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शनिवार, 5 सितंबर 2020

🔱 "महामण्डल आन्दोलन की मूल भावना और इसके गठन का प्रामाणिक इतिहास" 🔱"The Fundamental Spirit and Authentic History Behind Mahamandal movement 🔱🔱"रनेन दा और वीरेन दा द्वारा कहा गया 🔱" Told by Runen Da and Viren Da ! 🔱151 वें SPTC में बीरेन दा द्वारा दिया गया भाषण 🔱

 " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि " 

[Background of the emergence of the Akhil Bharat 

  Vivekananda Yuva Maha Mandal]

[>>>#1. स्वामी विवेकानंद -कैप्टन सेवियर यम-नचिकेता प्रशिक्षण परम्परा' अर्थात  "वेदान्त डिण्डिम लीडरशिप प्रशिक्षण परम्परा" एवं C-IN-C नवनी दा के नेतृत्व  में गठित-  "Be and Make : महामण्डल आन्दोलन"  की मूल भावना एवं उसके उद्भव का प्रामाणिक इतिहास। : The Fundamental Spirit and the Authentic History of the "Be and Make Mahamandal Movement "] "यम - नचिकेता श्रद्धाविवेश  वेदान्त डिण्डिम लीडरशिप - प्रशिक्षण परम्परा में  स्वयं निर्भय मनुष्य बनो और दूसरों को भी निर्भीक बनने में सहायता करो" “Become a fearless man yourself and help others to become fearless too!”  -'Be and Make' -Let this be our Motto ! "पर आयोजित " झुमरीतिलैया, झारखण्ड 7th Interstate Youth Training Camp-2019 ! में " पैगम्बर (नेता) निर्माण आन्दोलन" की  मूलभावना (Fundamental Spirit) और इसके गठन का प्रामाणिक इतिहास (authentic history) विषय पर महामण्डल के तात्कालीन महासचिव श्री बीरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती द्वारा दिये अंग्रेजी में प्रदत्त उद्घाटन भाषण का हिन्दी अनुवाद :-

[N.B. '1967 में स्थापित महामण्डल आन्दोलन' के उद्भव का प्रामाणिक इतिहास विषय पर बीरेन दा द्वारा "7th इन्टरस्टेट कैम्प" में दिया गया यह अंग्रेजी भाषण  'विवेक-अंजन' के केवल 'इंटरनेट संस्करण' पर ही पब्लिश हुआ था। उसका हिन्दी अनुवाद महामण्डल के मासिक पत्रिका 'विवेक -अंजन' में भी छपना चाहिए। इस पर यथाशीघ्र एक बैठक अजय-रामचन्द्र मिश्र की उपस्थिति में आयोजित होना चाहिए ।)]  

      "(सभा में उपस्थित) मेरे आदरणीय और प्रिय  मित्र श्री बिजय सिंह के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ,   जिन्होंने 1987 से (उस समय झारखण्ड -बिहार एक ही राज्य था ) वास्तव में इस क्षेत्र में, तथा देश के कुछ अन्य राज्यों में महामण्डल भावधारा का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया था। और तब से लेकर अभी तक महामण्डल एवं स्वामी विवेकानन्द विचारधारा को भारत के बड़े भूभाग तक फैला देने के लिये अथक परिश्रम करते चले आ रहे हैं। मैं अन्य सभी पूर्व वक्ताओं के प्रति भी अपना आभार और धन्यवाद व्यक्त करता हूँ , जिन्होंने अपने विचारों को इतने सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया कि मुझे उनसे कुछ सीखने को मिला , और उन्होंने मेरे कार्य को भी आसान बना दिया है। 

    आमतौर से महामंडल द्वारा आयोजित युवा-प्रशिक्षण शिविर के किसी भी उद्घाटन सत्र में, हमलोग लंबे भाषण की अनुमति नहीं देते हैं। क्योंकि शिविरार्थी लोग दूर-दराज के क्षेत्रों से आये हुए हैं, इसलिये वे थोड़ी थकान महसूस करते होंगे। उन्हें शाम को बहुत हल्का टिफिन प्रदान किया गया है, इसलिये अभी वे बेकल हैं। इसलिए मुझे लगता है कि भाषण को बड़ा करना जरूरी नहीं है, अतः मैं अपने वक्तव्य को बहुत संक्षेप में रखूँगा। क्योंकि अधिकांश campers नये हैं (पहली बार आये हैं), इसलिए इस शिविर के उद्घाटनकर्ता के रूप में ही नहीं, बल्कि इस संगठन के महासचिव (General Secretary) के रूप में- महामण्डल की मूल भावना (Fundamental Spirit) और आविर्भूत होने का प्रामाणिक इतिहास (authentic history) से मैं उनका परिचय कराना चाहूँगा 

       महामंडल की स्थापना स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा को युवाओं के बीच फैला देने के उद्देश्य से, 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने के बीस साल बाद 1967 में हुई थी।  इस युवा संगठन के आविर्भूत होने का मुख्य कारण 1967 के आसपास ही उत्तरी बंगाल के एक गाँव नक्सलबाड़ी से प्रारम्भ हुआ एक 'सशस्त्र' किसान आन्दोलन (Agrarian Movement)# था। जिसकी चिंगारी आगे चलकर भारत के कुछ अन्य  पूर्वी राज्यों - उड़ीसा , छत्तीसगढ़ , बिहार तथा दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों -विशेष रूप से आन्ध्र प्रदेश तक फ़ैल गया था। (शायद इसी कारण महामण्डल के सबसे अधिक केन्द्र, पश्चिमी भारत की अपेक्षा, पूर्वी भारत के इन्हीं राज्यों में  सक्रीय भी है?)

[>>> 'नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन' # :(Naxalbari Agrarian Movement) चीन में एक कम्युनिस्ट नेता हुए नाम था- माओ त्से तुंग।  माओ ने एक बार कहा था- 'एक चिंगारी सारे जंगल में आग लगा देती है। ' माओ वही नेता थे जिन्होंने चीन में सशस्त्र क्रांति की थी। पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी जिले में एक गांव पड़ता है- नाम है- नक्सलबाड़ी। नक्सलबाड़ी गांव में भी आज से 56 साल पहले, इसी तर्ज पर 1967 में  एक ऐसा आंदोलन शुरू हुआ था, जिसके बाद पूरे  भारत में माओवाद फैल गया। इसे 'नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन' कहा जाता है। आंदोलन के तहत, आदिवासी किसानों ने हथियार उठा लिए थे।  ये वो लोग थे जो माओ की विचारधारा को मानते थे। इसलिए इन्हें माओवादी भी कहा जाता है। नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआत सन् 1967 मेंं बंगाल के गांव नक्सलबाड़ी से चारु मजूमदार, जंगल संथाल और कानू सान्याल की अगुवाई में हुई थी । यह व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की शुरुआत थी । इसमें सरकारी कर्मचारी द्वारा किए गए अन्याय पर उसकी गोली मारकर हत्या कर वह जंगल में कूदकर फरार हो गया था, और पीड़ित ग्रामीण जनों का संगठन बनना शुरू हुआ जो इस तरह के सशस्त्र संघर्ष में तब्दील हो गया। 

आजादी एक लम्बे गौरवपूर्ण संघर्ष के बाद 1947 में आजादी  हासिल की गई थी और इससे करोड़ो लोगों का सपना पूरा हुआ था। लेकिन अंग्रेजों से आजादी के बीस साल बाद भी जब भारत में भ्रष्टाचार , भुखमरी , बेरोजगारी, शोषण  में कोई कमी न होते देखकर जनसाधारण और विशेष रूप से पढ़ा-लिखा युवावर्ग अपने को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था। भारत के पुनर्निर्माण की पंचवर्षीय योजनाएँ बनाई गईं थीं , लेकिन उसमें किसानों  की समस्याओं पर कम ध्यान दिया गया। 

1967 के आम चुनाव के बाद ग्यारह राज्यों में पहली बार कांग्रेस की केन्द्रीकृत शासन को चुनौती देते हुए संविद सरकारें बनी थीं। बिहार में महामाया प्रसाद जैसे नेता भी मुख्यमंत्री बन गए थे। और कुछ  स्वार्थी राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकरयुवा -समुदाय  जल्दीबाजी या हड़बड़ी में - In a hurry - पहले अपने चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन का कार्य शुरू किये बिना ही तोड़-फोड़ के द्वारा व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। जिसके फलस्वरूप कई शिक्षित युवाओं का जीवन भी नष्ट होने के कागार पर पहुँच गया था। और उस संकट की घड़ी 1967 में में ही 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' नामक इस युवा संगठन को आविर्भूत होना पड़ा था। इसके पीछे भावना यह थी कि इस संगठन  माध्यम से स्वामी विवेकानन्द की " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी " शिक्षा को युवाओं के बीच फैला दिया जाय। ]

        जिस समय (1967 के आसपास) जब कुछ स्वार्थी राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकर युवा-समुदाय - In a hurry (जल्दीबाजी में) अपने चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन के कार्य को शुरू करने के पहले ही, तोड़-फोड़ के द्वारा व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। उस समय अनुशासित जीवन में प्रतिष्ठित एक युवा ~नवनीदा ( श्री नवनी हरण मुखोपाध्याय) महामंडल के संस्थापक सचिव  - A young man in discipline, जो कई बार यहां भी पधार चुके हैं; तथा 'रामकृष्ण मिशन परम्परा'  (Ramakrishna Mission Order) के कुछ वरिष्ठ संन्यासियों ने परस्पर चर्चा करके एक युवा संगठन स्थापित करने का निर्णय लिया। और स्वामी विवेकानन्द के 'मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माणकारी विचार-धारा को युवाओं के बीच फैला देने का एक आंदोलन प्रारम्भ किया ।  इस प्रकार वर्ष 1967 के आखरी तिमाही में आयोजित प्रथम बैठक में इस आंदोलन का सूत्रपात हुआ था। और जहाँ तक मुझे याद है वह 25 अक्टूबर,1967 की तिथि थी ।

      अद्वैत आश्रम में आयोजित पहली बैठक के चार-पाँच महीने बाद जनवरी 1968 में दूसरी बैठक आयोजित हुई। उस बैठक में आमंत्रित अन्य व्यक्तियों के साथ रामकृष्ण मिशन के कुछ बहुत ही वरिष्ठ संन्यासी, जैसे रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष स्वामी भूतेशानन्द, रामकृष्ण मिशन के  महासचिव स्वामी अभयानन्द एवं सहायक महासचिव स्वामी रंगनाथानन्द ,जो आगे चलकर रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष भी बने --उपस्थित थे। बैठक में चर्चा चली कि, मनुष्य का 'ढाँचा' प्राप्त करने से ही कोई व्यक्ति " मनुष्य" नहीं बन जाता , बल्कि ~ "धर्मेण हीनाः पशुभिः सामना" - धर्म (शिक्षा) या 'चरित्र' के बिना मनुष्य भी पशुतुल्य है।  अतः उन सभी वरिष्ठ संन्यासियों ने हमें यही परामर्श दिया कि इस संगठन का उद्देश्य स्वामी विवेकानन्द की ' मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' का युवाओं के बीच प्रचार -प्रसार करना होना चाहिये, ताकि सुन्दरतर मनुष्यों के निर्माण से सुन्दरतर समाज को निर्मित किया जा सके। महामण्डल  की स्थापना के पीछे यही भावना क्रियाशील है। "

    अगला काम इस बात पर चिंतन (contemplate) करना था कि हमलोग तो स्कूल -कॉलेज खोलने वाले हैं नहीं, फिर युवाओं के बीच स्वामी जी के मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षाओं को फैला देने  उपाय क्या होना चाहिये? सम्पूर्ण भारत के युवाओं के बीच 'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त भावधारा' (अर्थात गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा- में 'Be and Make') का प्रचार-प्रसार कैसे किया जा सकता है ? उनलोगों ने यह निर्णय लिया कि, इसके लिए महामण्डल के द्वारा ही (संन्यासियों के द्वारा नहीं), समय -समय पर युवा प्रशिक्षण शिविर (Youth Training Camps) आयोजित करना चाहिये।  तथा उन शिविरों में युवाओं का आह्वान कर उन्हें 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी ' प्रशिक्षण देना चाहिये। महामण्डल स्थापित होने के संभवतः पांच महीने बाद इसका प्रथम 'अखिल भारतीय युवा प्रशिक्षण शिविर ' बंगाल के अरियादह में आयोजित किया गया था।

      स्वामी विवेकानन्द के अनुसार यथार्थ "मनुष्य" बनने के लिये युवाओं को छात्रजीवन में (किशोरावस्था में) ही उसके तीन प्रमुख अवयव - देह (Hand) , मन (Head) और हृदय (Heart) इन तीनों (3'H') को समानुपातिक रूप से विकसित करने (के 5 जरुरी अभ्यास) का प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिये। युवाओं के पास एक ऐसा मजबूत  शरीर (strong body) होना चाहिये जिसमें प्रखर-बुद्धि से युक्त मन (Sharp intellect mind) का वास हो , और उसका हृदय विशाल (expanded heart) होना चाहिये। अर्थात उन्हें आत्मकेन्द्रित जीवन (self- centred life)  नहीं बिताकर दूसरों के कल्याण के लिये जीना चाहिये।  

इस प्रशिक्षण -शिविर का प्रारम्भ सभी शिविरार्थी भाई कल प्रातःकाल 'मन की एकाग्रता' पर एक कक्षा में भाग ले कर करेंगे। स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षित मनुष्य बनने के लिये सबसे अधिक जोर इसी विषय~ ' मन को एकाग्र कैसे करें' (how to concentrate the mind) पर दिया करते थे। तत्पश्चात मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के विभिन्न विषयों पर कक्षाएं आयोजित की जाएंगी। लेकिन मनुष्य बनने के लिये केवल सैद्धान्तिक विचारों को सुनते रहना ही पर्याप्त नहीं हैं , अतः उन सद्गुणों को अपने जीवन और व्यवहार में धारण करने की व्यावहारिक पद्धति (practical method ) भी यहाँ सिखाई जायेगी। इसलिए सभी शिविरार्थी भाइयों से मैं अपील करता हूँ , तुम इस शिविर के किसी भी कक्षा को मत छोड़ना।  
         स्वामी विवेकानन्द अपने शिष्यों को (Would be Leaders या उपास्य को) 'Pearl Oyster ' (मोती वाले सीप) की  कहानी सुनाया करते थे। " शुक्ति (याने मोती वाले सीप) के समान बनो। भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बून्द किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की उपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बून्द की प्रतीक्षा करती रहती हैं। ज्यों ही एक बून्द पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।" 
      उसी प्रकार इस युवा प्रशिक्षण शिविर को भी आप मोतियों जैसे बहुमूल्य विचारों का संग्रह करने के एक दुर्लभ अवसर के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। यहाँ आप स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा रूपी मोतियों जैसी मूल्यवान विचारों को प्राप्त कर सकते हैं। ध्वजारोहण के साथ आज संध्या जब इस शिविर का उद्घाटन हुआ, विश्वास कीजिये ठीक उसी समय इस शिविर परिधि (camp periphery) के आकाश में स्वाति नक्षत्र तुंगस्थ हो चुका है, और इस शिविर की समाप्ति होने तक वहीं पर तुंगस्थ बना रहेगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप सभी शिविरार्थी भाई , स्वामी विवेकानन्द के 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी ' शिक्षाओं को ग्रहण करके अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने के लिये इस शिविर का अधिकतम लाभ उठाएंगे। "
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[स्वामी जी ने कहा था - " वत्स , मैं युवाओं में जो देखना चाहता हूँ, वह है लोहे की मांसपेशियाँ और फौलाद के स्नायु , जिनके भीतर एक ऐसा मन वास करता हो , जो वज्र के उपादानों से गठित हुआ हो। बल और पौरुष (manhood) ~याने क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज ! " (पूर्ण निःस्वार्थपरता से उत्पन्न वज्र जैसी अप्रतिरोध्य निर्भीकता thunderbolt -100 %, unselfishness और ब्रह्मतेज (=वेदान्त डिण्डिम) ! )" ५/३९८

" My child, what I want is muscles of iron and nerves of steel, inside which dwells a mind of the same material as that of which the thunderbolt is made. Strength, manhood, Kshatra-Virya + Brahma-Teja." (1896 letter to Alasinga)

🔱>>>  Inaugural speech of Sri Birendra Kumar Chakraborty, General Secretary of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal delivered at the occasion of> 2019  Seventh Interstate Youth Training Camp" held at Jhumritelaiya, Jharkhand): -

        " Respected my beloved friend Sri Bijay Singh, who actually started spreading the ideas of Mahamandal in this area and country since 1987 and from then he has been working tirelessly covering a big part of India spreading the man-making  idea of Mahamandal and Swami Vivekananda. I also express my thanks and gratitude to all the speakers who all spoke so well that I have learned from them and they also reduced my task. 

          In the inaugural programs of Mahamandal, we do not permit any lengthy speeches. Since campers have come from different areas, They feel tired. They have been provided very light tiffin in the evening and now they are restless so I think that it is not necessary to make the speech lengthy and I would like to sum up in short.  I thought that not only as an inaugurator of the camp but as the General Secretary of this organization, I will introduce the Mahamandal to them because most of the campers are new. 
     Mahamandal was established in the year 1967, twenty years after attaining India's independence in 1947. The idea was to spread the man-making and character-building ideas of Swami Vivekananda among young men because of an Agrarian Movement #(in the year 1967) in the eastern part of India .
      Young men in around West Bengal and some other eastern states and some the south mostly in Andhra Pradesh. A young man in discipline and some senior monks of Ramakrishna Mission order and founder secretary of Mahamandal Sri Nabani Haran Mukhopadhyay who came here many times took the decision to establish an organization and started a movement to spread this man making and character building idea of Swami  Vivekananda among the young men. In this way, the work started in the later part of 1967. So far I remember that it was on the 25 of October. 
     The first meeting was held a four-five months later in January 1968. They sat together. A very senior monk, the president of Ramakrishna Mission, General Secretary Swami Abhayananda, Assistant General Secretary Swami Bhuteshananda, and a very senior monk Swami Ranganathananda who also subsequently became president of Ramakrishna Mission took part in that meeting. They all advised it will have to spread the man making ideas of Swami Vivekananda. This is the idea behind establishing Mahamandal. 
      Then the next was to contemplate what was the way? How was the idea to be spread? They decided that youth training camps should be organized periodically and in these training camps, man-making and character-building ideas will be taught. The first training camp was possibly held five months after Mahamandal started. According to Swami Vivekananda, the necessary things in order to be real men are simultaneous development of body, mind, and heart. Youth should have a strong body, intellectual mind, and an expanded heart. They should not leave self-centered life. They should lead a life for the sake of all. 
      In this camp, campers will start from tomorrow morning attending a class on the concentration of mind. Swami Vivekananda emphasized more to be educated on how to concentrate the mind. Various classes on man-making and character-building education will be held thereafter. Theoretical ideas are not enough, practical method is essential which will be also taught here. Therefore I appeal to all the campers not to miss any class of the camp. 
      Swamiji used to narrate a story of pearl oyster. Be like the pearl oyster. There is a pretty Indian fable to the effect that if it rains when the star Swati is in the ascendant, and a drop of rain falls into an oyster, that drop becomes a pearl. The oysters know this, so they come to the surface when the star shines and wait to catch the precious raindrop. When a drop falls into them, quickly the oysters close their shells and dive down to the bottom of the sea, there to patiently develop the drop into the pearl. 
       So this camp may be assumed this occasion where you can get the pearl-like valuable things to be absorbed. Believe, this evening, when the camp was inaugurated by flag hoisting, the Swati star has raised on the sky of this camp periphery and it will sustain till the end of the camp. I fervently hope, you all will take the maximum advantage of the camp to make your life better grasping the man making and character building ideas of Swami Vivekananda. "
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>>>Internet version of Vivek-Anjan : विवेक-अंजन का इंटरनेट संस्करण : अजय पांडेय ने प्रथम बार विवेक-अंजन का वार्षिकांक (Annual Number) 7 अगस्त 2020 को इंटरनेट पर प्रकाशित किया था। जिसका एक copy मेरे WhatsApp पर भी भेजा था। उस अंक में महामण्डल  के तात्कालीन महासचिव श्री बीरेंद्र कुमार चक्रवर्ती  द्वारा सातवें अंतरराज्यीय युवा प्रशिक्षण शिविर 2019 के अवसर पर प्रदत्त अंग्रेजी भाषण अंग्रेजी में ही छापा गया था। (यदि मुझे पहले दिखता तो मैं उसका हिन्दी अनुवाद अवश्य कर देता)। मुझे जैसे ही मिला मैंने उसे रनेनदा (श्री रनेन मुखर्जी, उपाध्यक्ष) को वॉट्सऐप से फॉरवर्ड कर दिया। अगले ही दिन उन्होंने लिखा -  ### 8 अगस्त 2020 को महामण्डल की मूल भावना तथा प्रामाणिक इतिहास के सम्बन्ध में महामण्डल के वर्तमान अध्यक्ष श्री रणेन्द्र मुखर्जी के साथ विवेक-अंजन के सम्पादक का  वार्तालाप :  

>>>-N.B. (Nota Bene अर्थात विशेष टिप्पणी ) :###Conversation of the Editor of Vivek-Anjan with the present President (2023) of Mahamandal, Shri Ranendra Mukherjee, regarding the Fundamental spirit and Authentic History of Mahamandal on 8 August 2020:
 
Ranen Da: " I found some apparent mistakes in the Inaugural speech of Biren'da (Sri Birendra Kumar Chakrabarti) printed in it. In the upper part of the second column, it has been indicated the name of Swami Abhayananda as General Secretary. But he was never a G.S. of RKM.

            At that time (in 1967) Swami Vireswrananda and Swami Gambhirananda were President and GS respectively. Sw. Abhayananda (Bharat Maharaj) was Manager. I feel you couldn't properly understand or the mistake was committed by the person who wrote the speech in long hand from the recorder.

Bijay: Yes, perhaps something similar might have happened.

Ranenda - However the above-named senior monks did not take part in the January 1968 meeting of the Mahamandal, but they always guided us in different ways. Swami  Smarananda (Present President), Swami Budhananda(the then President, Advaita Ashrama), and Swami Joyananda (Sukdev Maharaj) were generally attending our meetings held at Advaita including the second one. I was also generally attending such meetings almost from the beginning.  

Ranenda - However the above-named senior monks did not take part in the January 1968 meeting of the Mahamandal, but they always guided us in different ways. Swami  Smarananda (Present President), Swami Budhananda (the then President, Advaita Ashrama), and Swami Joyananda (Sukdev Maharaj) were generally attending our meetings held at Advaita including the second one. I was also generally attending such meetings almost from the beginning. 

राणेन दा: "मुझे विवेक-अंजन में  छपे बीरेन' दा (श्री बीरेंद्र कुमार चक्रवर्ती) के उद्घाटन भाषण में कुछ स्पष्ट गलतियाँ दिखाई दी हैं । दूसरे कॉलम के ऊपरी हिस्से में रामकृष्ण मिशन (RKM) के महासचिव (G.S.) के रूप में स्वामी अभयानन्द का नाम दर्शाया गया है। लेकिन वे तो कभी आरके मिशन का जी.एस. बने ही नहीं थे। 

        उस समय (1967 में) स्वामी वीरेश्वरानंद और स्वामी गंभीरानंद क्रमशः अध्यक्ष  और जी.एस (महासचिव) थे। स्वामी अभयानन्द (भरत महाराज) प्रबंधक थे। मुझे लगता है कि तुम ठीक से समझ नहीं सके या जिस व्यक्ति ने रिकॉर्डर से उनके अंग्रेजी भाषण को सुन कर उसे long hand में लिखा होगा उससे गलती हुई होगी। 

बिजय : हाँ, शायद वैसा ही कुछ हुआ होगा।  

रनेन दा - हालाँकि, उपरोक्त वरिष्ठ संन्यासियों  ने जनवरी 1968 की महामंडल की दूसरी बैठक में भाग नहीं लिया था, लेकिन वे अपने- अपने ढंग से हमलोगों का मार्गदर्शन हमेशा किया करते थे।  स्वामी स्मरणानन्द ( रामकृष्ण मिशन के वर्तमान अध्यक्ष), स्वामी बुधानन्द  
(तत्कालीन अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम), और स्वामी जोयानन्द (सुकदेव महाराज) आम तौर पर अद्वैत आश्रम में आयोजित महामण्डल की दूसरी बैठक सहित  हमारी समस्त बैठकों में भाग लिया करते थे। और मैं भी शुरू से ही ऐसी बैठकों में आमतौर पर शामिल होता रहा हूं।

#23-24 जुलाई, 2016  (7.40 pm) को आयोजित महामण्डल के 151 वें SPTC में बीरेन दा द्वारा  दिया गया भाषण :
 उपरोक्त 151 वें SPTC ( विशेष प्रशिक्षण शिविर) में महामण्डल तात्कालीन GS बीरेन दा ने महामण्डल के संस्थापक महासचिव  (=जीवनमुक्त शिक्षक, नेता या पैगम्बर C-IN-C) नवनीदा के सामने " महामण्डल की मूलभावना तथा इसका प्रामाणिक इतिहास" का उल्लेख करते हुए अपने भाषण में कहा था - " आपलोग जानते हैं कि 70 दिनों के अन्तराल पर [ वेदान्त डिण्डिम लीडरशिप परम्परा (पैगम्बर निर्माण प्रशिक्षण परम्परा में] महामण्डल के 5 SPTC (लीडरशिप ट्रेनिंग कैम्प) वर्ष भर में आयोजित किये जाते हैं। 
 " पिछला SPTC 15 मई , 2016 को हुआ था। तब से लेकर अभी 23 जुलाई, 2016 तक 70 दिनों में मेरे मनुष्य बनने के प्रयास, 3H विकास के 5 अभ्यास में कितनी प्रगति हुई है , उसका  मूल्यांकन स्वयं करने हमलोग SPTC में भाग लेते हैं। (जैसे हफ्ता में एक दिन पाठ-चक्र में अपना मूल्यांकन भी करते हैं)। 
 Sept, 1967 में इस युवा -संगठन आन्दोलन के संयोजक  बने थे जयराम महाराज (रामकृष्ण मिशन के वर्तमान अध्यक्ष)  , और उन्होंने प्रथम बैठक में भाग लेने के लिए बहुत से रामकृष्ण-भावधारा से प्रेरित युवा संगठनों को आमंत्रित किया था । उस मीटिंग की अध्यक्षता स्वामी अनन्यानन्द जी महाराज ने की थी। जिसमें तय हुआ कि 25 -26 अक्टूबर 1967 को अद्वैत आश्रम में दूसरी बैठक आयोजित की जाएगी। और उसी दिन की बैठक में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल आविर्भूत हुआ।
        महामण्डल युवा आन्दोलन के उस प्रथम कार्यकारिणी समिति के सचिव बने थे नवनीदा। उस दिन की बैठक में बासुदा, बीरेश्वर दा, न्यू बैरकपुर छात्र संगठन के साथ-साथ 6 -7 अन्य युवा संगठन भी शामिल हुए। नीलमणि दा, अमियो दा, नवनीदा को जिम्मा मिला था महामण्डल का नियम-कानून  बनाने का। स्वामी गम्भीरानन्द जी महाराज उस समय रामकृष्ण मठ -मिशन के महासचिव थे , वे भेंट होने से हमेशा पूछते थे , कितने पुराने युवा संगठन को महामण्डल से मान्यता प्राप्त हुई ? उनका कहना था कि चल रहे सभी युवा संघों का नाम परिवर्तन करके उन्हें महामण्डल में विलय करके उनको आत्मसात कर लेना जरुरी है। 
      1967 में युवा महामण्डल के स्थापित होने के बाद प्रथम OTC ( SPTC) बैरकपुर छावनी स्कूल (Barrackpore cantonment school) से  प्रारम्भ हुआ था। प्रथम बार का SPTC अढ़ाई दिन का (2 and 1/2 days) का हुआ था। उस OTC में जयराम महाराज भी  (वर्तमान में रामकृष्ण मठ -मिशन के अध्यक्ष) आये थे। उसके बाद महामण्डल का प्रथम वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर भी बैरकपुर छावनी स्कूल  में ही आयोजित हुआ था। 
        पहले पहल SPTC का आयोजन नियमित रूप से नहीं हो पाता था। क्योंकि महामण्डल के पास अपनी कोई जगह नहीं थी। बैरकपुर में 'अरविन्द सोसाइटी 'के भूतिया डाकबंगला में  SPTC का आयोजन करने के लिए वहां के इंचार्ज से अनुमति लेकर एक कमरा लिया गया था। बासुदा वहाँ के इंचार्ज थे, उन्होंने उसके मैनेजमेन्ट कमिटी से त्रैमासिक OTC आयोजित करने की मंजूरी करवा ली थी। 
           लेकिन जब वह मकान  बहुत टूट-फूट गया ,तब अरविन्दो सोसाइटी वालों ने बोला - " आपलोग अपने खर्चे से बनवा लो , किन्तु वे उस मकान का जमीन महामण्डल के नाम से रजिस्ट्री करने वे तैयार नहीं थे।  लेकिन घर का मालिकाना हक अपने ही पास रखना चाहे । " फिर बैरकपुर में ही एक भोलानन्द गिरी आश्रम स्कूल है, वहाँ OTC शुरू हुआ। जब से कोन्नगर में महामण्डल का अपना भवन बन गया तब से प्रति वर्ष 5 SPTC हो जा रहा है। भवन बनने से कितना लाभ हुआ - 151 वां SPTC महामण्डल के अपने भवन में हो रहा है। लेकिन इस बिल्डिंग को जितना मजबूत और उपयोगी बनाने का प्रयास करना था -उतना मोटा छड़ बुनियाद में नहीं दिया ? [ पूछने पर प्रमोद दा कहते हैं -इतना मजबूत है कि इसपर दो तल्ला और खड़ा हो सकता है।
      >>>पूज्य वीरेश्वर दा का तपस्वी जीवन (महामण्डल संगीत घराना के गीत और लेखक): प्रातः कालीन रामकृष्ण स्तुति मनःसंयोग के समय गाया जाता है।  जयो -जयो रामकृष्णो भुवन मंगलो  में गृही और त्यागी सभी शिष्य के नाम हैं, नाग महाशय, गिरीश घोष, + सभी युवा शिष्यों के नाम हैं। ।"जो भक्तिहीन पर कृपाकटाक्ष करे वही है रामकृष्ण है !   और स्वामीजी- ताप हरण करते हैं ! Ramakrishna is the one who looks kindly on those, without devotion!.....  ‘The Lord has not yet given up His Ramakrishna form. … The form of His will last until He comes once again in another gross body. Though He may not be visible to all, that He is in the organization (Sangha, Brotherhood, and is guiding it) is patent to all.’2 ]

१. "भैरव रव रवे , डाको डाको सबे , आर कि घुमानो साजे ? कोतो ना क्लेशे दोहीचे जगत आर कि घुमानो साजे ?" ~ नवनीदा ने लिखा। 

२. ' भेंड़ -विवेक-सिंह का बल और हुँकार से घोषणा करो , सिंह शिशु की दहाड़ से युवा घोषणा करो -  हम अपने भाग्य के निर्माता हैं। ~ नवनीदा 

३. आदर्श तव-शंकर -सीता : ~ चण्डिकानन्दजी द्वारा स्वदेश मंत्र का गीत।  

४. आमरा मायेर छेले , भय कि आमार ? ~ वीरेश्वर दा। 

५. तेज तुम , तेज दो , बल तुम करो बलियान ~ वीरेश्वर दा।   

६. असत राह से मुझे सत राह पर लो , मन का अँधेरा हटाओ ~ वीरेशर दा। 

७. हम सब हैं भाई, इस भारत के नवीन युवक दल, हमें तो पथ दिखाए ~ सनातन सिंह।  

८. बोड़ो होबो , बोड़ो होबो, ह्रदय -ब्रह्म होबे भाई ~ बि० सिं०।   

९. जान लिया है हमने राज, चरित्र से बनता देश-समाज' स्लोगन  ~ बि० सिं०।

१०. पदण्डी मुण्डकू ,  पदण्डी मुण्डकू " तेलगु स्लोगन ~ मुनि स्वामी गारू।

महामण्डल के संघमन्त्र आदि के लिए प्रातः -सायं के विशिष्ट सुर-संगीत घराना के प्रतिष्ठाता वीरेश्वर दा का जीवन ऋषि-मुनियों के जैसा विशिष्ट नियम-निष्ठा द्वारा गठित तपस्यापूत जीवन था।  वे कहते थे कि महामण्डल के SPTC में आते समय मन में ऐसा भाव रहना चाहिए मानो हमलोग गुरु के आश्रम में तपस्या करने जा रहे हैं। हमलोगों यहाँ श्रवण करके Chew And digest करने या चिबा कर पचा लेने की भावना से आना चाहिए। मैं खुद यहाँ की शिक्षा को आत्मसात करने आता हूँ। वे कहते थे - महामण्डल के इस दो दिवसीय शिविर में हमलोगों को  Picnic Spirit (पीकिनक या वनभोज की भावना) से नहीं आना चाहिए Penance  Spirit (तपस्वी-भावना) से आना चाहिए।

           एक बार कुछ लोगों ने मिशन में ऊपर (मिशन के महासचिव के पास) शिकायत कर दी कि महामण्डल के पाठचक्र में श्रीरामकृष्ण वचनामृत छोड़कर केवल स्वामीजी का भाव और 'Be and Make ' ही क्यों पढ़ाया जाता है ?  रामकृष्ण सेवा संघ के पुराने सदस्यों में बगावत हो गया कि जितने युवा गुरु-परम्परा में दीक्षित हुए हैं उनको महामण्डल में आने नहीं देगा। रामकृष्ण सेवा समिति का कुछ आदमी लोग बोलै हमलोग महामण्डल से तभी जुड़ेंगे जब यहाँ श्रीरामकृष्ण कथामृत (वचनामृत) पढ़ना अनिवार्य बना दिया जायेगा। तवीरेश्वर दा उन्होंने प्रभु महाराज (स्वामी वीरेश्वरा नन्द)  को पत्र लिखा था  - "पूछा, मैं भी दीक्षित हूँ , क्या मैं महामण्डल जा सकता हूँ ? लेकिन वहाँ श्रीरामकृष्ण कथामृत (हिन्दी श्रीरामकृष्ण वचनामृत) नहीं पढ़ाया जाता है। तो यदि आप भी यह कह देंगे कि मत जाओ तो मैं महामण्डल छोड़ दूंगा।" प्रभु महाराज ने उसका उत्तर  बंगला भाषा में एक पोस्टकार्ड में दिया था। प्रभुमहाराज तमिल थे , जयराम महाराज भी तमिल हैं , लेकिन बंगला जानते हैं। क्योंकि कथामृत-लीला-प्रसंग आदि ग्रन्थ को सभी साधु बंगला में ही पढ़ना चाहते हैं। महामण्डल पुस्तिका 'स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ' की भूमिका भी उन्हीं की लिखी हुई है। उस पत्र में प्रभुमहाराज ने लिखा था कि -"भोग-खिचड़ी खाना , ठाकुर का असली काम है ? श्री रामकृष्ण- परम्परा में दीक्षित सभी भक्तों को यह ज्ञात हो कि महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम में भाग लेना ही ठाकुर देव का वास्तविक पूजा है। हर सदस्य को साप्ताहिक पाठचक्र में अवश्य शामिल होना चाहिए। और जितने भी पूर्व से संचालित युवा संगठन अन्य नाम का प्रयोग कर रहे हैं , उन्हें अपने संगठन का पुराना नाम छोड़कर अविलम्ब महामण्डल के चरित्र-निर्माण आंदोलन में सम्मिलित हो जाना चाहिए। जैसे कई युवा संगठनों को महामण्डल से मान्यता प्राप्त करनी होगी। जो लोग नाम नहीं बदलना चाहते थे , वे महामण्डल से चले जाएँ। "  वीरेश्वर दा तो 'रामकृष्ण विवेक-सेवा समीति ???' के प्राण पुरुष थे। वे भी महामण्डल से मिलने के लिए तैयार हो गए। इस पत्र के प्राप्त होने के बाद वीरेश्वर दा ने अपने संघ को महामण्डल में शामिल करने का आवेदन किया। नवनीदा के 'Portfolio Bag'  में ही महामण्डल का सारा विधि-विधान पर्चा , पुस्तिका , रहता था भाषण देकर फॉर्म देते थे। Affiliation मिल गया। फिर उनके प्रयास से संस्कृति परिषद , विवेक-समिति ,रामकृष्ण सेवा संघ, ... आदि छः संगठनों का विलय महामण्डल में हो गया। 
[ठीक उसी प्रकार जैसे ' झुमरीतिलैया विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' के तत्वाधान में  " प्रथम बिहार  राज्य स्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर झुमरीतिलैया के अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा 1988 में  C.H.हाई स्कूल में आयोजित हुआ था। उस शिविर में कोलकाता महामण्डल कार्यकारिणी समीति के अध्यक्ष अमियो दा को छोड़कर, बाकि सभी 15 सदस्य उपस्थित थे। और उस प्रथम बिहार राज्य स्तरीय शिविर के बाद 1988 में ही : 12  जनवरी 1885 को स्वयं स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा और कृपा से स्थापित झुमरीतिलैया 'विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' नाम का विलय  झुमरीतिलैया 'विवेकानन्द  युवा महामण्डल'  में हो गया था। इसीलिए झुमरीतिलैया शाखा को शुरू से ही पूज्य नवनीदा द्वारा महामण्डल नाम use करने की अनुमति है और ध्वज प्राप्त है। (उस समय झुमरीतिलैया भी बिहार में ही था क्योंकि झारखण्ड बिहार से अलग नहीं हुआ था, और उस समय कोडरमा भी जिला नहीं बना था, झुमरीतिलैया तब हज़ारीबाग जिला के अन्तर्गत था।)

>>>महामण्डल का गोल्डन जुबली 2016 सितम्बर से सूत्रपात होगा। 
1st मीटिंग में यह तय हुआ था युवाओं को भारतीय संस्कृति से परिचित करवाने के युवा प्रशिक्षण शिविर लगाना होगा। उस मीटिंग में 6 Pre Existing Units भाग लिया था। उनमें से किसी भी संगठन ने  "Man-making" सुना नहीं था , Bread Making सुना था। उसके साथ कुछ individuals भी मीटिंग में शामिल थे। नवनीदा किसी भी संगठन से नहीं जुड़े हुए थे। 1st Training camp, में 'कर्मवृत्ति संस्था' नामक एक अन्य संगठन भी भाग लेने आया था, वह एक विजातीय संगठन (Heterogeneous organization) था। वे लोग रहस्य विद्या पर जोर देने वाले Rituals करते थे, यानि एक 'रहस्यमय पद्धति का संगठन' (Organization of the 'Mysterious Method') था। उनके प्रशिक्षण के कार्यक्रम में पंचमुण्डी आसन करते थे ? वाले होम-यज्ञ पद्धति भी शामिल था। लेकिन बाद में उस संगठन का  भी महामण्डल में विलय हो गया था। प्रथम कैम्प में नवनीदा के एक करीबी आन्दुल के शौलेन बाबू के साथ धीरेन दा उस कैम्प में शामिल हुए थे।  अन्दुल मौरी का सुशान्त भी उस कैम्प में था। लेकिन वह कैम्प सही अर्थ में महामण्डल का कैम्प नहीं था। उस समय के कैम्प में साधु लोग भी क्लास लेते थे। महामण्डल के 50 वर्षों का जब इतिहास लिखा जायेगा तब उसमें ये सब घटनाएं दर्ज होंगी। [ महामण्डल प्रथम कैम्प के शुभ अवसर पर, अन्दुल मौरी के सुशान्त दा के पिता श्री भवदेव बंदोपाध्याय भी उपस्थित थे। उनके अनुसार  महामण्डल का प्रथम युवा प्रशिक्षण शिविर 1968 के 8 जनवरी को दक्षिणेश्वर के आड़ियादह में  आयोजित हुआ था? लेकिन वीरेनदा  बताये हैं बैरकपुर ? में पहला कैम्प हुआ ?]  तब उस शिविर में उन्होंने अपने पुत्र तथा आन्दुल के दो युवकों को शिविर-प्रशिक्षणार्थी के रूप में भेजा था।  लेकिन वह कैम्प सही अर्थ में महामण्डल का कैम्प नहीं था। उस समय के कैम्प में साधु लोग भी क्लास लेते थे।

>>>1968 जनवरी महीने में प्रथम कैम्प का उद्घाटन (Inauguration) स्वामी समबुद्धानन्द जी महाराज ने किया था। वे विवेकानन्द शतवार्षिकी के सचिव थे। वे ठाकुर-माँ-स्वामीजी - तीनों  Holy Trio शतवार्षिकी के सचिव रहे थे। उनका कार्य करने का तरीका 24 घंटा एक था , जो उनके पास आया वो भगवान ने भेजा सोचकर उसका नाम, ठिकाना, फोन नंबर लेते थे। आपका क्या मत है पूछ कर एक डायरी में नोट भी करते थेभारत के राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन के सामने एक बार उन्होंने कहा था  - " If Mahatma Gandhi is the Father of the nation, then  Swami Vivekananda is the Grandfather of the nation! "- अर्थात महात्मा गांधी यदि राष्ट्रपिता हैं, तो स्वामी विवेकानन्द राष्ट्र के पितामह हैं!" उन्होंने एक बार बताया था कि अमेरिका के 32 वें राष्ट्रपति President Roosevelt की बेटी भारत दर्शन करने आयी थी। उनसे पूछा गया कि आने भारत में अभी कैसी अवस्था देखि ? उन्होंने बताया था कि - "अंग्रेज जो खाकर उलटी करता है , उसको अमेरिका खता है , अमेरिका का यूवा जो उलटी करता है, India का युवा वही खाता है। " स्वामी समबुद्धानन्द जी को महामण्डल से बहुत आशा थी। उनके ही आदेश से यहाँ के शिविर में रहस्यमय  rituals आदि  होना बंद हो गया।  
>>>1969 वार्षिक कैम्प - बैरकपुर छावनी में भोलानन्द आश्रम स्कूल बिल्डिंग में हुआ था ।  तब तक 6 days camp का Course and syllabus नहीं बना था। उस समय बहुत से साधु लोग भी क्लास लेने आते थे। वे लोग बता देते थे कि घर में जाकर ये सब प्रैक्टिस करेगा तो Man-Making हो जायेगा। 

>>>1970 कैम्प - सरंगाबाद में हुआ जो उग्र नक्सली क्षेत्र था। बैंडेल के पास त्रिवेणी का एक MLA सहयोग किया था। आनन्द बाजार पत्रिका के सम्पादक अमियो बन्दोपाध्याय थे , उन्होंने अपने पेपर में कैम्प का पूरा समाचार लगातार 4 -5 रोज छापा था। उन्हीं दिनों एक पेज का सम्पादकीय लिखने पर सन्तोष घोष ??? को ठाकुर देव का दर्शन मिला था , नजर बदल गया था???। इस शिविर के बाद महामण्डल के 'Youth Training Camp' का  Course and syllabus लिखने का कार्य भार साधु लोग के साथ महामण्डल के पूर्व उपाध्यक्ष  'श्री  क्षेत्र सेन शर्मा' को दिया गया था वे भवेश दा का friend थे । क्रान्तिकारी नाटक करना उनका मुख्य कार्य था। केमिस्ट्री और ड्रामा ताश खेलना तो चार आदमी चाहिए। इसको मेंबरशिप कौन दे दिया ?  विप्लव आर्टिस्ट था। 184 कैम्पर का सर्टिफ़िकेट हाथ लिख दिया।  विप्लवी होने का सर्टिफिकेट हाथ से लिखकर देता था। मुख्य काम था नाटक करना। 
बीरेन दा के भाषण के बाद डॉक्टर राजर्षि ने एक गीत गाया - राग बहार में वीर सेनापति ! फिर एक रविन्द्र संगीत सुनाया  -शुधु तोमार वाणी नय गो, हे बन्धु, हे प्रिय; माझे माझे प्राणे- तोमार परश खानि दियो।। 
           गीत के बाद वीरेन दा ने पुनः कहा - विवेकानन्द साहित्य के हिन्दी/English publication office, प्रकाशन कार्यालय अद्वैत आश्रम से जुड़ी 40 page में लिखित घटनायें महामंडल की पृष्ठभूमि   'Background of mahamandal' -- से जुड़ी हुई हैं ??उन दिनों >>>उस समय के युवा नवनीदा कुछ महाराज लोग के साथ अपने ऑफिस से सुन्दरी मोहन देव रोड से या CIT रोड पार्क सर्कस होते हुए Evening Walk पर जाते थे। नवनीदा कहते हैं - स्वामी वन्दनानन्द, अनन्यानन्द के साथ शाम को अद्वैत आश्रम से पार्क सर्कस तक १/२ किमी  घूमने के लिए जाते थे। उस समय के मेधावी छात्र भी लाइब्रेरी जलाने लगे। रेल की सम्पत्ति , सरकारी सम्पत्ति में आग लगाने लगे। उन्हें कोई ये नहीं बता रहा था कि शिक्षा पद्धति में परिवर्तन करें या पुस्तक ही जला दें ? तो एक दिन जाते -जाते कुछ शिक्षित युवा, कॉलेज स्टूडेन्ट नवनीदा और जयराम महाराज (वर्तमान रामकृष्ण मठ मिशन के अध्यक्ष) पर कटाक्ष करते हुए कहा - " देखो साधु लोग देश का माल खा खा कर कितना मोटा हो गया है। " तब उनलोगों के मन में आया कि एक युवा संगठन के माध्यम से एक रचनात्मक आंदोलन खड़ा करना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। 
      भारत को 1947 में आजादी मिली , उसके बाद 1967 आते आते 20 वर्ष गुजर गया। देश के गरीब किसानों की अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, युवाओं की आशा भंग हो गयी , हताशा के चलते युवा वर्ग में विप्लवी मानसिकता ने जन्म लिया। कोलकाता में नक्सल मूवमेन्ट के पहले महामण्डल की स्थापना 1967 में हुई थी। 1947 में देश आजाद हुआ , लोगों के मन में आशा थी कि अब भारत में कोई भूखा नहीं सोयेगा , सभी भोजन-वस्त्र -आवास उपलब्ध होगा। 20 वर्षों तक पूरे देश में केवल एक ही पार्टी का शासन रहा।  लेकिन स्वाधीनता के बाद 20 वर्षों तक प्रतीक्षा किया , लेकिन कोई परिवर्तन नहीं हुआ। केरल में कम्युनिस्ट शासन कुछ दिन रहा , फिर congress लौटा सिंगल party ! लेकिन एक एक कर 20 वर्ष बीत जाने पर भी जब परिवर्तन नहीं दिखा तब युवा वर्ग आक्रोशित हो उठा। पोल्टीसिअन राजनितिक नेता लोग युवा को गलत दिशा में ले जाने लगे। 
     उसी युवा आक्रोश की परिणति नक्सल आंदोलन में हुई। उस समय की समसामयिक घटना का विश्लेषण करने पर हम देखते हैं-युवाओं में हताशा थी। पहले अंग्रेजों के खिलाफ आक्रोश था कि इन्होने हमारे देश को दरिद्र बना दिया। उसको भारत से बाहर निकालो। भारत की दुर्गति के लिए केवल अंग्रेजी शासन ही जिम्मेदार है , उसको हटाओ ! उसको भगाने से सब दुःख दूर हो जायेगा। स्वामी जी ने कहा -मैं 4 दिन में आजादी दिलवा सकता हूँ ; लेकिन उसको सम्भाल कर रखने वाले मनुष्य कहाँ हैं ? अतः पहले मनुष्य का निर्माण करने वाला आंदोलन शुरू करो। लोगों ने सोचा शायद केवल अंग्रेज ही मुख्य कारण है ,उसको भगा देने से सब ठीक हो जायेगा।
>>जगदीश्वर के कखोनो फांकी देवा जाए ना : पहाड़ मोहम्मद के निकट आ सकता ; तो मोहम्मद पहाड़ के निकट जायेगा। बन्धु कौन होता है ? जो घर-बाहर कहीं कहीं अकेला नहीं छोड़े। शिशु जैसा पवित्र तरुण दल popular होने लगा। सभी महान शिक्षाएं श्रवण से ही प्राप्त होती हैं। माँ के मुख से और अपने कानों से सुनकर ही हमने श्रेष्ठ शिक्षा - मनुष्य बनने की शिक्षा प्राप्त की है। संन्यासी और गृहस्थ दोनों अपने अपने स्थान में श्रेष्ठ हैं। श्रेष्ठ शक्ति के प्रतीक हैं। 

>>>खाँटी लोग मुखे जा बोले ताई करे ! ह्रदय शरीर का राजधानी है - heart के निकट ही Blood pumping machine होता है। सिर्फ भारतीय नारी ही नहीं अमेरिका की नारी भी अपने सन्तानों को मनुष्य बनने की शिक्षा देंगी। इस मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा- Be and Make' को सार्वभौमिक धर्म का रूप देना होगा। 1893 से 1896 तक स्वामीजी अमेरिका में रहे , 15th जनवरी, 1897 को सिंघल पहुँचे। फरवरी महीने में कोलकाता आये। कोलम्बो से अल्मोड़ा तक जागरण मंत्र सुनाया। लाहौर -कराँची तक घूमे। ३-४ साल से भारत से दूर थे। 1897 से 99 बिताने के बाद दुबारा गए थे। वहाँ उनको " मेरे गुरुदेव " पर भाषण देना पड़ा। 
       बंगाल से कांग्रेस का शासन चला गया, रक्षणशील -प्रतिक्रियाशील -क्रान्तिकारी संयुक्त मोर्चा और Left Front का सरकार बन गयाHard or Soft पता नहीं , उसके सभी नेता क्रान्तिकारी ही थे।  1962 से 1967 तक बंगाल में PC Sen (प्रफुल्ल चन्द्र सेन) का शासन था। वे त्यागी थे, लेकिन चुनाव में हार गए। जनता-दल का शासन आया फिर गया - यही चलता रहा। जनता फिर उद्वेलित हो गयी। अजय मुखर्जी # को क्या गाँधीवादी नेता कह सकते हैं ? [ अजय कुमार मुखर्जी # (15 अप्रैल 1901 - 27 मई 1986) एक भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ता और राजनीतिज्ञ थे।  उन्होंने  वर्ष 1967 में  आरामबाग विधानसभा क्षेत्र में एक अन्य गांधीवादी प्रफुल्ल चंद्र सेन को हराया और प्रफुल्ल चंद्र सेन के बाद पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने। वे  पश्चिम बंगाल के पूर्व मेदिनीपुर जिले के तमलुक के रहने वाले थे। उनके भाई विश्वनाथ मुखर्जी कम्युनिस्ट सांसद गीता मुखर्जी के पति थे । अजॉय की भतीजी कल्याणी (दूसरे भाई की बेटी) की शादी मोहन कुमारमंगलम से हुई थी और वह रंगराजन कुमारमंगलम और ललिता कुमारमंगलम की मां थीं ।]  

Russia -1948 : मार्क्स के कम्युनिज्म से स्टालिन के चरित्र का कोई मेल नहीं था , चीनी राष्ट्रपति माओ का असली मार्क्सवाद से कुछ भी लेना -देना नहीं था। रसिया में चुनाव के बाद - Stalin का पतन हुआ  - और खुर्श्चेव पार्टी प्रसिडेन्ट बना। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी बंट गया। श्रीपाद अमृत डांगे का पत्र मिला जो Blitz में छापा ,अंग्रेज को खुशामदी चिट्ठी लिखा था। - Your most obedient servant Dange ?  किसी केस के विषय में। तय हुआ 32 नेता लोग डांगे को पार्टी से निकाल दो। 1967 में डांगे को विप्लवी दल से निकलने वाला अजय मुखर्जी दोनों रहा। नारा था - इलाका इलाका डांगे दलाल , पहचान लो।  G.L. Nanda 3 बार P.M. हुआ। साधु प्रकृति मनुष्य था। होम मिनिस्टर था। चीन के दलाल गुप्तचरों को अरेस्ट कियानक्सल आंदोलन शुरू हुआ जेल का ताला टूटेगा चीनी बंदी छूटेगा। हताशा से मुक्ति देगा , Land reform minister चारु मजूमदार का दर्शन शास्त्र , कानू सान्याल और  जंगल सरदार लोगों को दर्शन था 'Operation Killing'- 6 " छोटा  चलाकर उनको मानव हत्या करने में आनन्द मिलता था
      20 वर्ष बाद किसान-मजदूरों की कम्युनिस्ट सरकार बंगाल में बनी। लोगों ने सोचा जब सर्वहारा वर्ग सत्ता में आएगा तो उन्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। लेकिन ऑपरेशन बर्गा कानून लागु किया गया , जिसका मतलब ये था कि अगर कोई भूमिहीन किसी जमींदार के खेत पर साझे में खेती कर रहा है तो उसके हक को अचानक खारिज नहीं किया जा सकता है।  अगर जमीन मालिक इस जमीन को बेचने जा रहा है तो उसे सबसे पहले इस जमीन को अपने बंटाईदार को ही बेचने की पेशकश करना पड़ेगी। कोई लाभ नहीं हुआ। युवा हताशा के परिणाम थे - चारु मजूमदार, कानू सान्याल , जंगल सरदार। उनलोगों का कहना था कोई कानून नहीं - जमीन्दारों की हत्या कर दो। ऊपर से ६" छोटा कर दो ! यही विचार कॉलेज के स्टूडेंट्स में पॉपुलर होगया
1972 से 1977 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सिद्धार्थ शंकर रे का शासन रहा। बहुत से होनहार युवा मारे गए या जीवन बर्बाद हो गया।.... अनन्यानन्द जी उस मीटिंग में थे। हैदराबाद मिलने गया। महाराज उसको logens दिया।  preside किया था। V/P था सुरेश चंद्र दास। विज्ञानानन्द जी का साक्षत शिष्य प्रेस में था। 
       बंगला प्रसिद्द उपन्यासकार शरतचन्द्र चटर्जी का मझले भाई प्रभास ? रामकृष्ण आश्रम में साधु बन गए थे। संन्यासी होने के बाद उनका नाम था स्वामी वेदानन्द। रंगून से लौटने के बाद मठ से नाराज होकर शरतचन्द्र अपने भाई को वापस ले आये, और उसका विवाह कर दिया और उन्हें गृहस्थ बना दिया। उनका एक पुत्र और एक पुत्री हुई थी।  वे हेडमास्टर थे 15 एकड़ का विशाल plot खरीदा था। मिशन को देना चाहते थे। स्थानीय लोगों के लिए हॉस्पिटल या जो कुछ चाहे खोलिये।
      1967 में विवेकानन्द युवा महामण्डल स्थापित हो जाने बाद , 1972 में श्री एकनाथ रानाडे ने कन्याकुमारी में विवेकानन्द केन्द्र की स्थापना की थी।  [एकनाथ रानडे (१९ नवम्बर १९१४ - २२ अगस्त १९८२) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक समर्पित कार्यकर्ता थे जिन्होने सन् १९२६ से ही संघ के विभिन्न दायित्वों का निर्वाह किया।] रानाडे ने महामण्डल को प्रस्ताव दिया आदिवासी कल्याण के लिए उसमें कुछ कर सकता हूँ। महामण्डल को पत्र लिखेनिर्मलेन्दु दा ??? -- बोले बाहर से आकर कोई उस गाँव में सेवा-भाव से काम नहीं करता है। उनको  मनुष्य निर्माण का काम ज्यादा पसन्द था। इनको महामण्डल का idea और logic पर विश्वास था। उन्होंने कहा अब समझ में आता है - इतना बड़ा institution किस पर छोड़कर जाऊँ ? वे चले गए।  2nd मैन कोई तैयार नहीं हो सका। 
अजीमगंज विवेक-वाहिनी के लिए रेल विभाग ने जमीन दिया था । निकारीघाटा विवेक-वाहिनी देखो। विवेक-वाहिनी का नेता C-IN- C तरुण ? है। राजू मैती ? हर जोनल OTC में विवेक-वाहिनी पर एक एजेण्डा रहना जरुरी है।  भोगपुर सेन्टर में विवेकवाहिनी कैम्प होने में असुविधा होती है। विवेक-वाहिनी कैम्प भी स्टेट लेवल कैम्प की गरिमा से होना चाहिए। परिवेश गरिमापूर्ण हो। उसका जिम्मेवारी जोनल इंचार्ज पर होगा। कैम्प साईट अच्छा बनना चाहिए।  8.25 pm विवेक-वाहिनी रिपोर्ट: गत मार्च OTC के पहले " विवेक -वाहिनी निदेशक शिविर" (বিবেক বাহিনী পরিচালক শিবির) Vivek vahini  director camp' हुआ था।  उस शिविर में यह बताया जाता है कि जहाँ बच्चों का कोई शाखा नहीं हो वहां , कैसे शुरू करें ? किशोर -वाहिनी महामण्डल का सहायक भाव से काम करता है। Executive meeting में विशेष अध्यक्ष की अनुमति से पर -बार बार शिशु-विभाग , किशोर-विभाग खोलने पर चर्चा हो। १-२ दिन शिशु विभाग का पाठचक्र हो। 153 कैंपर्स में 57 न्यू कॉम्पर्स हुआ था। ४ साल में विवेक-वाहिनी फिर से पुरुज्जीवित हुआ है। २४ विवेक-वाहिनी यूनिट चलता है। अभी २६ हुआ है। २२ यूनिट बन्द भी हुआ है। तो जुड़ा भी है प्लस/माईनस होकर 26 unit चलता है। 

 24 जुलाई, 2016 : 7.00 am  जलपाईगुड़ी के संजीत द्वारा , स्वामीजी द्वारा अलासिंघा पेरुमल को   19 नवम्बर, 1894 को लिखित पत्र का पाठ हुआ। श्री सोमनाथ बागची द्वारा Life building and Character building' का वर्ग  लिया गया। >Speaker on Aims and objectives of Mahamandal : महामंडल के लक्ष्य एवं उद्देश्यों पर प्रकाश डालेंगे  1 . Speaker Sandip Singh : उद्देश्य - समस्त मनुष्यों का कल्याण ! उपाय - चरित्र गठन ! 3rd Speaker : अतनु मान्ना  : 4th Speaker : असीम कुमार पोड़िया - >- विद्युत् कान्ति विश्वास , तारक नगर , नदिया जिला , 2nd Speaker : सुजीत -अच्छी आवाज है।3rd Speaker : अशेष मण्डल : 4th Speaker : दिनेश मल्लिक। ] 
>>> Minimum possible lunch and dinner : जितना कम से कम भोजन कर सको करो - भात में- आलू सिद्धो , पेपे सिद्धो ! उबला आलू या उबला पपीता के साथ उसना चावल खाया ? या पकवान खाने चाहा ? 
भगवान कृष्ण एक रोज गौ चराते हुए जंगल में दूर चले गए तो जंगल में वृक्ष के नीचे गायों को विश्राम करते देखकर बोले - 
पश्यतैतान् महाभागान् परार्थैकान्तजीवितान् ।
वातवर्षातपहिमान् सहन्तो वारयन्ति न: ॥ ३२ ॥
(श्रीमद् भागवतम,श्लोक  10.22.31-32 )
 भगवान् कृष्ण ने कहा “हे मित्रो , जरा इन भाग्यशाली वृक्षों को तो देखो जिनके जीवन ही अन्यों के लाभ हेतु समर्पित हैं। वे हवा, वर्षा, धूप तथा पाले को सहते हुए भी इन तत्त्वों से हमारी रक्षा करते हैं।
अहो एषां वरं जन्म सर्वप्राण्युपजीवनम् ।
सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिन: ॥ ३३ ॥
जरा देखो, कि ये वृक्ष किस तरह प्रत्येक प्राणी का भरण कर रहे हैं। इनका जन्म सफल है। इनका आचरण महापुरुषों के तुल्य है क्योंकि वृक्ष से कुछ माँगने वाला कोई भी व्यक्ति कभी निराश नहीं लौटता।
एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा ॥ ३५ ॥
हर प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने प्राण, धन, बुद्धि तथा वाणी से दूसरों के लाभ हेतु सदा - श्रेय का ग्रहण करते हुए प्रेय का त्याग करे और कल्याणकारी कर्म करे।
एक प्रश्न आया महामण्डल का एक भाई मेरे बहुत निकट है , लेकिन वो हमसे जलता है , ईर्ष्या करता है , क्या करें ? किसी में यदि दोष दिखे, नाम- यश की कामना दिखे तो प्रेमपूर्वक उस दोष को अकेले में बता दो। ताकि उसे शर्मिन्दा न होना पड़े। विद्वेष-शत्रुता या वैर न दिखाते हुए, भरी सभा में किसी के दोष को उजागर न करो। 
          गृहस्थ जीवन में रहते हुए लीडरशिप ट्रेनिंग में 1st OTC से 2nd OTC के बीच जो 70 days मिला इसमें 3H विकास के 5 अभ्यास का self -grading करो। यम-नियम का पालन करना Leader के लिए आवश्यक है। ब्रह्मचर्य-पालन अनिवार्य है। जीवन में नैतिकता का पालन  और चरित्र पर कोई धब्बा न होआत्ममूल्यांकन करो प्रयोजन से अधिक भोग करने की ओर तुम्हारा मन तो नहीं जा रहा है ? श्रेय का ग्रहण और प्रेय के त्याग में ही आनन्द है , इसके उल्टा में नहीं। 

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Bijay - What is the fundamental spirit behind establishing Mahamandal? How can this be explained to the coming generations?

Ranen da -  Vivek Anjan originally started to bring out Hindi translations of all that are published in Vivek Jiban mainly for circulation for the benefit of Mahamandal boys of the Hindi belt. Initially, it was working fine. Of late, some people are reporting that you are referring to Mandukya Upanishad to make the boys understand the concept of Swamiji's "BE AND MAKE". 
        My request to you would be to avoid such things (which may create confusion) in the future, and use simple quotations from Ramkrishna Vivekananda's literature only. You better stick to the Hindi translation of V-J for Vivek Anjan, as you have been doing for so long.

 Bijay Kumar Singh: " Correct! In the future, I will take care of it. Actually, quotations from 'Mandukya Upanishad' were never published in our Hindi magazine, "Vivek- Anjan! " but, those were published on my website "Vivek-Anjan Blogspot. Com "  I was writing this for my own benefit,  I thought boys would not like to read Mandukya Upanishad.  So it will not harm them. I posted some Mandukya quotations on WhatsApp, to one senior member and some selected boys.  But it seems they too couldn't digest the same. So, as per your advice Today I will withdraw all the blogs which I had sent them.

Renan da WhatsApp: If you have published it not in Vivek-Anjan magazine, but on your blog for your own benefit, then I have no objection to that. But you should not take back what you have already posted. This may give a wrong message. In the future, you may post to selected persons only.

Bijay Kumar Singh: Actually this Upanishad was being taught at Belur Math by Swami Vishwatamanand of Kailash Ashram, Haridwar, on YouTube in Hindi. Which helped me to understand the meanings of Om.

बिजय - महामण्डल को स्थापित करने के पीछे इस संगठन की मूल भावना क्या है ? यह बात आगे आने वाली पीढ़ी को कैसे समझाया जा सकता है ? 

रनेन दा  : मूल रूप से हिंदी क्षेत्र के महामंडल के लड़कों के लाभ के लिए बंगला 'विवेक जीवन' में प्रकाशित सभी सम्पादकीय तथा अन्य निबन्धों का हिंदी अनुवाद 'विवेक अंजन ' शीर्षक  महामण्डल के हिन्दी मुखपत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ था। प्रारंभ में, यह ठीक काम कर रहा था। हाल में (नवनीदा का शरीर त्यागने के बाद) , कुछ हिन्दी भाषी लोग रिपोर्ट कर रहे हैं ?? कि तुम लड़कों को स्वामीजी के "BE AND MAKE " की अवधारणा को समझाने के लिए उस पत्रिका तुम " माण्डूक्य उपनिषद " के गूढ़ श्लोकों का उल्लेख कर रहे हो ? मेरा तुमसे अनुरोध है कि भविष्य में ऐसी चीजों (जो भ्रम पैदा कर सकती हैं) से बचो और केवल रामकृष्ण विवेकानन्द के साहित्य से सरल उद्धरणों का उपयोग करो। बेहतर होगा कि तुम 'विवेक अंजन' में छपने के लिए केवल विवेक-जीवन में छपे निबन्धों का हिंदी अनुवाद छापने के सिद्धान्त पर कायम रहो, जैसा कि तुम इतने लंबे समय से करते आ रहे हो।

बिजय कुमार सिंह: " बिल्कुल सही! भविष्य में मैं इसका ध्यान रखूंगा। दरअसल, हमारी हिंदी पत्रिका "विवेक-अंजन" में 'माण्डूक्य उपनिषद' के उद्धरण कभी प्रकाशित नहीं हुए! लेकिन, वे मेरी वेबसाइट "विवेक-अंजन ब्लॉगस्पॉट.कॉम" पर अवश्य प्रकाशित हुए थे। मैं  बहुत वर्षों से इस वेबसाइट पर अपने फायदे के लिए हिन्दी ब्लॉग्स लिखता चला आ रहा हूँ। मुझे लगा कि लड़के मांडूक्य उपनिषद पढ़ना पसंद नहीं करेंगे। इसलिए इससे उन्हें कोई नुकसान नहीं होगा। मैंने माण्डूक्य उपनिषद के कुछ उद्धरण अपने व्हाट्सएप ग्रुप में एक वरिष्ठ सदस्य और कुछ चयनित लड़कों को पोस्ट किए थे। लेकिन ऐसा लगता है कि वे भी इसे पचा नहीं सके। इसलिए, आपकी सलाह के अनुसार आज ही मैं वे सभी ब्लॉग वापस ले लूँगा जो मैंने उन्हें भेजे थे।

रेनन दा व्हाट्सएप: यदि तुमने इसे विवेक-अंजन पत्रिका में नहीं, बल्कि  अपने लाभ के लिए अपने ब्लॉग पर प्रकाशित किया है, तो मुझे उससे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन जो तुमने पहले ही पोस्ट कर दिया है, उसे तुमको अब  वापस नहीं लेना चाहिए।  इससे गलत संदेश जा सकता है। भविष्य में, तुम्हें केवल चयनित व्यक्तियों को ही पोस्ट करने की चेष्टा करनी चाहिए।  

बिजय कुमार सिंह: दरअसल यही माण्डूक्य उपनिषद किसी दिन बेलूड़ मठ में कैलाश आश्रम, हरिद्वार, के स्वामी विश्वात्मानन्द जी के द्वारा YouTube पर हिंदी में पढ़ाया जा रहा था। जिसे सुनकर मुझे भी ओम का अर्थ समझने में थोड़ी मदद मिली है। 

       Respected Navni Da has made it clear in the first chapter of his   book "A NEW YOUTH MOVEMENT" that this movement is completely based on the teachings of Geeta and Upanishads. In it he has written – "As soon as common people hear about an organization, particularly in the name of Swami Vivekananda, their imagination takes it to the final field of work among the downtrodden and the lowly. True, Swamiji wanted that. But very often we forget Swamiji's directions for preparation for such work through self-development.  We want to rush to the college before we finish the school. There our buddhi fails us. So Krishna (in Gita 2.49) exhorts us to take recourse to buddhi-दूरेण, हि, अवरं, कर्म, बुद्धियोगात्, धनञ्जय । बुद्धौ, शरणम्, अन्विच्छ, कृपणाः, फलहेतवः ॥ 
          And the rishi of the Upnishad [Chandogya Upanishad (1.1.10)] asks us to have Vidya. - " That work becomes more efficient, says the Chhandogya Upanishad ---' तेनोभौ कुरुतो यश्चैतदेवं वेद यश्च न वेद । नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति, श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति....॥ [1.1.10] 
"Whatever Work is done with vidya, knowledge, through shraddha, faith, and backed by Upanishad, meditation, that alone becomes most effective. which is undertaken with adequate understanding, faith, conviction, and sincerity, and the required know-how. With the understanding of the negative and the positive aspects, if a work is taken up, it has a better chance for success. Swamiji's plan follows this scheme in Toto and that is why his Social Service is so different from all others. The Mahamandal wants to follow this plan ("Be and Make") only and does not propose to depend on techniques and theories of social service imported in bulk from elsewhere."
 I think that every would be Leaders of Mahamandal should also listen the lecture of Swami Vishwatmananda on Mandukya Upanishad  as he is also a Puri Order Sanyasi like Totapuruji Maharaj .

[09/08, 14:52] Ranenda WhatsappI shall talk to over phone later. Now take a little rest.

[23/08, 14:42]
Ranendra Whatsapp: Nabani Das was always reluctant to change members of the Executive Committee frequently. 'Aru' was too young at the time and therefore Amit was inducted as an assistant Secy.
      " Everything cannot be controlled by a few at the city office. You have to trust the next level of experienced workers to make use of the enthusiasm and talents of boys. But, the main hindrance to that is: there is a trust deficit and an anxiety-driven approach. No positive vision is driving the work. It's just going on with the momentum acquired long back."  This post I received from a young Mahamandal worker while chatting with him in connection with an important issue. Do you agree with his view?
Ranenda Watsap: Nabani Da sacrificed almost his entire life for the common people through Mahamandal and then only this Organization took a sound shape/footings. Do you think that the present few persons of the City Office, who are now controlling the affairs have A positive vision in making decisions and having trust in the next level of experienced and talented workers? The young man's feeling is that "the momentum acquired long back" ie at the time of Nabani Da is still the force acting and the newcomers in the management are not in the position to understand and follow what Dada wanted.

 Do you think that they all understand the significance of VAJRA on the Mahamandal flag and acquired the quality of SACRIFICE for the cause of the Organization?
Bijay Kumar Singh: I want to see any person from the next level be the General Secretary of the Mahamandal,  who understands the significance of VAJRA and transforms his life accordingly. I agree that the present C-IN-C of Mahamandal is quite unfit for the post. If I  had been present in that executive body meeting,  certainly I would've objected to his name for the CHAPRAS of C-IN-C to a person like the present one.

 Ranen da : This will be decided in the next AGM  by the General Body of the Organization. I and you are simply two individuals of that Body. That's the Spiritual power of Vajra, (Wisdom and Compassion) which will select the right person to hold the Mahamandal's FlagI am sure of this miracle that is going to happen!
   My understanding regarding the significance of VAJRA is, that it mainly represents "SACRIFICE AND STRENGTH". While making our flag, the sacrifices made by the famous mythological saint Dadhichi for God's (good) to concur with the battle against  Danabas(evils) were in our minds. As you are aware Vajra was made from the bones of the dead body of the saint, who sacrificed his life for the ultimate welfare of mankind.
       To run our organization properly, we require such a person who has an attitude to sacrifice for others apart from organizational power and love, as wanted by Swamiji. Love for each and everyone plays the role of the main bondage for any organization. If one can love others all other things like discipline, obedience, respect, and interest to work seriously will automatically come.

 Bijay Kumar Singh: With respect, I want to ask REGARDING WEBINAR , what you think, about how a student's personality can be developed.

[30/08, 10:32] Ranenda Watsap: What I suggest, you better attend today's programme and thereafter we can discuss. You are aware that I am not a well-read person like you. Still, I shall try to tell you my opinion about the way a student can develop his personality in the way suggested by Mahamandal.
Ranenda Watsap: How you can conclude that this WEBINAR will not be on the way suggested by  Mahamadal unless you attend it? We should not be so much conservative in our approach to make others understand our own stand. So, you attend today's webinar and thereafter we can discuss and tell the organizers subsequently if we find any deviation.
[30/08, 10:58] Bijay Kumar Singh: Jahan tak mai samajhta hu, Mahamandal ka uddeshya to " BRAHM bid Maushya bn na aur banana hai. Upnishad me kaha gaya hai - Brahmbid Brahmaiv bhawti. Bina apne swarup ko jane , chaar mahawakya ka Shravan, Manan,  Nididhyasan ya Samadhi me atma-sakshtakar kiye kisi ki Leadership wali personality nahin ban sakti . Navani da isko " Individuality " kehte the, personality to is Neta ka Aura ko kehte hain.

[30/08, 11:10] Ranenda Watsap: Tum to bhujte agey barh giya! If you tell this to junior boys and other common people jey tumio personality develop korbena liye tumko brhhmbid banna hai. to oh turnt uhase vag jayega. Gradually you proceed to take him to that ultimate stage.

[30/08, 11:14] Bijay Kumar Singh: Kya Mahamandal ke senior members yah jante hain ki hamlogo ka Anthem,  Rigved se liya gaya hai, lekin Atharvaved me bhi thoda badal kar yahi mantra diya hua hai, aur Swami Vivekanand apne Bhashan me Atharvaved ki Richa ka hi ullekh kyon kiya tha ?

[30/08, 11:31] Ranenda Watsap: Please don't think that even the seniors of Mahamandal have conceptual ideas like you, and all of them had close contact with Nabani Da, as you had. That's why I always tell you to share your ideas with other workers in a way they can accept and not to make a hurry in this regard.
[30/08, 11:34] Bijay Kumar Singh: Thank's dada, I agree with you. But I can't dilute my principal's.

[30/08, 11:47] Ranenda Watsap:  If you agree with my view and hear the deliberations of the webinar. I your principle will be diluted! This you can call an Orthodox/conservative approach to look things. You should have the Catholicity to hear others' opinions and thereafter to react. Don't do the same thing that Dipak did in the last Executive. Committee Meeting.
[30/08, 12:09] Bijay Kumar Singh: Sab koi  Instant coffee type formula khoj raha hai, jisko karne se turant sabko uska khoya hua vyaktitiva mil jaye. Lekin 5 abhyas jo dada ne bataya hai,  usko kiye bina Atma Shraddha kaise aa sakta hai? Ye main nahin janta. Main yah janta hun ki jo koi nam -yash ka chinta ya post ka chinta chor kar is 5 abhyas se Brahm ko khojne ke andolan me laga rahega, usko jarur Ishwar laabh hoga.

[30/08, 12:12] Bijay Kumar Singh: If it is your order, then I will obey it ![30/08, 17:11] Bijay Kumar Singh: I couldn't join the meeting as my new Samsung phone does not support the above-mentioned meet ID.[30/08, 18:40] Bijay Kumar Singh: Anyway I could join the program at 5.30 PM and listen till last at 6.40 PM.
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🔱पूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम ने भी कहा था :

1. “You Can't Change Your Future, You Can Change Your Habits, and Surely Your Habits Will Change Your Future. 

" तुम अपना भविष्य नहीं बदल सकते, किन्तु तुम अपनी आदतों को बदल सकते हो।  और तुम्हारी आदतें (अच्छी/बुरी) तुम्हारे भविष्य को बदल देंगी। 

2. " All Birds Find Shelter During a Rain. But the Eagle Avoids Rain by Flying Above the Clouds! Problems Are Common, But Attitude Makes the Difference!

बारिश की दौरान सारे पक्षी आश्रय की खोज करते है; लेकिन बाज़ बादलों के ऊपर उडकर बारिश को ही अवॉयड कर देते है। समस्याएँ कॉमन है, लेकिन आपका एटीट्यूड इनमे डिफरेंस पैदा करता है

[बारिश के दौरान सभी पक्षी आश्रय ढूंढते हैं। लेकिन चील बादलों के ऊपर उड़कर बारिश से बचती है! समस्याएं आम हैं, लेकिन उसको देखने के प्रति आपका रवैया फर्क पैदा करता है!]

3.'A dream is not that which people dream while sleeping, a dream is that which the expectation of fulfillment does not let people sleep'

" सपना वह नहीं जो आप सोते समय देखते हैं, सपना वह है जिसके पूरा होने की उम्मीद आप को सोने नहीं देती 

স্বপ্ন সেটা নয় , যেটা মানুষ ঘুমিয়ে ঘুমিয়ে দেখে সপ্ন সেটাই যেটা পূরণের প্রত্যাশা মানুষকে ঘুমাতে দেয় না ——— ডঃ এ.পি.জে.আব্দুল কালাম।

4. “If you want something with full intensity, then the whole universe starts trying to bring it to you.”

“अगर किसी चीज को पूरी शिद्दत के साथ चाहो, तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिश में लग जाती है।” 

"আপনি যদি পূর্ণ তীব্রতার সাথে কিছু চান, তবে সমগ্র মহাবিশ্ব আপনার কাছে এটি আনার চেষ্টা শুরু করে।"

5. "सपने विचारों में बदल जाते हैं, और विचार कार्यों में परिणत होते हैं।"

 (— Dr. A. P. J. Abdul Kalam.डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम। ) 

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 Are Leaders born or made? नेता पैदा होते हैं या बनाये भी जा सकते  हैं? यह नेतृत्व के बारे में सबसे अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न में से एक है। मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध द्वारा प्रस्तुत सबसे अच्छा अनुमान यह है कि लगभग, एक तिहाई नेतृत्व (10 में 3 नेता) पैदा होता है और दो तिहाई (10 में 7 नेता प्रशिक्षण से) नेतृत्व बनाया जाता है

 This is one of the most often-asked questions about leadership. Research by psychologists has proved that, in the main, Leaders are ‘mostly made.' The best estimate offered by research is that leadership is about one-third born and two-thirds made.] 

इस बार ठाकुरदेव और माँ सारदा के आशीर्वाद से और स्वामी जी की प्रेरणादायक कृपा से "स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित और C-IN-C का चपरास प्राप्त एक नेता नवनीदा के नेतृत्व में  1967 में एक तिहाई जन्मजात नेता के माध्यम से निर्मित संगठन के प्रशिक्षण से 7-7 अन्य (प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्गी वज्रतुल्य 100% निःस्वार्थी होने का चपरास प्राप्तप्रशिक्षित नेताओं का निर्माण करने के उद्देश्य से 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' को आविर्भूत होना पड़ा है। 

🔱>>>अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण के आविर्भाव का मूल उद्देश्य क्या था ? 

इसको समझने के लिए महामण्डल का उद्देश्य, आदर्श और कार्य-प्रणाली (मेथेडोलॉजी) को गहराई से समझना होगा।  इस वर्ष 24-25 जुलाई 2016 को  महामण्डल का 49  वाँ एजीएम होगा जिसके संगरक्षण में अक्टूबर 2016  से ऑक्टोबर 2017  तक गोल्डन जुबली वर्ष मनाया जायेगा। 

  ईश्वर का विधान है :  स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में ऐसे जीवनमुक्त (आध्यात्मिक) शिक्षकों, नेताओं, पैगम्बरों का जीवनगठन करके जगत से आध्यात्मिक (जीवन-मुक्त) शिक्षकों के अभाव को दूर कर देना !  जगत में सत्ययुग को स्थापित करने के लिये भारत का पुनरुत्थान, और  भारत में रामराज्य लाने के लिये  है  माँ जगदम्बा का कानून है " महामण्डल के नेतृत्व और  यम-नचिकेता वेदान्त डिण्डिम निवृत्ति अस्तु महाफला  प्रशिक्षण परम्परा में " में निर्भीक मनुष्य (जीवनमुक्त  शिक्षक) बनो और बनाओ आन्दोलन को सम्पूर्ण भारत में प्रसारित-प्रचारित के लिए महामण्डल को आविर्भूत होना पड़ा ! इसी ईश्वरीय-विधान को सीखा देने के लिये या यही  शिक्षा देने के लिये ब्रह्म को स्वयं एक काली-उपासक श्रीरामकृष्ण देव के रूप में अवतरित होना पड़ा था !
 देखता नहीं है, पूर्वाकाश में अरुणोदय हुआ है! - अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल क्या  1967 में या नक्सल आन्दोलन के बाद या साथ-साथ अवतरित हुआ था, या नक्सल आन्दोलन आरम्भ होने के पहले आविर्भूत हो चुका था ?  महामण्डल का  स्वर्णजयन्ती वर्ष -गोल्डन जुबली वर्ष या 50  वाँ वर्ष सितंबर 2016  से प्रारम्भ होगा।  महामण्डल 1967 से अर्थात  विगत 56  वर्षों से चरित्र-निर्माण एवं ब्रह्मविद् नेताओं के निर्माण में लगा हुआ है !   (झुमरीतिलैया विवेकानन्द ज्ञानमंदिर 14   जनवरी 1985  मकरसंक्रांति के दिन प्रारम्भ हुआ था उसका गोल्डन जुबली 14  जनवरी 2035 से शुरू होकर 14  जनवरी 2036 तक मनाया जायेगा!) 
1947 -1967  एक एक करके २० वर्ष बीत गए किन्तु भारत में गरीबी और भुखमरी वैसी ही क्यों बनी हुई थी, जैसी अंग्रेजों के जमाने में थी।  युवाओं में हताशा थी, आजादी के पहले उनका आक्रोश अंग्रेजों के खिलाफ था, वे मानते थे कि इन्होंने ही हमें दरिद्र बना दिया है, भारत की समस्त दुर्गति का कारण अंग्रेज हैं, इसको भगा देने से सारे दुःख-कष्ट दूर हो जायेंगे।इसी विक्षोभ में जनता उद्वेलित होती गई, संयुक्त मोर्चा, जनता-दल आया-गया होता रहा, जिसके कारण कुछ चतुर राजनीतिज्ञों ने युवा छात्रों की बेचैनी युवा अशांति को दिग्भ्रमित करके नक्सल-आंदोलन को जन्म दिया।  
       एक बार स्वामी विवेकानन्द से भी प्रश्न किया गया था कि आप भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में क्यों भाग नहीं लेते हैं ? स्वामीजी ने कहा था, " मैं केवल तीन दिनों में ही भारत को स्वतंत्रता दिला हूँ, किन्तु स्वाधीनता प्राप्त होने के बाद उसे सम्भाल कर रखने वाले (चरित्रवान) मनुष्य कहाँ हैं ? अभी गोरी चमड़ी वाले अंग्रेज भारत को लूट रहे हैं, आजादी के बाद भूरी चमड़ी के लोग लूटेंगे। इसलिये पहले मनुष्य का निर्माण करो

" दीर्घ काल की पराधीनता से मुक्ति मिली १५ अगस्त १९४७ को, स्वाधीनता के बाद २० वर्षों तक प्रतीक्षा करने के बाद भी जब गरीबी-भुखमरी से मुक्ति नहीं मिली, तब स्वार्थी कम्युनिस्ट नेताओं ने खूनी-क्रांति द्वारा मजदूरों की सरकार बनाने का नारा दिया।
       इस हताशा के परिणाम से नक्सली नेताओं का जन्म हुआ- चारु मजूमदार, कानू सान्याल, जंगल सरदार ने जमींदारों की हत्या करने का उपाय सुझाया।  जब कानून को हाथ में लेकर सर्व-हारा वर्ग सत्ता में आएगा तो खेती की भूमि को राष्ट्रीयकृत करके भूमिहीनों में बाँट देने से भी उन्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। यही विचार बंगाल के कॉलेज स्टूडेंट्स में प्रविष्ट हो गया। उस समय यादवपुर यूनिवर्सिटी के मेधावी छात्र भी लाईब्रेरी जलाने लगे, रेल जलाने लगे। उस समय किसी नेता ने यह नहीं सुझाया कि पुरानी मैकाले की शिक्षा पद्धति को परिवर्तित कर बेरोजगारी दूर करने वाली और चरित्रगठन करने वाली शिक्षा नीति बनानी होगी। स्वार्थी नेताओं ने सोंचा  शिक्षा पद्धति में परिवर्तन क्यों करें या क्यों न पुस्तकों को ही जला दें ?  
       उन्हीं दिनों की  विषम परिस्थितियों में एक दिन पूज्य नवनी दा, पूज्य स्वामी स्मरणानन्द और स्वामी वन्दनानन्द के साथ अद्वैत आश्रम से पार्क-सर्कस जो आधा किलोमीटर होगा, शाम को घूमने निकले थे। कुछ शिक्षित युवकों ने साधु लोगों के ऊपर शरारती रिमार्क पास किया। महाराज लोगों ने नवनी दा से कहा आप इन युवा लोगों के लिये कोई ऐसा संगठन क्यों नहीं बनाते जो -एक राष्ट्रनिर्माणकरी सकारात्मक युवा आंदोलन का रूप ले सके? सितम्बर 1967  के किसी दिन (? ) अद्वैत आश्रम में ही बहुत सी युवा संगठनों की एक बैठक आयोजित की गई जिसके कन्वेनर या संयोजक थे 'जयराम महाराज'। स्वामी अनन्यानन्द जी ने उस बैठक में सभापतित्व किया था।  
        उस दिन की बैठक में तय हुआ कि 25-26 अक्टूबर 1967  को अद्वैत आश्रम में ही एक बैठक आयोजित होगी जिसमें चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी युवा संगठन का प्रारम्भ किया जायेगा। उसी दिन महामण्डल का गठन हो गया। उसकी अगली बैठक में नवनी दा को सेक्रेटरी चुना गया। उस बैठक में बासु दा, बिरेश्वर दा न्यू बैरकपुर से 6-7 छात्र संगठन के लोग, नीलमणि दा, अमियो दा, आदि उपस्थित थे, उस समय की सारी घटना 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' पुस्तक में '' -शीर्षक लेख में विस्तार से दर्ज है।
       स्वामी गम्भीरानन्द जी हमेशा कहते रहते थे कि जितने  छात्र संगठन जो पहले से नाम से कार्यरत हों , उनको महामण्डल में विलय करना अनिवार्य होना चाहिए। इसके अलावा कितने नए केंद्र स्थापित हुए उनकी संख्या भी पूछते रहते थे।  क्योंकि कुछ पुराने केन्द्र जो श्रीरामकृष्ण संघ या अन्य नामों से चल रहे थे, उनके कुछ बुजुर्ग सदस्यों ने प्रश्न उठाया कि महामण्डल में श्रीरामकृष्ण वचनामृत को छोड़कर BE AND MAKE क्यों पढ़ाया जाता है ? पुराने संगठनों के बुजुर्ग सदस्यों ने विद्रोह कर दिया कि जो लोग मठ-मिशन में दीक्षा प्राप्त कर लिए हों, उन्हें वे महामण्डल में जाने से रोक देंगे।
         वीरेश्वर दा  ने प्रभु-महाराज (स्वामी वीरेश्वरानन्द ) को पत्र लिखकर उनका मन्तव्य जानना चाहा। एक युवा दीक्षित भाई ने उन्हें पत्र लिखा कि वहाँ महामण्डल के पाठचक्र में श्री रामकृष्ण लीलाप्रसंग और वचनामृत नहीं पढ़ाया जाता है, क्या मुझे साप्ताहिक पाठचक्र में जाना चाहिये ? यदि आप यह कह देंगे कि तुम वहाँ मत जाओ तो मैं नहीं जाऊँगा। महामण्डल की सदस्यता को भी छोड़ दूँगा।  प्रभु-महाराज और जयराम महाराज दोनों तमिल भाषी हैं, किन्तु चुकी आधुनिक युग की देवभाषा (होली ट्रायो की भाषा ) बंगला है, इसीलिये सभी साधु-ब्रह्मचारी कथामृत और लीलाप्रसंग को बंगला में ही पढ़ना चाहते हैं। उन्होंने बंगला भाषा में एक पोस्टकार्ड में उत्तर दिया, (उन्होंने महामण्डल पुस्तक 'स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' को प्रकाशित करते समय आशीर्वचन भी लिखे हैं।) उन्होंने उस पत्र में लिखा कि श्री ठाकुर के सभी भक्त लोग इस पत्र के माध्यम से जान लें, कि महामण्डल का कार्य -'चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करना' या BE AND MAKE ' ही ठाकुर के आदेशों के अनुसार वास्तिक कार्य है।  पाठचक्र में सभी दीक्षित युवा भक्तों को अवश्य जाना चाहिये ! तब से यह अनिवार्य बना दिया गया कि महामण्डल से पूर्व अन्य किसी भी नाम से मौजूदा इकाइयों को अपना पुराना नाम अवश्य छोड़ना होगा और महामण्डल के चरित्रनिर्माण आंदोलन के एक केन्द्र में रूपान्तरित हो जाना होगा। 
       विवेकानन्द-केन्द्र, संस्कृति-परिषद, विवेक-समीति, रामकृष्ण संघ हो या झुमरीतिलैया का 1985  में स्थापित 'विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' हो -सभी को अपना नाम बदलकर महामण्डल नाम लगाना होगा। 1988 में 'झुमरीतिलैया विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' का विलय महामण्डल में हो जाने के बाद,धनेश्वर पंडित, दयानन्द और उपेन्द्र ने इसी 'विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर ' के नाम से जानिबिघा गया, बिहार में 1989  में एक स्कूल खोला जो विगत 34 वर्षों से  जानिबिघा विवेकानन्द युवा महामण्डल के निर्देशानुसार कार्यरत है। जिन संगठनों ने अपना पुराना नाम परिवर्तित करने से इंकार किया, वे महामण्डल से अलग हो गए। महामण्डल गठित होने से पहले अस्तित्व में आ गई संस्था,'विवेक-समीति ' के प्राण पुरुष थे वीरेश्वर दा, किन्तु वे भी महामण्डल में विलय होने को तैयार हो गए। 
          विभन्न नाम वाले विषम संघों को संगठनात्मक अनुशासन में संघबद्ध करते हुए यह युवा चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन क्रमशः पैगम्बर/नेता निर्माण आन्दोलन में परिणत हो गया है। प्रारम्भ में सन्यासी लोग भी क्लास लिया करते थे ? किस वर्ष से उनको केवल सायंकालीन सत्र में ही भाषण देने को कहना शुरू हुआ ? इसके 50  वर्षों का इतिहास लिखते समय इसका भी उल्लेख करना अच्छा होगा। [डॉक्टर राजर्षि को वीर सेनापति (रागबहार में) गीत गाने की इच्छा को रवींद्रसंगीत के उदाहरण से समझाया गया कि भगवान को सुनाने के लिये जैसे-तैसे गीत नहीं गया जा सकता।] 
          खड़गपुर यूनिट के दिलीप पात्रा ने  युवा पाठचक्र की प्रयोजनीयता: विषय पर भाषण देते बताया कि  वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर वर्ष भर में केवल एक बार ही आयोजित होती है। युवा लोग भारत-निर्माण के उद्देश्य से बहुत आशा लेकर महामण्डल के पाठचक्र में आते हैं। यह पुरे वर्ष चलता रहता है। यहाँ प्रत्येक सदस्य के 3H विकास पर अधिक ध्यान रखा जा सकता है।  विवेक-जीवन के पुराने अंकों में या सितम्बर 2013  के अंक में "पाठचक्र कैसे करें'  विषय पर निर्देश दिया गया है। मनुष्य बनने के लिए जो पाँच कार्य करने पड़ते हैं, उसके द्वारा इसके प्रत्येक सदस्य का सुंदर जीवन गठित हो रहा है या नहीं ? जीवनमुक्त शिक्षक, नेता, पैगम्बर या ऋषि बनने और बनाने की पद्धति मनःसंयोग, व्यायाम, प्रार्थना, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग के अनुसार  वह नेता बनने के मार्ग पर अग्रसर हो रहा है या नहीं? इस पर साप्ताहिक चर्चा करना-आत्ममूल्यांकन तालिका पर दृष्टि रखना आवश्यक है।
          यदि शाखा में पाठचक्र ठीक चल रहा है, नियमानुसार संगठन का एजीएम और कार्यकारिणी का 6 बैठक, आय-व्यय का वार्षिक अकाउंट-रिपोर्ट ठीक से चल रहा हो, तभी यह समझा जायेगा, कि महामण्डल का संचालन सही ढंग से हो रहा है। नए सदस्यों को पाठचक्र में बोलना आवश्यक होगा, नहीं तो वे मन लगाकर नहीं सुनेंगे। 5  करणीय अभ्यास क्या हैं इसपर पाठचक्र में नियमित चर्चा करवाते रहना , नए सदस्यों को इसी विषय पर बोलने के लिए कहना आवश्यक होगा। इसका उद्देश्य है मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा प्राप्त करना। केवल वैसे बैठकर खानापूर्ति करना पाठ चक्र नहीं है। पाठ के विषय को ठीक से समझा या नहीं ? पढ़ने का तरीका भी आना चाहिए। 
       पाठ्य-विषय पहले से निर्धारित रहेगा, फाइल में जो मिला उसी को पढ़ लेने से नहीं होगा। कौन पढ़ेगा उसका नाम भी पूर्वनिर्धारित करना अच्छा होगा। वरिष्ठ सदस्यों को यह ध्यान रखना होगा कि पाठचक्र में दीक्षा के महत्व पर चर्चा नहीं करेंगे। अपने व्यक्तिगत आध्यात्मिक उपलब्धियों का बखान या ऋषित्व प्राप्ति का दिखावा नहीं करेंगेअपने गृहस्थ जीवन की परीक्षा में भी हमें उत्तीर्ण होना पड़ेगा, स्वामी विवेकानन्द बनने के पहले नरेन्द्रनाथ को भी जीवन-परीक्षा में उत्तीर्ण होना पड़ा था। पारिवारिक संघर्ष, पुश्तैनी मकान की रक्षा करने में हुए संघर्ष में सफल हुए थे। निर्विकल्प समाधी मुफ्त में प्राप्त नहीं हुई थी
         हम लोगों को भी स्वामीजी आशीर्वाद देंगे और हमलोग भी जीवन-संघर्ष में अपने अहंकार को उखाड़ फेंकने में सफल होंगे। डेढ़-से दो घंटे तक ही पाठचक्र होगा। नेता की प्राणशक्ति ही महामण्डल को आगे ले जाने वाली शक्ति है। उसे सोचना चाहिये कि महामण्डल पाठचक्र में जाना मन्दिर जाने जैसा है, वहाँ शिवज्ञान से जीवसेवा करने की पद्धति सीखने का मौका मिलता है, उस समय कोई दूसरा कार्य मुझे वहाँ जाने से नहीं रोक सकता

>>>सोमनाथ बागची, सन्दीप सिंह :-  महामण्डल का उद्देश्य है -भारत का कल्याण अर्थात उन्नततर मनुष्यों का निर्माण करके, उन्नततर समाज और श्रेष्ठ भारत का निर्माण। सुन्दरतर मनुष्यों से बने समाज को ही सुन्दरतर समाज कहा जा सकता है। उन्नततर मनुष्य किसे कहेंगे ? जिसने आई.ए.एस में कम्पीट कर लिया ? बिहार स्कूल बोर्ड में टॉपर हुआ? डॉक्टरेट का डिग्री ले लिया ? नही, साधारण मनुष्यों की अपेक्षा उन्नततर मनुष्य और श्रेष्ठ मनुष्य वे हैं-जो ब्रह्मज्ञ है,जो साम्यभाव में स्थित हैं, और जिनकी हमलोग पूजा करते हैं। आधुनकि युग के अवतार और स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण देव केवल दूसरी कक्षा तक ही पढ़े थे, और समस्त सभ्य और विकसित कहे जाने वाले देशों में उनकी पूजा होती है। क्योंकि वे 'यथार्थ मनुष्य' थे (वे साम्यभाव में अवस्थित थे), अब हमें उसी रामकृष्ण-नरेन्द्रनाथ (भावी विवेकानन्द) वेदान्त लिडर्शिप-ट्रेनिंग परम्परा में बहुत बड़े पैमाने पर 'यथार्थ मनुष्यों' (ब्रह्मवेत्ता वेदान्ती लॉयन्स) का निर्माण' करना होगा! तभी भारत का और भारत के माध्यम से समस्त विश्व का - 'वसुधैव कुटुम्बकं का' कल्याण होगा। 
महामण्डल की कार्यपद्धति या उपाय: है चरित्र-निर्माण ! या "3H निर्माण पद्धति" विवेक-प्रयोग करने की क्षमता न तो देवताओं में है, न पशुओं में है, यह क्षमता केवल मनुष्य में है; इसीलिये मनुष्य योनि को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।आहार-निद्रा-भय-मैथुन पशु धर्म है, किन्तु आत्मज्ञान या निःस्वार्थपरता ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है
महामण्डल के आदर्श: हैं -स्वामी विवेकानन्द ! क्योंकि स्वामी विवेकानन्द ने कन्याकुमारी शिला पर बैठकर तीन दिनों तक भारत माता का ध्यान किया था, और भारत की समस्त समस्याओं का गहन चिंतन करके मौलिक समाधान ढूँढ निकाला था - चरित्रनिर्माण, जीवनगठन और मनुष्य-निर्माण ! और "3H निर्माण पद्धति" द्वारा उन्नततर मनुष्य गढ़ने सूत्र दिया था- 'Be and Make'! और कहा था, मैन मेकिंग इज माई मिशन! इतना सटीक और सही उपाय बताने वाला, उनके जैसा पथ-प्रदर्शक या मानवजाति का युवा रोल-मॉडल, मार्ग-दर्शक नेता कोई दूसरा कोई और नहीं है, इसीलिए वे ही महामण्डल के एकमात्र आदर्श हैं। 

चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया ( १५ मिनट) उद्देश्य है भारत का कल्याण अर्थात समस्त देशवासियों का कल्याण । उपाय है चरित्र-निर्माण ! 

स्वामी जी कहते हैं -स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जिसमें आत्मविश्वास नहीं है वही नास्तिक है। प्राचीन धर्मों में कहा गया है, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। नूतन धर्म कहता है, जो आत्मविश्वास नहीं रखता वही नास्तिक है। विश्वास -विश्वास ! अपने आप पर विश्वास, परमात्मा के ऊपर विश्वास- यही उन्नति करने का एकमात्र उपाय है। यदि पुराणों में कहे गए तैंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर और विदेशियों ने बीच बीच में जिन देवताओं (साईंबाबा आदि ?) को तुम्हारे बीच घुसा दिया है, उन सब पर भी तुम्हारा विश्वास हो और अपने आप पर विश्वास न हो, तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते।" 
"Religions of the World Have Become Lifeless Mockeries. What the World Wants is Character.”  संसार के धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गये हैं। जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है चरित्र! हे महान, उठो ! उठो ! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकते हो ? जगत दुःखे पूड़े खाक हये जाच्छे - 'तोमार'  कि निद्रा साजे ? " Bold words and bolder deeds – are what we want! निर्भीक पैगम्बरों को  वेदान्त डिण्डिम या वेदान्त केसरी की दहाड़- में कहना होगा - "ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या " !' तत्त्वमसि !' सुनाने में समर्थ ऋषियों या पैगंबरों की, और उससे अधिक 'निर्भीक' कर्मों (BE AND MAKE !) की हमें आवश्यकता है। - संसार महामण्डल के नेताओं में ऐसा चरित्र देखना चाहता है, जिनका अपना जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण हो। उनके मुख से निकला प्रेम-पूर्ण एक एक शब्द वज्र के समान प्रभावशाली होगा जो भावी नेताओं को ऋषि बनने और बनाने के लिये अनुप्रेरित करने में सक्षम होगा। 
        आत्मविश्वास की प्रेरणा हमें अपने आदर्श स्वामी विवेकानन्द से प्राप्त होती रहती है। वे कहते थे -'Each soul is potentially divine' सब जीवों में उसी ब्रह्म का दर्शन करना मनुष्य का आदर्श है। यदि सब वस्तुओं में उनको देखने में तुम सफल न होओ,तो कम से कम एक ऐसे व्यक्ति में, जिसे तुम सबसे अधिक प्रेम करते हो, उनको देखने का प्रयत्न करो, उसके बाद दूसरे व्यक्ति में दर्शन करने का प्रयत्न करो। इसी प्रकार तुम आगे बढ़ सकते हो। आत्मा के सामने तो अनन्त जीवन पड़ा हुआ है- अध्यवसाय के साथ लगे रहने पर तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। "
>>>यह यथार्थ मनुष्य गढ़ने का कार्य:  दो प्रकार से किया जा सकता है। पहला है - सेमिनारों में दूसरों को मनुष्य बनने के लिये आग्रहपूर्ण भाषण या लेक्चर देकर।  और दूसरा है, स्वयं एक निःस्वार्थ आध्यात्मिक शिक्षक  बनने का प्रयत्न करते हुए अन्य जो लोग मनुष्य बनने और बनाने की तीव्र इच्छा रखते हों, उनके साथ संघबद्ध होकर स्थानीय 'युवा पाठचक्र' की स्थापना द्वारा आगे बढ़ते हुए, महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक सर्वभारतीय वार्षिक प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर। 
 मनुष्य बनने और बनाने के कार्य का मूलधन: किसी भी नये कार्य को प्रारम्भ करने में सीड कैपिटल या प्रारंभिक मूल धन लगाना पड़ता है। तो फिर किसी स्थान में 'विवेकानन्द युवा पाठचक्र' को स्थापित करने का मूलधन क्या होगा ? वह मूलधन है -आत्मविश्वास ! एक शब्द में इसका (वेदान्त का) उपदेश है 'तत्त्वमसि' -'तुम्हीं वह ब्रह्म हो! यह ब्रह्म (सार्वभौमिक आत्मा) एकमेव आद्वितीय है, यह पूर्ण और अविभाज्य है-अनन्त में अनन्त घटाओ तो अनन्त ही बचता है
      तुम्हारा प्रथम और प्रधान कर्तव्य है -सत्य को जान लेना, उसको प्रत्यक्ष कर लेना। जिस क्षण तुम कहते हो,- "आइ एम ए लिटिल मोर्टल बीइंग"; ' मैं तो एक तुच्छ मरण-धर्मा शरीर मात्र हूँ' - तुम झूठ बोलते हो, तुम मानो सम्मोहन के द्वारा अपने को दुर्बल और डरपोक (भेंड़) बना डालते हो।  ऐसे आत्मविश्वास से आत्मविश्वास उसी प्रकार बढ़ता है -जैसे मनी बिगेट्स मनी! "अतएव पहले हमें यह आत्म-तत्व सुनना होगा, तब तक सुनना होगा जब तक वह हमारे रक्त में प्रवेश कर उसकी एक एक बूँद में घुल-मिल नहीं जाता।"  

तुम तो ईश्वर की सन्तान हो, अमर आनन्दके सहभागी हो-पवित्र और पूर्ण आत्मा हो ! तुम इस मर्त्यभूमि पर दिव्य आत्मा हो-तुम भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव-स्वरूप पर घोर लांछन है।तुम उठो ! हे सिंहो ! आओ, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दो, कि तुम भेंड़ हो। तुम तो अजर-अमर-अविनाशी, आनंदमय और नित्य-मुक्त आत्मा हो!"  
" हमने जीवन में ऐसे सैकड़ों कार्य किये हैं, जिनके बारे में हमें बाद में पता लगता है कि वे न किये जाते, तो अच्छा होता, पर तब भी इन सब कार्यों ने हमारे लिये महान शिक्षक का कार्य किया है। 
" हमारे आचार्य शंकर आदि शक्तिशाली युग प्रवर्तक ही बड़े बड़े -वर्ण निर्माता बनते थे । ऋषि-मुनियों ने दल के दल धीवरों को लेकर क्षण भर में ब्राह्मण (ब्रह्म-वेत्ता मनुष्य में कन्वर्ट कर दिया) बना दिया। वे सब ऋषि मुनि थे, और हमें उनकी स्मृति के सामने सिर झुकाना होगा। तुम्हें भी ऋषि बनना होगा, मनुष्य जीवन को सार्थक करने का यही गूढ़ रहस्य है।
  
       ऋषि का अर्थ है -पवित्र आत्मा। पहले पवित्र बनो, तभी तुम शक्ति पाओगे। 'मैं ऋषि हूँ ' कहने मात्र से न होगा, किन्तु जब तुम यथार्थ ऋषित्व लाभ करलोगे, तो देखोगे, दूसरे आप ही आप तुम्हारी आज्ञा मानते हैं। तुम्हारे भीतर से कुछ रहस्यमय वस्तु निःसृत होती है,जो दूसरों को तुम्हारा अनुसरण करने को बाध्य करती है, जिससे वे तुम्हारी आज्ञा का पालन करते हैं। यहाँ तक कि अपनी इच्छा के विरुद्ध अज्ञात भाव से वे तुम्हारी योजनाओं की कार्यसिद्धि में सहायक होते हैं। यही ऋषित्व है। ५/१८९ 
       " हमारे शास्त्रों के अनुसार सब शक्तियाँ, सब प्रकार की महत्ता और पवित्रता आत्मा में ही विद्यमान हैं। योगी तुमसे कहेंगे कि अणिमा,लघिमा आदि सिद्धियाँ (चरित्र के २४ गुण ) जिन्हें वे प्राप्त करना चाहते हैं, वास्तवमें प्राप्त करने की नहीं, वे पहले से ही आत्मा में मौजूद हैं, सिर्फ उन्हें व्यक्त करने का उपाय सीखना होगा। पतंजलि के मत में तुम्हारे पैरों तले चलने वाले छोटे से छोटे कीड़े तक में योगी की अष्टसिद्धियाँ वर्तमान हैं, केवल उसका शरीर रूपी आधार उसे प्रकाशित करने के लिये अनुपयुक्त है, इसके ही कारण वे उसे व्यक्त नहीं कर पाते। जब उन्हें उत्कृष्टतर मनुष्य-शरीर प्राप्त हो जायेगा, वे शक्तियाँ अभिव्यक्त हो जाएँगी, परन्तु होती हैं वे पहले से ही विद्यमान। उन्होंने अपने योगसूत्र ४/३ में कहा है - ' निमित्तं प्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत्॥"
-शुभाशुभ कर्म प्रकृति के परिणाम (परिवर्तन) के प्रत्यक्ष कारण नहीं हैं, वरन वे प्रकृति के विकास की बाधाओं को दूर करने वाले निमित्त कारण हैं। जैसे किसान को यदि अपने खेत में पानी लाना है तो सिर्फ खेत की मेंड़ काटकर पास के भरे तालाब से जल का योग कर देता है और पानी अपने स्वाभाविक प्रवाह से आकर खेत को भर देता है। वैसे ही जीवात्मा में सारी शक्ति, पूर्णता और पवित्रता पहले से भरी है, केवल माया (अहं) का परदा पड़ा हुआ है, जिससे वे प्रकट नहीं होने पातीं। एक बार आवरण को हटा देने से आत्मा अपनी स्वाभाविक पवित्रता प्राप्त कर लेती है, अर्थात सारी दिव्यता व्यक्त हो जाती है।"  ५/२२६   
        " तत्त्वमसि" का आविष्कार हुआ कि आध्यात्मिक ज्ञान सम्पूर्ण हो गया। यह 'तत्त्वमसि' वेदों में ही है, अब इससे ऊँचे ज्ञान को आविष्कृत नहीं किया जा सकता। विभिन्न देश, काल, पात्र के अनुसार समय समय पर केवल लोक-शिक्षा देने का कार्य ही शेष रह गया। इस प्राचीन सनातन मार्ग में मनुष्यों (सम्पूर्ण विश्व के) का चलना ही शेष रह गया; इसीलिये समय समय पर विभिन्न महापुरुषों और आचार्यों का अभ्युदय होता रहता है। --हे भारत, जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब मैं धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश के लिये समय समय पर अवतार ग्रहण करता हूँ। यही भारतीय धारणा है। गीता ४/७ " ये ऋषिगण कौन थे ? वात्सायन कहते हैं, जिसने यथा-विहित धर्म की प्रत्यक्ष अनुभूति की है, केवल वही ऋषि हो सकता है, चाहे वह जन्म से म्लेच्छ ही क्यों न हो। सच्ची बात यह है सत्य का साक्षात्कार हो जाने पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रह जाता। ऋषियों के द्वारा आविष्कृत वेद ही एकमात्र प्रमाण हैं, और इस पर सबका अधिकार है। 
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय॥ 
अर्थात् जैसे मैं इस कल्याणी वाणी को मनुष्यों के लिए बोलता हूं, वैसे ही ब्रााह्मणों, क्षत्रियों, शूद्रों, वैश्यों, स्त्रियों और अन्य जनों के लिए तुम भी बोलो, और इस प्रकार के विद्यादान से मैं देवताओं में प्रिय होऊं, मुझे परोक्ष सुख मिले तथा सब कामनाएं पूर्ण हों। " ५/३४५  
      [प्रसंग : स्वामी शिष्य संवाद -बेलूड़ मठ निर्माण के समय वर्ष १८९८  जो लोग मुझपर निर्भर हैं, उनका क्या होगा ?] 
" यह सनातन धर्म का देश है। यह देश गिर अवश्य गया है, परन्तु निश्चय ही फिर से उठेगा!  और ऐसा उठेगा कि दुनिया देखकर दंग रह जायगी। देखा नहीं है, नदी या समुद्र की लहरें जितनी नीचे उतरती हैं, उसके बाद उतनी ही जोर से उपर उठती हैं। देखता नहीं है, पूर्वाकाश में अरुणोदय हुआ है! -  सूर्य उदित होने में अब अधिक विलम्ब नहीं है। यदि तू दूसरों के कल्याण के लिये ब्रह्मविद् मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन का प्रचार-प्रसार में प्राण तक देने को तैयार हो जाता है, तो भगवान उनका (जो तुम पर आश्रित हैं) कोई न कोई उपाय करेंगे ही !
"न हि कल्याणकृत्कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति।"
जगदीश्वर को कभी धोखा नहीं दिया जा सकता। त्याग करो, स्वार्थ का बलिदान करो, दूसरा क्या उपाय है ? बन्धु कौन है ? जो घर से श्मसान तक नहीं छोड़े? इसीलिये पहले यथार्थ मनुष्य बनो - यथार्थ मनुष्य कैसे होते हैं ? वे जो मुख से जो बोलते हैं, वही करते हैं। (खाँटी लोग के ? जे मुखे जा बोले ताई करे) मोहम्मद पहाड़ के निकट जायेगा। विद्या गुरुमुखी -श्रवण करने से ही महान शिक्षायें प्राप्त होती हैं। नचिकेता के गुरु स्वयं यमाचार्य थे,और रानी  मदालसा के शिशुओं को श्रेष्ठ-संस्कार अपनी माँ के मुख से और अपने कान में उसकी लोरी सुनने से ही प्राप्त हुई थी। अतः इस कार्य में भारतीय नारीयों को भी लग जाना होगा। 

>>> महामण्डल में नेता का आदर्श : "जो महापुरुष (आध्यात्मिक शिक्षक) प्रचार-कार्य के लिये अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रह कर पवित्र जीवन यापन करते हैं एवं श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है-अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत को शिक्षा प्रदान करता है। "७/९३ 
      एक मात्र श्रद्धा के भेद से ही मनुष्य मनुष्य में अन्तर पाया जाता है। इसका और दूसरा कारण नहीं। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को कमजोर और छोटा बनाती है। दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है । इस श्रद्धा को तुम्हें पाना ही होगा । श्रीरामकृष्ण कहते थे, 'जो अपने को दुर्बल सोचता है, वह दुर्बल ही हो जाता है' - और यह बात बिल्कुल ठीक ही है। हमारे राष्ट्रिय खून में एक प्रकार के भयानक रोग का बीज समा रहा है, वह है प्रत्येक विषय को हँसकर उड़ा देना, गाम्भीर्य का अभाव, इस दोष का सम्पूर्ण रूप से त्याग करो। वीर बनो, श्रद्धा सम्पन्न होओ, और सब कुछ तो इसके बाद आ ही जायगा। किसी बात से मत डरो। तुम अद्भुत कार्य करोगे। जिस क्षण तुम डर जाओगे, उसी क्षण तुम बिल्कुल शक्तिहीन हो जाओगे। संसार में दुःख का मुख्य कारण भी ही है, यही सबसे बड़ा कुसंस्कार है, और यह निर्भीकता है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है। अतएव उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।

       "सदाचार (चरित्र-निर्माण और मनःसंयोग) सम्बन्धी जिनकी उच्च अभिलाषा मर चुकी है, भविष्य की उन्नति के लिए जो बिल्कुल चेष्टा नहीं करते, और भलाई करने वालों को धर दबाने में जो हमेशा तत्पर हैं-ऐसे 'मृत-जड़पिण्डों ' के भीतर भी क्या तुम प्राण का संचार कर सकते हो ? क्या तुम "उस वैद्य" की जगह ले सकते हो, 'जो लातें मारते हुए उदण्ड बच्चे के गले में दवाई डालने की कोशिश करता है? भारत को उस नव-विद्युत की आवशयकता है, जो राष्ट्र की धमनियों में नविन चेतना का संचार कर सके। 'यह काम' हमेशा धीरे धीरे हुआ है, और होगा।" (३:३४४)
     " सूर्य उदित होने में अब अधिक विलम्ब नहीं है। ब्रह्मविद् मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन का प्रचार-प्रसार में यदि तू दूसरों के लिये प्राण देने को तैयार हो जाता है, तो भगवान उनका (जो तुम पर आश्रित हैं) कोई न कोई उपाय करेंगे ही

         तुम्हारे देश का जनसाधारण मानो एक सोया हुआ तिमिंगल (Leviathan) है। उठो, जागो, तुम्हारी मातृभूमि को इस महाबली (कच्चा मैं या 'अहं मुक्त' युवाओं) की आवश्यकता है। इस कार्य की सिद्धि युवकों से ही हो सकेगी। ह्रदय--केवल ह्रदय के भीतर से ही दैवी प्रेरणा का स्फुरण होता है, और उसकी अनुभव शक्ति से ही उच्चतम जटिल रहस्यों की मीमांसा होती है, और इसलिये 'भावुक' बंगालियों को ही यह काम करना होगा। वीर बनो, श्रद्धा सम्पन्न होओ, और सब कुछ तो इसके बाद आ ही जायगा। किसी बात से मत डरो। तुम अद्भुत कार्य करोगे। जिस क्षण तुम डर जाओगे, उसी क्षण तुम बिल्कुल शक्तिहीन हो जाओगे। संसार में दुःख का मुख्य कारण भी ही है, यही सबसे बड़ा कुसंस्कार है।  और यह निर्भीकता है जिससे क्षण भर में स्वर्ग प्राप्त होता है। 
        (हजारों वर्ष तक गुलाम रहने के बाद) अब  भी, कितनी ही शताब्दियों तक संसार को शिक्षा देने की सामग्री तुम्हारे पास यथेष्ट है। इस समय यही करना होगा। उत्साह की आग हमारे हृदय में जलनी चाहिये। मैं तुमसे कहना चाहूँगा कि निस्सन्देह बुद्धि का आसान ऊँचा है, परन्तु यह अपनी परिमित सीमा के बाहर नहीं बढ़ सकती। ह्रदय--केवल ह्रदय के भीतर से ही दैवी प्रेरणा का स्फुरण होता है, और उसकी अनुभव शक्ति से ही उच्चतम जटिल रहस्यों की मीमांसा होती है, और इसलिये 'भावुक' बंगालियों को ही यह काम करना होगा।  उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । Arise, Awake and Stop Not Till the Desired End is Reached!' उठो, जागो, जब तक वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक निरंतर उसकी ओर बढ़ते जाओ। 
" मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है,'मनुष्य-जाति' को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय (कार्यपद्धति) बताना।
       " जगत को प्रकाश कौन देगा ? बलिदान (आत्मोसर्ग) ही भूतकाल से नियम रहा है और हाय! युगों तक इसे  रहना है। संसार के वीरों को और सर्वश्रेष्ठों को 'बहुजन हिताय,बहुजन सुखाय' अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों बुद्धों की आवश्यकता है।
संसार को ऐसे लोग चाहिये, जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण हो। वह प्रेम एक एक शब्द को वज्र के समान प्रभावशाली बना देगा।मेरी दृढ़ धारणा है कि तुममें (अविद्या-जन्य) कुसंस्कार नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है, धीरे धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे।
जो अत्याचार से दबे हुए हैं, चाहे वे पुरुष हों या स्त्री, मैं उन सबों के प्रति करुणा का भाव रखता हूँ, किन्तु जो अत्याचारी हैं, उनको मैं और अधिक करुणा का पात्र समझता हूँ। हम बार बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है?  इससे महान कर्म क्या है ?
बोल्ड वर्ड्स ऐंड बोल्डर डीड्स -आर व्हाट वी वांट ! निर्भीक वक्ताओं की अर्थात वेदान्त के शेर की दहाड़- 'तत्त्वमसि !' सुनाने में समर्थ ऋषियों या पैगंबरों की,  और उससे अधिक 'निर्भीक' कर्मों (BE AND MAKE !) की हमें आवश्यकता है।

        स्वामी विवेकानन्द जगत को प्रकाश देने में समर्थ भावी नेताओं (लोक-शिक्षकों) का आह्वान करते हुए कहते हैं- " हे नरनारीगण, एई भाब लईया दण्डायमान हउ, सत्ये बिश्वासी हईते साहसी हउ, सत्य अभ्यास करिते साहसी हउ। जगते कयेक शत साहसी नरनारी प्रयोजन। ""हे नर-नारियों ! उठो, आत्मा के सम्बन्ध में जाग्रत होओ, सत्य में विश्वास करने का साहस करो, सत्य के अभ्यास का साहस करो । संसार को केवल सौ साहसी नर-नारियों की आवश्यकता है। अपने में वह साहस लाओ, जो सत्य को जान सके, जो जीवन में निहित सत्य को दिखा सके, जो मृत्यु से न डरे, प्रत्युत उसका स्वागत करे, जो मनुष्य को यह ज्ञान करा दे कि वह आत्मा है और सारे जगत में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो उसका विनाश कर सके। तब तुम (जो दूसरों को भेड़-सिंह की कहानी सुनाते रहे हों -वह) मुक्त हो जाओगे। तब तुम अपनी वास्तविक आत्मा को जान लोगे। 'इस आत्मा के सम्बन्ध में पहले श्रवण करना चाहिये, फिर मनन और तत्पश्चात निदिध्यासन। २/१८
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श्रीरामकृष्ण देव प्रथम युवा नेता थे जिनके जीवन में साम्य-भाव पूर्णतः प्रतिष्ठित हुआ था -अर्थात वे जो सोचते थे, वही बोलते थे, जो बोलते थे (दूसरों को जो उपदेश देते थे) वही करते थे! (टाका-माटी,माटी-टाका, 'लस्ट और लूकर ' में आसक्ति का त्याग अपने जीवन में उतार कर दिखा दिये थे!) वे कुछ चुने हुए हुए युवाओं को मन्दिर की छत पर चढ़कर पुकारे, उन सभी युवाओं को उन्होंने ५ अभ्यास के द्वारा साम्यभाव में स्थित होने, तथा 'त्याग और सेवा' का प्रशिक्षण दिया। और जब उन्होंने देखा कि जितना करने को था उतना कर दिया, तब उन्होंने अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया।   
     उन युवाओं में से एक थे नरेन्द्रनाथ दत्त, जिन्होंने आधुनिक युग के अवतार श्रीरामकृष्ण से मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने का प्रशिक्षण प्राप्त किया, और आगे चल कर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए। श्री रामकृष्ण ने उन्हीं के कंधों पर मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने का भार सौंपा था। उन्होंने अपने हाथों से उन्हें एक लिखित 'चपरास' सौंपा था -'नरेन शिक्षा देगा !'
      भगवान श्रीरामकृष्ण ने 11 फरवरी 1886 की संध्या बेला में भावावेश में किन्तु पूर्ण-एकाग्रता के साथ, कागज के उपर लिखा था- "जय राधे प्रेममयी ! नरेन शिक्षे दिबे,जखन घरे बाहिरे हाँक दिबे! जय राधे !!"अर्थात- ' जगतजननी जगदम्बा की इच्छा से नरेन्द्रनाथ अपने भावी जीवन में मानव-जाति के एक मार्गदर्शक नेता (लोक-शिक्षक) के रूप में खड़े हो कर, घर (देश) में और बाहर (विदेश) में अनगणित मनुष्यों को मोह निद्रा (अविद्या) से जगाने के लिये उनका आह्वान करेंगे।' ऐसा प्रतीत होता है कि उस चपरास में श्रीरामकृष्ण मानो स्वयं प्रेममयी श्रीराधिका से अपने द्वारा निर्वाचित नरेन्द्रनाथ को लोक-शिक्षक बना देने की प्रार्थना  कर रहे हैं। और वे केवल यह लिखित 'चपरास' देकर ही नहीं रुके। उसी क्षण सहज भावावेग में, उन्होंने अपने हाथों से बयान के नीचे उच्चतम भावनाओं की अभिव्यंजनाओं से परिपूर्ण एक अत्यन्त मनोरम एक गुह्य रेखा-चित्र भी उकेर दिया था। उस रेखा-चित्र में ठाकुर ने आवक्ष-मुखाकृति (सिर से गले तक के मानव-मुखड़े) को उकेरा था- उस मुखाकृति के विशाल नेत्रों की दृष्टि प्रशान्त थी, और एक 'लम्बी पूंछवाला धावमान मयूर' उस मुखाकृति का अनुगमन करता हुआ उसके पीछे-पीछे चल रहा है।
        उस रेखाचित्र के माध्यम से स्वामी विवेकानन्द के गुरु, तथा चपरास प्रदानकर्ता युवा-नायक श्रीरामकृष्ण परमहंस मानो यही आश्वासन देना चाह रहे थे, कि 'माँ काली ' द्वारा निर्वाचित चपरास प्राप्त प्रत्येक भावी नेता के पीछे-पीछे सदा वे स्वयं विदयमान रहेंगे। तथा उसे यह प्रेरणा देते रहेंगे कि - " त्यागी हुए बिना, लोक-शिक्षा देने का अधिकार प्राप्त नहीं होता है, (अतः मन्त्र-दीक्षा प्रदान करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए) निवृत्ति-मार्गी सन्यासियों का त्याग होगा, समग्र रूप से त्याग। मन ही मन त्याग करने से नहीं होगा। क्योंकि युवाओं को यथार्थ मनुष्य, समदर्शी मनुष्य या साम्यभाव में स्थित मनुष्य बनने और बनाने का उपदेश वही दे सकता है, जो अपने जीवन में स्वयं उनका पालन भी करता हो। नवनी दा के जैसा मनुष्य -जिसे देखकर पूजा करने का मन करता हो, सिद्धार्थ गौतम से 'गौतम बुद्ध' बनकर गाँव -गाँव घूमकर 'उत्तिष्ठत -जाग्रत' (देहाध्यास का स्वप्न अब और मत देखो) तथा  'महामण्डल की समर नीति -'चरैवेति-चरैवेति' का मन्त्र सुनाने का अधिकार (चपरास) प्राप्त महामण्डल आंदोलन का नेता केवल वही मनुष्य हो सकता है, जिसने 'लस्ट और लूकर ' में आसक्ति का त्याग  समग्र-रूप से कर दिया हो ! तभी उसका जीवन भी आचार-व्यवहार में दूसरे सभी लोगों के लिये उदाहरण-स्वरूप होगा। तभी उनका नेतृत्व अविवादित रूप से स्वीकृत होगा।"
      श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव कहते थे, " लोक-शिक्षा देना बहुत कठिन है। यदि ईश्वर का दर्शन हो, और वे आदेश दें, तभी कोई यह कार्य कर सकता है। फिर मन ही मन में यह सोच लेना कि मुझे आदेश मिल गया है, केवल ऐसा मान लेने से ही  नहीं होगा। वे वास्तव मे दिखाई देते हैं, और बातचीत करते हैं। उस समय आदेश मिल सकता है। उस आदेश में कितनी शक्ति होती है। जिसको आदेश मिल जाता है, वह चाहे जितनी लोक-शिक्षा दे सकता है। माँ उसको पीछे से कितनी ज्ञान-राशि ठेलते रहती है। हे प्रचारक, क्या तुम्हें 'चपरास' मिला है ? जिस व्यक्ति को चपरास मिल जाता है, भले ही वह एक सामान्य अर्दली या चपरासी ही क्यों न हो, उसका कहना लोग भय और श्रद्धा के साथ सुनते हैं। वह व्यक्ति अपना राज-मोहर अंकित बैज दिखलाकर बड़ा दंगा भी रोक सकता है।
        हे प्रचारक, तुम पहले भगवान का साक्षात्कार कर उनकी प्रेरणा से दूसरों को प्रेरित करने का आदेश प्राप्त कर लो, लीडरशिप का बैज प्राप्त कर लो। बिना बैज मिले यदि तुम सारे जीवन भी प्रचार करते रहो,तो उससे कुछ न होगा, तुम्हारा श्रम व्यर्थ होगा। पहले अपने ह्रदय मन्दिर से अहंकार को हटाकर, वहाँ भगवान को प्रतिष्ठित कर लो, उनके दर्शन कर लो, बाद में यदि उनका आदेश हो तो लेक्चर देना। संसार में आसक्ति - के रहते (अर्थात 'कामुकता और कमाई' में आसक्ति के रहते) तथा  विवेक-वैराग्य के न रहते सिर्फ 'ब्रह्म ब्रह्म ' कहने से क्या होने वाला है? अपने ह्रदय-मंदिर में देवता तो हैं नहीं, व्यर्थ शंख फूँकने से क्या होगा?"
        चिन्हित लोक-शिक्षकों  को जगदंबा ही शक्ति-सामर्थ्य जूटा देती हैं। नरेन्द्रनाथ को चपरास दिये जाने के बाद, अपनी महासमाधि के दो दिन पहले श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ के भीतर शक्ति-संचार किया था। और उसी शक्ति से उन्होने सम्पूर्ण विश्व में सफलता प्राप्त की थी।व्यापक-अर्थ में देखा जाय तो, श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द दोनों ही जगतजननी माँ काली (श्रीराधा) से सर्वमान्य चपरास प्राप्त लोक-शिक्षक हैं। श्रीरामकृष्ण परमहंस सामाजिक कल्याण के लिए व्यक्ति के चित्तशुद्धि अर्थात उसकी मानसिकता को परिवर्तित करने के ऊपर अधिक ज़ोर देते थे। उधर विवेकानन्द राजयोग के द्वारा मनुष्य की मानसिकता को परिवर्तित कर, उसके चरित्र और व्यवहारिक आचरण में परिवर्तन लाकर, मनुष्य-निर्माण के माध्यम से सामाजिक-उन्नति और नये भारत का निर्माण करना चाहते हैं।  इसके बाद जब श्रीरामकृष्ण ने अपना शरीर त्याग दिया तो, उनके युवा शिष्यों ने स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में वेदान्त के निवृिति मार्गी सन्यासियों के लिये, श्रीरामकृष्ण मठ मिशन की स्थापना की। 
         ततपश्चात, १८९३ में शिकागो में आयोजित प्रथम विश्व धर्म महासभा में वैदिक धर्म जिसे हिन्दू धर्म कहा जाता है, के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने के लिए स्वामी विवेकानन्द अमेरिका गए थे। वहाँ वेदान्त के ऊपर दिये व्याख्यानों से लोग इतने प्रभावित हुए कि उन्हें कुछ और दिनों तक अमेरिका में ही रहने का अनुरोध किया गया। उन्होंने तीन वर्षों तक १८९३ से १८९६ तक अमेरिका के विभिन्न प्रान्तों का दौरा किया। १८९६ के दिसम्बर महीने में अमेरिका से रवाना हुए १५ जनवरी १८९७ को सिंघल-द्वीप (लंका) पहुँचे। वहाँ ट्रेन द्वारा फरवरी महीने में कोलकाता पहुँचे। फिर रामेश्वरम से लाहौर तक भारत को जाग्रत किया।  पाश्चात्य-देशों को भारत से अलग ३-४ साल तक केवल निवृत्ति मार्ग का उपदेश दे रहे थे, तो अगले ३ वर्षों तक ९७-९८-९९ तक भारत को प्रवृत्ति मार्ग का उपदेश दिया। ताकि हजारों वर्षों से गुलाम भारतवासी भी थोड़ा 'लस्ट और लूकर ' का भोग करते हुए भी यदि ५ अभ्यासों का अनुपालन करते रहें, तो वे बहुत जल्दी इसकी निस्सारता को समझ लेंगे। और द्वासुपर्णा -के नाश्नन्न अन्यो अभिचाकशीति- जैसा अपने भीतर के बुद्ध को अभिव्यक्त कर लेगा। 
        >>>रहस्य-स्पृहा मानव-मस्तिष्क को दुर्बल बना देती है। (The desire for mystery makes the human brain weak.) स्वामीजी 1899  के अन्त में दुबारा विदेश गए थे - विशेष रूप से यह देखने के लिये कि वहाँ उनके द्वारा तीन वर्षों तक किये गए परिश्रम का परिणाम क्या हुआ है। इस बार लोग उनके गुरुदेव के बारे में जानने को इतने उत्सुक थे - कि नहीं चाहते हुए भी उनको " मेरे गुरुदेव " के नाम से एक विख्यात भाषण देना पड़ा। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -"पाश्चात्य देशों में लोग ध्यान करने की पद्धति (पतञ्जलि योग सूत्र या 'राजयोग') को पूर्वी रहस्यविद्या (Eastern Mysticism) या गुप्त विद्या समझते थे। और जो लोग मनको एकाग्र करने का अभ्यास करते थे, उन पर अघोरी, डाइन, ऐंद्रजालिक आदि अपवाद लगाकर मार देते थे या उन्हें जला दिया अथवा  जाता था। भारतवर्ष में भी प्राच्यमकाल में जिनके हाथ यह शास्त्र पड़ा, उन्होंने समस्त शक्तियाँ अपने अधिकार में रखने की इच्छा से इसको महा गोपनीय बना डाला और युक्तिरूपी सूर्य का प्रखर आलोक इस पर न पड़ने दिया। इन समस्त योग-प्रणालियों में कुछ गुह्य या रहस्यात्मक है, सब छोड़ देना पड़ेगा, जो तुमको दुर्बल बनाता हो, वह समूल त्याज्य है। रहस्य-स्पृहा मानव-मस्तिष्क को दुर्बल बना देती है। इसके कारण ही आज योग-शास्त्र नष्ट सा हो गया है। किन्तु वास्तव में यह एक महाविज्ञान है। अतः स्वामी जी ने पाश्चात्य देशों में निवृत्ति मार्ग का प्रशिक्षण देने के लिए सम्पूर्ण राजयोग  (अष्टांग योग) का प्रचार किया था। 

        चार हजार वर्ष से भी पहले यह आविष्कृत हुआ था। मैं जो कुछ प्रचार कर रहा हूँ, उसमें गुह्य नामक कोई चीज नहीं है। अन्धविश्वास करना ठीक नहीं।अपनी विचार-शक्ति और युक्ति-तर्क काम में लेनी होगी। यह प्रत्यक्ष करके देखना होगा कि शास्त्र में जो कुछ लिखा है- वह सत्य है या नहीं ? भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो, ठीक उसी प्रणाली से यह धर्म-विज्ञान भी सीखना होगा। इसमें गुप्त रखने की कोई बात भी नहीं, किसी विपत्ति की आशंका भी नहीं। इसमें जहाँ तक सत्य हो, उसका सबके समक्ष राजपथ पर प्रकट रूप से प्रचार करना आवश्यक है। कोई भी विज्ञान क्यों न सीखो, पहले अपने आप को उसके लिये तैयार करना होगा, फिर एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा, इसके आलावा उस विज्ञानं के सिद्धान्तों को समझने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है। राजयोग के सम्बन्ध में भी ठीक ऐसा ही है। [१/४४]

      किन्तु,जिन युवाओं या विद्यार्थियों की रूचि प्रवृत्ति मार्ग या कर्म-योग की ओर अधिक है, उन्हें भी -' BE AND MAKE' आंदोलन या चरित्र-निर्माण आंदोलन को लीडरशिप प्रदान करने योग्य प्रशिक्षक, या लीडर ट्रेनिंग देने सक्षम नेता - बनने और बनाने के उद्देश्य से, महामण्डल (पूज्य नवनीदा) के द्वारा सम्पूर्ण राजयोग (अष्टांग योग) को और सरल बनाकर,(प्राणायाम, ध्यान, समाधि को छोड़कर) 'मनःसंयोग' सहित केवल ५ दैनन्दिन अभ्यासों का प्रशिक्षण दिया जाता है। तथा सम्पूर्ण भारतवर्ष में मनुष्य-निर्माण और चरित्र- निर्माणकारी आंदोलन का प्रचार-प्रसार करने में समर्थ नेताओं (प्रवृत्ति मार्गि प्रशिक्षकों- पैगम्बरों का निर्माण) बहुत बड़े पैमाने पर करने के उद्देश्य से महामण्डल द्वारा आयोजित सर्व भारतीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में 'लीडरशिप ट्रेनिग' भी विगत ५० वर्षों से दिया जा रहा है। 
           " नवता को - दो प्रकार की अतियों से बचना चाहिये -स्काइला और चेरीबाइर्डिस से, आज हमें एक तरफ वह घोर भौतिकवादी मनुष्य दिखाई देता है जो पाश्चात्य ज्ञान रूपी मदिरा-पान से मत्त होकर अपने को सर्वज्ञ समझता है,और प्राचीन ऋषियों की हँसी उड़ाया करता है। और दूसरा इसकी प्रतिक्रिया से पैदा हुए घोर कुसंस्कार वाला वह शिक्षित मनुष्य जिसपर हर छोटी बात का अलौकिक अर्थ निकालने की सनक सवार रहती है। यदि कोई व्यक्ति कुसंस्कारपूर्ण मुर्ख होने के बदले यदि घोर नास्तिक भी हो जाय तो मुझे पसन्द है, क्योंकि नास्तिकता तो जीवन्त है, तुम उसे किसी तरह परिवर्तित कर सकते हो। परन्तु यदि कुसंस्कार घुस जाएँ, तो मस्तिष्क बिगड़  जायेगा,कमजोर हो जायेगा और मनुष्य विनाश की ओर अग्रसर होने लगेगा। इन दो संकटों से बचो!" ५/१७२    
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चरित्र क्या है ? विभिन्न समय पर विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न कार्य करने का अवसर प्राप्त होता रहता है। उन विशिष्ट परिस्थितियों में बिना सोच-विचार किये ही हमोलोग जो कार्य कर बैठते हैं, उसी कार्य और व्यवहार से हमारा चरित्र प्रकट हो जाता है।  चरित्र बनता है आदत से, यदि हम प्रति-मुहूर्त अच्छा काम करने की आदत डाल देते हैं, तो हमारा चरित्र अच्छा बन गया है, इसीलिये हमसे केवल अच्छे कार्य ही होंगे। बुरे कार्य की आदत होगी तो चरित्र बुरा बन जायेगा। आज समाज में असत चरित्र वाले मनुष्यों की संख्या में वृद्धि हो गई है, जिसके कारण भ्रष्टाचार-नारी अपमान जैसी घटनायें आये दिन देखने को मिलती हैं।  मनुष्य के निजी जीवन में उन्नति होने से समाज की उन्नति होती है, और समाज के उन्नत होने से देश उन्नत होता है। और किसी भी व्यक्ति का जीवन उसके अच्छे-बुरे चरित्र पर निर्भर करता है। 
          उसी प्रकार किसी राष्ट्र का उन्नत बनना इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश के अधिकांश नागरिक किस प्रकार का जीवन जीते हैं ? किस प्रकार के कार्य करते हैं, देश को स्वच्छ रखने की आदत है, या गंदगी फ़ैलाने की आदत है ? किसी व्यक्ति का वास्तविक चरित्र कुछ दिनों तक उसके साथ रहने से ही प्रकट होता है। चरित्र समाज में रहते हुए ही गठित हो सकता है, जंगल जाने या अकेले रहने, या किसी विशिष्ट प्रकार का चोगा-पोशाक धारण कर लेने से, या ऊपर-ऊपर से देखने पर उसका वास्तविक चरित्र प्रकट नहीं होता। एकान्त में उसका व्यवहार कैसा है ; उसी से उसका चरित्र झलक जाता है। कपट धार्मिक बक: की कथा।  पशु-मानव, देव-मानव का अन्तर उसके चरित्र से ही प्रकट होता है। अपने जीवन को सार्थक करने के लिये चरित्र निर्माण आवश्यक है। आज जो मेरा चरित्र है, वह मेरी पुरानी आदतों या प्रवृत्तियों का समाहार है। एक ही कार्य को बार बार करने से उसकी आदत पड़ जाती है, और उम्र बढ़ने के साथ साथ, आदतें पुरानी होकर हमारी प्रवृत्ति या प्रोपेन्सिटीज में परिणत हो जाती हैं। 
           >>>विवेक-प्रयोग : किन्तु कोई भी कार्य करने के पहले उसे करने के लिये मन में विचार उठता है। जैसा विचार उठेगा हम वैसे ही कार्य करेंगे। अतः मन में विवेक-प्रयोग करने की आदत डालनी पड़ेगी और सत-असत विचारों को उठते ही विवेक से पहचान कर डिस्क्रिमिनेट करके बुरे विचारों को उठते ही कुचल देना होगा -निपिंग इन दी बड। और केवल सुंदर विचारों को ही खिलने का मौका देने की आदत डालनी होगी। मन में जैसे विचार उठेंगे वही कार्य में परिणत हो जायेंगे।
            स्वामी विवेकानन्द के शक्तिदाई विचार हमें, व्यष्टि-मनुष्य को शक्ति देंगे, मुझे निःस्वार्थ बनने की दिशा में विकसित करेंगे। 3H की शक्तियों को विकसित करने का अर्थ है निःस्वार्थपरता की दृष्टि से विकसित होना।और उससे जो भी कार्य होगा उससे समाज का ,समष्टि का या बृहत का कल्याण होगा। अतः निरंतर विवेक-प्रयोग और मन को अपने नियंत्रण में रखने की कोशिश करते हुए केवल सत्कर्म करने की आदत बना लें तो चरित्र अच्छा बनना उतना ही सत्य है जैसे 2+2 =4 होता है, अच्छे गुणों को बढ़ाते रहें तो अच्छा चरित्र बन जायेगा। यह चरित्र रेसिप्रोक्ल अनुपात से बढ़ता है। 
>>>चरित्र के २४ गुणों की तालिका और १२ दुर्गुणों की तालिका  से पाठ : करके ७-१५-३० दिनों के अन्तराल पर आत्ममूल्यांकन तालिका को भरना होगा। निजका-समाज का -देश की उन्नति चरित्र के गुणों में वृद्धि के ऊपर निर्भर करता है। देश के अधिकांश मनुष्य रोड-पुल-पुलिया-अस्प्ताल-स्कूल निर्माण में किस प्रकार से कार्य करते हैं ? देवता-मनुष्य-पशु की पहचान उसके चरित्र से होती है। अपनी उन्नति के लिये या उन्नततर मनुष्य बनने के लिए चरित्र-निर्माण करना अनिवार्य है। आज जो मेरा चरित्र है, वह मेरी पुरानी आदतों और प्रवृत्तियों का समाहार है। कार्य करने के पहले होता है, विवेक-विचार। विवेक-प्रयोग का अभ्यास सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। कुसंग का त्याग, सत्संग या पाठचक्र में जाना मंदिर जाने से भी अधिक आवश्यक है। शुभ-विचार-शुभकर्म-शुभचरित्र। हमारे जीवन में आगे और परिवर्तन होगा।  
          स्वच्छ-भारत के पहले विचारों का स्वच्छ होना अनिवार्य है। मन में शुद्ध या पवित्र विचार उठ रहे हैं या नहीं? मन में कैसे विचार उठ रहे हैं -वैसे ही कार्य होंगे। शक्तिदायि विचार निःस्वार्थपर विचार मुझे बृहत का कल्याण करने को प्रेरित करता रहेगा। विवेक को जाग्रत रखते हुए मन पर नियंत्रण रखने के लिये मनःसंयोग का अभ्यास करके अच्छी आदत से अच्छा चरित्र हो जायेगा। व्यक्तिगत तौर पर ही नहीं देशव्यापी तौर पर चरित्र-निर्माण का आंदोलन चलाना होगा।
>>>>>>Authentic history of emergence of Mahamandal महामण्डल के आविर्भूत होने का प्रामाणिक इतिहास 
🔱>>> "The fundamental spirit of the Mahamandal that emerged in 1967 and the Authentic History of its origination. 

🔱>>>"1967 में आविर्भूत 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' (1985/1995 में आविर्भूत विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर विद्यालय जानिबिघा) की मूल भावना तथा इसकी उत्पत्ति का प्रामाणिक इतिहास>>>  Vedanta Dindim   'C-IN-C' Rank Batch Leadership Training Tradition' of Mahamandal.  (महामण्डल का नेतृत्व प्रशिक्षण परंपरा में प्रशिक्षित होने का वेदान्त डिण्डिम  'सी-इन-सी' रैंक बैच [नेता-वरिष्ठ पद (Leader-Senior Position)] वरीयता क्रम का उदाहरण - "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make ' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण" परम्परा में प्रशिक्षित और C-IN-C का चपरास प्राप्त जीवनमुक्त शिक्षक -नवनी दा,बासु दा, बीरेन दा, रनेन दा, दीपक दा, प्रमोद दा, विकास दा, तापस चटर्जी , अमित दत्ता, अनूप दत्ता, सुभाष राय, दिपयेन्दु जाना ,जीतेन्द्र सिंह, धर्मेन्द्र सिंह , रजत मिश्रा,अजय पाण्डेय, रामचन्द्र मिश्रा,  गजानन्द पाठक, दयानन्द सिंह, उपेन्द्र सिंह चन्द्रवंशी, धनेश्वर पण्डित- राहुल चंद्रवंशी-अनिल यादव - जेपी मेहता, यमुना मेहता,जानिबिघा सचिनमाँ आनन्द सिंह फौजी-गया MLA मिनिस्टर प्रेमकुमार चन्द्रवंशी....आदि महामण्डल के विभिन्न विभाग के लिए नेताओं के विभिन्न पद और अलग-अलग Rank Batch बैच परम्परा को को अच्छी तरह से समझने के लिए "1967 में महामण्डल के आविर्भूत होने" के सम्पूर्ण वृतान्त # 3 से परिचित होना अनिवार्य है। 

>>>Auto-suggestion and Self-introspection : महामण्डल का संकल्प-ग्रहण सूत्र : ["मनुष्य" बनने का स्व-परामर्श सूत्र और आत्ममूल्यांकन -तालिका :  (ऑटो-सजेशन और सेल्फ-इंट्रोस्पेक्शन : "Self-counseling formula and self-evaluation - table to become a Unselfish human being") असीम कुमार पोड़िया  

   देश की हालत देखो, राज्य-सभा सांसद विजय माल्या पार्लियामेन्ट से भाग गया, या उसे भागने में किसी के द्वारा मदत भी किया गया ? चरित्र ही बज्र जैसी प्रत्येक बाधाओं की प्राचीर को पार कर सकता है। भारतवर्ष में हमलोग पारम्परिक संस्कृति और सामयिक, चारित्रिक दृष्टि से पिछड़ गए हैं। सभी लोग पाश्चात्य भोगी जीवन के प्रति आकृष्ट हो गए हैं। आर्थिक दृष्टि से जो धनी हैं, वे धनी होते जा रहे हैं, दरिद्र और भी दरिद्र होते जा रहे हैं। देश की अवस्था देखने से दुःख होता है -पर भारत-कल्याण का उपाय क्या है ?

      चरित्र-निर्माण के कार्य को केवल वैयक्तिक स्तर पर ही नहीं देशव्यापी स्तर पर  फैला देना होगा। आचार-आचरण के समग्र प्रयास से चरित्र गठन होता है। कार्य करने से पहले विचार होता है-कोई मनुष्य सायकिल से गिर गया ; तीन व्यक्ति तीन विभिन्न प्रवृत्तियों की प्रेरणा से प्रेरित होकर कार्य करेंगे। पहले विचार- फिर शुभ-अशुभ इच्छाओं का चयन या विवेक-प्रयोग, फिर कर्म, बार बार एक ही प्रकार का कर्म करने से-आदत, आदत पुरानी होने से -प्रवृत्ति, और आदतों /प्रवृत्तियों का समूह है - हमरा चरित्र। अब तक का मेरा (अच्छा/बुरा?) अतीत ही मेरा चरित्र बन गया है। 
          मेरी प्रवणताओं या प्रोपेन्सिटीज ने ही मेरे वर्तमान 'मैं' को निर्मित किया है।   देश-प्रेमी नेताओं का अभाव है, शासक-वर्ग का चरित्र कहाँ है ? मनुष्य यदि उन्नततर मनुष्य बनने की चेष्टा नहीं करेगा, तो वह कल पशु तो क्या राक्षस बन सकता है। मैं आज जैसा मनुष्य हूँ कल उससे अच्छा अर्थात अधिक निःस्वार्थपर/ और निर्भीक मनुष्य बन जाऊँगा। यह शपथ -ग्रहण प्रतिदिन करना है। 
         >>>मनःसंयोग : चारित्रिक उत्कर्षता प्राप्त होती है मनःसंयोग सीखने से। अर्थात पहले मिथ्या संसार के प्रति मन में वैराग्य (तीनों ऐषणाओं में अनासक्ति का भाव) रखते हुए - "विवेक-दर्शन " का अभ्यास ! उभयतोवहिनी चित्त-नदी पर वैराग्य का फाटक लगाकर, विवेक-विचार करके शुभ इच्छाओं का चयन, कर्म -आदत, प्रवृत्ति - से चरित्र ! ध्येय वाक्य 'BE AND MAKE' को सामने रखकर चरित्र निर्माण के माध्यम से समग्र भारत का कल्याण। चरित्र-निर्माण की पद्धति हुई असंख्य निःस्वार्थ-पूर्ण या सत-विचार-> सत-वाणी-> सत्कार्य ->आदत->प्रवृत्ति और असंख्य अच्छी आदतों से अच्छा चरित्र। अच्छा विचार या अच्छा कार्य किसे कहेंगे ? उसको पहचानेंगे कैसे ? जो विचार और कार्य मुझे निःस्वार्थपर बना देते हैं-उसी को अच्छा समझना होगा। कौन-कौन से कार्य हमारे चरित्र के गुणों को बढ़ा सकते हैं -इसके लिये चरित्र के 24 गुणों को अपनाने की एक पुस्तक भी है। किन्तु केवल इन गुणों को पढ़ने से ही चरित्र-निर्मित नहीं होगा हमें बुरी आदतों को अच्छी आदतों के नीचे दबा देने की पद्धति  (ऑटो-सजेशन और सेल्फ-इंट्रोस्पेक्शन) सीखकर उसका भी नियमित अभ्यास करना होगा।

      जीवन क्या है ? यह भ्रान्त धारणा है कि मनुष्य का जीवन जवान से बुड्ढा होकर एक दिन मर जाने के लिये मिला है ? यह मनुष्य का जीवन नहीं, पशुओं का जीवन के लिये कहा गया है। यदि हमलोग मनुष्य हैं ? तो हमलोग ब्रह्म को परमसत्य को या ईश्वर को अवश्य ही जानेंगे! ब्रह्म को जानना (पूर्णता-दिव्यता-अमरत्व-जीव ही ब्रह्म है इस परम् सत्य को जान लेना) ही 'ब्रह्म ' हो जाना है। सेल्फ-इंट्रोस्पेक्शन करके प्रत्येक सप्ताह आत्ममूल्यांकन तालिका में स्वयं अपने चरित्र के गुणों का मानांक बैठाना होगा। केवल छः महीने में ही हमारा चरित्र निर्मित हो जायेगा, यह उतना ही सत्य है जितना सूर्य का पूरब में उगना।  
  
>>>चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया हाउ टु बिल्ड कैरेक्टर ? (अतनु मन्ना ) महामण्डल का उद्देश्य भारत का कल्याण करने की कामना से अपने चरित्र का निर्माण करना, तो क्या हमलोग अभी चरित्रहीन हैं ? पशु को पशु नहीं बनना पड़ता मनुष्य को मनुष्य बनना पड़ता है। डिगनिटी ऑफ़ मैन या मनुष्य की गरिमा -महिमा इसी बात में है कि वह चाह ले तो मन को नियंत्रण में रखना सीखकर मनुष्य से देवता बन सकता है, ब्रह्म को जानकर ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन सकता है। किन्तु विवेक-प्रयोग और मनःसंयोग करना छोड़ दे तो वह पशु ही नहीं राक्षस भी बन सकता है। आत्मज्ञान या ब्रह्म ज्ञान की शिक्षा नहीं मिलने के कारण नरपशुओं की संख्या में वृद्धि हो रही है। उन्नतचरित्र-उन्नत मनुष्य-उन्नत समाज। चरित्रवान मनुष्यों का अभाव ही भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है। विभिन्न परिस्थितियों में मेरा व्यवहार कैसा होगा -उसमें चरित्र ही निर्णायक की भूमिका निभाता है। बुरे चरित्र का मूल कारण विवेक-प्रयोग का अभ्यास नहीं करना है,क्योंकि थॉट-ऐक्शन-हैबिट-प्रोपेन्सिटी =कैरेक्टर !  भावी नेताओं के सामने हमें यह सन्देश पहुँचा देना होगा कि कैसे हमारा जीवन अच्छा बन सकता है ! परिस्थिति और परिवेश के सापेक्ष चरित्र गठन होता है, अतः यह कार्य प्रातः उठने के समय से प्रारम्भ होकर रात्रि में सोने के समय तक चलता रहेगा। यह कार्य कभी बंद नहीं होगा। 
>>>5 daily exercises: (५ दैनन्दिन अभ्यास) : 
१. जगत-मंगल की प्रार्थना: नींद से उठते ही  करनी होगी, 'उदारचरितानां तू वसुधैव कुटुंबकम' की आंतरिक भावना के साथ यह प्रार्थना करनी होगी। यह महान औषधि है, हमें यह ध्यान रखना होगा कि सारे दिन किसी एक भी मनुष्य का नाम लेकर उसकी बुराई नहीं करूँगा।
२. मनःसंयोग और आत्मसमीक्षा : के पाँच चरणों , यम-नियम का अभ्यास प्रति-मुहूर्त, और आसन-प्रत्याहार-धारणा का दो बार नियमित अभ्यास। शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथि है -आत्मा रथी है ! अतः दूसरा महत्वपूर्ण स्टेप है, चरित्र के २४ गुणों को व्यक्त करना, आत्मसमीक्षा करके आत्ममूल्यांकन तालिका को भरना और जो गुण घट रहे हों या कम अभिव्यक्त हो रहें हों, उन्हें अर्जित करके उसमें विद्धि करके सारे गुणों के मानांक को ए की श्रेणी तक ले जाना। ये २४ गुण इस प्रकार से श्रृंखला बद्ध हैं कि यदि एक गुण को भी अर्जित करने का भी प्रयत्न करना हो -जैसे सत्यनिष्ठा, तो अपने मन से कहना होगा, उसे आदेश देना होगा कि आज सारा दिन मैं केवल सत्य ही कहूँगा। जो कोई जिस क्षेत्र में भी कार्य करते हों, वहीँ पर आत्मनिरीक्षण करते रहना होगा कि बुद्धि हमारे मन रूपी लगाम द्वारा इन्द्रिय घोड़ों को नियंत्रण में रखने हेतु अहं या 'मैंपन' को विवेक-प्रयोग करने के लिये बाध्य कर रही है या नहीं ? शाम को या कम से कम सोने से पहले मन को देखने के लिये बैठना होगा, मनःसंयोग या आत्मसमीक्षा द्वारा दैनन्दिन कार्यकलापों का विश्लेषण करके देखना होगा, प्रतिदिन सेल्फ-मार्किंग करके देखना होगा कि कम नंबर मिला है तो कहाँ-कहाँ मिस्टेक हुआ ? और स्वयं को ही जवाब देना होगा। मन को आदेश देना होगा, १०० प्रतिशत सत्यनिष्ठा में अंक लाना होगा। 
३. व्यायाम : शरीर को स्वस्थ सबल रखना पहला धर्म है 
४. स्वाध्याय : स्वामी विवेकानन्द के सन्देशों का दैनिक अध्यन अनिवार्य है। 
५. विवेक-प्रयोग : प्रार्थना प्रथम ही नहीं अंतिम कार्य भी यही होगा, भारत वासियों का देश का मंगल हो ठाकुर से प्रार्थना करने के बाद सोने जायेंगे। तो यह निष्काम -प्रार्थना करने की हैबिट द्वारा  विवेक-प्रयोग करने में निश्चित रूप से दैवी सहायता प्राप्त होगी। And habit makes your character और वही है तुम्हारा फ्यूचर है

पूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम ने भी कहा था, 

“You Can't Change Your Future, You Can Change Your Habits, and Surely Your Habits Will Change Your Future.
 
 "तुम अपने भविष्य को नहीं बदल सकते,किन्तु तुम अपनी आदतों को बदल सकते हो। और तुम्हारी आदतें निश्चित रूप से तुम्हारे भविष्य को बदल देंगी !" 

" All Birds Find Shelter During a Rain. But the Eagle Avoids Rain by Flying Above the Clouds! Problems Are Common, But Attitude Makes the Difference!
  
"बारिश की दौरान सारे पक्षी आश्रय की खोज करते हैं, लेकिन बाज़ बादलों के ऊपर उडकर बारिश को ही अवॉयड कर देते है। समस्याएँ कॉमन है, लेकिन (अपने प्रति?) आपका एटीट्यूड इनमें डिफरेंस पैदा करता है।"
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बालक सत्यकाम

 (सत्य का प्रेमी)

एक बालक सत्यकाम (सत्य का प्रेमी) को किस प्रकार सत्य-ज्ञान प्राप्त हुआ, इस सम्बन्ध में छान्दोग्य उपनिषद की एक सुंदर कथा है। सत्‍यकाम ने अपनी माता से कहा, " मां, मैं किसी योग्य गुरु के आश्रम में रहकर सत्य-ज्ञान (वेद-शिक्षा) पाने बालक के लिए जाना चाहता हूं। मेरे पिता का नाम और मेरा गोत्र (pedigree : खानदानी वंशावली) क्या है, बताओ।" 

    उसकी माँ वाहिता स्त्री नहीं थी, और हमारे देश में किसी अविवाहिता स्त्री की संतान को जाति वहिष्कृत (आउटकास्ट) माना जाता है। समाज उसे अंगीकार नहीं करता, और उसे वेदों के अध्यन का अधिकार नहीं होता। अतएव बेचारी माँ ने कहा, " मेरे बच्चे,मैंने अनेक व्यक्तियों की सेवा की है, उसी अवस्था में तुम्हारा जन्म हुआ था, मैं नहीं जानती कि तुम्हारा पिता कौन है,इतना ही जानती हूँ कि  मैं जबाला हूं और तुम सत्यकाम हो, इसलिए तुम स्वयं को सत्यकाम जाबाल कहो। "
 तब वह बालक उस समय के प्रसिद्द गुरु गौतम ऋषि आश्रम में गया और उनसे स्वयं को शिष्य की भांति स्वीकार किए जाने का अनुरोध किया। ऋषि ने पूछा, " वत्स, तुम्हारे पिता का नाम और तुम्हारा गोत्र क्या है? " सत्यकाम ने उत्तर दिया," मैंने अपनी मां से पूछा था कि मेरा गोत्र, पारिवारिक नाम क्या है? और उन्होंने उत्तर दिया : अपनी युवावस्था में जब मैं सेविका का कार्य करती थी तो मैंने अनेक व्यक्तियों की सेवा की है,उसी अवस्था में तुम्हारा जन्म हुआ, अतएव मैं नहीं जानती कि तुम्हारा पिता कौन है— मैं जाबाला हूं और तुम सत्यकाम हो, इसलिए तुम स्वयं को सत्यकाम जाबाल कहो, श्रीमन् अत: मैं सत्यकाम जाबाल हूं।"
    यह सुनकर ऋषि ने तुरन्त ही कहा, " वत्स, एक बाह्मण, सत्य के सच्चे खोजी के सिवा और कोई अपने सम्बन्ध में ऐसा लांछनकारी सत्य नहीं कह सकता। तुम सत्य से विचलित नहीं हुए, तुम सच्चे ब्राह्मण हो, मैं तुम्हें उस परम ज्ञान की शिक्षा दूंगा।" गुरु ने सत्यकाम को चार सौ गायों को चराने के लिए जंगल भेज दिया, और कहा जब गायों की संख्या दुगुनी हो जाये, तब लौट कर चले आना! " गायें चराते चराते कई मास व्यतीत हो गये। गायों की संख्या भी दुगुनी हो गयी। तब सत्यकाम ने आश्रम लौट चलने का विचार किया।
मार्ग में एक बृषभ, अग्नि तथा कुछ अन्य प्राणियों ने सत्यकाम को ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया।
 सत्यकाम ने सुना था कि उनकी हृदयस्थ सत्ता की वाणी उनसे कह रही है, ' तुम अनन्तस्वरूप हो, वही सर्वव्यापिनी सत्ता तुम्हारे भीतर विराजमान है। अपने मन को संयमित करो, और तुम अपनी यथार्थ आत्मा की वाणी सुनो। ']
जब शिष्य आश्रम में गुरु को प्रणाम करने पहुँचा, तो गुरु ने उसे देखते ही जान लिया कि उसने ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया है। " गुरु के पास होना ही सब कुछ है। लेकिन केवल शिष्य ही पास हो सकता है। कोई भी या हर कोई पास नहीं आ सकता। क्योंकि जुड़ाव का, पास आने का मतलब है एक प्रेम—भरा भरोसा।स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " इस कथा का सार यही है कि हमें बाल्यावस्था से ही जाज्वल्यमान, उज्ज्वल चरित्रयुक्त किसी तपस्वी महापुरुष के सानिध्य में, या गुरु के साथ रहना चाहिये; जिससे कि समाधि में उपलब्ध होने वाले ब्रह्मज्ञान का जीवंत आदर्श सदा दृष्टि के समक्ष रहे।" 
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>>>ब्रिटिश राज: 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम (सिपाही विद्रोह नहीं) के बाद  1858 और 1947 के बीच भारतीय उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश द्वारा शासन था। जो क्षेत्र सीधे ब्रिटेन के नियंत्रण में था जिसे आम तौर पर समकालीन उपयोग में "इंडिया" कहा जाता था‌ । ब्रितानी राज गोवा और पुदुचेरी जैसे अपवादों को छोड़कर वर्तमान समय के लगभग सम्पूर्ण भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश तक विस्तृत था। 
      20वीं सदी के अंत में, ब्रिटिश भारत आठ प्रांतों से बना था। असम,बंगाल (बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड और ओडिशा), बंबई(सिंध और महाराष्ट्र, गुजरात एवं कर्नाटक के कुछ हिस्से),बर्मा, मध्य प्रांत (मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़), मद्रास (तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश, केरल एवं कर्नाटक के कुछ हिस्से), पंजाब (पंजाब प्रांत, इस्लामाबाद राजधानी क्षेत्र, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, चंडीगढ़ और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली),संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड), बंगाल विभाजन (1905-1911) के दौरान  1911 में पूर्वी बंगाल और बंगाल के एक होने के साथ असम, बंगाल, बिहार और उड़ीसा पूर्व में नए राज्य बनें। 
        मुगल तथा मराठा साम्राज्यों के पतन के परिणामस्वरूप भारतवर्ष बहुत से छोटे बड़े राज्यों में विभक्त हो गया। इनमें से सिन्ध, भावलपुर, दिल्ली, अवध, रुहेलखण्ड, बंगाल, कर्नाटक मैसूर, हैदराबाद, भोपाल, जूनागढ़ और सूरत में मुस्लिम शासक थे। पंजाब तथा सरहिन्द में अधिकांश सिक्खों के राज्य थे। आसाम, मनीपुर, कछार, त्रिपुरा, जयंतिया, तंजोर, कुर्ग, ट्रावनकोर, सतारा, कोल्हापुर, नागपुर, ग्वालियर, इंदौर, बड़ौदा तथा राजपूताना, बुंदेलखण्ड, बघेलखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, काठियावाड़, मध्य भारत और हिमांचल प्रदेश के राज्यों में हिन्दू शासक थे।
      1947 में,नेताजी सुभाष और भगत सिंह से डर कर अंग्रेज भाग गए किन्तु हमें पढ़ाया गया किमहात्मा गांधी के नेतृत्व में एक लम्बे और मुख्य रूप से अहिंसक स्वतन्त्रता संग्राम के बाद भारत ने आज़ादी पाई ? 1950  में लागू हुए नये संविधान में इसे सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के आधार पर स्थापित संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया गया और युनाईटेड किंगडम की तर्ज़ पर वेस्टमिंस्टर शैली की संसदीय सरकार स्थापित की गयी। एक संघीय राष्ट्र, भारत को 29 राज्यों और 7  केन्द्र-शासित प्रदेशों में गठित किया गया है। इस समय भारत में कुल 29 राज्य हैं आंध्र प्रदेश,अरुणाचल प्रदेश,असम,बिहार,छत्तीसगढ़,गोवा,गुजरात, हरियाणा,हिमाचल प्रदेश,जम्मू और कश्मीर,झारखण्ड, कर्णाटक, केरल, मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर,मेघालय,मिज़ोरम,नागालैण्ड,ओड़िशा, पंजाब, राजस्थान,सिक्किम,तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा,उत्तर प्रदेश,उत्तराखण्ड,पश्चिम बंगाल।
 7 केन्द्र शासित प्रदेश:हैं-अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह,चण्डीगढ़,दादरा और नगर हवेली,दमन और दीव,लक्षद्वीप,राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली,पुदुच्चेरी।
      आजादी के बाद से 1947 से 1967  तक लगातार 20 वर्षों तक पूरे भारत में एक मात्र राजनैतिक दल - सिंगल पॉलिटिकल पार्टी कॉंग्रेस का ही राज्य था। सिर्फ केरल में 1957  से 1959  तक गैर कांग्रेसी कम्युनिस्ट सरकार बनी थी, जो लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से चुनी हुई सरकार थी। परन्तु सत्ता के केंद्र में बैठी काँग्रेस सरकार को यह कतई मंज़ूर नहीं था कि कोई उसकी पार्टी के राष्ट्रीय वर्चस्व को चुनौती दे। 
लिहाजा, उसने संविधान के अनुच्छेद ३५६ को लागू कर ईएमएस नंबूदिरीपाद के नेतृत्व वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया।  धर्मनिरपेक्षता को बढ़ाने के नाम पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण का काँग्रेस का इतिहास ‘प्रभावशाली’ रहा है और इसके ही कारण मुसलमान और ईसाई समुदाय बिना ईश्वर  वाली कम्युनिस्ट पार्टी की बजाए, उससे जुड़े हैं। हिंदू समुदाय का एक वर्ग जो सीपीआई (एम) की ओर से वर्ग संघर्ष और कम्युनिस्ट विचारधारा की बातों से ऊब चुका है, वह यूडीएफ को चुनता है, जिसे वह दो बुरी चीजों में कम बुरा मानता है। इस प्रकार दोनों फ्रंटों के बीच वोटों का सीधा बँटवारा हो जाता है। इनमें से दोनों ने ही विकास की राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। उस समय  का पूरा बौध्दिक समाज वामपंथी था। लेकिन अब वैसा नहीं रहा। 
             26 दिसम्बर 1925  कानपुर नगर में एम एन राय ने भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी की स्थापना की थी। यह पार्टी शुरू से देशभक्त नहीं थी, यह सोवियत यूनियन के निर्देशों से अपनी पार्टी की रणनीतियों को तय किया करती थी। इसी कारण कई बार इसकी रणनीतियाँ उल्टी दिशा में आगे बढ़ीं। इसने 1942  के भारत छोड़ो आंदोलन की आलोचना की और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तीखी निंदा की। 1964  में भाकपा का विभाजन हो गया और एक नयी पार्टी माकपा का उभार हुआ। भाकपा के कई जुझारू नेता मसलन नम्बूदरीपाद, ज्योति बसु, हरकिशन सिंह सुरजीत आदि माकपा में शामिल हो गये। 2014 के संसदीय चुनाव में दल को मात्र १ सीट मिली।]  

           वाममोर्चा के सत्ता में रहने के दौरान स्थिति बदलती चली गई। 1967  में पश्चिम बंगाल में भी पीसी सेन की सरकार थी जो त्यागी थे, किन्तु चुनाव हार  गए। कम्युनिस्टों की यह गति चिंताजनक है। इसका एक कारण यह है कि आज उनकी विचारधारा को मानने वाले बहुत कम रह गए हैं और उनकी अपील भी लगातार सीमित होती जा रही है। एक समय था, जब कहा जाता था कि वाम विचारधारा के लोग प्रत्येक घरों में देखे जा सकते हैं। कहा जाता था कि सभी घरों में कम से कम एक कामरेड जरूर है।  सीपीएम का समर्थन आधार कम हो रहा है। उसका पतन हो रहा है। पर उसका तेवर पहले ही वाला है। उसका तेवर विल्कुल वैसा ही है, जो 1960-1967 में उसके उत्थान के समय में था। उस समय उनकी वामपंथी अक्रामकता उनके क्रांतिकारी स्वरूप (नक्सल आंदोलन) का दर्शन कराती थी, लेकिन आज उस प्रकार की अक्रामकता में लोग उनकी गुंडागर्दी देख रहे हैं। अब निकट भविष्य में अमेरिका-ब्रिटेन-फ़्रांस की भौतिकवादी नीति -पैसे को ही भगवान मानने की नीति के पतन के साथ विश्व भारत को महानतम आध्यात्मिक शक्ति के रूप में स्वीकार करेगा। 
      किन्तु इन्हीं तीन वर्षों में कम्युनिस्टों द्वारा पेश किए गए भूमि सुधार अध्यादेश और विवादित शिक्षा विधेयक जैसे अभूतपूर्व कदमों को जनता ने हाथों-हाथ लिया। भूमि सुधारों ने भी कम्युनिस्टों की लोकप्रियता में चार चाँद लगा दिए। केरल की धरती सोने उगलने वाली है। यहाँ भू-स्वामियों और कृषि श्रमिकों के बीच स्पष्ट विभाजन है। यहाँ का समाज भी देश के किसी अन्य राज्य के समान ही जाति और संप्रदाय के आधार पर बँटा हुआ है। हालाँकि, अन्य राज्यों की तुलना में केरल ने शिक्षा के महत्व को बहुत पहले समझ लिया था।
       एक के बाद एक सत्ता में आने वाली सरकारों ने विकास के लिहाज से शिक्षा पर विशेष बल दिया। जिसने राज्य के लोगों के दिलों के तार को झंकृत कर दिया। उसकी झंकार आज भी ईश्वर के अपने देश में गूँज रही है। केरल के तमाम इलाकों में साम्यवाद के फलने-फूलने का एक बड़ा कारण केंद्र में कांग्रेस की सरकार की ओर से राज्य की पहली कम्युनिस्ट सरकार की विवादास्पद बर्खास्तगी थी।  कांग्रेस ने यूडीएफ का गठन 1970 के दशक में किया था, जिसने राज्य में अल्पसंख्यक ईसाइयों और मुसलमानों के अपने पारंपरिक वोट बैंक के साथ ही बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के कुछ वर्गों के समर्थन से अपनी मजबूत पकड़ बना रखी है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को छद्म धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने ‘सांप्रदायिक’ करार दे दिया और इस कारण ही इसे केरल के पूरी तरह से विभाजित समाज में अपनी पैठ बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ा।
       राजनीति में यूडीएफ और एलडीएफ बुरी तरह से हावी थे। अनेक वर्षों तक कठोर संघर्ष करने के बाद, यह धीरे-धीरे और निरंतर रूप से सामने आई, और अब राजनीतिक वर्चस्व के लिए इसे एक गंभीर दावेदार माना जा रहा है।
केरल को अपनी आर्थिक दुर्गति से बाहर लाने और विकास तथा प्रगति की मुख्य धारा की राजनीति में लाने के लिए साम्यवाद के कागजी शेरों और कमजोर पड़ चुके कांग्रेस के कुचक्र के तोड़ना होगा ? या  पहले मनुष्य-निर्माण करना होगा ?
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शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

प्रेषक : अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, बालीभारा शाखा। फोन: 906119592, ईमेल नंबर: balibharavym@gmail.com

प्रेषक : अखिल भारत  विवेकानन्द युवा महामण्डल,  बालीभारा  शाखा। फोन: 906119592, ईमेल नंबर: balibharavym@gmail.com

विषय : त्रैमासिक रिपोर्ट,  अप्रैल -  जून, 2020.  

लॉक डाउन के कारण, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की  बालीभारा शाखा के अधिकांश सतत चलने वाली गतिविधियाँ और कार्यक्रम स्थगित थे।  [অধিকাংশ ধারাবাহিক নাজ বন্ধ ছিল।] विवेकानन्द छात्रावास, महामण्डल के सदस्य तथा कार्यालय  के आसपास रहने वाले भाइयों ने , केन्द्रीय संस्था (सिटी ऑफिस, सियालदह ) से विशेष अनुमति प्राप्त करके पाठचक्र में भाग लिया है। 20 अप्रैल से 'सेवा और राहत कार्य' भी किये गए हैं। बालीभारा शाखा  के कार्यकारणी समिति के सदस्यों की दो बैठकें टेलीकांफ्रेंस -teleconference) दूर संवाद माध्यम से आयोजित हुई हैं। 

पाठ चक्र: - 20 अप्रैल से 20 जून तक तीन महीनों में कुल 9 पाठ चक्र आयोजित किए गये हैं। उपस्थित लोगों की औसत संख्या 1 है, या नियमित रूप से उपस्थित होने वाले लोगों की संख्या 6 है। पाठ चक्र में होने वाले अध्यन -परिचर्चा के कुल समय (पौने दो घंटा -105 मिनट) को तीन भाग में विभाजित किया गया है। प्रथम 30 मिनट में स्वामी विवेकानन्द की जीवनी (Swamiji's biography) के - " घर में विवेकानन्द" के अंश को पढ़ने तथा उस विषय पर अपनी-अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के, बाद  के 30 मिनट- तक  स्वामी जी के चयनित पत्र का 'पाठ और आत्मनिर्णय" (পাঠ ও আত্মবিচার) के बाद ,अन्तिम 45 मिनट तक VIVEK-JIVAN' में प्रकाशित 'FOR STUDY CIRCLE' (पाठचक्र के लिये-পাঠচক্রের জন্য) विषय पर दिये निर्देश का अध्यन तथा उसकी समीक्षा हुई है। किन्तु , प्रत्येक बुधवार को केवल महामण्डल के पंजीकृत सदस्यों के लिये जो विशेष पाठचक्र आयोजित किया जाता था, और जिसमें " स्वामी- शिष्य संवाद " (वि ० सा० ख ० -6) के ऊपर 'अध्यन एवं समीक्षा' की जाती थी; वह लॉकडाउन के कारण स्थगित हो गया है।     

  सेवा और राहत कार्य: - अप्रैल-मई-जून के त्रैमासिक रिपोर्ट में विभिन्न सेवा मूलक कार्यों का विवरण भेजा गया है। यहाँ सांख्यिकीय विवरण (Statistical details) दिए जा रहे हैं। अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का , बालिभारा केन्द्र अम्फान चक्रवात (Amphan cyclone) के कारण तहस-नहस (devastated) हो गया है। सुन्दरबन के 5 अंचल , तथा उत्तर 24 परगना जिला के दो प्रखण्डों के 665 परिवारों के बीच विगत 5, 14, 18 और 26 जून को त्रिपाल, कपड़े, साड़ी, दवा, साबुन और खाद्य सामग्री वितरित की गयी है। सुन्दरबन क्षेत्र के तीन प्रखण्ड - 1) गोसाबा प्रखण्ड के कुमारमारी अंचल का (पुइजालि एवं मृधापाड़ा ग्राम)।2) कुलपी ग्राम। 3) पाथरप्रतिमा ग्राम । 4) रामगोपालपुर ग्राम। 5) आरीक नगर। 

उत्तर 24 परगना के क्षेत्र :- टेंगरामारी अंचल का मादापाड़ा ग्राम , हिंगलगंज थाना के रूपमारी पंचायत के अन्तर्गत पूर्व खेजुरिया ग्राम। यहाँ वितरित की जाने वाली सामग्रियों में शामिल थीं - 486 त्रिपाल, 330 साड़ियां, 1220 कपड़े , 300 साबुन , तथा 3000 रूपये की दवाइयाँ।  एवं खाद्य पदार्थों में शामिल हैं - चूड़ा - 525 केजी, मुढ़ी - 205 किलोग्राम, चावल - 100 किलोग्राम, सोयाबीन - 125 किलोग्राम, दालें - 118 किलोग्राम, गुड़ - 100 किलोग्राम, पाउडर दूध (अमूल-स्प्रे) - 75 किलोग्राम, आलू - 50 किलोग्राम, नींबू - 40 किलोग्राम, नमक - 65 किलोग्राम, हल्दी - 40 किग्रा, सूजी - 40 किग्रा, मिर्च = 22 किग्रा, बिस्कुट - 70 किग्रा, मिठाई - 200 पीस, पावरोटी - 100 पाउण्ड ।

लॉकडाउन के कारण  बेरोजगार हो गए पीड़ित परिवारों के बुजुर्गों और बच्चों के बीच  खाद्य सामग्री वितरित की गई। 'सारदा नारी संगठन' की सहायता से  19 अप्रैल से लेकर लगातार 28 दिनों तक, पहले चरण में  14 लोगों को और दूसरे चरण में 87 लोगों को प्रतिदिन 250 ग्राम गर्म दूध और एक-एक पैकेट बिस्कुट दिया गया था। कुल मिलाकर 770 लीटर दूध और 3110 पैकेट बिस्कुट वितरित किये गए। 'सारदा नारी संगठन' ने डॉक्टर के नुस्खे के अनुसार 66 बुजुर्ग स्त्री-पुरुषों के बीच ब्लडप्रेसर और शुगर की दवाइयाँ भी वितरित की हैं।  स्थानीय 9 परिवारों को अप्रैल से जून तक  हर महीने खाद्यसामग्री वितरित की गयी। इसके अतिरिक्त एकबार बागमार , कल्याणी , स्थिरपाड़ा और बालीभारा अंचल के  74 परिवारों को लगभग 250 रूपये मूल्य के खाद्य सामग्री भी दी गयी थी। इनमें चावल, आटा, दालें, चावल, सोयाबीन, मसाले, तेल, बिस्कुट और साबुन आदि प्रमुख रूप से शामिल थे। स्थानीय क्षेत्रों में साधारण जनता के बीच 100 मास्क का वितरण किया गया। वर्तमान में पौष्टिक भोजन  वितरित करने के लिए काम चल रहा है।

इस राहत कार्य के लिए लगभग 4 लाख 31 हजार रुपये का चन्दा एकत्र हुआ है, जिसमें से लगभग 3 लाख 39 हजार रुपये खर्च किए जा चुके हैं। अप्रैल की महीने में ही महामण्डल के बालीभारा केन्द्र द्वारा किये गए 'सेवा और राहत कार्य ' में आमद -खर्च का ब्यौरा छपवाकर लगभग 1000 लोगों में वितरित कर दिये गए थे जिसके परिणामस्वरूप, दानदाताओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है

 विवेकानन्द छात्रावास: - वर्तमान में छात्रों को विवेकानंद छात्रावास में निःशुल्क रखा जा रहा है। इस समय जो 5 छात्र यहाँ रह रहे हैं, उनमें से सभी बेसहारा हैं।  दो छात्रों के सर से माता-पिता दोनों का साया उठ चुका है, और तीन छात्रों के पिता नहीं हैं। उनका सारा खर्च बालीभारा शाखा द्वारा वहन किया जाता है। 5 छात्रों और 2 स्टाफ के लिए प्रति महीने 15 हजार रुपये खर्च होते हैं, जिसे हृदयवान व्यक्तियों से दानस्वरूप संगृहीत किया जाता है। 

विशेष -द्रष्टव्य : दुर्गापूजा के अवसर पर निराश्रित परिवारों 300 नये वस्त्रों का वितरण किया जायेगा। इसके साथ साथ पूजा के दिनों में 4 दिनों तक शाकाहारी और मांसाहारी कच्चा भोजन-सामग्री तथा आवश्यकतानुसार तेल-मसालों आदि का भी वितरण किया जायेगा।  

भवदीय -

श्री गौतम घोष 

वास्ते , सचिव   


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रविवार, 23 अगस्त 2020

" अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल: वार्षिक प्रश्नोत्तर प्रतियोगिता - 2020 "

 ABVYM, Mintupada Das <eastcalcuttavymunit@gmail.com> wrote:

सेवा में ,

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महोदय ,

       हर वर्ष  की तरह, इस वर्ष भी 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल , पूर्वी कोलकाता शाखा, ने कक्षा तीसरी से दसवीं कक्षा तक के लिये तीन वर्गों में श्री श्री ठाकुर, माँ , स्वामीजी और सिस्टर निवेदिता के जीवन पर आधारित एक प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता का आयोजन किया है।

     प्रत्येक प्रतिभागी को प्रश्न पत्र और उत्तर पत्रिका के नमूने को डाउनलोड करके और प्रिंट करना होगा और इसे जेरोक्स कर लेना होगा। तथा 15 सितम्बर 2020 तक उत्तर पत्रिका में उत्तर लिख कर, हमारी शाखा में ई-मेल / व्हाट्सएप के माध्यम से भेज देना होगा 

संलग्न :

  वार्षिक प्रश्नोत्तर प्रतियोगिता - 2020, के लिये हमारा प्रश्न पत्र। 

प्रेषक :

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ,

पूर्वी कलकत्ता शाखा। 

24-बी, लताफ़त हुसैन लेन

कोलकाता -700085.

संपर्क नंबर- 8777281189

From :

A.B.V.Y.M., East Calcutta Branch,

24-B. LATAFATH HOSSAIN LANE. 

KOL-700085.

CONTACT NO. 8777281189 

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अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल

(पूर्वी कलकत्ता शाखा)  

24-बी, लताफ़त हुसैन लेन

कोलकाता -700085.

संपर्क नंबर- 8777281189

वार्षिक प्रश्नोत्तर प्रतियोगिता -2020 

उत्तर पत्रिका


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1. उत्तर : 


2. उत्तर :


3. उत्तर :


4 . उत्तर :


5 . उत्तर :


6 . उत्तर:  


7. उत्तर :


8 . उत्तर :


9 . उत्तर :


10. उत्तर :


11. उत्तर :



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अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल

(पूर्वी कलकत्ता शाखा)  

24-बी, लताफ़त हुसैन लेन

कोलकाता -700085.

संपर्क नंबर- 8777281189

वार्षिक प्रश्नोत्तर प्रतियोगिता -2020 

(नियमावली )

  • उत्तर-पत्रिका में निर्दिष्ट स्थान पर (चिन्हित संख्यानुसार) प्रश्नों के यथोचित उत्तर लिखकर, केवल उत्तर-पत्रिका को हमारी संस्था के ई-मेल पर अथवा दिए गए वॉट्सऐप नंबर पर भेजें; अथवा अपनी संस्था के ई-मेल या वॉट्सऐप नंबर पर भेजना होगा। 
  • जितने भी प्रतिभागी सर्वाधिक प्रश्नों के उचित उत्तर देंगे उनमें से प्रत्येक प्रतिभागी को पुरष्कार प्राप्त होगा। 
  • अपनी संस्था से प्रश्न-पत्र और उत्तर-पत्रिका का नमूना अवश्य जेरोक्स कर लेना होगा। 
  • पोस्ट ऑफिस से भेजने पर डाकखर्च और अपना पता देना होगा। 
  • उत्तर-पत्रिका को 15 सितम्बर 2020 तक अवश्य भेज देना होगा। 
  • प्रत्येक प्रतिभागी को अपना नाम , पता , ई-मेल (यदि हो), वॉट्सऐप नंबर , एवं अन्य सभी जानकारी सही और स्पष्ट रूप से लिखना होगा ; और उत्तर पत्रिका को अपने हाथों से लिखना होगा , अन्यथा प्रश्नपत्र रद्द समझा जायेगा। 
  • प्रतियोगिता का परिणाम तथा पुरष्कार प्रदान करने की तिथि की जानकारी समयानुसार प्रतिभागियों /संस्था के ई-मेल या वॉट्सऐप नंबर पर भेज दी जाएगी। पुरस्कार आदि संस्था के माध्यम से प्राप्त किये जा सकते हैं। 
  • सभी विषयों में संस्था का निर्णय ही अंतिम माना जायेगा।  
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( तीसरी एवं चौथी कक्षा के लिये)
  1. श्री रामकृष्ण देव का जन्म किस वर्ष और किस स्थान पर हुआ था ?
  2. श्री रामकृष्ण देव के बचपन का नाम क्या था ?
  3. श्री रामकृष्ण देव किस मंदिर के पुजारी थे ? 
  4. बाल्यावस्था में श्रीमाँ सारदा देवी अपने भाई -बहनों को लेकर अक्सर किस नदी में स्नान करने जाती थीं? 
  5. श्रीमाँ सारदा देवी के पास एक मुलमान डकैत आते थे , उनका नाम क्या था ? 
  6. श्रीमाँ सारदा देवी के किसी एक उपदेश का उल्लेख करो। 
  7. नटखट बिले को शांत करने के लिए भुवनेश्वरी देवी क्या क्या उपाय किया करती थीं ? 
  8. किस वर्ष और किस तारीख को स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका के शिकागो धर्म-महासभा में अपना योगदान दिया था ? 
  9. सिस्टर निवेदिता भारत आने के पहले किस देश की नागरिक थीं ? 
  10. सिस्टर निवेदिता का वास्तविक नाम क्या था ? 
  11. श्री माँ सारदा देवी सिस्टर निवेदिता को किस नाम से पुकारती थीं ? 
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(पंचम से सप्तम कक्षा तक के लिये )
  1. कौन सा दृश्य देखकर सात वर्ष का बालक गदाधर पहली बार भावावेश के आनन्दातिरेक से अचेत हो गए थे तथा अपना बाह्यज्ञान खो बैठे थे ?        
  2. श्री रामकृष्ण देव के साथ नरेन्द्रनाथ की पहली मुलाकात कहाँ हुई थी ?  
  3. श्री रामकृष्ण देव जिस स्थान पर 'कल्पतरु ' बने थे , उस स्थान का नाम क्या है ?  
  4. दक्षिणेश्वर में श्रीश्री माँ सारदा कहाँ रहती थीं ? 
  5. एक बार गिरीश घोष ने माँ से अकेले में श्री माँ से जानना चाहा, " तुम कैसी माँ हो ? " तब उसी क्षण माँ ने क्या उत्तर दिया था ? 
  6. ठाकुर के कहने पर माँ काली के मन्दिर में जाकर नरेन्द्रनाथ ने माँ से क्या क्या माँगा था ? 
  7. 'शिक्षा की परिभाषा ' के विषय में स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त उद्धरण का उल्लेख करो। 
  8. सिस्टर निवेदिता किस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अपना देश छोड़ कर भारतवर्ष चली आयी थीं?
  9. 'मार्गरेट' को निवेदिता नाम किसने दिया था ? 
  10. वर्ष 1899 में, स्वामी जी के निर्देशानुसार  किस बीमारी के प्रकोप को दूर करने के लिए, सिस्टर निवेदिता सेवाकार्य में कूद पड़ी थीं ?  
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(अष्टम से दशम कक्षा तक के लिये)
  1. बड़े भ्राता रामकुमार जी ने जब गदाधर को और अधिक मन लगाकर पढ़ने का उपदेश दिया था , तब उसके उत्तर में गदाधर ने क्या कहा था ?  
  2. श्री रामकृष्ण देव ने 'षोड्षी देवी' के रूप में किसकी पूजा की थी ? 
  3. वैष्णव धर्म की साधन पद्धति - " जीवों पर दया " का उल्लेख करते हुए ठाकुर ने क्या कहा था ? 
  4. 'कल्पतरु दिवस '- 1 जनवरी 1886 के अवसर पर श्री रामकृष्ण देव ने वहाँ उपस्थित सभी भक्तों को क्या कह कर आशीर्वाद दिया था ? 
  5. जब माँ ग्यारह वर्ष की थीं (1864 ई ०, बंगाब्द 1271 ?) तब उस भूखण्ड में भीषण अकाल पड़ा था। उस समय श्रीमाँ के पिता श्री रामचन्द्र मुखोपाध्याय ने अन्न-सत्र (दातव्य भोजनालय) खोल दिया था। उस समय जब भूख की ज्वाला से पीड़ित गरीब लोगों को गरम खिचड़ी पत्तलों पर परोस दी जाती और वे झटपट खाना शुरू कर देते, तब बालिका सारदा क्या करती थीं ?      
  6. श्रीश्री माँ का अन्तिम उपदेश क्या था ? 
  7. स्वामी विवेकानन्द के जन्म के बाद उनकी माता भुवनेश्वरी देवी ने उनका नाम वीरेश्वर (बिले) क्यों रखा था ? 
  8. नरेन्द्रनाथ ने पहली बार अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव का नाम किसके मुख से सुना था ? 
  9. स्वामी जी की एक विदेशिनी शिष्या कुमारी जोसेफिन मैक्लाउड (Miss MacLeod) ने उनसे एक बार प्रश्न किया था- " स्वामी जी, आपकी सबसे अधिक सहायता मैं किस प्रकार कर सकती हूँ ? " - तब इसके उत्तर में स्वामी जी ने क्या कहा था ?    
  10. देह-त्याग करने के समय सिस्टर निवेदिता की अन्तिम उक्ति क्या थी ?  
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सोमवार, 10 अगस्त 2020

दक्षिणामूर्ति स्तोत्रं में क्या कहा गया है ?

आदि शंकराचार्य ने बहुत सारे महान स्तोत्र (प्रार्थना) लिखे हैं, लेकिन यह एक अनोखी प्रार्थना है, जो न केवल एक प्रार्थना है, बल्कि उन सभी दर्शन का सारांश है जो उन्होंने सिखाया है। अपने समय के दौरान भी, इस स्तोत्र को समझना मुश्किल था। इसलिए सुरेश्वराचार्य ने इस स्तोत्र पर मानसोल्लास नामक एक भाष्य लिखा है । बाद में इस भाष्य के ऊपर भी बड़ी संख्या में पुस्तकें और टीकाएँ लिखी गयी हैं।

१. भगवान शिव के दक्षिणामूर्ति रूप की आराधना करने से भगवान शिव के इष्टदेव - "भगवान श्रीराम" की भक्ति एवं आत्मज्ञान (रामेश्वरम) दोनों की प्राप्ति होती है :   भगवान शिव सृष्टि के आद्य गुरु हैं। उनके भिन्न - भिन्न रूपों की साधना भक्त करते हैं।  वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीय मानस भगवान् शिव को पूजता रहा है। शिव की दयालुता, उनके समान करुणावरुणालय कौन है? "शिव समान दाता नहीं" कहकर कवियों ने उनकी उदारता को प्रकट किया है। बरगद के पेड़ के नीचे दक्षिण दिशा की ओर मुख कर बैठे हुए भगवान शिव को दक्षिणमूर्ति कहा जाता है। भगवान शिव के इस दक्षिणामूर्ति के रूप में आराधना करने से भक्तों को आत्मज्ञान और  भगवान शिव के इष्टदेव भगवान श्रीराम की भक्ति दोनों प्राप्त होती है। 

  २. दक्षिणामूर्ति वैसे गुरु हैं जो कठिनतम विचारों को भी (ॐ के अर्थ को भी) कुशलतम तरीके से पढ़ा सकते हैं "दक्षिणामूर्ति"  भगवान शिव का वह रूप् हैं जिन्हें संसार के युवा गुरु के रूप् में जाना जाता है, जो सभी प्रकार के ज्ञान के गुरु हैं।   दक्षिणामूर्ति कैलाश पर्वत के उपर और ध्रुव तारा के नीचे बैठते हैं। यह उत्तर दिशा में है और अब तक इस स्थान को इस गोल पृथ्वी का केंद्र माना जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत धरती की सबसे प्राचीन भूमि है और पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। फिर जब समुद्र हटा तो अन्य धरती का प्रकटन हुआ और इस तरह धीरे-धीरे जीवन भी फैलता गया। भगवान शिव दुनिया के सभी धर्मों के मूल हैं। उन्हें दक्षिणामूर्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनका मुंह दक्षिण की ओर है।  दक्षिणामूर्ति शब्द का अर्थ कुशल-उपदेशक भी होता है। इसलिए दक्षिणामूर्ति वैसे गुरु हैं जो कठिनतम विचारों को भी (ॐ के अर्थ को भी) कुशलतम तरीके से पढ़ा सकते हैं

३. संसार (प्रवृत्ति) और संन्यास (निवृत्ति)  :- शिव को 'त्रिलोचन' कहते हैं यानी उनकी तीन आंखें हैं। प्रत्येक मनुष्य की भौहों के बीच तीसरा नेत्र रहता है। शिव का तीसरा नेत्र हमेशा जाग्रत रहता है, लेकिन बंद। यदि आप अपनी आंखें बंद करेंगे तो आपको भी इस नेत्र का अहसास होगा। शिव का यह तीसरा नेत्र आधा खुला और आधा बंद है यह इसी बात का प्रतीक है कि व्यक्ति ध्यान-साधना या संन्यास में रहकर भी संसार की जिम्मेदारियों को निभा सकता है भारतवर्ष के सुदूर प्रान्तों में अपने द्वादश जोतिर्लिंग के रूप में विराजमान भगवान् शिव लोक चेतना को ज्ञान और भक्ति की ऊर्जा संपन्न करते रहते हैं। दक्षिणामूर्ति स्वरुप भगवान के कैलाश पर्वत पर आसन लगाये हुए स्वरुप का है। उनका मुख दक्षिण की और है। दक्षिणमुखी होकर वह शिष्यों को ( निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों मार्ग के ऋषियों, मुनियों को) ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। यहाँ पर भगवान् शिव युवा हैं और उनके शिष्य वृद्ध। भाव यह है कि 'आत्म ज्ञान' -अर्थात यह बोध  कि 'आत्मा ही ब्रह्म है' सदा तरो ताजा रहता है।

४.  चन्द्र कला का महत्व : शिव का एक नाम 'सोम' भी है। सोम का अर्थ चन्द्र होता है। उनका दिन सोमवार है। चन्द्रमा मन का कारक है। शिव द्वारा चन्द्रमा को धारण करना मन के नियंत्रण का भी प्रतीक है। हिमालय पर्वत और समुद्र से चन्द्रमा का सीधा संबंध है।मूलत: शिव के सभी त्योहार और पर्व चान्द्र-मास पर ही आधारित होते हैं। शिवरात्रि, महाशिवरात्रि आदि शिव से जुड़े त्योहारों में चन्द्र कलाओं का महत्व है। 3-कई धर्मों का प्रतीक चिह्न : यह अर्द्धचन्द्र शैव-पंथियों और चन्द्र-वंशियों के पंथ का प्रतीक चिह्न है। मध्य एशिया में यह मध्य एशियाई जाति के लोगों के ध्वज पर बना होता था। चंगेज खान के झंडे पर अर्द्धचन्द्र होता था। इस अर्धचंद्र का ध्वज पर होने का अपना ही एक अलग इतिहास है।

५- शिव यदि काल (समय) हैं , तो शक्ति (माँ काली) वो हैं जो समय को भी खा लेती हैं -  शिव ज्ञान का साक्षात रूप हैं। लेकिन सबसे पहले साधुओं के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं देवी भगवती के द्वारा उनसे प्रश्न पूछे गये। बाद में उन्होंने शिव से शादी कर ली और उन्होंने उन्हें प्रवचन के लिए और अपने ज्ञान को चिंतन के माध्यम से ऋषि-मुनियों के बीच साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया।  शिव ज्ञान का साक्षात रूप हैं। साधुओं के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं देवी के द्वारा उनसे प्रश्न पूछे गये। बाद में देवी शक्ति ने शिव से विवाह कर लिया और उन्होंने उन्हें प्रवचन के लिए और अपने ज्ञान को चिंतन के माध्यम से साधुओं के बीच साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया। तंत्र में इसी प्रकार यह संवाद दिखाया गया है। अगर शिव 'काल' यानि समय हैं तो वो 'काली' हैं, जो काल को यानि समय को भी खा लेती हैं। समय को अपने अधीन रखती हैं, और 'शव' को शिव बना देती हैं। यह देवी शक्ति (माँ काली) ही हैं जो स्थूल जगत और परिवर्तन को मूर्त रूप देती हैं और जवाबों को प्रेरित करती हैं। 

 ६. दक्षिणामूर्ति के चरण के नीचे अपस्मर नामक असुर पड़ा हुआ है । यह आत्म-विस्मृति का प्रतीक है : दक्षिणामूर्ति में दो शब्द- दक्षिणा और मूर्ति एक सामासिक प्रयोग हैं इसका आशय होता है- जिनकी मूर्ति दक्षिण की ओर अभिमुख है । मृत्यु रूपी दक्षिण दिशा की ओर अभिमुखता भगवान शिव के कालातीत महाकालत्व की परिचायक है । भगवान शिव के निचले बायें हाथ में भोजपत्र में लिखे गये वेद हैं। उनका दायां निचला हाथ अभय चिन्मुद्रा में है। उनके हाथ की तर्जनी आत्म स्वरूप का संकेत कर रही है। अंगुष्ठ ब्रह्म तत्व का वोध कराता है । दक्षिणामूर्ति भगवान का दायां पांव बायें पांव के नीचे है । उनके चरण के नीचे अपस्मर नामक असुर पड़ा हुआ है । यह आत्म-विस्मृति का प्रतीक है । भगवान शिव की इस मुद्रा की, अपने दस श्लोकों में, आद्य जगद्गुरु भगवान् शंकराचार्य ने स्तुति की है। वस्तुतः यह एक शिव आराधना स्तोत्र है । दक्षिणामूर्ति (C-IN-C, नवनीदा) स्तोत्र अदिशंकर का अद्वेSत वेदान्त की उत्कृष्ट शिक्षा (Be and Make) संबंधी अदभुद् स्तोत्र है। इसमें ज्ञान के अमूर्त विज्ञान को जैसे वेदों के महावाक्य और गुरु उपदेशों के प्रचलित पदों (शिक्षा =मूर्त से अमूर्त की ओर) में उड़ेल दिया गया है। 

ॐ मौनव्याख्या प्रकटितपरब्रह्मतत्वंयुवानं,वर्शिष्ठांतेवसद ऋषिगणै: आवृतं ब्रह्मनिष्ठैः। 

आचार्येंद्रं करकलित चिन्मुद्रमानंदमूर्तिं,स्वात्मरामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे।। 

भावार्थ - मैं उस दक्षिणामूर्ति की स्तुति और प्रणाम करता हूं, जो  दक्षिण दिशा की ओर मुख करके विराजमान हैं। जिसका मन ब्रह्म पर स्थिर हुआ है , जो उनकी मौन स्थिति से ही ,परम ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या कर देते हैं। जो दिखने में युवा जैसे हैं, लेकिन जो वृद्ध  शिष्यों (ऋषि , मुनि) से घिरे हुए है रहते हैं।  जीवन्मुक्त शिक्षकों/नेताओं  में सबसे बड़ा कौन है, जो अपने हाथ से चिन्मुद्रा को दिखाता है, जो खुशी का व्यक्तिकरण करता है, जो अपने भीतर चरम आनंद की स्थिति में है,और जिसकी मुस्कान अतयंत मनोहर है।     

॥ दक्षिणामूर्ति स्तोत्रं ॥

 विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतम्, 

पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यदा निद्रया

 यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयम्,

 तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (१)

 भावार्थ :- यह विश्व दर्पण में दिखाई देने वाली नगरी के समान है (अवास्तविक है), स्वयं के भीतर है, मायावश आत्मा ही बाहर प्रकट हुआ सा दिखता है।  जैसे नींद में अपने अन्दर देखा गया स्वप्न बाहर उत्पन्न हुआ सा दिखाई देता है। जो आत्म-साक्षात्कार के समय यह ज्ञान देते हैं कि आत्मा और ब्रह्म एक है उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (१)}

The universe is the reflection of a mirror . The Truth is the supreme Brahman, the one without a second . The mind, senses and intellect are all able to only discern the reflection of the Atman . The identity of the brahman and the Atman is apparent after self-illumination. I offer my profound salutations to the auspicious Guru, who is an embodiment of DakShinamurti, and whose grace is responsible for the illumination.

 बीजस्यान्तरिवान्कुरो जगदिदं प्राङनिर्विकल्पं, 

पुनर्मायाकल्पितदेशकालकलनावैचित्र्यचित्रीकृतम्। 

मायावीव विजॄम्भयत्यपि महायोगोव यः स्वेच्छया, 

तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (२) 

भावार्थ :- बीज के अन्दर स्थित अंकुर की तरह पूर्व में निर्विकल्प इस जगत, जो बाद में पुनः माया से भांति - भांति के स्थान, समय , विकारों से चित्रित किया हुआ है, को जो किसी मायावी जैसे, महायोग से, स्वेच्छा से उद्घाटित करते हैं , उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (२)}

He in whom this universe, prior to its projection was present like a tree in a seed (unmanifested), and by whose magic this was transformed (manifested) in various forms, by His own will similar to a yogi’s- to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.

 यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते, 

साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान्। 

यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ,

 तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (३)

 भावार्थ :- जिनकी प्रेरणा से सत्य आत्म तत्त्व और उसके असत्य कल्पित अर्थ का ज्ञान हो जाता है, जो अपने आश्रितों को वेदों में कहे हुए महावाक्य  'तत्त्वमसि' (अर्थात् 'तुम साक्षात् वही ब्रह्म हो') का प्रत्यक्ष ज्ञान कराते हैं, जिनके साक्षात्कार के बिना इस भव-सागर से पार पाना संभव नहीं होता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (३) 

He, by whose light the (unreal) universe appears real, teaches the truth of brahman to those who want to know the Atman through the vedic statement tattvamasi (thou art That) and He Who puts an end to the samsaric cycle – to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.

 नानाच्छिद्रघटोदरस्तिथमहादीपप्रभाभास्वरं, 

ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा बहिः स्पन्दते। 

जानामीति तमेव भांतमनुभात्येतत्समस्तं जगत्, 

तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (४) 

भावार्थ :- अनेक छिद्रों वाले घड़े में रक्खे हुए विशाल दीपक की उज्ज्वल प्रभा के समान ज्ञान जिनके नेत्र आदि इन्द्रियों द्वारा बाहर स्पंदित होता है, जिनकी कृपा से मैं यह जानता हूँ कि उस प्रकाश से ही यह सारा संसार प्रकाशित होता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (४)) 

He whose light gleams through the senses like the light emanating from a pot with holes (in which a lamp is kept), He whose knowledge alone brings the state of knowing (I am That), He whose brightness makes everything shine – to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.

देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः,

 स्त्रीबालांधजड़ोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः। 

मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिण॓,

 तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (५) 

भावार्थ : - भ्रमित हुए बहुवादी-शून्यवादी बौद्ध (मार्क्सवादी) आदि अभी मोहित (hypnotized) हैं, इसीलिये देह, प्राण, इन्द्रियों को तथा तीव्र बुद्धि को भी स्त्री, बालक, अंध और जड़ की तरह शून्य मानते हैं तथा 'अहं' को ही प्रधानता देते हैं।  ऐसे माया-शक्ति के विलास से कल्पित महामोह (महान व्याकुलता ) का संहार करने वाले उन श्रीगुरु रूपी श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है।। (५)

Some philosophers contend the body, senses, life-breath, intellect and non-existence (shunya) as the real `I’ (Atman). Their comprehension is worse than that of women, children, blind and the dull. He who destroys this delusion caused by maya (and makes us aware of the Truth)- to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.


 राहुग्रस्तदिवाकरेंदुसदृशो मायासमाच्छादनात्, 

संमात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान्।

 प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते,

 तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (६) 

भावार्थ :- राहु से ग्रसित सूर्य और चन्द्र के समान, माया से सब प्रकार से ढँका होने के कारण, करणों के हट जाने पर अजन्मा सोया हुआ पुरुष प्रकट हो जाता है। ज्ञान देते समय जो यह पहचान करा देते हैं कि पूर्व में सोये हुए यह तुम ही थे, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (६) 

The brillance of sun exists even when intercepted by Rahu during eclipse . Similarly, the power of cognition only remains suspended during deep sleep . The Self exists as pure being even though unrecognized due to the veil of Maya . A person on awakening becomes aware that he was asleep earlier (and the dream was unreal). Similarly, a person who awakens to the consciousness of the Self recognizes his previous state of ignorance as unreal . He by whose grace alone does one awaken to the consciousness of the Self – to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.


 बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि, 

व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा। 

स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया

तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (७)

 भावार्थ :- जो अपने भक्तों के समक्ष 'भद्रा मुद्रा' द्वारा बाल, युवा, वृद्ध, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि मानसिक अवस्थाओं और अन्य सभी अवस्थाओं में 'अहं' रुप से अन्तःकरण में स्फुरमाण और उससे अलग, सदा 'मैं वह  हूँ' (I am He) को या स्वात्मा को  प्रकट कर देते हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (७)}

He, whose existence is changeless throughout the various states of the body (like old, young etc) and the mind (waking, dreaming etc), and who reveals the greatest knowledge of Atman by j~nAna-mudra (the joining of the thumb and the forefinger of a raised right hand) – to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.

 विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः,

 शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्राद्यात्मना भेदतः। 

स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामितः

तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (८ ) 

भावार्थ :- जिनकी माया द्वारा परिभ्रमित (Hypnotized) हुआ यह पुरुष स्वप्न अथवा जाग्रत-अवस्था में कार्य-कारण सम्बन्ध से विश्व को स्वयं के विभिन्न रूपों में-  स्वामी-सेवक, शिष्य-आचार्य तथा पिता-पुत्र के भेद से देखता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (८ )

He, whose power of Maya enables one to experience the world as multiform (like teacher, disciple, father, son etc) during both the waking and dream states – to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.

 भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो हिमांशुः पुमान्, 

इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम्

 नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभोस्तस्मै,

 श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये॥ (९) 

भावार्थ :- जिनकी ये 'स्थावर और जंगम (स्थिर और गतिशील) आठ मूर्तियाँ' ---पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, (5) सूर्य, चन्द्रमा, पुरुष (3) ही इस चराचर जगत के रुप में प्रकाशित हो रही है, तथा विवेक-विचार करने पर जिससे परे और कुछ भी विद्यमान नहीं है, जिसने अपने 'व्यष्टि अहं' (काचा आमि) को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के  सर्वव्यापक और विराट 'मैं' -बोध (पाका आमि) में रूपांतरित कर लिया है, - उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (९)

He, whose subtle and unmanifest eight-fold (अष्टधा प्रकृति) form causes the moving and unmoving universe, and by whose grace alone does all these manifestation disappear to reveal that `All that exists is Brahman’ – to that DakShinamurti, who is embodied in the auspicious Guru, I offer my profound salutations.

 सर्वात्मत्वमिति स्फुटिकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे, 

तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्धयानाच्च संकीर्तनात्।

 सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः, 

सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतम् चैश्वर्यमव्याहतम्॥ (१०) 

भावार्थ :- सबके आत्मा आप ही हैं, जिनकी स्तुति से यह ज्ञान हो जाता है, जिनके बारे में सुनने से, उनके अर्थ पर विचार करने से, ध्यान और भजन करने से सबके आत्मारूप ईश्वर अपने अप्रतिहत ऐश्वर्य (Irresistible like Thunderbolt-  वज्र के समान अप्रतिरोध्य -थंडरबोल्ट जैसा अट्रैक्टिव जादूगर का - वो जादू जिसको रोका न जा सके)   समस्त विभूतियों सहित उस चपरास प्राप्त नेता के हृदय में आठ शक्तियों के रूप में स्वयं प्रकट हो जाते हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है। (१०) 

The verse points out to the all pervasiveness of the indwelling Spirit, Atman . By the recital, contemplation and meditation of this hymn, the disciple attains the state of oneness with Atman and realizes his unity with the universe,thus becoming the very essence of the eight fold manifestation.

{आत्मा की जिस अवधारणा को इस स्तुति  में समझाया गया है,जिस व्यक्ति को वह सुनकर समझ में आ गया, कौन सा ध्यान और कौन सा गायन, द्वारा पूर्णतः निःस्वार्थ व्यक्ति को आत्म बोध की महान स्थिति में ईश्वर (माँ काली) की कृपा प्राप्त होगी, उसे और आपको भी बिना किसी समस्या मनोगत की आठ शक्तियाँ मिलेंगी। निम्नलिखित तीन श्लोक और साथ ही प्रथम श्लोक का मुख्य स्तोत्र के बाद जप किया जाता है:

 –चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्याः गुरुर्युवा। 

गुरोस्तु मौनव्याख्यानं शिष्यास्तुच्छिन्नसंशयाः॥ १२ ॥ 

आश्चर्य तो यह है कि उस वटवृक्ष के नीचे सभी शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं। साथ ही गुरु का व्याख्यान भी मौन भाष  में है, किंतु उसी से शिष्यों के सभी संशय नष्ट हो गये हैं ॥ १२ ॥ 

ॐ नमः प्रणवार्थाय शुद्धज्ञानैकमूर्तये |

निर्मलाय प्रशांताय दक्षिणामूर्तये नमः ||

उस दक्षिणामूर्ति को प्रणाम, जो “ओम”, प्रणव का अर्थ है,जो अलोकित ज्ञान का व्यक्तिकरण है, जो अपने विचार में स्पष्ट है,और जो शांति का प्रतीक है।

 गुरवे सर्वलोकानां ,

भिषजे भवरोगिणाम्। 

निधये सर्वविद्यानां,

 दक्षिणामूर्तये नमः।। 

उस दक्षिणामूर्ति को नमस्कार, जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड के गुरु और ज्ञान के देव हैं, जन्म और पुनर्जन्म के समुद्र के ज्वार से प्रभावित लोगों के रक्षक हैं, और जो सभी प्रकार के ज्ञान के भण्डार (treasure) है।

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

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– 'चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्याः गुरुर्युवा' --- इस प्रकार 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन में प्रशिक्षित और स्वयं स्वामीजी से (C-IN-C) कमाण्डर-इन-चीफ़ का चपरास प्राप्त --  नवनीदा जैसे नेता /आचार्य  कभी कभी शब्दों का प्रयोग किंचित भी नहीं करते। किन्तु फिर भी मन ही मन सत्य को (योग्य) शिष्य में संचारित कर देते हैं! और एक सिंह-शावक से दूसरे भेँड़त्व के भ्रम से सम्मोहित सिंह-शावक क्रमशः स्वयं डीहिप्नोटाइज्ड या भ्रम-मुक्त होते जाते हैं , और दूसरों को भी भ्रममुक्त करते जाते हैं ! 

      They come to give. वे केवल देने के लिये ही आते हैं। अर्थात वे जो ईशदूत (C-IN-C  सत्यद्रष्टा ऋषि,पैगम्बर,ईशदूत या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता-नवनीदाहोते हैं। केवल उस विद्या का दान करने के लिये अवतरित होते हैं -जो मनुष्य जाति को मुक्त (देहध्यास के भ्रम से मुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड) कर देती है ! वे आज्ञा देते हैं- Be and Make ! और हमारा कार्य है उनके आज्ञा (command-प्रभुत्व ) को ग्रहण करना। क्या तुम्हें याद नहीं, स्वयं ईसा ने (मत्ती या मैथ्यू २८: १८-२० में) किस अधिकार पूर्ण वाणी से अपने शिष्यों को आज्ञा देते हुए कहा था - 

          “स्वर्ग और पृथ्वी पर सभी अधिकार (चपरास) मुझे सौंपे गये हैं। सो, जाओ और सभी देशों के लोगों को शिक्षा दो.....वे सभी आदेश जो मैंने तुम्हें दिये हैं, " मनुष्य बनो और बनाओ-Be and Make " उन्हें उन पर चलना सिखाओ। ”  Do you not remember in your own scriptures the authority with which Jesus speaks? "Go ye, therefore, and teach all nations . . . teaching them to observe all things whatsoever I have commanded you."{$$$ महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर में " C-IN-C"  की अवधारणा ! स्वामी विवेकानंद के आदर्श में स्थापित है -देखें : 'विश्व के महान शिक्षक ' (वि०सा० ख० ७/१७७)/ब्लॉग बुधवार, 14 मई 2014/ } 

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