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' सौंपा हुआ कार्य: चरित्रनिर्माण और उसका मार्ग '
[ India's Mission- The Task and the Way]
>> India (Vedanta) alone can contribute meaningfully to the progress of the whole of mankind.संपूर्ण मानव जाति की प्रगति में केवल भारत (का वेदान्त) ही सार्थक योगदान दे सकता है।
हमारे समक्ष जो सौंपा हुआ लक्ष्य है वह है भारत का कल्याण। [जो कार्य हमें 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में "महामण्डल चपरास " के साथ सौंपा गया है, वह है भारत का कल्याण।] अगर हम उसके लिए काम करना चाहें तो हमें चीजों को स्पष्ट रूप से देखना होगा। हम सभी जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द का आविर्भाव पूरे विश्व विशेषकर भारतवर्ष के कल्याण के लिये हुआ था, क्योंकि वे जानते थे कि सिर्फ भारत ही विश्व- मानवता की प्रगति में अपना अर्थपूर्ण योगदान दे सकता है। स्वामीजी ने यह दृष्टि अपने आध्यात्मिक अनुभूति से पाई थी। स्वामीजी की यह आत्म-अभिव्यक्ति और अनुभूति उन्हीं पुरातन शास्त्रों में प्रतिष्ठित सत्य से प्राप्त हुई थी जिसे हम वेदान्त कहते हैं।
>>'Practical Vedanta' has to be applied for the purpose of life-building of individuals for the good of the whole society .
अतीत में हमारे देश में ऋषि-मुनियों के द्वारा वेदान्त का अध्यन विशेषतः जंगलों (अरण्यों) में किया जाता था। स्वामी विवेकानन्द ही प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने पुरातन शास्त्रों में प्रतिष्ठित इस महान सत्य को वनों से निकाल कर हाट-बाजार तक, समाज के आम लोगों और उनके घरों तक लाने का कार्य किया था। इसे ही 'Practical Vedanta' या 'व्यावहारिक वेदान्त ' कहते हैं। पूरे समाज का कल्याण करने के लिए, इसके आम जनों का जीवन गठन करने के उद्देश्य से उनके दैनन्दिन जीवन में- इसी 'व्यावहारिक वेदान्त' [4 -महा वाक्य] को प्रयोग में लाना होगा। स्वामी जी ने बड़ी गंभीरता से कहा था -" No nation is great or good because Parliament enacts this or that, but because its men are great and good. " कोई भी राष्ट्र इसलिये महान और अच्छा नहीं होता कि वहाँ के पार्लियामेन्ट ने यह या वह बिल (Like RTI and Lokpal Bill etc) पास कर दिया है, वरन इसलिए होता है कि उसके निवासी महान और अच्छे होते हैं। " (भारत का ध्येय -४. २३४/India's Mission- Sunday Times, London, 1896) ]
>> A man is good if he has a good character and India's Mission is -'Make men first !'
किसी व्यक्ति को हम अच्छा मनुष्य तभी कहते हैं, जब उसका चरित्र अच्छा होता है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " पहले मनुष्य निर्माण करो--Make men first ! " उन्होंने कहा था , " शिक्षा को जीवनगठन , मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी विचारों (महकाक्यों) को आत्मसात करने की पद्धति अवश्य उपलब्ध करानी चाहिए। "Education must provide 'life-building, man-making, character-making assimilation of ideas ." इसीलिये अगर हमें अपने देश , अपने जनसाधारण की भलाई और कल्याण के लिये कार्य करना है तो हमें अपना ध्यान व्यक्ति-चरित्र के निर्माण पर केन्द्रित करना होगा। अतएव, 'व्यक्ति-चरित्र का निर्माण' - करना ही हमारा प्रमुख कार्य होना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द को यह अनुभव भी हुआ था कि यदि हम सम्पूर्ण भारतवर्ष के कल्याण के इस कार्य को वृहत तौर पर करना चाहें , तो हमें संगठित होकर प्रयास करना होगा और इसके लिये संगठन की आवश्यकता होगी। तथा हमें इस ' व्यक्ति-चरित्र निर्माण तथा आत्मविकास ' के कार्य को संगठित होकर और संगठन के माध्यम से ही करना होगा।
>>We have never heard that any tiger became a saint. But in human history many sinners have become saints. Even gods aspire to be born as human beings. ]
अब हमलोग यह देखने का प्रयास करेंगे कि क्या चरित्र निर्माण के लिए कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पद्धति हो सकती है ? कई लोगों का मानना है कि चरित्र तो जन्मजात रूप से व्यक्ति में निहित कोई चीज है। हमलोग प्रायः ऐसा कहते हैं कि जल की अपनी कुछ विशेषतायें हैं, अग्नि के कुछ अलग गुण (धर्म) हैं। बाघ एक क्रूर पशु है, किन्तु क्या हम ऐसा कुछ मनुष्य के बारे में भी कह सकते हैं ? स्वामी जी कहते हैं कि देवता भी मानव रूप में जन्म लेने के लिये लालायित रहते हैं। क्योंकि, देवताओं का (या पशुओं का ?) जीवन चाहे कितना ही महान, गौरवशाली और भव्य क्यों न हो, वे जैसे हैं वैसे ही बने रहते हैं। हमलोगों ने ऐसा कभी नहीं सुना कि एक बाघ था जो बाद में संत बना गया । लेकिन मानव इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण अभिलिखित हैं, जहां कोई पापी था जो बाद में संत बन गया।
>>The character of a person is known through one's behavior :
आइए, अब विचार करें कि किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में जाना कैसे जाता है? किसी व्यक्ति के चरित्र की धारणा उसके आचरण ,व्यवहार एवं समाज के दूसरे लोगों के साथ उसके सम्बन्धों के देखकर बनाई जाती है। मानलो , मैं किसी से मिलता हूं और उसके चले जाने के बाद मेरे मन में उस व्यक्ति के बारे में एक बहुत ही सुखद छवि रह जाती है। या इसके विपरीत, मैं किसी अन्य व्यक्ति के संपर्क में आता हूं और मुझे खेद का अनुभव होता है। ऐसा विचार आता है कि कितना अच्छा होता अगर मैं उस व्यक्ति से कभी मिला ही नहीं होता। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि, पहले व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरे व्यक्ति के व्यक्तित्व से भिन्न प्रकृति का है। एक का व्यक्तित्व मनोहर है (winsome,हर्षवर्धन करने वाला),जबकि दूसरे का ऐसा नहीं है।
>>>Personalty means what we appear to be and Character is what we really are.
आइये, अब हम व्यक्तित्व और चरित्र के बीच के अन्तर को समझने का प्रयास करते हैं। कोई व्यक्ति दूसरों को ऊपर जैसा प्रभाव छोड़ जाता है, समग्रता में वही उसका व्यक्तित्व समझा जाता है। यहाँ तक कि उस व्यक्ति की वाणी , शारीरिक बनावट, इत्यादि भी इस मामले में काफी महत्व रखते हैं। उसका पहनावा ,केश-विन्यास (hair cut) और उसकी दूसरी अन्य चीजें भी उसके व्यक्तित्व को गढ़ने में अपना योगदान देती हैं। जबकि चरित्र किसी व्यक्ति-विशेष के व्यक्तित्व का केवल एक अंग है। लेकिन यह बात हमलोगों को स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि व्यक्तित्व का यह अंग (चरित्र) ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु है।
>>I will be liked and loved, because of my behavior, because of the expression of my feelings.
हो सकता है कि मेरी पोशाक पुरानी हो। यह भी हो सकता है कि मैं देखने में प्रभावशाली और आकर्षक न लगूँ, मेरी शिक्षा भी वैसी न हो, किन्तु यदि मेरे व्यवहार में चरित्र के कुछ उत्कृष्ट गुण (sterling qualities) हों तो अन्ततोगत्वा मेरे सुन्दर व्यवहार और मेरी भावनाओं की मनोहर अभिव्यक्ति के कारण मुझे ही अधिक पसन्द किया जायेगा और प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा जायेगा। हमलोग सत्य के बहुत निकट होंगे जब हम कहें कि, " हमारे व्यक्तित्व का अर्थ है - जैसा हम दिखते हैं, जबकि चरित्र वह है, जो हम वास्तव में हैं ! " हो सकता है कि अपनी वाकपटुता और अन्य दूसरी चीजों से शायद हम दूसरों को आकर्षित कर लेते हों, लेकिन जब परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं रहती उस समय हम भिन्न प्रकार से (अपने व्यक्तित्व से अलग हटकर) व्यवहार या कार्य करने लगते हैं। इसलिए, सबसे पहले हमें अपने चरित्र को सही ढंग से निर्मित करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए ताकि हमारे व्यक्तित्व का वास्तविक स्वरुप एक मजबूत नींव पर तैयार हो सके। चाणक्यनीति में कहा गया है -
दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटापटावृतः ।
तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किञ्चिन्न भाषते ॥
- लंबी शाल तथा खेस इत्यादि चमकीले वस्त्रों से सुसज्जित एक मूर्ख व्यक्ति दूर से सुशोभित होता है। लेकिन वह तब तक ही सुशोभित होता है (विद्वान सा प्रतीत होता है ) जब तक वह कुछ कहता नहीं है। मुख खोलते ही उसकी मूर्खता जगजाहिर हो जाती है। [A foolish person dressed nicely in a bright flowing robe looks beautiful and impressive (like a scholar) from a distance only so long he does not speak even a little. (As soon as he speaks something his foolishness gets exposed]
>> The character of Sri Ramakrishna was wonderful, not a mere outward personality; as he looks up, you are caught in the net of his love.
>>The first step to character formation is, brahmacharya (आत्मसंयम) to desist from bad thoughts, bad words, bad actions.
अतएव असत कर्म,असत वचन और असत विचारों से विरत हो जाना- ही चरित्र निर्माण का प्रथम सोपान है। इसी आत्मसंयम को ब्रह्मचर्य कहते हैं। इसके वाद अच्छे कर्मों को बार-बार करते हुए अच्छी आदतों का निर्माण करना होगा । सद्कर्म क्या है, हम स्वाभाविक रूप से पूछेंगे। हम एक स्वर में कहेंगे कि नैतिक कार्य करना ही सद्कर्म है । लेकिन नैतिकता क्या है? स्वामी विवेकानन्द ने नैतिकता की बड़ी ही आसान परिभाषा दी है, जो देश या काल के अनुसार नहीं बदलता है।
>>Which is unselfish is moral, and that which is selfish is immoral.
स्वामीजी कहते हैं, जो निःस्वार्थ कार्य है वह नैतिक है और जो भी कार्य स्वार्थपूर्ण है वह अनैतिक है। उन्होंने नैतिकता की यह परिभाषा कहाँ से प्राप्त की है? हम आसानी से देख सकते हैं कि यह वेदान्त द्वारा प्रतिस्थापित सत्य - (कोई पराया नहीं सभी अपने हैं) को स्वीकार करने का एक परिणाम है। जब तक मैं केवल 'मैं' और 'मेरा' के बारे में सोचता हूं, मैं स्वयं को सीमित कर लेता हूँ । और जब अपनी अन्तर्निहित पूर्णता को विस्तृत करते हुए मैं अपने पृथक अस्तित्व (मिथ्या अहं) को समष्टि अहं में खो देता हूँ या लीन कर देता हूँ,तभी मैं निःस्वार्थी हूँ और नैतिक हूं। इसका अर्थ यह हुआ है कि मैं सत्य की पूर्णता (निःस्वार्थपरता और प्रेम) को स्वीकार करता हूं। नैतिकता के इसी समझ की सहायता से अब हमलोग आसानी से उचित और अनुचित कर्म में अन्तर (श्रेय-प्रेय, बाबू और बगीचा में विवेक-प्रयोग) कर सकते हैं।
>>Repetition of moral actions over and over again is the method of character building.
और इस प्रकार विवेक-प्रयोग करने के बाद जब हम केवल उचित कर्म ही करेंगे तथा उसे बार -बार दुहराते रहेंगे, तो केवल सद्कर्म करने की हमारी आदत पड़ जाएगी। और अच्छे कार्यों से उत्पन्न अच्छी आदतें जब पुरानी होकर जब अच्छी प्रवृत्तियों में परिणत हो जायेंगी; तो उन्हीं सद्प्रवृत्तियों का समाहार या संग्रह (collection or agglomeration) हमें एक सुन्दर चरित्र का अधिकारी बना देगा। इसलिए, नैतिक कार्यों की बार-बार पुनरावृत्ति ही चरित्र निर्माण की पद्धति है। स्वामी विवेकानंद ने हमलोगों को - 'शिव ज्ञान से जीव सेवा करने ' या मनुष्य को ईश्वर समझकर सेवा करने के लिए कहा था ।
>> Renunciation and service to others -this is the way to formation of one's character.
श्रीरामकृष्ण देव दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में स्थापित माँ भवतारिणी की मूर्ति की पूजा किया करते थे। लेकिन उन्होंने स्वयं से पूछा , क्या मैं केवल एक मूर्ति में ईश्वर की पूजा कर सकता हूँ ? उन्हें उत्तर मिला , यदि तुम एक पत्थर की मूर्ति में ईश्वर की पूजा कर सकते हो , तो रक्त -मांस के बने जीवन्त मनुष्यों में ईश्वर की पूजा क्यों नहीं कर सकते ? उन्होंने स्वयं से प्रश्न किया कि ' क्या केवल बंद-आंखों से ही ध्यान होना संभव है? उन्हें उत्तर प्राप्त हुआ था कि, नहीं तुम खुली आँखों से भी ध्यान कर सकते हो ! इसलिए, श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द (अपने गुरुदेव से सीखकर) दोनों ने इस महान सत्य की शिक्षा दी है कि " मानव-सेवा ही ईश्वर की वास्तविक पूजा है" ना कि आत्म-सुख का लालच या घोर स्वार्थपरता। 'त्याग और दूसरों की सेवा ' - यही चरित्र निर्माण का मार्ग है। स्वामी जी के शब्दों में, 'अपने चरित्र -कमल को पूर्णरूपेण खिला लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। ' और हमें वैसा ही करने का प्रयास करना चाहिए।
>>Discrimination between good and bad action is a function of mind, so training of mind is primary work for character building.
व्यावहारिक तौर पर हम देखते हैं कि हमारे कर्मों से ही हमारे चरित्र का निर्माण होता है। यदि हमारे कर्मों के ऊपर विवेक-विचार का नियंत्रण हो तब हमारे द्वारा अच्छे कर्म होते हैं, जो अच्छे चरित्र के निर्माण में सहायक बन जाते हैं। उचित और अनुचित कर्म के बीच विवेक-विचार करना हमारे मन का कार्य है। अत: अपने मन पर नियंत्रण रखने के लिए , उसको एकाग्र करने या मनःसंयोग का अभ्यास ही चरित्र निर्माण का प्राथमिक कार्य है। क्योकि किसी भी कार्य को करने का संकल्प हम मन में ही लेते हैं और सद -असद कर्मों के बीच अन्तर भी मन की सहायता से ही करते हैं। इसलिए मन के ऊपर नियंत्रण और विवेक -प्रयोग की सहायता से अच्छे कर्मों को लगातार दोहराते हुए हम अच्छी आदतें, अच्छी प्रवृत्तियों का निर्माण कर सकते हैं। और अच्छी प्रवृत्तियों का समुदाय ही अच्छा चरित्र है, अतएव हम कह सकते हैं चरित्रवान मनुष्य बन जाना ही हम सभी की उदात्त नियति है।
>>You are the maker of your own destiny- for everything depends on manliness !
इसलिए, स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि 'तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो। 'हमारा भविष्य किसी अज्ञात जगह से नियंत्रित होने वाले किसी भाग्य नामक असाधारण वस्तु पर निर्भर नहीं करता; यह हमारे पौरुष तथा आत्मविश्वास पर निर्भर करता है। इसलिए स्वामी जी ने कहा था - " जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है , उतना ही अधिक मुझे लगता है कि 'पौरुष' में ही सभी बातें शामिल हैं। यह मेरा नया सुसमाचार है। " ( सूक्तियाँ एवं सुभाषित : ८.१३१ ) ["The older I grow, the more everything seems to me to lie in manliness. This is my new gospel." (Sayings and Utterances-8.16)] उन्होंने प्रत्येक युवा को अपने- आप पर विश्वास करने, अपने पौरुष पर और अपने प्रयत्न क्षमता पर विश्वास रखने का सन्देश दिया था। स्वामीजी सभी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते है - अपनी अन्तर्निहित संभावनाओं को प्रकट करो , अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करो और उस भाग्य के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र को उन्नततर, महानतम गौरवशाली भविष्य की ओर ले चलो !
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" मेरी आशा, मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा। वे सिंहविक्रम से देश की यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्या का समाधान करेंगे। आत्मविश्वास रखो। तुम्हीं लोग तो पूर्वकाल में वैदिक ऋषि थे। अब केवल शरीर बदल कर आये हो। मैं दिव्य चक्षु से देख रहा हूँ , तुम लोगों में अनन्त शक्ति है। उस शक्ति को जगा दे ; उठ उठ, काम में लग जा , कमर कस। क्या होगा दो दिन का धन-मान लेकर ? मेरा भाव जानता है? - मैं मुक्ति आदि नहीं चाहता हूँ। मेरा काम है तुम लोगों में इन्हीं भावों को जगा देना। एक मनुष्य का निर्माण करने में लाख जन्म लेने पड़े तो मैं उसके लिए भी तैयार हूँ। " -स्वामी विवेकानन्द