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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

धर्म क्या है ?

" ध्रियते  लोकोऽनेन इति धर्मः।" -  अर्थात् जो लोक को धारण करता  है वह धर्म है। अथवा जो  धारण करने के योग्य है, वह धर्म है। आचार्य शंकर ने श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य भूमिका के प्रारम्भ में ही सनातन वैदिक धर्म की परिभाषा देते हुए कहा है- 'जगतः स्थितिकारणं प्राणिनां साक्षादभ्युदयनिः श्रेयसहेतुर्यः स धर्मो ब्राह्मणाद्यैर्वर्णिभिराश्रमिभिश्च श्रेयोर्थिभिरनुष्ठीयमानः ।।' जो जगत् की स्थिति का कारण  है तथा  प्राणियों के अभ्युदय ( उन्नति ) तथा  निःश्रेयस (मोक्ष)  का  साक्षात् हेतु (कारण ) है, एवं ब्राह्मणादि -वर्णाश्रम-अवलाम्बियों  द्वारा  जिसका  अनुष्ठान किया  जाता  है, उसका नाम 'धर्म' है।
-तात्पर्य यह है कि जो ब्रह्मज्ञान प्राणियों के अभ्युदय (उन्नति) तथा निःश्रेयस अर्थात 'भ्रममुक्त-अवस्था'  या डीहिप्नोटाइज्ड' हो जाने का साक्षात् हेतु (कारण) है, तथा आद्य ऋषियों की सनातन गोत्र-परम्परा या 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में ब्राह्मणादि -वर्णाश्रम-अवलाम्बियों द्वारा जिसका अनुष्ठान किया जाता है, उस शिक्षापद्धति का नाम ' धर्म 'है। तथा यह सनातन शिक्षापद्धति या धर्म ही ( वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में अर्जित विवेकज-ज्ञान या ब्रह्मज्ञान से उत्पन्न साम्यभाव ही) जगत् की स्थिति का कारण है।  
 सनातन वैदिक धर्म के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए आदि गुरु श्री शंकराचार्य भगवान् ने समझाया है कि - स भगवान् सृष्ट्वेदं जगत् तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः मरीच्यादीन् अग्रे सृष्ट्वा प्रजापतीन् प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं ग्राहयामास वेदोक्तम् । ततः अन्यान् च सनकसनन्दनादीन् उत्पाद्य निवृत्तिलक्षणं धर्मं ज्ञानवैराग्यलक्षणं ग्राहयामास । (श्रीमद्भगवद्गीता-उपोद्घातः)- अर्थात श्रीमन्नारायण नामक भगवान् ने पहले मरीच्यादि ऋषियों को उत्पन्न कर उनको प्रवृत्ति-परक वैदिक धर्म ग्रहण कराया, अनन्तर सनक-सनन्दनादि को उत्पन्न कर उनको निवृत्तिपरक वैदिक धर्म ग्रहण कराया । 
इस प्रकार श्री आद्य शंकराचार्य  भगवान् हमें यह समझा रहे हैं कि सनातन वैदिक धर्म (सनातन युवा प्रशिक्षणपद्धति) शिष्यों की पात्रता के अनुसार दो प्रकार का है -द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः, प्रवृत्ति लक्षणो निवृत्ति लक्षणश्च, जगतः स्थितिकारणम्, प्राणिनां साक्षादभ्युदयनिश्रेयशहेतुः। (श्रीमद्भगवद्गीता-उपोद्घातः) श्री शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति-मार्गी या संन्यासी थे; किन्तु  अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही कह रहे हैं कि श्री शंकराचार्य के पूर्व से ही प्रचलित हुए वैदिक धर्म के अनुसार दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति हैं।  अर्थात एक मार्ग यह है कि ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) की प्राप्ति हो जाने पर सब कर्मों का संन्यास अर्थात त्याग कर दे;  और दूसरा यह कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी सब कर्मों को न छोड़े, उनको जन्म भर ऐसी युक्ति के साथ करता रहे कि उनके पाप–पुण्य की बाधा न होने पाए।
सामान्यतः प्रवृत्ति लक्षण धर्म को समग्र इष्ट भोगों का देनेवाला माना जाता है और निवृत्ति लक्षण धर्म को मोक्षदाता माना जाता है । जैसे याता-यात करने के लिये 'डाउन-लाइन और अप-लाइन' दोनों रहते हैं, दोनों टर्मिनल (अंतिम-स्टेशन) पर मिलते हैं। उसी प्रकार जीवन के ये दो प्रकार हैं, जो दोनों ही वेदों द्वारा समर्थित हैं- एक है प्रवृत्तिमूलक मार्ग और दूसरा निवृत्तिमूलक मार्ग। इन्हीं दो मार्गों को गीता में  संन्यास और कर्मयोग (निष्काम कर्म) कहा है। 'प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यासलक्षणम्। 'अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है। साधारणतः जो मानव-प्रजाति इस उक्त आद्य ऋषियों की 'गोत्र-परम्परा' या 'सनातन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परमरा' में पूर्ण विश्वास रखती है, उन सनातन धर्मी मनुष्यों को वर्तमान युग में हिन्दू-प्रजाति के नाम से जाना जाता है।  
वास्तव में यह संसार एक बहुत बड़ी पाठशाला है । इसमें अगणित जीव शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते हैं, और यथाधिकार -- 'प्रवृत्ति मार्ग या निवृत्ति मार्ग' में निर्दिष्ट काल तक शिक्षा - लाभ कर चले जाते हैं, और फिर कुछ विश्राम के पश्चात् पुन: नये वेशभूषा के साथ इसमें आकर प्रवेश करते हैं । मनुष्य के जीवन का एक जन्म उसके लिये इस पाठशाला का एक अध्ययन दिवस है । जब तक कोई यहां की पूरी पढ़ाई समाप्त न कर ले तब तक उससे मुक्ति (भ्रममुक्त अवस्था-मन की डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था)  दूर ही रहती है - उसे बार बार जन्म मरण के बंधन में पड़ना ही पड़ता है। 
यह पाठशाला अनादिकाल से चली आ रही है । अत्यंत आदर्श पाठशाला है, अति विचित्र है और अति प्राचीन होने पर भी नित्य नवीन है । शिक्षा का ढंग भी ऐसा अद्भुत है कि विद्यार्थियों को यह पता भी कठिनता से लग पाता है कि उन्हें शिक्षा मिल रही है । स्वल्पबोध छात्रों को तो स्नेहमयी प्रकृति जननी अपनी गोद में लेकर शिक्षा देती हैं, और प्रौढ़ विद्यार्थियों (स्वामी विवेकानन्द आदि)  को स्वयं परमपिता-(जगद्गुरु श्रीरामकृष्णदेव) की वाणी सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता है । 
यह वाणी जिस मूर्ति के द्वारा सुनी जाती है उसे - " आध्यात्मिक शिक्षक " या गुरु कहते हैं, क्योंकि वह शिष्य के अज्ञान (भ्रम या देहाध्यास) का नाश करती है । ‘गु’ का अर्थ है अंधकार और ‘रु’ का अर्थ है निरोध, अर्थात् जो अंधकार का नास करता है, देहाध्यास के भ्रम से मुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) कर देता है,  वह गुरु कहलाता है। किन्तु वास्तव में कोई व्यक्ति दूसरे मनुष्य का गुरु नहीं हो सकता । सबका गुरु तो वहीं एक परमात्मा (माँ जगदम्बा) हैं, जो किसी शरीर के द्वारा  दूसरे को उपदेश देता है । उसी निमित्त कारण को हम लोग गुरु मानकर उसका आदर करते हैं, और वस्तुत: वही हमारे लिये परमेश्वर (माँ जगदम्बा) की मूर्ति है। 
" नैतिक धारणाओं की उन्नति के साथ साथ ( या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की भावना के साथ साथ) मनुष्य के मन में एक संग्राम उत्पन्न हो जाता है, मानो उसके भीतर एक नयी इन्द्रिय (छठी इन्द्रिय विवेक-प्रयोग शक्ति) का आविर्भाव हो जाता है। कोई कहता है यह ईश्वर की वाणी है, कोई कहता है यह जन्मजन्मांतर से प्राप्त शिक्षा का फल है। जो भी हो, यह विवेक-शक्ति मनुष्य के स्वाभाविक संवेगों को नियंत्रित करने वाली शक्ति के रूप में कार्य करती है। हमारे मन का एक संवेग कहता है, 'करो' ; इसके पीछे एक दूसरा स्वर उठता है जो कहता है, 'मत करो !' हमारे चित्त में पूर्व जन्मों के संचित धारणाओं का एक समूह है, जो सर्वदा पंचेन्द्रियों के द्वारा बाहर जाने की चेष्टा करता है, और उनके पीछे , चाहे कितना भी क्षीण क्यों न हो, एक स्वर कहता रहता है-'रे मन ! इन्द्रिय-विषयों के पीछे बाहर मत जाना।' (अर्थात एक अंतर्निहित शक्ति मन को आदेश देने के लिए उठ खड़ी होती है - मन तू बहिर्मुखी न होना !) इन दो बातों को संस्कृत में प्रवृत्ति और निवृत्ति कहा जाता है। प्रवृत्ति ही हमारे समस्त कर्मों का मूल है। और निवृत्ति से धर्म का आरम्भ है। धर्म आरम्भ होता है इसी 'मत करना' से; आध्यात्मिकता भी इसी 'मत करना ' से आरम्भ होती है। जिस मनुष्य में 'यह मत करना' (निषिद्ध कर्म मत करना) यह 'विवेक-प्रयोग' शक्ति विकसित नहीं हुई है, जान लेना कि उसमें अभी धर्मबोध या आध्यात्मिकता का आरम्भ ही नहीं हुआ। "२/६३ 
व्यवहारिक जीवन में धर्म का अर्थ है, हमलोग बहुत बड़े कर्मवीर बनेंगे, सब कुछ करेंगे, किन्तु धर्म को भी बनाये रखना होगा। स्वामी विवेकानन्द 'वेदान्त का उद्देश्य ' नामक भाषण में कहते हैं, " पाश्चत्य देशों के जितने भी महान विचारशील व्यक्ति हैं, वे अच्छी तरह समझ गये है कि चाहे जैसी भी राजनितिक या सामाजिक उन्नति क्यों न हो जाये, उससे मनुष्य-जीवन की बुराइयाँ दूर नहीं हो सकतीं। उन्नततर जीवन के लिये आमूल हृदय-परिवर्तन की आवश्यकता है; केवल इसीसे मानव-जीवन का सुधार सम्भव है। चाहे जैसी बड़ी से बड़ी शक्ति का प्रयोग किया जाय, चाहे कड़े से कड़े कायदे-कानून का आविष्कार ही क्यों न किया जाये, पर इससे किसी जाति की दशा बदली नहीं जा सकती। समाज या जाति की असद-प्रवृत्तियों (बैड प्रोपेनसिटी)  को सद्-प्रवृत्तियों की ओर फेरने की शक्ति तो केवल आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति में ही है।
स्वामी विवेकानन्द एक स्थान पर धर्म के विषय में अत्यंत आश्चर्य जनक बात कहते हैं, कहते हैं-धर्म का अर्थ है भोग ! इसको समझाते हुए कहते हैं, तुम्हारे वेदों में क्या है ? देखो समस्त वेद में है, केवल भोग, भोग और भोग। वेदों के संहिता भाग में केवल यही कहा गया है कि किस प्रकार मनुष्य को इहलोक और परलोक में अधिक से अधिक भोग और सुख प्राप्त हो सकता हैं? स्वामीजी कहते हैं कि भोग पूरा हुए बिना त्याग नहीं हो सकता है। मोक्ष, त्याग या वैराग्य तो सबसे अन्तिम बात है। सामान्य मनुष्यों के लिये पहले भोग को पूरा करना आवश्यक होता है। और इसके लिये अर्थ उपार्जन करना भी आवश्यक होता है। किन्तु इन दोनों को नियंत्रित रखने के लिये धर्म की आवश्यकता होती है। 

इसके आलावा ऐसी धारणा बना लेना बिल्कुल गलत है कि भारत में साधारण जनता के लिए सदा से सादगी पूर्ण जीवन जीने की परम्परा रही है। यदि हम अपने प्राचीन साहित्य को देखें और उस पर विश्वास कर सकें , तो वहाँ हम पाते हैं कि हमारे पूर्वज विलासिता की ऊंचाई तक आनंद लिया करते थे। इस तथ्य के समर्थन में कितने ही प्रमाण दिये जा सकते हैं। फिर भारत को वर्तमान युग में अपने उस आदर्श का त्याग क्यों करना चाहिये? कुछ लोग कहते हैं कि सादा जीवन और उच्च विचार भारत का आदर्श होना चाहिए।  हम सोचते हैं , नहीं बल्कि यह विश्वास करते हैं कि ऐसा कहकर भी हमलोग स्वामी विवेकानन्द का ही अनुसरण कर रहे हैं। किन्तु स्वामीजी ने कहा है कि ऐसी मान्यता के लिये केवल इस्लामी शासन ही उत्तरदायी है। स्वामीजी निश्चित रूप से भारत की घोर दरिद्रता को जारी रखने के पक्षधर नहीं थे।भारत की साधारण -जनता को भौतिक जीवन में सादगी के तथाकथित प्राचीन आदर्श का पालन नहीं करना चाहिये । वे कहते हैं साधारण जनता को आनन्द का भरपूर उपभोग करना चाहिये।

भौतिक सभ्यता की समृद्धि को हमारे कोशने और बुरा-भला कहने पर स्वामी जी  १८ नवंबर, १८९४ को  आलासिंगा  पेरूमल को लिखे पत्र में कहते हैं - " हम मूर्खों की तरह भौतिक सभ्यता की निन्दा किया करते हैं। अंगूर खट्टे हैं न ! उस मुर्खोचित बात को यदि स्वीकार भी कर लिया जाय, तो भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में (जनसंख्या ३० करोड़ में ) केवल एक लाख नर -नारी ही यथार्थ रूप से धार्मिक हो सकते हैं। क्या केवल इन मुट्ठीभर लोगों की धार्मिक उन्नति के लिये भारत के तीस करोड़ अधिवासियों को बर्बर का सा जीवन व्यतीत करना और भूखों मरना होगा ? क्यों कोई भूखों मरे ? मुसलमानो के लिए हिन्दुओं को जीत सकना कैसे सम्भव हुआ ? यह हिन्दुओं के भौतिक सभ्यता का निरादर करने के कारण ही हुआ। भौतिक सभ्यता की तो बात क्या, यहाँ तक कि विलासमयता (लग्जरी) की भी जरूरत होती है -क्योंकि उससे गरीबों को काम मिलता है। " ३/ ३३४
वे हमलोगों को पूर्ण उद्द्य्म के साथ अर्थ- उपार्जन के लिये उत्साहित करते हुए कहते हैं- " धन कमाना चाहता है ? तो अमेरिका चला जा। मैं तुमको व्यापार करने की बुद्धि दूंगा। ....यहाँ बैठे रहने से क्या होगा ? यदि जाने का भाड़ा नहीं हो, तो जहाज का खलासी बनकर विदेश चला जा। देशी कपड़ा, गमझा, चद्दर को गट्ठर बना कर सिर पर लेकर अमेरिका-यूरोप की गलियों में फेरी लगा। कुछ छोटी छोटी वस्तुओं को वहां बेचो। देखोगे यही करते करते थोड़े दिनों में बुद्धि खुल जाएगी। तब देखोगे कि वे लोग भी तुम्हें सहायता देने लगेंगे। " भारत के सभी स्त्री-पुरुषों को कह रहे हैं, तू सभी लोग मिल कर कमाओ, कहते हैं- क्या तुमलोग जेली,चटनी, आचार बना सकते हो ? इसको भी तुम विदेशों में निर्यात कर सकते हो। ये सब बिजनेस टिप्स स्वामीजी दे रहे हैं। कहते हैं, तुम्हारे पास कल-कारखाने कहाँ हैं ? " 

पाश्चात्य देशों में घूमकर पहले एकबार देख आ, उनका जीवन कितना उद्यमशील है, उनमें कितनी कर्म- तत्परता है, कितना उमंग और उत्साह है ! रजोगुण का कितना विकास है। तुम्हारे देश के लोगों के देह में शक्ति नहीं, हृदय में उत्साह नहीं, मस्तिष्क में प्रतिभा नहीं। क्या होगा रे इन जड़ पिण्डों से ? इसीलिये मैं रजोगुण की वृद्धि कर कर्म-तत्परता के द्वारा इस देश के लोगों को पहले इहलौकिक जीवन संग्राम के लिये समर्थ बनना चाहता हूँ । जा, गाँव-गाँव में , प्रान्त-प्रान्त में सभी को पकड़ पकड़ कर सुना -'तुमलोग अमित वीर्यवान हो- अमृत के अधिकारी हो। ' इसी प्रकार पहले  रजःशक्ति की उद्दीपन कर, जीवन-संग्राम के लिये सब को कार्यक्षम बना इसके पश्चात उन्हें परजन्म में मुक्ति प्राप्त करने की बात सुना। पहले भीतर की शक्ति को जागृत करके देश के लोगों को अपने पैरों पर खड़ा कर , अच्छे भोजन-वस्त्र तथा उत्तम भोग आदि करना वे पहले सीखें। इसके बाद उन्हें उपाय बता दे कि किस प्रकार सब प्रकार के भोग-बन्धनों से वे मुक्त हो सकेंगे। " ६/१५३-१५५ 
25 वीं जनवरी, 1897 को रामनाड भाषण में स्वामीजी कहते हैं - " मन इन्द्रियों की ओर मानो चक्रवत् अग्रसर हो रहा है,....  'सर्कलिंग फॉरवर्ड ' उसे फिर पीछे लौटाना होगा। प्रवृत्ति-मार्ग का त्याग कर उसे फिर निवृत्ति-मार्ग का आश्रय ग्रहण करना होगा। यही भारतीय आदर्श है। किन्तु कुछ भोग भोगे बिना इस आदर्श तक मनुष्य नहीं पहुँच सकता। बच्चों को त्याग की शिक्षा नहीं दी जा सकती। संसार की असारता समझने के लिये उन्हें पहले कुछ भोग भोगना पड़ेगा, तभी वे वैराग्य धारण करने में समर्थ होंगे। हमारे शास्त्रों में इन लोगों के लिये यथेष्ट व्यवस्था है। दुःख का विषय है कि परवर्ती काल में समाज के प्रत्येक मनुष्य को संन्यासी के नियमों में आबद्ध करने की चेष्टा की गयी-यह एक भारी भूल हुई। भारत में जो दुःख और दरिद्रता दिखाई पड़ती है, उनमें से बहुतों का कारण यही भूल है। गरीब लोगों के जीवन को इतने कड़े धार्मिक एवं नैतिक बन्धनों में जकड़ दिया गया है जिनसे उनका कोई लाभ नहीं है। हैन्ड्स ऑफ ! उन्हें भी संसार का थोड़ा आनन्द लेने दीजिये। आप देखेंगे कि वे क्रमशः उन्नत होते जाते हैं और बिना किसी विशेष प्रयत्न के उनके हृदय में आप ही आप त्याग का उद्रेक होगा।"(५/४६)
वे कहते हैं, तुमलोग पूरी तरह से तमोगुण द्वारा भर गये हो। तुमलोग माटी के पुतलों के सदृश्य हो। तुमलोगों के इस जड़ शरीर को हिलाडुला कर जगाने के लिये ही मैं धरती पर आया हूँ। मैं तुमलोगों में रजोगुण का संचार करना चाहता हूँ। कहते हैं, तुमलोग रजोगुण के बल पर खड़े हो जाओ। हम सभीलोग रजोगुण के लक्षण के विषय में जानते हैं, रजोगुण से प्रेरित मनुष्य निरंतर कर्म करने में लगा रहता है। इसीलिये कहते हैं, तुमलोगों में रजोगुण का संचार हो। तुमलोग कर्मठ या कर्मतत्पर मनुष्य बनो। नई नई वस्तुओं का निर्माण करो, जीवन में भोग करो, किन्तु यह सब धर्म के द्वारा संचालित होकर करो; किन्तु  यह भी याद रखना कि समस्त भोग करके भी यथार्थ शान्ति नहीं मिलेगी।"  इसीलिये श्रुति या शास्त्र प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति तक आने में बाधा नहीं देते। मनु महाराज  (मनुस्मृतिः५.५६) कहते हैं- विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो; किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि - निवृत्तिस्तु महाफला। 
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । 
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला।।
अर्थ-मांसभक्षण,मद्यपान और मैथुन में दोष नहीं है।  भोग की प्रवृत्ति केवल मनुष्य के लिए ही नहीं, किन्तु प्राणीमात्र के लिए स्वाभाविक हैं – 'प्रवृत्तिरेषा भूतानाम्। 'मनुष्यों में यह गुण प्रकृति प्रदत्त हैं, किन्तु हमें इस बात को सदैव स्मरण रखना चाहिये कि इन सबसे निवृत्ति लेना अधिक श्रेष्ठ है; क्योंकि 'दुश्चरितात निवृत्ति' ही सबसे बड़ा फल है ! श्रुति भगवती बहुत दयालु है, ऐसा कहकर आचार्य और शास्त्र हमें निषिद्ध कर्मों को 
करने लिये प्रोत्साहित नहीं करते, बल्कि इस प्रकार वे सामान्य मनुष्यों के भोग-प्रवण मन को क्रमशः शास्त्रोमुखी बनाने की ही चेष्टा करते हैं। 
चारे में जब मछली फंसती है, तो वह डोर को ही खींचने लगती है, उस समय डोर को ढील देनी पड़ती है; डोर को ढील देते हुए मछली को थोड़ी देर तक चारा खाने का समय  देना पड़ता है, बाद में मछली को खींच लिया जाता है; पहले ही बंशी खींचने से डोरी टूट जाएगी। इसीलिये श्रीरामकृष्ण जिस व्यक्ति में लस्ट और लूकर के प्रति अधिक आसक्ति देखते थे, उन्हें थोड़ा भोग कर लेने के लिये कहते थे, किन्तु अन्त में यह भी जोड़ देते थे -" लेकिन यह जान लेना कि इसमें कुछ रखा नहीं है ! " जीवन की इन दोनों पद्धतियों का मूल्य समान है। यदि सभी वुड बी लीडर्स या भावी शिक्षकों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग से ही शिक्षक बनने और बनाने की बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। गृहस्थाश्रम में रहकर भी भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हुआ जा सकता है, " गोत्र-परम्परा " या 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित आध्यात्मिक शिक्षक (ब्रह्मज्ञऋषि अथवा मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) बना जा सकता है! 
[“ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः | गीता 17.23- सृष्टि के आदिकाल से ऊँ तत् सत् ये तीन शब्द परब्रह्म को सूचित करने के लिए प्रयुक्त किये जाते रहे हैं ।  ॐ तत् सत् ये तीन शब्द विशेष रूप में परम सत्य भगवान् के सूचक हैं ।अतः इस मन्त्र का अत्यधिक महत्त्व है । अतएव भगवद्गीता के अनुसार कोई भी कार्य ॐ तत् सत् के लिए, अर्थात् भगवान् के लिए, किया जाना चाहिए। वैदिक मन्त्रों में ॐ शब्द सदैव रहता है। अतएव गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में यथाधिकार प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्गों के आध्यात्मिक शिक्षकों के द्वारा उसी एक सिद्धान्त का पालन किया जाता रहा है । ] 
 जब हम किसी से प्रश्न करते हैं कि 'तेरा कौन–सा धर्म है?'  तब उससे हमारे पूछने का यही हेतु होता है कि तू अपने पारलौकिक कल्याण के लिए किस मार्ग – वैदिक, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुहम्मदी या पारसी से चलता है; और वह हमारे प्रश्न के अनुसार ही उत्तर देता है। नित्य व्यवहार में 'धर्म' शब्द का उपयोग केवल 'पारलौकिक कल्याण का मार्ग' इसी अर्थ में किया जाता है। परन्तु 'धर्म' शब्द का इतना ही संकुचित अर्थ नहीं है। 
एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति का भिन्नत्व उसके विचारों द्वारा निश्चित किया जाता है। इन विचारों का स्तर गुण दिशा आदि व्यक्ति की वासनाओं पर निर्भर करते हैं। यही है मनुष्य का स्वभाव अथवा धर्म। इसके अलावा  राजधर्म, प्रजाधर्म, कुलधर्म, मित्रधर्म इत्यादि सांसारिक नीति–बंधनों को भी धर्म कहते हैं।  'व्यवहारिक कर्त्तव्य अथवा नियम के अर्थ में 'धर्म' शब्द का हमेशा उपयोग किया जाता है। कुलधर्म और कुलाचार, दोनों ही शब्द समानार्थक समझे जाते हैं। समाज–धारणा के लिए अर्थात् सब लोगों के कल्याण के लिए इस स्वाभाविक आचरण का उचित प्रतिबंध करना ही धर्म है। गीता में भगवान कहते हैं -"स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।" क्या इसका अर्थ यह हुआ कि धर्मान्तरण करके हिन्दू से ईसाई बन जाना या ईसाई से हिन्दू बन जाना भयावह है ? नहीं, वास्तव में धर्म शब्द का अर्थ है - 'भूत वैशिष्ट्य। ' जिन गुणों के कारण किसी वस्तु का अपना अस्तित्व सिद्ध होता है वह उस वस्तु का धर्म कहलाता है। जैसे अग्नि का धर्म है ताप, यदि अग्नि से ठंढक निकले तो उसे अग्नि नहीं कह सकते। गोल्ड का धर्म है लोचदार (ductile) होना, कड़ा गहना बनाने के लिये उसमें खाद मिलाना पड़ता है। पशु का गुण (धर्म) है घोर स्वार्थपरता, मनुष्य जैसे जैसे निःस्वार्थपर बनता जाता है, वह मनुष्यत्व में उन्नत होता जाता है, जब कोई मनुष्य पूर्णतः निःस्वार्थी बन जाता है तब वह ईश्वर बन जाता है। स्वामी विवेकानन्द ने ईश्वर को परिभाषित करते हुए कहा है - 'निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है। '[ Unselfishness is God.अतः मनुष्य का धर्म (विशिष्ट गुण) हुआ क्रमशः अंतर्निहित पूर्णता, निःस्वार्थपरता या ईश्वरत्व को अभिव्यक्त करने की दिशा में अग्रसर होते रहना।] 
इसीलिये हमारे देश के प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन में चार पुरुषार्थ करने का सन्देश दिया है। वे चार पुरुषार्थ हैं- धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष ! किन्तु हम आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोग, 'पुरुषार्थ' या इस प्रकार के अन्य शब्दों से परिचित नहीं हैं। 'पुरुष' का अर्थ है-मनुष्य; इस शब्द को पुरुष और स्त्री के संदर्भ में नहीं लेना चाहिये। पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ = अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। यही चार वस्तुयें ऐसी हैं जिन्हें इस जीवन में पाने की आकांक्षा करनी चाहिये। तथा 'अर्थ' का अनुवाद होगा- एक ऐसी प्राप्तव्य वस्तु, एक ऐसा लक्ष्य, एक ऐसी बहुमूल्य सम्पत्ति - जिसे प्राप्त करने की आकांक्षा प्रत्येक मनुष्य को अवश्य करनी चाहिये, तथा उस लक्ष्य को इसी जीवन में प्राप्त करने का प्रयत्न भी मनुष्य को अवश्य करना चाहिये। जिस वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा उसके मन में होती है उसे 'पुरुषार्थ' कहते हैं। धर्म शब्द के दो अर्थों को यदि पृथक करके दिखलाना हो तो पारलौकिक धर्म को 'मोक्षधर्म' अथवा सिर्फ़ 'मोक्ष' और व्यवहारिक धर्म को केवल धर्म कहा करते हैं। उदाहरणार्थ; चतुर्विध पुरुषार्थों की गणना करते समय हम लोग 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष’' कहा करते हैं। इसके पहले यदि 'धर्म 'शब्द में ही 'मोक्ष 'का समावेश हो जाता तो अन्त में मोक्ष को पृथक पुरुषार्थ बतलाने की आवश्यकता न रह जाती।
पहला पुरुषार्थ है- धर्म। यदि यह पुरुषार्थ जीवन में नहीं हो, या नहीं आ सके, तो हमलोगों के जीवन में अन्य जितने पुरुषार्थ या प्राप्तव्य वस्तुएँ हैं, उन्हें हम नहीं प्राप्त कर सकेंगे, और यदि प्राप्त कर भी लिये, तो उनका कोई मूल्य नहीं होगा। इसीलिये धर्म को सबसे पहले विद्यार्थी-जीवन में ही ग्रहण कर लेना चाहिये। यह प्राप्त हो जाय तभी दूसरी वस्तुओं की सार्थकता है। 
स्वामी विवेकानन्द के मतानुसार - 'धर्म वह वस्तु है जो पशुमानव को मनुष्य में और मनुष्य को ईश्वर में उन्नत कर देती है।' इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि निःस्वार्थपरता ही वह वस्तु है जो पशुमानव को मनुष्य में, और मनुष्य को ईश्वर में उन्नत कर देता है।  अतः निःस्वार्थपर मनुष्य बनने के लिए मनःसंयोग आदि अभ्यास 
नियमित रूप से करना तो व्यावहारिक धर्म की श्रेणी में आता है, जिनका पालन प्रत्येक मनुष्य को ही करना चाहिये, क्योंकि ये सभी के स्वधर्म हैं। स्वाभाविक- कर्म और व्यावहारिक धर्म (महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यास) दोनों ही स्वधर्म के अन्तर्गत आते हैं। 
यदि महामण्डल आन्दोलन रूपी गुरु-पाठशाला या युवा-प्रशिक्षण शिविर में केवल प्रवृत्ति लक्षण धर्म या शिक्षापद्धति - 'BE AND MAKE लीडरशिप  ट्रेनिंग' के अंतर्गत सौंपे गए जिम्मेदारियों का अनुपालन पूर्णतः निःस्वार्थ भाव से किया जाये, तो यह चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन -मनुष्य बनो और बनाओ या 'BE AND MAKE ' ही दोनों फलों (अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों फलों को) को दे सकता है। क्योंकि वेदान्त (गीता, उपनिषद आदि) की शिक्षाओं पर आधारित महामण्डल आंदोलन के  समस्त प्रशिक्षण कार्यक्रमों में अर्थात ५ अभ्यासों में (प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग आदि दैनंदिन अभ्यासों में भी) इन दोनों प्रकार के धर्मों - प्रवृत्ति और निवृत्ति का निरूपण है। इसीलिये जीवन के प्रारंभ में ही धर्म शब्द के दोनों अर्थों - को पृथक-पृथक रूप से समझ लेना अत्यंत आवश्यक है।
  पारलौकिक धर्म (TranscendentalReligion, इन्द्रियातीत, उत्तमोत्तम धर्म) को 'मोक्षधर्म' (Moksha-dharma) अथवा सिर्फ़ 'मोक्ष' (Salvation, भ्रममुक्ति या देहाध्यास से डीहिप्नोटाइज्ड हो जाना) कहते हैं; तथा व्यावहारिक धर्म (Practical Religion) को केवल धर्म (righteousness=the quality of being morally right or justifiable, or adhering to moral principles) कहा जाता है। धर्म शब्द के इन दोनों रूपों को अपने अनुभव से जानकर, जीवन के समस्त कार्यों को इसी के आलोक में सम्पादित करना हमलोगों का कर्तव्य है। 
स्वामी जी कहते हैं -  " भारत में 'धर्म' (Practical Religion,righteousness) और 'मोक्ष' (Transcendental Religion) का सामंजस्य करना होगा। यहाँ पहले मोक्षाकांक्षी व्यास, शुक तथा सनकादिक के साथ-साथ  'धर्म-के-उपासक' युधिष्ठिर, अर्जुन, दुर्योधन, भीष्म और कर्ण भी वर्तमान थे। बुद्ध के बाद धर्म की बिल्कुल उपेक्षा हुई तथा केवल मोक्षमार्ग ही प्रधान बन गया। ... भोग न होने से त्याग नहीं होता, पहले भोग करो, तब त्याग होगा। बौद्ध कहते हैं -'मोक्ष से बढ़कर और क्या है, देश के सभी लोगों को मोक्ष प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये। मैं पूछता हूँ, क्या यह सम्भव है ?  तुम गृहस्थ अर्थात (प्रवृत्ति -मार्गी) हो, तुम्हारे लिये वे सब बातें बहुत आवश्यक नहीं हैं, तुम अपने धर्म का आचरण करो,हमारे शास्त्र यही कहते हैं। एक हाथ भी नहीं लाँघ सकते, तो समुद्र लाँघ कर लंका कैसे पहुँचोगे ? दो मनुष्यों के साथ राय मिलाकर एक जनहित का काम तो कर नहीं सकते, पर मोक्ष लेने दौड़ पड़ते हो ? 
हिन्दू शास्त्र कहते हैं, कि धर्म की अपेक्षा मोक्ष अवश्य ही बहुत बड़ा है, किन्तु पहले धर्म करना होगा।अहिंसा ठीक है, निश्चय ही बड़ी बात है; कहने-सुनने में अच्छी लगती है, पर शास्त्र कहते हैं, तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे गाल पर यदि कोई थप्पड़ मारे, और यदि उसका जवाब तुम १० थप्पड़ों से न दो, तो तुम पाप करते हो। वीरभोग्या वसुन्धरा -वीर्य प्रकाशित करो, साम -दाम-दण्ड -भेद (कन्सिलीऐशन-ब्राइबरी-डिसेन्शन (फूट)-ओपेन वार) की नीति को प्रकाशित करो, पृथ्वी का भोग करो, तब तुम धार्मिक होगे। अन्याय मत करो, अत्याचार मत करो, यथासाध्य परोपकार करो। किन्तु गृहस्थ के लिये अन्याय सहना पाप है, उसी समय उसका बदला चुकाने की चेष्टा करनी होगी। बड़े उत्साह के साथ अर्थोपार्जन कर स्त्री तथा परिवार के दस प्राणियों का पालन करना होगा, दस जन-हितकारी कार्यों में योगदान करना होगा। ऐसा न कर सकने पर तुम मनुष्य किस बात के ? जब तुम सही गृहस्थ ही न बन सके, फिर तो मोक्ष की बात ही क्या ? " (१०/५१-५२ ) 
आधुनिक युग में वेद और ब्राह्मणत्व (अर्थात सनातन आद्य ऋषियों की गोत्र-परम्परा या 'सनातन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परमरा') की रक्षा के लिये आदिकर्ता नारायण (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव) ने कामारपुकुर ग्राम में चन्द्रामणि देवी और क्षुदिराम चट्टोपाध्याय के घर में अवतार घारण किया है । और वर्तमान समय की पाठशाला में  एक अति गुणी छात्र, निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषिओं में से एक नरेन्द्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द) को अपने अपने साथ लेकर अवतरित हुए हैं। जगद्गुरु श्रीरामकृष्णदेव ने उस योग्य पात्र -स्वामी विवेकानन्द को निवृत्ति लक्षण धर्म का उपदेश दिया और स्वामी ब्रह्मानन्द जी को प्रवृत्ति लक्षण धर्म का उपदेश दिया। जिसे श्री म (मास्टर महाशय) ने श्रीरामकृष्ण वचनामृत पुस्तक में व्यक्त किया है।उस ग्रंथ में वर्णित पाठ्यक्रम ही संक्षेप में जगद्गुरु "श्रीरामकृष्णदेव -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा" है। स्वामी विवेकानन्द ने आधुनिक युग में निवृत्ति मार्ग के पुरुष ऋषियों (आध्यात्मिक शिक्षकों) का निर्माण करने के लिए १८९७ ई ० में 'रामकृष्ण मठ और मिशन' की स्थापना की; तथा निवृत्ति मार्ग की स्त्री ऋषियों का निर्माण करने के लिए 'सारदा मठ और मिशन' की स्थापना की।  क्योंकि निष्कामभाव के साथ कर्म करने से  चित्त शुद्धि होती है और चित्त शुद्धि से निवृत्ति लक्षण धर्म की भी योग्यता आ जाती है जिससे मुक्ति होती है । यह 'रामकृष्ण वचनामृत ग्रंथ' जगद्गुरु श्रीरामकृष्णदेव ने स्वयं अपने श्रीमुख से कही है, इसी से इसकी इतनी महिमा है ।  आदिगुरु, प्रथम युवा नेता भगवान श्रीरामकृष्ण देव ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से सदा संपन्न हैं, सर्व भूतों के ईश्वर हैं, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वभाव हैं । उनका जन्म तो होता नहीं, वे नित्य अव्यय हैं, अत: अपनी त्रिगुणात्मिका वैष्णवी माया, मूल प्रकृति को वश में करके उसी माया द्वारा जन्म लिये हुए की भांति प्रतीत हुए और शरीर की तरह अनुग्रह करते हुए दिखायी देते हैं ।  इस पाठशाला में आने वाले अधिसंख्यक विद्यार्थियों को उस जगद्गुरु के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, इसके लिये खेद करने की आवश्यकता नहीं है । वह रूप तो कालविशेष और प्रयोजन-विशेष के लिये ही प्रकट हुआ था । अत: कार्य पूरा होने पर अंतर्धान हो गया । पर यह नित्यरूप वचनामृत ज्ञान तो सदा के लिये इस युवा महामण्डल रूपी  पाठशाला में बना ही हुआ है। ( युवा-प्रशिक्षण शिविर रूपी ज्ञानदान यज्ञ में भाग लेते रहने से )इसलिये जिसे यहां आकर, अर्थात 'महामण्डल द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर में आकर' भी जगद्गुरु श्रीरामकृष्ण देव के इस ज्ञानमय रूप का दर्शन नहीं हुआ उसका जन्म निष्फल हुआ, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।  इस प्रकार यह प्रवृत्ति धर्म भी निष्कामभाव पूर्वक करने से परंपरा से मोक्ष का कारण है । क्योंकि जीव का परम पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्त करना है ।और जिसने  अद्वैत आश्रम, मायावती हिमालय के प्रोस्पेक्ट्स में आधारित ' विवेकानन्द-कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर प्रवृत्ति लक्षण ' Be and Make वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' को अपने हृदय में स्थान दिया उसके हृदय में जगद्गुरु श्री रामकृष्णदेव (ही नवनीदा के रूप में ) स्वयं  विराजमान हैं, इसमें भी कोई संदेह नही। 
किन्तु अच्छे अच्छे पंडितों को भी कभी–कभी स्वाभाविक-कर्म के विषय में अर्थात 'क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?' यह प्रश्न चक्कर में डाल देता है। परन्तु कर्म–अकर्म की चिन्ता में कर्म को ही छोड़ देना उचित नहीं है। जैसे केवल अपना कर्तव्य समझकर (स्वार्थ द्वेष आदिके बिना) शूरवीरतापूर्वक युद्ध करना क्षत्रिय का स्वाभाविक कर्म होने से इसमें पाप दीखते हुए भी वास्तव में पाप नहीं होता। स्वाभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् (गीता 18। 47)। सामान्य धर्म के सिवाय दूसरे का स्वाभाविक कर्म (परधर्म) भयावह है क्योंकि उसका आचरण शास्त्र-निषिद्ध और दूसरे की जीविका को छीनने वाला है। जैसे युद्ध के समय क्षात्रधर्म ही अर्जुन के लिए 'विहित्त कर्म' या  'कर्त्तव्य कर्म' था। यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। स्वामीजीने भारतीय लोगों की तीखे शब्दों में निन्दा भी की है।
[जबकि भूख मिटी ही नहीँ तो थाली हटा देने से आप स्वयं को तृप्त घोषित नहीँ कर सकते । हम ईश्वर से प्रतिकुल बहते है , उनकी और पीठ रहती है । विशुद्ध भोग जगते ही हम घूम कर ईश्वर की ओर अर्थात निःस्वार्थपरता की ओर बहने लगते है। यह बहाव ही व्याकुल यात्रा है , इस पथ में प्रतिकूल बहना माया और अनुकूल और गहन बहना ब्याकुलता है । विरह है । इस यात्रा में अनुकूल व्याकुल बहने पर एक समय निश्चित मिलन है और उसके बाद हम बह कर बहेगें नहीँ । मिलन की स्थिति आनन्द और उसके बाद की जीवन यात्रा निवृत्ति है । वैसे ही भोग रूपी प्रवृत्ति धर्म के पूर्ण होने पर तृप्त भाव का आविर्भाव होने के कारण निवृत्ति धर्म का उदय होता है। इसलिये निवृत्ति धर्म की कोई साधना नहीँ । यह स्वभाव के नियम से स्वतः होता है , हाँ साधना अग्नि की तीव्रता से गति तीव्र और आकर्षक होती है । अन्य कोई चेष्टा नहीँ चाहिये ।“Each soul is potentially divine. The goal is to manifest this divinity by controlling nature, external and internal. Do this either by work, or worship, or psychic control, or philosophy - by one, or more, or all of these - and be free. This is the whole of religion. Doctrines, or dogmas, or rituals, or books, or temples, or forms, are but secondary details.”]
हमारे पूर्वज ऋषियों ने बतलाया है कि युग परिवर्तन तो मनुष्यों के विचार जगत में होता है। जो युवा स्वामी विवेकानन्द के '2 आह्वान' - 'उठो, जागो और 'लक्ष्य' प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो!' तथा 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, तथा अपने ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करना (अभिव्यक्त करना) ही मानवजीवन का 'चरम-लक्ष्य' है ! " को सुनकर जो युवा मोहनिद्रा से जाग उठते हैं -उनके जीवन में द्वापर युग का प्रारम्भ हो जाता है -'संजिहानस्तु द्वापरः'| और स्वयं चरित्रवान मनुष्य बनकर दूसरों को भी चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता करने के कार्य में लग जाते हैं (महामण्डल के चित्र-निर्माण आंदोलन के साथ जुड़ जाते हैं) उनके जीवन में सत्ययुग का प्रारम्भ हो जाता है।  
 कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः । 
 उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । चरैवेति चरैवेति॥
 इस मंत्र के ऋषि ने बताया है कि - जो मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और यथार्थ मनुष्य बन जाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है,  जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे चलना शुरू कर देता है , उसका भाग्य भी आगे आगे चलने लगता है, इसीलिये- " हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! "आगे बढो ,आगे बढ़ते रहो !" 
जो अविद्यारूपी निद्रा में सो रहा है अर्थात् जो अत्यन्त मूढ़ पुरुष है, देहाध्यास से हिप्नोटाइज्ड अवस्था में जी रहा है , वही कलियुग में जीना है। जो स्वामी विवेकानन्द के आह्वानों को सुनकर 3H (शरीर-मन और हृदय) को विकसित करने की आवश्यकता को देखता और समझता है, जो उस अज्ञान-निद्रा से आधा जग गया है, उस पुरुष के जीवन में  द्वापरयुग आ जाता है। और जो कल्याण की प्राप्ति के लिये सदा सजग रहकर प्रयत्न करता है(महामण्डल द्वारा निर्देशित पाँच अभ्यास करने लगता है) , उस साधक के मानसिक जगत में त्रेतायुग चलने लगता है। और जो माँ जगदम्बा (भगवान् श्रीरामकृष्णदेव) का अत्यन्त भक्त है, सदा भक्ति के पथ पर ही चलता है, अर्थात दूसरों को भी चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने में समर्थ आध्यात्मिक शिक्षक बनने और बनाने के 'BE AND MAKE ' आंदोलन के साथ जुड़ जाता है, वह स्वयं कृतकृत्य (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड) हो जाता है, अर्थात उस आध्यात्मिक शिक्षक के जीवन में कृतयुग अथवा सत्ययुग चलने लगता है।
 मनुष्यशरीर केवल माँ जगदम्बा की प्राप्ति के लिये ही मिला है। इस दृष्टि से मनुष्यमात्र साधक है। अतः दैवीसम्पत्ति के जितने भी सद्गुणसदाचार हैं, वे सभी के लिए अपने होने से मनुष्यमात्र के लिये स्वधर्म हैं। परन्तु आसुरीसम्पत्ति के जितने भी दुर्गुणदुराचार हैं, वे मनुष्यमात्र के लिये न तो स्वधर्म हैं और न परधर्म ही हैं। वे तो सभी के लिये निषिद्ध कर्म हैं, त्याज्य हैं। क्योंकि वे अधर्म हैं। दैवीसम्पत्ति के गुणों को धारण करनेमें और आसुरीसम्पत्ति के पापकर्मों का त्याग करनेमें सभी स्वतन्त्र हैं। सभी सबल हैं, सभी अधिकारी हैं कोई भी परतन्त्र, निर्बल तथा अनधिकारी नहीं है। अतः माँ जगदम्बा की प्राप्ति के उद्देश्यवाला मनुष्य स्व को अर्थात् अपने को जो मानता है, उसका धर्म (कर्तव्य) स्वधर्म है। जैसे कोई अपने को मनुष्य मानता है,  तो मनुष्यता का पालन करना अर्थात निःस्वार्थपर मनुष्य बनने और बनाने की चेष्टा करना ही उसके लिये स्वधर्म है। 
ऐसे ही कर्मों के अनुसार अपने को कोई विद्यार्थी (वुड बी लीडर) या अध्यापक (लीडर) मानता है तो पढ़ना या पढ़ाना उसका स्वधर्म हो जायगा। कोई अपनेको साधक मानता है, तो साधन करना उसका स्वधर्म हो जायगा। कोई अपनेको भक्त, जिज्ञासु और सेवक मानता है तो भक्ति, जिज्ञासा और सेवा उसका स्वधर्म हो जायगा। इस प्रकार जिसकी जिस कार्य में नियुक्ति हुई है और जिसने जिस कार्य को स्वीकार किया है, उसके लिये उस कार्यको साङ्गोपाङ्ग करना स्वधर्म है। सत्त्व, रज और तम -- इन तीनों गुणों को लेकर जो स्वभाव बनता है , उस स्वभाव के अनुसार जो कर्म नियत किये जाते हैं, वे स्वभावनियत कर्म कहलाते हैं। उन्हींको  स्वभावज कर्म, स्वकर्म और सहज कर्म कहा है। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति का भिन्नत्व उसके विचारों द्वारा निश्चित किया जाता है। इन विचारों का स्तर गुण दिशा आदि व्यक्ति की वासनाओं पर निर्भर करते हैं। यही है मनुष्य का स्वभाव अथवा धर्म। स्वधर्म और परधर्म यहाँ स्वधर्म का अर्थ किसी जाति विशेष में जन्म लेने पर प्राप्त होने वाले कर्तव्य से नहीं है। 
स्वधर्म का सही तात्पर्य है स्वयं की वासनायें। स्वयं की सहज और स्वाभाविक रुझानों के अनुसार कार्य करने से ही जीवन में शांति और आनन्द सफलता और सन्तोष का अनुभव होता है। तथा परधर्म का अर्थ है दूसरे के स्वभाव के अनुसार व्यवहार और कर्म करना जो भयावह होता है इसमें दो मत नहीं हो सकते। गीता में अर्जुन के स्वभाव को देखते हुये भगवान् उसे युद्ध करने का स्पष्ट उपदेश देते हैं। जन्मजात राजकुमार अर्जुन ने अपने विद्यार्थी जीवन में ही साहस और शूरवीरता का प्रदर्शन किया था और धनुर्विद्या में निपुणता भी प्राप्त की थी। अत युद्ध जैसा खतरनाक कर्म उसके स्वभाव के अनुकूल ही था। अर्जुन ने संभवत अपने प्रारम्भिक शिक्षणकाल में यह सुना और समझा था कि संन्यास और त्याग का अर्थात् ब्राह्मण का जीवन उसके जीवन से श्रेष्ठतर है। इसीलिये युद्धभूमि पलायन से गुफाओं में बैठकर ध्यानाभ्यास करने की उसकी इच्छा हो रही थी। श्रीकृष्ण उसे स्मरण दिलाते हैं कि स्वधर्म पालन में कुछ कमी रहने पर भी उसी का पालन उसके आत्मविकास के लिये श्रेयष्कर है। 
 यदि मोक्ष को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर, तथा धर्म के द्वारा मार्गदर्शित होकर- अर्थ और काम का उपभोग किया जाय, तो वैसा अर्थ और काम हमें क्षति नहीं पहुंचा सकता है। अर्थ से तात्पर्य धन और सम्पत्ति से है अर्थ पर मनुष्य का जीवन निर्भर करता है।  मनुष्य के अस्तित्व और उसके विकास के लिए,  मानव जीवन के सुचारु यापन के लिए अर्थ अनादिकाल से ही एक नितांत आवश्यक वस्तु मानी गई है। अतः यदि अर्थ या द्रव्य पाना हो तो 'धर्म के द्वारा' अर्थात् समाज की रचना को न बिगाड़ते हुए प्राप्त करो, और यदि काम आदि वासनाओं को तृप्त करना हो तो वह भी 'धर्म से ही’ करो।  इसलिए  हमलोगों के व्यावहारिक जीवन में धर्म का क्या स्थान है- इसे भली भाँति समझ लेना आवश्यक है। धर्म की सहयता लिये बिना यदि हमलोग भोग के जीवन, अर्थ उपार्जन और व्यबहार के जीवन को जीते रहें, तो हमलोगों का जीवन अन्तिम अवस्था में अशान्ति से भर जायेगा।
 हममें से अधिकांश लोगो के जीवन में यही हो रहा है। जीवन में धन-दौलत का अम्बार खड़ा कर लिये, गाड़ी-जमीन-मकान-दुकान, रुपया-पैसा बहुत अर्जित कर लिये हैं। किन्तु अन्तिम अवस्था आते आते जीवन में घोर अशान्ति छा गयी। पेट फुल गया, बदहजमी का शिकार बन गये, ब्लडप्रेशर,सुगर इत्यादि रोग पकड़ लिया, और लड़के-बच्चों में धन-दौलत को लेकर झगड़ा और केस-मुकदमा चलने लगा। कुछ खा नहीं सकते हैं, ठीक से चल नहीं पाते हैं, रात में नीन्द नहीं आती है। किन्तु धन के घड़ियाल हैं। घर में हर प्रकार की भोग-सामग्री है, किन्तु शान्ति नहीं है, कुछ भी नहीं है। उसी टेन्टलस के नरक जैसी अवस्था है। गले तक जल में ही डूबा हुआ हूँ, किन्तु एक बून्द जल मुख में डालने का उपाय नहीं है। तृष्णा से छाती फटी जा रही है, किन्तु किन्तु उसको मिटाने के लिये, एक बून्द जल ग्रहण करने का उपाय नहीं है। चारो और भोग की वस्तुएं बिखरी पड़ी हैं, देख-देख कर ललचा रहे हैं, किन्तु भोग करने की हिम्मत नहीं है, फिर भोग की इच्छा बनी हुई है, शान्ति नहीं मिलती है। 
हमलोग यह जानते हैं, कि मन में यदि कोई कामना नहीं हो, तो मनुष्य का जीवन अचल हो जायेगा, ठहर जायेगा या गतिशून्य हो जायेगा। यदि ऐसा हो, कि मैं  कुछ भी न चाहूँ; तो फिर मैं ही नहीं रहूँगा। इसीलिये कोई न कोई कामना अवश्य रहेगी, तथा व्यवहारिक जगत के किसी वस्तु को पाने की कामना करें, या प्राप्त करना चाहें, या केवल सामान्य रूप से अपने जीवन का निर्वाह भी करना हो, तो अर्थ की आवश्यकता होगी। हमलोगों के जीवन में अर्थ की आवश्यकता अवश्य होती है, इसीलिये हमारे शास्त्रों में अर्थ की निन्दा नहीं की गयी है। बल्कि अर्थ और काम दोनों की प्रशन्सा की गयी है। गीता में हम श्रीकृष्ण का एक अद्भुत उद्धरण देखते हैं, " वे कहते हैं, यदि मैं न रहूँ, तो मनुष्य कोई कामना भी नहीं कर सकता, इसीलिये सभी मनुष्यों के हृदय में मैं ही कामरूप में अवस्थित हूँ। " [" प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः " प्रजनः [among the progenitor (I) am Kamadeva प्रोजेनिटर च अस्मि कंदर्पः कामः] अर्थात ईश्वर ही मनुष्यों के भीतर कामरूप में अर्थात कामना रूप में अवस्थित हैं। 
हमारे पूर्वज  ऋषियों ने भी अर्थ की प्रशंसा की है। महाभारत में एक सुन्दर उदाहरण दिया गया है, गीता-उपदेश के बाद जब अर्जुन लड़ने को तैयार हो गये तो एकाएक देखते हैं कि युधिष्ठिर कवच वगैरह उतार के नंगे पाँव कौरवों की सेना की ओर तेजी से बढ़े जा रहे हैं। देखते ही अर्जुन आदि सभी घबरा गये। हालत यह हो गयी कि ये पाँचों भाई कृष्ण के साथ उनके पीछे-पीछे दौड़े जा रहे हैं और कहते जा रहे हैं कि राम, राम, यह क्या कर रहे हैं? ऐन वक्त पर आप यह कहाँ चले? क्या युध्ष्ठिर युद्ध नहीं करेंगे, या और कुछ करने जा रहे हैं ? जब युधिष्ठिर न रुके, तो कृष्ण ने ताड़ लिया और लोगों को समझा दिया कि भीष्म आदि गुरुजनों से लड़ने के पहले आज्ञा लेने जा रहे हैं। यही शिष्टाचार हैं।
इसी बीच युधिष्ठिर सभी के साथ ही पहले भीष्म के पास और पीछे क्रमश: द्रोण, कृप और शल्य के पास गये; और चारों को प्रणाम करके लड़ने की आज्ञा तथा सफलता की शुभेच्छा चाही। उन्होंने युधिष्ठिर को आज्ञा दी और शुभेच्छा भी जाहिर की। मगर सभी ने एक बात ऐसी कही जो विचारणीय हैं। चारों के मुख से एक ही श्लोक निकला, जो इस प्रकार हैं-  
''अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। 
इति सत्यं महाराज, बध्दोऽस्म्यर्थेन कौरवै:।'' 
इसका सीधा अर्थ यही हैं कि ''महाराज, इस जगत में सभी पुरुष अर्थात सभी मनुष्य अर्थ के दास होते हैं। आदमी पैसे का गुलाम होता हैं, न कि आदमी का गुलाम पैसा, यही पक्की बात हैं। इसलिए हे महाराज भाग्य के दोष से अर्थ के कारण ही कौरवों ने हमें गुलाम बना लिया हैं।''  जिन्हें मौत पर भी कब्जा हो और जो अपनी मर्जी के खिलाफ न तो हार सकें और न मर सकें, वे लोग भी जब संसार के इस नियम को स्वीकार करते हैं, और इसे अटल (पक्का) नियम मानते हैं, और हिम्मत के साथ तदनुकूल ही अपनी स्थिति कबूल करते हैं, तो मानना ही पड़ेगा कि अप्रिय होने से भी- कि पुरुष अर्थ का दास होता है !' गीता इस कठोर सत्य को खूब मानती हैं। वह इसे स्वीकार करके ही आगे बढ़ी हैं। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हमारे पूर्वज लोग अच्छी तरह से जानते थे, कि हमारे जीवन में अर्थ की कितनी महत्ता है। इसीलिये उन्होंने ने अर्थ की कभी निन्दा नहीं की है। हमलोगों के देश में कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा लिखित सुन्दर अर्थशास्त्र बहुत प्रसिद्द है।
 उसी तरह हमारे पूर्वजों ने यह भी कभी नहीं कहा है, कि काम की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि काम या कामना को नियंत्रित रखना या परिमित (restrained) रखना आवश्यक है। कामनाओं को पूर्ण करने के लिये अर्थ की आवश्यकता अवश्य है; किन्तु अर्थ के व्यवहार को भी नियंत्रित रखना आवश्यक है। जिस प्रकार कामना-वासना के बेलगाम अत्याचार को सहन करते रहना उचित नहीं है; उसी प्रकार अर्थ का बिल्कुल दास बन जाना भी ठीक नहीं है। यदि कामनाओं को अत्यधिक छूट दे दी जाये, और अर्थ की वासना को परिमित नहीं रखा जाय तथा- 'और धन चाहिये', और धन चाहिए, करते रहा जाय तो मनुष्य की हालत कैसी हो जाएगी ?  इसका वर्णन गीता १६/१३ में बहुत अच्छे से किया गया है-इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌।इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌॥भावार्थ : आज इस समय तो मैंने यह द्रव्य प्राप्त किया है तथा अमुक मनोरथ -- मनको संतुष्ट करनेवाला पदार्थ और प्राप्त करूँगा। और अब कल इस मनोरथ को -(बीच बाजार में एक बड़ा सा प्लोट ) प्राप्त कर लूँगा। इतना धन तो मेरे पास है और यह इतना धन मेरे पास अगले वर्ष में फिर हो जायगा? उससे मैं धनवान् विख्यात हो जाऊँगा।असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि। ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥भावार्थ :   (इसमें जो एक प्रोपर्टी डीलर बाधक शत्रु था ) आज वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया, और कल उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, इस प्रकार मेरा प्रभुत्व क्रमशः बढ़ता जायेगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ॥14॥ 
राजा ययाति की कहानी वेदों में है, पुराणों में भी है, विभिन्न धर्मग्रंथों के माध्यम से भी हमलोगों में से अधिकांश उसकी कहानी सुने हैं। वे धर्म को भूल कर केवल अर्थ और काम में डूबे रहते थे। उनकी अवस्था ऐसी होगयी थी कि जीवन में बहुत भोग करने के बाद भी उनको तृप्ति नहीं हुई तब उन्होंने कहा -
" न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।। "
काम का उपभोग करते रहने से कामना भी उसी प्रकार क्रमशः बढ़ती जाती है, जिस प्रकार आग में घी डालने से आग क्रमशः और भी बढ़ती जाती है। उसी प्रकार कामना को परिपुष्ट करते रहने से, वह कभी प्रशमित नहीं होती, बढ़ती ही जाती है। इससे कभी शान्ति नहीं मिलती। संसार में जितने भी भोग्य वस्तुयें हैं, जितना भी ऐश्वर्य है, जितनी भी सम्पदा है, वह सब का सब किसी एक ही मनुष्य को दे दिया जाय फिरभी उसको कभी तृप्ति नहीं मिल सकती है। यह जान लेने के बाद अन्त में सभी मनुष्यों कामना-वासना का त्याग करना ही पड़ता है। यही है हमलोगों के देश की शिक्षा। 
"केवल धर्म (शिक्षा-विवेक-प्रयोग) के द्वारा ही अर्थ और काम को (लस्ट ऐंड लूकर में आसक्ति को) नियंत्रण में रखा जा सकता है।" धर्म का आश्रय लेकर, अर्थ और काम का भोग करो। और जब यह बात समझ में आ जाये कि भोगों में ही सबकुछ नहीं है। जब यह दिखाई देने लगे कि भोगों से यथार्थ शान्ति, आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता है, तब उस अवस्था में मनुष्य के चौथे पुरुषार्थ-मोक्ष को प्राप्त करने की आकांक्षा करनी चाहिये, और उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये। किन्तु उन चार पुरुषार्थों में से किसी एक में ही आसक्त नहीं होना चाहिये। इसीलिए, हमारे शास्त्रों में- 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ' ये चार प्रकार के पुरुषार्थ की बात कही गयी है। केवल एक ही पक्ष को लेकर चलने से नहीं होगा। जो समाज एक को ही लेकर रहता हो, उसे 'निन्दनीय' या 'जघन्य ' भी कहा गया है। ऐसा कहने से भी, चौथे पुरुषार्थ 'मोक्ष' के समकक्ष कोई भी नहीं है। [निवृत्ति अस्तु महाफला ज्ञान के समकक्ष कुछ भी नहीं है ! षड्जगीता  ३८ में कहा गया है-
धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या
यस्त्वेकसेवी स नरो जघन्यः ।
द्वयोस्तु दक्षं प्रवदन्ति मध्यं
स उत्तमो यो निरतिस्त्रिवर्गे ॥ ३८॥
 यह जो 'धर्म-अर्थ-काम ' का त्रिवर्ग है, उसकी तुलना चतुर्थ वर्ग -मोक्ष के साथ नहीं हो सकती है।  इसलिये इन तीनों में -किसी भी एक प्रति आसक्त नहीं होना चाहिये, या किसी एक में ही अटके नहीं रहना चाहिये। जो मनुष्य किसी एक पुरुषार्थ में ही आसक्त हो जाता है, उसको घृणित या निन्दनीय माना जाता है। इसी तरह धर्म, अर्थ और काम में परस्पर संतुलन बने रहना मानसिक स्वास्थय एवं सुखी जीवन के लिए परमावश्यक है। इन तीनों में संतुलन बनाए रखने के लिए ही वैदिक ऋषियों ने गृहस्थाश्रम का महत्व प्रतिपादित किया है। इन तीनों में सुसामन्जस्य या तालमेल बनाये रखना ही मानसिक और शारीरिक स्वास्थय का मूल रहस्य है। हमारे  पूर्वजों ने यह भी कभी नहीं कहा है, कि काम की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि काम या कामना को नियंत्रित रखना या परिमित (restrained) रखना आवश्यक है। हितोपदेश में कहा गया है - निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् || -'आत्माराम की मंजूषा'  की कृपा से जिस सद गृहस्थ के हृदय से 'लस्ट ऐंड लूकर' में आसक्ति, अर्थात सांसारिक भोगों की लालसा, राग, आसक्ति समाप्त हो जाती है, उनका घर ही तपोवन बन जाता है।
जनक के दिखलाए हुए मार्ग का नाम 'योग' है। अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है।  इन्हीं दो मार्गों को गीता में संन्यास और कर्मयोग कहा है। इसलिए राजा जनक क्षत्रीय होकर भी ब्राह्मणों के आचार्य बने क्योंकि वे प्रवृत्ति मार्गी (सद्गृहस्थ) होकर भी  निवृत्ति मार्गी (संन्यासी) के जैसा मृत्यु से भी प्रेम करने के अधिकारी थे । शंकराचार्य ने भी कहा है कि जनक आदि ने इसलिए कर्म किए कि जिससे साधारण लोग मार्ग से न भटक जाएं। वे लोग यह समझ कर काम करते थे कि उनकी इन्द्रिया-भर कार्यों में लगी हुई हैं, गुणा गुणेषु वर्तन्ते। हमारे जैसे जिन लोगों ने सत्य को नहीं जाना है, उन्हें आत्मशुद्धि के लिए 'BE AND MAKE' का कर्म अनवरत करते रहना चाहिये, दादा कहते थे जो इस चरित्र-निर्माण आंदोलन से जुड़ जायेगा, उसे 'मुक्ति-भक्ति' सब कुछ प्राप्त हो जायेगा, अलग से कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी !
 किन्तु एक आध्यात्मिक शिक्षक या मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने वाले नेता के रूप में सर्वोत्कृष्ट समाज-सेवा का नेतृत्व करते समय कर्तापन का अहंकार यदि दंभ बन जाये तो, नाम-यश के चक्कर में पड़कर हमारा घोर पतन हो भी सकता है।  इसी बात से सावधान करते हुए जीवन्मुक्त अष्टावक्र जी महाराज कहते हैं-
निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिः उपजायते। 
प्रवृत्तिरपि धीरस्य, निवृत्तिफलदायिनि॥ " 
" मूढ़मती लोगों के लिये अर्थात जिनकी बुद्धि मोहनिद्रा में सोयी हुई है, जो स्वयं को केवल शरीर समझते हैं, के लिये निवृत्ति भी प्रवृत्ति को ही उत्पन्न करने वाली होती है, तथा उसी प्रकार ज्ञानी, धीमान या बुद्दिमानों के लिये कर्म (प्रवृत्ति) ही निवृत्ति का फल प्रदान करता है।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " बच्चों, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। अच्छा बनना तथा अच्छा व्यवहार करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल प्रभु-प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है वही धार्मिक है। यदि कभी कभी तुमको संसार का थोडा-बहुत धक्का भी खाना पडे, तो उससे विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जायगा तथा सारी स्थिति पुनः ठीक हो जायगी। (वि.स.१/३८०)
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