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बुधवार, 3 अगस्त 2016

卐🙏卐🙏 [ 8 & 9] 8. " India's Mission-Make men first ! " सौंपा हुआ कार्य: चरित्रनिर्माण और उसका मार्ग ' ['एक नया युवा आंदोलन' -8. The Task and the Way] 卐🙏 " भारत का ध्येय - व्यावहारिक वेदान्त से विश्व का कल्याण "卐🙏// 9. " हमारी सीमा" [एक नया युवा आंदोलन-9'Our Limitation]

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' सौंपा हुआ कार्य: चरित्रनिर्माण और उसका मार्ग ' 

[ India's Mission- The Task and the Way]

     >> India (Vedanta) alone can contribute meaningfully to the progress of the whole of mankind.संपूर्ण मानव जाति की प्रगति में केवल भारत (का वेदान्त) ही सार्थक योगदान दे सकता है। 

        हमारे समक्ष जो सौंपा हुआ लक्ष्य है वह है भारत का कल्याण। [जो कार्य हमें 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में "महामण्डल चपरास " के साथ सौंपा गया है, वह है भारत का कल्याण।] अगर हम उसके लिए काम करना चाहें तो हमें चीजों को स्पष्ट रूप से देखना होगा। हम सभी जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द का आविर्भाव पूरे विश्व विशेषकर भारतवर्ष के कल्याण के लिये हुआ था, क्योंकि वे जानते थे कि सिर्फ भारत ही विश्व- मानवता की प्रगति में अपना अर्थपूर्ण योगदान दे सकता है। स्वामीजी ने यह दृष्टि अपने आध्यात्मिक अनुभूति से पाई थी। स्वामीजी की यह आत्म-अभिव्यक्ति और अनुभूति उन्हीं पुरातन शास्त्रों में प्रतिष्ठित सत्य से प्राप्त हुई थी जिसे हम वेदान्त कहते हैं।    

        >>'Practical Vedanta' has to be applied for the purpose of life-building of individuals for the good of the whole society .

अतीत में हमारे देश में ऋषि-मुनियों के द्वारा वेदान्त का अध्यन विशेषतः जंगलों (अरण्यों) में किया जाता था। स्वामी विवेकानन्द ही प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने पुरातन शास्त्रों में प्रतिष्ठित इस महान सत्य को वनों से निकाल कर हाट-बाजार तक, समाज के आम लोगों और उनके घरों तक लाने का कार्य किया था। इसे ही 'Practical Vedanta' या 'व्यावहारिक वेदान्त ' कहते हैं। पूरे समाज का कल्याण करने के लिए, इसके आम जनों का जीवन गठन करने के उद्देश्य से उनके दैनन्दिन जीवन में- इसी 'व्यावहारिक वेदान्त' [4 -महा वाक्य] को प्रयोग में लाना होगा। स्वामी जी ने बड़ी गंभीरता से कहा था -" No nation is great or good because Parliament enacts this or that, but because its men are great and good. "  कोई भी राष्ट्र इसलिये महान और अच्छा नहीं होता कि वहाँ के पार्लियामेन्ट ने यह या वह बिल (Like RTI and Lokpal Bill etc) पास कर दिया है, वरन इसलिए होता है कि उसके निवासी महान और अच्छे होते हैं। " (भारत का ध्येय -४. २३४/India's Mission- Sunday Times, London, 1896) ] 

>> A man is good if he has a good character and  India's Mission is -'Make men first !' 

 किसी व्यक्ति को हम अच्छा मनुष्य तभी कहते हैं, जब उसका चरित्र अच्छा होता है।  इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " पहले मनुष्य निर्माण करो--Make men first ! " उन्होंने कहा था , " शिक्षा को  जीवनगठन , मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी विचारों (महकाक्यों) को आत्मसात करने की पद्धति अवश्य उपलब्ध करानी   चाहिए। "Education must provide 'life-building, man-making, character-making assimilation of ideas ." इसीलिये अगर हमें अपने देश , अपने जनसाधारण की भलाई और कल्याण के लिये कार्य करना है तो हमें अपना ध्यान व्यक्ति-चरित्र के निर्माण पर केन्द्रित करना होगा। अतएव,  'व्यक्ति-चरित्र का निर्माण' - करना ही हमारा प्रमुख कार्य होना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द को यह अनुभव भी हुआ था कि यदि हम सम्पूर्ण भारतवर्ष के कल्याण के इस कार्य को वृहत तौर पर करना चाहें , तो हमें संगठित होकर प्रयास करना होगा और इसके लिये संगठन की आवश्यकता होगी। तथा हमें इस  ' व्यक्ति-चरित्र निर्माण तथा आत्मविकास ' के कार्य को संगठित होकर और संगठन के माध्यम से ही  करना होगा। 

       >>We have never heard that any tiger became a saint. But in human history many sinners have become saints. Even gods aspire to be born as human beings. ]

अब हमलोग यह देखने का प्रयास करेंगे कि क्या चरित्र निर्माण  के लिए कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पद्धति हो सकती है ? कई लोगों का मानना है कि चरित्र तो जन्मजात रूप से व्यक्ति में निहित कोई चीज है। हमलोग प्रायः ऐसा कहते हैं कि जल की अपनी कुछ विशेषतायें हैं, अग्नि के कुछ अलग गुण (धर्म) हैं। बाघ एक क्रूर पशु है, किन्तु क्या हम ऐसा कुछ मनुष्य के बारे में भी कह सकते हैं ? स्वामी जी कहते हैं कि देवता भी मानव रूप में जन्म लेने के लिये लालायित रहते हैं। क्योंकि, देवताओं का (या पशुओं का ?) जीवन चाहे कितना ही महान, गौरवशाली और भव्य क्यों न हो, वे जैसे हैं वैसे ही बने रहते हैं। हमलोगों ने ऐसा कभी नहीं सुना कि एक  बाघ था जो बाद में संत  बना गया । लेकिन मानव इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण अभिलिखित हैं, जहां कोई पापी था जो बाद में संत बन गया।

  >>The character of a person is known through one's behavior :  

आइए, अब विचार करें कि किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में जाना कैसे जाता है? किसी  व्यक्ति के चरित्र की धारणा उसके आचरण ,व्यवहार एवं समाज के दूसरे लोगों के साथ उसके सम्बन्धों के देखकर बनाई जाती है। मानलो , मैं किसी से मिलता हूं और उसके चले जाने के बाद  मेरे मन में उस व्यक्ति के बारे में एक बहुत ही सुखद छवि रह जाती है। या इसके विपरीत, मैं किसी अन्य व्यक्ति के संपर्क में आता हूं और मुझे खेद का अनुभव होता है। ऐसा विचार आता है कि कितना अच्छा होता अगर मैं उस व्यक्ति से कभी मिला ही नहीं होता। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि, पहले व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरे व्यक्ति के व्यक्तित्व से भिन्न प्रकृति का है। एक का व्यक्तित्व मनोहर है (winsome,हर्षवर्धन करने वाला),जबकि दूसरे का  ऐसा नहीं है। 

   >>>Personalty means what we appear to be and Character is what we really are. 

       आइये, अब हम व्यक्तित्व और चरित्र के बीच के अन्तर को समझने का प्रयास करते हैं। कोई व्यक्ति दूसरों को ऊपर जैसा प्रभाव छोड़ जाता है, समग्रता में वही उसका व्यक्तित्व समझा जाता है। यहाँ तक ​​कि उस व्यक्ति की वाणी , शारीरिक बनावट, इत्यादि भी इस मामले में काफी महत्व रखते हैं। उसका पहनावा ,केश-विन्यास (hair cut) और उसकी दूसरी अन्य चीजें भी उसके व्यक्तित्व को गढ़ने में अपना योगदान देती हैं। जबकि चरित्र किसी व्यक्ति-विशेष के व्यक्तित्व का केवल एक अंग है। लेकिन यह बात हमलोगों को स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि व्यक्तित्व का यह अंग (चरित्र)  ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु है।

 >>I will be liked and loved, because of my behavior, because of the expression of my feelings.

  हो सकता है कि मेरी पोशाक पुरानी हो। यह भी हो सकता है कि मैं देखने में प्रभावशाली और आकर्षक न लगूँ, मेरी शिक्षा भी वैसी न हो, किन्तु यदि मेरे व्यवहार में चरित्र के कुछ उत्कृष्ट गुण (sterling qualities) हों तो अन्ततोगत्वा मेरे सुन्दर व्यवहार और मेरी भावनाओं की मनोहर अभिव्यक्ति के कारण मुझे ही अधिक पसन्द किया जायेगा और प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा जायेगा। हमलोग सत्य के बहुत निकट होंगे  जब हम कहें कि, " हमारे व्यक्तित्व का अर्थ है - जैसा हम दिखते हैं, जबकि चरित्र वह है, जो हम वास्तव में हैं ! " हो सकता है कि अपनी वाकपटुता और अन्य दूसरी चीजों से शायद हम दूसरों को आकर्षित कर लेते हों, लेकिन जब परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं रहती उस समय हम भिन्न प्रकार से (अपने व्यक्तित्व से अलग हटकर) व्यवहार या कार्य करने लगते हैं।  इसलिए, सबसे पहले हमें अपने चरित्र को सही ढंग से निर्मित करने पर अधिक ध्यान देना  चाहिए ताकि हमारे व्यक्तित्व का वास्तविक स्वरुप एक मजबूत नींव पर तैयार हो सके। चाणक्यनीति में कहा गया है -

दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटापटावृतः ।

तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किञ्चिन्न भाषते ॥ 

- लंबी शाल तथा खेस इत्यादि चमकीले वस्त्रों से सुसज्जित एक मूर्ख व्यक्ति दूर से सुशोभित होता है। लेकिन वह तब तक ही सुशोभित होता है (विद्वान सा प्रतीत होता है ) जब तक वह  कुछ कहता नहीं है। मुख खोलते ही उसकी मूर्खता जगजाहिर हो जाती है।  [A foolish person dressed nicely in a bright flowing robe  looks beautiful and impressive (like a scholar) from a distance only so long he does not speak even a little. (As soon as he speaks something his foolishness gets exposed]

     >>  The character of Sri Ramakrishna was wonderful, not a mere outward personality;  as he looks up, you are caught in the net of his love.  

     श्री रामकृष्णदेव के बारे में विचार करो। उनके पास तो बहुत से पढ़े-लिखे ज्ञानी लोग आया करते थे। उनके सामने वे किस तरह के व्यक्ति के रूप में दिखा करते होंगे ? गाँव से आया एक बिल्कुल साधारण निरक्षर देहाती , शिष्टाचार से अपरिचित जो हमेशा भदेस ग्रामीण भाषा का प्रयोग करता हो।  श्री रामकृष्णदेव के व्यक्तित्व में प्रथम-दृष्ट्या मन को आकर्षित करने योग्य तो कुछ भी नहीं था। किन्तु, पास जाकर कुछ बोलने के पहले, जैसे ही तुम उनके निकट आते हो, उनकी कृपाकटाक्ष तुम पर पड़ती है और तुम मोहित (fascinated, मन्त्रमुग्ध) हो जाते हो, तुम उनके प्रेम-जाल में फँस जाते हो ! ऐसा जादू कैसे हो जाता है ? क्योंकि श्रीरामकृष्ण का चरित्र ही अद्भुत था केवल बाहरी व्यक्तित्व नहीं।
     >>Sri Ramakrishna searched for Truth and discovered the TRUTH (Love, unselfishness-चरित्र के 24 गुण ) in himself !  
  उन्होंने इस प्रकार के अद्भुत चरित्र का निर्माण कैसे किया होगा ? उन्होंने भी 'सत्य ' की (एथेंस के सत्यार्थी की तरह परम् सत्य की) खोज की थी, और उस सत्य को - जो पवित्रता है, प्रेम है, करुणा है, सहानुभूति है, जो निःस्वार्थता है, त्याग है, जो सभी के लिए सेवा भावना है; उसे अपने अन्दर ही पाया था। ये सभी वास्तव में चरित्र के कुछ उत्कृष्ट गुण हैं जो यथार्थ मनुष्य के चरित्र में हो सकते हैं। यदि हम भी इन गुणों को किसी तरह अपने अन्दर विकसित कर सकें, तभी हम कह सकते हैं कि हमने एक मनोहर चरित्र का निर्माण कर लिया है। चरित्र है क्या चीज ? चरित्र हमारी आदतों या प्रवृत्तियों का समूह मात्र है। सत्य के प्रति अटूट प्रेम, करुणा, सहानुभूति, निःस्वार्थपरता,  निर्भयता, त्याग और सेवा भावना  - ये सभी चरित्र के उत्कृष्ट गुण हैं। तो क्या हम यह मान सकते हैं कि ये सभी गुण भी उन्हीं आदत से ही निर्मित होते होंगे जिससे हमारा चरित्र बनता है? हाँ, हमलोग देखेंगे कि ये सभी अच्छे गुण जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है , वे हमारी सत्ता में पहले से ही विद्यमान हैं। 
      >>Character building  education  is -"तत: क्षेत्रिकवत् ।" As a farmer removes the obstacles from the channel of flowing water in the field:
यदि उपरोक्त सारे गुण हमारी आत्मा में पहले से अन्तर्निहित हैं, तो फिर चरित्र निर्माण में आदतों की भूमिका क्या है ? अच्छी तरह से अवलोकन करने पर हम पायेंगे कि असत कार्य और अपने अविवेकपूर्ण निर्णयों के द्वारा हमने ही अपने मन पर कुछ ऐसे गलत छाप या संस्कार डाल दी हैं, जो हमारी सत्ता में निहित उन सुन्दर गुणों के प्रवाह को विकसित होने में रोड़े अटका रही हैं, या बाधा डाल रही हैं। स्वामी जी ने स्वयं कहा है, इसलिए हमें इस बात को अच्छी तरह से समझना होगा कि चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा एक निषेधात्मक प्रक्रिया (negative process) है, जिसमें हमें चित्त पर पड़े गहरे संस्कारों (अहं वृत्ति) को दूर करने के लिए कठिन परिश्रम करना होगा, ताकि अच्छे गुण स्वतः प्रकट होने लगें। जैसा पतंजलि योग सूत्र में कहा गया है - "तत: क्षेत्रिकवत् ।"  (कैवल्य पाद- ४.३) जिस प्रकार खेत में काम करने वाला किसान खेत पटाते समय पानी व खेत के बीच आने वाली मेड़ रूपी बाधाओं को रस्ते से हटाता है। वैसे हमें भी इन गुणों के स्वतः प्रकट होने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाना होगा।

       >>The first step to character formation is, brahmacharya (आत्मसंयम) to desist from bad thoughts, bad words, bad actions. 

अतएव असत कर्म,असत वचन और असत विचारों से विरत हो जाना- ही चरित्र निर्माण का प्रथम सोपान है। इसी आत्मसंयम को ब्रह्मचर्य कहते हैं। इसके वाद अच्छे कर्मों को बार-बार करते हुए अच्छी आदतों का निर्माण करना होगा । सद्कर्म क्या है, हम स्वाभाविक रूप से पूछेंगे। हम एक स्वर में कहेंगे कि नैतिक कार्य करना ही सद्कर्म है । लेकिन नैतिकता क्या है? स्वामी विवेकानन्द ने नैतिकता की बड़ी ही आसान परिभाषा दी है, जो देश या काल के अनुसार नहीं बदलता है। 

 >>Which is unselfish is moral, and that which is selfish is immoral.

      स्वामीजी कहते हैं, जो निःस्वार्थ कार्य है वह नैतिक है और जो भी कार्य स्वार्थपूर्ण है वह अनैतिक है। उन्होंने नैतिकता की यह परिभाषा कहाँ से प्राप्त की है? हम आसानी से देख सकते हैं कि यह वेदान्त द्वारा प्रतिस्थापित सत्य - (कोई पराया नहीं सभी अपने हैं) को स्वीकार करने का एक परिणाम है। जब तक मैं केवल  'मैं' और 'मेरा' के बारे में सोचता हूं, मैं स्वयं को सीमित कर लेता हूँ । और जब अपनी अन्तर्निहित पूर्णता को विस्तृत करते हुए मैं अपने पृथक अस्तित्व (मिथ्या अहं) को समष्टि अहं में खो देता हूँ या लीन कर देता हूँ,तभी मैं निःस्वार्थी हूँ और नैतिक हूं। इसका अर्थ यह हुआ है कि मैं सत्य की पूर्णता (निःस्वार्थपरता और प्रेम) को स्वीकार करता हूं। नैतिकता के इसी समझ की सहायता से अब हमलोग आसानी से उचित और अनुचित कर्म में अन्तर (श्रेय-प्रेय, बाबू और बगीचा में विवेक-प्रयोग) कर सकते हैं। 

>>Repetition of moral actions over and over again is the method of character building.

और इस प्रकार विवेक-प्रयोग करने के बाद जब हम केवल उचित कर्म ही करेंगे तथा उसे बार -बार दुहराते रहेंगे, तो केवल सद्कर्म करने की हमारी आदत पड़ जाएगी। और अच्छे कार्यों से उत्पन्न अच्छी आदतें जब पुरानी होकर जब अच्छी प्रवृत्तियों में परिणत हो जायेंगी; तो उन्हीं सद्प्रवृत्तियों का समाहार या संग्रह (collection or agglomeration) हमें एक सुन्दर चरित्र का अधिकारी बना देगा। इसलिए, नैतिक कार्यों की बार-बार पुनरावृत्ति ही चरित्र निर्माण की पद्धति है। स्वामी विवेकानंद ने हमलोगों को - 'शिव ज्ञान से जीव सेवा करने ' या मनुष्य को ईश्वर समझकर सेवा करने के लिए कहा था ।

 >> Renunciation and service to others -this is the way to formation of one's character.

श्रीरामकृष्ण देव दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में स्थापित माँ भवतारिणी की मूर्ति की पूजा किया करते थे। लेकिन उन्होंने स्वयं से पूछा , क्या मैं केवल एक मूर्ति में ईश्वर की पूजा कर सकता हूँ ? उन्हें उत्तर मिला , यदि तुम एक पत्थर की मूर्ति में ईश्वर की पूजा कर सकते हो , तो रक्त -मांस के बने जीवन्त मनुष्यों में ईश्वर की पूजा क्यों नहीं कर सकते ? उन्होंने स्वयं से  प्रश्न किया कि ' क्या केवल बंद-आंखों से ही ध्यान होना संभव है? उन्हें उत्तर प्राप्त हुआ था कि, नहीं तुम खुली आँखों से भी ध्यान कर सकते हो !  इसलिए, श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द (अपने गुरुदेव से सीखकर) दोनों ने  इस महान सत्य की शिक्षा दी है कि " मानव-सेवा ही ईश्वर की वास्तविक पूजा है" ना कि आत्म-सुख का लालच या घोर स्वार्थपरता। 'त्याग और दूसरों की सेवा ' - यही चरित्र निर्माण का मार्ग है। स्वामी जी के शब्दों में, 'अपने चरित्र -कमल को पूर्णरूपेण खिला लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। ' और हमें वैसा ही करने का प्रयास करना चाहिए। 

          >>Discrimination between good and bad action is a function of mind, so training of mind is primary work for  character building. 

         व्यावहारिक तौर पर हम देखते हैं कि हमारे कर्मों से ही हमारे चरित्र का निर्माण होता है। यदि हमारे कर्मों के ऊपर विवेक-विचार का नियंत्रण हो तब हमारे द्वारा अच्छे कर्म होते हैं, जो अच्छे चरित्र के निर्माण में सहायक बन जाते हैं। उचित और अनुचित कर्म के बीच विवेक-विचार करना हमारे मन का कार्य है। अत: अपने मन पर नियंत्रण रखने के लिए , उसको एकाग्र करने या मनःसंयोग का अभ्यास ही चरित्र निर्माण का प्राथमिक कार्य है। क्योकि किसी भी कार्य को करने का संकल्प हम मन में ही लेते हैं और सद -असद कर्मों के बीच अन्तर भी मन की सहायता से ही करते हैं। इसलिए मन के ऊपर नियंत्रण और विवेक -प्रयोग की सहायता से अच्छे कर्मों को लगातार दोहराते हुए हम अच्छी आदतें, अच्छी प्रवृत्तियों का निर्माण कर सकते हैं।  और अच्छी प्रवृत्तियों का  समुदाय ही अच्छा चरित्र है, अतएव हम कह सकते हैं चरित्रवान मनुष्य बन जाना ही हम सभी की उदात्त नियति है। 

    >>You are the maker of your own destiny- for everything depends on manliness ! 

इसलिए, स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि 'तुम स्वयं  अपने भाग्य के निर्माता हो। 'हमारा भविष्य किसी अज्ञात जगह से नियंत्रित होने वाले किसी भाग्य नामक असाधारण वस्तु पर निर्भर नहीं करता; यह हमारे पौरुष तथा आत्मविश्वास पर निर्भर करता है। इसलिए स्वामी जी ने कहा था - " जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है , उतना ही अधिक मुझे लगता है कि 'पौरुष' में ही सभी बातें शामिल हैं। यह मेरा नया सुसमाचार है। " ( सूक्तियाँ एवं सुभाषित : ८.१३१ ) ["The older I grow, the more everything seems to me to lie in manliness. This is my new gospel." (Sayings and Utterances-8.16)]   उन्होंने प्रत्येक युवा को अपने- आप पर विश्वास करने, अपने पौरुष पर और अपने प्रयत्न क्षमता पर विश्वास रखने का सन्देश दिया था। स्वामीजी सभी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते है - अपनी अन्तर्निहित संभावनाओं को प्रकट करो , अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करो और उस भाग्य के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र को उन्नततर, महानतम गौरवशाली भविष्य की ओर ले चलो ! 

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" मेरी आशा, मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा। वे सिंहविक्रम से देश की यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्या का समाधान करेंगे। आत्मविश्वास रखो।  तुम्हीं लोग तो पूर्वकाल में वैदिक ऋषि थे। अब केवल शरीर बदल कर आये हो। मैं दिव्य चक्षु से देख रहा हूँ , तुम लोगों में अनन्त शक्ति है। उस शक्ति को जगा दे ; उठ उठ, काम में लग जा , कमर कस। क्या होगा दो दिन का धन-मान लेकर ? मेरा भाव जानता है? - मैं मुक्ति आदि नहीं चाहता हूँ। मेरा काम है तुम लोगों में इन्हीं भावों को जगा देना। एक मनुष्य का निर्माण करने में लाख जन्म लेने पड़े तो मैं उसके लिए भी तैयार हूँ। " -स्वामी विवेकानन्द

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 [एक नया युवा आंदोलन]

9.

हमारी सीमा 

[Our Limitation]

         >>Man is limited only outwardly; But when he knows this and tries to outgrow to his unlimited stature becomes great !  

     हम अपनी सीमाओं को जानते हैं , किन्तु इससे हमारे उत्साह में कोई कमी नहीं होगी। बल्कि ये सीमायें ही हमें इनके अतिक्रमण का उपाय ढूँढ़ने में सहायता करती हैं। मनुष्य केवल वाह्य रूप से सीमाबद्ध है। किन्तु जब वह यह जान लेता है कि वह वृहत है (जिससे सब निकला है, जिसमें सब स्थित है, और जिसमें सब लीन हो जाता है !), तब वह अपने असीम स्वरूप को विकसित करने में लग जाता है।
        कोई कार्य केवल इसलिये महान नहीं हो जाता कि उसका बड़ी धूमधाम से प्रचार हुआ है। हमारी बातों पर बहुत कम लोग ही ध्यान देंगे। किन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं जो विगत पचास वर्षों से यह सब सुनते आ रहे हैं। इसीलिये हमें अपने ऊपर पूरा भरोसा है। यदि किसी जुलुस में थोड़े से विदेशी स्त्री-पुरुषों को शामिल कर लिया जाय तो उस खबर को एक फोटो के साथ अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर जगह मिलती है, किन्तु जब हजारों युवा ' हम मनुष्य बनेंगे' का नारा लगाते हुए शहर के राजमार्ग पर शोभा-यात्रा निकालते हैं तो इस पर किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता ? 
क्योंकि जो संकीर्ण दृष्टिकोण, स्वार्थी उद्देश्य रखने वाले लोग हैं, जिनमें मनुष्य में अन्तर्निहित महान सम्भावनाओं और उच्च मूल्यों की कोई जानकारी नहीं वैसे दुनियावी लोग तो ऐसा ही करते हैं। अतः ऐसी बातों में समय नष्ट न कर बल्कि कृत संकल्पित होकर हमें अपना कार्य करते रहना चाहिए।
       हमारे देश के लोगों की दशा और उनकी समस्याओं के विषय में आम जनता अच्छी तरह से अवगत है। इनसे निपटने के लिए सरकारी मशीनरी (ED, CBI आदि), लोकतंत्र और कई मत व सिद्धांत हैं। तथा इनका परिणाम भी लोगों को ज्ञात हैं। वस्तुस्थिति पर गंभीरता से विचार करने पर यह अनुभव होता है कि एक ऐसा कार्य पीछे छूट गया है , जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है , जो किसी अन्य संस्था के कार्यसूची में शामिल नहीं है। उस पीछे छूटे हुए कार्य को पूरा करने का बीड़ा महामण्डल ने स्वयं आगे बढ़कर उठा लिया है। वह कार्य है , स्वयं को 'मनुष्य ' बनाने का प्रयास। क्योंकि देशवासियों के दुःख -कष्टों को दूर कर उन्हें खुशहाल बनाने , एक महान राष्ट्र  जिस पर हमें गर्व हो - का निर्माण करने के लिए बनाने वाली सभी परियोजनायें केवल इसी एक कमी के कारण अंततोगत्वा असफल हो जाती हैं।
        अतः यह कार्य हमसे किसी तत्क्षण वाहवाही या पुरस्कार की अपेक्षा किये बिना दूरदृष्टि और दृढ़ संकल्प के साथ निरन्तर कठिन परिश्रमशील होने और किसी तरह के बलिदान देने के लिए सदैव तत्पर रहने की अपेक्षा करता है। सामान्य लोगों की राय की परवाह किए बिना दीर्घ काल तक इसी कार्य में लगे रहना ही नैतिकता की दृष्टि से सबसे उत्कृष्ट कार्य है। इसीलिए यह स्वाभाविक है कि इस प्रकार के विचारों को प्रश्रय देने वालों की संख्या हमेशा कम ही रहेगी। 
         >>Open-Eyed meditation- the meditation of man. worship of man, the manifested God ! The Mhamandal wants to treat the core of man and not his outer shells.
        अत्यन्त बारीकी से से देखने पर यह कार्य भौतिक से अधिक आध्यात्मिक लगेगा , क्योंकि यह मनुष्य के अन्तःस्थल या मूल का उपचार करना चाहता है , न कि उसके बाहरी आवरणों का। जैसे ही इस कार्य के आध्यात्मिक पहलु से लोगों का परिचय होगा, तब कई लोग तो इस कार्य से  पलायन कर जायेंगे, और अन्य सामान्य लोग इसके उन आध्यात्मि पहलुओं को समझना चाहेंगे जो उनके व्यक्तिगत उन्नति के लिए उपयुक्त हो सकते हैं। क्योंकि महामण्डल कोई साधारण धार्मिक संगठन नहीं है।  यह अपने सदस्यों को मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर में जाने के लिए बाध्य नहीं करता। किन्तु यह कहीं से अधार्मिक संगठन भी नहीं है। यह संगठन स्वामी विवेकानंद के शब्दों में अपने युवा मित्रों से  कहता है - " धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है , व्यर्थ के मतवादों से नहीं। भला बनना तथा भलाई करना - इसमें ही समग्र धर्म निहित है।  ['The secret of religion lies not in theories but in practice. To be good and do good -that is the whole of religion! धर्म का मूल उद्देश्य है - मनुष्य को सुखी करना। किन्तु परजन्म में सुखी होने के लिए इस जन्म में दुःख-भोग करना कोई बुद्धिमानी काम नहीं है। इस जन्म में ही, इसी मुहूर्त में सुखी होना होगा। जिस धर्म के द्वारा यह सम्पन्न होगा , वही मनुष्य के लिए उपयुक्त धर्म है।  इसीलिये महामंडल साधारण तौर पर प्रचलित धार्मिक परिपाटी की जगह वेदान्त प्रतिपादित सिद्धांतों को महत्व देता है। और  'एक शब्द में, वेदान्त का आदर्श है - मनुष्य के सच्चे स्वरूप को जानना।' ['In one word, the ideal of Vedanta is to know man as he really is'] किन्तु,  इसके लिये महामण्डल में ध्यान नहीं सिखाया जाता है, यहाँ केवल 'मनःसंयोग ' का अभ्यास करना सिखाया जाता है। महामण्डल यदि किसी प्रकार के ध्यान का निर्देश देता भी है, तो वह है-" खुली आँखों से किया जाने वाला ध्यान- और वह है 'मनुष्य ' का ध्यान ! " क्योकि वेदान्त का यही सन्देश है कि " यदि तुम व्यक्त ईश्वररूप अपने भाई (स्वामी विवेकानन्द, नवनीदा) की उपासना नहीं कर सकते , तो तुम उस ईश्वर की कैसे उपासना करोगे जो अव्यक्त है ? " (८/३४)  अतएव , महामण्डल प्रसन्नता पूर्वक इस तरह की सीमाओं को स्वीकार करता है क्योंकि यह संगठन युवाओं का संगठन है और युवा लोग अक्सर प्रचलित धार्मिक रीति-रिवाज में रूचि नहीं भी रख सकते हैं। लेकिन सभी युवा एक वैसा प्रबुद्ध नागरिक बनने में अवश्य रूचि रख सकते हैं जो अपने सम्पूर्ण जीवन मातृभूमि और अपने देशवासियों के कल्याण के लिये समर्पित भी कर दे। दूसरों के कल्याण में अपने जीवन को न्योछावर कर देने की भावना एक उच्चतर आध्यात्मिकता है।
         >>What does a seeker of Truth find when he discover what a man really is ?' 
     खुली आँखों से देशवासियों का ध्यान और सेवा में निष्ठापूर्वक, अपने प्राणों की परवाह किये बिना लगे रहने से जब वे पूर्ण मनुष्यत्व (fuller manhood) का साक्षात्कार करता है, तब वह क्या देखता है ?   (अर्थात जब कोई व्यक्ति जगतगुरु, अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव के सच्चे स्वरुप को जान लेता है, तब वह क्या देखता है?) 'यही कि  ' Man is an infinite circle whose circumference is nowhere but the center is located in one spot.' --" वास्तव में मनुष्य एक अनन्त वृत्त है जिसकी परिधि कहीं नहीं है, किन्तु केन्द्र एक स्थान पर स्थित है।" केन्द्र वह स्वयं है, लेकिन परिधि उसके चारों ओर फैली हुई है। मनुष्य इसी प्रकार विकसित होता है, अपने प्रभामण्डल (sphere) को फैलाता जाता है,और बृहत होता हुआ एक वास्तविक मनुष्य (ब्रह्म) बन जाता है। ['ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति' That is how he grows , widens his sphere, and becomes big and becomes a true man.] यथार्थ मनुष्य बनने का कार्य वास्तव में ब्रह्मत्व तक पहुँचने की एक यात्रा है ! किन्तु ऐसा ब्रह्मत्व , स्वार्थ, ईर्ष्या, लालच, अनुशासनहीनता, अहंकार आदि पाशविक संस्कारों में लिप्त रहते हुए साक्षात् (direct) प्राप्त नहीं किया जा सकता ! जिस 'पौरुष' से (विवेकदर्शन के अभ्यास से) इन्हें वशीभूत किया जाता है, उसे प्राप्त करना ही हमारा प्रथम सोपान है। अभी हमने केवल प्रथम सोपान पर कदम रखा है, और यही हमारे लिये सीमा हो सकती है। 
        देश की वर्तमान परिस्थितियों को बदलने के लिए- सरकार,लोकतन्त्र के स्वरूप को, या मौजूदा संविधान को बदलना आवश्यक हो सकता है। किन्तु इस कार्य को करने का बीड़ा केवल पूर्ण रूप से पवित्र और निःस्वार्थी  लोग ही  उठा सकते हैं। पर वैसे मनुष्य हैं कहाँ, और वैसे मनुष्य हमें प्राप्त कहाँ से होंगे ? जो लोग लोकतांत्रिक और क्रान्तिकारी बदलाव लाने की बात करते हैं [जे.पी ,अन्नाहजारे, केजरी आदि], उन सभी ने इस मूलभूत कार्य को ही छोड़ रखा है। और महामण्डल इसी छूटे हुए कार्य को पूरा करने प्रयास कर रहा है, और जब तक यह कार्य बहुत हद तक सम्पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक वह भी इन परिस्थितियों को बदल पाने में सक्षम नहीं हो सकता। इस सीमा को महामण्डल  विनम्रतापूर्वक स्वीकार भी करता है।  इसलिए महामण्डल का राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं है, क्योंकि -politics always puts the cart before the horse.' अर्थात राजनीति हमेशा गाड़ी को घोड़े के आगे रखती है।
         महामण्डल के पास न तो ज्यादा धन-बल है, और न ही अधिक जन-बल है। किन्तु  इन बातों को लेकर वह तब तक चिन्तित भी नहीं है, जब तक उसके समक्ष एक बिल्कुल स्पष्ट -आदर्श, उद्देश्य और उपाय है ! जब तक उसके पास थोड़ी संख्या में ही सही, लेकिन कुछ ऐसे युवा हैं जिन्होंने यह जान लिया है कि भारत के वास्तविक कल्याण के लिए सर्वप्रथम क्या करना आवश्यक है। क्योंकि विगत 55 वर्षों में हमने देखा है कि देश भर में सर्वत्र निष्ठावान , मेहनती ,देशभक्त , निःस्वार्थी , विनम्र , त्यागी , उत्साही और साहसी युवकों की  एक ऐसी  बड़ी संख्या मौजूद है, जो इस महान राष्ट्र को पुनरुज्जीवित करने में अपने जीवन को समर्पित करने के लिये उत्सुक हैं ।
          लेकिन महामण्डल उन चुनिन्दा (जीवनदानी)  लोगों का संगठन भी नहीं है जो केवल संगठन के कार्यों को ऑंखें मूँदकर निबटाने के आलावा और किसी पारिवारिक दायित्व का ध्यान नहीं रखते।  वरन यह संगठन उन समस्त युवाओं के लिये है, जो अपने देश एवं देशवासियों और   स्वयं से भी प्यार करते हैं, तथा एक गौरवशाली और महिमान्वित राष्ट्रीय जीवन के निर्माण में अपना भरपूर योगदान देने के साथ-साथ स्वयं भी एक उदात्त और कर्मठ जीवन जीने के इच्छुक हैं। यह संगठन जो युवा अभी 'जहाँ हैं, और जैसे है' - उन सभी युवाओं के लिये है। उन्हें न तो अपना घर छोड़ना है, न पढाई छोड़नी है, और न ही रोजगार - व्यवसाय छोड़ना है, अपितु उन्हें अपना अध्यन आदि समस्त कार्यों को करते हुए केवल अपना चरित्र सुन्दर ढंग से गठित करना है। और अपनी अतिरिक्त ऊर्जा ,समय और यदि सम्भव हो सके तो कुछ धन देना होता है। 
     महामंडल जीवन की पूर्णता प्राप्त करने के समस्त सम्भव उपायों का प्रचार नहीं करता, बल्कि साधन के रूप में केवल कर्म करते रहने का प्रचार करता है। इसलिए यह संगठन  उपरोक्त स्वभाव वाले अधिकांश युवा - जो जाति , धर्म या सम्प्रदाय के आधार पर कोई भेद नहीं रखते, के लिए उपयुक्त है। यदि यह हमारे लिए एक सीमा भी हो तो भी इसके लिये हमें कोई शिकायत या असंतोष नहीं है। इस कार्य में अपना सर्वश्रेष्ठ समर्पित कर देने की क्षमता व्यक्तिगत आध्यात्मिक-उपलब्धि पर निर्भर करती है। यह कार्य देश और इसके लाखों-करोड़ों देशवासियों के कल्याण का कार्य है। और इस उद्देश्य से कार्य करने की क्षमता केवल वैसे ही कार्यों से अर्जित की जा सकती है जो बिना किसी निजी स्वार्थ की इच्छा से किया जाता है। समाज सेवा का कार्य भी इसी तरह का एक कार्य है। इसीलिये महामण्डल समाज सेवा को साध्य के रूप में नहीं बल्कि साधन के रूप में लेने का पक्षधर है। अब यह युवाओं ही तय करना है कि क्या वे इस महान उद्देश्य को पूरा करने के लिये आगे आयेंगे या केवल निजी स्वार्थों की पूर्ति करते रहने में ही अपना जीवन बिता देंगे ? जिसके फलस्वरूप अन्ततोगत्वा उनका व्यक्तिगत रूपसे अमानवीकरण तो होगा ही राष्ट्र भी रसातल में जाने के लिए बाध्य हो जायेगा । 
          उपर गिनाये गए और संभवतः उससे भी अधिक सीमाओं के होते हुए भी, अपनी भलाई और देश की भलाई के लिए  युवा शक्ति को रचनात्मक कार्यों के लिये प्रेरित करने में महामण्डल के सफल होने की असीम सम्भावनायें  हैं।  
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[अर्थात' श्रीरामकृष्ण जैसा मनुष्य का ध्यान, जो सभी मनुष्यों   में 'ताजमहल ' जैसा है उसका ध्यान ' क्योंकि " श्रद्धा से भक्ति मिले , भक्ति से भगवान " , श्रीरामकृष्ण हैं भक्ति ,भक्ति है विश्वास ! ८/ २९ क्योंकि `स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा-Be and Make',  में दी जाने वाली ज्ञानदान रूपी निःस्वार्थ समाज सेवा, प्रशिक्षित नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) बनने और बनाने का अद्भुत साधन है !
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मंगलवार, 2 अगस्त 2016

卐🙏卐🙏 7. " सम्पूर्ण विकास की ओर " 卐🙏 `मानवजीवन की सार्थकता का सूत्र : मेरा और दूसरों के शरीर और मन अलग नहीं हैं !'卐🙏 [ एक नया युवा आंदोलन-7' For Total Development ']

7.

सम्पूर्ण विकास की ओर 

   >>A man means a body, a mind, and his soul. Take care of three H's. 
       यदि हम मनुष्यों का निर्माण करना चाहते हों, या स्वयं 'मनुष्य' बनना चाहते हों, तो हमें यह अवश्य समझना होगा कि 'मनुष्य' कहते किसे हैं ? 'मनुष्य' का अर्थ है शरीर , मन और उसकी आत्मा। स्वामी विवेकानन्द इसी बात को आसानी से समझाने के लिए एक सूत्र देते हुए कहते हैं - मनुष्य तीन 'H' से बना हुआ है-Man is three H's ! उन्होंने कहा कि शरीर, मन और आत्मा 
इन तीनों के सम्मिलित आकृति को मनुष्य कहते हैं। इसलिये यदि हम मनुष्यों का निर्माण करना चाहते हों, और स्वयं मनुष्य बनना चाहते हों, तो हमें मनुष्य के तीनों अवयवों का सुसमन्वित विकास करना होगा।  इनमें से हाथ 'Hand' हमारे शरीर (बाहुबल) का प्रतिनिधित्व करता है , सिर 'Head' हमारे मन (बुद्धिबल) का प्रतिनिधित्व करता है , और ह्रदय 'Heart' के माध्यम से हमारी आत्मा की सहानुभूति -शक्ति और प्रेम की अभिव्यक्त होती है। 
>>If we understand a man as  trinity of three H's, body, mind and the soul, then only we can think of a goal for our life.
       उन्नत मनुष्य बनने के लिए हमें इन तीनों  को उन्नत करना होगा। हमें नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के माध्यम से अपने शरीर को स्वस्थ और बलशाली बनाना होगा।  मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा हम अपने मन को नियंत्रण में रखने का प्रयास कर सकते हैं, ताकि उसे उचित ढंग से विकसित किया जा सके। स्वामी विवेकानन्द के द्वारा दिये गये आदर्शों का अध्यन और परिचर्चा के माध्यम से हम अपने हृदय की सहानुभूति- शक्ति (प्रेम) को जागृत करने का प्रयास कर सकते हैं, जो कि ह्रदय का कार्य है। हमलोग अपने जीवन के लक्ष्य के विषय में तभी विचार कर सकते हैं, जब हम मनुष्य को " Hand, Head and Heart " अथवा `शरीर, मन एवं आत्मा ' रूपी त्रिमूर्ति समझ सकें।
       >>Our body and mind are nothing but a little expression of our real essence which is the Soul, and religion/education is the manifestation of the divinity/perfection already in man .
यदि हमलोग यह सोचें कि हम तो केवल शरीर मात्र हैं, तो हमारी स्वाभाविक वृत्ति यही होगी कि इसका भरण-पोषण किया जाय, इसे मौज-मस्ती मिले, इससे केवल आमोद-प्रमोद किया जाय, या लुत्फ़ उठाया जाय; और मात्र इतना ही से सब कुछ समाप्त हो जायेगा। अगर हमलोग स्वयं को केवल 'शरीर एवं मन ' सोंचे, तो उस स्थिति में भी हमलोग अपनी इन्द्रियों का तुष्टिकरण करने एवं विभिन्न प्रकार के लालचों  और कामनाओं को पूर्ण करने में संलिप्त हो जायेंगे, या अगर बहुत हुआ तो थोड़ी बौद्धिक कसरत भी कर लेंगे, और बस यहीं पर सब कुछ खत्म हो जायेगा। किन्तु यदि हम यह जान लें कि, प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है - अर्थात हमारा सच्चा स्वरूप तो अजर-अमर-अविनाशी आत्मा है, और यह नश्वर शरीर और मन तो केवल उसकी ही एक अभिव्यक्ति है, तब उस अवस्था में हमारे जीवन का लक्ष्य बिल्कुल अलग प्रकार का होगा। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - 'प्रत्येक मनुष्य पहले से विद्यमान ईश्वरत्व (दिव्यत्व-पूर्णता-निःस्वार्थपरता ) को अभिव्यक्त करना ही धर्म/शिक्षा है। ' हमें उस ईश्वरत्व को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करना चाहिये, और वही हमें अपने जीवन का एक सच्चा और सही लक्ष्य प्रदान करता है।
      >>Mine and the other bodies or minds are not different , but different expressions of the Same Essence -The Soul !
    यदि हमलोग यह जान लें कि हमारे भीतर एक आत्मा, या ब्रह्म निवास करते हैं, तब हम स्पष्ट रूप से देख पायेंगे कि वे सिर्फ मेरे हृदय में ही नहीं बैठे हैं। वे प्रत्येक व्यक्ति में हैं, हर वस्तु में हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। तथा इसके परे भी हैं ; वे इस व्यक्त या दृष्टिगोचर जगत से परे भी हैं। केवल ऐसा विश्वास ही जगत को एकता के सूत्र में बाँध सकता है। यह ज्ञानमयी दृष्टि ही हमें जगत को ब्रह्ममय देखने की बुद्धिमत्ता प्रदान करती है, और केवल यह ज्ञान ही प्रत्येक व्यक्ति को परस्पर जोड़ सकती है। यह दिखलाता है कि मेरा और दूसरों के शरीर और मन अलग नहीं हैं , बल्कि एक ही मूलवस्तु (ब्रह्म-आत्मा) की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।  यह समझ ही हमें प्रत्येक व्यक्ति से प्रेम करने और किसी भी व्यक्ति से घृणा नहीं करने का साहस और उत्साह प्रदान करती है। यही हमें दूसरों के प्रति सहानुभूति रखने की क्षमता प्रदान करती है। यही (हृदयवत्ता) हमें दूसरों के कल्याण के लिये अपना सुख, अपनी ख़ुशी, अपना सब कुछ न्योछावर कर देने के लिये अनुप्रेरित करती है। 
   >> "Mine and the other bodies or minds are not different" - This Understanding gives us the spirit (भावना) and the courage (साहस) to love everybody and not to hate anybody. 
       यही समझ दूसरों के सुख-दुःख को भी अपने ही जैसा समझने की क्षमता प्रदान करती है। दूसरों के प्रति इसी  सहानुभूति के बल पर, इसी ज्ञान के साथ हमलोग दूसरों के दुःख-कष्टों को दूर हटाने का प्रयास करना चाहिये।  इसी बात को स्वामीजी संक्षेप में इस प्रकार कहते हैं कि "त्याग और सेवा " ही भारत के जुड़वा राष्ट्रीय आदर्श हैं। वे आगे इसमें जोड़ते हैं कि, आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये, शेष सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। उनके ये विचार ही हमारे समक्ष जीवन का एक 'आदर्श और लक्ष्य ' प्रस्थापित कर देते हैं। यह विचार हमें अपने जीवन के लिये एक दर्शन देते हैं। उनके ऐसे विचार ही हमें अपने जीवन को सही ढंग से निर्मित करने के लिये प्रेरित करते हैं। 
       >>"Mine and the other bodies or minds are not different" - This Understanding This gives us a philosophy for our life.
     इसीलिये, हमलोगों को इसी जीवन-दृष्टि या जीवन-दर्शन के आलोक में अपने जीवन को सही ढंग से गठित करने का संकल्प लेना चाहिये। यदि हमलोग अन्य लोगों से अलग नहीं हैं, तो उन्हें जब दुःख होता हो, वे रोते और विलाप करते हों, तब उनके दुःख-कष्टों को दूर करने के लिये हमें अवश्य आगे आना चाहिये, और इसकी खातिर हमें किसी भी तरह के त्याग या कष्ट को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
>>Beautiful verse uttered by Sri Krishna in Bhagvata, gives us the purpose of this life, the goal of this life, the meaning of this life, the fulfilment of this human life:  
 श्रीमद्भागवत में एक बहुत सुन्दर उपदेश-वाक्य है, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है। यह श्लोक हमें मनुष्य जीवन का लक्ष्य, इसका सही उद्देश्य, इस जीवन का सही अर्थ प्रदान करता है, और इस जीवन सार्थक बनाने का उपाय भी प्रदान करता है।

एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु । 
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयं आचरणं सदा ॥ 
---यही 'साफल्य ' है , मानवजीवन की सार्थकता , या उद्देश्य यही है। वह क्या है ? वह सार्थकता कैसे प्राप्त होती है ? ' श्रेयं आचरणं सदा'। सदैव श्रेय कार्य करो।  किस तरह से ? तो - 'प्राणैः अर्थैः धिया वाचा' ! अपने शब्दों के माध्यम से, अपनी धी या बुद्धि से, या अपने मन के द्वारा, और यदि आवश्यक हो तो अपने जीवन का बलिदान या अर्थ का त्याग करके भी केवल सद्कर्म ही करना चाहिये। यदि तुम्हारे पास धन है, तो अपने धन का व्यवहार करके, अपनी बुद्धि का, अपनी वाणी का,यदि जरुरी हो तो अपने सम्पूर्ण जीवन के द्वारा भी दूसरों का कल्याण करो। यही मानव जीवन की सार्थकता है।  
    स्वामी जी भी हमें ठीक ऐसी ही सलाह देते हैं । वे कहते हैं- "यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। बाकि लोगों का जीना तो मुर्दों की तरह जीने जैसा है। "  इन्हीं विचारों के आलोक में हमें जीवन को सही ढंग से निर्मित करने का दृढ़ संकल्प लेना चाहिये। 
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'मनुष्य जीवन की सार्थकता : त्याग और सेवा  पर निर्भर है ! क्योंकि -" This life is short, the vanities of the world are transient, they alone live who live for others; the rest are more dead than alive. So with these ideas we should resolve to build ourselves properly."
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सोमवार, 1 अगस्त 2016

卐卐 6. "Be and Make" - बनो और बनाओ का निहितार्थ " [एक नया युवा आंदोलन- 6 .The implication of ' Be and Make' ] 卐 हिन्दुधर्म एक में लगे दो विपरीतगामी चक्रों (वैष्णव और जैन धर्म) से निर्मित धुरी जैसा है 卐 भारत में आध्यात्मिक व्यक्तिवाद पर ही सामाजिक साम्यवाद स्थापित है 卐]


 "बनो और बनाओ - का निहितार्थ "

 [卐`युगपत अन्तरवृद्धि का सूत्र - Be and Make !' 卐]  

         >>Our greatest victory is to conquer ourselves : 
चाहे हम वाह्य प्रकृति को गहराई से जानने की चेष्टा करें अथवा स्वयं को - दोनों ही स्थिति में हमें उसी असीम अनन्त का आह्वान सुनाई देता है। वाह्यजगत और अन्तर्जगत दोनों असीम अनन्त है। इसीलिये हम उस प्रत्येक बाधा को तोड़ देना चाहते हैं जो हमें सीमाबद्ध करना चाहती है। जैसे-जैसे हम बड़े होने लगते हैं, क्रमशः हमें ऐसा अनुभव होने लगता है कि स्वयं को (समाज के सुख-दुःख  से काटकर ) अलग-थलग रखना ही पाप है और स्वयं को प्रसारित करने के प्रयास में हम स्वयं को अपने सगे सम्बन्धियों में (अपने और अपने ससुराल के --सगे सम्बन्धियों में) विलीन कर देना चाहते हैं। और इस प्रयास में हमें 'पता चलता है' - कि हमारी सबसे बड़ी विजय तो स्वयं को (व्यष्टि अहं को) जीत लेने में है, जिसके फलस्वरूप हम कामिनी-कांचन में आसक्ति या अपने परिवेश के आकर्षण के गुलाम न बनकर स्वयं के (मन या अन्तःप्रकृति के) स्वामी बन जाते हैं !   
       >>Freedom -(sympathy or love for others) is our nature, our kinship goads us to see them all free. Here individual effort transformed into social effort, conveyed in short - BE AND MAKE.
      समाज की वर्तमान संकटपूर्ण अवस्था का मूल कारण यही है कि हमने स्वयं के ऊपर अपनी महानता (ब्रह्मत्व) पर, अन्तर्निहित अनन्त शक्ति एवं साधुता (पवित्रता) की शक्ति पर विश्वास खो दिया है। इस खोये हुए आत्मविश्वास और श्रद्धा को सशक्त (fortify-सुदृढ़ ) कर ही हम इस विकट समस्या पर विजय प्राप्त कर सकते हैं; और ठीक यहीं पर व्यक्तिगत प्रयास करने की आवश्यकता होती है। मुक्ति ही हमारा स्वभाव है, अर्थात दूसरों के प्रति सहानुभूति या प्रेम ही हमारा स्वभाव है, इसीलिये हम (प्रेमवश) अपने सभी सगे -सम्बन्धियों को भी मुक्त देखने की इच्छा करते हैं। निकट के सगे -सम्बधियों में अपनापन की भावना रहने के कारण, दूसरों के प्रति हमारा स्वाभाविक प्रेम - उन सबों को (सभी प्रकार के दुःख -कष्टों से) मुक्त देखना चाहता है। यहीं पर व्यक्तिगत प्रयास एक सामाजिक प्रयास में रूपान्तरित हो जाता है। इसी युगपत प्रयत्न (simultaneous effort ) की आवश्यकता को स्वामी विवेकानन्द ने अपने संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित वाणी (या महावाक्य)- 'Be and Make' के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।
       >> Statue of Equality -' In India we have social communism, that is spiritual individualism with the light of Advaita (non-dualism)
 उनके इसी विचार के साथ थोड़ा और आगे बढ़ने पर हम पाते हैं कि वे इसी बात की ओर इशारा करते हैं - " In India we have social communism, with the light of Advaita -- that is, spiritual individualism." (-Sayings and Utterances, Volume 8)]  अर्थात भारत में अद्वैत वेदान्त की भावना से अनुप्रेरित सामाजिक साम्यवाद (Social communism ) आध्यात्मिक व्यक्तिवाद  (spiritual individualism-प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है की भित्ति ) की भित्ति पर स्थापित है।  इसीलिये  स्वामी विवेकानन्द ने इस आध्यात्मिक संक्रान्ति 'बनो और बनाओ '  की शुरुआत करने के लिये, भारत की आम जनता, जो झोपड़ियों में निवास करती है के बीच, भारत की प्राचीन 'विद्या एवं संस्कृति' का प्रचार-प्रसार  सामाजिक प्रयास के रूप में करने का सुझाव  दिया था।  क्योंकि वे यह जानते थे कि जन साधारण से परे हमारे सामूहिक अस्तित्व (राष्ट्रीय अस्तित्व) का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।
     >>As the masses awaken-and if they have acquired the required culture meanwhile,  they will engulf everything like surging flood .
      उन्होंने पूरे विश्वास के साथ भविष्यवाणी करते हुए कहा था - " भारतवर्ष की आम जनता प्राचीन भारतीय विद्या और संस्कृति को प्राप्त करके ज्यों-ज्यों जागृत होती जायेगी, और उन्हें एक दिन अवश्य जागना होगा, इस दौरान वह यदि अपेक्षित शिक्षा और संस्कृति भी अर्जित कर लेती है, तो उस नवजागरण रूपी बाढ़ का जल उतर जाने के बाद , यथार्थ उन्नत आध्यात्मिक मनुष्य रूपी जलोढ़-जमाव ^*(alluvial deposit) द्वारा यह भारत भूमि अत्यन्त उपजाऊ बन जायेगी। और यह उर्वरता ऐसे हजारों ऐसे सुन्दर फूलों (चरित्र-कमल) को खिला देगी, जो स्वयं मुरझा जाने से पहले सर्वाधिक पुष्टिकर फलों (भावी आध्यात्मिक शिक्षकों) को जन्म देते जायेंगे।   
[जलोढ़क-जमाव (alluvial deposit) ^*  कहते हैं - बाढ़ के पानी के बहाव से लायी हुई  मिट्टी, गाद जो प्रवाह के उतर जाने के बाद उस भूमि पर जमा होकर उसे उर्वरा बना देती है। 

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पुराणों में वर्णित ' भारतीय विद्या और संस्कृति के उदात्त भावों को 

ग्रामीण भारत के द्वार -द्वार तक पहुँचा देने की आवश्यकता   

         " स्वामी जी मानते थे कि हमारे '18 पुराण ' भारतीय विद्या और संस्कृति के उदात्त भावों ('वसुधैव कुटुंबकम' जैसे उदात्त) को जनसाधारण के द्वारा-द्वार तक पहुँचा देने के उद्देश्य से किया गया हिन्दू धर्म का प्रयास है।  भारत में केवल एक ही व्यक्ति, कृष्ण की बुद्धि ऐसी थी , जिसने  इस आवश्यकता को सबसे पहले समझा था। सम्भवतः वे मनुष्यों में सर्वश्रेठ थे !
      स्वामी जी ने कहा, " इस प्रकार एक धर्म [वैष्णव धर्म] की सृष्टि हुई , जिसका लक्ष्य जीवन की स्थिति और आनन्द के प्रतिक विष्णु की उपासना है, जो ईश्वरानुभूति की प्राप्ति का साधन है। हमारा अन्तिम आन्दोलन - 'चैतन्यवाद ' तुम्हें याद होगा आनन्द [का उपभोग मिलबाँट कर करने] के लिए ही था। साथ ही , जैन धर्म दूसरी चरम सीमा है , आत्म -यातना के द्वारा शरीर को धीरे धीरे नष्ट कर देना। .... इस प्रकार हिन्दू धर्म सदैव ही एक में लगे दो विपरीतगामी चक्र (प्रवृत्ति और निवृत्ति) से निर्मित धुरी जैसा रहा है। " हाँ ! वैष्णव धर्म कहता है , ' यह बिल्कुल ठीक है ! माता, पिता , भाई , पति अथवा सन्तान (सास-ससुर , साला-साली , बहन -बहनोई अथवा सभी सगे -सम्बन्धियों) के प्रति अपार प्रेम अवश्य रहना चाहिए। यह बिल्कुल ठीक होगा ,यदि केवल यह सोच सको कि कृष्ण ही तुम्हारे बालक के रूप में आया है , और जब तुम उसे खिलाते हो तब कृष्ण को ही खिलाते हो ! वेदान्त की इस घोषणा के विरुद्ध कि 'इन्द्रिय-निग्रह करो ', चैतन्य देव ने उद्घोषित किया , 'इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर की पूजा करो। ' [केवल इतना याद रखना - 'निवृत्ति अस्तु महाफला !!'] " 
           " इस भारतीय प्रयोग का जैसा भी रूप है, हमें उसको सहारा देना चाहिये। जो सामाजिक आन्दोलन वस्तुओं को , जैसी वे सवरूपतः हैं , उस रूप में सुधारने का प्रयास नहीं करते , व्यर्थ हैं। उदाहरणार्थ यूरोप में मैं विवाह को उतना ही अधिक आदर देता हूँ , जितना अ -विवाह को। यह कभी न भूलो कि व्यक्ति जितना अपने गुणों से महान एवं पूर्ण बनता है, उतना ही अपने दोषों से। इसलिये हमें किसी राष्ट्र के चरित्र के वैशिष्ट्य को मिटाने का प्रयास कदापि नहीं करना चाहिए , भले ही कोई यह सिद्ध कर दे कि उसके चरित्र में दोष ही दोष हैं। " (---सूक्तियाँ एवं सुभाषित -24. खंड ८ पेज १३४)
         24. The Puranas, the Swami considered, to be the effort of Hinduism to bring lofty ideas to the door of the masses. There had been only one mind in India that had foreseen this need, that of Krishna, probably the greatest man who ever lived.
         The Swami said, "Thus is created a religion that ends in the worship of Vishnu, as the preservation and enjoyment of life, leading to the realisation of God. Our last movement, Chaitanyaism, you remember, was for enjoyment. At the same time Jainism represents the other extreme, the slow destruction of the body by self - torture.
        Thus Hinduism always consists, as it were, of two counter - spirals, completing each other, round a single axis. "'Yes!' Vaishnavism says, 'it is all right -- this tremendous love for father, for mother, for brother, husband, or child! It is all right, if only you will think that Krishna is the child, and when you give him food, that you are feeding Krishna!' This was the cry of Chaitanya, 'Worship God through the senses', as against the Vedantic cry, 'Control the senses! suppress the senses!' " 
      "Now we must help the Indian experiment as it is. Movements which do not attempt to help things as they are, are, from that point of view, no good. In Europe, for instance, I respect marriage as highly as non - marriage. Never forget that a man is made great and perfect as much by his faults as by his virtues. So we must not seek to rob a nation of its character, even if it could be proved that the character was all faults."
(-Sayings and Utterances, Volume 8)

卐 हिन्दु धर्म एक में लगे दो विपरीतगामी चक्रों 
       (वैष्णव और जैन धर्म) से निर्मित धुरी जैसा है !卐 

卐'बनो और बनाओ'

('Swami Vivekananda A Study' Pages 104-106, का अनुवाद)
 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -"Be and make" - Let this be our motto! ' बनो और बनाओ'-- यही हमारा मूल-मन्त्र रहे !  और महामण्डल ने इसी को अपने आदर्श-वाक्य के रूप में ग्रहण किया है। इस अति संक्षिप्त उक्ति (महावाक्य) का अर्थ क्या है ? इस सूत्र का अर्थ बहुत व्यापक है। यह उक्ति महान विचारों को जन्म देती है। इसीमें गीता -उपनिषदों का सार छिपा हुआ है। यदि कोई व्यक्ति केवल इसी एक विचार को संकल्प के रूप में ग्रहण कर ले, और उसे इसी जीवन में पूर्ण कर सके -तो कहा जा सकता है कि उसका मनुष्य-जीवन सार्थक हुआ है।         
    कुछ लोगों के मन में यह शंका उठती है : क्या हमें पहले 'मनुष्य' शब्द का जो सही अर्थ है, वैसा-  यथार्थ मनुष्य बन जाना चाहिये, और केवल तभी दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करने की बात सोंचनी चाहिये ? यह बात कई बार दोहराई जा चुकी है कि यद्यपि दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करने से पहले स्वयं एक 'यथार्थ मनुष्य' बन जाना एक आदर्श बात होगी, किन्तु हमलोग स्वयं ' मनुष्य बनने' और दूसरों को महान मनुष्य बनाने की दोनों  पद्धतियों को साथ-साथ कार्यान्वित कर सकते हैं ।
     'मनुष्य बनने'  का प्रयास करना ( अर्थात अपने जीवन और चरित्र को गठित करने के लिए उद्यम करना ); स्वयं ही दूसरों के लिए एक उदाहरण और प्रेरणा का एक स्रोत बन जाता है। और यदि हम अपने स्वरूप के प्रति जागृत होकर, इसी विषय में दूसरों की थोड़ी सी सहायता भी करते हैं, तो यह निःस्वार्थ-सेवा हमारे अपने आत्म-विकास के प्रयास को प्रोत्साहित (बूस्ट) करती है। इसलिए  'बनने' के साथ ही साथ यदि हम 'बनाने'  (Make =लोक-कल्याण) का भी थोड़ा प्रयास करते हैं, अपने  'बनने' (Being =आत्मकल्याण) के मामले हमें कुछ खोना नहीं पड़ता है। केवल एक सावधानी यहाँ आवश्यक हो जाती है।
       यदि हम मनुष्य बनने की दिशा में स्वयं कोई प्रयास नहीं करते, और इस विषय में केवल दूसरों को ही परामर्श देते रहते हैं, तो इससे किसी को  कोई लाभ न होगा। यह दूसरों के लिए अधिक सहायक तो नहीं ही होगा, मैं भी निश्चित रूप से उसका कोई लाभ नहीं उठा पाउँगा। मैं जहाँ था वहीँ रुका रहूंगा, या हो सकता है कि एक या दो सोपान नीचे भी उतर जाऊँ। क्योंकि, उस अवस्था में मुझे अपने विषय में यह 'खुशफहमी' हो सकती है कि मैं ऊँचे स्तर में पहुँच गया हूँ, जिससे मेरा अहंकार बढ़ जायेगा , (और गुरुगिरि करने के चक्कर में) और मैं अपने स्वभाव से नीचे गिर जाऊँगा। 
     >>'मनुष्य बनने की प्रक्रिया' - एक अत्यन्त धीमी गति की प्रक्रिया है, इसमें अग्रगमन धीरे धीरे होता है।  यह किसी  निश्चित समयावधि में निश्चित सिलेबस (तीन साल का डिग्री-कोर्स) को पढ़कर एक दिन ग्रेजुएट बन जाने जैसी प्रक्रिया नहीं है। या जैसे कोई कली सुबह में अचानक खिल कर फूल बन जाती है, और जिसे देखने से बड़ा आनन्द होता है, चरित्र-कमल का खिल जाना भी उतनी सहज प्रक्रिया नहीं है। इस प्रक्रिया को आत्मसात करने में बहुत अधिक सावधान या सतर्क रहने, दृढ़ संकल्प , अविचलता, धैर्य और अध्यवसाय के साथ आजीवन प्रयासरत रहने की आवश्यकता होती है। ऐसा नहीं है कि किसी दिन मैं सुबह सुबह उठकर यह घोषणा कर दूँ -कि मैं तो मनुष्य कहा जाने योग्य 'मनुष्य' बन गया हूँ ! क्योंकि मानव-मन का स्वभाव किसी भी समय ठीक उसी प्रकार नीचे गिरने का होता है, जैसे पानी को नीचे गिरने के लिये जहाँ भी मार्ग मिल जाता है, वहीं से नीचे गिरने लगता है। 
     इसी विषय में एक उपाख्यान को सुनना हमारे लिये लाभप्रद हो सकता है। वाराणसी के एक मठ में एक सन्यासी (महंत जी ) रहा करते थे। वे प्रतिदिन गंगा-स्नान करने के लिए जाया करते थे। वहाँ से वापस लौटते समय एक स्त्री प्रतिदिन उनके मार्ग में खड़ी होकर पूछती थी -'बाबा, मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहती हूँ !' महंत जी कभी उसका कोई उत्तर नहीं देते थे, और बिना रुके अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाते थे। इसी प्रकार अनेक वर्ष बीत गये और महंत जी के मृत्यु का समय आ गया। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि उस स्त्री को बुला कर मेरे पास ले आओ। उन्होंने वैसा ही किया और सन्यासी ने उसके आध्यात्मिक जिज्ञासा का उचित देकर उसे संतुष्ट कर दिया। आश्चर्यचकित होकर शिष्यों ने पूछा - 'महाराज, आपने इतने दिनों तक उस स्त्री की आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधान क्यों नहीं किया ? 
         >>>>तब सन्यासी ने उत्तर दिया, ' अभी तक मेरे मन के नीचे उतरने का खतरा सदैव बना हुआ था। इसीलिये मैं आजीवन सतर्क रहता था, 'मैं अब यह जानता हूँ कि मैं जीवित नहीं रहूँगा'। हममें से बहुत से लोगों को ऐसी सावधानी अत्यधिक (टू मच या बेहद ज्यादा) प्रतीत हो सकती है। 'बट वी कैन लर्न अ लॉट फ्रॉम दिस' : किन्तु इस उपाख्यान से हमलोग आत्म-विकास के विषय में बहुत कुछ सीख सकते हैं - 'कॉशन ऐंड केयर मस्ट बी कॉन्सटेंट-अनरिलेटिंग'अर्थात 'मनुष्य बनने' के लिये विवेक-प्रयोग करने के प्रति सदैव कठोर सतर्कता और सावधानी बरतते रहनी चाहिये।       
        उसी प्रकार ' मनुष्य बनाने' (मेकिंग) अवधारणा भी बहुत स्पष्ट होनी चाहिये। महामण्डल का पूरा कार्य ही मनुष्य-निर्माण करना है। किन्तु यह 'मनुष्य-बनाने' का कार्य 'Make' किसी भी अवस्था में 'मनुष्य बनने' के कार्य 'Be' से बिल्कुल भी पृथक नहीं है। महामण्डल के आदर्श वाक्य -"Be and Make" में हमें इसी धुन को इसका 'सॉस्टेनूटो' समझना चाहिये! (sostenuto=  a passage of music to be played in a sustained or prolonged manner.)संगीत का  'वादी-स्वर' एक धुन जिसे निरंतर या एक लंबे समय तक बजाया जाता है; स्वामी विवेकानन्द ऐसा विश्वास करते थे कि श्रीरामकृष्ण परमहंस देव मात्र अपने कृपाकटाक्ष से  मिट्टी के ढेले से भी हजारों विवेकानन्द का निर्माण कर सकते थे! 
स्वामी विवेकानन्द का यह मानना था कि सम्पूर्ण विश्व की गतिशीलता 'मनुष्य निर्माण' की एक योजना है। उन्होंने ने कहा था -' और हमलोग केवल मनुष्यों को निर्मित होता हुआ देख रहे थे।' किन्तु हमारे लिये 'मनुष्य निर्माण' करने का तात्पर्य केवल दर्शक बनकर मनुष्य बनते हुए देखते रहना ही नहीं है, किन्तु हमें मनुष्यों का निर्माण करने वाले  इस विश्व-रंगमंच पर सतत चलते रहने वाले जीवन्त नाटक में एक छोटे से कलाकार की भूमिका भी निभानी है। महामण्डल पुस्तिका 'विवेकानन्द दर्शनम्' में कहा गया है - 
 नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम् |  
 मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्त्ता तु वर्तते |   
' आफ्टर ऑल, दिस वर्ल्ड इज अ सीरीज ऑफ़ पिक्चर्स. ' दिस कलरफुल कांग्लोमेरैशन एक्सप्रेसेज वन   आईडिया ओनली. मैन इज मार्चिंग टुवर्ड्स परफेक्शन -दी ग्रेट इन्टरेस्ट रनिंग थ्रू। वी वेयर ऑल वाचिंग दी मेकिंग ऑफ़ मेन, ऐंड दैट अलोन। ' 
" सत्य-सा प्रतीत होते हुए भी, आखिरकार- यह चराचर जगत् सतत परिवर्तनशील छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र ही तो है। और जगत रूपी चलचित्रों के इस सतरंगी छटा-समुच्चय के माध्यम से केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है।
 " अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ - मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (आदर्श) की ओर अग्रसर हो रहा है ! ' इस  संसार-चलचित्र रूपी धारावाहिक के माध्यम से हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को ' मानहूश ' अर्थात आप्त-पुरुष या ब्रह्मविद् ' मनुष्य ' बनते हुए देख रहे थे !
" यथार्थ नेता (ईश्वर के अवतार) अनुयायी नहीं बनाते , नेता बना देते हैं। 'गुरु और पारस में इतना अन्तर जान, वह लोहा सोना करे यह करे आप समान !'  
" हाँ मेरा अपना जीवन किसी एक महान व्यक्ति के उत्साह के द्वारा प्रेरित है, पर इससे क्या ? कभी भी एक व्यक्ति के द्वारा संसार भर को प्रेरणा नहीं मिली। मैं इस बात में विश्वास करता हूँ कि श्री रामकृष्ण परमहंस सचमुच ईश्वर-प्रेरित थे। परन्तु मैं भी प्रेरित किया गया हूँ और तुम भी प्रेरित किये गए हो! तुम्हारे शिष्य भी ऐसे ही होंगे, और उनके बाद उनके शिष्य भी । यही क्रम कालान्त तक चलता रहेगा। ८/१३६ 
" मुझे विश्वास हो चला है कि नेता का निर्माण एक जीवन में नहीं होता। उसे इसके लिये कई जन्म लेने पड़ते हैं ! कारण यह है कि संगठन और योजनाएं बनाने में कठिनाई नहीं होती; नेता की परीक्षा, वास्तविक परीक्षा विभिन्न प्रकार के लोगों को [विभिन्न अभिरुचि रिलीफ वर्क, और ज्ञान दान की अभिरुचि] वाले लोगों को उनकी सर्व- सामान्य सम्वेदनाओं की दिशा में एकत्र रखने में है। यह केवल अनजान में किया जाना सम्भव है, प्रयत्न द्वारा कदापि नहीं। " (सूक्तियाँ एवं सुभाषित -8. खंड ८ पेज १२८)
[I am persuaded that a leader is not made in one life. He has to be born for it. For the difficulty is not in organisation and making plans; the test, the real test of the leader, lies in holding widely different people together along the line of their common sympathies. And this can only be done unconsciously, never by trying.
        "ओह ! कितना शान्तिपूर्ण हो जाता है उस व्यक्ति का कर्म जो मनुष्य की ईश्वरता से सचमुच अवगत हो जाता है ! ऐसे व्यक्ति को कुछ भी करना शेष नहीं रह जाता, सिवाय इसके कि वह लोगों की आँखें खोलता रहे। शेष सब अपने आप हो जाता है । " ८/१२५ 
              जगतगुरु श्री रामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ को जगतजननी माँ काली के विषय में बतलाया था कि " वे ही निरपेक्ष ज्ञान हैं, ब्रह्म की दिव्य (अगम्य) शक्ति हैं, और मात्र अपनी इच्छा से ही उन्होंने इस जगत को जन्म दिया है। किसी को कोई भी वस्तु प्रदान करने की शक्ति उनमें हैं। नरेन्द्र को तब अपने गुरु के शब्दों में विश्वास हो गया और अपने आर्थिक कष्ट को दूर करने के लिये उन्होंने माँ काली से प्रार्थना करने का निश्चय किया।
 'काली' को इष्टरूप में स्वीकार करने में अपने संशय के दिनों को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा, " मैं 'काली' से कितनी घृणा करता था ! और उसके सभी हावभाव से ! वह मेरे छह वर्षों के संघर्ष की भूमि थी - कि मैं उसे स्वीकार नहीं करूँगा। पर मुझे अन्त में उसे स्वीकार करना पड़ा। रामकृष्ण परमहंस ने मुझे उसे अर्पित कर दिया था। 
और अब मुझे विश्वास है कि जो कुछ भी मैं करता हूँ, उस सब में वह मुझे पथ दिखलाती है और जो उसकी इच्छा होती है, वैसा मेरे साथ करती है। ... फिर भी मैं इतने दीर्घकाल तक लड़ा। मैं भगवान रामकृष्ण को प्यार करता था और बस इसी बात ने मुझे अविचल रखा। मैंने उनकी अद्भुत पवित्रता देखी। ...मैंने उनके अद्भुत प्रेम का अनुभव किया। तब तक उनकी महानता का भान मुझे नहीं हुआ था। वह सब बाद में हुआ, जब मैंने समर्पण कर दिया। उस समय मैं उन्हें दिव्य-दृश्य आदि देखने वाला एक विकृत-चित्त शिशु समझता था। मुझे इससे घृणा थी। 
 ..... और फिर तो मुझे उसे (काली को) स्वीकार करना पड़ा। नहीं, जिस बात ने मुझे ऐसा करने के लिए बाध्य किया , वह एक रहस्य है जो मेरी मृत्यु के साथ चला जायेगा। उन दिनों मेरे ऊपर अनेक विपत्तियाँ आ पड़ी थीं। .... यह एक अवसर था ...उसने मुझे दास बना लिया। ये ही शब्द थे -'तुमको दास' ('a slave of you')! तब रामकृष्ण परमहंस ने मुझे उसको सौंप दिया ... आश्चर्यजनक ! 
ऐसा करने के बाद वे केवल दो वर्ष जीवित रहे और उनका अधिकांश समय कष्ट में बीता। वे छह महीने भी अपने स्वास्थ्य और ओज (health and brightness?) को सुरक्षित न रख सके। " जानते ही होंगे, गुरु नानक भी ऐसे ही थे, केवल इस बात की प्रतीक्षा में थे कि कोई शिष्य ऐसा मिले, जिसे वे अपनी शक्ति दे सकते। उन्होंने अपने परिवार वालों की उपेक्षा की -उनके बच्चे उनकी दृष्टि में बेकार थे -तब उन्हें एक बालक मिला, जिसे उन्होंने दिया। तब वे शान्ति से मर सके। "
" तुम कहते हो कि भविष्य रामकृष्ण को काली का अवतार कहेगा ? हाँ मैं समझता हूँ कि निस्सन्देह उसने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही रामकृष्ण के शरीर का निर्माण किया था। "८/१३०] 
बाद में जगतजननी माँ काली के विषय में बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-'She Can Make Heroes Out of Stone!' अर्थात "माँ काली पत्थर को भी नायक (मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) के रूप गढ़ सकती है !" किन्तु हमलोगों को जब अपने विषय में 'मेकिंग' या 'मनुष्य बनाने' का अर्थ समझना हो, तो 'बनाने' का अर्थ इस संदर्भ में नहीं समझना चाहिये। (वी शुड नॉट री ड दिस मीनिंग ऑफ 'मेकिंग', व्हेन वी आर कन्सर्न्ड।) 
हमारे लिये 'मनुष्य बनाने' 'Make' का अर्थ मनुष्य बनने 'Be'  की प्रक्रिया में स्वयं लाभ उठाते हुए अपने चारों ओर रहने वाले लोगो के साथ एकात्मता का अनुभव करने के प्रयास में एक अत्यन्त अदना सा सहायक (रामसेतु बन्धन में गिलहरी जैसा सहायक) बनने का सौभाग्य प्राप्त करना है ! 
(For us 'making' means to have the fortune of being infinitesimally instrumental in the process of being of every one around us, profiting in the way in the matter of our own striving to be men.) 

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रविवार, 31 जुलाई 2016

卐 卐 5.🙏संकल्प- ग्रहण और एकता 卐 卐🙏 "माँ, मुझे आध्यात्मिक मनुष्य बना दो !" [एक नया युवा आंदोलन -5 'Will and Unite' ]

 संकल्प- ग्रहण और एकता    
       
   >>Many in society are brutes, they behave like beasts.
सर्वप्रथम हमें यह संकल्प लेना होगा कि हमें अपने भीतर मानवीय गुणों को विकसित करना है, क्योंकि हममें से कई लोगों के पास साधारण मानवीय गुण भी नहीं होते। हमलोग अक्सर स्वामी विवेकानन्द के शब्दों को दुहराते हुए प्रार्थना करते हैं - " माँ मुझे मनुष्य बना दो "। किन्तु यह प्रार्थना क्या हम ईमानदारी से करते हैं ? क्या हम सचमुच ईमानदारी से यह चाहते हैं, कि हमें मनुष्य बन जाना चाहिये ? और यदि हम यथार्थ मनुष्य नहीं बनना चाहते तो इस प्रकार से प्रार्थना करने की उपयोगिता क्या है ? ऐसी प्रार्थना का कोई मूल्य नहीं है। वास्तव में हमलोग अभी मानव जैसे दिखने वाले प्राणी मात्र हैं। समाज में कई लोग बिल्कुल पशु के समान हैं, वे बिल्कुल जानवरों की तरह व्यवहार करते हैं। समाज में यथार्थ मनुष्य कितने दिखाई देते हैं ? यही कारण है कि मानव समाज की वर्तमान हालत ऐसी है। हर जगह इतना अन्याय है, सामाजिक जीवन की घटनाओं से इतनी शिकायतें हैं, कभी -कभी तो हम विरोध करते हैं; कभी कभी तो हमारा गुस्सा फूट भी पड़ता है, किन्तु क्या हम इन बुराइयों को समाज से दूर करने के लिये कुछ कार्य भी करते हैं ? हमलोग हर बुराई के लिये दूसरों को जिम्मेदार ठहराते हैं, दूसरों पर आरोप लगाते हैं । किन्तु हम स्वयं कोई उत्तरदायित्व नहीं लेना चाहते। हम दूसरों के ऊपर समाज को बदलने का कार्य सौंपना चाहते हैं। 
    >>So what is the use of suggesting, ' Let it be done' ? Who will do it ? 
       हम देखते हैं कि अब सामाजिक परिस्थिति कैसी है, वह बुरी ही नहीं बल्कि असहनीय हो चुकी है। इससे समाज का बहुत ज्यादा नुकसान हो जाता है, फिर भी मैं जानता हूँ कि बहुत से लोग इन घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेते। वे ऐसा नहीं सोचते कि सामाजिक स्थिति में बदलाव लाने के लिये उन्हें भी कुछ करना चाहिये।' यदि हम यही कहते रहें कि 'यह तो अच्छा कार्य है, इसे होना भी चाहिए ' -तो इस तरह के सुझावों का क्या फायदा ? इस कार्य को करेगा कौन ? 'इसे होना चाहिये' - यह एक भ्रामक वाक्य है। यदि हम ऐसा बोलें कि ' इसे तुम करो ' या 'इस कार्य को मैं करूँगा ', तो हम इसे समझ सकते हैं।  लेकिन हम यदि बड़ी नम्रता से यही कहते रहें कि 'समाज को उन्नत बनाने का कार्य होना चाहिए ' तो हमें यह भी बताना चाहिए कि यह कार्य कौन करने जा रहा है? यदि हम केवल यही कहते रहें कि 'समाज अच्छा होना चाहिए, समाज को उन्नत होना चाहिए, समाज से सभी बुराइयों को समाप्त होना ही चाहिये', तो इस तरह के दिखावटी बातों का कोई अर्थ नहीं है। हमें यह भी पता नहीं है कि इस कार्य को मैं करूँगा या तुम करोगे। मैं समाज को उन्नततर बनाने के कार्य में स्वयं भागीदार नहीं बनना चाहता, किन्तु मैं इच्छा रखता हूँ कि समाज में ऐसा बदलाव आना चाहिये। मैं केवल इच्छा रखता हूँ , किन्तु केवल इच्छा रखने से कोई परिणाम नहीं निकलता यह बिल्कुल अर्थशून्य इच्छा है।
    >>Willing is the seed, is the father of the things that come. 
 सिर्फ इच्छा रखने की जगह अब मैं संकल्प लूँगा। यदि हम केवल इच्छा करते रहे तो यह केवल इच्छाकल्पित चिन्तन होगा, जो कभी मूर्त रूप नहीं ले सकेगा। किन्तु यदि इच्छुक बने रहने के बजाय, हमलोग संकल्प लेना सीख जायें तो यह पूर्ण रूप से अलग बात होगी। दृढ़ इच्छाशक्ति को ही संकल्प कहते हैं। मनुष्य बनने का संकल्प उठा लेना ही सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। संकल्प , भविष्य में प्राप्त होने वाली सफलता का मुख्य कारण या बीज स्वरूप है। संकल्प के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति अपने मन में ठान ले, दृढ़ प्रतिज्ञा कर ले, वीर योद्धा (गुरु गोविन्द सिंह) के समान संकल्प कर ले - तो किसी भी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, किसी भी ऊँचाई तक पहुँचना सम्भव है, कोई भी वस्तु प्राप्त की जा सकती है ! यह बात बिल्कुल सत्य है, अतः हमलोगों को केवल इच्छुक ही नहीं बने रहना चाहिये , बल्कि दृढ़ संकल्प भी लेना चाहिये।  
    >> “संगच्छध्वम् संवदध्वम् ” Those who care about the welfare of the people should will together ! 
      इस काम को करने के लिये, हमें दूसरों को आदेश नहीं देना चाहिये, या दूसरों से इसकी अपेक्षा नहीं करनी चाहिये।  हमें इस बात को अस्पष्ट नहीं छोड़ना चाहिये,  बल्कि निर्भीक होकर इस बात को कहना चाहिये कि इस कार्य को (चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के कार्य को) करने की जिम्मेवारी किसके ऊपर है; कौन इसकी शुरुआत करने जा रहा है। मैं स्वयं इसका बीड़ा उठाता हूँ। आओ, तुम, मैं और हर कोई इस कार्य में जुट जाएँ । जो कोई भी व्यक्ति अपने देशवासियों के कल्याण की चिन्ता करते हों, उन्हें एक साथ आना चाहिये, उन्हें कन्धे से कन्धा, सिर से सिर मिलाकर, बाँहों से बाहें और कदमों से कदम मिलाते हुए साथ-साथ आगे बढ़ना चाहिये। जब हमलोग अपना संघ-गीत- “संगच्छध्वम् संवदध्वम् ” गाते हैं तो उसमें भी यही प्रार्थना करते हैं। हम सब एक साथ चलें, हम सब एक साथ सोचें , हम सब एक साथ अनुभव करें, हम सब एक साथ संकल्प लें , हम सब एक साथ आनन्द का उपभोग करें। हमें सब कुछ एक साथ करना चाहिये। यह एकता और मिलजुल कर संकल्प लेने की क्षमता ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण वस्तु है।   
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卐 मनुष्य बनने का संकल्प और संगठित प्रयास  
>>>माँ, मुझे आध्यात्मिक मनुष्य बना दो  :आज के भारत में - मनुष्य  रूपेण मृगाश्चरन्ति'-  लोगों अर्थात मनुष्य के ढाँचे में भीतर से पाशविकता धारण करके विचरण करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि होती दिख रही है ।  प्राचीन राजा-कवि भृतृहरि ने अपने 'नीतिशतक' 
बहुत सुंदर कहा है 
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः  ।
 ते  मृत्युलोके  भुवि  भार भूता  मनुष्य  रूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ 
जिन्होंने न विद्या प्राप्त की है, न तप किया है, न दान दिया है, न ज्ञान अर्जित किया है, न चरित्र-निर्माण करने की चेष्टा की, न गुण सीखे और न ही धर्मानुसार कर्तव्यों का पालन ही किया है- वे इस संसार में पृथ्वी का बोझ बढ़ाने वाले और मनुष्य की सूरत-शक्ल में पशु ही हैं। इसी बात को वेदान्त आध्यात्मिक अंधापन, अज्ञानता या मायाबद्ध-जीव की अवस्था कहता है।
माया (सेन्ट्रीफ्यूगल-फ़ोर्स) के बन्धन से मुक्त होकर, यदि यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविदः आध्यात्मिक शिक्षक) बनना और बनाना यदि हम सभी भारतवासियों की तीव्र अभिलाषा बन चुकी हो, तो हमें इसके लिये महामण्डल द्वारा प्रस्तावित पाँच दैनन्दिन अभ्यासों को आत्मसात करने के लिये संघबद्ध होकर प्रयास करना चाहिये। हमारी पहली आवश्यकता है, अपने भीतर चरित्र के गुणों को संवर्धित करना, क्योंकि हममें से कई लोगों के पास सामान्य मानवोचित चारित्रिक गुण भी नहीं हैं।
समाज में बदलाओ लाने या मनुष्य के हृदय को परिवर्त्तित करने, मनुष्य  'बनने और बनाने  BE AND MAKE ' के आन्दोलन का नेतृत्व करने की  जिस  अत्यन्त महत्वपूर्ण जिम्मेदारी  को स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं के ऊपर सौंपा था, उस जिम्मेवारी को  पूरा कौन करेगा ? केवल लिप सर्विस (दिखावटी-प्रेम) करने से काम नहीं चलेगा - 'इसके लिए कुछ करना चाहिये' या 'लेट इट बी डन' ऐसा गोल-गोल भाषण देना - एक अस्पष्ट और उभयार्थक वाणी  है। (स्वामी जी कहते थे - 'वी वान्ट बोल्ड वर्ड्स ऐंड बोल्डर डीड्स !'  यदि हम यह घोषित करें - " मैं इस कार्य को करने जा रहा हूँ' , और तुम्हें भी इस कार्य में मेरी सहायता करनी चाहिये" - तो यह स्पष्ट और निर्भीक वाणी है, जिसे  हर कोई समझ सकता है। किन्तु हम यदि दिखावटी देश-प्रेम प्रदर्शन करते हुए, केवल यही कहते रहें कि -'मनुष्य बनना और बनाने की चेष्टा करना, तो अच्छा काम है और इसे होना भी चाहिए - ' लेट इट बी डन'!; किन्तु इस अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य की जिम्मेदारी उठाने - कौन जा रहा है ? यदि हम केवल कहते रहें,' कुछ करना चाहिये, समाज को अच्छा होना चाहिये, समाज से सभी बुराइयों को समाप्त होना ही  चाहिये';- किन्तु स्वयं इसके लिए कुछ न करें, तो ऐसे दिखावटी बातों या  'लिप सर्विस' का समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।  यदि हम इस निर्णय पर नहीं पहुँचे हैं कि इस 'कार्य की शुरुआत मैं करूंगा या तुम करोगे- तो यह चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन आगे कैसे बढ़ेगा ?  मैं स्वयं इस कार्य में भागीदार नहीं बनना चाहता, किन्तु मैं इच्छा रखता हूँ, कि समाज में ऐसा बदलाव आना चाहिये, सभी युवाओं का चरित्र अच्छा होना चाहिए । मैं केवल इच्छा रखता हूँ, किन्तु इस प्रकार की इच्छा करने का कोई फल नहीं होता, यह बिल्कुल अर्थ शून्य इच्छा है।
किन्तु यदि इच्छुक बने रहने के बजाय, यदि हमलोग ऑटोसजेशन या मनोवैज्ञानिक पद्धति के अनुसार संकल्प लेना सीख जायें तो हमारे अवचेन मन में गहराई से बैठे संकल्प को मूर्त रूप लेने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।किसी लक्ष्य को प्राप्त करने की दृढ़ इच्छा-शक्ति को ही संकल्प कहते हैं , मैं अवश्य करूँगा - आई वील । यह विलिंग अर्थात- संकल्प उठा लेना सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। (स्वामी जी को प्रति-उत्तर दूँगा- " स्वामी जी, मैं लक्ष्य प्राप्त होने तक -रुकूँगा नहीं ! थकूँगा नहीं ! ") कहा भी गया है - या मतिः सा गतिर्भवेत ' मन के हारे हार है, मन के जीते जीत !' यह कहावत बिल्कुल सत्य है अतः हमलोगों को चरित्रवान मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) बनने के लिये केवल इच्छुक ही नहीं बने रहना चाहिये  -बल्कि दृढ़ संकल्प लेना चाहिये।       

 "Instead of wishing I Should Will": मात्र इच्छुक रहने या अभिलाषा रखने के बदले, (आत्मसुझाव-पद्धति के अनुसार) मैं संकल्प लूँगा कि,  ' मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूँगा !' यदि हम सदैव केवल इच्छुक ही बने रहते हैं, तो इसका अर्थ हुआ कि, चरित्रवान-मनुष्य बनना अभी मेरी 'बर्निग-डिज़ायर' या तीव्र इच्छा नहीं है, इसीलिये यह कभी मूर्त रूप नहीं ले सकेगी। 
देह शिवा बरु मोहि इहै सुभ करमन ते कबहूं न टरों।
न डरों अरि सो जब जाइ लरों निसचै करि अपुनी जीत करों ॥
अरु सीख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों।
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों ॥
-- हे शिवा (माँ जगदम्बा)! मुझे यह वर दें कि मैं शुभ कर्मों को करने से कभी भी पीछे न हटूँ। जब मैं युद्ध करने जाऊँ तो शत्रु से न डरूँ और युद्ध में अपनी जीत पक्की करूँ। और मैं अपने मन को यह सिखा सकूं कि वह इस बात का लालच करे कि मैं आपके ही गुणों का बखान करता रहूँ। जब अन्तिम समय आये तब मैं रणक्षेत्र में युद्ध करते हुए मरूँ। " हमें भी इसी प्रकार अपनी बिखरी हुई इच्छाशक्ति को दृढ़ संकल्प में सम्नन्वित करके एक साथ आनन्द का उपभोग करना चाहिये। हमें सारे निर्णय या संकल्प एक मन होकर लेने चाहिये, यह राष्ट्रीय-एकता और मिलजुल कर संकल्प लेने की क्षमता ही सबसे अधिक महत्व की वस्तु है।
" मिलजुल कर एक साथ रहेंगे, और बढ़ेगी एकता ! 
उद्देश्य हमारा देश की सेवा, विवेकानन्द हमारे नेता ! "

  ['Autosuggestion'= a system for self-improvement, based on autosuggestion or self-hypnosis developed by Emile Coué   (a French psychologist and pharmacist/ 1857-1926) Most of us are familiar with the quote by Émile Coué,"Everyday, in every way, I am getting better and better." फ्रेंच मनो-वैज्ञानिक एमिल कॉओ द्वारा प्रस्तुत (आत्म-सुझाव,स्व-सम्मोहन या)  स्वपरामर्श-सूत्र  "डे बाइ डे, इन एव्री वे, ई एम गेटिंग बेटर एंड बेटर ";जिसे महामण्डल में 'आत्म-सुधार के लिये संकल्प ग्रहण' करने की मनोवैज्ञानिक पद्धति - -'चमत्कार जो आप कर सकते हैं' के नाम से जाना जाता है। (the hypnotic or subconscious adoption of an idea that one has originated oneself, e.g. through repetition of verbal statements to oneself in order to change behavior.)]
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