“विचार व्यक्तित्त्व की जननी है, जो आप सोचते हैं बन जाते हैं”
आज जब हम उस दौर में जी रहे हैं जहां एक तरफ मनुष्य विचारधारा के नाम पर एक दूसरे के प्रति कटुता भर लेता है तो दूसरी तरफ अख़बार और न्यूज़ चैनल भी आम जनमानस को विचारधारा के नाम पर बांटते हैं। कोई अपने को गांधीवादी बताता है तो कोई अम्बेडकरवादी, कोई अपने को राष्ट्रवाद से जोड़ता है तो कोई सामजवाद से, कोई अपने को नेहरूवादी कहता तो कोई वामपंथी। इस विचार शून्य विचारधरा की लड़ाई में सिर्फ और सिर्फ नकारात्मकता दिखती है और एक व्यक्ति दूसरे से लड़ते झगड़ते दिखता है। कभी कॉलेज की कैंटीन के बाहर तो कभी टेलीविजन कार्यक्रम में, कभी रेल गाड़ी में तो कभी चाय के चौराहे पर वैचारिक चर्चाओं के नाम पर अक्सर दो इंसानों में टकराव होना शुरू हो जाता है; जो कुछ देर पहले तक अच्छे परिचित या मित्र थे। आज इस वातावरण के बीच में हमें विश्व विख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता, रवीन्द्रनाथ टैगोर के उन शब्दों को फिर से याद करने की जरूरत है जो उन्होंने स्वामीजी के बारे में कहे थे -- ‘ यदि आपको भारत को जानना है तो स्वामी विवेकानंद को पढ़िए ‘उनमें सब कुछ सकारात्मक है, कुछ भी नकारात्मक नहीं।’
स्वामी विवेकानन्द : का जन्म 12 जनवरी, 1863 में हुआ था। इनके बचपन का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था और इनके गुरु का नाम रामकृष्ण परमहंस था। भारतीय दर्शन विशेषकर वेदांत और योग को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करने में विवेकानंद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। विवेकानन्द की शिक्षाओं पर उपनिषद्, गीता के दर्शन, बुद्ध एवं ईसा मसीह के उपदेशों का प्रभाव है। उन्होंने वर्ष 1893 में शिकागो विश्व धर्म सम्मलेन में वैश्विक ख्याति अर्जित की तथा इसके माध्यम से ही भारतीय अध्यात्म का वैश्विक स्तर पर प्रचार-प्रसार हुआ। अपने गुरु के नाम पर विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन तथा रामकृष्ण मठ की स्थापना की। साथ ही ब्रिटिश भारत के दौरान राष्ट्रवाद को अध्यात्म से जोड़ने में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इसके अतिरिक्त विवेकानन्द ने जातिवाद, शिक्षा, राष्ट्रवाद, धर्म निरपेक्षतावाद, मानवतावाद पर अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।
विवेकानन्द की विदेश यात्रा : शिकागो में दिये गए उनके व्याख्यानों (1893) से एक अभियान की शुरुआत हुई जो मानव-सुधार (मनुष्य-निर्माण) के उद्देश्य से भारत की सहस्राब्दिक गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परंपरा~ Be and Make ' की व्याख्या करता है। और इसके उपरांत उन्होंने न्यूयॉर्क में लगभग दो वर्ष व्यतीत किये जहाँ वर्ष 1894 में पहली ‘वेदांत सोसाइटी’ की स्थापना की। उन्होंने पूरे यूरोप का व्यापक भ्रमण किया तथा मैक्स मूलर और पॉल डायसन जैसे प्रच्च्वादियों (Indologists) से संवाद किया। उन्होंने भारत में अपने सुधारवादी अभियान के आरंभ से पहले निकोला टेस्ला जैसे प्रख्यात वैज्ञानिकों के साथ तर्क-वितर्क भी किये।
धर्म और तर्कसंगतता: भारत के अतीत के संबंध में विवेकानंद की व्याख्या तार्किक थी और यही कारण रहा कि जब वे पश्चिम से वापस लौटे तो उनके साथ बड़ी संख्या में उनके अमेरिकी और यूरोपीय अनुयायी भी आए। वर्ष 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की उनकी परियोजना में उन्हें इन अनुयायियों का सहयोग और समर्थन मिला। स्वामी विवेकानंद ने बल दिया कि पश्चिम की भौतिक और आधुनिक संस्कृति की ओर भारतीय आध्यात्मिकता का प्रसार करना चाहिये, जबकि वे भारत के वैज्ञानिक आधुनिकीकरण के पक्ष में भी मजबूती से खड़े हुए। उन्होंने जगदीश चंद्र बोस की वैज्ञानिक परियोजनाओं का भी समर्थन किया। स्वामी विवेकानंद ने आयरिश शिक्षिका मार्गरेट नोबल (जिन्हें उन्होंने 'सिस्टर निवेदिता' का नाम दिया) को भारत आमंत्रित किया ताकि वे भारतीय महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने में सहयोग कर सकें। स्वामी विवेकानंद ने ही जमशेदजी टाटा को भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science) और ‘टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी’ की स्थापना के लिये प्रेरित किया था। भारत को एक धर्मनिरपेक्ष ढाँचे की आवश्यकता थी जिसके चलते वैज्ञानिक और तकनीकी विकास भारत की भौतिक समृद्धि को बढ़ा सकते थे और विवेकानंद के विचार इसके प्रेरणा स्रोत बने।
धर्मनिरपेक्षता, पन्थनिरपेक्षता या सेक्युलरवाद एक आधुनिक राजनैतिक एवं संविधानी सिद्धान्त है। धर्मनिरपेक्षता के मूलत: दो प्रस्ताव है 1) राज्य के संचालन एवं नीति-निर्धारण में मजहब (रेलिजन) का हस्तक्षेप नहीं होनी चाहिये। 2) सभी धर्म के लोग कानून, संविधान एवं सरकारी नीति के आगे समान है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना (preamble) में 'सेक्युलर' शब्द 42 वें संविधान संसोधन द्वारा सन 1976 में जोड़ा गया। किन्तु ऐतिहासिक रूप से भारत में 'सर्वधर्म समन्वय' और वैचारिक एवं दार्शनिक स्वतन्त्रता अनादी काल से चली आ रही है। भारत पारंपरिक रूप से एक बहुसांस्कृतिक-राष्ट्र (multicultural-nation) रहा है तथा के 'सर्वधर्म समन्वय' आदर्शों की जड़ें गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में आधारित प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा उसके संविधान में हैं और भारतीय जनता द्वारा प्रख्यापित हैं। भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने अपनी अपूर्णता में भी सदैव ‘सर्वधर्म समभाव ’ की भावना पर बल दिया है - जिसका अर्थ है कि सभी धर्म एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं, जहाँ सभी धर्मों के प्रति एक समान सम्मान का भाव निहित है। भारतीय धर्मनिरपेक्षता के आचरण ने अपने निहित दोषों के बावजूद देश को अन्य पड़ोसी देशों से अलग स्वरूप प्रदान किया है। भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा मुस्लिम आबादी वाला देश है। अभूतपूर्व विविधता के बीच लोकतंत्र को सशक्त बनाए रखने की भारत की क्षमता विश्व की उन उन्नत औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं तक के लिये उदाहरण पेश कर सकती है जो पारंपरिक रूप से एकल-सांस्कृतिक राष्ट्र (single-cultural nation) की तरह संचालित किये जाते रहे हैं।
धर्मनिरपेक्षता पर विवेकानन्द के विचार: विवेकानन्द का विचार है कि सभी धर्म एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं, जो उनके आध्यात्मिक गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के आध्यात्मिक प्रयोगों पर आधारित है। परमहंस (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव) मूर्तिपूजा के रहस्यवाद के इतिहास में अद्वितीय स्थान रखते हैं, जिनके आध्यात्मिक अभ्यासों में यह विश्वास निहित है कि सगुण और निर्गुण की अवधारणा के साथ ही ईसाईयत और इस्लाम के आध्यात्मिक अभ्यास आदि सभी एक ही बोध या जागृति की ओर ले जाते हैं। शिकागो के अपने प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानंद ने तीन महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर बल दिया। पहला, उन्होंने कहा कि भारतीय परंपरा न केवल सहिष्णुता बल्कि सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करने में विश्वास रखती है। दूसरा, उन्होंने स्पष्ट और मुखर शब्दों में इस बात पर बल दिया कि बौद्ध धर्म के बिना हिंदू धर्म और हिंदू धर्म के बिना बौद्ध धर्मं अपूर्ण है। तीसरा, यदि कोई व्यक्ति केवल अपने धर्म के अनन्य अस्तित्व और दूसरों के धर्म के विनाश का स्वप्न रखता है तो मैं ह्रदय की अतल गहराइयों से उसे दया भाव से देखता हूँ; और उसे इंगित करता हूँ कि विरोध के बावजूद प्रत्येक धर्म के झंडे पर जल्द ही संघर्ष के बदले सहयोग, विनाश के बदले सम्मिलन और मतभेद के बजाय सद्भाव व शांति का संदेश लिखा होगा।"
विवेकानन्द का राष्ट्रवाद: आधुनिक काल में पश्चिमी विश्व में राष्ट्रवाद की अवधारणा का विकास हुआ लेकिन स्वामी विवेकानंद का राष्ट्रवाद प्रमुख रूप से भारतीय अध्यात्म एवं नैतिकता से संबद्ध है। भारतीय संस्कृति के प्रमुख घटक मानववाद एवं सार्वभौमिकतावाद विवेकानंद के राष्ट्रवाद की आधारशिला माने जा सकते हैं। पश्चिमी राष्ट्रवाद के विपरीत विवेकानंद का राष्ट्रवाद भारतीय धर्म -अद्वैत वेदान्त पर आधारित है जो भारतीय लोगों का जीवन रस है। उनके लेखों और उद्धरणों से यह इंगित होता है कि भारत माता एकमात्र देवी हैं जिनकी प्रार्थना देश के सभी लोगों को सहृदय से करनी चाहिये।
विवेकानन्द का मानवतावाद एवं दरिद्रनारायण की अवधारणा: विवेकानंद एक मानवतावादी चिंतक थे, उनके अनुसार मनुष्य का जीवन ही एक धर्म है। धर्म न तो पुस्तकों में है, न ही धार्मिक सिद्धांतों में, प्रत्येक व्यक्ति अपने ईश्वर का अनुभव स्वयं कर सकता है। विवेकानंद ने धार्मिक आडंबर पर चोट की तथा ईश्वर की एकता पर बल दिया। विवेकानंद के शब्दों में “मेरा ईश्वर दुखी, पीड़ित हर जाति का निर्धन मनुष्य है।” इस प्रकार विवेकानन्द ने गरीबी को ईश्वर से जोडकर दरिद्रनारायण की अवधारणा दी ताकि इससे लोगों को वंचित वर्गों की सेवा के प्रति जागरूक किया जा सके और उनकी स्थिति में सुधार करने हेतु प्रेरित किया जा सके। इसी प्रकार उन्होंने गरीबी और अज्ञान की समाप्ति पर बल दिया तथा गरीबों के कल्याण हेतु कार्य करना राष्ट्र सेवा बताया। किंतु विवेकानंद ने वेद की प्रमाणिकता को स्वीकार करने के लिये वर्णाश्रम व्यवस्था को भी स्वीकृति दी। हालाँकि वे अस्पृश्यता के घोर विरोधी थे।
स्वामी विवेकानन्द का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं पर प्रभाव ~विवेकानंद ने आधुनिक भारत के निर्माताओं पर भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला जिन्होंने बाद में द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को चुनौती दी। इन नेताओं में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस शामिल थे। महात्मा गांधी द्वारा सामाजिक रूप से शोषित लोगों को 'हरिजन' शब्द से संबोधित किये जाने के वर्षों पहले ही स्वामी विवेकानंद ने 'दरिद्र नारायण' शब्द का प्रयोग किया था जिसका आशय था कि 'गरीबों की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।‘ वस्तुतः महात्मा गांधी ने यह स्वीकार भी किया था कि भारत के प्रति उनका प्रेम विवेकानंद को पढ़ने के बाद हज़ार गुना बढ़ गया। स्वामी विवेकानंद के इन्हीं नवीन विचारों और प्रेरक आह्वानों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए उनके जन्मदिवस को ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ घोषित किया गया।
स्वामी विवेकानन्द जी ने अपना पूरा जीवन मनुष्य निर्माण के कार्य के लिए दे दिया था। वह भारतीयता और वेदांत को घर-घर जागृत करने का कार्य कर रहे थे। इसीलिए हम सबको समझना पड़ेगा की मार्ग अलग हो सकते हैं, लेकिन देश के लिए कोई रचनात्मक और सृजनात्मक कार्य करते समय राजनीतिक और वैचारिक द्वन्द को दूर रखते हुए उस सकारात्मक कार्य का समर्थन करना चाहिए। राष्ट्रहित सर्वोपरि रहना चाहिए। इस सदियों पुरानी भारतीय सनातन परंपरा को विश्व गुरू बनाना हर भारतीय का कर्त्तव्य है।
स्वामी विवेकानन्द का शिक्षा पर बल: स्वामी विवेकानन्द का मानना है कि भारत की खोई हुई प्रतिष्ठा तथा सम्मान को शिक्षा द्वारा ही वापस लाया जा सकता है। किसी देश की योग्यता तथा क्षमता में वृद्धि उस देश के नागरिकों के मध्य व्याप्त शिक्षा के स्तर से ही हो सकती है। स्वामी विवेकानंद ने ऐसी शिक्षा पर बल दिया जिसके माध्यम से विद्यार्थी की आत्मोन्नति हो और जो उसके चरित्र निर्माण में सहायक हो सके। साथ ही शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जिसमें विद्यार्थी ज्ञान प्राप्ति में आत्मनिर्भर तथा चुनौतियों से निपटने में स्वयं सक्षम हों। विवेकानन्द ऐसी शिक्षा पद्धति के घोर विरोधी थे जिसमें गरीबों एवं वंचित वर्गों के लिये स्थान नहीं था। विवेकानन्द ने आंतरिक शुद्धता एवं आत्मा की एकता के सिद्धांत पर आधारित नैतिकता की नवीन अवधारणा प्रस्तुत की। विवेकानन्द के अनुसार, नैतिकता और कुछ नहीं बल्कि व्यक्ति को एक अच्छा नागरिक बनाने में सहायता करने वाली नियम संहिता है। मानव नैसर्गिक रूप से ही नैतिक होता है, अतः व्यक्ति को नैतिकता के मूल्यों को अवश्य अपनाना चाहिये। आत्मा की एकता पर बल देकर विवेकानन्द ने सभी मनुष्यों के मध्य सहृदयता एवं करुणा की भावना के प्रसार का प्रयास किया है।
प्रचलित शिक्षा के साथ -साथ नैतिक शिक्षा का महत्व (Importance of moral education along with prevalent education): प्रत्येक राष्ट्र की सामाजिक एवं सांस्कृतिक उन्नति वहां की शिक्षा पद्धति पर निर्भर करती है। हमारे देश में स्वतंत्रता के बाद शिक्षा के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है। और वर्तमान में कला, वाणिज्य, विज्ञान, चिकित्सा आदि अनेक संकायों में विभिन्न सवर्गों में शिक्षा का गुणात्मक एवं संख्यात्मक प्रचार हो रहा है। सूचना प्रद्योगिकी के क्षेत्र या कंप्यूटर शिक्षा में भारत विश्व का अग्रणी देश बन गया है। फिर भी एक कमी यह है कि यहाँ नैतिक शिक्षा पर उतना ध्यान नही दिया जाता है। इससे भारतीय पीढ़ी संस्कारहीन और कोरी भौतिकवादी बन रही है।
नैतिक शिक्षा का वर्तमान स्वरूप- प्राचीन भारत में वर्णाश्रम व्यवस्था के गुरु-शिष्य परम्परा के अंतर्गत युवाओं के चारित्रिक उत्कर्ष के लिए नैतिक -प्रशिक्षण (moral training) पर बल दिया जाता था। उस समय विद्यार्थियों में नैतिक आदर्शों को अपनाने की होड़ लगी रहती थी। इस कारण वे प्रशिक्षित और संस्कार सम्पन्न होने (चरित्रवान मनुष्य बनने) के बाद ही वे गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते थे। लेकिन भारत सैकड़ो वर्षो तक पराधीन रहा था। गुलामी की मानसिकता (colonial mindset-औपनिवेशिक मानसिकता) के कारण इसकी वर्णाश्रम व्यवस्था विच्छिन्न हो गई और शिक्षा का स्वरूप चरित्र निर्माण न होकर अर्थोपार्जन हो गया। इस कारण यहाँ नैतिक शिक्षा का ह्रास हुआ है। ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा , परोपकार, समाज सेवा, उदारता, सद्भावना, मानवीय संवेदना तथा उदात आचरण आदि का अभाव इसी नैतिक शिक्षा के ह्रास का कारण माना जा सकता है।
नैतिक शिक्षा की उपयोगिता– नैतिक शिक्षा से मंडित विद्यार्थी का भविष्य उज्ज्वल गरिमामय बनता है तथा देश के भावी नागरिक होने से उनसे समस्त राष्ट्र को नैतिक आचरण का लाभ मिलता हैं। नैतिक शिक्षा मानव व्यक्तित्व के उत्कर्ष का, संस्कारित जीवन तथा समाज हित का प्रमुख साधन है। इससे भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता, प्रमाद, लोलुपता, छल कपट तथा असहिष्णुता आदि दोषों का निवारण होता है। मानवतावादी चेतना का विकास भी इसी से ही संभव है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र इन सभी के लिए नैतिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना अत्यंत उपयोगी है । देश में उच्च आदर्शों, श्रेष्ट परम्पराओं एवं नैतिक मूल्यों की स्थापना तभी की जा सकती है। नैतिक शिक्षा के द्वारा ही विद्यार्थी अपने चरित्र एवं सुंदर व्यक्तित्व का निर्माण कर सकते हैं। अतएव विद्यार्थियों को नैतिक शिक्षा ग्रहण करने का प्रयास करना चाहिए।
वर्तमान में प्रचलित पाश्चात्य शिक्षा के साथ वैदिक नैतिक शिक्षा का समायोजन –वस्तुतः विद्यार्थी जीवन आचरण की पाठशाला है। सभ्य संस्कार सम्पन्न नागरिक का निर्माण विद्यार्थी जीवन में ही होता है। विद्यार्थी को जैसी शिक्षा दी जायेगी, जैसे संस्कार उन्हें दिए जाएगे, आगे चलकर वह वैसा ही नागरिक बनेगा। इस बात का ध्यान रखकर नैतिक शिक्षा का समायोजन किया गया है। Therefore, building a happy life - moral education has a special utility in student life ! अतएव प्रशस्य जीवन निर्माण के लिए विद्यार्थी जीवन में नैतिक शिक्षा की विशेष उपयोगिता है। इस स्थिति की ओर ध्यान देकर प्राचीन गुरु -शिष्य परम्परा में आधारित भारतीय संस्कृति के उपासक लोगों ने वर्तमान शिक्षा पद्धति के गुण दोषों का चिंतन कर नैतिक शिक्षा के प्रचार - प्रसार की अनिवार्यता का समर्थन किया। चारित्रिक पतन के परिणाम स्वरुप भ्रष्टाचार की सर्वव्यापकता को देखकर अब प्रारम्भिक, माध्यमिक शिक्षा स्तर पर नैतिक शिक्षा का स्तरानुसार समावेश किया जाने लगा है।
स्वामी विवेकान्द युवाओं के आदर्श ~ अर्थात प्रेरणा-स्रोत हैं : स्वामी विवेकानंद के इन्हीं नवीन विचारों और प्रेरक आह्वानों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए उनके जन्मदिवस को ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ घोषित किया गया। स्वामीजी ने तात्कालीन युवाओं को सलाह देते हुए कहा था “यदि तुम मां भारती की सेवा करना चाहते हो तो, सबसे पहले चरित्रवान बनो, वीर बनो। पहले शक्ति और साहस अर्जित करो, उसके बाद उन्हें पीड़ा से मुक्त कराने चलो।” स्वामी विवेकानंद का मानना है कि किसी भी राष्ट्र का युवा जागरूक और अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित हो, तो वह देश किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। युवाओं को सफलता के लिये समर्पण भाव को बढ़ाना होगा तथा भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिये तैयार रहना होगा, विवेकानंद युवाओं को आध्यात्मिक बल के साथ-साथ शारीरिक, और मानसिक बल में वृद्धि करने के लिये भी प्रेरित करते हैं।
युवाओं के लिये प्रेरणास्रोत के रूप में विवेकानंद के जन्मदिवस, 12 जनवरी को भारत में राष्ट्रीय युवा दिवस तथा राष्ट्रीय युवा सप्ताह मनाया जाता है। राष्ट्रीय युवा सप्ताह के एक हिस्से के रूप में भारत सरकार प्रत्येक वर्ष राष्ट्रीय युवा महोत्सव का आयोजन करती है और इस महोत्सव का उद्देश्य राष्ट्रीय एकीकरण, सांप्रदायिक सौहार्द्र तथा भाईचारे में वृद्धि करना है।
निष्कर्ष : – नैतिक शिक्षा मानव व्यक्तित्व के उत्कर्ष का, संस्कारित जीवन तथा समस्त समाज हित का प्रमुख साधन है. इससे भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता, प्रमाद, लोलुपता, छल कपट तथा असहिष्णुता आदि दोषों का निवारण होता है. मानवतावादी चेतना का विकास भी इसी से संभव हैं. अतएवं विद्यार्थियों को नैतिक शिक्षा ग्रहण करने का प्रयास करना चाहिए. जीवन का विकास उद्दात एवं उच्च आदर्शों से होता रहे, इसके लिए नैतिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने में सक्षम जीवनमुक्त शिक्षकों (मार्गदर्शक नेताओं) का निर्माण करना सबसे पहले अपेक्षित है। लेकिन नैतिक शिक्षा प्रदान करने में सक्षम स्वयं नैतिक मनुष्य बन चुके जीवनमुक्त शिक्षक कहाँ हैं ? पहले गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा Be and Make में प्रशिक्षित और जीवनमुक्त (CINC का चपरास-प्राप्त) का निर्माण करना अनिवार्य है।
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