कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-6 'द वे ऑफ़ द ड्राप-आउट्स ' "नव विप्लव एवं स्वामी विवेकानन्द"

' कम आउट एंड स्टैंड अलोन'-- यही है स्वामीजी का नव-विप्लव !"
"फ्रीडम, ओ फ्रीडम! फ्रीडम, ओ फ्रीडम!" इज द साँग ऑफ़ द सोल. - " मुक्ति-ओ मुक्ति, मुक्ति- ओ मुक्ति!" - यही आत्मा का गीत है। किन्तु हाय! प्रकृति  (माया,नाम-रूप) की सैकड़ों जंजीरों से बद्ध (हिप्नोटाइज्ड)  हो जाना ही उसकी नियति है। " (२/२९४) इस बात को कहने वाले थे स्वामी विवेकानन्द !
"जगत में  सबके भीतर ही (धनी हो या गरीब) एक प्रकार के असन्तोष का भाव दिखाई पड़ता है। इस सार्वजनीन असन्तोष का अर्थ क्या है ? इसका अर्थ यही है कि -स्वतंत्रता ही मनुष्य का सर्वकालिक लक्ष्य है। विश्व का स्पन्दन स्वतंत्रता का ही प्रकाश है।" जिस नये क्रांतिकारी आंदोलन (BE AND MAKE) में कूद पड़ने के लिये स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं का आह्वान किया था, उसके मूल को उन्होंने यहीं से (आत्मा के नित्य-मुक्त स्वाभाव से) प्राप्त किया था।
 स्वामीजी कहते हैं,"जब तक मनुष्य मुक्ति की प्राप्ति नहीं कर लेता (अर्थात स्वयं को डी-हिप्नोटाइज्ड नहीं कर लेता) वह मुक्ति की खोज करता ही रहेगा ! उसका  समग्र जीवन केवल इस स्वाधीनता-प्राप्ति की चेष्टा मात्र है।  शिशु जन्म ग्रहण करते ही नियम के विरुद्ध विद्रोही हो जाता है। उसकी पहली आवाज रुदन की होती है, जो अपने बंधनों के प्रति उसका विरोध होता है। " (२/२९३-९७)
स्वामीजी के मतानुसार - " वेदान्त में संग्राम का स्थान तो है, किन्तु भय के लिए कोई स्थान नहीं है। "  ये सभी --'संग्राम', 'प्रतिवाद', 'विद्रोह', 'निर्भिकता',' 'स्वाधीनता-प्राप्त करने की चेष्टा'-जैसे शब्द क्रांतिकारी मन की भाषा ही तो है। किन्तु अन्य कई शब्दों की तरह 'क्रांति' (upheaval, अप्हीवल-महापरिवर्तन) शब्द के साथ भी राजद्रोह, बगावत, विद्रोह, विध्वंश, विक्षोभ, इंकलाब -जिंदाबाद आदि धारणायें इस प्रकार घुलमिल गयी हैं, कि 'क्रांति' शब्द की जो अपनी एक गरिमा है, उसका जो एक सुंदर चरित्र है, जिस महापरिवर्तन के अनिवार्य रूप से आविर्भूत हो जाने की जो तीव्र छटपटाहट या तीव्र व्याकुलता है, उसे हमलोग बिल्कुल ही भूल चुके हैं। 'क्रांति या इंकलाब' को संस्कृत में 'विप्लव' कहते हैं। 'विप्लव' शब्द का उद्भव 'प्लू'  धातु से हुआ है। 'प्लू' धातु का मूल अर्थ है- ' जाना '। विशेष तौर पर मानव-समाज प्रकृति के जिन बन्धनों में (माया-मोह में) जकड़ा हुआ है,'उन बेड़ियों  का टूट जाना' या सम्पूर्ण मानवता का 'भ्रांति-मुक्त' (disillusioned-डी-हिप्नोटाइज्ड) हो जाना ; स्वामी जी के नये क्रांतिकारी आंदोलन या 
नव-विप्लव से यही सूचित होता है !

स्वामीजी कहते थे- " मैं इस सिद्धान्त से सहमत नहीं हूँ कि - प्रकृति के नियमों का पालन ही मुक्ति है। मैं नहीं समझता कि इसका क्या अर्थ हो सकता है। मनुष्य की प्रगति के इतिहास को देखने से पता चलता है, कि, मनुष्य ने जो कुछ भी प्रगति की है, वह सब प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने से ही सम्भव हो सकी है। यह भले ही कहा जा सकता है कि मनुष्य ने प्रकृति के उच्चतर नियमों को आविष्कृत करके ही प्रकृति के निम्नतर नियमों पर विजय प्राप्त किया है। परन्तु वहाँ भी विजय की कामना करने वाला मन (गुरुत्वाकर्षण के नियम का उल्लंघन करके ऊपर उड़ जाने की व्याकुलता रखने वाला मन ) ही किसी उपाय का अन्वेषण कर रहा था। जैसे ही उसने देखा कि वह संघर्ष नियमों के कारण ही था, उसने (क्रायोजेनिक इंजन का आविष्कार करके) उस नियम को भी जीतना चाहा। इस प्रकार हम देख सकते हैं,कि वैज्ञानिक अविष्कारों के प्रत्येक क्षेत्र में-- लक्ष्य सदा ही प्राकृतिक नियमों से मुक्ति प्राप्त करना ही था। वृक्ष कभी प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं करते। मैंने कभी किसी गाय को चोरी करते हुए नहीं देखा, कोई घोंघा (सीपी या सितुहा oyster) कभी झूठ नहीं बोलता। फिर भी वे मनुष्य से बड़े नहीं हैं। स्वतन्त्रता के लिये एक उत्कट आग्रह का नाम ही जीवन है।" (2/261)

स्वामी जी कहते हैं, " इस देश में एक बात हर समय सुनता रहता हूँ कि हमारे लिये सदा प्रकृति के साथ ताल मिलाकर चलना ही उचित है। क्या तुम यह नहीं जानते कि आज तक विश्व में जितनी भी प्रगति हुई है, वह सब प्रकृति को जीत लेने से ही हुई है ? यदि हमलोग किसी भी तरह से उन्नति करना चाहते हों, तो इसके लिये हर कदम पर हमें प्रकृति का प्रतिरोध करना होगा।" इसीलिये विनय कुमार सरकार ने कहा था, यदि विवेकानन्द के विचारों को किसी मतवाद की संज्ञा देनी ही हो तो उसको ' प्रकृति के उपर- मनुष्यवाद' (मैन-ओवर-नेचर-इज्म) कहना होगा।

प्रकृति तो मनुष्य को यह शिक्षा देती है कि स्वयं जीवित बचे रहने के लिये संग्राम करते रहो। किन्तु स्वयं बचे रहने के लिये संग्राम करना तो स्वार्थपरता को साधित करने का नामान्तर मात्र है, और विवेकानन्द के अनुसार वैसी चेष्टा किसी भी सामाजिक नैतिकता का सम्पूर्ण विरोधी है। इस स्वार्थपरता की प्रवृत्ति से ही विशेषाधिकार का जन्म होता है।  विवेकानन्द कहते थे," विशेषाधिकार भोग करने की धारणा मनुष्य जीवन पर कलंक स्वरुप है।" किन्तु स्वामी विवेकानन्द इस विशेषाधिकार के कलंक स्वरूप अवधारणा को केवल आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित रखने के पक्षधर नहीं थे।

वे कहते हैं, " प्रथम है- बाहुबल (Hand) का विशेषाधिकार, जो सबल है वह निर्बल का शोषण करके
विशेष सुविधा भोग चाहेगा, यही तो पाशविकता है। इस जगत में धनबल का विशेषाधिकार भी इसी प्रकार का है। यदि दूसरे की अपेक्षा किसी के पास अधिक धन-दौलत है, तो वह कम वालों पर थोड़ा विशेषाधिकार चाहता है, या अधिक सुविधा भोग करना चाहता है।" फिर बुद्धिबल (Head) का विशेषाधिकार, उससे कहीं अधिक सूक्ष्म और शक्तिशाली है। एक आदमी दूसरों की अपेक्षा अधिक जानकारी रखता है (वकील-डॉक्टर) इसलिये वह अधिक विशेषाधिकार का दावा करता है। और सबसे अन्तिम तथा सबसे निकृष्ट, है आध्यात्मिक-ज्ञान (Heart) से उत्पन्न विशेषाधिकार--यह सर्वाधिक अत्याचारपूर्ण है! जो (ढोंगी साधु-संन्यासी भेषधारी या दुष्ट पण्डे-पुरोहित) लोग यह सोचते हैं कि वे आध्यात्मिकता या ईश्वर के बारे में अधिक जानते हैं, इसीलिये, उनको अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठतर विशेषाधिकार मिलना ही चाहिये। वे कहते हैं, "ऐ भेड़-बकरियों! आओ और हमारी पूजा करो,हमें ऊँचा आसन दो, क्योंकि हम ईश्वर के संदेशवाहक हैं और हमारी पूजा तुम्हें करनी ही पड़ेगी।"  

किन्तु जो स्वयं सच्चा वेदान्ती ('भ्रांति-मुक्त', disillusioned-डी-हिप्नोटाइज्ड नेता या पैगम्बर) होगा, वह कभी किसी के उपर शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक विशेषाधिकार के लिये दावा नहीं करेगा। कभी कर ही नहीं सकता, क्योंकि वह तो अपने अनुभव से जानता है कि एक ही शक्ति (महत प्रवृत्ति) तो सभी मनुष्यों में अन्तर्निहित है ! इसीलिये अद्वैत का कार्य इन सभी विशेषाधिकारों को तोड़ डालना है। वेदान्त इस विशेषाधिकार-वाद के विरुद्ध प्रचार करना चाहता है, मानव-आत्मा के उपर इस उत्पीड़न को चूर-चूर कर देना चाहता है। " 

यही स्वामी विवेकानन्द के द्वारा प्रतिपादित [महामण्डल के 'रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा ' में आधारित लीडरशिप ट्रेनिंग के माध्यम से 'BE AND MAKE' अर्थात 'भ्रान्ति-मुक्त नेता बनो और बनाओ' रूपी] वेदान्त क्रांति कार्यक्रम (वेदान्तिक रेवोलुशन प्रोग्रैम या 'বৈদান্তিক বিপ্লব কর্মসূচি')  की मूल बात यही है! किन्तु वे बड़े क्षोभ के साथ कहते हैं- " इस देश में उद्देश्य तो अनेक हैं, किन्तु उसे प्राप्त करने का उपाय नहीं है। हमारे पास मस्तिष्क (Head) तो है, परन्तु हाथ (Hand) नहीं। हम लोगों के पास वेदान्त मत-(प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !) है, लेकिन उसे कार्य में परिणत करने की क्षमता नहीं है। हमारे ग्रन्थों में सार्वभौम-साम्यवाद का सिद्धान्त है, किन्तु कार्यों में महा भेद-वृत्ति है। महा निःस्वार्थ, निष्काम कर्म भारत में ही प्रचारित हुआ, परन्तु हमारे आचरण अत्यन्त निर्मम और अत्यन्त हृदयहीन हुआ करते हैं; और मांसपिण्ड की अपनी इस काया को छोड़ कर,देह-सुख सिवा अन्य किसी उच्चतर आनन्द के विषय में हम सोचते ही नहीं। " 
विवेकानन्द के मतानुसार- " भगवान और शैतान (अहुरमज्द और अहिर्मन)  सुर और असुर में कुछ भेद नहीं हैं, भेद केवल स्वार्थशून्यता तथा स्वार्थपरता में है। शैतान (असुर) भी उतना जानता है जितना सुर, उसमें बस पवित्रता नहीं होती-इसीसे वह असुर बन जाता है। शैतान भी भगवान के जैसा ही शक्तिशाली है, केवल उसमें पवित्रता नहीं है- इस पवित्रता के आभाव ने ही उसको शैतान बना दिया है। इसी कसौटी पर आधुनिक संसार को परख कर देखो। पवित्रता नहीं रहने से, ज्ञान और शक्ति का अतिरेक मनुष्य को शैतान में परिणत कर देता है। " ९/१०२ 

इस पवित्रता का अर्जन (chastity- चैस्टिटी या इन्द्रियनिग्रह की भावना) ही 'भ्रान्ति-मुक्त नेता बनो और बनाओ' रूपी वेदान्त क्रांति कार्यक्रम (वेदान्तिक रेवोलुशन प्रोग्रैम या 'বৈদান্তিক বিপ্লব কর্মসূচি') का अधिकांश भाग (main body) हैपवित्रता अर्जन करना ही आध्यात्मिकता को अर्जित करना है, एवं यह जीवन के प्रत्येक स्तर के लिये अत्यन्त प्रभावी होता है। विवेकानन्द के मतानुसार  मनुष्य जीवन में- ' धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष' (सैक्रिड और सेक्युलर) रूप से दो अलग-अलग कार्य-क्षेत्र नहीं हैं। क्योंकि जीवन एक ही वस्तु है, और हर प्रकार से अधि-आत्मिक (Hyper-spiritual,अति-आत्मिक) है। किन्तु धर्म क्या है ? 
विवेकानन्द का उत्तर होगा - " धर्म का अर्थ क्या इस प्रकार प्रार्थना करना है- " हमें यह दो, वह दो" ? नहीं, धर्म के संबन्ध में ये सब धारणायें प्रमाद हैं। हमारे गुरुदेव कहा करते थे, ' गीध बहुत ऊँचे उड़ते हैं, किन्तु उनकी दृष्टि रहती है जानवरों के शव की ओर।' जो हो, तुममें धर्म के सम्बन्ध में जो सब धारणायें हैं, उनका फल क्या है, बताओ तो सही ?  ..रास्ते की सफाई करना, और अच्छे अन्न-वस्त्र का संग्रह करके उनका वितरण कर देना; क्या धर्म का यही अर्थ है? ....यदि साहस हो, उनके बाहर चले आओ। सब नियमों के बाहर चले जाओ, समग्र जगत उड़ जाय - तुम अकेले आकर खड़े हो जाओ।'  ८/७९ সমগ্র জগৎ উড়িয়া যাক—আপনি একলা আসিয়া দাঁড়ান।--स्वामीजी का वास्तविक क्रांतिकारी आह्वान भी यही है !

प्रसिद्द इतिहासकार एवं विचारक अर्नाल्ड टायनबी की पुस्तक 'सरवाइविंग द फ्यूचर' (Surviving the Future) में भी, स्वामी जी के इसी उक्ति की प्रतिध्वनी सुन सकते हैं। वे कहते हैं- " सच्चे और दीर्घ स्थायी शान्ति को प्राप्त करने के लिये,जो अत्यन्त आवश्यक है वह है- एक आध्यत्मिक-क्रांति !" उन्होंने क्रांति के
दो मार्गों का उल्लेख किया है -- एक में क्षोभ और (मोहजाल से ) मुक्ति की आकांक्षा, विध्वंस का विस्फोटक रूप धारण कर लेती है, और दूसरे प्रकार की आध्यात्मिक-क्रांति जिस मनुष्य के भीतर घटित हो जाती है, (जो भ्रम-मुक्त या देहाध्यास से डी-हिप्नोटाइज्ड हो जाता है), वह अधिकांशतः मूक  (गूँगा) हो जाता है, और बाहर से देखने पर कम क्रियाशील प्रतीत होता है।" ठीक विवेकानन्द के शब्दों  में -समग्र जगत उड़ जाय - तुम अकेले आकर खड़े हो जाओ।'" ( देहाध्यास या हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड से स्व यंभ्रम-मुक्त होकर बाहर निकल आओ, और दूसरों को भी भ्रम मुक्त करने के कार्य में जुट जाओ !
"अर्नाल्ड टायनबी (Arnold Joseph Toynbee) - 'The way of the drop-outs ' की तुलना 
'सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसी' से करते हुए  कहते हैं- उनके आलावा इस प्रकार विसम्मोहित (भ्रम-मुक्त या डी-हिप्नोटाइज्ड) होकर अकेले खड़े हो जाने वाले महापुरुषों के और भी कई उदाहरण (बुद्ध,नवनीदा आदि) हैं, जिनके कारण समाज विशेष रूप से उपकृत हुआ है।"
[सेंट फ्रांसिस ऑफ़ असीसी (११८२-१२२६)" को यीशु मसीह के त्यागपूर्ण जीवन का अनुकरण करने वाले, ईसाई परंपरा में संतों में एक श्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है। उन्होंने गरीबी और पवित्रता (इन्द्रिय-निग्रह, chastity) के जीवन को गले लगाने के लिए,अपने पूर्व-जीवन के धन और सामाजिक स्थिति का त्याग कर दिया था। सेन्ट फ्रांसिस के विद्रोह की तुलना हिप्पी आंदोलन के क्रन्तिकारी युवा से करने का कारण यही दिखाना है कि सेन्ट फ्रांसिस ऑफ़ असीसी ने अपना विप्लव एक “drop-out”  की तरह ही प्रारम्भ किया था, किन्तु उनके जीवन का अन्त एक हिप्पी के रूप में नहीं, बल्कि एक मानवजाति के सच्चे नेता की तरह हुआ। जो अपने लिए धनी होने के कारण किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार नहीं चाहते थे। उन्होंने युवावस्था में अपनी क्रांति का प्रारम्भ अपने पिता के भौतिकवादी मानसिकता का हिप्पियों की तरह नग्न होकर नकारात्मक विरोध किया था, किन्तु वे क्रमशः चरित्र-निर्माण की सकारात्मक पद्धति को सीखकर अपना आध्यात्मिक जीवन गठित कर लिया था। इसीलिए अर्नाल्ड टायनबी कहते हैं - मैं हिप्पी-आंदोलन के ऊपर अभी कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दूंगा, मैं इस आंदोलन की परिणीति को देखने के बाद ही हिप्पी युवाओं के विषय में कुछ कहूँगा।
हम यह नहीं जानते कि ऐसा कहते समय उनके मन में विवेकानन्द (या नवनी दा?) का नाम था या नहीं, किन्तु हमलोग यह निश्चित रूप से जानते हैं कि हमारे युग के इस प्रकार के एक रूढ़िमुक्त वैगाबॉन्ड (बोहेमियन, खाना बदोश या घुमक्कड़) दल के मार्गदर्शक नेता थे स्वामी विवेकानन्द ! ( আমাদের যুগে এমন এক ছন্নছাড়া গোষ্ঠীর পুরোধা ছিলেন স্বামী বিবেকানন্দ' जैसे हमारे युग में, रूढ़िमुक्त
 वैगाबॉन्ड दल के मार्गदर्शक नेता,आध्यात्मिक- क्रांति के अग्रदूत का नाम था- नवनी दा!) जो न केवल अपने समाज में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के प्रति दृढ़ संकल्प थे, बल्कि भारत के सभी युवाओं के विचार-जगत में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए कृतसंकल्प थे। और यही एक नई क्रांति -चरित्र-निर्माण आंदोलन की शुरुआत भी है।
स्वामी विवेकानन्द ने भावी नेताओं अपने क्रमानुयायीओं या सक्सेसर्स का आह्वान करते हुए कहा था , " बाह्य रूपों तथा अवस्था में कभी साम्य प्राप्त नहीं हो सकता। किन्तु विशेषाधिकार के लालच को हमलोग अवश्य हटा सकते हैं। सारे संसार के समक्ष वास्तव में यही कार्य है। प्रत्येक कौम और प्रत्येक देश के सामाजिक जीवन का एकमात्र संग्राम यही है । युगों -युगों से धर्म और नैतिकता का लक्ष्य इसी विशेषाधिकार के लोभ को नष्ट करना रहा है। सृष्ट जगत की स्वाभाविक विविधताओं को नष्ट किये बिना, साम्य-प्राप्ति और एकत्वबोध की दिशा में अग्रसर होते रहना ही हमलोगों का (महामण्डल  नेताओं का 'छन्न छाड़ा गोष्टी के पुरोधाओं'  का) एकमात्र कार्य है " यहीं पर अध्यात्मिक क्रांति की दृष्टि से विवेकानन्द की सकारात्मक कार्य पद्धति-'BE AND MAKE' में सृजन की  खोज दिखाई देती है। जड़वादियों के इन्कलाब और अध्यात्मवादियों की क्रांति में यही अंतर है कि वे अपने लिये कोई विशेषाधिकार नहीं चाहते ! संस्कृत के कवि भास बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं- 
 'प्राज्ञस्य मूर्खस्य च कार्ययोगे, 
 समत्वम् अभ्येति तनुः न बुद्धिः||' 
-अर्थात ज्ञानी और मूर्ख मनुष्य के कर्म करने में शरीर तो एक जैसा रहता है, परन्तु बुद्धि में भिन्नता रहती है। जब कोई कार्य किसी प्राज्ञ या मूर्ख व्यक्ति के द्वारा सम्पादित होता है, तो बाहर से देखने पर उसमें कोई अंतर नहीं रहता। किन्तु बुद्धि या विचार की दृष्टि से देखा जाय तो - एक विशेषाधिकार पाने या बॉसिज्म की इच्छा से कर्म करता है, और दूसरा आध्यात्मिक साम्य में स्थापित रहने की इच्छा से, दोनों के बीच बहुत अधिक अंतर होता है।

स्वामी विवेकानन्द के मन में मुक्ति  की परिकल्पना बहुत व्यापक थी। वे सम्पूर्ण मानव जाति के लिये राजनैतिक, सामाजिक, बौद्धिक, और आध्यात्मिक मुक्ति उपलब्ध करना चाहते थे। इसीलिये १९२९ ई ० में हुगली जिला छात्र सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था- "राममोहन के युग से लेकर भारत की स्वाधीनता प्राप्त करने की आकांक्षा, विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से क्रमशः प्रकटित होती आ रही है। उन्नीसवीं शताब्दी में मुक्ति की यह आकांक्षा व्यक्ति के विचार-जगत और समाज के भीतर तो दिखाई देती थी, किन्तु उस समय भी राष्ट्रिय क्षेत्र में दिखाई नहीं देती थी - क्योंकि उस समय पराधीनता के मोहनिद्रा में निमग्न भारत-वासी, ऐसा समझते थे कि अंग्रजों का भारत पर विजय प्राप्त करना एक दैवी घटना या ईश्वरीय विधान (divine dispensation) है। स्वाधीनता के अखण्ड रूप का आभास, उन्नीसवीं शताब्दी के अंत, तथा बीसवीं शताब्दी के आरंभ में- "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा" (के लीडरशिप ट्रेनिंग) में प्राप्त होता है। स्वामीजी का यह सन्देश - 'Freedom, freedom is the song of the soul' - जब ('निर्झरेर स्वप्नभंग' की तरह) स्वामीजी के हृदय के बन्द दरवाजे को भेदन करके प्रकट हुआ उस समय वह समग्र देशवासी को मंत्रमुग्ध और उत्साहित बना दिया था। उनकी साधना (निर्विकल्प समाधि का त्याग) के माध्यम से, आचरण के माध्यम से एवं व्याख्यानों के माध्यम से यही सत्य प्रकट हुआ था। स्वामी विवेकानन्द जहाँ एक ओर, ' मनुष्य को समस्त प्रकार के बन्धनों से स्वाधीन होकर (प्रकृति के मोहजाल से भ्रम-मुक्त या डी-हिप्नोटाइज्ड होकर) यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता) बनने का आह्वान करते हैं, उसी प्रकार सर्वधर्म समन्वय (नवनी दा-अविरोध) के प्रचार द्वारा भारत की राष्ट्रीय-एकता की बुनियाद को भी स्थापित कर देते हैं। "

इसीलिये बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ' राजद्रोह जाँच समीति ' (Sedition Committee) के रिपोर्ट में लिखा गया था कि भारत के क्रांतिकारियों के पाठ्यक्रम या सिलेबस में मैजनी, गैरीबाल्डी की जीवनी के साथ भगवद-गीता और विवेकानन्द-साहित्य भी पढ़ाये जाते थे। ढाका के जेल में क्रांतिकारी हरिकुमार से तात्कालीन बंगाल के राज्यपाल लार्ड रोनाल्डशे (१९१७ - १९२२) ने पूछा था-" क्या आप कहीं विवेकानन्द के अनुयायी और वेदान्ती तो नहीं हैं ? " विवेकानन्द को विपिन चन्द्र पाल  ' राष्ट्रवाद का प्रवक्ता ' कहते थे। दूसरे लोग उनको 'भारत का रूशो ' के नाम से संबोधित करते थे। अरविन्द ने लिखा था, " दक्षिणेश्वर की मिट्टी से डायनामाईट का निर्माण हुआ था।" शायद इसीलिये,जब अरविन्द को बम बनाने के मुकदमे में 'ग्रे-स्ट्रीट' के निवास से गिरफ्तार किया गया, उस समय तलाशी में पुलिस को वहाँ से केवल एक ही सन्देहास्पद पुड़िया प्राप्त हुई,पुलिस को लगा कि उसमें कोई बिस्फोटक पदार्थ रखा हुआ है। अरविन्द ने हँसी करके बाद में लिखा था, " पुलिस का सन्देह गलत नहीं था, क्योंकि पुड़िया बांध कर ताखे में जो रखा हुआ था, वह वास्तव में बिस्फोटक पदार्थ तो था ही। क्योंकि उसमें दक्षिणेश्वर की थोड़ी सी मिट्टी रखी हुई थी।" 
स्वामी विवेकानन्द के भीतर अध्यात्मिक-क्रांति का बीज था इसीलिये यह सब सम्भव हो सका था। (उनमें नेतागिरी के विशेषाधिकार उन्मूलन करने सक्षम निर्विकल्प-समाधी जन्य विवेकज ज्ञान-बीज सन्निहित था, इसीलिये  ये सब संभव हो सका था।)  इसीलिये  विवेकानन्द ने आह्वान किया था- "लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर, भगवान के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर इस सम्पूर्ण भारत देश में सर्वत्र उद्धार के सन्देश का, सेवा के सन्देश का, सामाजिक उत्थान के सन्देश का, समानता (विशेषाधिकार उन्मूलन) के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे। "उठो जागो ! क्योंकि तुम्हारी मातृभूमि इसी महाबली की प्रार्थना कर रही है। " 
किन्तु इस अध्यात्मिक क्रांति का मार्ग पर चलना, छुरे की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान दुर्गम है। यदि भारत का युवा-वर्ग व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहते हों, तथा समाज से गन्दगी को दूर करने के लिये दृढ़ संकल्प हों, तथा इस नई आध्यात्मिक-क्रांति से प्रेम करने का साहस (कच्चे मैं को जीतेजी मरते देखने का साहस) रखें, तब उन्हें भी अपनी मानवीय सम्भावना का विकास और अभिव्यक्ति,  स्वयं भ्रम-मुक्त होने और दूसरों को भी भ्रम-मुक्त करने की आंतरिक प्रेरणा प्राप्त होगी।  इस मार्ग पर चलने का एकमात्र संबल है, विवेकानन्द निर्देशित 'मनुष्यत्व -उन्मेषक और चरित्र निर्माणकारी शिक्षा।' [ नवनी दा निर्देशित ५ अभ्यास का प्रशिक्षण
चरित्र ही इस क्रांति  का एकमात्र हथियार है; और इस आध्यात्मिक-क्रन्तिकारी को पूरी निर्दयता के साथ उस क्रांति की चोट दूसरों पर नहीं अपने आप पर (विशेषाधिकार उन्मूलन हेतु ) करना होगा। यदि भारत  के युवा अपने चरित्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकें, तभी उनके द्वारा समाज में परिवर्तन लाना संभव होगा। अन्यथा जड़वादी इन्कलाब का भोथरा तलवार निष्फल होकर किसी न किसी दिन वापस उन्हीं के ऊपर गिरेगा । जो लोग त्याग और सेवा के माध्यम से अपना चरित्र गठन करते हैं, केवल वैसे ही लोग ' अध्यात्मिक क्रांति की पताका ' (महामण्डल का वज्रांकित ध्वज) के नीचे एकत्र हो सकते हैं। 
आज भारत को जिस चीज की घोर आवश्यकता है, वह है चरित्र ! चरित्र-निर्माण आंदोलन ही समाज के पतन और वैषम्य को दूर कर सकता है। विशेषाधिकार और शोषण को समाप्त कर सकता है। समानता और न्याय तथा परस्पर सौहार्द को स्थापित कर सकता है। आज भारत की स्वाधीनता का 27 वर्षों बाद (यह लेख 1974 में  प्रकाशित हुआ था) टायनबी उल्लेखित पुराने ढंग की (हिप्पी) क्रांति का प्रयोजन समाप्त हो गया है। आज आवश्यकता है एक नये ढंग की क्रांति की। अराजक विभत्सता (नक्सलवाद -आतंकवाद)  में गोली खाकर मर जाने से भी कठिनतर है अपने संयमित उत्तेजनाहीन जीवन को गढ़ते हुए- देश को गढना ! ' मृत्यु हो जाने तक, यह जीवन (नवनी दा का?) दुःख की तपस्या मात्र है! इस सत्य-पथ पर चलना अत्यन्त कठिन है; किन्तु इसे समझ-बूझ कर ही, मैंने ' कठिनतर ' से प्यार किया है।" 
जीवन में कर्तव्य कठोर हैं,
सुखों के पंख लग गये हैं,

मंजिल दूर, धुँधली सी झिलमिलाती है,
फिर भी अन्धकार को चीरते हुए बढ़ जाओ,

अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ !
हे वीरात्मन,तुम्हारे उत्तराधिकारी अवश्य जन्मेंगे,

यह भीड़ सही बातें देर से समझती है,
तो भी चिन्ता न करो, मार्ग-प्रदर्शन करते जाओ।

तुम्हारा साथ वे देंगे, जो दूरदर्शी हैं,
तुम्हारे साथ शक्तियों का स्वामी है,

आशीषों की वर्षा होगी तुम पर,
ओ महात्मन, तुम्हारा सर्वमंगल हो !

"वेदान्ती नैतिकता का यही सारांश है-सबके प्रति साम्य । हम देख चुके हैं कि वह अन्तर्जगत है, जो बाह्य जगत पर शासन करता है। विषयी को परिवर्तित करो, विषय भी परिवर्तित हो जायेगा। स्वयं को शुद्ध कर लो और संसार का विशुद्ध होना अवश्यम्भावी है। लोग बदल जाएँ, तो जगत भी बदल जायेगा। 'हम बदलेंगे युग बदलेगा '- पहले के किसी समय से अधिक आजकल इस एक बात की शिक्षा देने की आवश्यकता है। क्योंकि हमलोग अभी अपने विषय में उतरोत्तर कम और अपने पड़ोसियों के विषय में क्रमशः अधिक व्यस्त होते जा रहे हैं।  यदि हम परिवर्तित होते हैं, तो संसार परिवर्तित हो जायेगा; यदि हम निर्मल हैं, तो संसार निर्मल हो जायेगा। " ९/१०२ 
 [मनुष्य को आध्यात्मिक मनुष्य में परिवर्तित करने वाले आध्यात्मिक क्रांति का सूत्रपात नवनीदा ने  महामण्डल का लीडरशिप ट्रेनिंग द्वारा;'निर्झरेर स्वप्नभंग' (disillusioned) डी-हिप्नोटाइज्ड, भ्रम-मुक्त नेता के रूप में नवनी दा ने अपने हृदय के प्रेम मन्दाकिनी को 'जीवन के हर मोड़ पर',सभी युवाओं के जीवन-गठन का सूत्र, भारत-निर्माण का सूत्र , मनुष्य जीवन के उद्देश्य, सार्थकता का सूत्र -" BE AND MAKE " का प्रचार- प्रसार करते हुए किया था। उन्होंने आजीवन अपनी शारीरिक, मानसिक, धन-संपत्ति से परिपूर्ण, श्रेष्ठ ब्राह्मण वंश और खड़दह के श्री हर्ष के कुल और भुवन-भवन में जन्म ग्रहण करने के बावजूद, अथवा सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक ज्ञानी होने के आधार पर, कभी किसी प्रकार के विशेषाधिकार का कोई दावा नहीं किया था ! नवनी कहते थे - ’'कम आउट फ्रॉम दी हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड, फ्रॉम द हर्ड ऑफ़ शिप्स; एंड स्टैंड अलोन लाइक अ लॉयन! लाइक अ ट्रू लीडर ऑफ़ मैनकाइंड !  उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ! महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण में भ्रम-मुक्त होकर 'भेंड़' से 'शेर' बनने के ५ अभ्यास का प्रशिक्षण देने में सक्षम कम से कम १००० मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक 'नेता बनो और बनाओ',उसके पहले विश्राम मत लो !--यही है नवनी दा  के नव-विप्लव का आह्वान ! ]
(पूज्य नवनी दा के शरीर त्याग देने के बाद) इस नई आध्यात्मिक क्रांति की रण-गर्जना -' छन्न छाड़ा गोष्ठी- के पुरोधा बनो और बनाओ' को अपने हृदय से श्रवण (मनन -निदिध्यासन) करो!-
[শিয়রে শমন, = in extermis, काली के हाथ में सिर काटने वाली भीम-कृपाण  को देखकर
মরণোন্মুখ, মুমূর্ষ, মরোমরো, মৃত্যুর দ্বারপ্রান্তে স্থিত। Extermis, = आख़िर में मरणोन्मुख होते समय, इस क्षण और मृत्यु के ठीक एक क्षण पहले,  मौत के कगार पर पहुँचकर विवेकज ज्ञान का अनुभव करो ! जान लो तुम कभी मरोगे नहीं !]  
'उठो उठो, महातरङ्ग आ रहा है ! निर्झर के स्वप्न को भंग करो ! 
[उस महातरङ्ग में इस अहं-बिन्दु के विध्वंश (extermination) को देखकर डरो मत ! ]   
स्वयं को विसम्मोहित करो ! 
জাগো বীর, ঘুচায়ে স্বপন, শিয়রে শমন,  ভয় কি তোমার সাজে?
পূজা তাঁর সংগ্রাম অপার, সদা পরাজয় তাহা না ডরাক তোমা।

' जागो वीर ! सदा ही सिर पर काट रहा है चक्कर काल। 
छोड़ो अपने सपने, भय क्यों ? काटो-काटो यह भ्रमजाल ।।

फोड़ो वीणा प्रेमसुधा का पीना छोड़ो, तोड़ो वीर ।
दृढ़ आकर्षण है जिसमें उस नारी-माया की जंजीर।। 

 सदा घोर संग्राम छेड़ना उनकी पूजा के उपचार।
वीर ! डराये कभी न, आये पराजय सौ सौ बार।।

चूर चूर हो स्वार्थ, साध, सब मान, हृदय हो महाश्मशान।
            नाचे उस पर श्यामा, लेकर घन रण में निज भीम कृपाण ।।   ' 9/335
----------------------------------------

गुरुवार, 24 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [5] 'स्वामीजी के प्रति-सच्ची श्रद्धांजलि ' (व्यक्ति और मन),

'क्या स्वामी विवेकानन्द के उपदेश केवल दूसरों को सुनाने के लिये हैं,
स्वयं करने के लिये नहीं?'  
प्रत्येक वर्ष के प्रथम मास (month) - जनवरी को स्वामी विवेकानन्द के आविर्भाव का महीना के रूप में जाना जाता है। इस महीने में हमलोग स्वामीजी की पूजा-अर्चना करते हैं, सभा-सम्मेलन का आयोजन करके स्वामीजी के प्रति अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं। एकबार फिर हम सभी लोग सर्वत्यागी परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों का स्मरण करते हैं। विश्व-महासभा में भारत के महान विचारों की वज्र-गर्जना के रोमान्च का अनुभव करते हैं। एक बार पुनः स्वीकार करते हैं कि स्वामीजी सचमुच भारत-प्रेमी थे, वे सचमुच उन लोगों- जो शताब्दियों से दबे-कुचले और पद-दलित होते आ रहे हैं, से गहरी सहानुभूति रखते थे। वैसे तो स्वामी जी मनुष्य मात्र से प्रेम करते थे, किन्तु यदि हम बंगला भाषी भी हों तो, तो इस बात पर थोड़ा गर्व भी महसूस करते हैं, कि स्वामीजी भी हमारे बंगाल के ही थे।
यदि व्यक्तिगत रूप से पूछा जाय तो भारत-भूमि पर जन्मा कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जो स्वामीजी के प्रति श्रद्धा के दो शब्द नहीं कहता हो। किन्तु समय के पहिये की घड़घड़ाहट में हमलोगों के इस क्षणिक स्मरण-मनन से उत्पन्न उत्साह का ज्वार, शीघ्र ही विस्मृति के समुद्र में विलीन हो जाता है। हम यदि अपने व्यक्तिगत जीवन पर दृष्टि डालें, अपने पारिवारिक-जीवन के क्रियाकालापों पर दृष्टिपात करें,अपने समष्टि जीवन अर्थात सामाजिक जीवन या राष्ट्रिय-जीवन की ओर देखें, या उनकी ओर देखें जो लोग हमारे जीवन को परिचालित कर रहे हैं, जो हमारे लिये नीतियाँ और परियोजनायें बनाते हैं, तो हम पाते हैं कि इस महीने में आयोजित होने वाले सभा-सम्मेलनों में हमलोग जो कुछ भी कहते हैं, या सामयिक लेखों में हम अपने जिन विचारों का उल्लेख करते हैं, उन विचारों के साथ अपने यथार्थ जीवन में कोई सामंजस्य नहीं दिखता है। 
ऐसा प्रतीत होता है मानो (स्वामीजी के उपदेश) 'केवल बोलने के लिये हैं, करने के लिये नहीं। ' और बोलने के लिये तो केवल कुछ पुस्तकों के कुछ पन्नों को एक बार फेंट लेना ही यथेष्ट होता है। किन्तु करने में बहुत तकलीफ होती है। स्वामीजी ने हमलोगों के इस बड़े राष्ट्रिय दोष को बहुत पहले ही देखकर हमलोगों को सतर्क कर दिया था। फिर भी इस दोष को हटाने के लिये हमलोग अपने कदम आगे क्यों नहीं बढ़ा पाते हैं?

इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं। पहला, स्वामीजी ने क्या किया था- इस बारे में थोड़ी जानकारी रखने पर भी, हमलोग इस बात पर विशेष ध्यान नहीं देते, कि वे हमसे क्या अपेक्षा रखते थे ? इसका एक कारण यह है कि हमारी शिक्षा पद्धति में बहुत निचली कक्षा के एक-दो परहितव्रती शिक्षकों से स्वामीजी की कुछ कहानियाँ सुन लेने से अधिक कुछ सिखलाने की व्यवस्था है ही नहीं। इसीलिये हमलोग केवल इतना जानते हैं कि स्वामीजी के विषय में बोलते समय उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है; किन्तु अपने जीवन को समर्पित करके स्वामीजी के प्रति अपनी श्रद्धा को अभिव्यक्त करना हम अपना उत्तरदायित्व नहीं समझते हैं। और दूसरा कारण यह है, कि यदि हममें से कुछ व्यक्ति (चाहे व्यक्तिगत जीवन में हो, या राष्ट्रीय जीवन में) इस बात को थोड़ा-बहुत समझ भी लेते हैं कि स्वामीजी हमसे किस बात की अपेक्षा रखते थे, तो वे भी ' समझ नहीं सके हैं ' का बहाना बनाकर उनके उपदेशों को अपने जीवन में धारण करने से बचना चाहते हैं! क्योंकि हम कहीं यह कह दें कि हमने तो यह समझ लिया की वे हमसे यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की अपेक्षा रखते थे। तो फिर उस उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के लिये हमें भी अपने समस्त व्यक्तिगत स्वार्थ और लाभ के स्वप्न को त्याग देना होगा ? बस इसी बात को याद करके, हमलोग उनका सच्चा अनुयायी बनने के भय से शिहर उठते हैं, और अपने जीवन को सार्थक करने के कर्तव्य से पलायन कर जाते हैं।
भला ऐसा क्यों होता है, हमलोग स्वयं अपने जीवन को सार्थक क्यों नहीं करना चाहते हैं ? स्वामीजी ने इसका कारण भी बता दिया था। मनुष्य की ढेरों स्वाभाविक प्रवृत्तियों में से एक है- जड़ता, सदैव स्थिर-अवस्था में अचल होकर ' जड़-पिण्डों ' के समान पड़े रहने की प्रवृत्ति। जो मनुष्य अभी जैसा है,वह वैसा ही बने रहना चाहता है। किन्तु स्वामीजी का अनुयायी बनने के लिये इस भाव का बिल्कुल ही परित्याग कर देना होता है। उनके भाव से अनुप्रेरित होने के लिये - ' मैं पिछले वर्ष जैसा था, इस वर्ष भी वैसा ही रहूँगा ' के भाव को बिलकुल छोड़ देना होता है। क्योंकि उनके अनुयायी के लिये-कल तक वह जितना मनुष्य बन सका था, आज भी उतना ही (लघु) मनुष्य बना रह पाना संभव ही नहीं होता है। इतना ही नहीं, इसके पहले क्षण मैं जो था, इस क्षण भी ठीक वैसा ही बने रहना संभव नहीं रह जाता। मुझको तो प्रतिमुहूर्त उन्नततर मनुष्य बनते रहना पड़ता है। 
[इसीलिये नवनी दा कहते थे - 
आलस्यं  हि  मनुष्याणां  शरीरस्थो  महान  रिपुः |
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा Sयम् नाSवसीदति  ||
सुखार्थी  वा  त्यजेत विद्याम्   विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम्  |
सुखार्थिनः  कुतो  विद्या  कुतो  विद्यार्थिनः  सुखम्  ||

क्योंकि (१९८५ में विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर, गुरु खोजने १९८६ में हरिद्वार कुम्भ का ज्ञान-और १६जनवरी-BH का ज्ञान, १९८७ बेलघड़ीया कैम्प, १०८८ प्रथम बिहार कैम्प) कोई सबसुख-दास मनुष्य कभी रामसुख-दास संत नहीं बन सकता ! अर्थात कोई सुखार्थी व्यक्ति कभी ब्रह्मविद मनुष्य या ब्रह्मवेत्ता मनुष्य नहीं बन सकता, क्योंकि ब्रह्म को जान विवेकज़-आनन्द (भूमा आनंद) में प्रतिष्ठित रहने की साधना, कभी ईज़ीगोइंग-प्रोसेस नहीं हो सकती -मनुष्य बनने और बनाने  के लिए ५ अभ्यास तो सभी को करना ही पड़ेगा।]  
शरीर का बड़ा होना, या बूढ़ा होकर पेंशन पाने लगना - यह कार्य तो प्रकृति द्वारा ही होता रहता है। इसके लिये मुझे स्वयं कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। किन्तु जब मैं अपने, शरीर को स्वस्थ और सबल तथा  मन को तेजस्वी बनाना चाहता हूँ या अपने हृदय को विशाल बनाना चाहता हूँ, उसको प्रसारित करना चाहता हूँ, तो इसमें मुझे स्वयं ही चेष्टा करनी पड़ती है; और यही मेरा कार्य है।
प्रति मुहूर्त अपने 'छोटा मैं'-बोध (या मिथ्या नाम-रूप केअहंकार) को निष्ठुरता के साथ त्याग करके 'बड़ा-मैं' (पाका आमी-ब्रह्मविद मनुष्य) बनने की चेष्टा करने को ही-स्वामीजी के भाव (आदर्श) को आचरण में उतारना कहते हैं ! जब हृदय के बन्द कपाट (अहं) को खोल कर, प्रेम-मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है, तब उस निर्झर का मोह-भंग हो जाता है, उसका भ्रम चला जाता है, तब वह निर्झर मायाजाल से मुक्त हो जाता है, उसकी (कोई पराया नहीं -सभी अपने हैं, सभी में मैं ही हूँ ! के भाव में स्थित पुरुष की स्त्री-पुरुष-नपुंसक' समस्त भेदबुद्धि चली जाती है।), उसी अवस्था का चित्रण रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी कविता  'निर्झरेर स्वप्नभंग' (নির্ঝরের স্বপ্নভঙ্গ) अर्थात 'निर्झर का डी-हिप्नोटाइज्ड हो जाना' में इस प्रकार करते हैं -'हेशे खोलखोल (खलखल) गेये कोलकोल (कलकल) ताले ताले दिबो ताली' (হেসে খলখল গেয়ে কলকল/তালে  তালে দিব তালি।) 
[आजि ऐ प्रभाते रविर कर/केमने पासिलो प्राणेर ‘पर /केमने पासिलो गुहार आंधारे/प्रभात पाखीर गान!/ना जानि केनोरे एतो दिन परे/जागिया उठिलो प्राण!/जागिया उठेछे प्राण, /उरे  उथलि उठेछे बारि,/उरे  प्राणेर वासना प्राणेर आवेग/रूधिया राखिते नारी।
(आज के इस प्रभात काल में सूर्य की किरणें/ प्राणों के भीतर कैसे प्रवेश कर गयीं?/ गुहा के अंधकार में प्रभात-पक्षी का गान कैसे समा गया?/ न जाने, इतने दिनों बाद प्राण क्योंकर जाग उठे हैं?/ प्राण जाग उठे हैं,/ अरे पानी उछल कर उमड़ पड़ा है। / अरे! प्राणों की वेदना, प्राणों के आवेग को रोक रखना संभव नहीं अब!)
“न जाने, आज क्या हुआ कि जाग उठे हैं प्राण
 मानो, कानों में पड़ा हो दूरस्थ महासागर का गान“।
আজি এ প্রভাতে রবির কর 
কেমনে পশিল প্রাণের পর, 
কেমনে পশিল গুহার আঁধারে প্রভাতপাখির গান! 
না জানি কেন রে এত দিন পরে জাগিয়া উঠিল প্রাণ। 
কেন রে বিধাতা পাষাণ হেন,
চারি দিকে তার বাঁধন কেন!
ভাঙ্ রে হৃদয়, ভাঙ্ রে বাঁধন,
সাধ্ রে আজিকে প্রাণের সাধন,
লহরীর 'পরে লহরী তুলিয়া
আঘাতের 'পরে আঘাত কর্।
भांग रे हृदय , भांग  रे बाँधोन 
शाध  रे ‍आजिके प्राणेर शाधोन 
लहरीर पोरे लहोरी तुलिया
अघातेर पोरे अघात कोर!
मातीया जोखोन उठेचे पोरान!
মাতিয়া যখন উঠেছে পরান
কিসের আঁধার, কিসের পাষাণ!
আজিকে করেছি মনে,
দেখিব না আর নিজেরি স্বপন
বসিয়া গুহার কোণে।
আমি       ঢালিব করুণাধারা,
আমি       ভাঙিব পাষাণকারা,
আমি       জগৎ প্লাবিয়া বেড়াব গাহিয়া
আকুল পাগল-পারা;

কেশ এলাইয়া, ফুল কুড়াইয়া,
রবির কিরণে হাসি ছড়াইয়া,
দিব রে পরান ঢালি।
शिखोर होईते शिखोरे छुटिबो
भूधोर होईते भूधोरे लुटिबो
हेशे खोलखोल गेये कोलकोल
ताले ताले दिबो ताली
শিখর হইতে শিখরে ছুটিব,
ভূধর হইতে ভূধরে লুটিব
হেসে খলখল গেয়ে কলকল
তালে  তালে দিব তালি।
इसी 'खिलखिला कर हँसते और कलकल ध्वनि' में बहती झरने की धारा में स्नान कर लेने के बाद (भेंड़त्व से डी-हिप्नोटाइज्ड होकर सिंहत्व में स्थित हो जाने के बाद) अपने छोटे छोटे सर्वस्व का त्याग करके (मैं और मेरा, या मन की चहार दिवारी को भी ट्रैन्सेन्ड 'transcend' करके हमलोग दूरस्थ महासागर या यथार्थ (शाश्वत) जीवन-समुद्र के सम्मुख खड़े हो जाते हैं ! इस मिथ्या अहं (छोटा मैं,देहाध्यास, M/F भाव ) को खो कर अपने यथार्थ स्वरूप या ब्रह्मत्व की प्राप्ति  (ससीम से असीम बनने या बून्द से सागर बनने) को हमें क्यों भयप्रद मानना चाहिए ? यह भय केवल अपनी जड़ावस्था को (आलस्य को) अचल रखने के दुराग्रहवश उत्पन्न होता है। इसीलिये स्वामीजी ने कहा था- 'गति ही जीवन है, स्थित ही मृत्यु।',  फिर कहते हैं- ' उठो, जागो ! अब और स्वप्न मत देखो ! ' (अपने को शरीर समझने की-देहाध्यास) घोर निद्रा को त्याग कर उठ खड़े होओ ! 
' चरैवेति चरैवेति '-जो आलस्य में सोया हुआ है, उसका कलिकाल चल रहा है, उठकर खड़े हो जाओ। खड़े हो गए हो, तो चलना शुरू कर दो, जो चलना शुरू कर देता है, उसके लिए सत्ययुग आ जाता है। यही स्वामीजी का संजीवनी- मन्त्र है, जो मृत जड़-पिण्डों में भी जान डाल सकता है।  स्वामीजी के आविर्भूत होने की तिथि का स्मरण करके हमलोग इस नव-जीवन प्रदायी मन्त्र ' चरैवेति चरैवेति '-में यदि दीक्षित न हो सकें, तो स्वामीजी के प्रति मौखिक श्रद्धा-सुमन चढ़ाने का कोई मोल नहीं है।
किन्तु केवल इतना ही काफी नहीं है। अपने जीवन-दीपक को प्रज्वलित करके दूसरों के जीवन को भी प्रज्वलित करा देने का प्रयत्न करना होगा। हम लोगों को ' सबों के जीवन से अपने जीवन को जोड़ कर देखना ' सीखना होगा। सभी युवाओं को व्यक्ति से पारिवारिक-जीवन में, पारिवारिक से सामाजिक-जीवन में, तथा इसी प्रकार राष्ट्रिय जीवन तक 'एक और अभिन्न ' बनते हुए आगे बढ़ने के मन्त्र में अनुप्राणित करना होगा। इस महा-जागरण की वाणी को भारत के खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, स्कुल-कालेजों, ऑफ़िस-अदालतों, व्यापारियों की गद्दीयों, राष्ट्र-चालकों के मसनदों (सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं ) तक, सर्वत्र फैला देना होगा। स्वामीजी सम्पूर्ण भारतवर्ष को पूर्ण रूप से जाग्रत कर देने के लिये ही आये थे। हमलोगों ने अभी तक स्वामीजी को इस रूप में देखना नहीं सीखा है। किन्तु हमलोगों को स्वयं उन्हें इसी रूप में देखना सीखना होगा और सबों को इसी दृष्टि देखने की पद्धति समझानी होगी।

स्वामीजी ने कहा था- 'भारत झोपड़ियों में वास करता है।' उसके जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। भारत को उठने के लिये (महान बनने के लिये) यहाँ की साधारण जनता, जो पीछे रह गए हैं, उन्हें ऊपर उठाना होगा (उन्हें वेदान्त के महावाक्यों सेअनुप्राणित करना होगा।) वे कहते थे - " माना कि तूँ  उन सबों को उपर नहीं उठा सकता, किन्तु तुम उनके कानों तक इस महा-जीवन की वाणी को पहुंचा तो अवश्य सकता है।"

 मानव-मात्र के भीतर अनन्त शक्ति अन्तर्निहित है। उस शक्ति के जाग्रत होते ही, वह किसी के भी दबाने से दबेगा नहीं, अप्रतिरोध्य बन जायेगा। तब वह अपने अधिकार को जानने के साथ साथ अपने उत्तरदायित्व को भी जान लेगा। प्रत्येक मनुष्य जब इस बोध को प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा, सिर उठाकर चलने लगेगा, अपने निजी सुख-भोग को तुच्छ समझ कर दूसरों के लिये अपने जीवन को भी न्योछावर कर देने में नहीं हिचकेगा, तभी भारत जाग जायेगा।
जो (प्रक्रिया-५ अभ्यास ) इस नवजीवन को जाग्रत करके उसे धारण किये रहती हो, वही है स्वामीजी का धर्म। इस धर्म को हम अफीम का नशा नहीं कह सकते। जिस आलस्य रूपी अफीम को खाकर हमलोग घोर सुषुप्ति की अचेत अवस्था में सोये पड़े हैं, उस निद्रा को त्याग कर उठ जाने के लिए ही स्वामीजी हमें पुकार रहे हैं। प्रत्येक छात्र, प्रत्येक युवक को उनका यह आह्वान पहले स्वयं समझना होगा, फिर दूसरों को भी समझाना होगा। देश की सम्पूर्ण  राष्ट्रीय-व्यवस्था को इस समझाने के दायित्व का निर्वहन करना होगा। "स्वामीजी बड़े महान थे", यह कहकर भाषण देने से, या समाचार-पत्र में छोटा सा लेख लिखकर श्रद्धांजली देने से ही देश आगे नहीं बढ़ेगा। भारतवर्ष अभी तक जितना भी सिर उठाकर खड़ा होने में समर्थ हुआ है, वह स्वामीजी के उसी मन्त्र -  ' चरैवेति चरैवेति ' से हुआ है, जिसे हमने भुला दिया है। 
उनका जो आह्वान हमलोगों के व्यक्तिगत  और सामाजिक जीवन को महाजीवन प्रदान करने में समर्थ है, उसको अस्वीकार करके, उसकी उपेक्षा करके हमलोग उनके अमर सन्देश ' Be and Make ' रूपी रतन को खो देंगे ? यदि हम इसे खोयें नहीं, यदि उनके इस सन्देश के उचित मूल्य को समझकर उन्हें प्रत्येक युवा अपना आदर्श माने तभी उनके आविर्भूत होने की तिथि पर उनको श्रद्धांजली देना सार्थक होगा। 
---------------------------------


बुधवार, 23 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना - [4 A] ' स्वामीजी का धर्म '(व्यक्ति और मन),

भावावेश ( Emotionality) रूपी अफीम की मिलावट से परिशोधित धर्म!
भाव (brainchild-अपना विचार या दर्शन) अच्छा है, किन्तु भावुकता (emotionality या भावावेश) अच्छी नहीं। फिर भी हमलोगों में से कई व्यक्ति भावावेश में बह ही जाते हैं। हमलोग किसी भाव या आदर्श को गहराई से सोच-विचार करने के बाद ग्रहण नहीं करते। यह बात सही है, कि स्वामी विवेकानन्द ने धर्म का प्रचार किया था। यह बात भी सत्य है कि धर्म के साथ अफीम (অহিফেন) की गन्ध तरह संयुक्त भावुकता कई बार हमारी बुद्धि मोहग्रस्त कर देती है,और हम अपने कर्तव्य पथ से भटक जाते हैं। उसी प्रकार यह भी सत्य है कि धर्म ही सत्य है, अफीम (धर्म का नशा) सत्य नहीं है! स्वामी विवेकानन्द ने धर्म के सत्य को, अतिशय भावुकता रूपी अफीम के मिलावट से  परिशोधित करके, विशुद्ध धर्म के रूप में -'मनुष्य बनो और बनाओ ' को मानव-समाज के समक्ष प्रस्तुत किया था। 

सच्चे से सच्चा धर्म भी, चाहे जिस कारण से हो - चाहे कट्टर राष्ट्रवाद के कारण हो, सामाजिक सोच या धार्मिक नासमझी के कारण हो, या चाहे जिस कारण से हो, समय के प्रवाह में दूषित हो ही जाता है। धर्म का शुद्ध रूप उसके अनुयायियों के व्यवहार या आचरण में व्यक्त होता हुआ दिखाई नहीं देता। केवल धर्म के मामले में ही ऐसा हुआ हो----सो बात नहीं है; अन्यान्य विचारों के क्षेत्र में भी हमलोग ऐसी घटनाओं को देख पाते है,और आज भी देख रहे हैं। किन्तु जिस समय धर्म के क्षेत्र में ऐसी अवस्था होती है, उस समय धर्म को फिर से नये रूप में सज्जित करके समस्त मनुष्यों के लिये ग्राह्य बनाकर, मानव-जाति के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है, और उसका प्रचार करना पड़ता है।
स्वामीजी के इस नव-वेदान्त प्रचार 'बनो और बनाओ ' रूपी चरित्र-निर्माण आन्दोलन का केवल एक वैशिष्ट है, और वह वैशिष्ट भी भारतीय विचार-धारा के अनुरूप ही है। और वह है, कि अन्यान्य क्षेत्रों में जहाँ विचारकों ने  एक एक विषय के भाव को लेकर ही चिन्तन किया है, और अपने चिन्तन का फल समाज को प्रदान किया है। जबकि स्वामी विवेकानन्द ने मनुष्य के समग्र पहलू (overall-aspect) के ऊपर चिंतन किया है। उनके चिन्तन में मनुष्य की समग्र सत्ता (3H), एवम उसका सम्पूर्ण समाज एक विषय के रूप दिखाई देता है। जबकि अन्यान्य विचारकों में से किसी ने केवल राष्ट्र के उपर चिन्तन किया है, किसी ने समाज के उपर, किसी ने विशेष कौम पर, किसी ने विभिन्न धर्मो के उपर, किसी ने शिक्षा के उपर, किसी ने कृषि के उपर, किसी ने कला के उपर, किसी ने साहित्य के उपर, किसी ने संगीत के उपर - या इसी  प्रकार के अलग अलग कई विषयों को लेकर चिन्तन किया है। 

किन्तु स्वामी जी ने - उपरोक्त समस्त क्षेत्र या त्रिज्यायें जिस केन्द्र के साथ जुड़े हुए हैं, उसी मनुष्य के उपर चिन्तन किया है। तथा मनुष्य वास्तव में क्या है - इस पर चिंतन करते करते उन्होंने ऐसे एक धागे (निःस्वार्थपरता) का अविष्कार कर लिया। जो उपरोक्त सब विचारों के भीतर से होकर गुजर सकता है, तथा उस धागे को मनुष्य के गले में पहना दिया, और उसका नाम दिया धर्म! और कहा कि यही वह धागा है, जो मनुष्य को सभी ओर से धारण किये रखेगा-अर्थात मनुष्य को मनुष्य बनाये रखेगा। इसीलिये भिन्न भिन्न नाम (ब्राण्ड) वाले जो धर्म हैं, जो समय के प्रवाह में केवल भावावेश (emotionality) मात्र प्रदान करते हैं, या अफीम की तरह नशा उत्पन्न करते हैं। स्वामी जी का धर्म, इस तरह के विभिन्न नाम वाले धर्मों से सम्पूर्णतया अलग किस्म का है। किसी ब्रांडेड धर्म का नाम सुनने से ही जिनके मन में एक प्रकार का उन्माद (delirium) उत्पन्न हो जाता हो, वे यदि चाहें तो इसके लिये और एक नये शब्द का अविष्कार कर सकते हैं, वैसा करने से उसमें वास्तव में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।
ऐसा कहना, कि जो लोग किसी खास निर्दिष्ट नुस्खा (Prescription) के अनुसार जीवन -यापन करते हों, वे ही धार्मिक हैं, और बाकी सभी लोग अधार्मिक हैं, इस बात में कोई दम नहीं है। जो अपने जीवन को सभी पहलुओं उसके उपयुक्त केन्द्र में धारण किये रह सकते हैं, वास्तव में वे ही धार्मिक व्यक्ति हैं। मनुष्य अपने केन्द्र से उसी समय जुड़ पाता है, जब वह दूसरे मनुष्यों के साथ युक्त होता है। यह जुड़ाव या योग 
तभी साधित होता है,जब मनुष्य धर्म के उस वैश्विक- धागे को धारण कर लेता है। स्वामी जी द्वारा ' मनुष्य ' की जो परिभाषा दी गयी है, उसमें सूत्र के रूप में यही बात सन्निहित है। स्वामीजी के मतानुसार 'मनुष्य' एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि असीम है, जबकि उसका केंद्र एक स्थान में है। इस सूत्र का  निहितार्थ अत्यन्त व्यापक है। जो मनुष्य स्वामीजी के धर्म में विश्वासी होता है, उसके जीवन की परिधि विश्वव्यापी हो जाती है। 
यहीं पर विकास का मूल है। और स्वामी जी के धर्म की मूल बात- मनुष्य का ऐसा समग्र विकास ही है। इसी विकास के पथ पर अग्रसर रहते हुए,  मनुष्य अपनी क्षूद्र सत्ता, ' मैं'-बोध (अहं भाव) को खोना सीख लेता है। मनुष्य अपनी संकीर्णता, स्वार्थपरता को त्याग करता हुआ विशालता या महिमा को प्राप्त करने की तरफ आगे बढ़ता जाता है। इस प्रकार महिमा की तरफ अग्रसर होना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना है। क्योंकि स्वामीजी के मतानुसार - ' निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है ! ' यदि इसी उक्ति को धर्म कहा जाय, तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? क्या किसी लोक-नायक ने धर्म की ऐसी परिभाषा अन्य किसी भाषा में पहले कभी नहीं कहा है ? जिन्होंने ऐसा नहीं कहा मनुष्य उनको कभी जन-नेता के आसन पर प्रतिष्ठित भी नहीं करता है।
फिलोसफी, जप, तप, देवता-घर, दीपक-दानी, केले का थम, कुशी-घंटी-शंख इन सब को स्वामीजी ने व्यक्तिगत धर्म कहा है। किन्तु जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है परोपकारअपने हृदय के विश्वव्यापी परिधि के अन्तर्गत समस्त जीवों के एकत्व की उपलब्धी करना ही धर्म है। यह उपलब्धी हो जाने के बाद मनुष्य द्वारा किया गया कोई भी कर्म परोपकार होता है, और वही है धर्म। यह धर्म कायरों के लिये नहीं है, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर (डरपोक) दूसरों को मारता है, और वीर ( अर्थात सच्चा जिहादी ) अपने कच्चे ' मैं '-को (अपने तुच्छ अहं को ) मारता है। मैं साँप को मार देता हूँ, बिच्छू को मार देता हूँ, या जिस किसी को भी मैं, मेरे इस सुख-सपने के जीवन को समाप्त कर सकने वाला समझता हूँ, जो मुझे हानी पहुंचा सकता है, उस उस को मैं मार देता हूँ, क्योंकि वास्तव में मैं कायर हूँ। किन्तु जो वीर होता है, वह इस वृहत जगत (भव-सागर ) के पार जाने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर, अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे - ' मैं और मेरा ' को मारता है। 
इसीलिये धर्म कायरों के लिये नहीं वीरों के लिये है। स्वामीजी ने कहा है, ' मनुष्य में अन्तर्निहित अनन्त शक्ति का स्फुरण (या प्रस्फुटित) होना ही धर्म है।'  उस धर्म की अभिव्यक्ति - बुराई को हटाने में,कल्याण
- कार्यों को सम्पादित करने में, भूखों को अन्न-दान करने, अज्ञानियों को ज्ञान देने, अत्याचार का प्रतिरोध करने, शुद्धबुद्धि को उद्घाटित करने के प्रयास से होती है। धर्म का मुख्य कार्य ही है, मनुष्य को शक्ति प्रदान करना। स्वामीजी के मतानुसार - 'जो धर्म मनुष्य को इस संसार में सुखी नहीं बना सकता, उस धर्म के द्वारा परलोक या मरने के बाद सुख देगा का आश्वासन बिलकुल झूठी बात है।'  
यदि मनुष्य इसी लोक में सुख प्राप्त करना चाहता हो, तो वैसा सुख केवल अपने सुख-सुविधा के ऊपर ही दृष्टि को केंद्रित किये रहने से नहीं प्राप्त होगा। यथार्थ धर्म-बोध मनुष्य को, उसकी असीम परिधि तक सक्रीय जन-कल्याण करने की भूमिका-(गुरु-नेता के कार्य) में नियोजित कर देता है। यही बोध उसको अपना और दूसरों का दुःख दूर करने की शक्ति और साहस से भर देता है। यहीं से अंतःकरण में हित-अहित का ज्ञान, अन्तरात्मा की आवाज, या विवेक-प्रयोग करने की शक्ति का जागरण हो जाता है। धर्म मनुष्य को सम्पूर्ण जगत के साथ जोड़ देता है, और नीतिबोध (आत्मा की आवाज या Conscience) उस ईश्वर के साथ जुड़े हुए मनुष्य के कर्म की निति- परोपकार को निर्धारित करता है। 
----------------------------



















   









मंगलवार, 22 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [3] 'स्वामीजी का मन' (স্বামীজির ভাব)

 'मैं सुधार में नहीं, बल्कि स्वाभाविक उन्नति (Evolution या उद्विकास) में विश्वास करता हूँ।'
'अनुसरण ही यथार्थ स्मरण है'- इस बात की चर्चा करते समय हमलोगों ने देखा था कि स्वामी जी को स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हमलोग उनके मौलिक भाव (उनके मन में चिरस्थायी रूप से बने रहने वाले मनोभाव -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है)- को समझने की चेष्टा करें तथा स्वयं,भले ही वह कितने ही छोटे पैमाने पर क्यों न हो- उस मौलिक भाव का अनुसरण भी करें।
हमलोगों ने यह भी सुना था कि मनुष्य को यथार्थ 'मनुष्य' में रूपान्तरित कर देना, 'মানুষ কে ঠিক ঠিক মানুষ করে তোলা' - अर्थात मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बना देना ही स्वामी जी के मन का स्वाभाविक मनोभाव (প্রকৃত ভাব brainchild) या आदर्श था
यद्यपि मनुष्य को सच्चा 'मनुष्य बना देना' (মানুষ করে তোলা) यह " Be and Make "- मनुष्य बनने और बनाने ' का कार्य बहुत बड़ा कार्य है; तथापि बहुत छोटे पैमाने पर ही सही (छोटे से शिशु-संगठन,
युवा-संगठन या नारी-संगठन के माध्यम से बच्चों-किशोरों-युवाओं को ५ अभ्यास का प्रशिक्षण देने के लिये) स्वयं अग्रसर होकर ही उनका अनुसरण किया जा सकता है- विवेकानन्द जैसे 'गुरु-नेता' के अनुसरण करने का यही एक मात्र पथ है !  
इस विशाल जगत,विशाल समाज,असंख्य मनुष्यों की अनगिनत समस्यायें हैं और उन्हें दूर करने के लिये अनेकों मतवाद (dogma, कट्टर धर्म-सिद्धान्त) हैं,-- इन सबके सामने निर्भीकता के साथ खड़े होकर, सब कुछ को अपनी इच्छानुसार क्रमबद्ध तरीके से सजा देने (जैसे कार्ल मार्क्स की साम्यवादी व्यवस्था को सम्पूर्ण विश्व में लागु कराने के लिये) का स्वप्न देखने का भी अपना एक अलग विराटत्व (magnitude) है! तथापि इस मार्ग से जबरन (राजनैतिक सुधार या बन्दूक का भय दिखाकर) पूरे समाज को सच्चे मनुष्य में रूपान्तरित कर पाने की बहुत अधिक व्यावहारिक सम्भावना दिखाई नहीं पड़ती है।
किन्तु, यदि हममें से प्रत्येक व्यक्ति स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने की चेष्टा करें, तथा यदि हमारी वह चेष्टा दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता कर सके, तो इस विराट कार्य को बहुत छोटे पैमाने पर भी अपने हाथों में लिया जा सकता है। स्वामीजी ने कई प्रकार से इसी पथ से अग्रसर होने का परामर्श, हमलोगों को  दिया था। स्वामीजी के जीवन-संगीत की रागिनी में बार-बार दुहराया जाने वाला आलाप था- 'BE AND MAKE' योजना अर्थात " स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता करो।" भगिनी निवेदिता को ७ जुन, १८९६ को लिखे एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है -मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बता देना।" ४/४०७ (माई आइडियल इनडीड कैन बी  पुट इन्टु अ फ्यू वर्ड्स एंड दैट इज: टू प्रीच अन्टू मैनकाइंड देयर डिविनिटी, एंड हाउ टू मेक इट मैनिफेस्ट इन एव्री मूवमेंट ऑफ़ लाइफ.) 
यदि इस आदर्श का अनुसरण (एक उच्च स्तर की समाज-सेवा समझकर) किया जाय- तो जितने परिमाण में इस कार्य किया जायेगा, उसी परिमाण में समाज की मुखाकृति भी (पशुमानव से देवमानव में) परिवर्तित होती चली जाएगी। और यही है समाज में आमूल-चूल परिवर्तित लाने में समर्थ अध्यात्मिक क्रांति (Spiritual Revolution) या सम्पूर्ण क्रांति ! 
सभी प्राणियों की प्रथम चेष्टा है, अपने प्राणों की रक्षा करने की चेष्टा। सभी प्रकार के जीवों की यही जन्मजात प्रवृत्ति (Inborn tendency) होती है। किन्तु बिना किसी को अपने साथ लिये, अकेले ही प्रयत्न करते रहने से,जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता प्राप्त नहीं होती,- इसी विशेषज्ञता (expertise एक्स्पर्टीज़)  के आधार पर मनुष्यों ने अपने समाज का निर्माण किया था 
इस सत्य को स्वीकार करने के बावजूद कि -केवल अपने स्वार्थ को पूरा करे के लिये जीना कोई जीना नहीं है; ' প্রাণ রাখিতে সদাই প্রানান্ত '- अर्थात लगातार दम (साँस) रोके रहने की चेष्टा करने से दम निकल जाता है। '(केवल वही जीवित है जो दूसरों के लिए जीता है, बाकी तो मृत से भी अधम हैं। फिर भी इसी के लिये - न जाने कितने प्रयत्न किये जाते हैं। और इसीलिये मानव-समाज को पुनः अधिक उपयुक्त रूप में गढ़ने के लिये कितने ही प्रकार की परियोजनाएँ चलाई जाती हैं। और इसी कारण समय समय पर विप्लव (क्रान्ति) की आवश्यकता भी पड़ती रहती है।  
विप्लव शब्द की व्युत्पति ' प्लु ' धातु से हुई है। सम्पूर्ण समाज में किसी भाव (मौलिक विचार) को संचारित कर देना ही विप्लव की मूल बात है। किन्तु जो विचारधारा (भौतिकवाद) अपने साथ सब कुछ को (मनुष्य के चरित्र आदि को भी) को बहा कर ले जाता हो, उसको प्लावन (बाढ़) कहते हैं, विप्लव नहीं कहते। 

'अपने प्राण की रक्षा करना '- समस्त प्राणियों का पहला धर्म होने पर भी,उत्तम प्राणी का कार्य  'प्राण को विकसित करना' होता है। क्योंकि साधारण जीवों (Beasts) के क्षेत्र में जिसे अंतर्निहित प्रवृत्ति (সহজাত বৃত্তি' या Inherent Tendency) या  कहते है, मनुष्य के क्षेत्र में उसी को महत प्रवृत्ति (মহৎ প্রবৃত্তি 'Greater Tendency' महत बुद्धि-माँ) कहते हैं। (इसीलिए कहा जाता है - सर्वश्रेष्ठ योनि मनुष्य योनि है)

जीवन को पूर्ण रूप से विकसित कर लेने की सम्भावना या क्षमता (potential) एक अध्यात्मिक विषय है,तथा उस क्षमता को विकसित करने की चेष्टा ही,आध्यात्मिकता है।  इस मौलिक विचार (भाव) को समाज के सभी क्षेत्रों में संचारित कर देना ही अध्यात्मिक क्रांति (विप्लव) है। और उस (पशु मानव से देवमानव में उन्नत हो जाने की) क्षमता को भौतिकता के सैलाब में नहीं बहने देकर, उसको विकसित कर लेना ही इस आध्यात्मिक क्रांति का उद्देश्य होता है।

समाज में परिवर्तन लाने के लिये, जितनी भी चेष्टायें राजनैतिक तौर पर की जाती हैं, वे सभी एक पक्षीय होती हैं। जैसे हमलोग खादान्न उत्पादन में वृद्धि लाने के लिये कभी हरित-क्रांति करते हैं, तो दुग्ध उत्पादन में वृद्धि लाने के लिये 'श्वेत क्रांति ' की बात करते हैं, या वस्त्र, यातायात, शिक्षा,आवास-योजना आदि के लिये विप्लव करते हैं। और भी कितनी ही वस्तुओं के लिये विप्लव करते हैं। किन्तु मनुष्यों की जो सबसे अंदरूनी सत्ता है (innermost entity-आत्मा या पूर्णता है), जो सभी चीजों की नियन्ता है(controller) है- जिसके पूर्ण विकसित होने से मनुष्य सर्वशक्तिमान् बन जाता है,अपनी समस्त समस्यायों का समाधान करने में स्वयं समर्थ बन जाता है, उसी प्राणप्रद (जीवनदायी) भाव (वेदान्त के चार महावाक्यों) को सभी मनुष्यों के लिये उपलब्ध बना देने वाले आध्यात्मिक विप्लव से बचना चाहते हैं। हमलोग इस बात के उपर थोड़ा भी विचार नहीं करते कि वास्तव में यही तो है मनुष्य के विकास की क्रांति को दबाये रखना और उसके मार्ग में बाधाएँ खड़ी करना। 
इसीलिये स्वामीजी ने कहा था," गत शताब्दी में सुधार के लिये जितने भी आन्दोलन हुए हैं, उन सबका सम्बन्ध भारत के केवल उच्च वर्णों से ही रहा है, जो जनसाधारण का तिरस्कार करके स्वयं शिक्षित हुए हैं। पर यह तो सुधार नहीं कहा जा सकता। सुधार करने में हमें चीज के भीतर, उसकी जड़ तक पहुँचना होता है। इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ। आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः ऊपर उठने दो, एवं एक अखण्ड भारतीय राष्ट्र संगठित करो। " (५/१११ मेरी क्रान्तिकारी योजना)
समाज के सभी स्तर पर रहने वाले मनुष्यों के हृदय को इन्हीं विचारों से, इसी भाव से आप्लावित कर देना ही वेदान्तिक या आध्यात्मिक विप्लव है। कवि रामप्रसाद ने गाया था- ' মূল ধরে টান দেওয়ার' गान अर्थात - ' जड़ को ही पकड़ कर खीँच देने ' वाला गाना। स्वामी विवेकानन्द ने उसी जड़ को उखाड़ कर फिर से रोपना चाहा था। गुलाब के पौधे को जड़ को उखाड़ कर फिर से रोपने पर क्या होता है ? जो कुछ भी प्राचीन कचरा (garbage या मूल्यहीन वस्तु) है, जितनी भी जराजीर्ण विचार हैं, वे स्वतः गिर कर समाप्त हो जाते हैं। फिर उसी जड़ से नयी डालीयाँ, नये पत्ते, नयी कलियाँ, बड़े बड़े बसरा के गुलाब जैसे फूल आदि उगने लगते हैं।
वृक्ष के उपर पानी डालने से केवल पत्तों को ही चमकाया जा सकता है। किन्तु उसके जड़ में (मूल सत्ता में) रस का संचार बाहर से नहीं किया जा सकता है। उसके जड़ में पानी डालना पड़ता है। क्योंकि जड़ ही अपनी मिट्टी को मजबूती से पकड़े रहता है। वही मिटटी से रस को खीँच कर पौधे को जीवित रखता है, डालियों और पत्तों सहित सम्पूर्ण पौधे को बचाए रखता है। केवल जीवित ही नहीं रखता, सुदृढ़ बना देता है (Reinforces) है, उसको फूलों-फलों से सजा देता है। मनुष्य-वृक्ष के मूल को सींचने की बात कहकर स्वामीजी रुक नहीं गये थे, उन्होंने उसको पूर्ण रूप से भव्य बना लेने का मार्ग भी दिखला दिया है। उन सब बातों को हमें धीरे धीरे जानना होगा, उसके उपर गहराई से चिन्तन करना होगा, फिर उन भावों को अपने जीवन में रूपायित करने के साथ साथ सामाजिक जीवन में भी रूपायित करने का प्रयास करना होगा। 
स्वामीजी ने कहा था, 'मैं सुधार में नहीं स्वाभाविक उन्नति (growth) में विश्वास करता हूँ।' जिसमें वस्तु में जीवन होता है, जो सतेज (Spirited या जोशपूर्ण) होते हैं- वे स्वयं विकसित होकर परिवर्तित हो जाते हैं। उस मनुष्य-वृक्ष की जड़ (मूल सत्ता) में बाहर से कोई वस्तु डाल कर उसको ग्रहण नहीं करवाया जा सकता। आज का जीव-विज्ञान (Biology) भी जीव-कोशिकाओं के मूल को जानने की चेष्टा कर रहा है। उसके  'जीन' (Gene) या पित्रैक का अविष्कार करके, जीन उत्परिवर्तन (Gene Mutation) की प्रक्रिया द्वारा उसका रूप, प्रकृति और आचार-व्यवहार में परिवर्तन कराकर, उस जीवधारी की संघटित शरीर रचना (organism) में आमूल परिवर्तन लाने पर शोध कर रहा है। इसीको वैज्ञानिक पद्धति (Scientific method) कहते हैं। स्वामीजी ने वर्षों पहले समाज के ' जीन ' का अविष्कार करके उसका अभ्यास ( Practice) तथा समृद्ध करने का उपाय भी बतला दिया था। 
समाज का मूल मनुष्य है, इसीलिये यदि एक एक करके प्रत्येक मनुष्य को ही दोषरहित (faultless) या सच्चा मनुष्य (चरित्रवान) बना लिया जाय, तो एक परिवर्तित समाज सामने आ सकेगा। यदि हमलोग मनुष्य के समाज को एक पशु-समाज में परिवर्तित होते नहीं देखना चाहते हों, तो हमें इसी वक्त इस बात को समझ लेना होगा कि केवल आध्यात्मिक विप्लव ही  इस कार्य (मनुष्य को निर्दोष बनाने के कार्य) को धरातल पर उतारने में - समर्थ हो सकता है। अन्धे की तरह कम्युनिज्म या पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करने के जिस पथ से  हमलोग चल रहे हैं, उस प्रकार हमलोग इस दुर्भाग्य से कभी बच नहीं सकेंगे। आने वाली विपत्ति की गंभीरता को हमें इसी समय समझ लेना होगा। 
कोई बाघ या सिंह,  मनुष्य की अपेक्षा बहुत अधिक शक्तिशाली होता है, किन्तु उसकी शक्ति को पाशविक शक्ति कहा जाता है। उस शक्ति का अनुशीलन करने से मनुष्य की प्रगति नहीं होती। पीछे लौटना ही पड़ता है। मनुष्य की वास्तविक शक्ति है - उसका मनुष्यत्व ! स्वामीजी के इसी सन्देश को सभी मनुष्यों तक ले जाना होगा। उन्हें इस सच्चाई को समझा देना होगा, कि कोई मनुष्यत्व-सम्पन्न मनुष्य दूसरों की किसी प्रकार की हानी पहुँचाकर, निन्दा कर, या  दूसरों का सिर फोड़ कर अपना पेट भरने की चेष्टा कभी नहीं करता। वह तो दूसरों का कल्याण करने के माध्यम से, अपना कल्याण करने के मार्ग से होकर चलता जाता है। यही भाव - आदर्श भाव है। और यही स्वामीजी के मन का भाव है। [उन्होंने कहा था -" अपने में ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त करने का यही एक मात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरों की सहायता करना।"]
--------------------------------
सर्वोत्तम पत्र : स्वामी ब्रह्मानन्द जी को १८९५ में लिखित
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा:
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्त: ॥
नीतिशतकम् (५३/२२१)
[अर्थात ---मनसि---मन में , वचसि---वाणी में, काये---शरीर में, पुण्यपीयूषपूर्णाः---पुण्यरूप अमृत से भरे हुए, त्रिभुवनम्---तीनों लोकों को, उपकारश्रेणिभिः--उपकारों की पंक्ति से,  प्रीणयन्तः---प्रसन्न रखते हुए, नित्यम्---सदा, परगुणपरमाणून्---दूसरों के छोटे-से-छोटे गुणों को भी, पर्वतीकृत्य--पर्वत के समान बढा-चढाकर, (बडाकर), निजहृदि विकसन्तः--अपने हृदय में विकसित करते हुए , सन्तः, सज्जन व्यक्ति, (संसार में), कियन्तः सन्ति---कितने हैं ? ]
भावार्थः----मन, वाणी और शरीर में सकर्मरूपी अमृत से परिपूर्ण , तीनों लोकों का अनेक प्रकार के उपकारों से कल्याण करने वाले और दूसरों के थोड़े से भी गुणों को सर्वदा पहाड़ की तरह (बहुत बडा) मानकर अपने हृदय में प्रसन्न होने वाले सत्पुरुष (संसार में) कितने हैं, अर्थात् ऐसे सज्जन बहुत कम है, दुर्लभ हैं ।
' जिसके मन में साहस तथा हृदय में प्रेम है, वही मेरा साथी बने -मुझे और किसी की आवश्यकता नहीं है। जगन्माता की कृपा से मैं अकेला ही एक लाख के बराबर हूँ, तथा स्वयं ही बीस लाख बन जाऊँगा। मेरा भारत लौटना अभी अनिश्चित है। यहाँ पर पण्डितों का संग है, वहाँ मूर्खों का-यही स्वर्ग-नरक का भेद है। यहाँ के लोग मिलजुल कर कार्य करते हैं, और हमलोगों के समस्त कार्यों में तथाकथित वैराग्य अर्थात आलस्य और ईर्ष्या का भाव रहता है, जिसके कारण सबकुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।
' स्वल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः – समय अत्यन्त कम है और विघ्न अनेक हैं । '' परोपकाराय सतां जीवितं' ' परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत्' — 'सत्पुरुषों का जीवन (जो उसे दुबारा मिला है) परोपकार के लिए ही होता है।' 'स्थितप्रज्ञ मनुष्य को दूसरों के कल्याण के निमित्त अपना जीवन न्योछावर कर देना चाहिये।' संसार में यही एकमात्र मार्ग है ! " तुम्हारी भलाई करने में ही मेरी भी भलाई है, दूसरा कोई उपाय नहीं है, बिल्कुल नहीं है। तुम भगवान हो, मैं भगवान हूँ और सभी मनुष्य भगवान हैं। यह वही भगवान है, जो ह्यूमनिज्म या मानवता के रूप में अभिव्यक्त होकर दुनिया में सबकुछ कर रहा है, फिर क्या भगवान कहीं अन्यत्र बैठा हुआ है ? अतः कार्य -- 'BE AND MAKE' में संलग्न हो जाओ! 
'भोग करते समय ब्राह्मणेत्तर जाति का स्पर्श करने से कोई दोष नहीं होता, भोग समाप्त होते ही स्नान आवश्यक है , क्योंकि ब्राह्मणेत्तर जाति तो अपवित्र है, अन्य समय में उसे स्पर्श करने की आवश्यकता भी नहीं है। ढोंगी साधु-संन्यासी तथा ब्राह्मण दुष्टों ने देश को रसातल पहुँचाया है ! आस्तिक लोग वीर होते हैं ! जो महाशक्ति उनमें विद्यमान है, उसका विकास अवश्य होगा ! और उससे जगत आप्लावित हो जायेगा। जो लोग आस्तिक हैं, अपने-आप पर विश्वास करते हैं, वे हीरो हैं! वे अपनी जबरदस्त शक्ति को इस प्रकार प्रकट करेंगे -कि उसकी बाढ़ में सम्पूर्ण विश्व बह जायगा। 'गरीबों का उपकार करना ही दया है। ' 'मनुष्य भगवान है, नारायण है। ' 'आत्मा में स्त्री-पुरुष-नपुंसक तथा ब्राह्मण, क्षत्रियादि भेद नहीं है।
" अपने ब्रह्मस्वरूप को अभिव्यक्त करने का एकमात्र उपाय यही है, कि इस विषय में दूसरों की सहायता की जाय।" (इसी का सूत्र है -' Be and Make!')
" ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण परमहंस)  से लेकर तृण के गुच्छे तक, सब कुछ नारायण है !" धरती पर रेंगने वाले कीड़े (बीस्ट्स)  में वह शक्ति कम प्रकट है, और परमहंस जी में वह शक्ति अधिक प्रकट है-बस अंतर केवल इतना ही है !
जिन कार्यों से (५ दैनंदिन अभ्यासों के बारे में दूसरों को बताते रहने से) क्रमशः अपने ब्रह्मभाव (पवित्रता) को अभिव्यक्त करने में जीव को सहायता मिलती हो - वे अच्छे कर्म या सत्कर्म हैं, और वैसा प्रत्येक कर्म जिसे करने से उसमें बाधा पहुँचती है-बुरे कर्म हैं। " अज्ञानी, पददलित, तथा दरिद्र- इनको अपना ईश्वर समझो ! 'अस्पृश्यता '-इज अ फॉर्म ऑफ़ मेन्टल डिजीज -उससे सावधान रहना। " ह्रदय का विस्तार ही जीवन है, और उसकी संकीर्णता ही मृत्यु!" जिस ह्रदय में परायों के लिये भी प्रेम है, वहीँ ह्रदय का विस्तार हो रहा है, और जहाँ केवल अपने शरीर से जन्मे या नाते-रिश्तेदारों के प्रति स्वार्थ होगा, वही हृदय क्रमशः संकुचित होता जाता है। अतः प्रेम ही जीवन का एकमात्र विधान है ! जो प्रेम करता है, वही जीवित है; जो स्वार्थी है, वह मृतक है। अतः केवल प्रेम के लिये प्रेम -यह जीवन का वैसा ही एकमात्र विधान है, जैसा जीने के लिये श्वास लेना। निष्काम प्रेम (भक्ति), किष्काम कर्म का यही रहस्य है। श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय अवतार में ज्ञान, भक्ति, कर्म, मनःसंयोग -चारो योग ही विद्यमान हैं ! उनमें अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रेम, अनन्त कर्म तथा सभी प्राणियों के लिए अनन्त दया है ! अभी तक (१६ जनवरी) तुम्हें इसका अनुभव नहीं हुआ? -- श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् !
--आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य: ।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति
 श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।गीता २. २९।।
कोई इस शरीरी (नवनी दा)  को आश्चर्य की तरह देखता है। वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्य की तरह सुनता है,  और इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता।४/३१० 
[जैसे एक बीज नष्ट होकर अंकुर में, अंकुर नष्ट होकर पौधे में,फिर मक्के का असंख्य बीज प्राप्त होता है। विवेकानन्द का कहना है कि " मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जाता,वरन सत्य से सत्य की ओर अग्रसर होता है; निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर जाता है।" तथा "मुक्ति का सिद्धान्त यह है कि 'मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके ईश्वर होना है' गीता १०/४१ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - 'जहाँ मानव-जाति को पवित्र और उसका उन्नयन करती असामान्य पवित्रता,असामान्य शक्ति,तेरे देखने में आये,तू जान कि मैं वहाँ हूँ!'
-------------------------------------------------    
१. नवनी दा का अपना दर्शन था -'कोई पराया नहीं है, सभी को अपना बनाना सीखो! ' -'मैं उस प्रभु का सेवक हूँ, जिसे अज्ञानी लोग 'मनुष्य' कहते हैं' - इसीलिए उनकी शिक्षा थी-'अविरोध' ! इसीलिये नवनी दा सभी प्रकार के मनुष्यों, सभी देशों के सभी मनुष्यों को उसकी पूर्णता को अभिव्यक्त करने की दिशा में अग्रसर होने में सहायता करना चाहते थे। मैंने एक बार TV पर पार्लियामेन्ट में राष्ट्रगान होते समय 'बसपा' के एक एम्.पी द्वारा राष्ट्र-गान का वहिष्कार करते देखा था; और इस बात पर दादा के समक्ष तीव्र प्रतिवाद किया था, कुछ अन्य भाइयों ने भी स्वदेश मन्त्र के कुछ अंशों को नहीं दुहराने की बात कही थी, इसी बात पर प्यार से डाँटते हुए उन्होंने कहा था-'भूल गया ? महामण्डल आंदोलन का मूल भाव है -अविरोध!) 
२. मनुष्य का सही रूप में 'मनुष्य बन जाना' (মানুষ হয়ে ওঠা) किसे कहते हैं ? नवनी दा के मतानुसार  'यथार्थ मनुष्य'  वह है जिसे अपने सामर्थ्य में ऐसी अटूट श्रद्धा हो, इतना निर्भीक हो - कि,मैं तो शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ ! देखता हूँ -  " इस क्षण के बाद आने वाले मृत्यु के क्षण में मरता कौन है- ?"  इसका साक्षात्कार करके 'विवेकज-ज्ञान' अपरोक्ष ज्ञान द्वारा अपने यथार्थ स्वरुप (ईश्वर या ब्रह्म)  को भी जान कर जो व्यक्ति 'ब्रह्मविद' मनुष्य बन जाता है, वही यथार्थ मनुष्य है !  वे कहते थे - ' क्योंकि मनुष्य की सत्ता (पूर्णता या आत्मा ) सभी देशों और सभी युग में एक ही रहती है। इसलिए उस सत्ता (पूर्णता) की अभिव्यक्ति विभिन्न देशों या विभिन्न युगों में अलग अलग रूपों में हो सकती है। अर्थात वही सत्ता (पूर्णता) ही देश-काल -पात्र के अनुसार अपने को कभी ईसा, कभी बुद्ध, कभी मोहम्मद,नानक, कबीर, राम-कृष्ण, श्रीरामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, तो कभी नवनी दा आदि असंख्य रूपों में अपने को अभिव्यक्त करती है ! क्योंकि मानव-मात्र में ब्रह्म अव्यक्त रूप से विद्यमान है; अपने हृदय में स्थित उस ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाने अर्थात ब्रह्मविद मनुष्य बन जाने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान है। किसी भी जाति, धर्म और देश में जन्मा कोई भी व्यक्ति, चाहे वह नास्तिक ही क्यों न हो, कोई भी भाषा क्यों न बोलता हो - किसी भी पैगम्बर, अवतार या भगवान को अपना आदर्श क्यों न मानता हो; अपना चरित्र-निर्माण करके 'यथार्थ मनुष्य' - ' मैन विथ कैपीटल 'म' - या ब्राह्मण बन सकता है।
३. तथा मनुष्य को सही 'मनुष्य बना देना' (মানুষ করে তোলা) की पद्धति क्या है ? पद्धति है, ५ दैनंदिन अभ्यास- १. 'अब लौं नसानी अब न नसैहों' का संकल्प ग्रहण या प्रार्थना,२. मनःसंयोग, ३. व्यायाम, ४. स्वाध्याय, ५.विवेक-प्रयोग ! 
४. इसिलिये  वनी दा ने अपने अपने क्रमानुयायियों (Successor, उत्तराधिकारी भावी नेताओं) के सामने एक अभूतपूर्व अनुरोध (appeal) रखा था। वे कहते थे - 'गरीबों को प्रकाश दो। किन्तु धनी लोगों को और अधिक प्रकाश दो, क्योंकि वे लोग उनकी अपेक्षा अधिक गहरे अंधकार में गिरे हुए हैं। अशिक्षित लोगों को प्रकाश दो, किन्तु शिक्षित लोगों को और भी अधिक प्रकाश दो, क्योंकि वर्तमान समय में उच्च शिक्षा (ब्राह्मण होने) का अहंकार बहुत अधिक बढ़ गया है। इसीलिये, जो लोग धन या विद्या (विवेकज ज्ञान को समझकर भी ब्राह्मण होने) के अहंकार 'arrogance' में चूर हैं, वे भी कम करुणा के पात्र नहीं हैं। क्योंकि वे लोग समाज के उपेक्षित मनुष्यों (दूसरे धर्म में जन्मे मनुष्यों या  शुद्र रूपी देवताओं) की सेवा करने का अवसर पा कर भी उसका सदुपयोग नहीं करते। जो लोग गरीबों के शोषण से प्राप्त धन को खर्च करके शिक्षित हुए हैं, किन्तु पढ़-लिख लेने के बाद उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं सोचते, उनको ही स्वामीजी ने देशद्रोही के रूप में चिन्हित किया था। 
-------------------------------------------------