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मंगलवार, 13 नवंबर 2018

व्यावहारिक जीवन और धर्म क्या भिन्न -भिन्न हैं ?----------50. VYAVHARIK JIVANE DHARMA.

व्यावहारिक जीवन में धर्म 
साधारणतः लोगों में यह धारणा प्रचलित है कि दैनिक कर्मजीवन के विभिन्न पहलुओं के साथ धर्म का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, अतः व्यावहारिक (pragmatic ) जीवन में इसका कोई महत्त्व नहीं है। किन्तु हमें यह समझना होगा कि व्यवहारिक जीवन के अलावा धर्म के प्रयोग का अन्य कोई क्षेत्र हो ही नहीं सकता है। धर्म तो व्यावहारिक जीवन के लिये ही है। धर्म का प्रयोग इसी जगत में होता है, एवं जगत हर समय व्यावहारिक ही होता है। स्वामी विवेकानन्द एक बहुमूल्य सत्य की ओर हमलोगों की दृष्टि को आकर्षित करते हुए कहते हैं- "हमारा जीवन एक अखण्ड सत्ता है, यह भिन्न-भिन्न भावों का संकलन नहीं है। जबकि हमलोग यह समझते हैं कि हमलोगों का व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन से भिन्न हो सकता है, सामाजिक जीवन से राष्ट्रिय जीवन अलग होता है। अथवा हमारा एक राजनैतिक जीवन और अर्थनैतिक जीवन है, जो कि चित्त-विनोद के जीवन से सर्वथा पृथक है; और इन सब के अलावा एक धार्मिक जीवन भी होता है। किन्तु जीवन को इस प्रकार से टुकड़ों  में बाँट कर देखना केवल हमारे मन की कल्पना है।"  
श्रीरामकृष्ण ने इस बात को उदाहरण से समझाते हुए कहा था- ' पानी में एक छड़ी डालने से जल इधर-उधर बँटा हुआ दीखता है, किन्तु छड़ी को उठा लेने पर फिर से सारा पानी एक हो जाता है। ' ठीक उसी प्रकार प्रत्येक वस्तु (3H) को हमलोग विभिन्न रूपों में बँटा हुआ देखते हैं। यह सब हमारे मन की सृष्टि है। वस्तुतः जीवन में उस प्रकार के विभिन्न क्षेत्र या भाव नहीं होते। स्वामी विवेकानन्द ने तो पाश्चात्य देशों (ईसाई धर्मावलम्बी देशों) में जाकर निर्भयतापूर्वक घोषित किया था- प्रत्येक रविवार को गिर्जा-घर में जाकर प्रार्थना कर लेना धर्म है, ऐसी धारणा ठीक नहीं है। सप्ताह के शेष दिनों में मैंने जिस प्रकार चाहा बिताया, और उसके बाद केवल रविवार के दिन चर्च में जाकर प्रार्थना कर आया, इसको तो धर्म नहीं कह सकते। कुछ लोग ऐसा मानते हैं, कि रविवार का दिन भगवान के विश्राम का दिन है। भगवान भी मानो कोई मजदूर हैं, जो सारे सप्ताह परिश्रम करने के बाद रविवार को विश्राम करते हैं, और उस दिन हमलोगों के लिए भी विश्राम का दिन होता है।  बहुत से लोगों में ऐसी धारणा होती है कि आमतौर से रविवार को सामान्य पारिवारिक कार्य नहीं करने पड़ते, अतः उस दिन को मनोरंजन और अमोद-प्रमोद में बिताऊँगा, और इसी बीच एकबार गिरजा-घर में जाकर प्रार्थना भी कर आऊंगा- यही धर्म है ! बहुत से लोग सोचते हैं, कि सुबह-सुबह घर के मंदिर में बैठकर पूजा करके धर्म कर आया, या किसी मन्दिर में जाकर मत्था टेक आया, उसके बाद लौटते समय रास्ते के किनारे भिखारी बैठे रहते हैं, उसके कटोरी में एक सिक्का फेंक दिया। यही तो धार्मिक जीवन है; उसके बाद घर के काम निपटाए, हाट-बाजार कर आये, शाम को दोस्तों के साथ कहीं घूमने निकल गए- यही तो है सक्रीय जीवन या कर्ममय जीवन ! जीवन को इस प्रकार टुकड़ों में बाँट कर जीना ठीक नहीं है। जीवन एक पूर्ण वस्तु है। स्वामीजीने कहा है, धर्म वह वस्तु है जो जीवन को पूर्णतया धारण किये रहती है। धर्म के बिना जीवन का कुछ अर्थ ही नहीं है, हो भी नहीं सकता।
भगिनी निवेदिता ने विवेकानन्द को बहुत हद तक (To a great extent) समझा था। वे स्वामीजी के द्वारा दीक्षित थीं, उनसे अनुप्रेरित (Inspired) थीं, एवं उनके सपनों को साकार बनाने के लिये,अपने प्राण तक को न्योछावर करने को समर्पित थीं- 'निवेदित-प्राणा' थीं ! वे भारतवर्ष की सेवा के लिये,इसके कल्याण के लिये यहाँ आयीं थीं। विवेकानन्द समग्र-साहित्य जब प्रकाशित हुआ, तब भगिनी निवेदिता ने उसकी भूमिका लिखी थी। उस भूमिका में उन्होंने कुछ ऐसी नई बातों का उल्लेख किया है, जिसे उन्होंने स्वयं स्वामीजी से प्राप्त किया था। भगिनी निवेदिता 'विवेकानंद साहित्य' की भूमिका में लिखती हैं- 'यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य की अभिव्यक्तियाँ हैं, तो केवल उपासना के ही विविध प्रकार नहीं वरन सामान्य रूप से कर्म के भी सभी प्रकार, संघर्ष के भी सभी प्रकार, सृजन के भी सभी प्रकार, सत्य साक्षात्कार के मार्ग हैं।अतः 'henceforth' अब से, लौकिक जीवन (secular, Pragmatic या व्यावहारिक जीवन) और धार्मिक जीवन (sacred,spiritual आध्यात्मिक जीवन) में कोई भेद नहीं रह जाता। कर्म करना ही उपासना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग है। स्वयं जीवन ही धर्म है।" अर्थात अब से व्यवहारिक जीवन भी धर्म के उपर प्रतिष्ठित होगा।
यहाँ पर ' अब से ' (henceforth ) कहने का तात्पर्य क्या है ? अर्थात 'अब से' माने 9 /11 के पश्चात् - ब शिकागो के विश्वधर्म महासभा में  स्वामीजी ने अपना सन्देश सम्पूर्ण मानवजाति को सुनाया। किन्तु आधुनिक युग में मानवजाति के पथप्रदर्शक नेता,संदेशवाहक (जीवन्मुक्त प्रशिक्षित माली) स्वामी जी ने वह संदेश कहाँ से प्राप्त किया था ?  स्वामीजीने इस भाव को (ideology या विचारपद्धति को) कहाँ से प्राप्त किया था ? उन्होंने इस विचारधारा को अपने गुरु श्रीरामकृष्ण (पूरी अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित गुरु) से प्राप्त किया था। वास्तव में " श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द (काशीपुर उद्यानबाटी Be and Make जीवन्मुक्त माली -प्रशिक्षण परम्परा) के प्रारम्भ  समय से ही ' धार्मिक जीवन (आध्यात्मिक जीवन) और धर्म-निरपेक्ष जीवन (व्यावहारिक जीवन) '- के बीच जो कल्पित पार्थक्य था, वह अतीत की बात हो गयी थी, अब वह भेद बिल्कुल समाप्त हो गया।'  इसीलिए यदि उनके जीवन को (अर्थात श्रीमद तोतापुरी-श्रीरामकृष्ण , श्रीरामकृष्ण -स्वामी विवेकानन्द , स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर .....नवनीदा के महाजीवन को )  सही रूप से समझ लिया जाये, तो 'व्यवहारिक जीवन में धर्म' के विषय में हमारी धारणा  बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगी। 
बहुत लोग ऐसा समझते हैं, कि हमलोग अपने व्यवहारिक जीवन को जैसी इच्छा होगी, उसी मुताबिक बिता देंगे, और धर्म नाम से जो एक कुछ है उसका व्यवहार - हमलोग चाहें तो कर सकते हैं, और नहीं भी कर सकते हैं। जिस प्रकार विभन्न व्यंजनों का आहार समाप्त कर लेने के बाद, हमलोग चाहें तो अन्त में चटनी को खा सकते हैं, या नहीं भी खा सकते हैं। उसी प्रकार हमलोग अपने जीवन को जैसे-तैसे बिताकर धर्म को ले भी सकते हैं, नहीं भी ले सकते हैं। किन्तु धर्म कोई ऐसी वैसी चीज नहीं है। जो लोग धर्म को चटनी के जैसा कोई चीज (बुढ़ापा या जीवन के अन्त में खाने की चीज) समझते हैं, वे धर्म के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं
धर्म के विषय में स्वामीजी कहते हैं-" धर्म के बारे में ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती है कि यहाँ का कुछ वहाँ का कुछ विभिन्न स्वाद लेने के लिये चख कर देखने की प्रवृत्ति होती है। यह जो धर्म को चख कर देखने की प्रवृत्ति है, इसके द्वारा किसी को धर्म की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती है। धर्म को श्रद्धा के साथ ही ग्रहण करना पड़ता है। धर्म मनुष्य के जीवन को संपूर्णतः परिवर्तित कर देता है, जीवन- प्रवाह की दिशा को निर्धारित कर देता है, उसे ठीक लक्ष्य की ओर ले जाता है। धर्म मनुष्य को उसके जीवन-लक्ष्य की दिशा में अग्रसर होना सिखाता है।" यदि किसी व्यक्ति के जीवन का कुछ हिस्सा धर्म की ओर जाय, और शेष अंश अधर्म की ओर जाय तो, तो क्या उसका  जीवन सफल होगा ? जीवन छिन्नभिन्न हो जायेगा। जीवन में पूर्णता नहीं आएगी, और उस दृष्टि से जीवन  सार्थक नहीं होगा, वह जीवन-पुष्प अपने समग्र सौन्दर्य के साथ (ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य के साथ) कभी प्रस्फुटित नहीं हो सकेगा । यदि मनुष्य के समग्र जीवन में एक  ' integration ' या एकीकरण नहीं स्थापित हो सका, तो उसका जीवन-गठन या चरित्र-निर्माण सही रूप में नहीं हो सकता है। 
मनुष्य के जीवन में धर्म का वही महत्व है, जो नाव में पतवार का होता है। नदी में नौका चल रही है, किन्तु उसमें यदि पतवार नहीं हो तो नाव कभी अपने गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुँच सकेगी-जहाँ नौका को जाना चाहिए था, वह अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकेगी। उसी प्रकार जीवन में भी हमलोग बहुत तरह के प्रयत्न कर सकते हैं, जीवन में हमलोग कई प्रकार के कार्य कर सकते हैं। किन्तु हमारे सभी कर्म यदि धर्म पर आधारित नहीं हो, (शास्त्र-सम्मत कर्म नहीं रहें)  तो जीवन अपने निर्दिष्ट लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता है। यदि हमलोगों ने विवेक-प्रयोग के द्वारा निर्णय लेकर कोई पूर्व निर्दिष्ट जीवन-लक्ष्य बना लिया हो, तो अपने चिन्तन, विचार और जीवन को उस लक्ष्य की ओर ले जाने के लिये धर्म ही पतवार है। 
यदि हम अपने व्यवहारिक जीवन में धर्म का प्रयोग करना चाहें, तो पहले यह समझ लेना होगा कि जीवन क्या है और व्यक्ति-जीवन में धर्म का स्थान कहाँ है ? जीवन विभिन्न भावों का 'mechanical blending' या मशीनी मिश्रण नहीं है, जीवन एक ही साथ जुड़ा हुआ, 'compound' या यौगिक वस्तु है। जीवन के विभिन्न उपादान (3H ) हो सकते हैं, किन्तु जीवन में वे सभी मिलकर संयुक्त या combined हो गये हैं, जीवन के साथ इस प्रकार घुलमिल गये हैं, वे इस प्रकार जुड़ चुके हैं, कि अब उसके उपादानों को पृथक नहीं किया जा सकता है। समग्र रूप से सामन्जस्यपूर्ण जीवन ही वह जीवन है, जो हमें लक्ष्य तक पहुंचा सकता है। वह जीवन ही यथार्थ जीवन है, जिसकी बुनियाद धर्म पर प्रतिष्ठित है। हमलोगों के दैनन्दिन जीवन में धर्म का उपयोग करने का अर्थ है, अपने चिन्तन-वचन-और कर्म में विवेक-प्रयोग करके ऐसा निर्णय लेंगे जो हमारे समस्त कार्यों को हमारे पूर्व-निर्धारित जीवन लक्ष्य की दिशा में ले जाने में सहायक होगा। विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कर्म (मानसिक,वाचिक,शारीरिक कर्म) करने में सक्षम होना ही व्यावहारिक जीवन में धर्म का प्रयोग करना है
              हमारे देश के प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन में चार पुरुषार्थ करने का सन्देश दिया है। किन्तु हम आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोग, 'पुरुषार्थ' या इस प्रकार के अन्य शब्दों से (वर्णाश्रम धर्म आदि शब्दों से ?) परिचित नहीं हैं। यहाँ 'पुरुष' का अर्थ है-मनुष्य; इस शब्द को पुरुष और स्त्री के संदर्भ में नहीं लेना चाहिये। तथा 'अर्थ' का अनुवाद होगा- एक ऐसी प्राप्तव्य वस्तु, एक ऐसा लक्ष्य, एक ऐसी बहुमूल्य सम्पत्ति - जिसे प्राप्त करने की आकांक्षा प्रत्येक मनुष्य को अवश्य करनी चाहिये, तथा उस लक्ष्य को इसी जीवन में प्राप्त करने का प्रयत्न भी मनुष्य को अवश्य करना चाहिये। पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ = अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। वे चार पुरुषार्थ हैं- धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष! यही वे चार वस्तुयें ऐसी हैं जिन्हें इस जीवन में पाने की आकांक्षा प्रत्येक व्यक्ति को करनी चाहिये। पहला पुरुषार्थ है- धर्म। यदि यह पुरुषार्थ जीवन में नहीं हो, या नहीं आ सके, तो हमलोगों के जीवन में अन्य जितने पुरुषार्थ या प्राप्तव्य वस्तुएँ हैं, उन्हें हम नहीं प्राप्त कर सकेंगे, और यदि प्राप्त कर भी लिये, तो उनका कोई मूल्य नहीं होगा। इसीलिये धर्म को सबसे पहले ग्रहण करना चाहिये। यह प्राप्त हो जाय तभी दूसरी वस्तुओं की सार्थकता है। यदि मोक्ष को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर, तथा धर्म के द्वारा मार्गदर्शित होकर- अर्थ और काम का उपभोग किया जाय, तो वैसा अर्थ और काम हमें क्षति नहीं पहुंचा सकता है।
हमलोग सभी लोग यह जानते हैं, कि मन में यदि कोई कामना नहीं हो, तो मनुष्य का जीवन अचल हो जायेगा, ठहर जायेगा या गतिशून्य हो जायेगा। यदि ऐसा हो, कि मैं  कुछ भी न चाहूँ; तो फिर मैं ही नहीं रहूँगा। इसीलिये कोई न कोई कामना अवश्य रहेगी, तथा व्यवहारिक जगत के किसी वस्तु को पाने की कामना करें, या प्राप्त करना चाहें, या केवल सामान्य रूप से अपने जीवन का निर्वाह भी करना हो, तो अर्थ की आवश्यकता होगी। हमलोगों के जीवन में अर्थ की आवश्यकता अवश्य होती है, इसीलिये हमारे शास्त्रों में अर्थ की निन्दा, कहीं नहीं की गयी है। बल्कि अर्थ और काम दोनों की प्रशन्सा की गयी है। गीता 7/11 में हम श्रीकृष्ण का एक अद्भुत उद्धरण देखते हैं, वे कहते हैं, धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ । " ... भैया अर्जुन,  मैं जीवमात्र में धर्म के अविरुद्ध रहने वाला 'काम' हूँ ! अर्थात ईश्वर ही मनुष्यों के भीतर कामरूप में अर्थात कामना रूप में अवस्थित हैं। वे कहते हैं - " यदि मैं न रहूँ, तो मनुष्य कोई कामना भी नहीं कर सकता, इसीलिये सभी मनुष्यों के हृदय में मैं ही कामरूप में अवस्थित हूँ। "  [हमारे धार्मिक ग्रन्थों में काम को परब्रह्म की एक विधायी शक्ति के रूप में माना गया है। यह शास्त्रसम्मत काम परब्रह्म की उस मानसिक इच्छा का मूर्त रूप है, जो संसार की सृष्टि में प्रवृत्त होती है।  ईश्वर प्राणिमात्र के मन में  'स्मर ' या काम के रूप में रहते हैं।  काम का यह रूप हमारे भीतर सत्-चित्-आनन्द पैदा करता है। साफ है कि जो इच्छा धर्म के विरुद्ध जाए वह काम का विकृत रूप है। (शास्त्र इसे अपदेवता कहते हैं।) ब्रह्मसंहिता कहती है कि धर्म के अविरुद्ध रहने वाला काम साक्षात् विष्णुस्वरूप है। ]  
उसी प्रकार से हमारे ऋषियों ने अर्थ की भी प्रशंसा की है। महाभारत में एक सुन्दर उदाहरण दिया गया है, गीता-उपदेश के बाद जब अर्जुन लड़ने को तैयार हो गये तो एकाएक देखते हैं कि युधिष्ठिर कवच वगैरह उतार के नंगे पाँव कौरवों की सेना की ओर तेजी से बढ़े जा रहे हैं। देखते ही अर्जुन आदि सभी घबरा गये। हालत यह हो गयी कि ये पाँचों भाई कृष्ण के साथ उनके पीछे-पीछे दौड़े जा रहे हैं और कहते जा रहे हैं कि राम, राम, यह क्या कर रहे हैं? ऐन वक्त पर आप यह कहाँ चले? क्या युध्ष्ठिर युद्ध नहीं करेंगे, या और कुछ करने जा रहे हैं ? जब युधिष्ठिर न रुके, तो कृष्ण ने ताड़ लिया और लोगों को समझा दिया कि भीष्म आदि गुरुजनों से लड़ने के पहले आज्ञा लेने जा रहे हैं। यही शिष्टाचार हैं। इसी बीच युधिष्ठिर सभी के साथ ही पहले भीष्म के पास और पीछे क्रमश: द्रोण, कृप और शल्य के पास गये और चारों को प्रणाम करके लड़ने की आज्ञा तथा सफलता की शुभेच्छा चाही। उन्होंने युधिष्ठिर को आज्ञा दी और शुभेच्छा भी जाहिर की। मगर सभी ने एक बात ऐसी कही जो विचारणीय हैं। चारों के मुख से एक ही श्लोक निकला, जो इस प्रकार हैं-   
''अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। 
इति सत्यं महाराज, बध्दोऽस्म्यर्थेन कौरवै:।''
 इसका सीधा अर्थ यही हैं कि ''महाराज, इस जगत में सभी पुरुष अर्थात सभी मनुष्य अर्थ के दास होते हैं। आदमी पैसे का गुलाम होता हैं, न कि आदमी का गुलाम पैसा, यही पक्की बात हैं। इसलिए हे महाराज भाग्य के दोष से अर्थ के कारण ही कौरवों ने हमें गुलाम बना लिया हैं।''  पितामह भीष्म,  जिन्हें मौत पर भी कब्जा हो और जो अपनी मर्जी के खिलाफ न तो हार सकें और न मर सकें, जब उनके जैसे लोग भी संसार के इस नियम को स्वीकार करते हैं, और इसे अटल (पक्का) नियम मानते हैं, और हिम्मत के साथ तदनुकूल ही अपनी स्थिति कबूल करते हैं, तो मानना ही पड़ेगा कि अप्रिय होने से भी- कि पुरुष अर्थ का दास होता है !' इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हमारे देश के पूर्वज लोग अच्छी तरह से जानते थे, कि हमारे जीवन में अर्थ की कितनी महत्ता है। इसीलिये उन्होंने ने अर्थ की कभी निन्दा नहीं की है। हमलोगों के देश में कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा लिखित सुन्दर अर्थशास्त्र बहुत प्रसिद्द था।
उसी प्रकार हमारे पूर्वजों ने यह भी कभी नहीं कहा है, कि जीवन में काम की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि काम या कामना को नियंत्रित रखना या परिमित (restrained) रखना आवश्यक है। कामनाओं को पूर्ण करने के लिये अर्थ की आवश्यकता अवश्य है; किन्तु अर्थ का उपयोग कहाँ करना है,उसके  व्यवहार को भी नियंत्रित रखना आवश्यक है। जिस प्रकार कामना-वासना के बेलगाम अत्याचार को सहन करते रहना उचित नहीं है; उसी प्रकार अर्थ का बिल्कुल दास बन जाना भी ठीक नहीं है। यदि कामनाओं को अत्यधिक छूट दे दी जाये, और अर्थ की वासना को परिमित नहीं रखा जाय तथा- 'और धन चाहिये', और धन चाहिए, करते रहा जाय तो मनुष्य की हालत कैसी हो जाएगी ?  इसका वर्णन गीता १६/१३ में बहुत अच्छे से किया गया है- 
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌। 
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌
- आज इस समय तो मैंने इतना धन प्राप्त किया है तथा इस धन से अमुक मनोरथ -- मनको संतुष्ट करनेवाला पदार्थ और प्राप्त करूँगा। और अब कल इस मनोरथ को -(बीच बाजार में एक बड़ा सा प्लोट ) प्राप्त कर लूँगा। इतना धन तो मेरे पास है और यह इतना धन मेरे पास अगले वर्ष में फिर हो जायगा? उससे मैं धनवान् विख्यात हो जाऊँगा। 

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
 ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी
भावार्थ : (इसमें जो एक प्रोपर्टी डीलर बाधक शत्रु था ) आज वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया, और कल उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, इस प्रकार मेरा प्रभुत्व क्रमशः बढ़ता जायेगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ॥14॥श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र के रणांगण में जिस समय अर्जुन को उपदेश देते हैं, कितनी अद्भुत बात कह रहे हैं। उनका  यह कथन बिल्कुल मानो आज के सामाजिक जीवन की अवस्था को उजागर कर रहा है। 
हमारे शास्त्रों में काम और अर्थ को त्याज्य नहीं कहा गया है, हमारे पूर्वजों ने केवल उन्हें नियंत्रित रखने या परिमित करने का उपदेश दिया है।  किन्तु अर्थ और काम के  उपर नियंत्रण रखने का उपाय क्या है ? केवल धर्म के द्वारा ही अर्थ और काम को नियंत्रण में रखा जा सकता है। धर्म का आश्रय लेकर, अर्थ और काम का भोग करो। और जब यह बात समझ में आ जाये कि भोगों में ही सबकुछ नहीं है। जब यह दिखाई देने लगे कि भोगों से यथार्थ शान्ति, आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता है, तब उस अवस्था में मनुष्य के चौथे पुरुषार्थ-मोक्ष को प्राप्त करने की आकांक्षा करनी चाहिये, और उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये । किन्तु उन चार पुरुषार्थों में से किसी एक में ही आसक्त नहीं होना चाहिये। षड्जगीता  ३८ में कहा गया है-
 धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या,यस्त्वेकसेवी स नरो जघन्यः । 
द्वयोस्तु दक्षं प्रवदन्ति मध्यं, स उत्तमो यो निरतिस्त्रिवर्गे
 यह जो 'धर्म-अर्थ-काम ' का त्रिवर्ग है, उसकी तुलना चतुर्थ वर्ग -मोक्ष के साथ नहीं हो सकती है।  इसलिये इन तीनों में -किसी भी एक प्रति आसक्त नहीं होना चाहिये, या किसी एक में ही अटके नहीं रहना चाहिये। जो किसी एक में ही आसक्त हो जाता है, उसको घृणित या निन्दनीय माना जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने भी हमलोगों को ठीक यही सन्देश दिया है, वे हमलोगों को पूर्ण उद्द्य्म के साथ अर्थ-उपार्जन के लिये उत्साहित करते हुए कहते हैं- " धन कमाना चाहता है ? तो अमेरिका चला जा। मैं तुमको व्यापार करने की बुद्धि दूंगा। ....यहाँ बैठे रहने से क्या होगा ? यदि जाने का भाड़ा नहीं हो, तो जहाज का खलासी बनकर विदेश चला जा। देशी कपड़ा, गमझा, चद्दर को गट्ठर बना कर सिर पर लेकर अमेरिका-यूरोप की गलियों में फेरी लगा। कुछ छोटी छोटी वस्तुओं को वहां बेचो। देखोगे यही करते करते थोड़े दिनों में बुद्धि खुल जाएगी। तब देखोगे कि वे लोग भी तुम्हें सहायता देने लगेंगे। " भारत के सभी स्त्री-पुरुषों को कह रहे हैं, तू सभी लोग मिल कर कमाओ, कहते हैं- क्या तुमलोग जेली,चटनी, आचार बना सकते हो ? इसको भी तुम विदेशों में निर्यात कर सकते हो। ये सब बिजनेस टिप्स स्वामीजी दे रहे हैं। कहते हैं, तुम्हारे पास कल-कारखाने कहाँ हैं ? " आज उनके जाने के १५० वर्ष बाद भी हमलोग बड़े बड़े कल-कारखाने लगाने की चर्चा करते हैं। स्वामीजी ने ये बातें कितने दिनों पहले कही थीं। 
एक बार जहाज से जापान जाते समय स्वामीजी की मुलाकात जमशेदजी टाटा के साथ हुई थी। रास्ते में  बातचीत होने लगी। स्वामीजी के पूछने पर जमशेदजी ने बतलाया कि वे दियासलाई का आयात करने के लिये जापान जा रहे हैं। स्वामीजी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा " आप दियासलाई आयात करने जापान जा रहे हैं ? उसमें क्या रहता है ? पतली सी लकड़ी का बना बॉक्स होता है, भीतर कुछ पतली पतली लकड़ी की कील (सलाई) रहती है, जिसके माथे पर थोड़ा बारूद लगा रहता है। ऐसी साधारण सी चीज का आयात करने जापान जा रहे हैं ? आप इसे भारत में निर्मित क्यों नहीं कर सकते हैं ? भारतवर्ष में ही इसका निर्माण कीजिये न। जो भी उद्द्योग लगाना हो, उसे भारत में ही लगाइये।" इसी मुलाकात के बाद से जमशेदजी के मन में उद्द्योग लगाने का धुन सवार हो गया। इसीके बाद जमशेदजी टाटा ने जमशेदपुर, झारखण्ड में एक बहुत बड़ा उद्द्योग स्थापित किया। उनकी प्रेरणा के श्रोत स्वामीजी ही थे।
आगे चलकर स्वामीजी के परामर्श से ही उन्होंने  विज्ञान के उपर एक शोध-संस्थान भी स्थापित किया था। भारत का प्रथम कृषि शोध-संस्थान भी स्वामीजी की ही प्रेरणा से अल्मोड़ा में स्थापित हुआ था, यह शोध-संसथान भारत के लिये अद्भुत वरदान सिद्ध हुआ है। उस समय स्वामीजी शरीर में ही थे। शोध-संस्थान खोलने के बाद जमशेदजी ने स्वामीजी से अनुरोध किया कि आप ही इसके डाइरेक्टर (directer) बन जाइये। वे समझ गये थे कि स्वामीजी के पास कॉमन सेन्स का भण्डार है, उनके शांत और परिष्कृत मन में इन सब के उपर नये नये विचार उठते ही रहते हैं। स्वामीजी के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी। किन्तु स्वामीजी ने बहुत विनय के साथ उनके  डाइरेक्टर होने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। क्योंकि स्वामीजी का यह कार्य था ही नहीं। आज तो भारत में कई शोध-संसथान खुल चुके हैं, किन्तु भारत का प्रथम शोध-संस्थान स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से ही स्थापित हुआ था। वे कहते हैं, " तुमलोग जो कुछ भी करो-अपने देश में ही (स्थापित ) करना। तुमलोग विदेश जाओ और वहाँ से तकनिकी ज्ञान सीख कर अपने देश में कल-कारखाने स्थापित करो। फिर कहते हैं, तुमलोग जापान जाओ, वहां से मशीन निर्माण की कला सीखो, और देश की धरती पर नयी नयी वस्तुओं का उत्पादन करो।"कहते हैं, भारत में तो खनिज पदार्थों की तो भरमार है। विदेशी लोग उसी कच्चे-माल का उपयोग करके, नये रूप में ढाल कर, पुनः उसे भारत में बेचकर  सोना उगा रहे हैं। और तुमलोग देश में इतनी खनिज-सम्पदा रहने पर भी कुछ नहीं कर पा रहे हो ? वे तो यहाँ तक कहते हैं, कि " तुमलोग 'luxury goods' या विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन भी प्रारम्भ करो। कहते हैं, बहुत अधिक भोग में डूबे रहना अवश्य अच्छा नहीं है; किन्तु अधिक परिमाण  में  'consumer goods' का उत्पादन करने से क्या होगा -जानते हो ? इससे देश में नये नये रोजगार के अवसर पैदा होंगे।(3/334) "
स्वामीजी ने अर्थ की निन्दा कभी नहीं की है, और न काम की ही निन्दा किये हैं। उन्होंने अर्थ की उत्पत्ति करने को कहा है, भोग भी करने को कहा है, कहते हैं- सब कुछ करो, किन्तु धर्म के द्वारा उसको नियंत्रण में रखो। स्मरण रहे कि अर्थ और काम का भोग करने में अन्धे होकर धर्म का त्याग नहीं करना है। यदि धर्म को त्याग कर यह सब करोगे तो सब कुछ नष्ट हो जायेगा।अल्बर्ट आईन्स्टाईन एक विश्व-विख्यात वैज्ञानिक हैं, विज्ञान की प्रगति के विषय में विवेचना करते समय एक स्थान पर वे कहते हैं, अच्छा आज विज्ञान में इतनी प्रगति आप देख रहे हैं, उसकी प्रेरणा का श्रोत कहाँ है ? सुनकर आश्चर्य होता है, वे कहते हैं- नूतन वैज्ञानिक अविष्कारों की प्रेरणा का श्रोत है धर्म। यदि धर्म नहीं होता तो विज्ञान में ऐसी प्रगति भी नहीं हो सकती थी।
स्वामीजी कहते है, यदि धर्म को आधार मान कर लोक-व्यवहार करोगे, तो तुम्हारी बुद्धि स्फुरित होने लगेगी, तुमलोगों की कार्यक्षमता (efficiency) बढ़ जाएगी, जीवन का भोग दक्षता के साथ कर पाओगे, बेकार बैठे लोगों को, बेरोजगार लोगों को तुम स्वयं रोजगार देने में समर्थ हो जाओगे। वे एक स्थान पर अत्यंत आश्चर्य जनक बात कहते हैं, कहते हैं-धर्म का अर्थ है भोग ! इसको समझाते हुए कहते हैं, तुम्हारे वेदों में क्या है ? देखो समस्त वेद में है, केवल भोग, भोग और भोग। वेदों के संहिता भाग में केवल यही कहा गया है कि किस प्रकार मनुष्य को इहलोक और परलोक में अधिक से अधिक भोग और सुख प्राप्त हो सकता हैं? स्वामीजी कहते हैं कि भोग पूरा हुए बिना त्याग नहीं हो सकता है। मोक्ष, त्याग या वैराग्य तो सबसे अन्तिम बात है। सामान्य मनुष्यों के लिये पहले भोग को पूरा करना आवश्यक होता है। और इसकेलिये अर्थ उपार्जन करना भी आवश्यक होता है। किन्तु इन दोनों को नियंत्रित रखने के लिये धर्म की आवश्यकता होती है।

व्यवहारिक जीवन में धर्म का अर्थ है, हमलोग बहुत बड़े कर्मवीर बनेंगे, सबकुछ करेंगे, किन्तु धर्म को भी बनाये रखना होगा। स्वामीजीने भारतीय लोगों की तीखे शब्दों में निन्दा भी की है। वे कहते हैं, तुमलोग पूरी तरह से तमोगुण द्वारा भर गये हो। तुमलोग माटी के पुतलों के सदृश्य हो। तुमलोगों के इस जड़ शरीर को हिलाडुला कर जगाने के लिये ही मैं धरती पर आया हूँ। मैं तुमलोगों में रजोगुण का संचार करना चाहता हूँ। कहते हैं, तुमलोग रजोगुण के बल पर खड़े हो जाओ। हम सभीलोग रजोगुण के लक्षण के विषय में जानते हैं, रजोगुण से प्रेरित मनुष्य निरंतर कर्म करने में लगा रहता है। इसीलिये कहते हैं, तुमलोगों में रजोगुण का संचार हो। तुमलोग कर्मठ या कर्मतत्पर मनुष्य बनो। नई नई वस्तुओं का निर्माण करो, जीवन में भोग करो, किन्तु यह सब धर्म के द्वारा संचालित होकर करो; किन्तु  यह भी याद रखना कि समस्त भोग करके भी यथार्थ शान्ति नहीं मिलेगी।
हमारे देश की बहुत प्राचीन कथा है, राजा ययाति की कहानी को हम सभी लोग जानते हैं। हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ है, रजा भरत के नाम पर। वे उसी राजा भरत के पूर्वज थे। उनका नाम ययाति था। राजा ययाति की कहानी वेदों में है, पुराणों में भी है, विभिन्न धर्मग्रंथों के माध्यम से भी हमलोगों में से अधिकांश उसकी कहानी सुने हैं। वे धर्म को भूल कर केवल अर्थ और काम में डूबे रहते थे। उनकी अवस्था ऐसी होगयी थी कि जीवन में बहुत भोग करने के बाद भी उनको तृप्ति नहीं हुई, उनको शान्ति नहीं मिली। एक बार उन्होंने कोई  बहुत बड़ा दुष्कर्म कर दिया, उससे अभिशप्त होकर बुढ़ापे से ग्रस्त हो गये थे। बुढ़ापा के कारण वे संसार के सामान्य भोग करने में वे असमर्थ हो गये थे। जिस व्यक्ति ने उनको शाप दिया था, उसके पास जाकर वे बहुत अनुनय-विनय करने लगे कि उनको किसी प्रकार इस बुढ़ापे से मुक्ति प्राप्त हो जाय। उन्होंने कहा एक बार जब शाप दे दिया हूँ, तो उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। किन्तु एक उपाय हो सकता है। यदि कोई दूसरा व्यक्ति, या कोई युवा तुम्हारे बुढ़ापे को ले ले, और अपना यौवन तुमको प्रदान करदे, तब तुम फिर से अपनी जवानी को वापस प्राप्त कर सकते हो। वे भला किससे यह बात कह सकते थे ? उन्होंने अपने पुत्र से ही यह बात कही, और उसके यौवन के बदले अपना सम्पूर्ण राज्य देने का वादा किये। उनका सबसे छोटा पुत्र इसके लिये तैयार हो गया। उसने ययाति से उसका बुढ़ापा ग्रहण करके अपना यौवन उसको सौंप दिया। कहा जाता है कि अपने पुत्र के यौवन को लेकर राजा ययाति ने जगत के हर सुख का भोग किया। सबकुछ का भोग करने के बाद भी देखे कि उसमें शान्ति नहीं है। काम का उपभोग करके कामना को प्रशमित नहीं किया जा सकता है। काम का उपभोग करते रहने से कामना भी उसी प्रकार क्रमशः बढ़ती जाती है, जिस प्रकार आग में घी डालने से आग क्रमशः और भी बढ़ती जाती है। उसी प्रकार कामना को परिपुष्ट करते रहने से, वह कभी प्रशमित नहीं होती, बढ़ती ही जाती है। इससे कभी शान्ति नहीं मिलती। संसार में जितने भी भोग्य वस्तुयें हैं, जितना भी ऐश्वर्य है, जितनी भी सम्पदा है, वह सब का सब किसी एक ही मनुष्य को दे दिया जाय फिरभी उसको कभी तृप्ति नहीं मिल सकती है। यह जान लेने के बाद अन्त में सभी मनुष्यों कामना-वासना का त्याग करना ही पड़ता है। यही है हमलोगों के देश की शिक्षा।
इसीलिये हमलोगों के व्यावहारिक जीवन में धर्म का क्या स्थान है- इसे भली भाँति समझ लेना आवश्यक है। धर्म की सहयता लिये बिना यदि हमलोग भोग के जीवन, अर्थ उपार्जन और व्यबहार के जीवन को जीते रहें, तो हमलोगों का जीवन अन्तिम अवस्था में अशान्ति से भर जायेगा। हममें से अधिकांश लोगो के जीवन में यही हो रहा है। जीवन में धन-दौलत का अम्बार खड़ा कर लिये, गाड़ी-जमीन-मकान-दुकान, रुपया-पैसा बहुत कम लिये। किन्तु अन्तिम अवस्थामे जीवन में घोर अशान्ति छा गयी। पेट फुल गया, बदहजमी का शिकार बन गये, ब्लडप्रेशर,सुगर इत्यादि रोग पकड़ लिया, और लड़के-बच्चों में धन-दौलत को लेकर झगड़ा और केस-मुकदमा चलने लगा। कुछ खा नहीं सकते हैं, ठीक से चल नहीं पाते हैं, रात में नीन्द नहीं आती है। किन्तु धन के घड़ियाल हैं। घर में हर प्रकार की भोग-सामग्री है, किन्तु शान्ति नहीं है, कुछ भी नहीं है। उसी टेन्टलस के नरक जैसी अवस्था है। गले तक जल में ही डूबा हुआ हूँ, किन्तु एक बून्द जल मुख में डालने का उपाय नहीं है। तृष्णा से छाती फटी जा रही है, किन्तु किन्तु उसको मिटाने के लिये, एक बून्द जल ग्रहण करने का उपाय नहीं है। चारो और भोग की वस्तुएं बिखरी पड़ी हैं, देख-देख कर ललचा रहे हैं, किन्तु भोग करने की हिम्मत नहीं है, फिर भोग की इच्छा बनी हुई है, शान्ति नहीं मिलती है। इसीलिये जीवन के प्रारंभ में ही धर्म क्या है, इसे ठीक से समझकर जीवन के समस्त कार्यों में उसका ही सहारा लेकर चलना हमलोगों का कर्तव्य है।
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मूल बंगला पुस्तक 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना-निबन्ध संख्या -50 - 'ব্যবহারিক জীবনে ধর্ম'
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[The institute was established at Kolkata by Padma Bhushan late Prof. Boshi Sen on July 4, 1924 and named it as Vivekananda Laboratory.  The Laboratory was permanently shifted to Almora in 1936 and was being run on donations and grants till it was handed over to Uttar Pradesh Government in 1959. On October 1, 1974, ICAR took it over and rechristened it as Vivekananda Parvatiya Krishi Anusandhan Sansthan.]
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 " If the many and the One be indeed the same Reality, then it is not all modes of worship alone, but equally all modes of work, all modes of struggle, all modes of creation, which are paths of realisation. No distinction, henceforth, between sacred and secular. To labour is to pray. To conquer is to renounce. Life is itself religion. To have and to hold is as stern a trust as to quit and to avoid.

" आध्यात्मिक (spiritual ) और व्यावहारिक (practical ) जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है, उसे मिट जाना चाहिये; क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड जीवन (सत्ता) के सम्बन्ध में उपदेश देता है-वेदान्त कहता है कि एक प्राण सर्वत्र विद्यमान है। अतः धर्म के आदर्शों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रविष्ट करना चाहिए, हमारे प्रत्येक विचार में प्रविष्ट करना चाहिये और कर्म को अधिकाधिक प्रभावित करना चाहिये। पहले हमें अपने दैनन्दिन जीवन में तात्विक ज्ञान का प्रयोग करना चाहिए, और यह समझना चाहिये कि ये सिद्धान्त किस तरह पर्वतों की गुफाओं और अरण्यों, मठों की चहारदीवारियों में से निकलकर किस प्रकार कोलाहल पूर्ण नगरों, और जीवन के व्यस्ततम कार्यक्षेत्रों में भी कार्यान्वित किये गए हैं ? इन सिद्धान्तों, वेदान्त के महावाक्यों - की एक विशेषता यह कि इनमें से अधिकांश निर्जन अरण्यों में तपस्या करने से प्राप्त नहीं हुए हैं, किन्तु जिन व्यक्तियों को हमलोग सर्वाधिक व्यस्त या कर्मण्य मानते हैं, वैसे राजसिंहासन पर बैठे राजर्षि जनक, दसरथ आदि अनेक राजा -महाराजा ही तात्विक ज्ञान के प्रणेता हैं ! " 8/3   
PRACTICAL VEDANTA/ PART I:  " the fictitious differentiation between religion and the life of the world must vanish, for the Vedanta teaches oneness — one life throughout. The ideals of religion must cover the whole field of life, they must enter into all our thoughts, and more and more into practice....  we must first apply ourselves to theories and understand how they are worked out, proceeding from forest caves to busy streets and cities; and one peculiar feature we find is that many of these thoughts have been the outcome, not of retirement into forests, but have emanated from persons whom we expect to lead the busiest lives — from ruling monarchs."

The Vedanta recognises no sin, it only recognises error.....  Every time you think in that way, you, as it were, rivet one more link in the chain that binds you down, you add one more layer of hypnotism on to your own soul. Therefore, whosoever thinks he is weak is wrong, whosoever thinks he is impure is wrong, and is throwing a bad thought into the world. This we must always bear in mind that in the Vedanta there is no attempt at reconciling the present life — the hypnotised life, this false life which we have assumed — with the ideal; but this false life must go, and the real life which is always existing must manifest itself, must shine out. No man becomes purer and purer, it is a matter of greater manifestation. The veil drops away, and the native purity of the soul begins to manifest itself. Everything is ours already — infinite purity, freedom, love, and power. वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता, भ्रम स्वीकार करता है। ... जो व्यक्ति अपने को दुर्बल समझता है, वह भ्रान्त है, जो अपने को अपवित्र मानता है, वह भ्रान्त है। वह जगत में एक असत विचार प्रवाहित करता है। हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि वेदान्त में हमारे इस वर्तमान हिप्नोटाइज्ड-जीवन, हमारे द्वारा सम्मोहित होकर स्वयं को केवल शरीर मानकर, मृत्यु के भय से भेंड़ के समान 'में- में' करते हुए मिमियाने वाले मिथ्या जीबन का -भेंड़त्व का त्याग कर अपने यथार्थ सिंह-स्वरुप में प्रतिष्ठित हो जाने का उपदेश देता है। ऐसा होने पर इस वर्तमान परिवर्तनशील हिप्नोटाइज्ड जीवन के पीछे जो शाश्वत अविनाशी भ्रममुक्त, जीवन सदा वर्तमान है, वह अमरत्व, वह जीवनमुक्ति अपने को प्रकाशित करने लगेगी। यह नहीं कि मनुष्य पहले की अपेक्षा अधिक पवित्र हो जाता है, बात केवल स्वरुप या सिंहत्व के अधिकाधिक अभिव्यक्ति की है। विवेक-प्रयोग करते रहने से आवरण क्रमशः हटता जाता है, और आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता प्रकाशित होने लगती है। यह अनन्त पवित्रता , जीवन्मुक्त स्वभाव , प्रेम और ऐश्वर्य पहले ही से हममें में है।       
    मनुष्य मनुष्य के बीच जो भेद है वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थिति और अभाव की तारतम्यता पर निर्भर है। ... जिसमें आत्मविश्वास नहीं है, वही नास्तिक है। प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर और धार्मिक शास्त्रों ( वेद, बाइबिल ,कुरान,आदि में विश्वास नहीं करता , वह नास्तिक है। नूतन धर्म कहता है , जो आत्मविश्वास नहीं रखता, वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास केवल इस व्यष्टि अहं बोध या क्षुद्र 'मैं'-बोध को लेकर नहीं है, क्योंकि वेदान्त एकत्ववाद की भी शिक्षा देता है। 8/12     
हमारे आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है , उसे मिट जाना चाहिये; क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु के सम्बन्ध में उपदेश देता है -वेदान्त कहता है कि एक ही प्राण सर्वत्र विद्यमान है।केवल एक ही जीवन है, एक ही जगत है, और वही हमलोगों के सामने अनेकवत प्रतीत होता है। यह अनेकता स्वप्न सदृश है। 





शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

" जीवन्मुक्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित शिक्षक के महाजीवन का संदेश ' ['एक युवा आन्दोलन' -निबन्ध शंख्या- 8 ]

['एक युवा आन्दोलन' -निबन्ध शंख्या- 8 / मूल बंगला पुस्तक 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना' निबन्ध संख्या -9 -' স্বামী বিবেকানন্দের চিন্তাধারা !"] 
महाजीवन का संदेश 
'जीवन्मुक्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में गठित (प्रशिक्षित शिक्षक) स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा (ideology) को सम्यक रूप से समझ लेना बहुत ही कठिन है। उनके किसी एक निबन्ध या भाषण में किसी एक विषय पर, चाहे उसमें जितना भी तथ्यपूर्ण या अर्थपूर्ण  विश्लेषण क्यों न प्रस्तुत किया गया हो, उन विचारों के प्रवाह को एक ही दिशा में प्रवाहित देखकर, यदि यह समझ लिया जाय कि स्वामी जी विचारधारा मात्र यही है; तो उस विचारधारा के संबंध में यह सम्यक अवधारणा नहीं हो सकती। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द की पुस्तकों को नियमित रूप से पढ़ना और उसपर मनन करना, फिर उन्हें चरित्रगत करना अत्यन्त आवश्यक है। स्वामी जी को आराम से बैठकर समस्त विषयों के उपर सारगर्भित निबन्ध लिखने का या तो समय मिला था, या उन्होंने इसकी आवश्यकता महसूस नहीं की थी। किन्तु, फिर भी अपने कथोपकथन के द्वारा या भाषणों अथवा पत्रों के माध्यम से, या कभी कुछ अस्फुट नोट आदि लिखकर उन्होंने समस्त विषयों की गहराई में जाकर, उनको हमारे समक्ष अत्यन्त स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है।
जब हम अन्य विचारकों के द्वारा बहुत से विषयों पर लिखित पुस्तकों का अध्यन करते हैं, तो उन विषयों पर स्पष्ट धारणा बनाने में हमारी बुद्धि भ्रमित हो जाती है। किन्तु, यदि स्वामी जी की विचारधारा (ideology) या  विचार-पद्धति के साथ हमारा सम्यक परिचय हो जाये तो, वे समस्त भ्रम-भ्रान्तियाँ तो दूर होंगी ही, साथ ही साथ हम प्रत्येक विषय के यथार्थ भाव के मूल में पहुँचकर सहजता से उसकी स्पष्ट धारणा भी बना सकेंगे।इतना ही नहीं, हम उस धारणा को हम अपने जीवन में उतार लेने में समर्थ होंगे और हमें यह अवश्य ही करना चाहिये। हमें यह अवश्य समझ लेना चाहिये कि भले ही कोई तात्विक ज्ञान कितना भी महान और सुन्दर क्यों न हो, जब तक वह ज्ञान कार्य में रूपायित नहीं हो जाता, तब तक हमारे जीवन के लिये उसका कुछ भी मूल्य नहीं है। किसी भी ज्ञान का मूल्य उसको व्यवहार में उतारने तथा उससे प्राप्त उसके शुभ फल पर निर्भर करता है। 
[PRACTICAL VEDANTA: "My doxy is orthodoxy; your doxy is heterodoxy."  " मेरा धर्म सत्यधर्म है, तुम्हारा धर्म पाखण्ड है ! ] 
किसी तात्विक -ज्ञान को व्यवहार में उतारने अथवा उसे चरित्रगत करने के लिए, जब उसके ऊपर गहराई से चिन्तन-मनन किया जाता है, तब उस प्रकार के चिन्तन को " Pragmatic Thinking" या व्यावहारिक चिन्तन कहा जाता है। इसीलिये, 'Pragmatism**' या प्रयोगात्मक सिद्धान्तों को एक दार्शनिक मतवाद के रूप में भी स्वीकार किया जाता है। किन्तु, आजकल किसी के विचार को ठीक से जाने-समझे बिना ही उसके साथ 'ism' या 'वाद' जोड़ देने की प्रथा सी चल पड़ी है। (जैसे श्रीशंकर का अद्वैतवाद, श्रीरामानुज का विशिष्टा-द्वैतवाद, श्री चैतन्य का भेदाभेद-वाद आदि आदि;  एक विश्वास या विश्वास करने की प्रणाली को 'वाद' कहा जाता है।)  इसीलिये स्वामी विवेकानन्द की विचारपद्धति (ideology) को भी ठीक से जाने- समझे बिना, उनके लिए कोई विशेष वाद जोड़ने की हड़बड़ी में कह दिया जाता है कि,  स्वामी जी तो एक भावराज्य में विचरण करने वाले, कल्पनावादी या एक आदर्शवादी (Idealistic) मानव थे। हाँ, यह ठीक है कि स्वामी विवकानन्द भावराज्य या मनोराज्य में विचरण करने वाले एक कल्पनाशील (Imaginative) मनुष्य थे, किन्तु उनके लिए इस विशेषण का प्रयोग तभी किया जा सकता है, जब कहने वाले और सुनने वाले यह अच्छी तरह से जानते और समझते हों कि यह समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड ही मनःकल्पित है ! इसीलिये विचारों को ही सबसे प्रभावकारी वस्तु माना जाता है !
[ ऑटोसजेशन का अभ्यास को Most effective,मति = bias, बुद्धि के पक्षपातपूर्ण झुकाव, पूर्वाग्रह को ही सबसे प्रभावकारी वस्तु माना जाता है। अवधूत गीता -२/२६ में कहा गया है-"अंते या मति: सा गति:" अर्थात जब प्राण निकले, उस क्षण  हमारी जैसे मति हो वैसी ही हम को गति मिलेगी। अंतिम समय में ही मनुष्य के लिए 'मुक्ति या बंधन' तय हो जाता है। 'या मति सा गतिर्भवेत',अपने भेंड़ समझोगे तो भेंड़ ही बने रहोगे, अपने को सिंह समझोगे तो सिंह बन जाओगे !  इसीलिए कहना पड़ेगा कि इस मनःकल्पित जगत में विचार या 'मति' ही सबसे प्रभावकारी वस्तु है।] 
किन्तुस्वामी जी के मतानुसार जीवन के जिस क्षेत्र को हमलोग वास्तविक या व्यावहारिक क्षेत्र (Practical Side) समझते हैं, जिसको हमलोग 'पंचेन्द्रीय ग्राह्य भौतिक जगत' या बाह्य जगत कहते हैं,  यदि हमारा तात्विक-ज्ञान जीवन के उस व्यावहारिक पक्ष के लिये ही उपयोगी न हुआ, या शुभफल प्रदान नहीं करता हो, तो उस तात्विक-ज्ञान या सिद्धान्त का कुछ भी मूल्य नहीं है। इसीलिये यदि गहराई में जाकर देखा जाय, तो स्वामी विवेकानन्द की विचारपद्धति या (ideology) भवराज्य की वस्तु न होकर, वास्तव में 'Pragmatic' या व्यवहार-मूलक विचार ही है! बल्कि सच तो यह है कि स्वामी विवेकानन्द जैसा व्यवहारिक विचार-सम्पन्न चिन्तक, या जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र के ऊपर सर्वाधिक जोर देने वाले सिद्धान्तवादी (theoretician) बहुत कम ही हुए हैं। फिरभी हमलोग यदि अधकचरे आलोचकों से प्रभावित होकर यह कहना शुरू करदें कि स्वामी जी एक ऐसे कल्पनावादी विचारक हैं, जो रहते तो धरती पर हैं, किन्तु हमेशा आसमान में ही विचरण करते रहते हैं; तो उससे उनकी शिक्षाओं के विषय में हमारी अज्ञता ही प्रदर्शित होगी। जबकि स्वामी जी की शिक्षा तो यह है कि -'उठो, जागो ! और जबतक लक्ष्य पर न पहुँचो रुको मत !' अर्थात चट्टानी भूमि पर खड़े होकर, साक्षी भाव से संसार की वास्तविकता को समझो ! वे हमें अपने पैरों पर खड़े होने की सीख देते हैं। उनका उपदेश था कि "चट्टानी भूमि पर पैरों को दृढ़ता पूर्वक स्थापित कर, बाँहों को फैला लो !" [अर्थात सम्पूर्ण विश्व को ही अपने आलिंगन में भर लो!] स्वामी जी वास्तव में एक उपयोगबुद्धि (resourcefulness, चातुर्य, उपायकुशलता ) सम्पन्न विचारक ही थे, इस बारे में सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती है।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द के साथ निकट सम्पर्क में आने से, सबसे अधिक लाभ वैसे व्यक्ति ही उठा सकते हैं, जो स्वयं को व्यवहारिकबुद्धि-सम्पन्न समझते हैं, या अपने को Pragmatic, या व्यवहारमूलक व्यक्ति मानते हैं। किन्तु उनकी शिक्षाओं में सन्निहित कूटशब्दों, जैसे "पहले हमें ईश्वर बन लेने दो, फिर दूसरों को ईश्वर बनने में सहायता करेंगे, 'Be and Make' let this be our motto " आदि महावाक्यों को 'decode' करने या समझने के लिए, हमें स्वामी विवेकानन्द के हृदय में प्रवेश करने की चेष्टा करनी होगी। परन्तु, ऐसा कर पाने में समर्थ हो जाना, उसी प्रकार सरल नहीं है, जिस प्रकार कोई मीर्च कितनी तीखी है, उसकी तिक्तता को ज्ञात करने के लिए किसी दूसरे के मुख का उपयोग नहीं किया जा सकता। अतः यदि हमलोग स्वामी जी के साथ निकट का सम्पर्क स्थापित करने के लिये उत्साहित हों, तो इतना जान लेने से ही काम नहीं चलेगा कि, उनके विषय में फलां -फलां व्यक्तियों का कहना है ?  स्वामी जी को जानने के लिये हमें (চর্চা ও চেষ্টা ) स्वयं प्रयत्न करके उनकी शिक्षाओं को आचरण में उतारने का अभ्यास द्वारा स्वामी जी के साथ साक्षात् संबंध स्थापित करना पड़ेगा। स्वामी जी ने स्वयं जो कुछ कहा है या लिखा है, उसके अविकृत (untwisted, un-distorted) अनुवाद को अच्छी तरह से पढ़ने के बाद, उसके उपर परस्पर गहन चिन्तन-मनन करने, और अपने आचरण में उतारने का प्रयत्न करने से ही हमलोग उनका सही परिचय प्राप्त कर सकते हैं, तथा हमारे लिए ऐसा करना प्रयोजनीय भी है। 
यूँ तो स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिया कार्य किया है, फिर भी उनकी प्रशंसा एक महान देशभक्त के रूप में की जाती है; और निश्चित ही इस विषय में कुछ लोग उनकी निन्दा भी करते हैं।सच पूछा जाये तो स्वामी जी का देशप्रेम सबसे विलक्षण और अनन्य है। एक स्थान पर उन्होंने कहा भी है, कि चाहे भारतवर्ष हो या अमेरिका एक सर्वत्यागी संन्यासी के लिये सभी एक समान हैं। किन्तु, फिर भी जब वे पहली बार विदेश से वापस लौटकर भारत की भूमि पर अपना कदम रखते हैं, तो कहते हैं- " अब मेरे लिये भारतवर्ष का धूल-कण भी पवित्र और महान है तथा वह मुझे प्राणो से भी ज्यादा प्रिय है।" ऐसा उन्होंने क्या सोचकर कहा होगा ? इस बात की व्याख्या कभी शब्दों में नहीं हो सकती।
 जिस विचाधारात्मक परम्परा (Ideological Tradition) में इस धारणा की उपलब्धि का स्रोत सन्निहित है, वही विचारपद्धति (ideology) हमारे निजी जीवन और विश्व भर के मानवों के लिए परम् कल्याणकारी है। उसी विचारधारात्मक परम्परा को "जीवन्मुक्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" या आधुनिक भाषा में " Puri Lineage ' अर्थात नित्य और लीला दोनों को सत्य मानने वाली परम्परा"  भी कहा जा सकता है। [जैसे श्रीमद तोतापुरी-श्रीरामकृष्ण; श्रीरामकृष्ण- स्वामी विवेकानन्द; स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर ....श्रीनवनीदा, श्रीशरदचन्द्र चक्रवर्ती .... आदि, आदि प्रशिक्षित/जीवन्मुक्त शिक्षकों की 'पुरी परम्परा'। इसको ही  महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर में "Be and Make Leadership training tradition" भी कहा जाता है।] 
इस विचारधारात्मक परम्परा (Ideological Tradition)  के जैसी उपादेय, इतना उपकारी भावधारा (ideology) और भी कहीं प्राप्त हो सकती है या नहीं , इसका ज्ञान हमें नहीं है। दूसरे कई विचारकों ने भी बहुत सी अच्छी-अच्छी  बातें कही हैं, जिनके कुछ सदविचारों को हम भी ग्रहण कर सकते हैं। किन्तु, जिनके मुख से जो भी वाणी निकली, वह केवल मानव-कल्याण के लिए ही हों, स्वामी विवेकानन्द (नवनीदा?) के सिवा वैसा कोई दूसरा उदाहरण दिखलायी नहीं पड़ता है। मानव-कल्याण के लिए जितने भी विचार उपयोगी हो सकते हैं, वैसे समस्त विचारों के अकूत भण्डार होने के कारण स्वामी जी अनन्य हो जाते हैं। वे हमारे लिए विस्मय और श्रद्धा के पात्र बन जाते हैं; इसीलिये महामण्डल ने उनको अपने आदर्श के रूप में ग्रहण किया है। सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिये स्वामी जी ने अनेक विषयों के ऊपर अपने विचारों को, अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द के उन समस्त विचारों और उक्तियों में  "नित्य और लीला" के बीच एक संगतता (consistency) है, अविरोध की आन्तरिक धारा है, एक आश्चर्यजनक संसर्ग (Exceptional link) है। 
और इसी 'अविरोध' के आधार पर उन्होंने जाति-प्रथा और नारी-शिक्षा से प्रारम्भ कर सभी कल्याणकारी भावों, अन्तरराष्ट्रीय एकता या विश्व-शांति आदि विभिन्न ज्वलंत समस्याओं का अचूक समाधान भी हमारे समक्ष रखा है। किन्तु, अन्य विचारकों के जैसा एक एक विषय (topic) को अलग -अलग ढंग से लेते हुए, उनके बारे में बहुत सोच-सोच कर कुछ नहीं कहा है। इस समग्र विश्व ब्रह्माण्ड का 'सत्य ' उनकी आँखों के सामने मानो हर क्षण तैरता रहता था। इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का सत्य -अर्थात केवल 'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या' ही नहीं, बल्कि 'नित्य भी सत्य है और लीला भी सत्य' 'वन हैज बिकम दी मेनी!' यह सत्य उनकी आँखों के सामने सदैव बना रहता था। क्योंकि उन्होंने (জগৎ ও জীবনের ভূয়োদর্শন) उन्होंने " जगत और जीवन" का साक्षात् दर्शन ('भूयोदर्शनoutrageous experience, अर्थात  परमसत्य और सापेक्षिक सत्य के बीच एक  चौंका देने वाला अनुभव!) प्राप्त किया था।
क्योंकि वे तो थे ही 'विवेकज ज्ञान' के अधिकारी महापुरुष। इसी अधिकार के बल पर उनके लिए समस्त समस्याओं के तह में जाकर उसका चिरस्थाई निदान (Sustainable Diagnosis) खोज पाना आसान हो गया था। और तभी तो, उनके लिए इतने सारे विषयों के ऊपर , इतने अधिकार पूर्ण ढंग से-व्याख्यान देना सम्भव हो सका था। अतः हमलोगों को पहले यह समझ लेना चाहिए कि शास्त्रविरोधी कर्मों या निषिद्ध कर्मों से विरत हुए बिना,किसी साधारण अविवेकी-मनुष्य के जैसा (पाशविक) जीवन व्यतीत करते हुए,  हम स्वामी विवेकानन्द का सम्यक परिचय कभी नहीं प्राप्त कर सकते। 
स्वामी विवेकानन्द की विचारपद्धति (ideology) का सम्यक अन्वेषण केवल विवेक-प्रयोग द्वारा ही सम्भव हो सकता है, क्योंकि उनका तो नाम ही विवेकानन्द था; जिसका अर्थ होता है-वह महापुरुष जिसने 'विवेकज-ज्ञान' के माध्यम से 'परमानन्द' के ऊपर अधिकार प्राप्त किया है। [और जैसे नवनीहरण ने नाम का अर्थ है जिसने अद्वैत माखन को चुरा लिया है ?] हमलोग भी उन्हीं के समान अद्वैत ज्ञान  को प्राप्त करना चाहते हैं, 'अमर-आनन्द' के भागीदार (sharers of immortal bliss) बनना चाहते हैं, सभी प्रकार के दुःखों से निवृत्ति चाहते हैं। किन्तु , हमारी मुश्किल यह है कि  हमलोग उनके समान अपनी अन्तर्निहित 'विवेक-शक्ति' का प्रयोग करने की चेष्टा नहीं करते। 
विवेक का प्रयोग कैसे किया जाता है ? इस विद्या को हम यदि सीख लें तो हम भी दुःख के कारणों को समूल नष्ट कर सकते हैं। विवेक का अर्थ होता है, 'सद-असद निर्णय।' अर्थात शाश्वत क्या है, नश्वर क्या है, श्रेय क्या है, प्रेय क्या है- विवेक-प्रयोग करने के बाद इसका निर्णय करना फिर उसे अपने व्यवहार में उतारने की चेष्टा करना। इसी को प्रचलित भाषा में शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित का निर्णय करना कहते हैं। किन्तु उचित-अनुचित का निर्णय करते समय हमलोग अक्सर भ्रमित हो जाते हैं। क्योंकि, हमलोगों की स्वाभाविक वृत्ति ही ऐसी है कि जो विषय इन्द्रियों को अच्छे लगते हैं, मन उसी को अपने लिए अच्छा मानने लगता है, और ग्रहण करना चाहता है। जो इन्द्रियों को अप्रिय लगता है, मन भ्रमित होकर उसी को अपने लिए बुरा मानने लगता है, और उसी को त्याग देना चाहता है। जैसे -रसगुल्ला मुख में रखने से अच्छा लगता है, किन्तु तिक्त वस्तु चाहे दवा ही क्यों न हो, उसे हम खाना नहीं चाहते , उसको त्यागना चाहते हैं।
 इसीलिये गीता 3:42 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - 
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।
पण्डित लोग  इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर (श्रेष्ठ) कहते हैं, इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ  है वह है आत्मा। इस चैतन्यस्वरूप आत्मा के परे और कुछ नहीं है। 
इसीलिये महामण्डल में 'चित्तनदी के उभयतोवहिनी प्रवाह' पर वैराग्य का फाटक लगाकर, 'विवेक-दर्शन' का प्रशिक्षण दिया जाता है। जहाँ हम  मनः संयोग करते समय 'विवेक-प्रयोग' के द्वारा शरीर, मन और बुद्धि उपाधियों से अपने तादात्म्य को हटाकर आत्मस्वरूप में स्थित होने का सजग प्रयत्न करना सीखते हैं। 
इस 'विवेक-प्रयोग' विद्या सीखने के साथ-साथ, हमारे लिए यह जानना भी अतयन्त उपयोगी होगा कि   'विवेकज ज्ञान ' किसे कहते हैं ? पातंजलि योगसूत्र (3 :54)  में कहा गया है - 'तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ।' (अन्वयः तारकम् – जो संसार समुद्र से तारने वाला है, सर्वविषयम् – सबको जानने वाला है,  सर्वथाविषयम् – सब प्रकार से जानने वाला है, च – एवं, अक्रमम् – बिना क्रम के,  वह, विवेकजम् – विवेकजनित, ज्ञानम् – ज्ञान है।) 
अर्थात वह ज्ञान जो एक साथ समस्त विषयों की जानकारी देने में सक्षम होता है, जिसे प्राप्त कर लेने पर सभी अवस्थाओं की सम्यक जानकारी हो जाती है। और जो समस्त समस्यायों से त्राण प्रदान करता है, मुक्ति दिला सकता है,उसको ही विवेकज ज्ञान कहते हैं। 
जैसा कि सामान्य तौर पर ज्ञान-अर्जित करने के क्षेत्र में, एक के बाद एक करके, ज्ञान क्रमशः प्राप्त होता है, विवेकज-ज्ञान भी उसी प्रकार के क्रम से प्राप्त होने वाले ज्ञान के जैसा नहीं है। वह ज्ञान बिना क्रम के-अर्थात एक मुहूर्त में होता है।  इस प्रकार 'विवेकज ज्ञान' अर्थ हुआ -भूत, भविष्य, और वर्तमान में घटित होने वाली समस्त घटनाओं, समस्त विषयों को एक साथ समग्र रूप से और क्षणभर में परिपूर्ण जानकारी देने वाला ज्ञान। 
 जैसे कोई कमरा यदि हजार वर्षों से बंद है, तो उस कमरे में बंद अंधकार को जाने में हजार वर्ष नहीं लगते। एक दीपक जलाते ही सारा अंधकार क्षण भर में भाग जाता है। उसी प्रकार विवेकज ज्ञान भी वह ज्ञान है, जो क्षणभर में जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति और तुरीय अवस्था का अनुभव कराकर मनुष्य को भवसागर से, मृत्युभय सहित संसार चक्र से, तार देता है, देहाध्यास के भ्रम से मुक्त कर देता है, डीहिप्नोटाइज्ड कर देता है। 
उसी यथार्थ ज्ञान को पाने की लालसा (longing,तीव्र इच्छा) मन में रखकर, पूरी श्रद्धा के साथ स्वामी जी के उपदेशों का पहले श्रवण करना होगा, फिर उस पर चिन्तन या मनन करना होगा, तत्पश्चात निदिध्यासन अर्थात उन शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करना होगा। सामान्य रूप से हमलोग जिस उपाय से ज्ञान अर्जित करते हैं, उस ज्ञान को हम अपनी बुद्धि के द्वारा ही अर्जित करते हैं। उस लौकिक ज्ञान अथवा बौद्धिक ज्ञान के द्वारा जिन वस्तुओं या विषयों के सम्बन्ध में जो धारणा प्राप्त होती है, वह क्षणिक या तात्कालिक होती है। और इसीलिए उस ज्ञान को सापेक्षिक ज्ञान (Relative knowledge) या परिवर्तनशील, या 'अनित्य ज्ञान' (Variable knowledge) कहते हैं।
 ज्ञाता और ज्ञेय वस्तु के बीच एक स्थानिक और तात्क्षणिक कार्यकारी सम्पर्क स्थापित करने की घटना (Events) के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसके द्वारा जगत के या मनुष्य-जीवन के आध्यात्मिक प्रश्नों (मृत्यु किसकी होती है ?) का समाधान या परिचय नहीं प्राप्त हो पाता है। जबकि स्वामी जी की शिक्षाओं से हमें वह ज्ञानमयी-दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिसके द्वारा अन्वेषण करने पर हमें एक क्षण में ही हमें समग्र जगत और पूरी सृष्टि (विश्व ब्रह्माण्ड) का परम सत्य (Absolute knowledge) या नित्य-ज्ञान दृष्टिगोचर होने लगता है। स्वामीजी के संदेशों को ठीक से सुनने, मनन करने, और जीवन में उतारने का प्रयत्न करने से जो ज्ञानालोक उद्भासित होता है, उससे समस्या का स्वरुप और समाधान भी प्राप्त हो जाता है। स्वामी जी की शिक्षाओं को ठीक से श्रवण-मनन और निदिध्यासन करने, अर्थात उनके उपदेशों को विश्वास पूर्वक सुनने, मनन करने और जीवन में उतारने से जो ज्ञानालोक उदभासित होता है, उससे 'मृत्यु की समस्या' का स्वरुप और समाधान भी प्राप्त हो जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने पातंजलि योगसूत्र 3 :52 की व्याख्या करते हुए इस विवेकज ज्ञान को प्राप्त करने का उपाय भी बतलाया है -   'क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ।'3.52  (क्षणतत्क्रमयोः – संयमात् –विवेकजम् –ज्ञानम् – क्षण और उसके क्रम में,संयम करने से,  विवेकजनित, ज्ञान उत्पन्न होता है।) - अर्थात एक क्षण के बाद, आने वाले दूसरे क्षण के क्रम के बीच में  मनःसंयम करने पर विवेकजनित ज्ञान उत्पन्न होता है। 
इसीलिये स्वामी जी एक महान भविष्यद्रष्टा भी हैं। इसी विवेकज-ज्ञान द्वारा प्राप्त ज्ञानमयी दृष्टि से देखते हुए,उन्होंने  भारत के उज्ज्वल भविष्य की ओर भी संकेत दिया था। पूर्ण (नित्य और लीला, ब्रह्म और जगत) को एक साथ देखकर, उसके विभन्न पक्षों के ऊपर उन्होंने जो व्याख्यान दिये थे, उन्हीं के माध्यम से हमलोग अलग अलग विषयों पर दिए गए उनकी शिक्षाओं से लाभान्वित होते हैं, इसीलिये उनके द्वारा कथित शब्दों को इतना मूल्यवान समझते हैं। जिस प्रकार गीता 10 :42 में श्रीकृष्ण कहते हैं - 
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।10.42।।
भैया अर्जुन, तुम जो इसको-उसको, सब किसी को अलग -अलग रूप से जानने की चेष्टा कर रहे हो, अब तुम्हें उस प्रकार से 'बहुत' (अनेक या many) को जानने की क्या जरूरत है ? तुम तो केवल इतना जान लो कि (One has become Many 'एक या 'नित्य' ही 'लीला' में अनेक बन गए हैं!) 'मैं ही इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।
 [" भैया अर्जुन, देखो, मैं घोड़ों की लगाम और चाबुक पकड़े 'सारथि के वेश' में तेरे सामने बैठा हूँ।  दीखने में तो मैं छोटा सा (शरीर-नवनीदा) दीखता हूँ, पर मेरे इस शरीर के किसी एक अंश में अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड, महासर्ग और महाप्रलय -- दोनों अवस्थाओं में स्थित हैं। उन सबको लेकर मैं तेरे सामने बैठा हूँ  और तेरी आज्ञा का पालन करता हूँ,  इसलिये जब मैं स्वयं तेरे सामने हूँ; तब तेरे लिये बहुत सी बातें जानने की क्या जरूरत है ? " https://www.gitasupersite.iitk.ac.in]  
स्वामी विवेकानन्द की विचारपद्धति (ideology) के प्रवाह का वैशिष्ट्य भी यही है ! उनकी समस्त शिक्षाओं का मूल स्वर इतना ही है कि पहले मनुष्य को यथार्थ मनुष्य अर्थात 'पुरुषकार' करने में समर्थ 'मनुष्य' के रूप में गठित करो! उनका कथन है कि तुमलोग समाज को पुनर्गठित करने की बातें करते हो, समाज सुधार करते हो, सेवा करते हो। तुमलोग राजनीति, विज्ञान और अर्थशास्त्र इत्यादि को व्यवहार में लाते हो, इन सबकी आवश्यकता भी है। किन्तु, इतना जान लो कि इन सभी विषयों का प्रयोजन जिस मनुष्य के लिए है, यदि तुम उस मनुष्य को ही अच्छी तरह से गठित नहीं कर सके, उसकी अन्तर्निहित सत्ता (ब्रह्मत्व) को सम्पूर्ण रूप से विकसित कर अभिव्यक्त न करा सके, तो तुम्हारी ये समस्त शिक्षायें -विज्ञान, तकनीकी ज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, इतिहास, दर्शन सब के सब विफल सिद्ध होंगे, ये सब किसी काम न आ सकेंगे।
 यदि तुम इस मूल (अद्वैत तत्व ) को जान लो, तो सब कुछ का जानना हो जायेगा। इसी को सच्चा ज्ञान कहते हैं। जैसा कि श्रीरामकृष्ण देव कहा करते थे - " एक को जानने का नाम ज्ञान है, और बहुत को जानने का नाम अज्ञान है। यदि ज्ञान-चर्चा के द्वारा हमलोगों का दृष्टिकोण जब तक यह नहीं होता कि हम उसी एक मूल तत्व (अद्वैत) को जानेंगे, जिसको जान लेने से सब कुछ (अनेक) का ज्ञान भी हो जाता है, तब तक 'नित्य और लीला' दोनों सत्य हैं; इस मूल सत्य - को हम कभी हृदयंगम नहीं कर सकते।
আমাদের দৃষ্টিটা থাকা দরকার যে, আমরা সবটাকে জানব, না হলে মূল সত্যটা হৃদয়ঙ্গম হবে না।'  स्वामी जी के मतानुसार  इस 'सम्पूर्ण' को (पूर्णमदः और पूर्णमिदं दोनों को) जानने का अर्थ है, मनुष्य के यथार्थ स्वरुप को जान लेना और अपनी उसी अभिज्ञता (अद्वैतानुभूति) की नींव पर समस्त आनुषंगिक बाह्य विषयों के ज्ञान को व्यावहारिक जीवन के लिए उपयोगी बना लेना ( अर्थात धर्म,अर्थ, काम आदि को भी लक्ष्य (मोक्ष) प्राप्ति में सहायक बना लेना)। 
स्वामी जी बार-बार जोर देते हुए कहते हैं कि भारत के पुनर्निर्माण के लिए जो हमारा प्रथम कार्य होना चाहिए वह यही है कि मनुष्य अपने यथार्थ स्वरुप का संधान करना सीखे, अर्थात 'Be and Make leadership training tradition' (या पुरी अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा) में प्रशिक्षण प्राप्त कर ले।अपनी यथार्थ दिव्यता को विकसित करे तथा अपने व्यावहारिक जीवन में उसको अभिव्यक्त करने का प्रयास करता रहे। किन्तु ऐसा प्रशिक्षण केवल वैसे शिक्षक ही दे सकते हैं जो स्वयं उस परम्परा में प्रशिक्षित होकर जीवन्मुक्त बन चुके हैं। इसी "जीवन्मुक्त शिक्षक प्रशिक्षण-परम्परा " को स्पष्ट करते हुए अपने गृहस्थ शिष्य (वुड बी लीडर) श्री शरत चन्द्र चक्रवर्ती से स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-
यह बात यदि सत्य है कि, तूने ही पूर्व जन्म में कर्म करके इस देह को प्राप्त किया है,तो कर्म के द्वारा कर्म को काटकर, तू ही फिर इस शरीर में रहते हुए ही जीवन्मुक्त बनने का (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड होने का) प्रयत्न क्यों नहीं करता ? इस बात को निश्चित रूप से समझ लो कि मुक्ति और आत्मज्ञान तेरे अपने ही हाथ में हैं। यह बात बिल्कुल सत्य है कि, ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) में कर्म का लवलेश भी नहीं है, तथापि जो लोग 
जीवन्मुक्त होकर भी काम करते हैं,( कैप्टन सेवियर,नवनीदा आदि महामण्डल आंदोलन में अपने जीवन को न्योछावर कर देते हैं) तो समझ लेना कि वे दूसरों के हित के लिए ही कर्म करते हैं। वे भले-बुरे परिणाम (नरकभोग आदि) की ओर नहीं देखते। किसी वासना (लोक-पुत्र-वित्त) का बीज उनके मन में नहीं रहता।
किन्तु गृहस्थाश्रम में रहकर इस प्रकार यथार्थ परहित के लिए कर्म करना अत्यन्त कठिन है, एक प्रकार से इसे असम्भव ही समझना। (माँ काली पर विश्वासी बनना आसान नहीं ?) समस्त हिन्दू शास्त्रों में उस विषय में जनक राजा का ही एक नाम हैं, परन्तु तुम लोग अब (शास्त्रविरोधी या निषिद्ध कर्मों से विरत हुए बिना) प्रतिवर्ष बच्चों को जन्म देकर घर घर में विदेह 'जनक ' बनना चाहते हो ! ठाकुर देव कहते थे -

 'जनक राजा महातेजा, तार कीशेर छीलो त्रुटि; 
एदिक् ओ दिक् दू-दिक् रेखे (नित्य-लीला दोनों सत्य), 
खेये छीलो दुधेर बाटी!
शिष्य - महाराज, आप ऐसी कृपा कीजिये जिससे आत्मानुभूति की प्राप्ति इसी शरीर में हो जाये। 
स्वामी जी - भय क्या है ? मन में अनन्यता आने पर , मैं निश्चित रूप से कहता हूँ, इस जन्म में ही आत्मानुभूति हो जाएगी। परन्तु पुरुषकार चाहिये !  (मनुष्यत्व का उन्मेषक किसी मार्गदर्शक नेता को अपना बना लेना चाहिए !) 
पुरुषकार क्या है , जानता है ? आत्मज्ञान प्राप्त करके ही रहूँगा; इसमें जो बाधा-विपत्ति सामने आयेगी, उस पर अवश्य विजय प्राप्त करूँगा -इस प्रकार के दृढ़ संकल्प का नाम ही पुरुषकार है। माँ, बाप, भाई, मित्र, स्त्री, पुत्र मरते हैं मरें , यह देह रहे तो रहे, न रहे तो न सही , मैं किसी भी तरह से पीछे नहीं देखूँगा। जब तक आत्मदर्शन नहीं होता , तब तक इस प्रकार सभी विषयों की उपेक्षा कर, एक मन से अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर होने की चेष्टा करने का नाम है पुरूषकार ; नहीं तो दूसरे पुरुषकार (आहार ,निद्रा, भय , मैथुन) तो पशु -पक्षी भी कर रहे हैं। मनुष्य ने 'विवेक-बुद्धि सम्पन्न यह मानव-शरीर' केवल उसी आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्राप्त किया है। संसार में अधिकांश लोग जिस रास्ते से जा रहे हैं, क्या तू भी उसी स्रोत में बहकर चला जायेगा ? तो फिर तेरे पुरुषकार (मनुष्यत्व-उन्मेष) का मूल्य क्या है ? सब लोग तो मरने बैठे हैं, पर तू तो मृत्यु को जीतने आया है ! महावीर की तरह अग्रसर हो जा। किसीकी परवाह न कर। कितने दिनों के लिए है यह शरीर ? कितने दिनों के लिए हैं ये सुख-दुःख ? यदि मानव शरीर को ही प्राप्त किया है तो भीतर की आत्मा को जगा, और बोल -मैंने मृत्यु के भय को जीत लिया है, मैंने अभयपद प्राप्त कर लिया है। बोल - मैं वही सर्वव्यापी विराट आत्मा (माँ जगदम्बा का अहं बोध) हूँ, जिसमें मेरा पहले वाला क्षुद्र 'अहं भाव' डूब गया है। इसी तरह पहले तू सिद्ध (प्रशिक्षित शिक्षक) बन जा। उसके बाद जितने दिन यह देह रहे , उतने दिन दूसरों को यह महवीर्यप्रद अभय वाणी सुना- " तत्त्वमसि , उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान निबोधत ! ('तू वही है', 'उठो, जागो और लक्ष्य (विवेकज-आनन्द) प्राप्त करने तक रुको नहीं !) यह होने पर तब जानूँगा कि तू वास्तव में  ' पुरी अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित एक सच्चा 'पूर्वी बंगाली' है।" 6/179]               
विदेश भ्रमण से लौटने के बाद स्वामी जी को ' भारतवर्ष का प्रत्येक धूल-कण पहले से भी अधिक पवित्र और प्राणों से भी प्यारी' लगने लगी थी, वह इसीलिये कि,समस्त मानव जाति के कल्याण करने में समर्थ महान तात्विक ज्ञान -" एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति" का महान सूत्र,इसी भारतवर्ष में आविष्कृत हुआ था। उन्हें इस बात की अनुभूति हुई थी, वे यह समझ सके थे कि यदि विश्व की सम्पूर्ण मानवजाति का कल्याण होना है, तो उसके लिए इसी तात्विक ज्ञान की आवश्यकता है।
 जो ईश्वरीय विधानवश इसी देश के ऋषियों ने प्राचीन ' गुरु-शिष्य ध्यान-मनन प्रशिक्षण परम्परा' के प्रत्यक्ष आलोक में हजारों वर्ष पूर्व ही आविष्कृत कर लिया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि यदि भारतवर्ष पुनः' पुरी अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में अन्तः चक्षु के सामने उद्भासित या उपलबध होने वाले इस महान तात्विक ज्ञान (विवेकज-ज्ञान) प्राप्त करने की,  प्रशिक्षण पद्धति- "Be and Make Leadership training tradition " को यदि सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों तक पहुँचा देने में समर्थ बन जाये, तभी जगत का यथार्थ कल्याण साधित हो सकता है। स्वामी जी पृथ्वी के सभी मनुष्यों से बहुत प्रेम करते थे, और उसी प्यार से अनुप्रेरित होकर उनके हृदय से वैसा उद्गार निकला था, और भारतवर्ष की मिट्टी उनके लिये पुण्यभूमि में प्रकट हो गयी थी। 
अपने स्वरुप -अनुसन्धान करने, वास्तविक सत्ता को विकसित करने तथा अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने" की उसी प्रशिक्षण पद्धति को, जो प्राचीनकाल की दुर्बोध भाषा में लिपिबद्ध थी; अरण्यों के आश्रमों तक ही सीमित थी, पर्वतों की गुफाओं में ही आबद्ध थी, केवल सन्त -महात्माओं के चर्चा की विषय बनकर ही रह गयी थी। उसी प्राचीन आत्मानुसंधान पद्धति को महामण्डलने 'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर अद्वैत-आश्रम, मायावती, हिमालय शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' के नये रूप में ढाल कर भारत के सुदूर ग्रामों तक बोधगम्य बना दिया है। [C-in-C, Dy C-in-C Training Tradition.जहाँ डेपुटी सी-इन-सी, सी-इन-सी को उसी प्रकार करेक्ट कर सकता है, जैसे श्रीरामकृष्णदेव 😇 हँसते हुए अपने गुरु श्रीमद तोतापुरी जी को 'नित्य और लीला' दोनों को सत्य मानने की शिक्षा देते समय करेक्ट किया करते थे, फिर भी श्रीमद तोतापुरी उनपर नाराज नहीं होते थे।]   इसीलिये स्वामी जी ने राष्ट्र का आह्वान करते हुए कहा था - " उपनिषदों में सन्निवेशित इस आत्मानुसंधान शिक्षक -प्रशिक्षण पद्धति को, अरण्य के आश्रमों से निकालकर, मठों की चहारदीवारियों को भेदकर, उन ज्ञान के तत्वों को साधारण जनता के सामने बिखेर देना होगा। उन्हें लाना होगा , हाट -बाजारों में, कल -कारखानों में और खेल के मैदानों में। इस प्रकार वह तात्त्विक ज्ञान  जंगल-झाड़ , पर्वत-पहाड़ से निकल कर आ पहुँचेगा, साधारण जनताकी झोपड़ियों में। और केवल तभी भारतवर्ष विवेकज-ज्ञान की महाशक्ति से तेजस्वी बनकर किसानों के हल से तथा कारखानों के श्रमिकों के बल से पुरुज्जीवन प्राप्त कर अपने पैरों पर खड़ा समृद्ध राष्ट्र बन जायेगा।"  
'विवेकज-दृष्टि' से प्राप्त होने वाले, वे महा-मूल्यवान तत्व क्या हैं ? वह ज्ञानमयी दृष्टि हमसे यही कहती है, कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर अनन्त शक्ति है, अनन्त ज्ञान है, अनन्त प्रेम से भरपूर महासमुद्र है। हमलोगों को अपने  हृदय में विद्यमान इस दिव्य सत्ता को जानना होगा, फिर उस दिव्यता को अपने जीवन में अभिव्यक्त करना होगा। हम दीन -हीन नहीं हैं, नश्वर शरीर मात्र ही नहीं हैं, हमलोग अजर-अमर अविनाशी आत्मायें हैं, हमारे भीतर अनन्त शक्ति है ! हमलोग महाभ्रम में पड़कर या हिप्नोटाइज्ड होकर स्वयं को क्षुद्र, नश्वर-शरीर मान रहे हैं, और श्रीमद तोता द्वारा कथित कहानी के बाघ-शिशु  होकर भी स्वयं को ছাগল/ बकरा समझकर मृत्यु के भय से में-में कर रहे हैं ! इसी दुर्दान्त हीन-मन्यता ने हमलोगों को लघु (बौना) बना दिया है, अब हमलोगों को स्वयं अपने प्रयास के द्वारा ही, लघुकृत (diminished) मनुष्यों को दीर्घिकृत (विराट,विशालकाय या mammoth) बनाना होगा।  নিজেদের দ্বারাই খর্ব-কৃত মানুষ কে দীর্ঘায়ত করতে হবে।  सम्पूर्ण मानव जाति को उसके अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति, अनन्त प्रेम से मण्डित कराकर, उसे अपनी महिमा में प्रतिष्ठित कराना होगा। 
स्वामी जी की उस प्रसिद्द कथन से लगभग हम सभी परिचित हैं -उन्होंने कहा था, " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है!" अर्थात अपने यथार्थ स्वरुप में हम सभी मनुष्य ब्रह्म ही हैं, इसीलिए हममें से प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य है -उसी ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करना। इसके लिए हमें अन्तःप्रकृति और बाह्य-प्रकृति को अपने नियंत्रण में लाकर, दोनों पर विजय प्राप्त करना होगा। 
प्रश्न है कि ऐसा कर पाने में हमलोग समर्थ कैसे होंगे ? इसमें हमलोग कृतकार्य हो सकते हैं -कर्म के द्वारा, मन को अपने नियंत्रण में लाकर, मानसिक एकाग्रता के प्रशिक्षण के द्वारा, ज्ञान के अभ्यास द्वारा, सत्यानृत-विवेक या सत्य-असत्य और मिथ्या विवेक, या सद-असद निर्णय के द्वारा, तथा सभी प्राणियों की निःस्वार्थ सेवा में अपने प्राणों को न्योछावर करके। किन्तु, आज का मनुष्य विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति को (भोग-सामग्रियों को ) जितनी मात्रा में नियंत्रित करता जा रहा है, उतनी मात्रा में ही वह अपनी अन्तःप्रकृति के समक्ष पराजित भी होता जा रहा है। भावी पीढ़ी की इस मानसिक दरिद्रता (penury) को भविष्यद्रष्टा स्वामी विवेकानन्द ने अपने मानसचक्षु के आलोक में स्पष्ट रूप से देख लिया था, इसीलिए उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था - " तुम लोगों ने आज विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लिया है, इसीलिए तुम लोग विज्ञान पर गर्व कर रहे हो, किन्तु तुम्हारी अन्तः प्रकृति तुम्हें अपने वश में लेकर कैसा कैरम (ricochet- ठोकरें खाने वाला) खेल रही है, उसका तुम्हें बोध भी नहीं है। ओह, इतनी अनोखी ऐश्वर्यमान मानव-मूर्ति अपने यथार्थ स्वरुप को नहीं जानने के कारण धूल-कीचड़ में अवलुण्ठित, उपेक्षित होकर बिल्कुल दीप्तिहीन (lustreless) हो गयी है। इतना महामूल्यवान यह मनुष्य जीवन व्यर्थ होकर मिट्टी में मिलने जा रही है। This can not be allowed-to Be! ऐसा होने की अनुमति नहीं दी जा सकती। तुम लोग (जीवन्मुक्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में) अन्तः प्रकृति को वशीभूत करने का प्रशिक्षण प्राप्त करो,अन्तः प्रकृति पर विजय प्राप्त करना सीखो। स्वयं को जगाओ, इस देहाध्यास के सम्मोहन या भ्रम से अपने को मुक्त करो, और ऊर्जावान बन जाओ। उस अन्तर्निहित दिव्य शक्ति से शक्तिवान बनकर (एक प्रशिक्षित शिक्षक, नेता ,माली बनकर) उस दिव्यता को अपने व्यवहार में अभिव्यक्त करो। किन्तु, इस अकूत ऊर्जा को प्राप्त करने पर (जीवन्मुक्त शिक्षक बन जाने पर) कभी गर्व न करना। बल्कि सभी मनुष्यो में विद्यमान किन्तु प्रसुप्त उसी अकूत ऊर्जा को जाग्रत करने कार्य में, सबों की पूजा और सेवा करने के कार्य में स्वयं को खपा दो। निषिद्ध कर्मों या शास्त्र विरोधी कर्मों द्वारा इन्द्रियसुख प्राप्त करने, अधिकाधिक सांसारिक धन-दौलत प्राप्त करने के चक्कर में पड़े रहने से; या स्वार्थपरता और नाम-यश के अहं में  चूर, सीमाबद्ध संकीर्ण पाशविक जीवन व्यतीत करते रहने से, वह दिव्य ऊर्जा जाग्रत नहीं हो सकती। बल्कि इन समस्त क्षणिक सुखों के पीछे दौड़ते रहने से अन्ततोगत्वा अन्तःप्रकृति की गुलामी करने को ही बाध्य होना पड़ता है। 
इसीलिये स्वामी जी कहते हैं - 'यथार्थ रूप से तो केवल वही मनुष्य जीवित है, जो दूसरों के लिए जीता है; शेष तो मुर्दे से भी ज्यादा निकृष्ट हैं। ' स्वामी जी के इसी कथन में छिपा हुआ है, वह आदर्श सूत्र जिसमें स्वामी जी कहते हैं -" यथार्थ मनुष्य,  (Man with capital 'M' या भ्रममुक्त मनुष्य) के रूप में शक्तिशाली बनो और चट्टानी भूमि पर अपने पैरों को जमा कर, दोनों बाँहों को फैला दो !" आदर्श मानव का यही वह महान साँचा है, जिसे स्वामी जी ने भारत के सभी युवाओं के समक्ष रखा है। यथार्थ मनुष्य के रूप में जीवित रहने के लिए, हमें केवल दूसरों के लिये जीना सीखना होगा, अर्थात "Be and Make Leadership training tradition " में प्रशिक्षित होना होगा। सभी एक-दूसरे से प्रेम करेंगे, आलिंगन में बाँध लेंगे, भ्रममुक्त मनुष्य बनने के लिए परस्पर एक दूसरे की सहायता करेंगे। एक प्रशिक्षित नेता /शिक्षक या सर्वांग सुन्दर मनुष्य वही बन सकता है, जो स्वार्थशून्य, सेवापरायण और प्रेम से परिपूर्ण हृदय रखता है। जो व्यक्ति चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण प्राप्त करके सचमुच चरित्रवान मनुष्य बन सका है, केवल वैसे व्यक्ति के जीवन में अग्रगति सम्भव है, और वही मानवजाति की प्रगति और कल्याण का संदेशवाहक (मार्गदर्शक नेता) बन सकता है। 
अतः हमलोगों को पहले अपना चरित्र गठित करना होगा, डीहिप्नोटाइज्ड या भ्रममुक्त मनुष्य बनना होगा, निषिद्ध कर्मों का परित्याग करके अपने जीवन को महान बना लेना होगा, केवल तभी हम 'विवेकज आनन्द' पर अधिकार प्राप्त करके महाजीवन प्राप्त करने के महालक्ष्य (मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य -शाश्वत जीवन या अमरत्व) की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। इस 'विवेकज आनन्द ' का अधिकारी बनने पर ही मनुष्य जीवन की सार्थकता निर्भर है ! अन्य जो कुछ भी तात्विक सिद्धान्त या ज्ञान हैं, उन सबका मूल्य इसी लक्ष्य तक पहुँचने के उपाय या साधन होने के कारण ही है। 
स्वामी विवेकानन्द की विचारधारात्मक परंपरा  'Ideological Tradition' अर्थात " विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर अद्वैत-आश्रम, मायावती, हिमालय शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" से सम्यक परिचय हो जाने पर यही मूल सत्य (अविनाशी विवेकज -आनन्द) प्रकट हो जाता है। इसी अपरिवर्तनशील सत्य को जानना होगा, समझना होगा और जीवन में उसका प्रयोग करना होगा। इसी कारण वर्तमान युग का मुख्य कार्य यही है -कि  हम सभी को 'विवेक' की शरण में जाकर, सत्य -असत्य-मिथ्या के निर्णय द्वारा, पूरी निष्ठा के साथ स्वामी जी के जीवन और संदेशों का अनुध्यान या श्रवण -मनन करके उन्हें अपने जीवन में उतारना होगा। केवल इसी प्रकार अपना चरित्र गठित होगा, और जगत का यथार्थ कल्याण भी सम्भव हो सकेगा।                          
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**"My doxy is orthodoxy; your doxy is heterodoxy." मेरा धर्म सत्यधर्म है, तुम्हारा धर्म पाखण्ड है !
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जिस प्रकार "orthodox" शास्त्रसम्मत या 'सत्यधर्मावलम्बी' शब्द की व्याख्या विभिन्न रूपों में तोड़-मरोड़ कर की जाती है, उसी प्रकार 'practical' (pragmatic) शब्द की व्याख्या भी तोड़-मरोड़ कर की जाती है। जो मैं समझता हूँ, वही धर्म है, जो तुम समझते हो वो पाखण्ड है। अर्थात जिस तात्विक सिद्धान्त को मैं कार्यरूप में परिणत करने के योग्य समझता हूँ, जगत में एकमात्र वही सिद्धान्त व्यावहारिक है, ऐसी मेरी धारणा होती है। उदाहरणार्थ यदि मैं एक दुकानदार हूँ, तो सोचता हूँ कि संसार में दुकानदारी ही एकमात्र व्यावहारिक कर्म है। यदि मैं एक चोर हूँ तो यही सोचता कि व्यावहारिक बनने के लिये चोरी करना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है; जो ऐसा नहीं करते वे व्यावहारिक मनुष्य नहीं हैं।  इस प्रकार तुम देख सकते हो कि हमलोग व्यावहारिक शब्द का प्रयोग केवल उन्हीं कर्मों के लिये करते हैं, जिनकी ओर हमारी प्रवृत्ति है,जो हमसे किये जा सकते हैं। इसीलिये मैं चाहूँगा कि तुम वेदान्त को सही रूप में समझने का प्रयास करो, यद्यपि वेदान्त पूर्ण रूप से व्यावहारिक (pragmatic-व्यवहार्य) है, तथापि साधारण अर्थ में नहीं, बल्कि आदर्श के दृष्टिकोण से।
वेदान्त के चार महावाक्य में निहित आदर्श चाहे कितना ही उच्च क्यों न प्रतीत होता हो, वह किसी असम्भव आदर्श को हमारे सामने नहीं रखता; बल्कि यही सर्वश्रेष्ठ आदर्श है, और इसी जीवन में आत्मानुभूति करके उसकी सत्यता को परखा जा सकता है। एक शब्द में वेदान्त का सार उपदेश है -'तत्त्वमसि'- तुम्हीं वह ब्रह्म हो ' "Thou art That". 
वेदान्त के ऊपर समस्त बौद्धिक तर्क-कुतर्क, वादविवाद के बाद यही तात्विक निष्कर्ष मिलेगा कि मानवात्मा शुद्ध स्वभाव और सर्वज्ञ (pure and omniscient) है, " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है; आत्मा के सम्बन्ध में जन्म और मृत्यु की बात करना निरर्थक बकवास (nonsense) है। आत्मा का न कभी जन्म होता है, न मृत्यु; मैं मर जाऊँगा या मरने में डर लगता है'- यह सब केवल कुसंस्कार (superstitions) हैं। मैं इस सत्य (इन्द्रियगोचर परिवर्तनशील सत्य, सापेक्षिक सत्य) को स्वयं जान सकता हूँ, उस इन्द्रियातीत सत्य (निरपेक्ष सत्य-अविनाशी आत्मा) को नहीं जान सकता, ये सब भी कुसंस्कार हैं। मनुष्य के लिए सब कुछ जानना सम्भव है !
 वेदान्त सबसे पहले मनुष्य को अपने आप पर विश्वास करने के लिए कहता है। जिस प्रकार संसार के कुछ धर्म कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने से बाहर किसी सगुण  ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है, उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि-  जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है।
अपनी आत्मा के बारे में विश्वास न करने को ही नास्तिकता कहते हैं। बहुत से लोगों के लिए यह, निःसंदेह एक भीषण विचार है( ऐसा कहना 'ईशनिन्दा ' प्रतीत हो सकता है) और हममें से अधिकांश सोचते हैं कि इस आदर्श को कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता, किन्तु वेदान्त जोर देकर कहता है, कि प्रत्येक व्यक्ति इस सत्य को इसी जीवन में प्रत्यक्ष कर सकता है। ८/६ 


प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर और धार्मिक शास्त्रों ( वेद, बाइबिल ,कुरान,आदि ) में विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है। नूतन धर्म कहता है , जो आत्मविश्वास नहीं रखता, वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास केवल इस व्यष्टि अहं बोध या क्षुद्र 'मैं'-बोध को लेकर नहीं है, क्योंकि वेदान्त एकत्ववाद की भी शिक्षा देता है। 8/12     

PRACTICAL VEDANTA: 
 the word "orthodox" has been manipulated into various forms, so has been the word "practical". "My doxy is orthodoxy; your doxy is heterodoxy." So with practicality. What I think is practical, is to me the only practicality in the world. If I am a shopkeeper, I think shopkeeping the only practical pursuit in the world. If I am a thief, I think stealing is the best means of being practical; others are not practical. You see how we all use this word practical for things we like and can do. Therefore I will ask you to understand that Vedanta, though it is intensely practical, is always so in the sense of the ideal. It does not preach an impossible ideal, however high it be, and it is high enough for an ideal. In one word, this ideal is that you are divine, "Thou art That". This is the essence of Vedanta; after all its ramifications and intellectual gymnastics, you know the human soul to be pure and omniscient, you see that such superstitions as birth and death would be entire nonsense when spoken of in connection with the soul. The soul was never born and will never die, and all these ideas that we are going to die and are afraid to die are mere superstitions. And all such ideas as that we can do this or cannot do that are superstitions. We can do everything. The Vedanta teaches men to have faith in themselves first. As certain religions of the world say that a man who does not believe in a Personal God outside of himself is an atheist, so the Vedanta says, a man who does not believe in himself is an atheist. Not believing in the glory of our own soul is what the Vedanta calls atheism. To many this is, no doubt, a terrible idea; and most of us think that this ideal can never be reached; but the Vedanta insists that it can be realised by every one. There is neither man nor woman or child, nor difference of race or sex, nor anything that stands as a bar to the realisation of the ideal, because Vedanta shows that it is realised already, it is already there.
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"In that distant time the sage arose and declared, एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति — "He who exists is one; the sages call Him variously."  This is one of the most memorable sentences that was ever uttered, one of the grandest truths that was ever discovered. And for us Hindus this truth has been the very backbone of our national existence. For throughout the vistas of the centuries of our national life, this one idea — एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति — comes down, gaining in volume and in fullness till it has permeated the whole of our national existence, till it has mingled in our blood, and has become one with us..THE MISSION OF THE VEDANTA.