैं। और फिर जब संतान बड़े हो जाते हैं , अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं , तब वो जो पतिपत्नी थे -उन्होंने काम को समझ लिया। इसमें कुछ नहीं है। अब वे उस कामभोग से ऊपर उठ गए हैं। लेकिन विवाह का लक्ष्य काम से ऊपर उठना है। न की कामभोग में डूबे रहना। हमारे संस्कृति में यही सबसे बड़ा सीख है। समझ लीजिये कि पतिपत्नी का उम्र 50 -55 का होगया। बच्चे बड़े हो गए हैं। तब पुराने जमाने में वे घर को छोड़कर चले जाते थे। अभी तो वैसा करना सम्भव नहीं है। पुराने जमाने में जब पति-पत्नी की 50 -55 की हो जाती थी , बच्चे बड़े होकर अपने पैर पर खड़े हो जाते थे ; तब ये पति -पत्नी अपने घर को त्याग करके , वन में प्रस्थान कर जाते थे। ताकि पूरे समय को वे ईश्वर के ध्यान में लगा सके। देखिये ऐसा पुराने जमाने में होता था। 150-200 साल पहले तक भी ऐसा होता था। और वहाँ पतिपत्नी एक ऐसा जीवन जीते हैं , जो की पूरीतरह से ईश्वर-केंद्रित है। देह-केंद्रित जीवन से ऊपर उठकरके ईश्वर-केंद्रित उनका जीवन चल रहा है। और अगर ऐसे जीवन जीते हुए इतना ऊपर उठ जाएँ कि वे संन्यास ले लें। पर होगा अंत में। तो देखिए हमारे ऋषियों ने ऐसी एक जीवन शैली बनाई है कि जिससे स्त्री और पुरुष दोनों धीरे -धीरे इन काम बंधनों से ऊपर उठ जाएँ। हमारी वर्णाश्रम व्यवस्था धीरे-धीरे इन कामादि बंधनों से ऊपर उठने की ब्यवस्था थी। कितना सुंदर। This is the philosophy of life ! यही उस जीवन का दर्शन है, जो अपने को अपने को , अपनी अव्यक्त सम्भावनाओं को अभिव्यक्त कर लेती है। पूरे पृथ्वी में कहीं ऐसी व्यवस्था है? पूरे पृथ्वी में कहीं है ? कहीं नहीं है ! यह सिर्फ इस भारत वर्ष में ही, हिन्दू समाज में ही, इस प्रकार होता है और कहीं नहीं होता। (35:10)
17. जड़ भरत की कहानी :
अब उस पौराणिक कहानी पर आते हैं। एक राजा था , उसका नाम भरत था। उनके नाम से ही इस देश का नाम भारत है। राजा भरत पूरे साम्राज्य के राजा थे। और एक आदर्श गृहस्थ के समान उसने गृहस्थ आश्रम का पालन किया है। पतिपत्नी के साथ जब बच्चे बड़े होगये हैं। राजा भरत जब 50 -55 के हो गए तो उनके मन में आता है कि -बस ! सबकुछ देख लिया ! जो भोग था वो भी देख लिया। वो बिल्कुल निस्सार है। भोग में क्या है ? तब एक दिन ये राजा ये निश्चय कर लेते हैं -बस मैं अब अपने इस राज्य को छोड़कर के वानप्रस्थ आश्रम को स्वीकार कर रहा हूँ। सोंच कर देखिये - बड़े बड़े राजा गृहस्थ आश्रम का त्याग किया करते थे। इस देश के बड़े बड़े राजा एक समय आने पर ऐसा ही किया करते थे। अपने राज्य को त्याग करके वन में चले जाते थे। ऐसा करने के लिए कितनी बड़ी साहस की आवश्यकता है ? (36:30) Is it not ? कितना guts होना चाहिए ! जाने में कितना साहस चाहिए ? वह राजा जो महलों में रहता था , जो ऐसे मोटे -मोठे मखमली गद्दों पर सोता था ; जो सोने -चाँदी की थाली में खाता था , छप्पन भोग के पकवान खाता था , और सब प्रकार के भोगों में डूबे रहने वाले एक राजा सबकुछ छोड़कर सिर्फ एक वस्त्र में महल से निकल कर जंगल में प्रस्थान कर जाता है। What a strong resolution ! कितना दृढ़ संकल्प है! मतलब उस राजा में राज्य-भोग के प्रति कोई आसक्ति नहीं है। हमारे चर्चा का मुख्य विषय इस आसक्ति को समझना ही है। किसी व्यक्ति के अंदरअविद्या के बंधन से (स्मिता -राग-द्वेष-अभि-निवेश के बंधन से ) मुक्ति पाने के लिए कितनी दृढ़ अनासक्ति होनी चाहिए ? (37:12) हम साधारण गृहस्थों में अपने छोटे से धन-सम्पत्ति के प्रति कितनी आसक्ति होती है , कितना राग होता है ? (या षड्यंत्रकारी नाते-रिश्तेदार घर में घुस कर दो भाइयों में फूट करवा देते हैं !) इस राजा के अंदर वो आसक्ति बिल्कुल भी नहीं थी। इतने बड़े साम्राज्य को भी छोड़करके वो वन की ओर प्रस्थान कर जाता है। एक वस्त्र में ! अब राज्य से बहुत दूर एक वन में जाकर के , अब तो दूरी का कोई अर्थ ही नहीं है। उस जमाने में घर छोड़ कर वन में जाना -मतलब फिर कभी देखना होगा या नहीं ? पता नहीं ! ऐसा ही होता था। उस समय का भारत तो और भी कितना विशाल राष्ट्र था। लेकिन आज तो इसकी चौहद्दी छोटी हो गयी है। वे वन में जाकर अपने हाथों से मिट्टी की एक छोटी सी कुटिया बना लेते हैं। वह राजा जो एक राजमहल में रहता था , अब अपने हाथों से एक छोटा सा मिट्टी की कुटिया बनाता है। उस कुटिया में रहने लगता है। और खाता क्या है ? फल खाता है , कन्दमूल खाता है , शायद एक गाय है। उसके दूध से उसका काम चल जाता है। ऐसा क्यों कर रहा है ? क्योंकि सारा समय उसको अब अपने मन को ईश्वर में लगाना है। वन में जाने का जो मुख्य उद्देश्य है - 'मन को अनात्मा में जाने से खींचकर आत्मवस्तु में लगाना' (अष्टांग मार्ग से आत्मानुभूति करना?) वानप्रस्थी को वन में जाने का मुख्य उद्देश्य क्या है ? वह उद्देश्य हर समय स्पष्ट होना चाहिए। (38:27) राज्य को छोड़ा क्यों ? मन को ईश्वर में लगाने के लिए राज्य छोड़कर गया ? वन में क्यों गया ? मन को शरीर से हटाकर उस ईश्वर (आत्मा या ब्रह्म) में लगाने के लिए जो सभी के भीतर है। सभी के भीतर ईश्वर ही है न ? उस ईश्वर -दृष्टि में प्रतिष्ठित होने के लिए ही तो वानप्रस्थ आश्रम है। नहीं तो फिर हम निर्जन में कोई मौज मस्ती करने के लिए नहीं जा रहे हैं। निर्जन में जाने का मुख्य उद्देश्य है - अब सारा समय ईश्वर की उपासना करने के लिए है। अपने मन को ईश्वर में (अवतार वरिष्ठ में) केन्द्रीभूत करने के उद्देश्य से ये राजा अब अधिकतर समय , ध्यान में उपासना में मग्न रहता है , बस कन्दमूल , दूध-फल खाता है। उसी से उसके शरीर का निर्वाह होता है। अब सारा दिन ईश्वर में ध्यान लगा रहा है , देखिये संसार से कितना अनासक्त होना चाहिए ? वह राजा भरत नाम-रूपी बुलबुला दुनिया के बाकि सभी बुलबुलों से कितना अनासक्त हो गया ? वह सिर्फ समुद्र रूपी ईश्वर (या अवतारवरिष्ठ) के नाम-रूप-लीला-धाम में ही मन लगा रहा है। वह राजा रूपी बुलबुला वानप्रस्थ में जाकर दूसरे बुलबुलों से कितना अनासक्त हो गया ? राज्य (बिजनेस) भी तो एक बुलबुला है - उससे भी अनासक्त हो गया। अब उसमें कोई आसक्ति नहीं है। सारी आसक्ति सारा राग छोड़ करके ये बुलबुला अब सिर्फ समुद्र रूपी उस ईश्वर (सच्चिदानन्द , ब्रह्म , आत्मा) में ही अपने अंतःकरण को लगा रहा है। क्या सुंदर ? यही तो जीवन का लक्ष्य है। उस राजा की कुटिया के सामने से एक नदी बहती थी। उसी नदी के किनारे एकांत में बैठकर वो ध्यान करता था। एक दिन जब वो ध्यान कर रहा था , थोड़ी देर के लिए आंख खुल गयी। अचानक उसने देखा, उस नफ़ी में किसी हिरण का एक नवजात बच्चा , बह रहा है और छटपटा रहा है। अभी अभी माँ की कोख से बाहर निकला है , वैसा नवजात हिरण का बच्चा , उस नदी के प्रवाह रहा है। देखते ही राजा भरत ने पानी में छलांग लगाया , और हिरण को बचाकर बाहर निकाल लिया। और उस नवजात हिरण के बच्चे की सेवा - सुश्रुषा। करते हैं। दूध पिलाते हैं। ऐसा करके उसे बचा लेते हैं। अब हिरण की तो कोई माँ नहीं है , राजा भरत ही उसके माँ बन गए हैं। उसी हिरण के बच्चे की देखरेख में लगे रहते हैं। बहुत प्यार से उसका पालन-पोषण करते हैं। आप कल्पना कर सकते हैं -हिरण कितना आकर्षक प्राणी है। उसका चेहरा इतना सुंदर होता है कि अगर आप रूप में ही प्रतिष्ठित हो , तो आप मोहित हो जाओगे। (42:05) आप चिपक जाओगे , कहानी यही है ! आपकी दृष्टि कहाँ पर है ? इतना सुंदर निर्दोष, मासूम प्राणी दिखने वाला हिरण की ऑंखें सबसे अधिक मोहित करनेवाली हैं। हिरणी जैसी ऑंखें - उससे कोई भी मनुष्य मोहित हो जायेगा। जो भरत इतना अनासक्त हो गया था कि अपने साम्राज्य को भी छोड़ दिया था -और ईश्वर में मन को लगाने के लिए वन में चला गया था; अब उसका मन रातदिन उस हिरण के ऊपर लगा हुआ है ! ईश्वर के ऊपर नहीं , अब दृष्टि हिरण के ऊपर है। देखो कहानी बड़ा महत्वपूर्ण है -ये राजा जो अपने साम्राज्य को भी छोड़ दिया था। मतलब उसकी अनासक्ति कितनी होनी चाहिए थी ? वानप्रस्थ गमन का उसका उद्देश्य था -सारा समय ईश्वर में मन को लगाऊँगा। लेकिन अब ये दूसरा बुलबुला जो हिरण रूप बुलबुला है , उस बुलबुले में ही उसका मन अब अटका हुआ है। भरत स्वयं एक बुलबुला है , और हिरण रूपी दूसरे बुलबुले में ही उसका मन अब अटका हुआ है। देखते देखते हिरण अब बड़ा हो गया। और भी सुंदर लगता है। भरत का मन अब हिरण में ही लगा रहता है। जब भी हिरण जंगल में चला जाता है , और आने में अगर देर हो जाती है तो भरत एकदम छटपटाने लगता है। क्या हुआ हिरण को ? पता नहीं जंगल है शेर खा गया , किसी ने मार दिया ? हर समय उसके मन में अब हिरण को लेकर ही चिंता चलती है। जो भरत पहले सारा दिन ईश्वर की उपासना में लगा रहता था , अब उसके मन से ईश्वर चला गया , अब सिर्फ हिरण ही रह गया है। कुछ वर्षों बाद हिरण और बड़ा हो गया , भरत बूढ़ा हो गया। अब भरत का शरीर त्यागने का समय आ गया। उसका अंतिम समय आ गया। दृश्य बड़ा सुंदर है। भरत अपनी शैया पर सोया हुआ है , और अपनी अंतिम साँसें गिन रहा है। भरत को पता है , बस मेरी कुछ सांसें ही बची हैं ! अब ये शरीर छूटने वाला है। अंतिम काल है , और उस शैया के पास हिरण भी खड़ी है। भरत हिरण की तरफ देख रहा है , हिरण भरत की तरफ देख रहा है। भरत की आँखों में आँसू है , हिरण की आँखों में भी आँसू है। हिरण भी भरत में उतना ही आसक्त है। भरत भी पूरी तरह उस हिरण में आसक्त है। भरत सोंच रहा है , मेरे मृत्यु के बाद कौन इसको देखेगा ? (44:56) इसका क्या होगा ? मैं चला जाऊँगा तो इसको कौन देखेगा ? [मेरे नाती-पोतों को कौन देखेगा ?] उसके मन में सिर्फ हिरण -चिंतन ही चल रहा है। मृत्युकाल में जहाँ पर ईश्वर चिंतन चलना चाहिए था , वहाँ इसके मन में सिर्फ हिरण चिंतन ही चल रहा है। और इस प्रकार हिरण-चिंतन करते करते वह अपने स्थूल शरीर को त्याग देता है। (45:21) अब सिद्धांत ये है कि - 'मृत्युकाल में अंतिम सोंच होगा, आपका अगला जन्म उसी प्रकार का होगा। ' मरण काल के अंतिम क्षणों में आपका जो सोंच होगा (शिवोहं-या देहो अहं ?) आपके अन्तःकरण में जैसा विचार होता है , आपका अगला जन्म वह विचार ही निर्धारित करती है। और मरते वक्त भरत हिरण-चिंतन कर रहा था। अंतःकरण में सिर्फ हिरण , हिरण ,हिरण ,हिरण ,हिरण ही था। तो क्या हुआ ? अगला जन्म उसका हिरण के शरीर में हुआ। हिरण के शरीर में उसका जन्म हुआ , ये बहुत बड़ा सिद्धान्त है। This is what happens at the end !यदि ईश्वर का नाम जिह्वा पर नहीं चल रहा हो तो ? अंत में यही होता है! इसीलिए शंकराचार्य जी कहते हैं -जन्तूनां नरजन्म दुर्लभं !
अब देखिये राजा भरत का जन्म अब हिरण के शरीर में हो गया। लेकिन भरत तो बहुत अच्छा साधक भी था न ? ऐसे जो बहुत उच्च कोटि के साधक होते हैं ; लेकिन अंतिम समय में इस प्रकार की कुछ गलती हो जाती है। इसीलिए उनको पुनर्जन्म लेना पड़ता है। और वे लक्ष्य पर नहीं पहुँच पाते हैं। [महामाया का राज्य में उसकी कृपा का ही सहारा है ! आत्मबुद्ध्या शिवोहं लेकिन देह बुद्ध्या तव दासो अहं] लेकिन भरत चूँकि बहुत उच्चकोटि के साधक थे , और उन उच्च कोटि के साधकों में यह सम्भव है कि उस दूसरे शरीर में रहते हुए , भी पिछले शरीर में वे क्या थे , इसका स्मरण उन उच्च कोटि के साधकों को होता है। इसको योग की भषा में जाति-स्मरण कहते हैं। (46:46 ) जातिस्मरण माने पिछले जन्म का स्मरण होना, ये सबको नहीं होता है , लेकिन कुछ उच्च कोटि के साधकों में ये होता है। तो भरत जब हिरण के शरीर में था , तो उसको ये स्मरण था कि मैं तो भरत था , पिछले जन्म में ! मैं राजा था, सबकुछ छोड़ कर ईश्वर की खोज में , ईश्वर का चिंतन -मनन करने के लिए मैं वन में गया था। लेकिन अंतकाल में उस हिरण के साथ आसक्त होने के कारण - राग के कारण आज मैं इस हिरण की शरीर में जन्म लिया हूँ। और अब भरत को भंयकर पश्चाताप होता है - यह मैं क्या कर बैठा ? अब उसकी समस्या ये है कि हिरण के शरीर में वो कोई साधना नहीं कर सकता। इसलिए शंकराचार्यजी का सिद्धांत है -जन्तूनां नरजन्म दुर्लभं ! क्योंकि नर जन्म में ही ये साधना सम्भव है। नर जन्म में सत्य का खोज सम्भव है। (47:38) अन्य किसी दूसरे शरीर में विवेक करने की योग्यता नहीं है। हिरण के शरीर में रहकर भी भरत को पता है कि -मैं तो भरत हूँ ! लेकिन शरीर अब हिरण का है , अंदर की चेतना तो भरत की है , और उसको स्मरण है कि मैंने पिछले जन्म में ये साधना की थी। मैं ईश्वर की खोज में , सत्य की खोज में निकल पड़ा था , लेकिन एक गलती के कारण मैं अब इस हिरण रूपी शरीर के अंदर कैद हूँ ! लेकिन अभी वो साधना नहीं कर सकता क्योंकि सत्य को देखने के लिए जिस साधन की आवश्यकता है , वह उस हिरण शरीर में नहीं है। उस हिरण (पशु) के शरीर में भरत क्या करेगा ? वह प्रतीक्षा करता है। कब यह हिरण का शरीर गिरेगा ? बाहर से शरीर हिरण का है , लेकिन भीतर तो भरत है। तो अब भरत अपना समय कैसे बीतता था ? वो तो पिछले जन्म का साधक था न ? अभी भी साधक ही है , लेकिन शरीर हिरण का होने के कारण वो कुछ नहीं कर सकता। तो भरत उस हिरण के शरीर में भी जहाँ -जहाँ ऐसे आश्रम होते थे , जहाँ साधु-संन्यासी बैठकरके ईश्वर की बातें , वेदांत की बातें करते थे , वहाँ जाकर बैठकर वो उन बातों को श्रवण करता था। उन साधुओं को तो हिरण लगेगा , लेकिन ये तो भरत है। और अच्छा साधक है , तो उसकी आदत -प्रवृत्ति यही है कि ईश्वर की बातें सुनने की। तो वो आश्रमों में जाकर साधुओं के पास बैठकर वेदांत-ब्रह्म और आत्मा का श्रवण करता है। हिरण शरीर की आयु वो आश्रमों में रहकर बिता देता है। और हिरण शरीर भी गिर जाता है। अब दुबारा उसका जन्म होता है -ब्राह्मण मनुष्य के शरीर में। अच्छे परिवार में जन्म होता है। इस जन्म में वो बचपन से ही अपना मुख नहीं खोलता है। बचपन से ही बात नहीं करता है। उसके मातापिता समझते हैं कि शायद ये गूँगा है ? साधारणतया बच्चे दो-तीन वर्ष में बोलना शुरू कर देते हैं। जबकि 4-5 साल का होकर भी ये बच्चा बोलता नहीं है ? उसके माता पिता सोचते हैं जरूर गूँगा है। लेकिन भरत ऐसा क्यों है ? पता है ?भरत इस जन्म में बहुत ही सतर्क है। (50:22) कि मैं फिर किसी बुलबुले से चिपक न जाऊँ ! कहानी ऐसी है, लेकिन विषय गम्भीर है। इस कहानी के माध्यम से हमें एक बहुत बड़ा सिद्धांत बताया जा रहा है। तो भरत इस जन्म में इतना सतर्क है कि अब इस जन्म में वो कहीं फँसना नहीं चाहता। (अविद्या -अस्मिता -राग-द्वेष -अभिनिवेश में किसी भी जाल में फँसना नहीं चाहता।) एक बार फँस गया था तो उसका नतीजा देख लिया। एक गलती के कारण , पूरा एक जन्म हिरण के शरीर में बिताना पड़ा ! कहाँ तो ऐसा राजा भरत इतना अनासक्त था कि, ईश्वर (आत्मा, भगवान या सत्य) में मग्न रहने के लिए वो अपना साम्राज्य छोड़कर वन में चला गया था। लेकिन एक गलती के कारण देखिये -पूरा एक जन्म बिताना पड़ा। और कितनी यातनाओं से गुजरने के बाद उसे दुनारा ये मनुष्य शरीर मिलता है। लेकिन उस शरीर अब वो बहुत ही सचेतनता पूर्वक अपने समय को बीता रहा है , मुँह से एक शब्द नहीं बोलता चुप रहता है। तो उसके मातापिता समझते हैं कि ये मूढ़ बच्चा है -जड़ है। (practical नहीं है ?) इसलिए अब उसका नाम पड़ता है -जड़ भरत ! ये जड़ है माने ये मंद-बुद्धि है - Mentally retarded है ! लेकिन सच्चाई एक दम उल्टा है। वो परम् ज्ञानी है। लेकिन वो जान-बूझ करके अपने आप को मूढ़ की तरह प्रस्तुत कर रहा है। उसके और भी दो-तीन भाई हैं , परिवार के सभी लोग समझते हैं कि ये मूढ़ है ! किसी से बात ही नहीं करता , बस चुप्प रहता है ! बच्चा भरत बड़ा हो गया , उसके मातापिता चल बसे। उसके बड़े भाइयों का विवाह हो गया। ये जड़ भरत भी युवा हो गया देखने में बहुत सुंदर और मजबूत कदकाठी का है। सबकुछ ठीक है लेकिन बात नहीं करता है। इसलिए इससे विवाह कौन करेगा ? और वैसे इसको विवाह करना भी नहीं है। लेकिन जैसा संसार में होता है , उसके बड़े भाई और उनकी पत्नियाँ इसको बहुत यातनाएं देती हैं। घर का सारा काम उससे करवाते हैं। तो एकदिन उसके साथ बहुत बुरा सलूक करते हैं , उस दिन वो तंग होकर घर छोड़कर चला जाता है। मुँह से कोई विरोध नहीं किया। लेकिन घर से निकल जाता है और किसी पेड़ के नीचे बैठा रहता है। अब कहानी ऐसी है कि उस प्रान्त का जो राजा था , वो पालकी में आ रहा था। लकिन चौथा कहार बीमार पड़ गया। तो एक आदमी और चाहिए था। और राजा को कहीं जाना जरुरी था , तो मंत्री ने इस हट्ठे -कट्ठे युवक को वहां बैठा देखा। वो आ गया लेकिन बचपने से 20 -25 वर्ष का युवा हो जाने पर भी मुंह नहीं खोला। अब वो जड़ भरत पालकी उठाकर सीधा नहीं चल रहा है , लेकिन वो कूद कूद कर जा रहा है। तो जो पालकी में अंदर बैठा राजा को कष्ट होने लगा। भरत कूद कूद कर इसलिए जा रहा था कि पैर के नीचे जो प्राणी है -सब में उसको ईश्वर दिखाई दे रहा है। इस जन्म उसने परम् ज्ञान को प्राप्त कर लिया है। सबके भीतर उसको ईश्वर दिखाई दे रहा है। अब जड़ भरत की दृष्टि कहाँ टिकी हुई है ? ईश्वर में टिकी हुई है। परम् सत्य में टिकी हुई है , इसलिए वो कूद रहा है। भीतर जो राजा बैठा था , गुस्सा होकर बोलै कौन है मूर्ख ? इसको ठीक से चलना भी नहीं आता है ? वो उससे प्रश्न करता है कि तू कौन है ? क्या तुमको चलना नहीं आता है ? बता तू कौन है ? तब उसके मुख से पहली बार उसके शब्द निकलते हैं -कि मैं कौन हूँ ? और जो वह कहता है -वह पूरा शुद्ध वेदांत है।
18. दृष्टि शरीर में नहीं ईश्वर में होनी चाहिए :
इस कहानी से हमको सीखना क्या है ? आप लोगों के सामने यही प्रश्न है। (56:46) वो राजा जब वन में गया था तब राज्य के प्रति उसके मन में कोई आसक्ति नहीं थी। कोई राग नहीं था। उतने बड़े साम्राज्य से मोह को छोड़ देना इतना आसान है ? ऐशो आराम की जिंदगी छोड़ने के लिए उसके अंदर कितना साहस रहा होगा ? वन में गया था सिर्फ ईश्वर चिंतन करने के लिए। लेकिन प्रश्न ये है -कि उस हिरण के बच्चे को बचाने लिए जड़भरत जो तुरंत नदी में छलाँग लगा दिया - वो उसने जो किया वो सही था या गलत था ? 100 % सही था। आपके सामने कोई कष्ट में है , और आप कुछ नहीं करोगे ? तबतो आप मनुष्य भी नहीं हो। उसने हिरण को बचाया यह गलती नहीं थी। गलती कहीं और थी। हिरण को बचाना , उसकी देखभाल करना , इसमें कोई गलती नहीं है। ये तो करना ही चाहिए। लेकिन गलती क्या हुई ? जब हमारी दृष्टि देह-केंद्रित हो जाती है , तो हम उस देह में आसक्त हो जाते हैं ! हम उस देह से चिपक जाते हैं। भरत ने उस हिरण के साथ जो भी किया वो सब कर सकते थे , लेकिन ईश्वर-दृष्टि से भी कर सकते थे। पूजा दृष्टि से भी कर सकते थे , तब वो फँसते नहीं। तो गलती कहाँ हुई ? वे हिरण के स्थूल शरीर से आसक्त हो गए। हिरण से चिपक गए। हिरण शरीर के बाहरी रूप को देखकर के एक बुलबुला दूसरे बुलबुले से चिपक गया। उसका परिणाम हमको देखने को मिला -अगला जन्म हिरण में हुआ। लेकिन भरत की दृष्टि अगर हिरण के प्रति ईश्वर-दृष्टि होती तो न]बाहर से उसी प्रकार सेवा -देखभाल चलता , सबकुछ और भी अच्छी तरह से कर पाता , और वो जो भी करता वो ईश्वर की पूजा होती। ये बहुत बड़ी सीख है -जीवन में हम जो भी कर रहे हैं -हम जहाँ पर हो, परिवार में हों। पति हों पत्नी हो , बच्चे हो मातापिता हो , भाई-बहन हो ? इनके प्रति हमारी दृष्टि क्या होनी चाहिए ? अगर हमलोग उनके शरीर में राग के द्वारा आसक्त हैं , तो हम चिपक जाते हैं। और अगर चिपक गए तो उसका परिणाम यही होगा। वही जन्म-मृत्यु का चक्र हमारा चलता रहेगा , आप उससे बाहर नहीं निकल सकते। वही दृष्टि अगर शरीर -केंद्रित न होकर ईश्वर केंद्रित होता है , तो आप जो भी करते हो। अपने परिवार वालों को सेवा -देखभाल सबकुछ वैसे ही करोगे , तो उसमें अब आसक्ति-राग नहीं होगी , उसमें अब प्रेम होता है। और जो सेवा प्रेम भाव से की जाती है -वो सेवा पूजा बन जाती है। वही ईश्वर की पूजा बन जाती है। ( 1:00:01) - इस कहानी से हम यह ही सीख सकते हैं। तो अंतिम निष्कर्ष क्या हुआ ? चिपकना सख्त मना है। क्योंकि एक जन्म का काम तीन जन्मों में करना पड़ा। चिपकने की वजह से तीन जन्म लग गया। नहीं तो वो पहले ही जन्म में ही हो जाता !
पहले ही जन्म में ही राजा भरत साधना में काफी आगे चले जा चुके थे। लेकिन अंत में हमलोग गलती कर बैठते हैं। तो ये सावधानी बरतने की बात है। अब इस जन्म में (दुबारा जीवन मिलने के बाद ?) हमलोग अब जो कुछ करेंगे , सब कुछ देह-दृष्टि से नहीं ईश्वर दृष्टि से , पूजा दृष्टि से भी किया जा सकता है। यही बात श्रीरामकृष्ण परम् हंस देव बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं -शिव ज्ञान से ही सबकुछ करना। शिव ज्ञान (आत्मा -ब्रह्म ज्ञान) से ही सबकुछ कीजिये , क्योंकि वही सत्य है , बाकि सब कल्पना है। सब में आत्मा (ईश्वर) देखकरके दृष्टि शरीर में नहीं ईश्वर में होनी चाहिए। तब आप देखिएगा की काम रूपी कोई भी विकृति हमारे मन में नहीं होगी। तो आप जो भी करोगे वो ईश्वर की पूजा हो जाती है । पाठचक्र में भी क्या चल रहा है ? ये ईश्वर की पूजा ही चल रहा है। अब पूजा की भी परिभाषा बदल जाती है। यही सर्वोच्च प्रकार की पूजा है। अभी हम पूजा का मतलब क्या समझते हैं ? कुछ कर्मकाण्डी अनुष्ठान। मैं उसकी निंदा नहीं कर रहा हूँ। वो भी ठीक है। लेकिन सही पूजा है- शिव दृष्टि से जीव सेवा ! जो व्यक्ति इस दृष्टि से पूजा कर रहा है , मनुष्य बनो बनाओ आंदोलन से जुड़ा हुआ है उसे किसी और पूजा की आवश्यकता नहीं है , वो ऐसे ही मुक्त हो जायेगा।(1:01:41 ) जो व्यक्ति यह पूजा नहीं कर पाता है , उसी केलिए है कर्मकाण्डी अनुष्ठानिक पूजा। घंटा -दिया -चंवर यह पूजा भी ठीक है। वह भी एक प्रयास है -किसी प्रकार ईश्वर में मन को लगा तो रहा है ! मैं उसकी निंदा नहीं कर रहा हूँ। लेकिन सब मनुष्यों में ईश्वर को देख करके उस व्यक्ति के लिए जो कुछ भी सेवा करोगे वो फिर पूजा हो जाती है। This Is the real worship which Advaita Vedanta teaches us .(1:02:18)यही वह वास्तविक उपासना है जो अद्वैत वेदांत हमें सिखाता है।
19. अद्वैत दृष्टि या ईश्वर केंद्रित दृष्टि से जीने की कला : यत् यत् कर्म करोमि तत् तत् अखिलं हे शम्भो तव आराधनाम् - अपने दैनन्दिन जीवन की हर गतिविधि के माध्यम से ईश्वर की आराधना करें, इसी The art of living विषय पर शंकराचार्य जी द्वारा रचित एक अति सुंदर श्लोक है-
जब हम ईश्वर -केन्द्रित दृष्टि से जीने की कला को सीख जाते हैं, तब क्या होता है ?-यत् यत् कर्म करोमि तत् तत्अखिलं हे शम्भो तव आराधनाम्। इस ईश्वर-केंद्रित दृष्टि से जब हम जीते हैं , तो -'यत् यत् कर्म करोमि' मैं जो कुछ भी कर्म करता हूँ -हे शम्भू ! शिवजी सब तेरी आराधना हो जाती है। यही अद्वैत दृष्टि है ! हमको दो चीजें सीखनी होंगी। जब अद्वैत दृष्टि आए जाती है, तो परम् भक्ति भी साथ-साथ आ जाती है। अद्वैत में ही परम् भक्ति होती है। अद्वैत का मतलब क्या है? ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। (इस ईश्वर-केंद्रित दृष्टि - या अद्वैत दृष्टि के प्राप्त हो जाने के बाद) बताइये आपके पास भक्त होने के अलावा और क्या विकल्प है ? (1:03:20) आप सहज रूप में , Naturally -भक्त हो जाओगे कि नहीं ? जब आप इस दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाते हो कि ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं , तो आप मुझे बताइये कि आपके पास भक्त होने के अलावा क्या विकल्प है ? कोई विकल्प है क्या ? आप भक्त ही होंगे।
इसीलिए जितने भी महापुरुष हुए हैं -सभी, अच्छा शंकराचार्यजी इतिहास के सबसे बड़े अद्वैत ज्ञानी माने जाते हैं। लेकिन वे उतने ही बड़े भक्त थे ! आप उनकी सारी रचनाओं को देखिये , सबसे बड़े अद्वैत ज्ञानी, इतिहास के सर्वश्रेष्ठ अद्वैत ज्ञानी, लेकिन सबसे बड़े भक्त हैं ! उनके द्वारा रचित -'श्री गंगा-अष्टकम', शिवा अष्टकं , अन्नपूर्णा स्त्रोत्रं, भवानी अष्टकं , एक ही ईश्वर की स्तुति वे कितने रूपों में कर रहे हैं। क्योंकि ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं ; वो गंगा हो -तो वो ईश्वर का रूप है। यमुना भी ईश्वर का रूप है। सबकुछ ईश्वर का रूप है , सबकी स्तुति हो रही है। परम् अद्वैत -परम भक्त। श्री रामकृष्ण परमहंस -अद्वैत , परम् अद्वैतिन हैं , परम् भक्त हैं। स्वामी विवेकानन्द परम अद्वैतिन , परम भक्त ! ये जितने ऐसे अद्वैतिन थे , उन सबकी पराकाष्ठा भक्ति में होती है। क्यों ? ईश्वर से अतिरिक्त तो कुछ है ही नहीं ! तो यह ईश्वर-केंद्रित दृष्टि वाला साधक सहज रूप से भक्त हो जाता है। उसका अन्तस्थ भाव सब समय भक्ति वाला ही होता है। वो सब समय सबको नमन करता रहता है। क्योंकि यहाँ पर ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। यही है सहज भक्ति।
सिर्फ मंदिर में जाने वाला भक्ति ही पर्याप्त नहीं है। अभी हमारी भक्ति कैसी है ? जब मैं मंदिर में जाता हूँ - उस समय लगता है कि मैं भक्त हूँ। मंदिर के परिसर बाहर निकलते ही हम कुछ और हो जाते हैं। तब हमको ईश्वर नहीं जगत दिखाई पड़ता है - हमको लगता है ये जगत है! समस्या क्या है ? आज की हमारी विडंबना क्या है ? हम जब मंदिर जाते हैं , तब हमको लगता है कि मैं भक्त हूँ। मैं भक्ति करने लिए मंदिर जा रहा हूँ। मंदिर में हमको भगवान दिखाई दे रहा है। तो क्या बाहर में भगवान नहीं हैं ? (1:05:20) बाहर क्या है ? आज हमारी दृष्टि उतनी विकसित नहीं हुई है। इसीलिए बाहर में नानत्व दिखाई देता है। मंदिर में भगवान दीखता है , और मंदिर से बाहर आते ही हमको पूरा जगत दीखता है। बाहर जो नाम-रूप दिखाई दे रहा है -वो सब ईश्वर का ही तो रूप है। ये हमको अभी समझ में नहीं आ रहा है। प्रारम्भिक अवस्था में हमारी धारणा मन्दिर केन्द्रित होती है। सर्वसाधारण व्यक्ति की ईश्वर सम्बन्धी धारणा यही है। ईश्वर के सम्बन्ध में हमारी धारणा शुरुआत में कितनी संकुचित होती है ?
20. ईश्वर, जीव और जगत का अद्वैत :
आपको याद होगा ये पूरा सत्र कहाँ से शुरू हुआ था ? मैंने कहा था तीन महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। मैं कौन हूँ ? ये सामने जो दिखाई दे रहा है -विश्वब्रह्माण्ड, ये जगत क्या है ? और तीसरा है ईश्वर क्या है ? इन तीनों मुद्दों के प्रति हमारे मन में सिर्फ कल्पनायें ही हैं ! (1:06:08) अब तीनों के विषय में हमारी धारणा स्पष्ट हो गयी। मैं का मतलब क्या है ? ये जगत का मतलब क्या है ? और ईश्वर क्या है ? पहले हमारे लिए ईश्वर कहाँ है ? मंदिरों में है ! जब मंदिर में जाते हो तो आपको लगता है आप भक्त हो , भक्ति कर रहे हो। मंदिर से बाहर आते ही , आपको ये पूरा जगत, जगत,जगत,जगत, ही आपको सत्य लगता है। लेकिन जैसे ही आपकी दृष्टि बदलती है , फिर मंदिर हो या बाहर हो ? जीव -जगत भी ईश्वर ही है , ईश्वर से अतिरिक्त और कुछ नहीं है। पहले जिस व्यक्ति को मंदिर में जाते वक्त भक्ति भाव दीखता है , बाहर में भक्ति भाव नहीं दीखता ? अब जिस व्यक्ति में अद्वैत दृष्टि जग गयी , वो मंदिर में हो बीच बाजार में हो ?या युद्ध क्षेत्र में हो, उसका भक्ति भाव अखण्ड रहता है। उसको सर्वत्र ईश्वर ही दिखाई देता है। इसप्रकार भक्ति की पराकाष्ठा परा भक्ति में होती है। सभी महापुरुषों में हमें यही भाव देखने को मिलता है। अपरोक्ष ज्ञान (अद्वैत दृष्टि) का यही तो व्यावहारिक अनुप्रयोग है ! यह अपरोक्षानुभूति या अद्वैत दृष्टि अब हमारे जीवन में कैसे उतरने वाला है ? It is going to change our entire view of what we are seeing ? यह जो जगत हम देख रहे हैं उसके प्रति हमारा पूरा नजरिया बदल देगा।
स्वामी विवेकानन्द कहते थे -God is not only limited to temple ! भगवान केवल मंदिर तक ही सीमित नहीं है! these are the kindergarten of religion. ये धर्म की बालवाड़ी हैं। यानि मंदिर में भगवान देखने जाना' ये हमारे आध्यात्मिक जीवन की शिशु अवस्था है। आध्यात्मिक जीवन के बचपन में, भक्ति करने के लिए मन्दिर जाना ठीक है ,लेकिन जब बड़े होते हैं , समझ परिपक्व होती है , तो आपकी दृष्टि बदलनी चाहिए। भगवान सिर्फ किसी मंदिर में सीमित नहीं हैं। ईश्वर ही है , ईश्वर से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। लेकिन इसको यदि समझ नहीं पा रहे हैं, तो फिर मंदिर की आवश्यकता है। हम लोग कभी मंदिर या मूर्तिपूजा को कम नहीं समझ रहे हैं। मंदिर का बहुत बड़ा स्थान है। सभी मनुष्य सीधा अद्वैत दृष्टि में प्रतिष्ठित तो नहीं हो सकते हैं न ? सर्व साधारण व्यक्ति के लिए , वो मंदिर , पूजा , आरती आदि सारी चीजें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आप कृपया ऐसा न समझ लेना कि अद्वैत आश्रम मायावती , मूर्ति और मंदिर को छोटा समझता है ? मंदिर का बहुत प्रथम स्थान है। सर्व साधारण मनुष्यों के लिए मूर्ति और मंदिर की प्राथमिकता है। लेकिन जब आप स्थूल- देह दृष्टि से अद्वैत दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाते हो -तब सब ईश्वर है ! सब ईश्वर का ही रूप है -आप समझ जाते हो। तब आपके लिए ईश्वर सिर्फ मंदिर -केंद्रित नहीं रह जायेंगे। आप सब में ईश्वर को देखोगे। ईश्वर ही इतने रूपों में यहाँ बैठे हुए हुए हैं। भक्ति अद्वैत ज्ञान की पराकाष्ठा है !! ॐ शांति
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[नवरात्र-पूजन के चौथे दिनबाघ पर सवार माँ कूष्माण्डा के अष्टभुजा देवी स्वरूप की उपासना की जाती है। अष्टभुजा देवी की कृपा से पुनः मानव शरीर प्राप्त करके भरत इस जन्म में बहुत सतर्क है। अर्थात काम-कांचन से पूर्णतः अनासक्त है। उसे अब किसी भी मनुष्य को इस गलत दृष्टि से देखना छोड़ना है। (सभी में ईश्वर को देखर किसी भी व्यक्ति में दोष नहीं देखना। यही माँ सारदा देवी का वेदान्त है !) मनुष्य को स्त्री-पुरुष की स्थूल-शरीर की दृष्टि से देखने की गलत आदत को बार बार बदलने के अभ्यास से , जगत को काम -दृष्टि से नहीं राम-दृष्टि से देखने की आदत बना कर, ईश्वर से सम्बंधित चरित्र के चौबीसो गुण निर्माणकारी शिक्षा- या स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा Be and Make' की पुस्तिकाओं में आप देखेंगे, Be and Make' का प्रचार -प्रसार करने में लगे रहने से प्राप्त हो जाता है। दादा ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था जो भी गृहस्थ देह- केंद्रित दृष्टि या काम केंद्रित दृष्टि को त्यागकर ,राम केंद्रित दृष्टि पाने के लिए इस जीवन-गठन और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन 'Be and Make'के प्रचार -प्रसार में लगा रहेगा वो ऐसे ही मुक्त हो जायेगा, उसको अलग से अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी यह सत्य सिद्ध होती है। वह भविष्यवाणी आज -दुर्गा पूजा के चौथे दिन कोबाघ पर सवार अष्टभुजाकूष्माण्डा देवी की पूजा 25 सितम्बर, 2025 के दिन भक्त की रक्षा करने की घटित घटना से सत्य सिद्ध हुई है, क्या इसीलिए कूष्माण्डा देवी की पूजा को 26 सितम्बर, 2025 तक मनाया जायेगा? दशभुजा दुर्गा देवी शेर पर सवार हैं क्यों ? शेर प्रतीक है -माँ काली की कृपा से अपरोक्षानुभूति प्राप्त करने वाले भेंड़ की झुण्ड में पला -बढ़ा सिंहशावक की कथा कहने वालेदेशभक्त स्वामी विवेकानन्द को जब माँ काली का दर्शन प्राप्त होता है , तब वे मूर्तिपूजा करने वाले भक्त बन जाते हैं। भेंड़ों की झुण्ड में पले -बढे बाघ-शावक की कथा कहने वाले- बाघ पर सवार अष्टभुजा कूष्माण्डा देवी श्रीरामकृष्ण देव स्वयं काली हैं -अद्वैत हैं ! बाहर से दिखाने के लिए श्रीरामकृष्ण काली के पुजारी हैं, सच्चाई में वे स्वयं काली हैं ! ब्रह्म और शक्ति का अभेद है? यह विचारणीय प्रश्न है ?(चिड़ियों का जान जाये , बच्चो का खेल है। Play, it was all play. Why was Christ crucified? It was mere play. And so of life. Just play with the Lord. Say, "It is all play, it is all play .Volume 8, Sayings and Utterances . (लेकिन क्या हिन्दू मूर्तिपूजा के विरोधी हो सकते हैं ??? पहलेजहाँपटना कुर्थौल-निवासी हिन्दू धर्म के जितने विरोधी थे कुलदेवी के पूजाघर में बकरी बाँध देते थे। आज उसी कुर्थौल का दुर्गा पूजा पण्डाल 33 लाख खर्चकर उसका उतना ही भव्य बनता है !)
शुक्रवार 26 सितम्बर ,20025 कूष्माण्डा पूजा -का इस बार दूसरा दिन और नवनीदा का 10 वां तिरोधान दिवस। जो इसके पूर्वजन्म में कैप्टन सेवियर थे ! [पुराणों और महाकाव्यों के अनुसार राजा भरत की कई कथाएँ मिलती हैं, जिनमें सबसे प्रमुख कथा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की है, जिनके नाम पर देश का नाम भारत पड़ा। इसके अलावा श्रीमद्भागवत पुराण में जड़ भरत की कथा भी है, जो एक राजा के तीन जन्मों (एक राजा, फिर हिरण, और फिर ब्राह्मण) की कहानी है और आत्मज्ञान का संदेश देती है। एक अन्य प्रसंग अनुसार, राजा ऋषभदेव के पुत्र भरत भी थे, जिनके नाम पर देश का नाम भारत पड़ा है।( राज्य छोड़कर मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिए-ऑफिस या निर्जन में जाना-या TMCकरके पेट भरने के लिए।)
[आज शनिवार, 27 सितम्बर,2005 : आज स्कन्दमाता स्वरुप देवी शक्ति (मेरे लिए माँ सारदा देवी) की आराधना की पंचमी तिथि पर स्वयं माँ ने कृपा करके उनका अंतिम उपदेश जो नवनीदा के अनुसार अद्वैत वेदान्त का सार है, के मर्म को मुझे समझा दिया। वह है-ईश्वर-केन्द्रित दृष्टि से जगत को देखना, देह-केंद्रित से जगत को कभी मत देखना, तभी सुख-शांति आती हैं। " यदि शांति चाहती हो, बेटी , तो किसी का दोष मत देखना। दोष केवल अपना ही देखना। संसार को अपना बनाना सीखो। कोई पराया नहीं , बेटी , संसार तुम्हारा अपना है। "
[जब हम शरीर-केन्द्रित दृष्टि से जगत को न देखकर ईश्वर -केन्द्रित दृष्टि से जीने की कला को सीख जाते हैं, तब माँ सारदा देवी का अंतिम उपदेश - " यदि शांति चाहती हो, बेटी , तो किसी का दोष मत देखना। दोष केवल अपना ही देखना। संसार को अपना बनाना सीखो। कोई पराया नहीं , बेटी , संसार तुम्हारा अपना है। " का मर्म समझ में आ जाता है। पूज्य नवनीदा के अनुसार यही उपदेश अद्वैत वेदान्त का सार है। (श्री नवनी हरण मुखोपध्याय-महामण्डल के संस्थापक सचिव।), क्योंकि ईश्वर-केन्द्रित दृष्टि से जगत को देखने पर हमारा हर कार्य ईश्वर की पूजा बन जाती है ! अतएव देह-केंद्रित दृष्टि से जगत को कभी नहीं देखना चाहिए, अपरोक्ष ज्ञान या वेदांत के इसी जीवन की कला का प्रयोग करने से जीवन में सुख-शांति आती हैं।
[आज रविवार, 28 सितम्बर , 2025 : षष्ठं कात्यायनी माता ! मनुष्य का भाग्य उसके पूर्वजन्मों के कर्मों से संचालित होता है। वह मनो जगत जो अदृश्य है , हमारी इन्द्रियाँ जिस सूक्ष्म जगत का अनुभव नहीं कर सकतीं , वही जगत माँ कात्यायनी के प्रताप से सबंधित है। षष्ठी तिथि में माँ के कात्यायनी रूप का ध्यान, पूजन करने से भक्त का आंतरिक सूक्ष्म जगत या मनोजगत में चल रही नकारात्मकता का नाश होकर सकारत्मकता का विकास होता है। सुनहरे और चमकीले वर्णों वाली चार-भुजाओं वाली रत्नाभूषणों से अलंकृत कात्यायनी देवी आक्रमक मुद्रा में रहने वाले सिंह पर सवार रहती हैं। प्राणियों में इनका वास 'आज्ञाचक्र ' में होता है। माँ की कृपा से भक्तों को चारों पुरूषर्थों की प्राप्ति हो जाती है। वह इस लोक में रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव को प्राप्त करता है। उसके रोग, शोक , संताप , भय के साथ साथ जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं। -कशी विद्वत परिषद। ]